Khinyala

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(Redirected from Khiyala)
Location of Khinyala in Nagaur district

Khinyala (खींयाला), earlier name Dhasunda (धसूंडा), is a village in Jayal tehsil of Nagaur district in Rajasthan.

Location

Founders

Kala Jats and later Badiasar Jats.

Jat Gotras

Population

Population of Khinyala as of Census 2011 is 6,466 (Males- 3,332; Females- 3,134). Total Number of HouseHold is 1119[1]. The village is associated with famous Ranabai, known as 'Second Mira' of Rajasthan.

History

From the history of Bidyasar gotra we know that they are the descendants of king Bidya Datta (बिद्यादत्त) who ruled over Ujjain during 9th century. It is said that the ruling family of Mysore state is "Vadyar" by gotra and are the descendant of king Bidya Datta.

In Rajasthan, they first came to Runicha (Jaisalmer) and then to Rarod (Tah. Bhopalgarh in Jodhpur) and Rataoo (Tahsil- Ladnu in Nagaur) in 12th century and occupied the position of village Chaudhary. His son Kanwsi, a great devotee of "Goddess Dadhimati" of Goth Mangalod later on changed the name of Dhasunda to Khiyala. Bidyasar Choudhary of Khiyala used to collect land revenue on behalf of Delhi throne for three decades , before Jodhpur state was carved out.

बडियासर अथवा बिडियासर गोत्र का इतिहास

बिडियासर: खींयाला में बिडियासर गोत्र के जाटों का शासन था और वहां के सरदार के अधीन आस-पास के 27 गाँव थे. बाद में दिल्ली सुलतान की अधीनता में यह इलाका आ गया तब ये इनके अधीन हो गए थे और गाँवों से लगान वसूल कर दिल्ली जमा कराते थे. (डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास, पृ.23)

गहली के बडसरा सरदार

ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है ....[पृ.548]: लगभग 600 वर्ष का अरसा हुआ जब बडसरा गोत्र के जाटों ने पटियाला की दक्षिणी हद पर गहली नाम का एक गांव मारवाड़ के ख्याला ग्राम से आए हुए लोगों ने आवाद किया। उस समय यहां नवाब झज्जर का शासन था। गदर के बाद यह इलाका पटियाला को मिल गया। गहली बसाने वालों में कई पीढ़ी के बाद चौधरी मनसुखराम जी हुये। उनके छोटे भाई रामलाल, जयमल सिंह थे। चौधरी मनसुखराम जी के जीसुखराम जी हुए। जिनके चौधरी हीरासिंह, कन्हैयालाल और भगवान सिंह जी हुए। चौधरी हीरासिंह जी के अमरसिंह जी और सज्जन सिंह दो लड़के हैं। अमर सिंह जैलदार हैं। उनका जन्म संवत 1972 विक्रमी (1915 ई.) का है। तालीम उन्होंने स्कूल में मिडिल तक ही पाई। किंतु वह काफी होशियार आदमी है। इस समय (1948) तक उनके एक लड़का भूपेंद्रसिंह हैं।

चौधरी कन्हैयालाल जी के चौधरी ओंकारसिंह और लालचंदजी दो पुत्र हुए। जिनमें ओंकारसिंह जी एमटी में सूबेदार हैं और लालचंद जी घर का काम संभालते हैं। चौधरी भगवानसिंह के चार पुत्र हैं जिनमें हरिसिंह जी फौज में हवलदार मेजर हैं। और उनसे छोटे सुभाषचंद्र और कपूरसिंह हैं। यह भी दोनों फौज में है। इनसे छोटे रघुवीरसिंह पढ़ते हैं।

आप लोग काफी जमीदार हैं। आस-पास के इलाके के लोगों और सरकार में आपकी काफी इज्जत है। चौधरी भगवानसिंह जी एक सुयोग्य वकील है।

शेखावाटी की जागृति से लेकर सत्याग्रह के समय तक


[पृ.549]: आपके परिवार ने काफी मदद की थी और शेखावाटी के तमाम बड़े घरानों में आपकी रिश्तेदारियां हैं।

गहली के जाट सरदार जयमल सिंह और रामलाल सिंह थे। जिनमें जयमल सिंह के जाबरसिंह और उनके चंद्रसिंह और प्रताप सिंह हैं। चौधरी रामलाल जी के चेतराम और रतिराम नाम के दो लड़के हुए। जिनमें चेतराम जी के शिवनारायण, रामस्वरूप, गज्जूसिंह और गणपतसिंह हुए। रतिराम जी के तीन लड़के चुन्नीलाल, छब्बूसिंह और जय नारायण सिंह है। आप भी सभी कौम परस्त और पड़ोसी इलाकों की जाट प्रगतियों में भाग लेने वाले प्रभावशाली आदमी हैं।


खींयाला और जायल के चौधरी द्वारा लिछमा गूजरी का माहेरा भरना

इतिहासकार डॉ पेमाराम[3] ने इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है:

एक बार खींयाला के सरदार धर्मोजी व जायल के चौधरी गोपालजी दोनों ऊंटों पर लगान की रकम जमा करने दिल्ली जा रहे थे. रास्ते में जयपुर के पास स्थित हरमाड़ा गाँव के तालाब पर पडाव किया. उसी दौरान लिछमा नाम एक एक गूजरी तालाब पर उदास खड़ी थी और उसके आँखों से आंसू आ रहे थे. यह देख दोनों चौधरियों ने उदास पनिहारिन की व्यथा का कारण पूछा तो उसने बताया कि आज मेरी पुत्री का विवाह है और मेरे पीहर में कोई नहीं है जो माहेरा (भात) लेकर आ सके. इस कारण घर पर सभी लोग मुझे ताने दे रहे हैं. मुझे चिंता है कि यदि मेरे कोई नहीं आया तो मेरा माहेरा कौन भरेगा. एक अनजान गूजरी की व्यथा सुनकर जाट बंधुओं का ह्रदय भर आया. उन्होंने उसे आश्वासन दिया कि हम खिंयाला और जायल के जाट हैं तुम हमें अपना धर्म-भाई समझो. हम तुम्हारा माहेरा भरेंगे. यह सुन लिछमा प्रसन्न होकर अपने घर लौट गई. तय समय पर लिछमा के घर धर्म-बंधु धरमोजी और गोपालजी माहेरा भरने पहुंचे. उन दोनों ने लिछमा के परिवार के सदस्यों के साथ सभी ग्राम वासियों को विविध उपहार देकर अपने ऊंटों पर लदी सारी सरकारी लगान की रकम माहरे में भरदी. बाद में दोनों चौधरी खाली ऊंटों को लिए दिल्ली पहुंचे और सुलतान को सारी हकीकत बताकर सजा भुगतने को तैयार हो गये. इस पर दिल्ली सुल्तान ने उनके हिम्मत और हौसले की तारीफ़ की और उन्हें इनाम देकर विदा किया. आज भी राजस्थान में माहेरा गीतों में खींयाला के चौधरी की यशोगाथा गायी जाती है और ऐसे अवसर पर जायल और खिंयाला के यशस्वी बंधुओं का स्मरण करते हुए प्रत्येक बहिन अपने भाई से ऐसे ही आदर्श भ्राता बनाने का अनुरोध करती है -

"बीरा बणजे तू जायल रो जाट
बणजे खींयाला रो चौधरी "

राव, ढोली व डूम लोग भी जगाह्जगाह इस गाथा का बखान "खिंयाला रा चौधरी बडियासर बंका , न मानी राज की शंका " इत्यादि कहकर यशोगान करते फिरते हैं . आज भी खिंयाला के बडियासर इस परंपरा का निर्वाह करते है कि यदि किसी स्त्री के पीहर में कोई माहेरा भरने वाला नहीं है और वह स्त्री चाहे किसी भी जाति की हो, खिंयाला जाकर माहेरा न्यौत आती है तो वहां के बडियासर लोग सब शामिल होकर उस औरत के ससुराल जाकर माहेरा भरकर आते हैं.

यह भी देखें - Lichhama Gujari Ka Bhat

बडियासर और काला लोगों की लड़ाई

इतिहासकार डॉ पेमाराम[4] ने इस घटना का विस्तार से वर्णन किया है:

कहते हैं, पहले बडियासर रताऊ में रहते थे और खिंयाला गाँव को धसूंडा कहते थे, जहाँ काला गोत्र के जाट रहते थे. यहाँ सात काला भाईयों के बीच एक बहिन थी, जिसका विवाह रताऊ के बडियासर के साथ हुआ था. कुछ दिनों बाद वह बडियासर अपनी ससुराल धसूंडा आकर रहने लग गया था. काला भाई इस बडियासर बहनोई को बेगार में सुल्तान की रकम जमा कराने दिल्ली भेज देते थे. बार-बार जाने से दिल्ली सुल्तान के यहाँ चौधरी के रूप में बडियासर का नाम अंकित हो गया था और चौधरी की पाग उसको मिलने लग गयी थी. काला लोगों को जब पता चला कि गाँव की चौधर बडियासर बहनोई के हाथ चली गयी है तो उन सात काला भाईयों ने बहिन को रातिजका में बुलाकर पीछे से बहनोई की हत्या कर दी.

उस समय बडियासर की पत्नी गर्भवती थी. अपने पति की हत्या सुनकर वह विलाप करने लगी, तब गोठ मांगलोद की दधिमती माताजी ने उसे परचा दिया कि बिलोने में से छाछ उछाल दे, जितने छींटे उछलेंगे, उतने ही बडियासर पैदा हो जायेंगे और तुम्हारे गर्भ से जो पुत्र पैदा होगा, वह कालों से वैर लेगा. बाद में गर्भ से कांवसी नामक लड़का पैदा हुआ. बड़ा होने पर अपने पिता की मौत का वृत्तांत जानकर वह अपने चाचा के साथ दिल्ली सुल्तान के पास गया और वहां से मदद के लिए दिल्ली सुल्तान की फ़ौज ले आया . कालों पर बडियासर लोगों ने चढ़ाई कर दी. खिंयाला के तालाब के पास लडाई हुई जिसमें बहुत से बडियासर मारे गए, परन्तु लड़ाई में कालों से पूरा वैर लिया गया और उस इलाके में एक भी काला को नहीं छोड़ा. सारे काला या तो मारे गए या इलाका छोड़कर भाग गये. कालों से सारा इलाका खाली हो गया. इसके बाद बडियासर लोगों ने यह तय किया कि भविष्य में कोई भी बडियासर काला जाटों के यहाँ न तो पानी पिएगा, न खाना खायेगा और न उनसे शादी-विवाह का व्यवहार करेगा. इस बात की जानकारी होने पर बडियासर गोत्र के जाट अभी तक इन बातों का पालन करते हैं. फ़ौज के हमले के दौरान घोड़ों के खुरों से जो 'खंग' उडी थी इससे इस गाँव का नाम बदलकर धसुंडा से खिंयाला हो गया था.

कालों से लड़ाई में बहुत से बडियासर मारे गए थे, उन सब की देवलियां खींयाला गाँव के तालाब के किनारे बनी हुई है. इसमे काँवसी का लड़ाई के दौरान सर कट जाने के बाद भी धड से लड़ते हुए वह खिंयाला के जंगल में गिरे थे. उनका स्थान आज भी खिंयाला के जंगल में बना हुआ है, जहाँ उनकी मूर्ती लगी हुई है और उस पर मंदिर बना हुआ है. बडियासर गोत्र के लोग उस स्थान को 'दादोसा का मंदिर' कहकर पुकारते हैं. खींयाला के कांवसी की देवली पर वि. 1383 संवत (1326 ई.) मीती मिंगसर सुदी 4 की तिथि अंकित है और उसके पौत्र नरसी की देवली पर वि. संवत 1405 (1348 ई.) की तिथि अंकित है जो इस बात को दर्शाता है कि बडियासर और काला लोगों के बीच कई वर्षों तक झगडा चला था.

बदला लेते समय ढाढी ने बडियासरों के पक्ष में ढोल बजाने से इंकार कर दिया था, इस पर बडियसरों ने तय किया था कि भविष्य में ढाढी उनका ढोल नहीं बजयेगा. इसके बाद बडियसरों के शुभ अवसरों पर ढोली ही ढोल बजाता है.

तेजाजी के पूर्वज और जायल के कालों में लड़ाई

संत श्री कान्हाराम[5] ने लिखा है कि.... जायल खींचियों का मूल केंद्र है। उन्होने यहाँ 1000 वर्ष तक राज किया। नाडोल के चौहान शासक आसराज (1110-1122 ई.) के पुत्र माणक राव (खींचवाल) खींची शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। तेजाजी के विषय में जिस गून्दल राव एवं खाटू की सोहबदे जोहियानी की कहानी नैणसी री ख्यात के हवाले से तकरीबन 200 वर्ष बाद में पैदा हुआ था।


[पृष्ठ-158]: जायल के रामसिंह खींची के पास उपलब्ध खींचियों की वंशावली के अनुसार उनकी पीढ़ियों का क्रम इस प्रकार है- 1. माणकराव, 2. अजयराव, 3. चन्द्र राव, 4. लाखणराव, 5. गोविंदराव, 6. रामदेव राव, 7. मानराव 8. गून्दलराव, 9. सोमेश्वर राव, 10. लाखन राव, 11. लालसिंह राव, 12. लक्ष्मी चंद राव 13. भोम चंद राव, 14. बेंण राव, 15. जोधराज

गून्दल राव पृथ्वी राज के समकालीन थे।

यहाँ जायल क्षेत्र में काला गोत्री जाटों के 27 खेड़ा (गाँव) थे। यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। यह काला जयलों के नाम से भी पुकारे जाते थे। यह प्राचीन काल से यहाँ बसे हुये थे।

तेजाजी के पूर्वज राजनैतिक कारणों से मध्य भारत (मालवा) के खिलचिपुर से आकर यहाँ जायल के थली इलाके के खारिया खाबड़ के पास बस गए थे। तेजाजी के पूर्वज भी नागवंश की श्वेतनाग शाखा के वंशज थे। मध्य भारत में इनके कुल पाँच राज्य थे- 1. खिलचिपुर, 2. राघौगढ़, 3. धरणावद, 4. गढ़किला और 5. खेरागढ़

राजनैतिक कारणों से इन धौलियों से पहले बसे कालाओं के एक कबीले के साथ तेजाजी के पूर्वजों का झगड़ा हो गया। इसमें जीत धौलिया जाटों की हुई। किन्तु यहाँ के मूल निवासी काला (जायलों) से खटपट जारी रही। इस कारण तेजाजी के पूर्वजों ने जायल क्षेत्र छोड़ दिया और दक्षिण पश्चिम ओसियां क्षेत्र व नागौर की सीमा क्षेत्र के धोली डेह (करनू) में आ बसे। यह क्षेत्र भी इनको रास नहीं आया। अतः तेजाजी के पूर्वज उदय राज (विक्रम संवत 1021) ने खरनाल के खोजा तथा खोखर से यह इलाका छीनकर अपना गणराज्य कायम किया तथा खरनाल को अपनी राजधानी बनाया। पहले इस जगह का नाम करनाल था। यह तेजाजी के वंशजों के बही भाट भैरू राम डेगाना की बही में लिखा है।

तेजाजी के पूर्वजों की लड़ाई में काला लोगों की बड़ी संख्या में हानि हुई थी। इस कारण इन दोनों गोत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी कायम हो गई। इस दुश्मनी के परिणाम स्वरूप जायलों (कालों) ने तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने के लिए जायल के खींची से संबन्धित ऊल-जलूल कहानियाँ गढ़कर प्रचारित करा दी । जिस गून्दल राव खींची के संबंध में यह कहानी गढ़ी गई उनसे संबन्धित तथ्य तथा समय तेजाजी के समय एवं तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से ऊपर बताए अनुसार मेल नहीं बैठता है।

बाद में 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था।


[पृष्ठ-159]: यहाँ पर इस युद्ध में शहीद हुये बीड़ियासारों के भी देवले मौजूद हैं। कंवरसीजी के तालाब के पास कंवरसीजी बीड़ियासर का देवला मौजूद है। इस देवले पर विक्रम संवत 1350 खुदा हुआ है। अब यहाँ मंदिर बना दिया है। तेजाजी के एक पूर्वज का नाम भी कंवरसी (कामराज) था।

History of Ranabai

Ranabai (रानाबाई) (1504-1570) was a Jat warrior girl and a Hindu mystical poetess whose compositions are popular throughout Marwar region of Rajasthan, India. She is known as 'Second Mira of Rajasthan". She was a disciple of sant Chatur Das also known as Khojiji. Ranabai composed many poems (padas) in Rajasthani Language. [6]

Jalam Singh, grandfather of Ranabai, had two sons namely, Ramoji (elder) and Ram Gopal (younger). Ram Gopal was married to Gangabai of Garhwal Jat Gotra. He had one son - Buwanji and three daughters namely Dhaanibai, Ranabai and Dhapubai. Thus Ranabai was the daughter of Ram Gopal and his wife Gangabai. [7]

Jalam Singh was grandfather of Ranabai and was a powerful sardar of about twenty villages around Harnawa. He was under Bidiyasar Chaudhary of Khinyala. Jalam Sing used to collect tax (lagan) from farmers and deposited with Chaudhary of Khinyala, who in turn used to send the taxes to Delhi Badshah.[8]

Ranabai's father Ram Gopal, being younger, was not that popular. He was not educated and so was Ranabai.

Ranabai was born in the family of Chaudhari Jalam Singh of village Harnawa in Parbatsar pargana of Marwar. [9] Jalam Singh was a Hindu Jat chieftain of Ghana gotra. [10] Sagar Mal Sharma in his book 'Rajasthan Ke Sant' has mentioned that her father was Jalam Jat. [11] But as per Dr Pema Ram she was of Dhoon gotra Jat vansha. [12] According to Dr Pema Ram[13] Ranabai was born on vaishakh shukla tritiya somwar samvat 1561 (1504 AD). This is also clear from a doha by Birdhichand, which reads as under in Rajasthani Language:

पन्द्रह सौ इकसठ प्रकट, आखा तीज त्यौहार
जहि दिन राना जन्म हो, घर-घर मंगलाचार

According to Dr Pema Ram [14] Ranabai's father was Ram Gopal and Jalam Singh was his grandfather. This is also clear from a doha by Birdhi Chand, which reads as under in Rajasthani Language:

जाट उजागर धून जंग, नामी जालम जाट ।
बस्ती रचक ओ दौ विगत, गण हरनावो ग्राम ।।
जालम सुत रामो सुजन, जा का राम गोपाल ।
उनका पुत्र भुवन ओरू, बाई बुद्धि विशाल ।। [15]

According to Karnisharan Charan of village Indokli also, as mentioned in 'Bā Rānā Jas Bāīsī' (बा राना जस बाईसी), Ram Gopal was father of Ranabai:

पन्द्रह सौ इकसठ प्रत्यक्ष, तीज अक्षय त्यौहार ।
पिता राम गोपाल घर, राना को अवतार ।।[16]

Chandra Prakash Dudi in his book 'Shri Ranabai Itihas' writes that Ranabai's father was Ram Gopal. [17]

Notable persons

References

  1. Census of India, 2011 - Khinyala
  2. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.548-549
  3. (डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास, पृ.23-24)
  4. (डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास, पृ.24-25)
  5. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.157-159
  6. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 40-41
  7. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  8. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  9. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 1992 (pp – 610)
  10. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 1992 (pp – 610)
  11. Sagar Mal Sharma: 'Rajasthan Ke Sant', Part-1, Chirawa, 1997, p. 193
  12. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 39
  13. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 33
  14. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  15. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  16. Dr Pema Ram & Dr Vikramaditya Chaudhary, Jaton ki Gauravgatha (जाटों की गौरवगाथा), First Edition 2004, Publisher - Rajasthani Granthagar, Jodhpur, Ph 0291-2623933, p. 34
  17. Chandra Prakash Dudi: 'Shri Ranabai Itihas', Jaipur, 1999, p. 3

External links


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