Tara Chand Baloda

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Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Tara Chand Baloda of Jharoda

Tara Chand Baloda (ताराचंद झारोड़ा) (1911- ?) was a Freedom fighter and hero of Shekhawati farmers movement. He was born in year 1911 at village Jharoda in Buhana tahsil , district Jhunjhunu, Rajasthan.

ताराचंद झारोड़ा का जीवन परिचय

ताराचंद झारोड़ा का जन्म 1911 में झुंझुनू जिले के गाँव झारोड़ा में हुआ. इनकी माँ का नाम ख्यात कौर एवं पिता का नाम मामराज था. मामराज आर्य समाजी थे जिसका प्रभाव ताराचंद झारोड़ा पर भी पड़ा. प्रारंभिक शिक्षा गाँव के पंडित से ग्रहण की. स्कूल शिक्षा ग्रहण नहीं कर सके. वे निडरता में सबसे आगे थे. झुंझुनू जिले में ताराचंद झारोड़ा ने सबसे अधिक जेल काटी.

सन 1925 में पुष्कर सम्मलेन के पश्चात् शेखावाटी में दूसरी पंक्ति के जो नेता उभर कर आये, उनमें आपका प्रमुख नाम हैं [1]

जाट जन सेवक

ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है ....ताराचंद्र - [पृ.413]: मेरा कुटुंब जाट जाति के अंतर्गत बलऊदा गोत्र से पुकारा जाता है। लोकोक्ति है कि बादशाही जमाने में किन्ही कारणों से दिल्ली के इलाके को छोड़कर सांभर झील की तरफ आकर आबाद हो गए। यह कहां तक सही है सो तो हमारे वंश के आमालों से ही पता लग सकता है। कोई लिखित संग्रह हमारे पास नहीं है। न कोई तलाश ही किया है। हां सांभर से हमारे बुजुर्ग डाबड़ी और खुड़िया (जो शेखावाटी में छोटे-छोटे गांव हैं) होते हुए यहां आकर झाडोदा गांव झाड़ू जाट ने आबाद किया जो अब तक इसी नाम से पुकारा जाता है।

बचपन में मैं बड़ा नटखट और लड़ाकू था। हमेशा किसी


[पृ.414]: से लड़ाई दंगा करना ही मेरा काम था। मेरा दादा सूरतराम और पिता मामराजराम सदा से किसान का काम किया करते थे। यह बहुत ही सीधे-साधे और साफ मनोवृति के थे। किसी तरह का कुचलन या नशा आदि इन से कोसों दूर थे। इन्हीं के आचरणों की छाप मेरे ऊपर भी लगी। मेरी माता जी की भी लोग अब तक सचित्र स्त्रियों में मिसाल देते हैं। वह मुझे 7 साल का छोड़कर संवत 1974 की कार्तिक की प्रसिद्ध बीमारी में स्वर्ग सिधार गई। मैं पशु चराने का काम करने लग गया। इस जमाने में शिक्षा को प्रधान मानने लग गए परंतु उस समय तो जाट का पड़ना पाप माना जाता था। कहते थे कि – “पढोड़ा जाट और कुपढ़ बनिया कुनबे को मारे” ।

संवत 1982 में पुष्कर जाट महासभा का अधिवेशन हुआ। हमारे से भी लोग गए। वहां पर कुछ असर हुआ। वही स्कूल खोलना तय कर आए। कोहड़वास जो हमारे से 2 मील पूर्व है वहां स्कूल कायम हो गया। इससे पहले हमारे गांव में ही एक ब्राहमण के पास में कुछ अक्षर ज्ञान किया करता था। उसी समय हमारे गांव में कई एक आर्य भजनोपदेशक भी आ चुके थे। वह उपदेश मेरे हृदय पर भावुकता को लेते हुए अंकित हो चुके थे। मैं कोहड़वास स्कूल में जाने लगा। वहां मास्टर हेमराज सिंह जी प्रधान आर्य समाज के विचारों के जाट थे। उन्होंने मेरी भावुकता को कुछ कुछ ज्ञान में परिणित कर दिया। मेरे विचार कुछ कुछ दृढ़ हो गए। मैं पांचवी क्लास में पिलानी हाई स्कूल में भर्ती हो गया।

वहां जाट बोर्डिंग हाउस में रहता था। वहां मैंने यज्ञोपवीत धारण किया। मैंने वहां छठी क्लास पास की फेलो कुंवर शिवनारायण सिंह भी मेरे साथ ही वहां पढ़ते थे जो अब एक अच्छे वकील हैं।


[पृ.415]: मैंने पढ़ाई छोड़ दी। साथियों ने काफी समझाया मगर यह ज्ञात नहीं था कि पढ़ना कितना अच्छा है।

मेरी शादी बचपन में 13 साल की अवस्था में हो चुकी थी परंतु मेरी धर्मपत्नी मेरे स्कूल छोड़ने तक अपने पिता के घर रही थी। मैं स्कूल छोड़ कर घर आ गया था। मेरे कच्चे विचार कुछ कुछ पक रहे थे। घर पर मेरे भाई साहब के बाध्य करने पर एक बार ठिकाना खेतड़ी में थानादार होने गया। मंजूर भी हो गया परंतु घर आने पर पिताजी ने इनकार कर दिया। मेरा पिंड छूट गया। मुझे कुश्ती की चाट लगी। गांव में कई साथी कुश्ती लड़ते थे जिनमें से मुख्य पहलवान कुर्ड़ाराम हैं जो अब भी मेरे दृढ़ साथी हैं। उनका साथ भाई और भोजाई को अखरा। भाई तो खुराक देने को रजामंद हो गए परंतु भोजाई बिल्कुल खिलाफ होगई। इधर आर्यसमाजी होने के नाते देवताऊ नुक्ते (खर्च) नाच और गंदे गाने का सख्त विरोध करना शुरू कर दिया। रोज किसी से इन बातों पर लड़ना झगड़ना देवताओं की बुराई करना घर वालों को अखरने लग गया। इसी बीच में हमारे गांव के चौधरियों ने मेरे से अनाप-शनाप झूठा मलवा लिखवाना चाहा तो मैं इंकार हो गया और ठिकाने के कईघ घृणित कारनामे को देख कर मुझे उनसे पूरी घृणा हो गई।

विचारों का विरोध होने के कारण घरवालों ने मुझे संवत 1990 के जेठ में अलग कर दिया। साथ ही यह भी सोचा यह हैरान होकर अपने विचार बदल दे तो शायद फिर शामिल कर लिया जाए। मैं किसान के काम का अभी तक क ख भी नहीं सीख पाया था। साथ ही धर्मपत्नी को घर के कामकाज का कुछ भी ज्ञान नहीं था। एक बार


[पृ.416]: दोनों निराश हो गए, परंतु अपने पैरों पर खड़े हो गए घर वालों के पास जाकर कभी अपनी कमजोरी नहीं दिखलाई। विचारधारा तो सपत्नीक भी एक नहीं थी परंतु यह गुल तो आगे चलकर ही खिला था।

बस इसी साल में किसान आंदोलन की लहर लोगों के दिलों में उठ चुकी थी। संवत 1991 के बरसात के दिनों हमारे गांव में ठाकुर भोला सिंहहुकुम सिंह जी आए, किसान आंदोलन के लिए समझाया। घर घर वह गांव गांव में मीटिंग होने लगी। कोहाड़वास जैतपुर आदि आदि गांवों से कई सज्जन हमारे गांव में आए। संगठन किया, यहां छठी पास मैं ही था मुझे ही सब ने पढ़ा लिखा मानकर अगवा बनाया। मुझे किसान आंदोलन का कोई ज्ञान नहीं था। न आंदोलन कर्ताओं ने ही कोई सही रास्ता तय किया था। परंतु भावुकता की लहर बिजली की तरह दौड़ चुकी थी। लगान बंदी का प्रचार गांव में जोरों से हुआ। मेरे ऊपर मेरे ही कुटुंबी भाई भैरूराम ने, जो अब तक कौमी गद्दार बना हुआ है, अपने साथियों ठिकाना मंडावा की मदद से कई मुकदमे चलाए। काफी भय दिखलाए, घर वाले संबंधी कुटुंबी और गांव वाले घबरा गए। परंतु मैं अपने पैरों पर खड़ा ही रहा। इसी अरसे में गांव वालों ने भी कई बार कई विश्वास मुझे दिलाएं मगर वक्त आने पर गिर गए, मैं उसे धोखा नहीं कमजोरी ही मानता रहा और अब भी ऐसा ही मानता हूं। आखिर किसान मांग (बंदोबस्त) पूरी हुई। इसी सिलसिले में कई राजनीतिक चालें भी चली गई।

साथियों के सहयोग के कारण भावुकता ज्ञान में कुछ कुछ बदल गई। संवत 1996 के सर्दी के मौसम में मेरे ऊपर 'डिफेंस ऑफ इंडिया' लगाकर अचानक गिरफ्तार कर लिया। जिसमें


[पृ.417] हमारे भाई भैरु आदि ने गवाही देकर साड़े नौ साल (कंकेट साढे 3 साल) की सजा करवा दी। मैं और मेरे साथी संबंधी घबराए। घर पर एक स्त्री व 5 साल का एक बच्चा परंतु मुझे उस अखरती गुलामी व स्वतंत्रता का वजन का कुछ ज्ञान हो चुका था। साथ ही भावुकता हथियार मेरे पास था। मैं अड़ता रहा, घर को भूलसा गया। जेल का स्वागत किया, साथियों को भी भाय था कि कभी यातनाओं के भय से गिर न जाए। परंतु मैंने तो अभी तक पीछे कदम हटाना सीखा ही नहीं था। जेल अधिकारियों को भी विश्वास था कि अपने क़दमों से इसे गिराना बाएं हाथ का खेल है। परंतु उनके सब खेल फेल गए। सबसे बड़ा हथियार 18 सेर पक्का (जयपुरी) खड़े-2 पिसवाना था सो भी काम में ला चुके मगर हैरान ही रहे।

साथी घासी राम, नेतराम सिंह, पंडित ताड़केश्वर जी घबराए मगर मेरी तरफ से उनको यही यकीन दिया कि मैं इन चीजों को खुशी खुशी बर्दाश्त कर सकता हूं। आप कोई फिक्र न करें। खैर सब यातनाएं वहां रहकर ही जान सकते हैं। मगर उन अधिकारियों को आखिरी वक्त मुंह की खानी पड़ी ठीक रास्ते पर आना पड़ा। मैं समझता हूं कि इस चीज को ठीक खोलकर साथी पंडित ताड़केश्वर जी लिख सकते हैं और शायद लिखें भी।

फिर घर: संवत 1999 के भादवा में प्रजामंडल जो पीछे से किसान पंचायत स्थगित कर के शामिल संस्था कायम हुई और राज्य अधिकारियों में समझौता हुआ उसी के अनुसार मैं पौने तीन साल सख्त जेल काट कर घर आया। मुझे ऐसा लगा कि मैं नई दुनिया में आ गया हूं। यहां आकर चारों और देखा मेरे कर्तव्य को आंकना शुरू किया तो सब कहते हैं कि काम अच्छा किया देश के लिए जेल गए मगर आगे को


[पृ.418]: ऐसा मत करो। आपके घर की हालत बिगड़ जाएगी। मेरे कुटुंबीय संबंधी सब विरोध में खड़े हो गए। धर्म पत्नी ने पीछे से घर का काम अच्छी तरह सुचारु रुप से सब कठिनाइयों का सामना करते हुए दृढ़ता से चलाया, परंतु आते ही सब दुख सामने रखकर यह साफ कह दिया कि यह आपका घर है मैं इसे नहीं संभाल सकती। मैंने इन्हें सच्चरित्र और बहादुर स्त्रियों में बताते हुए कहा कि मैं आपके बिना लंगड़ा हूं चल नहीं सकता। रास्ता छुड़वाना मेरी मौत और आपके लिए बुरा है। परंतु इन पर बहुत कम असर हुआ, साथ ही यह एक विशेष गुण है कि मैं घर का ख्याल रखता हूं अपने रास्ते पर चलता हूं तो उसमें शूल होकर नहीं गिरती है। इसी प्रकार अपने साथी वह संबंधियों को भी समझाया। मैंने अपने सच्चे वह दृढ़ साथी पहलवान कुर्डाराम से भी अपना कष्ट कहा। इनके विचार भी मेरे अनुकूल ही हैं। हर काम में मेरे से आगे बढ़कर करते हैं। शारीरिक ताकत में भरपूर हैं, हिम्मत पहाड़ के समान है, सच्चे वह सच्चरित्र हैं, क्रांतिकारी विचार इनके सदा से हैं। कुटुंब में में मेरे यह चाचा है। बिना पढ़े लिखे हैं, मगर समझ व ज्ञान बहुत अच्छा है। इन्होंने भी मुझे हिम्मत बंधाई और आगे बढ़ने की राय दी है। मैंने कई बार अकेले बैठकर भी इस पर विचार किया कि मैं जन सेवा में कैसे और कितना निभा सकता हूं। क्या घर व स्त्री बच्चों को छोड़ दूं? नहीं घर का ज्यादा भार किसी नौकर पर रखूं? धर्मपत्नी इनकार। दम घुटने लगा, एक तरफ जनसेवा दूसरी और घर का भार है निर्वाह खर्च ले लूं? आत्मा नहीं चाहती फिर देखेंगे।

आखिर:- घर के काम को संभालते हुए “जनसेवा”


[पृ.419]: को मुख्य मान लिया, वक्त आने पर घर के काम को गोण मान कर छोड़ देना परंतु अपने मुख्य मार्ग से अडिग रहना ही अच्छा है। दोनों को कई तरह से तराजू में तोला तो जनसेवा भारी उतरती है।

रास्ता तय कर लिया जेल के आने पर प्रजामंडल को और से जो सेवा आई उसे जी जान से रात व दिन धूप व सर्दी की कोई परवाह न करते हुए साथियों सहित पूरी करने की कोशिश करते रहे। अभी तक प्रजामंडल की ओर से हमारी ग्राम समूह कमेटी झाडोदा की कोई शिकायत नहीं मालूम होती है। इस अरसे में जो जो सेवा की है सो तो उपरोक्त जीवन से ही आंक सकते हैं।

मास्टर चंद्रभानसिंह गिरफ्तार :बधाला की ढाणी में विशाल आमसभा

मास्टर चंद्रभानसिंह गिरफ्तार - ठिकानेदार और रावराजा ने जाट प्रजापति महायज्ञ सीकर सन 1934 के नाम पर जो एकता देखी, इससे वे अपमानित महसूस करने लगे और प्रतिशोध की आग में जलने लगे. जागीरदार किसान के नाम से ही चिढ़ने लगे. एक दिन किसान पंचायत के मंत्री देवी सिंह बोचल्या और उपमंत्री गोरु सिंह को गिरफ्तार कर कारिंदों ने अपमानित किया. लेकिन दोनों ने धैर्य का परिचय दिया. मास्टर चंद्रभान उन दिनों सीकर के निकट स्थित गाँव पलथाना में पढ़ा रहे थे. स्कूल के नाम से ठिकानेदारों को चिड़ होती थी. यह स्कूल हरीसिंह बुरड़क जन सहयोग से चला रहे थे. बिना अनुमति के स्कूल चलाने का अभियोग लगाकर रावराजा की पुलिस और कर्मचारी हथियारबंद होकर पलथाना गाँव में जा धमके. मास्टर चंद्रभान को विद्रोह भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया और हथकड़ी लगाकर ले गये. [3]

किसान नेता घरों में पहुँच कर शांति से साँस भी नहीं ले पाए थे कि सीकर खबर मिली कि मास्टर चंद्रभान सिंह को 24 घंटे के भीतर सीकर इलाका छोड़ने का आदेश दिया है और जब वह इस अवधि में नहीं गए तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. ठिकाने वाले यज्ञ में भाग लेने वाले लोगों को भांति-भांति से तंग करने लगे. मास्टर चंद्रभान सिंह यज्ञ कमेटी के सेक्रेटरी थे और पलथाना में अध्यापक थे. सीकर ठिकाने के किसानों के लिए यह चुनौती थी. मास्टर चंद्रभानसिंह को 10 फ़रवरी 1934 को गिरफ्तार करने के बाद उन पर 177 जे.पी.सी. के अधीन मुक़दमा शुरू कर दिया था. [4]

यह चर्चा जोरों से फ़ैल गयी की मास्टर चन्द्रभान को जयपुर दरबार के इशारे पर गिरफ्तार किया गया है. तत्पश्चात ठिकानेदारों ने किसानों को बेदखल करने, नई लाग-बाग़ लगाने एवं बढ़ा हुआ लगान लेने का अभियान छेड़ा. (राजेन्द्र कसवा: p. 122-23)

पीड़ित किसानों ने बधाला की ढाणी में विशाल आमसभा आयोजित की, जिसमें हजारों व्यक्ति सम्मिलित हुए. इनमें चौधरी घासीराम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा, ख्यालीराम भामरवासी, नेतराम सिंह, ताराचंद झारोड़ा, इन्द्राजसिंह घरडाना, हरीसिंह पलथाना, पन्ने सिंह बाटड, लादूराम बिजारनिया, व्यंगटेश पारिक, रूड़ा राम पालडी सहित शेखावाटी के सभी जाने-माने कार्यकर्ता आये. मंच पर बिजोलिया किसान नेता विजय सिंह पथिक, ठाकुर देशराज, चौधरी रतन सिंह, सरदार हरलाल सिंह आदि थे. छोटी सी ढाणी में पूरा शेखावाटी अंचल समा गया. सभी वक्ताओं ने सीकर रावराजा और छोटे ठिकानेदारों द्वारा फैलाये जा रहे आतंक की आलोचना की. एक प्रस्ताव पारित किया गया कि दो सौ किसान जत्थे में जयपुर पैदल यात्रा करेंगे और जयपुर दरबार को ज्ञापन पेश करेंगे. तदानुसार जयपुर कौंसिल के प्रेसिडेंट सर जॉन बीचम को किसानों ने ज्ञापन पेश किया. (राजेन्द्र कसवा: p. 123)

ताराचंद झरोड़ा को सजा

18 जनवरी 1939 को जयपुर सरकार ने एक क़ानून बनाया जिसके अनुसार सरकार की अनुमति के बिना कोई संस्था मान्यता प्राप्त नहीं कर सकती. सरकार ने ऐसे क़ानून और ऑर्डिनेंस बना दिए जिनके द्वारा किसी भी नागरिक को गिरफ्तार किया जा सकता था. अख़बारों में पर्चे छपाने तथा सार्वजनिक सभा और जलसों पर प्रतिबन्ध लगा दिया. ऐसे मनमाने आदेशों के विरुद्ध झुंझुनू जिले में 3 फरवरी 1939 को व्यापक आन्दोलन शुरू हो गए. [5]

जयपुर राज्य की किसान विरोधी नीति के कारण पूरे राज्य में 1 मार्च 1939 को किसान दिवस मानाने का निर्णय प्रजामंडल ने लिया. झुंझुनू में भी किसान दिवस मनाने की जोरों से तैयारी होने लगी. इस दिन शेखावाटी पंचायत के उप प्रधान सरदार हरलाल सिंह द्वारा झुंझुनू में सत्याग्रह किये जाने की घोषणा की गयी और इसकी सूचना जयपुर सरकार को भी दी गयी. पुलिस और ठिकानों में हलचल मच गयी. पुलिस ने इस दिन भारी प्रबंध किया. झुंझुनू के चारों और 2 मील तक पुलिस गस्त लगा दी. नवलगढ़ ठाकुर मदन सिंह के कामदार हेम सिंह अपने घुड़सवारों के साथ गश्त लगा रहे थे. जयपुर से भी बड़ी संख्या में पुलिस व नागाओं को झुंझनु भेजा गया. (डॉ पेमा राम, p. 171)

जयपुर राज्य की किसान विरोधी नीति के कारण पूरे राज्य में 1 मार्च 1939 को किसान दिवस मानाने का निर्णय प्रजामंडल ने लिया. झुंझुनू में भी किसान दिवस मनाने की जोरों से तैयारी होने लगी. इस दिन शेखावाटी पंचायत के उप प्रधान सरदार हरलाल सिंह द्वारा झुंझुनू में सत्याग्रह किये जाने की घोषणा की गयी और इसकी सूचना जयपुर सरकार को भी दी गयी. पुलिस और ठिकानों में हलचल मच गयी. पुलिस ने इस दिन भारी प्रबंध किया. झुंझुनू के चारों और 2 मील तक पुलिस गस्त लगा दी. नवलगढ़ ठाकुर मदन सिंह के कामदार हेम सिंह अपने घुड़सवारों के साथ गश्त लगा रहे थे. जयपुर से भी बड़ी संख्या में पुलिस व नागाओं को झुंझनु भेजा गया. (डॉ पेमा राम, p. 171)

19 मार्च 1939 को गांधीजी के आह्वान पर सत्याग्रह को वापस ले लिया. डेढ़ माह से अधिक चलनेवाले इस जन आन्दोलन में गाँवों के सभी घरों के किसानों ने भाग लिया. रणनीति ऐसी बनाई थी कि चौधरी घासी राम जैसे संगठनकर्ता भूमिगत रहें और आम जन का गाँवों में होंसला बढ़ाते रहें. गिरफ्तारियों का सिलसिला निरंतर चलता रहा. जयपुर सरकार तथा स्थानीय जागीरदार किसी भी तरीके से चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और ताराचंद झारोड़ा को गिरफ्तार करना चाहती थे. [6]

आन्दोलन के पश्चात् किसान नेता या तो जेल में थे या भूमिगत थे. घासी राम इस बात से खुश नहीं थे कि प्रजामंडल किसानों को लाभ नहीं पहुंचा सका था. सन 1939 के अंत तक सभी गिरफ्तार नेता रिहा कर दिए गए थे. लेकिन जयपुर रियासत में अब भी डिफेन्स ऑफ़ इण्डिया एक्ट लागू था. द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो चूका था. अंग्रेज सरकार का ध्यान मात्र युद्ध जीतने पर था. नागरिक अधिकारों कि पूर्ण अवहेलना शुरू हो गयी. ठिकानेदारों का शोषण बढ़ गया. वे किसानों के खिलाफ झूठे मुकदमें और झूठे गवाह तैयार कर रहे थे. घासी राम अब भी भूमिगत बने हुए थे. [7]

गैर जमानती वारंट जारी- 6 जनवरी 1940 को जयपुर सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध की आड़ में शांति और व्यवस्था के नाम पर 'डिफेन्स ऑफ़ इंडिया एक्ट' के अंतर्गत शेखावाटी जाट किसान पंचायत के प्रमुख कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया. ताराचंद झारोड़ा को जेल भेजा गया जहाँ इनको अनेक यातनाएं दी. इनके अलावा चौधरी इन्द्राजचौधरी लादू राम रायपुर को भी गिरफ्तार कर सजाएँ दी. पंडित ताड़केश्वर शर्मा, नेत राम सिंह तथा चौधरी घासी राम के खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिए. (डॉ पेमाराम,p.180)

ताराचंद झारोड़ा छुप कर नहीं रहना चाहते थे. उन्हें 6 जनवरी 1940 को ही गिरफ्तार कर लिया गया. झुंझुनू में मुक़दमा चला और विभिन्न धाराओं के अंतर्गत तीन मुकदमों में कुल साढ़े नौ वर्ष की सजा 7 फरवरी 1940 को सुनाई गयी. [8] ताराचंद झरोड़ा को 7 फरवरी 1940 को साढ़े नौ वर्ष की सजा सुनाकर जयपुर जेल भेज दिया. चौधरी घासी राम फरार थे. क्रुद्ध पुलिस ने उनके घर का सामान कुर्क कर दिया. अंत में चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और नेतराम सिंह ने प्रजामंडल के अधिवेशन से पूर्व ही कोर्ट में उपस्थित हो गिरफ़्तारी दे दी. 15 नवम्बर 1940 को इन तीनों को सजा सुनाई गयी. प्रत्येक को 2 वर्ष 3 माह की कठोर कारावास की सजा सुनाई तथा सजा भुगतने जयपुर सेन्ट्रल जेल भेज दिया गया. यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सजा काट रहे किसान नेताओं को राजनैतिक कैदी नहीं समझा गया बल्कि इनके साथ जयरामपेशा अपराधियों की भांति व्यवहार किया गया. घासी राम से चक्की पिसवाई जाती. गुस्से में आकर एक दिन उन्होंने चक्की का पाट ही तोड़ दिया. तब उन्हें छः माह के लिए काल कोठरी में डाल दिया. (राजेन्द्र कसवा: p. 178-79)

15 जून 1946 को झुंझुनू में किसान कार्यकर्ताओं की एक बैठक चौधरी घासी राम ने बुलाई. शेखावाटी के प्रमुख कार्यकर्ताओं ने इसमें भाग लिया. अध्यक्षता विद्याधर कुलहरी ने की. इसमें यह उभर कर आया कि भविष्य में समाजवादी विचारधारा को अपनाया जाये. जिन व्यक्तियों ने किसान सभा का अनुमादन किया उनमें आप भी सम्मिलित थे. (राजेन्द्र कसवा, p. 201-03).

जेल से रिहा

8 अगस्त 1942 को गांधीजी के आह्वान पर देशव्यापी 'भारत छोडो आन्दोलन' प्रारंभ हुआ. लेकिन राजस्थान में प्रजामंडल इस आन्दोलन से दूर रही. हीरा लाल शास्त्री ने आन्दोलन न करने का आश्वासन दे दिया था. साथ ही किसानों को खुश करने के लिए मिर्जा इस्माईल को राजी कर लिया कि जेल में बंद किसानों को छोड़ दिया जाये. समझौते के अनुसार चौधरी घासी राम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा और ताराचंद झारोड़ा को 15 अगस्त 1942 को जेल से रिहा कर दिया. ये तीनों किसान योद्धा जयपुर से रेलगाड़ी द्वारा झुंझुनू पहुंचे. रेलवे स्टेशन से जाट बोर्डिंग हाऊस तक इन सेनानियों के सम्मान में स्वागत द्वार बनाये गए थे. किसानों के हित में इन तीनों ने सबसे अधिक जेल काटी थी और यातनाएं सही थी. बोर्डिंग हाऊस के सामने युवक और विद्यार्थी रास्ते के दोनों और खड़े हो गए तथा लाठियों का तोरण द्वार बनाकर उसके नीचे से इन लाड़ले नेताओं को निकालकर भावभीना सम्मान प्रकट किया. ब्रिटिश सत्ता, जयपुर रियासत और जागीरदारों के विरुद्ध गगन-भेदी नारे लगाकर पूरे कसबे को गूंजा दिया. [9]

ताराचंद झारोड़ा बाद में विभिन्न गाँवों से होते हुए अपने गाँव झारोड़ा पहुंचे तो इस पूर्वी जिले में हजारों की संख्या में जन सैलाब स्वागत के लिए उमड़ पड़ा. अपनी डायरी में ताराचंद झारोड़ा ने लिखा है, 'मुझे घर आने पर ज्ञात हुआ कि जेल अवधि में मेरे साले गणपत राम , झूथा राम, महादा राम, नौरंग राम और मेरी पत्नी बाई देवी ने गाँव भाईयों के सहयोग से नन्हे बच्चे व परिवार को संभाल रखा, जिसमें मेरे बड़े भ्राता राम नारायण ने अमूल्य योगदान किया.' [10]

किसान सभा का सदस्य चुना 1946

किसान सभा की और से रींगस में विशाल किसान सम्मलेन 30 जून 1946 को बुलाया गया. इसमें पूरे राज्य के किसान नेता सम्मिलित हुए. यह निर्णय किया गया कि पूरे जयपुर स्टेट में किसान सभा की शाखाएं गठन की जावें. आपको जयपुर स्टेट की किसान सभा का सदस्य चुना गया. (राजेन्द्र कसवा, p. 203)

सन्दर्भ

  • राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), प्रकाशक: कल्पना पब्लिकेशन, जयपुर, फोन: 0141 -2317611, संस्करण: 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 79
  1. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 100
  2. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.413-419
  3. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 122
  4. डॉ पेमाराम: शेखावाटी किसान आन्दोलन का इतिहास, 1990, p.91
  5. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.52
  6. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.53
  7. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.53
  8. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.57
  9. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.66
  10. राजेन्द्र कसवा:किसान यौद्धा, कलम प्रकाशन, झुंझुनू, 2009, p.66

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