Uday Singh Mann

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Ch. Uday Singh Mann (चौ० उदय सिंह मान) (b: on 14 January 1911, D: 8 July 2016) was born in Lowa Kalan village, near Bahadurgarh, distt. Jhajjar, Haryana. In the year 1928, he passed Matriculation from Punjab University, Lahore and started his teaching career. He served as MLC in united Punjab from 1952 to 1956 and 1956 to 1962. During this time, he provincialised the schools and colleges. He also served as President of Jat educational institutes in Rohtak during the period 1952-1961, 1986-1989 and 2003-2005. He also served as Head of his village's Panchayat continuously for 17 years.

Role for teaching community

After Independence in 1947, Ch. Mann fought for the better living conditions of school teachers and laid the foundation of Teachers Union. In 1957, in united Punjab, 30 thousand teachers who were employed in locally administered schools, were inducted into Govt. service, due to sole efforts of Ch. Uday Singh Mann. For this cause, he sat on hunger strice, twice.

Role in Chandgarh movement

When Haryana got separated from Punjab on 1 November 1966, the matter of its capital was still pending. In 1969-70, Ch. Uday Singh Mann started hunger strike in Chhoturam Park, Rohtak, which continued for 45 days. The then Prime Minister Indira Gandhi sent Union Home Minister Uma Shankar Dixit who requested Ch. Mann to end his long fast.

हरयाणा के लिए संघर्ष एवं आमरण अनशन

लेखक - डॉ. योगानन्द शास्त्री[1]

चण्डीगढ़ आन्दोलन -

अगस्त २८ सन् १९६९ ई० का दिन था । श्री आचार्य जी महाराज स्वामी धर्मानन्द जी के साथ पैर की ग्रन्थि के इलाज के लिये जीप से मुआना (मेरठ) जा रहे थे । मैं भी उनके साथ था । कई वर्ष से इनके पैर में घुटने के नीचे एक गांठ बन गई थी । आर्यसमाज के प्रचार और गुरुकुलों के कार्य में अहर्निश लगे रहने के कारण तथा समय-समय पर आगत सामयिक संघर्षों के कारण आचार्य जी ने अपने शारीरिक कष्टों की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया । इस बार भी जब उस ग्रन्थि में पीड़ा होनी शुरू हुई तो ये अनायास ही उसकी चर्चा कर बैठे । स्वामी धर्मानन्द जी जबरदस्ती इनको ले गये । गुरुकुल में हम सबका भी आग्रह था । अतः आचार्य जी मुआना के लिये चलकर मेरठ पहुँच गये । हम आगे चलने की तैयारी में थे कि पता चला दिल्ली से दूरभाष आया है और आचार्य जी को खोजा जा रहा है । थोड़ी देर उपरान्त एक सज्जन ने आकर बतलाया कि प्रो० शेरसिंह के निजी सचिव श्री जगन्नाथ जी ने दूरभाष करके कहा है कि आचार्य जी जहां भी मिलें उन्हें तुरन्त वापिस दिल्ली भेज दिया जाये । सूचना पाकर हमने दिल्ली दूरभाष करके उनसे सम्पर्क किया । उन्होंने बतलाया कि प्रो० शेरसिंह शिक्षा राज्यमन्त्री भारत सरकार, चौ० देवीलाल और चौ० बंसीलाल मुख्यमंत्री हरयाणा इस समय पार्लियामेंट भवन में बैठे हैं और आपके पहुंचने की प्रतीक्षा में हैं, आप तुरन्त आ जाइये । आचार्य जी ने कहा कि जिस कार्य के लिए हम निकले हैं उसे निपटाकर दो-तीन दिन में आ जायेंगे । दिल्ली से उत्तर मिला कि इतने समय में तो सब खेल खत्म हो जायेगा । पंजाब के दबाव के कारण चंडीगढ़ पंजाब को मिल जायेगा । आप अभी पहुँचिये । आपके बिना आगे परामर्श भी नहीं हो पायेगा, कोई कदम उठाना तो दूर की बात है । यह सुनकर आचार्य जी और हम वापिस दिल्ली के लिये चल पड़े ।

यहां यह बतलाना आवश्यक है कि पंजाब की ओर से चण्डीगढ़ के लिए केन्द्र पर भारी दबाव पड़ रहा था । श्री दर्शनसिंह फेरूमान इसके लिए आमरण अनशन प्रारम्भ कर चुके थे । सन्त फतेहसिंह अकाल तख्त पर बैठकर आये दिन धमकियां दे रहे थे । पंजाब का गुरुनामसिंह मन्त्रिमंडल भी पूरा जोर लगा रहा था । पूरा अकाली समुदाय एकजुट होकर चण्डीगढ़ को प्राप्‍त करने के लिए कसमें खा रहा था । केन्द्रीय मन्त्रिमंडल के सदस्य सरदार स्वर्णसिंह का भी सहारा उन लोगों को मिल रहा था । ऐसा लग रहा था कि केन्द्र सरकार शीघ्र ही दो-चार दिन में चण्डीगढ़ पंजाब को सौंप देगी और दबाव के आगे शाह कमीशन की सिफारिशें रखी ही रह जायेंगीं । ऐसी स्थिति में हरयाणा को चुप नहीं बैठना चाहिये । जवाबी कार्यवाही करनी आवश्यक समझी गई परन्तु वह कार्यवाही क्या हो, और उसे करे कौन ? यह प्रश्न हरयाणा के नेताओं के दिमाग में था किन्तु जन-आन्दोलन खड़ा करने की हिम्मत किसी में नहीं थी । ऐसी स्थिति में आचार्य जी महाराज याद आये । क्योंकि सन्त फतेहसिंह के मुकाबले के लिये हरयाणा में केवल यही एक महापुरुष ऐसे थे जो अपने तूफानी व्यक्तित्व के प्रभाव से प्रबल जन-आन्दोलन चलाकर पंजाब का मुंहतोड़ जवाब दे सकते थे ।

हम मेरठ से चलकर जब वापिस दिल्ली पहुंचे तो हरयाणा के तीनों नेता प्रो० शेरसिंह, चौ० बंसीलाल तथा चौ० देवीलाल संसद भवन के एक कक्ष में बैठे आचार्य जी महाराज की प्रतीक्षा कर रहे थे । प्रो० शेरसिंह के निजी सहायक अंगरक्षक जो बाहर से हमें अन्दर ले जाने के लिये खड़े थे, अन्दर ले गये । आचार्य जी के वहाँ पहुंचते ही गम्भीर मन्त्रणा शुरू हो गई । मैं भी इसमें सम्मिलित रहा । हरयाणा के समाजसेवी सेठ घनश्यामदास गुप्‍त भी वहाँ पहुँच गये थे । इस बैठक में विस्तार से पूर्वापर पर विचार कर तय किया गया कि एक दो दिन के अन्दर ही कोई प्रभावशाली कार्यवाही हरयाणा की ओर से की जानी चाहिए जिससे केन्द्र पर पड़ रहे पंजाब के दबाव को कम किया जा सके । इन सभी ने अन्तिम निर्णय का अधिकार श्री आचार्य जी पर छोड़ दिया और अगले दिन पुनः मिलने का निश्चय कर बैठक से उठ गये । मुझे भलीभांति याद है उस दिन रात को बहुत देर तक इस समस्या पर और भविष्य की योजना पर विचार करते रहे । उक्त बैठक में यह निश्चय हो गया था कि स्वयं आचार्य जी अनशन आदि नहीं करेंगे । वे आन्दोलन का संचालन करेंगे । वैसे आचार्य जी ने कहा था - "यद्यपि आमरण अनशन आदि करना हमारे सिद्धान्त के विरुद्ध है तथापि हरयाणा के लिये मैं यह कर सकता हूं । किन्तु यह ध्यान रहे कि यदि मैं अनशन करूंगा तो सीधा स्पष्‍ट लक्ष्य प्राप्‍त किये बिना अनशन समाप्‍त नहीं करूंगा चाहे मेरे प्राण भले ही चले जायें । ऐसी अवस्था में मैं आप लोगों का भी कोई आग्रह फिर नहीं मानूंगा । मेरा अनशन दिखावा नहीं, असली होगा ।" परन्तु नेताओं ने उनकी बात को नहीं माना । कारण कि यदि आचार्य जी अनशन कर देते तो उस अवस्था में आन्दोलन चलाने का पूरा भार उठाने वाला और कोई नहीं था । इन नेताओं ने आचार्य जी को पूर्ण विश्वास दिलाया - आचार्य जी, आप नेतृत्व संभालिये, हम बड़े से बड़ा त्याग और बलिदान करने को हर समय तैयार रहेंगे ।

यह हरयाणा के लिये सौभाग्य की बात थी कि इस समय उक्त तीनों नेता परस्पर एक थे । चौ० देवीलाल और बंसीलाल के संबन्ध भी अच्छे थे । प्रो० शेरसिंह का केन्द्रीय मन्त्रिमंडल में होना भी हरयाणा के लिये अच्छा था । आगे कुछ लिखने से पहले यहां यह जान लेना आवश्यक है कि इस तरह की स्थिति किस तरह पैदा हुई ।

स्वतन्त्रता प्राप्‍ति एवं विभाजन से पूर्व ही, बल्कि सन् १८५७ की क्रान्ति के बाद से ही हरयाणा के साथ व्यवहार होता रहा है । क्रान्ति के बाद इसकी शक्ति को खंडित करने के लिये हरयाणा के टुकड़े कर इसको पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में मिला दिया गया । दिल्ली को अलग कर दिया । संयुक्त पंजाब के समय भी हरयाणा के साथ सौतेला व्यवहार होता रहा । तब पंजाब के मुख्यमंत्री सिकन्दर हयात खां की वजारत में जो भी कार्य हुए वे सारे के सारे पंजाब के उस भाग के लिये किये गये जो आज पाकिस्तान में चला गया है । स्वर्गवास से पूर्व चौ० छोटूराम भाखड़ा की मूल योजना को हरयाणा के लिये स्वीकार कर गये थे परन्तु वह भी हरयाणा को नहीं दिया गया । विभाजन के बाद तीनों ही मुख्यमंत्री पंजाब के उस भाग के हितरक्षक थे जो अब पंजाबी सूबा या पंजाब बना दिया गया है । सरदार प्रतापसिंह कैरों के मुख्यमंत्री काल में तो हरयाणा के साथ किया जाने वाला पक्षपातपूर्ण व्यवहार अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था । पंजाब वालों ने सदा ही राजसत्ता के वर्चस्व का लाभ उठाकर हरयाणा की जनता का राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक शोषण किया है । अब वह अधिक बढ़ गया था । इसी कारण १९५७ में हिन्दी रक्षा आन्दोलन के रूप में हरयाणावासियों ने अपना तीव्र रोष प्रकट किया था ।

इस सौतेले व्यवहार के कारण ही हरयाणा के लोगों ने पृथक हरयाणा निर्माण की आवाज उठाई । जब यह देख लिया गया कि यहां चाहे सच्चर फार्मूला बने चाहे रीजनल फार्मूला - सब के सब मात्र पंजाब के हित के लिए प्रयोग किये जाते हैं तो पृथक हरयाणा बनवाने के सिवाय और कोई समाधान ही नहीं था । सन् १८५७ ई० के हिन्दी आन्दोलन के बाद हरयाणा के पृथकीकरण की मांग जोर पकड़ने लगी परन्तु हरयाणा के कुछ स्वार्थी नेताओं ने इसमें पलीता लगाना शुरू किया । प्रताप जैसे अखबारों ने भी इसका खूब विरोध किया । परिणाम यह हुआ कि जो कार्य बहुत पहले हो जाना चाहिये था वह लम्बा पड़ गया और बहुत प्रयास के उपरान्त १ नवम्बर १९६६ ई० को हरयाणा का एक पृथक् राज्य के रूप में उदय हो पाया ।

यहां हमें यह बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि हरयाणा के नेताओं में पं० भगवतदयाल शर्मा, पं० श्रीराम शर्मा, चौ० रिजकराम, चौ० हरद्वारीलाल, चौ० रणवीरसिंह, चौ० श्रीचन्द व राव वीरेन्द्रसिंह आदि ने पृथक् हरयाणा निर्माण की मांग का जोरदार विरोध किया । जनसंघ ने भी खुलकर विरोध किया । पं० भगवतदयाल और जनसंघ दोनों ने तो हरयाणाभर में जगह-जगह पृथक्-पृथक् सभायें भी कीं और हरयाणा के पृथकीकरण का जबरदस्त विरोध किया । मेरे सामने उस समय के समाचारपत्रों की कतरनें रखीं हैं किन्तु विस्तारभय से उनको यहां उद्धृत करना उचित नहीं होगा । चौ० चांदराम जो उस समय पंजाब मंत्रिमंडल में थे, ने भी पंजाब के विभाजन का विरोध किया । पंजाब मंत्रिमंडल ने अपनी एक सब-कमेटी बनाई जिसको पंजाब विभाजन के विरुद्ध वातावरण तैयार करने और केन्द्र से सम्पर्क रखने का काम सौंपा गया । इस कमेटी में सरदार दरबारासिंह, चौ० रणवीरसिंह और चौ० रिजकराम सदस्य थे । ये लोग ७ जनवरी १९६६ ई० को गृहमन्त्री श्री गुलजारीलाल नन्दा से भी मिले और पंजाब मंत्रिमंडल के निर्णय से उनको अवगत कराया ।

हरयाणा के कुछ नेता इस प्रकार पृथक् हरयाणा की मांग का विरोध कर रहे थे परन्तु जनमत उनके साथ नहीं था । ये लोग अपनी कुर्सी बचाने और लम्बे समय तक हरयाणा में अपनी चौधराहट कायम रखने के लिये हरयाणा की जनता के साथ विश्वासघात कर रहे थे । उनको शायद यह भ्रम था कि हरयाणवी लोग अब भी बेवकूफ हैं । दूसरी ओर आचार्य जी, चौ० देवीलाल और प्रो० शेरसिंह थे जो पृथकीकरण का आन्दोलन चला रहे थे । इनके साथ प्रबल जन-समर्थन था । लोग जानते थे ये लोग ईमानदारी से हरयाणा का हित चाहते हैं और उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं । संसद्‍सदस्य श्री जगदेव सिंह सिद्धान्ती भी इनके साथ थे । लोगों का इनमें विश्वास तब स्पष्ट रूप में प्रकट हुआ जब चौ० देवीलाल आदि ने रोहतक के रामलीला मैदान में अपनी मांग के लिये एक विशाल सम्मेलन का आयोजन किया । इसकी अध्यक्षता श्री आचार्य भगवानदेव जी ने की तथा आचार्य कृपलानी इसमें मुख्य अतिथि थे । इस सम्मेलन को विफल बनाने के लिये पंजाब सरकार की ओर से झज्जर-रोहतक राजमार्ग पर चमनपुरा गांव के पास एक सभा का आयोजन किया गया । इस सभा में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति स्व० जाकिर हुसैन जी को भी बुलाया जिससे रामलीला मैदान जाने वाले लोग भी आकर्षित होकर इधर ही आ जायें । परन्तु उस दिन हमने लोगों का जो उत्साह और सूझ देखी वह वास्तव में आश्चर्यकारक थी । हमने दोनों ही सभाओं को देखा । आचार्य जी की अध्यक्षता वाली सभा में लगभग पांच लाख लोग उपस्थित थे जबकि दूसरी में केवल दो-अढ़ाई सौ ही । उस दिन पंजाब सरकार और हरयाणा के कुछ नासमझ तथाकथित नेताओं ने राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च गरिमामय पद के साथ जो खिलवाड़ की वह अत्यन्त खेदजनक थी ।

रामलीला मैदान की इस सभा के बाद केन्द्र सरकार समझ गई अब हरयाणा के निर्माण को टाला नहीं जा सकता । उधर पंजाब में भी पृथक् पंजाबी सूबा की मांग जोर पकड़ रही थी । इसलिये उसने थोड़े दिन बात २३ अप्रैल १९६६ को पंजाब सीमा आयोग की नियुक्ति की । माननीय न्यायमूर्ति जे० सी० शाह इस आयोग के अध्यक्ष तथा सर्वश्री एस० दत्त और एम० ए० फिलिप इसके सदस्य नियुक्त हुये । सारी स्थिति की पूरी-पूरी जांच करने, विभिन्न संस्थाओं, संगठनों और व्यक्तियों के विचार सुनने तथा ४३१४ ज्ञापन एवं प्रार्थनापत्रों की ध्यानपूर्वक परीक्षा करने के बाद कमीशन ने ३१ मई १९६६ को अपनी अन्तिम रिपोर्ट (प्रतिवेदन) दे दी । इस आयोग ने जिस तत्परता से कार्य किया और जितनी शीघ्र रिपोर्ट दी वह श्‍लाघनीय है । आयोग के सामने हरयाणा का पक्ष भली प्रकार रखने के लिए प्रो० शेरसिंहचौ० देवीलाल जी ने जो परिश्रम किया वह भी देखने योग्य ही था । लगातार घंटों बैठकर लिखते रहना उन दिनों उनकी दिनचर्या बन गई थी । सामग्री जुटाने का काम मुख्य रूप से चौ० देवीलाल करते थे और लिखने व ज्ञापन तैयार करने का प्रो० शेरसिंह । हरयाणा निर्माण में मुख्य रूप से इन दो नेताओं का ही हाथ था यह कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी । श्री जगदेवसिंह सिद्धान्तीश्री कपिलदेव शास्‍त्री का भी पूरा सहयोग था । श्री पूज्य आचार्य जी का वरद हस्त तो था ही । आचार्य कृपलानी सरीखे वयोवृद्ध नेता का समर्थन मिलना भी महत्त्वपूर्ण रहा ।

अन्त में सीमा आयोग की सिफारिश के आधार पर १ नवम्बर १९६६ ई० को हरयाणा का देश के १७वें राज्य के रूप में उदय हुआ । इसी के साथ इसकी उन्नति का मार्ग भी खुल गया परन्तु आश्चर्य तो तब हुआ जब इसके पहले और दूसरे मुख्यमन्त्री भी वही लोग बने जो इसका जोरदार विरोध करते थे । इसे भाग्य का खेल कहें, नियति का चक्र अथवा परिस्थितियों का परिणाम । जो भी कहिये, पं० भगवतदयाल मुख्यमन्त्री बने किन्तु अधिक दिन नहीं टिक पाये । चौ० देवीलाल ने उनका मन्त्रिमंडल तुड़वा दिया और उनके सहयोग से राव वीरेन्द्रसिंह मुख्यमंत्री बने किन्तु केन्द्र में कांग्रेस सरकार के रहते वे भी अधिक दिन कैसे चल सकते थे । कुछ मास के मेहमान रहकर वे भी चलते बने । विधानसभा भंग हुई । मध्यावधि चुनाव हुये । कांग्रेस का बहुमत आ गया । चौ० बंसीलाल हरयाणा के तीसरे मुख्यमन्त्री बने । उन्होंने जल्दी ही पं० भगवतदयाल, जिनको शुरू में वे अपना राजनैतिक गुरु कहते थे, को अंगूठा दिखला दिया । थोड़े समय बाद ही चंडीगढ़ वाली समस्या आ गई । यदि उस समय हरयाणा की ओर से दृढ़ता का रुख नहीं अपनाया जाता तो चंडीगढ़ पंजाब को मिल जाता और बंसीलाल मंत्रिमंडल का टिकना भी कठिन हो जाता । कदाचित् इस कारण भी चौ० बंसीलाल पंजाब का मुकाबला करने और चंडीगढ़ को हाथ से न जाने देने में रुचि ले रहे थे ।

अस्तु ! शाह आयोग ने भाषा के आधार पर चंडीगढ़ परियोजना सहित पूरी खरड़ तहसील हरयाणा को देने की सिफारिश की थी परन्तु पंजाब और हरयाणा को पृथक् करते समय अकालियों एवं पंजाब वालों के दबाव में आकर केन्द्र सरकार ने चंडीगढ़ हरयाणा को न देकर केन्द्रशासित बना दिया और दोनों राज्यों को अपनी राजधानी वहां रखने की छूट दी । उस समय भी प्रो० शेरसिंह आदि ने इस अन्याय का विरोध किया था किन्तु तब परिस्थितियां ऐसी थीं कि अधिक कुछ नहीं हो सका । पंजाब वाले क्योंकि धमकी और दबाव से लेने के आदी हो गये थे इसलिए उन्होंने फिर वही रवैया अपनाया । इधर हरयाणा भी उसके जवाब में उठ खड़ा हुआ किन्तु उसको उठाने में श्री आचार्य जी आदि नेताओं को कितना कुछ करना पड़ा इसका संक्षिप्‍त विवरण इस प्रकार है ।

संसद् भवन की मन्त्रणा के बाद चौ० देवीलाल जी तथा बंसीलाल जी चले गये और प्रो० शेरसिंह जी की कोठी पर आकर विचार करने लगे । पूज्य आचार्य जी, प्रो० शेरसिंह जी तथा मैं तीनों बैठे थे । विचार किया जा रहा था कि तुरन्त जवाबी अनशन होना चाहिये । उसके लिये आदमी की खोज होने लगी । श्री आचार्य जी ने मुझे भी नाम सुझाने के लिए कहा । मैंने प्रो० हरिसिंह खेड़ीजट्ट का नाम सुझाया । उनको भी उपयुक्त लगा परन्तु बाद में चौ० देवीलाल जी आदि के साथ सर्वसम्मति से चौ० उदयसिंह मान पूर्व एम.एल.सी. का नाम स्वीकार किया गया । उनको अगले दिन बुलाया गया । उन्होंने कहा - "मैं पूज्य आचार्य जी का आदेश मानूं इससे बड़ा सौभाग्य मेरा और क्या होगा । मेरे लिये तो यह गौरव की बात है । मुझे आप लोगों ने इस योग्य समझा, इसी में मेरे जीवन की सार्थकता है । फिर हरयाणा के लिए मेरा बलिदान भी हो जाये तो कुछ नहीं, इसका सिर ऊंचा रहना चाहिये ।"

एक दिन बाद यज्ञानुष्ठानपूर्वक रोहतक के छोटूराम पार्क में माननीय उदयसिंह मान ने अपना आमरण अनशन प्रारम्भ कर हरयाणा के लिये अपना जीवन दाव पर लगाने की घोषणा की । वहां एकत्रित भारी भीड़ ने करतलध्वनि से उनकी घोषणा का स्वागत किया । उसके अनन्तर पूज्य आचार्य जी ने अपनी सिंहगर्जना में कहा - "भारत सरकार ने धमकी और दबाव में आकर चण्डीगढ़ के सम्बंध में यदि कोई विपरीत फैसला लिया तो हरयाणा उसे कभी नहीं मानेगा और हरयाणा का बच्चा-बच्चा अपने अधिकारों के लिये मर मिटेगा ।" इसके साथ ही उपस्थित जन-समुदाय ने आचार्य भगवानदेव जिन्दाबाद और उदयसिंह मान जिन्दाबाद के नारों से आकाश गुंजा दिया । यही लोग इस नारे के वाहक बने और गांव-गांव गली-गली तक यह नारा गूंज गया । आचार्य जी का तूफानी दौरा शुरू हुआ । इन्होंने जगह-जगह सभायें कीं, बैठकें बुलाईं और एक सप्‍ताह में ही हरयाणा में वह उत्साह पैदा कर दिया जिसकी खुफिया रिपोर्टों ने केन्द्र सरकार को चौकन्ना कर दिया । अब गया, तब गया, चण्डीगढ़ अब हरयाणावालों को अपना दीखने लगा और सर्वत्र यह विश्वास बन गया कि अब चण्डीगढ़ दबाव के कारण पंजाब को नहीं दिया जा सकेगा ।

इस तैयारी के बाद आचार्य जी ने हरयाणा के सभी राजनैतिक दलों और सामाजिक संगठनों की एक हंगामी मीटिंग रोहतक में बुलाई । इस बैठक में एक २५ सदस्यीय "सर्वदलीय संघर्ष समिति" का निर्माण किया । सब दलों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर से आचार्य जी से इस समिति की अध्यक्षता करने की प्रार्थना की । आचार्य जी ने कहा - "मैंने अपने जीवन में न कभी कोई पद लिया है और न ही लूंगा किन्तु यदि आप लोग चाहते हैं कि मैं इस सेवा में लगा रहूँ तो उससे मुझे कोई निषेध नहीं परन्तु मैं अध्यक्ष कहलाऊँ यह मुझे उचित नहीं लगता ।" प्रतिनिधियों ने फिर इन पर दबाव डाला और कहा - "सार्वजनिक हित में आपको भी बाध्य होना पड़ेगा, हम आपको अपना अध्यक्ष ही मानेंगे और कहेंगे, आप भले ही अपने को अध्यक्ष मत समझिये ।" बैठक में शेष सर्वाधिकार आचार्य जी को ही सौंप दिये । आचार्य जी ने महाशय भरतसिंह को समिति का मन्त्री व श्री कपिलदेव शास्‍त्री को संगठन व प्रचारमंत्री नियुक्त किया । इन दोनों ने ही पूरे आन्दोलन के समय आचार्य जी के साथ कन्धे से कंधा मिलाकर दिन-रात काम किया । समिति के अन्य सदस्यों में चौ० रिजकराम, चौ० माड़ूसिंह, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, श्री चांदराम और डा० मंगलसेन आदि भी थे ।

समिति की ओर से जगह-जगह जलसे होने लगे । आचार्य जी के कारण आर्यसमाज का हर आदमी इस आन्दोलन में जुट गया । हर जिला एक-एक आदमी को सौंप दिया । वहां पर प्रत्येक गतिविधि का संयोजन उसी को सौंपा गया । गुड़गावां जिले में मेरी ड्यूटी लगाई गई थी । जिलेवार गाड़ियों का भी इन्तजाम था । हर दूसरे तीसरे दिन कार्य की रिपोर्ट आचार्य जी को देनी पड़ती और आगे की योजना उनसे लेनी पड़ती थी । २४ सितंबर के दिन संघर्ष समिति की ओर से "हरयाणा बन्द" का कार्यक्रम रखा था । उससे पहले २२ सितंबर को आचार्य जी ने रिवाड़ी पहुँचना था । हमें भी वहीं पहुंचकर आगे के लिये आदेश लेने का समाचार मिला । मेरे पास समिति की ओर से पीकप (मैटाडोर) गाड़ी थी । हम गुड़गावां पार कर जब रिवाड़ी की ओर जा रहे थे तो पता चला साहबी नदी में अचानक भयंकर बाढ़ आ गई है । रास्ते में पुलिस ने हमें रोक कर आगे जाने से मना किया किन्तु पहुंचना आवश्यक था । हम उन्हें अपना उद्देश्य बतला आगे बढ़े । आगे देखते हैं तो रात्रि में चन्द्रमा के प्रकाश में सर्वत्र अथाह जल ही जल दृष्टिगोचर हुआ । अनेक ट्रक पानी में रुके खड़े थे । बड़ा भयावह दृश्य था । रात्रि के ग्यारह बजे थे । अगले दिन प्रातः ५ बजे ही आचार्य जी ने वहां पहुंचना था । हमारे ड्राइवर श्री रामजीलाल (बेरी) ने उस दिन बड़ा साहस और कमाल किया । चार-पांच फीट पानी में डूबी सड़क के दोनों ओर खड़े पेड़ों का अनुमान लगाकर शनैः-शनैः गाड़ी को पार लगा ही दिया । भगवान् की कृपा से हम नदी पार कर ही गये । आज भी वह दृश्य याद अता है तो हृदय कांप उठता है । उस दिन न जाने हम कहां से साहस बटोर पाये थे । कदाचित् महान् उद्देश्य में लगे आचार्य जी महाराज का आशीर्वाद ही इसमें कारण था ।

२४ सितंबर के 'हरयाणा बन्द' की पूरी तैयारी की गई थी । सभी जगह यातायात बन्द था । आगरा, मथुरा से आने वाला जी० टी० रोड होडल, बनचारी और पलवल आदि अनेक स्थानों पर रोक दिया गया था । इधर अम्बाला, दिल्ली जी० टी० रोड भी अवरुद्ध था । हरयाणा भर में सभी जगह रेलगाड़ियां भी रोकी गईं । सभी शहरों में बाजार पूर्णतया बन्द रहे । बन्द की अभूतपूर्व सफलता के कारण हरयाणा के इस जन-आन्दोलन में प्राण आ गये । साथ ही चौ० उदयसिंह मान के अनशन को भी २५ दिन पूरे हो चुके थे । उनका स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन गिर रहा था । इससे पूरे हरयाणा में चिन्ता और रोष व्याप्‍त था ।

इसी बीच प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पत्र लिखकर श्री उदयसिंह मान से अनशन खोलने का आग्रह किया किन्तु उन्होंने अनशन जारी रखने का अपना निश्चय दोहराया । अब जगह-जगह श्री मान के समर्थन में अनशन होने लगे । सर्वदलीय संघर्ष समिति के अध्यक्ष एवं आन्दोलन के प्रशासक (डिक्टेटर) श्री आचार्य भगवानदेव ने श्री मान के सिवाय अन्य किसी द्वारा अनशन किये जाने पर पाबन्दी लगा दी परन्तु विद्यार्थियों में तो इतना जोश था कि वे उसके बावजूद भी क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठने लगे । उनके उत्साह को देखते हुये आचार्य जी ने उनको अनशन की छूट दे दी परन्तु आमरण अनशन नहीं, केवल क्रमिक अनशन करने की आज्ञा प्रदान की । अतः हरयाणा में कालिज के विद्यार्थियों में भारी उत्साह पैदा हो गया । श्री मान के दर्शन करने आने वाली भीड़ को नियन्त्रित करना कठिन होने लगा । तेजी से गिरते हुये उनके स्वास्थ्य को देखकर सरकार ने उनको हिरासत में लेकर हस्पताल में रख दिया । वहां पुलिस का सख्त पहरा लगा दिया । इससे लोगों में और अधिक रोष पैदा हो गया ।

२ अक्‍तूबर १९६९ को रोहतक में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के अध्यक्ष श्री बृजनारायण बृजेश की अध्यक्षता में फिर एक विराट् सम्मेलन हुआ । सम्मेलन को भारतीय क्रान्ति-दल के महामन्त्री श्री पं० प्रकाशवीर शास्‍त्री, दिल्ली प्रदेश हिन्दू महासभा के अध्यक्ष प्रो० रामसिंह, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती और आचार्य जी तथा चौ० देवीलाल जी ने सम्बोधित किया । इस सम्मेलन ने सर्वसम्मति से हरयाणा का संकल्प फिर दोहराया । पूज्य आचार्य जी ने जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों का आह्वान करते हुये कहा - आप सबको विधानसभा और लोकसभा से तुरन्त इस्तीफे देकर आन्दोलन को बल प्रदान करना चाहिये । इस पर सम्मेलन में उपस्थित चौ० माड़ूसिंह जी आदि अनेक विधायकों तथा चौ० रणधीरसिंह आदि सांसदों ने अपने त्याग-पत्र आचार्य जी को सौंपने की घोषणा की । इससे उपस्थित जनता का उत्साह दुगुना हो गया । अब हरयाणा का यह आन्दोलन पंजाब से अधिक प्रभावोत्पादक बन गया ।

इस सम्मेलन में आन्दोलन के डिक्टेटर श्री आचार्य भगवानदेव ने केन्द्रीय मन्त्री सरदार स्वर्णसिंह और बाबू जगजीवनराम को मध्यस्थ मानने से इन्कार करने की घोषणा करते हुए कहा कि हरयाणा के लोग ऐसा अनुभव करते हैं कि सरदार स्वर्णसिंह भी एक पक्ष हैं क्योंकि वे पंजाब के अनशनकारी नेता श्री दर्शनसिंह फेरुमान से मिलकर उन्हें अनशन जारी रखने के लिये कहते रहे हैं । अतः चण्डीगढ़ के प्रश्न पर श्री स्वर्णसिंह से कोई बातचीत नहीं की जायेगी । इसकी आवश्यकता इसलिये पड़ी कि दोनों ओर से प्रबल आन्दोलनात्मक कार्यवाहियां होते रहने के कारण प्रधानमन्त्री ने उक्त दोनों मन्त्रियों को मध्यस्थता करने के लिये प्रस्तावित किया था । हरयाणा सर्वदलीय संघर्ष समिति के अध्यक्ष ने यह भी कहा कि श्री जगजीवनराम कई बार यह कह चुके हैं - "हरयाणा अपनी राजधानी बना ले और उसको इसके लिये मुआवजा दे दिया जायेगा ।" आपने कहा कि चण्डीगढ़ के प्रश्न पर मध्यस्थता का तो प्रश्न ही नहीं उठता । शाह आयोग चण्डीगढ़ को हरयाणा में मिलाने की सिफारिश कर चुका है । वह इसे मिलना ही चाहिये । वह इसे अवश्य मिलेगा । यदि ऐसा नहीं होता है तो हरयाणा हर बलिदान के लिये तैयार रहेगा ।

प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी का चौ. उदय सिंह मान के लिये पत्र

हरयाणा और पंजाब दोनों ही ओर से केन्द्र पर दबाव डालने के प्रयास तीव्र होते जा रहे थे । केन्द्रीय सरकार भी इस समस्या के समाधान के लिये चिन्तित थी । इधर चौ० उदयसिंह मान और उधर श्री दर्शनसिंह फेरुमान की हालत तीव्रगति से खराब हो रही थी । श्री मान साहब की अवस्था तो इतनी शौचनीय थी कि उनको कभी भी कुछ भी हो सकता था । उनको पुलिस हिरासत में हस्पताल में रखा जा रहा था । वहां हजारों लोग प्रतिदिन उनके दर्शन करने पहुँच रहे थे । ऐसी स्थिति में प्रधानमन्त्री ने एक विशेष सन्देशवाहक रोहतक भेजकर उनसे अनशन समाप्‍त करने का आग्रह किया । इधर हरयाणा के मुख्यमंत्री ने भी मान साहब से अनशन खोलने की अपील की । उन्होंने तो यहां तक कहा कि "आपने जिस उद्देश्य से व्रत रखा था वह जन-जागृति का काम पूरा हो गया है । अब चण्डीगढ़ लेना हमारा काम है । आप हम पर विश्वास रखिये और अनशन खोल दीजिये ।" इन दोनों आग्रहों पर श्री मान साहब ने अनशन समाप्‍त करने की इच्छा प्रकट की । संघर्ष समिति ने भी यही उचित समझा और सम्मान के साथ उनका अनशन समाप्‍त कराया गया । आचार्य जी उस दिन वहाँ उपस्थित नहीं थे ।

उधर दर्शनसिंह फेरुमान ने अपना आमरण अनशन जारी रखा । फलतः पंजाब का पक्ष फिर एक बार भारी पड़ने लगा । यह देख आचार्य जी ने हरयाणा की ओर से दिल्ली में एक विशाल प्रदर्शन करने की घोषणा की । संघर्ष समिति ने १७ नवम्बर का दिन प्रदर्शन के लिये निश्चित किया ।

इसी बीच केन्द्रीय सरकार ने २२ अक्‍तूबर को पंजाब, हरयाणा के नेताओं को विवाद सुलझाने के लिये वार्ता के लिये दिल्ली बुलाया । इस बातचीत के लिये हरयाणा के १५ तथा पंजाब के १० नेताओं को आमन्त्रित किया गया । केन्द्रीय गृहमन्त्री श्री यशवन्तराव बलवन्तराय चव्हाण ने दोनों ओर के नेताओं से दो-तीन दिन तक लगातार बातें कीं । हरयाणा के शिष्टमंडल ने पूज्य आचार्य जी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी से भी भेंट की । उन्होंने बड़े ही सौहार्दपूर्ण वातावरण में बात की और आश्वासन दिया कि पंजाब के दबाव या सन्त फतहसिंह की धमकियों में आकर हम कोई गलत निर्णय नहीं करेंगे । दूसरी ओर श्री चव्हाण भी बातचीत के द्वारा कोई समाधान ढूंढ़ निकालने के लिये दोनों प्रदेशों के नेताओं से लगातर मन्त्रणा कर रहे थे । इसी समय सन्त फतेहसिंह ने आत्मदाह करने की घोषणा कर दी । वार्ता भी विफल हो गई और कोई भी हल नहीं निकल सका क्योंकि दोनों ही पक्ष अपने-अपने रुख पर दृढ़ थे ।

इस परिस्थिति पर विचार करने के लिये रोहतक में सर्वदलीय संघर्ष समिति की हंगामी मीटिंग बुलाई गई । उसके बाद एक सभा हुई जिसमें सैंकड़ों लोगों ने जवाबी आत्मदाह के लिये अपने आपको प्रस्तुत किया । उस समय का उत्साह अनिर्वचनीय था । लगता था हरयाणा के अधिकारों के लिये मर-मिटने की होड़ लग गई थी । कोई स्वयं आकर मंच से अपने आत्मदाह की घोषणा करता था तो कोई अपना नाम लिखकर भेजकर अपने आप को इस कार्य के लिये तैयार बतला रहा था । उस दिन जनता में हम ने जो सामूहिक उत्साह देखा वैसा अन्यत्र आज तक नहीं देखने में आया है । यहीं आचार्य जी ने १७ नवम्बर के प्रदर्शन की तैयारियों का भी ब्यौरा दिया और उस दिन भारी संख्या में दिल्ली पहुंचने का आह्वान किया । इन्होंने कहा कि उस दिन कम से कम दस लाख आदमी दिल्ली पहुँचने चाहियें । लोगों ने हाथ उठाकर आपकी बात का समर्थन किया । यहां से जाकर प्रत्येक आदमी अपने तरीके से प्रदर्शन के प्रचार और तैयारियों में जुट गया ।

Demise

Ch. Uday Singh Mann breathed his last on 8 July 2016. His last rites were performed in his village.

According to Ch. Uday Singh Mann, the sole secret about his healthy and long life was his simple life style and eating habits. He used to take ghee-churma in breakfast and lunch. He has never took fast food, spicy content, fried dishes, cold drinks and other junk food.

सी.एम. ने उदय सिंह मान की प्रतिमा पर किया नमन

(दैनिक भास्कर, 26 फरवरी 2018)

पूर्व एम.एल.सी. स्व. उदय सिंह मान चंडीगढ़ पर हरियाणा की भागीदारी के लिए हरियाणा निर्माण के दौरान 46 दिनों तक रहे थे अनशन पर

हरियाणा के सी.एम. मनोहर लाल ने कहा कि पूर्व एम.एल.सी. एवं प्रमुख समाजसेवी स्व. उदय सिंह मान जैसी महान शख्सियत ने अपने जीवन काल में जिस प्रकार परोपकार की भावना से काम किया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। प्रदेश की राजधानी चंडीगढ़ पर हरियाणा का भी प्रभुत्व कायम करवाने में स्व.उदय सिंह मान का उल्लेखनीय योगदान रहा है। सी.एम. रविवार (25 फरवरी) को गांव लोवा कलां में पूर्व एम.एल.सी. स्व.उदय सिंह मान के कारज कार्यक्रम में शिरकत कर रहे थे। उन्होंने केंद्रीय इस्पात मंत्री चौ.बीरेंद्र सिंह, प्रदेश के कृषिमंत्री ओमप्रकाश धनखड़ व विधायक नरेश कौशिक के साथ स्व.उदय सिंह मान की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर उन्हें नमन किया। उन्होंने कहा कि प्रदेश की राजधानी चंडीगढ़ पर हरियाणा की भागीदारी रहे इसके लिए हरियाणा निर्माण के दौरान करीब 46 दिनों तक उन्होंने अनशन भी किया।

लोवा कला में 17 साल तक निर्विरोध सरपंच रहे स्व. उदय सिंह

संयुक्त पंजाब में एम.एल.सी. के पद पर दो बार स्व. उदय सिंह मान रहे। वे गांव लोवा कलां के करीब 17 साल तक निर्विरोध सरपंच पद को संभालते हुए ग्रामीण विकास में सहभागी रहे। 16 साल तक जाट संस्थाओं के प्रधान पद पर रहे स्व.उदय सिंह को हरियाणा सरकार की ओर से भी सम्मानित किया गया था। इस मौके पर गांव के सरपंच सुशीला संदीप मान सहित अन्य समाज के प्रमुख व्यक्ति व ग्रामीण मौजूद रहे।

Picture Gallery

The following documents were made available by Shri Raxit Mann, great grandson of Ch. Uday Singh Mann. Special thanks to him from Wiki Editors, Jatland.com.

On 25 February 2018, a grand Kaaz ceremony was at the village of Ch. Uday Singh Mann. Some of the pictures of this grand ceremony can be seen below. These have also been made available by Mr. Raxit Mann, great grandson of Ch. Uday Singh Mann.

External Links

References

Dayanand Deswal (talk) 13:01, 24 July 2017 (EDT)


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