Mandor

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(Redirected from Mánkír)
Author: Laxman Burdak IFS (R)

Location of Mandor in Jodhpur District

Mandor (मंडोर) (Mandore) is a Village in Phalaudi tahsil of Jodhpur district in Rajasthan. Its ancient name was Mandavyapura (माण्डव्यपुर) or Maddodara (मडड़ोदर).

Variants of name

Founders

It was founded by the Manda Jats and was their capital.

Jat Gotras

History

Historical records of the ancient period are not available. As per local tradition Mandor was ruled by Nagavanshi rulers. The River on which Mandor is situated is called Nagadri (नागाद्रि ). The ancient pond is known as Naga-kunda (नागकुण्ड) and the hill is called Ahi-shail (अहिशैल). These evidences show that it was under rule of Nagas in the past. It is believed that the town existed during the rule of Guptas. Later on it was ruled by Pratihara, Paramara, Chauhans and Rathores. [1]

James Tod writes that Bhatti Chief Jaitsi obtained the gadi of Jaisalmer in S. 1332 (A.D. 1276). He had two Sons, Mulraj and Rattansi. Deoraj, the son of Moolraj, espoused the daughter of the Sonigara chief of Jalore. Mahomed [khooni] Badsha invaded the dominions of Rana Rupsi, the Parihar prince of Mandor, who, when defeated, fled with his twelve daughters, and found refuge with the Rawal Jaitsi, who gave him Baroo as a residence. [2]

James Tod[3] writes that The warriors assembled under Visaladeva Chauhan against the Islam invader included the ruler of Mandor - Mansi Parihar, with the array of Mandore, touched his feet. This shows that the Parihars were subordinate to the Chohans of Ajmer.


Ram Swarup Joon[4] writes that The Balhara (Balahara) gotra is found among the Sikh, Muslim and Hindu Jats. In 900 A. D. a King of this gotra was a powerful ruler in the Western Punjab. He has been greatly praised by historian Sulaiman Nadwi, who came to India as a trader. According to him this ruler was one of the four big rulers of world at the time (857 A.D.). He was a friend of the Arabs and his army had a large number of elephants and camels. His country was called Kokan (Kaikan) 'near river Herat. The boundaries of this Kingdom extended from China to the Sea and his neighbors were the Takshak and Gujar kings. Their capital was Mankir.

मंडोदर - मंडौर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ... मंडौर (AS, [p.687]) नामक वर्तमान ग्राम का प्राचीन नाम मंडोदर या मांडव्यपुर है। मंडौर मारवाड़ की जोधपुर से पहले की राजधानी है। कहा जाता है कि यहाँ मांडव्य ऋषि का आश्रम था। स्थानीय रूप से यह जनश्रुति है कि नगर का नाम रावण की रानी मंदोदरी के नाम पर प्रसिद्ध हुआ था और वह स्थान जहाँ लंकापति के साथ मंदोदरी का विवाह हुआ था वह आज भी मंडौर में स्थित बताया जाता है। 7वीं शती ई. के उपरान्त गुर्जर नरेशों ने मंडौर में अपनी राजधानी बनाई थी। मांडव्य ऋषि के आश्रम के समीप स्थित मांडव्यदुर्ग की गणना राजस्थान के महत्त्वशाली दुर्गों में की जाती है। मंडौर में प्राप्त एक शिलालेख में इस स्थान को मांडव्याश्रम कहा गया है और इसके निकट एक पुण्यशालिनी नदी का उल्लेख है जो सम्भवतः नागोदरी है, "मांडववस्थाश्रमे पुण्ये नदीनिर्झर शोभते।'

[p.688]: दुर्ग के अन्दर विष्णु तथा जैन मन्दिरों के खण्डहर हैं। 12वीं, 13वीं शतियों की कई मूर्तियाँ यहाँ से प्राप्त हुई हैं। मन्दिर यद्यपि खण्डहर की अवस्था में है किन्तु उसकी दीवारों पर बेल-बूटे, पशु-पक्षी, कीर्तिमुख आदि का तक्षण बड़ी सुन्दर रीति से किया गया है। आधुनिक मंडौर ग्राम तथा दुर्ग के मध्यवर्ती भाग में खुदाई में मिट्टी के कुम्भ मिले हैं, जिनमें से एक पर गुप्तलिपि में विखय (विषय) शब्द ख़ुदा है। दुर्ग के नीचे पंचकुंडा की ओर नरेशों की छतरियाँ, चूंडा जी का देवल तथा पंचकुंडा दर्शनीय हैं।

नागोदरी नदी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है ...नागोदरी नदी (AS, p.491) जोधपुर ज़िला, राजस्थान में जोधपुर रियासत की प्राचीन राजधानी मंडोर के निकट बहने वाली नदी है। मंडोर या मांडव्याश्रम में प्राप्त एक अभिलेख में शायद इसी नदी का उल्लेख है- 'मांडवस्याश्रमे पुण्ये नदीनिर्झर शोभते'

मण्डा गोत्र का इतिहास और मण्डोर

मारवाड़ में राठोड़ों के आगमन के समय जोधपुर के उत्तर में बसे वर्तमान मण्डोर ग्राम व मण्डोर गारडन के पास मण्डा गोत्र के जाटों का दुर्ग था और मारवाड़ के बड़े भू-भाग पर मण्डा जाटों का गणराज्य था। इतिहासकारों की मान्यता है कि रावण के श्वसुर राजा मन्द से ही मण्डा गोत्र का विकास हुआ है। राजा मन्द की पुत्री मन्दोदरी रावण की चरित्रवान पत्नी थी। मण्डा गोत्र के जाट किसी समय सिंध-बलोच प्रदेश में शक्तिशाली शासक रहे और पश्चिमी एशिया और यूरोप तक उपनिवेश बसाये। ऐसी भी मान्यता है कि ब्रिटेन का जार्ज वंश मण्डा से सम्बंधित है। मारवाड़ में राठोड सर्वप्रथम पाली में पालीवालों के शरणागत के रूप में आये थे तथा जार-जार हो चुके मण्डोर के मण्डा जाटों पर आक्रमण करके उनको वहां से बेदखल कर दिया। मण्डा वासणी, चुण्डासरिया, धीरासर, मान्डेता आदि गाँव उस समय मण्डा गोत्र के जाटों ने आबाद किये थे। सुजानगढ़ के पास मान्डेता नामक गाँव है जिसकी थेह में एक खेजड़े का पेड़ था। इस पेड़ से मण्डा गोत्र के जाटों का हाथी बंधता था। इस कारण यह पेड़ हाथी वाला खेजड़ा कहलाता था जिसका व्यास पांच हाथ मोटाई का था और पंद्रह हाथ अर्थात 25 फुट लम्बी रस्सी की लपेट की मोटाई उस खेजड़े के पेड़ की थी।[7]


कसवां जाटों के भाटों तथा उनके पुरोहित दाहिमा ब्रह्मण की बही से ज्ञात होता है की कंसुपाल पड़िहार संघ में सम्मिलित था। वह 5000 फौज के साथ मंडोर छोड़कर पहले तालछापर पर आए, जहाँ मोहिलों का राज था. कंसुपाल ने मोहिलों को हराकर छापर पर अधिकार कर लिया. इसके बाद वह आसोज बदी 4 संवत 1125 मंगलवार (19 अगस्त 1068) को सीधमुख आया. वहां रणजीत जोहिया राज करता था जिसके अधिकार में 125 गाँव थे. लड़ाई हुई जिसमें 125 जोहिया तथा कंसुपाल के 70 लोग मारे गए. इस लड़ाई में कंसुपाल विजयी हुए. सीधमुख पर कंसुपाल का अधिकार हो गया और वहां पर भी अपने थाने स्थापित किए. सीधमुख विजय के बाद कंसुपाल सात्यूं (चुरू से 12 कोस उत्तर-पूर्व) आया, जहाँ चौहानों के सात भाई (सातू, सूरजमल, भोमानी, नरसी, तेजसी, कीरतसी और प्रतापसी) राज करते थे. कंसुपाल ने यहाँ उनसे लड़ाई की जिसमें सातों चौहान भाई मरे गए. चौहान भाइयों की सात स्त्रियाँ- भाटियाणी, नौरंगदे, पंवार तथा हीरू आदि सती हुई. कंसुपाल की संतान कसवां कहलाई. फाल्गुन सुदी 2 शनिवार, संवत 1150, 18 फरवरी, 1094, के दिन कंसुपाल का सात्यूं पर कब्जा हो गया. फ़िर सात्यूं से कसवां लोग समय-समय पर आस-पास के भिन्न-भिन्न स्थानों पर फ़ैल गए और उनके अपने-अपने ठिकाने स्थापित किए. [8] [9]

प्रतिहार वंश में बुरड़क गोत्र

इतिहासकार महिपाल आर्य एवं प्रताप सिंह शास्त्री [10] लिखते हैं .... महाराजा बाऊक की संतान बुरड़क कहलाई. बुरड़क जाट क्षत्रिय गोत्र के लोग राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में आबाद हैं. मारवाड़ में मंडोवर नगर है, इस पर नाग, मौर्य तथा प्रतिहार जाटों का आधिपत्य रहा है तथा मंडा/मुंड गोत्र के जाटों ने भी यहां शासन किया है. प्रतिहारों के अनेकों वंशज जाटों में इस समय बुरड़क (बाऊक की संतान वाले), कुकणा (कक्क के वंशज), राजलिए (राजल की संतान) आदि नामों से अभिहित होते हैं. यहां यह बताना भी आवश्यक समझते हैं कि इन्हीं प्रतिहारों का एक दल आबू में जाकर ब्राह्मण धर्म में दीक्षित हुआ था, तभी से मंडोवर के परिहारों/प्रतिहार की दो शाखाएं हो गई- एक जाट परिहांर और दूसरी राजपूत परिहार. मौर्यों से प्रतिहारों अथवा परिहारों के हाथ मंडोवर आठवीं सदी में आई. ऐसे प्रमाण इतिहास में मिलते हैं राजा मयूरध्वज से राजा भोगभट्ट प्रतिहार ने राज्य हथिया लिया था. विक्रम की 11वीं शताब्दी में मंडावर परिहांरों के हाथ से निकल गया और उस पर पवारों का आधिपत्य हो गया. पवार जाटों ने एक समय सारे ही मरुधर प्रांत मारवाड़ पर अधिकार कर लिया था. जो नव कोटि मारवाड़ के नाम से अभिहित होता था.

विक्रम संवत 1002 (945 ई.) के पश्चात चौहान वंशीय (चौहान उपाधिधारी जाट) सहजपाल का आधिपत्य मंडोर पर हो गया और लगभग 100 वर्ष तक चौहान मंडोवर पर काबिज रहे.[11]

Ghatiyala (Mandor) Inscriptions of Kakkuka S.V. 918 (861 AD)

Verse 4 of our inscription tells us that Kakkuka erected two columns, one at Rohimsaka and the other at Maddodara (मडड़ोदर). Exactly the same information is conveyed by verse 21 of the Mata-ki-Sal record, excepting that for Rohimsaka we have there Rohimsakupa. Rohimsaka is undoubtedly the same as this Rohimsakupa or the Rohimsakupaka of our inscription. No.2 and is to be identified with Ghatiyala. Maddodara, it can scarcely be seriously doubted, is Mandor, five miles north of Jodhpur, which is locally believed to have been a seat of Pratihara power and is full of very ancient ruins, and where a fragment of a Pratihara inscription was discovered by me last season. The next verse informs us that the column on which the inscription has been incised was erected by Kakkuka. Precisely the same information is given by verse 21 of the Mata-ki-Sal inscription. Then follows the date Samvat 818, Chaitra-sudi a budhe Hasta-nakshatre, the same as that mentioned in the latter inscription. And further we are told that here a market was established, and the village peopled with mahajana, i.e. big folk. The very same thing is alluded to in verse 20 of the Mata-ki-Sal record. The inscription really ends here so far as the purport of it is concerned, but a verse follows which has something of the character of a subhashia. Its chief interest, however, lies in the fact that it was composed by Shri-Kakkuka himself, as the line in prose at the end informs us.

Another ancient name of Mandor is Mandavyapura mentioned in versa 10 of the Jodhpur inscription of the Pratihara Bauka. In the Progresst Report of the Archaeological Survey of India, Western Circle, for the just ending 31st March 1907, p. 80, I have said that though this inscription stone was found in the city wall of Jodhpur, it must originally have been at Mandor, as all stones for the fortification of the fort had been brought from the latter place. This conclusion is confirmed by the first pada of the verse just referred to, which is Mandavyapura. The word asmin show, that the stone originally was at Mandavyapura. Mandavyapura, again, is spoken of both as a city and fort, and Mandor remained so till the prince Jodha removed his capital from there to Jodhpur. Even to this day some of the portions of the ramparts of Mandor have been preserved. As the verse in question states that certain Pratihara brother princes erected ramparts round Mandavyapura fort, It is plain that it was in the possession of the feudatory Pratihara princes. This is also corroborated by the fact mentioned in the text that last season I found a part of a stone inscription belonging to the Pratiharas. In it the name of Kakka could be distinctly read, and some reference to his son made therein could also be traced. But who that son was KakkuKa or Bauka is not certain. The name Mandavyapura occurs even so late as V. 1319 in the Sundha Inscription of Chachigadeva.

Mandor Inscription of 12 c

मंडोर के खंड लेख १२ वीं शताब्दी - मंडोर से प्राप्त १२ वीं शताब्दी के एक लेख के १७ टुकड़े जोधपुर संग्रहालय में रखे हैं. [12]लेख की तिथि का भाग अप्राप्त है पर अनुमान है कि यह वि.सं. १२०२ के बाद रहा होगा. इस लेख में एक गांव दान दिया गया है जिसके उत्तर में सीयाहटी (सीहट - सोजत से ६ मील पूर्व) नामक गांव था. अभिलेख में विष्णु तथा लक्ष्मी की वन्दना की गई है. इसमें दान लेने वाले का नाम भट्ट स्वामी तथा देने वाले चौहान सहजपाल हैं.

Chittor Victory pillar Inscription of 1460 AD

चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति १४६० ई. [13] में इस गाँव का उल्लेख है. जहां कुम्भा का वर्णन हमें मिलता है वहां यह उल्लिखित है कि माण्डव्यपुर (मंडोर) से हनुमान की मूर्ति लाया और १५१५ वि.सं. में उसकी स्थापना दुर्ग के प्रमुख द्वार पर की. इसके अनन्तर कुम्भा द्वारा सपादलक्ष, नराणा, वसंतपुर और आबू जीतने का वर्णन है. महाराणा ने एकलिंगजी के मन्दिर के पूर्व की ओर कुम्भ-मंडप का निर्माण कराया. आगे चलकर मालवा और गुजरात की और सेना के प्रयाण का वर्णन मिलता है जो बडा रोचक है. इसी तरह जांगल प्रदेश तथा धुंकराद्रि और खंडेला की विजय के उल्लेख के साथ लेखक ने उस भाग की नैसर्गिक स्थिति पर भी प्रकाश डाला है. श्लोक १४६ में किसी शत्रु के पुर से (?) गणेश -मूर्ति को यहां लाकर स्थापित करने का उल्लेख है. इसी में डीडवाना की नमक की खान से कर लेना तथा विशाल सैन्य से खंडेले को तोड़ना भी उल्लिखित है.

Notable persons

  • Baga Ram Beniwal - Oil India Ltd. Ph:2577553, Mob; 9928528928.[14]
  • Ram Niwas (Sengwa) - Astrawale, Resident Mandor, C/O Bhagyoday Chhatrawas, Lal Sagar Road, Mob: 9214663081

External links

References

  1. Dr. Raghavendra Singh Manohar:Rajasthan Ke Prachin Nagar Aur Kasbe, 2010, pp. 125
  2. James Tod: Annals and Antiquities of Rajasthan, Volume II, Annals of Jaisalmer, p.225
  3. James Tod: Annals and Antiquities of Rajasthan, Volume II,Annals of Haravati,p.414-416
  4. Ram Swarup Joon| History of the Jats/Chapter V,p.73
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.687-88
  6. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.491
  7. भीमसिंह आर्य:जुल्म की कहानी किसान की जबानी (2006), मरुधर प्रकाशन, सुजानगढ़ (चूरू),p.206-207
  8. गोविन्द अग्रवाल, चुरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास, पेज 115-116
  9. Dr Pema Ram, The Jats Vol. 3, ed. Dr Vir Singh,Originals, Delhi, 2007 p. 203-204
  10. महिपाल आर्य एवं प्रताप सिंह शास्त्री: जाट इतिहास (जाट गोत्रावली) समकालीन संदर्भ, 2019, पृ.482-483
  11. आधार मारवाड़ का जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज, प्रकाशन 1954
  12. डा डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ.90
  13. डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ.146-147
  14. Jat Samaj, December 2009, p. 40

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