स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/चतुर्थ अध्याय

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती

(आचार्य भगवानदेव)

(१९१०-२००३) का


जीवन चरित


लेखक
डॉ० योगानन्द
(यह जीवनी सन् १९८३ ई० में लिखी गई थी)



चतुर्थ अध्याय


ब्रह्मचर्य-शिक्षण शिविर

आचार्य जी ने अपने यौवन काल से ही एक ऊंचे और तपस्वी का जीवन व्यतीत किया है । नियम और व्रतों का पालन जिस श्रद्धा और कड़ाई से ये करते हैं वैसा हमने आज तक दूसरे किसी व्यक्ति को नहीं करते देखा । जिन लोगों ने आचार्य जी को निकट से देखा है वे इस बात की सत्यता से भलीभांति परिचित होंगे । सन् १९५० से पूर्व आचार्य जी गुरुकुल झज्जर के पुराने कुएं के पास बनी गुफा में कई घण्टे ध्यानमग्न रहते थे । इनका यह अभ्यास कई वर्षों तक चलता रहा । एक बार आपको सांप ने भी काट लिया था किन्तु नमक व मीठा न खाने का स्वभाव होने से उसका विशेष प्रभाव नहीं हुआ । जिस तरह का त्यागी, तपस्वी और व्रती जीवन इनका है उसी तरह की दिनचर्या और जीवन की अपेक्षा ये ब्रह्मचारियों से भी रखते रहे हैं । वास्तव में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन तलवार की धार पर चलने के समान तप है । यह तभी सफल होता है जब व्यक्ति हर क्षण इसके लिये चौकन्ना रहे ।


चरित्र वह थाती है जो व्यक्ति व राष्ट्र को आगे ले जाती है । ब्रह्मचर्य उसकी आधारभूमि है । इस कारण आचार्य जी ने गुरुकुल संभालने के कुछ दिन बाद ही जगह-जगह पर स्कूल व कालेजों में भी ब्रह्मचर्य शिक्षण शिविर लगाने प्रारम्भ कर दिये थे । सन् १९४७ की डावांडोल स्थिति के कारण तथा स्वयं उधर लगे रहने के कारण इनके शिविरों के कार्य में व्यवधान आ गया था किन्तु इन्होंने अब फिर वह नये सिरे से आरम्भ किया । ब्रह्मचारी हरिशरण जी इन शिविरों के आयोजन में प्रमुख भूमिका निभाते थे । वे स्वयं व्यायाम, आसन और लाठी, भाला आदि प्रशिक्षार्थियों को सिखलाते और आचार्य जी महाराज उनको उपदेश देते और ब्रह्मचर्य व चरित्र का महत्त्व बतलाते । शिविरार्थियों को नियमित समय पर प्रातः चार बजे उठाना, शौचादि से निवृत हो व्यायाम व संध्या यज्ञादि कराना सब बहुत नियमित होता । आचार्य जी के तेजस्वी व्यक्तित्व और ओजस्वी वाणी का मोहक प्रभाव होता । जो एक बार इन शिविरों में आ गया वह सदा के लिये इनका अनुयायी बन गया । इन शिविरों में ब्रह्मचर्य की शिक्षा देकर नवयुवकों को सच्चरित्र बनाया और उनको नैतिक उन्नति के मार्ग पर लगाया । इस शिक्षा का प्रभाव केवल विद्यार्थियों पर ही नहीं अपितु अध्यापक, प्र्धानाध्यापक और प्रिंसिपलों पर भे बहुत अधिक पड़ा । उस समय ऐसे अनेक स्कूल थे जो इसी प्रभाव के कारण गुरुकुलों की तरह चलते थे । इमलौटा आदि स्कूलों में गुरुकुलों जैसे ही नियम बन गये थे । दिल्ली, राजस्थान व हरयाणा में सैंकड़ों ऐसे अध्यापक हैं जिन्होंने इन शिविरों में प्रशिक्षण लेकर हजारों विद्यर्थियों के जीवन सुधारे हैं । ये सब अध्यापक आचार्य जी के विशेष सहायक बने और इन्होंने इनका सदा भरपूर साथ दिया । इन शिविरों के कारण पढ़े-लिखे लोगों की एक ऐसी शक्ति (फोर्स) खड़ी हो गई जो हर कार्य में सदा आगे रहती । इनमें श्री सुखदेव शास्‍त्री आसन, मास्टर रघुवीरसिंह जी छारा, मा० लज्जेराम जी समसपुर, मा० हरिसिंह ठींठ मिलकपुर, मा० महासिंह किड़हौली, स्व० पं० शिवकरण जी डीहकी, मा० भूपसिंह भागी, मा० राजेराम जी खातीवास, पं० नानकचन्द जी डालावास, सरदार इन्द्रसिंह जी, मा० कुन्दनसिंह जी रासीवास, मा० सरदारसिंह ठीठ मिलकपुर, प्रिंसीपल भगवानसिंह फरमाणा, प्रिंसीपल होशियारसिंह जी बाजीदपुर, मा० रोहतास माजरा डबास दिल्ली आदि विशेष उल्लेखनीय हैं ।


इन शिविरों के कार्यक्रम को स्थायित्व देने और इनमें आने वाले प्रशिक्षणार्थियों के स्वाध्याय के लिए आचार्य जी ने "ब्रह्मचर्य के साधन" (११ भाग) पुस्तक लिखी । इनकी 'ब्रह्मचर्यामृत' नामक पुस्तक तो इतनी अधिक लोकप्रिय हुई कि उसके लगभग दस संस्करण निकालने पड़े । लाखों नवयुवकों ने उसको पढ़ा और मार्गदर्शन पाया है । इन शिविरों का इतना अधिक प्रचार था कि सैंकड़ों नवयुवक इनमें भाग लेने के लिये उतावले रहते थे । इन शिविरों की शिक्षा ने अनेक ऐसे नवयुवकों के जीवन भी सुधारे हैं जो किशोरावस्था से ही कुटेवों में पड़कर अपने जीवन का सर्वनाश कर चुके थे, सर्वथा निराश और हताश थे । ऐसे युवकों के लिये ये शिविर जीवनदायिनी संजीवनी सिद्ध हुए । कालान्तर में आचार्य जी गुरुकुल व समाज के कार्यों में अधिक व्यस्त हो गये और शिविरों की परम्परा शिथिल पड़ गई । ब्रह्मचारी हरिशरण जी भी प्रचार के लिए उड़ीसा चले गये । वहां उन्होंने ईसाई मिशनरियों का मुकाबला किया और हजारों गरीब लोगों को धन के लालच में ईसाई बनने से बचाया । वहीं जादू के खेल दिखाते हुए गले में पड़े काले नाग ने (सांप) ने उनको काट लिया और वे हम से विदा हो गये । आचार्य जी पर भी अनेक कार्य आ पड़े । आज भी इस प्रकार के शिविरों की बहुत मांग है । सामाजिक कुरीतियों को समाप्‍त करने के लिये युवकों को तैयार करने का यह एक बहुत उत्तम माध्यम है । आचार्य जी ने इस प्रकार के छोटे-बड़े सैंकड़ों शिविरों का आयोजन किया था ।


सुधारक पत्र का संचालन

आचार्य जी महाराज एवं गुरुकुल का प्रभावक्षेत्र विस्तृत हो जाने पर एक ऐसे संचार माध्यम की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी जो दूर दराज तक गुरुकुल की गतिविधियों को पहुंचाने और वैदिक धर्म के प्रचार का सशक्त माध्यम बन सके । साथ ही जो युवकों को ठीक रास्ता दिखा सके और उनको देशभक्ति की भावनाओं से ओतप्रोत कर सके । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आचार्य जी ने सितम्बर १९५३ ई० में 'सुधारक' मासिक पत्र का प्रकाशन गुरुकुल झज्जर से प्रारम्भ किया । प्रथम वर्ष में ही इस पत्र के हजारों ग्राहक बन गये । अनेक व्यक्ति आजीवन ग्राहक भी बने । धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना का यह पत्र अग्रदूत बन गया । विशेषकर हरयाणा में इसका अधिक प्रसार हुआ । यह पत्र आज भी चालू है । इसमें बलिदानांक, गोरक्षा-अंक और गुरुकुल परिचयांक (जिसमें सभी गुरुकुलों का परिचय है) आदि अनेक खोजपूर्ण विशेषांक निकले । बलिदान[[1]] विशेषांक तो अपने आप में एक अनूठा खोजपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें सभी ज्ञात अज्ञात क्रांतिकारी शहीदों से सम्बन्धित सामग्री प्रभूत मात्रा में संकलित की गई है । औषध विज्ञान से सम्बन्धित भी कई अंक विशेष रूप से निकले हैं जो बहुत ही उपयोगी हैं और प्रशंसित हुये हैं । इनमें आचार्य जी महाराज द्वारा देसी उपचार से सम्बन्धित सर्पविष चिकित्सा, नेत्र चिकित्सा, अर्क, नीम, बड़, हल्दी, पीपल, सिरस आदि पुस्तकें जो पहले सुधारक के विशेषांक के रूप में निकली हैं, विशेष उल्लेखनीय हैं । इसका कालापानी विशेषांक भी बहुत महत्वपूर्ण था । इसमें वह खोजपूर्ण सामग्री प्रकाशित की गई थी जो आचार्य जी महाराज तथा मैंने अंडमान निकोबार में तीन सप्‍ताह रहकर एकत्र की थी । आचार्य जी की विदेश यात्राओं पर आधारित कई विशेषांक निकल चुके हैं जो ज्ञानवर्धन के लिये अत्यधिक उपयोगी हैं । इस प्रकार तीस वर्षों से यह पत्र निरन्तर जनता की सेवा कर रहा है ।

हरयाणा साहित्य संस्थान

स्वामी जी प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी को ग्रन्थ भेंट करते हुए

स्वामी जी महाराज बहुविध प्रतिभा के धनी हैं । इनका जीवन प्रारम्भ से ही कर्ममय रहा है । अकर्मण्यता को ये बहुत बड़ा अभिशाप मानते हैं । किसी भी कार्य को उनकी चरम सीमा तक पहुँचाने मे लिये घनघोर परिश्रम करना इनका स्वभाव है । जब अच्छे साहित्य का अभाव अनुभव हुआ तभी गुरुकुल में "हरयाणा साहित्य संस्थान" की स्थापना कर डाली । पुराने व दुर्लभ ग्रन्थ एकत्रित करने की प्रवृत्ति पहले से ही थी । धार्मिक व क्रांतिकारी साहित्य इनको सदा अभीष्ट रहा है ।


आर्य विद्यार्थी आश्रम नरेला में इन्होंने एक बड़ा पुस्तकालय बना लिया था । उसमें ऐसी अनेक पुस्तकें भी थीं जो अंग्रेज सरकार ने जब्त कर रखीं थीं । ऐसी पुस्तकों को आचार्य जी खोजकर अवश्य खरीदते थे । ऐसी जब्तशुदा पुस्तकें ये भुस्से के एक बूंगे में रखते थे और समय-समय पर अपने सहयोगियों व विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए देते थे । सरकार जानती थी कि ये इस प्रकार की पुस्तकें रखते हैं और इनका प्रचार भी करते हैं । इस कारण कई बार छापा पड़ा परन्तु पकड़े नहीं जा सके ।


उपराष्‍ट्रपति बी.डी. जत्ती स्वामी जी द्वारा लिखित ग्रन्थ का विमोचन करते हुए
श्री रामचन्द्र मार्तण्ड उपशिक्षामंत्री भारत, गुरुकुल झज्जर में

गुरुकुल का कार्य संभालने पर आचार्य जी ने वहां "विश्वम्भर वैदिक पुस्तकालय" की स्थापना की और उसमें लगभग ३० हजार पुस्तकों का संग्रह कर दिया । इनमें अप्राप्य वैदिक साहित्य तथा दुर्लभ ऐतिहासिक ग्रन्थ विशेष रूप से संगृहीत हैं । इसके साथ ही गुरुकुल की ओर से विभिन्न पुस्तकों का प्रकाशन भी चलता रहा किन्तु प्रकाशन के कार्य को व्यवस्थित रूप और तीव्र गति देने के लिये २८ फरवरी १९६० ई० में शिवरात्रि के अवसर पर यज्ञविधि के साथ "हरयाणा साहित्य संस्थान" की विधिवत् स्थापना की । इस संस्थान के द्वारा हिन्दी-संस्कृत के सैंकड़ों ग्रन्थों का प्रकाशन हो चुका है । लगभग एक लाख रुपया लगाकर सम्पूर्ण पातंजल व्याकरण महाभाष्य का प्रकाशन भी इस संस्थान ने किया है । आचार्य जी द्वारा स्वयं संगृहीत पुरातत्त्वीय सामग्री के आधार पर तीन महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ "वीरभूमि हरयाणा", "प्राचीन भारत के मुद्रांक" तथा "हरयाणा के प्राचीन लक्षण स्थान (टकसाल)" भी यहां से प्रकाश में आ चुके हैं । इनके अतिरिक्त उल्लेखनीय ग्रन्थों में आचार्य जी द्वारा लिखित ५० पुस्तकें तथा काशिकावृत्ति, अष्टाध्यायी, षड्दर्शनों का आर्यमुनिभाष्य, कुलियात आर्य मुसाफिर, निरुक्त, भारतैतिह्य, छन्दःशास्‍त्र, काव्यालंकार, व्याकरण कारिकाप्रकाश, लिंगानुशासन वृत्तिः, ब्रह्मचर्य शतकम्, दयानन्द लहरी आदि अनेक ग्रन्थ हैं । पं० दादा बस्तीराम ग्रन्थावली भी सम्पूर्ण छापी है । प्रकाशन के क्षेत्र में भी आचार्य जी ने वह बेजोड़ कार्य किया है जिसको हर कोई आदमी करने का साहस नहीं कर सकता । संस्कृत भाषा के ग्रन्थ प्रकाशित करना तो आर्थिक दृष्टि से अलाभकारी भी है तो भी स्वामी जी का संस्कृत अनुराग इस कार्य को करने में पीछे नहीं रहा । आर्थिक लाभ की दृष्टि से इन्होंने आज तक कोई कार्य किया ही नहीं । राष्ट्रहित और विद्यार्थियों की सुविधा के लिए आर्थिकहित का बलिदान करना इनकी आदत है । कदाचित् इसी कारण अर्थ इनके पीछे दौड़ता है । आज तक अर्थ के कारण इनका कोई कार्य रुका नहीं । इससे तो ऐसा लगता है कि जो धन के पीछे नहीं भागता, धन उसके पीछे भागता है और जो अर्थलोलुप होकर धन के पीछे भागता है, पैसा उसके आगे-आगे और अधिक तीव्रगति से भागता है और हाथ नहीं आता । यह सब प्रकृति का विचित्र खेल है । इस खेल में भी प्रभु इनके सहायक रहे और सम्भवतः इनको पहले ही समझाकर इस संसार में भेजा जिससे ये माया के मोह में नहीं पड़े । इन्होंने माया को साधन ही माना, साध्य कभी स्वीकार नहीं किया । यही रहस्य है इनके कार्य का । इस कारण जिधर भी इन्होंने हाथ बढ़ाया, कार्य होता चला गया किन्तु कार्य का श्रेय स्वयं अपने ऊपर कभी नहीं लिया । परम पिता परमात्मा को ही उसका वास्तविक कर्त्ता स्वीकार किया और स्वयं को उसका निमित्त मात्र माना । मानसिक धरातल की इस ऊंचाई के पीछे भी इनकी लम्बी तपस्या, स्वभावगत अप्रतिम त्यागभावना और सबसे बढ़कर अटूट ईश्वरभक्ति तथा श्रद्धा ही मुख्य कारण हैं ।

कन्या गुरुकुल की स्थापना

महर्षि दयानन्द जी महाराज ने बालकों की शिक्षा की तरह ही कन्याओं की शिक्षा पर भी बहुत बल दिया है । इनके अमर ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में इसका अनेक स्थलों पर उल्लेख है । इसी कारण आर्यसमाज ने स्‍त्री-शिक्षा के लिये सर्वप्रथम पहल की । "स्‍त्रीशूद्रौ नाधीयाताम्" जैसे अनर्थकारी नारों ने स्‍त्रियों की शिक्षा के द्वार सदियों से बन्द कर रखे थे । भारतीय समाज की जड़ता और जाति पर आधारित ब्राह्मणों के प्रति हिन्दुओं की अन्धश्रद्धा ने स्‍त्री जाति के इस बंधन को और अधिक कठोर बना डाला । महर्षि दयानन्द और राजा राममोहनराय कदाचित् पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस अभिशाप के विरुद्ध आवाज उठाई और स्‍त्री-शिक्षा का प्रबल समर्थन किया । आर्यसमाज द्वारा जगह-जगह कन्या पाठशालायें खोलीं गईं । समाज के प्रबुद्ध लोगों ने अपनी कन्याओं को इन पाठशालाओं में भेजना प्रारम्भ किया किन्तु कट्टरपंथी लोग बराबर इसका विरोध करते रहे । यह स्थिति बहुत दिन तक चलती रही । स्वतन्त्रता के कई वर्ष बाद तक बहुत कम लड़कियां स्कूल जातीं थीं । जिस समय स्वामी श्रद्धानन्द जी महाराज ने देहरादून में कन्याओं के लिये गुरुकुल खोला तो पौराणिक जगत् में इसका भारी विरोध हुआ था परन्तु उन्होंने इसकी परवाह नहीं की और गुरुकुल बहुत अच्छा चला । उनसे प्रेरणा ले आर्यसमाज ने इस दिशा में और अधिक तेजी से काम किया । आचार्य जी महाराज भी कन्या गुरुकुल खोलने का संकल्प किये हुये थे किन्तु जब तक गुरुकुल झज्जर को अच्छी अवस्था में न ले आये तब तक इन्होंने इस विचार को स्थगित किये रखा । १९५६ तक गुरुकुल झज्जर की स्थिति बहुत अच्छी हो गई थी, जैसा कि हम लिख चुके हैं । आचार्य जी के प्रभाव से पूरा हरयाणा गुरुकुल की सहायता करने लगा था । प्रबन्ध और अध्यापन कार्य भी गुरुकुल के विद्वान् स्नातकों ने संभाल लिया था । अब आचार्य जी को अपना संकल्प पूरा करने का ठीक अवसर जान पड़ा । वे योजना बना ही रहे थे कि एक दिन दिल्ली के किसी आर्यसमाज के उत्सव पर इनकी स्वामी व्रतानन्द जी महाराज से भेंट हुई । स्वामी जी ने अपने भाषण में कहा कि - चित्तौड़ की पावन भूमि में बालकों का गुरुकुल खोलकर मैंने जीवन का आधा कार्य तो कर दिया किन्तु जब तक मैं एक गुरुकुल कन्याओं के लिये नहीं खोलूंगा, मेरी आत्मा को शान्ति नहीं मिलेगी । इसके लिये उन्होंने आर्यजनता से सहयोग का भी आह्वान किया । उत्सव समाप्‍ति पर आचार्य जी ने स्वामी जी को अपनी योजना बताई और विचार-विमर्श किया। फलतः नरेला में कन्या गुरुकुल खोलने का निश्‍चय हुआ । आचार्य जी ने स्वामी जी को कहा कि मैं अपनी २१५ बीघा भूमि गुरुकुल को दान कर दूंगा । स्वामी व्रतानन्द जी की प्रसन्नता का ठिकाना न रहा । वे बोले - "आचार्यप्रवर ! तुम्हारे जैसे राष्ट्रपूतों की ही तो देश को आवश्यकता है । तुमने मेरे जीवन की साध पूरी कर दी है । भगवान् तुम्हें दीर्घायु प्रदान करे ।" यह घटना १९५२ की है । तब से आगे लगभग चार वर्ष तक इस योजना पर अधिक कार्य नहीं हो सका । अधिक दिन होते देख आचार्य जी ने अपने निकट सहयोगियों से परामर्श कर कन्या गुरुकुल की स्थापना की घोषणा कर दी । उस दिन हजारों लोग निश्‍चित भूमि पर एकत्रित हो गये । यह भूमि नरेला गांव से दो किलोमीटर उत्तर में स्थित है । बड़ी धूमधाम से वैदिक रीति से गुरुकुल की स्थापना हुई । आधारशिला आर्यजगत के प्रसिद्ध साधक स्वामी आत्मानन्द जी महाराज के करकमलों से रखी गई । इस अवसर पर स्वामी व्रतानन्द जी भी उपस्थित थे । उन्हीं की प्रेरणा पर आचार्य जी ने इस कन्या गुरुकुल रूपी महायज्ञ का प्रारम्भ किया था । पूज्य आचार्य जी महाराज ने स्वामी व्रतानन्द जी को कन्या गुरुकुल का आजीवन कुलाधिपति घोषित कर दिया । स्वामी व्रतानन्द जी की आंखों में आंसू छलक आये । उन्होंने कहा -


"कितना महान् है यह आचार्य भगवानदेव, जो सब कुछ स्वयं करके सब श्रेय मुझे दे रहा है ।" उन्होंने आचार्य जी के इस रूप को पहली बार देखा था । उपस्थित जनता पर उनके ये शब्द अमिट छाप छोड़ गये । "मैंने कभी स्वप्‍न में भी नहीं सोचा था कि दुनियां में ऐसे उदारचेता महामानव भी विद्यमान हैं । धन्य हैं आप लोग जो आपको आचार्य जी के रूप में एक देवता मिला है । मेरे पास यदि पांच व्यक्ति भी ऐसे हों तो मैं दुनियां को बदल डालूं, वेदों का नाद भूमंडल में गुंजा दूं । तप, त्याग और आत्मोत्सर्ग की इस प्रतिमूर्ति पर मैं अपना सब कुछ भी न्यौछावर कर दूं तब भी थोड़ा है ।"


स्वामी जी महाराज के ये शब्द वास्तव में दिल से निकले थे । २१५ बीघा ऐसी भूमि जो अनाज के रूप में सोना उगलती है, दान कर देना बहुत बड़ी बात है और वह भी आज के अर्थयुग में । आचार्य जी का भी भरा पूरा परिवार था । सब तरह की सम्पन्नता थी । दुनियां के दूसरे लोगों की तरह सिर पर हाथ रख आगे बढ़ने के लिये दरिया-दिल मां-बाप थे । इस अवसर पर आचार्य जी के भावों को यदि पं० रामप्रसाद बिस्मिल के शब्दों में लिखूं तो अधिक अच्छा है –


उरियानी न हैरानी न थे पांव में छाले,

हम भी थे कभी आह बड़े नाजों के पाले ।

हमने तो हमेशा तेरी खुशनुदी ही चाही,

खुद बिगड़े मगर काम तेरे सारे संभाले ॥


कन्या गुरुकुल की स्थापना तो हो गई परन्तु इसका भलीभांति संचालन करना बहुत कठिन कार्य था । किन्तु आचार्य जी की अतुल कर्मशक्ति पर लोगों को पूरा विश्वास था । स्थापना के कुछ दिन उपरान्त ही कन्याओं का प्रवेश प्रारम्भ हो गया । बहन ब्रह्मशक्ति और शान्तिदेवी ने गुरुकुल संभालने का संकल्प लिया । सबसे पहले जो कन्यायें प्रविष्ट हुईं वे थीं विभाकुमारी सुपुत्री चौ० सूबेसिंह गढ़ी बोहर तथा वेदज्योति सुपुत्री भगत दरियावसिंह हुमायूंपुर । स्नातिका बनने के उपरान्त विभा जी ने बहुत दिनों तक गुरुकुल में अध्यापन कार्य किया । उस समय गुरुकुल की जगह सर्वथा जंगल में थी । रात्रि में हिंसक पशुओं का भय बना रहता था । आचार्या ब्रह्मशक्ति आदि को कई बार कन्याओं की सुरक्षा के लिए रातभर जागना पड़ता था । यद्यपि आसपास के खेत वाले सभी कृषकों की गुरुकुल के प्रति अत्यधिक सहानुभूति थी और उनका सहयोग भी मिलता था । इस कारण चोरी आदि या किसी के प्रवेश की सर्वथा आशंका नहीं थी परन्तु हिंसक जानवरों का भय निरन्तर बना रहता था । कमरे भी अभी दो-तीन ही थे और चारदीवारी भी नहीं बनी थी । ऐसी स्थिति में उक्त दोनों बहनों ने जो तपस्या और कार्य किया वह इस गुरुकुल के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा । उनका काम नींव के पत्थर के समान है जिस पर पूरा भवन खड़ा होता है किन्तु वह दिखलाई नहीं देता ।


गुरुकुल जिस भूमि पर बनना था वह काफी ऊंची-नीची थी । सन् १९५२ से १९५६ तक बंजर पड़ी रहने के कारण बहुत सारे झाड़-झंखाड़ हो गये थे । भूमि को समतल करने के लिये हजारों रुपये व्यय करने पड़ सकते थे और बहुत व्यय के उपरान्त भी वह अपने इस रूप में नहीं आ सकती थी जिस रूप में आज है । इसके लिये चौ. हीरासिंह जी मुखमेलपुर वालों ने जो कार्य किया वह कभी नहीं भुलाया जा सकेगा । चौधरी साहब पुराने आर्यसमाजी और आचार्य जी के सहयोगी रहे हैं । स्वामी स्वरूपानन्द जी के साथ मिलकर इन्होंने और आचार्य जी ने कन्धे से कन्धा मिलाकर कांग्रेस के माध्यम से जो अद्‍भुत कार्य किया उसका उल्लेख हम पहले कर चुके हैं । चौधरी साहब इन दिनों दिल्ली डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन थे । उन दिनों दिल्ली में नगर निगम या दिल्ली महानगर परिषद् आदि कोई अन्य प्रशासनिक इकाई नहीं थी । बोर्ड का चेयरमैन ही सर्वेसर्वा था । चौधरी जी ने गुरुकुल भूमि को ठीक करने के लिये कई बुलडोजर भेज दिये । इन बुलडोजरों ने दिन-रात काम कर इस भूमि को ठीक किया । उन्होंने अपने इंजीनीयर भेजकर भूमि की ठीक नाप-जोख भी कराई । इंजीनियर मेहरा ने बड़े परिश्रमपूर्वक काम किया और मकान बनाने की योजना भी उन्होंने तैयार कर दी । गुरुकुल के कार्य में वैद्य कर्मवीर जी ने भी बढ़-चढ़कर भाग लिया । वे घर की चिन्ता छोड़ दिन-रात गुरुकुल की देख-रेख में जुटे रहे । इन दोनों ही सज्जनों का आज भी गुरुकुल को भरपूर सहयोग मिलता है । सन् १९५८ में सूबेदार धीरजसिंह जी भी गुरुकुल में आ गये । तब से आज तक सर्वथा निःस्वार्थ भाव से वे गुरुकुल के कार्य को सम्भाले हुये हैं । गुरुकुल की अन्दर की व्यवस्था का पूरा कार्यभार उन पर है । कहना चाहिये गुरुकुल के वे प्राण हैं । पूरा उत्तरदायित्व उन्हीं पर है । इस २१ वर्ष के लम्बे समय में वे शायद ही कभी गुरुकुल से बाहर रहे हों ।


आचार्य भगवानदेव जी कन्या गुरुकुल नरेला के अधिकारियों के साथ

आज कन्या गुरुकुल भारत-भर की एक जानी-मानी संस्था है । लगभग सभी प्रदेशों की कन्यायें यहां शिक्षा पा रही हैं । इस समय लगभग अढ़ाई सौ कन्यायें हैं । यहां भी गुरुकुल झज्जर की ही भांति आर्ष शिक्षा पाठविधि से शिक्षा दी जाती है । अब इसका सुरम्य प्राकृतिक वातावरण और सर्वोत्तम व्यवस्था अभिभावकों का मन मोह लेती है । इसी कारण अनेक कन्यायें यहां प्रवेश की प्रतीक्षा सूची में रहती हैं परन्तु सुव्यवस्था रखने के लिये अधिक कन्याओं को प्रवेश नहीं दिया जाता है । गुरुकुल के सुरम्य वातावरण में भव्य यज्ञशाला, विशाल भवन, गोशाला, संग्रहालय तथा रसायनशाला आदि विविध प्रवृत्तियां हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि गुरुकुल की विस्तृत चारदीवारी के अन्दर ही सब सुविधायें हैं । कन्याओं को बाहर जाने की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती । गुरुकुल में प्रवेश के बाद स्नातक होने तक कन्याओं को घर जाने के लिये भी अवकाश नहीं दिया जाता है । इस प्रकार यह गुरुकुल आचार्य जी की आशाओं का पूर्ण प्रतिविम्ब है । गुरुकुल में अध्यापन कार्य के लिये समय-समय पर गुरुकुल की अनेक विदुषी स्नातिकाओं के अतिरिक्त बहिन चन्द्रकला व डा० सुशीला आर्या तथा पं० देवेन्द्रनाथ शास्‍त्री, श्री धर्मव्रत शास्‍त्री, श्री राजवीर शास्‍त्री आदि ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । वर्तमान में गुरुकुल की आचार्या बहिन सुमित्रा जी एम० ए० हैं जो पिछले अनेक वर्षों से इस महान् कार्यभार को संभाले हुये हैं ।


पंजाब हिन्दी-रक्षा आन्दोलन

आचार्य जी का जीवन यौवनकाल से ही संघर्षपूर्ण रहा है । वैसे तो आज के युग में गुरुकुलों का संचालन और वह भी आर्ष पाठविधि से, अपने आप में समय और प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ एक बड़ा संघर्ष है । किन्तु इस रचनात्मक कार्य और आर्यसमाज के प्रचार-कार्य के अतिरिक्त भी समय-समय पर इनके सम्मुख बड़ी-बड़ी चुनौतियां व संघर्ष आये हैं और उस प्रत्येक संघर्ष में आचार्य जी और अधिक तेजोमय होकर निकले हैं । इनका जीवन संघर्षमय है, यह कहना संभवतः उतना सार्थक नहीं होगा जितना कि यह कहना कि संघर्ष ही इनका जीवन है अथवा इनका जीवन ही संघर्ष है । पंजाब का हिन्दी-रक्षा आन्दोलन भी इस जीवन की लम्बी दुर्धर्ष घटना है जिसने आचार्यप्रवर को जन-जन का नेता बनाया ।


आर्यसमाज अपने प्रारम्भिक काल से ही एक प्रमुख राष्ट्रवादी संस्था रहा है । इसी कारण इसने अपने कार्यक्रम में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार और प्रसार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया । स्वयं इसके संस्थापक महर्षि दयानन्द ने अपनी मातृभाषा गुजराती को छोड़ अपने सब ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत में ही लिखे । पंजाब में आर्यसमाज का प्रचार सर्वाधिक हुआ । इसलिए वहां हिन्दी के प्रति अनुराग स्वाभाविक था । अंग्रेजी शासनकाल में लगभग सारा कामकाज उर्दू में होता था परन्तु आर्यसमाजी व्यक्ति व संस्थायें सब काम हिन्दी भाषा में ही करती थीं । पंजाब विश्वविद्यालय में भी बहुत पहले से ही हिन्दी की रत्‍न, भूषण तथा प्रभाकर परीक्षायें होतीं थीं । इनमें प्रतिवर्ष हजारों छात्र बैठते थे । यह आर्यसमाज के प्रभाव का ही परिणाम था । स्वतन्त्रता-प्राप्‍ति तथा पंजाब विभाजन के उपरान्त उर्दू का स्थान हिन्दी को लेना चाहिये था परन्तु सिख-नेता पंजाबी को राज्य की राजकीय भाषा बनाना चाहते थे और उसके लिये ही कार्य कर रहे थे । इससे पंजाब के सिखेतर, हिन्दू और हरयाणा की जनता बहुत रुष्‍ट थी । क्योंकि वर्तमान हरयाणा जो उस समय पंजाब का ही एक भाग था, विशुद्ध हिन्दी-भाषी क्षेत्र था । इस तरह स्वतन्त्रता के तत्काल उपरान्त पंजाब में भाषा सम्बन्धी विवाद उठ खड़ा हुआ ।


इस भाषा विवाद को सुलझाने के लिये एक फार्मूला बनाया गया जो 'सच्चर फार्मूला' के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस समय श्री भीमसेन सच्चर पंजाब के मुख्यमन्त्री और गोपीचन्द भार्गव शिक्षा मन्त्री थे । इस फार्मूले के अनुसार हिन्दी पढ़ने वाले प्रत्येक बालक को पांचवीं कक्षा से पंजाबी पढ़ने और पंजाबी के छात्र को पांचवीं से हिन्दी पढ़ने की व्यवस्था की गई थी परन्तु इस पर अमल नहीं हो सका और विवाद चलता रहा । फिर पंजाब के तीन रीजनों (प्रादेशिक इकाइयों) की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुये एक 'रीजनल फार्मूला' बनाया गया । पंजाब के तीन रीजन थे - १. जालंधर डिवीजन २. अम्बाला डिवीजन और ३. पेप्सू - इसमें जीन्द, नाभा, पटियाला तथा फरीदकोट आदि पुरानी रियासतों के क्षेत्र सम्मिलित थे ।


रीजनल फार्मूले के अनुसार जालन्धर डिवीजन में पंजाबी भाषा प्रथम श्रेणी से ही अनिवार्य कर दी गई । वहां के स्कूलों में यदि किसी श्रेणी में १० या स्कूल में कुल ४० छात्र हिन्दी पढ़ने वाले हों तो उनको हिन्दी पढ़ने की छूट दी गई परन्तु पांचवीं से प्रत्येक छात्र के लिये पंजाबी अनिवार्य कर दी गई । अम्बाला डिवीजन के लिये भी पांचवीं से पंजाबी अनिवार्य और पेप्सू में केवल पंजाबी ही शिक्षा का माध्यम बना दी गई । सरकारी नौकरी के लिये मैट्रिक में पंजाबी अनिवार्य कर दी और राजभाषा भी पंजाबी बना दी गई ।


इस प्रकार 'रीजनल फार्मूला' हिन्दी-भाषियों के लिए एक बड़ी चुनौती बनकर आया । हरयाणा वाले भाग पर भी पंजाबी की अनिवार्यता लादना सरासर अन्याय था । जनता ने अनेक प्रकार से रोष प्रकट किया परन्तु सिक्खों के राजनीतिक दबाव के आगे जनता की कौन सुनने वाला था । उधर मास्टर तारासिंह सिक्ख राज्य का राग अलाप रहे थे और निरन्तर धमकियां दे रहे थे । केन्द्रीय सरकार भी उनको सन्तुष्ट रखने की नीति पर चल रही थी । राष्ट्रीय-जन जो कांग्रेसी थे, सरकार पर दबाव डाल रहे थे कि पंजाबी को राजभाषा मान लिया जाये तो मास्टर तारासिंह के विरोध का मुकाबला किया जा सकता है । इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए जून १९५६ में जालन्धर के साईंदास कालिज में पंजाब भर के आर्यनेताओं की एक विशेष बैठक हुई । उसमें स्वामी आत्मानन्द जी प्रधान आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, महात्मा आनन्द स्वामी जी, श्री आचार्य भगवानदेव जी, श्री जगदेव सिंह जी सिद्धान्ती मन्त्री आ० प्र० नि० सभा पंजाब, आचार्य रामदेव (स्वामी सत्यमुनि) जी, श्री यश सम्पादक मिलाप दैनिक, श्री वीरेन्द्र संपादक प्रताप दैनिक, लाला जगतनारायण सम्पादक हिन्द केसरी दैनिक, प्रिंसीपल सूरजभान, प्रिंसीपल भगवानदास, कै‍प्‍टन केशवचन्द्र तथा नारायणदास ग्रोवर आदि नेता उपस्थित थे । अन्तिम बैठक चंडीगढ़ में हुई । इसमें भी सभी प्रमुख आर्यनेता तथा सन्यासी उपस्थित थे ।


भाषा विभाग पंजाब के अधिकारियों के साथ आचार्य भगवानदेव जी

इस बैठक में गम्भीरता से विचार हुआ । अब तक पंजाब भर में सरकार की भाषा-नीति के विरुद्ध लाखों लोगों के हस्ताक्षर हो चुके थे । जनता में उग्ररोष व्याप्‍त था । बैठक में पंजाब वाले केवल पंजाबी की जबरदस्ती के खिलाफ प्रस्ताव पास करने के पक्ष में थे । श्री यश इस समय पंजाब के कैरों मंत्रिमंडल में थे । अतः कुछ नेता हिन्दी-रक्षा आन्दोलन चलाने से सहमत नहीं थे किन्तु जनता प्रबल आन्दोलन चाहती थी । आन्दोलन से असहमत नेताओं का समर्थन जब एक प्रसिद्ध सन्यासी भी करने लगे तो आचार्य जी को गुस्सा आ गया और वे कहने लगे - "हम तो समझते थे कि हम आर्य-सन्यासियों के बीच बैठे हैं जो स्वभाव से वीर होते हैं परन्तु यहां तो लगता है कि किसी दुकानदार ने कपड़े रंग लिये हैं । चलो हम हरयाणावासियों को पंजाबी कौन सी पढ़नी है ।" श्री आचार्य जी यह कहकर क्रोधित हो उठने लगे तो अन्य नेताओं ने उनको मनाकर बैठा लिया । परिणामस्वरूप अब सब एकमत होकर इस पक्ष के हो गये कि सत्याग्रह प्रारम्भ किया जाये और उसके लिये एक संचालन समिति गठित कर दी जाये । एक प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिले और सरकार को पूरी स्थिति से अवगत करा दे । यदि सरकार न माने तो आंदोलन प्रारम्भ कर दिया जाये । इस निश्‍चयानुसार एक 'हिन्दी रक्षा समिति' का गठन हुआ जिसके निम्नलिखित मुख्य पदाधिकारी चुने गये -


प्रधान - स्वामी आत्मानन्द जी महाराज

उप-प्रधान - प्रिंसीपल सूरजभान

प्रधान-मंत्री - श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती


इसके उपरान्त आर्यनेताओं का एक शिष्ट-मण्डल मुख्यमन्त्री सरदार प्रतापसिंह कैरों से मिला । इस समय प्रोफेसर शेरसिंह पंजाब के उप-मुख्यमंत्री थे । सरदार कैरों को मुख्यमंत्री बनवाने में इनका प्रमुख हाथ था । वार्ता में प्रोफेसर साहब भी थे । कैरों ने प्रोफेसर साहब की ओर अभिमुख हो कहा कि मैं हरयाणा पर से तो पंजाबी की अनिवार्यता अवश्य समाप्‍त कर दूंगा । यह बात सितंबर १९५६ की है । इस आश्वासन के कारण आंदोलन कुछ समय के लिए टल गया परन्तु जनवरी १९५७ में कैरों अपने वायदे से मुकर गया । कैरों ने प्रो० साहब से कहा कि आप हरयाणा वालों पर दबाव डालें कि वे आन्दोलन में भाग न लें । प्रो० साहब ने कहा कि आप अपने वचन से हट रहे हैं अतः मैं तो अब इस अवस्था में इन लोगों का साथ दूंगा । आगे चलकर इसी कारण प्रोफेसर साहब ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया और वे सत्याग्रह करके जेल चले गये । कई मास जेल में रहे ।


मुख्यमंत्री कैरों द्वारा अपना वायदा भंग किये जाने पर उत्पन्न स्थिति का सामना करने और पूर्व निश्‍चयों का पुनर्वलोकन करने तथा भावी योजना को मूर्तरूप देने के लिये समिति के प्रधान स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने चंडीगढ़ में समिति की बैठक बुलाई । इस बैठक में सभी आर्य-नेताओं ने मिलकर आन्दोलन की रूपरेखा को अन्तिम रूप दिया और चण्डीगढ़ में ही तुरन्त सत्याग्रह करने का निश्‍चय हुआ । तदनुसार ३० जून को स्वामी आत्मानन्द जी महाराज अन्य आर्यनेताओं के साथ सद्‍भावना यात्रा पर चंडीगढ़ पहुंचे । सरदार प्रतापसिंह कैरों ने उनके पैर छुये परन्तु स्वामी जी की सात मांगों में से उन्होंने किसी को न तो माना और न ही अस्वीकार किया । टाल-मटोल कर स्वामी जी को सरकारी गाड़ी से यमुनानगर वापिस भिजवा दिया । ७ जून सन् ५७ ई० तक स्वामी जी ने तीन सद्‍भावना यात्रायें कीं किन्तु परिणाम कुछ न निकलता देख १० जून को आन्दोलन प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी । सबसे पहले स्वामी आत्मानन्द जी ने ही सत्याग्रह किया । उनके जत्थे में महात्मा आनन्दभिक्षु जी व स्वामी वेदानन्द जी आदि भी थे । धड़ाधड़ सत्याग्रही जत्थे पहुंचने लगे । सत्याग्रह जोर पकड़ने लगा । सरकार घबराने लगी और सत्याग्रहियों को हतोत्साहित करने के लिये तंग करने और दूर बीहड़ जंगलों में छोड़ने लगी । इधर सत्याग्रह को व्यापक बनाने के लिये आन्दोलन की बागडोर सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा को सौंप दी गई । सभा में 'भाषा स्वातन्त्र्य समिति' का गठन हुआ जिसके प्रधान श्री घनश्यामदास गुप्‍त व श्री रघुवीरसिंह शास्‍त्री चुने गये ।


हरयाणा में आन्दोलन की बागडोर श्री आचार्य भगवानदेव जी को सौंपी गई । पश्चिमी उत्तर प्रदेश और राजस्थान का उत्तरदायित्व भी इन्हीं पर छोड़ा गया । आचार्य जी ने प्रत्येक जिले का कार्यभार अलग-अलग व्यक्तियों को सौंप दिया । करनाल जिले में स्वामी रामेश्वरानन्द जी, हिसार में स्वामी ईशानन्द जी, रोहतक में स्वामी नित्यानन्द जी, महेन्द्रगढ़ में स्वामी अमरानन्द जी और गुड़गांव जिले में स्वामी सन्तोषानन्द जी को नियुक्त कर दिया और हरयाणा की सर्वोच्च कमान स्वयं सम्भाली । आचार्य जी ने जगह-जगह जलसे करके आन्दोलन को जन-जन तक पहुंचा दिया । पहलवान श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी बलियाणा के साथ मोटर-साइकिल पर सवार होकर दिन-रात भाग-दौड़ करके आचार्य जी ने हरयाणा में आन्दोलन की वह अग्नि प्रज्वलित की जिससे पंजाब सरकार कांप उठी । कोने-कोने में सत्याग्रही जत्थे चंडीगढ़ की ओर चल पड़े । शुरू में ये सब जत्थे पैदल चलकर गांव-गांव होते हुये निकले । प्रत्येक गांव में सत्याग्रहियों का भव्य स्वागत हुआ । आचार्य जी आगे जाकर पहले से ही जत्थों की सब व्यवस्था कर देते थे । परिणामस्वरूप हरयाणा के गांव-गांव में सत्याग्रह के लिये भारी उत्साह उमड़ पड़ा । जब सत्याग्रही बहुत अधिक बढ़ गये तो रोहतक में भी सत्याग्रह केन्द्र खोलना पड़ा । २८ जुलाई सन् १९५७ के दिन अनाज मंडी रोहतक में एक विराट् सभा हुई । इसी सभा के बाद स्वामी रामेश्वरानन्द जी को गिरफ्तार कर लिया गया । जनता में भारी उत्साह और रोष की लहर दौड़ गई ।


स्वामी आत्मानन्द जी आदि से परामर्श कर श्री आचार्य जी महाराज ने रोहतक में सत्याग्रह का मोर्चा खोलने के लिये ३० जुलाई की घोषणा कर दी और हरयाणा की जनता से उस दिन भारी संख्या में रोहतक पहुंचने का आह्वान किया । फलस्वरूप यह दिन रोहतक के इतिहास में एक ऐतिहासिक दिन सिद्ध हुआ । इस दिन जिलाधीश की कोठी पर सत्याग्रह किया गया । उस दिन ५० हजार आदमी रोहतक में सत्याग्रह के लिये पहुंचे । लाखों दर्शक अपने घरों से बाहर आकर इस अभूतपूर्व दृश्य को देखने लगे । रोहतक शहर की हर सड़क और गली आदमियों से भरपूर थी । छतों और छज्जों पर भी आदमी लदे थे । भीड़ को पुलिस नियंत्रण में न कर सकी और वह पुलिस की नाकेबन्दी तोड़कर पुलिस लाइन में घुस गई । पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया । इससे ७ सत्याग्रही घायल हो गये । लोगों में रोष हिलोरें मारने लगा परन्तु नेताओं ने भीड़ को अहिंसक बनाये रखा । जिस उत्साह के साथ सत्याग्रही नारे लगाकर आकाश को गुंजा रहे थे वह देखने योग्य था । सरकार के लिए बड़ी ही शर्म और दुविधा की स्थिति थी । हर आदमी उस दिन अपने आपको गिरफ्तार कराना चाहता था किन्तु पुलिस एक को भी गिरफ्तार नहीं करना चाहती थी ।


मुझे अच्छी तरह याद है मैं उस समय भदानी गांव के स्कूल की छठी श्रेणी में पढ़ता था । मैंने देखा उस दिन प्रातः-प्रातः सैंकड़ों आदमी हमारे घर आये और पिता जी से स्वयं सत्याग्रह में चलने का वायदा करने लगे । इनमें अनेक व्यक्ति ऐसे थे जिनका आर्यसमाज या सामाजिकता से किसी प्रकार का कोई नाता नहीं था फिर भी वे अपने आप इस आन्दोलन में कूदने और सत्याग्रह कर जेल जाने को तैयार थे । इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि यह आन्दोलन किस प्रकार घर-घर तक ही नहीं, जन-जन तक पहुंच गया था । उस दिन गिरफ्तार न किये जाने पर घर लौटकर वापिस आये लोगों का पश्चाताप आज भी ज्यों का त्यों मेरी आंखों के सामने है । इस दिन के बाद हरयाणा में और अधिक दमनचक्र प्रारम्भ हुआ । अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और वारंट जारी किये गये । ऐसे में सत्याग्रह को चलाना बड़ा कठिन कार्य था परन्तु आचार्य जी की रणनीति ने सरकार के सब हथकंडे विफल कर दिये । उनको ऊपर से यह हिदायत मिली कि वे गिरफ्तार होने से बचें और भूमिगत रहकर सत्याग्रह का संचालन करें । किसी भी सत्याग्रह के सफल संचालन के लिये ऐसे व्यक्तियों का बाहर रहना अत्यावश्यक होता है जिनकी जड़ें जमीन में हों और जिनके इशारे पर लोग आत्मोत्सर्ग के लिये तैयार रहें । ऐसे समय में जबकि सत्याग्रह अपने यौवन पर होता है, प्रत्येक व्यक्ति जेल जाकर जीवित शहीद बनने का प्रयास करता है । वह इस लोभ का संवरण नहीं कर पाता । क्योंकि जेल जाकर आराम से रहा जा सकता है । बाहर रहकर लोहे के चने चबाने पड़ते हैं और आन्दोलन की सफलता के लिये दिन-रात एक करना पड़ता है । पूज्य स्वामी आत्मानन्द जी आदि सभी जानते थे कि आचार्य जी महाराज का बाहर रहना आवश्यक है । इसीलिये उन्होंने आचार्य जी के पास बाहर रहने के लिये बार-बार अपना आदेश भिजवाया ।

कन्या गुरुकुल की कुड़की

आचार्य जी पर अनेक झूठे केस पंजाब सरकार ने बनाये । रोहतक के डिप्टी-कमिश्नर की कोठी पर डाका डालने और उसकी लड़की की चप्पलें चुराने जैसे असत्य, घिनौने और शर्मनाक केस उन पर बना दिये गये जिससे गिरफ्तार होने पर इनको आसानी से मुकदमों में उलझाया जा सके । इसके अतिरिक्त इनकी गिरफ्तारी के लिए कई इनाम घोषित किये गये । कन्या गुरुकुल नरेला की भूमि को कुड़क कराने के आदेश दे दिये गये । २० अगस्त को इनके अपने पैतृक मकान को भी जब्त करने का नोटिस दरवाजे पर चिपका कर मकान को सील (मोहरबन्द) कर दिया । पंजाब, दिल्ली, राजस्थान और उत्तरप्रदेश की पुलिस को आचार्य जी की गिरफ्तारी के लिये सतर्क कर दिया गया ।


आन्दोलन के प्राण

हिन्दी रक्षा सत्याग्रह में आचार्य भगवानदेव भूमिगत रूप में

श्री आचार्य जी ही ऐसे नेता थे जिनसे सरकार सबसे अधिक भयभीत थी । क्योंकि गुप्‍तचर पुलिस की रिपोर्ट से उसको पता चल गया था कि इस आन्दोलन का प्राण कौन है और वह किस प्रकार से आन्दोलन को चला रहा है । परन्तु आचार्य जी महाराज सावधानी से भूमिगत रहकर दिन-रात कार्य में जुटे थे । वे गुरुकुल तथा सम्पत्ति कुड़क किये जाने की बात सुनकर तनिक भी विचलित नहीं हुये । ३० जुलाई को जिस दिन उन्होंने रोहतक में मोर्चे का शुभारम्भ किया उसी दिन दयानन्द मठ में अपने सहयोगी महाशय भरतसिंह आदि के साथ बैठकर आगे के दो मास के सत्याग्रही जत्थों की व्यवस्था उन्होंने पहले ही कर दी थी । इसके अतिरिक्त भी कई-कई नये जत्थे वे प्रतिदिन भेज रहे थे । सत्याग्रही जत्थों के रूप में आचार्य जी के कार्य को देखकर केवल पंजाब पुलिस ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण पंजाब सरकार दंग थी कि यह व्यक्ति कहां से और कैसे यह सब कर रहा है ? सरकार के सामने यह एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न था जो अन्त तक बरकरार रहा । उन दिनों हरयाणाभर में आबाल वृद्धों में आचार्य जी का नाम चर्चा का विषय था । प्रतिदिन उनके बच निकलने और धुंआंधार कार्य करने की कहानियां सुनी जाती थीं । हम गांव के बच्चों तक में आचार्य जी की चर्चा होती थी । कभी सुनते आचार्य जी आज अमुक वेष बदलकर पुलिस को चकमा देकर निकल गये तो कभी दूसरा वेष बदलने की बात सुनते । एक दिन तो सुना कि वे एक गांव में घिर गये तो उनको हरयाणवी स्त्रियों का घाघरा, कुर्ता और ओढ़ना (पीलिया) पहनकर पुलिस के घेरे से निकलना पड़ा । अब जब हमने उनसे इस संबन्ध में पूछा तो पता चला कि यह तो सत्य है कि अनेक बार पुलिस से बाल-बाल बचे परन्तु बहुत अधिक वेश बदलने की बातें तो अफवाहें थीं । उन दिनों इतना तो अवश्य करना पड़ा कि कटिवस्त्र और ऊपर धारण की जाने वाली चद्दर (उत्तरीय) को छोड़कर वे धोती कुर्ता पहनने लगे । कई बार टोपी भी लगा लेते थे । कभी नंगे सिर तो कभी साफा भी पहन लेते थे । क्योंकि पुलिस के पास आचार्य जी का जो फोटो था वह दाढ़ी वाला था, अतः उन दिनों दाढ़ी भी कटा दी थी । अधिकांशतया साईकल का प्रयोग करते थे क्योंकि अन्य किसी वाहन में बैठने से पकड़े जाने का भय होता था । कई बात तो ५० मील तक साईकल चलानी पड़ती थी । कई बार लगातार जागना तो बहुधा हुआ । अनेक बार भूखे रहकर भी भागते रहते थे परन्तु एक पक्का नियम था - प्रो० शेरसिंह, चौ० देवीलाल आदि को प्रतिदिन के ठिकानों की सूचना करा देते थे और ये दोनों तथा अन्य विशेष व्यक्ति हर दूसरे तीसरे दिन श्री आचार्य जी से मिलकर निर्देश लेते और आगे की योजना बना लेते थे परन्तु यह सब इतना गुप्‍त होता था कि किसी अन्य व्यक्ति को उसकी गन्ध तक नहीं मिल पाती थी ।


एक बार न जाने कैसे पुलिस को पता चल गया कि श्री आचार्य जी रोहणा में हैं । पुलिस ने रोहणा गांव की नाके-बन्दी कर ली और जहां बैठकर आचार्य जी आस-पास के गांवों मे लिये योजना बना रहे थे वे उस घर में भी जा पहुंचे । आचार्य जी को भी पता चल गया । पुलिस के थानेदार का कदम जब घर के बाहर वाले दरवाजे की दहलीज पर था तो आचार्य जी बराबर के दरवाजे से निकल रहे थे । वे महाशय दरियावसिंह रोहणा के साथ बड़ी कठिनाई से उस दिन बच पाये । पुलिस ने उस मकान का घेरा डाल लिया और चप्पा-चप्पा खोज डाला परन्तु आचार्य जी तो निकल चुके थे । वहां से वे कई स्थानों से होते हुए गांव मुखमेलपुर (दिल्ली) पहुंचे । यहां चौ० हीरासिंह जी के यहां रहे । तीन-चार दिन रहकर दिल्ली देहात से जत्थे भेजने की व्यवस्था की । जहां भी वे रुकते वहां शौच स्नानादि के लिये भी सूर्यास्त होने के उपरान्त अंधेरा होने पर ही निकलते थे । बहुत अधिक सावधानी बरतनी पड़ती थी । सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा की ओर से श्री आचार्य जी महाराज को २० साइकलें मिलीं थीं । वे इन्होंने अपने विशेष कार्यकर्त्ताओं को सौंप दीं जो आचार्य जी के आदेशानुसार कार्य कर सत्याग्रह की तैयारी करते थे । उन और उन सरीखे अन्य लोगों के माध्यम से आचार्य जी पूरे आन्दोलन को चला रहे थे । पहले तीन-चार महीने तो स्वयं आचार्य जी भी दौड़ते रहते थे किन्तु ज्यों-ज्यों इनकी गिरफ्तारी के लिये अधिकाधिक सरगर्मियां बढ़ती गईं, इनको अपनी गतिविधियां सीमित कर कार्य की शैली बदलनी पड़ी और उपर्युक्त कार्यकर्त्ता ही कार्य का मुख्य माध्यम बन गये । मुखमेलपुर के बाद श्री आचार्य जी यमुना पार कर उत्तरप्रदेश में चले गये और वहां भी सत्याग्रह की धूम मचा दी । पहले से ही यहां पर आचार्य जी का पर्याप्‍त सम्पर्क बना हुआ था । अतः कार्य में आसानी हुई । यहां भैरा गांव के पास यमुना पर एक कुटिया में कुछ समय रहे । यहां रात्रि में एक दिन श्री जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती आचार्य जी से मिलने गये । विस्तार से बातें हुईं और दोनों नेताओं ने भावी योजना की रूपरेखा तैयार की ।


भैरा से श्री आचार्य जी अग्रवाल मंडी (मेरठ जिला) पहुंचे । यहां से ये महाशय प्यारेलाल आर्य सुपुत्र लाला मौजीराम के यहां रहे । वहां से अनेक जत्थे भिजवाये । जहां से भी अधिक जत्थे सत्याग्रह के लिये आने लगते थे, सरकार तुरन्त समझ जाती थी कि आचार्य भगवानदेव जी को उसके आस-पास यहीं होना चाहिये इसलिये वहां पुलिस की सरगर्मी और खुफिया गतिविधियां बढ़ जातीं थीं । यह देख आचार्य जी भी स्थान बदल देते और पुलिस के हाथ नहीं आते थे । ये सरकार के लिये बहुत बड़ा सिरदर्द बन गये थे ।


अग्रवाल मंडी से ये आदर्श नंगला पहुंचे । वहां चौ० मनीराम आर्य मुखिया सुखवीर शास्‍त्री के यहां ठहरे । वहां से सूप गांव, एलम में चौ० रघुवीरसिंह के यहां तथा रसूलपुर में चौ० आशाराम जी के यहां ठहरते हुये सौरों में चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत के पास रुके । वहां से गोहरनी गांव में महाशय कदमसिंह के यहां ठहरते हुये गुरुकुल बणत भी गये । आचार्य जी जहां भी दो-तीन दिन ठहरते वह स्थान सत्याग्रह छावनी का रूप ले लेता और वहीं से जत्थे चंडीगढ़ और रोहतक को चल पड़ते । इन दिनों आचार्य जी रसूलपुर जट्ट (मुजफ्फरनगर) में चौ० आशाराम जी के पास ठहरे हुये थे । उन्होंने आचार्य जी को उड़द की दाल और घी श्रद्धावश पौष्टिक समझकर खिलाया । वह आचार्य जी के अनुकूल नहीं रहा । दिन-रात भाग-दौड़ में निद्रा और विश्राम की कमी तथा प्रतिकूल भोजन के कारण आचार्य जी अस्वस्थ हो गये । ज्वर के साथ खांसी ने दमकसी का रूप धारण कर लिया । आचार्य जी की बीमारी की सूचना पाकर पं० वेदव्रत जी गुरुकुल झज्जर से रसूलपुर जट्ट पहुंचे । विचार-विमर्श के पश्चात् स्वास्थ्य के लिये शुष्क जलवायु वाले स्थान की आवश्यकता अनुभव की गई और वेदव्रत जी आचार्य जी को अपनी जन्मभूमि चिड़ावा (राजस्थान) ले गये ।


मुजफ्फरनगर से मेरठ, दिल्ली, रेवाड़ी, लुहारू होकर चिड़ावा जाने का सीधा और छोटा मार्ग था किन्तु पंजाब सरकार के गिरफ्तारी वारंटों के कारण मुजफ्फरनगर से हाथरस, भरतपुर, जयपुर, सीकर, झूंझनूं होकर लम्बे रेल-मार्ग द्वारा चिड़ावा पहुँचे । वहां पर श्री बृजलाल जी आर्य के पास ठहरे । कुछ दिन पश्चात् उनके गांव घासीकाबास (पो० नूनियां गोठड़ा, जि० झुंझनूं) चले गये और वहां लगभग एक मास ठहरे । पं० वेदव्रत जी उस समय गुरुकुल झज्जर के सहायक मुख्याधिष्ठाता थे । गुरुकुल के संचालन का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व इन्हीं पर था । आचार्य जी की गिरफ्तारी के लिये गुरुकुल झज्जर में भी पुलिस चक्कर लगाती रहती थी । गुरुकुल के मुख्यद्वार पर गिरफ्तारी का नोटिस भी चिपकाया गया था । ऐसे समय में आचार्य भगवानदेव जी के कारण गुरुकुल झज्जर की सम्पत्ति को सरकार की कुड़की आदि से बचाने के लिये आचार्य जी ने विद्यार्य सभा गुरुकुल झज्जर के प्रधान श्री कप्‍तान रामकला को अपना त्याग-पत्र दे दिया था और उन्होंने पं० वेदव्रत जी को गुरुकुल का आचार्य एवं मुख्याधिष्ठाता नियुक्त कर दिया था ।


गोठड़ा में एक विचित्र घटना हुई । श्री बाबू रघुवीरसिंह जी (बहु अकबरपुर) तथा श्री चौ० ओमप्रकाश जी (बलियाणा) आचार्य जी से मिलने नूनियां गोठड़ा पहुँचे । ये मोटर-साइकिल से गये थे किन्तु वह मार्ग में ही खराब हो गई थी अतः इन्होंने उसको पूलियों की एक छ्‍योर में डाल दिया और पैदल ही गोठड़ा पहुँचे । वहां गजाधर जी आदि ने जब इनसे पूछा कि आप कहां से आये हैं तो इन्होंने कह दिया कि हम झज्जर से आये हैं । इनमें से एक ने अपना नाम वेदव्रत बताया । इससे उनको सन्देह हो गया कि ये दोनों अवश्य पंजाब गुप्‍तचर विभाग के हैं और आचार्य जी को गिरफ्तार कराने आये हैं । सन्देह होना इसलिये स्वाभाविक था क्योंकि श्री वेदव्रत जी इनके भाई थे जहां आचार्य जी रुके थे और वे गुरुकुल झज्जर के अधिष्ठाता थे अतः वे समझते थे कि वेदव्रत जी के नाम की सूचना आचार्य जी के पास पहुंचेगी तो वे हमें तुरन्त मिलने के लिये बुला लेंगे । इनको क्या पता था कि नमाज बख्शे जाने पर रोजे भी गले पड़ जायेंगे । जब श्री गजाधर आदि ने सुना कि इन में से एक अपने आपको वेदव्रत बतला रहा है तब उन्हें इन पर पूर्ण सन्देह हो गया । गजाधर आदि ने इनको कहा कि आप बैठें और पड़ोस के अनेक सहयोगियों को बुला लिया । बाबू रघुवीरसिंह जी सरकारी सर्विस में हैं, उन्होंने समझा कि यह राजस्थान की कोई पुलिस चौकी है और यहां फंस गये तो कल ड्यूटी पर जाना कठिन हो जायेगा, अतः वहां से चल पड़े । उनको जाता देखकर गजाधर ने उन्हें पकड़ लिया । जब बाबू जी छुड़ा कर भागने लगे तो उनकी जंघा पर चाकू का वार किया गया । बाबू रघवीरसिंह जी वहां से छुड़ाकर पैदल ही भागते दौड़ते १० किलोमीटर दूर पिलानी पहुंचे । वहां से प्रातःकाल पहली बस द्वारा रोहतक पहुँचकर अपने कार्यालय में जाकर हाजरी लगाई और वेदव्रत जी के पास गुरुकुल झज्जर सूचना भिजवाई । वेदव्रत जी उस दिन गोशाला के लिये चारा संग्रहार्थ मातनहेल गये हुये थे । ब्र० हरिशरण जी ने वहां जाकर उन्हें सूचना दी और वे आचार्य जी के पास राजस्थान गये ।


मिस्‍त्री ओमप्रकाश जी ने अपना नाम गांव आदि बतलाया और अपना ड्राइवरी लाइसेंस भी दिखलाया तब वास्तविकता का ज्ञान हुआ । वहां से एक किलोमीटर दूर घासीकाबास में श्री बृजलाल जी के कुएं पर आचार्य जी के पास उनको ले जाकर मिलाया गया और परस्पर सन्देह के कारण घटी घटना पर पश्‍चाताप किया गया । इससे कम से कम इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि आचार्य जी जहां भी इन दिनों ठहरते थे वहां बड़ी सतर्कता बरती जाती थी और हर आदमी उनसे नहीं मिल सकता था ।


हिन्दी आन्दोलन के काल में पंजाबभर में केवल पूज्य आचार्य जी एक ऐसे नेता थे जो गिरफ्तार नहीं किये जा सके । आपको गिरफ्तार करने के लिये पंजाब सरकार ने सभी उचित अनुचित साधनों का प्रयोग किया । पकड़वाने के लिए पारितोषिक देने की घोषणा से लेकर गोली मार देने तक की धमकियां भी दी गईं । किन्तु सब निष्फल रहीं । जिस प्रकार विदेश जाकर प्रसिद्ध क्रान्तिकारी सुभाषचन्द्र बोस ने देश की आजादी के लिए आजाद हिन्द फौज का संगठन किया उसी प्रकार परम तपस्वी ब्रह्मचारी आचार्य भगवानदेव ने भी पंजाब से बाहर जाकर सत्याग्रहियों की सेना तैयार की और वहीं से इस सत्याग्रह का सफल संचालन किया । भूखे प्यासे रहकर निरन्तर साइकल द्वारा सफर तथा अत्यधिक श्रम और चिन्ता से आचार्य जी का स्वास्थ्य भी बिगड़ गया परन्तु "कार्यं वा साधयेयं देहं वा पातयेयम्" सदा से आपका जीवनमन्त्र रहा है, अतः कदम पीछे नहीं हटाया । जिस कार्य में आप लग जाते हैं उसमें पूरी शक्ति झोंक देना आपका स्वभाव है । उसके पूरा होते तक दम लेना आपकी आदत में नहीं । गांधी जी के "करो या मरो" सिद्धान्त की आप साक्षात् मूर्ति हैं ।


इस हिन्दी आन्दोलन के समय श्री आचार्य जी के चित्र से युक्त इनकी एक अपील पूरे हरयाणा में बांटी गई थी । उसका एक वाक्य तो आज भी हरयाणा में गुंजायमान है - "हरयाणा के वीर की गर्दन टूट तो सकती है पर झुक नहीं सकती ।" पंजाब सरकार द्वारा हरयाणा के लोगों और सत्याग्रहियों कर किये अत्याचारों के समय इस वाक्य ने संजीवनी का काम किया और अत्याचारों के साथ टकराने का साहस पैदा किया । मैंने यह वाक्य उस समय बालकपन में पढ़ा था परन्तु आज २५ वर्ष बाद भी ज्यों का त्यों याद है ।


१९५७ के शहीद सुमेरसिंह के ग्राम नयावास में

पंजाब सरकार ने इस सत्याग्रह को असफल बनाने के लिये हर प्रकार के हथकंडे अपनाये । प्रारम्भ में सत्याग्रहियों को पकड़-पकड़ कर दूर जंगलों और भयानक स्थानों में छोड़ दिया किन्तु सत्याग्रही दुबारा चण्डीगढ़ पहुँचकर सत्याग्रह करने लगे । तब पुलिस ने सत्याग्रहियों को बुरी तरह मारना पीटना और तपती हुई सड़कों पर घसीटना शुरू कर दिया । नोकदार कीलों वाले बूटों की ठोकर मारना और सत्याग्रहियों को उनसे कुचलना, बाल पकड़कर घसीटना, बलात् मोटरों में ठूंसकर घंटों तक धूप में तपाना, पानी-पानी चिल्लाते हुये सत्याग्रहियों को एक घूंट पानी भी न देना, ओ३म् ध्वज को फाड़ देना और चंडीगढ़ में यज्ञवेदी पर जूतों सहित चढ़कर धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करना आदि जघन्य कर्म पंजाब पुलिस ने किये । बहु अकबरपुर कांड और फिरोजपुर जेल हत्याकांड ने तो इन अत्याचारों को चरम सीमा तक पहुँचा दिया । इन्हीं अत्याचारों के जवाब में आचार्य जी की उपर्युक्त अपील निकली थी जिससे पंजाब सरकार बौखला उठी थी ।


सत्याग्रह के पश्‍चात् नागरिक अभिनन्दन

वीर शहीद सुमेरसिंह के बलिदान ने तो पूरे आन्दोलन में मानो प्राण फूँक दिये थे । उनका बलिदान साहस, त्याग और आत्मोत्सर्ग का प्रतीक बन गया था । फिर भी आचार्य जी आदि ने इस शहीद की शहादत का जो सम्मान किया उसने तो हर व्यक्ति में बलिदानी भावनायें भर दीं । सत्याग्रह की समाप्‍ति पर रोहतक में जो जलूस निकला उसमें इस शहीद के माता-पिता को हाथी पर बैठाकर शहीद की हजारों-हजारों कंठों ने जो जय-जयकार की वह हरयाणे के इतिहास का एक स्वर्णिम पृष्ठ बन गई है ।


हिन्दी-रक्षा आन्दोलन देश का एक महत्त्वपूर्ण जन आन्दोलन था । पंजाब के उप-मुख्यमंत्री प्रो० शेरसिंह ने इस आन्दोलन में भाग लेने के लिये अपना पद ठुकराया, हजारों सत्याग्रही जेल गये, जिनमें से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप में १८ शहीद हुये । अनेक लोगों को चोटें आईं । स्वयं श्री आचार्य जी महाराज का स्वास्थ्य भी उस समय ऐसा बिगड़ा कि फिर सुधर ही नहीं पाया । परन्तु इस आन्दोलन के कारण हरयाणावासियों में नवजीवन का संचार हुआ और आगे चलकर यह आन्दोलन पृथक हरयाणा के निर्माण में सहायक ही नहीं हुआ अपितु आधार बना । इस रूप में यह सत्याग्रह हरयाणा के लिये बहुत बड़ी उपलब्धि सिद्ध हुआ । इस आन्दोलन को चलाने के लिये आर्यजनता ने दान भी बहुत दिया । आन्दोलन की समाप्‍ति पर साढ़े तीन लाख रुपयों से सार्वदेशिक सभा नई दिल्ली का भवन खरीदा । वह भी इसी आन्दोलन की देन है ।

गिरफ्तारी

सब हथकंडों का प्रयोग करके भी सत्याग्रह काल में जब पंजाब पुलिस श्री आचार्य जी को गिरफ्तार नहीं पर पाई तो आन्दोलन की समाप्‍ति पर किसी बहाने से गिरफ्तार करने की योजना बनाई । अन्ततोगत्वा १० फरवरी १९५८ को जालन्धर गोलीकांड के संबन्ध में रोहतक की एक सार्वजनिक सभा में आपत्तिजनक भाषण देने के आरोप में आपको २१ फरवरी को गिरफ्तार कर लिया । तीन-चार दिन जमानत नहीं ली । आचार्य जी की गिरफ्तारी से हरयाणाभर में रोष फैलता देख २४ फरवरी को बीस हजार की जमानत पर आपको छोड़ा गया । इस दिन जब आपको हथकड़ी लगाकर लाया गया तो अदालत के पास दस हजार लोग खड़े आचार्य जी की जयकार और "कैरोंशाही नहीं चलेगी" के नारों से आकाश गुंजा रहे थे । यहां भी पंजाब सरकार ने मुंह की खाई और अपनी झेंप मिटाने के लिये ५ मार्च १९५८ को जुआं ग्राम में आपत्तिजनक भाषण देने का मिथ्या अभियोग लगाकर १२ मार्च को पूर्ववर्ती जमानत कैंसिल करवाकर पुलिस ने आपको पुनः बन्दी बना लिया । २५ मार्च को तीस हजार की जमानत पर पुनः आपको मुक्त कर दिया । ये दोनों अभियोग आप पर लगातार आठ मास चलते रहे और आप इससे हरयाणा की जनता में अधिक लोकप्रिय होते गये । अन्त में सरकार को झुकना पड़ा । ये दोनों केस वापिस ले लिये और पूज्य आचार्य जी को ससम्मान रिहा किया ।


ग्राम नयाबास में हिन्दी सत्याग्रह के बाद भव्य जलूस

सत्याग्रह के लिये किये गये अनवरत कठोर श्रम और भाग-दौड़ से श्री आचार्य जी का स्वास्थ्य बिल्कुल बिगड़ गया । साथ ही गुरुकुल के कार्यभार का उत्तरदायित्व भी वहन करना पड़ता था । गुरुकुल में रहकर ही आपने अपना उपचार प्रारम्भ किया । आचार्य जी स्वयं अच्छे वैद्य हैं । साथ ही वैद्य बलवन्तसिंह भी इनका उपचार करते रहे । उससे लाभ भी हुआ किन्तु पूरी तरह स्वस्थ नहीं हो पाये । ऐलोपैथिक औषधियों से आपको आरम्भ से ही घृणा रही है, अतः अनेक श्रद्धालु डाक्टरों के कहने पर भी आपने हस्पताल में प्रवेश लेने से निषेध कर दिया । जब बाहर अवस्था का पता चला तो दिल्ली से लाला हंसराज गुप्‍त (भूतपूर्व महापौर दिल्ली) तथा श्री रामनाथ भल्ला कोषाध्यक्ष आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब, गुरुकुल झज्जर आये और आचार्य जी से दिल्ली चलकर नर्सिंग होम में रहकर उपचार कराने का आग्रह करने लगे । आचार्य जी ने अंग्रेजी इलाज कराने से निषेध किया तो इन दोनों सज्जनों ने वचन दिया कि हम आपका इलाज आयुर्वैदिक पद्धति से ही करायेंगे किन्तु सुविधा के लिये नर्सिंग होम में रहना ही अधिक अच्छा रहेगा । बहुत अधिक आग्रह करने पर आचार्य जी तैयार हो गये और दीवानचंद नर्सिंग होम दिल्ली में रखा गया । गुरुकुल से सेवा के लिये पं० ओमप्रकाश कोटवाले (स्वामी यज्ञानन्द) इनके साथ गये । वहां रहते हुये इन्होंने तथा श्री भल्ला जी आदि ने आचार्य जी की बहुत सेवा की । उपचार किया श्री पं० रामगोपाल शास्‍त्री करोलबाग वालों ने । वे आयुर्वेद के सुलझे हुए पंडित और सफल वैद्य थे । अपने उपचार से उन्होंने इनको बहुत शीघ्र ही ठीक कर दिया । लगभग एक मास उपरान्त आचार्य जी गुरुकुल वापिस लौट आये । उसके कुछ समय पश्‍चात् हरयाणा निवासियों पर भयंकर बाढ़ के रूप में एक दैवी विपत्ति आ गई ।


रोहतक में बाढ़

सन् १९६० ई० में आई बाढ़ में रोहतक शहर तथा इसके आसपास के क्षेत्र बुरी तरह जलमग्न हो गये । अनेक गाँव पूरी तरह डूब गये । लोगों को निकलने के लिये रास्ते न मिले । कुछ समय पूर्व हिन्दी आन्दोलन में यहाँ के लोगों ने कैरों सरकार के नाक में दम कर दिया था, अतः उसकी ओर से लोगों को निकालने या राहत पहुंचाने की सन्तोषजनक कार्यवाही नहीं हुई । उधर रिवाड़ी के निकट के कुछ इलाके भी साहबी नदी से जलप्लावित हो गये थे । बहुत दिनों तक पानी खड़ा रहने के कारण हर जगह रोग फैलने लगे थे । कारण कि लोग छतों पर या वृक्षों पर बैठकर उसी पानी में शौच करते और उसी को पीते थे । सब जगह हाहाकार मचा था । ऐसी अवस्था में आचार्य जी कैसे बैठे रह सकते थे । उन्होंने उद्योगपतियों से आर्थिक सहायता की अपील की जिसके कारण बाढ़ सहायता कार्यों के लिये धन मिला । आपने अपने अनेक सहयोगियों को लगाकर भोजन के लंगर खुलवाये । लोगों में कपड़े बंटवाये और रोगियों का इलाज किया । मुझे अच्छी तरह याद है, मैं एक वर्ष पूर्व गुरुकुल में प्रविष्ट हो चुका था । श्री आचार्य जी ने एक दिन खड़े होकर ढ़ेर सरी औषधियां तैयार कराईं । ये इन दिनों जीप रखते थे । हर दूसरे तीसरे दिन जीप औषधियों की भरकर ले जाते और बांट आते । आपका बनाया हुआ सुदर्शन चूर्ण इस समय बाढ़ के कारण आने वाले ज्वर पर रामबाण सिद्ध हुआ । कई मन यह चूर्ण आपने इन दिनों निःशुल्क बांटा था । हजारों गरीब परिवारों में कपड़े और अन्न भी आपने पहुंचवाया था । इन्हीं सेवाओं का परिणाम था कि जब कभी विधनसभा और लोकसभा का चुनाव आता तो प्रत्याशी आपका समर्थन पाने के लिए आपके चारों ओर चक्कर लगाने लगते । सेवा का इतना अधिक प्रभाव था कि लोग इस प्रतीक्षा में रहते कि हम अपने मत का सदुपयोग करने के लिए सब श्री आचार्य जी महाराज का आदेश पायेंगे । आप सच्चरित्र और ईमानदार प्रत्याशियों को ही अपना समर्थन देते रहे हैं । जिसको आप जनता के लिए अच्छा व्यक्ति नहीं समझते उसका विरोध भी डटकर करते हैं । अनेक बार देखा है कि श्री आचार्य जी के संकेतमात्र से अनेक प्रत्याशी हारे हैं । अनेक इनके समर्थन से समय-समय पर सफल हुये हैं । एक बार चुनाव के समय एक विशाल सभा में श्री आचार्य जी ने कहा था - "मैं राजनीति के क्षेत्र में महिलाओं का प्रवेश अच्छा नहीं समझता, महिलाओं को राजनीति के अखाड़े में पैर नहीं रखना चाहिये ।" उनके इस कथन का इतना अधिक प्रभाव हुआ कि उस क्षेत्र की महिला प्रत्याशी को हार का मुंह देखना पड़ा । बाद में आचार्य जी को उसने उपालम्भ भी दिया कि आपने मुझे हरवा दिया । इस प्रकार आचार्य जी महाराज का हरयाणा की राजनीति में बहुत व्यापक प्रभाव रहा है । पृथक हरयाणा निर्माण से लेकर चंडीगढ़ की समस्या तक में इन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे ।


पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना

श्री आचार्य जी महाराज के स्वभाव में दो गुण बहुत प्रमुख हैं । प्रथम वे ऐसे कार्य को अवश्य करते हैं जो श्रेष्ठ हो, किन्तु कठिन होने के कारण जिसको करने का साहस कोई अन्य नहीं कर पाये । दूसरा, वे जिस भी कार्य को करते हैं उसमें अपनी पूरी शक्ति लग देते हैं । उसमें समय और साधन का अभाव कभी बाधक नहीं बन सकता । एक समय में अनेक कार्य ये करते हैं परन्तु प्रमुखता एक ही कार्य की होती है और उसको तब तक करते रहते हैं जब तक वह अपनी पूर्णता को न छू ले । गुरुकुल में समय समय पर पनपी और फूली-फली विविध प्रवृत्तियों का यही एक रहस्य है । वे सब आचार्य जी महाराज के इस स्वभाव की वास्तविक प्रतिविम्ब हैं । गुरुकुल झज्जर में पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना के पीछे भी कदाचित् यही रहस्य है ।

स्वामी ओमानन्द - गुरुकुल झज्जर संग्रहालय के सामने
हरयाणा पंजाब के राज्यपाल श्री धर्मवीर को गुरुकुल झज्जर में पुरातत्त्व संग्रहालय दिखाते हुए - साथ में प्रो. शेरसिंह

पुरातत्त्व संग्रहालय का विधिवत् उद्‍घाटन गुरुकुल के ४६वें वार्षिकोत्सव पर १३ फरवरी १९६१ ई० के दिन राजस्थान के प्रसिद्ध नेता चौ० कुम्भराम आर्य के करकमलों द्वारा हुआ । इस संग्रहालय का पूरा नाम "हरयाणा प्रान्तीय पुरातत्त्व संग्रहालय" रखा गया । उद्‍घाटन के समय पुरातत्त्वीय सामग्री केवल एक छोटे से प्रकोष्ठ (कमरे) में फैलाकर रखी गई थी । उस समय कुछ सिक्के, ठप्पे और प्राचीन इंटें ही संग्रहालय में थीं । सिक्के कांसे की थालियों में सजाकर रखे गये थे । सम्भवतः स्वयं आचार्य जी महाराज को भी नहीं पता था कि बहुत शीघ्र ही यह संग्रहालय विशाल रूप धारण कर लेगा किन्तु सभी समझदार व्यक्ति उस समय कह रहे थे कि शीघ्र ही समय आयेगा जब ये थोड़े से दीखने वाले सिक्के एक आधुनिक ढ़ंग के विशाल संग्रहालय का रूप धारण कर लेंगे । कारण कि यह कार्य परम तपस्वी कर्मठ नेता श्री आचार्य जी द्वारा आरम्भ जो हुआ है । हुआ भी यही । २३ फरवरी १९६३ ई० को संग्रहालय के फैलाव को विस्तृत रूप दिया गया । अब नये भवनों के सात प्रकोष्ठों में भी सामग्री नहीं समा रही थी । संग्रहालय में हजारों प्राचीन सिक्के, मुद्रा-सांचे, मोहरें, मूर्तियां, शिलालेख और पांडुलिपियां आदि आचार्य जी ने एकत्र कर लीं थीं । दुर्लभ सामग्री दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी । प्रारम्भिक दिनों में ब्र० धर्मपाल (महाराष्ट्र) संग्रहालय का काम संभालता था । सन् १९६२ से मैंने (योगानन्द) तथा कुछ दिन उपरान्त ब्र० विरजानन्द जी ने मिलकर संग्रहालय का कार्य संभालना प्रारम्भ किया । श्री आचार्य जी महाराज इस कार्य में इतनी अधिक लग्न से जुट गये कि हर एक सप्‍ताह/ दस दिन के बाद इतनी अधिक सामग्री लाने लग गये कि उसको संभालना कठिन हो गया । देखते ही देखते दुर्लभ स्वर्ण मुद्रायें भी लाने लगे । उनसे भी अधिक मूल्यवान् और महत्त्वपूर्ण अन्य सामग्री भी इन्होंने एकत्रित की । उन सबका वर्गीकरण और संरक्षण भी बड़ा कठिन कार्य था । थोड़े दिन बाद ही संग्रहालय की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी । भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग और संग्रहालयों के अधिकारी यहां आने लगे । यहां के संग्रहालय को वे विस्फारित नेत्रों से देखते और कहते - हम तो कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि केवल एक व्यक्ति भी इतना बड़ा और महत्वपूर्ण संग्रहालय बना सकता है और वह भी बिना किसी सरकारी या गैर-सरकारी सहायता के ही । वास्तव में यह बड़ा अद्‍भुत और अनूठा प्रयोग आचार्य जी का है । जिस बहुमूल्य सामग्री को प्राप्‍त करने के लिये शासन-तंत्र पानी की तरह पैसा बहाता है उसे श्री आचार्य जी बहुधा या तो भेंट में प्राप्‍त कर लेते हैं या नाममात्र के मूल्य पर । यह सब इनके महान् व्यक्तित्व और सेवा का ही फल है ।


स्वामी जी भरतपुर (डीग) के दुर्ग पर

अल्पकाल में इतने बड़े संग्रहालय (म्यूजियम) का निर्माण केवलमात्र श्री पूज्य आचार्य जी के अटूट उत्साह, गम्भीर अध्यवसाय, प्रबल लग्न, दृढ़ संकल्प और विशिष्ठ कार्यक्षमता का ही परिणाम है । अनेक संस्थाओं का कार्यभार तथा अहर्निश जनजागृति एवं जनकल्याण की चिन्ता और इस पर भी अत्यल्प सीमित साधन होते हुये इतने बड़े राष्ट्रीय स्तर के संग्रहालय का निर्माण उनके अपने विशिष्टगुणसम्पन्न कर्मठ व्यक्तित्व की ओर संकेत कर रहा है । जिन सज्जनों ने इस संग्रहालय को अपनी सूक्ष्मेक्षिका से एवं अध्ययनात्मक दृष्टि से देखा है वे जानते हैं यहां कितनी महत्त्वपूर्ण, दुर्लभ और उपादेय ऐतिहासिक सामग्री एकत्रित है । इसको एकत्रित करने के लिए कितना कष्टसाध्य परिश्रम और व्यय करना पड़ा है ? यह कल्पना से परे की बात है । संग्रहालय में काम करते हुये हमने आचार्य जी के साथ अनेक बार यात्रायें की हैं । उन लंबी यात्राओं की अपनी ही कहानी है । सन् १९६७ की बात है । ज्येष्ठ का तपता हुआ मास था । इलाहाबाद से लगभग ६४ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पश्चिम में यमुना के तट पर प्राचीन नगर कौशाम्बी के खण्डहरों पर हम घूम रहे थे । यहां एक विशेष उद्देश्य से हम आये थे । हमें सूचना मिली थी कि यहां किसी व्यक्ति को ताम्रपत्र मिले हैं । खोजते हुए हम उसके घर पहुँचे । पता चला कि वह ताम्रपत्रों को किसी दूसरे व्यक्ति को बेच चुका है । हम उसके यहां पहुंचे । वह उसका महत्त्व व मूल्य बढ़ाने के लिये आसानी से दिखाना नहीं चाहता था । बहुत कठिनाई से उस व्यक्ति ने एक-एक करके वे चारों ताम्रपत्र और राजा की वह मोहर हमें दिखलाई जो उनमें लगी थी । अगले दिन ११ बजे तक हम उसको देने के लिये राजी कर पाये । वह उनके तीस हजार रुपये मांगता था । जबकि सौदा हुआ तीन हजार में । इन ताम्रपत्रों में कम से कम २५ किलो वजन तो है ही । ठीक ग्यारह बजे हम उनको सिर पर उठाकर चले । यहां से लगभग १५ किलोमीटर दूर सराय आकिल पहुंचकर हमें इलाहाबाद के लिये बस पकड़नी थी । इस बार हमारे पास जीप नहीं थी । गांववालों ने कहा कि दोपहर का समय है, तांगा नहीं मिलेगा, आप मत जाइये । परन्तु आचार्य जी ने एक बार जो ठान लिया उसको कैसे मोड़ा जा सकता था । श्री पूज्य आचार्य जी सदा नंगे पैरों रहते हैं । मैं भी नंगे पैर था । उस दिन इतनी तेज धूप और गर्मी थी कि जीवन में शायद ही कभी मैंने देखी होगी ।


सच मानिये मैं उस समय नहीं चलना चाहता था । धूप से घबरा रहा था । इस बात को आचार्य जी भी जान गये । इसलिये अब तो चलना और भी आवश्यक हो गया । वे अपने ब्रह्मचारी को इतना निर्बल देखना कैसे पसन्द कर सकते थे । किन्तु ब्रह्मचारी के सामने "दुबली को दो आषाढ़" वाली कहावत याद आ रही थी । एक तो भयंकर तपती धरती पर नंगे पैर चलना और दूसरे सिर पर ताम्रपत्रों का भार । श्रद्धावश मैं आचार्य जी को वे दे नहीं सकता था किन्तु जब हम कई किलोमीटर चलकर आ चुके तो न जाने वह श्रद्धा कहां काफूर हो गई । मैं मन ही मन चाहने लगा कि किसी तरह आचार्य जी एक बार फिर ताम्रपत्र लेने के लिये कह दें तो मैं झट इस भार को दे दूं । थोड़ी देर में उन्होंने फिर कहा और मैंने थोड़ी राहत महसूस की । मुझे आठ वर्ष गुरुकुल में रहते हुये हो गये थे । दुनियावी दृष्टि से वहां तपस्या भी कर रहे थे किन्तु उस दिन मैंने जाना, वास्तविक तपस्या तो आज हुई है जिसको आचार्य जी रोज ही करते हैं । उस दिन मैंने इनको जितना निकट से देखा शायद पहले कभी नहीं । नंगे सिर, पैर, भूखे पेट, सूखे ओठ निर्जन वन में से १५ किलोमीटर यात्रा करके जिसके चेहरे पर कोई रेखा नहीं आई वह आदमी किस धातु का बना होगा, यह आप अनुमान लग सकते हैं । दूसरी ओर मैं था जो इस यात्रा को महादुःख मान रहा था किन्तु आचार्यप्रवर के लिये यह सामान्य बात थी । एक के मन में यात्राजन्य विषाद था तो दूसरे के मन में लक्ष्यप्राप्‍ति का उत्साह । कितना बड़ा अन्तर है दोनों के बीच । शायद यही अन्तर इनको महान् बनाता है । इस तरह की न जाने आचार्य-प्रवर ने कितनी यात्रायें की हैं, तब इस संग्रहालय का निर्माण हुआ है । इस कार्य पर वे छः जीप जीर्ण कर चुके हैं । इससे सहज में जाना जा सकता है उन्होंने इस कार्य के लिये कितना परिश्रम किया है ।


एक बार कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास, पुरातत्त्व व संस्कृति विभाग के रीडर डा० सूरजभान हमारे साथ हरयाणा की ऐतिहासिक यात्रा पर थे । वे भी गर्मी के ही दिन थे । उस समय अनेक पुरातत्त्वीय महत्त्व के प्राचीन खंडहरों का सर्वेक्षण हमने किया । यात्रा के उपरान्त उन्होंने कहा - आचार्य जी महाराज जितना कर्मठ और धुन का धनी आदमी मैंने आज तक न तो देखा है और शायद न ही अपने जीवन में देख ही पाऊंगा ।


सन् १९६३ में आचार्य जी ने कन्या गुरुकुल नरेला में भी पुरातत्त्व संग्रहालय की स्थापना की । यह संग्रहालय भी झज्जर गुरुकुल संग्रहालय की भांति अति समृद्ध और महत्त्वपूर्ण संग्रहालय है । यहां भी संग्रहालय को यहां की स्नातिकायें या ब्रह्मचारिणियां ही संभालती हैं । झज्जर संग्रहालय का सम्पूर्ण कार्यभार ब्र० विरजानन्द दैवकरणि पर है । वे पिछले अठारह वर्ष से इस कार्य में जुटे हैं । उनका गहन अध्ययन है । ब्राह्मी, खरोष्ठी और इण्डोग्रीक आदि प्राचीन लिपियों के वे विद्वान् हैं । अरबी फारसी का भी अध्ययन उन्होंने किया है । श्री आचार्य जी सामग्री लाकर उन्हें सौंप निश्चिन्त हो जाते हैं । वे जिस आत्मीयता से उनका रख-रखाव व अध्ययन करते हैं वह वास्तव में प्रशंसनीय है । पूज्य आचार्य जी को अपने कार्य व तपस्या के अनुरूप ही वे मिले हैं । इसी कारण आचार्य जी (स्वामी जी) प्रचार आदि के कार्य के लिये समय निकाल लेते हैं । कई वर्ष तक स्वयं मैंने भी संग्रहालय को संभाला है किन्तु श्री विरजानन्द मुझ से कहीं अधिक तन्मयता, लगन, श्रद्धा और परिश्रम से कार्य करते हैं । इस युग में ऐसे कर्मठ आचार्य और उसके अनुरूप शिष्य का मिलना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है ।


श्री आचार्य जी द्वारा स्थापित ये दोनों संग्रहालय आज देश के प्रमुख संग्रहालयों में से हैं । यहां बहुत सारी ऐसी पुरातत्त्वीय सामग्री है जो दूसरे किसी म्यूजियम में नहीं है । प्राचीन सिक्कों का संग्रह इन दोनों में ही बेजोड़ है । सिक्कों की दृष्टि से देशभर का कोई भी संग्रहालय इनकी बराबरी नहीं कर सकता । प्राचीन गणतंत्रों के सिक्के, प्राचीन मुद्रा सांचे, शुंग, कुषाण और गुप्‍तकालीन मृण्मूर्तियां और हजारों मोहरें यहां की अपनी विशेषता है । प्रस्तर-मूर्तियां व पांडुलिपियां ताम्रपत्र और शिलालेख भी यहां पर्याप्‍त मात्रा में हैं । ये संग्रहालय विशुद्ध पुरातत्त्वीय संग्रहालय हैं । ताम्रयुगीन शस्‍त्राशस्‍त्रों का भी यहां अनूठा संग्रह है ।


संग्रहालय के निर्माण में अनेक लोगों का योगदान रहा है । मास्टर भरतसिंह बामला, स्वामी नित्यानन्द, वानप्रस्थी रामपत, गंगाविष्णु शर्मा सिहोल आदि अनेक लोगों मे संग्रहालय को सामग्री दी है । संग्रहालय प्रारम्भ करने का भी एक रोचक इतिहास है । श्री अचार्य जी की इतिहास में प्रारम्भ से ही रुचि थी । ये यत्र-तत्र अपने भाषणों में भी इतिहास व पुरातत्त्व संबन्धी चर्चा करते रहते थे । इनके सभी श्रद्धालु इनकी इस रुचि से परिचित थे । एक दिन ये गढ़ी (बोहर) गांव में थे कि श्री महाशय सूबेसिंह आर्य ने एक काली मिट्टी का गोल सा ठप्पा लाकर दिया और कहा कि एक बूढ़ा आदमी इसको हुक्के की चिलम में ठीकरी का प्रयोग करता है । उस समय यह किसी को नहीं पता था कि यह किसी प्राचीन टकसाल का सांचा है । यह बहुत ही गोल व व्यवस्थित बना था । कुछ चिह्न भी उस पर अंकित थे । श्री आचार्य जी ने वह मिट्टी की वस्तु परीक्षण के लिए श्री पं० जयचन्द्र विद्यालंकार के पास भेज दी किन्तु वे भी इसको नहीं जान पाये । कई वर्ष तक श्री आचार्य जी भी उसको नहीं पढ़ पाये । वास्तव में उस पर आदि देवनागरी लिपि में 'राह' ये दो अक्षर अंकित थे । बाद में जब कुछ और उसी प्रकार के मुद्रा-सांचे मिले तो पता चला कि यह गुर्जर प्रतिहार राजा आदि बराह मिहिर भोज के मुद्रा-सांचे हैं जिनमे किसी पर 'आदि' और किसी पर 'राह' शब्द अंकित है । उसके बाद मैं तथा ब्र० दयानन्द वहां गये । तीन दिन हम उस खण्डहर पर खुदाई करते रहे । वहां हमें पूरी टकसाल मिली । वहां गुर्जर प्रतिहार सामन्तदेव और गधैय्या वंशों की तीन टकसालें थीं । इन टकसालों से लगभग छः हजार सांचे हमने निकाले । टकसाल के दूसरे उपकरण भी मिले । वहां लोगों से बात करने पर पता चला कि यहां ये सांचे-ठप्पे गोफियों में डालकर चिड़िया उड़ाने के लिये फेंके जाते रहे हैं और इस प्रकार यह अमूल्य निधि वर्षों से नष्ट हो रही थी । श्री आचार्य जी की प्रेरणा पर हमने जाकर इसे बचाया ।


स्वामी ओमानन्द जी सरस्वती लौहस्तम्भ महरौली का ब्राह्मी (गुप्‍त) लिपि में शिलालेख पढ़ते हुए


दो प्राचीन खंडहरों पर श्री आचार्य जी ने उत्खनन (excavation) भी कराया । अगस्त १९६४ में औरंगाबाद के टीले पर तथा सन् १९६९ में मित्ताथल (भिवानी) में यह खुदाई हुई । गुरुकुल झज्जर के ब्रह्मचारियों ने इन दोनों उत्खननों में भाग लिया । इनसे भी संग्रहालय को सामग्री मिली । नौरंगाबाद से तो बहुत ही महत्त्वपूर्ण सामग्री समय-समय पर मिलती रही है । यहां आहत मुद्राओं, 'यौधेयानां बहुधान्यके' प्रकार की मुद्राओं, इण्डोग्रीक तथा कुषाण मुद्राओं की टकसालें मिली हैं । इन से प्राचीन भारत में मुद्रा-निर्माण पद्धति पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है । मुख्य रूप से इन्हीं के आधार पर श्री स्वामी ओमानन्द सरस्वती (आचार्य भगवानदेव) जी ने "भारत के प्राचीन लक्षण स्थान" नामक ग्रन्थ की रचना की है । संग्रहालय की दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण सामग्री के आधार पर इनका दूसरा ग्रन्थ "भारत के प्राचीन मुद्रांक" (Seals and Sealings of Ancient India) भी प्रकाशित हो चुका है । ये दोनों ही ग्रन्थ भारतीय इतिहास और पुरातत्त्व की अमूल्य निधि हैं । मुद्रा-निर्माण पद्धति पर तो इतना विस्तृत ग्रन्थ पहली बार सामने आया है । दर्जनों प्राचीन नई टकसालों को प्रकाश में लाकर इन्होंने इतिहास जगत् को अमूल्य देन दी है जिसका मूल्यांकन भविष्य में अधिक हो सकेगा । इन ग्रन्थों के लिखने में श्री ब्र० विरजानन्द जी ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । स्वामी जी महाराज अब अपना अगला ग्रन्थ "ताम्रयुगीन शस्‍त्राशस्‍त्र" लिखने में संलग्न हैं । श्री आचार्य जी ने संग्रहालय में जो सामग्री एकत्रित की है वह राष्ट्र की अमूल्य निधि है । इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुये समय-समय पर भारत सरकार और हरयाणा सरकार संग्रहालय को आर्थिक अनुदान देती रही है । यद्यपि कार्य और संग्रह के प्रदर्शन और रख-रखाव की दृष्टि से वह अनुदान नगण्य सा ही है तथापि शासन द्वारा उसकी स्वीकृति मात्र ही कार्य की महत्ता के लिये कम नहीं । वैसे यह हमारे देश की विडंबना ही है कि व्यर्थ के कामों में शासन का धन पानी की तरह बहता है और अच्छे कार्यों के लिये अपेक्षित सहायता और प्रोत्साहन नहीं मिलता । इसी कारण यहां राष्ट्रीय हित के कार्यों में रुचि लेने की प्रवृत्ति साधारण लोगों में दृष्टिगत नहीं होती । वास्तव में आचार्य जी द्वारा संग्रहालयों का निर्माण राष्ट्र को उनकी एक बहुत बड़ी देन है ।


संग्रहालय की स्थापना के साथ ही आचार्य जी महाराज ऐतिहासिक शोध की ओर अधिक प्रवृत्त हुये । इन्होंने कई ऐसी खोजें की हैं जो अभूतपूर्व तो हैं ही, साथ ही भारतीय इतिहास की बहुत बड़ी उपलब्धि भी हैं । इसी कारण इनको कई बार विदेशों से निमन्त्रण आये और इन्होंने वहां अपने शोध लेख प्रस्तुत किये । इसका उल्लेख हम इनकी विदेश यात्रा प्रसंग में करेंगे । एक यात्रा में मैं भी इनके साथ था । योरोपीय देशों में भी इनके व्यक्तित्व की छाप पड़े बिना नहीं रहती थी, यह मैंने देखा ।


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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


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