Jat Prachin Shasak/Do Shabd

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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हिन्दी संस्करण के लिए दो शब्द

प्राचीन आर्य वंशों के शोध पर आधारित मेरी कृति, "Jats The Ancient Rulers” का यह हिन्दी संस्करण है। यह केवल रूपान्तर नहीं है वरन्‌ यह मूल कृति का संशोधित और परिवर्धित रूप है। इसमें दक्षिण भारत में जाट वंशों का अध्याय जोड़ा गया है और 8वीं-10वीं शती और उसके बाद मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं के विरुद्ध भारतीय राज्यों के संघर्ष में पूर्वोक्तों की विजय पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है। यह देखा गया है कि वीरता, युद्ध-कौशल और संसाधनों की बहुलता होते हुए भी एक के बाद एक भारतीय शासक कैसे अपने राज्य से वंचित हुए। अन्य कारणों के साथ-साथ, जो मूल कारण दृष्टिगोचर हुआ है वह है भारतीय समाज का जाति, धर्म, मतमतान्तर में विभाजन और परस्पर वैमनस्य की भावना | जब काबुल का शाही राजवंश भारत के सीमा प्रहरी के रूप में कोई पांच पीढ़ियों तक मुस्लिम आक्रमणकर्ताओं का सामना करता रहा, उस लम्बे समय में केवल एक आध बार कश्मीर का ही सहयोग मिला और अन्य भारतीय शासक न केवल संघर्ष से दूर रहे बल्कि शाही राजवंश की विपत्तियों में कभी-कभी प्रसन्नता का भी उन्होंने अनुभव किया। इसी प्रकार जब चौहान राजवंश मुहम्मद गौरी से संघर्षरत्‌ था तो कन्नौज आदि राजवंश उस संघर्ष में अपनी स्थिति को सुदृढ़ होता देखने की भूल करते रहे।
इसका मुख्य कारण था रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद का शक्ति के द्वारा पुनरुत्थान का प्रयत्न। मुख्य राजवंशों को माऊंट आबू पर और गंगा तीर पर अग्नि कुंड संस्कार के द्वारा तथाकथित शुद्धि करके ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित किया गया और इसी प्रकार मुख्यतः बौद्ध धर्म से ब्राह्मण धर्म में दीक्षित किए गये ये नये ब्रह्म-क्षात्र बनाये गये और इन्हीं को बाद में अग्निकल राजपूत कहा गया, क्योंकि इनको अग्नि के द्वारा शुद्ध करके ब्राह्मण धर्म में दीक्षित किया गया था। इन्हीं नये-नये ब्रह्म- क्षात्रों ने, न केवल चित्तौड़ के मौर राजवंश को समाप्त किया, बल्कि सिन्ध में भी राय राजवंश के शासन को पलट कर चाच नामक ब्रह्म-क्षात्र सिन्ध का शासक बना और अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए उसने न केवल मृत राजा की विधवा से विवाह किया बल्कि अपनी बहन


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और पुत्रियों का विवाह भी सिन्ध राज्य के दो अन्य स्थानीय शासकों के साथ कर दिया और शेष दो को युद्ध में हरा दिया।
Elliot & Dawson ने अपनी पुस्तक, "History of India, as told by its own historians" में तथाकथित राजपूत शासकों को ढूंढने का प्रयत्न किया किन्तु 8वीं सदी से लेकर और 12वीं सदी तक उनको कहीं भी मुसलमानों के विरुद्ध संघर्षरत्‌ कोई राजपूत नामधारी शासक नहीं मिला। मुसलमान इतिहासकारों ने अपने विरुद्ध लड़ने वालों को केवल जाट कहा है और इन जाटों ने अफगानिस्तान और सीस्तान से लेकर सिन्ध और दिल्ली तक बाहरी आक्रमणों को रोकने के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया। इसलिए मान्यवर इतिहासकार, आर०सी० मजूमदार को भी कहना पड़ा कि, "खैबर दर्रा काबुल और जबुल द्वारा रक्षित था और बोलात दर्रा कीकान के वीर जाटों द्वारा... (इन्होंने) जगत विजेताओं का डट कर सामना किया और कई बार हारने पर भी अधीनता स्वीकार करने से इन्कार किया। यदि भारत का कोई इतिहास बिना पूर्वाग्रह के, और सत्य पर आधारित लिखा जाता है तो उसमें उन वीरों की वीरता को मान्यता देनी होगी जिन्होंने कोई 200 वर्ष तक मुस्लिम आक्रमण के ज्वार भाटे को रोके रखा और इस सम्मान पर उन वीरों का पूर्ण अधिकार भी है"।
जिस इस्लाम की शक्ति ने हजरत मुहम्मद के बाद 100 वर्षों में मध्य एशिया से लेकर उत्तरी अफ्रीका, पुर्तगाल तक का समस्त भू-खण्ड, अपने अधीन कर लिया, उसी प्रचण्ड शक्ति को भारत में घुसने के लिए कोई 400 वर्ष लगे और उस अदम्य शक्ति को रोकने का श्रेय केवल जाटों को जाता है काबुल में शाही जाट, सिन्ध में राय जाट, दिल्ली में चौहान जाट, कश्मीर में लोहरकरकोट जाट और बोलान दर्रे में काक/काकरान वंश के जाट ही थे जिन्होंने अन्तिम क्षणों तक आक्रमणकारियों का सामना किया। एक बार जब आक्रमणकारी दिल्ली तक पहुँच कर वहां जम गये, तो सुद्र बंगाल तक सारा उत्तरी भारत उनके आगे नतमस्तक हो गया।
मध्य भारत में एक अन्य राजवंश हुआ है जिसे कलचरी/कलचुरी कहते हैं और जिन्होंने अपना अलग से सम्वत्‌ भी चलाया। इतिहासकार इसकी पहचान करने में असफल रहे हैं। यह भी एक जाट राजवंश था जिसे आजकल कलसरी/कलेसर कहते हैं | मध्य भारत में ही डाहल नामक राज्य भी डाहल वंश के जाटों का था।
कतिपय साथियों ने मूल पुस्तक की समीक्षा के संदर्भ में यह आक्षेप किया

The Classical Age (1962) p. 174.

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था कि उसमें कुछ ब्राह्मण विरोधी बातें है। यहां मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं भारत के ऋषियों को, जिन्होंने आंशिक रूप से ही सही, भारतीय साहित्य को बचाए रखा, मैं पूर्ण सम्मान की दृष्टि से देखता हूँ। पाणिनी और चाणक्य जैसे विद्वान ब्राह्मणों को शिरोधार्य करता हूँ। किन्तु मैं धार्मिक अनुष्ठान आदि के नाम पर जन-सामान्य को ठगने, तोड़ने और विचलित करने वाले पुरोहितवाद का कभी समर्थन नहीं कर सकता। इन पुरोहितों में भी जो ब्राह्मण अथवा अन्य, जन-सामान्य के जीवन-मृत्यु, विवाह आदि के संस्कार, आडम्बर-रहित सुगम रीतियों से करते हैं, वे भी समाज का एक आवश्यक अंग हैं चाहे वे ब्राह्मण हों अथवा ग्रन्थी, काजी आदि। मैं आर्य विचारधारा में विश्वास रखता हूँ जिसमें न कोई जाति-पाति है, न छूत-अछूत है और न ही परलोक के लिये इह लोक कें सुखों की बलि देने का विधान है।
इतिहास की खोज के लिये पूर्ण लगन और रूचि की आवश्यकता है जिसके द्वारा इतिहासकार अपने को पूर्ण रूप से ऐतिहासिक तथ्यों के अन्वेषण के लिए समर्पित कर दें। इस विषय में कई कार्य जो महत्त्वपूर्ण है, उसके विषय में नीचे सुझाव दिये जाते हैं:-

(1)सन्‌ 1958 में दलाईलामा, चीनी आक्रमण से पहले, तिब्बत से भाग कर भारत आये। वे अपने साथ बहुत सी कृतियां, पाण्डलिपियां और अन्य ग्रन्थ भी लाये जो आजकल मुख्यतः हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के स्थान पर एकत्रित हैं। इस पुस्तकालय में बहुत-सी कृतियां इतिहास, दर्शन, आयुर्वेद, धर्म और संस्कृति आदि से जुड़ी हुई हैं। क्‍योंकि मुख्यतः यह पुस्तकें तिब्बती भाषा में हैं, अतः वे साधारण लोगों की पहुँच से बाहर हैं। आवश्यकता इस बात की है कि कूछ भारतीय विद्वान, उन कृतियों को फिल्मांकित करें और उनका अनुवाद भी हिन्दी व अन्य भाषाओं में करें। 1938 में राहुल सांकृत्यायन कुछ पुस्तकें तिब्बत से भारत लाये थे। उनमें एक पुस्तक, "आर्य मन्जु श्री मूल कल्प" थी जिसका अनुवाद डॉ० के०पी० जायसवाल ने अंग्रेजी में किया और भारतीय इतिहास के बहुत से संदिग्ध प्रकरणों पर प्रकाश डाला।


(2)कोई 80 वर्ष पहले श्री ओरेल स्टीन ने पुस्तकों से भरे हए पूरे कमरे मध्य एशिया की धरती में दबे हुए खोज निकाले। इनमें बहुत से ग्रन्थ संस्कृत में और कूची, तोखरी और सोगिदयन आदि भाषाओं में हैं। आजकल यह सब अमूल्य धरोहर, बर्लिन, लंदन, पेरिस, लेनिनग्राड, बेईजिंग आदि स्थानों पर रखी हुई है। इनमें बहुत सी पुस्तकें ऐसी हैं जो

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भारतीय साहित्य में लुप्त हो चुकी हैं। यहां भी आवश्यकता इस बात की है कि इन सब कृतियों की एक विशेष सूची बनाई जाये, उनका अनुवाद हिन्दी व अन्य भाषाओं में हो और ये सब पुस्तकें भारत विदों को प्राप्त हों।


(3)पश्चिम एशिया में कोई दो हजार वर्ष तक आर्य सम्राटों का राज्य रहा है उनके नाम संस्कृत में हैं और उनके बहु शिला-लेख, शिला-पट्टियाँ आदि विभिन्न स्थानों से खुदाई में प्राप्त हुई हैं। उनकी भाषा भी अकद, लव, नेशीली, सेमिटिक आदि है। पश्चिमी विद्वान इन भाषाओं पर पिछले कोई 100 वर्षों से अध्ययन कर रहे हैं किन्तु भारत में ऐसे विद्वानों का पूर्ण अभाव है। यहां भी आवश्यकता इस बात की है कि कूछ संस्कृत जानने वाले भारतीय विद्वान इन पश्चिम एशियाई भाषाओं का भी अध्ययन करें, तत्पश्चात्‌-इन पुरातत्व खनन द्वारा प्राप्त लेखों का भी अध्ययन करें। इस अध्ययन से प्राचीन आर्यों के मूल और इतिहास के विषय में बहुत कुछ सामग्री मिल सकती है जो भारतीय इतिहास को भी प्रकाशित कर सकती है।

अन्त में, मैं अपने उन सब पाठकों, प्रशंसकों और आलोचकों का आभारी हूँ जिन्होंने मेरी शोध कृति पर अपने लिखित या मौखिक विचार प्रकट किए हैं। भारतीय सभ्यता की महान्‌ परम्परा में पूर्ण विश्वास रखते हुए, मेरा उद्देश्य केवल यही है : ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रहकरण हो और उन पर बिना पूर्वाग्रह, के खुल कर विचार-विमर्श और समालोचना हो। खुले वातावरण में ही सत्य पनप सकता है। सत्य की खोज ही मेरा लक्ष्य है चाहे वह सत्य कितना ही कटु या मधुर हो। यह हिन्दी अनुवाद इन्हीं कतिपय तथ्यों को अधिक से अधिक शिक्षित जनों और इतिहासकारों तक पहुँचाने के लिए ही है।

जालन्धर
बी.एस. दहिया



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