Madan Mohan Malviya

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Madan Mohan Malviya (1861–1946) was an educationist and politician, notable for his role in the Indian independence movement and as the two-time president of Indian National Congress. He was respectfully addressed as Pandit Madan Mohan Malaviya and also addressed as Mahamana (महामना).

Founder of Banaras Hindu University

Malaviya is most remembered as the founder of Banaras Hindu University (BHU) at Varanasi in 1916, which was created under the B.H.U. Act, 1915. BHU is perhaps the largest residential university in Asia and one of the largest in the world, having over 35,000 students across arts, sciences, engineering, medical, agriculture, performing arts, law and technology. Malaviya was Vice Chancellor of BHU from 1919–1938.

Founder of Ganga Mahasabha

Pt. Malaviya was the founder of Ganga Mahasabha at Haridwar in 1905. He was the President of the Indian National Congress on two occasions(1909,1918). He left Congress in 1934. He was also a member of the Hindu Mahasabha and was a president of the special session of Hindu Mahasabha in Gaya in 1922 and in Kashi, in 1923.

Bharat Ratna

Pt. Malaviya was posthumously conferred with Bharat Ratna, India's highest civilian award, on 24 December 2014, a day before his 153rd Birth Anniversary.

Legacy

The slogan "Satyameva Jayate" (सत्यमेव जयते - Truth alone will triumph) is also a legacy given to the nation by Pandit Malaviya as the President of the Indian National Congress in its session of 1918 at Delhi, by saying that this slogan from the Mundakopanishad should be the slogan for the nation.

He started the tradition of Aarti at Har ki Pauri Haridwar to the sacred Ganga river which is performed till date. The Malviya Dwipa, a small island across the ghat, is named after him and carries his bust.

The Indian Postal Department issued postage stamp in his honour in 1961 to celebrate his 100th birth anniversary and then in 2011, to celebrate his 150th birth centenary.

जाट इतिहास में पं० मदनमोहन मालवीय

दलीप सिंह अहलावत[1] ने लिखा है.... बिड़ला मन्दिर के शिलान्यास के अवसर पर भारतवर्ष के सभी राजे-महाराजे तथा अनेक विद्वानों को बुलाया गया था। इस अवसर पर मराठे तथा राजपूत राजे-महाराजे शाही पोशाक में सज-धजकर उपस्थित हुए किन्तु धौलपुर नरेश उदयभानु राणा अपनी सादी पोशाक में उपस्थित हुए। किन्तु कारणवश भरतपुर नरेश महाराजा ब्रजेन्द्रसिंह इस सम्मेलन में उपस्थित न हो सके। इस अवसर पर उपस्थित उच्च कोटि के विद्वानों ने, इस महान् मन्दिर के शिलान्यास करने के लिए


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-746


एक प्रस्ताव पारित किया कि इस पवित्र मन्दिर की नींव रखने का अधिकार उस व्यक्ति को होगा जिसमें निम्नलिखित गुण हों।

  1. जिसका वंश उच्च कोटि का हो।
  2. जिसका चरित्र आदर्श हो।
  3. जो शराब तथा मांस का सेवन न करता हो।
  4. जिसने एक से अधिक विवाह न किये हों।
  5. जिसके वंश ने मुग़लों को अपनी लड़की न दी हो।
  6. जिसके दरबार में रंडियों के नाच-गाने न होते हों।

यह प्रस्ताव उपस्थित जनसमूह को बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के एक प्रोफेसर ने पढ़कर सुनाया। इस प्रस्ताव को सुनकर सारी सभा में सन्नाटा छा गया तथा मन-ही-मन विचार करने लगे कि इस कसौटी पर कौन खरा उतरेगा। राजपूत राजा-महाराजाओं की गर्दनें नीचे को झुक गईं। बाद में इस प्रस्ताव को पं० मदनमोहन मालवीय को दिया गया तथा उनसे आग्रह किया गया कि आप इस प्रस्ताव पर अपना निर्णय देवें।

पं० मदनमोहन मालवीय ने खड़े होकर अपना निर्णय सुनाते हुए यह कहा कि, “इस प्रस्ताव की कसौटी पर केवल जाट महाराजा उदयभानु राणा धौलपुर ही खरा उतरता है तथा उनके करकमलों से इस महान् तथा पवित्र मन्दिर का शिलान्यास करवाया जायेगा।” यह निर्णय सुनकर सभा में उपस्थित प्रसिद्ध जाट मल्ल योद्धा हरज्ञान गांव शोरम (मुजफ्फरनगर) ने खड़े होकर यह कहा कि “पं० मदनमोहन मालवीय के इस निर्णय ने जाट जाति का मस्तक भारतवर्ष में सबसे ऊंचा कर दिया है।” इस मल्ल योद्धा ने खुशी के जोश में आकर अपनी तीन धड़ी की गदा एक बड़े पत्थर पर जोर से दे मारी, जिससे उस पत्थर के दो टुकड़े हो गये। (आधार लेख - सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)

ऊपर लिखित तथ्यों की पुष्टि बिड़ला मन्दिर में स्थित स्तम्भ पर खुदे हुए निम्न लेख द्वारा भी होती है, जो निम्न प्रकार से है। हम यहां स्तम्भ के एक ओर लिखे शब्दों को ज्यों के त्यों लिखते हैं -

श्री लक्ष्मीनारायण मन्दिर - “श्री महामना माननीय पं० मदनमोहन मालवीय जी की प्रेरणा से मन्दिर की आधारशिला श्रीमान् महाराणा उदयभानुसिंह धौलपुर नरेश के कर कमलों द्वारा चैत्र कृष्ण पक्ष अमावस रविवार विक्रमीय संवत् 1989 (अर्थात् सन् 1932 ई०) में स्थापित हुई।”

इसी स्तम्भ के दूसरी ओर संगमरमर के पत्थर पर पं० मदनमोहन मालवीय की मूर्ति है तथा साथ उसके बायीं ओर धौलपुर नरेश महाराजा उदयभानुसिंह राणा द्वारा इनके कर-कमलों से मन्दिर का शिलान्यास करते हुए की मूर्ति स्थापित है।[2]

जाट महासभा का पुष्कर जलसा सन् 1925

सर्वप्रथम सन् 1925 में अखिल भारतीय जाट महासभा ने राजस्थान में दस्तक दी और अजमेर के निकट पुष्कर में अखिल भारतीय जाट महासभा का जलसा हुआ. इसकी अध्यक्षता भरतपुर महाराजा कृष्णसिंह ने की. इस अवसर पर जाट रियासतों के मंत्री, पंडित मदन मोहन मालवीय, पंजाब के सर छोटूरामसेठ छज्जू राम भी पुष्कर आये. इस क्षेत्र के जाटों पर इस जलसे का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा और उन्होंने अनुभव किया कि वे दीन हीन नहीं हैं. बल्कि एक बहादुर कौम हैं, जिसने ज़माने को कई बार बदला है. भरतपुर की जाट महासभा को देखकर उनमें नई चेतना व जागृति का संचार हुआ और कुछ कर गुजरने की भावना तेज हो गयी. यह जलसा अजमेर - मेरवाडा के मास्टर भजनलाल बिजारनिया की प्रेरणा से हुआ था. शेखावाटी के हर कौने से जाट इस जलसे में भाग लेने हेतु केसरिया बाना पहनकर पहुंचे, जिनमें चिमनाराम सांगसी, भूदाराम सांगसी, सरदार हरलाल सिंह, चौधरी घासीराम, पृथ्वीसिंह गोठडा, पन्नेसिंह बाटड़, हरीसिंह पलथाना, गोरुसिंह, ईश्वरसिंह, चौधरी गोविन्दराम, पन्ने सिंह देवरोड़, रामसिंह बख्तावरपुरा, चेतराम भामरवासीभूदाराम सांगसी, मोती राम कोटड़ी आदि प्रमुख थे. ये लोग एक दिव्य सन्देश, एक नया जोश, और एक नई प्रेरणा लेकर लौटे. जाट राजा भरतपुर के भाषण से उन्हें भान हुआ कि उनके स्वजातीय बंधू, राजा, महाराजा, सरदार, योद्धा, उच्चपदस्थ अधिकारी और सम्मानीय लोग हैं. पुष्कर से शेखावाटी के किसान दो व्रत लेकर लौटे. प्रथम- समाज सुधार, जिसके तहत कुरीतियों को मिटाना एवं शिक्षा-प्रसार करना. दूसरा व्रत - करो या मरो का था जिसके तहत किसानों की ठिकानों के विरुद्ध मुकदमेबाजी या संघर्ष में मदद करना और उनमें हकों के लिए जागृति करना था.[3]

पुष्कर ले लौटने के बाद बगड़ में जाट पंचायत की स्थापना की गयी. प्रचार के लिए भजनोपदेशकों की टोलियाँ तैयार की गयी. अनपढ़ समाज पर भजनोपदेशकों के गीतों का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा. भजनोपदेशक अन्य राज्यों से भी आये थे और स्थानीय स्तर पर भी तैयार हुए. पंडित दत्तुराम, भोलासिंह, चौधरी घासीराम, पृथ्वी सिंह बेधड़क, हुकमीचंद, मनसाराम आदि कलाकारों ने गाँव-गाँव को गीतों से गूंजा दिया. स्थानीय स्तर पर मोहरसिंह, सूरजमल साथी, हनुमानदास, बस्तीराम, देवकरण पालोता, तेज सिंह भादौन्दा, गनपतराम महाशय आदि भजनोपदेशक तैयार हो गए. शेखावाटी के ग्रामीण अंचलों को जगाने का श्रेय इन्ही भजनोपदेशक को जाता है. 1925 में झुंझुनू जिले के हनुमानपुरा और कुहाडवास में जन सहयोग से स्कूल खोली गयी. उत्तर प्रदेश के शिक्षक हेमराज सिंह कुहाडवास में और चंद्रभान सिंह हनुमानपुरा में पढ़ाने लगे. इसी क्रम में आगे चलकर कूदन, पलथाना, कटराथल, मांडासी आदि गाँवों में स्कूल खोली गयी. खंडेलावाटी में चौधरी लादूराम रानीगंज ने आर्थिक भार वहन कर शिक्षा की जोत जगाई. शेखावाटी में जनसहयोग से करीब 30 स्कूल खोली गयी. [4]

पुष्कर सम्मलेन के पश्चात् शेखावाटी में दूसरी पंक्ति के जो नेता उभर कर आये, उनमें प्रमुख नाम निम्न हैं - ताराचंद झारोड़, बूंटीराम किशोरपुरा, भैरूसिंह तोगडा , डूंगरसिंह कुमावास, हरलालसिंह-बेगराज मांडासी, रेखसिंह हनुमानपुरा, छत्तू सिंह टाईं (राजपूत), हरदेव सिंह पातुसरी , रंगलाल गाड़िया, दुर्गादत्त कांइयां झुंझुनू, रामेश्वर रामगढ़िया मंडावा, कुरड़ाराम झारोड़ा, इन्द्राज सिंह, हंसराज घरडाना, चेतराम-ख्याली राम भामरवासी, स्वामी मिस्रानंद बिगोदना, चत्तर सिंह बख्तावरपुरा, देवकरण पालोता, आशा राम भारू का बास, देवासिंह बोचाल्या, चन्द्र सिंह , खमाण सिंह पलथाना, देवी सिंह दिनारपुरा, गोपाल सिंह रशीद्पुरा, हरिराम फरटिया , गणेश राम, कल्लूराम, स्वामी पदमदास कूदन, किसन सिंह बाटड़ानाऊ, बालूराम कंवरपुरा (खंडेला वाटी) पेमाराम पलसाना, हरबक्श गढ़वाल खंडेला वाटी , गणेश राम भारनी आदि... इतिहास में आम जन की भागीदारी का यह अनुपम उदहारण है. [5]


"जाट भारतीय राष्ट्र की रीढ़ हैं। भारत मां को इस साहसी वीर जाति से बहुत बड़ी आशाएं हैं।.... (पंडित मदनमोहन मालवीय "पुष्कर का भाषण")[6]

सीकर किसान आंदोलन 1934

ठाकुर देशराज[7] ने लिखा है.... दिसंबर के आखिर में रायबहादुर चौधरी सर छोटूराम जी भी यज्ञ के काम को सफल बनाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करने सीकर पधारे। इसके बाद तो लोगों ने चौगुनी उत्साह से काम करना आरंभ कर दिया।

गांवों में दिल खोलकर लोगों ने घी और रुपया दिए। सोचा यह गया कि पंडित मदन मोहन मालवीय से यज्ञ का उद्घाटन कराया जाए। इसके लिए ठाकुर देशराज जी बनारस गए और वहां पंडित जी से मिलकर यज्ञ के संबंध में बातें की। जाटों के प्रति मालवीय जी का जो प्रेम था उसे प्रकट करते हुए मालवीयजी ने “ यदि उन्हीं दिनों वायसराय हिंदू विश्वविद्यालय में ना आए तो” शब्दों में आने का वादा किया।

जनवरी 1934 के बसंती दिनों में सीकर के आर्य महाविद्यालय के कर्मचारियों द्वारा यज्ञ आरंभ हुआ। उन दिनों यज्ञ भूमि एक ऋषि उपनिवेश सी जांच रही थी। बाहर से आने वालों के 100 तम्बू और और छोलदारियाँ थी और स्थानीय लोगों के लिए फूस की झोपड़ियों की छावनी बनाई।

20000 आदमी के बैठने के लिए पंडाल बनाया गया था....

Gallery

External Links

Author: Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

References

  1. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VIII, pp. 746-747
  2. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VIII (page 746-747)
  3. डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया: राजस्थान स्वर्ण जयंती प्रकाशन समिति जयपुर के लिए राजस्थान हिंदी ग्रन्थ अकादमी जयपुर द्वारा प्रकाशित 'राजस्थान में स्वतंत्रता संग्राम के अमर पुरोधा - सरदार हरलाल सिंह' , 2001 , पृ. 20-21
  4. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 100
  5. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 100
  6. Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Parishisht,p.160
  7. Thakur Deshraj: Jat Jan Sewak, 1949, p.226