Bikaneriy Jagriti Ke Agradoot – Chaudhari Harish Chandra Nain

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Chaudhari Harish Chandra Nain

Bikaneriy Jagriti Ke AgradootChaudhari Harish Chandra Nain, 1964, is Book by Author: Thakur Deshraj. Some content from this book is provided here.

पुस्तक: बीकानेरीय जागृति के अग्रदूत – चौधरी हरीशचन्द्र नैण, 1964

लेखक: ठाकुर देशराज, जघीना, भरतपुर

प्रकाशक: श्रीभगवान, पुरानी आबादी, गंगानगर, राजस्थान

पृष्ठ संख्या: 350

विषय सूची

  • लेखक की ओर से.....5-8,
  • दो शब्द, पंडित श्री हरीशंकर जी शर्मा, ....9-11,
  • चौधरी हरिश्चंद्र जी विभिन्न दृष्टियों में....12,
  • प्रस्तावना, चौधरी कुंभाराम आर्य, 1-7,
  • प्रकाशकों की दृष्टि में....13-20,
  • जनसेवकों एवं जन नेताओं की दृष्टि में....21-32,
  • शिक्षा मनीषियों और प्रेमियों की दृष्टि में....33-42,
  • दूसरे संस्कारण के लिए....43-44,
  • मुख्य कार्यक्षेत्र....1-6,
  • वंश, जन्म और बाल काल....7-29
  • चौधरी हरीश चन्द्र जी की शिक्षा....30-35
  • सर्विस की तलास....36-45
  • वकील हरीश चन्द्र....46-53
  • विवाह....54-55
  • सैनिक भर्ती...56-57
  • सार्वजनिक जीवन में प्रवेश....58-61

  • ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया....62-74
  • आर्य समाज से संबंध....75-81
  • विधायक रूप में : चौधरी हरीश चन्द्र....82-123
  • जब प्राईम मिनिस्टर और दरबार बिगड़े.... 124-129
  • म्युनिसिपल कमिश्नर....130-131
  • केनाल और वेंकिंग सलाहकार कमेटियाँ....132-133
  • परदेसियों का कोप....134-135
  • गौ-भक्त चौधरी हरीशचंद्र....136-139
  • जांच कमीशन की मेंबरी...140-141
  • समाज सुधारक: चौधरी हरीश चंद्र....142-154
  • पथ प्रदर्शक: चौधरी हरीश चंद्र....155-160
  • उच्च चरित्र और आदर्श व्यक्तित्व....161-172
  • राजनीति में प्रवेश....173-203
  • बीकानेर की राजनैक जागृति का संक्षिप्त इतिहास....204-231
  • बीकानेर में जागृति के कारण....232-241
  • आंकड़ों का धनी....242-250
  • डायरियों का बादशाह....251-262
  • चौधरी साहब की सूक्तियाँ....263-269
  • चौधरी साहब की चुटकियाँ....270-274
  • वकालत और बार ऐसोसियशन....275-277
  • दृढ़ प्रतिज्ञ....278-280
  • सत्य के पुजारी....281-284
  • कुछ बिखरी बातें....285-287
  • मुस्लिम षडयंत्र....288-290
  • कांग्रेस के संबंध में-....291-293
  • गंगानगर और हिंदूमलकोट ....294-295
  • चौधरी जी की आदर्श धर्मपत्नी....296-304
  • धर्म बहिन पूरादेवी....305-306
  • चौधरी साहब का परिवार....307-312
  • कुछ दुखद घटनाएँ....313-315
  • सुखद मिलन....316-334
  • वंश परिचय....335-342
  • नेक और निर्भीक सलाहकार....343-348
  • शुद्धि पत्र....349-350

लेखक की ओर से

[p.5]: जब मैं 21 साल का अनुभवहीन नवयुवक था तो वर्ष 1923 में सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया। सबसे पहला प्रभाव मुझ पर गुरुकुल भेंसवाल (हरयाणा) के आचार्य श्री हरीशचन्द्र जी का पड़ा। मैं आर्यसमाज के शनै-शनै निकट आ गया। किन्तु वर्ष 1926 ई. से मुझे जाट महासभा के संपर्क में भी धमेड़ा जिला बुलंदशहर के उत्साही नौजवान चौधरी रीछपाल सिंह और उत्तर प्रदेश के जाटों के प्रमुख नेता कुँवर हुक्मसिंह जी ने खींच लिया। उन दिनों मैं आगरा में एक छोटे साप्ताहिक पत्र का सम्पादन करता था। और साथ में एक फार्म की मुनीमगिरि। जाट महासभा के संपर्क में आने से उन सभी प्रमुख जाटों से परिचय हुआ जो देश के भिन्न-भिन्न भागों में जाति के उन्नति का कार्य कर रहे थे।

चौधरी हरिशचन्द्र जी बीकानेर की ओर से जाट महासभा की कार्यकारिणी के सदस्य थे। उनसे इस नाते से परिचय हुआ। घनिष्ठता कब और कैसे बढ़ी यह मुझे याद नहीं। किनन्तु जब मैं जाट वीर


[p.6]: का सम्पादक हुआ तो उनके कार्यों और न्यायपूर्ण जीवन के समाचारों से अवगत होने के कारण उनमें निरंतर श्रद्धा बढ़ती गई। कोई समय था जबकि राजस्थान का प्रत्येक किसान सेवी कार्यकर्ता और विषेशतौर से जाट मुझे काफी महत्व देता था। क्योंकि सीकर शेखावाटी के किसानों में जो आश्चर्यजनक जीवन पैदा हुआ था और उन्होने जागीरदारों के अत्याचारों से बचने के लिए सहसपूर्ण संघर्ष किया था। उसका बहुत कुछ श्रेय लोग मुझे देते हैं। इस कारण चौधरी हरिश्चंद्रजी जो वर्षों से शांति और विवेक के साथ बीकानेर की सामंतशाही से निबट रहे थे, का मेरे ऊपर प्रेम बढना स्वाभाविक था। उन्होने प्रत्यक्ष और अप्रतयक्ष मुझे और मेरे साथियों को सहयोग दिया। इसके बाद सन् 1946 से तो वे स्वयं खुले संघर्ष में आ गए।

यह सब उनके जीवन चरित्र में अंकित है। उनके कई विशेष गुणों की मेरे दिल पर छाप है। लोग कहा करते थे कि चौधरी हरीशचन्द्र अपने इरादे और सिद्धांतों से जितना प्रेम करते हैं, उतना किसी प्यारे से प्यारे व्यक्ति को नहीं। जवाब देने में भी वे बेलौस थे। मेरे साथ भी यही गुजरी। वर्ष 1948 ई. में महाराजा भरतपुर ने राजस्थान और बाहर के कुछ जाटों को बुलाया। चौधरी हरीशचन्द्र भी आए और उन्होने मुझसे पूछा।


[p.7] : बात क्या है मैंने कहा महाराजा साहब शायद आपसे संघ शासन में शामिल होने अथवा न होने के बारे में पूछें, चूंकि मैं उन दिनों रेवेन्यू मिनिस्टर था। मैंने कहा, आप महाराजा साहब का रुख देखकर उत्तर दें। आपने कहा, मैं तो वही कहूँगा जो मुझे उचित लगेगा। मैंने कुछ अच्छा जवाब उन्हें नहीं दिया, परंतु जब वे महाराजा से मिले तो यही कहा कि श्री महाराज अब रियासतें रह नहीं सकती, आप इस समय को पहचाने। अन्यत्र भी यह चर्चा इस पुस्तक में आई है लेकिन मेरे और उनके बीच सद्भाव कभी कम हुये हों ऐसा याद नहीं।

उन्होने पिछले 60 वर्ष से अपनी दिनचर्या लिखी है। उसमें आप बीती और पर बीती दोनों ही हैं। उन डायरियों का सदुपयोग होना चाहिए ऐसी इच्छा उनके शुभचिंतकों विशेषकर स्वामी केशवानन्द जी और चौधरी कुंभाराम आर्य की थी। उन डायरियों का पिछले 60 वर्ष का भारत का इतिहास लिखने और प्रमुख घटनाओं को जानने में हो उपयोग हो सकता है।


[p.8]: मैंने इन डायरियों को लगभग 10 दिन तक 8-8 घंटे पन्ने पलटकर देखा और कुछ को अपने घर ले आया। उन्हीं के आधार पर चौधरी हरीशचन्द्र का यह जीवन वृतांत लिखा गया है। इस कार्य में 13 महीने लगे।

हिन्दी साहित्य के एक महारथी, हास्य रस के आचार्या और डाक्टर ऑफ लिटरेचर की उपाधि से सम्मानित पंडित श्री हरीशंकर जी शर्मा ने इस पुस्तक की भूमिका स्वरूप जो ‘दो शब्द’ लिख देने की कृपा की है उसके लिए हृदय से मैं उनका कृतज्ञ हूँ।

विनीत
देशराज

वंश, जन्म और बाल काल

[p.7]: चौधरी हरिश्चंद्र जी ने अपने वंश का परिचय देने और अपने जीवन पर प्रकाश डालने के लिए “मेरी जीवनी के कुछ समाचार”, "संक्षिप्त जीवनी, और “मेरी जीवन गाथा” नामों से तीन प्रयत्न किए गए हैं। यह प्रयत्न जिस उत्साह से आरंभ किए गए हैं उससे पूरे नहीं किए गए हैं। मानो यह काम इन्हें बोझिल सा जंचा। हमें उनका यह अधूरा प्रयास भी बहुत सहारा देने वाला सिद्ध हुआ। उनके लेखानुसार उनका गोत्र नैण है। जो उनके पूर्व पुरुष नैणसी के नाम पर प्रसिद्ध हुआ। नैण और उनके पूर्वज क्षत्रियों के उस प्रसिद्ध राजघराने में से थे जो तंवर अथवा तोमर कहलाते थे। और जिनका अंतिम प्रतापी राजा अनंगपाल तंवर था।

बारवीं शताब्दी के अंतिम चरण में भारत में भीम सोलंकी, भोज पँवार, जयचंद राठौड़, अनंगपाल तंवर और सोमेश्वर चौहान प्रसिद्ध शासक थे। अनंगपाल की एक पुत्री सोमेश्वर चौहान को और दूसरी पुत्री जयचंद को ब्याही थी। सोमेश्वर का पुत्र प्रतापी पृथ्वीराज चौहान हुआ।

जयचंद की पुत्री संयोगिता ने पृथ्वीराज को वरा। इससे जयचंद और पृथ्वीराज में दुश्मनी हो गई।


[p.8]:इससे चौहान और राठौड़ दोनों ही वंश के पैर दिल्ली से उखड़ गए। रठोड़ों का एक राजकुमार सीहा मारवाड़ में पहुंचा। उसी का परपौता बीकाराव बीकानेर में दाखिल हुआ। चौहान हांसी, हिसार और कोटा बूंदी की ओर खिसक लिए।

तंवर इस संघर्ष से पहले ही दिल्ली को चौहानों के हवाले कर चुके थे। कहा जाता है राजा अनंगपाल नि:संतान थे। इसलिए उन्होने सोमेश्वर के पुत्र पृथ्वीराज, जो की उनका दौहित्र था, को गोद लिया। तवरों के लिए किसी कवि ने व्यंग कसा है – “दिल्ली तो ढिल्ली भई, तंवर भए मत हीन”। एक किंवदंती है कि राजा अनंगपाल के किसी पूर्वज ने एक बड़ा यज्ञ किया। उसकी कीर्ति में एक बड़ा लौह स्तम्भ खड़ा किया गया। पंडितों ने कहा, इस सतम्भ के नीचे वाली नौक शेष के फन में गड गई है। इसी भांति तंवर वंश का राज्य भी दृढ़ हो गया है। राजा को पंडितों की बात पर विश्वास नहीं हुआ, उसने स्तम्भ को उखड़वाकर देखा। उसका नीचे का सिरा खून में सना हुआ निकला। राजा पछताया और उसे फिर से गड़वाया, किन्तु वह ढीला रहा तबसे उसकी राजधानी का नाम ढिल्ली हो गया जो कालांतर में डिल्ली और डेहली अथवा देहली कहलाई। किंवदंती सही हो अथवा गलत इसमें संदेह नहीं कि तंवरों की गलती से उनका बलशाली राज्य तहस-नहस हो गया।


[p.9]: हांसी हिसार की ओर जो तंवर गए थे उनमें से कुछ ने राजपूत संघ में दीक्षा लेली और जो राजपूत संघ में दीक्षित नहीं हुये वे जाट ही रहे। नैणसी और उनके तीन भाई भी जाट ही रहे। ये चार थम्भ (स्तम्भ) कहलाते हैं। नैणसी के वंशज नैण, नवलसी के न्योल, दाडिमसी के दड़िया, और कुठारसी के कोठारी कहलाए। चौधरी हरिश्चंद्र जी का कहना है कि मैंने इन तीन गोत्रों को पाया नहीं। हमने इनमें से न्योल गोत्र के जाट खंडेला वाटी में देखे हैं। वहाँ के लोगों का कहना है कि दिल्ली के तंवरों में से खडगल नाम का एक राजकुमार इधर आया था उसी ने खंडेला बसाया जो पीछे कछवाहों के हाथ चला गया।

नोट - यह उल्लेखनीय है कि जाट लैंड पर इन चारों गोत्रों - नैण, न्योल, दड़िया और कोठारी की जानकारी उपलब्ध है। कृपया इन गोत्रों की लिंक पर क्लिक करें। (Laxman Burdak (talk)

नैण गोत्र के कुछ लोगों ने इंद्रप्रस्थ से चलकर सरवरपुर बसाया और फिर भिराणी को आबाद किया। सरवरपुर जिसे अब सरूरपुर कहते बागपत तहसील में भिराणी बीकानेर की तहसील भादरा में है। कुछ समय पश्चात उन्हें भिराणी छोडकर जाना पड़ा। इसका कारण इस प्रकार बयान किया जाता है कि एक नैण युवक बालासर (बीकानेर इलाका) में ब्याहा गया था। वह अपने ससुराल गया। कुछ तरुण युवतियों ने मज़ाक में उसको सौते हुये चारपाई से बांध दिया। पाँवों में रस्सी डालकर रस्सी एक भैंसे की पूंछ में बांध दी और कांटेदार छड़ी से भैंसे को बिदका दिया।


[p.10]: भैंसा भाग खड़ा हुआ। युवक घिसटता हुआ मर गया। बहुत दिनों के बाद भिराणी का एक नैण उसी गाँव होकर कहीं जा रहा था। तो उस युवक की विधवा ने ताना दिया कि नैण तो सब मुर्दा हैं वरना अपने लड़के का बदला क्यों छोड़ते। वह नैण वापस लौट गया और नैण लोगों को लाकर बालासर पर चढ़ाई करदी। उन्होने बालासर में खूब मार-काट की। जब वे लौट गए तो बालासर के बचे-खुचे लोग पड़ौसियों को लेकर भिराणी पर चढ़ाई करदी। उन्होने भिराणी को तहस-नहस कर दिया। तभी की यह लोकोक्ति मशहूर है – “छिम-छिम मेहा बरसा, छीलर-छीलर पाणी, नैण-नैण उडी गए, खाली रहगई भिराणी”।

इसी भांति बालासर पर एक लोकोक्ति है – “माहियाँ आवे रिड़कदी, लस्सी हो गई खट्टी। शीश न गूंथावदी, बालासर की जट्टी।:

अर्थात बालासर की जाटनियों ने मांग निकालना बंद कर दिया। तात्पर्य यह है कि वे सब विधवा हो गई।

यह घटना 14वीं शताब्दी की है। बचे-खुचे नैण भिराणी को छोडकर अनेक स्तनों पर जा बसे। चौधरी हरिश्चंद्र जी का कहना है कि उनके पूर्वजों में से राजू लधासर, दूला बछरारा, कालू मालूपुरा, हुकमा केऊ, और लालू बींझासर में आबाद हुये। इन गांवों मे केऊ तहसील


[p.11]: डूंगरगढ़ (बीकानेर डिवीजन) और बाकी तीनों गाँव रतनगढ़ तहसील (बीकानेर डिवीजन) में हैं। चौधरी हरिश्चंद्र की वंशावली : चौधरी हरिश्चंद्र जी का कहना है कि उनके दादा का नाम चैनाराम था। जो अपने पिता के एकलौते बेटे थे।

चैनाराम के 6 पुत्र हुये – 1. चेनाराम, 2. टोडा राम, 3. रामू राम, 4. धन्ना राम, 5. तेजा राम और 6. सुखाराम।

इनमें रामू राम (1848-1911 ई.) के 2 पुत्र हुये हिमताराम और हरिश्चंद्र। रामू राम का जन्म संवत 1905 में हुआ और 63 वर्ष की उम्र में संवत 1968 में स्वर्गवास हो गया।

चौधरी हरिश्चंद्र जी के पिताजी रामू राम ने लालगढ़ में सम्वत 1965 (1909 ई.) में खातेदारी पर जमीन ली थी। उस जमीन का और रामनगर वाली, ढिगावली, मनसावली, चारजी छोटी जमीन का सन् 1909 से 1946 का जो पैसा, राजस्व भेट, निछावर, आदि दिया उसका विवरण दर्ज है।


[p.12]: ..... बीकानेर में जब राठौड़ राजाओं के पाँव जम गए और उन्होने सम्पूर्ण जाङ्गल भूमि पर अधिकार कर लिया तो अपने राज्य को सुरक्षित रखने के लिए मुगल हुकूमत के शरण में चले गए। इससे बाहरी आक्रांताओं से तो वे निश्चिंत हो गए। परंतु घर में खटका भाटी, जोहिया और जाटों से था। जोहिया और भटियों से उन्होने रिश्ते कर लिए। अब केवल जाट थे जो लड़ाकू तो अवश्य थे परंतु आपस में ही लड़ने झगड़ने में व्यस्त थे। पांडु गोदरा का और सारणों


[p.13]: का झगड़ा एक औरत का था। बालासर और भीरानी औरतों के कारण ही बर्बाद हो चुके थे। जाटों को दबाये रखने के लिए बीकानेर के नवागंतुक शासकों ने निम्न प्रयास किए:

1. उनके गांवों के ब्राह्मणों को उदक देकर,
2. राजपूत अफसर और और अधिकारियों की भर्ती करके तथा यथा संभव सभी सरकारी नौकरियों से जाटों को वंचित रखकर,
3. कुछ जाटों को चौधराहट, पटेलगिरी और नंबरदारी देकर।

शेष जाटों पर उन्हीं के द्वारा आर्थिक शोषण में सहयोग लिया। “जाकी धन धरती हरे, ताहि न लेवै संग। जो संग राखे ही बने तो करि राखे अपंग।“

इस नीति वाक्य का बीकानेर के शासकों ने बिका से लेकर महाराजा डूंगर सिंह तक सोलह आने और महाराजा गंगा सिंह तक 15 आने पालन किया।

ऐसी परिस्थितियों में कुछ ऐसे जाट भी थे जो पत्थर तले की अंगुली निकालने में चतुर थे। ऐसे लोगों में चौधरी रामूराम जी भी थे। वे अन्य लोगों की तरह अशिक्षित नहीं थे। रतनगढ़ में एक साधू मोतीनाथ जी से शिक्षा प्राप्त की थी। रतनगढ़ का पहला नाम कोहलासर था।


[p.14]: जो कि कुम्हारों की बस्ती होने के कारण मशहूर थी। सिहाग जाटों का जब यहाँ से स्वामित्व समाप्त हो गया तो राठौड़ नरेश सूरत सिंह ने अपने पुत्र रतन सिंह के नाम पर रतनगढ़ रखा। इन राजाओं ने अनेक जगहों के नाम इसी प्रकार पुराने नाम बादल कर अपने वंशजों के नाम पर रख दिये। भटनेर जैसे इतिहास प्रसिद्ध नगर का नाम बादल कर हनुमानगढ़ और रामनगर का नाम गंगानगर बना दिया।

चतुर रामूराम के एक पूर्वज भारूराम ने महाराजा करण सिंह का, जिस समय वे दिल्ली के मुगल दरबार की हाजिरी से वापस आ रहे थे, बछराले में शानदार स्वागत किया। रुपयों का चौक पुराया गया, जिस पर बैठाकर महाराजा को भोजन कराया गया उनके साथियों समेत। महाराजा ने प्रसन्न होकर भारूराम की पुत्री को 6 हजार बीघा का पट्टा दे दिया। इसी के आधार पर सन् 1939 ई. में रतनगढ़ की अदालत में बछरारा के ठाकुर सगतसिंह जी ने कहा था, चौधरी हरिश्चंद्र जी के पुरखे मेरे पुरखों से कई पीढ़ी पहले से बछरारा में आबाद हैं। इनके पुरखों के नाम हमारे गाँव बछरारा में कई जोहड़ हैं। जिनमें भारवाणा, नानगाणा, लालाणा अधिक प्रसिद्ध हैं। यह जमीन अब हमारे पास है जो पूरांवाली जमीन कही जाती है। कहना नहीं होगा कि करणसिंह जी के बाद के राजाओं ने इस जमीन को जब्त कर लिया और संवत 1917 में सगतसिंह जी राजपूत के पुरखों को दे दिया।

चौधरी रामूराम

[p.15]: चौधरी रामूराम ने यह किस्से सुने थे इसलिए उसने पहले शिक्षा प्राप्त की और अपने लड़कों को भी पढ़ने बैठा दिया। लालगढ़ में कुछ जमीन भी ली। हिमतरामजी की तबीयत तो पढ़ाई में नहीं लगी किन्तु हरिश्चंद्र जी ने न केवल गाँव की पढ़ाई समाप्त की अपितु खिवाली जाकर हिन्दी के साथ अङ्ग्रेज़ी और उर्दू की भी शिक्षा प्राप्त की। चौधरी हरीश्चंद्र जी हिन्दी से अधिक उर्दू जानते हैं और उर्दू में बहुत साफ और सही लिखते हैं। फारसी के अनेकों शेअर वे बातचीत के दौरान कहावतों के तौर पर प्रयुक्त करते हैं। चौधरी हरीश्चंद्र जी जिस जमाने में पैदा हुये थे उस समय अदालतों में उर्दू का ही प्रचलन था। और फारसी पढे लिखे लोग विद्वान समझे जाते थे। चौधरी हरीश्चंद्र जी पंजाब में शिक्षा प्राप्त की थी परंतु वे संस्कृत और हिन्दी को भी भूले नहीं थे। हिन्दी साहित्य समेलन की स्थाई समिति के वे वर्षों सदस्य रहे और जिंदगी भर उन्होने हिन्दी पुस्तकों का पठन और संग्रहण किया।


[p.16]: चौधरी रामूराम जी ने महाराजा खड़ग सिंह जी से तहसील लूणकरणसर के गाँव शेरपुरा में जमीन पट्टे पर ली। संवत 1933 में वहाँ छीला नामक गाँव बसाया। एक कुआ भी बनवाया। महाराजा जसवंत सिंह के रूई के अंगरखे में आग लग गई जिससे वे जलकर मर गए। इसके बाद रामूरम जी ने उस गाँव को छोड़ दिया।

अपने हाथ से लिखी जीवनी में चौधरी हरीश्चंद्र जी ने अपने पिताजी द्वारा जमीन छोड़ने कि घटना पर कौतूहल पूर्ण प्रकाश डाला है। महाराजा खड़ग सिंह की एक पासवान थी चुरू की निवासी चम्पा बनियाणी। बुढ़ापे में वह चम्पा दादी के नाम से मशहूर थी। इसी ने महाराजा डूंगरसिंह के हमारे पिताजी के खिलाफ कान भरे और उन्होने पिताजी के गिरफ्तारी का हुक्म दे दिया। उनको पकड़वाकर किले में बंद कर दिया। किन्तु पिताजी अपनी चतुराई से किले से भाग निकले, हमें शेरपुरा से रातोंरात लेकर चल दिये। गंधेली के पास सरदारपुरा में जाकर निवास किया।

चौधरी हरीश्चंद्र जी अपने पिताजी के स्वास्थ्य और पठन पाठन के बारे में लिखते हैं – “मेरे पिताजी अपने बाप के 6 बेटों में से सबसे अधिक लाड़ले थे। आजकल के लोग इसे आश्चर्य मानेंगे कि संवत 1917 से 1925 तक अकाल के दिनों में सात सेर घी नित हमारे घर में खाया जाता था।


[p.17]: ..... उनकी शिक्षा बाबा मोतीनाथ जी के यहाँ रतनगढ़ में हुई थी। बाबा मोतीनाथ जी का जन्म राजपूत घराने में हुआ था। रतनगढ़ में अब भी ‘बाबा मोतीनाथ जी की बगीची’ उनका स्मरण कराती है। उस समय की शिक्षा में धार्मिक ग्रन्थों का पठन-पाठन और व्यावहारिक हिसाब किताब की जानकारी भी शामिल थे। मेरे पिताजी हिसाब किताब में बहुत चतुर थे। धार्मिक ग्रन्थों में वे गीता और शिव सहस्त्रनाम का पाठ नित्य करते थे। उच्चारण उनका शुद्ध और ध्वनि अत्यंत मधुर थी। उस मीठी ध्वनि की याद मुझे अभी तक भी आती है। शरीर से पुष्ठ और कद के तगड़े थे। शरीर से वे जितने तगड़े थे मन और आत्मा भी उनके उतने ही तगड़े थे। वे चिंता और भय से मुक्त थे। बीहड़ और जंगलों में वे रात के समय भी जाने और सफर करने से नहीं हिचकते थे। उनके साहस और पौरुष की अनेक कहानियाँ हैं। उनसे जो मैंने सबक सीखा उनमें कठिन परिश्रम एक है। जिंदगी भर मैंने जो श्रम किया है


[p.18]: उसकी बदौलत 80 वर्ष की आयु में भी मुझमें चलने फिरने और छोटे मोटे काम करने का दम है।“

चौधरी रामूराम जी का आरंभिक जीवन आराम से कटा। क्योंकि उनके पिताजी उन्हें बहुत प्यार करते थे। जब वे युवा हो गए तो अन्य भाईयों को अखरने लगा। तब वे बीकानेर जाकर रिसाले में नौकर हो गए। उनके पिताजी को इस पर दुख हुआ और वह नौकरी छुड़ादी। लेकिन घर पर करते क्या? बछरारा में जमीन कम थी। इसलिए कुछ दिन बाद घर से निकल पड़े। और राणासर के पँवार ठाकुर गुलाब सिंह से जाकर मिले और राणासर और सरदारपुरा में जमीन लेली। उनके ठाकुर गुलाब सिंह से अच्छे संबंध थे। संवत 1925 से 1931 तक बीकानेर में फसल कमजोर हुई। किन्तु संवत 1932 में फसल अच्छी हुई। जिसे उनके पिताजी ने संवत 1933 में फिर क़हत हो जानेके कारण कर्जे पर बाँट दिया।

छोटी भाभी के व्यंग बाणों से आहत होकर आप न्यारे हो गए और शेरपुरा की जमीन चौधर पर ली। साथ ही संवत 1940 तक निज की खेती से खूब अन्न उपजाया।


रामूराम जी की लोकप्रियता

[p.19]: रामूराम जी की लोकप्रियता जाटों में बढने लगी। इससे प्रभावित होकर जैतपुर के ठाकुर बीझराज सिंह और धान्दू के ठाकुर खुमाण सिंह ने इनको पगड़ी पलट दोस्त बनाया। संवत 1937 (1880 ई.) में हिमताराम जी का जन्म यहीं शेरपुरा में हुआ। तब ठाकुर लक्ष्मण सिंह ने शेरपुरा में हँसली कड़े हिमताराम जी को पहनने के लिए चढ़ाये थे।

शेरपुरा - सरदारपुरा - खारिया आगमन  : चौधरी रामूराम जी जब बीकानेर जाते थे तो महाराज खड़ग सिंह जी की पासवान चम्पा बनियाणी से जरूर मिलते। वह इन्हें बड़े प्रेम से खिलाती-पिलाती। राजवी जवानी सिंह मन में रामूराम जी से खुटक रखते थे। उन्होने मौका पाकर चम्पा पासवान के कान भरे कि यह चौधरी तुम्हारी निंदा करता है। चम्पा दबंग तो थी किन्तु व्यवहार कुशल न थी। उसने बिना छान-बीन किए महाराज डूंगर सिंह को भड़का दिया। महाराज ने रामूराम को पकड़ कर जूनागढ़ के किले में बंद कर दिया। शेखावाटी में लोठू की बहदुरी के गीत गए जाते हैं। क्योंकि वह आगरे के किले में से कूदकर भाग आया था। चौधरी रामूराम ने भी ऐसी ही बहादुरी का काम किया। वे जूनागढ़ के किले में से दीवार फांदकर भाग आए और रातों रात शेरपुरा पहुंचे। शेरपुरा को अपनी उम्रभर के लिए नमस्कार कर वहाँ से बाल- बच्चो को लेकर चल दिये और गंधेली के पास सरदारपुरा आकर बस गए।


[p.20]: उस समय चौधरी हरीशचन्द्र जी सिर्फ ढाई महीने के थे। कुछ दिन सरदारपुरा में रहकर पंजाब (वर्तमान हरयाणा) की सिरसा तहसील के खारिया गाँव को उन्होने अपना स्थाई निवास बनाया।

नेकी और बदी की कहानी साथ-साथ चलती है। बछराला को नैनों ने बसाया था। बीकानेर के राजा करणसिंह से 6 हजार बीघा जमीन उस आव-भगत के बदले ली थी जो उन्होने दिल्ली से लौटते हुये में राजा की गोठ की थी। यह जमीन सदा उनके पास ही रहनी चाहिए थी किन्तु करणसिंह के बाद राठौड़ नरेशों ने इस जमीन को किशनसिंहोत बीका को पट्टे पर दे दिया। ये पट्टेदार भोगता अर्थात निम्न श्रेणी के जागीरदार थे। आरंभ में ये लोग तंग हालत के थे इसलिए चौधरी हीराराम नैन से कर्ज लेते रहे। ठाकुर उम्मेद सिंह रुघ जी की कर्जे लेने की लिखत चौधरी हरीश चन्द्र जी के पास सुरक्षित है। कर्जा तो नैन लोग इन भोगतों को देते ही रहे किन्तु अन्य मूसीबतों में भी साथ देते थे। एक साल पट्टे की रकम चुकता न करने के कारण ठाकुर सगतसिंह को हवालात में दे दिया तो टोडा राम जी नैन उसे अपनी ज़िम्मेदारी पर छुड़ाकर लाये। इन सब अहसानों को सगतसिंह और उसके बेटे भूल गए और टोडा राम के पौतों को दुख देने लगे।


[p.21]: खैर रामूराम जी अपने पौरुष से ही मुक्त हो गए। बछरारे और शेरपुरा को भी छोड़ आए। खारिया गाँव जहा वे आए थे वहाँ एक नैन सरदार पहले से ही रहते थे । वे परगने के जेलदार भी थे। उन्होने रामूराजी को खारिया में बड़े प्रेम से स्थान दिया।

चौधरी हरीशचन्द्र जी लिखते हैं कि “पिताजी हम दोनों भाईयों और तीनों बहनों पर अत्यंत स्नेह करते थे। खारिया में रहकर उन्होने अपने कठिन परिश्रम से शीघ्र ही अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार लिया। दूध, घी के बिना तो वह रह ही नहीं सकते थे इसलिए बैल और ऊंटों के अलावा उन्होने गाय और भैंस भी खरीद ली। हमारी माताजी भी खूब श्रम करती थी। वास्तव में किसान का धंधा ही ऐसा है कि उसमें सभी कमाते हैं और घर में कितने ही आदमी हों थोड़े ही पड़ते हैं। हम दोनों भाई सयाने हुये तो हमसे खेती नहीं कारवाई। अपितु पढ़ने में लगाया। भाई हिमताराम तो थोड़े ही दिन पढे और मन उचाट गया। पिताजी के बहुत समझने पर भी नहीं माने। परंतु मैं पढ़ता ही रहा और लगातार 12 साल तक पढ़ा।“

“इसमें संदेह नहीं कि रामूराम जी निरे हट्टे-कट्टे ही नहीं थे समझदार भी थे। उनके बल और बुद्धि से लोग प्रभावित होते थे। खारिया गाँव में तो उनका पूरा प्रभाव हो गया था। अतिथि सत्कार में भी वे खारिया में


[p.22]: अग्रणी हो गए थे। जानकार ही नहीं अनजान लोग भी आते तो सबको भोजन और निवास का प्रबंध होता था। वे अपनी संतानों को भी सुख देने में अग्रणी थे। बेटियों को भी अच्छा खिलाते-पिलाते थे और अच्छे घरों में शादी की। संतान के अलावा अन्य सगे संबंधियों की भी उन्होने बहुत सहायता और सेवा सुश्रूषा की।"

रामूराम जी ने अपने पिता का भोज तो किया था परंतु मरते समय पिताजी ने हमसे आश्वासन लिया था कि उनका मृत्यु भोज न किया जावे।


[p.23]: इसी भांति वे बाल-विवाह के भी विरोधी थे। दोनों लड़कों की उम्र 22, 19 वर्ष हो गई तब तक शादी नहीं की थी। वे उस समय के रूढ़िग्रस्त समाज के सदस्य होते हुये भी समाज सुधारक थे।

चौधरी हरीश चन्द्र ने अपने पिता की भांति माता के बारे में ही लिखा है कि उनकी माताजी का नाम मृगावती देवी था। वह तेजाराम जी जाखड़ निवासी भोगराना तहसील नोहर


[p.24]: की पुत्री थी। वे कहते हैं “ हम पर हमारी माताजी का भी पूर्ण स्नेह था। जब मैं सिरसा में पढ़ता था तो मेरी माताजी हर दसवें-बराहवें दिन मुझे देखने खारिया से 12 मील दूरी तय कर सिरसा पहुँच जाती थी। परिवहन का कोई साधन न होने से पैदल ही आना पड़ता था। रास्ते में घग्गर नदी नाव से पार करनी पड़ती थी। वह कभी खाली हाथ नहीं आई साथ में सिर पर आटा और हाथ में घी का डिब्बा होता था। हमसे इतना प्रेम था लेकिन जब पिताजी का देहावसान हो गया तो पति-वियोग न सह सकी और केवल 9 माह में ही उनका भी स्वर्गवास हो गया। पिताजी का स्वर्गवास संवत 1968 (1911 ई.) बैसाख माह में हुआ था और माताजी का माघ माह में ।

यद्यपि पिताजी मृत्यु भोज मना कर गए थे परंतु उस समय मातृ-पितृ भक्ति का परिचय देने का आधार ही मृत्यु भोज था सो हमें भी करना पड़ा। दोनों के नुक्ते में 6-6 मन कनक का हलुआ किया और इस प्रकार माता-पिता से उऋण होने के लिए 3 हजार रुपये बर्बाद किए। मृत्यु भोज का मुझे बाद में बहुत पछतावा हुआ।“


[p.25]: चौधरी हरीश चन्द्र जी ने सुनाया कि उन्होने अपने पिताजी से अनेक बातें सीखी जिनमें से एक यह था “अपने पड़ोसी और गाँव वाले से लड़ो मत।“ खरिया गाँव के धन्ना तथा तिलोका नैन ने उनके पिता चौधरी रामूराम जी से 300 रुपये इस वादे पर उधार लिए थे कि इससे जमीन खरीदेंगे और सांझे में रामूराम जी को भी मिला लेंगे।.....


[p.26]: परंतु उन्होने रामूराम जी को सांझे में नहीं मिलाया और मूल राशि तीन साल के बाद लौटादी। तब पिताजी ने उनको कहा खुश रहो। अन्यथा वे अपने प्रभाव से वसूल भी सकते थे। चौधरी हरीश चन्द्र जी कहते हैं कि पिताजी के इन उदार भावों का उन पर बहुत असर हुआ। मैंने भाई अथवा पड़ोसी से कभी झगड़ा नहीं किया। पड़ौसियों से मैं इतना ही संपर्क रखता हूँ कि तन-मन से जो भी सेवा हो जाए कर देनी। उनके घरेलू जीवन में न तो मैं दिलचस्पी लेता हूँ और न अपने घरेलू जीवन में उनकी दखलअंदाजी मुझे बरदास्त है। इसका फल यह हुआ कि पड़ौसियों से झगड़ा करने का अवसर ही कभी नहीं आया। “ पिताजी हमारे लिए कोई चल-अचल संपत्ति नहीं छोड़ गए थे परंतु हमारे लिए कोई कर्जा भी नहीं छोड़ा। सबसे बड़ी संपत्ति हमें वे उच्च चरित्र की देकर गए। हम दोनों भाईयों में किसी भी व्यसन ने नींव नहीं जमाई। वफादारी और ईश्वर भक्ति हमारे सभी पारिवारिक जनों में थी। जो थोड़ा मैं ईश्वर का स्मरण करता हूँ वह पैतृक देन है।

चौधरी हरीश चन्द्र जी के जन्म की कहानी

[p.27]:चौधरी हरीश चन्द्र जी के जन्म की कहानी निराली है। उनके पिताजी अपने आरंभिक जीवन में शेरपुरा में रहते थे जो कि लूणकरणसर तहसील में है। उनकी पत्नी शेरपुरा से अपने बड़े लड़के हिमताराम जी का जडुला उतारने मालासी तहसील सुजानगढ़ गई। समस्त हिंदुओं का मुंडन संस्कार किसी तीर्थस्थल अथवा किसी देवस्थान पर होता है। मालासी भी एक ऐसा ही देवस्थल है जहां दूर-दूर की स्त्रियाँ अपने बच्चों का मुंडन संस्कार करने आती हैं। मुंडन संस्कार को जडूला कहा जाता है।


[p.28]: रामूराम जी की पत्नी भी मालासी गई। वहाँ से वह वापस आ रही थी तो उन्हें अपने जेठ चौधरी चतुरा जी के गाँव कुंतलसर की याद आई। जो सरदारशहर के उत्तर में 16 मील पर है। वे वहाँ पहुंची। ईश्वर की मर्जी की बात कि वहीं पर उनके दूसरे बेटे चौधरी हरीश चन्द्र जी का जन्म हुआ

जांगल देश में उन दिनों ऐसा रिवाज था कि प्रसूति स्त्रियाँ 2-3 महीने तक घर से बाहर नहीं निकलती और खुराक अच्छी खाती थी। उन दिनों ढाई महीने का तारा शुक्र अस्त था, इन दिनों स्त्री घर से बाहर नहीं जाती। किन्तु रामूराम जी की पत्नी वहाँ 20 दिन भी न ठहर पाई। क्योंकि अपनी जिठानी का व्यवहार कुछ कड़वा सा प्रतीत हुआ। वे वहाँ से चल दी। मार्ग में उन्हें महाराज डूंगर सिंह के वे सैनिक मिले जो महाजन के ठाकुर साहब को उनकी उद्दंडता का दंड देकर लौट रहे थे। ऊंट पर रामूराम जी की चौधरण सवार थी। अब सवाल यह पैदा हुआ कि ऊंट को रास्ते से अलग करें और सैनिकों को निकल जाने दें। अथवा सैनिक चौधरण के ऊंट को पहले निकलने दें। जब सैनिकों को मालूम हुआ कि यह चौधरण रामू राम जी की पत्नी है तो उन्होने ही चौधरण को निकलने का रास्ता दे दिया। उन दिनों चौधरी रामू राम का उस इलाके में नाम था क्योंकि महाराज डूंगर सिंह जी उनका मान करते थे। पड़ौस के बड़े-बड़े ठाकुर उनसे पगड़ी बदल चुके थे।


[p.29]: महाराज खड़ग सिंह की पासवान चम्पा बनियाणी की उन पर महरबानी थी। प्रत्यक्ष में तो यह चौधरी रामूराम जी का प्रताप था और अप्रत्यक्ष उस शिशु को जो आगे चलकर चौधरी हरीश चन्द्र जी के नाम से प्रसिद्ध होने वाले थे। जो न केवल जांगल देश में ही अपितु सम्पूर्ण राजस्थान और कुछ अंशों में पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में भी नाम रोशन करने वाले थे।

चौधरी हरीश चन्द्र जी की शिक्षा

[p.30]: उन दिनों तक शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ था। तहसील मुकामों पर स्कूल थे। गांवों और छोटे कस्बों में निजी पाठशालाएं चलती थी। खरिया गाँव में भादरा के पंडित रामनाथ पढाने आते थे। इन्हीं पंडित रामनाथ जी के पास चौधरी रामूराम जी के बेटे पढने लगे। स्कूल जाने का शौक चौधरी हरीश चन्द्र जी को कैसे लगा इसकी एक कहानी है। रामनाथ जी ने स्कूल के लिए गाँव वालों से कच्ची ईंटें तैयार करवाई। उन्हें ढोने का काम उनके शिष्य करते थे। बालक हरीश चन्द्र भी खेलता हुआ वहाँ पहुंचा। पंडित रामनाथ के शिष्यों ने हरीश चन्द्र से कहा तुम भी ईंट ढोलो तुम्हें एक ईंट की दो कौड़ी मिलेंगी।


[p.31]: बालक हरीश चन्द्र ईंट ढोने को तैयार हो गए। पंडित रामनाथ ने उसके सिर पर प्रेम से हाथ फेरा और पीपल के पत्ते पर खांड दी। बस यहीं से बालक हरीश चंद्र को पढ़ने का शौक लगा। और वह लगातार स्कूल जाता रहा। पंडित रामनाथ से बालक हरीश चन्द्र ने पढ़ने का श्रीगणेश किया और फिर बद्री प्रसाद जी से पढे। बद्री प्रसाद जी रेवाड़ी तहसील के सीहा गोठड़ा से आकार खरिया में पाठशाला आरंभ की। संवत 1949 तक बालक हरीश चन्द्र ने कुछ आधारभूत गणित और कुछ धार्मिक ग्रन्थों का अध्ययन किया। एक दिन गुरुजी ने उनकी पिटाई करदी तो वह जंगल में जाकर छुप गए और स्कूल जाने से माना किया। पिताजी उनको ढूंढकर लाये।


[p.32]: बालक हरीश चन्द्र को पिताजी ने समझा बूझकर वापस स्कूल भेजा। इसके बाद हरीश चन्द्र ने कभी भी पढ़ाई में नागा नहीं की। गाँव की हिन्दी की पढ़ाई पूरी कर हरीश चन्द्र अपने गुरुजी के गाँव सीहा गोठड़ा उर्दू पढ़ने गया। वहाँ की पढ़ाई पूरी कर वह गुरुजी के साथ ही लौट आया और पढना लिखना बंद हो गया। आस पास पढ़ने के लिए कोई स्कूल नहीं थी।

संवत 1951 में चौधरी रामूराम जी ने अपनी दो लड़कियों की शादी की क्योंकि संवत 1950-51 में फसल अच्छी हुई थी।

इनका शेष कुटुंब बछरारा में ही था। अपनी दादी के मौसर में हरीश चन्द्र जब बछरारा गया तो अपने 80 वर्ष के हृष्ट-पुष्ट दादा को देखकर बहुत खुश हुआ। चौधरी साहब ने लिखा है – “इसी साल (संवत 1949) मैंने बागड़ पहले-पहल देखा। मुझे बड़ा आनंद आया। होली भी बछरारा की देखी खूब राख उड़ाई।“


[p.33]: इसके बाद श्रवण संवत 1951 में बालक हरीश चन्द्र उर्दू पढ़ने के लिए खिवाली गया। उन दिनों उर्दू पढे बिना नौकरियाँ नहीं मिलती थी। उर्दू मिडिल पास आदमी तहसीलदार बन जाता था। यह ईस्वी सन 1894 था। खेवाली गाँव खरिया से 7 कोस उत्तर-पूर्व में था। यहाँ पर नैन गोत्र की एक लड़की डालू खैरवा को ब्याही थी। रिश्ते में वह हरीश चन्द्र का फूफा लगता था। नैन गोत्र की फूफी तो मर चुकी थी। भाम्भू गोत्र की फुफाजी के घर थी। इसलिये हरीश चन्द्र भाम्भू गोत्र को भी भुआ ही मानता था। हरीश चन्द्र ने उसी भुआ के घर डेरा डाला। वह खेवाली के स्कूल में दाखिल हो गए जिसमे रामजीदस जी तहसील बवानी खेड़ा निवासी मास्टर थे। यहाँ 8 महीने में हरीश चन्द्र ने दो कक्षाएं पास की। इसके बाद दूसरे अध्यापक रघुवर दयाल जी आ गए। बीच में बालक हरीश चन्द्र स्कूल से भाग भी गया परंतु हिमता राम ने ढूंढ लिया और फिर खेवाली पढ़ने लगे। यहाँ पर 5 दर्जे पास कर लिए। संवत 1955 (1898 ई) में सिरसा के एंग्लो माध्यमिक स्कूल में भर्ती हुआ। 5 वां दर्जा अच्छे नंबरों से पास करने के कारण 2 रुपये महिना छात्रवृति मिलने लगी।


[p.34]: यहीं से हरीश चन्द्र ने अङ्ग्रेज़ी उर्दू में मिडिल पास किया। उन दिनों जमींदारों पर आधी फीस लगती थी परंतु हेड मास्टर जयचंद मुकर्जी ने हरीश चन्द्र की फीस माफ करदी थी क्योंकि बालक होशियार था। हरीश चन्द्र जिला हिसार के मिडिल स्कूल के छत्रों में जिले में प्रथम रहा

हरीश चन्द्र को पढ़ाई के साथ-साथ खेल भी बहुत पसंद थे खासकर कबड्डी और ऊंची कूद। गोला फेंकने और तलवार चलाने में भी वे बहुत अच्छे थे।

सन् 1902 में हरीश चन्द्र मिडिल पास कर घर आ गया। यहाँ से उनका सांसारिक जीवन आरंभ हुआ। शिक्षा काल में ही वह आर्यसमाज के संपर्क में आ गए थे। मास्टर रामदासजी के साथ एक बार वे आर्य समाज के जलसे में भी गए थे। सिरसा में पढ़ते समय स्कूल में सनातानधर्म सभा बनाई।


[p.35]: हरीश चन्द्र शुरू में सनातन धर्म सभा के कोषाध्यक्ष थे और बाद में अध्यक्ष बन गए। शुरू में हरीश चन्द्र आर्य समाज से हिचकते थे क्योंकि उनके मन में यह धारणा थी कि आर्य समाजी जादूगर हैं। उनसे बचते रहना चाहिए। बाद में वेदिक धर्म में आस्था बढ़ती गई और आर्यसमाज के अधिकाधिक संपर्क में आता रहा।

सर्विस की तलास

[p.36]: चौधरी हरीश चन्द्र जब पढ़कर निकले तो उनको नौकरी की सूझी।....


[p.37]: फौज और पुलिस में अच्छी जगह मिलने की आशा थी परंतु उनके पिताजी नहीं चाहते थे। एक समय किसी ने कहा कि पटियाला काउंसिल के प्रेसीडेंट सरदार गुरमुख सिंह नैन जाट हैं वे अपनी गोत और बिरादरी का बहुत ख्याल रखते हैं। चौधरी साहब बड़े इरादे से पटियाला पहुंचे। उस समय सरदार गुरमुख सिंह बीमार थे और उनके बड़े सिविल जज लड़के नारायण सिंह ने आवभगत तो खूब की पर कोई अच्छी पोस्ट दिलाने में लाचारी बताई।

उन दिनों बारबर्टन साहब पटियाला एस.पी. थे उनसे मिलने की सलाह दी गई। पटियाला में रहते चौधरी साहब के 15 दिन बीत गए। एक दिन नाभा के सरदार गज्जन सिंह गुरमुख सिंह की कोठी पर पधारे। उन्होने नाभा के तत्कालीन महाराजा हीरा सिंह की तारीफ की और उनसे मिलने की सलाह दी। चौधरी हरीश चन्द्र जी सरदार गज्जन सिंह के साथ नाभा को हो लिए।


[p38]: चौधरी हरीश चन्द्र जी और सरदार गज्जन सिंह राजा के दर्शन के लिए एक दरवाजे पर खड़े हुये। परंतु राजा आज किसी दूसरे दरवाजे से निकल गए थे। चौधरी साहब बड़े निराश हुये। समय बड़ा बलवान है सन् 1902 में चौधरी हरीश चन्द्र जी एक राजा के दर्शन के लिए लालायित थे और सन् 1946 में कई राजा उनसे कुछ सद्भावना और सहायता के लिए इच्छुक हुये।

दूसरे दिन चौधरी हरीश चन्द्र जी अपने गाँव को लौट पड़े। नाभा से गुढ़ा रेल से और फिर खारिया तक पैदल सफर किया। यह घटना संवत 1959 माह अगस्त 1902 की है। क्वार के महीने में चौधरी साहब के एक रिसतेदार खारिया आए और उन्होने कहा हमारे यहाँ के मतीरे (तरबूज) बहुत मीठे होते हैं तुम मेरे साथ चलो। चौधरी साहब राजी हो गए। एलनाबाद, विसरासर और कालू होते हुये गुसांईसर पहुंचे। जहां कई दिन तक मतीरे खाते रहे।


[p.40]: गुसाईसर से नवंबर के महीने में चौधरी साहब को बीकानेर देखने की इच्छा हुई। वह कहते हैं कि मैं 4-11-1902 को बीकानेर पहुंचा। माजीपुगलियाणी जी के कामदार गुमान जी बरड़िया की कोटडी में रुका। कविराज भैरव दान जी ने मुझे जकात की थानेदारी देने को कहा परंतु मैंने उसे स्वीकार नहीं किया।

वहाँ रहते हुये चौधरी देदाजी गोदरा के साथ महाराज भैरूसिंह साहब के दर्शन हुये। ये दर्शन अकस्मात ही हो गए क्योंकि जहां चौधरी साहब खड़े थे वहाँ एक राजपूत सरदार का भी निवास था। महाराजा साहब उधर ही आए थे। चौधरी देदा जी से वे परिचित थे सो पूछा यह तुम्हारे साथ आदमी खड़ा है वह कौन है। उन्होने उत्तर दिया कि महाराज यह मेरा रिश्तेदार है और अङ्ग्रेज़ी पढ़ा लिखा है। महाराजा ने कहा इससे अर्जी दिलादो मैं अफसर बना दूँगा।

चौधरी हरीश चन्द्र जी को यह तौहफा बहुत पसंद आया और उन्होने अर्जी देदी। उसी दिन महाराज साहब ने प्रार्थी को बीकानेर दरबार के प्रायवेट सेक्रेटरी रुसतमजी दौराब जी कपूर को दिखते हुये कहा, मैं इस जाट को तहसीलदार बनाना चाहता हूँ।


[p.41] मेरे लिए महाराज के रसोड़े में भोजन की आज्ञा हो गई। ठहरने की व्यवस्था मैंने बछरारा के ठाकुर बहादुर सिंह जी के पास की। वे भी वहाँ रहते थे और अपने खाने को महाराज के रसोड़े में से कांसा लाते थे। वहाँ मांस बनता था सो एक-दो वक्त के बाद मैंने वहाँ खाने से माना कर दिया, तब रावले में मेरे भोजन की व्यवस्था करदी।

नवंबर 1902 के आखिरी हफ्ते में तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड करजन का बीकानेर आगमन हुआ। इस दौरान पुरोहित लक्ष्मीनारायण और चौधरी हरीश चन्द्र को रोशनी का इंचार्ज बनाया। उन दिनों बिजली का प्रबंध बीकानेर में नहीं था। जगह जगह बांस के खंभों पर तेल के दीपक रखे गए थे। 65 मन तेल खरीदा गया। रोशनी अच्छी हुई। महाराज साहब को अन्य अच्छे कारकुनों की भांति ही चौधरी साहब को सर्टिफिकेट मिला जिसके निम्न शब्द थे –

“हरीश चन्द्र जाट मौजे बछराला तुमने हिज एक्सिलेन्सी दी वायसराय एंड गवर्नर जनरल साहब बहादुर दामइकबालहू के बीकानेर [p.42] : आगमन पर जो रोशनी 25-11-1902 को हुई उसमें काम मिहनत से और ईमानदारी से किया और हमको बहुत खुश रक्खा लिहाजा यह सर्टिफिकेट हमारे खुश होने का तुम्हें बख्सा जाता है ताकि सनद रहे। 26.11.1902 महाराज भैरूसिंह बीकानेर

हीरलाल जी कोचर के छुट्टी जाने पर चौधरी साहब को मई 1903 में सरिस्तेदार बनाया गया।

चौधरी साहब लिखते हैं कि वैसे महाराजा मेरे ऊपर प्रसन्न थे किन्तु मेरा मन वहाँ लग नहीं रहा था। इसलिए 9.7.1903 को छुट्टी लेकर घर चला आया। वहाँ चरित्रहीन सभी को बनना पड़ता था। केवल हमीर जी पुरोहित और चौधरी साहब ही दो ऐसे आदमी थे जो सभी व्यसनों से बचे। इसलिए रावले की सभी स्त्रियाँ हमारे साथ भलमनसाहत का व्यवहार करती थी। और कभी गुस्ताखी से पेश नहीं आई। बल्कि आदर और मान करती थी।


[p.43]: चौधरी साहब के संस्मरण बहुत सी अज्ञात घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं जो सामन्तशाही का इतिहास लिखनेवालों के बड़े काम के हैं। .....


[p.44]: सालभर घर रहने के बाद चौधरी साहब फिर बीकानेर पहुंचे। वहाँ डॉ. नारायणसिंह जी से साक्षातकार हुआ। उनके सत्संग और सत्यार्थप्रकाश के अध्ययन से चौधरी हरीश चन्द्र कट्टर आर्य समाजी बन गए। उन्होने रावले में भी मांस मत खाओ, शराब मत पिओ का आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। इससे उनकी इज्जत रावले में बढ़ गई। उन्होने डाक्टरी सीखने के प्रयत्न किए पर असफल रहे। आखिर में राजगढ़ तहसील में 20.7.1905 को अहलमद हो गए। महाराज द्वारा तहसीलदार बनाने का वादा हवा में ही झूल गया। 5 वर्ष चौधरी हरीश चन्द्र ने राजगढ़ चुरू और मिर्जावाला और बीकानेर में गुजारे। मिरजेवाला में 7 महीने ही रहने पाये थे कि आपका तबादला बीकानेर हो गया। वहाँ आपने तय कर लिया कि अब नौकरी नहीं करनी और छुट्टी लेकर घर आ गए।

संगरिया मंडी की स्थापना : जुलाई 1909 में संगरिया मंडी कायम करने के लिए बीकानेर से कुछ अफसर आए थे। संगरिया रेलवे स्टेशन के पास ही था। पहले स्टेशन का नाम चौटाला रोड था। चौटाला जिला हिसार का गाँव है जो स्टेशन से 5 मील दूर है। संगरिया बीकानेर की सरहद का बहुत छोटा सा गाँव था।


[p.45]: पीने के लिए पानी ऊंटों पर लादकर चौटाला से लाया जाता था। रियासत का माल पंजाब में न जाए तथा पंजाब से जरूरी चीजें लाकर सरहदी लोगों को मिलती रहें इसी उद्देश्य से बीकानेर महाराजा ने संगरिया मंडी कायम करने की सोची थी। संगरिया में तहसीलदार मिर्जावाला भी पहुंचे अफसर माल ने तहसीलदार से हरीश चन्द्र को बीकानेर भेजने का प्रस्ताव रखा। क्योंकि वे मेहनती आदमी हैं, यह दलील दी गई।

बीकानेर में काम बहुत था और अधरा काम और भी अधिक था। उसे चौधरी हरीश चन्द्र ने पूरा किया। काम को काबू करने में कई महीने लग गए। यह काम उनकी पसंद का न था फिर भी इसमें 6 साल गुजार दिये। इसका कारण यह था कि वे यह नहीं कहलवाना चाहते थे कि ‘पढ़ें फारसी बेचें तेल, यह देखो कुदरत का खेल’। इससे देहातियों की पढ़ने की रुचि को धक्का लगता। इसलिए नौकरी पर चिपटे रहे। दूसरे उन्हें यह देखना था कि शायद महाराजा साहब अपने वचन को पूरा कर दें।

वकील हरीश चन्द्र

[p.46]: दीवानी और फ़ौज़दारी की 5 साल की अहलमदी ने उनको आधा वकील तो ऐसे ही बना दिया था। एक साल मेहनत करके बाकायदा उन्होने वकालत की परीक्षा दी। उसमें वे द्वीतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए। वर्ष 1910 में उन्होने वकालत पास की और उसी साल से प्रेक्टिस आरंभ करदी। वैसे उन्होने 36 साल तक वकालत की परंतु डटकर वर्ष 1917 तक ही की थी। इसके बाद वे जाट स्कूल संगरिया के संचालकों में हो गए। कन्या पाठशाला, आर्य समाज, जाट सभा, जमीदार लीग, प्रजा परिषद और कांग्रेस आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्होने अपने को व्यस्त कर लिया।


[p.47]: वकालत में इतना संग्रह नहीं कर सके जिस पर गर्व किया जा सके। उन्होने अपने मुवक्किलों को झूठे वादे नहीं किए। उन्हें वाक जल में फसाया नहीं। .... चौधरी हरीश चन्द्र ने वकील रहते हुये जाटों के साथ राज्य के अधिकारियों के सलूक को समझा। उनको समुचित सम्मान नहीं दिया जा रहा और उनकी अशिक्षा का लाभ उठाया जाता है।


[p.48-52]: कुछ संस्मरण....यहाँ नहीं दिये जा रहे हैं


[p.53]: आप किसी भी हाकिम की खुशामद में नहीं पड़ते थे। वह जमाना रिश्वत से भी अधिक खुशामद का था। ...सामंतों के दिमाग वास्तव में चारण, भाट एवं राजकवि बिगाड़ते थे। उन्हें खुशामद और चापलूसी की बातें सुनने की आदत पड़जाती थी। यही आदत सरकारी नौकरशाह की भी हो जाती थी।

विवाह

Harish Chandra with wife Dhairyavati and family

[p.54]: चौधरी हरीश चन्द्र का विवाह बैसाख सुदी 2 संवत 1959 को सायरसर में तय हुआ। इससे पहले भाई का विवाह बैसाख बदी 11 को तय हो चुका था।


[p.55]: सायरसर खारिया से 55 कोस दक्षिण में है। जेठ संवत 1968 में तीन दिन की बीमारी के बाद उनकी पहली पत्नी का निधन हो गया। उसने एक पुत्री गोरा और पुत्र हरदेव छोड़े। अपनी माँ के देहांत के समय हरदेव कुल 3 दिन का था। इस वर्ष के कातिक में दूसरा विवाह रचाया परंतु यह दुल्हन फेरेवाली रात में ही गुजर गई। चौधरी हरीश चन्द्र के घर में इस साल 4 मौतें हुई: बैसाख में पिताजी, जेठ में प्रथम पत्नी, कातिक में दूसरी पत्नी और माघ में माताजी।

संवत 1971 में आषाढ़ सुदी नवमी को तीसरा विवाह ढींगावाली के चौधरी रामकरण सहारण की बेटी धैर्यवती के साथ हुआ।

सैनिक भर्ती

[p.56]: यद्यपि बंग-भंग और पंजाब में करतार सिंह सरावा की सरगरमियों से सारे भारत में अंग्रेजों के प्रति रोष पैदा हो चुका था किन्तु वर्ष 1914 में जब जर्मनी के साथ अंग्रेजों का युद्ध हुआ तो गांधीजी सहित सभी स्वराज्य की मांग करने वाले नेताओं ने अंग्रेजों की मदद करने का तय किया। मदद में दो काम किए जाते थे – 1. सैनिक भर्ती और 2. धन संग्रह

चौधरी हरीश चन्द्र ने स्वयं अपनी कलम से लिखा है “मनुष्य के जीवन में परीक्षा की घड़ी भी कभी-कभी आती हैं। उसी मौके पर देशभक्ति-राजभक्ति की परीक्षा होती है। मेरे लिए पहला मौका अगस्त 1914 में योरूप में हो रहे महायुद्ध के समय आया। क़ैसर विलियम ने बरतानिया को मटियामेट करने की ठानी। अंग्रेजों ने भारत से मदद मांगी। महाराजा बीकानेर ने रंग्रूट भर्ती करने के लिए बीकानेर, राजगढ़, भादरा, हनुमानगढ़ में डिपो कायम करके कवायद परेड सीखने का काम आरंभ किया।


[p.57]:पहले तो मैंने अपने आप को ही पेश किया किन्तु बाह टूटी होने के कारण नहीं लिया गया। फिर मैंने दो आदमी भर्ती कराये किन्तु मेरा उत्साह उधर नहीं था।

सन 1939 से 45 के के युद्ध के समय तो मैं अधिक स्पष्ट था। मीठी-मीठी लौरियां जो दी जाती थी उनका मुझ पर कोई असर नहीं होता था। 12-12-1940 को मुझे, जबकि मैं बीकानेर असेंबली के अधिवेशन में शामिल होने के लिए गया हुआ था, एक कागज पर फौजी दफ्तर के क्लर्क का लिखा मिला, कल जनरल हरीसिंह जी से मिलें। मैं उनके पास गया तो वे बड़े गिड़गिड़ाए, युद्ध की भावना प्रकट की, फिर मुझसे बोले कुछ मेट्रिक पास लड़के दो तो काम चले। मैंने उन्हें स्पष्ट रूप में कहा, आपने हमें मेट्रिक करने की कुछ भी सुविधाएं दी होती तो हम अवश्य ही मेट्रिक पास लड़के आपको दे सकते थे। मेरी बात उन्हें तीर जैसी लगी किन्तु वास्तविकता से इनकार कैसे कर सकते थे। जो भी मेरे से पढे लिखे लड़के सेना में भर्ती होने के लिए मांगता मैं उसी से मैं यही जवाब देता।“

यह शब्द उनके हृदय की उस पीड़ा को व्यक्त करते हैं जो राठौड़ सरकार की जाटों एवं ग्रामीणों की शिक्षा की ओर उपेक्षा तथा भाई बंधुओं को सर्व प्रकार से उन्नत करने का था।

सार्वजनिक जीवन में प्रवेश

[p.58]: बागड़ अथवा जांगल प्रदेश में चौधरी हरिश्चंद्र जी का जन्म सन 1883 (संवत 1940 भादौ माह की एकादशी) को हुआ। उन्होने अपनी जवानी के दिनों में अपना जीवन देहातियों की शिक्षा के लिए संगरिया की शिक्षा संस्थान को समर्पित कर दिया। उस संस्था के स्वावलंबी होने पर राजनैतिक जागृति के अगुआ बने। सन 1917 से 1957 तक लगभग आधी शताब्दी तक उन्होने कौम, धर्म और देश की सेवा और उन्नति के लिए प्रयत्न और श्रम में खपाये।

नोट - चौधरी हरिश्चंद्र जी का जन्म सन 1883 (संवत 1940 भादौ माह की एकादशी) को हुआ। स्वामी केशवानन्द जी चौधरी साहब से कुछ माह बड़े थे। सी स्वामी जी का जन्म 1883 के आखरी महिने (नवंबर या दिसंबर) में हुआ होना चाहिए। (हस्त लिखित नोट)


[p.59]: शिक्षा प्रचार एवं प्रसार26 जनवरी 1918 की बात है जब चौधरी हरिश्चंद्र जी मिरजावले में वकालत करते थे उस समय उनसे चौधरी बहादुर सिंह भोबिया मिले। उन्होने संगरिया स्कूल के चंदे का काम अपने जिम्मे लिया हुआ था। चौधरी हरिश्चंद्र जी ने बहादुर सिंह जी के संबंध में ये पंक्तियाँ अपनी कलम से लिखी हैं – “चौधरी बहादुर सिंह धुन के पक्के और कठोर परिश्रमी थे। आकर्षण शक्ति उनकी विलक्षण थी। वह देश की वर्तमान दशा को जन चुके थे। बहुत सी ठोकरें खाने के बाद उन्हें यह शुधि आई थी कि उन्नति का मुख्य साधन शिक्षा है। बिना शिक्षा के कोई जाति अथवा देश उन्नत नहीं हुये। वह देहात के लोगों की नाड़ी टटोलते फिरते थे। मैं एक कोने में पड़ा अपने आप में मस्त था। उस जादूगर ने अपना मंत्र मुझ पर भी चला दिया। उन्होने अपना तन मन धन देश को शिक्षित बनाने के लिए दृढ़ व्रत में होम दिया। मेरे कान में भी फूँक मारदी कि बिना शिक्षा के देश के उद्धार की कल्पना स्वप्न मात्र है। तपस्या में विचित्र शक्ति है। उस तपस्वी ने मेरी सुप्त भावनाओं को जगा दिया। और मेरी रगों में बिजली का संचार कर दिया। मैं उनके साथ हो लिया। मदेर, रोही, डांववाली, आदि स्थानों से उन्हें कुछ चंदा करवाया। 5-6 साल से इधर वकालत करने से लोगों से जान पहचान अच्छी हो गई थी।"


Bahadur Singh Bhobia and Chaudhari Harish Chandra, 1920

[p.60]: जिस समय जाट स्कूल संगरिया की नींव डाली उन दिनों बीकानेर राज्य के गांवों में तो सूरतगढ़, हनुमानगढ़, मिरजावली जैसे तहसील और निजामती कस्बों में भी स्कूल नहीं थे। देहातियों की शिक्षा को साकार करने के लिए संगरिया में बहादुर सिंह ने कुछ आदमियों को इकट्ठा किया। और तय हुआ कि इस इलाके में जाट ही अधिक हैं इसलिए स्कूल का नाम जाट स्कूल रखा जावे। ठाकुर गोपाल सिंह, बाबा मानसा नाथ के सहयोग से उन्होने इस स्कूल की स्थापना कर दी। उन्हें कुछ अच्छे साथियों की आवश्यकता थी और उन्हें जो अच्छे साथी मिले उनमें चौधरी हरिश्चंद्र जी मुख्य थे। उन्होने न केवल इस संस्था को समय ही दिया अपितु धन से काफी मदद की। उन्होने एक हजार कमरे के लिए दिये क्योंकि इतने में कमरा बन जाता था। 200 रुपये सदस्यता शुल्क और 556 रुपये विभिन्न उत्सवों पर दिये। साथ ही 40 साल का लंबा समय दान देकर उन्होने संगरिया के जाट स्कूल की सेवा की जो अब ग्रामोत्थान विद्यापीठ बन चुकी है ।


[p.61]: उनकी निज की आमदनी पर इस सेवा कार्य का बड़ा असर पड़ा। उनकी वकालत ठप्प होने लगी और परिवार को समय नहीं दे सके। एक दृढ़वृती की तरह वे संगरिया स्कूल के उत्थान में लगे रहे। हरिश्चंद्र को चौधरी बहादुर सिंह की तरह कौम की तरक्की का नशा चढ़ गया था। उस नशे से निश्चय ही न केवल जाटों का अपितु सभी लोगों का कल्याण हुआ।


[p-98]: प्रथम महायुद्ध में बीकानेर की रतनगढ़ तहसील के 351 जाट फौज में भर्ती हुये उनमें से 64 जाटों को पेंशन मिलती है जो दो पीढ़ी तक चलेगी। यह पेंशन अङ्ग्रेज़ी सरकार की तरफ से मिली।

गंगानगर और हिंदूमलकोट

[p.294]: वर्तमान गंगानगर पहले रामनगर कहा जाता था। जिसकी स्थापना सन् 1910 में हुई। इससे बहुत पहले यह रामू जाट की ढ़ानी थी। सन् 1927 में गंगनहर के उदघाटन के बाद महाराजा गंगासिंह ने रामनगर को गंगानगर नाम दिया। रामनगर अब पुरानी आबादी के नाम से पहचाना जाता है।

एक रामनगर ही क्या अनेकों पुराने शहर और कस्बों को बीका की संतान के राजाओं ने अपने नाम पर बादल दिया।

गंगानगर की भूमि का भी एक इतिहास है। महाराजा बीकानेर ने डंगली सधुओं से एक लाख रुपये उधार लिए और साधू भगवानगिरि को ताम्रपत्र पर लिखकर दिया कि यहाँ की एक लाख बीघा जमीन तुम और तुम्हारे शिष्यों के पास पीढ़ी दर पीढ़ी रहेगी। लेकिन जब गंगनहर का इस भूमि से गुजरने का सर्वे हुआ तो उस समय के साधू नर्मदागिरी, जो जन्म से जाट था, धोखे-धड़ी से 30000 रुपये सालाना पर 99 वर्ष का पट्टा इस जमीन का महाराजा गंगा सिंह ने करा लिया।


[p.295]: यही जमीन करोड़ों रुपये पर पंजाब से आकर यहाँ बसने वाले सिखों को अथवा पुराने वाशिंदों को कीमतन दी।

गंगानगर से आगे हिंदूमलकोट है। भारतीय पंजाब का यह सीमांत गाँव है। यहाँ रेलवे स्टेशन भी है। यह नाम बीकानेर राज्य के दीवान हिंदूमल वैश्य के नाम पर रखा गया है। जब अंग्रेज़ सरकार की मध्यस्तता में बीकानेर और भावलपुर राज्य की सीमा की हदबंदी हुई तो हिंदूमल ने अपनी बुद्धिमत्ता से लगभग 60000 वर्गमील का इलाका बीकानेर का साबित करा दिया। फूलड़ा और बल्लड़ नाम के गाँव भी इसी हदबंदी में आ गए। हिंदूमल ने लालगढ़ के भोपा जाणी को अपनी योजना का सहायक बनाया। भोपा ने कई कोस तक जगह-जगह जमीन में कोले गाड़ दिये और सबूत के समय बताया कि यहाँ तक हमारी गायें चरने आती थी। यहाँ-यहाँ हमने लकड़ी जलाई। उसके जो कोले बचे वे जमीन में मौजूद हैं। इतना इलाका बीकानेर को मिल गया। लेकिन इस राजभक्त हिंदूमल को एक दिन हीरा की कनी खाकर अपनी जान देनी पड़ी क्योंकि महाराजा बीकानेर उससे किसी बात पर अधिक नाराज हो गए थे। भोपा जाणी को इतना इनाम मिला कि एक पीढ़ी के लिए उसकी खुदकास्त जमीन पर लगान माफ कर दिया।


[p.296]: महाराजा को इस कंजूसी के लिए चौधरी साहब ने बीकानेर का यह पद गाया –

चोरी करे निहाई की करे सुई का दान
ऊंचे चढ़कर देखता केतिक दूर विमान
मतकर कंथा गौरबो बस बीको रे बास
एह तीनों सागे मिलें मोर-फोट शाबाश

चौधरी जी की आदर्श धर्मपत्नी

[p.299 ]: चौधरी हरीश चन्द्र का गृहस्थ जीवन सुखी रहा सिवाय उनके बड़े पुत्र हरदेव की अकाल मृत्यु के। उनकी पत्नी धैर्यवती ने 20 वर्ष की उम्र में इस घर में पदार्पण किया। जीवन के पूरे 50 वर्ष बिना चैन लिए 18 घंटे प्रतिदिन काम किया। कई बार नौकर रखने को कहा परंतु जवाब मिला नौकर के नखरों को कौन भुगते गा। किसान की बेटी वकील की पत्नी होकर भी खेत-मजदूर ही जिंदगी भर रही। उसकी दिनचर्या सुनिए –

सुबह तारों के प्रकाश में उठकर शौचादि से निवृत होती हैं। आज-कल नौहरे में पशुओं की रक्षा के लिए सोती हैं। वहीं सूर्योदय से पहले ठंडे पानी से स्नान कर गायत्री पाठ और हवन संध्या करती है। फिर चक्की पीसती हैं। उसके बाद दूध बिलौती है। पतिदेव और आगुंतुकों के लिए स्वल्पाहार तैयार करती है। गाय भैंस का चारा नीरती हैं। उनके गोबर को उठाती हैं। घर, नौहरे और गौत की सफाई करती हैं। फिर दोपहर का भोजन बनती हैं।


[p.300] परिवार के लोगों तथा आगुंतुकों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करती हैं। फिर खेत का रास्ता लेती हैं। चारा काटती हैं और लाती भी हैं। पशुओं को खिलाती हैं। चरखा कातती हैं। फिर घर की सफाई। शाम को दूध दुहना, गरम करना, रोटी बनाना और खिलाना। सबसे आखिर में खुद खाना और रात के 10 बजे बिस्तर पकड़ना। यह है संक्षिप्त दिनचर्या।

चौधरी हरीश चन्द्र की पत्नी धैर्यवती (बाएँ) एवं पुत्रवधू जर्मन कृष्टल उर्फ स्नेहलता धर्मपत्नी श्री वेदप्रकाश

चौधरण के दो पुत्रवधू हैं। एक तो जर्मन है और इंग्लैंड में रहती है स्नेहलता धर्मपत्नी श्री वेदप्रकाश। । दूसरी पुत्रवधू मारवाड़ की है। चौधरी हरीशचन्द्र की पत्नी धैर्यवती का जन्म ढींगावाली गाँव के चौधरी रामकरण जी सहारण के यहाँ हुआ। विवाह के समय वह हरीश चंद्र से 11 साल छोटी थी।


[प.301] इस समय चौधरी हरीश चंद्र 81 साल के हैं और चोधरण धैर्यवती 70 वर्ष की हैं। उनको सार्वजनिक सेवा का इतना अवसर पत्नी के कारण ही मिला। वे हल्के फुल्के डॉक्टर का भी काम करती हैं। छोटे बच्चों की कोड़ी (धमनी) हँसली, काग और तलवे के रोग ठीक करने में माहिर हैं। चौधरी साहब तो उनको अपना पर्सनल डक्टर मानते हैं। स्त्री शक्षा के हिमायती होने के कारण चौधरी साहब ने अपनी गृहनियों को साक्षर बनाने की आरंभ से ही कोशिश की। पहली पत्नी को भी साक्षर किया था और अब उनके देहांत के बाद जब धैर्यवती जी


[प.302] इस घर की मालकिन बनकर आई तो इनको भी साक्षर कर दिया है जिससे वे अपना मामूली लिखने पढ़ने का काम कर लेती हैं। वे व्रत उपवास करने में भी काफी क्षमता रखती हैं। जहां तक संभव है वह अपने हाथ से कते सूट से बने कपड़े पहनती हैं। वह मूँज से रस्से और चारपाई बनाने और घरेलू धंधे करने में स्वावलंबी हैं।

वे स्वयं साफ सुथरी रहती और और चौधरी साहब के कपड़े की ढुलाई अपने हाथ से करती हैं। उनके चौके-चूल्हे रोज साफ होते हैं। सभी वस्तुएं व्यवस्थित और करिने से रखी जाती हैं। जूतों के रखने का स्थान भी निश्चित है। इसप् रकार यह अर्द्ध-शिक्षित नारी एक आदर्श गृहणी हैं।


[प.303] वे अपने सौतेले पुत्र हरदेव से भी बहुत प्यार करती हैं।


[प.304] वेदप्रकाश सन 1955 में इंग्लैंड जाने को तैयार हुआ तब चौधराईन को लगा यह शुभ लक्षण है और उन्होने तुरंत अनुमति देदी। सन 1958 में जब वेदप्रकाश ने लिखा कि मैं जर्मन लड़की कृष्टल से शादी करना चाहता हूँ तो चौधराईन जी ने “बलिहारी जाऊं” के शुभ वचन से स्वीकृति देदी। चौधरी जी ने अपनी डायरी में लिखा है “देहात की यह जाटनी इतने ऊंचे भाव रखती है मुझे तो इस पर आश्चर्य ही होता है”


चौधरी साहब का परिवार

चौधरी हरीशचन्द्र जी का परिवार: [p.307] : यह तो हम पहले लिख चुके हैं कि नैन तवरों की एक शाखा है। तंवरों के पड़ौसी चौहनों की मुख्य भूमि राजस्थान और खास तौर से नागौर जिला है। 10-12वीं शदी तक उनकी राजधानी शाकंभरी अथवा सांभर रही। पृथ्वीराज के दिल्ली में गौद चले जाने के कारण तंवर और उनके वंशज हरयाणा हिसार तक फैल गए। उन्होने अनेकों गाँव आबाद किए। नैन भी उन्हीं में से एक बहादुर और बुद्धिमान पुरुष थे।

उन नैन की ही अगली पीढ़ियों में चौधरी रामूरामजी थे जिनके दो पुत्र हुये हिमताराम और हरीश चंद्र। हरीश चंद्र के के तीन पुत्र हुये। सबसे बड़े हरदेव थे जो बीकानेर के श्रीसंपन्न पौखरराम जी के भाई पूरणराम जी की बेटी से ब्याहे थे। हरदेव का सन 1933 में अकस्मात निधन हो गया।

इस समय आपके दो पुत्र हैं: बड़े श्रीभगवान का जन्म वर्ष 1928 में और छोटे वेदप्रकाश का जन्म 1931 में हुआ। श्रीभगवान ने बीए एलएलबी किया। और वेदप्रकाश ने


[प.308] एमए एलएलबी किया है। श्रीभगवान इस समय सरकारी कोंट्रेक्टर हैं। वेदप्रकाश लंदन में प्रोफेसरी करते हैं।

श्रीभगवान की शादी मारवाड़ के प्रसिद्ध नेता देवता स्वरूप चौधरी गुल्लाराम जी के पुत्र गोरधन सिंह आईएएस की पुत्री पार्वती देवी के साथ हुई।

वेदप्रकाश ने एक जर्मन कुमारी कृष्टल (स्नेहलता) के साथ वेदिक रीति से की। इस पाणिग्रहण संस्कार का विवरण इंग्लैंड के एक प्रमुख दैनिक “केनसिंगटन न्यूज अँड वेस्ट लंदन टाईम्स” ने अपने 15 अगस्त 1958 के अंक में इस प्रकार प्रकाशित किया है –

Hindu Wedding in Kensington

A little fire burns in a pan on the carpet of a Kensington drawing room, incense smoke curls in the air and the soft intoning chant of a Hindu priest unites a young couple in matrimony. ...A house in Clerendon Road, W.11, was the scene of such a wedding when Mr. Vedprakash Varma, an Indian student of Economics at London University married Miss Christel Schmidt, of Germany.

The ceremony was presided over by a Hindu priest, M.Dastri. The bride and Groom sat together before the tiny fire. Then seven times they had to walk round the flames to symbolise the various aspects of marriage. The ritual continued for over an hour, the bride wearing a deep coral


[p.309] pink sari and bearing the scarlet cast-mark on her forehead. Miss Schmidt was formerly a Roman Catholic, but has now taken a Hindu faith.

She is the daughter of Mr. And Mrs. Schmidt, of Bonn, Germany. The bridegroom, who is the son of Mr. And Mrs. Chaudhari Harishchandra was attended by Mr M.P. Puri.

Guests at the wedding included Commander Batta, Assistant Naval Adviser to the High Commissioner for India and Surgeon Commander Grover of the Indian Army. The honeymoon is being spent on the Continent.

चौधरी जी के एक पौता श्रीभगवान का लड़का वीरेंद्र सिंह और एक पोती वेदप्रकाश की लड़की इंदुरजनी है।


चौधरी हरीशचन्द्र जी की तीन लड़की थीं। पहली गोरादेवी चौधरी बुधराम जी को ब्याही थी। जिनसे श्री ज्ञान प्रकाश और जयदेव सिंह दो पुत्र हुये।

दूसरी चंद्रावती गोरा की जगह चौधरी बुधराम जी को ब्याही थी।


[प.311] जिनसे तीन पुत्र हुये 1. सुरेन्द्र सिंह, 2. देवेन्द्र सिंह, 3. वीरेंद्र सिंह। तीन लड़कियां हुई – 1. दयावती, 2. इंदुबाला और 3. राजेश्वरी

इनमें सुरेन्द्र और दया ने बीए कर लिया है। इंदुबाला जालंधर कन्या महाविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं। बाकी सभी पढ़ रहे हैं। तीसरी लड़की चौधरी गोपीचन्द पूनिया बीए पंचकोशी को ब्याही थी जो गुजर चुकी है।

चौधरी बुधराम जी नायबतहसीलदार के पद से रिटायर होकर घर के काम धंधों और जमीन जायदाद की देखभाल करते हैं। वे अछे, परिश्रमी स्वभाव के लिए विख्यात हैं।

चौधरी साहब के भाई हिमताराम के इस समय रघुवीर सिंह और त्रिलोकचंद दो लड़के हैं। जो अपने घरेलू धंधों और खेती के काम का संचालन करते हैं। दो लड़कियां थीं दोनों ही चौधरी ताराचंद जी से ब्याही थी। बड़ी खीवनी देवी का देहांत होनेपर छोटी सुलभा देवी चौधरी तारचंद से ब्याही गई। ताराचंद जी के एक पुत्र हैं - धर्मवीर जो इस समय प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट हैं, जो बाद में RAS और पदोन्नत होकर भारतीय प्रसाशनिक सेवा में आया। डाकुओं के साथ युद्ध करते हुये शहीद होने पर तारचंद एसपी साहब की पेंशन उत्तराधिकारिणी श्रीमति सुलभदेवी हैं। उनकी बच्चियों की शिक्षा का भार भी राजस्थान सरकार ने अपने ऊपर ले लिया है।


[प.312] आपके मित्रों में से

  • मुसलमानों में श्री बन्नेखां जी रिड़मलसरिया थे जो बहुत दिनों तक कस्टम आधीक्षक रहे। उनका देहांत हो चुका है।
  • सेठ लोगों में माहेश्वरी बन्धु श्री रामगोपालजी मोहता और सेठ शिवरतन जी मोहता हैं। जिनका भरपूर स्नेह चौधरी साहब पर रहा।
  • खत्रियों में मोदी उमाराम जी राजगढ़ हैं और
  • जाटों में रईस आजम चौधरी हरजीराम मलोट हैं। जिनका परिचय अन्यत्र दिया जा रहा है।
  • राजपूतों में ठाकुर मेघसिंह पट्टेदार मेलिया, राव बहादूर ठाकुर भूर सिंह पट्टेदार सूरनाना जो रेवेन्यू कमिश्नर और इंस्पेक्टर जनरल पुलिस और मास्टर ऑफ दा हाऊसहोल्ड महाराजा बीकानेर रहे हैं। तीसरे ठाकुर मुरली सिंह गाँव भीराबटी जिला गुड़गांव सेटलमेंट अफसर बीकानेर हैं जो आर्यसमाज और कन्यापाठशाला गंगानगर के संचालन में चौधरी साहब के साथ विशेष सहयोगी रहे हैं। इन तीनों का स्वर्गवास हो चुका है।

कुछ दुखद घटनाएँ

[प.313] कुछ दुखद घटनाएँ - पोखर राम, पूरन राम ठेकेदार अपने समय के समस्त बिकानेरी जाटों में प्रथम श्रेणी के प्रसिद्ध धनाढ्य-जन थे। पूर्व संस्कारों के कारण ही चौधरी हरीशचंद्र जी के संबंधी बन गए थे। चौधरी हरीशचंद्र जी इस संबंध के पक्ष में नहीं थे परंतु कुछ प्रमुख लोगों के बीच में पड़ने से उनके बड़े लड़के हरिदेव का संबंध पूरणराम की बेटी से करा दिया। किन्तु जैसी कि चौधरी हरीशचंद्र जी को आशंका थी वैसी ही निकली। पोखर राम जी के घर में चौधरी हरीशचंद्र जी को बराबरी का सम्मान प्राप्त ही नहीं हुआ।


[प.314] किन्तु हरिदेव को भी वह सम्मान नहीं मिला जो दामादों को हुआ करता है। चौधरी हरीशचंद्र जी ने डायरी में लिखा है – “पोखर राम जी को अपने धन पर अभिमान है तो मुझे अपने सेवा, त्याग, और उज्ज्वल मन पर अभिमान है।“ यह संबंध 1928 में हुआ था और 1933 में हरिदेव जी का आकस्मिक निधन हो गया।

सुखद मिलन

[p.316]: सुखद मिलन : चौधरी साहब के इस लंबे जीवन में राजा-महाराजाओं, सेठ-साहूकारों, किसान-मजदूरों आदि से सभी से निकट संबंध कायम हुये परंतु जिनको उन्होने शुभ चिंतक समझा उनमें कुछ नीचे दिये जा रहे हैं:

मोहता बंधुरामगोपाल जी मोहता के साथ चौधरी हरीशचंद्र जी के श्रद्धा पूर्ण और शिवरत्न जी के साथ सखा भाव के संबंध रहे। रामगोपालजी का स्वर्गवास दिसंबर 1963 में हुआ है। सेठ रामगोपाल जी एक स्वतंत्र विचारक और दर्शन व्याख्याता पुरुष थे। राव बहादुर श्री शिव रत्न जी मोहता इनके लघु भ्राता थे। दोनों ही भाइयों ने चौधरी हरीश चंद्र जी की बात का सदैव आदर किया। चौधरी हरीश चंद्र जी के आग्रह पर वर्ष 1950 में रामगोपालजी


[p.317]: संगरिया जाट स्कूल में भी पधारे और वहाँ की शिक्षा और वातावरण से अत्यधिक प्रभावित हुये। उन्होने वित्तीय सहायता के अलावा योग्य छत्रों को छात्रवृतियाँ प्रदान की और व्यायाम के शिक्षक मास्टर रामलाल जी को अलग से पुरस्कार दिया।


[p.319]: चौधरी हरीश चंद्र जी ने रामगोपालजी के लिए अपनी श्रद्धा का प्रकटीकरण विद्यार्थी भवन रतनगढ़ के प्रथम वार्षिकोत्सव 13-14 अप्रेल 1946 को हुये उनके सभापतित्व में दिये गए भाषण में किया।


[p.320]: बिरला बंधु : चौधरी हरीश चंद्र जी बहादुर सिंह जी के साथ जाट स्कूल संगरिया के लिए धन संग्रह हेतु वर्ष 1923 में कलकत्ता गए तो बिड़ला बंधुओं के व्यवहार से बहुत प्रसन्नता हुई। ज्यों ही वे बिड़ला बंधुओं के पास गए ब्रजमोहन जी बिड़ला ने स्वयं आकर खजांची से 1100 रुपये दिलवा दिये। इसके बाद जुगल किसोर जी बिड़ला का सहयोग तो सदैव रहा। स्वामी केशवानन्द जी के संस्था को हाथ में लेने पर


[p.321]: त्रीवर्षीय शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत 100 पाठशालाओं का संचालन बीकानेर राज्य में इन्हीं प्रवासी राजस्थानी सेठों के उदारता पूर्वक दिये गए दान से हुआ। इसमें अधिक सहयोग बिड़ला बंधुओं का ही था।


[p.323]: सूरजमल जालान : राजस्थान के सेठों में उनका संबंध रतनगढ़ के श्री सूरजमल जी से भी अच्छा रहा। वे उनके वचन पालन के गुणों से अधिक प्रभावित हुये। सूरजमल जी की भांति उनके एक भाई बंशीधर भी अपने इरादे और वचन के बड़े पक्के थे। सूरजमल जी जालान ने संगरिया जाट स्कूल को 10000 रुपये देने का वादा किया किन्तु उन्हें आकस्मिक बीमारी ने घेर लिया।


[p.324] अंतिम सांस लेते हुये उन्होने अपने लड़के से कहा – “मैंने चौधरी हरीश चंद्र जी से संगरिया स्कूल के लिए जो वायदा किया है उसे पूरा करना।“

इनके साथ वर्ष 1935 में जबकि बीकानेर राजसभा के मेम्बर बनाए गए थे, चौधरी जी के प्रेम संबंध स्थापित हुये थे। जिसे सूरजमल जी जालान ने जीवन भर निभाया।

चौधरी हरजीराम गोदारा – [p.324]: बीकानेर के गोपलाण गाँव तहसील लूणकरणसर से देवाज़ और खिराज दो भाई इधर आए थे। देवाज़ निस्संतान गुजर गए। खिराज के 1838 में एक पुत्र शेराजी हुये। शेराजी के पुत्र हुये नानकजी। इनके तीन पुत्र – 1. सरदाराराम, 2. नारायण, 3. हरजीराम जी हुये। सरदाराराम जी का स्वर्गवास 32 वर्ष की उम्र में हो गया। उनकी मृत्यु के2-3 महीने बाद हेतरामजी उत्पन्न हुये। नारायनराम जी की 27 वर्ष की उम्र में गाड़ी के नीचे दबने से मृत्यु हो गई। उनके पुत्र सूरजाराम जी हुये।

हरजीराम जी के भाई से प्रेम होने का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण यह है कि अपने भाई नारायण राम के फिरोजपुर में गाड़ी से दब कर मरने पर उनकी चिता में ही जलकर मरने को तैयार हो गए थे। यह घटना 52 वर्ष


[p.325] पुरानी है उस समय हरजीराम जी की उम्र 20-22 साल की थी। सूरजाराम की मृत्यु 52 साल की उम्र में गतवर्ष हुई। 5-6 पीढ़ियों से इनके यहाँ 50 वर्ष से अधिक आयु किसी ने नहीं पकड़ी। केवल हरजी राम जी 74 वर्ष पकड़े हैं और अभी अच्छा स्वास्थ्य है।

1918-19 में इन्होने अपने नाम की मंडी की स्थापना की।

हरजी राम का जन्म संवत 1946 में चैत्र मास में हुआ था। आपकी शादी बारेकां के चौधरी पदमाराम जी की पुत्री किस्तूरी के साथ हुआ। 5वीं तक उर्दू पढ़ी, हिन्दी घर पर ही सीखी। आपके तीन लड़के हैं – 1 बलवंत सिंह, 2 जसवंत सिंह और 3 धर्मवीर। ..................

वर्ष 1918 में आप आर्य समाजी बने और तभी से संगरिया स्कूल से जुड़े। जाट महासभा में रुचि ली। संगरिया स्कूल में 15000 रुपये दिये। अबोहर साहित्य सदन को भी आपने सहायता दी। आर्य समाज मलोट को भी पूर्ण योगदान किया। एक मकान कन्या पाठशाला को दे रखा है।

जाटों में वैवाहिक कुरीतियों को मिटाने में बड़ा प्रयत्न किया। जो भी नियन 45 वर्ष पूर्व (1920) बनाए गए उनका आपने पालन किया। अपनी धर्मपत्नी की मृत्यु पर आपने औसर नहीं किया। आपने तंबाकू पीना छोड़ दिया। आज आपकी एक सम्पन्न व्यक्ति के रूप में पहिचान है वहाँ एक आदर्श व्यक्ति के रूप में भी है।

चौधरी हरीश चंद्र के सामाजिक कार्यों के साथी ठाकुर मुरली सिंह पँवार भीरावटी जिला गुड़गांव, चौधरी बहादुर सिंह, ठाकुर गोपाल सिंह जी, बाबा मानसानाथ,


[p.328] बाबा मवासीनाथ, स्वर्गीय सेठ सोहन लाल, चौधरी जीवनराम दीनगढ़, चौधरी सरदाराराम चौटाला, चौधरी शिवकरण सिंह चौटाला, आदि हैं।

राजनीति में जिनका साथ दिया उनमें चौधरी कुंभाराम आर्य, चौधरी हरदत्त सिंह भादरा, चौधरी रामचन्द्र गंगानगर, चंदनमल वैद्य, केदारनाथ, सरदार अमरसिंह, सोहनसिंह, रघुवीर सिंह, सेठ लच्छी राम, सरदार गुरदयाल सिंह, सरदार मस्तान सिंह, सरदार हरीसिंह भादरा, आदि हैं।

स्वामी केशवानन्द को तो वे सर्वस्व मानते हैं – मित्र, पथ-प्रदर्शक, सखान स्नेह और प्रेरणा के स्त्रोत।

पंडित कन्हैयालाल ढंढ चुरू - चौधरी साहब इनको अपने गुरुओं में मानते हैं। वर्ष 1907 में जब राजगढ़ से चौधरी साहब चुरू में जुड़ीशियल क्लार्क होकर आए उस समय पंडित जी बदरीनारायण जी मंत्री की


[p.329] धर्मशाला में एक पाठशाला का संचालन करते थे। चौधरी साहब का उनसे यहीं संपर्क हुआ। पंडित जी संतोषी, सद्गुणी और सरल प्रकृति के पुरुष थे। उन दिनों बीकानेर में महाराजा गंगासिंह का प्रबल आतंक छाया हुआ था। किसी की भी हिम्मत उस समय सार्वजनिक संस्था कायम करने की नहीं पड़ती थी। उस समय पंडित जी ने स्वामी गोपालदास और मास्टर श्रीराम के साथ मिलकर चुरू में एक संस्था की स्थापना की। जिसका नाम हितकारिणी सभा रखा। चौधरी साहब सर्विस में होते हुये भी इस संस्था की बैठकों में शामिल होते रहे।


[p.331] यह हितकारिणी सभा भी बीकानेर के शासकों का सिंहासन हिलाने वाली जान पड़ी – जबकि इसने सारे भारत की भांति लोकमान्य तिलक की मृत्यु पर सार्वजनिक रूप से शौक मनाया। इस समाचार को पाते ही बीकानेर से बाबू कामताप्रसाद होम मिनिस्टर स्पेशियल ट्रेन से चुरू पधारे। हितकारिणी सभा की तलासी ली, तिलक के फोटो को उतारकर आतंक मचाया। पंडित जी ने इस पर चौधरी साहब को लिखा तो उन्होने बीकानेर जाकर मामले को ठंडा किया। चुरू की जनता ने एक बाजार का नाम पंडित जी की स्मृति में ढंड बाजार रखा है।

मोदी उमाराम खत्री राजगढ़ – वर्ष 1905 में जब चौधरी साहब राजगढ़ तहसील में अहलमद थे तब मोदी ऊमाराम तहसील के खजांची थे। यहीं पर चौधरी साहब की उनसे दोस्ती हुई।

बन्ने खां – जिन दिनों चौधरी साहब राजगढ़ में थे उन्हीं दिनों बन्ने खां कस्टम अधीक्षक थे। दोनों सम स्वभाव के थे इसलिए मित्रता कायम हुई।

मेघसिंह आर्य – बीकानेर राज्य की तहसील सुजानगढ़ में खारिया कनीराम जाट किसानों का एक छोटासा गाँव है। इसी गाँव में आजसे कोई 34-35 वर्ष पहले श्री मेघ सिंह


[p.333] आर्य का जन्म हुआ। बचपन में उसने अपने भाई सुरताराम के पास, रतनगढ़ में रहकर शिक्षा प्राप्त की। रतनगढ़ में सुरताराम ठेकेदारी करते थे। वहीं स्वामी चेतनानन्द एक शिक्षा संस्थान चलाते थे। उनके प्रयत्न से सैंकडों किसान और गरीब बच्चों ने शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद तो वहाँ एक विद्यार्थी भवन की भी आस-पास के उत्साही जाटों ने स्थापना की। स्वामी केशवानन्द जी ने इस संस्था की नींव रखी थी।

मेघ सिंह आर्य की चौधरी हरीश चन्द्र साहब में बड़ी आस्था थी। वह चौधरी साहब को पिताजी कहकर अपना स्नेह प्रकट करते थे। इसमें संदेह नहीं कि वह चौधरी साहब को बीकानेर का सर्वश्रेष्ठ किसान-हितचिंतक समझते थे। उसने अपने गाँव में एक बार एक किसान सम्मेलन कराया, जिसमें चौधरी साहब को नोटों का हार पहनाकर स्वागत किया।

कांग्रेस में उन्होने एक उत्साही कार्यकर्ता के रूप में काम किया। रतनगढ़ तहसील कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर भी उन्होने अथक परिश्रम से चौधरी साहब को आसीन कराया। जब बीकानेर में असेंबली के चुनाओं की घोषणा हुई तो समस्त तहसील में उन्होने चौधरी साहब के लिए असेंबली मेम्बर चुने जाने के अपनी सरगर्मी से आसार पैदा कर दिये। चौधरी साहब का भी मेघ सिंह पर पुत्रवत स्नेह रहा और सदैव ही उनके कार्यों और परिश्रम के प्रशंसक रहे। इस समय मेघ सिंह अपने गाँव की तरक्की के लिए पंचायत में पदासीन हैं।

वंश परिचय

[p.335]: यह पहले लिखा जा चुका है कि नैण गोत तंवर घराने के एक मशहूर सरदार नैणसी के नाम पर विख्यात हुआ। नैणसी का समय संवत 1150 अथवा सन् 1100 के आस-पास बैठता है। क्योंकि इनके एक वंशज किशनपाल ने विक्रम संवत 1260 अर्थात सन् 1203 ई. में सरवरपुर नाम का एक गाँव बागपत के पास बसाया था। ऐसा भाटों की बही से जान पड़ता है। सरवरपुर आजकल सरूरपुर नाम से प्रसिद्ध है। किशनपाल नैणसी से 5वीं पीढ़ी में है। 20 वर्ष एक पीढ़ी का मानते हुये नैणसी का समय 1150 और 1160 संवत में बैठता है और ईस्वी सन् 1100 के आस-पास बनता है।

यही समय तवरों का दिल्ली से निष्कासन का है। हमने तंवर वंश की एक तवारीख में यह पढ़ा है कि चौहानों का दिल्ली पर अधिपति होते ही तंवर दिल्ली को छोड़ गए। कुछ तंवर टेहरी और गढ़वाल की तरफ गए। कुछ द्वाब और हरयाणा में फ़ेल गए। इतिहासकार ऐसा कहते हैं कि तंवर राजा अनंगपाल ने निस्संतान होने के कारण पृथ्वीराज चौहान को


[p.336]: गोद ले लिया था। यह घटना सन् 1200 के आस-पास की है। इसका मतलब है कि नैणसी तंवर जिसके नाम से नैण गोत्र विख्यात हुआ पहले ही दिल्ली छोडकर जा चुका था और कहीं दोआब में बस गया था। अथवा वह उधर तंवर राज्य का सीमांत सरदार रहा होगा। उसी के 5वीं पीढ़ी के वंशज किशनपाल ने सरवरपुर (अब सरूरपुर) को आबाद किया।

किशनपाल तक नैणसी की वंशावली इस प्रकार है: नैणसी के चुहड़ हुआ, चुहड़ के चोखा और लालू दो पुत्र हुये, चोखा के फत्ता और मूला दो लड़के हुये। इनमें फत्ता ने ही सरवरपुर (अब सरूरपुर) की नींव डाली। इस वंश में किशनपाल से 5वीं पीढ़ी में श्रीपाल नाम के एक प्रसिद्ध व्यक्ति हुये उसने संवत 1310 अर्थात 1253 ई. में भिराणी गाँव बसाया। यह गाँव बीकानेर डिवीजन की भादरा तहसील में अवस्थित है।

किशनपाल के दो पुत्र हूला और काहना हुये। हूला के कालू और धन्ना दो पुत्र हुये। कालू के मूंधड़ और मूंधड़ का पुत्र श्रीपाल था। श्रीपाल के दो स्त्रियाँ थी मान और पुनियानी। मान के 6 पुत्र हुये – 1.दल्ला, 2.पेमा, 3.खीवा, 4.चेतन, 5.रतना और 6. पूसा। पुनियानी स्त्री से 5 पुत्र हुये – रामू, काहना, अमरा, गणेश, और हुक्मा।


[p.337]: इनमें से मान स्त्री से उत्पन्न खीवा को बालासर तहसील नोहर में मार दिया। इस घटना का विवरण पिछले पृष्ठों में कहीं आ चुका है। मान स्त्री के ज्येष्ठ पुत्र दूला से 1.आंभल, 2.मोती और 3.हनुमंता नाम के 3 पुत्र हुये। इनमें आंभल के भी 3 पुत्र हुये – 1.दल्ला, 2. काहन और 3. वीरू। वीरू के जो पूत्र हुआ उसका नाम प्रसिद्ध पुरुष श्रीपाल के नाम पर श्रीपाल ही रखा। इस श्रीपाल द्वितीय का जन्म संवत 1398 अर्थात सन 1341 ई. में हुआ। श्रीपाल द्वितीय के 12 पुत्र हुये – 1. राजू, 2. दूला, 3. मूला, 4. कालू, 5. रामा, 6. हुक्मा, 7. चुहड़, 8. हूला, 9. लल्ला, 10. चतरा, 11. फत्ता और 12. नन्दा।

इनमें से राजू ने संवत 1417 (1360 ई.) में लद्धासर, दूला ने बछरारा, कालू ने मालपुर, हुक्मा ने केऊ, लल्ला ने बींझासर बसाया। और चुहड़ ने चुरू आबाद किया।

इन 12 में से दूला के 3 पुत्रों का हमें पता चलता है – 1.राजू, 2.नंदा और 3. जीवन उनके नाम थे। राजू के 1. बुधा और 2. पेमा 2 पुत्र हुये। बुधा के 1. हरीराम और 2. सेवा दो पुत्र हुये। हरीराम ने संवत 1525 (1468 ई.) में बछरारा को फिर से आबाद किया क्योंकि बीच में झगड़ों के कारण बछरारा बर्बाद हो गया था। हरीराम के दो पुत्र 1.पूला और 2. तुलछा नामक हुये।


[p.338]: पूला के 1.सादा और 2.मुगला दो पुत्र हुये। मुगला ने संवत 1610 (1553 ई.) ने बछरारा में एक जोहड़ खुदवाया। जिसका वर्णन ठाकुर सकत सिंह ने सन 1939 ई. को अपनी उस गवाही में किया था जो उन्होने चौधरी हरीश चंद्र के क़दीम बिकानेरी होने के संबंध में तहसील रतनगढ़ में दी थी। सादा के दो पुत्र 1.आसा और 2.चतरा नामी हुये। आसा के 1.दासा और 2.लक्ष्मण हुये। दासा के 1.गोपाल, 2.भूरा और 3.पूरन तीन पूत्र हुये। गोपाल के 2 पुत्र 1.भारू और 2.रामकरण हुये।

भारू के दो स्त्रियाँ थी – जाखड़नी और खीचड़नी। जाखड़नी से 4 पुत्र हुये – 1.रायसल, 2.हर्षा, 3.हंसा और 4.दासा। खीचड़नी के 3 पुत्र हुये – 1.देदा, 2.खीवा और 3.जालू। हर्षा के लाला नाम का लड़का हुआ। उसके 2 लड़के 1.हेमा और 2.दामा हुये। हेमा के 4 लड़के हुये – 1.पूरन, 2.किशना, 3.हीरा और 4.हनुमंत।

1. पूरन के लड़के हनुवंत ने 2 शादियाँ की। एक ढाकी दूसरी खैरवी। ढाकी के दूल हुआ। दूल के 1.तेजा और 2.कालू दो लड़के हुये। खैरवी से 1.भागू, 2.जीवन और 3.ज्ञाना हुये। भागू के 1.दूदा, जीवन के 1.चेतन और 2.हरजी हुये।

2. हेमा के पुत्र किशना की ओलाद इस प्रकार है – किशना के 1.खेता, 2.उदा और 3.लिखमा। खेता की ओलाद खारिया तहसील सिरसा जिला हिसार में जा बसी। खेता के दो पुत्र 1.नाथा और 2.फूसा हुये। नाथा के 1.रावत, 2.पन्ना, 3.बहादुर और 4.ढोला नाम के चार पुत्र हुये।


[p. 339]: इनमें रावत के रामकरण जो कि इस समय मौजूद है। इनके बड़े लड़के श्री हेतरामजी हैं जो पंचायत विभाग में इंस्ट्रक्टर हैं।

पन्ना के 1.जगदीश और 2.देवीलाल हुये। यह मौजूद हैं और बहादुर जी भी जिंदा हैं। ढोला के सुख राम हुये। यह भी मौजूद हैं। फूसा के लूणा है। यह खारिया का खानदान है। किशना की औलाद में से उदा की संतान रामगढ़ उर्फ चंडालिया में आबाद है। जिनका विवरण इस प्रकार है – ऊदा के 1.भारू और 2.माला दो बेटे थे। भारू के 1.मामराज, 2.लूणा और 3.मगलू तीन पुत्र हुये। मामराज के 1.हेतराम और 2.शिवलाल हैं। लूना लाबल्द रहा। मगलू की संतान भी है। माला के जीसुख हुये जिनके मोती हुआ। मोती का लड़का मामन है, दौला के रावत है।

किशन के बेटे लिखमा के दो पुत्र हुये – 1.भौजा और 2.दौला। भोजा के 1.जेसा, 2.मोटा, 3.सांवल ओर 4. हरचंद हुये।

हीरा के चेनाराम, चेनाराम के 6 बेटे – 1. चतराराम, 2. टोडाराम, 3. रामूराम, 4. धन्नाराम, 5. तेजाराम और 6. सुक्खाराम हुये। चतराराम के 3 बेटे – 1.रावत, 2.मोटा, 3.ताजा हुये। तीनों नि:संतान रहे। टोडा के 1.बींझा और 2.लूणा हुये। बीझा निस्संतान रहे। लूणा के 1.पेमा, 2.पोखर, 3.नारायण, 4.गीधा हुये जो बछरारा में आबाद हैं।

रामूराम जी के दो बेटे 1.हिमताराम और 2.हरीश चन्द्र हुये।


Vedprakash with wife Snehlata (German Lady Crystal) and daughter Indurjani

[p. 340]: हिमताराम के 1.रघुवीर सिंह और 2.त्रिलोक नामके दो लड़के हुये। हिमताराम का स्वर्गवास हो चुका है। हरीश चन्द्र जी इस समय 81 में चल रहे हैं। हरीश चंद्र जी के दो पुत्र 1.श्री श्रीभगवान और 2.वेदप्रकाश हैं। इनसे बड़े हरदेव जी थे जिनका स्वर्गवास हो गया है। इस समय तक श्रीभगवान के एक पुत्र है वीरेंद्र और वेदप्रकाश के एक पुत्री इन्दुरजनी।

धान्नाराम के 1.नंदा, 2.लक्ष्मण और 3.अर्जुन तीन पुत्र हुये। तेजा के 1.भानो और 2.लालू दो पुत्र हुये। सुखराम के रतनाराम हुये।

केऊ तहसील डूंगरगढ़ की आरंभिक कुछ नैन पीढ़ियों का पता नहीं चलता। इनमें से कोई सरदार केऊ से जेतासर में आबाद हुआ और वहाँ से तहसील राजगढ़ में पहाड़सर नाम का गाँव बसाया। इनमें फत्ता नाम का नैन सरदार हुआ। उसके तीन बेटे थे – 1.शोराम, 2.ऊदा और 3.आशा। शोराम के 1.चेतन और 2.बींझा दो पुत्र हुये। इनमें चेतन लाबल्द रहा। बींझा के 1.आदू, 2.खींवा, 3.देवा और 4.पदमा 4 पुत्र हुये। आदू के बघा हुये जो लाबल्द रहा। खींवा के साहिराम हैं। देवा के दीनदायल हुये जो लाबल्द रहा। पदमा भी लाबल्द रहा। शोराम ने संवत 1899 (1842 ई.) में धोलीपाल नामक गाँव तहसील हनुमानगढ़ को आबाद किया। उसकी संतान


[p. 341] सहीराम आदि आबाद वहाँ हुये। फत्ता की औलाद में से ऊदा ने सिख धर्म धारण कर लिया और वे उदयसिंह कहलाए। वे पटियाला चले गए वहाँ उन्होने 4 गाँव प्राप्त किए – उदयपुर, राजगढ़, जुलाहा खेड़ी, और करतारपुर। उदयसिंह के 3 बेटे हुये – 1.लहनासिंह, 2.हरनामसिंह और 3.गुरुमुखसिंह। इनमें लहनासिंह और हरनामसिंह लाबल्द रहे। गुरुमुखसिंह के नरनारायनसिंह और सुखदेवसिंह दो पुत्र हुये। नरनारायन सिंह लाबल्द रहे। इसलिए उन्होने अपने भतीजे सुखदायक सिंह को गोद लिया। इन लोगों ने पटियाला राज्य में बड़े-बड़े औहदे प्राप्त किए।

आसा जिनका दूसरा नाम टहलसिंह भी था लाबल्द रहा। इन लोगों के विशेष विवरण जानने के लिए “शमशेर खालसा का पटियाला दरबार” पृष्ठ 174-175 देखें।

नैनसी के कई पीढ़ी बाद दूदा और दो शोते हुये। उनकी औलाद के लोग खारिया में अबतक आबाद हैं। जिनमें से चौधरी हरीशचंद्र जी ने जिनको देखा है उनमें जो याद हैं वे हैं – एक जस्सू का खेता चौधरी जी के नज़दीकियों में से है। उनकी औलाद रामू और गोविंद थे। रामू के दो लड़के ऊदा और पतिराम थे। लूणा के बेटे मामराज और मामराज के बेटे गाँव में इस समय हैं। दूदा के 3 बेटे 1.चुहड़, 2.गोविंद 3....थे।


[p. 342]: चुहड़ के हीरा और भूधर हुये। भूधर के 1.राजू, 2.केसरा, 3.आदिराम और 4.राधाकिशन ये 4 पुत्र हुये। राजू के दो पुत्र 1.बहादुर और 2.हरदयाल हुये। बहादुर के बड़े लड़के रामजीलाल इस समय पंचायत विभाग में बड़े अधिकारी हैं। हीरा के 1.मामराज, 2.दाना, 3.शेरा और 4.भानी हुये। मामराज का कुनबा खूब बड़ा और फला-फूला है। इसी भांति दाना के भी काफी वंशज हैं। शेरा लाबल्द रहा। भानी के पुत्र का नाम जीसुख है। गोविंद के रामू और रामू के पन्ना हुये। पन्ना के बेटे पौते मौजूद हैं। ....के मगलू हुआ, मगलू के लेखु, और दल्लू दो बेटे हुये। दल्लु लाबल्द रहा। लेखु के संतान मौजूद हैं।

दूसरे खेता के दो बेटे हुये चेना और धन्ना, चेना के लेखु, गनेशा और मेघा हुये। इनकी संतान भी खारिया में मौजूद हैं। धन्ना के 1.तिलोका, 2.गंगाराम, 3.किशना और 4.सरवन 4 बेटे हुये। तिलोका का बेटा जगमाल है। बाकी इन सबकी औलाद खारिया में मौजूद हैं। उपरोक्त सभी सज्जनों के पुत्र-पौत्र हैं और शिक्षा दीक्षा भी बढ़ रही है।


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