Jat Jati Ki Utpatti Aur Vistar

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लेखक:लक्ष्मण बुरड़क, IFS (Retd.), Jaipur
जाट जाति का भौगोलिक विस्तार

जाट जाति की उत्पत्ति और विस्तार

जाट भारत और पाकिस्तान में रहने वाला एक क्षत्रिय समुदाय है। जाट प्राचीन आर्य हैं। भारत में मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और गुजरात आदि राज्यो में बसते हैं। पंजाब में यह जट (जट्ट) कहलाते हैं तथा शेष प्रदेशों में जाट कहलाते है।

जाट एक आदिकालीन समुदाय है और प्राचीनतम क्षत्रिय वर्ग है जिसकी अनेक अनुपम विशेषताएं हैं. इसकी सामाजिक सरंचना बेजोड़ है. इस जाति ने आदिकाल से कुछ सर्वमान्य सामाजिक मापदण्ड स्वयं ही निर्धारित कर रखे हैं और इनके सामाजिक मूल्यों का निरंतर संस्तरण होता आ रहा है. जाट समाज की गोत्र और खाप व्यवस्थाएं अति प्राचीन हैं और आज भी इनका पालन हो रहा है. जाट समाज में अपने वंश गोत्र के लोग परस्पर भाई-भाई की तरह मानते है. समय समय पर मीडिया में इन व्यवस्थाओं पर हमला होता रहा है. यह समझना आवश्यक है कि जाट जाति क्या है ? जाट शब्द कितना प्राचीनत है ? जाट शब्द कैसे अस्तित्व में आया ? जाट जाति की उत्पत्ति और विस्तार कैसे हुआ ? इसका प्राचीन इतिहास क्या है ?

जाट जाति की उत्पत्ति के सिद्धान्त

जाट जाति की उत्पत्ति के अनेक सिद्धान्त समय-समय पर इतिहासकारों द्वारा प्रतिपादित किये हैं. परन्तु कोई भी एक अकेला सिद्धांत इस जाति की उत्पत्ति को पूर्ण रूप से समझाने में असफल है. जाट जाति की उत्पत्ति के मुख्य सिद्धांत निम्नानुसार हैं:-

1. ज्येष्ठ से जाट की उत्पत्ति - कुछ इतिहासकार जाट जाति की उत्पत्ति ज्येष्ठ शब्द से मानते है. ऐसी धरणा है कि राजसूय-यज्ञ करने के बाद युधिष्ठिर को 'ज्येष्ठ' घोसित किया गया था. आगे चल कर उनकी सन्तान 'ज्येष्ठ' से 'जेठर' तथा 'जेटर' और फ़िर 'जाट' कहलाने लगे. कुछ अन्य इतिहासकार मानते हैं कि पाण्डवों को महाभारत में विजय दिलाने के कारण श्रीकृष्ण को युधिष्ठिर की सभा में ज्येष्ठ की उपाधि दी गयी थी. अलबरुनी श्रीकृष्ण को जाट मानते हैं. (अलबिरुनी, भारत, पृ. 176). वैसे युधिष्ठिर और कृष्ण दोनों के वंशज चंद्रवंशी क्षेत्रीय में सम्मिलित हैं. कृष्ण के वंशज जो कृष्णिया या कासनिया कहलाते हैं वर्तमान में जाटों के एक गोत्र के रूप में मौजूद हैं.

2. शिव से जाट की उत्पत्ति

शिव से जाट की उत्पत्ति

एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार शिव की जटाओं से जाट की उत्पत्ति मानी जाती है. यह सिद्धान्त देव संहिता में उल्लेखित है. देव संहिता की इस कहानी में कहा गया है कि शिव के ससुर राजा दक्ष ने हरिद्वार के पास कनखल में एक यज्ञ किया था. सभी देवताओं को तो यज्ञ में बुलाया पर न तो महादेवजी को ही बुलाया और न ही अपनी पुत्री सती को ही निमंत्रित किया. शिव की पत्नि सती ने शिव से पिता के घर जाने के लिये पूछा तो शिव ने कहा- तुम अपने पिता के घर बिना बुलाये भी जा सकती हो. सती जब पिता के घर गयी तो वहां शिव के लिये कोई स्थान निर्धारित नहीं था, न उनके पति का भाग ही निकाला गया है और न उसका ही सत्कार किया गया. उलटे शिवजी का अपमान किया और बुरा भला कहा गया. अपने पति का अपमान देखकर, पिता तथा ब्रह्मा और विष्णु की योजना को ध्वस्त करने के उद्देश्य से उसने यज्ञ-कुण्ड में छलांग लगा कर प्राण दे दिये. इससे क्रुद्ध शिव ने अपने जट्टा से वीरभद्र नामक गण को उत्पन्न किया. वीरभद्र ने जाकर यज्ञ को भंग कर दिया. आगन्तुक राजाओं का मानमर्दन किया. ब्रह्मा और विष्णु को यज्ञ से जाना पडा. वीरभद्र ने दक्ष का सिर काट दिया. ब्रह्मा और विष्णु शिव को मनाने उनके पास गये. उन्होने शिव से कहा कि आप भी हमारे बराबर हैं. इस समझौते के बाद शिव और उसके गण जाटों को बराबर का दर्जा मिला. शिव ने दक्ष का सिर जोड दिया. कहते हैं कि दक्ष को बकरे का सिर जोडा गया था. यह भी धारणा है कि ब्राह्मण इसी अपमान के कारण जाटों का इतिहास नहीं बताते या इतिहास तोड़-मरोड़ कर लिखते है.

देवसंहिता के कुछ श्लोक निम्न प्रकार हैं-

पार्वत्युवाचः
भगवन सर्व भूतेश सर्व धर्म विदाम्बरः । कृपया कथ्यतां नाथ जाटानां जन्म कर्मजम् ।।12।।
अर्थ- हे भगवन! हे भूतेश! हे सर्व धर्म विशारदों में श्रेष्ठ! हे स्वामिन! आप कृपा करके मेरे तईं जाट जाति का जन्म एवं कर्म कथन कीजिये ।।12।।
का च माता पिता ह्वेषां का जाति बद किकुलं । कस्तिन काले शुभे जाता प्रश्नानेतान बद प्रभो ।।13।।
अर्थ- हे शंकरजी ! इनकी माता कौन है, पिता कौन है, जाति कौन है, किस काल में इनका जन्म हुआ है ? ।।13।।
श्री महादेव उवाच:
श्रृणु देवि जगद्वन्दे सत्यं सत्यं वदामिते । जटानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशितं ।।14।।
अर्थ- महादेवजी पार्वती का अभिप्राय जानकर बोले कि जगन्माता भगवती ! जाट जाति का जन्म कर्म मैं तुम्हारी ताईं सत्य-सत्य कथन करता हूँ कि जो आज पर्यंत किसी ने न श्रवण किया है और न कथन किया है ।।14।।
महाबला महावीर्या, महासत्य पराक्रमाः । सर्वाग्रे क्षत्रिया जट्‌टा देवकल्‍पा दृढ़-व्रता: || 15 ||
अर्थ- शिवजी बोले कि जाट महाबली हैं, महा वीर्यवान और बड़े पराक्रमी हैं क्षत्रिय प्रभृति क्षितिपालों के पूर्व काल में यह जाति ही पृथ्वी पर राजे-महाराजे रहीं । जाट जाति देव-जाति से श्रेष्ठ है, और दृढ़-प्रतिज्ञा वाले हैं || 15 ||
श्रृष्टेरादौ महामाये वीर भद्रस्य शक्तित: । कन्यानां दक्षस्य गर्भे जाता जट्टा महेश्वरी || 16 ||
अर्थ- शंकरजी बोले हे भगवती ! सृष्टि के आदि में वीरभद्रजी की योगमाया के प्रभाव से उत्पन्न जो पुरूष उनके द्वारा और ब्रह्मपुत्र दक्ष महाराज की कन्या गणी से जाट जाति उत्पन्न होती भई, सो आगे स्पष्ट होवेगा || 16 ||
गर्व खर्चोत्र विग्राणां देवानां च महेश्वरी । विचित्रं विस्‍मयं सत्‍वं पौराण कै साङ्गीपितं || 17 ||
अर्थ- शंकरजी बोले हे देवि ! जाट जाति की उत्पत्ति का जो इतिहास है सो अत्यन्त आश्चर्यमय है । इस इतिहास में विप्र जाति एवं देव जाति का गर्व खर्च होता है । इस कारण इतिहास वर्णनकर्ता कविगणों ने जाट जाति के इतिहास को प्रकाश नहीं किया है || 17 ||


यद्यपि यह एक पौराणिक कहानी है परन्तु यह कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की तरफ़ संकेत करती है. इससे एक बात तो साफ है कि सृष्टि के आदि में जाट प्राचीनतम क्षेत्रीय थे. वीरभद्र शिव का अंश था जिससे जाट उत्पन्न हुए. उस समय जाट गणों के रूप में संगठित थे. 'शिव के जट' का अर्थ 'शिव के गण' लगाया जाना चाहिए परन्तु पुरोहितों ने इसका अर्थ गलत लगाया 'शिव के जट्टा' अर्थात 'शिव के सिर के बाल'. उपर के विवरण में कारण भी निहित है कि ब्राह्मणों ने क्यों इनका इतिहास छुपाया और क्यों गलत व्याख्या की गयी. इसी बात को स्पस्ट करने के लिए देव संहिता का ऊपर विवरण दिया गया है. जिसने भी शिव जैसे कार्य कर उनका स्तर प्राप्त किया उसे शिव कहा गया. शिव के चित्र का अवलोकन करें तो देखते हैं कि इनके सर पर जटा-जूट और चन्द्रमा हैं तथा गले में नाग है. इसकी ऐतिहासिक विवेचना यह हो सकती है कि शिव ने चंद्रवंशी जाटों एवं नागवंशी क्षेत्रियों को संगठित किया. इन क्षत्रिय वर्गों की शक्तियां शिव में समाहित हो गयी. लिंगपुराण में शिव के 1000 नाम दिए हैं. उनका हर नाम किसी क्षत्रिय वर्ग का प्रतीक है. अनेक जाट गोत्र इनमें से निकले हैं. रामस्वरूप जून ने अपनी जाट इतिहास की पुस्तक में वीरभद्र की वंशावली दी है जिसके अनुसार पुरु की वंशावली में संयति के पुत्र वीरभद्र के वंशज पौनभद्र से पूनिया, कल्हण भद्र से कल्हण, दहीभद्र से दहिया, जखभद्र से जाखड, ब्रह्मभद्र से बमरोलिया आदि जाट गोत्रों की शाखायें चली. शिववंश में सम्मिलित अन्य कुछ गोत्र हैं: अग्रे, अघा, अगा, अगि,अगाच, बुरड़क, भगौर, भौभिया, भौबिया, धांडा, ढांडा, धान्धा,धीमान, हरी, हरीवार, हरीवाल, हरीकर, खांगल, किन्हा, किलकिल, कलकल, करकिल, उदर, उन्दरास, वरदा, अंजना आदि.


3. इण्डो-सीथियन मूल - जाट जाति की इण्डो-सीथियन मूल से उत्पत्ति का सिद्धांत जाट जाति को भारत में पैदा हुई न मान कर शक, सीथियन आदि आर्येतर जातियों के साथ इसका रक्त संबंध जोड़ते हैं. इस मत की स्थापना में विदेशी विद्वानों की प्रमुख भूमिका रही. कर्नल टाड ने मत प्रतिपादित किया कि भारत के जाटों, रोमन गोथों और जटलैंड के जाटों के बीच रक्त-संबंध पाए जाते हैं. कर्नल टाड को आधार मानकर जैक्सन, कनिंघम तथा विन्सेंट स्मिथ भी जाटों को बाहर से आया और इण्डो-सीथियन मूल का वंशज मानने लगे. इस सिद्धांत का समर्थन जाट इतिहासकार बी.एस. ढिल्लों, बी.एस. दहिया, हुकमसिंह आदि करते हैं. ये विद्वान मानते हैं कि जाटों का मूल अभिजन 'आक्सस-घाटी' है.


4. इण्डो-आर्यन मूल - अनेक विद्वान जाटों को मानव-शास्त्र-विज्ञान के आधार पर इण्डो-आर्यन मूल का मानते हैं. जाट इतिहासकार कानूनगो मानते हैं कि शारीरिक बनावट, चरित्र, भावनाओं, शासन से सम्बद्ध अवधारणाओं तथा सामाजिक संस्थाओं में जाट प्राचीन वैदिक आर्यों का, हिन्दुओं की तीनों उच्च जातियों की अपेक्षा जिनका मूल चरित्र शताब्दियों की विकास की प्रक्रिया में लुप्त हो चुका है, कहीं अधिक श्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं. डॉ नथन सिंह (जाट इतिहास, पृ. 37) का मत है कि जाटों का मूल-अभिजन 'सप्त-सैन्धव' क्षेत्र है. वे लिखते हैं कि उनके ठेठ भारतीय होने का एक प्रमाण यह है कि जाट जाति के लोग श्रेष्ठ किसान होते हैं और भैंस रखना उनकी विशेष आदत है. भारत में खेती होने के प्रमाण 10000 वर्ष पूर्व के मिले हैं. इराक तक में भैंसे ले जाने का काम भारतीय जाटों ने किया था. हुकमसिंह योरोप में 'बी' रक्तसमूह ले जाने का श्री जाटों को देते हैं.

5. चंद्रवंशी मूल - आर्यों में क्षत्रिय जो चन्द्रमा की पूजा करते थे तथा संवत के चलन में काल-गणना चन्द्रमा की गति के आधार पर करते थे वे चंद्रवंशी कहलाये. भागवतपुराण के अनुसार ब्रह्मा के एक पुत्र अत्रि थे जिनके पुत्र सोम(चन्द्र) थे. सोम के पुत्र बुध थे. मनु-पुत्री 'इला' का विवाह 'बुध' के साथ हुआ. इन दोनों से चन्द्रवंश का चलन होना बताया गया है. इनका पहला पुत्र पुरूरवा था इनका बेटा 'नहुष' और नहुष का ययाति. जाट जाति का सम्बन्ध 'ययाति' की संतानों के साथ है. श्रीकृष्ण का जन्म भी चन्द्रवंश में हुआ था. जाटों में अधिकांश समूह चंद्रवंशियों के हैं.

चन्द्रवंश में वर्गीकृत मुख्य जाट गोत्र इस प्रकार हैं: आभीर,अहलावत, ओहलावत, अका, ओहर, अजमेरिया,अजमीडिया, अंजुरिया, अनजिया, अधरान, अंदार, अंधला, अंधरा, औद्ध, औधरान, ओद्र, ओध्र, ओंद, ओक, आंध्र, आंध्राणा, अंग, अंजना, आनव, बल, बल, बलयाण, बाल्यान, चीमा, चीना, छीना, अर्क, अत्री, आत्रेय, बल्ल, बलारिया, बल्दवा, ठकुरेला, बनगा, बाना, भादू, भाटू, भाटी, बलहारा, भोज, भूरी, भूरिया, बमरौलिया, मिटाण, बुधवार, बधवार, बोध, बोधा,चकोरा, चंधारी, चवेल, दहिया, दोहन, दाहन, दुहन, दनीवाल, दरद, दराल, दार, दियार, ओरा, ओरे, दुसाध, दोसांझ, गौदल, गठवाल, कठवाल, कठिया, कटवार, गठोये, गठोने, गथवाल, गथना, गादड, गंधार, गंधारी, गांधार, गंडीला, गडीर, गैना, गैणा, गेना, गैन्धर, गैन्धल, गैन्धु, हंस, हांस, हंसावत, हरचतवाल, हुदाह, ऐचरा, जाखड़, जग्गल, जानू, जोहे, लोधा, कल्हन, खिरवार, खिरवाल, खिनवाल, खिरवाली, खरे, कितावत, करमी, किरम, किचार, कुंतल, खुटैल, खुंटेल, खुंतल, कौंटेल, कुंठळ, कुंडळ, कैरु, कौरव, कसवां, लम्बोरिया, मधु, मदेरणा, मद्रक, मद्र,मद्रेणा, मधान, मद्, मध, मल्ल, मल्ला, मालय, महला, महलावत, महलान, महलानिया, मल्ली, महलवार, मेहला, मेला, (मावलिया, मावला, मोटसरा, न्योल,नूहनियाँ, नोहर, यटेसर, नलवा, नौहवार, नववीर, नव, नेतड़ा, नेतड़ा,यौधेय, नृग, पाण्डु, पाँडुर, परसवाळ, फरसवाळ, पौरुसवाल, पोरस, पोरसवाल, पौरूस, पनहार, पनही, पुन्डीर, फोर, पवार, पोंवार, पोर, पौरिया, पुनरिया, रसेन , राठी, सरावग,सिनमार, शिवी, सिबी, सिबिया, शिवाज, शूर, सूरा,श्याम,श्योकंद, शॉकीन,श्योराण, सोगरिया,सोगरवाल,सुराहे, दोहन, दाहन, दनीवाल, सुवाल, सेवा, सेवलिया, सियाल, स्याल, तलान, तालान, ताहलाण, तालियान, याट, बसातिया, बसाति, वसु, वैस, बैसवार, वैसोरा, वासोड़ा, बोचल्या, व्रसोली, जोहिया, जोहिल, कुलहरी, खीचड़, माहिल,यटेसर,

6. सूर्यवंशी मूल - आर्यों में क्षत्रिय जो सूर्य की पूजा करते थे तथा संवत के चलन में काल गणना सूर्य की गति के आधार पर करते थे वे सूर्यवंशी कहलाये. ब्रह्मा के पुत्र मारीच से कश्यप ऋषि पैदा हुए. कश्यप की पत्नि आदिति (दक्ष की पुत्री) से विवस्वान (सूर्य) पैदा हुए एवं उसके पुत्र मनु से इक्षवाकु पैदा हुए जिनसे सूर्यवंश चला. राम और लक्ष्मन का जन्म सूर्यवंश में हुआ. जाटों में कुछ कम संख्या में समूह सूर्यवंशियों के हैं.

सूर्यवंश में वर्गीकृत मुख्य जाट गोत्र इस प्रकार हैं: अजमेदिया, असरोध, बुरडक, भारूका, विर्क, वृक, वरिक, चट्ठा, धरतवाल, धनोये, दगोलिया, गरुड़, गोरा, घरूका, गहलोत, गहलावत, गोहिल, इनतर, काक, काकरान, काकराना, कक्कुर, काकतीय, कलसमान, कंग, कांग, कंगरी, कास्या, काश्य, काशिया, कास्यण, कश्यप, कछवाहा, कछवाला, कुश, कसवां, कुसवां, कसुवां, किन्हा, कुसुमा, कुशमान, कुषाण, कुशवाह, कोयड़, खोये मौर्य, मौर्य, मौरी, भडाडरा, लांगल, लाङ्गा, लांगर, लावा, लांबा, लामवंशी, मान, मीया, म्यां, मियाला, गोलिया, मांगा, बाजवा, महार, महरया, महेरिया, नलवा,नेहरा, यौधेय, नृग, रघुवंशी, राज्यान, राजन, राजेन, रोहितिक, वसु, वारसिर, यजानिया, जुनावा,

7. नागवंशी मूल - पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे. नागवंशी क्षत्रियों ने भारत में 500 ई.पू. से 500 ई. तक राज्य किया है. नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फिर शेषनागों का है. पंचनद (पंजाब) में तक्षक, कश्मीर में कर्कोटक और अनंतनाग, मारवाड़ में वासुकि नाग आदि बहुत प्रभावी रहे हैं. तक्षिला, टांकशर, सिंघपुर, टोंक, मथुरा,कर्कोटनगर, इन्दौरपुरा, नागौर, पद्मावती, कान्तिपुरी, भोगवती, विदिशा, उज्जैन, पुरिका, पौनी, भरहूत, नागपुर, नंदी-वर्धन, एरण, पैठन आदि नाग राजाओं के महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं. महाभारत के विभिन्न पर्वों एवं अध्यायों में नाग राजाओं का वर्णन किया गया है यथा (1,35), (1,65), (2,9) , (5,103), (14,4). आर्य जातियों का इन नागवंशियों के साथ संघर्ष होता रहा है. नागवंशी लोगों के छोटे छोटे गणराज्य होते थे तथा किसी जानवर, पक्षी या पेड़ पौधे को राज्य का प्रतीक मानते थे और उसकी पूजा करते थे. इन गणराज्यों की पहचान भी इन्हीं नामों से होती थी. प्राय इतिहासकार यह भूल गए हैं कि जाटों की अधिकांस गोत्रों की उत्पति नागवंशी क्षत्रियों से होना पाया जाता है.

नागवंश से उत्पन्न कुछ जाट गोत्र हैं: अगे, अघरिया,ऐरावत,लेघा,आमेरिया,कराड़, बासठ, वर्णगल, बाखर, बाले, बारेटा, भामू, भड़, भर, भरगोते, भारशिव, भारी, भरवार, भरवारिया, भींचर, भूरी, भूरिया, बीहल, दहील, दहिया, देनविया, द्रेहयु, दवाना, दरवाण,डसाणिया, देवत्र, देऊ‍, द्रेहवाल, धनखड़, धनगर, धन्धवाल, धारण, धारी, धालीवाल, धौल्या, धेतरवाल, घासल, इमेगुह, जेवल्या, कलश, काला, कालीधामन, कालू, कालिया, कालखण्डे, कालीरावण, कालेरावणा, कालीरावत, कल्या, कलवारिया, कल्याण, कालीषक, कलमाष, कंवल, करालिया, खराल, काजल, कांजलान, करकरा, कटेवा, खोरवर, खाखड़, खरवाल, कुठर, करमीर, कुहाड, कोयम, कुकणा, कुकडया, कुकर, कोकोराणी, खोखर, कारसकर, कुल्लर, कुलक, कुरेली, कुलहरी, कुमुद, कुंजर, कुंडोदर, कुष्माँडक, लोहमरोड़, लोअत, लोहित, मड़काल्या, मादर, मांडिया, मुंडेल, मुड़वाड़ा, मंडला, मातवा, माछर, नागा, नाग, नागिल, न्योळ, नरवत, नारदणिया, नील, लील, निम्बड़, निठारवाल, ओडसी, पलावत, पाल,पहल, पह्लव, पांडर, पाण्डु, पाँडुर, पाण्डुल, पण्डहारी, पलारदल, पान्न, पन्नू, पन्नम,पानू, पानू, पालीवाल, पलिवाल, परसाने, पाग्वाट, पड़वाल, पूनिया, फाण्डण, फेनिन, पूछले, पिण्डेल, पंघाल, पांगर, पाण्डुल, गोरा, पौड़िया, पठुर, पोते, भाकर, भास्कर, भांकल,पोदोथ, पेहलायण, रोज, रोझ, रोत्र, राझड़िया, राहल, रथी, रतिवार, सांगू, समराव, संखार, सरंग, सुतला, सरावग, सितरवार, सेकवाल, सिरसवार, सगसैल, सेवदा, श्योकंद, संखुणिया, सकेल, सेंगवा, सांगवा,सिवाच,सियोल,सगसैल, शेषमा, श्योर,सिखरवान, श्रीवाघ, श्वित्र, सवाऊ, सोमरा, सामोता, सिपरोटा, टांक, ताखा, ढाका, ढकरवाल, तोरन, तक्षक, टक्क, तोकस, तगर,तरड़,तरार, तोरस, तीतर, तूतिया, तेतरवाल, तीतरवाल, तातरान,तनकोर, तानक, उग्रक, ओगरा, ऊला, ऊंला, ओलन, ओलख, वहरवाल, वामन, बामल, बावाणा, वाण, वरिक, वरन, वरनवार, बासवान, वावन, वेहन, बेनीवाल, बोराना,वौराण,वैरे, विहान, बिराला, लोचग, बीलवान, बौल्या, बामल,विंदा, बरोजवार, बीकरवाल, बोहरा, बाजिया, योल्या आदि.

जाट जाति का मूल अभिजन

सिन्धु घाटी में प्राप्त सील

जाट जाति के मूल अभिजन पर भी इतिहासकारों और विद्वानों में मत-भिन्नता है. जाट जाति में समाहित सर्वाधिक संख्या (लगभग 6000) गोत्रों के परिपेक्ष्य में यह मत-भिन्नता स्वाभाविक है. यदि हम यह मानलें की जाट जाति का मूल अभिजन 'सप्तसैंधव' है तो हम सत्य के अधिक करीब पाते है.

डॉ नथन सिंह (जाट इतिहास, पृ. 37) के अनुसार जाट जाति का मूल अभिजन 'सप्तसैंधव' है. वे लिखते हैं कि पुरातत्व की नई खोजों से यह सिद्ध हो गया है कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता आर्य-पूर्व की है. किन्तु सत्य यह भी है कि सिन्धु-घाटी-सभ्यता के काल में जैसा कि वहां से प्राप्त सीलों के अध्ययन से पता चलता है, भारत का आदमी शक्ती की एक देवी की उपासना करता था, पशुपालता था, एक ऐसे योगी के प्रति निष्ठावान था, जिसके सर पर दो सींग थे और जिसके चारों ओर नाग, गेंडा, सिंह और हाथी थे. शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह योगी शिव हो सकता है. शिव तथा उसके बैल का होना, इस तथ्य की और संकेत करता है कि सिन्धु-घाटी सभ्यता अथवा उससे पूर्व का आदमी खेती करता था. यह अश्व, हाथी, बैल आदि पालता था. साथ ही शिवोपासक भी था. वह नाग की पूजा करता था. ये सभी तथ्य सिन्धु-घाटी काल में , जाट जाति की उपस्तिति के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. इस निष्कर्ष के पक्ष में, एक तथ्य यह है कि शिवोपासना जाट-जाति का प्रख्यात स्वभाव है. ब्रह्मा तथा विष्णु की उपेक्षा और शिव के प्रति आस्था रखना जाटों का विशेष गुण भी है. (डॉ नथन सिंह: जाट इतिहास, पृ.72)

जाटों के ठेठ भारतीय होने का एक प्रमाण यह है कि जाट जाति के लोग श्रेष्ठ किसान होते हैं बैल और भैंस रखना उनकी विशेष आदत है. भारत में खेती होने के प्रमाण 10000 वर्ष पूर्व के मिले हैं. इराक तक में भैंसे ले जाने का काम भारतीय जाटों ने किया था. हुकमसिंह योरोप में 'बी' रक्तसमूह ले जाने का श्री जाटों को देते हैं. जाट जाति का सम्बन्ध मुख्यत: भारत में पाए जाने वाले प्रख्यात आर्य परिवार के साथ है. भारत में रहने वाले आर्य परिवार तीन वंशों से सम्बंधित थे - नागवंश, सूर्यवंश एवं चद्रवंश. जाटों का रक्त-सम्बन्ध मुख्यत: नागवंशी और चंद्रवंशी आर्यों के साथ है लेकिन कुछ इतिहासकार उनका सम्बन्ध सूर्यवंश से भी मानते है. ययाति वंशजों के प्रत्यागमन के समय शक, सीथियन आदि जातियां भी घुल मिल गयी. इन जातियों का आर्यों के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक एकीकरण हुआ. इसी के परिणाम स्वरुप कुछ इतिहासकार सीथियनों के साथ जाटों का रक्त सम्बन्ध मानते हैं.

इतिहासकार कानूनगो मानते हैं कि महाभारत काल में जाट सिंध में बसे हुए थे. महाभारत युद्ध के पूर्व भी सिंध प्रदेश के सम्बन्ध में जाटों का उल्लेख आता है. दुर्योधन के शासन काल में जाट और मेड़ वहां निवास करते थे और परस्पर युद्ध हुआ करते थे. अंत में जाट विजयी रहे और मेड़ों पर राज्य करने लगे. समयांतर में जाटों के एक सरदार ने दोनों को प्रेम पूर्वक रहने के लिए समझाया और महाराजा दुर्योधन से अपने लिए एक शासक भेजने को कहा. इस पर दुर्योधन ने अपनी बहन दु:शाला को सिन्धु प्रदेश का शासक नियुक्त किया.

जाटों का विदेशों में जाना तो ठोस सत्य है, लेकिन उनका लौटकर भारत आना भी उतना ही सत्य है. कुछ समय के लिए जाट आर्यों को अथवा उनके वंशजों को आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारणों से बाहर के देशों में रहना पड़ा परन्तु स्थितियां अनुकूल होने पर पुन: भारत को लौटकर आये. इस प्रक्रिया में उन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति तथा परम्पराओं को नहीं छोड़ा. (डॉ नथन सिंह:जाट इतिहास, पृ. 38)

मध्य प्रदेश के रायसेन जिले के गाँव उरदेन के पास पुरातत्ववेताओं को खुदाई में कुछ शैल-चित्र मिले हैं, जो वहां 10000 वर्ष ई.पू. खेती होने के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. (दैनिक जागरण:1 फ़रवरी -1999).


आर.बी. दयाराम सहानी ने सन 1921 में हड़प्पा के खंडहरों का और आर.डी. बनर्जी ने सन 1927 में मोहन-जोदड़ो का सर्वे करके यह निष्कर्ष निकाला था कि यह सभ्यता 3000 वर्ष ई.पू. विद्यमान थी. सर जॉन मार्शल का विचार है की सिन्धु घाटी सभ्यता का समय 3000 से 2750 वर्ष ई.पू. का है. सी. वी. वैद्य 'महाभारत ए क्रिटीसीज्म', मुंबई 1904, पृ. 55-78 के अनुसार मानते हैं कि जाट 3102 वर्ष ई.पू. विद्यमान थे. इन तथ्यों के आधार पर , यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है की सिन्धु-घाटी सभ्यता के दौरान जाट-जाति मौजूद थी.(डॉ नथन सिंह: जाट इतिहास, पृ.73)

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि महाभारत युद्ध के पश्चात् राजनैतिक संघर्ष हुआ जिसके कारण पांडवों को हस्तिनापुर तथा यादवों को द्वारिका छोड़ना पड़ा. ये लोग भारत से बाहर इरान, अफगानिस्तान, अरब, और तुर्किस्तान देशों में फ़ैल गए. चंद्रवंशी क्षत्रिय जो यादव नाम से अधिक प्रसिद्द थे वे इरान से लेकर सिंध, पंजाब, सौराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में फ़ैल गए. पूर्व-उत्तर में ये लोग कश्मीर, नेपाल, बिहार तक फैले. यही नहीं मंगोल देश में भी जा पहुंचे. कहा जाता है कि पांडव साइबेरिया में पहुंचे और वहां वज्रपुर आबाद किया. यूनान वाले हरक्यूलीज की संतान मानते हैं और इस भांति अपने को कृष्ण तथा बलदेव की संतान बताते हैं. चीन-वाशी भी अपने को भारतीय आर्यों की संतान मानते हैं. इससे आर्यों को महाभारत के बाद विदेशों में जाना अवश्य पाया जाता है. ये वही लोग थे जो पीछे से शक, पल्लव्ह, कुषाण, यूची, हूण, गूजर आदि नामों से भारत में आते समय पुकारे जाते हैं. [1]

द्वारिका के पतन के बाद जो ज्ञाति-वंशी पश्चिमी देशों में चले गए वह भाषा भेद के कारण गाथ कहलाने लगे तथा 'जाट' जेटी गेटी कहलाने लगे.[2]

जाट शब्द की उत्पत्ति का प्राचीन प्रमाण

एक मत ऐसा भी है कि जाट शब्द संस्कृत के याट् का ही अपभ्रंश रूप है । श्री रामलाल बदायूं निवासी ने अपनी पुस्तक जाट क्षत्रिय इतिहास सं० 1990 वि० में लिखा है -

यदु कुल में जन्मे पृथु श्रुवा नामक पुत्र से धर्म नाम का पुत्र हुआ । उस धर्म का पुत्र उष्ना हुआ जो एक सौ (100) अश्वमेधों का याट् हुआ । याट् - अर्थात यज्ञ करने वालायाट् या याजक (यज्ञ करने वाला) - दोनों समानार्थक हैं । याट् शब्द का अर्थ यष्टा अर्थात् यज्ञ करने वाला और शनैः शनैः लोकभाषा में याट् को जाट कहा जाने लगा क्योंकि अक्षर अपभ्रंश होकर हो जाया करता है जैसे यमुना से जमुना, यमदग्नि से जमदग्नि, यज्ञमान से जजमान ।

यह प्रमाण श्रीमद् भागवत पुराण नवम् स्कन्ध 23वें अध्याय के ३४वें श्लोक में भी निहित है । इस उष्ना याट् (जाट) का उदाहरण कई अन्य इतिहास पुस्तकों में भी आया है । सो, यह जाट क्षत्रिय संज्ञा एक वंश भी है ।

ज्ञात से जाट शब्द बना

ठाकुर देशराज (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.101, 109) एवं डॉ नत्थन सिंह ('जाट इतिहास', पृ. 41) लिखते हैं कि जाट शब्द की उत्पत्ति के विषय में, सर्वाधिक तर्क-संगत एवं भाषा विज्ञान शास्त्र के अनुरूप, उचित मत है कि जाट शब्द का निर्माण संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द से हुआ है. अथवा यों कहिये कि यह 'ज्ञात' शब्द का अपभ्रंश है. महाभारत के शांति पर्व अध्याय 82 से सिद्ध होता है की श्रीकृष्ण ने अन्धक तथा वृष्णि जातियों का गण-संघ बनाया था. [3] ठाकुर देशराज (जाट इतिहास, पृ. 89.) लिखते हैं कि महाभारत काल में गण का प्रयोग संघ के रूप में किया गया है. बुद्ध के समय भारतवर्ष में 116 प्रजातंत्र थे. गणों के सम्बन्ध में महाभारत शांति पर्व के अध्याय 108 में विस्तार से दिया गया है . इसमें युधिष्ठिर भीष्म से पूछते हैं कि गणों के सम्बन्ध में आप मुझे यह बताने की कृपा करें कि वे किस तरह वर्धित होते हैं, किस प्रकार शत्रु की भेद-नीति से बचते हैं, शत्रुओं पर किस तरह विजय प्राप्त करते हैं, किस तरह मित्र बनाते हैं, किस तरह गुप्त मंत्रों को छुपाते हैं.

महाभारत काल में भारत में अराजकता का व्यापक प्रभाव था. यह चर्म सीमा को लाँघ चुका था. मगध में अत्याचारी जरासंध का एकछत्र राज्य था. हस्तिनापुर में दुर्योधन पांडवों को नष्ट करने की कुटिल चाल चल रहा था. दक्षिण में चेदी नरेश शिशुपाल जरासंध का पुष्टि-पोषक था. मथुरा में कंस पिता को बंदी बनाकर यादवों को पीड़ित कर रहा था. बंगाल नरेश नरक, कामरूप नरेश भगदत्त, उत्तरी आसाम का शासक बाण आदि भी जरासंध की अधीनता में काम कर रहे थे. इस प्रकार उत्तरी भारत में साम्राज्यवादी शासकों ने प्रजा को असह्य विपदा में डाल रखा था. इस स्थिति को देखकर कृष्ण ने अग्रज बलराम की सहायता से कंस को समाप्त कर उग्रसेन को मथुरा का शासक नियुक्त किया. कृष्ण ने साम्राज्यवादी शासकों से संघर्ष करने हेतु एक संघ का निर्माण किया. उस समय यादवों के अनेक कुल थे किंतु सर्व प्रथम उन्होंने अन्धक और वृष्णि कुलों का ही संघ बनाया. संघ के सदस्य आपस में सम्बन्धी होते थे इसी कारण उस संघ का नाम 'ज्ञाति-संघ' रखा गया. [4][5] . [6]


यह 'ज्ञाति-संघ' व्यक्ति प्रधान नहीं था. इसमें शामिल होते ही किसी राजकुल का पूर्व नाम आदि सब समाप्त हो जाते थे. वह केवल ज्ञाति के नाम से ही जाने जाते थे. यह राजनैतिक संघ था जिसमें दो दल थे. एक के नेता श्री कृष्ण और दूसरे के उग्रसेन थे. श्री कृष्ण द्वारा स्थापित ज्ञाति-संघ समाजवादी सिद्धांतों के बलपर अपना प्रभाव बढाने लगा और शनै-शनै श्रीकृष्ण ने पीड़ित जनता की रक्षा की. अतएव इस संघ का क्षत्रियत्व स्वयंसिद्ध हो गया. तभी कल्पसूत्र नाम के जैन आगम में इस ज्ञाति-संघ को क्षत्रियों का प्रसिद्द कुल घोषित कर दिया. [7] 'नायाणं खत्तियांण' यानी क्षत्रियों के प्रसिद्द कुल के नाम से उत्तर भारत में इसकी प्रसिद्धि हो गई. आगे चलकर इसके अनेक ज्ञाति-संघ बन गए. कुछ ज्ञाति लोगों ने सम्राट या राजा की भी उपाधि धारण कर ली जो राजन्य कहलाये किन्तु प्रसिद्धी उनकी ज्ञातियों के नाम से रही. [8]

प्राचीन ग्रंथो के अध्ययन से यह बात साफ हो जाती है कि परिस्थिति और भाषा के बदलते रूप के कारण 'ज्ञात' शब्द ने 'जाट' शब्द का रूप धारण कर लिया. महाभारत काल में शिक्षित लोगों की भाषा संस्कृत थी. इसी में साहित्य सर्जन होता था. कुछ समय पश्चात जब संस्कृत का स्थान प्राकृत भाषा ने ग्रहण कर लिया तब भाषा भेद के कारण 'ज्ञात' शब्द का उच्चारण 'जाट' हो गया. आज से दो हजार वर्ष पूर्व की प्राकृत भाषा की पुस्तकों में संस्कृत 'ज्ञ' का स्थान 'ज' एवं 'त' का स्थान 'ट' हुआ मिलता है. इसकी पुष्टि व्याकरण के पंडित बेचारदास जी ने भी की है. उन्होंने कई प्राचीन प्राकृत भाषा के व्यकरणों के आधार पर नवीन प्राकृत व्याकरण बनाया है जिसमे नियम लिखा है कि संस्कृत 'ज्ञ' का 'ज' प्राकृत में विकल्प से हो जाता है और इसी भांति 'त' के स्थान पर 'ट' हो जाता है. [9] इसके इस तथ्य की पुष्टि सम्राट अशोक के शिलालेखों से भी होती है जो उन्होंने 264-227 ई. पूर्व में धर्मलियों के रूप में स्तंभों पर खुदवाई थी. उसमें भी 'कृत' का 'कट' और 'मृत' का 'मट' हुआ मिलता है. अतः उपरोक्त प्रमाणों के आधार पर सिद्ध होता है कि 'जाट' शब्द संस्कृत के 'ज्ञात' शब्द का ही रूपांतर है. अतः जैसे ज्ञात शब्द संघ का बोध कराता है उसी प्रकार जाट शब्द भी संघ का वाचक है. [10]

यह रूपांतर कब हुआ और 'जाट' शब्द कब अस्तित्व में आया. खेद का विषय है कि ब्राह्मण-श्रमण एवं बौध धर्म के संघर्ष में जाटों द्वारा ब्राह्मण धर्म का विरोध करने के कारण इसका इतिहास नष्ट हो गया. जहाँ-तहां इस इस इतिहास के कुछ संकेत मात्र शेष रह गए हैं. व्याकरण के विद्वान पाणिनि का जन्म ई. पूर्व आठवीं शताब्दी में प्राचीन गंधार राज्य के सालतुरा गाँव में हुआ था, जो इस समय अफगानिस्तान में है, उन्होंने अष्टाध्यायी व्याकरण में 'जट' धातु का प्रयोग कर 'जट झट संघाते' सूत्र बना दिया. इससे इस बात की पुष्टि होती है कि जाट शब्द का निर्माण ईशा पूर्व आठवीं शदी में हो चुका था. पाणिनि रचित अष्टाध्यायी व्याकरण का अध्याय 3 पाद 3 सूत्र 19 देखें: 3. 3. 19 अकर्तरि च कारके संज्ञायां । अकर्तरि च कारके संज्ञायां से जट् धातु से संज्ञा में घ ञ् प्रत्यय होता है. जट् + घ ञ् और घ ञ प्रत्यय के घ् और ञ् की इति संज्ञा होकर लोप हो जाता है. रह जाता है अर्थात जट् + अ ऐसा रूप होता है. फ़िर अष्टाध्यायी के अध्याय 7 पाद 2 सूत्र 116 - 7. 2. 116 अतः उपधायाः से उपधा अर्थात जट में के अक्षर के के स्थान पर वृद्धि अथवा दीर्घ हो जाता है. जाट् + अ = जाट[11]

जाट शब्द की प्राचीनता

जैसा कि ऊपर बताया गया है ब्राह्मण-श्रमण एवं बौध धर्म के संघर्ष में जाटों द्वारा ब्राह्मण धर्म का विरोध करने के कारण इसका इतिहास नष्ट हो गया. परन्तु जहाँ-तहां इस इस इतिहास के कुछ संकेत मात्र शेष रह गए हैं. सभी धर्मों के धर्म ग्रंथों यथा शाहनामा, बाइबिल, महाभारत और रामायण में जाट शब्द अथवा जाट गोत्रों का उल्लेख आता है. जाट शब्द की प्राचीनता दर्शाने वाले कुछ तथ्य निम्नानुसार हैं:

1. शिव की जटाओं से जाट की उत्पत्ति का सिद्धांत यद्यपि पौराणिक है और इसको इतिहास या विज्ञान की कसौटी पर नहीं कसा जा सकता परन्तु यह इससे एक बात तो साफ है कि सृष्टि के आदि में जाट प्राचीनतम क्षेत्रीय थे. वीरभद्र शिव का अंश था जिससे जाट उत्पन्न हुए. उस समय भी जाट गणों के रूप में संगठित थे. यह सिद्धांत जाट की प्राचीनता सिद्ध करने में सहायक है.

2. जैसा कि ऊपर वर्णन किया गया है सी. वी. वैद्य ('महाभारत ए क्रिटीसीज्म', मुंबई 1904, पृ. 55-78) मानते हैं कि जाट 3102 वर्ष ई.पू. भारत में विद्यमान थे. (डॉ नथन सिंह: जाट इतिहास, पृ.73)

3. भाषा के आधार पर ऊपर बताया गया है कि 'जाट' शब्द 'जट' से बना है. व्याकरण भाष्कर महर्षि पाणिनि की ई.पू. 8 वीं शदी की अष्टाध्यायी पुस्तक में धातु पाठ में 'जट' व 'जाट' शब्द की विद्यमानता उनकी प्राचीनता का एक अकाट्य प्रमाण है. पाणिनि ने यह स्वीकार किया है कि 'जट' शब्द उसके पहले के व्याकरणविदों द्वारा भी प्रयोग किया गया है. पाणिनि के पूर्ववर्ती व्याकरणविद यस्क ने 'निरुक्त' में 'जाट्य आटनारो' का लेख किया है जिसका अर्थ संभवत: 'घुम्मकड़ जट' लिया जा सकता है. पाणिनि के बाद ई.पू. 5 वीं शदी के चन्द्र के व्याकरण में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है. 'अजय जर्टो हूणान्' वाक्य का प्रयोग कर उन्होंने संकेत किया है कि जाट अजेय हैं जिन्होंने हूणों को पराजित किया. अत: 'जाट' शब्द की उत्पत्ति तथा प्रचलन की उपरोक्त व्याख्या तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक और सत्य है. [12]

4. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 44 में कार्तिकेय को सेनाध्यक्षों के अधिपति नियुक्त किया जाता है जिसमें अनेक राजाओं और सैनिकों ने भाग लिया. इनमें अनेक जाट गोत्र मिलते हैं तथा जट नामक एक सेनाध्यक्षों के अधिपति का उल्लेख भी है. ब्रह्मा ने स्वामी कार्तिकेय को अनेक वस्तुएं भेंट की थी, उनमें 'जट' नामक सेनाध्यक्षों का स्वामी भी था:

एकाक्षॊ द्वादशाक्षश च तदैवैक जटः परभुः
सहस्रबाहुर विकटॊ वयाघ्राक्षः कषितिकम्पनः (IX.44.54)

5. प्राचीन ग्रन्थ 'शिव स्त्रोत' में शिव के एक सहस्त्र नामों का उल्लेख है. शिव स्त्रोत को महाभारत शल्य पर्व में भी उल्लेखित किया गया है, उसमें परमात्मा व परमेश्वर का एक नाम 'जट' भी दिया गया है. महाभारत के अनुसासन पर्व अध्याय 17 श्लोक 86 में शिव का नाम महाजट भी अंकित है -

महानखॊ महारॊमा महाकेशॊ महाजटः
असपत्नः परसादश च परत्ययॊ गिरिसाधनः (XIII.17.86 )

6. रामायण के किष्किन्धा काण्ड में जटापुर शहर का उल्लेख आता है. किष्किन्धा काण्ड शर्ग 42 में सुग्रीव विभिन्न दिशाओं में दल भेज कर सीता की तलास करवाता है. वह पश्चिमी दल के नेता सुषेण को पश्चिम का भूगोल समझाता है कि उसको सुराष्ट्र, बाल्हिका और चंद्रचित्र (मथुरा) प्रदेश मिलेंगे, तत्पश्चात समुद्र, सिन्धु नदी और ऊँचे पर्वत मिलेंगे. वह भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित विशाल पर्वतों का उल्लेख करता है. वह निर्देश देता है कि पश्चिम में आगे बढ़ने पर समुद्र के पास वन मिलेगा जिसमें केतकी, तमाल, नारियल आदि के वृक्ष हैं. उसके आगे मुरची और जटापुरम्, अवन्ती, अंगलेप आदि शहर हैं. स्पस्ट है कि जटापुरम् एक जाटों का शहर है.

वेलातल निवेष्टेषु पर्वतेषु वनेषु च ।
मुरची पत्तनम् चैव रम्यम् चैव जटा पुरम् ॥4-42-13॥

7. डॉ महेन्द्रसिंह आर्य आदि इतिहासकार बाइबिल मुक़द्दस के पुराने अहदनामे के आधार पर लिखते हैं कि जाट क्षत्रियों तथा जाट नामक शहर का भी उल्लेख सीरिया देश के अंतर्गत आता है, जो जाटों की राजधानी थी. जुलीत नामक एक जाट पहलवान का भी उल्लेख आता है. बाइबिल के अनुसार ये घटनाएँ वर्तमान से 4000 वर्ष पूर्व की हैं. [13]

8. डॉ एस.एम. युनुस जाफ़री लिखते हैं कि जाट का उल्लेख परसिया या इरान के कवि फिरदोसी (935–1020) द्वारा रचित इरान के राष्ट्रीय धर्मग्रन्थ शाहनामा में भी किया गया है. शाहनामा वस्तुत: सृष्टि की रचना से लेकर 7 वीं शदी में इरान की अरब विजत तक का इरान का इतिहास बताता है. जाट का उल्लेख रुस्तम और सोहराब नमक दो नायकों की कहानी में आता है. दोनों पिता पुत्र है और अपनी पहचान नहीं बताना चाहते हैं. सोहराब अपने पिता रुस्तम की तलास में सफ़ेद किले की तरफ बढ़ता है और वहां के रक्षक हुजीर से इरान के बहादुर नायकों के बारे में पूछता है - "... बहराम के बारे में और प्रसिद्द रुस्तम ....और प्रत्येक जाट के बारे में मुझे बताओ." [14]

जाट संघ में शामिल वंश

श्री कृष्ण के वंश का नाम भी जाट था. कृष्ण के वंशज जो कृष्णिया या कासनिया कहलाते हैं वर्तमान में जाटों के एक गोत्र के रूप में मौजूद हैं. इस जाट संघ का समर्थन पांडव वंशीय सम्राट युधिस्ठिर तथा उनके भाइयों ने भी किया. आज की जाट जाति में पांडव वंश पाकिस्तान के पंजाब के शहर गुजरांवाला में पाया जाता है. गुजरांवाला से ही गूजर गोत्र का निकास हुआ और गूजर जाट गोत्र के रूप में राजस्थान के नागौर, बाड़मेर, पाली, जोधपुर आदि जिलों में आज भी पाए जाते हैं. राजस्थान के जयपुर जिले में पाण्डु जाट गोत्र आज भी रहते हैं. समकालीन राजवंश गांधार, यादव, सिंधु, नाग, लावा, कुशमा, बन्दर, नर्देय आदि वंश ने कृष्ण के प्रस्ताव को स्वीकार किया तथा जाट संघ में शामिल हो गए. गांधार गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में रघुनाथपुर जिला बदायूं, आगरा जिले के बिचपुरी, जउपुरा, लड़ामदा आदि गाँवों में, अलीगढ़ जिले में तथा मध्य प्रदेश के नीमच जिले में रहते हैं. यादव वंश के जाट क्षत्रिय धर्मपुर जिला बदायूं में अब भी हैं. सिंधु गोत्र तो प्रसिद्ध गोत्र है. इसी के नाम पर सिंधु नदी तथा प्रान्त का नाम सिंध पड़ा. पंजाब की कलसिया रियासत इसी गोत्र की थी. नाग गोत्र के जाट उत्तर प्रदेश में खुदागंज तथा रमपुरिया ग्राम जिला बदायूं में हैं. नागा जाट राजस्थान के नागौर, अलवर, सीकर, टोंक, जयपुर, उदयपुर, चित्तोड़ और जैसलमेर जिलों में तथा मध्य प्रदेश के खरगोन, इन्दोर और रतलाम जिलों में भी पाए जाते है. इसी प्रकार वानर/बन्दर गोत्र जिसके हनुमान थे वे पंजाब और हरयाणा के जाटों में पाये जाते हैं. नर्देय गोत्र भी कांट जिला मुरादाबाद के जाट क्षेत्र में है.[15]


पुरातन काल में नाग क्षत्रिय समस्त भारत में शासक थे. नाग शासकों में सबसे महत्वपूर्ण और संघर्षमय इतिहास तक्षकों का और फ़िर शेषनागों का है. एक समय समस्त कश्मीर और पश्चिमी पंचनद नाग लोगों से आच्छादित था. इसमें कश्मीर के कर्कोटक और अनंत नागों का बड़ा दबदबा था. पंचनद (पंजाब) में तक्षक लोग अधिक प्रसिद्ध थे. कर्कोटक नागों का समूह विन्ध्य की और बढ़ गया और यहीं से सारे मध्य भारत में छा गया. यह स्मरणीय है कि मध्य भारत के समस्त नाग एक लंबे समय के पश्चात बौद्ध काल के अंत में पनपने वाले ब्रह्मण धर्म में दीक्षित हो गए. बाद में ये भारशिव और नए नागों के रूप में प्रकट हुए. इन्हीं लोगों के वंशज खैरागढ़, ग्वालियर आदि के नरेश थे. ये अब राजपूत और मराठे कहलाने लगे. तक्षक लोगों का समूह तीन चौथाई भाग से भी ज्यादा जाट संघ में शामिल हो गए थे. वे आज टोकस और तक्षक जाटों के रूप में जाने जाते हैं. शेष नाग वंश पूर्ण रूप से जाट संघ में शामिल हो गया जो आज शेषमा कहलाते हैं. वासुकि नाग भी मारवाड़ में पहुंचे. इनके अतिरिक्त नागों के कई वंश मारवाड़ में विद्यमान हैं. जो सब जाट जाति में शामिल हैं.[16] नागवंशी मूल के जाट गोत्रों की सूची ऊपर दी गयी है. इससे स्वत: स्पस्ट है कि काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट संघ में शामिल हुए.

जाटसंघ में सामिल लगभग 3000 गोत्रों की उत्पत्ति और विस्तार का विवरण जाटलैंड वेबसाइट (http://www.jatland.com/home/Gotras) पर उपलब्ध है. जाटसंघ में इतनी अधिक गोत्रों का समावेस इसकी प्राचीनता और प्राचीन काल में उपयोगिता को रेखांकित करता है. किसी भी मानवजातीय समूह में सम्मिलित सामाजिक समूहों की यह सर्वाधिक संख्या है.

जाट संघ से अन्य संगठनों की उत्पति

जाट संघ में भारत वर्ष के अधिकाधिक क्षत्रिय शामिल हो गए थे. जाट का अर्थ भी यही है कि जिस जाति में बहुत सी ताकतें एकजाई हों यानि शामिल हों, एक चित हों, ऐसे ही समूह को जाट कहते हैं. जाट संघ के पश्चात् अन्य अलग-अलग संगठन बने. जैसे अहीर, गूजर, मराठा तथा राजपूत. ये सभी इसी प्रकार के संघ थे जैसा जाट संघ था. राजपूत जाति का संगठन बौद्ध धर्म के प्रभाव को कम करने के लिए ही पौराणिक ब्राहमणों ने तैयार किया था. बौद्धधर्म से पहले राजपूत नामका कोई वर्ग या समाज न था. [17] पौराणिक ब्राहमणों ने जिन नये चार नवक्षत्रियों को तैयार किया उनमें थे: 1.सोलंकी, 2. प्रतिहार, 3. चौहान और 4. परमार. यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये चारों वर्ग जाट गोत्रों में पहले से भी थे और अब भी विद्यमान हैं.

अग्निकुल क्षत्रिय

बुद्ध के समय वैदिक धर्म ब्राह्मणों के नियंत्रण में आ गया था. इसमें कर्म काण्ड बढ़ गए थे. बुद्ध ने इसके विरुद्ध बगावत कर दी और नया बौद्ध धर्म चलाया. शनै-शनै क्षत्रिय वर्ग वैदिक धर्म त्याग कर बौध धर्मी बन गया. क्षत्रियों की वैदिक परम्पराएँ नष्ट हो गयी. पहले क्षत्रिय सूर्यवंशी या चंद्रवंशी कहलाते थे. ब्राहमणों ने इस से चिड़ कर पुराणों में यह लिखा दिया कि कलियुग में ब्राहमण व शूद्र ही रह जायेंगे और राजा शूद्र होंगे. ब्राहमणों ने बुद्ध धर्मावलम्बी क्षत्रियों को शूद्र की संज्ञा देदी. उस काल में समाज की रक्षा करना तथा शासन चलाना क्षत्रिय का उत्तर दायित्व था. वैदिक धर्म की रक्षा का जटिल प्रश्न ब्राहमणों के सामने उपस्थित हुआ. इस पर ब्राहमणों ने क्षत्रियों को वापिस वैदिक धर्म में लाने के प्रयास किये. ब्राहमणों के मुखिया ऋषियों ने अपने अथक प्रयास से चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त कर ली. आबू पर्वत पर यज्ञ कर के बौध धर्म से वैदिक धर्म में पुनः उनका समावेस किया. यही अग्निकुंड का स्वरुप है. [18]

राजस्थान के दशरथ शर्मा इतिहासकार लिखते हैं कि असुरों का संहार करने के लिए वशिष्ठ ऋषि ने चार क्षत्रिय कुल उत्पन्न किये- चालुक्य, चौहान, परमार और प्रतिहार. [19]अबुल फजल ने आईने अकबरी में इनकी उत्पति आबू पर्वत पर महाबाहू ऋषि द्वारा बौद्धों से तंग आने के कारण अग्नि कुंड से होना लिखा है. (सन्दर्भ आईने अकबरी वि.2, प.214) चौहानों के बारे में आबू पर्वत पर अचलेश्वर महादेव के मंदिर में संवत 1377 ई.1320 के देवड़ा लुम्भा के समय के लेख में लिखा है कि सूर्य और चन्द्रवंश के अस्त हो जाने पर जब संसार में उत्पात कायम हुआ तो वत्स ऋषि ने ध्यान योग लगाया तब उनके ध्यान में और चन्द्रमा के योग से एक पुरुष उत्पन्न हुआ.[20]

अबू पर्वत पर जो क्षत्रिय माने गए उनमें से 80 प्रतिशत नागवंशी जाट थे. शेष अहीर, गुजर, यादव आदि थे. उस समय राजपूत शब्द प्रचलन में नहीं हुआ था. वस्तुत नागवंशी जाट बौद्ध धर्म में थे. उनका हिन्दुकरण किया गया और नए क्षत्रिय वर्ग में विभाजन कर दिया गया. जो गोत्र जिस क्षत्रिय वंश में शामिल हुए उनका इतिहास वहीँ से माना गया. भाट व्यवस्था कायम की गयी. भाट अपना इतिहास वहीँ से लिखना शुरू कर रहे हैं इसलिए वर्तमान क्षेत्रीय वंशों की उत्पति आबू से मान रहे हैं. अग्निवंश में सम्मिलित चार क्षत्रिय वंशियों के वापस वैदिक धर्म में आने के बाद भी बुद्ध धर्म में क्षत्रिय अधिकतर थे अतः बौद्ध धर्मावलम्बी क्षत्रियों से इनकी अलग पहचान हेतु इन्हें क्षत्रियों के स्थान पर राजपूत कहकर पुकारा जाने लगा. ब्राहमणों ने इनको अन्य क्षत्रियों पर श्रेष्ठ सिद्ध करने की कोशिश की. [21]

आबू पर्वत पर सातवीं शदी में चार क्षत्रिय कुलों को वापस वैदिक धर्म में दीक्षित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी और इनको राजपुत्र या राजपूत कहा जाने लगा परन्तु यह शब्द कई शताब्दी बाद तक भी प्रचलन में नहीं आया. नाडोल प्लेट के लेख में राजपुत्र कीर्तिपाल का उल्लेख विक्रम संवत 1218 (ई. 1160) में चौहान शासकों द्वारा प्रयोग किया जाना प्रतिवेदित है. [22]

सन्दर्भ

  • Jat Gatha - May 2017,p. 8-15 में भी यह लेख प्रकाशित हुआ है.

References

  1. जाट इतिहास: ठाकुर देशराज, पृष्ठ 30
  2. जाट इतिहास: ठाकुर देशराज पृ 96
  3. धन्यं यशस्यम आयुष्यं सवपक्षॊथ्भावनं शुभम । ज्ञातीनाम अविनाशः सयाथ यदा कृष्ण तदा कुरु ।। (XII.82.27); माधवाः कुकुरा भॊजाः सर्वे चान्धकवृष्णयः । तवय्य आसक्ता महाबाहॊ लॊका लॊकेश्वराश च ये ।।(XII.82.29)
  4. Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter 82
  5. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 6
  6. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7
  7. जैन धर्म की मासिक पत्रिका 'अनेकांत', माह जनवरी 1940 , पृ. 240
  8. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 6
  9. प्राकृत व्याकरण द्वारा बेचारदास, पृ. 41
  10. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 7
  11. डॉ महेन्द्रसिंह आर्य, धर्मपाल डूडी, किसनसिंह फौजदार, डॉ विजेन्द्रसिंह नरवार:आधुनिक जाट इतिहास, 1998,, पृ. 1
  12. ठाकुर गंगासिंह: "जाट शब्द का उदय कब और कैसे", जाट-वीर स्मारिका, ग्वालियर, 1992, पृ. 7
  13. डॉ महेन्द्रसिंह आर्य, धर्मपाल डूडी, किसनसिंह फौजदार, डॉ विजेन्द्रसिंह नरवार:आधुनिक जाट इतिहास, 1998, पृ. 3
  14. Dr S.M. Yunus Jaffery:The Jats - Vol. I, 2004. pp 36-37, Ed. Dr Vir Singh
  15. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 7
  16. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 8
  17. किशोरी लाल फौजदार: "महाभारत कालीन जाट वंश", जाट समाज, आगरा, जुलाई 1995, पृ 8
  18. कु. देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पृ. 21 -23
  19. कु. देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पृ.18
  20. कु. देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पृ.19
  21. कु. देवी सिंह मंडावा:सम्राट पृथ्वीराज चौहान, 2007 , पृ.23
  22. Epigraphia Indica Vol.IX By Kielhorn, pp.66-68

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