Gangotri

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Partial map of Uttarakhand
Map of Uttarkashi

Gangotri (गंगोत्री) is a town and a Hindu pilgrim on the banks of the river Bhagirathi in Uttarkashi district of Uttarakhand. Gomukh, which is about 19 km from the town of Gangotri, is the precise source of the Bhagirathi River, an important tributary of the Ganges. Gomukh is situated near the base of Shivling; in between lies the Tapovan.

Variants

Location

It is on the Greater Himalayan Range, at a height of 3,100m. Gangotri, the origin of the River Ganges and seat of the goddess Ganga, is one of the four sites in the Char Dham pilgrimage circuit.

Gangotri Temple

The original Gangotri Temple was built by the Gurkha general Amar Singh Thapa. The river is called Bhagirathi at the source and acquires the name Ganga (the Ganges) from Devprayag onwards where it meets the Alaknanda. The origin of the holy river is at Gaumukh, set in the Gangotri Glacier, and is a 19 km trek from Gangotri.

Mythology

According to this legend, King Sagar, after slaying the demons on earth decided to stage an Ashwamedha Yajna as a proclamation of his supremacy. The horse which was to be taken on an uninterrupted journey around the earth was to be accompanied by the King's 60,000 sons born to Queen Sumati and one son Asamanja born of the second queen Kesshini. Indra, feared that he might be deprived of his celestial throne if the Yagya succeeded and then took away the horse and tied it to the ashram of Sage Kapila, who was then in deep meditation. The sons of the Raja Sagara searched for the horse and finally found it tied near the meditating sage. Sixty thousand angry sons of King Sagara stormed the ashram of sage Kapil. When he opened his eyes, the 60,000 sons had all perished, by the curse of sage Kapil. Bhagiratha, the grandson of King Sagar, is believed to have meditated to please the Goddess Ganga enough to cleanse the ashes of his ancestors, and liberate their souls, granting them salvation or Moksha.

Notable persons

External links

गंगोत्तरी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...गंगोत्तरी (AS, p.265) महाभारत वन पर्व 142-4 में गंगा को बदरीनाथ के पास उत्तर से उद्भूत माना गया है. 'एषा शिवजला पुण्या याति सौम्य महानदी, बदरी-प्रभवाराजन् देवर्षिगणसेविता'. किन्तु कालिदास ने गंगा को कैलासपर्वत के क्रोड में स्थित माना है--पूर्व मेघ मेघदूत-65. (देखें - गंगा, अलका, कैलास)

गंगोत्री परिचय

गंगोत्री उत्तराखंड राज्य में स्थित गंगा का उद्गम स्थल है। सर्वप्रथम गंगा का अवतरण होने के कारण ही यह स्थान गंगोत्री कहलाया। यद्यपि जनसाधारण के बीच यही माना जाता है कि गंगा यहीं से निकली हैं किंतु वस्तुत: गंगा का उद्गम 19 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर में 4,225 मीटर की ऊँचाई पर होने का अनुमान है।

केदारखंड के चारों धामों में यमुनोत्री की यात्रा के पश्चात् गंगोत्री की यात्रा करने का विधान है। गंगा का मन्दिर तथा सूर्य, विष्णु और ब्रह्मकुण्ड आदि पवित्र स्थल यहीं पर हैं।तीर्थ यात्रा करने का समय अप्रैल से नवंबर तक के बीच है। यहाँ पर शंकराचार्य ने गंगा देवी की मूर्ति स्थापित की थी। गंगा माता देवी की प्रतिमा सफेद संगमरमर से बनी है। यहां गंगा देवी को मगरमच्छ की पीठ पर बैठा दिखाया गया है। यहां राजा भगीरथ की भी आकर्षक प्रतिमा है जो कि चार फीट उंची है। गंगा मंदिर का घंटा बहुत शक्तिशाली है और इसे दूर से भी सुना जा सकता है। जहां इस मूर्ति की स्थापना हुई थी वहां 18वीं शती ई. में एक गुरखा अधिकारी ने मंदिर का निर्माण करा दिया है।

गंगा देवी की मूर्ति के निकट भैरवनाथ मंदिर है। इसे भगीरथ का तपस्थल भी कहते हैं। जिस शिला पर बैठकर उन्होंने तपस्या की थी वह भगीरथ शिला कहलाती है। उस शिला पर लोग पिंडदान करते हैं। भागीरथी शिला गंगोत्री में स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण है। भगीरथ शिला से कुछ दूर पर रुद्रशिला है। जहां कहा जाता है कि शिव ने गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया था। इसके निकट ही केदारगंगा, गंगा में मिलती है। इससे आधी मील दूर पर वह पाषाण के बीच से होती हुई 30-35 फुट नीचे प्रपात के रूप में गिरती है। यह प्रताप नाला गौरीकुंड कहलाता है। इसके बीच में एक शिवलिंग है जिसके ऊपर प्रपात के बीच का जल गिरता रहता है।

गंगोत्री में सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं के नाम पर अनेक कुंड हैं।


संदर्भ: भारतकोश-गंगोत्री

गंगोत्री के निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थान

गंगोत्री मन्दिर

गंगोत्री धाम: हिमालय के भीतरी क्षेत्र में गंगोत्री धाम सबसे पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है। यहाँ से ही जीवन की धारा गंगा नदी पहली बार पृथ्वी को स्पर्श करती है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में भागीरथी नदी के तट पर गंगोत्री चार धामों में से एक है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से इसकी दूरी 97 किमी है। यहाँ पहुंचकर गंगा उत्तर की ओर बहने लगती है, इसलिए इसे उतर की ओर गंगा यानि गंगोत्री कहा जाता है। गंगोत्री को सामान्यतः गंगा नदी का उद्गम माना जाता है लेकिन गंगा नदी का उद्गम गंगोत्री धाम से 19 किमी आगे गौमुख ग्लेशियर से है। गंगा से ही गंगोत्री नाम कहा जाता है लेकिन यहां इसके प्रवाह को भागीरथी कहा जाता है। देवप्रयाग में भागीरथी, अलकनंदा और मन्दाकिनी के मिल जाने के बाद से इसे गंगा कहा जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगोत्री ही वह जगह है जहां भगीरथ ने गंगा को धरती पर ले आने के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के पूर्वज कपिल मुनि के क्रोध से भस्मीभूत हो गए थे। अपने इन्हीं पूर्वजों, जोकि सगर के पुत्र थे, के तारण के लिए वे गंगा को धरती पर लाना चाहते थे। उन्होंने श्रीमुख पर्वत पर घोर तपस्या की और ब्रह्मा के कमंडल में रहने वाली गंगा को धरती पर आने के लिए राजी कर लिया। उस समय सवाल यह था कि गंगा जब धरती पर आएगी तो उसके प्रचंड वेग को कौन संभालेगा। इसके लिए देवों के देव महादेव शिव राजी हुए। शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को संभाल लिया। वहां से भगीरथ अपने तप के प्रताप से गंगा को गंगासागर ले गए। उन्हीं राजा भगीरथ का मंदिर भी गंगोत्री में है।

यह भी कहा जाता है कि महाभारत में पांडवों द्वारा गोत्र, गुरु, बंधु हत्या के बाद जब शिव उनसे नाराज हो गए थे तो पांडवों ने गंगोत्री में ही शिव की आराधना की। गंगोत्री में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद पांडव स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे। यहाँ पर भगीरथ के मंदिर के अलावा गंगा का मंदिर भी है। कहते हैं कि पहले कभी यहाँ कोई मंदिर नहीं था। उन्नीसवीं सदी में गोरखा शासक अमर सिंह थापा ने यहाँ एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। यह मंदिर उसी शिला पर बनाया गया था जिस पर बैठकर भगीरथ ने तपस्या की थी। अमर सिंह थापा ने ही मुखबा के सेमवाल ब्राह्मणों को यहाँ का पुजारी नियुक्त किया। मुखबा गांव ही गंगा का शीतकालीन प्रवास भी है। शीतकाल में जब गंगोत्री के कपाट बंद कर दिए जाते हैं तब उनकी पूजा-अर्चना मुखबा के गंगा मंदिर में ही की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण जयपुर के राजाओं द्वारा करवाया गया था। गंगोत्री धाम के मंदिर के पुनर्निर्माण में अंग्रेज डी फ्रेजर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अंग्रेज डी फ्रेजर के सुझाव पर ही गंगोत्री धाम के पुरोहित जयपुर नरेश सवाई मान माधो सिंह के यहां पहुंचे थे, जहां उन्होंने धाम पुनर्निर्माण की मदद मांगी थी। इस मंदिर में मां गंगा की भव्य प्रतिमा है। इसके अलावा जाह्नवी, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, भागीरथी, सरस्वती तथा आदि शंकराचार्य की मूर्तियाँ भी इस मंदिर में हैं। गंगोत्री में मौजूद भगीरथ शिला के पास ही ब्रह्म कुंड, सूर्यकुंड, विष्णु कुंड है, जहां पर श्रद्धालु गंगा स्नान के बाद अपने पितरों का पिंडदान किया करते हैं।

गंगोत्री मंदिर की किवदंतियां: राजा सागर ने पृथ्वी पर राक्षसों का वध करने के बाद, अपने वर्चस्व की घोषणा के रूप में एक अश्वमेध यज्ञ का मंचन करने का फैसला किया था। पृथ्वी के चारों ओर एक निर्बाध यात्रा पर जो घोड़ा ले जाया जाना था, उसका प्रतिनिधित्व, महारानी सुमति के 60,000 पुत्रों एवं दूसरी रानी केशिनी से हुए पुत्र असमंज के द्वारा किया जाना था। देवताओं के सर्वोच्च शासक इंद्र को डर था कि अगर वह ‘यज्ञ’ सफल हो गया तो वह अपने सिंहासन से वंचित हो सकते हैं। उन्होंने फिर घोड़े को उठाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, जो उस समय गहन ध्यान में थे। राजा सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज की और आखिरकार उसे ध्यानमग्न कपिल मुनि के पास बंधा पाया। राजा सागर के साठ हजार क्रोधित पुत्रों ने ऋषि कपिल के आश्रम पर धावा बोल दिया। जब कपिल मुनि ने अपनी आँखें खोलीं, तो उनके श्राप से राजा सागर के 60,000 पुत्रों की मृत्यु हो गयी। माना जाता है कि राजा सगर के पौत्र भागीरथ ने देवी गंगा को प्रसन्न करने के लिए अपने पूर्वजों की राख को साफ करने और उनकी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए उनका ध्यान किया, उन्हें मोक्ष प्रदान किया।

एक अन्य किंवदंती यह है कि गंगा एक मानव रूप में पृथ्वी पर आई और राजा शांतनु से विवाह किया। जिनके सात पुत्र पैदा हुए उनमें से सभी को उसने अस्पष्ट तरीके से नदी में फेंक दिया गया। आठवां पुत्र भीष्म राजा शांतनु के हस्तक्षेप के कारण, बच गया। हालांकि, गंगा ने फिर उसे छोड़ दिया। भीष्म महाभारत के भव्य महाकाव्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


चिरबासा: गौमुख के रास्ते पर 3,580 मीटर ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से 6,511 मीटर ऊंचा मांडा चोटी, 5,366 मीटर पर हनुमान तिब्बा, 6,000 मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी पर्वत-1,2,3,4 देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है।

चिरबासा से भगीरथी चोटियों का दृश्य, बायें से दायें भागीरथी पर्वत-II; भागीरथी पर्वत-IV; भागीरथी पर्वत-III और भागीरथी पर्वत-I

भागीरथी पर्वत समूह: भागीरथी पुंजक या भागीरथी समूह भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में गढ़वाल हिमालय के गंगोत्री समूह में स्थित चार शिखरों वाला एक पर्वत पुंजक है, जिसके शिखर 6856 मीटर से 6193 मीटर के बीच की ऊँचाई के हैं। यह चार दिशाओं में हिमानियों (ग्लेशियर) से घिरा है। इसके पूर्व भाग में वासुकी हिमानी है, पश्चिम में क्षेत्र की मुख्य हिमानी - गंगोत्री हिमानी - है, उत्तर में चतुरंगी हिमानी और दक्षिण में स्वच्छानन्द हिमानी है। यह पूरा पुंजक और आसपास का क्षेत्र गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत सुरक्षित है। चार भागीरथी शिखरों की ऊँचाई इस प्रकार हैं:

  • भागीरथी पर्वत-1 (6,856 मीटर = 22,493 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-2 (6,512 मीटर = 21,365 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-3 (6,454 मीटर = 21,175 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-4 (6,193 मीटर = 20,317 फुट)

भोजबासा: भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर और गौमुख से 5 किमी पहले पड़ताहै। समुद्र तल से 3,775 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का गृह, आवास प्रदान करता है।[2]

गौमुख: गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर 4,225 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं। 25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गोमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी बर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है, जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।

नंदनवन तपोवन: गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार शिविर गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो यहां अपने सुंदर चारागाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैला है। नंदन वन की गौमुख से दूरी करीब 8 किलोमीटर है। यह भागीरथी ग्लेशियर के बेस पर 4330 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। नंदन वन की ट्रेकिंग बहुत ही रोमांचक होती है। इस ट्रेकिंग के दौरान आप गंगोत्री ग्लेशियर, शिवलिंग चोटियों, भागीरथी, सुदर्शन, थलय सागर और मेरू पर्वत के मनोरम दृश्य के गवाह बन सकते हैं।

मुखबा गांव: इस गांव के निवासी ही गंगोत्री मंदिर के पुजारी हैं जहां मुखीमठ मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष गंगोत्री मंदिर बंद होने पर जाड़ों में देवी गंगा को बाजे एवं जुलुस के साथ इस गांव में लाया जाता है। इसी जगह जाड़ों के 6 महीनों, बसंत आने तक गंगा की पूजा होती है जब प्रतिमा को गंगोत्री वापस लाया जाता है। केदार खंड में मुख्यमठ की तीर्थयात्रा को महत्वपूर्ण माना गया है। इससे सटा है मार्कण्डेयपुरी, जहां मार्कण्डेय मुनि के तप किया तथा उन्हें भगवान विष्णु द्वारा सृष्टि के विनाश का दर्शन कराया गया। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी प्रकार से मातंग ऋषि ने वर्षों तक बिना कुछ खाये-पीये यहां तप किया। मुखबा गांव 2620 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां देवी गंगा के दो मंदिर हैं। इसे जाड़े के चार धाम के एक हिस्से के रूप में जाना जाता है। यहां दर्शन करने आने के दौरान नजदीक स्थित हर्षिल और धराली में बने होटल में रुका जा सकता है।


केदारताल: केदार ग्लेशियर के पिघलते बर्फ से बनी यह झील भागीरथी की सहायक केदार गंगा का उद्गम स्थल है। गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर इस मनोरम झील तक की चढ़ाई में अनुभवी आरोहियों की भी परीक्षा होती है। बहुत ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों पर चढ़ने के लिये एक मार्गदर्शक की नितांत आवश्यकता होती है। रास्ते में किसी प्रकार की सुविधा नहीं है इसलिये सब कुछ पहले प्रबन्ध करना होता है। झील पूर्ण साफ है, जहां विशाल थलयसागर चोटी है। यह स्थान समुद्र तल से 15,000 फीट ऊंचा है तथा थलयसागर जोगिन, भृगुपंथ तथा अन्य चोटियों पर चढ़ने के लिये यह आधार शिविर है।


भैरों घाटी: धाराली से 16 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 9 किलोमीटर भैरों घाटी, जध जाह्नवी गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। यहां तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। वर्ष 1985 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाधगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदारों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।

हर्षिल: भटवारी से 43 किलोमीटर तथा गंगोत्री से 20 किलोमीटर दूर स्थित हर्षिल का वर्णन सिर्फ एक शब्द में हो सकता हैः अलौकिक। यह हिमाचल प्रदेश के बस्पा घाटी के ऊपर स्थित एक बड़े पर्वत की छाया में, भागीरथी नदी के किनारे, जलनधारी गढ़ के संगम पर एक घाटी में अवस्थित है। बस्पा घाटी से हर्षिल लमखागा दर्रे जैसे कई रास्तों से जुड़ा है। मातृ एवं कैलाश पर्वत के अलावा उसकी दाहिनी तरफ श्रीकंठ चोटी है, जिसके पीछे केदारनाथ तथा सबसे पीछे बदंरपूंछ आता है। यह वन्य बस्ती अपने प्राकृतिक सौंदर्य एवं मीठे सेब के लिये मशहूर है। हर्षिल के आकर्षण में हवादार एवं छाया युक्त सड़क, लंबे कगार, ऊंचे पर्वत, कोलाहली भागीरथी, सेबों के बागान, झरनें, सुनहले तथा हरे चारागाह आदि शामिल हैं।

स्रोत: गंगोत्री धाम:यहाँ पवित्र गंगा पहली बार करती है पृथ्वी को स्पर्श,www.firstverdict.com

गंगोत्री एवं यमुनोत्री यात्रा का विवरण

Map of Uttarkashi

लेखक द्वारा की गई वर्ष 1982 में गंगोत्री एवं यमुनोत्री यात्रा विवरण यहाँ दिया जा रहा है:

गंगोत्री एवं यमुनोत्री यात्रा का विवरण

स्वामी जैतराम जी द्वारा वर्णन

ठाकुर देशराज[3] ने लिखा है ....स्वामी जैतराम जी ने अपनी सुलेखनी द्वारा कई एक अभूतपूर्व बातें लिखी हैं। आप गंगा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि हिमालय से जितने नदियां निकली हैं वे सब गंगा हैं। परंतु प्रसिद्ध नाम थोड़े ही हैं। विष्णु गंगा का नाम भागीरथी है।


[पृ. 213]: गंगोत्री ब्रह्म गंगा आलखासन पहाड़ से निकलती है। वहां अलखावत पुरी देववासा है। उत्तरी हिमालय से आई हुई, देवप्रयाग में नंदगंगा से मिल गई, विष्णु गंगा भी वही गंगा में शामिल हो गई, करण गंगा विष्णु गंगा में पांडु के सरसे पांडु गंगा में सब गंगा मिल गई। रुद्र गंगा रुद्रप्रयाग से तथा अखैनन्दा अखंड आसन से निकाल कर रुद्र गंगा में मिल गई। जटांबरी अखैनंदा में शरीक हो गई परंतु इन सब गंगाओं में केवल भागीरथी का इनाम प्रसिद्ध है। लक्ष्मण झूला से सारी ही धाराएं शामिल होकर चलती हैं। देवप्रयाग से यमुनोत्री 161 मील दूर पड़ती है। यमुनोत्री में जाटों का एक हवन कुंड है जो सुरबाद के जाट गणों की तपोभूमि का हवन कुंड बतलाया जाता है। ब्रहम ऋषि जमदग्नि ने तप किया तब से यमुनोत्री तो आम हो गई। महाराजा हरिराम गढ़वाल फिर से जटावी गंगा पर जाट का कब्जा स्थापित किया। यह राजा जिस संवत में हुआ है उसका पता सर्व संवत नाम की पुस्तक से मिल सका है। यमुनोत्री से करीब 54 मील की दूरी पर आपका आसन पाया जाता है। यह आसन यमुनोत्री हरिहर आश्रम ब्रह्मचर्य से उत्तर पूर्व की ओर 54 मील पर है।

लेखक की गंगोत्री यात्रा

लेखक की गंगोत्री यात्रा दिनांक 25 मई 1982 के दौरान उत्तरकाशी से गंगोत्री जाते हुए लंका से भैरों घाटी तक सड़क मार्ग नहीं होने से 3 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इस लंका और भैरों घाटी के बीच में भागीरथी नदी से एक नदी आकर मिलती है। बताया गया कि इसका नाम जाट गंगा है। यह नाम सुनकर मेरी इसके बारे में अधिक जानने की रूचि हुई। स्थानीय लोगों की भाषा तिब्बती मिश्रित होती है इसलिए कुछ ठीक से उच्चारण समझ में नहीं आता। मेरी रुचि हुई कि यह पता किया जाए कि हिमालय की इतनी ऊंचाइयों पर जाट कब और क्यों आए होंगे। उस समय मुझे अधिक जानकारी नहीं मिल सकी। परंतु जाट इतिहास के अनुसंधान पर ज्ञात हुआ कि यह नदी जिसको जाट गंगा बोला गया है अनेक नामों से जानी जाती है यथा जाध गंगा, जाड़ गंगा, नील गंगा, जाह्नवी गंगा आदि।

तिब्बत के कुछ प्राचीन इतिहास और अभिलेखों की जानकारी मुझे मिली उसमें कुछ नागवंशी राजाओं के नाम थे। नागवंशी राजाओं का उल्लेख समय-समय पर महाभारत और रामायण में भी किया गया है परंतु इनमें नागवंश के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होती। तिब्बत में बौद्ध धर्म अनुयायियों ने इन नागवंशी राजाओं की सूचियों को संरक्षित रखा। इन सूचियों की तुलना जब जाट गोत्रावली सूची से की जाती है तो पता लगता है कि अनेक जाट गोत्र इन नागवंशी राजाओं से निकले हैं। भारत में बौद्ध धर्म के समाप्त होने के बाद हिंदू धर्म के पुनर्जागरण के दौरान इन नागवंशी राजाओं का इतिहास विलुप्तसा कर दिया गया। इसलिए हमें इनकी जानकारी मध्य एशिया अथवा चीन के प्राचीन अभिलेखों से ही मिल रही है।

जाट गंगा का उद्गम: माना पास के उत्तर में स्थित लांबी ग्लेसियर से है। माना नामक स्थान चमोली जिले में पड़ता है। यहां यह लांबी नदी नाम से जानी जाती है। यह क्षेत्र भारत-चीन सीमा के पास स्थित है और विवादित सीमा में है। चीन इसको तिब्बत के Zanda County का भाग मानता है। जबकि प्रशासकीय नियंत्रण भारत का है। लांबी नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है और जब यह पश्चिम की तरफ मुड़ती है वहाँ इसे माना नदी (Mendi Gad/Mendi River or Mana Gad/Mana river) नाम से जानते हैं। माना नदी में थोड़ा आगे चलकर दक्षिण-पूर्व बहने वाली नील नदी मिलती है और कुछ दूरी तक यह नील गंगा नाम से जानी जाती है। इसमें आगे चलकर गुल नदी (Gull Gad/Gull River) मिलती है जो माना बामल ग्लेसियर से निकलती है, वह आगे चलकर नाग नामक स्थान पर जाट गंगा में मिलती है। नाग के आगे जाट गंगा दक्षिण में बहती है और नेलंग घाटी से निकलने तक जाट गंगा कहलाती और पश्चात यह Jahnavi River।जाह्नवी नदी नाम से जानी जाती है तथा भैरों घाटी के पास भागीरथी नदी में मिलती है।

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत ने अपनी पुस्तक जाट वीरों के इतिहास में इस संबंध में कुछ प्रकाश डाला है। यह जानकारी आगे दी गई है। तिब्बती साहित्य और इतिहास उपलब्ध नहीं होने के कारण इस विषय में अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सकता। भारत के हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के उत्तरकाशी और चमोली जिलों से लगा हुआ तिब्बत का जंडा काउंटी (Zanda County) पड़ता है। इसका ठीक से हिंदी में उच्चारण किस तरह से होता है यह ज्ञात नहीं है। यह भी पता लगता है कि प्राचीन काल में चीन से व्यापार के लिए यह स्थान उत्तरकाशी आने के लिए ट्रेड-रूट पर पड़ता था और संभवत है तिब्बत में और उत्तरकाशी के इस भूभाग में जाट बसे होंगे। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भी कुछ जनसंख्या को विस्थापित किया गया था उसमें भी जाट थे। यह लोग मुख्यतः खेती-बाड़ी और पशुपालन का धंधा करते हैं।

भागीरथी नदी के कैचमेंट में अनेक स्थान नागवंशी राजाओं के नाम से हैं यथा भागीरथी पर्वत, वासुकी पर्वत, वासुकी ताल आदि। इस भूभाग में पर्वतीय क्षेत्रों के नेगी लोग भी नागवंशियों के वंशज हैं। नागवंशी राजाओं ने ही वाराणसी का काशी तथा उत्तरकाशी शहरों की स्थापना की थी। दोनों ही जगह पाए जाने वाले विश्वनाथ मंदिरों का निर्माण भी मूलरूप से नागवंशी राजाओं ने ही किया था। असी नदी और वरुणा नदी दोनों ही काशी नाम के शहरों में पाई जाती हैं। इनका नामकरण भी नागवंशी राजाओं के नाम पर हुआ है।

जाटगंगा

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत[4] ने लिखा है.... भैरों घाटी जो कि गंगोत्री से 6 मील नीचे को है, यहां पर ऊपर पहाड़ों से भागीरथी गंगा उत्तर-पूर्व की ओर से और नीलगंगा (जाटगंगा) उत्तर पश्चिम की ओर से आकर दोनों मिलती हैं। इन दोनों के मिलाप के बीच के शुष्क स्थान को ही भैरों घाटी कहते हैं। जाटगंगा के दाहिने किनारे को लंका कहते हैं। इस जाटगंगा का पानी इतना शुद्ध है कि इसमें रेत का कोई अणु नहीं है। भागीरथी का पानी मिट्टी वाला है। दोनों के मिलाप के बाद भी दोनों के पानी बहुत दूर तक अलग-अलग दिखाई देते हैं। जाटगंगा का पानी साफ व नीला है इसलिए इसको नीलगंगा कहते हैं। महात्माओं और साधुओं का कहना है कि भागीरथी गंगा तो सम्राट् भगीरथ ने खोदकर निकाली थी और इस नीलगंगा को जाट खोदकर लाये थे इसलिए इसका नाम जाटगंगा है। इसके उत्तरी भाग पर जाट रहते हैं। इस कारण भी इसको जाटगंगा कहते हैं। इस जाट बस्ती को, चीन के युद्ध के समय, भारत सरकार ने, वहां से उठाकर सेना डाल दी और जाटों को, हरसिल गांव के पास, भूमि के बदले भूमि देकर आबाद किया। हरसिल गांव दोनों गंगाओं के मिलाप से लगभग 7 मील नीचे को गंगा के दाहिने किनारे पर है। बघौरी गांव हरसिल से लगा हुआ है। जाटों ने यहां गंगा के किनारे अपना गांव बसाया जिसका नाम बगोरी रखा। यह गांव गंगा के किनारे-किनारे लगभग 300 मीटर तक बसा हुआ है जिसमें लगभग 250 घर हैं। लोग बिल्कुल आर्य नस्ल के हैं। स्त्री-पुरुष और बच्चे बहुत सुन्दर हैं। ये लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। इनके गांव में बौद्ध मन्दिर है। ये लोग भेड़ बकरियां पालते हैं। और तिब्बत से ऊन का व्यापार करते हैं। ये अपने घरों में ऊनी कपड़े बुनते हैं।

See also

Gallery

References