Multan

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(Redirected from Multán)
Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.)

Map of Multan
Location of Multan
Multan District Map
Location of Multan

Multan (Hindi:मुल्तान), Punjabi/Urdu: مُلتان) (Múltán) is a city and District in the Punjab province of Pakistan. At the time of Alexander the confluence of the Hydraotes (Ravi) and Akesines (Chenab) was at a short distance below the capital of the Malli, which has been identified with Multan by Alexander Cunningham[1] .

Variants of name

Location

It is located in the southern part of the Punjab province. It is built just east of the Chenab River, more or less in the geographic centre of the country and about 966 km from Karachi.

Tahsils in the District

Origin

  • Its modern name comes from its Sanskrit name Mūlasthān (मूलस्थान) named after a sun temple.[2]
  • Multan is the shorter version of the word Malli-stan. The word "Stan" or "Sthan" in Sanskrit (ancient language of the Hindus) means place. Thus, Mallistan or Multan means a place where Malli live.

History

Multan is one of the oldest cities in the Asian subcontinent. It was the capital of the Trigarta Kingdom at the time of the Mahabharata War, ruled by the Katoch Dynasty. Multan has had various names over the years, originally Kashtpur (Kashyapapura) after a Hindu sage named Kashyapa, which is also the Gotra used by the Katoch dynasty. Other names were Hanspur (Hamsapura), Bagpur (Vegapura), Sanb or Sanahpur (Sambapura).[3] [4][5]

Multan Fort

The ancient Multan city of Punjab is known by different names, but one of its oldest name according to Cunningham, was Kashyapapura [6]. It was founded by Kashyapa. After Kashyapa, his eldest son, Daitya Hiran Kashyapa born from Diti, succeeded him. After him his son Prahlad and later his son Banasura, became the heir of the Kingdom of Kashyapa. At the same time Krishna killed Banasura and later Krishna's son Samba became the king of Kashyapapura. [7]


It is believed to have been visited by Alexander the Great. Multan was part of the Mauryan and the Gupta Empires that ruled much of northern India. In the mid-5th century, the city was attacked by a group of nomads led by Toraman.

In the 7th century, Multan was conquered along with Sindh by the army of Muhammad bin Qasim, following bin Qasim's conquest, the city was securely under Muslim rule, although it was in effect an independent state. The city was attacked twice by Mahmud of Ghazni who destroyed the Sun Temple and broke its giant Idol.

Prof. B.S. Dhillon[8] writes that Multan is an ancient city now in Pakistan. The ancient writers such as Diodorus [9] Arrian (95-175 A.D.), [10], and Strabo [11], tell us that during Alexander's invasion of Punjab, the area around Multan was occupied by Malli people. Thus, as per Professor McCrindle [12], "The Malloi (Malli) occupied the district situated between the lower Akesines (modern Chenab river), and the Hydraotes (modern Sutlej river), which in Alexander's time joined the former river below Multan-a city which owes its name to the Malloi (Malli)". Even today Malli or Malhi Jats exist in Punjab. The Ex. Member of Canadian Parliament, G.S. Malhi, also belongs to this Jat clan. In my opinion, "Multan" is the shorter version of the word "Malli-stan". The word "Stan" or "Sthan" in Sanskrit (ancient language of the Hindus) means place. Thus, Mallistan or Multan means a place where Malli live. The very same analogy is applicable for the Hindi (national language of India) word "Hindustan" for India. This word is composed of two words Hindu and Stan or Sthan, thus the word Hindustan means a place where Hindus live.

Jat History

Ram Swarup Joon[13] writes about Malha, Malo or Malli: The Malhi and Malo republics and clans have been mentioned in the accounts of Alexander's invasion.

The Rock inscription of Malha Jats of the period of Panini (6th century BCE) refers to their four kingdoms Kashnara, Pava, Multan and Varansi.

A rock inscription of Nagaragram in Jaipur speaks of Jaimalo.

The area of Malwa comes to be known as such after their name.

A large number of Malha Jats is in Malwa today.

Muslim and Sikh Malhi Jats is found in large numbers in Jhang, Multan and Sialkot. In Sialkot they have 25 villages in a compact area.

मुलतान, पाकिस्तान

विजयेन्द्र कुमार माथुर[14] ने लेख किया है .... मुलतान, पाकिस्तान, (AS, p.753) : जनश्रुति के अनुसार मुल्तान का वास्तविक नाम मूलस्थान. यह एक प्राचीन सूर्य मन्दिर के लिए दूर-दूर तक विख्यात था। भविष्यपुराण 39 की एक कथा में वर्णित है किकृष्ण के पुत्र साम्ब ने दुर्वासा के शाप के परिणामस्वरूप कुष्ठ रोग से पीड़ित होने पर सूर्य की उपासना की थी और मूलस्थान (मुल्तान) में सूर्य मन्दिर बनवाया था। उसने मगद्वीप से सूर्योपासना में दक्ष सोलह मग परिवारों को बुलाया था। ये मग लोग शायद ईरान के निवासी थे और शाकल द्वीप में बसे हुए थे। इस सूर्य मन्दिर के खण्डहर मुल्तान में आज भी स्थित हैं। (दे. मगद्वीप).

स्कन्दपुराण के प्रभासक्षेत्र-माहात्म्य, अध्याय 278 में इस मन्दिर को देविका नदी के तट पर स्थित बताया गया है- 'ततो गच्छेन महादेविमूलस्थानमिति श्रुतम, देविकायास्तट रम्ये भास्करं वारितस्करम'। देविका वर्तमान देह नदी है। युवानच्वांग के समय में सिन्धु और मुल्तान पड़ौसी देश थे। अलबेरूनी ने सौवीर देश का विस्तार मुल्तान तक बताया है। एक प्राचीन किवदंती में मुल्तान को विष्णु के भक्त प्रह्लाद का जन्म स्थान तथा हिरण्यकशिपु की राजधानी माना जाता है। प्रह्लाद के नाम से एक प्रसिद्ध मन्दिर भी यहाँ स्थित है।

मुलतान परिचय

मुल्तान अथवा मुलतान आधुनिक पश्चिमी पाकिस्तान में चिनाब नदी के तट पर स्थित पश्चिमी पंजाब का एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन नगर है। यह सिन्ध से पंजाब जाने वाले राजमार्ग पर स्थित है। सैनिक दृष्टि से भी इसकी स्थिति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

प्राचीन समय में मुल्तान को 'मूलस्थान' के नाम से जाना जाता था। इस स्थान का वर्णन हिन्दू धर्म के स्कन्दपुराण में भी आता है। यहाँ स्थित सूर्य मन्दिर, जिसके अब अवशेष ही शेष हैं, उसके बारे में यह कहा जाता है कि इसका निर्माण भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब ने करवाया था।

मुल्तान मुस्लिमों द्वारा सबसे पहले विजित प्रदेशों में था। पूर्व मध्यकाल में मुल्तान अरबों के अधीन था, किंतु 871 ई. में ख़िलाफ़त से सम्बन्ध विच्छेद कर मुल्तान स्वतन्त्र हो गया था। महमूद ग़ज़नवी ने मुल्तान पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। तत्कालीन शासक दाउद ने महमूद ग़ज़नवी को 20,000 दिरहम प्रतिवर्ष देने का वायदा किया। 1008 ई. में मुल्तान को महमूद ग़ज़नवी ने अपने राज्य में मिला लिया। 1175 ई. में मुहम्मद ग़ोरी का पहला आक्रमण मुल्तान पर हुआ। इस पर उस समय करमाथी लोग शासन करते थे। मुहम्मद ग़ोरी ने नगर पर अधिकार कर उसे अपने सूबेदार के सुपुर्द कर दिया। उसके बाद शताब्दियों तक मुल्तान भारतीय मुस्लिम साम्राज्य का अंग बना रहा।

कालांतर में अहमदशाह अब्दाली (1747-1773 ई.) ने मुल्तान को जीतकर अफ़ग़ानिस्तान में सम्मिलित कर लिया, किन्तु 1818 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने इसे अफ़ग़ानों से छीन लिया। उस प्रदेश के सिक्ख सूबेदार मूलराज ने 1848-1849 ई. में अंग्रेज़ों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया, जो अन्त में द्वितीय सिक्ख युद्ध में परिणत हो गया। इसमें अंग्रेज़ों की विजय हुई और मुल्तान अंग्रेज़ ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

मुल्तान के उल्लेखनीय स्मारकों में मुहम्मद बिन क़ासिम की बनवाई गई मस्जिद प्रमुख है। यहाँ के मक़बरों में 1152 ई. में निर्मित शाह युसुफ़-गुल गरजिनी का मक़बरा, 1262 ई. में निर्मित बहाउल हक़ का मक़बरा महत्त्वपूर्ण है।

संदर्भ: भारतकोश-मुल्तान

देविका नदी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[15] ने लेख किया है ... 2. देविका नदी (AS, p.451) = स्कंदपुराण के अनुसार (प्रभास खंड 278) यह नदी 'मूलस्थान' (मुल्तान, दक्षिणी पाकिस्तान) के प्रसिद्ध सूर्य मंदिर के निकट बहती थी। अग्नि पुराण 200 में इस नदी को सौवीर देश के अंतर्गत बताया गया है- 'सौवीरराजस्य पुरा मैत्रेया भूत पुरोहित: तेन चायतनं विष्णो: कारितं देविका तटे।' अर्थात् "सौवार नरेश के मैत्रेय नामक पुरोहित ने देविका तट पर विष्णु का देवालय बनवाया था।

महाभारत, वनपर्व के अंतर्गत तीर्थ यात्रा प्रसंग में इस नदी का उल्लेख है। भीष्मपर्व 9, 16 में इसका अन्य नदियों के साथ उल्लेख है- 'नदी वेत्रवती चैव कृष्णवेणां च निम्नगाम्, इरावती वितस्तां च पयोष्णी देविकामपि'।

[p.452]: महाभारत, अनुशासनपर्व 25, 21 में इस नदी में स्नान करने से मरने के बाद सुंदर शरीर की प्राप्ति बताई गई है- देविकायामुपस्पृश्य तथा संदरिकाह्रदे अश्विन्यां रूपवर्चस्कं प्रेत्य वैलभते नर:'।

पाणिनि ने देविका तट के धानों का उल्लेख किया है। (अष्टाध्यायी 7,3,1) विष्णु पुराण 2,15,6 में देविका के तट पर 'वीर नगर' नामक स्थान का उल्लेख है। कुछ विद्वानों के मत में देविका पंजाब की वर्तमान देह नदी है, जो रावी में मिलती है।

मल्ल: ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज[16] ने लिखा है.... मल्ल - [पृ.100]: सिकंदर के साथियों ने इन्हें मल्लोई ही लिखा है। हिंदुस्तान के कई इतिहासकारों को उनके संबंध में बड़ा भ्रम हुआ है। वह इन्हें कहीं उज्जैन के आसपास मानते हैं। वास्तव में यह लोग पंजाब में रावी नदी के किनारे पर मुल्तान तक फैले हुए थे। फिरोजपुर और बठिंडा के बीच के लोग अपने प्रदेश को मालवा कहते हैं। बौद्ध काल में हम लोगों को चार स्थानों


[पृ.101]: पर राज्य करते पाते हैं-- पावा, कुशीनारा, काशी और मुल्तान। इनमें सिकंदर को मुल्तान के पास के मल्लों से पाला पड़ा था। इनके पास 90000 पैदल 10000 सवार और 900 हाथी थे। पाणिनी ने इन्हें आयुध जीवी क्षत्रिय माना है। हमें तो अयोधन और आयुध इन्हीं के साथी जान पड़ते हैं। जाटों में यह आज भी मल, माली और मालवन के नाम से मशहूर हैं। एक समय इनका इतना बड़ा प्रभाव हो गया था इन्हीं के नाम पर संवत चल निकला था। इनके कहीं सिक्के मिले जिन पर 'मालवानाम् जय' लिखा रहता है। ये गणवादी (जाति राष्ट्रवादी) थे। इस बात का सबूत इन के दूसरे प्रकार के उन सिक्कों से भी हो जाता है जिन पर 'मालव गणस्य जय' लिखा हुआ है। जयपुर के नागर नामक कस्बे के पास से एक पुराने स्थान से इनके बहुत से सिक्के मिले थे। जिनमें से कुछ पर मलय, मजुप और मगजस नाम भी लिखे मिले हैं। हमारे मन से यह उन महापुरुषों के नाम हैं जो इनके गण के सरदार रह चुके थे। इन लोगों की एक लड़ाई क्षत्रप नहपान के दामाद से हुई थी। दूसरी लड़ाई समुद्रगुप्त से हुई। इसी लड़ाई में इनका ज्ञाति राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गया और यह समुद्रगुप्त के साम्राज्य में मिला लिया गया इनके सिक्के ईसवी सन के 250 150 वर्ष पूर्व माने जाते हैं।

महाराजा रणजीतसिंह की मुलतान विजय

ठाकुर देशराज लिखते हैं - यद्यपि मुलतान से महाराज को खिराज और नजराना बराबर मिलते रहते थे। फिर भी महाराज की यह उत्कट इच्छा थी कि मुलतान को अपने राज में मिला लें। इसलिए सन् 1817 ई० में दीवान मोतीराम, भवानीदास, हरीसिंह नलुआ और मिश्र दीवानचन्द को मुलतान विजय करने को विदा किया। मुजफ्फरखां भी समझ चुका था कि रणजीतसिंह का दांत उसके राज्य पर है। इसलिए बड़ी बहादुरी से डट करके सामना किया। इन सबकी कौशिश बेकार साबित हुई और लाहौर लौट आए। महाराज इस पराजय को सुनकर बहुत नाराज हुए और लौटे हुए सरदारों को अनेक प्रकार से फटकारा और भवानीदास को कैद कर लिया। अगले साल के शुरु में 25 हजार सिख मिश्र दीवानचन्द्र के साथ, मुलतान विजय करने को फिर भेजे। रसद का सामान रावी और चिनाव नदी के रास्ते से भेजने का प्रबन्ध किया। महाराज को यह भी खयाल हुआ कि कहीं सब मुसलमान मिलकर के दीवानचन्द का मुकाबला न करें इसलिए उन्हें सांत्वना देने के लिए अहमदखां स्याल को रिहा कर दिया और उसे अमृतसर के इलाके में जागीर दे दी। मुजफ्फरखां ने भी बहुत से मुसलमानों को जिहाद (धर्मयुद्ध) के नाम पर इकट्ठा किया। उसने मुसलमानों से अपील की थी कि वे दीन के नाम पर मेरी मदद करें। सिखों ने अब की बार उस किले पर बड़े जोरों के साथ हमला किया। दीवान मोतीराम ने घेरा डाल दिया। जमजमा तोप से भी काम लिया गया। बराबर तोपों के गोलों की मार से किले में छेद हो गए। मुजफ्फरखां ने भी जान तोड़ कर युद्ध किया लेकिन उसके साथियों का दिल बैठ गया। मुसलमानी फौज के बराबर घटने के कारण कुछ सटक गए और कुछ ने हथियार डाल दिए। उसके दो हजार आदमियों में से सिर्फ दो सौ जिन्दा रह गए। अचानक साधूसिंह नाम के सैनिक ने अपने साथियों समेत शुक्र के दिन यवनों पर धावा बोल दिया और हाथों हाथ लड़ाई में सबको कत्ल कर डाला। मुजफ्फरखां ने बड़ी बहादुरी के साथ अपने बेटों को सब्ज कपड़े पहना कर खिजरी दरवाजे पर सिखों का मुकाबला किया। बढ़ते-बढ़ते बहाबलहक के मकबरे तक आ पहुंचा। यहां पर सिखों ने उसके ऊपर गोलियां चलाईं, जिससे वह अपने पांचों बेटों सहित मारा गया। नवाब का सारा सामान - शाल, दुशाले, जवाहरात, हीरे, मोती लूट लिए गए। किले के अन्दर के चार, पांच सौ मकान गिरा दिए गए। बहुत सी मुसलमानी औरतें डर के मारे हौज में डूब कर मर गईं1

मुलतान को विजय कर लेने के बाद सुजाबाद को लूटा गया। जब लाहौर में


1. तारीख पंजाब। पे० 402


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-262


मुलतान विजय की खबर महाराज को लगी तो बड़ी खुशियां मनाई जाने लगीं। आठ दिन तक लाहौर और अमृतसर दोनों शहरों में रोशनी की गई। महाराज गलियों में घूम-घूमकर रुपये बखेरते थे। मुलतान की लूट में से जो महाराज के हाथ लगा, वह पांच लाख के करीब था। सुखदयाल को महाराज ने मुलतान का सूबेदार नियत किया। मुलतान की विजय ऐसी थी, जिससे महाराज का दिल तो बढ़ा ही, पर साथ ही मुसलमानों और सिखों सभी पर आतंग छा गया। अंग्रेज भी महाराज की इस गतिविधि का अनुशीलन कर रहे थे। परन्तु वे कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि उनके पास इतनी शक्ति नहीं थी कि रणजीतसिंह जैसे साहसी और बहादुर का मुकाबला कर सकें। साथ ही वे मरहठों के झंझटों में फंसे हुए थे।


ठाकुर देशराज लिखते हैं - सन् 1819 ई० में महाराज मुलतान की तरफ से सिन्ध के अमीरों से खिराज लेने के लिए जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में खबर मिली कि उनकी दो रानियों से दो लड़के पैदा हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि बच्चे कहीं दूसरी जगह से लेकर रानियों ने अपने बतला दिए थे। काश्मीर और मुलतान की विजय के उपलक्ष में एक का नाम कश्मीरासिंह और दूसरे का नाम मुलतानासिंह रक्खा। एक को स्यालकोट में और दूसरे को मुलतान में जागीर दी गई। मुलतान को महाराज ने श्यामसिंह पेशावरिया को साढ़े छः लाख सालाना के ठेके में दे रक्खा था। जब उन्हें यह पता चला कि उसने प्रजा के ऊपर बहुत अत्याचार किए हैं तो श्यामसिंह को कैद करके भाई बदन-हजारी को वहां का सूबेदार नियुक्त किया और अकालगढ़ के खत्री सावनमल को माल-अफसर बनाया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-263


मुलतान युद्ध

ठाकुर देशराज लिखते हैं - पीछे कहा जा चुका है कि मूलराज ने मुलतान किले में जाकर अपना संगठन करना शुरू कर दिया था। उसकी शक्ति बढ़ने लगी। देश, धर्म और मान-रक्षा के हितार्थ लोग इकट्ठे होने लगे। यद्यपि जन-साधारण में अंग्रेजों के प्रति असन्तोष बढ़ता जा रहा था, परन्तु सभी प्रधान जागीरदार (सरदार) सब अंग्रेजों के आज्ञाकारी और मददगार थे। सरदारों में से बहुतों ने कई विद्रोह भी दबाए थे, जैसे साहबदयाल नाम के एक सिक्ख राज्य के कर्मचारी ने 1848 ई० में महाराजसिंह के विद्रोह को दबाया था। स्वयं सरदार चतरसिंह का बड़ा लड़का शेरसिंह मेजर एडवर्डिस के साथ मुलतान युद्ध में था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 363


यह सही है कि उस समय सरदार लोग अंग्रेजों के साथी थे। परन्तु उनके अधीनस्थ सेना उनके वश की न थी। रेजीडेण्ट कैरी के धमकाये जाने पर कि तुम्हें मुलतान जाना पड़ेगा, उन्होंने विनीत शब्दों में कहा भी कि - “हम मुलतान जाने और मूलराज से लड़ने के लिए तैयार हैं। पर दुख है कि सिख-सेना हमारा कहना नहीं मानेगी। महारानी जिन्दा के देश निकाले से वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये हैं। हम लोगों को अंग्रेजों के प्रेमी होने से देशद्रोही, धर्मद्रोही मानते हैं। समय आने पर या तो वे हमें मार डालेंगे या हमें अपने साथी बनने को बाध्य करेंगे और मूलराज की सेना के सामने पहुंच करके विशेषतः विद्रोही बन जाएंगे।” पर इन बातों को कुछ न सुना गया और उन सबको सिख-सेना के साथ युद्ध के लिए मुलतान जाना पड़ा। सरदार चतरसिंह के पुत्र शेरसिंह की सेना के लोग बागी विचारों के बनने लगे। पर शेरसिंह विद्रोहियों को दंड देने में बड़ा कड़ा था। जिससे प्रसन्न होकर उनकी अंग्रेज-भक्ति पर मेजर एडवार्डिस ने सेना के रेजीडेण्ट से कहा था कि - “सरदार लोग हमारे पूरे पक्षपाती हैं। यद्यपि शेरसिंह की सेना का अधिकांश भाग अविश्वासी हो गया है, तो भी राजा शेर का ऐसा प्रभाव है कि उनमें से किसी को चूं तक भी करने की हिम्मत नहीं होती। वह तुरन्त उसे कड़ी सजा देकर सब को डरा देते हैं।”

मूलराज ने मेजर एडवार्डिस के साथ अब के बहुत से सरदारों को देखा। उसकी दृष्टि इस नरसिंह शेर पर भी पड़ी। वह डरा कि अबकी बार तो महावीर से सामना करना है। पर उसने सोचा अगर यह वीर अपने में आ जाए तो विजयलक्ष्मी अवश्य हमारी होगी। शेरसिंह को मिलाने के लिए उसने दूत भेजा। पर शेर ने दूत को अनादर के साथ रवाना कर दिया। दूत की दुर्गति हुई जान मूलराज जान गया कि शेरसिंह इस तरह अपने कब्जे में नहीं आ सकता तो इसे मरवा ही दिया जाए तो यह बला टल सकती है। पर इस षड्यंत्र में भेजे कुछ व्यक्ति भी पकड़े गये और तोपों के सामने रख उड़ा दिए गये। शेरसिंह की सेना के सिपाहियों के मन तो बदले हुए थे ही। इस घटना से और भी असन्तोष बढ़ा जिसे संभालना शेरसिंह के लिए भी कठिन हो गया। पर शेरसिंह के इतने अंग्रेज-भक्ति के कार्य करने पर भी बाहरी लोगों को यह सन्देह ही रहा कि इन सब की जड़ शेरसिंह ही है।

अंग्रेजों का जबर्दस्त प्रेमी शेरसिंह इस बात से अनभिज्ञ था कि उस पर बाहरी लोग अविश्वास करते हैं। वह मेजर साहब द्वारा समय-समय पर की गई बड़ाइयों पर कृतज्ञता से दबा जा रहा था। वह एबट द्वारा अपने पिता पर किए गए अभियोगों की खबर पाकर भी वैसा ही बना रहा, क्योंकि उसे मालूम हुआ था कि पत्रों द्वारा इसके पिता को निर्दोष साबित कर दिया गया है। उस समय सिर्फ उसने मेजर एडवार्डिस के सामने एबट के अन्याय और पिता के न्यायों की ही चर्चा की। यही


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 364


नहीं, पहली सितम्बर को, एडवार्डिस की सेना के, मूलराज जी की सेना के सामने छक्के छूटने की खबर पाकर बड़ी होशियारी से उन्हें बचाया और तीसरी जून को युद्ध में बड़ी बहादुरी से मूलराज को मार भगा दिया और अंग्रेजों के प्रति अपने अपूर्व प्रेम का परिचय दिया। इस दिन की लड़ाई से प्रसन्न होकर मेजर साहब ने रेजीडेण्ट को लिखा - “शेरसिंह ने अब तक अंग्रेज-प्रेम का उज्जवल उदाहरण दिखाया है। उसका कार्य देखकर स्पष्ट ही मालूम होता है कि बिना इच्छा के वह ऐसा काम नहीं कर सकता। मुलतान में आने के बाद विनय से, भय से अथवा सजा देकर किसी न किसी प्रकार उन्होंने सेना को भक्त बनाए रखा है। राजा शेर ने अपनी सेनाओं का विद्रोह दबाने के लिए इस प्रकार प्रयत्न किया है कि सिख-सेना के लोग उससे चिढ़कर उनको सिख नाम की ग्लानि तथा मुसलमान का जना तक कहते हैं।” दसवीं सितम्बर के पत्र में लिखा - “राजा शेरसिंह और उनके अधीन सरदार लोग विद्रोही सिक्खों के दबाने में कटिबद्ध हैं।” इस तरह सिक्ख सरदार और शेरसिंह बराबर अंग्रेजों की ओर से जी जान से लड़ते रहे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि सेना की अवस्था का बहाना कर लार्ड डलहौजी ने सेना भेजने में देरी कर मूलराज के बल एवं विद्रोही सिपाहियों के बढ़ने में काफी मदद की। चौथी सितम्बर को मुलतान का किला घेरने के लिए तोपें पहुंचीं। अब तक सेनापति ह्वीस 8041 पैदल सेना, 1516 घुड़सवार, 44 तोपों के साथ किला घेरने को तैयार हुए। मदद के लिए एडवार्डिस की 9718 पैदल सेना, 3113 घुड़सवार, 23 बड़ी और 25 छोटी तोपों के साथ थे और इनके अलावा बहावलपुर के नवाब की 5100 पैदल सेना, 1900 घुड़सवार सेना, 14 तोपें राजा शेरसिंह की 909 पैदल सेना, 3382 घुड़सवार और 12 तोप थीं। और भी कुछ दूरी पर इसके अतिरिक्त सेना थी।

9 सितंबर को लेफ्टीनेण्ट पेटडन ने कुछ अंग्रेजी और देशी सेना को लेकर धावा बोल दिया। लेफ्टीनेण्ट की बहुत चेष्टा करने पर भी विजय मूलराज की हुई। उसके पास दस हजार सेना और 59 तोपें थीं। इस विजय से मूलराज की हिम्मत बढ़ गई और किले को और भी मजबूत बना लिया। अब तक अंग्रेजी सेना के 255 सैनिक और 25 घोड़ों का अन्त हो चुका था। परन्तु शेरसिंह, जिसने मूलराज को भयभीत कर दिया था, की मदद से अंग्रेजी सेना आगे बढ़ने लगी। यहां तक कि 12 तारीख तक किले से 800 गज के फासले पर जा पहुंची। शेरसिंह की वीरता से लड़ने की प्रशंसा उस समय सभी अफसरों ने की है। निस्संदेह वह अंग्रेजों की विजय का हृदय से इच्छुक था।

इधर तो शेरसिंह का यह हाल था और उधर उनके पिता के साथ अन्याय की हद पार कर दी गई थी, जिसका वर्णन हम पहले कर आये हैं। शेरसिंह को पिता के साथ किए गए निष्ठुर व्यवहार का पता मिलते ही वे एकदम से बदल गए। पिता


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 365


के अपमान का प्रतिकार करने की तीव्र इच्छा हो गई। रानी जिन्दा के देश निकाले और बहन के विवाह के लिए गोलमाल उत्तर की याद आने पर उसके हृदन में शूल से चुभने लगे। अब तक जिस हृदय में अंग्रेजों की विजय-इच्छा थी, वही अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हो गया। जिस मूलराज के दूत की उसने बेइज्जती की थी, उसी मूलराज का शेरसिंह पक्ष-समर्थक बन गया। जो प्रतिकार की भयंकर आग उस समय उसके हृदय में जल रही थी, उसका अनुमान उनके छोटे भाई गुलाबसिंह को लिखे गए पत्र से अच्छी तरह लगता है। वे लिखते हैं - “सिंह साहब, पिताजी मुझे बार-बार लिखते थे कि मैं कप्तान एबट की सदा आज्ञा पालन करता हूं। किन्तु उस कर्मचारी (एबट) ने हजारा के मुसलमानों से मिलकर बड़ा अन्याय किया है और पिताजी को अत्यन्त दुख और क्लेश दिया है। अधिक क्या कहा जाए, वह अंग्रेज कर्मचारी सिख-सेना के नाश करने का भी प्रबल प्रयत्न कर रहा है। अब तक कप्तान एडवार्डिस मेरे साथ प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते थे, पर पिछले सप्ताह से उनके मन का भाव भी बदल गया है। इसलिए कल मैंने सिंह साहब (पिताजी) से मिलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली है। यदि सिंह साहब की आज्ञा और मेरी सम्मति पर तुम्हें कुछ भी श्रद्धा हो तो इस पत्र को पाते ही सिंह साहब के पास चले जाना और नहीं तो शीघ्र ही जम्बू अथवा और कहीं चले जाना। इसे पढ़ किञ्चित्-मात्र की भी देरी न करना और यदि तुमको मेरी सम्मति स्वीकार न हो, तो तुम्हारी जो इच्छा हो, करना। किन्तु याद रखना पिता की आज्ञा मानना सन्तान का परम कर्त्तव्य है। यह जीवन दो दिन का है। अब तुम मेरे दूसरे पत्र की राह मत देखना। यदि जीवित रहे तो फिर मिलेंगे, नहीं तो जो ईश्वर को मंजूर है, वही होगा।” शेरसिंह ने उपर्युक्त पत्र भाई को भेजकर घोषणा की - “सम्पूर्ण पंजाब निवासी एवं अन्य किसी से यह बात छिपी नहीं है कि स्वर्गीय महाराज रणजीतसिंह की विधवा पर फिरंगियों ने जिस तरह अत्याचार किया है - उसका जो अपमान किया है तथा प्रजा के प्रति फिरंगियों ने जिस प्रकार का निष्ठुर व्यवहार किया है, वह किसी से अविदित नहीं है - पहले, पंजाबियों की माता स्वरूप महारानी जिन्दा को निर्वासित करके सन्धि भंग की है। दूसरे, रणजीतसिंह की सन्तान के समान हमने सिक्खों के प्रति अन्याय और अत्याचार किया है कि हम धर्मच्युत हो गये हैं। तीसरे, राज्य का पहला गौरव भी लुप्त हो गया है। बस, अब क्या देखते हो? आओ! सर्वस्व की रक्षा के लिए तैयार हो जाएं।” यह घोषणा कर शेरसिंह ने अंग्रेजी-सेना से अलग होकर मूलराज से मिलने के लिए पत्र लिखा कि 'मैं आपसे मिलना चाहता हूं।'

पंजाब-वासियों, खासकर सिख-धर्म का दुर्भाग्य! मूलराज को विश्वास नहीं हुआ। नहीं तो सिख-साम्राज्य का एक और ही अध्याय लिखा जाता - पंजाब का इतिहास आज दूसरा ही होता। मूलराज ने सोचा शेरसिंह कपट चाल में है, इस


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 366


तरह से मुझे धोखा दिया जा रहा है। उसका यह सन्देह निराधार नहीं था क्योंकि शेरसिंह के पहले कृत्य इसके प्रमाण थे। यह विश्वास करना वास्तव में कठिन था कि ऐसा अंग्रेज-प्रेमी, उन पर पूर्ण विश्वासी शेरसिंह में इतने क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। मूलराज जबरदस्त प्रबन्ध के साथ मिला। मिलने पर भी वह सन्देह को नहीं हटा सका और एक मन्दिर में ले जाकर ग्रन्थ-साहब को हाथ में दे के प्रतिज्ञा कराई कि “मेरे साथ किसी तरह विश्वासघात तो नहीं किया जाएगा।” ग्रन्थ-साहब को छू प्रतिज्ञा कर लेने पर भी मूलराज का सन्देह-भूत दूर न हुआ। वह शेरसिंह के हृदय को न समझ पाया। हारकर शेरसिंह करीब चार हजार विद्रोहियों का मुखिया बन पिता से मिलने चल दिया।

अंग्रेजी सेना का शेरसिंह के चले जाने से एक दृढ़ स्तम्भ टूट गया। यद्यपि अन्य सरदार अंग्रेजी सेना के पूरे सहायक थे और मूलराज से लड़ने के लिए तत्पर रहे थे पर तो भी अंग्रेजों की मुलतान दुर्ग पर चढ़ाई करने की हिम्मत न हुई और शेष सितम्बर मास सोच-विचार में ही चला गया। इधर मूलराज को अपने शक्ति दृढ़ करने का अवसर मिल गया और जहां तेरहवीं सितम्बर को उसके पास दस हजार सेना थी, उसकी संख्या 13150 हो गई और उसने उधर काबुल के दोस्त-मुहम्मद से सहायता की प्रार्थना की। फलस्वरूप उसने अपने पुत्र को एक सेना देकर मूलराज की सहायता को भेज दिया।

चौथी तारीख नवम्बर के दिन जनरल ह्वीस ने विद्रोहियों की सेना पर तोपें दाग दीं। भयंकर अग्नि-वर्षा हुई, पर मूलराज की सेना टस से मस न हुई। तोपों से काम चलता न देख, ह्वीस ने संगीनों पर हमला करने का निश्चय किया। छठी तारीख को धावा बोल दिया गया। इस हमले में बहावलपुर के नवाब और दीवान जवाहरसिंह की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी। मुलतानी सेना ठहर न सकी। विजय अंग्रेजों की हुई। मूलराज को आज की पराजय से हानि उठानी पड़ी पर फिर भी वह लड़ता ही रहा। 23 दिसम्बर को जब अंग्रेजों की सहायता के लिए बम्बई से और फौज आ गई, तो अंग्रेजों का साहस बहुत बढ़ गया। इस नयी सेना के साथ मुलतान-दुर्ग पर आक्रमण बोल दिया गया। इस समय ह्वीस के पास 15648 सैनिक, 3012 घोड़े और 91 तोपें थीं। 27 दिसम्बर को यह युद्ध छिड़ा। इस विकट युद्ध में किले का बहुत सा भाग अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। मूलराज बन्दी सा हो गया। ता० 29 को दो हजार मुलतानियों ने अंग्रेजी सेना पर धावा बोल दिया था, पर इतनी बड़ी सेना के आगे इनका ठहरना मुश्किल था।

30वीं दिसम्बर का दिन मूलराज की हिम्मत तोड़ देने वाला था। एक गोला बारूदखाने में जा गिरा। उस 5000 मन बारूद में गोला गिरते ही आग लग गई। भयंकर अंधकार छा गया। अंधेरे की ऐसी रात सी हुई कि एक-दूसरे को देखना मुश्किल था। बारूद के इस काण्ड में 500 सैनिक लापता हुए। सन्


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1849 ई० की दूसरी जनवरी को अंग्रेजी सेना दिल्ली दरवाजे तक पहुंच गई। इसी समय बम्बई से बंगाल सेना भी आ मिली, जिससे विजय और भी सरल हो गई। मूलराज ने यह देखकर कि अंग्रेजों ने शहर पर अधिकार कर लिया तो वह अपनी तीन हजार सेना के साथ किले में चला गया। 3 जनवरी को विजय से प्रसन्न अंग्रेजी सेना नगर में घुस गई। उस समय के बारे में एडवार्डिस के शब्दों में ही - “प्रतिहिंसा का ऐसा भयानक चित्र मैंने कभी कहीं नहीं देखा था।”

मूलराज के चारों ओर से घिर जाने पर आत्मसमर्पण के सिवाय और चारा ही क्या था। उसने एडवार्डिस के जरिये आत्मसमर्पण के लिए कहा! पर उत्तर मिला - “जिसका अनुरोध मुझसे किया है वह होना असम्भव है। जब तक आप स्वयं न आयेंगे, कोई बात न सुनी जाएगी।” स्वाभिमानी मूलराज को यह उत्तर मान्य न हुआ। उसने फिर साहस किया और 12 तारीख को अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया, पर भाग्य ने साथ न दिया, वह हारता ही गया। 19 जनवरी को एक विश्वासी द्वारा पुनः आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा, परन्तु उत्तर में सिर्फ यही था कि “तुम कल आठ बजे तक आत्मसमर्पण कर दो।” मूलराज उत्तर पाकर चुप रहा, करता ही क्या? आखिरकार 21 जनवरी को सवेरे ही जनरल ह्वीस ने सेना को दुर्ग पर अधिकार करने की आज्ञा दी। मूलराज भयंकर विपत्ति में फंस गया। उसने जनरल ह्वीस को कहला भिजवाया कि मैं इसी समय आत्मसमर्पण को तैयार हूं। इसका निपटारा करने के लिए मैं अपने वकील को आपके पास भेज रहा हूं। सादर प्रार्थना है कि “मेरे प्राणों तथा स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा की जाए।” जनरल ने उत्तर दिया कि “समर समाप्ति पर आपके जीवन की रक्षा अथवा नाश की कुछ भी शक्ति मुझमें नहीं है। इसकी क्षमता गवर्नर जनरल पर ही है। पर हां, आपकी स्त्रियों की रक्षा करना मैं यथाशक्ति स्वीकार करता हूं।” उसके बाद ह्वीस की सेना रात भर दुर्ग पर गोलाबारी करती रही। दूसरे दिन जब दुर्ग पर अधिकार कर लेने की तैयारी थी, दीवान मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। लगातार 27 दिन के युद्ध के बाद किला अंग्रेजों के अधिकार में आया।

दीवान मूलराज लाहौर लाये गये। तीन अंग्रेजों ने मिलकर दीवान मूलराज के मामले पर विचार किया। मूलराज को दोषी करार पाया और उसे फांसी की सजा दी गई। पीछे यह सजा काले पानी में बदल दी गई और काले पानी जाते हुए ही जहाज पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार अंग्रेजों के विद्रोहियों का एक नेता तो संसार से चल बसा। अंग्रेजों की मुलतान-विजय विद्रोहियों को और भी बुरी लगी और अंग्रेजों के प्रति असन्तोष की वृद्धि होती ही गई।

Visit by Xuanzang in 641 AD of Multan province

Alexander Cunningham[17] writes about 4. Multan Province:

[p.219]: The southern province of the Panjab is Multan. According to Hwen Thsang it was 4000 li, or 667 miles, in circuit, which is so much greater than the tract actually included between the rivers, that it is almost certain the frontier must have extended beyond them. In the time of Akbar no less than seventeen districts, or separate parganahs, were attached to the province of Multan, of which all those that I can identify, namely, Uch, Dirawal, Moj, and Marot, are to the east of the Satlej. These names are sufficient to show that the eastern frontier of Multan formerly extended beyond the old bed of the Ghagar river, to


[p.220]: the verge of the Bikaner desert. This tract, which now forms the territory of Bahawalpur, is most effectually separated from the richer provinces on the east by the natural barrier of the Great Desert. Under a strong government it has always formed a portion of Multan ; and it was only on the decay of the Muhammadan empire of Delhi that it was made into a separate petty state by Bahawal Khan. I infer, therefore, that in the seventh century the province of Multan must have included the northern half of the present territory of Bahawalpur, in addition to the tract lying between the rivers. The northern frontier has already been defined as extending from Dera Din-panah, on the Indus, to Pak-pattan on the Satlej, a distance of 150 miles. On the west the frontier line of the Indus, down to Khanpur, is 160 miles. On the east, the line from Pak-pattan to the old bed of the Ghagar river, is 80 miles ; and on the south, from Khanpur to the Ghagar, the distance is 220 miles. Altogether, this frontier line is 610 miles. If Hwen Thsang's estimate was based on the short kos of the Panjab, the circuit will be only 21/32 of 667 miles, or 437 miles, in which case the province could not have extended beyond Mithankot on the south.

The Changes in geography of Multan: In describing the geography of Multan it is necessary to bear in mind the great changes that have taken place in the courses of all the large rivers that flow through the province. In the time of Timur and Akbar the junction of the Chenab and Indus took place opposite Uchh, 60 miles above the present confluence at Mithankot. It was unchanged when Rennell wrote his 'Geography of India,' in a.d. 1788, and still later in 1796, when visited by Wilford's surveyor,


[p.221]: Mirza Mogal Beg. But early in the present century the Indus gradually changed its course, and leaving the old channel at 20 miles above Uchh, continued its course to the south-south-west, until it rejoined the old channel at Mithankot.

The present junction of the Ravi River and Chenab takes place near Diwana Sanand, more than 30 miles above Multan ; but in the time of Alexander the confluence of the Hydraotes and Akesines was at a short distance below the capital of the Malli, which I have identified with Multan. The old channel still exists, and is duly entered in the large maps of the Multan division. It leaves the present bed at Sarai Siddhu, and follows a winding course for 30 miles to the south-south-west, when it suddenly turns to the west for 18 miles, as far as Multan, and, after completely encircling the fortress, continues its westerly course for 5 miles below Multan. It then suddenly turns to the south-south- west for 10 miles, and is finally lost in the low-lying lands of the bed of the Chenab. Even to this day the Ravi clings to its ancient channel, and at all high floods the waters of the river still find their way to Multan by the old bed, as I myself have witnessed on two different occasions. The date of the change is unknown; but it was certainly subsequent to the capture of Multan by Muhammed bin Kasim in A.D. 713; and from the very numerous existing remains of canals drawn from the old channel, I infer that the main river must have continued to flow down it within a comparatively recent period, perhaps even as late as the time of Timur. The change, however, must have taken place before the reign of Akbar, as Abul Fazl1


1 ' Ayin Akbari,' ii. 3.


[p.222]: describes the distance from the confluence of the Chenab and Jhelam to that of the Chenab and Ravi as 27 kos, and the distance of the latter from the confluence of the Chenab and Indus as 60 kos, both of which measurements agree with the later state of these rivers.

The present confluence of the Bias and Satlej dates only from about A.D. 1790, when the Satlej finally deserted its old course by Dharmkot, and joined the Bias at Hariki-pattan. For many centuries previously the point of junction had remained constant just above the ferry of Bhao-ki-pattan, between Kasur and Firuzpur. This junction is mentioned by Jauhar in A.D. 1555,1 and by Abul Fazl in 1596.2 But though the confluence of the two rivers near Firuzpur had been long established, yet even at the latter date the waters of the Bias still continued to flow down their old channel, as described by Abul Fazl : — " For the distance of 12 kos near Firuzpur the rivers Biah and Satlej unite, and these again, as they pass on, divide into four streams, the Hur, Hare, Dand, and Nurni, all of which rejoin near the city of Multan." These former beds of the Bias and Satlej still exist, and form a most complicated network of dry channels, covering the whole of the Doab between the Satlej and the high bank of the old Bias. None of the names given in Gladwyn's translation of the ' Ayin Akbari' are now to be found ; but I am inclined to attribute this solely to the imperfection of the Persian alphabet, which is a constant source of error in the reading of proper names. The Har I would identify with the Par, the Hari with the Raghi, and the Nurni with


1 ' Memoirs of Humayun,' p. 113. 2 ' Ayin Akbari,' ii. 108.


[p.223]: the Suk-Nai, all dry beds of the Bias river to the south of Harapa. The Dand is probably the Dhamak, or Dank, an old channel of the Satlej, which in its lower course takes the name of Bhatiyari, and passing by Mailsi, Kahror, and Lodhran, joins the present channel just above its confluence with the Chenab. In most of our maps the Old Bias is conducted into the lower course of the Bhatiyari, whereas its still existing and well-defined channel joins the Chenab 20 miles below Shujahabad, and its most southerly point is 10 miles distant from the nearest bend of the Bhatiyari.

The changes just described are only the most prominent fluctuations of the Panjab rivers, which are constantly shifting their channels. The change in the Bias is the most striking, as that river has altogether lost its independent course, and is now a mere tributary of the Satlej. But the fluctuations of the other rivers have been very remarkable. Thus, the valley of the Chenab below Kalowal is nearly 30 miles broad, and that of the Ravi, near Gugera, is 20 miles, the extreme limits of both rivers being marked by well-defined high banks, on which are situated many of the most ancient cities of the Panjab.

Ancient sites in Multan division : In the Multan division these old sites are very numerous, but they are now mostly deserted and nameless, and were probably abandoned by their inhabitants as the rivers receded from them. This was certainly the case with the old town of Tulamba, which is said to have been deserted so late as 150 years ago, in consequence of a change in the course of the Ravi, by which the water supply of the town was entirely cut off. The same cause, but at a much earlier date, led to the


[p.224]: desertion of Atari, a ruined town 20 miles to the west- south-west of Tulamba, which was supplied by a canal from the old bed of the Ravi. The only places which I think it necessary to notice in the present account are the following : —

Region City
Bari Doab 1. Tulamba.
2. Atari.
3. Multan.
Jalandhar Pith 4. Kahror.
At junction 5. Uchh.

Four of these places are celebrated in the history of India, and the second, named Atari, I have added on account of its size and position, which would certainly have attracted the notice of Alexander and other conquerors of the Panjab.

Multan city

Alexander Cunningham[18] writes about Multan city:

[p.230]: The famous metropolis of Multan was originally situated on two islands in the Ravi, but the river has long ago deserted its old channel, and its nearest point is now more than 30 miles distant. But during high floods the waters of the Ravi still flow down their old bed, and I have twice seen the ditches of Multan filled by the natural overflow of the river.2 Multan consists of a walled city and a strong fortress, situated on opposite banks of an old bed of the Ravi, which once flowed between them as well as around them. The original site consisted of two low mounds not more


1 Vila Alex., ix. 4. " Ipse navigio circumvectus est areem; quippe tria flumina, tota India praeter Gangen maxima, munimento arcis applicant undas. A septentrione Indus alluit ; a meridie Acesines Hydaspi confunditur."

2 Burnes, 'Travels in the Punjab, Bokhara,' etc. i. 97, erroneously attributes the inundation of the country around Multan to the " Chenab and its canals." If he had travelled by land instead of by the river, he would have seen that the inundation is due to the flood waters of the Ravi resuming their ancient course from Sarai Siddhu direct upon Multan. I travelled over this line in the end of August, 1856, and saw the old bed of the Ravi in full flood.


[p.231]: than 8 or 10 feet high above the general level of the country. The present height varies from 45 to 50 feet, the difference of 35 to 40 feet being simply the accumulation of rubbish during the lapse of many centuries. This fact I ascertained personally by sinking several wells down to the level of the natural soil, that is, of soil unmixed with bricks, ashes, and other evidences of man's occupation.

The citadel may be described as an irregular semicircle, with a diameter, or straight side of 2500 feet facing the north-west, and a curved front of 4100 feet towards the city, making a circuit of 6600 feet, or just one mile and a quarter. It had 46 towers or bastions, including the two flanking towers at each of the four gates. The walled city, which envelopes the citadel for more than two-thirds of the curve, is 4200 feet in length, and 2400 feet in breadth, with the long straight side facing the south-west. Altogether the walled circuit of Multan, including both city and citadel, is 15,000 feet, or very nearly 3 miles, and the whole circuit of the place, including its suburbs, is 4½ miles. This last measurement agrees very nearly with the estimate of Hwen Thsang, who makes the circuit of Multan 30 li, or just 5 miles.1 It agrees even more exactly with the estimate of Elphinstone, who, with his usual accuracy, describes Multan as "above four-miles and a half in circumference,"2 The fortress had no ditch when seen by Elphinstone and Burnes, as it was originally surrounded by the waters of the Ravi. But shortly after Burnes's visit, a ditch was added by Sawan Mall, the energetic governor of Ranjit Singh. The walls are said to have been built by Murad Baksh,


1 Julien's ' Hiouen Thsang,' iii. 173. 2 ' Kabul," i. 27.


[p.232]: the youngest son of Shah Jahan ; but when I dismantled the defences of Multan in 1854, I found that the walls were generally double, the outer wall being about 4 feet thick, and the inner wall 3½ feet to 4 feet.1 I conclude, therefore, that only the outer wall, or facing, was the work of Murad Baksh. The whole was built of burnt bricks and mud, excepting the outer courses, which were laid in lime-mortar to a depth of 9 inches.

different names of Multan :

Multan is known by several different names, but all of them refer either to Vishnu or to the Sun, the latter being the great object of worship in the famous temple that once crowned the citadel. Abu Rihan mentions the names of Kasyapa-puru, Hansapura, Bhagapura, and Sambapura, to which I may add, Prahladapura and Adyasthana.

According to the traditions of the people, Kasyapa-pura was founded by Kasyapa, who was the father of the twelve Adityas, or Sun-gods, by Aditi, and of the Daityas, or Titans, by Diti. He was succeeded by his eldest son, the Daitya, named Hiranya-Kasipu, who is famous throughout India for his denial of the omnipresence of Vishnu, which led to the manifestation of the Nara-Sinha, or "Man-lion" avatar. He was followed by his still more famous son Prahlada, the ardent worshipper of Vishnu, after whom the city was named Prahladapura. His great-grandson, Bana, commonly called Bana the Asur (Banasura), was the unsuccessful antagonist of Krishna, who took possession of the kingdom of


1 It may be interesting to note that on dismantling the wall near the Sikhi Darwaza, or " Spiked Gate," I found the only two shot that were fired from the great one hundred-pounder gun, which the Bhangi Misal of of Sikhs brought against Multan in the beginning of this century. The two shot had completely penetrated through the brick wall of 7 feet, and were within three feet of each other.


[p.233]: Multan. Here Samba, the son of Krishna, established himself in the grove of Mitra-vana, and by assiduous devotion to Mitra, or the " Sun," was cured of his leprosy. He then erected a golden statue of Mitra, in a temple named Adyasthana (आद्यस्थान), or the " First Shrine," and the worship of the Sun thus began by Samba, has continued at Multan down to the present day.

The story of Samba, the son of Krishna, is told in the Bhavishya Purana1 but as it places the Mitra-vana, or "Sun-grove," on the bank of the Chandrabhaga, or Chenab river, its composition must be assigned to a comparatively late period, when all remembrance of the old course of the Ravi flowing past Multan had died away. We know, however, from other sources, that the Sun-worship at Multan must be very ancient.

In the seventh century Hwen Thsang found a magnificent temple with a golden statue of the god most richly adorned, to which the kings of all parts of India sent offerings. Hence the place became commonly known amongst the early Arab conquerors as " The Golden Temple ;" and Masudi even affirms that el Multan means " meadows of gold."2 Hwen Thsang calls it Meu-lo-san-pu-lo, which, according to M. Vivien de St. Martin, is a transcription of Mulasthanipura. The people themselves refer the name to Mula-sthana, which agrees with the form of Mula-lana, quoted by Abu Rihan from a Kashmirian writer. Mūla means


1 Wilford, ' Asiatic Researohes,' xi. 69 ; and H. H. "Wilson, in Reinaud, ' Memoire sur l'Inde,' p. 392.

2 Masudi, ' Gildemeister,' p. 134: " domum auream : " so also Sir H. M. Elliot, ' Muhammadan Historians," p. 56 ; but at p. 57 he translates "golden temple." Prof. Dowson, i. 33, has "boundary of the house of gold," translating Masudi ; and at i. 81, " the house of gold," translating Idrisi.


[p.234]: "root, or origin," and sthana, or than, in the spoken dialects, means " place, or shrine." Hence, Mulasthana is the "Temple of Mula,'" which I take to be an appellation of the Sun. In the Amarakosha one of the names of the Sun is Vradhna, which is also given as a synonym of Mula ; hence vradhna must be connected with the Latin radix and radius, and also with the Greek ράβδος . But as radix signifies not only origin, or root, in general, but also a particular root, the radish, so also does mula signify origin, or root, and mulaka, or muli, a radish. The connection between a sunbeam and a radish obviously lies in their similarity of shape, and hence the terms radius and mula are both applied to the spoke of a wheel. Mula-sthana is said by Wilson to mean "heaven, ether, space, atmosphere, God," any one of which names would be applicable to the Sun as the lord of the ethereal space. For these reasons I infer that mula is only an epithet of the Sun, as the God of rays, and that Mula-sthana-pura means simply the "city of the Temple of the Sun.

Bhaga and Hansa are well-known names of the Sun; and therefore Bhagapura and Hansapura are only synonyms of the name of Multan.

The earliest name is said to have been Kasyapapura, or as it is usually pronounced, Kasappur, which I take to be the Kaspa-puros of Hekataeus, and the Kaspaturos of Herodotus, as well as the Kaspeira of Ptolemy. The last town is placed at a bend on the lower course of the Rhuadis, or Ravi, just above its junction with the Sandobag, or Chandrabhaga. The position of Kaspeira therefore agrees most exactly with that of Kasyapapura or Multan, which is situated on the old bank of the Ravi, just at the point where the channel changes its course


[p.235]: from south-east to east. This identification is most important, as it establishes the fact that Multan or Kaspeira, in the territory of the Kaspeirei, whose dominion extended from Kashmir to Mathura, must have been the principal city in the Panjab towards the middle of the second century of the Christian era. But in the seventh century it had already acquired the name of Mulasthanapura, or Multan, which was the only name known to the Arab authors down to the time of Abu Rihan, whose acquirement of Sanskrit gave him access to the native literature, from which he drew some of the other names already quoted. The name of Adyasthana, or " First Shrine," is applied in the Bhavishya Purana to the original temple of the Sun, which is said to have been built by Samba, the son of Krishna; but adya is perhaps only a corruption of Aditya, or the Sun, which is usually shortened to adit, and even ait, as in aditwar and aitwar for Adityawara, or Sunday. Biladuri calls the idol a representation of the prophet Job, or Ayub, which is an easy misreading of for adit. Prahladapura, or Pahladpur, refers to the temple of the Narsingh Avatar, which is still called Pahladpuri. When Burnes was at Multan, this temple was the principal shrine in the place, but the roof was thrown down by the explosion of the powder magazine during the siege in January, 1849, and it has not since been repaired. It stands at the north-eastern angle of the citadel, close to the tomb of Bahawal Hak. The great temple of the Sun stood in the very middle of the citadel, but it was destroyed during the reign of Aurangzib, and the Jamai Masjid was erected on its site. This masjid was the powder magazine of the Sikhs, which was blown up in 1849.


[p.236]: By the identification of Kasyapapura with, the Kaspeira of Ptolemy I have shown that Multan was situated on the bank of the Ravi in the first half of the second century of the Christian era. Hwen Thsang unfortunately makes no mention of the river ; but a few years after his visit the Brahman Rajah of Sindh, named Chach, invaded and captured Multan, and the details of his campaign show that the Ravi still continued to flow under its walls in the middle of the seventh century. They show also that the Bias then flowed in an independent channel to the east and south of Multan. According to the native chronicles of Sindh, Chach advanced to Pabiya, or Bahiya1 on the south bank of the Bias, from whence he advanced to Sukah or Sikkah on the bank of the Ravi, at a short distance to the eastward of Multan. This place was soon deserted by its defenders, who retired towards Multan, and joined Raja Bajhra in opposing Chach on the banks of the Ravi. After a stout fight the Multanis were defeated by Chach, and retired into their fortress, which after a long siege surrendered on terms.2

This brief notice of the campaign of Chach will now enable us to understand more clearly the campaign of Alexander against the capital of the Malli. My last notice left him at the strong Brahman city, which I have identified with Atari, 34 miles to the north-east of Multan, and on the high-road from Tulamba. Here I will resume the narrative of Arrian.3


1 Sir Henry Elliot reads Pabiya. (Prof. Dowson's edition, i. 141.) Lieut. Postans reads Bahiya. (Journ. Asiat. Soc. Bengal, 1841, p. 195.)

2 Lieut. Postans in Journ. Asiat. Soc. Bengal, 1838, p. 94. Sir H. W. Elliot, ' History of India,' edited by Prof. Dowson, i. 143.

3 ' Anabasis,' vi. 8.


[p.237]: " Having tarried there one day to refresh his army, he then directed his march against others of the same nation, who, he was informed, had abandoned their cities and retired into the deserts ; and taking another day's rest, on the next he commanded Python, and Demetrius the captain of a troop of horse, with the forces they then had, and a party of light armed foot, to return immediately to the river, etc. In the meanwhile he led his forces to the capital city of the Malli, whither, he was informed, many of the inhabitants of other cities had fled for their better security."

Here we see that Alexander made just two marches from the Brahman city to the capital, which agrees very well with the distance of 34 miles between Atari and Multan. In searching for the chief city of the Malli or Malii, we must remember that Multan has always been the capital of the Lower Panjab, that it is four times the size of any other place, and is undeniably the strongest fort in this part of the country. All these properties belonged also to the chief city of the Malli. It was the capital of the country ; it had the greatest number of defenders, 50,000 according to Arrian, and was therefore the largest place ; and lastly, it must have been the strongest place, as Arrian relates that the inhabitants of other cities had fled to it "for better security." For these reasons I am quite satisfied that the capital city of the Malli was the modern Multan; but the identification will be still further confirmed as we proceed with Arrian's narrative.

On Alexander's approach the Indians came out of their city, and " crossing the river Hydraotes, drew up their forces upon the bank thereof, which was steep and difficult of ascent, as though they would have


[p.238]: obstructed his passage . . . when he arrived there, and saw the enemy's army posted on the opposite bank, he made no delay, but instantly entered the river with the troops of horse he had brought with him." The Indians at first retired ; " but when they perceived that their pursuers were only a party of horse, they faced about and resolved to give him battle, being about 50,000 in number." From this account I infer that Alexander must have advanced upon Multan from the east, his march, like that of Chach, being determined by the natural features of the country. Now the course of the old bed of the Ravi for 18 miles above Multan is almost due west, and consequently Alexander's march must have brought him to the fort of Sukah or Sikkah, which was on the bank of the Ravi at a short distance to the east of Multan. From this point the same narrative will describe the progress of both conquerors. The town on the east bank of the Ravi was deserted by its garrison, who retired across the river, where they halted and fought, and being beaten took refuge in the citadel. The fort of Sukah must have been somewhat near the present Māri Sital, which is on the bank of the old bed of the Ravi, 2½ miles to the east of Multan.

Alexander was dangerously wounded by Mallis - At the assault of the capital Alexander was dangerously wounded, and his enraged troops spared neither the aged, nor the women, nor the children, and every soul was put to the sword. Diodorus and Curtius assign this city to the Oxudrakae ; but Arrian distinctly refutes this opinion,1 "for the city," he says " belonged to the Malli, and from that people he received the wound. The Malli indeed designed to


1 Anabasis,' vi. 11.


[p.239]: have joined their forces with the Oxudrakae, and so to have given him battle ; but Alexander's hasty and unexpected march through the dry and barren waste prevented their union, so that they could not give any assistance to each other." Strabo also says that Alexander received his wound at the capture of a city of the Malli.1

When Alexander opened his campaign against the Malli, he dispatched Hephaestion with the main body of the army five days in advance, with orders to await his arrival at the confluence of the Akesines and Hydraotes.2 Accordingly after the capture of the Mallian capital, " as soon as his health would admit, he ordered himself to be conveyed to the banks of the river Hydraotes, and from thence down the stream to the camp, which was near the confluence of the Hydraotes and Akesines, where Hephaestion had the command of the army and Nearchus of the navy." Here he received the ambassadors from the Oxudrakae and Malli tendering their allegiance. He then sailed down the Akesines to its confluence with the Indus, where he " tarried with his fleet till Perdikkas arrived with the army under his command, having subdued the Abastani, one of the free nations of India, on his way."

At the capture of Multan by Chach, in the middle of the seventh century, the waters of the Ravi were still flowing under the walls of the fortress, but in A.D. 713, when the citadel was besieged by Muhammad bin Kasim, it is stated by Biladuri 3 that " the city was supplied with water by a stream flowing from the


1 Geogr., xv. 1, 33.

2 ' Anabasis,' vi. 5.

3 Reinaud, ' Fragments Arabes,' p. 199.


[p.240]: river (name left blank by M. Reinaud) ; Muhammad cut off the water, and the inhabitants, pressed by thirst, surrendered at discretion. All the men capable of bearing arms were put to death, and the women and children, with 6000 priests of the temple, were made slaves." The canal is said to have been shown to Muhammad by a traitor. I am willing to accept this account as a proof that the main stream of the Ravi had already deserted its old channel ; but it is quite impossible that Multan could have been forced to surrender from want of water. I have already explained that one branch of the Ravi formerly flowed between the city and fortress of Multan, and that the old bed still exists as a deep hollow, in which water can be reached at most times by merely scratching the surface, and at all times by a few minutes' easy digging. Even in the time of Edrisi1 the environs of the town are said to have been watered by a small river, and I conclude that some branch of the Ravi must still have flowed down to Multan. But though the narrative of Biladuri is undoubtedly erroneous as to the immediate cause of surrender, I am yet inclined to believe that all the other circumstances may be quite true. Thus, when the main stream of the Ravi deserted Multan, the city, which is still unwalled on the side towards the citadel, must have been protected by continuing its defences right across the old bed of the river to connect them with those of the fortress. In these new walls, openings must have been left for the passage of the waters of the canal or branch of the Ravi, whichever it may have been, similar to those which existed in modern times. Edrisi specially notes


1 Geogr., Jauberts trauslation, i. 168.


[p.241]: that Multan was commanded by a citadel, which had four gates, and was surrounded by a ditch. I infer, therefore, that Muhammad Kasim may have captured Multan in the same way that Cyrus captured Babylon, by the diversion of the waters which flowed through the city into another channel. In this way he could have entered the city by the dry bed of the river, after which it is quite possible that the garrison of the citadel may have been forced to surrender from want of water. At the present day there are several wells in the fortress, but only one of them is said to be ancient ; and one well would be quite insufficient for the supply even of a small garrison of 5000 men.

Jat Gotras in Multan District

According to 1911 census, the following were the principal Muslim Jat clans in Multan District[19]:

Arain (2,192), Bagar (602), Bagwar (1,179), Bhutta (9,697), Bhasa (1,829), Bilar (3,147), Bir (524), Bulla (6,691), Chachakar (974), Chachar (554), Chanal (919), Chandram (608), Chaughata (2,937), Charal (578), Chatha (1,612), Chavan (775), Chadhar (884), Cheema (1,018), Dara (1,040), Dawana (1,210), Ghagar (1,177), Ghahi (301), Gill (503), Jajularu (2,379), Jakhar (175), Jhagar (1,177), Kachela (669), Khak (596), Khaki (596), Khichi (672), Lang (2,715), Langah ( 1,132), Langra (766), Langrial (753), Larsan (1,609), Lapra (579), Mahi (498), Maalta (121), Maho (934), Mahran (673), Mahre (1,018), Nonari (934), Nauls (611), Nourangi (1,247), Noon (3,766), Parhar (557), Parkar (753), Parohe (1,253), Pattiwala (816), Pukhowara (581), Raad (201), Raan (2,616), Rongia (689), Ruk (618), Sadal (674), Sadhari (974), Sadraj (1,091), Shajra (144), Sailigar (757), Samri (969), Sandhila (966), Shekha (674), Siana (933), Sipra (9), Soomra or Soomro (291), Thaheem (3,932), Uania (848), Vasli (649), Virk (328), Waseer (605) and, Wehi (2,509).

  • Manda - Mandas in the later period are found settled in Punjab and Sindh in sixth/seventh centuries AD. Ibn Haukal says that “the infidels who inhabited Sindh, are called Budha and Mand.” “The Mands dwell on the banks of Mihran (Sindhu) river. From the boundary of Multan to the sea… They form a large population. [21], [22]

Notable persons

External links

See also

References

  1. The Ancient Geography of India/Multan, p.221
  2. Multān City - Imperial Gazetteer of India, v. 18, p. 35
  3. Singh, Fauja. History of the Punjab: Pre-historic times to age of Asoka
  4. Sircar, D.C.. Studies in the Geography of Ancient and Medieval India
  5. Multān City - Imperial Gazetteer of India, v. 18, p. 35
  6. Jyoti Prasad Jain, p. 48
  7. Dr Naval Viyogi: Nagas – The Ancient Rulers of India, p. 315
  8. History and study of the Jats/Chapter 7,p.104
  9. Diodorus (first century B.C.), Diodorus of Sicilly, translated by C.B. Welles, Vol. 8, Harvard University Press, Cambridge, Massachusetts, 1946, pp. 397, 401, 405.
  10. Arrian (95-175 A.D.), Anabasis of Alexander, translated by E.I. Robson, Harvard University Press, Cambridge, Massachusetts, 1966, pp. 37, 59, 69-72, 131-139 (Vol. II).
  11. Strabo (first century A.D.), The Geography of Strabo, translated by H.L. Jones, Harvard University Press, Cambridge, Massachusetts, 1954, pp. 57-58 (Vol. VIII).
  12. McCrindle, J.W., Ancient India as described in Classical Literature, reprinted by the Eastern Book House, Patna, India, 1987, pp. 40-41, first published in 1901.
  13. Ram Swarup Joon: History of the Jats/Chapter V,p. 94
  14. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.753
  15. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.451
  16. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Pancham Parichhed,p.100-101
  17. The Ancient Geography of India/Multan,pp.219-224
  18. The Ancient Geography of India/Multan,pp.230-241
  19. Census Of India 1911 Volume xiv Punjab Part 2 by Pandit Narikishan Kaul
  20. Mahendra Singh Arya et al.: Ādhunik Jat Itihas, Agra 1998,p.248
  21. Elliot and Dowson, op. cit., Vol. I, p. 38
  22. Bhim Singh Dahiya, Jats the Ancient Rulers, p. 136

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