Harsha Mandir
Author of this article is Laxman Burdak लक्ष्मण बुरड़क |
Brief Introduction in English
Main article: English translation of Harsha Inscription of 961 AD
In a paper read before the Asiatic Society in 1835 Sergeant E. Dean delivered the inglorious epitaph to an extraordinary tenth-century Indian temple which he,along with Dr. G.E. Rankin had discovered previous year. This site is known as Harshagiri, near the village of Harasnath about 7 miles south of Sikar town. U.P. Shah in his article - "Some medieval Sculpture from Gujarat and Rajasthan" writes of the temple of Harshanatha, which was built in 956 AD and then of Sculpture from Harshagiri datable in c.961-973 AD and finally of the "Purana Mahadeva Temple at Harshagiri (c.961-973 AD). [1] Here is the Sanskrit text of Harsha Inscription of 961 - 973 AD as givan in the table right.
हर्ष मंदिर (Harshanath Temple)
हर्ष मंदिर राजस्थान में कला की दृष्टि से बहुत उन्नत श्रेणी का है. यह मंदिर अरावली की पहाड़ियों पर 3000 फीट की ऊंचाई पर गर्वपूरक खड़ा है. मंदिर आज भग्न अवस्था में श्रीहीन हो चुका है पर जो कुछ बचा है वह इसकी महानता और उत्कृष्टता स्थापित करने में समर्थ है. यहाँ वि.स. 1030 (973 ई.) का 48 पंक्ति का चौहानों का शिलालेख चौहान वंशावली, इस देवालय के निर्माण, अलंकरण, साधनों आदि की विस्तृत जानकारी देता है. यह मंदिर भग्नावस्था में है. यह स्थापत्य एवं मूर्ती कला के उत्तरी-भारत में सबल प्रतिनिधि होने के साथ-साथ चौहानों की यशोगाथा को मुखरित करता है. हर्ष मंदिर की मूर्तियाँ विश्व के अनेकों कला संग्रहों में मिलती हैं और सराही जाती हैं. मंदिर कुछ शतियों पूर्व भग्न हो गया था. आज पार्श्व की दीवारें टूटी हुई हैं जिन्हें पत्थरों से फिर जड़ दिया गया है. सभा मंडप एवं गर्भ गृह के कुछ भाग शेष हैं. [2]
L-1: *आप्तविघ्नशमनं सुराच्चितं
L-2:*..ताकुलितमानसै:। स्तूयमानस्तु सद्देवै:पातु वस्त्रिपुरांतक:.... २
L-3:पोष्ट्टज्येष्ठै:सकं[पै:* सहितमपि दिशामीश्वर: सा]र्क्कचंद्रै:।
L-4 :भूषा [गंगा शिरसि* भुज]ग:कण्ठिका नीलकण्ठे ।
L-5:र्न्यक्कुर्व्वाणा[पयोधीन् द्रुतचलि*] तजलानूर्म्मिमालासहस्त्रै:।
L-6:चंचत्त्वग्रेकृतान्तर्भुवननगकनीद्दीपसिं[धु]* प्रपञ्चं
L-7:नूनं वाणाग्निदग्धत्रिपुरपुररिपु[र्जा]* तहर्ष: सहर्षै
L-8:नर्द्दनेत्राघ[*नुन्ना]तनुदहनरुचिप्त्तोषसंभ्रान्तसत्तवं
L-9:*शंभु:पुरधगध्यासे यमभ्रंकषमस्तक:।
L-10:सद्रक्तस्वर्णश्टंगामलविविधरु [*चिर्वोअद्रिरेष प्र]पातु ।
L-11:न समो भूधरस्यास्य परम:क्कापि [विद्यते*] ।। ....११
L-12:*आद्य: श्री गूवकाख्यप्रथितनरपतिश्चाहमानान्वयोभूत्
L-13:र्लोकेअद्यापि द्दिरेषा प्रतपति परमै:[शंसिता लोकवृंदै:*]। ....१३
L-14:हत्वा रुद्रेन भूय: समरस[मुदये*]लाभ्य[कीर्ति]र्जयश्री: ।। ....१४
L-15:प्रागेव त्रासितेभ: सरसि करिरटडिंडिमैर्डि[बयुद्धै:*]|
L-16:त्यागैश्वर्यजये प्र[कीर्ति*र]मला धर्मश्च यस्योज्जवल: ।
L-17:*हत्वातोमरनायकं सलवणं सैनाधिपत्योद्धतं
L-18:श्रीमान् वि*ग्रहराजोअभूत्तुष्टुवोवासवोपम:।
L-19 :संधीरितेति ददता निज [*रा]ज्य लक्ष्मी: ।। ....२१
L-20:दृष्टिजातघनहेमकं[*चुका] जायते तनुरलं मुहुर्म्मुहु: ॥....२३
L-21:निर्व्याजै: प्राति[*रम्यैर्बह] भिरितिभृतै: प्राहृतैर्य: सिषेवे ॥....२४
L-22:*महाराजावली चासौ शंभुभक्तिगुणोदया ।
L-23:दीक्षेष्टतमलब्ध: सविस्फ़ुर[*न्मंत्रपे]वल: ।
L-24:सांसारिककुलान्नावस्ततो यस्य विनि[:स्टति:]* ....३१
L-25:आसीद्दो लब्धजन्मा नवतरवपुषां[सत्तम:*] श्रीसुवत्सु
L-26:भूषासद्भोगयुक्तं वहसुरभवनं कारितं येन[रम्यं*]
L-27:भवद्योतोअभवच्छिव्य: संदीपितगु[ण्-र्म्महान्*] ।। ....३६
L-28:वाटिकासेच[नं* कृत्यं तत्]प्रपाहरणन्तथा ।।....३९
L-29:शिवभवनपु[रस्ता*द्दार्यपा]रं यदासीत्
L-30:विश्वकर्मेव सर्व्वज्ञो वास्तुविद्या[विशारद:*] ....४३
L-31:यावद्भदे[वपृथ्वी*गग]नसुरतटीचंद्रलेखायतित्वं
L-32:ता[*वत्कालग]त: शंभु: कथं कालस्य गोचर: ।
L-33:शुभ्रा यासीत्तृ[तीया*]शुभकरसहिता सोमवारेण तस्याम् ।
L-34:समनं[तर*]मत्रावलिख्यते ।
L-35:कशहपल्लिकामेवं ग्रामांश्चतुरश्चंद्रांकशिखरोपरि[*सम्य]गवतेश्री
L-36: तथैतदभ्राता श्रीवत्सराज: स्वभोगावाप्तं जय[लब्ध*]ये कर्द्दमखातग्राममदाच्छासनेन |
L-37:वाप्तपट्टबड़कविषयोदर्ककथनं [कृत्व*]ा संख्यानस्वहस्तांकितशास
L-38:[*तथा युवरा]ज: श्रीजयश्रीराज: स्वभुज्यमानकोलिकूपग्रामं
L-39:तथोत्तरापथीयस्ताविकाना[न्म्या श्री*]हर्षकं प्रति प्रेम्न एको दत:। :पुण्यात्मभिर्दत्तानि देवभुज्यमानक्षेताणि पश्यामेहासुरिकायां
L-40:नाटत्रयं हर्षेलाटत्सेतुं[*]गवर्णंदेभीकांकछत्रं तथात्वेव द्दिह लिकानं विसोमकवृहदलमिति ।....४८
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Harshagiri Inscription of Chahamanas 973[3] CE |
कैप्टेन वेब (A.W.T. Webb लिखते हैं कि जब वे हर्ष के ब्राह्मण पुजारियों से मिले तो बताया गया कि यह गाँव विध्वंश कर दिया गया था और इसके निवासियों को मौत के घाट उतार दिया गया जब मुसलमानों द्वारा सन 1679 में मंदिर ध्वस्त किया गया था. जो मौत से बच गए उन्होंने हर्ष का वर्तमान गाँव बसाया. इस मंदिर का सर्वनास सन 1679 में तब हुआ जब खानजहां बहादुर ने मुग़ल बादशाह औरंगजेब के आदेशानुसार या किसी तरह उस मूर्ती-भंजक स्वेच्छाचारी शासक को प्रसन्न करने के लिए मंदिर पर हमला कर हर्ष के मंदिरों को जमींदोज कर दिया और प्रत्येक मूर्ती और गढ़ाई के कार्य को विकृत कर दिया. कोई भी बड़ा टुकड़ा अछूता नहीं बचा. [4]
कैप्टेन वेब सीकर के प्रशासक 1934 से 1938 की अवधी में रहे हैं. हाल ही में उनके द्वारा अंग्रेजी में लिखे अभिलेखों का अनुवाद कर भगवान सिंह झाझड़िया ने 'सीकर की कहानी कैप्टेन वेब की ज़ुबानी' नामक पुस्तक 2009 में प्रकाशित किया है. इससे पता लगता है कि कैप्टेन वेब ने इस धरोहर को बचाने और सुरक्षित करने का काफी प्रयास किया. वेब ने भग्नावस्था में बिखरी पडी पुरासंपदा को सीकर में लाकर संग्रहालय में रखवाया.
कैप्टेन वेब हर्ष मंदिर के निरीक्षण के समय ध्वंश को देखकर इतने व्यथित हुए कि वे लिखते हैं कि तब मेरा क्रोध बचकानी ध्वंशात्मक प्रवृति के प्रतीक उनके मुस्लिम नौकर के प्रति जाग्रत हुआ और मैंने उसे जितना बड़ा टुकड़ा मैं उठा सकता था उसके हाथों में लाद दिया और उसके पूर्वजों के प्रति अपराध के लिए उसे आदेश दिया क़ि वह इसे पहाड़ी के नीचे ले जाए. बिना हिचक उसने हुक्म का पालन किया, केवल यह कहते हुए कि वह भी मूर्तिपूजा का समर्थन नहीं करता. [5]
कैप्टेन वेब द्वारा हर्ष मंदिर की कुछ सामग्री सन 1935 में सीकर ले जाई गयी थी. यहीं उनके प्रयत्न से एक म्यूजियम बना था जिसके अनेकों कमरे इस कला संसार से भरे हुए थे. हजारों दर्शक विस्मयविमुग्ध होकर इस सामग्री को देखते थे. आज ज्ञात नहीं यह कला संसार कहाँ विलुप्त हो गया. धन लोलुप लोगों ने इसे पश्चिमी देशों में पहुंचा दिया. यह कला का खजाना भारत से नेपाल होता हुआ आगे गया. सीकर के राव राजा का पुत्र हरदयाल नेपाल विवाह गया था. सीकर ठिकाना हर्ष की सामग्री पर अपना एकाधिकार मनाता था. [6]
हर्ष का मंदिर पहाड़ पर बना है. हर्ष पहाड़ ऊपर जाकर समतल सा हो गया है. पहाड़ पर काफी समतल भाग छोड़कर पूर्वाभिमुखी मंदिर बनाया गया था. शिलालेख से ज्ञात होता है की चौहान नरेश सिंहराजा ने इस पर स्वर्णकलश चढ़ाए थे (श्लोक:१८ - हेममारोपित येन शिवस्य भवनोपरि). देवालय को अनेक गाँव सेवा पूजा के लिए भेंट स्वरुप दिए गए थे (श्लोक: २५ - छत्रधारा वर ग्रामो द्वितीय: शंकराणक:). शिलालेख में इस मंदिर को चंद्रांक शैल पर स्थित, उतुंग श्रृंग एवं पशुपति के सद्विमान बताया गया है. शिला लेख के अंत में हर्षदेव के भवन के चिर स्थायित्व के लिए शुभ कामना प्रकट की है. हर्म्य निर्माण काल 1013 वि.स. (956 ई.) दिया है. [7]
मंदिर के स्तंभों का मध्य भाग बेलबूंटों से अलंकृत था. स्तम्भ के उपरी भाग में छत के आसन गन्धर्व, यक्ष और अप्सराओं की मूर्तियों से मंडित थे. मुख्य शिखर निश्चय ही भूमि से 100 फीट के ऊपर रहा होगा इस तरह का अनुमान असंगत नहीं है. इसके तोरण द्वार के पास सुघटित नंदी था. मंदिर के बाहर आज भी नन्दीश्वर की मूर्ती विराजमान है. गर्भ गृह का कुछ भाग बचा है जिसमें छत के भीतरी भाग में लगी दीर्घाकार सुन्दर कलात्मक सुर सुंदरियों की प्रतिमाओं में से कुछ शेष हैं. इसके उन्नत और चारू तोरण द्वार पर सर्व देवों की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गयी थीं यह बात हर्ष सिला लेख से ज्ञात होती है. इस मंदिर का सूत्रधार वीरभद्र का पुत्र चंडशिव था. (वीरभद्र सुत: ख्यात: सूत्रधारो प्रचण्डशिव: विश्वकर्मेव सर्वज्ञो वास्तु विद्या विशारद:।। - हर्ष शिलालेख) [8]
हर्ष मंदिर की अनेकों मूर्तियाँ राजपूताना संग्रहालय नई दिल्ली में हैं. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के क्लीव लैंड म्यूजियम आफ आर्ट में हर्ष मंदिर की मूर्तियाँ हैं. अमेरिका के नेल्सन एटकिन्स गैलरी, फिलाडेल्फिया म्यूजियम आफ आर्ट में भी कई मूर्तियाँ विद्यमान हैं. पेरिस के रोवर्ट रूसों के निजी संग्रह में भी हर्ष की मूर्तियाँ हैं. अजमेर म्यूजियम में अनेक फलक हैं. [9]
हर्ष की मूर्तियों को देखने से ज्ञात होता है की इनमे लौकिक और धार्मिक दोनों विषयों से सम्बंधित मूर्तियाँ परिलक्षित होती हैं. लोकिक विषयों में नर्तक-नाटकी, गायक-गायोकाएं, योद्धा, हाथी, सामान्य सैनिक, अप्सराएँ, शाल-भंजिकाएं, दासियाँ आदि की कला पूर्ण मूस्तियाँ हैं. दैविक विषयों में अनेक रूपों में विष्णु, इन्द्र, शिव, शक्ति, गणेश, कुबेर आदि मनोरम प्रतिमान हैं. मूर्तियों की संख्याधिख्य को देखकर विस्मय होता है. [10]
अजमेर म्यूजियम में अनेक फलक हैं. अमेरिका के नेल्सन एटकिन्स गैलरी में एक विशाल प्रतिमा फलक है जिसके मध्य में विशाल नन्दीश्वर पर उमा-महादेव प्रतिष्ठित हैं. शिव के हाथों में त्रिशूल व् शर्प, नीचे दाहिने हाथ में कमल, तथा बांया हाथ गौरी के वक्ष पर है. जटा-जूट युक्त शिव के मस्तक पर खुला त्रिनेत्र और वक्षस्थल पर श्रीवत्स लांछन है. शिव की गोदी में बैठी पार्वती का दाहिना हाथ शिव के गले में है. सुसज्जित केश-पाश है. बाँई और एक स्त्री पुष्पमाल लिए हुए तथा उसके पार्श्व में नृत्यरत एक पुरुषाकृति है. शिव के दाहिने और एक शैव साधू यज्ञोपवित एवं कोपीनयुक्त दर्शाया गया है. इसके हाथ में जलपात्र है. यह नृत्य की मुद्रा में है. पार्श्व में नृत्यरत दूसरी आकृतियाँ हैं. [11]
उपर्युक्त वर्णित स्थानों के अलावा हर्ष मंदिर की मूर्तियाँ स्थानीय देवालयों में बिखरी पड़ी हैं. इनमें से कुछ हर्ष पर्वत के नीचे भैंरूजी के मंदिर में, कुछ देवनारायण मंदिर में, शिवालय में तथा कुछ देवजी के मंदिर में हैं. भैंरूजी के मंदिर में एक लाल शिला फलक है जिसकी चौड़ाई 34" तथा ऊंचाई 49" है. यह पद्मासनस्थ बडूक भैरव हैं. पार्श्व भागों में उपसिकाएं हैं. हर एक के ऊपर तीन लघु प्रतिमाएं हैं. ऊपर के कोनों पर चामरयुक्त गज प्रदर्शित हैं. वर्त्तमान भग्न देवालय में भी कुछ सुन्दर प्रतिमाएं हैं जिनमें अधिकांस निज मंदिर की भीतरी छत पर वर्गाकार रूप में संलग्न हैं. भग्न देवालय के आसपास कुछ वर्षों पूर्व तक मूर्तियाँ बिखरी पड़ी थी. [12]
हर्ष महादेव के भग्न मंदिर की कुछ मूर्तियों के विवरण भी अपेक्षित हैं. श्वेत प्रस्तर से निर्मित नन्दीश्वर आज भी अपने स्थान पर है. गले में छोटी-छोटी घंटियों की माला है. मूर्ती के कुछ अंग भग्न हैं. इसकी लम्बाई 62 " चौडाई 29 " एवं ऊँचाई 40 " है. सामने एक नांद जैसी वस्तु है. अपनी विशालता और अंग सौष्ठव के करण यह मूर्ती प्रभावित करती है. विभिन्न आभूषणों से आभूषित एक नारी मूर्ती है जिसकी ऊँचाई 68 " एवं चौडाई 19 " है. अनेक अंगों पर आभूषण हैं तथा नयनाभिराम केश-पास है. झूलता हुआ दुकूल अंग यष्टि पर दिखाया गया है. [13] मिथुन चित्र: 10 -11 वीं शती ई. में बने अनेक प्रसिद्द मंदिरों की तरह नग्न नारी मूर्तियाँ एवं मिथुन चित्र भी हर्ष मंदिर में थे. आज भी कुछ नग्न मानव प्रतिमाएं शेष हैं जो इस धारणा की पुष्टि करते हैं. मैथुन चित्र उस समय के देवालयों के एक अंग रहे हैं. विद्वानों ने देवालयों में नग्न चित्रों के होने के सम्बन्ध में अनेक मत व्यक्त किये हैं. एक जन प्रचलित विश्वास यह है की मिथुन चित्रों के करण मंदिर की बज्रपात जैसी प्राकृतिक विपदाओं से रक्षा होती है. दूसरे मत के अनुसार ऐसे दृश्य पुरुष और प्रकृति के रहस्य मिलन के प्रतिसक्षी हैं. ये तांत्रिक विचारधारा के विकास के अभिन्न अंग बन गए थे. एक संभावना यह भी व्यक्त की गयी है क़ि उस समय तांत्रिक सिद्धांत बड़े प्रबल थे. कौल और कापालिक और सोम सिद्धान्तिनों का प्राबल्य था. अत: मिथुन चित्र आवश्यक हो गए थे. कुछ मिथुन चित्र कामयोगिक पद्धतियों के निर्दर्शन के रूप में हैं. [14]
हर्षनाथ के मंदिर की प्रशस्ति 973 ई.
डॉ गोपीनाथ शर्मा [15] लिखते हैं कि यह प्रशस्ति शेखावाटी के प्रसिद्द हर्षनाथ के मंदिर की वि.सं. 1030 आषाढ़ सुदी 15 की है. उक्त मंदिर का निर्माण अल्लट द्वारा किया गया था. यह प्रशस्ति साम्भर के चौहान राजा विग्रहराज के समय की है. इससे चौहानों के वंशक्रम तथा उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है. इस वंश के शासकों के नाम इस प्रकार हैं - • गुवक प्रथम, • चन्द्रराज, • गुवक द्वितीय, • चन्दन, • वाक्पतिराज, • सिंहराज और • विह्राहराज.
इसमें बागड़ के लिए बार्गट शब्द का प्रयोग किया गया है. इसमें विग्रहराज के पिता सिंहराज के सम्बन्ध में लिखा है कि उसने सेनापति की हैसियत से उद्धत तोमर नायक सलवन को मारा या परास्त किया. युद्ध में उसने अनेक राजाओं को कैद किया और उन्हें तब तक नहीं छोड़ा जब तक पृथ्वी के चक्रवर्ती रघुवंशी राजा स्वयं वहां न आये. सिंहराज की सेनापति की स्थिति तथा रघुवंशी राजा के आने तक शत्रुओं को नहीं छोड़ना उसका किसी का सामंत होना व्यक्त करता है. उस समय रघुवंशी शक्तिशाली शासक कन्नोज का राजा प्रतिहार देवपाल था. सिंहराज इसी देवपाल का सामंत हो सकता है.
हर्ष शिलालेख वर्ष 973 में वर्णित गाँवों की सूची
हर्ष शिलालेख वर्ष 973 की लाइन 34 -39 में उन गाँवों के नाम आये हैं जिन्हें विभिन्न शासकों या उनके सरदारों ने अपने नियंत्रित क्षेत्र से हर्षदेव को चढ़ाये. ये क्षेत्र हर्षदेव के आस-पास ही स्थित हैं. इन गाँवों की पहचान निम्नानुसार की गयी हैं -
- सिंहप्रौष्ठ = सिंहासन (तहसील सीकर) - सिंहराज द्वारा स्वभोग राज्य में से,
- कृशानु कूप = Kari (कारी) ? +Sarnau (सरनाऊ) ? - सिंह-राजा द्वारा, पट्ट-बड़क विषये में से
- कशहपल्लिका = कासली, सिंह-राजा द्वारा, कोह (? खोसवाल) विषय में से
- कर्द्दमखात = कदमा का बास (तहसील सीकर) - वत्स-राजा द्वारा स्वभोग राज्य में से,
- उदके =?
- पाटकद्दय =?
- प्रतिविंशा = परसरामपुरा - शाकम्बरी द्वारा,
- हर्षदेव के उत्तर दिशा का गाँव (तहसील सीकर) - ताविक नामक महिला
- पिप्पलवालिका = पिपराली (तहसील सीकर) - पुण्यात्माओं द्वारा चार गाँव
- निंबटिका = नीम की ढाणी - पुण्यात्माओं द्वारा
- उदर्भटिका = उदयपुरवाटी? - पुण्यात्माओं द्वारा
जो गाँव अभी इतिहासकारों द्वारा पहिचाने नहीं गए हैं वहां (?) चिन्ह लगाया गया है.
समकालीन इतिहास
- सन्दर्भ - यह भाग रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ. 28-30 पर मुख्य रूप से आधारित है
सं 885 में प्रतिहार राजा भोज की मृत्यु के पश्चात प्रतिहारों का विशाल साम्राज्य कमजोर शासकों के करण छिन्न-भिन्न हो गया. अनेक प्रांतीय शासक सर उठाने लगे. गजनवी के आक्रमण के समय कन्नौज में प्रतिहारों का राज था. चौहान प्रतिहारों के सामंत थे. वे अनंत नाम से विख्यात शेखावाटी एवं उसके भूभागों पर शासन करते थे. हर्ष के शिलालेख वि. 1030 (973 ई.) से ज्ञात होता है कि इस भूभाग पर चौहानों का अधिकार था. संभवत: १० वीं शती के अंत में प्रतिहारों के निर्बल पड़ने पर वे स्वतंत्र हो गए थे और इस भूभाग पर प्रभुता संपन्न शक्ति के रूप में शासन करते थे. शाकम्भरी उनकी राजधानी थी.
चौहान गूवक प्रथम नागभट्ट द्वीतीय का सरदार था. [16] वह बड़ा प्रतापी राजा था. इसने अरबों के आक्रमण को विफल कर उन्हें वापस खदेड़ दिया था. इस कुल में आगे चलकर चन्द्रराज द्वीतीय, गूवक द्वीतीय और चन्दन हुए जिसने तोमरराज रुद्रेन को मारा. वाक्पतिराज (925 ई.) ने तंत्रपाल को अनंत गोचर जाते हुए तंग किया. यह उसके प्रतिहारों से स्वतंत्र होने का द्योतक था. [17] इस कुल में सिंहराज, विग्रहराज, लक्षमण हुए. लक्ष्मण ने नाडोल शाखा का श्रीगणेश किया. सिंहराज ने गद्दी पर बैठने के बाद तोमर सलवन को हराया. उसने महाराजाधिराज की पदवी धारण की. उसके पूर्व सभी राजा केवल महाराज उपाधि रखते थे. उसके समय में हर्ष का मंदिर ई.956 में बना.
विग्रहराज द्वीतीय (937 ई.) भी बड़ा प्रबल शासक था. इसने गुजरात पर हमला किया और नर्मदा तक बढा. इसके बाद दुर्लभराज ने शासन संभाला (999 ई.) इसके राज्य में पर्वतसर जोधपुर के क्षेत्र सम्मिलित थे. उसने सीकर तक के प्रदेश पर अधिकार कर लिया. [18] उसके राज्य की सीमा उत्तर में सीकर, पूर्व में जयपुर, दक्षिण में पुष्कर, और पश्चिम में पर्वतसर तक थी.[19] चौहान नरेश पृथ्वीराज तृतीय के सन 1192 में मुहम्मदगोरी से हार जाने के करण चौहान शक्ति को बड़ा धक्का लगा. शेखावाटी प्रदेश में फिर भी इस वंश का शासन अधिकाँश भूभाग पर प्राय: 15वीं शती तक चलता रहा. [20] शेखावाटी के कुछ भाग पर 15वीं शती के अंत में शेखावत वंश का अधिकार हुआ था. 16वीं शती में पठानों, कायम ख्यानियों और शेखावतों का विभिन्न समय पर सामना करना पडा. बिना किसी केन्द्रीय शक्ति के सहारे के करण चौहान वंश के शासकों के ये लघु राज्य कालांतर में नाम-शेष हो गए. [21]
चौहानों कीतरह तंवर भी प्रतिहारों के सामंत थे और शाकम्भरी के चौहानों के पडौसी थे. उस समय हर वंश के पास औसत रूप से 84 गाँव होते थे जो उसे सामंत होने के करण मुख्यशक्ति से प्राप्त होते थे. तोमरों का राज्य भी विस्तृत था. यह वर्तमान हरियाणा क्षेत्र में फैला हुआ था. कभी ढिल्लीका इसी वंश की राजधानी थी. परंपरा के अनुसार इन्होने 736 ई. में दिल्ली की स्थापना की थी. प्रतिहार भोज के समय में तोमर बज्रट (850 ई.) बड़ा शक्तिशाली सरदार था. गोग्गा भूनाथ महेन्द्रपाल प्रथम का समकालीन था. प्रतिहारों की शक्ति कमजोर पड़ने से उसके सामंत आपस में झगड़ने लगे. चौहान चन्दन द्वारा तोमर रुद्रेन मारा गया था तथा सिंहराज ने सलवन को हराया था. तोमर फिर भी 1150 ई. तक वर्तमान हरयाणा और उसके आगे के काल में बराबर तोरावाटी में शासन करते रहे. इन्हें आगे चलकर शेखावतों के हमलों का सामना करना पड़ा. विग्रहराज तृतीय ने हरियाणा में तंवारों के राज्य पर आक्रमण कर उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया. चौहान-तोमर संघर्ष का मुख्य स्थल शेखावाटी का भूभाग रहा. ऐसा प्रतीत होता है कि चौहानों ने तंवारों को शेखावाटी के भूभाग से दक्षिण-पूर्व में हटने को बाध्य कर दिया. शेखावाटी के नरहड़ कसबे के एक शिलालेख द्वारा चौहान विग्रहराज के अधिकार की बात ज्ञात होती है. इस शिलालेख में विग्रह राज को महा-भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर विग्रह राजदेव कहा गया है. इस प्रकार अपने प्रतिद्वंदी तंवारों को शेखावाटी से खदेड़ कर चौहान वर्तमान शेखावाटी के सारे भूभाग पर छा गए थे.
सिद्धसेनसूरी की वि. सं. 1123 (1066 ई.) में रचित सर्वतीर्थमाला में अपभ्रंश कथाग्रन्थ 'विलासवर्दूकहां' में झुंझुनू के साथ-साथ खण्डिल्ल, नराणा, हरसऊद (Harsh) और खट्टउसूस (खाटू) के नाम आये हैं। इससे इसकी उपस्थिति विक्रम की 12 वीं शती में भी ज्ञात होती है।[22]
बुरड़क वंशावली में हर्ष
चौहान वंश में बुरड़क वंशावली का विवरण बडवा की बही से मिलता है. बडवा की बही के अनुसार 933 ई. में हर्ष की उपस्थिति का ज्ञान होता है. बड़वा (भाट) श्री भवानीसिंह राव, गाँव- महेशवास, पोस्ट- बिचून, तहसील- फूलेरा, जिला- जयपुर (फोन-09785459386) की बही में बुरडक इतिहास के सम्बन्ध में निम्न विवरण उपलब्ध है:
राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए. बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया. संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया. इनके अधीन 384 गाँव थे. बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई. इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:
- 1. सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मालसिंह, उनके पुत्र राजा घंघ, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए. इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी. जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी.
- 2. सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए. सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया. इनके अधीन 240 गाँव थे.
- 3. अचल सिंह -
जीणमाता का पूरा नाम जयन्तिमाता है. जीणमाता का मंदिर सीकर से १५ किमी दक्षिण में खोस नामक गाँव के पास तीन छोटी पहाड़ियों के मध्य स्थित है. इसमें लगे शिलालेखों में विक्रम संवत १०२९ का शिलालेख सबसे पुराना है. यह चौहानों की कुल देवी है. इस मंदिर में जीणमाता की अष्टभुजी प्रतिमा है. कहा जाता है कि जीण तथा हर्ष दोनों भाई-बहिन थे और दोनों में बड़ा प्रेम था. जीण और हर्ष राजस्थान के चुरू जिले के घांघू गाँव के अधिपति घंघ की संतान थे.
हर्ष और जीण की कहानी
लोक काव्यों व गीतों व कथाओं में जीण का परिचय मिलता है जो इस प्रकार है. राजस्थान के चुरू जिले के घांघू गांव में एक चौहान वंश के राजा घंघ के घर जीण का जन्म हुआ. उसके एक बड़े भाई का नाम हर्ष था. दोनों के बीच बहुत अधिक स्नेह था. एक दिन जीण और उसकी भाभी सरोवर पर पानी लेने गई जहाँ दोनों के मध्य किसी बात को लेकर तकरार हो गई. उनके साथ गांव की अन्य सखी सहेलियां भी थी. अन्ततः दोनों के मध्य यह शर्त रही कि दोनों पानी के मटके घर ले चलते है जिसका मटका हर्ष पहले उतारेगा उसके प्रति ही हर्ष का अधिक स्नेह समझा जायेगा. हर्ष इस विवाद से अनभिज्ञ था. पानी लेकर जब घर आई तो हर्ष ने पहले मटका अपनी पत्नी का उतार दिया. इससे जीण को आत्मग्लानि व हार्दिक ठेस लगी. भाई के प्रेम में अभाव जान कर जीण के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह घर से निकल पड़ी. जब भाई हर्ष को कर्तव्य बोध हुआ तो वो जीण को मनाकर वापस लाने उसके पीछे निकल पड़ा. जीण ने घर से निकलने के बाद पीछे मुड़कर ही नहीं देखा और अरावली पर्वतमाला के इस पहाड़ के एक शिखर जिसे "काजल शिखर" के नाम से जाना जाता है पहुँच गई. हर्ष भी जीण के पास पहुँच अपनी भूल स्वीकार कर क्षमा चाही और वापस साथ चलने का आग्रह किया जिसे जीण ने स्वीकार नहीं किया. जीण के दृढ निश्चय से प्रेरित हो हर्ष भी घर नहीं लौटा और दूसरे पहाड़ की चोटी पर भैरव की साधना में तल्लीन हो गया. पहाड़ की यह चोटी बाद में हर्ष नाथ पहाड़ के नाम से प्रसिद्ध हुई. वहीँ जीण ने नव-दुर्गाओं की कठोर तपस्या करके सिद्धि के बल पर दुर्गा बन गई. हर्ष भी भैरव की साधना कर हर्षनाथ भैरव बन गया. इस प्रकार जीण और हर्ष अपनी कठोर साधना व तप के बल पर देवत्व प्राप्त कर लोगों की आस्था का केंद्र बन पूजनीय बन गए. इनकी ख्याति दूर-दूर तक फ़ैल गई और आज लाखों श्रद्धालु इनकी पूजा अर्चना करने देश के कोने कोने से पहुँचते हैं.
औरंगजेब द्वारा मंदिरों का तोड़ना
शेखावाटी के मंदिरों को खंडित करने के लिए मुग़ल सेनाएं कई बार आई जिसने खाटू श्याम , हर्षनाथ, जीणमाता, खंडेला के मंदिर आदि खंडित किए. एक कवि ने इस पर यह दोहा रचा -
- देवी सजगी डूंगरा , भैरव भाखर माय ।
- खाटू हालो श्यामजी , पड्यो दडा-दड खाय ।।
एक जनश्रुति के अनुसार देवी जीणमाता ने सबसे बड़ा चमत्कार मुग़ल बादशाह औरंगजेब को दिखाया था. बुरडक गोत्र के बडवा श्री भवानीसिंह राव के अभिलेखों में जीण माता के सम्बन्ध में यह विवरण उपलब्ध है कि औरंगजेब ने शेखावाटी के मंदिरों को तोड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी थी. यह सेना हर्ष पर्वत पर शिव व हर्षनाथ भैरव का मंदिर खंडित कर जीण मंदिर को खंडित करने आगे बढ़ी. उस समय हर्ष के मंदिर की पूजा गूजर लोग तथा जीनमाता के मंदिर की पूजा तिगाला जाट करते थे. कहते हैं कि हमले के तुरन्त बाद जीणमाता की मक्खियों (भंवरों) ने बादशाह की सेना पर हमला बोल दिया. मक्खियों ने बादशाह की सेना का पीछा दिल्ली तक किया और सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया. बदशाह ने जब हर्ष और जीनमाता का स्मरण किया और माफ़ी मांगी तभी पीछा छोड़ा. इसके उपलक्ष में बादशाह द्वारा हर्ष मंदिर के लिये सवामण तेल और सवामण बाकला हर साल भेजने का वादा किया. जीनमाता के भाट हरफ़ूल तिगाला जाट को गाँव गोठडा तागालान की 18000 बीघा जमीन की जागीर बक्शी. इसलिए इस गाँव का नाम गोठडा तागालान कहलाता है. यह जागीर उनके पास 105 साल रही तत्पश्चात संवत 1837 में यह कासली के नवाब के साथ फतेहपुर के अधीन हुआ. बादमें यह जागीर शेखावतों के पास आई. यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बुरडक गोत्र के आदि पुरुष नानकजी ने संवत १३५१ (1294 AD) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन गोठडा गाँव बसाया था.
Gallery
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Statues in Shiva temple Harsh
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Statues in Shiva temple Harsh
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Statues in Shiva temple Harsh
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Statues at Harshanath of 10th century
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Nandi at Harsh
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Sura Sundari 10 c. Sculptures Sikar Museum
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Standing Ganesha Sculptures Sikar Museum
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Sculptures Sikar Museum
See also
Notes
- ↑ Some Unpublished Sculpture from Harshagiri
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.273-74
- ↑ Journal of the Asiatic Society of Bengal, Volume 4 By Asiatic Society of Bengal, pp.361-385
- ↑ सीकर की कहानी (कैप्टेन वेब की जुबानी), सीकर, 2009, पृ. 22,80
- ↑ सीकर की कहानी (कैप्टेन वेब की जुबानी), सीकर, 2009, पृ.23
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.274
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.274
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.275
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.282
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.282
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.283
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.284
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.283
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.284
- ↑ डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ. 66
- ↑ हर्ष शिलालेख: ई.आई.,II , पृ. 119
- ↑ दी इम्पीरियल कन्नौज, पृ. 167
- ↑ दी इम्पीरियल कन्नौज, पृ. 107
- ↑ दी इम्पीरियल कन्नौज, पृ. 167
- ↑ मरुभारती रासो-दशरथ शर्मा,पृ. 279-32, शेखावाटी के नवाबी राज्य और उनका अवसान, पं. झाबर मल्ल शर्मा - मरुभारती 9 /3 पृ. 6
- ↑ अन्युवल रिपोर्ट, राजपुताना म्यूजियम 1932-33 सं. 3 पृ.2
- ↑ Dr. Raghavendra Singh Manohar:Rajasthan Ke Prachin Nagar Aur Kasbe, 2010,p. 219