Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Vakalat, Samajik Evam Rajnaitik Gatividhiyan
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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984बहादुर व्यक्ति और सुयोग्य देशभक्त परमात्मा को प्रिय लगते हैं और सभी युगों में उनकी प्रसिद्धि होती है---मिल्टन
सन 1942 में सारे देश में 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' आंदोलन चरम सीमा पर था। देश में विस्फोटक स्थिति थी। आजादी की लड़ाई निर्णयात्मक दौर से गुजर रही थी। सारा देश अंग्रेजी सल्तनत पर प्रहार करने के लिए पैरों की फणियों पर खड़ा था। उस समय करणी राम जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के एल.एल.बी. परीक्षा पास कर मई 1942 में अजाड़ी बास नानिग लौटे। इलाहाबाद भारत की आजादी की लड़ाई का मरकज था, जहां देश के शीर्षस्थ नेता राजनीति तय किया करते थे। करणी राम जी भी अपनी धमनियों में आजादी के लिए उबलते हुए खून को संजोए वापस लौटे थे।
वकालत की ट्रेनिंग
करणी राम जी के एल. एल. बी. की सफलता पर मोहन राम जी के घर पर तथा सारे इलाके में खुशी मनाई गई। उन दिनों झुंझुनू जिले में ही नहीं बल्कि सारे राजस्थान में किसान वर्ग से कोई इक्के-दुक्के व्यक्ति ही वकील बन पाए थे। एल.एल.बी. की पढ़ाई करने के बाद करणी राम को उनके मामा जी ने झुंझुनू जिला मुख्यालय पर वकालत करने भेज दिया। उन दिनों झुंझुनू जिले में श्री नरोत्तमलाल जी जोशी एक मशहूर वकील थे तथा जिले के प्रमुख राजनेता भी थे। किसान
वर्ग में भी उनकी ख्याति एवं मान था। वे काश्तकारों के परम हितेषी थे और उन्होंने भी जागीरदारों की काफी यातनाएं सही थी।
करणी राम जी ने सौभाग्य से श्री जोशी जी जैसे प्राणवान व्यक्ति के सानिध्य में वकालत की ट्रेनिंग लेना आरंभ किया। तत्कालीन कानून के अनुसार 6 माह किसी वरिष्ठ वकील के नीचे ट्रेनिंग लेने तथा उससे प्रणाम पत्र प्राप्त करने पर ही जयपुर रियासत के हाई कोर्ट द्वारा वकालत का लाइसेंस दिया जाता था। हालांकि करणी राम जी को सन 1942 में स्वतंत्र वकालत करने का लाइसेंस मिल गया था फिर भी वह जोशी जी की देखरेख में उनके पास रहकर ही वकालत करते थे। नरोत्तम जी केवल वकील ही नहीं बल्कि सक्रिय राजनेता एवं समाजसेवी भी थे। अतः करणी राम जी भी इन गतिविधियों में शरीक होने लगे। झुंझुनू में करणी राम जी के रहने तथा खाने-पीने पर होने वाला खर्च प्रारंभ में मोहन राम जी ने ही वहन किया। वकालत के लिए आवश्यक पुस्तको आदि का प्रबंध भी उन्होंने ही किया। मोहन राम जी बड़े दूरदर्शी एवं कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति थे। उन्होंने करणी राम जी को स्पष्ट कह दिया था कि शुरू में रुपैया कमाने की चेष्टा न करना, वकालत का ज्ञान प्राप्त कर के वकालत पेशे व समाज में नाम पैदा करना। करणी राम जी ने अपने मामा की आज्ञा का पूर्ण पालन किया। मोहन राम जी भी अधिकतर झुंझुनू में ही करणी राम जी के पास रहने लगे। करणी राम जी के कार्य में उनके मामा जी की आकांक्षा एवं महत्वकांक्षायें मूर्त रूप लेने लगी। मोहन राम जी करणी राम जी को केवल वकील ही नहीं बनाना चाहते थे बल्कि वकालत के माध्यम से वे उन्हें एक बड़ा राजनेता एवं समाजसेवक बनाने का सपना ले रहे थे। करणी राम जी को वे राजस्थान का भावी मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी करना चाहते थे। पंडित जवाहरलाल नेहरू को देश का भावी प्रधानमंत्री बनाने में उनके पिता मोतीलाल नेहरू ने जो भूमिका निभाई थी वही भूमिका छोटे रूप में करणी राम जी को विकसित करने में मोहन राम जी निभा रहे थे।
वकालत का शुभारंभ
आगे चलकर करणी राम जी ने अपनी स्वतंत्र वकालत प्रारंभ की। वे महात्मा गांधी के पक्के अनुयाई थे। उन्होंने कभी वकालत को पेशा नहीं माना,
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स्वर्गीय चौधरी श्री मोहनराम जी अजाड़ी, डूंडलोद ठिकाने के प्रभावशाली चौधरी थे मोहन राम जी ने पिता तुल्य मार्गदर्शन देकर श्री करणी राम जी की जीवन धारा को देश प्रेम की ओर मोड़ दिया था। श्री करणी राम जी की अकाल मृत्यु ने उनके सारे सपनों को ध्वस्त कर दिया।
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राजस्थान विधानसभा के भूतपूर्व अध्यक्ष एवं न्याय मंत्री श्री नरोत्तम लाल जोशी
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सहपाठीगण श्री हरनन्द राम, श्री करणीराम एवं श्री हनुमानाराम अजाड़ी
बल्कि जन सेवा का माध्यम बना। आज पास है किसान बड़ी संख्या में अपने मुकदमे लेकर आते थे पर वे उन्हीं मुकदमों की पैरवी करते थे जिनकी सत्यता के प्रति वे आश्वस्त होते थे। आम जनता में तथा अदालतों के हाकिमों के दिमाग में यह बात घर गई कि श्री करणी राम झूठे मुकदमे की पैरवी नहीं करते। लोग कहते हैं कि जब किसी मुकदमे में हाकिम लोग सच्चाई पर पहुंचने में कठिनाई महसूस करते थे तब वे करणी राम जी को पूछ कर सच्चाई के निष्कर्ष पर पहुंचते थे। ऐसे भी कई उदाहरण बताए जाते हैं कि करणी राम जी को अगर कमी पैरवी के वक्त भी पता चल जाता था कि मामला गलत है तो वह पैरवी बंद कर देते थे। ऐसी थी उनकी सच्चाई एवं न्याय में आस्था।
जन आक्रोश का ज्वार
शेखावाटी का इलाका निकटस्थ बीकानेर और [जोधपुर[]] की तरह अजीब उथल-पुथल से गुजर रहा था। ठिकानेदारों की बेजा हरकतों के विरूद्ध किसान अपनी संपूर्ण शक्ति से जाग उठे थे। इस जन शक्ति का संचालन करने वाले योग्य नेताओं ने अनेक प्रलोभनों को ठुकराकर अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ा । इस प्रबल जनशक्ति का मुकाबला करना जागीरदारों को अब भारी पड़ रहा था। प्रशासन तंत्र में ठिकानेदारों के अपने लोग थे अतः इस स्थिति में उनके सहयोग से वे किसानों पर निरंतर अत्याचार कर रहे थे।
शेखावाटी के किसान सभा के प्रमुख नेता प्रजामंडल के सदस्य थे और ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के बीच वर्तमान ढांचे के विरुद्ध एक कड़ी बने हुए थे। कई शहरी नेताओं ने किसानों की समस्याओं में गहरी रुचि ली इनमें श्री जमनालाल जी बजाज प्रमुख है। सरदार हरलाल सिंह, ईश्वर सिंह चौधरी, किशन सिंह आदि प्रजामंडल के उच्च पदों पर आसीन रहे। सरदार हरलाल सिंह आगे चलकर प्रजामंडल के अध्यक्ष भी बने।
इन नेताओं का सुझाव प्रजामंडल की ओर प्रारंभ से ही रहा। और कुछ अन्य थे जो प्रजामंडल से अलग ही रहे। उनकी मान्यता थी कि अपनी बहुविध गतिविधियों में प्रजामंडल किसानों की समस्याओं पर समुचित ध्यान नहीं दे पाएगा। ऐसे लोग किसान सभा में ही बने रहे। इस प्रकार इस समय शेखावाटी का नेता
वर्ग दो विरोधी गुटों में बट गया था। 1952 के चुनाव के समय यह अलगाव और भी स्पष्ट हुआ जबकि प्रजामंडल के सहयोग रखने वाले नेता कांग्रेस में शामिल हुए और किसान सभा के नेताओं ने कृषक लोक पार्टी के रूप में उनका विरोध किया। उन्होंने 1957 में भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में विरोध किया।
श्री करणी राम जी वकालत करने के साथ-साथ राजनीति में भी बराबर हिस्सा लेते थे। प्रजामंडल से सहानुभूति रखने वाले नेताओं के सहयोगी ही नहीं थे, अपितु सक्रिय रूप से प्रजामंडल की गतिविधियों में भाग लेते थे। आगे चलकर जब प्रजामंडल कांग्रेस में शामिल हो गया तो वे भी कांग्रेस के एक सक्रिय नेता बन गए।
राजस्थान में राजनीतिक संस्थाओं को विकास के तीन सोपानों से गुजरना पड़ा था। पहला सोपान कृषक समाज में आवश्यक सुधार करना था। दूसरा सोपान वर्तमान राजनीतिक एवं प्रशासकीय ढांचे से सीधा टकराव था। प्रथम पीढ़ी के नेताओं का वरदहस्त इसे प्राप्त था। आगे चलकर दूसरी पीढ़ी के लोगों और युवा लोगों ने इसे अपना सहारा और नेतृत्व प्रदान किया। शेखावाटी में बाहर के लोगों ने भी यहां आकर इस आंदोलन को आगे बढ़ाने में भरपूर मदद दी। तीसरा सोपान प्रजातंत्र राजनीतिक संस्थाओं का संस्थापन था। इसके लिए अनेक जगह किसान सभाएं टूटी और वह कांग्रेस में विलीन हो गई। इससे शेखावाटी के क्षेत्र में जन शक्ति का स्पष्ट विभाजन हुआ। हर ठिकाने में किसानों का एक जोरदार समांतर संगठन बना।
शेखावाटी में जन आंदोलन का अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस का सहारा मिला और प्रत्यक्ष रूप से आर्य समाज द्वारा तैयार किया गया आधार मिला। साथ ही ब्रिटिश भारत में जो जाट नेता थे उन्होंने भी अपना भरपूर सहयोग प्रदान किया।
श्री करणी राम जी वकालत करते हुए राजनीति में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे थे। वे शीर्ष नेताओं के संपर्क में आए और उनके स्नेह भाजन बन गए। उच्च शिक्षा और पक्की लग्न तथा उद्देश्य के प्रति निरंतर बढ़ती हुई निष्ठा ने उन्हें शेखावटी के तत्कालीन नेतृत्व को अगली पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया था। अध्यवसाय और सतत कठोर परिश्रम से वे बराबर नई ऊंचाइयों को छूते रहे।
निष्ठावान गांधीवादी
करणी राम जी ने निम्न वर्ग की मनोव्यथा को समझा और हृदयगम किया था। वे पक्के गांधीवादी थे और सादा जीवन तथा उच्च विचार रखने वाले थे। वे खादी की धोती, खादी की कमीज धारण करते थे। आंखों पर चश्मा लगाते थे। उनके कर्म एवं वेशभूषा में गांधीवादी विचारधारा प्रतिबिंब थी। शेखावाटी के क्षेत्र में खासकर उदयपुरवाटी में कृषक वर्ग पर निरंतर अत्याचार बढ़ते जा रहे थे। प्रभुत्व की खुमारी, प्रभाव एवं आराम पसंदी से उंघ रहे भोमियों द्वारा निहत्थी एवं निर्दोष जनता लाठियों एवं गोलियों की शिकार हो रही थी। ऐसी स्थिति में श्री करणी राम जी सक्रिय रूप से राजनीति में कूद पड़े।
इस समय वे वकालत करने के साथ-साथ समय निकालकर गरीब जनता के दुख-दर्द को दूर करने का प्रयत्न करते थे। इस समय अधिकांश जगहों पर जागीरदार किसानों को बेदखल कर रहे थे अतः बड़ी संख्या में मुकदमे आते थे। वे किसानों से मुकदमों की कोई फीस तय नहीं करते थे और यथासंभव अपनी ओर से मदद करते थे।
असाधारण उदारता एवं त्याग
उनकी स्वयं की स्थिति भी अच्छी नहीं थी। वकालत से जो कुछ अर्जित होता उससे घर का खर्चा चलाते थे और कई विद्यार्थियों को भी आर्थिक रूप से मदद करते थे। इस संबंध में बड़ा ही उत्तम उदाहरण सामने आता है।
करणी राम जी का छोटा भाई डालूराम एक दिन उनके पास 300 रुपए लेने आया। इन रुपयों से खेत जोतने के लिए वह बैल खरीदने का विचार करके आया था। डालूराम तीन दिन तक बैठा रहा पर उपयोग की व्यवस्था नहीं हो पाई। पैसे आते और दिगर लोगों के हितार्थ लग जाते। इसी समय एक काश्तकार आया और बोला वकील साहब स्कूल खुलने का समय आ गया है और बच्चों को भर्ती कराने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है। रुपयों की सख्त जरूरत है। इस पर करणी राम जी ने जेब से 100 रुपए का नोट निकाला और किसान को यह कहते हुए दे दिया कि आज ही किसी व्यक्ति से पैसे मिले थे अपने बच्चों को स्कूल में भर्ती
करा दो। किसान चला गया। डालूराम यह सब देख कर भौचक्का सा रह गया।
उनकी उदारता के कई असाधारण उदाहरण और भी हैं। लंबे समय के बाद जब वे झुंझुनू लौटे तो उनके पास एक रुपया भी नहीं था। उस समय उन्होंने अपने ममेरे भाई हनुमानराम से कहा कि नाज-बात बर्तन आदि के लिए इंतजाम करना है सो मुझे कुछ रुपए दे दो। हनुमानराम के पास उस समय ₹60 थे जो उन्होंने उनको दे दिए। वे रुपए करणीराम जी ने अपने तकिए के नीचे रख लिए। थोड़ी देर बाद ही भोजासर वाले जगनजी करणीराम जी के पास आए और उन्होंने कहा कि सरदार हरलाल सिंह जी जयपुर आ रहे हैं।
उनको ₹50 की सख्त जरूरत है। करणीराम जी ने कहा कि इस स्थिति में मेरे पास भी रुपए कहां हैं। मैंने तो नाज बर्तन आदि के लिए ₹60 भाई के लिए लिए हैं। इनमें से ₹50 सरदार जी के लिए ले जाओ, मैं तो अपनी भुगतुंगा। यह कहते हुए कठिनाई से प्राप्त इस अत्यंत आवश्यक धनराशि में से भी उन्होंने ₹50 सौंप दिये। कहना नहीं होगा कि इस त्याग के लिए उन्हें बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। जैसा कि ऊपर कहा गया है वह हमेशा उन्हीं केसों को लेना स्वीकार करते थे जिनकी सत्यता में उन्हें संदेह नहीं होता था। दोनों पार्टियां उन्हें वकील बनाने को पहुँचती थी। पहले वे दोनों में राजीनामा कराने की कोशिश करते थे अगर राजीनामा नहीं होता और एक पार्टी इंकार हो जाती तो दूसरी पार्टी के वकील बनते थे। उनके मुकदमे वे बिना फीस के ही लड़ते थे। फीस के लिए वे दबाव नहीं दिया करते और न पहले से पैसा तय करते थे।
हरिजनोद्धार एवं मानव मात्र की समानता
उस समय समाज में ऊंच-नीच की भावना अधिक रहती थी। यद्यपि हरिजनों पर होने वाले ठिकानेदारों के अत्याचारों को रोकने में तत्कालीन नेतागण प्रयत्नशील थे फिर भी उनसे सामाजिक समानता रखने में बहुत कम आदमी आगे आते थे। हरिजनों को लोग खासकर सवर्ण हेय दृष्टि से देखते थे।
करणीराम जी ने इस दिशा में एक बड़ा क्रांतिकारी सामाजिक कदम उठाया। उन्होंने रेखाराम नामक एक चमार को अपने घर पर रोटी पकाने वह पानी भरने के लिए रख लिया। उन दिनों यह बात अकल्पनीय और चौंकाने वाली थी।
इसलिए लोगों में शिव चर्चा का विषय बन गई। कुछ आदमी उनसे इस कदम के औचित्य की चर्चा करते तो वे मानव मात्र की समानता की बात कहकर उसे प्रेम पूर्वक समझाते। इस प्रकार धीरे धीरे यह विरोध तिरोहित हो रहा था।
गोदारा की ढाणी के खांगाराम जी मोहनराम जी के रिश्तेदार थे। उन्होंने इस बात का बड़ा विरोध किया। उन्होंने धमकी दी कि हम तो रिश्ता विच्छेद कर देंगे अगर करणीराम जी ने हरिजन के हाथ की रोटी खाना नहीं छोड़ा। उन्होंने करणीराम जी के यहां झुंझुनू में पानी पीने से इंकार कर दिया।
आबूसर के झाबरराम जी मोहन राम जी के पक्के दोस्त थे। इन्होंने और जेताराम जी डाबड़ी वाले जो मोहन राम जी के संबंधी थे सभी ने मोहनराम जी से शिकायत की तथा कहा कि करणीराम जी को चमार रसोईया नहीं रखना चाहिए। हनुमानाराम ने भी करणीराम जी से इस बात पर कई बार झगड़ा किया और कहा कि चमार मत रखो पर इन सारे विरोध के बावजूद करणीराम जी टस-से-मस नहीं हुए और रेखा राम बराबर उनके पास बना रहा।
इस प्रकार प्रारंभ में चमार को रसोइया रखने की वजह से करणीराम जी के रिश्तेदारों एवं समाज के अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने कड़ा विरोध किया तथा उनके यहां खाने-पीने का बहिष्कार किया। परंतु करणीराम जी गांधी जी के सच्चे अनुयाई थे। उनके कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। छुआछूत को वह समाज का भयंकर पाप एवं अभिशाप समझते थे। इस कड़े विरोध के बावजूद वे अपनी बात पर अटल एवं अडिग रहे। करणीराम जी अपने निश्चय एवं ध्येय के प्रति आस्थावान एवं अडिग थे। अन्याय और गलत बात के सामने उन्होंने झुकना नहीं सीखा था। आखिरकार वे ही व्यक्ति जो करणीराम जी का विरोध करते थे उनके यहां आने जाने लगे और कुछ हद तक उनके अनुयाई हो गए।
करणीराम जी के प्रभाव के कारण ही उनके मामा मोहनराम जी विवाह आदि के शुभ अवसरों पर हरिजनों को अपने समाज के व्यक्तियों के साथ पंगत में बैठकर भोज किया करते थे। मोहनराम जी के घर में तथा करणीराम जी के इर्द-गिर्द छूआ-छूत का भेद सदा के लिए विलुप्त हो गया. इस बात का असर सारे समाज पर पड़ा.
और धीरे धीरे हरिजनों की हीन भावना भी दूर होने लगी। जाट समाज में हरिजनों के प्रति आत्मीयता एवं प्रेम बढ़ गया। वे हरिजनों को अपने भाइयों की तरह समझने लगे। इस तरह करणी राम जी ने समाज का बड़ा उपकार किया।
उन दिनों जगह-जगह संघर्ष की स्थिति बन जाती थी, तब विश्वसनीय नेताओं को उस स्थिति को संभालने के लिए भेजा जाता था। सरदार हरलाल सिंह जी ने श्री करणी राम जी को कई बार इन संघर्ष स्थलों पर नियंत्रण हेतु भेजा था।
भोजासर में बसंत लाल जी मुरारका की ओर से एक छोटी सी स्कूल चलती थी। 15/- रुपए प्रतिमाह उनकी ओर से मिलता था। 15/- रुपए श्री करणी राम जी के प्रयत्न से ग्राम से चंदे के हो जाते थे। वे कई बार जाकर उस स्कूल की सार संभाल रखते तथा किसानों को बराबर समझाते जिससे वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए पाठशाला में भेजते थे।
जैसा कि पहले कहा गया है कि करणी राम जी शराब से सख्त नफरत करते थे और इस बुराई के प्रति लोगों को सावधान करते रहते थे। श्री हनुमान जी से इस बारे में उनकी कई बार कहा सुनी भी हो गई थी। एक बार श्री मोहन राम जी के निकट के रिश्तेदार कूदन वाले स्योबक्ष जी अजाड़ी आए, उस दिन शराब के विरोध में घर पर खाना तक नहीं बना था। इस प्रकार वे अनेक सामाजिक बुराइयों के प्रति अहिंसक तरीके से विरोध प्रकट करते रहते थे।
चनाणा कांड
चनाणा गांव में जयपुर राज्य प्रजामंडल की ओर से मई 1946 में एक किसान सम्मेलन का आयोजन किया गया। उन दिनों जागीर के किसी गांव में सम्मेलन का आयोजन करना बड़ा कठिन काम था क्योंकि जागीदार इस तरह के सम्मेलन को अपने लिए एक चुनौती और अपमान मानते थे। चनाणा के जागीरदारों ने भी इसे अपने अहम एवं अधिकार पर कुठाराघात माना। इस सम्मेलन में श्री टीकाराम पालीवाल, सरदार हरलाल सिंह जी, श्री नरोत्तम लाल जोशी, श्री संत कुमार शर्मा आदि नेतागण एवं अनेक कार्यकर्ता शरीक हुए। जागीरदारों ने हथियार
बंद होकर इस मीटिंग को बंद करने के लिए अकस्मात हमला किया और लोगों को पीटने लगे। श्री हनुमानाराम सीथल वाले युवावस्था में ही इस चनाणा कांड में शहीद हुए। वे अपने पीछे अपनी विधवा पत्नी, वृद्ध माता-पिता एवं मासूम बच्चों को बिलखते छोड़ गए।
जागीरदार-काश्तकार संघर्ष में यह एक महत्वपूर्ण बलिदान था जिसने किसान जागृति के दीपक में और भी तेज चमक के लिए घी का काम किया। काश्तकार और जागीरदार दोनों ही पक्षों द्वारा पुलिस में मुकदमे दर्ज कराए गए। जागीरदारों में सरदार हरलाल सिंह एवं नरोत्तम लाल जी जोशी के खिलाफ कत्ल का आरोप लगाया। श्री संत कुमार जी बड़े भोजस्वी नेता थे। उनके भाषण बड़े जोशीले हुआ करते थे। वे इस प्रकार की बातें कहते थे कि लोग सुनकर चकित हो जाते। भय तो उनको जरा सा भी छू तक नहीं गया था। पं. ताड़केश्वर शर्मा पचेरी के जागीरदार के नग्न अत्याचार अपनी आंखों से देख चुके थे। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों से लोगों को बड़ा प्रभावित किया था। यह पढ़े लिखे थे इससे किसान आंदोलन को बड़ा लाभ मिला। श्री लादूराम जी कीसारी कई बार जेल गए और उन्होंने श्री नेतराम जी तथा श्री घासीराम जी का जन आंदोलन के समय पूरी तरह साथ दिया। चौ. थानौराम जी भोजासर वाले इस किसान आंदोलन में अन्य किसान नेताओं के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।
किसान आंदोलन एवं समाज सुधार
श्री नेतराम सिंह जो किसान आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे। इस समय तक श्री पन्ने सिंह जी देवरोड की मृत्यु हो चुकी थी और नई पीढ़ी उभर कर आ गई थी। आर्य समाज की दिशाओं का बड़ा असर हो रहा था। उन्हें कभी लगान बंदी तो कभी जयपुर राजा की खिलाफत करने के कारण जेल में डाला गया। चौ. घासीराम बचपन से ही जागीरदारों के अत्याचारों के विरुद्ध उस लड़ रहे थे। उन्होंने गांव-गांव जाकर लोगों से प्रेरणा का संचार किया था।
ये अधिकांश नेता किसानों के घर में जन्मे थे किसानों की पीड़ा और किसानों पर किए जाने वाले अत्याचारों को उन्होंने अपनी आंखों से देखा, भुगता था। इस प्रकार विद्रोह उनके खून में समाया हुआ था । ऐसे नेताओं का नेतृत्व उस
समय शेखावाटी के जनांदोलन को प्राप्त था। इसका परिणाम यह हुआ कि जागीरदारों की धमकियां बराबर बेअसर होती गई और आंदोलन दिनोंदिन आगे बढ़ता गया।
श्री करणी राम समाज सुधार के प्रबल पक्षधर थे। आर्य समाज के प्रभाव के कारण यद्यपि कृषक वर्ग परंपरा से चली आ रही अनेक सामाजिक बुराइयों को छोड़ चुका था लेकिन फिर भी अनेक सामाजिक बुराइयां पूरी तरह दूर नहीं हुई थी। करणी राम जी ने समाज में व्याप्त बुराइयों को स्वयं के आचरण से दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने अपने परिवार में सर्वप्रथम दहेज प्रथा बंद की थी। इसी प्रकार मृत्यु भोज भी उन्होंने बंद कर दिया था। यह ऐसी कुरीति थी जिस पर हर घर में गरीब किसान का बहुत पैसा खर्च होता था। यह बुराई समाज में इतनी फैली हुई थी कि इसको बंद कर सामाजिक अपमान का शिकार होना हर किसान के बस की बात नहीं थी। इस कार्य के लिए श्री करणी राम जी जैसे दृढ़ निश्चय व्यक्ति की जरूरत थी। ऊपर इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि उन्होंने रेखाराम हरिजन को अपना रसोईया और पनिहारा बनाकर हरिजन भाइयों के प्रति अपने प्रेम का अनुपम आदर्श प्रस्तुत किया था।
बापू के सच्चे अनुयायी
वे गांधी जी के परम भक्त और पक के अनुयाई थे। महात्मा जी की शिक्षाओं को उन्होंने अपने जीवन में पूरी तरह उतारा था। खादी पहनते थे, ईर्ष्या देष से दूर रहते थे। देश सेवा को उन्होंने अपना परम लक्ष्य बनाया था। हरिजनों द्वारा के कार्य को क्रियात्मक परीगति देते थे और छुआछूत तथा शराब से घृणा करते थे। इस प्रकार गांधी जी की शिक्षा को अपने जीवन में समाहित कर वे अपने मन, कर्म और वचन से सच्चे गांधीवादी बन गए।
महात्मा गांधी जी के प्रति उनका मन अगाध श्रद्धा भक्ति से ओतप्रोत था। वे कहा करते थे कि गांधीजी एक युगपुरुष है। उन जैसी विभूति सदियों के बाद अवतरित होती है। महात्मा जी का नाम स्मरण करते हुए वे गदगद हो जाते थे और भावावेश में स्वरचित गीत गाते थे। गीत की कुछ पंक्तियां इस प्रकार थी:-
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सहपाठीगण श्री हरनन्द राम, श्री करणीराम एवं श्री हनुमानाराम अजाड़ी
सुणियो ऐ मेरी संग की सहेली गाँधी बाबो आयो रे।
गांधी आयो देश जगायो, सारां के मन भायो रे।।
तन पर लंगोटी,हाथ में सोटी, राम नाम फैलायो रे ।
ऊंच नीच को भेद मिटायो, निरधन को मान बढ़ायो रे।।
समाज में तब भी और आज भी अनेक ऐसे व्यक्ति हैं जो हरिजनों की समानता की चर्चा करते नहीं अधाते पर क्रियात्मक रूप से उनसे संपर्क रख आगे कदम बढ़ाना हर व्यक्ति के बस की बात नहीं है। हरिजनोद्वार, सामाजिक बुराइयों से घृणा, शराब के प्रति आक्रोश दहेज प्रथा एवं मौसर आदि को बंद करना ऐसे काम थे जिनके लिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बराबर अपने अनुयायियों और देशवासियों को कहा करते थे। इस तरह करणी राम जी ने ना केवल इस सब का विरोध किया बल्कि अपने आचरण में इस विरोध को साकार कर दिखाया। करणी राम के व्यक्तित्व में गांधी जी के आदर्श फलते-फूलते नजर आते हैं।
प्रेरक व्यक्तित्व
वे बचपन से ही खादी पहनते थे। खादी की धोती और खादी की कमीज, गांधी टोपी और आंखों पर चश्मा उनकी सौभ्य आकृति को एक निर्वचनीय क्रांति प्रदान करते थे। वे गौरवर्ण थे। शरीर इकहरा और लंबाई सामान्य थी। शरीर अधिक पुष्ट नहीं था। चेहरे पर ऐसे भाव थे जो गंभीरता के घोतक थे। उनकी निरंतर चमकती आंखों से उनकी सहिष्णुता, मुख्य मंडल की आकृति से सहनशीलता और असीम धैर्य की भावना प्रकट होती थी। वे मधुभाषी होने के साथ अल्प भाषी और दृढ़ निश्चय व्यक्ति थे। चेहरे पर एक तरह की चमक थी जो आगंतुक को बरबस अपनी और आकर्षित करती थी। उनका चुंबकीय व्यक्तित्व था।
वकालत के पेशे में उनका बड़ा सम्मान था। अदालतों पर उनकी सच्चाई की इतनी छाप थी कि जैसे ही श्री करणी राम जी ने वकालतनामा दिया अदालत उस पक्ष को सही मानने लगती थी। कानूनी या अन्य कारणों से उस पक्ष को अगर अदालत की ओर से राहत नहीं मिल पाती तो दूसरी बात थी और सभी अधिकारियों पर इस बात का असर होता था और वह मानते थे कि श्री करणी राम
झूठ पक्ष की पैरवी नहीं करेंगे। इस प्रकार की भावनाएं वकील के लिए बड़ी धरोहर होती है जिसे विरले ही अर्जित कर पाते हैं। बहुत बार ऐसा हुआ कि श्री करणी राम ने ऐसे व्यक्तियों की पैरवी करने से अपना हाथ खींच लिया जिनकी सत्यता में उन्हें संदेह हो गया था। इस प्रकार वकालत को उन्होंने पैसे के आधार पर नहीं अपितु नैतिकता के आधार पर चलाया तथा उसे गरीब काश्तकारों की सेवा का माध्यम बनाया। करणी राम जी मूलत: आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे समाज में फैली कटुता, विरोध, ईर्ष्या संघर्ष में परस्पर प्रतिरोध को दूर कर शांति, सद्भाव एवं समन्वय स्थापित करना चाहते थे। वे पक्के समन्वयवादी थे। परस्पर भगड़ने वाले व्यक्तियों को पास बैठाकर उन्हीं की बातों से समझौते का रास्ता निकालते थे।
निर्भीक एवं सदाशयी
श्री करणी राम जी राजनीतिक क्षेत्र में भी निडरता और निर्भीकता को आदर्श मानकर चलते थे। जिससे सभी राजनैतिक कार्यकर्ता सम्मान की दृष्टि से देखते थे। वे सभी से स्नेह संबंध रखते थे और व्यर्थ में किसी से कटुता नहीं रखते थे। और सिद्धांतों की बात पर कभी झुकते नहीं थे। इसमें कटुता आ जाना भी स्वाभाविक है पर वह इसके अपवाद थे।
उन्होंने कभी किसी पर अविश्वास नहीं किया। अगर कोई बड़ी से बड़ी गलती करता तो भी वे उसे हंसकर समझा देते। इसका बहुत असर होता था। लोग स्वर्य गलत बात करके उनके पास जाने में संकोच करने लगे। बहुत बार ऐसे अवसर आए जब आपसी विवाद को लेकर दोनों ही पक्ष उनके पास आए। उन्होंने कभी अपना मत उन पर नहीं थोपा पर अपनी उपस्थिति में दोनों पक्षों का आपसी विवाद सुलझा दिया और आपस में समझौता करा दिया।
पीड़ित काश्तकारों की सेवा
जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है श्री करणी राम जी ने वकालत का आरंभ श्री नरोत्तम लाल जी जोशी के देखरेख में कर दिया था। श्री जोशी जी भी उनकी योग्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने मुकदमों की पैरवी करने का काम
पूर्णत: करणी राम जी पर छोड़ दिया था और खुद सार्वजनिक जीवन में व्यस्त हो गए थे। उनके पास मुकदमों की संख्या भी बहुत अधिक थी। उन दिनों झुंझुनू जिले के काश्तकारों पर जागीरदारों ने अत्याचारों का कहर ढा रखा था। शेखावाटी का अशांत क्षेत्र उन दिनों विकट तनाव से गुजर रहा था। जगह-जगह से किसानों पर तरह-तरह के अत्याचारों की खबरें आ रही थी। काश्तकारों से मनमाना लगान वसूल करना और लगान ना देने पर उन्हें बेदखल करना आम बात हो गई थी। काश्तकारों को गांव व ढाणी से निकाल दिया जाता था। काश्तकारों द्वारा थोड़ा सा भी विरोध करने पर पिटाई की जाती थी। किसान और जागीरदारों में संघर्ष उग्र रूप धारण कर चुका था। जैसे दीये की लो बुझते वक्त और लंबी हो जाती है उसी प्रकार जागीरदारों के मानस में सामंती प्रथा का सभांवित अंत और उन्हें अधिक जुल्म और ज्यादती करने के लिए प्रेरित करता रहा था।
पचेरी कांड
झुंझुनू के पश्चिम में हरियाणा की सीमा पर स्थित पचेरी गांव के जागीरदार और किसानों का संघर्ष सन 1944 में चरम सीमा पर था। पचेरी के जागीरदार श्री शिव सिंह उसी गांव की 'ढाणी शिव सिंह' के काश्तकारों से मनमाना लगान वसूल करने लगे। शिव सिंह का पिता धोकल सिंह बड़ा अनुदार व्यक्ति था और अत्याचार की साक्षात मूर्ति था। उनका लड़का शिव सिंह भी काश्तकारों को तंग करने में अपने बाप से कम नहीं निकला। काश्तकारों की आर्थिक हालत बड़ी दयनीय थी। इस दयनीय हालत के कारण लगान देने में वे असमर्थ थे। जागीरदार को यह बात कहां बर्दाश्त होती। उसने इस ढाणी पर हथियारबंद हमला कर दिया। सारी ढाणी उजड़ गई--- लोग बेघर बार हो गए। खून खराबी हुई। दतू और बिरजू काश्तकारों को गोलियों से भून दिया गया। काश्तकारों की महिलाओं को भी मारा पीटा गया। इस खून खराबे की रिपोर्ट काश्तकारों की ओर से की गई। उसी ग्राम के कर्मठ नेता श्री ताड़केश्वर शर्मा ने काश्तकारों का पक्ष लिया। वे भी जागीरदारों के कोप भाजन हुए। रिपोर्ट पर पुलिस ने कोई कार्यवाही नहीं की। बाद में न्यायालय में रिपोर्ट की गई पर अदालत में मुलिज्मान को तलब नहीं किया।
काश्तकारों की ओर से श्री नरोत्तम लाल जोशी, श्री विद्याधर कुल्हारी, श्री संत कुमार शर्मा आदि पैरवी कर रहे थे। इस दौरान जागीरदार शिव सिंह ने
काश्तकारों पर सैकड़ों मुकदमे जमीन से बेदखली के कर दिए। मुकदमों की संख्या बहुत ज्यादा थी। कानून व व्यवस्था की हालत बिगड़ी हुई थी। जागीरदार पैसे की ताकत से डरा-धमका और खून खराबा करके काश्तकारों से जमीन छुड़ाने पर आमादा थे। इन सभी कारणों से राज्य सरकार ने इन सब दावों को पचेरी गांव में कोर्ट कायम कर निर्मित करने का आदेश दिया। मजिस्ट्रेट साहब ने पचेरी में कोर्ट लगाना आरंभ कर दिया। अब काश्तकारों की ओर से मौके पर उपस्थित रहकर पचेरी गांव में पैरवी करने का प्रश्न उपस्थित हुआ। काश्तकारों की हालत बहुत खराब थी। उनके पास पैरवी के लिए रुपए देने को नहीं थे। मौके पर मुकदमा पचेरी गांव में पैरवी करने को कोई वकील तैयार नहीं था। यह कोर्ट कई महीनों तक चलने को थी। उस समय के वरिष्ठ वकीलों को झुंझुनू छोड़ना न तो संभव था तथा न वे त्याग करने को तैयार थे। श्री नरोत्तम लाल जी जोशी ने जब पूरी बात श्री करणी राम जी को बताई तो उन्हें यह कार्य करना स्वीकार कर लिया। करणी राम जी तो गरीबों के दास थे उन्होंने गरीब काश्तकारों की सेवा का व्रत ले रखा था। सभी कठिनाइयों एवं सुविधाओं के होते हुए भी सहर्ष पचेरी गांव में काश्तकारों से बिना फीस लिए पैरवी करना मंजूर कर लिया। लेकिन उन्होंने जोशी जी को स्पष्ट कह दिया कि वे अभी नए वकील है। उन्हें कानून की पूरी जानकारी नहीं है अतः मुकदमे खराब हो सकते हैं। श्री जोशी जी ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे समय-समय पर इन मुकदमों को संभालते रहेंगे।
करणी राम जी को उस समय वकालत करते हुए करीब एक डेढ़ साल का ही समय हुआ था। श्री जोशी जी ने करणी राम जी की मदद के तथा लिखा पढ़ी आदि के लिए अपने चाचा जीवन राम जी को साथ भेज दिया। श्री करणी राम जी पचेरी चले गए और काश्तकारों की ओर से पैरवी करने लगे। अदालत सुबह से शाम तक चलती थी। अदालत में पैरवी करने के अलावा जवाब दावा लिखना, सबूत आदि तैयार कर पेश करना बड़ा कठिन काम था। करणी राम जी को सुबह से ही काम में जुट जाना पड़ता और देर तक मुकदमों की तैयारी करनी पड़ती थी। खाने-पीने नहाने तक के लिए समय नहीं मिल पाता था। जोशी जी समय-समय पर पचेरी आकर मुकदमों की पैरवी का जायजा लेते थे। उन्होंने करणी राम जी की पैरवी देख कर आश्चर्य किया कि इतने कम समय में करणी राम जी ने इतनी अच्छी पैरवी करने की दक्षता हासिल कर ली थी। उन्होंने करणी राम जी से कहा कि आप तो
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करणीराम मील का हाईस्कूल चिड़ावा में पढ़ते समय का समूह चित्र, करणीराम मील कुर्सी पर बायें से दूसरे स्थान पर हैं. श्री प्यारेलाल गुप्ता जी प्रधानाध्यापक बीच में हैं.
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टीबी अस्पताल जयपुर का समूह चित्र, जो करणीराम के स्वास्थ्य लाभ कर अस्पताल से छुट्टी के समय लिया गया था.
मुझसे भी अच्छी पैरवी करते हैं अतः अब उनकी पैरवी को देखने की आवश्यकता नहीं है। काश्तकारों का असीम विश्वास करणी राम जी में जम गया। वे देवता की तरह उनको पूजने लगे। डरे हुए किसानों के मन में करणी राम जी की मौजूदगी से आत्मविश्वास एवं निडरता का भाव उत्पन्न हो गया। काश्तकार इस बात से पूर्ण आश्वस्त थे कि उनके प्रति होने वाले अन्याय का प्रतिकार करने वाले एक ऐसे व्यक्ति आ गए हैं जो एक प्रबल संगठन के प्रतिनिधि है तथा जिसका हृदय किसानों के प्रति प्रेम और ममत्व से भरा हुआ है।
प्राणघातक बीमारी और चिकित्सा
लेकिन रात दिन की निरंतर चलने वाली अथक मेहनत तथा खाने-पीने की अव्यवस्था के कारण करणी राम जी बीमार हो गए। उन्हें मोतीझरा निकल आया। बीमारी का इलाज कराने के लिए उन्हें घर लौटना पड़ा। वे करीब 15-16 दिन इस बीमारी से पीड़ित रहे। पूर्ण रूप से स्वस्थ भी नहीं हुए थे की कर्तव्य की पुकार की वजह से उन्हें फिर पचेरी जाना पड़ा और वही पूर्व व्यस्त कार्यक्रम फिर आराम हो गया। वे पूर्ण मनोयोग से रात दिन एक कर के पुन: मुकदमों की पैरवी में लग गए। यह कार्य निरंतर 6 माह तक चलता रहा। गरीब काश्तकारों को बड़ा सहारा मिला। इस अथक परिश्रम ने करणी राम जी के स्वास्थ्य पर गंभीर रूप से विपरीत प्रभाव डाला। वे पुन : बीमार हो गए और डॉक्टर ने इस बीमारी को क्षयरोग (टी. बी.) घोषित किया। उन दिनों टी. बी. की बीमारी मौत की समानार्थक मानी जाती थी।
उन सब दावों में काश्तकार जीत गए और जागीरदार हार गए। फीस के कुछ रुपए काश्तकार करणी राम जी को देना चाहते थे पर उन्होंने फीस लेने से साफ इंकार कर दिया और कहा कि दुखी काश्तकारों से फीस लेना उनके सिद्धांत के खिलाफ है। वे वकालत अपना धर्म मान कर करते थे। इस बात से करणी राम जी जिले के समस्त काश्तकार वर्ग में प्रसिद्ध हो गए। इन मुकदमों और दावों की सफलता पर जिले की सभी लोगों की आंख लगी हुई थी। काश्तकारों को खतौनियां मिल गई और उनका मोरूसी हक प्राप्त हो गया। इस सफलता में श्री करणी राम जी का सर्वाधिक एवं स्मरणीय योगदान रहा।
दीर्घकाल तक अनवरत श्रम करने से करणी राम जी टी. बी. की बीमारी से पीड़ित हो गए और अपने घर लौट आए। चौ. मोहन राम जी ने उनकी चिकित्सा के लिए पानी की तरह पैसा बहाया, पर रोग बढ़ता गया। सर्वप्रथम उन्होंने अपना इलाज सरकारी अस्पताल झुंझुनू के डॉ. बृजमोहन से करवाना आरंभ किया। वे फेफड़ों में हवा भर कर इलाज करते थे। हवा भरने की मशीन अस्पताल में नहीं थी उन्हीं के इलाज के लिए खरीदकर मंगवाई गई। पर बीमारी ठीक नहीं हुई। इसके बाद आयुर्वेदिक चिकित्सा चालू की गई। प्रसिद्ध वैद्य श्री सत्यदेव ने स्वर्णभस्म परपट्टी आदि से इलाज किया पर वे ठीक नहीं हो पाए। घरवालों को विश्वास हो गया था कि करणी राम जी थोड़े दिनों के मेहमान है।
परमात्मा भी जिससे बड़ा काम करवाता है उसे कठिन विपत्तियों में से गुजारता है। यह वस्तुतः भयंकर विपत्ति थी जब उनके प्राणों पर ही आ बनी थी। उन्हें ईश्वर पर पूर्ण भरोसा था इसलिए उन्होंने जीवन की आस नहीं छोड़ी। सभी दवाइयां छोड़कर उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से इलाज आरंभ कर दिया। अनाज खाना बिल्कुल त्याग दिया। महात्मा गांधी द्वारा रचित प्राकृतिक चिकित्सा से संबंधित पुस्तकें मंगवाकर पढ़ने लगे।
शेखावाटी का संत
अजाड़ी में मामा जी के खेत पर एक ऊंचे बालू के टीबे पर उन्होंने टापी बनवाई और वही एकांतवास में रहने लगे। 15 दिन में एक बार मामा जी की बैठक पर आते और वहां सभी घरवालों को शराब छोड़ने, कुप्रथाओं का परित्याग करने तथा आपस में शांति से रहने तथा सत्य पथ पर चलने का प्रवचन करते। गांव के लोग भी वहां काफी संख्या में इकट्ठे हो जाया करते थे।
वे चिकनी मिट्टी पर सोते और सोते समय शरीर पर चिकनी मिट्टी का लेप करते थे। वैध गंगाधर जी के खेत की काली मिट्टी काम में लेते थे। उन्होंने 8-10 बकरियां पाल रखी थी। बकरी का दूध, शुद्ध ताजी हवा, एकांतवास एवं संयम पूर्ण शांत जीवन चर्या इस रोग के निदान के लिए आवश्यक थी। हर आधे घंटे बाद वे बकरी के स्तन को मुंह में लेकर दूध पिया करते थे। हर दिन झोपड़ी के अंदर बिछी हुई मिट्टी बदल दिया करते थे। खाना न खाकर सिर्फ बकरी के दूध पर जीवन
अवलंबित था। यह विस्मय की बात थी कि मृत्यु के साथ जूझने का उनका तरीका पूरी तरह गांधीवादी था। उनकी झोपड़ी पर जिले के गणमान्य व्यक्तियों का मिलने के लिए तांता लगा रहता था, पर वे निर्धारित समय पर मिलते। गांधीजी के साबरमती आश्रम या विनोबा जी के पवनार आश्रम की झलक उनके रहवास में थी।
टी. बी. अस्पताल जयपुर में चिकित्सा
शुद्ध हवा, एकांतवास एवं निराहार समाधि भी उन्हें इस भयंकर रोग से मुक्त ना करा सके। चौ. मोहन राम जी ने लोगों से सलाह मशविरा किया क्योंकि उनके जीवन का महानतम साध्य करणी राम जी ही थे। वे उनके जीवन को स्वयं के जीवन से भी कहीं अधिक मूल्यवान एवं प्यारा मानते थे। लोगों ने कहा कि करणी राम जी का इलाज ऑपरेशन से कसौली अस्पताल में हो सकता है। इस इलाज के लिए खर्च का प्रशन था। मोहन राम जी इस इलाज पर पहले ही 40-50 हजार रुपए खर्च कर चुके थे। उनकी आर्थिक सामर्थ्य कसौली चिकित्सा कराने की नहीं रह गई थी। सरदार हरलाल सिंह जी से बातचीत हुई। उन्होंने कहा कि खर्चा सरकार से दिलवा देंगे। उस समय श्री हीरालाल शास्त्री राजस्थान के मुख्यमंत्री थे। सरदार जी अन्य कामों में व्यस्त होने के कारण शीघ्र जवाब नहीं दे सके और उधर करणी राम जी की हालत लगातार गिरती जा रही थी। इसलिए उन्हें जयपुर टी. बी. अस्पताल में भर्ती कराया गया। इस अस्पताल के इंचार्ज डॉक्टर सेन थे उन्होंने टी. बी. की चिकित्सा के लिए नए इलाज किए हुए स्टेपटोमाईसीन के इंजेक्शन से इलाज संभव बताया। यह दवा अभी परीक्षण स्टेज पर ही थी। एक इंजेक्शन की कीमत 30 रुपए थी।
इलाज चालू कर दिया गया पर पूर्ण स्वास्थ्य लाभ होगा इसमें संशय था। करणी राम जी कसौली जाना चाहते थे। करणी राम जी ने अपने मामा के बेटे भाई कन्हैया लाल जी को, जो उन दिनों महाराजा कॉलेज में एल.एल.बी. की पढ़ाई पढ़ते थे, सरदार हरलाल सिंह जी के पास भेजा ताकि वह कसौली भेजने का आर्थिक प्रबंध करें। कन्हैया लाल जी को सरदार जी ने कहा कि शास्त्री जी से बातचीत नहीं कर पाए हैं, जल्दी ही प्रबंध करेंगे। यह बात वापस लौट कर करणी राम जी को बताई तो उन्होंने कन्हैया लाल जी को शास्त्री जी से सीधे मिलने को कहा। पंडित
हीरालाल शास्त्री तत्कालीन मुख्यमंत्री अपने पैतृक घर चांदपोल में खेजड़ी के रास्ते में निवास करते थे और सुबह आम लोगों से मिलते थे। कन्हैया लाल जी शास्त्री जी के मकान पर गए। वहीं गोरीर के चौ. नेतराम सिंह जी मिल गए। उनका शास्त्री जी से बड़ा घनिष्ठ तालुक था। नेतराम सिंह जी राजस्थान के वर्तमान शिक्षा मंत्री कमला जी के पिता थे। नेतराम सिंह जी का करणी राम जी से भी बड़ा स्नेहा था अतः उन्होंने कन्हैया लाल जी को शास्त्री जी से मिला दिया। शास्त्री जी को करणी राम जी की बीमारी के पूरे हालत बताये तो शास्त्री जी ने जवाब दिया कि करणी राम जी को अच्छी तरह जानते हैं और इलाज की कमी की वजह से उन्हें मरने नहीं दिया जावेगा। वे स्वयं करणी राम जी व उनके चिकित्सक से अस्पताल में मिलेंगे।
दूसरे दिन शास्त्री जी चौ. नेतराम सिंह जी को साथ लेकर टी. बी. सेनेटोरियम पहुंचे और डॉक्टर सेन से मिले और करणी राम जी के वार्ड में गए। शास्त्री जी ने स्पष्ट कहा कि अच्छा इलाज करवाया जायेगा और किसी प्रकार का आर्थिक संकट नहीं आने दिया जाएगा। उन्होंने डॉक्टर सेन को भी करणी राम जी की अच्छी चिकित्सा करने को कहा और यह भी कहा कि यहां की दवाई से लाभ नहीं होगा तो अन्य अच्छी जगह भर्ती कराया जाएगा। उन्होंने डॉक्टर को समय-समय पर रिपोर्ट देने को भी कहा। मुख्यमंत्री शास्त्री जी की यह सदाशयता एवं महानता वस्तुतः बहुत बड़ी बात थी। इससे करणी राम जी का मनोबल बढ़ा और डॉक्टर सेन ने भी पूर्ण रुचि से इलाज आरंभ कर दिया। कुछ ही समय में करणी राम जी इस इलाज से ठीक हो गए। स्वयं डॉक्टर सेन को भी आश्चर्य हुआ कि करणी राम जी इतनी जल्दी कैसे ठीक हो गए। करणी राम जी के धैर्य, संयम एवं शांत स्वभाव ने भी इस उपचार के शीघ्र फल देने में मदद की।
टी. बी. सेनेटोरियम में उनकी देखभाल उनकी चाची गौरा देवी करती थी। अस्पताल का सारा स्टाफ उन्हें प्यार करता था। रोगमुक्त हो जाने के बाद सारे स्टाफ के साथ उनका ग्रुप फोटो खींचा गया।
लेखक की मुलाक़ात
टी. बी. से ठीक होने पर और अपनी चाची के आग्रह पर वे सीधे अपने गांव भोजासर आए। वहीं सर्वप्रथम मेरी (लेखक रामेश्वरसिंह) मुलाकात करणी राम जी से मेरे गांव में हुई। यह शायद माह मई 1950 की बात है। गांव के सैकड़ों लोग उनके सम्मान में इकट्ठे हुए थे। महिलाओं ने गीत गाकर
उनका स्वागत किया। अच्छे खासे प्रेम पूर्ण समारोह का आयोजन हुआ। करणी राम जी सफेद कमीज, धोती और गांधी टोपी पहने तख्त विराजमान थे। सात्विकता, सरलता, करुणा एवं प्रेम की स्फटिक छटा उनके व्यक्तित्व में बस रही थी। व्यक्तिगत भी महानता एवं गम्भीर्य जैसे मूर्त रूप होकर उनमें समा गए थे। छोटी सी मुलाकात में मुझ से पढ़ाई आदि की बातें पूछी और शायद उसी समय उन्होंने अपने मन में अपने मामा की बेटी बहन के लिए वर के रूप में मेरा चुनाव कर लिया था। क्योंकि इस मुलाकात के कुछ महीनों बाद ही उनकी इच्छा के मुताबिक मेरा (रामेश्वरसिंह) विवाह उनके मामा की बेटी पतासी देवी से संपन्न हो गया।
उस दिन निश्चित लग रहा था कि एक महापुरुष झुंझुनू जिले में सारे राजस्थान की सेवा करने के लिए उदित हो गया है। इसके बाद अजाड़ी होते हुए बाद में अपने कार्यक्षेत्र झुंझुनू में वापस पहुंच गए और पुन: वकालत के कार्य में लग गए। उनके साथ ही उनके मामा का बेटा भाई कन्हैया लाल जी एडवोकेट, जो बाद में चलकर जनता पार्टी के शासन में सांसद भी रहे, ने भी वकालत आरंभ कर दी। कुछ ही दिनों बाद करणी राम जी के साले के पुत्र श्री शिवनाथ सिंह कालांतर में जो एम.एल.ए. एवं एम.पी. भी रहे उनके साथ वकालत करने लगे। उन्हीं दिनों श्री भागीरथ मल स्वामी भी उनके साथ वकालत करने लगे। इस प्रकार करणी राम जी के साथ युवा वकीलों की टोली जुड़ गई। वकालत करना भी उन दिनों काश्तकारों के प्रति बड़ा उपकार था क्योंकि जागीरदारों एवं काश्तकारों के अनवरत संघर्ष खेतों से सीधे अदालतों में पहुंचते थे अतः वकालत के माध्यम से करणी राम जी किसान आंदोलन के प्रमुख स्तंभ हो गए। जनता जनार्दन की सेवा में पूर्ववत जुट गए। काश्तकारों में जागृति और चेतना की मशाल लेकर फिर सक्रिय हो गए। जिधर करणी राम जी जाते उनके पीछे सैकड़ों काश्तकारों के कदम मुड़ जाते। घर हो या कचहरी भीड़ उनके इर्द-गिर्द जुड़ी रहती थी। झुंझुनू जिले के राजनीतिक क्षितिज पर एक जाज्व्लयमान नक्षत्र अपनी आलौकिक आभा विकीर्ण करने लगा।
विद्यार्थी भवन झुंझुनू का योगदान
विद्यार्थी भवन झुंझुनू उन दिनों जिले के राजनैतिक, सामाजिक एवं
सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र बिंदु था। सरदार हरलाल सिंह जी झुंझुनू जिले के ही नहीं राजस्थान के माने हुए नेता एवं विद्यार्थी भवन के कर्णाधार थे। करणी राम जी विद्यार्थी भवन के क्रिया कलापों से शुरू से ही संबद्ध थे और सरदार जी के प्रमुख सलाहकार एवं प्रवक्ता थे। विद्यार्थी भवन में किसानों के बच्चे पढ़ते थे। करणी राम जी उन विद्यार्थियों पर निगरानी रख कर उन्हें ठीक रास्ते पर चलने हेतु प्रेरित करते थे। साथ ही उनके भावी जीवन की सफलता के लिए उनमें अच्छे गुणों का संचार भी करते थे।
विद्यार्थी भवन की स्थापना सन 1933 में जाट बोर्डिंग के नाम से एक किराए के नोहरे में हुई थी। उस समय वहां एक झोपड़ा मात्र था। प्रारंभ में श्री रामसिंह कंवरपुरा के जिम्मे इसका संचालन था। देहातों के छात्र विद्या अध्ययन के लिए इसी जगह रहते थे। प्रारंभ में 5-7 छात्र ही थे। राजनीतिक कार्यकर्ता भी आते-जाते रहते थे। रियासत में इस समय राजनैतिक गतिविधियों पर बढ़ा कड़ा प्रतिबंध था। राजनीति संबंध संगठन बनाने की इजाजत नहीं थी। इन सब बातों को देखते हुए इस राजनैतिक संस्था का श्री गणेश जाट बोर्डिंग के नाम से किया गया।
आगे चलकर इस संस्था को अपनी भूमि मिल गई तब इसे उस स्थान पर स्थानांतरित कर दिया गया। भूमि मिलने की बात का उल्लेख आवश्यक होने से किया जा रहा है। उस समय एफ.एम. यंग जयपुर में पुलिस इंस्पेक्टर जनरल था। यंग की सहानुभूति पूरी तौर पर ठिकाने वालों के साथ नहीं थी क्योंकि जागीरदार समय-समय पर रियासत का विरोध करते थे और अपनी स्वतंत्रत सत्ता जताते थे। यंग का मानना था कि कृषक आंदोलन की शक्ति इनको दबाने के लिए निरंतर आगे बढ़ती रहनी चाहिए। अनेक अवसरों पर यंग ने कृषकों की मदद की थी। सुनने में आता है कि देवरोड के श्री पन्ने सिंह के यहां यंग की कृपा से बंदूकों का ढेर लगा रहता था। सीकर के जाट महायज्ञ में यंग स्वयं निमंत्रण स्वीकार कर आया था।
सरदार हरलाल सिंह मि. यंग से मिले और बिसाऊ ठाकुर श्री बिशन सिंह से बोर्डिंग के लिए जमीन दिलाने को कहा। यंग उनको लेकर अजमेर में ठाकुर से
मिला। ठा. बिशन सिंह एक माह बाद झुंझुनू आए तो सरदार जी को जमीन नापने को फीता दिया जिसे सरदार जी ने जानबूझकर पैर रखकर तोड़ दिया। यंग भी साथ थे वे हंसने लगे।
इस पर जेबड़ी से जमीन नापी गई। जितनी दूर पींड़ी पहुंची जमीन नाप ली गई। ठाकुर सा. ने कोई एतराज नहीं किया और इस प्रकार जाट बोर्डिंग के लिए काफी जमीन झुंझुनू में मिल गई। कई कार्यकर्ता आर्थिक साधन जुटाने लगे। अब झोपड़ी की जगह खुड्डियों ने ले ली थी।
अब नियमित रूप से छात्रावास चलने लगा। छात्रों को अध्ययन के साथ साथ राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत होने का अवसर भी मिलने लगा। धीरे-धीरे झोपड़ों की जगह पक्के मकान बने। इसके लिए बाहर से भी चंदा किया गया। लाठी, तलवार, मुगदर आदि चलाने घुमाने की शिक्षा भी छात्रों को दी जाने लगी। इसके एक हिस्से में कार्यकर्ता निवास का निर्माण किया गया।
बीसवीं सदी के चौथे दशक के आसपास इसका नाम परिवर्तित कर विद्यार्थी भवन रखा गया। श्री करणी राम जो वकालत पास कर झुंझुनू आए तो उनके जिम्मे सरदार जी ने इस संस्था की देख रेख का काम सौंपा। वे निष्ठापूर्वक काम को मृत्युपर्यंत करते रहे। उनकी देखरेख में भवन निरंतर प्रगति करता रहा।
जैसा कि लिखा जा चुका है विद्यार्थी भवन जिले की राजनीति का केंद्र बिंदु था और सरदार हरलाल सिंह जी उसके नियंत्रक थे। झुंझुनू जिले की राजनीति में आज तक यह बात सत्य है कि जो नेता विद्यार्थी भवन पर नियंत्रण रखता है वहीं जिले की राजनीति चलाता है। चूंकि सरदार हरलाल सिंह जी से कुछ नेताओं का खासतौर से श्री घासीराम जी खारिया , श्री नेतराम सिंह जी गोरीर, श्री ताड़केश्वर शर्मा आदि का विरोध था अत: उनकी नजर विद्यार्थी भवन की ओर पड़ी। करणी राम जी उस समय टी. बी. की बीमारी से स्वस्थ होकर झुंझुनू लौटे ही थे। विरोधी नेताओं ने विद्यार्थी भवन पर कब्जा करने के लिए सन 1950 में झुंझुनू में किसान सम्मेलन का आयोजन किया। दोनों ही पक्षों में बड़ी जबरदस्त खींचतान थी। झुंझुनू जिले का किसान वर्ग दो भागों में स्पष्टत: विभाजित हो
चुका था। संघर्षपूर्ण स्थिति बन गई थी। लोग लाठी, बरछी, भाला आदि से लैस होकर झुंझुनू एकत्र हो गए। उस समय अगर श्री करणी राम जी बीच-बचाव नहीं करते तो पता नहीं कितना खून खराबा होता। दोनों ही पक्षों के नेताओं से श्री करणी राम जी ने बातचीत की और बीच का रास्ता निकालने में वे सफल हो गए। सरदार हरलाल सिंह जी तो विद्यार्थी भवन करणी राम जी को सौंपने के लिए पहले से ही मानस बना चुके थे। दूसरे पक्ष के नेताओं ने भी यह समझौता स्वीकार कर लिया बशर्ते विद्यार्थी भवन का प्रबंध करणी राम जी के हाथों में सौंप दिया जाए। करणी राम जी के निष्कपट आदर्श व्यक्तित्व की छाप जिले के सभी नेताओं पर थी। वास्तव में झुंझुनू जिले के वे अजात शत्रु थे। इस प्रकार करणी राम जी के हस्तक्षेप से तथा उनकी सूझबूझ से विद्यार्थी विद्यार्थी भवन के इतिहास में घटने वाली दुर्भाग्यपूर्ण घटना तदुपरांत सर्वसम्मति से विद्यार्थी भवन का प्रबंध करणी राम जी को सौंप दिया गया और उन्होंने सक्रिय रूप से शेखावाटी की राजनीति को सही दिशा देना आरंभ कर दिया। करणी राम जी उसके बाद से मरणोपरान्त तक विद्यार्थी भवन प्रबंध कमेटी के अध्यक्ष रहे।
संक्रांतिकाल का दायित्व
प्राणघातक बीमारी से मुक्त होकर करणी राम जी झुंझुनू लौट आए थे एवं जन सेवा के पुनीत काम में जी जान से जुड़ गए थे। वे कहा करते थे कि पवित्र कार्य के लिए ही परम पिता ने मुझे इस जानलेवा बीमारी से बचाया है। यह गरीबों की आशीष का ही शुभ फल है।
वकालत व राजनीति के साथ साथ अब वह पुनः विद्यार्थी भवन का काम भी देखते थे। उनकी रहनुमाई से भवन बराबर उन्नति कर रहा था। नेताओं का जमघट अधिक लगने लगा और छात्रों की संख्या भी सुप्रबंध के कारण बराबर बढ़ती गई।
देश की राजनीति के लिए यह महत्वपूर्ण का काल था। स्वतंत्रता रूपी अरुणोदय की लाल किरणों से राजनैतिक गगन लालिमामय होता जा रहा था। आशा का संचार लोगों के मन में हो रहा था। उधर आशंका भी बढ़ती जा रही थी कि क्या
अंग्रेज इस विशाल भू-भाग से सदा के लिए विदा हो जाएंगे या कोई छल-कपट का आश्रय लेंगे।
जयपुर राज्य में अन्य राज्यों की तरह प्रजामंडल प्रमुख संस्था के रूप में उभर कर आ चुकी थी। प्रजामंडल की स्थापना सन 1931 में हुई थी पर आगे चलकर सन 1936 में पंडित हीरालाल शास्त्री और जमना लाल बजाज ने इसे पूर्णगठित किया। सन 1938 में बजाज जी के अध्यक्षता में प्रजामंडल का अधिवेशन संपन्न हुआ। प्रारंभ में प्रजामंडल के संबंध जयपुर रियासत से मधुर थे पर आगे चल कर दो घटनाओं ने इन संबंधों में कटुता उत्पन्न कर दी।
सन 1939 में राज्य ने पब्लिक सोसायटी रेगुलेशन एक्ट जारी किया जिसके अनुसार कोई भी संस्था बिना राजकीय अनुमति के स्थापित नहीं हो सकती एवं कार्य नहीं कर सकती। एक्ट के अनुसार अगर किसी संस्था को स्वीकृति मिल भी गई और बाद में वह सुरक्षा और कानून के लिए खतरा साबित हुई तो ऐसी संस्था को बंद कर दिया जावेगा। प्रजामंडल को इस समय गैर कानूनी संस्था घोषित कर दिया गया।
राजस्थान कांग्रेस का प्रादुर्भाव
दूसरी घटना थी--जमना लाल जी के जयपुर प्रवेश पर तत्कालीन रियासती सरकार द्वारा रोक लगा। वे शेखावटी के अकाल ग्रस्त किसानों की मदद हेतु आ रहे थे। वे गांधी जी से मिले और उनकी सलाह अनुसार राज्य में सत्याग्रहपूर्वक प्रविष्ट हुए और गिरफ्तार हुए। इस पर सत्याग्रह फिर शुरू किया गया जो शीघ्र चारों ओर फैल गया। इस पर सरकार ने अगस्त 1939 में श्री बजाज को छोड़ दिया और रेगुलेशन एक्ट को रद्द कर दिया।
प्रजामंडल की स्थापना के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी इनकी शाखाएं स्थापित कर दी गई। ये शाखाएं जिलों के अनुसार नहीं थी। 20 वीं सदी के चौथे दशक के कुछ वर्षों की अवधि में कृषक समुदाय में काफी तनाव था क्योंकि बेदखली की तलवार उनके सिर पर लटकती थी और उनसे अनेक लाग-बाग ली जाती थी।
राजपूताने की रियासतों के विलीन करण और राजस्थान राज्य के जन्म के कारण राजनैतिक संघर्ष की दिशा में परिवर्तन हुआ साथ ही राजस्थान कांग्रेस की स्थापना हुई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के एक वर्ष पूर्व प्रजामंडलों को राजपूताना प्रांतीय सभाओं में विलीन कर दिया गया जो ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांग्रेस की प्रांतीय इकाई के रूप में काम करती थी। प्रजामंडलों को कांग्रेस में मिलाने की बात अखिल भारतीय कांग्रेस के मुंबई अधिवेशन में अप्रैल 1948 को तय हुई थी। 26 जून 1948 को राजपूताना प्रांतीय सभा राजपूताना प्रदेश कमेटी के रूप में परिवर्तित हो गई।
प्रांतीय कांग्रेस कमेटी राज्य में कांग्रेस की सबसे बड़ी इकाई थी जो नीति निर्धारण करती थी। पर सर्वशक्ति संपन्न कमेटी थी। राज्यों के विलीनीकरण का महत्वपूर्ण प्रशन कमेटी के सामने था।
सन 1947 से पूर्व शाहपुरा को छोड़कर किसी भी स्टेट ने अपने प्रशासन में बड़े सुधार नहीं किए तथा न ही प्रतिनिधि सरकार की स्थापना की। कुछ स्थानों पर जनप्रिय प्रतिनिधियों को शासन में सहयोगी बनाया गया पर उनको स्वतंत्र रूप से कुछ करने नहीं दिया गया। सन 1947 के अंत में 6 राज्यों में प्रजामंडलो के प्रतिनिधि शासन में सम्मिलित किए गए थे। यह राज्य थे-- जयपुर, उदयपुर, डूंगरपुर (इनमें दो प्रतिनिधि थे), शाहपुरा, झालावाड, किशनगढ़ (इनमें एक जनप्रिय प्रतिनिधि था)।
राजपूताने के राज्यों का विलीनीकरण 15 मई 1949 को संपन्न हुआ। विलीनीकरण का यह काम राष्ट्रीय सरकार ने सरदार पटेल की देखरेख में पूरा किया। विलीनीकरण का कार्य 5 स्टेजों में हुआ। सबसे पहले मत्स्य संघ बना जिसमें अलवर, भरतपुर, धौलपुर और करौली के राज्य सम्मिलित हुए। इसके बाद संयुक्त राजस्थान का निर्माण हुआ। इसमें बांसवाड़ा, बूंदी, डूंगरपुर, झालावाड, किशनगढ़, कोटा, प्रतापगढ़ शाहपुरा और टोंक शामिल हुए। आगे चलकर उदयपुर भी इसमें शामिल हो गया। अब बीकानेर, जयपुर, जैसलमेर, और जोधपुर शेष रहे थे जो भी मिल गए। 15 मई 1949 को मत्स्य संघ को इस में
मिलाकर बृहतर राजस्थान बना। सन 1956 में अजमेर मेरवाड़ा भी इसमें मिला दिया गया।
जब राजस्थान कांग्रेस बनी तो उसकी प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के साथ-साथ जिला कांग्रेस इकाइयों का निर्माण भी हुआ। इस प्रकार आपसी संघर्ष और तनाव के नए क्षेत्र पैदा हो गए। पहिले प्रजामंडल की शाखाओं का गठन जिला स्तर पर नहीं था पर अब जिले में डी.सी.सी. बनी।
इस समय ग्रामीण और शहरी नेतृत्व में तनाव बढ़ा। जयपुर में किसानों का नेतृत्व सरदार हरलाल सिंह जी के हाथों में था जबकी नगरीय दल का नेतृत्व हीरालाल शास्त्री जी कर रहे थे। कुछ नेता टीकाराम पालीवाल, रामकरण जोशी, बंसीलाल लुहाड़िया, शास्त्री जी के विरोधी थे तथा सरदार जी से तालमेल रखते थे। जयपुर में आजाद मोर्चा बन चुका था। प्रजामंडल ने 1942 में "अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन" में भाग लेने की विरुद्ध निर्णय लिया। आजाद मोर्चा सन 1945 में नेहरू जी की सलाह पर भंग कर दिया गया।
रियासतों के विलीनीकरण के बाद कांग्रेस में आंतरिक संघर्ष तेज हो गया। कांग्रेस हाई कमान ने राज्य में जनप्रिय सरकार बनाने का निर्णय किया। समस्या मुख्यमंत्री की थी उस समय श्री जय नारायण व्यास सर्वमान्य नेता थे। इधर पंडित हीरालाल शास्त्री भी उम्मीदवार थे। पर उन पर आरोप था कि स्वतंत्रता पूर्व के काल में उन्होंने जयपुर दरबार से गुप्त समझौता कर लिया था। इस कारण कुछ साथी उनके विरुद्ध थे।
फरवरी 1949 में शास्त्री जी को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया गया । 9 जून 1949 को सरदार हरलाल सिंह जी ने शास्त्री मंत्रिमंडल के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव रखा। इसके साथ साथ पी.सी.सी. के तत्कालीन अध्यक्ष श्री भट्ट के खिलाफ भी अविश्वास प्रस्ताव रखा गया जो पारित हुआ। सन 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद शास्त्री मंत्रिमंडल ने त्यागपत्र दे दिया। अप्रैल 1951 में व्यास मंत्री मंडल का निर्माण हुआ जो 1952 के चुनाव तक बना रहा।
अक्टूबर 1949 में पी.सी.सी. के कार्यकारिणी ने निश्चय किया कि
तदर्थ कांग्रेस कमेटियों का निर्माण जिला स्तर पर किया जाए। इस कार्य के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पांच प्रमुख नेताओं को यह काम सौंपा गया कि यह प्रशासनिक 5 डिवीजनों में उन कांग्रेस कर्मियों के नामों की सूची पी.सी.सी. को दे जिनकी नई डीसीसी में विभिन्न पदों पर नियुक्त किया जावे।
जयपुर क्षेत्र का भार सरदार हरलाल सिंह को दिया गया। उनकी सिफारिश अनुसार जिला कांग्रेस कमेटी का निर्माण किया गया। इसी क्रम में श्री करणी राम जी सन 1951-52 में झुंझुनू जिला कमेटी के अध्यक्ष पद पर आसीन हुए और उन्होंने संस्था को मजबूत बनाने के अथक प्रयत्न किए। उस समय की नीति के अनुसार वे ही व्यक्ति जिला कांग्रेस कमेटी में लिए जाते थे जिन्होंने प्रजामंडल के आंदोलन के दौरान सक्रिय भाग लिया। यह पद्धति दूसरी कांग्रेस इकाइयों के निर्माण के समय काम में ली गई।
श्री करणी राम जी की अध्यक्षता में जिला कांग्रेस का व्यापक सहयोग मिला। दूसरी इकाइयों के गठन का काम द्रुत गति से आगे बढ़ाया गया। तहसील कमेटियों का निर्माण किया गया। कांग्रेस और सिर्फ नगरीय संस्था ही नहीं रही थी वरन अब उसे एक विस्तृत ग्राम्य आधार मिल गया था। वह धीरे धीरे मजबूत होती जा रही थी।
कांग्रेस की नई समितियां बनी जिन्होंने संविधान संशोधन और कृषि नीति संशोधन के प्रश्नों का अध्ययन किया। इसके साथ नई सामाजिक शक्तियों को कांग्रेस में शामिल किया गया। इस प्रकार इस संस्था को सही अर्थों में जनसंस्था बनाने का प्रयत्न किया गया।