User:Lrburdak/My Tours/Tour of Gangotari and Yamunotri

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Partial map of Uttarakhand
Map of Uttarkashi district
Map of Dehradun

यमुनोत्री एवं गंगोत्री भ्रमण

यमुनोत्री एवं गंगोत्री भ्रमण (21.5.1982 - 27.5.1982)

भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है। उसके बाद 4 महीने का फाउंडेशन कोर्स 'लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी मसूरी' में अन्य अखिल भारतीय सेवाओं और केंद्रीय सेवाओं के साथ आयोजित किया जाता है। लेखक द्वारा 'लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी मसूरी' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1982 में की गई यमुनोत्री एवं गंगोत्री यात्रा का विवरण यहाँ दिया जा रहा है। इस यात्रा में हम भारत की जीवन रेखा कहलाने वाली दो महत्वपूर्ण नदियों यमुना और गंगा के उद्गम स्थलों तक जायेंगे। यमुनोत्री - यमुना नदी का उद्गम-स्थल है। गंगोत्री - गंगा नदी का उद्गम-स्थल है। ये दोनों स्थान हिमालय में उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में स्थित हैं। देहरादून जिले के जौनसार-बावर क्षेत्र में स्थित लाखामंडल गांव के बारे में भी बताएंगे जिसके बारे में यह माना जाता है कि महाभारत काल में दुर्योधन ने पांचों पांडवों और उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहां लाक्षागृह का निर्माण किया था। जौनसार बावर क्षेत्र में जौनसार जनजाति के लोग अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं और बावर के लोग अपने को दुर्योधन का वंशज।

यमुनोत्री की यात्रा

कैम्प्टी फ़ाल

21 मई 1982 - कैम्प्टी फ़ाल: लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी मसूरी से सुबह 7.30 बजे बस द्वारा यमुनोत्री की यात्रा के लिये रवाना हुये। रास्ते में 15 कि.मी. दूरी पर महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल कैम्प्टी फ़ाल है। वहां कुछ देर रुककर यहां की सुन्दरता का अवलोकन किया। कैम्प्टी फ़ाल मसूरी के सुन्दरत्तम स्थानों में से एक है। केम्प्टी जलप्रपात एक शानदार और मनमोहक जलप्रपात है जो उत्तराखण्ड के शहर मसूरी से 15 किमी की दूरी पर चकराता सड़क पर देहारादून जिले और टिहरी गढ़वाल जिले की सीमा पर स्थित है और इस क्षेत्र का सबसे बड़ा आकर्षण है। यह जलप्रपात समुद्र तल से 1364 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां नीचे गिरता जल पांच झरनों में विभाजित होता है और एक विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। 1835 ई. के बाद इस जगह को एक पर्यटन क्षेत्र के रूप में एक ब्रिटिश अधिकारी जॉन मेकिनन (John Meckinon) द्वारा विकसित किया गया था। मसूरी की खोज 1823 में एक ब्रिटिश कैप्टन यंग (Captain Young) ने की थी। कैप्टन यंग ने शिकार के उद्देश्य से सर्वप्रथम कैमल्स बैक पहाड़ी पर मसूरी का पहला मकान तैयार करवाया था| मसूरी को आधुनिक नगर बनाने में सर्वाधिक योगदान जॉन मैकेनन का था । इन्हें मसूरी का पिता (फादर ऑफ मसूरी) कहा जाता है।[1] संभवत: "केम्पटी" नाम दो अंग्रेजी शब्दों केम्प (शिविर) और टी (चाय) से मिल कर बना है, क्योंकि ब्रिटिश अक्सर यहां पर चाय पार्टियां आयोजित किया करते थे। जलप्रपात के तल में एक जलकुण्ड है जिसका पानी बहुत ठंडा है और लोग यहां पर नहाते हैं।

कुछ देर कैम्प्टी फ़ाल पर रुककर आगे बढे। कुछ दूर चलने पर यमुना ब्रिज पार करते हैं और उसके आगे पूरा रास्ता यमुना नदी के साथ-साथ चलता है। इस रास्ते की यात्रा बडी अनन्द दायक रही। एक तरफ हजारों फ़ीट ऊंची चोटियां हैं तो दूसरी तरफ हजारों फ़ीट गहरी घाटी। बस अगर फिसल जाये तो चकना चूर हो जाये। कुछ दूरी टिहरी गढ़वाल जिले की सीमा में चलते हुये उत्तरकाशी जिले में प्रवेश करते हैं। रास्ते में कोई खास बडी जगह नहीं पडती। मसूरी से 3 घंटे की यात्रा करने पर लगभग 75 किमी दूरी पर देहारादून जिले का लाखामंडल कस्बा मिलता है।

प्राचीन शिव मंदिर, लाखामंडल, देहरादून
प्राचीन पाण्डव गुफा गुप्तेश्वर महादेव, लाखामंडल, देहरादून

लाखामंडल: लाखामंडल कस्बा प्राचीन शिव मंदिर के लिए विख्यात है। देहरादून जिले के जौनसार-बावर के लाखामंडल गांव के बारे में यह माना जाता है कि द्वापर युग में दुर्योधन ने पांचों पांडवों और उनकी माता कुंती को जीवित जलाने के लिए यहां लाक्षागृह का निर्माण किया था। एएसआइ को खुदाई के दौरान यहां मिले सैकड़ों शिवलिंग व दुर्लभ मूर्तियां इसकी तस्दीक करती हैं। यमुना नदी के उत्तरी छोर पर स्थित देहरादून जिले के जौनसार-बावर का लाखामंडल गांव एतिहासिक ही नहीं पौराणिक दृष्टि से भी विशेष महत्व रखता है। बताते हैं कि लाखामंडल में वह एतिहासिक गुफा आज भी मौजूद है, जिससे होकर पांडव सकुशल बाहर निकल आए थे। इसके बाद पांडवों ने चक्रनगरी में एक माह बिताया, जिसे आज चकराता कहते हैं। शिव को समर्पित लाक्षेश्वर मंदिर 12-13 वीं सदी में निर्मित नागर शैली का मंदिर है। यहां प्राप्त अभिलेखों में छगलेश एवं राजकुमारी ईश्वरा की प्रशस्ति (पांचवीं-छठी सदी) का उल्लेख हुआ है। इससे ज्ञात होता है कि इस स्थान के पुरावशेष वर्तमान मंदिर से पूर्वकाल के हैं और मंदिर की प्राचीनता पांचवीं-छठी सदी तक जाती है।

लाखामंडल में मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि यहां बहुत सारे मंदिर रहे होंगे। लाक्षेश्वर परिसर से मिले छठी सदी के एक शिलालेख में उल्लेख है कि सिंहपुर के राजपरिवार से संबंधित राजकुमारी ईश्वरा ने अपने दिवंगत पति चंद्रगुप्त, जो जालंधर नरेश का पुत्र था, की सद्गति के लिए लाक्षेश्वर मंदिर का निर्माण कराया। लाक्षेश्वर शब्द का अपभ्रंश कालांतर में 'लाखेश्वर' हो गया। लाखेश्वर से ही 'लाखा' शब्द लिया गया।

लाखामंडल और नौगांव कस्बों को पार करने के बाद बड़कोट आता है। बड़कोट गाँव राजगढ़ी तहसील जिला उत्तरकाशी में स्थित है। यह गाँव मसूरी से 90 किमी दूर है जो काफी बड़ासा दिखता है यहां पर काफी बड़ा अस्पताल भी नजर आया जहां रति-रोग निवारण केंद्र भी है जिससे लगता है कि यहाँ की जनसँख्या काफी है और काफी लोग यहाँ आते भी हैं। अब बड़कोट यमुना नदी के किनारे बसा हुआ एक छोटा-सा नगर बन गया है। राष्ट्रीय राजमार्ग 134 यहाँ से गुज़रता है। यहाँ के लोग अधिकतर खेती, शिल्पकला और बागवानी के क्षेत्र से जुड़े हैं।

दिन के तीन बजे हम हनुमान चट्टी पहुंचे जहाँ तक बस जाती है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल में होनी वाली चारधाम यात्रा के बीच पड़ने वाले इस पड़ावों को चट्टी कहा जाता है. चट्टी का अर्थ है रुकने वाला स्थान या पड़ाव। यमनोत्री जाने के लिये पहले जमुना चट्टी से लेकर गरुड़ चट्टी तक ऐसी 10 चट्टियों से होकर गुजरना होता था। पहले सड़क केवल जमुना चट्टी तक ही थी इसलिये इन पड़ावों में यात्री रात्रि विश्राम करते थे। वर्तमान में दस में सात चट्टियां सड़क मार्ग से जुड़ चुकी हैं।

जमुना चट्टी: यमनोत्री धाम का पहला पड़ाव बड़कोट से 17 किलोमीटर दूर जमुना चट्टी है। पहले यहीं तक सड़क मार्ग था। जमुना चट्टी से आगे यमुना नदी के किनारे-किनारे यमुनोत्री के लिए रास्ता जाता था। इस स्थान को पालीगाड के नाम से भी जानते हैं। जमुना चट्टी के बाद स्याना चट्टी और राना चट्टी आती हैं। यहां से पांच किलोमीटर दूर हनुमान चट्टी और फिर चार किलोमीटर दूरी पर नारद चट्टी है। फिर फूल चट्टी, कृष्णा चट्टीजानकी चट्टी हैं। यहां से कैलाश चट्टी व गरुड़ चट्टी होते हुए यमुनोत्री तक पैदल मार्ग है।

हनुमान मंदिर, हनुमानचट्टी, यमुनोत्री

हनुमान चट्टी: दिन के तीन बजे हम हनुमान चट्टी पहुंचे। (चट्टी = पड़ाव) यहाँ काफी तेज बरसात हो रही थी। एक बार तो ऐसा लगा कि आगे नहीं जा पाएंगे परन्तु थोड़ी देर में बरसात रुक गयी। हनुमान चट्टी गंगा और यमुना नदियों के संगम पर स्थित है। यमुनोत्री धाम से 13 किलोमीटर पहले स्थित, हनुमान चट्टी (2400 मीटर) एक शांत जगह है। हनुमान चट्टी में नदी की प्राकृतिक सुंदरता प्रकृति और ग्रामीण इलाकों का अनुभव करने के लिए एक आदर्श स्थान है। हनुमान चट्टी मंदिर हनुमान को समर्पित एक मंदिर है। किंवदंती यह है कि यह इस स्थान पर था कि हनुमान ने पांडव भीम को गले लगाया था और उनके अहंकार को कुचल दिया था। पौराणिक कथा के अनुसार भीम एक दिन जब इस रास्ते से गुजर रहे थे, तो उन्हें रास्ते में एक बूढ़े बंदर का सामना करना पड़ा। भीम के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के कारण उनकी पूंछ फैल गई थी। भीम ने पूंछ को हटाने के लिए पुराने बंदर से कई बार अनुरोध किया लेकिन बंदर ने यह कहते हुए मना कर दिया कि वह बहुत बूढ़ा है और रास्ता देने के लिए थक गया है। इस कारण भीम क्रोधित हो गए और मामले को अपने हाथों में लेने का फैसला किया और खुद से बंदर की पूंछ को हिलाना शुरू कर दिया। जब कई प्रयासों के बाद भी पूंछ नहीं हिला तो भीम को आश्चर्य हुआ और महसूस किया कि यह कोई साधारण बंदर नहीं था। फिर उसने विनम्रतापूर्वक बंदर से अपनी असली पहचान प्रकट करने का अनुरोध किया। तब हनुमान, जो भगवान राम के समर्पित शिष्य हैं, ने उन्हें अपना मूल रूप दिखाया और इस तरह इस जगह को हनुमानचट्टी के नाम से जाना जाता है।

हनुमानचट्टी बद्रीनाथ: एक दूसरी हनुमानचट्टी बद्रीनाथ मंदिर से पहले करीब 12 किमी, जोशी मठ से करीब 34 किमी और ऋषिकेश से करीब 285 किमी दूर स्थित है। देहरादून का एयरपोर्ट यहां से करीब 315 किमी दूर है।

जानकी चट्टी का दृश्य

हनुमानचट्टी से जानकीचट्टी पैदल यात्रा (8 किमी) : हम लोगों ने हनुमानचट्टी में पैक लंच खाया और सामान कन्धों पर लादकर साढ़े तीन बजे जानकी चट्टी (चट्टी = पड़ाव) के लिए पैदल यात्रा प्रारंभ की। हनुमान चट्टी से जानकी चट्टी के रास्ते में लगातार चढ़ाई है। सारा रास्ता यमुना के सहारे-सहारे पहाड़ों को काट कर बना है। यात्रा में प्रकृति का आनंद लेते हुए साढ़े पांच बजे जानकी बाई चट्टी पहुँच कर लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में रुके। आधे लोग वन विश्राम गृह में चले गए। पूरे 8 किमी लम्बे रास्ते में केवल एक ही ठीक जगह आती है जहाँ पर चाय-पानी किया जा सकता है। वह है फूल चट्टी जो 5 किमी दूरी पर आता है। रात को स्लीपिंग सूट में घुस कर सो गए। थके होने से काफी अच्छी नींद आई। खानेपीने का प्रबंध एक नेपाली थापा के यहाँ किया गया था।

जानकीचट्टी का इतिहास – जानकी चट्टी सड़क मार्ग का अंतिम पड़ाव है। जानकीचट्टी में मौजूद गर्म झरने तीर्थयात्रियों के बीच लोकप्रिय हैं, जो शुद्ध जल में डुबकी लगाते हैं। यमुनोत्री तीर्थ प्रसिद्ध मंदिर है जो हर साल भारी संख्या में भक्तों द्वारा दौरा किया जाता है। देवी यमुना को समर्पित यमुनोत्री के श्रद्धेय मंदिर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर जानकीचट्टी स्थित है। यह भारत के चार धामों में से एक है। सर्दियों के दौरान, यमुनोत्री से मूर्ति को खरसाली में स्थानांतरित कर दिया जाता है जो जानकीचट्टी से सिर्फ 1 किमी दूर स्थित है। साहसिक उत्साही लोगों के लिए, हनुमानचट्टी, जानकीचट्टी से कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और दरवा टॉप और हनुमान चट्टी सहित कुछ ट्रेक का आधार शिविर है। ये खूबसूरत ट्रेक झरने, घने जंगलों,और नदियों के रूप में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक सुंदरता के साथ ट्रेकर्स को पुरस्कृत करते हैं।

जानकी चट्टी से यमुनोत्री (5 कि.मी)

यमुनोत्री में एएस अहलावत, लक्ष्मण बुरड़क और बिधान चन्द्र, 22.5.1982
यमुनोत्री में लक्ष्मण बुरड़क, सर्बजीत सिंह जट्टन और बिधान चन्द्र, 22.5.1982
Yamunotri Snow.22.05.1982

22 मई 1982 - सुबह सवा आठ बजे तैयार होकर यमुनोत्री की पैदल यात्रा पर रवाना हुए। जानकी चट्टी से यमुनोत्री 5 कि.मी दूर है। इस पांच कि.मी. की यात्रा में 600 मीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। चट्टानों को काट कर बहुत ही सकरा सा रास्ता बनाया गया है। इस रास्ते की यात्रा बहुत आनंद दायक रही। एक दम खड़ी चट्टानों को काटकर रास्ता बना है। नीचे झुक कर देखें तो चक्कर आने लगते हैं। हम दो घंटे में यह यात्रा पूरी कर यमुनोत्री पहुंचते हैं। रास्ते में चलते हुए कई अनुभव होते हैं। यहाँ बूढी-बूढी औरतें इस कदर चल रही थी जैसे वहां पहुंचते ही सारी जिंदगी के पाप धुल जायेंगे। यहां सूर्यपुत्री शनियम की बहन देवी यमुना की आराधना होती है। यमुनोत्री धाम से एक किमी की दूरी पर चंपासर ग्लेशियर है, जो यमुना का मूल उद्गम है। यमुनोत्री में काफी बर्फ जमी हुई है जिसके पिघलने से यमुना बनती है। वहीँ एक गर्म पानी का गंधक युक्त झरना भी है। इस झरने से उबलता हुआ पानी एक तालाब में गिरता है जहाँ पर लोग स्नान करते हैं और इसी में सारे पाप धुलते हैं। मैंने भी स्नान करने का सोच रखा था और तोलिया भी साथ ले गया था परंतु जिस कदर गंदे लोग उसमें स्नान कर रहे थे मुझे लगा निश्चय ही इससे चर्म रोग हो जायेंगे और यह सोचकर स्नान न करना ही बेहतर समझा। इस उबलते पानी में लोग चावल की पोटली डूबाते हैं जो आधा घंटे में पक जाते हैं। इन चावलों का प्रसाद बनाया जाता है। थोड़ी देर यमुनोत्री में रुके और बर्फ पर भी चढ़े। यमुनोत्री ग्लेशियर को देखना अत्यंत रोमांचक है। यह चोटी हमेशा बर्फ से ढकी रहती है। हमने कुछ देर तक साथियों पर बर्फ के गोले फैंक कर खूब आनंद लिया। यही बर्फ पिघल कर यमुना नदी का रूप लेती है। कुछ समय तक बर्फ का आनंद लेने के बाद यमुनोत्री से वापस जानकीचट्टी के लिए रवाना हुये। यमुनोत्री का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

Yamunotri Return Journey.23.05.1982

यमुनोत्री से जानकी चट्टी के लिए वापस रास्ते में आते समय एक युवा बंगाली स्त्री मिली जो यद्यपि टोकरी में बैठकर आ रही थी परन्तु नीचे गहराई में देखने से उसको डर लगने लगा था और चक्कर आने लगे थे। वह साठ रुपये में तय करके आई थी। हमने देखा कि वह एक घोड़े वाले से कहा सुनी कर रही थी और घोड़ेवाला मान नहीं रहा था। वह दस रुपये और लेना चाहता था। हम सब लोगों ने घोड़े वाले को समझाया तो वह मान गया। यह तय हुआ कि आगे की यात्रा के दस रुपये टोकरी वाले से लिए जावें। एक बजे हम वापस जानकीबाई चट्टी आ गए। जानकीबाई चट्टी से यमुनोत्री जाने में दो घंटे और लौटने में डेढ़ घंटा लगता है।

जानकी चट्टी में शाम को छ: बजे फिर घूमने निकले। विश्राम गृह की निचली तरफ गढवाल विकास मंडल का एक यात्री निवास भी बना है जिसमें तीन बिस्तर वाले कमरे में ठहरने का किराया पच्चीस रुपये है। यहाँ से नदी पार की। एक पुल होते हुए एक पहाड़ी पर चढ़े। कुछ दूर चलने पर एक पठार आया। पठार पर एक गाँव बसा है जिसका नाम है खारसाली। कुछ देर वहीँ से नीचे स्थित जानकी चट्टी का अवलोकन किया। उससे थोडा सा निचली तरफ बीफ नामक गाँव भी दिखाई देता है जो बड़कोट से 40 किमी दूर है। हिमालय में पठार देखकर बड़ी ख़ुशी सी होती है क्योंकि यहाँ पठार बहुत ही कम नजर आते हैं। वहां हम घूम ही रहे थे कि एक प्राथमिक पाठशाला के प्रधानाध्यापक मिल गए। इनका नाम प्रदीप शुक्ला था।

जन-जीवन : प्रदीप शुक्ला ने बताया कि यहाँ के लोग काफी डरपोक हैं वे शाम होते ही घर बंद कर लेते हैं। यहाँ के निवासी मुख्यत: राजपूत हैं और खेती करते हैं। खेती में मुख्य रूप से आलू, राजमा और रामदाना होता है। गेहूं की खेती भी कुछ लोग करते हैं। यहाँ की स्त्रियाँ काफी काम करती हैं। यहाँ कुछ गाँवों में बहुपति प्रथा भी है। स्त्रियाँ सुबह सूर्योदय से पहले ही जंगल में निकलती हैं, घास-फूस या लकड़ी काटकर सूर्योदय होते-होते एक भारी भरकम गट्ठर लादे घर पहुंचती हैं। मई से अक्टूबर में जब यात्री लोगों का सीजन शरू होता है तो पुरुष लोग बुजुर्ग अथवा पैसे वाले यात्रियों को यमुनोत्री तक ले जाते हैं। हनुमान चट्टी से यमुनोत्री (18 किमी) एक यात्री को ले जाने का सौ रुपये लेते हैं। यात्रियों को वे टोकरी या घोड़े पर ले जाते हैं।

यमुनोत्री और यमुना का इतिहास

यमुनोत्री मंदिर और आश्रम

यमुनोत्री का इतिहास: यमुनोत्री वह स्थान है, जहाँ से यमुना नदी निकली है। यमुनोत्री (AS, p.769): यमुना नदी का उद्गम स्थल जो उत्तराखंड राज्य के गढ़वाल के पर्वतों में स्थित है। (देखें: यमुनाप्रभव)। यमुनाप्रभव (AS, p.769) नामक एक प्राचीन स्थान का उल्लेख 'महाभारत' (84, 44)में हुआ है। संभवतः यह यमुना का उद्गम स्थान था। इसे 'यमुनोत्री' भी कहा जाता है। यमुना नदी को विभिन्न नामों से जाना गया है।

यमुना नदी (AS, p.768): गंगा की प्रमुख सहायक नदी जो हिमालय-पर्वतमाला में स्थित यमुनोत्री (खरसाली से 8 मील) से निकलकर प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में गंगा में मिल जाती है। यमुना का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद 10-75,5 (नदी-सूक्त) में है-- 'इमं मे गङगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि सतोमं सचता परुष्ण्या असिक्न्या मरुद्व्र्धे वितस्तयार्जीकीये शर्णुह्यासुषोमया' -- इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में अन्य दो स्थानों पर भी यमुना का नाम है तथा यह ऐतरेय ब्राह्मण 8,14, 8 में उल्लिखित है। वाल्मीकि रामायण में यमुना का कई स्थानों पर वर्णन है--'वेगिनी च कुलिंगाख्यां ह्लादिनीं पर्वतावृताम्, यमुनां प्राप्य संतीणों बलमाश्वासयतदा' (अयोo 11.6); 'ततः प्लवेनाम्शुमतीं शीघ्रगामूर्मिमालिनीम् , तीरजैर्बहुभिर्वृक्षैः सम्तेरुर्यमुनाम् नदीम् -- आयो.55,22;.'नगरं यमुनाजुष्टं तथा जनपदाञ्शुभान् यो हि वंश समुत्पाद्य पार्थिवस्य निवेशने,' उत्तर. 62,18 आदि।

महाभारत में यमुना तटवर्ती अनेक तीर्थों का वर्णन है, यथा 'यमुना-प्रभवं गत्वा उपस्पृश्य यामुनम् अश्वमेधफलं लब्ध्वा स्वर्गलॊके महीयते' वन 84,44. कौरवों-पांडवों के पितामह, भीष्म के पिता शांतनु, ने यमुना तटवर्ती ग्राम में रहने वाले धीवर की पुत्री सत्यवती से विवाह किया था। यहां वे शिकार खेलते हुए आ पहुंचे थे, 'स कदाचित वनं यातो यमुनामभितो नदीम' आदि पर्व 100, 45. कृष्ण द्वैपायन व्यास का जन्म सत्यवती के गर्भ से यमुना के द्वीप पर हुआ था-- 'आजगाम तरीं धीमांस्तरिष्यन् यमुनां नदीम'; 'ततो मामाह स मुनिर्गर्भमुत्सृज्य मामकम् द्वीपेअस्या एव सरित: कन्यैवभविष्यसि' आदि पर्व 104,8,13. इस घटना का उल्लेख अश्वघोष ने बुद्ध चरित 4,76 में भी किया है-- 'कालीम् चैव पुरा कन्यां जल प्रभवसंभवाम', जगाम यमुनातीरे जातराग: पाराशर:। कालिदास ने मथुरा के निकट कालिंदकन्या या यमुना का सुंदर वर्णन किया है-- 'यस्यावरोधस्तनचन्दनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले । कलिन्दकन्या मथुरां गताऽपि गङ्गोर्मिसंसक्त जलेव भाति' रघुवंश 6,48, तथा प्रयाग में गंगा यमुना संगम का उल्लेख भी बहुत मनोहर है-- 'पश्यानवद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुनातरङ्गैः' रघु 13-57. श्रीमद्भागवत दशम स्कंध में श्रीकृष्ण के जन्म तथा उनकी विविध लीलाओं के संबंध में तो यमुना का अनेक बार उल्लेख है जिसमें से सर्वप्रथम यहां उद्धत किया जाता है-- 'मघोनि वर्षत्यसकृद् यमानुजा गम्भीरतोयौघजवोर्मिफेनिला । भयानकावर्तशताकुला नदी मागन ददौ सिन्धुरिव श्रिय: पते:' 10.3.50 (यमानुजा = यमुना)। इसी प्रसंग के वर्णन में विष्णु पुराण का निम्न उल्लेख कितना सुंदर है-- 'यमुनां चातिगम्भीरां नानावर्त्तसमाकुलाम्, वसुदेवो वहन् विष्णु जानुमात्रबहां ययौ' विष्णु पुराण 5,3,18 . अध्यात्म रामायण, अयोध्या 6,42 में श्रीराम-लक्ष्मण-सीता के यमुना पार करने का उल्लेख इस प्रकार है--'प्रातरूत्थाय यमुनामुर्तीय मुनिदारकै; कृताप्लवेन मुनिना दृष्टमार्गेण राघव:'।

महाभारत वन पर्व 324, 25-26 में अश्व नदी का चर्मणवती में, चर्मणवती का यमुना में और यमुना का गंगा में मिलने का उल्लेख है। यमुना के रवितनया, सूर्यकन्या, कालिन्दकन्या आदि नाम साहित्य में मिलते हैं। इससे सूर्य की पुत्री तथा यम की बहन माना गया है। कलिंद पर्वत से निस्तृत होने से यह कालिंदी या कलिंदकन्या कहलाती है।

कालिंदी (p.181): यमुना नदी को कलिंद पर्वत से निस्सृत होने के कारण कालिंदी कहते हैं। कलिंदकन्या या कलिंदनंदिनी ('धुनोतु नो मनोमलं कलिंदनंदिनी सा' - गीत गोविंद) भी इसी कारण यमुना ही के नाम है. 'गंगायमुनयो: संधिमादाय मनुजर्षभ, कालिंदीमनुगच्छेतां नदीं पश्चान्मुखाश्रिताम्' वाल्मीकि. 55,4.

कलिंदकन्या (AS, p.150): यमुना नदी. 'यस्यावरोधस्तनचंदनानां प्रक्षालनाद्वारिविहारकाले, कलिंदकन्या मथुरां गतापि गंगोर्मि संसक्त जलेवभाति' रघु. 6,48; (देखें: कलिंद)

यमुनोत्तरी तीर्थ: एक पौराणिक गाथा के अनुसार यह असित मुनि का निवास था। वर्तमान मंदिर जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में बनवाया था। भूकम्प से एक बार इसका विध्वंस हो चुका है, जिसका पुर्ननिर्माण कराया गया। यमुनोत्तरी तीर्थ, उत्तरकाशी जिले की राजगढी (बड़कोट) तहसील में ॠषिकेश से 251 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में तथा उत्तरकाशी से 131 किलोमीटर पश्चिम-उत्तर में 3185 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यह तीर्थ यमुनोत्तरी हिमनद से 5 मील नीचे दो वेगवती जलधाराओं के मध्य एक कठोर शैल पर है। यहाँ पर प्रकृति का अद्भुत आश्चर्य तप्त जल धाराओं का चट्टान से भभकते हुए "ओम् सदृश" ध्वनि के साथ नि:स्तरण है। तलहटी में दो शिलाओं के बीच जहाँ गरम जल का स्रोत है, वहीं पर एक संकरे स्थान में यमुनाजी का मन्दिर है। वस्तुतः शीतोष्ण जल का मिलन स्थल ही यमुनोत्तरी है।

अनेक पुराणों में यमुना तट पर हुए यज्ञों का तथा कूर्मपुराण (39/9.13) में यमुनोत्तरी माहात्म्य का वर्णन है। केदारखण्ड (9/1.10)में यमुना के अवतरण का विशेष उल्लेख है। इसे सूर्यपुत्री, यम-सहोदरा और गंगा-यमुना को वैमातृक बहनें कहा गया है। ब्रह्मांड पुराण में यमुनोत्तरी को "यमुना प्रभव" तीर्थ कहा गया है। ॠग्वेद (7/8/19) मे यमुना का उल्लेख है।

महाभारत के अनुसार जब पाण्डव उत्तराखंड की तीर्थयात्रा में आए तो वे पहले यमुनोत्तरी, तब गंगोत्री फिर केदारनाथ-बद्रीनाथजी की ओर बढ़े थे, तभी से उत्तराखंड की यात्रा वामावर्त की जाती है।

यमुनोत्री का भूगोल: : यमुनोत्री उत्तरकाशी जिले में समुद्रतल से 3293 मी. (10804 फुट) ऊँचाई पर स्थित एक मंदिर है। यह मंदिर देवी यमुना का मंदिर है। यमुनोत्री भारत के उत्तराखंड राज्य के उत्तरकाशी जिले में स्थित है। ऋषिकेश से 210 किलोमीटर और हरिद्वार से 255 किलोमीटर सड़क मार्ग से जुड़ा एक प्रमुख हिन्दू तीर्थ है।

यमुनोत्री बन्दरपूंछ चोटी (6315 मी) के पश्चिम किनारे पर स्थित है। समुद्र तल से ऊँचाई 6315 मी है। चोटी हमेशा बर्फ से ढकी रहती है। यह हनुमान गंगा और टोन्स नदियों का उद्गम स्थल है। ऐसा कहा जाता है कि असित नामक ऋषि ने यहाँ पर तपस्या की थी और पूरे जीवन काल में वे गंगा और यमुना में स्नान करते थे। वृद्धावस्था की वजह से जब वे गंगोत्री नहीं जा सके तो गंगा की एक धारा यमुनोत्री में निकाली। यमुना जी का मंदिर यहाँ पूजा का मुख्य स्थान है। महाभारत में यामुन पर्वत का उल्लेख आता है।

यामुन पर्वत (AS, p.771) का उल्लेख महाभारत, उद्योगपर्व तथा वनपर्व में हुआ है- 'वारणं वाटधानं च यामुनश्चैव पर्वत:, एष देश सुविस्तीर्णः प्रभूत धनधान्यवान्।' (महाभारत, उद्योगपर्व 19,31) 'यमुनाप्रभवं गत्वा समुस्पृश्य यामुनम् अश्वमेघफलं लब्ध्वा स्वर्गलोके महीयते।' ( महाभारत, वनपर्व 84, 44) इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल ने इस पर्वत का अभिज्ञान हिमालय पर्वतमाला में स्थित बंदरपूंछ नामक पर्वत (ज़िला गढ़वाल, उत्तराखण्ड) से किया है। बंदरपूंछ का संबंध महाभारत के प्रसिद्ध आख्यान से है, जिसमें भीम और हनुमान की भेंट का वर्णन है। महाभारत, अनुशासनपर्व (अनुशासनपर्व 68, 3-4|68, 3-4) में यामुनगिरि को गंगा-यमुना के मध्य भाग में स्थित बताया गया है तथा इस पहाड़ी की तलहटी के निकट 'पर्णशाला' नामक ग्राम का उल्लेख है- 'मध्यदेशे महान् ग्रामो ब्राह्मणानां वभूव ह । गंगायमुनयोर्मध्ये यामुनस्यगिरेरधः । पर्णशालेतिविख्यातो रमणीयोनराधिप।'

यमुनोत्री शिखर

चार धामों में से एक धाम यमुनोत्री से यमुना का उद्गम मात्र एक किमी की दूरी पर है। यहां बंदरपूंछ चोटी के पश्चिमी अंत में फैले यमुनोत्री ग्लेशियर को देखना अत्यंत रोमांचक है। गढ़वाल हिमालय की पश्चिम दिशा में उत्तरकाशी जिले में स्थित यमुनोत्री चार धाम यात्रा का पहला पड़ाव है। यमुना पावन नदी का स्रोत कालिंद पर्वत है। तीर्थ स्थल से एक कि.मी. दूर यह स्थल 4421 मी. ऊँचाई पर स्थित है। दुर्गम चढ़ाई होने के कारण श्रद्धालू इस उद्गम स्थल को देखने से वंचित रह जाते हैं। यमुनोत्री का मुख्य मंदिर यमुना देवी को समर्पित है। पानी के मुख्य स्रोतों में से एक सूर्यकुण्ड है जो गरम पानी का स्रोत है।

यमुनोत्तरी का मार्ग: हनुमान चट्टी (2400 मीटर) यमुनोत्तरी तीर्थ जाने का अंतिम मोटर अड्डा है। इसके बाद नारद चट्टी, फूल चट्टीजानकी चट्टी से होकर यमुनोत्तरी तक पैदल मार्ग है। इन चट्टीयों में महत्वपूर्ण जानकी चट्टी है, क्योंकि अधिकतर यात्री रात्रि विश्राम का अच्छा प्रबंध होने से रात्रि विश्राम यहीं करते हैं। कुछ लोग इसे सीता के नाम से जानकी चट्टी मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं है। 1946 ई. में एक धार्मिक महिला जानकी देवी ने बीफ गाँव में यमुना के दायें तट पर विशाल धर्मशाला बनवाई थी,और फिर उनकी याद में बीफ गाँव जानकी चट्टी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यहीं गाँव में नारायण भगवान का मन्दिर है। पहले हनुमान चट्टी से यमुनोत्तरी तक का मार्ग पगडंडी के रूप में बहुत डरावना था, जिसके सुधार के लिए खरसाली से यमुनोत्तरी तक की 4 मील लम्बी सड़क बनाने के लिए दिल्ली के सेठ चांदमल ने महाराजा नरेन्द्रशाह के समय 50000 रुपए दिए। पैदल यात्रा पथ के समय गंगोत्री से हर्षिल होते हुए एक "छाया पथ" भी यमुनोत्तरी आता था। यमुनोत्तरी से कुछ पहले भैंरोघाटी की स्थिति है। जहाँ भैंरो का मन्दिर है।

खारसाली का शनिदेव मंदिर

खारसाली : खारसाली उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले की राजगढ़ी तहसील में स्थित एक छोटा सा गांव है। यह समुद्र तल से लगभग 2675 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। खारसाली में भारत का सबसे पुराना शनि देव मंदिर है। शीतकालीन मौसम के दौरान देवी यमुना की मूर्ति खारसाली के शनि देव मंदिर में रखी जाती है। शनि मंदिर के बारे में इतिहासकार मानते है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवो ने करवाया है एवम् इस पांच मंजिला मंदिर के निर्माण में पत्थर और लकड़ी का उपयोग किया गया है । जिससे कि निर्माण में लकड़ी के बांसों के इस्तेमाल से यह खतरे के स्तर से ऊपर रहता है तथा बाढ़ से इसको बचाने में मदद मिलती है। शनिदेव की कांस्य मूर्ति शीर्ष मंजिल पर स्थित है।

हेमचन्द्र ने अपने "काव्यानुशान" में कालिन्द्रे पर्वत का उल्लेख किया है, जिसे कालिन्दी (यमुना) के स्रोत प्रदेश की श्रेणी माना जाता है। डबराल का मत है कि कुलिन्द जन की भूमि संभवतः कालिन्दी के स्रोत प्रदेश में थी। अतः आज का यमुना पार्वत्य उपत्यका का क्षेत्र, जो रंवाई, जौनपुर जौनसार नामों से जाना जाता है, प्राचीनकाल में कुणिन्द जनपद था। "महामयूरी" ग्रंथ के अनुसार यमुना के स्रोत प्रदेश में दुर्योधन यक्ष का अधिकार था। उसका प्रमाण यह है कि पार्वत्य यमुना उपत्यका की पंचगायीं और गीठ पट्टी में अभी भी दुर्योधन की पूजा होती है। यमुना तट पर शक और यवन बस्तियों के बसने का भी उल्लेख है। काव्यमीमांसाकार ने 10वीं शताब्दी में लिखा है कि यमुना के उत्तरी अंचलों में जहाँ शक रहते हैं, वहाँ यम तुषार-कीर भी है। इस प्रकार यमुनोत्तरी धार्मिक और ऐतिहासिक दोनों दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण रही।

जौनसार बावर मसूरी से 15 किलोमीटर दूर चकराता तहसील में देहरादून जिले का एक गाँव है। यह स्थान जौनसारी जनजाति का मूल स्थान है जिनकी जड़ें महाभारत के पाण्डवों से निकली हुई हैं। जौनसार बावर क्षेत्र एक आदिवासी घाटी है। यह 1002 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर फैली हुई है। इसमें 400 गाँव हैं। इसकी पूर्वी दिशा में यमुना नदी है और पश्चिमी दिशा में टोसं नदी है। इसके उत्तरी भाग में उत्तरकाशी जिला और हिमाचल प्रदेश के कुछ भाग हैं। देहरादून तहसील इसके दक्षिण कोने में स्थित है। सामाजिक दृष्टि से जौनसार-बावर के दो प्रमुख क्षेत्र हैं जिसमें दो प्रमुख समुदाय निवास करते हैं। नीचे का आधा भाग जौनसार है और ऊपरी हिमाच्छादित भाग बावर। यद्यपि दोनों क्षेत्र सटे हुए हैं किन्तु इसके मूल निवासी अपनी उत्पत्ति बिलकुल अलग-अलग मानते हैं। जौनसार जनजाति के लोग अपने को पाण्डवों का वंशज मानते हैं जिनको पाशि कहा जाता है और बावर के लोग अपने को दुर्योधन का वंशज, जिनको षाठी कहा जाता है ये दोनों समुदाय शताब्दियों से विश्व समुदाय से कटे हुए हैं जिसके कारण इनकी अद्वितीय संस्कृति और परम्पराएँ बची हुई हैं। दोनों समुदायों के बीच विवाह सम्बन्ध भी यदा-कदा ही होते हैं। जौनसारी समुदाय में बहुपतित्व की परम्परा है।

Source - Facebook Page of Laxman Burdak, 30.1.2022

उत्तरकाशी यात्रा

23 मई 1982: जानकी चट्टी - हनुमान चट्टी - उत्तरकाशी यात्रा

जानकी चट्टी से सुबह सात बजे पूरा सामान कन्धों पर लादकर हनुमान चट्टी की यात्रा प्रारंभ की। पूरी यात्रा में उतरना था इसलिए खास परेशानी नहीं हुई। डेढ़ घंटे में यात्रा पूरी करली। हनुमान चट्टी में बस तैयार थी सो बस द्वारा 105 किमी की उत्तरकाशी हेतु यात्रा प्रारंभ की। बड़कोट तक वापस उसी रास्ते से लौटते हैं, परन्तु बड़कोट से धरासू होते हुए उतरकाशी पहुंचते हैं। उत्तर काशी हम तीन बजे पहुंचे। गंगा नदी के मुहाने पर स्थित लोक निर्माण विभाग के विश्राम गृह में हम रुके।

उत्तरकाशी का इतिहास: उत्तरकाशी (गढ़वाल, उ.प्र.) (AS, p.90) - धरासू से 32 किमी दूर गंगोत्री के मार्ग पर स्थित प्राचीन तीर्थ. विश्वनाथ के मंदिर के कारण ही इसका नाम उत्तरकाशी हुआ है। उत्तर काशी चारों तरफ से पहाड़ियों से घिरी हुई बहत रमणीय जगह है। गंगा नदी यहाँ भागीरथी नाम से जानी जाती है।

उत्तरकाशी भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल का एक जिला है। इस जिले का मुख्यालय उत्तरकाशी कस्बा है। उत्तरकाशी जिला हिमालय रेंज की ऊँचाई पर बसा हुआ है और इस जिले में गंगा और यमुना दोनों नदियों का उद्गम है| यहाँ पर हज़ारों हिन्दू तीर्थयात्री प्रति वर्ष पधारते हैं। उत्तरकाशी कस्बा, गंगोत्री जाने के मुख्य मार्ग में पड़ता है। यहाँ पर बहुत से मंदिर हैं और यह एक प्रमुख हिन्दू तीर्थयात्रा केन्द्र माना जाता है।

जिले के उत्तर और उत्तरपश्चिम में हिमाचल प्रदेश राज्य, उत्तरपूर्व में तिब्बत, पूर्व में चमोली जिला, दक्षिणपूर्व में रूद्रप्रयाग जिला, दक्षिण में टिहरी गढ़वाल जिला और दक्षिणपश्चिम में देहरादून जिला पड़ते हैं।

उत्तरकाशी जिले का मुख्यालय उत्तरकाशी नामक एक प्राचीन स्थान है जिसका नाम समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। जैसा कि नाम से पता चलता है कि 'उत्तर का काशी' लगभग समान है, जैसा कि वाराणसी का काशी है। वाराणसी और उत्तरकाशी दोनों गंगा (भागीरथी) नदी के तट पर स्थित हैं। वरुण और असी भी नदियों के नाम हैं। उत्तरकाशी में सबसे पवित्र घाटों में से एक है, मणिकर्णिका तो वाराणसी में एक ही नाम से है। दोनों विश्वनाथ को समर्पित मंदिर हैं।

उत्तरकाशी जिले के इलाके प्राचीन काल में पहाड़ी जनजातियों द्वारा बसाये हुये हैं। पहाड़ी जनजातियों जैसे खस, एकाशन, ज्यॊहा, परदर, दीर्घवेनव, पशुपाश, कुणिन्द, तङ्गण, परतङ्गण, पह्लव, दरद, किरात, यवन, शक, हारहूण, चीन तुखार, सैन्धव, जागुड, रमठ, मुण्ड, स्त्रीराज्य, उत्तरकुरु आदि का उल्लेख महाभारत सभापर्व (II.48.2-3) और महाभारत वनपर्व (III.48.20-21) में मिलता हैं। ये युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में पधारे थे और उनके लिए भेंट लाये थे। ये शैलोदा नदी (AS, p.911) के किनारे रहने वाले थे। शैलोदा नदी (AS, p.911) का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में उत्तरकुरू के संबंध में है- 'तं तु देशमतिक्रम्य शैलोदानाम निम्नगा, उभयोस्तीरयोस्तस्याः कीचका नाम वेणवः।' (किष्किन्धाकाण्ड 43,37)। शैलोदा नदी मेरु और मंदराचल पर्वतों के मध्य में स्थित कही गई है और उसके दोनों तटों पर 'कीचक' नाम के बांसों के वन बताए गये हैं। वाल्मीकि ने भी इसके तट पर कीचक वृक्षों का वर्णन किया है। 'कीचक' चीनी भाषा का शब्द कहा जाता है। इस नदी के तट पर खश, प्रघस, कुलिंद, तंगण, परतंगण आदि लोगों का निवास बताया जाता है। वासुदेव शरण अग्रवाल ने शैलोदा नदी का अभिज्ञान वर्तमान खोतन नदी से किया है। इस नदी के तट पर आज भी 'यशब' या 'अश्मसार' की खानें हैं, जिसे शायद प्राचीन काल में सुवर्ण कहा जाता था। खोतन नदी पश्चिमी चीन तथा रूस की सीमा के निकट बहती है।

यमुनोत्री की चित्र गैलरी

गंगोत्री की यात्रा

पिछले भाग में लेखक द्वारा 'लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी मसूरी' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1982 में की गई यमुनोत्री एवं गंगोत्री यात्राओं (21.5.1982 - 27.5.1982) में से यमुनोत्री यात्रा का विवरण दिया गया था। इस यात्रा में हम भारत की जीवन रेखा कहलाने वाली महत्वपूर्ण नदी गंगा के उद्गम स्थल गंगोत्री तक जायेंगे।

Partial map of Uttarakhand

उत्तरकाशी - गंगोत्री यात्रा : उत्तरकाशी से गंगोत्री तक यात्रा में निम्नलिखित महत्वपूर्ण स्थान आते हैं:

उत्तरकाशी मानेरीभटवाड़ीगंगनानीलंकाभैरोंघाटीगंगोत्री

भागीरथी नदी के सहारे-सहारे यात्रा:

भागीरथी नदी के सहारे-सहारे यात्रा

24 मई 1982 - सुबह नौ बजे उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिए रवाना हुए। भागीरथी नदी के सहारे-सहारे पहाड़ियों को काटती हुई सड़क बनी हुई है। तेज बहाव से भागीरथी गहरी घाटियों में बहती है, जिसकी आवाज कानों में गर्जती है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। घाटी के सीने पर भागीरथी का शान्त और अविरल प्रवाह हर किसी को आनन्दित करता है। पूरी घाटी में नदी-नालों और जल प्रपातों की भरमार है। हर कहीं दूधिया जल धाराएं इस घाटी का मौन तोडने में डटी हैं। नदी झरनों के सौंदर्य के साथ-साथ इस घाटी के सघन देवदार के वन मनमोहक हैं। इस रास्ते की यात्रा बड़ी आनन्द दायक है। एक तरफ हजारों फ़ीट ऊंची चोटियां हैं तो दूसरी तरफ हजारों फ़ीट गहरी घाटी। बस अगर फिसल जाये तो चकना चूर हो जाये।

उत्तरकाशी से करीब 15 किमी दूरी पर रास्ते में पर्यटन महत्व का स्थान मानेरी आता है। नदी की प्राकृतिक सुंदरता प्रकृति और ग्रामीण इलाकों का अनुभव करने के लिए यह एक आदर्श स्थान है।

मानेरी: उत्तरकाशी-गंगोत्री मार्ग पर उत्तरकाशी से करीब 15 किमी दूरी पर उत्तरकाशी जिले की भटवाड़ी तहसील का भागीरथी नदी के तट पर स्थित मानेरी कस्बा पड़ता है। खूबसूरत नदियों का यह क्षेत्र चार धाम यात्रा के लिए पारगमन शिविर स्थापित करने के लिए लोकप्रिय है। यह ट्रेवलिंग ट्रैक, पर्वतारोहण और सफेद-पानी राफ्टिंग जैसे पर्यटकों और स्थानीय लोगों के बीच साहसिक खेलों के लिए भी एक पसंदीदा स्थान है। यहां भागीरथी नदी पर मानेरी डैम बनाया गया है। डैम होने के कारण यह स्‍थान पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया है। यह डैम मनेरी भाली परियोजना के नाम से जाना जाता है| यहां बिजली उत्‍पादन किया जाता है। मानेरी के आस पास कई छोटे छोटे पहाड़ी गाँव हैं जैसे जामक, कामर, हिना, भाटासौड़ आदि । फिल्म कभी-कभी (1976) में अमिताभ बच्चन, शशि कपूर, अभिनीत फिल्म के कुछ दृश्य मानेरी में मानेरी डैम पर शूट किये गए थे|

गंगनानी का दृश्य
गंगनानी कुंड

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गंगनानी: उत्तरकाशी-गंगोत्री मार्ग पर उत्तरकाशी से करीब 45 किमी दूरी पर उत्तरकाशी जिले की भटवारी तहसील का भागीरथी नदी के तट पर स्थित गंगनानी नामक स्थान है। मान्यता है कि ऋषि पराशर ने इस स्थान पर तप कर अमरत्व हासिल किया था। इसके चलते यहां ऋषि पराशर की पूजा भी की जाती है। यहाँ पड़ने वाला ऋषि कुंड एक आकर्षण का केंद्र है। यहाँ पर गंधक युक्त गर्म पानी के स्रोत हैं। कहते हैं कि पाराशर ऋषि ने यहाँ बहुत तपस्या की थी तो उनके लिए एक गर्म पानी का झरना और एक ठन्डे पानी का झरना निकला था। यहाँ पास-पास ही दो झरने हैं - बांई तरफ का ठन्डे पानी का और दाहिने तरफ का गर्म पानी का झरना। झरने का पानी जहाँ गिरता है वहां एक हौज बना है जिसमें स्नान किया जाता है। महिलाओं के लिए अलग हौज है। इस तरह स्नान की व्यवस्था यहाँ यमुनोत्री से अच्छी है। हमने भी यहाँ स्नान किया। शुरू में पानी गर्म लगता है परन्तु थोड़ी देर में अभ्यस्त हो जाते हैं। पानी में गंधक घुला होने से चर्म रोग नहीं होते हैं।

गंगनानी से रवाना होकर हम हरसिल नामक स्थान पर डेढ़ बजे पहुंचे।

हरसिल घाटी का दृश्य
हरसिल घाटी का दृश्य

हरसिल: यह स्थान उत्तरकाशी से 76 किमी दूर है। यह चारों तरफ से बर्फ से ढकी पहाड़ियों से घिरा हुआ है और कलकल करती भागीरथी नदी के किनारे बसा है। यहाँ हम डेढ़ बजे पहुंचे। कुछ लोगों का विचार था कि आज सीधे ही गंगोत्री पहुंचा जाये। उन लोगों का इरादा गोमुख जाने का था। परन्तु मुझे लगा कि एक दिन में वहां पर जाकर वापस गंगोत्री आना आसान नहीं होगा। इसलिय यहाँ हरसिल में ही रुकने का निश्चय किया जो सभी दृष्टि से उचित ही रहा। यहाँ रुकने से यहाँ के भूगोल, इतिहास और संस्कृति को समझने का अवसर मिला। आफिसियल प्रोग्राम के अनुसार भी हमें हरसिल में ही रुकना था।

विल्सन हाऊस हरसिल, अब वन विश्राम गृह

हरसिल इतनी सुन्दर जगह है कि यहाँ से जाने का जी नहीं करता। यहाँ हम विल्सन बंगले में रुके जो अब वन विश्राम गृह है। इसका इतिहास भी बहुत रोचक है। यह विल्सन हाऊस विल्सन नाम के एक अंग्रेज वन अधिकारी ने वर्ष 1886 में बनाया था। इतना बड़ा घर पूरा देवदार की लकड़ी का बना है। यहाँ तक कि दिवार और छत भी लकड़ी के हैं। विल्सन की कहानी इस प्रकार है: श्री विल्सन वन अधिकारी के रूप में यहाँ आये थे। हरसिल गाँव और यहाँ की सुन्दरता इतनी पसंद आई कि वह यहीं बस गए और एक गढ़वाली युवती गुलाबी से शादी भी करली। श्री विल्सन और श्रीमती विल्सन की फोटो यहाँ उनके डाईनिंग हाल में लगी है। अब इस के कुछ भाग में एस.पी.एफ वाले रह रहे हैं । वायरलेस सेट दिनभर पिप-पिप करता रहता है। पिछले कुछ भाग को जलाकर खराब भी कर दिया है।

शाम को हम हरसिल गाँव की तरफ घूमने गए। सभी यहाँ तिब्बती जैसे हैं। ये सब लामा की फोटो गले में लटकाए रहते हैं। गाँव में एक बुद्ध मंदिर भी बना है जो दलाई लामा के आदेश से एक मेजर जनरल ने बनाया था। यहाँ सभी मकान आम तौर पर लकड़ी के बने हैं परन्तु आजकल सीमेंट के कुछ मकान भी बनने लगे हैं। विल्सन हाऊस के पास से ही पत्थरों की बनी एक सड़क हरसिल गाँव की तरफ जाती है। नदी पर बने कई पुलों को पार करते हुए हम हरसिल गाँव की तरफ गए। नदी का मुहाना काफी सुन्दर है। चरों तरफ देवदार के पेड़ और बर्फ से ढकी ऊंची चोटियाँ मन को मोहने लगती हैं। नदी के तट पर घूमकर लौटे तो विल्सन हाऊस के पास ही स्थित एक ऊंची चटान पर बैठकर प्राकृतिक सुन्दरता का आनंद लिया। रात का खाना रावत होटल पर खाया। छोटी जगह होने से अच्छे होटल यहाँ पर नहीं हैं। सुरक्षा की दृष्टि से भी यह जगह बहुत महत्वपूर्ण है इसलिए विदेशियों का यहाँ आना वर्जित है। हरसिल का विस्तृत परिचय और इतिहास आगे दिया गया है।

हरसिल का परिचय: हरसिल, भारत के उत्तराखण्ड राज्य के गढ़वाल के उत्तरकाशी जिले में उत्तरकाशी-गंगोत्री मार्ग के मध्य स्थित एक ग्राम और कैण्ट क्षेत्र है। यह स्थान गंगोत्री को जाने वाले मार्ग पर भागीरथी नदी के किनारे स्थित है। हरसिल समुद्र तल से 9005 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। हर्सिल मे भगवान श्री हरि की लेटी हुयी शिला है जोकि हर्शिल में लक्ष्मीनारायण मन्दिर के नीचे भागीरथी नदी के किनारे पर स्थित है इसलिए हर्शिल (हरि शिला) नाम पडा है।

हरसिल की स्थित: हरसिल उत्तरकाशी से 76 किलोमीटर आगे और गंगोत्री से 25 किलोमीटर पीछे तक सघन हरियाली से आच्छादित है। गढ़वाल के अधिकांश सौन्दर्य स्थल दुर्गम पर्वतों में स्थित हैं जहां पहुंचना बहुत कठिन होता है। यहां का प्राकृतिक सौंदर्य देखते ही बनता है। घाटी के सीने पर भागीरथी का शान्त और अविरल प्रवाह हर किसी को आनन्दित करता है। पूरी घाटी में नदी-नालों और जल प्रपातों की भरमार है। हर कहीं दूधिया जल धाराएं इस घाटी का मौन तोडने में डटी हैं। नदी झरनों के सौंदर्य के साथ-साथ इस घाटी के सघन देवदार के वन मनमोहक हैं। जहां तक दृष्टि जाती है वृक्ष हि वृक्ष दिखाई देते हैं। यहां पहुंचकर पर्यटक इन वृक्षों की छांव तले अपनी थकान को मिटाता है। वनों से थोडा ऊपर दृष्टि पडते ही आंखें खुली की खुली रह जाती है। हिमाच्छादित पर्वतों का आकर्षण तो देखते ही बनता है। ढलानों पर फैले हिमनद भी देखने योग्य है।

हरसिल की लोकप्रियता: हरसिल की सुन्दरता को अपने जमाने की लोकप्रिय फिल्म राम तेरी गंगा मैली (1985) में भी दिखाया जा चुका है। इसका निर्देशन अभिनेता राज कपूर ने किया था और मुख्य भूमिकाओं में मन्दाकिनी और उनके पुत्र राजीव कपूर हैं। यह राज कपूर की आखिरी फिल्म थी। यह फिल्म 1985 की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिन्दी फिल्म थी। संगीत निर्देशक रवीन्द्र जैन को इस फिल्म के लिए फिल्मफेयर पुरस्कार मिला था। बॉलीवुड के बडे़ शोमैन रहे राज कपूर एक बार जब गंगोत्री घूमने आए थे तो हरसिल की सुन्दरता से मन्त्रमुग्ध होकर यहां की घाटियों पर एक फिल्म ही बना डाली - राम तेरी गंगा मैली। इस फिल्म में हरसिल की घाटियों को जिस सजीवता से दिखाया गया है वह देखते ही बनता है। यहीं के एक झरने में फिल्म की नायिका मन्दाकिनी को नहाते हुए दिखाया गया है। तब से इस झरने का नाम मन्दाकिनी झरना पड़ गया।

हर्षिल जाएँ तो वहाँ का पुराना पोस्ट आफिस देखना ना भूलें। आपने अगर राम तेरी गंगा मैली फिल्म देखी है तो आपको मंदाकिनी पर फिल्माए गए दृश्य भी याद होंगे, जिन्होंने उन दिनों खासी सनसनी मचाई थी। फिल्म की शूटिंग हर्षिल में ही हुई थी। फिल्म के एक सीन में मंदाकिनी राजीव कपूर को अपने गांव से खत भेजती है। वह पोस्ट आफिस हर्षिल में आज भी मौजूद है, पुराना लकड़ी का बना पोस्ट आफिस, जिसके बाहर लाल रंग का लेटर बाक्स लगा हुआ है।

Harsil Wilson House.24.05.1982
Laxman Burdak, Sarabjeet Jattan & Bidhan Chandra on the Rock at the Back of Wilson House.24.05.1982

हरसिल घाटी का इतिहास: हरसिल घाटी से इतिहास के रोचक पहलू भी जुडे हैं। एक अंग्रेज़ थे, फ्रेडरिक विल्सन (Frederick E. Wilson) जो ईस्ट इंडिया कंपनी में कर्मचारी थे। वह थे तो इंग्लैंड वासी लेकिन एक बार जब वह मसूरी घूमने आए तो हरसिल की घाटियों में पहुंच गए। उन्हें यह स्थान इतना भाया कि उन्होंने 25 वर्ष की आयु में 1842 में सरकारी नौकरी तक छोड़ दी और यहीं बसने का मन बना लिया।विल्सन ने हरसिल को स्विट्ज़रलैंड की उपाधि से नवाजा था। स्थानीय लोगों के साथ वह शीघ्र ही घुल-मिल गए और गढ़वाली बोली भी सीख ली। उन्होंने अपने रहने के लिए यहां एक बंगला भी बनाया। उसने देवदार वृक्षों की कटाई कर रेल्वे निर्माण हेतु ब्रिटिश शासन को सप्लाई शुरू करदी। उसने वन्य प्राणियों की खाल, फर तथा कस्तुरी का व्यापार भी ब्रिटिश फर्मों के साथ किया। उसने व्यापार में बहुत धन कमाया और लोग उसको हरसिल के राजा के नाम से भी पुकारते थे। उसने जाट गंगा पर सस्पेंशन ब्रिज बनाया। निकट के मुखबा ग्राम की एक लड़की गुलाबी से उन्होंने विवाह भी किया। फ्रेडरिक विल्सन (Frederick Wilson) का वर्ष 1883 में देहान्त हो गया। उसके तीन लड़के थे उनका भी असामयिक देहान्त हो गया। स्थानीय लोग इसे पृकृति का अभिशाप मानते हैं।

विल्सन ने यहां पर इंग्लैंड से सेब के पौधे मंगावाकर लगाए जो खूब फले-फूले। आज भी यहां सेव की एक प्रजाति विल्सन सेव के नाम से प्रसिद्ध है। फ्रेडरिक विल्सन ने ही इस क्षेत्र में राजमा की खेती की शुरुआत की थी जो आज यहाँ की प्रमुख फसल है।

सन 1962 की भारत चीन की लड़ाई के बाद हरसिल में विदेशियों के आगमन पर रोक लगा दी। पिछले कुछ वर्षों में भोट जातीय समूह से सम्बन्धित जाट लोग छोटी संख्या में यहां आकर बस गये हैं और ये लोग तिब्बती भाषा से मिलती जुलती एक भाषा बोलते हैं।

25 मई 1982 - हरसिल से सुबह साढ़े नौ बजे गंगोत्री के लिए रवाना हुए। सवा दश बजे लंका पहुँच गए और तुरन्त ही गंगोत्री के लिये रवाना हुये।

लंका: हरसिल से लंका की दूरी 13 किमी है। लंका समुद्र तल से 2789 मीटर ऊँचाई पर है। लंका से भैरों घाटी सड़क मार्ग नहीं था इसलिये पैदल ही जाना था। लंका से भैरों-घाटी 3 किमी दूरी पर है। लंका से हमने सामान कन्धों पर लिया और भैरों घाटी के लिए रवाना हुए। लंका से भैरों-घाटी 3 किमी दूरी पर है। शुरू में उतार है और फिर चढ़ाई है। रास्ते के दायीं तरफ भागीरथी गंगा बहती है। गंगा ने चट्टानों को काफी गहराई तक काट दिया है। कटी हुई चटानें बहुत सुन्दर दिखती हैं । इस रास्ते में एक अच्छा काम यह किया हुआ है कि दाईं तरफ नदी की ओर रैलिंग लगा रखी हैं जिससे गहरी घाटी का डर नहीं लगता। लंका से भैरों घाटी तक पैदल पहुंचने में 45 मिनट लगे।

लंका से भैरों घाटी तक सड़क मार्ग नहीं होने से 3 किलोमीटर की पैदल यात्रा करनी पड़ती है। इस लंका और भैरों घाटी के बीच में भागीरथी नदी से एक नदी आकर मिलती है। बताया गया कि इसका नाम जाट गंगा है। यह नाम सुनकर मेरी इसके बारे में अधिक जानने की रूचि हुई। स्थानीय लोगों की भाषा तिब्बती मिश्रित होती है इसलिए कुछ ठीक से उच्चारण समझ में नहीं आता। मेरी रुचि हुई कि यह पता किया जाए कि हिमालय की इतनी ऊंचाइयों पर जाट कब और क्यों आए होंगे। उस समय मुझे अधिक जानकारी नहीं मिल सकी। परंतु जाट इतिहास के अनुसंधान पर ज्ञात हुआ कि यह नदी जिसको जाट गंगा बोला गया है अनेक नामों से जानी जाती है यथा जाड़ गंगा, जाध गंगा, नील गंगा, जाह्नवी गंगा आदि।

तिब्बत के कुछ प्राचीन इतिहास और अभिलेखों की जानकारी मुझे मिली उसमें कुछ नागवंशी राजाओं के नाम थे। नागवंशी राजाओं का उल्लेख समय-समय पर महाभारत और रामायण में भी किया गया है परंतु इनमें नागवंश के बारे में कुछ विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं होती। तिब्बत में बौद्ध धर्म अनुयायियों ने इन नागवंशी राजाओं की सूचियों को संरक्षित रखा। इन सूचियों की तुलना जब जाट गोत्रावली सूची से की जाती है तो पता लगता है कि अनेक जाट गोत्र इन नागवंशी राजाओं से निकले हैं। भारत में बौद्ध धर्म के समाप्त होने के बाद हिंदू धर्म के पुनर्जागरण के दौरान इन नागवंशी राजाओं का इतिहास विलुप्तसा कर दिया गया। इसलिए हमें इनकी जानकारी मध्य एशिया अथवा चीन के प्राचीन अभिलेखों से ही मिल रही है।

जाट गंगा का उद्गम: माना पास के उत्तर में स्थित लांबी ग्लेसियर से है। माना नामक स्थान चमोली जिले में पड़ता है। यहां यह लांबी नदी नाम से जानी जाती है। यह क्षेत्र भारत-चीन सीमा के पास स्थित है और विवादित सीमा में है। चीन इसको तिब्बत के Zanda County का भाग मानता है। जबकि प्रशासकीय नियंत्रण भारत का है। लांबी नदी दक्षिण से उत्तर की ओर बहती है और जब यह पश्चिम की तरफ मुड़ती है वहाँ इसे माना नदी (Mendi Gad/Mendi River or Mana Gad/Mana river) नाम से जानते हैं। माना नदी में थोड़ा आगे चलकर दक्षिण-पूर्व बहने वाली नील नदी मिलती है और कुछ दूरी तक यह नील गंगा नाम से जानी जाती है। इसमें आगे चलकर गुल नदी (Gull Gad/Gull River) मिलती है जो माना बामल ग्लेसियर से निकलती है, वह आगे चलकर नाग नामक स्थान पर जाट गंगा में मिलती है। नाग के आगे जाट गंगा दक्षिण में बहती है और नेलंग घाटी से निकलने तक जाट गंगा कहलाती और पश्चात यह जाह्नवी नदी नाम से जानी जाती है तथा भैरों घाटी के पास भागीरथी नदी में मिलती है।

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत ने अपनी पुस्तक जाट वीरों के इतिहास में इस संबंध में कुछ प्रकाश डाला है। यह जानकारी आगे दी गई है। तिब्बती साहित्य और इतिहास उपलब्ध नहीं होने के कारण इस विषय में अधिक प्रकाश नहीं डाला जा सकता। भारत के हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के उत्तरकाशी और चमोली जिलों से लगा हुआ तिब्बत का जंडा काउंटी (Zanda County) पड़ता है। इसका ठीक से हिंदी में उच्चारण किस तरह से होता है यह ज्ञात नहीं है। यह भी पता लगता है कि प्राचीन काल में चीन से व्यापार के लिए यह स्थान उत्तरकाशी आने के लिए ट्रेड-रूट पर पड़ता था और संभवत है तिब्बत में और उत्तरकाशी के इस भूभाग में जाट बसे होंगे। 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान भी कुछ जनसंख्या को विस्थापित किया गया था उसमें भी जाट थे। यह लोग मुख्यतः खेती-बाड़ी और पशुपालन का धंधा करते हैं।

भागीरथी नदी के कैचमेंट में अनेक स्थान नागवंशी राजाओं के नाम से हैं यथा भागीरथी पर्वत, वासुकी पर्वत, वासुकी ताल आदि। इस भूभाग में पर्वतीय क्षेत्रों के नेगी लोग भी नागवंशियों के वंशज हैं। नागवंशी राजाओं ने ही वाराणसी का काशी तथा उत्तरकाशी शहरों की स्थापना की थी। दोनों ही जगह पाए जाने वाले विश्वनाथ मंदिरों का निर्माण भी मूलरूप से नागवंशी राजाओं ने ही किया था। असी नदी और वरुणा नदी दोनों ही काशी नाम के शहरों में पाई जाती हैं। इनका नामकरण भी नागवंशी राजाओं के नाम पर हुआ है।

भैरों घाटी : भैरों घाटी तक पैदल पहुंचने में 45 मिनट लगे। बताया जाता है कि वर्ष 1985 में लंका से भैरों घाटी को सड़क मार्ग से जोड़ दिया गया है। वर्ष 1985 से पहले जब संसार के सर्वोच्च जाटगंगा पर झूला पुल सहित गंगोत्री तक मोटर गाड़ियों के लिये सड़क का निर्माण नहीं हुआ था, तीर्थयात्री लंका से भैरों घाटी तक घने देवदार वनों के बीच पैदल आते थे और फिर गंगोत्री जाते थे। भैरों घाटी हिमालय का एक मनोरम दर्शन कराता है, जहां से आप भृगु पर्वत श्रृंखला, सुदर्शन, मातृ तथा चीड़वासा चोटियों के दर्शन कर सकते हैं।

भैरोंघाटी (Bhaironghati) भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में स्थित एक गाँव है। भैरों घाटी, जाट गंगा तथा भागीरथी के संगम पर स्थित है। भैरोंघाटी धाराली से 16 किमी तथा गंगोत्री से 9 किमी दूर है और राष्ट्रीय राजमार्ग 34 (उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग) यहाँ से गुज़रता है। जाट गंगा को जाड गंगा अथवा जाह्नवी गंगा के नाम से भी जाना जाता है।

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, p.103) ने इस भू-भाग के इतिहास पर प्रकाश डाला है। भैरों घाटी जो कि गंगोत्री से 6 मील नीचे को है, यहां पर ऊपर पहाड़ों से भागीरथी गंगा उत्तर-पूर्व की ओर से और नीलगंगा (जाटगंगा) उत्तर पश्चिम की ओर से आकर दोनों मिलती हैं। इन दोनों के मिलाप के बीच के शुष्क स्थान को ही भैरों घाटी कहते हैं। जाटगंगा के दाहिने किनारे को लंका कहते हैं। इस जाटगंगा का पानी इतना शुद्ध है कि इसमें रेत का कोई अणु नहीं है। भागीरथी का पानी मिट्टी वाला है। दोनों के मिलाप के बाद भी दोनों के पानी बहुत दूर तक अलग-अलग दिखाई देते हैं। जाटगंगा का पानी साफ व नीला है इसलिए इसको नीलगंगा कहते हैं। महात्माओं और साधुओं का कहना है कि भागीरथी गंगा तो सम्राट् भगीरथ ने खोदकर निकाली थी और इस नीलगंगा को जाट खोदकर लाये थे इसलिए इसका नाम जाटगंगा है। इसके उत्तरी भाग पर जाट रहते हैं। इस कारण भी इसको जाटगंगा कहते हैं। इस जाट बस्ती को, चीन के युद्ध के समय, भारत सरकार ने, वहां से उठाकर सेना डाल दी और जाटों को, हरसिल गांव के पास, भूमि के बदले भूमि देकर आबाद किया। जाटों ने यहां गंगा के किनारे अपना गांव बसाया जिसका नाम बगोरी रखा। यह गांव गंगा के किनारे-किनारे लगभग 300 मीटर तक बसा हुआ है जिसमें लगभग 250 घर हैं। लोग बिल्कुल आर्य नस्ल के हैं। स्त्री-पुरुष और बच्चे बहुत सुन्दर हैं। ये लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। इनके गांव में बौद्ध मन्दिर है। ये लोग भेड़ बकरियां पालते हैं। और तिब्बत से ऊन का व्यापार करते हैं। ये अपने घरों में ऊनी कपड़े बुनते हैं। हरसिल गांव दोनों गंगाओं के मिलाप से लगभग 7 मील नीचे को गंगा के दाहिने किनारे पर है। बगोरी गांव हरसिल से लगा हुआ है।

Bidhan Chandra, Sarabjit Jattan &Laxman Burdak took Bath at Gangotari.25.05.1982
Laxman Burdak, Sarabjit Jattan & Bidhan Chandra at Ganotri in front of Monibaba Ahram.25.05.1982

गंगोत्री : भैरों घाटी से गंगोत्री 9 किमी दूर है। यहां पर 3 बसें और 8 जीप चलती हैं। बस का किराया साढे 3 रुपये है और जीप का 6 रुपये। हमें यहां भैरों घाटी में बस और जीप देख कर बडा अश्चर्य हो रहा था क्योंकि भैरों घाटी दोनो तरफ से बन्द है तो फिर ये साधन कैसे पहुंचे? बताया गया कि गाड़ियों के पूर्जे अलग-अलग करके लाया गया था और यहां जोड़ा गया। हम चार जनों ने बस से आना पसन्द किया और बाकी साथी जीप से गये। गंगोत्री पहुंच कर वन विश्राम गृह में रुके। सामान आदि रख कर हम लोग गंगा में स्नान करने निकले। गंगा का पानी बहुत ठंडा था परन्तु हिम्मत करके स्नान कर लिया। गंगोत्री मन्दिर के निचली तरफ ही हमने स्नान किया। स्नान करके मौनी बाबा से मिलने गये। उसके बाद स्वामी सुन्दरानंद जी से मिलने गए। इन सन्यासियों से मिलने का हमारा कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था बल्कि इस भूभाग के बारे में जानकारी प्राप्त करना था।

मौनी बाबा:

मौनी बाबा का आश्रम वन विश्राम गृह के पास ही था। वे गोरखपुर के रहने वाले थे और 39 साल पहले यहां आये थे। वे भोजन नहीं करते केवल आलू खाकर जिन्दा थे। वे दिखने में काफी गंदे थे। हमने उनसे बहुत सारे सवाल पूछे जिनका उन्होने स्लेट पर लिख कर संक्षिप्त और उचित जवाब दिया। मौनी बाबा वर्ण व्यवस्था समर्थक हैं और मानते हैं कि आज भी लागू है और जो कहता है कि वर्ण व्यवस्था खत्म होती जा रही है, उससे बडा अन्धा कोई नहीं है। आज भी जबरदस्त वर्ण व्यवस्था है, वही व्यवस्था है जो हमारे पूर्वज बनाकर चले गये। भले ही खून का वैज्ञानिक विश्लेषण कर लिया गया हो, वैज्ञानिक आधार पर खून के कई नमूने कर दिये गये हों लेकिन कुछ गुण जन्मजात ही होते हैं। जैसे कि राज करने का गुण।

स्वामी सुन्दरानंद जी

स्वामी सुन्दरानंद जी

मोनी बाबा से मिलकर वापस रेस्ट हाऊस आये और थोड़ी देर रुक कर पश्चिम की ओर जाते समय एक सुन्दर से आश्रम में जंगल से लाई लकडियों का संग्रह देखा। यह आश्रम बहुत सुन्दर दिखाई दे रहा था। जब हम इस आश्रम को देख ही रहे थे कि तभी भगवा रंग के कपड़ों में एक बाबाजी बाहर निकले। हम लोगों को अन्दर बुलाया और वहां स्वामी सुन्दरानंद जी (जन्म: 1926) से मुलाकात हुई। स्वामीजी मूलतः अनंतपुरम (आंध्र प्रदेश) के रहने वाले हैं। प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद 1947 में वह पहले उत्तरकाशी और यहां से गोमुख होते हुए आठ किलोमीटर दूर तपोवन पहुंचे। कुछ समय तपोवन बाबा के सानिध्य में रहने के बाद उन्होंने संन्यास ले लिया। गंगोत्री हिमालय के हर दर्रे तथा ग्लेशियर एवं गाड़-गदेरों (बरसाती नाले) से परिचित स्वामी सुंदरानंद वर्ष 1962 के चीनी आक्रमण में भारतीय सेना की बार्डर स्काउट के पथ प्रदर्शक रह चुके हैं। भारत-चीन युद्ध के दौरान वह सेना के पथ प्रदर्शक भी रहे। एक माह तक साथ रहकर उन्होंने कालिंदी, पुलमसिंधु, थागला, नीलापाणी, झेलूखाका बार्डर एरिया में सेना का मार्गदर्शन किया। वह ऐसे फ़ोटोग्राफ़र थे, जो स्वामी भी थे। वह योगी थे, घुमक्कड़ थे और पर्यावरण के प्रति बेहद संवेदनशील इंसान। मगर उनकी आम पहचान फ़ोटो बाबा के नाम से थी। हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण के प्रति उनका समर्पण भाव अद्वितीय था। लोगों में जागरूकता के इरादे से गंगोत्री में उन्होंने ‘तपोवनम् हिरण्यगर्भ आर्ट गैलरी’ बनाई, जहाँ प्रकृति, पर्यावरण और हिमालय की सांस्कृतिक छटा संजाए तस्वीरों का बड़ा संग्रह है। उनके संग्रह में क़रीब ढाई लाख फ़ोटोग्राफ़्स हैं। मई से अक्टूबर तक वे आश्रम (तपोवन कुटी गंगोत्री, जिला उत्तर काशी) में रहते हैं। बाकी समय वे मैदानी इलाकों में रहते हैं। स्वामी जी बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। उनके संग्रह में 9000 ट्रांसपैरेंसी 2000 नेगेटिव और 200 प्रिंटों का संग्रह है। उनके चित्र बहुत सी देशी और विदेशी पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। कई कलेंडर बने हैं। बाबाजी एक अच्छे ट्रेकर हैं। ये Federation of Indian Photography, Camera Society of India, Mountaineering आदि कई नामी संस्थाओं के के सदस्य हैं। चित्रकारिता और पर्वतारोहण पर कई इनाम जीत चुके हैं। स्वामीजी से काफी देर तक बात होती रही।

स्वामी सुन्दरानंद जी ने जब यह जाना कि हम लाल बहादुर प्रशासन अकादमी मसूरी से आये हैं तो उन्होंने काफी रूचि ली और हमारे साथ गौरी कुण्ड दिखाने गए। गौरी कुण्ड से नीचे की तरफ गंगा उत्तर दिशा में मुड़ती है और चट्टानों के नीचे से निकलती है। गंगा अपने पूरे रास्ते में इसी स्थान पर उत्तर दिशा में बहती है इसलिए इस स्थान का नाम गंगोत्री पड़ा। स्वामीजी ने दिखाया कि गौरी कुण्ड में जनवरी के महीने में शिव लिंग दिखाई देता है और इसके नीचे जहाँ से पानी निकलता है वह शेर का मुंह जैसा लगता है। गौरी कुण्ड में जहाँ पानी गिरता है वहां चट्टान की एक शेष नाग जैसी शक्ल बनती है। उत्तर वाहिनी के पश्चिम की तरफ जिस चट्टान से गौरी कुण्ड को देख रहे थे उस चट्टान पर तीन आकृतियाँ बनी हैं - शंख, डमरू और मंदिर। ये बहुत दूर से भी साफ दिखाई देते हैं। गौरी कुण्ड से ऊपर की तरफ ब्रिज के नीचे जहाँ एक छोटे से छेद के बीच से गंगा बहती है, उसके ऊपर एक चट्टान टूटने से मूर्ती सी बन जाती है जो स्वामीजी ने बताया कि गंगाजी की मूर्ती है और साडी पहने औरत जैसी लगती है। वह गर्भवती लगती है और उसका कारण बताया कि गंगा की गर्भ में सब समाहित हो जाता है। वापस लौटते समय उनके आश्रम में जर्मन पुस्तक में छपी उनकी हिमालय की तस्वीर देखी जो बहुत ही सुन्दर दिखती है।

नोट: ज्ञात हुआ है कि हिमालय के उक्त प्रसिद्ध फोटोग्राफर एवं गंगोत्री के प्रमुख संत स्वामी सुन्दरानंद ने 95 वर्ष की आयु में 23.12.2020 बुधवार की रात को शरीर छोड़ दिया है। गंगोत्री में उनकी तपोवन कुटिया के पास समाधि बनायी गई है। स्वामी सुन्दरानंद को अक्टूबर-2020 में कोरोना संक्रमण हुआ था। जिससे स्वस्थ होकर अस्पताल से वह अपने परिचित डॉक्टर अशोक लुथरा के घर चले गए थे। रात को भोजन करने के बाद कुछ देर तक उन्होंने बातचीत की और फिर अपना शरीर छोड़ दिया। स्वामी जी के जीवन से भविष्य की पीढ़ियों को प्रकृति प्रेम की प्रेरणा मिलती रहेगी।

शाम के वक्त हम गंगाजी की आरती में सम्मिलित हुए। रात को गंगोत्री के वन विश्राम गृह में रुके। समयाभाव के कारण हम गोमुख नहीं जा सके जो गंगा का वास्तविक उद्गम स्थल है। आगे गंगोत्री और गंगोत्री के निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थानों का परिचय दिया गया है।

गंगोत्री और गंगोत्री के निकटवर्ती महत्वपूर्ण स्थान

गंगोत्री परिचय

गंगोत्री उत्तराखंड राज्य में स्थित गंगा का उद्गम स्थल है। सर्वप्रथम गंगा का अवतरण होने के कारण ही यह स्थान गंगोत्री कहलाया। यद्यपि जनसाधारण के बीच यही माना जाता है कि गंगा यहीं से निकली हैं किंतु वस्तुत: गंगा का उद्गम 19 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर में 4,225 मीटर की ऊँचाई पर होने का अनुमान है।

केदारखंड के चारों धामों में यमुनोत्री की यात्रा के पश्चात् गंगोत्री की यात्रा करने का विधान है। गंगा का मन्दिर तथा सूर्य, विष्णु और ब्रह्मकुण्ड आदि पवित्र स्थल यहीं पर हैं।तीर्थ यात्रा करने का समय अप्रैल से नवंबर तक के बीच है। यहाँ पर शंकराचार्य ने गंगा देवी की मूर्ति स्थापित की थी। गंगा माता देवी की प्रतिमा सफेद संगमरमर से बनी है। यहां गंगा देवी को मगरमच्छ की पीठ पर बैठा दिखाया गया है। यहां राजा भगीरथ की भी आकर्षक प्रतिमा है जो कि चार फीट उंची है। गंगा मंदिर का घंटा बहुत शक्तिशाली है और इसे दूर से भी सुना जा सकता है। जहां इस मूर्ति की स्थापना हुई थी वहां 18वीं शती ई. में एक गुरखा अधिकारी ने मंदिर का निर्माण करा दिया है।

गंगा देवी की मूर्ति के निकट भैरवनाथ मंदिर है। इसे भगीरथ का तपस्थल भी कहते हैं। जिस शिला पर बैठकर उन्होंने तपस्या की थी वह भगीरथ शिला कहलाती है। उस शिला पर लोग पिंडदान करते हैं। भागीरथी शिला गंगोत्री में स्थित एक प्रसिद्ध पर्यटक आकर्षण है। भगीरथ शिला से कुछ दूर पर रुद्रशिला है। जहां कहा जाता है कि शिव ने गंगा को अपने मस्तक पर धारण किया था। इसके निकट ही केदारगंगा, गंगा में मिलती है। इससे आधी मील दूर पर वह पाषाण के बीच से होती हुई 30-35 फुट नीचे प्रपात के रूप में गिरती है। यह प्रताप नाला गौरीकुंड कहलाता है। इसके बीच में एक शिवलिंग है जिसके ऊपर प्रपात के बीच का जल गिरता रहता है।

गंगोत्री में सूर्य, विष्णु, ब्रह्मा आदि देवताओं के नाम पर अनेक कुंड हैं।

गंगोत्री मन्दिर

गंगोत्री धाम: हिमालय के भीतरी क्षेत्र में गंगोत्री धाम सबसे पवित्र तीर्थ स्थान माना जाता है। यहाँ से ही जीवन की धारा गंगा नदी पहली बार पृथ्वी को स्पर्श करती है। उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के उत्तरकाशी जिले में भागीरथी नदी के तट पर गंगोत्री चार धामों में से एक है। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से इसकी दूरी 97 किमी है। यहाँ पहुंचकर गंगा उत्तर की ओर बहने लगती है, इसलिए इसे उतर की ओर गंगा यानि गंगोत्री कहा जाता है। गंगोत्री को सामान्यतः गंगा नदी का उद्गम माना जाता है लेकिन गंगा नदी का उद्गम गंगोत्री धाम से 19 किमी आगे गौमुख ग्लेशियर से है। गंगा से ही गंगोत्री नाम कहा जाता है लेकिन यहां इसके प्रवाह को भागीरथी कहा जाता है। देवप्रयाग में भागीरथी, अलकनंदा और मन्दाकिनी के मिल जाने के बाद से इसे गंगा कहा जाता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार गंगोत्री ही वह जगह है जहां भगीरथ ने गंगा को धरती पर ले आने के लिए घोर तपस्या की थी। भगीरथ के पूर्वज कपिल मुनि के क्रोध से भस्मीभूत हो गए थे। अपने इन्हीं पूर्वजों, जोकि सगर के पुत्र थे, के तारण के लिए वे गंगा को धरती पर लाना चाहते थे। उन्होंने श्रीमुख पर्वत पर घोर तपस्या की और ब्रह्मा के कमंडल में रहने वाली गंगा को धरती पर आने के लिए राजी कर लिया। उस समय सवाल यह था कि गंगा जब धरती पर आएगी तो उसके प्रचंड वेग को कौन संभालेगा। इसके लिए देवों के देव महादेव शिव राजी हुए। शिव ने अपनी जटाओं में गंगा को संभाल लिया। वहां से भगीरथ अपने तप के प्रताप से गंगा को गंगासागर ले गए। उन्हीं राजा भगीरथ का मंदिर भी गंगोत्री में है।

यह भी कहा जाता है कि महाभारत में पांडवों द्वारा गोत्र, गुरु, बंधु हत्या के बाद जब शिव उनसे नाराज हो गए थे तो पांडवों ने गंगोत्री में ही शिव की आराधना की। गंगोत्री में भगवान शिव के दर्शन करने के बाद पांडव स्वर्गारोहिणी के लिए निकल पड़े थे। यहाँ पर भगीरथ के मंदिर के अलावा गंगा का मंदिर भी है। कहते हैं कि पहले कभी यहाँ कोई मंदिर नहीं था। उन्नीसवीं सदी में गोरखा शासक अमर सिंह थापा ने यहाँ एक छोटा सा मंदिर बनवाया था। यह मंदिर उसी शिला पर बनाया गया था जिस पर बैठकर भगीरथ ने तपस्या की थी। अमर सिंह थापा ने ही मुखबा के सेमवाल ब्राह्मणों को यहाँ का पुजारी नियुक्त किया। मुखबा गांव ही गंगा का शीतकालीन प्रवास भी है। शीतकाल में जब गंगोत्री के कपाट बंद कर दिए जाते हैं तब उनकी पूजा-अर्चना मुखबा के गंगा मंदिर में ही की जाती है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि वर्तमान मंदिर का निर्माण जयपुर के राजाओं द्वारा करवाया गया था। गंगोत्री धाम के मंदिर के पुनर्निर्माण में अंग्रेज डी फ्रेजर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। अंग्रेज डी फ्रेजर के सुझाव पर ही गंगोत्री धाम के पुरोहित जयपुर नरेश सवाई मान माधो सिंह के यहां पहुंचे थे, जहां उन्होंने धाम पुनर्निर्माण की मदद मांगी थी। इस मंदिर में मां गंगा की भव्य प्रतिमा है। इसके अलावा जाह्नवी, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, भागीरथी, सरस्वती तथा आदि शंकराचार्य की मूर्तियाँ भी इस मंदिर में हैं। गंगोत्री में मौजूद भगीरथ शिला के पास ही ब्रह्म कुंड, सूर्यकुंड, विष्णु कुंड है, जहां पर श्रद्धालु गंगा स्नान के बाद अपने पितरों का पिंडदान किया करते हैं।

गंगोत्री मंदिर की किवदंतियां: राजा सागर ने पृथ्वी पर राक्षसों का वध करने के बाद, अपने वर्चस्व की घोषणा के रूप में एक अश्वमेध यज्ञ का मंचन करने का फैसला किया था। पृथ्वी के चारों ओर एक निर्बाध यात्रा पर जो घोड़ा ले जाया जाना था, उसका प्रतिनिधित्व, महारानी सुमति के 60,000 पुत्रों एवं दूसरी रानी केशिनी से हुए पुत्र असमंज के द्वारा किया जाना था। देवताओं के सर्वोच्च शासक इंद्र को डर था कि अगर वह ‘यज्ञ’ सफल हो गया तो वह अपने सिंहासन से वंचित हो सकते हैं। उन्होंने फिर घोड़े को उठाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, जो उस समय गहन ध्यान में थे। राजा सगर के पुत्रों ने घोड़े की खोज की और आखिरकार उसे ध्यानमग्न कपिल मुनि के पास बंधा पाया। राजा सागर के साठ हजार क्रोधित पुत्रों ने ऋषि कपिल के आश्रम पर धावा बोल दिया। जब कपिल मुनि ने अपनी आँखें खोलीं, तो उनके श्राप से राजा सागर के 60,000 पुत्रों की मृत्यु हो गयी। माना जाता है कि राजा सगर के पौत्र भागीरथ ने देवी गंगा को प्रसन्न करने के लिए अपने पूर्वजों की राख को साफ करने और उनकी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए उनका ध्यान किया, उन्हें मोक्ष प्रदान किया।

एक अन्य किंवदंती यह है कि गंगा एक मानव रूप में पृथ्वी पर आई और राजा शांतनु से विवाह किया। जिनके सात पुत्र पैदा हुए उनमें से सभी को उसने अस्पष्ट तरीके से नदी में फेंक दिया गया। आठवां पुत्र भीष्म राजा शांतनु के हस्तक्षेप के कारण, बच गया। हालांकि, गंगा ने फिर उसे छोड़ दिया। भीष्म महाभारत के भव्य महाकाव्य में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।


चिरबासा: गौमुख के रास्ते पर 3,580 मीटर ऊंचे स्थान पर स्थित चिरबासा एक अत्युत्तम शिविर स्थल है जो विशाल गौमुख ग्लेशियर का आश्चर्यजनक दर्शन कराता है। चिरबासा का अर्थ है चिर का पेड़। यहां से 6,511 मीटर ऊंचा मांडा चोटी, 5,366 मीटर पर हनुमान तिब्बा, 6,000 मीटर ऊंचा भृगु पर्वत तथा भागीरथी पर्वत-1,2,3,4 देख सकते हैं। चिरबासा की पहाड़ियों के ऊपर घूमते भेड़ों को देखा जा सकता है।

चिरबासा से भगीरथी चोटियों का दृश्य, बायें से दायें भागीरथी पर्वत-II; भागीरथी पर्वत-IV; भागीरथी पर्वत-III और भागीरथी पर्वत-I

भागीरथी पर्वत समूह: भागीरथी पुंजक या भागीरथी समूह भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उत्तरकाशी ज़िले में गढ़वाल हिमालय के गंगोत्री समूह में स्थित चार शिखरों वाला एक पर्वत पुंजक है, जिसके शिखर 6856 मीटर से 6193 मीटर के बीच की ऊँचाई के हैं। यह चार दिशाओं में हिमानियों (ग्लेशियर) से घिरा है। इसके पूर्व भाग में वासुकी हिमानी है, पश्चिम में क्षेत्र की मुख्य हिमानी - गंगोत्री हिमानी - है, उत्तर में चतुरंगी हिमानी और दक्षिण में स्वच्छानन्द हिमानी है। यह पूरा पुंजक और आसपास का क्षेत्र गंगोत्री राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत सुरक्षित है। चार भागीरथी शिखरों की ऊँचाई इस प्रकार हैं:

  • भागीरथी पर्वत-1 (6,856 मीटर = 22,493 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-2 (6,512 मीटर = 21,365 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-3 (6,454 मीटर = 21,175 फुट),
  • भागीरथी पर्वत-4 (6,193 मीटर = 20,317 फुट)

भोजबासा: भोजपत्र पेड़ों की अधिकता के कारण भोजबासा गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर और गौमुख से 5 किमी पहले पड़ताहै। समुद्र तल से 3,775 मीटर ऊँचाई पर स्थित है। यह जाट गंगा तथा भागीरथी नदी के संगम पर है। गौमुख जाते हुए इसका उपयोग पड़ाव की तरह होता है। मूल रूप से लाल बाबा द्वारा निर्मित एक आश्रम में मुफ्त भोजन का लंगर चलाता है तथा गढ़वाल मंडल विकास निगम का गृह, आवास प्रदान करता है।[2]

गौमुख: गंगोत्री से 19 किलोमीटर दूर 4,225 मीटर की ऊंचाई पर स्थित गौमुख गंगोत्री ग्लेशियर का मुहाना तथा भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है। कहते हैं कि यहां के बर्फिले पानी में स्नान करने से सभी पाप धुल जाते हैं। गंगोत्री से यहां तक की दूरी पैदल या फिर ट्ट्टुओं पर सवार होकर पूरी की जाती है। चढ़ाई उतनी कठिन नहीं है तथा कई लोग उसी दिन वापस भी आ जाते है। गंगोत्री में कुली एवं ट्ट्टु उपलब्ध होते हैं। 25 किलोमीटर लंबा, 4 किलोमीटर चौड़ा तथा लगभग 40 मीटर ऊंचा गौमुख अपने आप में एक परिपूर्ण माप है। इस गोमुख ग्लेशियर में भगीरथी एक छोटी गुफानुमा ढांचे से आती है। इस बड़ी बर्फानी नदी में पानी 5,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक बेसिन में आता है, जिसका मूल पश्चिमी ढलान पर से संतोपंथ समूह की चोटियों से है।

नंदनवन तपोवन: गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर गंगोत्री ग्लेशियर के ऊपर एक कठिन ट्रेक में नंदनवन ले जाती है जो भागीरथी चोटी के आधार शिविर गंगोत्री से 25 किलोमीटर दूर है। यहां से शिवलिंग चोटी का मनोरम दृश्य दिखता है। गंगोत्री नदी के मुहाने के पार तपोवन है जो यहां अपने सुंदर चारागाह के लिये मशहूर है तथा शिवलिंग चोटी के आधार के चारों तरफ फैला है। नंदन वन की गौमुख से दूरी करीब 8 किलोमीटर है। यह भागीरथी ग्लेशियर के बेस पर 4330 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। नंदन वन की ट्रेकिंग बहुत ही रोमांचक होती है। इस ट्रेकिंग के दौरान आप गंगोत्री ग्लेशियर, शिवलिंग चोटियों, भागीरथी, सुदर्शन, थलय सागर और मेरू पर्वत के मनोरम दृश्य के गवाह बन सकते हैं।

गंगोत्री से मसूरी वापसी यात्रा

26 मई 1982 - सुबह आठ बजे जीप द्वारा गंगोत्री से रवाना हुए। 20 मिनट में भैरों घाटी पहुँच गए। साढ़े आठ बजे भैरों घाटी से सामान कंधों पर लादकर पैदल रवाना हुये और 9 बजे लंका पहुँच गए। लंका में बस तैयार थी। खाना-पीना वहीँ कर लिया था इस आशा में कि पता नहीं आगे कहीं मिलता है या नहीं। लंका से वापस हम उत्तर काशी के लिए रवाना हुए।

लंका और उत्तरकाशी के बीच की हमारी यात्रा को भुलाया नहीं जा सकता। गंगनानी से ऊपर की तरफ सड़क घुमावदार और खतरनाक है। गंगनानी से 3 किमी ऊपर ही आये थे कि बस का ब्रेक फ़ैल हो गया। बड़ी खतरनाक स्थिति थी परन्तु ड्रायवर ने बस को वहीँ रोका और टायर उतार कर ठीक करने लगा। बस के टायर बाहर निकल गए थे। इस कारण ब्रेक फ़ैल हो गए थे। काफी टायम लग रहा था सो हम लोग एक मिलिट्री के ट्रक में बैठकर गंगपानी पहुँच गए। गंगनानी में स्नान किया गंधक युक्त पानी के झरने में। काफी देर इन्तजार करने के बाद बस भी पहुँच गयी। बस से हम उत्तर काशी के लिए रवाना हुए। उत्तर काशी से 10 किमी दूरी पर पीछे के टायर बाहर निकल कर गिरने वाले ही थे कि जोर से चरर्र की आवाज हुई और ब्रेक एकदम फ़ैल। बड़ी कोशिश करके ड्रायवर बस को रोकने में सफल हुआ। अगर बस वहां नहीं रूकती तो सीधी सामने के मोड़ से 100 मीटर नीचे गंगा में गिरती। सैभाग्य से ऐसा नहीं हुआ। बस को या तो चट्टान से टकराना पड़ता या नीचे जाकर गंगा में गिरती और चकनाचूर हो जाती। वहां हमें काफी समय लगने लगा था सो फिर एक ट्रक में बैठकर उत्तर काशी पहुंचे। उत्तरकाशी में बिड़ला धर्मशाला में रुकने की व्यवस्था थी। यहाँ प्रति व्यक्ति आठ रुपये किराया था।

बिड़ला धर्मशाला उत्तरकाशी

गंगनानी से ऊपर 3 किमी की दूरी पर जहाँ हमारी बस पहली बार ख़राब हुई थी वहां सन 1978 में एक लैंड स्लाईड हो गया था जिसकी वजह से 13 घंटे गंगा बंद हो गयी थी। वहां काफी आदमी मर गए थे। यहाँ तक कि जिलाधीस जब निरीक्षण पर गए तो फिर वहीँ लैंड स्लाईड हो गया और वे घायल हो गए थे। जिलाध्यक्ष की एक टांग टूट गयी थी। कई आदमी तो जो उनके साथ थे वे धंस कर मर गए थे।

27 मई 1982 - उत्तर काशी में बिड़ला धर्मशाळा में अच्छा प्रबंध था। ऊपर की मंजिल में स्पेसल कक्ष दो खोल दिए थे। वैसे उनका रिजर्वेसन दिल्ली से होता है। सुबह आठ बजे हम उत्तर काशी से वापस मसूरी के लिए रवाना हुए। रास्ते में उत्तरकाशी जिले के उत्तरकाशी से 10 किमी दूरी पर डुंडा, 32 किमी दूरी पर धरासु कस्बे आते हैं।

टिहरी गढ़वाल जिले के छम, टिहरी, चंबा आदि स्थान थे। इन स्थानों का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है।

छम: एक छोटा सा गाँव है जो टिहरी जिले में उत्तरकाशी जिले की सीमा पर टिहरी से 19 किमी उत्तर में स्थित है। यह हिल स्टेशन है।

टिहरी: टिहरी गढ़वाल जिले का मुख्यालय है। पर्वतों के बीच स्थित यह जगह काफी खूबसूरत है। हर वर्ष काफी संख्या में पर्यटक यहां पर घूमने के लिए आते हैं। यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में भी काफी प्रसिद्ध है। यहां की प्राकृतिक खूबसूरती काफी संख्या में पर्यटकों को अपनी ओर खिंचती है। मूल टिहरी नगर भागीरथी और भीलांगना नदियों के तट पर स्थित था परंतु अब वह टिहरी बांध में डूबने के कारण अस्तित्व में नहीं है। 21 वीं शताब्दी की शुरुआत में टिहरी बाँध के निर्माण के कारण पूरा टिहरी नगर जलमग्न हो गया। इस त्रासदी ने लगभग एक लाख लोगों को प्रभावित किया था, जिनके निवास के लिए उत्तराखण्ड सरकार ने न्यू टिहरी नगर की स्थापना की।

टिहरी बाँध: टिहरी शहर मीडिया में सुन्दरलाल बहुगुणा (9.01.1927 – 21.05.2021) द्वारा पर्यावरणीय कारणों से टिहरी बाँध के निर्माण के विरुद्ध आन्दोलन से प्रकाश में आया था। टिहरी बाँध हिमालय की दो महत्वपूर्ण नदियों भागीरथी तथा भीलांगना नदी के संगम पर बनाया गया है। टिहरी बाँध की ऊँचाई 261 मीटर है जो इसे विश्व का पाँचवा सबसे ऊँचा बाँध बनाती है। टिहरी बांध एशिया का सबसे बड़ा बांध है। पर्यावरणविद मानते है की बाँध के टूटने के कारण ऋषिकेश, हरिद्वार, बिजनौर, मेरठ और बुलंदशहर इसमें जलमग्न हो जाएँगे। सुन्दरलाल बहुगुणा 1970 के दशक में पहले चिपको आन्दोलन से जुड़े रहे और 1980 के दशक से 2004 तक के दशक में टिहरी बाँध के निर्माण के विरुद्ध आन्दोलन से। सुन्दरलाल बहुगुणा भारत के आरम्भिक पर्यावरण प्रेमियों में से एक हैं। वे टिहरी-गढ़वाल जिले के मरोड़ा गाँव के रहने वाले थे।

चंबा: चंबा के सेव बहुत प्रसिद्ध हैं और वहां पर रास्ते में आते समय एक स्तम्भ मिला जिस पर लिखा था - प्रथम विश्वयुद्ध में इस गाँव से 11 लोग गए थे जिनकी याद में यह शहीद स्मारक बनाया गया है। चंबा के पास ही स्थित गाँव मंजोली के रहने वाले 39वें गढ़वाल राइफल्स की दूसरी बटालियन में राइफल मैन गब्बर सिंह नेगी (21.04.1895 – 10.03.1915) को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 10 मार्च, 1915 को फ्रांस में न्यूवे चैपल नामक स्थान पर जर्मन सेना के विरुद्ध लड़ते हुए युद्ध के मोर्चे पर असीम साहस, वीरता और कर्तव्यपरायणता के लिए ब्रिटिश सरकार ने सर्वोच्च सैन्य पदक विक्टोरिया क्रास से मरणोपरान्त सम्मानित किया था। उनकी याद में प्रतिवर्ष 21 अप्रेल को चंबा में मेला भरता है।

टेहरी तक रास्ता भागीरथी नदी के सहारे आता है। परन्तु इसके आगे यह अलग हो जाता है। टेहरी से आगे 11 किमी पर स्थित चंबा से ऋषिकेश का रास्ता छोडकर धनौल्टी होते हुये हम मसूरी का रास्ता लेते हैं।

ईको-पार्क धनौल्टी

धनौल्टी: चंबा से आगे आगे लगभग 30 किमी की दूरी पर धनौल्टी आता है। धनौल्टी मसूरी से लगभग तीस किलोमीटर पहले स्थित है। यहाँ एक अच्छा विश्राम गृह बना है और पिकनिक का बहुत अच्छा स्थान है। यहाँ देवदार के घने पेड़ हैं और नीचे हरी घास है जो शैलानियों के लिए एक आदर्श जगह है। यह शांत और खूबसूरत जगह अब धीरे घीरे एक हिल स्टेशन के रूप में अपनी पहचान बनाता जा रहा है। धनौल्टी देवदार के जंगल से घिरा है। अब देवदार का जंगल ही इसकी पहचान बन चुका है। धनौल्टी में देखने लायक़ जगहों में बारेहीपानी और जोरांडा फॉल्स, दशावतार मन्दिर, ईको-पार्क, सुरकंडा देवी मन्दिर, हिमालयन वीवर्स, जैन मंदिर आदि शामिल हैं। सर्दियों में स्नो फॉल का मजा लेना चाहते हैं तो यहाँ जरूर जाएं। यहां आप एप्पल गार्डन व्युपोइंट और घुड़सवारी का आनंद ले सकते हैं।

हम शाम चार बजे मसूरी पहुँच गए।

Source - Facebook Post of Laxman Burdak,13.02.2022

स्वामी जैतराम जी द्वारा वर्णन

ठाकुर देशराज[3] ने लिखा है ....स्वामी जैतराम जी ने अपनी सुलेखनी द्वारा कई एक अभूतपूर्व बातें लिखी हैं। आप गंगा का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि हिमालय से जितने नदियां निकली हैं वे सब गंगा हैं। परंतु प्रसिद्ध नाम थोड़े ही हैं। विष्णु गंगा का नाम भागीरथी है। गंगोत्री ब्रह्म गंगा आलखासन पहाड़ से निकलती है। वहां अलखावत पुरी देववासा है। उत्तरी हिमालय से आई हुई, देवप्रयाग में नंदगंगा से मिल गई, विष्णु गंगा भी वहीं गंगा में शामिल हो गई, करण गंगा विष्णु गंगा में पांडु केसर से पांडु गंगा में सब गंगा मिल गई। रुद्र गंगा रुद्रप्रयाग से तथा अखैनन्दा अखंड आसन से निकल कर रुद्र गंगा में मिल गई। जटांबरी अखैनंदा में शरीक हो गई परंतु इन सब गंगाओं में केवल भागीरथी का ही नाम प्रसिद्ध है। लक्ष्मण झूला से सारी ही धाराएं शामिल होकर चलती हैं। देवप्रयाग से यमुनोत्री 161 मील दूर पड़ती है। यमुनोत्री में जाटों का एक हवन कुंड है जो सुरबाद के जाट गणों की तपोभूमि का हवन कुंड बतलाया जाता है। ब्रहम ऋषि जमदग्नि ने तप किया तब से यमुनोत्री तो आम हो गई। महाराजा हरिराम गढ़वाल फिर से जटावी गंगा पर जाट का कब्जा स्थापित किया। यह राजा जिस संवत में हुआ है उसका पता सर्व संवत नाम की पुस्तक से मिल सका है। यमुनोत्री से करीब 54 मील की दूरी पर आपका आसन पाया जाता है। यह आसन यमुनोत्री हरिहर आश्रम ब्रह्मचर्य से उत्तर पूर्व की ओर 54 मील पर है।

जाटगंगा

कैप्टन दलीप सिंह अहलावत[4] ने लिखा है.... भैरों घाटी जो कि गंगोत्री से 6 मील नीचे को है, यहां पर ऊपर पहाड़ों से भागीरथी गंगा उत्तर-पूर्व की ओर से और नीलगंगा (जाटगंगा) उत्तर पश्चिम की ओर से आकर दोनों मिलती हैं। इन दोनों के मिलाप के बीच के शुष्क स्थान को ही भैरों घाटी कहते हैं। जाटगंगा के दाहिने किनारे को 'लंका' कहते हैं। इस जाटगंगा का पानी इतना शुद्ध है कि इसमें रेत का कोई अणु नहीं है। भागीरथी का पानी मिट्टी वाला है। दोनों के मिलाप के बाद भी दोनों के पानी बहुत दूर तक अलग-अलग दिखाई देते हैं। जाटगंगा का पानी साफ व नीला है इसलिए इसको नीलगंगा कहते हैं। महात्माओं और साधुओं का कहना है कि भागीरथी गंगा तो सम्राट् भगीरथ ने खोदकर निकाली थी और इस नीलगंगा को जाट खोदकर लाये थे इसलिए इसका नाम जाटगंगा है। इसके उत्तरी भाग पर जाट रहते हैं। इस कारण भी इसको जाटगंगा कहते हैं। इस जाट बस्ती को, चीन के युद्ध के समय, भारत सरकार ने, वहां से उठाकर सेना डाल दी और जाटों को, हरसल गांव के पास, भूमि के बदले भूमि देकर आबाद किया। जाटों ने यहां गंगा के किनारे अपना गांव बसाया जिसका नाम बघौरी रखा। यह गांव गंगा के किनारे-किनारे लगभग 300 मीटर तक बसा हुआ है जिसमें लगभग 250 घर हैं। लोग बिल्कुल आर्य नस्ल के हैं। स्त्री-पुरुष और बच्चे बहुत सुन्दर हैं। ये लोग बौद्ध धर्म को मानते हैं। इनके गांव में बौद्ध मन्दिर है। ये लोग भेड़ बकरियां पालते हैं। और तिब्बत से ऊन का व्यापार करते हैं। ये अपने घरों में ऊनी कपड़े बुनते हैं।

नोट - हरसल गांव दोनों गंगाओं के मिलाप से लगभग 7 मील नीचे को गंगा के दाहिने किनारे पर है। बघौरी गांव हरसल से लगा हुआ है।[5]

गंगोत्री की चित्र गैलरी

References