Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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सप्तम अध्याय : पंजाब और जाट

जाटों की सबसे अधिक आबादी पंजाब और सिंध में

भारतवर्ष में जाटों की सबसे अधिक आबादी का पता पंजाब और सिंध में लगता है , क्योंकि यही इनका प्राचीन जन्म-स्थान है। जाटों का जब से भी कोई इतिहास मिलता है, तब से ही उनका अस्तित्व पंजाब में पाया जाता है। इन दोनों प्रान्तों में जाटों की अधिक आबादी होने का यही कारण है कि अति प्राचीन काल से यहां के राज्यवंश गणतन्त्री थे। यदि हम भारतीय राजनैतिक इतिहास का सिंहावलोकन करते हैं तो हमें इन प्रान्तों में एकतन्त्री विचार के समुदायों का अभाव ही दिखाई देता है। रामायण-काल में दशरथ, सहस्त्राबाहु, रावण और महाभारत-काल में अर्जुन, दुर्योधन, कंस, जरासंघ, शल्य आदि ऐसे राजाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें एकतन्त्री राजा के नाम से पुकारा जाता है। किन्तु इनमें किसी का भी अधिपत्य पंजाब और सिंध की पूरी आबादी पर नहीं मिलता। द्रुपद और शल्य एवं वृहद्रथ के अधिकार में भी कोई भू-भाग था तो वह अधिक विस्तृत नहीं था। सिंध के सम्बन्ध में यहां तक बात गढ़ी गई कि सिंध के लोगों ने राज्य-संचालन कार्य में अयोग्य होने के कारण दुर्योधन की बहन को शासन करने के लिए बुलाया था।

महाभारत में उत्तर-भारत के जिन गणराज्यों का वर्णन आता है, उनमें से अधिकांश पंजाब स्थित थे। पंजाब में यदि एकतन्त्र शासन का प्रचार हुआ भी तो बहुत देर से और बहुत थोड़े दिन के लिए हुआ और वह एकतन्त्र ऐसे लोगों का था जिनमें से अधिकांश पंजाब की प्राचीन आर्य जाति के न थे। यह पिछले अध्यायों में लिखा जा चुका है कि जाट उन समुदायों का फेडरेशन (संघ) है जोकि गणवादी अथवा ज्ञात-वादी थे। अतः जिन-जिन गणों का पंजाब में अस्तित्व था उनमें से जो-जो जट (संघ) में शामिल हुए और जिनका वर्णन हमें मालूम हो सका है, उनके नाम तथा परिचय भी पीछे दिए जा चुके हैं। यहां वह थोड़ा-सा इतिहास देते हैं जोकि जाटों में एकतन्त्री भाव आने के पश्चात् घटित हुआ।


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सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में पौरुष, आम्भी, हस्ती नाम के केवल तीन राजा पाए जाते हैं। पौरुष को यदि राजा मान लिया जाय (क्योंकि कुछ लोग पौरस जाति बतलाते हैं) तो चार राजाओं का नाम हमारे सामने आता है। अभी तक निश्चय नहीं हो सका कि इन राजाओं के वंशज पंजाब की जाट, गूजर, खत्री और राजपूत आदि क्षत्रिय जातियों में से किस में शामिल हो गए। फिर भी यह खयाल किया जा सकता है कि अभिपार वाले और तक्षशिला वाले लोग जाट थे। क्योंकि तक्षक गोत्र का जाटों में होना इस बात का प्रबल उदाहरण है। कर्नल टाड ने भी तक्षकों को जाटों से सम्बन्धित किया है। राजा हस्ति निश्चय ही जाट था जो कि सिंध नदी के किनारे पर एक छोटे से भू-भाग का शासक था। सिंध के एक जाट गोत्र की जो वंशावली हमें जाटों से प्राप्त हुई है, उसमें राजा हस्ती का नाम आता है। वह सिंध जाटों का सरदार था।

पौरुष का शासन झेलम और चिनाव के बीच के प्रदेश पर था। हमें महमूद गजनवी के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि जाट लोगों ने झेलम नदी में चार हजार नावों से गजनवी से युद्ध किया था। पौरुष और सिकन्दर की लड़ाई में भी नदी में युद्ध करने का वर्णन मिलता है। आरम्भ से जिस ढंग से सिकन्दर और पौरुष के योद्धा लड़े थे, वह बिलकुल चन्द्रवंशी क्षत्रियों के तरीके को याद दिलाता है, जिन तरीकों का अनुसरण जाटों ने एक लम्बे समय तक किया है। आज भी झेलम और चिनाब के बीच सब से अधिक आबादी जाटों की ही है, चाहे उनका एक बड़ा भाग अपने को जाट मुसलमान कहता हो। महमूद के युद्ध से पहले तो यहां जाटों की बहुत ही घनी आबादी थी।

पौरुष की सेना में हाथियों के सिवाय हम रथों का एक बड़ा भाग देखते हैं। हेरोडोटस ने जेहुन नदी के किनारे के जाटों को रथों से युद्ध करने वाला बतलाया है जैसा कि हम पिछले पृष्ठों में लिख चुके हैं। दारा की संरक्षता में भी सिकन्दर से रथों द्वारा युद्ध किया था।

सिख इतिहास में जब हम हजारा के जाट नरेश राजा शेरसिंह का हाल पढ़ते हैं तो अनायास पौरुष याद आ जाता है। जिसने अंग्रेज जनरल की दाहिनी ओर खड़े होकर के अंग्रेज अफसर के यह कहने पर कि यदि आपको छोड़ दिया जाए? तो यह स्पष्ट कहा था कि

“मैं अपनी मातृ-भूमि की रक्षा के लिए भी वही करुंगा जो अब किया है?”

राजा शेरसिंह पौरुष का दूसरा रूप दिखाई देता है।

ऋग्वेद में हमें पौरव नाम की जाति का वर्णन भी मिलता है और वह जाति आगे चल करके हमें गण के रूप में दिखलाई देती है।

जिस स्थान पद युद्ध हुआ था, सिकन्दर ने अपनी विजय के उपलक्ष में ‘निकय’ नाम का एक नगर बसाया था। जो कि ‘नकाई’ नाम से मशहूर हुआ। सिक्खों की बारह मिसलों में से एक मिसल का नाम नकई मिसल है जो कि वहां के नकई जाटों


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के गांव के नाम से मशहूर हुई। निकय गांव के लोग अवश्य ही उस जाति के होंगे, जिसमें स्वयं पौरुष था। क्योंकि 200 गांवों के जिस प्रदेश को सिकन्दर ने सन्धि होने के बाद पौरुष को सौंपा था, यह गांव भी उन्हीं में शामिल है।

उपर्युक्त कारण और दलीलें यह साबित करती हैं कि पौरुष निश्चय ही ज्ञात (जाट) थे

शासन व्यवस्था, युद्ध के ढंग, स्वभाव, तत्कालिक वर्णन पौरुष को जाट के सिवाय अन्य कुछ मान लेने में कठिनाई पेश करते हैं, क्योंकि पंजाब में न तो मौजूदा राजपूत पौरुष को अपना पुरखा स्वीकार करते हैं और न खत्री लोग। राजपूतों की वंशावली रखने वाले भाटों ने भी उनको राजपूत नहीं लिखा है और जाटों में ऐसे गोत्र पाए जाते हैं जिन्हें पौरव और पौरुष का रूपान्तर कह सकते हैं जैसे, पौरिया, पुवार, पोरोथ, पोरुवार आदि आदि।

महाराज कनिष्क

महाराज कनिष्क की मूर्ती: लखनऊ म्यूजियम में रखी हुई है जो पांच फीट के लगभग ऊंची है किन्तु सिर कटा हुआ है। घुटनों से नीचे तक अंगरखा, हाथ में गदा जैसा हथियार है। किन्तु शायद गदा नहीं है। मूर्ति विशाल पुरुष की जैसी है।इस प्रस्तर मूर्ति को ठाकुर देशराज ने स्वयं म्यूजियम में जाकर देखा है।(पृ.-724)

इनके समय के विषय में निश्चित रूप से तय नहीं हो पाया है। डाक्टर भंडारकर इनका समय 203 ई. मानते हैं। लेकिन मि. विंसेंट स्मिथ का अनुमान है कि ईसवी सन् 226 में भारत के कुषाण वंश का राज्य समाप्त हो गया था। कुषाण राजाओं के सिक्कों से मालूम होता है कि कुषाण वंश के राजाओं का पांचवीं सदी तक काबुल और उसके आस-पास राज्य रहा था। कुछ लोग सन् 61 ई. में कनिष्क का होना मानते हैं। हमारे विचार से ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम भाग में कुषाणों का राज्योदय होना जंचता है, क्योंकि भविष्य पुराण के अनुसार ईसवी सन् के आरम्भ में राजा शालिवाहन का अवस्थित होना पाया जाता है। यदि कनिष्क और शालिवाहन समकालीन होते तो भट्टी ग्रंथों में उसका वर्णन अवश्य आता। शालिवाहन के बाद पंजाब में एक प्रकार भट्टी लोगों का राज्य उठ सा ही जाता है। इसलिये ही भट्टी ग्रंथों में कनिष्क व कुषाणों के सम्बन्ध में वर्णन नहीं मिलता।


कुषाण लोग कौन थे, इसके सम्बन्ध में भी दो भिन्न मत हैं। ‘राजतरंगिणी’ का लेखक उन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्धान यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों ने एक तीसरी राय इनके सम्बन्ध में यह दी है कि कुषाण लोग ‘हिंगनु’ लोग हैं। चाहे वे ‘तुरुष्क’ हों, चाहे ’यूची’ और ‘हिंगनु’ पर हर हालत में वे जाट थे। ‘पृथ्वीराज विजय’ के आधार पर बदायूं जिला निवासी ठा. रामलालजी हाला ने भी अब के कई वर्ष पूर्व यही बात लिखी है। तुरुष्क, यूची और हिंगनु लोगों के लिए अनभिज्ञ इतिहासकारों ने विदेशी और आयों से इतर जन मानने की भी अक्षय भूल की है। पुराणों की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर ही कुछ देशीय और विदेशीय विद्धानों ने तुरुष्कों और यूचियों को विदेशी


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मानने की स्थापना की है। तुरुष्क चन्द्रकुल के संभूत राजा तुर्वुस की सन्तान हैं, जिन्हें कि पुराणकारों ने केवल इस अफराज से कि वहां तक ब्राह्मण नहीं पहुंचते थे, उनको पतित क्षत्री बताने की धृष्टता की है। कनिघंम के शब्दों में भारत के जाट, यूरोप के जेटी और गाथ और चीन के यूची व ज्यूटी एक ही हैं। तुर्क या तुरुष्क जैसा कि लोग समझते हैं, मुसलमान यवन अथवा अनार्य नहीं हैं। तुर्वुस के प्रदेश का नाम तुरुष्क अथवा तुर्किस्तान है और किसी भी वंश अथवा जाति का आदमी जो कि तुर्किस्तान में रहता हो, तुर्क कहलायेगा। उसी तुर्किस्तान में जेहून, आक्सस, हिंगनू, जगजार्टिस नाम की उपजाऊ भूमि में भारतीय क्षत्रिय जाति रहती थी, वह जूटी, जोयी और यहूची कहलाती थी और हिंगु अथवा हिंगनू कुषाण आदि उसकी शाखायें थीं। यह तो हम पिछले अध्यायों में बता ही चुके हैं कि प्रजातन्त्रीय राजवंशों के संगठित समुदाय का नाम जाट है जिनमें कृष्ण, अर्जुन, दुर्योंधन, शुरसेन, भोज, शिव परिवारों के वंशज शामिल हैं। कुषाण वे लोग हैं जो कि पांडवों के साथ महाप्रस्थान में कृष्ण-वाशियों में से गये थे। संस्कृत के कार्ष्णेय तथा कार्षणिक से कुषाण शब्द बना, इसमें सन्देह करने की गुंजायश नहीं रह जाती। यह कुशन नहीं है, बल्कि जाटों के अन्तर्गत पाये जाने वाले ‘कुशवान’ हैं

“कहावत है कि जब भूल होती है और खास तौर पर पढ़े लिखों से भूल होती है तो दहाई भूली जाती है और गणित में तो भूल चाहे आरम्भ में हो चाहे मध्य में उनका अन्तिम नतीजा भी भूल ही होता है। जातियों के निर्णय में भी लगभग यही बात है। यदि किसी जाति को वैश्य करार दे दिया तो उसके पुरखे का नाम भी कुबेर ही बताना पड़ेगा, चाहे वह शिशुपाल की संतान हो और चाहे बाल्मीकि की और चाहे बेचारे कुबेर के बाप दादे भी कभी वैश्य न रहे हों। कुषाणवंशी जाट क्षत्रियों के सम्बन्ध में भी बिलकुल यही बात हुई है। जहां उनके सम्बन्ध में यह भ्रान्ति हुई कि वे विदेशी हैं, उसके साथ ही यह भी भ्रान्ति हो गई कि वे विजातीय और विधर्मी भी थे और बौद्ध धर्म को ग्रहण करके हिन्दू हो गए, और हो भी आनन-फानन में गए, और ऐसे हुए कि खास हिन्दुस्तान के हिन्दुओं को भी मात कर दिया।”


कितनी हास्यास्पद बात है कि जो जाति कल तक अहिन्दू है और दो ही चार वर्ष में अपने खास जाति भाई तातारियों की अपेक्षा हिन्दुओं से बिलकुल घुल मिल जाती है। शुद्धि वालों ने तो और भी रंग दे दे करके इस बात को दोहराया है। लेकिन हम कहते हैं कि कुषाण और यूची न तो विदेशी है न अहिन्दू। ये वैदिक कालीन उन क्षत्रियों की औलाद हैं जो भारत से बाहर उपनिवेश कायम करने अथवा अन्य किसी कारण से गए थे और तुर्किस्तान तो भारत से बाहर का देश भी नहीं है, जबकि वैदिक काल में आक्सन (इक्षुरसोद व इक्षुमति नदी) और काबुल (कुभा नदी) तक भारत की सीमा थी। ऋषि दयानन्द के शब्दों में त्रिविष्टप


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या तिब्बत, लोकमान्य तिलक के कथनानुसार मध्य-एशिया जब आर्यों का उद्गम स्थान है तो इन देशों के लोग, ईसा और मुहम्मद से भी पहले, अहिन्दू किस तरह हो गये? विदेशी इतिहासकारों के पीछे आंख मूंद कर चलने वाले देशी इतिहासकारों ने भी ऐसी ही बहकी बातों में पृष्ठ के पृष्ठ रंग डाले हैं। कनिष्क उन क्षत्रियों की औलाद में से थे, जिनको आज यहां अवतार मानकर पूजा जाता है।


भारतवर्ष में जाट-राज्य के लिए ‘जाटशाही’ का प्रयोग किया जाता है और कुषाणवंशी राजाओं के लिए भी शाही अथवा शहन्शाही का प्रयोग किया जाता था। देवसंहिता में जाटों के लिए देवसंभूत व देवों की सन्तान कहा गया है जैसा कि हमने पिछले किन्हीं पृष्ठों में देव-संहिता के उन श्लोकों को उदधृत करके बता दिया है। कुषाणवंशी राजाओं के लेखों में इनकी उपाधि हमें देवपुत्र लिखी हुई मिलती है।

चीनी इतिहास लेखकों के आधार पर अंग्रेज लेखकों ने कुषाण राज्यवंश का इस तरह से वर्णन किया है - यूची नाम की जाति शुरू में चीन के उत्तर-पश्चिम मे रहती थी। ईसवी पू. 165 के लगभग हिंगनु नाम की जाति से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में यूची लोग हार गए और पश्चिम की ओर नई भूमि की खोज में चल दिए। पहले जा करके बलख में अपनी बस्तियां आबाद कीं। यूची जाति के एक गिरोह का नाम कुषाण था। ऐसा कहा जाता है कि इनके सरदार का नाम कुजूल केडफाइसिस (कूजूल कपिशास) था।

उसने अपने प्रभावों से यूचियों की पांचों शाखाओं को एक कर दिया। तभी से कुल युची जाति कुषाण कहलाने लगी। केडफाइसिस ने पार्थिया, कन्धार, काबुल जीत कर अपने राज्य में मिला लिये। इस तरह से उसका राज्य फारस की सीमा से अफगानिस्तान तक फैल गया। इसके सिक्के काबुल की घाटी में मिलते हैं, जो कि यूनानी राजा हरमियस के सिक्कों की नकल पर बनाये गए थे। उनमें एक ओर यूनानी अक्षरों में हरमियस का नाम तथा दूसरी ओर खरोष्टी अक्षरों में ‘कुजूल कसस’ लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि वह हरमियस के बाद ई.पूर्व 25 के बाद हुआ। वह 80 वर्ष तक जीवित रहा। अतः मोटे तौर पर उसका राज्यकाल 50 ई. तक माना जाता है। उसके बाद उसका पुत्र भीम केडफाइसिस उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसे कुछ लेखकों ने केडफाइसिस द्वितीय कहा है।

केडफाइसिस द्वितीय

(भीम काषिणक अथवा भीम कपिशप त्रिदत्त) इसे चीन के साथ युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध का कारण यह था कि इसने चीन की शहजादी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा था। चीनियों ने इसके दूतों का अपमान किया। इसने एक-एक करके पंजाब के कई यूनानी और शक राजाओं को जीत लिया। इसका राज्य उत्तर


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भारत में बनारस तक पहुंच गया था। इसके पहले के राजाओं के सिक्के चांदी, तांबे या कांसे के हैं। इसने सोने के सिक्के प्रचलित किए। इसके सिक्के में त्रिशूलधारी शिवजी की मूर्ति है जिससे पता लगता है कि पंजाब के शिवगोत्री लोगों के प्रभाव से केडफाइसिस शिव का उपासक हो गया था। पेशावर जिले के पंजतार नामक स्थान से इसका सन् 64 ईसवी का सिक्का प्राप्त हुआ है। कहा जाता है इसके समय में रोम और भारत का व्यापारिक सम्बन्ध अत्यधिक था। यहां के रेशमी वस्त्र, जवाहरात, रंग, मसाले आदि की एवज में रोम से स्वर्ण आने लग गया था। मि. स्मिथ कहते हैं कि शक सम्वत् इसी ने चलाया था

भीम केडफाइसिस के पिता के सिक्कों पर

“कुजूल कसस कुषणाय बुगस ध्रमठिदस, कुशनस, युवस कोयुल कपसस सब ध्रमठिदस ”

और इसके सिक्कों पर

“महाराज रजदिरजस सर्व लोग ईश्वरस महेश्वर सहिमकपिशष त्रिदत्त”

लिखा है। मोटे तौर पर इसका राज्यकाल 45 से 78 ई. तक माना जाता है। काशीप्रसादजी जायसवाल के मतानुसार मथुरा के अजायबघर में रखी हुई किसी कुषाणवंशी राजा के सिंहासन पर पैर लटकाए हुए बैठने वाले की मूर्ति इसी केडफाइसिस की है। मथुरा के अजायबघर में कनिष्क की भी एक खड़ी हुई मूर्ति है जिस पर उसका नाम खुदा हुआ है।

कनिष्क

यह कुषाणों की दूसरी शाखा के बाझेष्क नामक राजा के पुत्र थे, ऐसा अनेक इतिहासकार मानते हैं। लेकिन यह पता नहीं चलता कि भीम केडफाइसेस के हाथ से इसके हाथ में राज्य कैसे आया। डॉक्टर फ्लीट औरकेनेडो का मत है कि विक्रम सम्वत् कनिष्क ने ही चलाया और वह ईसवी 57 में गद्दी पर बैठा था। बाद में मालवा के लोगों ने इस सम्वत् को अपनाया और विक्रमी के नाम से प्रसिद्ध किया। डॉक्टर फ्लीट ने यह मत एक बौद्ध दन्तकथा के आधार पर बनाया है। उस दन्तकथा के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के चार सौ वर्ष बाद कनिष्क राजा हुआ और उसने एक सम्वत् भी चलाया। चूंकि भगवान बुद्ध को निर्वाण हुए 400 वर्ष ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में होते हैं और विक्रम सम्बत् भी ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में आरम्भ होता है। इसी बात को आधार मानकर डॉक्टर फ्लीट ने विक्रम सम्वत् का प्रचारक महाराज कनिष्क को माना है। मि. कैनेडी का कहना है कि चीन यूरोप का व्यापारिक सम्बन्ध पहली शताब्दी में आरम्भ हुआ था और चीन से जाने वाला माल कनिष्क राज्य में होकर गुजरता था अर्थात् भारतीय व्यापारी चीनियों से माल खरीद करके यूरोप के व्यापारियों के हाथ बेचते थे। इसी व्यापार


1. ‘अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया’। पृ. 254


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के लिए कनिष्क ने सोने के सिक्के ढलवाये थे और यूनानी लोगों की सुविधा के लिए उसने अपने सिक्कों पर यूनानी अक्षर अंकित करा दिए थे। इसलिये कहा जाता है कनिष्क ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में विद्यमान था। कनिघंम साहब उसे ईसवी पश्चात् सन् 91 में विद्यमान बतलाते हैं। कुछ इतिहासकारों ने सिक्कों के आधार पर कनिष्क को रोम के सम्राट हैढ्रिममार्क्स और ओरेलस का समकालीन बताया है। हम पहले ही लिख चुके हैं कि कनिष्क का प्रामाणिक काल निर्णय अभी नहीं हो सका है। लेकिन वह ईसवी पूर्व से ईसवी पश्चात् तक भी पाया जा सकता है जब कि उसकी उम्र 150 या 175 वर्ष रही हो। अब से दो हजार वर्ष पहले कोई आदमी डेढ़ सौ दो सौ वर्ष तक जिन्दा रह सकता था तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। गर्दभसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य की भी आयु ऐसी ही लम्बी बताई गई है। कुछ लोग शक सम्वत् जिसका आरम्भ सन् 78 ई. से आरम्भ होता है इसी का चलाया हुआ मानते हैं।

कनिष्क आदि राजा लोग अपने नाम के साथ ‘शाही’ या ‘शाहानु शाही’ उपाधि लगाते थे। शिलालेखों में “देव पुत्रस्य राजतिराजस्य शाहेः” इन राजाओं के नामों के साथ लिखा मिलता है। इलाहाबाद के स्तम्भ पर भी देव-पुत्र-षाही षाहानुषाही लिखा हुआ है। इस स्तंभ में, समुद्रगुप्त के साथ, षाही-वंश के राजा की संधि का उल्लेख है। शायद वह राजा इस वंश का वासुदेव रहा होगा।

कनिष्क का राज्य-विस्तार उत्तर पश्चिमी भारत में विन्ध्याचल तक था। काश्मीर और सिंध को उसने अपने प्रारम्भिक समय में ही जीत लिया था। काश्मीर में उसके बनाए हुए बहुत से बौद्ध-मन्दिर और मठ हैं। उसकी राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, सीतामढ़ी यह उनके राज्य के प्रसिद्ध शहर थे। कनिष्क ने चीनी तुर्किस्तान के काशगर, यारकन्द और खुतुन नामक प्रान्तों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। चीनी यात्री सुंगयुन ने पेशावर में बने हुए इसके बौद्ध-स्तूप और मठों की बड़ी प्रशंसा की। दन्तकथाओं से ऐसा मालूम होता है कि इसने पटना पर भी अधिकार कर लिया था। मि. स्मिथ कहते हैं कि महाराष्ट्र के शासक क्षहरात, नहपान और उज्जैन के शासक क्षत्रप चष्टन भी कनिष्क के अधीनस्थ सामन्त थे। कनिष्क के जो सिक्के मिले हैं, उनमें एक तरफ राजा का चित्र होता है। दूसरी तरफ स्त्री या शिवजी अथवा अन्य देवताओं के चित्रे रहते हैं। लेखों में कनिष्क की उपाधि ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कनिष्क’ मिलती है।

इसके समय में शिल्पकला की अच्छी उन्नति हुई थी। इसके समय के बने हुए स्तूप मठ मूर्तियां इसकी साक्षी हैं। इसकी सभा में अनेक विद्वानों का जमघट रहता था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-205


आयुर्वेद का प्रसिद्ध ज्ञाता आचार्य चरक इनका राज्य-वैद्य था। नागार्जुन, अश्वघोष, वसुमित्र भी इसकी सभा में आते रहते थे।


ऐसा कहा जाता है कि कनिष्क ने बौद्ध-धर्म की दीक्षा अपने जीवन के उत्तर भाग में ली थी। बौद्ध होते हुए भी वह बौद्ध, पौराणिक यूनानी और पारसी सभी धर्मों का आदर करता था। बौद्ध लोग कनिष्क को दूसरा अशोक कहकर पुकारते थे। बौद्ध-धर्म की चौथी महासभा हुई थी। कनिष्क ने इस सभा के लिए काश्मीर की राजधानी में एक बड़ा विहार बनवाया था। इस सभा में 500 विद्वान एकत्रित हुए थे। वसुमित्र सभापति और अश्वघोष उपसभापति चुने गए थे। इन विद्वानों ने समस्त बौद्ध ग्रन्थों का सार संस्कृत भाषा के एक लक्ष श्लोकों में ‘सूत्र पिटक’ ‘विनय पिटक’ और ‘अभिधर्म पिटक’ नामक तीन महाभाष्यों में रचा। वे सब ताम्रपत्र पर नकल करके एक ऐसे स्तूप में रखे गए जो कनिष्क ने इसीलिए बनवाया था। सम्भव है अब भी वे काश्मीर राज्य में पृथ्वी के अन्दर से किसी खुदाई के समय निकल आयें।


कनिष्क सिकन्दर की भांति महत्वाकांक्षी था। जाट राजाओं में उस समय के लोगों में यह पहला व्यक्ति था, जिसने साम्राज्यवाद की ओर कदम बढ़ाया था। चीन की प्रगतियों ने इसके वंश के हृदय में एकतंत्र के भाव भर दिये थे। कनिष्क चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका राज्य हो। अन्य जातियों और देशों पर भी अधिकार जमाने की प्रवृत्ति ने उसके अन्दर से ज्ञाति राज्य की भावनाओं को नष्ट कर दिया था और यह स्वाभाविक बात है कि एक ज्ञाति (जाति) दूसरी ज्ञाति (जाति) पर राज्य करने की इच्छुक हो जाती है तो उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए गणवादी की बजाय साम्राज्यवादी हो जाना आवश्यक होता है। कनिष्क ने अपना साम्राज्य बढाने के लिए बहुत सी लड़ाइयां लड़ीं। उसके सरदार युद्ध में उसके साथ बाहर रहते-रहते ऊब गए थे। अनुमान किया जाता है कि इसी कारण उसके सेनापतियों ने षड़यन्त्र करके उसे मार डाला। कनिष्क योद्धा था, साहसी था, इसके सिवाय वह धर्मात्मा भी था।

वासिष्क

कनिष्क के मरने के बाद शासन-सूत्र वासिष्क के हाथ आया। यह पिता की अनुपस्थिति में भी राज्य कार्य संभालता रहता था। मथुरा के पास ईसापुर में इसका एक लेख मिला था जो कि आजकल मथुरा के अजायबघर में है। यह पत्थर के एक यज्ञ-स्तम्भ पर है। उस पर विशुद्ध संस्कृत में लेख खुदा हुआ है। जिस पर इसे “महाराज राजतिराज देव पुत्रशाहि वासिष्क” लिखा हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि इसका राज्यकाल कनिष्क के राज्यकाल के अर्न्तगत था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-206


हुविष्क

वासिष्क के पश्चात्, कनिष्क का राज्य उससे छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसने काश्मीर में अपने नाम से हुष्कपुर नामक नगर बसाया जो कि आज कल उस्कपुर कहलाता है। जब ह्नानचांग काश्मीर गया था, तब इसी हुष्कपुर के बिहार में ठहरा था। मथुरा में एक और भी बिहार था। उसके सिक्के कनिष्क के सिक्कों से भी अधिक संख्या में और विविध प्रकार के पाए जाते हैं। उन सिक्कों में यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इसने 120 ई. से 140 ई. सन् तक राज्य किया । कुछ लोग कहते हैं कि इसका शासन-काल 162 ई. से 182 ई. तक था। काबुल, काश्मीर और मथुरा के प्रदेश इसके राज्य में शामिल थे। इसके सोने चांदी के सिक्के मिलते हैं। जिन पर ‘हूएरकस’ लिखा रहता है।

वासुदेव

हुविष्क की मृत्यु के बाद वासुदेव राजगद्दी पर बैठा। इसके जो लेख मिले हैं, उनमें इसकी उपाधि “महाराज राजाधिराज देवपुत्र वासुदेव” मिलती है। इसके सिक्के सोने, चांदी और तांबे के मिले हैं। जिन पर एक तरफ इनकी मूर्ति और दूसरी तरफ शिवजी की आकृति बनी रहती है और ’बैजौडेओ’ इसका नाम लिखा रहता है। इसके समय से कुषाणों का राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि कुषाण साम्राज्य का अन्त किस तरह हुआ। इसका राज्य काल 140 ई. से 180 ई. तक बताया जाता है। लेकिन कुछ लोग 182 ईसवी से 220 ईसवी तक भी मानते हैं। इस बात का पता नहीं चलता कि वासुदेव की मृत्यु के बाद कोई सम्राट या बड़ा राजा इनमें हुआ हो। मालूम ऐसा होता है कि कुषाण साम्राज्य का अधःपतन होते ही इनका साम्राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और कुछ काल तक कुषाण राजा काबुल और उसके आस-पास के ही शासक रह गये। क्योंकि वासुदेव के पीछे उसके उत्तराधिकारियों के भी सिक्के मिलते हैं। वे सिक्के धीरे-धीरे ईरानी ढंग के हो गये हैं।

श्रीयुत आर. डी. बेनरर्जी वासुदेव के पश्चात्, कनिष्क द्वितीय, वासुदेव द्वितीय और वासुदेव का क्रमशः राजा होना अनुमान करते हैं। इस राज्यवंश के पश्चात् तृतीय शताब्दी में जो राज्यवंश हुए वे बहुत ही छोटे-छोटे थे। कुषाणों के सिक्कों से यह पता चलता है कि ईसा की पांचवी शताब्दी तक इनका राज्य काबुल और उसके आस-पास के प्रदेश पर रहा, जिसको अन्त में हूणों ने इनसे छीन लिया। फिर भी कुछ छोटे-छोटे स्थान बच रहे थे, उनको ईसा की सातवीं सदी में ईरान-विजयी अरबों ने समाप्त कर दिया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-207


शालेन्द्र

भारत एवं पंजाब से कुषाणों का राज्य अस्त हो जाने के बाद भी अनेक स्थानों में जाटों के छोटे-छोटे राज्य उपस्थित थे। दो शताब्दी तक उनके किसी प्रबल राजा का अभी तक नाम नहीं मालूम हो सका है, लेकिन पांचवी शताब्दी में जाटों में एक ऐसा महापुरुष पैदा होता है जो कि उनके नाम को फिर चमका देता है। उसका राज्य पंजाब से लेकर मालवा और राजपूताने तक फैला हुआ था, क्योंकि कर्नल टाड को उनके सम्बन्ध की लिपि कोटा राज्य में प्राप्त हुई थी। तब अवश्य ही उनके राज्य की सीमा कोटा तक रही होगी, अथवा कोटा उनकी सीमा के अन्तर्गत रहा होगा। टाड साहब को यह लिपि कोटा राज्य में कनवास नामक गांव में सन् 1820 ई. में मिली थी। इस प्राप्त शिलालेख को हम यहां ‘टाड राजस्थान’ से ज्यों का त्यों उदधृत करते हैं -

“जटा आपकी रक्षक हों। जो जटा जीवन समुद्र पार की नौका स्वरूप हैं, जो कुछ एक श्वेत वर्ण और कुछ एक लाल वर्ण युक्त हैं, उन जटाओं का विभव न देखा जाता है। जिन जटाओं में कुछ भीषण शब्दकारी सर्प विराजमान है, वह जटा कैसी प्रकाशमान हैं, जिन जटाओं के मूल से प्रबल तरंगे निकल रही हैं, उन जटाओं के साथ क्या किसी की तुलना की जा सकती है। उन जटाओं द्वारा आप रक्षित हों।
जिनके वीरत्व-बाहुबल से शालपुर देश रक्षित होता था, मैं अब उन राजा जिट का वर्णन करूंगा। प्रबल अग्नि-शिखा जिस प्रकार अपने शत्रु को भस्मीभूत करके फेंक देती है, राजा जिट का प्रताप भी उसी प्रकार प्रबल था।
महाबली जिट शालेन्द्र (2) परम रूपवान् पुरुष थे, और वह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों के आग्रणी हुए थे। चन्द्र जिस प्रकार पृथ्वी को प्रकाशमान करते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने शासित देश, शालपुरी को देदीप्यमान करते थे। सम्पूर्ण संसार जिट राजा की जय घोषणा कर रहा है। वह मनुष्य लोक में चन्द्रमा स्वरूप्प दुर्द्धर्ष, साहसी, महामहा बलिष्ठ लोंगों में पंक के बीच कमल के समान बैठ कर स्वजातीय गौरव गरिमा प्रकाश करते थे। उनकी अमित बलशाली दोनों भुजाओं के मनोहर मणि-माणिक्य के आभूषणों का प्रकाश उनकी मूर्ति को उज्जवल कर देता था। असंख्य सेना के अधिनायक थे और उनका धनरत्न असीम था। वह उदार चित्त और समुद्र के समान गम्भी थे। जो राजवंश महाबली वंशों में विद्यमान है, जिस वंश के राजा लोग विश्वासघातकों के परम शत्रु थे, जिनके चरणों पर पृथ्वी ने अपना सम्पूर्ण धन-धान्य अर्पण किया था और जिस वंश के नरपतियों ने शत्रुओं के सब देश अपने अधिकार में कर लिए थे, यह वही शूरवंश घर हैं। (3) होम यज्ञादि के द्वारा यह नरेश्वर पवित्र हुए थे। इनका राज्य परम रमणीय तक्ष का दुर्ग भी अजेय है। इसके धनुष की टंकार से सब ही महा भयभीत

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होते थे। यह क्रुद्ध होने पर महासमराग्नि प्रज्वलित कर देते थे, किन्तु मोती जिस प्रकार गले की शोभा बढ़ाता है, अनुगत लोगों के प्रति, इनका आचरण भी वैसा ही था। लाल तरंगों से समर क्षेत्र रंगने पर भी यह संग्राम से नहीं हटते थे। प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रखर किरणों से पद्मिनी जिस प्रकार मस्तक नवाती है, उसी प्रकार इनके शत्रु दल इनके चरणों पर नवते थे और भीरू-कायर लोग युद्ध छोड़कर भागते थे।

इन राजा शालेन्द्र से दोगला की उत्पत्ति हुई। आज इतने समय के पीछे भी उनका यश फैला हुआ है। उनसे शाम्बुक ने जन्म लिया, शाम्बुक के औरस से दोगाली ने जन्म लिया। उन्होंने यदुवंश की दो कन्याओं से विवाह किया था। (4) उनमें से एक के गर्भ से प्रफुल्लित कमल के समान वीर नरेन्द्र नामक पुत्र ने जन्म लिया था। आमों के कुंज अर्थात् जिन आमों के वृक्षों की मिली हुई मंजरी में सहस्त्रों मधुमक्षिका विराजमान हैं, जिन वृक्षों के नीचे थके हुए यात्री आकर विश्राम करते हैं, उन आमों के वृक्षों की कुंज में यह मन्दिर स्थापित हुआ। जब तक समुद्र की तरंगें बहेंगी और जब तक चन्द्र सूर्य आ पर्वत माला विराजमान रहेंगी, तब तक मानो इस मन्दिर और मन्दिर-प्रतिष्ठा का यश फैला रहेगा। 597 संवत् में तावेली नदी के तट पर मालवा के शेष सीमान्त में वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र के द्वारा (5) मन्दिर प्रतिष्ठित हुआ।
जो पुरुष इन वचनों को स्मृति पट पर अंकित करेंगे, उनके सब पाप दूर हो जाएंगे।
द्वार शिव के पुत्र खोदक शिवनारायण द्वारा खोदित और बुतेना ने यह कविता निर्माण की है।”


उपर्युक्त शिलालेख के पढ़ने से निम्न बात सहज ही में समझ में आ जाती है-

  • (1) यह शालपुरी के शासक थे, जोकि आज श्यालकोट कहलाता है। यह राज्य उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से प्राप्त किया था। क्योंकि शिलालेख में साफ लिखा हुआ है कि “यह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों में अग्रणी हुए।” इस वाक्य से यह भी सिद्ध होता है कि वह किसी प्रजातन्त्रवादी समूह के सरदार से एक तन्त्री शासक बन गए और उनका प्रताप यहां तक बढ़ा कि “राजा लोगों के सिर उनके चरण अंगूठे की पूजा करते थे।”
  • (2) उनके पास असंख्य सेना थी और साथ ही उनके कोष मणि-माणिक्यों से भरे पड़े थे।

1. टाड परिशिष्ट पृ. 1134 खड्ग विलास प्रेस बांकीपुर का संस्करण।


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  • (4) यह भी मालूम होता है कि ये बुद्ध धर्म को छोड़कर पौराणिक धर्म में दीक्षित होम यज्ञ आदि करने लग गये थे।
  • (6) इन महाराज ने किसी ऐसी जाति की स्त्री से शादी की थी जो कि इनकी जाति से इतर थी। क्योंकि इनके एक दोगला की उत्पत्ति होने का वर्णन भी शिला-लेख में है।
  • (7) इनके प्रपौत्र ने यादववंश की कन्याओं के साथ विवाह किया था। इससे ऐसा मालूम होता है कि यह तक्षक दल के सूर्यवंशी जाट थे। अथवा पंजाब में यादवों का कोई ऐसा समूह रहा होगा कि अहीरों में यादव हैं। इस तरह से जाट और अहीरों के विवाह की प्रणाली का शिलालेखक ने उल्लेख किया है।
  • (9) सम्बत् 597 में ताबेली नदी के किनारे पर, जिन वीरचन्द्र के पुत्र शालीचन्द्र ने इनकी स्मृति के लिए मन्दिर बनवाया था तथा शिलालेख खुदवाया था, वे अवश्य ही शलेन्द्र जित के निकट सम्बन्धी रहे होंगे, और बहुत सम्भव है कि वीर नरेन्द्र का पुत्र शालीचन्द्र हुआ हो और संबत् 597 में शालीवाहनपुर को छोड़कर मालवा में आ गये हों। उनके शालीवाहनपुर को छोड़ने का कारण हूणों का आक्रमण हो सकता है। डॉक्टर हार्नले और कीलहार्न ने लिखा है कि ईसवी सन् 547 में कहरूर में यशोधर्मा ने मिहिर-कुल हूण को हराया था। मिहिर कुल तूरमान हूण का पुत्र था। तूरमाण के साथी हूणों के द्वारा इनसे शालीवाहन पुर छीन लिया गया हो, यह बहुत सम्भव है। अगर ऊपर के 597 को ईसवी सन बनाया जाए तो 597 - 57 = 540 ई. होता है। तूरमाण के पंजाब पर हमलों का लगभग यही समय रहा होगा।


लेकिन सी. बी. वैद्य ने अलबरुनी के लेखों का प्रमाण देकर साबित किया है कि कहरूर का युद्ध 544 ईसवी से बहुत पहले हुआ था। यदि यह कथन ठीक है तो वह बुद्ध शालिचन्द्र के पिता वीरचन्द्र अथवा प्रपिता वीरनरेन्द्र के समय में हुआ होगा। यह तो बिल्कुल ही ठीक बात है कि हूणों ने महाराज शालिचन्द्र के वंशजों को शालिवाहनपुर अथवा श्यालकोट से निकाल दिया था, क्योंकि हम हूणों के इतिहास में श्यालकोट हूणों की राजधानी पाते हैं।

जिस समय पहला हमला शालेन्द्र के राज्य पर हूणों का हुआ होगा, उस समय अवश्य ही उनके वंशजों ने महाराज यशोधर्मा की, जो कि उनके सजातीय और मालवा के प्रसिद्ध राजा थे, मदद ली थी और पहली बार में इस सम्मिलित जाट-


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शक्ति ने हूणों को हराकर पंजाब से निकाल दिया था। जैसा कि चन्द्र के “अजयत् जर्तों हुणान्” अर्थात् जाटों ने हूणों को जीता, वाक्य से सिद्ध होता है।

इस शिलालेख से हम जिस ऐतिहासिक परिणाम पर पहुंचते हैं, वह यह है - पांचवी शताब्दी के आरम्भ में पंजाब में जाट नरेश महाराजा शालेन्द्र राज्य करते थे। जिस प्रकार सिंह स्वयं अभिषिक्त होता है, उसी भांति महाराज ने अपने बाहुबल के प्रताप से बड़ा राज्य प्राप्त करके महती प्रभुता प्राप्त की थी। उनके दरबार में दुर्द्धर्ष साहसी और महा बलिष्ठ लोगों का जमघट रहता था जिनमें वह अपने जातीय गौरव की भी प्रशंसा किया करते थे। उनके अधीनस्थ कई छोटे-छोटे और भी राजागण थे। वह समृद्धिशाली राजा थे। कोष उनका परिपूर्ण था, और बहुत बड़ी सेना उनके पास थी। इतना बड़ा वैभव रखते हुए भी गंभीर और उदार चित्त थे। बौद्ध धर्म को छोड़कर नवीन हिन्दू धर्म को उन्होंने ग्रहण कर लिया था। होम, यज्ञ आदि के बड़े प्रेमी थे, और वे उन जाटों में से थे जो अपने को काश्यप-वंशी (सूर्यवंशी) कहते हैं। उन्होंने ऐसे कुल की स्त्री से भी शादी की थी जिससे उत्पन्न होने वाली संतान को स्वजातीय लोगों ने दोगला नाम से पुकारा।

इनके वंशज दोगाली ने यदुवंशी नाम के अहीर या राजपूतों की लड़कियों से विवाह सम्बन्ध किए और यदि वे यदुवंशी जाट ही थे तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने शालेन्द्र की दोगला सन्तान को धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह सम्बन्ध करके जाति से दूर नहीं होने दिया। कुछ भी हो, दोगाली ने यदुवंश की कन्याओं के साथ शादी की थी जिनमें से एक के गर्भ से वीर नरेन्द्र ने जन्म लिया था।

हूणों के आक्रमण के बाद, पंजाब से महाराजा शालेन्द्रजित के वंशज का राज्य नष्ट हो गया और उन्होंने मालवों के पश्चिमी प्रान्त के तावेली नदी के किनारे आकर कोई छोटा सा राज्य स्थापित किया और संबत् 597 या सन् 540 ई. में उन्हीं के वंशज वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र ने आमों के घने बाग में, श्रेष्ठ स्थान पर, मंदिर बनवा करके महाराणा शालेन्द्रजीत की स्मृति स्थापित की। अब उस स्थान पर कनवास नाम का छोटा सा ग्राम है और यह कोटा राज्य में है।

शालीवाहन

जैसलमेर के भट्टी ग्रन्थों में इसे यदुवंशी राजा गज का पुत्र माना गया है और इसका आगमन भारत में दूसरी शताब्दी के पश्चात् बताया है। श्यालकोट जिसे महाभारत का शॉकल मानते हैं, भट्टी-ग्रन्थों में इसी का बसाया हुआ बताया गया है। श्यालकोट इसका बसाया हुआ नहीं, तो इतना अवश्य मान लेना पड़ेगा कि इसने उसका पुनरुद्धार किया होगा। पिछले पृष्ठों में हमने जिन महाराज शालेन्द्रजित का जिक्र किया है, वह भी इसी स्यालकोट में रहते थे। लेकिन शालिवाहन और शालेन्द्रजित में दो शताब्दियों का अन्तर है। शालेन्द्रजित के समय


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से पहले ही शालिवाहन की संतान के लोग स्यालकोट को छोड़ करके लाहौर और हिसार की ओर चले जाते हैं। जैसलमेर के भाटी लोग तथा नाभा, पटियाला, फरीदकोट आदि के जाट राजे इस शालिवाहन को भी अपना पूर्वज बतलाते हैं। कुछ लोग इन राजा शालिवाहन को शक साबित करते हैं, कुछ लोग इसे पैटन का अधीश्वर, अर्थात् सात किरण सात वाहनों में से।1 यह भी कहा जाता है कि इन शक लोगों को कालि-कार्य जैन भारत में लाए थे। जैन प्रभसूरी ने अपने ‘कल्प-प्रदीप’ नामक ग्रन्थ में लिखा है - पैठन के रहने वाले एक विदेशी ब्राह्मण की विधवा बहन से शातबहन (शालिवाहन) उत्पन्न हुआ। उसने उज्जैन के राजा विक्रम को परास्त किया और पैठन का राजा बनकर ताप्ती तक कछ देश अपने अधिकार में किया।

जैसलमेर के भाटियों की बात सही है अथवा स्मिथ और जैन प्रभसूरि (जो 1300 ई. के करीब हुआ था) में से किसकी बात सही है, इस बात पर तो हमें बहस नहीं बढ़ानी, किन्तु इतना जरूर कह देना है कि भाट लोगों के वर्णन और वंशावली निष्पक्ष, युक्ति-संगत तथा पूर्ण प्रामाणिक नहीं हैं।

भाटी जिसके गोत्र के लोग राजपूत और जाट दोनों में पाये जाते हैं, शालिवाहन के वंश का बताया जाता है। भाटी के जन्म की कथा भी बड़े विचित्र ढंग से वर्णन की जाती है। देवी के नाम पर भट्टी में सर चढ़ा देने के कारण इसका नाम भट्टी हुआ ऐसी दन्तकथा है। जाटों में जो भाटी लोग है, उनके सम्बन्ध में भी इन भाट ग्रन्थों में ऐसी ही ऊंट-पटांग बाते लिखी पड़ी हैं। पटियाला, नाभा, जींद, फरीदकोट आदि के भट्टी जाटों के सम्बन्ध में भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि रावखेवा नाम के एक राजपूत ने जाटनी से शादी कर ली इसलिए रावखेवा की संतान के लोग जाट कहलाने लगे। खेद तो इस बात का है कि पटियाला के बुद्धिमान राजा ने भी भाट-ग्रन्थों की इस बात को सही मान लिया कि वे दोगला हैं और इसीलिए फिर से उन्होंने उस दोगला होने वाल बात की पुनरावृत्ति की। हमने भाट लोगों से करीब 500 जाट-गोत्रों का वर्णन पूछा, सब में यह बात पाई कि अमुक राजपूत ने अमुक जाटनी से शादी कर ली, इसलिए अमुक गोत्र बन गया। ये बातें बिल्कुल निराधार और बेहूदी हैं। इन बातों पर पूरा प्रकाश हम आगे डालेंगे।


भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि भट्टीराव के नाम से सारे यादव भट्टी कहलाने लग गए लेकिन हम देखते हैं कि भट्टीराव कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरुष नहीं। भाटों के कथनानुसार भी हमें उसका कोई ऐसा बड़ा काम दिखलाई नहीं देता, जिसके कारण यादवों को भट्टी कहलाने में गौरव जान पड़ा हो। वास्तव में बात यह है कि गजनी से लौटने वाले यादवों का समूह पंजाब की ससबसब्ज (????) जमीन से प्रताड़ित होकर, जंगल प्रदेश की निकटवर्ती भटिड (गैर उपजाऊ, जलहीन) भूमि में बस गए,


1. ‘सरस्वती’ भाग 3 संख्या 33


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जिससे वह उस देश के नाम से भाटी कहलाने लगे। जहां तक भी हमें जान पड़ा है कि भाटी नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ और कुछ हुआ भी तो वह इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ कि जिसके नाम पर पूरी कौम का नाम बदल जाता। भाटों की वंशावली में जो नाम दिए हैं, उनमें से अधिकांश असभ्य लोगों के जैसे गढ़े हुए जान पड़ते हैं। जैसे लद्धरचन्द, सधरचन्द, गूमनचन्द, अतरचन्द, दोषपाल, गेंदपाल, बुदरमल, गोधल प्रकाश साथपतप्रोकाश, साहवप्रकाश, साहरोब, आयतबल, लोधरपाल, मथुरापाल, जोगेर, ख्यूपाल आदि आदि इनमें अतरचंद और साहबचंद आधी हिन्दी और आधी उर्दू वाले नाम क्या आज से 1800 वर्ष पहले जब कि उर्दू का जन्म भी नहीं हुआ था प्रचलित थे, ऐसा कोई भी बुद्धिमान मानने को तैयार नहीं होता। ये सारे नाम हमने शालिवाहन के पहले के उद्धृत किए हैं। उस समय भारतवर्ष व अफगानिस्तान में बौद्ध-धर्म फैला हुआ था। इन नामों में बौद्ध-धर्म की सभ्यता का प्रकाश है और संस्कृत साहित्य का पुट। जैसा कि लद्धर-चन्द और सद्धर-चन्द से प्रकट होता है। श्रीकृष्ण से लेकर के भाटी तक एक सौ उनसठ पीढ़ियां भाटीग्रन्थों में वर्णित हैं। यह कभी नहीं माना जा सकता कि यह बिल्कुल सही है। भरतपुर के महाराज कृष्णसिंह को भगवान कृष्ण एक सौ दो की पीढ़ी पर उनकी वंशावली वाले बतलाते हैं, और पंजाब का मौजूदा राजा ओकगंवर दो सौ से ऊपर की पीढ़ी पर पहुंचता है। यह इतना बड़ा अन्तर ही सिद्ध कर देता है कि अनेक नाम कल्पित हैं।

हमारा यह मत निश्चय ही सही है कि गैर-उपजाऊ प्रदेश में बसने के कारण, गजनी से आया हुआ यादव-दल, भट्टी नाम को प्राप्त हुआ। गजनी में रहते हुए उधर कई विजातीय राजाओं से रक्त सम्बन्ध कर लेने पर जब यादवों की कोई जाति नहीं बदलती, तब भारत में किस कारण से रावखेवा को जाटनी के साथ शादी कर लेने के कारण जाट करार दे दिया जाता है। वास्तव में रावखेवा के साथी आरम्भ से ही जाट थे। किन्तु यों कहना चाहिए कि राजा शालिवाहन स्वयं जाट थे। उनके वंशजों में से जिन लोगों ने बौद्ध-धर्म को छोड़कर नवीन प्रचलित पौराणिक धर्म को स्वीकार कर लिया अर्थात् बाप-दादे के समय से चली आई हुई रिवाज, विधवा विवाह, जातीय-समानता की रिवाज को छोड़ दिया और बलिदान-प्रथा तथा बहुदेव पूजा को स्वीकार कर लिया, कहीं राजपूत श्रेणी में गिने जाने लगे और जो अपनी पुरानी रस्मों पर डटे रहे, वे जाट भट्टी हुए। बस यही जाट भट्टी और राजपूत-भट्टी का अलग-अलग होने का कारण है।

खेद तो इस बात का है कि पटियाला तथा फरीदकोट के मुस्लिम इतिहास लेखकों ने तथा किसी-किसी अंग्रेज लेखक ने भी जैसलमेर के भाटों के ग्रन्थों में लिखी हुई बेबुनियाद बातों को अपने इतिहास में स्थान देने की भूल की है।


ऊपर का दिया हुआ निर्णय, समझदार लेखकों और पाठकों के वास्ते सत्य की खोज करने के लिए, बहुत कुछ काम दे सकेगा और जो इतिहास अन्धविश्वास की भित्ति पर अब तक भाटियों का तैयार किया हुआ है, वह भी अवैज्ञानिक और मानने योग्य सामग्री के आधार पर नहीं है, इसी उद्देश्य से हमने विषयान्तर करके भी इतना प्रकाश डाला है।

जयपाल, आनन्दपाल

ग्यारहवीं सदी में लाहौर, भटिंडा पर महाराज जयपाल राज्य करते थे। इनको कुछ लेखकों ने ब्राह्मण बतलाया है और कुछ ने कायस्थ। कुछेक लोग उन्हें राजपूत भी समझने लगे हैं। न वह ब्राह्मण और कायस्थ थे और न वह राजपूत, वह जाट थेकाबुल की तरफ उन्हें हमलों की इच्छा होना तथा काबुल पर जाकर चढ़ाई करना ये बातें ऐसी हैं जो उनके ब्राह्मण होने के सिद्धान्त को काट देती हैं। क्योंकि पौराणिक धर्म के अनुसार विदेशयात्रा और खास तौर से मुसलमानों के देश में जाना पाप है। कायस्थों की हुकूमत पंजाब में कभी हुई हो इसके तनिक भी प्रमाण नहीं मिलते। राजपूतों का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर है। एक चौहान खानदान को छोड़ करके पंजाब की तरफ दसवीं सदी से पहले उनका कोई भी खानदान जिसका कि राज्य इतने बड़े प्रदेश पर हो सके, पंजाब में दिखाई नहीं देता। राजपूतों ने जो 36 राजवंशों की वंशावली ग्यारहवीं सदी में तैयार करवाई थी, उसमें उल्लिखित 36सों राजवंशों में से किसी का भी सम्बन्ध जयपाल से नहीं बताया गया है।

लाहौर के आस-पास के कुछ जाट समूह ऐसे हैं जो अपने को गंधार, काबुल, गजनी और हिरात से आया हुआ बतलाते हैं। सर हेनरी एम. इलियट के. सी. बी. ने भी अपनी ‘डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक में इसी बात का जिक्र किया है। आरम्भिक मुसलिम आक्रमणों के समय काबुल और गंधार से आये हुए इन जाटों की प्रवृत्ति फिर से उन प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लेने की बहुत समय तक बनी रही। उसी प्रवृत्ति का यह फल था कि महाराज जयपाल ने काबुल और गजनी पर चढ़ाई की।

दिल्ली के शासक अनंगपाल और राजपाल थे जिनसे कि पृथ्वीराज चौहान के हाथ दिल्ली का राज्य आया था। जयपाल के पोते का नाम भी राजपाल था। कुछ इतिहास लेखक तो यहां तक गड़बड़ कर गए हैं कि इन्हीं लोगों को लाहौर भटिंडा के आनन्दपाल और राजपाल मानकर काबुल विजेता लिख दिया है। यही कारण है कि भटिंडे के इन जाट नरेशों को कुछ लोग भ्रम से राजपूत समझने की भूल कर गए हैं, हालांकि उन्हें इस सम्बन्ध में पूरा सन्देह रहा है।


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राजपाल के लिए भिन्न-भिन्न रायें होने के कारण सचाई की तह तक पहुचने के बाद भी मि. स्मिथ को उन्हें जाट लिखने में शायद जाट शब्द का प्रयोग करना पड़ा, जैसा कि उन्होंने लिखा है-

In the later part of tenth century the Raja of Bathindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.

अर्थात् - दसवीं शताब्दी के पिछले भागों में भटिंडा का राजा जयपाल था जो कि शायद एक जट या जाट था।

लेकिन मि. स्मिथ इस राज्य के सम्बन्ध में हमारे उस कथन का समर्थन भी करते हैं कि - उन उच्च राजवंशों में से, जिनका उल्लेख राजपूतों के भाटों ने उनकी वंशावलियों में किया है, वे दसवीं सदी तक पंजाब में कभी इतने बलवान नहीं हुए। जैसा कि हमने कहा है कि उन दिनों चौहानों का ही एक खानदान था, जो उत्तरी-भारत में कुछ महत्व रखता था। चौहानों के साथी परिहार, पंवार, सोलंकी भी राजपूताना, गुजरात और मध्य मालवा में कुछ अस्तित्व रखते थे। किन्तु पंजाब की ओर इनकी न कोई विशेषता पाई जाती है और न इनके इतिहास में ऐसा वर्णन आता है कि इनके किसी वंशज ने पंजाब में जा करके कोई राज्य स्थापित किया हो। इसी बात को भटिंडे के राजा के सम्बन्ध में मि. स्मिथ ने इस तरह लिखा है-

“Raja Jaipal of Bathindah. The rule of the Parihars had never extended across the Satlej, and the history of the Punjab between the seventh and tenth centuries is extremely obscure. At some time not recorded a powerful kingdom had been formed which extended from the mountains beyond the Indus eastward as far as the Hakra or lost river, so that it comprised a large part of the Punjab as well as probably northern Sind. The capital was (Bhatanda) Bathendah, the Tabarhind of Muhammadan histories, now in the Patiala state, and for many centuries as important fortress and the military road connecting Multan with India proper through Delhi. At that time Delhi, if in existence, was a place of little consideration. In the later part of tenth century the Raja of Bhatindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.”
अर्थात् - परिहारों का राज्य सतलुज से उस पार कभी नहीं बढ़ा। पंजाब का सातवीं और दसवीं सदियों के दरम्यान का इतिहास बिल्कुल अन्धकारमय है। किसी समय (जो लिखा नहीं गया है) एक शक्तिशाली राज्य बन गया था, जो कि

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पहाड़ों से इण्डस नदी के उस पार हकारा या खोई हुई नदी के पूर्व की ओर तक फैला हुआ था, जिसमें पंजाब का बड़ा भाग और शायद सिन्ध शामिल थे, जिसकी राजधानी बथिण्डा (भटिंडा) थी मुसलमान इतिहासों का तवरहिन्द है और अब पटियाला रियासत में है। यह बहुत शताब्दियों तक एक नामी किला था, जो फौजी सड़क पर मुल्तान और हिन्दुस्तान खास को देहली से जोड़ता था। उस समय यदि दिल्ली थी तो मामूली जगह थी। दसवीं शताब्दी के पिछले भाग में बथिण्डा (भटिंडा) का राजा जयपाल था जो शायद एक जट या जाट था।


कई शताब्दियों के पीछे लिखे जाने वाले इतिहासों में भ्रम और गलतियां हो जाना स्वभाविक है और उस समय इतिहास लिखने वाले की सूझ और दृष्टि अपने समय के उन्नत जातियों ही ओर से अधिक रहती है। जनरल कनिंघम ने ऐसी ही एक गलती का निर्देश अपने सिख इतिहास में की पाद-टिप्पणी में किया है। कर्नल टाड ने उमर-कोट के राजपरिवार को प्रमार या शक्ति-वंश-संभूत लिखा था, अर्थात् राजपूत स्त्री के लिए जनरल कनिंघम ने कहा है कि - इस राज परिवार को हुमायूं की जीवनी लिखने वाले ने प्रमार के राजा और उनके अनुचरों का जाट नाम से परिचय दिया है।1

हुमायूं की जीवनी लिखने वाले को, जो कर्नल टाड से कई शताब्दी पहले हुआ है, अमरकोट के राजा की जाति के सम्बन्ध में जितना अधिक सही पता हो सकता है, उतना टाड साहब को नहीं हो सकता। लेकिन जिस समय कर्नल टाड इतिहास लिख रहे थे, उस समय उनकी निगाह राजपूतों पर ही जाकर ठहर सकती थी क्योंकि उस समय जाटों की अपेक्षा, राजपूत अधिक उन्नत थे और भारतीय जाट उन्हें किसान दृष्टिगोचर होते थे। यही बात जयपाल के सम्बन्ध में कही जा सकती है। जैसलमेर के इतिहास में एक बात और देखते हैं कि जैसल जो कि भाटी राजपूत था, जयपाल के विरुद्ध महमूद-मजनबी के साथ मेल कर लेता है और भटिंडा के आसपास के जाट जयपाल के लड़के आनन्दपाल के साथ हजारों की तादाद में सिर्फ उनकी मान-रक्षा के लिए इकट्ठे हो जाते हैं और स्त्रियां अपने जेवर उतार करके युद्ध के खरचे के लिए दे डालती हैं। फिर कैसे माना जा सकता है कि वह जाट के सिवा कुछ और था? यही क्यों, मुल्तान के आसपास और झेलम के तटवर्ती जाट भी जब यह सुनते हैं कि महमूद आनन्दपाल का सर्वनाश करके लौट रहा है, तब वह उसके ऊपर बाज की तरह टूट पड़ते हैं। वे उसके प्राण ले लेना चाहते थे। यदि वह मैदान में अकड़ के साथ डट जाता तो यह निश्चय था कि वह यहां से जिन्दा बच करके नहीं जाता।

अब हम जयपाल तथा उसके वंशजों के इतिहास पर थोड़ा-सा प्रकाश डालते हैं। जिस समय सुबुक्तगीन गुलाम की सूरत से निकल करके गजनी का शासक


1. Memoirs of Humayoon. Page 45


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हुआ था और वह उत्तरोत्तर अपने राज्य को बढ़ा रहा था, उस समय महाराज जयपाल ने उसके देश पर चढ़ाई की। उनका राज्य सिंन्ध के प्रदेश तक फैल चुका था और वह अपने बुजुर्गों के राज्य गजनी और काबुल, कन्धार पर भी अधिकार जमाने के इच्छुक थे। इसीलिए उन्होंने सुबुक्तगीन के ऊपर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में सुबुक्तगीन को बड़ी हानि उठानी पड़ी और उसने महाराज को कुछ दे लेकर के विदा कर दिया। कुछ ही वर्षो के बाद उन्हें सुबुक्तगीन पर फिर चढ़ाई करनी पड़ी। इस बार सुबुक्तगीन सुलह के बहाने से लड़ाई को टालता रहा। इतने में शीतकाल आ गया और भारी बर्फ पड़ने के कारण उनकी फौज को बड़ी हानि उठानी पड़ी। हजारों मनुष्य ठिठुर कर मर गए। यह दुर्भाग्य की बात थी कि उस समय अत्यधिक पाला पड़ा। अब स्वयं महाराज को सुबुक्तगीन और उसके लड़के महमूद से सुलह का प्रस्ताव करना पड़ा और हरजाने में कुछ देने का वायदा भी करना पड़ा।

भारत में आने के बाद, ब्राह्मण मंत्रियों की राय से, महाराज जयपाल ने अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं किया। जब महमूद गजनी का मालिक हुआ तो उसने अपने पिता का बदला लेने के लिए तथा जयपाल की प्रतिज्ञा-भंग का स्मरण करके दस हजार सवार लेकर 391 हिजरी में, जयपाल के ऊपर चढ़ाई कर दी। चूंकि इधर कोई ऐसी भारी तैयारी न थी, इसलिए जयपाल की हार हो जाना स्वाभाविक था। महमूद लूट-मार करके भारत से लौट गया। दूसरी बार लूट के लालच से और जयपाल के राज्य को अपने राज्य में मिलाने के लिए फिर से भारत पर चढ़ाई की। इस बार महाराज जयपाल ने खूब डटकर सामना किया। महमूद भाग जाने ही वाला था कि एक राजकुमार महमूद से जाकर के मिल गया और यही नहीं, किन्तु मुसलमान भी हो गया। उसके मुसलमान होने का वर्णन इस प्रकार है - एक अत्यन्त सुन्दरी मुस्लिम बाला, जिसे पहली बार देखकर वह उस पर मोहित हो चुका था, के लोभ से वह मुसलमान हो गया और उसने जयपाल की हार के तमाम तरीके महमूद को बता दिए। सम्भव है यह राजकुमार अभिषार का युवराज सुखपाल रहा होगा। ‘गजनवी जहाद’ में मौलाना हसन निजामी लिखता है कि - कुछ समय के बाद यह फिर मुसलमान से हिन्दू हो गया। हिन्दू होने के बाद उसने महमूद के सूबेदारों को हिन्दुस्तान से मार भगाया। जयपाल की हार का कारण वह मुसलमान होने वाला राजकुमार ही था। चाहे वह सुखपाल रहा हो अथवा कोई और। महमूद इस लड़ाई को जीत अवश्य गया, किन्तु उसे तुरन्त ही हिन्दुस्तान से लौट जाना पड़ा। इस लड़ाई की हार से महाराज जयपाल को इतना बड़ा धक्का लगा कि उनका कुछ ही दिनों में प्राणन्त हो गया।

जयपाल के पश्चात्, उनके बड़े पुत्र आनन्दपाल राज्यधिकारी हुए। 396 हिजरी में आनन्दपाल को भी महमूद से युद्ध करना पड़ा। भाटना नामक स्थान में


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विजयराव नाम का एक बड़ा वीर राजा राज्य करता था, जो कि जयपाल के सम्बन्धियों में से था। उसने सरहद पर जो मुसलमान हाकिम रहते थे, उनको मार भगाया था। महमूद इसी बात का बदला लेने के लिए उस पर चढ़के आया। उसकी बहादुरी और युद्ध के सम्बन्ध में ‘गजनवी जहाद’ में हसन निजामी को विवश होकर लिखना पड़ा है कि - “राजा अपनी फौज और हाथियों की अधिकता के कारण बहुत अभिमान करता था। वह फौज लेकर मुकाबले के लिए निकला। दोनों फौजों में तीन दिन तक अग्नि वर्षा होती रही। विजयराव की फौज ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छूट गए।” इस लड़ाई में सुल्तान महमूद को अपनी भुजाओं के बल का विश्वास छोड़कर दरगाह में खुदा और रसूल के आगे घुटने टेकने पड़े। बेचारे की डीढ़ा पर मिन्नत के समय टप-टप आंसू गिरते थे। गजनी उसे बहुत दूर दिखलाई देता था।

विजयराव युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ। आनन्दपाल ने विजयराव के युद्ध में मारे जाने वाली घटना को सुना तो उसने यह निश्चय कर लिया कि अब की बार महमूद भारत पर चढ़कर के आए, तो उससे अवश्य बदला लूंगा। यही कारण था कि जब 396 हिजरी में महमूद मुल्तान के हाकिम अबुल फतह पर चढ़कर आया तो आनन्दपाल ने अबुलफतह को मदद दी किन्तु अबुलफतह महमूद के साथ मिल गया। फिर भी आनन्दपाल ने महाराज का सामना किया। महमूद भी चाहता था कि अब की बार आनन्दपाल के कुल राज्य पर अधिकार कर लूं, किन्तु हिरात में बगावत हो जाने के कारण उसे लौट जाना पड़ा।

399 हिजरी में महमूद ने आनन्दपाल के राज्य को नष्ट करने के लिए भारत पर फिर से चढ़ाई की। मुसलमानी लेखकों ने इस लड़ाई को बड़ा तूल दिया है और एक ही बार में महमूद को सिकन्दर से भी बढ़कर विजेता ठहरा दिया है। मुसलमान लेखक लिखते हैं कि - इस समय आनन्दपाल की सहायता के लिए उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, देहली और अजमेर के तमाम राजा अपनी-अपनी फौजें लेकर आए थे। विश्व विजयी सिकन्दर की सेना की अकेले पॉरुष से लड़ने के बाद इतनी हिम्मत न रही थी कि वह कोई और दूसरी लड़ाई लड़ सके, और महमूद जिसे कि विजयराव के कारण ही दरगाह की शरण लेनी पड़ी थी, इतने राजाओं पर एक साथ विजयी हो गया। जरा बुद्धि रखने वाला लेखक इस बात को सही नहीं मान सकता है। अजमेर में उस समय चौहानों का राज्य था। यदि वह अकेले भी आनन्दपाल के साथ होते तो यह कभी नहीं हो सकता कि आनन्दपाल हार जाता। आनन्दपाल के साथ जो कुछ भी फौज थी, वह उसके नव सिखुए प्रजाजनों की थी। खेद है कि कुछ हिन्दुस्तानी लेखकों ने भी मुसलमान लेखकों की इस डींग को सही मान लिया है। यह लड़ाई 40 रोज तक होती रही।


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अन्तिम दिन जयपाल के वीर सैनिक मुसलमानी फौज में घुस पड़े और 3-4 हजार मुसलमानों को आंख झपकते तलवारों और बर्छों की नौक पर रख लिया। महमूद के प्राण संकट में थे, उसे अल्लाह और रसूल एक साथ याद आ रहे थे। वह चाहता था कि आज लड़ाई मुल्तवी हो जाए कि अचानक आनन्दपाल का हाथी आतिशबाजी से डरकर भाग खड़ा हुआ। महमूद की यह ऐसी विजय थी जो उसे दैवयोग से मिल गई। 400 हिजरी के करीब जब आनन्दपाल मर गया तो उसके बेटे राजपाल का पुत्र जयपाल भटिंडा का मालिक हुआ। राजपाल आनन्दपाल के आगे ही मर चुका था। महमूद ने 404 हिजरी में, जबकि जयपाल भटिंडा में मौजूद था, उसकी राजधानी को लूट लिया। जब जयपाल को इसकी खबर लगी तो उसने महमूद को किला नूहकोट में जा घेरा, किन्तु महमूद ने उसकी फौज पहुंचने से पहले ही गजनी को कूच कर दिया था। इससे अगला आक्रमण महमूद का ग्वालियर का हमला हुआ, तो जयपाल ने ग्वालियर वालों की मदद की। इसे हम द्वितीय जयपाल कह सकते हैं। यह जब तक जिन्दा रहा मुसलमानों का सामना करता रहा।

राजा सरकटसिंह

पंजाबी दन्तकथाओं के आधार पर ‘सेरे पंजाब’ के लेखक ने इस राजा का थोड़ा-सा वर्णन किया है। शेखपुरा इलाके में एक मौजा ‘अम्बीका पत्ता’ नाम से प्रसिद्ध है। किसी समय में वहां एक राजा राज्य करता था। वह चौसर का बड़ा प्रसिद्ध खिलाड़ी था। उसने अनेक राजाओं के साथ चौसर खेली और वह सबसे जीता, कोई भी उसे न हरा सका। वह हारने वाले का सर काट लेता था, इसीलिए उसका नाम सरकाटसिंह व सरकट मशहूर हुआ। स्यालकोट में जिस समय राजा रसालू हुआ तो उसने इसे चौसर के खेल में जीत लिया। सरकट ने हारने के कारण रसालू से अपनी लड़की की शादी कर दी। संभव है इस दन्तकथा का अधिक सार न हो किन्तु यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इस स्थान पर कोई सरकट नाम का छोटा मोटा राजा था।

शेखपुरा में एक बाढ़ है। पंजाब में बाढ़ या बड़ घने जंगल को कहते हैं। शेखपुरा इलाके से यह बाढ़ आरम्भ होकर मुल्तान तक चला गया है। एक ओर गुजरांवाला तक इसका विस्तार हैं। यह बाढ़, इलाभट्टी के नाम से मशहूर है। दूसरा नाम इसका सन्दलबाड़ी है। तहसील हाफिजाबाद में पिण्डी भट्टियान नामक ग्राम है। दूलाभट्टी यहीं का रहने वाला था और इस समस्त बाढ़ के ऊपर उसका अधिकार था। सोलहवीं सदी में उसके जीवित होने का प्रमाण मिलता है। अपनी सेना के खर्च के लिए वह आस-पास के इलाकों पर आक्रमण किया करता था। शेखपुरा के तथा इस बाढ़ के आस-पास के भट्टी मुसलमान जाट इस बात को कहते


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हैं कि इला राज्य सरकट के खानदान में से था। यद्यपि इसका कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है, फिर भी ‘फरीदकोट के इतिहास’ और ‘सेरे पंजाब’ में इला और उसकी बाढ़ के सम्बन्ध में कुछ वर्णन अवश्य है। जयपुर राज्य में जाटों का एक चूलड़ गोत है, उनकी वंशावली रखने वाले भाटों ने उनके पूर्वज का नाम इला एवं इडड़ भट्टी लिख रखा है। इसमें सन्देह नहीं कि इलड़ एक प्रभावशाली और अपनी बाढ़ का स्वतन्त्र शासक था।

जलयुद्ध

जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, जाटों ने, महमूद गजनवी को भारत से लौटते वक्त लूट लिया था और उसे बहुत तंग किया था। क्योंकि वे उसके ऊपर भटिंडा राज नष्ट करने के कारण तथा देव-मन्दिरों को लूटने के कारण चिढ़े हुए बैठे थे। महमूद उस समय तो जान बचाकर भाग गया था, किन्तु 1027 ई. में उसने बड़ी तैयारी के साथ जाटों को नेस्तनाबूद करने के इरादे से चढ़ाई की। जदु के डूंग में उसका राज्य था, जो अभी तक प्रजातंत्री सिद्धान्तों पर चल रहा था। तारीख फरीश्ता ने इस युद्ध का हाल इस तरह से लिखा है कि

“यह युद्ध झेलम नदी में हुआ था। सुल्तान का भारी लश्कर मुल्तान की ओर पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने 1400 नावें तैयार कराई और हर एक नाव में लोहे की तीन नोकदार मजबूत और पैनी तीन शलाखें जड़वाई एक नाव की पेशानी पर और दो उसके दोनों बाजुओं पर। इन शलाखों के लगाने का मतलब......................प्रत्येक किश्ती में 20 सैनिक तीर कमान व तलवार बरछी लिये हुए बैठाए। जाटों ने सावधान होकर अपने बाल-बच्चों और स्त्रियों को टापुओं में भेज दिया और स्वयं मुकाबले पर तैयार हुए। चार हजार नाव एक दफै और फिर आठ हजार नाव नदी में छोड़ीं और हर एक नाव में एक जत्था सवार करा के मुकाबले को दौड़े। जब दोनों पक्षों का मुकाबला हुआ, तो भारी युद्ध होने लगा। किन्तु महमूद की किश्ती के सामने जो नाव आती वह डूब जाती। यहां तक कि समस्त जाट डूब गये और शेष तलवार की घाट उतरे। सुल्तान की सेना ने उनके बाल-बच्चों के सर पर जाकर सबको कतल किया और कैद भी किया। महमूद गजनी को लौट गया।”


कर्नल टाड ने इस पर यह टिप्पणी दी है कि फरिश्ता का यह कहना सत्य है कि सब जाट इस लड़ाई में खतम हो गये। हमारे विचार से महमूद और उसके साथियों के जाटों ने ऐसे दांत खट्टे किये कि फिर वे हिन्दुस्तान पर चढ़ाई करने की


1. तारीख फरिश्ता उर्दू तर्जुमा। नवलकिशोर प्रेस लखनऊ। पृ. 54-55


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हिम्मत न कर सके। महमूद ही क्या, उसके उत्तराधिकारी तक उस रास्ते से नहीं आये जिस रास्ते जाट पड़ते थे। किन्तु जाट महमूद से लगा कर तैमूर तक के होशों को बिगाड़ते रहे हैं। “वाकए राजपूताना” का लेखक लिखता है - यकीन है कि महमूद से सैकड़ों वर्ष बाद सन 1203 ई. उसके उत्तराधिकारी कुतुब को मजबूरन उत्तरी जंगल के जाटों से बजात खुद लड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने हांसी को स्वतन्त्र राज्य करना चाहा था और फीरोज आजम की लायक वारिस रजिया बेगम ने शत्रु डर से जाटों की शरण ली थी तो उन्होंने रजिया की सहायता के लिए गकरों की फौज जमा करके रजिया की सहायता में उसके शत्रु पर चढ़ाई की थी। वहां दुश्मनों पर विजय पा गई। जाट इस युद्ध में वीरता के साथ मारे गए। जब 1397 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था तो मुल्तान-युद्ध के समय जाटों ने उसे भारी अड़चन और कष्ट पहुंचाये। इसी बात से चिढ़कर तैमूर ने भटनेर पर हमला किया था।1

देशी-विदेशी सभी इतिहासकारों ने इस बात के लिए स्वीकार किया है कि 600 ई. में पहले का पर्याप्त इतिहास नहीं मिलता और 600 ई. से 1000 तक का जो इतिहास प्राप्त होता है, वह भी अपूर्ण है। फिर जाटों के इतिहास के सम्बन्ध में कहना ही क्या, जिन्होंने स्वयं भी इस बात की चेष्टा ही नहीं की कि उनका संगृहीत इतिहास हो? हम यह दावे से कहते हैं कि जाट-इतिहास की खोज बराबर चलती रहे, तो ईसा से 7 सदी पूर्व से 14वीं सदी तक पंजाब में हर जगह प्रत्येक कोने में जाटों के शासन करने का पर्याप्त इतिहास मिल सकेगा। हमें पंजाब में, सांगवाण और घनघस, मालिक, गठवाला आदि जाटों के ऐसे वर्णन मिलते हैं, जिन्होंने पंजाब के छोटे-छोटे प्रदेशों पर स्वतन्त्रातापूर्वक राज्य किया था। हमारे कथन की साक्षी इस छोटे से गीत से हो जाती है-

हरियाणा के बीच में एक गांव धणाणा

सूही बांधे पागड़ी क्षत्रीपण का बाणा।

नासे भेजे भड़कते घुड़ियान का हिनियाना।

तुरइ टामक बाजता बुर्जन के दरम्याना।

अपनी कमाई आप खात हैं नहिं देहिं किसी को दाणा।

बापोड़ा मत जाणियो है ये गांव धणाणा।”


अर्थात! इस गीत से मालूम होता है कि घनघस जाटों के 900 सैनिक हर समय तैयार रहते थे और राजसी ढंग से उनके सैनिक लड़ने के लिए गाजे-बाजे के साथ जाते थे। उनके पड़ौस में राजपूतों का बापोड़ा नामक गांव था। बापोड़ा वालों ने शाह दिल्ली को खिराज देना स्वीकार कर लिया था और जब धणाणा के जाटों के सामने यही प्रस्ताव पेश हुआ, तब उन्होंने कहा - “बापूड़ा मत जाणियो, है यह गांव धणाणा।” यदि इसी तरह का संग्रह किया जाए तो पंजाब के जाट-राज्यों का, जो कि


1. वाकए राजपूताना, जिल्द 3, लेखक मुन्शी ज्वालासहाय।


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मुस्लिम काल से पहले ही से अवस्थित थे, एक स्वतन्त्र इतिहास बन जाए। परिशिष्ट में ऐसे छोटे-छोटे राज्यों का कुछ संक्षिप्त वर्णन करेंगे। अब आगे के पृष्ठों में जाटों की उन कुर्बानियों और बहादुरियों तथा राज्यों का वर्णन किया जाता है जो कि सिख-धर्म के नवजीवन से हुए थे।

जाट जाति और सिख-धर्म

एक दिन जिस जाट जाति का आधे यूरोप और एशिया के प्रायः समस्त प्रदेश पर आतंक रहा था, एक समय उसी जाट जाति के लिए ऐसा भी आया कि वह शासन की बजाए शासित और असभ्य तथा सम्पत्तिशाली की जगह निर्धन समझी जाने लगी। इसका कारण यही था कि जिन तरीकों से उसने पिछले हजारों वर्षों से शासन किया था, वे अब फेल हो चुके थे। प्रजातंत्र का स्थान एकतंत्र ने ग्रहण कर लिया था। अब यह आवश्यक था कि सुदिन लाने के लिए इनकी मनोवृत्तियां बदली जातीं, किन्तु यह इन्हें पसन्द न था। हालांकि कुछेक उन्नत-मना जाट वीर एकतंत्र की ओर बढ़े और उन्होंने ‘जाट राज्य’ कायम भी किये। किन्तु जाति का अधिक भाग, उनके इस कार्य की ओर से उदासीन रहा। महाराज शालिवान हाला, शालेन्द्रजित, यशोवर्द्धन अनंदपाल, सुभाषसेद, मश्कसेन आदि महावीर ऐसे ही जाटों में से थे, जिन्होंने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति और जाति-हित के लिए एकतंत्र शासन स्थापित किये। किन्तु सम्पूर्ण जाति की इस कार्य में सहानुभूति न होने से इन राज्यों ने दो-तीन शताब्दियां भी न पकड़ीं।

जाट-कौम क्षात्र तेज रखते हुए भी अपने दुःख दूर करने तथा देश की सेवा करने में असमर्थ हो रही थी और वह समय अति निकट आने वाला था कि ‘जाट-जाति’ सदैव के लिए अथवा एक लम्बे अरसे के लिए उस स्थान पर पहुंच जाती, जहां से उसका उठना असम्भव हो जाता। परमात्मा की कृपा से ऐसे वक्त गुरुनानक प्रकट हुए जिससे कि इस जाति में फिर से नवजीवन का संचार हो गया। गुरुनानक के प्रचारित धर्म का नाम सिख-धर्म प्रसिद्ध हुआ। जाट जाति को इस धर्म से भक्ति, शक्ति, ओज और राज भी सब कुछ प्राप्त हुए। यद्यपि अभी तक इन्होंने अपने पूर्व-गौरव को प्राप्त नहीं किया है, किन्तु फिर भी उन्होंने वो स्थान प्राप्त कर लिया है, जिस पर कोई भी योद्धा जाति सन्तोष कर सकती है।

कालांतर में औरंगजेब के अत्याचारों का प्रतिकार करने के लिये भक्त सिखों को घोड़े की पीठ और तलवारों की मूठ सम्हालनी पड़ीं। वे संगठित हो गये। यह संगठन उनका प्रारम्भ में मिसलों के रूप में था। मिसल अरबी शब्द है जिसका भावार्थ दल होता है। प्रत्येक दल का एक सरदार होता था। उस सरदार की अध्यक्षता में दल के लोग इकट्ठे होकर उनकी आज्ञा का पालन करते थे। इस प्रकार के बारह दल अथवा मिसलें थीं। इन मिसलों की संगठित बैठक का नाम


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इन लोगों ने ‘गुरमता’ रख छोड़ा था। गुरमता का अर्थ ‘गुरु मन्त्रणा’ होता है। गोपनीय अथवा महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिये जो परिषद् होती थी, उसी का नाम गुरमन्त्रणा अथवा गुरमता था। इस तरह से सिख जाटों ने वहीं से उत्थान किया, जहां से कि उनका पतन हुआ था। किन्तु अबकी बार की उनकी प्रजातंत्र-प्रणाली नये रंग और नये विधान की थी। गुरमता में मिसलों के सरदार बैठते थे और वे सरदार अपनी सरदारी अपनी भुजाओं के पराक्रम से प्राप्त करते थे। उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता थी कि चाहे जितने देश पर वे अपना अधिकार जमाएं और चाहे जो कोई सरदार बन बैठे, यदि शक्ति रखता हो। गुरमता में निश्चय हुए प्रस्तावों के मानने के लिये वे बाध्य थे। किन्तु वास्तव में वे स्वयं ही गुरमता थे। सिखों की इन बारह मिसलों में आठ मिसलें जाटों द्वारा संस्थापित हुई थीं। चूकि हमारे इतिहास का सम्बन्ध जाटों से है, इसलिये हम इन्हीं आठ मिसलों का वर्णन करेंगे।

भंगी मिसल

इस मिसल के मनुष्य ‘भंग’ का अधिक व्यवहार करते थे, इसलिये ही उन्हें भंगड़ी अथवा भंगी नाम से लोग संबोधित करते थे।

अमृतसर से 8 मील के फासले पर पंजवार नाम का एक नगर है। चौधरी छज्जासिह यहां के एक प्रतिष्ठित जाट सरदार थे। जिन दिनों शहीदे-धर्म वीरबंदा का प्रचंड सूर्य चमक रहा था, छज्जासिंह उनकी वीरता और धैर्य पर मोहित होकर उनका शिष्य बन गया। स्वयं सिख बन जाने के बाद उसने भीमसिंह, मालासिंह, जगतसिंह को भी सिख बनाया। इन दोनों ने मिलकर एक छोटा सा दल बना लिया और फिर लूटमार आरम्भ कर दी। क्योंकि वे देखते थे कि असभ्य तातारी लुटेरे सहज में ही शासक बन गये। काबुल के भुक्कड़ पठानों ने भी उनके देखते-देखते ही पंजाब में अनेक छोटे-छोटे राज्य कायम कर लिये। थोड़े ही दिनों में उनकी शक्ति बहुत बढ़ गई, लूट-मार से काफी माल इकट्ठा कर लिया। उनकी संख्या बढ़ चुकी थी। अपने साथियों के लिये लूट का या तो वे कोई हिस्सा देते थे या उनके लिये मासिक वेतन नियुक्त कर रखा था। कुछ दिनों के बाद इस मिसल की सेना में 12000 सवार हो गये थे। छज्जासिंह के बाद भीमसिंह ने जो कि बड़ा योद्धा, शक्तिशाली और चतुर था, इस मिसल को नियमानुसार संगठित किया। चूंकि भीमसिंह के कोई सन्तान न थी, इसलिये उसने हरीसिंह को अपना दत्तक-पुत्र बनाया, जो कि उसका भतीजा होता था। हरीसिंह बड़ा बुद्धिमान, बलवान और दूरदर्शी था। उसने अच्छे-अच्छे जवां मर्द नौकर रखे । बढ़िया किस्म के घोड़े खरीदे, सौ-सौ कोस तक धावा मार करके धन इकट्ठा किया। उसके वक्त में उसके पास इतने सैनिक इकट्ठे हो गये कि उनकी मिसल ज्यादा धनवान बन गई और उसके मेम्बरों की संख्या 20000 तक जा पहुंची। उनकी छावनी गुलवाली में थी। हरीसिंह के समय में इस मिसल के अधिकृत इलाके की सीमा भी बहुत बढ़ गई।


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एक ओर स्यालकोट, कृपालु और भीसूपाल उनके कब्जे में आ गये, दूसरी ओर मगध और मालवा पर भी इन्हीं का कब्जा था। चीनोट, झंग तक और दूसरी तरफ पिंडी और डेराजात तक हमला करके लूटमार करते रहे। जम्मू पर भी चढ़ाई की और 12000 सवार लेकर कश्मीर में भी जा घुसे, किन्तु कश्मीर में उन्हें अधिक सफलता नहीं हुई। 1762 ई० में लाहौर से 2 मील तक कोट खोजा सैयद में बहुत सा मेगजीन और सामान इनके हाथ आया। अगले साल हरीसिंह ने कन्हैया और रामगढ़िया मिसलों के साथ मिलकर ‘कसूर’ में लूटमार की। इसके बाद वह अमरसिंह के साथ लड़ता हुआ मारा गया।

हरीसिंह के 5 लड़के थे। मगर मिसल ने हरीसिंह की मृत्यु के पश्चात् सरदारी उनमें से किसी को न दी और महासिंह मिसल का सरदार बना, और हरीसिंह के लड़के सिर्फ घुड़ चढ़े ही बने रहे। किन्तु थोड़े ही दिन के बाद महासिंह मर गया। इस बीच में मिसल के लोगों ने हरीसिंह के लड़कों में वे गुण देख लिए थे जो कि एक योग्य सरदार में होने चाहियें। इसलिए सरदारी हरीसिंह के बेटे झण्डासिंह को दी गई और सारी मिसल ने उनकी ताबेदारी स्वीकार कर ली। चन्दासिंह जो झण्डासिंह का भाई था, उसने बारह हजार सवार लेकर जम्मू के राजा रंजीतदेव के ऊपर चढ़ाई की और भयंकर युद्ध करता हुआ मारा गया। झण्डासिंह का आरम्भ से ही मुल्तान के ऊपर दांत था। वह शीघ्र से शीघ्र मुल्तान को अपने राज्य में मिला लेने की इच्छा रखता था। इसलिए उसने मुल्तान पर चढ़ाई की, किन्तु सन् 1766 और 1767 ई० में उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। तीसरी बात 1772 ई० में लहनासिंह तथा दूसरे सरदारों को साथ लेकर मुल्तान विजय कर ली और सरदार दीवानसिंह को वहां का किलेदार मुकर्रर किया। मुल्तान से वापस लौटते समय उन्होंने झंग, मानखेड़ा और काला-बाग फतेह किये, इससे पहले कसूर पर भी यह अधिकार जमा चुका था। झण्डासिंह ने अमृतसर में ईंटों का एक दुर्ग भी बनवाया, क्योंकि वह चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका अधिकार हो। यद्यपि अमृतसर में आज उसके दुर्ग के केवल खंडहर ही पाए जाते हैं, तो भी वह झण्डासिंह की महत्त्वाकांक्षा की सूचना देता है। थोड़े दिन के बाद झण्डासिंह ने रामनगर पर हमला करके दमदमा नामक तोप को प्राप्त किया, जो कि भंगी तोप के नाम से मशहूर है। इसी बीच में जम्मू के राजा रंजीतदेव और उसके बेटे वृजराजदेव में झगड़ा हो गया। कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह और सुरचकिया मिसल के सरदार चड़हटसिंह वजराजदेव की सहायता को गए। झण्डासिंह ने रंजीतदेव का पक्ष लिया। कई रोज तक युद्ध होता रहा। इसी युद्ध में झण्डासिंह एक गोली के निशाने से मारे गये। झण्डासिंह के बाद उसका भाई गण्डासिंह सरदार बना। उसने अमृतसर के बाजारों को बड़े बढ़िया ढंग से सजाया और दुर्ग की दीवारों को मजबूत किया। चूंकि झण्डासिंह जयसिंह के आदमियों के हाथ से मारा


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गया था, इसलिए गण्डासिंह उससे बदला लेने का स्वभावतः इच्छुक था। एक दूसरी वजह से भी उसे कन्हैया मिसल के साथ लड़ाई करने का अवसर मिल गया। उसका एक सरदार जो पठानकोट का अफसर था, मर गया। उसकी स्त्री ने अपनी लड़की कन्हैया मिसल वालों को दे दी और पठानकोट भी दे दिया। गण्डासिंह ने पठानकोट वापस मांगा। इन्कार होने पर चढ़ाई कर दी। दीना नगर में कई दिन तक युद्ध हुआ। गण्डासिंह इसी लड़ाई के अवसर पर बीमार होकर मर गया। उसके साथी लड़ाई छोड़कर भाग गये और उन्होंने गण्डासिंह के भतीजे देसासिंह को अपना सरदार चुना। इसके समय में तैमूरशाह ने पंजाब को वापस लेने का पुनः संकल्प किया और अपने एक मित्र फैजुल्ला को सेना भरती करने के लिये भेजा। खैबर की घाटी में पहुंच कर फैजुल्ला ने बहुतेरे पठान जमा कर लिये, किन्तु पेशावर पहुंच कर वह तैमूरशाह के विरुद्ध हो गया और उसे कत्ल करने का षड्यन्त्र रचने लगा। किन्तु वह और उसका बेटा दोनों पकड़ कर कत्ल कर दिये गए। तैमूरशाह ने मुल्तान पर अपनी सेना भेजी, किन्तु देसासिंह के साथी जाट-सिखों ने उस फौज को पीछे की ओर भगा दिया। अपनी फौज की इस हार से चिढ़कर तैमूरशाह सन् 1778 ई० में स्वयं मुल्तान पर चढ़कर आया। इस युद्ध में बहुत से सिख मारे गये और विजय लक्ष्मी भी उनके विरुद्ध रही। तैमूरशाह ने शुजाखां को मुलतान का गवर्नर नियुक्त किया। 1782 ई० में देसासिंह रणजीतसिंह के पिता महासिंह के साथ मारा गया।

सरदार हरीसिंह का एक जनरल गुरुबक्ससिंह था। इसने लेहनासिंह सिंधानवाला को अपना दत्तक बनाया। गुरुबक्ससिंह के मारे जाने पर लेहनासिंह और गुरुबक्ससिंह के दौहित्र में झगड़ा हुआ। किन्तु समझदार सिखों ने आधी बांट पर दोनों की सन्धि करा दी। इन दोनों ने सरदार शोभासिंह और कन्हैया के साथ मिलकर 1765 ई० में काबुलीमल के भाग जाने पर लाहौर पर अधिकार कर लिया था और अब्दाली के आने पर तीनों सरदार लाहौर खाली कर गए और उसके भारत से वापस होते ही फिर लाहौर पर अधिकार जमा लिया और 30 वर्ष तक लाहौर पर शासन करते रहे। 1793 ई० में काबुल के शाहजवां ने सेना लेकर पंजाब पर चढ़ाई की, किन्तु उसके देश में विद्रोह खड़ा हो जाने से उसे तो वापस लौटना पड़ा, पर उसका सरदार अहमदखां सिखों से युद्ध करने के लिए रह गया। सिखों ने उसे ऐसी परास्त दी कि फिर वह भारत में न ठहर सका। 1796 ई० में शाहजवां भारत की ओर फिर आया। चिनाब को पार करके अमीनावाद के रास्ते, रावी के किनारे, शाहदरा पहुंच कर अपना एक जनरल लाहौर को रवाना किया। सिख सरदार लाहौर के किले की चाबियां मियां चिरागशाह के हवाले करके बाहर चले गए। शाहजवां लाहौर में प्रविष्ट हुआ। उसने सिखों से राजीनामा कर लिया। लेकिन जब वह वापस लौट गया तो लहनासिंह और शोभासिंह ने


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फिर लाहौर पर अधिकार कर लिया, किन्तु इसी वर्ष वे दोनों मर गए और उनके बेटे चेतासिंह व मोहरसिंह लाहौर के शासक बने। चूंकि ये कमजोर थे और उधर पंजाब केसरी महाराज रणजीतसिंह का प्रताप बढ़ रहा था, अतः 1799 ई० में उनसे रणजीतसिंह ने लाहौर को छीन कर अपने कब्जे में कर लिया।

देसासिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा गुलाबसिंह सरदार हो गया था। वह पहले कुछ दिनों तक कसूर के पठानों के विरुद्ध लड़ता रहा, किन्तु जब उसने सुना कि महाराज रणजीतसिंह ने लाहौर ले लिया है तो उसको बड़ा दुख हुआ। उसने कुछ पठानों और सिक्खों की शक्ति संचय करके लाहौर पर धावा बोल दिया। भसीन के मैदान में दोनों ओर से लड़ाई हुई। गुलाबसिंह अधिक मदिरापान करने के कारण लड़ाई में ही मारा गया। इसके बाद उसका बेटा गुरुदत्तसिंह भंगी मिसल का सरदार बना। उसकी उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी, किन्तु फिर भी उसकी इच्छा थी कि रणजीतसिंह से बदला लिया जाए। इसी इरादे से वह सेना संग्रह करने लगा। किन्तु रणजीतसिंह को इसका पता लग गया और उससे पहले ही रणजीतसिंह ने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। गुरुदत्तसिंह और उसकी मां भाग कर रामगढ़ पहुंच गए। कहते हैं कि पीछे रणजीतसिंह ने उनके निर्वाह के लिए कुछेक गांव दे दिए थे । पर कुछ दिनों बाद वे भी जब्त कर लिए। यही नहीं, किन्तु जहां-जहां भी भंगी मिसल के अधिकार में इलाके थे, उन सब पर अपना अधिकार कर लिया। करमसिंह को चनोट से, साहबसिंह को गुजरात से निकाल बाहर किया। यह याद रहे लाहौर लेने के बाद गूजरसिंह ने उत्तर की ओर का प्रदेश भी विजय करना आरम्भ कर दिया था। गुजरात को उसने मुबारिकखां गक्कड़ से विजय किया था। इसके अतिरिक्त उसने जम्बू तक कई प्रदेश विजय किए थे। इस तरह से खून बहा कर भंगी सरदारों ने जो विस्तृत प्रदेश अधिकृत किया था, वह महाराज रणजीतसिंह के अधीन हो गया और भंगी मिसल का नाम केवल इतिहास में उल्लेख करने को रह गया। हां, शहर अमृतसर से मोहल्ला तथा किला भांगयान उनके अभ्युदय की अवश्य स्मृति दिलाते हैं।

मिसल रामगढ़िया

इनका अधिकार अहलवालियां और उलेवालियां मिसलों के बीच के प्रदेश पर था। ईछूगल गांव जिला लाहौर में भगवाना नाम ज्ञानी के घर में जस्सासिंह पैदा हुआ। वह सिक्ख-धर्म ग्रहण करके साधुओं की सी जिन्दगी बिताने लगा। कुछ दिन के बाद वह नोधासिंह के साथियों में मिल गया। नोधासिंह गोवा के एक जाट सरदार खुशहालसिंह का लड़का था। खुशहालसिंह ने वीर बंदा के साथ मिलकर के मातृभूमि की सेवा सीखी थी और थोड़े दिनों में उसके पास इतनी सेना


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संचित हो गई कि उसने एक अलग मिसल स्थापित कर ली, जो रामगढ़िया मिसल के नाम से मशहूर हुई। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी नौंदसिंह ने जस्सासिंह, मालासिंह और तारासिंह नाम के साहसी और वीर लोगों को अपना साथी बनाया। जस्सासिंह जो कुछ दिनों पहले पूरा ज्ञानी था, इन लोगों के साथ मिलते ही वीर सिक्खों में गिना जाने लगा। नोदसिंह के ये तीनों साथी तरखान जाति के बताये जाते हैं। जब द्वाबा जालन्धर के सिक्खों और अदीनावेगखां सूबेदार में झगड़ा आरम्भ हुआ तो सिक्खों ने जस्सासिंह को अपना वकील बनाकर अदीनावेग के पास भेजा। अदीनावेग ने इससे प्रसन्न होकर अपने एक इलाके का इसे सूबेदार नियत कर दिया। कुछ दिन के बाद जब अदीनावेग मर गया तो जस्सासिंह अपने इलाके का स्वतन्त्र अधिकारी बन बैठा। नौंदसिंह की मृत्यु के पश्चात् रामगढ़िया मिसल के सिक्खों ने जस्सासिंह को अपना सरदार मान लिया। इस तरह से जाट-सिक्खों के हाथ से निकल कर यह मिसल तरखान सिक्खों के हाथ में पहुंच गई। जस्सासिंह ने अमृतसर और गुरदासपुर के जिलों पर भी अधिकार कर लिया था। पहले तो वह कन्हैया मिसल के जाट-सिक्खों के साथ मिल करके मुसलमानों के साथ लड़ाइयां लड़ता रहा, लेकिन आगे चल करके उसने कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह से झगड़ा पैदा कर लिया। इस कारण से बटाला और कनानौर जयसिंह ने उससे छीन लिए। दोनों दलों में लड़ाई छिड़ गई। बटाला तो उसके हाथ आ गया, किन्तु कनानोर में उसे ऐसी हार हुई कि वह सतलज पार भाग गया और हिसार में अपना स्थान बना कर देहली तक लूट-मार करता रहा। कुछ दिनों के बाद, जब कन्हैया और सुकरचकिया मिसलों में अनबन हुई, तो सुकरचकिया सरदारों ने जस्सासिंह को अपनी सहायता के लिए बुला भेजा। उसने आकर अपने तमाम अधिकृत प्रदेशों पर फिर से अधिकार जमा लिया, किन्तु 1880 ई० में महाराजा रणजीतसिंह ने उसका समस्त प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया और जस्सासिंह को पेन्शन दे दी। 1886 ई० में जस्सासिंह का देहान्त हो गया।

कन्हैया मिसल

लाहौर से 15 मील की दूरी पर कान्हा गांव में खुशालसिंह नामक एक जाट चौधरी निवास करते थे, जो कि बड़े सीधे और सरल स्वभाव के थे। उनके पुत्र का नाम जयसिंह था। जयसिंह बड़ा वीर और साहसी पुरुष था। उसने सिक्ख-धर्म की दीक्षा कपूरसिंहजी फैजलपुरिया से ली और अमरसिंह नाम के डाकू के साथ मिल कर छापा मारने लगा। इस काल में उसने इतनी उन्नति तथा प्रसिद्धि प्राप्त की कि आसपास के हजारों आदमी उसके साथ शामिल हो गए। इस तरह से उसने एक नई मिसल स्थापित कर दी। चूंकि यह कान्हा गांव का रहने वाला था, इसलिए इस मिसल का नाम कन्हैया मिसल हुआ।


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कांगड़े के राजा संसारचन्द्र और नवाब शेफ-अली खां किलेदार में झगड़ा हो गया। संसारचन्द्र ने किले पर अधिकार प्राप्त करने के लिए जयसिंह को अपनी सहायता के लिए बुलाया। जयसिंह के कांगड़ा पहुंचने के वक्त तक शेफ-अली खां मर चुका था और उसका लड़का जीवनखां किले को अधिकार में किए हुए था। जयसिंह ने जीवनखां को डरा धमका कर किले पर अधिकार कर लिया और राजा संसारचन्द्र को भी धता बता दिया। जयसिंह युद्ध करने में अति निपुण था। रामगढ़िया मिसल के सरदार जयसिंह को इसने सतलज पार खदेड़ दिया था। जम्बू की चढ़ाई में इसने रणजीतसिंह व उनके पिता महासिंह की सहायता की थी और जम्बू की लूट के माल में से बंटवारा कराने के लिए प्रस्ताव रखने के कारण रणजीतसिंह से इनकी अनबन हो गई। चूंकि निर्भयता और वीरता इसके अन्दर कूट-कूट कर भरी हुई थी इसलिए रणजीतसिंह के बाप महासिंह के साथ युद्ध छेड़ दिया। महासिंह ने राजा संसारचन्द्र और जस्सासिंह को सहायता के लिए बुलाया जो कि इसके पुराने शत्रु थे। इस तरह से तीन शक्तियों ने गुट बना कर जयसिंह को नष्ट करना चाहा। किन्तु जयसिंह इस समाचार को सुनकर के घबराया नहीं, उसने तुरन्त ही अपने सरदार गुरबक्ससिंह को जस्सासिंह की रोक के लिए सतलज के इस पार भेज दिया। पटियाला के निकट युद्ध हुआ। गुरबक्ससिंह मारा गया। एक दूसरी लड़ाई जस्सासिंह से उसी समय और हुई। इस वक्त जयसिंह का लड़का गुरबक्ससिंह जस्सासिंह के सामने आया, किन्तु वह भी मारा गया। इस तरह से एक तरफ जयसिंह के धन जन की हानि जस्सासिंह के द्वारा हो रही थी और दूसरी तरफ भागे हुए संसारचन्द्र ने पहाड़ों से उतर कर जयसिंह के इलाके लूटना आरम्भ कर दिया। इस समय जयसिंह ने एक बुद्धिमानी और चालाकी का यह काम किया कि रणजीतसिह से अपनी पोती की शादी करके उसके बाप महासिंह को अपना सम्बन्धी बना लिया। इस तरह से तीन शत्रुओं द्वारा जो उसका राज्य नष्ट होने वाला था, उसकी रक्षा कर ली। जयसिंह ने यद्यपि राज की रक्षा कर ली थी, किन्तु पुत्र-शोक में थोड़े ही वर्षों बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके बेटे गुरबक्ससिंह की रानी सदाकौर राज्य की मालिक हुई ।

रानी सदाकौर बड़ी निपुण और योग्य शासक थी। वह अनेक लड़ाइयों में भी सम्मिलित हुई थी। उन्होंने रणजीतसिंह के पिता महासिंह के मर जाने पर दोनों ही राज्यों का काम संभाला था। रणजीतसिंह की वह बड़ी कड़ी देखरेख रखती थी। कई बार युद्ध-भूमि में उन्होंने महाराज की सहायता की थी। इनके पास बहुत सा धन और जवाहरात थे। इनकी शारीरिक मजबूती का पता इस घटना से चल जाता है कि जिस समय उनका पति युद्ध में मारा गया था और फौज तितर-बितर हो गई थी, वह नंगे पांव भागकर बटाला में आ पहुंची। इनका राज्य अमृतसर


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से उत्तर की ओर पहाड़ी प्रदेश में था और उसमें कांगड़ा, कलानोर, नूरपुर, यकरिपान, हाजीपुर, पठानकोट, अटलगढ़ आदि प्रसिद्ध नगर थे।

तरुण होने पर महाराज रणजीतसिंह को अपनी सास सदाकौर की संरक्षता अखरने लगी थी। वह उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करने लगे। कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने राजी सदाकौर के इलाके को अपने राज्य में मिला लेने का यत्न आरम्भ कर दिया। जब कहने सुनने से भी रानी सदाकौर अपना राज्य रणजीतसिंह को देने के लिए तैयार न हुई तो उन्होंने बलपूर्वक उनके राज्य को जब्त कर लिया और सरदार कन्हैयासिंह के निकट सम्बन्धियों को कुछ गांव जागीर में दे दिए। सन् 1800 ई० में रानी सदाकौर का देहान्त हो गया और इस तरह से यह मिसल समाप्त हुई ।

नकिया मिसल

इस मिसल का संस्थापक चौधरी हेमराज का पुत्र हीरासिंह था। यह मौजा भरवाल के रहने वाले थे। रावी नदी के किनारे, लाहौर से पश्चिम की ओर, नक्का नाम इलाके में रहने के कारण, इनकी मिसल का नाम नकिया मिसल पड़ा। गोत्र इनका सिन्धु था। आरम्भ में इनकी आर्थिक अवस्था कुछ अच्छी न थी। हीरासिंह सिख होने के बाद लुटेरे दल में सम्मिलित हो गया और धीरे-धीरे यहां तक शक्ति बढ़ा ली कि उसकी एक अलग मिसल बन गई और हीरासिंह उस मिसल का सरदार बन गया। बहुत से सवार और प्यादे हो जाने के पश्चात् राज्य की बुनियाद भी डाल दी। सतलज नदी के किनारों तक अनेक स्थानों पर कब्जा कर लिया। पाकपट्टन में उस समय शेखसुजान कुर्रेसी का अधिकार था। वहां गौवध खूब होता था। यह बात जब हीरासिंह तक पहुंची तो वह आगबबूला हो गया और उसने शेख पर चढ़ाई कर दी। दैवात् हीरासिंह के सिर में गोली लगी और इस तरह उस धर्मयुद्ध में शहीद हुआ। चूंकि उसका लड़का नाबालिग था, इसलिए भतीजे नाहरसिंह ने सरदारी सम्हाली । किन्तु तपेदिक के रोग से एक ही साल में मर गया और मिसल की सरदारी उसके छोटे भाई वजीरसिंह के हाथ में आ गई। अब तक इस मिसल के पास नौ लाख का इलाका आ चुका था, जिसमें शाकपुर, मांट-गोमरी, गोगेरा प्रसिद्ध इलाके थे। 1872 ई० में इस मिसल की सरदारी और राज्य की हुकूमत सरदार भगवानसिंह के हाथ में आई। भगवानसिंह ने भी सैयद पर चढ़ाई की और गौवध के उठा देने के लिए होने वाले पाक-पट्टन के युद्ध में मारा गया। भगवानसिंह के मरने के बाद उसका भाई ज्ञानसिंह राज्य का मालिक हुआ। ज्ञानसिंह के दो पुत्र थे - खजानसिंह और काहनसिंह। 1804 ई० में ज्ञानसिंह के मर जाने पर महाराज रणजीतसिंह ने इस राज्य को जब्त कर लिया और काहनसिंह तथा खजानसिंह को


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15000 की जागीर देकर रियासत से पृथक् कर दिया । महासिंह नाम का सरदार हीरासिंह के निकट सम्बन्धियों में से था। महाराजा रणजीतसिंह ने इसको भी जागीर दी। यद्यपि इस मिसल वालों ने रणजीतसिंह को अपनी लड़की देकर सम्बन्ध स्थापित कर लिया था, किन्तु महत्त्वाकांक्षी महाराज रणजीतसिंह ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसका कुछ भी खयाल न कर, अपने राज्य में मिला लिया।

निशान वालिया मिसल

इस मिशल के संस्थापक दो बहादुर जाट - संगतसिंह और मोहरसिंह थे, जो सतलज के निकटवर्ती प्रदेशों में दस हजार सवार इकट्ठे करके जाट राज्य संस्थापित करने की चेष्टा करने लगे। अम्बाले को अपना केन्द्र स्थान बनाया। दूर-दूर तक छापे मार करके धन लाते थे क्योंकि बगैर धन के न राज्य कायम हो सकते हैं, न फौज रखी जा सकती है। एक बार तो मेरठ शहर तक इन्होंने धावा बोला और वहां से बहुत सा धन लूटकर लाये। ये लोग अपनी फौज के साथ निशान रखते थे इसलिए इनकी फौज का नाम निशान वालिया पड़ा। संगतसिंह के मर जाने पर कुल राज्य का भार मोहरसिंह के हाथ आ गया। कुछ समय के पश्चात् महाराज रणजीतसिंह ने दीवान मोहमकचन्द को इसलिए इनके देश में भेजा कि वह युद्ध के बान निशान वालिया राज्य को अपने राज्य में मिला लें। निशान वालिया सिक्खों ने मोहकमचन्द का डटकर सामना किया किन्तु वे हार गए और किला अम्बाला मोहकमचन्द के हाथ पड़ गया। खजाना और वस्तु-भंडार लूट लेने के बाद महाराज रणजीतसिंह ने इस राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह निशान वालिया का भी अन्त हो गया।

करोड़सिंह मिसल

इस मिसल का संस्थापक पंजगढ़ नामक स्थान का रहने वाला युवक करोड़सिंह था। जगाधरी के समीप चलौंदी को सदर मुकाम बनाकर इसने लूटमार आरम्भ कर दी। थोड़े ही दिनों में 12000 सेना इसके पास एकत्रित हो गई। अनेक लूटमारों में इसके हाथ बहुत सा धन पड़ा था। जालन्धर को इसने अपने राज्य में मिला लिया था और सीमांत प्रदेश पर भी आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया था। करोड़सिंह के मर जाने के बाद उसकी जगह बघेलसिंह सरदार हुआ। जब 1778 ई० में सिक्खों ने सीमाप्रान्त पर अधिकार कर लिया और उसकी खबर देहली में पहुंची तो बादशाह आलम ने सिक्खों के दमन करने के लिए सेना भेजी। बघेलसिंह उस समय अन्य सिक्ख लोगों का साथ छोड़ कर अलग हो गया। शाहआलम की फौज को तो कुलकिया सरदारों ने मारकर भगा


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दिया। बघेलसिंह के मारे जाने के बाद उसके एक मित्र का लड़का जोधासिंह इस मिसल का सरदार नियत हुआ। महाराज रणजीतसिंह ने जबकि अंग्रेज दूत उनके पीछे सन्धि के लिए लगे फिरते थे, इस मिसल को अपने राज्य में शामिल कर लिया। किन्तु चूंकि गवर्नमेंट अंग्रेज सतलज पार के रईसों को रक्षा का विश्वास दिला चुकी थी, इसलिए महाराज ने अंग्रेज सरकार के कहने पर इस इलाके को वापस कर दिया। अंग्रेजों ने भी कुल इलाके को तो बघेलसिंह की औलाद के पास नहीं रहने दिया, किन्तु कुछ भाग उनकी औलाद के पास अब तक जागीर में चला आता है। इस मिसल का दूसरा नाम पंजगढ़िया मिसल भी था।

फुलकियां मिसल

इस मिसल की अब तक पंजाब में पटियाला, नाभा जैसी प्रसिद्ध रियासतें मौजूद हैं। भट्टी जाट फूलसिंह द्वारा संस्थापित होने के कारण यह मिसल फुलकियां मिसल कहलाती है। फूलसिंह (फूल) की ताकत इतनी बढ़ गई कि उसने जगराम के नवाब को कैद कर लिया था। महरान से 5 मील के फासले पर अपने नाम से एक गांव भी बसाया था। फूल बादशाही सूबेदारों से सदैव मुकाबला करता रहता था। उसके सात बेटे हुए। पटियाला, नाभा, झींद, मदोर, मलोद वगैरह खानदान उन्हीं के वंशजों के स्थापित किये हुए हैं। अन्तिम दिनों में सीमा प्रान्त के नाजिम ने फूलसिंह को कैद कर लिया था। सन् 1656 ई० में सेरसाम की बीमारी से फूल की मृत्यु हो गई। उसके स्थान पर उसका बेटा रामचन्द्र सरदार बना जिसने मुसलमानों के साथ बहुत सी लड़ाइयां कीं। 1714 ई० में उसे अपने ही एक सरदार ने कत्ल कर डाला। रामचन्द्र का तीसरा बेटा आलासिंह उसका उत्तराधिकारी बना और बरनाला को आलासिंह ने अपना केन्द्र स्थान बनाया। 1695 ई० में आलासिंह का जन्म हुआ था और 1731 ई० में उसने शाही सेना पर एक बड़ी विजय प्राप्त की थी। उसकी इज्जत बहुत बढ़ गई और उसके पास सिक्खों का जमघट रहने लगा। राजपूत और मुसलमानों से उसकी बहुत सी लड़ाइयां हुईं। 1757 ई० में उसने राजपूत और मुसलमानों को एक बड़ी पराजय दी। महमूदशाह ने उसको एक पत्र इस इरादे से लिखा कि वह नवाब सरहिन्द की सहायता करे। 1762 ई० में अहमदशाह अब्दाली ने बरनाला पर चढ़ाई की, किन्तु उसकी रानी फत्तो ने चार लाख रुपया देकर अब्दाली से संधि कर ली। कुछ ही दिनों बाद अब्दाली ने आलासिंह को ‘राजा’ की पदवी से विभूषित किया। पटियाला राज्य के संस्थापक राजा आलासिंह ही हैं। इसी फूल वंश में सरदार गुरदत्तसिंह हैं जिन्होंने कि [Nabha|नाभा]] राज्य की नींव डाली है। जींद के राज्य को कायम करने वाले राज गजपतसिंह भी फूल खानदान के चमकते हुए सितारे थे। इन लोगों ने अपने बाहुल्य से जहां हिन्दू धर्म की रक्षा की, वहां अपने लिए भी राज्य


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-231


कायम कर लिए। लेकिन महाराज रणजीतसिंह फूल खानदान की सभी रियासतों को उसी भांति अपने राज्य में मिला लेना चाहते थे, जैसे कि अन्य मिसलों के राज्य मिला लेना चाहते थे। इन्होंने अंग्रेज सरकार से संधि करके तथा महाराज रणजीतसिंह को बड़ी-बड़ी भेंट देकर अपने अधिकृत प्रदेश की रक्षा कर ली। फुलकियां मिसल का विस्तृत वर्णन आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा है। अतः उस पर अधिक प्रभाव डालने की आवश्यकता हम नहीं समझते।

फैजलपुरिया मिसल या सिंहपुरिया मिसल

अमृतसर के पास बुआवा जालंधर में फैजुलपुर एक गांव है। यहीं के जाट सरदार कपूरसिंह ने इस मिसल को कायम किया। कपूरसिंह को फर्रुखशियर के समय में नवाब का खिताब मिला था और वह खालसा का बड़ा लीडर बन गया। उसके धर्मोपदेश के जोश के कारण अगणित जाट सिख धर्म में शामिल हो गये। यहां तक कि पटियाले के राजा आलासिंह ने भी उसके हाथ से सिख धर्म की दीक्षा ली थी। ढाई हजार सवार हर समय उसके पास तैयार रहते थे। देहली तक लूट मार करने में इसको कोई रोकने वाला नहीं था। सतलज के दोनों किनारों पर इसका अधिकार हो गया। सभी मिसलों के सरदार इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे, और सबकी निगाह में नवाब कपूरसिंह महात्मा था। इसके राज्य के प्रमुख स्थानों में से जालन्धर, नूरपुर, बहरामपुर, पट्टी और भरतगढ़ के इलाके विशेष उल्लेखनीय हैं। इसकी मृत्यु के बाद इसका बेटा खुशहालसिंह रियासत और मिसल का सरदार बना। खुशहालसिंह ने भी बहादुरी के साथ इस मिसल का नेतृत्व किया। 1795 ई० में खुशहालसिंह की मृत्यु के पश्चात् मिसल का सरदार उसका पुत्र बुधसिंह हुआ, जिससे महाराज रणजीतसिंह ने कुल प्रदेश जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। किन्तु पीछे जब महाराज रणजीतसिंह की ब्रिटिश गवर्नमेंट से मित्रता हुई और दोनों राज्यों की सीमा बन्दी हुई तो इसका इलाका ब्रिटिश गवर्नमेंट की हद में आ गया, जिसमें से कुछेक देहात बुधसिंह की औलाद के पास अब तक हैं।

सिख धर्म के लिये जाटों के बलिदान

यों तो सिक्ख धर्म से पंजाब के जाट उत्कर्ष को प्राप्त हुए, या यों कहना चाहिये कि उनकी एकदम से काया ही पलट गई, परन्तु सिक्ख-धर्म के लिये जाटों ने बलिदान भी अपूर्व किये। बाबा नानक गुरु से लेकर उन्होंने नवें गुरु तक उनकी पूरी सहायता की और गुरु गोविन्दसिंह के समय से तो अपने सर्वस्व से बढ़ कर सिक्ख-धर्म को मान लिया था और यही कारण था कि वे सिक्ख-धर्म पर ज्यादा संख्या में कुरबान हुए और इसमें भी सन्देह नहीं कि दुर्द्धर्ष पठानों की नृशंसता के काल में, सिक्ख-धर्म इन्हीं की वजह से उन्नति को प्राप्त हुआ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-232


गुरु गोविन्दसिंह ने, देवी के बलिदान के बहाने, जो सिक्खों की परीक्षा ली थी और जिसमें केवल पांच ही व्यक्ति उत्तीर्ण हुए थे, उसमें भी धर्मसिंह नामक जाट ने बलिदान के लिये आगे बढ़कर जाटों को उस परीक्षा में उत्तीर्ण कर दिया। यही क्यों, ‘सैरे पंजाब’ के लेखक के शब्दों में वह जाट ही थे, जो कि गुरु गोविन्दसिंह के लिये उस हालत में प्राण देने को बढ़े जब कि उनके पारिवारिक जन और स्त्री, पुत्र तक इस बात के लिये राजी नहीं हुए कि गुरु गोविन्दसिंह की एवज में देवी पर अपना सर चढ़ा दें। ‘पंजाब सैर’ में यह घटना इस प्रकार लिखी है - “गुरु गोविन्दसिंह ने नैना देवी को जो कि माखूबाल में स्थित है, ब्राह्मण और पंडों से पूजा तथा हवन करवा कर प्रसन्न किया। देवी ने होम से प्रकट होकर गोविन्दसिंह के हाथ में तलवार दी। यह उस देवी के तेज को बरदाश्त न कर सके और बेहोश होकर गिर पड़े। देवी गायब हो गई। ब्राह्मणों ने गोविन्दसिंह को होश में लाने के लिए यह तजबीज पेश की कि किसी आदमी का सर होम में चढ़ाया जाए। उनके कुटुम्ब वालों में से जब कोई राजी नहीं हुआ, तो ब्राह्मणों ने गुरु गोविन्दसिंह की पत्नी से उसके पुत्रों का सर चढ़ाने के लिए कहा, लेकिन उसने इन्कार कर दिया। यह देख कर जाट-सिक्खों ने अपना सिर देकर गोविन्दसिंह को बचाने के लिए इच्छा प्रकट की कि उनके सर चढाये गए। गुरु गोविन्दसिंह अच्छे हो गए। आकाशवाणी हुई कि औलाद जाट-सिक्खान को राज्य प्राप्त होगा, क्योंकि उन्होंने अपने सर चढ़ा दिये हैं।” इसी कथन का जनरल कनिंघम ने भी अपने सिक्ख-इतिहास में उल्लेख किया है।

सम्वत् 1758 विक्रमी में जिस समय गुरु गोविन्दसिंह की राजा अजमेरचन्द के साथ में लड़ाई हुई तो उस समय भी गुरु की रक्षा के लिए रामसिंह नामक जाट सिक्ख ने अपने प्राण दिये। घटना इस तरह से है कि - लड़ाई के समय में गुरु गोविन्दसिंहजी अपनी पगड़ी बांध रहे थे। कीर्तिपुर के किले के किलेदार ने इनको तोप के गोले से उड़ा देना चाहा। गोला छोड़ दिया गया और गुरुजी का काम तमाम होने ही वाला था कि रामसिंह गुरुजी के आगे जाकर खड़ा हो गया। तुरन्त उसका सिर गोले से उड़ गया और इस तरह से उसने अपने प्यारे सिक्ख-धर्म के नेता के लिए अपने को बलिवेदी पर चढ़ा दिया।

सिक्ख-धर्म पर शहीद होने वाले सैंकड़ों जाटों में से दो एक का संक्षिप्त वर्णन यहां और देते हैं। मांझदेश के पूलापुर नामक ग्राम में तासूसिंह नाम के एक जाट जमींदार थे। एक वृद्ध माता और 13, 14 वर्ष की एक कुआरी बहन के सिवाय और कोई उनके परिवार में नहीं था। वे इतने धर्म-प्रिय थे कि खेत में जो कुछ पैदा होता, उस सबको (तीन प्राणियों के खरच से बचे हुए को) पंचखालसा की सेवा के लिये दे देते थे। कभी-कभी तो आप साग पात पर गुजर करते और जो सिख महमान उनके यहां आ जाते, उनका पूरी तरह से आतिथ्य करते। तासूसिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-233


जी ने अपना विवाह केवल इसलिए नहीं किया था कि वह अपना निज का खर्च बढ़ाना नहीं चाहता थे। सम्वत् 1907 में किसी ने लाहौर के सूबेदार के पास जा करके तासूसिंह की सिखों को सहायता देने वाली बात को बढ़ा-चढ़ा करके उसकी चुगली की। उस समय सूबेदार ने यह हुक्म कर रखा था कि जो कोई सिखों की चुगली करेगा उसे 10 रुपया पुरस्कार मिलेगा। तासूसिंह की ऐसी हरकत को सुनकर सूबेदार ने तासूसिंह को गिरफ्तार करने के लिए उसी समय कुछ सिपाही भेज दिये।

तासूसिंह गिरफ्तार करके जब लाहौर के दरबार लाए गए, तो उन्होंने दरबार में पहुंचते ही ‘वाह गुरूजी का खालसा’ और ‘वाह गुरूजी की फतह’ का नारा लगाया। सूबेदार इस नारे को सुनते ही महा क्रोधित हुआ और तारूसिंह से कहने लगा कि तुम डाकू लोगों की सहायता करते हो, इसलिये तुम्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा । तारूसिंह ने अपने सहज स्वभाव से कहा - डाकुओं की तो नहीं, किन्तु अपने सिख भाइयों की अवश्य सेवा करता हूं। सूबेदार ने कहा - सिक्ख लोग राजद्रोही हैं। वह मुस्लिम-सुल्तान को नष्ट कर देना चाहते हैं और तुम उनकी सहायता करते हो, इसलिये तुम्हें कड़ी से कड़ी सजा देनी चाहिए। इस पर भी तारूसिंह जी ने बिना डरे और बिना उत्तेजित हुए यही उत्तर दिया कि मैं सिक्ख हूं और सिक्ख भाइयों की सब कष्ट सह करके भी सहायता करूंगा। कोई भी शक्ति मुझे कौमी सेवा से वंचित नहीं कर सकती।

आखिर गाजियों की सम्मति के अनुसार, सूबेदार ने तारूसिंह को मुसलमान होने के लिये तथा मुसलमान न होने पर, चर्ख पर चढ़ा देने की बात तारूसिंह से कही और तारूसिंह का यह उत्तर पाकर कि“मृत्यु के भय से धर्म-परिवर्तन करना सिंहों का काम नहीं” सूबेदार ने तारूसिंह को चर्ख पर चढ़ा देने का हुक्म दे दिया। जल्लादों ने उसी वक्त तारूसिंह को चर्ख पर चढ़ा दिया। चर्ख की घुमावट से उनका शरीर पिस गया, अस्थियां चूर हो गईं, खून के फव्वारे छूट निकले, सहृदय दर्शकों के हृदय हिल गए, वे मुंह फेर कर रोने लगे। लेकिन तारूसिंह के मुंह से आह तक न निकाली। खुद सूबेदार का दिल भी पसीज गया। उसने तारूसिंह जी को चर्ख से उतरवा कर पूछा - यदि तुम दीन इस्लाम कबूल कर लो तो मैं तुम्हें बहुत सा पुरस्कार दूंगा और अभी तुम्हारे प्राण भी बच सकते हैं, तुम्हारी क्या राय है? मुस्करा कर तारूसिंह ने कहा - “इस्लाम से बढ़ करके भी कोई अत्याचारी धर्म हो और वह भी मुझे डराना चाहे तब भी मैं अपने प्यारे सिक्ख धर्म को नहीं छोड़ सकता।” सूबेदार की आत्मा भाई तारूसिंह की शारीरिक अवस्था को देखकर कांप उठी और उसने तारूसिंह जी को हिन्दुओं के हवाले कर दिया। हिन्दू उन्हें एक धर्मशाला में ले गये, जहां पर उनका लाख सुश्रूषा करने पर भी स्वर्गवास हो गया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-234


शाहवेगसिंह

ये लाहौर प्रान्त के एक साधारण जमींदार के घर में जन्मे थे। लेकिन पढ़ने-लिखने का इन्हें शौक था। फारसी में अच्छी योग्यता कर लेने के कारण लाहौर के सूबे में बारह गांवों की हाकिमी मिल गई थी। यद्यपि ये मुसलमानों के नौकर थे, किन्तु सिख-धर्म के कट्टर अनुयायी और जाति के पूर्ण पक्षपाती थे। जब यह कोतवाल हो गये तो इन सिखों की अस्थियों को जिनको मुसलमानों ने दीवार अथवा पृथ्वी में गढ़वा दिया था, निकलवा कर जलवाया और उनके समाधि, देहरे बनवाये। इस कारण से मुल्ला लोग बहुत चिढ़ गये और उन्होंने लाहौर के नये सूबेदार से शाहवेग सिंह की चुगली खाई कि यह सिख-धर्म का पक्षपाती तथा दीन इस्लाम का शत्रु है। जिस दिन काजी लोगों ने सूबेदार से यह चुगली की, दैवात् उसी दिन शाहवेग सिंह का पुत्र शहबाजसिंह अपने फारसी शिक्षक से धर्म विषयक शास्त्रार्थ कर बैठा। मौलवी उसके शास्त्रार्थ से चिढ़ गया तो काजी ने इसकी शिकायत भी सूबेदार से कर दी। पिता-पुत्र दोनों को दरबार में बुलाया गया और उनके सामने यही प्रस्ताव रखा गया कि “मौत और इस्लाम में से जिसे चाहो पसन्द कर लो”। शाहवेग सिंह ने इसके उत्तर में कहा - “यह हमारा सौभाग्य है कि हम लोग भी धर्म पर प्राण देने वालों की गणना में गिने जाएंगे। हमारा सिख-धर्म पवित्र है, उसको छोड़ करके हम ऐसे धर्म को स्वीकार नहीं कर सकते जो बर्बरता सिखाता हो।” सूबा लाहौर तथा काजी लोग भाई मनीसिंह और तारूसिंह जैसे धर्म-वीरों की घटनाओं से परिचित थे। किन्तु तो भी उन्हें यह विश्वास था कि हर वक्त मुसलमानों की सुहबत में रहने वाला शाहवेग सिंह समय पर अपनी कौम का साथ न देकर के मुसलमानों का साथी रहेगा अर्थात् उनके धर्म को ग्रहण कर लेगा। अब शाहवेग सिंह की ऐसी जाति-प्रेम और धार्मिक कट्टरता की बात सुनकर काजी लोग तथा सूबेदार बड़े आश्चर्यचकित हुए। दोनों पिता-पुत्रों को चर्ख पर चढ़ा दिया गया। जब उनका आधा शरीर कुचल गया तो फिर उनसे पूछा गया, किन्तु उन्होंने इस्लाम के बजाय मृत्यु को ही पसन्द किया। जल्लाद चर्ख घुमाते थे और दोनों बाप-बेटे ‘सत् श्री अकाल’ और ‘वाह गुरू की फतह’ का नारा लगाते थे। काजियों ने शहवाज सिंह के पास जाकर कहा - तू अभी नौजवान है, दुनियां का कोई भी आनन्द तूने नहीं देखा है। अगर मुसलमान हो जाएगा तो शाही दरबार में अधिकार तो मिलेगा ही, साथ ही मुसलमान सुन्दरी से तुम्हारा विवाह भी करवा देंगे। लेकिन शहवाज सिंह ने काजियों को फटकार दिया। हजारों हिन्दू दोनों पिता-पुत्रों की दशा देखकर रोते थे और पिशाच हृदय मुसलमान सूखी हंसी हंसते थे। जब तक उनके प्राण नहीं निकल गए ‘वाह गुरूजी का खालसा’ और ‘वाह गुरूजी फतह’ बोलते रहे।


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महताबसिंह, सुखासिंह

मस्सा नाम के एक मुसलमान जागीरदार ने अमृतसर के हरिमंदिर पर अपना डेरा आ जमाया। हरिमंदिर के दालान में खाट पर बैठ करके हुक्का पीने तथा रंडी-भडुओं के नाच-गाने करा करके सिक्खों के दिल को दुखाने लगा। अन्त में एक बुलाकसिंह नामक सिक्ख अपने गुरुस्थान की इस दशा से दुखित होकर बीकानेर प्रान्त के जाट सिक्खों के पास पहुंचा और वहां जाकर सारी कथा कह सुनाई। वहां के जाट-सिक्खों ने बुलाकासिंह को बहुत फटकारा कि तुम अपने पूज्य स्थान की ऐसी दशा देखकर भी अब तक जीवित हो? अन्त में बुढ़ासिंह नामक सिक्ख ने अपनी तलवार निकालकर जाट सिक्खों के सामने रख दी और कहा - है कोई ऐसा वीर जो इस तलवार से मस्सा म्लेच्छ का हमारे पास सर काटकर लाये? इस बात के सुनते ही दो युवक - एक महताबसिंह मीराकोट निवासी, दूसरे सुखासिंह मांड़ी ग्राम निवासी - उठ खड़े हुए और उसी तलवार को उठाकर अमृतसर की ओर घोड़ों पर सवार होकर चल दिए। जेठ मास की ठीक दुपहरी में वे अमृतसर पहुंचे और घोड़ों को पेड़ से बांधकर मंदिर में घुस गए। किसी ने टोका तो कहा कि हम मालगुजारी का रुपया देने के लिए जा रहे हैं। कन्धों पर उन्होंने पैसों से भरी हुई थैलियां भी डाल रखी थीं।

मस्सा उस समय भी चारपाई पर बैठा हुक्का पी रहा था। सामने रंडियां नाच रहीं थीं, भांड स्वांग कर रहे थे। साथ में शराब का प्याला भी चल रहा था। कोई शराब पीकर मस्ती में झूम रहा था, तो कोई रंडी के गाने पर ‘वाह-वाह’ कह रहा था। मस्सा भी नशे में चूर था। दोनों जाट सिक्खों ने थैलियां कन्धे से उतार कर मस्सा के सामने रख दीं। वह उन थैलियों की तरफ ज्यों ही देखने लग कि एक सिक्ख ने तलवार खींचकर उसका सिर भुट्टा-सा उड़ा दिया। दूसरा उन मुसलमानों के ऊपर टूट पड़ा जो चंद मिनट पहले ‘वाह-वाह’ का कहकहा लगा रहे थे। थोड़ी ही देर में अपनी सफाई के हाथ दिखा करके और मस्से का सर अपनी थैली में डालकर तुरन्त बाहर निकल आये और बात की बात में घोड़ों पर सवार होकर हवा से बातें करने लगे। उन दोनों सिक्ख वीरों ने बीकानेर पहुंचकर मस्से का सिर सिक्ख-मण्डल के सामने रख दिया। किन्तु लम्बे सफर के कारण तथा मंदिर की मार-काट से उनके घोड़े और वे जख्मी होने के कारण थोड़ी ही दिनों में वीरगति को प्राप्त हो गए।

इसके सिवाय जाटों की सिक्ख-धर्म पर शहीद होने की अनेक घटनाएं हैं और आज तक पंजाब में उन शहीद वीरों के गीत गाये जाते हैं। लाहौर में शहीदगंज के नाम से आज तक एक स्वतन्त्र मुहल्ला है जो कि धर्म पर बलिदान होने वाले वीरों की स्मृति कराता है। जिस भांति सिक्खों की 12 मिसलों में सबसे अधिक के


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सरदार जाट थे, उसी भांति धर्म पर शहीद होने वाले जाटों की संख्या भी अधिक है।

पंजाब-केसरी महाराजा रणजीतसिंह

सिक्खों की 12 मिसलों की स्थापना सम्बन्धी वृत्तान्त पीछे लिखा जा चुका है। इन्हीं 12 मिसलों में सुकरचकिया एक जबरदस्त मिसल थी। महाराजा रणजीतसिंह इसी मिसल में पैदा हुए थे।

इस मिसल का नाम सुकरचकिया इसलिए पड़ा था कि इस मिसल के संस्थापक और सदस्य सुकरचकिया गांव के निवासी थे। सुकरचकिया जाट मिसल थी, क्योंकि इसका नेता सरदार चरतसिंह जाट था। इस मिसल का इतना बल बढ़ा कि आगे चलकर इस मिसल का नेता महासिंह अन्य मिसलों के संचालकों में प्रधान माना गया। सुकरचकिया या सकरचन्द मौजा अमृतसर के निकट था। सरदार चरतसिंह ने थोड़े ही दिनों में वह शक्ति प्राप्त की कि युद्ध के लिए हर समय उनके पास ढाई हजार सैनिक तैयार रहते थे। ज्ञात ऐसा होता है कि यह कुल सिन्ध के जाटों का था, क्योंकि सिन्धान वालिया कहलाने वाले और सुकरचकिया इन दोनों वंशों के पूर्वजों का निकास एक ही स्थान से था। इनके पूर्वज भी (दोनों के) एक ही थे।

चरतसिंह की पूर्वजों का जो वृत्तान्त हमें प्राप्त हो सका है, वह इस प्रकार से है - सन् 1470 ई० के लगभग पिण्डीभट्टियां नामक गांव में कालू नाम के एक जाट सरदार रहते थे।1 लड़ाकू मिजाज होने के कारण घर वालों से लड़कर बाहर निकल पड़े। अमृतसर के पास सांसेरी नामक गांव में डेरा जमाया। राजासांसी नाम का गांव भी इन्हीं का बसाया हुआ है। यहां पर कालूजी के एक लड़का हुआ जिसका नाम जादूवंशी था। किसी-किसी इतिहास-लेखक ने उसका नाम ईदूमान भी रखा है। सांसी गांव में रहने के कारण ये लोग आगे चलकर सांसी जाट नाम से पुकारे जाने लगे। दन्तकथा के आधार पर यह भी कहा जाता है कि - ‘कालूजी के बच्चे जीते न थे, इसलिए ज्योतिषियों ने उसे सलाह दी थी कि कि जन्मदिन में सबसे पहले आने वाले आदमी को बच्चा पालने को दे दिया जाए और बड़ा होने पर वापस ले लिया जाए, इस तरह करने से बच्चा दीर्घायु होगा। कालूजी ने ऐसा ही किया, परन्तु सबसे पहले आने वाला आदमी सांसी जाति का था। अतः सांसी द्वारा पालित होने के कारण उसके वंशधर सांसी कहलाये।’ यह दन्तकथा अधिक तथ्य नहीं रखती, क्योंकि सांसी जाटों का समूह पहले से ही मौजूद था जो कि चन्द्र के पर्यायवाची शब्द शशि से सांसी कहलाते थे। एक दूसरा सासानी नाम


1. यह स्थान लाहौर के दक्षिण पश्चिम में आबाद है।


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का वंश पर्शिया के उत्तर-पूर्व में बसा हुआ था, जिसके लिए ‘टाड साहब’ ने चन्द्रवंशी साबित किया है। सासानी शब्द, जिस प्रकार शशि से बना है, उसी प्रकार सांसी शब्द भी शशि से बना है।

कालूजी 1746 ई० में सांसी को छोड़कर वजीराबाद के पास सुण्ड में चले आए। यहां पर 1788 ई० में इनका स्वर्गवास हो गया। जादू वंशी ने सांसी जाटों का गिरोह बना करके लूट-मार आरम्भ कर दी, क्योंकि उस समय पंजाब में भारी अराजकता फैली हुई थी। किसी एक शासक का सारे पंजाब पर आधिपत्य न था। जो भी व्यक्ति शक्ति-संग्रह कर लेता था, वही किसी हिस्से का शासक बन बैठता। जाट कौम स्वभावतः या तो अराजकवादी थी या प्रजातन्त्रवादी। परन्तु परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया कि अनेक नौजवानों के हृदय में एकतन्त्र शासन या साम्राज्य कायम करने की भावनाएं जाग्रत हो उठीं । जादू भी ऐसे ही नौजवानों में से थे। राज्यवाद के विकास में एक स्थान डाके का भी है। प्रायः अनेक बड़े-बड़े राजा आरम्भ में डाकू की शक्ल में थे। जादू अपने साथियों समेत डाका डाल करके धन-संग्रह करता था और उस धन से साथियों की संख्या बढ़ाता था। सन् 1515 ई० के एक धावे में यह अपने अनेक साथियों के साथ मारे गए। जादू के मारे जाने के बाद उसका पुत्र गालिव सांसी जाटों का सरदार बन बैठा। गालिव के लिए मन्नू भी कहा जाता है। उसने बहुत सा धन और गाय-घोड़े संग्रह किये। लगभग तीस साल के अरसे में बहुत सा धन लूट-मार के जरिये से संग्रह कर लिया। सन् 1549 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा किद्दू सुण्डू गांव को छोड़कर गुजरांवाला के पास सुकरचकिया गांव में जाकर आबाद हो गया। यह बिल्कुल शान्त स्वभाव का लड़का था, इसलिए लोग इसको रामथल या भगतजी भी कहते थे। बाप के संग्रहीत धन से बहुत सी जमीन खरीदी और निष्कण्टक तथा निश्चिन्तता का जीवन व्यतीत करने लगा। अपने बाप की सी इसमें न उमंगें थीं, न ऊंचे इरादे। सन् 1578 में यह मर गया।

इसके दो लड़के थे - राजदाव और प्रेमू। बड़ा लड़का शान्त स्वभाव का था, उसने गुरुमुखी पढ़ करके व्यापार का काम आरम्भ कर दिया और उसका देहान्त 1620 ई० में हो गया। उसके तीन उत्तराधिकारी लड़कों में तेलू और नीलू तो युवावस्था में ही मर गए, लेकिन तीसरा बेटा तख्तमल अपने बाप के धन्धे-व्यापार द्वारा बड़ा भारी साहूकार बन गया। उसके दो बेटे थे - एक बाबू दूसरा बारा। बाबू ऐसे लोगों के दल में मिल गया जो लूट-मार के जरिये से मालामाल होना चाहते थे और साथ ही राज्य भी कायम करना चाहते थे। बारा गुजरांवाला के एक भगत का चेला बन गया और ग्रन्थ-साहब को पढ़कर सिक्ख-धर्म का प्रचार करने लग गया। सिक्ख-धर्म का वह इतना बड़ा प्रेमी था कि चलते, फिरते, उठते,


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बैठते, खाते, पीते उसका प्रचार करता रहता था। सन् 1679 ई० में मरते समय अपने बेटे बुद्धा को सबसे पहले यह आज्ञा दी कि सिक्ख हो जाए और सिक्ख-धर्म का प्रचार करता रहे। बुद्धा ने अपने बाप का हुक्म मान करके सन् 1692 ई० में सिक्ख धर्म की दीक्षा ली। बुद्धा बड़ा बहादुर, साहसी और पराक्रमी था। सिक्खों के एक बड़े दल ने इसे अपना नेता मान लिया। वह इस दल के साथ लूट-मार करने लगा। अपनी दिलेरी और बहादुरी के प्रताप से उसने अपना बड़ा नाम पैदा किया और रहने के लिए एक विशाल भवन बनवाया। जैसा वह वीर था, वैसी ही उसके पास देसू नाम एक एक अवलख घोड़ी थी, जिस पर चढ़कर उसने पचासों बार झेलम, चिनाव और रावी नदियों को पार किया था। उसकी बहादुरी इसी से जानी जाती है कि उसके शरीर में तलवार और बरछों के चालीस घाव थे। जिधर से वह निकल जाता, लोगों में आतंक छा जाता था। सन् 1716 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

बुद्धासिंह की मृत्यु के बाद उसकी पतिव्रता और सत्यवती स्त्री ने कलेजे में तलवार भोंक कर जान दे दी, क्योंकि ऐसे बहादुर पति के वियोग को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। इस प्रकार वह अपने पति के साथ सती हो गई। बुद्धासिंह के दो बेटे नौधसिंह और चन्दासिंह नाम के थे। चन्दासिंह की औलाद के लोग सिंधिया वाले कहे जाते थे। दोनों लड़के अपने बाप के समान वीर थे। उन्होंने सुकरचकिया गांव को अपने अधिकार में कर लिया। नौधसिंह आक्रमण करने में इतना बहादुर था कि रावलपिण्डी से सतलज तक उसका खौफ छा गया था। मजीठ के सांसी जाट गुलाबसिंह ने अपनी लड़की की शादी नौधसिंह के साथ कर दी और गुलाबसिंह और उसका भाई नौधसिंह का साथ देने लगे।

अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर जब पहला हमला किया था तो नौधसिंह ने नवाब कपूरसिंह के साथ मिलकर अब्दाली की सेना पर आक्रमण कर दिया और बहुत सा माल असबाब लूट लिया। इस लूट में उसके हाथ इतना माल लगा कि वह सुकरचक का सरदार कहलाने लगा। यह अहमदशाली अब्दाली वही था कि जिसने सन् 1761 ई० में पानीपत के मैदान में भारत की भाग्यश्री को समाप्त किया था। इस प्रकार से नौधसिंह महाराजा सूरजमलजी का समकालीन ठहरता है। नवाब कपूरसिंह सिक्खों में बहुत ही पूज्य थे। सिक्ख लोग उनको रिद्ध-सिद्ध सम्पन्न महापुरुष समझते थे। इनके साथ में सिक्खों का एक बड़ा भारी दल रहता था। राजा आलासिंह ने जो कि पटियाले के संस्थापक थे, अपने पुत्र लालसिंह तथा दौहित्र अमरसिंह जी को इन्हीं नवाब कपूरसिंह जी के हाथ से अमृत पिलवाकर सिक्ख-धर्म की दीक्षा दिलवाई थी। इस प्रकार से राजा आलासिंह जी भी महाराज सूरजमल तथा जवाहरसिंह के समकालीन थे।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-239


सन् 1848 ई० में अफगानों से युद्ध करते हुए नौधसिंह के गोली लगी। उसी की पीड़ा में उनका देहान्त हो गया। जिस समय नौधसिंह का देहान्त हुआ था उस समय उनके लड़के चरतसिंह की अवस्था केवल 5 साल की थी। सन् 1754 ई० के करीब उसने कुछ मजहबी सांसी जाट और दूसरे लुटेरों का गिरोह इकट्ठा करके लूटमार शुरू कर दी। उसने गुजरानवाला में एक मिट्टी का दुर्ग बना लिया और सिक्खों की एक मिसल बनाई। उसका इतना खौफ बढ़ा कि बकाली के सरदार मुहम्मदयार ने केवल डर की वजह से अपनी रियासत का इन्तजाम चरतसिंह के सुपुर्द कर दिया और खुद 15 सवारों के साथ उसके गिरोह में शामिल हो गया।1 चरतसिंह के पास आरम्भ में सिर्फ 150 सवार थे जिनकी मदद से उसने गुजरांवाला के किले पर कब्जा कर लिया और वहां के अमीरसिंह नामक एक सांसी सरदार की लड़की से शादी कर ली।2 अमीरसिंह भी इतना बहादुर था कि उसने झेलम से लेकर दिल्ली तक लूटमार की थी। उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत बहुत कम लोगों की पड़ती। इन दोनों सरदारों ने मिलकर के अमीनाबाद पर हमला किया और वहां के मुगल सरदार का कत्ल कर डाला। इनकी लूटमार और बहादुरी से लाहौर के सूबेदार को सशंक होना पड़ा। सन् 1757 में इनकी बढ़ती हुई ताकत को देखकर उसने इन पर हमला किया, परन्तु चरतसिंह और अमीरसिंह की मार के सामने मुसलमान ठहर न सके, वे भाग खड़े हुए और उनका बहुत-सा सामान चरतसिंह के हाथ लगा। इस लड़ाई में लाहौर के मुसलमान सरदारों को काफी नुकसान सहना पड़ा और उनको यह अनुभव हो गया कि हम चरतसिंह का मुकाबला नहीं कर सकते। बिना शक्ति, सहायता के इनसे विजय पाना असम्भव है।3

चरतसिंह जैसा बहादुर और पराक्रमी था, वैसा ही नीतिज्ञ और अग्रसोची भी था। उसने अपनी नीति से जस्सासिंह और भंगी सरदारों से मेलजोल पैदा कर लिया था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि का पता इस बात से चल जाता है कि अहमदशाह अब्दाली से, जबकि वह पानीपत लौटकर आ रहा था, टक्कर लेने की तैयारी से पहले ही उसने स्त्री-बच्ची और माल असबाब को जम्बू भेज दिया था।4 पानीपत के युद्ध में महाराज सूरजमल ने भी सदाशिवराव भाऊ को भी यही सलाह दी थी कि माल असबाब और स्त्री-बच्चों को किसी सुरक्षित स्थान में भेज दे। किन्तु भाऊ


1. तारीख पंजाब। पेज 384। भाई परमानन्द लिखित।
2. स्मरण रहे सांसी वंश था, गोत्र नहीं।
3. लाहौर के इस मुसलमान सरदार का नाम कि जिसका चरतसिंह से युद्ध हुआ था, ईदखां था।
4. तारीख पंजाब। पेज 384। भाई परमानन्द लिखित।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-240


ने सूरजमल की सलाह को न माना और आखिरकार उसके उत्तराधिकारियों ने इसका फल भोगा। विचारणीय बात तो यह है कि जिस बात को ब्रज का जाट सोचता है, उसी को पंजाब का जाट भी सोच लेता है और भाऊ की भांति मूर्ख नहीं बनता। इसके सिवाय चरतसिंह ने एक बात यह और की कि अब्दाली के आने से पहले ही आस-पास के पठानों को लूट-पाट करके कमजोर बना दिया। अहमदशाह अब्दाली का दल बहुत था और पठान विजय के मद में चूर थे और वे हिन्दुस्तानी लोगों को गाजर-मूली की तरह समझते थे। उनका साहस बढ़ा हुआ था, फिर भी उनकी फौज पर छापा मार के उनको तंग कर ही दिया। अहमदशाह की फौज व्यास नदी को जब पार कर रही थी, तब जाट सिक्खों ने ऐसा हमला किया कि उनके होश उड़ गए। दोनों ओर से खूब लड़ाई हुई। अन्त में पठान भाग निकले। पठानों के भागने से कैदी हिन्दू लोग भी छूटकर सिखों का जय-जयकार मनाने लगे। अहमदशाह ने अपनी फौज के लोगों को बहुत तिरस्कृत किया कि वे जाटों के सामने से भाग खड़े हुए। अहमदशाह की यह भी इच्छा हुई कि कुछ दिन लाहौर में निवास करके सिखों का उचित प्रबन्ध किया जावे। परन्तु किसी कार्य विशेष से व्यग्र होकर उसको उसी काल में काबुल की ओर रवाना होना पड़ा।

वहां जाकर उसने एक नूरुद्दीन नामक सरदार को सात हजार फौज देकर सिखों के अत्याचार शान्त करने को भेज दिया।1 इधर इन दिनों में अब्दाली के चले जाने के बाद चरतसिंह ने वजीराबाद और अहमदाबाद को लूटकर अपने कब्जे में कर लिया। अहमदाबाद में उसे खबर मिली कि नूरुद्दीन हिन्दुओं को तंग कर रहा है तो झट वह उसके मुकाबले पर पहुंच गए।2 दोनों ओर से अत्यन्त साहस से लड़ाई हुई। अनेक वीर महानिद्रा में शयन कर गए। नूरुद्दीन पराजित होकर भाग निकला और स्यालकोट के किले में जा घुसा। जब सिखों ने स्यालकोट को भी घेर लिया तो वहां से रात्रि में भागकर जम्बू में जा पहुंचा।3 चरतसिंह ने नूरुद्दीन को लूटने के बाद चकवाल और पिण्डदादन खां को फतह किया और वहां के मुसलमानों से बहुत सा जुर्माना वसूल किया था। इन जगहों के मुसलमान चरतसिंह के सामने माफी मांगने को खड़े हुए तो उसने उदारतापूर्वक उनकी जान बक्स दी। इसके बाद साहब खां और राजाकाकोट नामक स्थानों को फतह करके गुजरानवाला वापस आया।4


1. इतिहास गुरु खालसा। पेज 593, 94।
2. तारीख पंजाब। पेज 385। भाई परमानन्द लिखित।
3. इतिहास गुरु खालसा। 594 ।
4. तारीख पंजाब। पेज 385। भाई परमानन्द लिखित।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-241


नूरुद्दीन के पराजित होने का समाचार लाहौर के सूबेदार ख्वाजा हमैयद खां ने सुना तो वह भी अपनी फौज लेकर के सिखों का मुकाबला करने के लिए निकल पड़ा। गुजरानवाला के समीप पहुंचकर भयानक युद्ध हुआ और यहां पर भी विजयलक्ष्मी सिखों के ही हाथ रही और हमैयद खां भाग्कर लाहौर चला गया। चरतसिंह की इन विजयों से उसका प्रभाव हिन्दू और मुसलमानों तथा सिख सभी पर छा गया।

इन दिनों जम्बू में रणजीत देव राज्य करता था, जिसका विस्तृत वर्णन ‘राजतरंगिणी’ में मिलता है। वह अपने बड़े बेटे ब्रजराज से अप्रसन्न था। उसको राज्य से वंचित रखकर अपने छोटे लड़के दयालुसिंह को राज्यगद्दी देना चाहता था। ब्रजराज ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया और चरतसिंह से मदद मांगी। अपने बाप को राज से अलग कर देने के बदले में बहुत सा रुपया बतौर सालाना खिराज के देने का वायदा भी चरतसिंह से किया। चरतसिंह की रणजीतदेव से पहले से ही शत्रुता थी क्योंकि हिन्दू राजा से युद्ध करने का यह पहला ही अवसर था। परिस्थियां मनुष्य को लाचार कर देती हैं। चरतसिंह मुसलमानी राज्य को उखाड़ कर पंजाब में जाटशाही कायम करने का इच्छुक था। इसके लिए उसे स्थाई सम्पत्ति और अधिक सेना की आवश्यकता थी। रणजीतदेव से लड़कर विजयी होने में उसकी यह समस्या हल होती थी। इसलिए उसने इस समय को अच्छा अवसर समझकर के जम्बू पर चढ़ाई कर दी। चाहिए तो यह था कि सभी सिख-जाट चरतसिंह की मदद करते। परन्तु भंगी नसल के जाट कुछ लोभ में आकर रणजीतदेव के साथ मिल गए। चरतसिंह की सहायता के लिए कन्हैया मिसल का सरदार जयसिंह भी साथ था। इन्होंने जम्बू राज की वसन्ती नामक नदी के किनारे अपनी सेना उतार दी। जब जम्बू नरेश को यह समाचार मिला तो उसने अपनी सहायता के लिए चम्बा, नुपुर, बूशहर और कांगड़ा के सरदारों से मदद मंगवाई क्योंकि वह जानता था कि चरतसिंह से मामना करना मेरी ताकत से बाहर है। जब उसकी मदद को वे लोग आ गए, तब उसने चरतसिंह का सामना उसी नदी के किनारे किया, जहां कि उसकी सेना पड़ी हुई थी। चरतसिंह लड़ाई लड़ने में खूब निपुण था। उसने कई ओर से रणजीतदेव की फौज पर आक्रमण किया। आक्रमण के समय छोटी-छोटी टोली सैनिकों की भेजता था। उसमें बहादुरी की एक खास बात यह भी थी कि वह इन फौजी टुकड़ियों के साथ खुद जाता था। चरतसिंह की जीत अवश्यम्भावी थी किन्तु उसकी तोड़ेदार बन्दूक फट जाने से उसकी मृत्यु हो गई और अपने ऊंचे विचार लेकर सदा के लिए दूसरी दुनिया को चला गया। मृत्यु के समय उसके बड़े लड़के महसिंह की अवस्था केवल 10 साल की थी।

महत्वाकांक्षी पुरुष अपने समाज के लिए आदर्श होते हैं। चरतसिंह भी ऐसे


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-242


महापुरुषों में से था जिसने अपनी जाति के सामने एक महान् आदर्श रखा, उसी आदर्श पर चलकर के आगे उसकी सन्तान ने इतनी उन्नति की कि उसका पोता पंजाब-केसरी के नाम से पुकारा जाने लगा। चरतसिंह ने अपने बेटे के लिए तीन लाख सालाना आय का इलाका छोड़ा था। यह सब कुछ उसने तलवार के बल से प्राप्त किया था। भंगी मिसल का सरदार झण्डासिंह जो कि रणजीतदेव के साथ मिल गया था, चरतसिंह की धर्मपत्‍नी और सरदार जैसिंह कन्हैया ने एक महतर के हाथ से उसे मरवा दिया। उसकी मृत्यु से झगड़ा मिट गया और सेनायें अपने-अपने देश को वापस लौट गईं। यह घटना सन् 1774 ई० की है।

चरतसिंह की मृत्यु के एक साल बाद महासिंह ने झींद के स्वामी राजा गजपतसिंह की भाग्यवती कन्या राजकुंवरि से विवाह किया। महासिंह बड़ी भारी बारात लेकर झींद में आए। फुलकिया मिसल के सारे सरदार इनकी अगवानी को आये थे। विवाह के भोज और आनन्द आदि के समय नाभा और झींद के बीच एक झगड़ा उत्पन्न हो गया। कारण यह था कि बरातियों ने चराई की भूमि से घास काट ली थी। नाभा के कार्यकर्ताओं ने इन पर आक्रमण कर दिया। झींद का राजा विवाह का अवसर देखकर चुप रहा। जब उसको अवकाश मिला तो उसने नाभा के राजा हमीरसिंह को पकड़कर उसके बहुत से इलाके दबा लिए।

महासिंह की नाबालिगी में उसके राज्य का कुल काम उसकी मां देशां ने संभाला। उसके कुछ सरदार बागी भी हुए परन्तु उनकी बगावत असफल रही। देशां ने कन्हैया सरदार के साथ मिलकर रसूल नगर पर हमला किया जहां कि छत्ता मुसलमान राज करते थे। उसके शासक का नाम पीर मुहम्मद था। इस युद्ध में महासिंह भी मौजूद था। यद्यपि उसकी उम्र केवल बारह साल की थी तो भी युद्ध के कला-कौशल में अपने बाप से भी बढ़ा-चढ़ा था। इस लड़ाई का कारण यह है कि भंगी सरदार झण्डासिंह ने अहमदशाह अब्दाली की सेना पर आक्रमण करके जमजमा नामक तोप को छीन लिया था और उसे पीरमुहम्मद के पास अमानत के रूप में रख दिया था। वह उस तोप को देने से इन्कारी हो गया क्योंकि तोप बढ़िया थी। जब महासिंह ने उसके इलाके पर आक्रमण करके लूटमार की तो पीरमुहम्मद ने सन्धि करने की प्रार्थना की। परन्तु महासिंह सहमत नहीं हुआ और उसने पीरमुहम्मद को मार दिया और उसके बेटों को तोपों के मुंह के साथ बांधकर उड़ा दिया। इस बात से उसकी कीर्ति बहुत बढ़ गई। महासिंह ने रसूल-नगर का नाम रामनगर और अलीपुर का नाम अकालगढ़ रख दिया। पीरमुहम्मद के कुल इलाके को अपने राज्य में मिला लिया।


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इस घटना के दो वर्ष पश्चात् महासिंह1 के यहां रानी राजकौर के गर्भ से रणजीतसिंह का जन्म हुआ। महासिंह ने पुत्रोत्सव में बड़ी भारी खुशी मनाई। कई दिन तक भोज होते रहे। कहते हैं सारे सिखों को भोज दिया गया था और हजारों रुपये दान किये गये थे। कुछ वर्ष बाद बालक रणजीतसिंह के चेचक निकली। महासिंह ने बहुतेरे दान-पुण्य किये। ज्वालामुखी और कांगड़ा को तोहफे भेजे। बालक रणजीतसिंह की जान तो बच गई, किन्तु एक आंख जाती रही। मुंह पर चेचक के दाग भी हो गए क्योंकि चेचक रणजीतसिंह के बड़े जोर से निकली थी।

इन्हीं दिनों तैमूरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। मुलतान और बहावलपुर पर भंगी सरदारों का राज्य था। तैमूरशाह की लड़ाई में वे विजय प्राप्त न कर सके और उन्होंने बहावलपुर तथा मुल्तान को छोड़ दिया। भंगी सरदारों को इतना कमजोर समझकर महासिंह ने उनके ईशाखेल और मूसाखेल स्थानों पर कब्जा कर लिया और झंग पर चढ़ाई कर दी। चूंकि भंगी सरदार आपसी झगड़ों में लगे हुए थे, इसलिये उन्होंने महासिंह का मुकाबला नहीं किया। महासिंह का साहस और भी बढ़ गया और उसने स्यालकोट के निकटस्थ कोटली स्थान पर भी कब्जा कर लिया। यह स्थान बन्दूक बनाने में बड़ा प्रसिद्ध था। यहां की बनाई हुई बन्दूकें उस समय में पंजाब में बढ़िया समझी जाती थीं। इस स्थान पर महासिंह ने आस-पास के कई छोटे-छोटे सरदारों को मंत्रणा करने के बहाने से बुला लिया और कैद कर लिया। कहा जाता है कि उन पर बड़े जुर्माने किये और जुर्माने की रकम वसूल हो जाने पर उन्हें छोड़ा।

इतने में खबर लगी कि जम्बू का राजा ब्रजराज व्यभिचार में फंसकर प्रजा की गाड़ी कमाई को स्वाहा कर रहा है और उसकी प्रजा भी उससे तंग आ रही है। राज-काज की ओर से वह इतना लापरवाह है कि भंगी सरदारों ने उसका बहुत इलाका छीन लिया है। इस खबर से महासिंह की इच्छा हुई कि जम्बू पर कब्जा करने का यह दैवी मौका है। उधर व्रजराज सोच रहा था कि महासिंह से सहायता लेकर अपने छिने हुए इलाकों को वापस ले लेना कोई कठिन काम नहीं है। इसलिये उसने महासिंह से मदद मांगी। महासिंह ने पहली मित्रता का ख्याल करके व्रजराज को मदद दी भी, किन्तु कन्हैया मिसल के सरदार हकीकतसिंह से विजय प्राप्त नहीं हुई। इस तरह व्रजराज को दुहरा घाटा उठाना पड़ा। उसने जुर्माने के स्वरूप कन्हैया सरदार को पचास हजार सालाना दे करके जान बचाई। जब व्रजराज कायदे के अनुसार अदायगी न कर सका तो कन्हैया सरदार ने महासिंह को समझा-बुझाकर अपने साथ मिल जाने पर राजी किया। शर्त यह रखी


1. महासिंह का एक भाई भी था जिसका नाम सोहिजसिंह था। ‘पंजाब-केसरी’पेज 13 ।


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गई कि जम्बू राज्य को दोनों आधा-आधा बांट लें। महासिंह राजी हो गया और बहुत सी फौज लेकर जम्बू पर चढ़ गया। किन्तु कन्हैया सरदार से पहले पहुंच जाने के कारण उसने बिना उसके आये ही जम्बू पर धावा बोल दिया। व्रजराज में यह शक्ति न थी कि वह महासिंह का सामना कर सके, इसलिये वह भाग गया। महासिंह ने जम्बू शहर की बड़ी भारी लूट करवाई और अपने देश को बहुत से लूट का धन देकर चल दिया। कन्हैया सरदार ने महासिंह के इस काम को दगावाजी समझा। वह बहुत नाराज हुआ। इसी नाराजगी और चिन्ता में थोड़े ही दिनों में उसका देहान्त हो गया।

सन् 1784 ई० में दीवाली के मौके पर महासिंह अमृतसर में स्नान को गया। यहां उसे कन्हैया मिसल के सरदार हकीकतसिंह का लड़का जैसिंह मिला। वह महासिंह से इस बात से बहुत नाराज था कि उसने उसके बाप हकीकतसिंह के साथ धोखा करके अकेले ही अकेले जम्बू को लूट लिया। इसी कारण से उसने महासिंह के बहुत से इलाके को अपने काबू में कर लिया था। महासिंह ने अमृतसर की इस मुलाकात में जैसिंह से मित्रता करने के लिये बहुत कुछ खुशामद की। परन्तु जैसिंह ने बिना जम्बू की लूट में से हिस्सा लिये मित्रता करना स्वीकार नहीं किया। महासिंह लूट में से हिस्सा नहीं देना चाहता था, इस कारण दोनों ओर से तनातनी हो गई और जैसिंह ने यहां तक कह दिया कि भगतिया (नाचने वाले लड़के) यहां से चले जाओ। महासिंह इसे बर्दाश्त न कर सका और कुछ सवार लेकर अमृतसर से बाहर निकल आया। कन्हैया सरदार ने जैसिंह से इस बात का बदला लेने के लिये और उसे नीचा दिखाने के लिये जस्सासिंह रामगढ़िया और राजा संसारसिंह कांगड़े वाले को गांठा। जस्सासिंह की कन्हैया सरदार से पहले लड़ाई हो चुकी थी और वह भागकर हांसी पहुंच गया था। उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ महासिंह की सहायता करना स्वीकार किया। अन्य सरदार जो जैसिंह से अप्रसन्न थे, महासिंह के झण्डे के नीचे आ गये।

जैसिंह के निवास-स्थान बटाले में दोनों तरफ से बड़ी भारी लड़ाई हुई जिसमें कन्हैया सरदारों को बुरी तरह से हारना पड़ा। जैसिंह का पुत्र गुरुबख्ससिंह मारा गया। जैसिंह ने बाकी फौज लेकर नौशहरा में महासिंह पर फिर हमला किया परन्तु इस बार भी हारना पड़ा और भागकर नूरपुर पहुंचा। सन्धि का जब प्रस्ताव हुआ तो कांगड़े का दुर्ग संसारसिंह को और जस्सासिंह रामगढ़िये का कुल इलाका जो कि जैसिंह ने छीन लिया था, फेर देने की शर्त महासिंह की ओर से रखी गई। इस मौके पर गुरुबख्ससिंह की स्त्री सदाकौर ने बड़ी समझदारी से काम लिया कि अपनी बेटी महताबकौर की सगाई रणजीतसिंह के साथ करके दोनों मिसलों में मेल करा दिया। यह शादी आगे चल करके सन् 1786 ई० में बड़ी धूमधाम से बटाले में हुई। सन् 1788 ई० में भंगी सरदार गूजरसिंह का स्वर्गवास हो गया।


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उसके दो बेटे फतहसिंह और साहबसिंह थे। इन दोनों में राज्य के लिये आपस में झगड़ा हो गया। महासिंह ने साहबसिंह से खिराज मांगा लेकिन साहबसिंह बहुत नाराज हो गया और उसने उनके इलाके गुजरात पर हमला कर दिया। साहबसिंह ने सहोदरा के किले में बैठ करके युद्ध किया। तीन महीने तक बराबर महासिंह सहोदरा का घेरा डाले पड़ा रहा, परन्तु बीमार होने के कारण उसे अपने स्थान गुजरानवाला में आना पड़ा और वह वहां आकर के मर गया।

‘तारीख पंजाब’के लेखक भाई परमानन्द ने लिखा है कि चरतसिंह और महासिंह दोनों बड़े वीर और विजयी हुये। उनके समय में सुकरचकिया मिसल का दबदबा बढ़ता ही गया और वह सब मिसलों में बड़ी मानी जाने लगी। खेद है कि इन दोनों महावीरों की स्त्रियां अच्छे चलन की न थीं।

महाराजा रणजीतसिंह से पूर्व पंजाब की अवस्था

लगभग पिछले 800 वर्षों से पंजाब मुसलमानों के आक्रमणों, लूटमार और अत्याचारों से पीड़ित था। महमूद गजनवी, मुहम्मदगौरी, बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब, नादिरशाह, अहमदशाह और तैमूर आदि के आक्रमणों से एक ओर यदि हिन्दुओं का राज्य नष्ट हो गया था, तो दूसरी ओर उनका धर्म भी सुरक्षित न था। हिन्दू राजे या तो भागकर पहाड़ों में छुप गये थे या मुसलमानों से मिलकर अपने ही भाइयों पर अत्याचार कर रहे थे। हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया जाता था। उनकी ललनाओं का अपहरण किया जाता था। जनेऊ और मंदिर तोड़े जा रहे थे। मसजिद और मकबरे बनाये जा रहे थे और न होने वाले अत्याचार हो रहे थे। जो लोग मुसलमान नहीं होते थे, उन पर जजिया लगा दिया जाता था। सैंकड़ों वर्ष के अत्यचारों को सहते-सहते हिन्दुओं के अन्दर से जातीयता और राज्य-भावना नष्ट हो गई थी। सामूहिक रूप से अत्याचारों का मुकाबला करना उनके लिये स्वप्न हो गया था। ऐसी हालत में भी जबकि पंजाब की समस्त हिन्दू जातियों को मिलकर मुसलमानों का मुकाबला करना चाहिये था, ब्राह्मण हिन्दुओं के अन्दर छुआछूत और नीच-ऊंच के भावों का बीज बो रहे थे। यह ईश्वरीय कृपा थी कि पंजाब के अन्दर गुरु नानक पैदा हुए जिनके उपदेश से जाटों के अन्दर राष्ट्रीयता के भाव पैदा हो गये और उन्होंने ब्राह्मणों की गुलामी के जुए को फेंक करके जाटशाही स्थापित करने के लिये कमर कसी। चरतसिंह, महासिंह, जैसिंह आदि ऐसे ही विचार के लोग थे। सब इसी विचार में थे कि अधिक से अधिक भूमि पर जाटों का कब्जा व शासन हो। सिक्खों की बारह मिसलों में से आठ मिसल जाटों के हाथ में थीं। आठों मिसल बड़ी बहादुरी और तेजी के साथ अपना राज्य-विस्तार करने की कौशिश में लगी हुई थीं। उन्होंने नादिरशाह, अहमदशाह और तैमूर जैसे दुर्दान्त लुटेरे आक्रमणकारियों


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के दांत खट्टे किये थे। इनकी बहादुरी और जांनिसारी का पता इससे चल जाता है कि अहमदशाह जैसे विजयी वीर को जिसने कि पानीपत के मैदान में भारत की सबसे बड़ी शक्ति मराठों को हराया था, भंगी मिसल के सरदारों ने आक्रमण करके उसकी नामी तोपों को छीन लिया। बल्कि नादिरशाह ने लाहौर के सूबेदार से पूछा था कि काबुल से लेकर दिल्ली तक मेरा किसी ने सामना नहीं किया, किन्तु ये लोग कौन हैं जिन्होंने छापा मार करके मेरे धन-माल को लूट लिया और फौज को हानि पहुंचाई? तुम मुझे उन लोगों के चिह्न बता दो तो मैं पहले उनका ध्वंस करूं, पीछे अपने देश को जाऊं? इसके जवाब में जाट-सिक्खों के बारे में सूबेदार-लाहौर ने नादिरशाह को यह जवाब दिया कि -

जहांपनाह! यह एक विचित्र, जबरदस्त कौम है, जिसका इस समय न तो कोई स्थायी घर है और न कोई मुकाम। यदि रात्रि को यहां है, तो दिन को एक सौ कोस दूर पर इनका पता चलता है। जंगल के फल-फूल और साग-पात आजकल इनकी खुराक है। घोड़ों की पीठ ही इनकी चारपाई है। लड़कर मरने-मारने के लिए बहुत ही प्रेमी हैं। शीत, धूप और वर्षा उनके लिये सब समान है। सिर पर साफा, गले में चोला, कमर में जांघिया इनकी पोशाक है। मुसलमानों के दिली दुश्मन हैं। उनका एक-एक मनुष्य पचास-पचास पर भारी होता है। मृत्यु का तो उनको जरा भी भय नहीं है। वे अपने शरीर के जख्मों की मरहमपट्टी नहीं करते, उनके जख्म गेंडे पशु की तरह अपने आप अच्छे हो जाते हैं। हमारे बहुत से मनुष्य इनके हाथों से मर चुके हैं, परन्तु ये लोग काबू में नहीं होते। मजहब इनका हिन्दू व मुसलमान दोनों से निराला है। परस्पर बहुत ही इत्तिफाक रखते हैं। भूख या प्यास की कुछ भी परवाह नहीं करते। चाहे उपवासों पर उपवास बीत जाएं, परन्तु लड़ने से मरने तक भी नहीं हटते। इस कौम ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है।

नादिरशाह इस बात को सुनकर आश्चर्य में पड़ गया और अपने इरादे को बदल दिया। यह सब कुछ होते हुए भी पंजाब के जाटों के अन्दर जो कि सिख धर्म में दीक्षित हो गये थे, कुछ राजनैतिक कमी थी। वह यह कि जिस इलाके को फतह कर लेते थे, उसका शासन-प्रबन्ध किसी योग्य आदमी के हाथ में न सौंप उसे वैसे ही पड़ा रहने देते थे, जिससे वह थोड़े ही समय बाद हाथ से निकल जाता था। दूसरी यह कि राज्य बढ़ाकर मालगुजारी द्वारा धन-संग्रह करने की अपेक्षा लूट-मार द्वारा धन संग्रह करते थे। हालांकि उस समय की परिस्थिति के अनुसार कुछ हद तक उनका यह कृत्य उचित भी था, परन्तु सर्वांश में नहीं। तीसरे, ये लूट-मार के लालच से आपस में भी एक दूसरे से लड़ पड़ते थे और एक-दूसरे के इलाके को लूट लेते थे। लूट-पाट की अपेक्षा यदि ये लोग राज बढ़ाने को ही अधिक महत्व देते और आपस में लड़ने पर तैयार न होते तो काश्मीर के राज्य पर महासिंह और जयसिंह व्रजराज को भगाने के बाद, कब्जा कर सकते थे। लेकिन एक ओर, जहां


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उनके हृदय में राज्य बढ़ाने की इच्छा थी, दूसरी ओर उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा थी। यदि उन दोनों में से उस समय एक भी झुक जाता और समझ से काम लेता तो सम्भव है कि आगे चलकर महाराज रणजीतसिंह का कार्यक्षेत्र कुछ अधिक साफ हो जाता और उनका वह समय बचकर किसी अन्य कार्य में लग जाता, जो कि इन्हें काश्मीर विजय करने में लग गया था।

परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि इन वीरों ने जाट जाति को जगा करके फिर से रणक्षेत्र में खड़ा कर दिया और उसने सदियों से खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त किया। इससे उनके जात्याभिमान का पता चल जाता है कि उन्होंने शहरों के - मुसलमान शहरों के - नाम पलट दिए और हिन्दू नामों से उनका संस्कार किया। युद्ध-सम्बन्धी उनकी यह भी विशेषता थी कि युद्ध में उनके बहुत कम आदमी काम आते थे और बहुत कम कैद होते थे। ये उनकी स्त्रियों का भी गुण था कि पति के मरने पर उनके कामों को तुरन्त संभाल लेती थीं। उन्होंने जो भी कुछ प्राप्त किया अधिकांश में वह विदेशी-विधर्मियों से तलवार के जोर से प्राप्त किया था।

रणजीतसिंह का बाल्यकाल

महासिंह जी की सारी उम्र युद्ध में बीती। अपने बाहुबल से वे पंजाब में सबसे बड़े इलाकेदार हो गये। परन्तु उनको राजा की उपाधि नहीं प्राप्त हुई थी। जिस समय महासिंह की मृत्यु हुई थी, उस समय उनकी अवस्था सिर्फ 27 साल की थी1 और रणजीतसिंहजी की सिर्फ 12 साल की थी। इनका लालन-पालन माई मलावां ने किया था। इनकी मां ने इनके लिए सलाहकार के तौर पर दीवान लखपत राय को रक्खा था। रानी सदाकौर जो कि रणजीतसिंह की सास थी, राजकाज में हर प्रकार की सहायता करती रहती थी, यह बड़ी समझदार और दिलेर थी। राज का कार्य सम्भालने में बड़ी चतुर थीं और जब जैसिंह सन् 1793 ई० में मर गया तो कन्हैया मिसल पर इनका ही अधिकार था। सदाकौर ने सोचा कि रणजीतसिंह की फौज से इस कदर काम लेना चाहिये कि मेरी और इनकी जागीरों में दूसरों को हस्तक्षेप करने का अवसर न मिले। इसलिए कन्हैया और सुकरचकिया दोनों मिसलों के सारे अधिकार अपने हाथ में रक्खे और सबसे पहले रामगढ़ियों से प्रबन्ध ठीक किया। सन् 1796 ई० में अपनी और रणजीतसिंह की फौज लेकर सरदार जस्सासिंह रामगढ़िया के इलाके पर जो व्यास नदी के किनारे पर था, चढ़ाई की। परन्तु दैवयोग से व्यास नदी में इतने जोर से बाढ़ आई कि सदाकुंवरि के अनेक


1. महासिंह ने कवीला छट के बलवान यवन सरदार गुलाम मुहम्मद पर आक्रमण करके उसके माझड़ पर अधिकार कर लिया था ।


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घोड़े, सिपाही बह गये तथा रणजीतसिंह बड़ी कठिनता से गुजरानवाला के दुर्ग में पहुंचे। बचपन में रणजीतसिंहजी को कोई शिक्षा नहीं मिली थी, क्योंकि सिक्खों में उस समय शिक्षा का पूरा अभाव था और किसी को पढ़ने-लिखने का शौक न था। इनको किसी भी भाषा का लिखना-पढ़ना न सिखाया था। थोड़े ही दिन बाद उनकी दूसरी शादी नकई सरदार रामसिंह की कन्या के साथ कर दी गई। 17 साल की अवस्था में वे अपनी जागीर का काम करने लगे और दीवान लखपतिसिंह को अलहदा कर दिया। मां और सास की संरक्षता से भी अलग हो गये। लखपतिसिंह को अलग करने का किस्सा इस प्रकार बतलाया जाता है कि दिलसिंह की सम्मति से लखपतिसिंह को कैथल के भयानक युद्ध में भेज दिया, जहां कि वहां के कट्टर जमींदारों ने उसे मार डाला। कहते हैं कि यह काम रणजीतसिंह के इशारे पर किया गया था। लखपतसिंह बड़ा नमकहराम और पहले दरजे का व्यभिचारी था। यद्यपि रणजीतसिंह के चरित्र को सुधारने की किसी को चिन्ता न थी, परन्तु फिर भी वह दुर्व्यसनों से बचे रहे। उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था। बचपन में ही शादियां हो जाने पर भी 20 साल तक वह गृहस्थ के झंझटों से बचते रहे। वह अपनी सास के दासत्व से निकल जाना चाहते थे, परन्तु सास इस बात को पसन्द नहीं करती थी। वह अधिक से अधिक समय तक राज की बागडोर अपने हाथ में रखना चाहती थी। इन दिनों काबुल में अहमदशाह का पोता खानजमां बादशाहत करता था। उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि वह पंजाब के उन इलाकों पर अपना आधिपत्य रक्खे, जिन्हें उसके दादों ने जीता था। इसी लालसा से प्रेरित होकर उसने सन् 1795, 1796, 1797 में पंजाब पर तीन आक्रमण किये। आक्रमण के समय सिक्ख पहाड़ और जंगलों में चले जाते थे और उसके लौटने पर फिर अपने स्थानों पर कब्जा कर लेते थे। पहले हमले में वह केवल झेलम तक पहुंचा था। सन् 1797 में तो वह लाहौर तक पहुंच गया और उस पर कब्जा भी कर लिया तथा वहीं निवास भी करने लगा। इसको लाहौर में ठहरा हुआ देखकर सिक्खों ने उत्पात मचा दिया और लूटमार करने लगे।

रणजीतसिंह जी भी सतलज पार के इलाके में खिराज उगाहने और कब्जा करने में जुट गये। ऊपरी भाव से कुछ सिक्ख और रणजीतसिंह जी भी शाहजमां से मैत्री के लिए लिखा-पढ़ी करने लगे। इसी बीच शाहजमां को खबर लगी कि उसके देश अफगानिस्तान पर ईरानी लोग हमला करना चाहते हैं तो वह वापस लौटने लगा। उस समय झेलम में बाढ़ आई हुई थी इसलिये उसकी 12 तोपें नदी में डूब गईं। उसने रणजीतसिंह से कहला भेजा कि यदि तुम मेरी तोपें निकलवा कर पेशावर पहुंचा दोगे तो मैं लाहौर नगर और उसके आसपास के इलाके तुम्हें दे दूंगा, साथ ही राजा की उपाधि भी प्रदान करूंगा। रणजीतसिंह ने उनमें से 8 तोपें शाहजमां के पास भेज दीं। शाहजमां ने भी अपने वचन का पालन करने के


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लिये लाहौर के सूबे की सनद और राजा का खिताब रणजीतसिंह को दिया। किन्तु यह केवल नियम पालन मात्र था। लाहौर पर कब्जा तो उन्हें तलवार के जोर से करना पड़ा।

शाहजमां के काबुल की ओर लौट जाने पर जब कि रणजीतसिंह जी अपनी राजधानी को लौट रहे थे, तो छत्ता के सरदार हसमतखां ने उन्हें छिप कर कतल करने का षड्यंत्र रचा। एक दिन जबकि रणजीतसिंह जी शिकार से लौट कर वापस डेरे पर आ रहे थे, यकायक हसमतखां ने हमला कर दिया। उसकी तलवार से रणजीतसिंह की घोड़ी की लगाम के दो टुकड़े हो गये। वह दूसरा वार करना ही चाहता था कि झट से रणजीतसिंह ने उसका सिर उतार लिया। उसकी इस गुस्ताखी के बदले में उसके सारे इलाके को अपने राज्य में मिला लिया।

लाहौर पर प्रभुत्व

लाहौर नगर प्राचीन समय से प्रसिद्ध चला आता है और यह पंजाब की राजधानी समझा जाता था। जब से जाट-सिखों के अन्दर राज्य-भावना पैदा हुई थी, तभी से वे लाहौर पर आधिपत्य जमाने की कौशिश कर रहे थे। अहमदशाह अब्दाली लाहौर को अपने नायक के सुपुर्द करके चला गया था। सन् 1764 ई० में लहनासिंह और गूजरसिंह से भंगी सरदारों ने, रात के समय नगर में घुसकर, मुसलमान गवर्नर को जब कि वह नाच देख रहा था, कैद करके लाहौर पर कब्जा कर लिया था। सरदार सोभासिंह कन्हैया भी पीछे से इनकी सहायता को पहुंच गया था। इस तरह लाहौर के तीन हिस्से करके इन्होंने बांट लिये। किन्तु इनकी सन्तानें निपट नालायक निकलीं। जब रणजीतसिंह को लाहौर की सूबेदारी शाहजमां से मिली तो उस समय लाहौर के शासक चेतसिंह, जौहरसिंह और साहबसिंह थे। इनमे साहबसिंह कुछ अच्छा था। शेष दोनों परले सिरे के लम्पट और व्यभिचारी थे। शराब पीकर ओंधे मुंह पड़े रहते थे। चेतसिंह से नगर के कुछ मुसलमान चौधरी नाराज थे। इसकी वजह यह थी कि लाहौर के मुसलमानों में मियां आशिक मुहम्मद और मुहकमुद्दीन दो बड़े चौधरी थे। आशिक मुहम्मद की लड़की बदरुद्दीन के साथ ब्याही गई थी। नगर के कुछ खत्री मियां बदरुद्दीन से नाराज थे। उन्होंने चेतसिंह से शिकायत की कि बदरुद्दीन शाहजमां के पास यहां की खबरें भेजता है और लाहौर को छिनवाने की कौशिश में है। इस बात पर विश्वास करके चेतसिंह ने मियां बदरुद्दीन को गिरफ्तार कर लिया। शहर के प्रतिष्ठित मुसलमान चेतसिंह के पास बदरुद्दीन की सिफारिश के लिये भी गये, किन्तु उसने किसी की एक न सुनी। डेढ़ महीने के बाद मुसलमानों ने रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि शहर में जुल्म हो रहा है, प्रजा तंग है अतः आप आइये और लाहौर के शासक बनिये। रणजीतसिंह ने अपने एजेन्ट काजी


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अब्दुलरहमान को भेज कर सब हाल मालूम किया और विश्वास हो जाने पर सेना लेकर बटाले में आये। अमृतसर से पांच हजार सैनिक बुलाकर लाहौर को रवाना हुए। लाहौर पहुंचने पर वजीरखां की बारहदरी में डेरा डाल दिए। सन् 1799 में एक दिन आठ बजे प्रातःकाल लुहारी दरवाजे से उनकी फौज ने शहर में प्रवेश किया। उस समय साहबसिंह लाहौर में उपस्थित था। चेतसिंह घेर लिया गया। उसके दो साथी भाग गए। नगर के फाटक मीरमुहकम, मुहम्मद आशिक और मीरसादी नामक मुसलमानों ने चेतसिंह से शत्रुता रखने के कारण खोल दिये। नगर पर अधिकार प्राप्त होते ही रणजीतसिंह जी ने घोषणा कराई कि नागरिकों को कतई भी न डरना चाहिये। उनका कुछ भी नुकसान न किया जाएगा। व्यापारी लोग अपनी दूकान खोलें। इस घोषणा से नगरवासियों पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा और वे रणजीतसिंह जी की प्रशंसा करने लगे।

रणजीतसिंह की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई जागीर, होती हुई विजय और चमकती हुई तकदीर ने यों तो पहले सिख, मुसलमान और हिन्दुओं के कान खड़े कर दिये थे किन्तु लाहौर पर रणजीतसिंह का प्रभुत्व स्थापित होते ही उन लोगों के दिलों में चूहे कूदने लगे। हालांकि सिखों को तो प्रसन्न होना चाहिये था, किन्तु वे भी परस्पर की स्पर्धा से रणजीतसिंह जी से जलते थे। उनमें से अनेक के इरादे थे कि हम लाहौर के शासक बनकर अपना नाम पैदा करें और साथ ही अपना राज भी बढ़ावें। अब वे सरदार रणजीतसिंह की बजाए महाराज रणजीतसिंह कहलाने लग गये थे।

तत्कालीन शासक - जिस समय महाराज रणजीतसिंह जी ने पंजाब, लाहौर पर कब्जा किया था और राजा की उपाधि धारण की थी, उस समय पंजाब में निम्न शासक शासन करते थे -

(1) कसूर में पठान निजामुद्दीन, (2) चक गुरु (अमृतसर) में भंगी सरदार गुलाबसिंह, (3) मुलतान में मुजफ्फर खां सदूजई। यह अबदाली खानदान से था, (4) दायरा में अब्दुल समद, (5) मनकेरिया, हूत, बन्नू में मुहम्मदशाह निवाज, (6) डेरागाजीखां, बहावलपुर में बहावलखां, (7) झंग में अहमदखां, (8) स्यालकोट, पेशावर में फतहखां वरकजई, (9) काश्मीर में अजीम खां, (10) अटक में वजीर खेल जहांदाद खां, (11) कांगड़ा में राजा संसारचन्द्र, (12) चम्पा में राजा चड़हतसिंह, (13) होशियारपुर से कपूरथला तक सर फतहसिंह अहलूवालिया, (14) वजीराबाद, धन, पाक पट्टन आदि स्थानों पर अन्य सिख सरदार शासक थे।

ईर्षा-द्वेष

महाराज रणजीतसिंह 1799 में लाहौर के अधिकारी हुए थे। उस समय


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-251


उनकी अवस्था केवल 20 वर्ष की थी । यह पहले ही लिखा जा चुका है कि उनको अफगान बादशाह से राजा की उपाधि भी मिल चुकी थी, इससे उनकी धाक सारे पंजाब पर छा गई थी। कुछेक सिख सरदारों के दिल में भी सन्देह का सांप लौटने लगा। जस्सासिंह, रामगढ़िया, गुलाबसिंह भंगी अमृतसर, साहबसिंह भंगी गुजरात, जोधसिंह बजीराबाद और निजामुद्दीन कसूर ने मिलकर षड्यंत्र किया और अमृतसर से सबने एक साथ रवाना होकर सन् 1800 ई० में लाहौर पर हमला किया। महाराज रणजीतसिंह भी मैदान में आ गये। ‘भसइन’ के मुकाम पर दोनों ओर से फौजें डट गईं। दो महीने तक बराबर दोनों लश्कर एक दूसरे के सामने पड़े रहे। उन लोगों ने एक चाल चली। रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि - वे हम लोगों से भेंट कर जाएं तो हम अपने देश को वापस चले जाएंगे। इस भेंट में आपसी मनोमालिन्य और सन्देह सब मिट जाएंगे । रणजीतसिंह जाट तो थे, किन्तु भोले जाट नहीं! जाट भूल करने में या धोखे में आने में प्रसिद्ध होते हैं। किन्तु महाराज रणजीतसिंह उनके जाल में न फंसे। जब भेंट करने गये तो इतने सैनिक अपने साथ ले गये कि उन लोगों की हिम्मत तक न पड़ी कि रणजीतसिंह पर हाथ उठाएं। पहले से सोचे हुए इरादे को दिल में ही पचाना पड़ा। इसके बाद छोटी-छोटी लड़ाइयां भी हुईं, किन्तु साथ ही भोज, विवाह और आखेट भी होते रहे। भंगी सरदार युद्धक्षेत्र में भी भोगविलास में तल्लीन हो गए। एक दिन गुलाबसिंह ने तो इतनी शराब पी ली कि उसी के कारण उनकी मृत्यु हो गई। गुलाबसिंह के मरने पर उनकी सब फौजें तितर-बितर हो गईं। महाराज रणजीतसिंह जी विजय का नगाड़ा बजाते हुए लाहौर लौट आए। इस छेड़छाड़ के बाद ऐसा मालूम हुआ कि मानो इन विरोधियों ने रणजीतसिंह का लोहा मान लिया। लाहौर आकर महाराज ने नजराने वसूल किए जो कि उन्हें विजय पर लोगों ने दिए थे।

महाराज रणजीतसिंह जी को पता चल गया था कि उनके विरुद्ध संगठन करने में कसूर का निजामुद्दीन अगुआ था। वह लाहौर के इलाके पर आक्रमण करके लूट-खसोट भी कर चुका था, इसलिए महाराज रणजीतसिंहजी ने उसको शिक्षा देना ही उचित समझा। अतः उस पर चढ़ाई की गई। नवाब एक झटके को भी न झेल सका, तुरंत पैरों में आ गिरा, और हार मानकर यह निर्णय स्वीकार किया कि उसका भाई कुतुबद्दीन महाराज की सहायता करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर जाया करे और उसकी रियासत रणजीतसिंह की करद बनी रहे। इसी साल रणजीतसिंह नारूवाली, येरूवाल और जस्सरवाल होते हुए जम्बू की ओर बढ़े और जम्बू से चार मील के फासिले पर जाकर डेरा डाल दिए। जम्बू के राजा ने उनके प्रताप को सुन रक्खा था, इसलिए उसने बिना लड़ाई-झगड़ा किए 20 हजार रुपया और एक हाथी इनकी नजर किया। उससे नजराना लेकर स्यालकोट की तरफ बढ़े। स्यालकोट मुसलमानों के आधीन था। पर स्यालकोट


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एक ही चपेट में फतह कर लिया गया। यहां से चलकर दिलावरगढ़ को विजय किया। यहां पर सोढ़ी केसरसिंह शासक था। लाहौर पहुंचकर सन् 1801 में महाराज रणजीतसिंह ने एक बड़ा जबरदस्त दरबार किया और ‘महाराज’ की उपाधि धारण की। यह दरबार बड़ी शान-शौकत के साथ सम्पन्न हुआ था। इसमें सब सरदार हाजिर हुए, पुरोहित ने राजतिलक किया, कवियों ने प्रशंसा के गीत गाये, विद्वानों ने आशीर्वाद दिया, और सैनिकों ने सलामी दी। इस दरबार में यह भी घोषणा हुई कि महाराज को सरकार लिखा जाया करे। लाहौर में टकसाल स्थापित करने की आज्ञा जारी की गई। न्याय के लिए न्यायालय कायम किए। काजी निजामुद्दीन और अजीजुद्दीन के भाई फकरुद्दीन को न्याय-सचिव नियुक्त किया। इमामबख्स को शहर का कोतवाल बनाया। चूंकि पिछले वर्षों से लाहौर का किला कई स्थानों से जीर्ण-शीर्ण हो गया था, इसलिए उसकी मरम्मत के लिए दीवान मोतीराम को 1 लाख रुपये दिए गए। राज्य में महाराज के नाम का सिक्का जारी हुआ। टकसाल में पहली बार में जितने रुपये हुए थे महाराज ने वे सब दान में दे दिए।

इन्हीं दिनों महाराज को खबर लगी कि साहबसिंह भंगी के कहने पर अकालगढ़ का सरदार फौज इकट्ठी कर रहा है। महाराज ने उसे मित्रता की चिट्ठी लिखकर लाहौर बुला लिया। उसकी काफी इज्जत की, परन्तु पीछे उसके मकान के आसपास फौजी सिपाहियों का पहरा लगवा दिया अर्थात् उसे गिरफ्तार कर लिया और उसके किले अकालगढ़ पर चढ़ाई कर दी। किन्तु दिलसिंह की रानी तेजो ने इस वीरता का काम किया कि महाराज को वापस लौटना पड़ा। साहबसिंह ने वजीराबाद के सरदार जोधसिंह को भी अपने साथ में मिला लिया था। महाराज ने उसको भी मित्र बना लिया और साहबसिंह पर हमला किया, परन्तु थोड़ी-सी लड़ाई के बाद गुलाबसिंह की प्रार्थना से परस्पर समझौता हो गया। इस सुलह के मुताबिक महाराज ने दिलसिंह को छोड़ दिया, परन्तु दिलसिंह अकालगढ़ पहुंचते ही मर गया। महाराज यह जानते थे कि बिना छोटे-छोटे राज्यों को मिटाये वह एक बड़ा साम्राज्य स्थापित नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने अकालगढ़ पर कब्जा कर लिया और तेजों के लिए दो गांव जागीर में दिए, जिनको भी इसी साल अपने राज्य में मिला लिया।

सन् 1802 ई० में महाराज ने तरनतारन की यात्रा की और वहां पर अहलूवालिया सरदार फतहसिंह से, जो वहां स्नान करने के लिए आया था, पगड़ी-पलट मित्रता की।

भंगी सरदारों ने अपनी कुटिलता त्यागी न थी, किन्तु महाराज रणजीतसिंह भी अचेत न थे। उन्होंने अमृतसर में, जो भंगी सरदारों का मुख्य स्थान था, कहला भेजा कि सन् 1764 ई० में लाहौर पर अधिकार करने के समय सिक्ख सरदारों


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ने जमजमा तोप को मेरे पितामह चरतसिंह का भाग निश्चय किया था, उस पर मेरा अधिकार है। आप लोगों के लिए उचित है कि जमजमा तोप को मेरे पास शीघ्र भेज दें। भंगी सरदारों ने जब रणजीतसिंह की इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, तो उन्होंने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में फतहसिंह अहलूवालिया भी साथ था। इन दिनों तक गुलाबसिंह मर चुका था, इसलिए उसकी विधवा रानी सुकवां अपने अबोध बालक के नाम पर अमृतसर पर राज्य करती थी। रानी ने सब दरवाजे बन्द कर दिए और बुर्ज के ऊपर चढ़ गई। महाराज ने स्वयं लोहगढ़ दरवाजे से और फतहसिंह ने हाल दरवाजे से आक्रमण किया। बड़े विकट संग्राम के बाद महाराज की विजय हो गई और नगर पर उनका अधिपत्य हो गया। किसी तरह की लूट नहीं हुई और महाराज खुद हरि-मन्दिर में गए और बहुत सा दान किया। रानी और उसके सरदार रामगढ़िया सरदारों की शरण में चले गए। इस प्रकार महाराज रणजीतसिंह का भंगी सरदारों के कुल इलाके पर कब्जा हो गया। इस प्रभावशाली युद्ध से महाराज रणजीतसिंह का पंजाब की आर्थिक तथा धार्मिक दोनों प्रकार की राजधानियों पर अधिकार हो गया। हिन्दू राजाओं में इस समय ‘कूंच’ का संसारचन्द्र ही था, जो कुछ साहस रखता था। उसे महाराज रणजीतसिंह के साथ टक्कर खानी पड़ी, परन्तु वह महाराज रणजीतसिंह से हार गया और उसका बहुत सा इलाका और 4 तोपें हाथ से निकल गईं। वापस होते हुए लादहां से चार सौ घोड़े महाराज ने प्राप्त किये थे। अगले साल महाराज को खबर मिली कि एक खत्री चूहड़मल की विधवा फगवाड़े में स्वतन्त्र राज्य कायम करना चाहती है। महाराज ने फगवाड़ा पर कब्जा कर लिया और विधवा को हरद्वार भेज दिया। इस समय संसारचन्द्र ने फिर होशियारपुर और वैजवाड़ा पर चढ़ाई की। जब महाराज उधर गए तो संसारचन्द्र कांगड़े की ओर भाग गया, परन्तु दूसरे साल फिर वह सामना करने आया। इधर उसके इलाके में गोरखा लोग आ पहुंचे, जिनका इरादा हिन्दुस्तान में अपना शासन स्थापित करने का था। इसलिए संसारचन्द्र को वापस लौटना पड़ा। सन् 1806 ई० में पटियाला और नाभा का आपस में झगड़ा हो रहा था। दोनों ने महाराज को अपना पंच नियुक्त करके निमन्त्रित किया।

महाराज अपनी सेना लेकर के उधर गए और कुछ लड़ाई झगड़े के बाद उनकी आपस में सन्धि करवा दी, परन्तु इसके साथ ही जंडियाला, रायकोट, जगराम, तिलोंडी और लुधियाना को अपने सरदारों में बांट लिया। लुधियाना इस समय रायकोट के एक मुसलमान-राजपूत इलियखां की दो विधवाओं के आधिपत्य में था। महाराज ने उन दोनों को निकाल कर अपना आधिपत्य जमा लिया। इसी समय महाराज को खबर मिली कि गोरखा जनरल अमरसिंह ने गढ़वाल का प्रदेश विजय करके सरमौर, बसी वगैरह हो करके कांगड़ा आ घेरा


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है। महाराज रणजीतसिंह तुरन्त कांगड़े पहुंचे, तो अमरसिंह का वकील जोरावरसिंह महाराज के पास आया। उसने दुगुना नजराना पेश किया, परन्तु महाराज ने नजराना लेना अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे गोरखों को गैर समझते थे और वह पंजाब में गोरखों की हुकूमत होना पसन्द नहीं करते थे।

कसूर के हाकिम निजामुद्दीन को 1801 में परास्त किया जा चुका था और उसके माफी मांगने पर महाराज ने क्षमा भी कर दिया था, किन्तु कुछ समय बाद उसके साले कुतुबुद्दीन ने उसे कतल कर दिया और आप कसूर का स्वतंत्र शासक बन बैठा। इसलिए महाराज ने कसूर पर भी घेरा डाल दिया। कुतुबुद्दीन ने तंग आकर आधीनता स्वीकार कर ली और बहुत सा रुपया महाराज की भेंट किया।

1802 ई० में इन्होंने नकिया मिसल के सरदारों की कन्या से शादी कर ली। कांगड़े के प्रबन्ध के लिए महाराज ने देसासिंह मजीठिया को वहां का कमान्डर तथा सारी पहाड़ी रियासतों का नाजिम मुकर्रिर किया। ज्वालामुखी में दान पुण्य करके मंडी, सुकेतकल्लू के राजाओं से नजराने वसूल किए। रास्ते में सरदार बघेलसिंह की विधवाओं से हरयाणा प्रान्त का अधिकार प्राप्त कर लिया। इसी दौर में फजीलपुरिया धूपसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसके इलाके को अपने कब्जे में कर लिया।

संसारचन्द्र ने भी इस समय अपने भाई फतहचन्द को महाराज के पास इसलिए भेजा कि हम अधीनता स्वीकार करने को तैयार हैं, किन्तु महाराज ने न अमरसिंह की सुनी और न संसारचन्द्र की। 24 अगस्त सन् 1802 ई० को किले में प्रवेश कर दिया। बड़ी भयंकर लड़ाई हुई, हजारों गोरखे और सिक्ख काम आये। अमरसिंह भाग गया और अंग्रेजों से कोशिश करने लगा कि वे रणजीतसिंह पर चढ़ाई करने में उसकी मदद करे, किन्तु अंग्रेजों का उस समय इतना साहस न था कि वे शेर को छेड़ सकें।

कहावत है ‘नीच निचाई ना तजे कैसे हू सुख देत’ इसी सिद्धान्त के अनुसार कुतुबुद्दीन फौज जमा करने लगा। वह चाहता था कि अपनी ताकत बढ़ाकर स्वतंत्र हो जाए। रणजीतसिंह की आधीनता को इस्लाम की शिक्षा के प्रभाव से कुफ्र समझने लगा। महाराज ने भी जब यह समाचार सुने तो कसूर पर हमला कर दिया और एक महीने तक उसे किले में बन्द रखा। आखिर वह हार गया। सिक्खों ने उसके किले में घुसकर उसे अपने अधिकार में कर लिया।

महाराज रणजीतसिंह की नीति स्पष्ट थी। वे अपनी सल्तनत को मजबूत बनाने के लिए यह चाहते थे कि पंजाब में कोई ऐसा सरदार, राजा, नवाब न रहे जो उनसे बराबरी का दावा कर सके। मिसलों के जितने सरदार थे, वे या तो उनके झण्डे के नीचे आ गए थे या उनका इलाका महाराज के राज्य में मिला लिया गया अथवा सतलज पार हो गए थे। 1808 ई० में पटियाला की रानी और


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महाराज का झगड़ा निबटाने महाराज रणजीतसिंह पटियाला गए थे। वहां से लौटने पर उन्होंने सरहिन्द के इलाकेदारों से खिराज वसूल किया। नारायणगढ़ के किले को जीत कर फतहचन्द अहलूवालिया के सुपुर्द कर दिया। राहूं का सरदार नारायणगढ़ में लड़ता हुआ मारा गया, इसलिए उसका इलाका भी अपने आधीन कर लिया। सरदार भावलसिंह की सेना से भरतगढ़ को छीन लिया। दीवान मुहकमचन्द ने वादनी के इलाके को विजय करके सतलज के पार भी हाथ साफ किया। इसी साल महाराज की रानी महतावकुंवरि से शेरसिंह और तारासिंह दो लड़के जुड़वां पैदा हुए। कुछ इतिहास लेखक इन्हें रानी की सन्तान नहीं बताते, लेकिन इसमें कहां तक सच्चाई है, यह कहना जरा कठिन है।

अब सतलज पार की सिक्ख रियासतों को यह डर उत्पन्न हुआ कि रणजीतसिंह एक दिन उन्हें भी मिटा देगा, इसलिए उन्होंने 1808 ई० में समाना राज्य पटियाला में एक मीटिंग की कि उन्हें रणजीतसिंह के साथ मिलना चाहिए, या अंग्रेजों के साथ। आखिर यही तय हुआ कि अंग्रेजों की शरण में चलना चाहिए क्योंकि पटियाला के राजा ने कहा था कि नष्ट तो हम दोनों के हाथ होंगे, किन्तु रणजीतसिंह हैजा है, जो तुरन्त नष्ट कर देगा ।जींद का राजा भागसिंह, कैथल का लालसिंह, पटियाले का दीवान चैन और नाभे का एजेण्ट गुलामहुसैन डेपूटेशन बनाकर देहली गए और एक तहरीरी प्रार्थनापत्र पेश किया, किन्तु अंग्रेजों की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। महाराज साहब को जब यह खबर लगी तो उन्होंने इन सब राजाओं को अमृतसर में बुलाया और धैर्य दिया कि तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया जाएगा।

यों तो महाराज अंग्रेजों के युद्ध-कौशल की तारीफ सुना करते थे। एक बार उनकी आंखों के सामने ही एक घटना घटी जिससे उन्हें अंग्रेजी सेना की शिक्षा का पता चल गया। इसी से आगे उन्होंने भी अपनी सेना को अंग्रेजी ढ़ंग से ही शिक्षा दिलाने की कौशिश की थी।

अमृतसर में जब मि० मिटकॉफ ठहरे हुए थे, तो उनके साथ के मुसलमान सैनिकों ने मुहर्रम के आ जाने के कारण ताजिया निकाला । जब वह अकालियों के पास से गुजरा तो फूलासिंह अकाली ने उन पर हमला कर दिया। यद्यपि इन सिपाहियों की संख्या कम थी, किन्तु रण-कुशल होने के कारण सिक्ख सिपाहियों को पीछे हटा दिया। महाराज ने यह हाल गोविन्दगढ़ में सुना। वहां से आकर उन्होंने रूमाल के इशारे से अपने सिपाहियों को हटा दिया। अंग्रेजी सेना की रणचातुरी से उन्हें विश्वास हो गया कि अंग्रेजी फौज बहादुर है। उनकी फौज अभी अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सकती और अभी अपनी हुकूमत भी कच्ची है। इस घटना का उनके दिल पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने अंग्रेजों से उन्हीं के प्रस्ताव


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के अनुसार सन्धि कर ली। हालांकि उनकी आत्मा इस सन्धि के विरुद्ध थी। सन्धि की ये बातें थीं –

अंग्रेज महाराज से सन्धि करने के लिए उतावले इस बात से थे कि फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट ने रूस से सन्धि कर ली थी और वह रूस की सहायता से भारत पर चढ़कर आना चाहता था। इंग्लैंड और भारत के अंग्रेजों को इससे बहुत फिकर हुई। इसलिए भारत के अंग्रेज गवर्नर जनरल ने काबुल के अमीर के पास एलीफिन्स्टन, ईरान के शाह के पास मेलकम और पंजाब के महाराज रणजीतसिंह के पास मेटकॉफ को दोस्ती पैदा करने के लिए भेजा। मेटकॉफ जब लाहौर पहुंचा तो महाराज कसूर चले गये। मेटकॉफ ने समझा महाराज अंग्रेजों से दोस्ती नहीं करना चाहते हैं। किन्तु बात यह थी कि दीवान मुहकमचन्द्र ने महाराज को सलाह दी थी कि हम दोस्ती की शर्तों में यह नियम रखना चाहते हैं कि जिसका जहां तक राज है, वह वहीं तक सीमित रहे। दोस्ती हो तब तक आप बाहर रहकर सतलज के पार अपना इलाका बढ़ा लीजिए। किन्तु मेटकॉफ लाहौर ठहरने की बजाय कसूर रवाना हो गया। उसके साथ महाराज को भेंट देने के लिए घोड़ों की जोड़ी, एक अंग्रेजी गाड़ी और तीन हाथी मय सुनहरी हौदे के गये थे। दोस्ती की शर्तें सामने आने पर महाराज ने इस शर्त को मानने से इन्कार कर दिया कि सतलज के पार महाराज अपना राज न बढ़ायेंगे। इसके साथ ही मि० मेटकॉफ को अजीजुद्दीन के साथ रवाना करके आप सतलज पार हो गए। पहली अक्टूबर को उनके सरदार कर्मचंद ने फरीदकोट पर कब्जा कर लिया। मालेरकोट पहुंचकर अलाउद्दीन से एक लाख नजराना लिया। मेटकॉफ ने मुलाकात होने पर महाराज से कहा - यह बात मैत्री-नियमों के विरुद्ध है। महाराज ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि अंग्रेज-सरकार को इससे क्या? हमें अपने सिक्खों पर पूरा हक है, हम चाहें उनके साथ जैसा व्यवहार करें।

मेटकॉफफतेहाबाद ठहरा रहा और महाराज अम्बाला जा पहुंचे। गुरुबक्ससिंह की विधवा दयाकौर का मुल्क लेकर नाभा और कैथल के हवाले किया, माल और जेवर अपने कब्जे में किये। गंडासिंह को अम्बाला का हाकिम बनाया। साहनीवाल, चांदपुर, झंदा, धारी, बहरामपुर पर कब्जा करके दीवान मुहकमचंद को दे दिए। रहीमाबाद, कानातरी, कोट वगैरह दूसरे सरदारों को दे दिये। शहाबाद के सरदार कर्मसिंह और थानेसर के सरदार से खिराज वसूल किया। पटियाला के राजा साहबसिंह से पगड़ी बदल मित्रता करके 2 दिसम्बर को लौटकर मेटकॉफ से मुलाकात की।

मि० मेटकॉफ ने महाराज से अंग्रेजी सरकार का आखिरी संदेशा कहा कि सतलज पार की रियासतें अंग्रेजों की शरण में समझनी चाहियें। महाराज उनसे सम्बन्ध छोड़ दें और ताजा लिया हुआ सारा इलाका वापस कर दें। महाराज इस


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पर तैयार न थे। वे अंग्रेजों से लड़ने की भी तैयारी करने में जुट गए और दोस्ती करने के लिए देर लामते रहे। इधर लार्ड मिन्टो ने भी, डेविड अक्टरलोनी के साथ, एक दस्ता पंजाब के लिए रवाना कर दिया। सरहिन्द के सारे सरदार अंग्रेजों की मदद को तैयार थे, वे इसे सौभाग्य समझते थे। वह दस्ता, बोरिया, पटियाला होता हुआ सन् 1809 में लुधियाना पहुंच गया और वहां छावनी डाल दी। अम्बाला को रानी दयाकौर के हवाले कर दिया। इससे राजा साहबसिंह और जसवन्तसिंह खूब प्रसन्न हुए। ये खबरें महाराज को पहुंच रही थीं। वे भी कुछ करना चाहते थे कि इतने में उक्त ताजिया वाली घटना घट गई। आखिर महाराज ने अंग्रेजों से दोस्ती कर ली।

25 अप्रैल 1809 को सन्धि-पत्र पर महाराज ने हस्ताक्षर कर दिए जिसके अनुसार सतलज पार की सब रियासतों पर से उन्होंने अपना दावा हटा लिया। अंग्रेजों का सतलज से उत्तर (शुमाल) की ओर कोई सम्बन्ध न रहा। यह सन्धि महाराज ने जन्म-पर्यन्त निभाई। 6 मई सन् 1809 को यह सन्धि-पत्र मुकम्मिल हो गया।

अंग्रेजों की छावनी में महाराज का एजेन्ट बटाला का बख्शीनन्दसिंह मुकर्रिर हुआ और अंग्रेजों ने लाहौर में कायस्थ खुशखतराय को खबर-रसा नियत किया।

सन् 1814 ई० में खड़कसिंह की शादी कन्हैया सरदार जेहलसिंह की पुत्री बुद्धिमती चन्दकौर के साथ हुई जिसमें नाभा, झींद आदि के सब रईस शामिल हुए। अंग्रेज अफसर अक्टरलोनी को भी बुलाया, किन्तु दीवान महकमचन्द इसके खिलाफ था कि अंग्रेज अफसर को अपने यहां बुलाकर उसे यहां की बातों से जानकार हो जाने दिया जाए।

मि० एलफिन्स्टन ने काबुल में वहां के तत्कालीन शासक शाहशुजा से सन्धि कर ली। लेकिन कुछ ही दिन बाद सन् 1810 के आरम्भ में उसके भाई शाह महमूद ने कैद से निकल फतहखां वरकजई की सहायता से शुजा को काबुल की गद्दी से हटाकर भगा दिया। इस तरह अंग्रेज-अफगान संधि का खात्मा हो गया। और जब शाह महमूद कश्मीर के सूबेदार के विरुद्ध भारत में आया तो महाराज ने रावलपिंडी में उससे दोस्ती कर ली।

सन् 1811 ई० शाहशुजा लुधियाने के अंग्रेजों से निराश होकर महाराज के पास आ गया। हालांकि वह पहले भी एक बार महाराज के पास आया था, लेकिन वह अपने भाई से लड़ने को पेशावर चला गया था। अब की बार भी महाराज ने उसको इज्जत से अपने यहां रखा। मुवारिक तेवली में उसके रहने का प्रबन्ध किया। खाने-पीने और खर्चने का कुल प्रबन्ध महाराज की ओर से था। अवसर पाकर महाराज ने शाहशुजा से कोहनूर हीरे के लिए सवाल कर दिया। शाहशुजा और उसकी स्त्री ने बहाने बनाकर महाराज को टालना चाहा। लेकिन जब उन्होंने


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उसका खान-पान बन्द कर दिया और उसके ऊपर पहरे लगा दिए तो कोहनूर उसने महाराज के हवाले कर दिया। हीरा मिलने पर महाराज ने उसे काबुल दिलाने में सहायता देने के लिए भी आश्वासन दिया और उसे एक जागीर भी दे दी। लेकिन शाहशुजा अपना और अपने बाल-बच्चों का भेष बदलकर एक दिन, रात को लाहौर से छिपकर निकल गया। कहते हैं उसके पास और भी कीमती जवाहरात थे। उसे डर था कि महाराज इन्हें भी न ले लें। इधर-उधर भटककर सन् 1819 ई० में उसने अपने आपको अंग्रेजों के हवाले कर दिया।

नोट - जब अंग्रेजों को यह मालूम हुआ कि रूस महाराज से दोस्ती करना चाहता है तो उन्होंने भी शीघ्रता से महाराज से दोस्ती करनी चाही। भारतवर्ष का इतिहास (लेखक - एक इतिहास प्रेमी) पेज 174 से 183 ।

गुजरात और वजीराबाद पर कब्जा

सन् 1809 में वजीराबाद का सरदार मर गया तो महाराज फौज लेकर वहां भी पहुंचे। क्योंकि वे जानते थे कि इस बीच कोई दूसरा सरदार कब्जा कर लेगा और इस तरह व्यर्थ उससे लड़ाई लड़नी होगी। लेकिन जोधसिंह के बेटे गंगासिंह ने एक लाख रुपया महाराज को भेंट में देकर आधीनता स्वीकार कर ली। साहबसिंह और उसके बेटे के बीच वैमनस्य था। इस वैमनस्य से लाभ उठाने के लिए महाराज ने अगले साल गुजरात पर चढ़ाई की। साहबसिंह ने भागकर जलालपुर के किले में शरण ली। महाराज ने वहां भी उसका पीछा किया। जलालपुर पर अधिकार कर लिया। साहबसिंह वहां से भी भागकर मंगलामाई में पहुंचा। इधर महाराज के जनरल अजीजुद्दीन ने गुजरात पर कब्जा कर लिया। महाराज ने खुश होकर उसके रिश्तेदार अजीजुद्दीन को गुजरात का हाकिम नियुक्त कर दिया। इसी भांति नजराना लेने के लिए फिर वजीराबाद पर धावा किया और उसे भी कब्जे में कर लिया।

सन् 1811 ई० में महाराज ने दीनानगर पहुंच कर उन पहाड़ी राजाओं से कर वसूल किये जो गुरु गोविन्दसिंह के समय में भी मुसलमानों के सहायक और सिखों के शत्रु रहे थे। नूरपुर के राजा से चालीस हजार नजराने में महाराज को मिले और उनके दीवान मुहकमचन्द और मौता डोगरा ने सुकेत, मण्डी और कुल्लू से खिराज प्राप्त किया। महाराज खूब समझते थे कि ये पहाड़ी राजा प्रजा की जान को बवाल हैं क्योंकि ये न तो अपनी प्रजा के जान-माल की रक्षा मुसलमानों से कर सकते हैं, न अपने धर्म के लिए खुद मरते-मिटते हैं। इसलिए उनकी इच्छा थी कि उनके समस्त राज्यों पर कब्जा कर लिया जाए। नूरपुर के राजा वीरसिंह को महाराज ने स्यालकोट बुलाया। किन्तु वह न आया तो इस आज्ञा-भंग के अपराध में उस पर इतना जुर्माना किया कि वह उसे पूरा न कर सका। इस पर


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उसकी सारी जायदाद जब्त कर ली। वह भाग कर अंग्रेजों की शरण में पहुंचा। पर वे बेचारे उस समय इतने सशक्त न थे कि महाराज रणजीतसिंह के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते। उसके ससुर जबालसिंह की बहुत सी जागीर भी जब्त कर ली गई, क्योंकि उसका जामाता अंग्रेजों को उभारने के लिए उनके पास चला गया था।

इसके बाद महाराज ने माधौपुर आकर दशहरा मनाया। दशहरा की शान, शान ही थी। उसकी तारीफ करना हमारी शक्ति से बाहर है। इसी अवसर पर महाराज ने आज्ञा दी कि माधौपुर से लगाकर दरबार साहब तक एक नहर निकाली जाए। अवकाश मिलने पर फिर पहाड़ी राजाओं के देश में गये, क्योंकि उनसे आशा न थी कि ठीक समय पर खिराज भेज देंगे। सुकेत, मंडी और कुल्लू के राजे से नजराने वसूल करके वापस लौटे।

नकिया-फजी-पुरिया मिसल

सन् 1810 ई० में उनको खबर लगी थी कि काहनसिंह, नकिया मिसल का सरदार मुल्तान और माझे के इलाके में जुल्म कर रहा है तो उसके दमन के लिए दीवान मुहकमचन्द को भेज दिया। उसने काहनचन्द को जीतकर उसे भेरुवाल की जागीर का मालिक बना दिया और सारा इलाका महाराज के राज में मिला लिया। फजील-पुरिया मिसल के सरदार बुधसिंह को भी मुहकमचन्द ने परास्त करके भगा दिया और सतलज पार का उसका कुल इलाका - जालन्धर, हेतपुर, फुलोर भी कब्जे में कर लिया। महाराज मुहकमचन्द की इस बहादुरी से बहुत खुश हुए और उसे दीवानी के सिवाय एक हाथी, सुनहरी हौदा और जड़ी हुई तलवार पुरस्कार में दी।

महाराज रणजीतसिंह कब्जा करने की नीति में बहुत निपुण थे। जहां जिस तरह उन्हें उचित जान पड़ता, वहां उसी तरह अपना कब्जा जमा लेते। बहुत दिनों से उनकी इच्छा थी कि अपनी सास के इलाके पर भी अपना कब्जा कर लें। बटाला पहुंच कर महाराज ने अपनी सास के सामने यह प्रस्ताव रक्खा कि वह शेरसिंह को कोई जागीर दे दे। वह राजी नहीं होती थी। आखिर जबरदस्ती से अपने दीवान द्वारा शेरसिंह, तारासिंह को जागीर दिला दी और सास को कैद कर लिया क्योंकि वह अंग्रेजों से महाराज के खिलाफ मिल जाना चाहती थी।

जब से महाराज ने अमृतसर पर कब्जा कर लिया था, तब से उनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। फिर भी उनकी इच्छा थी कि खजाने में ज्यादा से ज्यादा रुपया और ज्यादा से ज्यादा फौज हो। इसलिए उन्होंने स्याल के पास कहला भेजा कि या तो खिराज भेजो, वर्ना तुम्हारा इलाका जब्त कर लिया जाएगा। उसका उत्तर पाये बिना ही उस पर चढ़ाई कर दी। अहमदखां स्याल ने झंग के मुकाम पर महाराज की फौज का मुकाबला किया। दिन भर लड़ाई होती रही। तीन दिन के


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बाद उसके साथी उसे छोड़ कर भाग गए। फिर बेचारे ने भाग कर मुलतान जाकर शरण ली। उसकी सारी सम्पत्ति महाराज के हाथ आ गई। हिन्दू चौधरियों की प्रार्थना के कारण शहर में कोई लूटमार नहीं की गई। बाद में अहमदखां ने 60 हजार रुपये सालाना अदा करने का इकरार किया, इसलिए उसकी हुकूमत वापस कर दी गई। महाराज ने ऊंच, शाहीवाल और गढ़ के मुसलमान नवाबों से बहुत सा रुपया वसूल किया। मुलतान को महाराज पहले ही फतह कर चुके थे क्योंकि मुलतान पंजाब में लाहौर के बाद दूसरे नम्बर का इलाका था। उस समय मुलतान के नवाब मुजफ्फरजंग ने आधीनता स्वीकार करके महाराज को बहुत सा नजराना दिया था। शाहीवाल के हाकिम फतहखां ने कुछ समय बाद खिराज देना बन्द कर दिया, तो सन् 1810 ई० में महाराज ने शाहीवाल पहुंच कर उसे गिरफ्तार करके जंजीरों से बंधवा कर, लाहौर भेज दिया और मुलतान की तरफ मुंह फेरा। क्योंकि मुजफ्फरखां ने ऐसे आसार पैदा कर दिए थे, जिससे महाराज उससे नाराज हो गए। किन्तु लड़ाई में महाराज के सामने ठहरना सम्भव नहीं था। मुलतान पर कब्जा करते ही आस-पास के सब सरदार घबरा गये। लैमा और मक्खर के सरदार मुहम्मदखां ने महाराज को 1 लाख 20 हजार रुपया नजराने में दिया। भागलपुर का सरदार सद्दीकमुहम्मद महाराज को 1 लाख रुपया नजराना देना चाहता था, पर महाराज ने मंजूर नहीं किया । आखिर 500 सवार लड़ाई में इमदाद के लिए रवाना किये। कई दिनों तक किले पर गोलाबारी होती रही, परन्तु पठानों ने बड़ी बहादुरी से सामना किया। जमजमा तोप भी मुलतान के किले पर लगाई गई, परन्तु उससे भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसका चलाना बहुत कठिन था। दो महीने की लड़ाई में भी महाराज किले को फतह न कर सके। उधर दीवान मुहकमचन्द, जिसे सुजाबाद को जीतने के लिए भेजा था, वह भी असफल रहा। इन दोनों जगहों की असफलता से महाराज के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अनुभव कर लिया कि लड़ाई के लिए सुशिक्षित सेना की आवश्यकता है। युद्ध-कौशल में बिना शिक्षा पाए कोई भी सेना सफलता प्राप्त नहीं कर सकती। इसलिए इन्होंने अंग्रेजी तरीके पर अपनी सेना को कवायद सिखानी शुरू कर दी। मुजफ्फर अहमद ने इन दिनों अंग्रेजों से मदद मांगी पर वह उस ओर से निराश रहा। अगले साल सरदार दिलीपसिंह के साथ मिहाटुआना और उंच के नवाबों से खिराज वसूल करते हुए महाराज मुलतान पहुंचे। मुजफ्फरखां के एजेण्ट दिल्ली से जेवर बेच कर नकद रुपया ले आये थे। उन्होंने 50 हजार रुपया महाराज की नजर किया। इन्हीं दिनों दिलसिंह ने कोटकमालिया को फतह कर लिया था। सन् 1815 ई० में महाराज पाकपट्टन होते हुए भागलपुर को रवाना हुए। भागलपुर के नवाब ने 80 हजार नजराना और 40 हजार सालाना खिराज देना स्वीकार किया। वहां से


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महाराज हड़प्पा पहुंचे और मिश्र दीवानचन्द्र के तोपखाने की मदद से अहमदाबाद को सर किया।

यद्यपि मुलतान से महाराज को खिराज और नजराना बराबर मिलते रहते थे। फिर भी महाराज की यह उत्कट इच्छा थी कि मुलतान को अपने राज में मिला लें। इसलिए सन् 1817 ई० में दीवान मोतीराम, भवानीदास, हरीसिंह नलुआ और मिश्र दीवानचन्द को मुलतान विजय करने को विदा किया। मुजफ्फरखां भी समझ चुका था कि रणजीतसिंह का दांत उसके राज्य पर है। इसलिए बड़ी बहादुरी से डट करके सामना किया। इन सबकी कौशिश बेकार साबित हुई और लाहौर लौट आए। महाराज इस पराजय को सुनकर बहुत नाराज हुए और लौटे हुए सरदारों को अनेक प्रकार से फटकारा और भवानीदास को कैद कर लिया। अगले साल के शुरु में 25 हजार सिख मिश्र दीवानचन्द्र के साथ, मुलतान विजय करने को फिर भेजे। रसद का सामान रावी और चिनाव नदी के रास्ते से भेजने का प्रबन्ध किया। महाराज को यह भी खयाल हुआ कि कहीं सब मुसलमान मिलकर के दीवानचन्द का मुकाबला न करें इसलिए उन्हें सांत्वना देने के लिए अहमदखां स्याल को रिहा कर दिया और उसे अमृतसर के इलाके में जागीर दे दी। मुजफ्फरखां ने भी बहुत से मुसलमानों को जिहाद (धर्मयुद्ध) के नाम पर इकट्ठा किया। उसने मुसलमानों से अपील की थी कि वे दीन के नाम पर मेरी मदद करें। सिखों ने अब की बार उस किले पर बड़े जोरों के साथ हमला किया। दीवान मोतीराम ने घेरा डाल दिया। जमजमा तोप से भी काम लिया गया। बराबर तोपों के गोलों की मार से किले में छेद हो गए। मुजफ्फरखां ने भी जान तोड़ कर युद्ध किया लेकिन उसके साथियों का दिल बैठ गया। मुसलमानी फौज के बराबर घटने के कारण कुछ सटक गए और कुछ ने हथियार डाल दिए। उसके दो हजार आदमियों में से सिर्फ दो सौ जिन्दा रह गए। अचानक साधूसिंह नाम के सैनिक ने अपने साथियों समेत शुक्र के दिन यवनों पर धावा बोल दिया और हाथों हाथ लड़ाई में सबको कत्ल कर डाला। मुजफ्फरखां ने बड़ी बहादुरी के साथ अपने बेटों को सब्ज कपड़े पहना कर खिजरी दरवाजे पर सिखों का मुकाबला किया। बढ़ते-बढ़ते बहाबलहक के मकबरे तक आ पहुंचा। यहां पर सिखों ने उसके ऊपर गोलियां चलाईं, जिससे वह अपने पांचों बेटों सहित मारा गया। नवाब का सारा सामान - शाल, दुशाले, जवाहरात, हीरे, मोती लूट लिए गए। किले के अन्दर के चार, पांच सौ मकान गिरा दिए गए। बहुत सी मुसलमानी औरतें डर के मारे हौज में डूब कर मर गईं1

मुलतान को विजय कर लेने के बाद सुजाबाद को लूटा गया। जब लाहौर में


1. तारीख पंजाब। पे० 402।


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मुलतान विजय की खबर महाराज को लगी तो बड़ी खुशियां मनाई जाने लगीं। आठ दिन तक लाहौर और अमृतसर दोनों शहरों में रोशनी की गई। महाराज गलियों में घूम-घूमकर रुपये बखेरते थे। मुलतान की लूट में से जो महाराज के हाथ लगा, वह पांच लाख के करीब था। सुखदयाल को महाराज ने मुलतान का सूबेदार नियत किया। मुलतान की विजय ऐसी थी, जिससे महाराज का दिल तो बढ़ा ही, पर साथ ही मुसलमानों और सिखों सभी पर आतंग छा गया। अंग्रेज भी महाराज की इस गतिविधि का अनुशीलन कर रहे थे। परन्तु वे कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि उनके पास इतनी शक्ति नहीं थी कि रणजीतसिंह जैसे साहसी और बहादुर का मुकाबला कर सकें। साथ ही वे मरहठों के झंझटों में फंसे हुए थे।

वजीर फतहखां को उसकी ईरान विजय पर काबुल के अमीर ने दावत दी थी। उसी दावत में अमीर शाहमहमूद के बेटे ने फतहखां को मार डाला, जिससे फतहखां का कबीला बिगड़ा और काबुल में पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हो गया। महाराज ने पेशावर को अपने राज्य में मिला लेने का यह अवसर बड़ा अच्छा समझा। 15 दिन तक बराबर सेना की कवायद-परेड देखने के बाद फूलसिंह, अकाली और दूसरे सरदारों के साथ पेशावर को फौज रवाना कर दी। उन्होंने मार्ग में खटक-पठानों को परास्त करते हुए खैराबाद, नौशहरा और फिर पेशावर पर कब्जा कर लिया। पेशावर का सूबेदार यारमुहम्मद भाग गया। महाराज तीन दिन तक पेशावर रहे। पच्चीस हजार नजराना और 14 तोपें लेकर जहांदादखां को पेशावर का सूबेदार नियुक्त कर दिया और आप लाहौर को वापस लौटे। महाराज अटक के पास थे कि दोस्तमुहम्मदखां ने अपने एजेण्ट दामोदरमल और हाफिजउल्ला को महाराज के पास भेजा। उन्होंने एक लाख रुपये महाराज के सामने इसलिए पेश किए कि उसे पेशावर दे दिया जाए। महाराज ने यह बात मान ली। लेकिन इसी बीच बरकजई मुसलमानों ने जहांदादखां को पेशावर से निकाल दिया। महाराज इस समाचार को सुनकर बड़े क्रोधित हुए। लेकिन इतने ही में काबुल के एजेण्ट पचास हजार रुपये और कुछ घोड़े लेकर महाराज की सेवा में हाजिर हो गए। इसलिए महाराज ने अपनी फौज वापस बुला ली। कटक का स्नान करके महाराज लाहौर लौट आए। इसके बाद सन् 1818 में शाहशुजा ने भी पेशावर पर कब्जा करने की कौशिश की, पर वह असफल रहा। दिलसिंह की फौज ने उसे सिन्ध की ओर भगा दिया।

मुलतान की विजय के बाद महाराज ने डेरेजात और हजारे के इलाके को अपने राज्य में मिलाने के लिए राजकुमार शेरसिंह और तारासिंह को फौज देकर भेजा। यहां के इलाकेदार मुहम्मदखान के साथ हजारों मुसलमान इकट्ठे हो गए,


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परन्तु मुहम्मदखान लड़ाई में मारा गया, इसलिए उसके बेटे ने 75 हजार रुपया अदा करके सन्धि कर ली। सन् 1819 ई० में महाराज मुलतान की तरफ से सिन्ध के अमीरों से खिराज लेने के लिए जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में खबर मिली कि उनकी दो रानियों से दो लड़के पैदा हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि बच्चे कहीं दूसरी जगह से लेकर रानियों ने अपने बतला दिए थे। काश्मीर और मुलतान की विजय के उपलक्ष में एक का नाम कश्मीरासिंह और दूसरे का नाम मुलतानासिंह रक्खा। एक को स्यालकोट में और दूसरे को मुलतान में जागीर दी गई। मुलतान को महाराज ने श्यामसिंह पेशावरिया को साढ़े छः लाख सालाना के ठेके में दे रक्खा था। जब उन्हें यह पता चला कि उसने प्रजा के ऊपर बहुत अत्याचार किए हैं तो श्यामसिंह को कैद करके भाई बदन-हजारी को वहां का सूबेदार नियुक्त किया और अकालगढ़ के खत्री सावनमल को माल-अफसर बनाया। इसी साल जमादार खुशहालसिंह ने डेरेगाजीखां को विजय कर लिया जो कि पहले काबुल का एक हिस्सा था। इन्हीं दिनों खबर मिली कि हजारा, पिलखी, धतूड़ा और तिखला के मुसलमानों ने भाई मक्खनसिंह को कत्ल करके विद्रोह कर दिया है। महाराज ने दीवान रामदयाल और श्यामसिंह अटारी वाले को राजकुमार शेरसिंह के साथ रवाना किया। इनके साथ अहलूवालियां फतेसिंह और रानी सदाकौर भी थे। रानी सदाकौर ने इन कबीलों को तबाह करने का हुक्म दिया। हजारों मुसलमान कत्ल कर दिए गए। इन ज्यादतियों को देखकर तिखला, यूशुफजई वगैरह के सब मुसलमान इकट्ठे हो गए। दीवान रामदयाल ने उनका सामना किया। सारे दिन लड़ाई होती रही जिसमें दोनों तरफ के बहुत से वीर लड़ाई में मारे गए। दीवान रामदयाल बड़ी बहादुरी से लड़ा। पठान उससे चिढ़ गए और शाम के वक्त लौटती बार उस पर टूट पड़े। सिखों की फौज पीछे हट चुकी थी। रामदयाल ने बड़ी बहादुरी से लड़ते-लड़ते अपनी जान दी। महाराज को इस नौजवान की मृत्यु का समाचार मिला तो वे बड़े दुखी हुए क्योंकि उन्हें इस पर बड़ी उम्मीदें थीं।

दीवान मोतीराम ने जब अपने बेटे की मौत का समाचार सुना तो उसे इतना रंज हुआ कि वह काश्मीर की सूबेदारी को छोड़ कर बनारस में चला गया। रणजीतसिंह का कोप साधारण न था। हजारा के मुसलमानों ने धीरे-धीरे खिराज देना स्वीकार कर लिया।

सन् 1820 ई० में महाराज झेलम पार करके रावलपिंडी गए और वहां के सरदार नन्दसिंह को निकाल कर रावलपिंडी अपने अधिकार में की और दफ्तरी नानकचन्द को वहां का अफसर नियुक्त किया। फरवरी, सन् 1821 ई० में महाराज के लड़के खड़गसिंह के यहां नौनिहालसिंह का जन्म हुआ जिससे राज्य भर में बड़ी खुशियां मनाईं गईं। इसी साल कस्तवाड़ और फतहकोट को विजय


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करके अपने राज्य में मिलाया। सरदार हरिसिंह नलुआ, मिश्र दीवानचन्द्र और दीवान कमाराव को भक्खर विजय करने को भेजा। भक्खर जीत लेने के बाद सरदार दिलसिंह और जमादार कुशालसिंह डेरेइस्माइलखां1 की ओर गए। वहां के अफसर नानकराय ने सामना किया, परन्तु वह पकड़ा गया। इसके बाद खानगिरान, लैया, पेजगढ़ कर कब्जा करके महाराज की फौज ने मुनकेरा पर वार किया। मुनकेरा के नवाब हाफिज रहमतखां ने सामना किया। परन्तु उसे पानी का बहुत कष्ट था। उसके यहां बहुत दूर से ऊंटों पर पानी लाया जाता था। फिर भी वह 24 दिन तक लड़ता रहा। महाराज रणजीतसिंह खुद भी इस युद्ध में मौजूद थे। नवाब ने हार मान ली और सन्धि की प्रार्थना की। इस लड़ाई में महाराज के हाथ चौबीस तोप और 10 लाख का इलाका आया। डेरा इस्माइल खां हाफिज रहमतखां के ही हाथ रहा।

मुहम्मद अजीम की गुप्त कार्रवाहियां महाराज से छिपी हुई नहीं थीं, इसलिए उन्होंने उसके भारतीय इलाके को अपने राज्य में पूर्णतः मिला लेने का निश्चय किया। सन् 1823 में रोहितास में उन्होंने अपनी सारी फौज इकट्ठी की। वहां से रावलपिंडी को कूच कर दिया। महाराज ने फकीर अजीजुद्दीन को [Peshawar|पेशावर]] में भेजा कि वह मुहम्मदयारखां से नजराना तो वसूल कर ही ले। मुहम्मदयारखां ने नजराना दे दिया, साथ ही बहुत से घोड़े भी महाराज के लिए दिए। मुहम्मद अजीमखां को अपने भाई की यह हरकत बहुत बुरी लगी। वह काबुल से बहुत सी फौज लेकर पेशावर आया। महाराज उससे निपट लेना चाहते थे, इसलिए शेरसिंह को हरीसिंह नलुआ और दीवान कृपाराम के साथ पेशावर की ओर भेजा। उन्होंने पहले ही जाकर जहांगीराबाद पर हाथ साफ किया। पठान जोश में आकर जेहाद के नाम पर इकट्ठे हो गए। अफरीदी, खटक, बनेरे आदि सभी किस्म के पठान नौशेरा में आ डटे। महाराज ने दूसरी फौज खड़कसिंह और मिश्र दीवानचन्द को देकर शेरसिंह की मदद को भेजा और फिर स्वयं भी उधर ही को चल पड़े। उधर मुहम्मद अजीमखां भी नौशेरा आ गया। दोस्तमुहम्मद, सरदार जवरखां भी मुकाबले के लिए आ डटे। महाराज ने 15 हजार सवारों के साथ 12 मार्च को अटक नदी को पार किया। नदी चढ़ी हुई थी। कभी भी किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि घोड़े पर चढ़कर अटक को पार करें, किन्तु “सवैभूमि गोपाल की या में अटक कहा” कहकर महाराज ने घोड़ा नदी में बढ़ा दिया। कहते हैं हजार के


1. सन् 1838 में कुं० नौनिहालसिंह ने शाह नवाबखां को निकाल कर डेरा-ईस्माइलखां पर अपना कब्जा कर लिया था और सन् 1835 ई० में यूसुफजई और अफरीदियों को विजय किया और लूटा। दूसरी तरफ हरीसिंह ने जमसूदी और अफरीदियों को परास्त किया। तारीख पंजाब। पेज 405 ।


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लगभग सैनिक बह गए। तोपें हाथियों पर रखकर पार की गईं। उधर पठानों की ओर से बीस हजार आदमी इकट्ठे हो गए थे।

नौशेरा का युद्ध इसलिए ख्याति रखता है कि इसमें पंजाबी जाट तथा हिन्दुओं ने पठानों की सम्मिलित शक्ति को पराजय दी। युद्ध आरम्भ हुआ। पठानों ने सिख जनरल सतगुरु सहाय और महासिंह को गोली का निशाना बना दिया। सिख पठानों की मार से पहाड़ी से नीचे की ओर उतरने लगे। इतने में फूलासिंह अकाली ने अपने साथियों को ललकारा और वह भेड़िये की भांति पठानों पर टूट पड़ा। किन्तु गाजियों के दल में घिर जाने से फूलासिंह मारा गया। फूलासिंह के मारे जाने के बाद, महाराज ने खुद हमला किया। मिश्र दीवानचन्द ने भी अपना तोपखाना लगा दिया। शाम तक बराबर रक्तपात होता रहा। गाजियों की संख्या आधी रह गई। इतने पर भी गाजी अपनी जगह से तिल भर भी न हटे। इसके बाद महाराज ने गोरखों की पलटन को आगे बढ़ाया और पीछे अपने सैनिक खड़े कर दिए ताकि वे मैदान से भागें न। पठानों पर चारों ओर से मार पड़ने लगी। आखिर वे मैदान छोड़ भागे। मुहम्मद अजीमखां अपने बाल-बच्चों को बचाने के लिए पहले चंपत हो चुका था और पहाड़ियों के रास्ते छिपता हुआ भाग गया। महाराज ने आगे बढ़कर हस्तनगर पर कब्जा किया और तारीख 17 मार्च को पेशावर पर अधिकार कर लिया। सिक्ख बिखर गए और खैबर तक सारे इलाके में उन्होंने लूट मचा दी। किन्तु चूंकि वहां की मुसलमान जनता सिक्ख विजेताओं से सख्त नाराज थी, इसलिए महाराज ने पेशावर अपने हाथ न रखकर यारमुहम्मद और दोस्तमुहम्मद को बुलाया। वे दो जोड़ी घोड़े नजराना लेकर महाराज के सामने हाजिर हुए। उन्हीं में महाराज ने नया जीता हुआ इलाका बांट दिया। 26 अप्रैल को लाहौर वापस आकर विजय की खुशियां मनाईं। लाहौर, अमृतसर में भारी रोशनी हुई। इन्हीं खुशी के दिनों में तैमूरशाह का लड़का इब्राहीम लाहौर आया। महाराज ने उसे बड़े प्रेम से ठहराया और उसका सत्कार किया।

अपनी पिछली आदत के अनुसार सन् 1823 ई० में पिखली और धमतूर के कबीलों ने विद्रोह खड़ा कर दिया। जब महाराज को खबर मिली तो उन्होंने हरीसिंह नलुआ को उनके दमन करने को भेजा। हरीसिंह ने उनके गांव के गांव बरबाद कर दिए और उनको इतना तंग किया कि आज तक उनकी औलाद के लोग हरीसिंह को नहीं भूल पाये हैं। इसके एक साल बाद, सन् 1824 ई० में हजारा के जमींदारों ने भी बगावत खड़ी कर दी और महाराज के किलेदार अव्वासखां खटक को कैद कर लिया। हरीसिंह नलुआ ने गंदगढ़ के मैदान में इनको परास्त करके भगा दिया। अव्वासखां को कैद से छुड़ा कर उसकी जगह पर बहाल


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कर दिया। इन्हीं दिनों बहावलपुर और मुनकेरा के नवाब मर गए। महाराज ने उनके बेटों को पच्चीस-पच्चीस हजार नजराना लेकर उत्तराधिकारी बना दिया।

काश्मीर विजय के हालात

कश्मीर जिस तरह से महाराज के हाथ में आया और जितनी बार उनको लड़ाइयां लड़नी पड़ीं, वह सब पाठकों की सहूलियत के लिए एक जगह संग्रह करके रख देना हमने उचित समझा है। जिन दिनों कश्मीर काबुल के आधीन था, उस समय वहां अतामुहम्मद सूबेदार था। अतामुहम्मद ने सन् 1810 ई० में शुजा की मदद करके उसके विरोधी भाई महमूद को हराया था। उसी साल दीवान मुहकचन्द ने भम्बर और राजौरी पर हमला किया। भम्बर के सुल्तान खान ने सामना किया, परन्तु हार गया और 40 हजार रुपया खिराज देना मंजूर किया। दूसरी तरफ महाराज ने कटाल में गंगा का किला जीत लिया था। उन्हें इसी समय समाचार मिला कि शाह महमूद सिंध के पार हो आया है। महाराज खेबड़ा से चलकर रावलपिण्डी पहुंचे। यहां उन्हें पता लगा कि शाह महमूद काश्मीर के सूबेदार अतामुहम्मद को तथा अटक के सूबेदार को सजा देना चाहता है। महाराज ने उसके साथ दोस्ती कर ली और वापस चले आए। यहां पर उन्हें मालूम हुआ कि इस्माइलखां को जिसे मुहकमचन्द भम्बर का इलाका दे आया था, सुल्तानखां ने निकाल दिया है। इसलिए भाई रामसिंह और कुं० खड्गसिंह को सुल्नातखां को ठीक करने को भेजा। सुल्तानखां ने पहली लड़ाई में सिक्खों को हटा दिया, परन्तु जब उसने सुना कि मुहकमचन्द भी फौज लेकर आ रहा है तो वह सन्धि करने पर राजी हो गया और मुहकमचन्द के साथ लाहौर चला आया। यहां महाराज ने उसे कैद कर लिया और उसका इलाका अपने राज्य में मिला लिया। सन् 1812 ई० में इस्माइलखां ने राजौरी के अजीजखां के साथ मिलकर अतामुहम्मद की मदद से बगावत खड़ी कर दी। महाराज ने खुद जाकर इस बगावत को दबाया। इन्हीं दिनों काबुल के अमीर शाहजमाल और शुजा के कुनबे लाहौर में आए। महाराज की ओर से उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ। महाराज की यह भी इच्छा थी कि शुजा लाहौर में रहे क्योंकि काश्मीर के ऊपर उनकी नजर थी। इसी समय उन्हें काश्मीर लेने का मौका भी मिल गया। वजीर फतहखां अतामुहम्मद और उसके भाई जहांदाद (किलेदार अटक) को सजा देने के लिए काश्मीर जा रहा था। उसे यह खयाल आया कि शायद महाराज रणजीतसिंह की फौज काश्मीर के पहाड़ी रास्तों से भली प्रकार परिचित होगी। इसलिए महाराज की फौज के साथ मिलकर यह मुहीम इखत्यार करनी चाहिए। महाराज उसके साथ फौज लेकर चलने के लिए इस शर्त पर तैयार हो गए कि लूट का तीसरा भाग सिखों को दिया जाएगा। बारह हजार फौज मुहकमचन्द के साथ महाराज ने


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काश्मीर के लिए रवाना की। दोनों फौजें पृथक्-पृथक् रास्तों से काश्मीर पहुंचीं। अतामुहम्मद लड़ाई में न ठहर सका और वजीर ने शाहमहमूद के नाम पर काश्मीर पर अधिकार कर लिया और सिखों को कुछ नहीं दिया। दीवान मुहकमचन्द को खाली हाथ लौटना पड़ा। यह पहला मौका था कि महाराज मुसलमान के धोखे में आ गए और वह इतने चिढ़े कि उसी समय अटक के हाकिम जहांदादखां से लिखा पढ़ी की कि अटक का किला सिखों के हाथ में कर दे। उस बेचारे ने लाचार होकर महाराज के दावे को स्वीकार कर लिया और सिखों को उस किले में घुसा लिया। महाराज ने फकीर अजीजुद्दीन और दीवान देवीदास को अटक का चार्ज संभालने को भेजा। उधर काश्मीर से फतहखां भी वहां का इन्तजाम अपने अजीजखां के सुपुर्द करके अटक आ पहुंचा। लड़ाई की तैयारियां होने लगीं। सुजूर के मुकाम पर घमासान युद्ध हुआ। परन्तु सिखों की मदद के लिए मुहकमचन्द आ पहुंचा था। वजीर और उसका भाई दोस्त-मुहम्मद दोनों बहादुरी के साथ लड़े, परन्तु मुहकमचन्द की बहादुरी से यवनों को हार खानी पड़ी और वह भाग खड़े हुए। पठानों पर सिखों की यह पहली विजय थी। वह शुभ दिन जब कि पठानों पर सिख विजयी हुए थे सन् 1813 की 13 जुलाई था। इस विजय से लाहौर में बड़ी खुशी मनाई गई। लाहौर, अमृतसर, बटाले में रोशनी की गई। दो महीने तक बराबर आमोद-प्रमोद जारी रहे। कुछ समय के बाद महाराज ने सूबा अटक का मुलाहिजा किया और अक्टूबर में पहाड़ी राजाओं से खिराज वसूल करके काश्मीर पर चढ़ाई करने का प्रबन्ध करने लगे। गुजरात के रास्ते से उनकी सेनाएं काश्मीर को चलीं। भम्बर और राजौरी होते हुए ठट्ठा में उनकी सेनाएं पहुंचीं। परन्तु काश्मीरी मुसलमानों ने बहरामगिला के पास का पुल तोड़ दिया था, जिससे उनका आगे बढ़ना रुक जाए। परन्तु राजौरी के सरदार के दूसरा रास्ता बतलाने पर महाराज ने बहराम के किले पर कब्जा कर लिया। आगे बढ़ने का विचार कर रहे थे कि बरसात शुरू हो गई। इस साल बड़े जोरों का पानी पड़ा। इसलिए महाराज ने यही उचित समझा कि बरसात के बीत जाने पर काश्मीर पर हमला किया जाए। इसलिये उस समय वह लाहौर के लिए लौट आए।

सन् 1814 ई० में महाराज ने काश्मीर पर चढ़ाई करने का फिर इरादा किया। स्यालकोट में सब फौज और सरदारों को इकट्ठा किया। इस समय दीवान मुहकमचन्द ने राय दी कि चम्बर और राजौरी में बहुत सा रसद का सामान इकट्ठा कर लिया जाए तब काश्मीर पर चढ़ाई की जाए। परन्तु महाराज ने इस राय पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

बीमारी की वजह से दीवान मुहकमचन्द तो लाहौर में ही रह गया। उसकी जगह पर उसका पौत्र रामदयाल जिसकी उम्र 24 साल की थी, जाने को तैयार हुआ। राजौरी के हाकिम अगरखां ने महाराज को पूंछ के गलत रास्ते पर डाल


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दिया। सेना का एक भाग रामदयाल और दूसरे सरदारों के अधीनस्थ था जिनमें हरीसिंह नलुआ और हरनामसिंह अटारी वाला भी थे, आगे रवाना हुआ। पीर-पंचाल गुजर कर यह फौज महरपुर जा पहुंची। यहां अजीमखां ने सामना किया परन्तु वह हार खाकर पीछे हट गया और अगले मुकाम शौपम में सिक्ख फौज को आगे बढ़ने से रोक दिया। रामदयाल ने श्रीनगर के पास एक गांव में हटकर डेरा डाल दिया और महाराज के आने की बाट जोहने लगा। उधर महाराज की फौज श्रीनगर के बजाय पूंछ जा पहुंची। बरसात का समय भी आ गया और बरसात आरम्भ भी हो गई। ठीक रास्ता न मिलने के कारण महाराज लाहौर को वापस लौट आये। लाहौर लौटकर उन्होंने भाई रामसिंह को कुछ फौज देकर दीवान रामदयाल की सहायता को भेजा। परन्तु वह भी बहराम गले में चक्कर खाता रहा और उसे रास्ता न मिला। रामदयाल ने जान लिया कि उसे बिना महाराज के आये हुए ही लड़ना पड़ेगा। इसलिए वह ऐसी बहादुरी से लड़ा कि उसके सामने दो हजार पठान मारे गए। अजीमखां ने दीवान रामदयाल से सुलह कर ली और महाराज की भेंट के लिए बहुत सा सामान दिया। रामदयाल लाहौर लौट आया। महाराज को दीवान मुहकमचन्द की बात याद आई और अपनी गलती पर पछताने लगे। यदि राजौरी और भम्बर में रसद का सामान इकट्ठा कर लिया जाता तो काश्मीर अब की बार में ही विजय कर लिया जाता। इसी अरसे राजौरी और भम्बर के सरदारों ने भी बगावत खड़ी कर दी। दीवान रामदयाल और दिलसिंह ने उनके इलाके में पहुंच कर बगावत को दबा दिया और कुछ दिन के बाद राजौरी और कोटली को विजय कर लिया और रामगढ़ियों का सारा इलाका भी महाराज ने अपने इलाके में मिला लिया। यह समाचार जब काबुल पहुंचा कि महाराज रणजीतसिंह ने काश्मीर को अपने राज्य में मिलाने के लिए चढ़ाई की है तो वहां से वजीर फतहखां अजीमखां की मदद के लिए चला। उसके सिन्ध पार कर चुकने के बाद महाराज रणजीतसिंह को भी उसके आने की खबर मिल गई। इसलिए उन्होंने दीवान रामदयाल को आज्ञा दी कि वह सरायकाला पर पहुंच करके डेरा डाले रहे और उसका सामना करता रहे।

चार साल के बाद सन् 1818 ई० में काश्मीर के नये सूबेदार जवरखां का वजीर वीरधर नाराज होकर महाराज के पास लाहौर आ पहुंचा और काश्मीर को विजय करने के तमाम तरीके उसने महाराज को बतला दिये। इस बार महाराज ने सेना के तीन भाग किये - एक भाग का सेनापति मिश्र दीवानचन्द्र, दूसरे का कुंवर खड़गसिंह और तीसरे भाग के संचालक खुद महाराज बने। मार्च सन् 1819 ई० में पं० दीवानचन्द ने राजौरी पहुंचकर अपने सैनिकों को हुक्म दिया


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कि अजीजखां को गिरफ्तार कर लिया जाये। अजीजखां तो भाग गया लेकिन उसके बेटे रहीमउल्लाखां ने राजौरी का राज्य दीवानचन्द के सुपुर्द कर दिया। यहां से आगे दीवानचन्द ने पूंछ पहुंचकर वहां के शासक जबरदस्तखां से अधीनता स्वीकार कराई। पीर पंजाल को पार करके दीवानचन्द ने अपनी सेना के तीन भाग किये। ता० 16 जून को 12 हजार सिख सरायअली में इकट्ठे हो गये। 5 जुलाई को शोपिन के मुकाम पर पठानों और सिखों में एक बड़ी भारी लड़ाई हुई, जिसमें हजारों पठान मारे गए। बचे-खुचे मैदान छोड़कर भाग गए। जबरखां ऐसा घायल हुआ कि उसकी जान मुश्किल से बची। काश्मीर पर महाराज का कब्जा हो गया। सिक्ख चाहते थे कि शहर लूट लिया जाए, परन्तु मिश्र दीवानचन्द ने ऐसा नहीं करने दिया। विजय उत्सव मनाने के लिए महाराज लाहौर को लौट गए। तीन दिन तक लाहौर और अमृतसर में रोशनी की गई और अनेक तरह के दान-पुण्य किए गए। दीवान मुहकमचन्द के बेटे दीवान मोतीराम को काश्मीर का पहला सूबेदार नियुक्त करके काश्मीर भेजा गया और लगान उगाही का 53 लाख में पं० वीरधर को काश्मीर का ठेका दे दिया गया। शाल बनाने का ठेका दस लाख रुपये में जवाहरमल को दिया गया। दूसरे साल मोतीराम बनारस के लिए चले गए तो महाराज ने सरदार हरीसिंह नलुआ को जिसने पिछले साल दुर्बन्धगढ़ को फतह किया था, काश्मीर का सूबेदार नियुक्त किया। साहस और बहादुरी के लिए हरीसिंह बड़ा मशहूर था। उसने अकेले ही घोड़े पर सवार होकर एक बार एक शहर को जीत लिया था। परन्तु प्रबन्ध करने में वह सफल नहीं हुआ, इसलिए महाराज ने फिर दीवान मोतीराम को काश्मीर भेजा और वह सन् 1826 ई० तक काश्मीर रहा। जब दीवान मोतीराम काश्मीर का सूबेदार था, उस समय उसका बेटा जालन्धर के द्वावे पर गवर्नरी करता था और दूसरा बेटा शिवदयाल जिला गुजरात में जागीर का प्रबन्ध करता था। परन्तु राजा ध्यानसिंह जो महाराज के मुंह लगा हुआ था, इन लोगों से इसलिए जलता था कि इनका रुतबा बहुत बढ़ा हुआ था और उसने फलौर को जो मुहकमचन्द की जागीर में था, अपने साले राजारामसिंह को दे दिया। इससे कृपाराम बहुत नाराज हो गया। जब महाराज ने दुर्बन्ध की लड़ाई के लिए उसे बुलाया तो बजाय कुल फौज के सिर्फ 15 सवार लेकर हाजिर हुआ। महाराज उससे बहुत जल गए। उसे कैद कर दिया और मोतीराम को काश्मीर से वापस बुलाकर उस पर 17 हजार जुर्माना कर दिया और भीमसिंह को काश्मीर में उसके स्थान पर भेजा। किन्तु वह अयोग्य साबित हुआ, इसलिए दीवान चुन्नीलाल को उसकी जगह पर नियुक्त किया। वह भी काश्मीर का शासन करने में सफल नहीं हुआ। डेढ़ साल बाद मोतीराम के खानदान पर फिर कृपा की


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दृष्टि हुई और दीवान कृपाराम को काश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। दीवान कृपाराम बड़ा योग्य और सर्व-प्रिय था।

इसके समय में काश्मीर में बड़ी तरक्की हुई। इसी ने रामबाग की नींव डाली। दीवान कृपाराम के काश्मीर से वापस आने पर वैसाखासिंह को महाराज ने काश्मीर का प्रबन्ध सौंपा था परन्तु वह बड़ा अयोग्य और नालायक साबित हुआ। सन् 1833 ई० में उसकी शिकायतें महाराज के पास पहुंचीं। उसके आगे लोगों पर खूब जुल्म होते थे। सारा इन्तजाम खराब था। शाल की दस्तकारी बरबाद हो रही थी। सौदागरों का दीवाला निकल रहा था। शेरसिंह जो उसकी देखभाल के लिए मुकर्रर था, शराब पीकर के मस्त पड़ा रहता था। महाराज ने उसे पकड़ करके लाहौर मंगा लिया और उस पर 5 लाख जुर्माना किया। जमादार खुशहालसिंह, भाई गुरुमुखसिंह, गुलाममुहीउद्दीन को शेरसिंह की मदद के लिए काश्मीर भेज दिया। परन्तु इन लोगों से कुछ भी अच्छा प्रबन्ध न हो सका, बल्कि इन्होंने लोगों को और भी तंग किया। प्रजा के हजारों लोग अकाल और जुल्मों से तंग आकर लाहौर की ओर भाग आये। लाहौर की गलियों में वह रोटी के लिए चिल्लाते थे। महाराज ने उनके खाने-पीने के लिए मन्दिर व मस्जिदों में सदावर्त खोल दिए, और गुलाम मुहीउद्दीन को वापस बुलाकर उसकी जायदाद जब्त कर ली। खुशहालसिंह को दो माह तक अपने सामने नहीं आने दिया और उनकी जगह पर महाराजसिंह को भेजा। सन् 1834 ई० में जम्बू के राजा गुलाबसिंह को उसके कमाण्डर जोरावरसिंह ने गद्दी से अलग कर दिया और उसके मंत्री को जम्बू का राजा बना दिया। तीस हजार रुपया सालाना खिराज देना महाराज रणजीतसिंह को मंजूर किया। इस प्रकार जम्बू पर भी महाराज का अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार हो गया। लद्दाख के अधिकारियों में भी इसी साल आपस में झगड़ा हो जाने के कारण उन्हें भी महाराज की शरण लेनी पड़ी ।

पेशावर पर कब्जा

काबुल का अमीर दोस्तमुहम्मद जो कि शुजा की हुकूमत को काबुल में न बैठने देने के लिए प्राण-पण से चेष्टा कर रहा था, चाहता था कि पेशावर महाराज रणजीतसिंह के अधीन न रहकर काबुल के आधीन रहे। इसलिए उसने छेड़छाड़ आरम्भ कर दी। उसी का इशारा पाकर सन् 1834 में दिलासाखां ने बन्नू के इलाके में विद्रोह कर दिया। उसके विद्रोह को दबाने के लिए सरदार शामसिंह और बख्शी तारासिंह ने उसे गडही में जा दबाया। किन्तु रात के समय पठानों ने सोते हुए सिक्खों पर हमला कर दिया। इस अचानक हमले में कई सौ सिक्ख मारे गए। सिक्ख लोग घेरे को उठा चुके थे। किन्तु राजा सुचितसिंह मदद को पहुंच गए और विद्रोह को दबा दिया गया। अब महाराज ने पेशावर को कतई अपने


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राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया, क्योंकि उन्हें अन्देशा था कि शायद पेशावर के मुसलमान शासक मिल कर पेशावर को काबुल के आधीन न कर दें। इन दिनों सरदार हरीसिंह नलुआ यूसुफजई के सूबेदार थे। उन्हें आज्ञा दी गई कि वे कुंवर नौनिहाल के साथ मिलकर पेशावर पर पूरा कब्जा कर लें। अप्रैल के महीने में ये सेनायें पेशावर पहुंच गईं। बहुत सा खिराज और घोड़े जो सुलतान महमूद ने भेजे, कुंवर नौनिहालसिंह ने रख लिए किन्तु नजराने में आए हुए घोड़े वापस कर दिए जिससे पठान समझ गए कि अब की बार खैर नहीं है। अतः उन्होंने अपने परिवार काबुल की ओर भेज दिए। सरदार हरीसिंह नलुआ ने सुलतान महमूद से कहला भेजा कि कुंवर साहब शहर का निरीक्षण करना चाहते हैं। सुलतान महमूद मतलब को समझ गया और रात के समय किले को खाली करके पहाड़ों में भाग गया। दूसरे दिन सिक्ख सेना ने पेशावर पर बिना ही रक्त बहाये अधिकार कर लिया।

लेकिन महाराज निश्चिन्त न थे। वे बराबर पेशावर के लिए फौजें भेजते रहे और खुद भी पेशावर को चल पड़े। क्योंकि वे जानते थे कि पठान धोखे से, स्पष्टता से जैसे भी उनसे बनेगा, पूरा उपद्रव करेंगे। सहज ही पेशावर पर कब्जा न होने देंगे। उधर दोस्तमुहम्मद को जब यह खबर लगी कि पेशावर पठानों के हाथ से निकल गया है तो वह बड़ा चिन्तित हुआ और उसने अंग्रेजों को लिखा कि वे रणजीतसिंह से यह इलाका वापस करा दें। लेकिन अंग्रेज सरकार ने टका सा 'इनकारी का' जवाब दे दिया। दोस्तमुहम्मद अंग्रेजों की इनकारी से निराश नहीं हुआ। उसने जबरखां को ईरान भेजा ताकि वह वहां से मदद लाये। वह खुद सेना लेकर जलालाबाद आ गया और वहां से फौज लेकर पेशावर की ओर रवाना हुआ। अलीबागान मुकाम पर पहुंचकर ईद की कुर्बानी की और खुदा से दुआ मांगी कि - “या खुदा, मुझ मक्खी को जाट हाथी रणजीतसिंह से लड़ने की ताकत दे! चूंकि तेरे पास बहुत ताकत है।” रास्ते में उसके साथ और भी पठान मिल गए। खैबर के सरदार भी सिखों का साथ छोड़कर दीन के नाम पर उसके साथी बन गए। खैबर को पार करके सिक्खान नामक स्थान में आकर डेरा लगाये। उधर महाराज रणजीतसिंह भी पेशावर आ पहुंचे थे। किन्तु वे चाहते थे कि लड़ाई से पहले उनकी फौज ढ़ंग से लग जाए। इसलिए दोस्तमुहम्मद से यों ही राजीनामे के लिए लिखा-पढ़ी करने लगे। अर्ध-व्यूह की सूरत में सेना को पांच कैम्पों में विभाजित किया। सामने रिसाला, पीछे पलटन, उसके पीछे फिर रिसाला खड़े किए और अजीजुद्दीन और मि० हारमैन को दोस्तमुहम्मद के पार्श्व में नियुक्त किया ताकि वे उसे हटाने में शक्ति लगायें। दोस्तमुहम्मद को भी पता लग गया कि सिख-सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया है। वह घबरा गया और भागने का यत्न सोचने लगा। उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने भाई सुलतानमहमूद से कहा


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कि फकीर अजीजुद्दीन और मि० हारमैन को बुलाकर धोखे से कैद कर लो। निदान उन्हें सन्धि के बहाने बुलाकर गिरफ्तार कर लिया और अपने भाई के सुपुर्द करके भाग गया। उसने अजीजुद्दीन से कहा था कि सिख काफिर हैं, अतः उनके साथ दगा करना पाप नहीं है। इसलिए नीति के विरुद्ध मैंने तुम्हें गिरफ्तार किया है। लेकिन जब उसने सुना कि फकीर अजीजुद्दीन और हारमैन दोनों छुड़ा लिए गए, तो उसने अपनी इस हार पर बड़ी शर्म आई। दोस्तमुहम्मद के भाग जाने के बाद महाराज ने पेशावर के किले की मरम्मत कराई और फिर लाहौर को लौट गए।

सन् 1837 ई० की सर्दियों में सरदार नलुआ ने पेशावर से आगे बढ़कर जमसद पर कब्जा कर लिया। इस खबर को सुनकर दोस्तमुहम्मद घबरा गया। उसने अपने वजीर को अपने पांचों बेटों और खैबर के इलाकेदारों के साथ सेना देकर हरीसिंह के मुकाबिले को भेजा। पठानों ने जमसद पहुंचकर हमला किया। दो दिन की लड़ाई के बाद किले के बाहरी हिस्से पर कब्जा कर लिया। इस छोटी सी जीत के लिए पठान खुशी मना रहे थे कि 20 अप्रैल सन् 1837 को हरीसिंह ने उन पर ऐसा आक्रमण किया कि बचारों को लेने के देने पड़ गए। जान बचाकर भागने लगे और सरदार हरीसिंह ने मुहम्मद अफजल और अमीर के बेटों को खैबर तक खदेड़ा। उनकी 14 तोपें छीन लीं। सिख पठानों का पीछा कर रहे थे और पठान अपने ही देश में घर की ओर भाग रहे थे। इसी समय पठानों की मदद के लिए शमसुद्दीन फौज लेकर आ गया। इससे पठान फिर खेत में अड़े। लड़ाई बड़ी डटकर हुई। पठानों को भागते ही बना। किन्तु सरदार हरीसिंह इतने घायल हुए कि वे बच न सके। सिखों का दिल टूट गया और वे जमरूद वापस आ गए। महाराज ने जब स० हरीसिंह के मारे जाने का समाचार सुना तो वे रो पड़े और् खुद पेशावर के लिए फौज लेकर चल पड़े। राजा ध्यानसिंह ने जमरूद पहुंचकर किले की मरम्मत कराई और पेशावर में पैंतीस हजार सिख सेना नियत कर दी जिससे अफगानों के हौंसले पस्त हो गए।

शुजा को सहायता

सन् 1837 ई० में ईरान के बादशाह के मर जाने के बाद ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई कि दोस्तमुहम्मद रूसियों से सुलह करने को तैयार हो गया। वह यह भी चाहता था कि रूस की मदद से सिखों से पेशावर छीना जाए। अंग्रेज यह चाहते थे कि रूस का प्रभाव काबुल या भारत में कहीं भी न बढ़े। इसलिए उन्होंने दोस्तमुहम्मद को मना किया कि वह रूसियों से सम्बन्ध न जोड़े। किन्तु दोस्तमुहम्मद ने इन बातों की कोई परवाह न की। इसके इस कृत्य से चिढ़कर अंग्रेजों ने मि० होमकनाइन वरनिस को महाराज रणजीतसिंह के पास भेजा कि


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दोस्तमुहम्मद को काबुल की गद्दी से हटाने में हमारी मदद करके शाहशुजा को वहां का मालिक बनाया जाए। 30 मई को आम दरबार में दीनानगर के कैम्प में महाराज ने अंग्रेजी दूत की बात सुनी। मि० मैकनाटन ने अपनी सरकार के मनसूबे महाराज के आगे रक्खे। साथ ही कहा गया कि इस मुहीम को महाराज खुद अपने हाथ में लें तो सरकार अंग्रेज उन्हें हर तरह की मदद देगी। महाराज ने इस बात को मंजूर कर लिया। हालांकि राजा ध्यानसिंह पक्ष में न थे। अन्य सरदार भी कहते रहे कि काबुल पर चढ़ाई तो की जाए लेकिन अंग्रेजों से कोई मदद न ली जाए, लेकिन महाराज ने अंग्रेजों की बात को पसन्द किया। आखिरकार शाहशुजा से तय हुआ कि वह अपनी अपनी फौज लेकर काबुल में घुसे। महाराज और अंग्रेज उसकी मदद के लिए आते हैं। अंग्रेज तो अपना सौदा शाहशुजा से यहां कर चुके थे कि उसे बिना अंग्रेजों की मर्जी के किसी के साथ सुलह करने या सम्बन्ध जोड़ने का अधिकार न होगा। महाराज के लिए अंग्रेज शाहशुजा को जलालाबाद दिलाना चाहते थे, किन्तु शाहशुजा ने दो लाख सालाना और पचास घोड़े महाराज को देना स्वीकार कर लिया। नवम्बर में अंग्रेजी फौज फिरोजपुर में इकट्ठी हो गई। यहां महाराज और आकलैण्ड की मुलाकात हुई। दस हजार अंग्रेजी फौज और छः हजार सिख काबुल को रवाना हुए। शाहशुजा कन्दहार ही पहुंचा था कि दोस्तमुहम्मद काबुल छोड़कर भाग गया और इस तरह 8 मई सन् 1839 को शाहशुजा काबुल का बादशाह बना दिया गया। इस तरह काबुल में भी सिखों का यश छा गया। शाहशुजा यथासंभव अपनी शर्त महाराज के साथ पूरी करता रहा।1

महाराज रणजीतसिंह के राज्य की सीमा

महाराज का अधिकांश जीवन संग्राम में बीता। वह युद्ध-प्रिय थे। जिस दिन से उनके पिता का देहान्त हुआ, उसी दिन से वह युद्धों में लगे रहे। बारह वर्ष की अवस्था से युद्ध-क्षेत्र में उतरे थे और लगभग 60 वर्ष की अवस्था तक बराबर युद्ध करते रहे। जिस दिन से उन्होंने अपनी जागीर का काम संभाला था, कोई भी वर्ष उनका ऐसा नहीं बीता जिसमें उन्हें युद्ध न करना पड़ा हो। किसी-किसी वर्ष तो अनेक स्थानों पर उन्हें युद्ध करना पड़ा। घर के लोगों से लगाकर


1. सन् 1836 ई० में सिन्धियों के हमले से तंग आकर वहां के हाकिम दीवान सामनमल ने रोजान पर कब्जा कर लिया और कुछ दिन बाद ही मजारियों से कान का किला भी छीन लिया। अंग्रेजों को यह बात बुरी लगी। कर्नल ब्रीड महाराज के पास सामनमल की शिकायत करने आया किन्तु महाराज ने कुछ परवाह न की और कान के किले को नष्ट कराके मजारियों को दबाये रक्खा।


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काबुल तक लोगों से वह लड़े। वे उच्चाशयी थे। उनकी उच्चाशयें पूरी हुईं। जो व्यक्ति चढ़े हुए अटक जैसे तीव्रगति से चलने वाले नद में अपने घोड़े को यह कह कर डाल दे कि - सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहा। जाके मन में अटक है सोई अटक रहा। भला वह क्या नहीं कर सकता था? नैपोलियन ने भी तो यही कहा था कि ‘असम्भव’ नाम की कोई वस्तु नहीं। उन्हें अपनी भुजाओं के बल पर विश्वास था और अपनी ही भुजा के बल से, बाप-दादों की कृपा से नहीं - उन्होंने उत्तर और ईशान कोण की ओर हिन्दूकुश और तिब्बत की पर्वतमाला तक और नैऋत्य कोण की ओर उस्मांखेल और खैबर तथा सुलैमान की पर्वतमाला तक अपना राज्य-विस्तार कर लिया था। मिट्ठनकोट से अमरकोट तक उनके राज्य की सीमा सिन्धु नदी थी और अग्निकोण की ओर सतलज नदी थी। सतलज के इस पार भी पेंतालीस गामों पर उनका राज्य था। उत्तर में उनके राज्य की सीमा इतनी आगे बढ़ गई थी कि अशोक के बाद किसी भी हिन्दू राजा का राज्य वहां तक न पहुंचा था। गोरखा, पठान, मुगल और राजपूत सभी से उन्होंने अपने वल को तौला था। उनका लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसमें कोई सन्देह नहीं, यदि अंग्रेज भारत में न आए होते तो अफगानिस्तान तथा बिलोचिस्तान तो उनके अधिकार में होते ही, किन्तु तिब्बत, मालवा, सिंध और राजपूताना भी उनके अधिकार में होता और यदि धौलपुर और भरतपुर की ओर पैर भी फैलते जैसी कि बहुत सम्भावना थी तो पंजाब से लगाकर विन्ध्याचल तक एक ऐसा साम्राज्य स्थापित होता जो जाट-साम्राज्य के नाम से पुकारा जा सकता। कारण कि मुरसान और हाथरस के राजा और भरतपुर की महत्त्वाकांक्षी शक्ति को अंग्रेज सरकार के ही कारण संकुचित होना पड़ा था। राजपूताने के राजाओं में इतनी शक्ति व संगठन न था कि वे पंजाब के सिख-जाट और ब्रज के हिन्दू-जाटों की सम्मिलित शक्ति का सामना कर सकते, जबकि राजस्थान के जाट भी उनके अत्याचार से उकता कर अपने कौमी नरेशों का साथ देने को तैयार हो जाते। महाराज रणजीतसिंह भारत का नक्शा देखकर सर्द आह के साथ कहा करते थे - क्या एक दिन यह सारा लाल रंग का हो जायेगा?1 महाराज ने काफी राज्य-विस्तार किया, किन्तु उनकी इच्छा इससे भी बहुत अधिक थी।

मुलाकातें

महाराज ने सन् 1830 ई० तक सारे पंजाब पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनका रौब सभी पड़ौसी राज्यों पर छाया हुआ था। सिंध को फतह करने की


1. हिन्दुस्तान के नक्शे में ब्रिटिश राज्य लाल रंग से दिखाया गया है। पे० के० पृ० 27 ।


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लगन उनके हृदय में लगी हुई थी। तत्कालीन देशी-विदेशी शासक उनका कितना सम्मान करते थे, वह इसी से जाना जा सकता है कि निजाम हैदराबाद ने उनके लिए तोहफे भेजे थे। हिरात के शासक ने अपना एजेण्ट उनकी सेवा में भेजा। बिलोचिस्तान से मित्रता के लिए पत्र आए। इंग्लैंड के बादशाह ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और भेंट भेजीं। इन भेंट, तोहफे और नजरानों का कुछ थोड़ा सा दिलचस्प विवरण इस प्रकार है। इंग्लैंड के बादशाह द्वितीय विलियम ने महाराज के लिए पांच उम्दा घोड़े कर्नल वरनिस के साथ भेजे, महाराज ने भी बादशाह को एक कश्मीरी शाल भेजा था। कर्नल वरनिस सिन्ध के रास्ते इन घोड़ों को लेकर लाहौर पहुंचा। फकीर अजीजुद्दीन प्राइममिनिस्टर ने इस भेंट के समय कहा था - इंग्लैंड के बादशाह और पंजाब के महाराज की इस दोस्ती की चर्चा ईरान और रूम तक फैल जायेगी। ता० 18 जून को लाहौर में जुलूस निकालकर मि० वरनिस को दरबार में लाया गया। तमाम गलियां सवारों और प्यादों से भरी हुईं थीं। देखने वालों के झुंड के झुंड खड़े थे। राजा ध्यानसिंह ने दरवाजे पर स्वागत किया। महाराज भड़कदार पोशाक और गले में हार पहने हुए थे। अन्य उमराव भी जवाहरात से लदे हुए थे। सब पर बसंती पौशाक थी। महाराज को मि० वरनिस ने सुनहरी वेग में रक्खी हुई चिट्ठी, दो घोड़े और एक गाड़ी भेंट की। महाराज ने चिट्ठी को अजीजुद्दीन से पढ़वाया। घोड़ों को देखकर महाराज इतने खुश हुए कि उन्हें छोटे हाथी के नाम से पुकारा। डेढ़ घण्टे तक महाराज मि० वरनिस से बातचीत करते रहे। बातचीत के सिलसिले में वे सिन्ध की गहराई, इंग्लैंड की दौलत और ताकत, फ्रांस और इंग्लैंड में कौन शक्तिशाली है, आदि प्रश्न करते रहे।

एक दिन महाराज ने मि० वरनिस को तीस-चालीस कश्मीरी और पहाड़ी लड़कियों की पार्टी दिखलाई। ये सब लड़कियां नाचने वाली थीं और लड़कों का लिबास पहने हुए थीं। सभी एक से एक बढ़कर सुन्दरी थीं। महाराज कहने लगे 'यह भी मेरी एक रेजिमेन्ट है। लेकिन यह कवायद में नहीं जाती।' उनके दो नायक लड़कियों में से एक को 10) प्रतिदिन और दूसरी को 5) प्रतिदिन वेतन मिलता था। फिर महाराज ने अपने सैनिकों के सम्बन्ध में बातचीत की कि हमारे सिपाही युद्ध के दिनों में अपने लिए आठ दिन का रासन कंधे पर लाद कर ले जा सकते हैं। वे व्यूह बनाना भी जानते हैं। दूसरे दिन उसे तोपखाना दिखाया। उसमें इक्यावन (51) तोप थीं जो एक-एक पांच हजार रुपये से कम की न थीं। 16 अगस्त को उसकी प्रार्थना पर उसे कोहनूर हीरा दिखाया जो कि मुर्ग के अण्डे का अर्द्धांश था। औरंगजेब और अहमदशाह के वे हीरे भी दिखाये जिन पर उनकी भारी ममता थी। जाते समय मि० वरनिस को भी महाराज ने काफी उपहार दिए और फारसी में बादशाह के नाम एक चिट्ठी लिख कर दी। महाराज ने इंग्लैंड के


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बादशाह के इन घोड़ों तथा गाड़ी से कोई काम न लिया। वे केवल देखने के लिए रख छोड़े थे, ताकि दर्शकों की भीड़ लगी रहे।

सन् 1871 ई० के मार्च महीने में फ्रांस का एक चित्रकार मि० जैक मांट अपने अजायबघर के लिए भारत से सामग्री-संग्रह करने के लिए लाहौर आया। उसे सालामार बाग में ठहराया गया, जहां कि सुहावने फव्वारे छूटते थे। उसने इस बाग के फव्वारों की अपनी यात्रा-पुस्तक में खूब प्रशंसा की है। महाराज उसके साथ घण्टों बातचीत किया करते थे। उसने लिखा है कि - महाराज प्रत्येक बात को जानना चाहते थे। उनका जानकारी प्राप्त करने का शौक इतना बढ़ा हुआ था कि उनके तमाम लोगों की लापरवाही को दूर कर देता था। उन्होंने मुझसे फ्रांस, इंगलैंड, भारत, लोक, परलोक, बोनापार्ट आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न किये। इस्लाम, ईसाइयत, ईश्वर, जीव, शैतान सम्बन्धी जो भी बात उन्हें याद न थीं, वे पूछे बिना न रहे। मि० जैक ने यहां तक लिखा है कि नैपोलियन बोनापार्ट और महाराज में बहुत कुछ समानता है।

भारत का तत्कालीन गवर्नर जनरल भी महाराज की मुलाकात का बड़ा इच्छुक था। उसकी इच्छा का कारण रूस का ही भय था। क्योंकि उस समय रूस की आंखें ईरान पर लगी हुईं थीं। मुलाकात सम्बन्धी बातें तय करने के लिए अप्रैल सन् 1831 ई० को महाराज ने अपने प्रधान सचिव फकीर अजीजुद्दीन दीवान, मोतीराम और सरदार हरीसिंह नलुआ को गवर्नर के पास भेजा। इन दोनों का गवर्नर की ओर से खूब सत्कार हुआ। एक दिन मुलाकात में फकीर अजीजुद्दीन से गवर्नर ने पूछा - तुम्हारे महाराज किस आंख से काने हैं? फकीर अजीजुद्दीन ने कहा - मुझे आज ही आप से मालूम हुआ है। हमारे मालिक के चेहरे पर इतना प्रचंड तेज है कि मुझे कभी उनकी ओर आंख उठाकर देखने का साहस नहीं हुआ है। कई दिन की मेहमानदारी के बाद जब ये लोग लाहौर को वापस लौटे तो कप्तान ब्रीड उनके साथ आया। महाराज ने रोपड़ के मुकाम को गवर्नर से मुलाकात के लिए तय किया, जो कि अंग्रेजों की इच्छा के अनुकूल ही था। फौज लेकर महाराज उस स्थान पर पहुंच गए। अपनी फौजों का कैम्प सतलज के इस पार लगवाया। सिक्ख सरदारों ने गवर्नर जनरल के पास जाकर तय किया कि 26 अक्टूबर के दिन महाराज मुलाकात कर सकेंगे। मुलाकात की तिथि से पूर्व ही अचानक महाराज के हृदय में सन्देह पैदा हो गया। वे सोचने लगे कि दूसरे के इलाके में मुलाकात करने के लिए जाने में खतरा हो सकता है। अंग्रेज कम्पनी के चाकरों ने कुछ ऐसी घटनायें भारत में कर दी थीं जिनसे एक दम अंग्रेजों के प्रति विश्वास कर लेना कोई बुद्धिमानी भी न थी। रात के समय महाराज ने ऐलार्ड को बुलाकर कह दिया कि वे गवर्नर से मुलाकात न करेंगे। ऐलार्ड बड़े चक्कर में पड़ा। उसने महाराज के सन्देह दूर करने के लिए बड़ी शपथें खाईं।


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उसने कहा - महाराज के सन्देह में तनिक भी सत्यता निकले तो मैं अपना सिर कटा सकता हूं। आखिर महाराज ने ज्योतिषियों को बुलाया। ज्योतिषियों ने किताबों के पन्ने पलटकर महाराज से कहा कि आप अपने दोनों हाथ में सेब ले जायें और गवर्नर से भेंट होते ही सेब नजर करें। यदि वह ले ले तो मुलाकात को शुभ समझना।

दूसरे दिन प्रातःकाल अपने समस्त बड़े-बड़े सरदारों के साथ बसन्ती वेश में महाराज गवर्नर की मुलाकात को चले। आठ सौ सिपाही ऐलार्ड के साथ पुल पर पहले ही भेजे जा चुके थे। तीन हजार सैनिक महाराज के पीछे थे। महाराज हाथी पर सवार थे। अंग्रेजों के कैम्पों में होकर महाराज के आने के लिए गवर्नर के स्तान तक रास्ता बनाया गया था। दोनों ओर अंग्रेज सैनिक सलामी के लिए खड़े थे। महाराज जब उनमें से होकर निकले तो प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में जो उन्हें असाधारण दिखाई देती, पूछ कर जानकारी प्राप्त करते जाते थे। गवर्नर जनरल से मिलते ही पहले उन्होंने सेब पेश किये जो उसने तुरन्त ले लिए। सवारियों से उतरकर मुलाकात के खेमे में घुसे जहां सब के लिए बढ़िया कुर्सियां लगाई गईं थीं। महाराज ने पहले अपने तमाम सरदारों को बिठाया। खुद उनके नाम ले लेकर बुलाया। जब सब सरदार बैठ गये, तब आप बैठे। इसके बाद भेंट के सामान अथवा तोहफे लाये गये। कलकत्ता, ढ़ाका और बनारस के बनाये हुए खूबसूरत कपड़े, मोतियों की माला, जवाहरात की तश्करी, ब्रह्मदेश के हाथी, हिसार के घोड़े, सब लाये गए। महाराज ने सब वस्तुओं को ध्यान से देखा और लाने वालों को पुरस्कार दिया। इस भेंट को पाकर महाराज बड़े खुश हुए। अपने खेमे में वापस आकर महाराज ने तीन जड़े हुए कश्मीरी कलमदान, गवर्नर, उनकी मेम और उसके सेक्रेटरी को भेजे।

दूसरे दिन गवर्नर जनरल ने महाराज के स्थान पर आकर वापसी मुलाकात की। इस मुलाकात के लिये महाराज के यहां बड़ी भारी तैयारियां हुईं। कश्मीरी कारीगरी के खेमे सजाए गए। कुं० खड़गसिंह और शेरसिंह को वायसराय को लाने के लिए भेजा। पुल पर महाराज ने पहुंचकर गवर्नर जनरल विलियम-वेन्टिंक को अपने हाथी पर चढ़ा लिया। उसी समय तोपों से सलामी हुई। सैनिकों ने हथियारों से सलामी दी। इस समय महाराज को अंग्रेजी बैंड बड़ा पसंद आया। जब गवर्नर जनरल खेमे में आया तो उसने देखा महाराज का शामियाना मोतियों और हीरों से जड़ा हुआ है। फर्श रेशमी है। सभी वस्तुएं बहुमूल्य और मोहक हैं। बैठते समय गवर्नर जनरल को गद्दी पर बैठाया गया। उसके दाहिने महाराज वेशकीमती कुर्सी पर बैठे। नाच-गान और नजरें होने के बाद तोहफे मंगाए गए। एक सौ एक तश्तरी जिनमें जवाहरात जड़े हुए थे, दस बन्दूक, तलवार, जड़ाऊ तीरकमान, एक


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पलंग, सोने-चांदी के बर्तन, दस घोड़े और एक हाथी गवर्नर जनरल को तोहफे में दिये गये।

आगे चार दिन खेल तमाशे और प्रदर्शनी होती रही। 2 अक्टूबर को तोपखाने के खेल हुए। तोप से एक छतरी पर गोला फेंका गया। राजा ध्यानसिंह, सुचितसिंह और गुलाबसिंह ने तलवारबाजी और सवारी के खेल किए। सरदार हरीसिंह नलुआ, जनरल इलाहीबक्स, जनरल बेन्टोरा और ऐलार्ड ने भी अपने-अपने शस्त्र निपुणता के खेल दिखाए। जब महाराज की बारी आई तो उन्होंने भी अपने कर्तव्य दिखाए। मैदान में पीतल का एक बर्तन रक्खा गया। महाराज ने अपना घोड़ा पूरी तेजी से दौड़ाते हुए उस बर्तन को तीन बार तलवार की नोक से उठाया। इस समय गवर्नर जनरल ने दो तोप, पांच पौंडर घोड़ों और सामान के साथ कीं। शाम को एक लटकने वाला पुल महाराज को उसने दिया। उसे कलकत्ता में नजर इसी निमित्त से बनवाया गया था। रात को मित्रता का एक नया संधिपत्र निर्मित किया गया। इसमें पुरानी शर्तों के साथ सिन्ध नदी में जहाज चलाने का वाक्य जोड़ा गया। महाराज ने इस वाक्य के विरुद्ध यह कहा कि सिन्ध देश को अंग्रेज और हम मिल कर जीत लें क्योंकि वहां बड़ा रुपया है। कोई-कोई लेखक कहते हैं कि महाराज ने अस्पष्ट ढ़ंग से सिन्ध नदी के उस भाग में नाव चलाने की इजाजत नहीं दी जो उनके राज्य में था, किन्तु गवर्नर ने महाराज पर इस बात को प्रकट नहीं किया कि अंग्रेज सरकार की ओर से छिपे-छिपे सिन्ध के अमीरों से लिखा-पढ़ी हो रही है। यहां से चलकर महाराज कपूरथला होते हुए 16 नवम्बर को लाहौर आ गये।

दिसंबर में कर्नल बीड से मुलाकात करते हुए महाराज ने कहा था कि सिन्ध को अंग्रेज सरकार ले लेने की कोशिश में है, किन्तु सिन्ध देश पर हमारा हक बहुत अधिक है। अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव से महाराज निश्चय ही प्रसन्न न थे, किन्तु वे उनसे बिगाड़ना भी उचित न समझते थे।

सन् 1835 ई० में फ्रांस के बादशाह की ओर से महाराज को तोहफे लेकर ऐलार्ड आया। फारसी भाषा में महाराज की प्रशंसा में फ्रांस के बादशाह की ओर से एक नज्म भी महाराज को सुनाई गई। इसी साल अमरीकन मैकगिरीगर हारेन्स, जर्मन डॉक्टर हांग बरगर, महाराज नैपाल के वकील पं० किशनचन्द, बीकानेर का वकील सरजू और तिब्बत के राजा का भाई भीमकाल भी महाराज के दर्शन और मुलाकात के लिए लाहौर आये थे। इससे सहज ही में महाराज रणजीतसिंह की हस्ती जानी जा सकती है। वे अपने समय के भारत के सबसे बड़े राजा थे। यही कारण था कि देशी, विदेशी सभी शासक उनसे सम्बन्ध जोड़ना चाहते थे।

सन् 1837 ई० में कुंवर नौनिहालसिंह की शादी शामसिंह अटारी वाले की


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लड़की के साथ बड़ी धूम-धाम से हुई। इसमें महाराज ने गवर्नर को शामिल होने के लिये निमंत्रण भेजा। पत्र में महाराज ने लिखवाया था कि यह कुंवर नौनिहालसिंह वही है जिसकी ओर सिंध जीतने की मेरी निगाह लगी हुई है। इससे जाहिर होता है कि महाराज सिन्ध देश को अपने राज्य में मिलाने के इच्छुक थे और अंग्रेजों को चेतावनी भी दे रहे थे कि वे सिन्ध का लालच छोड़ दें। सिन्ध देशान्तर्गत कान किले को महाराज के आदमियों ने इन्हीं दिनों अपने राज्य में मिला भी लिया था, इसलिए भी इस शादी में अंग्रेजों का जंगी लाट 'सर हेनरी फिन' शामिल हुआ। महाराज ने जंगीलाट का भली प्रकार स्वागत-सत्कार कराया। 6 मार्च को महाराज से रामबाग में जंगीलाट की मुलाकात हुई। उस समय महाराज बसंती पोशाक में थे। पगड़ी उनकी काश्मीरी थी। मुलाकात में महाराज ने जंगीलाट से अनेक प्रकार के प्रश्न किये। साथ ही यह भी पूछा कि अंग्रेजों के पास कुल कितनी फौज है? प्रत्येक रजमट में कितने सैनिक और कितने अफसर होते हैं? तोपें किस भांति बनाई जाती हैं? तुम कितनी लड़ाइयों में शामिल हुए हो आदि-आदि? शादी के बाद जंगीलाट को बहुत से तोहफे देकर बिदा किया। इस शादी में पटियाला, नाभा, झींद आदि के अनेक राज्य शामिल हुए थे।

लाहौर से लौटने पर 'सर हेनरी' (जंगीलाट) दरबार में महाराज से मुलाकात करने गया तो महाराज ने उससे पूछा - ब्रिटिश सेना की कितनी शक्ति है? क्या ब्रिटिशों का रौव ईरान में बढ़ रहा है? अंग्रेजों को ईरान से क्या खतरा है? इन प्रश्नों के पूछने से जहां महाराज अपनी जानकारी बढ़ाते थे दूसरी ओर अपनी शक्ति का उनसे मुकाबला भी करते थे। ता० 16 को सिक्ख फौज का मुलाहिजा किया गया। उस समय सिक्ख फौज में केवल अठारह हजार आदमी थे। दूसरे दिन अंग्रेजी फौज की कुछ कंपनी और रजमेंटों का मुलाहिजा हुआ। ब्रिटिश फौज की कवायद और चाल-ढ़ाल को देखकर महाराज चकित रह गए। कहने लगे - मेरे फ्रेन्च अफसर मुझसे झूठ बोलते रहे। वे कहते थे कि अंग्रेजी कबायद कुछ नहीं केवल दिखावा मात्र है। लेकिन तुम्हारी फौज की कबायद, शत्रु पर हमला करने के ढ़ंग आदि कृत्य देखकर मैंने जान लिया कि अंग्रेजी फौजें थोड़ी होते हुए भी विजय प्राप्त कर सकती हैं। महाराज ने अंग्रेज सैनिकों को ग्यारह हजार रुपया इनाम में बांटे। ता० 19 की शाम को महाराज ने अंग्रेज स्त्रियों को भोज दिया । ता० 20 को अंग्रेज महिलायें महाराज की रानियों से मुलाकात करने गईं। ता० 22 को होली का त्यौहार आ जाने के कारण होली खेली। सर हेनरी पर भी रंग डाला। इन्हीं दिनों कंधार का राजदूत मुहम्मदखां लाहौर आया हुआ था। होली के रंग में रंग कर उसकी महाराज के सरदारों ने बड़ी मजाक उड़ाई। ता० 27 को सर हेनरी ने महाराज को तोहफे और भेंट दीं। महाराज की ओर से भी उसे तोहफे दिए गए। उन्हीं दिनों पीरमुहम्मद बारह सौ पठानों को साथ लेकर महाराज से


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सलाम करने के लिए आया। उसने महाराज को दो घोड़े भेंट किये। इन दिनों से दो वर्ष पहले महाराज को लकवा मार गया। किन्तु उन दिनों भी रौव-दाव उनके पूर्व जैसे ही बने हुए थे। प्रतिदिन दो हजार रुपया शाम को उनके सिरहाने रक्खा जाता था और प्रातःकाल गरीबों में बांट दिया जाता था। नित गाय, घोड़े और कपड़े दान में दिये जाते थे। ज्वालामुखी और कांगड़ा में बहुत सा रुपया दान पुण्य के लिए भेजा गया। मुलाकात में गाने वाली जोटें बड़ी मशहूर थीं। महाराज को गाना सुनाने के लिए मुलतान से गाने वाले बुलाए गए। परमात्मा की महान् कृपा से महाराज थोड़े ही दिनों में स्वस्थ हो गए। उनका अर्द्धांग जाता रहा। सन्न हुए शरीर में फिर से रक्त-संचार होने लग गया। जर्मनी से आए हुए डॉक्टर तथा हिन्दुस्तानी वैद्यों ने महाराज को स्वस्थ करने में खूब प्रयत्न किया।

नौनिहालसिंह की शादी

यों तो उन्होंने अपने सभी पुत्र-पौत्रों की शादी धूमधाम से की थीं किन्तु उनका पहले से ही इरादा था कि कुं० नौनिहालसिंह की शादी अनुपम बना देंगे। निदान ऐसा ही किया। इन दिनों तक महाराज का वैभव और प्रताप तथा यश भी पहले से बहुत ज्यादा फैल गया था। अब वे पंजाब के एकछत्र अधीश्वर थे। अनेक राजे-महाराजे तो उनकी सरदारी में गिने जाते थे। सन् 1837 ई० में शामसिंह अटारी वाले की सुपुत्री के साथ यह शादी सम्पन्न हुई। इस शादी में नाभा, झींद, पटियाला, कपूरथला, फरीदकोट और कई पहाड़ी राजे शामिल हुए। भारतीय अंग्रेजी हुकूमत के कमाण्डर इन चीफ भी इस शादी में आए थे।

शादी के दिन दोपहर को तम्बूल की रस्म अदा हुई। उस समय नाच में 80 नाचने वाली लड़कियां थीं जो चार-चार मिलकर गाती थीं। महाराज और दूल्हा एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ में बनावटी संतरे लगाए गए थे। नजरें पेश होने पर राजा ध्यानसिंह ने एक लाख पच्चीस हजार रुपया, 'सर हेनरी फिन' ने ग्यारह हजार रुपया पेश किया। दो घण्टों में नजरों में पचास लाख इकट्ठा हुआ। 7 मार्च को हरि-मन्दिर में सेहरा पहनाया गया। 500 ग्रन्थ और 125 अकाल बुंगे पर चढ़ाए गए। तीन बजे अटारी की तरफ बढ़े। महाराज दोनों तरफ रुपये फेंकते जाते थे। लगभग छः लाख आदमी इस शादी में इकट्ठे हुए थे। हाथी और घोड़ों का ठिकाना न था। साथ में बाजे बजते जाते थे। तोपें चलती जाती थीं। जब बरात पहुंची तो खेत में सरदार शामसिंह ने एक सौ एक मुहरें महाराज को, कुं० खड़्गसिंह को इक्यावन और प्रत्येक सरदार को ग्यारह-ग्यारह मुहरें नजर कीं। रात को 9 बजे के बाद नाच-रंग और शराब के दौर दौरा हुए।

8 मार्च को पांच मील के घेरे में एक बाड़ा बनाया गया। उसमें अस्सी दरवाजे थे। प्रत्येक दरवाजे के पास और घेरे के चारों ओर सिपाही खड़े हुए थे। इस काम


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का प्रबन्धक मिश्र बलीराम था, जिसने बड़ी लगन और होशियारी के साथ इस बाड़े को सजाया था। मिलनी की रसम इसी बाड़े में हुई। मुख्य द्वार पर एक अफसर था जो प्रत्येक को एक रुपया देता था। कोई भी बराती इस बाड़े से खाली हाथ बिना रुपया पाये नहीं निकल सकता था।

दहेज में महाराज को शामसिंह ने एक सौ बढ़िया घोड़े, एक सौ एक भैंस, दस ऊंट, ग्यारह हाथी, सोने के जेवर, जवाहरात और सोने चांदी के बर्तन, मुलतान की रेशम, बनारस के कमख्वाव, कश्मीर के पांच सौ शाल आदि सामान इतना दिया कि एक एकड़ जमीन में जनाने लिवास का सामान सजाया गया था।

लाहौर में लौटने पर 12 मार्च को महाराज ने सारे आगत जनों और सैनिकों को एक बड़ी दावत दी। इन दिनों लाहौर की शोभा मुगलशाही ठाठ को मात करती थी।

वस्तु-संग्रह और प्रासाद-निर्माण

महाराज इस बात की खोज में भी रहते थे कि बढ़िया से बढ़िया वस्तुओं का संग्रह उनके यहां हो। उनके रहने के भवन भी बढ़िया हों। पोशाक और अस्त्र भी बढ़िया हों। सबसे प्रसिद्ध वस्तु जो उनके यहां थी, वह कोहनूर हीरा था। यह अमूल्य वस्तु गोदावरी के किनारे राजा कर्ण को मिली थी, जो भारतीय लूटों में काबुल पहुंच गया था। महाराज ने इसे काबुल के शाहशुजा से हासिल किया था, जिसका विवरण पीछे दिया जा चुका है। कहते हैं कि इसका मूल्य इतना है कि सारी दुनिया के एक समय के भोजन का काम इसके मूल्य में चल सकता है। आजकल यह हीरा लंदन के बादशाह के पास है। महाराज से जब कोई इस हीरे का मूल्य पूछता था तो वे कहते थे कि इसका मूल्य है पांच जूती। वास्तव में उन्होंने उसकी इससे अधिक कीमत क्या चुकाई थी।

दूसरी बढ़िया वस्तु उनके यहां एक घोड़ी थी, जिसका नाम था - लीली। पहले यह पेशावर के पठान सूबेदार यारमुहम्मद के पास थी। इस घोड़ी को लेने के लिए ईरान के बादशाह ने पचास हजार रुपया नकद और पचास हजार की जागीर देने को कहा था। किन्तु यारमुहम्मद ने इस भारी कीमत पर उस घोड़ी को न बेचा। महाराज रणजीतसिंह जी को अच्छे घोड़े रखने का बड़ा भारी शौक था। इसलिये उन्होंने यारमुहम्मद के पास खबर भेजी कि वह लीली घोड़ी को लाहौर भेज दे। यारमुहम्मद ने पहले तो टालना चाहा, किन्तु आखिरकार उसने घोड़ी देना मंजूर कर लिया। क्योंकि वह समझता था कि पेशावर की सूबेदारी महाराज की कृपा से ही मिल रही है। वे चाहें जब उसे सूबेदारी से अलग कर सकते हैं। कुंवर खड़गसिंह पेशावर जाकर यारमुहम्मद से उस घोड़ी को पंजाब ले आये।

औरंगजेब और अहमदशाह बादशाहों के हीरे भी महाराज के पास थे जो


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काफी प्रसिद्ध और मूल्यवान समझे जाते थे। जमजमा नाम की पठानों की प्रसिद्ध तोप भी महाराज के यहां थी, जिसे महाराज के पिता तथा अन्य सिक्ख सरदारों ने अहमदशाह पर आक्रमण करके छीना था। लोहे का लटकने वाला पुल लार्ड विलियम बिन्टिंक ने खास तौर से महाराज के लिये कलकत्ते में बनवाया था। भारत की बढ़िया से बढ़िया कारीगरी की वस्तु महाराज के यहां थी।

रहने के लिये उन्होंने अनेक शानदार महल बनवाए थे, जिनमें वे बारी-बारी से रहते थे। शालमार बाग की नहर के फुआरों की प्रशंसा तो जर्मनी के यात्री ने भी की थी।

अपने साथ ही अपने सरदारों की पोशाक भी वे अद्वितीय तैयार कराते थे। उनका प्रत्येक सरदार पोशाक और रहन-सहन में किसी भी छोटे-मोटे राजा-नवाब से कम न जान पड़ता था। सर हेनरी फिन के स्वागत में राजा ध्यानसिंह का लड़का हीरासिंह इतने जवाहरात पहने हुए था कि नजर उसकी तरफ देखने से चौंधिया जाती थी।1

रूप, रंग, स्वभाव

वारन ह्यूगल ने महाराजा साहब का चित्र उतारा था। उसी के आधार पर आजकल इतिहासों में उनके चित्र दिये जाते हैं। महाराजा का कद नाटा और डीलडौल सुदृढ़ और मोटा था। बांयी आंख चेचक में बचपन ही में जाती रही थी। दाहिनी आंख तेज और चमकीली थी। उनका रंग भूरा था। चेहरे पर शीतला के चिह्न थे। नाक छोटी और सीधी और कुछ मोटी थी। दाढ़ी सफेद और कुछ काली मिली थी। शीश बड़ा और सुडौल था। गर्दन मोटी और दृढ़ थी, जिससे सिर आसानी से इधर-उधर न हिल सकता था। बांह और टांग मजबूत, हाथ छोटे-छोटे और सुन्दर थे। यदि किसी का हाथ पकड़ते थे तो घण्टों इसी तरह खड़े बातें कर लिया करते थे और प्रायः उसकी अंगुलियां दबाया करते थे। कुर्सी पर पाल्थी मार कर बैठा करते थे। किन्तु जब घोड़े पर सवार होते थे तो मुंह पर एक आश्चर्यजनक तेज झलकने लगता था। उन्हें वृद्धावस्था में अर्द्धांग हो गया था तिस पर भी उद्दण्ड से उद्दण्ड घोड़े को भली भांति वश में रखते थे। वह शरीर के सुदृढ़, फुर्तीले, वीर, साहसी और प्रसन्नवदन व्यक्ति थे। लड़ाई के दिनों में तो वे घोड़े की पीठ पर ही भोजन कर लेते थे। चौबीस घण्टे घोड़े की पीठ पर बैठे रहने से भी थकते न थे। लड़ाई में तलवार, बर्छी के अलावा वह तीर-कमान भी साथ रखते थे। रौव-दाव उनका इतना था कि बड़े-बड़े दुर्द्धर्ष वीर भी महाराज के तेज से छायादब


1. तारीख पंजाब। पे० 422 ।


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हो जाते थे। वे शिकार के बड़े प्रेमी थे। घोड़ों पर भारी प्यार करते थे। उन्होंने अपने लिए एक खास घुड़शाल रिजर्व रख छोड़ी थी, जिसमें भारत, अरब और ईरान तक के घोड़े रहते थे ।


इन्हें तलवार से लड़ने का बड़ा भारी शौक था। फेंक कर चलाये जाने वाले नेजे चलाने में वे अद्वितीय थे। अधिकतर कपड़े वे जाफरानी रंग के और सादा पहनते थे। किन्तु विशेष अवसरों पर बसंती पोशाक पहनते थे और ऐसे समय पर आभूषण और हीरे जवाहरात भी खूब पहनते थे। तारीख पंजाब के लेखक भाई परमानन्दजी ने उनके आभूषणों में बाजूबन्दों का भी जिक्र किया है। वास्तव में भुजबन्द का रूपान्तरण बाजूबन्द है। भुजबन्द की प्रथा भारत में अति प्राचीन काल से चली आती थी। योद्धा लोग इसे कोहनी से ऊपर बाहुदण्ड में बांधते थे। मालूम होता है कि महाराज रणजीतसिंह के समय तक यह प्रथा प्रचलित थी। अधिकतर सिर पर पगड़ी बांधते थे, पगड़ी उनकी कश्मीरी ढ़ंग की अथवा पेंचदार होती थी, जिसे सरपेंच भी पुकारा जाता था।

कोष और आय

महाराज ने अपने समय में लूट-मार, जब्ती और नजरानों से ही करोड़ों रुपया संग्रह किया था। राज्य की उचित आय भी उनकी उस समय के भारत के सभी शासकों से अधिक थी। राज्य-कर में पैदावार का छठा, आठवां और दसवां भाग लेते थे। भूमिकर के अलावा उनके राज्यकोष में अदालतों, नमक-कर और कश्मीर के शालों के ठेके से भी आय होती थी। उनके आगे नमक-कर 6 लाख सालाना था। पीछे तो 44 लाख सालाना की आमदनी नमक-कर से होने लग गई थी। उन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया था जिस पर लिखा रहता था -तलवार का आदर तथा गुरु नानक से गुरु गोविन्दसिंह तक अनुपम विजय। लाहौर में टकसाल भी स्थापित कर दी थी। सिक्के की दूसरी ओर संवत् खुदा रहता था। भूमि-कर से प्रत्येक वर्ष उनके खजाने में 14881500 रु० आता था और उन्होंने 10928000 रु० सालाना आमदनी का इलाका अपने सरदारों को जागीर में दे रक्खा था।

उन्होंने अनेक लोगों की जायदादें जब्त करके तथा उन्हें लूटकर जो धन संग्रह किया था, कुछ लोग उसे महाराज के अनुचित कार्यों में गिनते हैं। इसके उत्तर में हम अपनी ओर से कुछ न लिखकर पंजाब के प्रसिद्ध हिन्दू भाई परमानन्दजी की लिखी (उर्दू) तारीख पंजाब से कुछ उदाहरण देते हैं -

दुनिया में हर एक बड़े काम के चलाने के लिए चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, दो चीजों की आवश्यकता होती है, एक रुपये की दूसरे योग्य आदमियों की। यदि रुपया हो तो इसकी सहायता से योग्य आदमी संग्रह किए जा सकते हैं और योग्य आदमी हों तो

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-284


वे रुपया पैदा करने का कोई न कोई उपाय निकाल लेते हैं। लेकिन यह बात है कि इन दो साधनों के बिना कोई काम पूरा नहीं हो सकता। महाराज रणजीतसिंहजी को प्रकृति ने इस सिद्धान्त को समझने की बुद्धि दी थी। रुपये के विषय में मूर्खों की राय में महाराज को इसका बहुत लालच था। लालच के मानी सिर्फ इतने ही हैं कि महाराज बाज हालतों में रुपया वसूल करने के लिए ऐसा बसीला इस्तेमाल करते थे कि जिसे लोग जाइज ख्याल न करते हों। लेकिन महाराज जानते थे बिना रुपये के वे अपनी सल्तनत की इमारत नहीं बना सकते। इसलिए जहां कहीं भी उन्हें तनिक भी मौका मिला, उन्होंने रुपया प्राप्त करने में आगा-पीछा नहीं किया। आदि से लेकर इति तक बहुत सी ऐसी मिसालें मिलती हैं जिनमें महाराज ने रुपया वसूल करने में जबरदस्ती की, लेकिन यह जबरदस्ती तो उनके जमाने में एक आम रिवाज था। यदि महाराजा ऐसा न करते तो कभी भी दूसरी मिसलों को एक करके अपनी सल्तनत की नींव नहीं डाल सकते थे। मिसलों को अपने काबू में करने के लिए उन्होंने कभी उचित साधनों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। यही हालात हम उन चन्द घटनाओं में देखते हैं, जिनमें महाराज ने खास शख्सों से रुपया वसूल किया। यदि सांसारिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भी ऐसी पालिसी में इतनी बुराई दिखाई नहीं देती। जो लोग अपने लिए या अपनी औलाद के लिए गैर मामूली मिकदार रुपये को जमा करते हैं, कौन नहीं जानता कि उनके जरिये जरूरी तौर पर संसारी नियम के विरुद्ध होते हैं। गैर-मामूली रुपया या जायदाद किसी-न-किसी भांति की बेईमानी के बिना, अथवा दूसरों का हक दबा लेने के बिना इकट्ठा नहीं किया जा सकता। यह मुमकिन है कि जो शख्स एक वक्त दौलत का मालिक है उसने बेईमानी न की हो। लेकिन दौलत जमा करने की तारीख पर गौर करने से मालूम होगा कि उसके बाप या दादा ने या और किसी पिछले बुजुर्ग ने संसारी नियम को तोड़कर ही उसकी बुनियाद रक्खी होगी। इसलिए अगर लोगों को अनुचित तरीके पर रुपया इकट्ठा करने का हक है तो सुसाइटी को भी अख्तियार है कि जरूरत के समय उस रुपये को अपनी उन्नति के लिए उनसे छीन ले। महाराज रणजीतसिंह ने इसलिए इस रुपया की जब्ती में कोई इखलाकी बुराई नहीं की।1

सन् 1812 ई० में एक बूढ़ा सरदार जयमलसिंह मर गया। महाराज ने उसकी जायदाद जब्त कर ली। उसका बहुत सा रुपया अमृतसर के महाजनों के पास जमा था। महाराज ने हुक्म दिया वे हिसाब करके कुल रुपया लाहौर के खजाने में जमा करा दें। सन् 1822 ई० में अमृतसर का मशहूर शराफ रामानन्द मर गया। महाराज ने उसे नमक की खान का ठेका दे रक्खा था। उसने मरने


1. तारीख पंजाब। पे० 442,443 ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-285


पर तिरेसठ लाख रुपया छोड़ा। महाराज ने रुपया जब्त करके उससे लाहौर की दीवार बनाने का हुक्म दे दिया। 1833 ई० में उनकी सास रानी सदाकौर जो अमृतसर में नजरबन्द थी, मर गई। महाराज ने तोशखाने के अफसर बेलीराम को हुक्म दिया कि अमृतसर में जाकर उसकी कुल जायदाद को जब्त कर ले। सन् 1834 में अमृतसर का एक खत्री शिवदयाल मर गया। उसने बहुत सा रुपया इकट्ठा किया था। महाराज ने उसके बेटे को गिरफ्तार करके उससे एक लाख रुपया वसूल किया। एक शख्स गुलाम मुहीउद्दीन ने जो कि कश्मीर के सूबेदार का नायब रहा था, बहुत जुल्म करके बहुत सा रुपया इकट्ठा कर लिया। महाराज ने उसे नौकरी से हटाकर उसकी सब जायदाद जब्त कर ली थी। महाराज को पता लगा कि उसने हुशियारपुर में एक पीर की कब्र के नीचे लाखों रुपये गाड़ रखे हैं। इस कब्र पर कुरान पढ़ने के लिए मुल्ला रक्खे हुए थे। मिश्र रूपलाल ने कब्र को खोदकर नौ लाख रुपया निकाला जिस पर महाराज ने शेख से कहा - “तुम्हारा पीर सचमुच बड़ा बली है। उसकी सारी की सारी हड्डियां सोने की हो गईं।” इसी साल सुजानपुर का एक कार्यकर्ता रामसिंह मर गया। उसके बीस हजार रुपये जमा थे। महाराज ने उनको जब्त करने का हुक्म दे दिया। इसी तरह सन् 1835 ई० में आनन्दपुर के सोढ़ी अतरसिंह की जायदाद जब्त कर ली। इसी साल सिन्धिया वाले सरदार विसावासिंह के मरने पर उसके बेटे अतरसिंह से पचास हजार रुपया वसूल किया। लेकिन यह सारा धन महाराज जाटशाही अथवा अपने राज्य को मजबूत करने के लिए और मुसलमानों के अत्याचारों से देश को सुरक्षित रखने के लिए लेते थे।

उनके राज्य के किसान तथा अन्य प्रजा के लोग आनन्द से रहते थे। उद्योग-धंधों पर किसी भांति का टैक्स न था। न उनके राज्य में इनकमटैक्स था। जमीन पर किसान का पूरा अधिकार था। किसान अपने गांव के पूर्णतया सर्वेसर्वा होते थे। महाराज को केवल वे अपनी कृषि की पैदावार का अंश देते थे।1 जंगल और चरागाहों पर राज्य कोई कर न लेता था। प्रत्येक गांव में काफी गोचर भूमि हुआ करती थी। किसान चाहे जितने पशु रख सकते थे। राज्य पशुओं पर कोई टैक्स न लेता था। पहाड़ और नदी सम्पत्ति समझे जाते थे। उनके समय में जमीन बेची न जाती थी। राज्य-कर लेने कोई सख्ती भी न होती थी। प्रजा के लोग अपने गांवों में चाहे जहां मकान बना सकते थे। न हाउस टैक्स था न मकान बनाने के लिए उन्हें जमीन खरीदनी पड़ती थी। गांव का मुखिया कृषि पर टैक्स बांध देता था, जो या तो खड़ी फसल को कूत देता था या फसल के कट जाने पर अनाज में से राज-कर का हिस्सा बांट दिया करता था। महाराज ने अपने राज्य में नहर


1. फौजी गजट। मई सन् 1930 ।


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निकालने का भी आयोजन सोचा था। महाराज रणजीतसिंह के प्रताप से पंजाब से अत्याचारी मुस्लिम शासन उठ गया था। पहाड़ी प्रदेशों में से अयोग्य राजपूत राजा राज्य से खारिज क दिए गए थे। इसलिए सारा पंजाब और पहाड़ी प्रदेश सुख की नींद सोता था। प्रजा धनवान और राजकोष भरापूरा था।

शासन-प्रबन्ध

यद्यपि महाराज का अधिकांश समय युद्ध में बीता, किन्तु फिर भी उन्होंने शासन-प्रबन्ध उत्तम बनाने के लिए यथेष्ठ प्रयत्न किया था। जिन्होंने अपने बड़े राज्य को कई सूबों में विभक्त किया, काश्मीर, पेशावर आदि सूबे जिन में मुख्य थे। सूबेदार को शासन करने के अलावा युद्ध करने का भी अधिकार रहता था, किन्तु यथासम्भव उन्हें महाराज से किसी के साथ सन्धि-विग्रह करने के लिए इजाजत लेनी पड़ती थी। इन सूबेदारों के नीचे कर उगाहने, नमक, शाल से आय प्राप्त करने के लिए एक नायब रहता था। प्रत्येक सूबे का एक या अधिक नाजिम होते थे, जो प्रजा के आपसी विद्रोह को दबाते थे। साथ ही उनके पारस्परिक झंझटों का फैसला भी करते थे। अपने इलाके के कुल समाचार वे सूबेदार के पास भेजते थे। शहरों की देखभाल के लिए कोतवाल रखे जाते थे, किन्तु पुलिस का काम फौज से लिया जाता था। क्योंकि उस समय प्रजा में अमन-अमान तथा उसकी जान माल की रक्षा के माने यह समझे जाते थे कि उनकी (प्रजा जनों की) कोई लूट खसोट न हो। इसके लिए प्रत्येक सूबे और निजामत में फौज रहती थी। इंसाफ करने के लिए न्यायालय भी स्थापित किए गए थे, किन्तु उनकी बहुजायत न थी। महाराज ने गरीबों की फरियाद सुनने के लिए एक सन्दूक रखवा दिया। उसमें गरीब लोग अपना दुखड़ा लिख कर डाल जाते थे। महाराज उस सन्दूक को अपने आगे खुलवा कर उनकी दुख गाथा के प्रार्थना-पत्रों को सुना करते थे।2 फिर उन गरीबों को बुलवा कर उचित प्रबन्ध करते थे। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि गरीब प्रजा दुःख न पाये।

देश को दुश्मनों के आक्रमणों से बचाये रखने के लिए तथा राज्य-विस्तार करने के लिए उन्होंने अच्छी सेना रख छोड़ी थी। इस सेना को शिक्षा देने के लिए फ्रांसीसी अफसर रख छोड़े थे। सेना की संख्या सन् 1832 ई० में मि० मरे ने जो देखी थी वह इस प्रकार है - सेना 12811, नजीव आदि पलटनों के सिपाही 4941, दुर्ग की सेना में सवार 3000, पैदल 23950 । इसके अलावा जागीरदारों की सेना जो हर समय महाराज की सहायता के लिए तैयार रहती थी 27312, कुल सेना 82014 थी। किन्तु आगे इससे भी अधिक बढ़ गई थी।


2. 'पंजाब केसरी'। पे० 224 (नन्दकुमार रचित) ।


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राज्य की नौकरी सभी जातियों और वर्ग के लोगों को दी जाती थीं। जाति-पांति और मजहब का कोई ख्याल नहीं किया जाता था। जहां कहीं कोई योग्य आदमी उन्हें नजर आता था, वह उसे अपने यहां ले लेते थे। उनके यहां ब्राह्मण, वैश्य, खत्री, राजपूत आदि के अतिरिक्त शेख, सैयद, मुगल, पठान, और यहां तक कि फ्रेंच, अंग्रेज सभी जातियों और धर्मों के लोग नौकर थे। विश्वासघात करने वालों को वे अपने यहां से निकालने में तनिक भी आगा-पीछा न करते थे। राज्य में उन्होंने अपने सरदारों को जागीरें दे रक्खी थीं। यद्यपि वे सिख-धर्म के मानने वाले जाट थे, फिर भी वे राजकाज में किसी का पक्षपात न करते थे।

प्रजा के ऊपर अत्याचार करने वालों को महाराज बड़ा कड़ा दण्ड देते थे। कश्मीर पर जुल्म करने वाले मुहीउद्दीन की कुल जायदाद उन्होंने जब्त कर ली थी और खुशहालसिंह को जो कि महाराज में खास श्रद्धा रखता था, दो महीने तक अपने सामने भी न आने दिया। वे सरदारों के प्राइवेट जीवन पर बहुत कम ध्यान देते थे। किन्तु उनको कदापि बर्दास्त न था कि कोई सरदार या जागीरदार प्रजा को सताए या युद्ध के समय कायरता दिखाये। जो सैनिक या सरदार युद्ध में वीरता दिखाता था, उसे भरपूर इनाम देते थे। वह चाहते थे कि उनका शासन-प्रबन्ध इतना श्रेष्ठ हो कि अड़ौस-पड़ौस के राज्यों की प्रजा भी यह चाहे कि उन्हें रणजीतसिंह की छत्र-छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो।

उनके यहां एक मंत्रिमंडल भी था। सलाह के लिए जो सरदार तथा मंत्री बैठते थे उसे 'गुरुमता' कहते थे। होलकर को मदद देने की इन्कारी गुरुमते ने की थी। तत्कालीन अवस्था को देखने से प्रतीत होता है कि महाराज अपने समकालीन शासकों में श्रेष्ठ शासक थे।

उनके समय की विशेष घटनायें उनके समय में सबसे जबरदस्त घटना थी नेपोलियन बोनापार्ट के युद्धों की। इस साहसी वीर ने योरुप को एकदम से दहला दिया था। भारत स्थित अंग्रेज गवर्नर उसकी वजह से चिन्तित थे। वह समझते थे कि नैपोलियन ईरानअफगान के मार्ग से भारत पर आक्रमण करेगा, इसलिए वह महाराज रणजीतसिंह जी से सन्धि के बड़े इच्छुक थे। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जिस भांति योरुप में नैपोलियन दहाड़ रहा था, उसी भांति भारत में महाराज रणजीतसिंह गर्ज रहे थे।

दूसरी घटना थी अंग्रेज और मल्हारराव होल्कर के संघर्ष की। इस वीर ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रक्खा था। यदि सिंधिया इसका साथ न छोड़ बैठता, अथवा पानीपत के मैदान में भाऊ इसकी बात को मानकर मरहठा शक्ति का ह्रास न होते देता, तो यह वीर शायद ही अंग्रेजों के भारत में पैर जमने देता।


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सन् 1804 में यह पंजाब में पहुंचा। यद्यपि लार्ड लेक उसका बराबर पीछा कर रहा था, किन्तु कहते हैं कि यह कहता था - जहां तक मेरे घोड़े का पैर पड़ता है, वहां तक हमारा राज्य है। उसने महाराज से कहलाया कि - सिख, मराठाओं से मिलकर अंग्रेजों को देश से निकाल देना चाहते थे, किन्तु महाराज के गुरमते ने राय न दी और होल्कर को यों ही टाल दिया। यदि महाराज होल्कर की बात को मान लेते तो आज भारत का इतिहास दूसरी ही तरह का लिखा जाता, क्योंकि भरतपुर के महाराज भी इन्हीं का साथ देते। महाराज ने यह भूल की, अथवा नहीं, यह तो जानकर अन्दाजा लगा सकते हैं।

तीसरी घटना सन् 1827 की है। महाराज भरतपुर ने, जब कि लार्ड कैम्बिलमीयर भरतपुर पर नाबालिग की हिमायत के नाम पर चढ़कर आया, तो महाराज रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि जाट होने के नाते आप हमारी सहायता कीजिए। इस समय उचित है कि जाट सम्मिलित शक्ति से अंग्रेजों का मुकाबला करें, किन्तु महाराज ने भरतपुर वालों को कोई जवाब नहीं दिया। इतने बड़े बहादुर और विजेता के लिए यह बात उचित कदापि न थी। सिख-साम्राज्य राज्य न रहा। यदि उस तरह से जाता तो बात और ही रहती, लेकिन महाराज उपयुक्त समय देखते थे। वह उपयुक्त समय न आया और कभी न आया।

इसके अलावा अन्य भी अनेक घटनायें हैं, किन्तु स्थानाभाव से उनका देना आवश्यक नहीं।

रनिवास

महाराज रणजीतसिंह की सोलह रानियां थीं जिनमें 9 विवाहिता थीं और सात चादर डालकर लाई गई थीं। नियोग या नाते का नाम चादर डालना है। भारत के सभी पुराने क्षत्रियों में इस तरह के विवाह उचित माने गए थे। अब भी भारत में जो पुराने क्षत्रियों के वंशज हैं अथवा पुरातन नियमों को मानते चले आते हैं, उनमें चादर डालने अथवा नाता करने की प्रथा है। महाराजा रणजीतसिंह जी ऐसी पुरातन काल के क्षत्रियों की संस्था जाट-जाति की संतान होने के कारण जाति के नियमानुसार सात ब्याह चादर डालकर लाए थे।1 उन विवाहित अथवा नाता की हुई रानियों का परिचय इस प्रकार है -

(1) रानी महताब कुंवरि -
यह कन्हैया मिसल के सरदार गुरुबख्शसिंह की सुपुत्री थी। इन से महाराज ने 1796 ई० में विवाह किया था। इनकी ही मां

1. वधू को जब उसके मायके से बिदा करके लाते हैं तो उसे नवपति की ओर से एक सफेद चादर उढ़ाते हैं। इसे चादर उढ़ाना कहते हैं - लेखक।


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का नाम सदाकुंवरि था जो कि शासन करने में बड़ी योग्य थी। इनके दो पुत्र हुए थे - (1) शेरसिंह (2) तारासिंह। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये पुत्र इनके औरस पुत्र न थे। इनकी नानी ने किसी के दो पुत्रों को, इनके गर्भ से होना घोषित कर दिया था। महाराज ने भी उन्हें अपना पुत्र मान लिया था। आगे शेरसिंह को तो सदा सदाकुंवरि ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। सन् 1813 में महारानी महताबकुंवरि की मृत्यु हो गई।

(2) रानी राजकुंवरि -
यह नकई मिसल के सरदार रामसिंह जी सिन्धू (जाट) की पुत्री थी। इनसे महाराज ने सन् 1798 में विवाह किया था। महाराज की बहन का नाम भी राजकुंवरि था, इसलिए इन्हें दातार कुंवरि व माई निकाई के नाम से पुकारा जाता था। कुंवर खड़गसिंह का जन्म उन्हीं के गर्भ से हुआ था। सन् 1818 में यह स्वर्ग सिधार गईं।
(3) रानी रूपकुंवरि -
यह अमृतसर जिले के एक प्रसिद्ध सरदार जयसिंह की लड़की थी। सन् 1815 ई० में महाराज ने इनसे विवाह किया था। दूसरे सिख-युद्ध के बाद जब सरकार ने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया तो इन्हें 1980) वार्षिक पेन्शन अंग्रेज सरकार जीवन पर्यन्त देती रही।
(4) रानी लक्ष्मी -
यह गुजरानवाला जिले के जोगीखां गांव के सिन्धु जाट देसासिंह की सुपुत्री थी। पंजाब-हरण के बाद सरकार ने इन्हें 11200) वार्षिक की पेन्शन दी थी।
(5-6) महतो देवी, राजवंशी -
कांगड़ा के राजा संसारचन्द्र की महतो देवी और राजवंशी नाम की दो पुत्रियां थीं। इन्हें कांगड़ा विजय के बाद महाराज ने विवाहा था। ये दोनों ही 1839 ई० में महाराज के साथ सती हो गईं।
(7) गुलबेगम -
यह अमृतसर के एक प्रतिष्ठित मुसलमान की लड़की थी। महाराज इनकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गए। इसलिए इनसे बड़ी धूमधाम के साथ विवाह कर लिया। सरकार ने पंजाब को जब्त करने के बाद इनकी 12380) वार्षिक पेन्शन कर दी। 1863 ई० में यह मर गई।
(8) रानी रामदेवी -
गुजरानवाला के कर्मसिंह की पुत्री थी। महाराज ने गुजरानवाला विजय के समय इनसे ब्याह किया था।
(9) नवीं रानी -
शदाराज की नवीं रानी अमृतसर जिले के चीना (जाट) की सुपुत्री थी।

ये नौ रानी महाराज की विवाहिता थीं और नीचे लिखी सात रानियां चादर डाली हुई थीं -

(1) रानीदेवी - यह हुशियारपुर के जसवान गांव के बसीर नाकुद्द की पुत्री थी।

(2), (3) दयाकौर, रतनकुंवरि - गुजरात के सरदार साहबसिंह भंगी की दो विधवाओं दयाकौर और रतनकुंवरि से महाराज ने सन् 1811 ई० में नाता किया था। रानी


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रतनकौर ने मुल्तानसिंह को अपना पुत्र मान लिया था। पंजाब हरण करने के बाद सरकार ने इन्हें 1000) वार्षिक पेन्शन दी थी। दयाकुंवरि ने काश्मीरासिंह और पिशोरासिंह को अपना पुत्र मान लिया था। इनकी सन् 1843 ई० में मृत्यु हो गई थी।

(4) रानी चांदकुंवरि - यह अमृतसर जिले के चैनपुर गांव के जाट सिंह की पुत्री थी। 1822 ई० में महाराज ने इनसे सम्बन्ध किया। सरकार ने इन्हें 1930) वार्षिक पेन्शन दी थी।

(5) रानी महतावकुंवरि - यह गुरदासपुर जिले के मल्ल गांव के जाट चौधरी सुजानसिंह की लड़की थी। इनसे भी महाराज ने सन् 1822 ई० में सम्बन्ध किया था - 1930) वार्षिक की सरकार ने इन्हें भी पेन्शन दी थी।

(6) रानी सामनकुंवरि - मालवा के जाट सूवासिंह की सुपुत्री थी। सन् 1832 ई० में महाराज ने इनके साथ सम्बन्ध किया था - 1440) वार्षिक की पेन्शन सरकार से इन्हें पंजाब-हरण के बाद मिलती रही थी।

(7) महारानी जिन्दा - महाराज की अन्तिम रानी जिन्दा थीं। ये सरदार मल्लसिंह की सुपुत्री थीं। महाराज दिलीप इन्हीं से पैदा हुए थे। पंजाब-हरण के बाद सरकार ने इनकी बड़ी भारी पेन्शन करके इन्हें काशी भेज दिया था। वहां से यह नेपाल को इसलिए भाग गई कि वहां के राजा की मदद से अपने पंजाब को वापस ले लें। इनका पूरा हाल आगे दिया जायेगा।

इसके अलावा गुलाबकौर भी महाराज की रानी थी, जो अमृतसर के जगदेव गांव के एक जमींदार की लड़की थी। एक थी मोरन। इससे महाराज ने प्रेम के वशीभूत होकर बड़ी धूमधाम से विवाह किया था। लाहौर और शाहबीन दरवाजे के बीच गोबर चीनी कटरा की एक हवेली में इससे विवाह हुआ। फिर इसके साथ महाराज ने हरद्वार यात्रा की। महाराज के साथ जब रानी महताकुंवरि सती हुई थी, तो उसकी दासी हरिदेवी, राजदेवी और देवनो भी सती हो गईं थीं।

इन रानियों में 7 सिक्ख जाटों की, 5 हिन्दू जाटों की, 2 मुसलमानों की, 1 हिन्दू जमींदार की और 1 विदेशीय संतान थीं। भारत के हिन्दू नरेशों में महाराज रणजीतसिंह और महाराज जवाहरसिंह भरतपुर ही ऐसे थे जिन्होंने मुसलमानों की ललनाओं के साथ भी विवाह किए थे। अन्यथा ग्यारहवीं शताब्दी से इतिहास में यही होता रहा कि भारत के राजपूत नरेशों की ललनाओं को मुसलमान शासक अपनी अंकशायनी बनाते रहे। यह सिक्ख और खास तौर से जाट जाति के लिए स्वाभिमान की बात है।


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महाराजा का दरबार और उनके सरदार

महाराज की सफलता का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने अपने चारों ओर योग्य सरदारों और बुद्धिमान् कार्यकर्त्ताओं का दल संग्रह कर लिया था। महाराज को योग्य आदमियों के निर्वाचित करने का बड़ा अनुभव था। ज्ञात ऐसा होता है कि उनके दिमाग में खास शक्ति थी, जिससे वह किसी भी आदमी के अन्तर-पट को समझ लेते थे। मनुष्य के दिल को जीतने की उनमें कोई आकर्षण शक्ति थी। जो भी कोई एक बार उनके निकट आ गया, वह हृदय से उनका भक्त और हितैषी बन जाता था। नियंत्रण रखने में भी वे अपनी समता नहीं रखते थे। उनमें योग्य व्यक्ति के चयन की अद्भुत क्षमता थी। यही कारण है कि उनके पास योग्य और वीरों का जमघट था। विचित्र बात यह है कि जिन महापुरुषों ने सिक्ख साम्राज्य स्थापित करने में महाराज रणजीतसिंह का साथ दिया, वे सबके सब ही सिक्ख नहीं थे। खालसा के आदमियों में सबसे योग्य हरीसिंह नलुआ था। वह जाति का खत्री था। अन्य योग्य सरदारों में गैर सिक्ख भी काफी थे। अमृतसर पर आधिपत्य कर लेने के बाद, महाराज ने ओहदे और उपाधियां देते हुए कई सिक्ख सरदारों को उसके लिए निर्वाचित किया था। उनमें सरदार दिलसिंह मजीठिया, निहालसिंह अटारी वाला और बाजसिंह और हरीसिंह नलुआ थे। फूलासिंह अकाली सिक्खों में एक बड़ा बहादुर और अकालियों का लीडर था। लेकिन महाराज उस पर अधिक विश्वास इसलिए न करते थे कि उसकी ओर से यह आशा न थी कि वह अपनी जिम्मेदारी के लिए स्वच्छन्दता को छोड़ देगा। एक बार फूलासिंह ने निहालसिंह अटारी वाले को साथ लेकर मालवे में विद्रोह भी कर दिया था, जिसे दीवान मोतीराम ने दबाया था। मोतीराम उन दोनों को गिरफ्तार करके लाहौर ले आया। कुछ दिन के बाद महाराज ने उन्हें क्षमा कर दिया। फिर कभी भी उन्होंने उद्दण्डता न की। हरीसिंह नलुआ के पश्चात् सिखों में सरदार देसासिंह मजीठिया था। उसे निहालसिंह के साथ पांच सौ सैनिकों के ऊपर अफसर नियुक्त किया था। उसने महाराज की बड़े प्रेम से सेवाएं कीं। महाराज ने इसे कई युद्धों में भेजा था। सन् 1819 में पहाड़ी राजाओं से कर वसूल करने के लिए सरदार देसासिंह ही गया था। घलोर के पहाड़ी राजा ने, जिसका सदर मुकाम विलासपुर अंग्रेजों की ओर था, खिराज देने से इन्कार कर दिया। सरदार देसासिंह ने उसके तीन बड़े गढ़ों - अचरोटा, अकालगढ़, यनोवीदे को घेर लिया। राजा सतलज पार भाग गया। सरदार देसासिंह ने विलासपुर का घेरा डाल लिया। इसी समय अंग्रेजों ने महाराज से लिखा पढ़ी की। इसलिए महाराज की आज्ञा से वह वापस लाहौर आ गया। अप्रैल सन् 1832 में यह बूढ़ा शेर मर गया। उसके स्थान पर उसका बेटा सरदार लहजासिंह नियुक्त हुआ। सरदार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-292


लहजासिंह सन् 1844 तक सतलज और रावी के बीच के इलाके का हाकिम रहा। साथ ही अमृतसर के दरबार साहब का निरीक्षण का काम भी लहजासिंह के सुपुर्द था।

महाराज रणजीतसिंह अन्धविश्वासी एवं हठधर्मी न थे। साम्राज्य के स्थापन और रक्षण में धार्मिक जोश से काम नहीं लिया। वे राष्ट्रवादी थे। राष्ट्रवादी के नाते ही उन्होंने प्रजा के साथ सलूक किये। कुछ मुल्लापंथी सिख तो यह न चाहते थे कि महाराज इतने बड़े साम्राज्य के स्वतन्त्र शासक हों। वे चाहते थे कि रणजीतसिंहजी खालसा की ओर से शासन करें। पंजाब के हिन्दुओं ने भी महाराज के साम्राज्य-स्थापन में पूरी सहायता दी थी। सिख जितने लड़ाकू योद्धा और सैनिक थे, कुछ हिन्दू उतने ही योग्य संचालक महाराज को मिल गए थे। कुंजाह के दीवान खानदान ने भी महाराज के साम्राज्य-स्थापन में कम परिश्रम नहीं किया।

दीवान मुहकमचन्द महाराज के पिता महासिंह के जमाने से उनके यहां मौजूद था। वह अपनी निष्कपट सेवा और अद्भुत रण-चातुरी के कारण ही महासिंह का दीवान बन गया था, हालांकि आरम्भ में वह महासिंह के यहां छोटे से औहदे पर रक्खा गया था। सन् 1808 ई० में जब मि० मेटकॉफ महाराज के पास अंग्रेज सरकार से सन्धि करने का प्रस्ताव लेकर आये थे, तब इसने महाराज को सलाह दी थी कि सन्धि को आज-कल करते-करते उस समय किया जाए जब तक जमुना के इलाके पर अपना कब्जा हो जाये। सन्धि की चर्चा के दौरान में ही महाराज ने साईसवाल, चांदपुर, झण्डा, दहारी और बहारमपुर आदि स्थानों को विजय कर लिया और ये स्थान मुहकमचन्द को जागीर देकर उसके नाम लिख दिए। सन् 1810 ई० में दीवान मुहकमचन्द ने भम्बर और राजौरी को जीत कर कब्जा कर लिया। इस तरह से इसने तीन लाख का इलाका महाराज के राज्य में मिला लिया।

महाराज ने इससे प्रसन्न होकर फलोर को भी इसे जागीर में दे दिया। साथ ही दीवान का खिताब दिया और मय सुनहरी हौदे के एक हाथी तथा तलवार इनाम में दी।

सन् 1811 ई० में राजौरी के हाकिम सुल्तानखां को गिरफ्तार करके यह लाहौर ले आया। फिर वजीर फतहखां के साथ सेना लेकर काश्मीर पर चढ़ाई की। सन् 1813 ई० में अटक पर कब्जा करने के लिए हजूर के मुकाम पर पठानों को परास्त किया और अटक के सूबे को महाराज के राज्य में मिला लिया। सन् 1814 में वह बीमार हो गया। इसी साल महाराज ने इसके बेटे रामदयाल को काश्मीर-विजय के लिए भेजा। इसने सलाह दी थी कि काश्मीर पर चढ़ाई करने से पहले राजौरी में अपना रसद का सामान भेज दिया जाए। महाराज ने इस


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राय को उस समय नहीं माना, किन्तु उन्हें पीछे पछताना पड़ा। बीमारी में सन् 1815 में ही यह मर गया। महाराज को उसकी मृत्यु से बड़ा दुख हुआ। यह हृदय में महाराज का भक्त था।

दीवान रामदयाल के मरने पर महाराज ने उसके बेटे मोतीराम को अपना दीवान बनाया। जालन्धर के सूबे का प्रबन्ध करने के लिए उसे जालन्धर का सूबेदार बना दिया और उसके बेटे रामदयाल को फौज का कमाण्डर बनाया। काश्मीर की विजय से दीवान रामदयाल की बहादुरी की प्रशंसा होने लग गई थी। महाराज ने दीवान मोतीराम को काश्मीर विजय होने तथा महीदीन के प्रबन्ध के बाद, जालन्धर से, काश्मीर का सूबेदार बना कर भेजा। फलोर का इलाका भी मोतीराम के आधीन था। इसके बाद रामदयाल ने श्यामसिंह अटारी वाले के साथ हजारा पर चढ़ाई की। दीवान इलाहीबख्श जो महाराज की ओर से हजारा के साथ लड़ रहा था, खतरे में ही था कि दीवान रामदयाल ने ठीक समय पर पहुंच कर उसकी रक्षा की। खुद मैदान में डट गया। दिन छिप जाने पर भी सब से आखिर तक लड़ता रहा। पठानों को जब इसका पता लगा तो वे गोल बांध कर दीवान रामदयाल पर टूट पड़े। अकेला मैदान में घिर जाने पर भी यह नौजवान बड़ी बहादुरी के साथ लड़ता रहा और पठानों के दांत खट्टे कर दिए, किन्तु आखिरकार मैदान में काम आ गया। इसकी मृत्यु के रंज से दीवान मोतीराम ने काश्मीर की दीवानी छोड़कर बनारस में चले जाने का इरादा कर लिया। महाराज दीवान रामदयाल की मृत्यु से बड़े दुखी हुए। किन्तु कश्मीर का प्रबन्ध मोतीराम के बिना सुचारू रूप से नहीं चला। इसलिये महाराज ने धैर्य बंधाकर फिर वापस बुला लिया और कश्मीर भेज दिया। मोतीराम का दूसरा बेटा कृपाराम था। महाराज ने उसे रामदयाल की जगह नियुक्त किया। उसे दीवानचन्द मिश्र और हरीसिंह नलुआ के साथ पेशावर युद्ध के लिए भेजा। नौशेरा के प्रसिद्ध युद्ध के बाद दीवान कृपाराम को जालंधर का सूबेदार बना दिया गया। बीच में एक बार महाराज इस खानदान से नाराज हो गए। डेढ़ साल की नाराजगी के बाद महाराज ने नजरबन्दी से रिहा करके दीवान कृपाराम को कश्मीर का सूबेदार बनाया। इसने अपने समय में कश्मीर में बड़ी सहृदयता से शासन का काम चलाया।

ध्यानसिंह

यह डोगरा राजपूत था। इसके दो और भाई थे - गुलाबसिंह और सुचितसिंह उनके नाम थे। सब पहले अर्दली के बतौर महाराज के यहां भर्ती हुए और शनैः-शनैः उन्नति करते रहे। ध्यानसिंह कुछ दिन के बाद ड्यौढ़ीवान बना लिया गया। गुलाबसिंह ने जम्बू-कश्मीर के विद्रोह को दबाया, इसलिए महाराज ने उसे जम्बू में जागीर प्रदान की। सुचितसिंह दरबारी ही बना रहा। तीनों भाइयों को क्रमशः


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राजा का खिताब महाराज की ओर से दिया गया। राजा ध्यानसिंह का बेटा हीरासिंह अभी बच्चा ही था कि महाराज उससे अपने बेटे की तरह प्रेम करने लगे। उसकी अवस्था जब कि बारह वर्ष की थी, राजा ध्यानसिंह ने महाराज से प्रार्थना की कि इसकी शादी राजा संसारचंद की लड़की के साथ करा दी जाए। महाराज ने संसारचंद के लड़के अनिरुद्ध को तो इस बात के लिए तैयार कर लिया लेकिन लड़कियों की मां, सतलज पार भाग कर चली गई। कुछ दिन के बाद अनिरुद्धचंद और उसकी मां दोनों मर गए। दीवान खानदान की अवनति के साथ ही साथ यह दोगला खानदान उन्नति करता गया और महाराज का अधिक से अधिक प्रेम-पात्र बन गया। राजा ध्यानसिंह महाराज में इतनी भक्ति रखता था कि महाराज के मरने पर उनकी चिता में कूदने के लिए तैयार हो गया। लेकिन लोगों ने उसे जबर्दस्ती करके रोक लिया।

मिश्र दीवानचन्द

महाराज के यहां युद्ध सम्बन्धी सबसे अधिक सेवाएं दीवानचन्द ने ही की थीं। यह गुजरानवाला के जिले का दरिद्र ब्राह्मण था। यह वैसे तो अशिक्षित था, लेकिन था बड़ा लम्बा-चौड़ा और तगड़ा आदमी। तीर चलाने में यह अपनी योग्यता सबसे बढ़ कर रखता था। इसका निशाना कभी खाली ही नहीं जाता था। यह आरम्भ में तोपखाने में आकर भर्ती हुआ था। महाराज ने इसकी योग्यता देखकर इसे तोपखाने का सबसे बड़ा अफसर बना दिया। यह सन् 1817 ई० में दीवान मोतीराम, सरदार हरीसिंह नलुआ के साथ तोपखाना लेकर मुल्तान गया। इस वर्ष इन सबको असफल होकर वापस लौटना पड़ा। सन् 1818 में महाराज ने इसे जफरजंग की पदवी दी और पच्चीस हजार फौज देकर इसे मुल्तान पर विजय हेतु भेजा। यहां जम कर लड़ाई हुई। पूंछ के राजा को भी सन् 1819 में इसने परास्त किया था। 1820 ई० में इसने कश्मीर आक्रमण के बाद बटाला पर चढाई की। नौशेरा की प्रसिद्ध लड़ाई में इसने बड़ी बहादुरी दिखाई। यदि नौशेरा के युद्ध में यह न होता तो नौशेरा की विजय कदापि न होती। सन् 1824 में इसके अर्धांग बीमारी हुई और इसी में मर गया। उसकी अरथी के नीचे सारा दरबार लगा था। महाराज की आज्ञा से उसका संस्कार चन्दन की लकड़ी से किया गया। कफन के लिए महाराज ने अपना निजी शाल उस पर डाल दिया। इसे हुक्का पीने की टेब थी। महाराज ने इसे प्रेम के वश होकर तथा उसकी बहादुरी के कारण दरबार में भी हुक्का पीने की इजाजत दे दी थी। उसे महाराज ने एक सुनहरी हुक्का भी दिया था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-295


सरदार हरीसिंह नलुआ

यह गुजरानवाला में पैदा हुआ था। लड़कपन में महाराज के साथ खेला करता था। महाराज को उससे बड़ा स्नेह था। 1805 ई० में मामूली खिदमत से तरक्की देकर इसे महाराज ने 800 प्यादों का सवार बनाया। अपनी समस्त आयु उसने महाराज के लिए लड़ाई में बिताई। सरदार हरीसिंह नितान्त सैनिक व्यक्ति था। उसे एक बार काश्मीर का सूबेदार बना कर भेजा गया। प्रबन्ध के तौर पर वह असफल रहा। उसने यूसुफजई के पठानों को विजय किया। दुरबन्द और जहांगीरा के पास उनके साथ लड़ाइयां कीं। अटक के पहाड़ी मैदान में पठानों के दांत खट्टे किए। उसका समय अधिकांश में पठानों के साथ लड़ाइयों में बीता। अफरीदी उसने हराये। हजारा के कबीलों को उसने कुचला। कुं० नौनिहालसिंह के साथ पेशावर पर चढ़ाई करके उसे जीता। पठानों को पेशावर से खदेड़ दिया। जमसद के किले पर कब्जा किया। खैबर की घाटी को पार करके अफगानों को इतना भयभीत किया कि उसके नाम से पठान कांपने लगे। लेकिन इसी लड़ाई सन् 1837 ई० में उसके गहरा जख्म आया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु भी उसकी बहादुरी की वजह से हुई। उसका साहस अनुपम था। वह पठानों का तो जानी दुश्मन था। वह पठानों को बुजदिल और नीच समझता था। पठान उसके नाम से कांपते थे। पेशावर, काबुल इत्यादि में अब भी उसका नाम बच्चों को डराने के लिए प्रयोग किया जाता है। जिस तरह भारत में माताएं बच्चों को रोने से चुप कराने के लिए हौआ का डर दिखाती हैं, उसी तरह काबुल, पेशावर की पठान स्त्रियां बच्चों को रोने से बन्द करने के लिए कहती हैं - “खुफता वाशिद हरी आयद” यानी 'बच्चे, चुप हो जाओ, हरी आता है।' एक हिन्दी कवि ने हरीसिंह के लिए कहा है - मारि-मारि यवनों का बनाय दिया भुरता।

सरदार हरीसिंह के अन्दर आकर गुरु गोविन्दसिंह की भविष्यवाणी पूरी होती है। वे कहा करते थे - 'चिड़ियों से मैं बाज मराऊं। तब ही गोविन्दसिंह पाऊं।' गुरु गोविन्दसिंह के समय में मुसलमान अपने को बाज और हिन्दुओं को चिड़िया समझते थे। वास्तव में वे बहुत बुजदिले हो गए थे। वे मरने और मारने दोनों से डरते थे। गुरु गोविन्दसिंह ने उनके दिल से मौत का डर दूर करके उन्हें निर्भयता पूर्वक मरना सिखाया और फिर वीरबन्दा तथा महाराज रणजीतसिंह ने उन्हें मारना सिखाया।


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फकीर बन्धु

महाराज के यहां बड़े-बड़े सरदारों में दो फकीर भाई भी थे - एक का नाम नूरुद्दीन और दूसरे का नाम अजीजुद्दीन था। ये दोनों बड़े वफादार आदमी थे। लाहौर पर अधिकार जमाते ही महाराज ने इनको अपने यहां ले लिया और मरते दम तक ये महाराज के यहां रहे। इनमें फकीर नूरुद्दीन बड़ा अच्छा हकीम था। यह बराबर महाराज का इलाज करता रहता था। सन् 1805 में उसे गुजरात का हाकिम बनाया गया। फकीर अजीजुद्दीन राज्य-प्रबन्ध के प्रत्येक मामले में महाराज का सलाहकार था। महाराज उसकी राय की कद्र करते थे। यह कई बार महाराज की ओर से संदेशवाहक के रूप में लाट साहब के पास भी गया था। दोनों भाइयों ने लड़ाइयों में भारी हिस्सा लिया था। जहां कहीं आवश्यकता पड़ती थी, फकीर अजीजुद्दीन फौज लेकर पहुंचता था। महाराज की फौज के अफसर के नाते वे दोनों भाई अपना कर्त्तव्य उसी भांति पालन करते थे जैसे कि अन्य सिक्ख सरदार। दोनों भाई सच्चे हृदय से सच्चे अर्थों में महाराज के हितैषी थे। फकीर अजीजुद्दीन को सन् 1813 में अटक के किले को विजय करने के लिए महाराज ने भेजा था। पेशावर के युद्ध में जिसमें कि महाराज का काबुल में दोस्तमुहम्मद से मुकाबला था, यह महाराज के साथ था। इसने मजहबी पक्षपात को लात मार कर महाराज की तरफ से मुसलमानों से खूब शत्रुता की। महाराज भी इसे हद से ज्यादा प्यार करते थे। यह बात मुसलमानों पर भी प्रकट थी कि महाराज फकीर बन्धुओं पर सिखों से भी बढ़कर प्यार करते हैं।

भवानीदास - यह शाहशुजा का माल-अफसर था। महाराज ने भी इसे अपने यहां माल का अफसर बना दिया। इसके समय में बाकायदा महकमा माल बन गया। यह सन् 1808 में लाहौर आया था। इसी साल महाराज ने कर्मचन्द को मुहर का अफसर बनाया। भवानीदास कई स्थानों पर युद्ध में भी शामिल हुआ। सन् 1819 ई० में उसने जम्बू पर चढ़ाई करके उसे विजय किया।

गंगाराम - यह दिल्ली का रहने वाला था। राजनीति समझने में पूरा विद्वान् था। पहले सिंधिया महादाजी के पास रह चुका था। महाराज ने इसकी खबर लगते ही इसे लाहौर बुला लिया और सरकारी मुहर उसके सुपर्द कर दी। पं० गंगाराम ने महकमा आबकारी का इन्तजाम बहुत अच्छी तरह से किया। उसके मर जाने पर इसकी जगह पं० दीनानाथ को मिली। सन् 1824 ई० में भवानीदास के मर जाने पर महकमा माल भी पं० दीनानाथ के ही हाथ में सौंपा गया।

यूरोपियन अफसर

सन् 1822 ई० में दो यूरोपियन सय्याह एक इटैलियन मि० बेन्तूरा, दूसरा


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फ्रांसीसी ऐलार्ड ईरान होते हुए लाहौर दरबार में आए। वे मुसलमानी लिबास में थे और उन्होंने अपनी सब बातें फारसी जुबान में बताई । महाराज ने उन्हें हुक्म दिया कि वे अपनी बातें अपनी भाषा में लिखकर पेश करें। उनके कागजों को महाराज ने लुधियाना के अंग्रेजी रेजीडेण्ट के पास तर्जुमा करने को भेज दिया। तर्जुमा की बातें उनकी कही हुई बातों से तथावत् मिल जाने पर महाराज ने उनको अपनी फौज में कवायद सिखाने के लिए नौकर रख लिया। थोड़े दिनों में उन्होंने फौज को यूरोपियन ढ़ंग पर ऐसा तैयार कर दिया कि महाराज उनसे खुश हो गए और उनके लिए मकबरा अनारकली के पास रहने के लिए जगह दे दी। चार साल बाद दो और फ्रांसीसी 'कोट' और 'ओबीन्तवेला' जिन्होंने नैपोलियन के अधीनस्थ सेवायें की थीं, लाहौर आए। महाराज ने उन्हें भी फौज में स्थान दिया। वे धीरे-धीरे उन्नति करते हुए फौजों के जनरल बन गए। महाराज के सिपाही नया लिबास पहनने और नए ढ़ंग पर चलने से झिझकते थे। महाराज ने खुद वर्दी पहनी और कवायद की, जिसे उनके सिपाही भी करने लग गए। अफसरों की सहायता व योग्यता से महाराज के पास पचास हजार बाकायदा फौज और एक लाख दूसरे ढंग के सिपाही तैयार हो गए। लाहौर और अमृतसर में तोपें ढ़ालने और बारूद बनाने का कारखाना खोला गया। महाराज ने इन यूरोपियनों को नौकर रखते समय प्रतिज्ञा कराई थी कि वे गाय का गोश्त न खायेंगे, दाढ़ी न कटायेंगे और तम्बाकू न पीयेंगे।1 पहली दोनों बातें वे पूर्णतया मानते रहे। तीसरी बात महाराज ने माफ कर दी। वेन्तूरा और ऐलार्ड महाराज के रिसाले के इन्चार्ज थे और ओवीन्तवेला प्यादा फौज का तथा कोट तोपखाने का इंचार्ज था। इनकी तनख्वाह दो और तीन हजार के बीच थी।

योग्यता-आचरण

महाराज पढ़े-लिखे न थे किन्तु प्रतिभा सम्पन्न थे। उनका दिमाग उपजाऊ और बलवान था। वे बहुत दूर की बातें सोचते थे। लिखने-पढ़ने वाले मन्त्री लोग उनके पास हर समय रहते थे। यहां तक कि रात के समय भी एक आदमी लिखने के लिए उनके पास रहता था। सारा राज-काज फारसी, हिन्दी और पंजाबी में होता था। वे हरेक कागजात को सुनकर उस पर अपनी सही करते थे। अपनी आज्ञाएं


1. शाहशुजा से भी महाराज ने यही कहा था कि मैं तुम्हें काबुल का बादशाह बनने में इस शर्त पर सहायता कर सकता हूं कि - (1) समस्त अफगानिस्तान में गोवध बन्द करा दिया जाए, (2) सोमनाथ के मन्दिर के किवाड़ गजनी से वापिस लाकर यहां लगा दिए जायें। भारत का इतिहास (इति० प्रेमी) पे० 174-183


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स्वयं लिखाते थे। लिखाने के बाद उसे पढवाकर सुनते थे ताकि सही लिखने का पता लग जाए। कभी-कभी तो रात के समय भी दिमाग में आई हुई बात को मंत्री के लिए नोट करा देते थे। वे कुर्सी पर पालथी मारकर बैठते थे। जब बातें करते थे, तो एक हाथ उनका दाढ़ी पर रहता था और एक घुटने पर। राज सम्बन्धी प्रत्येक मामले में उन्हें जानकारी थी।

उन्हें हंसी-मजाक करने का बड़ा शौक था। एक दफे एक सुन्दर लड़की ने उन्हें काना कह दिया। इस पर वे हंस पड़े और उसे इनाम दे दिया। एक समय एक जाट ने उन्हें बिना पहचाने गाली दी। महाराज उससे बड़े खुश हुए, कहने लगे - अच्छा रिश्तेदार मिला है। उसे अनोखी-अनोखी गाली देने के एवज में इनाम दिया। हंसोड़ लोगों की उनके दरबार में कदर थी। उन्होंने एक ऐसे ब्राह्मण को नौकर रख छोड़ा था, जो अवकाश में महाराज से मजाक करके उन्हें प्रसन्न किया करता था। महाराज उसे शनीचर कहते थे। धार्मिक तौर पर ग्रन्थ-साहब को नित सुना करते थे। किन्तु उनके यहां धार्मिक पक्षपात तक भी न था।

अधिक स्त्रियां करके उन्होंने बेशक अच्छा नहीं किया, किन्तु उन्होंने अपने पंथ और जाति के नियमों के विरुद्ध कुछ नहीं किया। उनकी जाति (जाटों) में अनेक स्त्रियां रखने का रिवाज था। साथ ही विशेष अवसरों पर पाण्डवों की भांति कई भाई एक ही स्त्री भी रखते थे। किन्तु यह उनकी प्रशंसनीय बात न थी कि अधेड़ उम्र में भी शादी करते रहे। उस समय की आम श्रद्धा के अनुसार महाराज भी फलित ज्योतिष पर पूरा विश्वास रखते थे। इस तरह ज्योतिषी उन्हें खूब चकमा देते थे। मोरन से शादी करने के बाद महाराज ने एक दिन स्वप्न देखा। उसमें उन्होंने देखा था कि एक आदमी सिक्ख का लिबास पहने हुए उन्हें धमकी दे रहा है। महाराज ने ज्योतिषियों को बुलाकर स्वप्न का हाल कहा। ज्योतिषियों ने बताया कि यह कोई निहंग है जो मुसलमान औरत से शादी करने के कारण नाराज हो गया है। महाराज को चाहिए कि असली जैसी सोने की एक मूर्ति बनवाकर मथुरा के किसी ब्राह्मण को दान कर दें। इस तरह से उनका नूतन जन्म समझा जाएगा। महाराज ने ऐसा ही किया। और भी दान पुण्य किया। राजनैतिक कैदियों को छोड़ा। इन्हीं राजनैतिक कैदियों में जम्बू का राजा भूपसिंह भी था, जो 15 वर्ष से कैद था। नूरपुर का राजा वीरसिंह और भम्बर का मालिक तालिबखां भी थे। महाराज जवानी में बड़े खिलाड़ी और सैनिक परेड कर्त्तव्यों के शौकीन थे। होली के दिनों में सरदारों के साथ खूब खेलते थे। उनके यहां दशहरा भी बड़े जोर से मनाया जाता था। दशहरे के पश्चात् ही वे विजय के लिए चल पड़ते थे।

उनका अधिकांश समय नया देश विजय करने में बीता। मुल्की प्रबन्ध करने के लिए बहुत कम अवसर उन्हें मिला। एक तो उनके राज में शिक्षा का प्रबन्ध


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-299


अच्छा न हुआ और न स्वास्थ्य के लिए कोई योजना तैयार की गई। सबसे बड़ी बात महाराज के करने के लिए यह रह गई कि वह अपने दफ्तरों की भाषा हिन्दी न कर पाए। ऐसा कर जाते तो पंजाब में आज उर्दू का राज न होता। क्योंकि अंग्रेज सरकार ने दफ्तरों की वही भाषा रक्खी है, जो पहले थी। अतः राष्ट्रभाषा के विकास में वह कोई योग न दे सके।

लेकिन फिर भी उस समय की अवस्था में महाराज नमूने के योद्धा, विजेता और शासक थे। यह उन्हीं का बल था कि लगभग आठ सौ वर्ष से चली आई पंजाब में मुसलमानी सल्तनत की उन्होंने जड़ उखाड़ फेंक दी और जिन पठानों का भारत पर विजय करने के कारण सिर आसमान पर चढ़ गया था, उन पठानों से भेंट, खिराज और नजराने लिए। तथा उन्हीं की आबादी, डेरागाजीखां, जमरूद, खैबर, यूसुफजई में उन्हें परास्त करके अपनी सल्तनत स्थापित की। राजपूताने और यू० पी० में सल्तनत स्थापित करना कोई कठिन काम न था। न बंगाल और उड़ीसा में कोई कठिनाई थी। कठिनाई थी तो पच्छिमोत्तर देश में हिन्दू-हुकूमत स्थापित करने में थी। महाराज की अद्भुत योग्यता, आश्चर्यजनक शक्ति का ही यह परिणाम था कि उन्होंने अपने-पराए, देशी-विदेशी सब के ईर्षा-द्वेष करते रहने पर भी, उनसे टक्कर लेकर इतना बड़ा जाट-राज्य खड़ा कर दिया।

महाराज का स्वर्गवास

महाराज को इतनी बड़ी सल्तनत कायम करने में उचित से अधिक परिश्रम करना पड़ा। इस परिश्रम से उनका शरीर पिस गया था। उन को इतने राजाओं, नवाबों और खानों को परास्त करना पड़ा था जितने शायद ही किसी एक शासक ने किए हों। उन्हें अपने राज्य की खराबियों और कमजोरियों को दूर करना पड़ा, उन्हें सेना जुटानी पड़ी, उन्हें लड़ना पड़ा और उन्हें अपनी थोड़ी-सी जिन्दगी में इतनी चिन्ताओं का सामना करना पड़ा। इस सबसे यह अनुभव किया जा सकता है कि वह असाधारण शक्ति, साहस तथा प्रतिभा के व्यक्ति थे।

जब वे बीमार हुए तो उपचार के लिए सब प्रकार के इलाजों का प्रयोग किया गया। लाहौर और अमृतसर के सभी वैद्य, हकीम, जोगी, ज्योतिषी बुलाए गए। मोतियों की माजून तैयार की गई। किन्तु सभी परिश्रम, सभी प्रयोग निष्फल सिद्ध हुए। दो सप्ताह तो वे अत्यधिक बीमार रहे। 1839 ई० की 20वीं जून को भारत के इन महाप्राण ने इस संसार से विदा ली। जिन महावीर का प्यारा नाम स्मरण करते ही पंजाब वासियों की आज भी कमजोर नसें फड़क उठती हैं, संसार विजयी अंग्रेजों को जिन्हें पंजाब केसरी की गौरवमय उपाधि देकर उनके नाम की पूजा करनी पड़ी थी, उन पंजाब राज्य के प्रतिष्ठाता, वर्तमान युग के एकमात्र


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-300


सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, वीर चूड़ामणि महाराज रणजीतसिंह जी का देहान्त हो गया। दस लाख रुपये के चबूतरे पर महाराज को सुलाया गया। उसी चबूतरे के ऊपर शालों पर लेटे हुए महाराज ने प्राण छोड़े। प्राण छोड़ने से पूर्व हजारों का दान पुण्य किया गया। महाराज की मृत्यु के समाचार ने पंजाब को स्तब्ध कर दिया। वृद्ध, युवा, बालक, स्त्री-पुरुष सभी ने उनके शोक में आंसू बहाए। जिसने सुना उसी ने एक लम्बी आह ली। महाराज के शरीर को इत्रों से स्नान कराया गया। रेशमी वस्त्रों और रत्न-जटित आभूषणों से सजाया गया। चार रानियां और सात दासियां जो कि उनके साथ सती होना चाहती थीं, उनके सिरहाने खड़ी हो गईं। भगवद-गीता उनकी छाती पर रक्खी गई। राजा ध्यानसिंह ने उस पर हाथ रखकर खड़गसिंह से वफादारी की शपथ ली। नाव के आकार का एक स्वर्ण खचित विमान बनवाया गया। रेशमी वस्त्रों से विमान को सजाया गया। इसी विमान पर महाराज को रखकर किले से बाहर निकाला गया। लाखों आदमियों की भीड़ विमान के साथ थी। रानियां सफेद वस्त्र पहने हुए नंगे पैरों महलों से बाहर निकलीं। रानियों ने अपने सब वस्त्र और गहने गरीबों में बांट दिए। प्रत्येक रानी से दो-तीन कदम आगे एक-एक मर्द अपने हाथ में दर्पण लिए हुए था। दर्पण उनके हाथों में इस तरह से था को रानियां उसमें अपना मुंह देखती रहें, और यह जान लें कि सती होने के रंज से उनके चेहरे भयभीत नहीं हुए हैं। इन रानियों में राजा संसारचन्द्र की बेटी भी थी। रानियों के पीछे दासियां थीं। डॉक्टर हांगवरगर कहते हैं कि - हमारे दिल सबसे ज्यादा उन बेचारियों के लिए धड़कते थे जिन्होंने अपने भाग्य का फैसला खुद कर लिया था। नक्कारों की आवाज रंज और राम की थी। गायक शोकपूर्ण गीत गाते जा रहे थे। उनके साजों की आवाज भी दिल में दर्द पैदा करती थी। लाखों आदमी उनके शव के जुलूस में हिलकियां भरते हुए जा रहे थे।

छः फीट लम्बी उनकी चिता बनाई गई। उनके शरीर के वस्त्र और आभूषण उतार कर गरीबों में बांट दिए गए। गुरुओं और ब्राह्मणों ने पाठ किया। आध घण्टे के बाद सरदारों और वजीरों ने उनके शव को चिता पर रख दिया। चारों रानियां चिता पर महाराज के सिर को अपने गोद में लेकर बैठीं। दासियां पैरों की ओर बैठ गईं। इन सबको बांस की चटाइयों से ढ़ांप दिया गया जिनमें बहुत सा तेल डाला गया था। राजा ध्यानसिंह भी महाराज की चिता में कूदा पड़ता था किन्तु लोगों ने पकड़ लिया। चिता पर तेल, इतर और घी डाले गए। खड़गसिंह ने अग्नि-संस्कार किया। एक क्षण में आग की लौ में महाराज और रानियां भस्म हो गईं।

तीसरे दिन राख संभाली गई और उसे हरद्वार भेजा गया। महाराज और रानियों की राख अलग-अलग पालकियों में डालकर किले से निकाली गयी. हाथी


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-301


घोड़े, सेना, सरदार, मन्त्री आदि साथ थे। महाराज की राख का यह जुलूस शहर के बड़े-बड़े कूचों और बाजारों में घुमाया गया। छतों, सड़कों और रास्तों में दर्शक खचाखच भरे हुए थे। सब ने पालकियों पर फूलों की वर्षा की। राजा ध्यानसिंह महाराज की पालकी पर चौर करता जाता था। नगर से जुलूस के बाहर निकलते ही तोपों की सलामी दी गई। जब महाराज की राख अंग्रेजी इलाके से गुजरी तो वहां भी तोपों से सलामी हुई। सभी जगह उनकी राख का सम्मान हुआ। भारत के सभी प्रान्तों के राजाओं ने उनके लिए शोक प्रदर्शित किया। 13वें दिन महाराज के नाम पर बहुत सा दान-पुण्य हुआ।

महाराज ने अपने मरने से पहले ही खड़गसिंह को पंजाब का महाराज बना दिया था - उसे अपने हाथ से ही राजतिलक कर दिया था और राजा ध्यानसिंह को मंत्री बना दिया था। इस बात की सूचना समस्त सूबों में पहुंचा दी थी।

महाराज की वंशावली

महाराज शालवहन (शालिवाहन)

जौनधर (भटिंडा का राजा) → सधवा → सहस्य → लखनपाल → धरी → उदयरथ → उदारथ → जायी → पातु → डगर → करुत (कीर्ति) → वीरा → बध्या → कालू → जोंधोगन → वीतू या सट्टू → राजदेव → वाप्ता → प्यारा → बुद्धा → विद्धा (विधसिंह) → चरतसिंह → महासिंह → रणजीतसिंह →1


1. यह वंश-वृक्ष हमने पंजाब केसरी (ले० नन्दकुमार देव शर्मा) से उद्धृत किया है। पे० परि० (ग पे०) 249-251 ।

इतिहास गुरुखालसा में लिखा है कि महाराज शालिवाहन ने स्यालकोट में राज्य स्थापित किया था। वि० सं० 135 में इसने विक्रमाजीत राजा को देहली में परास्त करके उसका सिर काटा था। दिल्ली ही में इसने शक संवत् चलाया था। राजा विक्रम 300 वर्ष जीवित रहे थे, ऐसा कहा जाता है। एक इतिहास में शालिवाहन यदुवंशी था जो कि गजनी से लौट कर आया था, ऐसा लिखा है। एक शालिवाहन दक्षिण के शातिवाहनों में भी था, किन्तु यह शालिवाहन यदुवंशी ही जान पड़ता है। इसी के वंश में पूर्णभक्त और रसालु हुए हैं ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-302


शेरसिंह, खड़गसिंह, तारासिंह, पिशोरासिंह, काश्मीरासिंह, मुल्तानसिंह, दिलीपसिंह
नौनिहालसिंह, फतहसिंह, जगतूसिंह, विक्टर, प्रताप, सहदेव
पुरुषसिंह, किशनसिंह, केसरीसिंह, अर्जुनसिंह, दिलीप, सुखदेव (बहराइच में रहा)

महाराज खड़गसिंह-नौनिहालसिंह

महाराज रणजीतसिंह ने खड़गसिंह को अपना उत्तराधिकारी बना तो दिया था, किन्तु वह राज्य-शासन संचालन के सर्वथा अयोग्य साबित हुए। थोड़े ही दिनों पीछे राजा ध्यानसिंह में और उनमें मन-मुटाव हो गया और धीरे-धीरे वे एक दूसरे के प्राण-शत्रु हो गए। दोनों ही महाराज के अन्तिम आदेश को भूल गए। महाराज खड़गसिंह ने अपने कृपा-पात्र चेतसिंह को मंत्री बना लिया और आप ऐश-आराम में फंस गए। राज-भवन में शराब के फव्वारे छूटने लगे। चेतसिंह के मंत्री बनाये जाने के बाद राजा ध्यानसिंह और भी चिढ़ गए और महाराज की अमंगल-कामना के लिए भयानक षड्यंत्र रचने लगे। उन्होंने सिख-सैनिकों और सरदारों में प्रकट किया - महाराज खड़गसिंह ने अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार कर ली है। वे अंग्रेजों को अपनी राज्य-आय में से प्रति रुपया छः आना देंगे। अब पंजाबी सेना में सिखों के स्थान पर अंग्रेजी अफसर और सैनिक रक्खे जायेंगे। सिख अंग्रेजों की वक्र-दृष्टि से शंकित तो थे ही, उसकी यह युक्ति काम कर गई। उन्होंने ध्यानसिंह की बात को सही मान लिया। राजा ध्यानसिंह ने महाराज खड़्गसिंह की रानी और उनके पुत्र नौनिहालसिंह के हृदय में भी यही भाव पैदा कर दिए। अपने बाप की विलासिता से कुंवर नौनिहालसिंह शंकित तो पहले ही से थे, उसकी शंका निर्मूल भी न थी। शेरसिंह इस समय अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने की प्रार्थना इसलिए कर रहे थे कि पंजाब का राज्य मुझे मिले। शेरसिंह का कहना था कि मैं महाराज रणजीतसिंह का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। एक दिन राजा ध्यानसिंह ने कई सरदारों की सहायता से चेतसिंह को मरवा डाला। चेतसिंह था भी दुश्चरित्र और दुष्ट स्वभाव का। महाराज खड़गसिंह को एक तरह से बन्दी बना लिया गया। कर्नल वेड ने इस समय यह दिखाया कि हम महाराज खड़गसिंह के सम्मान की पूर्ण रक्षा करेंगे। वे वास्तव में ऐसी बात सिख-साम्राज्य हित के लिए नहीं, किन्तु अपनी भलाई के लिए कर रहे थे। चेतसिंह को ध्यानसिंह, गुलाबसिंह और सिंधान वाले सरदारों ने जिस समय कत्ल किया, वह छिप गया था पर ढ़ूंढ़ लिये जाने पर स्त्रियों की तरह गिड़गिड़ाने लगा। फिर भी उसे मार डाला गया। महाराज खड़्गसिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-303


को किले के बाहर नजरबन्द करने पर 8 अक्टूबर 1839 को विशाल सिख-साम्राज्य का अधीश्वर उनके बेटे नौनिहालसिंह को बनाया गया। उनकी अवस्था इस समय केवल 21-22 वर्ष की थी। इस प्रवीण युवक महाराज की गम्भीरता देखकर लोगों ने इन्हें दूसरा रणजीतसिंह विचारा था। स्वयं महाराज रणजीतसिंह जी ही इनकी प्रखर बुद्धि और रणकौशल से मोहित होकर कहा करते थे - 'मेरी मृत्यु के बाद पंजाबवासी इस लड़के को ही अपना सच्चा राजा पाएंगे।' युवक महाराज नौनिहालसिंह को राज्य की यह शोचनीय अवस्था देखकर आंसू गिराने पड़े। उन्होंने विचार किया था कि कुटिल मंत्री चेतसिंह और अंग्रेजी स्वार्थ चाहने वाले कर्नल वेड के रहते हुए पिता की गतिमति सुधरने की संभावना नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने विरोधी राजा ध्यानसिंह की शरण ली थी। इस तरह शत्रु से शत्रु का वध कराकर कुमार नौनिहालसिंहजी ने कर्नल वेड को अपने यहां से अलग करने की दरख्वास्त सिखों के जरिये लाट साहब के पास पहुंचाई। लार्ड आकलैंण्ड ने सिखों को खुश रखने की इच्छा से सन् 1840 में कर्नल वेड को वापस बुलाया और मि० क्लर्क को उसकी जगह लाहौर भेज दिया। कर्नल वेड को बदलवाने में भी कुमार नौनिहालसिंह जी ने अपने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया था। लेकिन कर्नल क्लर्क भी वेड की नीति का पालन करने लगा। इससे सिखों ने समझ लिया कि सभी गोरे एक होते हैं। अपने स्वार्थ के लिए वे एक ही नीति पर चलते हैं।

नौनिहालसिंह अपने प्रपिता महाराज रणजीतसिंह जी की तरह ही उच्चाशयी, निडर और सैनिक जीवन में रुचि वाले व्यक्ति थे। उनके दिल में यह पक्का विचार हो गया था कि वह अफगानिस्तान से लेकर बनारस तक राज करेंगे। यहीं तक नहीं, पहले से ही उन्होंने अपने सरदारों को इन इलाकों की मौखिक सनदें दे दी थीं। क्योंकि उनको यह पक्का विश्वास हो गया था कि एक दिन वहां तक उनका राज होगा। अपने पिता पर उन्हें सन्देह था कि वह अंग्रेजों को यहां बुलाना चाहता है। इसलिए अपने पिता खड्गसिंह से उन्हें कोई हमदर्दी नहीं थी। वे अंग्रेजों से दिली नफरत करते थे, क्योंकि वे समझते थे कि एक दिन अवश्य ही ये सिख-राज्य को हड़प कर जाएंगे। महाराज खड्गसिंह नौ माह की बीमारी से 5 नवम्बर सन् 1840 ई० को मर गए। उनके साथ उनकी दो रानियां और 11 दासियां सती हुईं।

कुमार नौनिहालसिंह जिस समय अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करके लौट रहे थे कि दरवाजा उनके ऊपर गिर पड़ा। मूर्छितावस्था में राजा ध्यानसिंह उन्हें उठाकर अपने मकान पर ले गया। मिलने वाले सरदारों से कहता रहा महाराज नौनिहालसिंह के दिल को चोट पहुंची है, वे अच्छे हो जायेंगे, घबराने की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इनकी मां चांदकौर को भी उनसे नहीं मिलने


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दिया। तीन दिन के बाद, महारानी को अपने यहां बुलाकर कहा कि कुंवर तो मर गये। अब तुम शासन को संभालो, पर अभी किसी पर यह मत प्रकट करो कि कुंवर मर गये। रानी चांदकौर धोखे में आ गई। इसी समय राजा ध्यानसिंह ने शेरसिंह को लाहौर में बुला लिया जो कि पहले से ही राज का दावेदार बनकर अंग्रेजों से प्रार्थना कर रहा था। लोगों का और कई इतिहास लेखकों का यह भ्रम है कि नौनिहालसिंह को मारने में ध्यानसिंह का हाथ था। कारण कि वह समझता था कि इस योग्य लड़के के आगे वह सिक्ख-राज्य का सर्वेसर्वा नहीं बना रह सकता। नौनिहालसिंह की मृत्यु से सारे पंजाब में शोक छा गया।

शेरसिंह यकरियों से लाहौर की तरफ कुछ फौज लेकर आ गया। वह सुन्दर था, किन्तु सिखों जैसी वीरता से हीन था। मदिरा तथा वेश्याओं का गुलाम था। भला सिख जाति ऐसे अपात्र को नेता स्वीकार कर सकती थी? किन्तु अपना मतलब साधने के लिए ध्यानसिंह उसे राजा बनाना चाहता था। अंग्रेज सरकार ने भी मंजूरी दे दी थी।

इधर रानी ने हरद्वार से सिन्धान वाले सरदार अतरसिंह को बुला लिया, वह स्वयं सिंहासन पर बैठना चाहती थी। उसने घोषित किया कि नौनिहालसिंह की स्त्री हामला है, इसलिये गद्दी की हकदार उसकी संतान ही होगी। शेरसिंह राजा नहीं बनाया जा सकता। राजा ध्यानसिंह ने सिक्खों को समझाया कि स्त्री को इतने बड़े राज्य की बागडोर नहीं दी जानी चाहिये। रानी चांदकौर कैसी भी योग्य हों, आखिर हैं तो स्त्री ही। अधिकांश सिक्ख महारानी के पक्षपाती थे। इसलिये राजा ध्यानसिंह ने दूसरी चालाकी यह चली कि महारानी को पंजाब की अधीश्वर और शेरसिंह को शासन-सभा का प्रधान-मंत्री बना दिया और स्वयं मंत्री बन गया। इस तरह से दोनों पार्टियों में बाहरी मेल करा दिया। महारानी ने सिन्धान वाले अतरसिंह को अपना प्राइवेट मंत्री बना लिया। इतना हो जाने पर राजा ध्यानसिंह बराबर अपने षड्यंत्र में लगे रहे, वे रानी को शासन के अयोग्य एवं शेरसिंह को पूर्ण योग्य सिद्ध करते रहे। धीरे-धीरे सिक्ख-सैनिक और सरदारों को अपने पक्ष में करते रहे। फिर भी इस बीच में खालसा-सेना राजा से स्वतंत्र होकर अपने विरोधियों को जो यत्रतत्र खड़े होते थे, कुचल देती थी। नीलसिंह जो अंग्रेजी सेना को पंजाब में लाने के इरादे में था1, को सिक्ख सेना ने मार डाला। अंग्रेजों ने शेरसिंह को लिखा कि हम तुम्हारी विद्रोही एवं उद्दंड सेना का दमन करने को बारह हजार सैनिक लेकर आने को तैयार हैं, किन्तु इसके बदले तुम्हें 40 लाख रुपया और सतलज के दक्षिण के इलाके हमें देने होंगे। लेकिन शेरसिंह ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए लिखा कि - यदि सिक्खों को यह बात मालूम हो


1. सिख युद्ध पे० 13 (बंगवासी प्रेस द्वारा प्रकाशित)।


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गई तो मेरा प्राण लेते उन्हें तनिक भी देर न लगेगी। इसी समय अफगानिस्तान स्थित अंग्रेज ने घोषणा की कि सिक्ख-साम्राज्य से हमारी सन्धि टूट गई। पेशावर को हम अफगानों के सुपुर्द करेंगे। इस समय पेशावर सिखों के अधीन था, वे इस घोषणा से बड़े चकित हुए। राजा ध्यानसिंह इन्हीं दिनों जम्बू चले गये, उन्होंने बीमारी का बहाना किया था। शेरसिंह भी बटाले चले गए थे। रानी चांदकौर माई का खिताब धारण करके पंजाब का शासन करने लगी। उन्होंने चार सरदारों की कौंसिल बनाई। राजा गुलाबसिंह रानी के पक्ष में हो गया। किन्तु लाहौर में राजा ध्यानसिंह के एजेन्ट षड्यन्त्र में लगे हुए थे, उन्होंने बहुतेरे सिख सरदारों को फोड़ लिया और उनसे वचन ले लिया कि जब राजा शेरसिंह और ध्यानसिंह लाहौर पर हमला करेंगे, तो शेरसिंह का वे लोग साथ देंगे। कुछ दिन बाद शेरसिंह तीन सौ आदमी साथ लेकर लाहौर के निकट शालार बाग में आ गया। कुछ सिख सरदारों ने जाकर उसे राजा मान लिया और उसे किले पर चढ़ा लाये। इधर रानी चांदकौर के कहने से राजा गुलाबसिंह ने किले के फाटक बन्द कराकर युद्ध कराया। राजा सुचितसिंह और जनरल वेन्तूरा शेरसिंह से जा मिले, उनकी संख्या सत्तर हजार हो गई। रात में शेरसिंह ने कई दिन की कठिनाई के बाद किले पर कब्जा कर लिया।

18 जनवरी सन् 1841 ई० को शेरसिंह महाराजा बना। सिन्धानवाला सरदार को छोड़कर उसे सबने सलाम किया। इस ताजपोशी में 4786 आदमी 610 घोड़े और पांच लाख रुपयों को स्वाहा करना पड़ा। रानी चादकौर को जम्बू के इलाके में 9 लाख की जागीर दी गई। ध्यानसिंह को प्रधान-मंत्री बनाया गया। अतरसिंह और चेतसिंह अंग्रेजों के पास भाग गये, उनकी जायदाद जब्त कर ली गई। लहनासिंह गिरफ्तार होकर लाहौर लाया गया।

जितना इनाम सैनिकों को रानी चांदकौर के खिलाफ लड़ने पर देने को कहा गया था, जब उन्हें न दिया गया तो वे बागी हो गये, अफसरों को लूटने खसोटने लगे। एक अंग्रेज अफसर कत्ल कर दिया गया, जनरल कोट भाग गया। यह बगावत सूबों में भी पहुंच गई। अयोग्य राजा उन्हें काबू में न ला सका। काश्मीर में जनरल महीसिंह को लूट लिया गया। पेशावर का सूबेदार अवीतापला डर के मारे जलालाबाद भाग गया।

शेरसिंह बड़ा निकम्मा था। मदिरापान खूब करता था। नाच-तमाशे खूब देखता था। उसकी इच्छा थी कि रानी चांदकौर उससे चादर डालकर शादी कर ले। रानी भी तैयार हो जाती, किन्तु गुलाबसिंह ने रानी को बहका दिया। किसी


1. गुलाबसिंह लाहौर को छोड़ते समय 16 छकड़े खजाने से ले गया। तारीख पंजाब पे० 471।


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ने शेरसिंह से कहा कि रानी आपसे घृणा करती है। वह कहती है कि आप रणजीतसिंह के औरस पुत्र नहीं हैं। उसने रानी की दासियों को रानी से इस अपमान का बदला लेने के लिए षड्यन्त्र किया और खुद वजीराबाद चला गया। रुपये की लोभिन बांदियों ने रानी का सिर ईंटों से फोड़ डाला। इस तरह रानी चांदकौर का जीवनान्त हो गया। राजा ध्यानसिंह ने इन बांदियों को कोतवाली पर नाक-कान से रहित करा दिया। हाथ भी कटवा दिए। रावी पार निर्वासित कर दिया।1 अंग्रेजों की सिफारिश पर महाराज ने सिन्धान वालों को वापस बुला लिया। वे बड़े चाटुकार थे। जब उन्होंने अपनी चाटुकारी से अंग्रेजों को वश में कर लिया, तो शेरसिंह की तो बात ही क्या थी। थोड़े ही दिनों में शेरसिंह उनकी खुशामद से उन पर लट्टू हो गया। वे दिन-रात उसी के साथ घिरे रहने लगे। राजा ध्यानसिंह को ये बातें बुरी लगतीं थीं, इसलिए वह महाराज रणजीतसिंह के छोटे राजकुमार दिलीप को प्यार करने लगे। सिन्धान वाले दोनों ही से जलते थे। वे चाहते थे कि ध्यानसिंह शेरसिंह दोनों का सर्वनाश हो जाए। एक दिन बातों ही बातों में, उन्होंने शेरसिंह से कहा कि राजा ध्यानसिंह का इरादा अब दिलीपसिंह को तख्त पर बैठाने का है। इसके लिए उसने एक दिन हम से शपथ लेकर कहा था कि शेरसिंह के मारने पर तुम्हें 60 लाख की जागीर दी जा सकती है, किन्तु हम अपने मालिक से दगा नहीं कर सकते हैं। राजा शेरसिंह उनके जाल में फंस गया और उसने हुक्म दिया कि यदि तुम ध्यानसिंह को मार दोगे तो वह उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है। उसने शेरसिंह से हुक्मनामा भी लिखाया। फिर वही हुक्मनामा उन्होंने ध्यानसिंह को जा दिखाया। ध्यानसिंह बड़ा क्रोध में आया और क्रोधावेश में ही उसने भी उनको बड़े लोभ पर शेरसिंह को मारने का वारण्ट लिख दिया।

शुक्र के दिन राजा शहर से बाहर निकला। ध्यानसिंह और दीनानाथ उसके साथ थे। शेरसिंह का साथी बुधसिंह भी उनके संग था। बारहदरी में राजा शेरसिंह मल्लों को इनाम दे रहे थे कि सिन्धान वाले अजीतसिंह ने उस समय उनके पास आकर एक बन्दूक दिखाई और कहा - महाराज! यह मैंने चौदह हजार में खरीदी है और तीस हजार में भी बेचने को तैयार नहीं हूं। महाराज ने उसे देखने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया कि उसने उनको गोली मार दी। वह इतना बोला - यह...के...दगा... और मर गया। बुधसिंह ने लपक कर अजीतसिंह के दो साथियों को मार गिराया, लेकिन उसकी तलवार टूट गई। दूसरी तलवार लेना चाहता था कि उसका पैर फिसल गया और वह भी मार डाला गया। इन कातिलों ने बाग में जाकर शेरसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को, जब कि वह पाठ करके दान-पुण्य


1. तारीख पंजाब पे० 472 ।


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कर रहा था, जा घेरा। उसने हाथ जोड़ कर क्षमा चाही, किन्तु उसे भी मार डाला गया। इस समाचार से शहर में सनसनी फैल गई। बाजार बन्द हो गये। दो सरदार अपने दो चार सिपाही लिये हुए आए। रास्ते में अधवर में उन्हें राजा ध्यानसिंह मिला। अजीतसिंह ने उसे बताया, काम तमाम हो गया है। तुरन्त उसे दोनों सिर दिखाये। ध्यानसिंह ने कहा - 'तुमने बच्चे को मार कर अच्छा नहीं किया'। अजीतसिंह ने कहा जो कुछ हो गया सो हो गया, अब क्या है। ध्यानसिंह चिन्तातुर अवस्था में किले में आया। दरवाजे पर पहुंचते ही ध्यानसिंह को रोक दिया गया। ध्यानसिंह को सन्देह हुआ, पीछे फिर कर देखा तो उसके साथी बहुत थोड़े थे। अजीतसिंह ने पास आकर पूछा कि अब राजा किसे बनाया जायेगा? ध्यानसिंह इसके सिवाय क्या कह सकता कि राज्य के हकदार दिलीपसिंह हैं। अजीतसिंह ने इस पर कहा - अच्छा, दिलीप तो राजा हो जाएगा और तुम हो जाओगे मंत्री, हम खाक चाटते फिरें? गुरमुखसिंह ने क्रोध के साथ कहा - इसे भी साफ करो। अजीतसिंह ने इशारा किया, पीछे से सांय-सांय गोली की आवाज हुई। ध्यानसिंह गिर पड़ा। ध्यानसिंह के अर्दली एक मुसलमान ने सामना किया, उसे भी मार कर ध्यानसिंह के साथ तोपखाने में फेंक दिया। जब लहनासिंह आया तो अजीतसिंह की जल्दबाजी पर उसे फटकारने लगा। वह चाहता था कि जम्बू का सारा परिवार जब इकट्ठा होता, तब इनका काम किया जाता, अभी गुलाबसिंह, सुचेतसिंह और हीरासिंह बाकी हैं।

ध्यानसिंह के पुत्र हीरासिंह उस समय पेशावर के हाकिम फ्रांसीसी विटेवल के मकान पर राजा शेरसिंह की हत्या की चर्चा सुनकर दुःख प्रकट कर रहे थे। कुछ ही समय बाद, जब उन्हें अपने पिता के निधन का समाचार मिला तो वह मूर्छित हो गए। पृथ्वी पर लेट कर हाथ-पैर पीट-पीट कर रोने लगे। किन्तु उनके भाई केसरीसिंह ने कहा - क्या बच्चों और रांडों की तरह रोते हो, मर्द बनो और अपने पिता का बदला लो। हीरासिंह के हृदय में प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठी। उन्होंने बड़ी प्रार्थना के आथ खालसा सरदारों को अपने स्थान पर इकट्ठा किया। सबके आने पर अपनी गर्दन उनके सामने झुका दी और कहा - या तो मेरी गर्दन काट कर मुझे मेरे पिता के पास पहुंचा दीजिये या पितृ-हन्ता से बदला लेने में मेरी सहायता कीजिये। बालक प्रतापसिंह की हत्या से लोग वैसे ही विचलित थे, वे इस दगाबाजी को महानीचता समझते थे। फिर हीरासिंह की अपील ने उन्हें और भी उत्तेजित किया, वे भड़क उठे और प्रतिज्ञापूर्वक बोले - 'हम तुम्हारी मदद करेंगे, दगाबाज को मजा चखा देंगे।' इधर तो यह हो रहा था, उधर सिन्धान वाले सरदारों ने दलीप को महाराज और अजीतसिंह को मंत्री घोषित कर दिया। साथ ही सरदारों को बुलाकर राजभक्ति की शपथ लेने लगे। किन्तु किले से बाहर निकलना उन्होंने बन्द कर दिया। हीरासिंह के पास चालीस हजार सिख इकट्ठे हो गये।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-308


उसने शाम के चार बजे आकर लाहौर को घेर लिया। सारी रात किले पर गोले बरसते रहे। हीरासिंह ने सरदारों के सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं अपने महाराज और पिता के हत्यारों के सिर कटे हुए न देख लूंगा, तब तक अन्न-चल ग्रहण न करूंगा। सैनिकों ने इतने जोर से हमला किया कि विजय प्राप्त हो गई। अजीतसिंह दीवार से उतर कर भागा, लेकिन एक मुसलमान सैनिक ने उसका सिर काट लिया। हीरासिंह की सौतेली मां अजीतसिंह के सिर को देखकर भारी प्रसन्न हुई और अपने पति राजा ध्यानसिंह के शव को लेकर मय दासियों के सती हो गई। वह अब तक इसीलिए रुकी हुई थी कि पति के मारने वालों का नाश देख ले। इसके पश्चात् सरदार लहनासिंह की तलाश हुई। वह तहखाने में छिपा हुआ मिला। उसका सिर काटने वाले को हीरासिंह ने दस हजार रुपया इनाम में दिया। अतरसिंह भाग कर अंग्रेज सरकार की मदद में चला गया, क्योंकि वह उस समय लाहौर में मौजूद न था। शत्रुओं से बदला लेने के बाद हीरासिंह ने महाराज दिलीपसिंह के पैर चूमे और राजभक्ति प्रकट की। खालसा ने हीरासिंह को मंत्री नियुक्त किया और उसे विश्वास दिलाया कि सिन्धान वालों के साथियों को मौत की सजा दी जायेगी। हीरासिंह शिक्षित था, उसने अंग्रेजी भी पढ़ी थी। महाराज रणजीतसिंह खुद उसे बहुत प्यार करते थे। इस समय इसकी अवस्था पच्चीस साल की थी।

पंजाब के राज्य-सिंहासन पर बैठते समय दिलीपसिंह की अवस्था केवल पांच साल की थी। दिलीप महाराज के विषय में अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा है कि इनकी पांच वर्ष की अवस्था से ही तेज बुद्धि का परिचय मिलता था। बड़े होकर यदि राज्य करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता, तो वह पिता के योग्य पुत्र सिद्ध होते। लेकिन दैव ने उन्हें अवसर ही नहीं दिया। महाराज के बालक होने के कारण उनके राज्य की निरीक्षक महारानी झिंदा, जो उन्हीं की माता थीं, नियुक्त हुईं। वे महाराज रणजीतसिंह की परम प्रिय रानी थीं। वह उनको महबूबा सम्बोधन से सदा सम्मानित करते थे। रणजीतसिंह जी ने उनसे वृद्धावस्था में विवाह किया था। उनके पिता का नाम कन्नासिंह था जो कि महाराज की सेना में घुड़्सवार था। मुसलमान लेखकों के आधार पर कुछ अंग्रेज लेखकों ने भी महारानी झिंदा के आचरण पर सन्देह किया है। किन्तु यह बात इसीलिए तत्कालीन अंग्रेज शासकों तथा मुस्लिम वर्ग की ओर से फैलाई गई होगी कि सिख वीरों के हृदय से उनके प्रति भक्ति कम हो जाए। घर के अनेक खास सिख भी स्वार्थवश महारानी से द्वेष करते थे। किन्तु महारानी झिन्दा पवित्रता की देवी थीं। उनके कट्टर निन्दाकारियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि महारानी झिन्दा की गम्भीरता के कारण, उन दिनों पंजाब दरबार का रौब खूब जमा हुआ था। यहां तक कि यूरोप की राज-सभाओं में भी उनकी प्रशंसा हुई थी।

राजदरबार में जल्ला नाम के एक पण्डित की भी खूब चलती थी। हीरासिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-309


उसे अपना गुरु समझते थे। सारा कार्य हीरासिंह जल्ला की सम्मति से ही करता था। जल्ला मंत्र-तंत्रों पर भी पूरा विश्वास रखता था। हीरासिंह भी इन मामलों में अन्धविश्वासी था। इस समय पंजाब का शासन अच्छी तरह से होने लगा था, किन्तु पंजाब के भाग्य में सुख-शान्ति न थी। थोड़े ही दिनों में हीरासिंह से भी लोग डाह करने लगे। दलीपसिंह के मामा तथा अचकई सरदारों ने हीरासिंह से मंत्रिपद छीन लेने का चेष्टा की थी। स्वयं हीरासिंह का ताऊ सुचेतसिंह उससे डाह करने लगा। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महारानी झिन्दा की इच्छा भी यही थी कि हीरासिंह की जगह सुचेतसिंह दीवान हो। जवाहरसिंह जो कि रानी झिन्दा के भाई थे, एक दिन राजा सुचेतसिंह को खालसा सेना में महाराज दिलीपसिंह समेत ले गए। वहां सुचेतसिंह की सम्मति से जवाहरसिंह ने खालसा से कहा कि हीरासिंह महाराज को बहुत कष्ट देता है, यदि आप लोग महाराज की रक्षा न करेंगे, तो मैं उन्हें अंग्रेजों की शरण में ले जाऊंगा। हीरासिंह ने पहले ही यह अफवाह उड़ा रक्खी थी कि जवाहरसिंह महाराज को अंग्रेजों के हवाले करना चाहता है। अब जब कि खालसा ने खुद जवाहरसिंह के मुंह से ही यह बात सुनी तो वे आगबबूला हो गए। खालसा सेना ने रात भर जवाहरसिंह समेत सबको पहरे में रक्खा, सवेरे हीरासिंह के पास खबर पहुंचाई। हीरासिंह ने जवाहरसिंह को तो कैद कर लिया और सुचेतसिंह की सेना की दोनों पलटनों जो उस समय किले में कैद थीं, के हथियार छीन कर किले से बाहर निकाल दिया। इस बात से सुचेतसिंह को बड़ा रंज हुआ, लेकिन राजा गुलाबसिंह समझा-बुझा कर अपने साथ जम्बू ले गए। महाराज दिलीप के शहर में आने पर सौ तोपों की सलामी हुई। उस दिन से खालसा सेना राजा सुचेतसिंह को लाहौर दरबार का दुश्मन समझने लगी। इस तरह से हीरासिंह ने जवाहरसिंह और सुचेतसिंह का दमन करके कुछ दिनों के लिए शान्ति स्थापित कर दी, किन्तु अशान्ति की ज्वाला भीतर ही भीतर धधकती रही।

उस समय सिख साम्राज्य के प्रत्येक सरदारों को राज-शक्ति प्राप्त करने की इतनी लालसा लगी हुई थी कि उनके हृदय में भले-बुरे का विचार करने की भी शक्ति का अभाव हो गया था। प्रत्येक सरदार, निज स्वार्थ के लिए, कुछ-न-कुछ ऐसी चाल चलता था, जिससे पुराने बखेड़े शांत होने तो दूर रहे, नए और खड़े हो जाते थे। हीरासिंह के सलाहकार पंडित जल्ला ने एक और षड्यंत्र यह रचा कि दलीपसिंह को राज्य से हटा कर शेरसिंह के पुत्र को पंजाब का महाराज बना दिया जाए। परन्तु महारानी झिन्दा को जल्ला की चालाकी का पता लग गया। उसने महारानी झिन्दा के आचरण पर भी आपेक्ष करने आरम्भ कर दिए।

उधर जम्बू पहुंच कर गुलाबसिंह भी शान्ति से बैठा न रहा। उसने लाहौर दरबार में एक जाली पत्र भिजवाया किरणजीत सिंह के दोनों पुत्र काश्मीर सिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-310


और पिशौरासिंह सिन्धान वाले अतरसिंह से मिलकर राज्य हड़पने की तैयारी कर रहे हैं। गुलाबसिंह के साथ इस चालाकी में हीरासिंह स्वयं शामिल था। हीरासिंह ने उन दोनों के दमन करने के लिए सेना भेज दी। खालसा सेना महाराजा रणजीतसिंह के लड़कों की इज्जत करती थी। इस खबर को सुनकर एकदम से वह क्रोधित हो उठी। उसने हीरासिंह को उसी के बाप की हवेली में कैद कर लिया। हीरासिंह ने सेना को वचन दिया कि काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह दोनों राजकुमारों के प्राण और संपत्ति की रक्षा की जाएगी और आगे से जल्ला पंडित को राजकाज में भाग लेने से अलग कर दिया जाएगा। गुलाबसिंह की सेना ने उधर उन दोनों राजकुमारों के दमन के लिए सेना भेजी किन्तु वे दोनों सेना के हाथ न आए। सेना ने उनकी जागीर जब्त कर ली। थोड़े दिनों बाद, गुलाबसिंह ने उन्हें दम दिलासा देकर जम्बू बुला लिया और कैद कर लिया। साथ ही उनसे कहा कि यदि एक लाख रुपया दो तो तुम्हें छोड़ दिया जाएगा। जब खालसा सेना को इस बात का पता लगा तो उसने राजकुमारों का पक्ष लिया। इसलिए गुलाबसिंह ने दोनों से बीस हजार रुपया लेकर छोड़ दिया। फिर भी खालसा सेना संतुष्ट न हुई।

राजधानी में अराजकता से सूबेदार भी खूब अन्धा-धुन्धी में लगे हुए थे। खुद गुलाबसिंह ने भी पिछले कई वर्ष से राज-कर अदा नहीं किया था। सावनमल का बेटा मुलतान का सूबेदार मूलराज, राजस्त्र-कर देना बन्द कर चुका था। उसने घोषणा कर दी कि मुलतान लाहौर का करद राज्य नहीं, किन्तु स्वतंत्र राज्य है। इस समय तक खालसा सेना को वेतन भी नहीं मिला था। खालसा सेना वेतन न पाने से असंतुष्ट तो थी ही, काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह के साथ गुलाबसिंह के किए गए व्यवहार ने उसे और भी असंतुष्ट कर दिया।1 इसलिए उसने सुचेतसिंह को दीवान बनने के लिए तैयार किया। वह तो यह पहले से ही चाहता था। सन् 1843 की 28वीं मार्च को वह थोड़ी सी सेना के साथ शाहदरा के पास पहुंच गया। इस खबर को सुनकर हीरासिंह बहुत घबराया और खालसा सेना में पहुंचकर उसने बड़े मार्मिक शब्दों में भाषण दिया। उसमें उसने सिख सैनिकों से अपील की -

खालसा सेना के बहादुरो! आपके पुराने मंत्री राजा ध्यानसिंह का पुत्र और आपके श्रद्धेय महाराजा रणजीतसिंह का दत्तक पुत्र आपके सामने खड़ा है। अगर इसने कोई अपराध किया है, यह लो तलवार, इससे इसका सिर अलग कर दो, किन्तु मुझे फिरंगियों के दोस्त सुचेतसिंह के हवाले मत करो। मैं खालसा के बहादुर सैनिकों द्वारा मरना अपने पतित ताऊ सुचेतसिंह के हाथ से मरने की अपेक्षा अच्छा समझता हूं।

इसके अलावा, उसने प्रत्येक सिपाही


1. राज्य की आर्थिक परिस्थिति की जांच के लिए जल्ला पंडित को नियुक्त किया था । उसने कई यूरोपियन कर्मचारियों को अलग कर दिया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-311


को सोने का कड़ा और प्रत्येक अफसर को सोने का कण्ठा देने का वचन दिया। खालसा सेना पर उसका यह मोहनी-मंत्र काम कर गया। जो खालसा सेना उसके विरुद्ध थी, अब उसकी सहायक हो गई। सुचेतसिंह के पास खालसा सेना तथा हीरासिंह की ओर से लौट जाने की खबर पहुंचाई गई, किन्तु उसने कहला भेजा कि यदि खालसा मेरे साथ विश्वासघात करना चाहता है तो करे। पहले उसने मुझे बुलाया है, अब इस तरह मेरा अपमान किया जाता है। उसके 400 सिपाहियों में से केवल उसके पास 40 ही रह गए। हीरासिंह ने उसे जहां कि वह एक मस्जिद में ठहर रहा था, चौदह हजार सवारों के साथ घेर लिया। उसके दो साथी, राय केसरसिंह और बसन्तसिंह बड़ी बहादुरी से लड़े।1 जो आशरों पर खेल जाता है, वह सब कुछ कर गुजरता है। 160 सिखों को मारने के बाद, ये 40 आदरी काम आए। लड़ाई खतम होने पर हीरासिंह ने सुचेतसिंह की लाश को ढुंढ़वाया। लाश को देखकर हीरासिंह खूब रोया। उसका सम्मान-पूर्वक दाह-संस्कार किया गया।

राज सुचेतसिंह की मृत्यु के बाद जवाहरसिंह कुछ दिन के लिए दब गया। किन्तु फिर भी पूरी शांति नहीं हुई थी। वह लाहौर में अपना वश न चलता देखकर अमृतसर चला गया। क्योंकि सुचेतसिंह लावारिस मरा था, इसलिए उसकी सम्पत्ति और जायदाद सिख कानून के अनुसार सिख-राज्य में शामिल कर ली गई। किन्तु अंग्रेजों ने बिना ही कारण इस मामले में हस्तक्षेप किया। सिख-दरबार को अंग्रेज सरकार की ओर से कहा गया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर दखल पाने न पाने का निबटारा ब्रिटिश अदालत में होना चाहिए। स्वाधीन राज्य के साथ अंग्रेजों की ऐसी लिखी-पढ़ी एकदम अनधिकार चेष्टा थी। सिख-दरबार ने इस हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया। फिर अंग्रेजी अदालत में विचार हुआ। अदालत ने फैसला दिया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर कब्जा कर लेने का सिख-साम्राज्य को अधिकार है। फिर हठी अंग्रेज कर्मचारियों ने सिख-दरबार को लिखा कि यदि सुचेतसिंह के भाई राजा गुलाबसिंह और भतीजा हीरासिंह अपनी मर्जी से यह सम्पत्ति महाराज दिलीप को देना चाहते हैं, तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन सिख-दरबार ने इस बेहूदी चिट्ठी का कोई जवाब नहीं दिया। आखिर सुचेतसिंह की जो सम्पत्ति अंग्रेजी इलाके में थी, उसे वे हड़प गए। करीब यह 15 लाख थी। इस बखेड़े के बाद खालसा पर हीरासिंहजी


1. केसरीसिंह ने घायल अवस्था में ही हीरासिंह से जयदेव कहकर पीने को पानी मांगा, किन्तु हीरासिंह ने यह अमानुषी उत्तर दिया कि - “पानी पहाड़ों में से पियो।”


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-312


का अच्छा असर पड़ा, क्योंकि इस बखेड़े में उसने बड़ी दिलेरी के साथ अंग्रेजी हस्तक्षेप का विरोध किया था।

जवाहरसिंह अमृतसर पहुंच कर हीरासिंह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगा। उसने अकाली भैया, बाबा और पुरोहितों तथा गुरुओं से मिलकर षड्यन्त्र की तैयारी की। इस कार्य में लालसिंह भी जो राजा ध्यानसिंह का प्रिय पात्र और हीरासिंह का मित्र था, शामिल हो गया। मित्र के प्रति विश्वासघात करने के लिए लालसिंह की पापी आत्मा ने जवाहरसिंह से सम्बन्ध स्थापित कर लिया। वैसे यह लालसिंह जल्ला पंडित का भी मित्र बन चुका था, पर कपट उसके हृदय में खेलता था।

माझा में एक व्यक्ति बाबा वीरसिंह नामक रहता था। उसने 1500 सवार इकट्ठे कर लिए थे। यह कहता फिरता था कि पंजाब की हुकूमत गुरु गोविन्दसिंह की है, दिलीपसिंह बच्चा है। हीरासिंह भी अयोग्य है। इस साम्राज्य के लिए खालसा को कोई अपना आदमी नियुक्त करना चाहिए। साथ ही सिन्धान वालों के पक्ष में प्रचार आरम्भ किया। इसी उद्देश्य से सब सरदारों को चिट्ठियां भी लिखीं। काश्मीरसिंह और पिशौरासिंह भी इस विद्रोह में शामिल हो गए, क्योंकि वे गुलाबसिंह के दुर्व्यवहार और हीरासिंह की चालाकी से जलते थे। लाहौर दरबार की ओर से इस दल को दमन करने के लिए फौजें भेजी गईं। घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भाई वीरसिंह, अतरसिंह सिन्धान वाला और काश्मीरसिंह मारे गए। कुंवर पिशौरासिंह घटना से एक दिन पहले लाहौर चले आए थे, इससे वे बच गए। हीरासिंह ने लाहौर में उनका बड़ा आदर-सत्कार किया था। उनकी जागीर वापस कर दी थी। हीरासिंह ने इस बनावटी आव-भगत से लाहौर में रहते समय तक पिशौरासिंह को यह न मालूम होने दिया कि युद्ध में सिन्धान वाले तथा काश्मीरासिंह आदि मारे गए हैं। अपनी वाक्-चातुरी, राजनैतिक बुद्धि से हीरासिंह ने अपने सभी विरोधियों का दमन कर दिया था। खालसा सेना पर भी काफी दिनों तक प्रभाव रक्खा, किन्तु वह समय भी धीरे-धीरे आने लगा, जब हीरासिंह के प्रति असन्तोष की मात्रा इतनी बढ़ गई थी कि उसका दमन न हो सका।

जल्ला, यद्यपि विद्वान् और राजनीतिज्ञ था, वह लाहौर के शासन में विदेशियों का हस्तक्षेप भी नाजायज समझता था, उसने कुछ यूरोपियन कर्मचारियों को भी अलग किया था, किन्तु वह भी गृह-युद्ध में एक पात्र बन गया। यों तो उसने अपने रूखे स्वभाव से सारे सिख-सरदारों को चढ़ा दिया था, किन्तु साथ ही वह महारानी झिन्दा की भी निन्दा किया करता था। आगे चलकर ऐसी अफवाह फैली कि जल्ला पंडित और हीरासिंह दीवान महारानी को व्यभिचार के हेतु अपने चंगुल में फंसाने के लिए उन्हें तंग करते हैं। फिर क्या था, खालसा सेना भड़क उठी। उसने जल्ला पंडित को मारने का निश्चय कर लिया। 18 दिसम्बर सन् 1844 को,


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एक दिन, रात के समय, राजा हीरासिंह दीवान और जल्ला पंडित लाहौर से भागने की तैयारी कर रहे थे कि उन्हें सेना ने गिरफ्तार कर लिया, और दोनों को मार डाला। हो सकता है कि इनके विरोधियों ने यह झूठी अफवाह फैलाई हो, किन्तु यह बात भी सही है कि महारानी झिन्दा इन दोनों ही से खुश न थी। जल्ला का सिर गली बाजार और मुहल्लों में घुमाया गया। फिर उसे कुत्तों को खिला दिया गया। जम्बू के राजा गुलाबसिंह के लड़के मियां सोहनसिंह का सिर मोरी दरवाजे पर और हीरासिंह दीवान का सिर लाहौरी दरवाजे पर टांग दिया गया। कुछ दिन के बाद इन सिरों को राजा ध्यानसिंह की हवेली में फेंक दिया गया।

हीरासिंह की मृत्यु के पश्चात् खालसा ने जवाहरसिंह को मन्त्री बनाया। खालसा और उनके सैनिकों को प्रसन्न करने के लिए जवाहरसिंह ने तोशाखाने के सोने के बर्तनों को गलवा कर कन्धे बनवाकर सिपाहियों में बतौर इनाम के बांट दिए, इसलिए खालसा के सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। पिछले कई वर्ष से गुलाबसिंह जम्बू ने खिराज देना बन्द कर दिया था। उसकी तरफ तीस करोड़ रुपये निकलते थे। इसलिए खालसा फौज ने जम्बू पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई में सरदार फतेसिंह काम आया। गुलाबसिंह इतना डरा कि हाथ जोड़कर खालसा के सामने हाजिर हुआ और अपने किए के लिए माफी मांगने लगा। तीन लाख रुपया उसने खालसा के सैनिकों में बांटा। इस तरह से खालसा सैनिकों ने अधिक उपद्रव नहीं किया और गुलाबसिंह को लाहौर ले आए। महारानी झिन्दा राजा गुलाबसिंह की खुशामद से प्रसन्न हो गई और उनकी यह भी इच्छा हो गई कि उनको दरबार का मन्त्री बना दिया जाए, किन्तु वह डरता था कि उसकी भी गति ध्यानसिंह और हीरासिंह की सी न हो, इसलिए उसने जम्मू जाना ही उचित समझा। महारानी ने उस पर छः लाख अस्सी हजार रुपया जुर्माना करके जम्बू जाने की आज्ञा दे दी और उसकी बहुत जागीर भी अपने राज्य में मिला ली। यहां से लौटने पर उसने पिशौरासिंह को मन्त्री जवाहरसिंह के खिलाफ उकसाया। जवाहरसिंह भी योग्य आदमी न था, शासन-सूत्र भी उससे चलना कठिन हो रहा था और उधर खालसा की शक्ति बढ़ी हुई थी। रणजीतसिंह के साम्राज्य का कर्त्ता-धर्त्ता खालसा ही था। खालसा जिसे चाहता था, राजा बनाता था और जिसे चाहता मन्त्री। जवाहरसिंह के कुछ एक कृत्यों से खालसा नाराज भी था। क्योंकि एक समय जवाहरसिंह ने महाराजा दिलीपसिंह को अंग्रेजों के पास ले जाने की धमकी दी थी। जवाहरसिंह ने अपनी बहन महारानी झिन्दा के परामर्श से बहुत वायदे करके खालसा को फौरन अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की इसलिए उस समय तो खालसा ने लाहौर आए हुए पिशौरासिंह की कोई मदद नहीं की और उसे अपनी जागीर में जाने को कह दिया। पिशौरासिंह ने लाहौर से चलकर पठानों की मदद से अटक को अधिकार में कर लिया और साथ ही अपने को पंजाब का राजा घोषित कर दिया ।


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सारे पंजाब पर अधिकार करने के लिए वह काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मदखां से लिखा-पढ़ी करने लगा। उसकी ऐसी कार्यवाही देखकर लाहौर से जकसर ने खालसा फौजें उसको दमन करने के लिए भेजीं। लेकिन खालसा ने पिशौरासिंह के खिलाफ लड़ने के लिए इनकार कर दिया। चूंकि वह अपने महाराज रणजीतसिंह के पुत्र पर हाथ उठाना नहीं चाहते थे, तब जवाहरसिंह ने सरदार चरतसिंह अटारी वाले को नौशेरा से और फतहखान बटाना को डेरा इस्माइल खां से पिशौरासिंह के दमन के लिए अटक भेजा। इन लोगों ने मुकाबले की हिम्मत न देखकर सुलह से काम लिया। बहुत सी चिट्ठी-पत्री के बाद निर्णय हुआ कि पिशौरासिंह किला खाली करके बाहर आ जाए तो महारानी झिन्दा से उसे कुछ रुपए की जागीर और दिला दी जाएगी। वह इन लोगों के दम दिलासे में आ गया और किला खाली करके बाहर निकल आया। लेकिन इन लोगों ने विश्वासघात करके उसे कैद कर लिया और गला घोंटकर उसका प्राणांत कर दिया। जब यह खबर लाहौर पहुंची तो जवाहरसिंह ने बड़ी खुशियां मनाईं और तोपों से सलामी दी गई और रात को रोशनी की गई। पिशौरासिंह की मृत्यु के उपलक्ष्य में, जवाहरसिंह द्वारा इस तरह खुशियां मनाए जाने पर खालसा सेना क्रोध से उत्तेजित हो उठी और उसने दूसरे ही दिन किले को घेर लिया। जवाहरसिंह खालसा की नाराजगी से घबरा गया, उसके सैनिकों को बहुत सा इनाम देने के प्रलोभन दिए, परन्तु उसने एक न सुनी। लाचार होकर अपनी बहन की सलाह से, बालक महाराज को साथ लेकर, खालसा सरदारों की सेवा में हाजिर हुआ। सैनिकों ने उसे देखते ही बिगुल बजाना शुरू कर दिया और जबरदस्ती उसे हाथी पर कस लिया। सैनिक इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने जवाहरसिंह की गोद से महाराजा दिलीपसिंह को छीन लिया और उसे संगीनों से छेद डाला और साथ ही उसके सलाहकार रतनसिंह और भाई जद्दू को कत्ल कर दिया। यह घटना 21 सितम्बर 1845 ई० की है।

महारानी के पास से भी बहुत सी नकदी और सोना ले लिया और महारानी को रात भर खेमों में रक्खा। वहां वह रात भर रोती रही। सवेरे उन्हें उनके भाई जवाहरसिंह की लाश दिखलाई। महारानी अपने भाई की मृत्यु से इतनी दुःखी हुई कि अपने सिर के बाल नोचने और अपने शरीर के कपड़े फाड़ने लग गई। बड़ी मुश्किल से लाश उनसे वापस ली गई जिसे भस्ती दरवाजे के बाहर जलाया गया। जवाहरसिंह के साथ उनकी दो रानियां और तीन दासी सती हुईं। रानी नित्यप्रति अपने भाई की समाधि पर जाकर रोती थी। खालसा के सरदारों ने बड़ी प्रार्थनायें और खुशामदें करके उन्हें प्रसन्न किया और यह तय हुआ कि जवाहरसिंह के हत्यारों को महारानी के सुपुर्द कर दिया जाएगा। राजा सुचेतसिंह का मंत्री जवाहरमल जो कि जवाहरसिंह के षड्यंत्र में शामिल था, महारानी के सुपुर्द कर


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दिया गया तथा कुछ और भी डोगरे राजदूत पकड़े गये। इन सबको रात के समय शहर छोड़ने की आज्ञा दी गई।

जवाहरसिंह के मारे जाने के पीछे पंजाब में पूरी अशान्ति छा गई। कोई भी संरक्षक न रहा। गुलाबसिंह और तेजसिंह से मंत्री होने के लिए कहा गया। लेकिन उन्होंने खालसा के डर की वजह से नामंजूर किया। उस समय पंजाब की मन्त्रित्व की कुर्सी तप्त तवे के समान थी। मंत्री वही हो सकता था जिसमें खालसा सेना को वश में रखने की शक्ति हो। समस्त पंजाब में उस समय कोई भी माई का लाल मंत्रित्व ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं दिखाई देता था। लाचार दशहरे के दिन महारानी Regend of State यानी प्रतिपालक नियुक्त हुईं और वे दीवान दीनानाथ, भाई रामसिंह तथा मिश्रलालसिंह आदि के परामर्श से राजकार्य चलाने लगीं। एक बार महारानी ने मंत्री पद के लिए पांच आदमियों के नाम की गोली डलवाई। गोली लालसिंह के नाम की निकली। लेकिन खालसा ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर भी महारानी ने लालसिंह को राजा की उपाधि दी और तेजसिंह को सेनापति बना दिया। लेकिन अन्तिम निर्णय खालसा के हाथ था। अब आगे वह हाल दिया जाएगा जिसमें सिख-साम्राज्य का, गृह-कलह के कारण, नष्ट होने का चित्र है।

सिख-साम्राज्य और अंग्रेज

अंग्रेज व्यापारी बनकर भारत में आए थे। लेकिन उन्होंने अपनी मक्कारी और भारतीय राजघरानों की विवेकहीनता के कारण सारे देश पर अपना अधिकार जमा लिया। महाराज रणजीतसिंह के समय में अंग्रेजी-कम्पनी के कर्मचारियों की इतनी हिम्मत न हुई कि वे पंजाब पर हाथ डालें। यदि महाराज रणजीतसिंह से अंग्रेजों की ठन जाती तो आज भारत का इतिहास दूसरी ही भांति लिखा जाता। महाराज रणजीतसिंहजी इस बढ़ते हुए अंग्रेज-शाही अजगर से शंकित न हों, सो बात नहीं। एक बार जब उन्हें एक अंग्रेज ने भारतवर्ष का नक्शा दिखाते हुए लाल रंग की भूमि को अंग्रेजी राज्य बताया तो उन्होंने बड़े अफसोस के साथ, दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए कहा था - हां ! एक दिन यह सारा लाल हो जायेगा, किन्तु वे भी भीतरी शक्तियों को वश में करने में लगे हुए थे, इसलिए कर क्या सकते थे। उस समय के अंग्रेज अधिकारी भी महाराज की गतिविधि का पूरा ख्याल रखते थे। वे महाराज के बढ़ते हुए वैभव को देखकर प्रसन्न होते हों सो बात नहीं। ज्यों ही उन्हें पटियाला, नाभा आदि को अपनी ओर मिलते देखा, त्यों ही उन्होंने महाराज को सतलज के पार बढ़ने से रोक दिया। किन्तु नैपोलियन, फ्रांसीसी तथा रूस के बादशाह के डर ने उन्हें इस बात के लिए बाध्य किया कि वे शीघ्र महाराज रणजीतसिंह से सन्धि कर लें। अपनी चतुरता, राजनीतिमत्ता से सन् 1808 ई० में उन्होंने


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सिख-साम्राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता महाराज रणजीतसिंह को अपना दोस्त बना ही लिया। महाराज जब तक जिन्दा रहे बड़ी इज्जत और दृढ़ता के साथ अंग्रेजों ने सन्धि को निभाया। यदि न भी निभाते तो वे कर क्या सकते थे। प्रकृति ने रणजीतसिंह को इसीलिए बनाया था कि उसके विरुद्ध होने वाले को सजा भुगतनी पड़े। एक बात यह भी थी कि रणजीतसिंह के भय से किसी भी सरदार जागीरदार की इतनी हिम्मत न होती थी कि वह गृह-कलह का बीज बो दे। भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशियों ने खास कर अंग्रेजों ने गृह-कलह से भारत में बड़ा लाभ उठाया है। पंजाब में भी यही हुआ। महाराज रणजीतसिंह के स्वर्गवास होते ही गृह-कलह आरम्भ हो गया। महाराज के अयोग्य पुत्र खड़गसिंह के समय में ही षड्यन्त्र होने लग गए थे। सबसे पहले इन षड्यन्त्रों में डोगरा राजपूत सरदार राजा ध्यानसिंह ने भाग लिया। यह सही है कि खड्गसिंह ने चेतसिंह जैसे निकम्मे और चरित्रहीन व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री बना कर गलती की, किन्तु ध्यानसिंह ने जो निराधार अफवाह उनके सिखों तथा स्त्री, पुत्रों में फैलाई, यह सर्वथा उसके अयोग्य थी। राजा ध्यानसिंह जिसे महाराजा रणजीतसिंह ने नाचीच से इतना बड़ा बनाया था, उसने सिख-साम्राज्य की हित-चिन्ता की अपेक्षा अपने मानापमान को अधिक समझा। केवल अपना स्थान और गौरव बनाये रखने के लिए उसने सब कुछ किया। उसने वे कृत्य किये, जिन्हें कोई भी राष्ट्र-हितैषी घृणित कह सकता है। हो सकता है कि नौनिहालसिंह की मृत्यु में उसका हाथ न रहा हो, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नौनिहालसिंह की मृत्यु के पीछे अवश्य ही उसके हृदय में दगाबाजी थी। नहीं तो क्या कारण था कि शेरसिंह को वह राज्य दिलाने के लिए उकसाता। सिर्फ इसीलिए कि शेरसिंह के राजा होने पर उसका मन्त्रित्व और गौरव रजिस्टर्ड हो जायेगा। इसके भाई सुचेतसिंह, गुलाबसिंह और पुत्र हीरासिंह सभी ने गृह-कलह में भाग लिया। गुलाबसिंह ने तो यहां तक धृष्टता की कि जम्मू को जो कि महाराज ने इसे सूबेदारी में दिया था, सिख-साम्राज्य से अलग ही करने की चेष्टा की।

कहा जा सकता है कि ये लोग गैर सिक्ख अथवा गैर जाट थे, किन्तु सबसे बड़ा पाप सिन्धान वालों ने किया जिन्होंने मंत्रीपद की प्राप्ति के लिए अपने जातीय नरेश और उसके बच्चे (महाराज शेरसिंह और कुं० प्रतापसिंह) को कत्ल कर दिया।

कुंवर काश्मीरासिंह, पिशौरासिंह, महारानी जिन्दा और उसके भाई खालसा तथा प्रान्तीय शासक सभी ने गृह-कलह में आहुति दी। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि खालसा ने गृह-युद्ध में भाग लिया सही फिर भी महाराज रणजीतसिंह के वंशजों के प्रति उसकी अपूर्व भक्ति रही। खालसा स्वतंत्रता-प्रिय दल था। वह यह कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि पंजाब का कोई भी अधिकारी तथा राज परिवारीजन


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अंग्रेजों के हाथों में पंजाब को सौंपने की कौशिश करे। खालसा को किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध भड़काने के लिए इतना कह देना काफी था कि अमुक व्यक्ति अंग्रेजों को पंजाब के शासक बनने में उकसाता है या सहायता देना चाहता है। महाराज खड़गसिंह से लेकर जवाहरसिंह तक सभी के विरुद्ध खालसा को इसी एक कुमंत्र ने कर दिया।

शासन के सूत्रधारों की परस्पर ईर्षा, राज्य-परिवार के सदस्यों का आपसी विरोध और खालसा की उद्दंडता के समय अंग्रेज भला कब तक चुपचाप बैठे रह सकते थे? वे तो ऐसे मौके की तलाश में थे ही। उन्होंने इस अवसर को हाथ से न जाने देने का निश्चय कर लिया। पंजाब-दरबार के विद्रोहियों को तो वे शरण देने लग ही गए थे, किन्तु शेरसिंह के पंजाब नरेश होते ही इन्होंने उन्हें लिखा कि हम उद्दंड खालसा को सबक देने के लिए बारह हजार सवारों के साथ तैयार हैं। बदले में तुम्हें सतलज के दक्षिण के इलाके तथा 40 लाख रुपया देना होगा। किन्तु शेरसिंह ने इस सहायता के लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया। लेकिन अंग्रेज निराश होने वाले न थे। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान स्थित अंग्रेज एजेण्ट मि० ऐवट ने घोषित किया कि अब से पंजाब से की हुई हमारी सन्धि भंग हो गई है और पेशावर को हम सिक्खों से छीन कर अफगानों को देंगे। यह अंग्रेजी मनोवृत्ति की पहली सूचना थी, जिसने एक बार में सिक्खों की आंखें खोल दीं। वे भौंचक्के हो गए। जिन अंग्रेजों को वे मित्र समझते थे, उन्हीं के एजेण्ट की ऐसी घोषणा! उन्होंने समझ लिया, निकट भविष्य में अंग्रेज उनसे झगड़ा करेंगे और अवश्य करेंगे।

यद्यपि सिख अंग्रेजों से शंकित रहने लगे थे, फिर भी उन्होंने अंग्रेजों की आपत्ति के समय रक्षा की। दोस्त मुहम्मदखां अमीर काबुल के बहादुर शाहजादे अकबरखां ने बालाहिसार में रहने वाले अंग्रेज-दूत मकनाटन तथा अनेक गोरे सैनिकों को विश्वासघात करके मार डाला। अकबरखां से बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की। सहायता के लिये लाहौर-दरबार से प्रार्थना की। महाराज शेरसिंह ने कुछ सैनिक भेज दिये। विजय हो जाने पर जो कि सिखों की वीरता से हुई थी, अंग्रेज जनरल ड्यूक ने लूट के समय सिख-सैनिकों को लूट करने से रोक दिया और अंग्रेजी सेना काबुल को लूटती रही। इस बात का भी सिखों पर बुरा प्रभाव पड़ा। वे अंग्रेजों की आन्तरिक भावना को ताड़ गये। साथ ही अंग्रेजों के मि० ब्रांडफुट साहब ने 1 अपनी सेना को सिख-राज्य में से अफगान ले जाकर अपनी-अंग्रेजों की उस प्रतिज्ञा को तोड़ दिया, जो उन्होंने 27


1. ब्रांडफुट ने सिखों के साथ और भी नटखटीपन यह किया कि कार्यवश आगे से निरस्त्र सिख सेना पर उन्होंने अपने सैनिकों को दौड़ाया और पेशावर पहुंच कर उन्होंने अटक नदी का पुल तुड़वा दिया। इस पर भी सिख शान्त रहे। फिर


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जून सन् 1838 को (शाहशुजा को काबुल की गद्दी पर बैठा कर वापस आते समय) अपनी फौज को सिख-राज्य में से ले जाते समय 'भविष्य में सिख राज्य में होकर अंग्रेजी सेना न ले जाने की थी।'

इन बातों के अलावा अंग्रेज सन् 1809 ई० की सन्धि के विरुद्ध भी आचरण कर रहे थे। उस समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि सिख-साम्राज्य के निकट छावनी नहीं बनायेंगे। पर पीछे अंग्रेज लोग इस प्रतिज्ञा को भूल गए, लाहौर के निकट ही लुधियाने में उन्होंने अंग्रेजी छावनी बना ली। इसके सिवाय नैपाल-युद्ध के पश्चात् सबथू में पुलिस रक्षा के बहाने पर, एक पलटन रक्खी - फिरोजपुर जो कि एक तरह से सिख साम्राज्य के अन्तर्गत था, अंग्रेजों ने उसे अपने राज्य में मिला लिया।1 वहां पर बारह हजार सेना रखते समय अंग्रेजों ने कहा था कि सेना यहां केवल एक वर्ष रहेगी, किन्तु एक क्या दो वर्ष पीछे भी सेना वहां से नहीं हटाई और स्थायी छावनी बनवा दी। ये ही क्यों, अंग्रेजों ने सिख-साम्राज्य के निकट अम्बाले तथा पहाड़ी भूखंडों में भी सैनिक टुकड़ियां रखकर छावनी बना दीं। सीमा प्रान्त में ढाई हजार से आठ हजार (लार्ड आकलैंड के समय में), चौदह हजार (लार्ड ऐडनवरा के समय में) और फिर बत्तीस हजार (लार्ड हार्डिंग के समय में) फौज बढ़ा दी गई। छः तोपों के स्थान पर 68 तोपें कर दी गईं। इसके सिवाय मेरठ में तोप और सेना की स्थापना कर दी गई। इतनी तैयारियों के देखने से सम्भवतः सिखों के हृदय में यह आशंका घर कर गई कि अंग्रेज यह तैयारी अपनी रक्षा के लिए नहीं, किन्तु सिख-साम्राज्य हड़पने के लिए कर रहे हैं।2

सिखों की आशंका को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों की ओर से नित नई घटनायें होती थीं। अफगान-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने बम्बई में सतलज का पुल बांधने के लिए तैयारी कर दी। पुल का सामान ढ़लने लगा और मुलतान पर आक्रमण करने के लिए सिंध में पांच सेना इकट्ठी होने लगीं। हालांकि अंग्रेजों ने सतलज का पुल



अफगान प्रजा को ब्रांडफुट सिखों के विरुद्ध उकसाने लगे। यही क्यों, सड़क पर चलते हुए कुछ सिख सिपाहियों को ही कैद कर लिया।

1. रणजीतसिंहजी के समय में फिरोजपुर विधवा तथा निस्सन्तान रानी लक्ष्मणकौर के अधीन था। महाराज रणजीतसिंह ने लक्ष्मणकौर के राज्य की उस समय रक्षा की थी जबकि उसे एक राज्य लोभी हड़प लेना चाहता था। इस प्रकार वह सिखों का रक्षित राज्य था।
2. इन बातों के अलावा सिखों के हृदयों में एक बात और भी सन्देह पैदा कर रही थी। वह यह कि कुं० नौनिहालसिंह के समय में कुछ अंग्रेजों ने यह प्रस्ताव किया था कि रणजीतसिंह के पौत्र के मरने के बाद पेशावर को पंजाब से अलग करके अंग्रेजों के दोस्त शाहशुजा को दे दिया जाए।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-319


बांधने तथा मुलतान पर आक्रमण करने की सूचना सिख-दरबार को नहीं दी थी, तथापि इन तैयारियों की खबर इतने जोर से फैली कि सिखों को भी इसकी सच्चाई में खास तौर से पूर्व व्यवहारों के कारण सन्देह न रहा।

अपनी स्वाधीनता के अपहरण होने के भय से जबकि सिख लोग इस प्रकार चिन्तित हो रहे थे, उन्हीं दिनों घोर सिख-विरोधी और महाक्रोधी तथा अविचारी मि० ब्राडफुट ने दो वर्ष पहले सिखों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति आशंका के अंकुर पैदा किये थे, उसी को एजेण्ट बना कर भेजना, सिखों की नजर में अंग्रेजों की भली नीयत का परिचायक न था। ब्राडफुट ने भी कार्य-भार संभालते ही “पटियाला, नाभा, आदि सतलज के पार के राज्यों को अंग्रेजों के रक्षित बताया और साथ ही यह भी प्रकट किया कि इन राज्यों के अधिकारी महाराज दिलीप की मृत्यु के बाद तथा उनके गद्दी से अलग होने पर अंग्रेजों के अधीन हो जायेंगे।” अंग्रेजी सेना की लगातार वृद्धि और अंग्रेज कर्मचारियों की बिना बात की छेड़छाड़ भला किस सिख के हृदय में क्रोध उत्पन्न न करती होगी? फिर भी सिख शान्त थे। वे सहनशीलता की हद कर रहे थे। मेजर ब्राडफुट के कमीनेपन की हद यहीं तक नहीं हुई। आपने उन सिख घुड़सवारों के ऊपर भी गोली चलवा दी जो कि पंजाब-दरबार की आज्ञा से, फिरोजपुर के पास सतलज को पार करके कटकपुरा नमक (सिख अधीनस्थ) स्थान को छुट्टी पर गये हुए सैनिकों की जगह पर जा रहे थे। सन् 1809 की सन्धि के अनुसार, वे सिख घुड़सवार फिरोजपुर के पास से सतलज पार कर सकते थे। किन्तु ब्राडफुट तो रार मचाने पर ही तुला हुआ था। उन सवारों के नायक ने बड़ी सहनशीलता से काम लिया, वरना उनकी भुजाओं में ब्राडफुट को दण्ड देने की शक्ति थी।1

मि० ब्राडफुट ने संग्राम रचने के साधनों में कोई कसर न छोड़ी। बम्बई में जिन नावों के बनाने की खबर पहले सिखों को मिली थी, वे ही नावें उसने घमंड के मारे एक बड़ी सेना के साथ फिरोजपुर की ओर मंगवाई। मानो वह सिखों को युद्ध की चेतावनी देना चाहता था। सिखों ने इन सब घटनाओं को देखकर भी सहन किया, किन्तु अंग्रेजों के छोटे-छोटे जहाज बिना रक्षक के सतलज के जल को चीरते हुए सिख-सीमा में चला करते थे। एक जहाज तो फिल्लोर किले के पास ही जहां कि सिखों की गगन-विदारी तोपें मौजूद थीं, लंगर डाले बहुत दिनों तक पड़ा रहा। सिखों को चाहिये तो यह था कि उसे तुरन्त किले के पास से हट जाने को कहते,


1. कुछ ऐतिहासिकों का मत है कि अंग्रेज सरकार इस झगड़ीले एजेण्ट की कार्यवाहियों से प्रसन्न न थी। लेकिन उसे रोका न गया। यह भूल अंग्रेज सरकार की भीतरी इच्छाओं पर दूसरा प्रकाश डालती है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-320


किन्तु उन्होंने तो उनके साथ सद्व्यवहार किया। कनिंघम सरीखे अंग्रेज ऐतिहासिकों ने स्पष्ट लिखा है कि मेजर ब्राडफुट के एजेण्ट बनने ही के कारण सिख-युद्ध बहुत ही शीघ्र सम्भावित हुआ।

अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। मूलराज के पत्र पाने पर ब्राडफुट ने जो आयोजन किया, वह उस जैसे अंग्रेजों की इच्छा की कलई खोल देता है। मुलतान के दीवान मूलराज ने लाहौर-दरबार को खिराज देना व उसकी आज्ञा मानना बन्द कर दिया था। इसलिए उसका दिमाग ठीक करने को लाहौर से सिख-सेना भेजे जाने की तैयारी होने लगी। उस समय मूलराज ने मि० ब्राडफुट को एक गुप्त चिट्ठी लिखने की कमीनी हरकत की। चिट्ठी का अभिप्राय यही था कि जब सिख-सेना मुलतान पर चढ़ाई करे तो अंग्रेज उसकी मदद करें। मेजर ब्राडफुट को चाहिए तो यह था कि इस चिट्ठी को वापस लौटा देता, क्योंकि अंग्रेजों की सिख-दरबार से मित्रता थी और मूलराज था सिखों का अधीनस्थ शासक। लेकिन ब्राडफुट ने अंग्रेज कर्मचारियों को समझाया कि बहुत संभव है सिख सेना अंग्रेजी साम्राज्य पर भी हमला करने की हिम्मत करे। इसलिए हमें अभी से सावधान हो जाना चाहिए और सिन्ध-विजेता मि० नैपियर को चिट्ठी लिख दी कि वह मूलराज की सहायता करे।

मि० नैपियर ब्राडफुट का भी चाचा निकला। सन् 1845 की गर्मियों में कुछ सिख सवार डाकुओं का पीछा करते हुए सिन्ध-प्रदेश की सीमा तक पहुंच गया। तब तक सिन्ध प्रदेश और पंजाब के मध्य अंग्रेजी-राज्य और सिख-राज्य की सरहद मुकर्रर न हुई थी। किन्तु फिर भी नैपियर ने यह दुहाई देकर कि सिख अंग्रेजी सीमा में घुस आए हैं, उन सवारों के पीछे अपनी फौज दौड़ाई। आगे चलकर वह खुल्लम-खुल्ला कहने लगा कि अब पंजाब पर हमला करना अंग्रेजों के लिए बहुत जरूरी हो गया है। इन दोनों अंग्रेजों के कृत्यों ने सिखों के हृदय में 'युद्ध होगा' की ध्वनि व्याप्त कर दी। इसके अतिरिक्त तत्कालीन अंग्रेजी समाचार पत्र 'सिख-युद्ध निकट भविष्य में होगा' की खबरें और टिप्पणियां प्रति सप्ताह देकर सिखों के हृदय में उथल-पुथल कर रहे थे। उन्हीं दिनों ब्राडफुट ने एक अन्याय पूर्ण कृत्य और कर डाला। उसने लुधियाने के पास के दो सिख प्रदेशों को अंग्रेजी-राज्य में मिला लिया। इस अन्धा-धुन्धी का कारण बताया गया कि इन स्थानों में अंग्रेजी-राज्य के अपराधी जाकर छिप जाते हैं। यदि यह बहाना सच भी हो तो भी सन्धि-पत्र के विरुद्ध था। मित्र-राष्ट्रों में ऐसे अपराधियों को पकड़ने के लिए जो साधन काम में लाए जाते हैं, वे ही यहां भी लाने चाहिए थे। स्वाधीन सिख-राष्ट्र के साथ एक अदना अंग्रेज कर्मचारी ने जो धृष्टता की थी, अंग्रेज सरकार को चाहिए था कि वह उसका प्रतिकार करती, उन प्रदेशों को लौटा देती। किन्तु यह कुछ भी न हुआ। अब सिखों को सोलहों आना विश्वास हो गया कि इसी भांति सारे सिख-


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साम्राज्य को अंग्रेज हड़प लेंगे। सिखों की भुजा दुर्बल न थी। अस्त्रों में भी जंग न लगा था। केवल सन्धि-मात्र के लिहाज से वे इतने दिनों तक अंग्रेजों की कुचेष्टताओं को बर्दाश्त कर रहे थे?

इधर सिक्खों का खून उबल रहा था, उधर सिक्ख-साम्राज्य में देशद्रोहियों की कमी न थी। उनकी इच्छा थी कि सिक्ख सेना शक्तिहीन हो जाए, कारण कि सिक्ख-साम्राज्य की बागडोर सिक्ख-सेना-खालसा के अधिकार में थी। खालसा जिसे चाहता, उसे मन्त्री बना देता था। मन्त्री लोग निरंकुशता चाहते थे। स्वयं महारानी जिन्दा भी खालसा से भयभीत थी। खजाना खाली था। सैनिकों को वेतन भी समय पर न मिल रहा था। कोई-कोई सिक्ख सरदार कहते थे कि हमें शेरसिंह के लड़के को गद्दी पर बिठाना पड़ेगा। इन्हीं कारणों से पंजाब के मन्त्री और महारानी चाहते थे कि खालसा का ध्यान दूसरी ओर बंट जाए। निदान यही उचित समझा गया कि अंग्रेजों से खालसा को भिड़ाया जाए। खालसा के सरदार इतने मूर्ख न थे कि वे यों ही किसी के बहकाने में आ जाते, किन्तु अंग्रेजों के कृत्य उन्हें पहले से ही उत्तेजित कर रहे थे। वे महाराज रणजीतसिंह की संचित की हुई जाटशाही अथवा सिक्ख-साम्राज्य को सहज में ही नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। चूंकि गोला-बारूद की कमी थी, इसलिए लड़ाई कुछ दिनों के लिए टलती रही। लाहौर से हटाकर दरबार अमृतसर में होने लगा। बेगम बाग के राजभवन से राजकीय सूचनायें प्रकाशित होती रहती थीं। सन् 1845 के नवम्बर में दरबार फिर लाहौर आ गया और उसके अधिवेशन शालीमार बाग में होने लगे। खालसा को उत्तेजित करने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ झूठी अफवाहें भी उड़ाई जाने लगीं। कभी कहा जाता अंग्रेज सेना सतलज के दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ रही हैं। कभी उन प्रान्तों के सिक्ख शासकों की नकली चिट्ठियां दिखाई जातीं। यह सब प्रचार इस ढ़ंग से किया जाता था कि सिख सेना का खून उबल पड़े। लाहौर अंग्रेजों के आने के भय से सशंकित हो गया। घरू शत्रुओं की ओर से भी वही किया जा रहा था जिसे अंग्रेज चाहते थे। अंग्रेजों ने यदि युद्ध के लिए आग जलाई थी, तो घरू दुश्मनों - लालसिंह, तेजसिंह जैसे नमक हरामियों ने उसमें आहुतियां दीं।

नवम्बर सन् 1845 में लालसिंह ने खालसा सरदारों तथा समस्त सिक्ख पंचायतों का एक संयुक्त अधिवेशन किया। शालीमार बाग में यह ऐतिहासिक अधिवेशन किया गया था। आरम्भ में दीवान दीनानाथ ने एक चिट्ठी पढ़कर सुनायी जिसमें लिखा था कि सतलज पार के इलाकों में अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत कायम कर ली है। वे सिक्ख प्रजा से कर मांगते हैं और उसे तंग करते हैं। काश्मीर और पेशावर के शासक बागी हो गए हैं। वहां से राजस्व-कर के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं मिली है। समस्त सिक्ख साम्राज्य में अराजकता का बोलबाला है।


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आपके महाराज बालक हैं। सिक्ख जाति अपने कर्त्तव्य को स्वयम् पहचानती है। आज सिक्ख-साम्राज्य के ऊपर आपत्ति के काले बादल मंडरा रहे हैं। इस लम्बी स्पीच के बाद दीनानाथ ने महारानी जिन्दा, मंत्री लालसिंह, सेनापति का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि - “हे सिक्ख वीरो ! विदेशियों द्वारा पंजाब का पवित्र सिक्ख-राज्य क्रमशः लुट रहा है। अब तुम क्या करना चाहते हो?” इस पर सिक्ख-सेना के महावीर वीरों ने उत्तर दिया - “हम हृदय का रक्त बहाकर, मातृभूमि की स्वाधीनता अटल रखेंगे।”

जब कि सिक्ख-सेना में ऐसी प्रबल युद्धाग्नि जल रही थी, उसी समय गवर्नर जनरल ने अंग्रेजी राज्य की सीमा पर जहां से कि सिक्ख-राज्य निकट ही था, दलबल सहित डेर आ जमाए। बस, फिर क्या था, सिक्खों ने समझ लिया कि अब देर करना अपने लिए हानिकर होगा। युद्ध के लिए तैयारी होने लगी। लाहौर युद्ध की प्रतिध्वनि से गूंज उठा। सिक्ख लोग महाराज रणजीतसिंह जी की समाधि पर इकट्ठे हुए। खालसा के समस्त सरदारों और पंचों ने ग्रन्थ-साहब तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों को छू कर शपथ ली कि हम महाराज दिलीपसिंह के राज-भक्त रहेंगे और युद्ध में लालसिंह तथा तेजसिंह की आज्ञा पालन करेंगे।

सन् 1845 ई० की 17वीं नवम्बर को सिक्ख-दरबार की ओर से निम्नलिखित चार कारणों का हवाला देकर अंग्रेजों के प्रति युद्ध की घोषणा कर दी गई - (1) अंग्रेजों ने अपने सेना दल को पहले सतलज की ओर बढ़ाया है और लड़ाई करने की तैयारी की है, (2) फिरोजपुर के अंग्रेजी खजाने में राजा सुचेतसिंह का अठारह लाख रुपया जमा है, उसे दरबार के मांगने पर अंग्रेज कर्मचारियों ने देने से इनकार कर दिया है, (3) मृत राजा सुचेतसिंह की सम्पत्ति पर लाहौर दरबार का स्वत्व है, (4) सतलज के दक्षिण खालसा के अधीन जो स्थान हैं, उन में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने सिक्ख-सेना को आने-जाने से रोक दिया है।

चेलैंज दे दिया गया। दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। फ्रांसीसी नैपोलियन को कैद कर लेने, भारतीय मरहठों को मटियामेट कर देने, राजपूती-रज्जु का बल निकाल देने के पश्चात्, अंग्रेज सैनिक और सेनापतियों का दिमाग आसमान पर चढ़ा हुआ था। उनसे पठान कांपते थे, गोरखे पानी भरते थे और बिलोच बलैयां लेते थे। अब बाकी थे तो केवल गुरु के लाड़ले, रणजीत के बहादुर जाट, जननी के सपूत और खालसा के वीर सिपाही सिक्ख। अंग्रेज सिक्ख-सैनिकों के बल को नापना चाहते थे। उनके दिल में बहुत दिनों से ख्वाहिश थी। ये मौके की तलाश में थे। देशद्रोहियों की कृपा से उन्हें मौका भी शीघ्र ही मिल गया। इधर सिक्ख-वीरों के मन में भी अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर लेने की लगी हुई थी, क्योंकि उनकी भुजाओं में भी वह बल था, जिससे राजपूत उनके नरेश पर चंवर करते थे, गोरखा गुफाओं में गुजर करते थे और पठान मांगते थे पनाह (शरण)।


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उन्हें अंग्रेजों से तनिक भी भय न था, चूंकि उन्हें मालूम था, भरतपुर में उनके थोड़े से ही भाइयों ने उनको नाक चने चबा दिए थे। किन्तु सिख-जाटों को, खालसा को - यह कब मालूम था कि भरतपुर की भांति गृह-कलह उन्हें भी नीचा दिखाना चाहता है।

युद्ध

1845 की 17वीं नवम्बर को युद्ध की घोषणा हुई थी और 11वें दिसम्बर को सिक्ख सेना सतलज के पार उतर आई। सतलज पार आने के पश्चात् 16वीं दिसम्बर को अंग्रेजों को अपने आगमन की सूचना दी। अंग्रेज पहले से ही सावधान थे। वेलिंगटन के ड्यूक विलायत से पहले ही भारत आ चुके थे। ड्यूक ने नैपोलियन को जीता था, इससे उनका सम्मान तथा दिमाग बहुत बढ़ा हुआ था। अंग्रेजों की भारत-स्थिति सेना के जनरल सेनापति मि० गफ ने इस युद्ध का भार ड्यूक के सुपुर्द कर दिया। अंग्रेजों ने भी सिक्खों की घोषणा का उत्तर घोषणा द्वारा ही दिया। कारण चाहे जो रहे हों, किन्तु उन्होंने कलंक के भागी सिक्खों को ही ठहराया। उनकी घोषणा का भाव इस प्रकार था -

  • सिक्ख-सेना ने बिना कारण अंग्रेजी-राज्य पर हमला किया है। इसलिए ब्रिटिश-राज्य का सम्मान अटल रखने के लिए सन्धि भंग करने वालों को उचित शिक्षा देनी पड़ती है। अब से सतलज के बाईं ओर के प्रदेश जो महाराज दिलीपसिंह के अधीन हैं, ब्रिटिश-राज्य में सम्मिलित समझे जायेंगे।

अंग्रेजों ने केवल घोषणा ही सिक्खों से पीछे प्रचारित की थी। युद्ध की तैयारी तो पहले से ही कर रक्खी थी। अम्बाले से सतलज तक 32479 सैनिक पहले से ही उपस्थित थे। सिक्ख-दरबार की समस्त खबरें उन्हें प्रति-क्षण मालूम होती ही रहतीं थीं। ज्यों ही उन्होंने सुना कि सिक्ख फौजें लाहौर से चल पड़ी हैं, त्यों ही अम्बाला, लुधियाना और फिरोजपुर के अंग्रेजों ने अपनी-अपनी सेनायें रवाना कर दीं। कहा जाता है अंग्रेजों की सेना में सत्तरह हजार सैनिक और 69 तोपें थीं। अंग्रेज इतिहासवेत्ताओं ने सिक्ख सेना की संख्या 25-26 हजार और किसी-किसी ने 30 हजार तक लिखी है। किन्तु मि० कनिंघम ने अपने इतिहास में लिखा है कि शत्रु की सेना को अपने से अधिक बताने में लड़ने वाले अपनी प्रशंसा समझते हैं।

सेना चाहे सिक्खों की अंग्रेजी सेना से अधिक रही हो या बराबर, किन्तु इसमें सन्देह नहीं, उन्होंने अंग्रेजों की सारी शेखी को धूल में मिला दिया था। कारण कि वे इस समय भारी उत्साह में थे। प्रत्येक सिक्ख इस युद्ध को अपनी स्वाधीनता का युद्ध समझता था। वह अपनी मां की आन के लिए अपना जीवन अर्पण करना चाहते थे। खालसा-सेना के सैनिकों ने इस समय अपने व्यक्तिगत मान-अपमान को झुका दिया था। वे प्रसन्नतापूर्वक छोटे-बड़े सभी कामों को खुद अपने आप करते


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थे। घोड़ों के बदले उन्होंने स्वयं ही तोपें खींची थीं। कुलियों के अभाव में, गाड़ियों पर अपने हाथ से रसद का सामान लादा था। नावों पर अपने ही आप सामान लादा था और अपने ही आप उसे उतारा था। प्रत्येक कार्य को बिना किसी की आज्ञा की बाट देखे वे स्वयं करते थे।

उत्साह और देश-प्रेम से इस भांति मतवाली खालसा-सेना को भी अंग्रेज उपेक्षा की दृष्टि से देख रहे थे। यद्यपि अफगान-युद्ध में उन्होंने सिक्खों के युद्ध कौशल का अद्भुत साहस देख लिया था, खुद उन्हें कभी सिक्खों के भुजबल का सामना नहीं करना पड़ा था। अंग्रेज समझते थे कि सिक्ख घमंडी हैं। वे इतने वीर नहीं हैं कि युद्ध-क्षेत्र में हमारे सामने ठहर सकें। हमारी सेना के थोड़े से ही हिन्दुस्तानी सिपाही तथा गोरे उन्हें मार भगायेंगे। साथ ही अंग्रेजों को पता था कि खालसा-सेना सेनापति विहीन है। उसके संचालक हमारा साथ देंगे। इसलिए अंग्रेजों ने उन पर्वत-विदारी सिक्ख महावीरों का सामना करने को खिलवाड़ समझकर केवल 17 हजार सैनिक और 69 तोपें लेकर युद्ध-भूमि में पदार्पण कर दिया था। अंग्रेज कहते थे कि हम देखते ही देखते हिन्दुस्तानी भेड़ों को भगा देंगे। केवल सेना सहित एक बार उनको आकाश हिलाने वाली ब्रिटिश तोपों की गर्जन सुनानी है। गोरे लोगों के लाल चेहरे देखते ही सिक्खों की अकल ठिकाने आ जाएगी। उनकी सेना के हमारे थोड़े से सिपाही धुर्रे उड़ा देंगे।

किन्तु रणभेरी बजते ही सेनापति वेलिंगटन के ड्यूक को विलक्षण अनुभव हुआ। वह अचकता कर देखने लगा कि भारत उसकी केवल-कल्पित भावनाओं के विरुद्ध सच्चे सिंहों की जन्मभूमि है। प्रत्येक सिक्ख नेपोलियन की प्रतिमूर्ति है और अनन्त वीरता के साथ मातृभूमि के लिए हृदय का रक्त बहाने का अति पवित्र उछाह इन अकालियों की नस-नस में घुसा हुआ है। बेचारे अपनी पूर्व-संचित प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए ईश्वर को याद करने लगे।

खालसा वीरों की वीरता और उत्साह में कुछ भी कसर न थी, कसर तो उनके कमीने और पाजी सेनापतियों की थी। जाटशाही अथवा सिक्ख-साम्राज्य की रक्षा के लिए सिक्ख-सैनिक सर्वस्व गंवाने को उद्यत थे। किन्तु उनके सेनापति लालसिंह और तेजसिंह का उद्देश्य तो उन्हें अंग्रेज सेना से पिटवा कर सीधा करने का था। वे कब चाहते थे कि खालसा के वीर सैनिकों की विजय हो, पंजाब का गौरव रहे। वे अंग्रेजों की सहायता से पंजाब पर शासन करने के इच्छुक थे। दुःख है राजमाता जिन्दा भी इन कुचक्रियों के षड्यंत्र में फंसी हुई थीं। लालसिंह और तेजसिंह आदि हजार अयोग्य होते हुए भी पंजाब में उच्च स्थान प्राप्त करना चाहते थे। पंजाब की रक्षा के लिए लड़कर नहीं, केवल खालसा को तबाह करके। क्योंकि प्रचंड खालसा सेना की महिमा प्रेरित स्वदेश हितैषिता से उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं होता था। अपनी कल्पित इच्छा को पूरी करने के लिए महाराज रणजीतसिंह


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के राज्य की नींव रूपी इस संसार प्रसिद्ध सेना को नीचा दिखाने में ये दुष्ट तनिक न चूके। जितने दिन इतिहास रहेगा, जितने दिन मनुष्यों में घृणा रहेगी, उस अनन्तकाल तक इन मनुष्य-चर्म युक्त सर्पों को घृणा की दृष्टि से देखती रहेगी। इन्हीं की साजिश से महाराज रणजीतसिंह के अपरिमिति बलवीर्य से संचय किया हुआ विशाल जाट-साम्राज्य जो कि संसार के नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करने वाला था, मिट्टी में मिल गया। गुरु के बांके वीर सब कुछ बलिदान करके भी उसकी रक्षा न कर सके।

सिक्ख सैनिक जिस उत्साह से इस युद्ध में सम्मिलित हुए थे, उनके प्रति उतना ही विश्वासघात का परिचय उनके सेनापतियों ने दिया था। सिक्ख-सेना के सतलज के इस पार आते ही सेनापति लालसिंह ने अंग्रेज एजेण्ट मि० निकलसन को एक गुप्त पत्र लिखा - “आप जानते होंगे मैं अंग्रेजों का मित्र हूं। मैं सिक्ख सेना समेत सतलज पार उतर आया हूं। अब कहिए मुझे क्या करना चाहिये?” इसका उत्तर निकलसन ने यह दिया - “यदि आप अंग्रेजों के मित्र हैं तो फिरोजपुर पर आक्रमण मत कीजियेगा। जितने दिन की देरी हो सके, उतनी देरी कीजिए और जैसे बने, वैसे अपनी सेना को गवर्नर-जनरल के सामने ले जाइयेगा।” लालसिंह ने गुलाम की भांति इस आज्ञा को माना। फिरोजपुर बच गया। उस समय फिरोजपुर में केवल आठ हजार सेना थी। लालसिंह तथा तेजसिंह - ये दोनों यदि एक मते से अंग्रेजी हित के लिए सिक्खों का अनिष्ट कराने पर तुले न होते और सिक्ख-सेना को फिरोजपुर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे देते, तो बिना निश्चय अनायास ही फिरोजपुर के धर्रे उड़ जाते। फिरोजपुरी फौज का सर्वनाश होने से तथा लुधियाने और अम्बाले पर एक ही समय में आक्रमण करने से विजय-श्री निसन्देह सिक्खों के पक्ष में होती। किन्तु इन सेनापतियों का अभिप्राय तो अंग्रेजी सेना से खालसा सेना को भस्म करा देना था। सिक्ख-सेना आक्रमण करने के लिए सेनापतियों से बार-बार आज्ञा प्रदान करने के लिए आग्रह करती थी। किन्तु उसके कलंकी सेनापति केवल उसकी सामयिक प्रसन्नता के लिए कहते रहे - “हम अंग्रेजों के प्रधान सेनापति से लड़ना चाहते हैं। किसी दूसरे से लड़ना अपनी बेइज्जती मानते हैं। यदि तुमने गवर्नर-जनरल को पकड़ लिया या मार डाला तो इससे तुम्हारे खालसा की कीर्ति विश्वव्याप्त हो जायेगी।” बेचारे भोले-भाले सिक्ख-सैनिक उनके झांसे में आ गए। अंग्रेज इतिहासकार सर चार्ल्स नैपियर की “चिट्ठी-पत्री” से मालूम होता है कि विश्वासघाती लालसिंह सिक्ख-सेना को फिरोजपुर के आक्रमण से न रोकता और उसके बाद ही आठ हजार सेना मात्र से रक्षित गवर्नर जनरल हार्डिंग पर हमला कर देता तो अवश्य ही अंग्रेज हारते।1 लाडलो साहब के इतिहास से भी


1. (Sir Charles Napiers Correspondence Vol IV P. 669)


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-326


मालूम होता है कि इन दोनों आक्रमणों के हो जाने के बाद सिक्ख सेनापतियों के हजार विश्वासघात करने पर भी अंग्रेज लोग अपने सर्वनाश से कदापि अपनी रक्षा न कर सकते।2 एक और इतिहासकार ने लिखा है - यदि इस समय रणकौशली रणजीतसिंह जीवित होते तो सतलज पार करके अंग्रेजी प्रदेशों में लूट-मार मचा देते। इसी हेतु से अंग्रेजों को सन्धि के लिए छटपटाना पड़ता। मकग्रेगर ने सिक्खों के इतिहास में लिखा है - यदि लालसिंह सिख-सेना को एक स्थान में आवद्ध न रख कर इधर-उधर फैला देता तो उस दशा में भी इस लड़ाई के शान्त होने में बड़ी देर लगती। किन्तु देशद्रोही लालसिंह ऐसा काम करने वाला न था जिसमें खालसा की मान-मर्यादा रह जाती और भारतीय युद्धवीरों की उज्जवल कीर्ति में बट्टा न लगता !

निदान सन् 1845 ई० की 18वीं दिसम्बर को मुदकी नामक स्थान पर सिख और अंग्रेजों का युद्ध छिड़ गया। प्रायः 11 हजार अंग्रेजी सेना के मुकाबले में 2 हजार सवार 8-9 सौ पैदल सिख सिपाहियों को भिड़ा कर लालसिंह ने विश्वासघात करना आरम्भ कर दिया। फिर भी सिख वीर 'सत श्री अकाल', 'वाह गुरुजी का खालसा' और 'वाह गुरुजी की फतह' से आकाश को गुंजाते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिए अंग्रेजों पर अग्नि-वर्षा करने लगे। चतुर अंग्रेज सेनापतियों द्वारा संचालित अंग्रेज-सेना ने भी बड़ी तैयारी के साथ मोर्चा लिया। मुगल, पठान, मरहठे, यहां तक कि यूरोप के दुर्द्धर्ष वीर फ्रान्सीसियों को सिंह-विक्रमी अंग्रेजों का लोहा मानना पड़ा था, किन्तु आज उन्हीं के मुकाबले में सिखों ने वह भीम-विक्रम दिखाया कि अंग्रेजों के प्रधान सेनापति गफ आश्चर्य के साथ देखने लगे कि सिख-सेना में सेनापति नहीं है, केवल लड़ाके सैनिक अड़े हुए हैं। लड़ाई की आज्ञा देने वाला और समय-समय हर पैंतरे बदलने का संकेत करने वाला नहीं है, फिर भी सिपाही मर मिटना चाहते हैं। वे इस भयंकरता से युद्ध करते हैं कि प्रत्येक आक्रमण में अंग्रेजी सेना के दिल दहला देते हैं और अंग्रेज सैनिकों को पीछे भाग-भागकर जान बचानी पड़ती है। अंग्रेज सिपाहियों को पुनः-पुनः युद्ध-स्थल में उपस्थित करने में अंग्रेज सेना-नायकों को बड़ी-बड़ी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। सिखों की अपूर्व स्फूर्ति से अंग्रेज सैनिक मोहित हो गए। कहा तो यहां तक जाता है कि उनमें सिखों की मारकाट से इतनी घबराहट पैदा हुई कि वे आपस में ही अपने साथियों पर घबराहट में गोली चलाने लग गए। इस गड़बड़झाले से बचने के लिए अंग्रेज सेनापतियों को आज्ञा देनी पड़ी कि अंग्रेजी सेना संगीन तानकर सिख सेना पर हमला कर दे। अंग्रेजी सेना ने प्रचण्ड वेग के साथ संगीन तानकर सिखों पर आक्रमण किया। इस समय सिख क्या करते, इस कर्त्तव्य को


2. (History of British India Vol. II P. 142)।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-327


उनका सेनापति ही बता सकता था, किन्तु हरामी सेनापति तो सबसे पीछे आराम कर रहा था। फिर भी वीर सिख सैनिक भागे नहीं। अस्वाभाविक वीरतापूर्ण धीरता से अंग्रेजी सेना के सम्मुख अपनी छाती तानकर क्रमशः (बचाव के लिए) पीछे हटने लगे। इस संकट-काल में भी वे तितर-बितर न हुए। ढ़ाई कोस तक व्यूह के ज्यों के त्यों रूप में पीछे हटे। यही क्यों, पद-पद पर अपनी प्रचण्ड वीरता की अग्नि का अंग्रेजों को अनुभव कराया। सभी देशों के इतिहास में यह अपूर्व घटना है कि सेनापति-हीन सेना ने इस भांति शत्रु का सामना किया हो। आखिर रात्रि हो गई और उस दिन का युद्ध खतम हुआ। आज के युद्ध में 872 आदमियों को बलि चढ़ाकर अंग्रेजों ने सिखों की 17 तोपों पर कब्जा किया। प्रसिद्ध अंग्रेज वीर सर राबर्टसेल और सेनापति कसकिल सिखों की कृपाण की धार से सदा के लिए मैदान में सो गए। सिखों की हानि अंग्रेजों से बहुत थोड़ी हुई। अंग्रेज अभिमानपूर्वक नहीं कह सकते थे कि मुदकी के मैदान में उनकी विजय हुई। उस दिन रात में अंग्रेजों ने यह काम किया कि कुल सेना को लिटलर की सेना में मिला दिया।

अंग्रेजों को भारत में अनेक युद्ध करने पड़े थे। सभी युद्धों में शत्रुओं के व्यवहार की, जो उनके साथ हुआ, घोर निन्दा की है। सिराजुद्दौला की कालकोठरी के सम्बन्ध में तो उन्होंने सदैव के लिए उसकी यादगार अमिट कर दी है। उन्हीं अंग्रेजों को अपने सिख शत्रुओं के व्यवहार की जो उनके साथ युद्ध में सिखों की ओर से हुआ था, मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करनी पड़ी है। एक दो घटना अंग्रेज इतिहासकारों की कलम से लिखी हुई हम यहां उद्धृत करते हैं -

लेफ्टिनेण्ट विडलफ को मुदकी युद्ध में सिख-सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया। जब उसे नायक के सामने पेश किया गया तो उसने विडलफ की उदारतापूर्वक बेड़ियां कटवा दीं और हंसते-हंसते यह कहकर छोड़ दिया कि “शत्रुओं से हम यहां बदला नहीं लिया करते हैं। आप अपनी सेना में बिना बखेड़े पहुंचकर लड़ने के लिए तैयार हो जाइए। युद्ध-क्षेत्र में बदला लिया जाएगा।” एक सिख सिपाही अफसर की आज्ञा से उसे अपने दल से पांच कोस की दूरी पर जाकर छोड़ आया। सिक्खों के ऐसे उदार व्यवहार से लार्ड हार्डिंग पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने विडलफ को फिर सिखों के विरुद्ध लड़ाई में नहीं जाने दिया। मुदकी की लड़ाई के बाद एक बार और कुछ अंग्रेज सैनिक रास्ता भूलकर सिखों की छावनी में जा पहुंचे। उनके साथ भी सिखों ने सद्व्यवहार ही किया। यहीं तक नहीं, किन्तु उन्हें राह खर्च के लिए एक एक रुपया भी दे दिया। वे सिखों की प्रशंसा करते हुए अपने दल में जा पहुंचे। दलित शत्रुओं के साथ भी ऐसा सुन्दर व्यवहार किसी अन्य जाति के इतिहास में शायद ही मिले।

फीरोजपुर में लिटलर की अध्यक्षता में आठ हजार सेना थी। वह युद्ध के लिए


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तैयार होकर आ रही थी। 21 दिसम्बर को मि० गफ ने अपनी सेना को उसी सेना में मिला दिया। इस तरह अब अंग्रेजी सेना की संख्या 18 हजार हो गई। इस सेना के साथ 65 तोपें थीं। इस प्रकार विराट आयोजन करके अंग्रेजी सेना फिरोजपुर शहर पर आक्रमण करने को चली। इस युद्ध के लिए कितनी प्रबल तैयारी की गई थी, उसका पता इस बात से चल जाता है कि समस्त अंग्रेजी-भारत के शासनकर्ता लार्ड हार्डिंग खुद भी अपने ऊंचे पद की परवाह न करके लड़ने को तैयार हुए और अपनी सेनायें मि० गफ को समर्पित करके उनके नीचे सेनाध्यक्ष बन गए। यह भी अंग्रेजी इतिहास में (भारत में) नई बात थी, जिसे लार्ड हार्डिंग ने अपनी सेना का उत्साह बढ़ाने की गर्ज से घटित किया था।

मुदकी के पश्चात् फिरोजपुर शहर में रणचंडी का ताण्डव नृत्य हुआ। सिख वीर भी अदम्य उत्साह से इस युद्ध में सम्मिलित हुए। विजय प्राप्त करना अथवा समर-क्षेत्र में रणचंडी को प्रसन्न करने के लिए आत्मबलि देना उनका उद्देश्य था। इसलिए उन्होंने कठिन व्यूह की रचना की। अंग्रेजी सेना पहाड़ सदृश सिख-व्यूह पर टूट पड़ी। जिस अग्नि-वर्षा को करती हुई ब्रिटानियां की वीर संतान सिखों के ऊपर झपटने लगी, उस समय का दृश्य बड़ा ही भयानक था। किन्तु बार-बार धावा करने पर सर्वग्रासी अंग्रेजी सेना सिखों का बाल भी न उखाड़ सकी। अंग्रेजी सेना ने जितनी बार हमले किए, उसे हानि उठानी पड़ी। अंग्रेजों को इससे पहले कभी भी किसी एशियाई लड़ाई में इतना बेइज्जत नहीं होना पड़ा था। सिखों की अग्नि-वर्षा से अंग्रेजों की तोपें नष्ट होने लगीं। रसद से भरी हुई गाड़ियां ध्वंश कर दी गईं। बारूद के ढ़ेर में तोप के गोले से आग लगाकर सिखों ने अंग्रेजी सेना में हाहाकार मचवा दिया। फिर भी अंग्रेजी सेना इस विपत्ति से तनिक भी विचलित नहीं हुई। उसने रणक्षेत्र से पीठ न दिखाई। अंग्रेजों ने पीठ न दिखाई पर सिखों के अनन्त भुजबल से उनकी स्वाभाविक धीरता तथा ब्रिटिश सेनाओं की जगत् प्रसिद्ध सुदृढ़ श्रंखला में इतना बट्टा लगा कि शायद ही किसी और लड़ाई में भारत-विजयी अंग्रेजों को इतनी विपत्ति झेलनी पड़ी होगी। सिपाही, अफसर, घुड़सवार, पैदल, कुली, गोलन्दाज सब निज-निज स्थान से विचलित होकर घिर गए। गोलियां चलाई जाती हैं पर छोड़ने वालों को पता नहीं है किधर किन पर चला रहे हैं? गोले दगते हैं, किन्तु गोलन्दाजों की शत्रु-सेना की ओर लक्ष्य करने की शक्ति खत्म हो गई है। अफसर लोग इधर-उधर फिरते तो हैं किन्तु हानि अपनी हो रही है अथवा शत्रु की, इसे तत्काल जान लेने की बुद्धि निकम्मी हो गई है। सेनापति हुक्म देना चाहता है पर हुक्म किसे दें, किससे वह तामील हो, इसी विचार में उनके माथे से पसीना टपक रहा है। इसी घबराहट के कुअवसर में रात्रि आई। किन्तु सिखों से इस रात्रि के अन्धकार में भी निस्तार नहीं मिला। सिख लड़ना और लड़ के मरना ही जानते हैं। लड़ाई के आरम्भ से खेत में सो जाने तक थकावट उन्हें क्यों


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आने लगी। खालसा सेना ने थकावट की शिक्षा कभी पाई ही नहीं थी। रात्रि का अन्धकार उनकी तोपों से निकली हुई अग्नि-शिखा से दूर हो रहा था। रात्रि के आते-आते ही अंग्रेजी-व्यूह का बायां भाग बिगड़ गया और मि० लिटलर को अपनी आधी सेना समेत भागना पड़ा।1 बालस साहब की दो पलटनों ने गिलवर्ट की सेना के व्यूह के दक्षिण भाग में जाकर प्राण बचाए। इसी व्यूह भाग में मि० गफ और जनरल हार्डिंग युद्ध-कौशल देख रहे थे। लार्ड हार्डिंग को अपनी सेना की इस कुदशा पर बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने अपने हाथ की घड़ी और तमगे अपने पुत्र को देकर प्रतिज्ञा की कि या तो प्राण देंगे या अंग्रेजों की प्रतिष्ठा रखेंगे। वे सामान्य सिपाही की भांति सेना में घूमने लगे। जहां कहीं दुर्बलता दिखाई देती थी, वहां लाट-साहब दौड़ कर पहुंचते थे। एक सिख तोप आग उगल कर अंग्रेजी सेना का ध्वंश कर रही थी। लार्ड हार्डिंग अपनी जान की परवाह न करके, कई साथियों समेत, उसी तोप की ओर दौड़े। कीलों से उसका मुंह बन्द करके अपनी सेना की रक्षा की।

विश्वासघाती और देशद्रोही (सिक्ख-सेना के) संचालक फिरोज शहर में भी अपनी नीचता का परिचय दिए बिना नहीं रहे। युद्ध-भूमि के निकट ही एक सिक्ख-दल खड़ा था। यदि यह दल युद्ध में डटी हुई सेना में मिला दिया जाता, तो इसमें सन्देह नहीं कि अंग्रेजी सेना का एक भी सैनिक बच नहीं पाता। पाजी लालसिंह ने इस समय भी अपनी फौज को लड़ने की इजाजत नहीं दी। सिक्ख वीरों को बताया गया कि इस सेना पर भी अंग्रेज हमला करना चाहते हैं।

दूसरे दिन प्रातःकाल फिर युद्ध आरम्भ हुआ। इस समय अंग्रेजी सेना ने लालसिंह की सेना पर धावा बोल दिया। उस सेना की बड़ी दुर्गति हुई। किन्तु पास ही खड़े हुए तेजसिंह ने अपने अधीन सेना को उस सेना की सहायता के लिए आज्ञा दी। अंग्रेजी सेना के एक नए दल ने फिर सिख-सेना पर आक्रमण किया। अब की बार तेजसिंह की सेना अधिक उत्तेजित हुई। इसलिए उसे आज्ञा देनी पड़ी। दोनों सिख-सेनाओं के सम्मिलित होते ही अंग्रेजी सेना के होश उड़ गए। बहुत शीघ्र ही विजय-लक्ष्मी सिखों को ही प्राप्त होने वाली थी कि तेजसिंह भाग खड़ा हुआ। साथ ही सैनिकों को भी भागने का संकेत किया। उधर अंग्रेजी सेना भाग रही थी और सिख उसका पीछा कर रहे थे। जब अंग्रेजों ने तेजसिंह की नीचता के इस अभिनय को देखा तो वे मैदान में डट गए और भागती हुई सिख-सेना पर आक्रमण करके विजय प्राप्त कर ली। जो सिख-सेना विजय-महत्वाकांक्षा से मदमत्त होकर शत्रुओं का हनन कर रही थी, उसे क्षण भर में ही अपने विश्वासघाती


1. लार्ड हार्डिंग ने 21 दिसम्बर की रात्रि के युद्ध की चर्चा अपने उस पत्र में की है जो उन्होंने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री सर राबर्ट पील को लिखा था।


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सैनिकों की चाल के कारण विजय लाभ से हाथ धोने पड़े! भागी हुई अंग्रेजी सेना की विजय हो गई। सिख-इतिहास के सुप्रसिद्ध लेखक मि० कनिंघम ने इस युद्ध का हृदय द्रावक वर्णन इस प्रकार किया है -

  • “यह घटना ऐसी थी कि जिससे सच्चे हृदय के मनुष्य को युद्ध करने का उत्साह बढ़ता। पर विश्वासघाती सिख-सेनापति तेजसिंह के ऊपर इसका उलटा असर हुआ। उन्होंने तोपें बन्द करवा दीं और अपने घोड़े को मोड़कर सतलज की ओर जितना जल्दी उनसे हो सका, उतनी जल्दी वह भागा। यह उन्होंने ऐसे समय में किया, जब उन्हें विजय प्राप्त होने वाली थी, क्योंकि उस समय ब्रिटिश-सेना का कुछ भाग फीरोजपुर से पीछे हट रहा था।”1
  • “इस युद्ध में अंग्रेजों को विजय प्राप्त हुई, यह माना जा सकता है, किन्तु यह विजय उन्हें महंगी बहुत पड़ी। सिखों की 70 तोपें और कुछ स्थान अंग्रेजों के हाथ लगे। किन्तु अंग्रेजी सेना का सातवां हिस्सा इस युद्ध में खत्म हो गया। सेना की इस भारी क्षति से अंग्रेज क्रोध से जल रहे थे। वे सिखों से बदला लेने के लिए व्याकुल हो रहे थे। सेना बढ़ाई जाने लगी, किन्तु बारूद और तोपों की कमी से तत्काल युद्ध न हो सका। अंग्रेजों की इस शिथिलता को देखकर सिख दूने उत्साह के साथ युद्ध करने की इच्छा से फिर सतलज के पार उतर आए। यह देखकर अंग्रेज बहुत ही चिन्तित हुए, क्योंकि पंजाब की सीमा पर उन दिनों उनकी हालत बड़ी नाजुक थी। थोड़े दिन पहले जिन सिख-सरदारों के राज्य को कलम की रगड़ से अपने अधीन बताया था, अब वे सिख-राज्य अंग्रेजों की कुछ भी सहायता न कर सके।”
  • “आज तक कोई देशी सेना जिसकी संख्या कुछ ही अधिक रही हो, अंग्रेजों से ऐसी नहीं लड़ी जैसे सिख लड़े थे। जिनकी वीरता के कारण फिरोज शहर के युद्ध का परिणाम ही सन्देहजनक रहा और यदि अंग्रेजों को निश्चित रूप से विजय लाभ भी हुई है तो भी इस विषय में समतभेद रहा कि यदि सिख-सेना के सेनापति योग्य होते और सिख-सेना को अपनी पूरी योग्यता प्रकट करने का अवसर देते तो न मालूम युद्ध का क्या परिणाम होता है?......”

आगे दोनों लिखते हैं -

  • “भारत में आज तक जितने प्रकार के सैनिकों का सामना करना पड़ा है, उनमें सिख सैनिक सबसे बढ़कर दक्ष, भीषण और दुर्जय प्रतीत हुए।”

वे सब सरदार अब सिखों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने की नीयत दिखा रहे थे।


1. सन् 1897 ई० में जनरल सर चार्ल्स गफ V.C.G.B. और आर्थर डी, इनेन्स M.A. की The Sikhs and the Sikh wars (सिख और सिख-युद्ध) नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें इस युद्ध के सम्बन्ध में लिखा हुआ है।


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जिन्होंने यकायक खुला-खुली मिलने की हिम्मत न भी की, वे गुप्त रीति से सिखों के हितों के लिए उत्सुक हुए। अंग्रेजों की प्रधान छावनी फीरोजपुर ऐसे ही सरदारों से घिरी हुई थी। इन शत्रुओं के कारण अंग्रेजों को फीरोजपुर की सेना के लिए रसद मुहैया करने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होने लगी। इससे फीरोजपुर स्थित अंग्रेजी सेना की दशा संकट-सम्पन्न थी। पंजाब सीमा के प्रायः प्रत्येक स्थान में अंग्रेजों की दशा आशंका-जनक थी। बादवाल के जागीरदार अजीतसिंह को अंग्रेजों ने मार भगाया था। अब सरहद में अंग्रेजों की स्थिति डांवाडोल देखकर अजीतसिंह ने सिखों की सहायता से लुधियाने में अंग्रेजों की छावनी जलाकर बादवाल को अपने कब्जे में कर लिया।

गढ़मुक्तेश्वर कुछ समय पहले अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया था, किन्तु अब वहां के लोग सिक्खों के सहायक बनने की चेष्टा कर रहे थे। धर्मकोट आदि जैसे छोटे-छोटे किलेदार भी जो कि अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे, अब उनके विरुद्ध होकर सिक्खों को सहायता देने लग गए। रसद तो ये लोग अंग्रेजों के लिए संग्रह होने ही नहीं देते थे, साथ ही उधर आने वाली अंग्रेज सेनाओं से भी छेड़छाड़ करते थे। इन्हीं दिनों अंग्रेजों ने तोप, बारूद तथा रसद के साथ कुछ सेना फीरोजपुर भेजी। चूंकि अंग्रेजों को सन्देह था कि सिक्ख अथवा अन्य विद्रोही सरदार इस रसद को रास्ते में लूट लेंगे, इसलिए एक ब्रिगेड सन् 1846 ई० की 17वीं जनवरी को मि० हैरीस्मिथ के साथ धर्मकोट की विजय के लिए भेजी। क्योंकि वे समझते थे कि सिक्ख अथवा विद्रोही सरदार इस लड़ाई के झंझट में फंस जायेंगे और रसद सुरक्षित ढ़ंग से फीरोजपुर पहंच जाएगी। धर्मकोट सहज ही हैरी के हाथ लग गया। अंग्रेजों को आशा हो रही थी कि रसद आदि सामान बिना विपद के ही फीरोजपुर पहुंच जाएगा। इसलिए हैरीस्मिथ भी शीघ्र ही धर्मकोट छोड़कर लुधियाने की ओर सेना समेत बढ़ा। उसे यह भी मालूम हो चुका था कि रणजोरसिंह की अधीनता में सिक्ख सेना लुधियाने पर हमला करना चाहती है और वह इस समय लुधियाने के पच्छिम ओर है और जगरांव से 9 कोस पर बादबाल स्थान में रणजोर ने सेना भेजी है। अतः साहब ने तुरत-फुरत जगरांव में डेरा जा लगाया और रात के बारह बजे अपनी सेना को लुधियाने की ओर रक्षार्थ बढ़ाया। वह चाहता था कि बादबाल में ठहरी हुई सिक्खों की दस हजार सेना से मुठभेड़ न हो। उसकी 4 रिजमट, पैदल रिजमट घुड़सवार, 18 तोप और बहुत सी सामग्री यदि लुधियाने पहुंच जाती तो लुधियाने स्थित अंग्रेज-सेना शक्ति-सम्पन्न हो जाती। इसलिए हैरी रसद आदि को दहनी ओर रखकर इस भांति से लुधियाने की ओर चला कि बादबाल की सिक्ख-सेना यदि उस पर आक्रमण भी करे तो भी रसद लुधियाने पहुंच जाए। उसका अनुमान ठीक न हुआ क्योंकि सिक्खों को पहले ही उसकी रसद के रास्ते और सेना के रास्ते का पता लग गया था।


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उन्होंने बांयी ओर से रसद पर हमला कर दिया और हैरी को बादबाल के बराबर ही घेर लिया। अंग्रेजों ने चाहा कि पैदल सेना को सिक्खों से लड़ाते रहें और सवारों के साथ रसद को लुधियाने भेज दें। किन्तु उनकी यह चालाकी बेकार हुई। सिक्खों ने उनकी पीठ पर तोपें लगाकर उन्हें घेर लिया। 9 घण्टे घमासान लड़ाई हुई। सैंकड़ों गोरे वहां जल कर राख हो गए। आखिरकार रसद गोले और तोपों को छोड़कर लुधियाने की ओर भाग गए। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि रणजोरसिंह ने भी लालसिंह, तेजसिंह की भांति सिख सैनिकों के साथ विश्वासघात किया। वर्ना वह चाहता तो मैदान में डटा रहकर सिख-सेना को भागते अंग्रेजों पर हमला कराके उनका भारी नुकसान कर सकता था। सैनिक बेचारे रसद आदि ही लूटने में लगे रहे। रणजोरसिंह की स्वजाति अहित-कामना के कारण अंग्रेज एक भारी आफत से बच गए। इसके सिवाय उसने एक और भी कलंक लगाने वाली बात यह कर दी कि अंग्रेजों का कुछ सामान, कुछ तोपें दिल्ली की ओर से आ रहीं थी। सिखों को इसका पता लग गया। वे इस सारे सामान को लूट लेना चाहते थे। वे सहज ही लूट भी लेते, क्योंकि उस सामान के साथ थोड़े से ही रक्षक थे। किन्तु रणजोर ने सिखों को इजाजत न दी और उन्हें सतलज के किनारे लिए पड़ा रहा।

इस बादबाल के युद्ध के बाद, सिख-सेना 22वीं जनवरी (1846) को वहां से रातों रात चलकर लुधियाने से 35 मील हट गई। इसका कारण कुछ इतिहासकार यह बताते हैं कि रणजोरसिंह ने अंग्रेजों के फायदे के लिए ही अपनी फौज को हटा लिया था। कुछ का कहना है कि सर हैरी स्मिथ और लुधियाने की सेना मिलाकर इतनी हो गई थी कि सिख-सेना अपने को उससे कम शक्ति-सम्पन्न समझकर अपने हित के खयाल से हट गई थी। लेकिन स्मिथ ने इस मौके से भी लाभ उठाया। उसने तुरन्त सिखों द्वारा छोड़ी हुई जमीन कर कब्जा कर लिया और ग्यारह हजार सेना के साथ सिख-सेना पर धावा करने की तैयारी कर दी। उधर सिख-सेना अंग्रेजी सेना की लापरवाही करके रणजोर ही की अधीनता में बुन्द्री और अलीवाल गांवों पर अधिकार जमाने लगी। अलीवाल में अंग्रेजी सेना से युद्ध छिड़ गया। यह याद रखने की बात है कि अलीवाल में रणजोर के साथ पूरी सेना न थी। बहुत सी सेना अन्य स्थानों की रक्षा के लिए छोड़ दी गई थी। जो कुछ भी सेना था, उसमें भी अशिक्षित, युद्ध के तरीकों से अनभिज्ञ, पहाड़ी लोग शामिल थे जो युद्ध आरम्भ होते ही रणजोर के साथ रफूचक्कर हो गए। केवल थोड़े से सिख गोलन्दाज रणक्षेत्र में स्थिर रहकर शत्रुओं का सामना करने लगे। यह बेजोड़ युद्ध कब तक चलता? किन्तु बहादुर सिखों में से जब तक एक भी आदमी जीवित रहा, तब तक लड़ाई चलती रही। सचमुच ही अन्त में एक सिपाही रह गया। जब इस एक गोलन्दाज को अंग्रेजों ने आ घेरा तो उसने कहा - “जान रहते तोप न


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दूंगा”। इस एक आदमी से तोप हस्तगत करने के लिए अंग्रेजों को उसे काट देना पड़ा। इस लड़ाई में हैरी की जीत तो हुई, किन्तु जब लाशें देखी गईं तो सिखों से अंग्रेजों की लाशें अधिक मिलीं। इस युद्ध के सम्बन्ध में एक बात यह और प्रसिद्ध है कि पटर नामक एक अंग्रेज गोलन्दाज कुछ समय पहले, सिखों के यहां नौकर हो गया था। बादबाल के युद्ध के बाद उसने अंग्रेजी खेमे में आकर अंग्रेजों से फिर प्रार्थना की थी कि उसे नौकर रख लिया जाए, किन्तु उससे कहा गया था कि तुम सिखों में रहकर ही जाति का हित करो। अलीवाल युद्ध के बाद उसने अंग्रेजी सेना में जाकर बताया था कि मैंने सिखों की तोपें इतनी उंची लगाई थीं कि उनके गोले अंग्रेजों पर न गिरें। तहकीकात करने पर यह बात सही पाई गई।1

अलीवाल युद्ध के बाद सोवरॉव में अंग्रेजों से सिखों की भिड़न्त हुई। हालांकि अलीवाल में विजय हो जाने से अंग्रेज मारे प्रसन्नता के फूले नहीं समाते थे। फिर भी उनकी हिम्मत न होती थी कि सिखों का पुनः मुकाबला करें, किन्तु सिखों ने इसी बीच एक और भूल की। उन्होंने अपने पैरों में अपने आप ही कुल्हाड़ी मार ली। वह इस तरह कि पंजाब के मंत्रित्व की गद्दी पर जम्बू के सूबेदार गुलाबसिंह को बिठा दिया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि 'चोर का भाई गिरहकट होता है।' उसने सिखों से कहा - मैं मंत्री बनता हूं केवल उस समय के लिए, जब तक कि अंग्रेजों से युद्ध है और मंत्रित्व का कुल कार्य जम्बू में रहते हुए ही करूंगा। यद्यपि सिख गुलाबसिंह से घृणा करते थे, फिर भी उसकी बहादुरी, राजनीतिज्ञता से लाभ उठाने के लोभ से उन्हें मंत्री बना दिया। सिखों ने समझा डूबते हुए को तिनके का सहारा मिला, पर बात इसके बिलकुल विरुद्ध हुई। उसने लार्ड हार्डिंग से जो भावी सिन्ध-युद्ध की चिन्ता से घुले जा रहे थे, एक गुप्त-सन्धि कर ली। गुलाबसिंह ने सन्धि के अनुसार अंग्रेजों से प्रतिज्ञा की कि युद्ध के समय सिख-सेना के संचालक उनसे अलग हो जाया करेंगे और जब सिख-सेना हार जायेगी, तो उसे निकाल दिया जायेगा। जिससे सतलज पार करके राजधानी में आने में अंग्रेजी सेना को कोई रुकावट न रहेगी। इस तरह गुलाबसिंह सिखों के लिए लालसिंह और तेजसिंह से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुआ।

सिख अलीवाल युद्ध में अपनी पराजय के कारण तिलमिला रहे थे। सर्वस्व अर्पण करने पर भी पराजय होते देखकर निराशा-सागर में डूबे हुए थे, किन्तु एक जाट केसरी ने सिंह-गर्जन करके उन्हें फिर उत्साहित किया। वह महाराज रणजीतसिंह के बचपन के साथी तथा वीर-श्रेष्ठ कुं० नौनिहालसिंह के श्वसुर श्यामसिंह जी अटारी वाले थे। बुढ़ापे में भी सरदार श्यामसिंह की सूखी हड्डियों में अपनी जन्मभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए खून दौड़ने लगा। उन्होंने


1. ‘सिख युद्ध’। पेज 67। लेखक चक्रवर्ती।


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ओजस्वी वाणी से सिख वीरों को सम्बोधित करते हुए कहा - “आओ वीरो! आओ। खालसा के वीर सरदारो आओ!! मातृभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए फिरंगियों से तुम्हारे साथ लड़कर तथा प्राण देकर मैं भी स्वर्ग सिधारूंगा। हृदय के गर्म-गर्म लहू को बहाकर गुरु गोविन्दसिंह की आत्मा को प्रसन्न करूंगा और खालसा का गौरव बढ़ाऊंगा।” साथ ही सरदार श्यामसिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ-साहब को छूकर प्रतिज्ञा की कि प्राण रहते कभी भी युद्ध-स्थल से पीछे नहीं हटूंगा। इस भीषण प्रतिज्ञा के बाद उन्होंने रणभूमि की तैयारी की। उनकी सफेद दाढ़ी, सफेद मूंछ, साथ ही अंगरखी और पगड़ी भी सफेद थी। यही क्यों, जिस समय वे सफेद घोड़ी पर सवार हुए, उनकी सुन्दरता जाग उठी। युद्ध को प्रस्थान करते हुए उन्होंने खालसा सेना से कहा - आओ खालसा के पुत्रो! पराधीन होने की अपेक्षा अस्त्र-शय्या पर सदा के लिए सो जायें। खालसा-सेना के हृदयों को यह मार्मिक अपील पार कर गई। वे सिंहनाद से गर्जते हुए उठ खड़े हुए। उन्होंने भीम-गर्जन के साथ ‘वाह गुरु की फतह’ के नारे लगाये।

सिखों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करने के लिए सोवरांव पर दखल करके सुदृढ़ व्यूह बना लिया। 67 तोपों के साथ 15 हजार सिक्ख मर मिटने के लिए तथा मार-काट करने के लिए अंग्रेजी सेना के आने की प्रतीक्षा करने लगे। इधर तो सिक्ख वीर इस तरह मर मिटने को तैयार थे, उधर नमकहराम लालसिंह ने अंग्रेजों को यहां के सब समाचार लिख भेजे - “इस युद्ध का सेनापति तेजसिंह है। पर वह चेष्टा अंग्रेजों के हित की ही करेगा। मेरे संचालन में घुड़सवार सेना है, जिसे मैंने तितर-बितर कर रक्खा है। सिक्ख छावनी का दक्षिण भाग कमजोर है, उधर व्यूह की दीवार भी मजबूत नहीं बन सकी है1।” इस समाचार के पाने से अंग्रेजों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अंग्रेजों ने सर राबर्ट डिक की अधीनता में सबसे पहले उसी दक्षिणी हिस्से पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। साथ ही अन्य भागों पर भी 120 तोपें लगा दीं। सर वाल्टर डिक के दाहिने भाग में और हैरी वाल्टर के दाहिने भाग में इस भांति खड़े हुए कि एक के बाद एक परस्पर सहायता देते रहें। इस प्रकार तीनों भागों में 16 हजार राजपूत मिश्रित गोरे नियुक्त किए गए। चाहे लालसिंह ने अंग्रेजों को अपना सारा भेद बता दिया था, किन्तु अंग्रेज सशंकित उससे भी थे। इसलिए उनकी निगाह रखने के लिए भी कुछ घुड़सवार सैनिक नियुक्त कर दिए। ठीक है जो अपनों के साथ विश्वासघात कर सकता है, उसका विश्वास करना महापाप है। आपत्ति के समय सहायता देने के लिए दो


1. एडवर्ड साहब ‘सिख युद्ध’ पे० 73। लेखक चक्रवर्ती।


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पल्टनें अंग्रेजों ने फीरोजपुर में नियुक्त कर दीं। सामने छाती से छाती भिड़ाकर अंग्रेज सिक्खों से दो बार लड़ चुके थे। उन्हें यकीन हो गया था कि सिक्खों से मुकाबले में फतह नहीं पा सकते। इसलिए (9 फरवरी सन् 1846 ई० की रात को) चुपके से सिक्ख-सेना पर आक्रमण किया, फिर मुठभेड़ होते समय तक सूर्य निकल आया। सदा के फुर्तीले सिक्खों ने तुरन्त रणभेरी बजा दी। ठीक साढ़े छः बजे अंग्रेजों की सैंकड़ों तोपें सिखों पर गोले बरसाने लगीं। कभी सिखों की हथियारों से भरी हुई गाड़ियां तोपों के गोलों से नष्ट होती थीं, कभी बालू से बनाई उनकी दीवार गिरती थी। कभी गोले फटकर पृथ्वी में दरारें कर देते थे। सिखों की लोथों पर लोथ बिछ रही थीं, किन्तु इस पर भी सिख वीरों का धीरज न छूटा।

खालसा सेना अंग्रेजों के प्रत्येक आक्रमण का उत्तर स्वाभाविक फुर्ती से देकर अंग्रेजी सेना में प्रतिक्षण हाहाकार मचा देती थी। भारत में अंग्रेजों को अनेक युद्ध करने पड़े हैं। किन्तु अन्यत्र कहीं भी सोवरॉय की भांति दुर्ज्जय वीरों की भीषण समर-लीला देखकर कहीं इतना भयभीत नहीं होना पड़ा।

ज्यों-ज्यों सूर्य भगवान् ऊपर को चढ़ने लगे, युद्ध की भयंकरता भी बढ़ने लगी। अब तक की गोलाबारी से अंग्रेज अपने अभीष्ट को पूरा न कर सके। उन्होंने समझा था कि सिखों की असावधानी में गोलावारी करके उन्हें तुरंत ही जीत लिया जायेगा। किन्तु सिखों ने अपनी फुर्ती से उनकी इस इच्छा को पूरा न होने दिया। अतः उन्होंने लालसिंह के बताए दक्षिण भाग पर सर राबर्ट डिक की अधीनता में बढ़ना शुरू किया। किन्तु सिख अंग्रेजों की चालाकी को ताड़ गए और बड़े धैर्य के साथ उस हिस्से पर बड़ी संख्या में जाकर इकट्ठे हो गए और आती हुई अंग्रेजी सेना पर ऐसा छापा मारा कि अंग्रेज भाग खड़े हुए और उनके सेनापति डिक सख्त घायल हो गए। यह देखकर पहले से स्थित मि० गिलवर्ट ने अपनी सेना को सिखों पर आक्रमण करने को बढ़ाया। डिक की भागती हुई सेना भी रुक गई और दोनों मिलित सेनाओं ने सिखों पर आक्रमण किया। किन्तु बलिहारी सिक्ख वीरों की जननियों को जिन्होंने ऐसे सिंहों को पैदा किया था। वे दोनों सेनाओं के सामने अड़कर वार सहन करने लगे। उन्होंने भीषण वेग से तोपों की वर्षा करके अपनी तो रक्षा कर ही ली, साथ ही अंग्रेजी सेना को पीठ दिखाकर भागना पड़ा। एक दो और तीन बार अंग्रेजों ने सिक्खों पर नूतन तैयारी के साथ हमला किया। किन्तु उसे हर बार पूरी तरह हार खाकर वापस लौटना पड़ा। तीसरी बार के आक्रमण में अंग्रेजों के तीनो वीरों - डिक, गुलवर्ट, और हैरी ने सिक्खों से लोहा लिया था, पर वे सिक्खों का कुछ भी न बिगाड़ सके। सिक्खों ने आक्रमण करते और भागते दोनों ही समय अंग्रेजों को हानि पहुंचाई।


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यद्यपि अंग्रेज अभी तक पराजित हो रहे थे, किन्तु उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। यही उनका ऐसा उत्तम गुण था, जिसके बल पर भूमंडल के सबसे अधिक भाग पर छा गए थे। उन्होंने अपनी हार से भी सबक लिया। पुनः आक्रमण के लिए वे फिर बल-संचय करने लगे। उधर सिक्ख-सेना की हालत पर दृष्टिपात करने से आंसू बहाना पड़ता है। सैनिक बिचारे स्वयम् प्रबन्ध करते हैं। उन्होंने अपने बायें ओर मध्य भाग को मजबूत बनाने के लिए दाहिने भाग को फिर निर्बल बनाया। विश्वासघाती लालसिंह यह सारा तमाशा देख रहा था। अधीन सेना ने उसे दाहिने भाग की कमजोरी कई बार बताई। किन्तु क्यों ध्यान देने लगा? चौथे आक्रमण के समय डिक-सेना ने उसी दाहिने भाग पर हमला किया। उसने बड़े वेग के साथ चलकर उस स्थान पर कब्जा कर लिया। मध्य-भाग की ओर गिलवर्ट-सेना बढ़ रही थी। उसे डिक-सेना ने बड़ी सहायता पहुंचाई। इन दोनों सेनाओं ने सिक्खों की कई तोपों को छीन लिया। इसी समय हैरी-स्मिथ-सेना ने भी सिक्खों पर आक्रमण किया। शत्रुओं के इस भीषण आक्रमण का उत्तर देने के लिए सिक्ख सिंहों की भांति अंग्रेजी दल पर झपटे। अगणित अंग्रेज सैनिक उन्होंने काट कर गिरा दिये। आगे की सेना पीछे वालों पर गिरने लगी। पर इतनी हानि होने पर भी गिलवर्ट-सेना ने डिक की सेना के सहारे सिक्ख-सेना पर हमला किया। यह दृश्य अपूर्व था। कभी अंग्रेजी सेना सिक्खों को भगाकर आगे बढ़ती, कभी सिक्ख सेना अंग्रेजी-सेना का ध्वंस करती। इसी तरह की कश्मकश में अंग्रेजों की सेना एक बार के हमले में सिक्ख-सेना के भीतर घुस गई और उसके दायें-बायें अंश अंग्रेज-सेना ने घेर लिए। इसी समय अंग्रेजी तोपों ने सिक्ख-व्यूह की दीवार पर गोले बरसाने आरम्भ कर दिये। थोड़ी देर में दीवार गिर पड़ी और अंग्रेजी सेना ने सिक्खों पर चारों ओर से हमला कर दिया। यही अवसर सेनापतियों के रण-कौशल दिखाने का था। किन्तु बेचारी सिक्ख-सेना के सेनापति तो विश्वासघातक थे। उन नराधमों ने गोलन्दाजों को बारूद देना बन्द कर दिया। जो तोपें कुछ समय पहले अग्नि वर्षा करके अंग्रेजों के दिल दहला रही थी, वे अब बिना बारूद के दगने से बन्द रह गईं। अंग्रेज सैनिक उन पर कब्जा करने लगे। उनकी नीचता की हद यहीं खतम नहीं हुई। स्वजाति-द्रोही तेजसिंह ने एक बड़ी सेना के साथ भागना शुरू कर दिया, उसने सतलज के पुल को भी तुड़वा दिया। वह चाहता था कि भागकर भी सिक्ख-सेना प्राण न बचा सके। अब सिक्ख-सेना इसके सिवाय क्या कर सकती थी कि जन्मभूमि के हित डटकर लड़े और लड़ते-लड़ते ही प्राणों का उत्सर्ग करे। उनके लड़ने के भी साधन नष्ट किए जा चुके थे। गोला-बारूद के बिना तोप-बन्दूकें बेकार साबित हो रहीं थीं। अब सिखों ने अपनी चिर-संचिनी तलवार को सम्भाला और अटारी के भीम-विक्रमी बूढ़े सरदार श्यामसिंह की उत्तेजना से, मदमत्त हस्तियों की भांति, अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया। सरदार


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श्यामसिंह सेना के प्रत्येक भाग में आक्रमण करके अपने साथियों का उत्साह बढ़ाने लगे। अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब सर्वनाश होने में देरी नहीं है, तब उन्होंने सिख-वीरों से ललकार-पूर्वक कहा - 'क्षत्राणियों के पुत्रो! आओ कुछ करके मरें। अंग्रेजों की 50वीं रेजीमेंट पर आक्रमण करो।' वे बड़े वेग से हवा में तलवार घुमाते हुए घोड़े को एड़ लगाते हुए अंग्रेजी रिसाले पर टूट पड़े। 50 अन्य सिख वीरों ने भी प्राणों का कुछ मोह न करके श्यामसिंह का साथ दिया। अंग्रेज सैनिकों के गोल ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। श्यामसिंह के सात गोलियां शरीर में लगकर पार हो गईं। किन्तु प्राण रहने तक श्यामसिंह लड़ते रहे। वे अंग्रेज-सिक्ख वीरों की लाशों के ढ़ेर के ऊपर सदैव के लिए सो गए।

सिख-सेना पीछे हटी, किन्तु बड़ी सावधानी के साथ। उसने पीठ न फेरी। अंग्रेजी फौज के सामने मुंह करके लड़ती हुई उल्टे पैरों वापस लौटी। यदि सतलज का पुल उसके विश्वासघाती सेनापतियों ने तोड़ न दिया होता, तो सिख वीर लड़ते हुए भी अपने इलाके में पुल पार करके वापिस पहुंच जाते। उन दिनों सतलज चढ़ी हुई थी। अब इसके सिवा उपाय ही क्या था। या तो वे नदी में कूदकर प्राण दें अथवा शत्रु के सामने छाती अड़ाकर अपने जीवन का निर्णय करें। वे तलवार के सहारे ही शत्रुओं का सामना करते हुए लड़कर मरने लगे। अंग्रेज आश्चर्य करते थे। इस तरह जीवन से निराश होने पर भी, उनमें से एक भी सिख, माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। उस सम्पूर्ण सिख-दल के रक्त से सतलज का जल रक्त-वर्ण हो गया। पानीपत के युद्ध के बाद, इतनी नर-हत्या सोमरांव युद्ध में ही हुई थी। प्रायः 8 हजार सिख उस दिन मां की आजादी की रक्षा के लिए रणखेत में शत्रु के हाथों से वीरगति को प्राप्त हुए। इतना होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजी-सेना के दो हजार चार सौ तिरासी आदमियों को इस लोक से विदा कर दिया था। अंग्रेजों की विजय हुई। पर क्या कोई अभिमानी योद्धा यह कह सकता है कि सिख अंग्रेजों से हार गये थे?1

सिख-राज्य की काया-पलट

सोवरांव युद्ध के बाद अंग्रेज निश्चिन्त नहीं बैठे। थोड़े दिनों के बाद सतलज पार करके वे सिख-राज्य में आ धमके। दूसरे दल के साथ लार्ड हार्डिंग भी आ पहुंचे। कसूर में डेरा डालकर 1846 ई० की 20वीं फरवरी को उन्होंने एक घोषणा प्रकाशित की जिसका आशय यह था -

“अंग्रेजों का विचार पंजाब-राज्य को अपने राज्य में मिलाने का नहीं है, किन्तु

1. सोवरांव युद्ध के बाद ही हार्डिंग और गफ को लार्ड की उपाधि विलायत से मिल गई।


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सिखों ने जो सन्धि तोड़ी है, उसकी उन्हें सजा देने के लिए पंजाब अंग्रेजों के हाथ में रहेगा। भविष्य में शान्ति रखने तथा युद्ध का खर्च वसूल करने के लिए सिक्ख-साम्राज्य के कई प्रदेश अंग्रेजी शासन के आधीन रहेंगे। यद्यपि लाहौर दरबार को सन्धि भंग करने की पूरी सजा मिलनी चाहिए, तथापि लाट साहब दरबार और सरदारों को राज्य के सुधारने का मौका देना चाहते हैं। दरबार और सरदारों की सहायता से अंग्रेजों के परम मित्र महाराज रणजीतसिंह के पुत्र की आधीनता में निर्दोष सिख-राज्य को स्थापित करने की ही उनकी प्रबल लालसा है। पर यदि सिख-जाति को अराजकता से बचाने का यह नवीन उपाय स्वीकृत न हुआ और फिर अंग्रेजों से लड़ाई ठानने की तैयारी की जायेगी तो जिस ढ़ंग से पंजाब का शासन करने में अंग्रेजों की भलाई होगी, उसी ढ़ंग से लाट-साहब शासन का प्रबन्ध करेंगे।”

इस घोषणा से सारे पंजाब में सनसनी फैल गई। यह किसे विश्वास था कि सोवरांव के युद्ध के पीछे ही अंग्रेज पंजाब में घुस आयेंगे। जिन देशद्रोहियों के कुकृत्यों के कारण पंजाब में घुसने की अंग्रेजों में सामर्थ्य हुई थी, वे भी अब पछताने लगे। वे चाहने लगे कि किसी भी भांति इनका आना पंजाब में रुके। राजा गुलाबसिंह खुद रोते-झींकते कसूर पहुंचे और लार्ड हार्डिंग से लाहौर न जाने की प्रार्थना की। लाट ने एक न सुनी। गुलाबसिंह दुबारा फिर लाट साहब के पास गए और महाराज दिलीप को भी साथ ले गए। लाट साहब ने बालक महाराज दिलीप का आदर सत्कार किया और गुलाबसिंह आदि सरदारों से कहा -

“पंजाब को हम अंग्रेजी राज्य में नहीं मिलाना चाहते हैं। अपने पिता के राज्य के मालिक दिलीपसिंह ही रहें, पर ब्यास और सतलज के बीच के समस्त प्रदेश अंग्रेजों को देने होंगे। इसके सिवाय डेढ़ करोड़ रुपया युद्ध के खर्चे का भी हम (अंग्रेज) लाहौर दरबार से लेंगे। किन्तु यह सन्धि भी लाहौर राजधानी में चल कर ही हम करेंगे, अन्य स्थान पर नहीं।”

20 फरवरी को अंग्रेज दल लाहौर पहुंचा। दिलीपसिंह को अंग्रेजों ने फिर से गद्दी पर बिठाने की रस्म अदा की। अंग्रेज पंजाब निवासियों को बता देना चाहते थे कि अंग्रेज उदारतापूर्वक महाराज को पंजाब का राज्य दे रहे हैं। वास्तव में अब पंजाब पहले का पंजाब नहीं रहा। लोगों ने शायद यही समझा हो, किन्तु बात इसके साथ कुछ और भी थी, जिसने लार्ड हार्डिंग को इतना उदार बना दिया था। वास्तव में वह बड़े दूरदर्शी थे। अब भी अमृतसर की ओर सिखों की बीस हजार सेना मौजूद थी और वह चाहती थी कि उसे अंग्रेजों से लड़ने का मौका दिया जाए। यदि कोई योग्य सेनापति उन्हें मिल जाता तो वे अंग्रेजों से सोवरांव का पूरा बदला ले लेते। लार्ड हार्डिंग पंजाब को भला कैसे अपने राज्य में मिला सकते थे। कसूर की मुलाकात में गुलाबसिंह ने भी कहा था कि आज मेरी बात नहीं सुनी जाती है, किन्तु मैं चाहता तो सोमराव के युद्ध को समाप्त न


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होने देता। तनिक से इशारे पर 60-70 हजार सैनिक तैयार थे। इन्हीं शंकित देशद्रोहियों में से कोई बगावत खड़ी कर देता तो अंग्रेजों को लेने के देने पड़ जाते। आखिर नवीन सन्धि हुई। बीस हजार पैदल और बारह हजार सवार रखने की इजाजत लाहौर दरबार को इस सन्धि के अनुसार मिली। शेष सेना वेतन चुका कर अलग कर दी गई। तोपों को अंग्रेजों ने हथिया लिया। आगे से 30 तोप रखने का अधिकार लाहौर दरबार को रहा। यह सन्धि 9 मार्च को हुई थी और ललियाना-सन्धि कहलाती थी क्योंकि इसका मस्विदा पहले ललियाना में ही तैयार हुआ था। इस सन्धि के अनुसार व्यास और सतलज के दक्षिण ओर के सम्पूर्ण प्रदेशों को चिरकाल के लिए अंग्रेजों के सुपुर्द कर देना पड़ा। युद्ध-खर्च का डेढ़ करोड़ रुपया उस समय अदा कर देने में असमर्थ होने के कारण एक करोड़ के बदले काश्मीर और हजारा सहित, व्यास और सिन्ध के बीच के समस्त प्रदेशों को हवाले करना पड़ा। शेष पच्चीस हजार रुपया लाहौर दरबार ने कुछ दिन पीछे देने का वचन दिया। सन्धि में यह लिखा जा चुका था कि अंग्रेज सरकार सिख-दरबार के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप न करेगी, किन्तु गवर्नर जनरल आवश्यकतानुसार शासन कार्य में उसे परामर्श अवश्य दे सकेंगे। शान्ति बनाए रखने के लिए, एक साल तक लाहौर में अंग्रेजी सेना रहेगी, तब तक सिख-सेना बाहर रहेगी।

अंग्रेजों के बाकी रहे हुए पचास लाख का प्रबन्ध लाहौर दरबार ने इस तरह से किया कि अधीनस्थ समस्त सरदारों से सहायता मांगी गई। उनमें से अनेक ने यह भी कहा कि हमारी सारी सम्पत्ति नष्ट हो चुकी है, तब कहां से दे सकते हैं? किन्तु अटारी वाले चतरसिंह जैसे सिख-राज हितैषी सरदारों ने काफी सहायता दी जिससे यह रकम चुका दी गई।

जहां राजनैतिक ज्ञान की कमी होती है, वहां के लोग यह सोचने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं कि उनका मान-अपमान किस मार्ग पर चलने में अधिक सुरक्षित रहेगा। ऐसी ही दशा घरेलू झगड़ों ने महारानी जिन्दा के दिमाग की कर दी थी। केवल भाई की हत्या का बदला लेने के अभिप्राय से उन्होंने देश के रक्षक खालसा वीरों का सर्वनाश कराया और अब भी उन्हीं खालसा सैनिकों से भयभीत होकर गवर्नर से रक्षा की याचना करती हैं कि मुझे और मेरे पुत्र को पंजाब में सिखों के हाथ में रखने की अपेक्षा ब्रिटिश-राज्य की सीमा में रखना अथवा अपने साथ गवर्नमेण्ट हाउस में ले जाना हमारे हक में अच्छा होगा। इसके पश्चात् एक पत्र बालक दिलीपसिंह के दस्तखत से रामसिंह, लालसिंह, तेजसिंह, दीनानाथ आदि के द्वारा गवर्नर-जनरल के पास पहुंचाया गया। उसमें लिखा था - “लाहौर के इस नवीन प्रबन्ध में किसी तरह की गड़बड़ न हो। इसका कुछ प्रबन्ध अंग्रेज सरकार अवश्य करे। इसके लिए कुछ अंग्रेजी सेना लाहौर में रहनी चाहिए जो बालक महाराज की रक्षा कर सके।”

कमीने षड्यंत्रकारियों ने रानी जिन्दा को कितना


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बहका रक्खा था! भला जो खालसा वीर, पिशोरासिंह को भी सिर्फ इसीलिए कि वह महाराज रणजीतसिंह का घोषित पुत्र है, अपने हाथ से न मार सके थे, वे क्या महाराज दिलीपसिंह को नुकसान पहुंचा सकते थे? राज-परिवार की सारी हत्याएं गैर जाटों अथवा गैर सिखों के षड्यंत्र से हुई थीं। सिन्धान वाले अवश्य ऐसे पाजी निकले थे, जिन्होंने जाट अथवा सिख होते हुए, महाराज शेरसिंह पर हाथ उठाया था। किन्तु वे खालसा की सलाह से तो इस काम के करने में प्रवृत्त नहीं हुए थे। 9 मार्च की एक सम्मिलित मीटिंग में गवर्नर ने महारानी जिन्दा के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया।

मार्च महीने की 11वीं तारीख को सन्धि में एक बात और हुई कि पुरानी सिख-सेना (खालसा) कतई तोड़ दी गई और नई भर्ती की गई। पूर्व सिख राज्य को पूर्णतः समाप्त करने के बाद, अंग्रेजों द्वारा जो नया सिख-राज्य स्थापित हुआ, लालसिंह को उसका प्रधानमंत्री (अंग्रेजों ने) बनाया। गुलाबसिंह के लिए यह बात अखरी, क्योंकि मत्रित्व के लिए ही तो उन्होंने खालसा के साथ विश्वासघात किया था। गुलाबसिंह को सन्तुष्ट रखने के लिए अंग्रेजों ने उसे कश्मीर का इलाका 75 लाख रुपये में बेचकर, वहां का स्वतन्त्र राजा मान लिया। तेजसिंह को भी कुछ देना था, क्योंकि कौमी गद्दारी उसने क्या कम की थी? इसलिए उसे स्यालकोट के इलाके का राजा अंग्रेजों ने बना दिया। इसी प्रकार अंग्रेजों की तरफ से उन सभी लोगों को पुरस्कार देकर कृतज्ञता प्रकट की गई, जिन्होंने अपने जाति भाइयों के साथ विश्वासघात करके युद्ध के समय अंग्रेज-हित की चिन्ता की थी।

कुछ दिनों बाद इमामुद्दीन नामक एक व्यक्ति ने कुछ आदमी इकट्ठे करके गुलाबसिंह के विरुद्ध बगावत खड़ी की। किन्तु अंग्रेजों की सहायता से उसे दबा दिया गया। नवीन प्रबन्ध से उस समय देखने भर को पंजाब में शान्ति दिखाई देती थी, किन्तु वास्तव में वह शान्ति न थी।

लालसिंह जाति-विद्रोह करके अथवा खालसा को नष्ट करके पंजाब का मंत्री हुआ सही, किन्तु वह अयोग्य था, विषयी था और था साथ ही दुर्बल प्रकृति का आदमी। उसके कुशासन से प्रजा हैरान होने लगी। राज्य के धनवानों से कर उगाह कर वह अपनी विलासिता में खर्च करने लगा। तबले की ठनाठन, सारंगी की गुनगुन और मृगनयनियों के घुंघरुओं की छुनछुन में मन्त्री-भवन की शोभा बढ़ने लगी। मदिरा के मधुर प्रवाह से रहस्य और भी खिलने लगा। किन्तु हजार दुराचारी होते हुए भी वह अंग्रेजों को प्रसन्न रखने में कोई कोर-कसर न रखता था। फिर भी उसके भाग्य ने साथ नहीं दिया। अंग्रेजों ने उसके ऊपर इलजाम लगाया कि इमामुद्दीन जिसने कि जम्बू नरेश गुलाबसिंह के विरुद्ध बगावत की थी, उसे लालसिंह ने उभाड़ा था। 65 सिखों के सामने अंग्रेज-कमीशन ने जांच की और


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उसे अपराधी साबित करके दो हजार रुपये की मासिक पेन्शन पर आगरा भेज दिया।

लालसिंह को देश निकाला देने के बाद, सन् 1846 की 16वीं दिसम्बर को भैरवाल नामक स्थान में लार्ड हार्डिंग ने एक नयी सन्धि की जिसके अनुसार तय हुआ कि गवर्नर जनरल लाहौर में अपना एक अंग्रेज प्रतिनिधि रखेंगे जो रेजीडेण्ट कहलायेगा, जिसे राज-कार्य में पूरी तरह अपनी शक्ति प्रकट करने का अधिकार रहेगा। कई एक योग्य व्यक्ति उनकी सहायता के लिए नियुक्त होंगे। पंजाब निवासियों के जातीय तथा धार्मिक रिवाजों सम्बन्धी रीति-नीति पर पूरा ध्यान रखकर कार्य किया जाएगा। इस कार्य के लिए तेजसिंह अटारी के शेरसिंह, दीवान दीनानाथ, फकीर नूरुद्दीन, भाई विधानसिंह, अतरसिंह, शमशेरसिंह आदि कई सरदारों की एक प्रतिनिधि सभा होगी जो रेजीडेण्ट की सहायता किया करेगी। बिना रेजीडेण्ट की आज्ञा के, इन प्रतिनिधियों में किसी भांति का हेर फेर न होगा। महाराज की रक्षा तथा राज्य में शांति-स्थापना के लिए आवश्यक सेना गवर्नर-जनरल की मंजूरी से रखी जायेगी। यह सेना यथावश्यक लाहौर अथवा सिख-राज्य के किसी भी स्थान पर रहेगी। राजमाता महारानी जिन्दा तथा उनकी सखी-सहेलियों के भरण-पोषण के लिए अब से डेढ़ लाख सालाना, राज्य-कोष से दिया जाएगा। सन् 1854 की चौथी दिसम्बर को महाराज की अवस्था 16 वर्ष की होने पर सन्धि की ये पाबन्दियां नहीं रहेंगी। यदि इससे पहले भी दरबार तथा अंग्रेजी सरकार को सन्धि-भंग करने की आवश्यकता हुई, तो गवर्नर-जनरल वह भी कर सकेंगे।

सोवरांव युद्ध की समाप्ति के एक वर्ष में इस तरह साह की सन्धियों के होने से पंजाब निवासियों को प्रतीत होने लगा कि अंग्रेज अब अंगुली पकड़कर पहुंचा पकड़ना चाहते हैं। भैरवाल की इस सन्धि के अनुसार, सर हेनरी लारेन्स जो कि लार्ड हार्डिंग के परम विश्वासी थे, पंजाब के रेजीडेण्ट नियुक्त हुए। लारेन्स राजनीति-पटु और नियाहत योग्य थे। हिन्दुस्तान निवासियों पर दया दिखाना, कोमल स्वभाव रखना, सुख-शान्ति की उत्कट इच्छा रखना आदि उनके गुण थे। इतना होने पर भी वे अंग्रेज थे। उनके रेजीडेन्ट काल में पंजाब का स्वरूप ब्रिटिश भारत का जैसा होना आरम्भ हो गया। सिख जाति का सद्‍भाव छूटने लगा। उसके हृदय में लड़ाई के भाव लोप होने लगे। कुछ ही दिन पहले सिख-सेना अंग्रेजों से लड़ी थी, उसी सेना के अनेक लोग अब तलवार के बदले हल की मूंठ थामकर लड़ाई के बदले खेत जोतने लगे। दीवानी-फौजदारी के विभाग नये तरीके से


1. इतिहास तिमिर नाशक, द्वितीय भाग, ओरियन्टल थिओग्राफिकल डिक्शनरी पेज 226।


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स्थापित हुए। सिख-राज्य में अंग्रेजी कानून चलने लगा। क्रमशः सिखों की मनोवृत्ति बदलने लगी। चन्द दिन पहले, जो सिख अंग्रेजों के लाट को भी अपने राज्य में देखकर क्रोध में आंखें लाल करके म्यान पर हाथ रखते थे, वे छोटे से छोटे अंग्रेज को भी देखकर इज्जत के साथ सलाम करके, बीसियों कदम पीछे हटने लगे।

सन् 1847 की तीसरी जुलाई को गवर्नर-जनरल ने एक चिट्ठी पंजाब-दरबार के नाम लिखकर रेजीडेण्ट की शक्ति को और भी बढ़ा दिया। लाट साहब ने लिखा -

“भैरवाल सन्धि के अनुसार लाहौर के अंग्रेज रेजिडेण्ट, राज्य के सम्पूर्ण विषयों में इच्छानुसार कार्य करने का पूर्ण अधिकार रखते हैं। रेजीडेण्ट बहादुर के लिए प्रतिनिधि सभा के देशी सभासदों के साथ एक मत से कार्य करना बहुत ही अच्छी बात है; किन्तु वास्तव में वे रेजीडेण्ट के पूरे मातहत हैं। वह चाहें तो उनमें से चाहे जिसे अलग कर सकते हैं और उसके स्थान पर दूसरों को भर्ती कर सकते हैं।”

23वीं अक्टूबर को लाट साहब ने एक और चिट्ठी लिखी -

“महाराज दिलीपसिंह की नाबालिगी तक, हम लोगों को याद रखना चाहिए कि सन् 1846 की सन्धि के अनुसार सिख-राज्य बिलकुल स्वतन्त्र नहीं है। राज्य का कोई भी कर्मचारी अथवा सरदार युद्ध अथवा सन्धि करने अथवा छोटी से छोटी भूमि बेचने वा बदलने का अधिकारी नहीं है। हमारी बिना आज्ञा के ऐसा कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा, औरों की बात छोड़ दीजिये, स्वयम् महाराज भी हमारे आधीन हैं। उनको भी अपने मन से कोई काम करने का अधिकार नहीं है।”

लाट साहब की इस प्रकार की चिट्ठी-पत्रियों से पंजाब के निवासियों के कान खड़े होने लग गये थे। वे समझने लग गये थे कि 'दाल में काला' है। उनके हृदय में, भीतर ही भीतर, आग सुलगनी आरम्भ हो रही थी। ऐसे ही समय रेजीडेण्ट सर हैनरी लारेन्स ने महारानी जिन्दा के नाम एक चिट्ठी लिखी जिसका सारांश यह है -

“भैरवाल सन्धि के अनुसार पंजाब के राज्य-कार्य में हस्तक्षेप करने का महारानी को कोई अधिकार नहीं है। स्वतन्त्रता-पूर्वक आनन्द से वह अपना जीवन निर्वाह कर सकें, इसके लिये उनकी डेढ़ लाख रुपये वार्षिक की वृत्ति नियत कर दी गई है। किन्तु ऐसी अफवाह है कि महारानी कभी 15 और कभी 20 सरदारों को निमन्त्रण देकर घर में बुलाती हैं और उनसे परामर्श करती हैं और कोई-कोई सरदार तथा कर्मचारी छिपकर उनसे मुलाकात करते हैं। यह भी सुना जाता है कि पिछले महीने से महारानी नित्य राज-महल में पचास ब्राह्मणों को भोजन कराती हैं, स्वयं उनके पैर धोती हैं। इसके अतिरिक्त पर मंडल में भी 100 ब्राह्मणों के भेजने की खबर सुनी जाती है। महाराजा रणजीतसिंह के परिवार की मान-मर्यादा के उत्तरदायित्व का भार मेरे ऊपर है। इसलिये कहना पड़ता है कि ये सब काम महारानी के स्वरूप के अनुकूल नहीं हैं, उनकी प्रतिष्ठा में बट्टा लगाने वाले हैं।

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-343


“आगे से महारानी अपनी सखी-सहेली तथा दास-दासियों के अलावा किसी से मुलाकात न किया करें। इससे उनकी इस समय भी और भविष्य में भी भलाई है। इसीलिये यह मैं महारानी को लिख रहा हूँ। यदि महारानी की इच्छा दरिद्र तथा धार्मिक व्यक्तियों को भोजन कराने की हो तो प्रत्येक मास की प्रथम तिथि को अथवा शास्त्र-सम्मति से किसी अच्छे दिन यह कार्य करें। सारांश यह है कि महाराज रणजीतसिंह के उदाहरण पर महारानी को चलना चाहिये। यदि किसी सरदार को महारानी के प्रति सन्मान प्रकट करने और अभिवादन करने के लिये महारानी से भेंट करने की आवश्यकता हो तो महारानी को स्त्रियों के समान नम्रता और शीलता के अनुसार मिलना चाहिये। किसी महीने में पांच अथवा छः सरदार से अधिक एक समय में महारानी भेंट न करें। इन सरदारों से मिलते समय महारानी को जोधपुर, जयपुर और नेपाल की राजकुमारियों की भांति परदे में रहकर भेंट करनी चाहिये। यदि महारानी कृपा-पूर्वक महल के भीतर किसी अपरिचित व्यक्ति को नहीं आने देंगी तो भविष्य में सरदारों तथा अन्य राज-कर्मचारियों को शासन सम्बन्धी कार्यों में बहुत कम परिश्रम करना पड़ेगा।”

सोवरांव युद्ध के पश्चात् पंजाब की जैसी अवस्था हो गई थी, उसका परिचय रेजीडेण्ट की इस चिट्ठी से मिल जाता है। महाराज रणजीतसिंह की परम प्यारी महारानी जिन्दा (महबूबा) ने रेजीडेण्ट की इस आज्ञा के सामने बिना किसी संकोच के सिर झुका लिया। 9 जून को उन्होंने इस चिट्ठी का उत्तर लिखा -

“मैंने आपका पत्र आदि से इति तक ध्यान-पूर्वक पढ़ा। आपने मुझे बताया है कि राज्य-कार्य में हस्तक्षेप करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैंने ब्रिटिश-राज्य और सिख-राज्य दोनों में मित्रता होने के कारण, राज-विद्रोही कर्मचारियों को दबाये रखने को महाराज से अपनी तथा प्रजा की रक्षा के लिये लाहौर में अंग्रेजी सेना और अंग्रेज कर्मचारियों के रहने की प्रार्थना की थी। किन्तु राज्य-कार्य में मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, ऐसा उस समय कुछ भी तय नहीं हुआ था। हां, यह बात अवश्य तय हुई थी कि राज्य-कार्य में मेरे कर्मचारियों से परामर्श जरूर लिया जायेगा। जितने दिन तक बालक दिलीपसिंह पंजाब के नृपति हैं, उतने दिन तक मैं पंजाब की अधीश्वरी हूं। किन्तु इतने पर भी राज्य की भलाई के लिए, नवीन सन्धि के अनुसार यदि और कोई प्रबन्ध किया गया हो तो मैं इसमें भी सन्तुष्ट हूं।
“मुझे अपनी डेढ़ लाख वार्षिक वृत्ति के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना है कि अब इस विषय की चर्चा करना व्यर्थ है। कारण यह है कि मनुष्य की जैसी परिस्थिति हो जाती है, उसी के अनुसार अपने दिन काटता है। फिर इसके जानने से मतलब ही क्या है कि उसका जीवन किस प्रकार से बीतता है? तिस पर भी

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-344


“महाराज के बालिग होने तक यह प्रबन्ध राज्य की भलाई के लिए किया गया है, इससे मैं इसमें भी संतुष्ट हूं।
“सरदारों से एकान्त में मिलने और परामर्श करने के सम्बन्ध में असली बात यह है कि मैंने केवल दो चार सरदारों को बुलाकर परामर्श किया था। एक बार अमृतसर से लाहौर आते समय मैंने उनको यह सम्मति दी थी कि लाहौर में परमा के आने में कोई भलाई नहीं है। दूसरी बार महाराज के निज-खर्च सम्बन्धी परामर्श के लिए मैंने सरदारों को बुलाया था। इसके सिवाय मैं कभी-कभी सरदार तेजसिंह और दीवान दीनानाथ को भी बुला लेती हूं। भविष्य में आपके परामर्श के अनुसार पांच-छः सरदारों को ही बुलाया करूंगी। मेरे अधीन चार-पांच विश्वासी नौकर हैं। मैं उन्हें परित्याग नहीं करूंगी। उस दिन मुलाकात करते समय मैंने आपसे यह कह भी दिया था कि सिवाय इन लोगों के मुझे और किसी से मुलाकात करने की आवश्यकता नहीं है।
“आपने पचास ब्राह्मणों के भोजन कराने और उनके पैर धोने के सम्बन्ध में लिखा है। इस विषय में मुझे इतना ही कहना है कि शास्त्रों की रीति के अनुसार यह एक मामूली कार्य है। इस महीने में और इसके पहले महीने में मैंने यह कार्य किया था। पर जिस दिन से आपका पत्र मिला है, उस दिन से मैंने यह कार्य छोड़ दिया है। आगे से आपके नियत समय पर ही मैं दान-पुण्य किया करूंगी। परमंडल के ब्राह्मण-भोजन के सम्बन्ध में भी यही कहना है कि वह स्थान अत्यन्त पवित्र कहा जाता है, इसलिए वहां ब्राह्मण भेजे गए थे।
“आप लिखते हैं कि आप पंजाब में सुव्यवस्था करने के, महाराज रणजीतसिंह के परिवार और हमारे सम्मान की रक्षा के विशेष प्रयासी हैं। हमारी प्रतिष्ठा के लिए अंग्रेज सरकार जो कुछ उपाय करेगी, उसके लिए हम अंग्रेजों के कृतज्ञ रहेंगे।
“आपने जयपुर, जोधपुर और नैपाल की राजकुमारियों के समान मुझे भी पर्दे में रहने के लिये कहा है। इसके सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना है कि वे राजकुमारियां राज्य-कार्य में भाग नहीं लेती हैं। अतःएव उनका पर्दे में रहना सहज है। उनके राज्य में स्वामिभक्त, बुद्धिमान और विश्वासी राजकर्मचारी अपने राजा की भलाई की प्राण-पण से चेष्टा करते हैं। किन्तु यहां जिस राजभक्ति से राज-कर्मचारी काम करते हैं सो आपसे अविदित नहीं है। आप यह विश्वास रखियेगा कि कोई अपरिचित व्यक्ति हमारे यहां जनाने में नहीं आता है और आगे भी कोई अपरिचित व्यक्ति नहीं आयेगा। इस पर भी मेरी आप से यह प्रार्थना है कि आप ऐसे विश्वस्त सरदार नियुक्त कर दीजिये जो आपको मेरे सम्बन्ध में समाचार देते रहें। किन्तु दरबार का कोई भी सरदार इस काम के लिये नियुक्त न किया जाए। यह बड़ी खुशी की बात है कि महाराज रणजीतसिंह

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“अंग्रेजों के साथ मित्रता कर गये हैं जिसका अमृत-फल मैं और बालक महाराज दिलीपसिंह दोनों भोग रहे हैं। जब कभी आवश्यक समझें मुझे शिक्षा देने से चूकियेगा नहीं।”

कई इतिहास लेखकों ने इस पत्रोत्तर को महारानी की कूटनीतिज्ञता बताया है। हम उनके विचार पर टिप्पणी नहीं करते। किन्तु इतना कहना अवश्य चाहते हैं कि महारानी ने अपनों (खालसा) से बैर और गैरों (लालसिंह आदि) से प्रेम करने का जो अपराध किया था, उसका फल उन्हें तुरन्त भोगना पड़ा कि उन्हें राज्य-कार्य से अलग रहने ही को नहीं कहा गया, किन्तु पुण्य-धर्म करने तथा पर्दे से बाहर रहने पर भी हिदायतें सुननी पड़ीं। हैनरी की चिट्ठी “जिसकी लाठी तिस की भैंस” के सिवाय क्या हो सकती है? धीरे-धीरे अंग्रेजी विज्ञप्तियों ने वह वातावरण पैदा कर दिया था, जिससे मूर्ख भी समझने लग गये थे कि अंग्रेज पंजाब को हड़पना चाहते हैं। अंग्रेजों को महारानी के दान-पुण्य के तरीके में भी षड्यंत्र की गंध आने लगी। यही क्यों, रेजीडेण्ट हैनरी को महारानी के प्रत्येक कार्य में षड्यंत्र की बू आती थी। मुलतान से महारानी की एक सहेली सफेद गन्ने लाई थी। रेजीडेण्ट ने गन्ने में भूत देखा। वह यह कि महारानी मुलतान के दीवान मूलराज से मिलकर विद्रोह का झंडा खड़ा करना चाहती हैं। उन्हीं दिनों परमा नामक व्यक्ति ने तेजसिंह की हत्या की कौशिश की थी। इस साजिश में महारानी के सेक्रेट्रियों को भी गिरफ्तार किया गया और महारानी पर मुकद्दमा लार्ड हार्डिंग के आगे चलाया गया। किन्तु लार्ड साहब ने महारानी को निर्दोष सिद्ध कर दिया। इतना करके भी हैनरी चुप न रहा। उसने महारानी पर दोषारोपण किया कि वे बालक महाराज को बिगाड़ती हैं।

7वीं अगस्त सन् 1847 को अच्छा काम करने के उपलक्ष्य में अंग्रेज सरकार की ओर से सिख सरदारों को उपाधियां दी गईं। तेजसिंह को राजा की उपाधि मिली थी। सिख-दरबार का परम्परागत नियम था कि जिस किसी को यह उपाधि दी जाती थी, पंजाब-नरेश उसके स्वयं टीका करते थे। किन्तु उस दिन महाराज दरबार में देर से पहुंचे। हैनरी साहब ने महाराज से तेजसिंह के टीका कर देने को कहा। बालक महाराज ने अपने छोटे-छोटे हाथों को पीछे की ओर हटा कर टीका करने से मना कर दिया। रेजीडेण्ट हैनरी ने सिख पुरोहित से टीका करवा दिया। रात को प्रसन्नता में आतिशबाजी के खेल हुए। महाराज वहां भी नहीं गये। रेजीडेण्ट ने समझ लिया कि यह सब काम महारानी साहिबा के हैं।

लार्ड हार्डिंग, सर हैनरी आदि सभी के दिल में यह बात समा गई कि यदि दिलीपसिंह अपनी माता के पास बहुत दिनों तक रहेंगे तो बिल्कुल अयोग्य हो जाएंगे। इसलिए महारानी के प्रभाव से महाराज को अलग रक्खा जाना उचित है। इसी विचार के अनुसार लार्ड हार्डिंग ने 16वीं अगस्त को सर हैनरी लारेंस को


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लिखा कि “महारानी को लाहौर से निर्वासित करने के सम्बन्ध में दरबार में स्पष्ट रूप से सम्मति ली जाए।” अंग्रेजों के मनोनीत सभासद भला लाट साहब के प्रस्ताव के खिलाफ बोल सकते थे? उनके लिए लाहौर से 16 कोस की दूरी पर शेखपुरा में चार हजार मासिक की वृत्ति पर नजरबंद रहने का प्रस्ताव पास हो गया। महारानी साहिबा को लाहौर से निर्वासित करते समय बालक दिलीपसिंह को शालामार बारा में भेज दिया गया था। रात को आपको वहीं रखा गया। सवेरे लाहौर लौटने पर उन्हें मालूम हुआ कि उनकी माता निर्वासित कर दी गई हैं। मातृ-वियोग में वे बड़े दुखी हुए। उन्होंने अपने नित के स्थान समन-बुर्ज में रहने की मनाही कर दी और तख्तगाह के पास के कमरों में रहने लगे। कुछ दिन के बात आपकी माता ने आपके पास कुशल-समाचार भेजे। खाने को मिठाई तथा खेलने को तोते भेजे। उन्हें पाकर महाराज बड़े प्रसन्न हुए। पर आगे से रेजीडेण्ट ने माता-पुत्र के बीच पत्र-व्यवहार को भी बन्द कर दिया।

लाहौर छोड़ने से पहले महारानी एक बार रेजीडेण्ट से मिलना चाहती थीं। किन्तु रेजीडेण्ट ने मिलने से इनकार कर दिया। अलबत्ता उनसे कहा गया कि वे अपने जेवर आदि सब साथ ले जा सकती हैं और यदि साथ न ले जाएं तो अपने नौकरों के पास जिन पर उन्हें विश्वास हो, छोड़ सकती हैं। तेजसिंह ने कहा था कि महारानी अपने साथ छः लाख के करीब के आभूषण तथा जवाहरात ले गई थीं। पंजाब में उन दिनों यह भी अफवाह उड़ी थी कि महारानी साहिबा को शेखूपुरा जाने के लिए जबरदस्ती से केश पकड़ कर के निकाला गया है। किन्तु सरकारी कागज-पत्रों से मालूम हुआ है कि हैनरी साहब ने उन्हें सम्मानपूर्वक शेखूपुरा पहुंचाया था। 19वीं अगस्त को महारानी शेखूपुरा पहुंची थी। यह स्थान मुस्लिम आबादी के बीच में था। उनकी रखवाली का भार भूरसिंह नामक व्यक्ति पर सौंपा गया था।

इस घटना के थोड़े ही दिन पीछे हैनरी साहब का स्वास्थ्य खराब हो गया। इसलिए वे डॉक्टरों की सलाह से अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए इंग्लैंड चले गए। उनके स्थान पर सर फ्रेडिक कैरी पंजाब के नये रेजीडेण्ट मुकर्रिर हुए। लार्ड हार्डिंग के शासन के भी दिन पूरे हो चुके थे। उनके स्थान पर मारक्किस आफ डलहौजी भारत के गवर्नर जनरल नियुक्त हुए। लार्ड हार्डिंग ने लार्ड डलहौजी को चार्ज संभालते हुए कहा था कि भारत में अगले सात वर्ष तक गोली चलाने की किञ्चित भी आवश्यकता न रहेगी। किन्तु प्रत्येक अंग्रेज वही करता है जिसे वह अपने देश के लिए हितकर समझता है। लार्ड डलहौजी नहीं चाहते थे कि भारत के देशी राज्य बने रहें। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी के अनुसार पंजाब के साथ भी वही सलूक किया जो वे उचित समझते थे।

पंजाब के नये रेजीडेण्ट ने 6 अप्रैल सन् 1947 को गवर्नर जनरल को लिखा


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था कि समस्त पंजाब में पूर्ण शान्ति है। सर्व-साधारण वर्तमान अवस्था से संतुष्ट हैं। लार्ड डलहौजी स्वयं भी इसके पूर्व ही विलायत कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स को लिख चुके थे कि पंजाब में किसी प्रकार का उपद्रव नहीं है। वहां पूरी तरह से शान्ति है। महारानी जिन्दा के निर्वासन से पंजाब निवासी क्षुब्ध थे किन्तु फिर भी वे कोई झगड़ा मचाना पसन्द नहीं करते थे। एक बात और भी थी कि पुराने खालसा के सैनिक और सरदार अब लाहौर की सेना में नहीं थे, न खालसा का अब वह जोर था। नहीं तो यह हो नहीं सकता था कि महारानी इस तरह निर्वासित कर दी जातीं। खालसा में चाहे उद्दण्डता रही हो, राजनैतिक ज्ञान की कमी रही हो, किन्तु राज-परिवार के प्रति उसके हृदय में कूट-कूट कर शक्ति भरी हुई थी।

मुलतान-विद्रोह

मुलतान लाहौर दरबार के नीचे एक सूबा था। महाराज रणजीतसिंह के समय में वहां का दीवान सावनमल था। उसके मरने पर उसका बेटा मूलराज दीवान हुआ। मूलराज ने राजधानी लाहौर में गृह-कलह देखकर खालसा-दरबार को खिराज देना बन्द कर दिया और अपने लिए खुद-मुख्तार शासक घोषित कर दिया। इसलिए उस पर सन् 1845 ई० में लाहौर-दरबार ने चढ़ाई कर दी थी और इस युद्ध के उपरान्त उसने लाहौर दरबार को अठारह लाख रुपया देना मंजूर कर लिया; किन्तु इसी बीच अंग्रेजों से सिख-दरबार की लड़ाई छिड़ जाने के कारण मूलराज रुपया अदा करने से चुपकी लगा गया। युद्ध समाप्त होने पर मंत्री लालसिंह ने सिख-सेना मूलराज के विरुद्ध युद्ध करने को भेजी; किन्तु इस सेना को मूलराज ने हरा दिया। सर हैनरी लारेन्स ने मध्यस्थ बनकर, झगड़ा मिटाने के लिए, यह फैसला किया कि एक तो मूलराज झंग को छोड़ दें और अब तक का बकाया कुल खिराज तथा दीवानी प्राप्त करने का नजराना दरबार को दे। इसके पूरा करने के लिए मालगुजारी और चुंगी बढ़ा दी जाए। दूसरे, मुलतान के दीवानी-फौजदारी के मामलों की अन्तिम अपील लाहौर-दरबार में हुआ करें। इस निर्णय के अनुसार मूलराज को पन्द्रह लाख सत्ताईस हजार के बजाय सोलह लाख अड़सठ हजार देना पड़ता था। निर्णय के समय तो मूलराज बहुत प्रसन्न हुआ; किन्तु पीछे मालगुजारी की उगाही में कठिनाई आने के कारण, घबराहट पैदा हुई और इसीलिए उसने सन् 1847 ई० में लाहौर आकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कारण उसने यह बताये कि मालगुजारी बढ़ाई जाने के कारण वसूली में कठिनाई पड़ती है। दूसरे उनके यहां के अभियोगों की अपील लाहौर होने से प्रजा पर से उनका प्रभाव कम हो गया है। इस्तीफा के साथ ही मूलराज ने यह भी प्रार्थना की कि गुजारे के लिए उसे कोई जागीर दे दी जाए। साथ ही इस्तीफा को दरबार से गुप्त रक्खा जाए।


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जिस समय यह इस्तीफा पेश हुआ, उस समय लाहौर में रेजीडेण्ट सर हैनरी लारेन्स न था, वह विलायत चला गया था। सर फ्रेडिक कैरी के आने तक हैनरी का छोटा भाई जौन लारेन्स कार्य कर रहा था। उसने मूलराज को इस्तीफा वापस लेने के लिए समझाया। मूलराज ने मंजूर कर दिया और वह वापस मुलतान आ गया। फिर मि. जौन लारेन्स ने उसे लिखा कि इस्तीफा वापस लेना चाहो तो अभी वापस दिया जा सकता है, लेकिन मूलराज रजामन्द न हुआ। जब मि० फ्रेडिक कैरी पंजाब का रेजीडेण्ट होकर आ गया तो उसने भी मूलराज को त्यागपत्र वापस लेने के लिए लिखा, किन्तु मूलराज की कुछ समझ में न आया। इस पर रेजीडेन्ट कैरी ने मूलराज को लिख भेजा कि इस्तीफा मंजूर होने पर उन्हें कोई जागीर न दी जाएगी, किन्तु पिछले दस बरस का हिसाब और देना होगा। मूलराज ने इसके उत्तर में लिख भेजा कि - “मैं किसी-न-किसी भांति अपने बाप के समय के कागज-पत्र इकट्ठा करूंगा। लेकिन उन सब कागजों को दीमक खा गई है। उससे आपका कोई मतलब हल न होगा। मैं तो सब तरह से आपके आधीन हूं।” मूलराज के इस उत्तर के आने पर रेजीडेण्ट ने सरदार काहनसिंह को सूबेदार मुकर्रर करके मुलतान को भेजा1 और उसके साथ बारेन्स अगन्यू और लेफ्टीनेन्ट अन्डरसन की मातहती में 6 तोपें तथा कुछ फौज भी भेजी। मूलराज ने इनके मुलतान में पहुंचने पर बड़ी इज्जत के साथ इनका स्वागत-सत्कार किया। दूसरे दिन हिसाब-किताब हुआ जिसमें अंग्रेजी अफसरों और मूलराज के बीच कुछ अनबन हो गई। किन्तु आखिर में सब ठीक हो गया। तीसरे दिन मूलराज ने काहनसिंह और दोनों अंग्रेज अफसरों को किले के समस्त स्थान दिखा कर कुंजियां उनके हवाले कर दीं। इसी समय गोरखों की पलटनें किले में नियुक्त हो गईं। किले के पहले के कर्मचारियों को भी उनके स्थान पर ज्यों का त्यों मुकर्रर रक्खा गया। इसके बाद काहनसिंह और दोनों अफसर अपने डेरे पर जाने के लिए किले से बाहर निकले। दीवान मूलराज भी उनके साथ था। किले के दरवाजे के बाहर निकलते ही किसी ने अगन्यू पर बर्छे से वार किया। कुछ दूरी पर चलकर अण्डरसन पर भी ऐसा ही वार हुआ।2 हमला करने वाले सिपाही तो भाग गए। सरदार काहनसिंह और मूलराज के साले ने उनको उनके डेर पर पहुंचा दिया। इस तरह से मुलतान में विद्रोह आरम्भ हो गया। मूलराज के साले रंगराम ने मूलराज को विद्रोहियों के साथ मिलने से रोका और उन्हें अंग्रेजों की शरण में जाने को


1. सिख-युद्ध (बंगवासी स्टीम प्रेस से मुद्रित) मे लेखक ने काहनसिंह के स्थान पर खानबहादुरखां लिखा है। पृ० 96।
2. Edward - a Year on the Punjab Frontier में लिखा है कि मूलराज ने इन दोनों अंग्रेजों की रक्षा का उपाय नहीं किया।


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तैयार किया। मूलराज भी अंग्रेजों से मिलने को तैयार था, किन्तु विद्रोहियों ने रंगाराम को इसी बात पर घायल कर डाला। इससे मूलराज को डर के कारण विद्रोहियों में मिल जाना पड़ा। विद्रोही कहते थे - इन अंग्रेजों ने लाहौर-दरबार की स्वाधीनता हर ली है और अब हमारे ऊपर शासन करने यहां आये हैं। मूलराज के विद्रोहियों में मिलते ही मुलतान के चारों ओर विद्रोह खड़ा हो गया। दूसरे दिन प्रातःकाल अंग्रेजी सेना पर गोले बरसने लगे। सरदार काहनसिंह को विद्रोहियों ने उसके पुत्र सहित गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेजों के अधीन की भी प्रायः समस्त सेना संध्या तक विद्रोहियों में जा मिली। केवल 30 आदमी अंग्रेजों के साथी रहे। मि० अगन्यू और अण्डरसन ने पहली बार घायल होते ही बन्नू में स्थित मेजर एड्वार्डिस को अपने ऊपर बीती विपत्ति की चिट्ठी लिख भेजी थी। चिट्ठी के मिलते ही एडवार्डिस साहब 2 तोपें, 20 गोलन्दाज, 12 सौ पैदल, 350 घुड़सवार लेकर मुलतान की ओर चल दिया था। किन्तु अगन्यू और अण्डरसन को एडवार्डिस के रवाना होने की खबर सुनने से पहले ही विद्रोहियों के हाथ से इस लोक से कूंच कर देना पड़ा था।

मुलतान की ओर कूंच करने के साथ ही एडवार्डिस ने लाहौर स्थित रेजीडेण्ट को अपने मुलतान जाने के समाचार की सूचना दे दी थी। साथ ही रेजीडेण्ट से सहायतार्थ सेना भेजने की भी प्रार्थना की। उस प्रार्थना-पत्र में लिखा था कि यदि विद्रोहियों में पहाड़ी जातियां मिल गईं तो परिस्थिति बड़ी भयंकर हो जाएगी। परन्तु रेजीडेण्ट ने उनकी बातों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया।

लाहौर में इस विद्रोह के ज्यों ही समाचार पहुंचे त्यों ही प्रतिनिधि सभा के समस्त सिख सरदारों ने एक स्वर से रेजीडेन्ट साहब से प्रार्थना की कि मुलतान विद्रोह को दबाने के लिए सिख सेना न भेजी जाए, क्योंकि सिख सेना सोवराव युद्ध के बदले के भाव तथा पंजाब की वर्तमान दशा के कारण अंग्रेजों से जल रही है। पूरी संभावना है कि सिख सेना मुलतान जाते ही विद्रोहियों में मिल जाएगी। इसलिए अंग्रेजी सेना भेजकर विद्रोह को शांत कीजिए। रेजीडेण्ट को चाहिए था कि सिख सरदारों की प्रार्थना पर ध्यान देते, क्योंकि पहले ही सन्धि के अनुसार पंजाब-दरबार की सहायता करना उनका फर्ज था। दूसरे, आजकल पंजाब के वे कर्ता-धर्ता थे। प्रतिनिधि सभा तो उनकी आज्ञा पर कार्य करती थी। यदि उनके समय में सिख साम्राज्य में कोई गड़बड़ी कहीं भी होती है तो यह उनकी जिम्मेदारी है। किन्तु उन्होंने न सिखों की प्रार्थना सुनी, न सन्धि के नियम का पालन किया और न अपने उत्तरदायित्व को निवाहा। अंग्रेजी सेना मुलतान में भेजने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि अपने दो अंग्रेजों के वध का बदला लेने की गर्ज से भी उन्होंने अंग्रेजी सेना न भेजी। खेद के साथ लिखना पड़ता है कि लार्ड डलहौजी को भी रेजीडेण्ट की ही बात उचित जंची। इस प्रकार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-350



की उपेक्षा से यह सन्देह होना क्या गलती की बात है कि अंग्रेज पंजाब को अपने राज्य में मिला लेने के लिए इस विद्रोह को सारे पंजाब में बढ़ने देना चाहते थे। लार्ड हार्डिंग की वह चिट्ठी भी इसी सन्देह को सही कर देने वाली है, जो उन्होंने रेजीडेण्ट कैरी को विलायत से लिखी थी1। अंग्रेजी सेना के कमाण्डर-इन-चीफ तक मुलतान विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजने को राजी न थे। उन्होंने कहा था कि - “इस समय मुलतान में एक ब्रिगेड भेजना भी ठीक न होगा।” यह विद्रोह बरसात के समय आरम्भ हुआ था। गफ साहब जाड़े के दिनों में सेना भेजने को अवश्य कहते थे। लार्ड डलहौजी ने कहा था - “इसमें सन्देह नहीं कि अंग्रेजी सेना के न भेजने से मुलतान विद्रोह दबेगा नहीं और समस्त पंजाब में फैल जाने की भी सम्भावना है। किन्तु इस पर भी हम पंजाब की रक्षा के लिए अंग्रेजी सेना नहीं भेज सकते हैं क्योंकि वर्षा ऋतु में अंग्रेजी सेना का स्वास्थ्य बिगड़ जाने की सम्भावना है।” कैसी विचित्र युक्ति है! उनकी इस निराली युक्ति पर उन्हीं के देशवासी क्या कहते हैं, वह भी जानना आवश्यक है। इवान्सवेल मेजर ने कहा था - “गवर्नर जनरल और प्रधान सेनापति को जानना चाहिए था कि गर्मी और बरसात में एक ब्रिगेड सेना भेजने से जो हानि होती, उससे कहीं बढ़ कर समस्त पंजाब में विद्रोह उत्पन्न होने से अंग्रेज और देशी सेनाओं तथा पंजाब प्रजा की होती2।” सर हैनरी लारेन्स ने लिखा है कि3 - “शीतकाल में स्वयं लार्ड डलहौजी शिकार खेलने को जाने वाले थे। इसी से सेना भेजने में विलम्ब हो रहा है।” आगे उन्होंने लिखा है कि - “यदि हम भारत की प्रत्येक ऋतु को सहन नहीं कर सकते तो वहां हम कदापि नहीं ठहर सकते हैं।” (Trotar's History of India Vol. I. Page 134 में) मेजर इवान्सावेल का कथन है कि - “यदि सेना भेजने की यह देरी सरल अन्तःकरण से हुई हो तो मैं इसको अराजनैतिक और भ्रमात्मक कहूंगा और यदि इस नीयत से सेना भेजने में देरी हुई हो कि समस्त पंजाब में अराजकता छा जाने से ब्रिटिश गवर्नमेण्ट रणजीतसिंह् के राज्य को जब्त कर लेगी तो मैं इस चाल को घृणित और कलंकित कहूंगा।”

अंग्रेजों के बड़े-बड़े अधिकारी तो राजनैतिक दाव-पेचों में गोते लगा रहे थे, किन्तु मेजर ऐडवार्डिस डेरागाजी में स्थित जनरल कोर्टलेण्ड की सेना की सहायता


1. 1847 के अप्रैल में हार्डिंग ने रेजीडेण्ट कैरी को लिखा था - “इंग्लैण्ड में जिस प्रकार से आन्दोलन हो रहा है, उससे निश्चय है अंत में पंजाब जब्त किया जाएगा।”
2. Retrospects and prospects of Indian Policy, P. 196-7
3. Marohman's History of India, Vol. II, P. 658.



जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-351



लेकर, मुलतान के विदोहियों को दबाने के लिए तैयार हो गए। कोर्टलेण्ड की सेना में सुवानखां की कुछ सेना व 6 तोपें भी थीं । यह भी ऐडवार्डिस ने साथ ले लीं और सन् 1848 ई० की 11 मई को मानग्रोटा किले पर कब्जा कर लिया। कुछ ही समय पश्चात्, कोर्टलेण्ड ऐडवार्डिस का साथ छोड़ गया, क्योंकि रेजीडेण्ट की आज्ञा उसे वापस लौटने की थी। फिर भी ऐडवार्डिस विद्रोह को दबाने में लगे रहे। उन्होंने प्रायः 500 विद्रोहियों से हथियार ले लिए और उन्हें काबू में कर लिया। 16 मई को अपनी ही जिम्मेवारी पर नवाब बहावलपुर से सहायता की प्रार्थना की। इसी बीच उन्हें पता लगा कि कुछ विद्रोहियों ने पीरावालो पहुंच कर उत्पात करने की ठानी है। एडवार्डिस ने 32 मील के लम्बे सफर को तय करके, पीरावालो में पहुंच कर, कोर्टलेंड को सहायता दी। किन्तु विद्रोहियों ने कुछ उत्पात न किया था। कौराखां भी आकर एडवार्डिस से मिल गया। इसने विद्रोहियों को दबाने में खूब बहादुरी दिखाई थी। यह अंग्रेजों का मित्र और खौस लोगों का सरदार था। बहावलपुर के नवाब की 12 हजार सेना की सहायता तथा अन्य जमींदारों की सहायता से एडवार्डिस विद्रोह को दबाने की कोशिश करने लगे।

विद्रोही-दल ने रंगाराम के संचालन में, कनेरी के घाट पर, एडवार्डिस से घोर युद्ध किया। बहावलपुर की सेना ने इस युद्ध में विशेष बहादुरी का कोई भी काम नहीं किया। मि० एडवार्डिस के पांव उखड़ गए। वह भागना ही चाहता था कि इतने में कोर्टलैण्ड की भेजी हुई कुछ सेना आ गई। इससे विद्रोहियों के पांव उखड़ गए और वे अपनी 8 तोपें छोड़कर भाग गए। इस हार के कारण मूलराज के हाथ से सिन्ध और चिनाव के बीच के इलाके निकल गए। बहावलपुर के नवाब ने इस समय और भी सहायता एडवार्डिस की यह की कि उसने सहायतार्थ पचास हजार रुपये दिए। लाहौर दरबार की ओर से इमामुद्दीन चार हजार सेना लेकर इसी समय आ गया। इस तरह से एडवार्डिस के पास 22 तोपें और अठारह हजार सेना हो गई। एडवार्डिस इन सेनाओं को लेकर मुलतान की ओर बढ़ा। मूलराज ने, जब कि ये लोग मुलतान से केवल 8 मील दूर रहे थे, ग्यारह हजार सेना और 10 तोपों के साथ आक्रमण किया। मूलराज की सेना ने इस समय अद्भुत वीरता दिखाई कि अंग्रेजी सेना के पांव उखड़ गए। किन्तु इसी समय दुर्घटित घटना ने रंग बदल लिया। मूलराज के हाथी के ऊपर तोप का एक गोला गिरा, जिससे वह हौदे से नीचे गिर पड़ा। मूलराज की सेना उसे मरा हुआ जान कर भाग खड़ी हुई। मूलराज तुरन्त घोड़े पर सवार होकर 281 आदमियों को खेत में छोड़कर मुलतान दुर्ग में भाग गया। यह युद्ध पहली जुलाई सन् 1848 ई० को हुआ था।

एडवार्डिस की यह विजय कुछ विशेष लाभकारी न हुई, क्योंकि उसे मुलतान


1. Kaye's Lives of Indian Officers Vol ii, P. 397-8


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-352


जीतना आसान दिखाई न देता था। उसके लिए बड़े-बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता थी। मुलतान का दुर्ग लेना वास्तव में टेढ़ी खीर थी। मूलराज ने किले में बैठकर तैयारी करनी शुरू कर दी। सिख लोग अंग्रेजों के कृत्यों से रात-दिन अधिकाधिक कुढ़ते जा रहे थे। इसीलिए वे दल के दल विद्रोही सरदार मूलराज की सहायता के लिए इकट्ठे होने लगे। मि० एडवार्डिस ने अपने इतिहास में लिखा है कि - “सिख सेना से सहायता पाने के भरोसे मूलराज बागी नहीं हुआ था, किन्तु ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के द्वारा उसे न दबाने के कारण वह सिख सेना को विद्रोही बनाने में सफल हुआ।” उसने अपने इतिहास में एक अन्य स्थान पर लिखा है - “मैं पंजाब के दूसरे अंग्रेजों के साथ स्थिर विश्वास रखता हूं कि यदि मुलतान-विद्रोह शीघ्र दबा दिया जाता, तो कभी भी उससे दूसरा सिख-युद्ध न उभड़ता। यदि सन् 1843 ई० के जून में या जुलाई में मुलतान ब्रिटिश सेना द्वारा उससे छीन लिया जाता, तो कभी भी रणजीतसिंह के राज्य को डुबा देने का मौका नहीं मिलता।”

महारानी जिन्दा के निर्वासन के कुफल

यह पहले ही लिखा जा चुका है कि महारानी जिन्दा शेखपुरा में नजरबन्द कर दी गई थीं। नया रेजीडेण्ट सर फ्रेडरिक कैरी महारानी की प्रत्येक हलचल पर ध्यान रखता था। वह उन्हें सन्देह की दृष्टि से खाली न देखता था। कैरी को समाचार मिला कि महारानी से लालसिंह का एक अर्दली साहबसिंह गुप्त रूप से मिला है। उसने तुरन्त महारानी को भविष्य में इस प्रकार न मिलने की आज्ञा दी और साहबसिंह को डांट बताई कि भविष्य में शेखपुरा दुर्ग के निकट भी देखा गया तो उसे दंडित किया जाएगा। इस घटना के पश्चात् महारानी ने अपने किले के पहरेदारों को साठ-साठ रुपये की कण्ठी इनाम में दी। कैरी ने आज्ञा दी कि यदि कोई भी सैनिक और सेनापति महारानी से पुरस्कार स्वरूप कोई वस्तु लेगा तो उसे सजा दी जाएगी। पहरेदारों से वे कंठियां भी वापस करा दीं। इतने पर भी कैरी को सन्तोष न हुआ और पुराने पहरेदारों को हटा कर नये नियुक्त किये गए, जो कि अधिकांश में महारानी से द्वेष रखने वाले थे। इसके पश्चात् रेजीडेण्ट कैरी को समाचार मिला कि महारानी ने महाराज दिलीपसिंह और राजा गुलाबसिंह के पास एक-एक आदमी भेजा है, किन्तु यह बात साबित न हो सकी। फिर भी महारानी की निगरानी और भी कठोर हो गई। रेजीडेण्ट ने यह भी नृशंस आज्ञा दी कि महारानी अपनी सेविकाओं व सेवकों के सिवाय किसी से बातचीत न किया करें। वे अपने पत्रों को जो उन्हें बाहर भेजने हों, पहले किलेदार को दिखा दिया करें। उनको अपने राज्य में ही गैरों द्वारा इस तरह से अपमानित और दुखित किया जा रहा था, इससे सिख लोगों की आन्तरिक ज्वाला


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और भी धधकने लगी। महारानी ने लाचार होकर अपनी शोचनीय अवस्था का ज्ञान कराने के लिए, अपने वकील जीवनसिंह को लार्ड डलहौजी के पास कलकत्ता भेजा।

सन् 1848 ई० की दूसरी फरवरी को जीवनसिंह ने कलकत्ता पहुंच कर लार्ड डलहौजी से निवेदन किया कि मैं महारानी की ओर से वकील नियुक्त होकर सेवा में हाजिर हुआ हूं। उनके साथ जो निष्ठुर और अन्यायपूर्ण व्यवहार हो रहा है, उससे वे बहुत दुखी हैं। वह कौन सा अपराध है जिसके लिए उन्हें ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की ओर से ऐसी यातनाएं दी जा रही हैं? इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए क्योंकि महारानी इस समय अंग्रेजों के संरक्षण में हैं। जब तक इस विषय की तहकीकात न हो जाए, तब तक उनके साथ राज-माता और राज-रानी के समान व्यवहार होना चाहिए और उन्हें तब तक अपने हितैषियों, सम्बन्धियों और सलाहकारों से भेंट करने से न रोका जाए। वास्तविक बात क्या है, इसकी शीघ्र जांच होनी चाहिए। लार्ड डलहौजी की सरकार ने जीवनसिंह को जो उत्तर दिया, वह बिलकुल अनुचित और अन्यायपूर्ण था - “सरकार जीवनसिंह को महारानी का वकील नहीं मानती है। महारानी को जो कुछ कहना हो, वह रेजीडेण्ट द्वारा कहलाएं।” यह डलहौजी की सरकार का उत्तर था। जिसके विरुद्ध शिकायत थी, उसी के द्वारा शिकायत की जाए! क्या खूब? यह उत्तर जीवनसिंह को 18 फरवरी को मिला था। उन्होंने 23 फरवरी को फिर गवर्नमेण्ट से प्रार्थना की -

“जहां शेखूपुरा में महारानी को कैद किया गया है, वह साधारण कैदियों का कैदखाना है। जिन सरदारों को वहां रखवाली के लिए रक्खा गया है, उन सरदारों के पकड़ने के कारण ही महारानी ने अपनी तथा अपनी संतान की रक्षा के लिए पहले ब्रिटिश सेना की सहायता मांगी थी। इस समय महारानी अपने किसी भी हितचिन्तक से, यहां तक कि अपने धर्मगुरु से भी नहीं मिल सकती हैं। अधिक क्या, जो थोड़ी सी बांदी-दासियां उनके पास हैं, वे भी उनके शत्रुओं की रखी हैं। महारानी के साथ यहां तक कठोर बर्ताव किया जाता है कि उनकी इच्छानुसार खाने-पीने की भी चीजें नहीं मिलती हैं। लाहौर में महारानी के जो भाई-बन्धु हैं, वे यहां तक डर गये हैं कि उनकी समझ में रेजीडेण्ट से महारानी की कठोर यातना की कोई भी बात कहने से उन्हें भी रेजीडेण्ट का कोपभाजन होना पड़ेगा। अच्छा हो कि गवर्नमेण्ट महारानी की रक्षा का भार किसी ब्रिटिश कर्मचारी के सुपुर्द कर दे।”

इसके उत्तर में लार्ड डलहौजी ने जीवनसिंह को जो उत्तर दिया था, वह एकदम से उनकी बदनीयत को जाहिर करने वाला तो है ही, साथ ही वह इतना अनुचित भी है कि कोई भी ईमानदार और योग्य आदमी इस उत्तर की दाद नहीं दे सकता। डलहौजी ने कहा -“महारानी ने अपने आपको रणजीतसिंह की विधवा और मौजूदा महाराज की मां कहकर दरख्वास्त की है, इसलिए वह मुझसे किसी किस्म


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की उम्मेद न करें”1 क्या महारानी जिन्दा रणजीतसिंह की विधवा न थीं और क्या महाराज दिलीप की मां जिन्दा के बजाय विलायत की कोई भिखमंगी मेम थी? इसमें उन्होंने अपराध ही क्या किया था?

इसके दो-तीन मास पश्चात् मई महीने में रेजीडेण्ट को पता लगा कि मुलतान की बगावत में साजिश पाई जाती है, और इस साजिश में महारानी जिन्दा का भी हाथ है। क्योंकि उनके वकील गंगाराम और कई अन्य व्यक्तियों के शामिल होने का सबूत हो चुका था। गंगाराम को एक सिख समेत फांसी पर चढ़ा दिया गया और दो आदमियों को देश निकाले की सजा हुई। विचार यह किया जाने लगा कि खुली अदालत में महारानी का अभियोग सुना जाए। वाह रे अंग्रेज जाति तेरी हिम्मत! जिस महारानी के पति रणजीतसिंह के लिए तथा खुद जिनको बादशाह तक भेंट भेजते थे, उन्हीं की प्राण प्यारी महबूबा पर जुर्म लगाकर खुली अदालत में फैसला किया जाए! आखिर कुछ सोच समझ कर मुकद्दमा न चलाया गया और निर्णय हुआ कि महारानी साहिबा को पंजाब के बाहर कर दिया जाये। इस आज्ञा पर कौंसिल के तीन मेम्बरों के दस्तखत कराये गये, जिनमें एक राजा तेजसिंह, दूसरा हजारा केशरसिंह का भाई गुलाबसिंह था। इस फैसले में यह भी लिखा गया कि यदि काशी में महारानी के किसी और साजिश में शामिल होने की खबर लगी, तो उन्हें चुनार में बन्द करके कैद को बहुत सख्त कर दिया जायेगा। 14 जून को रेजीडेण्ट ने महारानी को एक चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था कि - “मैं कप्तान लिमिडन और लेफ्टीनेण्ट हडसन के साथ कुछ सरदार भेजता हूं। ये लोग शेखूपुरा से बाहर जाने के सम्बन्ध में आप से कुछ कहें, आप उस पर अमल करने में देरी न करें। ये लोग आपको इज्जत से ले जायेंगे। आपको किसी भी भांति का शारीरिक कष्ट देने का ख्याल नहीं है।” इस चिट्ठी पर बालक महाराज दिलीपसिंह जी की भी मुहर लगवा दी। और यह भी नाटक का एक विचित्र सीन था कि महारानी के देश निकाले पर उसके बेटे की मुहर! सो भी उस हालत में जब कि बेचारे दिलीप नाबालिग हैं, राज-काज में उनका कोई भी दखल नहीं है।

इस पत्र को लेकर रेजीडेण्ट के आदमी शेखूपुरा पहुंचे। जब उन्होंने महारानी के हाथ में देश निकाले का आज्ञा-पत्र दिया तो उन्होंने बड़े धैर्य का परिचय दिया। अविचलित दृश्य से महारानी ने केवल इतना ही पूछा - “मुझे कहां ले चलोगे?” कप्तान ने जवाब में कहा - “यह बात महारानी को बताने में मैं असमर्थ हूं। केवल इतना कह सकता हूं कि महारानी को किसी प्रकार का कष्ट न होगा और न उन्हें अपमानित ही होना पड़ेगा।” महारानी ने समझा कि शायद लाहौर लिये जा रहे हैं। लेकिन जब लाहौर से भी उन्हें आगे ले जाया गया तो उन्होंने कप्तान को बुला


1. तारीख पंजाब। भाई परमानन्दजी। पे० 525।


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कर पूछा - मैं तुमसे फिर पूछती हूं मुझे कहां लिये जा रहे हो? क्या मेरे देश से बाहर ब्रिटिश-भारत में लिए जा रहे हो? मेरी ओर से रेजीडेण्ट से कहना कि उन्होंने मुझे अंग्रेजी राज्य में रखा है इसके लिये मैं उनकी कृतज्ञ हूं।

बनारस पहुंचने पर मेजर मेकग्रेगर उनके रक्षक नियुक्त हुये। बनारस में उनसे उनके कुल जेवर जो कि पचास लाख कीमत के थे, और दो लाख रुपये नकद सरकार अंग्रेज ने ले लिए। साथ ही उनकी मासिक-वृत्ति भी चार हजार से घटा कर एक हजार मासिक कर दी गई। महारानी जी से जेवर और रुपये छीन लेने के सम्बन्ध में रेजीडेण्ट ने लिखा था - “कुछ षड्यन्त्र सम्बन्धी चिट्ठियां मिली हैं। किन्तु कहा नहीं जा सकता कि ये सही हैं या नहीं। यदि सही हैं तो महारानी बड़े घृणित षड्यंत्र में फंसी हैं। लाहौर में जो कागज-पत्र मिले हैं उनमें महारानी की कुछ असली चिट्ठियां भी हैं। पंजाब से अकस्मात् उनका निर्वासन किये जाने के कारण वे चिट्ठियां उनको नहीं दी गई हैं।” सन् 1848 ई० की जुलाई को इसी अपराध के आक्षेप में उनके कुल जेवर ले लिये गये।

महारानी के निर्वासन के उपरांत पंजाब के रेजीडेण्ट मि० कैरी ने लिखा था - “सौभाग्यवश पंजाब में महारानी के निर्वासित होते समय किसी प्रकार का झगड़ा-बखेड़ा न हुआ। किसी ने भी मेरे विरुद्ध जबान नहीं हिलाई। यहां तक कि महारानी के नौकर-चाकर भी शिष्टता के साथ कार्य करते रहे। इसका कारण यह मालूम होता है कि कुछ दिन पहले अपराधियों को फांसी आदि की कठोर सजाएं दी गई थीं, उससे दूसरे लोग भी समझने लगे कि कहीं हमारे साथ भी ऐसा न हो।” आगे कैरी ने महारानी के सम्बन्ध में लिखा था - “मालूम होता है महारानी को यह डर हो गया था कि कहीं उनकी भी ऐसी ही दशा न हो।”

यह सही है कि अंग्रेज महारानी की भी ऐसी दशा कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा मेहरवानीपूर्वक नहीं किया, यह कहना कठिन है। हम तो यही समझते हैं कि खालसा के डर से, पंजाब में महारानी के साथ, बनारस जैसा दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। क्योंकि रेजीडेण्ट कैरी ने उस समय वाइसराय को लिखा - “राजा शेरसिंह के खेमे से खबर आई है कि खालसा सेना महारानी के देश निकाले के समाचार से बड़ी अधीर हुई है। सेना ने कहा है कि महारानी खालसा की माता हैं। जब कि वही देश से निकाली गई और बालक महाराज हमारे हाथ में नहीं हैं, तो हम अब दूसरे किस की रक्षा करें? हमें किसी के लिए लड़ने का प्रयोजन मालूम नहीं होता है। हम लोग अब मूलराज के विरोधी न होकर अपने सेनापति और सरदारों को कैद करके मूलराज के पक्ष में हो जायेंगे।” तत्कालीन सरकार के पत्रों से जाना जाता है - “सन् 1848 ई० की 24वीं नवम्बर को शेरसिंह एवं अन्य सरदार लोग इसे स्पष्ट कर चुके थे कि महारानी के निर्वासन से शासन-कार्य कठिनाइयों से करना पड़ता है।” अतः यह कहना गलत था कि महारानी और


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सिक्ख सरदार डर गये थे। इस असन्तोष का विस्फोट भी कुछ काल बाद का दूसरा सिक्ख-युद्ध था।

महारानी के साथ किए गए दुर्व्यवहार पर “इंगलिश मैन” ने जो भारत का कट्टर विरोधी था, 1848 ई० की 27 जनवरी के अंक में लिखा था - “महारानी की कैद और देश-निकाला बड़े भयावने अत्याचार के कार्य हैं।.......इस नारी के साथ जैसा कठोर बर्ताव किया है, वह हमारे जातीय कलंक का एक उदाहरण है।”

महारानी के कष्टों की सीमा न रही। वह न किसी से मिल सकती थी और न कोई और उनसे मिल सकता था। जीविका के लिए एक हजार मासिक कम थे। उनका कोई अपराध भी न था। मेकफेयर द्वारा वायसराय को लिखा गया पत्र इसका प्रमाण है - “तेतीस पत्र मिले हैं, पर इनमें विद्रोह-सूचक कुछ भी नहीं है।” बलिहारी है ऐसे न्याय की!

जीवनसिंह ने महारानी के 1000) से गुजारा न होने की वकालत के लिए न्यूमार्च को कलकत्ते पहुंच, नियुक्त किया। न्यूमार्च ने महारानी से मिलने की प्रार्थना की। वकील हैसियत से अकेले बनारस में मिलने की आज्ञा मिली। बनारस पहुंच न्यूमार्च आठ दिन रहे और कई बार मुलाकात की। खर्च के सभी ब्यौरों का अनुसन्धान किया और अत्यन्त विनीत शब्दों में केवल 1000) मासिक रकम व्यय की और बढ़ाने की प्रार्थना की गई। महारानी ने जवाहरात और सम्पत्ति की भी सूची मांगी और यह भी पूछा कि लाहौर-दरबार और दूसरे कौन-कौन इस सम्पत्ति के किस-किस अंश में दावेदार हैं?

महारानी को 5वीं नवम्बर को लाट-साहब का उत्तर मिला - “इस समय जो रकम महारानी के खर्च के लिए मिल रही है, उससे वे अच्छी तरह अपना निर्वाह कर सकती हैं।” इस भांति सब ओर से महारानी को निराश होना पड़ा। दुबारा जांच की प्रार्थना की गई पर वहां भी महारानी का अभाग्य अड़ बैठा और मेजर मेकग्रेगर ने सन् 1848 की 18वीं नवम्बर को सूचना दी - “गवर्नर जनरल महारानी के विषय में फिर तहकीकात करने की कोई आवश्यकता नहीं देखते, इसलिए उन्होंने महारानी के आवेदन को स्वीकार नहीं किया है।” कलकत्ते का सुप्रीम-कोर्ट का दरवाजा भी खटखटकाया, पर वहां भी कुछ ध्यान न दिया गया।

सब ओर से निराश होकर न्यूमार्च साहब ने इंग्लैंड में कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स-सभा में महारानी की कष्ट-कथा रखने के लिए 25000) मांगे! पर भला जहां एक-एक हजार के लिए प्रार्थना की जाती थी, वहां 25000) कहां? हां, शेखूपुरा में रहते अवश्य प्रबन्ध हो सकता था, क्योंकि उस समय महारानी के पास पचास लाख का तो गहना था और दो लाख नकद थे। पर यहां (बनारस में) तो सर्वस्व हरण हो चुका था - निर्लज्जता की हद हो चुकी थी। उनकी तलाशी तक ले ली


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गई थी। यहां 25000) कहां? अतः यह विचार होकर ही रह गया और महाराज रणजीतसिंह की महबूबा अनन्त दुःख सहन करती रही।

हजारा विद्रोह

महारानी जिन्दा के निर्वासन से ही सिख-जाति में विद्रोह की आग धधकने लगी थी। उस समय वह अपमान के कड़वे घूंट पीकर तिलमिला उठी थी। इसके साथ ही हजारा के सरदार चतरसिंह के साथ किए गए विश्वासघातकर्त्ता ने अग्नि में घी का काम किया। सरदार चतरसिंह हजारा-भूमि के शासनकर्त्ता थे। वे पूरे राजभक्त थे। उनके लड़के सिक्ख-सेना के सेनापति थे और विश्वासपात्र होने के कारण ही अंग्रेजी-सेना के साथ मेजर एडवार्डिस के संग मुलतान में विद्रोहदमन के लिये गये थे। इससे जाना जा सकता है कि यह सरदार-परिवार कितना विश्वासी और अंग्रेज-भक्त था?

चतरसिंह की लड़की से महाराज दिलीपसिंह का ब्याह निश्चित हुआ था और चतरसिंह बूढ़ा भी हो चला था, अतः जीते जी कन्यादान के पुण्य का भागी हो जाये इस इच्छा ने जोर मारा और अपने पुत्र शेरसिंह की मार्फत रेजिडेण्ट साहब को लिखा -

“राजा शेरसिंह से कल मेरी गुप्त बातें हुई हैं। उनकी बहन की शादी महाराज दिलीपसिंह से हो यह उनके पिता की वाञ्छा है। उनकी दो काम करने की हार्दिक इच्छा है और वे दोनों ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की अनुमति से हो सकते हैं। आपकी इच्छा अगले वर्ष ही विवाह कर देने की न हो तो चतरसिंह यह आज्ञा चाहते हैं कि हजारा का शासन-भार दो वर्ष के लिए छोड़ तीर्थ कर आयें और यदि इसी वर्ष महाराज दिलीपसिंह का विवाह करना हो तो यह प्रार्थना है कि आपके परामर्श से दरबार एक ज्योतिषी नियत कर दे और वह ज्योतिषी कन्या-पक्ष के ज्योतिषी से मिलकर अच्छा महीना, दिन तय कर ले। राजा शेरसिंह के पिता इस विवाह में दहेज देना चाहते हैं, उसके तैयार करने में एक वर्ष लग जायेगा। दस दिन के भीतर इसका उत्तर मिल जाये, यही आपसे विनय है। ”

उपर्युक्त सिफारिश के साथ ही मेजर साहब ने राज्य की हितचिन्तना के साथ बुद्धिमत्ता-पूर्ण एक सुन्दर सलाह भी लिखी थी कि -

“इस समय विद्रोह और सैनिकों की अशान्ति के कारण पंजाब के निवासियों में यह अफवाह फैल रही है कि बालक दिलीप का राज्य अंग्रेज लेना चाहते हैं। यदि इस विचार से देखा जाये तो इस विवाह का दिन ठहर जाने से राज्य-हरण का सन्देह भी दूर हो जायेगा।”

निःसन्देह उस समय पंजाब में जो ऐसी अशान्ति थी, अगर शादी करने की बात तय हो जाती तो बहुत कुछ अंग्रेजों के प्रति सिख-जनता की सहयोग-भावना की वृद्धि होती, परन्तु मेजर साहब की सलाह का कुछ भी ख्याल न कर इस प्रकार


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गोल-माल उत्तर दिया गया कि तत्कालीन अशान्ति के कारणों में एक और वृद्धि हो गई। उत्तर में इस प्रकार राजनीतिक भाषा(!) थी -

“विवाह सम्बन्धी सभी प्रबन्ध होगा। साधारणतः विवाह का दिन कन्या पक्ष की ओर से तय किया जाता है, किन्तु महाराज के सम्बन्ध में कोई भी बात रेजीडेण्ट की सम्मति और स्वीकृति के बिना नहीं होगी। विवाह का दिन रेजीडेण्ट दरबार के सभासदों से गुप्त परामर्श करके स्थिर करेंगे। पीछे वर और कन्या दोनों ओर के सम्मानानुकूल यह कार्य होगा। उस कार्य को ब्रिटिश गवर्नमेंट करेगी। इस विषय में शेरसिंह को निश्चिन्त रहना चाहिये।”

चतरसिंह के छोटे पुत्र गुलाबसिंह ने जो दरबार में रहते थे और रेजीडेण्ट से बिना किसी रुकावट मुलाकात करते थे, रेजीडेण्ट से विवाह के सम्बन्ध में हुई बातें, अपने पिता चतरसिंह और भाई शेरसिंह को लिख भेजीं। गुलाबसिंह के पत्र से समाचार जान कर चतरसिंह और भी जल उठा। फिर भी विद्रोह करने के भाव न उग सके, हां, जमीन अवश्य तैयार हो गई।

हजारा कट्टर मुसलमानों का केन्द्र था और उस समय आर्यसमाजियों की भांति सिक्ख भी मुसलमान बन गए हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः मुसलमान शासकों की नजरों में खटकते थे। यद्यपि हजारा में एबट साहब के जाने के पूर्व किसी अशान्ति का पता नहीं चलता पर तो भी हजारा के शासन में सहायता करने - सम्मति देने के लिए रेजीडेण्ट ने अपने सहकारी कप्तान एबट को नियुक्त किया। एबट के दोषों के सम्बन्ध में कई प्रमाण हैं। स्वयं पूर्व रेजीडेण्ट सर हेनरी लारेन्स ने लिखा था - “कप्तान एबट हर एक मामले में कुटिल अर्थ लगाकर न्याय को अन्याय सुझाने में सदा उत्सुक रहते हैं। ज्वालासाही की भांति अच्छे सज्जन रईस के साथ अत्याचार करना उनके उसी हठ-धर्म का परिचय है।” कप्तान एबट ने ही झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में कुछ लोगों के विद्रोही होने के सन्देह में, झण्डासिंह को भी दोषी ठहराया था। इस पर नये रेजीडेण्ट फ्रेडरिक ने लिखा था - “झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में यद्यपि कुछ लोग विद्रोही हो गये हैं। पर सरदार झण्डासिंह इस विषय में बिल्कुल निर्दोष हैं। किन्तु एबट कहते हैं झण्डासिंह भी शामिल हैं। उनका विश्वास है कि सरदार विद्रोहियों को मूलराज की सहायता के लिए मुलतान भेजना चाहते हैं।” इसी प्रकार रेजीडेण्ट ने एबट को भी लिखा था कि - “सरदार झण्डासिंह के बारे में आपकी राय बेजोड़ है। क्योंकि यह सरदार हमारे कहने के मुताबिक काम करता है।” एबट के गुणों का वर्णन रेजीडेण्ट कैरी ने गवर्नर-जनरल को इस प्रकार लिखा था - “आपने एबट के चरित्र को भली-भांति समझ लिया होगा। किसी षड्यंत्र की अफवाह सुनते ही वे सत्य मान लेने के लिये तत्पर हो जाते हैं। पास के या दूर के, यहां तक कि स्वयं नौकरों पर भी सन्देह बना रहता है और अपनी समझ


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पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता है कि बार-बार उनको उनकी भूल बताने पर भी, उन्हें अपनी भूल प्रतीत नहीं होती है।”

राजा चतरसिंह के शासन में सहायतार्थ एबट जैसे शंकालु और चालाक को भेजा गया। भोले स्वभाव के निष्कपट वृद्ध चतरसिंह भी एबट के सन्देह-स्वभाव से बच न सके। चतरसिंह की पल्की की सेना में कुछ सैनिक बदलकर मूलराज विद्रोही की सेना से मिलने के इरादे करने लगे थे। यद्यपि चतरसिंह मय अफसर लोगों के विद्रोहियों को दबाने का प्रयत्न कर रहे थे, पर एबट जैसे बहमी दिमाग के लिए यह बहुत था। उसने सोचा इसका कारण चतरसिंह ही हैं। उसके दिल में समा गई कि चतरसिंह विद्रोही है और शीघ्र ही अंग्रेजों को पंजाब से निकाल बाहर करेगा। लाहौर के अंग्रेजों पर शीघ्र ही हमला होने वाला है। इन सन्देहों से घबड़ा कर राजधानी से निकल 16 मील सिरवां नाम के स्थान पर पड़ाव डाल दिया।

सरल स्वभाव के राजा चतरसिंह अपने सहकारी की चाल को कुछ न समझ पाये। इसके लिये अपने वकील को एबट के पास भेजा। एबट ने टका-सा जवाब दिया - “मैं तुम्हारे राजा (चतरसिंह) का विश्वास करता हूं।” ऐसा ऊंटपटांग उत्तर सुनकर भी चतरसिंह ने अपने शान्त स्वभाव, शीलता एवं धीरता का परिचय दिया और एबट को कहला भेजा कि - “यदि आपको सिरवां में रहना मंजूर हो तो मुझे अथवा मेरे पुत्र अतरसिंह को अपने पास रहने की आज्ञा दीजिए जिससे शासन-कार्य में त्रुटि न रहने पाये।” भ्रम-भूत के शिकार एबट द्वारा यह प्रार्थना भी अस्वीकृत हुई। एबट चतरसिंह को विद्रोही कह कर ही शान्त न हुए, बल्कि उनके विरुद्ध मुसलमानों को भड़काने लगा।

अंग्रेज मुसलमानों में सिखों के प्रति कटुता का भाव पैदा कर रहे थे। अतः सन् 1848 ई० की 6 अगस्त को झुण्ड के झुण्ड मुसलमान चतरसिंह के निवास स्थान हरिपुर में इकट्ठे होने लगे। हरिपुर में पहुंच विद्रोही मुसलमान दलों ने नगर घेर लिया। सरदार चतरसिंह ने इस आकस्मिक हमले के सम्बन्ध में कुछ न समझा और नगर-रक्षक सेना को तोप के साथ सामना करने को भेजा। चूंकि सिख सेना पल्की में थी और एबट के सवनी में जाने से उसका रास्ता रुक गया था, अतः वह सहायतार्थ आने में असमर्थ थी।

विपत्ति काल अकेला नहीं आता। इसी तरह सरदार चतरसिंह के लिए भी एक साथ कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। सिक्ख सेना तो आ ही न सकती थी। नगर-रक्षक सेना में अमेरिका का कनोरा नामक एक आदमी तोपखाने का अध्यक्ष था। युद्ध में जाने के लिए जब उससे कहा गया तो उसने कहा - “मैं कप्तान एबट की आज्ञा बिना नहीं जा सकता।” कनोरा को आजकल के फौजी कानून के अनुसार सरदार की आज्ञा न मानने के अपराध में उसी वक्त गोली से उड़ा दिया


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जाना चाहिये था। परन्तु यदि गुड़ के प्रयोग से ही काम निकल जाये तो जहर की क्या आवश्यकता है। यह सोच सरदार चतरसिंह ने समझाया कि तोप लेकर युद्ध के लिये जाओ नहीं तो सहज ही में शत्रु अधिकार कर लेंगे और इस तरह दुखद अन्त हो जायेगा। परन्तु कनोरा ने तोप भर कर बीच में खड़ा हो, उत्तर दिया - “जो कोई मेरे पास आयेगा उसी को गोली से उड़ा दूंगा।” पैदल सेना के दो दलों को सरकार साहब ने आज्ञा दी कि तोप ले आओ। कनोरा सिपाहियों को आते देख बिगड़ उठा। उसने एक सिक्ख हवलदार को गोला बरसाने की आज्ञा दी। पर हवलदार ने साफ इन्कार कर दिया। कनोरा ने क्रोध में उन्मुक्त होकर सिख सरदार का सिर धड़ से अलग कर दिया। स्वयं तोपों की बत्ती सुलगा दी। दैवात् तोपों का निशाना खाली गया। कनोरा क्रोध में पागल हो गया। शीघ्र ही पिस्तौल से सरदार की सेना के दो सिपाही मौत के घाट उतार दिये। इसी समय पैदल सेना में से किसी ने कनोरा का सर तलवार से काट डाला। यही कनोरा की मृत्यु सरदार के अभियोग का खास कारण हुई।

एबट ने कनोरा की अनुशासनहीनता की उपेक्षा करके, उसके वध का दोषी चतरसिंह को ठहराया और रेजीडेण्ट को लिख भेजा - “कनोरा की हत्या सरदार चतरसिंह ने पिशोरासिंह की हत्या के समान ही की है और इसके सम्बन्ध में पहले ही सोच लिया गया था।” चतरसिंह ने भी सच्ची कैफियत रेजीडेण्ट की सेवा में लिख भेजी। पर रेजीडेण्ट ने अपनी मंगाई हुई दोनों सरदार और एबट की कैफियत देखकर एबट को लिखा कि -

“कनोरा की हत्या के सम्बन्ध में आप तथा चतरसिंह दोनों ने मुझे लिखा है। उसको पढ़कर मैंने यह परिणाम निकाला है कि सरदार की बार-बार आज्ञा का उल्लंघन करने तथा उनके भेजे हुए सैनिकों पर विरुद्धाचरण करने के कारण कनोरा की हत्या हुई है। इस सम्बन्ध में जो कुछ आपने कहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूं। सरदार चतरसिंह हजारा के दीवान और सामरिक शासन-कर्त्ता हैं। इसलिए सिख-सेना के अफसर को उनका मान करना चाहिये। इस विषय की अधिक चर्चा न करके मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आपने कनोरा की हत्या, पिशोरासिंह की हत्या के समान कैसे ठहराई है?”

इसी पत्र में आगे एबट की प्रत्येक बात का खण्डन करते हुए सरदार चतरसिंह के कार्य को आत्मरक्षार्थ बतलाया है।

एबट जैसे व्यक्ति पर, जिसे कई बार झूठा कह कर उसकी बातों का खण्डन कर दिया हो, उक्त पत्र का क्या प्रभाव पड़ सकता था? उसने उल्टा चतरसिंह को लिखा - “यदि कनोरा की हत्या करने वाले को मुझे सौंप दिया जाये तो सरदार साहब की सेना और जागीर बनी रह सकती है।” एक दूसरे पत्र में फिर एबट ने लिखा - “कनोरा के हत्यारे को मुझे सौंप दो, क्षण भर में हजारा में शान्ति स्थापित कर दूंगा।” पाठक सोच सकते हैं किसी ऐसे ढ़ांचे का यह विद्रोह था कि


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जिसका रोकना और चलाना एबट के मिनट भर का काम था। इससे साफ हो जाता है कि सिखों के विरुद्ध मुसलमानों के विद्रोह की जड़ में अंग्रेजों की नीति थी।

इस प्रकार सरदार चतरसिंह की गति सांप छछुन्दर की सी हो गई। वह करे तो क्या करे? वह जानता था कि एबट के विरोध का फल अच्छा नहीं भले ही सरकार पत्र-व्यवहार में एबट की बातों पर अविश्वास करती हो। पर कनोरा के मारने वाले को भी वह कैसे सौंप सकता था, जिसने कनोरा को मारकर तत्काल की भारी क्षति को बचाया था। क्योंकि कनोरा तोप के निशानों में सफल हो जाता तो मुसलमानों के पहले वही सरदार को पंगु बना देता। इसकी हत्या के साहसिक कार्य के लिये तो सरदार साहब ने इनाम दिया था। चतरसिंह ने एबट से मिलकर इस सम्बन्ध में समझौता करने एवं भ्रम मिटाने की तजवीज भेजी। परन्तु एबट का दिमाग तो सातवें आसमान पर था और उसमें भीतरी हाथ से गहरी राजनैतिक चाल थी। उसने कहा - “कनोरा की हत्या के पापी से मैं नहीं मिलना चाहता।” एबट इससे भी सन्तुष्ट न हुआ और रेजीडेण्ट को 13वीं अगस्त को एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था - “चतरसिंह सिक्ख-सेना को विद्रोह करने के लिए उत्तेजित कर रहे हैं। उन्होंने जम्मू-नरेश को चिट्ठियां भेजी हैं।” बात यह थी कि सरदार चतरसिंह ने मुसलमानों को दबाने के लिये जम्बू-नरेश को तीन-चार पलटन भेजने के लिये लिखा था। वही पत्र एबट के हाथ लग गया था। पर निकलसन ने दोनों पत्रों को देखकर उनमें किसी तरह के विद्रोह के कारण नहीं पाये। भला उनमें विद्रोह कहां दबा रखा था? सरदार चतरसिंह जिस पर अब तक कितने ही आक्षेप लग चुके थे, इस समय तक पक्का अंग्रेज-भक्त था। जिन पत्रों का सबूत सरदार साहब के बागी होने का किया वे ही निर्दोष होने का प्रमाण हुये।

सरदार चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष हैं, यह वाक्य कहने वाले निकलसन ने ही रंग बदला। कनोरा के हत्यारे के सुपुर्द करने का बहाना मिल गया। कुछ समय बाद ही चतरसिह को लिखा गया - “कनोरा के हत्यारों के साथ अविलम्ब मेरे यहां हाजिर होइये। इस अवस्था में आपके मान और जीवन की रक्षा का भार ले सकता हूं। अब आप अपनी निजामत और जागीर की आशा न रखें।” निकलसन ने इस पत्र की बातें गुप्त रख, उस समय ही रेजीडेण्ट को भी लिखा - “मुझे आशा है कि आप मेरे इस मत से सहमत होंगे कि चतरसिंह को जागीर और निजामत से अलग कर देना ही उचित दण्ड है।” पंजाब के सरकारी कागज-पत्रों से ज्ञात होता है कि रेजीडेण्ट भी दुरंगी चाल चल रहा था। उसने एक ही तारीख में व एक ही दिन के अन्तर से कैसे-कैसे विचार प्रकट किये थे! देखिये -

1858 ई० 23 अगस्त को रेजीडेण्ट ने मेजर एडवार्डिस को लिखा - “चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष है। कप्तान एबट इस पूरे अनर्थ की एकमात्र जड़ हैं।”


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इसी 23वीं तारीख को निकलसन को आज्ञा दी कि “चतरसिंह की जागीर और निजामत छीनकर उसे उचित दंड दीजिये।” और 24 अगस्त अर्थात् चतरसिंह के सर्वनाश के एक दिन पहले ही एबट को डांटते हुये लिखा - “तुम्हारा कार्य अन्यायपूर्ण है। कनोरा की उचित सजा को तुम हत्या नहीं कह सकते।”

उपर्युक्त पत्रों के उद्धरणों से न्याय-अन्याय का अन्दाजा पाठक सरलतापूर्वक कर सकते हैं। पहले तो एबट की नियुक्ति ही 'मान न मान मैं तेरा मेहमान' वाली कहावत के अनुसार थी, परन्तु इस सब में भेद-नीति काम कर रही थी। एक ओर कुछ पत्र-व्यवहार हो रहा है तो एक ओर कुछ ही चाल चली जा रही थी। आखिरकार चतरसिंह को यह दुखदाई समाचार दिया गया। पर सरदार साहब की समझ में न आया कि अपराध क्या है? उन्होंने विनय-पूर्वक प्रार्थना-पत्र भेजा - “मेरे जैसे अंग्रेजों के परम भक्त के साथ क्यों ऐसी सख्ती की जाती है? यदि कोई सन्देह उपस्थित हुआ हो तो कहिये, मैं उसे बिना विलम्ब दूर कर दूं।” पर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा।

बूढ़ा चतरसिंह भावी दुखद आशंका से कांप उठा। उसने कभी नहीं सोचा था कि एबट को उसके अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए फटकारने वाला इब्ट्सन भी उसको छोड़कर निर्दोषी चतरसिंह को दोषी मान लेगा। उसके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। अपना सब कुछ देकर भी उसे दोषी होना अच्छा न लगा। अपराधी होने का कलंक उसके मन में विद्रोह के भाव जमा बैठा। उसने सोच लिया, इस जीने से तो मरना ही अच्छा है। अपनी मान-रक्षा के लिये, इस तीर्थ-यात्रा की उमर में, उस बूढ़े शेर ने बगावत की तैयारी करनी शुरू कर दी। दल के दल सिख उनके झण्डे के निकट आकर इकट्ठे हो गये। महारानी जिन्दा के निर्वासित हुए क्षुभित युवक प्रतिहिंसा के लिए मर मिटने को तत्पर हो गये। जो चतरसिंह कुछ दिन पहले अंग्रेजों का पूरा भक्त था, वही अनुचित अपमान, अत्याचार के कारण विद्रोहियों का नेता बन गया।

मुलतान युद्ध

पीछे कहा जा चुका है कि मूलराज ने मुलतान किले में जाकर अपना संगठन करना शुरू कर दिया था। उसकी शक्ति बढ़ने लगी। देश, धर्म और मान-रक्षा के हितार्थ लोग इकट्ठे होने लगे। यद्यपि जन-साधारण में अंग्रेजों के प्रति असन्तोष बढ़ता जा रहा था, परन्तु सभी प्रधान जागीरदार (सरदार) सब अंग्रेजों के आज्ञाकारी और मददगार थे। सरदारों में से बहुतों ने कई विद्रोह भी दबाए थे, जैसे साहबदयाल नाम के एक सिक्ख राज्य के कर्मचारी ने 1848 ई० में महाराजसिंह के विद्रोह को दबाया था। स्वयं सरदार चतरसिंह का बड़ा लड़का शेरसिंह मेजर एडवर्डिस के साथ मुलतान युद्ध में था।


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यह सही है कि उस समय सरदार लोग अंग्रेजों के साथी थे। परन्तु उनके अधीनस्थ सेना उनके वश की न थी। रेजीडेण्ट कैरी के धमकाये जाने पर कि तुम्हें मुलतान जाना पड़ेगा, उन्होंने विनीत शब्दों में कहा भी कि - “हम मुलतान जाने और मूलराज से लड़ने के लिए तैयार हैं। पर दुख है कि सिख-सेना हमारा कहना नहीं मानेगी। महारानी जिन्दा के देश निकाले से वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये हैं। हम लोगों को अंग्रेजों के प्रेमी होने से देशद्रोही, धर्मद्रोही मानते हैं। समय आने पर या तो वे हमें मार डालेंगे या हमें अपने साथी बनने को बाध्य करेंगे और मूलराज की सेना के सामने पहुंच करके विशेषतः विद्रोही बन जाएंगे।” पर इन बातों को कुछ न सुना गया और उन सबको सिख-सेना के साथ युद्ध के लिए मुलतान जाना पड़ा। सरदार चतरसिंह के पुत्र शेरसिंह की सेना के लोग बागी विचारों के बनने लगे। पर शेरसिंह विद्रोहियों को दंड देने में बड़ा कड़ा था। जिससे प्रसन्न होकर उनकी अंग्रेज-भक्ति पर मेजर एडवार्डिस ने सेना के रेजीडेण्ट से कहा था कि - “सरदार लोग हमारे पूरे पक्षपाती हैं। यद्यपि शेरसिंह की सेना का अधिकांश भाग अविश्वासी हो गया है, तो भी राजा शेर का ऐसा प्रभाव है कि उनमें से किसी को चूं तक भी करने की हिम्मत नहीं होती। वह तुरन्त उसे कड़ी सजा देकर सब को डरा देते हैं।”

मूलराज ने मेजर एडवार्डिस के साथ अब के बहुत से सरदारों को देखा। उसकी दृष्टि इस नरसिंह शेर पर भी पड़ी। वह डरा कि अबकी बार तो महावीर से सामना करना है। पर उसने सोचा अगर यह वीर अपने में आ जाए तो विजयलक्ष्मी अवश्य हमारी होगी। शेरसिंह को मिलाने के लिए उसने दूत भेजा। पर शेर ने दूत को अनादर के साथ रवाना कर दिया। दूत की दुर्गति हुई जान मूलराज जान गया कि शेरसिंह इस तरह अपने कब्जे में नहीं आ सकता तो इसे मरवा ही दिया जाए तो यह बला टल सकती है। पर इस षड्यंत्र में भेजे कुछ व्यक्ति भी पकड़े गये और तोपों के सामने रख उड़ा दिए गये। शेरसिंह की सेना के सिपाहियों के मन तो बदले हुए थे ही। इस घटना से और भी असन्तोष बढ़ा जिसे संभालना शेरसिंह के लिए भी कठिन हो गया। पर शेरसिंह के इतने अंग्रेज-भक्ति के कार्य करने पर भी बाहरी लोगों को यह सन्देह ही रहा कि इन सब की जड़ शेरसिंह ही है।

अंग्रेजों का जबर्दस्त प्रेमी शेरसिंह इस बात से अनभिज्ञ था कि उस पर बाहरी लोग अविश्वास करते हैं। वह मेजर साहब द्वारा समय-समय पर की गई बड़ाइयों पर कृतज्ञता से दबा जा रहा था। वह एबट द्वारा अपने पिता पर किए गए अभियोगों की खबर पाकर भी वैसा ही बना रहा, क्योंकि उसे मालूम हुआ था कि पत्रों द्वारा इसके पिता को निर्दोष साबित कर दिया गया है। उस समय सिर्फ उसने मेजर एडवार्डिस के सामने एबट के अन्याय और पिता के न्यायों की ही चर्चा की। यही


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नहीं, पहली सितम्बर को, एडवार्डिस की सेना के, मूलराज जी की सेना के सामने छक्के छूटने की खबर पाकर बड़ी होशियारी से उन्हें बचाया और तीसरी जून को युद्ध में बड़ी बहादुरी से मूलराज को मार भगा दिया और अंग्रेजों के प्रति अपने अपूर्व प्रेम का परिचय दिया। इस दिन की लड़ाई से प्रसन्न होकर मेजर साहब ने रेजीडेण्ट को लिखा - “शेरसिंह ने अब तक अंग्रेज-प्रेम का उज्जवल उदाहरण दिखाया है। उसका कार्य देखकर स्पष्ट ही मालूम होता है कि बिना इच्छा के वह ऐसा काम नहीं कर सकता। मुलतान में आने के बाद विनय से, भय से अथवा सजा देकर किसी न किसी प्रकार उन्होंने सेना को भक्त बनाए रखा है। राजा शेर ने अपनी सेनाओं का विद्रोह दबाने के लिए इस प्रकार प्रयत्न किया है कि सिख-सेना के लोग उससे चिढ़कर उनको सिख नाम की ग्लानि तथा मुसलमान का जना तक कहते हैं।” दसवीं सितम्बर के पत्र में लिखा - “राजा शेरसिंह और उनके अधीन सरदार लोग विद्रोही सिक्खों के दबाने में कटिबद्ध हैं।” इस तरह सिक्ख सरदार और शेरसिंह बराबर अंग्रेजों की ओर से जी जान से लड़ते रहे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि सेना की अवस्था का बहाना कर लार्ड डलहौजी ने सेना भेजने में देरी कर मूलराज के बल एवं विद्रोही सिपाहियों के बढ़ने में काफी मदद की। चौथी सितम्बर को मुलतान का किला घेरने के लिए तोपें पहुंचीं। अब तक सेनापति ह्वीस 8041 पैदल सेना, 1516 घुड़सवार, 44 तोपों के साथ किला घेरने को तैयार हुए। मदद के लिए एडवार्डिस की 9718 पैदल सेना, 3113 घुड़सवार, 23 बड़ी और 25 छोटी तोपों के साथ थे और इनके अलावा बहावलपुर के नवाब की 5100 पैदल सेना, 1900 घुड़सवार सेना, 14 तोपें राजा शेरसिंह की 909 पैदल सेना, 3382 घुड़सवार और 12 तोप थीं। और भी कुछ दूरी पर इसके अतिरिक्त सेना थी।

9 सितंबर को लेफ्टीनेण्ट पेटडन ने कुछ अंग्रेजी और देशी सेना को लेकर धावा बोल दिया। लेफ्टीनेण्ट की बहुत चेष्टा करने पर भी विजय मूलराज की हुई। उसके पास दस हजार सेना और 59 तोपें थीं। इस विजय से मूलराज की हिम्मत बढ़ गई और किले को और भी मजबूत बना लिया। अब तक अंग्रेजी सेना के 255 सैनिक और 25 घोड़ों का अन्त हो चुका था। परन्तु शेरसिंह, जिसने मूलराज को भयभीत कर दिया था, की मदद से अंग्रेजी सेना आगे बढ़ने लगी। यहां तक कि 12 तारीख तक किले से 800 गज के फासले पर जा पहुंची। शेरसिंह की वीरता से लड़ने की प्रशंसा उस समय सभी अफसरों ने की है। निस्संदेह वह अंग्रेजों की विजय का हृदय से इच्छुक था।

इधर तो शेरसिंह का यह हाल था और उधर उनके पिता के साथ अन्याय की हद पार कर दी गई थी, जिसका वर्णन हम पहले कर आये हैं। शेरसिंह को पिता के साथ किए गए निष्ठुर व्यवहार का पता मिलते ही वे एकदम से बदल गए। पिता


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के अपमान का प्रतिकार करने की तीव्र इच्छा हो गई। रानी जिन्दा के देश निकाले और बहन के विवाह के लिए गोलमाल उत्तर की याद आने पर उसके हृदन में शूल से चुभने लगे। अब तक जिस हृदय में अंग्रेजों की विजय-इच्छा थी, वही अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हो गया। जिस मूलराज के दूत की उसने बेइज्जती की थी, उसी मूलराज का शेरसिंह पक्ष-समर्थक बन गया। जो प्रतिकार की भयंकर आग उस समय उसके हृदय में जल रही थी, उसका अनुमान उनके छोटे भाई गुलाबसिंह को लिखे गए पत्र से अच्छी तरह लगता है। वे लिखते हैं - “सिंह साहब, पिताजी मुझे बार-बार लिखते थे कि मैं कप्तान एबट की सदा आज्ञा पालन करता हूं। किन्तु उस कर्मचारी (एबट) ने हजारा के मुसलमानों से मिलकर बड़ा अन्याय किया है और पिताजी को अत्यन्त दुख और क्लेश दिया है। अधिक क्या कहा जाए, वह अंग्रेज कर्मचारी सिख-सेना के नाश करने का भी प्रबल प्रयत्न कर रहा है। अब तक कप्तान एडवार्डिस मेरे साथ प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते थे, पर पिछले सप्ताह से उनके मन का भाव भी बदल गया है। इसलिए कल मैंने सिंह साहब (पिताजी) से मिलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली है। यदि सिंह साहब की आज्ञा और मेरी सम्मति पर तुम्हें कुछ भी श्रद्धा हो तो इस पत्र को पाते ही सिंह साहब के पास चले जाना और नहीं तो शीघ्र ही जम्बू अथवा और कहीं चले जाना। इसे पढ़ किञ्चित्-मात्र की भी देरी न करना और यदि तुमको मेरी सम्मति स्वीकार न हो, तो तुम्हारी जो इच्छा हो, करना। किन्तु याद रखना पिता की आज्ञा मानना सन्तान का परम कर्त्तव्य है। यह जीवन दो दिन का है। अब तुम मेरे दूसरे पत्र की राह मत देखना। यदि जीवित रहे तो फिर मिलेंगे, नहीं तो जो ईश्वर को मंजूर है, वही होगा।” शेरसिंह ने उपर्युक्त पत्र भाई को भेजकर घोषणा की - “सम्पूर्ण पंजाब निवासी एवं अन्य किसी से यह बात छिपी नहीं है कि स्वर्गीय महाराज रणजीतसिंह की विधवा पर फिरंगियों ने जिस तरह अत्याचार किया है - उसका जो अपमान किया है तथा प्रजा के प्रति फिरंगियों ने जिस प्रकार का निष्ठुर व्यवहार किया है, वह किसी से अविदित नहीं है - पहले, पंजाबियों की माता स्वरूप महारानी जिन्दा को निर्वासित करके सन्धि भंग की है। दूसरे, रणजीतसिंह की सन्तान के समान हमने सिक्खों के प्रति अन्याय और अत्याचार किया है कि हम धर्मच्युत हो गये हैं। तीसरे, राज्य का पहला गौरव भी लुप्त हो गया है। बस, अब क्या देखते हो? आओ! सर्वस्व की रक्षा के लिए तैयार हो जाएं।” यह घोषणा कर शेरसिंह ने अंग्रेजी-सेना से अलग होकर मूलराज से मिलने के लिए पत्र लिखा कि 'मैं आपसे मिलना चाहता हूं।'

पंजाब-वासियों, खासकर सिख-धर्म का दुर्भाग्य! मूलराज को विश्वास नहीं हुआ। नहीं तो सिख-साम्राज्य का एक और ही अध्याय लिखा जाता - पंजाब का इतिहास आज दूसरा ही होता। मूलराज ने सोचा शेरसिंह कपट चाल में है, इस


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तरह से मुझे धोखा दिया जा रहा है। उसका यह सन्देह निराधार नहीं था क्योंकि शेरसिंह के पहले कृत्य इसके प्रमाण थे। यह विश्वास करना वास्तव में कठिन था कि ऐसा अंग्रेज-प्रेमी, उन पर पूर्ण विश्वासी शेरसिंह में इतने क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। मूलराज जबरदस्त प्रबन्ध के साथ मिला। मिलने पर भी वह सन्देह को नहीं हटा सका और एक मन्दिर में ले जाकर ग्रन्थ-साहब को हाथ में दे के प्रतिज्ञा कराई कि “मेरे साथ किसी तरह विश्वासघात तो नहीं किया जाएगा।” ग्रन्थ-साहब को छू प्रतिज्ञा कर लेने पर भी मूलराज का सन्देह-भूत दूर न हुआ। वह शेरसिंह के हृदय को न समझ पाया। हारकर शेरसिंह करीब चार हजार विद्रोहियों का मुखिया बन पिता से मिलने चल दिया।

अंग्रेजी सेना का शेरसिंह के चले जाने से एक दृढ़ स्तम्भ टूट गया। यद्यपि अन्य सरदार अंग्रेजी सेना के पूरे सहायक थे और मूलराज से लड़ने के लिए तत्पर रहे थे पर तो भी अंग्रेजों की मुलतान दुर्ग पर चढ़ाई करने की हिम्मत न हुई और शेष सितम्बर मास सोच-विचार में ही चला गया। इधर मूलराज को अपने शक्ति दृढ़ करने का अवसर मिल गया और जहां तेरहवीं सितम्बर को उसके पास दस हजार सेना थी, उसकी संख्या 13150 हो गई और उसने उधर काबुल के दोस्त-मुहम्मद से सहायता की प्रार्थना की। फलस्वरूप उसने अपने पुत्र को एक सेना देकर मूलराज की सहायता को भेज दिया।

चौथी तारीख नवम्बर के दिन जनरल ह्वीस ने विद्रोहियों की सेना पर तोपें दाग दीं। भयंकर अग्नि-वर्षा हुई, पर मूलराज की सेना टस से मस न हुई। तोपों से काम चलता न देख, ह्वीस ने संगीनों पर हमला करने का निश्चय किया। छठी तारीख को धावा बोल दिया गया। इस हमले में बहावलपुर के नवाब और दीवान जवाहरसिंह की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी। मुलतानी सेना ठहर न सकी। विजय अंग्रेजों की हुई। मूलराज को आज की पराजय से हानि उठानी पड़ी पर फिर भी वह लड़ता ही रहा। 23 दिसम्बर को जब अंग्रेजों की सहायता के लिए बम्बई से और फौज आ गई, तो अंग्रेजों का साहस बहुत बढ़ गया। इस नयी सेना के साथ मुलतान-दुर्ग पर आक्रमण बोल दिया गया। इस समय ह्वीस के पास 15648 सैनिक, 3012 घोड़े और 91 तोपें थीं। 27 दिसम्बर को यह युद्ध छिड़ा। इस विकट युद्ध में किले का बहुत सा भाग अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। मूलराज बन्दी सा हो गया। ता० 29 को दो हजार मुलतानियों ने अंग्रेजी सेना पर धावा बोल दिया था, पर इतनी बड़ी सेना के आगे इनका ठहरना मुश्किल था।

30वीं दिसम्बर का दिन मूलराज की हिम्मत तोड़ देने वाला था। एक गोला बारूदखाने में जा गिरा। उस 5000 मन बारूद में गोला गिरते ही आग लग गई। भयंकर अंधकार छा गया। अंधेरे की ऐसी रात सी हुई कि एक-दूसरे को देखना मुश्किल था। बारूद के इस काण्ड में 500 सैनिक लापता हुए। सन्


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1849 ई० की दूसरी जनवरी को अंग्रेजी सेना दिल्ली दरवाजे तक पहुंच गई। इसी समय बम्बई से बंगाल सेना भी आ मिली, जिससे विजय और भी सरल हो गई। मूलराज ने यह देखकर कि अंग्रेजों ने शहर पर अधिकार कर लिया तो वह अपनी तीन हजार सेना के साथ किले में चला गया। 3 जनवरी को विजय से प्रसन्न अंग्रेजी सेना नगर में घुस गई। उस समय के बारे में एडवार्डिस के शब्दों में ही - “प्रतिहिंसा का ऐसा भयानक चित्र मैंने कभी कहीं नहीं देखा था।”

मूलराज के चारों ओर से घिर जाने पर आत्मसमर्पण के सिवाय और चारा ही क्या था। उसने एडवार्डिस के जरिये आत्मसमर्पण के लिए कहा! पर उत्तर मिला - “जिसका अनुरोध मुझसे किया है वह होना असम्भव है। जब तक आप स्वयं न आयेंगे, कोई बात न सुनी जाएगी।” स्वाभिमानी मूलराज को यह उत्तर मान्य न हुआ। उसने फिर साहस किया और 12 तारीख को अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया, पर भाग्य ने साथ न दिया, वह हारता ही गया। 19 जनवरी को एक विश्वासी द्वारा पुनः आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा, परन्तु उत्तर में सिर्फ यही था कि “तुम कल आठ बजे तक आत्मसमर्पण कर दो।” मूलराज उत्तर पाकर चुप रहा, करता ही क्या? आखिरकार 21 जनवरी को सवेरे ही जनरल ह्वीस ने सेना को दुर्ग पर अधिकार करने की आज्ञा दी। मूलराज भयंकर विपत्ति में फंस गया। उसने जनरल ह्वीस को कहला भिजवाया कि मैं इसी समय आत्मसमर्पण को तैयार हूं। इसका निपटारा करने के लिए मैं अपने वकील को आपके पास भेज रहा हूं। सादर प्रार्थना है कि “मेरे प्राणों तथा स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा की जाए।” जनरल ने उत्तर दिया कि “समर समाप्ति पर आपके जीवन की रक्षा अथवा नाश की कुछ भी शक्ति मुझमें नहीं है। इसकी क्षमता गवर्नर जनरल पर ही है। पर हां, आपकी स्त्रियों की रक्षा करना मैं यथाशक्ति स्वीकार करता हूं।” उसके बाद ह्वीस की सेना रात भर दुर्ग पर गोलाबारी करती रही। दूसरे दिन जब दुर्ग पर अधिकार कर लेने की तैयारी थी, दीवान मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। लगातार 27 दिन के युद्ध के बाद किला अंग्रेजों के अधिकार में आया।

दीवान मूलराज लाहौर लाये गये। तीन अंग्रेजों ने मिलकर दीवान मूलराज के मामले पर विचार किया। मूलराज को दोषी करार पाया और उसे फांसी की सजा दी गई। पीछे यह सजा काले पानी में बदल दी गई और काले पानी जाते हुए ही जहाज पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार अंग्रेजों के विद्रोहियों का एक नेता तो संसार से चल बसा। अंग्रेजों की मुलतान-विजय विद्रोहियों को और भी बुरी लगी और अंग्रेजों के प्रति असन्तोष की वृद्धि होती ही गई।

दूसरा सिख-युद्ध

महारानी जिन्दा का निर्वासन और हजारा के चतरसिंह के साथ हुए अत्याचार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 368


के कारण क्रोधित सिख, मुलतान-विद्रोह का समाचार पाकर और भी जोर-शोर से विद्रोह की तैयारी में उद्यत हो गए। महाराज चतरसिंह की संरक्षता में सिख वीर अपने धर्म की रक्षा के लिए इकट्ठे होने लगे। शेरसिंह की घोषणा को सुनकर सिख-सेना अंग्रेजों के खून की प्यासी हो गई। यहां तक कि पेशावर की सेना ने तो अपने शासकों के विरुद्ध तलवार ले ली। अंग्रेजों ने सोचा कि अब बचना मुश्किल है, तो खैबर-घाटी की ओर प्राण बचाने चले गये। पर सब पंजाब-वासी अंग्रेजों को निकाल बाहर करना चाहते थे। सरदार लोग अभी तक पूरा साथ दे रहे थे। स्वयं रेजीडेण्ट के कथनानुसार “चौथी अक्टूबर से पहले कोई सिख-सरदार बागियों में शामिल नहीं हुआ था।” चार लाख पंजाबियों में से सिर्फ 60 हजार बागियों के पक्ष में थे।

अंग्रेजों में यह विशेष गुण है कि वे एक बार की गलती की पुनरावृत्ति नहीं होने देते, परन्तु यहां तो गलती के पीछे गलती हो रहीं थीं। पहले तो मूलराज का कहना न मानने की गलती शेरसिंह ने की और फिर उसकी पुनरावृत्ति स्वयं मूलराज ने शेरसिंह के प्रति सन्देह कर के की। हम ऊपर कह आये हैं कि अंग्रेज एक बार की हुई भूल को दूसरी बार सुधार लेते हैं। लार्ड डलहौजी ने जहां मुलतान-युद्ध में सेना भेजने में देरी की, वहां अब की बार तत्काल घोषणा की कि “जो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार न उठायेगा उसे अभयदान दिया जाएगा।” साथ ही अंग्रेजी-सेना को रसद आदि सब तरह से सहायता पहुंचाने का सरदारों को भी आदेश था। लार्ड डलहौजी ने इस घोषणा का समर्थन किया।

इधर बागी सिख-सेना भी निरन्तर बढ़ रही थी। शेरसिंह की सेना भी लगभग 4291 हो गई थी। सिख-सेना अपने सरदारों को छोड़ छिन्न-भिन्न हुई फिरती थी। प्रतिहिंसा की आग से वे जले जा रहे थे। वे सभी चाहते थे कि आज ही रणद्वन्द्व मच जाए। महाराज रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह का राज्य अन्याय पूर्वक ले लिया है और महारानी जिन्दा के साथ भारी अत्याचार किए गए हैं। सिख-धर्म की बेइज्जती की है। ये बातें हर एक विद्रोही इस तरह कहता कि सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते, बुड्ढों की नसों में भी खून खौलने लगता। वे छाती फुला-फुलाकर पुकार उठते - धर्म की रक्षा के लिए मर जाओ! महारानी जिन्दा, खालसा-मां जिन्दा के अपमान का बदला लो! फिरंगियों को निकाल बाहर कर दो और अपने महाराज दिलीप को सिंहासनासीन कर दो!

सन् 1848 की 22वीं नवम्बर को प्रधान सेनापति ब्रिगेडियर ने कौलिन कम्बल और कोर्टियन को आज्ञा दी कि रामनगर जाकर अपनी सेना से सिखों पर धावा बोल दो। पर रामनगर पहुंचने पर इन्हें सिख-सेना का नाम भी न मिला। उनकी समझ में न आया यह सेना क्या हुई! बहुत ढूंढ़ने पर उन्हें सिख-सेना दिखलाई पड़ी। दूर से ही गोले छोड़े गए। पर ये गोले व्यर्थ हुए। निकट पहुंचकर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 369


जब अंग्रेजी सेना ने गोले छोड़ने शुरू किए भी न थे, कि सिख-सेना की ओर से एकदम अग्नि-वर्षा हुई। जिस तरह ज्वालामुखी पर्वत के फट पड़ने से आस-पास के गांवों का तो पता ही नहीं चलता बल्कि दूर के गांवों में भी खलबली पड़ जाती है, इसी तरह सिक्खों की तोपों की भयंकर गर्जना और गोलाबारी ने अंग्रेजी-सेना के होश भुला दिए। अंग्रेजी-सेना इधर-उधर भागने लगी। दो तोपें और रसद कितने ही छकड़े छोड़ जान बचाकर अंग्रेजी-सेना भाग निकली।

सेनापति लाट गफ को प्रथम बार ही भारी क्षति उठानी पड़ी। वैसे तो सेना के डर से भाग जाना ही बतलाता है कि अंग्रेज सैनिक बुरी तरह घबरा गए थे। डरे हुए अंग्रेज अफसरों की सलाह से छावनी छोड़ सेनापति गफ को भाग जाना भी अनुचित न लगा। भागी हुई अंग्रेजी सेना का पीछा सिख सेना ने किया और युद्ध के लिए ललकारा। कुछ अंग्रेज वीर वापस भी हुए जिनमें विलियम हैबलाक नामक अंग्रेज भी था। यह वीर वाटरलू के युद्ध में वीरता प्रकट कर चुका था। वीर हृदय से रुका न गया, अपने कुछ साथियों के साथ सिख-सेना से लोहा लेने लगा। पर इधर भी सिख इनसे किसी तरह भी कम न थे। सिख-सेना ने जबरदस्त गोलाबारी के साथ हैवलाक और उसके साथियों का सदा के लिए अन्त कर दिया। रामनगर के इस युद्ध में अंग्रेजों के 230 सैनिक काम आए और कितने ही अंग्रेज शेरसिंह के बन्दी हुए। बन्दी अंग्रेजों के साथ शेरसिंह का बर्ताव प्रेमपूर्ण था। उसने उनको किसी प्रकार तकलीफ न दी और भोजन करवा के उनके डेरे पर पहुंचा दिया। दूसरी ओर अंग्रेज थे, जो कमीना काम करने में चूकते न थे।

सेनापति गफ ने प्राण-रक्षा करके एक सप्ताह बाद रामनगर से 96 मील की दूरी पर छावनी का प्रबन्ध किया। बड़ी-बड़ी तोपें मंगाई गईं। शेरसिंह की खालसा सेना पर 2 दिसम्बर को धावा बोलने का निश्चय हुआ। वे शेरसिंह के खेमे पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। निश्चय हुआ कि मेजर जनरल सर जोसफ थाकवेल तो चिनाव नदी पार करके बाईं ओर से हमला कर दें और शेरसिंह के सामने खुद प्रधान सेनापति गफ होंगे। भारतीय सैनिकों को धन का लोभ देकर मिलाने का षड्यंत्र भी सोचा गया। दूसरे दिसम्बर को थाकवेल अपने मंजे-मंजाये सात हजार सैनिकों को ले चिनाव पार कर वजीराबाद के पास पहुंच गया और उसने प्रातःकाल होने पर सिख सेना पर आक्रमण करने के लिए तैयार रहने का आदेश किया। शेरसिंह अंग्रेजी सेना के साथ रहकर लड़ चुका था। वह सब चालों को जानता था। थाकवेल के इस षड्यंत्र का उसे पता लग गया और वह कुछ सेना गफ से सामना करने के लिए छोड़ रामनगर से थाकवेल से लड़ने चल दिया। उस समय किसी देशद्रोही ने शेरसिंह के आने का समाचार दिया। थाकवेल ने घबराकर बड़ी सावधानी से सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और समाचार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 370


प्रधान सेनापति के पास भेज दिए। गफ ने लिखा कि ब्रिगेडियर गोडवी सेना सहित तुम्हारी मदद को आते हैं। जब तक ये न पहुंचें, सिखों से युद्ध न करना।

इधर वीर शेरसिंह सिख योद्धाओं के साथ निकट पहुंच चुका था। थाकवेल अस्थिर विचार हो गया। प्रधान सेनापति की आज्ञा भी है कि जब तक मदद न पहुंचे, धावा न करना। यह ख्याल आने पर वह सेना सहित भाग चला। शेरसिंह ने फुर्ती से पीछा किया और सादुल्लापुर के पास थाकवेल की सेना से जा जुटा। धड़ाधड़ गोले बरसाये जाने लगे। थाकवेल ने एक गन्ने के खेत का सहारा लिया। वहां से वह अपना बचाव करता रहा। अंग्रेजी सेना ने 2 घण्टे तक सिख-सेना की मार सही। इस बीच अंग्रेजी-सेना ने भी विकराल धावा किया, पर सिखों को कुछ भी घबराहट न हुई। अंग्रेजी-सेना को ही बहुत सी हानि उठानी पड़ी। शाम हो गई थी। थाकवेल को रात को और भी भय की आशंका था और गोड़वी के आने का भी कोई चिह्न दिखलाई न पड़ता था। अतः थाकवेल ने चल देने में ही भलाई समझी। शेरसिंह भी रात होने से समस्त सेना और तोपों के साथ झेलम के दक्षिण की ओर चला गया।

यद्यपि युद्ध में अंग्रेजों को काफी नुकसान उठाना तथा भागना पड़ा, फिर भी 'सादुल्लापुर' की विजय-लाभ का प्रचार किया गया। किन्तु मार्शमैन ने इतिहास में साफ लिखा है कि “युद्ध में शेरसिंह को ही फायदा रहा है, क्योंकि वह अंग्रेजों के इरादे तोड़कर सुभीते के स्थान पर पहुंच गया था और दरअसल शेरसिंह ने गफ के सब मनसूबों पर पानी फेर दिया और अंग्रेजी-सेना के दोनों बार की हार ने दिल तोड़ दिए थे। क्योंकि सादुल्लापुर के बाद सवा महीने तक लार्ड गफ चढ़ाई करने का साहस न कर सका और लूसरी नामक स्थान पर समय काटते रहा।” पाठक सोच सकते हैं कि लार्ड गफ की यह कैसी विजय थी? भला विजयी सेना भी इस तरह कभी शत्रु को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर दे सकती है?

लार्ड गफ ने 12 जनवरी को डिंघी नामक स्थान में पहुंचकर बड़ी भारी सेना के साथ छावनी बनाई। वहां से 8 मील पर ही शेरसिंह भी सेना तैयार कर रहा था। सिख-छावनी का स्थान इस प्रकार का था कि पीछे तो झेलम बह रही थी और सामने एक छोटा-सा जंगल था, जिससे शत्रु-सेना के संगठन का पता न चलता था। दाहिने और बायें ओर से भी पूरा प्रबन्ध था। सिख-सेना की सुरक्षित छावनी को देखकर अंग्रेज सेनापति गफ चकित हो गया। किसी-न-किसी तरह आक्रमण कर देने की योजना करने लगा। निश्चय किया गया कि पीछे से रास्ता रोक दिया जाए और बांये भाग पर हमला किया जाए, जिससे शत्रु भाग न सकें। 13 जनवरी को अंग्रेजी सेना शत्रु-सेना पर निश्चयानुसार चढ़ाई करने को आगे बढ़ी और 14 जनवरी को हमला कर देने की पूर्णतः तैयारी कर ली। सिख सेनापति चतुर शेरसिंह अचेत न था। वह सब गतिविधि का पता रखता था। उसने चुपचाप


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अपना स्थान छोड़कर आक्रमण कर दिया। शेरसिंह की चतुरता से गफ साहब के सब निश्चय धूल में मिल गए। यह देखकर अंग्रेजी सेना क्रोधातुर हो उठी! बड़ा भयानक धावा बोला गया। अग्नि-वर्षा की जाने लगी। दो घण्टे तक सिख-सेना पर अंग्रेजी सेना ने तेजी से गोले बरसाये। गोलों का कोई फल न देख गफ ने सेना के आगे बढ़ने का हुक्म दिया। ब्रिगेडियर जनरल कौलिन कोम्बल ने सबसे आगे धावा किया। पैदल सेना के दो भाग थे - एक, कोम्बल की अध्यक्षता में हगन द्वारा और दूसरा पेनकुहक से संचालित होता था। इन वीर सैनिकों ने बड़ी दृढ़ता से आक्रमण किया। ये तलवारों की चमचमाहट से तोपों की भयावनी गड़गड़ाहट को चीरते हुए तोप चलाने वाले सिखों के पास पहुंच गए। तोपों के पास पहुंच कर तोप चलाने वालों को एक-एक कर गिराने लगे और कई तोपों के मुंह पर कीलें जड़ दीं। किन्तु इस समय सिक्खों ने भी कम वीरता का परिचय न दिया। तोपों के मुंह से कीलें उखाड़ फेंकी और उसी प्रकार गोले बरसाने लगे। तोपों के मुंह बन्द करने वालों के पास अपनी तलवार के बल से पहुंच कर हाथ दिखाने लगे। इस समय दोनों ओर से भयानक युद्ध हो रहा था। स्वयं कोम्बल भी पैदल सेना के साथ आगे बढ़ आया था। एक सिक्ख सैनिक ने उस पर भी तलवार छोड़ी। अगर बीच में एक अंग्रेज की तलवार आड़ी न आती तो उस का अन्त होने में देर न थी। पर तो भी वह घायल तो हो ही गया। अंग्रेजी सेना के 36 एवं 46 रेजीमेण्ट की देशी पैदल सेना ने इस युद्ध में अत्यन्त वीरता दिखाई। उसके जख्मी होने की कोई बात नहीं, विजय उनकी हुई और साथ ही सिक्ख-सेना की चार तोपें हाथ आईं।

इस ओर कोम्बल ने तो विजय प्राप्त की, परन्तु उधर उनके सहकारी पेनकुहक का बुरी तरह अन्त हुआ। वह अपने पांच सौ सैनिकों के साथ खेत रहा। अंग्रेजी झंडा सिक्खों के हाथ लगा। ब्रिगेडियर ने सेना को दो दलों में विभक्त कर दो ओर से सिक्ख सेना पर हमला किया और इसी समय दो अन्य स्थानों पर गिलबर्ट की पैदल सेना ने भी आक्रमण किया। ब्रिगेडियर की सेना का सामना सिक्खों ने धैर्य-पूर्वक किया। तोपों की भयंकर आवाज से कान फटने लगे। गोडवी की सेना अधिक वेग से बढ़ने लगी। अब सिक्ख न ठहर सके। वे लड़ाई के मैदान से भाग खड़े हुए। चार तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। गिलबर्ट ने सिक्खों का पीछा न कर घायल सैनिकों को सम्हालना उचित समझा।

सिक्खों ने अवसर पाकर पीछे से आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सैनिकों के भागने के मार्ग भी रोक दिए गए। गिलबर्ट अधिक देर तक संकट में रहा। उसकी मदद के लिए सेना के साथ कप्तान डेन पहुंच गया। यदि डेन न आता तो गिलबर्ट का निश्चय ही बुरा हाल होता। मदद पहुंचने पर गिलबर्ट के सैनिकों का साहस बढ़ गया। कप्तान डेन और गिलबर्ट की सेना ने भयंकर गोले दागे। प्रलयकाल


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दिखाई पड़ने लगा। युद्ध-भूमि मृत सैनिकों की लाशों से भर गई। जो सिख गिलबर्ट की दुर्दशा करने आये थे, बड़ी बुरी तरह फंस गए। जहां गिलबर्ट के लिए संकटापन्न की सोची जा रही थी, वहां सिक्खों को लेने के देने पड़ गए। वे इस तेज धावे को न सह कर भाग खड़े हुए और अंग्रेजों के हाथ सिक्खों की 3 तोपें और आ गईं। गिलबर्ट ने भी उधर 5 तोपें सिखों से छीन ली थीं। कहना न होगा कि सिख दो बार हार कर तोपों को अंग्रेजों के हाथ दे चुके थे, परन्तु यह नहीं कि वे लड़ने में निर्बल रहे। सिखों ने लड़ाई में बड़े धैर्य और साहस से काम लिया। उन्होंने अंग्रेजी सेना पर भयंकर अग्नि बरसाई जिसके सामने गौडवी की सेना युद्ध में न जम सकी। महाराजपुर के युद्ध के झंडे जो कि अंग्रेजों के पास थे, सिखों के हाथ आये। सेना की दुर्दशा देख इनकी पैदल सेना मदद को आ पहुंची, किन्तु सिख वीरों की मार वे भी न सह सके। इस लड़ाई में 19 अंग्रेज अफसर, छः सौ सिपाही मरे और घायल हुए।

मेजर जनरल सर जोसफ धाकवेल ने, जो पेनिनसुला के युद्ध में बड़ी बहादुरी पा चुका था,सिखों की घुड़सवार सेना के अध्यक्ष अतरसिंह की सेना पर हमला किया। इसी सैन्यदल में रणवीर शेरसिंह भी थे। थाकवेल ने पांचवीं और तीसरी घुड़सवार सेना से यूनेट को आक्रमण करने की आज्ञा दी। यूनेट ने, जो कि थाकवेल के अधीन एक अफसर था, लड़ाई के व्यूह को तोड़ना चाहा, पर सिखों का मुकाबला कम न था। सिख सैनिकों की दीवारें मिट्टी की न थीं, वे वज्र से भी कड़ी थीं। यूनेट के आक्रमण को सिख-सैनिकों ने निष्फल कर दिया। कितने ही अंग्रेज सैनिक लड़ाई में मारे गए। यूनेट खुद मैदान में काम आया! सिखों ने इस वक्त अद्वितीय लड़ाई लड़ी। वे गाजर-मूली की तरह अंग्रेजों को काट रहे थे। स्वयं थाकवेल ने पंजाब-युद्ध का इतिहास लिखा है। उसमें वह लिखता है - “मुझे मालूम हुआ कि मेरी सेना में एक भी मनुष्य जिन्दा नहीं।”

इस हानि और पराजय के होने पर भी अंग्रेजों ने साहस न छोड़ा। सेना के दाहिने भाग से लार्ड गफ ने लेफ्टीनेण्ट कर्नल पोप को 4 घुड़सवार रेजीमेंट लेकर लड़ने को भेजा। भालाधारी घुड़सवारों की भी इनमें पलटन थी। सिखों ने बहादुरी से इस हमले का सामना किया। इतने में भालाधारी पलटन भाले चलाने लगी। भालों की चोटों को सिखों ने दृढ़ता-पूर्वक ढ़ालों पर रोका और अपनी तलवारों से चतुरतापूर्वक घुड़सवारों को घोड़े समेत काट कर गिराने लगे। थाकवेल का इतिहास बताता है कि सिखों के एक-एक पैदल सिपाही द्वारा तीन-तीन घुड़सवार धराशायी हुये। बड़ा भयानक युद्ध था। सिख लोग चुन-चुन कर शत्रुओं को यमपुर पहुंचाने लगे। लेफ्टीनेण्ट कर्नल पोल भी युनेट की भांति मैदान रहे। अंग्रेजों की घुड़सवार सेना पोप के बिना सेनापति-विहीन हो गई। सैनिक छिन्न-भिन्न होकर भागने लगे। पर सिक्खों ने पीछा किया। जहां कहीं जो अंग्रेजी


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सेना का सैनिक या डाक्टर कोई भी मिला, मौत के घाट उतार दिया गया। अंग्रेजी सेना रसद का सामान इधर-उधर बिखड़ा छोड़ प्राण ले भागने की धुन में लग गई। पर भागे हुओं में से बहुत कम ही जान बचा पाये। महावीर सिक्खों ने दौड़-दौड़ कर हाथ साफ किये! मेजर क्रिष्टी तोपों को बचाकर ले भागना चाहता था पर मेजर साथियों समेत सदा के लिये तोपों को छोड़कर चला गया। सिक्खों ने क्षण भर में उन सब को पृथ्वी पर सुला दिया। गोलन्दाजों की मदद के लिये कुछ अंग्रेज संगीन लेकर दौड़े, परन्तु बेचारे संगीनों को लिए हुए जमीन नापने लगे। सिक्खों के एक झोंके ने ही उन्हें मदद की फिकर से हमेशा के लिये दूर कर दिया।

प्रधान सेनापति गफ को भी खतरे का संदेह हुआ। यह असम्भव न था कि बढ़ती हुई सिक्ख-सेना का रुख होते देर लगे। अतः कुछ लोग उन्हें भागने की सलाह देने लगे। क्योंकि पता न था भूखे सिंह की भांति सिह कब टूट पड़ें? परन्तु गफ भागा नहीं। गफ के शरीर-रक्षकों ने बड़े वेग से तोप से गोले बरसाये। विजयी घुड़सवार सिक्ख-वीर शत्रु की सेना को भगाकर, अंग्रेजी तोपों को लेकर, अपनी छावनी में आ गये।

लार्ड गफ ने हिम्मत तब भी न छोड़ी और एक अन्तिम उद्योग करना उचित समझा। ब्राइण्ड और ह्वाइट को सिक्खों के दाहिनी ओर हमला करने का हुक्म दिया। वे तोपों की गर्जना के साथ आगे बढ़े। शत्रु-सेना छिन्न-भिन्न देखकर अतरसिंह के तोपखानों ने कुछ देर के लिए गोला छोड़ना बन्द कर दिया। ब्राइड ने सोचा कि मेरी मार के डर से अतरसिंह ने तोपें बन्द कर दीं हैं। ब्राइड इस कल्पना में मग्न था कि शत्रु की तोपें आग उगलने लगीं। अंग्रेजों की कुगति हुई। सारे दिन सिखों से पिटने के बाद, शाम को अतरसिंह से मार खाकर और अपनी रसद को छोड़कर सेनापति गफ चिलियानवाला भाग गया।

यह सिखों की विजय का दिन था। नेपोलियन को हराने वाला वीर उनका सामना करने में असफल रहा था। सिखों ने भागते गफ का पीछा न करके घायलों की देखभाल और मृतकों का संस्कार करना उचित समझा। जीतकर लाया गया अंग्रेजों का झण्डा भी सिखों के हाथ लगा।

हारकर भागते हुये भी गफ ने जीत के बाजे बजवाये, तोपें चलवाईं। डलहौजी ने तो झूठी जीत में प्रत्येक तोप चलवाई। यह केवल एक चाल थी, लोगों को डराने तथा धोखे में रखने की, ताकि जनता विद्रोह में शामिल न हो। अंग्रेजों की हार का पता लेकिन ग्रिफिन की पुस्तक पंजाब राजाज के उद्धरणों से लगता है। उसने लिखा था - “चिलियानवाला का युद्ध अफगानिस्तान की महाहत्या के समान ही अंग्रेजों के लिये भयानक हुआ।” कलकत्ता रिव्यू में एक अंग्रेज ने लिखा - “भारत में अंग्रेजों ने जितने युद्ध किये हैं, चिलियानवाला का युद्ध उनमें से अति भयानक था।” वो भी सिपाही रिवोल्ट नामक पुस्तक में लिखता है - “चिलियानवाला युद्ध


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में ब्रिटिश तोपें छीन ली गईं। सिखों के हाथ ब्रिटिश झण्डे लगने से उनका गौरव बढ़ा। ब्रिटिश घुड़सवार सिखों के डर से भेड़-बकरियों की तरह भागने लगे।” कनिंघम भी इस युद्ध की तुलना सिकन्दर और पोरस के युद्ध से करता है।

चिलियानवाला की हार से इंग्लैंण्ड में भी हाय-तोबा मच गई। गफ को अयोग्य समझकर हटा देने की बात सोची गई। पर गुजरान-युद्ध की विजय का श्रेय मिल जाने से वह बच गया।

इस युद्ध की हार के बाद 25 दिन तक गफ ने लड़ाई बन्द करके युद्ध की तैयारियां कीं। सिख भी तैयार होने लगे। युद्ध के दो दिन बाद ही चतरसिंह भी शेरसिंह तथा अतरसिंह से आ मिला। अंग्रेज बन्दी मेजर लारेंस लेफ्टीनेण्ट हरबर्ट और बोर शेरसिंह के तम्बू में लाये गये। उनके साथ उदारता का व्यवहार किया गया। उनको सिख-सैनिक छावनी में घूमने और सैनिकों से बात करने तक की आजादी दे दी गई। शत्रु को इतनी आजादी देना घातक हुआ। इन्होंने सिखों की शक्ति और कमजोरी की पूरी सूचना अंग्रेजों को दे दी। इन्होंने सूचना दी थी कि सिख केवल अंग्रेजी तोपों से डरते हैं। अतः अंग्रेज सेनापति तोपें इकट्ठी करने लगा।

दूसरी गलती शेरसिंह ने यह की थी कि सन्धि की चर्चा भी कैदी अंग्रेजों के माध्यम से चलानी चाही। इससे उसकी कमजोरी का पता भी अंग्रेजों को लग गया।

अंग्रेज लड़ाई की तैयारी में लग गये, उधर शेरसिंह को सन्धि के चक्कर में उलझा दिया। वह सन्धि की संभावना में, युद्ध की तैयारी करने से उदासीन हो गया। 25 दिन बाद, जब सन्धि न करने का उत्तर उसके पास आया, तब उसको अपनी गलती का अनुभव हुआ।

सन् 1849 ई० की 6 फरवरी को पता लगा कि सिख-सेना रसूलपुरा चली गई है। सेनापति ने खुद जाकर सिखों के पड़ाव को देखा। वे देखकर स्तंभित हो गए कि ऐसे सुरक्षित स्थान को सिख कैसे छोड़कर चले गये। उन्हें बड़ी प्रसन्नता भी हुई कि सिक्खों के ऐसे सुदृढ़ स्थान को छोड़ देने से विजय आसानी से हो सकती है और अगर इस स्थान पर सिख-सेना रहती तो विजय पाना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन था। पर यह प्रसन्नता थोड़ी ही देर ठहर सकी, क्योंकि उन्हें पता चला कि शेरसिंह 60 तोपों के साथ [[Lahore|की ओर चला गया है। इस समाचार को पाकर सेनापति गफ को घबराहट का सामना करना पड़ा। वह स्थिरचित्त होकर शेरसिंह को रोकने की तैयारी करने लगा और रास्ते में ही रोक लेने के उपाय में लगा। निस्संदेह अगर शेरसिंह लाहौर पहुंच जाता तो पंजाब क्या, भारतवर्ष में से भी अंग्रेजों को भाग जाना पड़ता और सिख वीरों की विजय-ध्वजा भारतवर्ष पर फहराती। उस समय के कलकत्ता के रिव्यू पत्र से


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जाना जाता है कि इस यात्रा में पंजाब का संपूर्ण सार भूखंड और दिल्ली से लाहौर तक की राह सिखों के हाथ लगी।

चतरसिंह द्वारा किए बन्दियों को अंग्रेज शिविर में पहुंच जाने से प्रधान सेनापति गफ को मालूम हो गया था कि सिक्खों के पास बड़ी-बड़ी तोपों की कमी है और तोपों की बढ़ोतरी से ही युद्ध में कामयाबी हो सकती है। 14 फरवरी को गुजरात में इन्हीं भयंकर तोपों का इस्तेमाल किया गया। बड़ा भीषण संग्राम हुआ। सिख-सैनिकों ने जान की बाजी लगा दी। सरदार चतरसिंह के पास 3600 सेना और 59 तोपें थीं। दोस्तमुहम्मद की काबुल से भेजी हुई मदद भी पहुंच गई थी। दोस्तमुहम्मद ने 1500 अफगान सैनिक भेजे थे और खुद मय बेटों के सिक्खों की सहायता के लिए आये थे। चतरसिंह कटक का किला उनके हवाले सौंप शेरसिंह से आ मिले थे।

सेनापति गफ की सहायता के लिये भी जनरल ह्वीस 12 हजार सैनिकों के साथ मुलतान-युद्ध हो चुकने से पहुंच गया था। और वह अपने साथ 100 तोपें भी लाया था। गफ का साहस ह्वीस और सैनिकों की सहायता से द्विगणित हो गया। वह नए उत्साह के साथ लड़ने लगा।

सन् 1849 की 21 फरवरी का दिन सिक्खों के दुर्भाग्य का दिन था। सवेरे से ही तोपों की घनघोर गड़गड़ाहट से कान फटने लगे। अंग्रेजी सेना ने तोपों से अग्निवर्षा कर दी। सिक्खों के पास केवल छोटी 59 तोपें थीं। भला वे इन तोपों के सामने कैसे ठहर सकतीं? परन्तु सिक्ख-योद्धाओं ने हिम्मत नहीं छोड़ी। वे तलवार चलाने लगे। उस समय अंग्रेजी फौज में तोपों की देख-रेख स्वयं सेनापति गफ कर रहा था। चिलियानवाला युद्ध की हार ने उनके हृदय में प्रतिकार की आग सुलगा दी थी। अंग्रेजों की तोपें लगातार गोले छोड़ रही थी, जिससे तोपों को भारी नुकसान पहुंच रहा था।

सिक्ख-सैनिकों ने तलवार से भयंकर धावा किया। वे आगे तक बढ़ते ही गए। यहां तक कि गफ तक जा पहुंचे। सेनापति को आपत्ति में देख शरीर रक्षकों ने भयंकर गोले छोड़े जिससे वे सिक्ख सैनिक रणस्थली में लेट गये। उधर थैवल की घुड़सवार सेना ने दोस्तमुहम्मद के भेजे हुए सैनिकों पर विजय प्राप्त कर ली। दोस्तमुहम्मद के भेजे हुए 1500 अफगान सिपाही दहनी ओर थे। इनके भागते ही सिक्खों की सेना का व्यूह भंग हो गया। टूटे हुये भाग की ओर से अंग्रेजी-सेना की घुसपैठ हो गई, तो भी सिख सैनिकों ने अलौकिक साहस और धीरता का परिचय दिया। अंग्रेज सैनिक संगीनों से आक्रमण कर रहे थे। सिख सैनिकों ने पैंतरे बदल-बदल कर बाएं हाथ से संगीनों को रोक तलवार के अद्भुत हाथ दिखाये। पर खाली तलवारों से ये वीर क्या कर सकते थे? सेना-व्यूह टूट चुका था। तोपें बेकार हो चुकी थीं। अंग्रेजों की तोपों से अग्निवर्षा बराबर हो रही थी। आखिरकार ऐसे


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समय जो होता है, वही हुआ। सिख-सेना को भागना पड़ा और जो भागने से अच्छा रणक्षेत्र में बलिदान होना सौभाग्य समझते थे, वे वीर बराबर लड़कर अपने को सदा की नींद सुलाते जा रहे थे। कितने ही सिख-सैनिक भय से पेड़ों पर चढ़ गए, परन्तु वे बुरी तरह से मारे गए। निहत्थे सैनिकों को भी बन्दी न कर बड़ी दुर्गति के साथ मारा गया। क्रूर अंग्रेजों ने शेरसिंह द्वारा बंदियों के साथ किए गए मानवीय व्यवहार के ठीक विपरीत आचरण किया।

चतरसिंह और शेरसिंह की हार हुई। गुजरान-युद्ध में विजय अंग्रेजों को मिली। वास्तव में इस पराजय का कारण शेरसिंह की उदारता थी। सिखों के मैदान छोड़ भाग जाने से 56 तोपें और बहुत सी रसद तथा लड़ाई का सामान अंग्रेजों के हाथ लगा। रणक्षेत्र से भागने पर भी जनरल गिलबर्ड ने पीछा किया। पन्द्रह हजार सेना और तीस तोपों को लेकर गिलबर्ट दौड़ पड़ा। कैम्बल द्वारा रोहितासगढ़ का दुर्ग सिखों से जीता गया। पहले बताया जा चुका है कि सिखों की सेना में कुछ अंग्रेज बन्दी भी थे, जिनमें कई स्त्रियां भी थीं। उनमें जार्ज लारेन्स की पत्नी भी थी। छठी मार्च को इन कैदियों को रिहा कर दिया गया था। बन्दी स्त्रियों और पुरुषों के साथ पूर्णतः भद्र व्यवहार किया था और उनके साथ छोड़ने तक किसी प्रकार कड़ाई नहीं की गई। क्या अंग्रेजों के इतिहास में ऐसी आदर्श शत्रुता की मिसाल मिल सकती है?

सिख सरदारों की इस हृदयता, दयालुता की कहानी पढ़ने के बाद अब सभ्यता में ऊंची जाति के बर्ताव की भी कथा सुन लीजिए! रसद की और हथियारों की कमी के कारण शत्रु-सेना से घिरकर सिख-सरदारों ने आत्म-समर्पण कर दिया। युद्ध-सामग्री के बिना और दूसरा रास्ता ही न था। पर अब भी इन स्वाभिमानी सरदारों के चेहरे से वीरता झलकती थी। शेरसिंह ने सेनापति गिलबर्ट की दाहिनी ओर खड़े होकर शस्त्र रखते हुए निर्भयता से कहा -

“अंग्रेजों के अनेक अत्याचारों से ऊबकर हमने यह युद्ध किया था। हमारे देश की रक्षा के लिए हमने यह युद्ध किया था। अब हमारी यह दुर्दशा हो गई है कि हमारी सेना के योद्धा रणभूमि में सदा के लिए सो गए हैं। हमारी तोपें, हमारे अस्त्र-शस्त्र हमारे हाथ से निकल गए हैं। हम इस समय अनेक अभावों के कारण आत्मसमर्पण करते हैं। हमने जो कुछ अब किया है, शक्ति होने पर कल भी वही करेंगे।”

सब सैनिकों ने हथियार रख दिए, परन्तु सिक्ख शिरोमणि भाई महाराजसिंह और रिछपालसिंह ने हथियार न रखे। उस समय प्रत्येक सिख की आंखों से आंसू बह रहे थे। आंसू भरे हुए गम्भीर मुख से सब कह उठे - “आज वास्तव में महाराज रणजीतसिंह की मृत्यु हुई।”

इन आत्म-समर्पण किए गए वीरों के सम्मान की रक्षा न हुई। उनकी वीरता


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 377


का अपमान किया गया। अंग्रेज सेनापति ने इजहार किया कि निहत्थे सिख-सैनिकों को कुछ धन दिया जायेगा। स्वाभिमानी सिख-सरदारों ने घृणापूर्वक रुपये लेना अस्वीकार कर दिया। वे चांदी के टुकड़ों पर अपनी आत्मा को न बेच सकते थे। पराजय की आत्मग्लानि के कारण ही उनकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। दुःख की श्वास छोड़ वे आंसू बहाते हुए वहां से चले गए। वास्तव में यह रौद्र-शान्ति का भयानक दृश्य था। इस प्रकार सिखों का यह दूसरा युद्ध समाप्त हुआ। सिखों के भाग्य का इस प्रकार पटाक्षेप हुआ। चतरसिंह-शेरसिंह बन्दी बन कर कलकत्ते पहुंचा दिए गए!

पंजाब-हरण

इस युद्ध की समाप्ति के बाद पंजाब में अंग्रेजों का विरोध करने वाला कोई न था। डलहौजी की नजर पंजाब पर पहले से ही थी। अतः पंजाब में अशांति के नाम पर ही अपनी इच्छा पूरी करने को ठानी गई।

यद्यपि दूसरे युद्ध में शेरसिंह-चतरसिंह ही विद्रोही हुए थे। बाकी के सरदार बराबर अंग्रेजों की मदद करते थे। लाहौर दरबार की प्रतिनिधि-सभा में आठ सिख सरदार थे जिनमें शेरसिंह ने तो अपने पिता के साथ किए अन्याय से उत्तेजित होकर विद्रोह किया था। दूसरे, रणजोरसिंह को अंग्रेज सरकार द्वारा और दोषी पाया गया था। शेष सरदार अंग्रेजों की ही तरफ थे। राज-कर सम्बन्धी नये नियम बनने पर सिख-सरदार कर-संग्रह करने में पूरी शक्ति से लगे थे। इसमें सन्देह नहीं कि बिना सरदारों की सहायता से अंग्रेज कर वसूल नहीं कर सकते। यह ही नहीं जिस समय पंजाब में रण-चण्डी नृत्य कर रही थी, लाहौर-दरबार ने पूरी सहायता देकर मदद की थी। सर हैनरी लारेन्स खुद मंजूर करते हैं कि “विद्रोही सेना में बहुत कम सिख थे, जो लोग अंग्रेजी राज्य से अप्रसन्न थे, उनमें से ही उनमें से ही विद्रोहियों का साथ दिया था। सर्व-साधारण सिख इस विद्रोह में शामिल नहीं हुए थे। सिखों में अनेक विश्वासी और सिखों के हितैषी थे।” किन्तु इतने पर भी महाराज रणजीतसिंह का सिख-राज्य डलहौजी की हड़प नीति से न बच सका।

इस बात को कौन स्वीकार नहीं करेगा कि लाहौर-दरबार का इस विद्रोह से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था, जब कि महारानी जिन्दा अंग्रेजों की कैद में थी और लाहौर-दरबार में से, शेरसिंह को छोड़, कोई बागी न हुआ था। अंग्रेजी रेजीडेण्ट द्वारा पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह के राज्य का शासन हो रहा था। रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह अंग्रेज-सरकार की देखरेख में थे। तब पंजाब-खालसे किए जाने का विचार करना 'स्वार्थ के लिए अन्याय' के सिवा और क्या था?


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 378


जहां स्वार्थ होता है, वहां न्याय-अन्याय का ख्याल नहीं किया जाता। लार्ड डलहौजी ने कुछ भी विचार नहीं किया कि इसमें बालक शेरसिंह का क्या दोष है? बालक दिलीप का इस विद्रोह से क्या सम्बन्ध है? महाराज रणजीतसिंह से क्या सन्धि की गई थी? उन्होंने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के सेक्रेटरी मि० हैनरी इलियट को, लाहौर-राज्य की प्रतिनिधि-सभा से ईस्ट-इंडिया कम्पनी के पास पंजाब खालसा कराने की बातें तय करने को भेजा। सन् 1849 ई० को इलियट लाहौर पहुंच गए।

किसी भी सिख-सरदार को यह स्वप्न में भी न आया था कि जिन अंग्रेजों को उन्होंने सहायता दी है और पूरे भक्त रह कर साथ दिया है, उनके सामने पंजाब-खालसा करने का प्रस्ताव आयेगा। और तो और, हैनरी लारेन्स भी इससे सहमत न थे कि पंजाब ईस्ट-इंडिया कम्पनी के आधीन कर लिया जाये। इलियट ने उस समय लिखा था कि - मैंने लाहौर आकर, जिस कार्य के लिए आया था, सर हैनरी लारेन्स और मि० जौन लारेन्स से लिखा पढ़ी की। मुझे दुःख हुआ कि ये दोनों अफसर (सर हैनरी और जौन लारेन्स) इस बात पर तुले हुए थे कि प्रतिनिधि सभा के सभासद अपने देश में पहले ही पहली सन्धि के कारण बदनाम हो रहे हैं। इस पर मैंने उनसे प्रार्थना की कि कौंसिल के दो प्रभावशाली सभासदों को प्राइवेट कॉनफ्रेंस में शीघ्र ही बुलाया जाए। मेरे प्रस्ताव के अनुसार राज तेजसिंह और दीवान दीनानाथ बुलाए गए। राजा तेजसिंह ने पहले तो अस्वस्थ होने का बहाना बनाया और आना स्वीकार नहीं किया। मैं राजा के घर चला जाता, पर मुझे खटका था कि पंजाब जब्त करने की विशेष उत्सुकता प्रकट करने से कहीं तेजसिंह मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत न कर दे। अतः मैंने पुनः राजा तेजसिंह को कहला भेजा कि आपके आए बिना यह काम पूरा नहीं हो सकता है। इस पर राजा तेजसिंह, दीवान दीनानाथ के साथ मेरे पास आए। उनकी शक्ल देखने से किसी बीमारी का चिह्न नहीं दीख पड़ता था। प्रथम भेंट में ही मैंने अपने पंजाब आने का जो उद्देश्य था, कह दिया। मैंने कहा कि अब पंजाब ब्रिटिश-राज्य में मिलाया जायेगा। किन्तु इस बात का निर्णय करना, प्रतिनिधि-सभा के सभासदों की इच्छा पर निर्भर है कि मैं जो शर्त आप लोगों के सामने पेश करता हूं, उनके अनुसार पंजाब मिलाया जाये अथवा किसी अन्य ढ़ंग से। यह सुनते ही राजा तेजसिंह कुछ डरे और घबराए। उन्होंने राजा शेरसिंह तथा अन्य विद्रोहियों की निन्दा की। साथ ही यह स्वीकार किया कि गवर्नमेंट को इस विषय में पूरा अधिकार है। वह जैसा उचित समझे, करे। उन्होंने यह भी कहा कि किसी प्रकार की शर्त पर कौंसिल के दस्तखत किए बिना ही जब्ती की घोषणा कर देनी चाहिए। इस पर गफ ने कहा - यदि प्रतिनिधि-सभा के सभासद गवर्नर जनरल की उन शर्तों को


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स्वीकार नहीं करेंगे, जो उनके तथा महाराज के लिए हैं, तो मेरी इच्छा होगी वही करूंगा। मुझे यह कहने का कुछ भी अधिकार नहीं है कि कौंसिल के सभासदों को जीवन-निर्वाह के लिए कुछ वृत्ति दी जायेगी या नहीं? यह सुनकर दीवान दीनानाथ ने तेजसिंह की भांति दुर्बलता जाहिर की! उन्होंने कड़ी शर्तों का प्रतिवाद किया और लाहौर से महाराज दिलीपसिंह तथा लाहौर के किले से महाराज के घराने की स्त्रियों को हटाने का भी घोर विरोध किया और कहा कि इसमें महाराज रणजीतसिंह की भारी बदनामी होगी।

इलियट के पत्र से अच्छी तरह जान पड़ता है कि उस समय उन्हें कितने विरोध का सामना करना पड़ा था। परन्तु कोई भी तनिक-सा प्रतिवाद करते ही डाट दिया जाता था। इतनी उस समय किसके पास शक्ति थी कि सामना करता? बेबश सबको चुपचाप इलियट की भेड़ बनना पड़ा। तेजसिंह और दीवान दीनानाथ के पूछने पर कि हमारी जागीर रहेंगी या नहीं, इलियट ने उत्तर दिया - “आप लोगों को जागीर अथवा वेतन से अलग करने का विचार नहीं है। पर इसके बदले में जब कभी ब्रिटिश-गवर्नमेंट को जरूरत पड़े तो आप निःसंकोच सहायता अथवा परामर्श दें, और यदि आप की हुई शर्तें स्वीकार नहीं करेंगे तो आपके प्रति किसी प्रकार की दया न दिखाई जायेगी।” दीवान दीनानाथ के पूछने पर कि आगे जागीर पर हमारी सन्तान का भी अधिकार रहेगा या नहीं, इलियट ने कहा - “क्यों नहीं, यदि जागीर सदैव के लिए है तो रहेगी और इसकी जांच करने के लिए शीघ्र ही एक अफसर नियुक्त होगा। इस बात पर आप लोग स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर लें कि संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करें या नहीं।” राजा तेजसिंह और दीवान दीनानाथ दोनों ने सोच लिया कि पंजाब तो खालसे हो ही गया भले ही हम संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करें या न करें और यदि हम हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो हमारी कुशल नहीं। उन दोनों ने रोते हृदय से ठंडी सांस के साथ हस्ताक्षर कर दिए। तेजसिंह और दीनानाथ के हस्ताक्षर हो जाने के बाद इलियट ने फकीर नूरुद्दीन और भाई शेरसिंह को बुलाया। ये दोनों उस समय समय सिख-धर्म के प्रधान नायक थे। इनसे भी वे ही बातें हुईं। इन लोगों ने भी अन्त में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद प्रतिनिधि-सभा के बाकी सभ्यों ने भी दस्तखत कर दिए और यह निश्चय कर लिया कि कल प्रातःकाल सात बजे दरबार कर संधि की शर्तों पर महाराज की मंजूरी करा ली जाए। इसके बाद सब लोग चले गए।

सन् 1849 ई० 29 मार्च को प्रातःकाल महाराज रणजीतसिंह के राजभवन में आखिरी दरबार लगा। रणजीतसिंह के लाहौर, पंजाब में सूर्योदय का भी यह आखिरी दिन था और उसी दिन पंजाब केसरी वीरवर रणजीतसिंह के पुत्र, अंग्रेजों के संरक्षत्व में रहने वाले बालक महाराज दिलीपसिंह भी अन्तिम बार अपने पैतृक सिंहासन पर बैठे। दरबार महाराज के समय में भी लगता था, पर उस


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दरबार की रौनक और आज के दरबार की उदासी बराबर थी। वह उगता हुआ सूर्य था तो यह अस्त होता हुआ। शीघ्र ही दिलीपसिंह के सर्वनाश का समय आ गया। मिस्टर इलियट, सर हेनरी लारेन्स और रेजीडेंसी के अनेक कर्मचारी दरबार में आ पहुंचे। इनके साथ सेना का पूरा प्रबन्ध था। वैसे तो दरबार में पहले ही सेना का पूरा इन्तजाम था पर इनके साथ शरीर-रक्षक सैनिक आए थे। उनकी तादाद बहुत ज्यादा थी। महाराज दिलीपसिंह तथा अन्य सरदार स्वागत के लिए राजभवन के फाटक पर आये।

दोनों ओर से अभिवादन होने पर दरबार में पहुंचे। दिलीपसिंह अपने पैतृक सिंहासन पर अन्तिम बार बैठा। कहते हैं बालक दिलीपसिंह में इस समय कुछ भी बालोचित चंचलता न थी। वह गम्भीरतापूर्वक सिंहासन पर बैठे हुए थे। धीरज और शान्ति उसके चेहरे से टपकी पड़ती थी। बाईं ओर सिख-सरदार बैठे हुए थे और दाहिनी तरफ फौज हथियारों से लैस खड़ी थी। दरबार में अन्य लोग भी इस दुखद अन्त के अवलोकनार्थ पहुंच गए थे। दरबार का हाल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि महाराज रणजीतसिंह की जागीर के हकदार उनके पुत्र दिलीपसिंह बाल्यावस्था में थे पर सम्भवतः वे इस दरबार के कारण को जान गए थे। नियत समय पर इलियट ने भाषण किया और इसके बाद एक मौलवी ने फारसी में पंजाब को कम्पनी के अधीन किए जाने की घोषणा पढ़ सुनाई। पीछे उसका तरजुमा हिन्दी में सुनाया गया। भला बालक दिलीप इस घोषणा का अभिप्राय क्या समझता! कुछ देर के लिए दरबार में सन्नाटा छा गया। पर दीवान दीनानाथ हृदय के उठते हुए भावों को न रोक सके। उनकी आंखों से अश्रु-धारा बह रही थी, हृदय फटा जाता था। उन्होंने पंजाब खालसा किए जाने की शर्त-सूची का घोर विरोध किया। दीवान साहब ने रुंधे हुए स्वर से नम्रता के साथ कहा - “इस समय अंग्रेज सरकार को अपनी कुछ उदारता दिखानी चाहिए। जिस तरह बोनापार्ट ने फ्रांस को जीत करके उसके असली शासक को सौंप दिया था, उसी तरह पंजाब महाराज दिलीपसिंह को क्यों न दे दिया जाए?”... पर दीवान साहब को बुरी तरह डांट दिया गया। इलियट गर्म होकर बोले - “शान्त रहो! नहीं तो काले पानी भेज दिए जाओगे। अब उदारता और दया का समय नहीं है। मैं गवर्नर जनरल की ओर से संधि को स्वीकृत करवाने आया हूं जो कल कौंसिल ने तय कर दी है।” इलियट के शब्द सुनकर दीनानाथ चुपचाप अपने स्थान पर बैठ गए। भय के मारे सब दरबारी शान्त हो गए। किसी ने चूं करने तक की भी हिम्मत न की।

जिस कार्य के लिए दरबार किया गया था, वही काम शुरू किया गया। संधि-पत्र पर सरदारों से हस्ताक्षर लिए जाने लगे और पश्चात् बालक महाराज दिलीपसिंह के सन्मुख संधि-पत्र दस्तखत के लिए रख दिया। पता नहीं आजकल की अदालतों में प्रचलित बालिग-नाबालिग का क्या मतलब है? दिलीपसिंह के


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नाबालिग होने पर भी पता नहीं क्यों हस्ताक्षर लेना आवश्यक समझा गया? महाराज के पास रहने वाले मियां की मां के कहने पर महाराज ने नन्हें-नन्हें हाथों से शीघ्रता से हस्ताक्षर कर दिए। बेचारा अबोध बालक दिलीप क्या समझता था कि इस नाटक के अन्त का तेरे भाग्य से क्या सम्बन्ध है? दरबार शेष हो गया। महाराज रणजीतसिंह के किले पर ब्रिटिश-ध्वजा रोप दी गई और तोपें छोड़ी गईं। पंजाब खालसा किए जाने का घोषणा-पत्र निम्न प्रकार था -

  • 1. महाराज दिलीपसिंह और उनके उत्तराधिकारी-गण पंजाब-राज्य सम्बन्धी समस्त स्वत्व, दावा और क्षमता परित्याग करते हैं।
  • 2. लाहौर-दरबार की जो सम्पत्ति है, उस पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार होगा।
  • 3. महाराज रणजीतसिंह ने शाहशुजा से जो कोहनूर नामक हीरा लिया था, अब वह लाहौर के महाराज को इंगलैंण्ड की महारानी की भेंट करना पड़ेगा।
  • 4. महाराज दिलीपसिंह, उनके परिवार तथा नौकरों के जीवन-निर्वाह के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी अधिक से अधिक पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष या कम से कम चार लाख रुपये दिया करेगी।
  • 5. महाराज दिलीपसिंह के प्रति सम्मान का व्यवहार किया जाएगा। उनकी पदवी महाराज दिलीपसिंह बहादुर रहेगी। यदि वे भविष्य में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के अधीन रहें तो यावज्जीवन उन्हें ऊपर लिखी हुई वृत्ति अथवा उसका कुछ अंश जिस समय जितना आवश्यक समझा जाएगा, उतना उन्हें मिलता रहेगा। उनके रहने के लिए गवर्नर जनरल जिस स्थान को पसन्द करेंगे, उस स्थान में ही उन्हें भविष्य में रहना पड़ेगा।

लार्ड डलहौजी ने पता नहीं अबोध दिलीपसिंह का क्या अपराध था कि उनकी पैतृक जागीर जब्त कर ली? उसके इस कार्य की किसी भी इतिहासकार ने आज तक पुष्टि नहीं की। स्वयं अंग्रेज लेखक इस कठोर कार्य की निन्दा करते हैं। लार्ड ले ने लिखा है - “हम (अंग्रेज) चौड़े में दिलीपसिंह के रक्षक थे, सन् 1854 ई० में कहीं दिलीपसिंह बालिग होते। हम सन् 1448 नवम्बर की 19 तारीख को राज्य की रक्षा के लिए आगे बढ़े थे। राज्य-रक्षा की हमने घोषणा भी की थी।1 विद्रोहियों को दण्ड देना और शासन-सभा के प्रति जो विद्रोह हुआ था, उसको दमन करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य था। किन्तु 5 मास में ही इतना परिवर्तन हो गया


1. लार्ड हार्डिंग ने सन् 1846 की 20वीं फरवरी की घोषणा में लिखा था - “दरबार और सरदारों की सहायता से अंग्रेजों के परम मित्र महाराज रणजीतसिंह के पुत्र की अधीनता में निर्दोष सिख-राज्य को स्थापित करने की हमारी इच्छा है।”


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कि बालक दिलीप का राज्य जब्त कर लिया गया। हमने यह 'विलक्षण-रक्षा की।' सन् 1849 की 24 मार्च को पंजाब-राज्य के अन्त करने की घोषणा कर दी गई और हमने अपने रक्षाधीन बालक की सब सम्पत्ति और राज्य छीनकर 'विलक्षण-रक्षा' का परिचय दिया।”

पंजाब जब्त करने का सारा दोष लार्ड डलहौजी का नहीं था। इस सम्बन्ध में भीतरी नीति सबकी यही थी। अकेला डलहौजी इतना साहस कर सकता था? खालसे हो जाने के बाद पंजाब का शासन सर हेनरी लारेन्स को सौंपा गया। पाठक पीछे पढ़ चुके हैं कि हेनरी लारेन्स पंजाब खालसा करने के मत से सहमत न थे। यह सहृदय अंग्रेज केवल असहमत ही नहीं हुए, बल्कि इन्होंने पंजाब को अंगेजी-राज्य में मिलाने का घोर विरोध किया था। पर इनके विरोध का कुछ फल न हुआ।

लार्ड डलहौजी ने सोचा कि ऐसे ही व्यक्ति को इस समय पंजाब का शासन-भार देना चाहिए। क्योंकि क्षुब्धित पंजाब में शान्ति के लिए उस समय ऐसा ही अफसर आवश्यक था, जिसके प्रति प्रजा के सुन्दर भाव हों। चूंकि हेनरी लारेंस ने पंजाब की जब्ती का विरोध कर कुछ समवेदना प्राप्त कर ली। वास्तव में लारेंस महोदय हृदय से इसके विरोधी थे। पंजाब के शासक होने का उच्च पद भी इन्हें अच्छा न लगा, पर कुछ मित्रों के अनुरोध से यह पद इन्होंने छोड़ा नहीं। उदार और अनुदारों का सम्बन्ध बहुत दिन तक चलना असम्भव है। कहते हैं पंजाब में भूमि-कर बढ़ाना लारेंस के रहते संभव न था। उसके रहते हुए कर-वृद्धि में कठिनाई पड़ती थी। इसी पर लार्ड डलहौजी और सर हेनरी लारेंस की नहीं बनी और वह पंजाब से हटा दिए गए और पंजाब का शासन-भार जौन लारेंस (ये हेनरी लारेंस के भाई ही थे) को सौंपा गया।

महाराज दिलीपसिंह के निरीक्षक और अभिभावक डाक्टर लेगिन नियुक्त हुए। इनका वेतन 1200) मासिक था। दिलीपसिंह के रहने का स्थान और डाक्टर लेगिन का स्थान निकट-निकट ही था। कुछ दिन बाद मकान के पास ही मकान बना लिया गया। दिलीपसिंह इस समय 12 वर्ष के न हुए थे, परन्तु फारसी भाषा का उन्हें अच्छा ज्ञान हो गया था। उन्हें अंग्रेजी सीखने का भी उसी समय शौक हुआ। डाक्टर लेगिन को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। डाक्टर साहब का व्यवहार बड़ा अच्छा था जिसके सबब से दिलीपसिंह की भी काफी मुहब्बत हो गई थी। उन्हें (दिलीपसिंह को) बाज पक्षी से अन्य पक्षियों का शिकार कराने में बड़ा आनन्द मिलता था। वे पढ़ने के साथ कुछ चित्रकारी भी सीखते थे। इतनी उम्र में भी दिलीपसिंह की बुद्धि बड़ी तेज थी। वे दूसरे व्यक्तियों के चरित्र की आलोचना इस प्रकार करते कि जिसे सुनकर डाक्टर लेगिन चकित हो जाते। लेगिन के कथनानुसार इस उम्र में इतना चतुर कोई अंग्रेज बालक भी कहीं नहीं देखा गया। डाक्टर लेगिन दिलीपसिंह की शिक्षा और देखरेख के अलावा राज्य के परिवार और पंजाब


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के प्रबन्ध का भार भी लिए हुए थे। लाहौर-राज्य के परिवार में महाराज रणजीतसिंह की 17 हिन्दू रानियां और 4 मुसलमान स्त्रियां थीं। और इसके अलावा रणजीतसिंह के वारिस खडगसिंह, नौनिहालसिंह, शेरसिंह आदि की स्त्रियां और बाल-बच्चे थे। 130 दासियां तीन दल काश्मीरी और देशी नाचने वाली वेश्याओं के अतिरिक्त पांच दल गाने-बजाने वालियों के थे।

महाराज रणजीतसिंह के खजाने में उस समय अटूट धन-राशि और रत्न-राशि भरी हुई थी। यही नहीं, संसार प्रसिद्ध कोहनूर हीरा महाराज के यहां था। बहुत से सोने-चांदी के बर्तन, बहुमूल्य पोशाकें, रत्न-जटित शस्त्र, कवच और कितनी ही अन्य बेशकीमती वस्तुएं थीं। सिक्ख गुरुओं की खड़ाऊं, जामा, लकड़ी, प्रार्थना-पुस्तकें आदि-आदि कई चीजें थीं। इनके अतिरिक्त रणजीतसिंह के पिता महासिंह के विवाह-काल की अमूल्य पोशाकें थीं।

महाराज रणजीतसिंह का खजाना कोई छोटे-मोटे राजा का खजाना न था। उनका स्वर्ण-सिंहासन, रत्न-जटित बहुमूल्य काश्मीरी शालों का पट-मण्डप बेजोड़ थे। उक्त सम्पत्ति डा० लेगिन की देखरेख में कुछ दिन रही। पश्चात् ईस्ट इंडिया कम्पनी के खजाने में पहुंच गई। कोहनूर हिन्दुस्तान छोड़ इंगलैण्ड पहुंच गया। महाराज रणजीतसिंह के बड़े परिश्रम से इकट्ठे किए हुए बहुत से पदार्थ नीलाम पर चढ़ा दिए गए। विधि की गति कौन जानता है! जिन वस्तुओं को रणजीतसिंह के अधीन रहते बड़े-बड़े लोग देखने को भटकते थे, उनकी कैसी दशा हुई। महाराज दिलीपसिंह का खर्च घटाया जाने लगा। डाक्टर लेगिन ने टोमस लैम्बट बारलो नामक युवक को दिलीपसिंह का अध्यापक बनाया। डाक्टर लेगिन ने बातों-बातों में यह भी सुझा दिया था कि अब लाहौर छोड़ना पड़ेगा।

1849 ई० सितम्बर मास की 4 तारीख दिलीपसिंह का जन्म दिवस था। इस दिन महाराज दिलीपसिंह की वर्षगांठ थी। वे 11 वर्ष समाप्त कर बारहवें में पदार्पण कर रहे थे। गवर्नमेंट की आज्ञानुसार महाराज दिलीपसिंह की जन्म-तिथि के उपलक्ष में डाक्टर लेगिन ने एक लाख रुपये की जवाहिरात कोष में से उनकी (दिलीपसिंह की) भेंट की। महाराज सदा की भांति बहुमूल्य वस्त्र और गहने पहने हुए थे, पर कोहनूर हीरा इस वर्ष वाहु पर न था। डाक्टर लेगिन से दिलीपसिंह ने पूछा कि - गतवर्ष जो कोहनूर हीरा मैंने पहना था, वह अब कहां है? अबोध बालक को क्या मालूम, अब वह अपनी जन्म-भूमि भारत छोड़ इंगलैण्ड पहुंचा दिया गया है।

मातृ-भूमि-विद्रोह

मनुष्य के पराधीन हो जाने पर उसका खाना-पीना, उठना, बैठना, बोलना सब दूसरे के इंगित पर हो जाता है। इस अवस्था में जो कुछ भी हो जाए असम्भव


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नहीं। हमारी इस बात के प्रमाण के लिए आप संसार के छोटे-छोटे बन्दियों का नहीं, बड़े-बड़े योद्धाओं का इतिहास देख लीजिये - महावीर नेपोलियन बोनापार्ट जैसे वीरों को बन्दी होने पर कितनी यंत्रणायें सहनी पड़ी थीं।

सन् 1849 ई० के सितम्बर महीने में लार्ड डलहौजी लाहौर आये। तब उन्होंने महाराज दिलीपसिंह से भी भेंट की। भेंट करने के समय डाक्टर लेगिन का सिखाया हुआ वाक्य “I am happy to meet you my Lord!” दिलीपसिंह ने उच्चारण किया। अर्थात् - 'प्रभो, मैं आपके दर्शन से कृतकृत्य हुआ हूं।' गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने दिलीपसिंह की पीठ पर हाथ फेरा। 15 दिन रह कर वाइसराय लाहौर से विदा हो गए। डलहौजी के चले जाने के कुछ दिन बाद ही दिलीपसिंह को यात्रा करने के लिए तैयार होने को कह दिया गया। पर कहां जाना होगा, यह गुप्त रखा गया।

सन् 1849 ई० दिसम्बर मास की 11 तारीख को दिलीपसिंह के सम्बन्ध में डाक्टर लेगिन को गवर्नर जनरल की ओर से पत्र मिला, जिसका आशय यों था -

“अब दिलीपसिंह को पंजाब छोड़कर लाहौर जाना होगा। वहां उनके रहने के लिए स्थान का प्रबन्ध हो गया है। आपको (डाक्टर लेगिन को) भी दिलीपसिंह के साथ जाना पड़ेगा। उनके 1200) रुपये मासिक वेतन में 600) सरकार और 600) दिलीपसिंह की वार्षिक वृत्ति में से मिलेगा। दिलीपसिंह के बालिग होने तक निरीक्षण और शिक्षा की देख-रेख का भार आप पर रहेगा। महाराज शेरसिंह के पुत्र और महाराज रणजीतसिंह के पौत्र सहदेव भी दिलीपसिंह के साथ ही फतेहपुर जाएंगे...।”

उक्त आज्ञा पाते ही डाक्टर लेगिन यात्रा करने को तैयार थे, परन्तु बालक सहदेवसिंह जिसकी आयु सिर्फ साढ़े छः बरस की थी, को इतनी छोटी अवस्था में ले जाना मुश्किल था, इसलिए सहदेवसिंह की माता के भी साथ ही चलने का प्रबन्ध किया गया। 21 दिसम्बर सन् 1849 ई० को 9 बजे महाराज दिलीपसिंह अपने भतीजे सहदेवसिंह और उसकी माता को लेकर डाक्टर लेगिन के साथ लाहौर से विदा हो गए।

फरवरी मास सन् 1850 ई० को डाक्टर लेगिन सहित दिलीपसिंह फतेहगढ़ पहुंचे। पहले इनके रहने के लिए गंगा के किनारे एक स्थान तय हुआ था, परन्तु यह स्थान पसन्द न होने पर डाक्टर लेगिन ने कुछ भूमि खरीद कर एक अलग मकान बनवा दिया। खास महाराज दिलीपसिंह के रहने के लिए भी गवर्नर जनरल की आज्ञानुसार एक मकान बनवाया गया। किसी समय लाहौर के सुविशाल राजभवनों में रहने वाले राजकुमार गांव के साधारण मकान में रहने लगे! यद्यपि महाराज पूर्णतः देख-रेख में थे, पर तो भी यह मकान फतेहपुर के किले और छावनी के मध्य में बनाया गया था और रात-दिन कितने ही सिपाही पहरा देते थे। जब महाराज बाहर निकलते तो एक सिपाही साथ रहता था। मानों वे कोई


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चीज हैं जो अकले रहने से आस-पास की प्रकृति को भी विद्रोही बनायेंगे जिससे ब्रिटिश शासन खतरे में पड़ जाएगा।

फतहगढ़ पहुंचने पर डाक्टर लेगिन को हेनरी लारेन्स का एक पत्र मिला जिसमें इस सहृदय, उदार अंग्रेज सज्जन ने कुशल-क्षेम के सिवाय दिलीपसिंह के शिक्षा और स्वास्थ्य के ध्यान रखने की आशा प्रकट की थी। लेकिन डलहौजी उनको राजा की तरह नहीं, साधारण आदमी की तरह रखना चाहता था। अतः उसने लेगिन को लिखा था - “आपने महाराज के रहने का जिस प्रकार आयोजन किया है इसमें विशेष खर्चा पड़ता है। क्या आप समझते हैं कि उसका (दिलीपसिंह) जीवन राजाओं के समान होगा! मुझे यह पसन्द नहीं है।” लेगिन साहब के लिए यह ईश-वाक्य से बढ़कर था। उन्होंने इसका अनुसरण किया।

दिलीपसिंह पर अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता ने असर डालना शुरू किया। वे सिखों के से लंबे केश न रखकर छोटे-छोटे अंग्रेजी बाल रखने लगे। अंग्रेजी बालों के हेल-मेल से कोट, पतलून, टोप का पहनना शुरू हो गया। सहदेवसिंह की माता को इससे धारणा होने लगी कि मेरा बेटा सिख-साम्राज्य का अधिकारी होगा। उस बेचारी को क्या खबर थी कि सिख-राज्य मिट चुका है और ऐसे विचार करना भी भयंकर अपराध समझा जाता है। लार्ड डलहौजी को सहदेव की माता की उपर्युक्त धारणा मालूम पड़ी तो सन् 1851 की 23 तारीख को डाक्टर लेगिन को लिखा -

“आप शेरसिंह की रानी को कह दीजियेगा कि पंजाब में सिख-राज्य की सदा के लिए समाप्ति हो गई है। इस समय पंजाब पर अपने लड़के तथा अन्य किसी व्यक्ति के बैठने की आशा करना सिवाय राज-विद्रोह के कुछ नहीं है। यही शिक्षा उन्हें अपने लड़के सहदेव को देनी चाहिए। यदि आगे से शेरसिंह की रानी वर्तमान अवस्था से भिन्न अपने लड़के के लिए पंजाब के राज्य लेने अथवा और उच्चपद प्राप्त करने की आशा करेंगी तो उनके लड़के सहदेवसिंह के लिए अच्छा न होगा।”

यह सन्देश लेडी लेगिन ने सहदेव की माता को सुना दिया।

एक दिन लेडी लेगिन के साथ महाराज दिलीपसिंह रानी से मिलने गए। रानी ने इस बात की परीक्षा करने के लिए कि दिलीपसिंह का धर्म के प्रति कितना विश्वास है, एक चाल चली। रानी शर्बत बनाने में मशगूर थीं। शर्बत तैयार करके गिलास में लाकर दिलीपसिंह के सामने रख दिया। लेडी लेगिन के लिए दूसरा गिलास न आने से दिलीपसिंह ने अपने सामने का गिलास लेडी लेगिन को दे दिया। श्रीमती लेगिन ने सोचा कि दिलीपसिंह के लिए अन्य बर्तन में शर्बत आता होगा। थोड़ा सा पीकर गिलास रख दिया। सहदेव की माता ने न तो वह झूठा शर्बत नीचे डाला और न उसे साफ किया। उसी शर्बत में और शर्बत डाल कर दिलीपसिंह के सन्मुख रख दिया। लेडी लेगिन ने कहा भी कि - “महाराज यह शर्बत नहीं पीएंगे।” पर महाराज ने मना करते-करते भी वह शर्बत का गिलास पी लिया और तत्काल


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 386


बाहर चले आए। रानी यह देखकर बड़ी विस्मित हुई। अनन्तर लेडी लेगिन ने भी रानी साहिबा से विदा ली और बाहर आने पर दिलीपसिंह से झूठा शर्बत पी जाने का सबब पूछा। उन्होंने कहा - “क्या मैं उस समय शर्बत न पीकर आपका अपमान करता? मैं आपका आदर करता हूं और इसमें मुझे अपनी जाति से च्युत भी होना पड़े तो कोई शरम की बात नहीं है।” इस तरह दिलीपसिंह के विचार नये सांचे में ढल रहे थे। सन् 1851 ई० के दिसम्बर महीने में जब लार्ड डलहौजी और लेडी डलहौजी फतेहगढ़ पधारे, दरबार किया। दिलीपसिंह ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया क्योंकि वे देशी राजा-महाराजाओं से अपने को अलग ही रखने की इच्छा रखते थे। डेरे पर पहुंच कर दिलीपसिंह ने गवर्नर जनरल से भेंट की।

सन् 1852 ई० के आरम्भ में दिलीपसिंह ने भारतवर्ष के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखने की इच्छा प्रकट की और इस यात्रा का इन्तजाम भी हो गया। परन्तु किसी प्रकार की विशेष धूमधाम नहीं की गई। यात्रा में दिलीपसिंह, डाक्टर लेगिन, लेडी लेगिन, सहदेव तथा कुछ नौकर-चाकर साथ थे। साथ सहदेवसिंह की माता पीहर पहुंच गई थी। रास्ते में जहां कहीं भी सिखों को पता लगता, वहीं देखने के लिए इकट्ठे हो जाते। उन्होंने इस भ्रमण में कुछ रुपये गरीबों को भी बांटे थे। राजधानी देहली में कुछ कीमती आभूषण भी खरीदे थे। आगरे में उन्होंने लाल किला और प्रसिद्ध इमारत ताजमहल को देखा। यहां पर अंग्रेजों ने उन्हें दावत दी। आगरे में वे प्रेस और तारों को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। अन्य स्थानों को देखते हुए उन्हें हरद्वार देखने की भी लालसा हुई। ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने गुप्त रीति से हरद्वार दिखाने की तजवीज की। इसका सबब यह था कि उस समय पंजाब तथा और आस-पास के गांवों के लोग भी मेले में आए हुए थे। इसीलिए उन्हें खुल्लम-खुल्ला चौड़े में हरद्वार दिखाना भय का काम समझा गया। इतना सब कुछ होने पर भी कुछ सिखों को पता लग ही गया कि हाथी पर हमारे महाराज पंजाब-केसरी रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह हैं। वे हाथी को घेरकर खड़े हो गए और महाराज दिलीपसिंह की शुभकामना के नारे लगाने लगे। आखिरकार किसी तरह दिलीपसिंह डेरे पर आ गए तब कहीं अंग्रेज कर्मचारियों के जी में जी आया। वर्षा ऋतु आ जाने के कारण यह काफला मंसूरी चला गया। मंसूरी पर्वत-श्रेणियों को देखकर दिलीपसिंह बड़े प्रसन्न हुए। यहां आने पर अंग्रेज बालकों के साथ-साथ भ्रमण करने लगे और इन लोगों से अधिक व्यवहार करने के कारण अंग्रेजी में कुछ अच्छी योग्यता भी प्राप्त कर ली। दिलीपसिंह पाश्चात्य सभ्यता में तो फतेहगढ़ रहते हुए ही फंस गए थे।

फतेहगढ़ पहुंचने पर दिलीपसिंह की इच्छा ईसाई हो जाने की हुई। डॉक्टर लेगिन ने इसके लिए गवर्नर-जनरल से आज्ञा मांगी और गवर्नर-जनरल की


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नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.

संदर्भ

1. ‘अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया’। पृ. 254

2. टाड परिशिष्ट पृ. 1134 खड्ग विलास प्रेस बांकीपुर का संस्करण।

3. ‘सरस्वती’ भाग 3 संख्या 33

4. Memoirs of Humayoon. Page 45

5. तारीख फरिश्ता उर्दू तर्जुमा। नवलकिशोर प्रेस लखनऊ। पृ. 54-55

6. वाकए राजपूताना, जिल्द 3, लेखक मुन्शी ज्वालासहाय।





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