Ladu Ram Bijarnia

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(Redirected from Laduram Raniganj)
Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Ladu Ram Bijarnia (Raniganj) of Khandelawati

Ladu Ram Bijarnia (चौधरी लादूराम रानीगंज) (1899 - ) from village Gordhanpura Sikar was a leading Freedom Fighter who took part in Shekhawati farmers movement in Rajasthan. He had been to Raniganj in W. Bengal for business purpose so he was also known as Laduram Raniganj. He assisted financially to Thakur Deshraj in writing of Book on Jat History. He was elected Sarpanch of Khandelawati Panchayat in 1933.

Establishment of ‘Shekhawati Kisan Jat Panchayat’

With the efforts of Thakur Deshraj a Sabha of Rajasthan Jat Mahasabha took place at Badhala village in Palsana. It was attended by famous revolutionary Vijay Singh Pathik, Baba Nrisingh Das and Ladu Ram Bijarnia of (Gordhanpura Sikar). It was resolved in the meeting of the Sabha that –

  1. Jat Panchayats be established to prevent the excesses of Jagirdars,
  2. The sons of farmers be given education and fight with Jagirdars with the organizational support.
  3. Efforts be made for the economical, social and cultural development of farmers.
  4. The farmers be given the khatoni parcha after the settlements of their lands.

With these objectives ‘Shekhawati Kisan Jat Panchayat’ was established in 1931 in Jhunjhunu.

जाट जन सेवक

चौधरी लादूराम जी रानीगंज

ठाकुर देशराज[1] ने लिखा है ....चौधरी लादूराम जी रानीगंज - [पृ.470]: सन् 1931 में दिल्ली में रायबहादुर चौधरी लालचंद्र जी के सभापतित्व में अखिल भारतीय जाट महासभा के महोत्सव के अवसर पर मैंने चौधरी लादूराम जी से सर्वप्रथम साक्षात किया। वे बड़े-बड़े ढब्बों वाला छपा हुआ साफा बांध रहे थे और बंगाली फैशन का कुर्ता पहन रहे थे। धोती उनकी मारवाड़ी ढंग की बंधी हुई थी। ‘जाटवीर’ अखबार में उनका नाम अनेकों बार पढ़ा था। जातीय संस्थाओं को दिल खोलकर दान देने में वे इन दिनों नाम पैदा कर रहे हैं।

मेरा उनका यह प्रथम परिचय सदा के लिए प्रगाढ़ हो गया और वह मित्रता का रूप धारण कर गया। इसके 12 महीने बाद ही जब मैं मंडावा आर्य समाज के जलसे में जाने को तैयार हो रहा था तो आप का एक पत्र मुझे मिला जिसमें बधाला की ढाणी में आपने एक जाट पाठशाला खोल देने के लिए लिखा था।

मंडावा आर्य समाज के जलसे के अवसर पर मुझे खादी आश्रम रींगस के व्यवस्थापक लाला मूलचंद्र अग्रवाल और उनके एक स्नेही पंडित बद्रीनारायण जी लोहरा के दर्शन भी हुए थे और उन्हें लेकर मैं बधाला की ढाणी पहुंचा। वहां चौधरी श्यामूजी - मांगूजी के सहयोग से पाठशाला की स्थापना हुई और इसके प्रथम अध्यापक हुए पंडित ताड़केश्वर जी शर्मा। उनके बाद मास्टर लालसिंह और बलवंतसिंह यहां पर रहे।

बधाला की ढाणी सिर्फ 4 घरों का एक गांव है किंतु यहां पाठशाला के कायम होते इस जगह को अत्यंत महत्व प्राप्त हुआ। मैं जयपुर राजय के तमाम गांव से अधिक


[पृ.471]: इस ढाणी का आदर करता हूं। चार-पांच साल तक तो समस्त शेखावाटी, सीकरवाटी और खंडेलावाटी की जाट प्रगतियों का स्रोत केंद्र रही थी।

इस पाठशाला का कुल खर्च 5 वर्ष तक चौधरी लादूराम जी ने ही किया। इसके अलावा ठाकुर भोला सिंह, हुकुम सिंह और पंडित सावलप्रसाद जी चतुर्वेदी को एक साल तक अपनी ओर से वेतन देकर इस इलाके को जगाने का प्रयत्न कराया। शेखावाटी के आज के लीडर जिन दिनों साधनहीन फिरते, उन दिनों चौधरी लादूराम जी ने ही अपने परमित साधनों से लगभग डेढ़ हजार गांवों के क्षेत्र सीकर खंडेला और शेखावाटी में जीवन ज्योति पैदा करने को लगाया। इस पाठशाला के अलावा उन्होंने कुंवरपुरा, अभयपुरा, सामेर और गोवर्धनपुरा में भी पाठशालाये कायम की और उन्हें कई वर्ष तक अपने ही खर्चे से चलाया भी किंतु खेद है कि कोई भी पाठशाला स्थावलंबी नहीं बन सकी।

झुंझुनू जाट महोत्सव के बाद सीकर में जो ऐतिहासिक जाट महायज्ञ हुआ उसको सफल बनाने के लिए भी उन्होंने भरसक यतन किया और उसी अवसर पर उन्होंने एक पुस्तक प्रकाशित कराई- ‘मृतक बिरादरी भोज’। इस पुस्तक के अलावा उन्होंने कई पंपलेट प्रकाशित कराए।

अंत में सन् 1934 में खंडेलावाटी जाट कांफ्रेंस के उपसभापति चुने गए। यह कांफेरेंस गढ़वाल की ढाणी में हुई थी। इस कांफ्रेंस के अध्यक्ष पद से आपने एक अत्यंत प्रभावशाली भाषण दिया।

इसके बाद वे बराबर जाट आंदोलन किसान प्रगति और राष्ट्रीय कार्यों में बराबर भाग लेते रहे।


[पृ 472]: उनकी संक्षिप्त जीवनी उन्होंने होनहार पुत्र कुंवर चंदनसिंह जी द्वारा लिखित इस प्रकार है:

चौधरी साहब के पिता का नाम श्री बालूराम जी चौधरी है। गोत्र आपका बिजारणिया है और जन्म भूमि ग्राम अलोदा (जयपुर राज्य), जन्मतिथि भादवा सुदी 12 संवत 1956 (1899 ई.) ।

स्कूली शिक्षा नहीं पाई। अनुभव की तालीम से ही काम चल रहा है।

संवत 1973 (1916 ई.) में काम धंधे की खोज में रानीगंज (बंगाल) गए। वहां कुछ दिनों बाद चौधरी मिष्ठान भंडार नाम से बड़े पैमाने पर मिठाई का काम शुरू किया। दिनोंदिन तरक्की होती गई। काम में अच्छे मुनाफे के साथ सफलता मिली।

1932 ई. में चौधरी बिस्कुट फैक्ट्री और चौधरी फ्लूट मिल शुरू किया। काम काफी कंपटीशन के बाद सफल रहा। मुनाफा अच्छा होता रहा।

1935 ई. में रानीगंज में रॉयल सिनेमा नाम से सिनेमा शुरू किया। सिनेमा का उद्घाटन तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट द्वारा राजा साहब सियारसोल, मैनेजर बंगाल पेपर मिल्स लिमिटेड रानीगंज, मैनेजर बंगाल कोल कंपनी लिमिटेड रानीगंज, सब डिविजनल ऑफिसर आसनसोल तथा जिले के अन्य गणमान्य अधिकारियों व्यापारियों तथा जनता की उपस्थिति में सजधज के साथ शुरू हुआ। अन्य सिनेमाओं से प्रतिस्पर्धा कर सिनेमा चल निकला और जिले के अच्छे सिनेमाओं में शुमार किया जाता था।

1938 ई. में रानीगंज से 24 मील दूर कुल्टी नामक स्थान में ‘निड सिनेमा’ स्टार्ट किया। यहां भी सिनेमा अच्छा चला।

1939 ई. में रानीगंज से 8 मील दूर कोयले के क्षेत्र जामुड़िया में ‘न्यू सिनेमा’ शुरू किया। साय व्यापार तरक्की पर था। 1948 के शुरू में व्यापार


[पृ.473]: सर्वोन्नत दशा को पहुंचा हुआ था। इनके यहां रोजाना करीब 250 आदमी काम किया करते थे। औसत आमदनी प्रतिदिन ₹1500 थी।

1948 देश के लिए बड़ा कठिन समय सिद्ध हुआ। सारे संसार के साथ भारतवर्ष भी कठिन परिस्थितियों में से गुजर रहा था। देश का सिंहद्वार सिंगापुर दुश्मनों के हाथ में जा चुका था। वर्मा में प्रवासी भारतवासियों की दुर्दशा हो चुकी थी। बंगाल आरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था। कोलकाता खाली हो चुका था। बंगाल पर विपत्ति के काले बादल मंडा रहे थे। भगदड़ मची हुई थी। इनका परिवार भी अस्त व्यस्त हो गया था। कोयले का क्षेत्र विशेष खतरनाक प्रतीत होने के कारण 1948 में बंगाल छोड़कर सहपरिवार देश ग्राम गोवर्धनपुरा पोस्ट पलसाना को चले आए। कारोबार डांवाडोल परिस्थिति के कारण बंद कर देना पड़ा। अबभी रानीगंज में मकान आदि हजारों रुपए का सामान पड़ा है। पुनः स्थिति सुधरते ही ही कार्य शुरू कर दिया जाएगा।

1942 के प्रारंभ में आप जिले के सबसे बड़े सिनेमा मालिक थे। गवर्नमेंट फंड्स, हॉस्पिटल फंड स्कूलों तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं को चैरिटी-शो द्वारा मुक्तहस्त होकर दान दिया। जिस का गुणगान जिले की संस्थाएं अब भी गाया करती है।

देश में आने पर गोरधनपुरा की जमीदारी ली है। लगन से अच्छी आमदनी हो जाती है। किसान सुखी व आबाद है। पलसाना क्षेत्र का चीनी का कोंटेक्ट भी ले रखा है। जिससे जनता में सुविधा पूर्वक चीनी का वितरण कर दिया जाता है। ब्लैक मार्केटिंग द्वारा जनता की कठिनाइयों को बढ़ाने से घृणा होने के कारण युद्ध काल में व्यापार में उन्नति होने के बजाए उन्नति हुई है। अब समय साधारण आता प्रतीत


[पृ.474]: होता है अपितु भविष्य उज्जवल है।

दो भाई थे। दूसरे भाई का नाम गंगाराम चौधरी था जिन का स्वर्गवास 1934 में लंबी बीमारी के बाद कोलकाता में हो गया।

संतान 6 हैं। 3 पुत्र तथा 3 पुत्रियां। बड़े पुत्र का नाम व कुँवर चतुरसिंह है। छोटे का नाम कुमार चंदन सिंह जो उच्च शिक्षा पा रहा है। सबसे छोटे पुत्र का नाम कुमार सज्जन सिंह जिसकी शिक्षा प्रारंभ हुई है। बड़ी पुत्री का नाम सोहनी देवी है जिसकी शादी उदयपुर के चौधरी हरिसिंह जी बीएएलएलबी डिस्ट्रिक्ट मुंसिफ़ एण्ड जज के बड़े पुत्र कुँवर किशन सिंह जी के साथ होना तय हुआ है। उसे छोटी तारादेवी तथा रमादेवी हैं जो शिक्षा पा रही हैं।

चौधरी साहब ने अपनी गाढ़ी कमाई का सदुपयोग मुक्त होकर जाट संस्थाओं को दान देकर किया। सीकर के जाट आंदोलन में प्रमुख हाथ रहा। खंडेला जाट पंचायत के सरपंच चुने गए।

1943 में भारत रक्षा कानून के तहत पुलिस ने जाटों में जागृति फैलाने के अपराध में झूठा मुकदमा चलाया जो पुलिस की खासा कोशिश के बावजूद भी सहयोगियों की सहायता से डिस्चार्ज कर दिया गया। 1942-43 में होने वाले खंडेलावाटी किसान आंदोलन में प्रमुख हाथ रहा। 1943 ई. में पलसाना में श्री चिरंजीलाल जी अग्रवाल M.A. LLB वकील हाईकोर्ट जयपुर के सभापतित्व में तोरावाटी खंडेलावाटी किसान सम्मेलन निमंत्रित किया जिसमें खंडेलावाटी किसान आंदोलन की नींव पड़ी। किसानों का हित ही इन्होंने अपना ही समझा। ये अपने को किसानों का प्रतिनिधि सच्चे अर्थों में सिद्ध कर सके हैं। जाट इतिहास तथा अन्य जाट साहित्य के प्रकाशन में काफी सहायता की।


[पृ.475]: भरतपुर में होने वाले सूरजमल दिवस में प्रमुख हाथ रहा। मुजफ्फरनगर अधिवेशन में इन्होंने ही जयपुर के लिए आल इंडिया जाट महासभा को निमंत्रण दिया और सन् 1945 में जो अधिवेशन जयपुर में सफल हुआ यह आप ही के अथक परिश्रम का फल था। आपने जाट जाति की तरक्की में काफी हाथ बटाया है। सदा से अखिल भारतीय जाट महासभा की कार्यकारिणी के मेंबर रहे हैं। जयपुर राज्य जाट सभा के सभापति हैं तथा राजस्थान प्रांतीय जाट सभा के कोषाध्यक्ष हैं। जिला प्रजामंडल में भी हाथ बटाते रहे हैं और हमेशा इसकी कार्यकारिणी के मेंबर रहे हैं। अब जिला प्रजामंडल कमेटी के कोषाध्यक्ष रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यों में भी काफी भाग लिया है। इन कारणों से बड़े-बड़े जागीरदारों ठिकानों तथा पुलिस का कोपभाजन भी होना पड़ा है। ठिकाने वालों के सहयोग से पुलिस ने भारत रक्षा कानून जैसे अचूक अस्त्र का प्रहार किया किंतु सहयोगियों की सहायता से सत्य के आधार पर आप बेदाग निकले।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण अब कुछ घरेलू धंधे में ज्यादा व्यस्त रहते हैं लेकिन उनका हृदय हमेशा अपनी कौम की तरक्की के लिए लालायित रहता है।

चौधरी लादूराम रानीगंज का जीवन परिचय

चौधरी लादूराम रानीगंज का जन्म वि.स. 1956 (1899 ई.), भादवा सुदी 12 को खंडेलावाटी के गाँव गोरधनपुरा में हुआ. आपके पिता का नाम चौधरी बालू राम था. 17 वर्ष की उम्र में काम-धंधे की तलास में आप रानीगंज (बंगाल) चले गए. वहां आपका अच्छा व्यापर चला. आपने कमाई का सदुपयोग मुक्त हस्त होकर जाट संस्थाओं को दान देकर किया. आपने सर्वप्रथम बधाला की ढाणी में पाठशाला खुलवाई, जहाँ पंडित ताड़केश्वर शर्मा पचेरी को अध्यापक नियुक्त किया. आपने बधाला की ढाणी के अलावा, कंवरपुरा, अभयपुरा, सामेर और गोरधनपुरा में भी पाठशालाएं कायम की और उन्हें वर्षों तक अपने खर्चे पर चलाया. झुंझुनू जाट महोत्सव के बाद सीकर जाट महा-यज्ञ को सफल बनाने के लिए आपने भर्सक प्रयास किये. 1933 ई. में खंडेला वाटी जाट पंचायत के आप अध्यक्ष चुने गए. इसके बाद आपने, किसान प्रगति और राष्ट्रीय कार्यों में बराबर भाग लिया. आपने ठाकुर हुकम सिंह, भोला सिंह और पंडित सांवल प्रसाद चतुर्वेदी को एक साल तक अपनी और से वेतन दिया और इलाके में जागृति का प्रयास किया. 1942-43 ई. में खंडेला वाटी के किसान आन्दोलन में आपका प्रमुख हाथ रहा. सीकर के किसान आन्दोलन में भी आपकी प्रमुख भूमिका रही. आपको अनेक बार जागीरदारों का कोप भजन बनाना पड़ा.[2]

जाट जागृति में योगदान

ठाकुर देशराज[3] ने लिखा है....खंडेलावाटी इलाके को जगाने के लिए.... जुलाई सन् 1931 में बधाला की ढाणी में जोकि पलसाना से 2 मील के फासले पर अवस्थित है। एक विद्यालय खोला गया जिसके प्रथम अध्यापक पंडित ताड़केश्वर जी शर्मा बनाए गए। उनके विद्यालय में मास्टर लालसिंह और बलवंतसिंह जी मेरठ वालों ने काम किया। इस विद्यालय की स्थापना के कुछ दिन बाद ठाकुर देवी सिंह ने अभयपुरा में एक पाठशाला खोली। एक पाठशाला कुंवरपुरा में चौधरी छाजूराम और बालूराम जी की उदारता से खुली। आलोदा गांव में पंडित केदारनाथ जी ने अध्यापन आरंभ किया। खीचड़ों की ढाणी में पंडित हुकुम चंद जी (भरतपुर) बैठाए गए। जयरामपुरा, गोरधनपुरा, गोविंदपुरा और गढ़वालों की ढाणी में भी पाठशाला कायम हुई। इस प्रकार खंडेलावाटी में शिक्षा प्रसार का अच्छा दौर सन 1932-33 के बीच में आरंभ कर दिया गया। इनमें से कई पाठशालाओं के संचालन का भार चौधरी लादूराम जी गोरधनपुरा (रानीगंज) पर रहा।

मास्टर चंद्रभानसिंह गिरफ्तार :बधाला की ढाणी में विशाल आमसभा

मास्टर चंद्रभानसिंह गिरफ्तार - ठिकानेदार और रावराजा ने जाट प्रजापति महायज्ञ सीकर सन 1934 के नाम पर जो एकता देखी, इससे वे अपमानित महसूस करने लगे और प्रतिशोध की आग में जलने लगे. जागीरदार किसान के नाम से ही चिढ़ने लगे. एक दिन किसान पंचायत के मंत्री देवी सिंह बोचल्या और उपमंत्री गोरु सिंह को गिरफ्तार कर कारिंदों ने अपमानित किया. लेकिन दोनों ने धैर्य का परिचय दिया. मास्टर चंद्रभान उन दिनों सीकर के निकट स्थित गाँव पलथाना में पढ़ा रहे थे. स्कूल के नाम से ठिकानेदारों को चिड़ होती थी. यह स्कूल हरीसिंह बुरड़क जन सहयोग से चला रहे थे. बिना अनुमति के स्कूल चलाने का अभियोग लगाकर रावराजा की पुलिस और कर्मचारी हथियारबंद होकर पलथाना गाँव में जा धमके. मास्टर चंद्रभान को विद्रोह भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया और हथकड़ी लगाकर ले गये. [4]

किसान नेता घरों में पहुँच कर शांति से साँस भी नहीं ले पाए थे कि सीकर खबर मिली कि मास्टर चंद्रभान सिंह को 24 घंटे के भीतर सीकर इलाका छोड़ने का आदेश दिया है और जब वह इस अवधि में नहीं गए तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. ठिकाने वाले यज्ञ में भाग लेने वाले लोगों को भांति-भांति से तंग करने लगे. मास्टर चंद्रभान सिंह यज्ञ कमेटी के सेक्रेटरी थे और पलथाना में अध्यापक थे. सीकर ठिकाने के किसानों के लिए यह चुनौती थी. मास्टर चंद्रभानसिंह को 10 फ़रवरी 1934 को गिरफ्तार करने के बाद उन पर 177 जे.पी.सी. के अधीन मुक़दमा शुरू कर दिया था. [5]

यह चर्चा जोरों से फ़ैल गयी की मास्टर चन्द्रभान को जयपुर दरबार के इशारे पर गिरफ्तार किया गया है. तत्पश्चात ठिकानेदारों ने किसानों को बेदखल करने, नई लाग-बाग़ लगाने एवं बढ़ा हुआ लगान लेने का अभियान छेड़ा. (राजेन्द्र कसवा: p. 122-23)

पीड़ित किसानों ने बधाला की ढाणी में विशाल आमसभा आयोजित की, जिसमें हजारों व्यक्ति सम्मिलित हुए. इनमें चौधरी घासीराम, पंडित ताड़केश्वर शर्मा, ख्यालीराम भामरवासी, नेतराम सिंह, ताराचंद झारोड़ा, इन्द्राजसिंह घरडाना, हरीसिंह पलथाना, पन्ने सिंह बाटड, लादूराम बिजारनिया, व्यंगटेश पारिक, रूड़ा राम पालडी सहित शेखावाटी के सभी जाने-माने कार्यकर्ता आये. मंच पर बिजोलिया किसान नेता विजय सिंह पथिक, ठाकुर देशराज, चौधरी रतन सिंह, सरदार हरलाल सिंह आदि थे. छोटी सी ढाणी में पूरा शेखावाटी अंचल समा गया. सभी वक्ताओं ने सीकर रावराजा और छोटे ठिकानेदारों द्वारा फैलाये जा रहे आतंक की आलोचना की. एक प्रस्ताव पारित किया गया कि दो सौ किसान जत्थे में जयपुर पैदल यात्रा करेंगे और जयपुर दरबार को ज्ञापन पेश करेंगे. तदानुसार जयपुर कौंसिल के प्रेसिडेंट सर जॉन बीचम को किसानों ने ज्ञापन पेश किया. (राजेन्द्र कसवा: p. 123)

राजस्थान की जाट जागृति में योगदान

ठाकुर देशराज[6] ने लिखा है ....उत्तर और मध्य भारत की रियासतों में जो भी जागृति दिखाई देती है और जाट कौम पर से जितने भी संकट के बादल हट गए हैं, इसका श्रेय समूहिक रूप से अखिल भारतीय जाट महासभा और व्यक्तिगत रूप से मास्टर भजन लाल अजमेर, ठाकुर देशराज और कुँवर रत्न सिंह भरतपुर को जाता है।

यद्यपि मास्टर भजन लाल का कार्यक्षेत्र अजमेर मेरवाड़ा तक ही सीमित रहा तथापि सन् 1925 में पुष्कर में जाट महासभा का शानदार जलसा कराकर ऐसा कार्य किया था जिसका राजस्थान की तमाम रियासतों पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा और सभी रियासतों में जीवन शिखाएँ जल उठी।

सन् 1925 में राजस्थान की रियासतों में जहां भी जैसा बन पड़ा लोगों ने शिक्षा का काम आरंभ कर दिया किन्तु महत्वपूर्ण कार्य आरंभ हुये सन् 1931 के मई महीने से जब दिल्ली महोत्सव के बाद ठाकुर देशराज अजमेर में ‘राजस्थान संदेश’ के संपादक होकर आए। आपने राजस्थान प्रादेशिक जाट क्षत्रिय की नींव दिल्ली महोत्सव में ही डाल दी थी। दिल्ली के जाट महोत्सव में राजस्थान के विभिन्न


[पृ 2]: भागों से बहुत सज्जन आए थे। यह बात थी सन 1930 अंतिम दिनों में ठाकुर देशराज ‘जाट वीर’ आगरा सह संपादक बन चुके थे। वे बराबर 4-5 साल से राजस्थान की राजपूत रियासतों के जाटों की दुर्दशा के समाचार पढ़ते रहते थे। ‘जाट-वीर’ में आते ही इस ओर उन्होने विशेष दिलचस्पी ली और जब दिल्ली महोत्सव की तारीख तय हो गई तो उन्होने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और दूसरी रियासतों के कार्य कर्ताओं को दिल्ली पहुँचने का निमंत्रण दिया। दिल्ली जयपुर से चौधरी लादूराम किसारी, राम सिंह बख्तावरपुरा, कुँवर पन्ने सिंह देवरोड़, लादूराम गोरधनपुरा, मूलचंद नागौर वाले पहुंचे। कुछ सज्जन बीकानेर के भी थे। राजस्थान सभा की नींव डाली गई और उसी समय शेखावाटी में अपना अधिवेशन करने का निमंत्रण दिया गया। यह घटना मार्च 1931 की है।

इसके एक-डेढ़ महीने बाद ही आर्य समाज मड़वार का वार्षिक अधिवेशन था। लाला देवीबक्ष सराफ मंडावा के एक प्रतिष्ठित वैश्य थे। शेखावाटी में यही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनहोने कानूनी तरीके से ठिकानाशाही का सामना करने की हिम्मत की थी। उन्होने ठाकुर देशराज और कुँवर रत्न सिंह दोनों को आर्य समाज के जलसे में आमंत्रित किया। इस जलसे में जाट और जाटनियाँ भरी संख्या में शामिल हुये। यहाँ हरलाल सिंह, गोविंद राम, चिमना राम आदि से नया परिचय इन दोनों नेताओं का हुआ।

सीकर यज्ञ में योगदान

ठाकुर देशराज[7] ने लिखा है .... जनवरी 1934 के बसंती दिनों में सीकर के आर्य महाविद्यालय के कर्मचारियों द्वारा सीकर यज्ञ आरंभ हुआ। उन दिनों यज्ञ भूमि एक ऋषि उपनिवेश सी जांच रही थी। बाहर से आने वालों के 100 तम्बू और और छोलदारियाँ थी और स्थानीय लोगों के लिए फूस की झोपड़ियों की छावनी बनाई।

20000 आदमी के बैठने के लिए पंडाल बनाया गया था जिसकी रचना चातुरी में श्रेय नेतराम सिंह जी गोरीर और चौधरी पन्ने सिंह जी बाटड़, बाटड़ नाऊ को है। यज्ञ स्थल 100 गज चौड़ी और 100 गज लंबी भूमि में बनाया गया था जिसमें चार यज्ञ कुंड चारों कोनों पर और एक बीच में था। चारों यज्ञ कुंड ऊपर यज्ञोपवीत संस्कार होते थे और बीच के यज्ञ कुंड पर कभी भी न बंद होने वाला यज्ञ।


[पृ.227]: 25 मन घी और 100 मन हवन सामग्री खर्च हुई। 3000 स्त्री पुरुष यज्ञोपवीत धारण किए हुये थे।

यज्ञ पति थे आंगई के राजर्षि कुंवर हुकुम सिंह जी और यज्ञमान थे कूदन के देवतास्वरुप चौधरी कालूराम जी। ब्रह्मा का कृत्य आर्य जाति के प्रसिद्ध पंडित श्री जगदेव जी शास्त्री द्वारा संपन्न हुआ था। यह यज्ञ 10 दिन तक चला था। एक लाख के करीब आदमी इसमें शामिल हुए थे। इस बीसवीं सदी में जाटों का यह सर्वोपरि यज्ञ था। यज्ञ का कार्य 7 दिन में समाप्त हो जाने वाला था। परंतु सीकर के राव राजा साहब द्वारा जिद करने पर कि जाट लोग हाथी पर बैठकर मेरे घर में होकर जलूस नहीं निकाल सकेंगे।

3 दिन तक लाखों लोगों को और ठहरना पड़ा। जुलूस के लिए हाथी जयपुर से राजपूत सरदार का लाया गया था, वह भी षड्यंत्र करके सीकर के अधिकारियों ने रातों-रात भगवा दिया। किंतु लाखों आदमियों की धार्मिक जिद के सामने राव राजा साहब को झुकना पड़ा और दशवें दिन हाथी पर जुलूस वैदिक धर्म की जय, जाट जाति की जय के तुमुलघोषों के साथ निकाला गया और इस प्रकार सीकर का यह महान धार्मिक जाट उत्सव समाप्त हो गया।


इस महोत्सव में भारतवर्ष के हर कोने से जाट सरदार आए थे। इन्हीं दिनों राजस्थान जाटसभा का द्वितीय अधिवेशन कुंवर रतन सिंह जी के सभापतित्व में पूर्ण उत्साह के साथ संपन्न हुआ।

इस अवसर पर जाट साहित्य भी काफी प्रकाशित हुआ। चौधरी रीछपाल सिंह जी धमेड़ा का लिखा जाट महायज्ञ का इतिहास, चौधरी लादुराम रानीगंज का लिखा नुक्ताभोज,


[पृ 228]: पंडित दत्तूराम जी की लिखी गौरव भजनावली और ठाकुर देशराज जी का लिखा पुनीत ग्रंथ जाट इतिहास भी इस समय प्रकाशित हुए।

कुंवरपुरा में जाट स्कूल

ठाकुर देशराज[8] ने लिखा है ....कुंवरपुरा में जो जाट स्कूल चौधरी लादूराम जी बिजारणिया ने खुलवाया उसे चलाने के लिए चौधरी परसराम बोचल्या ने भी यथाशक्ति आर्थिक सहायता की और जाट महासभा का डेपुटेशन कुंवरपुरा गांव में पहुंचा तो चौधरी परसराम बोचल्या और चौधरी बालूराम जी ने पूर्ण रूप से उसका स्वागत सत्कार किया। किसान पंचायत और उसकी हलचलों में भी आप बराबर हिस्सा लेते रहते हैं। कौम की तरक्की और अतिथि सेवा की ओर आपका बाबर ध्यान देता है। आपका स्वभाव निष्कपट और सरल है यही आप की विशेषता है।

References

  1. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.470-475
  2. डॉ पेमाराम: शेखावाटी किसान आन्दोलन का इतिहास, 1990, p.85
  3. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.444
  4. राजेन्द्र कसवा: मेरा गाँव मेरा देश (वाया शेखावाटी), जयपुर, 2012, ISBN 978-81-89681-21-0, P. 122
  5. डॉ पेमाराम: शेखावाटी किसान आन्दोलन का इतिहास, 1990, p.91
  6. ठाकुर देशराज:Jat Jan Sewak, p.1-2
  7. Thakur Deshraj: Jat Jan Sewak, 1949, p.226-228
  8. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.460-461

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