Garhmukteshwar

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Location of Garhmukteshwar on Map of Hapur district

Garhmukteshwar (गढ़मुक्तेश्वर) is an ancient city and tahsil in Hapur district in the state of Uttar Pradesh, India.

Variants

Location

About five kilometres from Garhmukteshwar town, flows the holy river Ganga.

Gotras

Tomar

Founders

It was founded by Garhwal gotra Jats.

Villages in Garhmukteshwar tahsil

Abdullapur, Abidpur Kadi, Ahasanpur, Aidalpur Parsadipur, Akbarpur Buklana, Akkhapur Urf Akhtyarpur, Alam Bhagwantpur, Alamgirpur, Alampur, Alapur, Allabuxpur, Alladadpur Urf Kulipur, Allipur, Anuppur Divae, Athsaini, Badarkha, Bagadpur, Bahadur Garh, Bangoli, Bhadsyana, Bhagwanpur, Bhagwati Urf Lisdi, Bhaina Sadarpur, Bharna, Bhowapur, Bhowapur Mastan Nagar, Bihooni, Bilhara, Birampur, Buddha, Buxer, Chandener, Chittauda Mahiuddinpur, Dahra, Dariapur Khurd, Dariyapur, Dattyana, Dautai, Deoli, Dhana, Dhanpura, Dholpur, Faridpur Gusai, Faridpur Simbhavali, Fattapur, Gadawali, Gandhu Nagla (Mandhunagla), Garhmukteshwar (MB), Haiderpur, Hakimpur Gavadi, Haroda, Hasupura, Himmatpur, Inayatpur, Jakhera Rahmatpur, Jamalpur, Jhadina, Kalyanpur, Kanaur, Karimpur, Kataura Zafarabad, Kati Urf Shankara Teela, Kazamabad Urf Jamalpur, Khadakpur, Khagoi, Khanpur Makhanpur, Kheda, Khilwai, Khurana Jahangirabad, Kirawali, Kopla, Kutubpur, Ladpura, Lahadara, Lathira, Lodipur Chhapka, Lodipur Soban, Luhari, Manak Chauk, Mohammadpur Khudalia, Mohammadpur Muradpur, Mohammadpur Rustampur, Mohd Shakarpur, Mukimpur, Muradpur, Muradpur Janupura, Nagla Bar, Nagli, Nawada Kalan, Nawada Khurd, Neknampur Fuldi, Neknampur Nanai, Niyaypur Khayya, Nizampur Urf Mahiranpur, Palwada, Paswada, Paupai, Pawati Hapur, Peer Nagar, Phuldahara, Pooth, Raharwa, Rajapur, Rajheda, Rajheti, Rajpur, Rampur Nyamatpur, Rasoolabad Nanpur, Ratupura, Rawasan Urf Shaugadh, Sadullapur Lodi, Sahaspur, Saidpur, Saina, Salarpur, Salhabad, Saloni, Saroorpur, Sehal, Shahpur Chaudhri, Sharifabad, Sharifpur, Sherpur, Sikandarpur, Sikhauda Muradabad, Singanpur, Todarpur, Vait, Wahabpur Thera Ideva,

Demographics

As of 2001 India census, Garhmukteshwar had a population of 33,432. Males constitute 54% of the population and females 46%. Garhmukteshwar has an average literacy rate of 50%, lower than the national average of 59.5%: male literacy is 58%, and female literacy is 41%. In Garhmukteshwar, 17% of the population is under 6 years of age.

History

According to Thakur Deshraj[1], during the period of Anangpal Garhwals were the rulers of Garhmukteshwar. One ancestor of Rajpal was Jat chieftain named Mukta Singh, who constructed the Garhmukteshwar fort. When Prithvi Raj Chauhan became the ruler of Delhi he attacked Garhmukteshwar. There was a severe war and Garhwals were able to repel the army of Prithvi Raj Chauhan but the circumstances of the time forced them to move out from there and to migrate to Rajasthan.

At Talawdi when there was war between Muhammad Ghori and Prithvi Raj, Jats attacked the army of Afghans but they did not support Prithvi Raj Chauhan also. This was so, because he had occupied their ancestral state. One Jat warrior Puran Singh became General of the Army of Malkhan. Malkhan had become popular due to support of Puran Singh.

Thakur Deshraj [2] writes that ....When Garhwals lost Garhmukteshwar, they came to Rajasthan and occupied Ker, Bhatiwar, Chhawsari etc near Jhunjhunu in 13th century. As per their bards when these people came to this place, Johiya, Mohiya Jats were the rulers of this area. Bhats have mentioned them as Tomars. When influence of Islam increased in this area they had to wage wars with them But they were compelled to leave this place too. As a result they started to scatter in various directions from there. One of their groups moved to Kuloth, which was ruled by Chauhans. After a war they occupied Kuloth. Sardar Kurdaram who was a descendant of Garhwals of Kuloth had been tehsildar of Nawalgarh.

It is also said that due to war from inside of the fort they were called Garhwals. Those who fought war from out side the fort were called ‘Bahrola’ or ‘Barola’. Those who fought on the gate were called ‘Falsa’ (local name for gate). It shows that this gotra is title based.

It is also possible that Garhwals were Panduvansi or Kuntals. Bhats have mentioned them as Tomars and Tomars were also Panduvansi. Garhmukteshwar has also been mentioned in the Bhagvat Purana and the Mahabharata. It is said that it was a part of the ancient city of Hastinapur (the capital of the Kauravas). There was an ancient fort here, which was repaired by a Maratha leader named Mir Bhawan. The name of the place is derived from the great temple of Mukteshwar Mahadeva, dedicated to the goddess Ganga who is worshipped here in four temples, two situated on a high cliff and two blow it.

गढ़मुक्तेश्वर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...गढ़मुक्तेश्वर (AS, p.274): गंगा के तट पर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ जो कार्तिक स्नान के मेले के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध है. स्कंद पुराण में इस देश का विस्तृत वर्णन है. इस का प्राचीन नाम शिवबल्लभपुर कहा गया है. पौराणिक कथा है कि इस स्थान पर महादेव के गण दुर्वासा के शाप से मुक्त हुए थे और इसी कारण इसे मुक्तेश्वर कहा जाता है. पुराणों की एक अन्य कथा के अनुसार राजयक्षमा से पीड़ित चंद्र ने यहीं तप करके रोग मुक्ति प्राप्त की थी. यह भी आख्यायित है कि महाराज नृग गिरगिट की योनि से यहां मुक्त हुए थे जिसका स्मारक नृग कूप या नक्का कुआं आज भी गढ़मुक्तेश्वर में है. यह तो निश्चित ही है कि प्राचीन काल से ही गढ़मुक्तेश्वर में साधु संतों का निवास रहा है. ऐतिहासिक काल में भी यह तीर्थ महत्वपूर्ण रहा है. कहा जाता है कि बर्बर- [p.275]: शासकों को भारत की सीमा के परे खदेड़ कर सम्राट विक्रमादित्य (चंद्रगुप्त द्वितीय) ने यहीं गंगा तट पर शांति प्राप्त की थी. महाराज भोज परमार भी गढ़मुक्तेश्वर आए थे. 11 वीं सदी में महमूद गजनी ने इस तीर्थ पर आक्रमण किया. मुगल साम्राज्य के अंतिम काल में मराठों के उत्कर्ष के समय गढ़मुक्तेश्वर में हिंदू धर्म का पुनरुद्धार हुआ. मराठों (सिंधिया) ने यहां एक दुर्ग का निर्माण भी किया जिसे सिंधिया दुर्ग कहते थे. इसके खंडहर अब भी हैं. संभवत है इसी दुर्ग के कारण इस स्थान को गढ़मुक्तेश्वर कहा जाने लगा. यहां के पंडों की पुरानी बहियों से सूचित होता है कि 17 वीं सदी में अलवर का नवाब जीवनखां अपने पुत्र सहित यहां आया करता था और गंगा-स्नान करके ब्राह्मणों को दान देता था. अब से प्राय: 200 वर्ष पूर्व स्थानीय गंगा मंदिर को झज्जर के नवाब के एक हिंदू मंत्री ने बनवाया था. इसका उल्लेख झज्जर के नवाब की वसीयत में किया गया है.

गढ़मुक्तेश्वर परिचय

गढ़मुक्तेश्वर राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से 100 किलोमीटर दूर 'राष्ट्रीय राजमार्ग 24' पर 'गढ़मुक्तेश्वर' नामक नगर बसा है जो हापुड़ ज़िले का एक तहसील मुख्यालय है। गढ़मुक्तेश्वर मेरठ से 42 किलोमीटर दूर स्थित है और गंगा नदी के दाहिने किनारे पर बसा है। विकास की दृष्टि से गढ़मुक्तेश्वर गाज़ियाबाद की सबसे पिछड़ी तहसील मानी जाती है, किंतु सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला गंगा स्नान पर्व उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। पौराणिक महत्त्व

भागवत पुराण व महाभारत के अनुसार यह कुरु की राजधानी हस्तिनापुर का भाग था। आज पर्यटकों को यहां की ऐतिहासिकता और आध्यात्मिकता के साथ-साथ प्राकृतिक ख़ूबसूरती भी खूब लुभाती है। मुक्तेश्वर शिव का एक मन्दिर और प्राचीन शिवलिंग कारखण्डेश्वर यहीं पर स्थित है। काशी, प्रयाग, अयोध्या आदि तीर्थों की तरह 'गढ़मुक्तेश्वर' भी पुराण उल्लिखित तीर्थ है। शिवपुराण के अनुसार 'गढ़मुक्तेश्वर' का प्राचीन नाम 'शिववल्लभ' (शिव का प्रिय) है, किन्तु यहां भगवान मुक्तीश्वर (शिव) के दर्शन करने से अभिशप्त शिवगणों की पिशाच योनि से मुक्ति हुई थी, इसलिए इस तीर्थ का नाम 'गढ़मुक्तीश्वर' (गणों की मुक्ति करने वाले ईश्वर) विख्यात हो गया। पुराण में भी उल्लेख है- 'गणानां मुक्तिदानेन गणमुक्तीश्वर: स्मृत:।'

कथा: शिवगणों की शापमुक्ति की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है- प्राचीन समय की बात है क्रोधमूर्ति महर्षि दुर्वासा मंदराचल पर्वत की गुफा में तपस्या कर रहे थे। भगवान शंकर के गण घूमते हुए वहां पहुंच गये। गणों ने तपस्यारत महर्षि का कुछ उपहास कर दिया। उससे कुपित होकर दुर्वासा ने गणों को पिशाच होने का शाप दे दिया। कठोर शाप को सुनते ही शिवगण व्याकुल होकर महर्षि के चरणों पर गिर पड़े और प्रार्थना करने लगे। उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर दुर्वासा ने उनसे कहा - हे शिवगणो! तुम हस्तिनापुर के निकट खाण्डव वन में स्थित 'शिववल्लभ' क्षेत्र में जाकर तपस्या करो तो तुम भगवान आशुतोष की कृपा से पिशाच योनि से मुक्त हो जाओगे। पिशाच बने शिवगणों ने शिववल्लभ क्षेत्र में आकर कार्तिक पूर्णिमा तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें दर्शन दिए और पिशाच योनि से मुक्त कर दिया। तब से शिववल्लभ क्षेत्र का नाम 'गणमुक्तीश्वर' पड़ गया। बाद में 'गणमुक्तीश्वर' का अपभ्रंश 'गढ़मुक्तेश्वर' हो गया। गणमुक्तीश्वर का प्राचीन ऐतिहासिक मंदिर आज भी इस कथा का साक्षी है।

काशी से भी पवित्र: इस तीर्थ को काशी से भी पवित्र माना गया है, क्योंकि इस तीर्थ की महिमा के विषय में पुराण में उल्लेख है- काश्यां मरणात्मुक्ति: मुक्ति: मुक्तीश्वर दर्शनात् (अर्थात् काशी में तो मरने पर मुक्ति मिलती है, किन्तु मुक्तीश्वर में भगवान मुक्तीश्वर के दर्शन मात्र से ही मुक्ति मिल जाती है)

गंगा मेला: इसी महत्व के कारण यहां प्रत्येक वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष में एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक एक पखवाडे का विशाल मेला लगता है, जिसमें दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब आदि राज्यों से लाखों श्रद्धालु मेले में आते हैं और पतित पावनी गंगा में स्नान कर भगवान 'गणमुक्तीश्वर' पर गंगाजल चढ़ाकर पुण्यार्जन करते हैं।

धार्मिक कृत्य: यहां 'मुक्तीश्वर महादेव' के सामने पितरों को पिंडदान और तर्पण (जल-दान) करने से गया श्राद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती। पांडवों ने महाभारत के युद्ध में मारे गये असंख्य वीरों की आत्मा की शांति के लिए पिंडदान यहीं मुक्तीश्वरनाथ के मंदिर के परिसर में किया था। यहां कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को पितरों की शांति के लिए दीपदान करने की परम्परा भी रही है सो पांडवों ने भी अपने पितरों की आत्मशांति के लिए मंदिर के समीप गंगा में दीपदान किया था तथा कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक यज्ञ किया था। तभी से यहां कार्तिक पूर्णिमा पर मेला लगना प्रारंभ हुआ। कार्तिक पूर्णिमा पर अन्य नगरों में भी मेले लगते हैं, किन्तु गढ़मुक्तेश्वर का मेला उत्तर भारत का सबसे बड़ा मेला माना जाता है।

व्यापार: यह गंगा के जल मार्ग से व्यापार का मुख्य केन्द्र था। उन दिनों यहां इमारती लकड़ी, बांस आदि का व्यापार होता था, जिसका आयात दून और गढ़वाल से किया जाता था। इसके साथ ही यहां गुड़ - गल्ले की बड़ी मंडी थी। यहां का मूढा़ उद्योग भी अति प्राचीन है। यहां के बने मूढे़ कई देशों में निर्यात किए जाते रहे हैं।

कैसे पहुंचें: सड़क मार्ग से - दिल्ली से यहां की दूरी लगभग 85 किलोमीटर है। उत्तर प्रदेश रोडवेज की नियमित बसें 'आनन्द विहार बस अड्डा, दिल्ली से चलती हैं। रेल मार्ग से - गढ़ मुक्तेश्वर में भी रेलवे स्टेशन है और बृजघाट रेलवे स्टेशन यहां से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से यहां के लिए नियमित रेलगाड़ियां हैं।

पर्यटन: गढ़मुक्तेश्वर में गंगा किनारे स्थित देवी गंगा को समर्पित मुक्तेश्वर महादेव मंदिर, गंगा मंदिर, मीराबाई की रेती, गुदडी़ मेला, बृज घाट, झारखंडेश्वर महादेव, कल्याणेश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं। यहाँ गंगा स्नान पर्व भी होता है।

संदर्भ: भारतकोश-गढ़मुक्तेश्वर

पुष्पवटी = पुष्पवती = पुष्पावती

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है .....पुष्पवटी = पुष्पवती = पुष्पावती (AS, p.573): वर्तमान पूठ जिला ग़ाज़ियाबाद उत्तर प्रदेश का प्राचीन नाम है. जनश्रुति के अनुसार महाभारत काल में महानगर हस्तिनापुर का दक्षिण की ओर विस्तार इस स्थान तक था और यहां हस्तिनापुर के नरेशों का पुष्पोद्यान था. पुष्पवटी [p.574]: या पुष्पवती गंगा के तट पर स्थित थी. संभव है कि वाचक कुशललाभ रचित प्राकृत ग्रंथ माधवानल-कथा (1620 ई.) में वर्णित पुहुपावती यही पुष्पावती है. कवि ने इसे गंगा के तट पर बताया है-- 'देश पूरब देश पूरब गंगनई कंठि तिहां नगरी पुहुपावती राजकरइ हरिवंस मंडण तसु घरि प्रोहित तासु सुत माधवानल नाम बंभण'. वर्तमान पूठ गढ़मुक्तेश्वर (जिला ग़ाज़ियाबाद) से 8 मील दक्षिण में गंगा के दक्षिण तट पर है.

शिववल्लभपुर

शिववल्लभपुर (AS, p.901): शिववल्लभपुर गढ़मुक्तेश्वर का एक प्राचीन पौराणिक नाम, जिसका उल्लेख स्कन्द पुराण में है। [5]

Dod Rulers of Garhmukteshwar

H.A. Rose[6] writes that Dod (दोद) tribe is found in Hoshiarpur. The Dods are almost entirely confined to the Bit tract in the Siwaliks, their head being the Rana of Manaswal. The Dods are Jadav or Chandrabansi by origin. Tradition avers that they once fought an enemy 1-1/2 times as numerous as themselves, and so became called Deorha, whence Dod. The clan once ruled in Orissa, whence Deo Chand fought his "way to Delhi, defeated its rulers, the Turs (Tunwars), and then conquered Jaijon : —

Orisa se charhiya Raja Deo Chand Baryāhan Tika ae.
Tur Raja auliyān jo thake fauj rachae,
Tur chhadde nathke jo mil baithe hai,
Dod Garh Muktesar men jo mile chāre thāon, —

Meaning: 'Raja Deo Chand marched from Orissa. The Tur Raja collected a large army in order to meet him, but fled before him. The Dods occupied Garh Muktesar and the places round it.'

Thus Deo Chand came to Jaijon and ruled the Dodba, His descendant Jai Chand gave his name to Jaijon. The Dod Rajā was, however, defeated by a Raja of Jaswān, and his four sons separated, one taking Jaijon, the second Kungrat, the third Manaswal Garhi and the fourth Saroa. Jaijon and Saroa were subsequently lost to the Dods, and after their defeat by Jaswān they sank to the status of rānas, losing that of Rajas. Of the 22 villages dependent on Kungrat, none pay talukdāri to the rāna who is a mere co-proprietor in Kungrat, as the family lost its position during the Sikh rule. The Rana of Manaswāl, however, maintained his position under the Sikhs and holds most of the 22 Manaswal villages (Bit = 22) in jāgir, his brothers holding the rest.

Another account runs thus : —

Four leaders of the tribe migrated from Udaipur to Garh Mandāl,1100 years ago, and thence to Garh Muktasar. Thence Jodh Chand seized Manaswal, expelling Hira, the Mahton leader, whose tribe held the tract, 40 generations ago. Rana Chacho Chand, the 19th Rana, was attacked by the Katoch ruler, but his brother Tilok Singh (Tillo) defeated him at Mahudpur in Una, and Tillo's shrine at Bhawani is reverenced to this day. In Sambat 1741 Rana Jog Chand repelled a Jaswal invasion. Rana Bakht Chand annexed Bhalan, with 12 dependent villages, in Una. His successor, Ratn Chand, repelled a Jaswal army under


* Maclagan, § 101. The Diwana Sadhs appear to be a sect of the Malwa with head-quarters at Pi'r-pind in (?)
But the Manj Rajputs have a baiya in Bit Manaswal, according to Mr. Coldstream in Punjab Notes and Queries I, § 465.

[Page-244]: Bhagwan Singh Sonkhla who was killed, and in his memory a shrine at Kharali was erected. A treaty now defined the Jaswal and Dod territories. Under Mian Gulab Singh regent during Achal Chand's minority, Nadir Shah is said to have visited the tract and ordered a massacre of the Rasali people, but the Rana obtained from him a grant of Bathri, then a Jaswal village. Rana Jhagar Chand, however, espoused the Jaswals' cause, when they were attacked by Sansar Chand of Kangra in 1804 A.D., and repulsed him. On Ranjit Singh's invasion of the Manaswal plateau, the Rana was confirmed in his possessions, subject to a contingent of 15 horse. The rule of inheritance was primogeniture, mitigated by a system of lopping off villages as fiefs for younger sons, many of whose descendants still hold villages, thus reducing the size of the estate.

The Dods (दोद) are also found as a Muhammadan Jat clan (agricultural) in Montgomery.

External links

References


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