Megh Singh Sewda

From Jatland Wiki
लेखक:लक्ष्मण बुरड़क, IFS (Retd.), Jaipur
Megh Singh Sewda
जाट कीर्ति संस्थान चुरू द्वारा 31.8.2017 को ग्रामीण किसान छात्रावास रतनगढ में प्रदान किया गया सम्मान

Megh Singh Sewda (born:1918-death:7.11.2016) (also called Megh Singh Arya) was Freedom fighter and social worker from Churu district in Rajasthan. He was born on kartik shukla dwitiya samvat 1975 (1918) in village ‎Khariya Kaniram, tehsil Sujangarh, district Churu, Rajasthan.

His family

Social Service

Megh Singh Sewda

Looking at the excesses of Jagirdars, some leading Jats of the area started the education programme for the children of the Jat farmers in rural areas of Ratangarh tehsil by opening private schools prior to Independence.

Chaudhari Hari Ram Dhaka went to Sangariya to get financial help from Swami Keshwanand. Swami Keshwanand appointed him the Manager of Industries Department of Jat High School Sangariya. Megh Singh Sewda also joined this school. Chaudhari Hari Ram Dhaka collected about Rs. 2000/- from the teachers of Jat High School and called Chaudhari Rupram Maan, Vidyarthi Bhawan Ratangarh, to hand over this amount. He then sent Chaudhari Rupram Maan to Advocate Harishchandra Nain at Ganganagar. There was a good subscription at Ganganagar and with this financial assistance Chaudhari Rupram Maan and Swami Chetnanand organized a grand sabha of farmers at Ratangarh in Podaron ka Nohra. Swami Keshwanand and Chaudhari Hari Ram Dhaka also joined this sabha. A number of decisions were taken in this sabha about awakening of the farmers of this area. As decided in this sabha Swami Keshwanand sent Chaudhari Hari Ram Dhaka to Ratangarh to enhance the movement of education and freedom.

Hari Ram Dhaka and Megh Singh Sewda went from village to village in Churu district and gave momentum to this movement. Tiku Ram Budania, Rupram Maan and Hari Ram Dhaka organized a meeting at village Loha in Ratangarh tehsil. The urban people also came in their support. Mohan Lal Saraswat and Rameswar Pareek from Ratangarh were of great help in the sabha. Jagirdars did their best to disturb the sabha but it continued. It was decided unanimously not to pay the taxes to the Jagirdars and not to obey their orders.

Sabha at Loha village against Jagirdari system

Hari Ram Dhaka and Megh Singh Sewda went from village to village in Churu district and gave momentum to this movement. Tiku Ram Budania of Loha, Budh Ram Dudi of Sitsar, Rupram Maan and Hari Ram Dhaka of Norangsar organized a meeting at village Loha in Ratangarh tehsil on 10 October 1946.

The urban people also came in their support. Mohan Lal Saraswat and Rameswar Pareek from Ratangarh were of great help in the sabha. Jagirdars did their best to disturb the sabha but it continued. It was decided unanimously not to pay the taxes to the Jagirdars and not to obey their orders.

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री मेघसिंह आर्य

Megh Singh Sewda

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री मेघसिंह आर्य का जन्म कार्तिक शुक्ल द्वितीय संवत 1975 (1918 ई.) को सुजानगढ़ तहसील के गाँव खारिया कनीराम में हुआ। यह गाँव सालासर बालाजी से 10 किमी पूर्वोत्तर दिशा में स्थित है। उस वर्ष थार के मरुस्थल में एक महामारी फैली थी जिसमें लाखों गर्भवती महिलायें मर गयी थी। वह महामारी कार्तिक वाली बीमारी के नाम से कुखयात हुई थी। बालक मेघ सिंह एक अपवाद थे जो खुद जिन्दा रहे और उनकी माताजी भी। मेघ सिंह के पिता का नाम चौधरी जैसाराम सेवदा और माता का नाम धापीदेवी था। मेघ सिंह के पिता सीधे सादे किसान थे, परन्तु कुछ हिंदी पढना जानते थे। इसलिए मेघ सिंह को भी रात को पढ़ाकर अक्षर ज्ञान सिखाया। (उद्देश्य:पृ.30)

अध्ययन हेतु रतनगढ़ गए

मेघ सिंह के चाचा कुम्भाराम रतनगढ़ में निवास करते थे, जिनके कोई संतान नहीं थी। मेघ सिंह की अवस्था जब 15 साल की हुई तो उनको संवत 1990 (1933 ई.) में चाचा कुम्भाराम स्वयं गोद लेने के लिए रतनगढ़ ले गए। वहां उनको खेमकों की पाठ शाला में पढाना शुरू किया। दो वर्ष तक वहां पढाई की। रतनगढ़ जाने के दो वर्ष बाद उनके चाचा चौधरी कुम्भाराम का निधन हो गया। तब चाचा कुम्भा राम की विधवा पत्नी ने मेघसिंह की बजाय उनके बड़े भाई सुरताराम को गोद ले लिया तथा मेघ सिंह को वापस उनके पिता के घर खारिया कनीराम भेज दिया।(उद्देश्य:पृ.30)

मेघ सिंह के माता -पिता चाहते थे कि वे घर पर रहकर खेती करें परन्तु मेघ सिंह बहार जाकर अध्ययन करने की इच्छा थी। वे घर वालों की मर्जी के विपरीत संवत 1997 (1940ई) में वापस रतनगढ़ गए और प्रज्ञा-चक्षु दादूपंथी सन्यासी स्वामी चेतनानन्द जी के सानिध्य में उनके दादू विद्यालय में अध्ययन करने लगे। शिक्षा ग्रहण के साथ ही उनके सामने जीवन यापन की समस्या बलवती थी ऐसी परिसथिति में वे रतनगढ़ में ही सेठ सूरजमल-नागरमल की शिल्प-शाला में कपड़ा बुनना सिखने लगे। शिल्पशाला की तरफ से उनको तीन रुपये मासिक छात्रवृति मिल जाया करती थी, जिससे वे अपना भोजन-वस्त्र का खर्च चला लेते थे।(उद्देश्य:पृ.30-31)

उस समय रतनगढ़ में सूरजमल-नागरमल की व्यायामशाला भी चलती थी। मेघ सिंह ने व्यायामशाला में लाठी, बन्दूक, भाला आदि चलाना भी सीखा। वे दो वर्ष तक रतनगढ़ में हिंदी-संस्कृत, वस्त्र बुनने व शस्त्र सञ्चालन की शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत ग्राम बगड़ में रूंगटा की संस्कृत शाळा में पं मुरारी लाल के सानिध्य में अध्ययन किया। रूंगटा संस्कृत विद्यालय में जाट होने के कारण भगवा वस्त्र धारण करके सन्यासी का वेश धारण करने पर ही प्रवेश मिला।(उद्देश्य:पृ.31)

जागीरदार द्वारा अपमान

शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत जब मेघ सिंह अपने गाँव खारिया कनीराम आये तो एक दिन अपने समवयस्क युवकों को एकत्र कर उनको लाठी, भाला, तलवार आदि करतब दिखाए तथा कहा कि मैं तुम लोगों को भी शास्त्र संचालन की शिक्षा दे दूंगा। इस बात की जानकारी जब गाँव के जागीरदार को हुई तो उसने मेघ सिंह को अपने गढ़ में बुलाया और कहा - "मादर चोद खोतले भाला तो अपने बाप की गुदा में चढाओ और तलवार अपनी माँ की"। पहले एक घंटे तो मुर्गा बनाया गया तथा बाद में एक कांटेदार भीन्टके पर खडा किया गया। माँ बहन की अपमान जनक गालियां निकाली।(उद्देश्य:पृ.31)

ठाकुर द्वारा की गयी प्रताड़ना, उत्पीड़न व अपमान ने मेघ सिंह के मन में बहुत आक्रोस पैदा हुआ। सामंती शासन में पैशाचिक तांडव होना रोजमर्रा की बात थी। इसके पश्चात गाँव के जागीरदार ने मेघ सिंह के पिता जैसाराम सेवदा को गढ़ में बुलाकर कहा -

"जेसिया या तो तू अपने इस छोरे को घर से निकाल दे अन्यथा अपने पूर-पल्ले उठाकर गाँव छोड़ दे मेरा। "

चौधरी जैसा राम ने अपने जिगर के टुकड़े को उसी समय अपने दिल पर पत्थर रखकर घर से निकाल दिया। ऐसी घटनाएं गाँव गाँव में घटित हुई, किन्तु उनको उजागर करने की हिम्मत कौन करे। किसकी कलम को फुर्सत है, उन नर-पिशाचों के नंगे इतिहास को लिखने की!(उद्देश्य:पृ.31)

सक्रीय राजनीति में प्रवेश

मेघ सिंह आर्य सन् 1942 में तत्कालीन जाट स्कूल संगरिया, जो वर्तमान में ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के नाम से भारत विख्यात शिक्षण संसथान है, के वार्षिकोत्सव में गए। यहाँ उनका संपर्क बीकानेर राज्य में जनजागृति के अग्रदूत चौधरी हरिश्चन्द्र जी नैण से हुआ जिनको मेघ सिंह ने आजीवन अपना धर्मपिता माना। चौधरी हरिश्चन्द्र जी नैण की प्रेरणा से मेघ सिंह सक्रीय राजनीती में कूद पड़े। उसी वर्ष वे प्रजा परिषद् के सदस्य बने।(उद्देश्य:पृ.32)

आर्य समाजी विचारधारा से प्रभावित - राजा और जागीरदार उस समय राजनीति में रूचि रखने वालों के खून के प्यासे रहा करते थे। इसलिए राजनेता छिपकर अपने क्रियाकलाप चलाते थे। छिपकर राजनीति करने का आर्य समाज सर्व श्रेष्ठ साधन था। आर्य समाज जहाँ एक और समाज सुधार व धार्मिक विचारों का प्रचार करता था वहीँ वह देशभक्तों का संगठन होने के कारण छिपकर राजनैतिक गतिविधियाँ चलाने वालों की शरणस्थली भी था। मेघ सिंह भी आर्य समाज के संपर्क में आये और आर्य समाजी विचारधारा से ओतप्रोत हो गए। मेघ सिंह का राजनैतिक कार्य-क्षेत्र सुजानगढ़ व रतनगढ़ तहसील ही रहा तथा इन्हीं दो तहसीलों के ग्रामों में कभी आर्य समाज के प्रचार के नाम से तो कभी विद्यार्थी भवन रतनगढ़ के चंदे के बहाने गाँवों में गूम-घूम कर साम्राज्यवादी व सामंती ताकतों के खिलाफ प्रचार करते थे। किसानों को बिघेडी और लाग-बाग़ नहीं देने के लिए भड़काते थे।(उद्देश्य:पृ.32)

जागीरदारी करै ख्वारी कर कर अत्याचार।
तेरे जाने का वादा आ गया घटे भूमि का भार।।

ऐसी जोशीली कविताओं के कारण जागीरदार उनके खून के प्यासे हो गए थे तथा जान से मारने की घात में रहते थे।

राजनैतिक आन्दोलनों में भाग

सन 1942 में स्व. पं मघाराम जी के पुत्र रामनारायण के नेतृत्व में बीकानेर में अंग्रेजो भारत छोडो सत्याग्रह के अंतर्गत भाग लिया जिसमें मेघ सिंह ने भी सक्रीय भाग लिया। बीकानेर के अत्याचारी सामंती शासन ने उस समय बीकानेर राज्य परिषद् पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। पुलिस कार्यकर्ताओं की धर पकड़ करती थी किन्तु मेघ सिंह भूमिगत हो गए इसलिए पकडे नहीं गए।(उद्देश्य:पृ.32)

सन 1945 में उदयपुर में देशी लोक मण्डलों का सम्मलेन हुआ था। बाबू रघुवर दयाल के नेतृत्व में मेघ सिंह भी बीकानेर राज्य प्रजापरिषद की ओर से प्रतिनिधि के रूप में सामिल हुए।(उद्देश्य:पृ.32)

कांगड़ किसान आन्दोलन में भूमिका

भूमिका - रतनगढ़ तहसील जिला चूरू में रतनगढ़ से उत्तर की तरफ(मेगा हाईवे पर गोगासर के पूर्व में 5 किमी) 20 किमी दूरी पर स्थित काँगड़ नाम का गाँव है जिसमें 135 घरों की बस्ती थी, जिसमें 90 घर जाटों के थे। यह गाँव खालसा में था। जब बीकानेर रियासत में आजादी के लिए किसानों का आन्दोलन शुरू हुआ तो, बीकानेर महाराजा सार्दुल सिंह ने अपने ए.डी.सी. ठाकुर गोपसिंह को काँगड़ का पट्टा देकर इसे जागीरदार के अधीन कर दिया। खालसा के समय यह गाँव सीधा बीकानेर रियासत के अधीन था। गाँव में एक चौधरी नियुक्त था जो लगान लेकर सीधे बीकानेर राजकोष में जमा करवा देता था। राजा का आगमन नहीं था और कोई ज्यादा लाग-बाग भी नहीं थी। भूमि का लगान भी ठीक-ठाक था, जिसे किसान आसानी से चुका देते थे। खेत की प्राकृतिक फसल जैसे लूँग, ल्हासू, पाला आदि काटकर किसान स्वयं अपने पशुओं को चराता था। ज्योही यह गाँव पट्टे में आया किसान की यह स्वतंत्रता ख़त्म हो गयी थी। ठाकुर गोपसिंह बीकानेर में रहता था वह कभी कभी आता था। ठाकुर के कारिंदे आते और लगान वसूल कर उसे ले जाकर बीकानेर देते थे।(उद्देश्य:पृ.20)


लोहा गाँव में किसान सम्मलेन - 10 अक्टूबर 1946 में मेघसिंह आर्य, लोहा के चौधरी टीकूराम बुडानिया, सीतसर के चौधरी बुद्धाराम डूडी ने लोहा गाँव में किसान सम्मलेन आयोजित किया था जो बहुत सफल रहा। इस सम्मलेन में जागीरदारों को लाग-बाग़ न देने का निर्णय लिया था और यही निर्णय जागीरदारों के प्रतिशोध का कारण बना।(उद्देश्य:पृ.21)

जागीरदारों का प्रतिशोध - ठाकुर गोपालसिंह को ज्यों ही इस निर्णय का पता लगा उसने लोगों को गढ़ में घसीट कर लाने का हुक्म दिया। ठाकुर के गुण्डे घरों में घुस गए और लूट पाट शुरू करदी। घी, दूध, दही, अनाज, कपडा व बर्तन भांडे आदि सब उठा ले गए। किसानों, विशेषकर जाटों को घसीट-घसीट कर गढ़ में लाये तथा औरतों के सामने ही नंगा करके पिटाई शुरू करदी। यह खबर विद्यार्थी भवन पहुंची तो हरी राम ढाका और भजोपदेशक शीश राम आदि काँगड़ पहुंचे। इन्होने विरोध किया तो इन्हें भी पकड़कर गढ़ में लाये और पिटाई शुरू कर दी। बेहोश होने पर पाले के सफे में डाल देते थे। जब होश आता तो फिर से पिटाई शुरू कर देते। औरतों की इज्जत पर बन आई। बच्चे, बूढ़े तथा घर पर आये मेहमान घबरा गए, कोहराम मच गया। डर के मारे बच्चे-बूढ़े सब खेतों में भाग गए। गाँव खाली हो गया। धन पशुओं की चिंता छुट गयी, अपनी जान बचाने का भय सताने लगा। ऐसा विभत्स काण्ड हुआ और दरिंदो को दया नहीं आई।(उद्देश्य:पृ.21)

प्रजामंडल की भूमिका - न्याय न मिलने की उम्मीद में मेघसिंह आर्य के नेतृत्व में प्रतिनिधि मण्डल प्रजामंडल (प्रजा परिषद्) पहुंचा। प्रजामंडल ने एक जाँच दल काँगड़ गाँव भेजने का निर्णय लिया जिसमें हंसराज आर्य (भादरा) , दीप चंद (राजगढ़) , पं गंगाधर रंगा , प्रो केदारनाथ शर्मा, मौजीराम चांदगोठी , चौधरी रूपाराम मान, स्वामी सच्चिदानंद आदि थे। प्रतिनिधि मंडल रेवल से उतर कर पैदल ही काँगड़ के लिए रवाना हुआ। गौशाला के पास हरी राम ढाका और भजनोपदेशक शीशराम लहूलुहान पड़े कराहते हुए मिले। उन्होंने सारी कहानी प्रतिनिधि मंडल को बताई और काँगड़ जाने से मना किया। मेघ सिंह आर्य को बताया गया कि तुम्हें तो जाते ही जान से मार देंगे, कह रहे थे कि मेघला खोतला मिल गया तो जान से मारेंगे। मेघ सिंह उनके साथ नहीं गए। प्रतिनिधियों को रस्ते में लोग मिले जो डरे हुए थे, सबने आप बीती बताई। प्रतिनिधि गाँव पहुंचे तो केवल ठाकुर के गुंडे सामंती लोग तथा पुलिस वाले थे। घर सूने पड़े थे। वे वापिस स्थिति का मुआयना कर 4 मील पैदल रतनगढ़ की तरफ आ गए तो पीछे से ठाकुर के गुंडे ऊँटों पर चढ़कर आ धमके तथा घेरकर पकड़ लिए गए तथा उन्हें वापस गढ़ में ले आये, जहाँ उनकी खूब पिटाई की।(उद्देश्य:पृ.21-22)

नंगे करके उलटे लटका कर जूतों सहित ऊपर चढ़ गए। हाथों पर अलग, पैरों पर अलग तीन-तीन ,चार-चार आदमी चढ़ गए, खूब पिटाई की, बेहोश होने पर छोड़ दिया जाता और होश आने पर फिर पिटाई शुरू कर दी जाती। इस प्रकार 30 अक्टूबर 1946 से 1 नवम्बर 1946 तक पिटाई होती रही। छ: जनों की गुदा में मिर्ची के घोटे चला दिए। रूपाराम मान को कुएं पर जहाँ औरतें पानी भर रही थी, वहां नंगा करके पीटा तथा घोटे की जगह बांस गुदा में चढ़ा दिया, जिससे आंत फट गयी, बड़ी मुश्किल से चलकर रतनगढ़ आये वहां से बीकानेर आये, कोई इलाज नहीं होने दिया, ना ही रिपोर्ट पुलिस में लिखने दी। इनके पास 231 रुपये नगद थे तथा पेन्सिल, बटुआ आदि थे जो ठाकुर गोपसिंह ने खोस लिए। फिर इनका इलाज हिसार करवाया गया। ठाकुर के गुंडों ने पं. गंगाधर की जनेऊ तोड़ दी व चौटी उखाड ली तथा मूंह पर कुत्ते की बिष्ठ बाँध दी, यही हाल प्रो. केदारनाथ शर्मा का हुआ।(उद्देश्य:पृ.22)


प्रजामंडल ने देश के अखबारों में खबर दी, जनता का दिल खोल उठा। राजा ने कोई सुनवाई नहीं की थी। जब पहले जत्थे की पिटाई हो रही थी तो जासासर के ठाकुर ने खबर दी कि पंजाब, हरयाणा व अन्य गाँवों से 10 हजार जाट हमला करने के लिए आ रहे हैं तो जागीरदारों और ठाकुर गोपसिंह में घबराहट बढ़ गयी। रतनगढ़ के कायमखानी वहां से खिसक लिए। ठाकुर के अन्य लोग भी भयभीत हो गए और भाग छूटे । गढ़ में केवल पुलिस के जवान व गिने-चुने जागीरदार बचे थे, गढ़ खाली हो गया था। ऐसी दुर्दशा किसानों और प्रतिनिधि मंडल की हुई थी। चौधरी रूपाराम मान आंत फटने का सही इलाज नहीं होने के कारण आखिर वे शहीद हो गए।(उद्देश्य:पृ.22)

काँगड़ काण्ड के बाद मेघसिंह की हत्या का प्रयास

मेघ सिंह आर्य के गाँव खारिया कनीराम में जागीरी तत्वों द्वारा अफवाह फैलाई गयी कि "मेघला काँगड़ में मारा गया।" मेघ सिंह के घर में यह सुनकर कोहराम मच गया। भूमिगत मेघ सिंह ने यह सुना तो घरवालों को संतुष्ट करने के लिए रात्रि में गाँव आकर घर वालों से मिले और जिन्दा होने का विश्वास दिलाया। जब मेघ सिंह अपने परिजनों से मिलकर वापिस सांडवा गाँव में से होकर गुजर रहे थे तो सांडवा के जागीरदार किशन सिंह ने उसे देख लिया। सांडवा का ठाकुर किशन सिंह कुख्यात व अत्याचारी जागीरदारों की अग्रिम पंक्ति में आता था। काँगड़ काण्ड में भी वह मौजूद था। तथा मेघ सिंह का वध करके अपनी खून की प्यास बुझाने हेतू तत्पर था। ठाकुर किशन सिंह ने रस्ते चलते मेघ सिंह को निशाना बनाकर बन्दूक से गोली दाग दी। मेघ सिंह ने किशन सिंह को देख लिया था इसलिए विद्युत् वेग से भूमि पर लुंठित हो गए और गोली लगने से बच गए। मेघ सिंह ने पुलिस चौकी पर जाकर इस जघन्य अपराध की रिपोर्ट लिखवानी चाही तो पुलिस जमादार ने कहा "यहाँ से चुपचाप चले जाओ। मैं आपके हित में बात कर रहा हूँ, उलटे फंसाए जा सकते हो, ऐसा ही राजा का आदेश है। " उसी सांडवा गाँव के चैनाराम बोला की बाजरे की पूञ्जली जलाने वाले जागीरदार की बजाय राज्य ने जागीरदार के इशारे पर उल्टा चैनाराम बोला पर मुकदमा चलाया था।(उद्देश्य:पृ.33)

राजगढ़ तहसील में किसान आन्दोलन: सन 1945-46 में डेढ़ वर्ष तक लगातार राजगढ़ तहसील में किसान आन्दोलन चला। राजगढ़ , सिद्धमुख आदि जगहों में किसानों पर लाठी चलाई गयी। मेघ सिंह ने उस समय गाँव-गाँव घूम कर किसानों को जागृत करने हेतु प्रचार किया था। प्रजा परिषद् के तत्वाधान में यह आन्दोलन पूर्ण सफलता के चरम पर पहुंचा था। उन्हीं दिनों बछरारा के छुट-भाई जालम सिंह व टिडियासर के कुखयात डाकू अमर सिंह ने मेघ सिंह से प्रजा-परिषद् के सदस्यता फ़ार्म व झंडा छीनकर फाड़ डाले और बेरहमी से पीटा जिसका निशान उनके शरीर पर आज भी विद्यमान है। उस घटना की रिपोर्ट मोलीसर थाने में दर्ज करने गए तो राज्य की पुलिस ने रिपोर्ट दर्ज करने से इनकार कर दिया।(उद्देश्य:पृ.34)

बडाबर तथा हरासर गाँवों में जागीरदारों द्वारा अपमान

प्रजा-परिषद् के सदस्यता अभियान के दौरान मेघसिंह आर्य को बडाबर गाँव के ठाकुर भैरूसिंह ने हरडू जाटों के घर पर खाट पर बैठे हुए को नीचे उतरने पर बाध्य किया तथा माँ बहन की गालियां निकाली। इसी प्रकार से ग्राम हरासर का जागीरदार ठाकुर जीवराज सिंह, जो बीकानेर राज्य का प्रधान-मंत्री था, को मेघ सिंह के गाँव में होने की जानकारी मिली तो पकड़कर लाने के लिए पुलिस भेजी। मेघ सिंह रातों रात भाग कर राजियासर अपने सम्बन्धियों के पास चले गए व छिपकर पिटाई से पिंड छुटाया। मेघ सिंह जब राजियासर से रतनगढ़ पैदल जा रहे थे तो ठाकुर रास्ते में फरसे लेकर मारने हेतु छिपकर बैठ गए। मेघ सिंह ने रास्ता बदल कर जान बचाई। (उद्देश्य:पृ.34)

सवतंत्रता सम्मान पेन्सन: मेघ सिंह आर्य को राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने, सामंतवाद व साम्राज्यवाद के खिलाफ सक्रीय भूमिका अदा करने के दंड स्वरुप 50 बीघा कृषि भूमि छीन ली गयी, गायों की गोहर आदि से बेदखल कर दिया गया और समय-समय पर घोर यातनाएं दी गयी, जिसके परिणाम स्वरुप भरी जद्दोजहद के उपरांत राज्य सरकार द्वारा उनको सवतंत्रता सम्मान पेन्सन सन 1986-87 में सम्मानित किया गया।(उद्देश्य:पृ.34)

स्वाधीनता पश्चात राजनैतिक जीवन

ग्राम खारिया कनीराम में किसान सम्मलेन का आयोजन: देश सन 1947 में आजाद हो गया और 1949 में राजा के राज का अंत भी। जागीरदारी प्रथा का अंत सन 1952 में हुआ। किन्तु इस अरसे में मेघ सिंह को अनेक बार जागीरी जुल्मों से टक्कर लेनी पड़ी, किन्तु अब जागीरदार जन नेताओं से घबराने लगे थे। इसी क्रम ने मेघ सिंह ने अपने ग्राम खरिया कनीराम में एक विराट किसान सम्मलेन का आयोजन करवाया था जिसमें लोकनायक जय नारायण व्यास, चौधरी कुम्भा राम आर्य, चौधरी हंसराज आर्य, चौधरी हरिश्चन्द्र नैण , चौधरी हरदत्त सिंह, चंदन मल बैद, कन्है या लाल सेठिया आदि जन नेता आये थे। (उद्देश्य:पृ.34)

पंचायत राज संस्थाओं में निर्वाचित:

मेघसिंह आर्य सर्वप्रथम सन 1955 से 1957 तक ग्राम पंचायत खरिया कनीराम के निर्वाचित सरपंच बने। सन 1957 में तहसील पंचायत के सदस्य निर्वाचित हुए एवं सन 1958 से 1964 तक पुन: ग्राम पंचायत खारिया कनीराम के निर्वाचित सरपंच रहे। 1965 से 1976 तक न्याय पंचायत खूडी के पञ्च पद पर आसीन रहकर न्यायिक प्रक्रिया में भाग लिया। 1977 से 1981 तक पुन: ग्राम पंचायत खरिया कनीराम के रार्पंच पद पर रहकर विकास कार्यों में महती भूमिका अदा की। उन्होंने पंचायत संस्थाओं में रहकर निष्ठा, इमानदारी से कार्य किया और ग्रामीणों का दिल जीता। सुजानगढ़ तहसील में उनकी धाक रही। मेघसिंह आर्य के एक भाई दुल्हा राम का देहांत जागीरदार द्वारा बन्दूक से गोली मरने की धमकी से हो गया और उसके शोक में उसके बड़े भाई भै रा राम का भी अचानक देहांत हो गया। इस प्रकार उनके दो भाईयों के एक साथ देहांत का भारी धक्का लगा।(उद्देश्य:पृ.35)

मेघसिंह आर्य का गृहस्थ जीवन

मेघसिंह आर्य का विवाह संवत 2000 में श्रीमती खेमा देवी के साथ हुआ। खेमा देवी एक साधारण गृहणी थी और खेती के मोर्चे पर डटी रहकर भी अपने गृहस्थ जीवन का सफलता पूर्वक निर्वाह किया। मेघसिंह आर्य के एक पुत्र और पुत्री पैदा हुए। खेमा देवी का देहांत संवत 2015 में ही हो गया था जबकि उनके दोनों बच्चे अवयस्क थे। (उद्देश्य:पृ.35)


मेघसिंह आर्य अंत तक स्वस्थ जीवन व्यतीत करते रहे हैं। वे समाज सेवा और कुरीतियों के निवारण में लगे रहे। स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सम्मान पेन्सन से उन्हें जो राशी प्राप्त हुई उसे शिक्षा हेतु खर्च करके अपने अग्रज भैराराम सेवदा की पुन्य स्मृति में एक विद्यालय कक्ष का निर्माण करवाया है। (उद्देश्य:पृ.35)


सन्दर्भ : उद्देश्य:जाट कीर्ति संस्थान चूरू द्वारा आयोजित सर्व समाज बौधिक एवं प्रतिभा सम्मान समारोह चूरू, 9 जनवरी 2013,पृ. 30-36

ठाकुर देशराज की नजर में

ठाकुर देशराज[1] ने लिखा है... मेघसिंह आर्य – बीकानेर राज्य की तहसील सुजानगढ़ में खारिया कनीराम जाट किसानों का एक छोटासा गाँव है। इसी गाँव में आजसे कोई 34-35 वर्ष पहले श्री मेघ सिंह


[p.333] आर्य का जन्म हुआ। बचपन में उसने अपने भाई सुरताराम के पास, रतनगढ़ में रहकर शिक्षा प्राप्त की। रतनगढ़ में सुरताराम ठेकेदारी करते थे। वहीं स्वामी चेतनानन्द एक शिक्षा संस्थान चलाते थे। उनके प्रयत्न से सैंकडों किसान और गरीब बच्चों ने शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद तो वहाँ एक विद्यार्थी भवन की भी आस-पास के उत्साही जाटों ने स्थापना की। स्वामी केशवानन्द जी ने इस संस्था की नींव रखी थी।

मेघ सिंह आर्य की चौधरी हरीश चन्द्र साहब में बड़ी आस्था थी। वह चौधरी साहब को पिताजी कहकर अपना स्नेह प्रकट करते थे। इसमें संदेह नहीं कि वह चौधरी साहब को बीकानेर का सर्वश्रेष्ठ किसान-हितचिंतक समझते थे। उसने अपने गाँव में एक बार एक किसान सम्मेलन कराया, जिसमें चौधरी साहब को नोटों का हार पहनाकर स्वागत किया।

कांग्रेस में उन्होने एक उत्साही कार्यकर्ता के रूप में काम किया। रतनगढ़ तहसील कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी उन्होने अथक परिश्रम से चौधरी साहब को आसीन कराया। जब बीकानेर में असेंबली के चुनाओं की घोषणा हुई तो समस्त तहसील में उन्होने चौधरी साहब के लिए असेंबली मेम्बर चुने जाने के अपनी सरगर्मी से आसार पैदा कर दिये। चौधरी साहब का भी मेघ सिंह पर पुत्रवत स्नेह रहा और सदैव ही उनके कार्यों और परिश्रम के प्रशंसक रहे। इस समय मेघ सिंह अपने गाँव की तरक्की के लिए पंचायत में पदासीन हैं।

स्वर्गवास

स्वतंत्रता सेनानी मेघसिंह सेवदा का निधन

सालासर (चूरू). गांव खारिया कनिराम के स्वतंत्रता सेनानी मेघसिंह सेवदा का सोमवार दिनांक 7.11.2016 को रात निधन हो गया। मंगलवार सुबह राजकीय सम्मान से उनका अंतिम संस्कार किया गया। बेटे ओमप्रकाश ने उनकी चिता को मुखाग्रि दी। आजादी का यह मतवाला तिरंगे में लिपटकर चला तो हर किसी की आंखें नम हो गर्इं। मेघसिंह सेवदा को अंतिम विदाई देने पूरा जिला उमड़ा। ये अपने इकलौते बेटे ओमप्रकाश के साथ खेत में रहते थे। एक बेटी के अलावा सेवदा के पांच पोते व एक पोती भी है। सेवदा ने आजादी के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया था। वर्ष 1942 में बीकानेर में अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में गुप्तचर की भूमिका निभाई। उस समय बीकानेर प्रजा मंडल के सक्रिय सदस्य भी रहे। रतनगढ़ के कांगड़ा गांव में गरीबों पर अत्याचार करने व गुलाम बनाने वालों के खिलाफ आंदोलन किया।

12 साल तक रहे सरंपच - मेघसिंह 1955 से 1957 तक व 1958 से 1964 तक सरंपच रहे। इसके बाद एक साल के लिए न्याय पंचायत खुड़ी के पंच बनाए गए। उसके बाद चार वर्ष तक फिर सरंपच रहे।

संदर्भ - फेसबूक पर कुलदीप चौधरी

Gallery

References

Dharati Putra: Jat Baudhik evam Pratibha Samman Samaroh Sahwa, Smarika 30 December 2012, p. 70


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