Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Chaturtha Parichhed

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जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

चौथा परिछेद

जाट शब्द मीमांसा

उन महान क्षेत्रीय समुदायों का जाट नाम कब से और किस कारण पड़ा जो कि वैदिक, रामायण और महाभारत काल में अपनी वीरता, धीरता और योग्यता के कारण लोक प्रसिद्ध हुए थे तथा जिनके वैभव और ऐश्वर्य की पवित्र गाथाएं आज भी संसार के इतिहास में श्रद्धा और शोभा की चीज समझी जाती हैं। इन प्रश्नों का अपनी तरफ से उत्तर देने से पहले हम उन सभी नतीजों पर विचार कर लेना चाहते हैं जो दूसरे विद्वानों ने जाट शब्द और जाट जाति की उत्पत्ति के संबंध में निकालें हैं।

जाठरोत्पति का मनगढ़ंत काल्पनिक सिद्धान्त

जाठरोत्पति - सम्वत् 1926 विक्रमी में पं. अंगद शास्त्री ने ‘जाठरोत्पति’ नाम की एक संस्कृत पुस्तक राजा साहब श्री गिरिप्रसादसिंह बेसमा (अलीगढ़) के प्रोत्साहन से तैयार की थी। उसमें पुराणों की परशुराम और सहस्त्रार्जुन वाली कथा का उल्लेख कर के कहा गया है कि जब 21 बार के युद्ध से पृथ्वी क्षत्रिय विहीन हो गई तो राज-कन्याओं ने ब्राह्मणों से वीर्य-दान लिया। क्षत्राणियों के पेट से पैदा होने के कारण वे सन्तानें जाठर कहलाई। कारण कि संस्कृत में पेट


[पृ.38]: को जठर कहते हैं और दक्षिण-भारत को छोड़कर उत्तर में हिमालय के अंचल में जठर देवकूट पहाड़ में रहने लगीं। जाठर लोगों के बसने के कारण ही इस पहाड़ का नाम जठर पड़ गया।"

पंडित अंगद थे तो शास्त्री किंतु उनकी यह मनगढ़ंत कहानी बिल्कुल लालबुझक्कड़ों जैसी है। आज प्रकाश के युग में इस बात को सही नहीं माना जा सकता। एक तो पुराणों का यह कथन ही गलत गलत है कि परशुराम ने भारत को क्षत्रिय विहीन कर दिया था। परशुराम के समय में हम उत्तर भारत में जनक, दशरथ, कौशिक केकय आदि अनेक राजाओं को राज करते हुए पाते हैं। वास्तव में तो परशुराम अर्थात ब्राह्मणों का यह संघर्ष दक्षिण के अहीर राजाओं के साथ हुआ था जिन्होंने ब्राह्मण वैशिष्य का विरोध करना आरंभ कर दिया था। परशुराम का उत्तर के क्षत्रियों से कभी भी युद्ध नहीं हुआ।

दूसरी बात यह है कि हजारों क्षत्रिय कन्याओं पर यह लांछन नहीं लगाया जा सकता कि उन्होंने अन्य जातियों से वीर्य दान लिया होगा और ब्राह्मण उस समय तपस्या कर ज्ञान उपार्जन का काम करते थे न कि सांडपन। वास्तव में पुराणों की यह कथा क्षत्रियों पर रौब गांठने के लिए हैं।

इस कथन में व्याकरण संबंधी भी गलती है। अंगद शास्त्री का यह कहना कि जाठरों के बस में से उस पहाड़ का नाम जठर हो गया, व्याकरण के कायदे से बिल्कुल गलत है। किसी भी शब्द से बनने वाला शब्द हमेशा माप-तोल में भारी होता है। जैसे मधु से मधुर,


[पृ.39]: माधुर आदि। इसी प्रकार जाठर से जाठरान, जाठरा आदि शब्द बन सकते हैं। हाँ जठर से जाठर हो सकता है। धर्म ग्रंथों में हमें जठर देवकूट का नाम परशुराम से कई सौ वर्ष पहले से प्रसिद्ध हुआ पढ़ते हैं। यह ठीक है कि हिमालय के अंचल में स्थित एक पर्वतीय हिस्से का नाम जठर देवकूट है। और वहां जो राजवंश राज करता था वह एक दिन महान जाटसंघ में शामिल हो गया। किंतु यह गलत है कि इन जाठरों की उत्पत्ति परशुराम द्वारा की गई विधवा क्षत्राणियों की संतान हैं। यह अंगद शास्त्री की केवल अटकल है। यहाँ यह बता देना चाहते हैं कि वैदिक काल में यहां गांधार क्षत्रियों का प्रभुत्व था। यह पर्वत उनका बिहार-स्थान अर्थात आब हवा बदलने का शिमला था। यहां का जाठर कुल गांधारों की ही एक शाख था।

अंगद शास्त्री को असल में तो यह पता होना चाहिए था कि जाटों में केवल जाठर ही तो नहीं है, उन में यदू, कुरु, गांधर, शिवि आदि अनेक राज खानदान है। हां अंगद शास्त्री यदि ब्रह्म क्षत्रियों को ब्राह्मणों की संतान लिख देते तो संभव था कि भारतीय इतिहास से अनभिज्ञ कोई यूरोपीय लेखक इस कथन को सच भी मान लेता। श्री कालिका रंजन कानूनगो ने भी, जो कि वर्षों सी हिस्ट्री के प्रोफेसर रहे हैं, इस कथन को असत्य ही माना है

जरित्का से जाट

जाटों की उत्पत्ति के संबंध में दूसरी स्थापना श्री चिंतामणि विनायक वैद्य की है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक महाभारत मीमांसा में लिखा है कि कर्ण पर्व के शल्य देश के जिन जरित्काओ का वर्णन है जाट उन्ही के उत्तराधिकारी हैं। कर्ण ने शल्य को उलाहना देते हुए कहा है, शल्य तू बध-चढ़ कर बातें क्यों करता है? तेरे देश में साकला नगरी का जरित्का गौमास और लहसुन खाता है। स्त्रियां खड़ी होकर पेशाब करती हैं और ऊंट की तरह चिल्ला कर गाती हैं। वैद्य जी कहते हैं कि यह तो केवल आक्षेप है। हम कहते हैं कि हां यह तो आक्षेप ही है किंतु यह सही नहीं है कि जरित्का ही जाट है। हमारी ही तरह भाई परमानंद, सुखसंपतराय भंडारी और जदुनाथ सरकार भी वैद्य जी के इस मत का खंडन करते हैं।

इतना हम जानते हैं कि पंजाब में जार्ता और वार्ता नाम के दो समूह आबाद थे। जिनका संस्कृत साहित्य में वर्णन आता है। और जिनमें वार्ता आज खत्रियों में बाटरा नाम से मशहूर है। तथा जार्ता महान जाटसंघ में विलीन हो गई। ये जार्ता पंजाब के प्रसिद्ध खानदान वाल्हिकों की एक शाखा थी। वैदिक काल में बाल्हिकों की बड़ी इज्जत थी। किंतु पीछे के ब्राह्मण ग्रंथकारों ने उन्हें नीचा गिराने की कोशिश की है। हालांकि पुराणों के कथनानुसार वाल्हिक राजा शांतुन के भाई वाहिक के वंशज हैं। जो कि कुरु लोगों में एक प्रतापी राजा हुए हैं। महाभारत में जात्राओं के ऊपर यह निराधार आखिर क्यों किया


[पृ.41]: इसका भी हम उत्तर दे देना चाहते हैं। वास्तव में महाभारत जिसे कि हम आज देखते हैं यह 3 बार में और कम से कम 3 आदमियों द्वारा बना है। आरंभ में पांडवों के समकालीन श्री व्यास जी द्वारा जो ग्रंथ बना वह जय के नाम से प्रसिद्ध था। उसमें केवल पांडुओं के हिमालय की ओर जाने तक का जिक्र था। दूसरी बार श्री वैशंपायन ने उस में राजा जनमेजय तक के समय की घटनाएं संग्रह कर दी और उसका नाम भारत हो गया। आगे बौद्ध काल में सूतपुत्र सौनिक ने उसमें बढ़ोतरी की और प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से बौद्ध और जैन आदि धर्मों और उसके अनुयायियों की खूब खबर ली है साथ ही उन्हें गिराने की भी काफी चेष्ठा की है। यह शौनिक चन्द्रगुप्त के पिता महानन्द के समय में हुआ है।

मुद्राराक्षस नाटक और उदासियों के "स्रोत चरितामृत" ग्रंथ को देखने से पता चलता है कि यह व्याड़ी का साथी था। व्याड़ी, शौनिक और इंद्रराज तीनों ने राजा नंद से कई सहस्र रुपए प्राप्त करने के लिए एक षड्यंत्र रचा था। भगवान महावीर (जैन अवतार) भी इसी समय में पैदा हुए थे और उनका कुल ज्ञातृ अथवा जात्रा ही था। हालांकि वे पंजाब के जात्रों की बजाए पूर्व के जात्रों में पैदा हुए थे किंतु आश्चर्य नहीं। इसी धर्म द्वेष से यह बातें सूत ने महाभारत में जात्राओं के संबंध में दर्ज की थी। वैसे कर्ण पर्व का वह वर्णन एक व्यक्ति के लिए है सारी जाति के लिए तो नहीं।


[पृ.42]: फिर भी है धार्मिक अथवा सैद्धांतिक द्वेष से ही। एक और हमें जरत्कार नाम के ऋषि का भी इतिहास मिलता है जो बड़ा ही आनंदी जीव था। जिसे कड़े शब्दों में हम व्यभिचारी भी कह सकते हैं। दूसरे जैनियों में एक राजा जरत्कुमार भी हुए हैं जो भीलनी की संतान थे। संभव है उनका पंजाब में कभी आधिपत्य हो गया हो। कह नहीं सकते कर्ण पर्व का यह आक्षेप किसे लक्ष्य करके कहा गया है।

किन्तु हमारा तात्पर्य तो केवल यह है कि जात्रा लोग ही जाट नहीं हैं। संभव है कि वे जाट संघ में जज़्ब हो गए हों। क्योंकि वे वैदिक साथ ही ज्ञातिवादी भी थे ....और जाट अथवा जट ज्ञातिवादी क्षत्रियों का ही संगठित रूप है।

ज्येष्ठ से जाट शब्द की उत्पत्ति

कुछ लोग जाट शब्द की उत्पत्ति का इतिहास इस तरह से मानते हैं कि - महाभारत युद्ध के पश्चात् राजसूय यज्ञ के समय पर भारत के सभी राजाओं ने महाराज युधिष्ठर को ज्येष्ठ की पदवी दी थी। उन्हीं के वंश के लोग आगे चलकर के ‘ज्येष्ठ’ से ‘जाट’ कहलाने लगे। कुछ किम्बदन्तियां ऐसी भी है कि - ज्येष्ठ की पदवी महाभारत से पहले भगवान कृष्ण को मिली थी। यह वही दिन था, जिस दिन कि शिशुपाल का उन्होंने वध किया था। कहा जाता है इसी दिन से भगवान कृष्ण ने भविष्य में शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और इसी प्रतिज्ञा के कारण उन्होंने महाभारत में शस्त्र धारण नहीं किया था। बहुत समय बीतने


[पृ.43]: पर कृष्ण के साथी और वंशज यादव लोग दो दलों में विभक्त हो गए। एक वे जो अपने लिए यादव ही कहते रहे और दूसरे थे जो ज्येष्ठ के अपभ्रंश में जाट कहलाने लगे।

यह सत्य है कि जाटों में युधिष्ठिर-वंशी और कृष्ण-वंशी दोनों ही तरह के लोग शामिल हैं। पंडित लेखरामजी आर्य मुसाफिर ने ‘रिसाला जिहाज’ में जाट शब्द के अपभ्रंश यदु, जादू, जाद, जात और जाट बतलाये हैं।

कर्नल टाड ने भी इस बात को माना है कि जाट यादव हैं। मिस्टर विल्सन साहब ने भी टाड की राय को दाद दी है। मि. नेशफील्ड साहब जो भारतीय जातीय-शास्त्र के एक अद्वितीय ज्ञाता माने जाते हैं, लिखते हैं कि -

"जाट जदु के वर्तमान हिन्दी-उच्चारण के सिवाय कोई दूसरा शब्द नहीं है, यह वही जाति है, जिसमें कृष्ण पैदा हुए थे।"

(The word Jat is nothing more than the modern Hindi pronunciation of Yadu or Jadu, the tribe in which Krishna was born.)

यदु और ज्येष्ठ से जाट शब्द बन गया। भाषा-शास्त्र के अनुसार इसमें कोई एतराज नहीं हो सकता और यह कल्पना तथा धारणा बहुत अंश तक सही भी है। युधिष्ठिर और कृष्ण दोनों ही चन्द्रवंशी राजा हैं, किन्तु जाटों में कुल अथवा गोत्र सूर्यवंश के भी पाये जाते हैं। या तो वे किन्हीं खास कारणों से जाटों में शामिल हुए या जाट शब्द की रचना का उपर वाली युक्ति से मिलता-जुलता कोई दूसरा इतिहास है। यह प्रामाणिक बात है कि कोई जाति या


[पृ.44]: राजवंश या तो राजनैतिक कारणों से एक-दूसरे में मिलते हैं या धार्मिक कारणों से। एक तीसरा कारण आकस्मिक क्रान्तियों का भी है। सूर्यवंशी और चन्द्रवंशी दोनो प्रकार के राज्यवंशों में जाट शब्द सन्निहित हो जाने का जो इतिहास है, वही जाट शब्द की व्युत्पत्ति का भी है। इस सम्बन्ध में हमारी जो स्थापना है उसे आगे प्रकट करेंगे।

शिव की जटा से जाट की उत्पति

महादेवजी

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक मनोरंजक कथा और भी कही जाती है। वह इस तरह से है कि -

"महादेवजी के श्वसुर राजा दक्ष ने यज्ञ रचा और अन्य प्रायः सभी देवताओं को तो यज्ञ में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया, पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न अपनी पुत्री सती को ही निमन्त्रण दिया। पिता का यज्ञ समझकार सती बिना बुलाये हुए ही पहुंच गई, किन्तु जब वहां उसने देखा कि यज्ञ में न तो उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया इसलिए उसने वही प्राणान्त कर दिया। महादेवजी को जब यह समाचार मिला, तो उन्होंने दक्ष और उसके सलाहकारों को दण्ड देने के लिये अपनी जटा में से वीरभद्र नामक गण उत्पन्न किया। वीरभद्र ने अपने अन्य साथी गणों के साथ राजा दक्ष का सर काट दिया और उसके साथियों को भी पूरा दण्ड दिया। यह कथा केवल किम्वदन्ती के रूप में ही नहीं रही, वरन् संस्कृत श्लोकों में इसकी पूरी रचना की गई है जो


[पृ.45]: देवसंहिता के नाम सेहै।* उस पुस्तक में लिखा है कि विष्णु ने आ करके शिवजी को प्रसन्न करके उनके वरदान से दक्ष को


* देवसंहिता के कुछ एक श्लोक निम्न प्रकार हैं -

पार्वत्युवाच
भगवन् सर्व भूतेश सर्व धर्म विदांवरः।
कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम्।।12।।

अर्थ - हे भगवन् ! हे ! भूतेश हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ ! हे स्वामिन् ! आप कृपा करके मेरे ताई जट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिए।।12।।

का च माता पिता ह्येषां का जाति वद किंकुलं।
कस्मिन् काले शुभे जाता प्रश्नानेतान वद प्रश्नानेतान वद प्रभो ॥13॥

अर्थ - हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है? ॥13॥

श्रीमहादेव उवाच
श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामि ते ।
जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्वप्रकाशितं ॥14॥

अर्थ - महादेवजी पार्वतीजी का अभिप्राय जानकार बोले कि हे जगन्माता भगवती ! जट जाति का जन्म एवं कर्म मैं तुम्हारे ताई सत्य-सत्य कथन करता हूं कि जो आज पर्यन्त किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है ॥14॥

महाबला महावीर्या महासत्व पराक्रमाः ।
सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्टा देवकल्पा दृढ़व्रताः ॥15॥

अर्थ - शिवजी बोले कि जट महाबली हैं, महा वीर्यवान् और बड़े पराक्रमी हैं। क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी


[पृ.46]: जीवित किया और दक्ष और शिवजी में समझौता कराने के बाद शिवजी से प्रार्थना की कि महाराज आप अपने मतानुयायी जाटों का यज्ञोपवीत संस्कार क्यों नहीं करवा लेते? ताकि हमारे भक्त वैष्णव और आपके भक्तों में कोई झगड़ा न रहे। लेकिन शिवजी ने विष्णु की इस प्रार्थना पर यह उत्तर दिया कि मेरे अनुयायी भी प्रधान है।"

जटाओं से उत्पन्न हुए वीरभद्र आदि गणों को जाट मान लेने की कथा देखने में अवैज्ञानिक और अविवेकपूर्ण जान


पर राजे-महाराजे रही। जट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है, और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं ॥15॥

सृष्टेरादौ महामाये वीरभद्रस्य शक्तितः।
कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी ॥16॥

अर्थ - शंकरजी बोले हे भगवति ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जट्ट जाति की उत्पत्ति होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा ॥16॥

गर्वखर्चोत्र विप्राणां देवानां च महेश्वरी।
विचित्रं विस्मयं सत्वं पौराणकैःसाडीपितं ॥17॥

अर्थ - शंकरजी बोले हे देवि ! जट्ट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है। इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है। इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जट्ट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है। हम उस इतिहास को तुम्हारे पास यथार्थ रूप से वर्णन करते हैं ॥17॥


[पृ.47]: पड़ती है, किन्तु यह नितान्त निराधार भी नहीं है। यह ठीक है कि जाट जटाओं से उत्पन्न नहीं हुए और न ऐसा होना संभव है किन्तु इसके अन्दर जो ऐतिहासिक तत्व छिपा हुआ है, वह यह कि पंजाब में शिवि नाम की एक जाति थी। उसकी शासन-प्रणाली गणतन्त्री थी। पुराणों में गणेश की जो कथा है, वह ऐसे ढंग से वर्णन की गई है कि गणेश की वास्तविकता पर परदा पड़ जाता है। तुलसीकृत रामायण में तो गणेश के सम्बन्ध में गुसाईं बाबा एक बड़ी मजेदार बात लिख गए हैं। उन्होंने शिवजी के विवाह में जो कि उनका पुत्र कहा जाता है गणेश की पूजा कराई है और इस बात का ख्याल होने पर कि बाप से पहले बेटा कहां से आ गया, गुसाई बाबा लिखते हैं कि देवों के सम्बन्ध मे ऐसी शंकाएं करना उचित नहीं । हमारी हिन्दुओं के पुराणों की कथाओं के कथनानुसार यह धारणा हो गई कि शिवजी का लड़का एक गणेश था जिसके हाथी जैसे नाक, कान और सिर थे। वर्णन भी एक जगह ऐसा ही आता है कि गणेश का वास्तविक सिर काट कर उस पर हाथी का सिर स्थापित कर दिया। हिन्दू चित्रकार गणेश की जो मूर्ति बनाते हैं, वह बड़ी बेढब और हास्यास्पद होती है। ये सब बातें गणेश की वास्तविकता पर आवरण पड़ जाने के कारण लोक में मानी जाने लगी हैं।

गण, गणेश और गणतन्त्र-प्रणाली

गणेश, शिवि और उनके गणों का जो वैज्ञानिक और राजनैतिक इतिहास होना चाहिए वह यह है - जैसा कि उपर लिख चुके हैं, शिवि पंजाब में एक प्रजातन्त्री राज्यवंश अथवा जाति थी। उसकी


[पृ.48]: सभा के मेम्बरों के लिए गण और सभापति या सरदार के लिए गणपति एवं गणेश कहते थे।

वेदों में गण शब्द का प्रयोग सैनिक-समूह के लिए किया गया है जैसा कि ऋग्वेद के इस मंत्रभाग सूत्र से सिद्ध होता है - व्रातं व्रातं गणम् गणम् (ऋ. 3-26-6) गण का संक्षिप्त अर्थ समूह होता है। इस तरह गणतन्त्र का अर्थ समूह द्वारा संचालित राज्य हुआ। सारांश यह है कि गणराज्य उस शासन-प्रणाली को कहते थे जो बहुत से लोगों के समूह के द्वारा होती थी। बौद्ध-ग्रन्थ महावग्ग में गणपूरको वा भविस्सामीति शब्द आता है जिससे मालूम होता है कि गणों की राजसभा में संख्या-पूर्ति एवं कोरम देखने वाला भी एक अधिकारी होता था। राजसभा में आने वाले सदस्य गण इसलिए कहलाते थे कि वे किसी कुल, परिवार अथवा समूह की ओर से गणना किए हुए (निर्वाचित किए हुए) होते थे। कहीं संघ और गण का एक ही अर्थ लिया गया है, परन्तु संघ शब्द से राज्य का और गण शब्द से शासन-प्रणाली का बोध होता है। अनेक संस्कृत ग्रन्थों में गण और संघ शब्दों का प्रयोग हुआ है। पाणिनि ने अपने व्याकारण में संघो द्वौ गणप्रशंसयोः, नारद स्मृति में आदिशब्दो गणसंघादि समूहविपक्षयोः शब्द आते हैं। इसके सिवा ‘काशिका’, ‘अमर कोश’, ‘महाभारत’, कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ और स्वयं वेदों तक में गण और संघ शब्द आये हैं। इससे सिद्ध होता है


[पृ.49]: कि गणतन्त्र-प्रणाली भारत में अति प्राचीन समय से प्रचलित थी। बौद्ध-ग्रन्थ गणतन्त्र-प्रणाली के वर्णनों और नियमों से भरे पड़े हैं। बौद्धों के सबसे पुराने ग्रन्थ पालिपिटक तथा मज्झमनिकाय, महावग्ग, अवदान शतक में संघ और गणों का काफी वर्णन पाया जाता है। बुद्ध के जमाने में भारतवर्ष में लगभग 116 प्रजातन्त्र थे । गणों के सम्बन्ध में अधिक परिचय करा देने के लिए शान्ति पर्व 108वें अध्याय के उद्धरण हम यहां देते हैं ।

शान्ति पर्व से गणों के सम्बन्ध में उद्धरण

शान्ति पर्व 108वें अध्याय में गणों के सम्बन्ध में निम्नानुसार उल्लेख किया गया है-

युधिष्ठिर भीष्म से पूछते हैं कि गणों के सम्बन्ध में आप मुझे यह बताने की कृपा कीजिए कि किस प्रकार वर्द्धित होते हैं और किस प्रकार शत्रु की भेदनीति से बचते हैं? शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने की और अपने मित्र प्राप्त करने की उनकी क्या तरकीबें हैं? वे अपने गुप्त मन्त्रों को बहुसंख्यक होते हुए भी किस तरह से छिपाते हैं?

भीष्म ने युधिष्ठिर के प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार दिया कि - लोभ और अमर्ष (द्वेष) दो मुख्य कारण ऐसे हैं, जिनसे गणों में परस्पर वैर उत्पन्न होता है। इन्हीं से राजाओं के कुलों में भी वैर उत्पन्न होता है। पहले गणों या कुलों में लोभ उत्पन्न होता है, बाद में द्वेष और तब इन दोनों के कारण क्षय-हानि होती है जिससे एक दूसरे का विनाश हो जाता है। साम, दान और विभेद के द्वारा तथा क्षय व्यय और भय के दूसरे उपायों का अवलम्बन करके वे गुप्तचर, गुप्त मन्त्रणा और सैनिक बल की सहायता से एक दूसरे को दबातें हैं। जो अनेक गण अपना एक संघ बना लेते हैं, उनमें


[पृ.50]: इन्हीं उपायों से विभेद उत्पन्न किया जाता है। विभेद हो जाने के कारण वे उदास हो जाते हैं और अन्त में भय के वशवर्ती होकर शत्रु के वश में जो जाते हैं। इस प्रकार विभेद उत्पन्न होने के कारण वे अवश्य विनष्ट होते हैं। अलग-अलग हो जाने के कारण शत्रु उन पर सहज में विजय प्राप्त कर लेते हैं। अतः गणों को सदा अपनी संघ-शक्ति को बनाए रखना चाहिए। संघात् बल के पौरूष से अर्थ की प्राप्ति होती है। और बाहरी लोग भी संघात् वृत्ति वालों से मैत्री करते हैं। गणों की इन सम्भावित हानियों को बताने के उपरान्त, भीष्म ने युधिष्ठिर से इनकी विशेषताओं को इस प्रकार वर्णन किया है -

श्लोक

ज्ञानवृद्धाः प्रशंसन्ति सुश्रूषन्तः परस्परम् ।

विनिवृत्ताभिसन्धानाः सुखमेधन्ति सर्वशः ॥16॥

धर्म्मिष्ठान् व्यवहारांश्च स्थापयन्तश्च शास्त्रतः ।

यथावत् प्रतिपश्यन्तो, विवर्द्धन्ते गणोत्तमाः ॥17॥

पुत्रान् भ्रातॄन्, विगृह्णन्तो विनयन्तश्च तान् सदा ।

विनीतांश्च प्रगृह्णन्तो विवर्द्धन्ते गणोत्तमाः ॥18॥

चार मंत्रविधानेषु कोष सन्नि च मेषु च ।

नित्य युक्ता महा बाहो वर्द्धन्ते सर्वतो गुणा: ॥19॥

प्राज्ञान् शूरान् महोत्साहान् कर्मसु स्थिरपौरूषान् ।

मानयन्तः सदा युक्तान् विवर्द्धन्ते गणा नृप ॥20॥


[पृ.51]

द्रव्यवन्तश्चत शूराश्च शस्त्रप्रज्ञाः शास्त्रपारगाः ।

कृछ्रास्वापत्सु संमूढ़ान् गणाः संतारयन्ति ते ॥21॥

क्रोधो भेदो भयं दण्डः कर्षणं निग्रो वधः ।

नयत्यरिवशं सधो गणान् भरतसत्तम ॥22॥

तस्मान्मानयितव्यास्ते गणमुख्याः प्रधानतः ।

लोकयात्रा समायत्ता भूयसी तेषु पार्थिव ॥23॥

मंत्रगुप्ति प्रधानेषु चारश्चारित्रकर्षण ।

न गणाः तत्सनशो मंत्रं श्रोतुर्मन्ति भारत ॥24॥

गणमुख्यैस्तु संभूय कार्यं गणहितं मिथः ।

पृथग्गणस्य भिन्नस्य विततस्य तयोऽन्यथा ॥25॥

अर्थाः युत्यवसीदन्ति ततोऽनर्था भवंति च ।

तेषामन्योन्यभिन्नानां स्वशक्तिमनुतिष्ठताम् ॥26॥

निग्रहः पण्डितैः कार्यः क्षिप्रमेव प्रधानतः ।

कुलेषु कलहा जाताः कुलवृद्धैरूपेक्षिताः ॥27॥

गोत्रस्य नाशं कुर्वन्ति गणभेदस्य कारकम् ।

आभ्यंतरं भयं रक्ष्यमसारं बाह्यतो भयम् ॥28॥

आभ्यंतरं भयं राजन् सद्यो मूलानि कृन्तति ।

अकस्मात् क्रोधमोहाभ्यां लोभाद्वाऽपि स्वभावजात् ॥29॥

अन्योन्यं नाभिभाषन्ते तत् पराभवलक्षणम् ।

जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथा ॥30॥

न चोद्योगेन बुद्ध्या वा रूपद्रव्येण वा पुनः ।


[पृ.52]

भेदाच्चैव पुरात्रा च भिद्यन्ते रिपुभिर्गणा ॥31॥

तस्मात् संघानेवाहुर्गणानां शरणं महत् ॥32॥

अर्थात् - अच्छे गणों में सब परस्पर एक दूसरे की सुश्रूषा करते हैं। जिससे ज्ञान-वृद्ध उनकी प्रशंसा करते हैं। वे एक दूसरे के साथ बहुत ही अच्छी रीति से व्यवहार करते रहने के कारण सब प्रकार का सुख प्राप्त करते हैं। जो उत्तम गण होते हैं वे शास्त्र-सम्मत धर्मपूर्ण व्यवहार स्थापित करने से प्रसन्न होते हैं। आपस में एक-दूसरे के साथ अच्छा व्यव्हार करते हैं। अच्छे गण इसलिए विवर्द्धित होते हैं कि वे अपने पुत्रों और भ्राताओं को ठीक मर्यादा से रखते हैं और सदा उन्हें विनयी बनने की शिक्षा देते हैं और उन्हीं को ग्रहण करते हैं, जो विनीत होते हैं। वे सदा अपने गुप्तचरों व मन्त्रणा की व्यवस्था में लगे रहने और खजाने का सब काम ठीक तरह से करते रहने के कारण सदैव सर्व प्रकार से विवर्द्धित होते रहते हैं। अपने विद्वानों, शूरों, महान् उत्साहियों और कर्तव्यनिष्ठ रहने वाले पुरूषों का सदा उचित मान करते रहने के कारण विवर्द्धित होते रहते हैं। धनवान, शूर, शास्त्रज्ञ, योद्धागण संकटों और कष्टों में पड़े हुए असहायों अर्थात् अपने सहयोगियों की सहायता करते हैं। क्रोध, भेद, भय, पारस्परिक विश्वास के अभाव, दण्ड, सैनिक आक्रमण, अत्याचार, निग्रह पारस्परिक दमन और वध के कारण गण तुरन्त ही शत्रु के वश में हो जाते हैं। अतः गण के प्रधान के


[पृ.53]: द्वारा अच्छे अच्छे गणों का मान होना चाहिए। लोक याज्ञा या समाज के संचालन का अधिकार प्राय: उन्हीं के हाथ में होना चाहिए। गुप्त मंत्र या राजकीय मन्तव्यों को प्रकट न होने देने का कार्य गणों के प्रधानों के हाथ में रहना चाहिए। सारे गण लोग इन मन्त्रों को जान लें यह ठीक नहीं हैं। मुख्य गण एकत्रित होकर गणों के हित का कार्य करें। गणों में पृथकता और भिन्नता की वृद्धि उनकी गिरावट की ओर ले जाती है। जब वे एक दूसरे से भिन्न या अलग हो जाते हैं और केवल अपनी व्यक्तिगत शक्ति पर ही निर्भर रहते हैं, तब उनके यहां अर्थ के बजाय अनर्थ हो जाता है। निग्रह अर्थात् दण्ड-विधान का कार्य विद्वान् के द्वारा होना चाहिए। यदि गणों के कुल में कलह उत्पन्न हों और कुलपति अर्थात् कुल की ओर से चुना हुआ गण उस ओर उपेक्षा करे तो इस से वे गोत्र का नाश करते हैं तथा गण का भेद करते हैं। उन्हें भीतरी भयों से अपनी रक्षा करनी चाहिए। बाहरी भय तो कुछ नहीं बिगाड़ सकता, क्योंकि भीतरी भय तुरन्त ही जड़ को काट देता है। अकस्मात् क्रोध और मोह के कारण एवं स्वभाव-जन्य लोभ के कारण वे एक दूसरे से बोलना बन्द कर देते हैं। वही उनके पराभव का कारण होता है। गणों में सब कुलों की समानता जाति की दृष्टि से एक सी है। उन लोगों में उद्योग-वृद्धि या रूप के लालच से भेद नहीं उत्पन्न किया जा सकता। उनमें आपसी मन-मुटाव पैदा करने से ही भेद उत्पन्न हो सकता है। इसलिए गणों की रक्षा इसी में है कि वे संघ की शरण में रहें।

शिवी और जाट संघ

[पृ.54]: गणतन्त्रों के सम्बन्ध में इस वर्णन से सहज ही जाना जा सकता है कि कुलों की ओर से निर्वाचित मेम्बरों को गण और उनकी सभा को संघ, उनके अधिपति को गणों का अधिपति अर्थात् गणेश और गणपति कहते थे। उनके शासनतंत्र में सभी कुल समान समझे जाते थे। शिवि लोगों के यहां भी गणतन्त्र शासन-प्रणाली थी। महाभारत में इसका नाम शैवल करके आया है। बौद्ध-ग्रन्थों में इन्हें शिवि और पतंजलि ने ‘शैव्य’ लिखा है। सिकन्दर के साथी यूनानी लेखकों ने इसे शिबोई नाम से उल्लेख किया है। पीछे से पंजाब प्रान्तों को छोड़ ये लोग मालवा में जा बसे थे। सिकन्दर के समय में शिवि लोग मालवों के साथी थे। चित्तौड़ के निकट ‘नगरी’ स्थान में इनके सिक्के पाये गए हैं। उन सिक्कों पर ‘‘मज्झिमकाय शिवि जनपदस’’ अंकित है। मध्यमिका (मज्झिमिका) इनकी राजधानी थी। हिन्दू पॉलिटी के लेखक श्री काशीप्रसाद जायसवाल लिखते हैं कि - ई.पू. पहली शताब्दी के बाद इनके अस्तित्व का कोई प्रमाण या लेख अभी तक नहीं मिला है।* जाटों में एक बड़ा भाग शिवि गोत्री जाटों का है। ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज एण्ड अवध में मिस्टर विलियम क्रुक साहब लिखते हैं -

The Jats of the south-eastern provinces divide them selves into two sections - Shivgotri or of the family of Shiva and Kashyapagotri.

[पृ.55]: अर्थात् - दक्षिणी पूर्वी प्रान्तों के जाट अपने को दो भागों में विभक्त करते हैं - शिवगोत्री या शिव के वंशज और कश्यप गोत्री

इससे यह नतीजा तो नहीं निकालना चाहिए कि शिवि लोग ही जाट हैं। हां, यह अवश्य है कि शिवि लोग भी महान् जाट जाति का एक अंग हैं। ऐसे प्रमाण मिलते हैं कि अनेक गण मिल करके एक संघ या लीग स्थापित कर लेते थे। क्षुद्रक और मालवों ने मिल करके एक संघ स्थापित किया था। इसी तरह से शिवि लोग भी एक बड़े संघ जट (पाणिनि ने जट का अर्थ संघ किया है) में मिल गये और आज भी एक गोत्र के रूप में जाटों में विद्यमान हैं। बौद्ध-धर्म के अन्तिम काल तक भारतवर्ष में गणतन्त्र शासन-प्रणाली मौजूद थी। ज्यों-ज्यों नवीन हिन्दू-धर्म और राजपूतों का उत्कर्ष होता गया, त्यों-त्यों भारतवर्ष में एकतन्त्र शासन का जोर बढ़ता गया और प्रजातन्त्र घटते गए। यह भी हो सकता है कि यह शिव-वंश के जाट शैव-मतानुयायी रहे हों। चूंकि आरम्भ में शैव और वैष्णव सम्प्रदायों में काफी विरोध रहा था, उसी विरोध को तोड़-मरोड़ करके दक्ष के यज्ञ वाली कथा का सम्बन्ध जोड़ा गया हो। नवीन हिन्दू धर्म की व्यवस्था के अनुसार गण-तन्त्रवादी


1.हिन्दू राज्य-तंत्र, पेज 108


अथवा जैन-बौद्ध-धर्मावलम्बी अनार्य म्लेच्छ


[पृ.56]: और धर्म-हीन संज्ञा से पुकारे ही जाते थे। यदि शिव जाति के सम्बन्ध में भी उनके धर्म-ग्रन्थों में इन्हीं शब्दों में याद किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। गणतन्त्रवादी कुछ समुदायों में से जब कुछ समूह हिन्दू-धर्म में सम्मिलित हुए हों तो बहुत सम्भव है कि उनके पूजनीय और श्रद्धेय गणेश की पूजा को उनकी प्रसन्नता के लिए सम्मिलित कर लिया हो। हमारा कथन इस बात से भी पुष्ट होता है कि गणपति-पूजा का रिवाज महाराष्ट्र प्रान्त में अधिक है और यह सर्वविदित बात है कि मराठे आरम्भ में गणतन्त्रवादी ही थे। पं. सातवलेकर ने मराठों को नागवंशी माना है। नाग एकतन्त्री न होकर प्रजातन्त्रवादी ही थे। हमारा प्रसंग सिर्फ जटा और जाट तक है। गणेश का इतना विस्तृत विवरण हमें इसलिए करना पड़ा है कि लोग शिवजी की जटा से जाटों की उत्पत्ति की अवैज्ञानिक बात का विश्वास छोड़ करके वास्तविक इतिहास समझ लें।

सुजात से जाट की उत्पत्ति

कोई-कोई इतिहासकार और विद्वान् यह भी मानता है कि जाट हैहय क्षत्रियों की उन शाखाओं में से हैं जो सुजात और जात नाम से प्रसिद्ध थीं। देशी इतिहासकारों में भाई परमानन्दजी इसी मत के समर्थक हैं। जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में भाई परमानन्दजी के जो विचार हैं, उन्हें हम ज्यों का त्यों उद्धृत करते हैं। वे लिखते हैं कि -

"ऐसा मालूम पड़ता है यादु नस्ल की एक शाख जाट कहलाने लगी। जाट और यादु लफ्ज एक-दूसरे से बहुत मिलते-जुलते हैं। यादुओं के हैहय कबीले की एक शाख का नाम


[पृ.57]: जात या सुजात था। यह भी कहा जाता है कि कश्यप ऋषि ने अग्नि-कुल राजपूतों की तरह जाटों को भी क्षत्रिय बनाया । नस्ल के लिहाज से जाट बिल्कुल राजपूतों से मिलते हैं। राजपूत लोग उन्हें इसलिये अपने से छोटा समझते हैं कि उनमें करेवा का रिवाज पाया जाता है। लेकिन गौर करने पर यह भी नतीजा निकल सकता है कि जाट हिन्दू-समाज की उस हालत से ज्यादा मिलतें हैं जो कि पुराणों के पहले पाई जाती थी। देवर लफ्ज के माने दूसरे पति के हैं। दूसरी कई बातें से भी यह मालूम होता है कि जाटों पर बनिस्वत दूसरे हिन्दुओं के पुराणों की तालीम का बहुत कम असर हुआ है। मसलन जाट अभी तक ‘कुल’ की हालत में पाये जाते हैं। उनमें जाति-पाति की तकसीम नहीं पाई जाती जो बाकी हिन्दू-समाज में इतने जोर से पाई जाती है। भाषा, करेक्टर और विचारों से भी यही जाहिर होता है कि जाट लोग वैदिक जमाने की सुसाइटी के आम हिन्दुओं की निस्बत बेहतर कायम मुकाम हैं।"

जात या सुजात शब्द से जाट शब्द का बनना संबंध समझकर शायद भाईजी ने सुजात लोगों को ही जाट मान लिया है और इसमें भी सच्चाई है कि जात शब्द से आगे चलकर, परिस्थितियों के कारण, जाट शब्द बन गया। किन्तु यह कथन गलत है कि परशुराम वाले सुजात या जात लोग ही अब के जाट हैं। परशुराम और हैहय लोगों का युद्ध रामायण काल से भी पहले का है। यदि सुजात लोग ही जाट कहलाने लग गये होते तो महाभारत के समय अवश्य इनकी हस्ती होती। हैहय


[पृ.58]: क्षत्रिय एकतन्त्र विचार के थे। परशुराम के बाद अवश्य ही वे लोग कहीं अपना राज्य स्थापित करते। लेकिन लाखों वर्षों के अन्तर (कुछ विदेशी इतिहासकारों ने रामायण-काल से लेकर महाभारत के बीच का समय दस हजार वर्ष तक माना है) में सुजात लोगों को पैतृक गौरव प्राप्त करने की चेष्टा (साम्राज्य स्थापन) करते हम कहीं नहीं पाते। इस परशुराम वाली कहानी का हम पीछे के पृष्ठों में काफी खंडन कर चुके हैं। यहां इतना ही लिख देना उचित समझते हैं कि उनके गौत्र जो कि पांडवों, शैव्यों, गान्धारों, मालवों आदि राजवंश से निकलते हुए हैं वे सुजात के वंशज कैसे कहला सकते हैं? यहां तक कि उनमें नाग वंशी तथा सूर्यवंशी (पूणिया, तक्षक) गोत्र भी पाये जाते हैं। इस सिद्धान्त का खण्डन करने के लिए यही एक बात पर्याप्त है। उनके गोत्र व कुल न तो कुछ भी हैहय क्षत्रियों से मिलते हैं और न हैहयों की आदिभूमि दक्षिण में उनका (जाट) कोई नाम निशान ही पाया जाता है।

यात शब्द से जाट

जाटों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक और सिद्धान्त है जिसके आविष्कर्ता एक जाट सज्जन श्री रामलालजी हाला हैं । उनका कहना है - चन्द्रवंश में श्रीकृष्ण से कई पीढ़ी पहले महाराज ‘यात’ हुए थे। यात शब्द से ही याट फिर जाट बन गया । यह फिलासफी भी सुजात शब्द से जाट बनने की जैसी ही है। यदि बात ऐसी ही हो तो यात की संतान के लोग जाटों का नाम महाभारत में खूब आता। हमारे कहने का मतलब यह है कि जाट शब्द के बनने के कारण


[पृ.59]: और तिथियां भारतीय युद्ध से पुराने समय की नहीं है। और किसी एक व्यक्ति की संतान के लोग ही जाट कहलाये तो पाणिनि का जट झट संघाते सूत्र गलत हो जाता है। वास्तव में जट शब्द संघ के लिये प्रयुक्त हुआ था जैसा कि हमारे आगे कथन से अधिक स्पष्ट हो जाएगा।

यूरोप के कई देशों में जाट शब्द से मिलते-जुलते गाथ, गेटि, यूटी, श्यूची आदि शब्दों को देखकर विदेशी इतिहासकारों को बड़ी उलझन में पड़ना पड़ा है। हीरोडोटस, स्ट्रबो, कनिंघम आदि जैसे लोगों ने इन शब्दों के आधार पर यह साबित करने की चेष्टा की है कि जाट अवश्य ही इन्ही जातियों के उत्तराधिकारी हैं जो विदेशों से भारत में आकर आबाद हुई। कुछ लोग ऑक्सस के किनारे से, कुछ सिरिया से, कुछ बैक्ट्रिया से और कुछ स्कैण्डनेविया से इनको आया हुआ बताते हैं। मेजर बिंगले ‘‘सेविन्थ डक ऑफ कन्नाउटस ऑन राजपूत्स’’ में लिखते हैं कि- "ईसा के पूर्व पहली और दूसरी शताब्दी में जाट लोग आक्सस के किनारे से चलकर दक्षिणी अफगानिस्तान होकर के भारत में आये।"

इस कथन का खण्डन मि. नेशफील्ड, सर हर्बर्ट रिजले, डाक्टर ट्रम्प और वीम्स तथा अनेक अरब इतिहासकारों ने किया है। देशी इतिहासकारों में श्री चिन्तामणि वैद्य ने तो बड़े मजबूत प्रमाणों के साथ उक्त विचारों का खण्डन किया है। उनके लेख के कुछ अंश हमने पीछे के पृष्ठों में दे दिये हैं। कनिघम और उनके सहयोगियों को यह भ्रम क्यों हुआ, हमारी


[पृ.60]: समझ में उसके निम्न कारण हैं -

1. नामों की समानता,

2. ईसवी सन् पूर्व 200-300 वर्ष से अधिक पहले का उन्हें जाटों का कोई इतिहास नहीं मिला -

वैसे इन कारणों पर हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं फिर भी संक्षेप से यहां इतना और बता देना उचित समझते हैं -

1. नामों की समानता से यदि वह भ्रम में पड़े हैं तो उन्हें यह मान लेना चाहिए था कि गेटि, जेति, गात, श्यूची आदि समूह जिनके कि यूरोप व चीन में निशान पाये गए हैं, उन जाटों के वंशज हैं जो कि परिस्थितियों के कारण भारत से बाहर गए थे, और वहां जाकर उन्होंने उपनिवेश स्थापित किये थे। इस बात के विदेशी साहित्य में भी काफी प्रमाण भरे पड़े हैं कि भारतीय क्षत्री यहां से बाहर गए और वहां जाकर उन्होंने अपना प्रभुत्व स्थापित किया। इस बात के कुछ हवाले आगे दिये जाते हैं।

मि. कुकटेलर नेशन्स आफ एण्टीक्वयरी के पेज 11-12, पर लिखते हैं - वास्तव में यह अनुमान किया है कि मिश्रियों ने अपनी सभ्यता की व्यवस्था हिन्दुओं से ली होगी।

मि. पी. कॉक इण्डिया इन ग्रीस नामक पुस्तक में लिखते हैं - :"यूनानी समाज की सारी दशा किसी को भी एशियायी ही जंचेगी और उसमें भी अधिक अंश भारतीय मालूम पड़ेगा। मैं उन घरानों की बातों का उल्लेख करूंगा जो भारत से तो लुप्त हो गए पर भारतीय उपनिवेश संस्थापन के चिन्हों के साथ वही अपने धर्म तथा भाषा सहित यूनान में फिर प्रकट हुए थे। (पृ.12) ब्राह्मणों और बौद्धों के धर्म


[पृ.61]: एशिया के एक बड़े भाग पर आज के दिन भी सिक्का जमाये हुये हैं। इस लम्बे युद्ध में दो बड़े नेता थे। इन दोनों में ब्राह्मण-धर्म की विजय हुई। बौद्ध-धर्म के नेता खदेड़ दिये गये, जिन्हें अपने उत्पीड़न करने वालों से बचने के वास्ते उनकी पहुंच के बाहर आश्रय लेना पड़ा था। वे लोग बैक्ट्रिया, फारस, एशियामाइनर, यूनान, फिनीसिया और ग्रेट ब्रिटेन को चले गए, और अपने साथ पहले के अपनी ऋषियों की श्रद्धा और विचित्र दर्जे की व्यापारिक शक्ति के साथ ज्योतिष और तन्त्र-विद्या की अनोखी योग्यता भी लेते गए।" (पृ. 26)

स्कैण्डनेविया की धर्म पुस्तक ‘एड्डा’ में लिखा हुआ है कि - "यहां के आदि निवासी जटेस और जिटस पहले आर्य कहे जाते थे तथा वे असीगढ़ के निवासी थे।" (जो कि मालवा के निमाड़ जिले में है। - लेखक) मिस्टर पिंकर्टन का विचार है कि - ईसा से 500 वर्ष पूर्व डेरियस के समय में यहां (स्कैंडिनेविया) ओडन नाम का एक आदमी आया था जिसका उत्तराधिकारी गौतम था। इनके अतिरिक्त स्कैंडिनेविया की धारणाएं भी धार्मिक हिन्दू कथाओं से मिलती-जुलती हैं। इनके दिवस विभाग आदि सभी हिन्दुओं के ढंग पर हैं। अतः स्कैंडिनेविया निवासी काउण्ट जन्स्टर्न का कथन अक्षरशः सत्य प्राचीन होता है कि - हम लोग भारत से आये हैं।

स्कैण्डनेविया संस्कृत शब्द स्कंधनाभ का अपभ्रन्श हैं। स्कंधनाभ का अर्थ है - मुख्य सैनिक। इससे भी यही ध्वनि


[पृ.62]: निकलती है कि इस देश को भारतवर्ष की सैनिक-जाति-क्षत्रियों ने बसाया।

मि. रेम्यूसेट का दावा है कि - कुल मध्य ऐशिया ही यादवों की बस्ती है। प्रोफेसर पी. कॉ कहते हैं - फारस, कोल, कीच और आरमीनिया के प्राचीन नक्शे भारत वासियों के उपनिवेश होने के स्पष्ट और आशचर्यजनक सबूतों से भरे पड़े हैं। काउन्ट जोर्नस्टर्न कहते हैं - रोम की इट्रस्कन जाति भी हिन्दूओं में से है। कर्नल टाड कहते हैं - जैसलमेर के इतिहास से पता चलता है कि हिन्दू जाति के बाल्हीक खानदान ने महाभारत के पश्चात् खुरासान में राज्य किया। मि.पी. कॉक का मत है कि - महाभारत का युद्ध समाप्त होते ही कुछ लोग यहां से निकाल दिए गए तथा कुछ लोग प्राण-रक्षा के कारण जान लेकर भागे थे। उनमें से कतिपय आदि सभ्यता के पटु थे और कुछ व्यवसायी योद्धा थे।..... अधिकतर लोग यूरोप में और अमरीका में जाकर बसे । महाभारत के लोग भिन्न भिन्न मार्ग से गए। कुछ तो पूर्व की ओर से, श्याम, चीन, भारतीय द्वीप-समूह में, कुछ लोग पश्चिमोत्तर से तुर्किस्तान, साइबेरिया, स्कैण्डनेविया, जर्मनी, इंगलिस्तान, फारस, ग्रीक, रोम आदि की ओर जा बसे और कुछ लोग पश्चिम से पूर्वी अफ्रीका और वहां से मिश्र को गए।*


* देखो मासिक पत्र 'स्वार्थ' के संवत 1976 माघ, फाल्गुन के अंक 4 , 5 में (प्राचीन भारत के उपनिवेश) नामक लेख ले. बा. शिवदास गुप्त.


[पृ.63]: प्रोफेसर हीरन कहते हैं - "विदेशों में बस्तियां बसाने के सिवाय भारत जैसा अत्यन्त आबाद और किन्हीं भागों में अत्यधिक आबाद देश अपनी जनसंख्या के निवास का और क्या प्रबन्ध कर सकता था ?"

कर्नल अलकोट ने लिखा है - "हमें यह समझने का अधिकार है कि 8000 वर्ष पूर्व भारत से (कुछ लोग) अपना देश छोड़कर अपने कला-कौशल तथा उच्च सभ्यता के साथ उस स्थान में पहुंचे थे जो कि आज हमें ईजिप्ट (मिश्र) के नाम से ज्ञात है।"

कई अंग्रेज विद्वानों ने एक मिश्रवासी और एक बंगालवासी की खोपड़ियों की घनिष्टता साबित की है। मि. विल्सन साहब के विचार में बर्मा तथा तिब्बत वासियों की सभ्यता भी भारत से गई हुई है। सर विलियम जोन्स का कहना है कि - चीनवासी अपनी उत्पत्ति हिन्दुओं से स्वीकार करते हैं। कहा जाता है बौद्ध-काल में एक समय तीन हजार से अधिक भारतीय संन्यासी 10000 से अधिक भारतीय गृहस्थ अपने जातीय धर्म और कला-कौशल का चीन देश में प्रभाव डालने के निमित्त केवल एक प्रदेश लोयंग में वास करते थे।

वैरिन हम्बील्ट का दावा है कि - अमेरिका में हिन्दुओं के रहने के चिन्ह अब तक विद्यमान हैं। मैक्सिको के निवासी एक ऐसे मनुष्य की पूजा करते थे जिसका सिर हाथी था और धड़ मनुष्य का था। *


* संस्कृत साहित्य का इतिहास पे. 49 से 51 तक का सार. लेखक महेश चन्द्र बी.ए.


[पृ.64]: इनके अतिरिक्त भी और कितनी ही सम्मतियां हैं। हमारी समझ से पाठक इस विषय में कि विदेशी विद्वान् भी इस बात से सहमत हैं कि भारतीय क्षत्रिय बाहर गए और हां प्रभुत्व स्थापित किया एवं आबाद हुए, भली प्रकार जान गए होंगे। संस्कृत-साहित्य में भी ऐसे प्रमाण हैं जिनसे साबित होता है कि भारतीय आर्यों ने अन्य देशों में जाकर उपनिवेश कायम किए । महाभारत के वर्णन के अनुसार पांडवों का हिमालय को पार करना सर्व-विदित बात है। हरिवंश में एक कथा आती है कि कौरवों के राजकुमार को भारत से इस कारण निकाल दिया गया था कि उसने गोमेध के समय गोमांस खा लिया था। उसी की सन्तान के लोग अरब में कुरेश कहलाए। यादव कुल दिग्विजय यादवों द्वारा संसार के भिन्न-भिन्न देशों को जीतकर अपने वश में करने की कथाओं से भरा पड़ा है। कालिदास का बनाया हुआ रघुवंश इस बात की साक्षी देता है कि सूर्यवंश के योद्धाओं ने विदेशों में जाकर विजय प्राप्त की। पुराणों में यह कथा बार-बार दुहराई गई है कि शुक्राचार्य असुरों के देश अर्थात् ईरान में रहते थे। कृष्ण का पुत्र साम्ब श्यामनगर में राज्य करता था, जिसे ग्रीक वालों ने मीनगढ़ कहा है। बौद्ध और जैन-ग्रन्थों से भी यहां से भारतीयों का बाहर जाना पुष्ट होता है। भविष्य पुराण के हवालों से यह मालूम होता है कि महाराजा शालिवाहन तथा उनके साथी हिमालय पार करके हूण देश में शायद काकेशश पर्वत की ओर गए थे, जहां कि उनकी मुलाकात हजरत ईसा से हुई थी, जैसा कि इन श्लोकों से प्रकट होता है -


[पृ.65]:

एकदातु शकाधीशो हिमतुंगं समाययौ ।

हूणदेशस्य मध्ये वै गिरिस्थं पुरूषं शुभम् ॥

ददर्श बलवान् राजा गोरांगश्वेतवस्त्रकम् ॥22॥

को भवानि तितंप्राहस होवाच मदान्वितः ।

ईश पुत्रं च मां विद्धि कुमारी गर्भ संभवम् ॥23॥

(भविष्य पुराण प्र. सय. 4 खं 3)

अर्थ - एक बार शक देश के राजा शालिवाहन हिमालय की चोटी पर गए। तब उस बलवान राजा ने हूण देश के मध्य में पर्वत पर बैठे हुए गोरे रंग वाले तथा सफेद वस्त्र पहने हुए पवित्र पुरूष को देखा। राजा ने उससे पूछा आप कौन हैं? वह खुश होकर बोला मैं कुमारी के गर्भ से पैदा हुआ खुदा का बेटा (यीशु) हूं ।

भारतीय इतिहासकारों ने भी इस बात को प्रमाणित किया है कि आर्य क्षत्रिय लोगों ने विदेशों में जाकर बस्तियां आबाद की और साथ ही अपने धर्म का भी प्रचार किया।

भारतीय जाटों के विदेश जाने के प्रमाण - उपर्युक्त उद्धरणों से हमारे कथन की पुष्टि हो जाती है कि जाट बाहर से आये हुए लोगों के स्टाक के नहीं हैं बल्कि विदेशी इतिहासकारों ने जिन गेटा, मेटा जातियों का नाम बतलाया है और उसके कारण ही जाटों को उनमें से बतलाया है, ये जातियां ही भारतीय जाटों के विदेश में गए हुए स्टाक में से हैं। भारत से जाटों का स्थानांतरित होने का भी ऐतिहासिक


[पृ.66]: विवरण मिलता है। बृज से द्वारिका और द्वारिका से जदु का डूंग और जदु से गजनी, कंधार और फिर ईरान में जहां जाकर के उन्होंने जाटालि प्रदेश बसाया था, के भ्रमणकारी वर्णन मिलते हैं। खलीफा अबू-बकर के समय में उन्हें रोमन लोगों के विरूद्ध लड़ने के लिए और हजरत अली के समय में बसरे के खजाने की रक्षा करने के लिए तथा इससे भी पहले हजरत मुहम्मद की अंग-रक्षा के लिए अरब और रोम की सीमा तक जाट-जत्थों के जाने की अरबी साहित्य साक्षी देता है। भारत में जाटों के अनेक दलों का स्थानांतरित होना ईसा सन् से कम से कम 900 वर्ष पहले आरंभ हो गया था। दूसरे, एक यह भी बात है कि गेटा, गात आदि जातियों का इतिहास प्रायः इससे बाद में आरंभ होता है। ईसा से 800 वर्ष पहले महावल जाट राजा, जो कि ईसवी सन् से 506 वर्ष पहले, दिल्ली में राज्य करने वाले जीवन जाट के आदि पुरूषों में से था, दिल्ली में राज्य कर रहा था। * तीसरे, संस्कृत-साहित्य के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि के धातु पाठ में जट शब्द आता है जो कि ईसा से लगभग 900 वर्ष पहले हुआ था। जट शब्द भारत में पाणिनि से कई शताब्दी पूर्व प्रचलित होगा, तभी पाणिनि ने इसको अंकित किया होगा। इन सब बातों के देखते हुए यही संभव है कि जटजैंड, स्कैण्डनेविया तथा चीन आदि देशों


* वाकयात पंज हजार रिसाला उर्दू ।


[पृ.67]:में जो जाट शब्द के समावाची संज्ञक समूह पाये जाते हैं, वे भारतीय जाटों के स्टाक से बाहर गए हैं।

ज्ञात शब्द से जाट की उत्पत्ति

जाट शब्द की उत्पत्ति के संबंध में हमारी जो स्थापना है अब उसे प्रकट करते हैं। यह निश्चय पूर्वक सही है कि जाट शब्द ज्ञात शब्द का रूपांतर है। इसके साथ यह भी जान लेना चाहिए कि ज्ञात शब्द साहित्यिक संस्कृत का है और जाट प्राकृत अथवा बोलचाल की संस्कृत का है। पंजाब और सिंध जिसमें कि जाटों की आबादी सदैव से ही अधिक रही है वहां की बोलचाल भी संस्कृत पैशाची की प्राकृतिक कहलाती थी इसी प्राकृतिक भाषा का ज्ञात (जात) का जाट हो गया। किंतु पंजाब वालों कि जैसी कि आम बोलचाल है, वे साथ को सथ या सथ्थ और हाथ को हथ या हथ्थ कहते हैं। जाट को भी जट जट्ट कह कर पुकारते हैं क्योंकि पाणिनी ने भी जो कि गांधार देश का प्रसिद्ध पंडित था, अपने व्याकरण (धातुपाठ) में जट ही शब्द का प्रयोग किया है। वास्तव में पाणिनि का व्याकरण बना ही इसलिए था कि बोलचाल की संस्कृत और साहित्य की संस्कृत में जो बड़ा अंतर हो गया था उसे दूर किया जाए, ताकि लोगों को दोनों तरह की संस्कृत का बोध रहे। और पुराने संस्कृत साहित्य का तत्कालीन और भविष्य के लोगों को अर्थ निकालते कठिनाई न रहे। इसी हेतु पाणिनी ने व्याकरण रचा था। इसी बात को श्री नलिनी मोहन सान्याल ने 'माधुरी' के चौथे वर्ष के दूसरे खंड की छटी संख्या में इस प्रकार लिखा है-


[पृ.68]: पाणिनि के पहले ही साधारण लोगों की भाषा साहित्यिक भाषा से भिन्न हो गई थी। साधारण अपढ़ लोग साहित्य की भाषा में नहीं बोल सकते हैं, वे अपनी शक्ति तथा रुचि के अनुसार बोलते हैं। इससे साधारण बोली तथा साहित्यिक बोली में अंतर पड़ जाता है। सर्व साधारण की बोली प्राकृत कहलाती है। लेकिन जैसे साहित्यिक भाषा का प्राकृत पर असर पड़ता था वैसे ही प्राकृत का साहित्यिक भाषा पर पड़ता था। इस मिश्रण से साहित्यिक के लोग घबरा गए और इस प्रभाव को रोकने की चेष्ठा होने लगी।.... आखिरकार पाणिनि ने.... अपने समय तक की भाषा के आधार पर एक बहुत विस्तृत व्याकरण बनाया वही आदर्श व्याकरण हुआ।"

इस उदाहरण से हमारी केवल इतनी ही मंशा है कि पाठक सहज ही में जानले कि साहित्यिक संस्कृत का ज्ञात प्राकृतिक संस्कृत में जाट और जट हो गया। स्वर्गीय जगमोहन जी वर्मा ने 'माधुरी' के पांचवें वर्ष के पहले खंड की पांचवी संख्या में 'भाषा का विकास' नामक लेख में हमारी ऊपर कही हुई बातों के समर्थन जैसी बातें लिखते हुए कहा है कि - पंजाबी (पैशाची) प्राकृत में ज्ञ और के स्थान पर होता है। और किसी-किसी के मत से वर्ग के स्थान में वर्ग हो जाता है। इस साक्षी के पश्चात इस बात में कोई संदेह नहीं रह जाता की ज्ञात के ज्ञ का और का हो गया। इस तरह शब्द ज्ञात का जाट बन गया। श्री आनंद बंधुओं ने भी माधुरी के चौथे वर्ष के दूसरे खंड की तीसरी


[पृ.69]: संख्या में ऐसी ही बात लिखी थी कि प्राकृत में के स्थान पर हो जाता है। वे लिखते हैं- "हमें इस बात का पूर्ण ज्ञान है कि पंजाबी हिंदू-आर्य-भाषाओं के मध्य प्रांत की भाषा है, और यह निरी मिश्रित भाषा ही है। परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि लुंडा पंजाबी और पश्चिमी हिंदी तथा सिंधी यह सारी भाषाएं प्राकृत से निकली हैं। उदाहरण के तौर पर देख लीजिए भक संस्कृत शब्द अपभ्रंश प्राकृत में भट्ट है जो पश्चिमी हिन्दी में भत और सिंधी में भट है।"

अब इसी तरह अपने संस्कृत शब्द ज्ञात को लीजिये। ज्ञात कि पश्चिमी हिन्दी जात बनी, प्राकृत जट्ट और सिंधी (प्राकृत का सुधार रूप) जट बना। हम कह चुके हैं कि पाणिनी गांधार देश का रहने वाला पंडित था। गांधार बहुत दिनों तक सिंध का सूबा रहा है। अर्थात सिंध और गांधार की बोलचाल में अधिक अंतर नहीं है। पाणिनी ने इसी जट को अपने धातु पाठ में दर्ज जिया है।

जट शब्द कब से प्रसिद्ध हुआ

अब देखना यह है कि जट शब्द कब से प्रसिद्ध हुआ? और कब? किस कारण से ज्ञात नाम रखा गया? जट अथवा जाट नाम की प्रसिद्धि के लिए तो इतना ही कहना काफी होगा कि पाणिनी को हुये साढ़े 4 हजार वर्ष का अरसा होता है। क्योंकि चंद्रगुप्त के समकालीन ब्याड़ी और शौनिक ऋषि से वे 11 गुरु पीढ़ी पहले पहले पदम मुनि के समय में हुए थे और पदम मुनि युधिष्ठिर की आठवीं शताब्दी में हुये। इस तरह हम


[पृ.70]: पाणिनि का समय अब से 4000 और 4300 वर्षों के बीच मानते हैं। उनके व्याकरण में जट शब्द के आने से स्पष्ट पता चलता है कि अब से साधे 4 हजार वर्ष पहले जट शब्द प्रसिद्ध हो चुका था। इसके बाद बराबर जाट शब्द का प्रयोग होता रहा है जिससे कि हमें कई उदाहरण भी मिलते हैं। ईसा से 800 वर्ष पहले दिल्ली में जीवनसिंह जाट का पूर्वज राजा वीरमहा राज करता ही था। भगवान महावीर का खानदान ज्ञातृ और (ञांत) णांत के नाम से मशहूर था। ज्ञातृ तो उसी संस्कृत की ज्ञात का रूपांतरण है और णांत सिर्फ बोलचाल का अंतर है। मागधी प्राकृत णांत का हिंदी जाट ही होता है। इसे भाषा शास्त्री बखूबी जान सकते हैं। कुछ लोगों ने भूल से इसे नाट और नात बनाने की भूल की है। उत्तरी प्राकृत के कायदे से के ज्ञ,न, ण और ज अपढ़ों की भाषा में परस्पर बदल जाते हैं। इसके बाद अभिधान जातक, मणिमेखला ग्रंथ और चंद्र के व्याकरण में भी हम जाट शब्द का प्रयोग पाते हैं।*

अब हम ज्ञात शब्द के ऊपर प्रकाश डालते हैं, क्योंकि हम जाट शब्द को ज्ञात शब्द का ही रूपांतर मानते हैं। यह ऊपर बता ही चुके हैं कि ज्ञात से जात और फिर जाट और जट शब्द भाषा (उच्चारण) भेद से बन गये। भाई परमानंद जी भी जात से बना हुआ जाट शब्द मानते हैं किंतु उनका जात हैहय वंशी


* ज्ञाति के माने आमतौर पर जाति या कौम के ही है।


[पृ.71]: राजा सुजात का भाई है।* रिसाला जिहाद के लेखक और आर्य समाज के प्रकांड विद्वान पंडित लेखराम जी ने जात का रूपांतरण जाट किया है। उन्होंने जादू से जाद फिर जात और तत्पश्चात जाट बनाया है। कहने का मतलब यह है कि जात से जाट बनाने की दलील में अनेकों विद्वानों का मत हमारे साथ है। और ज्ञात से हिन्दी जात होने के नियम से साधारण लोग भी जानकार हैं। वैसे भी ज्ञ अक्षर ज+ञ् का संयोजन ही तो है।

लगे हाथ यह भी बता देना ठीक होगा कि जैसे भारत में जाट शब्द को लोग जट, जट्ट और ज्याट नाम से बोलते हैं, वैसे इस शब्द को अरबी लोगों ने ज़त, चीनी लोगों ने यूती, यूरोपियन लोगों ने जेटी, जेटा और रोमन लोगों ने गात, गाथ नामों से पुकारा है। ये सब नाम ज्ञात और जात से ही बने हैं। रोमन लिपि में ज्ञात Giota अथवा Giate अक्षरों से लिखा जाता है, जो पढ़ने में गेटा, जेटा, गिआट (गात), जिओटी, जिआति सहज ही हो सकता है। उच्चारण भेद से वे सब शब्द इसी Giote के पढे जा सकते हैं जो कि देशी विदेशी इतिहासों में पाए जाते हैं। यहां भारत में भी एक लंबे अरसे तक ज्ञात और जात शब्द का प्रयोग साथ ही साथ होता रहा है। जैसा कि हम पहले श्री नलिनी मोहन का कथन पेश कर चुके हैं कि


* तारीख राजस्थान उर्दू भाई जी की लिखी हुई।


[पृ.72]: अपढ़ और साधारण लोग साहित्यिक भाषा का प्रयोग न करके उन्हीं शब्दों को अपनी शक्ति और रुचि के अनुसार प्रयोग में लाते हैं। युधिष्ठिर को जुधिट्ठल, दुर्योधन को जरजोधन और कृष्ण को कान्हा कहने वालों की संख्या अब भी कम नहीं है। ईरानी और अरबी लोग, जिनका की पड़ोसी होने के कारण गांधारी और सिंधी जाटों से काफी संबंध था, जात शब्द की जगह जत शब्द का प्रयोग करते थे और यूरोपियन लोगों को जिन्हें कि कैस्पियन और जगजार्टिस नदियों के किनारों से जाने वाले जाटों से पाला पड़ा था उन्हें ज्ञात और जात अथवा जाट की अपेक्षा उच्चारण भेद से जेटा, गेटा, गाथ आदि कहना पड़ा। चीनी लोगों ने श्यूची और यूहची अथवा यूति नाम से पुकारा है। श्युची शब्द भारतीय जाटों की शिवि शाखा के कारण प्रसिद्ध हुआ क्योंकि इनका गिरोह मानसरोवर और कश्मीर के पास काफी दूर तक पहुंच गया था। यूती शब्द की बात पहले ही लिख दी गई है।

महाभारत में ज्ञाति का संदर्भ

यह ज्ञात शब्द भगवान कृष्ण द्वारा स्थापित ज्ञाति के सदस्यों के लिए व्यवहरित होता था। भगवान कृष्ण ने द्वारिका में (ज्ञाति राष्ट्र की स्थापना की थी)। प्रमाण के लिए यहां महाभारत का यह संदर्भ पेश करते हैं-

श्लोक

नासुहृत् परमं मन्त्रं नारदार्हति वेदितुम् ।

अपण्डितो वाऽपि सुहृत्पण्डितो वाप्यनात्मवान् ॥3॥


[पृ.73]

सते सौहृद मास्थाय किं चिद् वक्ष्यामिनारद ।

कृत्स्नां बुद्धिं च तेप्रेक्ष्य संपृच्छे त्रिदिवडग्म ॥4॥

दास्य यैश्वर्य वादेन ज्ञातीनां वै करोम्यहम् ।

अर्धभोक्ताऽस्मि भोगानां वाग् दुरूक्तानि चक्षभे ॥5॥

अरणींमग्निकामो वा मथ्नाति हृदयंमम।

वाचा दुरूक्तं देवर्षें तन्मां दहतिनित्यद ॥6॥

बलं संकर्षणं नित्यं सौकुमारूर्यं पुनर्गदे

रूपेणमत्तः प्रद्युम्रुः सोऽसहायोऽस्मि नारद ॥7॥

अन्येहि सुमहाभागा बलवन्तोदुरा सदाः ।

नित्योत्थानेन सम्पन्ना नारदांधकवृष्णयः ॥8॥

यस्य न स्युर्न स स्याद्यस्य स्युः क्रृत्स्नमेव तत्।

द्वयोरेनं प्रचरतोर्वृणोम्येकतरं न च ॥9॥

स्यातां यस्याहुकाक्रूरौ किं नु दुःखतरं ततः ।

यस्य चापि न तौ स्यातां किं न दुःखतरं ततः ॥10॥

सोऽहं कितव मातेव द्वयोरपि महामुने ।

नैकस्य जयमाशं से द्वितीयस्य पराजयम् ॥11॥

ममैव क्लिश्यमानस्य नारदो भयदर्शनात् ।

वक्तुमर्हसि यच्छ्रेयो ज्ञातीनामात्मनस्तथा ॥12॥


[पृ.74]

नारद उवाच

आपदो द्विविधा कृष्णः बाह्मश्चाभ्यन्तराश्च ह।

प्रादुर्भवन्ति वार्ष्णेय स्वकृता यदि वाऽन्यतः॥13॥

सेयमाभ्यन्तरा तुभ्यमापत् कृच्छ्रा स्वकर्मजा ।

अक्रूरभोज प्रभवासर्वेह्येते तदन्वयाः ॥14॥

अर्थहेतोर्हि कामाद्वा वीर वीभत्स याऽपि वा।

आत्मना प्राप्तमैश्वर्य मन्यत्र प्रतिपादितम् ॥15॥

कृतमूलमदानीतंत् ज्ञातिशब्दं सहायवत्।

न शक्यं पुरा दातुं वान्तमनन मिवस्वयम् ॥16॥

वभ्रूगसेन तो राज्यं नाप्तुं शक्यं कथं च न।

ज्ञातिभेदभयात्कृष्ण त्वया चाऽपि विशेषतः ॥17॥

तच्च सिद्धयेत्प्रयत्नेन कृत्वा कर्म मुदुष्करम्।

माहक्षरं ब्ययो वास्या द्विनाशो वा पुनर्भवेत् ॥18॥

अनायसेन शस्त्रेण मृदुना हृदयच्छिदा ।

जिव्हा मुद्धर सर्वेषां परिमृज्यानु मृत्य च ॥19॥

वासुदेव उवाच

अनायसं मुने शस्त्रं मृदु विद्यामहं कथम्।

येनैषामुद्धरे जिह्नां परिमृज्यानुमृज्य च ॥20॥


[पृ.75]

नारद उवाच

शक्यान्नदाने सततं तितिक्षाऽऽर्जवमार्दवम् ।

यथार्थप्रतिपूजा च शस्त्रमेतदनायसम् ॥21॥

ज्ञातीनां वक्तुकामानां कटुकानि लघूनि च।

गिरा त्वं हृदयं वाच शमयस्व मनांसि च।।22।।

नामहापुरूषः कश्चिन्नामानासहायवान् ।

महतीधुरमादाय समुद्यम्योरसा वहेत् ॥23॥

सर्व एव गुरूं भारतमनड्वान् वहते समे।

दुर्गे प्रतीतः सुगवो भारं वहति दुर्वहम् ॥24॥

भेदाद् विनाशः संघानां संघमुख्योसि केशव ।

यथा त्वां प्राप्य नोत्सीदेदयं संघस्तथा कुरू ॥25॥

नान्यत्र बुद्धिक्षान्तिभ्यां नान्यत्रेन्द्रियनिग्रहात् ।

नान्यत्र धनसन्तयागात् गुणः प्राज्ञेऽवतिष्ठते ॥26॥

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वपक्षेद्भावनं तथा ।

ज्ञातीनामविनाशः स्याद्यथा कृष्ण तथा कुरू ॥27॥

आयत्यां च तछात्वे च न तेऽस्त्यविदितं प्रभो ।

षाड्गुण्यस्य विधाने च यात्रामानविधौ तथा ॥28॥

यादवाः कुकुरा भोजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः

त्वरूयायत्ता महाबाहो लोकालोकेश्वराश्च ये ॥29॥


[पृ.76]

अर्थात् - वासुदेवजी बोले - हे नारद ! राज्य सम्बन्धी महत्वपूर्ण बातें न तो उसी से कही जा सकती हैं जो अपना मित्र नहीं है, न उस मित्र से कही जा सकती है जो पण्डित नहीं है और न उस पण्डित से कही जा सकती हैं जो आत्मवान् या आत्म-संयमी नहीं है ॥3॥

हे नारद ! तुम में मैं वह सच्ची मित्रता पाता हूं जिस पर मैं निर्भर रह सकता हूं, इसलिए मैं तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूं । हे सुप्रसन्न ! तुम्हारी वृद्धि बहुत प्रबल है, इसलिए मैं तुमसे एक बात पूछना चाहता हूं ॥4॥

यद्यपि लोग उसे ऐश्वर्य या प्रभुत्व कहते हैं तथापि मैं जो कुछ करता हूं वह वास्तव में अपनी जाति के लोगों का दासत्व है। यद्यपि मैं अच्छे वैभव या शासनाधिकार का भोग करता हूं, तथापि मुझे उनके केवल कठोर वचन ही सहने पड़ते हैं ॥5॥

हे देवर्षि ! उन लोगों के कठोर वचनों में मेरा हृदय उसी आरणी की भांति जलता रहता है जिसे अग्नि उत्पन्न करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति मथन करता है । वे वचन सदा मेरे हृदय को जलाते रहते हैं ॥6॥

(यद्यपि) संकर्षण अपने बल के लिए और गद अपने राजसी गुणों के लिए सदा से बहुत प्रसिद्ध हैं और प्रद्यमन रूप से मत्त है। तथापि हे नारद ! मैं असहाय


[पृ.77] हूँ, कोई मेरी सहायता करने वाला या अनुकरण करने वाला नहीं है ॥7॥

दूसरे अन्धक और वृष्णि लोग वास्तव में महाभाग, बलवान् और पराक्रमी हैं । हे नारद ! वे लोग सदा राजनैतिक (उत्थान) बल से सम्पन्न रहते हैं ॥8॥

वे जिसके पक्ष में हो जाते हैं उसकी सब बातें सच हो जाती हैं और यदि वे किसी पक्ष में न हों तो फिर उसका अस्तित्व ही नहीं रह सकता । यदि आहुक और अक्रूर किसी व्यक्ति के पक्ष में हों तो उसके लिए इससे बढ़कर और कोई आपत्ति ही नहीं हो सकती । और यदि वे किसी व्यक्ति के पक्ष में न हों तो उसके लिए इससे बढ़कर और कोई आपत्ति ही नहीं हो सकती । मैं दोनों दलों में से किसी दल का निर्वाचन नहीं कर सकता ॥9-10॥

हे महामुने! इन दोनों के बीच में मैं उन दो जुवारियों की माता की भांति रहता हूं जो आपस में एक दूसरे के साथ जुआ खेलते हैं और वह माता न तो इस बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक जीते और न इस बात की आकांक्षा कर सकती है कि अमुक हारे। अब हे नारद ! तुम मेरी अवस्था और साथ ही मेरे सम्बन्धियों की अवस्था पर विचार करो और कृपाकर मुझे कोई ऐसा उपाय बतलायें जो दोनों के लिए श्रेय (कल्याण कारक) हो। मैं बहुत ही दुखी हो रहा हूं ॥11-12॥


[पृ.78]: नारद ने कहा - हे कृष्ण ! (प्रजातन्त्र गण में) दो प्रकार की आपत्तियां होती हैं । एक तो बाह्य या बाहरी और दूसरी आभ्यंतर या भीतरी, अर्थात् एक तो वे जिनका प्रादुर्भाव अपने अन्दर से होता है और दूसरी वे जिनका प्रादुर्भाव अन्य स्थान से होता है ॥13॥

यहां जो आपत्ति है वह आभ्यंतर है। वह (सदस्यों) स्वयं अपने कर्मों से उत्पन्न हुई । अक्रूर, भोज अनुयायी और उनके सब सम्बन्धी या जाति के लोग धन प्राप्ति की आशा से सहसा प्रवृत्ति बदलने के कारण अथवा वीरता की ईर्ष्या से युक्त हो गए हैं और इसीलिए उन्होंने जो राजनैतिक अधिकार ऐश्वर्य प्रतिपादित किया था, वह किसी दूसरे के हाथ में चला गया है ॥14-15॥

जिस अधिकार ने जड़ पकड़ ली है और जो ज्ञाति शब्द की सहायता से और भी दृढ़ हो गया है, उसे लोग वमन किए हुए भोजन की भांति से वापस नहीं ले सकते।

ज्ञात या सम्बन्धी में मत-भेद या विरोध होने के भय से वभ्रू-उग्रसेन राज्य या शासनाधिकार वापस नहीं ले सकते । हे कृष्ण! विशेषतः तुम उनकी कुछ सहायता नहीं कर सकते ॥16-17॥

यदि कोई दुष्कर नियम विरूद्ध कार्य करके यह बात कर भी ली जाय, उग्रसेन को अधिकार च्युत कर दिया जाय, उसे प्रधानपद से हटा दिया जाय, तो महाक्षय, व्यय अथवा विनाश तक हो जाने की आंशका है ॥18॥


[पृ.79]: अगर तुम ऐसे शस्त्र का व्यवहार करो जो लोहे का न हो बल्कि मृदु हो और फिर भी जो सबके हृदय छेद सकता हो उस शस्त्र को बार-बार रगड़कर तेज करते हुए सम्बन्धियों की जीभ काट दो, उनका बोलना बन्द कर दो ॥19॥

वासुदेव ने कहा - हे मुनि ! तुम मुझे यह बताओ वह कौन-सा ऐसा शस्त्र है जो लोहे का नहीं है, जो बहुत ही मृदु है, और फिर भी जो सबके हृदय छेद सकता है और जिसे बार-बार रगड़कर तेज करते हुए मैं उन लोगों की जीभ काट सकता हूं ॥20॥

नारद ने कहा - जो शस्त्र लोहे का बना हुआ नहीं है, वह यह है कि जहां तक तुम्हारी शक्ति हो सके उन लोगों को कुछ खिलाया-पिलाया करो । उनकी बातें सहन किया करो। अपने अंतःकरण को सरल और कोमल रखो और लोगों की योग्यता के अनुसार उनका आदर सत्कार किया करो ॥21॥

जो सम्बन्धी या ज्ञाति के लोग कटु और लघु बातें कहते हैं, उनकी बातों पर ध्यान मत दो और अपने उत्तर से उनका हृदय और मन शान्त करो ॥22॥

जो महापुरूष नहीं है, आत्म-बलवान नहीं है और जिसके सहायक या अनुयायी नहीं है, वह उच्च राजनैतिक उत्तरदायित्व का भार सफलतापूर्वक वहन नहीं कर सकता ॥23॥

समतल भूमि पर तो हर एक बैल भारी बोझ लादकर चल सकता है पर कठिन बोझ लाद कर कठिन मार्ग पर चलना केवल बहुत बढ़िया और अनुभवी बैल का ही काम है ॥24॥


[पृ.80]: केवल भेद-नीति के अवलम्बन से संघो का नाश हो सकता है। हे केशव! तुम संघों के मुख्य नेता हो या संघों ने तुम्हें इस समय प्रधान के रूप में प्राप्त किया है। अतः तुम ऐसा काम करो जिससे यह संघ नष्ट न हो। बुद्धिमत्ता, सहनशीलता इन्द्रिय-निग्रह और उदाहरता आदि ही वे गुण हैं जो किसी बुद्धिमान मनुष्य में किसी संघ का सफलता पूर्ण नेतृत्व करने के लिये आवश्यक होते हैं ॥25-26॥

हे कृष्ण ! अपने पक्ष की उन्नति करने से सदा धन, वंश और आयु की वृद्धि होती है। तुम ऐसा काम करो जिससे तुम्हारे सम्बन्धियों या ज्ञातियों का विनाश न हो। हे प्रभु! भविष्य सम्बन्धी नीति, वर्तमान सम्बन्धी नीति, शत्रुता की नीति, आक्रमण करने की कला और दूसरे राज्यों के साथ व्यवहार करने की नीति में से एक भी बात ऐसी नहीं है जो तुम न जानते हो ॥27-28॥

हे महाबाहो ! समस्त अंधक-वृष्णि-यादव, कुकुर और भोज, उनके सब लोग और लोकेश्वर अपनी उन्नति तथा सम्पन्नता के लिये तुम्हीं पर निर्भर करते हैं ॥29॥ *


*उपर्युक्त श्लोकों का अर्थ ‘हिन्दू राज्य तंत्र’ से लिया गया है।

श्रीकृष्ण द्वारा ज्ञाति-संघ की स्थापना

Lord Krishna

महाभारत के उपर्युक्त सन्दर्भ (कथा) का सारांश यह है कि - यदुवंश के दो कुलों - अंधक और वृष्णियों - ने एक राजनैतिक-संघ (लीग) स्थापित किया था। उस संघ मे दो राज


[पृ.81]: नैतिक दल थे जिनमें एक की तरफ श्रीकृष्ण और दूसरे की तरफ उग्रसेन थे । कृष्ण दल के जो लोग थे, वे बलवान बुद्धिमान होते हुए भी आलसी और प्रमादी थे। इसीलिये दूसरे दल के मुकाबले में श्रीकृष्ण को वाद-विवाद के समय अधिक दिक्कतें उठानी पड़ती थीं। उनकी पार्लियामेंट या कोन्सिल में खूब वाद-विवाद हुआ करते थे, क्योंकि वह प्रत्येक राजनैतिक काम में प्रभुत्व स्थापित करना चाहती थी । इन्हीं अपनी कठिनाइयों का वर्णन श्रीकृष्ण ने नारद से किया है और नारद ने उन्हें जोर के साथ यही सलाह दी है कि जैसे भी बन सके संघ (फेड्रेशन) को नष्ट न होने दें। अर्थात् संघ को नारद अत्युत्तम समझते थे।

संघ-संचालन के लिए जिन गुणों की आवश्यकता होती है, वे भी उन्होंने श्रीकृष्ण को बताए। हम पहले अध्याय में यह बता चुके हैं कि श्रीकृष्ण प्रजातंत्रवादी विचार के लोगों में से थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासंघ, कंस, शिशुपाल आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। श्रीकृष्ण का और उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने गौपराष्ट्र, नवराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाल दी थी। मगध में जरासंघ ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया था। कंस को परास्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने यादवों के अनेक प्रजातन्त्री समूहों को श्रृंखलाबद्ध करने के लिए जरासंघ की निगाह से सुदूर द्वारिका में जा के एक ऐसी शासन-प्रणाली की


[पृ.82]: नींव डाली जो प्रजातंत्री भी थी और जिसमें अनेक जातियां शामिल भी हो सकती थीं । इस शासन-प्रणाली को संयुक्त शासन-तंत्र या भोज-शासन-सम्बन्ध कह सकते हैं। इसमें प्रत्येक दल की तरफ से एक प्रेसिडेंट होता था जैसा कि ऊपर के वर्णन से प्रकट है कि अंधकों की ओर से उग्रसेन और वृष्णियों की ओर से श्रीकृष्ण निर्वाचित सभापति या प्रधान थे। हमारे इतिहास से सम्बन्धित बातें जो उक्त सन्दर्भ में निकलती हैं, वे ये हैं-

1. श्रीकृष्ण द्वारा स्थापित जिस संघ का ऊपर वर्णन किया गया है ज्ञाति-संघ कहलाता था,

2. कोई भी राजकुल या जाति इस जाति-संघ में शामिल हो सकती थी,

3. चूंकि यह संघ ज्ञाति-प्रधान था, व्यक्ति-प्रधान नहीं, इसलिए संघ में शामिल होते ही उस जाति या वंश के पूर्व नाम की कोई विशेषता न रहती थी। वह ‘ज्ञाति’ संज्ञा में आ जाता था। हां, वैवाहिक सम्बन्धों के लिए वे अपने वंशों के नाम को स्मरण रखते थे जो कालांतर में गोत्रों के रूप में परिणत हो गए,

4. ज्ञाति के स्थापन से एक बात यह और हुई कि एक ही राज्यवंश के कुछ लोग साम्राज्यवादी विचार के होने के कारण और कुछ लोग प्रजातंत्रवादी मत रखने से दो श्रेणियों में विभाजित हो गए। एक साम्राज्यवादी अथवा राजन्य, दूसरे प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी)। ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के


[पृ.83]: ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए।

श्रीकृष्ण के इस संघ का अनुकरण कर पूर्वोत्तर भारत में अनेक क्षत्रिय जाति अथवा राजवंशों ने ज्ञाति (संघ) की स्थापनायेन की।

पाणिनि ने 5.3.114 से 117 तक वाहीक देश के संघों के सम्बन्ध में तिद्धत के नियम दिए हैं। उन नियमों से यही सिद्ध होता है कि आर्य-जाति और राजवंशों के सम्मिलित से संघ स्थापित होते थे। श्री काशीप्रसाद जायसवाल हिन्दू राज्यतन्त्र में लिखते हैं कि - पाणिनि धार्मिक संघों से परिचित नहीं था। उसने अपने व्याकरण में जिन संघों का उल्लेख किया है वे सब राजनैतिक (प्रजातन्त्री) संघ थे।

ऐसे संघ अर्थात् इस तरह की ज्ञाति सबसे अधिक ‘वाहीक’ देश (पंजाब, सिन्ध, गन्धार) में बनी थी। काशीप्रसाद जायसवाल ने ‘वाहीक’ का अर्थ नदियों का प्रदेश माना है जिससे कि हमारे कथन की पुष्टि होती है। महाभारत में शान्तनु के भाई वाल्हीक के देश को ‘वाहीक’ कहा है और वाल्हीक प्रतीक का पुत्र और शान्तनु का भाई बताया गया है। इससे यह मतलब निकलता है कि पंजाब में अधिकांश संघ चन्द्रवंशी क्षत्रियों के थे। बिहार में अथवा नेपाल की तराई में शाक्य और वृजियों तथा लिच्छिवि आदि के संघ थे। यहां एक ऐसे राज्यवंश


[पृ.84]: का भी पता चलता है जो कि अपने लिए ज्ञातृ कहते थे जो कि हमारे ज्ञात शब्द का समान-वाची है जिसमें कि भगवान महावीर पैदा हुए थे।

यह हम काफी बहस के साथ पिछले पृष्ठों में बता चुके हैं कि संस्कृत ज्ञात का हिंदी उच्चारण जात होता है। और यह भी बता चुके हैं कि जिस समय हमें ज्ञात से जात अथवा जाट आम बोलचाल में प्रयोग होने लगा, उस समय उत्तर भारत के साधारण जनों की भाषा संस्कृत मिश्रित पैशाची (प्राकृत) थी। अत: यह बिल्कुल सही बात है कि उस समय के सर्वसाधारण के भाषा उच्चारण भेद से साहित्य संस्कृत का ज्ञात शब्द जाट अथवा जट हो गया। और उसी को उत्तर भारत के प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनी जो कि जाटों के मध्य में पैदा हुआ था अपने धातुपाठ में जट नाम से प्रयोग किया है।*

ज्ञाति का इतिहास - प्रसंगवश यहां हम श्रीकृष्ण जी द्वारा संस्थापित ज्ञाति का इतिहास भी दे देना चाहते हैं। क्योंकि यह विषय राजनीति से संबंध रखता है इसलिए इस संबंध में कुछ विस्तार से समझाना पड़ेगा। भगवान श्रीकृष्ण जी जिस समय पैदा हुए थे उस समय भारत में अनेक प्रकार की शासन पद्धतियां प्रचलित थी। और हजारों ही खानदान राज्य करते थे। वैराज्य, स्वराज्य


*जाटों में इस समय संस्कृत के बड़े-बड़े पंडित मौजूद हैं उनका कर्तव्य है कि अन्य ग्रंथों से जाट शब्द के प्रयोग के और भी उदाहरण ढूंढे।


[पृ.85]:साम्राज्य, भौज्य, द्वैराज्य और गणराज्य आदि आदि। एतरेय ब्राह्मण में इन शासन प्रणालियों की चर्चा की है। इन सबका विस्तारपूर्वक वर्णन तो अगले पृष्ठों में करेंगे यहां तो यही बताना है कि इतनी प्रकार की शासन-प्रणालियों के प्रयोग को सफल बनाने के लिए काफी संघर्ष भी चल रहा था। मगध देश का अधिपति जरासंध उस समय के राजनीतिज्ञों में सर्वोपरि था और वह सारे देश में अपना साम्राज्य कायम करने का इच्छुक था। शिशुपाल, दंतवक्र, कंस आदि जो कि उसके रिश्तेदार भी थे उनके इस मत के पोषक थे। वह छोटे राज्यों को एकदम मिटा देना चाहते थे। महाभारत के पढ़ने से पता चलता है कि लगभग 150 राजा जरासंध ने राजच्युत करके बंदी बना रखे थे। इधर कंस ने भी उसी नीति को अख्तियार करके छोटे-छोटे राजाओं को अपने वशीभूत कर लिया था। ब्रज के स्वतंत्र राजाओं की सत्ता नष्ट कर दी गई थी। उन्हें केवल गोप (ग्राम अध्यक्ष) के रूप में रहने दिया गया था। ये सब कंस को टैक्स देते थे। वृष्णि राज्य का अधिपति वसुदेव केवल विचार भिन्नता के कारण जेल में डाल दिया गया था। इन्हीं वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण थे जो कि अपने पिता की भांति ही साम्राज्यवादी विचारों के खिलाफ थे। उन्होंने ब्रज के वृष, अंधक, नव और गोप लोगों का संगठन किया और कंस को इस दुनिया से उठा दिया। कंस के मारे जाने के बाद जरासंध आग बबूला हो गया। उसने बृज पर चढ़ाई की किंतु पहली लड़ाई में उसे पता चल गया कि


[पृ.86]:इधर के समस्त छोटे-छोटे राज्य संगठित हो गए हैं इनसे जीतना मुश्किल है; फिर भी उसने अपनी अटूट ताकत के बल पर ब्रज का ध्वंस कर दिया। कामा के पास घाटा की पहाड़ियों में जो लड़ाई उसकी हुई उसमें उसको बहुत क्षति हुई। साथ ही उसे यह भी यकीन हो गया कि ब्रजवासियों के दल को जिस पहाड़ पर घेरकर आग लगाकर उसने भस्मीभूत कर दिया है उसमें कृष्ण बलदेव भी जल गए होंगे। वह अपने देश को लौट गया। जरासंध के लौट जाने पर श्रीकृष्ण जी ने बहुत कुछ सोच विचार के बाद ब्रज को छोड़ दिया। उन्होंने वही किया जो विद्रोही लोग किसी राज्य को नष्ट करने के लिए करते हैं। बहुत दूर और दुर्गम स्थानों को पार करके काठियावाड़ में उन्होंने द्वारिका नगरी बसाई। ब्रज से उनके साथ समस्त वृष्णी, अंधक, शूर और माधव लोग चले गए थे। उन्होंने द्वारिका में जाकर ज्ञाति राज्य की स्थापना की। ज्ञाति के साधारण अर्थ जाति के होते हैं। साम्राज्य का ठीक विरोधी वास्तव में ज्ञाति राष्ट्र ही है। श्रीकृष्ण चाहते थे कि सारे देश में जाति राष्ट्र कायम हो जाए। वास्तव में किसी भी जाति की अपनी सभ्यता और अपने रस्मो-रिवाज होते हैं। जिनकी रक्षा जाति राष्ट्र ही में हो सकती है।*


* जाति-राष्ट्र में किसी भी जाति को उस पर अभिमान और आत्मीयता होती है और जाति अविच्छिन्न नहीं होती। साम्राज्य में अनेक जातियों का मिश्रण होने के कारण प्रजा का महत्व नहीं होता।


[पृ.87]:यहां यह बता देना भी जरूरी है कि भारत उस समय अनेक कुल राज्यों (कबीलों के राज्यों) में बटा हुआ था। इनमें कोई कोई तो इतने छोटे थे कि एक दो गांव के ही मालिक थे। केवल ब्रज में ही जो कि चौरासी कोस में सीमित है, नौ नंदवंशियों के, वृष लोगों के, दो शूरों के राजा थे। इनके अलावा अंधक, नव, कारपशव और वृष्णि भी इसी चौरासी कोस के भीतर राज्य करते थे। ये इतने छोटे राज्य बाहरी आक्रमणों से अपनी कुछ भी रक्षा नहीं कर सकते थे। इसलिए श्रीकृष्ण ने इनके सामने यही प्रस्ताव रखा कि कुल (कबीलों) के राज्य को जाति राज्य का रूप दे दो। द्वारिका में जाकर उन्होंने जाति अथवा ज्ञाति राज्य की स्थापना की थी। उसमें आरंभ में अंधक और वृष्णि लोग शामिल हुए थे। ये दोनों ही कुल अथवा कबीले थे। इनकी शासन सभा में प्रत्येक कुल का कुलपति शामिल होता था। धीरे धीरे यह ज्ञाति राष्ट् जोर पकड़ता गया। मालूम तो ऐसा होता है कि यादव जाति का प्राय सारा ही समूह चाहे वे शूर, दशार्ण, भोज, कुंतिभोज, कांबोज कुछ भी कहलाते हों, जाति राष्ट्र के रूप में परिणित हो गया था। महाभारत के युद्ध में भी बहुत संख्या में यही लोग थे। द्वारिका के अलावा मध्य भारत, पंजाब और मगध में भी जाती राष्ट्र की स्थापना हो गई थी महाभारत में मालवा के बिंदु और अनुबंध दो राजा शामिल हुए थे जो जाति राष्ट्र के ही प्रतिनिधि थे।


[पृ.88]: ज्ञाति अथवा जाति राष्ट्रों के संबंध में 'भारत शासन पद्धति' के लेखक और पटना कॉलेज के प्रोफेसर पंडित राधाकृष्ण झा m.a. ने इस प्रकार लिखा है-

"बौद्धयुग के बाद में जातीय राष्ट्रों का अंत हो गया। एक राष्ट्र दूसरे से या तो मिल-जुल गया था या उनने आपस में लड़ झगड़ कर जातीय राष्ट्र को नष्ट कर दिया।.... इस सम्राज्य के युग में जाति बंधन का स्थान देश ने ले लिया। जिस प्रकार जातीय राष्ट्रों के समय में एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से केवल जाति के कारण अलग समझा जाता था, उसी तरह इस युग में दो साम्राज्यों की प्रजायें (जातियां) विभिन्न राष्ट्रों में रहने के कारण पृथक-पृथक समझी जाने लगी।"* झा महोदय का हवाला हमने केवल इसलिए दिया है कि 'महाभारत के संदर्भ' की वह कथा भली प्रकार समझ में आ जावे।

अब इतना और दोहराना है कि इस 'जाति-राष्ट्र-पद्धति में विश्वास रखने वाले लोग जातिवादी अथवा ज्ञात कहलाते थे जैसे आजकल सोशलिज्म में विश्वास रखने वाले सोशलिस्ट और समाजवाद में विश्वास रखने वाले सामाजिष्ट कहलाते हैं।


* पाठक सरलता से इस प्रकार समझ लें कि साम्राज्य ढंग की हुकूमत में भरतपुर के जाट बीकानेर और जयपुर के जाटों से अलग हैं। जाति राष्ट्र में यह सब एक होते और इनका अपना राज्य होता। इस समय उन्हें देश की सीमाओं में अलग कर रखा है। उस समय उन्हें दूसरी जाति अलग करती।


[पृ.89]: अरबी और फारसी वाले इन्हीं जातों (जाटों) को ज़त के नाम से पुकारते थे। * यहां फारसी वालों का एक कटु वाक्य जाटों के संबंध में उद्धृत करके इस प्रकरण को समाप्त करते हैं:-

"तू मार मै: वज़ना ऊ तूर ज़त मर करह"।

अर्थात- काले सांप के बदले काले जात (जाट) को मार डालना ज्यादा अच्छा है। संभव है एक समय जाट उनके लिए इतने ही दुखदाई रहे हों, जिसके कारण उन्हें चिढ़कर ऐसा कटु वाक्य कहना पड़ा। किंतु हमने तो इस कटु वाक्य को इसलिए अदधृत किया है कि पाठक इस सच्चाई को जान लें कि अरब के लोग जाट को ज़त कहते थे।


* तारीख फरिस्ता में भी ज़त शब्द का ही प्रयोग जाटों के लिए किया गया है।


चौथा परिछेद समाप्त

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