Churu Janpad Ka Jat Itihas
by Daulat Ram Saran Dalman
थार-रेगिस्तान
चूरू जनपद का क्षेत्र थार-रेगिस्तान का भाग था। भू-गर्भ शास्त्री कार्टर के मतानुसार "पश्चिमी भारत का यह अर्द्ध-रेगिस्तान भाग किसी समय समुद्र की सतह रही होगी। जो समुद्र के वर्तमान किनारों से अरावली पहाडी की श्रंखला तक फैला था।" यह इलाका युगों पहले टेथिस महासागर का भाग माना जाता है। भौगोलिक परिवर्तन के कारण यह इलाका ऊपर उठाने से रेगिस्तान के रूप में उभर आया। कर्नल टाड ने लिखा है कि यह इलाका रेगिस्तानी तथा निर्जल होने के कारण व जल के अभाव के कारण पार करने में अत्यंत दुष्कर था। इसे पार करने वाले जल के अभाव में मर जाया करते थे। इसलिए इसे मरुप्रदेश कहा गया होगा।
वैदिक साहित्य में जाङ्गल व कुरुजांगल प्रदेश
वैदिक साहित्य में इस प्रदेश का उल्लेख जाङ्गल व कुरुजांगल प्रदेश के नाम से उल्लेख मिलता है। तथा इसे सरस्वती नदी का प्रवाह क्षेत्र माना गया है। भौगिलिक परिवर्तनों के कारण अथवा रेगिस्तान के प्रसार के कारण सरस्वती का प्रवाह मार्ग बदल गया। सरस्वती नदी की शाखा हकड़ा बाह्ण के नाम से कभीकभी जल प्रवाह करती थी। भौगोलिक शब्दावली के अनुसार जो क्षेत्र नदी जल के फैलाव में आता था उसे खादर तथा जल फैलाव के ऊपर के भाग को बागड़ कहा जाता था। नदी जल का प्रवाह इस इलाके में बंद होने से सम्पूर्ण इलाका बोलचाल की भाषा में बागड़ प्रदेश कहलाने लगा। कर्नल टाड ने लिखा है- "जल में डूबा दलदल क्षेत्र जो सूख कर समतल मैदान के रूप में बदल जाता है उसे रण, रिण, रिणी कहा जाता है। वर्तमान तारानगर क्षेत्र प्राचीन काल में हकदा नदी के जल फैलाव का क्षेत्र रहा होगा इसलिय इस इलाके की भौगोलिक पहचान रिणी नाम से प्रसिद्ध हुई होगी।
जनश्रुति में बागड़ प्रदेश
जनश्रुति अनुसार इस बागड़ प्रदेश में हकड़ा नदी के किनारे कोयलापट्टन (फोगां) शहर था। पट्टन का अर्थ होता है किश्तियों द्वारा पार जाने का स्थान. इस इलाके में श्योपांडिया (तारानगर, रिणी) व बांय की बावड़ी, द्रोणपुर (गोपालपुरा) महाभारतकालीन माने जाते हैं। इस इलाके में सिन्धु सभ्यता से प्राचीन और समकालीन सभ्यता रही है परतु यह प्रमाणित करने के लिए गहन अनुसन्धान की आवश्यकता है।
इतिहासकार ओझा लिखते है-'राठोड़ों के आने से पूर्व की शताब्दियों में यह इलाका, जो बाद में बीकानेर राज्य के नाम से जाना जाने लगा , ऐसी जातियों से आबाद और शासित था जो यहीं पैदा हुई थीं। यह बहुत से भागों में विभाजित था। इनमें जोइया , चौहान, सांखला, परमार, भाटी , और जाट शासक थे। (बीकानेर राज्य का इतिहास , प्रथम खंड ,पृ. 69)
यह ज्ञात करना कठिन है कि उनका किस-किस प्रदेश पर अधिकार था और वे किस-किस समय एक दूसरे से उन्नत थे। जोइयों का जोईयावाड़ से, चौहानों का सांभर से, पड़िहारों का मंडोर से, पंवारों का चन्द्रावती से तथा सोलंकियों का वलभी से इस क्षेत्र में आगमन माना जाता है।
बीकानेर रियासत की स्थापना से पूर्व यह इलाका सात जाट जनपदों के अधीन था। प्राचीनकाल व पूर्व मध्यकाल तक जाट जाती उन्नत अवस्था में थी और राजस्थान के विभिन्न भागों में उनका गणतंत्रात्मक शासन था। जाटों के गणतंत्रात्मक शासन व्यवस्था पर बागड़ प्रदेश में लोकोक्ति प्रचलित थी। "सात पट्टी, सताईस मांजरा और सब आदर-खादरा" अर्थात इस जाङ्गल प्रदेश में सात बड़े जनपद, सताईस मझले प्रदेश तथा शेष असंख्य जाट जनपद थे। बालू के टीलों से भरी-पूरी वृक्ष विहीन बंजर भूमि, नदी नाले से विहीन, कम वर्षा व विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले इस मरुप्रदेश में जाटों ने दूर-दूर तक अपनी बस्तियां बसाई तथा अन्य जातियों को अपने साथ बसाया।
पीने के पानी के नितांत अभाव वाले इस क्षेत्र में कुए बनाए, वर्षा जल संग्रहण हेतु तालाब बनाये। धरती पुत्र अन्नदाता जाटों ने इस प्रदेश को कृषि योग्य बनाया तथा कृषि और पशुपालन से सबका भरण-पोषण किया। इस जांगल प्रदेश में मानव जीवन की रेखा खींचकर इसे आबाद किया।
बीकानेर स्टेट की स्थापना से पूर्व भाडंग , सिद्धमुख, लुदी, धानसिया, रायसलाना, पल्लू आदि प्राचीन व्यापारिक केंद्र थे।
चूरू क्षेत्र के सात जाट जनपद
पाउलेट तथा अन्य लेखकों ने इस हाकडा नदी के बेल्ट में निम्नानुसार जाटों के जनपदीय शासन का उल्लेख किया है जो बीकानेर रियासत की स्थापना के समय था।
क्र.सं. | जनपद | क्षेत्रफल | राजधानी | मुखिया | प्रमुख ठिकाने |
---|---|---|---|---|---|
1. | गोदारा पट्टी | 360 गाँव | लादड़िया (शेखसर) | पाण्डुजी गोदारा | पून्दलीसर, गुसाईंसर , शेखसर, रासीसर |
2. | सारण (सारणौटी) | 360 गाँव | भाडंग | पूलाजी सारण | खेजड़ा , फोगां , धीरवास , भाडंग , सिरसला , बुच्चावास , सवाई, पूलासर, हरदेसर, कालूसर, बन्धनाऊ , गाजूसर, सारायण, उदासर |
3. | सिहाग (स्यागोटी) | 140 गाँव | सूंई (लूणकरणसर) | चोखासिंह सिहाग | पल्लू, दांदूसर, बीरमसर, गन्धेली, रावतसर |
4. | सहू पट्टी | 84 गाँव | धाणसिया (नोहर) | अमरुजी सहू | धाणसिया, खुईया, रायपुरा |
5. | बेनीवाल पट्टी | 360 गाँव | रायसलाना (रस्लान) | रायसलजी बेनीवाल | भूखरका , सुन्दरी, सोनडी, मनहरपुरा, कूई, बाय |
6. | कस्वां पट्टी | 360 गाँव | सिद्धमुख | कंवरपाल कस्वां | सात्यूं ,लालासर |
7. | पूनिया | 360 गाँव | बड़ी लूदी | कान्हाजी पूनिया | लूदी, झांसल, मरौडा, अजीतपुर |
चूरू क्षेत्र के अन्य जाट जनपद
गोदारा पट्टी, सारण (सारणौटी), सिहाग (स्यागोटी), सहू पट्टी, बेनीवाल पट्टी, कस्वां पट्टी और पूनिया के अतिरिक्त जाखड़, नैन, सींवर, मोहिल, जोइया, बगड़िया, चाहर भट्टी (भाटी) तंवर आदि अनेक मझले तथा छोटे-छोटे जाट गण राज्य थे।
इस इलाके के निम्न इतिहास पुरुष हुए हैं:
- जयसंग सारण,
- बोयतरात सारण (1486 ई.),
- मेलख सारण,
- मालदे चाहर (सिद्धमुख),
- रणधीरसिंह (सिद्धमुख),
- भरथा सारण (1613 ई.)(लक्ष्मीनारायणसर वर्तमान राजासर बीकान, सरदारशहर),
- तेजूपीर सींवर पातवाणा (सरदारशहर, पिचकराई),
- जोखा सारण,
- जबरा सारण,
- वीर बीगाजी जाखड़ ,
- गाज डूडी (12th Century),
जाट जनपदों का पतन और बीकानेर रियासत की स्थापना
इन जाट जनपदों के वंशावली लेखकों के अनुसार विक्रम संवत 1545 में धाणसिया से गणगौर के मगरिया में से मलकी जाटनी को गोदारा पट्टी के मुखिया पाण्डुजी गोदारा के पुत्र नकोदर द्वारा ले जाने से इन जाट जनपदों में छह जनपदों का गोदारा जनपद के साथ भेंटवाले धोरे (सोन पालसर से उत्तर-पश्चिम और राजासर पंवारान से पश्चिम में 10 कि.मी.) पर संघर्ष हुआ व लादडिया को जलाए जाने से पाण्डुजी गोदारा ने जांगलू इलाके में पहले से रह रहे राव बीका की सहायता ली।
इधर छह पट्टी के जाटों ने सिवानी के नरसिंह जाट (तंवर) से सहायता ली। नरसिंह तंवर का ससुराल सिद्धमुख के पास ढाका गाँव में ढाका जाटों में था, इसलिए रात्रि में वह अपने सेनापति किशोर के साथ ढाका के तालाब मैदान में शिविर लगाये हुए रात्रि विश्राम कर रहा था। कुछ जाटों ने बीका कान्धल व नकोदर गोदारा को नरसिंह के रुकने का गुप्त भेद बता दिया तो बीका, कान्धल और नकोदर ने मध्य रात्रि को नरसिंह पर हमला बोल दिया। सन 1488 में ढाका (सिद्धमुख) में कांधल ने स्थाई कैम्प लगाकर सहवा के इर्द-गिर्द इलाके पर प्रभुत्व जमाया। स्थाई सैन्य संगठन और आपसी सामंजस्य के अभाव में विक्रम संवत 1545 में बीकानेर रियासत की स्थापना से जाटों की गणतंत्रात्मक व्यवस्था समाप्त हो गयी तथा राव बीका ने पांडू गोदारा से राजतिलक करवाकर नराजी जाट की भूमि पर बीकानेर नाम से राजधानी स्थापित की। मूल स्थान नराजी का होने से राव बीका ने अपने नाम के साथ नराजी का नाम जोड़कर बीकानेर नाम दिया।
बीका से राव कल्याण मल तक बीकानेर राज्य पूर्ण स्थायित्व नहीं ले पाया था। इसलिए राव कल्याणमल ने अपने राजकुमार रायसिंह को साथ लेकर नागौर में अकबर से संधि कर सहायता प्राप्त की। अकबर ने राव कल्याणमल के बाद रायसिंह को राजा की पदवी प्रदान की। रायसिंह ने अपने भाई रामसिंह को इस इलाके पर प्रभुत्व ज़माने की जिम्मेदारी सौंपी। रामसिंह का बलिदान सारणोटी के कल्यानपुर के पास उदासर में हुआ। जहाँ रामसिंह का स्मारक बना हुआ है।
इस इलाके पर धीरे-धीरे राठोड़ों ने अधिपत्य जमा लिया. राव बीका और राव जोधा ने जाटों को समूल नष्ट करने की चाल चली। उन्होंने राजपूतों को मन्त्र दिया कि हम जाटों से लड़कर नहीं जीत सकते इसलिए धर्मभाई का रिवाज अपनाकर जब विश्वास कायम हो जाये तब सामूहिक भोज के नाम पर बाड़े में इकठ्ठा करो। नीचे बारूद बिछाकर नष्ट करो। इस कुकृत्य से असंख्य जाटों को नष्ट किया गया। [1] बीकानेर रियासत के मुख्य गाँव जहाँ जाटों को जलाया गया -
- जसरासर (चूरू) गाँव के कस्वां जाटों को,
- राजासर बीकान (लक्ष्मीनारायण) के भरता सारण को,
- हरदेसर के सारणों को,
- मालासर (गोगासर के पास) के सारणों को,
- बुकनसर बड़ा डूडीयों को अक्षय तृतीय के दिन,
- सवाई,
- घड़सीसर ,
- हरियासर,
- मनहरपुरा,
- सोनडी आदि गाँवों में बारूद से आगजनी की घटनाएँ की। बहुत से गाँवों के पास पुराने थेड़ (खंडहर) पड़े हैं।
इस क्षेत्र से जाटों का पंजाब व हरयाणा की तरफ काफी पलायन हुआ। लेकिन सम्पूर्ण क्षेत्र में प्रभाव जाटों का ही रहा। यह कहावत प्रचलित थी कि "राज राठोड़ों का, चौधर चौधरियों की". जो गाँव जागीरदारों के पट्टे में आये वे जागीरी गाँव तथा जो सीधे बीकानेर स्टेट के अधीन थे वे खालसा कहलाते थे। जागीरी गाँवों में मुखिया गाँव को बसाने वाले चौधरी होते थे, जो रकम संग्रहण करके जागीरदारों को देते व खालसा गाँवों के चौधरी रकम संग्रह करके सीधे बीकानेर स्टेट में जमा करते थे।
जाटों द्वारा आबाद गाँवों की पहचान बदली
राठोड़ों ने जाटों द्वारा आबाद गाँवों में गढ़ बनाकर गाँवों के नाम बदल दिए। कुछ उदहारण निम्नानुसार हैं:
- लूदी → राजगढ़: सन 1766 ई. गजसिंह ने पूनिया जाटों की राजधानी लूदी में गढ़ बनाकर लूदी से राजगढ़ नाम बदल दिया।
- राजगढ़ → सादुलपुर: सन 1920 में सादुल सिंह के नाम पर राजगढ़ के पश्चिमी भाग का नाम सादुलपुर रख दिया गया।
- राजियासर → सरदारशहर: रतनसिंह ने सन 1838 ई. में अपने राजकुमार सरदारसिंह के नाम पर सारणों के गाँव राजियासर में गढ़ बनाकर पहले सरदारगढ़ नाम रखा फिर पांच साल बाद सरदारगढ़ से सरदारशहर नाम बदला।
- रिणी → तारानगर: 16 मार्च 1941 को रिणी का नाम तारानगर रखा, यह बीकानेर रियासत के राजा गज सिंह के भाई तारासिंह के नाम पर किया गया।
- कोट खरबूजा → सुजानगढ़: इसी प्रकार कोट खरबूजा का नाम सुजानगढ़
इस प्रकार इस इलाके की ऐतिहासिक पहचान जाटों व किसानों के स्थान पर राठोड़ों द्वारा आबाद क्षेत्र के रूप में बदल गयी।
स्रोत: 1. नैणसी री ख्यात, 2. दयालदास री ख्यात, 3. वाकये राजपूताना - मुंशी ज्वालासहाय , 4. Annals and Antiquities of Rajasthan - Col. Tod, 5. Rajasthan Through Ages - Dr Dashrath Sharma 6. जाट इतिहास ठाकुर देशराज, 7. बीकानेर के राजघराने का केन्द्रीय सत्ता से सम्बन्ध - डॉ. करणीसिंह, 8. राजस्थान के जाटों का इतिहास - डॉ. पेमाराम, 9. उत्तरी राजस्थान में किसान आन्दोलन - डॉ. पेमाराम 10. भटनेर का इतिहास - हरिसिंह भाटी, 11. बीकानेर का इतिहास - डॉ. ओझा, 12. जाट जनपदों की वंशावली
सन्दर्भ
- ↑ Dharati Putra: Jat Baudhik evam Pratibha Samman Samaroh Sahwa, Smarika 30 December 2012, by Jat Kirti Sansthan Churu, p.39
- यह लेख दौलतराम सारण डालमाण के 'धरती पुत्र : जाट बौधिक एवं प्रतिभा सम्मान समारोह, साहवा, स्मारिका दिनांक 30 दिसंबर 2012', पेज 8-10 पर प्रकाशित लेख पर आधारित है।
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