स्वामी केशवानंद

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For article in English see Swami Keshwanand

Author:Laxman Burdak, IFS (Retd.), Jaipur
Swami Keshwanand

स्वामी केशवानंद (1883-13.9.1972) एक महान शिक्षा-संत, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक, कला-मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ और निष्काम कर्मयोगी जनसेवक थे।

स्वामी केशवानन्द जी का संक्षिप्त परिचय

जन्म: स्वामी केशवानन्द जी का जन्म महात्मा गांधी से 14 वर्ष बाद राजस्थान में सीकर जिले की सीमा पर सीकर जिले की लक्ष्मणगढ़ तहसील के अंतर्गत गाँव मगलूणा में पौष माह संवत 1940 ( दिसम्बर, सन् 1883) में निर्धन ढाका परिवार में हुआ। इनके पिता का नाम ठाकरसी और माता का नाम सारा था। ग्राम मगलूणा संवत 1451 में फत्तेखां नवाब फतेहपुर के क्षेत्र में केशवानन्द से 13 पीढ़ी पूर्व उनके ही वंशज मालुजी ढाका द्वारा बसाया था।

बचपन: स्वामी केशवानन्द का बचपन का नाम बीरमा था। पांच-छः वर्ष का बीरमा अपने परिवार के साथ मगलूणा से रतनगढ़ शहर में आ गया। बीरमा के अलावा उनके परिवार में उनके पिता ठाकरसी, माता सारां और रिश्ते में फुफेरे भाई रामलाल थे। रामलाल के माता-पिता बचपन में ही गुजर गए थे इसलिए उसका भरण-पौषण ठाकरसी द्वारा ही किया जा रहा था।

जीवनयापन हेतु रतनगढ़ आना और पिता का देहांत : ठाकरसी अपने पगड़ी-बदल भाई माली के सहयोग से रतनगढ़ में मालियों के बास में झोंपड़ा बनाकर ऊँट के सहारे अपना जीवन यापन करने लगा। यह सन् 1889 के आस-पास की बात है जब सड़क और रेल के अभाव में सेठ लोग कलकत्ता, बंबई आदि बड़े शहरों में व्यापार के लिए जाते थे तो अपना सामान ऊँट से दिल्ली ले जाया करते थे। ठाकरसी ने भी अपने ऊँट को एक काफिले में शामिल कर दिल्ली सामान ढोने का काम शुरू कर दिया। रतनगढ़ से दिल्ली के लिए कई-कई दिन लगते थे और यह काफी जोखिम भरा काम भी था। इस काम का मेहनताना उनको एक-डेढ़ रूपया मिलता था। ठाकरसी को रतनगढ़ आये मात्र डेढ़ वर्ष ही हुआ था कि ठाकरसी जब सरकारी बीड़ (जंगल) में ऊँट को चराने के लिए छोड़ने हेतु दावणा (पगबंधन) लगा रहे थे कि उनके प्राण पखेरू उड़ गए।

बीरमा की माता की विपत्तियां : बीरमा की माता सारां सेठों के यहाँ आटा पीसने, बर्तन साफ़ करने आदि का काम करती थी जिससे परिवार के लिए कुछ खाने-पिने की व्यवस्था हो जाती थी। पति की मृत्यु के कारण अब वह ज्यादा दिन रतनगढ़ में नहीं रह सकी। संवत 1948 (1891 ई.) में वह अपना सामान ऊँट पर लाद कर वापस मगलूणा अपने गाँव आ गयी। विधवा सारां देवी के मगलूणा वापस आने पर किसी को खुशी न हुई और न ही किसी ने इस बेसहारा परिवार पर किसी प्रकार की दया दिखाई अथवा सहायता की।

हामूसर में मौसी के पास आये : मगलूणा किसी प्रकार की सहायता न मिलने के कारण से सारां देवी ने अपना यह पड़ाव भी छोड़ दिया और वह हंसासर-हामूसर में बसी अपनी मौसी के यहाँ चली गयी। मौसी का परिवार सम्पन था। मौसी ने अपने सामर्थ्य अनुसार भांजी के रहने का प्रबंध किया। बीरमा और रामलाल गाएँ चराते एवं सारां ने गाँव में आटा पीसने का काम शुरू किया। जैसे-तैसे हामूसर में उनका समय कट रहा था। लेकिन धीरे-धीरे कठिनाईयां बढ़ने लगी। अकाल की काली छाया क्षितिज पर धीरे-धीरे उभर रही थी। सारा क्षेत्र वर्षा की बूँद-बूँद के लिए तरस गया। हरयाली सपने की वस्तु बनती जा रही थी। गायें मीलों तक भटकती पर सिवाय भटकने उनको चरने के लिए तिनका भी नसीब नहीं होता। बीरमा और रामलाल को अड़सीसर, घड़सीसर तक भी गायों को लेजाना पड़ता था परन्तु चारा कहीं उपलब्ध न था। गाएँ भूखी ही रहती। अब पानी का संकट भी गहराता जा रहा था। जीवन का आधार पानी के कुएं भी सूख गए थे। तीनसौ फीट गहरा पानी और वह भी खारा - जहर के सामान। गर्मी में गाएँ यह पानी पीती तो मर जाती और आदमी पीता तो उलटी-दस्त हो जाते। ऐसे में सारां देवी को अपना पड़ाव फिर बदलना पड़ा।

केलनिया गाँव पहुंचे: भूख की सम्भावित पीड़ा से डरते-डरते यह काफिला उत्तर की और बढ़ने लगा। संवत 1955 (1898 ई.) में तीनों प्राणी अपनी गायों सहित केलनिया गाँव पहुंचे। यहाँ पहुंचते-पहुंचते कई गायें मर चुकी थी। रिश्ते का भाई रामलाल अब समझदार हो गया था, वह अपने पुस्तैनी गाँव चला गया। शेष रह गए माता-पुत्र और कुछ गायें।

उस समय का दीन-हीन ग्रामीण कृषक समाज सामन्तों, राजाओं-नवाबों और विदेशी शासकों की तिहरी गुलामी में दबा हुआ था। वह शिक्षा से रहित, अंधविश्वासों और निरर्थक रूढ़ियों में जकड़ा हुआ था। ग्रामवासियों का जीवन नरक के समान कष्टों से भरा हुआ था। इस प्रकार के सामाजिक वातावरण में बीरमा के बालपन और किशोरावस्था के 16 वर्ष रेतीले टीलों के बीच, सर्दी-गर्मी में लगभग नंगे बदन सहते हुए गौचारण में बीते।

छपनिया अकाल: केलनिया गाँव भी संवत 1956 (1899 ई.) के भयंकर 'छपनिया अकाल' से बच न सका. अकाल की कालिमा गहराती गयी। एक-एक कर प्राणी काल-कवलित होते गए। वनस्पति का तरल द्रव्य और जीवों की रगों में बहने वाला रक्त धीरे-धीरे सूखता गया। क्षुधा शांत करने की ऐसी भगदड़ मची कि सामाजिक रिश्ते एक बीती बात हो गए। माताओं ने अपने बच्चों को छोड़ दिया और भूखे-तड़पते मृग-मरीचिका के भ्रम में जहाँ जिसे सूझा आसरा लिया। पशुओं द्वारा खाई जाने वाली ग्वार की सूखी फलियां विलास की वस्तु बन गयी। लोग वृक्षों की छाल और भरूट घास के कांटे खाने को मजबूर हुए। शासन-तंत्र नाम की कोई चीज नहीं थी। मानव शरीरों के खून का अंतिम कतरा तक हजम करने की गीदड़ दृष्टी वाले जागीरदार शासक इस घोर अकाल की स्थिति में सहयोग की बजाय भूख से तड़पते लोगों से कोसों दूर जश्न मनाते रहते।

माता सारां का देहांत : प्राकृत और मानवीय विपदाओं से पहले ही टूट चूका यह ढाका परिवार सन 1899 के अकाल की मार को न सह सका। बीरमा की कमजोर माता सारां देवी और पड़ाव न बदल सकी और वह केलनिया गाँव में सारे जगत को छोड़ कर अनंत की और चल दी। सारां की कोख का फल अपनी जननी के अंतिम सहारे को खोकर भटके हुए जहाज की मानिंद अनिश्चित राहों पर बढ़ गया।

स्वामी जी के बचपन की इस घटना को उनके परम भक्त श्री खूबचंद बाठियां ने अपनी सजीव कविता में कुछ यों लिखा है:

स्वामी केशवानन्द की यश गाथा, कोई क्यों कहेगा जुबानी।
वह मगलूणा का बाल अकिंचन, था अनकही एक कहानी।।
मरुधरा का वह अनगढ़ हीरा, नश्ल न जिसकी पहचानी।
काल पृष्ठ पर छोड़ दी जिसने, अपनी अमिट निशानी।।
थी ललक बहुत पढ़ने की मन में, किन्तु रोटी बनी पहेली।
बिना साधन शिक्षा मिल न सकी, रह गयी अबूझ पहेली।।
मनकी कुंठा से उपजी दृढ़ निश्चय की अजब कहानी।
अबोध बालक घर छोड़ चला, बढ़ गया रहा अंजनी।।

चरवाहे से महापुरुष

माता सारां के न रहने से स्वामी केशवानन्द जी का केलनिया गाँव से कोई लगाव न रहा। संवत 1956 (सन 1899) में वे नोहर, सिरसा, भटिंडा, गीदड़बाहा, मलोट, अबोहर, पंजकोषी आदि में भटकते हुए आखिर में झूमियाँवाली गाँव पंजाब में जाकर ठहरे। यह वह समय था जब मरुस्थल के अकाल पीड़ित क्षेत्रों से बीरमा जैसे अनेक अकाल के मारे जवान और बालक पंजाब की तरफ रोटी-पानी की तलास में आ रहे थे। धर्म प्रचारकों के लिए यह स्वर्णिम मौका था। इंसान की भूख का फायदा उठाकर हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बनाने के प्रयास हो रहे थे। पंजाब में इस मौके पर धर्म-रक्षा का कार्य आर्य-समाज ने किया। बीरमा को झूमियाँवाली के चौधरी टिकूराम जी वैद्य ने पंडित गंगाराम जी के सहारे आर्यसमाज द्वारा फिरोजपुर में संचालित अनाथालय भिजवा दिया। अनाथालय में रोटी के साथ पढ़ाई के सर्व प्रथम दर्शन बीरमा ने किये। ज्ञान की ललक ने बीरमा को और आगे बढ़ने के लिए प्रवृत किया और चार वर्ष बाद ही बीरमा ने अनाथालय छोड़ अपनी मंजिल की राह पकड़ी। पैदल कष्ट साध्य सफ़र करते हुए भटिंडा, अबोहर होते हुए फाजिल्का पहुँच गए। गुरुग्रंथ के पाठी एक सिख सज्जन और भगत राम डाबड़ा के जरिये अध्ययन हेतु उदासी पंथ के महंत कुशलदास जी के डेरे में पहुंचे। बीरमा ने संस्कृत पढ़ने का मंतव्य जाहिर किया तो उन्होंने अमृतसर जाने की सलाह दी। लेकिन साथ ही यह भी नसीहत दी कि जाट को कोई संस्कृत नहीं पढ़ायेगा। इसलिए आपको संस्कृत सीखनी हो तो साधु बनना पड़ेगा। बीरमा के मन में साधुओं के प्रति आशंका थी फिर भी संस्कृत सीखने के लिए सब कुछ त्याग दिया और संत कुशलदास जी के चेले बन कर सन् 1904 में उदासीन सम्प्रदाय में साधु का रूप धारण किया।

उदासीन सम्प्रदाय में दीक्षित: इस तरह संस्कृत पढ़ने की तीव्र इच्छा लिए सन् 1904 में बीरमा फाजिल्का (पंजाब) के उदासी सन्त कुशलदास के डेरे में जा पहुंचे और उन्हें गुरु धारण कर वह उदासी मत में दीक्षित हो गये। उदासी मत की परम्परा के अनुसार उन्हें गुरुमुखी (पंजाबी) भाषा सीखनी पड़ी, जिसमें वह अपनी कुशाग्र बुद्धि से सहज ही पारंगत हो गये और कुछ ही दिनों में ग्रन्थ-साहब के अच्छे पाठी बन गये।

सन् 1905 में वह तीर्थ-भ्रमण के लिए निकले और प्रयाग के कुम्भ मेले में अवधूत हीरानन्द के सम्पर्क में आने पर उसे उन्होंने ‘‘केशवानन्द’’ नाम दे दिया। फाजिल्का लौटने पर कुशलदास जी ने साधु केशवानन्द को हरिद्वार और अमृतसर आदि स्थानों पर संस्कृत-अध्ययन के लिए भेजा । अध्ययन के साथ-साथ उन्होंने देश-भ्रमण भी चालू रखा और भारत भर के तीर्थ-स्थानों , मंदिरों, मठों, शहरों, विश्व-विद्यालयों, शिक्षा-संस्थानों, वनों, पर्वतों, ऐतिहासिक स्थलों पर संग्रहालयों, पुस्तकालयों में घूम-फिर कर दुनियां की पुस्तक भी पढ़ डाली। बीच-बीच में जब वे फाजिल्का गुरु-आश्रम में होते तो वहां की सफाई, अतिथि-सत्कार, गुरुसेवा और ग्रन्थ-साहब का पाठ अतीव निष्ठा से करते थे। गुरुजी उनकी कर्तव्य-परायणता, सेवा-भावना, सच्चरित्रता और योग्यता से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने सन् 1908 में साधु केशवानन्द की अनुपस्थिति में ही अपने अन्तकाल से पूर्व गुरुगद्दी उन्हें (केशवानन्द को) देते हुए डेरे की रजिस्ट्री उनके नाम करा दी। उस समय तक केशवानन्द केवल वेश से ही नहीं, मन और व्यवहार से भी पूरे सन्त बन चुके थे। अतः ‘‘परोपकाराय सतां विभूतयः’’ के अनुसार उन्होंने सम्पन्न डेरे के रूप में प्राप्त हुई उस पहली विभूति का उपयोग परोपकार में ही करना अपना कर्तव्य समझा। सर्वप्रथम परोपकार के रूप में उन्होंने हिन्दी भाषा के प्रचार को चुना।

राष्ट्र भाषा प्रचार

फाजिल्का-अबोहर के इलाके में उन दिनों प्रान्त की सरकारी भाषा उर्दू का बोलबाला था, हिन्दी भाषा के पढ़ने-पढ़ाने में किसी को कोई रुचि नहीं थी। वहां के गांवों की सामाजिक अवस्था भी उन रेगिस्तानी गांवों जैसी ही थी जहाँ केशवानन्द की आयु के प्र्रथम 16 वर्ष बीते थे। अतः उस क्षेत्र के ग्रामीण समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और अर्थहीन रूढ़ियों की जड़ खोदने के लिए साधु केशवानन्द ने आवश्यक समझा कि उन्हें हिन्दी भाषा का ज्ञान देकर भारतीय संस्कृति के सही रूप से परिचित कराया जावे। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सन् 1911 में साधु आश्रम (गुरू-डेरे) में एक पुस्तकालय-वाचनालय का आरम्भ कर दिया, जहां हिन्दी की पुस्तकें और समाचार- पत्र मंगाए जाते थे। शहर के आदमी उनसे लाभ उठाते और हिन्दी का स्वतः प्रचार होता। वे स्वयं हिन्दी-पुस्तकों की गठरी बांधकर आस-पास के गांवों में ले जाते और लोगों को उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करते। सन् 1912 में उन्होंने आश्रम में एक संस्कृत पाठशाला भी आरम्भ कर दी। उन्हें मठाधीश बने रहकर पैर पुजाने, आशीष देने का कर्मकाण्डी जीवन पसन्द न आया, अतः सन् 1916 में उन्होंने अपनी फाजिल्का की गुरुगद्दी का त्याग करके अपने हिन्दी-प्रचार-कार्य को आगे बढ़ाने के निमित अबोहर में ‘‘नागरी प्रचारणी सभा’’ की स्थापना की। सन् 1924 में उन्होंने इलाके में व्यापक रूप से हिन्दी का प्रचार करने के लिए सार्वजनिक सहयोग से ‘‘साहित्य सदन अबोहर’’ नाम की संस्था का श्रीगणेश किया। साहित्य सदन अबोहर द्वारा ‘‘चल पुस्तकालय’’, केन्द्रीय पुस्तकालय-वाचनालय, हिन्दी की ग्रामीण पाठशालाओं, ‘‘दीपक प्रेस’’ लगाकर हिन्दी मासिक ‘‘दीपक’’ और ग्रामोपयोगी सत्साहित्य का प्रकाशन आदि योजनाओं से इलाके में हिन्दी के पठन-पाठन को बढ़ावा दिया गया। साहित्य सदन में ही हिन्दी साहित्य-सम्मेलन प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा और पंजाब विश्व-विद्यालय की हिन्दी परीक्षाओं के केन्द्र स्थापित कराए गए और हिन्दी विद्यालय प्रारम्भ कर उन परीक्षाओं की तैयारी का प्रबन्ध किया गया। इन विभिन्न परीक्षाओं में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में छात्र-छात्राएं प्रविष्ट होते थे। साहित्य-सदन के प्रबन्ध में इलाके के झूमियांवाली, मौजगढ़, जंडवाला, हनुमन्ता, भंगरखेड़ा, पंचकोसी, रामगढ़, रोहिड़ांवाली, चूहड़ियां वाला, कुलार, सीतो, बाजीदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला, माला आदि 25 गांवों में हिन्दी की प्राथमिक पाठशालाएं चलती थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रबन्ध था। साहित्य-सदन अबोहर में ही सन् 1933 में नौवां पंजाब प्रातीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन और सन् 1941 में अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का तीसवां अधिवेशन अत्यन्त सफलता-पूर्वक सम्पन्न हुए। राष्ट्र-भाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार की इन गतिविधियों का सुपरिणाम यह हुआ कि सन् 1947 में देश-विभाजन के समय फाजिल्का तहसील, जिसमें अबोहर भी शामिल था, बड़े-बड़े प्रभावशाली मुसलमान जागीरदारों, काश्तकारों और व्यापारियों की पर्याप्त आबादी होते हुए भी, हिन्दी-भाषी और हिन्दू-सिख बहुल मानी जाकर पाकिस्तान में जाने से बच सकी और उसके साथ लगती छोटी-छोटी मुस्लिम रिसायतें जलालाबाद और ममदोट भी भारतवर्ष के हिस्से में आ गईं।

स्वंत्रता आन्दोलन में भाग

सन् 1907 में साधु केशवानन्द ने समाचार-पत्रों को पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था जिनमें प्रायः देश की स्वतंत्रता की चर्चा रहती थी। उनके मन में भी स्वतंत्रता-आंदोलन में भाग लेने की इच्छा जागृत हुई। सन् 1921 में वे गांधीजी के आह्वान पर असहयोग-आंदोलन में शामिल हो गए। वे आर्य साधुओं की भाँति जोशीले भाषण देते थे, इसलिए वे स्वामी केशवानन्द के नाम से पुकारे जाने लगे। पुलिस द्वारा उन पर अंग्रेजी सरकार विरोधी भावनाएँ भड़काने का दोषारोपण किया गया। अन्य आंदोलनकारियों के साथ उन्हें भी गिरफ्तार करके अंग्रेज मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। मजिस्ट्रेट माफी माँग लेने वाले आंदोलनकारियों को छोड़ रहा था। मजिस्ट्रेट ने स्वामी जी से पूछा कि क्या वे माफी माँग कर छूटना चाहेंगे। स्वामी जी का सहज उत्तर था कि यदि मुझे बिना माफी माँगे भी छोड़ दिया जाए तो मैं पुनः आंदोलन में ही शामिल होऊँगा। इस उत्तर पर उन्हें दो वर्ष की जेल की सजा भुगतनी पड़ी। सन् 1930 में वे पुनः देश की पूर्ण स्वतंत्रता के संदेश के प्रचारार्थ फिरोजपुर जिले के स्वतंत्रता-आंदोलन के डिक्टेटर बनाए गए। उन्होंने उत्साहपूर्वक आंदोलन की बागडोर सम्भाली और वे आंदोलनकारियों का एक दल गठित कर अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध गाँवों में धुआंधार प्रचार करने लगे। उनकी संगठन कुशलता को देखकर स्वतंत्रता सेनानियों के क्रांतिकारी दल ने भी स्वामी जी को अपने दल में सम्मिलित करने का प्रयत्न किया । स्वामी जी का उन्हें उत्तर था, ‘‘मुझे देश से पूरा प्यार है, मैं इसके लिए बलिदान भी दे सकता हूँ, मैं कठिनाई से डरता भी नहीं हूँ और आपके दल के प्रति भी मेरे मन में पूरा सम्मान है, पर मेरी एक दुविधा है, वह यह कि मैं सच ही कह पाउँगा, कोई बात गोपनीय न रख सकूंगा, और किसी प्रकार की हिंसा भी मुझसे न होगी।’’ उनका यह उत्तर सुनकर फिर कभी क्रांतिकारियों ने उनसे कोई वास्ता नहीं रखा। स्वामी जी के दल के प्रचार-कार्य में अड़चन डालने में पुलिस वालों की कोई चाल सफल नहीं हो पाती थी, अतः वे अपने पूरे दल सहित गिरतार किए जाकर मुलतान की कुख्यात सैण्ट्रल जेल में भेज दिए गए। वहां से वे लगभग एक वर्ष बाद गांधी-इरविन पैक्ट होने पर जेल से मुक्त हुए। मुलतान जेल में रहते हुए अपने दल के साथी अनपढ़ देहाती आंदोलनकारियों का उच्छृंखल व्यवहार देखकर स्वामी जी की देश-सेवा विषयक विचारधारा में परिवर्तन आ गया। उन्होंने अनुभव किया कि जब तक देहात के लोगों को शिक्षित नहीं किया जाता तब तक उन्हें न तो स्वराज्य का महत्व समझ में आएगा और न ही वे देश के स्वतंत्र होने पर अच्छे नागरिक होने का कर्त्तव्य पालन कर सकेंगे। इस कारण उसी समय से उन्होंने देहात में शिक्षा-प्रचार को अपना एक मात्र लक्ष्य बना लिया।

शिक्षा-प्रचार-प्रसार, ग्रामोत्थान विधापीठ संगरिया का निर्माण

फाजिल्का की गुरुगद्दी त्याग कर स्वामी जी ने सन् 1917 में अबोहर-फाजिल्का क्षेत्र में समाज सुधार और हिन्दी-भाषा-प्रचार का कार्य आरम्भ किया था। उसी वर्ष अविद्या और रूढ़िवादी मान्यताओं से घिरे बीकानेर के गांवों की दशा सुधारने का संकल्प लेकर वहां शिक्षा प्रचार के लिए चौ. बहादुर सिंह भोबिया ने 9 अगस्त 1917 को जाट एंग्लो-संस्कृत मिडिल स्कूल संगरिया की नींव डाली। श्रीगंगानगर (तत्कालीन रामनगर) के निवासी चौ. हरिश्चन्द्र नैण वकील भी अविद्या के कारण इलाके के गांव-वासियों की दुर्दशा और पिछडे़पन से दुःखी थे, अतः वे भी शिक्षा-प्रचार के शुभ कार्य में चौ. बहादुर सिंह का पूरा साथ देने लगे। उनके प्रयत्नों से पन्नीवाली के ठाकुर गोपाल सिंह राठौड़ से संगरिया में 14 बीघा 3 बिस्वा भूमि दान में प्राप्त कर वहां 5 कच्चे कमरों और दो कच्ची बैरकों का निर्माण हुआ और विद्यालय एवं छात्रावास का संचालन होने लगा। विद्यालय का सब प्रकार का व्यय गांवों से दान-संग्रह करके पूरा किया जाता था। छात्रों की शिक्षा निःशुल्क थी। सन् 1923 तक जाट विद्यालय संगरिया के प्रबन्ध में गोलूवाला, घमूड़वाली और मटीली में भी शाखा प्राथमिक-शालाएं प्रारम्भ कर दी गईं। जून सन् 1924 में चौ. बहादुर सिंह का देहावसान हो गया और विद्यालय संचालन का भार प्रमुखतः चौ. हरिश्चन्द्र नैण पर रहा। अगले आठ वर्ष तक संगरिया के निकटवर्ती गांवों एवं स्थानीय सज्जनों की एक प्रबन्ध समिति गठित करके और स्वयं संचालन सचिव रह कर वे आर्थिक संकट से जूझते हुए विद्यालय का संचालन ही नहीं करते रहे बल्कि उन्होंने मानकसर, हरीपुरा, दीनगढ़, पन्नीवाली, नगराना, नुकेरा, कुलार और चौटाला गांवों में भी शाखा-प्राथमिक शालाएं खुलवाईं। स्वामी केशवानन्द जी भी अबोहर के साहित्य सदन के संचालन के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में संगरिया के आस-पास के गांवों में आते-जाते जाट विद्यालय में रुककर यहां के कार्य को देख चुके थे। जब आर्थिक संकट काबू से बाहर हो गया, तो जाट विद्यालय की प्रबन्ध समिति ने जाट स्कूल को बंद करने का मन बनाकर, उस पर निर्णय लेने के लिए 18 दिसम्बर 1932 को शिक्षा-प्रेमी सज्जनों की एक बैठक बुलाई और उसमें स्वामी केशवानन्द जी को भी आंमत्रित किया। विद्यालय बंद करने का प्रस्ताव सामने आते ही स्वामी जी ने उसका विरोध किया और साहित्य सदन अबोहर का कार्यभार अपने ऊपर होते हुए भी उपस्थित सज्जनों के अनुरोध पर उसके संचालन का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। स्वामी जी का यह निर्णय इलाके के गांवों के लिए कालान्तर में वरदान सिद्ध हुआ। स्वामीजी विद्यालय की दशा सुधारने में जी-जान से जुट गए और उन्होंने इलाके से दान-संग्रह करके सन् 1935 तक, पहले के पांच कच्चे कमरों के स्थान पर मुख्य पक्का विद्यालय-भवन सरस्वती-मंदिर, औषधालय-रसायनशाला, पुस्तकालय-भवन और यज्ञशाला, व्यायामशाला, ‘‘आर्यकुमार आश्रम’’ छात्रावास और दो पक्के जलाशयों (कुण्डों) से युक्त सुन्दर शिक्षा-उपनिवेश खड़ा कर दिया। सन् 1943 तक विद्यार्थी-आश्रम-छात्रावास व सभा-भवन, गौशाला-भवन, पांच अध्यापक-निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और एक कुण्ड और निर्मित करवाकर विद्यालय को हाई स्कूल में उन्नत कर दिया गया। सन् 1948 तक वहां आयुर्वेद शिक्षा, वस्त्र-निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला और धातु-कार्य आदि उद्योगों की शिक्षा चालू कर संस्था का नाम ‘‘ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया’’ कर दिया गया। जाट स्कूल की दशा सुधारने के पश्चात् स्वामी जी का ध्यान बीकानेर राज्य के उन मरूस्थलीय गांवों में शिक्षा-प्रचार की ओर गया, जहां उन्होंने जीवन के प्रथम सोलह वर्ष बिताए थे। जाट विद्यालय के लिए दान-संग्रह के सिलसिले में भी उन्होंने अनेक बार उन गांवों के पैदल चक्कर लगाए थे, अतः वे वहां की हर समस्या से परिचित थे। उस अनुभव के आधार पर उन्होंने वहां शिक्षा-प्रचार की एक विस्तृत योजना बनाई और उसे ‘‘मरू-भूमि सेवा-कार्य’’ नाम दिया। इस योजना को गांवों तक ले जाने के लिए उन्होंने गांवों से जुड़े कर्मठ कार्यकत्ताओं का सहयोग लिया, जिनमें प्रमुख थे चौ. दौलतराम सारण, चौ. हसंराज आर्य, लोक कवि सरदार हरदत्त सिंह भादू, चौ. रिक्ताराम तरड़, व्यायामाचार्य श्री रामलाल काजला ओर श्री लालचंद पूनिया। योजना का संचालन-कार्यालय ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया में रखकर उन्होंने सन् 1944 से 1959 तक के वर्षों में ‘‘त्रैमासिक शिक्षा योजना’’, ‘‘ग्रामोत्थान पाठशाला योजना’’ और ‘‘समाज शिक्षा-योजना’’ के अन्तर्गत मरूभूमि के गांवों में 287 शिक्षा-शालाओं की स्थापना और संचालन किया। इस कार्य में उन्होंने ग्रामवासियों तथा मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी कलकता का भरपूर सहयोग लिया। इन शालाओं में छात्र-छात्राओं की शिक्षा, प्रौढ़ शिक्षा और गांव वालों की प्राथमिक चिकित्सा का प्रबन्ध रहता था। इन शिक्षा-योजनाओं से बीकानेर, लूनकरणसर, सूरतगढ़, हनुमानगढ़, नोहर, भादरा, राजगढ़, चूरू, रतनगढ़, सुजानगढ़, डूंगरगढ़, नापासर और सरदारशहर तहसीलों के गांवों में शिक्षा प्रचार का इतना कार्य हुआ कि वहां जागृति की लहर उठ खड़ी हुई और लोगों में उन्नति की चाह और उत्साह पैदा हो गया। स्वामी जी की शिक्षा प्रचार की इन योजनाएं के महत्व को समझकर प्रोफेसर ब्रजनारायण कौशिक ने स्वामी जी को ‘शिक्षा-सन्त’ विशेषण देते हुए उनकी प्रथम जीवन गाथा ‘‘शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द’’ सन् 1968 में लिखी थी।

समाज-सुधार कार्य

स्वामी जी ने मरूस्थल में प्रचलित मृत्युभोज, अनमेल विवाह, बालविवाह, नारी उत्पीड़न, पर्दा-प्रथा, शोषण और नशा-सेवन आदि, समाज को गरीबी और कष्टों में डालने वाली बुराइयों का भी खूब अनुभव किया था। इसलिए वे लोक-सेवा का मार्ग पकड़ते ही सन् 1908 से इनके विरोध में प्रचार करते आ रहे थे। सन् 1942 में जाट विद्यालय संगरिया की रजत-जयन्ती के अवसर पर सार्वजनिक सभा में उन्होंने मृत्यु-भोज (औसर) पर कानूनी पाबन्दी लगाने का प्रस्ताव पारित करवा कर बीकानेर-सरकार को भेजा था जिसे सरकार ने स्वीकार कर राज्य में मृत्यु-भोज को कानून-विरूद्ध ठहराया था। ‘‘मरूभूमि सेवा कार्य’’ के स्कूलों में भी इन बुराइयों के विरूद्ध प्रचार किया जाता था। सन् 1967 में स्वामी जी को श्रीगंगानगर जिला सर्वोदय मण्डल और जिला नशाबन्दी समिति का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने प्रचारार्थ एक इश्तिहार में लिखा, ‘‘हम इतिहास-प्रसिद्ध सर्वखाप पंचायत का सातवां अधिवेशन संगरिया में बुलाकर विवाह-प्रथा में सुधार करना चाहते हैं, दहेज की कुप्रथा को मिटाकर विवाहों में पांच बाराती ले जाने और दान में एक रूपया और नारियल देने की प्रथा चलाना चाहते हैं। विवाहों में फिजूल-खर्ची का रूपया बचाकर बच्चों की, विशेषकर कन्याओं की शिक्षा में लगाना चाहते हैं। इसके अलावा इस क्षेत्र में शराब और तमाखू के दुर्व्यसनों को हटाने तथा आपसी झगड़ों का निपटारा कराने के लिये ग्रामीण लोगों के थाना-कचहरियों में जाने के विरुद्ध प्रचार करना और पंच फैसलों के द्वारा झगड़े निपटाने के पक्ष में जनमत बनाना चाहते हैं।’’ उन्होंने इस आशय के बड़े-बड़े चार्ट भी बनवाकर इलाके में गाँवों की दीवारों पर लगवाये।

सांप्रदायिक सदभाव

सच्चा साधु होने के नाते स्वामी जी किसी सम्प्रदाय विशेष से न जुड़कर मानव-मात्र के कल्याण के लिए कार्यरत थे। उन्होंने ‘‘जाट विद्यालय’’ का नाम बदलकर ‘‘ग्रामोत्थान विद्यापीठ’’ रखवाया। उनकी संस्थाओं में सभी जातियों के छात्र बिना भेद-भाव, किसी प्रकार की छूआ-छूत न मानते हुए, शिक्षा ग्रहण करते थे। छात्रावासों में भी वे साथ-साथ रहते और एक ही भोजनालय में भोजन करते थे। हरिजन छात्रों को सन् 1952 से भोजन व्यय के लिए छात्रवृति मिलने लगी थी। सन् 1954 में यह सरकारी नियम बन गया कि अनुसूचित जाति के छात्रों को छात्रवृति तभी दी जावेगी, जब उन्हें अलग छात्रावास में रखा जावेगा। स्वामी जी ने इस नियम का सरकार से विरोध किया कि इस प्रकार तो सरकार छूआ-छूत को मिटाने की बजाय बढ़ावा दे रही है, परन्तु उक्त नियम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उन छात्रों के हित को देखते हुए स्वामी जी ने ‘‘सरस्वती आश्रम’’ नाम का भवन अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए दे दिया। उदासी साधु होने के नाते अपने गुरु-ऋण से मुक्त होने के लिए उन्होंने सिख गुरुओं की कल्याणमयी वाणी और सिखों के शौर्य और बलिदान की कहानी हिन्दी-भाषी समाज तक पहुंचाने के उद्देश्य से हिन्दी में एक 700 पृष्ठों के वृहद् सिख इतिहास को जाट इतिहास के सुविख्यात लेखक ठाकुर देशराज से लिखवाकर प्रकाशित कराया। उन्होंने बिश्नोई मत के प्रवर्तक गुरू जम्भेश्वर जी की जीवनी, महर्षि सुकरात, मार्टिन लूथर, महात्मा मेजिनी और महात्मा शेखसादी की जीवनियाँ भी प्रकाशित कराईं। स्वामी जी के निमंत्रण पर नामधारी सिखों के गुरु जगजीत सिंह, जैन मुनि आचार्य तुलसी, जगन्नाथ पुरी के शंकराचार्य, राजस्थान के मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खां और हरिजनों के मसीहा बाबू जगजीवनराम समय-समय पर ग्रामोत्थान विद्यापीठ में पधारे। वास्तव में स्वामी केशवानन्द साम्प्रदायिक सद्भाव की जीती जागती तस्वीर थे।

स्वामी केशवानन्द : एक निराला शिक्षा-संत

लेखक : प्रो. हनुमानाराम ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान, का लेख देखें - स्वामी केशवानन्द : एक निराला शिक्षा-संत



फ़र्श से अर्श तक पहुंचने वालों के कई किस्से सुने हैं। पर यह किस्सा एक ऐसी शख्सियत का है, जिसे पैर टिकाने के लिए अपना कोई टिकाऊ फ़र्श नसीब नहीं हुआ। आज यहां तो कल वहां। यह किस्सा एक ऐसे यायावर का है जिसने कष्टों के कांटों से जूझते हुए एक विशाल इलाके को शिक्षा से रोशन कर नव-जागरण की ज्वाला प्रज्ज्वलित की और अपने कर्मनिष्ठ जीवन से लोकप्रियता के आकाश पर धूमकेतु की तरह छाया रहा। यह किस्सा बेहद रोमांचक है। ट्विस्ट इसमें कई हैं। तूफ़ान से दिए की लौ की लड़ाई जैसा किस्सा है यह। दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर एक चरवाहे का साधु बनना और फिर अपना समूचा जीवन राष्ट्रसेवा, जनसेवा एवं ज्ञानदान में झोंक देना -- यह है स्वामी केशवानन्द का चंद शब्दों में समाहित जीवन चरित।

गुण, कर्म और स्वभाव , इन तीनों से केशवानन्द संत शिरोमणि थे। इस महान शिक्षा-संत, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक, कला- मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ, निष्काम कर्मयोगी जनसेवक का जन्म दिसम्बर 1883 में सीकर जिले के लक्ष्मणगढ़ तहसील के गांव मंगलूणा में हुआ। असल नाम था बीरमा। पिता का नाम ठाकर सी ढाका तथा माँ का नाम था- सारां। पिता ऊँट- गाड़े से परिवहन का काम करके परिवार का पालन-पोषण करते थे।

कष्टों से भरा बचपन बीरमा के जन्म के कुछ समय पश्चात उसके पिता जी मंगलूणा गांव छोड़कर रतनगढ़ ( जिला- चूरू) में एक माली गोत्र के जाट से धर्म भाई बनकर वहां रहने लगे। लगभग सात साल की उम्र में बीरमा पर क़िस्मत का क़हर ऐसा बरपा कि उसके पिता दुर्घटनावश काल के ग्रास बन गए। बालक की दुखियारी मां मंगलूणा गांव लौट आने और फिर वहां से एक गांव से दूसरे गांव पलायन करने को विवश हो गई। बाल्यावस्था में बीरमा गाय-बछड़े चराने लगा। सन 1897 में माँ और बेटा हनुमानगढ़ जिले के केलनियाँ गांव पहुंचे और वहाँ रहने लगे। दुर्भाग्य के दानव ने इस बालक पर यहाँ ऐसी बेरहमी से प्रहार किया कि उससे उसकी माँ का आँचल भी छीन लिया। सन 1899 में माँ के देहान्त के बाद बीरमा अनाथ हो गया। दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर। परन्तु हालात से हारकर बैठ जाना और क़िस्मत को कोसते रहना बीरमा को मंजूर नहीं था।

बीरमा से केशवानन्द बनने की कहानी सन 1899 (सवंत1956 जो 'छपनिया काल' के नाम से कुख्यात है) में पड़े भीषण अकाल की मार से त्रस्त 16 साल का बालक बीरमा खानाबदोश की हालत में भटकता हुआ रेगिस्तानी इलाके से फिरोजपुर ( पंजाब) पहुंचा और वहाँ अनाथालय में आश्रय प्राप्त किया। संस्कृत पढ़ने की इच्छा हावी होने पर वहां से पैदल चलकर भटिंडा, अबोहर होते हुए सन 1904 में साधु आश्रम, फाजिल्का जा पहुंचा। डेरे के साधुओं ने बीरमा की जाति पूछकर यह कहा: 'तुम जाट हो; जाट को कौन संस्कृत पढ़ाता है?' मालूम हो कि उस जमाने में संस्कृत पढ़ने का अधिकार सिर्फ़ ब्राह्मण जाति को था। धुन का पक्का बालक बीरमा हार मानने वाला नहीं था। उसने आश्रम में उदासी संप्रदाय के महंत कुशलदास से अनुनय-विनय की तो उन्होंने बीरमा को एक युक्ति सुझाते हुए साधु बनने की सलाह दी ताकि वह संस्कृत सीखने का पात्र बन सके। इस सलाह को शिरोधार्य करते हुए बीरमा ने साधुत्व धारण कर लिया और उदासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर महंत कुशलदास का शिष्य बन गया।

स्वामी जी के शब्दों में : 'भाग्य का ऐसा झोंका आया कि सूखे पत्ते की तरह उड़कर संवत 1961( सन 1904 ) में फाजिल्का (पंजाब ) में जा कर पांव जमे।' साधु आश्रम, फाजिल्का में बीरमा ने संस्कृत, हिन्दी व गुरुमुखी सीख ली। कुशाग्र बुद्धि के बल पर बीरमा गुरुग्रन्थ-साहब का पारंगत पाठी बन गया। कुछ समय बाद वह देशाटन एवं संस्कृत के ग्रंथों का गहन अध्ययन कर विद्वता अर्जित करने हेतु पहले इलाहाबाद और फिर काशी होते हुए प्रयाग पहुंचा।

सन 1905 में प्रयाग में आयोजित कुंभ मेले में अवधूत हीरानन्द ने बीरमा के संस्कृत व हिंदी के शुद्ध उच्चारण से प्रसन्न होकर उसे केशवानन्द नाम दे दिया। विदित हो कि अवधूत अखाड़े में पूर्व में केशवानन्द नाम के एक विद्वान हुए थे, जो अपने शुद्ध उच्चारण के लिए सुविख्यात थे। वहाँ से फाजिल्का लौट कर उन्होंने गहन ज्ञानार्जन हेतु हरिद्वार, अमृतसर , क्वेटा व सिन्ध की यात्राएं की।

"...यूं तो हमारे देश में गेरुवां कपड़े पहने लाखों साधु-संन्यासी हैं। समझा यह जाता है कि सब कर्मों का नाश करना ही सन्यास है। कुछ नहीं करना और समाज में भार बने रहना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। सन्यासी को समाज से कम से कम लेना और अधिक से अधिक देना चाहिए ,ऐसे कर्म योगी को मैं नमन करता हूं।" सेठ रामगोपाल मोहता द्वारा स्वामी जी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहे गए ये शब्द एक सच्चे साधु के जीवन को परिभाषित करते हैं। आडम्बर और पाखण्ड से कोसों दूर स्वामी जी ने साधुत्व के सारतत्व को आत्मसात किया। कबीर के इस दोहे के निहितार्थ को उन्होंने गहराई से समझा और जीवन में उसका अनुसरण किया। 'साधु ऐसा चाहिए ,जैसा सूप सुभाय सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।'

श्रेष्ठ राष्ट्रसेवक व जनसेवक महंत कुशलदास अपने शिष्य केशवानन्द की कर्तव्य- परायणता, सेवा-भावना, सच्चरित्रता और योग्यता से इस हद तक प्रभावित थे कि उन्होंने फाजिल्का स्थित डेरे की रजिस्ट्री साधु केशवानन्द के नाम करवाकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। सन 1908 में उत्तराधिकारी के रूप में गुरु-गद्दी पर आसीन होकर स्वामी जी ने अपनी शक्ति और संसाधनों का सदुपयोग शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा जनहितकारी कार्यों में करना प्रारंभ किया। शिक्षा को मानव-कल्याण और समाजोत्थान का प्रमुख साधन स्वीकारते हुए स्वामी जी ने ज्ञानदान और जनसेवा को अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।

साधुत्व धारण करने के बाद स्वामी जी पर गुरु नानक और उदासीन संप्रदाय के संस्थापक श्रीचन्द जी महाराज के उपदेशों का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके साथ ही स्वामी दयानंद से प्रभावित होकर उन्होंने समाज सुधार की दिशा में कई रचनात्मक काम किए। स्वामी जी की कार्यशैली तथा मनोवृत्ति नितान्त आधुनिक थी। उनका दिमाग सिर्फ़ तर्क की राह पर चलता था। अपार कार्य-शक्ति से संपन्न दृढ़व्रती स्वामी जी स्पष्टवादी, सद्व्यावहारिक और सत्यवादी सज्जन पुरुष थे। डेरे की गद्दी पर काबिज़ रहकर कर्मकांडी जीवनयापन करना, आडम्बर को बढ़ावा देना, मठाधीश बने रहकर भक्तजनों की जमात खड़ी करना, दर्शनार्थियों से चरण- स्पर्श करवाना, उन्हें आशीष देना--ये सब स्वामी जी के स्वभाव में नहीं था। स्वामी जी ने एक त्यागी साधु का परिचय देते हुए सन 1916 में साधु-आश्रम, फाजिल्का की महंत की गद्दी अपने गुरुभाई श्यामदास को सौंपकर ख़ुद को देश-सेवा व जनसेवा के प्रति अर्पित कर दिया।

स्वतंत्रता सेनानी आज़ादी के दीवाने स्वामी केशवानंद का नाम उन गिने-चुने साधुओं में सम्मिलित है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया। सन 1919 में घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें झकझोर दिया। महात्मा गांधी की अगुवाई में चल रहे स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए वे कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में स्वतंत्रता प्राप्ति तक शिरकत करते रहे।

आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण स्वामी जी को दो बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। पहली बार, सन 1921में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया। पुलिस द्वारा उन पर अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जनता में भावनाएं भड़काने का आरोप लगाया गया। मजिस्ट्रेट ने स्वामी जी से पूछा कि क्या वे माफी मांग कर छूटना चाहेंगे ? इस पर स्वामी जी का सहज उत्तर था; 'यदि मुझे बिना माफी मांगे भी छोड़ दिया जाए तो भी मैं पुनः आंदोलन में ही शामिल होऊंगा।' इस पर उन्हें फ़िरोज़पुर जेल में दो वर्ष की जेल की सजा भुगतनी पड़ी। गांधी जी के आह्वान पर स्वामी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और खादी अपनाने की प्रतिज्ञा ली।

स्वामी जी को कांग्रेस द्वारा सन 1930 में फिरोजपुर जिले में आजादी के आंदोलन को गति देने का प्रभार सौंपा गया। वे इलाके में अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ धुंआधार प्रचार करने लगे। उसी वर्ष सत्याग्रह संग्राम और सविनय आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें दूसरी बार गिरफ्तार कर मुल्तान की कुख्यात न्यू सेंट्रल जेल व लाहौर जेल में एक साल से अधिक समय तक कैद रखा गया। देश आज़ाद होने के बाद स्वामी जी ने स्वतंत्रता सेनानी को देय भत्ते/ पेंशन की कोई मांग नहीं की और न ही किसी ताम्रपत्र की चाह रखी।

शिक्षा-जगत को अतुल्य योगदान स्वामी केशवानन्द ने 'गांव जगे, देश जगे' मुहिम को परवान पर चढ़ाने के लिए अज्ञान के अंधेरे में डूबे गांवों में ज्ञान का उजाला फैलाने का काम इन तीन संस्थाओं के ज़रिए किया:

1.वेदान्त पुष्पवाटिका सन 1911 में स्वामी जी ने साधु आश्रम ( गुरु डेरा ), फाजिल्का में वेदान्त पुष्पवाटिका नाम से पुस्तकालय स्थापित कर सन 1912 में वहीं पर प्रथम संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। वे मानते थे कि समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और रूढ़ियों के नाश के लिए आधुनिक ज्ञान से युक्त साहित्य आमजन तक हिंदी भाषा में पहुंचना जरूरी है। वे खुद हिंदी भाषा में लिखित लोकोपयोगी पुस्तकों की गठरी बांध कर आस-पास के गाँवों में ले जाते और पढ़े-लिखे लोगों को उन पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।

2. साहित्य- सदन सन 1924-25 में स्वामी जी ने अबोहर ( जिला-फ़िरोजपुर ) में साहित्य- सदन की स्थापना कर पंजाब में हिन्दी के प्रचार -प्रसार का बीड़ा उठाया। यहाँ दस हज़ार पुस्तकों से समृद्ध पुस्तकालय की स्थापना करने एवं समाचारपत्रों से सुसज्जित सर्व सुलभ वाचनालय शुरू करने का अनूठा कार्य कर दिखाया। सन 1925 से 1933 तक कि अवधि में उन्होंने अबोहर तहसील में हिंदी अध्ययन हेतु विद्यालयों की स्थापना के अलावा श्रीगंगानगर, मुख़्तसर, डबवाली, सिरसा, ऐलनाबाद में पुस्तकालयों व वाचनालयों की स्थापना की। गांवों में ज्ञान-ज्योति पहुंचाने हेतु स्वामी जी ने साहित्य- सदन पुस्तकालय के अंतर्गत एक चलता- फिरता पुस्तकालय सन 1932 में शुरू किया।

3. ग्रामोत्थान विद्यापीठ सन 1932 से स्वामी जी के कर्तव्यनिष्ठ जीवन की कर्मभूमि बना राजस्थान, पंजाब और हरियाणा की सीमा पर बसा हुआ कस्बा संगरिया, जो कि उस समय एक छोटा- सा गांव था। यहां उन्होंने चौधरी बहादुर सिंह भोबिया द्वारा 9 अगस्त 1917 को स्थापित और चौधरी हरिश्चंद्र नैण के संरक्षण में तत्समय संचालित 'जाट एंग्लो संस्कृत मिडिल स्कूल' के संचालन की बागडोर शिक्षा-अनुरागी महानुभावों के आग्रह पर संभाली। स्वामी जी ने इस संस्था का कायापलट करने के उद्देश्य से काया-पलट नामक एक विज्ञापन प्रकाशित करवाकर जनता से धनराशि संग्रह करने का अभियान चलाया। चौधरी घेरूराम ज्याणी (कटेड़ा) ने आरोग्य मंदिर नामक भव्य इमारत का निर्माण करवा दिया। चौ. कानाराम ढाका ने साहित्य मंदिर का निर्माण करवाया। जनता से प्राप्त आर्थिक सहयोग से स्कूल के जीर्णोद्धार का सिलसिला शुरू हो गया। स्कूल के नाम पर पहले से बने हुए पांच कच्चे कोठों की जगह पक्की नई इमारत बनवाने के साथ-साथ सरस्वती मंदिर, व्यायामशाला, वाचनालय, औषधालय, रसायनशाला आदि इमारतों का सलीक़े से निर्माण करवाया गया। दो बीघा ग्यारह बिस्वा जमीन और ख़रीद कर स्कूल परिसर का विस्तार किया गया। पानी की विकट समस्या के समाधान हेतु वर्षा-जल के भंडारण के लिए कुण्डों का निर्माण करवाया गया। डिग्गियां, स्नानघर आदि बनवाए गए। जतन से पानी की एक-एक बूंद संचित कर स्कूल परिसर के रेतीले धोरों पर पेड़-पौधे लगाए गए। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि इस इलाके में भाखड़ा नहर का पानी सन 1955 में आने के बाद ही इलाक़े को पानी की क़िल्लत से निज़ात मिल सकी।

सन 1938 में इस संस्था में म्यूजियम( संग्रहालय ) की विधिवत स्थापना 'सांस्कृतिक संग्रहालय' के नाम से की गई, जिसमें कीमती दुर्लभ दस्तावेज, पेंटिग्स, प्राचीन कलाकृतियां दूर-दराज़ के क्षेत्रों से लाकर यहाँ संग्रहित की गईं। सन 1956 में इस संग्रहालय का नामकरण 'सर छोटूराम स्मारक कलात्मक संग्रहालय' किया गया। सांसद रहने के दौरान स्वामी जी को जो भत्ता मिला, उसे उन्होंने विद्यापीठ के संग्रहालय के विस्तार में व्यय कर दिया। यह स्वामी जी का कला के प्रति अगाध प्रेम का द्योतक है।

स्वामी जी के प्रयासों से 13-14 सितंबर 1942 को जाट स्कूल, संगरिया का रजत जयंती महोत्सव मनाया गया, जिसमें सर छोटूराम और श्री के. एम. पन्निकर ने शिरकत की। इस अवसर पर प्रस्तुत 25 वर्षीय कार्य रिपोर्ट में उल्लेख है कि सन 1917 से सन 1942 तक इस संस्था में 2508 विद्यार्थियों ने शिक्षा प्राप्त की जिसमें से 1656 विद्यार्थी छात्रावास में रहे।

स्वामी जी की अनवरत साधना और कर्मठता का ही सुफल था कि यह संस्था उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रही। सन 1943 तक विद्यार्थी- आश्रम, छात्रावास, सभाभवन, गोशाला-भवन, पांच अध्यापक निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और वर्षाजल के संग्रहण हेतु बड़े कुण्ड का निर्माण करवाया जा चुका था। स्वामी जी के प्रयास से इस मिडल स्कूल की सन 1943 में हाईस्कूल के रूप में क्रमोन्नति हो सकी। सन 1948 तक इस संस्था में संगीत व आयुर्वेद -शिक्षा के साथ-साथ वस्त्र -निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला, धातु -कर्म आदि उद्योगों का प्रशिक्षण प्रदान करना प्रारंभ कर दिया गया था।

नवंबर- दिसंबर 1948 में इस शिक्षा संस्था का नाम स्वामी जी ने ग्रामोत्थान विद्यापीठ रखकर इसे उत्तर भारत की एक प्रगतिशील संस्था के रूप में रूपांतरित कर यह दिखा दिया कि मन में हो संकल्प तो कुछ काम नहीं है मुश्किल। विद्यापीठ के माध्यम से स्वामी जी ने राजस्थान, पंजाब और हरियाणा --इन तीन राज्यों में शिक्षा और जनजागृति के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया।

दूर-दराज़ के गांवों में शिक्षादान स्वामी जी जानते थे कि जब तक गांवों में शिक्षा-प्रसार नहीं होगा तब तक देश उन्नत नहीं हो सकता। 'मरुभूमि सेवा कार्य' नाम से शिक्षा-प्रसार की एक विस्तृत योजना तैयार कर इसे गांवों में क्रियान्वित करने के लिए स्वामी जी ने देहात से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ताओं का सहयोग लिया, जिसमें प्रमुख थे: चौ. कुम्भाराम आर्य, चौ. दौलत राम सारण, चौ. हंसराज आर्य, लोक कवि सरदार हरदत्त सिंह भादू, चौ. रिक्ताराम तरड़, व्यायामाचार्य श्री रामलाल काजला और श्री लालचंद पूनिया। इस परियोजना का हैड ऑफिस ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया में ही रखा गया। सन 1944 से 1959 तक की अवधि में 'त्रैमासिक शिक्षा योजना', 'ग्रामोत्थान पाठशाला योजना' और 'समाज शिक्षा योजना' के अंतर्गत मरुभूमि के विभिन्न गांवों में 287 स्कूल खोलकर उनका संचालन किया। ( स्कूलों की सूची श्री गोविंद चौधरी से साभार प्राप्त ) ग्रामीण इलाकों में स्कूल खोलने में स्वामी जी को ग्रामवासियों तथा मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, कलकत्ता का भरपूर सहयोग मिला। इन ग्राम शालाओं में बच्चों की शिक्षा के अलावा प्रौढ़-शिक्षा, दलितोद्धार और प्राथमिक चिकित्सा के काम भी होते थे।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ के अधीन मरुभूमि के गांवों में खोली गई 287 पाठशालाओं को 1 नवम्बर 1956 को राज्य सरकार को सौंपने तक स्वामी जी स्वयं इन पाठशालाओं का निरीक्षण करते रहते थे। चौधरी दौलतराम सारण ( राजस्थान के कद्दावर किसान नेता एवं पूर्व केंद्रीय शहरी विकास मंत्री ) ने इन पाठशालाओं की समुचित देखरेख का जिम्मा बख़ूबी निभाया।

स्वामी जी ने शिक्षा-दान का महान कार्य उन दुर्गम इलाकों में किया जहां आवागमन के मार्गों व यातायात के साधनों का अभाव था। हालात इतने भयावह कि दूर- दूर तक पानी सुलभ नहीं होता था। मार्गों की दुर्गमता, बस्तियों की निर्जनता, अज्ञानता के अंधेरे और पानी की क़िल्लत से बागड़ का समूचा इलाका शहरों से अलग-थलग तिरस्कृत रूप में पड़ा था। कुछ नगरों में वहां के दानवीर सेठों की उदारता से कुछ स्कूल संचालित हो रहे थे, लेकिन देहात में हर तरफ़ अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ था। स्वामी जी की प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं सक्रिय सहयोग से मरुभूमि में जो स्कूल और हॉस्टल खुले, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है : ◆विद्यार्थी भवन, रतनगढ, जिला-चूरू ( 13-14 अप्रेल 1946 को शिलान्यास ) ◆ विद्यार्थी आश्रम, राजगढ़, जिला- चूरू ( स्थापना 9 सितम्बर 1947 ) ◆ किसान बोर्डिंग हाउस, बीकानेर ( 24 मई 1947 को छात्रावास का उद्घाटन एवं सन 1948 में प्राथमिक पाठशाला की शुरुआत ) ◆ खीचिवाला ग्रामोदय विद्यापीठ ( शिक्षा सदन, खीचिवाला) स्थापना 9 नवम्बर 1947 ◆ ग्राम छात्रावास, भादरा ( 20 अगस्त 1925 को भादरा में जाट बोर्डिंग हाउस नाम से स्थापित इस संस्था का नामकरण 28 मार्च 1949 को स्वामी जी के प्रस्तावानुसार ग्राम छात्रावास रख कर इसे नवजीवन प्रदान किया गया।) ◆ कस्तूरबा ग्रामोत्थान महिला विद्यापीठ, महाजन ( स्थापना सन 1951में, भवन निर्माण सन 1955) ◆ ग्रामोत्थान छात्रावास, श्री गंगानगर ◆ ग्रामोत्थान छात्रावास, सूरतगढ़ ( 2 अक्टूबर 1955 को आधारशिला रखी गई ।)

जीवन की प्रतिकूलताओं के कारण स्वामी जी को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। इस मलाल को महसूस करते हुए उन्होंने अपने जीवन- काल में विभिन्न स्थानों पर लगभग 300 स्कूल, 50 हॉस्टल मय स्कूल,अनेक पुस्तकालय एवं 58 समाज सेवा केंद्र स्थापित कर तमाम उम्र शिक्षा का उजियारा फैलाने और समाज- सुधार के काम में निष्ठा से लगे रहे। प्रो. ब्रजनारायण कौशिक ने स्वामी जी की शिक्षा- प्रसार की अनूठी परियोजनाओं के महत्त्व को समझ कर उन्हें शिक्षा-संत की संज्ञा देते हुए उनकी जीवनी 'शिक्षा-संत स्वामी केशवानंद' शीर्षक से सन 1968 में प्रकाशित की, जो कि उनके जीवन और योगदान पर लिखी गई प्रथम पुस्तक थी।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया एवं उसके तहत संचालित सभी संस्थाओं का अपने-अपने इलाके में ग्रामीण परिवेश की प्रतिभाओं को संवारने- निखारने में विशेष योगदान रहा है। इनमें शिक्षा प्राप्त अनेक विद्यार्थियों ने राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रशासनिक सेवाओं के विभिन्न पदों को सुशोभित किया है। अनगिनत विद्यार्थी ऐसे हैं, जिन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाओं में प्रख्यात शिक्षाविदों के रूप में अपनी ख़ास पहचान कायम की है। अनेक विद्यार्थी ऐसे भी हैं जिन्होंने सफल लेखक, पत्रकार, उद्यमी, अधिवक्ता, शिल्पकार एवं कलाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है।

शिक्षा और चिकित्सा का समन्वय स्वामी जी गांवों की समस्याओं से भली-भांति परिचित थे। वे जानते थे कि गांवों में लोग कच्चे तालाब/जोहड़ों का गंदा पानी पीने के लिए मजबूर होने के कारण नहरूआ रोग से ग्रसित होते रहते हैं। रोगियों की तात्कालिक चिकित्सा के लिए गांवों में जो अध्यापक कार्यकर्ता हैं, उन्हें आयुर्वेद का भी ज्ञान होना चाहिए ताकि वे देहात में शिक्षा के साथ-साथ आरोग्य का उजाला भी फैला सकें। अतः स्वामी जी ने 'वैद्य ही अध्यापक, अध्यापक ही वैद्य' की निराली नीति पर काम करते हुए संगरिया में आयुर्वेद विद्यालय खोला। गांवों में रोग से उत्पन्न विपत्ति को ध्यान में रखते हुए स्वामी जी ने सन 1945 में अनुभवी वैद्यों का 'अखिल राजस्थान वैद्य सम्मेलन' आयोजित कर उसमें नहरूआ रोग के कारण व उसकी चिकित्सा आदि पर विचार-विमर्श किया तथा इस रोग से बचाव व उपचार से संबंधित निष्कर्षों पर जनोपयोगी साहित्य प्रकाशित करवाया।

स्त्री-शिक्षा के प्रसार में योगदान स्वामी जी का मानना था कि समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं : एक पुरुष तथा दूसरा स्त्री। जब तक यह दोनों पहिए समान रुप से साथ- साथ नहीं चलेंगे तब तक यह गाड़ी सही तरीके से आगे नहीं बढ़ सकती। महिला- शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए स्वामी जी ने 1950 में विद्यापीठ में महिला आश्रम स्थापित कर कन्या प्राइमरी स्कूल खोली। ग्रामोत्थान विद्यापीठ के महिला आश्रम की स्थापना में सावित्री देवी का विशेष योगदान रहा। मालूम हो कि सावित्री देवी पंजाब के अबोहर जिले के गांव सिवाना में एक किसान परिवार की बाल विधवा बहू थी। वैधव्य काल में उन्होंने जालंधर में दयानन्द आर्य वैदिक कन्या विद्यालय में सन 1922 -23 के लगभग पढ़ाई की थी।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ में महिला-शिक्षा की शुरुआत करने हेतु महिला आश्रम स्थापित करने की धुन स्वामीजी के दिमाग में काफी समय से सवार थी। दिक़्क़त बस यह थी कि उन्हें कोई कुशल अध्यापिका नहीं मिल रही थी। स्वामी जी के हठ करने पर सावित्री देवी अपनी अस्वस्थता के बावज़ूद सन 1950 में संगरिया आ गईं और वहां विद्यापीठ में स्थापित महिला आश्रम में अध्यापन व उसका संचालन निष्ठापूर्वक करने लगी।

सन 1954 में महिला आश्रम को मिडिल स्कूल तथा 1957 में इसे हाई स्कूल में क्रमोन्नत किया गया। कालांतर में इसे गृह विज्ञान तथा कला महाविद्यालय के स्तर पर क्रमोन्नत किया गया।

विद्यापीठ में महिलाओं के लिए संगीत, सिलाई, कताई, कशीदाकारी, गुलकारी, रसोई का काम-- ये सभी विषय महिला शिक्षा में शामिल किए गए। महिला आश्रम का पृथक से पुस्तकालय और संग्रहालय भी बनाया गया। स्कूल व कॉलेज के भव्य भवनों के अलावा यहाँ पांच छात्रावास भी बने हुए हैं ,जिसमें लगभग एक हज़ार छात्राओं के निवास की क्षमता है। कृतज्ञ संस्था ने एक छात्रावास का नामकरण 'सावित्री छात्रावास' कर सन 1966 में इसका उद्घाटन किया।

प्रगतिशील एवं विशाल संस्था ग्रामोत्थान विद्यापीठ में विद्यार्थियों को बिना किसी जात-पात व पंथ के भेदभाव के प्रवेश दिया जाता था। सभी जातियों के छात्र छुआछूत की सामाजिक बुराई से मुक्त रहते हुए छात्रावास में एक साथ रहते थे तथा एक साथ भोजन करते थे। सरकार ने सन 1954 में अनुसूचित व जन जातियों के छात्रावासियों को भोजन-व्यय के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिए यह शर्त तय कर दी कि इन जातियों के छात्रों का सामूहिक रूप में छात्रावास में रहना जरूरी है। इसलिए स्वामी जी ने सन 1955 में 'सरस्वती आश्रम' नामक भवन अनुसूचित जाति के छात्रों को छात्रावास के रूप में आवंटित कर दिया।

सन 1955 में विद्यापीठ में इंजीनियरिंग विभाग एवं कृषि संकाय खोल कर इसे बहु-उद्दयेशीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल का दर्जा दिया गया। सन 1956 में अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए बीकानेर संभाग का पहला शिक्षक प्रशिक्षण स्कूल ( एस.टी.सी.) इस संस्था में प्रारंभ किया गया। सन 1962 में विद्यापीठ में कृषि महाविद्यालय की शुरुआत की गई जो कि वर्तमान में स्वामी केशवानंद कृषि महाविद्यालय, संगरिया के नाम से संचालित है। बता दें कि कृषि महाविद्यालय के अधीन 300 एकड़ भूमि पर कृषि फ़ार्म विकसित किया गया। इससे खेती-बाड़ी के उच्च शिक्षण के साथ-साथ पशु -पालन, पशु- नस्ल संवर्धन, दुग्ध-उत्पादन आदि की शिक्षा सुलभ होने से इलाके को बहुत लाभ मिला है। सन 1965 में इस संस्था में शिक्षा महाविद्यालय खोला गया। विद्यापीठ में संचालित हो रहे कृषि महाविद्यालय को सन 1968 में बहुत संकायी ( कला एवं विज्ञान ) दर्जा दे दिया गया।

स्वामी जी ने सन् 1932 से अपने जीवन के लगभग 40 वर्षों तक कर्मसाधन करते हुए एक ग्रामीण मिडिल स्कूल को हाई स्कूल व बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के रूप में परिणित करने के बाद इसे बहु संकायी महाविद्यालय स्तर तक क्रमोन्नत करवाकर रेगिस्तान में ज्ञान-गंगा प्रवाहित कर दी। स्वामी जी का यह बेमिसाल योगदान है।

विद्यापीठ में आर्थिक दृष्टि से कमजोर छात्र 'स्वयं कमाओ और विद्याभ्यास करो' की नीति का पालन करते हुए विद्यालय की शिल्पशाला में अपने लिए कमाते हुए स्वावलंबी जीवन यापन करते थे। स्वामी जी ने विद्यापीठ में बुनाई, रंगाई, छपाई, जिल्दसाजी, बढ़ईगिरी, दर्जीगिरी और सामान्य इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम संचालित कर विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा ( vocational education ) सुलभ करवाई। विद्यापीठ में स्थित चिकित्सालय, मुद्रणालय, शिल्प भवन, व्यायाम शाला, कौतूकागार तथा विद्यार्थियों के लिए व्यायाम व क्रीडा के मैदान आदि स्वामी जी के व्यापक सोच को प्रकट करते हैं। विद्यापीठ के पुस्तकालय में विभिन्न भाषाओं की दुर्लभ पुस्तकों का अद्वितीय संग्रह है। अन्वेषकों व विद्वानों के लिए स्वामी जी द्वारा स्थापित यह वृहद पुस्तकालय ज्ञानार्जन का केन्द्र है।

स्वामी जी की छत्रछाया में पल्लवित एवं पुष्पित ग्रामोत्थान विद्यापीठ को देखकर दर्शकों के दिल में स्वामी जी के प्रति उतनी ही श्रद्धा जागृत होती है, जितनी रविंद्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन, श्री मदन मोहन मालवीय के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, स्वामी श्रद्धानंद के गुरुकुल कांगड़ी को देखकर दर्शकों के दिलों में उन महान संस्थापकों के प्रति होती है। देहाती इलाके में समाज सुधार व जनहित के कार्य संपादित कर ग्रामीणों के आराध्य देव के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने वाले स्वामी जी के कार्य से अभिभूत होकर एक शिक्षाशास्त्री ने उनसे कहा कि अगर ऐसा कार्य उन्होंने संगरिया जैसे मामूली गांव की बजाय किसी अन्य नगर में किया होता तो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित होती। इस पर स्वामी जी का जवाब था : ' हां, बिजली के जलते हुए लट्टू के पास मिट्टी के दीपक का कोई महत्त्व नहीं। गांव की अंधेरी झोपड़ी में तो वह अवश्यमेव प्रकाश देगा। शहर में काम करने को तो हर कोई दौड़ता है लेकिन काम करने की असली जरूरत तो गांव में है।' ( स्वामी केशवानंद अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ 82)

संयुक्त पंजाब के फिरोजपुर, हिसार जिलों और बीकानेर रियासत तथा बहावलपुर ( अब पाकिस्तान ) इन चार इलाकों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार व जनहित के कार्यों की बदौलत स्वामी जी जन-जन की श्रद्धा के पात्र बने। बागड़ इलाके के लिए तो वे देवदूत तुल्य थे। ग्रामोत्थान विद्यापीठ में स्वामी जी के निमंत्रण पर पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, कृषि मंत्री डॉ रामसुभग सिंह, बाबू जगजीवन राम, आचार्य विनोबा भावे, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री श्री प्रताप सिंह कैरों, राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया आदि अनेक जन- नायक और महानुभाव इस संस्थान में पधारे, जिससे इस संस्था के साथ-साथ संगरिया को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अग्रणी भूमिका हिन्दी के व्यापक प्रचार- प्रसार के लिए स्वामी जी ने 1920 में अबोहर ( पंजाब ) में 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की, जिसका नामकरण सन 1924 में 'साहित्य सदन ,अबोहर' कर दिया गया। वहीं पर दीपक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित कर सन 1933 में हिंदी मासिक पत्रिका 'दीपक' का प्रकाशन कर हिंदी के पठन- पाठन को बढ़ावा दिया। साहित्य सदन में ही साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा और पंजाब विश्वविद्यालय की हिंदी से संबंधित परीक्षा- केंद्र स्थापित करवाए गए। इन परीक्षाओं में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होते थे। साहित्य सदन के अन्तर्गत इलाके के झूमियांवली, मौजगढ़, भंगरखेड़ा,पंचकोसी, रामगढ़, रोहिडांवाली, चुहड़ियाँवाला, बाजिदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला आदि 25 गांवों में हिंदी की प्राथमिक पाठशालाएं संचालित थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रबंध था।

साहित्य सदन, अबोहर में सन 1933 में नौवां पंजाब प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। सन 1941 में स्वामी जी ने यहाँ में 30 वां अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन आयोजित करवाया। प्रख्यात कवि सूर्यकांत निराला तीन दिन तक अबोहर में स्वामी जी के पास रुके। स्वामी जी द्वारा हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार हेतु प्रदत अतुलनीय योगदान का सम्मान करते हुए उन्हें साहित्य वाचस्पति पदवी प्रदान की गई। वे लंबे अरसे तक हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद के सदस्य रहे।

सिख इतिहास का हिन्दी में प्रकाशन उदासी सम्प्रदाय के साधु होने के नाते स्वामी जी के मन में गुरु-ऋण से उऋण होने की इच्छा बलवती थी। सिख गुरुओं के महान कार्य, उनकी सीख और सिखों के शौर्य व बलिदान की गाथाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए सिख इतिहास को हिंदी भाषा में लिखे जाने की योजना तैयार कर स्वामी जी ने सन 1935- 36 में खालसा कॉलेज, अमृतसर में इतिहास और धर्म -शिक्षा के लेक्चरर डॉ गंडासिंह से मुलाकात की। आग्रह उनसे यह किया कि वे सिख इतिहास को हिंदी भाषा में लिखने में इतिहासकार ठाकुर देशराज को अपना सहयोग प्रदान करें। डॉ गंडासिंह ने इस मुलाकात का स्मरण इन शब्दों में किया है : 'मैं इस भगवा वेश साधु में विशेषकर दक्षिणी पंजाब के ग्रामीण दलित लोगों के उत्थान के लिए असाधारण जोश देखकर चकित सा रह गया।'

स्वामी जी के ग्यारह वर्षों के अथक प्रयास के फलस्वरूप सन 1954 में सिख इतिहास का हिंदी में लगभग एक हज़ार पृष्ठों का एक प्रामाणिक ग्रंथ प्रकाशित हो सका। इस ग्रंथ से हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग सिख इतिहास और सिख गुरुओं की सीख से अवगत हो सके।

समाज सुधार एवं दलितोद्धार स्वामी जी की रेगिस्तान के ग्रामीण समाज के बारे में गहन समझ का पता उनकी पुस्तक 'मरुभूमि सेवा कार्य' से मिलता है। इस पुस्तक में उन्होंने मरुस्थलीय प्रदेश की ख़ासियतों का वर्णन करने के अतिरिक्त वहाँ की समस्याओं की पहचान कर उनके समाधान भी सुझाए हैं। स्वामी जी ने अस्पृश्यता, निरक्षरता, बालविवाह, अनमेल विवाह, नारी-उत्पीड़न, पर्दा-प्रथा, शोषण, ग़रीबी, पिछड़ापन, नशा-सेवन, नैतिक पतन आदि सामाजिक बुराइयों व रूढ़ियों के उन्मूलन हेतु जन चेतना जागृत करने का काम समर्पित भाव से किया।

सामाजिक सद्भाव और पारस्परिक समझ को पुख़्ता करने हेतु स्वामी जी सिख, बिश्नोई, नामधारी और जैन गुरुओं के सम्मान में उत्सव आयोजित करते रहते थे। उन्होंने विश्नोई मत के प्रवर्तक गुरु जंभेश्वर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष बोष, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, महात्मा मेजिनी और शेख सादी आदि की जीवनियाँ हिंदी में छपवाकर उनका जनसामान्य में वितरण किया। आधुनिक विचारों को आमजन तक पहुंचाने के लिए स्वामी जी ने 'विज्ञान के चमत्कार', 'तंबाकू के काले कारनामे', 'भले रहो, चंगे रहो', 'समाज- शिक्षा दर्पण'आदि कई पुस्तकें प्रकाशित करवा कर गांवों में वितरित करवाई।

स्वामी जी कहते थे,"मनुष्य भगवान से भी बड़ा है, उसे मत भूलो, न उसकी अवहेलना करो।" दलितोद्धार को वे वक़्त की जरूरत समझते थे। इस दिशा में कार्य करते हुए उन्होंने सन 1937 में बहावलपुर (अब पाकिस्तान में ) के चानण गांव में दलितों के लिए हरिजन पाठशाला की स्थापना की तथा उस गांव के खैरदीन मेहतर को धर्मपाल नाम देकर अपना निजी सहायक ( PA) बनाया। जात-पात के जहर पर प्रहार करते हुए स्वामी जी ने 23 दिसंबर 1946 को एक पत्र में लिखा: 'आज मनुष्य की कद्र नहीं रही। आज तो अपनी जाति का आदमी चाहिए, फिर चाहे वह कितना भी बुरा क्यों न हो, और दूसरी जाति का देवता भी उसे पसंद नहीं है।' दलितों में चेतना जागृत करने के उद्देश्य से 24 मई 1947 को संगरिया में आयोजित अखिल राजपुताना मेघवंशीय सम्मेलन की अध्यक्षता स्वामी जी ने की। बाबू जगजीवन राम ने स्वामी जी के दलितोद्धार कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहा था: 'दलित और उपेक्षित लोगों के प्रति इनके मन में करुणा और सहानुभूति है।' स्वामी जी सभी धर्मों व पंथों के अनुयायियों के श्रद्धा के पात्र थे। सन 1956 में स्वर्ण मंदिर, अमृतसर के स्वर्ण पत्रों के जीर्णोद्धार समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उन्हें आमंत्रित कर सम्मानित किया गया।

स्वामी जी कहते थे: "मैं किसी जाति विशेष का नहीं, धर्म या समुदाय को मानने वाला नहीं। मेरा शरीर इस देश की मिट्टी से बना है। इसी में पला-पोसा और बड़ा हुआ है। हमारा रास्ता साफ है। हम मुल्क के आदमी हैं। मुल्क के लिए जियेंगे। मुल्क के लिए मरेंगे।"

घुम्मकड़ साधु मनमौजी स्वभाव के स्वामी जी सारी उम्र एक जिज्ञासु सैलानी की भूमिका में रहे। हरिद्वार से रामेश्वर और पंजा साहब व पेशावर से प्रयाग तक सिख और हिंदुओं के सभी तीर्थ स्थलों की उन्होंने यात्रा की। विभिन्न तीर्थ- स्थानों, मंदिरों, मठों, शहरों, विश्वविद्यालयों, शिक्षा- संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों, संग्रहालयों, पुस्तकालयों, वनों,पर्वतों व दुर्गम इलाकों का अवलोकन कर उन्होंने देश का प्रत्यक्ष ज्ञान (फर्स्ट हैंड नॉलेज) अर्जित किया। शायद अनवरत भ्रमण ने ही स्वामी जी को जिंदगी का फ़लसफ़ा सिखाया। रूढ़िवादी सोच से मुक्त रहकर वे सत्य की खोज में तत्पर रहेते थे। उनकी विद्वता का स्रोत बोझिल शास्त्र नहीं अपितु उनका खुद का जीवन अनुभव था।

युगप्रवर्तक जनसेवा की साक्षात प्रतिमूर्ति, लोकेषणा और वित्तेषणा से मुक्त रहकर स्वामी जी ने गांवों में शिक्षा का उजाला फैलाने, जनसेवा और हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए की गई उनकी अनुपम सेवाओं का सम्मान करते हुए काँग्रेस पार्टी ने राजस्थान से उन्हें लगातार दो बार सन 1952 से 1958 एवं 1958 से 1964 तक संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा का सम्मानित सदस्य बनाकर उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की। स्वामी जी के जीवन के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया ने उन्हें 9 मार्च 1958 को श्री बनारसीदास चतुर्वेदी व ठाकुर देशराज द्वारा संपादित अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया।

फ़कीरी और कबीरी का जीवन जीने वाले यह महान शिक्षा संत, समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, कर्म योगी स्वामी केशवानन्द 13 सितंबर 1972 को 89 वर्ष की आयु में अपराह्न दो से तीन बजे के बीच दिल्ली के तालकटोरा चौराहे के फुटपाथ पर चलते-चलते बेहोश होकर गिर गए और इस दुनिया से महाप्रयाण कर गए। भारत सरकार ने उनके सम्मान में 15 अगस्त 1999 को डाक टिकट जारी किया।

स्वामी जी द्वारा स्थापित विभिन्न संस्थाएं शिक्षा के लिए किए गए उनके शौर्यपूर्ण प्रयासों का प्रमाण प्रस्तुत कर रही हैं। सच्चा त्याग, तपस्या, कठिन परिश्रम किसे कहते हैं, इसे जानने के लिए स्वामी जी के जीवन से बेहतर कोई मिसाल मिलना मुश्किल है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि प्रथमतः बीकानेर संभाग में शिक्षा का उजाला फ़ैलाने वाले इस शिक्षा-संत के नाम पर जिस विश्वविद्यालय का नामकरण होना चाहिए था, उसका नामकरण रियासत के उस महाराजा के नाम पर किया गया है, जिनका रियासत में शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में कोई ख़ास योगदान नहीं रहा है।

स्वामी जी कहते थे: "मैं कोई पूजा-पाठ नहीं करता। ईश्वर किस बला का नाम है मुझे नहीं मालूम। मैं सुबह उठते ही सोचता हूं कि मेरे सामने आज कौन-कौन से काम हैं, जिनके लिए मुझे आज ही जुटना पड़ेगा... काम करते रहने से शरीर कभी नहीं थकता। यदि मन थक जाता है तो शरीर अपने आप थक जाता है।" सत्यनिष्ठा, सादगी उच्च आचरण एवं निस्वार्थ समाज सेवा से ओतप्रोत उनका जीवन बेमिसाल है। साहित्य, समाज तथा ग्रामोत्थान की दिशा में स्वामी जी की सेवायें सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेंगी और वे आज के और भविष्य के समाजसेवियों के लिए प्रकाश-स्तंभ प्रमाणित होंगे। ( श्री प्रताप सिंह कैरों, पूर्व मुख्यमंत्री, पंजाब, के उद्गार )

राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रभाषा के नाम पर सिर्फ हंगामा खड़ा करने व शब्द-जाल गूँथने से राष्ट्रसेवा नहीं होती। इसके लिए स्वामी जी की तरह जीवन खपाना पड़ता है। सत्ता के मद में तांडव करने वालों को स्वामी जी खरी-खरी कहते थे : "पराक्रम किसी को सताने में नहीं , सताए हुओं को ऊपर उठाने में है। यदि तुम पराक्रम दिखाना चाहते हो तो यह सारी सृष्टि ही अभाव से पटी पड़ी है; इसको अपने पराक्रम से मुक्त करो। सत्ता सहयोग के लिए होती है, सताने के लिए नहीं।"

स्वामी जी ने अपने कर्मनिष्ठ जीवन एवं लोकचेतना के प्रसार सम्बन्धी कार्यों से विशाल भूभाग के जनसाधारण के दिलों में ख़ास जगह बनाई। शिक्षा, जनजागृति, समाज सुधार के क्षेत्रों में एक कर्मयोगी के रूप में तथा हिंदी के एक नैष्ठिक सेवक के रूप में उनका योगदान युगांतरकारी सिद्ध हुआ है। 'आप जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं, वह पत्थरों के स्मारकों पर अंकित नहीं बल्कि दूसरों के जीवन की यादों में बसा होता है।' पेरिकल्स का यह कथन स्वामी जी जैसे युगप्रवर्तक के योगदान के लिए एकदम सटीक एवं सार्थक है।

स्वामी केशवानन्द जी के जीवन का घटनाक्रम

स्वामी केशवानन्द जी के जीवन का वर्षवार घटनाक्रम यहाँ दिया गया है जो पुस्तक "स्वामी केशवानंद", लेखक - डॉ. डी. सी. सारण, प्रकाशक - किशनसिंह फौजदार: जयपाल एजेंसीज दहतोरा आगरा-7, सन् 1985, p.13-20 पर आधारित है।

  • 1883: पौष संवत 1940 में ठाकरसी और सारां देवी के घर बीरमा (स्वामीजी का बचपन का नाम) गाँव मगलूणा, जिला सीकर राजस्थान के ढाका परिवार में जन्म।
  • 1888: मगलूणा छोड़कर पिता के साथ रतनगढ़ शहर में माली मोहल्ले में ऊँट के सहारे जीवनयापन प्रारम्भ।
  • 1890: पिता की मृत्यु के कारण अपने गाँव मगलूणा वापस आये जहाँ गायें चराने लगे।
  • 1891: गायें चराते समय भेड़ियों से प्रत्यक्ष सामना।
  • 1892: मगलूणा छोड़कर अपनी माताजी कि मौसी के यहाँ हंसासर-हामूसर (रतनगढ़) रहकर गायें चराने लगे।
  • 1898: अन्न के अभाव में खेजड़ी पेड़ की छाल, पशुओं की खल और भरूट घास पर जिन्दा रहे।
  • 1899: एक मात्र सहारा माता सारां के निधन के बाद अनजान रास्तों पर उत्तर की तरफ निकले।
  • 1899-1903: भटकाव और फिरोजपुर अनाथालय में हिंदी और संस्कृत का प्रारंभिक ज्ञान प्राप्त किया।
  • 1904: (संवत 1961) फाजिल्का में उदासी साधू स्वामी कुशलदास का संस्कृत अध्ययन हेतु शिष्यतव ग्रहण किया। इसी वर्ष स्वामी जी ने अख़बार पढ़ना प्रारम्भ किया।
  • 1905: प्रयाग कुम्भ मेले में महात्मा हीरानंद जी अवधूत ने बीरमा से स्वामी केशवानंद नाम रखा।
  • 1906: वृन्दावन-मथुरा का भ्रमण।
  • 1908: गुरु-गद्दी की प्राप्ति और मरुस्थल का भ्रमण।
  • 1910: नोहर में पं. शिव नारायण शास्त्री से वेदांत दर्शन का अध्ययन।
  • 1911: फाजिल्का साधु आश्रम में वेदांत पुष्पवाटिका नाम से पुस्तकालय की स्थापना।
  • 1912: फाजिल्का पंजाब साधु आश्रम में संस्कृत पाठशाला प्रारम्भ की।
  • 1916: गुरु-गद्दी का त्याग।
  • 1917: गाँव दानेवाले में तिलक की 'गीता रहस्य' का अध्ययन।
  • 1918: अबोहर में हिंदी प्रचार-प्रसार शिक्षा हेतु वातावरण तैयार किया।
  • 1919: दिल्ली के कांग्रेस अधिवेशन में पंडित मदन मोहन मालवीय का भाषण सुना।
  • 1920: मुक्तसर पंजाब में सत्याग्रह एवं अबोहर में नागरी प्रचारिणी सभा कि स्थापना।
  • 1921-22: महात्मा गांधी द्वारा प्रारम्भ असहयोग आंदोलन में भाग लिया। और दो वर्ष कैद।
  • 1923: फाजिल्का पुस्तकालय की शाखा के रूप में पुस्तकालय की स्थापना अबोहर में, ....भारतीय साधू ह्रदय नामक पुस्तक प्रकाशित की।
  • 1924: साहित्य सदन अबोहर की स्थापना, तुलसी जयंती का आयोजन।
  • 1925-26: स्वामी जी की प्रेरणा से एवं सहयोग से श्रीगंगानगर नवयुवक सार्वजनिक पुस्तकालय, ऐलनाबाद हरयाणा में साहित्य सदन एवं मुक्तसर पंजाब में हिंदी प्रचार मंडल की स्थापना।.... आर्यसमाज के अनेक जलसों में भाग लिया। ....रामेश्वरम में डॉ राजेन्द्र प्रसाद से, आनंद भवन में मोतीलाल नेहरू से, श्री सुरेन्द्र बनर्जी , श्री चितरंजन दस से, मैथिलि शरण गुप्त के घर चिरगांव एवं गांधीजी से साबरमती में भेंट की। केशरी कार्यालय पूना गए।
  • 1927: 'साइमन कमीशन वापस जाओ' आंदोलन में भाग लिया। ....युवक समिति सिरसा गठित कर पुस्तकालय की स्थापना।
  • 1928: राजनैतिक कैदियों के हिंदी ज्ञान के लिए पुस्तकें भेजी।
  • 1929: 15 मई 1929 की बिजली उर्दू साप्ताहिक अख़बार की एक कतरन के अनुसार, स्वामी जी ने शपथ ली कि साहित्य सदन का कर्ज अदा करने से पहले अबोहर एवं साहित्य सदन में पांव नहीं रखेंगे। .... 2 फ़रवरी 1929 को साहित्य सदन अबोहर का उद्घाटन उत्सव।
  • 1930: स्वतंत्रता आंदोलन में फिरोजपुर जिले के डिक्टेटर बने। पुनः कैद। गांधी इरवन समझौते के तहत कैद मुक्त।
  • 1931: अबोहर के गाँवों के लिए चलता फिरता पुस्तकालय योजना प्रारम्भ की।
  • 1932: जाट स्कूल संगरिया के संचालक बने। जाट स्कूल का जीर्णोद्धार।
  • 1933: 6 जनवरी 1933 को मण्डी डबवाली में हिन्दू हितकारिणी सभा का गठन कर साहित्य सदन की स्थापना। ....अबोहर के प्रसिद्ध हिंदी मासिक पात्र "दीपक" का प्रकाशन प्रारम्भ किया।
  • 1934: 24,25,26 सितम्बर को पंजाब प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन का नवां अधिवेशन अबोहर में आयोजित किया। ....जाट स्कूल संगरिया में औषधालय की स्थापना।
  • 1935: शारीरिक शिक्षा की तैयारी हेतु विद्यार्थियों को प्रशिक्षण के लिए बड़ौदा भेजा। ....जाट स्कूल संगरिया हेतु धन संग्रह का भरसक प्रयास।
  • 1937: आयुर्वेद विद्यालय की स्थापना। .... बहावलपुर के चानण गाँव में हरिजन पाठशाला की स्थापना। ....खैरदीन मेहतर को धर्मपाल नाम देकर अपनी शरण में रखा.
  • 1938: हिंदी सिक्ख इतिहास लिखने की योजना बनाई। ....संग्रहालय की विधिवत स्थापना।
  • 1939: जाट स्कूल संगरिया में नंदन वन एवं संग्रहालय के भरसक प्रयास।
  • 1940: जाट स्कूल संगरिया हेतु धन संग्रह के अथक प्रयास एवं संग्रहालय विकास।
  • 1941: साहित्य सदन अबोहर में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मलेन का 30 वां अधिवेशन आयोजित किया। ....जाट स्कूल संगरिया में सभा स्थल, पशु शाला, विद्यार्थी आश्रम कुंड, व अध्यापक निवास बनवाये।
  • 1942: जाट स्कूल संगरिया की रजत जयंती मनाई। ....13-14 सितम्बर को सर छोटू राम और के. एम. पन्निकर पधारे। ....विद्यार्थी सम्मलेन का आयोजन। ....मृत्यु भोज विरोधी क़ानून बनाने का अनुरोध, जो बीकानेर सरकार ने मान लिया। ....साहित्य सम्मलेन ने स्वामी जी को साहित्य वाचस्पति की उपाधि प्रदान की.
  • 1943: हिंदी साहित्य सम्मेलन की सभी परीक्षाओं का जाट स्कूल को केंद्र बनाया। ...9 अगस्त 1917 में स्थापित जाट विद्यालय संगरिया को हाई स्कूल में क्रमोन्नत करवाया।
  • 1944: महान मरुभूमि सेवा कार्य योजना लागू की, जिसके अंतर्गत 100 स्कूलों की स्थापना की गयी। संग्रहालय का नामकरण सर छोटूराम स्मारक संग्रहालय।
  • 1945: महाराजा सार्दूलसिंह जी द्वारा उद्योग विभाग का उद्घाटन। ....अखिल राजस्थान वैद्य सम्मलेन। 5 फ़रवरी को मास्टर तेगरामजी के साथ मगलूणा गाँव गए। ....24 दिसंबर को मरुभूमि सेवा कार्य हेतु कलकत्ता गए।
  • 1947: सांप्रदायिक सद्भावना हेतु अथक प्रयास, जाट स्कूल संगरिया में यह जहर नहीं घुलने दिया। ....अनेक मुसलमानों को बचाया और संरक्षण दिया। 24 मई को बीकानेर छात्रावास का उद्घाटन। मानसरोवर यात्रा। मेघवंश सम्मलेन बीकानेर की अध्यक्षता। जाट स्कूल में संगीत शिक्षा का शुभारम्भ।
  • 1949: 4 सितम्बर को भारत सरकार के पुराततव विभाग के डायरेक्टर जनरल डॉ. वासुदेव शरण को संग्रहालय व्यवस्थित करने के लिए बुलाया। ....ग्रामोत्थान पाठशाला योजना के तहत मरुभूमि में अनेक पाठशालाएं खुलवाई। ....20 अगस्त 1925 को स्थापित जाट बोर्डिंग हाउस भाद्रा को स्वामी जी ने 28-3-1949 को नवजीवन प्रदान किया।
  • 1950: नवजीवन प्रेस की ग्रामोत्थान विद्यापीठ में महिला शिक्षा का श्रीगणेश। महिला आश्रम प्रायमरी स्कूल प्रारम्भ। मासिक पत्रिका 'ग्रामोत्थान' का प्रकाशन प्रारम्भ । स्वामी जी ने पटियाला के प्रसिद्ध चित्रकार त्रिलोक सिंह से 8000 रुपये के चित्र ख़रीदे।
  • 1951: छात्रावास भवन सरस्वती और नवजीवन भवन का निर्माण। ....महाजन में 500 बीघा भूमि दान में प्राप्त कर दो माह का प्रौढ़ शिक्षण शिविर का आयोजन किया।
  • 1952: राष्ट्रीय संसद के सदस्य बने। (1952 से 1964 तक)।.... जीवन में पहली बार उपचार हेतु क्लोरोमाइस्टीन का प्रयोग किया।
  • 1953: 1905 से चल रहे चौटाला रोड (संगरिया का पूर्व नाम) का नामकरण संगरिया करवाया।.... 8 जनवरी को लाल बहादुर शास्त्री पधारे। गांधी विद्यामंदिर सरदारशहर की प्रबंध कारिणी के सदस्य बनाये गए। 13 सितम्बर को सांसदों का दल स्वामी जी के कार्यों को देखने आया।
  • 1954: मरुस्थल में बेसिक शिक्षा स्कूलों, समाज शिक्षा केन्द्रों की स्थापना। ....स्वामीजी द्वारा स्थापित स्कूलों की कुल संख्या 287 हुई। ....11 वर्षों के अथक प्रयासों से सिख इतिहास का प्रकाशन। ....छानी बड़ी (भादरा) में स्कूल की स्थापना में सहयोग। ....महिला आश्रम प्रायमरी स्तर से मिडिल स्कूल में क्रमोन्नत। ....समाज शिक्षा संचालकों के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया।
  • 1955: हाईस्कूल बहु-उद्देशीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल के रूप में परिवर्तित कराया। ....स्कूल में कृषि संकाय की स्थापना। महाजन में कस्तूरबा महिला ग्रामोत्थान विद्या-पीठ का शुभारम्भ किया। ....उद्घाटन में डॉ. सुशीला नायर पधारी। ....12 अक्टूबर 1955 को सूरतगढ़ में ग्राम छात्रावास का शिलान्यास राजस्थान के मुख्यमंत्री मोहनलाल सुखाडिया एवं डॉ सुशीला नायर द्वारा।
  • 1956: शिक्षक प्रशिक्षण शाला की स्थापना। स्वर्ण मंदिर अमृतसर के स्वर्ण पत्रों के जीर्णोद्धार समारोह के मुख्य अतिथि और उद्घाटन भाषण। ....सोवियत सांस्कृतिक दूत वारान्निकोव पधारे।
  • 1958: राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया द्वारा बनारसी दास चतुर्वेदी और ठाकुर देशराज द्वारा सम्पादित स्वामी केशवानंद अभिनन्दन ग्रन्थ उनकी 75 वीं वर्ष गाँठ पर भेंट किया । ....स्वामीजी की प्रेरणा से चौधरी शिवकरण सिंह गोदारा ने अपने पिता की स्मृति में एक लाख रूपया श्रीगंगानगर में कन्या महाविद्यालय की स्थापना के लिए दिए।.... भूदान के प्रणेता विनोबा भावे स्वामी जी के कार्यक्रमों को देखने संगरिया पधारे। ....अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त बहु-भाषाविद युगोस्लाविया के सैकल टी. बोर संगरिया पधारे।
  • 1959: पं. जवाहरलाल नेहरू प्रधानमंत्री भारत सरकार एवं श्रीमती इंदिरा गांधी का ग्रामोत्थान विद्यापीठ में पदार्पण। ....अमेरिकी सांकृतिक दूत थामस जी. ऐलन पधारे। स्वामी जी मोतिया बिन्द के इलाज के लिए अलीगढ गए।
  • 1960: कृषि महाविद्यालय की योजना बनाई ।
  • 1961: शपथ ली कि जबतक कृषि महाविद्यालय चलता न देखलूं संगरिया में पाँव नहीं रखूँगा। ....उनकी प्रतिज्ञा जल्द ही पूर्ण हुई। ....राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ मोहनसिंह मेहता ने स्वयं संगरिया पधार कर कृषि महाविद्यालय की मान्यता प्रदान की।
  • 1962: कृषि महाविद्यालय प्रारम्भ। ....भारत चीन युद्ध में 4100 रुपये चंदा कर एवं 501 रुपये स्वयं के भत्ते से राष्ट्रीय रक्षा कोष में भिजवाये।
  • 1963: 15 जनवरी को महाराजा करणी सिंह पधारे।....17 अप्रेल को रामसुभग सिंह जी से कीर्ति स्तम्भ का उद्घाटन करवाया। ....ग्रामोत्थान विद्यापीठ के लिए ईंट-भट्टे की स्थापना।
  • 1964: सर छोटू राम स्मारक संग्रहालय में क्रन्तिकारी मनमन्त नाथ गुप्त से शहीद कक्ष (लाला हरदयाल कक्ष) का उद्घाटन करवाया।
  • 1965: शिक्षा महाविद्यालय की स्थापना। भारत दर्शन उप शिक्षा मंत्री भारत सरकार ने उद्घाटन किया। ....डॉ सत्य प्रकाश पुराततव विभागाध्यक्ष राजस्थान सरकार के साथ कालीबंगा का निरिक्षण। 'अध्यापक ही वैद्य- वैद्य ही अध्यापक' नमक मौलिक योजना प्रस्तुत की।
  • 1966: मथुरा अखिल भारतीय कृषक सम्मलेन के सभापति। ....कन्याओं के लिए सावित्री देवी छात्रावास का उद्घाटन बृज सुन्दर शर्मा शिक्षा मंत्री राजस्थान सरकार द्वारा करवाया।
  • 1967: जिला सर्वोदय एवं नशा बंदी समिति के अध्यक्ष। चौटाला में हरिजन विद्यालय की स्थापना। ....नशाबंदी, गांधी एवं हिंदी प्रदर्शनी का आयोजन । ....नवम्बर में प्राकृतिक चिकित्सा हेतु जयपुर में।
  • 1968: कृषि महाविद्यालय में कला और विज्ञान संकाय प्रारम्भ। 9 मार्च को खाद्य-मंत्री जगजीवन राम और राजस्थान के मुख्य मंत्री मोहनलाल सुखाड़िया पधारे। 'शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द' नामक पुस्तक का प्रकाशन आचार्य बृज नारायण कौशिक द्वारा।
  • 1970: सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन एवं शराब तम्बाखू निषेध के प्रचार हेतु 100 पुस्तकालय खोलने का विचार।
  • 1972: मद्रास से 9750 रुपये धन संग्रह, कस्तूरबा महिला ग्रामोत्थान विद्यापीठ महाजन में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण, कन्या महाविद्यालय को हायर सेकंडरी स्कूल का रूप प्रदान किया।

युग पुरुष का महा प्रयाण - 13 सितम्बर 1972 के दिन 2 से 3 बजे के बीच मध्य दिल्ली के तालकटोरा चैराहे के फूट-पथ पर चिर-निद्रा में लीन।

जीवन दर्शन

दैनिक भास्कर[1] ने स्वामी केशवानंद के जीवन दर्शन पर लिखा है कि स्वामी केशवानंद सच्चे समाजसेवी थे। समाज के हित में उनसे यथाशक्ति जो भी बन पड़ता वे करते थे। इस कार्य में आने वाली परेशानियों का सामना भी वे उत्साह से करते और इनसे घबराकर कभी पीछे नहीं हटते थे। समाज कल्याण के कार्यो के अतिरिक्त शिक्षा प्रचार का कार्य स्वामी केशवानंद को अतिप्रिय था।

वे मानते थे कि भारत के पिछड़ा राष्ट्र होने के लिए अशिक्षा सर्वाधिक जिम्मेदार कारण है और यदि इसे दूर कर लिया जाए तो भारत की उन्नति शीघ्र होगी। अत: स्वामी केशवानंद शिक्षा प्रचार के कार्य में बहुत सक्रिय रहते थे। एक दिन इसी कार्य के सिलसिले में उन्हें कहीं जाना था और गाड़ी छूटने में समय कम रह गया था। वे दिनभर से भूखे थे। उन्होंने तत्काल दो-तीन सूखी व ठंडी रोटियां निकालीं, दाल खरीदी और जल्दी-जल्दी चबाकर खाने लगे।

उनके एक सहयोगी ने इस पर आपत्ति की तो वे बोले- मुझे कई जगह जाना है भाई। फिर रात की गाड़ी पकड़ना है। इसलिए मैंने ये रोटियां मंगवाकर रख ली थीं। सहयोगी ने कहा- इस उम्र में आपको ठंडा व बासी भोजन नहीं करना चाहिए। कुछ नहीं तो सूखे मेवे, फल व मक्खन ही ले लिया करें। तब स्वामीजी मुस्कराकर बोले- बात तो ठीक है किंतु यदि इन्हीं बातों की चिंता मुझे करनी होती तो संन्यासी बनकर समाजसेवा करने का व्रत ही क्यों लेता?

उक्त घटना में समाजसेवा का मर्म इंगित किया गया है। सच्चा समाजसेवक मात्र अपने लक्ष्य को दृष्टि में रखता है, मार्ग की बाधाओं को नहीं। समाजसेवा का व्रत लेने वाला व्यक्ति रुकावटों की चिंता नहीं करता।

स्वामी केशवानन्द ऐसे अनोखे साधु थे जिन्होंने आत्म-कल्याण या मोक्ष-प्राप्ति के स्वार्थमय पथ पर चलने की अपेक्षा आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए पर-सेवा और लोक-कल्याण में लगे रहना श्रेयस्कर समझा। उसी को उन्होने पूजा-पाठ, तप-जप और ध्यान-समाधि बनाया। उस खाली हाथ फकीर ने जन-सहयोग से करोड़ों रूपए की शिक्षा-संस्थाएं खड़ी कर दीं और 64 वर्ष के लोक-सेवा-काल में जन-जागरण का जो विशाल कार्य किया उसका मूल्य तो रूपयों में आंका ही नहीं जा सकता। राजस्थान की ओर से चुने जाकर सन् 1952 से 1964 तक वे दो बार संसद सदस्य (राज्य सभा) रहे और उस काल में उन्हें जो भत्ता मिला उसे उन्होंने ग्रामोत्थान विद्यापीठ के संग्रहालय के विस्तार में लगा दिया। स्वतंत्रता-सेनानी होने के नाते उन्होंने कभी न किसी भत्ते की मांग की और न ही किसी ताम्रपत्र की चाह रख

स्वामी केशवानन्द पर भजन

रचनाकार : महाशय धर्मपाल सिंह भालोठिया, भजन-90, मेरा अनुभव (संशोधित) - 2017


तर्ज :- एजी एजी कैसी समय अब आई..........


एजी-एजी है जब तक, भूमि और आकाश।

स्वामी केशवानन्द का जग में, अमर रहे इतिहास।।


सदियों की कहावत है ये, आज की नहीं है बात।

होनहार बिरवान के होते हैं, चिकने पात ।

इसी तरह स्वामी जी के, जीवन की शुरूआत।

बचपन में गऊओं की, सेवा करी दिन-रात।


इसके बाद स्वामी जी एक, गद्दी के महन्त बने।

फाजिलका बंगला में एक, माने हुए संत बने।

अच्छे ठाठ-बाठ और सेवक भी अनन्त बने।

लेकिन स्वयं स्वामीजी की, सेवाओं के अन्त बने।

   रहने लगे उदास ।।1।।

देश के हालात देख, स्वामी जी अधीर बना।

देश को जरूरत मेरी, लेकिन मैं अमीर बना।

गद्दी के मारकर ठोकर, त्यागी फकीर बना।

जवानी का जोश आया, साधु कर्मवीर बना।


कर्मयोगी बनके अपना, आराम हराम किया।

अबोहर में हिन्दी साहित्य-सदन का काम किया।

दिन और रात किया, सुबह और शाम किया।

देश के हवाले अपना, जीवन तमाम किया।

        ले सच्चा सन्यास ।। 2 ।।

विक्रमी संवत उन्नीस सौ नब्बे का बयान सुनो।

जिस दिन से पहुँचे स्वामी, संगरिया में आन सुनो।

मिडिल स्कूल, कच्चा कोठा, एक मकान सुनो।

आर्य कुमार आश्रम, इतना था स्थान सुनो।


थोड़े दिन में स्वामी जी ने, कर दिया कमाल देखो।

मील भर के एरिया में, मकानों का जाल देखो।

सरस्वती भवन वहाँ पर, बना है विशाल देखो।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया में चाल देखो।

       चमत्कार सै खास ।। 3 ।।

छोटे से स्कूल से बड़ी, संस्था बनाई देखो।

स्नात्कोत्तर तक यहाँ, होती है पढ़ाई देखो।

व्यायाम शाला में जाती, राइफल सिखाई देखो।

दस्तकारी भी यहाँ जाती है बताई देखो।

लकड़ी का काम और सिखाते सिलाई देखो।

लोहे की दस्तकारी, साथ में रंगाई देखो।

आयुर्वेद औषधालय, बनती हैं दवाई देखो।

तीन प्रेस जिनमें होती, कागज की छपाई देखो।

          करते बारह मास ।। 4।।

रत्न-भूषण प्रभाकर का, होता है इम्तहान यहाँ।

कन्या विद्यालय का भी, भवन आलीशान यहाँ।

टीचर ट्रेनिंग, एस.टी.सी., बी.एड. का स्थान यहाँ।

बाइस सौ बीघा भूमि भी, मिल गई अब दान यहाँ।

म्यूजियम अजायबघर को, देख कर हैरान यहाँ।


कहाँ से इतनी वस्तुओं को, लाया गया श्रीमान।

प्राचीन अर्वाचीन, आधुनिक समय का ज्ञान।

यहाँ की तारीफ नहीं, कर सके मेरी जबान।

     म्यूजियम है या रणवास ।। 5 ।।

पुस्तकालय देखो जिसकी, बनी है सजावट भारी।

भाँति-भाँति की पुस्तकों की, भरी हुई अलमारी।

हिन्दी उर्दू फारसी, अंग्रेजी की पुस्तक न्यारी।

बंगाली गुजराती अरबी, रसिया की आई बारी।

तेलगू कन्नड़ उड़िया, गुरूमुखी की पोथी सारी।

अनेक भाषाओं की पुस्तकों की जुम्मेवारी।

मलयालम जर्मन फ्रेंच, पढ़ो कोई नरनारी।

छापे में छप्योड़ी कोई, हाथों की दस्तकारी।

    भालोठिया’ करी तलाश ।। 6।।

स्वामीजी पर पुस्तकें

1. स्वामी केशवानंद जी पर पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा पुस्तक लिखी गयी है जिसका चित्र यहाँ दिया गया है।

पुस्तक - कर्मयोगी केशवानंद
लेखक - पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
प्रकाशक - युग निर्माण योजना, गायत्री तापोभूमि, मथुरा-3, सन् 2009
फोन:0565-2530128, 2530399

2. स्वामी केशवानंद जी पर श्री डालचंद सारण द्वारा लिखित पुस्तक का विवरण यहाँ दिया गया है।

पुस्तक - स्वामी केशवानंद
लेखक - डॉ. डी. सी. सारण
प्रकाशक - किशनसिंह फौजदार: जयपाल एजेंसीज दहतोरा आगरा-7, सन् 1985

3. पुस्तक - "शिक्षा सन्त स्वामी केशवानंद": लेखक - श्री बृज नारायण कौशिक, सन् 1968

4. "स्वामी केशवानंद अभिनन्दन ग्रन्थ" - स्वामी जी की 75 वीं वर्षगाँठ पर उनकी महान सेवाओं को चिरस्थाई बनाने के उद्देश्य से श्री मोहनलाल सुखाड़िया, मुख्य मंत्री राजस्थान सरकार ने 1958 में बनारसी दास चुतुर्वेदी एवं स्व. ठाकुर देशराज द्वारा सम्पादित स्वामी केशवानंद अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया।

5. पुस्तक - "सेवा श्रम और शिक्षा का एक अध्याय स्वामी केशवानंद": लेखक - सरदार शेर सिंह

6. प्रशस्ति गीत - अन्धे कवि और गीतकार रामलाल खुशदिल

7. स्वामी केशवानंद स्मारिका

8. पुस्तक: बीरमा से स्वामी केशवानंद, 13 सितम्बर 2011, प्रकाशक : ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया

9. राजस्थान स्वर्ण जयंती समारोह समिति जयपुर ने अपनी “राजस्थान में स्वन्त्रता-संग्राम के अमर पुरोधा ग्रंथमाला” के अंतर्गत सन 2002 में श्री गोविंद शर्मा द्वारा लिखित उनकी जीवनी “स्वामी केशवानन्द” प्रकाशित की ।

10. वर्ष 2015 में श्रीमती दुर्गा रणवा की पुस्तक 'शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द' प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक मनसुख रणवा 'मनु' स्मृति संस्थान, ज्योतिनगर, सीकर द्वारा प्रकाशित की गई है।

स्वामी केशवानंद द्वारा संस्थापित, संचालित एवं प्रेरित संस्थाएं

स्वामी केशवानंद एवं उनसे संबन्धित ऐतिहासिक स्थल
  • ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया द्वारा तत्कालीन बीकानेर राज्य के 285 ग्रामीण विद्यालय संचालित होते थे। 1 नवम्बर 1956 को ये विद्यालय राजस्थान सरकार को सुपुर्द कर दिए गए।
  • 15 अगस्त 2008 को राजस्थान सरकार ने बीकानेर में राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय का नाम "स्वामी केशवानंद विश्वविद्यालय, बीकानेर" किया. Swami Keshwanand Rajasthan Agriculture University, Bikaner Rajasthan, India 334006, Tel: 0151-2250025, Fax: 0151-2250025, Email Address: reg@raubikaner.org URL: www.raubikaner.org
  • स्वामी केशवानंद द्वारा संस्थापित, संचालित एवं प्रेरित संस्थाएं इस प्रकार हैं:
    • Swami Keshvanand Institute of Technology, M&G, Jaipur, SKIT Campus Ramnageria, Jagatpura, Jaipur-303 025, (Rajasthan) INDIA[3]
    • Swami Keshwanand Engineering College[4]
    • Swami Keshwanand Nursary Teachers Training Institute. Badhadhar, NH-11, Sikar.
    • Swami Keshvanand Institute of Pharmacy , Raisar, Bikaner, Rajasthan
    • Swami Keshwanand Mahila College-Colleges, Abohar,India
    • Swami Keshwanand Sr. Sec. School-Schools, Abohar,India
    • Swami Keshwanand Memorial Public School - Hanumangarh - Rajasthan
    • फाजिल्का डेरा उदासी पंथ
    • अबोहर साहित्य सदन
    • महाजन कस्तूरबा गाँधी महिला विद्यापीठ
    • रतनगढ़ विद्यार्थी आश्रम एवं राजगढ़ विद्यार्थी आश्रम
    • खिचीवाला सुजानगढ़ शिक्षण संस्थान
    • अमृतसर स्वर्ण पात्र स्वामीजी द्वारा चढाया गया था
    • सरदार शहर गाँधी विद्या मंदिर स्वामीजी की प्रेरणा से खोला गया था।

स्वामी जी के नाम पर ट्रस्ट की स्थापना

Swami Keshwanand Trust Mono.jpg

सन 1983 में स्वामी जी की स्मृति को चिरस्थाई बनाने के उद्देश्य से से स्वामी केशवानन्द स्मृति चेरिटेबल ट्रस्ट संगरिया की स्थापना हुई । ट्रस्ट के सतत प्रयत्नों से भारत सरकार और राज्य सरकार के समक्ष स्वामी केशवानन्द जी की देश – सेवा और समाज – सेवा के पक्ष उजागर हुए ।

  • अत: भारत सरकार ने स्वामी केशवानन्द जी को स्वन्त्रता–सेनानी के रूप में स्वीकारते हुए उन्हें मरणोपरांत सम्मानित करने के लिए 15 अगस्त 1999 को उनके चित्र से युक्त तीन रूपए का डाक–टिकट जारी किया
  • राजस्थान स्वर्ण जयंती समारोह समिति जयपुर ने अपनी “राजस्थान में स्वन्त्रता-संग्राम के अमर पुरोधा ग्रंथमाला” के अंतर्गत सन 2002 में श्री गोविंद शर्मा द्वारा लिखित उनकी जीवनी “स्वामी केशवानन्द” प्रकाशित की ।
  • सन 2009 में राजस्थान सरकार ने स्वामी जी के प्रति इलाके के लोगों की श्रद्धा और कृतज्ञता की भावना का सम्मान करते हुए, राजस्थान कृषि विश्वविधालय बीकानेर का नाम स्वामी केशवानन्द राजस्थान कृषि विश्वविधालय बीकानेर करके उनके प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की ।
  • ट्रस्ट ने विश्वविधालय परिसर में स्वामी जी की एक भव्य धातु प्रतिमा का प्रतिष्ठापन करवाकर राजस्थान के मुख्य मंत्री श्री अशोक जी गेहलोत से 4 अक्तूबर 2011 को उसका अनवर्णोत्सव सम्पन्न करवाया । शिक्षा संत स्वामी केशवानन्द जी समाजसेवी सत्पुरुषों के लिए सदियों तक प्रेरणा स्तोत्र बने रहेंगे ।

स्वामी केशवानन्द स्मृति चेरिटेबल ट्रस्ट, संगरिया का संक्षिप्त परिचय: स्वामी केशवानन्द जी का देहावसान 13 सितंबर 1972 को हुआ । उससे पूर्व के 64 वर्षों में उन्होने फाजिल्का अबोहर क्षेत्र में हिन्दी-प्रचार समाज सुधार के कार्य किए, स्वन्त्रता आंदोलन में भाग लेकर जेल की सजाएँ भुगती और फिर संगरिया में रह कर चालीस वर्ष में जाट मिडिल स्कूल को ग्रामोथान विध्यापीठ का रूप दिया और उसके माध्यम का बीकानेर संभाग के दुर्गम पिछड़े क्षेत्र में शिक्षा-शालाएँ स्थापित कर जन-जागृति, रूढ़ि – उन्मूलन, स्वास्थ्य रक्षा आदि कार्यक्रमों द्वारा गाँव को सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख किया । सन् 1952 से 1964 तक वे राजस्थान की ओर से चुने संसद-सदस्य (राज्य सभा) रहे और उन्होने अनेक सांसदों, जन-नेताओं एवं विद्वानो को ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया में आमंत्रित कर इस कस्बे और संस्था को अन्तराष्ट्रिय पहचान दिलाई। ऐसे परोपकारी सिक्षा – संत की स्म्रति बनाए रखने और उनकी ग्रामोत्थान योजनाओं को सतत चालू रखकर समयानुकूल आगे बढ़ाते रहने के उद्देश्य से ग्रामोत्थान विधापीठ परिवार के प्रमुख लोगों, विशेषकर सर्वश्री प्रो. ब्रजनारयण कौशिक, साहिबराम भादू, खेमचंद चौधरी, प्रो. महावीर प्रसाद गुप्ता और श्री शेरसिंह तूर, जिन सबको स्वामी जी का सान्निध्य और मार्ग – दर्शन चिरकाल तक प्राप्त हुआ था, ने कुछ योजनाओं पर स्वामी जी के अंतिम–संस्कारोपरान्त ही प्रयत्न आरंभ कर दिया था । ग्रामोत्थान विधापीठ परिवार के छोटे-बड़े सभी कर्मचारियों एवं छात्र-छात्राओं ने, यथा-श्रद्धा आर्थिक योगदान दिया, जिससे स्वामी जी की संगमरमर-मूर्ति का निर्माण, उसका स्वामी जी के अंतिम संस्कार स्थल पर प्रतिष्ठापन एवं स्वामी जी की जीवनी, सेवा, श्रम और शिक्षा का एक अध्ययन-स्वामी केशवानन्द का प्रकाशन आदि कार्य सम्पन्न कराए गए एवं प्रतिवर्ष स्वामी जी की निर्वाण-तिथि 13 सितम्बर पर उनके श्रद्धा – दिवसोत्सव का आयोजन स्वामी जी की मूर्ति के पास किया जाने लगा। उस वार्षिक आयोजन में विध्यापीठ के सभी कर्मचारी और छात्र-छात्राएँ स्वामी जी लो श्रद्धांजलि देने के लिए एकत्र होते थे। गिने-चुने संस्था के पूर्व छात्र और स्वामी जी के श्रद्धालु सज्जन भी आया करते थे। ग्राम कटैहड़ा (पंजाब) के चौ. रामनरायण ज्याणी, चौधरी राजाराम ज्याणी और श्री ब्रजनारयण कौशिक का पहुँचना सर्वथा निश्चित था। स्वामी जी के पुण्य-तिथि 13 सितम्बर 1983 को श्रद्धा-दिवसोत्सव में श्री ब्रजनारयण कौशिक ने विचार रखा कि सन् 1983 स्वामी जी का जन्म-शती वर्ष होने के कारण उनकी स्म्रति मे ग्रामोत्थान विध्यापीठ में भी कोई प्रवृत्ति चालू की जावे जो स्वामी जी की ग्रामोत्थान योजनाओं को अनवरत चालू रखे। इस पर विस्तृत विचार के लिए सर्वश्री रामनारायण ज्याणी, राजाराम ज्याणी, प्रो. ब्रजनारयण कौशिक, साहिबराम भादू, खेमचन्द चौधरी एवं शेर सिंह तूर की समिति गठित की गयी और एक माह में प्रस्तुत करने को कहा गया। इस समिति ने स्वामी जी की कुटिया (निवास-स्थान) में 11 अक्टूबर 1983 को चौ. रामनरायण ज्याणी की अध्यक्षता में एक बैठक आयोजित की जिसमें संस्था में कार्यरत संस्था के पूर्व छात्रों को भी आमंत्रित किया गया। समिति के सुझावानुसार और चौधरी रामनरायण ज्याणी के आग्रह पर “स्वामी केशवानन्द स्मारक ट्रस्ट” की स्थापना का सर्व-सम्मत प्रस्ताव पारित किया गया। चौ. रामनरायण ज्याणी ने प्रस्तावनुसार कार्य को आगे बड़ाने की ज़िम्मेदारी संभाली और उनके मार्ग दर्शन एवं निर्देशन में समिति सदस्य ग्रामोत्थान विध्यापीठ संगरिया के पूर्व छात्रों – चौ. बलराम जाखाड़ लोक सभाध्यक्ष, डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया आई.पी.एस. पुलिस महानिदेशक राजस्थान, चौ. धर्मवीर आइ.ए.एस. क्लैक्टर उदयपुर, चौ. जगदीश कुमार नेहरा, शिक्षा मंत्री हरियाणा आदि उच्च-पदस्थ लोगों एवं श्री गंगानगर-हनुमानगढ़, फाजिल्का-अबोहर और सिरसा-फतेहाबाद के स्वामी जी के श्रद्धालु प्रमुख लोगों से ट्रस्ट के आजीवन ट्रस्टी बनने के स्वीकृति प्राप्त करने हेतु मिले। ट्रस्ट के प्रथम 21 आजीवन ट्रस्टी चुनने मे पूर्ण-निर्देशन चौ. रामनारायण ज्याणी का रहा। उनही की राय से डॉ. बलराम जाखड़ को आजीवन मुख्य संरक्षक एवं डॉ. ज्ञान प्रकाश पिलानिया को ट्रस्ट का अध्यक्ष मनोनीत कर उनकी सहमति प्राप्त की गयी। ग्रामोत्थान विद्ध्यापीठ के महामंत्री श्री यशवंत सिंह से भी संपर्क साधकर उनका सहयोग प्राप्त किया गया। संस्था के विभागाध्यक्षों ने भी सभी कर्मचारियों और छात्र-छात्राओं का सहयोग ट्रस्ट के लिए उपलब्ध कराया। जुलाई-अगस्त 1984 में ट्रस्ट की प्रथम स्मारिका प्रकाशित कराई गयी, जिसकी विषय-वस्तु स्वामी जी, ग्रामोत्थान विद्ध्यापीठ का संक्षिप्त इतिहास, ट्रस्ट-विधान की प्रारम्भिक रूप-रेखा और ट्रस्ट कोष में प्रथम वर्ष में प्राप्त दान का विवरण आदि थे।

ट्रस्ट स्थापना की विधिवत घोषणा: स्वामी जी का तेरहवां स्मृति दिवसोत्सव 13 सितम्बर 1984 को ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के प्रांगण मे आयोजित किया गया और ट्रस्ट के मनोनीत आजीवन ट्रस्टीयों, इलाके के स्वामी जी के श्रद्धालु एवं ग्रामोत्थान विद्ध्यपीठ के हितैषी महानुभाव एवं संस्था के छात्रों को आमंत्रित किया गया। उत्सव के मुख्य अथिति डॉ॰ बलराम जाखड़ लोक सभाध्यक्ष और अध्यक्ष श्री रामचंद्र चौधरी पूर्व मंत्री राजस्थान थे। डॉ ज्ञान प्रकाश पिलानिया ने स्वामी जी को श्रद्धांजली देते हुए उनकी स्मृति में स्थापित किए जाने वाले ट्रस्ट की इलाके के लिए आवश्यकता और उपयोगिता पर प्रकाश डाला और उसकी संक्षिप्त रूप-रेखा उपस्थित जन-समूह के समक्ष रखी। तत्पश्चात उन्होंने जनता-जनार्दन से ट्रस्ट से निर्माण का अनुमोदन करने की मार्मिक अपील की। सब ओर से करतल ध्वनि द्वारा ट्रस्ट निर्माण का अनुमोदन किया गया। मुख्य अतिथि महोदय ने ‘स्वामी केशवानन्द स्मृति चैरिटेबल ट्रस्ट ’ के निर्माण की विधिवत घोषणा की और उसके स्थायी कोष (पूंजी) के निर्माण में उपस्थित जन- समूह से अधिक से अधिक आर्थिक योगदान का साग्रह निवेदन किया।

ट्रस्ट के मुख्य उद्देश्य:

  • स्वामी जी के जीवन-दर्शन के अनुरूप ग्रामोत्थान एवं समाज कल्याण के कार्य करना ।
  • सांस्कृतिक, शैक्षिक एवं आर्थिक उन्नति, सामाजिक एवं नैतिक उत्थान के द्वारा ग्राम्य जीवन के सर्वांगीण विकास के लिए प्रेरणा देना ।
  • सामाजिक कुरीतियों का निवारण, भ्रमपूर्ण रूढ़ियों का उन्मूलन, अछूतोद्धार, नारी-जाती का उत्थान, दान-दहेज बहिष्कार, मध्यनिषेध, नशा-मुक्ति, परिवार नियोजन व कल्याण, स्वास्थ्य-रक्षा एवं शिक्षा तथा हिन्दी-प्रचार को प्रोत्साहित करना ।
  • शिक्षा-प्रचार हेतु स्कूल, कालेज, प्रशिक्षण केन्द्र, वाचनालय, पुस्तकालय, छात्रावास आदि के संस्थापन-संचालन में आर्थिक सहयोग देना ।
  • प्रतिभा सम्पन्न छात्र-छात्राओं को शिक्षा हेतु पुरस्कार, छात्रवृत्ति, ऋण एवं मेडिकल, ईंजीनियरिंग आदि तकनीकी संस्थाओं में प्रवेश हेतु निर्धारित परतियोगिताओं की तैयारी करने की व्यवस्था करना ।
  • स्वामी जी द्वारा संस्थापित एवं पोषित विभिन्न संस्थाओं से सम्पर्क एवं सदभाव रखना तथा उनकी प्रगति में रुचि लेकर यथोचित सहयोग व आर्थिक सहायता करना ।
  • सार्वजनिक उपयोग हेतु मातृगृह, शिशु-शाला, चिकित्सालय, औषधालय, स्वास्थ्य-केन्द्र, परिचर्यालय, विश्रामालय, अतिथिगृह आदि का निर्माण एवं संचालन करना ।
  • स्वामी जी की जीवनी, कृतित्व एवं जीवन-दर्शन विषयक एवं अन्य समाजोपयोगी प्रेरणादायक सतसाहित्य का सृजन एवं प्रकाशन कराना ।
  • स्वामी जी के निर्वाण-दिवस पर एवं समय-समय पर उनके श्रधालुजन के सम्मेलन का आयोजन करना ।
  • कृषि, पशुनस्ल सुधार एवं ग्रामोपयोगी अन्य विषयों के क्षेत्र में अनुसंधान कार्य एवं खोजपूर्ण साहित्य रचना को प्रोत्साहन देना ।

ट्रस्ट के स्थायी कोष (पूंजी) को बढ़ाने का प्रयास : आगे के वर्षों में ट्रस्ट अध्यक्ष डॉ. ज्ञान प्रकाश पिलानिया एवं वरिष्ठतम संरक्षक ट्रस्टी श्री रामचन्द्र चौधरी के नेतृत्व में ट्रस्ट का सदस्यता अभियान (दान-संग्रह-कार्य) सतत चला जिसमें साथ रहकर प्रमुख सहयोगी हैं :

इनके अलावा समाज के कई अन्य सम्मान्य अग्रणी सज्जनों ने भी सहयोग दिया । प्रति-वर्ष स्वामी के स्मृति दिवसोत्सव 13 सितम्बर पर ग्रामोत्थान विध्यापीठ में श्रद्धांजलि सभा का भी आयोजन विध्यापीठ परिवार के सहयोग से होता रहा है और उस अवसर पर भी ट्रस्ट के स्थायी कोष में दान की प्राप्ति होती रही । 13 सितम्बर 1933 के स्मृति दिवसोत्सव तक ट्रस्ट के स्थायी कोष का प्रथम निर्धारित लक्ष्य एक करोड़ का पूर्ण हो गया । आगे के वर्षों में भी स्थायी कोष में धीरे-धीरे वृद्धि होती रही । इस समय में सबसे बड़ा व्यक्तिगत सहयोग प्रवासी भारतीय डॉ. घासीराम जी वर्मा, सीगड़ी जि. झुंझुनू का रहा है जो सन् 2008-09 से प्रतिवर्ष दस लाख रुपए ट्रस्ट की विभिन्न ग्रामोपयोगी योजनाओं के संचालन के लिए ट्रस्ट में दान स्वरूप देते आ रहे हैं । दिनांक 13 सितम्बर 2011 तक ट्रस्ट का स्थायी कोष दो करोड़ रुपए से ऊपर पहुंच गया है ।

ट्रस्ट द्वारा किये गए कार्य

स्थापना से लेकर 20-8-2011 तक उद्देश्य पूर्ति में ट्रस्ट कोष में दान आहुतियाँ ज्यों ज्यों प्राप्त होती गई त्यों-त्यों उद्देश्य पूर्ति के वास्ते ट्रस्ट गतिविधियां चालू होती और आगे बढ़ती गई । तदनुसार पिछले लगभग 28 वेर्षों में ट्रस्ट ने नीचे लिखे अनुसार कार्यों को सम्पन्न करने में आय का उपयोग किया है :-

1. शिक्षा, विशेषत: बालिका शिक्षा हेतु :-

  • स्वामी केशवानन्द महाविद्यालय 10,99,500 रु.
  • ग्रा. वि. उ. मा. विद्यालय 2,33,000 रु.
  • माता जीतो जी शिक्षा संस्था, सुरतगढ़ 1,00,000 रु.
  • राजस्थान कन्या छात्रावास, जयपुर 6,00,000 रु.
  • किसान छात्रावास, भादरा 45,000 रु.
  • सोसाइटी फॉर मैंटली हैंडीकैप्ड, जयपुर 4,00,000 रु.
  • आयु औष. व विश्रामालय, भादरा 5,00,000 रु.
  • जाट कन्या छात्रावास, नोहर 2,00,000 रु.
  • पर्यावरण ग्रामीण विकास समिति, झुंझुनू 50,000 रु.
  • योग 1,69,22,257 रु.

2. छात्र-छात्र हित में कार्य :-

  • छात्रवृत्तियाँ 42,51,257 रु.
  • पुरस्कार 1,77,332 रु.
  • वाचनालय 44,691 रु.
  • कोचिंग व निर्देशन 5,64,103 रु.
  • योग 50,37,383 रु.

3. समाज-सुधार-नशामुक्ति :-

  • कार्यक्रमों में व्यय 4,15,234 रु.

4. प्रचार – कार्य :-

  • स्मारिका विवरणिका आदि 15,20,090 रु.
  • वार्षिक उत्सव 3,89,460 रु.
  • स्वामी जी की मूर्तियां 6,34,400 रु.
  • मुख्य-मंत्री सहायता कोष 1,05,100 रु.
  • योग 26,49,050 रु.

5. भवन निर्माण मरम्मत :-

  • स्वामी केशवानन्द अध्ययन केंद्र 8,40,395 रु.
  • कार्यालय – अतिथिशाला 5,11,788 रु.
  • हनुमानगढ़ कार्यालय भवन एवं अन्य 17,07,398 रु.
  • योग 30,59,581 रु.

6. कार्यालय संचालक आदि

  • वेतन-भत्ते 38,08,393 रु.
  • स्टेशनरी छपाई 57,930 रु.
  • डाक-तार फोन 3,44,512 रु.
  • जल-प्रकाश आदि 2,21,829 रु.
  • अतिथि सत्कार 4,18,790 रु.
  • यात्रा – व्यय 1,33,985 रु.
  • फूटकर 1,16,227 रु.
  • बैंक व्यय 44,580 रु.
  • कानूनी सलाह आडिट 59,399 रु.
  • साज-सज्जा वाटिका 42,466 रु.
  • फर्नीचर टाइप राइटर 44,345 रु.
  • विविध अन्य व्यय 1,52,984 रु.
  • योग 54,45,440 रु.

कुल व्यय का योग 3,35,28,952 रु.

स्मारक का निर्माण

स्वामी केशवानन्द स्मृति समारोह-2016 में स्वामी सुमेधानंद

उतर भारत में शिक्षा सन्त का दर्जा प्राप्त स्वामी केशवानन्द का जन्म लगभग 133 साल पूर्व शेखावाटी के मंगलूणा गांव में हुआ। फाजिल्का फिरोजपुर अबोहर संगरिया महाजन खिचीवाला सुजानगढ सहीत सैंकडों बडे शिक्षण संस्थानों सहीत बीकानेर रियासत में पोने दो सो ग्रामीण पाठशालाओं के संस्थापक स्वामी केशवानन्द तत्कालिन भारत की एक बडी शख्सीयत थे। शिक्षा सन्त की पावन स्मृति में उनकी जन्मस्थली मंगलूणा में एक भव्य स्मारक निर्माणाधीन है। मंगलूणा सालासर बालाजी से 12 किमी लक्षमणगढ रोड पर अवस्थित है। शेखावाटी बीकानेर और मारवाड के संगम में शिक्षा की यह बेमिशाल मशाल सदियों प्रज्जवलित होती रहै इस मकसद से स्वामीजी के श्रद्धालु इस स्मारक पर सालाना एकत्र होंगे।

13 सितम्बर 2016 को शिक्षा सन्त केशवानन्दजी के गांव मंगलूणा में सर्व धर्म सर्व समाज ने स्वामी जी को खास याद किया। एक ही दिन में 1.70 करोड का जन सहयोग। स्वामी जी को भारत रत्न देने के लिये हजारों लोगों द्वारा प्रस्ताव पास किया गया। व्यसनों और कुरितियों के खिलाफ बडा काम करने वाले महान कर्मयोगी को हर साल याद करने का अभिनव संकल्प लिया गया।

मंगलूणा में सर्व धर्म सर्व समाज द्वारा उनकी 44 वीं पुण्यतिथि पर आयोजित स्मृति समारोह 13 सितम्बर 2016 की अध्यक्षता स्वामी सुमेधनंद सरस्वती (ढाका), सीकर संसद ने की तथा केन्द्रीय खाद्य आपूर्ति राज्य मंत्री सी. आर. चौधरी (छिरंग) मुख्य अतिथि थे। इस आयोजन में पूर्व सांसद डॉ हरी सिंह (लुनायाच), पूर्व विधायक दिलसुख राय (भाकर), पूर्व विधायक रनमल सिंह (डोरवाल) , केशरदेव बाबर, स्थानीय विधायक गोविंद सिंह डोटासरा, खंडेला विधायक बंशीधर बाजिया, पूर्व जिला प्रमुख डॉ रीटा सिंह (बुरड़क), वर्तमान जिला प्रमुख अर्पणा रोलन, आदि उपस्थित थे। समारोह में स्मृति स्थल निर्माण हेतु कुल 1.70 करोड़ की सहयोग राशि समारोह स्थल पर ही प्रपट हो गई। इस अवसर पर राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील, जिला जाट सभा के अध्यक्ष रतन सिंह पिलानिया, युवा जाट महासभा जिला इकाई अध्यक्ष रवि बिजारणिया, लेखक भँवर लाल बिजारणिया, प्रो० डीसी सारण, प्रो धर्मपाल कोलसिया, सत्यनारायन झझड़िया - फोगां सहित दो हजार लोग उपस्थित थे। यहाँ पर स्वामी केशवानन्द की स्मृति में भव्य समाधि स्थल, अष्टधातु मूर्ति और स्वामी जी की दीर्घा सहित पुस्तकालय और वाचनालय आदि स्थापित होंगे। [5]

यह भी देखें

पिक्चर गैलरी

संदर्भ


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