User:Lrburdak/My Tours/Tour of South India II

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

South India Map

दक्षिण भारत का टूर (22.12.1981 - 17.1.1982) दक्षिण भारत यात्रा का क्रम : 22.12.1981 देहारादून (21.00) → 23.12.1981 दिल्ली (6.00), 23.12.1981 दिल्ली (20.20) → 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई), 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई) (21.00) → 26.12.1981 कोयंबटूर (6.00) → 26.12.1981 ऊटी (21.00) → 28.12.1981 मुदुमलाई (तमिलनाडु) (20.00) → 29.12.1981 नीलाम्बुर (केरल) (15.00) → कालीकटनेदमकायम, 1.1.1982 नीलाम्बुर (8.00) →मैसूरश्रीरंगपट्टनबंगलौर (24.00), 5.1.1982 बंगलौर → 6.1.1982 मद्रास (चेन्नई) (5.30) → महाबलीपुरम्, 8.1.1982 मद्रास (चेन्नई) → 9.1.1982 हैदराबाद (8.30) → 11.1.1982 हैदराबाद (22.00) → 12.1.1982 नागपुर (9.30) → 13.1.1982 रायपुर (6.00), 16.1.1982 रायपुर → 17.1.1982 दिल्ली (20.10) → 19.1.1982 देहारादून

कोयंबटूर-ऊटी-मुदुमलाई (तमिलनाडू)- नीलाम्बुर (केरल) भ्रमण: दक्षिण भारत की यात्रा भाग-4a

कोयंबटूर-ऊटी-मुदुमलाई (तमिलनाडू)- नीलाम्बुर (केरल) भ्रमण दक्षिण भारत की एक लंबी यात्रा का भाग था जो लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1981-82 में की गई थी. यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है. दो वर्ष की इस अवधि में कालेज से विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षा प्राप्त कर आए व्यक्ति को किस प्रकार से अखिल भारतीय सेवा का एक अधिकारी तैयार किया जाता है. दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है. भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए है. इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं.

देहारादून - दिल्ली - चेन्नई - कोयंबटूर

22.12.1981: देहारादून से रात्रि 21 बजे मसूरी एक्सप्रेस द्वारा यात्रा प्रारम्भ हुई। भारतीय वन सेवा प्रोबेशनर्स के लिए भारतीय रेलवे द्वारा अलग से प्रथम श्रेणी विशेष कोच की व्यवस्था की गयी थी।

23.12.1981: सुबह छ: बजे दिल्ली पहुंचते हैं। हमारा साथी एम. पी. राय पंजाब कैडर मिलने से परेशान है। बोले कि उनके परिचित श्री बालेश्वर राय भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं और यहीं किसी विभाग के डायरेक्टर पद पर हैं। सो मिलने का सोचा। उनसे मिलने 45 राजपुर रोड गए। वहाँ कुछ देर बात-चीत की और चाय वगैरह पी। राय साहब गृह-मंत्रालय जाने के लिए वहीँ रुक गए। मैं और साथी सुरेश काबरा वहाँ से आकर कृषि भवन चले गए। वहाँ श्री एस. के. भार्गव ए. आई. जी. एफ. से मिले। वहीँ राजस्थान कैडर के श्री कपूर ए.आई.जी.एफ. से मुलाकात भी हुई। वे अभी जुलाई में ही यहाँ आये हैं। महाराष्ट्र कैडर के मनमोहन भी मिले। वहाँ से कनाट प्लेस गए जहाँ पर हमारे मित्र के. एन. सिंह से भारत ओवसीज बैंक में मुलाकात हुई। पालिका बाजार और सुपर मार्किट घूमने के बाद शाम 20.20 बजे दक्षिण एक्सप्रेस द्वारा नई दिल्ली से रवाना हुए।

24.12.1981: लगातार यात्रा। दिल्ली से मद्रास के रास्ते में पड़ने वाले मुख्य शहर थे : दिल्ली (20.20)-आगरा- ग्वालियर- झाँसी - बीना - भोपाल- इटारसी - नागपुर - माजरी - वारांगल - काजीपेठ - गुंटूर - गुडुर - मद्रास (चेन्नई) । रास्ते में साथियों से गप-शप के अलावा एक अंग्रेजी का उपन्यास ..... पूरा किया।

25.12.1981: मद्रास (चेन्नई ) पहुंचे। वहाँ से मैरिना बीच देखने गए। यहाँ मद्रास में शर्दी बिलकुल नहीं है। समुद्र तट पर तेज लहरों के साथ बड़ी सुहानी हवा आती है।

25.12.1981: नीलगिरि एक्सप्रेस द्वारा 21 बजे रात फिर कोयंबटूर के लिए यात्रा प्रारम्भ की।

कोयंबटूर - ऊटी भ्रमण
कोयंबटूर जिले का मानचित्र

26.12.1981: नीलगिरि एक्सप्रेस से सुबह छ: बजे कोयंबटूर (Coimbatore) पहुंचे।

कोयंबटूर औद्योगिक शहर और मद्रास के बाद दूसरा सबसे बड़ा नगर है। कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसा शहर मुख्य रूप से एक औद्योगिक नगरी है। शहर रेल और सड़क और वायु मार्ग से अच्छी तरह पूरे भारत से जुड़ा है। दक्षिण भारत के मैनचेस्टर के नाम से प्रसिद्ध कोयंबटूर एक प्रमुख कपड़ा उत्पादन केंद्र है। नीलगिरी की तराई में स्थित यह शहर पूरे साल सुहावने मौसम का अहसास कराता है। दक्षिण से नीलगिरी की यात्रा करने वाले पर्यटक कोयंबटूर को आधार शिविर की तरह प्रयोग करते हैं। कपड़ा उत्पादन कारखानों के अतिरिक्त भी यहां बहुत कुछ है जहां सैलानी घूम-फिर सकते हैं। यहां का जैविक उद्यान, कृषि विश्‍वविद्यालय संग्रहालय और वीओसी पार्क विशेष रूप से पर्यटकों को आकर्षित करता है। कोयंबटूर में बहुत सारे मंदिर भी हैं जो इस शहर के महत्व को और भी बढ़ाते हैं।

एच. ए. गॉस फोरेस्ट म्यूजियम
हाथी के बच्चे का भ्रूण

एच. ए. गॉस फोरेस्ट म्यूजियम (Gauss Forest Museum): हमारी बस तो कोयंबटूर स्टेशन पर ही तैयार खड़ी थी जिससे हम एच. ए. गॉस फोरेस्ट म्यूजियम (Gauss Forest Museum) पहुंचते हैं। एच. ए. गॉस (Horace Arichibald Gauss) यहाँ के वन संरक्षक थे जिन्होंने अपना व्यक्तिगत संग्रह प्रारम्भ किया था जो बाद में वर्ष 1902 में एक वन संग्रहालय के रूप में स्थापित किया। यहीं सदर्न फोरेस्ट रेंजर कालेज है और एस. एफ. एस. ट्रेनिंग कालेज भी हैं। यहाँ के प्रिंसिपल ने इस म्यूजियम के बारे में कुछ ख़ास बातें बताई। उन्होंने बताया कि मृत पक्षियों की ट्रॉफी का अच्छा संग्रह है। इनमें हैरियर पक्षी की ट्रॉफी भी है जिसको जनरल पटेरा ने यहाँ देखा था तब अपने अफसरों को हुक्म दिया था कि इसका चित्र बनाया जाये। तबसे एयर फ़ोर्स के अफसरों ने यहाँ आने और इन पक्षियों को देखने का एक नियम सा बना लिया है। वन विभाग स्कूली बच्चों के लिए यहाँ प्रदर्शित पक्षियों के पहचानने की प्रतिवर्ष प्रतियोगिता आयोजित करता है. अधिकांश बच्चे पक्षियों को ठीक-ठीक पहचान लेते हैं और उनके पहचान के लिए पक्षीविद सलीम अली की पुस्तक 'भारत के पक्षी' आधार स्रोत होता है। म्यूजियम के बारे में अन्य बताई गयी बातों में मुख्य हैं:

हाथी के बच्चे के भ्रूण की तीन अवस्थाएँ - दूसरे, चौथे और 14वें महीने की संरक्षित हैं। हाथी दांत का जोड़ा है जिसमें महात्मा गांधी का चित्र लगा है। किंग कोबरा की 11.5 फिट लम्बी चमड़ी है। यहाँ चन्दन वृक्ष का तना 1.75 टन वजन का है।

फोरेस्ट म्यूजियम से ऊटी रवाना होकर रास्ते में साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड फैक्टरी देखी।

साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड फैक्टरी - साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड (South India Viscose Ltd.) फैक्टरी में युक्लिप्टस से रेयान कपड़ा बनाया जाता है। नीलगिरि पर्वतों से युक्लिप्टस आता है जो कंपनी लाती है और वन विभाग प्रदाय करता है। युक्लिप्टस की ग्रोथ दश साल में पूरी हो जाती है तब काट लिया जाता है। यह काफी बड़ी फैक्टरी है जहाँ चार हजार मजदूर काम करते हैं। मजदूरों को यहाँ 40 % बोनस दिया जाता है सैलरी रु. 500 – 1200/- तक पड़ती है। यहाँ रैयान बहुत अच्छी गुणवत्ता का बनता है। हमारे लंच का प्रबंध कंपनी की कैंटीन में ही किया गया था।

नीलगिरि पहाड़ियाँ में वाटल वृक्ष (wattle or acacias)

इसके बाद टैन इंडिया लिमिटेड कंपनी (Tan India Ltd.) देखने गए जहाँ पर वाटल वृक्ष (wattle or acacias) से टैनिन बनाया जाता है।

नीलगिरि पहाड़ियाँ तमिलनाडु राज्य का पर्वतीय क्षेत्र है। यह सुदूर दक्षिण की पर्वत श्रेणी है। इन पहाड़ियों पर पश्चिमी एवं पूर्वी घाटों का संगम होता है। प्राचीन काल में यह श्रेणी मलय पर्वत में सम्मिलित थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि महाभारत, वनपर्व 254, 15 ('स केरलं रणे चैव नीलं चापि महीपतिम्') में कर्ण की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में केरल तथा तत्पश्चात् नील नरेश के विजित होने का जो उल्लेख है, उससे इस राजा का नील पर्वत के प्रदेश में होना सूचित होता है।

ऊटी पहुंचते-पहुंचते रात के 9 बज गए थे इसलिए खाना खाया और सो गए। ऊटी में हम नटराज होटल में रुके।

लक्ष्मण बुरड़क-जेएस सहरावत,ऊटी के सोला फोरेस्ट
डोडा-बेट्टा वन विश्राम गृह ऊटी में जेएस सहरावत, सुरेश काबरा, एएस अहलावत, लक्ष्मण बुरड़क

27.12.1981: ऊटी (Ooty) या ऊटकमण्ड (AS, p.104) एक रमणीक पर्वतीय नगर है। ऊटकमण्ड का प्राचीन रूप उदकमंडल कहा जाता है। ऊटकमण्ड को ही सामान्यतया ऊटी कहते हैं। ऊटी का पुराना नाम ऊटकमण्ड और उदगमंडलम भी था।

ऊटी कोयंबटूर से 86 किमी उत्तर में स्थित है. ऊटी नीलगिरि जिले का मुख्यालय है। नीलगिरि जिले से पूर्व में मुख्यत: नीलगिरि के पर्वतीय क्षेत्र हैं। इसमें अनेक पहाड़ी नदियाँ हैं। यहाँ की पहाड़ी नदियाँ मोयार तथा भवानी नदियों में गिरती हैं। यह ज़िला शीतोष्ण कंटिबंधीय तथा तरकारियों के उद्यानों एवं प्रायोगिक कृषि क्षेत्रों से सुशोभित है। यहाँ मक्का, बाजरा, गेहूँ तथा जौ की खेती होती है। यहाँ सिनकोना के बाग़ान हैं। सिनकोना से कुनैन निकालने का कारखाना नाडुबट्टम में है। नीलगिरि ज़िला यूकेलिप्टस, चाय तथा कॉफ़ी के बाग़ानों से परिपूर्ण है। पायकारा जलविद्युत केंद्र प्रणाली का हेडवर्क यहीं पर है। यहाँ के प्रसिद्ध नगरों में ऊटकमण्ड, कूनूर तथा कोटागिरि मुख्य हैं। इस ज़िले की जनसंख्या का 30 प्रतिशत पहाड़ी जातियों का है, जिनमें कोटा तथा टोडा प्रमुख हैं।

नीलगिरि की पर्वतमाला भारत की कुछ विशिष्ट आदिम जातियों का निवास स्थान है। इस पर्वतमाला की ऊंचाई समुद्र तल से लगभग 6000 से 7000 फीट तक है। यह पर्वतमाला घने वनों से आच्छादित है जिसमें कहीं-कहीं ऊंचा पठार क्षेत्र भी पाया जाता है। यही पठार यहां रहने वाली जनजातियों का निवास स्थान है। यहां की जनजातियों में टोडा, बडागा तथा कोटा प्रमुख हैं। आदिकाल से, बाहरी सम्पर्क से कटे रहने के कारण जिस तरह यहां की जनजातियों ने परस्पर विनिमय का प्रबंध् स्थापित किया है वह अपने आप में अद्वितीय है।

कोटा जनजाति: भारत के तमिलनाडु राज्य के नीलगिरि पहाड़ियों में निवास करने वाली एक जनजाति है। इनको 'कोव' और 'कोतर' भी कहते हैं। संख्यात्मक रूप से कोट हमेशा एक छोटा समूह रहे हैं। उनकी संख्या कभी भी 1,500 से अधिक नहीं रही है। वे पिछले 160 वर्षों से सात गाँवों में फैले हुए बस्ते हैं। उन्होंने अन्य समूहों के लिए कुम्हार, कृषिविद्, चमड़ा कार्यकर्ता, बढ़ई, काले स्मिथ और संगीतकार के रूप में एक जीवन शैली को बनाए रखा है। ब्रिटिश औपनिवेशिक काल के बाद से उन्होंने शैक्षिक सुविधाओं का लाभ उठाया है और अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार किया है और अब जीवनयापन करने के लिए प्रदान की जाने वाली पारंपरिक सेवाओं पर निर्भर नहीं हैं।

टोडा जनजाति: टोडा जनजाति के लोग तमिलनाडु के एकान्त नीलगिरि पठार पर रहते हैं। यह टोडा भाषा बोलते हैं, जो कन्नड़ भाषा से सम्बन्धित एक द्रविड़ भाषा है। प्रकृति की गोद में साधरण जीवन व्यतीत करने के कारण ये लोग पशु-धन से अपने सामाजिक स्तर का आकलन करते हैं। जिस व्यक्ति के पास अधिक पशु-धन होता है, समाज में उसका स्तर ऊंचा माना जाता है। टोडा लोग समूह में निवास करना पसंद करते हैं।

बडागा जनजाति: बडागा जनजाति यहां मुख्य रूप से कृषि कार्य करती है और कोटा लोग बर्तन, लकड़ी व लोहे के विभिन्न उपकरण आदि बनाते हैं, वहीं टोडा पशुपालकों के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। बडागा तथा कोटा जनजातियां लोगों को अन्न, वस्त्र, बर्तन, घरेलू उपकरण आदि उपलब्ध कराती हैं और उनके बदले दूध्, घी, मक्खन आदि पदार्थ प्राप्त करती हैं। इस प्रकार घने वन क्षेत्र में ये जनजातियां परस्पर निर्भर रहते हुए अपना जीवनयापन करती हैं। टोडा जनजाति मुख्यत: दो इकाईयों में विभक्त है- तेवाल्याल व टरथारोल। आम भाषा में इन्हें तैवाली व टारथर भी कहा जाता है। प्रथम इकाई पैकी तथा दूसरी इकाई पेक्कन, कट्टन, केन्ना तथा टोडी उप-इकाईयों में बंटी हुई है। यह दोनों मुख्य इकाईयां आपस में वैवाहिक संबंध् स्थापित नहीं करती हैं। तेवाल्याल इकाई के लोग ही धर्मिक क्रिया-कलापों को सम्पन्न कराते हैं। इस प्रकार टोडा समाज में उनकी भूमिका कुछ-कुछ हिन्दू पुजारियों जैसी होती है। टोडा जनजाति की भाषा में तमिल भाषा के काफी शब्द पाए जाते हैं और शेष बडागा जनजाति की भाषा से मिलते हुए होते हैं। परंतु फिर भी टोडा लोग तमिल को भली प्रकार बोल-समझ लेते हैं। प्रकृति की गोद में साधरण जीवन व्यतीत करने के कारण ये लोग पशु-ध्न से अपने सामाजिक स्तर का आकलन करते हैं। जिस व्यक्ति के पास अधिक पशु-धnन होता है, समाज में उसका स्तर ऊंचा माना जाता है। टोडा लोग समूह में निवास करना पसंद करते हैं। अक्सर ही इनकी आबादी अलग-अलग स्थानों पर पांच-सात झोपड़ियों, एक दुग्ध् उत्पादन स्थान (डेयरी) वे एक पशु-धन को रखने के स्थान में सिमटी हुई होती है।

टोडा लोगों की झोपड़ियों की ऊंचाई आठ से दस फीट होती है परंतु तुलनात्मक दृष्टि से इनकी लम्बाई लगभग दोगुनी होती है। इनकी छत भूमि से एक-दो फीट की ऊंचाई से प्रारम्भ होते हुए अर्ध्द गोलाकार रूप में समस्त झोपड़ी को ढक लेती है। इनका मुख्य द्वार आगे से इतना बंद होता है कि झोपड़ी के अंदर रेंगकर जाना पड़ता है और इस द्वार को भी वह रात्रि में लकड़ी के लट्ठे से पूर्णतया बंद करके रखते हैं। झोपड़ी के चारों ओर भी पत्थरों को जोड़कर दो-तीन फीट ऊंची दीवार बनाई जाती है जिसमें अंदर आने के लिए बहुत छोटा सा द्वार छोड़ा जाता है। सम्भवत: वन्य जीवों से स्वयं की रक्षा करने के लिए ही टोडा संस्कृति में इस आकार-प्रकार की झोपड़ियां बनाने की परम्परा का समावेश हुआ है। झोपड़ी के अंदर एक चबूतरा होता है जिसे चटाई से ढंक दिया जाता है। इसका प्रयोग सोने के लिए किया जाता है। इसके ठीक दूसरी तरफ खाना पकाने का स्थान होता है। टोडा लोग दैनिक कृत्यों के लिए तो आग जलाने के आधुनिक साधनों जैसे माचिस आदि का प्रयोग करते हैं। लेकिन धर्मिक रीति-रिवाजों के समय व संस्कारों के निर्वहन में लकड़ी रगड़कर आग उत्पत्र करने के पारम्परिक तरीके को अपनाते हैं।

टोडा लोग विशेष रूप से अच्छी नस्ल की भरपूर दूध देने वाली भैंसों को पालते हैं। पशु-पालन से संबंध्ति समस्त कार्य पुरुष ही करते हैं। ये लोग स्त्रियों को अपवित्र मानते हैं, इसलिए धर्मिक क्रिया-कलापों तथा दुग्ध्-उत्पादन संबंधी कार्यों में इनकी कम ही भूमिका रहती है। पशुओं को चराने का काम टोड बच्चों के सुपुर्द रहता है। पशुओं को चराने के लिए निश्चित चरागाहें होती हैं। इस जनजाति के लोग भैंसों को दो समूहों में बांट कर रखते हैं। एक सामान्य पवित्र भैंसें व दूसरी सर्वाध्कि पवित्र भैंसे। साधरण पवित्र भैंसे विभिन्न परिवारों की सम्पत्ति होती हैं तथा उनकी देखभाल उन्हीं परिवारों के सदस्य करते हैं। वहीं सर्वाध्कि पवित्र भैंसे पूरे गांव की सम्पत्ति होती हैं। इनकी देखभाल विभिन्न विधिवधानों से सामूहिक तौर पर की जाती है। सर्वाधिक पवित्र भैंसों के लिए गांव से थोड़ा दूर हट कर एक पवित्र स्थान का निर्माण किया जाता है। इस पवित्र स्थान के कार्य संचालन के लिए विशेष संस्कारों का पालन करने वाले एक व्यक्ति को चुना जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में पलोल कहा जाता है। पलोल को पुजारी की भांति पवित्र माना जाता है और उसके द्वारा ब्रहाचर्य का पालन करना आवश्यक माना जाता है। यदि वह विवाहित होता है तो उसे अपनी पत्नी को छोड़ना पड़ता है।

आदिकाल से टोडा जनजाति में बहुपति प्रथा का प्रचलन भी रहा है। जब भी किसी व्यक्ति का विवाह सम्पन्न होता है तो उसकी पत्नी को स्वत: ही उस व्यक्ति के भाईयों की पत्नी मान लिया जाता है। परंतु संतानोत्पत्ति के समय यह आवश्यक नहीं है कि जो व्यक्ति उस स्त्री को ब्याह कर लाया हो वही उस संतान का पिता कहलाए। इसलिए सामाजिक व पारिवारिक कर्तव्यों के निर्वाह के लिए टोडा समाज में पिता निर्धारित करने की एक विशेष परम्परा है। इसके अनुसार गर्भ के सातवें महीने में जो भी भाई अपनी पत्नी को पत्ती और टहनी से बना एक प्रतीकात्मक ध्नुष-बाण भेंट करता है, वही उसकी होने वाली संतान का पिता कहलाता है। हालांकि इतना अवश्य है कि यदि बड़ा भाई जीवित हो तो अक्सर वही उस स्त्री को प्रतीकात्मक ध्नुष-बाण भेंट करते हुए परम्परा का निर्वाह करता है। कई बार ऐसा भी होता है कि प्रतीकात्मक ध्नुष-बाण भेंट करने वाले भाई की मृत्यु हो जाती है। ऐसी स्थिति में भी वह न सिर्पफ अपनी मृत्यु से पहले उत्पन्न होने वाली संतानों का पिता कहलाया जाता है वरन् उसकी मृत्यु के बाद भी उत्पन्न होने वाली सभी संतानों का तब तक पिता कहलाता है, जब तक कि कोई अन्य भाई अपनी पत्नी को प्रतीकात्मक ध्नुष-बाण भेंट न कर दे।

टोडा स्त्रियां व पुरुष दोनों ही सफेद रंग का लाल व नीली धरियों वाला वस्त्र धरण करते हैं जिसे स्थानीय भाषा में पुटकली कहा जाता है। टोडा लोग इसको स्वयं नहीं बुनते हैं। अन्य स्थान से लेकर वे इसको कलात्मक कढ़ाई से सजाते हैं। टोडा स्त्रियों का अध्कितर समय सिर में तेल लगाने, बाल बनाने, कढ़ाई करने व भोजन तैयार करने में जाता है। यौवनकाल आरम्भ होने से पहले ही टोडा युवतियों में गोदना करवाने की परम्परा भी पाई जाती है। अक्सर बिंदुओं से ही गोदने का चित्रण किया जाता है। इसके लिए ये लोग कांटे का प्रयोग करते हैं और गोदने के बाद इसमें लकड़ी के कोयले से रंग भर देते हैं। टोडा पुरुषों की लम्बाई औसत से कुछ अध्कि होती है और वे मजबूत कद-काठी के होते हैं।

सम्भवत: हर पुरुष के दाहिने कंधे पर पुराने घाव का निशान या गांठ पाई जाती है। यह कंधे को जलती लकड़ी से दागने से बन जाती है, जिसे कि एक संस्कार के रूप में हर बालक पर बनाया जाता है जब उसकी आयु बारह वर्ष की होती है। उस समय से वह भैंसों का दूध् दुहना प्रारम्भ करता है। टोडा लोगों का मानना है कि इससे दूध् दुहने के समय दर्द व थकान नहीं होती है। इसी प्रकार गर्भवती स्त्रियों की अंगुलियों के जोड़ों व कलाई पर तेल में भीगे जलते हुए कपड़े से एक बिन्दु बनाया जाता है। इस सम्बन्ध् में उनका मानना है कि इससे गर्भ के दौरान स्वास्थ्य की रक्षा होती है और वह किसी बुरी छाया से बची रहती हैं।

टोडा जनजाति में एक अन्य अद्भुत परम्परा है। प्राकृतिक संसाधनो पर निर्भर होने के कारण टोडा लोगों को नीलगिरि की पहाड़ियों में अक्सर ही पशु चारे के लिए घास के नए मैदानों की खोज करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में कभी-कभी पूरा गांव ही अपने सदस्य परिवारों के साथ स्थानांतरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त, टोडा लोग कई बार अपने त्यागे गए रहने के पुराने स्थानों की भी र्ध्म भाव से यात्र करते हैं। इन यात्रओं में वे अपने परिवारों व पशु-ध्न को साथ ले जाते हैं। दोनों ही स्थितियों में परिवारों की स्त्रियां व लड़कियां पशुओं के झुण्ड के पहाड़ियों के ढेढ़-मेढ़े मार्ग से निकल जाने तक एक स्थान पर बैठी रहती हैं। जबकि पुरुष घरेलू सामान को उठाकर झुण्ड के समानान्तर मार्ग पर ही चलने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार उचित स्थान पर पहुंचने के उपरान्त वे सामान रखकर पुन: अपनी स्त्रियों व लड़कियों के पास आते हैं और एक-एक करकें उन्हें हाथों से उठाकर वह मार्ग पार कराते हैं। इस प्रकार वे अपनी स्त्रियों और लड़कियों को गाय-भैंस के खुरों से बने रास्ते को चलकर पार नहीं करने देते हैं।

ऊटी में हम नटराज होटल में रुके। सुबह जल्दी ही यहाँ के डी. एफ.ओ. नटराज होटल में आ गए थे जो आज हमारे साथ भ्रमण पर जाने वाले थे। उन्होने हमें नीलगिरि के वनों के बारे में जानकारी दी। ऊटी में पहले वनों की ख़ास अवस्था हुआ करती थी। यहाँ नालों में वृक्ष होते थे और पहाड़ों की चोटियों पर सिर्फ घास। इस प्रकार के वनों को सोला वन कहा जाता है। अंग्रेजों ने यहाँ घास की जगह एक्जोटिक पेड़ लगाए जिनमें युक्लिप्टस, वाटल, और पाईन मुख्य हैं। यहाँ की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहाँ ज्यादातर लोग सब्जियां ही लगाते हैं। शेष सारी चीजें नीचे के मैदानों से आती हैं। हजारों ट्रक सब्जियां यहाँ से रोज भरकर नीचे मैदानों में जाती हैं। यहाँ पर काफी चाय-बागान और प्रायवेट-फोरेस्ट भी हैं। वनों के बीच हरे-भरे और कहीं-कहीं कटी फसलों का दृश्य मन को मोह लेता है। बस से हम एमेराल्ड बाँध (Emerald Lake) और अवेलांची झील (Avalanche Lake) देखने गए। एक गाँव तक हम बस से गए। उससे आगे बस नहीं जा सकती थी तो दो ट्रक का प्रबंध किया गया और उनमें बैठ कर अवैलांची वनविश्राम गृह पहुंचे। यहाँ पर चाय-पान का प्रबंध किया गया था। यह विश्रामगृह बहुत ही अच्छी जगह पर बना हुआ है। एक तरफ काफी नीचे एक झील है और चारों तरफ घना जंगल है जिसमें से पार होना मुश्किल है। दिन के तीन बजे लौटकर आये और फिर लेक पर गए। मुथोराई नर्सरी (Muthorai Nursery) देखी। इसमें यूकेलिप्टस (Eucalyptus globulus) और पाईन (Pinus patula) के पौधे तैयार किए जाते हैं.यह नर्सरी ऊटी से 5 किमी दक्षिण में स्थित है।

जन-जीवन: यहाँ के लोग काफी सीधे-सादे हैं। ये भाषा सिर्फ तमिल ही समझते हैं। परन्तु अंग्रेजी जानने वाले को कोई दिक्कत नहीं होती है। दुकानों और होटलों में हिंदी भी समझ लेते हैं।

डोडा-बेट्टा चोटी ऊटी पर बायें से सुरेश काबरा, एएस अहलावत, लक्ष्मण बुरड़क, एसके चंदोला, जेएस सहरावत

28.12.1981: ऊटी (Ooty) - सुबह आठ बजे जल्दी ही तैयार होकर डोडा-बेट्टा (Doddabetta) चोटी पर गए। यहाँ गेट तक बस जाती है। यह चोटी ऊटी-कोटागिरी मार्ग पर 9 किमी दूर निलगिरी जिले में स्थित है. चोटी की ऊंचाई 8640 फीट है। यहाँ से चारों तरफ का दृश्य बड़ा ही सुहावना दिखाई देता है। पूर्व की तरफ देखिये तो उबलता हुआ समुद्र दिखाई देता है, बादल और पानी की रेखा एकदम मिली दिखाई देती है। यहाँ अलग से देखपाना सम्भव नहीं है कि कहाँ पानी ख़त्म होकर बादल में बदल जाता है। सागर के ऊपर के ये बादल आपसे काफी नीचे दिखाई देते हैं। पश्चिम और उत्तर की तरफ बसा हुआ है ऊटी शहर और आस-पास की छोटी-छोटी बस्तियां। ऊटी की विशेषता दूसरे हिल स्टेशनों की तुलना में यह है कि यह प्लेटो पर बसा हुआ है और इतनी गहरी ढलान नहीं है। पूरा शहर कटोरी की तरह लगता है। उत्तर की तरफ फोरेस्ट रेस्ट हाउस है जो अपनी छटा अलग ही बिखेर रहा है। चोटी से लौटकर सबसे पुराना युक्लिप्टस का वृक्षारोपण देखने गए जो अंग्रेज अधिकारी ट्रूप ने सन 1863 में लगाया था। यहीं है सबसे लम्बा युक्लिप्टस का वृक्ष जिसकी ऊंचाई है 78 मीटर।

बॉटनिकल गार्डन ऊटी में जेएस सहरावत, एएस अहलावत, एससी जोशी, लक्ष्मण बुरड़क, एसके चंदोला, आरएस सुरेश

बॉटनिकल गार्डन ऊटी: डोडा-बेट्टा से लौटकर हम बॉटनिकल गार्डन देखने गए। 55 हेक्टर में फैला यह बॉटनिकल गार्डन काफी अच्छा है। यहाँ के मैनेजर ने साथ होकर पूरा गार्डन दिखाया। बॉटनिकल गार्डन वर्ष 1848 में स्थापित किया गया था. इसके आर्किटेक्ट William Graham McIvor थे. यह मूल रूप से युरोपियन लोगों को सस्ती सब्जी उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया था. इसका रख-रखाव होर्टीकल्चर विभाग द्वारा किया जाता है. बॉटनिकल गार्डन में हजारों की संख्या में देशी और एग्जोटिक वृक्ष और पादप प्रजातियाँ लगाई गई हैं. गार्डन के मध्य में एक वृक्ष का फोसिल रखा है जो 2 करोड वर्ष पुराना माना जाता है. यहाँ की कंजरवेटरी काफी प्रतिष्ठा की मानी जाती है जिसमें सभी तरह के सुंदर बहुरंगी फूलवाले पौधों का संग्रह है।

यहाँ लंच लेकर हम मदुमलाई पहुंचे।

नोट - इन छाया चित्रों में हमारे दिखाये गए श्री सुरेश काबरा इंडियन रिवेन्यू सर्विस (IRS) में चले गए तथा श्री जेएस सहरावत कुछ समय पहले स्वर्गवासी हो चुके हैं।

मुदुमलाई सैंक्चुअरी (तमिलनाडु)

28.12.1981:

मुदुमलाई सैंक्चुअरी के वन

मुदुमलाई सैंक्चुअरी (Mudumalai Wildlife Sanctuary): शाम को हम मुदुमलाई पहुँच गए जहाँ का कार्यक्रम पहले से तय नहीं था परन्तु अचानक बना लिया गया था और एक दिन पहले ही पहुँच गए थे फिर भी वहाँ के स्थानीय अधिकारियों ने अच्छा स्वागत किया और रहने की व्यवस्था भी बड़ी अच्छी करदी। रात को वन विश्राम गृह 'लोग हाउस' के वी. आई. पी. सूट में रहने की व्यवस्था हो गयी। मुदुमलाई तमिलनाडु के नीलगिरि जिले में उत्तरी सीमा पर स्थित है। यह कर्नाटक और केरल की सीमा को छूती है। रात को खाने की व्यवस्था वहीँ विश्रामगृह में की गयी थी। खाना मद्रासी था परन्तु खाकर तबियत खुश हो गयी। मद्रास के लोग काफी ठीक लगे यद्यपि यहाँ भाषा की समस्या जरूर है। वनविभाग का प्रभाव भी जनता में अच्छा लगा।

मुदुमलाई बहुत अच्छी सैंक्चुअरी है। इसका प्रचार-प्रसार भी पर्याप्त हुआ है. यहाँ पर्यटक काफी संख्या में आते हैं. पर्यटकों के लिए पर्याप्त संख्या में विश्राम गृह और हट बने हुये हैं. हम लोग हाउस में रुके थे जो सर्वोत्तम साईट मनी जाती है. यहाँ से आस-पास की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है. घूमने के लिए वन विभाग जीप और हाथी उपलब्ध कराता है. हाथी का चार्ज प्रति व्यक्ति रु.5/- लिया जाता है. आप भाग्यशाली होंगे यदि प्राकृतिक वातावरण में बाईसन के दर्शन हो जायें.

29.12.1981: मुदुमलाई सैंक्चुअरी - सुबह 6 बजे ही तैयार होकर रिशेप्शन पर जाना था वहाँ जाकर पता लगा कि डीन साहब अभी आये नहीं। वे दूर के एक विश्रामगृह में रुके थे। वहाँ जीप गयी नहीं इसलिए नहीं आ सके। हम लोग हाथियों पर सवार होकर जंगल निकले। यहाँ का ख़ास आकर्षण बाइसन है जो नहीं देख पाये। करीब दो घंटे की हाथी की सवारी थी। इस बीच कुछ हिरन देखने को मिले।

अनूप भल्ला के साथ एक बड़ी मनोरंजक घटना घटी। श्री अनूप भल्ला को हाथी पर ही पेशाब आने लगा। भल्ला ने महावत से कहा कि मुझे उतार दो। महावत ने कहा यहाँ उतरना ठीक नहीं है। इससे हाथी चिड़ सकता है। कुछ दूर चले पर भल्ला रोक नहीं पाया सो महावत ने हाथी को पेड़ के सहारे लगाया और भल्ला पेड़ पर चढ़कर नीचे उतर गये। पेशाब करके जब वह वापस पेड़ पर चढ़कर हाथी पर चढ़ने लगा तो हाथी ने जोर से आवाज कर के सूंड घुमाई कि भल्ला पेड़ पर ही घबरा गया। इससे एक हाथ पेड़ से छूट गया और दूसरे हाथ से पेड़ को पकड़े रहा। वह पेड़ के चारों तरफ घूम गया और गिरते-गिरते बचा।

'लोग हाउस' मुदुमलाई में जेएस सहरावत, एएस अहलावत, मिस एल्ला, लक्ष्मण बुरड़क

घूमकर वापस आये तो किसी ने बताया कि पास ही एक पेड़ पर मरा हुआ तेंदुआ लटक रहा है। वहाँ जाकर देखा तो पता लगा कि कोई तीस मीटर ऊपर पेड़ की दो डालियों के बीच गर्दन से लटक रहा है। पीछे का हिस्सा नोंच रखा था - शायद कौओं ने खाया होगा।

लोग हाउस जिसमें हम रुके थे, के आगे ही गहरी घाटी में नदी बहती है। वहीँ बहुत सारे लंगूर पेड़ों से लटक रहे थे और भांति-भांति की हरकतें कर रहे थे। वहीँ पास ही पटिये पर बैठी हुई इंग्लैंड की महिला मिस एल्ला (Miss Ella) उन लंगूरों का चित्र बना रही थी। हम लोगों ने भी कुछ देर उन लंगूरों की हरकतों को देखा। हमारे समूह ने मिस एल्ला से उनके साथ फ़ोटो खिंचवाने का आग्रह किया और वह तैयार हो गयी। उसके साथ एक फ़ोटो लिया।

मुदुमलाई की समुद्र तल से ऊंचाई 2048 मीटर है। यह ऊटी के बाद दूसरा पठार पर स्थित शहर है। यहाँ तीन सैंक्चुअरी मिलती हैं: बांदीपुर अभयारण्य (Bandipur Wildlife Sanctuary) (कर्नाटक), वायनाड अभयारण्य (Wayanad Wildlife Sanctuary) (केरल) और मुदुमलाई अभयारण्य (Mudumalai Wildlife Sanctuary) (तमिलनाडू), जिनको मिलाकर राष्ट्रीय उद्यान बनाने का विचार चल रहा है। 321 वर्ग किलोमीटर में फैला दक्षिण भारत में अपनी तरह का पहला मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य केरल-कर्नाटक सीमा पर स्थित है। इस अभयारण्य के पास ही बांदीपुर अभयारण्य है। इन दोनों अभयारण्यों को मोयार नदी (Moyar River) अलग करती है। मैसूर और ऊटी को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग इस अभयारण्य से होकर गुजरता है।

थेप्पाक्कडु हाथी कैंप

मुदुमलाई में वन्यजीवों की अनेक प्रजातियां देखने को मिलती हैं जैसे लंगूर, बाघ, हाथी, गौर और उड़ने वाली गिलहरियां। इसके अलावा यहां अनेक प्रकार के पक्षी भी देखे जा सकते हैं जैसे मालाबार ट्रॉगन, ग्रे हॉर्नबिल, क्रेस्टिड हॉक ईगल, क्रेस्टिड सरपेंट ईगल आदि। फरवरी से जून के बीच का समय यहां आने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। यहां पर वनस्पति और जन्तुओं की कुछ दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं और कई लुप्तप्राय:जानवर भी यहां पाए जाते हैं। हाथी, सांभर, चीतल, हिरन आसानी से देखे जा सकते हैं। जानवरों के अलावा यहां रंगबिरंगे पक्षी भी उड़ते हुए दिखाई देते हैं। अभयारण्य में ही बना थेप्पाक्कडु हाथी कैंप बच्चों को बहुत लुभाता है।

मुदुमलाई (तमिलनाडू) से नीलाम्बुर (केरल)

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29.12.1981: मुदुमलाई (11.30) (तमिलनाडू) - नीलाम्बुर (15.00) (केरल)

साढ़े ग्यारह बजे मुदुमलाई से नीलाम्बुर (Nilambur) के लिए रवाना हुए। मुदुमलाई से नीलाम्बुर की तरफ आते समय देखा कि यहाँ घने चौड़ी पत्ती वाले जंगल हैं। पहाड़ी रास्ता है और सारे पहाड़ सघन वनों से आच्छादित हैं। इसी बीच हमने मद्रास की सीमा पार कर केरल में प्रवेश किया। मद्रास के लोग काफी अच्छे लगे। वस्तुओं, ख़ास कर खाने-पीने की चीजों के, दाम काफी कम थे। मद्रास के सभी लोग आमतौर पर काले हैं परन्तु कुछ कम लोग ही गोरे मिलते हैं। केरल के ज्यादातर लोग सामान्य सांवले रंग के हैं।

हमलोग करीब तीन बजे दोपहर नीलाम्बुर पहुंचे। यहाँ जयश्री लाज में व्यवस्था थी। यह छोटासा शहर है और यहाँ कोई ख़ास घूमने की जगह नहीं हैं। प्रायः सभी लोग लूंगी में ही घूमते हैं जिसको ऊपर कर दोहरा कर लेते हैं। यहाँ तक कि स्कूली बच्चे भी यही ड्रेस पहनते हैं। स्कूली लड़कियों की ड्रेस अच्छी लगी जिसमें घाघरा और ऊपर कुर्ती जैसा ब्लाउज है जो लम्बा होकर नीचे घाघरे तक पहुंचता है। यहाँ बहुत गर्मी है और वातावरण नम होने से पसीना सूखता ही नहीं है।

नीलाम्बुर टीक प्लांटेशन

30.12.1981: नीलाम्बुर - नीलाम्बुर केरल प्रांत के मलप्पुरम जिले में चलिहार नदी (Chaliyar River) के मुहाने पर स्थित है. नीलाम्बुर का नाम निलिम्ब (Nilimba) से पड़ा है जो संस्कृत में बांस के लिए प्रयुक्त किया जाता है। नीलाम्बुर के आस-पास बहुतायत में सागौन वन होने के कारण इसको सागौन का कस्बा नाम से भी जाना जाता है.

सबसे पुराना सागौन वृक्षारोपण: हम सुबह जल्दी तैयार होकर विश्व का सबसे पुराना सागौन का वृक्षारोपण देखने निकले जो नीलाम्बुर से 2 किमी दूर स्थित है। बस से उतर कर चलिहार नदी (Chaliyar River) को नाव से पार किया। नदी को यहाँ पूजा कहा जाता है। नदी का दृश्य बड़ा ही सुहाना था। ठीक मुहाने के ऊपर लम्बे-लम्बे पेड़ हैं। नदी को पार करते ही सबसे पुराना टीक का प्लांटेशन मिलता है। समुद्री जहाजों के लिए टीक की अच्छी लकड़ी मिलती रहे इस उद्देश्य से मलाबार के तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर एचवी कोनोली (Henry Valentine Conolly) ने यह प्लांटेशन करवाया था। सन 1846 मे बड़ी कठिनाइयों के बाद उप वन संरक्षक श्री चातुमेनन यह टीक प्लांटेशन करवाने में सफल रहे थे। सबसे बड़ा पेड़ इस समय (वर्ष 1980) 47.50 मीटर ऊँचा है जिसकी गोलाई 4.14 मीटर है. रु. 9000 प्रति घनमीटर की दर से इसकी 4 लाख रुपये कीमत है। बहुत गर्मी और अधिक वर्षा होने से यहाँ का पेड़ जल्दी बढ़ते हैं। इन्हीं कलेक्टर एचवी कोनोली को 11 सितंबर 1855 को मपिल्ला मुस्लिम लोगों द्वारा उनके नेता सैयद फ़ज़ल के ख़िलाफ़ कलेक्टर द्वारा कार्रवाई करने के कारण कालीकट में कलेक्टर निवास पर ही हत्या करदी थी।

30.12.1981: नीलाम्बुर (11.00) - कालीकट - नीलाम्बुर (23.00)

नीलाम्बुर से सुबह 11 बजे कालीकट (Calicut) (केरल) के लिए रवाना हुए। कालीकट में वहाँ के कंजरवेटर मिले जो श्री एन.के. जोशी के बैचमेट हैं। वे हमें मालाबार टाइल फैक्ट्री (Malabar Tile Factory) दिखाने ले गए। बाद में मालाबार प्लाईवुड फैक्ट्री (Malabar Plywood Factory) भी देखी। वहाँ के मैनेजर हमारे साथ रहे और फैक्ट्री दिखाने के बाद ताजा नारियल पानी पिलाया। फिर कालीकट (Calicut) का बीच देखने गए। यहाँ के समुद्र का किनारा इतना सुन्दर नहीं लगा। मछुआरे लोग मछलियां पकड़कर समुद्र से ला रहे थे। समुद्र के किनारे ही इन लोगों की झोंपड़ियां हैं। सारा मुहाना सड़ी मछलियों की गंध से महक रहा था। कंजरवेटर ने चाय-पान करवाया और फिर 8 बजे के करीब वापस रवाना हुए नीलाम्बुर के लिए। आते समय रस्ते में मंजेरी (Manjeri) में खाना खाया। रात के 11 बजे वापस नीलाम्बुर पहुंचे।

31.12.1981: नीलाम्बुर - नेदमकायम (Nedumkayam):

सुबह 12 बजे तक कोई प्रोग्राम नहीं था क्योंकि बस में कुछ गड़बड़ हो गयी थी। फिर लंच लेकर नीलाम्बुर से 14 किमी दूर स्थित नेदमकायम (Nedumkayam) फोरेस्ट रेस्ट हाउस पहुंचे वहाँ पर कंजरवेटर श्री चांदवासी, दो वनमंडल अधिकारी और कई रेंजर हमारा इन्तजार कर रहे थे। चाय-पानी पीकर हमने वहाँ का दृश्य देखा। ब्रिटिश काल में लकड़ी से बना यह विश्रामगृह बहुत ही सुन्दर जगह पर बना था। पास में ही करीम पूजा नदी (Karimpuzha River) बह रही है। नदी पर दो पल ब्रिटिश सरकार द्वारा यहाँ से सागौन के निकासी के लिए बनाये गए थे. यहाँ के हरे भरे रैन फोरेस्ट की छटा देखते ही बनती है. यहाँ से वनों में घूमते हुये हाथी और घास में चरते हुये हिरण बहुत सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं. वहाँ से डावसन की समाधी देखने निकले.

डावसन की समाधी नेदमकायम

डावसन की समाधी नेदमकायम (Dawson Grave Yard): ईएस डॉसन (E. S. Dawson) नामक फोरेस्ट इंजीनीयर 19 वीं शताब्दी में साहसिक जीवन व्यतीत करने के लिए यहाँ आये थे। वर्ष 1931 और 1933 में उन्होंने दो पुल बनाये। वे कनाडा के रहने वाले थे और अच्छे तैराक भी थे। पुल से डाइव किया करते थे। उनकी एक दिन पत्थर से सर टकराने से मौत हो गयी। डावसन की समाधी अब भी वहाँ बनी है जो उनके पसंदीदा सागौन वृक्षों से घिरे स्थान पर बनाई गई है।

हाथी कैम्प नेदमकायम (Elephant Kraal): पास ही हाथी कैम्प है जहाँ 8 हाथी हैं। इनको जंगल से पकड़ा गया था। यहाँ के आदिवासियों ने इनको प्रशिक्षण दिया था। सबसे छोटी हथिनी तीन साल की है। इसका नाम निशा है। निशा ने कई करतब करके दिखाए, यथा माला डालना, झंडा पहराना, लकड़ी के लट्ठे पर चलना, फूटबाल खेलना, माउथ ऑर्गन बजाना आदि। अब क़ानून बनाकर हाथी पकड़ना बंद कर दिया है। यहाँ के आदिवासी पनिया (Paniya tribe) कहलाते हैं।

सेंट्रल फोरेस्ट डिपो नेदमकायम: सेंट्रल फोरेस्ट डिपो नेदमकायम में इमारती लकड़ी के विक्रय की प्रक्रिया समझी। यह विक्रय वन मंडल द्वारा संचालित किया जाता है। इसके प्रभारी एक रेंज अफसर हैं। सौगौन का नीलाम इसी डिपो में किया जाता है जबकि रोज़वूड यहाँ से विक्रय के लिए कालीकट ले जाई जाती है। इस क्षेत्र में 1909 और 1919 के प्लांटेशन को रिटेन किया गया है जो डिपो में भंडारित लकड़ी को छाया प्रदान कर गर्मी से फटने से बचाते हैं।

केरल का जनजीवन: केरल में यह देखा गया कि किसी भी सड़क पर ऐसी जगह नहीं मिलती कि कहीं सड़क के दोनों और घर न बने हों। पूरे रास्ते में सड़क के दोनों और घर बने देखे गए। यह क्षेत्र कम विकसित माना जाता है फिर भी पढ़ाई लिखाई यहाँ भी काफी है। उत्पादन के तौर पर यहाँ इलायची, लौंग, व दूसरे अन्य मसाले खूब होते हैं। नारियल, सुपारी एवं रबड़ का उत्पादन भी खूब होता है। खेती की मुख्य फसल चावल है। काफी लोग अपने खेतों में रबड़ के पेड़ लगाते हैं क्योंकि प्रति हेक्टर सबसे ज्यादा कमाई इसी से होती है। इसमें ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता और पैसा भी नहीं लगता है। सुबह लोग जाते हैं और दश बजे तक रबड़ निकाल कर ले आते हैं।


1.1.1982: नीलाम्बुर (7.00) - गुडलुर - गुंदलुपेट - नंजनगुड़ - मैसूर (13.00) - बंगलौर (24.00)

Mysore district map

सुबह 7 बजे हम नीलाम्बुर (केरल) से बस द्वारा रवाना हुए. रास्ते में नीलगिरि जिले (तमिलनाडू) के गुडलुर (Gudalur) में ब्रेकफास्ट किया. उसके बाद कर्नाटक राज्य के चामराजनगर ज़िले में स्थित गुंदलुपेट (Gundlupet) तथा मैसूर जिले में स्थित नंजनगुड़ (Nanjangud) होते हुये दिन के एक बजे मैसूर (कर्नाटक) पहुंचे.

नोट - मैसूर (कर्नाटक) का भ्रमण: दक्षिण भारत की यात्रा भाग-5 में दिया गया है.

Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 21.7.2021

मैसूर (कर्नाटक) का भ्रमण: दक्षिण भारत की यात्रा भाग-5

लेखक (Laxman Burdak) को दक्षिण भारत के पर्यटन महत्व के प्रसिद्ध शहर मैसूर और बंगलौर (कर्नाटक) भ्रमण का अवसर भारतीय वन सेवा अधिकारियों के लिए आयोजित किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के समय दो बार मिला. पहली बार इन स्थानों की यात्रा जनवरी-1982 में 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान की गई थी. यह यात्रा दक्षिण भारत की एक लंबी यात्रा (22.12.1981 - 17.1.1982) का भाग था.

दक्षिण भारत यात्रा का क्रम : 22.12.1981 देहारादून (21.00) → 23.12.1981 दिल्ली (6.00), 23.12.1981 दिल्ली (20.20) → 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई), 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई) (21.00) → 26.12.1981 कोयंबटूर (6.00) → 26.12.1981 ऊटी (21.00) → 28.12.1981 मुदुमलाई (तमिलनाडु) (20.00) → 29.12.1981 नीलाम्बुर (केरल) (15.00) → कालीकटनेदमकायम, 1.1.1982 नीलाम्बुर (8.00) →मैसूरश्रीरंगपट्टनबंगलौर (24.00), 5.1.1982 बंगलौर → 6.1.1982 मद्रास (चेन्नई) (5.30) → महाबलीपुरम्, 8.1.1982 मद्रास (चेन्नई) → 9.1.1982 हैदराबाद (8.30) → 11.1.1982 हैदराबाद (22.00) → 12.1.1982 नागपुर (9.30) → 13.1.1982 रायपुर (6.00), 16.1.1982 रायपुर → 17.1.1982 दिल्ली (20.10) → 19.1.1982 देहारादून

यह यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है. दो वर्ष की इस अवधि में कालेज से विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षा प्राप्त कर आए व्यक्ति को किस प्रकार से अखिल भारतीय सेवा का एक अधिकारी तैयार किया जाता है. दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है.

मैसूर - बंगलौर की यात्रा दूसरी बार भी 8-12 सितंबर 2008 को की गई. उस समय की इंडियन फोरेस्ट कालेज (IFC) अब इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय फोरेस्ट अकादमी (IGNFA) कहलाती है. कुछ वन आधारित कंपनियों के नाम वर्ष 1981-82 की यात्रा विवरण में आए हैं वे वर्तमान में या तो बंद हो चुकी हैं या अपना कार्यक्षेत्र बदल लिया है. इससे हमें भारत में हो रहे विकास की दिशा और प्राथमिकताओं का पता भी लगता है. दक्षिण भारत के इन शहरों में इस अंतराल में जबर्दस्त विकास देखने को मिला. ये शहर संरचना विकास और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के उदीयमान चमकते हुये सितारे हैं. भ्रमण किए गए शहर का इतिहास और मुख्य पर्यटन स्थलों का विस्तृत विवरण लेख के अंत में दिया गया है और जानकारी को अद्यतन किया गया है.

नीलाम्बुर (केरल) - मैसूर - बंगलौर (कर्नाटक) यात्रा: जनवरी 1982

जनवरी 1982 में कर्नाटक के मैसूर तथा बंगलौर शहरों में केरल से प्रवेश किया था. यात्रा-क्रम इस प्रकार था:

1.1.1982: नीलाम्बुर (7.00) - गुडलुर - गुंदलुपेट - नंजनगुड़ - मैसूर (13.00) - बंगलौर (24.00)

Mysore district map

सुबह 7 बजे हम नीलाम्बुर (केरल) से बस द्वारा रवाना हुए. रास्ते में नीलगिरि जिले (तमिलनाडू) के गुडलुर (Gudalur) में ब्रेकफास्ट किया. उसके बाद कर्नाटक राज्य के चामराजनगर ज़िले में स्थित गुंदलुपेट (Gundlupet) तथा मैसूर जिले में स्थित नंजनगुड़ (Nanjangud) होते हुये दिन के एक बजे मैसूर (कर्नाटक) पहुंचे. मैसूर में खाना खाया. रास्ते में स्थित स्थानों का विवरण इस प्रकार है:

नंजनगुड (Nanjangud): (22 किलोमीटर) यह नगर कबीनी नदी के किनारे मैसूर के दक्षिण में राज्य राजमार्ग 17 पर है. यह स्थान नंजुंदेश्वर या श्रीकांतेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. दक्षिण काशी कही जाने वाली इस जगह पर स्थापित लिंग के बार में माना जाता है कि इसकी स्थापना गौतम ऋषि ने की थी. यह मंदिर नंजुडा को समर्पित है. कहा जाता है कि हकीम नंजुडा ने हैदर अली के पसंदीदा हाथी को ठीक किया था. इससे खुश होकर हैदर अली ने उन्हें बेशकीमती हार पहनाया था. आज भी विशेष अवसर पर यह हार उन्हें पहनाया जाता है.

मैसूर के पास चामुण्डीहिल पर स्थित महीषासुर की विशाल मूर्ति

चामुण्डी हिल (Chamundi Hills): मैसूर आते समय रास्ते में चामुण्डी हिल (Chamundi Hills) होकर आये. चामुण्डी हिल मैसूर से 13 किमी की दूरी पर मैसूर से पूर्व में स्थित है तथा बहुत ही अच्छा टुरिस्ट सेंटर है. पहाड़ी पर नीचे ही एक दैत्याकार नांदी गाय की ग्रेनाईट की बनी मूर्ती लगी है. यह मूर्ति 4.9 मीटर ऊँची और 7.6 मीटर लंबी है. ऊपर पहाड़ी तक सीढियाँ बनी हैं. पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर (Chamundeshwari Temple) है. चामुंडेश्वरी मंदिर का जीर्णोद्धार 1827 ई. में मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार III द्वारा करवाया गया था. यहाँ लगी महीषासुर की विशाल मूर्ति सबका ध्यान आकर्षित करती है जिनके बायें हाथ में कोबरा और दायें हाथ में तलवार दिखाई गई है. चामुण्डी हिल से मैसूर और आस-पास का बड़ा सुन्दर और मनमोहक दृश्य दिखाई देता है. यहाँ से मैसूर पैलेस (Mysore Palace), ललित महल (Lalitha Mahal), करंजी झील (Karanji Lake) और अनेक छोटे मंदिर दिखाई देते हैं. चामुण्डी हिल से मैसूर आते समय रास्ते में ही दांई तरफ ललित महल (Lalitha Mahal) पड़ता है.

श्रीरंगपट्टनम, दरिया दौलत बाग का मानचित्र

श्रीरंगपट्टन: चामुण्डी हिल से हम श्रीरंगपट्टन स्थित टीपू सुल्तान की कब्र गए जो कावेरी और एक अन्य नदी का संगम है. वहाँ से दरिया दौलत गए जहाँ पर टीपू सुल्तान के समय की अच्छी पेंटिंग हैं. टीपू सुल्तान की राजधानी रंगपटन देखने का अवसर मिला. यहाँ एक रंगनाथ स्वामी मंदिर भी बना है. यहाँ टीपू सुलतान लड़ता हुआ मारा गया था. यह तथ्य एक पत्थर पर खुदाई कर लिखा गया है- ‘Body of Tipu Sultan found here’.

वृन्दावन गार्डन : रंगनाथ स्वामी मंदिर देखकर वृन्दावन गार्डन गए. यह बहुत ही सुन्दर गार्डन है. एक तरफ कृष्णा राजा सागर बाँध है. यहाँ अनेकानेक फव्वारे हैं. रात को जब प्रकाश सिस्टम चालू होता है तो यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं. यह दृश्य स्वर्ग के सामान दिखता है. इलुमिनेशन शाम 6.30 से 7.30 तक रहता है. रविवार और शनिवार को 8.30 तक रहता है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

वृन्दावन गार्डन से हम सवा सात बजे रवाना होकर बंगलौर पहुंचे 12 बजे. हमारी रुकने की व्यवस्था संध्या लाज बंगलौर में की गयी थी.

दूसरी मैसूर यात्रा: सितंबर 2008

लेखक द्वारा 8-12 सितंबर 2008 को बंगलोर में 'इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट' (Indian Plywood Industries Research & Training Institute, Bangalore) में 'बैंबू रिसोर्स डेवलपमेंट' (Bamboo Resource Development for Addressing Livelihood Concerns of Communities) विषय पर आयोजित प्रशिक्षण में भाग लेने का अवसर मिला था। हमारे रुकने की व्यवस्था Shree Adiga Residency Bangalore में की गई थी जो शहर के बीच में कालिदास रोड़ पर गांधीनगर क्षेत्र में स्थित थी. संस्थान द्वारा प्रशिक्षण के दौरान एक दिन मैसूर के भ्रमण के लिए रखा गया था. इस दौरान 11.9.2008 को बंगलोर से श्रीरंगपट्टनम, मैसूर तथा वृन्दावन गार्डन के भ्रमण पर गए थे.

11.9.2008: बंगलोर से श्रीरंगपट्टनम- मैसूर- वृन्दावन गार्डन - बंगलोर

बंगलोर से रवाना होकर मांडया होते हुये दोपहर में ऐतिहासिक स्थान श्रीरंगपट्टनम पहुँचे. पौराणिक किंवदंती है कि पूर्व काल में इस स्थान पर गौतम ऋषि का आश्रम था. 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में मैसूर में हैदर अली और तत्पश्चात उसके पुत्र टीपू सुल्तान का राज्य था. टीपू के समय में मैसूर की राजधानी इसी स्थान पर थी. टीपू की बनाई हुई जामा मस्जिद यहां के विशाल भवनों में से है. दुर्ग के बाहर काष्ठ निर्मित दरिया दौलत नामक भवन टीपू ने 1784 में बनवाया था. द्वीप के पूर्वी किनारे पर टीपू का मकबरा अथवा गुंबद स्थित है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

दिन में चामुंडी पहाड़ी और मैसूर शहर का भ्रमण किया. मैसूर महल, श्री भुवनेश्वरी मंदिर आदि देखे. शाम को कृष्णाराजा सागर बाँध और वहीं वृन्दावन गार्डन का लुत्फ लिया. यह मैसूर से 12 किमी दूरी पर मांडया जिले में स्थित है। वृन्दावन गार्डन में अनेकानेक फव्वारे हैं. रात को जब प्रकाश सिस्टम चालू होता है तो यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं. यह दृश्य स्वर्ग के सामान दिखता है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

मैसूर का इतिहास

मैसूर (AS, p.762): मैसूर का नाम महिषासुर दैत्य के नाम पर प्रसिद्ध है. किवदंती है कि देवी चंडी ने महिषासुर का वध इसी स्थान पर किया था. मैसूर के प्रांत का महत्व अति प्राचीन काल से चला आ रहा है क्योंकि मौर्य सम्राट अशोक (तीसरी सदीई.पू.) के दो शिलालेख मैसूर राज्य में प्राप्त हुए हैं (देखें ब्रह्मगिरि, मासकी).

ब्रह्मगिरि (AS, p.649) जिला चीतलदुर्ग मैसूर. अशोक का अमुख्य शिलालेख संख्या एक इस स्थान पर एक चट्टान पर उत्कीर्ण है. यह स्थान मासकी के साथ ही अशोक के साम्राज्य की दक्षिणी सीमा रेखा पर स्थित था.

मासकी AS, p.741) नामक स्थान कर्नाटक में स्थित है. अशोक के लघु शिलालेख के यहां मिलने के कारण यह स्थान प्रसिद्ध है. अशोक के समय यह स्थान दक्षिणापथ के अंतर्गत तथा अशोक के साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर था. मास्की के अभिलेख की विशेष बात यह है कि उसमें अशोक के अन्य अभिलेखों के विपरीत मौर्य सम्राट का नाम देवानंप्रिय (=देवानां-प्रिय) के अतिरिक्त अशोक भी दिया हुआ है. जिसे देवानांप्रिय उपाधि वाले [p.742]: (तथा अशोक नाम से रहित) भारत के अन्य सभी अभिलेख सम्राट अशोक के सिद्ध हो जाते हैं. मासकी के अतिरिक्त गुजर्रा नामक स्थान पर मिले अभिलेख में भी अशोक का नाम दिया हुआ है. अशोक के शिलालेख के अतिरिक्त मास्की से 200-300 ई. की, स्फटिक निर्मित बुद्ध के सिर की प्रतिमा भी उल्लेखनीय है. अंतिम सातवाहन नरेश सम्राट गौतमीपुत्र स्वामी श्रीयज्ञ सातकर्णी (लगभग 186 ई.) के समय के, सिक्के भी यहां से प्राप्त हुए हैं. कुछ विद्वानों का मत है कि मौर्य काल में दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरि जिसका उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, मासकी के पास ही थी.

मैसूर नगर इस प्रांत की पुरानी राजधानी है. मैसूर के पास चामुंडी पहाड़ी पर चामुंडेश्वरी देवी का मंदिर उसी स्थान पर है जहां देवी ने महिषासुर का वध किया था. 12 वीं सदी में होयसल नरेश के समय मैसूर राज्य में वास्तुकला उन्नति के शिखर पर पहुंच गई थी जिसका उदाहरण बेलूर का प्रसिद्ध मंदिर है. मैसूर का प्राचीन नाम महीशूर भी कहा जाता है. महाभारत में संभवत मैसूर के जनपद का नाम माहिष या माहिषक है (देखें माहिष).

माहिष: माहिषक (AS, p.742) मैसूर का प्राचीन नाम. 'कारस्करान् महिष्कान कुरंडान् केरलांस्तथा, कर्कॊटकान् वीरकांश च दुर्धर्मांश च विवर्जयेत' महा. कर्ण.44,33. माहिषक देश को महाभारत काल में विवर्जनीय समझा जाता था. विष्णु पुराण 4,24,65 में माहिष देश का उल्लेख है--'कलिंगमाहिषमहेंद्रभौमान गुहा भोक्ष्यन्ति'. यह देश माहिष्मती भी हो सकता है.

मैसूर के मुख्य पर्यटन स्थल

मैसूर न सिर्फ कर्नाटक में पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि आसपास के अन्य पर्यटक स्थलों के लिए एक कड़ी के रूप में भी काफी महत्वपूर्ण है. शहर में सबसे ज्यादा पर्यटक मैसूर के दशहरा उत्सव के दौरान आते हैं. जब मैसूर महल एवं आसपास के स्थलों यथा जगनमोहन पैलेस, जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल पर काफी चहल पहल एवं त्यौहार सा माहौल होता है. कर्ण झील चिड़ियाखाना इत्यादि भी काफी आकर्षण का केन्द्र होते हैं. मैसूर के सग्रहालय भी काफी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. मैसूर से थोड़ी दूर कृष्णराज सागर डैम एवं उससे लगा वृंदावन गार्डन अत्यंत मोहक स्थलों में से है. इस गार्डन की साज-सज्जा, इसके संगीतमय फव्वारे इत्यादि पर्यटकों के लिए काफी अच्छे स्थलों में से हैं. ऐतिहासिकता की दृष्टि से यहीं श्रीरंग पट्टनम का ऐतिहासिक स्थल है जो मध्य तमिल सभ्यताओं के केन्द्र बिन्दु के रूप में स्थापित था. नगर अति सुंदर एवं स्वच्छ है, जिसमें रंग बिरंगे पुष्पों से युक्त बाग बगीचों की भरमार है. चामुंडी पहाड़ी पर स्थित होने के कारण प्राकृतिक छटा का आवास बना हुआ है. भूतपूर्व महाराजा का महल, विशाल चिड़ियाघर, नगर के समीप ही कृष्णाराजसागर बाँध, वृंदावन वाटिका, चामुंडी की पहाड़ी तथा सोमनाथपुर का मंदिर आदि दर्शनीय स्थान हैं. इन्हीं आकर्षणों के कारण इसे पर्यटकों का स्वर्ग कहते है. यहाँ पर सूती एवं रेशमी कपड़े, चंदन का साबुन, बटन, बेंत एवं अन्य कलात्मक वस्तुएँ भी तैयार की जाती हैं. मैसूर के मुख्य पर्यटन स्थलों का विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है.

चामुंडी पहाड़ी (Chamundi Hills): मैसूर से 13 किलोमीटर दक्षिण में स्थित चामुंडा पहाड़ी मैसूर का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है. इस पहाड़ी की चोटी पर चामुंडेश्वरी मंदिर है जो देवी दुर्गा को समर्पित है. इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया था. यह मंदिर देवी दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर विजय का प्रतीक है. मंदिर मुख्य गर्भगृह में स्थापित देवी की प्रतिमा शुद्ध सोने की बनी हुई है. यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का एक अच्छा नमूना है. मंदिर की इमारत सात मंजिला है जिसकी कुल ऊँचाई 40 मी. है. मुख्य मंदिर के पीछे महाबलेश्वर को समर्पित एक छोटा सा मंदिर भी है जो 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है. पहाड़ की चोटी से मैसूर का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता है. मंदिर के पास ही महिषासुर की विशाल प्रतिमा रखी हुई है. पहाड़ी के रास्ते में काले ग्रेनाइट के पत्थर से बने नंदी बैल के भी दर्शन होते हैं.

मैसूर महल
ललित महल मैसूर, अब हेरिटेज होटल
जगनमोहन महल

मैसूर महल (Mysore Palace): यह महल मैसूर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र है. मिर्जा रोड पर स्थित यह महल भारत के सबसे बड़े महलों में से एक है. इसमें मैसूर राज्य के वुडेयार महाराज रहते थे. जब लकड़ी का महल जल गया था, तब इस महल का निर्माण कराया गया. 1912 में बने इस महल का नक्शा ब्रिटिश आर्किटैक्ट हेनरी इर्विन ने बनाया था. कल्याण मंडप की कांच से बनी छत, दीवारों पर लगी तस्वीरें और स्वर्णिम सिंहासन इस महल की खासियत है. बहुमूल्य रत्‍नों से सजे इस सिंहासन को दशहरे के दौरान जनता के देखने के लिए रखा जाता है. इस महल की देखरख अब पुरातत्व विभाग करता है.

मैसूर का दशहरा (Mysore Dasara): यूं तो दशहरा पूर देश में मनाया जाता है लेकिन मैसूर में इसका विशेष महत्त्व है. 10 दिनों तक चलने वाला यह उत्सव चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है. इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत माना जाता है. इस पूरे महीने मैसूर महल को रोशनी से सजाया जाता है. इस दौरान अनेक सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. उत्सव के अंतिम दिन बैंड बाजे के साथ सजे हुए हाथी देवी की प्रतिमा को पारंपरिक विधि के अनुसार बन्नी मंटप तक पहुंचाते है. करीब 5 किलोमीटर लंबी इस यात्रा के बाद रात को आतिशबाजी का कार्यक्रम होता है. सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ निभाई जाती है.

ललित महल (Lalitha Mahal): चामुण्डी हिल से मैसूर आते समय रास्ते में ही दांई तरफ ललित महल (Lalitha Mahal) पड़ता है. यहाँ मैसूर के महाराजा निवास करते थे. मैसूर का यह दूसरा सबसे बड़ा पैलेस है. यह वर्ष 1921 ई. में मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार IV द्वारा बनवाया गया था. 1974 में इसको हेरिटेज होटल में बदल दिया है.

जगनमोहन महल (Jaganmohan Palace): इस महल का निर्माण महाराज कृष्णराज वोडेयार ने 1861 में करवाया था. यह मैसूर की सबसे पुरानी इमारतों में से एक है. यह तीन मंजिला इमारत सिटी बस स्टैंड से 10 मिनट की दूरी पर है. 1915 में इस महल को श्री जयचमाराजेंद्र आर्ट गैलरी का रूप दे दिया गया जहां मैसूर और तंजौर शैली की पेंटिंग्स, मूर्तियां और दुर्लभ वाद्ययंत्र रखे गए हैं. इनमें त्रावणकोर के शासक और प्रसित्र चित्रकार राजा रवि वर्मा तथा रूसी चित्रकार स्वेतोस्लेव रोएरिच द्वारा बनाए गए चित्र भी शामिल हैं.

कृष्णाराजा सागर बाँध, मैसूर, सूर्यास्त

कृष्णराज सागर बांध (Krishna Raja Sagara): कृष्णराज सागर बांध 1932 में बना था जो मैसूर से 12 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है. इसका डिजाइन श्री एम.विश्वेश्वरैया ने बनाया था और इसका निर्माण कृष्णराज वुडेयार चतुर्थ के शासन काल में हुआ था. इस बांध की लंबाई 8600 फीट, ऊँचाई 130 फीट और क्षेत्रफल 130 वर्ग किलोमीटर है। यह बांध आजादी से पहले की सिविल इंजीनियरिंग का नमूना है. यहां एक छोटा सा तालाब भी हैं जहां बोटिंग के जरिए बांध उत्तरी और दक्षिणी किनारों के बीच की दूरी तय की जाती है. बांध के उत्तरी कोने पर संगीतमय फव्वार हैं. बृंदावन गार्डन नाम के मनोहर बगीचे बांध के ठीक नीचे हैं.

वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में फव्वारे

वृन्दावन गार्डन (Brindavan Gardens): मैसूर से 12 किमी दूरी पर मांडया जिले में स्थित है. यह बहुत ही सुन्दर गार्डन है. यह उद्यान कावेरी नदी में बने कृष्णासागर बांध के साथ सटा है. इस उद्यान की आधारशिला 1927 में रखी गयी थी और इसका कार्य 1932 में सम्पन्न हुआ. कृष्णाराजासागर बांध को मैसूर राज्य के दीवान सर मिर्ज़ा इस्माइल की देखरेख में बनाया गया था. बांध के सौन्दर्य को बढाने के लिए सर मिर्ज़ा इस्माइल ने उद्यान के विकास की कल्पना की जो कि मुग़ल शैली जैसे कि कश्मीर में स्थित शालीमार उद्यान के जैसा बनाया गया. इसके प्रमुख वास्तुकार जी.एच.कृम्बिगल थे जो कि उस समय के मैसूर सरकार के उद्यानों के लिये उच्च अधिकारी नियुक्त थे. इसकी प्रेरणा हैदर अली से मिली थी जिन्होने बंगलोर में प्रसिद्ध लालबाग बोटनिकल गार्डन बनवाया था. वृन्दावन गार्डन 60 एकड़ में फैला हुआ है. साथ ही लगा हुआ 75 एकड़ में फ्रूट आर्चर्ड है. वृन्दावन गार्डन में अनेकानेक फव्वारे हैं. रात को जब प्रकाश सिस्टम चालू होता है तो यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं. रात में बृंदावन उद्यान के फव्वारों का सौन्दर्य देखते ही बनता है. यह दृश्य स्वर्ग के समान दिखता है. इलुमिनेशन शाम 6.30 से 7.30 तक रहता है. रविवार और शनिवार को 8.30 तक रहता है.

वृंदावन गार्डन तीन छतों में बना है जिसमें पानी के फ़व्वारे, पेड़, बेलबूटे और फूलों के पौधे शामिल हैं. इस गार्डन का विशेष आकर्षण 'म्यूजिकल फाउन्टेन्स' में संगीत की लहरी पर झूमते-नाचते पानी के फव्वारों का एक छोटा-सा शो है. इस विशाल गार्डन में नौका विहार का आनंद भी उठाया जा सकता है. मैसूर में पर्यटकों को वृंदावन गार्डन देखने ज़रूर जाना चाहिए. शाम होने के बाद वृंदावन गार्डन में लयबद्ध तरीके से जलती-बुझती रोशनी और संगीत पर पानी के फव्वारों का नृत्य देखने के लिए भीड़ जुटती है. जिस प्रकार शाम रात की ओर बढ़ने लगती है, वाद्य यंत्रों की धुन पर पानी के रंग-बिरंगे फ़व्वारे जीवंत हो जाते हैं. यह नज़ारा इतना अद्भुत होता है कि मानो पर्यटक परियों के देश में पहुँच गए हों. हर साल लगभग 20-22 लाख पर्यटक इसको देखने आते हैं. यह उद्यान सामान्य जनता के लिये निःशुल्क खुला रहता है.

श्रीरंगपट्टन (मांडया जिला), कर्नाटक

श्रीरंगपट्टन: मैसूर से बंगलोर के रास्ते में मैसूर से 15 किमी दूर मांडया जिले में स्थित है-

श्रीरंगपट्टनम, रंगनाथ स्वामी मंदिर

श्रीरंगपट्टन जो टीपू सुल्तान की राजधानी थी. दरिया दौलत बाग में टीपू सुल्तान का दरिया दौलत महल स्थित है. हम टीपू सुल्तान की कब्र गए जो कावेरी और एक अन्य नदी के संगम पर स्थित है. वहाँ से दरिया दौलत गए जहाँ पर टीपू सुल्तान के समय की अच्छी पेंटिंग हैं. यहाँ एक रंगनाथ स्वामी मंदिर भी बना है। यहाँ टीपू सुलतान लड़ता हुआ मारा गया था। यह तथ्य एक पत्थर पर खुदाई कर लिखा गया है- ‘Body of Tipu Sultan found here’. रंगनाथ स्वामी मंदिर देखकर वृन्दावन गए.

हैदर अली और टीपू सुलतान के नेतृत्व में श्रीरंगपट्टण मैसूर की वस्तुतः राजधानी बन गया था. जब टीपू ने वाडियार महाराज से सत्ता अपने हाथ में ली और उन्हें अपना बंदी बनाते हुए अपनी "खुदादाद सलतनत" की घोषणा की, श्रीरंगपट्टण वस्तुत: इस अल्प-अवधि अस्तित्व की राजधानी बना। इस तूफ़ानी दौर में टीपू के राज्य की सीमाएँ हर दिशा में फैलने लगी थी, जिसमें दक्षिण भारत का एक बड़ा भाग सम्मिलित हो गया था. श्रीरंगपट्टण के मज़बूत राज्य की संयुक्त राजधानी के तौर पर विकसित हुआ. विभिन्न भारतीय-इस्लामी स्मार्क इस नगर में फैले हैं, जैसे कि टीपू के महल "दरिया दौलत" और "जुमा मस्जिद", जो इस दौर से सम्बंधित हैं.

इस शहर का नाम प्रसिद्ध श्री रंगानाथस्वामी मन्दिर के नाम पर है. इससे श्रीरंगपट्टण दक्षिण भारत का एक प्रमुख वैष्णव तीर्थस्थल है. इस मन्दिर का निर्माण पश्चिमी गंग वंश ने इस क्षेत्र में नौवीं शताब्दी में किया था. इस ढाँचे को तीन सदियों के पश्चात मज़बूत और बहतर बनाया गया था. इस मन्दिर की निर्माण कला होयसल राजवंश और विजयनगर साम्राज्य की हिन्दू मंदिर स्थापत्य का मिश्रण है.

श्रीरंगपट्टन का इतिहास (AS, p.922-23): मैसूर से 9 मील दूर कावेरी नदी केटापू पर स्थित है. पौराणिक किंवदंती कि पूर्व काल में इस स्थान पर गौतम ऋषि का आश्रम था. श्रीरंगपट्टनम का प्रसिद्ध मंदिर- रंगनाथ स्वामी मंदिर अभिलेखों के आधार पर 1200 ई.का सिद्ध होता है. 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में मैसूर में हैदर अली और तत्पश्चात उसके पुत्र टीपू सुल्तान का राज्य था. टीपू के समय में मैसूर की राजधानी इसी स्थान पर थी. उस समय हैदर की मराठों तथा अंग्रेजों से अनबन रहती थी. 1759 ई. में मराठों ने श्रीरंगपट्टन पर आक्रमण किया किंतु हैदरअली नगर की सफलतापूरवाल रक्षा की. 1799 ई. में टीपू की मैसूर की चौथी लड़ाई में पराजय हुई, फलस्वरूप मैसूर रियासत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टन के दुर्ग के बाहर लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.

श्रीरंगपट्टनम, टीपू का मकबरा

श्रीरंगपट्टनम की भूमि पर प्रत्येक स्थान पर आज भी इस भयानक तथा निर्णायक युद्ध के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं. अंग्रेजों की सेना के निवास स्थान की टूटी हुई दीवारें, सैनिक चिकित्सालय के खंडहर, भूमिगत तहखाने तथा अंग्रेज कैदियों का आवास - ये सब पुरानी कहानियों की स्मृति को नवीन बना देते हैं. टीपू की बनाई हुई जामा मस्जिद यहां के विशाल भवनों में से है. दुर्ग के बाहर काष्ठ निर्मित दरिया दौलत नामक भवन टीपू ने 1784 में बनवाया था. कावेरी के रमणीक तट पर एक सुंदर उद्यान के बीच में यह ग्रीष्म-प्रासाद स्थित है. इसकी दीवारें, स्तंभ, महराब और छतें अनेक प्रकार की नक्काशी से अलंकृत है. बीच-बीच में सोने का सुंदर काम भी दिखाई पड़ता है जिससे इसकी शोभा दुगनी हो गई है. बहिर्भितियों पर युद्धस्थली के दृश्य तथा युद्ध-यात्राओं के मनोरंजक चित्र अंकित हैं. द्वीप के पूर्वी किनारे पर टीपू का मकबरा अथवा गुंबद स्थित है. यह भी एक सुंदर उद्यान के भीतर बना है. इसे टीपू ने अपनी माता तथा पिता हैदरअली के लिए बनवाया था किंतु अंग्रेजों ने टीपू की कब्र भी इसी में बनवा दी.

श्रीरंगपट्टनम, टीपू का दुर्ग

श्रीरंगपट्टन दुर्ग: श्रीरंगपट्टन दुर्ग का निर्माण विजयनगर साम्राज्य में चित्रदुर्ग के शासक Timmanna Nayaka द्वारा वर्ष 1454 ई. में किया गया था. 1495 ई. में इस पर Wodeyar शासकों का कब्जा हो गया जो अपनी राजधानी मैसूर से श्रीरंगपट्टन ले आए और यह दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण शक्ति केंद्र बन गया. कृष्णराजा वोडेयार (1734–66) के शासन काल में हैदर अली के सेनापतित्व में यह राज्य महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति बना. 1782 में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान ने अपने अधीन लेकर दुर्ग का और विस्तार किया. दुर्ग को एक तरफ से कावेरी नदी ने घेर रखा है जो इसकी पश्चिम और उत्तर दिशाओं में सुरक्षा प्रदान करती है. 1799 ई. में टीपू की मैसूर की चौथी लड़ाई में पराजय हुई, फलस्वरूप मैसूर रियासत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. किले के अंदर लाल महल और टीपू महल स्थित थे जो अंग्रेजों ने 1799 ई. की लड़ाई में ध्वस्त कर दिये थे.

स्रोत: Facebook Post of Laxman Burdak, 20.6.2021

क्रमश: अगले भाग में पढ़िए..... बंगलौर की यात्रा

Author:Laxman Burdak, IFS (R)

मैसूर (कर्नाटक) की चित्र गैलरी
Images of Tourist Places in Mysore

बंगलौर (कर्नाटक) का भ्रमण: दक्षिण भारत की यात्रा भाग-6

Bangalore-rural district map

लेखक (Laxman Burdak) को दक्षिण भारत के पर्यटन महत्व के प्रसिद्ध शहर मैसूर और बंगलौर (कर्नाटक) भ्रमण का अवसर भारतीय वन सेवा अधिकारियों के लिए आयोजित किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के समय दो बार मिला. पहली बार इन स्थानों की यात्रा जनवरी-1982 में लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान की गई थी. यह यात्रा दक्षिण भारत की एक लंबी यात्रा (22.12.1981 - 17.1.1982) का भाग था. यह यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है. दो वर्ष की इस अवधि में कालेज से विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षा प्राप्त कर आए व्यक्ति को किस प्रकार से अखिल भारतीय सेवा का एक अधिकारी तैयार किया जाता है. दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है.

इन स्थानों की दूसरी बार भी यात्रा करने का अवसर मिला था. मैसूर - बंगलौर की यात्रा 8-12 सितंबर 2008 को की गई. उस समय की इंडियन फोरेस्ट कालेज (IFC) अब इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय फोरेस्ट अकादमी (IGNFA) कहलाती है. कुछ वन आधारित कंपनियों के नाम वर्ष 1981-82 की यात्रा विवरण में आए हैं वे वर्तमान में या तो बंद हो चुकी हैं या अपना कार्यक्षेत्र बदल लिया है. इससे हमें भारत में हो रहे विकास की दिशा और प्राथमिकताओं का पता भी लगता है. इन शहरों में इस अंतराल में जबर्दस्त विकास देखने को मिला. ये शहर संरचना विकास और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के उदीयमान चमकते हुये सितारे हैं. भ्रमण किए गए शहर का इतिहास और मुख्य पर्यटन स्थलों का विस्तृत विवरण लेख के अंत में दिया गया है और जानकारी को अद्यतन किया गया है.

1.1.1982: नीलाम्बुर (7.00) - गुडलुर - गुंदलुपेट - नंजनगुड़ - मैसूर (13.00) - श्रीरंगपट्टन - बंगलौर (24.00)

सुबह 7 बजे हम नीलाम्बुर (केरल) से बस द्वारा रवाना हुए. रास्ते में नीलगिरि जिले (तमिलनाडू) के गुडलुर (Gudalur) में ब्रेकफास्ट किया. उसके बाद कर्नाटक राज्य के चामराजनगर ज़िले में स्थित गुंदलुपेट (Gundlupet) तथा मैसूर जिले में स्थित नंजनगुड़ (Nanjangud) होते हुये दिन के एक बजे मैसूर (कर्नाटक) पहुंचे. मैसूर में खाना खाया. मैसूर में देखे गए स्थानों का विवरण दक्षिण भारत की यात्रा भाग-5 में दिया गया है.

2.1.1982: बंगलौर - बंगलौर पहुंचने में रात के 12 बज गए थे। हमारी व्यवस्था संध्या लाज में की गयी थी। आज दिन भर कोई सरकारी कार्य नहीं था. हम पिक्चर चले गए -"मेरी आवाज सुनो".

3.1.1982: बंगलौर - गोत्तीपुरा बुर्सेरा प्लांटेशन (Gottipura Bursera Plantation): सुबह ही गोत्तीपुरा स्थित बुर्सेरा प्लांटेशन देखने गए। यह होसकोटे (Hoskote) तहसील, कर्नाटक राज्य के बंगलोर ग्रामीण ज़िले में स्थित है. बुरसेरा प्लांटेशन बंगलौर से 35 किमी उत्तर-पूर्व की तरफ स्थित है. बुर्सेरा सबसे पहले यहीं वर्ष 1958 में लगाया गया था और इसको 'मैसूर का गर्व' कहा जाता है. इससे एसेंसियल आयल बनाया जाता है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री (Indian Telephone Industries Limited): इसी रास्ते पर ही इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री पड़ती है जिसको देखने का अवसर मिला. इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज भारत सरकार की एक इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्माणी कंपनी है. भारत की प्रथम सार्वजनि‍क उद्यम ईकाई (पीएसयू) आईटीआई लि‍मि‍टेड 1948 में स्थापि‍त हुई. विस्तृत विवरण आगे देखें.

बैनरगट्टा नेशनल पार्क (Bannerghatta National Park): बैनरगट्टा नेशनल पार्क देखा जो बंगलोर शहर से 22 किमी दूर स्थित है. इसकी स्थापना 1970 में की गई थी और वर्ष 1974 में इसको राष्ट्रीय उद्द्यान का दर्जा दिया गया है. यहाँ का ख़ास आकर्षण लायन सफारी और सर्प गृह है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

शाम को प्लाजा में अंग्रेजी पिक्चर देखी - Summer Time Killer.

4.1.1982: बंगलौर : सुबह फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफ.आर.आई. बंगलोर) और सैंडल वुड रिसर्च सेंटर का दौरा किया. फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट बंगलोर की स्थापना वर्ष 1956 में दक्षिण भारत की इमारती लकड़ियों के विदोहन और उपयोगों पर अनुसंधान के लिए की गई थी. सैंडल वुड रिसर्च सेंटर बंगलोर प्रारंभ में एफ.आर.आई. बंगलोर का एक भाग था परंतु वर्ष 1977 में भारत शासन ने सैंडल वुड पर गहन अनुसंधान के लिए पृथक से सैंडल वुड रिसर्च सेंटर की स्थापना की. विश्व में सैंडल वुड के उत्पादक देशों में भारत और इंडोनेशिया मुख्य हैं. आजकल यह काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (Institute of Wood Science and Technology) कहलाती है. विस्तृत विवरण आगे देखें.

शाम को बंगलौर शहर का भ्रमण किया।

5.1.1982: बंगलौर (21.45) - मद्रास (वर्तमान चेन्नई) (5.30): आज कोई प्रोग्राम नहीं रहा. शाम को बंगलौर-मद्रास एक्सप्रेस से 21.45 बजे रवाना

बंगलौर - मद्रास (चेन्नई) यात्रा :जनवरी 1982

5.1.1982: बंगलौर (21.45) - मद्रास (वर्तमान चेन्नई) (5.30): आज कोई प्रोग्राम नहीं रहा. शाम को बंगलौर-मद्रास एक्सप्रेस से 21.45 बजे रवाना.

6.1.1982: मद्रास (चेन्नई) - सुबह साढ़े पांच बजे मद्रास (चेन्नई) पहुंचे. अरुण होटल में रुकने की व्यवस्था थी. तैयार होकर वैण्डलूर जूलोजिकल पार्क पहुंचे. यह पार्क अभी निर्माणाधीन है. इसका विस्तार 400 हेक्टर में अनुमानित है. यहाँ टायगर सफारी भी बनाई जायेगी। पार्क में उसी समय तमिल फिल्मों का एक प्रसिद्ध हीरो भी आये हुए थे. वैण्डलूर चन्नई के दक्षिण-पश्चिम भाग में चेन्नई सेंट्रल से 15 किमी दूरी पर स्थित है. ( नोट - चेन्नई और वैण्डलूर जूलोजिकल पार्क की यात्राओं का विस्तृत अद्यतन विवरण दक्षिण भारत की यात्रा भाग-1 में दिया गया है.)

वैण्डलूर जूलोजिकल पार्क से महाबलीपुरम पहुंचे. महाबलीपुरम में सातवीं शदी के पल्लवी सम्राटों के बनाये हुए कई मंदिर हैं. यहाँ का समुद्र तट बहुत ही सुन्दर है. यहाँ के सात मंदिर पहले ही समुद्र में बह चुके हैं. एक मंदिर अभी समुद्र तट पर बना हुआ है. यहाँ काफी संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक आते हैं. ( नोट - महाबलीपुरम यात्रा का विस्तृत अद्यतन विवरण दक्षिण भारत की यात्रा भाग-2 में दिया गया है.)

7.1.1982: मद्रास - मद्रास में हमारा होटल अच्छी जगह नहीं था। यद्यपि कमरा वातानुकूलित था परन्तु वहाँ के वातावरण को देख कर लगता था - हम किसी रेड लाइट एरिया में हों। होटल के नीचे रातको केबरे डांस भी होता है। यहाँ से हम वेदांतगल पक्षी विहार देखने गए।

बंगलौर - मैसूर की यात्रा: सितंबर 2008

लेखक द्वारा 8-12 सितंबर 2008 को बंगलोर में 'इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट' (Indian Plywood Industries Research & Training Institute, Bangalore) में 'बैंबू रिसोर्स डेवलपमेंट' (Bamboo Resource Development for Addressing Livelihood Concerns of Communities) विषय पर आयोजित प्रशिक्षण में भाग लेने का अवसर मिला था. हमारे रुकने की व्यवस्था Shree Adiga Residency Bangalore में की गई थी जो शहर के बीच में कालिदास रोड़ पर गांधीनगर क्षेत्र में स्थित थी. IPIRI का विस्तृत विवरण आगे देखें.

10.9.2008: आज सुबह हरयाणा निवासी बंगलोर स्थित उद्योगपति श्री वीरेन्द्र नरवालजी होटल आए और मुझे रात के डिनर पर Sahib Sindh Sultan (Firangi Paani, Forum Mall) आमंत्रित किया जिसमें बंगलोर स्थित सभी जाटलैंडर्स (Jatland.com पर पंजीकृत सदस्य) युवा लड़के-लड़कियाँ एकत्रित हुये. सोशल मीडिया पर तो ये जाटलैंडर्स मिलते रहते थे परंतु प्रत्यक्ष मिलने का आज अच्छा अवसर मिला. श्री वीरेन्द्र नरवालजी के अलावा जो उपस्थित हुये उनमें सम्मिलित थे - सतबीर सिंह, देवेंद्र कुमार, शिव राठी, अनिल धीनवा, नसीब पांगल, सुदीप दुलड़, प्रवीण हुड्डा, मनोज महला, सुस्री रत्ना और सीमा. (See-https://www.jatland.com/forums/showthread.php/25392-Get-together-of-Banglorian-Jats) वर्चुअल वर्ल्ड से निकल कर रियल वर्ल्ड में मिलने-जुलने और समझने का यह एक अच्छा अवसर था. श्री वीरेन्द्र नरवालजी का यह प्रयास वास्तव में बहुत सराहनीय था जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं.

11.9.2008: इस दौरान 11.9.2008 को बंगलोर से श्रीरंगपट्टनम, वृन्दावन गार्डन और मैसूर के भ्रमण पर गए थे. मैसूर में देखे गए स्थानों का विवरण दक्षिण भारत की यात्रा भाग-5 में दिया गया है.

12.9.2008: बंगलोर में साथी अधिकारियों यू. प्रकाशम और एम.सी. शर्मा के साथ लालबाग बॉटनिकल गार्डन का अवलोकन किया. विस्तृत विवरण आगे देखें.


बंगलोर का परिचय: कर्नाटक (भूतपूर्व मैसूर) राज्य का 1831 से शहर और राजधानी है. बंगलोर भारत का सातवाँ सबसे बड़ा शहर है. बंगलोर को भारत का बगीचा भी कहा जाता है. समुद्र तल से 949 मीटर की ऊँचाई पर कर्नाटक पठार की पूर्वी-पश्चिमी शृंखला सीमा पर स्थित यह शहर राज्य के दक्षिण पूर्वी भाग में है. शरद एवं ग्रीष्म ॠतु में खुशगवार मौसम के कारण निवास के लिए लोकप्रिय स्थान है. यहाँ 910 मिमी वार्षिक वर्षा होती है. बंगलोर कन्नड़, तमिल और तमिल भाषा के लोगों के लिए सांस्कृतिक संगम का बिंदु है.

बंगलोर के नामकरण से संबंधित कथा: एक बार होयसल वंश के राजा बल्लाल जंगल में शिकार करने के लिए गए थे. किन्तु वह रास्ता भूल गए. जंगल के काफ़ी अन्दर एक बूढ़ी औरत रहती थी. वह बूढ़ी औरत काफ़ी ग़रीब और भूखी थी और उसके पास राजा को पूछने के लिए सिवाए उबली सेम (बींस) के अलावा और कुछ नहीं था. राजा बूढ़ी औरत की सेवा से काफ़ी प्रसन्न हुए और उन्होंने पूरे शहर का नाम बेले-बेंदा-कालू-ऊरू रख दिया. स्थानीय (कन्नड़) भाषा में इसका अर्थ उबली बींस की जगह होता है. इस ऐतिहासिक घटना के नाम पर ही इस जगह का नाम बेंगळूरू रखा गया बताते हैं. लेकिन अंग्रेज़ों के आगमन के पश्चात् इस जगह को बंगलोर के नाम से जाने जाना लगा. वर्तमान में दुबारा से इसका नाम बदलकर बंगलूरू कर दिया गया. एक पुराने कन्नड़ शिलालेख (c.890) में वर्णित "बेंगलुरु युद्ध" बेंगलुरु नाम के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है. पुराणों में इस स्थान को कल्याणपुरी या कल्याण नगर के नाम से जाना जाता था. अंग्रेजों के आगमन के पश्चात ही बंगलौर को अपना यह अंग्रेज़ी नाम मिला.

बंगलोर का इतिहास

बंगलोर का इतिहास(AS, p.599): किंवदंती के अनुसार इस नगर की स्थापना तथा इसके नामकरण (शब्दार्थ उबली सेमों का नगर) से यहां के एक प्राचीन राजा बल्लाल से संबंधित एक कथा जुड़ी है किंतु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि 1537 ई. में शूरवीर सरदार केंपेगोड़ा (Kempé Gowdā) ने एक मिट्टी का दुर्ग और नगर के चारों कोनों पर चार मीनारें बनवाई थीं. इस प्राचीन दुर्ग के अवशेष अभी तक स्थित हैं. हैदरअली ने इस मिट्टी के दुर्ग को पत्थर से पुनर्निर्मित करवाया (1761 ई.) और टीपू सुल्तान ने इस दुर्ग में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए. यह क़िला आज मैसूर राज्य में मुस्लिम शासनकाल का अच्छा उदाहरण है. क़िले से 7 मील दूर हैदरअली का लाल बाग़ स्थित है. बंगलौर से 37 मील दूर नंदिगिरि नामक ऐतिहासिक स्थान है. (देखें:नंदिगिरि)

नंदिगिरि (AS, p.471) मैसूर में बंगलौर से 37 मील (लगभग 59.2 कि.मी.) की दूरी पर स्थित एक ऐतिहासिक स्थान है. इसका सम्बन्ध सातवीं शती के गंग वंशीय राजाओं से बताया जाता है. तत्पश्चात् एक सहस्र वर्ष तक इस प्रदेश पर अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक युद्ध होते रहे. 18वीं शती में मराठों और हैदर अली के बीच कई युद्ध इसी स्थान पर लड़े गए. 1791 ई. में अंग्रेज़ों ने नंदिगिरि पर अधिकार कर लिया और इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया. नंदिगिरि में दो शिव मंदिर भी हैं- 'भोगनंदीश्वर का मंदिर', जो पहाड़ी के नीचे है, ऊपर के मंदिर से वास्तु की दृष्टि से अधिक सुंदर है.

बेगुर: बेगूर कर्नाटक राज्य के बंगलोर शहरी ज़िले में स्थित एक उपनगर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 और राष्ट्रीय राजमार्ग 48 इसके समीप से गुज़रते हैं. (Begur) बेगुर में स्थित नागेश्वर मंदिर को स्थानीय लोग नागनाथेश्वर मंदिर बोलते हैं. नागेश्वर मंदिर, बेगुर के शिलालेखों से यह ज्ञात है कि बेगुर को कभी वीपुर (Veppur) और केल (Kelele) कहा जाता था (पश्चिमी गंगा राजा दुर्विनीता का मोलहल्ली में 580-625 ई. का शिलालेख). मंदिर परिसर के भीतर दो तीर्थस्थल हैं: नागेश्वर और नागेश्वरस्वामी जो पश्चिमी गंगा राजवंश के समय निर्मित किए गए थे. ये राजा थे - नितीमर्ग I (843-870) और एरेयप्पा नितीमर्गा II (907-921). शेष मंदिरों को इस क्षेत्र में चोल राजवंश के शासन की बाद की विरासत माना जाता है. एक पुराना कन्नड़ शिलालेख (c.890) "बेंगलुरु युद्ध" (आधुनिक बैंगलोर शहर) का वर्णन करता है, जो इस मंदिर परिसर में एपिग्राफिस्ट आर. नरसिम्हाचर द्वारा खोजा गया था। यह शिलालेख "एपिग्राफिया कर्नाटिका" (वॉल्यूम 10 पूरक) में दर्ज किया गया है. यह बेंगलुरु नामक जगह के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है.

बेगुर (Begur) के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई० तक, गंग राजवंश का एक भाग था. इसे बेंगा-वलोरू (Bengaval-uru) के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" (City of Guards) होता है. सन् 1015 से 1116 तक तमिलनाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई.

ऐसा माना जाता है कि आधुनिक बंगलौर की स्थापना सन 1537 में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुई थी. विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद बंगलौर के सत्ता की बागडोर कई बार बदली. मराठा सेनापति शाहाजी भोंसले के अघिकार में कुछ समय तक रहने के बाद इस पर मुग़लों ने राज किया. बाद में जब 1689 में मुगल शासक औरंगजेब ने इसे चिक्कादेवराजा वोडयार (Chikkadevaraja Wodeyar) को दे दिया तो यह नगर मैसूर साम्राज्य का हिस्सा हो गया. कृष्णराजा वोडयार के देहांत के बाद मैसूर के सेनापति हैदर अली ने इस पर 1759 में अधिकार कर लिया. इसके बाद हैदर-अली के पुत्र टीपू सुल्तान, जिसे लोग शेर-ए-मैसूर के नाम से जानते हैं, ने यहाँ 1799 तक राज किया जिसके बाद यह अंग्रेजों के अघिकार में चला गया. यह राज्य 1799 में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू की मौत के बाद ही अंग्रेजों के हाथ लग सका. मैसूर का शासकीय नियंत्रण महाराजा के ही हाथ में छोड़ दिया गया, केवल छावनी क्षेत्र (कैंटोनमेंट) अंग्रेजों के अधीन रहा. ब्रिटिश शासनकाल में यह नगर मद्रास प्रेसिडेंसी के तहत था. मैसूर की राजधानी 1831 में मैसूर शहर से बदल कर बंगलौर कर दी गई.

1537 में विजयनगर साम्राज्य के सामंत केंपेगौडा प्रथम (Kempé Gowdā) ने इस क्षेत्र में पहले किले का निर्माण किया था. इसे आज बेंगलूर शहर की नींव माना जाता है. समय के साथ यह क्षेत्र मराठों, अंग्रेज़ों और आखिर में मैसूर के राज्य का हिस्सा बना. अंग्रेज़ों के प्रभाव में मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर शहर से बेंगलूर में स्थानांतरित हो गई, और ब्रिटिश रेज़िडेंट ने बेंगलूर से शासन चलाना शुरू कर दिया. बाद में मैसूर का शाही वाडेयार परिवार भी बेंगलूर से ही शासन चलाता रहा. 1947 में भारत की आज़ादी के बाद मैसूर राज्य का भारत संघ में विलय हो गया, और बेंगलूर 1956 में नवगठित कर्नाटक राज्य की राजधानी बन गया.

बंगलौर के दर्शनीय स्थल

बंगलौर शहर “बागों के शहर” के नाम से भी जाना जाता है. यह शहर टीपू सुल्तान और हैदर अली जैसे राजाओं की राजधानी भी रहा है. यहां अनेक रमणीक और आकर्षक उद्यान देखने योग्य है. यहां के बाग बगीचों की जितनी तारीफ की जाए कम है. इसके अलावा आधुनिक मकानों की शिल्पकला का आकर्षण भी पर्यटको को खूब लुभाता है. अंग्रेजों के जमाने में यह शहर अंग्रेजों का ग्रीष्मकालीन निवास भी रहा है. इस शहर का विकास योजनाबद्ध तरीके से किया गया है. आज यह एक शांत, आधुनिक और खुबसूरत शहर है. दक्षिण भारत के इस शहर में जबर्दस्त विकास देखने को मिलता है. यह शहर संरचना विकास और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के उदीयमान चमकते हुये सितारों में से है.

ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा (Kempe Gowda I) ने 1537 में बंगलौर की स्थापना की, उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया. साथ ही गवीपुरम (Gavipuram) में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर (Gavi Gangadhareshwara Temple) और बासवा में बसवनगुडी मंदिर की स्थापना की. इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए. ये स्थल आज भी दर्शनीय हैं. शहर के मध्य 1864 में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है. 1958 में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का समर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस, बैनरगट्टा नेशनल पार्क, काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, विधान सौधा (विधान सभा), विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय, वेनकटप्पा आर्ट गैलरी, इस्कोन मंदिर, साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम आदि कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे.

गोत्तीपुरा बुर्सेरा प्लांटेशन (Gottipura Bursera Plantation): यह होसकोटे (Hoskote) तहसील, कर्नाटक राज्य के बंगलोर ग्रामीण ज़िले में स्थित है. राष्ट्रीय राजमार्ग 75 यहाँ से गुज़रता है. बुरसेरा प्लांटेशन होसकोटे से लगभग 8 किमी और बंगलोर से 35 किमी दूर है. यह बंगलौर से 35 किमी उत्तर-पूर्व की तरफ स्थित है. बुर्सेरा सबसे पहले यहीं वर्ष 1958 में लगाया गया था और इसको 'मैसूर का गर्व' कहा जाता है. इससे एसेंसियल आयल बनाया जाता है. यहाँ रोपित बुर्सेरा की प्रजाति मेक्सिको मूल की Bursera penicillata है. यह एक मध्यम ऊँचाई का पर्णपाति पेड़ होता है. नवम्बर से मार्च महीनों में इसके पत्ते गिर जाते हैं. वैसे तो इसके हर पार्ट से एसेंसियल आयल मिलता है परंतु इसकी भूसी (husk) में 10 प्रतिशत से अधिक ऑइल की मात्र निकलती है. भूसी का संग्रहण सितंबर-अक्तूबर के महीने में किया जाता है. इसके पेड़ वेजिटेटिव प्रोपोगेशन पद्धति से लगाये जाते हैं.

इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री, बंगलोर

इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री (Indian Telephone Industries Limited): इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज भारत सरकार की एक इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्माणी कंपनी है. भारत की प्रथम सार्वजनि‍क उद्यम ईकाई (पीएसयू) आईटीआई लि‍मि‍टेड 1948 में स्थापि‍त हुई. इसका मुख्यालय बंगलोर में है. इसके पश्‍चात्‌ दूरसंचार के क्षेत्र में इस प्रथम उद्यम कम्पनी ने वर्तमान राष्ट्रीय टेलकॉम नेटवर्क को 50 प्रति‍शत का योगदान दि‍या है. यह बृहद वि‍नि‍र्माण सुवि‍धाओं सहि‍त 6 स्थानों पर फैला हुआ है तथा देशभर में विभिन्‍न मार्केटिंग नेटवर्क है. कम्पनी, टेलीकॉम उत्पादों की पूर्ण रेंज और संपूर्ण स्वीचिंग, ट्रांसमि‍शन, एक्सेस और सबस्क्राइबर प्रि‍मसस उपकरण सहि‍त संपूर्ण समाधान उपलब्ध कराती है.

बैनरगट्टा नेशनल पार्क, बंगलूरू

बैनरगट्टा नेशनल पार्क (Bannerghatta National Park): बैनरगट्टा नेशनल पार्क बंगलोर शहर से 22 किमी दूर स्थित है. इसकी स्थापना 1970 में की गई थी और वर्ष 1974 में इसको राष्ट्रीय उद्द्यान का दर्जा दिया गया है. यहाँ का ख़ास आकर्षण लायन सफारी और सर्प गृह है. यहाँ की लायन-सफारी में शेर आराम से चारों तरफ बैठे रहते हैं और लोग गाड़ी के अंदर शीशे बंद करके देख सकते हैं. दूसरा आकर्षण 'हर्बिवोर सफारी' है जिसमे बायसन को आराम से तालाब के किनारे बैठा देख सकते हैं. शर्प-गृह भी काफी अच्छा बना हुआ है. एक-एक शर्प के लिए एक पूरा गोल चक्कर है और बीच में पेड़ लगा है. यहाँ के सर्प विशेषज्ञ मनमोहन ने कोबरा को हाथ से पकड़कर निचे उतारा. इस किंग कोबरा को आज ही इस जगह पर उतारा गया था. यहाँ एक पिकनिक कॉर्नर भी बना है जहाँ काफी लोग भी आते हैं.

काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, बंगलोर

काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (Institute of Wood Science and Technology): यह संस्थान 'भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद' के संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना 1988 में हुई थी. इससे पहले उस समय की मैसूर सरकार ने 1938 में बंगलौर में एक वन अनुसंधान प्रयोशाला (एफ.आर.एल.) की स्थापना की थी. प्रारंभिक वर्षों में मुख्य रूप से काम विभिन्न इमारती प्रजातियों तथा उनके गणों, आवश्यक तेलों, अन्य अकाष्ठ वन उत्पादों तथा कीटों तथा रोगों से लकड़ी तथा वृक्षों की सुरक्षा पर होता था. 1956 में यह प्रयोगशाला वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में स्थापित किया गया. 1977 में आनुवंशिकी विभिन्न पहलुओं, वन संवर्धन तथा चंदन के प्रबंधन के लिए चंदन अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया. वर्ष 1988 में भारत में वानिकी अनुसंधान की पुर्नस्थापना भा.वा.अ.शि.प. (भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद) के रूप में की गई तथा वन अनुसंधान प्रयोगशाला का उन्नयन किया गया तथा चंदन अनुसंधान केंद्र तथा छोटे वन उत्पाद एकक को मिलाकर 'काष्ठ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान' नाम प्रदान किया गया.

इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (IPIRI), बंगलूरू

इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (IPIRI) (Indian Plywood Industries Research & Training Institute, Bangalore) : की स्थापना 1962 में प्लाईवूड पर अनुसंधान हेतु वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अधीन सहकारी प्रयोगशाला के रूप में की गई थी. वर्ष 1990 से यह भारत सरकार के पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का एक स्वायत्त अनुसंधान व विकास संस्थान है, जिसका मुख्यालय बेंगलूर में अवस्थित है. प्रारंभ से ही संस्थान, देश में प्लाईवुड तथा पैनल उद्योग के विकास के साथ करीब से जुडा हुआ है और प्रारंभिक अवस्था से ही प्लाईवुड उद्योग के विकास में सहायक रहा है. उद्योग के साथ गहरे संबंध स्थापित करने वाले संस्थान ने उद्योग चालित संगठन के रूप में काम करना जारी रखा है. यह प्लईवुड और पैनल उद्योग के लिए काम करने वाला अपने तरीके का एकमात्र संस्थान है. 1963 में आई पि आई आर टी आई फील्ड स्टेशन, कोलकाता और 2008 में आई पि आई आर टी आई केंद्र, मोहाली की स्थापना की गई ताकि इन क्षेत्रों में पैनल उद्याग के परीक्षण, प्रशिक्षण और विस्तार की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके. यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञता केन्द्र की मान्यता प्राप्त है. (http://www.ipirti.gov.in/organisation.html)

विधान सौधा, बंगलूरू

विधान सौधा (Vidhana Soudha) : वर्तमान समय में यह जगह कर्नाटक राज्य के विधान सभा के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके अलावा इमारत का कुछ हिस्सा कर्नाटक सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है. यह जगह बंगलूरू के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है. इसका निर्माण 1954 ई. में किया गया. इस इमारत की वास्तुकला नियो-द्रविडियन शैली पर आधारित है. विधान सौधा के सामने कर्नाटक उच्च न्यायालय है. विधान सौधा के तीन मुख्य फर्श हैं. यह भवन 700 फुट उत्तर दक्षिण और 350 फीट पूरब पश्चिम आयताकार है.अगर आप बेंगलुरु जा रहे हैं तो विधान सौदा जरूर जाएं. यह राज्य सचिवालय होने के साथ-साथ ईंट और पत्थर से बना एक उत्कृष्ट निर्माण है. करीब 46 मीटर ऊंचा यह भवन बेंगलुरु का सबसे ऊंचा भवन है. इसकी वास्तुशिल्पीय शैली में परंपरागत द्रविड शैली के साथ—साथ आधुनिक शैली का भी मिश्रण देखने को मिलता है. सार्वजनिक छुट्टी के दिन और रविवार के दिन इसे रंग—बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे यह और भी खूबसूरत हो उठता है. हालांकि विधान सौदा हर दिन शाम 6 से 8.30 बजे तक रोशनी से जगमगाता रहता है. बेंगलुरु सिटी जंक्शन से यह सिर्फ 9 किमी दूर है. कब्बन पार्क के पास स्थित दूर तक फैले हरे-भरे मैदान पर बना विधान सौदा घूमने अवश्य जाना चाहिए.

लालबाग बंगलोर:यू प्रकाशम & लक्ष्मण बुरड़क

लालबाग बॉटनिकल गार्डन बंगलोर (Lalbagh Botanical Garden) : यह स्थान बंगलोर में लाल बाग बॉटनिकल गार्डन, या लाल बाग वनस्पति उद्यान के नाम से भी जाना जाता है. इसका विस्तार 240 एकड़ क्षेत्र में है तथा 1760 में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया. लालबाग के बीचोंबीच एक बड़ा ग्लास-हाउस है जहां वर्ष में दो बार, जनवरी और अगस्त में पुष्प प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है. पार्क के भीतर ही एक डीयर-एंक्लेव भी है. इस उद्यान में बहुत सी भारतीय फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है. यहाँ घास के लॉन, दूर तक फैली हरियाली, सैंकड़ों वर्ष पुराने पेड़, सुंदर झीलें, कमल के तालाब, गुलाबों की क्यारियाँ, दुर्लभ समशीतोष्ण और शीतोष्ण पौधे, सजावटी फूल हैं.

उद्यान में वनस्पतियों के 1,000 से अधिक प्रजातियां पायी जाती हैं. उद्यान में वनस्पतियों के 100 साल से अधिक पुराने पेड़ पायी जाती हैं. सिंचाई के लिए एक जटिल पानी प्रणाली के साथ, इस उद्यान में लॉन, फूल, कमल पूल और फव्वारे भी, बनाए गए हैं. 1760 ई. में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया. लाल बाग के चार द्वार हैं. यह स्मारक 3000 करोड़ वर्षीय प्रायद्वीपीय ऐसे चट्टान संबंधी चट्टानों से बना है जो लाल बाग पहाड़ी पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा नामित किया गया है.

कब्बन पार्क (Cubbon Park): कब्बन पार्क और संग्रहालय बंगलोर शहर के मध्य में स्थित यह सुंदर पार्क 1864 में बना था. इसका नाम पूर्व मुख्य आयुक्त मार्क कब्बन के नाम पर रखा गया है. साथ ही आप पार्क में बना सरकारी संग्रहालय देखने योग्य है. यहाँ होयसला शिल्पकला, मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्राचीन तीरों, सिक्कों और मिट्टी के पात्रों का अविश्वसनीय संग्रह है. इसको श्री चामराजेन्द्र पार्क (Sri Chamarajendra Park) नाम से भी जाना जाता है जो Chamarajendra Wodeyar (1868–94) के शासनकाल में बनाया गया था. [[ File:Bangalore Palace.jpg|thumb|200px|बंगलूरू पैलेस, बंगलूरू]] बंगलूरू पैलेस (Bangalore Palace): यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है. इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली (Tudor Revival style architecture) पर आधारित है. यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है. यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है. यह महल इंगलैंड के विंडसर कासल (Windsor Castle) की तरह दिखाई देता है. प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है जो 4500 वर्ग फीट पर बना है. यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है. इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट (Rev. J. Garrett) द्वारा शुरू किया गया था. इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे. 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था. महल की खूबसूरती देखते ही बनती है. जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे. अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है. महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है. महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है. इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं. रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है. वहीं महल के ऊपरी तल पर एक बड़ा सा दरबार हॉल है, जहां से राजा सभा को संबोधित किया करते थे. महल के अंदर के दीवार को ग्रीक, डच और प्रसिद्ध राजा रवि वर्मा के पेंटिंग्स से सजाया गया है, जिससे यह और भी खिल उठता है.

विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय, बंगलूरू

विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय (Visvesvaraya Industrial and Technological Museum): कस्तुरबा रोड पर स्थित यह संग्रहालय सर. एम. विश्वेश्वरैया को श्रधाजंलि देते हुए उनके नाम से बनाया गया है. इसके परिसर में एक हवाई जहाज और एक भाप इजंन का प्रदर्शन किया गया है. संग्रहालय का सबसे प्रमुख आकर्षण मोबाइल विज्ञान प्रदर्शन है, जो पूरे शहर में साल भर होता है. प्रस्तुत संग्रहालय में इलेक्ट्रानिक्स मोटर शक्ति और उपयोग कर्ता और धातु के गुणो के बारे में भी प्रदर्शन किया गया है. सेमिनार प्रदर्शन और वैज्ञानिक विषयों पर फिल्म शो का भी आयोजन किया गया है. संग्रहालय की विशेषताएँ- इजंन हाल, इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकि वीथिका, किम्बे कागज धातु वीथिका, लोकप्रीय विज्ञान वीथिका और बाल विज्ञान वीथिका.

टीपू का समर पैलेस, बंगलूरू

टीपू का समर पैलेस (Tipu Sultan's Summer Palace): टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है. इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है. इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है. टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था. जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था. टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था. यह बैंगलोर, भारत में स्थित है. टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया. यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है. महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है. टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है. यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है.

वेनकटप्पा आर्ट गैलरी (Venkatappa Art Gallery): यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है. इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है. यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है. इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं. यह कब्बन पार्क और संग्रहालय बंगलोर शहर के पास ही स्थित है. यह 1967 में स्थापित की गई थी.

बसवनगुडी मंदिर, बंगलूरू

बसवनगुडी मंदिर (Basavanagudi Nandhi Temple): यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है. प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है. इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है. यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है. बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं. मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है. बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है. बैल को कन्नड़ में बसव बोलते हैं. नंदी एक करीबी भक्त और शिव का गण है. नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है. विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गया था. केम्पे गौड़ा (Kempe Gowda) के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया. एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है. किसानों का मानना ​​है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है. बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है.

बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है. पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है. इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है. नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है. यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है. दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है.

गवि गंगाधरेश्वर मंदिर, बंगलूरू

गवि गंगाधरेश्वर मंदिर (Gavi Gangadhareshwara Temple) - बेंगलुरु का यह गुफा मंदिर भगवान शिव को समर्पित है. जिसका निर्माण 16 वी शताब्दी में केम्पे गोवडा ने किया था, जो बेंगलुरु के संस्थापक भी थे. बेंगलुरु के प्राचीनतम मंदिरों में से यह एक है. गवि गंगाधरेश्वर मंदिर का निर्माण केम्पे गोवडा ने रामा राया की कैद से पांच साल बाद रिहा होने की ख़ुशी में करवाया था. अग्निमुर्थी मूर्ति के भीतर दूसरी मूर्तियाँ भी है, जिनमे 2 सिर, सांत हाँथ और तीन पैरो वाली एक मूर्ति भी शामिल है. कहा जाता है कि जो लोग इस मूर्ति की पूजा करते है उन्हें आँखों से संबंधित बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है. साथ ही यह मंदिर अखंड स्तम्भ, डमरू, त्रिशूल और विशालकाय आँगन के लिए भी प्रसिद्ध है.

गविपुरम की प्राकृतिक गुफा में बना यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित और अखंड स्तंभों में बना हुआ है. मंदिर के आँगन में बहुत से अखंड स्तम्भ बने हुए है. मंदिर के परिसर में पाए जाने वाले ग्रेनाइट पिल्लर ही आकर्षण का मुख्य कारण है. इन दो पिल्लरों को सूरज और चन्द्रमा का प्रतीक माना जाता है. गुफा मंदिर के अंदरूनी भाग को पत्थरों से सुशोभित किया गया है. इन्हें कुछ इस तरह से बनाया गया है कि सूर्यप्रकाश सीधे शिवलिंग पर ही पड़े.

मकर संक्रांति के अवसर पर शाम में हमें एक अद्वितीय घटना के दर्शन होते है जिसमे सूर्यप्रकाश नंदी के दो सींगो के बीच से होकर सीधे गुफा के भीतर स्थापित लिंग पर पड़ता है और सम्पूर्ण मूर्ति को अद्भुत रौशनी से प्रकाशित कर देता है.

भगवान शिव मूर्ति, शिवोहम शिव टेंपल, बेंगळूरू

शिवोहम शिव टेंपल (Shivoham Shiva Temple): बंगलोर में पुरानी एयरपोर्ट रोड पर स्थित है. यह 1995 में बनाया गया था. महाशिवरात्रि पर यहां लाखों लोग श्रद्धालु आते हैं. यहां पर शिव की एक विशाल मूर्ति बनी हुई है. यह शिव मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान हैं. इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है.

नागेश्वर मंदिर, बेगुर, बंगलूरू

नागेश्वर मंदिर, बेगुर (Nageshvara temple, Begur) - बेगुर में स्थित नागेश्वर मंदिर को स्थानीय लोग नागनाथेश्वर मंदिर (Naganatheshvara Temple) बोलते हैं. बेगूर कर्नाटक राज्य के बंगलोर शहरी ज़िले में स्थित एक नगर है. यह बंगलुरु का एक उपनगर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 और राष्ट्रीय राजमार्ग 48 इसके समीप से गुज़रते हैं. बेगुर (Begur) के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई० तक, गंग राजवंश का एक भाग था. इसे बेंगा-वलोरू (Bengaval-uru) के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" (City of Guards) होता है. सन् 1015 से 1116 तक तमिलनाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई.

शिलालेखों से यह ज्ञात है कि बेगुर को कभी वीपुर (Veppur) और केल (Kelele) कहा जाता था (पश्चिमी गंगा राजा दुर्विनीता का मोलहल्ली में 580-625 ई. का शिलालेख). मंदिर परिसर के भीतर दो तीर्थस्थल हैं: नागेश्वर और नागेश्वरस्वामी जो पश्चिमी गंगा राजवंश के समय निर्मित किए गए थे. ये राजा थे - नितीमर्ग I (843-870) और एरेयप्पा नितीमर्गा II (907-921). शेष मंदिरों को इस क्षेत्र में चोल राजवंश के शासन की बाद की विरासत माना जाता है. एक पुराना कन्नड़ शिलालेख (c.890) "बेंगलुरु युद्ध" (आधुनिक बैंगलोर शहर) का वर्णन करता है, जो इस मंदिर परिसर में एपिग्राफिस्ट आर. नरसिम्हाचर द्वारा खोजा गया था. यह शिलालेख "एपिग्राफिया कर्नाटिका" (वॉल्यूम 10 पूरक) में दर्ज किया गया है. यह बेंगलुरु नामक जगह के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है.

इस्कोन मंदिर, बंगलूरू

इस्कोन मंदिर (Iskon Temple, Rajajinagar Bangalore): इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है. इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है. इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है. अपने विशाल सरंचना के कारण ही इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का मुख्य पर्यटन स्थान भी है. इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है. मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। इस्कॉन मंदिर के बैगंलोर में छ: मंदिर है:- 1. मुख्य मंदिर राधा और कृष्ण का है, 2. कृष्ण बलराम, 3. निताई गौरंगा (चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्दा), 4. श्रीनिवास गोविंदा (वेकंटेश्वरा), 5. प्रहलाद नरसिंह एवं 6. श्रीला प्रभुपादा.

उत्तर बैगंलोर के राजाजीनगर में स्थित कृष्ण और राधा का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा इस्कॉन मंदिर है. इस मंदिर का उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा ने सन् 1997 में किया था.

क्रमश: अगले भाग में देखिये... हैदराबाद की यात्रा

Source: Facebook Post of Laxman Burdak, 27.6.2021

Author:Laxman Burdak, IFS (R)

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हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) का भ्रमण: दक्षिण भारत की यात्रा भाग-7

लेखक को दक्षिण भारत के पर्यटन महत्व के प्रसिद्ध शहर हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) भ्रमण का अवसर भारतीय वन सेवा अधिकारियों के लिए आयोजित किए गए प्रशिक्षण कार्यक्रमों के समय दो बार मिला. पहली बार इन स्थानों की यात्रा जनवरी-1982 में लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान की गई थी. यह यात्रा दक्षिण भारत की एक लंबी यात्रा (22.12.1981 - 17.1.1982) का भाग था. यह यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है. दो वर्ष की इस अवधि में कालेज से विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षा प्राप्त कर आए व्यक्ति को किस प्रकार से अखिल भारतीय सेवा का एक अधिकारी तैयार किया जाता है. दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है.

हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) की यात्रा दूसरी बार करने का अवसर 15-19 दिसंबर 2003 को मिला. हैदराबाद अब नए प्रदेश तेलंगाना की राजधानी है. इससे हमें भारत में हो रहे विकास की दिशा और प्राथमिकताओं का पता भी लगता है. हैदराबाद शहर में इस अंतराल में जबर्दस्त विकास देखने को मिला. यह शहर संरचना विकास और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के उदीयमान चमकते हुये सितारे के समान है.

मद्रास (चेन्नई) - हैदराबाद: जनवरी 1982

8.1.1982: मद्रास (चेन्नई) (10.10) - हैदराबाद रवाना

मद्रास (चेन्नई) से हैदराबाद के लिए 10.10 बजे न्यू डेल्ही एक्सप्रेस से रवाना हुए। विजयवाड़ा में गलती से रेलवे ने हमारी बोगी को ट्रेन से अलग कर दिया था और ट्रेन निकल गयी. सहायक स्टेशन मास्टर से बात-चित हुई तो पता लगा कि उनको मद्रास से टेलीग्राम मिला था कि स्पेशल बोगी को काट दो. इसलिए हमने काट दिया. पहले वह जरा गर्मी से बोल रहा था. बाद में जब उसे पता लगा कि ये भारतीय वन सेवा के अधिकारी हैं तो नरमी से बात करने लगा. तकनिकी सलाहकार से सलाह कर हमारी विशेष बोगी को 22.30 पर दूसरी आने वाली गाड़ी के साथ जोड़ा गया.

9.1.1982: हैदराबाद (8.30)

सुबह साढ़े आठ बजे सिकंदराबाद पहुंचे. सिकंदराबाद और हैदराबाद जुड़वां शहर हैं. हैदराबाद में हमारे रुकने की व्यवस्था जया इंटरनेशनल होटल में की गयी थी. यह थ्री-स्टार होटल है. यहाँ नहा-धोकर गोलकुंडा किला देखने निकले. इतिहास प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा यहीं पर रखा गया था. वर्ष 1518 से कुतुबुद्दीन शाही शासकों ने यहाँ पर राज्य किया और बहमनी साम्राज्य का यह सबसे बड़ा किला माना जाता है. किले की ऊंचाई 400 फीट है. इसके ऊपर से चारों तरफ का दृश्य बड़ा मनमोहक लगता है. इससे पहले क़ुतुब-शाही गार्डन देखने गए थे. यह गोलकुंडा किले के पास ही है. यहाँ कुतुबशाही, जो पर्शियन राजा थे, के मकबरे बने हैं. सबसे अच्छा मोहम्मद कुली क़ुतुब शाह का मकबरा है. इन्होने ही हैदराबाद शहर बसाया था. इन स्थानों का विस्तृत विवरण आगे देखें.

10.1.1982: हैदराबाद

आज पूरे दिन शहर का भ्रमण था. सबसे पहले गए चार मीनार जो वर्ष 1591 में बनाई गयी थी जब हैदराबाद शहर की नींव डाली थी. प्लास्टर और पत्थर से बनी यह बहुत सुन्दर ईमारत है. प्रत्येक मीनार की ऊंचाई 180 फीट है. ऊपर चढ़कर देखने से शहर का बड़ा सुहाना दृश्य नजर आता है. चार मीनार के दक्षिण में ही मक्का मस्जिद बनी है. यह सन 1614 में बनी थी. मोहम्मद कुतुबशाह-VI ने इसे बनाना प्रारम्भ किया था और औरंगजेब ने इसे पूरा किया. अन्य सुन्दर इमारतें जो प्रभावित किये बिना नहीं रहती उनमें प्रमुख हैं - उस्मानिया जनरल हॉस्पिटल, स्टेट सेन्ट्रल पुस्तकालय और हाई कोर्ट. हाई कोर्ट मुसी नदी के किनारे सबसे सुन्दर इमारतों में से एक है. फिर हम नेहरू जूलोजिकल पार्क गए. यह देश के सबसे सुन्दर जूलोजिकल पार्कों में से एक है. सभी तरह के पशु-पक्षी और लायन सफारी यहाँ देखे जा सकते हैं. लायन सफारी में चार सिंह हैं. अंत में हमने सलारजंग म्यूजियम देखा. यह मुसी नदी के किनारे स्टेट पुस्तकालय के ठीक सामने स्थित है. यहाँ मीर युसूफ खान (सालार जंग) का बहुमूल्य संग्रह है. उनके कला प्रेम की सभी विधाएं यहाँ देखी जा सकती हैं. यहाँ की मूर्तियां और पेन्टिंग किसी का भी बरबस ध्यान आकर्षित करती हैं. इन स्थानों का विस्तृत विवरण आगे देखें.

11.1.1982: हैदराबाद (22.00) - नागपुर ट्रेन द्वारा

आज सुबह हैदराबाद में मुख्य वनसंरक्षक आंध्र प्रदेश, श्री मनवर हुसैन ने सम्बोधित किया. उन्होने आंध्र प्रदेश में वन विभाग की गतिविधियों से अवगत कराया. उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वानिकी के लिए बजट बहुत ही कम है सिर्फ दस करोड़ रुपये.

रात के दस बजे सिकंदराबाद से ट्रेन द्वारा रायपुर के लिए रवाना हुए। रास्ते के स्टेशन हैं Hyderabad (22.00) → JangaonKazipet (Warangal) → Ramagundam (Peddapalli) → MancherialBelampalleSirpur KagazngrManikgarhBalharshahChandrapurWaroraSevagramButi BoriNagpur (9.30)

12.1.1982: नागपुर (9.30)

हैदराबाद की दूसरी यात्रा: दिसंबर 2003

हैदराबाद की यात्रा फिर से करने का अवसर 15-19 दिसंबर 2003 की अवधी में मिला जब भारत शासन पर्यावरण और वन मंत्रालय ने भारतीय वन सेवा अधिकारियों के लिए एक सप्ताह का अनिवार्य प्रशिक्षण आयोजित किया था. यह एडमिनिस्ट्रेटिव स्टाफ कालेज ऑफ इंडिया हैदराबाद (Administrative Staff College of India, Bella Vista, Hyderabad) में भारतीय वन सेवा अधिकारियों के लिए ह्यूमन रिसोर्स डेवेलपमेंट (Human Resource Development for IFS Officers) विषय पर आयोजित किया गया था. यह प्रशिक्षण कोर्स डायरेक्टर श्रीमती Prabhati Pati और प्रिंसिपल श्री EAS Sarma की देखरेख में आयोजित हुआ.

भारतीय प्रशासनिक स्टाफ कॉलेज (Administrative Staff College of India / ASCI) की स्थापना 1956 में भारत सरकार और उद्योग प्रतिनिधियों द्वारा सम्मिलित रूप से की गयी थी. इसका उद्देश्य प्रबन्धन विकास के क्षेत्र में सिविल सेवा और कॉर्पोरेट अधिकारियों को प्रशिक्षण प्रदान करना है. हैदराबाद में यह संस्थान उसी भवन में स्थित है जो पहले बरार राज्य के राजकुमार का महल था और जिसका नाम बेल्ला विस्ता (Bella Vista) था.

बरार राज्य के राजकुमार, नवाब मीर हिमायत अली खान, आज़म जह बहादुर सातवें के बड़े बेटे हैदराबाद के निज़ाम , मीर उस्मान अली खान द्वारा प्रारंभ में भारत सरकार ब्रिटेन में कॉलेज स्थापित करने की परिकल्पना की गई. पहला सत्र 1948 में हेनले पर शुरू होना था. हालाँकि 1953 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद की एक समिति ने सिफारिश की कि भारत में प्रशासनिक स्टाफ कॉलेज की स्थापना की जाए. ASCI संस्थान कॉर्पोरेट और सरकारी क्षेत्रों और शहरी प्रबंधन के सिविल सेवकों और प्रबंधकों के प्रशिक्षण में माहिर है. एएससीआई की अनुसंधान और परामर्श गतिविधियां 1973 में फोर्ड फाउंडेशन से सहायता के साथ शुरू की गईं. वर्तमान में 1976 बैच के IAS अधिकारी, आरएच ख्वाजा 1 जनवरी, 2017 से एएससीआई के महानिदेशक के रूप में कार्यरत हैं.

प्रशिक्षण का कार्यक्रम बहुत व्यवस्थित था. रुकने और खाने-पीने की भी बहुत अच्छी व्यवस्था थी. रुकने की व्यवस्था यहीं के छात्रावासों में थी. प्रशिक्षण के दौरान एक दिन हैदराबाद शहर का भ्रमण और गोलकुंडा किले का भ्रमण रखा गया था. रात को गोलकुंडा में लाइट अँड साउंड प्रोग्राम भी देखा.

प्रशिक्षण के अंतिम दिन सामूहिक डिनर आयोजित था जिसमें प्रशिक्षणार्थी अधिकारी और प्रशिक्षण देने वाले अधिकारी भी शामिल होते हैं. एक अच्छा वाकय याद आता है. संस्थान के लान में डिनर से पहले पीने-पिलाने और चुटकुलों का कार्यक्रम उस रात को चल रहा था. राजस्थान कैडर के श्री अविनाश चौबे (अब स्वर्गीय) पीकर कुछ बहक गए थे और कुछ किस्से सुनाने लगे जो अवसर के अनुकूल नहीं थे. तब कोर्स डायरेक्टर ने उनको टोका भी. कुछ देर चुप रहे परंतु जब सभी लोग डिनर के लिए प्रस्थान कर चुके थे तभी वे उठ कर डगमगाते हुये तेजी से चले और एक थूजा के पौधे में घुस गए. हम लोगों ने उनको उठाकर उनके कमरे में ले जाकर खाना-वाना खिलाया और सुलाया.

हैदराबाद का इतिहास

हैदराबाद (AS, p.1028-30): हैदराबाद (आन्ध्र प्रदेश) दक्षिण भारत की भूतपूर्व रियासत तथा उसका मुख्य नगर. ऐतिहासिक दृष्टि से अधिक प्राचीन न होते हुए भी पिछले दो सौ वर्षों से दक्षिण की राजनीति में इस नगर का प्रमुख रोल रहा है. ककातीय नरेश गणपति ने वर्तमान गोलकुंडा की पहाड़ी पर एक कच्चा क़िला बनवाया था. 14वीं शती में इस प्रदेश में मुसलमानों का अधिकार हो जाने के पश्चात् बहमनी राज्य स्थापित हुआ. 1482 ई. में बहमनी राज्य के एक सूबेदार सुल्तान क़ुलीकुतुबुलमुल्क ने इस कच्चे क़िले को पक्का बनवाकर गोलकुंडा में अपनी राजधानी बनवायी.

नामकरण: क़ुतुबशाही वंश के पांचवे सुल्तान मुहम्मद क़ुली क़ुतुबशाह ने 1591 ई. में गोलकुंडा से अपनी राजधानी हटाकर नई राजधानी मूसी नदी के दक्षिणी तट पर बनाई, जहां हैदराबाद स्थित है. राजधानी गोलकुंडा से हटाने का कारण था, वहां की खराब जलवायु तथा जल की कमी. यह नया हरा-भरा तथा खुला स्थान सुल्तान ने यूं ही एक दिन यहां आखेट करते हुए पसन्द कर लिया था. उसने इस नये नगर का नाम अपनी प्रेमिका भागमती के नाम पर भागनगर रखा. मूूसी नदी के पास एक गांव चिचेलम, जहां भागमती रहती थी, नए नगर के भावी विकास का केन्द्र बना. सुन्दरी भागमती को क़ुतुबशाह ने बाद में 'हैदरमल' की उपाधि प्रदान की और तत्पश्चात् भागनगर भी हैदराबाद कहलाने लगा. यह भी कहा जाता है कि वर्तमान हैदराबाद के स्थान पर प्राचीन समय मे पाटशिला (Patashila]]) नामक नगर बसा हुआ था. क़ुतुबशाह फ़ारसी भाषा का अच्छा कवि था. चिचेलम ग्राम के स्थान पर चारमीनार नामक भवन बनवाया गया, जिसके ऊपर एक हिन्दू मन्दिर स्थित था. गिरधारी प्रसाद द्वारा रचित 'हैदराबाद के इतिहास' द्वारा सूचित होता है कि चारमीनार के ऊपर एक कलापूर्ण फव्वारा भी था. हैदराबाद के अनेक भवनों में 'खुदादाद' नामक महल क़ुतुबशाह को बहुत प्रिय था. इसके विषय में उसने अपनी कविता में लिखा है कि- "यह महल स्वर्ग के समान ही सुन्दर तथा सुखदाई था. यहां उसकी बारह बेगमें तथा प्रेमिकांए रहती थीं."

टॅवरनियर का उल्लेख: हैदराबाद का नक्शा त्रिकोण था. इसमें गोलकुंडा की सारी आबादी को लाकर बसाया गया था. नगर शीघ्र ही उन्नति करता चला गया. फ़्राँसीसी यात्री जीन बैप्टिस्ट टॅवरनियर ने, जो यहां नगर के निर्माण के थोड़े ही समय के पश्चात् आया था, लिखा है कि- "नगर को बहुत ही कलापूर्ण ढंग से बनाया तथा नियोजित किया गया था और उसकी सड़कें भी बहुत चौड़ी थीं. नगर में चार बाज़ारों का निर्माण किया गया था, जिनके प्रवेश द्वारों पर चार कमान नामक तोरण बनवाए गये थे. इनके दक्षिण की ओर चारमीनार स्थित है." इसका प्रयोजन अभी तक निश्चित नहीं किया जा सका है.

मुग़ल आधिपत्य: 1597-98 में विशाल 'जामा मस्जिद' बनकर तैयार हुई. इसी समय के आस-पास मूसी नदी का पुल, राजप्रासाद (जो पुरानी हवेली के पास था), गुलजार हौज, खुदादाद महल(जो दक्कन के सूबेदार इब्राहीम ख़ाँ के समय में जलकर भस्म हो गया.) और नन्दी महल(जिसका पता अब नहीं मिलता) इत्यादि बने. हैदराबाद शीघ्र ही अपने सौंदर्य और वैभव के कारण जग प्रसिद्ध नगर हो गया. फ़ारस के शाह के राजदूत तथा तहमास्प शाह का पुत्र, यहां कई वर्षों तक रहते रहे. 1617 ई. में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के दो राजदूत 'मीरमक्की' तथा 'मुंशी जादवराय' यहां नियुक्त थे. हैदराबाद पर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की बहुत दिनों से कुदृष्टि थी. उसने 1697 ई. में गोलकुंडा पर चढ़ाई करके क़िले को हस्तगत कर लिया और हैदराबाद का नगर भी उसके हाथ में आ गया. मुग़ल साम्राज्य की अवनति होने पर मोहम्मद रंगीले के शासनकाल में दक्कन का सूबेदार निज़ामुलमुल्क आसफ़ ख़ाँ स्वतंत्र हो गया और 1724 ई. में उसने हैदराबाद की स्वतंत्र रियासत कायम कर ली. उन दिनों मराठों की बढ़ती हुई शक्ति के कारण निज़ाम की दशा अच्छी न थी, किन्तु 18वीं शती के अन्त में अंग्रेज़ों से 'सहायक सन्धि' करने के उपरान्त निज़ाम अंग्रेज़ों के नियन्त्रण में आ गया और उसकी रियासत की रक्षा स्वतंत्रता बेच कर हुई.

हैदराबाद में कई ऐतिहासिक मन्दिर भी स्थित हैं। इसमें झामसिंह का मंदिर प्रसिद्ध है, जिसे तृतीय निज़ाम सिकन्दरशाह के समय में उसके अश्वसेनापति झामसिंह ने बनवाया था। यह मंदिर बालाजी का है. इसके लिये निज़ाम ने जागीर भी निश्चित की थी। इस मंदिर के द्वार पर अश्व प्रतिमांए बनी हैं। हैदराबाद की रेजीडेंसी 1803 से 1808 ई. तक बनी थी. इसको केप्टन एचीलीज क्रिकपेट्रिक [बाद में हशमतजंग बहादुर के नाम से प्रसिद्ध] ने बनवाया था. क्रिकपेट्रिक ने अपनी मुसलमान बेगम खैरून्निसा के लिए रेजीडेंसी के अंदर रंगमहल बनवाया था. हुसैन सागर झील, जो डेढ़ मील लम्बी है, 1560 ई. के लगभग इब्राहिम क़ुली क़ुतुबशाह द्वारा बनवाई गई थी. पुराने समय में इस झील के तट पर दो सरायें थीं, जिनमें परस्पर गूंज द्वारा बात की जा सकती थी. विशाल मक्का मस्जिद को गोलकुंडा के सुल्तान मुहम्मद क़ुतुबशाह ने बनवाना प्रारम्भ किया था और यह औरंगज़ेब के समय में 1687 ई. में पूरी हुई. फ़्राँसीसी सरदार रेमंड का मक़बरा सुरूरनगर की पहाड़ी पर है. निज़ाम की ओर से यह सरदार खुर्दा (कुर्दला) की लड़ाई में मराठों से लड़ा था. इस मक़बरे के पास वेंकटेश्वर का अति प्राचीन मन्दिर है. सिकन्दराबाद, हैदराबाद के निकट फ़ौजी छावनी है. 1806 ई. में अंग्रेज़ों की सहायक सेना प्रथम बार यहां आकर रहने लगी थी. सिकंदराबाद को सिकन्दरजाह तृतीय निज़ाम ने बसाया था. यहाँ 19वीं शती में सर रोनेल्ड रॉस ने मलेरिया के मच्छर की खोज की थी. (दे.गोलकुंडा)

पाटशिला (AS, p.546) चीनी यात्री युवानच्वांग ने, जिसने भारत का भ्रमण 630-645 ई. में किया था, सिंध (पाकिस्तान) के इस नाम के नगर का उल्लेख किया है. वह इस स्थान से होकर गुजरा था. वाटर्स तथा कनिंघम के अनुसार पाटशिला नगरी वर्तमान हैदराबाद (सिंध) के स्थान पर बसी होगी. शायद इसी नगर को यूनानी लेखकों ने पाटल कहा है. पाटशिला का रूपांतर पाटशिल है.

मूसी नदी (AS, p.755): हैदराबाद के निकट बहने वाली नदी जिसका नाम शायद मूषिकों के नाम पर है (देखें मूषिक 1,2). दक्षिण का मूषिक जनपद संभवतः इसी नदी के आसपास स्थित था. नदी के एक और गोलकुंडा और दूसरी ओर हैदराबाद है. गोलकुंडा नरेश कुतुबशाह इसी नदी को पार करके अपनी प्रेयसी भागमती से मिलने के लिए उसके ग्राम में जाया करता था. इसी ग्राम के स्थान पर भागमती से विवाह करने के पश्चात, उसने भागनगर की नींव वाली थी जो बाद में हैदराबाद कहलाया. (दे. भागनगर).

भागनगर , भागनगरी = भागनेर (AS, p.663): हैदराबाद का प्राचीन नाम. शिवाजी के राजकवि भूषण ने भागनगर का नाम का उल्लेख कई स्थानों पर किया है-- 'भूषन भनत भागनगरी कुतुबसाही दैकरि गँवायो रामगिरि से गिरीम को'--शिवराज भूषण 241. गढ़नेर, गढ़चाँदा, भागनेर, बीजापुर नृपन की बारी रोप हाथनि मलति है'-- शिवराज भूषण 116. भूषण के अनुसार भागनगर को कुतुबशाह (सुल्तान गोलकुंडा) ने शिवाजी को दे दिया था और शिवाजी ने संधि होने पर मुगलों को. भागनगर को गोलकुंडा के सुल्तान मुहम्मद कुली कुतुब शाह ने 1595 ई. में अपनी प्रेयसी भागमती के नाम पर बताया था.


मूषिक जनपद (AS, p.754): प्राचीन साहित्य में दो मूषिक जनपदों का उल्लेख मिलता है. मूषिक जनपद-1- इस जनपद का प्राचीन साहित्य में कई स्थानों पर उल्लेख है. श्री रायचौधरी के मत में (देखें पॉलीटिकल हिस्ट्री आफ एनसेंट इंडिया, पृ. 80). मूषिक-निवासियों को सांख्यायन स्रोतसूत्र में मूचीप या मूवीप कहा गया है. इनका नामोल्लेख मार्कंडेयपुराण 57,46 में भी है. संभवतः मूषिक देश हैदराबाद (आंध्र) के निकट बहने वाली मूसी नदी के कांठे में बसे प्रदेश का नाम था.

मूषिक जनपद- 2 - अलक्षेंद्र (सिकंदर) के भारत पर आक्रमण के समय (327 ई.पू.) [p.755]: मूषिकों का जनपद जिन्हें यूनानी लेखकों ने 'मौसीकानोज' लिखा है वर्तमान सिंध (पाकिस्तान) में स्थित था. इसकी राजधानी अलोर या अरोर (=रोरी) में थी. यूनानी लेखकों ने मूषिकों के विषय में अनेक आश्चर्यजनक बातें लिखी हैं जिनमें निम्न उल्लेखनीय हैं-- मूषिकों की आयु 130 वर्ष होती थी जो इन लेखकों के अनुसार इनके संयमित भोजन के कारण थी.

इनके देश में सोने चांदी की बहुत खानें थी किन्तु ये इन धातुओं का प्रयोग नहीं करते थे. मूषिकों के यहां दास प्रथा नहीं थी. ये लोग चिकित्सा शास्त्र के अतिरिक्त किसी अन्य शास्त्र का पढ़ना आवश्यक नहीं समझते थे. मूषिकों के न्यायालयों में केवल महान अपराधों का ही निपटारा होता था. साधारण दोषों के निर्णय के लिए न्यायालय को अधिकार नहीं दिए गए थे (दे. स्ट्रेबों पृ. 15,34-35). मूषिकों का वास्तविक नाम था मुचुकर्ण था. विष्णु पुराण में इन्हें ही संभवत: मूषिक कहा गया है. दक्षिण के मूषिक उत्तरी मूषिकों की ही एक शाखा थे.

बरार प्रांत का इतिहास : बरार नाम की उत्पत्ति ज्ञात नहीं है. इसके पहले प्रामाणिक रिकॉर्ड से पता चलता है कि यह आंध्र या सातवाहन साम्राज्य का हिस्सा रहा होगा. 12वीं शताब्दी में चालुक्यों के पतन के बाद, बरार देवगिरि के यादवों के अधीन आ गया, और 13वीं शताब्दी के अंत में मुस्लिमों के आक्रमण तक उनके कब्जे में रहा. दक्खन में बहमनी सल्तनत (1348) की स्थापना के बाद, साम्राज्य को पांच प्रांतों में बाटा गया था, जिसमें से बरार भी उन पांच प्रांतों में से एक था, जिसका शासन शाही व्यक्ति द्वारा किया जाता था, और उसके पास एक अलग सेना भी उपलब्ध थी. आगे चल कर प्रांत को दो अलग-अलग प्रांतों में विभाजित (1478 या 1479 में) किया गया, जिसका नाम उनकी राजधानियों गाविल और माहुर के नाम पर रखा गया. हालाँकि बहमनी राजवंश पहले से ही अपने पतन की ओर बढ़ रहा था.

बहमनी सल्तनत के विघटन, 1490 में के दौरान फतहउल्ला इमाद-उल-मुल्क, गाविल का राज्यपाल, जो पूर्व में पूरे बरार को संचालित किया करता था, इसे स्वतंत्र घोषित कर दिया और बरार सल्तनत की इमाद शाही राजवंश की स्थापना की. उसने माहुर को भी अपने नए राज्य में मिला लिया और अचलपुर में अपनी राजधानी ले गया. इमाद-उल-मुल्क जन्म से एक कनारी हिंदू था, लेकिन विजयनगर साम्राज्य के खिलाफ अभियानों दौरान उसे बाल्यवस्था में ही अपहरण कर ले आया गया और एक मुस्लिम के रूप में पाला गया था. गाविलगढ़ और नरनाला में भी उसके द्वारा गढ़ बनाये गए थे.

1504 में उसकी मृत्यु हो गई और उसके उत्तराधिकारी, अला-उद-दीन ने गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह की मदद से अहमदनगर की आक्रामकता का सामना किया. अगले शासक, दरिया ने अहमदनगर की आक्रामकता को रोकने के लिए बीजापुर के साथ गठबंधन करने की कोशिश की, लेकिन असफल रहा. 1568 में जब बुरहान इमाद शाह को उसके मंत्री तुफैल खान ने पदच्युत कर दिया था, और राजा बन गए. इसने अहमदनगर के मुर्तजा निज़ाम शाह को आक्रमण करने का एक बहाना मिल गया, और उसने बरार पर आक्रमण कर दिया, और तुफैल खान, उसके बेटे शम्स-उल-मुल्क, और पूर्व राजा बुरहान को कैद कर मौत की सजा दे दी और बरार को अहमदनगर सल्तनत में मिला लिया.

ऐतिहासिक तौर पर बरार एक अपरिभाषित सीमा क्षेत्र वाले प्रांत का नाम था, जिसका प्रशासनिक महत्त्व समाप्त हो चुका है, क्योंकि विदर्भ शब्द ने इसका स्थान ले लिया है. वैसे यह नाम काफ़ी विस्तृत क्षेत्र के लिए प्रयुक्त होता है, जिसमें नागपुर के मैदानी एवं महाराष्ट्र के सुदूर पूर्वी हिस्से सम्मिलित हैं. 13वीं शताब्दी में मुस्लिम सेनाओं के आक्रमण के बाद बरार एक स्पष्ट राजनीतिक इकाई के रूप में उभरा था. मुस्लिम साम्राज्य के बिखरने तक यह अनेक मुस्लिम राज्यों का हिस्सा रहा और उसके बाद हैदराबाद के निज़ाम के अधीन हो गया. 1853 में यह ब्रिटिश नियंत्रण में आया और 1948 में प्रांत के रूप में इसका अस्तित्व समाप्त कर दिया गया. अमरावती और अकोला इसके मुख्य शहर हैं. बुलधाना-यवतमाल पठार पर बरार का सुदूर दक्षिणी इलाक़ा पुर्णा नदी बेसिक की तुलना में कम विकसित है.

हैदराबाद में महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल

गोलकुंडा (Golkonda Fort) (तेलंगाना) (AS, p.303-305): गोलकुंडा एक क़िला व भग्नशेष नगर है। यह आंध्र प्रदेश का एक ऐतिहासिक नगर है। हैदराबाद से पांच मील पश्चिम की ओर बहमनी वंश के सुल्तानों की राजधानी गोलकुंडा के विस्तृत खंडहर स्थित हैं। गोलकुंडा का प्राचीन दुर्ग वारंगल के हिन्दू राजाओं ने बनवाया था। ये देवगिरी के यादव तथा वारंगल के ककातीय नरेशों के अधिकार में रहा था। इन राज्यवंशों के शासन के चिह्न तथा कई खंडित अभिलेख दुर्ग की दीवारों तथा द्वारों पर अंकित मिलते हैं। 1364 ई. में वारंगल नरेश ने इस क़िले को बहमनी सुल्तान महमूद शाह के हवाले कर दिया था। इतिहासकार फ़रिश्ता लिखता है कि बहमनी वंश की अवनति के पश्चात् 1511 ई. में गोलकुंडा के प्रथम सुल्तान ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था। किंतु क़िले के अन्दर स्थित जामा मस्जिद के एक फ़ारसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि, 1518 ई. में भी गोलकुंडा का संस्थापक कुली कुतुबशाह, महमूद शाह बहमनी का सामन्त और एक तुर्की अधिकारी था। उसने 1543 तक गोलकुंडा पर शासन किया। यह ऐतिहासिक शहर बहमनी साम्राज्य के 'तिलंग' या वर्तमान तेलंगाना प्रान्त की राजधानी था। गोलकुंडा के आख़िरी सुल्तान का दरबारी और सिपहसलार अब्दुर्रज्जाक लारी था। कुतुबशाह के बाद उसका पुत्र 'जमशेद' सिंहासन पर बैठा। जमशेद के बाद गोलकुंडा का शासक 'इब्राहिम' बना, जिसने विजयनगर से संघर्ष किया। 1580 ई. में इब्राहिम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र 'मुहम्मद कुली' (1580-1612 ई.) उसका उत्तराधिकारी हुआ। वह हैदराबाद नगर का संस्थापक और दक्कनी उर्दू में लिखित प्रथम काव्य संग्रह या ‘दीवान’ का लेखक था। गोलकुंडा का ही प्रसिद्ध अमीर 'मीरजुमला' मुग़लों से मिल गया था।

कुतुबशाही साम्राज्य की प्रारम्भिक राजधानी गोलकुंडा हीरों के विश्व प्रसिद्ध बाज़ार के रूप में प्रसिद्ध थी, जबकि मुसलीपत्तन कुतुबशाही साम्राज्य का विश्व प्रसिद्ध बन्दरगाह था। इस काल के प्रारम्भिक भवनों में सुल्तान कुतुबशाह द्वारा गोलकुंडा में निर्मित 'जामी मस्जिद' उल्लेखनीय है। हैदराबाद के संस्थापक 'मुहम्मद कुली' द्वारा हैदराबाद में निर्मित चारमीनार की गणना भव्य इमारतों में होती है। सुल्तान मुहम्मद कुली को आदि उर्दू काव्य का जन्मदाता माना जाता है। सुल्तान 'अब्दुल्ला' महान् कवि एवं कवियो का संरक्षक था। उसके द्वारा संरक्षित महानतम् कवि 'मलिक-उस-शोरा' था, जिसने तीन मसनवियो की रचना की। अयोग्य शासक के कारण, अंततः 1637 ई. में औरंगजेब ने गोलकुंडा को मुग़ल साम्राज्य में मिला लिया। बहमनी साम्राज्य से स्वतंत्र होने वाले राज्य क्रमश बरार, बीजापुर, अहमदनगर, गोलकुंडा तथा बीदर हैं।

गोलकुंडा क़िला: गोलकुंडा का क़िला 400 फुट ऊंची कणाश्म (ग्रेनाइट) की पहाड़ी पर स्थित है। इसके तीन परकोटे हैं और इसका परिमाप सात मील के लगभग है। इस पर 87 बुर्ज बने हैं। दुर्ग के अन्दर क़ुतुबशाही बेगमों के भवन उल्लेखनीय है। इनमें तारामती, पेमामती, हयात बख्शी बेगम और भागमती (जो हैदराबाद या भागनगर के संस्थापक कुली क़ुतुब शाह की प्रेयसी थी) के महलों से अनेक मधुर आख्यायिकी का संबंध बताया जाता है। क़िले के अन्दर नौमहल्ला नामक अन्य इमारतें हैं। जिन्हें हैदराबाद के निजामों ने बनवाया था। इनकी मनोहारी बाटिकाएँ तथा सुन्दर जलाशय इनके सौंदर्य को द्विगुणित कर देते हैं। क़िले से तीन फलांग पर इब्राहिम बाग़ में सात क़ुतुबशाही सुल्तानों के मक़्बरे हैं। जिनके नाम हैं- कुली क़ुतुब, सुभान क़ुतुब, जमशेदकुली, इब्राहिम, मुहम्मद कुली क़ुतुब, मुहम्मद क़ुतुब, अब्दुल्ला क़ुतुबशाह.

प्रेमावती व हयात बख्शी बेगमों के मक़्बरे भी इसी उद्यान के अन्दर हैं। इन मक़्बरों के आधार वर्गाकार हैं तथा इन पर गुंबदों की छतें हैं। चारों ओर वीथीकाएँ बनी हैं जिनके महाराब नुकीले हैं। ये वीथीकाएँ कई स्थानों पर दुमंजिली भी हैं। मक़्बरों के हिन्दू वास्तुकला के विशिष्ट चिह्न कमल पुष्प तथा पत्र और कलियाँ, शृंखलाएँ, प्रक्षिप्त छज्जे, स्वस्तिकाकार स्तंभशीर्ष आदि बने हुए हैं। गोलकुंडा दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार में यदि ज़ोर से करताल ध्वनि की जाए तो उसकी गूंज दुर्ग के सर्वोच्च भवन या कक्ष में पहुँचती है। एक प्रकार से यह ध्वनि आह्वान घंटी के समान थी। दुर्ग से डेढ़ मील पर तारामती की छतरी है। यह एक पहाड़ी पर स्थित है। देखने में यह वर्गाकार है और इसकी दो मंज़िले हैं। किंवदंती है कि तारामती, जो क़ुतुबशाही सुल्तानों की प्रेयसी तथा प्रसिद्ध नर्तकी थी, क़िले तथा छतरी के बीच बंधी हुई एक रस्सी पर चाँदनी में नृत्य करती थी। सड़क के दूसरी ओर प्रेमावती की छतरी है। यह भी क़ुतुबशाही नरेशों की प्रेमपात्री थी। हिमायत सागर सरोवर के पास ही प्रथम निज़ाम के पितामह चिनकिलिचख़ाँ का मक़्बरा है।

28 जनवरी, 1687 ई. को औरंगज़ेब ने गोलकुंडा के क़िले पर आक्रमण किया और तभी मुग़ल सेना के एक नायक के रूप में किलिच ख़ाँ ने भी इस आक्रमण में भाग लिया था। युद्ध में इसका एक हाथ तोप के गोले से उड़ गया था जो मक़्बरे से आधा मील दूर क़िस्मतपुर में गड़ा हुआ है। इसी घाव से इसका कुछ दिन बाद निधन हो गया। कहा जाता है कि मरते वक़्त भी किलिच ख़ाँ जरा भी विचलित नहीं हुआ था और औरंगज़ेब के प्रधानमंत्री जमदातुल मुल्क असद ने, जो उससे मिलने आया था, उसे चुपचाप काफ़ी पीते देखा था। शिवाजी ने बीजापुर और गोलकुंडा के सुल्तानों को बहुत संत्रस्त किया था तथा उनके अनेक क़िलों को जीत लिया था। उनका आतंक बीजापुर और गोलकुंडा पर बहुत समय तक छाया रहा जिसका वर्णन हिन्दी के प्रसिद्ध कवि भूषण ने किया है- बीजापुर गोलकुंडा आगरा दिल्ली कोट बाजे बाजे रोज़ दरवाज़े उधरत हैं। गोलकुंडा पहले हीरों के लिए विख्यात था। जिनमें से कोहिनूर हीरा सबसे मशहूर है।

मुहम्मद कुली कुतुब शाह का मकबरा

क़ुतुब शाही मक़बरे - कुतुबशाही वंश के शासकों के मकबरे यहां स्थित हैं, यह गोलकोंडा किले के निकट शाइकपेट में है। उनमें कुतुब शाही वंश के विभिन्न राजाओं द्वारा निर्मित कब्रें और मस्जिदें हैं। छोटी कब्रों की दीर्घाएँ एक मंजिला हैं, जबकि बड़ी दो मंजिला हैं। प्रत्येक मकबरे के केंद्र में एक व्यंग्य है जो नीचे एक तहखाना में वास्तविक दफन तिजोरी पर निर्भर करता है। गुंबदों को मूल रूप से नीले और हरे रंग की टाइलों के साथ मढ़ा गया था, जिनमें से अब केवल कुछ टुकड़े रह गए हैं। कब्रों को एक बार कालीन , झूमर और मखमल से सुसज्जित किया गया था। सुल्तान कुली कुतुब मुल्क का मकबरा, जिसकी शैली उनके वंशजों की कब्रों के लिए मिसाल कायम करती है, प्रत्येक दिशा में 30 मीटर की दूरी पर एक ऊँची छत पर है। मकबरे का कक्ष अष्टकोणीय है, जिसके प्रत्येक पक्ष की माप लगभग 10 मीटर है। संपूर्ण संरचना को एक गोल गुंबद से ताज पहनाया जाता है। इस मकबरे के चेंबर में तीन कब्रें हैं और इक्कीस को आसपास की छत पर रखा गया है, जिनमें से सभी में मुख्य मकबरे को छोड़कर शिलालेख नहीं हैं। नस्क और तौक लिपियों में सुल्तान कुली की कब्र पर शिलालेख तीन बैंडों में है। शिलालेख सुल्तान कुली को बडे मलिक (महान मास्टर) के रूप में संदर्भित करता है - अंतिम शब्द जिसके द्वारा डेक्कन के सभी लोग उसके लिए उपयोग करते थे। इस कब्र का निर्माण 1543 ई. में सुल्तान ने अपने जीवनकाल के दौरान किया था, जैसा कि रिवाज था।

चार मीनार

चार मीनार (Char Minar) – नगर का मुख्य चिन्ह, जिसमें चार भव्य मीनारें हैं। शहर के बीचोंबीच बनी इस भव्य इमारत का निर्माण कुली कुतुब शाही नवाब ने 1591 में कराया था। यह कहा जाता है कि हैदराबाद में प्लेग जैसी भयानक महामारी पर विजय पाने की खुशी में नवाब ने चारमीनार का निर्माण कराया था। यह विश्व स्तर पर हैदराबाद के प्रतीक के रूप में जाना जाता है और भारत में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त संरचनाओं में सूचीबद्ध है। चारमीनार के लंबे इतिहास में 400 से अधिक वर्षों के लिए इसकी शीर्ष मंजिल पर एक मस्जिद का अस्तित्व शामिल है।

चारमीनार ग्रेनाइट, चूना पत्थर, मोर्टार और चूर्णित संगमरमर से बना है। शुरूआत में इसके चार मेहराब के साथ स्मारक के लिए ऐसी सटीक योजना बनाई थी कि जब चारमीनार खोला गया था तब प्रत्येक मेहराब से हैदराबाद शहर के चारों कोनों की झलक मिलती थी, क्योंकि प्रत्येक मेहराब किसी एक सबसे सक्रिय शाही पैतृक सड़कों के सामने था। वहाँ भी एक भूमिगत सुरंग चारमीनार, संभवतः एक घेराबंदी के मामले में कुतुब शाही शासकों के लिए एक भागने मार्ग के रूप में इरादा गोलकुंडा को जोड़ने के एक किंवदंती है, हालांकि सुरंग के स्थान अज्ञात है। प्रत्येक मीनार आधार पर डिजाइन की तरह मिठाइयां पत्ती के साथ एक बल्बनुमा गुंबद द्वारा ताज पहनाया है। एक खूबसूरत मस्जिद खुले छत के पश्चिमी छोर पर स्थित है और छत के शेष भाग कुतुब शाही समय के दौरान एक अदालत के रूप में सेवा की। वहाँ 149 घुमावदार कदम ऊपरी मंजिल तक पहुँचते हैं। ऊपर एक बार और सुंदर इंटीरियर के एकांत और शांति ताज़ा है। मीनारों के बीच ऊपरी मंजिल में अंतरिक्ष के लिए शुक्रवार की नमाज के लिए किया गया था।

चारमीनार मुसी नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। इसके पश्चिम में लाद बाज़ार स्थित है, और दक्षिण पश्चिम में सबसे समृद्ध ग्रेनाइट वाला मक्का मस्जिद है। इसे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा तैयार आधिकारिक "स्मारकों की सूची" में एक पुरातात्विक और वास्तुशिल्प खजाने के रूप में सूचीबद्ध किया गया है। ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण, यह संरचना के आसपास के लोकप्रिय और व्यस्त स्थानीय बाजारों के लिए भी जाना जाता है, और हैदराबाद में सबसे अधिक बार आने वाले पर्यटक आकर्षणों में से एक बन गया है। चारमीनार से लगा हुआ ही एक प्रसिद्ध चूड़ी बाजार है, जहां आपको अनगिनत वैरायटियों की सुंदर चूड़ियां देखने को मिल जाएंगी।


मक्का मस्जिद, हैदराबाद

मक्का मस्जिद, हैदराबाद (Makkah Masjid, Hyderabad) – यह पत्थर की बनी है, व चारमीनार के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। यह अपने आकार, स्थापत्य एवं निर्माण में अद्वितीय है। मक्का मस्जिद, हैदराबाद, भारत में सबसे पुरानी और भारत की सबसे बड़ी मस्जिदों में से एक है। मक्का मस्जिद पुराने शहर हैदराबाद में एक सूचीबद्ध विरासत इमारत है, जो चौमाहल्ला पैलेस, लाद बाजार और चारमीनार के ऐतिहासिक स्थलों के नजदीक है। यह एक मस्जिद और ऐतिहासिक इमारत है। मुहम्मद क़ुली क़ुत्ब शाह, हैदराबाद के 6वें सुलतान ने 1617 मे मीर फ़ैज़ुल्लाह बैग़ और रंगियाह चौधरी के निगरानी मे इसका निर्माण शुरू किया था। यह काम अब्दुल्लाह क़ुतुब शाह और ताना शाह के वक़्त में ज़ारी रहा और 1694 में मुग़ल सम्राट औरंग़ज़ेब के वक़्त में पूरा हुआ। कहते है कि इसे बनाने मे लगभग 8000 राजगीर और 77 वर्ष लगे। कुतुब शाही राजवंश के पांचवें शासक मोहम्मद कुली कुतुब शाह ने इस्लाम की सबसे पवित्र जगह मक्का से लाई गई मिट्टी से बने ईंटों से इसका निर्माण शुरू किया, और उन्हें मस्जिद के केंद्रीय कमान के निर्माण में इस्तेमाल किया, इस प्रकार मस्जिद को मक्काह मस्जिद रखा गया। मस्जिद का मुख्य हॉल 75 फीट ऊंचा, 220 फीट चौड़ा और 180 फीट लंबा है, जो एक समय में 10,000 उपासकों को समायोजित करने के लिए पर्याप्त है। पंद्रह आर्च मुख्य हॉल की छत को संभालने के लिए लगे हैं, तीनों तरफ पांच पांच हैं। चौथी तरफ एक दीवार बनाई गई मिहराब के लिए। मस्जिद के किनारे मीनारों की चोटी पर एक कमानों की गैलरी है, और उसके ऊपर एक छोटा गुंबद और एक शिखर है। कुरान की आयतों से सजे शिलालेख कई मेहराबों और दरवाजों पर सजे नज़र आते हैं। मस्जिद की मुख्य संरचना ग्रेनाइट पत्थर हैं, जो दो बड़े अष्टकोणीय स्तंभों के बीच में लगाई गई हैं। पूरे मस्जिद की संरचना के चारों ओर मेहराबों पर पुष्प आकृतियां और क़ुतुब शाही वास्तुकला विस्तार से छलकती है। पर्यटकों को यह ध्यान और याद दिलाती हैं की यह वास्तुकला चारमीनार और गोलकोंडा किले में मेहराबों जैसी ही है। मुख्य मस्जिद पर छत के चार किनारों पर, बालकनियों पर उलटे कप के आकार में ग्रेनाइट से बने छोटे गुम्बद बनाये गए हैं। मस्जिद के मीनार निज़ाम के क़ब्र के पास के मीनारों से ऊंचे नहीं हैं। अष्टकोणीय स्तंभों पर बलकनियाँ बनी हैं जो छत से मिलती हैं, जिसके ऊपर कॉलम की ओर बढ़ता है और शिखर पर एक गुम्बद सजाया गया है।

नेहरू जूलॉजिकल पार्क, हैदराबाद

नेहरू प्राणी उद्यान (Nehru Zoological Park) - यह जूलॉजिकल पार्क तीन सौ अस्सी एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। हैदराबाद में नेहरू जूलॉजिकल पार्क की स्थापना 26 अक्टूबर 1959 को “आधुनिक चिड़ियाघर” के रूप में विकसित करने के लिए की गई थी। 6 अक्टूबर 1963 को इसका उद्घाटन किया गया था। नेहरू जूलॉजिकल पार्क हैदराबाद और सिकंदराबाद के जुड़वां शहरों में एक लोकप्रिय मनोरंजन स्थल है। तेलंगाना सरकार का वन विभाग चिड़ियाघर के प्रशासन की देखरेख करता है। हैदराबाद में नेहरू जूलॉजिकल पार्क अन्य आगामी चिड़ियाघरों के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह चिड़ियाघर के रखरखाव के लिए आंध्र प्रदेश सरकार से अनुदान प्राप्त करता है। पार्क का उद्देश्य वन्य जीवन और मानव जीवन के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के बारे में लोगों को जानवरों के व्यवहार और ज्ञान का प्रसार करने के लिए वैज्ञानिक अध्ययन करना है। नेहरू जूलॉजिकल पार्क में भारतीय राइनो, एशियाई शेर, पैंथर, गौर, ओरंगुटान, क्रोकोडाइल, और पायथन आदि जैसे कुछ उल्लेखनीय स्वदेशी पशु प्रजातियां हैं। नेहरू जूलॉजिकल पार्क में पक्षियों की कई प्रजातियां भी हैं। नेहरू जूलॉजिकल पार्क का असमान परिदृश्य जानवरों और पक्षियों को एक प्राकृतिक सेटिंग प्रदान करता है। छह सौ एकड़ के क्षेत्र में फैले चिड़ियाघर में मिरामल टैंक सैकड़ों प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करता है। चिड़ियाघर हर दिन लॉयन सफारी, टाइगर सफारी, भालू सफारी और तितली सफारी की तरह अलग-अलग सफारी यात्राएं करता है। कोई भी चिड़ियाघर में हाथी की सवारी का आनंद ले सकता है। चिड़ियाघर के अन्य आकर्षणों में एक संग्रहालय और एक बच्चों की ट्रेन शामिल है। नेहरू जूलॉजिकल पार्क उन सभी लोगों के लिए ज़रूरी जगह है, जो पूरे चिड़ियाघर को कवर करने के लिए 6-7 घंटे तक घूम सकते हैं, जो 300 एकड़ ज़मीन पर है। इसमें 300 हरे-भरे मैदान हैं। तेलंगाना में नेहरू जूलॉजिकल पार्क पर्यटकों को प्रकृति पर्यटन और अवकाश पर्यटन गतिविधियों दोनों प्रदान करता है। नेहरू जूलॉजिकल पार्क में जानवरों और पक्षियों की 250 से अधिक प्रजातियां हैं, जिनमें से अधिकांश को यथासंभव उनके प्राकृतिक आवासों के करीब की स्थितियों में रखा जाता है। जानवरों के लिए बाड़े बनाने वाला यह पहला चिड़ियाघर है। लॉयन सफारी पार्क, प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय और चिल्ड्रन ट्रेन, अतिरिक्त आकर्षण हैं।

सलारजंग संग्रहालय

सलारजंग संग्रहालय (Salar Jung Museum) – यह पुरातन वस्तुओं का एक व्यक्ति संग्रह वाला सबसे बड़ा संग्रहालय है। कई शताब्दियों के संग्रह यहां मिलते हैं। सालार जंग संग्रहालय तेलंगाना राज्य की राजधानी हैदराबाद शहर में मूसा नदी के दक्षिणी तट पर दार-उल-शिफा में स्थित एक कला संग्रहालय है। यह भारत के तीन राष्ट्रीय संग्रहालयों में से एक है। यह हैदराबाद शहर के पुराने शहर जैसे चारमीनार, मक्का मस्जिद आदि महत्वपूर्ण स्मारकों के करीब है। मीर यूसुफ अली खान, सालार जंग 3 (1889-1949) एक महान व्यक्ति थे, जिन्होंने 7th निज़ाम मीर उस्मान अली ख़ान के शासन के दौरान हैदराबाद प्रांत के प्रधान मंत्री के रूप में कार्य किया था।

हाईटेक सिटी, हैदराबाद का प्रमुख टॉउनशिप क्षेत्र

हाईटेक सिटी: हैदराबाद इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी इंजीनियरिंग कंसलटेंसी सिटी, हैदराबाद का प्रमुख टॉउनशिप एरिया है। यह टॉउनशिप माधापुर और गचीबाउली के नगर परिसर के पास ही है। जब बेंगलूरू एक आईटी सेंटर के रूप में उभरा तब आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारा चंद्रबाबू नायडू ने हैदराबाद को आईटी हब बनाने की योजना बनाई। नायडू ने कई आईटी कंपनियों को यहां सेंटर स्थापित करने का निमंत्रण दिया। हाईटेक सिटी प्रोजेक्ट का पहला चरण साइबर टॉवर और दूसरा चरण साइबर गेटवे था। साइबर टॉवर जीई केपिटल और ऑरेकल कार्पोरेशन जैसे मल्टीनेशनल के लिए ऑफिस था। हाईटेक सिटी में सत्यम कंप्यूटर्स, विप्रो, टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज, माइंडस्पेश, एलएंडटी, इंफोसिस, एपीआईआईसी, आईबीएम और गूगल सहित कईयों के ऑफिस हैं।

फलकनुमा पैलेस

फलकनुमा पैलेस (Falaknuma Palace) – नवाब विकार-अल-उमरा द्वारा बनवाया हुआ, स्थापत्यकला का अनोख उदाहरण है। फलकनुमा पैलेस भारत में स्थित हैदराबाद के बहुत ही अधिक श्रेष्ठ स्थानों में से एक है। यह पैगाह हैदराबाद स्टेट से सम्बन्ध रखता है जिस पर बाद में निजामों द्वारा अधिपत्य किया गया। यह फलकनुमा में 32 एकड़ क्षेत्र पर बना हुआ है तथा चारमिनार से 5 किमी की दूरी पर है। इसका निर्माण नवाब वकार उल उमर द्वारा किया गया था जो कि हैदराबाद के प्रधानमन्त्री थे। फलकनुमा का तात्पर्य होता है- “आसमान की तरह” अथवा “आसमान का आइना”। इस महल की रचना एक अंग्रेजी शिल्पकार ने की थी। इसकी रचना की आधारशिला 3 मार्च 1884 को सर वाईकर के द्वारा रखी गयी थी। वे खुद्दुस के पर पोते तथा सर चार्ल्स डार्विन के मित्र वैज्ञानिक थे। इस निर्माण को पूरा होने में कुल 9 वर्षों का समय लगा। इसका निर्माण पूर्णतया इटेलियन पत्थर द्वारा हुआ था तथा यह 93,971 वर्ग मीटर क्षेत्र को घेरे हुए है। सर बाइकर इस स्थान को अपने निजी निवास के तौर पर तब तक प्रयोग करते थे जब तक कि इसका अधिपत्य उनके पास रहा, बाद में यह पैलेस 1897-98 के लगभग हैदराबाद के निजाम को सौंप दिया गया। फलकनुमा पैलेस के निर्माण में इतनी अधिक लागत आयी कि एक बार तो सर बाइकर को भी अहसास हुआ की वे अपने लक्ष्य से कहीं ज्यादा खर्च कर चुके है। बाद में उनकी बुद्धिमान पत्नी लेडी उल उमरा की चालाकी से उन्होंने यह पैलेस निजाम को उपहार में दे दिया जिसके बदले में उन्हें इस पर खर्च किया हुआ पूरा पैसा मिल गया। बाद में निजाम नें इस महल को शाही अतिथि गृह की तरह से प्रयोग करना शुरू कर दिया क्यूंकि इससे पूरे शहर का नज़ारा देखने को मिलता था।। सन 2000 तक यह पैलेस निजाम के परिवार की निजी संपत्ति थी तथा सामान्य जनता के लिए आम रूप से खुली नहीं थी। इस पैलेस में बिलियर्ड्स रूम भी है जिसे कि बोरो और वाट्स ने डिजाईन किया था। इसमें स्थित टेबल अपने आप में अद्भुत है क्यूंकि ऐसी दो टेबल्स का निर्माण किया गया था जिनमें से एक बकिंघॅम पैलस में हैं तथा दूसरी यहाँ स्थित है। सन २000 में ताज होटल ने इस पैलेस को पुनः नवीनीकृत करना शुरू कर दिया। नए बदलावों के साथ इस होटल को नवम्बर 2010 में विलासितापूर्ण होटल में तब्दील कर अतिथियों के लिए खोल दिया गया है।

हुसैन सागर झील-हैदराबाद
बुद्ध प्रतिमा, हुसैन सागर झील-हैदराबाद

हुसैन सागर (Hussain Sagar): तेलंगाना, भारत में एक कृत्रिम झील है जो हैदराबाद में है। यह मूसी नदी की सहायक नदी पर 1562 में निर्मित किया गया। हुसैन सागर झील हैदराबाद को अपने जुड़वां नगर सिकंदराबाद (Secunderabad) से अलग करती है। हैदराबाद के छटवें निज़ाम महबूब अली खान ने तेलुगु और उर्दू भाषा में कई कविताएं लिखीं; जिनमें से कुछ इसकी दीवारों पर अंकित हैं। झील के चारों ओर कई आकर्षण हैं जो लोकप्रिय पिकनिक स्पॉट हैं। हैदराबाद की बुद्ध प्रतिमा (Buddha Statue), लुंबिनी पार्क (Lumbini Park), बिरला मंदिर (Birla Mandir), बिड़ला विज्ञान संग्रहालय, स्नो वर्ल्ड (Snow World), जलविहार, संजीवैअ पार्क (Sanjeevaiah Park), प्रसाद आईमैक्स (Prasad's IMAX), एनटीआर गार्डन (NTR Gardens), नेकलेस रोड (Necklace Road)।

गौतम बुद्ध प्रतिमा (Buddha Statue) : यह एक बुद्ध प्रतिमा है जो भारत के आन्ध्र प्रदेश राज्य की राजधानी हैदराबाद में हुसैन सागर झील में स्थित एकाश्म मूर्ति है। गौतम बुद्ध की यह प्रतिमा विश्व में सबसे ऊंची एकाश्म प्रतिमा है। 1992 में गौतम बुद्ध की यह बड़ी 18 मी. ऊंची अखंड मूर्ति, झील के बीच में एक टापू पर खडी की गई। इस द्वीप पर जिस पत्थर पर यह बनी है, उसे स्थानीय लोग जिब्राल्टर का पत्थर (Gibraltar Rock) कहते हैं।

लुंबिनी पार्क (Lumbini Park): टी. अंजैया लुंबिनी पार्क, एक छोटा सा सार्वजनिक, 3 हेक्टेयर (7.5 एकड़) का शहरी पार्क है जो भारत के हैदराबाद में हुसैन सागर से सटा है। चूंकि यह शहर के केंद्र में स्थित है और बिरला मंदिर और नेकलेस रोड जैसे अन्य पर्यटक आकर्षणों के करीब है, यह पूरे वर्ष कई आगंतुकों को आकर्षित करता है। नौका विहार सबसे अच्छा हिस्सा है और लोग नावों में टैंक बैंड के बीच में रखी बुद्ध की मूर्ति के पास जाते हैं। 1994 में निर्मित, पार्क को बुद्ध पूर्णिमा परियोजना प्राधिकरण द्वारा बनाए रखा गया है जो तेलंगाना सरकार के निर्देशों के तहत कार्य करता है।

संजीवैअ पार्क (Sanjeevaiah Park): संजीवैअ पार्क हुसैन सागर झील के उत्तर में 92 एकड़ में स्थित है. इसका नामकरण आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दामोदरम संजीवैअ (Damodaram Sanjivayya) के नाम पर रखा गया है. यह पार्क जैव-विविधता में बहुत स्मृद्ध है. यहाँ कोई 100 से अधिक पक्षियों की प्रजातियाँ औए 50 से अधिक कीट-पतंग और तितलियों की प्रजातियाँ हैं.

प्रसाद आईमैक्स (Prasad's IMAX): प्रसाद आईमैक्स 235,000 sq ft (21,800 m2) क्षेत्र में बना हुआ है जिसमें IMAX तकनीक पर बना एक मूवी थियेटर है. IMAX तकनीक एक फ़िल्म का प्रकार व सिनेमा चित्रीकरण के निति निर्देश है जिसकी रचना कनेडियाई कंपनी आईमैक्स कॉर्पोरेशन ने बनाया है। आईमैक्स में साधारण फ़िल्म यंत्रों की तुलना में कई बड़े चित्र रेकॉर्ड करने व दर्शाने की क्षमता है। 2002 से कुछ फ़िल्मों को आईमैक्स फॉर्मेट में परिवर्तित करना शुरू कर दिया है ताकि उन्होंने आईमैक्स सिनेमाघरों में दर्शाया जा सके।

स्नो वर्ल्ड (Snow World) : हुसैन सागर झील के पास 2 एकड़ में बना मनोरंजन पार्क है. इसका लोकार्पण 28 जनवरी 2004 को किया गया था.

एनटीआर गार्डन (NTR Gardens): हुसैन सागर झील के पास 92 एकड़ में फैला यह एक पब्लिक शहरी पार्क है. अपनी खूबसूरती और भौगोलिक स्थिति के कारण हैदराबाद का छोटा सा पार्क एनटीआर गार्डन स्थानीय लोगों के बीच काफी लोकप्रिय है। हुसैन सागर झील के बगल में होने के कारण यहां लोगों का आना जाना लगा रहता है। खासतौर से शाम के समय पार्क में गतिविधियां काफी तेज हो जाती हैं। एनटी रामा राव को समर्पित इस गार्डन के निर्माण कार्य 1999 में शुरू किया गया था। इसमें पेड़-पौधों के अतिरिक्त सोवेनीर काम्प्लेक्ष, विजिटर ट्रेन, रेस्टौरेंट और जलप्रपात हैं.

रामोजी फिल्म सिटी

रामोजी फिल्म सिटी (Ramoji Film City) - यह संसार का सबसे बड़ा समाकलित फ़िल्म स्टूडियो सम्मिश्र है जो लगभग 2000 एकड़ में फैला है। यह एशिया के सबसे लोकप्रिय पर्यटन एवं मनोरंजन केंद्रों में से एक है। 1996 में उद्घाटित यह हैदराबाद से 25 किलोमीटर दूर विजयनगर नल्गोंडा मार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-9) पर स्थित है। इस स्टूडियो में 50 शूटिंग फ्लोर हैं।यहाँ एक साथ 15 से 25 फिल्मों की शूटिंग की जा सकती है। आरएफसी में फिल्म की प्री-प्रोडक्शन से पोस्ट प्रोडक्शन तक की तमाम सुविधाएं एक जगह मौजूद हैं यानी फिल्म का आइडिया लेकर आइये और फिल्म कैन करके जाइये. फिल्म-निर्माण के अलावा रामोजी फिल्म सिटी एक प्रसिद्ध पर्यटन केंद्र भी है, जहां हरसाल दस लाख से भी ज्यादा लोग आते हैं। आरएफसी को मानव-निर्मित आश्चर्य की श्रेणी में भी रखा जा सकता है। दक्षिण के मशहूर फिल्म निर्माता और मीडिया बैरॉन श्री रामोजी राव ने सन् 1996 में रामोजी फिल्म नगर की स्थापना की। रामोजी ग्रुप की ईकाई उषा किरण मूवीज लिमिटेड हिंदी, मलयालम, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, मराठी और बांग्ला में अस्सी से भी ज्यादा फिल्में बना चुकी है। उषा किरण मूवीज लिमिटेड ने भारतीय फिल्माकारों की फिल्मी कल्पना के मुताबिक इस फिल्म सिटी का निर्माण किया।

चौमोहल्ला पैलेस

चौमोहल्ला पैलेस (Chowmahalla Palace) - चौमोहल्ला पैलेस हैदराबाद राज्य के निज़ाम का महल है। इसका निर्माण वर्ष 1869 में 5 वें निज़ाम अफ़ज़ल-उद-दौला, अासफ जाह पंचम के शासनकाल के दौरान हुआ था। यह 45 एकड़ के क्षेत्र में फैलता है। आज की तारीक में यह महल 7 वें निजाम के पहले पोते - मुकरम जाह की संपत्ति है। यह आसफ जाही वंश का स्थान था, जहां निज़ाम अपने शाही आगन्तुकों का सत्कार किया करते थे। यहां एक महलों का समूह है, जो दरबार हॉल के रूप में प्रयुक्त होते थे। दक्षिणी आंगन - यह महल का सबसे पुराना हिस्सा है, और इसमें चार महल : अफजल महल, महाताब महल, तेहनीयत महल और अफताब महल हैं। उत्तरी आंगन - इस भाग में बारा इमाम है -जिसमें कैमरून का एक प्रसिद्द लंबा गलियारा है । खिलवत मुबारक - यूँ कहें के यह चौमाहल्ला पैलेस का दिल है। यह हैदराबादी लोगों में एक उच्च सम्मान में आयोजित किया जाता है, क्योंकि यह असफ़ जाही राजवंश का सिंहासन था इसमें प्रसिद्ध क्लॉक टॉवर, काउंसिल हॉल और रोशन बांग्ला शामिल हैं।


बिडला मंदिर (Birla Mandir) – यह बिडला मंदिर, नगर में एक ऊंचे पहाड़ पर स्थित है, जहां से नगर का नज़ारा दिखाई देता है, व पूरे नगर से यह दिखाई देता है। यह दो हजार टन सफेद राजस्थानी संगमरमर से बना है। 280 फीट ऊँची पहाड़ी पर निर्मित , हैदराबाद का बिड़ला मंदिर भारत का एक लोकप्रिय मंदिर है। हैदराबाद में बिरला मंदिर, भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित है । यह मंदिर हुसैन सागर झील के पास स्थित है । मंदिर का समय: सुबह 7 बजे से दोपहर 12 बजे तक, शाम 3 बजे से रात्रि 9 बजे तक। स्थान: आदर्श नगर कॉलोनी, नौबाथ पहाड़, हुसैन सागर झील के पास, हैदराबाद।

बिडला तारामंडल (Birla Planetarium ) – नगर के बीच में नौबत पहाड पर स्थित, तारामंडल खगोल विज्ञान को नगर का नमन है।


लाड बाजार - यहां चूड़ी बाज़ार है, जो चार मीनार के पश्चिम में है।

कमल सरोवर - जुबली हिल्स पर स्थित, तालाब के चारों ओर बना एक सुंदर बगीचा है, जिसे एक इतालवी अभिकल्पक द्वारा बनाया हुआ बताया जाता है। यह वर्तमान में हैदराबाद नगरपालिक निगम द्वारा अनुरक्षित है। यह कुछ दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों का घर भी है।

पुरानी हवेली - निज़ाम का आधिकारिक निवास।


पैगाह मक़बरे - पैगाह मकबरा का संबंध पैगाह के शाही परिवार से है, जिसे शम्स उल उमराही परिवार के नाम से भी जाना जाता है। हैदराबाद के उपनगर पीसाल बंदा में स्थित इस मकबरे को मकबरा शम्स उल उमरा के नाम से भी जाना जाता है। इस मकबरे के निर्माण का काम 1787 में नवाब तेगजंग बहादुर ने शुरू करवाया था और फिर बाद में इसके निर्माण कार्य में उनके बेटे आमिर ए कबीर प्रथम ने हाथ बंटाया।

संघी मंदिर - भगवान वेंकटेश्वर को समर्पित एक मंदिर है।

माधापुर - हैदराबाद के अनेक सूचना-प्रौद्योगिकी तथा सूचना-प्रौद्योगिकी-समर्थीकृत-सेवाओं संबधित कार्यालयों का स्थान है।

Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 12.7.2021

11.1.1982: हैदराबाद (22.00) - नागपुर ट्रेन द्वारा

आज सुबह मुख्य वनसंरक्षक आंध्र प्रदेश, श्री मनवर हुसैन ने सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वानिकी के लिए बजट बहुत ही कम है सिर्फ दस करोड़ रुपये। रात के दस बजे सिकंदराबाद से ट्रेन द्वारा रायपुर के लिए रवाना हुए। रास्ते के स्टेशन हैं Hyderabad (22.00) → KazipetSirpurKagaznagarBallalpurRamgundamNagpur (9.30)

12.1.1982: नागपुर (9.30)

दक्षिण भारत का भ्रमण यहाँ समाप्त होता है
हैदराबाद की चित्र गैलरी

हैदराबाद - नागपुर - रायपुर - देहारादून

11.1.1982: हैदराबाद (22.00) - नागपुर ट्रेन द्वारा

आज सुबह मुख्य वनसंरक्षक आंध्र प्रदेश, श्री मनवर हुसैन ने सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वानिकी के लिए बजट बहुत ही कम है सिर्फ दस करोड़ रुपये। रात के दस बजे सिकंदराबाद से ट्रेन द्वारा रायपुर के लिए रवाना हुए। रास्ते के स्टेशन हैं Hyderabad (22.00) → KazipetSirpurKagaznagarBallalpurRamgundamNagpur (9.30)

12.1.1982: नागपुर (9.30)

सुबह साढ़े नौ बजे नागपुर पहुंचे। दिनभर नागपुर में ही बिताया। सामान बोगी में ही रखा था। नागपुर में कोई खास देखने का स्थल नहीं है। यहाँ का संतरा बड़ा प्रसिद्ध है। इसलिए एक-एक टोकरी संतरा खरीदा। संतरे वाले लोग बड़े चिपकू थे, उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल लगता है। रात को 8 बजे चक्रधरपुर एक्सप्रेस के साथ हमारी बोगी संलग्न की गयी और हम रायपुर के लिए रवाना हुए।

नागपुर (AS, p.487) : महाराष्ट्र में नाग नदी पर अवस्थित है. गोंड राजाओं ने इस नगर की नींव डाली थी. बाद में 18वीं सदी में यहां भोंसला मराठों का आधिपत्य स्थापित हुआ. 1777 में मराठों और अंग्रेजों का युद्ध नागपुर में हुआ था. लॉर्ड डलहौजी ने नागपुर की रियासत को नागपुर नरेश के उत्तराधिकारी न होने की दशा में जप्त कर लिया और यहां के राजवंश के कीमती रत्नआदिकों का नीलाम कर दिया. भोंसला वंश के शासन काल का यहां एक दुर्ग तथा अन्य भवन स्थित है.

13.1.1982: रायपुर

सुबह पांच बजे रायपुर पहुंचे। रायपुर स्टेशन पर रिसीव करने हमारे सीनियर श्री अजित सोनकिया (IFS-1979) पहुंचे। रायपुर में हम होटल मयूर में रुके। भिलाई स्टील प्लांट देखने गए जो यहाँ से 40 किमी दूर है। यह एशिया का सबसे बड़ा प्लांट हैं। यह संयंत्र रसियन सहयोग से 1955 में बनाया गया है। यह भारत का पहला इस्पात उत्पादक संयंत्र है तथा मुख्यतः रेलों का उत्पादन करता है। इस कारखाने की स्थापना दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)के अंतर्गत की गई थी।यह वर्तमान में क्षमता से ज्यादा उत्पादन कर रहा है। हमने फर्नेस स्मेल्टर रेल व स्ट्रकचरल मिल और बाई प्रोडक्ट प्लांट देखे। यह कारखाना राष्ट्र में रेल की पटरियों और भारी इस्पात प्लेटों का एकमात्र निर्माता तथा संरचनाओं का प्रमुख उत्पादक है। देश में 260 मीटर की रेल की सबसे लम्बी पटरियों के एकमात्र सप्लायर, इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता 31 लाख 53 हजार टन विक्रेय इस्पात की है। यह कारखाना वायर रॉड तथा मर्चेन्ट उत्पाद जैसे विशेष सामान भी तैयार कर रहा है।

शाम को कोई प्रोग्राम नहीं था। रात को लगी प्रदर्शनी देखी।

14.1.1982: रायपुर

आज रायपुर डिवीजन के फोरेस्ट देखने गए। यहाँ से 125 किमी दूर है देवपुर जहाँ पर हमारे सीनियर श्री अजित सोनकिया रेंज ट्रेनिंग में हैं। इससे पहले रास्ते में ही सिरमूर में मगध के नरेश की पुत्री और महाकौशल की माता का बनाया हुआ आठवीं शताब्दी का ईंटों से बना मंदिर देखा जो अब भी ज्यों का त्यों है। यहाँ की मूर्तियां रायपुर म्यूजियम में रख दी गयी हैं। परन्तु कुछ मूर्तियां अब भी यहाँ रखी हैं। 125 किमी चलने के बाद जंगल प्रारम्भ होते हैं। यहाँ जंगल काफी घना है।

15.1.1982: रायपुर - आज दक्षिण रायपुर वनमंडल के जंगल देखे।

16.1.1982: रायपुर - रायपुर से रवाना हुए छतीसगढ़ एक्सप्रेस से दोपहर बाद 3 बजे।

17.1.1982: दिल्ली - रात को 8.10 बजे हजरत निजामुद्दीन पहुंचे। रात को कोच यहीं रहा। दक्षिण भारत का टूर समाप्त

18.1.1982: सुबह 8.35 बजे बीकानेर एक्सप्रेस से गाँव ठठावता के लिए रवाना। शाम को ठठावता पहुंचा।