Jat Prachin Shasak/Parishisht-1
विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह
परिशिष्ट-1
"राजपूतों से जाट कुलों का तथाकथित उद्भव ; कपोल-कल्पित"
"राजपूतों से जाट कुलों का तथाकथित उद्भव ; कपोल-कल्पित"
- चौहान
- मकर, खौंगा, लाखलान, सबांच, सोहू, चाहल, गेल, राव, नहरा, पखाल, लूनी, जगलान, भेनीवाल, लेघा, जनवार, वेदवाल, माहलू, विहा, मैठरान, रापरिया, भारीवस, बोहला, मोर, सिंहमार, माहिल, गोयल, चोहान, श्योरान, लोभावत, सोमधार, दोहन, हेला, लोइच, रामपुरिया, रेढू, होड़ा, सामिन, रोजिया, चौटिया/उर्फ भान, भट्ट, राड, लौमध।
यह चार्ट Tribes and Castes Vol. II, p. 375, से लिया गया है जैसा कि हम पहले ही कह चुके हैं कि यह कथित वंश परम्परा स्पष्ट रूप में गलत है। राजपूत नाम तो एक जातीय नाम के रूप में, सामाजिक तथा धार्मिक मत-भेदों के परिणामस्वरूप 10वीं शताब्दी या इसके बाद ही अपनाया गया था, जब कि इन राजपूतों से पूर्व इन में से विकसित क्यों था अपना अति प्राचीन इतिहास बन चुका था। जाटों के वे वर्ग जिन्हें औपचारिक रूप में ब्राह्मणवाद में दीक्षित किया गया और जिन्होंने आगे चल कर विधवा विवाह के स्थान पर सती प्रथा का पालन करना अधिक उत्तम समझा, वे राजपूत कहलाए। यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि राजपूतों की बहुसंख्या, कम-से-कम इन के महत्वपूर्ण कुल, मध्य एशिया से बहुत पीछे आने वाले लोग थे, जब कि जाट कुल तो वैदिक काल में भी विद्यमान रहे हैं।
इस चार्ट में कई कुल जैसे बो(ह)ला, शियोरण/सूरी/शौर, खिचर, खरवाल/खरवान, माहलू (माहल) आदि को एक के स्थान पर दो-दो कुलों का वंशज माना गया है और ऐसा परिणाम होना ही था। जब कोई घोड़े के आगे गाड़ी बांध दे। निस्संदेह हम इस बात से इन्कार नहीं करते कि एक विद्यमान कुल से नये कुल विकसित नहीं हुए होंगे, हमारा आग्रह केवल इतना है कि एक पुराने कुल से, मूल कुल से, एक नया कुल अथवा शाखा विकसित हुई न कि इस के विपरीत। क्योंकि सदा जड़ों से ही शाखाएं पनपती हैं न कि शाखाओं से जड़े। अतः मोर (मौर्य) को परमार कुल की एक शाखा कहना एक मूर्खतापूर्ण कथन है। वास्तव में जो हुआ वह कुछ इस प्रकार घटित हुआ होगा। एक कुल जब राजनैतिक प्रभुत्व प्राप्त कर लेता है तो इस प्रभावी कुल को जो अन्य कुल अपना समर्थन प्रदान करते हैं, वह एक तरह से राजनीतिक संघ का भाग बन जाते हैं। इस रूप में ही मौर, शकान, कुश्वान, गुजर, परमार, चौहान तथा राठौर वंशों के संघ बने। इस का अर्थ यह नहीं कि इन संघों के कारण लोग जो कि विशेष कुल के साथ मिल कर रहते थे वे इस कुल के वंशज हो गये या प्रभुत्व प्राप्त कुल भी शाखा बन गये अतः वास्तव में यह प्रस्तुत चार्ट केवल इस बात का पता देता है कि ये विशेष जाट कुल अन्य कुलों के साथ, तोमर, चौहान, भट्टी, परमार तथा गुज्जरों द्वारा अपने राज्य गठित करते समय, इनके समर्थक थे। केवल इसी कारण से एक कुल विशेष एक से अधिक पूर्वजों से विकसित दिखाई देता है। हम यह चार्ट इस लिए भी प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि कुछ कुल नामों की और ध्यान दिलाया जा सके। जैसे, सकान (शाकान/शक), खोत (गोथ ?), हेला (हाला), (हिलैनीन ?) रापडिया (असीरियन इतिहास के अरपड़), वर्तमान नगर तेल अरपड़, एशिया माइनर के प्राचीन नामों के साथ इन नामों की ये स्पष्ट समानता, इससे पूर्व कही गई उस क्षेत्र के चारों ओर लोगों के नामों की भारतीय नामों के साथ
समानताओं के संदर्भ में देखी जानी चाहिए। पूर्व प्रस्तुत जाटों का अस्तित्व प्राचीनता के गर्भ में "अध्याय भी देखिए" हमें बेबीलोनिया की पूज्य देवी नैना के विषय में भी कुछ स्पष्ट करना होगा, क्योंकि यह प्रख्यात देवी आज भी अपने इसी नाम नैना देवी के साथ हिमाचल में पूजित है। प्रो. वी.एस. अग्रवाल ने वैदिक साहित्य में पाए जाने वाले पश्चिम एशिया के नामों की ओर भी हमारा ध्यान दिलाया है। जैसे, तैमात, अलिगिबिलिगि अरूगुल (अथर्ववेद) अप्सु (ऋग्वेद) कब्रु (अथर्ववेद) शतपथ ब्राह्मण के अनुसार शुक्र (Venus) अत्र कहलाता है जो असीरिया तथा आर्मीनिया के ई.पू. 8वीं शताब्दी के अभिलेखों में एक देवी के रूप में वर्णित है।
अब प्रश्न यह है कि "वैदिक साहित्य में पश्चिम एशिया के से नाम, प्रतीक तथा विचार कैसे जुड़ गए तथा कुशान कालीन सिक्कों में नैना देवी के नाम को इतना सम्मानजनक स्थान क्यों दिया गया।" बात केवल इतना मान लेने से ही नहीं बनेगी कि भारत ने ये विचार वहां से उधार के रूप में ग्रहण कर लिए होंगे। सत्य यह है कि ये सभी विचार इन लोगों के साथ भारत आए, जिन्होंने इन विचारों/प्रतीकों को अपने बीच अक्षुण्ण रखा था तथा ये लोग एशिया के विशाल मैदानों से 4000 वर्ष से अधिक समय तक आर्यों से चल कर मुगलों तक निरंतर भारत की ओर ही आते रहे। हम इस बात के संकेत पहले ही दे चुके हैं कि उत्तर कुरू, उत्तर मद्र, उत्तर पशतून लोगों के क्षेत्र इराक़ तथा केस्पियन सागर के उत्तर व पश्चिम में स्थित थे। बेबीलोनिया के महाकाव्य "गिल्गमेश" (Gilgamesh) का नायक उत्तानपिस्तिम (असीरियाई पुरातत्व इतिवृत्तों के अनुसार उत्तर पशतुन उस क्षेत्र की ओर जाता है जो अनश्वर देवताओं का क्षेत्र है और जिन का प्रमुख देव स्वयं सूर्य है और यह स्थान मृत्यु-जललोक के समीप (The bound Arctic Sea) स्थित है। भारतीय साहित्य में वर्णित उत्तर कुरु प्रदेश का भौगोलिक विवरण इतना सटीक है कि यह कपोल कल्पित नहीं हो सकता। इससे भी अधिक जानकारी हमें "एत्रेय ब्राह्मण" प्रदान करता है कि उत्तर कुरू, उतर मद्र क्षेत्रों के मुकुट धारी राजा विराट की उपाधि धारण करते हैं। सम्भवतः यह विराट शब्द, उरटू, उरर्टू (बाइबल में वर्णित अरारट) ही है जो ई.पू. हज़ारों वर्ष पहले एक शक्तिशाली राज्य था और जो आसिरिया के असुर राजाओं के साथ सदा ही युद्धरत रहा। भारतीय साहित्य में वर्णित देवासुर संग्राम की ओर एक संकेत। ऐसी समानताएं अनेक हैं और इतनी सुपरिभाषित कि इन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। इन समानताओं में ऐतिहासिक सत्यता के गूढ़ अर्थ तो कहीं निहित होने ही चाहिए।