Mayasura

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(Redirected from Maya Danava)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Mayasura (मयासुर) was a great ancient king of the Asuras, daityas and rākṣasa races. Maya was known for his brilliant architecture. In Mahabharatha, Mayasabha – the hall of illusions – was named after him. The Meerut town may have derived its name from "Maya Rashtra", the capital of the kingdom owned by Mayasura.

Variants

Jat Gotras Namesake

History

Kings of Kamyaka forests:


Barnava, near Binauli is the site of the Lakshagriha, the lac palace that was built by Mayasura, the demon architect, to kill the Pandavas.


Ravana's wife Mandodari (in Ramayana) hailed from Meerut. The Meerut town may have derived its name from "Maya Rashtra", the capital of the kingdom owned by Mandodari's father Mayasura.

In the Mahabharata

Mayadanava (मयदानव) is mentioned in Mahabharata (II.3.1), (II.3.2), (II.3.11), (II.3.34),


Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 3 describes Mainaka Parvata, north of Kailasa near Bindusara lake and Mayadanava's obtaining Devadatta vanda material, shankha and Gandiva from Vrishaparva.

Mayadanava (मयदानव) is mentioned in Mahabharata (II.3.1)[4], (II.3.2)[5], (II.3.11)[6], (II.3.34)[7] ....Then Maya Danava addressed Arjuna, --'I now go with thy leave, but shall come back soon. On the north of the Kailasa peak near the mountains of Mainaka, while the Danavas were engaged in a sacrifice on the banks of lake Bindusara, I gathered a huge quantity of delightful and variegated vanda (a kind of rough materials) composed of jewels and gems. This was placed in the mansion of Vrishaparva ever devoted to truth. ....There is also a fierce club placed in the lake Bindusara by the King (of the Danavas) after slaughtering therewith all his foes in battle. Besides being heavy and strong and variegated with golden knobs, it is capable of bearing great weight, and of slaying all foes, and is equal in strength unto an hundred thousand clubs. It is a fit weapon for Bhima, even as the Gandiva is for thee. There is also (in that lake) a large conch-shell called Devadatta of loud sound, that came from Varuna. I shall no doubt give all these to thee. Having spoken thus unto Partha, the Asura went away in a north-easterly direction. On the north of Kailasa in the mountains of Mainaka, there is a huge peak of gems and jewels called Hiranya-sringa......Near that peak (Mainaka Parvata) is a delightful lake of the name of Bindusara. There, on its banks, previously dwelt king Bhagiratha for many years, desiring to behold the goddess Ganga, since called Bhagirathi after that king's name......Going thither, Mayasura brought back the club and the conch-shell and the various crystalline articles that had belonged to king Vrishaparva. And the great Asura, Maya, having gone thither, possessed himself of the whole of the great wealth which was guarded by Yakshas and Rakshasas. Bringing them, the Asura constructed therewith a peerless palace, which was of great beauty and of celestial make, composed entirely of gems and precious stones, and celebrated throughout the three worlds. He gave unto Bhimasena that best of clubs, and unto Arjuna the most excellent conch-shell at whose sound all creatures trembled in awe. And the palace that Maya built consisted of columns of gold, and occupied, O monarch, an area of five thousand cubits. ....And Maya having constructed such a palatial hall within fourteen months, reported its completion unto Yudhishthira.


Mayasura had befriended a snake named Takshaka and lived with him in the area of Khandavaprastha along with his family and friends but when the Pandavas came there after the partition of Hastinapur, Arjun burnt the entire forest, forcing Takshaka to flee away and killing everyone in the forest. So, Mayasura decided to surrender to the Pandavas. Krishna was ready to forgive him and for this act, Mayasura built a very grand palace named Maya-Mahal, where the Pandavas would perform the Rajsuya Yagna. He also offer him the gifts like, a bow, a sword and many more. He also gave a mace to Arjuna's brother Bhima.

In Ramayana

In Ramayana he is said to be the son of Daksha's daughter, Diti (wife of Kashyapa, a Saptaṛṣi).[8] He is the husband of Hema[9] and the foster father of Mandodari, the beautiful wife of Ravana, King of Lanka.[10]

मैनाक पर्वत

विजयेन्द्र कुमार माथुर[11] ने लेख किया है .... मैनाक पर्वत (AS, p.760): 1. कैलाश पर्वत (तिब्बत) के उत्तर में स्थित एक पर्वत--'उत्तरेण तु कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति, यियक्ष्यमाणेषु पुरा दानवेषु मयाकृतम्' महाभारत सभापर्व 3,2. इस पर्वत पर दैत्यों द्वारा किए जाने वाले यज्ञ का वर्णन है. युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के लिए, मयदानव मैनाक पर्वत पर से (बिंदुसर के पास से) एक विचित्र रत्न-भांड, देवदत्त नामक शंख तथा एक गदा लेकर आया था, 'इत्य उक्त्वा सॊ ऽसुरः पार्थं प्राग उदीचीम् दिशंगत:, आथो उत्तरेण तु कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति'. सभापर्व 3,9. इस ररत्न-भांड के द्रव्य से ही उसने युधिष्ठिर का अद्भुत सभाभवन निर्मित किया था. मैनाक पर्वत पर असुरों के राजा वृषपर्वा का अधिकार था. महाभारत वनपर्व 139,1 में मैनाक का उशीरबीज, श्वेत तथा कालबीज नामक पर्वतों के साथ उल्लेख है--'उशीरबीजं मैनाकं गिरिं शवेतं च भारत, समतीतॊ ऽसि कौन्तेय कालशैलं च पार्थिव'.

[p.761]: वाल्मीकि रामायण किष्किंधा कांड में भी इसी में मैनाक का वर्णन है. जहाँ इसे क्रौंच पर्वत के पार बताया गया है. इसी प्रसंग में कैलाश का उल्लेख है--'तत् तु शीघ्रम् अतिक्रम्य कांतारम् रोम हर्षणम्। कैलासम् पाण्डुरम् प्राप्य हृष्टा यूयम् भविष्यथ ॥४-४३-२०॥ क्रौन्चम् तु गिरिम् आसाद्य बिलम् तस्य सुदुर्गमम् । अप्रमत्तैः प्रवेष्टव्यम् दुष्प्रवेशम् हि तत् स्मृतम् ॥४-४३-२५॥ अवृक्षम् काम शैलम् च मानसम् विहग आलयम् । न गतिः तत्र भूतानाम् देवानाम् न च रक्षसाम् ॥४-४३-२८॥ स च सर्वैः विचेतव्यः स सानु प्रस्थ भूधरः । क्रौन्चम् गिरिम् अतिक्रम्य मैनाको नाम पर्वतः ॥४-४३-२९॥' किष्किंधा 43, 20-25-28-29. महाभारत की कथा के अनुसार ही वाल्मीकि रामायण में मयदानव का भवन बताया गया है--'मयस्य भवनम् तत्र दानवस्य स्वयम् कृतम् । मैनाकः तु विचेतव्यः स सानु प्रस्थ कंदरः ॥४-४३-३०॥' किष्किंधा 43,30 बाल्मीकि ने इस पर्वत पर अश्वमुखी स्त्रियों का निवास बताया है--'स्त्रीणाम् अश्व मुखीनाम् च निकेताः तत्र तत्र तु । तम् देशम् समतिक्रम्य आश्रमम् सिद्ध सेवितम् ॥४-४३-३१॥' किष्किंधा 43,31 संभव है मय से संबंध होने के कारण ही इस पर्वत को मयनाक या मैनाक कहा गया हो (मय+नाक, उच्चलोक)

मेरठ

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है .... मेरठ (AS, p.758): उत्तर प्रदेश में स्थित है. इसका प्राचीन नाम मयराष्ट्र था. किंवदंती के अनुसार इस नगर को महाभारत काल में मयदानव ने बसाया था. मयदानव उस समय का महान शिल्पी था तथा इसी ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में अद्भुत सभा भवन का निर्माण किया था. अर्जुन तथा कृष्ण ने खांडववन को जलाते समय यहां रहने वाले मयदानव की रक्षा करके उसे अपना मित्र बना लिया था. (देखिए आदिपर्व 233, सभा.1). संभवतः खांडव वन की स्थिति वर्तमान मेरठ के निकटवर्ती क्षेत्र में थी. जान पड़ता है कि वास्तव में खांडव वन दिल्ली के इंद्रप्रस्थ नामक स्थान के निकट (पुराने किले के आसपास) रहा होगा. क्योंकि पांडवों की राजधानी इंद्रप्रस्थ, इसी वन को जला डालने पर जो स्वच्छ भू-भाग प्राप्त हुआ था उसी में बसाई गई थी. किंतु यह भी संभव है कि यह वर्तमान दिल्ली से लेकर मेरठ तक के क्षेत्र में विस्तृत था.

11 वीं सदी में दौर क्षेत्रीय हरदत्त ने मेरठ को जीतकर यहां एक किला बनवाया जिसे कुतुबुद्दीन ने 1191 में जीत लिया. यहां एक बौद्ध मंदिर के भी अवशेष मिले थे. शाहपीर की दरगाह को नूरजहां ने बनवाया था. जामा मस्जिद, महमूद गजनी के वजीर हसन मेंहदी ने बनवाई थी (1019 ई.). इसकी मरमत हुमायूं ने करवाई थी.

खांडववन

विजयेन्द्र कुमार माथुर[13] ने लेख किया है कि....खांडवप्रस्थ के स्थान पर पांडवों की इंद्रप्रस्थ नामक नई राजधानी बनने के पश्चात अग्नि ने कृष्ण और अर्जुन की सहायता से खांडववन को भस्म कर दिया था. इसमें कुछ अनार्य जातियाँ जैसे नाग और दानव लोगों का निवास था जो पांडवों की नई राजधानी के लिए भय उपस्थित कर सकते थे. तक्षकनाग इसी वन में रहता था और यहीं मयदानव नामक महान यांत्रिक का निवास था जो बाद में पांडवों का मित्र बन गया और जिसने इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर का अद्भुत सभा भवन बनाया. खांडववन-दाह का प्रसंग महाभारत आदि पर्व 221 से 226 में सविस्तर वर्णित है. कहा जाता है कि मयदानव का घर वर्तमान मेरठ (मयराष्ट्र) के निकट था और खांडववन का विस्तार मेरठ से दिल्ली तक, 45 मील के लगभग था. महाभारत में जलते हुए खांडववन का बड़ा ही रोमांचकारी वर्णन है. (आदि पर्व 224,35-36-37). खांडववन के जलते समय इंद्र ने उसकी रक्षा के लिए घोर वृष्टि की किन्तु अर्जुन और क़ृष्ण ने अपने शस्त्रास्त्रों की सहायता से उसे विफल कर दिया.

पिप्पलगुहा

विजयेन्द्र कुमार माथुर[14] ने लेख किया है ..पिप्पलगुहा (AS, p.559), बिहार. पिप्पल गुहा राजगृह (बिहार) में 'वैभार' पहाड़ी के पूर्वी ढाल पर स्थित है. इसे जरासंध की गुहा भी कहते हैं. कुछ विद्वानों के मत में यह भारत की प्राचीनतम इमारत है. कहा जाता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर मगध राज जरासंध का प्रासाद था. कुछ पाली ग्रंथों के अनुसार प्रथम धर्म-संगीति का सभापति महाकश्यप पिप्पलगुहा में ही रहा करता था. बुद्ध एक बार महा कश्यप से मिलने स्वयं इस स्थान पर आए थे. युवान च्वांग ने भी इस गुहा का उल्लेख किया है तथा इसे असुरों का निवास स्थान माना है. महा [p.560] भारत में मय दानव की कथा से सूचित होता है कि असुरों या दानवों की कोई जाति प्राचीन काल में विशाल वास्तु रचनाएं निर्माण करने में परम कुशल थी. संभवत: पिप्पलगुहा की निर्मिति भी इन्हीं शिल्पियों ने की होगी. जरासंध की बैठक की दीवार असाधारण रूप से स्थूल समझी जाती है. इस इमारत के पीछे एक लंबी गुफा 1895 ई. तक वर्तमान थी. (देखें लिस्ट ऑफ एंशिएंट मोनुमेंट्स इन बंगाल-1895, पृ.262-263)

बिजनौर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[15] ने लेख किया है .....बिजनौर, उ.प्र. (AS, p.628): बिजनौर गंगा नदी के वामतट पर लीलावाली घाट से तीन मील की दूरी पर एक छोटा सा क़स्बा है। कहा जाता है कि इसे विजयसिहं ने बसाया था। दारानगर और विदुरकुटी यहाँ से 7 मील की दूरी पर स्थित है। ये दोनों स्थान महाभारत कालीन बताये जाते हैं।

स्थानीय जनश्रुति में बिजनौर के निकट गंगातटीय वन में महाभारत काल में मयदानव का निवास स्थान था। भीम की पत्नी हिडिंबा मयदानव की पुत्री थी और भीम से उसने इसी वन में विवाह किया था। यहीं घटोत्कच का जन्म हुआ था। नगर के पश्चिमांत में एक स्थान है जिसे हिडिंबा और पिता मयदानव के इष्टदेव शिव का प्राचीन देवालय कहा जाता है। मेरठ या मयराष्ट्र बिजनौर के निकट गंगा के उस पार है।

बिजनौर के इलाके को वाल्मीकि रामायण में प्रलंब नाम से अभिहित किया गया है। नगर से आठ मील दूर मंडावर है जहाँ मालिनी नदी के तट पर कालिदास के [p.629]: "अभिज्ञान शाकुंतलम" नाटक में वर्णित कण्वाश्रम की स्थिति परंपरा से मानी जाती है।

कुछ लोगों का कहना है कि बिजनौर की स्थापना राजा बेन ने की थी जो पंखे या बीजन बेचकर अपना निजी ख़र्च चलाता था और बीजन से ही बिजनौर का नामकरण हुआ।

External links

References

  1. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Parishisht-I, s.n. म-110
  2. O.S.Tugania:Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu,p.56,s.n. 2088
  3. An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan, H. W. Bellew, p.83,115
  4. अथाब्रवीन मयः पार्थम अर्जुनं जयतां वरम, आपृच्छे तवां गमिष्यामि कषिप्रम एष्यामि चाप्य अहम (II.3.1)
  5. 2 उत्तरेण तु कैलासं मैनाकं पर्वतं प्रति, यक्ष्यमाणेषु सर्वेषु दानवेषु तदा मया, कृतं मणिमयं भाण्डं रम्यं बिन्दुसरः प्रति (II.3.2
  6. यत्र यूपा मणिमयाश चित्याश चापि हिरन मयाः, शॊभार्थं विहितास तत्र न तु दृष्टान्ततः कृताः
  7. ईदृशीं तां सभां कृत्वा मासैः परि चतुर्दशैः, निष्ठितां धर्मराजाय मयॊ राज्ञे नयवेदयत (II.3.34)
  8. Uttara Ramayana https://archive.org/stream/TheRamayanaUttaraKandam/The_Ramayana_djvu.txt
  9. P. G. Lalye (2008). Curses and boons in the Vālmīki Rāmāyaṇa.
  10. Devahish Dasgupta. Tourism Marketing. Pearson Education India. p. 20. ISBN 978-81-317-3182-6.
  11. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.760-761
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.758
  13. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.256
  14. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.559-560
  15. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.628