User:Lrburdak/My Tours/Tour of Saurashtra Gujarat
लेखक:लक्ष्मण बुरड़क, IFS (Retd.), जयपुर |
लेखक की सौराष्ट्र (गुजरात) यात्रा (18.12.2013 - 26.12.2013)
लेखक के भोपाल में पदस्थापना के दौरान गुजरात प्रांत के सौराष्ट्र भू-भाग का प्रवास माह दिसंबर 2013 में किया गया था. इस यात्रा में भारत शासन की अवकाश यात्रा सुविधा (एलटीसी) (खंड-वर्ष 2011-12) का लाभ लिया गया. गुजरात कैडर के बैच-मेट जमाल अहमद खान द्वारा इस यात्रा की रूपरेखा और व्यवस्था तैयार की गई थी. भोपाल से मेरी पत्नी श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ गुजरात प्रांत के काठियावाड़ और सौराष्ट्र भू-भाग का प्रवास किया गया था जिसका विवरण यहाँ दिया गया है । जैसी मेरी भ्रमण के पूर्व जिज्ञासा थी वैसी किसी की भी हो सकती है- आखिर गुजरात में क्या खास है? संयोग से भ्रमण का समय वह था जब गुजरात को सबसे विकसित प्रांत का मॉडल मानकर वहाँ के मुख्य मंत्री को देश के प्रधान मंत्री के रूप में देखा जाने लगा था ।
गुजरात भ्रमण भाग-1 : भोपाल - जूनागढ़ - गिरनार - सासनगिर
इस विवरण में देखे गए स्थानों का ऐतिहासिक और भौगोलिक वर्णन किया गया है और साथ ही वहाँ के जनजीवन और विकास की स्थिति का भी यथा स्थान जैसा देखा वैसा उल्लेख किया गया है । ऐतिहासिक मापदंड से 7 वर्षों में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता परंतु आंशिक स्थानीय स्थितियाँ वर्तमान में कुछ भिन्न हो सकती हैं ।
इस भाग में जूनागढ़ – गिरनार - सासनगिर – काठियावाड़ और सौराष्ट्र का विवरण दिया जा रहा है शेष अगले भाग में दिया जाएगा ।
18.12.2013: भोपाल - जूनागढ़: शाम 17.45 बजे हबीबगंज स्टेशन भोपाल से जबलपुर-सोमनाथ एक्सप्रेस से रवाना हुए। रास्ते में पड़ने वाले स्थान इसप्रकार थे:
19.12.2013: भोपाल (17.45 बजे) - उज्जैन - नागदा - मेघनगर - दाहोद - गोधरा - बड़ोदा - आनंद - नाडियाड - मणिनगर - अहमदाबाद - वीरमगाम - सुरेंद्रनगर - थान - राजकोट - गोंदल - वीरपुर - जेतलसर - जूनागढ़ (17 बजे ) - सासन गिर (20 बजे)
जूनागढ़ भ्रमण: जूनागढ़ पहुँचने का निर्धारित समय 15.50 बजे था। रेल विलम्ब से पहुंची। स्टेशन पर डिप्टी रेंजर अमित वाणिया वाहन लेकर आये थे। उसने बताया कि अशोक-शिलालेख 6 बजे शाम बंद हो जाता है इसलिये हम सीधे अशोक-शिलालेख पहुंचे।
अशोक-शिलालेख: अशोक-शिलालेख गिरनार पहाड़ से पहले ही यह रास्ते में पड़ता है। यहाँ अशोक मौर्य का लगभग 250 ई.पू. का शिलालेख है। इसमें अशोक की राजाज्ञा लिखी है। पाली भाषा में उपदेश दिया गया है कि महिलाओं और जानवरों के प्रति दयाभाव रखा जावे। भिखारियों को भीख दी जावे। रुद्रदमन ने इसी शीला पर 120 ई. सन में संस्कृत में शीला लेख लिखवाया था। स्कंदगुप्त ने 455 ई. के लगभग शिलालेख लिखवाया था जिसमे पास ही स्थित सुदर्शन झील के किनारे बाढ़ से टूटने का विवरण है। अभी इस नाम की कोई झील नहीं है। ये तीनों शिलालेख एक बड़ी चट्टान पर अंकित किये गए हैं जिसको एक भवन में पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित किया गया है।
सुदर्शन झील: सौराष्ट्र में गिरिनगर से निकलती नदी सुवर्नरेखा (सुवर्णसुकता) नदी पर सुदर्शन झील बना हुआ है. रूद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख (120 ई.) से ज्ञात होता है कि सुदर्शन झील का निर्माण चन्र्दगुप्त मौर्य ने कराया था। अशोक के राज्यपाल तुशाष्प ने बाद में उसमें से नहर निकाली । स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख (455 ई.) से ज्ञात होता है कि अत्यधिक वर्षा से रूद्रामन के समय में झील का बांध टूट गया था। अधिक वर्षा होने से इसका पानी किनारों से ऊपर चढ़ गया था जिससे पास के प्रदेशों में रहने वाले लोगों को खतरा पैदा हो गया था। सौराष्ट्र के प्रान्तीय शासक पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने झील की मरम्मत कराई। जिसकी मरम्मत कराई। यह कार्य रूद्रामन के प्रान्तीय शासक सुविशाख ने किया। प्रजा पर कोई अतिरिक्त कर नहीं लगाया।
ऊपरकोट का किला: ऊपरकोट का किला 319 ई. पूर्व में चन्द्रगुप्त द्वारा बनाया गया था। माना जाता है कि 7-10 वीं शदी तक इस किले को भुला दिया गया था और यह जंगल से ढ़क गया था। साल 940 से 980 में चुडासमा राजा ग्रहरिपु ने इस किले की फिर से खोज की, किले का परिसर का सारा जंगल साफ किया तब उसने किले के बारे में जानकारी लेने की कोशिश की. लेकिन कोई जानकारी नहीं मिली। इसी कारण इस किले को ग्रहरिपु ने जूनागढ़ नाम दिया और किले में उसने कई इमारतें बनवाई। चुडासमा राजा नवघण ने अपनी राजधानी वामनस्थली से बदलकर जूनागढ़ की और किले में नवघण कुवो का निर्माण किया। किले के अंदर अड़ी-कडी वाव, नवघण कुवो ,बौद्ध गुंफायें ,नीलम और मानेक तोप हैं। कहते हैं ये तोप मिश्र के कैरो में बनायीं गयी थी और समुद्र के रास्ते जूनागढ़ लायी गई थी. जामा मस्जिद, पुराने समय की सिंचाई प्रणाली ये यहाँ के प्रमुख आकर्षण हैं।
ऊपरकोट किले पर दरवाजे में घुसते ही नवाबी समय के दो तोप, जिनके नाम नीलम और माणक हैं, उनको हमने देखा। यहाँ से नीचे जूनागढ़ शहर का बहुत सुन्दर दृश्य दिखता है। पास ही रानी राणक देवी का महल देखा। इस महल से गिरनार बहुत सुन्दर दिखता है।
बौद्ध गुफाएं: रास्ते में ही बौद्ध गुफाएं स्थित हैं। यहाँ दो बहनों अड़ी-कडी के नाम से बावड़ियाँ हैं जो बहुत गहरी हैं। सीढयों वाला प्राचीन नवघन कुआं भी है। यहाँ पर भवनाथ शिवमंदिर है। दामोदर कुण्ड, राधा दामोदर जी - श्री रेवती-बल्देव जी का प्राचीन मंदिर और रेवती कुण्ड है।
गिरनार पहाड़: गिरनार गुजरात में जूनागढ़ के निकट एक पर्वत का नाम है। गिरनार की पहाड़ियों से पश्चिम और पूर्व दिशा में भादस, रोहजा, शतरूंजी और घेलो नदियां बहती हैं। इन पहाड़ियों पर मुख्यतः भील और डुबला लोगों का निवास है। एशियाई सिंहों के लिए विख्यात 'गिर वन राष्ट्रीय उद्यान' इसी क्षेत्र में स्थित है। खंबलिया, धारी विसावदर, मेंदरदा और आदित्याणा यहाँ के प्रमुख नगर हैं।
गिरिनगर वर्तमान गिरनार का ही प्राचीन नाम है. इसका उल्लेख रुद्रदामन् के प्रसिद्ध अभिलेख में है--'इदं तडाकं सुदर्शनं गिरिनगरादपि'
गिरनार में इतिहास प्रसिद्ध अभिलेख: गिरनार का प्राचीन नाम 'गिरिनगर' था। महाभारत में उल्लिखित रेवतक पर्वत की क्रोड़ में बसा हुआ प्राचीन तीर्थ स्थल। पहाड़ी की ऊंची चोटी पर कई जैन मंदिर है। यहां की चढ़ाई बड़ी कठिन है। गिरिशिखर तक पहुंचने के लिए सात हज़ार सीढ़ियाँ हैं। इन मंदिरों में सर्वप्रचीन, गुजरात नेरश कुमारपाल के समय का बना हुआ है। दूसरा वास्तुपाल और तेजपाल नामक भाइयों ने बनवाया था। इसे तीर्थंकर मल्लिनाथ का मंदिर कहते हैं। यह विक्रम संवत् 1288 (1237 ई.) में बना था। तीसरा मंदिर नेमिनाथ का है, जो 1277 ई. के लगभग तैयार हुआ था। यह सबसे अधिक विशाल और भव्य है।
प्रचीन काल में इन मंदिरों की शोभा बहुत अधिक थी, क्योंकि इनमें सभामंडप, स्तंभ, शिखर, गर्भगृह आदि स्वच्छ संगमरमर से निर्मित होने के कारण बहुत चमकदार और सुंदर दिखते थे। अब अनेकों बार मरम्मत होने से इनका स्वाभाविक सोंदर्य कुछ फीका पड़ गया है। पर्वत पर दत्तात्रेय का मंदिर और गोमुखी गंगा है, जो हिन्दुओं का तीर्थ है। जैनों का तीर्थ गजेंद्र पदकुंड भी पर्वत शिखर पर अवस्थित है।
रुद्रदामन् का 120 ई. का अभिलेख: गिरनार में कई इतिहास प्रसिद्ध अभिलेख मिले हैं। पहाड़ी की तलहटी में एक वृहत् चट्टान पर अशोक की मुख्य धर्मलिपियाँ 1-14 उत्कीर्ण हैं, जो ब्राह्मी लिपि और पाली भाषा में हैं। इसी चट्टान पर क्षत्रप रुद्रदामन् का, लगभग 120 ई. में उत्कीर्ण, प्रसिद्ध संस्कृत अभिलेख है। इनमें पाटलिपुत्र के चंद्रगुप्त मौर्य तथा परवर्ती राजाओं द्वारा निर्मित तथा जीर्णोंद्धारित सुदर्शन झील और विष्णु मंदिर का सुंदर वर्णन है। यह लेख संस्कृत काव्य शैली के विकास के अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण समझा जाता है।
स्कंदगुप्त का 455 ई. का अभिलेख: इसी अभिलेख की चट्टान पर 455 ई. का गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के समय का भी एक अभिलेख अंकित है। इसमें स्कंदगुप्त द्वारा नियुक्त सुराष्ट्र के तत्कालीन राष्ट्रिक पर्णदत्त का उल्लेख है। पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित ने जो गिरिनगर का शासक था, सुदर्शन तड़ाग के सेतु या बांध का जीर्णोद्धार करवाया, क्योंकि यह स्कंदगुप्त के राज्याभिषेक के वर्ष में जल के वेग से नष्ट हो गया था। इन अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि हमारे इतिहास के सुदूर अतीत में भी राज्य द्वारा नदियों पर बांध बनाकर किसानों के लिए कृषि एवं सिंचाई के साधन जुटाने को दीर्घकालीन प्रथा थी। जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में वर्णित है कि गिरनार सब पर्वतों में श्रेष्ठ है, क्योंकि यह तीर्थंकर नेमिनाथ से सम्बंधित है।
रुद्रदामन के जूनागढ़ लेख से ज्ञात होता है कि सम्राट अशोक के समय तुशाष्प नामक अधीनस्थ यवन राज्यपाल के रूप में सौराष्ट्र पर शासन करता था। गिरनार की एक पहाड़ी की तलहटी में अशोक के शिलालेख (तीसरी शताब्दी ई. पू.) से युक्त एक चट्टान है। मौर्य शासक चंद्रगुप्त (चौथी शताब्दी ई. पू. का उत्तरार्ध) द्वारा सुदर्शन नामक झील बनाए जाने का उल्लेख भी इसी शिलालेख में मिलता है। इन दो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रमाणों के आस-पास की पहाड़ियों पर सोलंकी वंश (961-1242) के राजाओं द्वारा बनवाए गए कई जैन मंदिर स्थित हैं।
उज्जयंत भी सौराष्ट्र, काठियावाड़ के जूनागढ़ के समीप स्थित गिरनार पर्वत का ही एक प्राचीन नाम है। महाभारत के अंतर्गत सौराष्ट्र के जिन तीर्थों का वर्णन धौम्य ऋषि ने किया है उसमें उज्जयंत पर्वत भी है- 'तत्र पिंडारकं नाम तापसाचरितं शिवम्। उज्जयन्तश्च शिखर: क्षिप्र सिद्धकरो महान्' (वन पर्व महाभारत 88,21) जान पड़ता है कि उज्जयंत रैवतक पर्वत का ही नाम था। वर्तमान गिरनार (जूनागढ़, काठियावाड़) आदि इसी पर्वत पर स्थित हैं। महाभारत के समय द्वारका के निकट होने से इस पर्वत की महत्ता बढ़ गई थी। मंडलीक काव्य में कहा गया है- 'शिखरत्रय भेदेन नाम भेदमगादसौ, उज्जयन्तो रैवतक: कुमुदश्चेति भूधर:'। रुद्रदामन् के गिरनार अभिलेख में इसे ऊर्जयन् कहा गया है।
हम गिरनार की चोटी पर नहीं जा सके क्योंकि यह दिनभर का कार्यक्रम है। हमें बताया गया कि गिरनार पहाड़ के ऊपर दत्तात्रेय और अम्बाजी माता के मंदिर हैं। नीचे की सीढ़ियों से दूरबीन से मंदिरों के दर्शन करवाये जाते हैं। सीढयों से उतरते हुए हमने एक हरा ताजा फल खाया जो पहले कभी नहीं देखा था। हरे आवरण के अंदर सफ़ेद पिस्ता जैसा खाने का स्वादिष्ट बीज होता है। फेसबुक पर पोस्ट देने के पश्चात इस फल की पहचान उत्तराखंड कैडर के हमारे IFS बैचमेट श्रीकांत चंदोला जी के द्वारा Terminalia catappa के फल के रूप में की है जो बादाम की तरह खाया जाता है। Terminalia catappa has corky, light fruit that are dispersed by water. The seed within the fruit is edible when fully ripe, tasting almost like almond.
शाम हो गयी थी सो हम 6.30 बजे जूनागढ़ के फोरेस्ट रेस्ट हाउस पहुंचे। वहाँ चाय लेकर सासन गिर के लिए रवाना हो गए। वन विश्राम गृह अच्छा और साफ-सुथरा था। यहाँ के पहाड़ों में सागौन और मिश्रित घने वन हैं। यहाँ के वन में शेर प्रायः दिखाई देता है।
वन और जन जीवन : सासन गिर की जूनागढ़ से दूरी 62 किमी है। सड़क अत्यधिक ख़राब होने से हमें डेढ घंटा सासन गिर पहुँचने में लगा सो इस समय का सदुपयोग हमारे साथ डिप्टी रेंजर अमित वाणिया से जानकारी प्राप्त करने में किया और जनजीवन की जानकारी ली।
यहाँ अच्छे घने वन हैं परन्तु इनकी कटाई नहीं होती है और कोई कूप नहीं निकलता है। जूनागढ़ मुख्य वन संरक्षक के अधीन सात वन मंडल हैं। टिमरू (तेंदू पत्ता) नाम मात्र का ही होता है। संयुक्त वन प्रबंध केवल उत्तरी गुजरात में लागू किया गया है जिसे मनड़ी कहा जाता है। इस क्षेत्र का मुख्य आकर्षण गिर अभयारण्य है। दीवाली के समय गुजराती लोग भ्रमण पर निकलते है। गिर में उस समय भारी भीड़ देखने को मिलती है। उस समय कुछ लोग तो रात को गाड़ियों में ही सो जाते हैं। कुछ समय पहले प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन का एक विज्ञापन गुजरात में कुछ दिन बिताने के बारे में प्रसारित किया गया था। तब से पर्यटकों की भीड़ बढ़ गयी है।
जन जीवन: इस क्षेत्र में पटेल, अहीर, मुसलमान, ब्राह्मण, लुहार आदि जातियां हैं। खेती से अच्छी आमदनी होती है। मुख्य फसल यहाँ अब कपास हो गयी है। कुछ साल पहले तक मूंगफली की फसल होती थी जो अब कम हो गयी है। कपास के खेतों में काम करने के लिए मध्य प्रदेश के अलीराजपुर और झाबुआ जिलों के मजदूर आते हैं। अन्य फसलों में तूअर, अरण्ड, गेहूं, आदि हैं। सिंचाई का साधन कुए हैं। इनमें पानी 10 फुट की ऊंचाई पर ही मिल जाता है। पीने के लिए नर्मदा का पानी आता है। दूध-दही पर्याप्त होता है। यहाँ की गिर किस्म की गाय प्रसिद्ध है।
शासकीय कर्मचारी: यह पता लगा कि गुजरात शासन ने छठवाँ वेतनमान शासकीय कर्मचारियों के लिए अभी तक लागू नहीं किया है। संविदा पर कर्मचारी भर्ती किए जा रहे हैं जो वरिष्ठ नियमित कर्मचारियों से भी अधिक वेतन पाते हैं। इससे नियमित कर्मचारियों में कुछ असंतोष झलकता है। गुजरात संवर्ग के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों से चर्चा में ज्ञात हुआ कि उनको काम करने की पूरी छूट है, अनावश्यक राजनैतिक हस्तक्षेप कम ही होता है।
सासन गिर भ्रमण
सासन गिर: रात्रि 8 बजे सासन गिर पहुंचे। अमित वाणिया डिप्टी-रेंजर ने हमें यहाँ सासन गिर के उस समय ड्यूटी पर तैनात डिप्टी-रेंजर संदीप पम्पानिया (मोब:9824083536) से परिचय करवाया और वह वापस जूनागढ़ चला गया। सासन गिर में हमारी रुकने की व्यवस्था वन विश्राम गृह के कमरा नंबर 24 में की थी। कमरा बहुत बड़ा है और व्यवस्था बहुत अच्छी थी। खाने की डायनिंग हाल में सामूहिक व्यवस्था थी। हमने खाना खाया और सो गए। खाना बहुत अच्छा था। बिल सिर्फ 70 रू. था। अधिकारियों के गैर शासकीय कार्य के लिए किराया 120 रू. तथा अन्य के लिए 1500 रू. निर्धारित है। हमें लायन देखने के लिए सुबह 6 बजे तैयार रहने के लिए बताया गया। दिन भर की यात्रा में थके होने से अच्छी नींद आई। रात्रि में वन विश्राम गृह के पास ही बब्बर शेर की दहाड़ सुनाई दे रही थी। बब्बर शेर का एशिया में यह एकमात्र आवास कहा जाता है।
बब्बर शेर के नाम की उत्पत्ति: क्या आप जानते हैं कि गिर के बब्बर शेर के नाम की उत्पत्ति कहाँ से हुई? मेरा इस बारे में कुछ अनुसंधान है. यह संस्कृत के शब्द Barbara (बर्बर) से आया है। Barbara (बर्बर) refers to two ancient regions in littoral Northeast Africa. The two areas were inhabited by the Eastern Barbaroi or Baribah ("Berbers" or Barbarians) as referred to by ancient Greek philosophers. V. S. Agrawala (India as Known to Panini, 1953, p.62) writes that Gaṇa-pāṭha of Panini refers to janapada Barbara (बर्बर) (IV.3.93), on the sea cost near the mouth of Indus where the port of Barbarika was situated. Babbar surname is also derived from it. Barbara (बर्बर) is mentioned in Mahabharata (II.29.15), (III.48.19),(VI.10.55), (XII.200.40). Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 255 describes Karna's victory march and countries subjugated. Varbara (वर्बर) is mentioned in Mahabharata (3-255-18a).... And, having come to the quarter of Varuna (वारुण) (3-255-18a), he made all the Yavana (यवन) (3-255-18a) and Varbara (वर्बर) (3-255-18a) kings pay tribute.
विजयेन्द्र कुमार माथुर(एतिहासिक स्थानवाली, p.611) ने लेख किया है .....1. बर्बर (p.611): बर्बर का उल्लेख महाभारत, वनपर्व में हुआ है- ‘वारुणीं दिशामागम्य यवनान् बर्बरांस्तवा, नृपान् पश्चिमभूमिस्थान् दापयामास वै करान्’ --महाभारत, वनपर्व 254, 18. अर्थात् कर्ण ने तब पश्चिम दिशा में जाकर यवन तथा बर्बर राजाओं को, जो पश्चिम देश के निवासी थे, परास्त करके उनसे कर ग्रहण किया। प्राचीन काल में अफ़्रीका के 'बार्बरी' प्रदेश के रहने वाले 'बारबेरियन' कहलाते थे तथा इनकी आदिम रहन-सहन की अवस्था के कारण इन्हें यूरोपीय (ग्रीक) असभ्य समझते थे, जिससे 'बाबेरियन' शब्द ही 'असभ्य' का पर्याय हो गया। महाभारत के उपर्युक्त उद्धरण में 'बार्बरी' या वहाँ के निवासियों का निर्देश है अथवा भारत के पश्चिमोत्तर भू-भाग या वहाँ बसे हुए सिथियन अथवा अनार्य जातीय लोगों का।
महाभारत के युद्ध की कथा में जिस धनुर्विद बर्बरीक का वृत्तांत है, वह संभवत: बर्बरदेशीय ही था।
2. बर्बर (p.611): बर्बर, काठियावाड़ या सौराष्ट्र (गुजरात) में सोरठ और गुहिलवाड़ के मध्य में स्थित प्रदेश था, जिसे अब 'बाबरियाबाड़' कहते हैं। संभवत: विदेशी अनार्य जातीय बर्बरों के इस प्रदेश में बस जाने से ही इसे बर्बर कहा जाने लगा था। इसी इलाके में 'बर्बर शेर' या 'केसरी सिंह' पाया जाता है।
20.12.2013: सासन गिर
सुबह 6.30 बजे लायन देखने राऊण्ड पर निकले। साथ में एक वन पाल और जिप्सी के शासकीय ड्रायवर महेंद्र शेकवा थे। निकलते ही एक मेल लायन ठीक सामने सड़क पर मिला जिसका ट्रेकर्स ने पता लगाया था। लायन सामने से आकर जिप्सी के बाएं तरफ, जिधर मैं बैठा था, से दो फुट की दूरी से पीछे निकल गया। थोड़ी दूर पर 2 फीमेल लायन और दो बच्चे मिले। चीतल अदि अनेक जानवर भी दिखाई दिए। वन में एक जगह कुच्छ बब्बर शेर और उनके छोटे-छोटे बच्चे अठकेलियां करते मिले। कभी वे अपने माता-पिता पर चढ़ते हैं, गिरते हैं तो कभी पेड़ पर चढ़ने का प्रयास करते हैं। यह बड़ा मनमोहक दृश्य था। सभी टूरिस्ट यहाँ रुक कर उनको देखने लगे। साढ़े नौ बजे राऊण्ड से लौटकर नाश्ता किया और देवलिया लायन सफारी देखने निकले। इसमें हम तेंदुआ, लायन, चीतल अदि जानवर बहुत नजदीक से देख पाये। सासन गिर के वनपाल संदीप पम्पानिया ने अच्छा सहयोग किया। सासन गिर एक सुखद यादगार यात्रा रही। ड्रायवर महेंद्र सेकवा ने वन-भ्रमण के दौरान वह जगह भी दिखाई जहाँ पर अमिताभ बच्चन की सूटिंग की गयी थी। सेकवा उपनाम में मेरी जिज्ञासा थी। जब ड्रायवर से पूछा तो बताया कि वह कठी क्षेत्रीय है।
इस गुजराती उपनाम सेकवा ने मुझे बुरड़क गोत्र का इतिहास याद दिला दिया। राव बुरडकदेव (b. - d.1000 ई.) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए थे। वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 ई.) को वे जुझार हुए थे। उनकी पत्नी तेजल सेकवाल उत्तरी राजस्थान में स्थित ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 ई.) में सती हुई थी। राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र को प्रसिद्धि मिली। मेरे मन में यह उत्सुकता जगी कि बुरड़क गोत्र के इतिहास का गुजरात से क्या संबंध हो सकता है? इसका समाधान मुझे गहन अनुसंधान के बाद मिला। बोडकदेव नाम की एक जगह अहमदाबाद शहर में वस्त्रापुर झील के पास स्थित है।
राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए. समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए। संवत 1067 (1010 ई.) में इनकी पत्नी पुन्याणी साम्भर में सती हुई। लेखक को डहरा, कूम्हेर, भरतपुर के थानसिंह सिनसिनवार द्वारा बताया गया है कि बुरडकदेव नाम का एक गाँव गुजरात में है। समुद्रपाल नाम यह संकेत देता है कि उनको समुद्र के किनारे किसी राज्य की रक्षा का दायित्व दिया गया होगा। यह स्थान कहीं गुजरात में होना चाहिए जिसमें अभी अनुसंधान किया जाना है। संभवतया यह स्थान अहमदाबाद शहर में वस्त्रपुर झील के किनारे स्थित बोडकदेव हो सकता है।
सेक एक महाभारतकालीन जनपद था। पाण्डव सहदेव ने दक्षिण दिशा की विजययात्रा में सेक और अपरसेक नामक देशों पर विजय प्राप्त की थी। 'सेकानपरसेकांश्च व्यजयत् सुमहाबल:'। (महाभारत सभा पर्व 31,1) सेक चंबल और नर्मदा के मध्यवर्ती प्रदेश में स्थित रहा होगा।
कठियावाड़ का इतिहास
कठियावाड़ (गुजरात): काठियावाड़ दक्षिण-पश्चिमी गुजरात राज्य में प्रायद्वीपीय क्षेत्र, पश्चिम भारत में स्थित है। यह कच्छ के छोटे रण (उत्तर), खंभात की खाड़ी (पूर्व), अरब सागर (दक्षिण-पश्चिम) और कच्छ की खाड़ी (पश्चिमोत्तर) से घिरा हुआ है। पूर्वोत्तर की ओर से एक प्राचीन बलुआ पत्थर की संरचना का विस्तार प्रायद्वीप के भीतर तक है। भावनगर यहाँ का प्रमुख बंदरगाह और शहर है।
प्राचीन किंवदंती है कि इस प्रदेश का नाम कठ जाति के यहां निवास करने के कारण निवास काठियावाड़ हुआ था. यह जाति पश्चिमी पंजाब पर अलेक्षेंद्र (सिकंदर) की आक्रमण के समय (326 ईसा पूर्व) मुठभेड़ हुई थी तथा जिसकी वीरता का गुणगान तत्कालीन ग्रीक लेखकों ने किया था मूलतः पंजाब में रहती थी. अलेक्षेंद्र के आक्रमण के पश्चात यह लोग काठियावाड़ प्रदेश में आकर बस गए. तत्पश्चात घूमते फिरते राजस्थान और मालवा तक जा पहुंचे. कठ लोग सूर्य के उपासक थे. प्राचीन साहित्य में काठियावाड़ के सौराष्ट्र और आनर्त आदि नाम मिलते हैं.
कठ गणराज्य : प्राचीन पंजाब का प्रसिद्ध गणराज्य था। कठ लोग वैदिक आर्यों के वंशज थे। कहा जाता है कि कठोपनिषद के रचयिता तत्वदर्शी विद्वान् इसी जाति के रत्न थे।
अलक्षेंद्र के भारत पर आक्रमण के समय (327 ई. पू.) कठ गणराज्य रावी और व्यास नदियों के बीच के प्रदेश या माझा में बसा हुआ था। कठ लोगों के शारीरिक सौदंर्य और अलौकिक शौर्य की ग्रीक इतिहास लेखकों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है। अलक्षेंद्र के सैनिकों के साथ ये बहुत ही वीरतापूर्वक लड़े थे और सहस्त्रों शत्रु योद्धाओं को इन्होंने धराशायी कर दिया था जिसके परिणाम स्वरूप ग्रीक सैनिकों ने घबरा कर अलक्षेंद्र के बहुत कहने-सुनने पर भी व्यास नदी के पार पूर्व की ओर बढ़ने से साफ़ इनकार कर दिया था।
ग्रीक लेखकों के अनुसार कठों के यहाँ यह जाति प्रथा प्रचलित थी कि वे केवल स्वस्थ एवं बलिष्ठ संतान को ही जीवित रहने देते थे। ओने सीक्रीटोस लिखता है कि वे सुंदरतम एवं बलिष्ठतम व्यक्ति को ही अपना शासक चुनते थे।
पाणिनि ने भी कठों का कंठ या कंथ नाम से उल्लेख किया है। ( 2,4,20) (टिप्पणी- कंथ शब्द कालांतर में संस्कृत में 'मूर्ख' के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा)
महाभारत में जिस क्राथ नरेश को कौरवों की ओर से युद्ध में लड़ता हुआ बताया गया है वह शायद कठ जाति का ही राजा था- 'रथीद्विपस्थेन हतोऽपतच्छरै: क्राताधिप: पर्वतजेन दुर्जय:।
काठियावाड़ में मानव बस्ती का इतिहास तीसरी सहस्राब्दी ई.पू. है। लोथल और प्रभाष पाटन (पाटन सोमनाथ) में हड़प्पा सभ्यता के पुरातात्विक अवशेष मिले हैं। तीसरी शताब्दी ई.पू. में यह प्रायद्वीप मौर्य वंश के प्रभाव में आ गया, लेकिन बाद में इस पर शकों का प्रभुत्व रहा। ईसा के बाद की आरंभिक शताब्दियों में इस पर क्षत्रप वंशों का शासन था और गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद काठियावाड़ पर पाँचवी शताब्दी में वल्लभी शासकों ने क़ब्ज़ा कर लिया। इसे मुसलमानों का आरंभिक आक्रमण झेलना पड़ा, जिसकी परिणति महमूद गज़नवी के अभियानों और 1024 -25 में सोमनाथ के मंदिर को नेस्तनाबूद किए जाने के रूप में हुई। बाद में यह क्षेत्र मुग़ल शासन के अंतर्गत आ गया। 1820 के बाद कई छोटी रियासतों ने अंग्रेज़ों की प्रभुता स्वीकार कर ली।
शकस्थान (AS, p.886): शकों का मूल निवास स्थान था जो ईरान के उत्तर-पश्चिमी भाग तथा परिवर्ती प्रदेश में स्थित था. इसे सीस्तान कहा जाता है. शकस्थान का उल्लेख महा-मायूरि 95, मथुरा सिंहस्तंभ-लेख कदंम्बनरेश मयूरशर्मन् के चंद्रवल्ली प्रस्ताव लेख में है. मथुरा-अभिलेख के शब्द हैं-- 'सर्वस सकस्तनस पुयेइ' जिसका अर्थ, कनिंघम के अनुसार 'शकस्तान निवासियों के पुण्यार्थ' है. राय चौधरी (पॉलीटिकल हिस्ट्री ऑफ अनसियन्ट इंडिया, पृ. 526) के मत में शकस्तान ईरान में स्थित था और शकवंशीय चष्टन और रुद्रदामन के पूर्व पुरुष गुजरात-काठियावाड़ में इसी स्थान से आकर बसे थे.
शकों का उल्लेख रामायण ('तैरासीत् संवृताभूमि: शकैर्यवनमिश्रितै:' बालकांड 54,21; 'कांबोजययवनां श्चैव-शकानांपत्तनानिच' किष्किंधा 23,12 महाभारत ('पहलवान् बर्बरांश्चैव किरातान् यवनाञ्छकान्' सभापर्व 32,17); मनुस्मृति (पौण्ड्रकाश्चौड्रद्रविड़ा:कांबोजा यवना: शका:"' 10,44 तथा महाभाष्य (देखें इंडियन एंटिक्ववेरी 1857,पृ.244) आदि ग्रंथों में है.
काठेड़ भूभाग: पंजाब में 2500 ईसा पूर्व कठ लोगों का एक गणराज्य था। जिनके यहाँ बालकों के स्वास्थ्य और सौन्दर्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था। सिकन्दर महान से इन लोगों को कड़ा मुक़ाबला करना पड़ा। उसके बाद उनका एक समूह बृज के पश्चिम सीमा पर आ बसा। वह इलाका काठेड़ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अलवर के अधिकांश जाट जो देशवाशी नहीं हैं उन्हीं बहादुर कठों की संतान हैं।
काठेड़ भूभाग में अलवर जिले का पूर्वी क्षेत्र, आगरा का पश्चिमी क्षेत्र जो किरावली तहसील में आता है, बयाना और भरतपुर का समस्त भूभाग आता है। रियासत काल में यह भूभाग काठेड़ नाम से जाना जाता था। यह नाम काठी से पड़ा है। ये लोग कापिस नगर कंधार से विक्रमादित्य के समय में आए थे। यह नाम भरतपुर के सिनसिनवार जाटों ने दिया है क्योंकि सिनसिनवार काठी लोगों से ही संबन्धित थे। विक्रमादित्य द्वारा इनको उज्जैन से खदेड़ा गया तब यहाँ आकर ईसा की पहली शताब्दी में बस गए।
सौराष्ट्र का इतिहास
सौराष्ट्र = सुराष्ट्र (AS, p.997-98), वर्तमान काठियावाड़-प्रदेश, जो समुद्र के भीतर आम्राकार भूमि पर स्थित प्रायद्वीपीय क्षेत्र है। महाभारत के समय द्वारिकापुरी इसी क्षेत्र में स्थित थी। सुराष्ट्र या सौराष्ट्र को सहदेव ने अपनी दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में विजित किया था। (दे. सुराष्ट्र) विष्णु पुराण में अपरान्त के साथ सौराष्ट्र का उल्लेख है।- 'तथापरान्ताः सौराष्ट्राः शूराभीरास्तथार्बुदाः' विष्णुपुराण 2, 3, 16. विष्णुपुराण 2, 24, 68 में सौराष्ट्र में शूद्रों का राज्य बताया गया है, 'सौराष्ट्र विषयांश्च शूद्राद्याभोक्ष्यन्ति'।
इतिहास प्रसिद्ध सोमनाथ का मन्दिर सौराष्ट्र ही की विभूति था। रैवतकपर्वत गिरनार पर्वतमाला का ही एक भाग था। अशोक, रुद्रदामन् तथा गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त [p.998]: के समय के महत्त्वपूर्ण अभिलेख जूनागढ़ के निकट एक चट्टान पर अंकित हैं, जिससे प्राचीन काल में इस प्रदेश के महत्त्व पर प्रकाश पड़ता है। रुद्रदामन् के अभिलेख में सुराष्ट्र पर शक क्षत्रपों का प्रभुत्व बताया गया है। (दे.सुराष्ट्र तथा गिरनार). जान पड़ता है कि अलक्षेन्द्र के पंजाब पर आक्रमण के समय वहाँ निवास करने वाली जाति कठ जिसने यवन सम्राट के दाँत खट्टे कर दिए थे, कालान्तर में पंजाब छोड़कर दक्षिण की ओर आ गई और सौराष्ट्र में बस गई, जिससे इस देश का नाम काठियावाड़ भी हो गया। इतिहास के अधिकांश काल में सौराष्ट्र पर गुजरात नरेशों का अधिकार रहा और गुजरात के इतिहास के साथ ही इसका भाग्य बंधा रहा।
सौराष्ट्र के कई भागों के नाम हमें इतिहास में मिलते हैं। हालार (उत्तर-पश्चिमी भाग), सोरठ (पश्चिमी भाग), गोहिलवाड़ (दक्षिण-पूर्वी भाग) आदि। सोरठ और गोहिलवाड़ के बीच का प्रदेश बबड़ियावाड़ या बर्बर देश कहलाता था. इसी इलाके में बब्बर शेर या सिंह पाया जाता है। सौराष्ट्र के बारे में एक प्राचीन कहावत प्रसिद्ध है–'सौराष्ट्र पंचरत्नानि नदीनारीतुरंगमाः चतुर्थः सोमनाथश्च पंचमम् हरिदर्शनम्'; इस श्लोक में सौराष्ट्र की मनोहर नदियों–जैसे चन्द्रभागा, भद्रावती, प्राची-सरस्वती, शशिमती, वेत्रवती, पलाशिनी और सुवर्णसिकता; घोघा आदि प्रदेशों की लोक-कथाओं में वर्णित सुन्दर नारियों, सुन्दर अरबी जाति के तेज़ घोड़ों और सोमनाथ और कृष्ण की पुण्यनगरी द्वारिका के मन्दिरों को सौराष्ट्र के रत्न बताया गया है।
सौराष्ट्र में वर्तमान 7 जिले राजकोट, जूनागढ़, भावनगर, पोरबंदर, जामनगर, अमरेली, सुरेन्द्रनगर और आंशिक अहमदाबाद जिले सम्मिलित हैं.
स्रोत: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 9.12.2020
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Mount Girnar
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Laxman Burdak at Girnar
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Laxman Burdak and Gomati Burdak at Ashoka Inscription , Junagarh
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Ashoka Inscription at Junagarh
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Ashoka Inscription Junagarh
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Ranak Devi Mahal Junagarh
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Uper Kot Fort Junagarh-Laxman Burdak and Gomati Burdak
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Girnar View from Ranak Devi Mahal
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Terminalia catappa Fruit at Girnar
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Bhavnath Mahadev temple Junagarh
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Damodar Kund and Radha Damodar Murti
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Girnar Gate Junagarh
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Radha-Damodar ji & Revati Baldev ji temple
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Uper Kot Fort Junagarh
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Raghunath Dwar of Bhavnath Temple, Girnar
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Author at Sasan Gir Forest Rest House
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Gomati Burdak at Forest Rest House Sasan Gir
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Gomati Burdak at Forest Rest House Sasan Gir
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Gomati Burdak at Forest Rest House Sasan Gir
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A Round in Gypsy in Sasan Gir Forests
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Sasan Gir Forest Naka
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Lions at Sasan Gir
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Lions at Sasan Gir
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A Lion seen from Gypsy at Sasan Gir
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Laxman Burdak in Gir Forests
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Black Buck in Deolia Lion Safari
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Barahsinga in Deolia Lion Safari
गुजरात भ्रमण भाग-2 : सासन गिर - तलाला - सोमनाथ - वीरावल
पिछले भाग में गुजरात प्रांत के काठियावाड़ और सौराष्ट्र भू-भाग के जूनागढ़ – गिरनार - सासनगिर का यात्रा विवरण दिया था। इस भाग में देखिये सोमनाथ और वीरावल का विवरण। सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। यह एक महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिर है जिसकी गिनती 12 ज्योतिर्लिंगों में होती है । यह प्रभासक्षेत्र के भीतर स्थित है जो भगवान कृष्ण के देहोत्सर्ग का स्थान (भालक तीर्थ) है। इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है । इसे अब तक 17 बार नष्ट किया गया है और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया । भारत का अन्य प्रमुख तीर्थ द्वारिका, सोमनाथ से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर है, जो श्रीकृष्ण की द्वारिका कहलाती है। द्वारिका का विवरण अगले भाग में दिया गया है।
20.12.2013: सासन गिर - तलाला - सोमनाथ - वीरावल
सासन गिर से हमने टैक्सी करली थी। 13.30 बजे हम सोमनाथ के लिए रवाना हुए। लगभग 4 बजे सोमनाथ पहुंचे। सासन गिर से सोमनाथ की दूरी 40 कि.मी. है। रास्ते में खेती का अवलोकन किया। गन्ना, नारियल, केला, बाजरा, जवार अदि की अच्छी लहराती फसलें देखी। आम के यहाँ काफी बगीचे हैं। यहाँ का केशर आम बहुत प्रसिद्ध है।
20.12.2013: सोमनाथ
सोमनाथ - सोमनाथ में हमें वन विश्राम गृह जाना था जहाँ के प्रभारी श्री समेजा भाई (मोब-9909298171) हैं। यह कुम्हारवाड़ी में है। सोमनाथ मंदिर पास ही पड़ता है। हम सोमनाथ मंदिर 5.30 बजे पहुँच गए। लगा हुआ समुद्र का किनारा है। यह बहुत सुन्दर जगह है। सनसेट देखा। 6.30 बजे शाम सोमनाथ मंदिर में प्रवेश किया। सात बजे आरती होती है। समीजा भाई हमें अंदर ले गए और वी. आई. पी. दर्शन करवाये। आरती के बाद लाइट और साऊंड प्रोग्राम होता है। इसमें सोमनाथ का इतिहास बताया जाता है। हमने गुजराती खाने की इच्छा व्यक्त की तो समीजा भाई हमें लीलावती होटल ले गए। यहाँ सेल्फ सर्विस है, खाना मात्र 55 रु में मिलता है। खाना अच्छा था। रात्रि विश्राम सोमनाथ वन विश्राम गृह में किया।
सोमनाथ मन्दिर
सोमनाथ मंदिर एक महत्वपूर्ण हिन्दू मंदिर है जिसकी गिनती 12 ज्योतिर्लिंगों में होती है । गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चन्द्रदेव ने किया था । इसका उल्लेख ऋग्वेद में भी मिलता है । इसे अब तक 17 बार नष्ट किया गया है और हर बार इसका पुनर्निर्माण किया गया ।
सोमनाथ का बारह ज्योतिर्लिगों में सबसे प्रमुख स्थान है। सोमनाथ मंदिर विश्व प्रसिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल है। मंदिर प्रांगण में रात साढे सात से साढे आठ बजे तक एक घंटे का साउंड एंड लाइट शो चलता है, जिसमें सोमनाथ मंदिर के इतिहास का बडा ही सुंदर सचित्र वर्णन किया जाता है। सागर तट से मंदिर का दृश्य सर्वप्रथम एक मंदिर ईसा के पूर्व में अस्तित्व में था जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया । आठवीं सदी में सिन्ध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी । प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया । इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी । अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका विवरण लिखा जिससे प्रभावित हो महमूद ग़ज़नवी ने सन 1024 में सोमनाथ मंदिर पर हमला किया, उसकी सम्पत्ति लूटी और उसे नष्ट कर दिया ।
सोमनाथ मन्दिर का इतिहास:
सोमनाथ (AS, p.990-993) पश्चिम समुद्रतट पर स्थित शिवोपासना का प्राचीन केंद्र है. यह प्रभासक्षेत्र के भीतर स्थित है जो भगवान कृष्ण के देहोत्सर्ग का स्थान (भालक तीर्थ) है. यहां से 2 मील के लगभग सरस्वती, हिरण्या और कपिला नामक तीन नदियों का संगम या त्रिवेणी है. वेरावल बंदरगाह सन्निकट स्थित है. सोमनाथ का मंदिर भारतीय इतिहास में प्रसिद्ध रहा है. अनेक बार इसे मुसलमान आक्रमणकारियों तथा शासकों ने नष्ट-भ्रष्ट किया किंतु बार-बार इस का पुनरुत्थान होता रहा. सोमनाथ का आदि मंदिर कितना प्राचीन है यह ठीक-ठीक कहना कठिन है किंतु, महाभारत कालीन प्रभासक्षेत्र से संबद्ध होने के कारण इसकी प्राचीनता सर्वमान्य है.
कुछ विद्वानों का मत है कि अभिज्ञान शकुंतल में उल्लिखित सोमतीर्थ, सोमनाथ का ही निर्देश करता है. किंतु सोमनाथ के विषय में सर्वप्राचीन ऐतिहासिक उल्लेख अन्हलवाड़ा-पाटण के शासक मूलराज (842-997 ई.) के एक अभिलेख में है जिसमें कहा गया है कि इसने चूड़ासम राजा ग्रहरिपु को हराकर सोमनाथ की यात्रा की थी.
1025 ई. में गजनी के सुल्तान महमूद ने इस मंदिर पर आक्रमण किया. उसने मंदिर के विषय में अनेक किंवदंतियाँ सुनी थी. महमूद अत्यधिक धर्मांध तथा धनलोलुप व्यक्ति था और इस मंदिर पर आक्रमण करने में उसकी यही दोनों मनोवृतियां सक्रिय थी. मंदिर के बाहर गुर्जर देश के राजाओं से उसे काफी कठिन मोर्चा लेना पड़ा और उसके अनगिनत सिपाही काम आए. (स्थानीय किंवदंती के अनुसार इन सैनिकों की कब्रें अब भी वहां हजारों की संख्या में बनी हुई हैं). परंतु अंत में मंदिर के अंदर प्रवेश करने में महमूद सफल हुआ. उसने मूर्ति को तोड़-फोड़ डाला और मंदिर को जलाकर राख कर दिया. महमूद शीघ्र ही यहां से लौट गया क्योंकि उसे ज्ञात हुआ कि राजा परमदेव उसके लौटने के मार्ग को घेरने के लिए बढ़ा चला आ रहा था.
महमूद गजनी के द्वारा विनष्ट किए जाने के पश्चात सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण संभवत: गुर्जर नरेश भोजदेव ने करवाया था जैसा कि इनकी उदयपुर प्रशस्ति से सूचित होता है. मेरुतुंगाचार्य रचित प्रबंध-चिंतामणि में भीमदेव के पुत्र कर्णराज की पत्नी मयणल्लदेवी की सोमनाथ की यात्रा का उल्लेख है. 1100 ई. में इसके पुत्र सिद्धराज ने भी यहां की यात्रा की थी. भद्रकाली मंदिर के अभिलेख (1169 ई.) से भी ज्ञात होता है की जयसिंह के उत्तराधिकारी नरेश कुमारपाल ने सोमनाथ में एक मेरुप्रासाद बनवाया था. इस लेख में उस पौराणिक कथा का भी जिक्र है जिसमें कहा गया है कि यहां सोमराज ने सोने, कृष्ण ने चांदी और भीम ने पत्थरों का मंदिर बनवाया था. देवपाटन की श्रीधर प्रशस्ति (1216 ई.) से यह भी विदित होता है कि भीमदेव द्वितीय ने यहां मेघध्वनि नामक एक सोमेश्वर मंडप का निर्माण करवाया था. सारंगदेव की 1292 ई. में लिखित प्रशस्ति में उसके द्वारा सोमेश्वर-मंडप के उत्तर में पांच मंदिर और गंड त्रिपुरांतक द्वारा दो स्तम्भों पर आधृत एक तोरण बनवाए जाने का उल्लेख है.
1297 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के सरदार अलफ़खां ने सोमनाथ पर आक्रमण किया और इस प्रसिद्ध मंदिर को जो अब तक पर्याप्त विशाल बन गया था, नष्ट भ्रष्ट कर दिया. तत्पश्चात पुनः महिपालदेव (1308-1325 ई.) ने इसका जीर्णोद्धार करवाया. इसके पुत्र खंगार (132-1351 ई.) ने मंदिर में शिव की प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की. इससे पूर्व मंदिर पर 1318 ई. में एक छोटा आक्रमण और हुआ था जिसका उल्लेख कजिन्स ने 'सोमनाथ एंड अदर मेडिईवल टेंपल्स इन काठियावाड़' (Somnath and other medieval temples in Kathiawar ) नामक ग्रंथ में (पृ. 25) किया है. किंतु इससे कहीं अधिक भयानक आक्रमण 1394 ई. में गुजरात के सूबेदार मुजफ्फरखां ने किया और मंदिर को प्राय: भूमिसात् कर दिया. किंतु जान पड़ता है कि शीघ ही अस्थाई रूप में मंदिर फिर से बन गया क्योंकि 1413 ई. में मुजफ्फर के पौत्र अहमदशाह द्वारा सोमनाथ मंदिर का पुनः ध्वंस किए जाने का वर्णन मिलता है. 1459 ई. में गुजरात के शासक महमूद बेगड़ा धर्मांधता के आवेश में मंदिर को अपवित्र किया जिसका उल्लेख दीवाना रणछोड़जी अमर की तारीख-ए-सोरठ में है. यह मंदिर इस प्रकार निरंतर बनता-बिगड़ता रहा.
1699 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब ने भारत के अन्य प्रसिद्ध मंदिरों के साथ ही इस मंदिर को विनष्ट करने के लिए फरमान निकाला किंतु मीराते-अहमदी नामक फारसी ग्रंथ से ज्ञात होता है कि 1706 ई. स्थानीय हिंदू इस मंदिर में बादशाह की आज्ञा की अवहेलना करके बराबर पूजा करते रहे. इस वर्ष मंदिर के स्थान पर मस्जिद बनाने का हुक्म धर्मांध औरंगजेब ने जारी किया किंतु मीराते-अहमदी में जो 1760 ई. के आसपास लिखी गई थी, मंदिर के मस्जिद के रूप में प्रयोग किए जाने का कोई हवाला नहीं है. 1707 ई. में औरंगजेब के मरने के पीछे धीरे-धीरे मुसलमानों का प्रभुत्व इस प्रदेश से सदा के लिए समाप्त हो गया.
1783 ई. में अहल्याबाई होल्कर ने सोमनाथ में, जहां इस समय मराठों का प्रभाव था मुख्य मंदिर के निकट ही एक नया मंदिर बनवाया. 1812 ई. में बड़ौदा के गायकवाड ने जूनागढ़ के नवाब से सोमनाथ के मंदिर का अधिकार अपने हाथ में ले लिया. लेफ्टिनेंट पोस्टेंस के लेखों से ज्ञात होता है कि 1838 ई. में मंदिर की छत को, वीरावल के बंदरगाह के रक्षार्थ तोपें रखने के काम में लाया गया था.
1922 ई. में मंदिर के मंडप की छत नष्ट हो चुकी थी. 1947 ई. में भारत के स्वतंत्र होने के साथ ही, सोमनाथ के अविनाशी मंदिर के पुनर्निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया.
सोमनाथ मंदिर की समृद्धि तथा कला-वैभव महमूद गजनी के आक्रमण के समय अपनी पराकाष्ठा को पहुंचे हुए थे. तत्कालीन मुसलमान लेखकों के अनुसार मंदिर का गर्भगृह, जहाँ मूर्ति स्थापित थी, जड़ाऊ फ़ानूसों से सजा था और द्वार पर कीमती परदे लगे हुए थे (कमीलुत्तवारीख, जिल्द 9, पृ.241). गर्भगृह के सामने 200 मन की स्वर्ण श्रंखला छत से लटकी हुई थी जिसमें सोने की घंटियां लगी थी जो पूजा के समय निरंतर बजती रहती थी. गर्भगृह के पास ही एक प्रकोष्ठ में अनेक रत्नों का भंडार भरा हुआ था. मंदिर के व्यय के लिए दस सहस्त्र ग्रामों की जागीर लगी हुई थी. मंदिर के एक सहस्त्र पुजारी थे. चंद्र ग्रहण के समय मंदिर में विशेष रूप से पूजा होती थी क्योंकि मंदिर के अधिष्ठातृ-देव शिव की, चंद्रमा के स्वामी (सोमनाथ) के रूप में इस स्थान पर पूजा की जाती थी. (यहां शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक स्थित है). मंदिर में 300 गायक तथा देवदासियाँ भी रहती थीं तथा 300 ही नापित जो यात्रियों के मुंडन के लिए नियुक्त थे. कहा जाता है कि प्रतिदिन कश्मीर से ताजे कमल के फूल और हरिद्वार से ताजा गंगाजल लाने के लिए सैंकड़ों व्यक्ति मंदिर की सेवा में नियुक्त थे. कुछ मुसलमान इतिहास-लेखकों ने लिखा है (ये महमूद के समकालीन नहीं थे) कि मंदिर की मूर्ति मानवरूप थी तथा उसके अंदर हीरे-जवाहरात भरे थे जिन्हें महमूद ने मूर्ति तोड़ कर निकाल लिया. किंतु यह लेख सर्वथा अप्रमाणिक है. मूर्ति ठोस शिवलिंग के रूप में थी जैसा कि सभी प्राचीन शिव मंदिरों की परंपरा थी. मूर्ति को नष्ट करते समय धनराशि के बदले उसे अछूता छोड़ देने की प्रार्थना पुजारियों द्वारा किए जाने पर धर्मांध महमूद ने उत्तर दिया था कि वह मूर्ति-विक्रेता न होकर मूर्ति-भंजक कहलवाना अधिक पसंद करेगा. मंदिर के भीतर मूर्ति के अधर में लटके होने की बात भी मुसलमान लेखकों ने कही है. संभव है कि शिवलिंग के ऊपर छत से लटकने वाली जलहरि के वर्णन के कारण ही बाद के मुसलमान इतिहास लेखकों को यह भ्रम उत्पन्न हुआ हो. महमूद के साथ आए समकालीन इतिहास लेखकों ने ऐसा कोई निश्चित उल्लेख नहीं किया है किन्तु यह भी संभव है कि मूर्ति, छत तथा भूमि पर लगी विशाल एवं शक्तिशाली च्ंबकों द्वारा आधार में स्थित की गई हो. यदि यह तथ्य हो तो इसे तत्कालीन हिंदू विज्ञान का अपूर्व कौशल मानना पड़ेगा. वैसे मंदिर के विषय में अनेक कपोल-कल्पनाएं बाद के लेखकों ने की हैं जिनमें से शेखदीन द्वारा रचित कविता मुख्य है (देखें वाटसन का लेख- इंडियन एंटीक्वेरी, जिल्द 8, 1879,पृ. 160, विजयेन्द्र कुमार माथुर: ऐतिहासिक स्थानावली, p.990-993)
1948 में प्रभासतीर्थ प्रभास पाटण के नाम से जाना जाता था। इसी नाम से इसकी तहसील और नगर पालिका थी। यह जूनागढ रियासत का मुख्य नगर था। लेकिन 1948 के बाद इसकी तहसील, नगर पालिका और तहसील कचहरी का वेरावल में विलय हो गया।
सोमनाथ मंदिर के मूल मंदिर स्थल पर मंदिर ट्रस्ट द्वारा निर्मित नवीन मंदिर स्थापित है। राजा कुमार पाल द्वारा इसी स्थान पर अन्तिम मंदिर बनवाया गया था। सौराष्ट्र के मुख्यमन्त्री उच्छंगराय नवल शंकर ढेबर ने 19 अप्रैल 1940 को यहां उत्खनन कराया था। इसके बाद भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन द्वारा प्राप्त ब्रह्मशिला पर शिव का ज्योतिर्लिग स्थापित किया है। सौराष्ट्र के पूर्व राजा दिग्विजय सिंह ने 8 मई 1950 को मंदिर की आधार शिला रखी तथा 11 मई 1951 को भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में ज्योतिर्लिग स्थापित किया। नवीन सोमनाथ मंदिर 1962 में पूर्ण निर्मित हो गया। 1970 में जामनगर की राजमाता ने अपने स्वर्गीय पति की स्मृति में उनके नाम से दिग्विजय द्वार बनवाया। इस द्वार के पास राजमार्ग है और पूर्व गृहमन्त्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा है। सोमनाथ मंदिर निर्माण में पटेल का बडा योगदान रहा। मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है। उसके ऊपर एक तीर रखकर संकेत किया गया है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच में पृथ्वी का कोई भूभाग नहीं है।
इस समय जो मंदिर खड़ा है उसे भारत के गृह मन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
सोमनाथजी के मंदिर की व्यवस्था और संचालन का कार्य सोमनाथ ट्रस्ट के अधीन है। सरकार ने ट्रस्ट को जमीन, बाग-बगीचे देकर आय का प्रबंध किया है। यह तीर्थ पितृगणों के श्राद्ध, नारायण बलि आदि कर्मो के लिए भी प्रसिद्ध है। चैत्र, भाद्र, कार्तिक माह में यहां श्राद्ध करने का विशेष महत्व बताया गया है। इन तीन महीनों में यहां श्रद्धालुओं की बडी भीड लगती है। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है।
तीर्थ स्थान और मंदिर: मंदिर के पृष्ठ भाग में स्थित प्राचीन मंदिर के विषय में मान्यता है कि यह पार्वती जी का मंदिर है। मंदिर नं.1 के प्रांगण में हनुमानजी का मंदिर, पर्दी विनायक, नवदुर्गा खोडीयार, महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा स्थापित सोमनाथ ज्योतिर्लिग, अहिल्येश्वर, अन्नपूर्णा, गणपति और काशी विश्वनाथ के मंदिर हैं। अघोरेश्वर मंदिर नं. 6 के समीप भैरवेश्वर मंदिर, महाकाली मंदिर, दुखहरण जी की जल समाधि स्थित है। पंचमुखी महादेव मंदिर कुमार वाडा में, विलेश्वर मंदिर नं. 12 के नजदीक और नं. 15 के समीप राममंदिर स्थित है। नागरों के इष्टदेव हाटकेश्वर मंदिर, देवी हिंगलाज का मंदिर, कालिका मंदिर, बालाजी मंदिर, नरसिंह मंदिर, नागनाथ मंदिर समेत कुल 42 मंदिर नगर के लगभग दस किलो मीटर क्षेत्र में स्थापित हैं।
बाहरी क्षेत्र के प्रमुख मंदिर: वेरावल प्रभास क्षेत्र के मध्य में समुद्र के किनारे शशिभूषण मंदिर, भीडभंजन गणपति, बाणेश्वर, चंद्रेश्वर-रत्नेश्वर, कपिलेश्वर, रोटलेश्वर, भालुका तीर्थ है। भालकेश्वर, प्रागटेश्वर, पद्म कुंड, पांडव कूप, द्वारिकानाथ मंदिर, बालाजी मंदिर, लक्ष्मीनारायण मंदिर, रूदे्रश्वर मंदिर, सूर्य मंदिर, हिंगलाज गुफा, गीता मंदिर, बल्लभाचार्य महाप्रभु की 65वीं बैठक के अलावा कई अन्य प्रमुख मंदिर है। प्रभास खंड में विवरण है कि सोमनाथ मंदिर के समयकाल में अन्य देव मंदिर भी थे। इनमें शिवजी के 135, विष्णु भगवान के 5, देवी के 25, सूर्यदेव के 16, गणेशजी के 5, नाग मंदिर 1, क्षेत्रपाल मंदिर 1, कुंड 19 और नदियां 9 बताई जाती हैं। एक शिलालेख में विवरण है कि महमूद के हमले के बाद इक्कीस मंदिरों का निर्माण किया गया। संभवत: इसके पश्चात भी अनेक मंदिर बने होंगे।
भालका तीर्थ: लोककथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने देहत्याग किया था। इस कारण इस क्षेत्र का और भी महत्व बढ गया। ऐसी मान्यता है कि श्रीकृष्ण भालका तीर्थ पर विश्राम कर रहे थे। तब ही ज़रा नाम के शिकारी ने उनके पैर के तलुए में पद्मचिन्ह को हिरण की आंख जानकर धोखे में भल्लबाण मारा था। तब ही कृष्ण ने देह त्यागकर यहीं से वैकुंठ गमन किया। इस स्थान पर बडा ही सुन्दर कृष्ण मंदिर बना हुआ है। भालक = भालकेश्वर = भालेश्वर, कठियावाड़, गुजरात, प्रभास पाटन के निकट ही वह स्थान है जहां पीपल वृक्ष के नीचे बैठे हुए भगवान कृष्ण के चरण में जरा नामक व्याध ने धोखे से बाण मारा था जिसके परिणामस्वरुप वे शरीर त्याग कर परमधाम सिधारे थे. आज भी यहाँ उसी पीपल का वंशज, मोक्षपीपल नामक वृक्ष स्थित है.
द्वारिका: प्रमुख तीर्थ द्वारिका सोमनाथ से करीब दो सौ किलोमीटर दूरी पर प्रमुख तीर्थ श्रीकृष्ण की द्वारिका है। यहां भी प्रतिदिन द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए देश-विदेश से हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते है। यहां गोमती नदी है। इसके स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। इस नदी का जल सूर्योदय पर बढता जाता है और सूर्यास्त पर घटता जाता है, जो सुबह सूरज निकलने से पहले मात्र एक डेढ फीट ही रह जाता है।
वीरावल (काठियावाड़, गुजरात) का इतिहास :
वीरावल (AS, p.867): इसका प्राचीन नाम बल्ल्भीपुर है और यह बल्हारा शासकों की राजधानी थी। यह छोटा सा बंदरगाह वही स्थान है जहाँ इतिहास-प्रसिद्ध सोमनाथ का मंदिर स्थित है। इस को 1024 ई. में महमूद गजनी ने तोड़ा था। प्राचीन मंदिर के खंडहर समुद्र तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित हैं। इस स्थान के निकट युद्ध में आहत गजनी के सैनिकों की सैंकड़ों कब्रें दिखाई पड़ती हैं जिससे जान पड़ता है कि गजनी की सेना को काफी क्षति उठानी पड़ी थी। स्थानीय वीरों ने बड़ी बहादुरी से उसका सामना किया था। सोमनाथ का अपेक्षाकृत नया मंदिर, जो पुराने के समीप है, अहल्याबाई ने बनवाया था। वीरावल के पास ही प्रभास क्षेत्र है जिसे भगवन कृष्ण का देहोत्सर्ग-स्थल माना जाता है। वीरावल या वेरावल का प्राचीन नाम वेलाकूल भी कहा जाता है जिसका अर्थ है - समुद्र तट.
यह अनुसंधान करने का प्रयास किया कि वीरावल के ये प्राचीन शासक बल्हारा वर्तमान में कहाँ हैं ? ज्ञात हुआ कि वर्तमान में राजस्थान, पंजाब और हरयाणा के जाट गोत्र बलहारा के रूप में पाये जाते हैं। दलीप सिंह अहलावत और ठाकुर देशराज ने इनका विवरण निम्नानुसार दिया है:
बलहारा जाटवंश का राज्य:
दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, पृ.536-537) ने बलहारा जाटवंश के राज्य के बारे में लिखा है - अरब यात्री सुलेमान नदवी ने भट्टि यादवों की शाखा बलहारा जाटवंश के राज्य को भारत के चार बड़े राज्यों में से एक लिखा है। जब भारत अनेक राज्यों में बंट गया था तब प्रमुख चार राज्य सिन्ध, कन्नौज, कश्मीर तथा मानकिर में थे। मानकिर, सिंध और राजस्थान की सीमा पर था। जो राजा मानकिर का शासक था उसका वंश बलहारा था। इस वंश का यहां पर राज्य सन् 857 ई० में था। बलहारा जाटों का सन् 900 ई० में एक शक्तिशाली राज्य भारत की पश्चिमी सीमाओं पर था। इनकी अरब शासकों से मित्रता थी तथा गुर्जरों से शत्रुता थी। उस समय 70 जाट गोत्र गुर्जरों में मिल गए और अपने को गुर्जर कहने लगे।
बलहारा जाटों का एक प्रदेश गुर्जर प्रदेश के साथ लगता हुआ था, जिसकी स्थापना पश्चिमी समुद्र के तट पर थी। (Journal Royal Asiatic Society, 1904, P. 163)। मुस्लिम इतिहासकार अबुजयद (916 ई०) और अल समसूदी (943 ई०) ने भी दो साम्राज्य बलहारा और गुर्जरों के लिखे हैं।
कश्मीरी कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में लिखा है कि तेजस बलहारा का पुत्र राजावादान बलहारा का कश्मीर में शासन था (OP Cit, viii 2695/2696)। यह जयसिमहा (जयसिंह) जो सन् 1128-1149 ई० में हुआ, का समय था। कल्हण ने यह दृश्य स्वयं देखा है क्योंकि उसने राजतरंगिणी सन् 1149-1150 ई० में लिखी थी। राजावादान बलहारा एवेसका (Evesaka) और कई दूसरे जिलों का शासक था। उस समय एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे जाते थे और नैतिक अवस्था तथा सैनिक चरित्र घट गये थे। किन्तु, इस राजावादान बलहारा के विषय में स्वयं कल्हण लिखता है कि “इस बलहारा राजा में दृढ़ता एवं चरित्र के वह स्वाभाविक विशेष गुण थे जो कि आज के बहादुर लोगों में भी कम ही मिलते हैं। उसने धनयु तथा भोजा राजाओं के साथ विश्वासघात नहीं किया जो कि इसके विरोधी थे तथा इसके पास बिना विचारे और लालच के कारण आ गये थे।” ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ (लेखक इलिएट और डाउसन) पुस्तक बलहारा जाटों के अद्भुत कार्यों से भरी पड़ी है, जिनका सम्राट् भारत के शासकों से सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। (History of India as told by its own Historians (Elliot and Dowson vol. 1).
इन बलहारा जाटों के असंख्य गांव हैं जिनमें रोहतक से 7 मील स्थित भऊ अकबरपुर एक प्रसिद्ध गांव है1।
कई स्थानों पर भाषाभेद के कारण इस बलहारा गोत्र को बलहरा भी बोला जाता है। जिसका एक गांव गिरावड़, तहसील महम जिला रोहतक में है तथा अन्य पंजाब प्रान्त में संगरूर जिला में 10-12 गांव हैं। जिनमें इस गोत्र का एक गांव बल्हाड़ा भी है।
1. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 354, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 116, लेखक ले० रामसरूप जून; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 245-246, 315 लेखक बी० एस० दहिया।
ठाकुर देशराज (जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), p.126-127) ने लिखा है.... बलहारा - आजकल के बलाहरिया 857 ई. में मानकिर में राज्य करते थे। अरबी यात्री सुलेमान ने लिखा है कि बल्हारा राज्य संसार के 4 बड़े राज्यों में था। सुलेमान ने यह भी लिखा है कि बल्हारा लोगों के राज्य में अरबों का आदर था। इनकी सेना में हाथी-घोड़ों की बड़ी-बड़ी पलटने थी। इनका जुर्ज (गुजर) साथ सदैव मनोमालिन्य रहता था। संभव है भीनमाल के गूजरों उनका झगड़ा रहता हो। सीवी वैद्य इन की राजधानी मानकिर को बल्लभीरायका मान्यखेट बतलाते हैं। इससे वे राष्ट्रकूटों की राजधानी मानते हैं। किंतु इस बात को भूल जाते हैं कि वह राष्ट्रकूट कन्नौज के गाहडवाल व राठौरों से भिन्न थे। ये तो जस्टीन के समय के आराष्ट्र (जाट राठौड़) हैं और जिनको किसी समय एडस्ट्राई ने रावी के किनारे 10 हाथी और हजारों पदाति सेना के साथ देखा था।
फ़िजी देश के भूतपूर्व प्रधान मंत्री महेन्द्रपाल चौधरी बलहारा जाटवंश के हैं जिनके पूर्वज मूल रूप से हरयाणा में रोहतक जिले के गाँव बहू जमालपुर के रहनेवाले थे।
स्रोत: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 18.12.2020
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Somnath temple
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Gomati Burdak in Somnath
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Laxman Burdak & Gomati Burdak in Somnath
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Author at Somnath temple with wife
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Sunset at Somnath
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Naya Somnath Mandir Prabhas Patan
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Purana Somnath Mamdir Prabhas Patan
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Boats at Veraval Sea Port
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Somnath-Porbandar Fields in route
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Somnath-Porbandar Sea in route on left
गुजरात भ्रमण भाग-3 : सोमनाथ - पोरबंदर - द्वारका - बेटद्वारका
गुजरात भ्रमण भाग-दो में सोमनाथ और वीरावल का भ्रमण कराया था. इस भाग में देखिये गुजरात के प्रसिद्ध स्थान पोरबंदर, ओखा, बेट-द्वारका, और द्वारका. अगले भाग में पढ़िए- नराडा टापू - खिजडिया पक्षी विहार, जामनगर, अहमदाबाद - गांधीनगर
21.12.2013: सोमनाथ - वेरावल - चोरवाड - मांगरोल - माधवपुर - पोरबंदर - भोगत - बरड़िया - द्वारका - मीठापुर - ओखा - बेट द्वारका - मीठापुर
सोमनाथ से सुबह 8 बजे द्वारका के लिए रवाना हुए। सोमनाथ से वेरावल 5 किमी की दूरी पर है। यहाँ मछलियों का बड़ा बाजार है। सड़क के किनारे से समुद्र में अनेक नावें दिखाई देती हैं। मछली की गंध तकलीफ देह है। वेरावल से समुद्र के किनारे-किनारे हम पोरबंदर की तरफ आगे बढ़ते हैं। सड़क बहुत अच्छी है और सड़क के दोनों तरफ खेतों के सुंदर दृश्य दिखाई देते हैं। खेती बहुत अच्छी है और बीच-बीच में नारियल के पेड़ लहलहाते दिखते हैं।
चोरवाड़: रास्ते में चोरवाड़ गाँव पड़ता है। यह धीरू भाई अम्बानी का गाँव है। यहाँ पर देखने लायक स्थानों में समुद्र का किनारा और म्यूजियम हैं। चोरवाड़ा नाम मुझे कुछ अजीब सा लगा तो बताया गया कि पहले यहाँ समुद्र से नावों के माध्यम से बाहर से माल चोरी से मंगाया जाता था और भारत में खपाया जाता था इसलिये इस गाँव का नाम चोरवाड़ा हो गया। यहाँ पर देखने लायक स्थानों में समुद्र का किनारा और म्यूजियम हैं।
मंगरोल: थोड़ा आगे बढ़ने पर समुद्र किनारे जूनागढ़ जिले में ही एक ऐतिहासिक महत्व का गाँव दिखता है जिसका नाम मंगरोल है। यह एक छोटा बंदरगाह है और पहले गुजरात की एक रियासत थी। यहां के खंडहरों से अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई थी जो अब राजकोट के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। इस नगर का जैन तीर्थ के रूप में उल्लेख ‘तीर्थमाला चैत्यवंदन’ में इस प्रकार है—सिंहद्वीप धनेर मंगलपुरे चाज्जाहरे श्रीपूरे’।
माधवपुर : पोरबंदर जिले की सीमा पार करने पर आगे पोरबंदर जिला पड़ता है. यहाँ सड़क पर ही माधवपुर पहला ऐतिहासिक स्थाएन है। माधवपुर, कठियावाड़, गुजरात में पोरबंदर से 40 मील दूर छोटा सा बंदरगाह है। इस स्थान पर मलुमति नदी सागर में गिरती है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार यहां रुक्मणी के पिता राजा भीष्म की राजधानी थी। माधवपुर में श्री कृष्ण और रुक्मणी के मंदिर भी हैं। किंतु जैसा कि महाभारत में स्पष्ट है भीष्म विदर्भ देश का राजा था और उसकी राजधानी कुंडिनपुर में थी।
पोरबंदर: समुद्र किनारे स्थित यह शहर गांधीजी का जन्म स्थान है। यह पुराना शहर है। कृष्ण के मित्र सुदामा यहीं के रहने वाले थे। इसलिए प्राचीन समय में इसे सुदामापुरी भी कहा गया है। श्रीमद्भागवत में वर्णित सुदामा और कृष्ण की कथा के अनुसार निर्धन ब्राह्मण सुदामा, जो द्वारकापति कृष्ण का बालमित्र था, उनके पास बड़े संकोच से अपनी दरिद्रता के निवारण के लिए गया था. जिसके फलस्वरूप कृष्ण ने सुदामा की पुरी को उसके अनजाने में ही द्वारका के समान समृद्ध शालिनी बना दिया था--इति तच्चिन्तयन्नन्त: प्राप्तो निजगृहान्तिकम्, सूर्यानलेन्दुसङ्काशैर्विमानै: सर्वतो वृतम् (10.81.21) विचित्रोपवनोद्यानै: कूजद्द्विजकुलाकुलै:, प्रोत्फुल्लकमुदाम्भोजकह्लारोत्पलवारिभि:(10.81.22) जुष्टं स्वलङ्कृतै: पुम्भि: स्त्रीभिश्च हरिणाक्षिभि:, किमिदं कस्य वा स्थानं कथं तदिदमित्यभूत् (10.81.23) श्रीमद्भागवत 10,81,21-22-23. पोरबंदर की स्थिति द्वारका के निकट होने के कारण इसको सुदामापुरी मानना संगत जान पड़ता है. पोरबंदर में यहां की भूतपूर्व रियासत 14वीं शती में स्थापित हुई थी। इससे पहले सौराष्ट्र के इस प्रदेश की राजधानी घुमली में थी।
पोरबंदर गुजरात राज्य के दक्षिण छोर पर अरब सागर से घिरा हुआ है। पोरबंदर का निर्माण जूनागढ़ से हुआ था। पोरबंदर महात्मा गाँधीजी का जन्म स्थान है इसलिए स्वाभाविक रूप से पोरबंदर में उनके जीवन से जुड़े कई स्थान हैं जो आज दर्शनीय स्थलों में बदल चुके हैं। 10वीं शताब्दी में पोरबंदर को पौरावेलाकुल कहा जाता था और बाद में इसे सुदामापुरी भी कहा गया। पोरबंदर गुजरात राज्य का एक ऐतिहासिक ज़िला है। पोरबंदर उत्तर में जामनगर से, पूर्व में जूनागढ़ से, पश्चिम में राजकोट से और दक्षिण में अरब सागर से घिरा है।
महात्मा गाँधी के जन्म स्थल के रूप में प्रसिद्ध इस स्थान पर 16वीं शताब्दी के आसपास जेठवा लोगों का नियंत्रण था। ज़िला बनने से पहले पोरबंदर भूतपूर्व पोरबंदर रियासत (1785-1948) की राजधानी था। पोरबंदर में गाँधीजी का तिमंजिला पैतृक निवास है जहाँ ठीक उस स्थान पर एक स्वस्तिक चिह्न बनाया गया है जहाँ गाँधीजी की माँ पुतलीबाई ने उन्हें जन्म दिया था। लकड़ी की संकरी सीढ़ी अभ्यागतों की ऊपरी मंज़िल तक ले जाती है, जहाँ गाँधीजी का अध्ययन कक्ष है। गाँधीजी के जन्म की स्मृति को अमर बनाने के लिए 79 फीट ऊँची एक इमारत का निर्माण उस गली में किया गया जहाँ 2 अक्टूबर 1869 को बापू का जन्म हुआ था। कीर्तिमंदिर के पीछे नवी खादी है जहाँ गाँधीजी की पत्नी कस्तूरबा गाँधी का जन्म हुआ था।
हमने शहर के बीच स्थित सुदामा का मंदिर देखा। परिसर अच्छा है परन्तु ज्यादा गतिविधियां नहीं हैं। कुछ लोग पेड़ों के नीचे आराम करते दिखाई दिए। यह जगह सुदामा चौक नाम से जानी जाती है। पुजारी ने मंदिर का फ़ोटो नहीं लेने दिया सो हमने बाहर से मंदिर का फ़ोटो लिया। पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के अनुरूप इस शहर का विकास दिखाई नहीं देता है।
बरड़िया: द्वारका पहुँचने से पहले एक ऐतिहासिक महत्व का स्थान है. यहाँ पर इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर है - यह महाभारत कालीन मंदिर है। महाभारत के अनुसार कृष्ण के बड़े भाई बलराम अपनी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ चाहते थे, परन्तु कृष्ण सुभद्रा का विवाह अर्जुन के साथ चाहते थे। अर्जुन ने कृष्ण की प्रेरणा से सुभद्रा का अपहरण किया। इन्द्रेश्वर महादेव मंदिर का सम्बन्ध इस घटना से है। ऐसा माना जाता है कि अर्जुन ने बरड़िया ग्राम के सीतापुरी कुंड के पास सुभद्रा के साथ विवाह किया। अर्जुन इंद्र का पुत्र था इसलिए उसका नाम इंद्रेश्वर पड़ा। पास ही चंद्रभागा मंदिर स्थित है - यह स्थान द्वारका से 5 कि.मी. की दूरी पर बरडिया के पास स्थि।त है यहाँ द्वारकाधीश जी की कुलदेवी माता चंद्रभागा का मंदिर है। स्यमन्तक मणि के लिए जाम्बुवान के साथ लम्बे समय तक युद्ध चला। यहाँ युद्ध में सफलता के बाद कृष्ण ने पटरानी जाम्बुवती के साथ आकर आशीर्वाद प्राप्त किया ।
मीठापुर: मेरीन नेशनल पार्क के डायरेक्टर जामनगर, आर. डी. कम्बोज (Mob:09825049427) ने हमारे रुकने की व्यवस्था मीठापुर स्थित टाटा केमिकल्स के मीठा महल गेस्ट हाउस मीठापुर में की थी। मीठापुर द्वारका से 19 कि.मी. की दूरी पर बेट द्वारका के रास्ते में ही स्थित है। हम 2 बजे दोपहर मीठापुर पहुंचे। गेस्ट हाउस में सामान रखा और आगे की यात्रा पर बेट द्वारका के लिए निकल पड़े।
ओखा: ओखा बन्दरगाह, जामनगर ज़िला, गुजरात का मुख्य बन्दरगाह नगर है। यह काठियावाड़ की उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इस बन्दरगाह का मार्ग टेड़ा-मेड़ा है। यह काठियावाड़ प्राय:द्वीप के पश्चिमी सिरे पर कच्छ की खाड़ी और अरब सागर के बीच स्थित बन्दरगाह है। यहाँ से तिलहन, नमक तथा सीमेंट निर्यात किया जाता है तथा विदेशों से कोयला, पेट्रोलियम, रासायनिक पदार्थ तथा मशीनें आदि आयात किये जाते हैं। नगर में एक ऑटोमोबाइल असेंबली प्लांट और आठ कि.मी. दक्षिण-पश्चिम में स्थित मीठापुर में एक विशाल रासायनिक संयंत्र हैं। मछली पकड़ना और नमक उत्पादन यहाँ के महत्त्वपूर्ण उद्योग हैं। ओखा एक रेलवे टर्मिनल है और यह राजमार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है।
बेट द्वारका: मीठापुर से करीब 10 किमी दूर है। ओखा पोर्ट पर पहुँच कर यहाँ से फेरी से बेट द्वारका जाना पड़ता है। लगभग आधा घंटा लगता है और किराया है 10 रु.। बेट द्वारका पहुंचकर द्वारकाधीश मुख्य मंदिर पहुंचे। यहाँ मंदिर 4 बजे खुलता है और खुलने से पहले पुजारी यात्रियों को सम्बोधित करता है। वह यहाँ का इतिहास बताता है। पुजारी ने बताया कि यहाँ क़ृष्ण उनकी रानी रुक्मिणी के साथ निवास करते थे। यह भी बताया कि कृष्ण के मित्र सुदामा क़ृष्ण से 'भेंट' करने ले लिए यहाँ आये थे। भेंट से बेट और इस प्रकार इसका नाम बेट द्वारका हो गया। परन्तु पुजारी की बेट द्वारका नामकरण की यह व्याख्या सही नहीं है। वास्तव में बेट का अर्थ टापू होता है इसलिए यह बेट द्वारका कहलाता है। यह भी बताया गया कि कृष्ण ने यहाँ शंख नाम के राक्षस का संहार किया था इसलिए इसका नाम शंखोद्धार हो गया। बेटद्वारका गोमती द्वारका अथवा मूल द्वारका से 20 मील दूर यह स्थान समुद्र के भीतर एक बेट या द्वीप पर स्थित है. बेट द्वारका को भगवान श्री कृष्ण की विहारस्थली माना जाता है।
यहां अनेक मंदिर हैं जो वर्तमान रूप में अधिक प्राचीन नहीं है। यह टापू दक्षिण-पश्चिम से पूर्व तक तक लगभग 7 मील लंबा है किंतु सीधी रेखा में 5 मील से अधिक नहीं है। पूर्वोत्तर के नौक को हनुमान अंतरीप कहा जाता है क्योंकि इस अंतरीप के पास हनुमान जी का मंदिर है। गोपी तालाब जिसकी मिट्टी 'गोपीचंदन' कहलाती है बेट द्वारका के निकट प्राचीन तीर्थ है।
शाम साढ़े पांच बजे लौटकर मीठापुर में टाटा केमिकल्स गेस्ट हॉउस में रात्रि विश्राम किया।
मीठापुर - द्वारका - जामनगर 22.12.2013: मीठापुर - द्वारका, द्वारका - जामनगर
सुबह 8 बजे तैयार होकर गेस्ट हॉउस रिशेपनिस्ट से चेक आउट का कहा तो उसने बताया कि नाश्ता तैयार है नाश्ता करके ही आप जावें। चलते समय बिल पूछा तो बताया कि यहाँ खाना-पीना और रुकना फ्री है। कहा कि आप तो रजिस्टर में टीप लिखदें। हमने रजिस्टर में लिखा - 'यहाँ का आतिथ्य सत्कार देखकर मैं भाव विभोर हूँ'।
8 बजे मीठापुर से रवाना होकर 20 मिनट में द्वारका पहुँच गए। द्वारका में हमें रेंज आफिसर पी. टी. सियानी (मो:08980029328) मिल गए। उनको साथ लेकर मंदिर गए। द्वारकाधीश मुख्य मंदिर (रणछोड़ मंदिर) 9.30 बजे खुला। मंदिर में श्री सियानी ने वी. आई. पी. दर्शन करवाये। आज रविवार होने से भीड़ ज्यादा थी। मंदिर में दर्शन से पहले जब खड़े थे तो देखा कि मध्य प्रदेश के हरदा से भी कई महिलायें आईं हुई थी जो राजस्थानी में कृष्ण के 'सांवरिया भक्ति-गीत' गा रही थी। इसी बीच हमने अन्य सहायक मंदिर भी देखे जो उसी परिसर में स्थित हैं। कृष्ण की आठ पटरानियों के मंदिर हैं, यथा - 1. जांबवती, 2. रोहिणी, 3. सत्यभामा, 4. कालिन्दी, 5. मित्रविन्दा, 6. नग्नजिती, 7. भद्रा, 8. लक्ष्मणा ।
रणछोड़ मंदिर पर धजा पहराना एक महत्व्पूर्ण गतिविधि है। यह धजा 52 गज या 40 मीटर की होती है। यहाँ 5 बार दिन में 7 मंजिला मंदिर पर ध्वजा फहराई जाती है. पास ही खड़े एक पंडित ने बताया कि धजा पहराते ही ऊपर से एक नारियल गिरता है जिसके टुकड़े का प्रसाद पाना शुभ फलदाई माना जाता है। मुझे भी नारियल का एक टुकड़ा मिला। दर्शन और आरती में भाग लेने के बाद बाहर से मंदिर का फ़ोटो लिया और 'दिव्या द्वारका' नामक पुस्तक खरीदी। यह अच्छी बात है कि मंदिर में एक पुस्तकालय है जहाँ पुस्तकें बिकती हैं। बाहर आकर हम गोमती घाट गए। कहते हैं कि चारों धामों के दर्शन करने के बाद यहां के दर्शन करने से विशेष पुण्य मिलता है।
द्वारकाधीश मुख्य मंदिर:
भारतवर्ष की सात मोक्षदायिका पुरियों में से द्वारावती एक है जो द्वारका के रूप में विख्यात है। विविध पुराणों में द्वारकापुरी को कुशस्थली, गोमती द्वारका, चक्रतीर्थ, आनर्तक क्षेत्र एवं ओखा-मण्डल (उषा मंडल) इत्यादि विविध नामों से अभिहित किया है। माना जाता है कि महाराज रैवत ने समुद्र के मध्य की भूमि पर कुश बिछाकर एक बड़े यज्ञ का आयोजन किया था, जिस कारण इस भूमि का नाम कुशस्थली पड़ा। एक अन्य मत के अनुसार कुश नामक दैत्य के नाम से कुशस्थली नाम पड़ा है,जिन्हें यहाँ कुशेश्वर महादेव नाम से जाना जाता है। (पृ.10)
पूर्वकाल में सौराष्ट्र देश में राजा शर्याति के पुत्र आनर्त का शासन होने के कारण उन्हीं के नाम से संयुक्त इस सम्पूर्ण क्षेत्र को आनर्तक क्षेत्र कहा गया है। देवी भागवत के सातवें स्कंध के सप्तम में इस प्रसंग का वर्णन है। (पृ.10)
ओखा नाम उषा का ही परिवर्तित रूप प्रतीत होता है। कल्याण राय जोशी के मतानुसार ध्रेवाण नामक ग्राम से उद्भूत उषा नदी के कारण इस मंडल का नाम ओखा-मंडल रखा गया है। अथवा कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध का बाणासुर की पुत्री उषा के साथ विवाह किये जान के कारण उषा के नाम से ओखा पड़ा है। (पृ.10)
पौराणिक आधार: कृष्ण ने राजा कंस का वध कर दिया तो कंस के श्वसुर मगधपति जरासंध ने कृष्ण से वैर ठान कर यादवों पर बारम्बार आक्रमण किये। यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए कृष्ण ने उस स्थान को बदलने का निश्चय किया। विनता के पुत्र गरुड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कुशस्थली आना तय हुआ। समस्त यादवों के साथ कृष्ण कुरु, जांगल, पांचाल, ब्रह्मावर्त, सौवीर, मरू, धन्वदेश आदि होते हुए कुशस्थली पहुंचे। कुशस्थली में रहने वाले असुरों - कुशादित्य, कर्णादित्य, सर्वादित्य और गुहादित्य के साथ युद्ध कर उन्हें निर्मूल किया और समुद्र के तट पर पुण्य और दिव्य नगरी द्वारका का निर्माण किया। इसके लिए उन्हें समुद्र से 12 योजन जमीन लेनी पड़ी । (पृ.11)
कुछ लोगों के मत में यह नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान था, जिसका सम्बन्ध रैवत गिरी के साथ था। महाभारत के सभा पर्व के अनुसार आनर्त के पौत्र रेवत ने रैवत गिरी के पास कुशस्थली बसाई थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी का पुनः संकार किया। (पृ.12)
गोमती द्वारका को विशेष पवित्र बनाने के लिए मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह और क्रतु इन पांच मुनियों ने पांच तीर्थों के सहित यहाँ निवास किया। यह पंचनद नाम से जाना जाता है। सनकादि मुनियों के द्वारा पूजित सिद्धेश्वर महादेव और कृष्ण के समस्त कार्यों को सिद्ध करने भद्रकाली देवी के शक्तिपीठ पौराणिक और प्राचीन स्थल द्वारका की भूमि को सिद्धिदायक बनाते हैं। (पृ.12)
द्वारका की रचना का मूल कारण कालयवन और जरासंध से त्रस्त यदुवंशियों की रक्षा करना और सुदूर रहकर महाभारत युद्ध सञ्चालन करना था; परन्तु साथ ही दुनिया के अन्य देशों से वैदेशिक सम्बन्धों का सुदृढ़ीकरण, आवागमन, आयात-निर्यात, व्यापर आदि तथ्यों का ध्यान रखा गया प्रतीत होता है। क्योंकि प्रारम्भ से ही यह अरब देशों से भारत में प्रवेश द्वार का काम करता था|
कृष्ण के कुशल निर्देशन में यह सभ्यता सम्पन्नता के शिखर पर पहुँच गयी। इस असीम समृद्धि के फलस्वरूप यादव भोग-विलास में लग गए। उनमें अहंकार आगया और अनुशासन ख़त्म हो गया। यादवों ने पिण्डतारक (पिण्डारक) क्षेत्र के मुनिजनों को अपमानित किया। कृष्ण ने इन यादवों के संरक्षण का एक प्रयास किया और द्वारका पर आने वाले संकट को ध्यान में रखकर वे उन यादवों को साथ लेकर प्रभास क्षेत्र की तरफ चल पड़े। उन्होंने वृद्धों और स्त्रियों को शंखोद्धार (बेट) जाने की सलाह दी और अन्यों के साथ स्वयं प्रभास आ गए। ऋषयो के शाप के वशीभूत यादव कालक्रम से विनष्ट हो गए। इधर कृष्ण के निवास को छोड़ कर सारी द्वारका को समुद्र ने आत्मसात कर लिया।
बाद में युधिष्ठिर ने कृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभ को शूरसेन देश का राजा बनाया। बड़े होने पर वज्रनाभ द्वारका आ गए और उन्होंने अपने दादा कृष्ण की स्मृति में त्रैलोक्य सुन्दर विशाल मंदिर का निर्माण कराया। (पृ.13)
इतिहासकारों का मत - लावा के ठंडा होकर जमने और परत बिछ जाने से सौराष्ट्र में गिरिनार और बरड़ा जैसे पर्वत हैं। 300 वर्गमील के विस्तार का ओखा मंडल अथवा द्वारका प्रदेश अपने प्रारम्भ काल में छोटे-छोटे टापुओं का समूह था। वर्षों बाद वह सारे सौराष्ट्र और गुजरात के साथ मिलकर एक हुआ। प्रमाण मिले हैं कि 5000 वर्षों पूर्व भी गुजरात सहित शेष भारत के प्रदेशों से द्वारका का व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित हो चुका था। सात आठ टापुओं का समूह यह ओखा मंडल कब प्रसिद्धि में आया, यह तो अज्ञात है तथापि इरिथ्रियन के समुद्र के प्रवास के लगभग 1900 वर्षों पूर्व लिखे गए 'पेरिप्लस' में इसे बराके नाम से पहचाना गया है। बर एक आस्ट्रिक शब्द है, अनुमान होता है कि यह नाम देने वाले लोग आस्ट्रिक मूल के रहे हों अथवा उनको द्वारका शब्द के उच्चारण में कठिनाई होने से द्वारका को बराका और फिर बराके हो गया हो। इतिहास से ज्ञात होता है कि कभी आस्ट्रिक लोग बंगाल के उपसागर के नजदीक से प्रविष्ट होकर गुजरात में भृगुकच्छ (भरूच) भाल और द्वारका प्रदेश में फैले थे।
ई. पूर्व 5वीं सदी के लगभग पाणिनि के गणपाठ में कच्छ, सुराष्ट्र और आनर्त नाम परिगणित हैं।
नागों का वास: कुछ ऒर प्रमाण भी मिलते हैं जिससे सिद्ध होता है कि द्वारका क्षेत्र में आर्यों के आगमन से पहले नागों का वास था। पाताळ में बसने वाले नाग समुद्र से आकर इस क्षेत्र में बसे थे। इस प्रदेश के नाग द्वारका सहित समस्त सौराष्ट्र प्रदेश के संपर्क में थे। स्कंदपुराण के कुमारिका खंड में पातालपुरी को अत्यंत समृद्ध महाप्रसादों तथा मणिरत्नों से अलंकृत एवं स्वरूपवती नागकन्याओं से युक्त बताया गया है। यदुवंश के संस्थापक यदु का विवाह धौम्रवर्ण की पांच नाग कन्याओं के साथ हुआ था। कुशस्थली (द्वारका) का राजा रैवत मूल से तक्षक नाग था। सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय 625 ई.पू. में सिंध में सिंधु नदी पर स्थित पाताल देश में सिथियन या शिवि लोग रहते थे जो सौराष्ट्र में आकर निवास करने लगे थे. (एन्सायक्लोपेडिया ब्रितानिका,1911)
शिव पुराण के अनुसार इसका एक प्रसिद्ध नाम दारुका वन (Mbt:V.82.22) था , जहाँ नागों का निवास था। आर्यों ने उन्हें वर्णाश्रम-धर्म का अनुयायी बनाया और नागेश्वर ज्योतिर्लिंग की स्थापना की। ब्रह्माण्डपुराण (3.7.100) के अनुसार कश्यप का पुत्र यक्ष (गुह्यक) था, जिसे पञ्चचूड़ा क्रतुस्थला नाम की अप्सरा से रजतनाथ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ और उनके मणिवर तथा मणिभद्र नाम के दो पुत्र हुए। इनमें मणिभद्र का विवाह पुण्यजनी नाम की कन्या से हुआ। इस पुण्यजनी की संतानें पुण्यजनी कहलाई। इनका कुछ दिनों तक इस क्षेत्र पर अधिपत्य रहा और कालांतर में भीस्मक के पुत्र रुक्मी ने इन्हें पराजित कर भगाया था । तभी द्वारका उजड़ गयी थी और इसी उजड़ी हुई द्वारका को कृष्ण ने फिर से बसाया था. सम्भवतः इसी कारण महाभारत में द्वारका के 'पुनर्निवेशनम्' शब्द का प्रयोग किया है।
डॉ. सांकलिया द्वारा 1962 ई. में द्वारकाधीश मंदिर के पास कराई गयी खुदाई में पाये गए मंदिर के अवशेषों से यह प्रमाणित हो जाता है कि इस युग के पहले भी द्वारका का अस्तित्व था। ई. पूर्व युग में ही द्वारका क्षेत्र के विशिष्ट पंडित यवनाचार्य थे । इनके छोटे भाई श्रवणाचार्य ने गृहत्याग कर एथेंस तक की यात्रा की थी और होरागणित का ज्ञान यवनजातक नाम से प्रसिद्द ज्योतिषग्रन्थ की रचना की।
ई. पूर्व पांचवीं शताब्दी में एक दण्डधारी युवक परिव्राजक सन्यासी आदिशंकराचार्य के द्वारा आने का प्रमाण प्राप्त होता है। (पृ.16)
जिन्होंने द्वारका में धर्मशासन हेतू शारदापीठ की स्थापना की। श्रीमत्वित्सुखाचार्य द्वारा 'बृहतशंकरविजय' नामक ग्रन्थ की रचना की गयी उसमें 'अब्दे नन्दने दिनमणावुदगध्वाभाजि' अर्थात ई.पूर्व 509 उल्लिखित है। यही प्रमाणित भी है। दण्डी स्वामी श्रीमच्छङ्कराचार्य का समय निश्चित रूप से ई. पू 509 ही है।
संदर्भ: दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, pp.10-13,16
द्वारका परिचय
द्वारका दक्षिण-पश्चिम गुजरात राज्य, पश्चिम-मध्य भारत का प्रसिद्ध नगर है। यह काठियावाड़ प्रायद्वीप के छोटे पश्चिमी विस्तार, ओखामंडल प्रायद्वीप के पश्चिमी तट पर स्थित है। द्वारका कई द्वारों का शहर (संस्कृत में द्वारका या द्वारवती) को जगत् या जिगत के रूप में भी जाना जाता है। द्वारका भगवान कृष्ण की पौराणिक राजधानी थी, जिन्होंने मथुरा से पलायन के बाद इसकी स्थापना की थी। इसकी पवित्रता के कारण यह सात प्रमुख हिंदू तीर्थस्थलों में से एक है, हालांकि इस नगर के मूल मंदिरों को 1372 में दिल्ली के शासकों ने नष्ट कर दिया था। नगर का अधिकार राजस्व तीर्थयात्रियों से मिलता है; ज्वार-बाजरा, घी, तिलहन और नमक यहां के बंदरगाह से जहाज़ों द्वारा भेजे जाते हैं। वस्तुत: द्वारका दो हैं- 1. गोमती द्वारका, 2. बेट द्वारका, गोमती द्वारका धाम है, बेट द्वारका पुरी है। बेट द्वारका के लिए समुद्र मार्ग से जाना पड़ता है।
मान्यता है कि द्वारका को श्रीकृष्ण ने बसाया था और मथुरा से यदुवंशियों को लाकर इस संपन्न नगर को उनकी राजधानी बनाया था, किंतु उस वैभव के कोई चिह्न अब नहीं दिखाई देते। कहते हैं, यहाँ जो राज्य स्थापित किया गया उसका राज्यकाल मुख्य भूमि में स्थित द्वारका अर्थात् गोमती द्वारका से चलता था। बेट द्वारका रहने का स्थान था। (यहाँ समुद्र में ज्वार के समय एक तालाब पानी से भर जाता है। उसे गोमती कहते हैं। इसी कारण द्वारका गोमती द्वारका भी कहलाती है)। यह भारत की सात पवित्र पुरियों में से एक हैं, जिनकी सूची निम्नांकित है: अयोध्या मथुरा माया काशी काशी अवन्तिका। पुरी द्वारवती जैव सप्तैता मोक्षदायिका:॥
पुरातत्वविदों द्वारा द्वारका पर खोज
पुराततव से सम्बंधित अनुसन्धान के लिए गोमती नदी के ठीक पश्चिम में विद्यमान समुद्रनारायण या वरुणदेवता का मंदिर अतिमहत्वपूर्ण है। द्वारका सम्बन्धी प्राचीनता का उल्लेख ई. सन 574 के एक ताम्रपत्र में मिलता है। यह ताम्रपत्र बलभी के मैत्रकों के सामन्त गारूलक शासक सिंहादित्य ने लिखवाया था। सिंहादित्य वराहदास का लड़का था जो द्वारकाधिपति था।(पृ.17)
1963 में पुणे के डेक्कन कालेज ने जो खुदाई कराई थी, उससे यह निष्कर्ष निकला कि सबसे पहली द्वारका के निर्माण का समय ई. सन के प्रारम्भ में जान पड़ता है। उससे बहुत पहले तो नहीं। खुदाई करने वालों ने यह भी कहा कि द्वारका और उसके आस-पास के इलाकों को देखने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महाभारत, स्कन्द पुराण और घटजातक में जिस द्वारका का उल्लेख किया गया है वह यही द्वारका है। (पृ.17)
अगर यह सही माना जावे तो महाभारत में उल्लेखित द्वारका मौर्य युग के बाद अस्तित्व में आई होगी। ऐसा माना जाना आजतक स्थापित ऐतिहासिक प्रमाणों के विपरीत होगा। इसके एकदम विपरीत नागेश्वर और द्वारका के आसपास के 20 कि.मी. क्षेत्र में जो मकान बने हुए हैं, वे हड़प्पन युग के अंतिम चरण में बनाये गए थे। उन्हें देखने से यह माना जा सकता है कि हड़प्पन युग के अंत में या उसके तुरंत बाद द्वारका अस्तित्व में आई होगी। (पृ.17)
1979-1980 के खुदाई के परिणामों से द्वारका के समय को ई. पश्चात् 15वीं सदी के बदले ई. पूर्व 20वीं सदी में रखना पडा। यह बात सिद्ध हुई कि चार हजार वर्ष पूर्व समुद्र के किनारे बसी हुई द्वारका समुद्र के कारण नष्ट हुई। द्वारका के आसपास आठ बस्तियों को पहचाना जा सका है। ई. पूर्व 15 वीं सदी में अस्तित्व में आई पहली बस्ती समुद्र में डूब गयी। इसी तरह दूसरी बस्ती ई. पूर्व 10 वीं सदी में समुद्र में डूब गयी और तीसरी बस्ती बसाई गयी। इसी समय प्रथम मंदिर का निर्माण हुआ। इसके पहले का मंदिर समुद्र के कारण नष्ट हो गया और उसके मलबे पर दूसरे मंदिर का निर्माण किया। जब दूसरा मंदिर भी डूब गया तब विष्णु किंवा वासुदेव का तीसरा मंदिर नवीं सदी में बनाया गया। वर्तमान मंदिर पांचवां है। जबकि वर्तमान बस्ती आठवीं है। (पृ.18)
महाभारत और अन्य ग्रंथों में बताये अनुसार द्वारका की स्थापना कुकुद्मी रैवत के द्वारा स्थापित कुशस्थली नामक राजधानी के मलवे पर की गयी थी। जैसा हरिवंश में लिखा है उस समय समुद्र का जल 12 योजन जमीन छोड़कर पीछे हट गया होगा। हरिवंश में द्वारका के लिए वारिदुर्ग और उदधि मध्यस्थान जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। इससे यह जान पड़ता है कि द्वारका एक द्वीप रहा होगा। ऐसा माना जाता है कि बेट द्वारका विहारधाम रहा होगा। यादव लोग नौका के द्वारा वहाँ जाते रहे होंगे। (पृ.18)
द्वारका में जहाँ पहले बंदरगाह था और गोमती जहाँ समुद्र से मिलती है, वहाँ पिछले कुछ वर्षों में रेती जम जान के कारण अब कोई भी नाव नहीं आ सकता है। समुद्र में तीसरी बार खोज करते समय समुद्र नारायण मंदिर के समुद्र से 200-700 मीटर तक चारों जगहों पर वनस्पति और कीचड़ हटाया गया तो वहाँ एक परिवहन रेखा दिखाई दी। (पृ.18)
चौथे अन्वेषण में मालूम पड़ा कि यहाँ जो निर्माण हुआ था उसको समुद्र के ज्वार से काफी नुकसान हुआ है। पत्थर कीचड़ के नीचे दबे हुए थे। पत्थरों के दोनों तरफ़ खुदाई की हुई थी जिससे चिनाई का काम दिखाई दे सके। इस खोज में तीन छिद्रों वाले लंगर मिले, जो पत्थर के बने हुए थे और जिनका उपयोग ई. पूर्व 14-12 वीं सदी में साइप्रस और सीरिया में हुआ करता था। (पृ.19)
तीसरी और चौथी खोज में समुद्र के नीचे निर्माण दिखाई दिया। पांचवीं खोज में एक तराशा हुआ मोटा पत्थर और गढ़ की चिनाई मिली। समुद्र नारायण के मंदिर से 600 मीटर अंदर समुद्र में निर्माण में प्रयुक्त पत्थर मिले। आस-पास खोदने पर एक छेनी मिली। खुदाई में किसी टूटे हुए जहाज के लकड़ियों के अवशेष मिले। इनमे से एक दो छिद्र हैं। नौका-चालक लोग नावों की रस्सी तानने के लिए इन छिद्रदार टुकड़ों का उपयोग करते थे। पत्थरों के साथ टकराने से नौकाएं टूट गयी होंगी और लकड़ियों के टुकड़े समुद्र की तली में समा गए होंगे। (पृ.19)
द्वारका और बेट द्वारका कब समुद्र में डूब गए यह निश्चित करने में सिंधु संस्कृति की एक मुद्रा, एक छेनी, एक बर्तन जिस पर कुछ खोदकर लिखा हुआ है और पत्थर की एक मुद्रा आदि निर्णायक हैं। इन अवशेषों से और मिटटी के टुकड़े से निश्चित किया हुआ समय मिलता-जुलता है। छोटी लम्बी और चोकोर आकर की एक मुद्रा मिली थी, जिसे शंख से बनाया गया था। इस मुद्रा में छोटे सींगवाला एक बैल, एक सींगवाला घोडा और बकरी खुदे हुए हैं। यह बात पक्की है कि यह नमूना सिंधु संस्कृति का है। वेट के पास से मिले हुए पात्रों के अवशेष बताते हैं कि बहरीन और बेट द्वारका के मध्य व्यापारिक सम्बन्ध रहे होंगे। बेट द्वारका जब समुद्र में डूबी होगी उस समय बहरीन का भी कुछ क्षेत्र समुद्र में डूब गया होगा। महाभारत के खिलभाग हरिवंश के अनुसार द्वारका पर शाल्व ने जब हमला किया उसके बाद नियम बनाया गया कि प्रत्येक द्वारकावासी को अपनी पहचान के लिए एक परिचय मुद्रा साथ में रखनी होगी। बेट द्वारका से मिलती हुई मुद्रा ईसापूर्व 15 वीं सदी की होनी चाहिए। (पृ.19)
चौड़े मुख वाली एक बरनी पर सात अक्षर खुदे हुए दिखाई पड़ते हैं। उसके नीचे के भाग में छिद्र भी हैं। इन सात अक्षरों में से छः अक्षर हड़प्पन लिपि से मिलते जुलते हैं शेष एक अक्षर हड़प्पन और ब्राह्मी लिपि का सम्मिश्रण प्रतीत होता है। द्वारका के पास मिला हुआ तिकोना लंगर 500 किलोग्राम से ज्यादा वजनी है। मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा में जहाज के मुख पर से त्रिकोणाकार लंगर को समुद्र में डालते हुए दिखाया गया है। द्वारका के नाविक भी वजनदार लंगर को पानी में डालने का यही तरीका अपनाते रहे होंगे। बेट द्वारका के समुद्र से प्राप्त सामानांतर नौक वाली और द्वारका में मिले हुए खुरदारी धार वाली छेनी हड़प्पा और लोथल में मिली छेनियों से मिलती-जुलती है। बेट द्वारका के पास से मिली हुई एक सकरे मुंह वाली शीशी इटली के बर्तनों से मिलती जुलती है। चूने के पत्थरों से बनाया हुआ एक तीन छिद्रों वाला बर्तन बेट द्वारका के किनारे से मिला। ऐसा ही एक सांचा, जिससे ताम्बे या कांसे की सुई बनाई जाती थी और जो बहुत संकरा था, लोथल में मिला था। (पृ.20)
संदर्भ: दिव्य द्वारका, प्रकाशक: दण्डी स्वामी श्री सदानन्द सरस्वती जी, सचिव श्रीद्वारकाधीश संस्कृत अकेडमी एण्ड इंडोलॉजिकल रिसर्च द्वारका गुजरात, pp.17-20
द्वारका का इतिहास
विजयेन्द्र कुमार माथुर (ऐतिहासिक स्थानावली, p.457-458) ने लेख किया है ...1. द्वारका : सौराष्ट्र गुजरात, पश्चिमी समुद्र तट के निकट दीप पर बसी हुई श्रीकृष्ण की प्रसिद्ध राजधानी. (दे. कोडिनार). इस नगरी के स्थान पर श्री कृष्ण के पूर्व कुशस्थली नामक नगरी थी जहां के राजा रैवतक थे (देखें कुशस्थली). श्री कृष्ण ने जरासंध के आक्रमणों से बचने के लिए मथुरा को छोड़कर द्वारका में अपने सुरक्षित राजधानी बनाई थी. यह नगरी विश्वकर्मा ने निर्मित की थी और इसे सुरक्षा के विचार से समुद्र के बीच में एक द्वीप पर स्थापित किया था. श्री कृष्ण ने मथुरा से सब यादवों को लाकर द्वारका में बसाया था.
महाभारत सभापर्व-38 में द्वारका का विस्तृत वर्णन है जिसका कुछ अंश इस प्रकार है-- द्वारका के मुख्य द्वार का नाम वर्धमान था ('वर्धमानपुरद्वारमाससाद पुरोत्तमम्') नगरी के सब ओर सुंदर उद्यानों में रमणीय वृक्ष शोभायमान थे, जिनमें नाना प्रकार के फलफूल लगे थे. यहां के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरु के समान उच्च थे. नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयाँ थी जो गंगा और सिंधु के समान जान पड़ती थी और जिनके जल में कमल के फूल खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे ('पद्यषंडाकुलाभिश्च हंससेवितवारिभि: गंगासिंधुप्रकाशाभि: परिखाभिरंलंकृता महाभारत सभा पर्व 38).
सूर्य के समान प्रकाशित होने वाला एक परकोटा नगरी को सुशोभित करता था जिससे वह श्वेत मेघों से घिरे हुए आकाश के समान दिखाई देती थी ('प्राकारेणार्कवर्णेन पांडरेण विराजिता, वियन् मूर्घिनिविष्टेन द्योरिवाभ्रपरिच्छदा' महाभारत सभा पर्व 38)। रमणीय द्वारकापुरी की पूर्वदिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान गिरनार) उसके आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित होता था ('भाति रैवतक: शैलो
[p.458]: रम्यसनुर्महाजिर:, पूर्वस्यां दिशिरम्यायां द्वारकायां विभूषणम्')। नगरी के दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों के चतुर्दिक अनेक उद्यान थे। महानगरी द्वारका के पचास प्रवेश द्वार थे- ('महापुरी द्वारवतीं पंचाशद्भिर्मुखै र्युताम्')। शायद इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण पुरी का नाम द्वारका या द्वारवती था। पुरी चारों ओर गंभीर सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर प्रासादों से भरी हुई द्वारका श्वेत अटारियों से सुशोभित थी। तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र द्वारका की रक्षा करते थे-('तीक्ष्णयन्त्रशतघ्नीभिर्यन्त्रजालै: समन्वितां आयसैश्च महाचक्रैर्ददर्श।)।
द्वारका की लम्बाई बारह योजना तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था ('अष्ट योजन विस्तीर्णामचलां द्वादशायताम् द्विगुणोपनिवेशांच ददर्श द्वारकांपुरीम्)। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था ('अष्टमार्गां महाकक्ष्यां महाषोडशचत्वराम् एव मार्गपरिक्षिप्तां साक्षादुशनसाकृताम्)।
द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। श्रीकृष्ण का राजप्रासाद चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे साक्षात विश्वकर्मा ने बनाया था ('साक्षाद् भगवतों वेश्म विहिंत विश्वकर्मणा, ददृशुर्देवदेवस्य-चतुर्योजनमायतम्, तावदेव च विस्तीर्णमप्रेमयं महाधनै:, प्रासादवरसंपन्नं युक्तं जगति पर्वतै:)।
श्रीकृष्ण के स्वर्गारोहण के पश्चात् समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी जैसा कि विष्णु पुराण के इस उल्लेख से सिद्ध होता है-'प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,(विष्णु0 5,38,9)।
द्वारकापुरी महाभारत के समय तक तीर्थों में परिगणित नहीं थी। जैन सूत्र अंतकृतदशांग में द्वारवती के 12 योजन लंबे, 9 योजन चौड़े विस्तार का उल्लेख है तथा इसे कुबेर द्वारा निर्मित बताया गया है और इसके वैभव और सौंदर्य के कारण इसकी तुलना अलका से की गई है। रैवतक पर्वत को नगर के उत्तरपूर्व में स्थित बताया गया है। पर्वत के शिखर पर नंदन-वन का उल्लेख है। श्रीमद् भागवत में भी द्वारका
[p.459]: का महाभारत से मिलता जुलता वर्णन है। इसमें भी द्वारका को 12 योजन के परिमाण का कहा गया है तथा इसे यंत्रों द्वारा सुरक्षित तथा उद्यानों, विस्तीर्ण मार्गों एवं ऊंची अट्टालिकाओं से विभूषित बताया गया है, 'इति संमन्त्र्य भगवान दुर्ग द्वादशयोजनम्, अंत: समुद्रेनगरं कृत्स्नाद्भुतमचीकरत्। दृश्यते यत्र हि त्वाष्ट्रं विज्ञानं शिल्प नैपुणम् , रथ्याचत्वरवीथीभियथावास्तु विनिर्मितम्। सुरद्रुमलतोद्यानविचत्रोपवनान्वितम्, हेमश्रृंगै र्दिविस्पृग्भि: स्फाटिकाट्टालगोपुरै:' श्रीमद्भागवत 10,50, 50-52. वर्तमान बेटद्वारका श्रीक़ृष्ण की विहार-स्थली काही जाती है.
2. द्वारका (AS, p.459): कांबोज की एक नगरी का नाम जिसका उल्लेख राइस डेवीस के अनुसार प्राचीन साहित्य में है.
3. द्वारका (AS, p.459): =द्वारका नदी: बंगाल की नदी जिसके तट पर तारापीठ नामक सिद्ध-पीठ स्थित था.
स्रोत: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 2.1.2021
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गुजरात भ्रमण भाग-4 : नराडा, खिजडिया, जामनगर, अहमदाबाद - गांधीनगर
गुजरात भ्रमण भाग-तीन में पोरबंदर, ओखा, बेट-द्वारका, और द्वारका का भ्रमण कराया था। इस भाग में पढ़िए और जानिए नराडा टापू - खिजडिया पक्षी विहार, जामनगर, अहमदाबाद और गांधीनगर का जनजीवन, इतिहास और भूगोल।
22.12.2013: मीठापुर - द्वारका, द्वारका – जामनगर
सुबह 8 बजे मीठापुर से रवाना होकर 20 मिनट में द्वारका पहुँच गए। द्वारका और आसपास के स्थानों का विवरण पिछले भाग में दिया गया है। द्वारका से प्रातः 10 बजे जामनगर के लिए रवाना हुए। रास्ते में एक जगह आती है जाम खंभालिया। इस स्थान से वाडीनगर 14 कि.मी. है और उसके आगे 3 कि.मी. दूरी पर नराडा टापू है।
नराडा टापू जामनगर
नराडा पहुँच कर वहाँ के मेरीन अफसर हसैन भाई (मोब: 09909969557) से संपर्क किया। यहाँ पहुंचते-पहुंचते दोपहर का एक बज गया था। हमें बताया कि अब समुद्र में हाई टाइड आने लगे हैं और अब समुद्र में ज्यादा अंदर तक नहीं जा सकते। हारुन नामक एक दैनिक वेतन भोगी गाइड ने साथ जाकर मेरीन लाइफ दिखाया। वहाँ पर विश्राम गृह भी है। हमें लंच यहीं करवाया गया। आज काफी पर्यटक लोग थे क्योंकि आज इतवार था। अधिकांश लोग गुजराती थे। स्कूल कालेज के बच्चे भी थे। सभी को मुफ्त खाना खिलाया जा रहा था। खाना अच्छा था। पूछने पर बताया कि उनको शिक्षा विकास और प्रसार की एक योजना के अंतर्गत शासन से फंड मिलता है जिसमें नेचर एजुकेशन और केम्प आदि के जरिये पर्यावरण जागरूकता पैदा की जाती है। यहाँ गुजराती जनजीवन की झलक भी देखने को मिलती है। केम्प की एक बीमार महिला का इलाज एक डाक्टर द्वारा मुफ्त में किया गया। वह डाक्टर परिवार सहित टापू देखने आया था। यह भी हमें महसूस हुआ कि गुजरातियों में आपस में अधिक भाई चारा है। एक दूसरे की मदद के लिए तत्पर दिखे।
नराडा टापू से लौटते में रास्ते के देखा कि दोनों तरफ खेतों में नमक बनाया जाता है। समुद्र का खारा पानी 5-7 महीनों तक खेतों में फैला दिया जाता है। बाद में इनसे नमक बनाया जाता है। पास ही नमक बनाने का कारखाना है। वाड़ीनगर से नराड़ा जाने का पहले रास्ता नहीं था परन्तु अब 3 कि.मी. सड़क का निर्माण आयसर कंपनी द्वारा किया गया है। पहले यहाँ नाव से आना पड़ता था। नराड़ा के समुद्र में कई कंपनियों यथा एस्सार, इन्डियन आयल, रिलायंस आदि के समुद्र से पेट्रोल लाने के डिपो हैं जो समुद्र के अंदर हैं। वहाँ से पाइप लाइनों से तेल कारखानों में लाया जाता है जिसका यहाँ प्रोसेसिंग किया जाता है। हम शाम 4 बजे जामनगर पहुँच गए। जामनगर के पास थेबा नामक गाँव में मेरीन नेशनल पार्क का विश्राम गृह है जहाँ पर हम रुके। आज जुकाम हो गया सो यहाँ आराम करना बेहतर समझा।
23.12.2013: जामनगर
जामनगर भारत के गुजरात राज्य के जामनगर ज़िले का मुख्यालय है और एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केन्द्र है। जामनगर अरब सागर से लगा कच्छ की खाड़ी के दक्षिण में स्थित है।जामनगर का निर्माण जामसाहेब ने 1540 में करवाया था।सीमेंट, मिट्टी के बर्तन, वस्त्र और नमक यहाँ के प्रमुख औद्योगिक उत्पाद हैं। यह शहर बांधनी कला, जरी की कढ़ाई और धातुकर्म के लिए प्रसिद्ध है। जामनगर रिफ़ाइनरी भारत और विश्व की सबसे बड़ी तेल रिफ़ाइनरी है।
हालार: हालार (AS, p.1019) एक ऐतिहासिक स्थान, जो सौराष्ट्र (वर्तमान काठियावाड़), गुजरात का उत्तर-पश्चिमी भाग था। सौराष्ट्र के कई भागों के नाम हमें इतिहास में मिलते हैं, जैसे- हालार (उत्तर-पश्चिमी भाग), सोरठ (पश्चिमी भाग), गोहिलवाड़ (दक्षिण-पूर्वी भाग) आदि. आज का जामनगर ही हालार क्षेत्र है। यह मुख्यतः नवानगर और ढोल देवानी की भूतपूर्व रियासतों को मिलाकर बना है।
पिरोटन टापू: प्रोग्राम के अनुसार हमें जामनगर से 10 कि.मी. दूरी पर स्थित पिरोटन नामक टापू में जाना था परन्तु बताया गया कि इस समय समुद्र में हाई-टाइड जल्दी आ जाती हैं इसलिए प्रातः 2 बजे रवाना होना पड़ेगा और जल्दी लौटना पडेगा। साथ ही रिस्क भी थी कि समय पर नहीं लौट पाएं इसलिए हमने पिरोटन टापू का प्रोग्राम निरस्त कर दिया।
खिजडिया पक्षी विहार, जामनगर: सुबह 6.30 बजे उठ कर हम खिजडिया पक्षी विहार देखने गए। यह जामनगर से 12 किमी की दूरी पर है। यह अद्भुत पक्षी विहार है। यहाँ 257 प्रजाति के पक्षी पाये जाते हैं। यहाँ पर खारा और मीठा पानी साथ-साथ मिलते हैं इसलिए जैव विविधता बढ़ जाती है। यहाँ स्कूली बच्चों का नेचर केम्प भी चल रहा था। यहाँ पर बच्चों को वन्य प्राणी और पक्षियों से परिचय कराया जाता है। वन्य प्राणियों की फ़िल्में भी दिखाई जाती हैं। इसके लिए सरकार से बजट प्राप्त होता है। हमें काफी संख्या में विभिन्न तरह के पक्षी दिखाई दिये। यहाँ के स्टाफ का रुख पर्यटकों के लिए बहुत सौहारदपूर्ण लगा। हमारे साथ एक हट्टा-कट्टा युवा वनरक्षक जाड़ेजा नाम का था जो पूरे समय साथ रहा और अच्छी तरह से समझाया। खिजडिया पक्षी विहार का भ्रमण करते समय स्थानीय गाँवों में कृषि और ग्रामीणों का जनजीवन भी देखने को मिला. एक जगह हमें ग्वार की खेती नजर आई. हमें बताया गया कि ग्वार यहाँ की सामान्य फसल नहीं है परंतु हाल के वर्षों ग्वार का निर्यात काफी बढ़ा है और किसानों को अच्छी दर प्राप्त हुई. इससे प्रेरित होकर यहाँ के प्रगतिशील किसानों ने ग्वार की खेती शुरू करदी है.
सासन गिर से लायी टैक्सी वापस भेज दी। सासनगिर से जामनगर की कुल तय की दूरी 610 कि.मी.।
24.12.2013: जामनगर - अहमदाबाद - गांधीनगर
आज सुबह थेबा गाँव (जामनगर) से 8 बजे रवाना हुए। थेबा गाँव से स्टेशन 12 कि.मी. दूर है। ओखा - रामेश्वरम एक्सप्रेस से जामनगर से 9.30 बजे अहमदाबाद के लिए यात्रा प्रारम्भ की। अहमदाबाद स्टेशन पर हम 15.50 बजे पहुँचे. स्टेशन पहुँचने से पहले ही हमने वन मंडल अधिकारी गांधीनगर श्री व्यास को एसएमएस कर दिया था परंतु परिक्षेत्र अधिकारी को कुछ भ्रम हो गया और उन्होने वाहन एयर पोर्ट भेज दिया था. ड्राइवर से फोन पर संपर्क कर बताया गया कि शीघ्र ही अहमदाबाद स्टेशन पहुँच जावें। इस प्रक्रिया में वाहन अहमदाबाद स्टेशन पहुँचने में कोई आधा घंटा विलंब हुआ। वहाँ से हम रवाना होकर 30 कि.मी. दूर स्थित गांधीनगर पहुंचे। गांधीनगर के वन चेतना केंद्र में वन विश्राम गृह टायगर डेन में हमारे रुकने की व्यवथा थी। हम पहुंचे ही थे कि हमारे बैच के साथी तमिलनाडु से विनोद कुमार भी वहीं पहुंचे गए। वह भी सपरिवार गुजरात के ट्यूर पर थे और मेरे द्वारा की गयी यात्रा के रिवर्स ऑर्डर में। रात्रि विश्राम टायगर डेन वन विश्राम गृह में किया।
25.12.2013: गांधीनगर
सुबह 8 बजे देसाई बीड़ी कंपनी के कमलेश भाई ने गाड़ी भिजवाई थी। वह लेकर हम वैष्णव देवी मंदिर पहुंचे। यह मूल वैष्णव देवी मंदिर की प्रतिकृति है, जो 15 साल पहले बनना प्रारम्भ किया गया था। देवी के दर्शन करने पर एक सिक्का दिया जाता है। इस निर्देश के साथ कि इसको बेशकीमती वस्तुओं के साथ रखा जावे, यह बहुत फलदाई होगा।
अड़ालज बाव, अहमदाबाद - तत्पश्चात हम सन 1498 में पत्थर से निर्मित बावड़ी देखने गए जिसे अड़ालज बाव कहते हैं। यह वाघेला सरदार वीर सिंह ने अपनी पत्नी रुदा की याद में बनवाई थी। यह आर्किटेक्चर का एक सुन्दर नमूना है। यह पांच मंजिल की है। अभी भी इसमें 20 फुट पानी रहता है। यहाँ पर अमिताभ बच्चन का एक विज्ञापन फिल्मांकित हुआ था जिसके बाद में इसकी प्रसिद्धि बहुत बढ़ गयी है। यहाँ काफी पर्यटक आते हैं।
गांधी आश्रम साबरमती, अहमदाबाद - हम साबरमती में गांधीजी का आश्रम देखने गए। यह ह्रदय-कुञ्ज नाम से जाना जाता है। गांधीजी 1915 - 1930 तक यहाँ रहे थे। गांधीजी ने भारत के स्वतंत्रता के लिए अनेक आंदोलन यहीं से संचालित किये थे। गांधीजी के जीवन की अनेक झलकियां और विविध चित्र हैं। उनका और कस्तूरबा गांधी के रहने का कमरा विद्यमान है। साबरमती नदी के किनारे स्थित इस आश्रम के लान में पहुंचे तो हमारी 1976 -77 की यादें ताजा हो गयी। उस समय हम दूरसंचार इंजीनियर का अहमदाबाद में प्रशिक्षण ले रहे थे। हमारा होस्टल इस आश्रम के पास ही स्थित था और हम प्रति रविवार यहां लॉन में आकर कम्पीटिशन की तैयारी किया करते थे। मेरा बाद में भारतीय वन सेवा में चयन हो गया। उस समय के मेरे साथी सम्प्रति कोठरी बाद में राजस्थान प्रशासनिक सेवा में आये थे और उनका देहांत लगभग 15 साल पहले हो चुका है। 1976 -77 में जब हम यहाँ थे तब इतना विकसित नहीं था परंतु अब यहाँ विकास अच्छा हो चुका है और गांधीजी के जीवन को अब डिजिटल फ़ॉर्म में उच्च तलनीक से दिखाया जाता है।
हमारा दूर-संचार प्रशिक्षण केंद्र Regional Telecom Training Centre (RTTC) अहमदाबाद - गांधीनगर जाने वाली सड़क पर था। इसी से लगा हुआ ओपन एयर सिनेमा हाल था जिसमें अपनी गाड़ी में बैठे या लाॅन में बैठे हुये सिनेमा देख सकते थे। हम लोग भी कभी-कभी प्रशिक्षण केंद्र के ऊपरी मंजिल से सिनेमा फ्री में देखते थे। लगा हुआ आईआईएम अहमदाबाद का कैम्पस था। वस्त्रापुर स्थित बोड़कदेव झील भी पास ही थी जिसका ज्ञान उस समय नहीं था।
बोड़कदेव झील: अनुसंधान से मुझे ज्ञात हुआ कि बोड़कदेव झील संभवत: बुरड़क गोत्र के इतिहास में वर्णित राव बुरडकदेव (r.975 AD-d.1000 AD) के पुत्र समुद्रपाल (b.-d.1010 AD) ने बनाई थी जिसके विषय में और गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। राव बुरडकदेव महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए थे। वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 ई.) को वे जुझार हुए थे। उनकी पत्नी तेजल सेकवाल उत्तरी राजस्थान में स्थित ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 ई.) में सती हुई थी। राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र को प्रसिद्धि मिली।
राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए। संवत 1067 (1010 ई.) में इनकी पत्नी पुन्याणी साम्भर में सती हुई। लेखक को डहरा, कूम्हेर, भरतपुर के थानसिंह सिनसिनवार (Mob:7742103901, 8290193945) द्वारा बताया गया है कि बुरडकदेव नाम का एक गाँव गुजरात में है। समुद्रपाल नाम यह संकेत देता है कि उनको समुद्र के किनारे किसी राज्य की रक्षा का दायित्व दिया गया होगा। यह स्थान कहीं गुजरात में होना चाहिए जिसमें अभी अनुसंधान किया जाना है। संभवतया यह स्थान अहमदाबाद शहर में वस्त्रपुर झील के किनारे स्थित बोडकदेव हो सकता है क्योंकि ऐतिहासिक तथ्यों से यह ज्ञात होता है कि महमूद गजनी से लड़ने के लिए चौहान संघ की ओर से भारत के अनेक राजाओं ने युद्ध में भाग लिया था और मारे गए थे। सोमनाथ की रक्षा के लिए भी अनेक यौद्धा शहीद हुये थे जिनकी छतरियाँ वीरावल के पास बनी हुई हैं, वहीं अनेक मुस्लिम यौद्धाओं की क़ब्रें भी स्थित हैं।
अक्षरधाम - शाम को 7 बजे हम अक्षर-धाम मंदिर देखने गए। वहाँ बहुत भीड़ थी। सुरक्षा भी बहुत मजबूत थी। कुछ वर्ष पूर्व आतंकवादियों ने इस मंदिर पर हमला किया था। यहाँ कोई सामान साथ में अंदर नहीं ले जाने देते हैं। सारा सामान बाहर ही जमा किया जाता है। महिला-पुरुष की अलग-अलग पंक्तियाँ लगाई जाती हैं। मेरी पत्नी अलग लाईन में थी और मैं अलग। जब सामान रखकर पंक्ति में प्रवेश करने वाले थे तभी वहाँ मोबाइल ध्यान में आया। सुरक्षा प्रहरी ने बताया कि वापस जाकर विंडो पर जमा करावें। मैं वापस गया और सामान जमाकराकर लौटा तब अंदर मेरी पत्नी काफी देर तक दिखाई नहीं दी। उनको ढूंढने में समय लग गया। मंदिर में बहुत भीड़ थी। तब तक वहाँ का लेजर शो का समय हो चुका था सो हम नहीं देख पाये। यद्यपि हम मंदिर आराम से देख सके। मंदिर परिसर बहुत बड़ा और भव्य है। यह मंदिर स्वामी नारायण संप्रदाय का है। स्वामी नारायण मूल रूप से अयोध्या के पास छपिया गाँव के रहने वाले थे। उनका बचपन का नाम घनश्याम था। उन्होंने 29 जुलाई 1792 को गृह-त्याग कर सौराष्ट्र के समुद्रतटीय गाँव लॉज में रामानंद स्वामी द्वारा स्थापित आश्रम आ गए। 20 अक्टूबर 1800 को रामानंद स्वामी ने इस सम्प्रदाय की धर्म-धुरा इनको सौंपी। बाद में ये भगवान् स्वामीनारायण नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होने सौराष्ट्र में अनेक समाज-सुधार के काम किये। सनातन धर्म को पुनर्स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान किया।
आज छुट्टी होने से हर जगह बहुत भीड़ थी। गुजरात में यह बड़ा अच्छा लगा कि यहाँ स्कूल-कालेजों में अध्ययन के दौरान बच्चों को अच्छा भ्रमण कराया जाता है।
26.12.2013: गांधीनगर
आज सुबह 9 बजे गुजरात कैडर के हमारे साथी श्री जमाल अहमद खान रेस्ट हाऊस आए और उनके साथ नाश्ता करने हम उनके गांधीनगर स्थित शासकीय निवास में गए। उनका बंगला गांधीनगर में अक्षरधाम के पास ही स्थित है और अच्छा हराभरा है। नाश्ता कर हम अरण्य-भवन चले गए जहाँ हमारे साथी प्रधान मुख्य वन संरक्षक श्री राजीवा से मुलाकात हुई और तभी श्री दिनेश मिश्रा भी मिले। दोनों ही मेरे बौचमेट हैं। श्री दिनेश मिश्रा इस समय वन विकास निगम के प्रबंध संचालक हैं. अन्य साथी श्री छविनाथ पण्डे (वन्य प्राणी) और श्री हरी शंकर सिंह प्रवास पर होने से मुलाकात नहीं हो सकी। गुजरात में अरण्य-भवन हाल में ही बनकर तैयार हुआ है। अरण्य-भवन बहुत सुंदर और खुला-खुला भवन है। कमरे भी काफी बड़े-बड़े हैं । अब वन विभाग के सभी अधिकारी एक ही भवन में आ गए हैं ।
इंद्रोड़ा नेचर पार्क - तत्पश्चात हम इंद्रोड़ा डायनोसार पार्क देखने गए। यह गांधी नगर में ही 5 किमी दूरी पर स्थित है। इंड्रोडा डायनासोर और जीवाश्म पार्क अथवा इंड्रोडा नेचर पार्क साबरमती नदी के किनारे 400 हैक्टेयर भूमि पर स्थित है। यहाँ सभी डायनोसार प्रजातियों के मॉडल बनाकर उनका विवरण अंकित किया गया है। यहाँ बॉटनिकल गार्डन और सर्प गृह भी हैं। बच्चों के लिए काफी उपयोगी और शिक्षाप्रद है। इसे दुनियाभर में डायनासोर के अंडों की दूसरी सबसे बड़ी हैचरी माना जाता है। इस नेचर पार्क की देखभाल गुजरात इकोलोजिकल एजुकेशन एंड रिसर्च फाउंडेशन करती है और यह भारत का एकमात्र डायनासोर संग्रहालय है। भारत का जुरासिक पार्क उपनाम वाले इस पार्क में एक चिडि़याघर, वनस्पति उद्यान, एम्फीथिएटर और अनेक समुद्री स्तनधारियों के कंकाल भी हैं जिसमें ब्लू व्हेल शामिल है। इसमें एक व्याख्या केंद्र भी है और यह कैंपिंग के लिए सुविधाएं भी प्रदान करता है।
हम गांधीनगर से दोपहर बाद सामान ले आये और अहमदाबाद के पुराने बाजार कालुपुर, लाल दरवाजा और तीन दरवाजा घूमने गए। पुराने समय में यहाँ हर सप्ताह मार्केटिंग करने आया करते थे। अब यहाँ काफी विकास हो गया है और बाजार में भीड़-भाड़ बढ़ गई है। ये स्टेशन के पास ही हैं. वहाँ से हम स्टेशन पहुँच गए।
शाम 6.45 पर सोमनाथ-जबलपुर एक्सप्रेस से भोपाल के लिए रवाना हो गए। देशाई बीड़ी कंपनी के अशोक भाई और उनके मैनेजर कमलेश भाई स्टेशन पर सी ऑफ करने आये थे।
अलबिदा गुजरात: इस तरह भारत के एक प्रगतिशील और सांस्कृतिक रूप से स्मृद्ध राज्य गुजरात का यादगार भ्रमण पूरा हुआ। यह भ्रमण मुख्यरूप से सौराष्ट्र, काठियावाड और हालार भूभाग का था. कच्छ, पांचाल, गोहिलवाड (सौराष्ट्र का दक्षिण-पूर्वी), झालावाड आदि उसके अन्य प्रादेशिक सांस्कृतिक अंग हैं जिनको भविष्य में देखने का प्रयास किया जाएगा। इनकी लोक संस्कृति और साहित्य का अनुबन्ध राजस्थान, सिंध और पंजाब, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के साथ है। विशाल सागर तट वाले इस राज्य में इतिहास युग के आरम्भ होने से पूर्व ही अनेक विदेशी जातियाँ थल और समुद्र मार्ग से आकर स्थायी रूप से बसी हुई हैं। जन-समाज के ऐसे वैविध्य के कारण इस प्रदेश को भाँति-भाँति की लोक संस्कृतियों का लाभ मिला है।
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Narara Tapu Jamnagar
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Narara Tapu Jamnagar
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Salt Manufacturing Narara
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Khijadiya Bird Sanctuary
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Khijadiya Bird Sanctuary
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Khijadiya Bird Sanctuary
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Khijadiya Bird Sanctuary
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Mr Jadeja of Khijadiya Bird Sanctuary
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Bird Wealth of Khijadiya
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Staff of Khijadiya Bird Sanctuary with Mrs Gomati Burdak
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Khijadiya Bird Sanctuary
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Forest Rest House Theba Jamnagar
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Vaishnav Devi Temple Ahmedabad
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Vaishnav Devi Temple Ahmedabad
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Adalaj Bav Ahmedabad
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Adalaj Bav Ahmedabad
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Adalaj Bav Ahmedabad
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Laxman Burdak at Adalaj Bav Ahmedabad
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Hridya Kunj Sabarmati Ashram Ahmedabad
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Gandhiji's Images at Sabarmati Sabarmati Ashram Ahmedabad
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Sabarmati Ashram Museum visit by Author
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Sabarmati Ashram Museum-Gomati Burdak
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View of Sabarmati River from Sabarmati Ashram with Gomati Burdak
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Author at Sabarmati Ashram Lawn
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Escon temple Ahmedabad
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Akshardham Gandhinagar Gujarat