Meghsar: Ateet Aur Vartman

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

मेरा गाँव मेघसर- अतीत और वर्तमान

अब जो 'ऐसा है', वो पहले 'कैसा था'; इसे जानना-समझना और फिर उस जाने-समझे का चित्रांकन करना एक ख़ास काम होता है। मैं ये बात मेरे ख़ुद के गाँव के संदर्भ में कह रहा हूँ। मेरा गाँव मेघसर 'अब' ऐसा है तो ये 'तब' कैसा था? ये जानने के लिएआइए, मेरे साथ गाँव के 'अब' से 'तब' की ओर सैर- सपाटे पर चलिए। गाँव के इतिहास को शब्दों की लड़ियों में पिरोते समय हिंदी यात्रा-साहित्य के पितामह राहुल सांकृत्यायन की एक उक्ति याद आती है, जिसमें वे कहते हैं कि गांव के हर टीले-टीले का अपना एक इतिहास होता है। हर टीला सदियों तक उसी रूप में टीला ही बना रहे, यह जरूरी तो नहीं। कोई टीला और ऊंचा होने या फिर वक़्त की मार सहकर समतल होने की कहानी अपने में समेटे रहता है। इसी तरह हर बस्ती के बसने, उजड़ने और फिर बसने की एक लंबी घुमावदार कहानी होती है।

Contents

वर्तमान से अतीत की ओर यात्रा

इतिहास लेखन की पारंपरिक पद्धति में इतिहासकार भूत से वर्तमान में आते हुए, ऐतिहासिक आधार पर वैध स्रोतों के सहारे बीते हुए समय के बारे में लिखता है। दूसरा तरीका भी है जिसमें इतिहासकार भूत से वर्तमान के बज़ाय वर्तमान से पीछे लौटते हुए भूतकाल पर दृष्टि दौड़ाता है। गाँव के इतिहास लेखन में मैंने कई मामलों में इस दृष्टि को अपनाया है।

वैसे नई सदी में नई सोच के साथ हेरिटेज स्ट्डीज (Heritage studies विरासत अध्ययन) में ‘जो है’ से ‘जो रहा होगा’ की दूरी का वर्णन मय विश्लेषण के साथ प्रस्तुत करने का सिलसिला शुरू हुआ है। यह एक तरह से उल्टी यात्रा है जिसमें वर्तमान से भूत की यात्रा होती है, कारण ढूंढ़े जाते हैं और एक कहानी बनती जाती है। 

एक दिलचस्प बात कहीं पढ़ी थी कि काल तीन (भूत, वर्तमान और भविष्य) न होकर दो ही होते हैं--भूत और भविष्य ! जैसे ही वर्तमान आता है वह बीत जाता है, भूत नामक दानव उसे लील लेता है ! जो यह पल है वह अगले पल ही भूत हो जाता है। इस प्रकार हम सिर्फ  भूत और भविष्य के बीच खड़े होते हैं। एक प्रकार से वर्तमान भूत से जुड़ा हुआ है, सीधे-सीधे। 

गाँव का ऐतिहासिक इतिवृत्त लिखने से पहले इतिहास, इतिहासकार, इतिहास बोध आदि के बारे में कुछ समझ हासिल की है, उसे साझा करना जरूरी समझता हूँ। उसी समझ के अनुरूप अन्वेषण की दृष्टि आत्मसात कर गाँव के अतीत का वर्णन करने का विनम्र प्रयास कर रहा हूँ।

इतिहास लेखन क्यों आवश्यक है?

"हर चीज़ का, हर व्यक्ति, हर समूह, हर घटना का एक इतिहास होता है। कोई भी चीज़ अचानक घटित नहीं होती या ऊपर से आकर नहीं टपकती। ज़ाहिर है, इस होने का एक अतीत होता है, उसकी स्मृति होती है। स्मृति के सहारे या किसी स्थल, किसी इमारत, किसी प्रथा या विश्वास सबके साथ उसके होने की कहानी होती है।" हितेंद्र पटेल की इस बात को मैंने मेरी अन्वेषण की दृष्टि का आधार माना है।

सही है कि इतिहास अतीत में या भूतकाल में निहित होता है, पर इतिहास और भूतकाल में अंतर है। अंतर यह है कि इतिहास को हम भविष्य के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान में भूत/अतीत की की गई व्याख्या मान सकते हैं।     

मनुष्य जैसे-जैसे आगे बढता जाता है वह अपने जीवन को उत्तरोत्तर बेहतर बनाने की जुगत करता है। इस बेहतर बनाने के क्रम में वह सोचता है कि वह किस प्रकार यहाँ तक पंहुचा है और यहाँ तक पहुचने में उसने किस रास्ते का उपयोग किया है तथा उनमें क्या उचित और क्या अनुचित था, और उस रास्ते पर कौनसे कदम सही और कौनसे क़दम गलत थे? ये हमारे भविष्य को कैसे प्रभावित करते हैं? बस, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए सुन्दर भविष्य का सपना संजोकर इतिहास लिखा जाता है।

अतीत की व्याख्या पर वर्तमान का असर

मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार ई.एच.कार अपनी चर्चित किताब 'What is History?' में लिखते हैं कि 'इतिहास भूत और वर्तमान के बीच अविरल संवाद है।' यानी अपने दौर को प्रभावित करने वाला हर विचार या घटना इतिहास का हिस्सा होती है जिनका सिरा आपस में जुड़ता भी है, चाहे प्रभाव सकारात्मक हो या नकारात्मक।

इतिहास लेखन भूत की व्याख्या है और वह भी एक ख़ास दृष्टिकोण के साथ। हमारे अतीत का वर्णन और उसकी व्याख्या हमेशा एक समान नहीं रहती क्योंकि इतिहासकार हमेशा नए तथ्यों की रोशनी में इसकी नयी व्याख्या करता रहता है। इसके लिए वह अपनी नयी प्रश्नावली और कुछ नये स्रोत लेकर आता है जिसके माध्यम से तथ्यों के नये अर्थ का निर्माण करता है। इसलिए यह कहा जाता है कि इतिहास का कोई अंत नहीं है, बल्कि यह एक प्रक्रिया के सामान लगातार गतिमान रहता है।          इतिहासकार अतीत की हर कहानी पूर्णरूपेण नहीं कह सकता क्योंकि जिस सामग्री के सहारे वह लिखता है उसमें कई जगह कई रिक्तियां होती हैं, कई कड़ियाँ टूटी मिलती हैं और कुछ क्षेत्रों से सम्बंधित प्रमाण अब अस्तित्व में नहीं है। इसलिए कुछ मसलों पर तार्किक सोच और इधर- उधर बिखरे परिस्थितिजन्य सबूतों के सहारे घटनाओं का तालमेल खोजना पड़ता है।    इक्कीसवीं सदी में हमारे देश में इतिहास-लेखन कई मायनों में अधिक लोकतांत्रिक हुआ है। इतिहास-लेखन के क्षेत्र में एक नया रुझान दिखाई पड़ा है जिसे ‘‘सबाल्टर्न अध्ययन’’ कहते हैं अर्थात निचले स्तर की जनता का अध्ययन, या इसे यों कहें कि जन आधारित इतिहास का अध्ययन। मैंने इसी रुझान को अपनाते हुए गाँव के अतीत का वर्णन किया है।

गाँव चढ़े बदलाव की भेंट

इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि शहर में पले-बढ़े इतिहासकार ग्रामीण समाज की चेतना और उसकी स्मृति को ठीक से समझ नहीं पाते। इसलिए बहुधा वे ग्रामीण जीवन के बदलते यथार्थ को भलीभांति शब्दों में व्यक्त करने में असफ़ल रहते हैं। हक़ीक़त तो यह है कि हमारे गाँव पिछले सौ, सवा सौ सालों में बहुत बदले हैं। इतना बदल गए हैं कि गांव और किसान दोनों ‘मर’ रहे हैं। ग्राम्य जीवन-शैली को शहरी जीवन शैली के अजगर ने निगल लिया है। गांव का गांवपना (अर्थात मेलमिलाप, सीधापन, सहजता, प्रकृति के प्रति प्रेम) अब ग़ायब होता जा रहा है। खेती पर बढ़ती लागत और मानसून के सनकीपन का नतीजा ही है कि किसान का खेती से मोह भंग हो चला है।

गांव बदला है, शहर अब महानगर और गांव अब शहर बनने की दौड़ में शामिल हैं। गांव का अब गांव के रूप में बचना मुश्किल हो रहा है। इतिहासकार एरिक हाब्स्बाम की मानें तो धीरे-धीरे पूरी दुनिया शहर हुई जा रही है और किसान का 'मरना' इतिहास की गति में है। इसी हक़ीक़त से रूबरू होकर मेरे गाँव मेघसर के वर्तमान स्वरूप को अतीत के झरोखे से झांककर उसका एक शब्द-चित्र प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस मौक़े पर बशीर बद्र का ये शेर दिमाग़ में कौंध रहा है :

"अगर फ़ुर्सत मिले पानी की तहरीरों को पढ़ लेना
हर इक दरिया हज़ारों साल का अफ़साना लिखता है।"

जहां जन्में-पले-बढ़े उस जन्म-भूमि के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए उसके अतीत और वर्तमान की कहानी कह रहा हूँ। इसे पढ़ें या फिर पतली गली से चलते बनें। मर्ज़ी आपकी।

मेघसर गाँव की भौगोलिक स्थिति

Location of Villages around Churu

राजस्थान के थार मरुस्थल के चूरू जिला मुख्यालय की दक्षिणी-पश्चिमी दिशा में ग्रामीण संपर्क सड़क ( चूरू-रतनगढ़) पर चूरू से करीब 11 किलोमीटर दूर सड़क के दक्षिणी किनारे पर मेघसर गांव (तहसील-जिला चूरू) स्थित है। गांव की पूर्व दिशा में तीन किलोमीटर दूर रतननगर कस्बा है जो कि सड़क मार्ग से सीधा जयपुर से जुड़ा हुआ है। गांव की उत्तर दिशा में लगभग चार किलोमीटर दूर देपालसर रेलवे स्टेशन है जो कि बीकानेर/जोधपुर-दिल्ली रेल रूट पर स्थित है।

मेघसर गांव उत्तरी अक्षांश ~ 28.2 एवं पूर्वी देशान्तर ~74.9 पर स्थित है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊंचाई ~288 मीटर (~945 फुट) है।

गाँव मेघसर का कुछ हिस्सा ऊंचाई पर तो कुछ हिस्सा नीचाई पर बसा हुआ है। इसके दक्षिणी, पश्चिमी व उत्तरी दिशाओं में बालू रेत के ऊंचे- ऊंचे टीले हैं। यहां का तापमान चूरू की चहुँ ओर चर्चित ख्याति के अनुरूप सर्दियों में माइनस 4° व गर्मियों में 51° डिग्री तक पहुंचकर मीडिया में सुर्खियाँ बटोरता रहता है। यहां की जलवायु सामान्यतया शुष्क ही रहती है। भूजल पीने के लिए इस्तेमाल किया जाता है पर उसमें लवणता होने के कारण यह सिंचाई के लिए फ़लदायी साबित नहीं हुआ है।

सामान्यतया रेतीले धोरों से घिरे गाँव मेघसर के खेतों में बालू रेत की भरमार है। कुछ खेतों में कहीं-कहीं दोमट मिट्टी है। खेती पूरी तरह मानसूनी वर्षा पर निर्भर है। फसल के नाम पर सिर्फ बाजरा, मूंग, मोठ, ग्वार की खेती होती है। बालू मिट्टी और भूजल में लवणता होने के कारण कुओं से सिंचाई सफ़ल सिद्ध नहीं हुई। सन 1998 से 2005 के बीच कुछ खेतों में कुए खुदवाए गए परन्तु पानी के खारेपन की वजह से जमीन की पैदावार पर विपरीत प्रभाव पड़ने लगा। इसलिए कुओं से सिंचाई द्वारा कृषि का काम बंद कर दिया गया। यहां का भूजल स्तर 175-200 फुट है तथा कुँओं की गहराई बढ़ते जाने के साथ पीने के पानी का खारापन एवं उसमें फलोराइड की मात्रा बढ़ती जा रही है। नौकरी-पेशा लोगों को छोड़कर अधिकांश गांववासियों के लिए आमदनी का मुख्य स्रोत खेती, पशुपालन एवं दैनिक दिहाड़ी है।

गाँव का रक़बा: गाँव का वर्तमान में कुल रक़बा 4501-03 बीघा अर्थात 1138-4679 हेक्टेयर है। शुरुआत में इस गांव का रक़बा काफी बड़ा था परन्तु विक्रम संवत 1917 (सन 1860 ई.) में पड़ौस में रतननगर कस्बा बसने पर इस गाँव के रकबे का पूर्वी हिस्सा रतननगर में शामिल कर दिया गया।

गाँव की उत्तरी-पश्चिमी दिशा में रेलवे लाइन के उस पार जहां से गाँव के रक़बे का खसरा नम्बर एक का खेत शुरू होता है, उसे 'मोडी भर' के खेत के नाम से जाना जाता है क्योंकि इस खेत की सीमा पर स्थित ऊंचे, लंबे टिल्ले/ भर पर पुराने जमाने में मोडा/मोडिया (अर्थात संत/साधु) वास करते थे। वहाँ चबूतरे के अलावा कुएँ की नाल का भी अस्तित्व रहा है। यही वो जगह है जहां पर चार गाँवों-छाजूसर, रतननगर, देपालसरमेघसर के रक़बे का मिलन-स्थल (meeting ground) है।

मेघसर गाँव का इतिहास

गाँव के इतिहास का स्रोत/आधार: हालांकि गाँव का ऐतिहासिक इतिवृत्त, घटनाओं का क्रमानुसार व तारीखवार समुचित ब्योरा लिपिबद्ध उपलब्ध नहीं है, किंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि गांववासियों में इतिहास-बोध् का अभाव है। गाँव के वर्तमान से उसके अतीत की ओर इस लेखन-यात्रा में खुद की आँखन देखी, गोत्रों के बही-भाटों/ जागा के पुराने रेकॉर्ड, किंचित इतिहासकारों द्वारा दर्ज़ विवरण, गाँव के रेवन्यू रिकॉर्ड, श्रुति-परंपरा के ज़रिए पीढ़ी-दर-पीढ़ी गाँव-गोत्र के इतिहास का हस्तानांतरण आदि मेरी इस यात्रा के संगी-साथी रहे हैं। इन सब स्रोतों से जुटाई गई सामग्री को विभिन्न स्तरों पर पर्याप्त रूप से क्रॉस-चेक करने के बाद गाँव के अतीत की एक विश्वसनीय तस्वीर शब्दों में उकेरने का यह एक विनम्र प्रयास है। आशा है कि तस्वीर से रूबरू होकर 'अब' और 'तब' के बीच के फासले का अंदाज़ा लगा सकेंगे। आइए, 'जो है' से 'जो था' की इस यात्रा में मेरे साथ चलिए। आओ सा, पधारो म्हारे गाँव मेघसर!

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: चाहर राज्य: जांगल प्रदेश (बीकानेर) में सन 1268 (विक्रम संवत 1324) से सन 1416 (विक्रम संवत 1473) तक सिद्धमुख एवं कांजण दोनों चाहर राज्य थे। संवत 1324 विक्रम (1268 ई.) में कंवरराम चाहर व कानजी चाहर ने दिल्ली सल्तनत के गुलाम वंश के 9 वें सुल्तान /बादशाह गियासुद्दीन बलवन ( शासनकाल 1266 -1287 ई.) को पांच हजार चांदी के सिक्के एवं एक बलिष्ठ घोड़ी नजराने में पेश की। बादशाह ने ख़ुश होकर उनकी इच्छा अनुसार कांजण और सिद्धमुख (जिला-चुरू, बीकानेर संभाग ) का राज्य दे दिया। सन 1268 से 1416 तक यहां चाहर जाट राजाओं का राज रहा और उन्होंने राज्य का विस्तार भी किया।

राजा मालदेव चाहर की वीरता: सन 1416 में यहाँ चाहर गोत्र के जाट राजा मालदेव शक्तिशाली स्थिति में राज कर रहे थे। उस समय दिल्ली की राजगद्दी पर खिज्रखां सैयद (शासनकाल 1414 ई. से 1421 ई.) काबिज़ था।

जांगल प्रदेश के सात पट्टीदार/लम्बरदारों (80 गाँवों की एक पट्टी होती थी) से पूरा लगान न उगा पाने के कारण दिल्ली का बादशाह खिज्रखां मुबारिक (सैयद वंश) नाराज हो गया। उसने इसे हुक्म की पालना नहीं करने की गुस्ताख़ी माना। सबक सिखाने के लिए उसने उन सातों लंबरदारों/ चौधरियों को पकड़ने हेतु अपने सेनापति बाजखां पठान के नेतृतव में सेना की टुकड़ी भेज दी। ये सात चौधरी सऊ, सहारण, [Godara|गोदारा]], बेनीवाल, पूनिया, सिहाग और कस्वां गोत्र के जाट थे और उस समय ये पट्टीदार थे। बाजखां पठान इन सात चौधरियों को गिरफ्तार कर दिल्ली ले जा रहा था। जब बाजखां पठान का लश्कर कांजण से गुजरा तो राजा मालदेव ने सेनापति बाजखां पठान को इन चौधरियों को छोड़ने के लिए कहा किन्तु वह नहीं माना। भिड़ंत हो गई। जमकर लड़ाई हुई और उसमें बादशाह ख़िज़्रखां की सेना का सेनापति और उसके साथी सैनिक मारे गए।

राजा मालदेव चाहर के इस वीरतापूर्ण संघर्ष का बखान करते हुए यह कहावत प्रचलित हुई -

"माला तुर्क पछाड़याँ दे दोख्याँ सर दोट ।
सात गोत के चौधरी, बसे चाहर की ओट।।"

राजा मालदेव की वीरगति और राज्य का पतन: दिल्ली के बादशाह ख़िज़्रखां के सेनापति बाजखां और उसके सैनिकों की राजा मालदेव चाहर व उसके सैनिकों के हाथों हुई शिकस्त की सूचना पाकर बादशाह आगबबूला हो गया।

विक्रम संवत 1473 (1416 ई.) में बादशाह खिज्रखां (सैयद वंश ) एक विशाल सेना लेकर राजा मालदेव चाहर को सबक सिखाने आ धमका। एक तरफ़ थी सिद्धमुख एवं कांजण की छोटी सेना तो दूसरी तरफ दिल्ली बादशाह की विशाल आक्रमणकारी सेना।

राजा मालदेव चाहर की अत्यंत रूपवती व बलवती पुत्री का नाम था सोमादेवी। कहते हैं कि आपस में लड़ते सांडों को वह सींगों से पकड़कर अलग कर देती थी। जब ख़िज्रखां की सेना आक्रमण करने पहुंची तभी संयोगवश दो सांड आपस में लड़ने लगे। सोमादेवी ने आव देखा ना ताव। आपस में लड़ते सांडों को उसने सींगों से पकड़कर अलग कर दिया। हतप्रभ कर देने वाली यह बहादुरी देखकर बादशाह के एक खास सेनापति की बुरी नजर उस युवती पर पड़ी और उसने संधि प्रस्ताव के रूप में युद्ध का हर्जाना और विजय के प्रतीक रूप में सोमादेवी का डोला माँगा अर्थात शादी का प्रस्ताव पेश किया। स्वाभिमानी मालदेव को ये शर्तें मंजूर नहीं थीं। नतीज़तन चाहरों एवं ख़िज्रखां सैयद की सेना के बीच सिद्धमुख की सीमा पर खूनी लड़ाई लड़ी गई। इस लड़ाई में सोमादेवी भी पुरुष वेश पहनकर वीरता से लड़ी। परन्तु आक्रमणकारी विशाल सेना के सामने छोटी सेना कब तक टिक पाती। इस लड़ाई का अंत ये हुआ कि राजा मालदेव चाहर, उसकी पुत्री सोमा और उसके अधिकांश सैनिक रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हो गए।

स्रोत - 1. अनूप सिंह चाहर, जाट समाज आगरा, नवम्बर 2013, पृष्ठ 26-27, 2 . जागा सुरेन्द्र सिंह, ग्राम दादिया, तहसील - किशनगढ़, अजमेर, 3 . राम चन्द्र चाहर, लाडनू, नागौर

इतिहासकार ठाकुर देशराज क्या कहते हैं?: सन 1416 में सिद्धमुख में घटी इस घटना का वर्णन प्रसिद्ध इतिहासकार ठाकुर देशराज ने अपनी पुस्तक 'जाट इतिहास' के चैप्टर 9, पेज संख्या 603 पर इस तरह किया है: जांगल (बीकानेर) प्रदेश में सिद्धमुख नामक स्थान पर सन 1416 में मालदेव नाम का चाहर राज करता था। उस समय दिल्ली में गुलाम बादशाहों का राज्य था। जैसलमेर से लौटते हुए एक मुसलमान सेनापति से मालदेव का युद्ध हुआ था। घटना इस प्रकार बताई जाती है कि मुसलमान सेनापति ने मालदेव के गढ़ से बाहर अपना डेरा डाला। कहते हैं उस समय कोई सांड तैश में आकर हुड़दंग करने लगा। लोग बचाव के जुगत में इधर- उधर भगने लगे। मुसलमान सैनिक भी सांड के सामने न आए। मालदेव की पुत्री जिसका नाम सोमादेवी था, उसने सांड को सींग पकड़कर रोक लिया। मुसलमान सेनापति जिसका नाम नहीं लिखा, सोमादेवी को अपने साथ ले जाने के लिये अड़ गया। जाटों की ओर से उसे समझाया गया। आखिर सिद्धमुख की सीमा पर लड़ाई हुई जिसमें राजा मालदेव वीर गति को प्राप्त हुए। उनके परिवार के लोग सिद्धमुख छोड़कर झुंझावाटी एवं अन्यत्र चले गए। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.-603)

मेघसर गाँव की स्थापना: सन 1416 में दिल्ली बादशाह ख़िज्रखां मुबारिक सैयद की आक्रमणकारी विशाल सेना और राजा मालदेव चाहर की छोटी सेना के बीच सिद्धमुख की सीमा पर हुई खूनी लड़ाई में मालदेव चाहर व अधिकांश चाहर वीरगति को प्राप्त हो गए। चाहर गोत्र के जो जाट उस लड़ाई में जीवित बच गए थे, वे उस स्थान को छोड़कर झुंझावाटी और अन्यत्र चले गए। इन्हीं चाहरों में से एक मेघ जी चाहर ने सिद्धमुख से आकर चूरू से दक्षिण-पश्चिम में 11 किलोमीटर दूर मेघसर गाँव की स्थापना की। स्पष्ट है कि गाँव मेघसर का इतिहास लगभग छः सौ साल पुराना है। इसकी स्थापना सिद्धमुख से स्थान बदलकर आए चाहर गोत्र के जाट मेघ जी चाहर ने संवत 1473 (तदनुसार 1416 ई.) में किसी समय की।

इसकी तस्दीक़ के लिए सिद्धमुख के इतिहास में दर्ज उपरोक्त घटना पढ़ी जा सकती है। शताब्दियों पुराने इस गाँव के इतिहास में कई करुण कहानियां समाहित हैं। ये गांव बसा, उजड़ा, फिर बसा। विस्थापन का दंश कई बार झेला। कभी प्राकृतिक आपदा, कभी महामारी और आक्रांताओं के प्रहार भी कई बार सहे हैं इस गाँव ने।

मेघा जी चाहर द्वारा शुरुआत में इस गाँव की छड़ी वर्तमान में जहां बुच्याणा जोहड़ा है, वहाँ रोपी गई। वहाँ पर कच्चे जोहड़े में पानी की सुविधा को ध्यान में रखते हुए वहीं डेरा/टांडा डाल दिया। वहीं पर रुकने/बासा लेने का फैसला कर लिया। पशुओं/ डांगर-ढोर का लावज़मा साथ में था ही।

पुरखों से सुना है कि बुच्याणा जोहड़े में बासा कर रहे चाहर परिवार का एक छोटा बच्चा उबलते दूध में गोदी से छूटकर गिरने से काल कवलित हो गया। उस बच्चे की स्मृति को गाँव में अब भी नानड़िया दादा के नाम से मान्यता है। बीते ज़माने में जब खेतों में वर्षात नहीं होती थी तो लोग बुच्याणा जोहड़े में नानड़िया दादा की धोक लगाकर वर्षात की मनौती मनाते थे।

कहते हैं कि बुच्याणा जोहड़े में हुए इस हादसे के बाद वहाँ बासा किए हुए चाहरों ने इस स्थान को अशुभ मान लिया। इसलिए वहां से कुछ दूरी पर पूर्व दिशा में आकर गाँव की बसावट की। वहां एक कूआँ भी खोदा गया, जिसका जीर्णशीर्ण अस्तित्व एक खेत में 1970 के दशक तक बना हुआ था। बुच्याणा जोहड़े से कुछ दूर खिसककर चाहरों ने जिस जगह (जो वर्तमान में कानाराम मेघवाल का खेत व 'मोरा' है ) इस गाँव की बसावट की, उस जगह को अब 'ठिकरोड़' (मिट्टी के बर्तनों की ठिकरियों से पूरी तरह पटी हुई जगह) के नाम से जानते हैं। यहाँ सैंकड़ों वर्ष तक यह गांव आबाद रहा और कालांतर में किसी आक्रांता की मारकाट से या हो सकता है कि किसी प्राकृतिक प्रकोप के क्रूर प्रहार से यह पूरी तरह उजड़/ ध्वस्त हो गया। वहाँ से उजड़े गाँव की दास्तां उस सारे खेत में भारी तादाद में बिखरी हुई 'ठिकरियां' (मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े) अब भी चीख-चीख कर कह रही हैं। गाँव के उजड़ने के वक़्त जो चाहर किसी कारणवश दूसरी जगह गए हुए थे वे जीवित बच गए। जीवित बचे चाहर इस त्रासदी से उबरकर वहाँ से दक्षिण में लगभग दो किलोमीटर दूर खिसककर वर्तमान स्थल पर आकर बस गए। यहाँ पर जाल के एक पेड़ के पास इन चाहरों ने एक कूँआ बनवाया, जिसे जाल का कूँआ नाम से जाना जाता था। इस प्रकार वर्तमान स्थल पर विस्तार लेने से पहले इस गाँव ने ख़ूब ऊंच-नीच देखी है।

वर्तमान स्थल पर गांव बसने के बाद यहाँ ब्राह्मण जाति के काफी परिवार आबाद हुए। दक्षिण दिशा में अब इस गांव की बसावट जहाँ ख़त्म होती है वहीं से सीकर जिले के गाँव नेठवा (तहसील-रामगढ़ ) का रक़बा शुरू हो जाता है। इसलिए शेखावाटी के कांकड़ पर बसे इस मेघसर गांव को दक्षिणी-पश्चिमी दिशा में 'थार मरुस्थल का दरवाजा' (The Gateway to Thar ) कहा जा सकता है। चूरू जिले की दक्षिणी सीमा के अंतिम छोर पर बसे इस गाँव की रामगढ़ सेठाण से दूरी सात किलोमीटर है। इसलिए यहाँ के बाशिंदे तक़रीबन सन 1980 तक आमतौर पर बाज़ार संबंधी कार्यों/खरीद-बेचान आदि के लिए कच्चे रास्ते से रामगढ़ ही आते-जाते थे।

गाँव का पुरातन कूआँ 'जाल का कूआँ': गांव की उत्तर दिशा में वर्तमान में जहां राजपूत परिवारों का श्मशान घाट स्थित है वहाँ एक विशाल उम्रदराज जाल का पेड़ था। स्थानीय खदानों से निकाली गई चूने-पत्थर की बड़ी-बड़ी चपटीली, खुरदरी शिलाओं व चौकों से निर्मित यह कुआ मय कोठा इस जाल के पेड़ के पास बना हुआ था, जिसे 'जाल का कूँआ' नाम से जाना जाता था। इस गाँव के वर्तमान स्थल पर बसने पर इस कुए का निर्माण चाहर गोत्र के जाटों द्वारा करवाया बताया जाता है। कालांतर में यह इस कूएँ का पानी सूख गया। वर्तमान में इस कूएँ का अस्तित्व मिटाया जा चुका है।

सन 1980 के लगभग ग्राम पंचायत देपालसर के सरपंच स्व. टिक्कूराम माली ने गाँव के इस सबसे पुराने कुएँ की चूने-पत्थर की इन चपटीली शिलाओं को पंचायत के काम के तहत वहाँ से उखड़वाकर गढ़ के सामने के रास्ते पर पानी के कटाव को रोकने हेतु लगवा दी। कुछ बड़ी शिलाएं अभी भी गाँव में अन्यत्र इस्तेमाल की जाती हुई मिल जाएंगी।

जागीरी प्रथा: आजादी से पूर्व तथा बाद के कुछ वर्षों तक यह गांव जागीरदारों की हेकड़ी, शोषण और प्रताड़ना से त्रस्त रहा। इस गांव के पुरखों की दमन और उत्पीड़न से संबंधित अनेक करुण कहानियां इस गांव के इतिहास का हिस्सा रही हैं।

देपालसर का ठिकाना चूरू के ठाकुर कुशलसिंह के पौत्र और छत्रसाल के पुत्र ठा. हठीसिंह को पांच गांवों सहित संवत 1807 (1750 ई.) में मिला था।" (स्रोत: गोविंद अग्रवाल, चूरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास, प्रकाशक: लोक संस्कृति शोध संस्थान, नगर-श्री, चूरू, 1974 पृष्ठ 251)

जागीरी प्रथा के तहत देपालसर पट्टे/जागीर के अधीन मेघसर गाँव शामिल था, जो कि बणीरोत राजपूतों के अधीन थे। बाद में भाइयों में बंटवारा होने पर सन 1810 ई. के बाद के वर्षों में बणीरोत राजपूत का एक परिवार देपालसर से आकर मेघसर गाँव में बस गया और यहाँ रहकर राजस्व वसूली करने लगा। बणीरोत राजपूतों श्री मालम सिंह और श्री सालम सिंह के वंशज वर्तमान में मेघसर गाँव में आबाद हैं।

ब्राह्मणों का गाँव से पलायन: गुज़रते वक़्त के साथ राजस्व वसूली की राठौड़ी रीत और कई प्रकार की लाग- बागों एवं बेगार से तंग आकर ब्राह्मण जाति के सब परिवार इस गांव को छोड़कर आसपास के कस्बों यथा रामगढ़, मंडावा, नेठवा, रतननगर आदि में जाकर बस गए। रतननगर में जो बील गोत्र के ब्राह्मण हैं वे सन 1860 में रतननगर कस्बा बसने के कुछ वर्षों बाद मेघसर गाँव छोड़कर वहाँ जाकर बसने लग गए। ब्राह्मण परिवारों में सबसे बाद में यह गाँव छोड़कर जाने वाले बील गोत्र के ब्राह्मण ही थे।लगभग सन 1915 तक सभी ब्राह्मण परिवार इस गाँव से पलायन कर गए। ख़ास बात यह थी कि उस पुराने ज़माने में जब ये ब्राह्मण परिवार अपने घर छोड़कर पड़ोस के कस्बों में जाकर बसे तब इस गाँव में उनके पुश्तैनी घरों में कुछ मकान पक्के थे।

ब्राह्मणों के अधिकांश घर गांव के बीच स्थित ठाकुर जी के मंदिर व मुख्य गढ़ के सामने के रास्ते से सटे हुए दोनों ओर जहां अब स्व. जगनाराम दरोगा, शेखावतों (भैरूँजी का), स्वामी व रुन्दला परिवारों के घर हैं, वहाँ थे। इसके अलावा गढ़ के दक्षिणी छोर से सटे हुए कुछ घर भी ब्राह्मणों के थे। ब्राह्मण परिवारों के गाँव छोड़कर चले जाने के बाद उन घरों में गांव के ठाकुर कुशल सिंह के ख़ास लोग रिहाइश करने लग गए। गांव में गढ़ के एकदम पास स्थित पुराने जमाने में बनी हुई धर्मशाला व सांड शाला का निर्माण रामगढ़ के सेठों ने करवाया था। इनके मकान अब भी मौजूद हैं पर बीतते वक़्त के साथ इन्हें मुख्य गढ़ की चारदीवारी में शामिल कर अब गढ़ का हिस्सा बनाया जा चुका है।

पुराने जमाने की सुरक्षा प्रणाली: गांव की उत्तर दिशा में एक ऊंचा लंबा रेतीला टिब्बा है जिसे चिल्का भर के नाम से जाना जाता है। बड़े-बुज़ुर्गों से सुना है कि कहीं से जब पिण्डारी या लुटेरे लूटमार के लिए आते दिखाई देते थे तो इस पहाड़ीनुमा टीले पर तैनात चौकीदार कांच का चिल्का अर्थात संकेत देकर गाँव की बुर्ज में व अन्यत्र तैनात प्रहरियों को सुरक्षा के लिए तैयार हो जाने का संकेत देते थे।

सुरक्षा की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए गाँव के मध्य में पुराने जमाने से एक बुर्ज भी बना हुआ था। इस बुर्ज़ का निर्माण जागीरदार के रूप में देपालसर से आए बणीरोत राजपूत परिवार ने करवाया। गाँव के गढ़ के उत्तर में इससे सटा हुआ यह बुर्ज अब जीर्ण-शीर्ण होकर ध्वस्त होने की कगार पर है।

गढ़ का निर्माण: गाँव के बीच में ऊंचाई पर स्थित गढ़ स्थापत्य कला, भित्तिचित्रों एवं सुदृढ़ता की दृष्टि से आसपास के इलाक़े में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। इस हवेलीनुमा गढ़ का निर्माण गांव के जागीरदार ठाकुर कुशल सिंह ने संवत 1996 से 1999 (सन् 1939 से 1942) की अवधि में पूरा करवाया। जागीरदारी प्रथा में जागीरदार खेतिहर लोगों से बेगार लेना अपना हक़ समझता था। इसका भरपूर इस्तेमाल चेजे-भाटे व अन्य दैनिक कामों में किया गया।

मंदिर-देवरे: गाँव के दक्षिण में नेठवा की और जाने वाले रास्ते के पश्चिम में राजाणी जोहड़ी के पश्चिमी कोने में पुराने जमाने से एक चबूतरा बना हुआ है जिसे 'झुंझार जी का चबूतरा' नाम से जाना जाता है।

गांव के मध्य में पुराने जमाने से ठाकुर जी का एक मंदिर बना हुआ है। इस मंदिर के नीचे एक खेत छोड़ा हुआ है, जिसे मौरा (अर्थात ऊंचा) का खेत कहते हैं। ब्राह्मणों के इस गाँव से अन्यत्र चले जाने के बाद इस मंदिर में धूप-ध्यावना के काम के लिए रामगढ़ के मालदास स्वामी को यहाँ बसाया गया। उन्हीं के वंशज अब भी इस मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं।

गांव के पश्चिम-उत्तर में रामदेव जी का टीला/'भर' है जहाँ पर लोकदेवता रामदेव जी का सैकड़ों वर्ष पुराना देवरा बना हुआ है। इस देवरे/ छोटे- से पूजा-स्थान के बारे में यह बताया जाता है कि लोकदेवता रामदेव जी रुणेचा से नवलगढ़ जाते समय यहाँ इस टीले/भर पर रात को रुके थे, इसलिए बाद में यहाँ ये थान बनाया गया। सन 1985 के लगभग स्व. इसरराम (ईश्वरराम ) मेघवाल ने इस रेतीले टीले के नीचे दबा यह पुराना थान मय चबूतरा वहाँ से रेत का ढेर हटाकर ढूंढ निकाला। गांव के उत्तर में गोगा जी महाराज की मैड़ी/पूजा-स्थल स्थित है, जिसके नीचे तीन बीघा भूमि आरक्षित कर छोड़ी हुई है।

गांव के मुख्य कुएँ एवं दलित बस्ती में लोक देवता गोगा जी की मेड़ियां/पूजा-स्थल हैं। मुख्य कुएँ के पास स्थित गोगा पीर की मेड़ी की ख़ास बात यह है कि इसमें धूप-ध्यावना (पूजा-अर्चना) एक कायमखानी परिवार करता है। गांव के बाहर चूरू की ओर की सड़क के किनारे शिव जी के मंदिर का निर्माण श्री भवानीसिंह शेखावत की देखरेख में सन 2008 में पूर्ण हुआ। सन 1983-84 में गांव के दक्षिण में मुख्य कुएँ के पास मुस्लिम समुदाय ने मस्ज़िद का निर्माण करवाया।

पेड़ों के प्रति श्रद्धा: गांव के समीप उत्तरी-पश्चिमी दिशा में स्थित खेड़े में बड़े-बड़े पुराने खेजड़े के पेड़ (जांट ) थे जिन्हें अलग-अलग लोकदेवता का नाम देकर भादवा शुक्ल पक्ष की सप्तमी को 'भगुता/ भगुन्ता' , अष्टमी को 'केसरा', नवमी को 'गोगा' के रूप में पूजा जाता था। इन तिथियों पर घरों में खीर बनाकर इन पेड़ों को धोक लगाई जाती थी। चाहरों के खेड़े में 'हणमान जी' के नाम से चर्चित विशाल जांट था, जिस पर कोई बिरला आदमी ही चढ़ पाता था। इसी खेड़े में स्थित 'शीतला' नामक जांटी को शीतलाष्टमी को गांववासी धोक लगाते थे। इन लोक देवताओं के लिए तय तिथियों पर ग्रामवासी उन पेड़ों को देवता तुल्य मानकर उनकी पूजा करते थे। ये सब लोक संस्कृति में प्रकृति के प्रति प्रेम एवं प्राचीन प्रथाओं व परंपराओं के मूक इतिहास के साक्षी थे। सैंकड़ों वर्ष की उम्र पार कर चुके इन पेड़ों को 1980 के दशक में खेड़े/ खेड़ी के घणियों ने इन्हें काटकर इनके नीचे की ज़मीन रिहाइश के लिए बेच दी और अब यह रिहायशी इलाका बन चुका है।

गाँव के दक्षिण में वर्तमान में जहाँ राजकीय बालिका विद्यालय स्थित है, उसके आगे के रास्ते के उस पार सैंकड़ों वर्ष पुराना जो जांट (पेड़) अभी भी रुतबे से खड़ा है, उसे 'हणमान जी ' नाम से जाना जाता है। सन 1963 में जब यहाँ प्राइमरी स्कूल के मकानों के निर्माण शुरू हुआ तो खेड़े के धणी बने श्री जगनाराम दरोगा ने रास्ते के उस पार स्थित इस पेड़ को कटवाने और इस थोड़ी से जमीन को बेचने का सौदा महरूम नूरे खां से कर लिया था। जब नूरेखां जी इस पेड़ को काटने पहुँचे तो पास में स्थित घर के मालिक श्री भूराराम ईसराण को इस सौदे का पता चला। श्री भूराराम ईसराण ने श्री नूरे खाँ को इस सौदे के लिए तय हुई रक़म 90 रुपये से 10 रुपये ज्यादा उसी समय चुकाकर इस बुजुर्ग पेड़ को कटने से बचा लिया और इसके आसपास की जमीन को सार्वजनिक उपयोग के लिए छुड़वा लिया। उस समय एक सौ रुपये बड़ी रक़म मानी जाती थी। उस समय आसपास और कोई पेड़ नहीं होने से बच्चों के खेलने, दोपहरी में पशुओं के बैठने व राहगीरों के लिए इस पेड़ की ख़ास अहमियत थी और अब भी है। इस पेड़ के नीचे बैठने का गोल गट्टा श्री हरफूल ईसराण ने सन 2007 में बनवाया।

मेघसर के ईसराण गोत्र का इतिहास

ईसराण गोत्र का उद्भव: ईसराण गोत्र के उद्गम से पहले की वंश वृक्षावली में प्रथम संत पुरूष श्री महिदास जी हुए। उनकी 65 पीढ़ी उपरांत श्री पुरुषोत्तम नामक सिद्ध पुरुष हुए। श्री पुरूषोत्तम जी के चार पुत्र थे:-

1. श्री ज्ञानी/ ज्यानी राय ----ज्यानी/ज्याणी

2. श्री जोरराज----झूरिया

3. श्री हेमराज----हुड्डा

4. श्री ईसरराय---ईसराण/ ईशराम

इस तरह ज्याणी, झूरिया, हुड्डा एवं ईसराण/ ईशराम की नख एक हुई।

ईसरराय:- पृथ्वीराज चौहान के शासन काल में सन 1192 में श्री ईसरराय जी ने पश्चिमी राजस्थान में एक स्थान पर कुआं और बावड़ी खुदवा कर ईसराणों गांव बसाया। श्री ईसरराय ने ईसराण गोत्र को प्रसिद्धि दिलवाई।

ईसरराय के दो पुत्र थे:- 1. आशाराम (अविवाहित/ निःसंतान), 2. कालूराम,

कालूराम के तीन पुत्र:- 1.भैराराम, 2.सुखाराम, 3. कानाराम

कानाराम के दो पुत्र थे: 1. गोरूराम (अविवाहित/ नि:सन्तान), 2. मालाराम

मालाराम ने 1322 ई. में मालगांव बसाया। इनके 6 पुत्र थे जिनके नाम ये थे:- 1. श्यामुराम, 2. पीथाराम, 3. नन्दराम, 4. सुरताराम 5. मेदाराम 6. छाजाराम

छाजाराम सन् 1572 में मालगांव छोड़कर गांव ताखालसर तहसील- फतेहपुर जिला- सीकर में आकर बस गए।

छाजाराम ईसराण की वंश पुरुषावली:- 1. जयराम, 2. नेतराम, 3. दानाराम, 4. परसाराम, 5. मोटाराम, 6. सेवाराम

ईसराण गोत्र के जाटों का मेघसर में आगमन: चाहर गोत्र के जाटों द्वारा बसाए गए मेघसर गाँव में जाटों में सबसे पहले बाहर से आकर बसने वालों में ईसराण गोत्र के जाट थे। मुख्य रूप से चाहर गोत्र के जाटों से आबाद मेघसर गाँव में ताकलसर गाँव ( तहसील- फतेहपुर, जिला- सीकर ) के रहवासी श्री मोटाराम ईसराण का विवाह संवत 1849 ( सन 1792 ई. ) में इस गाँव के चाहर गोत्र के परिवार की लड़की सुखी से हुआ। तीन-चार साल बाद उनके पुत्र हुआ जिसका नाम था श्री सेवाराम ईसराण, जो कि इस गांव में चाहर गोत्र के भाणजे हुए। श्री मोटाराम अपनी पत्नी श्रीमती सुखी ( चाहर गोत्र ) व बेटे श्री सेवाराम ईसराण के साथ मेघसर में बस गए और यहाँ के स्थायी निवासी हो गए।

श्री सेवाराम ईसराण के 6 पुत्र थे, जिनके नाम ये थे:-

1. श्री लिखमाराम

2. श्री देवाराम

3. श्री लालाराम ( इनके एक पुत्री थी )

4. श्री कालूराम ( बचपन में मृत्यु )

5. श्री सुखाराम ( निःसंतान )

6. श्री मुकनाराम ( निःसंतान )

स्व. लिखमाराम व स्व. देवाराम ईसराण के बेटे-पोतों-पड़पोतों की संतति मेघसर गांव में अभी आबाद है।

[स्रोत: ईसराण गोत्र के बही भाट/ जागा श्री कानसिंह गांव ढेंचवास, पोस्ट - चौसाला वाया डिग्गी तहसील- मालपुरा जिला- टोंक ( राजस्थान) के पास उपलब्ध पौथी/अभिलेख में दर्ज विवरण।]

स्व. लिखमाराम के घर में पुराने जमाने की लोहे की बनी हुई एक भारी भरकम मजबूत तिजोरी थी। इनके इकलौते पुत्र का नाम श्री पेमाराम था। इनका घर गाँव के जागीरदार के गढ़ के एकदम सामने स्थित है। दबंग ऐसे कि गाँव के जागीरदार ठाकुर कुशलसिंह को अक्सर चुनौती देते रहते थे। इसलिए कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने को मज़बूर हुए। स्व. पेमाराम के 6 पुत्र हुए जिनके नाम ये हैं:-

1. श्री पदमाराम, 2. श्री बेगाराम, 3. श्री अनोपसिंह, 4. श्री हणमान, 5. श्री सोहन, 6. श्री छतुराम

परिवार में पहले सरकारी कर्मचारी स्व. अनोप सिंह थे, जो आर.ए .सी. में सन 1972 में भर्ती हुए।

स्व. पेमाराम के छः बेटों में से तीन बेटे सर्व श्री पदमाराम, सोहन एवं छतुराम सन 1976 के आसपास यहाँ से गाँव भोजासर छोटा ( तहसील- सरदारशहर ) जाकर बस गए। स्व. पदमाराम व्यापारिक गतिविधियों में बेहद रुचि रखते थे। उनके छोटे भाई श्री बेगाराम ईसराण घुम्मकड़ आदमी हैं ; आज यहाँ तो कल वहाँ। प्रदेश के दूर दराज इलाकों में ख़ूब चहलकदमी की है, इसलिए हर क़ौम में इनकी जानकारी है।

श्री देवाराम के 5 पुत्र थे, जिनके नाम ये हैं:-

1. श्री देवाराम के सबसे बड़े पुत्र का नाम श्री नोरंगराम था। इनके इकलौते पुत्र का नाम श्री बिड़दाराम था। स्व. नोरंगराम बहुत ही मजबूत जिस्म के मेहनती इंसान थे। खेती के काम में कोई कसर नहीं छोड़ते थे। स्व. बिड़दाराम के पुत्र स्व. गोरधन के पुत्र सुभाष बिजली विभाग में परिवार के पहले सरकारी नौकर बने।

2. श्री चेतनराम ( इनके दो पुत्रों के नाम: श्री जमनाराम व श्री भैराराम ) स्व. लालाराम के कोई पुत्र नहीं होने के कारण उन्होंने श्री चेतनराम को गोद ले लिया। बहुत ही समझदार और सुलझे हुए ( सयाणे ) आदमी के रूप में गाँव में इनकी पहचान थी। स्व. चेतनराम के पुत्र श्री जमना राम की याददाश्त गज़ब की थी। घटनाओं की तिथि एवं साल हरदम उनकी ज़ुबान पर रहती थीं। श्री भैराराम को गाँव के जाट परिवारों में ही नहीं अपितु सारे गाँव में सबसे पहले शिक्षक बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इन्होंने 1 जुलाई 1958 को अध्यापक के पद पर सरकारी नौकरी जॉइन की।

3. श्री अरजन राम ( इनके दो पुत्रों के नाम : श्री हनुमानाराम व श्री हरफूल ) स्व. अरजन राम दंद-फंद से दूर रहने वाले अत्यंत सरल, सीधे व नेक नियत वाले इंसान के रूप में गाँव में इज्ज़त थी। स्व. अरजन राम के पुत्र श्री हनुमाना राम ईसराण को गाँव का सबसे पहला कॉलेज लेक्चरर बनने का गौरव प्राप्त हुआ। इन्होंने 4 दिसम्बर 1978 को राजकीय कॉलेज, करौली में अंग्रेज़ी के लेक्चरर की पोस्ट पर नौकरी जॉइन की।

4. श्री इंद्राराम ( इनके पांच पुत्रों के नाम:- सर्व श्री उदराम, रामेसर, गोरूराम, गणपत, तेजाराम) घरेलू व पशुपालन का काम ख़ूब मेहनत से करते थे। स्वभाव से कड़क ऐसे कि कोई अपने को कितना भी तीसमारखाँ क्यों न समझता हो, उसे खरी-खरी सुनाने में कोई हिचक नहीं करते थे। परिवार में पहला सरकारी नौकर बनने का श्रेय स्व. गोरुराम को जाता है, जिन्होंने सन 1970 में गाँव में पोस्टमैन की नौकरी जॉइन की।

5. श्री देवाराम के पांच पुत्रों में सबसे छोटे पुत्र श्री भूराराम (इनके पांच पुत्रों का नाम: सर्व श्री किसनाराम, साँवताराम, भगूता राम, प्रताप, विद्याधर )

स्व. भूराराम खरीद-बेचान की गतिविधियों में रुचि रखते थे। ऊंटों की खरीद-फ़रोख्त (सौदागरी ) का काम इतना सोच-समझकर करते थे कि अक़्सर उसमें उन्हें नफा ही होता था, इसलिए हमेशा आंटी में रुपये रखते थे। इनके परिवार में पहला सरकारी नौकर बनने का श्रेय श्री साँवताराम ने प्राप्त किया, जिन्होंने दिसम्बर 1981 में ग्रामीण बैंक में नौकरी जॉइन की।

मेघसर के चाहर गोत्र का इतिहास

चाहरों की वंश वृक्षावली एवं पलायन: संवत 2001 (सन् 1944) की बीकानेर स्टेट की मिसल बंदोबस्त में दर्ज़ चाहर गोत्र की वंश वृक्षावली के अनुसार गाँव के संस्थापक श्री मेघा चाहर के कई पीढ़ियों के बाद के वंशज तेजा चाहर (संवत 2001 में ) के दो बेटे थे, जिनके नाम खेता और नानग थे। नानग के पांच पुत्रों के नाम थे: बुद्धर, मुकना, लिखमा, डूंगर एवं लाला। डूंगर के दो पुत्र चेतन व पन्ना थे जो बाद में बीकानेर जाकर बस गए। चाहर गोत्र के बहुत से परिवार इस गाँव में आबाद थे, जिनमें से कुछ परिवार कालांतर में यह गाँव छोड़कर नैयासर (सरदारशहर), महरी (सरदारशहर), कांगड़ (रतनगढ़), छाजूसर (चूरू), निराधना/निराधनू आदि गाँवों में जाकर बस गए। वर्तमान में सिर्फ स्व. लालाराम के पुत्र स्व. आशाराम चाहर के बेटे-पोते इस गाँव में आबाद हैं। स्व. आशाराम चाहर की औलाद को छोड़कर बाकी सभी चाहर अन्यत्र जाकर बस गए।

चाहर परिवार का खेड़े में बसना: गांव के मुख्य गढ़ के सामने बसने वाले चाहर गोत्र के जाट परिवार के घर में उस पुराने जमाने में चूने-पत्थर के पक्के मकान थे लेकिन संवत 1999 (सन 1942) में गाँव में हुई अतिवृष्टि के फलस्वरूप घर में पानी भराव के कारण दरवाजा व मकान ढह गए।

चाहर गोत्र का यह परिवार सन 1979 में अपना यह पुश्तैनी रिहायशी घर छोड़कर गांव के उत्तर में स्थित अपने खेड़े में जाकर बस गया। ये जमीन सामुदायिक उपयोग के लिए गांववासियों ने खरीद कर वहाँ पर 1980 में 'काम के बदले अनाज योजना' के अंतर्गत धर्मशाला का निर्माण करवा दिया। उसी जमीन के एक हिस्से में सन 1988 में सरकारी औषधालय भवन का निर्माण करवाया गया, जिसमें आयुर्वेदिक औषधालय संचालित हो रहा है।

मेघसर के रणवां गोत्र का इतिहास

रणवां गोत्र के जाट: इतिहास के आईने में झांकने पर पता चलता है कि रणवां गोत्र का उद्गम ऐसे लड़ाकुओं से हुआ जो अत्यधिक खूँखार लड़ाका थे। "Ranwa...This gotra originated from ranbankure people who were very ferocious warriors." [Source: 1.Mahendra Singh Arya et al: Adhunik Jat Itihas, p.277, 2. Mahipal Arya, Jat Jyoti, Aug. 2013, p.14 ]

मारवाड़ में बल्हारा जाटों का पुराने जमाने में बड़ा राज्य था। डीडवाना परगने के मौलासर पर भी ये राज करते थे। बाद में बल्हारों ने मौलासर के पास रिणवां/ रणवां जाटों के राज्य कोयलपाटन (कौलिया) पर कब्जा कर लिया। लगभग साढ़े चार सौ साल पहले कोयलपाटन में रिणवा और बल्हारों के बीच लड़ाई हुई थी, जिनमें कई रिणवां मारे गए थे। यहां कई रिणवां सतियों की मूर्तियां मौजूद हैं। [ स्रोत: डॉ. पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास, पृष्ठ 21-22

रणवां गोत्र के जाटों का मेघसर में आगमन: रणवां गोत्र के जाट श्री टिक्कूराम सन 1880 के लगभग तिहाय गाँव (तहसील-रामगढ़-सेठाण) छोड़कर मेघसर गाँव में आकर बसे। श्री टिक्कूराम के पांच पुत्रों के ये नाम थे: 1. कालूराम 2. धन्नाराम 3. बुधाराम 4. जीवणराम 5. भेभाराम

कुछ वर्षों बाद गाँव के जागीरदार से खटपट होने पर श्री बुधाराम व श्री धन्नाराम को पास के गाँव सहनाली बड़ी में और श्री जीवणराम को दाऊदसर में अपने रिश्तेदारों के पास लगभग पांच-छः महीने रहकर गुजारने पड़े। उस दौरान श्री धन्नाराम का देहान्त सहनाली बड़ी में हो गया। फिर जागीरदार से सुलह होने के बाद वहाँ से वापिस मेघसर में आकर स्थाई रूप से आबाद हो गए। बता दें, उस जमाने में स्व. टीकूराम रणवां के घर पर पुराने जमाने की लोहे की तिजोरी थी और वह बाद में उनके सबसे छोटे बेटे श्री भेभाराम को हस्तानांतरित हुई।

श्री कालूराम के दो पुत्र लादूराम (निःसंतान ) एवं श्री दूदाराम थे। श्री दूदाराम के पुत्रों के नाम हैं: सर्व श्री हरचंद, जगदीश, शेराराम, शीशपाल। श्री बुधाराम रणवां का असामयिक निधन अबोहर-फाजिल्का से ऊँट से 'कतार' (बाजरा खरीद) लाने के दौरान रास्ते में जहरीले सांप के काटने से सन 1950 (विक्रम संवत 2007) में हो गया। नोहर-भादरा के आसपास घटे इस हादसे पर वहीं पर उनका अंतिम संस्कार करना पड़ा। उनके तीन पुत्रों के नाम ये हैं: सर्व श्री मूलाराम, मघाराम व कुंभाराम।

श्री कालूराम के दो पुत्र लादूराम (निःसंतान ) एवं श्री दूदाराम थे। श्री दूदाराम के पुत्रों के नाम हैं: सर्व श्री हरचंद, जगदीश, शेराराम, शीशपाल। श्री जीवनराम रणवां के दो पुत्र थे जिनके नाम सर्व श्री मुकनाराम व दल्लाराम था।

श्री भेभाराम के तीन पुत्रों के नाम ये हैं: सर्व श्री सांवलराम, रामकुमार सिंह एवं रामेश्वर। श्री सांवलराम राजनीति और पंचायती में खास रुचि रखते थे। किसी फायदेमंद नई बात को अपनाने से नहीं हिचकते थे। इसकी एक मिसाल पेश है। उन्नीस सौ सत्तर के दशक तक अज्ञानता के कारण गाँवों में परिवार नियोजन को अपनाना तो दूर की बात थी, उसके बारे में बात करना भी वर्जित था। उस दौर में श्री सांवलराम रणवां तथा श्री पदमाराम ईसराण दोनों एक राय होकर सन 1969 में बीकानेर के पी बी एम अस्पताल गए और वहाँ पर खुद के खर्चे पर पुरुष नसबंदी करवाकर आए। बता दें कि सन 1975 से पहले परिवार नियोजन अपनाने पर किसी प्रकार का कोई विशेष प्रोत्साहन देय नहीं था। गाँव में सबसे पहले पुरुष नसबंदी करवाने का श्रेय इन दो व्यक्तियों को सामूहिक रूप में जाता है। ये सब लंबे समय तक आसपास के गाँवों में भी चर्चा का विषय बना रहा।

रुन्दला व झाझड़िया गोत्र के जाटों का मेघसर आगमन

श्री जगदेवा राम रुन्दला सन् 1923 (वि. संवत 1980) में दुर्जनपुरा (अब नवलगढ़ में समाहित) गाँव से मेघसर में आकर बसे। इसके अगले साल सन 1924 में श्री लिखमाराम झाझड़िया, जिनका रुन्दला परिवार से मामा-भांजा का रिश्ता था, वे भी झाझड़िया की ढाणी (नवलगढ़) से मेघसर गाँव आकर यहाँ बस गए। दोनों परिवार बैलों की जोड़ी से कुओं से पानी निकालने का काम में माहिर थे। इसलिए कूएँ के काम हेतु उनकी यहाँ पूछ थी। श्री जगदेवा राम/ जग्गू जी रुन्दला के मेघसर गाँव में बसने के कुछ वर्षों बाद उनके छोटे भाई हणमान जी, जो कि अविवाहित थे, वे भी उनके पास आ गए।

कुएँ से पानी निकालने के काम में रुन्दला परिवार निपुण होने के कारण गाँव को इनकी ज़रूरत थी। इसलिए इन्हें अहमियत भी मिली। गाँव में लोग रुन्दला परिवार को अक्सर शेखावाटी के जाट कहते थे। श्री जग्गू जी के चार पुत्रों के नाम ये हैं: सर्व श्री चेतन राम, चिमना राम, पेमाराम व दीपाराम। श्री दीपाराम रुन्दला का जन्म मेघसर गाँव में ही हुआ। गाँव में जाटों में सबसे पहले प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई करने वालों में उनका नाम शुमार है।

श्री लिखमाराम झाझड़िया के साथ उनके छोटे भाई बल्लू जी झाझड़िया भी मेघसर आए थे और वे अविवाहित थे। श्री लिखमाराम के इकलौते बेटे श्री गीगाराम का जन्म मेघसर में हुआ, जिनकी असामयिक मृत्यु सन 1966 में रुन्दला परिवार की एक कच्ची खुड्डी की दीवार को गिराने के दौरान हुए हादसे में दीवार के नीचे दबने से हो गई। इस दुर्घटना से परिवार पर तो वज्रपात हुआ ही, साथ ही उस दिन सारा गांव शोक में डूब गया था। स्व. गीगाराम के चार पुत्रों के नाम सर्व श्री सुरजाराम, देबुराम, रामचन्द्र एवं शिशुपाल हैं।

रुन्दला परिवार ने गाँव में कर्मठता की नई मिसाल क़ायम की। जग्गू जी रुन्दला बैलों की जोड़ी से बैलगाड़ी चलाने एवं खेत की जुताई का काम बड़े सलीक़े से करते थे। बाड़ी का काम करने एवं खेड़े में पैदावार बढ़ाने के लिए गढ़े खोदकर उसमें गोबर डालते रहते थे। साल-भर अपने खेड़े एवं खेत की समुचित सार-संभाल करने से उनके खेड़े व खेत में अच्छी पैदावार होती रही। गाँववासियों के सामने खेती में उपज बढ़ाने के लिए नवाचार की उन्होंने एक मिसाल क़ायम की।

जग्गू जी हुनरमंद कारीगर भी थे। खेती व घर के दैनिक उपयोग के लिए ज़रूरी लकड़ी के औजार ख़ुद ही बना लेते थे। खाती, लुहार व नाई से संबंधित कई काम वो खुद कर लेते थे। गाँव में चर्चित नवाचारी थे वे। उनके परिवार में भाई लगने वाले श्री रेखाराम रुन्दला भी उस समय रामगढ़ सेठाण में रहते थे और वे भी वहाँ कुएँ से पानी निकालने का काम करते थे। एक बार उन्होंने जग्गू जी को अपने पास रामगढ़ बुलाया और कहा कि मेघसर गाँव में कमाई नहीं है, इसलिए सलाह दी कि वे उनके पास रामगढ़ आकर बस जाएं। पर जग्गू जी ने कहा कि उन्होंने तो अपना दमखम मेघसर गाँव में दिखाने की ठान रखी है।

जग्गू जी की जुगत का कमाल था कि बाहर से आकर इस गांव में बसने के बाद के वर्षों में उन्होंने अपनी मेहनत के बल पर अपने बेटों के रहवास के लिए सन 1958 में चूने-पत्थर की पक्की चौकबंद हवेली बनवाई, बाहर आमरास्ते के पास बैठक के कमरे बनवाए। सेठों की हवेलियों के आगे लगे बड़े दरवाज़े की तर्ज़ पर अपने घर के बड़ा दरवाजा लगवाया और बाहर आम रास्ते की तरफ लोगों के बैठने के लिए पक्का लंबा चबूतरा भी बनवाया, जहाँ अभी भी गांववासी बैठकर गपशप करते रहते हैं। हवेली बनवाने के काम में गाँव के ठाकुर कुशल सिंह ने कई अड़ंगे लगाए। खदानों से चुने-पत्थर की निकासी पर रोक लगा दी। घर की सीमा का विवाद खड़ा करके हवेली के बाहर चबूतरा बनाने से रोका गया।

उल्लेखनीय है कि उस समय यह गांव रतननगर पंचायत में था। दूरदृष्टि के धनी जग्गू जी ने रतननगर पंचायत के तत्कालीन सरपंच श्री सांवरमल सोनी से अपने घर का पट्टा बनवाकर हवेली बनवाने का काम शुरू किया। इस कारण निर्माण कार्य को रोकने के लिए खड़ी की गई सारी अड़चनों का निवारण हो गया और आख़िर बड़ी जदोजहद के बाद हवेली-निर्माण का काम पूरा हो सका। श्री जग्गू जी का देहान्त सन 1962 में हो गया।

बता दें कि सन 1958 में ही श्री लिखमाराम झाझड़िया, श्री पेमाराम ईसराण व श्री भेभाराम रणवां ने भी अपने घरों में खुली हवेली का एक तरफ़ का हिस्सा बनवाने के लिए 'चेजे' (construction work निर्माण कार्य) का काम शुरू किया।


मेघसर गाँव में खीचड़ गोत्र के कुछ जाट परिवार भी आबाद थे पर वे कालांतर में यह गाँव छोड़कर ढाणी रणवां (चूरू) में जाकर बस गए। पुरखे बताते थे कि गुज़रे जमाने में इस गाँव में चबरवाल गोत्र का भी एक जाट परिवार आबाद था पर उस परिवार का वंश यहाँ ख़त्म हो गया। बाद में श्री नोरंगराम ईसराण उस गुवाड़ी में आबाद हुए।

गांव की जातीय संरचना

349 घरों और कुल 1871 जनसंख्या की आबादी वाले इस गाँव में जाट, राजपूत, दरोगा, खाती, नाई, स्वामी, मुस्लिम (कायमखानी), काज़ी, मेघवाल, नायक, ढोली जाति के लोग रिहाइश करते हैं।

धार्मिक और जातीय सद्भाव इस गांव की ख़ासियत रही है। याद आता है कि सन 1990 के लगभग तक होली-दिवाली के त्योहार पर हरेक जाट के घर पर खेत-पड़ौसी या दोस्ताना ताल्लुक़ात वाले चार-पांच कायमखानी परिवार के पुरुषों व बच्चों को पहले से निमंत्रित किया जाता था और उनको बड़ी मनुहार से उन दिनों सभी घरों में मिष्ठान के रूप में पकाए जाने वाले चावल मय घी-शक्कर परोसा जाता था। हिन्दू व मुस्लिम समुदाय के घरों में बड़े प्रेम से एक दूजे के त्योहारों पर परोसा (हांथी) घर पर जाकर सौंपने का रिवाज़ था। ईद व बक़रीद के दिन आपसी प्रेम-भाव रखने वाले चार-पांच जाट परिवारों के बच्चों व बड़ों को हरेक कायमखानी परिवार अपने घर पर निमंत्रित करता था। उनके घरों में बनने वाले चावल का हलवा (सफ़ेद सीरा) व पतले फलके जिनके ऊपर की फूली हुई पपड़ी उतारकर उसे दो फलके के रूप में परोसते थे। बच्चे बड़े चाव से इन त्योहारों का इंतज़ार करते थे। होली के त्योहार पर मुस्लिम समुदाय के लोग गाँव के गुवाड़ में चंग बजाने, स्वांग रचने, गींदड़ नृत्य में बढ़चढ़ कर शामिल होते थे। कहीं कोई दुराव नहीं, आपसी प्रेम-भाव परवान पर था। सभी जातियों के पुरुष धोती-कुर्ता ही पहनते थे। देखकर अनजान को भेद करना मुश्किल होता था कि कौन किस समुदाय का है। जब से थोड़ी बहुत कमाई का गुमान दोनों ओर से बढ़ने लगा और देश में नब्बे के दशक से मंदिर-मस्जिद मसला गर्माने लगा तब से ये तहज़ीब दम तोड़ने लगी है।

जनसंख्या: (जनसंख्या गणना 2011के अनुसार): मेघसर गाँव कुल 349 परिवारों की बस्ती वाला एक मझोला गाँव है। कुल जनसंख्या 1871 है, जिसमें से 941 पुरुष और 930 महिलाएं हैं। गाँव का औसत लिंगानुपात 988 है जो कि राजस्थान राज्य के औसत 928 से ऊपर है। गाँव में साक्षरता प्रतिशत 60.11 है, जबकि राजस्थान राज्य का साक्षरता प्रतिशत 66.11है। मेघसर में पुरुषों का साक्षरता प्रतिशत 72.47 जबकि महिलाओं का साक्षरता प्रतिशत 47.88 है।

जातिवार घरों की संख्या: जाट (76), राजपूत (20), दरोगा (18), कायमखानी मुस्लिम (93 ), काजी (20), मेघवाल (95), ढोली (7), नायक (10), स्वामी (4), खाती (4), नाई (3)

जाटों के गोत्रवार घरों की संख्या इस प्रकार है:

ईसराण (28), रणवां (27), चाहर (5), रुन्दला (13), झाझड़िया (5)

मेघवालों का आगमन: गाँव में मेघवालों में सबसे पहले छापुनिया गोत्र के दो भाई जेसा ओर मुण अजमेर से इस गाँव में आकर बसे। बाद में अन्य गोत्र के मेघवाल आकर बसे। सन 1920 के दशक में जन्मे इस गाँव के स्व. रतनाराम मेघवाल उस जमाने में भी सामान्य रूप से पढ़े- लिखे थे। उन्हें किताब बांचना आता था और वे अच्छे भजन-गायक थे। उनकी आगे की पीढ़ी के हुकमाराम मेघवाल व रामेसर मेघवाल ने भी अच्छे भजन-गायक के रूप में अपना रुतबा क़ायम किया।

अन्य जातियों का आगमन: गाँव में जो कायमखानी परिवार हैं उनके पूर्वज समीप के नेठवा गाँव से आकर यहाँ बसे थे। दरोग़ा परिवारों के पूर्वज सर्व श्री जगनाराम, पोकरराम, सोहनराम आदि 20 वीं सदी के शुरू के दशकों में भैरुंसर (चूरू) गांव से आकर बसे।

पेय-जल स्रोत

केडिया का कूआँ: रेगिस्तानी इलाके में पुराने जमाने में पेय-जल स्रोत के रूप में अनेक तरीके यथा टांका, नाडा, नाडी, कुई, कुंड, तालाब, सांठी कुएँ आदि अपनाये जाते थे। मेघसर गाँव के बीच से सहनाली गांव की तरफ जाने वाले रास्ते पर स्थित पुराने कुए का निर्माण रतननगर कस्बा बसाने वाले सेठ नंदराम केढिया ने सन 1862 के लगभग करवाया। इस कुएँ के अधीन उत्तर दिशा में खेड़ी छोड़ी गई। कालांतर में इस कुए का पानी खारा होता चला गया और अंततः अनुपयोगी होने से इस कुए का इस्तेमाल गणगौर के दिन मिट्टी की बनी गणगौरों को इसमें धकेलने के लिए होने लगा। वर्तमान में इस कुएं का भू -भाग आसपास से अतिक्रमण की भेंट चढ़ चुका है।

चार मुरवों का कूआँ: गांव की दक्षिण दिशा में स्थित चार मुरवों के कूएँ का निर्माण रामगढ़ सेठाण के कुरड़ी कूट सेठ ने सन 1870 के लगभग करवाया। सारा गाँव इस कूएँ के प्रति कृतज्ञ हैं क्योंकि सबसे लंबे समय तक गाँव में पानी आपूर्ति का यही मुख्य स्रोत रहा है।

24 मार्च1977 को कुएँ पर बिजली लगने से पहले कुएँ से ऊंट के ज़रिए पानी निकालने के लिए मोटे चमड़े की ढोलनुमा आकृति वाले 'चड़स' को 'लाव' ( सण से बने मोटे रस्से ) से जोड़कर उसे कूएँ में उड़ेलकर, फिर उसे ऊंट से 'किली' में जोतकर कूएँ से पानी निकाला जाता था। कूएँ की मुंडेर पर खड़ा रहकर इस श्रमसाध्य काम को अंजाम देने वाले 'बारिया' (पानी के चड़स का परिचालन करने वाला व्यक्ति ) एवं ऊंट धारक को मासिक मेहनताना परिवार में प्रति व्यक्ति व पशु की गणना कर परिवारों से उगाई कर दिया जाता था। जग्गू जी रुन्दला के बाद मेरी याद में इस कुँए से पानी निकालने में 'बारिया' के रूप में श्री सोहनराम दरोग़ा एवं ऊँट धारक के रूप में श्री शहबदी स्या काज़ी की जोड़ी ने कुएँ से पानी निकालने का काम बड़े मनोयोग से कई वर्षों तक अंजाम दिया।

इस कुएँ के नीचे जोहड़े से सटती हुई पूर्व से पश्चिम दिशाओं में काफी जमीन--जाव/ खेड़ी, खेड़ा, खेत-- भी छोड़ी गई। पूर्व में जाव ( उपजाऊ भूमि ) के नाम से खेड़ी ( खेत ) आरक्षित की गई जिस पर बाद में श्री बृज लाल सिंह राठौड़ ( श्री बिलाल जी ) ने खातेदारी का कब्ज़ा हासिल कर लिया। इस खेड़ी को बाद में रिहाइश के लिए बेच देने के बाद वहाँ पर अब राजपूतों व अन्य जातियों के घर बने हुए हैं। दक्षिण व पश्चिम दिशाओं में भी बहुत बड़ा खेड़ा इस कुए के नीचे छोड़ा गया। वर्तमान में संचालित सरकारी बालिका उच्च प्राथमिक स्कूल के एकदम पीछे उस खेड़े में सेठों ने कुएँ से पानी निकालने का काम करने वालों एवं खेड़े में काम करने वाले कामगारों के लिए पक्के मकान भी बनवाए थे। कालांतर में कुएँ के नीचे के इस खेड़े के बड़े हिस्से पर हक़ जागीरदार द्वारा अपने चहेतों स्व. जगनाराम दरोगा एवं अन्य को दे दिया गया। खेड़े में कुएँ के पास सेठों द्वारा बनवाए गए मकान ध्वस्त होने के बाद खेड़े के कब्जेदार ने ये ज़मीन दूसरों को बसने के लिए बेच दी। अब वहां पर कई परिवार आबाद हो चुके हैं। सेठ परिवार को खेड़े से पश्चिम की ओर खेत दिया गया।

जल-संचय हेतु पक्का जोहड़ा: गांव की दक्षिण दिशा में कुछ दूरी पर रामगढ़ की ओर जाने वाले रास्ते पर स्थित पक्के जोहड़े का निर्माण भी रामगढ़ के सेठों ने लगभग सन 1871 के लगभग करवाया। रामगढ़ के सेठों के बनवाए गए कुए से एक पक्का नाला बनाकर जोहड़े की चिनाई के काम के लिए पानी पहुंचाया जाता था। ये नाला सन 1970 तक अस्तित्व में था। जोहड़ा कलात्मक एवं पुख्तापन की दृष्टि से अनुपम है तथा इसकी पानी की भराव क्षमता भी पर्याप्त है। ( फ़ोटो देखें )

सभी ग्रामवासी प्रति वर्ष जून में वर्षात होने के बाद से लगभग दीपावली के आसपास (अक्टूबर-नवम्बर माह) तक इस जोहड़े से घड़ों से पानी ढोकर अपने घर लाते थे। दिन भर खेत का काम करना और फिर घर के लिए जोहड़े से पानी ढोकर लाना। बड़ा कष्टसाध्य जीवन जीने को मजबूर थे। इसलिए वे पानी की बूंद- बूंद का असली मोल समझते थे।

इस जोहड़े के एक भाग में पशुओं के लिए पानी पीने के लिए संचित होता था, जिसे गऊघाट कहा जाता है। लोग अपने पशुओं को जोहड़े के गऊघाट पर पानी पिला कर लाते थे। लोगों के स्नान करने व कपड़े धोने के लिए जोहड़े के पास चौकियां बनी हुई थीं। अक्सर लोग वहीं नहाते व कपड़े धोते थे। जोहड़े में स्नान करना व तैराकी करना सामाजिक रूप से वर्जित था। जोहड़ ही नहीं अपितु पायतन की पवित्रता बनाए रखना सबका धर्म-कर्म माना जाता था। जोहड़ में नहाना और बाहर आगोर में कहीं पर भी गंदगी फैलाने को पाप समझा जाता था। सामाजिक रूप से संस्तुत कुछ क़ायदे के उल्लंघन करने पर दोषी पर जुर्माना थोपने का प्रावधान था।

वर्षा ऋतु के शुरू होने से पहले जोहड़े व इसके पायतन की समुचित साफ-सफाई के लिए सभी गांववासी नियत दिवस पर इक्कठे होकर सामूहिक रूप से मनोयोग से इस जोहड़े व इसके पायतन/ आगोर की समुचित साफ-सफाई करते थे ताकि वर्षात का पानी निर्बाध रूप से जोहड़े में प्रवाहित होकर आ सके। गाँव के हर घर से कम से कम एक व्यक्ति जोहड़े के इस सफाई अभियान में सहर्ष सहयोग देता था। इसे वे पुण्य का काम मानते हुए इसमें उत्साहपूर्वक भाग लेते थे।

बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में यह जोहड़ा सरकार व ग्राम पंचायत की बदसलूकी का शिकार हुआ। अब सिर्फ़ जोहड़ा बचा है। जोहड़े के चारों ओर के पायतन/आगोर और पशु चारागाह के लिए आरक्षित कर छोड़ी गई भूमि पर वर्तमान में आबादी बस चुकी है। जोहड़े का शानदार स्वरूप अब खत्म हो चुका है और इसमें नव आबाद कॉलोनी का गंदा पानी भी समाहित होने लगा है। गाँवों के जोहड़े व तालाब हर दृष्टि से खरे थे पर लोभ-लालच और आधुनिकता के फेर में फंस कर अब इन्हें तबाह कर दिया है। सुदृढ़ बनावट एवं पुख्तापन के कारण जोहड़े का वज़ूद तो अभी क़ायम है, पर जिनके पुरखों की कभी जीवन-रेखा हुआ करता था, उन्हीं की कृतघ्न संतति द्वारा इसके साथ की गई बदसलूकी और बेइंसाफी से यह अब भावविह्वल है।

खेतों के रास्ते पर कच्चे जोहड़े: गाँव के रक़बे के तहत आने वाले खेतों के रास्तों पर समुचित दूरी पर कई जगह भविष्यद्रष्टा पुरखों द्वारा चारागाह के रूप में तथा वर्षात के पानी के संचय हेतु कच्चे जोहड़े व जोहड़ी वास्ते भूमि आरक्षित कर छोड़ी हुई है। गाँव के रकबे में ज्यादातर खेतों की तरफ जाने वाले मुख्य रास्ते पर जो कच्चे जोहड़े/ जोहड़ियां हैं उनके नाम ये हैं: बरसाणा, देवाणा, नडिया, बुच्याणा, लालणी आदि। नेठवा गांव की तरफ के रास्ते पर राजाणी जोहड़ी तथा सहनाली गांव की ओर के रास्ते पर आने वाले खेतों के किसानों के वास्ते गोन्याणा जोहड़ा बना हुआ है। सन 2017 में सरपंच बाबूलाल के कार्यकाल में गांव के गंदे पानी की निकासी नाला बनवाकर व अंडरग्राउंड पाइपलाइन डालकर बरसाणा जोहड़े में की गई है।

बुच्याणा जोहड़े से सटे खेत में सहनाली/ छाजूसर की ओर जाने वाले दर्रे पर जो कुआ बना हुआ है वह कुआ व उसके नीचे छोड़ा गया खेत ब्राह्मण परिवार का था। इस कुए का पानी खारा होने के कारण पीने के लिए इस्तेमाल नहीं हो सका। ब्राह्मणों के यह गाँव छोड़कर जाने के बाद इस कुए व खेत पर स्व. जगनाराम दरोगा ने खातेदारी का कब्ज़ा हासिल कर लिया।

गुज़रे जमाने में खेतों में वर्षात के जल- संग्रहण हेतु अमूमन कोई कुंड नहीं थे। इसलिए उस समय खेती-बाड़ी के महीनों में किसान और उनके पशु इन्हीं जोहड़ों/ जोहड़ियाँ का पानी एक घाट पर पीते थे। प्यासा क्या नहीं करता? किसान व ग्वाले इन कच्चे जोहड़े/ जोहड़ियों का मैटमैला एवं पशुओं के मूत्र से सना पानी अंत में तलछट के रूप में शेष रहने तक उसे पीने को मज़बूर थे। गंदा पानी पीने की वजह से लोग नहरूआ रोग से पीड़ित हो जाते थे।

सार्वजनिक कुंड: बुच्याणा जोहड़े में वर्षा-जल के संचय हेतु सन 1961-62 में एक बड़ा कुंड ग्राम पंचायत के सहयोग से बनवाया गया। यह कुंड अपनी विशालता व गहराई की दृष्टि से ख़ूब चर्चित है। इसकी गहराई 21 फुट व चौड़ाई 16 फुट है। ये कुंड बन जाने से किसानों, ग्वालों व राहगीरों के लिए पानी की किल्लत दूर हुई। वर्तमान में इस कुंड में दरारें पड़ जाने से पानी का समुचित रूप से संचित नहीं हो पा रहा है।

खेतों में कुण्ड: दुमिट्टी या पक्की मिट्टी वाले खेतों में किसानों ने वर्षा जल का संचय करने के लिए समतल भूमि की खुदाई करके कच्ची कुंड/ टांके बना रखे थे। भूमि के प्राकृतिक ढाल की ओर सबसे निचले स्थान में बनाई गई इन कच्ची कुंडों में जिस स्थान का वर्षा-जल टांके में एकत्रित किया जाता है उसे पायतान या आगोर कहते हैं। कच्ची कुंड में संचित पानी के रिसाव को रोकने के लिये इसके के अन्दर व पेंदे पर चिकनी मिट्टी का लेप किया जाता था।

वर्तमान में अधिकतर किसानों द्वारा अपने स्तर पर या सरकारी अनुदान से खेतों में वर्षा-जल संचय वास्ते निजी कुंड बनवा लिए जाने के कारण कच्चे जोहड़ों की क़दर घट चुकी है। सही ढंग से इनकी खुदाई व सार-संभाल के अभाव में इनमें वर्षा का जल- भराव देर तक टिक नहीं पा रहा है। गुज़रे जमाने में ग्रामीण जीवन की जीवन रेखा के रूप में जाने-पहचाने ये जोहड़े/ जोहड़ियाँ अब क्षत -विक्षत हालात में पहुंच चुके हैं और इनके अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं।

चूने-पत्थर की खदानों वाला गाँव

यह गाँव चुने-पत्थर की खदानों के मामले में ख़ूब समृद्ध रहा है। गाँव की पश्चिमी दिशा में सहनाली की तरफ जाने वाली रोड के दोनों ओर काफी दूरी तक के खेतों में अच्छी गुणवत्ता के चूने-पत्थर से लबालब खदानें थीं। इन खदानों से बेहतरीन क़िस्म का चूना-पत्थर निकलता था। इसलिए इसकी ख़ूब ख्याति थी। लगभग सभी खदानों पर गांव के जागीरदार ठाकुर कुशलसिंह का कब्ज़ा था और यही उनकी बेतहाशा आमदनी का ज़रिया बना हुआ था। चेजे ( भवन-निर्माण कार्य ) के काम के लिए इन खदानों से चूना-पत्थर निकालने की एवज़ में ठाकुर को रॉयल्टी देनी पड़ती थी। जागीरदार के लिए बहुत तगड़ी कमाई का ज़रिया थीं ये खदानें। रतननगर, रामगढ़, फतेहपुर आदि कस्बों में जो शानदार हवेलियां बनी हुई हैं वे इस गांव की खदानों के चूने-पत्थर से निर्मित हैं। यहाँ से ये पत्थर ऊंट-ढेंचे व ऊंट गाड़े से ढोकर ले जाए जाते थे। सन 1985 के आसपास ये खदानें बाँझ हो गईं अर्थात इन खदानों का चूना-पत्थर ख़त्म हो गया। वर्तमान में हालात ये हैं कि गाँव में कहीं भी चूना-पत्थर सुलभ नहीं है और जागीदार के वंशजों ने खाली हो चुकी इन खदान वाले खेतों को दूसरों को बेच दिया है।

जनजागरण

बीकानेर रियासत में राजशाही से मुक्ति के लिए चल रहे संग्राम को गति देने, जागीरदारी शोषण के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करने, सामाजिक कुरीतियों का परित्याग करने, छुआछूत की घृणित मनोवृत्ति पर प्रहार करने एवं बच्चों को स्कूल भेजने के लिए गाँव वालों को प्रेरित करने हेतु गाँव में ख़ास तौर से सन 1945 से 1965 तक विभिन्न अवसरों पर कॉमरेड मोहरसिंह, चौ. कुम्भाराम आर्य, चौ. दौलतराम सहारण, चौ. रामनाथ कस्वां आदि नेतागण पहुंचकर गुवाड़ में गढ़ के पास मीटिंग करते रहते थे और जनजागरण की अलख जगाते रहते थे। भजनोपदेशक कॉमरेड मोहरसिंह हारमोनियम अपने साथ लेकर चलते थे और उस पर बड़े जोश के साथ क्रांतिकारी व प्रगतिशील सोच से लबरेज़ गीत गाकर गांववासियों का मन मोह लेते थे।

अब बदल गया गाँव का नाक-नक्श

सन 1970 के बाद से गांव के स्वरूप में खासा बदलाव आ चुका है। पहले घरों की संख्या कम थी; आबादी का दबाब भी कम था। हर बास/ मौहल्ले के रास्ते ख़ूब चौड़े थे। गाँव के बीच का रास्ता तो लगभग 80 फुट था। गाँव के बीच से गुजरने वाले रास्ते से दोनों ओर के घर काफी दूर पर बने हुए थे। सुना है कि गाँव के बीच में अवस्थित ठाकुर जी के मंदिर के सामने के रास्ते से गाँव के दक्षिण में अवस्थित कूआँ सीधा दिखाई देता था। हर बास में खुले गुवाड़ थे और उनके चारों ओर घेरे में गुवाड़ियाँ/घर बसे हुए थे। घरों में खुले चौगान थे। गुवाड़ियाँ भी बड़ी-बड़ी। खुले मन के लोग थे तो गुवाड़ी भी ख़ूब खुली होती थी।

वर्तमान में एकदूजे से प्रतिस्पर्धा की दौड़ में जैसे लोगों के मन सिकुड़े हैं, सोच संकुचित हुआ है, वैसे ही आम रास्ते व गुवाड़ अतिक्रमण के शिकार होकर सिकुड़ गए हैं; तंग दिल लोगों ने इन्हें भी तंग बना दिया है। एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ ऐसी मची कि आसपास बसे घरों ने अपनी सीमाओं को पार कर आगे बढ़त लेते गए। लगता है कि इसको विकास का एक पैमाना मान लिया और गुवाड़ व आम रास्तों को सिकोड़कर घरों को कुछ चौड़ा कर लिया। मेरा गाँव मेघसर: अंतिम पार्ट

शिक्षा

गाँव में सरकारी प्राइमरी स्कूल की स्थापना सन 1955 में हुई। इस स्कूल की शुरुआत गांव से दक्षिण में कुछ दूर स्थित पक्के जोहड़े के नज़दीक कुछ ऊंचाई पर एक बड़ी तिबारी/ छप्पर बनाकर उसमें की गई। बाद में इसके बग़ल में एक छोटा- सा मकान भी बनवाया गया। सन 1963 के लगभग गांव के मुख्य कूएँ के पास इस स्कूल हेतु एक बड़ा पक्का मकान मय बरामदा बनवाने का काम शुरू हुआ और फिर स्कूल यहाँ स्थानांतरित कर दिया गया। गाँव की इस स्कूल में पहले अध्यापक के रूप में श्री बुद्धिप्रकाश शर्मा की तैनाती हुई। शुरुआती वर्षों में अध्यापक के रूप में पदस्थापित रतननगर के श्री मदनलाल जी पड़िहार, श्री छगनलाल जी चौधरी, भीखनसर गाँव ( बिसाऊ ) के श्री रेखसिंह जी धायल, एवं रामगढ़ के श्री रामलाल जी सांगवान का बच्चों को शिक्षित करने में विशेष योगदान रहा।

गाँव में स्कूल की स्थापना के बाद ग्रामवासियों में शिक्षा के प्रति विशेष रुचि जागृत हुई। इस गाँव तथा निकटवर्ती गाँव पूनियां की ढाणी के कई बच्चों ने इस प्राइमरी स्कूल से पढ़ाई पूरी कर निकटवर्ती कस्बे रतननगर में स्थित सेकेंडरी स्कूल में एडमिशन लेकर आगे की पढ़ाई का सिलसिला जारी रखा। इसी का परिणाम है कि सरकारी सेवा के क्षेत्र में इस गांव ने अपनी विशिष्ट पहचान अर्जित की है। नौकरी-पेशे में हर जाति के गांववासियों की तादाद में ख़ूब इज़ाफा हुआ। शिक्षा, राजस्व, फ़ौज, मेडिकल आदि कई क्षेत्रों में गाँव का संतोषजनक प्रतिनिधित्व रहा है।

गाँव की यह प्राइमरी स्कूल सन 1991 में उच्च प्राथमिक स्कूल में क्रमोन्नत हुई तथा सन 2008 में उच्च प्राथमिक स्कूल से सेकेंडरी स्कूल में क्रमोन्नत हुई जो कि वर्तमान में गांव के पक्के जोहड़े के पास पृथक से बनाए गए नए स्कूल भवन में संचालित हो रही है। इस सेकंडरी स्कूल का नामकरण गांव के दिलेर फ़ौजी शहीद भींवराज रणवां के नाम पर 'शहीद भींवराज रणवां माध्यमिक स्कूल, मेघसर' किया गया है।

गाँव के मुख्य कुए के पास जिस भवन में शुरू में प्राइमरी स्कूल व क्रमोन्नति पर उच्च प्राथमिक स्कूल संचालित होती थी, उस भवन में 07 दिसम्बर 2005 से बालिकाओं के लिए पृथक से राजकीय बालिका प्राथमिक विद्यालय प्रारंभ हुआ। सन 2008 में इसी विद्यालय की क्रमोन्नति बालिका उच्च प्राथमिक विद्यालय के रूप में हुई।

मजदूरी के लिए खाड़ी देशों की ओर रुख

पहले गाँव में रहनेवाले परिवारों की कमाई का ज़रिया खेती, पशुपालन एवं खदानों में दिहाड़ी पर चूना- पत्थर निकालने तक सीमित था। गाँव के खेतिहर-मजदूरों के परिवारों की आर्थिक स्थिति में आंशिक सुधार सन 1975 के बाद के वर्षों से होना शुरू हुआ जब कई परिवारों के युवक अरब-खाड़ी के देशों में मजदूरी करने गए। वहाँ पर उन्होंने जी-तोड़ मेहनत कर ठीक-ठाक कमाई की। इस आमदनी के दम पर उनके घरों में पक्के मकान बनने का सिलसिला शुरू हुआ और जीवन स्तर में कुछ सुधार आने लगा।

आधुनिक सुविधाओं की दस्तक

  • मेघसर गाँव में आधुनिक सुविधाओं ने दस्तक 1970 के दशक में देनी शुरू कर दी थी। सन 1969 में रतननगर से गाँव के बाहरी छोर तक बिजली पहुंच गई थी, जो कि आधुनिक सुविधाओं की दिशा में बढ़ने का बहुत बड़ा पायदान थी।
  • गाँव में डाकघर सन 1970 में खुला और उसमें पोस्टमैन के रूप में गाँव के ही श्री गोरु राम ईसराण को भर्ती किया गया।
  • गांव के दक्षिण में रामगढ़ के सेठ द्वारा बनवाए गए मुख्य कूएँ पर बिजली कनेक्शन करवाने हेतु श्री ओम सिंह राठौड़ एवं श्री चेतनराम ईसराण की समझदारी- भरी अगुवाई में ग्राम विकास समिति का गठन किया गया। इनके प्रमुख सहयोग व सक्रियता से जुटाई गई धनराशि से 24 मार्च 1977 को कूएँ में बिजली की मोटर प्रतिस्थापित कर बिजली का कनेक्शन लिया गया। बता दें कि इससे पहले ठाकुर कुशल सिंह ने गढ़ के पीछे स्थित अपनी खेड़ी में कूआँ खुदवाकर वहाँ बिजली कनेक्शन ले लिया था और पास की खेड़ी में सिंचित फसल लेने की शुरुआत की जो कि बाद में घाटे का सौदा सिद्ध होने के कारण बंद कर दी गई।
  • गांव के पश्चिम दिशा में स्थित कूएँ का निर्माण दलित बस्ती में रहने वाले परिवारों की सुविधा के लिए राजकीय अनुदान से सन 1962 में करवाया गया। इस कूएँ पर समाज कल्याण विभाग के अनुदान से सन 1984-85 में बिजली कनेक्शन हुआ।
  • गाँव के घरों में पत्थर की आटा- चक्की से अनाज की पिसाई करना औरतों की सुबह की दिनचर्या का आवश्यक हिस्सा था। घर पर हाथ-चक्की से पिसे हुए बाज़रे से ही रोटियां बनती थीं। गाँव में पहली बिजली की आटा- चक्की मय दुकान स्व. रामकुमार सिंह रणवां ने अगस्त 1977 में स्थापित की।
  • यह गाँव सड़क से चूरू वाया देपालसर सन 1984 में जुड़ गया था। रतननगर - मेघसर के बीच सड़क का निर्माण सन 2006 में हुआ।
  • गाँव में लैंडलाइन टेलीफोन की सुविधा सन 1997 में सुलभ हो गई थी।
  • ट्यूबवेल का प्रचलन

राज्य सरकार के जलदाय विभाग के सौजन्य से गाँव में सन 2007 से ट्यूबवेल खुदवाने का सिलसिला शुरू हुआ। नेठाव गाँव के रास्ते पर बसी बस्ती, दलित बस्ती व गाँव की उत्तरी दिशा में चूरू की ओर जाने वाले सड़क के किनारे पर ट्यूबवेल खुदवाकर आसपास के घरों में उनसे पानी का कनेक्शन लिए गए। गाँव का मुख्य कूआँ नाल खोदकर बनाया हुआ होने से इसकी मोटर ख़राब होने पर कुएँ से बाहर निकलने व फिर प्रतिस्थापित करने में आने वाली परेशानियों से सामना होने के कारण सन 2017 में इस कूएँ के एकदम नज़दीक दो ट्यूबवेल खुदवाकर पानी की सप्लाई लाइन को इनसे जोड़ा गया है।

विशेष

1. यहाँ जिस मेघसर गाँव का वर्णन किया गया है उसका तहसील व जिला मुख्यालय दोनों चूरू है और यह चूरू से दक्षिणी-पश्चिमी दिशा में चूरू से 11 किलोमीटर दूर स्थित है। मेघसर नाम से एक गांव चूरू जिले की तारानगर तहसील में भी स्थित है। इस तथ्य से अनभिज्ञ होने से कुछ लोग भ्रमित हो जाते हैं।

2. प्रामाणिक सूचना के आधार पर गाँव के उक्त विवरण में परिवर्धन एवं संशोधन संभव है।

3. मेरे गाँव मेघसर के अतीत और वर्तमान का यह वृतांत लिखने की प्रेरणा मुझे श्री लक्ष्मण बुरड़क, रिटायर्ड आई. एफ. एस. से मिली है। श्री बुरड़क कई वर्षों से जाटलैंड विकिपीडिया के मॉडरेटर के रूप में इतिहास के संकलन एवं उसे डिजिटाइज करने का कार्य मनोयोग से कर रहे हैं।

लेखक: प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण ✍️✍️ Prof. H. R. Isran रिटायर्ड प्रिंसीपल, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

दिनांक: दीपावली 27 अक्टूबर 2019

मेघसर गाँव के चर्चित चेहरे

  • भींवराज रणवां: मेघसर गाँव के स्व. मूलाराम रणवां के इकलौते बेटे भींवराज रणवां (जन्मतिथि 1.9.1960) भारतीय सेना में 19 जनवरी 1980 को भर्ती हुए। 1872 लाइट रेजिमेंट आर्टिलरी में तैनात यह बहादुर सैनिक 16 नवंबर 1999 को असम में उल्फा उग्रवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में शहीद हो गया। इनके शौर्य व पराक्रम का सम्मान करते हुए राष्ट्रपति ने इन्हें मरणोपरांत शौर्य चक्र से सम्मानित किया। राजस्थान सरकार ने उनकी शहादत का सम्मान प्रकट करते हुए गांव की स्कूल का नामकरण शहीद भींवराज रणवां सेकेंडरी स्कूल किया है। वर्तमान में इस स्कूल का भवन गांव के पक्के जोहड़े के पास स्थित है। शहीद की स्मृति में गाँव के बाहर से चूरू की ओर जाने वाली सड़क के किनारे प्रतिमा स्थापित कर स्मृति-स्थल का निर्माण उनके सुपुत्रों सत्यपाल व विजयपाल रणवां द्वारा करवाया गया है।
  • गांव का पहला शिक्षक बनने का सौभाग्य श्री भैराराम ईसराण पुत्र श्री चेतनराम को मिला। इन्होंने सन 1958 में रतननगर से हाईस्कूल परीक्षा पास कर 1 जुलाई 1958 को राजकीय प्राथमिक विद्यालय, रामसरा ताल ( तहसील-राजगढ़, जिला- चूरू ) में प्रथम नियुक्ति पर कार्यभार ग्रहण किया और 31 जुलाई 1994 को प्राध्यापक- हिंदी ( स्कूल शिक्षा ) पद से सेवानिवृत्त हुए।
  • श्री रामकुमार सिंह रणवां पुत्र श्री भेभराम ने भी सन 1958 में अध्यापक पद का कार्यभार ग्रहण किया। कालांतर में उन्होंने राजकीय सेकेंडरी स्कूल, रतननगर में अध्यापक पद पर रहते हुए सन 1982 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली और सरपंच पद का चुनाव लड़ा। सन 1988-93 में वे देपालसर पंचायत के सरपंच चुने गए तथा पांच साल तक इस पद पर रहे।
  • श्री भैराराम ईसराण को गांव का पहला शिक्षक, पहला स्नातक ( graduate ), पहला अधिस्नातक ( post-graduate ) एवं सेवानिवृत्ति के बाद पहला अभिभाषक ( advocate ) व केंद्रीय नोटेरी बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ। कुटुंब को शिक्षा के उजाले की ओर ले जाने में इनकी ख़ास भूमिका रही है। गाँव में ठाकुर की धौंस को चुनौती देने में भी कभी नहीं हिचके।
  • गाँव का पहला फ़ौजी बनने का श्रेय श्री सलेम खां वल्द महरूम मुसर्रफ खां को जाता है, जिन्होंने घर वालों की इजाज़त लिए बिना घर से भगकर सन 1962 में फ़ौज की भर्ती में शामिल हुए और भर्ती हो गए। ये वो दौर था जब माता- पिता अपनी संतान को फ़ौज में भर्ती होने की इजाज़त देने से झिझकते थे। उसी दौरान श्री कुम्भाराम रणवां पुत्र श्री बुधराम जेल विभाग की भर्ती में सिपाही पद पर भर्ती हो गए।
  • कायमखानी परिवारों में सर्व श्री अलीमखां, महनुखां, रहीमखां, और उनकी अगली पीढ़ी में भंवरू खां के नाम सबसे पहले सरकारी नौकरी करने वालों में शामिल हैं। ये सभी जेल विभाग में सिपाही थे।
  • कायमखानी परिवारों में पहले अध्यापक बनने का सौभाग्य श्री हाकिम अली पुत्र जनाब फतुखाँ को सन 1968 में मिला, जो प्रधानाध्यापक पद से मई 2010 में रिटायर हुए।
  • गाँव के मेघवालों में पहला सरकारी नौकर बनने का श्रेय श्री भगवाना राम व श्री हणमान मेघवाल को मिला। श्री भगवाना राम ने वॉटर वर्क्स डिपार्टमेंट में और श्री हणमान ने टेलीफोन विभाग में लाइनमैन की नौकरी जॉइन की। मेघवालों में पहला अध्यापक बनने का श्रेय स्व. भींवराज मेघवाल को मिला। शिक्षा को अपनाने वाले परिवारों में कई युवा नौकरी लगे। श्री मनराज कांटीवाल पुत्र श्री रामेश्वर वर्तमान में राजकीय सीनियर सेकेंडरी स्कूल में प्रिंसीपल पद पर प्रोन्नत हुए हैं।
  • रेगुलर स्टूडेंट के रूप में रुइया कॉलेज, रामगढ़ से बी. ए. पास करने वाले गांव के पहले स्टूडेंट थे स्व. अनोप सिंह ईसराण पुत्र श्री पेमाराम। वे सन 1971 में बी. ए. पास कर सन 1972 में आर. ए. सी. में भर्ती हो गए। हवलदार पद पर रहते हुए उनका मई 1987 में असामयिक देहान्त हो गया।
  • जाटों में पटवारी की नौकरी हासिल करने का श्रेय श्री श्रीचंद ईसराण पुत्र श्री जमना राम को जाता है जिन्होंने सन 1975 में पटवारी के पद पर चयनित होकर अगस्त 2012 में गिरदावर के पद से स्वैछिक सेवानिवृत्ति ली।
  • उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मेघसर गाँव का दबदबा रहा है। गाँव के शिक्षित युवा विभिन्न पदों पर आसीन होकर गाँव का नाम रोशन कर रहे हैं। गाँव में सर्वप्रथम हनुमानाराम ईसराण पुत्र श्री अरजन राम ने सेकेंडरी स्कूल परीक्षा 1972 में प्रथम श्रेणी से पास की और फिर रेगुलर स्टूडेंट के रूप में सन 1978 में एम. ए. अंग्रेजी की परीक्षा राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से मेरिट लिस्ट में ऊंचा स्थान अर्जित कर उत्तीर्ण की। इन्हें ही सर्वप्रथम कॉलेज लेक्चरर ( अँग्रेजी ) के पद पर 4 दिसंबर 1978 को राजकीय पी. जी. कॉलेज, कैरोली में कार्यभार ग्रहण करने का गौरव हासिल हुआ।
  • इसी क्रम में सन 1983 में नंदलाल सिंह रणवां पुत्र श्री सांवल राम को वनस्पति विज्ञान एवं परमेश्वर लाल पुत्र श्री जमना राम ईसराण को गणित का कॉलेज लेक्चरर बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ। डॉ नंदलाल सिंह रणवां गाँव के पहले पी. एचडी. डिग्रीधारी बने तथा कॉलेज में एसोसिएट प्रोफेसर के पद से अगस्त 2019 को सेवानिवृत्त हुए। श्री परमेश्वर लाल ने उपाचार्य पद पर पदोन्नति के बाद अप्रैल 2019 में स्वैछिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की।
  • बैंकिंग क्षेत्र में नौकरी लगने वाले गाँव के पहले शख़्स साँवता राम ईसराण पुत्र श्री भूराराम हैं। दिसम्बर 1981 में बैंक में नौकरी जॉइन कर वे दिसंबर 2017 में बड़ौदा ग्रामीण बैंक के मैनेजर पद से सेवानिवृत्त हुए।
  • श्री हनुमाना राम ईसराण प्राचार्य पद पर पदोन्नति के बाद राजस्थान की सबसे बड़ी कॉलेज श्री कल्याण कॉलेज, सीकर व कई अन्य कॉलेजों में प्रिंसीपल पद पर रहे। उल्लेखनीय है कि इनकी नवंबर 2009 से सन 2016 तक निरंतर विभिन्न विश्वविद्यालयों की गवर्निंग काउंसिल में प्रमुख भूमिका रही है। तीन वर्षों तक महाराजा गंगासिंह विश्वविद्यालय, बीकानेर के प्रबंध मंडल के सदस्य तथा डीन- कला संकाय की हैसियत से विश्वविद्यालय की उच्चाधिकारी प्राप्त समितियों के कार्य संपादन में महती भूमिका रही। तत्पश्चात महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, अजमेर के विद्या परिषद के सदस्य रहे। श्री कल्याण कॉलेज, सीकर के प्राचार्य पद के दायित्व का निर्वहन कुशलता से करने पर राज्य सरकार द्वारा इन्हें राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर की सिंडिकेट का सदस्य नियुक्त किया गया। उसके बाद माननीय राज्यपाल ने इनको प्रमुख शिक्षाविद के रूप में स्वामी केशवानंद राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर के प्रबंध मंडल का सदस्य नामित किया। शेखावाटी इलाके में खोले गए नए विश्वविद्यालय पंडित दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी विश्वविद्यालय, सीकर में प्रबंध मंडल के सदस्य तथा डीन-कला संकाय की हैसियत से विश्वविद्यालय की लगभग सभी समितियों में इनकी प्रमुख भूमिका रही है। इस प्रकार प्राचार्य पद पर रहते हुए पांच विश्वविद्यालयों की गवर्निंग काउंसिल में मनोनीत रहने का गौरव अर्जित कर नया कीर्तिमान स्थापित किया।

मेघसर गाँव की चित्र गैलरी

संदर्भ

1. जाटलैंड विकिपीडिया

2. सम्बंधित विवरण में यथास्थान उल्लिखित स्रोत।

3. गाँव के बुज़ुर्गों से श्रुति परम्परा से प्राप्त जानकारी।

4. लेखक की ख़ुद की कानन सुनी व आँखन देखी। सन 1965 के लगभग से श्रुति-स्मृति के आधार पर।

5. श्रीचंद ईसराण, रिटायर्ड गिरदावर, से प्राप्त गांव के रकबे संबंधी दस्तावेज एवं गाँव संबंधी सुसंगत सूचनाएं।

यह भी देखें

राजस्थान के ग्राम्य जीवन की झाँकी

बाहरी कड़ियाँ