Roha

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(Redirected from Rohilladdhi)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Roha (रोह) was King descended from Dadhichi.

Variants

Jat Gotras

Jat Gotras originated from Roha: [4]

Mention by Panini

Roha (रोह) is mentioned by Panini in Ashtadhyayi. [5]

History

History

Buddha Prakash[6] mentions.... [p.104]: Foremost among the tribes, who took up the struggle against the Saka-Kushanas, were the Yaudheyas. They were akin to the Iranian tribe Yautiya, who figured in the volkerwanderung


[p.105]: of peoples which brought the Medes and Persians into Iran about the 9th-8th century B. C. Driven forward by the Medes, these people bifurcated into two wings, the right one pushing north-west- wards up to Transcaspiana and the left one wheeling towards the south-east and penetrating into the Panjab. In the sixth century B. C. their chief Vahyazdata posed a challenge before the Achaemenian emperor Darius by capturing the Kabul Valley, but was defeated by the governor of Harahvatis, Vivana.

Along with the Yautiya the warrior clans of the Hindukush region, called ‘the ten mandalas of Lohita’ in the Mahabharata (II, 27, 17) and Rohitagiriya in the Kashika (IV, 3, 91), who gave their name Roh to medieval Afghanistan, also seem to have moved cast. The name of the township of Rohitaka or Rohtak in Hariyana appears to enshrine a reminiscence of their settlement. The name of a Jat gotra Rohila also suggests that these people are connected with the ancient Rohitas or Rohs who had come to East Panjab. Subsequently they moved into Rajasthana where we come across the name Rohilladdhi in the Jodhpur inscription of Bauka. In medieval times they settled in the Transgangetic region of Uttar Pradesha which came to be known as Rohilkhand after them. That the Rohitas (Ruhilas of medieval times) moved with the Yautiya becomes clear from the existence of the settlements of both of them in the same region of Hariyana.

रोह = लोह

लोह (AS, p.822): महाभारत सभा पर्व 27,27 में लोह का उल्लेख अर्जुन की उत्तर दिशा के देशों की दिग्विजय के संबंध में है- लोहान् परमकांबोजानृषिकानुत्तरानपि, सहितास्तान् महाराज व्यजयत् पाकशासनिः'। परमकांबोज संभवतः वर्तमान चीनी तुर्किस्तान (सीक्यंग) के कुछ भागों में रहने वाले कबीलों का देश था। इसी के निकट लोह प्रदेश की स्थिती रही होगी। वी एस अग्रवाल के मत में लोह या रोह (अथवा लोहित, रोहित) दर्दिस्तान के पश्चिम में स्थित काफिरिस्तान या कोहिस्तान का प्रदेश है जो अफ़ग़ानिस्तान की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर हिन्दूकुश पर्वत तक विस्तृत है। रुहेल जो मूलतः इसी प्रदेश के निवासी थे, रोह के नाम पर ही रुहेले कहलाए। पाणिनि तथा भुवनकोश में भी इस देश का नामोल्लेख है।[7]

रोह

बुद्धकालीन भारत में भी चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने छह महीने मतिपुरा (मंडावर) में व्यतीत किए थे। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की पराजय के बाद भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना हुई थी। उस समय यह क्षेत्र दिल्ली सल्तनत का एक हिस्सा रहा था। तब इसका नाम 'कटेहर क्षेत्र' था। औरंगज़ेब कट्टर शासक था। उसके शासनकाल में अनेक विद्रोही केंद्र स्थापित हुए थे। उन दिनों जनपद पर अफ़ग़ानों का अधिकार था। ये अफ़गानी अफ़ग़ानिस्तान के 'रोह' कस्बे से संबद्ध थे अत: ये अफ़गान रोहेले कहलाए और उनका शासित क्षेत्र रुहेलखंड कहलाया गया था। नजीबुद्दौला प्रसिद्ध रोहेला शासक था, जिसने 'पत्थरगढ़ का क़िला' को अपनी राजधानी बनाया था। [8]

घटियाला के दो लेख ८६१ ई.

डॉ गोपीनाथ शर्मा [9]लिखते हैं कि जोधपुर से २० मील उत्तर में घटियाला गाँव है. यहाँ वि.स. ९१८ चैत्र सुदी के दो लेख उपलब्ध हुए. इनमें से एक लेख महाराष्ट्री भाषा का श्लोक बद्ध और दूसरा उसी का आशय रूप संस्कृत में है. इन से पाया जाता है कि हरिश्चंद्र नाम ब्राह्मण , जिसको रोहिल्लाद्धि भी कहते थे, वेद तथा शास्त्रों का अच्छा ज्ञाता था. उसके दो स्त्रियाँ थी - एक ब्राह्मणवंश से और दूसरी क्षत्रियकुल से. ब्राह्मणी के पुत्र ब्राह्मण प्रतिहार और क्षत्रिय रानी के मद्यपान करने वाले (क्षत्रिय) कहलाये. इस शिलालेख से मंडोर के प्रतिहारों की नामावली तथा उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है.

इस वंश का प्रमुख हरिचंद्र हुआ. उसके चार पुत्र- भोगभट, कक्क, रज्जिल और दह ने मिलकर मंडोर दुर्ग का ऊँचा प्राकार बनवाया. हरिश्चंद्र के उत्तराधिकारी क्रमश: रज्जिल, नरभट, तथा नागभट थे. नागभट ने मेड़ता को अपनी राजधानी बनाया. इसके पुत्र तात ने राज्य छोड़ कर अपने भाई भोज को दे दिया. और स्वयं मांडव्य के आश्रम में रहकर अपना जीवन बिताता रहा. भोज के बाद यशोवर्द्धन और उसके बाद चंदुक प्रतिहारों कि गद्दी पर बैठे. चंदुक के पुत्र शीलुक ने अपने राज्य का विस्तार त्रवणी और बल्ल देश की सीमा तक बढाया और बल्लदेश के राजा भट्टिक को परास्त किया और उसका छत्र छीना. उसके उत्तराधिकारी झोट ने गंगा में मुक्ति प्राप्त की. और उसके पुत्र भिल्लादित्य ने राज्य छोड़ कर हरिद्वार जाकर अपना देह छोड़ा. भिल्लादित्य का पुत्र कक्क बड़ा प्रतापी और विद्वान् था. उसने मुंगेर के गोंडों को परास्त किया. वह रघुवंशी प्रतिहार वत्सराज का सामंत था. उसके पुत्र वाउक ने नंदावल्ल को परास्त किया और शत्रु सैन्य का संहार किया. जब उसका भाई कुक्कुक शासक बना तो उसने अपने सच्चरित्र से मरू, माड़ , बल्ल, तमनी (त्रवनी) , अज्ज (आर्य) एवं गुर्जरात्रा के लोगों का अनुराग प्राप्त किया. उसने बड़णालय मंडल के पहाड़ की पल्लियों (पालों) को जलाया और रोहिंसकूप (घटियाला) के निकट गाँव में हाट बनवाकर महाजनों को बसाया और जय स्तंभों की स्थापना की. वह स्वयं विद्वान् था. यह शिलालेख उसी के समय लिखा गया था जिसका अंत का श्लोक उसी ने अनाया था. 'अयश्लोक: कक्कुकेन स्वयं कृत:' प्रस्तुत लेख से भीलों की विजय और राजपूतों के अधिवासन पर प्रभाव पड़ता है.


Notes - Mentioned here are some probable linkages with Jat clans. We need further research to prove these facts.

  • Rohilladdhi (रोहिल्लाद्धि) - Seems related with Rohil clan.
  • Rajjila (रज्जिल) - In the list of Jat clans we find Rajliye (राजलिये) is gotra of Jats. They are descendants of Rajil (राजिल). [10]
  • Balla (बल्ल) - Bal is a Jat clan
  • Ajja (अज्ज) - Used for Arya. Ajra (अजरा) is a gotra of Jats. It get its name from King named Ayu (आयु) in Kuruvansha.[15]
  • Gurjarattra (गुर्जरात्रा) - Gurjaratra comprised the districts of Didwana and Parbatsar in Marwar. This area since ancient times is domonated by Jats. Gujar is also here a Jat clan.

References

  1. Buddha Prakash: Evolution of Heroic Tradition in Ancient Panjab, X. The Struggle with the Yavanas, Sakas and Kushanas, p.104-105
  2. Buddha Prakash: Evolution of Heroic Tradition in Ancient Panjab, X. The Struggle with the Yavanas, Sakas and Kushanas, p.104-105
  3. डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ. 57-58
  4. Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 278
  5. V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.40
  6. Buddha Prakash: Evolution of Heroic Tradition in Ancient Panjab, X. The Struggle with the Yavanas, Sakas and Kushanas, p.104-105
  7. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.822
  8. भारतकोश-बिजनौर
  9. डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ. 57-58
  10. Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 278
  11. Jats the Ancient Rulers (A clan study), Book by Bhim Singh Dahiya, IRS, First Edition 1980, Publisher: Sterling Publishers Pvt Ltd, AB/9 Safdarjang Enclave, New Delhi-110064, p. 333
  12. A.C. Rose:'Tribes and Castes', Vol. II, p. 219
  13. Dasharatha Sharma: Early Chauhan Dynasties, Towns and Villages of Chauhan Dominions S.No.22.
  14. Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998, p. 253
  15. Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudee, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998,p.219

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