Kayamkhani

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Kayamkhani, Qaimkhani or Kaimkhani (Urdu:قائم خانى, Hindi: क़ायमख़ानी) is a Muslim clan found in Sindh and Punjab, Pakistan and Rajasthan, India. The family of royal kayamkhani ruled were called khanzada. Most of them migrated to the southern part of Sindh in Pakistan after partition. They were notable for ruling the Fatehpur Sikar and Jhunjhunu regions of Rajasthan from the 1300s to the 1700s.[1][2]

History

Qaimkhanis are the descendants of Nawab Qaim Khan, born Karamchand, the son of Raja Motay Rai Chauhan, the ruler Dadrewa, which is presently situated in the Churu district of Rajasthan).[3] Karamchand and his bothers were converted to Islam by Firuz Shah Tughlaq who named him Qaim Khan and his brothers Zainuddin Khan and Zabaruddin Khan.[4] The term qaimkhanis or qaim khanis applies not only to the descedants of Qaim Khan but also to the descendants of his brothers.[5] Qaim Khan become an Ameer of the Delhi Sultanate.

Nawab Qaim Khan had six sons, named Muhammad Khan, Taj Khan, Quttab Khan, Mohan Khan, Ikhtiar Khan, and Wahid Khan. During the life of the Nawab, Muhammad Khan lived in Hisar while Taj Khan and Quttub Khan ruled Tussam in Punjab. Mohan Khan and Ikhtiar Khan were the rulers of Fatehabad and Dhosi.

After the death of their father at the hands of Khizr Khan, they dispersed and chose to avoid confrontation with Hakim-e-Delhi (ruling power in Delhi).

Taj Khan later became the Nawab of Hisar, ruling from 1420 - 1446 AD. After death of Taj Khan his eldest son Fateh Khan was made Nawab of Hisar but Bahlol Lodi expelled Fatehkhan from Hisar. Taj Khan's brother, Muhammad Khan was made Nawab of Hansi but he was also expelled.

Fateh Khan and Muhammad Khan came to Shekhawati area of Rajasthan and established the states of Fatehpur and Jhunjhunu respectively.[6]

Jhunjhunu was ruled over by the Chauhan Dynasty in the Vikram era 1045, and Sidhraj was a renowned king. In the year 1450 Mohammed Khan & his son Samas Khan defeated the Chauhans and conquered Jhunjhunu.[7]

Mohammed Khan was first Nawab of Jhunjhunu. Then his son Samas Khan ascended the throne in the year 1459. Samas khan founded the village Samaspur and got Samas Talab constructed. [8]

Nawab Zainudin Khan and Nawab Jabeerudin Khan founded the states of Narhar, Barwasi, Jharo Dapti, and Kayad.

They ruled between 1384 and 1731 with Fatehpur, Rajasthan as the capital, Kayamkhanis ruled in Alipura, Fatehpur, Jhunjhunu and Singhana.[9]

ददरेवा के कायमखानी

Genealogy of Kayamkhanis of Dadrewa
Genealogy of Kayamkhanis of Dadrewa

राजस्थान के इतिहासकार मुंहता नेणसी ने अपनी ख्यात में लिखा है कि हिसार के फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लूटा. वहां से दो बालक एक चौहान दूसरा जाट ले गए. उन्हें हांसी के शेख के पास रख दिया. जब सैयद मर गया तो वे बहलोल लोदी के हुजूर में भेजे गए. चौहान का नाम कायमखां तथा जाट का नाम जैनू रखा. जैनू के वंशज (जैनदोत) झुंझुनु फतेहपुर में हैं. कायमखां हिसार का फौजदार बना. चौधरी जूझे से मिलकर झुंझुनूं क़स्बा बसाया. कायमखां ददरेवा के मोटेराव चौहान का पुत्र था. कायमखां के वंशज कायमखानी कहलाते हैं. [10][11]

ऐतिहासिक तथ्यों से इस बात की पुष्टी होती है. महाकवि जान, रासो के रचयिता, कायमखां के मोटेराव चौहान का पुत्र होना, ददरेवा का निवासी होना आदि तथ्यों का विस्तार से उल्लेख करते हैं. यह विवेचना आवश्यक है कि मोटेराव चौहान का कौनसा समय था तथा कायम खां किस समय मुसलमान बना. ददरेवा के चौहान साम्भर के चौहानों की एक शाखा थे. लम्बी अवधी से इनका ददरेवा पर अधिकार था और इनकी उपाधी राणा थी . चौहानों में राणा की उपाधी दो शाखाएं प्रयुक्त करती थी. पहली मोहिल और दूसरी चाहिल. ददरेवा के चौहान संभवत: चाहिल शाखा के थे. गोगाजी जो करमचंद के पूर्वज थे, के मंदिर के पुजारी आज भी चाहिल हैं. मोटे राव चौहान गोगाजी का वंशज था. दशरथ शर्मा गोगाजी का समय 11वीं शदी मानते हैं. उनके अनुसार वे महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए सना 1024 में बलिदान हुए. रणकपुर शिलालेख में भी गोगाजी को एक लोकप्रिय वीर माना है. यह शिलालेख वि. 1496 (1439 ई.) का है.[12]

यह प्रसिद्ध है कि गोगाजी से 16 पीढ़ी बाद कर्मचंद हुआ. इसी प्रकार जैतसिंह से उसे सातवीं पीढ़ी में होना माना जाता है. बांकीदास ने गोगाजी को जेवर का पुत्र होना लिखा है. गोगाजी के बाद बैरसी , उदयराज , जसकरण , केसोराई, विजयराज, मदनसी, पृथ्वीराज, लालचंद, अजयचंद, गोपाल, जैतसी, ददरेवा की गद्दी पर बैठे. जैतसी का शिलालेख प्राप्त हुआ है जो वि.स. 1270 (1213 ई.) का है. इसे वस्तुत: 1273 वि.स. का होना बताया है. जैतसी के बाद पुनपाल, रूप, रावन, तिहुंपाल, मोटेराव, यह वंशक्रम रासोकार ने माना है. जैतसी के शिलालेख से एक निश्चित तिथि ज्ञात होती है. जैतसी गोपाल का पुत्र था जिसने ददरेवा में एक कुआ बनाया. गोगाजी महमूद गजनवी से 1024 में लड़ते हुए मारे गए थे. गोगाजी से जैतसी तक का समय 9 राणाओं का प्राय: 192 वर्ष आता है जो औसत 20 वर्ष से कुछ अधिक है. जैतसी के आगे के राणाओं का इसी औसत से मोटेराव चौहान का समय प्राय: 1315 ई. होता है जो फिरोज तुग़लक के काल के नजदीक है. इससे स्पस्ट होता है कि कायम खां फीरोज तुग़लक (1309-1388) के समय में मुसलमान बना. [13]

तारीखी फीरोजशाही से ज्ञात होता है कि बंगाल से लौटने के बाद बंगाल की लड़ाई के दूसरे साल हिसार फीरोजा की स्थापना की. यह 1354 में माना जा सकता है. हिसार में सुल्तान ने एक दुर्ग बनाया और अपने नाम पर इस नगर का आम हिसार फीरोजा रखा. इसके पूर्व हिसार के आसपास का क्षेत्र हांसी के शिंक (डिविजन ) में था. इस शिंक का नाम हिसार फीरोजा कर दिया और हांसी, अग्रोहा, फतेहाबाद, सरसुती, सालारुह, और खिज्राबाद के जिले इसमें सामिल कर लिये. इसके पास ही दक्षिण पश्चिम में शेखावाटी का भूभाग था. कायम खां यद्यपि धर्म परिवर्तन कर मुसलमन हो गया था पर उसके हिन्दू संस्कार प्रबल थे. उसका संपर्क भी अपने जन्म स्थान के आसपास की शासक जातियों से बना रहा था. कायमखां के सात स्त्रियाँ थी जो सब हिन्दू थी. [14]

कायमखां के सात रानियों के नाम थे[15] -

फ़तेहखां का शेखावाटी पर अधिकार

इस प्रकार फ़तेहखां ने शेखावाटी के दक्षिण पूर्वी भूभाग पर अपने आपको प्रस्थापित कर लिया था. उसने उत्तर की दिशा में पड़ने वाले भूभाग तक अपना आधिपत्य स्थापित किया जैसा कि 5 किले इस क्षेत्र में बनाने की बात से सिद्ध होता है. इस प्रकार दूर-दूर तक के भूभाग उसके अधीन थे. सीमान्त पर दुर्ग बनाकर उसने अपनी स्थिति काफी मजबूत करली. [16]

रासो के अनुसार ताजखां और महमदखां हिसार लौट गए थे. ताजखां बड़ा बलवान शासक हुआ. इसने खेतड़ी, खरकड़ा, बुहाना पर अधिकार किया और पाटन, रेवासा और आमेर को अपने वश में कर लिया. कछवाहे, निर्वाण, तंवर और पंवारों से उसने पेशकस ली. ताजखां की हिसार में मृत्यु संवत 1503 (1446 ई.) हुई. इसका भाई महमद खां हांसी में मरा. [17]


रतन लाल मिश्र लिखते हैं कि कई पुस्तकों में महमूदखां द्वारा झुंझुनूं बसाने की बात झूंझा जाट के प्रसंग से कही गयी है. [18] झुंझुनूं नगर के इसके पूर्व के बसने के प्रमाण जैन ग्रंथों में मौजूद हैं. 14 वीं शती के कई उद्धरण जैन ग्रंथों में मौजूद हैं जिससे इस नगर की प्राचीनता सिद्ध होती है. सिद्धसेन सूरि द्वारा विक्रमी 1123 (1066 ई.) में रचित सर्वतीर्थमाला में झुंझुनूं का वर्णन इस प्रकार किया गया है -

"खंडिल्ल झिन्झुयाणय नराण हरसउर खट्टउएसु । नायउर सुद्ध देही सु सभरि देसेसु वंदामि ।। "[19]

इसी प्रकार वरदा में प्रकाशित जानकारी से संवत 1300 में झुंझुनूं का उल्लेख इस प्रकारकिया गया है-

"संवत 1300 तदनंतरं खाटू वास्तव्य साह गोपाल प्रमुख नाना नगर ग्रामे वास्ताव्यानेक श्रावका: श्री नवहा झुंझुणु वास्तव्य - [20]

'वाकयात कौम कायमखानी' में झुंझुनूं का बसना 1444 (=1387 ई.) वि. माह बदी 14 शनिवार बताया गया है. इस बात की संभावना हो सकती है कि कायमखानियों ने झुंझुनूं को नए सिरे से भवनादिकों से सज्जित किया हो. फ़तेहखां के साथ-साथ ही मुहम्मदखां का पुत्र शम्सखां आया जिसने शेखावाटी के उत्तरी भूभाग पर अपना अधिकार स्थापित किया. शम्सखां के झुंझुनूं में अपना शासन स्थापित करने संबंधी एक उल्लेख त्रैलोक्य दीपक की प्रशस्ति में भी मिला है. इसके अनुसार सं. 1516 (=1459 ई.) में झुंझुनूं में शम्सखां का शासन था.[21]

"स्वस्ति संवत 1516 आषाढ़ सुदी पांच भोमवासरे झुंझुनूं शुभ स्थाने शाकी भूपति प्रजापालक समस्खान विजय राज्ये|"

वाकयात कौम कायमखानी के अनुसार शम्सखां ने एक तालाब बनवाया जो आज भी शम्स तालाब के नाम से प्रसिद्ध है. इसके पक्के घाट और सीढियां हैं. इसने 20 वर्ग मील क्षेत्र में एक बीड़ छोड़ा जिसमें जानवर चरते हैं. इसने कुछ पुख्ता कूवे भी बनवाए. इसी नवाब ने शम्सपुर नामक गाँव आबाद किया जो झुंझुनूं से 4 मील पूर्व में बसा हुआ है. शम्सखां कि मृत्यु झुंझुनूं में हुई जहाँ इसका एक पुख्ता गुम्बद मौजूद है. [22]

झुंझुनूं के नवाबों की सूची इस प्रकार है -

मोहम्मद खां समस खां फ़तेह खां
मुबारक शाह कमाल खां भीकम खां
मोहबत खां खिजर खां बहादुर खां
समस खां सनी सुल्तान खां वाहिद खां
साद खां फज़ल खां रोहिल्ला खां

झुंझुनूं के अंतिम नवाब रोहिल्ला खां थे. यह 1730 में शार्दूल सिंह शेखावत के अधीन हुआ.

महाराणा कुम्भा का नागौर पर हमला

मोकल के समशीश्वर मंदिर चित्तोड़ के शिलालेख 1428 ई. में लिखा है कि महाराणा ने उत्तर के मुसलमान नरपति फीरोज पर चढ़ाई की और लीला मात्र में युद्ध में उसके सारे सैन्य को नष्ट कर दिया. [23] इस शिलालेख के अलावा श्रृंगी ऋषि शिलालेख वि.सं. 1485 (1428 ई.) में इसका उल्लेख है. कुम्भलगढ़ के लेख वि.सं. 1517 (1460 ई.) में कहा गया है कि महाराणा ने पीरोजा (फीरोज) को अहमद के साथ हराया. [24]

"आलोडयासु सपादलक्षमखिलं जालान्धरान् कम्पयन्
ढिल्ली शंकितनायकां व्यरचयन्नादाय शाकम्भरी
पीरोजं स महामदं शरशतैरापात्य य: प्रोल्लसत्
कुंतव्रात निपात दीर्ण ह्रदयां तस्यवधीद् दंतिन:। "[25][26]

नरैना में गौरी शंकर तालाब के लेख 1437 ई. से ज्ञात होता है कि महाराणा मोकल ने नरैना, साम्भर, डीडवाना पर आक्रमण किया था.

महाराणा कुम्भा ने नागौर पर अनेकों हमले किये थे. यह बात अनेक शिलालेखों से सिद्ध होती है. यथा कुम्भलगढ़, रणकपुर के शिलालेख आदि. रणकपुर अभिलेख से सिद्ध होता है कि महाराणा कुम्भा का प्रथम हमला 1496 (1439 ई.) के पूर्व हुआ. चित्तोड़ की वि.सं.1495 की प्रशस्ति में इस विजय का उल्लेख नहीं है. उस समय नागौर का शासक फीरोज था. फारसी तवारीखों के अनुसार हिजरी 870 (ई. 1456 = वि. 1513 ) के कुछ पूर्व में महाराणा कुम्भा ने नागौर पर हमला किया. उस समय महाराणा ने शेखावाटी के कुछ क्षेत्र पर भी हमला किया था. कुम्भा का दूसरा हमला सं 1458 में हुआ था. इस हमले में उन्होंने नागौर को जीतकर फीरोज की ऊँची मस्जिद को जलाकर भूमिसात कर दिया. दुर्ग को गिराया, खाई को पूर दिया, राजाओं को पकड़ लिया, यवनियों को बाँध लिया. नागौर के मुस्लिम केंद्र रुपी तने के गिरने पर शाखा और पत्र अपने आप नष्ट हो गए. (कुम्भलगढ़ प्रशस्ति 21, 22) कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के श्लोकों से ज्ञात होता है कि महाराणा कुम्भा जांगलस्थल को युद्ध में रोंदता हुआ आगे बढा और शम्सखान (कायमखानी) भूपति के अनंत रत्नों के संग्रह को छीन लिया. उसने कासली को अचानक जीत लिया. महाराणा के दुन्दुभियों के जयघोष से धुंखराद्रि (धोकर) गूँज उठा. आकर्ण पर्यन्त खेंचे हुए धनुष के बाणों के समूह से अरदिल को नष्ट करते हुए महाराणा ने आगे बढकर खंडेले के दुर्ग को खंड-खंड कर डाला. इस प्रकार इस हमले के क्रम में कुम्भा ने शेखावाटी के अनेक स्थानों को पददलित कर डाला.[27]

कासली सीकर के दक्षिण में 9 किमी दूरी पर है. उस समय इस पर संभवत: चंदेलों का राज्य था. जो पहले चौहानों के सामंत थे पर उनके कमजोर पड़ने पर स्वतंत्र हो गए थे. रेवासा, कसली और संभवत: खाटू के आसपास का प्रदेश इनके अधिकार में था. खंडेले में उस समय निर्वाणों का राज्य था. [28]

फ़तेह खां का फतेहपुर बसाना

कायमखां अपने जीवन के अंतिम दिनों में हिसार फीरोजा का हाकिम रहा था. यह क्षेत्र दूर-दूर तक फैला था तथा अपना जन्म स्थान ददरेवा भी निकट था जहाँ अब भी चौहान राज कर रहे थे. कायमखां का शेखावाटी से निकट संपर्क था यह बात खंडेले के शासकों के वर्ग में उसकी शादी से जाना जा सकता है. इसी संपर्क के करण बाद में उसके पुत्र हिसार से विस्थापित होकर इधर चले आये. शेखावाटी प्रकाश के अनुसार कायमखां के पुत्र 5 थे - महमदखां, ताजखां, क़ुतुबखां, अबूखां, और इख्तियारखां. 'फतेहपुर परिचय' में उसके 6 लड़के होने की बात कही है. उपरोक्त पांच के अतिरिक्त मोहनखां का नाम जोड़ा गया है. चौथा पुत्र क़ुतुबखां बारुवे में जाकर बस गया और आस-पास के स्थानों पर उसने अधिकार कर लिया. बारुआ झुंझुनूं जिले का स्थान है जो नवलगढ़ से 11 किमी दूर दक्षिण में है. [29]

रतन लाल मिश्र के अनुसार रासो का कथन है कि बहलोल लोदी बादशाह के विरोध के कारण फतेह खां हिसार में नहीं रह सका. उसने फतेहपुर नगर बसाया जहाँ पहले जंगल था और जलाशय थे. जब तक किला बनता रहा तब तक फतह खां रिणाऊ गाँव में रहा. उसने 6 किलों , पल्हू, भादरा, भाडंग, बाइला, और फतेहपुर की नींव एक साथ रखी. फतेहपुर के अतिरिक्त उक्त सभी स्थान वर्तमान चुरू एवं गंगानगर जिलों में पड़ते हैं. पल्लू, भादरा हनुमानगढ़ जिले में एवं सहेवा, भाडंग और बायला चुरू जिले में पड़ते हैं. रासो के अनुसार फतेहपुर की बसावट संवत 1508 (1451 ई.) की है. फतेहपुर के पुराने सरावगियों के मंदिर में एक शिलालेख मिला है, जिसके अनुसार इस मंदिर का संवत 1508 फागण सुदी 2 को सेठ तुहिन मल ने नींव का पत्थर रखा. [30]

रतन लाल मिश्र[31]लिखते हैं कि एक दूसरा प्रमाण भी है जो फतेहपुर नगर के बसने की बात को थोड़ा पीछे ले जाता है. फ़तेहखां फतेहपुर आया तो अपने साथ पंडित, सेठ, साहूकार लेकर आया. श्री किशनलाल ब्रह्मभट्ट की बही के लेख से ज्ञात होता है कि फ़तेहखान हिसार से संवत 1503 में ही इधर आ गया था. इस बही में यों लिखा है -

"हरितवाल गोडवाल नारनोल से फतेहपुर आया, संवत 1503 की साल नवाब फ़तेहखां की वार में चौधरी गंगाराम की बार में."

यह वही संवत है जब बहलोल लोदी ने बादशाह बनने के पूर्व ही हिसार और उसके आस-पास के क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लिया था.

फ़तेहखां ने जहाँ किला बनाना प्रारंभ किया वहां जंगल और जलाशय थे (हो सरवर उद्यान) तथा महात्मा गंगादास की धूणी थी. किला बनाने के लिए फ़तेह खां के लोगों ने महात्माजी को उठाने के लिए कहा. महात्माजी ने कहा कि किला थोड़ा बांका बनालो. सैनिकों ने बात नहीं मानी तो महात्माजी क्रुद्ध होकर जलती धूणी की रख झोली में डाल कर चल दिए. सैनिकों ने यह चमत्कारिक घटना रिनाऊ जाकर फ़तेह खां को सुनाई. फ़तेह खां साधू के शाप के डर से भयभीत होकर महात्मा जी के पास आया. उस समय महात्माजी जांट के नीचे धूनी रचाए बैठे थे जहाँ आज कल चूना है. फ़तेह खां ने महात्माजी से लौटने का कहा पर वे टस से मस नहीं हुए. इसी स्थान पर आज भी महात्मा गंगादास जी का मंदिर और समाधी स्थल हैं. यहीं एक फारसी का सिलालेख भी है जिस पर मंदिर का निर्माण संवत 1505 (1448 ई.) लिखा है. फ़तेहखां की कई हिन्दू स्त्रियाँ थी. इनके पूजन आराधना के लिए किले में छोटे-छोटे गृह मंदिर या देवस्थान बने हुए थे. इनके अवशेष कुछ वर्षों पूर्व तक देखे जा सकते थे. [32]

फ़तेह खां जब चित्तोड़ में था तब राठोड़ कान्धल, फतेहपुर पर आक्रमण के लिए बढ़ा. यह सेना बीकानेर के क्षेत्र की ओर से आ रही थी. फ़तेहखां के वीर सेनापति सरखेल बहुगुण के नेतृत्व में फतेहपुर से 16 मील दक्षिण में अलखपुरा के पास बीड में दोनों सेनाओं का सामना हुआ. बहुगुण बड़ी वीरता से लड़ा पर मारा गया. राठोड़ की फैज ने फतेहपुर को लूटा और जला दिया. कहते हैं कि इस लूट मार में फतेहपुर नगर की रक्षा गंगादास जी ने की थी. संभवत:इस वीतरांग एवं सिद्ध सम्पन्न साधू के प्रभाव के करण राठोड़ सेना कुछ विनास कर लौट गयी. जब फ़तेह खां जब लौट कर आया तो महंत गंगादास को एक ताम्रकलश अपने लेख सहित दिया. यह वस्तुत: प्रत्येक घर से एक पैसा प्राप्त करने का आदेश था. यह आज भी नगर के एक ब्रह्मण परिवार के पास सुरक्षित बताया जाता है. [33]

External Links

References

  1. Sunita Budhwar (1978). "The kayamkhani Shaikhzada Family of Fatehpur-Jhunjhunu". Proceedings of the Indian History Congress. 39: 412–425. JSTOR 44139379.
  2. Dasharatha Sharma, Kyam Khan Raso, Ed. Dasharath Sharma, Agarchand Nahta, Rajsthan Puratatva Mandir, 1953, page-15
  3. Muhnot nainsi ki khyat part-1 page 99
  4. Dr Dasharatha Sharma: Qaimkhan Raso, page-1
  5. Jhabarmal Sharma: Maru Bharat 1/3, page 5
  6. Sahi Ram: Ek adhuri kranti, page 4-5
  7. History of Jhunjhunu
  8. History of Jhunjhunu
  9. Weinberger-Thomas, Catherine (1999). Ashes of Immortality: Widow-Burning in India. University of Chicago Press. p. 176. ISBN 0-226-88568-2.
  10. नैणसी की ख्यात:मुंहनोत नैणसी पृ. 196
  11. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.71
  12. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.75-76
  13. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.77
  14. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.79-80
  15. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.100
  16. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.90
  17. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.87
  18. सीकर का इतिहास-पं. झाबर मल शर्मा,पृ. 64 पाद टिप्पणी
  19. सिद्धसेन सूरि द्वारा विक्रमी 1123 में रचित सर्वतीर्थमाला
  20. वरदा वर्ष 7 अंक 1
  21. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.90
  22. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.90
  23. चित्तोड़ का शिलालेख ब्लोक 51 , E.I .II .प.41
  24. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 86
  25. Epigraphia Indiaca, Vol.21,p278
  26. KumbhalgarhInscription 1460 AD
  27. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 95
  28. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 96
  29. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.84-85
  30. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 89
  31. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 89
  32. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 91
  33. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 93

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