Gohad Ke Ranao Ka Itihas
Author:Laxman Burdak (लक्ष्मण बुरड़क), IFS (Retd.) |

Note- This article in Hindi is about the History of Ranas of Gohad of Bamraulia Jat clan and is mainly based on content from the book : Jat-Scindia Sambandh (Gohad Ke Vishesh Sandarbh Mein) by Dr. Pradyumna Kumar Ojha, Publisher: Jat-Veer Prakashan Gwalior, 2014.
About the Book

- Published book - Sindhia Jat Sambandh with special reference to Gohad
- सिंधिया-जाट सम्बन्ध - गोहद के विशेष सन्दर्भ में
- लेखक - डॉ. प्रद्युम्न कुमार ओझा
- प्रकाशक - जाटवीर प्रकाशन, ग्वालियर
- जाट समाज कल्याण परिषद, एफ/13, डॉ राजेन्द्र प्रसाद कालोनी, तानसेन मार्ग ,ग्वालियर-474002
- दूरभाष : 0751 -2382130
- प्रथम संस्करण - 2014
- Note- 'Sindhia Jat Sambandh with special reference to Gohad' is the recently published book in Hindi by Jat Samaj Kalyan Parishad Gwalior. Author of the book is Dr. Pradyumn Kumar Ojha. The book has been written after content well researched from remains of the Gohad rulers in the form of forts, wells, baories, temples etc in area around Gohad and Gwalior. Author has consulted sources in English, Marathi, Persian, Urdu languages and the books of traditional record keepers Jagas, Bhats, Charans etc.
गोहद के बमरौलिया जाटों का प्राचीन इतिहास
बमरौलिया राजवंश का आदि-स्थान - बमरौलिया राजवंश का मूल उद्गम पंजाब प्रान्त में चिनाब नदी के तट पर बमरौली खेड़ा नामक स्थान माना जाता है. इस वंश के आदि पुरुष ब्रह्मदेव ने इसे युधिष्ठिरी संवत 192 (2946 BC) में बसाया था. [1] (Ojha, p.32)
युधिष्ठिरी संवत- युधिस्ठिर के धर्म-राज्य की स्थापना के अवसर पर युधिष्ठिरी संवत प्रारम्भ हुआ था. महाभारत युद्ध के पश्चात कलियुग प्रारम्भ होने (3102 BC) के 36 वर्ष पूर्व अर्थात 3138 BC में युधिष्ठिरी संवत प्रारम्भ हुआ. (Ojha, p.44)
बमरौली खेड़ा से गढ़ बैराठ क्रमिक आगमन - इसके बाद इनके वंशज हरिचंद्र ने उत्तर पश्चिमी सीमान्त प्रान्त में वर्तमान पाकिस्तान के पेशावर के समीप रुद्रकोट नामक नामी नगर बसाया[2], तथा रूपचन्द्र ने वर्तमान ईरान में जाटाली प्रदेश स्थापना की थी.[3] (Ojha, p.32)
ई. पूर्व सन 331-334 BC में यूनानी सम्राट सिकन्दर के हिन्दुस्तान पर आक्रमण के समय इस वंश की ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है. उस समय इसी वंश के अमरसैन ने सिकंदर के आक्रमण का सामना किया था. [4] (Ojha, p.32)
पांचवीं तथा छटवीं शताब्दी में भारत पर हूणों के आक्रमण का सामना इसी वंश के लोगों ने किया था, और उन्हें आगे बढ़ने से रोक था. [5] (Ojha, p.33)
संवत 915 (858 AD) में इस वंश के लोग पंजाब के दक्षिण में चले गए और वर्तमान उत्तरांचल में हरिद्वार में जयदेव, मायापुर और मारवाड़ में शालनदेव तथा कनखल में पृथ्वीदेव बस गए.[6] (Ojha, p.33)
संवत 1124 (1067 AD) में मत्स्य प्रदेश वर्तमान राजस्थान में जयपुर के पास गढ़ बैराठ में जयसिंह बमरौलिया ने निवास किया.[7] वह एक वीर, साहसी योद्धा था, उसने जाट, अहीर और गुर्जर तथा अन्य जातियों का संगठन बनाकर सेना तैयार की थी. (Ojha, p.33)
जयसिंह बमरौलिया की दिल्ली के तोमर सम्राट से मित्रता
जयसिंह बमरौलिया तथा दिल्ली के तोमर सम्राट - इस समय दिल्ली में तोमर सम्राट अनंगपाल II (1051-1081) का साम्राज्य था. अनंगपाल II तथा गजनी सुलतान इब्राहिम(1059-1099) के मध्य तंवर हिन्दा तथा रूपाल (नूरपुर) पर युद्ध हुआ था, दोनों राज्य तोमर साम्राराज्य के अंतर्गत थे. सम्राट ने इब्राहिम को आगे बढ़ने से रोका था.[8] इस युद्ध में जय सिंह बमरौलिया 3000 सैनिक लेकर तोमर सम्राट के पक्ष में इब्राहिम के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने पहुंचा था. जय सिंह के नेतृत्व में उसकी सेना ने रणक्षेत्र में अदम्य साहस का परिचय दिया, जिसे तुर्क सेना तोमर साम्राज्य में प्रवेश नहीं कर सकी. [9] (Ojha, p.33)
तोमर सम्राट द्वारा जयसिंह बमरौलिया को राणा की उपाधि - दिल्ली तोमर सम्राट अनंगपाल ने युद्धक्षेत्र में जयसिंह को अदम्य साहस एवं वीरता प्रदर्शित करने के के उपलक्ष में आगरा के पास बमरौली कटारा की जागीर तथा राणा की उपाधि से विभूषित कर छत्र चंवर प्रदान किये.[10] और इनके पुत्र विरमदेव बमरौलिया को साम्राज्य के सबसे महत्वपूर्ण स्थान तुहनगढ़ की सुरक्षा का दायित्व सौंपा. (Ojha, p.33)
गढ़ बैराठ से बमरौली आगमन - तोमर सम्राट द्वारा प्रदत्त बमरौली कटारा की जागीर[11] में राणा परिवार आकर रहने लगे. रामदेव उर्फ़ विरहमपाल ने अपने समय में वहां रह रहे मुसलमानों को मार भगाया तथा उनकी जागीर को अपनी जागीर में मिला लिया.[12] (Ojha, p.34)
बमरौलिया जाट: इन जाटों ने बमरौली में अपनी स्थिति बहुत सुदृढ़ करली थी तथा यहाँ 172 वर्षों तक रहने के कारण ये लोग बमरौलिया जाट क्षेत्रीय के नाम से सम्बोधित किये जाने लगे.[13] (Ojha, p.34)
बमरौलिया जाटों का ऐसाह की और पलायन :दिल्ली सुलतान फरोजशाह तुगलक के शासनकाल में सन 1367 में आगरा सूबेदार मुनीर मुहम्मद था. उस समय बमरौली कटारा का जागीरदार रतनपाल बमरौली कटारा छोड़कर अपने मित्र तोमर राजा के पास ऐसाह (वर्तमान मुरैना जिले की अम्बाह तहसील में राजस्थान सीमा के पास चम्बल किनारे गाँव, दिल्ली से पूर्व यहाँ तोमरों की राजधानी थी) पहुंचा. जहाँ वह तोमरों के प्रमुख सामंत के रूप में स्थापित हुए.[14] तोमर सम्राट देव वर्मा द्वारा रतनपाल बमरौलिया को पचेहरा (जटवारा) निवास हेतु प्रदान किया गया. (Ojha, p.35)
पचेहरा से बगथरा आगमन - केहरी सिंह बमरौलिया (1390-1395) को ऐसाह के तोमर राजा वीरसिंह देव (1375-1400) के शासनकाल में अपनी वीरता प्रदर्शित करने का अवसर मिल गया. उस समय 1394 में वीरसिंह देव ने ग्वालियर दुर्ग पर दिल्ली सुलतान की ओर से नियुक्त अमीर को पराजित कर ग्वालियर में तोमर राजवंश की नींव डाली. 4 जून 1394 को दिल्ली सुलतान नसीरुद्दीन मुहम्मद को पराजित कर ग्वालियर में स्वतंत्र तोमर राज्य स्थापित किया.[15](Ojha, p.35)
वीरसिंह देव तोमर ग्वालियर के प्रथम स्वतंत्र तोमर शासक बने. तोमर राजा वीर सिंह देव तथा दिल्ली सुलतान के मध्य हुए युद्ध में केहरी सिंह बमरौलिया ने वीरसिंह देव का साथ दिया. केहरी सिंह की जाट सेना की छापामार युद्ध प्रणाली की भयंकर मार से सुलतान की सेना भाग खड़ी हुई थी. जब वीरसिंह देव ग्वालियर के स्वतंत्र राजा बन गए तब केहरी सिंह को बगथरा गाँव निवास हेतु प्रदान किया. [16] (Ojha, p.35)
स्थानीय जाटों से वैवाहिक सम्बन्ध - बगथरा गाँव में बसने के बाद इन बमरौलिया जाटों ने स्थानीय बिसोतिया गोत्र के जाटों से वैवाहिक सम्बन्ध बनाये तथा अपने बल में वृद्धि की.[17] (Ojha, p.35)
जाट संघ - केहरी सिंह बमरौलिया ने बगथरा में निवास करने के दौरान स्थानीय जाटों का एक संगठन बनाया और तोमर राजा का युद्धों में साथ देकर उनका विश्वासपात्र बन गया. इस प्रकार ये बमरौलिया जाट तोमर राजाओं के प्रमुख सामंत बन गए. [18] (Ojha, p.36)
सिंघनदेव बमरौलिया द्वारा राजा मान सिंह तोमर की युद्धों में सहायता
सन 1505 में दिल्ली सुलतान सिकन्दर लोधी ग्वालियर विजय के लिए विशाल सेना लेकर आगरा से चला. उसने ग्वालियर से 10 कोस की दूरी पर अलापुर नामक स्थान पर मोर्चा लगाया। राजा मानसिंह ने भी युद्ध की तैयारी की. दोनों सेनाओं का जौरा-अलापुर पर घमासान युद्ध हुआ. जिसमे सिकन्दर लोधी पराजित हुआ. पराजित सुलतान ने भागकर धौलपुर में शरण ली. इस युद्ध में बगथरा का जाट सरदार सिंघन देव 5000 सैनिकों की सेना लेकर राजा मान सिंह के पक्ष में सिकन्दर लोधी के विरुद्ध युद्ध करने पहुंचा.[19] सिंघन देव के नेतृत्व में जाट सेना ने सुलतान को शाही सेना से घमासान युद्ध किया. और सेना को व्यथित कर दिया। सुलतान खान जहाँ तथा ओध खां की सहायता से रण क्षेत्र से जान बचकर भागा. इसके बाद सुलतान सिकंदर लोधी ने मानसिंह के जीवित रहते ग्वालियर पर कभी आक्रमण करने का साहस नहीं किया. [20] (Ojha, p.36)
सिंघनदेव बमरौलिया द्वारा पिण्डारी दस्यु सरदार भामापौर का दमन
ग्वालियर के तोमर राजा मान सिंह (1486-1516) के शासन काल में दक्षिण के पिण्डारियों का एक डाकू दल ग्वालियर तथा उसके निकटवर्ती क्षेत्र टोंक, सिरोंज, कोटा छाबड़ा आदि राज्यों में लूट-पाट किया करता था, उनके सरदार का नाम भामापौर था,जो बहुत बलशाली था. ग्वालियर राजा मानसिंह ने सभी सरदारों को बुलाकर भामापौर के दमन हेतु मंत्रणा की. तब बगथरा के जाट सरदार सिंघनदेव ने भामापौर के दमन का संकल्प लिया. सिंघनदेव अपने नाना झाँझन पूरिया (झाँकरी गाँव), मैथादास गिरवां गाँव के तथा जाजिलजी बिसोटिया (तुरार खेड़ा) को साथ लेकर उस पिण्डारी दस्यु भामापौर की खोज में निकल पड़े. भामापौर को नदी किनारे बीहड़ में शिव मन्दिर में घेर लिया. उस समय वह आँखे खोज में पूजा कर रहा रहा था. सिंघन देव ने युद्ध के लिए ललकारा तो उसने ताम्रपत्र से पूरे जोर से सिंघनदेव के माथे पर वार कर दिया. जिससे सिंघन देव का माथा फुट गया. सिंघनदेव वहीँ गिर पड़े, तब मैथादास तथा जाजील जी बिसौटिया तथा झांझन दास पुरिया एक साथ भामापौर पर टूट पड़े. सिंघन देव ने फूर्ति से उठकर अपनी तलवार से भामापौर का सर धड़ से अलग कर दिया. भामापौर के मारे जाने पर पिण्डारी लुटेरों का दल दक्षिण की ओर भाग गया. ग्वालियर राज्य अराजकता से मुक्त हो गया. सिंघनदेव की बहादुरी से प्रसन्न होकर राजा मान सिंह ने उसे एक रत्न-जड़ित तलवार भेंट कर, गोहद का राजा बनाकर राणा की उपाधि से विभूषित किया.[21] (Ojha, p.37)
गोहद राजवंश के संस्थापक - राणा सिंघन देव (1505-1518)
राणा सिंघनदेव का जन्म गोहद के समीप बगथरा गाँव में हुआ. इनका जन्म ई. सन् 1476 में होना अनुमानित है.[22] इनके पिता का नाम कृपाल सिंह था, जो ग्वालियर के तोमर राजाओं के सामंत थे.[23] कुल पुरोहित ने कृपाल सिंह के इस पुत्र का नाम शम्भू सिंह रखा. शम्भू सिंह बचपन से ही कर्मठ, शूरवीर, साहसी तथा उत्साही युवक था. वह अपनी वाकपटुता, कुशाग्र बुद्धि तथा सेवा भावना से ग्वालियर के तत्कालीन तोमर राजा मान सिंह का (1486-1516) कृपा पात्र बन गया. उनकी गणना मान सिंह के प्रमुख सामंतों में की जाती थी. उनकी आवाज बुलंद थी की युद्ध के समय जब वे शत्रु को ललकारते थे, तो शत्रु के छक्के छोट जाते थे. उनकी आवाज सिंह की दहाड़ जैसी होने से उनके साथी सरदारों में वे शम्भू सिंह के स्थान पर सिंघन देव नाम से जाने जाते थे. [24] (Ojha, p.49)
राणा सिंघन देव का राजतिलक :
जब सन 1505 ई. में ग्वालियर के तोमर राजा मान सिंह ने राणा सिंघनदेव को गोहद क्षेत्र का नियमित राजा बना दिया तो समस्त जाटों ने क्षत्रिय परम्पराओं के अनुसार बगथरा गाँव में राणा सिंघनदेव का राजतिलक किया.[25] (Ojha, p.50)
गोहद दुर्ग की स्थापना :
जनश्रुति है कि बगथरा में निवास के दौरान एक दिन राणा सिंघनदेव अपने जाट सरदारों के साथ वेसली नदी के बीहड़ में शिकार खेलने गए. वहां उन्होंने गायों और एक शेर को साथ पानी पीते देखा तो उसी स्थान पर किला बनाने का निर्णय किया. उसी स्थान पर अपना निवास और राज्य सञ्चालन के लिए दुर्ग बनाने तथा स्थापित राज्य का नाम गौ-माता के नाम पर गोहद रखने का निर्णय लिया.जब शुभ मुहूर्त में दुर्ग निर्माण हेतु भूमि पूजनोपरांत नींव की खुदाई प्रारम्भ हुई तो नृसिंह भगवान की पावन प्रतिमा प्राप्त हुई बताई गयी. राणा ने नृसिंह भगवान को अपना कुल देवता स्वीकार किया तथा नृसिंह भगवान का चित्र राजचिन्ह घोषित किया. गोहद की गद्दी नृसिंह भगवान की गद्दी कही जाती है. [26] जनश्रुति यह भी है कि राणा सिंघनदेव द्वारा स्थापित राज्य 'गोहड़ी गाँव' के पास होने से इसका नाम गोहद पड़ा. (Ojha, p.93)
राणा सिंघन देव की शासन व्यवस्था :
राणा सिंघन देव ने नवीन राजवंश की नींव डाली थी, इसलिए उस समय राज्य विस्तार काम था, फिर भी राज्य विस्तार की एक व्यवस्थित योजना थी. यह उनके कुशाग्र बुद्धि की परिचायक है. उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में जूझते हुए नित्य संघर्षरत रहकर गोहद राज्य का विस्तार किया. उन्होंने बगथरा गाँव में एक 'राम सागर' ताल खुदवाया तथा गोहद में नृसिंह भगवान का मंदिर बनवाया.[27](Ojha, p.52)
मूल्यांकन - राणा सिंघन देव निर्भीक, बलवान तथा साहसी था, वह अपनी प्रजा का अत्यंत प्रिय था. वह ग्वालियर के तोमर राजा का प्रमुख सामंत था. आज भी बगथरा क्षेत्र के निवासी चौपालों पर बैठकर उनकी प्रशंसा में लोकगीत गाते हैं. उन्होंने 1505 से 1518 ई. तक शासन किया. ई. सन 1518 में अल्प तक उनकी मृत्यु हो गयी.[28] (Ojha, p.52)
राणा अभयसिंह (1518 - 1531)
राणा सिंघनदेव की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राणा अभयसिंह गोहद के राज सिंहासन पर बैठा. उनका राजतिलक गोहद दुर्ग में मनाया गया. उन्होंने अपने भाई नरपाल सिंह को बगथरा तथा अन्य दुसरे भाई भूपसिंह को बेहट की जागीरें प्रदान की. वह 1523 ई. तक ग्वालियर के तोमर राजाओं का सामंत रहा.[29] (Ojha, p.52)
ग्वालियर के तोमर राज्य का पतन - दिल्ली सुलतान इब्राहिम लोधी और ग्वालियर के तोमर राजा विक्रमादित्य में हुई संधि के तहत विक्रमादित्य सन 1523 के प्रारम्भ में ग्वालियर छोड़कर आगरा पहुँच गए. बाद में इब्राहिम लोधी और बाबर के मध्य सन 1526 में पानीपत के मैदान में हुए युद्ध में विक्रमादित्य 20 अप्रेल 1526 को वीर गति को प्राप्त हुए. [30] (Ojha, p.52)
जब ग्वालियर के तोमर राज्य का पतन हो गया तो गोहद के राणा लोधी सल्तनत के जागीरदार हो गए. इसके बाद 1526 में जब मुग़ल बादशाह बाबर ने ग्वालियर को अपने अधिकार में कर लिया, तब गोहद के राणा मुग़लों के अधीन हो गए. राणा अभय सिंह ने गोहद दुर्ग में अपना महल कालियाकंत भगवान का मंदिर बनवाया. [31] (Ojha, p.52-53)
राणा रामचन्द्र (1531-1550)
राणा अभयसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा रामचन्द्र सन 1531 में गोहद की गद्दी पर बैठा. इस समय भारत में मुग़ल शासक हुमायूँ तथा शेर शाह सूरी का शासन था. इन शासकों ने गोहद जैसे छोटे अमीरों पर कोई ध्यान नहीं दिया. इसलिए इन्हें राज्य विस्तार हेतु पर्याप्त समय मिल गया. राणा रामचन्द्र की मृत्यु सन 1550 में हुई. इन्होने कई मंदिर तथा कुओं का निर्माण कराया. [32] (Ojha, p.53)
राणा रतन सिंह (1550-1588)
राणा रामचन्द्र की मृत्यु के बाद राणा रतन सिंह सन 1550 में गोहद की गद्दी पर बैठे. इस समय भारत में मुग़ल शासक अकबर का शासन था. उस समय खितौली मुहाल था, जो गोहद के समीप है, तब यह क्षेत्र आगरा सरकार में सम्मिलित था. राणा रतन सिंह की मृत्यु सन 1588 में हुई. [33] (Ojha, p.53)
राणा उदयसिंह (1588 - 1619)
राणा रतन सिंह की मृत्यु के बाद राणा उदयसिंह सन 1588 में गोहद की गद्दी पर बैठे. उनके प्रारंभिक में भारत में मुग़ल सम्राट अकबर का शासन था तथा अंतिम वर्षों में सम्राट जहांगीर का शासन था. राणा उदयसिंह की मृत्यु सन् 1619 में हुई.[34] उन्होंने गोहद दुर्ग में शीश महल बनवाया था. उस काल में भी गोहद खितौली मुहाल (गोहद के समीप) में सम्मिलित था, जो आगरा सरकार के अंतर्गत था. (Ojha, p.53)
राणा बाघ राज (1619 - 1654)
राणा उदयसिंह की मृत्यु के बाद राणा बाघ राज सन 1619 में गोहद की गद्दी पर बैठे. उनके प्रारंभिक में भारत में मुग़ल सम्राट जहांगीर का शासन था तथा अंतिम वर्षों में सम्राट शाहजहाँ का शासन था. राणा बाघ राज की मृत्यु सन् 1654 में हुई. सन 1629 में अत्यधिक ओला वृष्टि से फसलें नष्ट हो गयी थी, तब राणा बाघ राज ने अपने सुरक्षित भण्डार से प्रजा को अनाज बटवाया था तथा किसानों से लिया जाने वाला कर भी माफ़ किया था. [35]
राणा बाघराज ने कई तालाब खुदवाये तथा कुंए बनवाए. वह धार्मिक व्यक्ति थे. उन्होंने गोहद में कई मंदिर बनवाए. (Ojha, p.53)
राणा गज सिंह (1654 - 1690)
राणा गज सिंह सन् 1654 में गोहद के राज सिंहासन पर आसीन हुए. वह कुशल सेनापति और बहादुर शासक थे. उन्होंने राज्य विस्तार की एक सुव्यवस्थित योजना तैयार की. उनके शासन काल में जाटों ने गोहद के आस-पास के गाँवों में मिटटी की कच्ची गाड़ियों का निर्माण किया, जिससे राज्य का विस्तार हुआ.
इनके शासन काल के अंतिम वर्षों में मुग़ल सत्ता पतन की ओर अग्रसर थी. औरंगजेब 1681 में सेना लेकर दक्षिण कूच कर गया और मृत्यु पर्यन्त वहीँ उलझा रहा, जिससे उत्तर भारत में उसका नियंत्रण कमजोर पद पड़ गया, और छोटे शासक अपनी शक्ति का विस्तार करने लगे. राजा गज सिंह ने भी इस अवसर का लाभ उठाया. उस ने चम्बल और सिन्ध नदियों के बीच अपने राज्यक का पर्याप्त विस्तार किया. इनकी सन 1690 में मृत्यु हो गयी. उन्होंने गोहद दुर्ग में मुख्य महल बनवाया, कई बाग़ लगवाये और कुए खुदवाये. गोहद दुर्ग के आस-पास अभेद्य चहार दीवारी का निर्माण कराया. [36] [37] (Ojha,p.54)
आठ घर: राणा गज सिंह के दो रानियां थी. बड़ी रानी के तीन राजकुमार और छोटी रानी के पांच राजकुमार थे. इस प्रकार राणा गज सिंह के आठ पुत्र थे. बड़ी रानी के पुत्र राणा जसवंत सिंह गोहद की राजगद्दी के उत्तराधिकारी हुए तथा अन्य सात पुत्रों को सात गाँव इकौना, नीरपुरा, मकोई, दंदरौआ, सड़, भगवासा तथा कैथोंदा की जागीरें प्रदान की. इस प्रकार इन सब भाइयों के आठ घर कहलाये।[38] [39] (Ojha,p.55)
राणा जसवंत सिंह (1690 - 1702)
राणा गज सिंह का ज्येष्ठ पुत्र राणा जसवन्त सिंह सन् 1690 में गोहद के राज सिंहासन पर आसीन हुए. इनका राजतिलक समारोह गोहद दुर्ग में धूमधाम से मनाया गया, जिसमे राज्य की गढियों के सभी प्रमुख जाट सरदार, प्रमुख सावंत, तथा उमराव उपस्थित हुए. वे बड़े वीर और साहसी थे. [40] (Ojha,p.55)
स्वतंत्र सत्ता की स्थापना : इस समय दिल्ली की केंद्रीय सत्ता पतन की ओर जा रही थी, औरंगजेब की वृद्धावस्ता एवं दक्षिण भारत के युद्धों में उलझे होने के कारण भारत की छोटी-छोटी रियासतें मुग़ल सत्ता के नियंत्रण से बाहर हो रही थी. यही समय जाटों के उत्कर्ष था. इस समय जाट विशेषतः मथुरा, आगरा, दक्षिण में चम्बल और सिंध नदियों के मध्य ग्वालियर गोहद आदि में विशेष शक्ति के रूप में उभर रहे रहे थे. कमजोर हो रही मुगल सत्ता का लाभ उठकर राणा जसवंत सिंह ने अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया.[41] वह बड़ा दूरदर्शी और महत्वाकांक्षी शासक था. अपने 12 वर्षों की अल्पावधि में गोहद राज्य का पर्याप्त विस्तार किया.(Ojha,p.5556)
राणा भीमसिंह (1702-1755)
राणा जसवन्त सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राणा भीमसिंह गोहद के राज सिंहासन पर आसीन हुए. उनका समारोह बड़ी धूमधाम से गोहद दुर्ग में मनाया गया. इस समय जाटों की शक्ति बहुत बढ़ गयी थी. गोहद दुर्ग अपनी सृदृढ़ चहार दीवारी के कारण प्रसिद्ध था तथा आस-पास के गाँवों में जाटों के छोटे-छोटे पक्के दुर्ग बने थे. राणा भीमसिंह ने आसपास के छोटे दुर्गों पर सुरक्षा हेतु सैनिक रखे. जाट सेना में लगभग 5000 सैनिक थे. उनके जाट सरदारों की संख्या 125 थी. कुछ प्रमुख जाट निम्न थे. [42] (Ojha,p.60)
- नीरपुरा - राव बलजू
- इटायली - कुंवर माधो सिंह
- करवास - हमीर सिंह
- पिपाड़ा - विक्रमदत्त
- मुढ़ैना - कुंवर गुमान सिंह
राणा भीमसिंह को अपने पिता राणा जसवन्त सिंह से एक सुव्यवस्थित एवं विस्तृता राज्य मिला था. चम्बल तथा सिंध नदियों के बीच गोहद शक्तिशाली राज्य के रूप में अभ्युदय हो चुका था. राणा भीमसिंह 1707 तक निर्विवाद रूप से गोहद पर शासन करता रहा तथा अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार हेतु प्रयासरत रहा. [43] (Ojha,p.61)
गोहद दुर्ग पर भदौरिया का आधिपत्य : 4 मार्च 1707 को औरंगजेब की मृत्यु हो गयी. चूड़ामन जाट को मुग़ल सम्राट का जागीरदार बना दिया गया था जिससे गोहद राज्य अकेला पड़ गया था. अटेर राजा गोपाल सिंह भदौरिया ने अवध के नवाब की सहायता से 1707 में गोहद पर आक्रमण कर अधिपत्य कर लिया. गोपाल सिंह का केवल गोहद दुर्ग पर अधिपत्य हुआ था शेष राज्य भीम सिंह के अधिकार में ही था. गोहद दुर्ग पर भदौरिया का अधिकार 1707 से 1739 तक रहा. इस अवधी में भीम सिंह झाँकरी चला गया. उस समय झाँकरी का सामंत राव बलजू था, राणा भीम सिंह का परिवारी चाचा था. राणा भीम सिंह ने 1739 तक झाँकरी गढ़ से शेष शेष राज्य का संचालन किया। [44] (Ojha, p.62)

गोहद दुर्ग पर राणा भीमसिंह का पुनः आधिपत्य : पेशवा बाजीराव (1720-40) दिल्ली अभियान पर आगरा जा रहा था तब गोहद दुर्ग पर अनुरूद्ध सिंह भदौरिया का आधिपत्य था. पेशवा ने भदौरिया से सैन्य सहायता मांगी. अनुरूद्ध सिंह भदौरिया मुगलों का पुस्तैनी सामंत था इसलिए पेशवा को सैन्य सहायता देने से इनकार कर दिया. जिससे नाराज होकर पेशवा ने अटेर के राजा पर आक्रमण कर दिया. (Ojha, p.62)
राणा भीमसिंह जो अपने गोहद दुर्ग पर अधिकार पाने के लिए 32 वर्ष से प्रतीक्षारत था, जाकर पेशवा से मिल गया. [45] जाट-मराठा संयुक्त सेना ने अनिरूद्ध सिंह भदौरिया की सेना के विरुद्ध जटवारे में पचेहरा नामक स्थान पर घमासान युद्ध हुआ. अचानक पेशवा ने मराठा सेना की एक टुकड़ी को जैतपुर के रास्ते अटेर की ओर भेजा। अनिरुद्ध सिंह युद्ध का मैदान छोड़कर अपनी राजधानी बचने अटेर पहुंचा. अनिरुद्ध सिंह के भागने पर राणा भीम सिंह को उसकी कुछ तोपें, नगाड़ों के निशान तथा 11 हाथी मिल गए जिन को वह गोहद लेकर गए. [46] यह युद्ध मराठा सेना की सहायता से भीम सिंह ने जीत लिया.[47] राणा भीम सिंह का भादो सुदी 10 बृहस्पतिवार संवत 1796 के दिन गोहद पर पुनः आधिपत्य हो गया. [48] (Ojha, p.63)
जाट मराठा युद्ध - कुम्हेर दुर्ग 1754 : 20 जनवरी 1754 को मराठा सेनाओं ने कुम्हेर दुर्ग का घेरा डाला था. राजा सूरजमल ने मराठा सेनाओं का सामना करने के लिए पर्याप्त प्रबंध किये. राणा भीम सिंह अपनी 5000 की सेना लेकर सूरजमल के पक्ष में मराठों के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने कुम्हेर पहुंचे. [49] इस युद्ध में 15 मार्च 1754 को मल्हार राव होल्कर का पुत्र खांडेराव मारा गया. 18 मई 1754 के दिन मराठा सेनाओं ने कुम्हेर का घेरा उठा लिया. कुम्हेर दुर्ग पर सूरजमल का आधिपत्य बना रहा.(Ojha, p.63)
राणा भीमसिंह का ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य (1754)
मराठो का ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण - जब मराठा सेनाये 1754 में कुम्हेर दुर्ग का घेरा उठाकर दक्षिण की ओर लौट रही थी, तब उनके एक सेनानायक विठ्ठल शिवदेव विंचुरकर ने ग्वालियर में अपना सैन्य पड़ाव डाला. विंचुरकर ने ग्वालियर दुर्ग पर घेरा डाल दिया और आक्रमण कर दिया.(Ojha, p.64) किलेदार किश्वर अली खां के नेतृत्व में मुग़ल बादशाह की और से नियुक्त राजपूत सैनिक एक माह तक मराठों का सामना करते रहे.[50] मुग़ल साम्राज्य में उस समय षड्यंत्रों का दौर चल रहा था. जिसकी वजह से दिल्ली दरबार ग्वालियर दुर्ग पर मराठों का सामना करने के लिए सेना नहीं भेज सका. किलेदार किश्वर अली ने दुर्ग पर नियुक्त उच्च अधिकारियों से विमर्श किया. किश्वर अली खां के वकील किशनदास ने सलाह दी कि 'दक्षिण के लुटेरों के सामने आत्म समर्पण करने के बजाय गोपाचलगढ़ गोहद के राणा भीम सिंह को सौंपना उचित होगा'.[51] (Ojha, p.65)
किलेदार किश्वर अली खां ने वकील की सलाह के अनुसार गोहद के राणा भीम सिंह को पत्र भेजकर ग्वालियर दुर्ग राणा भीमसिंह को सौंपने के निर्णय से अवगत कराया. [52] (Ojha, p.65)
जाट सेना का ग्वालियर दुर्ग में प्रवेश - किलेदार किश्वर अली खां की अधिकृत सूचना पर राणा भीम सिंह ने मराठों को ग्वालियर से खदेड़ने तथा ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य करने के लिए जाट सेना फ़तेहसिंह के नेतृत्व में 1000 बन्दूक सैनिक ग्वालियर दुर्ग पर भेज दिए. जिन्हें कबूतरखाने के रास्ते से दुर्ग में प्रवेश करा दिया गया. [53] जाट सेनापति फ़तेह सिंह ने मराठा सेना का सामना करने के लिए मोर्चा लगाया. [54] (Ojha, p.65)
जाट मराठा युद्ध 1754 - मराठा सरदार विट्ठल शिवदेव विचुंरकर बहादुरपुर गांव के निकट मोर्चा लगाये थे. राणा भीमसिंह अपने साथ 5000 पैदल, 1000 घुडसवार, 1000 बंदूकों वाले सैनिक की विशाल सेना लेकर युद्ध के मैदान में पहुंचे. ग्वालियर, नरवर आदि राज्यों के अमीर, सामंत, जमींदार तथा सरदार इकट्ठे होकर मराठों का सामना करने के लिये राणा भीमसिंह के पक्ष में पहुंचे.[55](Ojha, p.66)
राणा भीमसिंह ने गिरगांव के निकट अपना मोर्चा लगाया. जाट सेना तथा मराठा सेना मे घमासान युद्ध हुआ. जाट सेना के सामने मराठा सेना ठहर न सकी. मराठों के बहुत से सैनिक मारे गये तथा घायल हो गये. मराठा सेना बुरी तरह परास्त हुई. राणा भीमसिंह ने विट्ठल शिवदेव विचुंरकर के मोर्चे को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया. [56] विट्ठल शिवदेव विचुंरकर अपनी सेना लेकर ग्वालियर से 20 मील दूर स्थित आंतरी भाग गया.[57] कुछ मराठा सैनिकों को भीम सिंह की सेना ने कैद कर लिया. [58](Ojha, p.66)
राणा भीमसिंह का ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य (1754) - राणा भीमसिंह ने मराठों को बुरी तरह पराजित कर ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य कर लिया. उसने दुर्ग की सुरक्षा की नये सिरे से व्यवस्था की. किले पर रह रहे उन लोगों को हटा दिया, जिन्हें युद्ध कला का कोई ज्ञान नहीं था. बादशह की ओर से नियुक्त राजपूत दुर्ग रक्षकों को भी हटा दिया, जब्कि किलेदार किश्वर अली खां को उसके पद पर बना रहने दिया. [59](Ojha, p.66)
मराठा रघुनाथ राव का ग्वलियर दुर्ग पर आक्रमण -1755 -
अग्ले वर्ष 1755 मे जब मराठा सेनापति दादा रघुनाथ राव अपने दिल्ली अभियान से दक्षिण की ओर सेना सहित वापस लौट रहा था, तब ग्वालियर दुर्ग पर पुन: घेरा डाला गया. जाट सेना ने भी दुर्ग पर मोर्चा लगाया. दोनों पक्षों मे लगभग एक माह तक युद्ध चलता रहा, लेकिन किसी पक्ष को कोई विशेष नुकसान नहीं हुआ. [60](Ojha, p.67)
मराठों का राणा भीमसिंह पर धोखे से हमला (1755)
मराठा सरदार विट्ठल शिवदेव विचुंरकर बहादुरपुर गांव के पास व राणा भीमसिंह ग्वालियर दुर्ग पर अपना मोर्चा लगाये थे. एक दिन राणा भीमसिंह अपने कुछ अंगरक्षकों के साथ दुर्ग से नीचे उतर के ’सालू’ गांव के पास खडे होकर स्थिति का आंकलन कर रहे थे, कि उनको मराठा गुप्तचरों ने देख लिया, उन्होंने मराठा सेनापति विट्ठल शिवदेव विचुंरकर को इसकी सूचना दे दी.(Ojha, p.67)
मराठा सरदार विट्ठल शिवदेव विचुंरकर ने अपने साथ मराठा सरदार महादजी सौतेले को लाकर राणा भीमसिंह को घेर लिया. राणा भीम सिंह घोडे पर भी सवार नहीं थे, फ़िर भी उन्होने युद्ध के मैदान में वीरता और साहस का परिचय दिया. मराठा सरदार विट्ठल शिवदेव विचुंरकर ने राणा भीमसिंह के सिर में तलवार से कई वार कर दिये, जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गये. घायल राणा को उनके अंग रक्षक पालकी में लिटाकर दुर्ग पर ले गये.[61](Ojha, p.67)
घायल राणा भीमसिंह का उपचार किया गया. लेकिन घाव बहुत गहरे थे, जिसकी वजह से तीन दिन बाद सम्वत 1812 चैत्र मास शुक्ल पक्ष नवमी (राम नवमी) के दिन उनकी म्रुत्यु हो गई. [62]
राणा भीमसिंह की अन्त्येष्टि: राणा भीमसिंह की अन्त्येष्टि ग्वालियर दुर्ग पर विशाल सरोवर के किनारे पूर्ण हिन्दू धार्मिक कर्म काण्डों के अनुसार हुई. राणा भीमसिंह की छोटी रानी ’रोशन’ भी चिता में बैठ कर सती हो गई.[63](Ojha, p.68)
राणा गिरधर प्रताप सिंह (1755-1757)
राणा भीमसिंह के पुत्र नहीं था. जाट सरदारों ने जाट राजवंश की परम्परा का पालन करते हुये नीरपुरा गांव के सामन्त कुंवर बल्जू के पुत्र गिरधर प्रताप सिंह को सर्व सम्मति से राणा का उत्तरधिकारी चुनकर राजतिलक कर दिया. राणा गिरधर प्रताप सिंह मराठों का सफ़ल प्रतिरोध करते रहे. (Ojha, p.68)
राणा छत्र सिंह (1757-1784)
राणा गिरधरप्रताप सिंह की म्रुत्यु के बाद उनका छोटा भाई राणा छत्र सिंह माघ सुदी सप्तमी 1813 को गोहद के राजसिंहासन पर आसीन हुआ. उनका राजतिलक समारोह गोहद दुर्ग में हर्षोल्लास से मनाया गया.[64] उस समय गोहद राज्य की सीमाओं का विस्तार उत्तर में भरतपुर के जाट राज्य, उत्तर-पूर्व में भिंड-अटेर का भदावर राज्य, पूर्व में लहार के कछवाहों तथा दक्षिण मे प्राचीन बुंदेला शासकों की सीमाओं तक था.[65] यही समय मराठों के उत्कर्ष का था. वे उत्तर भारत में लूटमार कर रहे थे. उस समय गोहद क्षेत्र उत्तर मालवा मे अपनी सम्रुद्धी के लिये प्रसिद्ध था. राणा छत्र सिंह का राज्य मराठों के दिल्ली अभियान के रास्ते में पडता था, जिससे मराठा गोहद राज्य पर अधिकार करना चाहते थे.[66] लेकिन राणा छत्र सिंह बहादुरी से लगभग 24 वर्षो तक मराठों के आक्रमणों को विफ़ल करता रहा. राणा छत्र सिंह की विरता से प्रभावित होकर अंग्रेज तथा फ़्रांसिसियों ने उनसे मित्रता स्थापित की. भरतपुर नरेश जवाहर सिंह तथा अंग्रेजों की सहायता से उसने मराठों पर निरन्तर विजयें प्राप्त कीं. उनका शासन काल गोहद राज्य का सवर्णिम युग कहलाता है.[67] (Ojha,p.69)
राणा छत्र सिंह का ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य (1761)
पानीपत का तृतीययुद्ध और मराठा - 14 जनवरी 1761 के दिन पानीपत के मैदान में अहमदशाह अब्दाली और मराठों के बीच हुये युद्ध में मराठा बुरी तरह से पराजित हुये. उनका उत्तर भारत में प्रभुत्व समप्त हो गया. वे दक्षिण की ओर लौट गये. [68] पेशवा बाजी राव की पानीपत के युद्ध के बाद जून 1761 में म्रुत्यु हो गई.[69] (Ojha,p.70)
राणा छत्र सिंह के पैत्रक दुर्ग ग्वालियर पर मराठों का अधिकार था. उनकी ओर से उस समय गोविन्द श्याम राव नामक मराठा सरदार ग्वालियर दुर्ग का सूबेदार था तथा एक अन्य मराठा सरदार नरसिंह राव फ़ौजदार के पद पर नियुक्त था, जो ग्वालियर में न्याय का संचालन भी करता था. [70] जब उत्तर भारत में मराठों का प्रभुत्व समाप्त हो गया, तो राणा छत्र सिंह को अपने पैतृक दुर्ग ग्वालियर पर अधिकार का सुअवसर प्राप्त हो गया, उन्होने ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया. दुर्ग के सूबेदार गोविन्द श्याम राव ने पूरी शक्ति के साथ राणा छत्र सिंह का सामना किया. जाट सेना तथा मराठा सेना में घमासान युद्ध हुआ, जिसमें मराठा सेना बुरी तरह पराजित हुई. [71] राणा छत्र सिंह का ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य हो गया.[72] (Ojha,p.70)
मल्हार राव होल्कर का गोहद के विरुद्ध अभियान 1765 - पानीपत के तृतीय युद्ध मे मराठों की बुरी पराजय से ऐसा प्रतीत होता था कि मराठा शक्ति समाप्त हो गई, प्रन्तु अहमदशाह अब्दाली के स्वदेश वापस लौट जाने के बाद मराठा फ़िर से शक्तिशाली होने लगे. वे कुछ समय बाद पुन: लूटमार करने लगे थे.[73] मराठों को धन के लिये जाटों का क्षेत्र अनुपम तथा अद्वीतीय था. मल्हारराव ने जुलाई 1765 में गोहद राज्य में लूटमार प्रारम्भ की. [74] राणा छत्र सिंह ने मराठों का सामना वीरतापूर्वक किया. यद्यपि गोहद के जाट वीर तथा साहसी थे, लेकिन वे दक्षिण की टिड्डियों की तुलना में कम थे. इसलिये वे दिन-प्रति दिन कुछ खो रहे थे.[75](Ojha,p.70)
महादजी सिंधिया का ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य 1765 - जिस समय गोहद राणा छत्रसिंह मल्हारराव की शत्रुतापूर्ण कार्यों की प्रतिक्रियात्मक कार्यवाहियों में व्यस्त थे, उस समय ग्वालियर दुर्ग की जाट सैन्य शक्ति नगण्य थी. महादजी ने अवसर पाकर ग्वालियर दुर्ग पर दिसम्बर 1765 में आधिपत्य कर दिया. [76](Ojha,p.70-71)
जाट मराठा संघर्ष- राणा छत्रसिंह की निरन्तर विजयें
मल्हारराव का गोहद का घेरा 1766 - मल्हारराव जुलाई 1765 से गोहद राज्य के विरुद्ध शत्रुतापूर्ण कर्यों को सम्पादित कर रहा था. वालियर दुर्ग पर अधिकार हो जाने पर मल्हारराव का उत्साह बढ गया, तो वह जनवरी 1766 में गोहद पर घेरा डालकर आक्रमण की तैयारी करने लगा. मल्हारराव ने मराठा सरदार सुल्तानजी लम्भाटे, मकाजी लम्भाटे और सन्ताजी वावले के नेत्रत्व में 15000 घुडसवार चम्बल पार धोलपुर में जवाहर सिंह के विरुद्ध युद्ध करने भेजे. [77] जवाहर सिंह ने सिक्ख सेना की सहायता से धोलपुर से 14 मील की दूरी पर 13-14 मार्च 1766 को मराठों को बुरी तरह पराजित किया. [78] जवाहर सिंह ने मराठा सरदार सुल्तानजी लम्भाटे को कुछ सैनिकों सहित कैद कर लिया तथा कई सैकडा घोडे छीन लिये. [79]
जिस समय मल्हारराव की सेना धौलपुर में जवाहर सिंह के विरुद्ध युद्ध में व्यस्त थी, उसी समय 13-14 मार्च 1766 को राणा छत्र सिंह ने गोहद का घेरा डाले मल्हारराव की मराठा सेना पर आक्रमण कर दिया. जाट सेना ने मराठों को बुरी तरह परास्त किया. भरतपुर तथा गोहद में एक साथ जाटों द्वारा मराठों की यह पराजय मराठा सरदार बावले और लम्भाटे के लिये पानीपत में हुई पराजय के समान थी.[80](Ojha,p.71)
जवाहर सिंह और छत्र सिंह का जाट संघ - जवाहर सिंह तथा सिक्खों के बीच घनिष्ट संबन्ध थे. उन्होने सिक्खों की सहायता से मल्हारराव होल्कर की सेनाओं को पराजित कर दिया था. सिक्खों ने तो अहमदशाह अबदाली के विरुद्ध सफ़ल प्रतिशोध किया था. गोहद का राणा छत्र सिंह जुलाई 1965 से मराठों के विरुद्ध बहादुरी से संघर्ष कर रहा था. मालवा में जाट मूल वंश का दुर्दम्य साहस और अजेय शौर्य पंजाब और भरतपुर से कम उज्जवल नहीं था.[81] इसलिये मल्हार राव के ऊपर विजय से अपने को गौरवान्वित समझकर जवाहर सिंह ने स्वयं यह निश्चित किया कि वह अपने मित्र राणा छत्र सिंह की सहायत करेगा और इस प्रकार वह चम्बल के पार तथा अपने देश के बाहर मराठों का सफ़ाया करेगा.[82](Ojha,p.72)
रघुनाथ राव का गोहद पर आक्रमण अक्टूबर 1766 - मराठा अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये कटिबद्ध थे. मराठा सरदार रघुनाथ राव विशाल सेना तथा सैन्य सामग्री लेकर अक्टूबर 1766 के प्रारम्भ में गोहद पहुंचा. उसके सेनानायक खंडोत्र्यंक ने गोहद नगर का घेरा डाल दिया. मराठा सरदार महादजी सिन्धिया तथा मराठा सरदार नारोशंकर भी सेना सहित गोहद पहुंचे. इस युद्ध में महदजी सिंधिया मुख्य सेनापति थे. गोहद के राणा छत्र सिंह शूरवीर तथा फ़ौजबंध थे, वह पूर्ण मुस्तैदी से मराठों का सामना करने के लिये तत्पर थे. इसके साथ ही उसे शक्तिशाली जाट जवाहर सिंह का भी समर्थन प्राप्त था. उसने द्रुढता से रघुनाथ राव का सामना किया. [83] मराठा सैनिकों ने गोहद दुर्ग पर तोपों से गोलाबारी की, प्रत्युत्तर मे जाट सेना ने भी मराठा सेना पर तोपों से गोलाबारी की. जाट सेना ने मराठों से छापामार युद्ध करके उनके मोर्चॊम को ध्वस्त कर दिया. उनकी सैन्य सामग्री लूट ली तथा हाथी-घोडे छीन लिये. [84](Ojha,p.73)
रघुनाथराव का पुन: गोहद पर आक्रमण 2.11.1766 - जाट मराठा संधि असफ़ल हो जाने के बाद रघुनाथराव ने 2 नवम्बर 1766 को पुन: गोहद का घेरा डाला. उसने इस बार मराठा सेना का नेतृत्व स्वयं सम्भाला. रघुनाथराव ने मराठा सैनिकों को तोपें गोहद दुर्ग के पास लगाने के निर्देश दिये. मराठा सैनिक शीघ्र ही तोपें लेकर दुर्ग के चहार दीवारी तक पहुंच गये. मराठों ने मोर्चा लगाकर आक्रमण कर दिया. जब वे दुर्ग की दीवार पर चढने का प्रयास कर रहे थे, तो दुर्ग पर मोर्चा लगाये जाट सेना ने बंदूकों से गोलियां बरसाई, जिसमें दुर्ग के नजदीक पहुंची मराठा सेना के 100 से अधिक सैनिक मारे गये तथा 1000 से अधिक मराठा सैनिक घायल हुये. [85]जाट-मराठा सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ, लेकिन जाट सेना के सामने मराठा सेना ठहर न सकी. (Ojha,p.74)
जटों का मनोबल बढ गया था. उन्होने मराठों के मोर्चे को पुन: ध्वस्त कर उन्हें बुरी तरह परास्त किया. इसके साथ ही भरतपुर का जाट जवाहर सिंह भी राणा छत्र सिंह की सहायता के लिये 30000 से अधिक पैदल तथा घुडसवारों को लेकर धोलपुर तक पहुंच गया.[86] अब रघुनाथराव को गोहद से भागने के अलावा कोई अन्य चारा न था.[87] (Ojha,p.74)
रघुनाथराव का गोहद से पलायन दिसम्बर 1766 - रघुनाथराव गोहद से पराजित होने से अपने को अपमानित महसूस कर रहा था, इसलिये वह राणा छत्र सिंह पर पुन: आक्रमण की योजना बनाने लगा. तब धोलपुर से जवाहर सिंह ने रघुनाथराव के पास अपना वकील मानसिंह भेजकर सूचित किया कि, "राणा छत्र सिंह उसका (जवाहर सिंह) का मित्र है, इसलिये रघुनाथराव गोहद से चला जाये अथवा जो भी उसके विचार हो, स्पष्ट बताये". इस समय रघुनाथराव गोहद के राणा छत्र सिंह से इतना उलझा हुआ था कि उसने जवाहर रूपी संकट को टालने के लिये उसके वकील मानसिंह को कहा कि, "वह (रघुनाथराव) तो जवाहर सिंह के प्रति मैत्री पूर्ण विचार रखता है." अब रघुनाथराव ने गोहद के मामले में उलझना उचित नहीं समझा. और उसने अपना सैन्य शिविर गोहद से उठा लिया. [88][89](Ojha,p.75)
रघुनाथराव का जाट गढियों पर आक्रमण 1766 - रघुनाथराव ने गोहद के राणा छत्र सिंह से सीधी टक्कर न लेकर उसके राज्य की जाट गढियों पर आक्रमण करना प्रारम्भ कर दिय. रघुनाथराव ने भिलसा-गढी का घेरा डालकर आक्रमण किया. गढी में जाट सैनिक तीन दिन तक मराठा सेना का सामना करते रहे, अंत में गढी के जाट सरदार ने 300 जाट सैनिकों सहित रघुनाथराव की सेना के समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया. 10 दिसम्बर 1766 के दिन रघुनाथराव की मराठा सेना ने आत्मसमर्पित 300 जाट सैनिकों की निर्मम हत्या कर दी, इसके बाद मराठा सेना जाटों की अन्य गढियों एवं गांवों को लूटने लगी. [90](Ojha,p.75)
राणा छत्रसिंह का मराठा गढियों पर प्रतिक्रियत्मेक आक्रमण - राणा छत्रसिंह ने मराठों द्वारा जाट गढियों पर हमले की तुरन्त प्रतिक्रिया दी. उसने गोहद राज्य के पास मराठों की जो गढियां थी, उन पर आक्रमण कर अपने अधिकार में ले लिया. मराठों की बहादुरपुरा, बडैरा, बिल्हाटी, पढावली आदि घधियों पर राणा छत्र सिंह का अधिकार हो गया. [91](Ojha,p.75)
जाट मराठा संधि - राणा छत्र सिंह द्वार मराठा गढियों पर अधिकार कर लेने की सूचना जब रघुनाथ राव के पास पहुंची, तो वह घबरा गया, उसने तत्काल महादजी सिंधिया को एक संधि प्रस्ताव लिखकर राणा छत्र सिंह के पास भेजा. महादजी सिंधिया के प्रयास से राणा छत्र सिंह व रघुनाथ राव में 2 जनवरी 1767 के दिन संधि हो गई. इसके बाद रघुनाथ राव गोहद राज्य की सीमा से बाहर करौली राज्य की ओर चला गया. [92](Ojha,p.76)
राणा छत्र सिंह का भिंड पर अधिकार 1768 - राणा छत्र सिंह की शक्ति इस समय बहुत बढ गई थी. मई 1766 मे जाट जवाहर सिंह और राणा छत्र सिंह में समझौता हुआ, जिसमें जवाहर सिंह ने अटेर के घेरे के समय राणा छत्र सिंह से सैन्य सहायता मांगी थी, अटेर पर जवाहर सिंह का अधिकार हो जाने के बाद राणा छत्र सिंह ने जवाहर सिंह की सिक्ख व जाट सेना की सहायता से भिंड पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया.120[93] जाट सेना की गतिविधियों में तेजी लाने के लिये मई 1768 में जवाहर सिंह स्वयं भिण्ड पहुंचे थे. जुलाई 1768 में सिक्ख सेनापति दानशह तथा जवाहर सिंह का छोटा भाई रतन सिंह भी भिण्ड पहुंचे. थे इस युद्ध में सेना का सेनापति माधौराम था. (Ojha,p.76)
राणा की सहयतार्थ अंग्रेजी सेना - गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने अंग्रेजी सेनापति के. पोफ़म को 2400 सशस्त्र सैनिक, एक बडी तोप, चार छोटी तोपें तथा दो घोडसवारों की टुकडी देकर राणा छत्र सिंह की सहायता के लिये गोहद भेजा. के. पोफ़म अंग्रेजी सेना लेकर इटावा पहुंचा. गोहद का सेनापति वक्षी मधौराम तीन हजार घुडसवारों के लेकर अंग्रेजी सेना को लेने इटावा पहुंचा. के.पोफ़म मर्च 1780 के प्रथम सप्ताह में गोहद पहुंच गया. के. पोफ़म के गोहद पहुंचने से राणा छत्र सिंह की सामरिक गतिविधियों में तेजी आ गई.(Ojha,p.77)
मराठों का गोहद राज्य से पलायन 1780 - राणा छत्र सिंह 4 मर्च 1780 के दिन अंग्रेजी सेना की सहायता से गोहद से लगभग 50 किमी की दूरी पर मराठों से युद्ध करने के लिये पहुंचा. मराठा सरदार अम्बाजी इण्गले और खांडेराव हरि की संयुक्त मराठा सेनायें राणा की आंग्ल जाट-संयुक्त सेना का सामना करने का साहस नहीं जुटा पाई. मराठा सेनायें अपना सैन्य शिविर उठाकर गोहद राज्य की सीमा से बाहर झांसी की ओर भाग गई. [94](Ojha,p.77)
आंग्ल जाट संयुक्त सैन्य अभियान: लहार पर आधिपत्य 1780 - अंग्रेजों की सहायता पाकर राणा छत्र सिंह बहुत शक्तिशाली हो गये. इस समय लहार पर कछवाहा राजपूतों का राज्य था. इस्के राज्य की सेनायें गोहद तक फ़ैली थी. राणा छत्र सिंह ने अंग्रेज सेनापति के> पोफ़म से लहार पर अधिकार करने में सहायता मांगी, जिसे स्वीकार कर लिया. मई-जून 1789 में राणा छत्र सिंह की जाट सेना ने अंग्रेजी सेना की सहायता से लहार पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया. राणा छत्र सिंह की सहमति से लहार किला अंग्रेजी सेना के निवास हेतु अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया. [95](Ojha,p.78)
ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार (1780)
इस समय ग्वालियर दुर्ग महादजी सिंधिया के अधिकार में था, जिसकी ओर से अम्बाजी इंगले दुर्ग का सुबेदार था. [96] राणा छत्र सिंह और मेजर के. पोफ़म ने मिलकर ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार करने की योजना बनाई.[97] (Ojha,p.78)
ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य की योजना - अंग्रेज कप्तान विलियम ब्रूस को दुर्ग पर आक्रमण करने वाली टुकडी का नायक बनाया गया. [98] उसके पीछे रहने वाली सैन्य टुकडियों का नेतृत्व मेजर पोफ़म ने स्वयं सम्भाला. ग्वालियर दुर्ग तक पहुंचने और दुर्ग पर चढने मे कम से कम पदचाप हो इसके लिये सैनिकों को विशेष प्रकार के कपडे से बने रुई से भरे जूते बनवाये गये. [99](Ojha,p.78)
के. पोफ़म ने 3 अगस्त 1780 की शाम गोहद से चलकर ग्वालियर से 8 किमी दूरी पर ’रायपुरा’ गांव में अपना शिविर लगाया.[100] रायपुरा से 11 बजे सैन्य दल सुनसान रास्तों से चलकर उजाला होने से पहले (रात चौथे पहर) दुर्ग पर पहुंच गया.[101](Ojha,p.78)
केप्टन विलियम ब्रूस ने दुर्ग के पहरेदारों की जलती हुई मशालों को देखा और सन्तरियों का खांसना सुना. (खांसना -हिन्दुस्तानी शिविरों या दुर्गों में "सब कुछ ठीक है" बताने का यही तरीका है). इस संकेत से शत्रुओं का साहस टूट जाता है, लेकिन ब्रूस में आत्म विश्वास बढ गया क्योंकि उससे कार्य करने का क्षण, जो पहरेदारों के चक्कर लगाने के बीच का था, निश्चित हो गया. [102](Ojha,p.78)
जब मसालें ओझल हो गई, तो पहाडी पर लकडी की सीढियों के सहारे राणा का एक सैनिक गरगज के रास्ते से दुर्ग पर चढा.[103] उसने देखकर बताया कि सभी पहरेदार व्सो रहे हैं. इसके बाद इंजीनियर लेफ़्टीनेन्ट केमरान दुर्ग पर चढा, उसने सेना को दुर्ग पर चढने के लिये रस्सी की सीढी बांध दी.
इसके बाद केप्टन ब्रूस 20 बन्दूक धारी सैनिकों के साथ दुर्ग पर चढ गया, लेकिन पोफ़म की टुकडी पहुंचने से पूर्व उसकी टुकडी की तीन सैनिकों ने सोते हुये पहर्दारों पर गोलियां चला दी, इससे पूरा मामला बिगड गया. किले के मराठा सैनिक उस स्थान की ओर दौडे जहां गोलियां चलीं थी, लेकिन विलियम ब्रूस की टुकडी ने लगातार गोलियां चलाकर उन्हें आगे नहीं बढने दिया. तब तक मेजत पोफ़म भी सेना स॒हित दुर्ग पर पहुंच गया. [104] दुर्ग की सेना अन्दर की इमारतों में पहुंच गई, वहां से उन्होने गोलियां तो चलाई, लेकिन वे शीघ्र ही भाग खडे हुये. दुर्ग के अधिकारी एक इमारत में इकट्ठे हो गये जहां उन्होने सफ़ेद ध्वज टांग दिया, जिन्हें मेजर पोफ़म ने उन्हें सुरक्षा का आश्वासन दे दिया. इस प्रकार केवल दो घंटे में दुर्ग पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया. [105] इस युद्ध में किले का गवर्नर 'बापूजी' मारा गया, अम्बाजी इंगले अपने कुछ सैनिकों के साथ चुप-चाप किले से भाग गया. [106] 4 अगस्त 1780 दिन शुक्रवार को सुबह ग्वालियर दुर्ग पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. (Ojha,p.79)
राणा छत्र सिंह का ग्वालियर पर आधिपत्य 1781 - अंग्रेजों को ग्वालियर दुर्ग पर रहना रास नहीं आया क्योंकि उन्हें दुर्ग पर पानी की काफ़ी परेशानी हो रही थी. इसलिये उन्होने ग्वालियर दुर्ग विजय अभियान में हुआ कुल व्यय दो लाख अपने मित्र गोहद के राणा छत्र सिंह (जिनकी सहायता से दुर्ग पर अधिकार किया था), लेकर दुर्ग उसे (राणा को) सौंप दिया. राणा छत्र सिंह ने मई 1781 में 15000 की जाट सेना सहित ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य कर लिया. [107] राणा छत्र सिंह ग्वालियर दुर्ग पाकर बहुत प्रसन्न हुये क्यॊंकि ग्वालियर दुर्ग को वह अपनी पैतृक सम्पत्ति मानते थे. ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य करना राणा छत्र सिंह के जीवन की अंतिम सबसे बडी सफ़लता थी. उन्होने दुर्ग पर धार्मिक कार्य सम्पन्न कराये. ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र व गायें दान की. [108](Ojha,p.80)
महादजी का ग्वालियर दुर्ग पर आक्रमण 1783
17 मई 1782 को ग्वालियर से 20 किमी दूर सालवई नामक स्थान पर महादजी व जेम्स के बीच संधि हो गई. इससे प्रथम-आंग्ल-मराठा युद्ध का अन्त हो गया. अंग्रेजों ने उत्तर भारत के सारे अभियानों को बंद कर दक्षिण भारत की ओर अपना ध्यान दिया. अंग्रेजी सेना जो राणा छत्र सिंह की सहायतार्थ गोहद में थी, उसे वापस बुला लिया. [109]अंग्रेजों ने राणा के उपर से अपना पूरा संरक्षण हटा लिया. (Ojha,p.80)
अंग्रेजी सेना के गोहद से जाने के बाद महादजी विशाल मराठा॒ सेना लेकर ग्वालियर पहुं चा. उसने ग्वालियर दुर्ग पर घेरा डाल दिया. राणा छत्र सिंह अपनी छोटी रानी सुभान कुंवरी को ग्वालियर दुर्ग की सुरक्षा का दायित्व सौंप कर स्वयं गोहद चले गये. जाट सेनापति राजधर ने दुर्ग पर मोर्चा लगाया. महादजी की मराठा सेना ने दुर्ग पर गोलाबारी शुरु करदी. प्रत्युत्तर में जाट सेना ने भी भी मराठा सेना पर तोपों से गोलाबारी की. जाट-मराठा युद्ध लगभग सात माह तक चलता रहा, लेकिन महादजी ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार न कर सके.[110](Ojha,p.80)
महादजी सिंधिया की कूटनीतिक चाल
जब महादजी सिंधिया ग्वालियर दुर्ग पर अपनी सैन्य शक्ति से अधिकार न कर सके, तो उसने कूटनीतिक चाल चलना शुरु किया. महादजी ने दुर्ग के उच्च अधिकारी मोटामल को मोटी रिश्वत देकर अपनी ओर कर लिया. राणा छत्र सिंह को अपने गुप्तचरों से इस षडयन्त्र का पता लग गया, तो राणा ने मोटामल को हटाने के लिये छोटी रानी को पत्र लिखा, लेकिन वह पत्र मोटामल के हाथ में पड गया. मोटामल ने महादजी को इसकी सूचना देते हुये उसी रात में मराठा सेना दुर्ग पर भेजने का अनुरोध किया. महादजी ने मोटामल की सूचना पर मराठा सेना उसी रात को दुर्ग पर भेज दी. मराठा सेना मोटामल के बताये रास्ते से रात के अंधेरे में बिना किसी अवरोध के दुर्ग में प्रवेश कर गई. जाट सेना के लगभग 2000 सैनिक मोटामल से मिल गये थे और लगभग 3000 सैनिक अचानक उत्पन्न स्थिति से भाग खडे हुये. लगभग 300 सैनिक जाट सेनापति राजधर के नेतृत्व में रानी की सुरक्षा हेतु मानमन्दिर महल पर पहुंच गये और मराठों से युद्ध करने लगे. युद्ध की भयंकरता को देख रानी अपने को असुरक्षित समझ बारूद कक्ष मे घुस गई और बारूद में आग लगाकर स्वयं अग्नि को समर्पित हो गई. [111] मानमंदिर महल पर भयंकर मारकाट हुई. जाट सेनापति राजधर मराठों से युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये. महादजी ने 27 जुलाई 1783 को ग्वालियर दुर्ग पर आधिपत्य कर लिया. [112]महादजी को राणा की तीन पलटन (2000 सैनिक) तथा तीन तोपें मिल गई. [113](Ojha,p.81)
महादजी द्वारा गोहद का घेरा 1784
23 जनवरी 1784 को महादजी ने विशाल मराठा सेना एवं सैन्य सामग्री लेकर गोहद का घेरा डाल दिया.[114] राणा छत्र सिंह लगभग आधी सेना गद्दार मोटामल के साथ हो गई थी, जो अब महादजी का साथ दे रहा था तथा कुछ सेना जाट सेनापति राजधर के नेतृत्व में मराठों का सामना करने में वीरगति को प्राप्त हो चुकी थी. अंग्रेज प्रत्यक्ष रूप से महादजी का साथ दे रहे थे.[115] इस विषम परिस्थिति में राणा छत्र सिंह अन्य राज्यों से सहायत लेने, जाटों की बिखरी हुई शक्ति को एकत्रित करने तथा नया सैन्य बल तैयार करने के लिये अपने मंत्री माधव तथा कुछ विश्वसनीय जाट सरदारों को साथ लेकर अपने परिवार सहित गुप्त मार्ग से गोहद से निकल गया.[116]
राणा छत्र सिंह गोहद से करौली पहुंचे. उस समय करौली का शासक माणिकपाल था. उसका छोटा भाई निहालपाल राणा छत्र सिंह का मित्र था. निहालपाल ने राणा छत्र सिंह के निवास हेतु एक हवेली में व्यवस्था की तथा एक अन्य दूसरी हवेली में राणा छत्र सिंह के मंत्री तथा जाट सरदारों के निवास की व्यवस्था की. [117](Ojha,p.82)
राणा छत्र सिंह का अंग्रेजों को पत्र - राणा छत्र सिंह ने करौली से अपने अंग्रेज मित्र मेजर ब्राउन को पत्र लिखकर सैन्य सहायता मांगी. उसने मेजर ब्राउन को अपने साथ कम्पनी के संबन्धों का स्म॒रण कराया तथा सहायता के लिये 1500 घुडसवार करौली भेजने का अनुरोध किया. इसके साथ ही करौली राजा को पत्र लिखने का अनुरोध किया. ताकि माणिकराव उसे (राणा को) अधिक से अधिक सुविधा प्रदान करे.[118] (Ojha,p.82)
महादजी का करौली राजा को पत्र - कुछ समय बाद महादजी सिंधिया को उसके गुप्तचरों द्वारा सूचना मिल गई कि "राणा छत्र सिंह करौली में शरण पाये हुये हैं." तो महादजी सिंधिया ने अपने दूत द्वारा करौली नरेश माणिक पाल को राणा छत्र सिंह को उसे (महादजी को) सौंपने के लिये पत्र भेजा. करौली नरेश माणिक पाल महादजी की शक्ति को देखकर घरा गया. उसने अपनी भावी विपत्ति को टालने के लिये तथा महादजी को प्रसन्न करने के लिये राणा छत्र सिंह को उसके परिवार, मंत्री तथा जाट सरदारों सहित कैद कर महादजी के पास भेज दिया. [119](Ojha,p.82)
राणा छत्र सिंह की निर्मम हत्या - राणा छत्र सिंह को कैद करके ग्वालियर लाया गया, जहां उनको ग्वालियर दुर्ग में रखा गया तथा सन 1785 के प्ररम्भिक दिनों में विष देकर उनकी निर्मम हत्या करा दी गई. [120](Ojha,p.83)
गोहद के जाटों का विद्रोह (1784-1803)
राणा छत्र सिंह की मृत्यु के बाद गोहद राजवंश का कोई वैध उत्तराधिकारी नहीं था, क्योंकि राणा छत्र सिंह के पुत्र नहीं था, उनके जीवित रहते कोई उत्तराधिकारी घोषित नहीं हुआ था. सन 1784 के बाद से गोहद तथा ग्वालियर दोनों जाट दुर्ग सिंधिया के आधिपत्य में थे. जिसकी ओर से मराठा सरदार अम्बाजी इंगले गोहद तथा ग्वालियर का सूबेदार नियुक्त था.[121]
इस समय चम्बल के दूसरी ओर का जाट राज्य भरतपुर का शसक भी मराठों का साथ दे रहा था. गोहद राज्य के जाट विद्रोही हो गये थे, उन्होने गोहद के समस्त क्षेत्रों को लूटमार तथा आतंक का प्रयाय बना दिया था. जाटों का यह विद्रोह लगभग 18 वर्षों तक निरन्तर चलता रहा. उन्हें न तो मराठा दबा सके और न ही अंग्रेज रोक सके. (Ojha,p.83)
राणा कीरत सिंह का राजतिलक (1803-1805)
द्वितीय अंग्रेज मराठा युद्ध के बादल मंडराने लगे थे. विद्रोही जाट अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष कर रहे थे. उन्होने इस अवसर का लाभ उठाया. विद्रोही जाटों ने गोहद से 10 मील दूर ’बगथरा गांव’ में क्षेत्र के समस्त जाटों की पंचायत बुलाई, जिसमें नीरपुरा गढी के प्रमुख सामंत ताराचन्द्र के पुत्र कीरत सिंह को सर्वसम्मति से राणा छत्र सिंह का उत्तराधिकारी चुन लिया और एक सादे समारोह में राजतिलक कर दिया. [122] राणा कीरत सिंह जाटों द्वारा गोहद के राजा तो नियुक्त हो गये लेकिन वन बिना राज्य के राजा थे, क्योंकि गोहद सिंधिया के अधिकार में था. (Ojha,p.84)
अंग्रेज राणा संधि 1904 - 29 जनवरी 1804 को ईस्ट इंडिया कंपनी और राणा कीरत सिंह के मध्य संधि हुई. जिसके अनुसार कंपनी ने गोहद का राज्य राणा कीरत सिंह को प्रदान किया [123] तथा ग्वालियर का दुर्ग अंग्रेजों ने अपने अधिकार में ले लिया.
राणा कीरत सिंह का गोहद पर आधिपत्य (1804-1805) - अंग्रेज राणा संधि की तस्दीक 2 मार्च 1804 को हुई. इस संधि के अनुसार राणा कीरत सिंह ने अपने पैतृक राज्य गोहद पर आधिपत्य कर लिया. राणा कीरत सिंह को निम्न जिलों पर अधिकार मिला[124] -
ग्वालियर, मालवा, भौंदा, आंतरी, जिगनी, लहार, महाल, जुल्ला, गंज, काहटी, दूंदरी, चमक, अनहोन, रामपुर, लवान, नूराबाद, ककसीस, सालवई, चन्नौ, अटोरा, खतौंदा, अम्बापुर, बहादुरपुर, बकसा, समौली, बिलौठी, गोपालपुर, परिहार गढ, कुरवास, गुजरा, गोहद, कटौली, चतोर, बेहट, लावान बडी, बीद, सुकल्हारी, नोह, अमान, वीटका, फ़ोम्प, इन्दरकी, देवगढ, अमरी, भांदरी(Ojha,p.84)
अंग्रेज-राणा संधि 19 दिसम्बर 1805 : 19 दिसम्बर 1805 को ईस्ट इंडिया कंपनी और राणा कीरत सिंह के मध्य एक संधि हुई, जिसमें गोहद का दुर्ग तथा क्षेत्र राणा ने कंपनी सरकार को देना स्वीकार किया, जिसके बदले कंपनी ने धौल्पुर, बाडी और राजा खेडा के जिले राणा कीरत सिंह को दिये गये.[125]
राणा कीरत सिंह का धौलपुर प्रस्थान (1805)
19 दिसम्बर 1805 को ईस्ट इंडिया कंपनी और राणा कीरत सिंह के मध्य हुई संधि के तहत राणा कीरत सिंह जनवरी 1806 के प्रारम्भिक दिनों में गोहद छोडकर धौलपुर के लिये प्रस्थान कर गये. उनके साथ कुछ जाट सरदार, प्रमुख सामंत तथा उमराव भी गोहद छोडकर धौलपुर गये. [126](Ojha,p.90)
गोहद जाट राज्य के दुर्ग और गढियां

गोहद जाट राज्य में गोहद के सुदढ दुर्ग सहित 360 गढियां बनवाई थीं.
1. गोहद का मुख्य दुर्ग - यह जाट राज्य का मुख्य दुर्ग था, इसे देखकर जाट शासकों की सम्रुद्धी का सहज अनुमान लगाया जा सकता है. यह दुर्ग स्थापत्य कला का बेजोड नमूना है. इस दुर्ग को एक ओर से शत्रुओं से प्राकृतिक सुरक्षा बेसली नदी प्रदान करती है तो दूसरी ओर से खाई खोद कर कृत्रिम सुरक्षा प्रदान की गई है. गोहद दुर्ग की स्थपत्य कला राजपूताना स्थापत्य कला से मेल खाती है. यह दुर्ग लाल व सफ़ेद पत्थर तथा ककईया ईंटों से बना है. इसके चिनाई हेतु विशेश गारा चूना, गुड, उडद, बजरी, कौडी, सनबीजा, गोंद आदि को पीसकर तैयार किया जाता था. इस गारे से दीवारों पर मोटा लेप किया जाता था. गोहद नगर तथा दुर्ग के बाह्य सुरक्षा परकोटे की दीवाल दस गज ऊंची तथा लगभग 5 किमी लम्बी है. बाह्य सुरक्षा परकोटे में सात प्रवेश द्वार तथा दो खिडकियां थीं, जिनके नाम प्रवेश द्वार के सामने पडने वाले गांवों के नाम पर रखे थे.(Ojha,p.250
प्रमुख प्रवेश द्वार - 1. इटायली दरवाज: दक्षिण दिशा की ओर, 2. बिरखडी दरवाजा: उत्तर पूर्व दिशा की ओर

अन्य प्रवेश द्वार - 1. बगथरा दरवाजा: पश्चिम दिशा की ओर, 2. गोहदी दरवाजा: उत्तर पश्चिम दिशा की ओर, 3. कठवां दरवाजा: पूर्व दिशा की ओर, 4. खरौआ दरवाजा: दक्षिण पूर्व दिशा की ओर, 5. सरस्वती दरवाजा: दक्षिण पश्चिम दिशा की ओर,
बाह्य परकोटे में दो खिडकियां - 1. नदी की तरफ़ उरवाई मुहल्ले में, 2. गंगादासपुरा की तरफ़
2. बेहट - ग्रीष्म काल में राजधानी - राणा छत्रसिंह ग्रीष्म काल में अपनी राजधानी बेहट में रखते थे, जिसके लिये राणा ने सुन्दर महल बनवाया था. अधिकांश जाट गढियां गोहद के दक्षिण-पूर्व तथा दक्षिण-पश्चिम दिशा में लगभग 80 किमी की दूरी में फ़ैली थी. इन दुर्ग तथा गढियों की सुरक्षा के लिये घुडसवार सैनिक रहते थे. तथा गढियों के ऊपर बुर्जों पर तोपें स्थापित थीं. इन गढियों के सामंत तथा सरदार इकट्ठे होकर शत्रुओं का सामना करते थे. जब कोई शत्रु सेना गोहद राज्य पर आक्रमण के लिये आती थी, तो इन गढियों के घुडसवार सैनिक गोहद तथा राज्य की अन्य गढियों के सरदारों को पूर्व सूचना पहुंचा देते थे, जिससे जाट सेना सतर्क हो जाती थी और पूर्व तैयारी के साथ शत्रु सेना को खदेड देते थे.राणा भीम सिंह तथा राणा छत्रसिंह अपने जाट सरदारों के सहयोग से ही मराठों को गोहद राज्य से खदेडते रहे थे. (Ojha,p.266)

छत्रपुर महल: राणा छत्रसिंह ने अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बेहट में एक महल का निर्माण एक ऊंची पहडी पर किया था, जिसके चारों ओर घना जंगल था. इस महल का नाम छत्रपुर रखा गया था. [127]
राणा भीम सिंह की छतरी - राणा भीम सिंह की छतरी ग्वालियर दुर्ग पर उत्तरी किनारे पर विशाल सरोवर के किनारे 4.5 फ़ीट ऊंचे 25 x 25 फ़ीट वर्गाकार चबूतरे पर गोहद किले की जाट स्थापत्य कला के अनुरूप सफ़ेद पत्थर की सुन्दर इमारत है. इस छत्री की ऊंचाई 53.25 फ़ीट है. छतरी का गुम्बज 8 फ़ीट ऊंचा गोल मेहराबदार है. इस गुम्बज के ऊपर एक लम्बा मोटा लोहे का सरिया गडा है. सम्भवत: छतरी का निर्माण काल सन 1761 से 1765 के मध्य हुआ होगा जब ग्वलियर दुर्ग राणा छत्र सिंह के आधिपत्य में था. प्रतिवर्ष चैत्र मास की रामनवमी के दिन जाट समाज द्वारा राणा भीम सिंह की स्मृति में मेला का अयोजन किया जाता है. (Ojha, p.260)
गोहद जाट राज्य की गढियां
जटों की गढियां मैदानी क्षेत्रों में मिट्टी के ऊंचे टीलों पर तथा पहाडी क्षेत्रों मे पहाडियों पर निर्मित की गई थीं. कच्ची गढियां प्राय: नष्ट हो चुकी हैं, लेकिन फ़िर भी पक्के दुर्ग एवं गढियां खण्डहर में तब्दील होते देखने को मिलते हैं. श्री प्रद्युम्न ओझा द्वारा देखी गई गढियां निम्नानुसार हैं.
भिण्ड जिले की गढियां:
- अधुपुरा,
- आलोरी,
- अमायन,
- अरूसी,
- बडैरा,
- बगथारा,
- बडगवां
- बरौली,
- बरथरा,
- बेलगढा,
- भडैरा,
- भगवासा
- भिलसा,
- चेतूपदा,
- छत्रगढ,
- छिमक,
- चिरोल,
- चितोरा,
- दंदरौआ,
- देहगांव,
- धैगाँव,
- ऐचायें,
- गढी,
- घमड़पुरा,
- गेन्दोल,
- घमूरी,
- गुहीसर,
- इन्दुरखी,
- इटायली,
- जगलपुरा,
- जंडारा,
- करवास,
- कठवां,
- खडेर,
- खरौआ,
- खितौली,
- लहार
- लवान,
- लवान बडी,
- मखोरी,
- मखोई,
- मखोरी,
- मौ,
- मुडैना,
- नन्दुरखी,
- नीरपुरा,
- निबरौल,
- निभेरा
- निबरोल,
- पचैरा,
- पचोखरा,
- पडकौली,
- पिपाड़ा,
- पिपरसाना,
- रसनौल,
- रतनगवां,
- सड़,
- सेंथरी,
- सिनोर,
- उमरी
- उझांवल,
- विर्राट,
ग्वालियर जिले की गढियां:
- ऐंती,
- अजयगढ,
- आंतरी,
- बडैरा,
- बहादुरपुर
- बन्धोली,
- तोर,
- बेहट
- भगेह,
- भितरवार,
- बिजौली,
- बिलारा,
- बिल्हटी,
- देवगढ,
- गिर्जोरा,
- गिरगांव
- ग्वालियर,
- हथनौरा,
- इकहरा,
- इकोना,
- जमरोहा,
- जितोरा,
- कैथा,
- कैथोदा,
- कुम्भर्रा,
- लदेरा
- लोहगढ,
- मगरौरा,
- मस्तूरा,
- मेहगांव,
- मोहनगढ,
- पनिहार,
- पठा,
- पिछोर,
- रनगवां,
- रतवई,
- रतवई,
- सलईया,
- सालवई,
- सांखिनी,
- सेमरी,
- शुक्लहोरी,
- सिली,
- सिमिरिया,
- सिंगपुर,
- सिसगांव,
- उटीला,
उपरोक्त गांवों में जाटों की घढियों के अवशेष अभी भी मौजूद हैं.(Ojha,p.267)
अन्य गढियां:
- Badki Saray (बड़की सराय)
- Indergarh Datia (इन्द्रगढ़) (दतिया)
- Padhawli (पढावली) (मुरेना),
गोहद राज्य का शासन प्रबन्ध
गोहद राज्य चम्बल तथा सिन्ध नदियों के बीच फ़ैला था, जिसके अन्तर्गत वन, पहाडियों तथा नदियों का बीहड क्षेत्र सम्मिलित था तथा राज्य का विस्तार नरवर, भाण्डेर तक था. जाट शसकों ने इस विस्तृत राज्य मे कुलीन शासन तंत्र को जन्म दिया. उनकी शासन व्यवस्था में बमरौलिया जाटों का विशेष स्थान होता था. बमरौलिया जाट गोहद राज्य के आस-पास की गढियों के प्रमुख सामन्त होते थे. वे राणा के विश्वसनीय जाट सरदार कहे जाते थे.
- नीरपुरा, झांकरी, चितौरा, करवास, मुडैन, इटायली, पिपाहडा, इकोना, आदि गढियों के प्रमुख सामन्त बमरौलिया वंश के थे.
- देवगढ तथा गिजुर्रा में हंसेलिया गोत्र के जाट और
- पिछोर मे दौदेरिया गोत्र के जाट प्रमुख सामन्त थे.[128]
ये जाट सरदार राणा को उचित-अनुचित का बोध कराते तथा दिन-प्रतिदिन के कार्यों को निपटाते थे. जाट सरदार राणा को दोषों से बचाते थे. राजा की नियुक्ति एवं निर्वाचन में भी उस समय जाट सरदारों क विशेष हाथ रहता था. (Ojha,p.237)
सन 1755 में राणा भीम सिंह की मृत्यु के बाद जाट सरदारों ने राणा भीम सिंह के परिवारी जाट सरदार एवं नीरपुरा गढी के सामंत राव बलजू के पुत्र राणा गिरधर प्रताप सिंह को गोहद के राजा पद के लिये चयनित किया था.
राणा छत्र सिंह की मृत्यु के बाद गोहद राजगद्दी के लिये सन 1803 में नीरपुरा गढी के सामंत कुंवर ताराचन्द्र के पुत्र कीरतसिंह का सर्व सम्मति से चयन कर बगथरा की गढी में राजतिलक किया था.
इन जाट सरदारों में उच्च कोटि के योद्धा भी थे तथा वे सेना रखते थे और राणा के साथ (युद्ध) अभियानों में भाग लेते थे. सन 1739 में जाट सरदार भाव सिंह तथा मदन सिंह ने भदौरिया राजा अनिरुद्ध सिंह के विरुद्ध हुये "पचेहरा युद्ध" में अपनी वीरता एवं साहस का परिचय दिया था.[129]
सेनापति फ़तेहसिंह ने सन 1754 में मराठा सरदार विट्ठल विचुंरकर को पराजित कर मराठा सैनिकों को कैद कर लिया था.[130]
राणा भीम सिंह का विशेष सलाहकार नीरपुरा गढी का सामंत "राव बलजू" था.
राणा छत्र सिंह का दीवान (प्रधानमंत्री) माधौ राम था, जिसने राणा का साथ अन्तिम समय तक दिया. वह भी राणा के साथ भागकर करौली गया था.[131]
जाट शासकों के निकतवर्ती रिश्तेदार भी उच्च पदों पर नियुक्त होते थे. राणा छत्र सिंह का दामाद ब्रजराम सिंह सेनापति के पद पर नियुक्त था. [132]
जाट शासक अन्य महत्वपूर्ण पदों पर जाति, धर्म व सम्प्र्दाय से हट कर भी नियुक्तियां की जती थीं. जाट शसकों ने वकील तथा राजदूतों के पद पर कायस्थ जाति के तथा मुस्लिम धर्म के व्यक्तियों को नियुक्त किया था. लाला आत्माराम तथा लाला किशनचन्द्र दोनों भाई कायस्थ जाति के थे, वे राणा छत्र सिंह के वकील थे. इसके साथ ही मुस्लिम धर्म के मीर मजहर अली, तफ़ज्ज्लहुसैन एवं सैयद अली राणा के वकील थे. [133]
जाट शसकों के खजाने के प्रमुख वणिक लोग थे, जो खजांची कहलाते थे. उस समय गोहद में तीन श्रेष्ठ वणिक परिवार थे, जिनके कीर्ति चिन्ह आज भी गोहद में विद्यमान हैं. ये थे 1. सेठ मुरलीधर हवेली वाले, 2. मोदी परिवार, 3. तेजपाल-पृथ्वीपाल वसनी वाले. (Ojha,p.239)
निष्कर्ष - जाट शासकों का प्रशासन उच्च कोटि का था. वे धर्मनिर्पेक्ष शसक थे. उनके राज्य में प्रजा सुखी और उन्नतिशील थी. गाय और ब्राह्मण का सम्मान था, पशुवध निषेध था. जाट शसकों ने अपनी प्रजा के सुख के लिये अपने को समर्पित किया था. (Ojha,p.246)
See also
सन्दर्भ
References
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