Asli Lutere Koun/Part-II

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असली लुटेरे कौन?
लेखक
हवासिंह सांगवान जाट
उत्तरार्ध - पृष्ठ 149 - 279



पृष्ठ 149

क्या यह सच नहीं है?.......

महात्मा गांधी ने कहा था “हमें ब्रिटेन के विनाश के बदले अपनी आजादी नहीं चाहिए।” भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाये जाने पर कहा “भगतसिंह की पूजा से देश को बहुत हानि हुई और हो रही है, वहीं इसका परिणाम गुण्डागर्दी का पतन है । फांसी शीघ्र दे दी जाए ताकि 31 मार्च से करांची में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन में कोई बाधा न आये” ।

शहीद जतिनदास के पार्थिव शरीर पर आगरा में गांधी जी ने फूल चढ़ाने से मना कर दिया था । पण्डित नेहरू ने चन्द्रशेखर आजाद से वार्तालाप के समय क्रान्तिकारियों को फासिस्ट कहा था । याद रहे पं० नेहरू ने डॉ० राजेन्द्र प्रसाद (राष्ट्रपति) को सरदार पटेल के दाह संस्कार में जाने से रोका था लेकिन वे नहीं माने और वहां गए । परन्तु पं० नेहरू उनके दाह संस्कार पर नहीं गए । यह थी पं० नेहरू की मानवता या दुष्टता । जबकि पटेल हमारे देश के गृहमन्त्री ही नहीं, बल्कि उपप्रधानमन्त्री भी थे । (इण्डिया टुडे अप्रैल 2008) अर्थात् क्रांतिकारियों को फांसी देना गांधी जी की नजरों में हिंसा नहीं थी । सन् 1937 में नेता जी के मुकाबले कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए लड़ रहे पट्टाभि सीतारमैया के लिए गांधी जी ने कहा - यदि वे हार जायेंगे तो वह राजनीति छोड़ देंगे। और वे हारे। क्या गांधी जी ने राजनीति छोड़ी ? दूसरे विश्वयुद्ध में गांधी जी ने अंग्रेजों का बिना किसी शर्त के साथ देने का वचन दिया तो क्या युद्ध में हिंसा हो रही थी या मिठाइयां बंट रही थीं ? क्या महात्मा जी वास्तव में अहिंसावादी तथा सत्यवादी थे ? क्या गांधी जी ने अपने असहयोग के हथियार का प्रयोग सन् 1937 में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध में नहीं अपने कांग्रेस अध्यक्ष नेता जी के विरुद्ध किया और उन्हें इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया ? शहीद उधमसिंह द्वारा माईकल उडवायर की हत्या करने पर गांधी जी ने इन्हें पागल कहा । नीरद चौधरी ने उचित लिखा है - मोहनदास कर्मचन्द गांधी दुनिया का सबसे बड़ा सफल पाखण्डी था । ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली ने कहा था “भारत के नेताओं के साथ समझौता हो चुका है कि जब कभी सुभाषचन्द्र गिरफ्तार होंगे, उन्हें ब्रिटेन को सौंपना होगा ।” (पंडित नेहरू द्वारा लिखे गये अंग्रेजी के मूलपत्र की नकल उपलब्ध है) । पंजाब केसरी - भारत के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश मनोज मुखर्जी ने बयान दिया कि “प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था कि आपका


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युद्ध अपराधी सुभाषचन्द्र बोस रूस में शरण लिए है, आप उचित कार्रवाई करें।” क्या यह भी सच नहीं है कि स्वामी ज्योर्तिदेव जो वास्तव में नेता जी सुभाष ही थे, की निर्मम हत्या श्रीमती गांधी ने मध्यप्रदेश के श्योपुर गाँव में दिनांक 21 मई 1977 को गुप्त तरीके से वहाँ के कांग्रेसियों के हाथों नहीं करवाई? (पाठकों को चौकने की आवश्यकता नहीं, ऐसी एक लिखित रिपोर्ट उपलब्ध है) गांधी जी की शिक्षा थी कि यदि कोई एक गाल पर मारे तो उसे दूसरा गाल आगे कर देना चाहिए । तो क्या पाकिस्तान ने जब कारगिल पर आक्रमण किया तो हमें लेह क्षेत्र को पाकिस्तान के सामने कर देना चाहिए था ? क्या बम्बई हमले (26 नवम्बर 2008) के संदर्भ में हमें इसी नीति का पालन करना चाहिए ? ‘यदि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए।’ ऐसी नीति से न कभी कोई आजादी प्राप्त कर सकता है और न ही आजादी की रक्षा हो सकती है । यह हमने 1962 में चीन के साथ देख लिया था । आज हम बात तो गांधीगिरी की करते हैं लेकिन फिर क्यों सेना व अर्धसैनिक बलों पर देश का आधा बजट खर्च कर रहे हैं ? ऐसी दोगली बातें कोई दोगला व्यक्ति ही कर सकता है । गांधी जी को गांधी इसलिए कहा गया कि इनके पूर्वज इत्र का व्यापार करते थे । जिसे गुजरात में गंध कहा जाता है । इसी गंध से इनका उपनाम गांधी पड़ा । गांधी ने धोती-गाती में नंगा रहने की आदत बिहार के लोगों को देखकर सीखी थी।


गांधी ने पं० टैगोर को गुरुदेव की उपाधि दी तो बदले में टैगोर ने गांधी को महात्मा की उपाधि दे डाली और इसी प्रकार गांधी ने नेहरू को देश का प्रधानमन्त्री बनाया तो नेहरू ने गांधी को देश का बापू ही बना डाला अर्थात् बणिये ने ब्राह्मण को पूरी दक्षिणा प्रदान कर दी । श्री एल. आर. बाली उचित लिखते हैं, “खिलाफत आन्दोलन के गांधी के केवल


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दो ही उद्देश्य थे, पहला ब्राह्मण बनिया एकता, दूसरा कांग्रेस पर कब्जा।” और यह सत्य प्रमाणित हुआ । चौ० छोटूराम ऐसी तीव्र बुद्धि जाट थे जिसने गांधी के उद्देश्यों को तुरन्त भांप लिया और खिलाफल आन्दोलन के विरोध में सन् 1920 में कांग्रेस से त्याग पत्र दे दिया । पुस्तक ‘क्या गांधी महात्मा थे’ में उचित लिखा है कि गांधी को जीवित रखने में अंग्रेजों को अधिक फायदा था, इसलिए दिखावे के लिए उन्हें अंग्रेज जेल भेज देते थे और जेल में उन्हें दूध, फल, किताबें, समाचार पत्र, टाईपिस्ट व चिकित्सक, यहां तक कि शहद और सचिव तक उपलब्ध करवाया जाता था । जबकि आज देश के आजाद होने के इतने वर्षों बाद भी एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति को अपने घर में भी ये चीजें उपलब्ध नहीं हैं । गरीब और जेल की बात तो छोड़ो । सरोजिनी नायडू ने ठीक कहा था, “गांधी जी को गरीब बनाये रखने के लिए कांग्रेस को अधिक धन खर्च करना पड़ता था क्योंकि बिरला हाऊस के पास कालोनियों में नकली भंगी बनाकर रखने पड़ते थे तथा यात्रा के समय रेल के डिब्बों में भी उनके साथ बनावटी भंगी बैठाने पड़ते थे जो बहुत खर्चीला था ।” प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नल्ड ताईबी लिखते हैं - गांधी अपने देश से अधिक अंग्रेजों के लिए हितकर था । इतिहासकार आर.सी. मजूमदार अपने इतिहास “हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमैंट इन इण्डिया” में लिखते हैं - भारत की स्वतन्त्रता का सेहरा गांधी के सिर पर बांधना सच्चाई से मजाक होगा । यह कहना कि उसने सत्याग्रह व चरखे से आजादी प्राप्त की, मूर्खता होगी। गांधी कट्टर ब्राह्मणवादी सनातनी हिन्दू बनिया था । इस बारे में सोवियत इनसाईक्लापेडिया में लिखा है गांधी प्रतिक्रियावादी है जो बणिया जाति से सम्बन्ध रखता है । उसने जनता से विश्वासघात किया और साम्राज्यवादियों की मदद की । साधु-संन्यासियों की नकल की । उसने नेतागिरी के तौर पर भारत की आजादी और अंग्रेजों से शत्रुता का दिखावा किया । धार्मिक पक्षपातों को खूब इस्तेमाल किया । गांधी जी ब्राह्मण और हिन्दूवाद को मानवता का


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सुन्दर फूल मानते थे । इसलिए वे जात-पांत के पक्षधर थे । लेकिन उसी के कट्टर ब्राह्मणवाद व हिन्दुत्व (आर.एस.एस.) ने उसकी हत्या की और मिठाइयां बांटी । गांधी ने कांग्रेस पर कब्जा होने पर सच्चे और ईमानदार लोगों जैसे कि नेता जी सुभाष, राम मनोहर लोहिया तथा जयप्रकाश नारायण आदि को कांग्रेस से बाहर कर दिया । 15 राज्यों में से 12 राज्यों की कांग्रेस कमेटियों के समर्थन के बावजूद गांधी ने पटेल को प्रधानमन्त्री पद से दूर रखा, वरना यही गांधी जी सुभाष को ‘अपना बेटा’, जयप्रकाश नारायण को ‘लेनिन’, डॉ० लोहिया को ‘बुद्धिमान राजनीतिज्ञ’ तथा पटेल को ‘अपना दायां हाथ’ कहा करते थे । विख्यात पत्रकार जे.एन. साहनी लिखते हैं - नेहरू ने 1952 के लोकसभा चुनाव में अपनी पसंद के उम्मीदवार चुने थे और उनको वफादार कुत्ते कहा करते थे ।

डॉ. लोहिया नेहरू के चरित्र का सटीक नक्शा पेश करते हैं -

नेहरू बहुरूपिया है । उसे रईसों और औरतों के बहकावे में आने की बुरी लत है । देखने में वे आकर्षक और उदार प्रतीत होते हैं । लेकिन अपने रिश्तेदारों, दोस्तों व अपने लोगों (ब्राह्मण) की स्वार्थसिद्धि के जितने तरीके उन्हें मालूम हैं, उतने इस देश में किसी को मालूम नहीं । वे अपने दुश्मन को बर्बाद करने के लिए किसी हद तक पीछा करते हैं । वह अपने लालच और अपनी कलह को दुर्बोध करने के लिए ऐसा जाल फैंकते हैं कि दूसरा उनको छू तक नहीं सकता ।

इस आदमी ने जाट कौम का इतना बड़ा नुकसान किया कि जाट समुदाय शायद ही कभी समझ पाए । हालांकि जाटों को मूर्ख बनाने के लिए उन्होंने कहा - दिल्ली और उसके चारों तरफ ऐसी बहादुर जाट कौम बसती है जो जब चाहे दिल्ली पर कब्जा कर सकती है । हम जाट खुश हो गए और उसने ऐसा कहकर दूसरों को चेता दिया तथा ऐसा बन्दोबस्त कर दिया कि दिल्ली पर जाटों का कभी दखल ही न हो पाए । जाट कौम कृपया विचार करे कि इसी नीति के तहत पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों को सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के साथ बांध कर शोषण


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किया जा रहा है ताकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों का आधिपत्य बना रहे । इसलिए आज तक उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं होने दिया । बनारस के ब्राह्मणवाद की दादागिरी देखिए कि एक बार नेता जी सुभाष को वहां के एक कुएं से नीचे उतार दिया गया और ऊपर से खाना और पानी दिया । (इसी प्रकार एक बार भगवान देव आचार्य उर्फ स्वामी ओमानन्द को जाट होने के कारण बनारस में एक मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया था) लेकिन गांधी ने इन बातों पर कभी कोई टिप्पणी नहीं की । इसी प्रकार स्वामी दयानन्द भी उस समय के महान् समाज सुधारक होते हुए भी गांधी जी ने उनकी प्रशंसा में कभी भी एक शब्द तक नहीं कहा । स्वयं गांधी के पौत्र राजमोहन ने कहा - देश का विभाजन ब्राह्मण प्रधानता के कारण हुआ । यदि गांधी ब्राह्मण होते तो उनकी हत्या कभी नहीं होती । नहेरू के चरित्र के बारे में अधिक जानना है तो इन्हीं के निजी सचिव रहे श्री ओ. एम. मथैई की पुस्तक को पढ़ना चाहिए जिसमें उनका पूरा भण्डा फोड़ किया है । इसी प्रकार गांधी जी के बारे में जानने के लिए उन्हीं के निजी सचिव रहे श्री निर्मल कुमार बोस की पुस्तक माई डेज विद गांधी तथा विद्वान् वेद महता की पुस्तक महात्मा गांधी और उसके भगत पढ़ना अनिवार्य है । संक्षेप में इतना ही लिखना काफी होगा कि ये लोग (ब्राह्मण बनिये) एक ही थैली के चट्टे-बट्टे थे जो राष्ट्रवादी कम और जातिवादी अधिक थे । इसलिए लंडन के शीर्ष अखबार ‘ट्रुथ’ ने लिखा था - गांधी पूंजीपतियों, राजा-महाराजाओं के संत हैं लेकिन पवित्र आत्मा होने का ढोंग करते हैं । यह सच है क्योंकि बिड़ला, बजाज तथा सिंघानिया आदि सभी पूंजीपति उनके मित्र थे जिन्हें वे बड़ी चतुराई से ट्रस्टी कहते थे । बोस ने नेहरू के बारे में कहा - नहेरू अवसरवादी है, वह दूसरों का बाद में सोचते हैं, पहले अपना हित निश्चित करते हैं । गांधी ने नहेरू के बारे में कहा कहा था - नेहरू मेरी सबसे बड़ी कमजोरी है । कौन किसकी कमजोरी थी, पाठक विचार करें ।


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क्या यह सच नहीं है कि थलसेना के पूर्व अध्यक्ष जनरल वी.पी. मलिक (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने अपनी पुस्तक From Surprise to Victory में कारगिल युद्ध का दोष पं० वाजपेयी में ढूंढा है और दिनांक 28-3-07 को गृह मंत्रालय के उपसचिव एस.के. मल्होत्रा जी कह रहे हैं कि मंत्रालय के पास नेता जी सुभाष का देश की आजादी के संघर्ष से सम्बन्धित कोई रिकार्ड नहीं ? लगता है सरकार ने ऐसा काफी रिकार्ड/फाइलें जला दी हैं ? मेरा जाटों व सभी किसानों से अनुरोध है कि वे दिल्ली में अपनी जमीन का रिकार्ड संभालकर रखें चाहे वह जमीन अब उन्हीं के अधिकार में न रही हो, क्योंकि ये लोग इस रिकार्ड को समाप्त कर देंगे और एक दिन कहेंगे कि यह जमीन इन जाटों व किसानों की नहीं थी । इस बात का अर्थ समझें, क्योंकि यह सभी जगह जो सरकार व कम्पनियों आदि ने खरीद ली है एक न एक दिन हमारी लीज पर होनी हैं । जैसे कि दिल्ली में इण्डिया गेट । हमारे राष्ट्रपिता गांधी जी तथा पं० नेहरू जी के प्रति हमारे देशवासियों में कितनी लोकप्रियता है और हम कितने भारतवासी उनको हृदय से चाहते हैं ? इस लोकप्रियता को जानने के लिए देश की प्रसिद्ध मासिक अंग्रेजी पत्रिका इण्डिया टुडे ने देश में एक सर्वे करवाया जिसके नतीजे अप्रैल 2008 के अंक में छपे हैं, जो इस प्रकार हैं ।


(किसको कितने प्रतिशत वोट मिले)
1. शहीद भगत सिंह - 37 प्रतिशत
2. नेता जी सुभाष चन्द्र बोस - 27 प्रतिशत
3. महात्मा गांधी - 13 प्रतिशत
4. सरदार पटेल - 8 प्रतिशत
5. पण्डित नेहरू - 2 प्रतिशत

इसलिए आज आवश्यक हो गया है कि गांधी जी की जगह भगतसिंह को राष्ट्रपिता घोषित किया जाए और नोटों पर गांधी की जगह भगतसिंह के फोटो छपें । जब प्रजातन्त्र में पांच साल बाद राष्ट्रपति बदला जा सकता है तो 50 साल बाद राष्ट्रपिता क्यों नहीं ? पुस्तक - देशनायक, लेखक - ब्रह्मप्रकाश, भारतीय इतिहास - एक अध्ययन,


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हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ काश्मीर, हिस्ट्री ऑफ सिक्ख- हिन्दुईज्म, पंचायती इतिहास, लोहपुरुष सरदार पटेल, क्या गांधी महात्मा थे ? आदि-आदि)

जाटों ने चौधरी छोटूराम की शिक्षाओं को भुलाया तो कष्ट उठाया

खुदी को कर बुंलद इतना कि हर तकदीर से पहले।
खुदा बन्दे से पूछे, बता तेरी रजा क्या है॥

19वीं सदी में भारत वर्ष में ऐसे दो महान् महापुरुष पैदा हुये जिन्होंने गरीबी में जन्म लिया और अपने जन्म में गरीबी को भोगा तथा इसके निवारण का रास्ता खोजकर जीवनभर संघर्ष करते रहे, वे थे चौधरी छोटूराम और डॉ. अम्बेडकर। डॉ. अम्बेडकर जो महार जाति अर्थात् वाल्मीकि जाति से मिलती-जुलती जाति से सम्बन्ध रखते थे न कि चमार जाति से। डॉ. अम्बेकडर ने सदियों से पीड़ित दलित समाज को उनके अधिकार दिलवाये तथा उनके आत्मसम्मान के लिए हमेशा संघर्षरत रहे और उस संघर्ष को अपने मुकाम तक पहुंचाया चाहे उन्हें इसके लिए अपना धर्म-परिवर्तन ही क्यों ना करना पड़ा हो। लेकिन यही भोला-भाला दलित समाज आज तक उनको समझने में पूर्णतया नाकाम रहा। ये तो आज तक यही समझते रहे कि डॉ. अम्बेडकर कांग्रेसी थे जबकि उन्होंने कभी कांग्रेस पार्टी को नहीं अपनाया और आज तक इसी बहकावे में हैं कि उनको ये अधिकार महात्मा गांधी तथा पंडित नेहरू ने दिलवाये। जबकि सच्चाई यह है कि जब डॉ. अम्बेडकर की बात नहीं सुनी गई तो उन्होंने दलित समाज के लिए अलग से जमीन की मांग कर डाली। इसी कारण पंडित नेहरू को झुकना पड़ा और उनकी बात को काफी हद तक सुनना और मानना पड़ा। इसी प्रकार चौ. छोटूराम ने किसान और मजदूर को अपना हक दिलवाने के लिए संयुक्त पंजाब में संघर्ष का रास्ता चुना


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और इस संघर्ष को अपने मुकाम तक पहुंचाने के लिए हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख और ईसाई को एक मंच पर खड़ा कर दिया। उस समय संयुक्त पंजाब में 57 प्रतिशत मुसलमान, 28 प्रतिशत हिन्दू, 13 प्रतिशत सिक्ख और 2 प्रतिशत ईसाई धर्मी थे, लेकिन वे सभी किसानों व मजदूरों के एकछत्र नेता थे और ये बात उन्होंने सन् 1936-37 के चुनाव में सिद्ध कर दी थी, जब जम़ीदारा पार्टी के 120, कांग्रेस के 16 तथा मुस्लिम लीग (जिन्ना की पार्टी) के दो सदस्य ही चुनाव जीत पाए, जिनमें से बाद में एक जमीदारा पार्टी में मिल गया। चौधरी साहब जम़ीदारा पार्टी (यूनियनिष्ट) के सर्वेसर्वा थे। लेकिन उन्होंने कभी भी संयुक्त पंजाब के मुख्यमंत्री (प्रीमियर) के पद का लोभ नहीं किया और हमेशा मुसलमान जाटों को इस पद पर सुशोभित किया, जो एकता के लिए आवश्यक था। जब सन् 1944 में मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना पश्चिमी पंजाब में मुसलमानों की संख्या अधिक होने के कारण वहाँ पाकिस्तान बनाने की संभावनायें तलाशने गये और उन्होंने लाहौर में भाषण दिया कि

“पंजाब के मुसलमानो, हमें अपना अलग से देश बनाना है जहाँ हम खुद मालिक होंगे। छोटूराम हिन्दू है वह हमारा कभी भी नहीं हो सकता, वह तो नाम का भी छोटा है, कद का भी छोटा है और धर्म का भी छोटा है, उसका साथ देना हमें शोभा नहीं देता।”

इस पर चौ॰ छोटूराम साहब को रोहतक से तुरत-फुरत जिन्ना साहब का जवाब देने के लिए लाहौर बुलाया और उन्होंने भाषण दिया -

“जिन्ना साहब अपने को मुसलमानों का नेता कहते हैं, मुस्लिमधर्मी होने का दावा करते हैं, लेकिन पाश्चात्य संस्कृति में रंगे हैं, अंग्रेजी शराब पीते हैं, सूअर का मांस खाते हैं, अपने को पढ़ा लिखा कहते हैं, लेकिन उनको तो इतना भी ज्ञान नहीं कि धर्म बदलने से खून नहीं बदलता। हम जाट हैं, हम हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख-ईसाई सभी हैं।”

इस पर पंजाब की मुस्लिम जनता जिन्ना साहब के ऐसे पीछे पड़ी कि जिन्ना साहब रातों-रात लाहौर छोड़ गये और जब तक चौधरी साहब जीवित रहे (9 जनवरी 1945 तक), कभी लौटकर पंजाब व लाहौर नहीं


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आये। (इसी प्रकार सन् 1944 में काश्मीर में शेख अब्दुल्ला ने जिन्ना साहब को सोपुर कस्बे में जूतों की माला डलवा दी थी जिसके बाद जिन्ना साहब कभी भी अपने जीते जी कश्मीर नहीं आये और बम्बई में जाकर बयान दिया कि कश्मीर तो एक दिन सेब की तरह टूटकर उनकी गोद में गिर जायेगा। अब्दुल्ला खानदान हमेशा ही पाकिस्तान विरोधी रहा है।)

दिनांक 15.04.1944 को चौ. छोटूराम ने महात्मा गांधी को एक लम्बा पत्र लिखा जिसका सारांश था कि “आप जिन्ना की बातों में नहीं आना, वह एक बड़ा चतुर किस्म का व्यक्ति है जिसे संयुक्त पंजाब व कश्मीरी मुसलमान उनको पूरी तरह नकार चुका है। मि. जिन्ना को साफ तौर पर बता दिया जाये कि वे पाकिस्तान का सपना लेना छोड़ दें।” लेकिन अफसोस, कि वहीं गांधी जी कहा करते थे कि पाकिस्तान उनकी लाश पर बनेगा, चौ. साहब के पत्र का उत्तर भी नहीं दे पाये और इसी बीच चौ. साहब 63 साल की अवस्था में अचानक ईश्वर को प्यारे हो गये या धोखे से मार दिए। परिणामस्वरूप गांधी जी ने जिन्ना के समक्ष घुटने टेक दिये और जिन्ना का सपना 14 अगस्त 1947 को साकार हो गया तथा साथ-साथ जाटों की किस्मत पर राहू और केतु आकर बैठ गये।

गांधी और जिन्ना जी को इतिहास ने महान बना दिया न कि उन्होंने इतिहास को महान् बनाया। जिन्ना को तो यह भी पता नहीं था कि 14 अगस्त 1947 को रमजान है जिसका रोजा देर रात से खुलेगा। उसने तो सायं पार्टी का हुक्म दे डाला था जब पता चला तो समय बदली किया। इस व्यक्ति ने इस्लामिक देश पाकिस्तान की नींव रखी। आज चाहे जसवन्त सिंह या कोई और नेता जिन्ना के बारे में कुछ भी लिखे जबकि सच्चाई यह है कि जिन्ना और नेहरू में सत्ता लोलुपता के लिए भयंकर कस्मकश थी। गांधी एक कमजोर नेता थे और इसके लिए पाकिस्तान की नींव रखी गई, ताकि दोनों के अरमान पूरे हो सकें। चौ० छोटूराम के साथ उस समय 81 मुस्लिम विधायक तथा 37 हिन्दू-सिख विधायक थे और चौ० साहब ने 8 मई 1944 को लायलपुर की लाखों की सभा में जिन्ना को ललकार कर


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कह दिया था कि वह उनका एक भी विधायक तोड़ कर दिखाए। लेकिन गांधी जी स्वयं ही टूट गए। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि हिन्दू महासभा ने सन् 1937 के अपने अधिवेशन में जिन्ना के दो राष्ट्रों के सिद्धान्त की अनुमति दे दी थी। (पुस्तक ‘मध्यकालीन इतिहास’ पेज नं० 103)।

श्री राजनाथ सिंह सूर्य अपने लेख, कांग्रेस का आत्मसमर्पण में लिखते हैं कि ‘हिटलर द्वारा रूस पर हमला बोलने पर भारत में कम्युनिस्टों ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की पीठ में छुरा घोंपते हुए अंग्रेजी हुकुमत के लिए मुखबरी करने के लिए वायसराय को पत्र लिखकर अपनी सेवाएं पेश की थी। इन्हीं लोगों ने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग का समर्थन किया।’ इसलिए कामरेड भाई केवल देश के लिए ही नहीं, जाट कौम के लिए भी बिल्कुल सार्थक नहीं हैं। वहीं चौ. छोटूराम, जो किसानों को दहाड़-दहाड़ कर अपनी नीतियों का प्रचार किया करते थे और किसान और मजदूर, जो उसके पीछे खड़े मिलते थे, उनकी मृत्यु के ढाई वर्ष के अन्दर ही उनकी सभी नीतियों अर्थात् शिक्षाओं को भुला बैठे। कैसे? उससे पहले-

दीन और गरीबों की जब सुनता कोई पुकार न था,
खेती करने वालों को जब जीने का अधिकार न था॥

(1) चौधरी साहब की पहली शिक्षा थी कि हमें धार्मिक तौर पर कभी भी कट्टर व रूढ़िवादी नहीं होना चहिये। उस समय संयुक्त पंजाब में 55 हजार सूदखोर थे, जिनमें से लगभग 50 हजार सूदखोर पाकिस्तान के पंजाब में थे और यही हिन्दू पंजाबी वहाँ अधिकतर व्यापारी भी थे। ये सभी लगभग सिंधी, अरोड़ा-खत्री हिन्दू पंजाबी थे, क्योंकि इस्लाम धर्म में सूद (ब्याज) लेना पाप माना गया है। उस समय पंजाब की मालगुजारी केवल 3 करोड़ थी। लेकिन सूदखोर प्रतिवर्ष 30 करोड़ रुपये ब्याज ले रहे थे। अर्थात् पंजाब सरकार से 10 गुना अधिक। उस समय पंजाब में 90 प्रतिशत किसान थे जिसमें 50 प्रतिशत कर्जदार थे। जब गरीब किसान व मजदूर कर्जा वापिस नहीं कर पाता था तो उनकी


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ज़मीन व पशुओं तक ये सूदखोर रहन रख लेते थे। चौ॰ छोटूराम की लड़ाई किसी जाति से नहीं थी, इन्हीं सूदखोरों से थी, जिसमें कुछ गिने-चुने दूसरी जाति के लोग भी थे। ये सूदखोर लगभग 100 सालों से गरीब जनता का शोषण कर रहे थे। उसी समय कानी-डांडी वाले 96 प्रतिशत तो खोटे बाट वाले व्यापारी 49 प्रतिशत थे। किसानों का भयंकर शोषण था। हिन्दू पंजाबियों के अखबार चौ. साहब के खिलाफ झूठा और निराधार प्रचार कर रहे थे कि “चौधरी साहब कहते हैं कि वे बनियों की ताखड़ी खूंटी पर टंगवा देंगे।” इस प्रचार का उद्देश्य था कि अग्रवाल बनियों को जाटों के विरोध में खड़ा कर देना। जबकि सच्चाई यह थी कि चौधरी साहब का आंदोलन सूदखोरों के खिलाफ था, चाहे वो किसी भी जाति के हों। उसके बाद यह प्रचार भी किया गया कि चौधरी साहब ने अग्रवाल बनियों को बाहर के प्रदेशों में भगा दिया। जबकि सच्चाई यह है थी कि अग्रवालों का निवास अग्रोहा को मोहम्मद गौरी ने सन् 1296 में जला दिया था जिस कारण अग्रवाल समाज यह स्थान छोड़कर देश में जगह-जगह चले गये थे और यह अभी अग्रोहा की हाल की खुदाई से प्रमाणित हो चुका है कि अग्रवालों ने इस स्थान को जलाया जाने के कारण ही छोडा था। (पुस्तक - अग्रसेन, अग्रोहा और अग्रवाल)।

संयुक्त पंजाब में महाराजा रणजीतसिंह के शासन के बाद से ही इन सूदखोरों ने किसान और गरीब मजदूर का जीना हराम कर दिया था। क्योंकि अंग्रेजी सरकार को ऐसी लूट पर कोई एतराज नहीं था क्योंकि वे स्वयं भी पूरे भारत को लूट रहे थे। एक बार तो लार्ड क्लाइव 8 लाख पाउण्ड चांदी के सिक्के जहाज में डालकर ले गया जिसे इंग्लैण्ड के 12 बैंकों में जमा करवाया गया। इस पर अमर शहीद भगतसिंह ने भी अपनी चिंतन धारा में स्पष्ट किया था कि “उनको ऐसी आजादी चाहिए जिसमें समस्त भारत के मजदूरों व किसानों का एक पूर्ण स्वतंत्र गणराज्य हो तथा इसके लिए किसान और मजदूर संगठित हों।”

इस प्रकार हम देखते हैं कि अमर शहीद भगतसिंह व


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चौ० छोटूराम की विचारधारा तथा उद्देश्य समान था चाहे उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए रास्ते अलग क्यों ना हों। चौ० छोटूराम की लड़ाई मण्डी और पाखण्डी के विरुद्ध थी न कि किसी विशेष जाति के विरुद्ध। राजा कुरू संसार के पहले किसान हुए तो चौ० छोटूराम भारत के पहले कृषि दार्शनिक। चौ० छोटूराम के जीवन व कार्यों पर शोध होना अनिवार्य है, जिसके लिए किसी विश्वविद्यालय में चौ० साहब की अलग से कुर्सी लगाई जाए, इसके लिए मैंने (लेखक ने) 23 दिसम्बर 2007 को भिवानी में वित्त मन्त्री चौ० वीरेन्द्र सिंह, जो उनके नाती है, को इस बारे में मांग पत्र भी सौंपा था। लेकिन अभी तक कुछ नहीं किया।

दुर्भाग्य से भगतसिंह 23 मार्च 1931 को खुशी-खुशी फांसी के तख्ते पर चढ़कर अमर शहीद हो गए और चौ० छोटूराम की 9 जनवरी 1945 को मृत्यु हो गई या उनको जहर देकर मारा और पंजाब की ज़मीदारा पार्टी विघटन के कगार पर पहुंच गई। इसी बीच जब 1947 में अलग से पाकिस्तान बनने की चर्चायें चलीं तो काफी सूदखोर पाकिस्तान में ही रहने की संभावनायें तलाशने लगे थे, लेकिन अलग पाकिस्तान की घोषणा होते ही मुस्लिमवर्ग में एकदम इन शोषणकारियों के विरुद्ध गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने बदले की भावना से प्रेरित होकर शोषणकारी हिन्दुओ की हत्या करनी शुरू कर दी। उस समय सिक्ख भी हिन्दुओं के रिश्तेदार थे इस कारण वे भी इस गुस्से के शिकार हुये। इस पर हिन्दू और सिखों ने पाकिस्तान से भागना प्रारंभ कर दिया, जिसमें काफी को उनके घरों व रास्ते में मुसलमानों ने कत्ल कर दिया जिसमें लगभग 1 लाख हिन्दू व सिक्ख मारे गये और लगभग 1 करोड़ बेघर हो गये, जबकि हिन्दुस्तान व पाकिस्तान की सरकारों ने कभी किसी मुस्लिम व हिन्दू को देश छोड़ने का आदेश नहीं दिया। (समाचार पत्रों के अनुसार) ज्यों ही ये मारकाट के समाचार पाकिस्तान के पंजाब से हमारे पंजाब में पहुंचे तो सिक्ख जाटों व अन्य ने मुसलमानों को मारना शुरू कर दिया। इस सच्चाई को पंजाब


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के तत्कालीन गर्वनर मिस्टर ई.एम. जैनकिम्स का पत्र दिनांक 4-8-1947 पूर्णतया सिद्ध करता है कि सबसे पहले दंगे 4 मार्च से 20 मार्च तक लाहौर में भड़के फिर 11 और 13 अप्रैल को अमृतसर में। उसके बाद फिर 10 मई को गुड़गांव जिले में भड़के और इस प्रकार लगभग सारे संयुक्त पंजाब में फैल गए। हिन्दू पंजाबी अखबारों में हिन्दु मृतकों की संख्या लाखों में बतलाई लेकिन राजपाल के इस पत्र के अनुसार पंजाब में कुल 4632 लोग मारे गए और 2573 घायल हुए। जिसमें देहात में 1044 और शहरों में 3588 मारे गए। इससे सिद्ध होता है कि अखबारों के आंकड़े बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लिखे गए ताकि अधिक से अधिक मुआवजा व सहानुभूति बटोरी जा सके। गवर्नर ने अपने पत्र में साफ टिप्पणी की है कि “On the morning of March 4th 1947 rioting broke out in Lahore first. Rohtak disturbances were directly connected with those of in western unit provinces” अर्थात् “4 मार्च 1947 को सबसे पहले लाहौर में दंगे भड़के जो रोहतक में सीधे तौर पर दंगे भड़कने का कारण था।” यही इसका प्रमाण है। इसी प्रकार हरयाणा क्षेत्र में हिन्दू जाटों व अन्य ने मुसलमानों को मारना शुरू किया। प्रांरभ में यह किसी भी प्रकार का धार्मिक दंगा नहीं था, यह तो शोषण के विरोध में मुसलमानों की बदले की भावना की प्रतिक्रिया थी जो मारकाट के रूप में परिवर्तित हुई। हमने हिन्दू शरणार्थियों के मुँह से सुना है कि जो मुसलमान उनके घर की दहलीज पर बैठकर उन्हें सलाम करते थे वही हिन्दू व सिखों के सबसे कट्टर दुश्मन बने, इसका स्पष्ट कारण मुसलमानों का शोषण था। यह किसी भी प्रकार से प्रांरभ में हिन्दू मुस्लिम दंगा नहीं था, यदि ऐसा होता तो पड़ोस के कश्मीर में उस समय किसी भी एक हिन्दू या मुसलमान की हत्या क्यों नहीं हुई?

इसको बाद में हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक दंगे का रूप दिया गया और इसके बाद इस बारे में आज तक अनेक फिल्में, पुस्तकें व लेखों आदि के माध्यम से इसे दंगा ही प्रचारित किया जाता रहा है क्योंकि पत्रकार व फिल्मकार इसी वर्ग से अधिक रहे


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हैं। जिससे शरणार्थियों के लिए यहाँ के हिन्दू व सिखों से पूरी-पूरी सहानुभूति बटोरी जाती रही है और वे यहां बसने में तथा लूट मचाने में सफल रहे। इसी प्रकार हरयाणा क्षेत्र में बेगुनाह मुसलमानों का कत्ल किया गया तथा उन्हें यहाँ से भगाया गया। जबकि उनका कोई भी कसूर नहीं था, वे सभी तो हम हिन्दुओं के ही बीच से कभी मुसलमान बने थे,हमारी भाषा बोलते थे, हरयाणवी संस्कृति के पालक थे तथा सभी हिन्दू त्यौंहारों को हमारी तरह मनाते थे। ये सभी चौ० छोटूराम के कट्टर समर्थक थे और इस सच्चाई को कोई झुठला नहीं सकता। लेकिन हम लोगों ने उनको सदा-सदा के लिए पाकिस्तान में मुहाजिर (शरणार्थी) बना दिया और दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। क्योंकि वे भी हमारी ही तरह सीधे-साधे लोग थे जिनको पाकिस्तानी मुसलमानों ने कभी भी अपने गले नहीं लगाया। क्योंकि वहां भी पूर्व प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ सहगल (खत्री पंजाबी) जैसे लोग थे। जबकि हम लोगों ने आने वाले शरणार्थियों का कभी विरोध नहीं किया, क्योंकि हम भी भोले-भाले थे, आज तक भी हैं। और ये शरणार्थी आज हमारे शासक बन गए। पाकिस्तान से आनेवाला लगभग पूरे का पूरा हिन्दू पंजाबी समाज सामान्य वर्ग से सम्बन्ध रखता है, जैसे कि हरयाणा में जाट समाज। जाने वाले मुसलमान लगभग सभी के सभी अनपढ़ व पिछड़ा वर्ग था, लेकिन पाकिस्तान से आनेवाले हिन्दू व सिक्ख अधिकतर पढ़े लिखे थे, क्योंकि अंग्रेजों ने भारत में कलकता, मद्रास, बम्बई तथा इलाहबाद के बाद पांचवां विश्वविद्यालय लाहौर में ही स्थापित किया था। दिल्ली कॉलेज जो सन् 1864 में स्थापित किया गया, को भी सन् 1877 में लाहौर हस्तांतरण कर दिया गया था। इसी प्रकार दिल्ली से पहले लाहौर में सन् 1865 में उच्च न्यायालय स्थापित किया जिसके पीछे अंग्रेजों के अपने स्वार्थ जुड़े थे। इस प्रकार आने वाले शिक्षित शरणार्थियों ने अपनी जो भी योग्यता बतलाई, उसी को उस समय भारत सरकार व पंजाब सरकार को मानना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान से इसकी तसदीक


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(verification) करना संभव नहीं था। जिनकी कोई जमीन नहीं थी उन्होंने भी झूठ बोलकर यहां मुसलमानों की जमीन हथियाई। 4-4 बार मुआवजा लिया और दिल्ली में कई बार मुफ्त में प्लाट लिए । वहां यह लोग लगभग सारे के सारे traders (व्यापारी) थे, यहां आने पर आर्थिक traitors हो गए। यह पूरा घपला उस समय इनके पुनर्वास मन्त्री मेहर चन्द खन्ना के इशारे पर हुआ। वहां यह नारे लगाते थे - सर सिकन्दर - छोटू कन्जर। लेकिन यहां आने पर खुद कन्जर से भी बदतर हो गए और फिर आज शासक हो गए। इस प्रकार मुट्ठीभर हिन्दू शरणार्थी पंजाबियों ने आज हरयाणा में लगभग 36.94 प्रतिशत राजपत्रित नौकरियों पर कब्जा किया हुआ है जो लगभग सारे का सारा जाट समाज का हिस्सा है, जबकि प्रचार यह किया जाता रहा कि दलित समाज जाटों की नौकरी हड़प गया। हरयाणा में सामान्य वर्ग में लगभग 32 प्रतिशत जाट (सिख मूला जाट को मिलाकर) हैं, इस प्रकार मुसलमानों को काटकर जाटों ने अपनी कुल्हाड़ी से अपने ही पैर काट लिये। चौ. छोटूराम ने एक बार पेशावर में कहा था कि पंजाब में अरोड़ा खत्री रहेंगे या जाट और गक्खड़ । लेकिन हमने चौ. छोटूराम को भुलाकर अपनी गलती से इनको अपनी ही चौखट पर बुला लिया।

सन् 1938 में ‘पंजाब कृषि-उत्पादन मार्केट एक्ट’ की बहस के दौरान कभी डॉ. गोकुलचन्द नारंग (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने इसके विरोध में कहा था कि “इस बिल के पास होने पर रोहतक का दो धेल्ले का जाट लखपति बनिये के बराबर मार्केट कमेटी में बैठेगा।” आज यही बनिया वर्ग समृद्ध जाटों के रिश्तेदार बनने के लिए लालायित है। इसी नारंग के वंशजों ने फिर आजादी के बाद हमारे यहां उत्तर भारत में चीनी व्यापार पर कब्जा कर लिया। यही लोग सन् 1945 से पहले प्रचार किया करते थे कि चौधरी छोटूराम तो अंग्रेजों के पिट्ठू हैं। इसके उत्तर में चौधरी साहब कहा करते थे कि “अंग्रेजेजों की नीति बांटो और राज करो (Divide & Rule) को पंजाब में तहस-नहस करके मैंने यह सिद्ध कर दिया है कि अंग्रेजों का असली पिट्ठू


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कौन है।” उन्होंने अपने दावे को सन् 1936-37 के चुनाव में सभी धर्मों व जातियों के जमींदार व मजदूर वर्ग को एक मंच पर इकट्ठा करके सिद्ध कर दिया था।

याद रहे चौ० छोटूराम बहुत बड़े धर्मनिरपेक्ष थे। उन्हीं की बदौलत पाकिस्तान के अब्दुल सलाम को सन् 1979 में भौतिकी नौबेल पुरस्कार मिला, जिसको उनके छात्र जीवन में चौ० साहब 550 रुपये प्रति मास किसान फण्ड से विशेष वजीफा दिया करते थे। यह बात सलाम साहब ने पुरस्कार मिलने पर दोहराई थी। चौ० रफीक तरार ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति बनने पर कहा था, “आज मैं चौ० छोटूराम के कारण पाकिस्तान का राष्ट्रपति बना हूं।” (दूसरा आज तक प्रचार किया जाता रहा है कि ‘भाखड़ा बांध’ योजना पं॰ नेहरू की सोच व देन थी, जबकि पुख्ता प्रमाण उपलब्ध हैं कि चौ० साहब ने इसे सन् 1937 में संयुक्त पंजाब की विधानसभा में जोरदार भाषण देकर पारित करवाया, जिसके साथ ‘नलकूप’ तथा ‘ब्यास बांध योजना’भी थी। वे स्वयं अपने निधन होने तक इस योजना की कार्यप्रगति का निरीक्षण करने जाते रहे। पं० नेहरू का इससे कुछ लेना-देना नहीं था। इसलिए ‘बाखड़ा बांध’ का नाम चौ० साहब के नाम से होना चाहिए। यही ईमानदारी होगी)

इसके लिए मैं वर्तमान में हरयाणा सरकार के वित्तमन्त्री चौ० वीरेन्द्र सिंह जी जो कि चौ० छोटूराम के नाती हैं, का यह नैतिक कर्त्तव्य है कि इस सच्चाई को हरयाणा व पंजाब की सरकार के सम्मुख रखे। हरयाणा व पंजाब के किसान भी अवश्य उनका साथ देंगे।

इन लोगों के समाचारपत्रों ने कभी भी चौ० छोटूराम का पूरा नाम तक नहीं लिखा केवल ‘छोटू’ कहकर लिखते थे। ये लोग चौ० साहब से इतने भयभीत रहते थे कि चौ० साहब को पंजाब का हिटलर लिखते थे। चौ० साहब इसके उत्तर में कहते थे - “जहां यहूदी होंगे वहां हिटलर तो होगा ही।”


दूसरा पंजाब सरकार व हरयाणा सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य


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विषयों को अपने हाथ में रखा और हरयाणा के अग्रवाल समाज ने इन्हें हमेशा धर्म और सेवा का कार्य समझा, लेकिन इन भाइयों ने इसे व्यापार बना दिया और दिल्ली व हरयाणा में जगह-जगह प्राईवेट स्कूलों व नर्सिंग होम की भरमार कर दी और इस हमाम में आज सभी नंगे खड़े हैं। परिणामस्वरूप आज सरकारी स्कूलों व हस्पतालों की जो दयनीय हालत है वह सब इसी कारण है लेकिन इसका सबसे बड़ा खामियाजा जाटों को भुगतना पड़ा, क्योंकि जाट आज भी गाँवों में 90 प्रतिशत से अधिक रहते हैं जहाँ सरकारी स्कूलों व हस्पतालों की सबसे ज्यादा खस्ता हालत है। अभी-अभी भारत सरकार की सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि Education in North India is in shambles अर्थात् उत्तर भारत में शिक्षा का कबाड़ा हो रहा है और यह कबाड़ा इन्हीं हिन्दू-पंजाबियों की वजह से हुआ। कहने का अर्थ है कि इन लोगों ने भ्रष्टाचार व चापलूसी का ऐसा मंच तैयार कर दिया जिस पर आज सभी जातियों के लोग खड़े नजर आते हैं। साथ-साथ यह भी प्रचार करते रहे कि हमने यहाँ के स्थानीय लोगों को खाना-पीना सिखाया, जबकि भ्रष्टाचार किसने फैलाया इसकी जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं। अधिकारियों को दीपावली आदि पर उपहार देने की प्रथा, कमेटियां डालना आदि-आदि इन्हीं लोगों की देन है। इस बारे में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था,जिस किसी आदमी को उपहार मिलता है वह उपहार देने वाले आदमी के विचार अनुसार विचार करके कार्य करेगा। इसी प्रकार उपहार लेने वाले का पतन आरम्भ होता है। मस्तिष्क की स्वतन्त्रता का विनाश आरम्भ होता है और दासता का जन्म होता है। यह दासता हरियाणा-पंजाब में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में फैल चुकी है। इसके गुनहगार यही लोग हैं। आज एक दूसरे रूप में वही लोग उत्तर भारत में किसानों का शोषण कर रहे हैं, जो शोषण उन्होंने संयुक्त पंजाब में 100 वर्षों में किया उतना तो यहाँ 50 सालों में हो चुका है।


इसके अतिरिक्त इन्हीं लोगों ने हरयाणावासियों को गंवार भी


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कहा (देखें - पंजाब केसरी दिनांक 12.09.1995 पेज नं.4) और साथ-साथ यह भी प्रचार होता रहा कि आने वाले हिन्दू तो बहुत मेहनती हैं जबकि इनको जो मुसलमानों की ज़मीन मिली, उस पर कभी हल जोतकर भी नहीं देखा और उसे बेचकर शहरों में छोले-भटूरे व पकौड़ों की रेहड़ियाँ लगाना बेहतर समझा (अर्थात् हमारा खान-पान ही बिगाड़ दिया) जबकि यह सर्वमान्य है कि किसान और मजदूर से ज्यादा इस संसार में कोई भी मेहनती नहीं है। क्योंकि एक कमेरा वर्ग होता है और दूसरा लुटेरा वर्ग। तो फिर लुटेरा वर्ग कौन-सा है? यही बात बार-बार चौ० ओमप्रकाश चौटाला तथा चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा अपने भाषणों में दोहराते हैं लेकिन इसका खुलासा करने में असमर्थ हैं कि ‘लुटेरे वर्ग कौन सा है?’ साथ-साथ यह भी प्रचार करते रहे कि इन्होंने हरयाणावासियों को खाना-पहनना सिखाया। यह बड़ी विचित्र बात है कि जिनके पास खाने व पहनने के लिए कुछ था ही नहीं तो सिखाने की बात कहाँ से आगई? हमें याद है इनके बूढ़े पहले औरतों की तरह सिलवार पहनते थे और बाद में हमें देखकर पायजामा पहनने लगे हैं। फिर ये कहाँ से सीखकर आये थे? हमारा धन्यवाद देने के बजाए हमें ही लज्जित करने पर तुल गये।

इसी प्रकार हरयाणावासियों के खिलाफ चुटकले भी तैयार करते रहे ताकि मनोवैज्ञानिक तौर पर उनको हीन कर दिया जाए और यह क्रम अभी तक जारी है। उदाहरण के लिए एक टी.वी. पर उधमसिंह धारावाहिक आदि दिखाये जाते रहे। (इस धारावाहिक को विरोध के कारण बीच में ही बन्द करना पड़ा था।) आज भी ‘सब’ जैसे टी.वी. चैनल से ‘एफ.आई.आर.’ जैसे सीरियल में हरयाणवी भाषा व संस्कृति का जमकर मजाक उड़ाया जाता है। “लाडो न आना इस देश” जैसे सीरियल बनाकर परोक्ष रूप से जाट कौम को बदनाम किया जा रहा है। लेकिन हरयाणवी लोग व जाट अपनी बेइज्जती सहने के आदी हो गए हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी क्या कर रही है? क्या संविधान में किसी दूसरे समाज की संस्कृति को विकृत करने का अधिकार दिया है?

इनके मीडिया ने यहां के आम लोगों


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का लगभग ब्रेनवाश (Brainwash) कर दिया है। उदाहरण के लिए हमारे हरयाणवी भाई अपनी गाड़ियों पर “जय माता की” की जगह “जय माता दी” लिखवाते हैं। रोमन अंगेजी तो अवश्य अंग्रेजों ने हमसे काम लेने के लिए सिखलाई थी। लेकिन रोमन पंजाबी कहां से आ गई? वास्तव में इनमें अधिकतर लोगों को पंजाबी नहीं आती, पाकिस्तान की स्थानीय जुबानें जैसे कि झांगी व मुलतानी आदि बोलते हैं जो हमारे भारतीय पंजाबियों के भी कुछ पल्ले नहीं पड़ती। मैंने तो यहां तक देखा है कि ये हिन्दू शरणार्थी पंजाबी लोग सामान भी अपने तथाकथित पंजाबियों की दुकानों से ही खरीदते हैं। ये इनकी पक्षपाती मानसिकता को दर्शाता है। जिस समाज की मानसिकता ही इतनी पक्षपाती है वे लोग दूसरे क्षेत्रों में क्या करते होंगे? सन् 1981 की जनगणना में इन लोगों ने हरयाणा में अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखवाई तो उसी के दूसरे भाई ने पंजाब में हिन्दी लिखवाई। इसका सीधा सा स्वार्थ था कि पंजाब तथा हरयाणा में दोनों जगह अल्पसंख्यक बनकर अपनी आवाज बुलन्द कर सकें। लेकिन इस कारण पंजाब में उग्रवादियों को एक बहुत बड़ा मुद्दा मिला था। जिस कारण पंजाब के ग्रामीण आँचल में ऐसे हिन्दुओं व ब्राह्मणवाद का लगभग खात्मा हुआ और पंजाब में हिन्दुओं की औसत जनसंख्या 55 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत रह गई और यह बोझ भी अभी हरयाणा व दिल्ली में हमें ही ढ़ोना पड़ रहा है। इसका स्पष्ट उदाहरण है कि इन्हीं लोगों की बदौलत स्व० चौ० साहब सिंह वर्मा जी को दिल्ली के मुख्यमन्त्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी थी। जब प्रथम नवम्बर 1966 में हरयाणा पंजाब से अलग हुआ तो उस समय हरयाणावासियों की जनसंख्या 74.06 प्रतिशत थी जो सन् 2001 की जनगणना के अनुसार घटकर 59.62 प्रतिशत रह गई है और सन् 2021 में हरयाणवी अपने ही हरयाणा में अल्पमत में हो जायेंगे और हरयाणा लघु हिन्दू पंजाब बनकर रह जायेगा। इससे बड़ी हरयाणावासियों व यहाँ के जाटों के लिए और क्या त्रासदी हो सकती है? वास्तव में ये लोग जो भाषा बोलते हैं उसे हम ‘भापा’ भाषा कह सकते हैं। कहते हैं


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एक भापा सौ स्यापा अर्थात् एक भापा सौ मुसीबतें खड़ी कर सकता है। हरयाणा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा कि यहां हरयाणवी नाम से किसी नेता ने राजनीति नहीं की। जाट व गैर जाट की राजनीति होती रही है, जबकि हरयाणा में हरयाणवी तथा गैर-हरयाणवी की राजनीति होनी चाहिए। हरयाणा में रहने वाले जाट-सिख भाई हरयाणवी हैं, न कि भाप्पा।


जैसे कि महाराष्ट्र में शिवसेना ने राष्ट्रपति चुनाव (2007) में अपने गठजोड़ के उम्मीदवार शेखावत को वोट न देकर महाराष्ट्र की बेटी प्रतिभा पाटिल कांग्रेसी उम्मीदवार को वोट दिया। दूसरी ओर महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे महाराष्ट्र नवनिर्माण पार्टी के अध्यक्ष गैर-मराठों को महाराष्ट्र (बम्बई) से बाहर निकलने का नारा दे रहे हैं और फिल्मी नेता व सांसद विनोद खन्ना तथा सांसद कुलदीप बिश्नोई ने राज ठाकरे का समर्थन किया है लेकिन ये क्यों भूल गए कि हरयाणवी भी यही नारा गैर-हरयाणवी को देंगे तो हरयाणा, दिल्ली और उत्तर प्रदेश में गैर हरयाणवी लोगों का क्या हाल होगा? बिहारियों की बात तो छोड़ो। वास्तव में राज ठाकरे का अभियान पूर्वांचल अर्थात् बिहारियों के विरोध में है न कि उत्तर भारतीयों के विरोध में। जाटों के विरोध में तो बिल्कुल नहीं। बम्बई से विख्यात ट्रांसपोर्टर श्री नन्दुराम चौधरी ने बतलाया कि जाटों व उत्तर भारतीयों के खिलाफ कुछ भी नहीं है। यह सभी मीडिया तरोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है, ताकि उत्तर भारत के लोग भी भड़क जाएं और बिहार व पूर्वांचल के पक्ष में खड़े हो जाएं।

इसलिए जाट कौम को इस मसले को समझना चाहिए। राव वीरेन्द्रसिंह ने सन् 1967 में एक ‘विशाल हरयाणा पार्टी’ अवश्य बनायी। सभी जानते है कि पंजाब से हरयाणा को भाषा के आधार पर अलग किया गया था और हरयाणा के तथाकथित पंजाबीभाषी अलग से हरयाणा नहीं चाहते थे। क्योंकि ये पंजाब को द्विभाषी (Bilingual) राज्य बना रहना चाहते थे ताकि गोपीचन्द भार्गव व भीमसेन सच्चर जैसे हिन्दू-पंजाबी नेता पूरे


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पंजाब के मुख्यमंत्री बनते रहें। लेकिन अकालियों की कृपा तथा भगवानदेव आचार्य, चौ. देवीलालप्रो. शेरसिंह जैसे महान् लोगों के प्रयास से प्रथम नवम्बर, 1966 को हरयाणा अलग हो गया। इस मीडिया के प्रचार के कारण कुछ अज्ञानी हरयाणावी नेताओं ने भी अलग से हरयाणा का विरोध किया था जिस बारे में सरकारी दस्तावेज आज भी उपलब्ध हैं। आज फिर इस प्रदेश को द्विभाषी राज्य बनाने का प्रयास हो रहा है जिसके लिए हमें सावधान रहना होगा। अब यही लोग कहते हैं कि इनकी हरयाणा में 35 प्रतिशत आबादी हो गई है, पंजाबी मुख्यमन्त्री होना चाहिये (दी ट्रिब्यून)। मैं कहता हूं कि आपने अपना पंजाब ले लिया, अभी वहां एक नहीं चार मुख्यमन्त्री बनाओ। अब ये कहेंगे कि प्रजातन्त्र है तो मेरा कहना है कि प्रजातन्त्र में लूट की इजाजत किसने दी है?


यदि हम आज पाकिस्तान पर एक नजर डालें तो वहाँ भी इन्हीं के भाई मुस्लिम अरोड़ा खत्री पंजाबियों ने शेष पाकिस्तानवासियों की पक्षपात के कारण बुरी गत कर रखी है। सारे पाकिस्तान पर इन्हीं का राज है, पखतूनों की हालत मुहाजिरों से भी बदतर है। सिन्धु नदी (Indus river) तक का पानी उनके लिए पीने के लिए नहीं छोड़ा। हमारे पंजाब के लोगों का भी चरित्र इन लोगों के कारण काफी बदल गया जैसे कि हमारा। आज यही संस्कृति पाकिस्तान और भारत पर राज कर रही है जिसके बारे में कभी गुरुनानक देव जी ने ‘आशा-दि-वार’ में कहा था। यदि इस तबाही को हम अभी भी नहीं समझ पाये तो बाद में समझने का कोई फायदा नहीं होगा। क्योंकि उस समय तक हमारी स्थिति (गाँव वालों की) बिहारियों से भी बदतर हो जायेगी। इन सालों में इन्होंने हर तरह से हर हालात को अपने हक में कर लिया है।

सन् 2006 में पाकिस्तान से आने वाले तथाकथित हिन्दू पंजाबियों के प्रधान श्री संतकुमार टूटेजा जी ने अपनी पुस्तक “हरयाणा के पंजाबियों के संर्घष पर प्रथम खोजपूर्ण दस्तावेज” “जद्दोजहद” नाम से लिखी है जिसमें नेता जी के हरयाणवी तथा जाटों के बारे में विचार इस प्रकार हैं-


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लिखते हैं- “हरयाणा मे उन्हें रिफ्यूजी, पाकिस्तानी, शरणार्थी न जाने कैसे-कैसे शब्दों को सुनना पड़ा और अपमानित होना पड़ा।” इसके उत्तर में मैं स्पष्ट कर दूं कि ये लोग पाकिस्तान की घोषणा होने के बाद मार-काट होने पर हमारे यहां आए। इसलिए यहां के लोगों ने ऐसा कहा - इसमें कुछ भी गलत नहीं है। क्योंकि बिहार से आनेवाले को बिहारी, उड़ीसा से आने वाले को उड़ीया तथा बंगाल से आनेवाले को बंगाली कहा जाता है तो पाकिस्तान से आनेवाले को फिर क्या कहा जाएगा? दूसरा, इनके आने पर भारत सरकार ने कानून द्वारा इन्हें शरणार्थी माना और इसी कारण सरकार ने हर प्रकार की सहायता की। हरयाणा में सबसे बड़ा शरणार्थी कैम्प करनाल में लगा था जिसके इन्चार्ज कर्नल विक्रमसिंह(सिक्ख जाट) थे जो बाद में ले. जनरल रहे जिनकी मूर्त्ति आज जम्मू के एक चौक पर लगी है। समाचारपत्रों के आधार पर तो इनकी शरणार्थी कमेटी आज तक जीवित है। फिर लोग शरणार्थी नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? अंग्रेजी जानने वालों ने रिफ्यूजी कहा जिनमें मैं भी एक हूँ। इसलिए इसमें कुछ भी गलत नहीं है, कहना भी चाहिए। इसमें अपमानित करने का दोष लगाकर हरयाणवी की बेइज्जती की जा रही हैं। इसमें कोई दूसरी राय नहीं कि आज इस कलयुग में यही लोग हरयाणा व उत्तर भारत ही नहीं, पूरे देश पर शासन कर रहे हैं। जिसका उदाहरण हैं हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री मनमोहनसिंह ‘कोहली’। क्योंकि इनकी योग्यता पर कोई उंगली नहीं उठा सकता है? श्री मनमोहनसिंह जी बगैर जनता का सामना किए व बगैर लोकसभा चुनाव लड़े इस महान् देश के महान् प्रजातन्त्र में पहले प्रधानमंत्री बने जिन्होंने यह रिकार्ड तोड़ा है। ये लोग इतिहास रच रहे हैं। पहले भी यशपाल कपूर जो कभी पंडित नेहरू के टाईपिस्ट थे और आर. के. धवन श्रीमती इंदिरा गांधी के टाईपिस्ट थे जिनका काम केवल कागज टाइप करने का था। लेकिन ये संसद-सदस्य व मंत्री तक बन गए (लेखक-खुशवन्तसिंह)। आगे इसी प्रकार


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श्री आई. के. गुजराल साहब का भी रिकार्ड है। इसमें कोई दूसरी राय हो ही नहीं सकती।

आगे टूटेजा साहब इसी पुस्तक में जाटों के बारे में लिखते हैं - (पेज नं. 49) -

“हरयाणा में जाटों की आबादी 20 प्रतिशत है जबकि प्रदेश में पुलिस, सेना, बी.एस.एफ., सहकारी क्षेत्र में, शिक्षा, बिजली आदि दूसरे सरकारी व अर्द्ध-सरकारी संस्थानों में लगभग 60 प्रतिशत नौकरियों पर नियन्त्रण है। आज भी प्रदेश की 70 प्रतिशत जमीन के मालिक हैं और वैसे भी कई अपनी विरासत राजस्थान के राजाओं से जोड़ते हैं और अपनी इसी जमींदाराना सोच के कारण देहात में रहने वाली दूसरी जातियों पर हुक्म चलाना अपना हक समझते हैं। इस तरह जो जाति अपना सम्बन्ध राजाओं से जोड़ती हो .............. इसका अर्थ हुआ - जिसकी लाठी उसकी भैंस।”


इसका उत्तर थोड़ा विस्तार से लिखना पड़ रहा हैं। टूटेजा साहब ने हरयाणा में जाटों की संख्या 20 प्रतिशत लिखी है और तथाकथित पंजाबियों की एक तिहाई तथा एक जगह 35 प्रतिशत बताये हैं। इसलिए लोगों के कथन अनुसार हरयाणा की जनसंख्या इस प्रकार बनती है-

पंजाबी 35 प्रतिशत + दलित 16 प्रतिशत + पिछड़ा वर्ग 27 प्रतिशत + ब्राह्मण 9 प्रतिशत + राजपूत 5 प्रतिशत + बनिया व सुनार आदि 8 प्रतिशत = 100 प्रतिशत। अर्थात् अर्थ है कि हरयाणा में तो जाट हैं ही नहीं। इन्होंने सन् 1947 में इनकी संख्या सात लाख पिचहत्तर हजार कुछ लिखी है जो आज 2006 में हरयाणा की 35 प्रतिशत हो गई है। अर्थात् हरयाणा की वर्तमान जनसंख्या लगभग 2 करोड़ में तथाकथित हरयाणा पंजाबियों की जनसंख्या 70 लाख से भी अधिक है। लेकिन टूटेजा साहब ने यह नहीं बतलाया कि इनकी जनसंख्या 8 प्रतिशत से 35 प्रतिशत कैसे हो गई? इन्होंने हमारे पंजाबी भाई जो 1947 से पहले से ही हमारे साथ हैं, उनको भी अपने साथ मिला लिया, फिर भी 35 प्रतिशत नहीं बनती।


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जबकि हमारे देश की शुद्ध पंजाबियों की आबादी का एक बड़ा भाग इन्हें पंजाबी मानता ही नहीं, भापा मानता है। मेरी बात का प्रमाण है कि इनके घरों में पंजाबी साहित्य होता ही नहीं और दूसरा बड़ा प्रमाण है कि इन्होंने 1981 की पंजाब की जनगणना में इन्हीं के भाइयों ने अपनी मातृभाषा हिन्दी लिखवाई। फिर ये पंजाबी कैसे हो गए? यदि सन 2011 में जातिवार जनगणना हुई तो वह जाटों के लिए वरदान सिद्ध होगी और हमें अपनी ताकत और कमजोरियों का अहसास होगा तथा इनके झूठे आंकड़ों का भंडाफोड़ होगा इसलिए हमें सतर्क रहकर इसमें सहयोग करना चाहिए।

इनको जाटों के अधीन 70 प्रतिशत जमीन के अधिकार का बड़ा दुख है। लेकिन इन्होंने यह नहीं लिखा है कि आज तथाकथित पंजाबियों ने दिल्ली व गुडगांव क्षेत्रों में जाटों की जमीन पर 80 प्रतिशत फार्म हाउस तथा 90 प्रतिशत गाडि़यों के शोरूम, अस्पताल, होटल और प्राइवेट स्कूल आदि बना लिये, वहां कब्जा कैसे किया? अब ये कहेंगे कि ये सब मेहनत से हुआ है। कल तक अशोक मल्होत्रा जिसके पास 17 विदेशी महंगी गाडियां और करोड़ों की जायदाद मिली उसको भी ये लोग मेहनती कह रहे थे। लेकिन दैनिक जागरण का दिनांक 8 अगस्त, 2007 का अंक तो इन्हें 'देशद्रोही' लिख रहा है। जबकि यही मल्होत्रा जी पहले दिल्ली की सड़कों पर छोले-भटूरे बेचा करते थे। पकड़े गए तो लुटेरे वरना ये कल तक कमेरे थे। अब इसी 4 जून को एक मेजर मल्होत्रा की 63 घपलों में सात साल की जेल हुई है वरना ये भी परसों तक मेहनती अफसर थे और जनरल बन जाते। मैंने पहले लिखा कि देश का कौन सा घपला है जिससे ये भाई लोग नहीं जुडे़ हैं चाहे बिहार के चारा काण्ड में सचिव कपूर, बम्बई बम्ब धमाकों में (सन 1993) में आत्महत्या करने वाला 'खुराना’, पुर्लिया हथियार ड्रोपिंग काण्ड में दिल्ली का 'गुलाटी’, किक्रेट सटटों में 'चावला’, टेलीफोन काण्ड में रोहतक का 'धवन’, सटटा किंग 'मदान’, कमीशनखोर कर्नल 'जोहल’, 'गगनेजा’, 'चौपड़ा’ व 'चडढा’ आदि। पेपर लीक मामलों में 'कालरा’ व 'बिन्द्रा' आदि। तकनीकी शिक्षा


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में रिश्वतखोर 'भाटिया', नकली सर्टिफिकेट रैकेट में 'कालरा’, नकली हस्ताक्षर में एक साथ दो 'मुदगिल’, मारुति के घोटालों मे 'कोहली’ डी.पी.एस. एम.एम.एस काण्ड में 'बजाज’, पर्चा लीक में 'मेहरोत्रा’ और 'चुघ’ और डाकघर घोटालों में 'बतरा’, भ्रष्टाचार के नायाब तरीकों में 'चौपड़ा’, डी.डी.ए. के घपलों में 'खटटर’ व एम.सी.आई. में धोखाधड़ी के मामलों में 'नैय्यर’ और 'चौपड़ा जी’ आज का ताजा समाचार (30-8-2007 प्रेस में बैठै-बैठै) दिल्ली में मैडम उमा खुराना अपने ही स्कूल की लड़कियों की अश्लील एस.एम.एस. बनाते हुए पकड़ी गई, जिसके कारण अभिभावक सड़कों पर आ गए हैं। बाद में यह रिपोर्ट अर्थात स्टिंग आप्रेशन झूठा निकला। लेकिन यह स्टिंग आप्रेशन करने वाले भी इनके भाई वीरेन्द्र अरोड़ा थे। इन भाई लोगों ने एक से बढ़ कर एक घोटाले किए हैं। पाठकों को याद होगा कि तत्कालीन पंजाब के गवर्नर सुरेन्द्रनाथ (मल्होत्रा) का हवाई जहाज जो हिमाचल की पहाडि़यों में दुर्घटनाग्रस्त हुआ तो पहाडि़यों पर नोट पर नौट बिखर गए। जब उसके घर पर जांच हुई तो उसके बैडरूम से 600 करोड़ रुपये की अकूत सम्पत्ति बरामद हुई। लेकिन उनके बेटे जम्मू में तत्कालीन जिलाधीश ने कहा कि वे अपने पिता जी से कई सालों से नहीं मिले हैं। इसके बाद दूसरे पूर्व राज्यपाल श्री छिब्बर एक आर्थिक घोटाले में अपने सहयोगियों छाबड़ा व दो साहनियों के साथ जेल ही चले गए। इतने बड़े व्यक्ति और वरिष्ठ अधिकारी होते हुए भी इन्हें घपला करने में कोई शर्म नहीं है। वहीं दूसरी ओर इसी वर्ग से अभिनय बिन्द्रा निशानेबाजी में ओलिंपिक गोल्ड मैडल लेकर आया तो बेचारी दिल्ली पुलिस इसको सम्मान मिलने तक इसके पिता जी ए.एस. बिन्द्रा की काली करतूतों को छिपाए बैठी रही और अंत में धारा 420 के तहत उसके फार्म हाउस से गिरफ्तार करना पड़ा और कहा कि उन्हें एक आर्थिक अपराध के कारण गिरफ्तार करना पड़ा। ये लोग आर्थिक अपराध ही तो करते हैं, मार पिटाई व कत्ल तो बहुत कम। लेकिन हमारे बच्चे इनकी देखा-देखी में पैसा कमाने के चक्कर


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में कत्ल तक भी कर देते हैं।

अशोक भरानी ने 12 लाख का हीरा चोरी करके खा लिया जिसे बाद में आप्रेशन करके निकाला गया। (आज तक टी.वी. 21-1-2008) ये लोग पैसा कमाने के लिए इतने अंधे हो चुके हैं कि हर बात में सौदाबाजी करते हैं। इण्डिया टी.वी. ने बतलाया कि अम्बाला में उमेश साहनी अपनी दुकान “लवली फूड प्लाजा अम्बाला” से बराती, नाती और भाती सभी किराए पर देते हैं। वह दिन दूर नहीं जब ये लोग दुल्हा और दुल्हन को भी किराये पर देने लगेंगे। इतिहासकार तो यहां तक लिखते हैं कि अंग्रेजों ने हिन्दू पंजाबी अमीचन्द की कोठी पर रहकर नवाब सिराजुदौला के खिलाफ षडयन्त्र रचा जिस कारण अंग्रेज नवाब और फिर भारत को जीत पाए। इसलिए प्रख्यात पत्रकार खुशवन्त सिंह ने एक दिन मजाक में कहा था -

  • इन लोगों से हाथ मिलाने के बाद अपनी उंगलियों को गिन लेना चाहिए अर्थात इनको मौका मिले तो हाथ मिलाने के बहाने आपके हाथ की उंगुलियों में से किसी उंगली को रख लेंगे।

मैंने आज तक इनके किसी शहीद की अर्थी हरयाणा में आते न तो देखी है और न ही ऐसा कभी सुना। लेकिन टुटेजा साहब ने यह नहीं बतलाया कि अधिकतर सेना के जर्नल व दूसरे ऊंचे-ऊंचे पदों पर तथा न्यायपालिका तक पर इन्होंने कब्जा कैसे कर लिया? यदि प्रमाण नहीं हैं तो हम देंगे कि पूरे भारत में भी नौकरी में कौन कितने हैं? उदाहरण के लिए सन 1990 में भारत में कुल 2483 आई.ए.एस अधिकारियों में से 204 अरोडा खत्री पंजाबी थे। जबकि हिन्दू जाट मात्र 14 थे। अब ये कहेंगे कि यह सभी योग्यता के कारण है, तो सिपाही की भी कोई योग्यता तो होती होगी?


जहां तक जाटों का राजाओं से सम्बन्ध की बात का इतिहास है,आपके ही 'पजांब केसरी’ के अंक दिनांक 25-9-02 में आदरणीय सम्पादक 'चौपड़ा' साहब के सम्पादकीय का अवलोकन करें जिसमें वे लिखते हैं कि जाटों जैसा गौरवशाली इतिहास ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। तो क्या चौपड़ा साहब झूठ बोले या आप? दोनों मिल-बैठकर


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फैसला कर लें? मैंने इसका उल्लेख पीछे 13वें लेख में किया है। टूटेजा साहब ने तो हमारे इतिहास पर ही धावा बोल रखा है। फिर मुझे सच कहने का अधिकार क्यों नहीं? दूसरा इन्होंने लिखा कि जाट तो 'जिसकी लाठी उसकी भैंस’ वाली बात करते हैं। क्या यही शिकायत हिन्दू-पंजाबियों की पंजाब में सिखों के विरुद्ध नहीं है? मैंने 6 साल यह बात पंजाब में हिन्दू-पंजाबियों के मुंह से सुनी है। वास्तव में लाठी और भैंस आज दोनों ही इस वर्ग की हैं। जब चाहे जिसको खरीद लेते हैं और जब चाहे बेच देते हैं। लेकिन टूटेजा साहब का यह प्रचार करके दूसरी जातियों को जाटों के विरुद्ध करने के उद्देश्य से है। लेकिन यह उद्देश्य उनका कभी पूरा नहीं होगा क्योंकि हम सदियों से एक साथ रहते आये हैं, सन् 1947 से नहीं।

हमारी एक जुबान और संस्कृति है और भी हमारा बहुत कुछ एक है। हमारी एकता को हमने समय आने पर हमेशा सिद्ध किया है और आगे भी करेंगे। आपसे केवल कहने को हमारा हिन्दू धर्म मिलता है इसके अलावा कुछ नहीं।

इसमें कोई संशय नहीं कि आने वाला कुछ समय इसी भापा समाज का होगा। इसीलिए तो सरदार राजेन्द्रसिंह 'नीज्जर' ने इंग्लेण्ड से ठीक ही कहा है कि ये लोग इस कलयुग के शासक हैं। इस बारे में हमारे पास निज्जर साहब की वेबसाइट की पूरी रिपोर्ट उपलब्ध है। इसी प्रकार भूतपूर्व प्रो० सुरेन्द्रकुमार ओहल्याण कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय ने भी ऐसी ही हकीकत को अपने लेख में उजागर किया तो इस पर टूटेजा साहब को बड़ा कष्ट हुआ और इस पुस्तक में उसका उल्लेख भी किया है। लेकिन फिर भी सच्चाई को कबूल नहीं करते? पूरा देश और इसके नेता कहते हैं कि इस देश में दो ही वर्ग हैं एक लुटेरा और दूसरा कमेरा। फिर टुटेजा जी बतलायें कि यह लुटेरा वर्ग कौन सा है?

(2) चौ० छोटूराम की दूसरी मुख्य शिक्षा थी कि जाटो तुम संतोषी मत रहो, मैं तुम्हें कर्म में जूझते हुए देखना चाहता हूँ ताकि तुम अपने हक के लिए लड़ सको। लेकिन यह शिक्षा भी हम


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चौधरी साहब की मृत्यु के ढाई साल पश्चात ही भूल गये और जब सन् 1947 में देश आजाद हुआ तो हमने संतोष कर लिया कि हमने सब कुछ पा लिया है। लेकिन जिस आजादी के लिए जाटों ने सन् 1857 से खून बहाया है, उसकी कीमत हम वसूल नहीं कर पाये। वहीं पं. नेहरू जिसने सन् 1947 से पहले कहा था कि दिल्ली के आसपास चारों ओर जाट एक ऐसी बहादुर कौम बसती है वह यदि आपस में मिल जाये और चाहे तो दिल्ली पर कब्जा कर सकती है। दिल्ली पर कब्जा तो दूर जाट, केन्द्रीय सरकार में एक मंत्री के पद तक कब्जा नहीं कर पाये और इसके लिए 20 साल तक इंतजार करते रहे। जब तक पं. नेहरू जीवित रहे उसी कौम को केन्द्रीय सत्ता के नजदीक कहीं फटकने भी नहीं दिया, लेकिन जाट तो शिवजी की तरह संतोषी हो गये और अपना हक मांगना ही भूल गये। केन्द्र सरकार में पं० नेहरू ने सरदार बलदेवसिंह को रक्षामंत्री बनाया लेकिन उनको एक जाट के तौर पर नहीं, बलिक एक सिक्ख प्रतिनिधि के तौर पर बनाया था। श्रीमती इन्दिरा गांधी ने प्रथम बार प्रो० शेरसिंह तथा चौ० सुरेन्द्रपालसिंह (उत्तर प्रदेश) को सन 1967 में राज्यमंत्री के तौर पर अपनी मंत्री परिषद में सम्मिलित किया तथा चौ० बंसीलाल को सन् 1975 में कैबिनेट मंत्री के तौर पर। अभी-अभी कंवर नटवरसिंह को मंत्रिमण्डल से हटाया तो सोनिया गांधी ने अन्थोनी को नया मंत्री बनाया, किसी जाट को नहीं। फिर जाट आज तक भी भयंकर संतोषी बने रहे, यहाँ तक हमारी दिल्ली लुटती रही और हम तमाशबीन बने रहे। हमारे रोजगार उजड़ते रहे और उसकी कीमत पर लोग करोड़पति बनते रहे, लेकिन इन सभी बातों का कभी हमने मूल्यांकन नहीं किया। वास्तव में पं० नेहरू के कहने का उद्देश्य था कि जाटों को दिल्ली में अल्पसंख्यक बना दिया जाए नहीं तो आने वाले समय में ये पूरी दिल्ली पर कब्जा कर लेंगे और आज उनका मकसद पूरा हो गया, जो दिल्ली की सरकार व केन्द्र की सरकार की बनावट से स्पष्ट है। इसलिए तो चौ० छोटूराम ने कहा था-


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खुदा ने आज तक उस कौम की हालत नहीं बदली।
जिसने न ख्याल आया हो अपनी हालत को बदलने का।।

जाटों के साथ पक्षपात के कुछ उदाहरण

(क) जैसे कि मैंने ऊपर लिखा है, अंग्रेजी सरकार ने सन 1856 में सेना में बहादुरी का सर्वोच्च पुरस्कार विक्टोरिया क्रास आरंभ किया जो सन 1947 तक 1346 वीर सैनिकों को दिये गये जिसमें 40 भारतीयों के हिस्से में आये और इनमें से 10 जाटों के नाम हैं अर्थात अंग्रेजों ने जाटों की बहादुरी पर उनके साथ पूरा-पूरा न्याय किया। लेकिन सन 1950 से 2001 तक भारतीय सरकार ने 40 ही भारतीयों को भारत रत्न से सम्मानित किया जिसमें नाचने, गाने, बजाने वालों व पं. नेहरू का लगभग समस्त खानदान सम्मिलित है लेकिन आज तक किसी भी जाट को इसके योग्य नहीं पाया। जबकि चौ० छोटूराम किसी भी प्रकार से नेहरू खानदान से निम्न नहीं थे। निम्न की बात तो छोड़ो, पं० नेहरू से चौ० छोटूराम हर मामले में आगे थे। पीछे थे तो पैसे में और मीडिया के कारण, जो स्वाभाविक था। मीडिया का बर्ताव ऐसा ही चौ० चरणसिंह के साथ था। इसलिए सन 1979 में तंग आकर उन्होंने कहा था 'काश! मैं ब्राह्मण होता।’ एक बार एक पत्रकार ने चौ० साहब से प्रश्न किया, 'आप प्रधानमन्त्री क्यों बनना चाहते हैं? तो चौ० साहब ने पत्रकार से उलटा सवाल पूछा, 'क्या आप पत्रकार से सम्पादक नहीं बनना चाहते?’ सन् 2005 में चौ० भूपेन्द्र सिंह हुडडा हरियाणा के मुख्यमन्त्री बनने पर कुछ जातियों ने कहना शुरू कर दिया कि सरकार नहीं बदली केवल टांगे बदली हैं और इन लोगों के उस दिन घर पर चूल्हे तक नहीं जले।

चौ० चरणसिंह भारत के गृहमंत्री, वित्तमंत्री तथा प्रधानमंत्री पद तक रहे और उन्होंने भारतीय ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था नीति पर आधारित एक पूरे साहित्य की रचना की जो 18 पुस्तकों के रूप में आज भारतवर्ष के विभिन्न पुस्तकालयों में धूल चाट रही हैं। जबकि इसी के अध्याय इंग्लैण्ड के आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाये जा रहे हैं। (प्रमाण उपलब्ध हैं)।


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इन्होंने ही कहा था - देश की खुशहाली का रास्ता गांव व खलिहानों से होकर गुजरता है। चौधरी देवीलाल भारत के कैबिनेट मंत्री रहे और दो बार उपप्रधानमंत्री रहे। उन्होंने इस देश की बाहुल्य जनसंख्या के हित में ऐसे कानून बनवाये जिनके बारे में कभी किसी भारतीय अर्थशास्त्री ने सोचा भी नहीं था। इन्होंने कहा था, लोकलाज से ही लोकराज चलता है। चौ० बंसीलाल भारतवर्ष में एक माडल प्रशासक के रूप में चर्चित रहे। चौ० बलदेवराम मिर्धा, प्रतापसिंह कैरों तथा प्रकाशसिंह बादल आदि जैसे महान नेताओं को इसके योग्य नहीं समझा जबकि आसाम के पूर्व मुख्यमंत्री पं० गोपीनाथ बरदोलाई, डा० भगवानदास तथा जी.बी. पंत (सभी ब्राह्मण) आदि तक को यह सम्मान दे दिया गया।

इसीलिए तो चौ० छोटूराम ने नवम्बर सन 1929 को रोहतक में अपने भाषण में कहा था कि हम गोरे बनियों का शासन बदलकर काले बनियों का राज नहीं चाहते, हम चाहते हैं कि भारतवर्ष में किसान मजदूर का राज हो। यही बात इससे पहले अमर शहीदभगतसिंह ने भी कही थी। इस प्रकार उनकी कही बात सत्य सिद्ध हो रही है। केवल 'भारत रत्न’ ही नहीं, जाटों के साथ हर क्षेत्र में पक्ष-पात हो रहा है। चाहे चीन की लड़ाई हो या कारगिल की लड़ाई, चाहे भारत सरकार की नौकरियों की बात हो या फिर प्राइवेट सेक्टर की। कारगिल की लड़ाई को ही देखिये कि जाट रजिमेण्ट में दूसरी जाति के अफसरों को तो बड़े-बड़े बहादुरी के पुरस्कार दिये गए जबकि सिपाहियों को नहीं। क्या अफसर बगैर सिपाहियों के ही लड़ रहे थे? इस सबका कारण भी हम जानते हैं। क्योंकि सेना में भी उच्च अधिकारी इसी भापा वर्ग से बढ़ते जा रहे हैं। हमारा ऊंची नौकरियों में क्या हिस्सा है, एक नजर डालें? हम सभी जानते हैं कि आज देश की नीति का निर्धारण आई. ए. एस. अधिकारी ही करते हैं। मोहर मंत्रिमंडल अवश्य लगाता है-

सन् 1990 में कुल 2483 आई.ए.एस. अधिकारी देश में थे जिनमें 675 ब्राह्मण, 353 कायस्थ, 317 अग्रवाल, 228 बैकवर्ड, 213 राजपूत,


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204 अरोड़ा-खत्री, 54 मराठे, 47 मुस्लिम, 37 ईसाई, 298 अनसूचित जनजाति, 31 सिक्ख-जाट, 14 हिन्दू जाट, 6 गुर्जर, 3 सैनी, 1 रोड, 1 बिशनोई, 1 बाल्मीकि कुल - 2483 जिसमें शहरी क्षेत्रों से 2350 तथा ग्रामीण क्षेत्र से मात्र 133 हैं। जहां भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या रहती है। केन्द्र में ब्राह्मण जाति की अवस्था सन 1990 में इलाहाबाद पत्रिका अंक 1-11-1990 के पेज नं० 4 के अनुसार इस प्रकार थी -

'तालिका
पद कुल ब्राह्मणों की संख्या प्रतिशत
गवर्नर-लै०, जनरल 27 18 65
सचिव 24 13 56
मुख्य सचिव 26 13 50
केन्द्रीय मन्त्री (कैबिनेट) 18 9 50
राज्यमन्त्री व उपमन्त्री 49 34 71
सभी केन्द्रीय मन्त्रालयों में सचिव 500 310 64.5
वाइस चांसलर 98 50 52
हाईकोर्ट व सह-जज 336 169 50
राजदूत-कमिश्नर 140 58 41.8
पब्लिक इन्टरप्राइस 158 91 57

नोट -याद रहे भारत में ब्राह्मण जाति कुल 3 प्रतिशत है । यह आंकड़ों का कमाल पं० नेहरू की देन है। लेकिन हर कहानी को गरीब ब्राह्मण था कहकर क्यों आरम्भ किया जाता है? इस आदत पर एक बार पाठक भी विचार तो करें? फिर भी ब्राह्मण किस प्रकार गरीब हैं?

हरयाणा राज्य के सन् 1990 के आंकड़े तो इससे भी अधिक चौंकाने वाले हैं, जबकि हरयाणा को जाटों का गढ़ कहा जाता है। हरयाणा में जातिवार राजपत्रित अधिकारियों की संख्या इस प्रकार थी -


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तालिका
जाति जातिवार जनसंख्या (%) राजपत्रित अधिकारी
जाट 27 (मूला व सिख जाट मिलाकर 32) 10.90
ब्राह्मण 7 (मुश्किल से) 11.76
पंजाबी अरोड़ा खत्री 8 36.90
बिश्नोई 0.7 0.88
अग्रवाल व्यापारी 5 15
मेव 2 0

लेकिन हरयाणा का जाट आरक्षण के बारे में फिर भी योग्यता की बात करता है तो बड़ी मूर्खता है। जबकि आज केन्द्र में एक भी सचिव जाट जाति का नहीं है, फिर भी जाट आरक्षण को न समझे तो बड़ी भारी भूल है। हरियाणा के जाटों की आरक्षण की मांग को देखकर ब्राह्मणों व अरोड़ा खत्री कहे जाने वालों ने, जो पहले आरक्षण का विरोध कर रहे थे, आरक्षण की मांग कर डाली। हम चाहते हैं कि उनको जाति की संख्या के आधार पर आरक्षण दे दिया जाए लेकिन एक भी ज्यादा नहीं। इसी प्रकार तकनीकी शिक्षा में देहातियों का हिस्सा 32 प्रतिशत है लेकिन शहरियों का 68 प्रतिशत है जो एकदम उल्टा है इसलिए तो चौ० छोटूराम ने कहा था कि सबसे बड़ा अजूबा तो यही है कि 15 प्रतिशत लोग 85 प्रतिशत लोगों पर राज करते हैं। मेरा निजी अनुभव है कि केन्द्रीय सरकार की अधिकारियों की भर्ती में भी भारी गोलमाल होता है। इस बात को विभिन्न परीक्षाओं में साक्षात्कार के नतीजे निकलवाकर ही प्रमाणित किया जा सकता है। इसलिए हम लोगों को अधिक से अधिक सूचना अधिकार का प्रयोग करना चाहिए।

(ख) जब मुलायमसिंह यादव भारत के रक्षामंत्री थे तो पहले उन्होंने अहीर रजिमेण्ट बनाने का रास्ता तलाशा और जब उसमें सफल नहीं हुये तो उन्होंने अभियान चलाया कि जातिवाद पर आधारित सेना की रजिमेण्ट खत्म कर दी जायें। जबकि सच्चाई यह है कि भारत में केवल जाति के नाम जाट और राजपूत रजिमेण्ट हैं। इसके अतिरिक्त जितनी भी


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रजिमेण्ट हैं वे क्षेत्र के आधार पर हैं न कि जाति के आधार पर। उदाहरण के लिए डोगरा रजिमेण्ट। जम्मू क्षेत्र में मानसर व सानसर दो झील हैं, इनके बीच रहनेवाले लोगों को डोगरा कहा गया जो संस्कृत के शब्द ‘द्वीप’ से बिगड़कर बना, जिसका अर्थ है कि दो पानियों के बीच रहने वाले लोग। जिसमें सभी जातियां हैं। यही लोग फिर हिमाचल की पहाडि़यों तक फैल गये, जिसमें हिन्दू व सिक्ख डोगरा जाट भी हैं। इसी प्रकार मराठा, मद्रास, गढ़वाल व कुमाऊ आदि रैजिमेंटस हैं। जो सभी क्षेत्रवाद पर आधारित हैं न कि जाति पर। उत्तरांचल पहाड़ी प्रदेश के दो भाग हैं पहला ‘गढ़वाल क्षेत्र’ तथा दूसरा ‘कुमाऊं क्षेत्र’ और इसी आधार पर ये दो रजिमेंट्स भी बनी हैं जिसमें कुमाऊं रजिमेंट में अहीर जाति का आरक्षण है। सिख रेजिमेंट धर्म के नाम पर बनी है। इसी प्रकार जाटों का ‘जाट रजिमेंट’ को छोड़कर ‘ग्रिनेडियर रजिमेंट’, राज. राईफल तथा ‘आरमड रजिमेंट’ आदि में 40 प्रतिशत आरक्षण था। जो मुलायम सिंह जी ने तत्कालीन सरकार को इन रेजिमेंटों में जाटों का आरक्षण 40 से कम करके 20 प्रतिशत करने का प्रस्ताव रखा जो बाद में कांग्रेस सरकार आने पर स्वीकार हो गया। (इस तथ्य को जानने के लिए हमने सूचना के अधिकार का सहारा लिया तो यह बात सत्य पाई गई।)

(ग) इस प्रकार हम देखते हैं कि एक तरफ तो आरक्षण कम करने की बात होती रही, वहीं दूसरी ओर आरक्षण बढ़ाने की, लेकिन भारतवर्ष के किसान विशेषकर जाट किसान जो उत्तरी भारत में हजारों की संख्या में (यदि सही सर्वे किया जाये तो इनकी संख्या लाखों की होगी) आत्म-हत्याएं कर रहे हैं लेकिन इनके आरक्षण के बारे में आज तक सरकार ने कभी नहीं सोचा। जबकि खुद सरकार के एग्रिकल्चर कमीशन (Agriculture Commission) ने रिपोर्ट दी की जिस किसान की जोत दस एकड़ से कम है वह घाटे का धंधा है तथा सरकारी सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि 40 प्रतिशत किसान यह धंधा करना नहीं चाहते जबकि सच्चाई यह है कि आज शायद ही कोई किसान इस घाटे के धंधे को करना चाहता हो।


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वास्तव में इसके पीछे एक गुप्त प्रचार है, जिससे जाट व किसान भूमि का मोह त्याग दें। इन्हें जमीन की कीमत का लालच देकर आसानी से जमीन को अधिगृहीत व हथियाया जा सके और आनेवाले समय में ये मजदूर बनकर रह जायें। यह बड़ी गहरी चालें हैं। इन्हें हमे समझना होगा। यह विकास के नाम से हमारा (जाट किसानों का) विनाश है। पहले हम साहूकारों के गुलाम थे, अभी बैंकों के गुलाम हैं। रहे गुलाम के गुलाम। यही बैंक आज किसान मजदूर की कीमत पर साहूकारों के लिए चल रहे हैं। पं. नेहरू ने देश आजाद होते ही जमीन सरप्लस होने का कानून बनवाया जिससे किसानों की जमीन सरप्लस होती रही और किसान भूमिहीन व बेरोजगार होते रहे, लेकिन क्या कभी किसी अरबपति का एक पैसा भी दूसरे के लिए सरप्लस हुआ है? आज श्री मनमोहनसिंह जी सेज (SEZ) का जो अलाप कर रहे हैं ये सब बड़े व्यापारियों व विदेशी कम्पनियों के लिए है। किसानों के लिए इसका अर्थ है (Suck Every Zamindar) अर्थात् प्रत्येक किसान को चूस लो। किसान को उसकी फसल की कीमत देने को तैयार नहीं। परिणामस्वरूप किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। मैं यहाँ गाँव मानकावास जिला भिवानी हरयाणा के आंकड़े पेश कर रहा हूँ -

  • (i) लगभग गाँव में कुल परिवार - 660
  • (ii) लगभग गाँव में जाट परिवार - 460
  • (iii) 18 दिसम्बर 1992 से 31 दिसम्बर 2005 तक - 460
  • गाँव में कुल आत्महत्याएं - 28
  • (iv) सभी आत्महत्या करनेवालों की आयु 18 से 45 वर्ष तथा 28 में से 26 व्यक्ति बेरोजगार थे।
  • इस अवधि में जाटों को छोड़ किसी अन्य जाति के व्यक्ति ने कोई आत्महत्या नहीं की।


सभी ने सल्फास तथा एल्ड्रीन खा व पीकर आत्महत्याएं कीं, जो दोनों फसल की दवाइयां हैं। कानूनी पचड़ों से बचने के लिए कई बार कहा


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गया कि गलती से सल्फास की गोली व एलड्रीन पी ली गई, जबकि ऐसा होना बिल्कुल असंभव है। क्योंकि दोनों ही दवाइयां बेहद कड़वी हैं जो गलती से भी कोई व्यक्ति अन्दर नहीं गटक सकता है। ऐसी भी आत्महत्याएं हैं जिनको पेट दर्द या छाती दर्द बोलकर श्मशान घाट पहुंचा दिया जाता है। आम तौर पर प्रचार किया जाता है कि शराब पीकर या गोली खाकर मर गया। लेकिन इस बात पर कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं किया जाता कि गांव के जाट का 22 साल का लड़का आज क्यों इतनी शराब पीने पर मजबूर हो गया है? इसका मुख्य कारण आर्थिक तंगी और बेरोजगारी ही है जिसमें सबसे पहले बेरोजगार के जीवन में हताशा पैदा होती है फिर यही हताशा एक दिन निराशा में बदल जाती है, जिसका सीधा रास्ता आत्महत्या की तरफ खुलता है। एक बड़ी आम कहावत है ‘टोटे में तो लठ ही बजते हैं।’ इस सभी के पीछे सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी, सरकार की ‘उदार आर्थिक नीति’ व WTO (वर्ल्ड ट्रेड ओर्गेनाईजेशन) जिसे मैं Workers Totally Out अर्थात् सरकार की वह नीति जिसमें कमेरे वर्ग को पूर्णतया बाहर कर दिया गया, कहता हूँ। इसी से बहुत सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि जब एक साधारण जन-संख्या वाले गाँव में इस नीति के लागू होने के बाद से (सन् 1991) 28 जाट किसानों के लड़कों ने आत्महत्याएं कीं तो फिर 35000 गाँवों व कस्बों में कितने जाटों ने व दूसरे किसानों ने आत्महत्याएं की होंगी। इस उदार आर्थिक नीति को सरदार मनमोहनसिंह कोहली (सिक्ख खत्री पंजाबी) ने सन् 1991 में लागू किया जब वे श्री नरसिंह राव (तेलगू-ब्राह्मण) के प्रधानमंत्री काल में वित्तमंत्री थे। यह उदार नीति केवल बड़े व्यापारियों के लिए ही उदार है, छोटे व्यापारी, किसान व मजदूर के लिए नहीं। क्योंकि हमारे प्रधानमन्त्री श्री मनमोहनसिंह कोहली के पिता जी सूखे मेवों के व्यापारी थे न कि किसान व मजदूर। इसलिए इन्होंने किसानों की सब्सिडी समाप्त करके किसानों के साथ विश्वासघात किया और इसका लाभ खाद बनाने वालों को दिया गया। हम जानते हैं कि


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आज (अगस्त सन् 2007) भारत सरकार के पास 222 लाख अरब रुपये की विदेशी मुद्रा का भण्डार है जिससे सरकार अनाज व आधुनिक हवाई जहाज खरीद रही है जिससे आज न तो भारतीय किसान की आवश्यकता रहेगी और न ही भारतीय जवान की। यह तो कारगिल युद्ध था जिसमें पैदल सेना जवान के महत्त्व का फिर से पता चला, वरना कहना शुरू कर दिया था कि आज के युग में ऐसे आधुनिक हथियार आ गए हैं कि पैदल सेना का कोई विशेष महत्त्व नहीं रहा है। लेकिन जवान की कहानी भी ऐसी ही है जैसे किसान की। वह हताश होकर आत्महत्या कर रहा है या फिर अपने ऊंचे अधिकारी को मार रहा है। किसान की भूखमरी का सबसे बड़ा कारण उसकी मेहनत न देना अर्थात् फसल की कीमत न मिलना, उसकी लागत बढ़ना और सब्सिडी समाप्त करना है जबकि अमेरिका अपने किसान को 160 प्रतिशत तक सहायता कर रहा है।

गैरों के राज में था गुलामी का रंज।
नाकों चने चबा दिये, अपनों के राज ने॥

शेयर सूचकांक से भारतीय किसान व मजदूर को कुछ लेना-देना नहीं, चाहे वह 20 हजार का आंकड़ा पार करे। देश की आर्थिक विकास दर चाहे आज 8.1 प्रतिशत को पार कर गई हो, लेकिन किसान व मजदूर का आर्थिक विकास तो आज तक 3 प्रतिशत का आंकड़ा भी नहीं छू पाया है। इस सबके लिए वर्तमान व्यवस्था दोषी है। इस व्यवस्था को बदलना ही एकमात्र उपाय है जो कठिन जरूर है लेकिन असंभव नहीं। हमने पहले तीनों संस्करणों में लिखा था कि यह आर्थिक व्यवस्था दोषी है। अब यही शेयर सूचकांक सन् 2008 में धड़ाम से 10 हजार से भी नीचे आ गया और देश में ‘सत्यम्’ जैसे घोटाले उजागर हो रहे हैं। मनमोहन सिंह की अर्थव्यवस्था का दम घुट रहा है। देश आर्थिक मंदी के दौर से गुजर रहा है, रास्ता मिल नहीं पा रहा है। बड़े व्यापारियों को पैकेज पर पैकेज दिये जा रहे हैं। वरना सरकार किसानों को एक पैकेज देकर भी अहसान जता


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रही थी और जबकि सन् 1991 में किसानों पर आयकर लगाने पर विचार किया जा रहा था। इस सबका उपाय केवल क्रान्ति है।

जाटो ! यह खामोशमिजाजी तुम्हें जीने नहीं देगी ।
इस दौर में जीना है तो कोहराम मचा दो ॥


जब सन् 1991 में उदार आर्थिक नीति केन्द्रीय सरकार ने लागू की थी तो हमारा देश ‘भारत’ और ‘इंडिया’ में बंटने लगा और अभी वह समय आ गया जब इसी ‘इंडिया’ में से एक नये ‘यूरोप’ का निर्माण होने लगा। सन् 2003-04 के आर्थिक आंकड़े बतला रहे हैं कि दिल्ली की Per Capita Income 51644 रुपये थी तो चण्डीगढ़ की 57621 रुपये जो किसी भी यूरोपीय देश की Per Capita Income से कम नहीं है। यह सारा पैसा लगभग एक लुटेरी संस्कृति के पास जाने लगा। हालांकि इसी साल (2005) हरयाणा की Per Capita Income 29963 रुपये थी जो भारत के किसी भी राज्य से अधिक थी। लेकिन इस आमदनी का मुख्य कारण गुडगाँव का उद्योग था, जहाँ से इसी वर्ष 1600 करोड़ से भी अधिक का माल विदेशों में भेजा गया। बाकी ग्रामीण हरयाणा की आय तो पूरे बिहार राज्य की आय 6213 रुपये से भी कम 5247 रुपये बनेगी। फिर राजस्थान की क्या दयनीय हालत होगी इसका सहज से अन्दाजा लगाया जा सकता है। मेरा कहने का अर्थ है कि यहाँ भी यहूदियों व यूरोप वाली स्थिति बनती जा रही है कि सारा पैसा एक ही वर्ग के पास इकट्ठा होता जा रहा है। लेकिन यहाँ का किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। इन आत्महत्याओं का एक दूसरा उदाहरण देखिये कि किस प्रकार किसानों के द्वारा पैदा किया गया गेहूँ तथा दूसरी ओर सरकार व कारखानों द्वारा पैदा की गई वस्तुओं के दाम किस गति से बढ़ेः-

तालिका
वस्तु सन 1947 के भाव सन् 2006 के भाव कितने गुणा बढ़े
गेहूं 24 रु. क्विंटल 650 रु. क्विंटल औसतन 27गुणा
सीमेंट 3 रु. बैग 200 रु. बैग औसतन 66 गुणा
सोना 100 रु./ 10 ग्राम 10000 रु./10 ग्राम औसतन 100 गुणा
डीजल 4 आना (25 पैसे) लीटर 32 रुपये लीटर औसतन 128 गुणा
लोहा 20 रु. क्विंटल 3000 रु. क्विंटल औसतन 150 गुणा

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इसी प्रकार दूसरी वस्तुओं के दाम बढ़े जो कारखानों व सरकारी नियंत्रण के अधीन तैयार की जाती हैं। लेकिन किसान के उत्पादन के भाव में न्यूनतम बढ़ौतरी हुई और उसके वास्तविक लाभ को दलाल और बिचौलिये किस प्रकार खाते हैं एक उदाहरण देखिए - सन् 2005 में किसान ने फसल के समय प्याज 4 रु. प्रति किलो की दर से बेचा लेकिन वही प्याज बाद में बाजार में 25 रु. से 50 रु. किलो से भी अधिक बिका। इसी प्रकार टमाटर व दूसरी सब्जियों का हाल है। इन सब्जीमण्डियों में कौन व्यापारी हैं जरा पाठक गौर फरमायें? यही कारण है कि आज किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो बिचोलिये (दलाल) शोरूम पर शोरूम बनाते जा रहे हैं। इसके लिए कौन जिम्मेवार है? जिन किसानों व कृषिवैज्ञानिकों ने देश में हरितक्रांति को जन्म दिया उन्हें क्या हाथ लगा? आज इसी कृषिवैज्ञानिक की दशा एक कारपोरेट के साधारण एम.बी.ए. कर्मचारी से भी बदतर है। पाठकों को याद दिला दें कि हमारे देश में अनाज की कमी के कारण सन् 1965 में एक दिन व्रत रखा जाता था अर्थात् होटल बन्द रहते थे। प्रतिवर्ष 480 करोड़ रुपए अनाज का आयात किया जाता था तथा आस्ट्रेलिया व अमेरिका से भीख के तौर पर अलग से अनाज मिलता रहा। इसी गेहूं ने हमारे यहां विदेशी खरपतवार को जन्म दिया और अपने साथ कई विषैले घास लेकर आई और आज इसी विषैले घास ने उत्तर भारत की 15 प्रतिशत भूमि पर कब्जा कर लिया है। जिसे प्रायः कांग्रेस-घास] कहा जाता है। सन् 1970 से इस देश के कृषिवैज्ञानिक तथा किसान ‘हरितक्रांति’ लाए तथा सन् 1970 से सन् 2005 तक देश का अरबों रुपया बचाया तथा अनाज निर्यात करके करोड़ों रुपयों की विदेशी मुद्रा कमाई। लेकिन फिर भी किसान खाली हाथ क्यों? यह पैसा कौन खा गया? क्या सरकार के पास कोई जवाब है? हमारे देश में पूंजीवाद का दो नम्बर का काला धन जो अन्याय से कमाया


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जाता है, धर्मखाते में जाते ही श्याम श्वेत बन जाता है। लेकिन किसान खाली ही रह जाता है। यह देश फिर भी विदेशी ऋणों पर चलता रहा। फिर मनमनोहन सिंह ने ऐसी अर्थव्यवस्था चलाई जिसका अधिक लाभ उसी वर्ग को हुआ जो निर्यात व आयात का काम करता है या फिर बिचौलिये हैं। इन लोगों ने हरित क्रान्ति का 90 प्रतिशत लाभ गटक लिया और विदेशी ऋणों का भुगतान किसानों की सब्सिडी काटकर किया जाता रहा है। अभी सरकार कहती है कि दूसरी ‘हरितक्रान्ति’ लाओ लेकिन पहले वाली ‘हरितक्रान्ति’ की कमाई का किसानों को हिसाब तो दो। इस कमाई से उत्तर भारत के हर किसान के घर एक मर्सडीज़ बैन्ज़ कार होती, लेकिन यहां तो 80 प्रतिशत जाट किसान कर्जदार हैं और ये तो पहली वाली ‘हरितक्रान्ति’ का परिणाम है। दूसरी ‘हरितक्रान्ति’ के लिए दूसरी शर्त हो कि कृषिवैज्ञानिक श्री स्वामीनाथन की सिफारिशों को केन्द्र सरकार बगैर देरी के लागू करे जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण किसान की उपज की कीमत है। किसान की फसलों का बीमा हो, किसान किसी भी प्राकृतिक आपदा पर अपनी ही सरकारों से इस प्रजातन्त्र में कब तक भीख मांगते रहेंगे? क्या किसानों को सरकार से भीख मांगने की आजादी है? यदि यही हालात रहे तो 30 साल बाद कोई खेती करने वाला नहीं मिलेगा। सभी किसान-सभाओं को चाहिए कि वे केन्द्र सरकार को अल्टीमेटम दें कि यदि केन्द्र सरकार इनकी बातें नहीं सुनेगी तो किसान 15 अगस्त या 26 जनवरी का दिन काले दिवस के रूप में मनाएंगे तथा इसी दिन अपनी क्रान्ति की घोषणा करें। लेकिन मेरी समझ से यह दूर है कि क्रांतिकारी किसान-नेता चौ. महेन्द्रसिंह टिकैत सरीखे जाट कैसे यह सब सहन करते जा रहे हैं। यदि शिवसेना हो सकती है तो ‘किसान-सेना’ या ‘जाट-सेना’ क्यों नहीं?

जिस खेत में दहकां को मुयस्सर न हो रोजी।
उस खेत के हर खोशए गन्दुम को जला दो॥

इससे भी बुरी हालत हमारे शिक्षित बच्चों की हो रही है जिन्हें


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दिल्ली, गुडगाँव, फरीदबाद व नोयडा आदि में योग्य होते हुए भी व्यापारिक संगठनों में नौकरी के लिए साफ-साफ मना कर दिया जाता है। मैं अपने निजी अनुभव से कह सकता हूँ कि हिन्दू-पंजाबी मालिक तो साफ-साफ कह देते हैं कि हमें पंजाबी या ब्राह्मणों के लड़के ही चाहियें। मैं यहाँ गुड़गांवा के उद्योग विहार फैज नं.3 में एक हरयाणवी अग्रवाल की Vipul Motors कम्पनी के आंकड़े पेश कर रहा हूँ (अगस्त 2004)

(1) कम्पनी में कुल लोग - 72

(2) अधिकारी स्तर पर - 3

(3) हरयाणा के नीचे स्तर पर - 24

(4) हरयाणा के अधिकारी स्तर पर - कोई नहीं

(5) कुल जाट - 3

इस बात का प्रमाण एन.डी.टी.वी. ने दिनांक 16-10-07 को दिया, एक सर्वे रिपोर्ट में पाया गया है कि योग्यता के नाम पर प्राइवेट सैक्टर में योग्यता को नकारा जाता है और यह योग्यता कुछ चन्द जातियों के लिए आरक्षित है। यह आंकड़ा तो हरयाणवी अग्रवाल की कम्पनी का है यदि आप हिन्दू-पंजाबी की कम्पनियों में देखेंगे तो वहाँ आपको हमारा खाता ही नजर नहीं आयेगा। कारपोरेट कम्पनियों में जाट मिलना एक असम्भव जैसा है। जमीन का मालिक किसान व जाट, जिसे आज भी मालिक होना चाहिये था, नौकर भी न रहकर भिखारी जैसा बन गया है। इस सब के लिए सरकार की नीतियां जिम्मेवार हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि जाटों के लड़के पढ़े-लिखे नहीं। यह बड़ी गुप्त चालें हैं जिन्हें हम आम तौर पर समझ नहीं पाते और फिर भी हम प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का विरोध करें तो हमारी मूर्खता के सिवाय कुछ नहीं। इसलिए हमारा कहना है कि जाट जाति सरकार की आरक्षण नीति का विरोध न करे। याद रहे जो लोग प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण का विरोध कर रहे हैं, वह सभी ब्राह्मणवाद का प्रचार है जो योग्यता के बहाने अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है, जबकि सच्चाई यह है


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आज जाट के बच्चों को दिल्ली, गुड़गांव, फरीदाबाद व नोयडा आदि में साफ तौर पर नौकरी के लिए मना कर दिया जाता है और कहा जाता है कि उन्हें हिन्दू-पंजाबी या ब्राह्मणों का लड़का ही चाहिये, चाहे जाट के बच्चे की शिक्षा व अंक अधिक क्यों ना हों। जबकि ये प्राइवेट संस्थायें अधिकतर जाट किसानों की ज़मीन पर बनी हैं। अभी सन् 2006 का एक उदाहरण देखिये कि गरिमा गोदारा नाम की लड़की ने दसवीं कक्षा में सी.बी.एस.ई. के तहत 97.6 प्रतिशत अंक प्राप्त करके दिल्ली के पहले रिकार्डों को ध्वस्त कर दिया, लेकिन इसी लड़की को दिल्ली के द्वारका में स्थापित ‘दिल्ली पब्लिक स्कूल’ ने 11वीं कक्षा में दाखिले के लिए इन्कार कर दिया कि इस लड़की का अंग्रेजी बोलने का ढंग ठीक नहीं है।

यह सब अति हो रही है। हम हमारी ज़मीन पर गुलाम बन कर रह गये हैं। इसलिए जाटों को आरक्षण नीति को लागू करने में सरकार का भरपूर सहयोग करना चाहिये तथा जाटों को चाहिये कि वे डाइवर्सिटी क्रान्ति (Diversity Revolution) को जन्म दें ‘जिसमें जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ हो और इस सिद्धान्त को भारत सरकार व राज्य सरकारों की सभी सरकारी नौकरियों में लागू किया जाये। मुझे तनिक भी संदेह नहीं है कि यदि जाट एक हो जायें और संघर्ष करें तो इसे एक क्रान्ति का रूप देकर अपने मुकाम तक पहुंचा सकते हैं। यूनान के प्रसिद्ध विद्वान् व सिकन्दर के गुरु अरस्तु ने कहा था क्रांतियाँ छोटी-छोटी बातों को लेकर नहीं होतीं। किन्तु छोटी-छोटी बातों से बड़ी क्रांति उत्पन्न जरूर होती है। लेकिन यहाँ तो छोटी और बड़ी दोनों ही बातें हैं। यदि किसान व मजदूर की सहायता में भारतीय कानून आडे़ आ रहा है तो इसे बदली करो। हमें वे कानून चाहिएं जिसमें किसान व मजदूर सर्वोपरि हो, बड़े व्यापारी नहीं। लुटेरी संस्कृति का खात्मा हो। जितना लाभ आलू के चिप्स


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बनाने वाले व टमाटर का शोश बनाने वाले उठा रहे हैं, उतना ही लाभ किसान को मिले। यदि दिल्ली में गन्ने का रस बेचने वाला स्व० गुलशन कुमार (टी. सीरिज कम्पनी का मालिक हिन्दू पंजाबी खत्री) रस बेचकर करोड़पति हो सकता है तो गन्ना पैदा करने वाले क्यों नहीं। देश में ऐसी व्यवस्था पैदा कर दी है जिससे हटकर कोई भी सोच नहीं पा रहा है और जो सोच पा रहा है वह कुछ नहीं कर पा रहा है। हमारी क्रान्ति इस शोषणकारी व लुटेरी व्यवस्था के सर्वनाश के लिए हो, अभी इस घृणित व्यवस्था के खात्मे के लिए संघर्ष, त्याग और कुर्बानी की आवश्यकता है। हमें एक बार फिर से ‘इन्कलाब के नारे’ को जीवित करना होगा। क्योंकि देश की राजनीति, व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका इस लुटेरी संस्कृति और अंधविश्वास की खोखली नींव पर टिकी होने के कारण सभी असफल हो रहे हैं। जब देश में किसी मकान को तोड़ना व बनाना या किसी पेड़ को लगाने या काटने का आदेश तक न्यायपालिका दे और उसके न्यायाधीश भी जब भ्रष्टाचार में लिप्त हों (उदाहरण के लिए न्यायमूर्ति आर.पी. सेठी हिन्दू पंजाबी खत्री जम्मू में) तो देश की व्यवस्था की हालत स्पष्ट है। जब तक इस पवित्र धरती पर लुटेरे हैं कोई भी दूसरी व्यवस्था सफल नहीं हो सकती। यही लोग आज काले धन को गठडि़यों में बांधे फिर रहे हैं। (उदाहरण के तौर पर रेड्ड़ीशन होटल के मालिक रमेश कपूर (हिन्दू पंजाबी खत्री) का काला धन 2 करोड़ 80 लाख रुपये को एक आई.पी.एस. अधिकारी ले जा रहा था जो दिनांक 25.10.06 को हैदराबाद हवाई अड्डे पर पकड़ा गया।) इस व्यवस्था का खात्मा किसान और मजदूर के एक होने पर ही संभव है। जाट कौम का भला पूंजीवाद और साम्यवाद में कभी नहीं हो सकता। जाट कौम का भला केवल समाजवाद से ही हो सकता है जो सही मायने में समाजवाद हो। नारों का


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समाजवाद नहीं। इसलिए आज हमें चौ० छोटूराम वाले समाजवाद की आवश्यकता है। पूंजीवादी तथा साम्यवादी दोनों व्यवस्थाएं अलोकतान्त्रिक तथा अनैतिक हैं। यह हमारे समझने का विषय है।

तुम अगर बिछड़े रहो, तो चन्द क़तरे ही फक़त।
तुम अगर मिल जाओ, तो बिफरा हुआ तूफान हो ॥

हरयाणा के लिए SYL का पानी

जब महान् वैज्ञानिक आईन्सटाईन से पूछा गया कि तीसरा महायुद्ध कब होगा तो उन्होंने उत्तर दिया कि तीसरा युद्ध तो पता नहीं कब होगा, लेकिन चौथा कभी नहीं होगा। तो वैज्ञानिकों ने घोषणा की कि तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा क्योंकि भविष्य में पानी की बेहद कमी होगी। जिसके लिए झगड़ा युद्ध में बदल जायेगा। पानी हर प्राणी के जीने के लिये आवश्यक है लेकिन किसान के लिए रोजी रोटी का सवाल है। हरयाणा को [Punjab|पंजाब]] से जो पानी मिलना था उस समझौते को पंजाब की कांग्रेस सरकार ने केन्द्र सरकार की छत्रछाया में निरस्त कर दिया तो मामला उच्चतम-न्यायालय के अधीन है। न्यायालय चाहे कुछ भी फैसला दे, यह निश्चित है कि पंजाब का किसान कभी पानी नहीं देगा। क्योंकि उनके लिए भी यह रोजी रोटी का सवाल है। तो फिर क्या किसान दूसरे किसान से लड़ेगा? हाँ सम्भव है, मरता क्या नहीं करता। फिर किसान को आपस में लड़कर मरने से कैसे रोका जाए। इस पर विचार करना होगा। हमने तो विचार करके एक ठोस योजना बना ली है जो समय आने पर घोषित होगी। बाकी इस पर राजनीति फिजूल की बात है। किसान-सभाएं अपना विचार विमर्श करें?

इसका परोक्ष उद्देश्य पंजाब व हरियाणा के जाटों को आपस में लड़ाना व द्वेष पैदा करना है, और कुछ नहीं।

(घ) पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों व किसानों को सन् 1947 से एक घुट्टी पिलाई जाती रही कि भारत का प्रधानमंत्री उनके प्रदेश (उत्तर प्रदेश)


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का होगा और रहे भी, जैसे कि पं. नेहरू, श्रीमती इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी, वी.पी. सिंह, चन्द्रशेखर व अटल बिहारी वाजपेयी आदि। लेकिन क्या चौ० चरणसिंह उत्तर प्रदेश के नहीं थे - जिनकी सन् 1978 में सरकार को गिराने व नहीं बना देने के लिए इन्हीं उत्तर प्रदेश वालों ने जैसे श्रीमती इन्दिरा गांधी, वाजपेयी व चन्द्रशेखर ने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था? इसी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान कमाते रहे हैं और बाकी उत्तर प्रदेश खाता रहा है। अर्थात् पूरे उत्तर प्रदेश में सरकारी महकमों आदि पर पूर्वी व मध्य उत्तर प्रदेश का अधिकार रहा है और इसके आंकड़े बड़े ही सनसनीखेज हैं। उत्तर प्रदेश के 19 विश्वविद्यालयों में से केवल 3 पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हैं। तृतीय और चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में मात्र 14 प्रतिशत तथा राजपत्रित अधिकारी मात्र 4 प्रतिशत ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश से है अर्थात पश्चिमी उत्तर प्रदेश कमा रहा है तो पूर्वी भईये खा रहे हैं। याद रहे इस उत्तर प्रदेश की नींव भी पं० जी.बी. पंत ब्राह्मण ने यह कह कर रखी थी कि गंगा-जमना के पानी को अलग नहीं होने दिया जाएगा। यह सभी पंत और नेहरू की चाल थी जिस पर आज तक अमल किया जा रहा है। यह शोषण नहीं तो और क्या है? यही भारी भरकम राज्य जिसकी जनसंख्या आज 16 करोड़ 62 लाख को पार कर चुकी है और पाकिस्तान की जनसंख्या 16 करोड़ 25 लाख से अधिक है। इसी प्रकार यह राज्य जनसंख्या के आधार पर लगभग 192 देशों से बड़ा है, लेकिन फिर भी केन्द्रीय सरकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश को ‘हरित प्रदेश’ नहीं बनाना चाहती। जिसमें सरकार की इच्छा बड़ी साफ है कि वह पूरे उत्तर प्रदेश व बिहार व उत्तरांचल के लोगों को नौयडा के क्षेत्र में बसा कर यहाँ के स्थानीय लोगों को अल्पसंख्यक बनाना चाहती है जैसे कि दिल्ली में कर दिया है, ताकि हमेशा के लिए यहाँ का कारोबार व सरकार बाहरी लोगों के हाथ में रहे। इस प्रकार हम देखते हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ‘हरित प्रदेश’ की मांग हर तरह से न्याय की कसौटी पर खरी उतरती है। ‘हरित प्रदेश’ को बनाने में मुलायमसिंह जी सबसे बड़ी


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अड़चन डाल रहे हैं क्योंकि उनके वोट मध्य उत्तर प्रदेश तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में अटके पड़े हैं। इसके लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सभी जाट किसान वर्ग को संघर्ष का रास्ता अपनाना होगा, वरना इनका शोषण इसी प्रकार जारी रहेगा और ये आजाद होकर भी गुलाम बने रहेंगे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के 22 जिले हैं जिनमें 30 संसदीय क्षेत्र हैं जहाँ लगभग 75 लाख जाट अन्य किसी भी एक जाति से अधिक है।

(3) चौ० छोटूराम की तीसरी मुख्य शिक्षा थी ‘दुश्मन को पहचानो और बोलना सीखो’। यह बात चौ० छोटूराम ने अपने जीते-जी बार-बार दोहराई लेकिन चौ. साहब के जाने के बाद तो हम इसे बिल्कुल ही भूल गये। जो समाज हमारा कभी दुश्मन नहीं था उसे हमने दुश्मन समझ लिया। वह समाज है ‘गैर-चमार दलित समाज’। गोहाना, दुलीना और मिर्चपुर काण्ड इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। इतिहास गवाह है कि ‘गैर-चमार दलित समाज’ हमारी मदद में हमेशा हमारे पीछे खड़ा मिला है, चाहे वह खेती का काम था या लड़ाई का। जाटों का गैर-चमार दलित समाज से बेटी का रिश्ता नहीं रहा लेकिन रोटी का रिश्ता हमेशा-हमेशा रहा, लेकिन आज हम इस सब को भूल गये हैं। ब्राह्मणवाद ने दलित समाज को सदियों से इतना कमजोर कर दिया था कि उनमें विरोध करने की शक्ति ही नहीं रही थी। इसी प्रकार यह षड्यंत्र ब्राह्मणवाद ने जाटों के विरोध में भी रचा जिसके सिन्ध और राजस्थान में स्पष्ट उदाहरण हैं। जाट और दलित समाज दोनों ही ब्राह्मणवाद से उत्पीडि़त रहे। लेकिन यह भी सच्चाई है कि जाटों के विरुद्ध एस.सी. तथा एस.टी. कानून के तहत मुकदमें दर्ज करवाने वाले पूरे दलित समाज की जातियां नहीं हैं। इसमें मुख्य तौर पर चमार जाति है। इस पर जाटों को नए सिरे से विचार करना होगा। जमीन पर यह जीवंत हकीकत है कि समस्त उत्तरी भारत में जाटों के गाँवों में दलित समाज की आर्थिक हालत बाकी से कहीं बेहतर है। क्योंकि समानता, प्रजातांत्रिक प्रथाएं और कमजोर की मदद करना जाट चरित्र के मौलिक गुण रहे हैं। इसलिए तो इतिहासकार


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कालिकारंजन कानूनगो लिखते हैं -

  • ‘ऐतिहासिक काल से जाट बिरादरी हिन्दू समाज के अत्याचारों से भागकर निकलने वाले लोगों को शरण देती आई, उसने दलितों और अछूतों को ऊपर उठाया है। उनको समाज में सम्मानित स्थान प्रदान कराया है।

लेकिन 3 सितम्बर 2005 को जाटों और वाल्मीकियों के मध्य गोहाना में जो काण्ड हुआ उसने सभी सजग जाट व दलित समाज के लोगों को हिला दिया था, जो इस उपरोक्त लिखी हकीकत को जानते हैं, इन में से मैं भी एक था। मैंने इस काण्ड पर ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर एक लेख गोहाना काण्ड-जाटों और वाल्मीकियों को एक तमाचा लिखकर “दैनिक जागरण” तथा “दैनिक भास्कर” समाचार-पत्रों में प्रकाशित करने के लिए हिसार इनके कार्यालयों में भेजा। लेकिन जैसा मुझे अंदेशा था, वही हुआ कि इन्होंने इसे प्रकाशित नहीं किया, क्योंकि भारतवर्ष के अधिकतर समाचारपत्र प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से ब्राह्मणवाद के समर्थक रहे हैं जिसे साधारण पाठक के लिए समझना बड़ा कठिन है। मैं उसी लेख को यहाँ पाठकों के लिए दे रहा हूँ -

गोहाना कांड जाटों और वाल्मीकियों को एक तमाचा (लेख)

3 सितम्बर 2005 को गोहाना (हरयाणा) काण्ड जाटों और वाल्मीकियों के इतिहास में काले अक्षरों में दर्ज हो गया। भारतवर्ष में धार्मिक व जातीय दंगे होना आम बात है। यदि पूरे देश में जातीय दंगों की तुलना की जाये तो प्राचीन हरयाणा क्षेत्र में जातीय दंगे कम हुए हैं। जाटों और वाल्मीकियों में कोई दंगा होना तो एक अनहोनी जैसा है। क्षत्रिय वर्ण में वीरता का जो स्थान जाटों का है ऐसे ही शूद्र वर्ण (दलितों) में वाल्मीकियों का है। क्षत्रिय वर्ण का कार्य मध्यकाल तक लड़ाई लड़ना था, लेकिन बाद में इस वर्ण ने खेतीबाड़ी का कार्य वैश्य वर्ण से छीन लिया तो वैश्य वर्ण के पास केवल व्यापार रह गया। वाल्मीकि जाति उसी युग से क्षत्रिय वर्ण की लड़ाई तथा खेतीबाड़ी में सहायक रही है। इसलिए वाल्मीकि जाति में भी लड़ाई के गुण


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जन्म-जात पाये जाते हैं। इसी लड़ाकू प्रवृत्ति के कारण यह जाति मुगलों की आँख की किरकिरी रही। परिणामस्वरूप मुगलों ने इस जाति को मैला ढ़ोने का कार्य करने के लिए विवश कर दिया था तथा इनको ‘जमादार’ की उपाधि दे दी। जबकि मुगलकाल से पहले मैला ढ़ोने का कार्य इस जाति का नहीं था। यह तो इन्हें मुगलों ने सजा के तौर पर दिया था।

इस प्रकार क्षत्रिय वर्ण की जाट जाति खेत तथा लड़ाई क्षेत्र में रही, तो वाल्मीकि जाति भी दोनों ही जगह जाटों की सहायक बनकर कंधे से कंधा मिलाकर खेत में फसल काटी तो रणक्षेत्र में लड़ाई लड़ी। इनके सम्बन्धों में कभी भी कड़वाहट नहीं आई। जाटों का वाल्मीकियों से बेटी का रिश्ता चाहे कभी ना रहा हो, लेकिन रोजी-रोटी का रिश्ता हमेशा रहा। स्वतत्रंता प्राप्ति के पश्चात् भी इन दोनों जातियों के सम्बन्धों में भी कोई अन्तर नहीं आया। जैसे कि जाटों का दलित वर्ग की दूसरी जातियों के साथ आया। इन सम्बन्धों के प्रमाण हेतु आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक शोधार्थी डा. एम.सी. प्रधान के शोध Political system of the Northern Indian Jat (1990) के कुछ अंश का हूबहु हिन्दी रूपान्तर इस प्रकार हैः-

जाट छोटी जातियों में हरिजनों की अपेक्षा वाल्मीकियों पर अधिक विश्वास एवं भरोसा प्रकट करते हैं। यह बात आम कही जाती है कि जमादार का परिवार आपत्ति के समय अपने स्वामी का साथ देता है और उनके लिए प्राण न्यौछावर करने में भी संकोच नहीं करता। वाल्मीकियों की स्वामीभक्ति पर जाटों के इस विश्वास की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। खाप व सर्वखाप के अभिलेखों में इन घटनाओं का उल्लेख है कि पंचायती सेनाओं में वाल्मीकि अपने यजमानों के साथ बहादुरी से लड़े और उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। वीर “धूला वाल्मीकि” का नाम साहसी योद्धा के रूप में चर्चित है जो तैमूरलंग के विरुद्ध लड़ाई में पंचायती सेना का उप-सेनापति था, जिसका स्मरण जाट और वाल्मीकि स्नेह से करते हैं। जाटों और वाल्मीकियों का परस्पर विश्वास का एक परम्परागत कारण है। जाट इनको अपना विरोधी नहीं समझते बल्कि उनके प्रति उनका दृष्टिकोण

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पैतृक स्नेह है।

केवल “धूला वाल्मीकि” ही नहीं, ऐसे उदाहरणों से पंचायती इतिहास अटा पड़ा है। वीर मोहरसिंह वाल्मीकि जो सन् 1529 में पंचायती सेना के सहायक सेनापति थे, को राणा रायमल चित्तौड़ ने “मोहर तोड़” के वीरता पदक से उनकी वीरता के लिए सम्मानित किया था। “मातैन वाल्मीकि” एक महान् मल्ल योद्धा थे जो अपनी 81 वर्ष की आयु में भी अखाड़ों में मल्ल युद्ध सिखलाते थे तथा पूरे प्राचीन हरयाणा के अखाड़ों का निरीक्षण करते थे। केवल वाल्मीकि पुरुष ही योद्धा नहीं थे, वाल्मीकि महिलाएं भी पीछे नहीं थीं। अलाऊद्दीन के विरुद्ध लड़ाई में सन् 1354 में महिला सेना की सेनापति “सोना वाल्मीकि” नाम की विरांगना थी, तो चंगैजखां के विरुद्ध महिला सेना की सहायक सेनापति “विशनदेवी वाल्मीकि” थी।

कहने का अर्थ है कि लड़ाइयों में जाटों और वाल्मीकियों का चोली दामन का साथ रहा है, इसी प्रकार खेत-खलियानों में भी। मैंने अपने सेवाकाल में स्वयं वाल्मीकियों की इस लड़ाकू प्रवृत्ति को सन् 1983 में मेरठ तथा सन् 1986 में मुरादाबाद के साम्प्रदायिक दंगों में देखा है। जब इन्होंने इन दंगों में शहरी हिन्दुओं (ब्राह्मण-बनिया) की रक्षा एक ढ़ाल बनकर की थी।

हम जाटों और वाल्मीकियों के इतिहास पर नजर डालें तो केवल एक ही ऐसी घटना का वर्णन पाते हैं, जो शिक्षाप्रद भी है। सन् 1680 में जाटों और वाल्मीकियों की आपातकालीन संयुक्त पंचायत हुई थी, जब गाँव कबीरपुर जिला मुजफरनगर (उत्तर प्रदेश) में एक दुष्ट प्रवृत्ति के “झांगा” नामक वाल्मीकि ने चौधरी घुरकूराम के आठ वर्षीय लड़के करारू (करारसिंह) को उसके तुच्छ चांदी के आभूषणों के लालच में शराब के नशे में मारकर कुएं में डाल दिया, जिसको “धापा” नाम की वाल्मीकि महिला ने देख लिया था। इस महिला ने संयुक्त पंचायत के सामने अपना बयान दिया जिस पर झांगा ने अपना अपराध स्वीकार करना पड़ा। जाटों ने वाल्मीकियों को इस अपराध पर अपना फैसला लेने को कहा गया। 19 वाल्मीकी पंचों ने अलग से बैठकर फैसला लिया तथा पंचायत के सामने अपना फैसला इस


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प्रकार सुनाया- “झांगा ने एक अबोध बालक को मारा है। यह सारे समाज का अपराधी है, इसने धर्म को भ्रष्ट किया है, इसका पाप क्षमा करने योग्य नहीं है, इसलिए इसे मृत्यु दण्ड दिया जाए।”

यह बात ठीक है कि वह समय औरंगजेब का था। पंचायत को अपना कानूनी अधिकार था, लेकिन आज हम प्रजातंत्र में जी रहे हैं, जिसमें यह अधिकार केवल न्यायालयों को है। लेकिन समय कोई भी हो, अपराध की परिभाषा तो वही रहती है, सजा तथा उसको देने के तौर-तरीके अवश्य बदलते रहते हैं। “सर्वखाप पंचायत” का अपना एक वजूद है और रहेगा भी। इसलिए गोहाना में जाटों और वाल्मीकियों की संयुक्त पंचायत होनी चाहिए थी। जिसमें वाल्मीकियों को पक्ष रखने का मौका देकर कानूनी न्याय को मध्यनजर रखते हुए मृतक ‘बलजीत सिवाच’ के मामले में संयुक्त सहमति से फैसला लिया होता तो इस काण्ड से बचा जा सकता था। यह एक जाटों और वाल्मीकियों का विवाद कहा जा सकता था। लेकिन ऐसा न होने का कारण इलैक्ट्रोनिक मीडिया है, जिसने इसे जाटों और दलितों का दंगा प्रचारित करके उनमें बदले की भावना को और भड़का दिया। क्योंकि आज भी मीडिया में 80 प्रतिशत ब्राह्मणवाद समर्थक लोग हैं जो चाहते हैं कि जाटों और दलितों में दंगे होते रहें।

यह एक अच्छी बात हो सकती है कि जाट युवावर्ग पंचायतों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। लेकिन देखने में यह भी आया है कि गाँव पंचायतों में तो कई बार यह वर्ग बूढ़े-बुढ़ेरों की सलाह तक नहीं लेते और न ही उनको सलाह देने देते हैं। किसी पंचायत में बगैर किसी घटना, जाति व समाज की वास्तविक पृष्ठभूमि जाने तैस में आकर फैसला लेना तथा बयान-बाजी करना कभी भी समाज के हक में नहीं हो सकता। जाटों और वाल्मीकियों को इस विवाद पर नये सिरे से सोचना चाहिए। इस विवाद में जो भी व्यक्ति ‘दलित’ शब्द का प्रयोग करता है वह या तो अनजान है या फिर उसका अपना कोई स्वार्थ जुड़ा है। यह साफ-साफ जाटों और वाल्मीकियों का अपना एक विवाद हो सकता है, लेकिन तीसरी जाति का


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इससे कोई लेना-देना नहीं था, इसलिए पहले दोनों जातियों को अपनी अलग-अलग पंचायत बुलाकर इसके लिए अफसोस जताना चाहिए, इसके बाद इस विवाद के हल के लिए कोई रास्ता ढूढंकर उत्पन्न हुए खटास को दूर करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। इसके बाद शांत माहौल में दोनों जातियों की संयुक्त पंचायत बुलाकर सहमति के आधार पर सभी मसलों का हल किया जाना चाहिए। जाटों और वाल्मीकियों को अपनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अपनी जातियों की अच्छाई के लिए प्रयोग करना चाहिए। लेखक - हवासिंह सांगवान दिनांक 16.09.2005।

हमें अपने पराये की पहचान नहीं, अपनों पर फब्ती कसते हैं।
मरघट में छोड़ मलाल को, अपनों पर काठी कसते हैं।

अभी मिर्चपुर सुलग उठा, वही कहानियां फिर दोहराई जा रही हैं। हमारी दोनों जातियों से प्रार्थना है कि वे आपस में मिल बैठकर समस्या व वैरभाव को मिटाएं। सभी नेताओं को इससे दूर रखें। कोई भी तीसरा पक्ष कभी समझौता नहीं होने देगा क्योंकि वही लोग तो आग लगा रहे हैं। आज जाट यह समझने का प्रयास नहीं कर रहे हैं कि उनको कौन लड़ा रहा है। पूरे समाज में प्रचार किया जा रहा है कि दलितों ने आरक्षण की वजह से जाटों की नौकरियां छीन ली। जबकि सच्चाई इससे बहुत दूर है। याद रहे दलितों में भी आरक्षण का लाभ विशेष तौर पर चमार जाति ने ही उठाया, बाकी ए ग्रुप की 42 जातियां अभी तक हाथ ही मलती रही हैं। विशेषकर धानक और वाल्मीकि जातियां।

इन जातियों के साथ भी जाटों की तरह अन्याय होता आया। इसके विरोध में सुरेन्द्र धानक ने बिगुल बजा दिया है और गैर-चमार जातियां बड़ी तेजी से जागृत हो रही है।

यह सत्य है कि डा. अम्बेडकर ने जाति के आधार पर आरक्षण की मांग नहीं की थी और संविधान में भी क्लास के तौर पर आरक्षण का प्रावधान है। लेकिन भारत सरकार ने क्लास का कास्ट बना दिया। (लेखक -‘थरेलिथ कोशी उमन’)


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यही ब्राह्मणवाद व लुटेरी संस्कृति जिसने जाटों के इतिहास को लुप्त करने का प्रयास किया तथा अभी जाटों की संस्कृति के लिए कहते हैं कि इनकी कोई कल्चर नहीं, केवल एग्रीकल्चर है। जाटों की संस्कृति का एक बड़ा़ स्तम्भ सर्वखाप पंचायत रही और आज लोग इसे बदनाम करने पर तुले हैं। पंचकूला से एक ‘साहनी जी’ (हिन्दू-पंजाबी खत्री) ने तो सिविल लिबर्टी के नाम से खाप पंचायतों के विरोध में बाकायदा हरयाणा पंजाब उच्च न्यायालय में केस दायर कर दिया। यह पहला हिन्दू खत्री पंजाबी है जिसने इस देश में खुलेआम विरोध करके खापों पर हमला किया है। जबकि सच्चाई यह है कि कभी किसी खाप पंचायत ने किसी को मारने का आदेश नहीं दिया। बल्कि जहां खाप पंचायत होती है वहां कोई दूसरा भी ऐसा आदेश नहीं दे सकता। खाप पंचायत कभी भी शारीरिक दंड नहीं देती, वे केवल सामाजिक दंड देती हैं। जिस प्रकार सिक्ख धर्म में तनखईया घोषित किया जाता है तथा गुरुद्वारों में सेवा का हुक्म दिया जाता है। लेकिन मीडिया इन खापों को बदनाम करने पर तुला है। इसके बचाव में जाटों को कमर कसनी होगी। कुछ हमारे साम्यवादी जाट भाइयों (कामरेडों) ने भी अपना झण्डा उठा रखा है और कसम खा रखी है कि इन पंचायतों को समाप्त करके ही दम लेंगे। कामरेड भाइयों से अपील हैं कि वे गुडगांवा के पंचग्राम को बंगाल का नन्दीग्राम बनाने से बचायें। हालांकि कुछ तर्कहीन फैसले इन पंचायतों ने दिये हैं लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं होना चाहिए की सर्वखाप पंचायत को समाप्त कर दिया जाये। अभी पिछले दिनों सरेआम 11 संसद सदस्य घूस लेते पकड़े गये तो क्या हम संसद को समाप्त कर देंगे? सर्वखाप पंचायत हम जाटों व गाँववालों की एक सामाजिक संसद है और इस संसद में जो सदस्य गलत कार्य करता है तो उसे यही संसद अपना सामाजिक दण्ड भी देती है। लेकिन यह सब एक षड्यंत्र के तहत हो रहा है। ऐसे ही षड्यंत्रों के तहत आज जाटों और दलितों को लड़ाया जा रहा है। हम चौ० छोटूराम को भूल रहे हैं या फिर हमने उनको अच्छी तरह


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समझा नहीं। इसलिए तो आज 25 वर्ष आयु का जाट 50 वर्ष के दलित को ढ़ेड तक कह देता है और 50 वर्ष का जाट 25 वर्ष के ब्राह्मण को दादा कहकर राम-राम करता है। यह सब हमारी शानदार जाट कौम के लिए शर्म की बात है कि हम अपनों को हीन समझ कर उनसे बुरा बरताव करते हैं जबकि गैरों को सलाम करते हैं।

जब मेरे जैसा एक साधारण जाट निराश हुआ तो इसी बीच 24 वर्षीय युवा मनोज दूहन जो पेशे से एडवोकेट हैं, द्वारा लिखित पुस्तिका “जाट-दलित एकता का घोषणा पत्र” पढ़ी तो मुझे बड़ा संतोष हुआ कि हमारे बीच ऐसा जाट युवावर्ग भी है जो आज की वास्तविकता से पूर्णतया परिचित है और अपनी जाति के बारे में तय-दिल से चिंतित है और उनके पास अपनी जाति के लिए एक गहरा चिंतन भी है। सुश्री मायावती ने 2 मार्च 2008 को करनाल जनसभा में जाटों को चैलेंज करके कहा कि हरियाणा में जाट मुख्यमंत्री नहीं होगा। भारतवर्ष के 60 वर्षों के संसदीय इतिहास में यह पहला मौका था कि किसी मुख्यमंत्री या नेता ने सीधे तौर पर किसी जाति का नाम लेकर उसको चैलेंज किया। यह कोई छोटी घटना नहीं है, जाटों का इसका मुंहतोड़ जवाब देना होगा। इसी प्रकार सुश्री मायावती ने जाट किसान नेता महेन्द्र टिकैत को भी नीचा दिखाने की कौशिश की। इस सभी का पहला उत्तर हरियाणा के जाट ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी से संसद व विधानसभा के चुनाव में टिकट न मांग कर उत्तर दे दिया। हमें आज भी चौ० छोटूराम की उतनी ही आवश्यकता है जितनी हमें सन् 1945 में थी, बल्कि सच कहा जाये तो उससे भी ज्यादा। कुछ जाटसभाएं जो परोक्ष रूप से राजनीति की रोटियां सेक रही हैं उनसे हमारा अनुरोध है कि वे इस नेक जाति के साथ जाति के नाम से धोखा न करें।

आजादी के इतिहास न स्याही के कायल,
वे लाल खून से युग-युग से लिख जाते हैं ।

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कायर करते हैं संधि-पत्र पर हस्ताक्षर,
जो वीर पुरुष हैं वे उसमें आग लगाते हैं ।।

साथ-साथ मेरा अनुरोध है कि जाटसमाज एक बार अपनी जाति के बारे में तनिक चिंतन करे कि ब्राह्मणवाद का गुप्त एजेण्डा हमारी जाति को आज किस ओर धकेल रहा है। यह एजेण्डा मनोज दुहन की पुस्तक के अनुसार इस प्रकार है -

(1) जाटों को दलितों के खिलाफ भड़काकर जाट-दलित दंगे करवाये जायें।

(2) जाटों को दलितों के खिलाफ भड़काने का रामबाण तरीका है, जाटों के कान में धीरे से यह बात कह दी जाये कि “जाटों की नौकरी तो आरक्षण के माध्यम से दलित (चमार) खा गये।”

(3) जाटों द्वारा संचालित आर्यसमाज मन्दिरों में घुसपैठ की जाये और इन मंदिरों की सम्पदा कर कब्जा किया जाये।

(4) आर्यसमाज (जाटबहुल) और सर्वखाप पंचायतों का प्रयोग मुसलमान और दलित विरोध के औजार की तरह किया जाये, जिससे जाटों की ऊर्जा झगड़े-फसाद में लग जाये।

(5) आर्यसमाज की प्रगतिशीलता का उपयोग, जाटगुरुओं के आध्यात्मिक डेरों को तुड़वाने में किया जाए और ऐसा करके जाट-जाट की लड़ाई देखी जाये।

(6) गौहत्या के नाम पर जाटों को मुसलमानों के खिलाफ भड़काया जाये जिससे सर छोटूराम कालीन मुस्लिम-जाट एकता न बन पाये और सबसे बड़ी बात जाटों की ऊर्जा लड़ाई झगड़े में लगी रहे।

(7 ) जाट युवाओं को हिन्दी/संस्कृत में उलझाकर इन्हें अंग्रेजी भाषा से दूर रखा जाए।

(8) जाटों के इतिहास को मुस्लिम विरोधी इतिहास में पुनः परिभाषित किया जाए।

(9) जाटों की एकता को खण्डित करने के लिए इनके दिमाग में


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अप्रत्यक्ष तरीके से यह डाला जाये कि सिक्ख जट्ट खुद को हिन्दू जाटों से अलग समझते हैं और मुस्लिम जाटों का पूर्ण इस्लामीकरण होने से उनकी जातीय (जाट) पहचान समाप्त हो गई है।

(10) जाटों में क्षेत्रीयतावाद मजबूत करके इनकी जातीय एकता को कमजोर किया जाए। जैसे रोहतक-सोनीपत के जाटों को बागड़ के जाटों के खिलाफ भड़काया जाए।

(11) युवाओं को अधिकाधिक मात्रा में कांवड़ लाने के लिए प्रेरित किया जाए और वहाँ इन्हें अफीम-सुल्फे का आदी बनाने का प्रयास हो।

(12) जाट युवाओं को इनकी परम्पराओं की दुहाई देकर आधुनिकता से दूर रखा जाए, जिसमें मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा सृजित नौकरियों के लिए ये योग्य ही न हो सकें।

(13) जाट युवाओं को अधिकाधिक संख्या में बजरंग दल, विश्व हिन्दू परिषद्, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् और अन्य संगठनों में भर्ती किया जाए जिसमें इनकी ऊर्जा पढ़ाई में न लग सके।

(14) इस भर्ती के लिए जाटों के ही कुछ रिटायर आर्मी पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को संघ के मंचों पर जगह दी जाये जिससे जाट युवक संघ में आकर्षित हों।

(15) जाट महिलाओं को अधिकाधिक संख्या में संघ प्रेरित आध्यात्मिक गुरुओं, यथा आसाराम बापू आदि से नाम दीक्षा लेने हेतु प्रेरित किया जाए। इस कार्य में ब्राह्मण-पंजाबी महिलाओं से विशेष भूमिका निभाने का आग्रह किया जाता है।

(16) संघप्रेरित डाक्टरों का इस्तेमाल जाटों एवं दलितों को एक्सपायरी डेट की, भारत में बन्द दवाइयां या गलत दवाइयां सुझाने के लिए किया जाये।

(17) हिन्दू-पंजाबी दुकानदारों (रेस्तरां) को चाहिए कि जाटों का खानपान बिगाड़ें।

(18) अपने लोगों (ब्राह्मण-हिन्दू-पंजाबी) में यह बात फैला दें कि जाटों की दुकानों का बायकाट करें, इसके लिए कुछ संघी सज्जन


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अपने-अपने शहर की जाटों की प्रमुख दुकानों की लिस्ट तैयार करने का उद्योग करें तो अच्छा रहे। यह लिस्ट बाद में अपने लोगों में बांट दी जाये।

(19) जाटों के पैसे से अधिकाधिक मन्दिर बनवाने का प्रयास हो। इस कार्य के लिए कालोनी, हुडा सैक्टर, डी.एल.एफ. आदि की वैल्फेयर सोसायटीज़ में अपने आदमियों की घुसपैठ कराई जाए, जिससे वैल्फेयर सोसायटीज का इस्तेमाल मन्दिर निर्माण हेतु चन्दे को एकत्रित करने में किया जाये।

(20) जाटों को मनोवैज्ञानिक रूप से हतोत्साहित किया जाए, इसके लिए जाट युवाओं के बीच चर्चा की जाए कि “जाट का और बिजनेस का क्या काम। जाट कभी भी बिजनेस के योग्य नहीं हो सकता” आदि-आदि।

(पुस्तकें दीनबन्धु सर छोटूराम, किसान-संघर्ष तथा विद्रोह, जाट-दलित एकता का घोषणा पत्र, पंचायत इतिहास और समाचार-पत्रों की कतरनें आदि-आदि।)

चौ० छोटूराम के कहने का अर्थ संक्षेप में

  • बोलना सीख से उनका अभिप्राय था अपने हक के लिए चुप मत रहो। अपनी आवाज को बुलंद करो। जहां भी उचित हो मंच को अपने अधिकार की आवाज को बुलंद करने के लिए इस्तेमाल करो। चुप रहने से हमारी किसी समस्या का हल नहीं है। लेकिन जाटों ने आजादी के बाद बिल्कुल चुप्पी साध ली और अपनी ताकत और अधिकारों को ही भूल गए।
  • दुश्मन को पहचानो - इस बात पर भी कभी जाटों ने गौर नही किया। आज जाट कौम के बहुत दुश्मन हैं और यहां तक कि जाट ही जाट का दुश्मन हो गया है। लेकिन फिर भी जाट अपने को इतना ताकतवर समझता है कि उसे अपना कोई दुश्मन नजर नहीं आता। आज मौटे तौर पर जाट कौम के ढ़ाई दुश्मन हैं।
पहला दुश्मन - जिसने जाट कौम का इतिहास खा लिया और मौका मिलते ही आज भी जाट कौम के विरोध में हर जगह प्रचार करते

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रहते हैं। धर्म के नाम पर जाट कौम में पाखण्डवाद फैला रहा है और कौम का शोषण करके साथ-साथ जाटों के हिस्से की नौकरियों पर भी कब्जा कर रहा है।

दूसरा दुश्मन - जिन्होंने जाटों की संस्कृति खा ली और अभी भी खा रहा है। जाटों के संसाधनों का शोषण करके जाटों के एक बड़े हिस्से की नौकरियों भी खा रहा है।
तीसरा आधा दुश्मन - जो जाटों के स्वाभिमान को नीचा दिखाने के लिए उनके खिलाफ बार-बार झूठे मुकदमें दर्ज करवा रहा है। वर्तमान में केवल हरियाणा में ही 93 मुकदमें दर्ज हैं। आधा इसलिए कहा है कि यह दुश्मन अपने उद्देश्य में कभी सफल नहीं होगा।

सनसनीखेज सूचना

एक ई-मेल प्राप्त हुआ है जिसमें लिखा है कि चौ० छोटूराम की मृत्यु सामान्य नहीं थी, उनको हल्का जहर देकर शहीद किया गया था। जो इस प्रकार हैः-

Manoj - My father did say that, that Lalas used to welcome Chhotu Ram Ohlayan with BLACK JHANDIS. He did say that he was given poison in the food and he had stomach problems overnight. But our Haryanavi Jats should know better. There is no doubt that he was poisoned. Now, most people are frightened of the Khatris as they are Rulers of the Kalyug. So, better do research with close relatives. All people of his age have died both in India & Pakistan. Pakistan Jatts were more faithful than our Panjabi Jatts. There is a Jatt Sabha in Pakistan. If you go on Apna Panjab website, www.apna.org.com., you might find more information too. I will keep you informed - Uncle-Ch. Rajender Singh Nijjar Jatt. England

अर्थात् – मनोज, मेरे पिता जी ने बतलाया था कि चौ० छोटूराम ओहलान को लाला लोग (हिन्दू पंजाबी अरोड़ा व खत्री) काली झण्डियां दिखाया करते थे। उन्होंने बतलाया था कि उनको खाने में जहर दिया गया था, जिसकी वजह से रात से ही उनके पेट में


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तकलीफ पैदा हो गई थी। लेकिन हमारे हरयाणवी जाटों को इस बारे में अधिक ज्ञात होना चाहिए। इसमें कोई भी संदेह नहीं है कि उनको जहर दिया गया था। आजकल अधिकतर लोग खत्री समुदाय से डरे हुए हैं, क्योंकि यह समुदाय इस कलयुग का शासक है। इसलिए उनके नजदीकी सम्बन्धियों से इस बारे में और अधिक शोध करना बेहतर होगा। उस समय के सभी बुजुर्ग भारत व पाकिस्तान में मर चुके हैं। पाकिस्तान के जाट पंजाबी जाटों से अधिक वफादार थे। पाकिस्तान में जाट सभा है। यदि आप ‘अपना पंजाब’ वसाई Twww.apna.org.com में जाएंगे तो अधिक जानकारियां मिलेंगी - चाचा-राजेन्द्रसिंह निज्जर जट्ट-इंग्लैंड।

इस बारे में जाट कौम को इस पर विचार करना चाहिए।

17. जाटों की टूटती पीठ (दिल्ली) और बढ़ती पीड़ा

जाटों को सामाजिक तौर पर जाति कहा जाता है, साहित्यिक तौर पर जाट-चरित्र कहा गया है। अंग्रेजों ने इसे नस्ल (Race) कहा, कई इतिहासकारों ने जाट जाति को एक राष्ट्र की संज्ञा दी है। किसी भी कौम, वर्ग व धर्म की अपनी एक पीठ होती है। जैसे कि इस्लाम धर्म की मक्का-मदीना, सिक्ख धर्म की अमृतसर, पारसी धर्म की जरुथृष्ट, कैथोलिक ईसाई धर्म की वैटिकन सिटी, यहूदी धर्म की यरुशलम, बौद्ध धर्म की बौद्ध गया, हिन्दू धर्म की भारत के चारों कोनों में चार पीठ हैं। मराठों की बम्बई है, तमिलों की मद्रास (चैन्नई), बंगालियों की कलकता, ब्राह्मणों की काशी (बनारस) और अग्रवालों की अग्रोहा आदि-आदि। इस प्रकार प्राचीन काल से ही जाटों की पीठ ऐतिहासिक दिल्ली रही है। चाहे कितने भी बाहरी शासक आये और उन्होंने जुल्म ढ़हाये लेकिन जाटों ने दिल्ली का घेरा नहीं तोड़ा, जबकि अन्य लोग डर से हिमालय में उत्तरांचल की पहाडि़यों तक चढ़ गये। जाटों ने अपनी इस पीठ के लिए बार-बार खून बहाया जो स्वयं में एक खूनी इतिहास है। इस बारे में पौराणिक


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ब्राह्मणवाद व सरकारी इतिहासकारों ने इसे छिपाये रखा है जिसके कुछ विशेष कारण रहे हैं।


मुगलों ने अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली बदलनी पड़ी, हालांकि आगरा देश के मध्य भाग के ज्यादा नजदीक था। इसी प्रकार सन् 1911 में जार्ज-पंचम के भारत आगमन पर अंग्रेजों ने अपनी राजधानी कलकत्ता से दिल्ली बदल ली। यह भी इसलिए नहीं की दिल्ली भारत के मध्य में है, भारत का मध्य तो भोपाल और दमोह है। यह सब इसलिए किया क्योंकि दिल्ली का प्राचीन कालीन महत्त्व रहा, दूसरा दिल्ली व इसके चारों तरफ जाट व अन्य बहादुर लोग रहते आये। इस बात को मुगल व अंग्रेज भलीभांति जानते थे कि जब तक इस क्षेत्र पर शासन की लगाम नहीं कसी जायेगी भारत पर शासन कायम रखना आसान नहीं होगा। अंग्रेज शिक्षित लोग थे, उन्होंने सबसे पहले सन् 1903 में गाँवों का सर्वे करके ‘लाल डोरा’ कायम किया जिसके महत्त्व को हम अभी तक नहीं समझ पाये। इसके बाद उन्होंने सन् 1911 में दिल्ली जिले का सर्वे करवाया तथा वहाँ अपने भवन, कार्यालय तथा उच्च अधिकारियों के लिए निवास आदि के लिए नई दिल्ली को बसाया। नई दिल्ली को बसाने के लिए अंग्रेजों ने हमारे 13 गाँवों को उजाड़ दिया। इस मालचा खाप समूह के लोगों को दिल्ली से सन् 1912 में दीवाली की रात को निकाला गया, जिसके चार गांव आज सोनीपत जिले, चार गांव कुरुक्षेत्र, चार गांव उत्तर प्रदेश तथा एक गांव दिल्ली के कादरपुर गांव के पास बसे हैं। यह नकली अधिनियम जो अंग्रेजों ने सन् 1894 में बनाया, के आधार पर किया गया। पाठक, इसकी एक बार कल्पना तो करें। जिनके बारे में आज तक किसी सरकार, इतिहासकार व किसी पत्रकार ने खोज खबर तक नहीं ली। यह अंग्रेजों की दादागिरी थी, क्योंकि हम उनके गुलाम थे जबकि इस प्रकार से गाँवों को उजाड़ा जाना उनके किसी भी अधिनियम (सन् 1858, 1861, 1892, 1909, 1919 तथा 1935) के तहत अनुचित था। दिल्ली में उन्होंने जो भी भवन आदि बनवाये उनमें अधिकतर पैसा यहीं के किसानों का लगा


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था, क्योंकि उस समय कोई कल कारखाने नहीं थे और ना ही अंग्रेज एक पैसा इसके लिए इंग्लैंड से लाये। राष्ट्रपति भवन हमारे रायसीना गाँव की चरागाह में बना है। इसी प्रकार संसद भवन व इंडिया गेट जहाँ हम कभी जौ, चना और बाजरा बोया करते थे, हमारे खेतों के बीच खड़े हैं। अंग्रेजों ने वह सभी किया जो एक बाहरी शासक करता है।


देश की आजादी के बाद इसी दिल्ली में पं. नेहरू ने लाखों तिब्बती व पाकिस्तानी शरणार्थियों को प्रजातंत्र के नाम पर बसाया। लेखक जी. एस. भार्गव लिखते हैं - पं. नेहरू ने पटेल की न मानते हुए तिब्बत के ल्हासा शहर से संचार व्यवस्था हटा दी जिस कारण दलाई लामा के साथ सन् 1959 में एक लाख तिब्बती भारत आए। (द ट्रिब्यून)। यहां तक कि बंगलादेशी इसी हमारी सर-जमीन पर बसते रहे, लेकिन हमारे दिल्ली से निकाले गए लोग उत्तर भारत में दर-दर की ठोकर खाते फिरते रहे हैं। उनके लिए प्रजातन्त्र कभी काम नहीं आया। यह कौन सा न्याय था? यह कौन सा प्रजातन्त्र हैं?

आज इसी मालचा खाप के लोग अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन सरकार सुनने को तैयार नहीं, न ही कोई मुआवजा या कोई अन्य किस्म की सहायता करना चाहती है। खाप पंचायतों को इनके अधिकार की लड़ाई में इनका साथ देना चाहिए। इसी प्रकार जाटसभाओं को भी। मालचा गांव के सरपंच सतीश ठाकरान व गांववालों ने शिर तक मुण्डवाए, लेकिन सरकार के सिर में जूं तक नहीं रेंगी। प्रजातन्त्र तो वह होता है जब प्रजा के दर्द पर तन्त्र हिले।

एक और दुःख भरा उदाहरण देखिए कि दिल्ली के बाकरगढ़ गांव के जाट रणबांकुरों जिन्होंने सन् 1857 में अंग्रेजों की ईंट से ईंट बजाई जिस कारण अंग्रेजों ने इन्हें गांव से बेदखल कर दिया था और इनकी 5388 बीघा जमीन दूसरे गांवों को बांट दी थी, और आज तक ये जाट किसान भाड़े के किसान बने हुए हैं। देश आजाद होने के बाद इस गांव के जाटों ने पं. नेहरू, इंदिरा गांधी तथा स्व० चौ० साहब सिंह वर्मा


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तक न्याय की गुहार लगाई और सभी ने न्याय का भरोसा दिलाया। लेकिन वही ढाक के तीन पात। इस देश के स्वतन्त्रता सेनानियों को देश के आजाद होने का क्या अर्थ हुआ? इसलिए तो इस देश को केवल गांधी व नेहरू का देश कहा जाता है।

इसके बाद सन् 1947 में देश आजाद हुआ, लेकिन वास्तव में यह सत्ता हस्तांतरण था जिसमें देश की आजादी के लिए लड़ने वाले वीर क्रान्तिकारी काफी तो पहले ही शहीद हो गये और जो शेष बचे उन्हें गद्दार मान लिया गया। आम जनता का मीडिया ने इतना ब्रेनवाश कर दिया कि उसे एहसास हुआ कि वे आजाद हो गये, लेकिन मानसिक तौर पर ऐसा कभी नहीं था। इस आजादी के बारे में सन् 1948 में एक अंग्रेज सर स्टैफर्ड क्रिप्स, जो अंग्रेजी सरकार के सुरक्षा मन्त्री के पद तक रहे, ने इंग्लैंड में इस सच्चाई को इस प्रकार ब्यान किया –

  • अंग्रेज राज की व्यवस्था शुरू से व्यापारिक थी क्योंकि हम भारत में व्यापार में लाभ कमाने गये थे और इसी व्यापार की खातिर हम भारत में दो सौ वर्ष ठहरे तथा इसको सुरक्षित रखने के कारण भारत छोड़कर आ गये। अपने हितों की रक्षा के लिए हम राजसत्ता अपने एजेण्टों और दलालों को दे आये।

अर्थात् उनके कहने का स्पष्ट अर्थ था कि पं. नेहरू उनका सबसे बड़ा एजेण्ट व दलाल था। इस बयान पर पं. नेहरू ने कभी विरोध नहीं जताया, क्योंकि यह बात सच थी। हम देखते हैं कि देश आजाद होने पर देश की सत्ता पर अधिकतर वही व्यक्ति काबिज हुये जिनके पूर्वज अंग्रेजों के चापलूस थे। इसके बाद दूसरे लोग आये तो मजबूरन उन्हें भी इसी धारा में शामिल होना पड़ा। परिणामस्वरूप आज देश में चापलूसों, बेईमानों, चरित्रहीन व भ्रष्ट लोगों की बाढ़ आ गई और आम जनता मजबूरन इनसे पीडित है।


पं. नेहरू ने महात्मा गांधी को इस्तेमाल किया, उन्होंने ही गांधी जी को ‘महात्मा’ कहकर प्रचारित करवाया (हालांकि ये पदवी इनको टैगोर जी ने दी थी) और देश की सत्ता हथियाने के लिए उन्होंने इसी महात्मा


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का इस्तेमाल किया जिसके कारण वे सरदार पटेल को प्रधानमंत्री पद से दूर रख पाये, जबकि सन् 1946 में प्रधानमंत्री पद के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटियों की राय मांगी गई तो 15 प्रादेशिक कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल के हक में राय दी, लेकिन फिर भी गांधी ने नेहरू का समर्थन किया। यह वास्तव में एक गुप्त ब्राह्मण-बनिया संधि थी जिसे प्रजातान्त्रिक नहीं कहा जा सकता। लेकिन इसमें हमारे अग्रवाल, बनियों का इस संधि से कोई लेना-देना नहीं था। महात्मा गांधी जी ने अंग्रेज जाने के बाद देश में रामराज्य तथा ग्रामीण उत्थान की कल्पना की थी, लेकिन यह कोरी कल्पना ही थी। क्योंकि उन्होंने अपनी कल्पना की उसी दिन हत्या कर दी थी जिस दिन उन्होंने पं. नेहरू का नाम देश के प्रथम प्रधानमंत्री के लिए मनोनीत किया। पं॰ नेहरू भारत में 20वीं सदी के सबसे चालाक व महान् अवसरवादी ब्राह्मण थे। (पुस्तक ‘देशनायक’) उन्होंने अंग्रेजों से सत्ता मांगने के लिए सभी प्रकार के समझौते किये। पं. नेहरू ने सन् 1943 में कोहि आदि स्थानों पर बार-बार कहा कि “मैं सुभाष व उसकी फौज का तलवार लेकर मुकाबला करूंगा” आदि-आदि। जब एटम-बमों के कारण जापान की हार हुई तो नेता जी सुभाष की आई.एन.ए. के सैनिकों पर अंग्रेजों ने लालकिले में सन् 1945-46 में मुकदमा चलाया तो भारत की आम जनता में गहरा रोष भड़का। इस पर वही पं. नेहरू ने समय की नजाकत को देखते हुए पाला बदलकर काला कोट पहनकर उन वकीलों के साथ खड़े हो गये जो इन सैनिकों का बचाव कर रहे थे, लेकिन जब उनको 14-15 अगस्त 1947 की आधी रात को सत्ता मिली तो उन्होंने क्रान्तिकारी शहीदों व इन सैनिकों के हक में एक शब्द तक नहीं कहा और न ही बाद में इन सैनिकों को सेवानिवृत्त माना। जिस कारण ये देशभक्त सैनिक पैंशन से भी वंचित रहे जिसमें जनरल मोहनसिंह से लेकर सिपाही तक 80 प्रतिशत जाट थे। सन् 1971 की पाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सन् 1972 में इन सैनिकों को अचानक स्वतंत्रता सेनानी मान


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लिया गया। जबकि इन 25 सालों में कितने ही सैनिक मर गये और उनके परिवार गरीबी से जूझते रहे, उनके लिए सरकार को कभी ख्याल तक नहीं आया।

आज तिरंगा लहराता है, केवल उनकी शान में।
सब मूल्यों को एक ओर धर, जो उतरे थे मैदान में।।

पं० नेहरू जो एक पाश्चात्य संस्कृति के रूप में रूढिवादी ब्राह्मण थे, वे अपने घर में सभी शादी विवाह आदि सनातनी ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों से करते आये, वही पंडित जी देश की सत्ता हस्तांतरण (आजादी का दिन) के लिए दिन और समय का मुहूर्त करवाने तक का अंग्रेजों से समझौता कर बैठे। लार्ड माउण्टबैटन ने 15 अगस्त का दिन इसलिए मुकर्रर किया क्योंकि इस दिन जापान ने हथियार डाल दिये थे और साथ-साथ नेता जी सुभाष की आई.एन.ए. सेना ने भी, जिस पर लार्ड माउण्टबैटन जापान फ्रण्ट के सेनापति होते हुए विजयी हुये थे और 15 अगस्त सन् 1947 को उसकी दूसरी सालगिरह थी और हम आज अपनी आजादी की बजाय हर वर्ष 15 अगस्त को अंग्रेजों की जीत का जश्न मनाते हैं (पुस्तक Mountbatton and the Paritition of India)। इस प्रकार पं० नेहरू ने देश की आजादी के दीवानों की आत्मा ही बेच डाली। क्या कभी संसार में आजादी प्राप्त करने वालों ने हारने वालों के कहने पर अपनी आजादी का दिन निश्चित किया है? यह वास्तव में अंग्रेजों की हार नहीं, जीत थी। 15 अगस्त की रात को रात्रि भोज में पं. नेहरू ने लार्ड माउंटबेटन के सामने “Long Live the King” अर्थात् राजा अमर रहे के नारे लगाए। यह देश के लिए बड़ी शर्मनाक बात थी। लार्ड माउंटबेट कहते हैं, “जब मैंने 15 अगस्त को पं. नेहरू को मेरे साथ घोड़ागाड़ी (कोच) में आकर बैठने को कहा तो वह एक स्कूली बच्चे की तरह दुबक कर बैठ गये।’ यही पं. नेहरू उसी दिन इस महान् देश के प्रधानमन्त्री बने जो लार्ड साहब के पैरों में बैठे थे। सन् 1947 में पं. नेहरू का मन्त्रीमण्डल अंग्रेजों की इच्छानुसार बना था। (पुस्तक Lord Mountbatton and the Partition of India).


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पं॰ नेहरू ने सत्ता हथियाने के लिए अंग्रेजों के साथ एक से बढ़कर एक घृणित समझौते किये जिस पर किसी भी स्वाभिमानी भारतीय का सिर शर्म से झुक जायेगा। उन्होंने लिखित रूप में अंग्रेजों से वायदा किया जब भी कहीं भी सुभाष उनको मिला तो वे उन्हें अंग्रेजों के सुपुर्द कर देंगे। यही ‘इंडिया गेट’ जहाँ हम अपने शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और जहाँ 24 घण्टे इनकी याद में ज्वाला जलती है, आज भी अंग्रेजों का गुलाम है और यह अगले 40 सालों तक गुलाम रहेगा क्योंकि गुप्त समझौतों के अनुसार यह अंग्रेजों के नाम 99 साला लीज पर है। इसके अतिरिक्त और भी बहुत से समझौते हैं जो सत्ता हस्तांतरण के दस्तावेज के खण्ड 6, सन् 1942-1947 में देखे जा सकते हैं। पंडित जी इतने बड़े कायर थे उसका एक और उदारहण दे रहा हूँ। जब पाकिस्तान बना तो आपस में मार-काट शुरू हुई इस पर पंडित जी के हाथ पाँव फूल गये और जो व्यक्ति देश की सत्ता हथियाने के लिए वर्षों से तरह-तरह के हथकण्डे अपनाते रहे, लार्ड माउण्टबैटन के पास जाकर बोले कि “उसके बस की बात नहीं है इसे आप ही सम्भालो” (पुस्तक Freedom at Midnight). इसके अतिरिक्त पंडित जी की कायरता के कुछ कारनामे पीछे ‘काश्मीर लेख’ तथा ‘सन् 1962 चीन की लड़ाई’ के लेखों में लिख दिये गये हैं।


पं० नेहरू को प्रायः लोग धर्मनिरपेक्ष कहते हैं जबकि वे ऐसे नहीं थे, यह बात श्री मोरारजी देसाई जो स्वयं एक रूढिवादी सनातनी हिन्दू थे, ने कहा “पंडित नेहरू के साथ दिक्कत यह थी कि वह एक बहुत बड़े रूढिवादी थे परन्तु अपने आपको एक महान् सुधारक समझते थे।” जब उन्हें 15 अगस्त को सत्ता मिली तो ब्राह्मणों ने एक यज्ञ किया जिसमें स्वयं पं. नेहरू खुशी-खुशी पहुंचे और उन्होंने गंगा जल पीकर ब्राह्मणों द्वारा दिया गया राज डंडा ग्रहण किया। लेकिन उसी समय दलित नेताओं ने अपनी समस्याओं पर विचार करने के लिए एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें पं० नेहरू को आमंत्रित करने के लिए कुछ संसद


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सदस्य उनके घर पहुंचे तो पंडित जी भनभना गये और कहा “यह क्या बकवास है” ? यह था पंडित जी का धर्मनिरपेक्ष और जाति-पाति के प्रति उनकी राय। मरने के समय भी उनके तकिये तले ब्राह्मण ग्रन्थ मिले थे। वे आधुनिकता के भेष में एक कट्टर ब्राह्मण थे। उन्होंने अपने पारसी धर्मी दामाद फिरौज गांधी के मरने पर उनका दाह संस्कार करवा दिया गया, जो कि पारसी धर्म में निषेध है। इससे स्पष्ट है कि वे कट्टर ब्राह्मणवादी थे और इसको उन्होंने प्रमाणित किया। आज तक यह स्पष्ट नहीं कि नेहरू की मृत्यु किस बीमारी के कारण हुई?


जब पाकिस्तान से लगभग 1 करोड़ हिन्दू और सिक्ख शरणार्थी आये तो पंडित जी ने अधिक पढ़े-लिखे हिन्दुओं को जानबूझ कर दिल्ली में बसाया जबकि दिल्ली से जानेवाले मुसलमान आनेवाले हिन्दुओं के मुकाबले बहुत ही कम थे। दिल्ली में एक लाख मुस्लिम की जगह 4 लाख 80 हजार हिन्दू-सिक्ख बसाये जिनमें शुरू में ही दिल्ली के किंग्सवे कैम्प में 30 हजार बसाये। फिर करोल बाग, लाजपत नगर, सरोजिनी नगर, राजेन्द्र नगर, मालवीय नगर, मोती नगर व तिलक नगर आदि स्थानों पर अपने चहेतों के नाम नगर बसाये। ये लोग फिर जमना पार तक फैल गए (हरयाणा में अधिक अम्बाला, करनाल तथा हिसार जिलों में बसाया।) यहां उत्तरी भारत में इन्हें बसाना पं॰ नेहरू का फैसला बिल्कुल अनुचित था। क्योंकि उत्तर भारत से मुस्लिम जाने के बाद भी यहां की जनसंख्या का घनत्व बिहार, बंगाल व केरल के बाद अधिक था। इसलिए इनको पूर्वी राज्यों विशेषकर अरुणाचल प्रदेश (नेफा) या मध्यप्रदेश में बसाना चाहिये था जहां जनसंख्या का धनत्व सबसे कम है। दूसरा, वहां के आदिवासी लोग हमसे भी पिछड़े हैं जिनको सीखने की अधिक आवश्यकता है। इसमें उनका अपना निजी स्वार्थ था। क्योंकि ये लोग सफेद को काला तथा काले को सफेद करने में माहिर थे। कुछ स्पष्ट उदाहरण हैं कि नेता जी सुभाष की प्रथम मृत्यु जांच रिपोर्ट में श्री जी.डी. खोसला (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने नेता जी को ‘देशद्रोही’ और ‘जापान की कटपुतली’ तक


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लिख दिया था। ऐसा लिखने के लिए खोसला साहब ने क्या लेन-देन किया इसका किसी जांच से ही पता लगाया जा सकता है। इसी प्रकार चीन की लड़ाई की जांच में भी पं० नेहरु ने अपने जाति भाई कश्मीरी पंडित जनरल कौल को बचाने के लिए खोसला की तरह शरणार्थी जनरल पी.एस. भक्त को लगाया और वे अपने मकसद में सफल रहे। इसी प्रकार हम देखते हैं कि आज तक जितने भी कमीशन बैठे, उनके मुखिया आमतौर पर पाकिस्तान से आने वाले हिन्दू-पंजाबी शरणार्थी ही होते हैं। चाहे राजस्थान के गुर्जरों के आरक्षण के मामले में चोपड़ा कमेटी हो, इनके फैसले आमतौर पर वही होते हैं जो सरकार चाहती है। यह बात लेखक हृदय नारायण सिंह के लेख ‘विभाजन के बीच’ से भी सिद्ध होती है जिसमें उन्होंने लिखा है कि ‘राजेन्द्र सच्चर कमेटी’ ने वही रिपोर्ट दी जो सरकार चाहती थी।’ (दैनिक जागरण)


यह शरणार्थी कमेटी जो सन् 1947 में स्थापित की गई थी, आज तक जीवित है। इसके अतिरिक्त एक हिन्दू-पंजाबी खत्री ‘वोहरा’ जी ने सरकारी गवाह बनकर ‘अमर शहीद भगतसिंह’ ‘राजगुरु’ तथा ‘सुखदेव’ को फाँसी पर चढ़वा दिया था और यही व्यक्ति देश आजाद होने के बाद भी इस देश में रहा और फिर इंग्लैंड में जाकर बसा और वहीं मरा। लेकिन इसके खिलाफ कभी भी सरकार ने उंगली तक नहीं उठाई। इसी प्रकार चमनलाल दीवान (हिन्दू पंजाबी खत्री) तथा लाहौर से छपने वाले समाचार-पत्र ‘ट्रिब्यून’ ने इन अमर शहीदों को पहले पागल तक लिखा। (पुस्तक - अमर शहीद भगतसिंह)। इसके अतिरिक्त जब इन्द्रकुमार गुजराल (हिन्दू पंजाबी खत्री) सन् 1997 में देश के थोंपे हुए प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने पंजाब का 800 करोड़ रुपये का कर्ज केन्द्र सरकार से माफ करवा के अकाली पार्टी से जालंधर लोकसभा सीट हथियाने में सफल रहे, जबकि उस समय जनता पार्टी का अकाली पार्टी से कोई भी चुनावी समझौता नहीं था। कहने का अर्थ है कि इन्होंने यह सीट अप्रत्यक्ष रूप से पंजाब से 800 करोड़ रुपये में सरकारी पैसे से खरीदी। इसी प्रकार अपने वर्ग के दो लेखकों श्री कुलदीप नय्यर


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(हिन्दू पंजाबी खत्री) तथा करतारसिंह दुग्गल (सिक्ख पंजाबी खत्री) को राज्यसभा में मनोनीत सदस्य बनवाने में सफल रहे थे। (Times of India dated 29-8-1997) । वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह कोहली को कहते हैं कि वे ईमानदार हैं। इस बात का हमें पता नहीं लेकिन वे प्रधानमंत्री बनने के बाद योजना आयोग के उपाध्यक्ष (अध्यक्ष तो वे प्रधानमन्त्री स्वयं हैं), चुनाव आयोग के अध्यक्ष, सेना के चीफ, नौसेना के चीफ, उच्चतम न्यायालय के चीफ जस्टिस, रेलवे बोर्ड का चेयरमैन, यू.पी.एस.सी. के चेयरमैन, स्टील अथार्टी आफ इण्डिया के चेयरमैन तथा नेशनल डिश्सास्टर मनेजमैण्ट के उपचेयरमैन (इसके चेयरमैन प्रधानमंत्री स्वयं होते हैं) आदि-आदि शरणार्थी पंजाबी बने हैं। श्री मनमोहनसिंह जी ने स्वयं अपनी निजी सम्पत्ति सन् 2007 में 4 करोड़ दिखलाई है लेकिन कोई भी चपड़ासी से राष्ट्रपति तक सरकार का वेतनभोगी ईमानदार 4 करोड़ की सम्पत्ति कैसे जोड़ सकता है?


पाठक कृपया यह न सोचें कि मैं कांग्रेसी विरोधी हूं। मेरी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है और न ही भविष्य में होगी। सरदार मनमोहन सिंह को जरूरत से ज्यादा ईमानदार बतलाया जा रहा है इसलिए उनके बारे में लिखा है। वरना नेताओं के बारे में पाठक सभी जानते हैं। (वैसे भी आज कांग्रेस में ब्राह्मणवाद की जड़ें नहीं रही है। जब इन्हें भाजपा का शासन आता नजर आया तो उसमें चले गए फिर कुछ बहुजन समाज पार्टी में चले गए। हिन्दू पंजाबी शरणार्थियों ने पहले जनसंघ पार्टी बनाई जो बाद में भाजपा में तबदील हो गई।) सन् 1924 में पंजाब के हाई कोटेर्ट लाहौर के दो अंग्रेज जजों ने इनके बारे में फैसला दिया था कि ये लोग बेईमान और झूठे होते हैं। यह भी याद रहे कि सन् 1919 जलियांवाला बाग के नरसंहार के अपराधी ले. गवर्नर सर माईकल ओडवायर को नरेन्द्रनाथ बक्शी, रामशरणदास व सादीलाल (सभी हिन्दू पंजाबी खत्री) ने इनको अभिनन्दन पत्र भेंट किया और दावत दी। महाराजा रणजीतसिंह के पुत्र दलीपसिंह को गद्दी से हटाने के लिए हीरा दिवान (हिन्दू पंजाबी खत्री) तथा जल्ला ब्राह्मण ने षड्यन्त्र


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रचा, जिनको सिक्ख सेना ने मार दिया। इसी प्रकार स्वयं गुरुनानक जी ने ‘आशा-दी-वार’ के 25वें श्लोक में 15 वीं शताब्दी में ही लिख दिया था कि मुसलमान, काजी और हाकिम हैं रिश्वतखोर मगर पढ़ते हैं नवाज। उन काजियों और हाकियों के मुंशी ऐसे खत्री हैं जो छुरी चलाते हैं, पर उनके गले में है जनेऊ। ब्राह्मण उन जातियों के घर में जाकर शंख बजाते हैं इसलिए उन ब्राह्मणों को उन्हीं पदार्थों का स्वाद अच्छा लगता है। उन लोगों की पूंजी झूठी और व्यापार भी झूठा है। झूठ बोलकर ही वे गुजारा करते हैं। शर्म और धर्म का डेरा दूर हो गया है।


इन शरणार्थी पंजाबियों को दिल्ली में बसाने का दूसरा कारण था कि ये लोग पाकिस्तान बनने से पहले अधिकतर कांग्रेसी थे। पाठकों को याद होगा कि आजादी से पहले भारत के आधे से ज्यादा राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारें थीं और संयुक्त पंजाब कांग्रेस का सबसे बड़ा सिरदर्द था। क्योंकि आजादी से पहले संयुक्त पंजाब की विधानसभा के चुनाव सन् 1936-37 में जमीदारा पार्टी के पास 120 सीटें और कांग्रेस के पास मात्र 16 सीटें रह गई थीं। इसलिए नेहरू ने इन्हें कांग्रेसी समझकर भी दिल्ली में बसाया था, लेकिन बंटवारे की वजह से इन पर इतनी मार पड़ी की ये लोग कांग्रेसी संस्कृति को भी भूल गये और हिन्दू-शरणार्थी पंजाबियों ने धार्मिक आधार पर ‘जनसंघ’ पार्टी को अपनाया। पाठकों की जानकारी के लिए हम बतला दें कि पाकिस्तान से आनेवाले लोगों में मुख्य तौर पर चार जातियाँ हैं जो सवर्ण जातियाँ हैं क्योंकि अधिकतर दलित जातियाँ व काफी जाट पहले ही मुस्लिम धर्म अपना चुके थे। इन पंजाबी शरणार्थी जातियों में पहला अरोड़ा, जो आमतौर अपने को अरोड़ा ही लिखते हैं या फिर आहुजा से लेकर जड़ेजा तक अर्थात् ‘ए’ से ‘जैड’ तक, इनके गोत्रों में आखरी अक्षर ‘जा’ इस्तेमाल होता है। दूसरा सिन्धी हैं जिनके गोत्र के नाम का अन्त में ‘नी’ अक्षर इस्तेमाल होता है जैसे तोतलानी, लखानी, अम्बानी, सोमानी, आडवाणी, मिगलानी व थैरानी आदि-आदि। इसके


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बाद खत्री और पंडित हैं। उदाहरण के लिए - मलहोत्रा, महरोत्रा, कपूर, खन्ना, खुराना, पुरी, सूद, सूरी, सेठ, सेठी, चावला, गुलाटी, चढ्ढा, चट्टा, बिन्द्रा, मुख्खी, सिक्का, मुन्जाल, मुद्गिल, नागपाल, सरधाना, जावा, बहल, साहनी, वैद, आनन्द, मोहन, कोहली, कात्याल, मलिक, हाण्डा, होरा, ढाण्डा, दूवा, सचदेवा, टंडन, नन्दा, धूपिया, चोपड़ा, धोपड़ा, घई, सिब्बल, दत्त या दत्ता, रेखी, लेखी, जेटली, सरीन, पाहवा, बजाज, कथूरिया, खजूरिया, छाबड़ा, जौहर, जौहल, सोढी, ग्रोवर, भाटिया, भट्टल, बक्सी, सहगल, दुग्गल, मनोचा, मनचंदा, चंदोक, मधोक, बत्रा, खेड़ा, ओबराय, स्वराज, सबरवाल, कक्कड़, मक्कड़, धींगड़ा, वाधवा, बढेरा, महता, विज, शोहरी, मुन्द्रा, कुन्द्रा, मदान, खट्टर, वोहरा, खुल्लर, छिब्बर, चुग, उप्पल, तिरखा, तलवार, भल्ला, ढल्ला, धीर, वासन, भसीन, बाली, डांग, चंदा, चानना, खेमका, खासा, पसरीजा, वाही, राही, शाही, नरूला, बावा, वालिया, नय्यर, कौशल, कोचर, सच्चर, कालरा, भान, भतग, जगत, बेदी, थापर, गुजराल, गुलजार, अधलखा, नारंग, धवन, तुली, लूथरा, मेहरा, बेदी, दीवान, सेतिया, मिड्ढा, मरवाह, खोसला, मैनी, घेरा, हाड़ा, कपिला, जग्गा, लाल, रूंगटा, टमटा, बेरी, पोपली, रतड़ा, खासा व सारदा आदि-आदि। इसमें कुछ गोत्र जाटों व दूसरी जातियों में पाये जाते हैं जैसे कि मलिक, ढांडा, मेहरा, गुजराल व उप्पल आदि। विशेष बात ध्यान देने की यह है कि ये लोग लगभग सभी के सभी अपनी जाति वर्ग (पंजाबी शरणार्थी वर्ग) की पहचान व सुविधा के लिए अपने गोत्रों का इस्तेमाल अवश्य करते हैं। कुछ अपवादों को छोड़कर जैसे कि जगमोहन, मनमोहनसिंह व खुशवंतसिंह आदि-आदि। कुछ ब्राह्मण अपने को सीधे तौर पर ‘शर्मा’ लिखते हैं।


जब भारत की सरकार चलाने की बात आई तो पं. नेहरू के पास आजाद देश के लिए कोई भी नई नीति नहीं थी। वही अंग्रेजों की नीति और कानून जारी रखे। (आज भी 300 से अधिक अंग्रेजों के मुलभूत कानून चल रहे हैं) इसी आजादी से पहले नेताजी सुभाषचन्द्र जी ने कहा


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था “आजादी से मेरा तात्पर्य मात्र राजनैतिक बंधनों से ही मुक्ति नहीं है वरन् इसका तात्पर्य है - धन का समान बंटवारा, जातिभेद और सामाजिक अन्यायों का खात्मा और साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता का विनाश।” लेकिन पं. नेहरू के पास कोई नीति न होने के कारण उन्होंने अंग्रेजों की नीति को अपनाया जो पूर्णतया ‘बांटो और राज करो’ (Divide and Rule) की नीति पर आधारित थी। इसका उदाहरण इसी से मिलता है कि जब देश आजाद हुआ तो संविधान बनने तक तथा प्रथम सामान्य चुनाव सन् 1952 में होने से पहले भारत के लगभग सभी 15 राज्यों में शहरी ब्राह्मणों को राज्यों के मुख्यमंत्री लगाया गया। इससे अधिक पक्षपात का स्पष्ट प्रमाण क्या हो सकता है? पं० नेहरू ने अंग्रेजों की नीति को जारी रखते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए हमारे चार गाँवों को उजाड़ दिया, जबकि गांधी जी गाँव की कल्याण की बात करते रहे और उनका शिष्य गाँव को उजाड़ता रहा। इस प्रकार जो दिल्ली कभी प्राचीन हरयाणा का जिला होता था जिसकी तीन तहसीलें बल्लभगढ़, महरोली तथा सोनीपत थी। पहले अंग्रेजों ने सन् 1911 में सोनीपत तहसील को रोहतक के साथ तथा बल्लभगढ़ को गुड़गांवा के साथ मिला दिया और महरोली तहसील को ही दिल्ली राजधानी माना गया, जिसमें कुल 377 गाँव थे जिसमें आज 360 गाँव शेष है और अभी उसी नीति को जारी रखते हुए अभी सन् 2005 में नांगल देवत गांव को उजाड़ा दिया गया है। इन गाँवों की प्रधानगी पालम गाँव के पास रही है। जिन्होंने कभी अपने गाँव व निवास स्थान को उजड़ते हुए देखा है, उनको तो यह समझना चाहिए। दिनांक 31.10.1940 को नेता जी सुभाष ने अपने भाई शरत बोस को पत्र में लिखा था “स्वराज मिलने के बाद अगर सत्ता इन ओछे, बदले की भावना से प्रेरित और नीतिभ्रष्ट लोगों के हाथ चली जायेगी तो देश का क्या हाल होगा”। आज क्या हाल हो रहा है, हम सब देख रहे हैं।


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इसके अतिरिक्त पं० नेहरू की चाल थी कि जाट, जो ऐतिहासिक कारणों से कांग्रेस विरोधी रहे थे, उन्हें दिल्ली में हर तरह से अल्पमत में ला दिया जाये जिसके लिये उन्होंने अपने दूत जी.बी. पंत को सलाह दी कि वे यहाँ पहाड़ी क्षेत्र (आज का उत्तराखण्ड) के लोगों को भी अधिक से अधिक बसायें, इसी कारण आज जमनापार दिल्ली में पहाड़ी लोगों की संख्या 20 प्रतिशत से भी अधिक है। सभी राज्यों में ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनाने के पीछे पंडित जी का उद्देश्य था कि पूरे भारत में शिक्षा के लिए ऐसा पाठ्यक्रम और साहित्य खड़ा कर दिया जाये जिसमें केवल गांधी, नेहरू व कांग्रेस नजर आयें तथा शांति और अहिंसा का नारा देकर पूरे क्रान्तिकारियों के इतिहास को दबा दिया जाये ताकि आम जनता व आने वाली संतानें समझें की देश को आजादी दिलवाने वाले केवल यही कांग्रेसी लोग थे और इसी कारण भारत को “सत्यमेव-जयते” का नारा दिया गया जिसका अर्थ है कि सत्य की जीत होती है और यही लोग देश के सत्यवादी थे, लेकिन वास्तव में न तो कहीं सत्य था और ना ही जीत। ऐसा करना पं० नेहरू-मण्डली की मजबूरी थी, क्योंकि यदि क्रान्तिकारियों के नाम आगे आते तो राजा नाहरसिंह का नाम भी आना था जिससे निश्चित तौर पर पं० नेहरू के दादा गंगाधर कौल की 1857 की गद्दारियाँ भी सामने आती तो फिर पं० नेहरू भारत के प्रधान मंत्री बनने व दिल्ली में रहने में काफी मुसीबतें आनी थी।

पं० नेहरू अपने सभी उद्देश्यों में लगभग सफल रहे और दिल्ली में जाट हरयाणवी समाज को अपने जीते जी ही अल्पसंख्यक बना दिया और उसी का उदाहरण है कि आज नई दिल्ली के लोकसभा क्षेत्र से अजय माकन केवल 3.50 लाख वोटरों से वोट मांगकर जीत गये, जबकि सज्जनकुमार व साहिबसिंह वर्मा को चुनाव जीतने के लिए बाहरी दिल्ली के चारों तरफ चक्कर काटकर 27 लाख वोटरों से मिलना पड़ता रहा। इसी वोट राजनीति के कारण आज दिल्ली में लाखों बंगलादेशी लोग रहते हैं, वरना जाटों के अधीन दिल्ली में यह कैसे संभव हो सकता था?


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इस प्रकार पं० नेहरू ने एक ‘आधुनिक ब्राह्मणवाद’ तथा एक आधुनिक ‘लुटेरी संस्कृति’ को जन्म दिया जिसे वास्तविक ‘नेहरूवाद’ कहा जा सकता है। इस वाद की जड़ में चरित्रहीनता तथा भ्रष्टाचार ने सन् 1947 के बाद एक स्वस्थ शिशु के रूप में जन्म लिया। अभी-अभी कुछ दिन पहले अडवानी जी ने भी स्वयं माना है कि भ्रष्टाचार सन् 1947 के बाद अधिक फैला है। यदि मैं उन नेताओं की चरित्रहीनता के बारे में लिखूं तो फिर एक अलग से पुस्तक बन जायेगी। अमेरिका में बिल किल्टन व मोनिका लेविंस्की के चरित्रहीनता प्रकरण में तो एक ‘स्टार’ जाँच हुई थी, यहाँ तो फिर कई जाँच करनी पड़ेंगी। हम हिन्दू संस्कृति की दुहाई देते फिरते हैं कि पराई स्त्री या मर्द को बुरी नजरों से देखना अधर्म है, यहाँ तो ऐसे लोगों की लम्बी लाइन है जिनमें कइयों के जीवन में चरित्र नाम की कोई चीज नहीं थी। आज भी भारत में एक ऐसे बड़े नेता हैं जिनकी कोठी के पिछवाड़े में एक बंगाली बुढिया रखैल धूप सेकती मिलेगी। यदि इस नेता से कोई ऐसा सवाल पूछता है तो ये भड़क उठते हैं और कहते हैं कि “किसी के निजी जीवन पर सवाल नहीं उठाना चाहिए”। इनको कौन समझाये कि नेता का जीवन निजी नहीं रहता है, वह तो जनता के लिए उदाहरण हो जाता है। जबकि इसी नेता पर गाय का मांस (बीफ) खाने का इल्जाम लगता रहा। लेकिन यह निश्चित है कि यह अभी तक शराब अवश्य पीते हैं और नीरस कविताएं भी लिख देते हैं। इन पर क्रान्तिकारियों के विरोध में बयान देने का भी इल्जाम था। संसद में अपनी कुर्सी से संसद के दरवाजे तक पहुंचते-पहुंचते तीन बार अपने बयान बदली कर देते थे। परन्तु जो भी हो, ब्राह्मणवादी मीडिया ने पूरा साथ दिया तो पौ-बारह पच्चीस रहे। यही मीडिया नेहरू के साथ भी था जिसने छठे दशक में ऐसे हालात पैदा कर दिए कि यदि नेहरू मर गया तो देश का क्या होगा? लेकिन लाल बहादुर शास्त्री उनसे अच्छे प्रधानमन्त्री साबित हुए। इसीलिए तो लोकनायक जयप्रकाश जी ने कहा था, “सार्वजनिक व्यक्ति का चरित्र निष्कलंक होना चाहिए। इसी कारण


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उनके अनुकरण से समाज भी निश्चयपूर्वक बदलेगा और अच्छा बनेगा।” लेकिन इनके उदाहरण पेश किये गये तो भारत माता आत्महत्या कर लेगी। पं० नेहरू जी के लिए एक बेचारी एडवीना का नाम ही घसीटा जाता है जबकि ये तो बहुत बड़े रसिया थे। श्री कमलेश्वर जी लिखते हैं, “आजादी के बाद पाकिस्तान से शरणार्थी आए तो सिर छुपाने के लिए किंग्जवे कैम्प शरणार्थी कैम्प में जगह तलाश रहे थे, इसी कैम्प की इंचार्ज मृदुला साराभाई तीन-मूर्ति के आलीशान भवन में नेहरू के बिस्तर पर विराजमान थी।” यह दास्तान बड़ी लम्बी है। वर्तमान के एक महानायक की माता जी भी उनकी प्रेमिकाओं में से एक थी। इसी मीडिया ने हमेशा नेहरू के एक ही पहलू को सुन्दर बनाकर दिखाया। हमारे राष्ट्रपिता “रंगीला गांधी” की बात तो छोड़ो। मैं लिखूंगा तो लोग कहेंगे कि मैं क्या लिखता हूँ। इस बारे में अधिक जानना है तो पाठक निम्न पुस्तकें पढ़ें – ‘रंगीला गांधी’ तथा अंग्रेजी की पुस्तक “The Robot and the Lotus” और “Brahmcharya, Gandhi & his Western Associates” तथा “क्या गांधी महात्मा थे?” ।

यह मण्डली भ्रष्ट, चरित्रहीन, अवसरवादी तथा कायर थी, इसी परिणामस्वरूप उसका प्रतिबिम्ब हम आज देश व समाज में देख सकते हैं। इसका स्पष्ट उदाहरण अशोक मल्होत्रा जैसे ठग और देशद्रोही हैं जो दिल्ली के कुछ नेताओं की मिली-भगत से हमारी दिल्ली को लूट रहे हैं, लेकिन लुटेरा जाटों को लिख रहे हैं और हमारी बची हुई जमीन पर अपना अफसोस जता रहे हैं।

महज हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि यह सूरत बदलनी चाहिये ।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी, लेकिन आग लगनी चाहिए।।

मैं सोचता हूँ यदि हमारे नेता चौ० छोटूराम, चौ० चरणसिंह,


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चौ० देवीलाल, चौ० बलदेवराम मिर्धा, सरदार प्रकाशसिंह बादल, चौ० बंसीलाल आदि जैसे नेता ऐसे चरित्रहीन होते तो गाँव वाले उनको सरपंच भी नहीं बनाते। लेकिन चरित्रहीन लोग आजादी मिलने के बाद से हम पर राज करते रहे हैं।


इसके बाद दिल्ली की वास्तविक लूट शुरू होती है। इस लूट के लिए दिल्ली में डी.डी.ए. (दिल्ली डेवलैपमेंट अथार्टी) एक सरकारी एजेन्सी के माध्यम से किसानों की करोड़ों के भाव की जमीन कोड़ी के भाव अधिकृत करती रही। (यही सरकारी एजेंसी 74वें संविधान संशोधन के अनुसार गैर कानूनी है। कृपया दि-ट्रिब्यून दिनांक 27.06.2006 का अंक देखें।) पाठकों को यह जानकर ताज्जुब होगा कि मुनीरकामोहम्मदपुर आदि गाँवों की जमीन औसतन 5 हजार से 8 हजार प्रति एकड़ के भाव से अधिग्रहण की गई थी, जिस पर आज आर.के.पुरम् तथा हैयात होटल आदि खड़े हैं। लुटेरों व नेताओं (वैसे अधिकतर नेता भी लुटेरे हैं) की मिलीभगत से डी.डी.ए. द्वारा अधिकृत जमीन को ट्रस्ट आदि के नाम से कोडियों के भाव हथिया कर उस पर बड़े-बड़े प्राईवेट अस्पताल, प्राईवेट स्कूल और व्यापारिक संस्थाएँ आदि खडे होते रहे। जाट व दिल्ली के अन्य किसानों की माँ (धरती माता) जिसके आँचल की रक्षा इन जाट किसानों के पूर्वजों ने बलिदान और खून बहाकर की, वही माता सरे आम लुटती रही, बिकती रही और यही बहादुर किसान निःसहाय और मूकदर्शक बने रहे। साथ-साथ यह भी कहते रहे कि उसे दो लाख रुपये मिले तो उसको चार लाख रुपये मिले। इन बनावटी ट्रस्टियों व लुटेरों ने किस प्रकार किसानों की माँ से बलात्कार किया, इसका एक उदाहरण देखिये कि जिस बत्रा जी (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने गरीबों के इलाज के नाम से बत्रा हस्पताल बनाया, उसके एक कमरे का किराया किसी भी एक थ्री-स्टार होटल के कमरे से अधिक है। जिस किसान की जमीन थी उसके बच्चों को रहने के लिए जमीन नहीं, वह नंगा सड़क पर खड़ा है, उस किसान की हालत भीखमंगे जैसी हो गई, लेकिन बत्रा साहब उसी की


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जमीन पर करोड़ों कमा रहे हैं, क्या इसी को मेहनत कहते हैं? क्या इसी को विकास कहते हैं? एक भोले-भाले व मजबूर किसान का पेशा उजाड़कर दूसरे के पेशे को जमाकर करोड़पति बना देना। अभी यही लोग कहेंगे कि किसान को मुआवजा मिल गया था, तो मैं कहता हूँ कि मुझे कम से कम 5 ऐसे लोगों के सिर फोड़ने की इजाजत दे दी जाये तो मैं पांचों के इलाज व दवाइयों का खर्चा देने का वायदा करता हूँ। क्या कभी किसान के उस दर्द की किसी ने कीमत आंकी? उस किसान के पेशे का क्या हुआ? उसकी संतानों का रोजी-रोटी का क्या बंदोबस्त हुआ? इस हमारी दिल्ली पीठ की यही बर्बरता की लूट की कहानी है।


और हमारी इसी जमीन पर बड़ी-बड़ी संस्थायें व कालोनियां बनती रही और वही लोग तथा सरकार उनके नाम अपनी मर्जी से रखते रहे, यहाँ तक कि पाकिस्तान के गाँवों तक के नाम पर हमारी जमीन पर कालोनियों के नाम रखे हैं, जैसे कि डेरांवाला, गुजरांवाला व मियांवाली आदि-आदि। आप बतलाइये कि हैडगेवार का दिल्ली से क्या रिश्ता था कि उसके नाम पर भी दिल्ली ‘आउटर रिंग रोड’ का नाम रख दिया गया? हैडगेवार आर.एस.एस. के संस्थापक थे, दिल्ली या इस रोड के नहीं। नागपुर का नाम उनके नाम पर रख दिया जाये तो हमें तनिक भी एतराज नहीं जहाँ आर.एस.एस. का मुख्यालय है। क्या पं० नेहरू का खानदान ही इस देश और दिल्ली में था? क्या हम सभी बगैर पूर्वजों के ही पैदा हो गये? क्या हमारा कोई नेता और महापुरुष नहीं हुआ? अब ये लोग कहेंगे कि दिल्ली तो देश की राजधानी है, तो क्या बम्बई देश की आर्थिक राजधानी नहीं है? बम्बई हवाई अड्डे से ‘छत्रपति शिवाजी’ का नाम हटाकर देखें? मद्रास हवाई अड्डे से अन्नादुराई का नाम हटाकर देखें? कलकता हवाई अड्डे से नेता जी का नाम हटाकर देखें? इसी कारण तो अभी पिछले दिनों स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने बम्बई में बिहारी विद्यार्थियों को कह दिया था कि “यहाँ दादागिरी करने की आवश्यकता नहीं है।” अभी-अभी कुछ दिन पहले पूना में उत्तर भारत के रेलवे के


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लिए परीक्षा देने वालों के वहां कागज फाड़ दिए गए। लेकिन हमारी दिल्ली में मदनलाल खुराना तथा बिहारी बाबू व फिल्मी अभिनेता शत्रुघन सिन्हा ने किस कारण 2005 मार्च में पंजाबी व बिहारी एकता के लिए जनसभा की? इसमें इनका क्या स्वार्थ जुड़ा था पाठक कृपया इस पर एक बार विचार तो करें?

बुलबुला पानी का इक इतना हवा में बढ़ गया।
हमारे पास आया तो हमारे ही सिर पर चढ़ गया॥

हमारे पूर्वज महाराजा सूरजमल जिन्हें अपने समय का पूरे एशिया में एक महान् राजा माना गया, उनके नाम पर नांगलोई के पास एक स्टेडियम बनाया अर्थात् तार लगाये जिसमें गधे चरते-फिरते हैं। क्या कभी किसी ने नेहरू स्टेडियम में कोई गधा चरता देखा है? इस लुटेरी संस्कृति ने हमारी ‘पीठ’ दिल्ली को हर तरह से लूटा और लूट रहे हैं और पीठ में पीछे से छुरा भी घोंप रहे हैं। देखिये, जेसिका लाल हत्याकाण्ड में यही बीना रमानी (सिंधी) अपने होटल में बगैर लाईसेन्स के शराब बेचती रही और ‘इंडिया टी.वी’ की ‘जनता की अदालत’ में माननीय सुश्री न्यायाधीश आनंद (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने अपना फैसला सुनाया कि यह बात कोई अहमियत नहीं रखती कि श्रीमती बीना रमानी (सिन्धी) के होटल में शराब बेची गई, जबकि सच्चाई यह है कि यदि बीना रमानी अपने उस होटल या लॉज में बगैर लाईसैन्स के शराब नहीं बेचती तो जेसिका लाल हत्याकाण्ड होना ही नहीं था अर्थात् ना बांस होता न बजती बांसुरी। अभी खुशवंतसिंह जी अपने लेखों में श्रीमती रमानी की वकालत में लिखते हैं कि इसमें श्रीमती रमानी का कोई दोष नहीं है वह तो सिन्धी सरदारनी है। श्री कमलेश्वर जी मॉडल जेसिका पर एक व्यंग्यात्मक टिप्प्णी में लिखते हैं ‘इमली के आंगन में मॉडल जेसिका लाल की लाश पड़ी थी, उसे प्यार और आभार से थपथपाते हुए बीना रमानी ने कहा, ‘यह हमारी नाचती गाती कल्चर की पहली शहीद है। पैदा होने के फौरन बाद इसने मां का दूध जरूर पिया, फिर नहीं पिया। यह लगातार लिकर या बीयर पीती रही


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क्योंकि दूध से ज्यादा प्रोटीन बीयर में है। सेब के रस से कम क्लोरीन है बीयर में। यही जेसिका लाल के दिलकश और खूबसूरत होने का राज है। यह तूफानी खूबसूरती जिसे देखकर मनु शर्मा पागल हो गया।’


खुशवन्त सिंह बड़े विख्यात लेखक और पत्रकार हैं। इसलिए उनसे प्रार्थना है कि मरने से पहले यह सच्चाई देशवासियों को बतला जाएं कि शहीदे आजम भगतसिंह के मुकदमे में उनके खिलाफ गवाही देने वालों में कौन-कौन थे? हमने तो यह भी पढ़ा है कि उनके पिता जी सरदार शोभासिंह भी उनमें से एक थे, जिनको अंग्रेजों ने संसद भवन व वायसराय भवन (आज का राष्ट्रपति भवन) बनाने का ठेका दिया था। उन्होंने अंग्रेजों के अहसान का बदला उतारा और रातों रात मालामाल हो गए। विद्वान् व चर्चित लेखक सरदार खुशवंतसिंह के बारे में लोग कहते हैं कि वे सच लिखनेवाले लेखक हैं, लेकिन जब पाकिस्तानी शरणार्थियों की लूट की बात आती है तो इनकी कलम की स्याही कम पड़ जाती है। आज ऐसे ही होटलों में इसी संस्कृति के दो जजों (हिन्दू पंजाबी खत्री) ने लड़कियों को शराब परोसना एक अदालती आदेश के अनुसार वैध (उचित) करार दे दिया है। दिल्ली विश्वविद्यालय में ‘कंडोम’ के काउंटर खोल दिये हैं। पहले हमारी दिल्ली की दीवारों पर लिखा मिलता था। “रिश्ते ही रिश्ते ...... अरोड़ा से मिलें!” और अभी अखबारों में लिखा मिलता है - “लड़के व लड़कियों को आपस में कैसे पटाना है मेहर भसीन व रीता गंगवानी से उनके दफ्तर में मिलें” (Times of India का Time Life भाग-दो दिनांक 26.02.2006)। यही लोग फिर बम्बई में गाना गाते हैं ‘दाऊद भाई, सबका भाई’ (अनु मलिक - हिन्दू पंजाबी खत्री) और इसमें तालियाँ पीटनेवाले लगभग पूरे के पूरे इसी शरणार्थी पंजाबी वर्ग से फिल्मी उद्योग के लोग थे (‘आज तक’ टी.वी)। वहीं दूसरी ओर शक्ति कपूर फिल्मों में नई आने वाली लड़कियों को वेश्या बनाने में लगे थे। (कास्टिंग काऊच- ‘इण्डिया टी.वी.’)। यह एक बहुत बड़ी फिदरत है जिसे आम आदमी के लिए समझना आसान नहीं है। निदेशक प्रकाश मेहरा के


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पब ‘बाम्बेईस्ट-72’ में ड्रग्स का धंधा पाया गया जिसमें 239 लड़के-लड़कियों को गिरफ्तार किया गया। (आज तक टी.वी.)। बम्बई के डांसबारों के मालिक भी अधिकतर यही लोग हैं और इन डांसबारों में क्या-क्या होता है जानने वाले सभी जानते हैं। इस संस्कृति ने यह प्रमाणित करने का पूरा प्रयास किया है कि ‘पैसा ही दुनियां में सबसे बड़ा है’ क्योंकि इसी पैसे के बल से वोट से लेकर एक एम.एल.ए. तथा एम.पी. तक खरीदे और बेचे जाते रहे और सरकारें बनाकर इसे सिद्ध किया गया कि वास्तव में भारतवर्ष में पैसा ही सब कुछ है, चरित्र और ईमानदारी नहीं। इसलिए कहावत है कि Love of money is the root of all evils अर्थात् पैसे से प्यार ही सब बुराइयों की जड़ है और यही लोग पैसे के अधिक प्रेमी हैं। ये प्रेमी ही नहीं, पैसे के लिए पागल हैं और यही पागलपन आज सबके सिर पर चढ़कर बोल रहा है। फिर इन्हीं के अखबार और मीडिया जाटों को तालाब का ठहरा हुआ पानी कह रहे हैं। यदि ये हमें तालिबानी कहेंगे तो हम इन्हें यहूदी कहेंगे। राम जेठमलानी जाटों को टी.वी. पर लूनाटिक (पागल) कह रहा है तो हम इन्हें लुटेरे कहेंगे।


आज पूरा यूरोप इजराइल के यहूदियों के पक्ष में खड़ा है, क्यों? यहूदी और इस्लाम तो ईसाइयों से समान दूरी पर हैं, फिर भी ऐसा क्यों? वह इसलिए कि आज यूरोप की पूरी अर्थव्यवस्था यहूदियों के हाथ में है। क्या हिटलर मूर्ख था? कभी नहीं। उनकी एक ही भूल थी कि उन्होंने सिकन्दर तथा नेपोलियन की राह पकड़ी जो इस आधुनिक युग में संभव नहीं थी। उसने लाखों यहूदियों का सर्वनाश क्यों किया? इसका भी तो कोई कारण होगा? सिकन्दर और नेपोलियन को तो इतिहास ने महान् बना दिया जबकि वे संसार को कभी नहीं जीत पाये और उन्होंने हिटलर से भी ज्यादा लोगों को मौत के घाट उतारा। लेकिन हिटलर बदनाम होकर भी इतिहास में अमर रहेगा क्योंकि उसने लुटेरों का जर्मनी की जमीन से सफाया कर दिया था। जो भारतीय हिटलर की निंदा करते हैं उन्हें नहीं भूलना चाहिए कि सबसे पहले हिटलर ने नेता जी सुभाष को पनाह दी


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थी और रेडियो स्टेशन लगवाकर उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध भाषण की सुविधाएं दी। संसार में अग्रवाल बनियों से चालाक मारवाड़ी बनिया है, इनसे चालाक यहूदी (बनिया) और इनसे चालाक अरोड़ा, खत्री व सिंधी बनिया हैं। मैं यहाँ यह कहना चाहूंगा कि मैंने अपने साढे-34 वर्ष के सेवाकाल (विवरण लेखक के परिचय में पढें) भारत वर्ष में लगभग सभी जगह जहाँ-जहाँ उग्रवाद व आंदोलन चले, सेवा की। मेरा मानना है कि जो भी व्यक्ति अपनी जाति, वर्ग व देश के लिये आंदोलन करते हैं वे कभी गलत नहीं होते, चाहे वह अमर शहीद भगतसिंह, बृषा मुण्डा, तात्या भील, चारु मजूमदार, कान्नू सान्याल, जनरल फिजो, लाल डेंगा, शेखअब्दुल्ला, संत जरनेलसिंह भिण्डरवाला व सरदार सिमरनजीतसिंह मान आदि क्यों ना हों। यह अलग बात है कि उनमें से कुछ के आंदोलन गलत हाथों में व गलत रास्ते पर चले गये। मुझे याद है कि जिस ‘लाल डेंगा’ को, जो कभी आसाम रजि० में हवलदार थे, उनको अनुशासनहीनता के कारण नौकरी से बाहर निकाल दिया गया था, को पकड़ने व मारने के लिए मिल्ट्री व पैरामिल्ट्री के हम लोग रात-दिन मिजोराम के जंगलों की खाक छानते फिरते थे। उसी व्यक्ति को हमने 30 जून 1986 में हथियारबंद सलामी दी तथा आज भी उनकी मजार पर फूल चढ़ाने जाते हैं। इसी दिन तत्कालीन प्रधानमन्त्री राजीव गांधी ने स्वयं समझौते के लिए वहां जाना पड़ा था। वही शेख अब्दुल्ला जिनको सन् 1953 में कूद में एक ड्रामे के तहत पं० नेहरू ने नजरबन्द करवाया तथा सी.आर.पी.एफ. को उनकी हिफाजत में लगाया उसी महापुरुष को हम सन् 1975 में एक नजर से देखने के लिए टूट पड़े थे और जम्मू कश्मीर की कांग्रेस सरकार भारी बहुमत में होते हुए स्वयं इन्दिरा गांधी ने इसे शहीद कर दिया। वहीं ‘फिजो’ साहब जो कभी सड़क के किनारे नागालैण्ड में एक छोटी सी दुकान में लोगों की गाडि़यों की मुरम्मत किया करते थे, को मिल्ट्री व पैरामिल्ट्री उनको पकड़ने व मारने के लिए उनके जीवन उपरांत भी पीछे पड़ी रही और आज उसी के अनुयाइयों से बात करने के लिए भारत सरकार का दूत पदन्नाभईया


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दूसरे देशों में जाते हैं। यदि ये गलत थे तो फिर ऐसा क्यों? सरदार सिमरनजीतसिंह मान जो कभी फरीदकोट में एस.एस.पी. होते थे और उनको हम सलाम किया करते थे, उसी व्यक्ति को मैंने सन् 1986 में भागलपुर की सैन्ट्रल जेल में कैदी के तौर पर सुरक्षा दी। मुझे याद है कि जब उनके पिता सरदार जोगिन्द्रसिंह भूतपूर्व विधानसभा अध्यक्ष पंजाब व उनकी माता जी तथा उनकी पत्नी अपने दोनों बच्चों के साथ जब जेल में मिलने आते थे तो बिहारी लोग घण्टों तक मई-जून की तपती धूप में उनको जेल के बाहर एक अपराधी के तौर पर खड़ा रखते थे। जब मैं वहाँ के जेल सुपरिटेंडेंट श्री गांगुली से इसकी शिकायत करता था तो उनका कहना होता था कि जब तक कोई पंजाबी जानने वाला अधिकारी नहीं आ पायेगा वे मुलाकात नहीं करवा पायेंगे। जब मैं कहता था कि मैंने पंजाबी पढ़ी है और पंजाबी को समझ सकता हूँ तो उनका उत्तर होता था कि ‘आप तो हरयाणा के रहने वाले हैं और हरयाणा और पंजाब के लोगों की तो आपसी दुश्मनी रही है।’ अब मैं कैसे समझा पाता कि हमारा एक खूनी रिश्ता है। ये बड़ी विस्तृत घटनायें हैं जिनका वर्णन मैं कभी बाद में ही करूंगा। लेकिन याद रहे, यही सिरमनजीतसिंह मान बाद में संसद सदस्य बने तो हम उन्हें फिर सलाम किया करते थे। अभी पाठक ही बतलायें कि कौन कितना उचित या अनुचित था या है।

सरहद पर विदेशी पहरे की बात मत करो गुलामी की बू आती है।
झुकने-झुकाने की हद होती है, हमारी पीठ बिकने की बू आती है॥


हमारा संविधान एक तरफ तो भारत के नागरिकों को उनकी पहचान तथा संस्कृति की सुरक्षा की बात करता है लेकिन क्या हमारी ‘पीठ’ दिल्ली में हमारी संस्कृति और पहचान बच पाई? अब इन लुटेरों ने दिल्ली के चारों तरफ की किसानों की जमीन को लूटना शुरू कर दिया और हमारी संस्कृति और पहचान पर सीधा हमला कर दिया है। यह सीधे


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तौर पर संविधान के अनुछेद 31 खण्ड (2) तथा अनुछेद 19 (1) ‘ग’ तथा ‘च’ आदि का सरेआम दुरुपयोग है। क्या ये अनुछेद हमारे लिये ही बने हैं? जम्मू और कश्मीर पर संविधान की धारा 370 को तो छोडि़ये, शिमला में सन् 1972 से कानून लागू हुये कि वहाँ बाहर वाला कोई भी व्यक्ति जमीन नहीं खरीद सकता है। मिजोराम राज्य में खरीदने की बात तो छोड़ो बगैर आन्तरिक आज्ञा (Inner Permit) के कोई भारतीय नागरिक वहाँ घुस भी नहीं सकता और उसे सिलचर शहर में रहकर यह आज्ञा लिखित रूप में लेनी होगी। क्या वहाँ भारतीय संविधान लागू नहीं? क्या ये सभी देश से बाहर हैं? सन् 1967 के बाद दिल्ली पर पंजाबी हिन्दू शरणार्थियों का शासन कायम हो गया और उन्होंने पं० नेहरू नीति को और भी तीखा बना दिया, जिस पर दिल्ली में प्रचार किया गया कि “हरयाणवी लोगों को कोई तमीज नहीं है, यह बाहरी लोगों से ठीक से बर्ताव नहीं करते जो दिल्ली पुलिस व डी.टी.सी. की सेवा में अधिक हैं।” इसलिए इनकी संख्या कम करने के लिए इन्होंने दिल्ली पुलिस की भर्ती दक्षिण व दूर के राज्यों से करनी शुरू कर दी। इससे एक तीर से कई निशाने साधे गये, लेकिन हमारे शिक्षित और 6-6 फीट लम्बे युवा बेरोजगार नौकरी के लिए मारे-मारे फिरते रहे हैं। याद रहे कि पाकिस्तान से आने वाले पंजाबी हिन्दू खत्री, अरोड़ा व सिन्धी आदि कभी भी किसी भी फोर्स में सिपाही के पद पर भर्ती नहीं होते। सिपाही की नौकरी तो इन्हें पकोड़ों की रेहड़ी से भी बदतर लगती है। अभी यही लोग जाटों के दिल्ली में यातायात व्यवसाय के पीछे पड़े हैं। जब जाटों व दिल्ली के स्थानीय लोगों ने किराये का धन्धा किया तो उसके विरोध में कानून बनवाए गए। कहने का अर्थ है हम लोग वहां जो भी धन्धा करते हैं वह गैर-कानूनी हो जाता हैं जबकि होटलों में लड़कियों द्वारा शराब परोसना कानूनी हो जाता है, जिसका स्पष्ट कारण उच्च न्यायपालिका है, मैंने तो यहां तक सुना है जिस पर केवल भारत के लगभग 110 परिवारों का कब्जा रहा है। जिसमें हमारा हिस्सा नगण्य है। यही लोग पहले अपने हित में जनहित याचिका डालते


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हैं फिर इन्हीं के जज उस पर न्याय करते हैं, वहीं भल्ला जी की पत्नी नौयडा में प्लाटों का धन्धा करती रहीं लेकिन ना-ना करते उनको मुख्यन्यायाधीश बना दिया गया। इसी प्रकार चुनाव आयोग के सदस्य चावला जी आज तक कई आरोप लगने पर भी अपनी कुर्सी पर सही सलामत हैं, और अभी विरोध के बावजूद मुख्य चुनाव आयुक्त बना दिया गया है क्योंकि इनको श्री मनमोहनसिंह ‘कोहली’ का पूरा आशीर्वाद प्राप्त है। अभी देखा होगा कि किस प्रकार अभिनेता संजय दत्त की रिहाई के लिए मंच तैयार किया गया? क्या इनके लिए कानून अलग है?


एक बार जाटों की एक लड़की चरित्रहीन हुई तो 1989 में उसके बारे में समाचार पत्रों में धारावाहिक लेख आए जबकि इस लड़की से देश की सुरक्षा को कोई खतरा नहीं था, लेकिन उसे विदेश में रहने के लिए मजबूर कर दिया गया। दूसरी ओर मोनिका बेदी देश के मोस्ट-वांटेड अबू सलेम की बीबी बनकर रह रही थी जिसे विदेश से गिरफ्तार करके लाया गया। चंद दिनों हो-हल्ला हुआ फिर सभी आरोपों से बरी होकर इज्जत के साथ ‘बिग बॉस’ की नायिका बन गई। किरण बेदी के बारे में मेरे स्वयं के अनुभव के अतिरिक्त बहुत कुछ है जो मैं विस्तार से बाद में लिखूंगा। लेकिन इन लोगों के पत्र, पत्रिकाओं तथ एकता कपूर के टी.वी. सीरियल में यह क्यों नहीं बतलाया कि संजय दत्त की नानी अर्थात् नरगिश की मां और संजय दत्त की सास जद्दन बाई एक कोठे पर नाचने-गाने वाली तवायफ थी? उसको “न आना इस देश लाडो” में केवल जाट (सांगवान गोत्र) याद रहा?

यह मेरा कोई प्रोपगण्डा नहीं है, यह जमीनी हकीकत है और लुटेरी संस्कृति का बोफर्स गन काण्ड के विन चड्डा (पंजाबी खत्री) से लेकर हिसार के “विश्वास शिक्षा संस्था” को वेश्यालय बनाने वाले ऋषि सागर (हिन्दू पंजाबी खत्री) तक (अगस्त 2006) की एक लम्बी लिस्ट (समाचारपत्रों की कटिंग के आधार पर) है जिस पर अलग से एक पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है। इस प्रकार सेना में भी यही लोग अधिक भ्रष्ट साबित हो


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रहे हैं, चाहे ‘तहलका काण्ड’ में जेल जाने वाले कर्नल सहगल हों या फिर कर्नल मुदगिल या जवानों के लिए घटिया दाल खरीदने वाले जनरल ‘साहनी’ भारतीय सेना के प्रथम जनरल बने जिसका भ्रष्टाचार में कोर्ट-मार्शल हुआ। इसी प्रकार विपुल सम्पत्ति पाए जाने पर एक मेजर जनरल घर जाने के कगार पर है तो दूसरा मेजर जनरल लाल साहब एक अधिकारी लड़की को छेड़ने के मामले में कोर्ट मार्शल होकर घर पहुंच चुके हैं। या फिर सेना के गुप्त कागजात पाकिस्तान को देने वाले कर्नल ‘रैना’ हों या हथियारों की खरीद में दलाली करने वाले खन्ना, बेरी, नन्दा व साहनी हों। एक ओर मेजर जनरल आनन्द कुमार कपूर अपने 35 साल की नौकरी में पैसा ही इकट्ठा करते रहे जिस अकूत सम्पत्ति की जांच चल रही है। जब जनरल प्रकाश की जांच सेना के एक मुख्यालय के पास जमीन किसी प्राईवेट फर्म को एन.ओ.सी. देने की चली तो उसी के एक हिन्दू पंजाबी भाई मनजीत बाली महाराष्ट्र व गोवा का चीफ पोस्टमास्टर जनरल होते हुए एक एन.ओ.सी. देने के मामले में दो करोड़ लेते हुए पकड़े गए। तो उसी समय दूसरा कोहली डेंटल काउंसिल के अध्यक्ष घपलों में फंसा। पहले इन्हीं के भाइयों नैय्यर और चोपड़ा जी मेडिकल काउंसल ऑफ इण्डिया को लूटा था। बैंक बाबू जतीन महाजन ने अपने ही बैंक को लूट लिया। एक.के. चुघ ए.ई. को जालन्धर में भ्रष्टाचार के मामले में सजा सुनाई जा रही थी तो इसी समय डॉ० रविन्द्र कोहली एस.एम.ओ. नाभा की भ्रष्टाचार में रिमाण्ड ली जा रही थी। लेकिन कुछ समय बाद ही ले. जनरल ए.के. नंदा ने एक सरकारी यात्रा के दौरान उसी के अधीन उसी की जाति-भाई हिन्दू पंजाबी कर्नल की औरत को छेड़ने की खबर आई। हो सकता है जब जनरल साहब कर्नल थे तो इसी आधार पर बाद में जनरल बने हों। यह बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि इसी बीच जम्मू क्षेत्र में इन्हीं के भाई ब्रिगेडियर पी.के. टिक्कू फिर एक बाली कर्नल और कश्यप साहब मिलकर जवानों का करोड़ों रुपये का दूध पी गए। अभी इनके पेट से दूध निकालने की तैयारी चल रही है। लोग सोच रहे थे कि


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पंजाब के राज्यपाल जनरल रोडरिक्स पाक-साफ निकल जाएंगे लेकिन ए. के. चावला ने इनसे सांझेदारी करके उन्हें लपेट ही दिया। जनरल साहब इन लूटेरे से बचकर कैसे जा सकते थे? अखबार में ऐसा सप्ताह कोई नहीं जाता जब इन भ्रष्टाचारियों के नाम किसी न किसी घपलाकाण्ड में सम्मिलित ना हों। उदाहरण के लिए दिनांक 03.11.06 के ‘अंग्रेजी ट्रिब्यून’ में प्रथम पृष्ठ पर लिखा है कि संजय बहल तथा निशान कोहली ने यू.एन.ओ. में भी घपला कर दिया – Indian official at UN held for fraud” और दिनांक 10.11.2006 को ‘ट्रिब्यून’ के प्रथम पृष्ठ पर नौसेना के कमांडर जे.सी. कालरा को War Room leak मामले में गिरतार किया गया है। अर्थात् कहने का अर्थ है कि चाहे इन्हें चाँद में भेज दीजिए वहाँ भी भ्रष्टाचार का कोई ना कोई रास्ता तलाश कर लेंगे। लेकिन इन नामों के आधार पर एक साधारण आदमी को ज्ञान नहीं होता, जबकि इस लुटेरी संस्कृति में यही विशेष वर्ग ही शामिल हैं और देखा-देखी में इस पैसे के लिए अन्धी दौड़ में जाट व अन्य हरयाणवी व अन्य जातियां भी सम्मिलित होती जा रही हैं और यही भ्रष्टाचार आज सम्पूर्ण भारत में फैल चुका है। हर व्यक्ति यह मानता है कि भ्रष्टाचार समाज में एक कैंसर की तरह फैल चुका है। लेकिन इस बीमारी को फैलाने वाले वायरस के बारे में कोई कुछ नहीं कहता है कि वास्तव में ये लोग कौन हैं? क्या इस देश के लोग इतने डरपोक हैं कि वे सच नहीं बोल सकते हैं? क्या इस देश का इतिहास झूठा है? मैं यहाँ यह स्पष्ट कर दूं कि हरयाणवी अग्रवाल समाज जिनका पेशा व्यापार तो जरूर है, लेकिन इनकी प्रवृत्ति लुटेरी नहीं है। क्योंकि इनका दीन धर्म और नियम है। इन्होंने खाया तो खिलाया भी, लिया तो समाज को दिया भी बहुत। अग्रवाल समाज हमारी हरयाणवी भाषा और संस्कृति का वाहक और रक्षक है जिन्होंने इसे पूर्वी राज्यों के पहाड़ों तक पहुंचा दिया। हालांकि वहां के लोग इन्हें वहां अज्ञानतावश मारवाड़ी कहते हैं। हमारे बनिये समाज का एक ही बड़ा दोष है


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कि वे धर्म के नाम पर पाखण्डियों को खूब खिलाते हैं। जबकि लुटेरी संस्कृति का नियम है साम-दाम, दण्ड, भेद, भाव। इनके बाट लेने के हैं, देने के नहीं। इस प्रकार ब्राह्मणवाद व लुटेरी संस्कृति ने आज गांव व किसान-मजदूर को परोक्ष गुलाम बना दिया है, हाँ मैं जोर देकर कहता हूं कि परोक्ष रूप से गुलाम बना दिया। गुलामी की परिभाषा है – Slavery does not merely mean a legalized form of subjection. It means a state of society in which some men are forced to accept from other, the purpose which control their conduct.

अर्थात् “दासता का मतलब केवल राज्य का वैधता प्राप्त रूप ही नहीं है, इसका अर्थ समाज की वह स्थिति है जिसमें कुछ लोगों को दूसरे से ऐसे उद्देश्य लेकर अपनाने के लिए विवश कर दिया जाता है जो उनका व्यवहार नियंत्रित करते हैं।” इसे आज हमारे समाज में आसानी से देखा जा सकता है। यदि यही व्यवस्था चलती रही तो अगले 50 साल के अन्दर हम ऐसी दासता में फंस चुके होंगे जो अंग्रेजों की गुलामी से अधिक पीड़ादायक साबित होगी। अभी ऐसा होने भी लगा है। जाट समाज इस बात को समझने भी लगा है। हमारे साथ विदेशियों से भी बुरा व्यवहार होने लगा है। हमारे ऊपर हमले शुरू हो चुके हैं। इसीलिए तो चौ० छोटूराम जी ने कहा था “गौरे अंग्रेजों से काले अंग्रेज अधिक खतरनाक साबित होंगे” और आज यही हो रहा है। पाठक स्वयं विचार करें कि सरकार हमारी, जमीन सरकारी भाव से खरीद कर इनको दे रही है वही तो इसका प्रमाण है। कहने का स्पष्ट अर्थ है कि 50 साल बाद कम से कम पूरा उत्तर भारत आर्थिक रूप से पंजाबी खत्री, अरोड़ा व सिंधियों का पूर्णतया गुलाम हो जाएगा और यह प्रक्रिया चल रही है। इन लोगों ने अपनी निजी बैंक प्रणाली, जैसे कि RCM, HDFC, ICICI व Bajaj Allianz आदि-आदि बना लिये हैं। अब तो इन लोगों ने उपभोक्ताओं को पीटना भी शुरू कर दिया है। (इण्डिया टी.वी.) इसके लिए वर्तमान व्यवस्था दोषी है। क्यों? एक उदाहरण दे रहा हूं। महाभारत युद्ध के दौरान भीष्म और


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द्रोण कौरवों के साथ थे। पाण्डवों का पक्ष सही था। भीष्म ने ऐसा माना भी। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा ‘मुझे नमक के प्रति वफादार होना चाहिए, मैं कौरवों का नमक खा रहा हूं।’ आज नेता लोग इन लुटेरों का नमक खाते हैं, लेकिन इन्हें शहीद भगतसिंह व चौ. छोटूराम की भाषा में समझाना कि नमक लुटेरों का नहीं, किसान और मजदूरों का है। (यह भाषा है क्रान्ति)।

वह बोता है और रोता है, यह जाट किसान की गाथा है।
गद्दी पर बैठी सरकार व बिचोलिया आज उसका विधाता है॥

इस पूरे अन्यायपूर्ण अध्याय पर विचार करते हुए प्रथम चरण में हमारी ‘अठारह-सूत्रीय’ मांगों पर आधारित ज्ञापन इस प्रकार है -

  • (1) आज जाट समुदाय के लिए सबसे आवश्यक आरक्षण है। क्योंकि सबसे अधिक बेरोजगारी आज इसी कौम में है। आरक्षण केवल जाटों की मांग नहीं यह जाटों का संवैधानिक एवं कानूनी अधिकार है। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट में जाटों को 11 बार पिछड़ा लिखा है और चौ० चरण सिंह को भी पिछड़ी जाति से बतलाया गया है। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट में हरयाणा और पंजाब की पिछड़ी जाति सूची में जाटों को ‘गुटका जाट’ और ‘चिल्लन जाट’ लिखा है। जबकि भारत में इस प्रकार की न ही कोई जातियां हैं और न जाटों के गोत्र हैं। इस बारे में सूचना अधिकार के तहत पिछड़ा आयोग से इसके बारे में जानना चाहा तो आयोग अभी तक कोई भी उचित उत्तर नहीं दे पाया है। गुरनाम सिंह आयोग की रिपोर्ट के तहत हरयाणा का जाट दिनांक 5 फरवरी 1991 से 7 जून 1995 तक अर्थात् 4 साल 4 महीने और 2 दिन पिछड़ी जाति सूची में रहा है। लेकिन हम जाटों को यह ज्ञात ही नहीं कि हम कब पिछड़े हुए और कब अगाड़ी हुए। मण्डल कमीशन की रिपोर्ट 13 अगस्त 1990 को लागू हुई और इन अठारह सालों में जाटों ने अपने लाखों बच्चों को बेरोजगार कर दिया और उनको सड़क पर ला दिया। इस विषय में पूरी

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रिपोर्ट अन्तिम अध्याय में दी गई है। अब तो यही कहना है कि आरक्षण जाटों के लिए समय की मांग है।

  • (2) अंग्रेजों के समय तथा बाद में जो कुल 17 गाँव हमारे दिल्ली से उजाड़े गये उनका अता-पता मालूम करना तथा उनको उचित सुविधायें दिलवाना।
  • (3) सन् 1911 से अभी तक जितनी भी जमीन दिल्ली व उसके आस-पास सरकारों ने, प्राइवेट क्लोनाइजरों ने तथा कम्पनियों ने अधिग्रहण की उसे 99 साला लीज पर माना जाये। क्योंकि इंडिया गेट आज तक अंग्रेजों के 99 साला लीज पर रह सकता है तो हमारी अपनी जमीन हमारे अपने नाम क्यों नहीं?
  • (4) किसी भी जमीन से किसान का पूर्णतया कब्जा समाप्त न किया जाये तथा इस जमीन पर बनी किसी भी संस्था से होने वाली आय में उस किसान का हिस्सा हो तथा जहाँ-जहाँ सरकारी संस्थानों में कैण्टीनें आदि हैं वे किसानों के अधीन हों तथा मार्केटों की दुकानों में किसान का समुचित हिस्सा हो। व्यापारिक संस्थानों के शेयर होल्डर सम्बन्धित किसान के नाम हों तथा सम्बन्धित किसान की संतान का इनमें नौकरी का समुचित बन्दोबस्त हो। तुरन्त 1894 का अंग्रेजों का जमीन अधिग्रहण कानून हमसे सलाह मशवरा करके बदली किया जाए। हम जाट इस ब्रिटिश कानून का सन् 1947 से रिवीजन चाहते हैं।
  • (5) दिल्ली के सभी संस्थानों व कालोनियों आदि का नामकरण गाँव व किसान जिनकी जमीन थी उनके नाम हो और हरयाणवी (प्राचीन हरयाणा) जाट महापुरुषों के नाम हों। दिल्ली से फालतू नामों को तुरंत हटाया जाये।
  • (6) जिस प्रकार कलकता का मौलिक नाम कोलकाता, मद्रास का नाम चैन्नई तथा बम्बई का मुम्बई रखा गया है इसी प्रकार देहली का नाम दिल्ली (Dilli) रखा जाये।
  • (7) दिल्ली की जनसंख्या जो आजादी के समय लगभग दस लाख

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थी, आज 1 करोड़ 10 लाख को पार कर चुकी है जिसका प्रत्यक्ष रूप से दबाव व प्रभाव (पानी तक) हमारे प्राचीन हरयाणा के क्षेत्र पर पड़ रहा है और हमारे संसाधनों व संस्कृति को पूरा-पूरा खतरा उत्पन्न हो गया है। इसलिए अभी गैर-हरयाणवी का दिल्ली में बसना बन्द किया जाये।

  • (8) दिल्ली-मथुरा राजमार्ग का नाम ‘महाराजा सूरजमल मार्ग’, दिल्ली-मेरठ राजमार्ग का नाम ‘चौ० चरणसिंह मार्ग’, दिल्ली-चण्डीगढ़ राज मार्ग का नाम ‘अमर शहीद भगतसिंह मार्ग’ दिल्ली-रोहतक-सिरसा राजमार्ग का नाम ‘चौ० छोटूराम मार्ग’ तथा दिल्ली-झज्जर-लोहारु राजमार्ग का नाम ‘चौ० देवीलाल मार्ग’ बगैर किसी विलम्ब के कर दिया जाये। इसी प्रकार राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश व पंजाब आदि राज्यों में सड़कों के नाम वहाँ के किसान नेताओं के नाम पर कर दिये जायें।
  • (9) पश्चिमी उत्तरप्रदेश के 22 जिलों को बगैर किसी तर्क-वितर्क एक नये प्रदश के रूप में ‘हरित प्रदेश’ बना दिया जाये।
  • (10) शहीद राजा नाहरसिंह की चाँदनी चौक में जहाँ उनको 9 जनवरी 1858 को शहीद किया गया, स्थल पर मूर्ति स्थापित की जाये। राजघाट तथा शक्ति-स्थल के बीच पड़ी सैकड़ों बीघा जमीन पर उनका शानदार समारक बनाया जाये। भारतीय संसद हाल में उनका चित्र लगाया जाये।
  • (11) किसानों के लिए तुरन्त “किसान आपातकालीन कष्ट निर्वाण आयोग” गठित किया जाये जिसके सदस्य वित्तमंत्री व कृषिमंत्री को छोड़कर सभी किसानों के नेता हों। जाट किसानों की जमीन को किसी बाबा की खैरात न समझा जाए। जिस प्रकार बाकी क्षेत्र (जनजातीय क्षेत्र) में पुनर्वास का कानून है, ऐसा ही कानून हम जाटों के लिए बने। आज तक ये लोग हमें भी ट्राइबल ही कहते रहे हैं।
  • (12) चौ० छोटूराम, चौ० चरणसिंह तथा चौ० देवीलाल को तुरन्त ‘भारत रत्न’ दिया जाए।
  • (13) भारतीय इतिहास में जाट राजाओं तथा जाट महापुरुषों के

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इतिहास को सम्मिलित किया जाए, जिसे विद्यालयों व विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाए।

  • (14) कुरुक्षत्रे विश्वविद्यालय का नाम ‘महाराजा हर्षवर्धन बैंस विश्वविद्यालय’ कर दिया जाए।
  • (15) भाखड़ा बांध का नाम ‘दीनबन्धु चौ० छोटूराम बांध’ कर दिया जाए।
  • (16) हिन्दू कोड (हिन्दू मैरिज एक्ट सन् 1955) में संशोधन हो जिसमें गोत्रों का प्रावधान हो। यह केवल जाट विरोधी नहीं, धर्मविरोधी भी है।
  • (17) केन्द्र के अधीन अर्धसैनिक बलों की भर्ती राज्य के आधार पर न की जाये बल्कि अखिल भारतीय स्तर पर हो, जैसे कि सन् 1975 से पहले होती थी, उसी प्रकार अधिकारी वर्ग में शारीरिक टेस्ट के अंक होने चाहियें क्योंकि सेना व अर्धसेना में शारीरिक योग्यता अधिक महत्त्वपूर्ण है जैसे कि पहले होती थी। दिल्ली पुलिस में केवल उत्तरी भारत (नजदीक वाले राज्य) से ही भर्ती की जाये।
  • (18) दिल्ली, गुडगाँव, फरीदाबाद व नोयडा आदि में सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों पर लगी प्राइवेट सिक्योरिटियों में केवल हरयाणवी सेवानिवृत्त सैनिकों को ही लगाया जाये क्योंकि देखा गया है कि किसी भी व्यक्ति (बिहारी) को टोपी पहनाकर हाथ में डंडा देकर गेटों पर खड़ा कर दिया जाता है जो किसी भी सुरक्षा की दृष्टि से अनुचित है। इस पर दिल्ली सरकार, हरयाणा सरकार व उत्तरप्रदेश सरकार कानून बनाये और बिहारियों का दवाब हमारी जमीन से तुरन्त कम कर दिया जाये। जब पिछले दिनों यह सच्चाई दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित के मुंह से उजागर हुई तो संसद में हंगामा खड़ा होगया और मजबूरन उन्हें अपना ब्यान वापिस लेना पड़ा। पंजाब के उग्रवाद के कारण कितने हिन्दू पंजाबी, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश व हरयाणा में बसे इसका हिसाब हो तथा दिल्ली में बंगलादेशियों की निशानदेही हो। यदि सरकार बंगलादेशियों

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को नहीं निकाल पा रही है तो इस पर श्वेतपत्र जारी करे और जाटों की दिल्ली जाटों को सौंप दे। हम दावे से लिख रहे हैं हम इनका दिल्ली से नामोनिशान मिटा देंगे।


जब जाटों को लुटेरा लिखने की बात आई तो इस बारे में मैंने अपने एक अधिकारी मित्र से उसकी प्रतिक्रिया जाननी चाही तो उन्होंने इस पर एक कविता जिसका नाम लुटेरे कौन नाम से मुझे फैक्स द्वारा भेजी। जिसमें इन्होंने इतिहास धरा पर इसे सिद्ध किया कि लुटेरे कौन? जरा पाठक गौर से पढ़ें:-

लुटेरे कौन (एक सिलसिलेवार अध्ययन)

बार-बार लूटे और लूट-लूट रहे देश को, लुटेरों का ख्याल आया है
उनकी हो निशानदेही, यह सवाल उठाया है।
इतिहासकारों ने किसी एक को नामजद किया है,
यह बात अलग है कि इन्होंने बाहरी लुटेरों को रचयिता करार दिया है।
कौन-कौन नहीं, इस सिलसिलेवार लूट में शामिल हुए,
चाहे हों यूरोपी, मुगल या हों अफगानी रहे,
भला स्वार्थ प्रेरित इतिहास ने कब सच बताया है।
बार-बार लूटे और .....................॥
हो आकलन सबका जो-जो यहाँ आए हैं,
चाहे वो डच, फ्रांसीसी या पुर्तगाली कहलाए हैं,
यही कहानी है मध्य एशिया वालों की,
समरकन्द व बुखारा से चली तलवार और ढ़ालों की,
किसी ने पहले व्यापार और फिर तलवार से काम किया,

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तो दूसरों ने, पहले की बरबादी और सदियों राज किया।
वो न थे लुटेरे, उन्होंने तो यह देश बनाया है।
बार-बार लूटे और ...........................॥
अंग्रेजों की हद को पार किया, लाहोरियों व पिशोरियों ने,
आसपास देखिये तो सही, क्या रचा है बिचोलियों ने,
तुम्हारा ही लिखा इतिहास गवाह है,
कि जाट ने लुटेरों को लोहे के चने चबवाए हैं,
यहाँ ऐसे भी हैं, जिन्होंने लुटेरों से कर सन्धि, सम्बन्ध बनाए हैं।
बार-बार लूटे और ...........................॥
जहाँ कोई और, मुकाबले के ख्याल से भी डरता था,
पाओगे अनेक मिशाल कि, जाट वहीं अड़ता था,
आखिर लुटेरों से अपना हक वसूल करना स्वराज का ढंग है,
बिलावजाह भर दिया तुमने, इसमें लूट का रंग है,
दुःख है उन्हें ही कह लुटेरे, आघात पहुंचाया है,
बार-बार लूटे और .........................॥
(कर्नल दहिया मेहरसिंह ‘मेहर’ शौर्यचक्र)

व इसके अतिरिक्त ‘अमर शहीद भगतसिंह’ ने 19 मार्च 1931 को पंजाब गवर्नर को जो पत्र भेजा, उसका एक अंश इस प्रकार है -

  • “हम यह कहना चाहते हैं कि युद्ध छिड़ा हुआ है और यह लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक कि शक्तिशाली व्यक्तियों ने भारतीय जनता और श्रमिकों की आय के साधनों पर अपना एकाधिकार कर रखा है। चाहे ऐसे व्यक्ति अंग्रेज पूँजीपति हों या अंग्रेजी शासक या सर्वथा भारतीय ही हों, उन्होंने आपस में मिलकर एक लूट जारी रखी हुई है। चाहे शुद्ध भारतीय पूँजीपतियों के द्वारा ही निर्धनों का खून चूसा जा रहा हो, तो भी इस स्थिति में कोई अन्तर नहीं पड़ता।”

अब पाठक विचार करें कि इन 75 वर्षों में ऊपर


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लिखी स्थिति में क्या अन्तर आया, केवल यही कि ‘अंग्रेज’ शब्द हट गया है। इसलिए मैं अपनी बात का दावा करने का हक रखता हूँ।

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले।
कौम पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा॥

(पुस्तकें हिस्ट्री एण्ड कल्चर ऑफ काश्मीर, किसान-संघर्ष तथा विद्रोह, देश महानायक, हिन्दुइज्म, अमर शहीद भगतसिंह, लोहपुरुष सरदार पटेल, Freedom at Midnight तथा Mountbatten and the Partition of India, हरियाणा-दशा और दिशा आदि-आदि)।

18. जाट कौम..........सावधान!

किसी भी कौम में समयानुसार परिवर्तन आवश्यक है। कुछ समय से जाट कौम में भी गहन परिवर्तन आये हैं। लेकिन अधिकतर परिवर्तन नकारात्मक हैं। जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण जाटों की नई पीढ़ी अपनी कौम की परम्पराओं व संस्कृति से बड़ी तेजी से कटती जा रही है, जिसका कोई उपाय आवश्यक है। यह प्रवृत्ति कौम के लिए एक बड़ी चिन्ता का विषय हैं। इस बारे में हमें अपनी संतानों को शिक्षा देने के लिए एक ‘जाट आचार संहिता’ का निर्माण करना ही होगा। यदि समय के साथ-साथ इसके उपाय नहीं किये गये कि ऐसा न हो कि जाट कौम लुप्त होने की राह पर चल पड़े? यह बात सुनने में अवश्य अटपटी लगती है कि कोई जाति कैसे लुप्त हो सकती है। लेकिन इतिहास भूतकाल का दर्पण तथा भविष्य का रहबर (Guide) होता है। इतिहास गवाह है कि कई नई जातियाँ बनती रहीं और कुछ विलुप्त होती रही हैं। किसी भी जाति के बनने व लुप्त होने में सदियाँ लगती हैं। जाट एक विश्व जाति (Global Race) रही है। जाट पहले बौद्ध थे, फिर हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई और सिक्ख बनते रहे हैं। शेष आज का हिन्दू जाट समाज बुरी तरह से ब्राह्मणवाद के चक्रव्यूह तथा लुटेरी संस्कृति के मायाजाल में फंसता जा रहा है। यही संस्कृति हिन्दू जाट जाति को शनैः-शनैः लील रही है अर्थात्


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अपने में समा रही है। लेकिन इस प्रक्रिया को हम आमतौर पर महसूस नहीं कर पा रहे हैं। हम केवल 1947 के बाद का परिवर्तन देखें तो हम स्पष्ट देखते हैं कि हमारी दिशा किस ओर है। हमसे तो पाकिस्तान के मुस्लिम जाट बेहतर स्थिति में हैं। जबकि पाकिस्तान की जनसंख्या 16 करोड़ 25 लाख है। हम से तो पंजाब के 81 लाख सिक्ख जाट भी अच्छी हालत में हैं। अभी कुछ लोग कहेंगे कि वे अधिक शिक्षित हैं तो मेरा पूछना है कि कुंवर नटवरसिंह से कौन हिन्दू जाट राजनीति में अधिक शिक्षित है? उनका आज क्या हो रहा है? उन्होंने तो किसी जाट को तेल की पर्चियाँ नहीं दिलवाई, पर्ची लेने वाले तो सहगल और खन्ना, हिन्दू-पंजाबी खत्री थे। यही विपिन खन्ना जी अभी सेना के लिए हथियार खरीदने के मामले में भी फंस चुके हैं। लेकिन उसी वर्ग के लोगों ने जो विपक्ष में बैठे थे पहले इन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए मजबूर किया, फिर उसी वर्ग के सत्तापक्ष के लोगों ने कांग्रेस से निष्कासित करवाया। इसी कांग्रेस की कुंवर नटवरसिंह 45 वर्षों से सेवा करते आ रहे थे और आज उन्हें दूध में गिरी मक्खी की तरह निकालकर फैंक दिया गया। फिर उन्हें जाट जाति याद आई तो उनके कहने पर दो लाख जाट 23 अगस्त 2006 को जयपुर में इकट्ठे हो गये। लेकिन तेल की पर्चियाँ लेने वाले वर्ग से कोई भी व्यक्ति वहाँ उपस्थित नहीं था। अभी अगस्त 2007 में चौ० नटवरसिंह के सुपुत्र जगतसिंह ने इसी अंदलीव सहगल की बहन से प्रेम विवाह किया है। इस बारे में मैं तो यही कहना चाहूंगा “हम तो लुट गये तेरे प्यार में.......”।

जब से दिल्ली केन्द्र शासित व एक राज्य रहा है अर्थात् आजादी के बाद से पहली बार दिसम्बर 2008 में बनी सरकार में श्रीमती शीला दीक्षित के मन्त्रिमण्डल में कोई भी जाट मन्त्री नहीं है। उत्तर भारत में जाटों से बड़ी कोई जाति नहीं है और आज इस कौम का दिल्ली की राज्य सरकार में कोई हिस्सा नहीं, जबकि दिल्ली राज्य में ही नहीं, दिल्ली की केन्द्र सरकार में भी जाटों का एक बहुत बड़ा हिस्सा होना चाहिए। लेकिन जाटों का दुर्भाग्य है कि आज सम्पूर्ण दिल्ली में इन बाहरी लोगों का


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आधिपत्य है।

वही डी.एल.एफ. जो कभी जमना भक्त के वंशज तथा चौ० छोटूराम के दायाँ हाथ चौ० लालचन्द के बेटे चौधरी राघवेन्द्र ने स्थापित की, इसका मालिक शायद 20 साल के बाद कोई भी जाट खून से हो?

अभी कुछ दिन पहले एक एम.एल.ए. के दावेदार नेता एक जाट मीटिंग में भाषण कर रहे थे कि जाटों को फौज में भर्ती नहीं होना चाहिये और सभी को आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बनना चाहिये। बात बिल्कुल अच्छी है, प्रयास होना चाहिए, यही लोग तो देश की नीति निर्धारित करते है। नेता जी ने अच्छा महसूस किया कि देश की वास्तविक सत्ता इन्हीं अधिकारियों के कब्जे में होती है। क्योंकि नेता जी को लोगों के कार्यों के लिए इन्हीं से जूझना पड़ता है। इसलिए उनको यह बात याद आई, लेकिन क्या सभी जाटों के लिए आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बनना संभव है? हर साल पूरे देश के लिए इस सेवा में कितने पद सृजन होते हैं? क्या नेता जी ने इसका भी कभी अहसास किया है? जो पहले जाट जाति के आई.ए.एस. तथा आई.पी.एस. बने उनमें से कितनों को इस जाति की चिंता है? मैंने इसी साल 117 हिन्दू जाट आई.ए.एस.(अलाईड आई.ए.एस.) व आई.पी.एस अधिकारियों के नाम इकट्ठे किए तो पाया कि 60 प्रतिशत ने अन्तर्जातीय विवाह किए हैं अर्थात् जहां 117 जाट परिवारों का सुधार और फायदा होना था वह पूरा नहीं हो पाया।

यह एक जाट इतिहास की अज्ञानता के कारण हो रहा है। ऐसा नहीं कि जाटों की लड़कियां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। बल्कि कहें कि इसी कारण जाटों की पढ़ी-लिखी लड़कियों को योग्य वर नहीं मिल रहे हैं। जब जाति की ही चिंता नहीं तो हमारी तरफ से चाहे कोई कुछ भी बने। लगता है नेता जी ने इन बातों पर कभी गौर नहीं किया। नेता जी ‘समाज सेवा’ का दावा तो करते हैं लेकिन क्या उन्होंने इसकी परिभाषा का कभी ख्याल किया कि समाज सेवा क्या होती है? ऐसी समाजसेवा को प्राचीन में बार्टर पद्धति कहा जाता था जिसे आज हम अंग्रेजी में Bargaining कह सकते


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हैं। यह ढोंगी ‘समाजसेवा’ है। समाजसेवा तो वह होती है जिसके बदले में स्वर्ग की भी कामना न की जाए। जबकि यहां तो समाज सेवा के बदले लोग वोट मांग रहे हैं। 90 प्रतिशत से अधिक जाट आज भी गाँवों में रहते हैं। पूरे उत्तर भारत की सरकारी सर्वे रिपोर्ट कह रही है कि “Education in North India is in Shambles” अर्थात् उत्तर भारत में शिक्षा का कबाड़ा हो रहा है। यह कबाड़ा क्यों हो रहा है इसका उल्लेख मैंने ऊपर चौ० छोटूराम की शिक्षाओं .......... के लेख के प्रथम पैरा में किया है। इसलिए जाटों को शिक्षा के साथ-साथ जाट जागृति की भी कड़ी आवश्यकता है, यदि जाट शिक्षित होकर भी अपने को जाट नहीं समझेगा तो वह शिक्षा जाटों के लिए हितकारी नहीं, अहितकारी होगी और ऐसा हो रहा है। क्योंकि जाट जाति स्वभाव से भावुक और राष्ट्रवादी रही है, इसलिए उसने हमेशा सरकारी अभियानों को सच्चा अंजाम दिया। कोई जाति पाति नहीं है - यह प्रचार उच्चवर्ग की जातियां कर रही हैं जिनमें उनका स्वार्थ जुड़ा है। ताकि वे लोग उच्च पदों पर रहें और मलाई भी खाते रहें। इसी कारण योग्यता के बहाने पूरा कब्जा किए बैठे हैं। क्योंकि कमीशन (यू.पी.एस.सी. आदि) पर इन्हीं के लोग विराजमान हैं। इस सच्चाई को आपने ऊपर पढ़ लिया है। जब सरकार ने नारा दिया कि कोई जाति-पाति नहीं तब भी जाट इस नारे से प्रभावित हुआ। लेकिन असलियत से परिचित नहीं कि इस देश का संविधान और समाज क्या मांग कर रहा है। यदि जाटों ने फौज में भर्ती होना ही बन्द कर दिया तो समय आते उनकी मारसिल्टी ही खत्म हो जायेगी जो उसकी रीढ़ है और हिन्दू जाट जाति के लुप्त होने में सहायक सिद्ध होगी। इसमें कोई दूसरी राय नहीं हो सकती कि शिक्षा तो आज सबसे महत्त्वपूर्ण है लेकिन हमारी 90 प्रतिशत जाट जाति जो गांवों में रहती है, उसका पैसा स्तर की शिक्षा पर खर्च न होकर काज (मृत्युभोज) व मुकदमों में जा रहा है अर्थात् जिस पैसे से हमारे बच्चे पढ़ने थे उससे दूसरों के बच्चे पढ़ते हैं। इसलिए सरकार की नीति और हमारी सामाजिक नीति दोनों ही इस महान् जाति के विनाश


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पर तुली हैं।

जाट जाति समानता के अधार पर खड़ी रही है, चाहे जाट के पास एक बीघा जमीन थी या 100 बीघा, उसका स्वाभिमान बराबर का रहा है। लेकिन आज जाटों में भी आर्थिक असमानता तेजी से बढ़ रही है इसलिए जाट समाज दो भागों में बंट रहा है। सरकार की उदार आर्थिक नीति का लाभ केवल शहरों में बसनेवाले कुछ जाट ही उठा रहे हैं न की गाँववाले। जबकि गाँव में रहनेवाले लगभग 90 प्रतिशत जाट इस नीति के शिकार होकर आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर हैं। इसी असमानता के कारण जाटों में आपसी जलन की प्रवृत्ति बढ़ रही है तथा आज जाटों के स्वाभिमान का स्थान अहंकार ने ले लिया है। शहरी जाट स्वयं अपनी जाट जाति के लोग जो गाँव में रहते हैं, उनके विरोध में स्वयं प्रचार करते रहते हैं कि ‘गाँव वाले तो किसी की उन्नति देखना ही नहीं चाहते’ । जबकि वे असलियत जानने के इच्छुक नहीं हैं। आज जो जाट शहरों में चले गये, वही जाट अधिक सम्पन्न और शिक्षित हैं, लेकिन क्या वास्तव में इसी जाट वर्ग ने कभी अपने गाँव वाले जाटों के लिए कुछ किया या सोचा है? क्या अपने भाइयों को गाँव की भीड़ से निकालने के लिए कोई प्रोत्साहन, प्रयास या सहयोग किया है? एक बिहारी एक बार बिहार जाता है तो दस बिहारी अपने साथ लेकर आता है। एक हिन्दू-पंजाबी शरणार्थी कहीं बाजार में दुकान खोलता है तो दस और हिन्दू-पंजाबियों की दुकान खुलवाने का प्रयास करता है। लेकिन क्या जाट ऐसा कोई प्रयास करते हैं? आज गाँव का जाट तो अपनी किस्मत और केन्द्रीय सरकारों की करनी अर्थात् नीतियों को रो रहा है।


इसी प्रकार शनैः-शनैः लोग गाँव छोड़कर शहरों में बस्ते जाएंगे और इन शहरी जाटों को ब्राह्मणवाद व लुटेरी संस्कृति लीलती रहेगी। जिससे जाटों को अपने को जाट कहने में कोई दिलचस्पी नहीं रहेगी। दूसरी ओर गाँव में केवल निर्धन अशिक्षित और पिछड़े जाट रह जायेंगे, जिनमें हीन भावना का उदय होगा और वे अपने को जाट कहलाने में ही एक दिन


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शर्म महसूस करने लगेंगे। भ्रूणहत्या के कारण गाँव वाले लड़कियों को मारकर अपना वंश चलाने के लिए देश के पूर्वी क्षेत्र जैसे कि आसाम व त्रिपुरा आदि से दुलहन खरीदकर लाते रहेंगे जो उनके जाट जीन्स (खून) को समाप्त करने में सहायक सिद्ध होगी। इससे भी अधिक संकट होगा कि हमारे बच्चों के मामे नहीं होंगे, भाती नहीं होंगे। जब कौम के रिश्तेदार ही नहीं रहेंगे तो फिर कौम कहां रहेगी? यह तो वही हो जाएगा जब किसी गाड़ी का पंजीकृत नं०, इंजन नं० और चैसिस नं० न हो तो उसे जुगाड़ कहा जाता है। इसी प्रकार जाट कौम भी जुगाड़ बनकर रह जाएगी। हरयाणा में जाटों के बहुत कम गांव बचे हैं जहां खरीदी हुई औरतें न आ गई हों। जाटों को चाहे आज अपने अनाज के भाव मालूम न हो लेकिन औरतों के भाव अवश्य मालूम रहते हैं और अभी जाट इसके लिए त्रिपुरा तक पहुंच गए हैं, जहां आज औरतों के कम रेट चल रहे हैं। जहां से बंगलादेशी लड़कियां आ रही हैं जिनका न कोई गोत-नात, जात-पात व धर्म-कर्म ज्ञात नहीं फिर उनसे कौन से जाट पैदा होंगे? इसलिए हमें भ्रूण हत्या बंद करनी होगी और अभी कुछ दिन के लिए जाटों को जनसंख्या बढ़ने की चिंता को छोड़ना होगा। दूसरा, जाटों को आरक्षण लेना ही होगा ताकि हमारे बच्चों को रोजगार मिल सके जिस कारण हमारा सामाजिक संतुलन बन सके। इसके अतिरिक्त हमें मूले जाटों के साथ रोटी-बेटी के रिश्ते कायम करने होंगे। इन जाटों के साथ हमारा पुराना खूनी रिश्ता है और खून का रिश्ता दुनिया में सबसे बड़ा माना गया है। त्रिपुरा व बंगलादेशियों से हमारा कोई रिश्ता नहीं है। एक पौराणिक कहावत है कि ‘जाट का क्या हिन्दू और मेव का क्या मुसलमान।’ इसके अतिरिक्त ब्राह्मणवाद व पाखण्डवाद से पीछा छुड़ाये बगैर जाट कौम कभी भी अपने मकसद तक नहीं पहुंच सकती। क्योंकि हम हिन्दू रहकर कभी शिखर पर नहीं पहुंच सकते और यह हमने चौ० चरणसिंह के समय देख लिया है। इसलिए मैं बहुत सोच विचार कर और विश्वास के


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साथ लिखना चाहता हूं कि जाट कौम ब्राह्मणवाद (पाखण्डवाद) से अपना पीछा छुड़ाये और बगैर किसी हिचक के सिख धर्म ग्रहण करे। मैं इस बारे में जाटों की प्रतिक्रिया जानने का इच्छुक हूं। वहीं दूसरी ओर जाटों की लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अधिक पढ़ती जायेंगी क्योंकि वे स्वभाव से मेहनती और वफादार हैं। फिर उनकी शादी के लिए विज्ञापन छपवायेंगे “Caste no bar” अर्थात् जाति से कोई लेना-देना नहीं। यह सब पूरी प्रक्रिया जाट जाति को लुप्त होने में सहायक सिद्ध होगी और यदि ऐसा ही चलता रहा तो इसमें ज्यादा से ज्यादा 150 वर्ष से 200 वर्ष तक का समय लग सकता है।


यह एक सच्चाई है कि जो लोग सम्पन्न होते हैं वे लोग अधिक डरपोक होते हैं क्योंकि उन्होंने जो पा लिया है उसे खोने का सदैव डर रहता है तथा अधिक पाने की चिंता रहती है। इसलिए संसार का इतिहास गवाह है कि ऐसे लोगों ने कभी कोई बड़ा परिवर्तन नहीं किया। आज तक संसार में जो भी क्रांति या बड़े परिवर्तन हुए, उनकी शुरूआत गरीबों के गाँव से हुई। उदाहरण के लिए भारतवर्ष में आज का ‘नक्शलवाद’। ‘नक्शलवाद’ का जन्म पश्चिम बंगाल के जिला जलपाईगुड्डी के छोटे से गाँव नक्शलबाड़ी में सन् 1967 में हुआ था। इसलिए जो भी परिवर्तन भविष्य में होने हैं उनकी शुरूआत गाँव से ही होनी है और ये परिवर्तन वृद्ध लोग नहीं कर सकते हैं। वृद्ध लोग केवल विचाराधारा को जन्म दे सकते हैं। यह तो युवावर्ग ही कर पायेगा और इसका एकमात्र उपाय ‘क्रान्ति’ है। क्रान्ति का अर्थ देशद्रोह नहीं है, क्रांन्ति का अर्थ है प्रगति के लिए परिवर्तन की भावना एवं आकांक्षा। वर्तमान व्यवस्था का परिवर्तन, लोग साधारणतया जीवन की परम्परागत स्थिति के साथ चिपक जाते हैं और परिवर्तन के विचार-मात्र से ही काँप उठते हैं। यही वह जड़ता की भावना है, जिसके स्थान पर क्रान्तिकारी भावना जागृत करने की आवश्यकता है।


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आवश्यक है कि पुरानी व्यवस्था सदा बदलती रहे और नई व्यवस्था उसका स्थान लेती रहे।


इस लेख में मैं प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से ऐसा कुछ कहना चाहुंगा। मैं भी आपकी तरह एक साधारण जाट हूँ, मैं कोई इतिहासकार व साहित्यकार नहीं हूँ। लेकिन मैंने अपनी जाति के लिए इतिहास पर कुछ चिंतन किया है, इसलिए मैं अपने चिंतन को असाधारण मानता हूँ और इसी बल पर अपनी बात को डंके की चोट पर सिद्ध करने का दावा करता हूँ। मेरी बात को मेरे कितने जाट भाई समझ पायेंगे यह मैं नहीं कह सकता, लेकिन कोई एक भी समझ गया तो मैं स्वयं को सफल समझूंगा। इस बारे में मैं कुछ उदाहरण पेश कर रहा हूँ -

मेरे एक जाट मित्र अधिकारी के पुत्र ने ब्राह्मण जाति में शादी की थी। वह अपने पौत्र को एक दिन अपने साथ लाया और मुझे कहने लगा कि यह बच्चा बहुत ही होशियार है। मैंने पूछा “हम किस वर्ण में आते हैं तथा हमारा धर्म क्या है और हम अपने धर्म के बारे में कितना जानते हैं” उन्होंने उत्तर दिया “जाट क्षत्रिय हैं और मैं पक्का हिन्दू हूँ तथा प्रातः रोजाना गीता का पाठ करता हूँ।”, तो मैंने कहा - फिर तो आपका पौत्र सूत जाति का हुआ क्योंकि हिन्दू धर्म की मनुस्मृति में जातियों के अनुलामे व प्रतिलामे के अध्याय में स्पष्ट लिखा है कि “क्षत्रिय से ब्राह्मण कन्या में उत्पन्न जाति (वर्ण) सूत कहलाती है” इस पर मित्र मुझे घूरकर देखने लगा तो मैंने कहा “इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं, आपका पौत्र तो अवश्य होशियार होगा क्योंकि यह हाईब्रीड है (शंकर वर्ण) जैसे हाईब्रीड बाजरा व गेहूँ एक एकड़ में 40 मन से 80 मन तक हो जाता है, लेकिन याद रहे इनमें देशी बाजरे व गेहूँ की तरह कभी मिठास व लोच नहीं होगा। बस यही भारी अन्तर है। पाठक कृपया इसका अर्थ स्वयं निकाले।


मैं इस बात को साफ करने के लिए एक उदाहरण दे रहा हूँ, जिससे प्यार और वासना की स्थिति स्पष्ट हो जाती है। एक बड़े हिन्दू ब्राह्मण


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बाप की बेटी थी। वह एक दिन अपने पिता से कह उठी कि उसे एक पारसी लड़के से प्यार हो गया है। परिवार की प्रतिष्ठा का सवाल था इसलिए पिता ने इंकार कर दिया। लेकिन लड़की जिद्द पर अड़ गई तो पिता को एक दिन झुकना पड़ा। बेटी पिता का घर छोड़कर अपने प्रेमी के घर पत्नी बनकर चली गई। वहां दो बच्चे होते-होते वह प्यार छू-मन्तर हो गया। एक दिन वही लड़की अपने पति से जिद्द करने लगी कि वह तो अपने पिता जी के पास रहेगी। वह नहीं मानी और एक दिन पति को छोड़ फिर अपने पिता के घर लौट आई। इससे स्पष्ट है कि इस लड़की की यह वासना थी जो दो बच्चे होते होते यही वासना लगभग समाप्त हो गई और पिता के प्यार को जिस वासना ने पीछे छोड़ दिया था, फिर से लड़की को वह पिता का प्यार सताने लगा और वह उस पति के प्यार (वासना) को भूल गई। इससे स्पष्ट है कि लड़की का अपने पति से प्यार नहीं था वह वासना थी, जिसकी समय सीमा थी, जो समाप्त होगई। लड़की को सच्चा प्यार अपने पिता से था, पति से नहीं। यही प्यार और वासना का भेद है।


आज हमारे चारों तरफ इस प्यार रूपी वासना का ही तांडव चल रहा है और यह भी एक हकीकत है कि अभी सरकार ने इसके लिए घूस देनी भी शुरू कर दी है। आज स्कूल में जाने वाली गाँवों की जाटों की लड़कियां भी इस प्यार के नाम पर भागने लगी हैं। (पिछले साल मेरी ससुराल के गाँव से स्कूल में जाने वाली जाटों की दो लड़कियां भाग गईं और एक सप्ताह के बाद बरामद हुई)। कहने का अर्थ है कि यह जाटों के लिए समस्या ही नहीं अपितु एक चुनौती बनती जा रही है। आज यह पनघट व बिटोड़ों तक की बात नहीं रही बल्कि गाँव चौपाल की समस्या बन चुकी है। क्योंकि हुक्का संस्कृति का गाँव से डेरा उठ चुका है जो खानदानी परम्पराओं की रक्षक थी। अभी कोई कहेगा कि जाटों की ही अकेली लड़कियां नहीं भाग रही हैं, दूसरी जातियों की लड़कियां भी भाग रही हैं, तो मेरा कहना है कि बाकी जातियों के हम ठेकेदार नहीं, हम अपना घर


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संभालें। इसमें जाटों को ज्यादा खतरा है क्योंकि जाट जाति स्वभाव से अधिक भावुक है। क्योंकि जब सरकार ने यह अभियान चलाया कि देश में कोई जाति-पाती नहीं, इसका असर भावुकता के कारण जाटों के बच्चों पर अधिक पड़ा। जबकि भारत के संविधान से लेकर आपकी नौकरी के लिए फार्म भरने तक सभी जगह जातियों का प्रावधान है। इसलिए इस समस्या की मार जाट जाति पर अधिक पड़ने वाली है जो जाट जाति को लुप्त होने की राह पर ले जायेगी। कहीं ऐसा ना हो कि हमें अपनी बेटियों के लिए दहेज से पहले उनके लिए छुछक का बन्दोबस्त करना पड़े। इस वासना की वकालत करने वाले जाटों से मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या हम और हमारे पूर्वज बगैर प्यार के ही पैदा हो गये थे? अब ये कहेंगे कि समय बदल रहा है तो मैं पूछता हूँ कि क्या हम समय को अपने नाते बदलने की आज्ञा दे देंगे और फिर एक दिन अमेरिकन की तरह सात दिन के लिए शादियाँ करने लगेंगे? जहाँ 34 प्रतिशत लड़कियां बच्चे नहीं चाहती और 4 प्रतिशत विवाह करना ही नहीं चाहती। यदि हम समय रहते इन समस्याओं पर ध्यान नहीं देंगे तो एक दिन हम अपना मन मसोसकर रह जायेंगे या फिर देशभक्ति के भाषण झाड़ते फिरेंगे (ऐसा अभी कुछ जाटों के साथ हो भी रहा है)। अभी हरयाणा में तो एक जाट राजनीतिज्ञ परिवार इस समस्या से जूझ रहा है क्योंकि उसके सभी बच्चे जाट जाति से भगोड़े हो चुके हैं, जाट बेचारे इनके लिए अपने स्वार्थ में नारे लगाते तथा पंचायतें करते फिर रहे हैं। ऐसे ही लोग जाति को लुप्त होने की ओर ले जा रहे हैं और बाकी जाट उनका अनुसरण कर रहे हैं।

अभी कुछ शिक्षित जाट भी सगोत्र विवाह की वकालत कर रहे हैं, जबकि यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हो चुका है कि सगोत्र विवाह बेहद खतरनाक हैं। इनसे किन्नर (हिजड़े) पैदा होंगे। जंगली जानवरों में भी यह देखा गया है कि जो एक ही समूह में रहकर प्रजनन करते हैं उनके


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अस्तित्व को ही खतरा उत्पन्न हो गया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है पारसी धर्म समाज है। जिनकी जनसंख्या सन 1991 में लगभग 72 हजार थी जो सन् 2001 में घटकर लगभग 69 हजार रह गई। क्योंकि इनमें गोत्र प्रथा नहीं है। अभी इसी समाज को बचाने के लिए उपाय ढूंढे जा रहे हैं। यह बहुत ही आश्चर्यजनक बात है कि लोग अपनी ही बहन से विवाह करने वालों को कैसे प्रेमीयुगल कहते हैं? क्योंकि जाट समाज व अन्य कुछ सजातियां सगोत्री को भाई-बहन मानते हैं। हमें हर हालत में ‘हिन्दू कोड’ में कानूनी तौर पर सगोत्री विवाह को गैर कानूनी करवाना पड़ेगा, जिसमें आज तक गोत्र का प्रावधान नहीं है। आमतौर पर हिन्दू लोग मुस्लिम धर्म के विवाह कानून पर उंगली उठाते हैं लेकिन जब सन् 1955 में बना ‘हिन्दू विवाह कानून’ किसी भी प्रकार से हिन्दुवादी नहीं कहा जा सकता और यह कोड एकदम जाट विरोधी है। क्योंकि सम्पूर्ण जाट समाज गोत्र परम्परा पर टिका है वरना यह छिन्न-भिन्न हो जाएगा। जबकि यह ‘हिन्दू विवाह कानून’ बहिन भाई अर्थात् समगोत्र विवाह को वैध मानता है जबकि जाट समाज समगोत्र लड़के-लड़की को भाई-बहन का दर्जा देता है। इसलिए हिन्दू कोड जाट समाज के लिए अधर्मी है। इसके लिए 21वीं सदी तथा आधुनिकता का कोई भी बहाना नहीं हो सकता। 21 जून 2008 को हाईकोर्ट दिल्ली ने इसी कोड के अनुसार एक फैसले में समगोत्र विवाह को जायज ठहरा दिया। वास्तव में ‘हिन्दू विवाह कानून’ को दक्षिण भारत के ब्राह्मण अधिकारियों ने ड्राफ्ट किया था जिनके यहां सगी बहन, बुआ और मामा की लड़कियों से विवाह करना सबसे पवित्र रिश्ता माना जाता है। ऐसी ही कुप्रथा पाकिस्तान से आए शरणार्थी हिन्दू पंजाबियों में है। जो भी हो, जाट समाज ने अपने समाज को कायम रखना है तो इस कोड का विरोध करना ही होगा। जिसके लिए जाट सभाओं व खापों को आगे आना होगा।


देखा गया है कि ऐसे ही लोग खापों को समाप्त करने के पीछे लगे हैं क्योंकि वे जानते हैं कि इस समाज की रीढ़ खाप और गोत्र प्रथा है


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और उनकी रीढ़ ही टूट जायेगी तो समाज अपने आप ही बिखरकर खत्म हो जायेगा। यदि हमने ऐसा प्रयास नहीं किया तो बबली-मनोज जैसी कीमती जानें जाती रहेंगी और तीसरी अदालत कार्य करती रहेगी, जो हमारे समाज के लिए बहुत घातक है। यह कभी नहीं हो सकता कि सांगवान के बेटे की शादी सांगवान की पुत्री से हो। लेकिन किसी संजय कपूर की शादी किसी करिश्मा कपूर से हो सकती है? यह संस्कृति इन्हीं लोगों को मुबारक। यह प्रमाणित तथ्य है कि यदि किसी कौम को लुप्त व बर्बाद करना हो तो उसके इतिहास को मिटा दो। पौराणिक ब्राह्मणवाद जाटों के इतिहास को पहले ही विकृत कर चुका है और जो भी शेष है, उसके बारे में अधिकतर जाटों को कुछ भी ज्ञान नहीं है। इसके लिए मैं एक उदाहरण देना चाहूंगा। जब इस पुस्तिका का पहला संस्करण छपवाया तो मैंने एक हिन्दी विषय के जाट लेक्चरर को इसकी एक कापी पढ़ने को दी तो उसने मेरे सामने इसको अन्त से पढ़ना शुरू किया और वह पहली लाईन पर मुझसे पूछ बैठा कि “क्या राजा नाहरसिंह जाट थे”? इस बात से बड़ा आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज हमें अपने इतिहास का कितना ज्ञान है। आमतौर पर शिक्षित जाट अपने बच्चों को जाट शब्द तक नहीं बतलाना चाहते, इतिहास की बात तो छोड़ो। उनको पता नहीं कहाँ से यह बहम हो गया कि यदि बच्चों को अपनी जाति के बारे में बतलाया गया तो वे बिगड़ जाएंगे। बच्चों को केवल एक ही बात रटाई जाती है कि ‘पढ़ लो बेटे पढ़ लो’। बच्चे अपनी खानदानी परंपराएं भूल रहे हैं। इसी का परिणाम है कि आज नैतिकता अपने निम्न स्तर पर पहुंचती जा रही है और यही भूल जाट जाति को लुप्त होने की राह पर ले जा रही है।


वर्तमान में शराब ने जाटों पर कहर ढा दिया है। परिवार के परिवार तबाह हो रहे हैं। युवा वर्ग का एक भाग शराब की भेंट चढ़ रहा है। हर गांव में शराब के ठेके खुल गए हैं, जिन जाटों की जितनी कम कमाई है, उतनी ही अधिक उनमें शराब की खपत है, चाहे इसके पीछे मनोवैज्ञानिक


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कारण ही क्यों न हो। इस बुराई पर नियन्त्रण करने के लिए जाट कौम को उपाय करने पड़ेंगे। सबसे बुरी बात तो यह है कि इस वर्ग को यह भी ज्ञान नहीं कि यदि शराब पीनी ही है तो कब, कैसे, कैसी और कितनी पीनी चाहिए?

अभी यह पढ़कर कोई कहेगा कि मेरी विचारधारा रूढीवादी है, आधुनिक नहीं। ऐसे लोगों से मेरा कहना है कि पहले वे अपनी विचारधारा को दुरुस्त कर लें क्योंकि वे बनावटी आधुनिकता में जी रहे हैं।

मेरा तो यहाँ तक कहना है कि श्रीमती सोनिया गाँधी भी जट्टपुत्री हो सकती है। मैं इस बात को दोहरा रहा हूं कि ऐसा इतिहास के नजरिये से तथा इस महिला के चरित्र व स्वभाव से संभव है। लेकिन पक्के तौर पर तो वैज्ञानिक परीक्षण डी.एन.ए. से ही कहा जा सकता है। क्योंकि सन् 400 के लगभग अलारिक जाट ने इटली पर पहला आक्रमण किया लेकिन वह असफल रहा। दूसरा आक्रमण सितम्बर 408 को रोम शहर पर किया और उस पर कब्जा कर लिया। जब रोमवासियों ने अलारिक को यह कहकर डराना चाहा कि “रोम जनता का विशाल समुदाय तथा उसका प्रबल क्रोध तुम्हारे विरुद्ध है” तो उसने उत्तर दिया था कि “सूखी घास जितनी अधिक गहरी होगी, उतना ही उसे काटना हमारे लिए आसान होगा” । यह स्पष्ट तौर पर एक जाट उत्तर था। इस प्रकार जाटों ने इटली पर अधिकार कर लिया। लेकिन जाटों ने वहाँ भी अपना चरित्र प्रदर्शित किया और ईसाई गिर्जाघरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। इस पर तत्कालीन पादरियों ने भी उनकी दयालुता के बहुत से उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जो स्वयं में जाटों का अपना एक इतिहास है। जब जाटों ने अपने चरित्र व परिश्रम से इटली को धनाढ्य बना या तो फिर इटलीवासियों ने कहा था “जाट इससे पूर्व हमारे यहाँ क्यों नहीं आये।” इसे वहां God Rule अर्थात् रामराज्य कहा गया है, इस पर जोरडेंज जाट इतिहासकार ने सन् 551 में अपने देश (इटली) का इतिहास लिखा, जिसमें


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जाटों के लगभग 143 साल के इटली पर शासन का वर्णन मिलता है। इटली पर राज करनेवाले कुल्लर, उदर तथा बल आदि गोत्री/वंशी जाट थे। जाटों के नामों पर पाठक कोई अंदेशा न करें, कल तक हमारे नाम लगभग ऐसे ही थे जैसे कि मेरी एक दादी का नाम Hasti तथा दादे व परदादे का नाम Agdi और Zheria तथा Gilli आदि थे। यदि वास्तव में श्रीमती सोनिया गाँधी जट्टपुत्री हैं तो अभी यह एक वैज्ञानिक तौर पर डी.एन.ए. टेस्ट के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है।


यह कोई अजनबी बात नहीं है। इसका भी मैं यहाँ एक उदाहरण पेश कर रहा हूँ। लगभग सातवीं सदी के अन्त में इजराइल में जो यहूदियों के सात खानदान होते थे, गृहकलेश के कारण एक खानदान इजराइल छोड़कर चला गया और उसका कहीं अता-पता नहीं चला। आज से लगभग 50 साल पहले यहूदियों ने उनकी खोज शुरू की तो यहूदियों का एक खोजी दल सन् 1997 में मिजोराम पहुंच गया। जब उन्होंने मिजो जाति में अपनी भाषा व संस्कृति के कुछ अंश पाये तो उनको विश्वास हुआ कि उनका खोया हुआ सातवां खानदान यही मिजो लोग हैं। इस पर उन्होंने उन लोगों पर डी.एन.ए. जाँच के परीक्षण करने के प्रयास किये लेकिन उस समय वहाँ की कांग्रेसी सरकार (मुख्यमंत्री लालथन हावला) ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखलाई, लेकिन सन् 1998 में एम.एन.एफ. (मिजो नेशनल फ्रंट) की सरकार बनने पर उस दल को दोबारा से बुलाया गया और इस पर सन् 2002 में डी.एन.ए. टैस्ट हुए और यह वैज्ञानिक तौर पर सिद्ध हुआ कि वास्तव में मिजो जाति ही यहूदियों का खोया हुआ सातवां परिवार है और आज तक लगभग 800 परिवार मिजोराम छोड़कर इजराइल जा चुके हैं। मिजोराम इतिहास के अनुसार यह परिवार इजराइल छोड़ने के बाद घूमता फिरता चीन देश में पहुंच गया, जहाँ इनको बन्धक मजदूर बनाकर ‘चीन की दीवार’ जो ऐतिहासिक प्रसिद्ध है, के निर्माण में लगाया और जब एक दिन वहाँ भी अव्यवस्था फैली तो इनको मौका मिला और वे चीन छोड़कर ब्रह्मा देश में पहुंच गये। उसके बाद 17वीं


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शताब्दी से इनका पलायन भारत के मिजोरम की तरफ हुआ जिन्हें पहले लुसाई कहा जाता था। इस लुसाई परिवार का इतिहास एक चमड़े पर लिखा था जिसको एक दिन एक कुत्ता लेकर भाग गया, इसी कारण इनका लिखित इतिहास गायब हो गया और आज तक पूरा इतिहास जनश्रुतियों पर आधारित रहा है। मेरा कहने का अर्थ है कि मैं आधुनिकता में पूर्ण विश्वास रखता हूँ लेकिन मेरी जाति के लुप्त होने में नहीं। यह संघर्ष की शुरुआत है जो लम्बा चलेगा।


यदि कोई अनपढ़ व्यक्ति टाई लगावे तो उसे पढ़ा लिखा नहीं कहा जा सकता। मैं मेरी जाति को असली रूप में आधुनिक देखना चाहता हूँ। वह तभी संभव हो पायेगा जब हम पहले ‘रूढिवादी ब्राह्मणवाद’ तथा ‘लुटेरी संस्कृति’ से अपना पिण्ड छुड़वायें। यही दोनों हमारे वास्तविक आधुनिक बनने में सबसे बड़ी रुकावटें हैं। यह हमें कहीं का भी नहीं छोड़ेंगी, न ही हम असली आधुनिक बन पायेंगे और ना ही हम जाट रह पायेंगे। हमारे पास अभी भी तुरप का पत्ता (Trump Card) शेष है, जो खेल का परिणाम शत प्रतिशत हमारे हक में कर देगा। लेकिन इसमें पहली शर्त है कि हम अपनी जाति के बारे में चिंतन करें कि हमने अब तक क्या खोया? क्या पाया? खोया तो क्यूं खोया? पाया तो कितना पाया? नहीं पाया तो क्यों नहीं पाया? हम भूतकाल में नहीं जी सकते हैं। भविष्य को तय करके ही वर्तमान में जीया जा सकता है। हमें क्या करना चाहिए इस पर गंभीरता से चिंतन करना होगा। गंगा से कांवड़ लाने से, सड़कों पर मन्दिरों के लिए हाथों में बालटियाँ लेकर भीख मांगने से, धर्मगुरुओं के चरणों में माथा टेकने से, हवन व यज्ञ करने से और मूर्तियों के आगे घण्टों हाथ जोड़कर खड़ा रहने से, जागरणों में तालियां पीटने से, गुरुनामा लेने से हमारी जाति का भला होने वाला नहीं। ये झूठी तसल्लियां हैं और खुद से धोखा है, यह आस्था और अंधविश्वास का खतरनाक अन्तर है। जाट भाइयो, यह जाटों का धर्म नहीं है। ऐसे जाट ब्राह्मण धर्म का पालन


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कर रहे हैं। यही सच्चाई है।

यदि यह सच होता तो इनके लिए हमारी बारी ब्राह्मणवाद कभी नहीं आने देता और आज 21वीं सदी में ये ब्राह्मणवादी भिखारी नहीं होते। यदि यह सच होता तो यह देश एक हजार साल गुलाम नहीं रहता। यह सच होता तो हम भारतीय लोग अमेरिका की तरफ बार-बार हाथ नहीं फैलाते और हमको उनके हवाई अड्डों पर बेइज्जत नहीं होना पड़ता। (जैसे भूतपूर्व रक्षामंत्री जार्ज फर्नाडिश तथा संसद सदस्य लक्ष्मणसिंह आदि-आदि)। यह सच होता तो आज हम अपने बच्चों को रोजी-रोटी के लिए यूरोपीय देशों में भेजकर घमण्ड से सीना नहीं फुलाते और हमारे देश की 40 प्रतिशत जनता गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करने पर बाधित नहीं होती। यह सच होता तो हमारा देश घूस लेने में संसार में अव्वल नहीं होता और चरित्र व नैतिकता में ओन्धें मुँह नहीं पड़ता। हमें तो कमर कसनी होगी। हमें इसी जमीन पर इंग्लैंड और अमेरिका बनाना होगा तथा एक आदर्श यूरोप का निर्माण करना होगा। मैं यह कोई डींगे नहीं हांक रहा हूँ, मुझे मेरी ऊर्जावान् व प्रगतिशील जाट जाति पर पूरा-पूरा विश्वास है कि वह ऐसा कर सकती है। इतिहास गवाह है कि मेरी जाति ने ऐसा कई बार किया है तो फिर एक बार और क्यों नहीं कर सकती है? बिल्कुल कर सकती है, बशर्ते जाति इस पर एक बार दिल और दिमाग से चिंतन करके अपना निर्णय ले। हम ब्राह्मणवाद और लुटेरी संस्कृति को ऐसे दौड़ा देंगे जैसे कीचड़ में हिरन को शेर दौड़ाता है। गैर-चमार समाज तथा और भी कुछ सहयोगी जातियाँ हमारे इंतजार में बैठी हैं।


हम पूरे उत्तरी भारत का नक्शा बदल सकते हैं, लेकिन मैं एक बार फिर दोहरा दूं कि हमें पहले हर-हाल में ब्राह्मणवाद व लुटेरी संस्कृति से अपना पल्ला झाड़ना होगा। क्योंकि यही हमारे लिये सबसे बड़ी रुकावटें हैं क्योंकि इनके पास हिन्दू धर्म की बागडौर है, नरक-स्वर्ग की चाबी है, अंधविश्वासों का खजाना है, व्यापार की कैंची है, बातों व कहानियों का


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जंजाल है, हमारी बुराई के लिए ये प्रोपगण्डे व षड्यंत्रों के विशेषज्ञ हैं, इन्हीं कारणों से हमारा सदियों से इनसे 36 का आंकड़ा है और रहेगा जब तक कि यह साम, दण्ड, भेदभाव वाली संस्कृति हमारे यहाँ कायम रहेगी। ये लोग कभी भावुक नहीं होते, इनके चेहरे पर पढ़ने के लिए कुछ नहीं होता क्योंकि इनकी हँसी और गुस्सा सभी बनावटी हैं। इनकी निगाहें हमेशा अपने स्वार्थी उद्देश्य पर टिकी होती है। इन्होंने देश से इस लूट के अतिरिक्त कुछ लेना-देना नहीं है। इनका मिशन एक ही है कि बस देश में लूट चलती रहे और ये समाज को लुटते रहे और उत्तरी भारत का एक बड़ा भाग जाट है जो लुटेरों के निशाने पर है।

यही लोग आज जाटों को लुटेरा लिख रहे हैं, मैं दावे से लिख रहा हूँ कि उसके बाद हम इनको लिखने का समय ही नहीं देंगे। यदि इन्होंने लिखा भी तो उसको पढ़ने वाले केवल यहीं लोग होंगे और यही ब्राह्मणवाद फिर हमारी प्रशंसा में पुल बांधने के लिए पाला बदल लेगा। क्योंकि इनके रीढ़ नहीं हैं, लेकिन अफसोस होगा कि हम इनकी प्रशंसा की कहानियों पर कोई ध्यान नहीं देंगे।

इस ब्राह्मणवाद के रीढ़ नहीं होती। यह मेरी बात सच साबित हुई। जब सन् 2007 के उत्तर प्रदेश के चुनाव के नतीजों पर वे लोग जिन्हें दलित लोगों से बदबू आती थी और छूने मात्र से अपवित्र हो जाते थे, टीवी. पर दलितों के पैर छूते नजर आए। वास्तव में केवल रीढ़ ही नहीं, ऐसे लोगों का कोई नियम व धर्म नहीं होता। केवल स्वार्थ ही सब कुछ होता है। यह इतिहास कह रहा है। किसी ने ठीक ही कहा है:-

सोच बदल दो सितारे बदल जायेंगे ।
नजर बदल दो नजारे बदल जायेगेगे ।।

जाति को बचाने का अभी एक ही उपाय है कि हम अपनी जातिवादी सामाजिक धरोहर को आत्मसात कर आधुनिक विज्ञान (तकनीकी शिक्षा) को छाती से लगाएं। आपसी टांग खिचाई को बंद करना होगा। जाट कौम के लिए यह बड़ी शर्म की बात है कि आज कौम


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ताश खेलने पर आ गई और हमारी औरतें हम जाटों को कमा कर खिला रही हैं। लेकिन जो कहते हैं कोई जाति-पाति नहीं, उन्हें कहो कि वे अपने जातीय संगठनों को पहले समाप्त कर दें। अपने नामों के साथ सरनेम व गोत्र लगाना बन्द करे। वर्तमान में जाट कौम पर चारों तरफ से हमले शुरू हो चुके हैं। यदि कौम अभी भी होश में नहीं आई तो फिर बहुत देर हो चुकी होगी। क्योंकि किसी समाज के लिए विनाशकारी बात यह है कि उसे अंधेरे में तथा बिखरा हुआ रखा जाए। आज जाट कौम के साथ ऐसा ही हो रहा है। कौम अपने अतीत को रोज का भविष्य बना सकती है और वह जिंदा भी रहती है। लेकिन केवल भूतकाल को याद करने भर से नहीं। याद रहे बांस के पेड़ पर केवल एक ही बार फूल खिलते हैं। उसे देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। एक मौका हाथ से जाने पर दोबारा नहीं आता। यहां तो जाट कौम 65 साल से मौके गंवाती आ रही है। उसके बाद हमारे बारे में बोलें। (पुस्तकें - हिन्ट्री ऑफ लुसाई, किसान-संघर्ष तथा विद्रोह, भारतीय इतिहास व अन्य ऐतिहासिक पुस्तकों का अध्ययन तथा निजी अनुभव व समाचारपत्र आदि-आदि)।

19. स्वामी दयानन्द के आर्यसमाज से जाटों को क्या लेना-देना था?

इस अध्याय पर पिछले संस्करण में कुछ लोगों ने रोष जताया है। मैं जानता हूं कि मेरी कौम का आर्यसमाज से बड़ा गहरा लगाव रहा है और जाट समुदाय स्वामी दयानन्द को जाट ही समझते हैं। मेरी किसी जाट या आर्यसमाजी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने की तनिक भी इच्छा नहीं है लेकिन वैदिक धर्म व वैदिक संस्कृति की बात तो की जाती है परन्तु इस धर्म व संस्कृति का भारतीय संविधान में नाम तक नहीं है, न ही आई.पी.सी.-सी.आर.पी.सी. या किसी अन्य भारतीय कानून में इनको कोई मान्यता है। जब देश के संविधान व कानून में ही मान्यता नहीं तो


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हम किस बात का इस धर्म और संस्कृति पर फक्र करें। दूसरा, आर्यसमाज ने हमारी कौम की बात छोड़कर केवल वर्ण की बात की है जिस कारण हमारी कौम गौण हो जाती है। क्योंकि कोई भी आर्यसमाजी मंच पर खड़ा होकर किसी जाति का नाम तक नहीं ले सकता है तो फिर जाट जाति का नाम कहा? मैं जानता हूं कि मेरी कौम के महापुरुषों ने आर्यसमाज के लिए अपना पूरा जीवन लगा दिया और बलिदान दिये जिसमें स्वामी स्वतन्त्रानन्द तथा भक्त फूल सिंह आदि का बलिदान उल्लेखनीय है। मैं जानता हूं मेरी जाट कौम की स्वामी दयानन्द तथा आर्यसमाज में गहन आस्था रही है। शहीद भगतसिंह के दादा अर्जुन सिंह ने स्वामी दयानन्द से ही जनेऊ ग्रहण किया था। उनके चाचा अजीत सिंह क्रान्तिकारी तो आर्यसमाज के उपदेशक भी रहे थे। मेरी सबसे बड़ी तड़फ है कि स्वामी दयानन्द जी महाराज के कहने पर भी आर्यसमाज को ‘हिन्दू’ शब्द से अलग नहीं किया गया, इसी कारण आज यह खण्डित व भ्रमित है। नतीजतन, फिर उसी पौराणिक व पाखण्डी धर्म की शरण में जा रहा है। मेरे इस दर्द के कारण मैं इस नीचे लिखे लेख को दोबारा से इस संस्करण में भी दोहरा रहा हूं। यदि इस लेख को कोई सतलोक का रामपाल अपने स्वार्थ में प्रयोग करता है तो वह कानूनी अपराधी है। जाट आर्य हैं या नहीं यह कोई बहस का मुद्दा नहीं है। क्योंकि इस बारे में विद्वान् इतिहासकारों के अलग-अलग ठोस मत हैं, जिसमें पाठकों को मैं उलझाना नहीं चाहता। बल्कि इसमें एक गहन शोध की आवश्यकता है। क्योंकि जाटों ने 100 वर्षों से जो मिथक पाल लिए हैं उन्हें भुलाना भी आसान नहीं है।

पं० शंकराचार्य ने 9वीं सदी के प्रारंभ में बौद्ध धर्म का विनाश करके हिन्दू (ब्राह्मण) धर्म की पुनः स्थापना की थी और भारत के चारों कोनों में हिन्दुओं की चार पीठ स्थापित की। लेकिन जाट क्षेत्र में कोई नहीं। इस ब्राह्मण धर्म की पुनःस्थापना पूरी तरह पौराणिक ब्राह्मणवाद पर ही आधारित थी, लेकिन कुछ सुधारों के साथ। जब इन पीठों में शंकराचार्य


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मनोनीत करने की बात आई तो उन्होंने चारों शंकराचार्यों का चुनाव दक्षिण भारत के ब्राह्मणों से किया, उनमें से दक्षिण की रामेश्वर पीठ में मध्य भारत से मंडन मिश्र उर्फ सुरेशाचार्य को बैठाया बाकी सभी सुदूर दक्षिण भारत से थे। उत्तर में बदरिकाश्रम की पीठ का शंकराचार्य तोटकाचार्य केरल के नमुदरीपाद ब्राह्मण थे लेकिन उन्होंने उत्तरी भारत से अर्थात् ब्राह्मणों की पीठ काशी (काशी प्राचीन में बौद्ध धर्मियों का शहर था) से किसी भी ब्राह्मण को इस योग्य नहीं समझा क्योंकि वे उन्हें भ्रष्टाचारी समझते थे। वैसे पं० शंकराचार्य जी ने धर्म के साथ-साथ अर्थशास्त्र को भी नहीं भुलाया क्योंकि उन्होंने दक्षिण भारत में पैदा होने वाले नारियल को देवी-देवताओं की उपासना में भेंट की प्रथा चलाई ताकि अपने दक्षिण के लोगों को आर्थिक तौर पर फायदा हो सके। पं० शंकराचार्य ने मायावाद के सिद्धान्त का जमकर प्रचार किया और उसने चिल्ला-चिल्ला कर कहा कि सभी ब्रह्म है तथा ब्रह्म के सिवाय कुछ नहीं। बाकी सब चीजें झूठी हैं। अर्थात् इनका ‘ब्रह्म सत्यम् जगत मिथ्या’ का उपदेश रहा। लेकिन इसी ब्राह्मण ने वेदान्त के दर्शनसूत्र (1-3-34) में फिर क्यों लिखा कि यदि कोई शूद्र वेद को सुन ले तो उसके कान में शीशा और लाख भरवा देनी चाहिए? यही विचार उनके नारी के बारे में हैं। फिर कहां गया उनका ब्रह्म का सिद्धान्त? क्या शूद्र और नारी में ब्रह्म नहीं है? कितना बड़ा खोखलापन है इस ब्राह्मण धर्म में! इसी को हिन्दू सनातन धर्म कहते हैं जबकि सनातन धर्म तो वैदिक और बौद्ध धर्म ही है। वैदिक काल से सरस्वती नदी एक धार्मिक नदी रही लेकिन शनैः शनैः वह सूखती गई (वेदों में सरस्वती नदी का बार-बार उल्लेख आया है, लेकिन गंगा का केवल तीन ही बार उल्लेख है) तो पं० शंकराचार्य जी ने गंगा को हिन्दुओं की पवित्र नदी घोषित कर दिया तो साथ में एक गपोड़ भी जोड़ दिया कि सरस्वती अब इलाहाबाद में गंगा-जमना में धरती के नीचे से आकर मिल गयी है और वहां अब त्रिवेणी हो गई है। यह भी दुनिया का एक बड़ा झूठ है। सरस्वती नदी अपने उदगम से जमीन के नीचे


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इलाहाबाद में आकर कैसे मिल सकती है? हमने तो यह देखा है कि हमारे खेतों में एक छोटा पानी का नाला टूटने पर भारी मिट्टी का कटाव करता है लेकिन सरस्वती नदी हजारों साल से एक फुट जमीन को भी नहीं काट पाई। यह सभी पाखण्डवाद का लूटने और कमाने-खाने का एक धंधा है। इसलिए इन्होंने ही सबसे पहले गंगा के किनारे गंगोत्री मंदिर बनवाया और गंगा नदी को हिन्दुओं की पवित्र नदी घोषित किया, जिसमें डुबकी लगाने से सब पापों का अन्त होने लगा और आज इसी गंगा नदी के किनारे गंगोत्री से लेकर फराक्का बांध तक (बंगाल) भारतवर्ष के अधिक निर्धन लोग रहते हैं जिनके पाप तो धुल पाये या नहीं, लेकिन गरीबी नहीं धुल पाई। इसी गंगा की तर्ज पर गरीबी को पालने के लिए देश में अनेक गंगाएं बन गई। उदाहरण के लिए जम्मू क्षेत्र में ‘गुप्त गंगा’, मध्य प्रदेश में ‘बैन गंगा’, किस्तवाड क्षेत्र में ‘काली गंगा’ और तामिलनाडू में ‘शिव गंगा’ आदि-आदि। ये सभी गंगा भाग्य के भरोसे रहने का पाठ पढ़ाती हैं और स्वर्ग का झूठा लालच देकर हिन्दू समाज को निकम्मा बना रही हैं। आस्था के नाम से पाखण्ड व अंधविश्वास फैलाना सामाजिक अपराध है। लेकिन पाखण्डी लोगों ने वास्तविक जाट गंगा जिसे जाट कस्सियों से खोदकर लाये, भुलाने का प्रयास किया है। जब शंकराचार्य महाराज 32 वर्ष की अवस्था में ईश्वर को प्यारे हो गये तो उनकी मृत्यु के पश्चात् इस नवीन ब्राह्मण धर्म में फिर से अधिक भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गई और यह धर्म फिर से घोर अंधविश्वासों और कुरीतियों में फंसता चला गया। इस ब्राह्मणवादी धर्म की चपेट में राजपूत आदि कुछ जातियां पूरी तरह आ गई लेकिन जाटों के संस्कार हिन्दू प्रतीत होते हुए भी प्रछन्न बौद्धधर्मी थे, जिसमें कुछ संस्कार आज भी जाट चरित्र में स्पष्ट दिखते हैं। जाट व कुछ अन्य सहयोगी जातियों के चरित्र में जो आदर्शता प्रतीत होती है वह सभी की सभी प्राचीन बौद्ध धर्म की देन है। डा० धर्मकीर्ति ने अपनी एक शोध पुस्तक “जाट जाति प्रछन्न बौद्ध है” लिखकर इसे ऐतिहासिक धरा पर सिद्ध कर दिया है। वास्तव में यह धर्म स्थापित करने के समय भी बहुत


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बड़ा गोलमाल हुआ था क्योंकि उस समय कुमारिल भट्ट ब्राह्मण ही भारत में बौद्ध धर्म के एक बहुत बड़े विद्वान् थे। लेकिन वे जानबूझकर पं० शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में हार गए और फिर शंकराचार्य जी के साथ मिल गए। जरूर दाल में कुछ बड़ा काला था। इसी के बाद हिन्दू धर्म में मुर्गे, बकरे व भैंसों आदि की बलि चढ़ने लगी।

जब यह ब्राह्मण धर्म फिर से अपने पतन की तरफ लौट रहा था, उसी समय 19वीं सदी में पं० स्वामी दयानन्द उर्फ पं० मूलशंकर शर्मा जी प्रकट हो गये। जब उन्होंने सन् 1875 में बम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की तो 96 सभासदों में से 39 ब्राह्मण, 24 अरोड़ा व खत्री, 18 गुजराती/मराठी बनिये तथा शेष 15 लोग वहाँ की स्थानीय जातियों से थे। इनमें से कोई एक भी जाट नहीं था। स्वामी दयानन्द का उद्देश्य गिरते हुए ब्राह्मण धर्म को फिर से ऊपर उठाना तथा उसमें सुधार करना था। अर्थात् उनका उद्देश्य ब्राह्मण जाति में सुधार करना था जिसमें अनेक बुराइयां आ चुकी थीं। जबकि जाट जाति अपने बौद्धधर्मी संस्कारों के कारण इन बुराइयों से कोसों दूर थी, जैसे कि माँस-मिट्टी खाना, शराब पीना, अय्यासी करना व विधवा लड़कियों का पुनः विवाह न करना आदि-आदि। याद रहे, ब्राह्मण वर्ण एक ऐसा वर्ण है जिसमें केवल एक ही जाति है - ब्राह्मण।

कहने का अर्थ है कि स्वामी दयानन्द का यह आर्यसमाज ब्राह्मणवाद के सुधार के लिए था न कि जाटों के सुधार के लिए। एक बार स्वामी जी जब रिवाड़ी में ठहरे थे तो उनसे कुछ जाट लोग मिलने गये तो उन्होंने स्वामी जी से आग्रह किया कि वे उनके यहाँ आकर प्रवचन करें। इस पर स्वामी जी ने कहा था कि मैं आपको क्या प्रवचन करूं, जाट लोग तो पहले से ही आर्यसमाजी हैं। लेकिन जाट इस उत्तर को गहराई से नहीं समझ पाये और उत्साहित होकर आर्यसमाज का झण्डा उठा लिया। जाट जाति बहुत ही ऊर्जावान् जाति रही है। जाट का अर्थ ही एकजुट होना होता है अर्थात् बिखरी हुई शक्ति को इकट्ठा करना। जाट तो एक शक्ति


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है, जाट बारूद के समान है। यदि इसी बारूद को कोने में डाल दिया जाये तो यह राख के समान प्रतीत होती है जैसे कि आज हो रहा है। वरना इसी बारूद से बड़े-बड़े पहाड़ तोड़कर सड़क और बांध बनाये जा सकते हैं और यदि यही बारूद गलत हाथों में (नेतृत्व) में पड़ जाये तो बड़े से बड़ा विध्वंश या सर्वनाश किया जा सकता है। इस ऊर्जावान् जाति में हमेशा ऊर्जावान् पुरुष और महापुरुष पैदा होते रहे हैं। आर्यसमाज का झण्डा भी इन्हीं ऊर्जावान् जाटों ने उठा लिया। जबकि इस झण्डे से हम जाटों का किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं था और न ही होना चाहिए था। लेकिन हमारे इन महान् ऊर्जावान् लोगों ने वैदिक धर्म व संस्कृति की पुनःस्थापना का अनचाहा ठेका ले लिया और जब जाट जाति को ‘कानवैन्ट’ स्कूलों (अंग्रेजी स्कूल) की परम आवश्यकता थी तो इन्होंने संस्कृत स्कूलों व गुरुकुलों की बाढ़ ला दी। जो कार्य ब्राह्मणवाद ने करना चाहिये था, वह कार्य हमने अपने हाथों में ले लिया। इस देश के चरित्र और वैदिक धर्म के हम ठेकेदार बन गये। जबकि इस ठेकेदारी से हमारा कोई भी लेना-देना नहीं था।

दूसरी तरफ इसी सभा में जो 96 सदस्य थे उनकी संतान स्वामी दयानन्द के नाम पर अंग्रेजी पढ़ती रही और बड़े-बड़े सरकारी पदों पर पहुंचते रहे। इसका जीवन्त उदाहरण है महात्मा हंसराज (हिन्दू पंजाबी खत्री) जिन्होंने ‘दयानन्द एंग्लो वैदिक’ (डी.ए.वी.) स्कूलों व कालेजों की बाढ़ ला दी और वहाँ पंजाब में स्वामी दयानन्द के नाम पर आधुनिक शिक्षा पढ़ाई जाती रही। यह अलग बात है कि इन्हीं लोगों ने जैसे कि ज्ञानप्रकाश अरोड़ा (हिन्दू पंजाबी अरोड़ा) जैसों ने इन संस्थाओं को जी भरकर लूटा भी। इस लूट पर ‘पंजाब केसरी’ ने सन् 2003 में धारावाहिक लेख लिखे। मैं लगभग दो साल दयानन्द कालेज हिसार का छात्र रहा जहाँ मैंने सुना था कि हर शुक्रवार को हास्टल के पास कहीं हवन होता था। कालेज में सप्ताह में शायद एक या दो बार आध्यात्मिक पीरियड (Divinity period) होता था, जिसके लिए यह भी प्रचारित किया


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जाता था कि जब तक कोई विद्यार्थी आध्यात्मिक सर्टिफिकेट प्राप्त नहीं कर लेता तो वह फाईनल परीक्षा में नहीं बैठ सकता। लेकिन व्यवहार में मैंने कभी ऐसा नहीं पाया और ना ही मैंने कभी हवन देखा, न आध्यात्मिक पीरियड और सर्टिफिकेट, लेकिन मैं अपनी क्लास में पास होता चला गया। मेरा कहने का अर्थ है कि जो लोग आर्यसमाज की स्थापना में सहायक थे उनका कोई भी बच्चा कभी गुरुकुल नहीं गया जबकि आज भी गुरुकुलों में 90 प्रतिशत जाटों के बच्चे हैं। जो काम हमारा नहीं था वह काम हमने अपने हाथों में लिया और वही आर्यसमाज साफ तौर पर लंगोट और चड्डी की संस्कृति में बंट गया। हमारे हाथ लंगोट आया और आज यही लंगोट इस चड्डी से बुरी तरह से पिछड़ रहा है अर्थात् पिछड़ चुका है। हमें कोई बतलाये कि गुरुकुलों में पढ़नेवाले कितने बच्चे सिविल सर्विसिज पास कर पाये? इन गुरुकुलों की उपयोगिता केवल संस्कृत के मास्टर पैदा करने तक सीमित रही, यह कर्तव्य ब्राह्मणवाद का था, हमारा नहीं। ये गुरुकुल गरीब तबके के जाट किसानों की लड़कियों को मास्टर बनाने तक ही सफल रहे, जबकि आज सभी सरकारें स्कूलों में संस्कृत विषयों को हटाकर अंग्रेजी को अनिवार्य कर रही है। क्योंकि यह समय की मांग है। चाहे प्राचीन में इन ग्रंथों में चाहे जितना विज्ञान हो, लेकिन आधुनिक युग की लगभग सभी खोजें यूरोप की देन हैं और आज विज्ञान का साहित्य विशेषकर मेडिकल व इंजीनियरिंग संस्थानों में अंग्रेजी भाषा में है और यही हमारे देश में लागू है और रहेगा। लेकिन जाट जाति एक के बाद एक निष्ठावान् और कर्मठ आर्यसमाजी देती रही, फिर भी हमारे हाथ क्या आया? एक बार एक समय था कि कई अन्य जातियाँ भी अपने को राजपूत कहलाने में गर्व का अनुभव करती थीं। क्योंकि यह असत्य इतिहास के प्रचार का परिणाम था। इसी प्रकार यह भी एक फैशन बन गया था कि कोई भी जाट पुरुष विख्यात होने पर उसे आर्यसमाजी कहा जाने लगा। चौ० छोटूराम को भी लोगों ने आर्यसमाजी लिखा है, जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने 1923 से ही मन से आर्यसमाजी


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विचारधारा को निकाल दिया था। जिसका प्रमाण उनके जाट महासभा के भाषणों से प्रमाणित है और आज भी पाकिस्तान के जाट मुसलमान उन्हें आदर भाव से याद करते हैं। इसी कारण वे जिन्ना को उसकी औकात बतलाने में सफल हुए और हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख और ईसाइयों को एक मंच पर खड़ा कर दिया। इस प्रकार इसी फैशन में जाट अपने घरों में स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी पुस्तक ‘सत्यार्थप्रकाश’ की प्रतियां रखकर गौरव का अनुभव करने लगे। जबकि स्वामी दयानन्द की शिक्षायें कहीं भी व्यावहारिक, राष्ट्रवादी व आधुनिक विज्ञान पर आधारित नहीं हैं। कुछ उदाहरण इस प्रकार है:-

  • (i) 24 वर्ष की कन्या का विवाह 48 वर्ष के पुरुष से हो तो वह उत्तम विवाह है। (पृ. 54 स.प्र.) (यह साफ तौर गैर व्यावहारिक शिक्षा है – लेखक)
  • (ii) ब्राह्मण वर्ण का ब्राह्मणी, क्षत्रिय वर्ण का क्षत्रिय, वैश्य वर्ण का वैश्य और शूद्र वर्ण का शूद्र वर्ण के साथ विवाह करे। (पृ. 60 स.प्र.) (यह स्पष्ट रूप से ब्राह्मणवादी विचारधारा है – लेखक)
  • (iii) जच्चा अपने बच्चे को केवल 6 दिन तक दूध पिलाये, इसके बाद बच्चे को दूध धाई पिलाये जिसे उत्तम खाना दिया जाये। (पृ. 20 स.प्र.) (स्वामी जी ने पूरे विज्ञान व मातृत्व को ही अमान्य कर दिया - लेखक)।
  • (iv) आर्य वर को भूरे नेत्रों वाली नारी से विवाह नहीं करना चाहिए आदि-आदि। (पृ. 53 स.प्र.) (अर्थात् बेचारी भूरे नेत्रों वाली कन्यायें तो त्याग के योग्य हैं - लेखक)।
  • (v) नीच, भंगी व चमार आदि का खाना न खाये। (पृ. 184 स. प्र.) - (स्वामी जी का कहने का अर्थ यह निकलता है कि दलित समाज जाति के लोग तो होटलों/ढाबों में ही ना जायें - लेखक)।

जाट आर्यसमाजी भाइयों से प्रार्थना है कि वे सत्यार्थप्रकाश को बड़े ध्यान से पढ़ें ! चौथे समुल्लास के पेज नं० 76 पर स्वामी जी ने मनु के


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श्लोक को स्वीकार करते हुए लिखा है कि “किसी विधवा का संयोग अर्थात् मुकलावा या गौणा होने के बाद केवल शूद्र जातियां उस विधवा का पुनर्विवाह कर सकती हैं, दूसरे वर्ण नहीं।” लेकिन जाट तो मुकलावा की बात छोड़ो. बच्चा होने के बाद भी पुनर्विवाह करते रहे हैं। इसलिए स्वामी जी ने जाट कौम को शूद्र माना है न कि क्षत्रिय।

दूसरे ब्राह्मण ग्रन्थ ऐसी ही घृणित शिक्षाओं से अटे पड़े हैं। (इसका विस्तार से विवरण अध्याय नं० 15 में दिया गया है।) लिखा है शूद्रों का उपनयन न करें। उन्हें वेद न पढ़ायें, शूद्रों को जनेऊ पहनने की आज्ञा नहीं होनी चाहिये, चण्डालों को दूर बसाये, नीच जातियों से अनाज तक न लें आदि-आदि। इसी प्रकार इन्होंने कबीर व गुरुनानक जी आदि की बुराई करने में कोई कमी नहीं छोड़ी। गुरुनानक जी को तो मूर्ख तक लिखा है। रामदास को ढ़ेड कहकर लिखा और कबीर को तुम्बा बजाने वाला कहा। अर्थात् सम्पूर्ण ब्राह्मणवाद के भूत को स्वामी जी ने एक नई बोतल में डालकर पेश कर दिया तथा इस भूत को जाटों पर छोड़ दिया और इस भूत ने जाटों को सौ वर्षों से भी अधिक समय से नचाये रखा है। लेकिन हम स्वामी जी के गुप्त एजेण्डे को अभी तक नहीं समझ पाये, उनका एजेण्डा था जाटों को सिक्ख व ईसाई धर्मी बनने से रोकना और हमेशा-हमेशा के लिए ब्राह्मणवाद का गुलाम रखकर हिन्दू जाट जाति को लुप्त कर देना। यह बात चाहे हमें कितनी भी अटपटी लगे लेकिन इसके अन्दर एक कटु सच्चाई छिपी है जिसे हमें कम से कम अब तो स्वीकार कर लेना चाहिए। सिक्ख धर्म उस समय फैलता हुआ पंजाब से अम्बाला की सीमाओं को पार कर गया था लेकिन स्वामी जी अपने उद्देश्य में सफल रहे और हम जाटों को सिक्ख नहीं बनने दिया। डा. धर्मकीर्ति अपनी शोध पुस्तक ‘जाट जाति प्रछन्न बौद्ध है’ में लिखते हैं कि “इसलिए परोक्ष रूप से सिक्ख धर्म पर बौद्ध महायान का प्रभाव पड़ा था। इस कारण सिक्ख धर्म अपनी प्रगतिशीलता मार्ग पर चलता रहा। लगभग एक शताब्दी पूर्व महर्षि दयानन्द का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने सनातन धर्म की दकियानूसी


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विचारधारा और मूर्तिपूजा का खण्डन कर वर्ण-व्यवस्था और जाति की व्यापक और प्रगतिशीलता के आधार पर व्याख्या की तो बची हुई जाट जाति आर्यसमाजी हो गई।” यही विद्वान् इस बारे में आगे लिखते हैं कि “आज के ब्राह्मणवाद ने इस महान् जाति को आर्यसमाज का झुनझुना हाथ में पकड़ा दिया है, जिसे भोले-भाले जाट बजाते फिर रहे हैं और ब्राह्मणवाद के मृत शरीर को अपने कन्धों पर उठाकर घूम रहे हैं।”

जाट जाति में बहुत बड़ी तर्कशक्ति है और फिर जाट आर्यसमाजी हो तो सोने पर सुहागा। इसलिए कहावतें चली कि ‘65वीं विद्या जाट विद्या है’ दूसरी कहावत है ‘अनपढ़ जाट पढ़े जैसा, पढ़ा जाट खुदा जैसा’। सन् 1857 की क्रान्ति के पश्चात् दिल्ली के रजिडैण्ट पद पर मि० मैटकॉफ आये, जो ईसाई जाट थे। (‘हरयाणा की लोक संस्कृति’ नाम पुस्तक में भी डा. भारद्वाज भी मानते हैं कि मैटकॉफ तथा चार्ल्स इलियट जाट प्रतीत होते थे)। मिस्टर मार्श आई.सी.एस. को भी आधा जाट कहा गया है। जब मैटकॉफ ने दिल्ली व उसके चारों ओर फैली अपनी जाट जाति का अध्ययन किया तो पाया कि उसकी जाति अशिक्षा और अन्धविश्वास में फंसकर बुरी तरह से ब्राह्मणवाद ने जकड़ी है। इस पर उसने जाटों का उद्धार करने के लिए इन्हें ईसाई बनाकर आधुनिक शिक्षा दिलाने की योजना बनाई। उन्होंने एक हिन्दी के जानकार पादरी डॉ० फिलेल को बुलाकर अपनी योजना समझायी तथा उसे कुछ दिन जाटों की भाषा व संस्कृति सीखने की सलाह दी। कुछ दिनों के बाद डॉ० फिलेल ने अपना पहला प्रवचन एक जाट सभा बुलाकर इन शब्दों से आरंभ किया “जाट भाइयो, आप ईसा-मसीह में विश्वास लायें, वे खुदा के बेटे हैं, आपके सभी गुनाहों को माफ कर देंगे।” ये शब्द बोलते ही एक वृद्ध जाट खड़ा हो गया और पादरी को उसके शब्द फिर से दोहराने को कहा। जब पादरी ने उन्हीं शब्दों को दोहराया तो जाट ने पादरी से पूछा “खुदा मर गया या जिन्दा है?” इस पर पादरी ने कहा “खुदा जिन्दा है” तो वृद्ध जाट बोला –


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हमारे जाटों में तो यह रिवाज है कि जब तक बाप जिन्दा होता है तो बेटे की चौधर नहीं होती। इसके उत्तर में पादरी को कुछ भी कहने के लिए नहीं सूझा तो वह सभा से चुपचाप चला गया। डा. धर्मचन्द्र विद्यालंकर तो लिखते हैं कि उस पादरी ने अपना ईसाई धर्म छोड़ दिया था लेकिन यह निश्चित है कि उसने अपना पादरीपना अवश्य छोड़ दिया था। जिस प्रकार ‘कश्मीरी ब्राह्मण सभा’ की तर्क ने आज लगभग 600 वर्षों बाद कश्मीरी ब्राह्मणों को बेघर कर दिया, इसी प्रकार हमारे उस बूढ़े जाट ने हमारी आने वाली संतानों को आधुनिक शिक्षा से वंचित कर दिया और फिर से ब्राह्मणवाद के चुंगल में फंसा दिया।

इसी प्रकार पहले हमें दो बार सिक्ख धर्मी बनने का अवसर मिला और बाद में स्वामी जी ने हमें कट्टर हिन्दू बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ी तथा हम जाटों को सदा-सदा के लिए ब्राह्मणवाद की गुलामी झेलने के लिए छोड़ दिया। अभी हम चींटियों के बिलों पर आटा डालते हैं तो चौराहों पर टूना-टंकन करते फिरते हैं या फिर गुरनामे के चक्कर में रात भर जागरणों में तालियाँ पीटते फिरते हैं। लगभग प्रतिवर्ष 8 लाख जाट कांवड़ उठाए घूम रहे हैं जो औसतन 40 करोड़ रुपये इस पाखण्डवाद की भेंट चढ़ाकर उनमें से कुछ सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जान दे रहे हैं। केवल 20 साल में हरयाणा के 5130 जाटों के गांवों के क्षेत्रों में 12000 मन्दिर बन चुके हैं, जिन पर लगभग 5 अरब रुपया खर्च करके वहां पाखण्डियों को रोजगार दिया जा रहा है, जबकि जाटों के लाखों बच्चे आज बेरोजगार होकर सड़कों पर हैं। इन्हीं मन्दिरों में यह पाखण्डी हमारी औरतों को गंडे, ताबीज बनाकर बहका रहे हैं तथा साथ-साथ हमारे बच्चों की जन्मपत्री बनाकर उसमें हमारा वर्ण शूद्र लिख रहे हैं। इसी प्रकार विशेषकर राजस्थान और दक्षिणी हरयाणा में प्रतिवर्ष लगभग एक लाख मृत्युभोज (काज) जिन पर औसतन खर्चा प्रति भोज 50 हजार रुपये होता है, किये जा रहे हैं। इसके अतिरिक्त जाट समाज में प्रतिवर्ष लाखों सवामणी और भण्डारे हो रहे हैं जिन पर


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प्रतिवर्ष कई अरबों रुपया खर्च हो रहा है। जबकि गांवों में सरकारी स्कूलों में हमारे बच्चों को बैठने के लिए टाट तक नहीं हैं। और यह सारा पैसा दूसरों की जेब में जा रहा है। जाट कौम बुरी तरह पाखण्डवाद की चपेट में है। कहां गई हमारी आधुनिक शिक्षा? कहां है हमारा आर्यसमाज? मुझे यह लिखने में तनिक भी संकोच नहीं कि हमारे आर्यसमाज ने आज इस जाट कौम को बीच मंझधार में छोड़ दिया है जिस कारण हम न तो आर्यसमाजी रहे और न वैदिक और न ही हिन्दू। यदि हम हिन्दू होते तो फिर हिन्दू कोड से हमें आज तकलीफ क्यों हो रही है? क्योंकि हिन्दू कोड समगोत्र विवाह को वैध मानता है जबकि जाट कौम समगोत्र विवाह को पाप और व्यभिचार मानती है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? जाट कौम जाए तो जाए कहां? जाटों का आर्यसमाज कृपया इस पर गौर करे। आज जाट कौम के अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है। लेकिन आर्यसमाज आज अपने मन्दिरों का केवल एक ही काम के लिए इस्तेमाल करता है कि वहां जाटों के भगौड़े लड़के-लड़कियों के विवाह रचाकर उन्हें विवाह का प्रमाणपत्र देना हैं, चाहे वे एक ही गोत्र के क्यों न हों। वर्तमान में आर्यसमाजियों का काम केवल गरिष्ठ (गच) भोजन खाना रह गया है। अब हम न तो आर्यसमाजी रहे और न ही पूर्ण ब्राह्मणवादी। वही कहावत हुई “गंगा गया तो गंगादास, जमना गया तो जमनादास”। इस बारे में गुरुनानक जी कहते हैं कि -

घट में है सूझत नहीं लानत ऐसी जिन्द।
नानक इस संसार को हुआ मोतियाबिन्द॥

स्वामी दयानन्द जी ने कहा था कि अरबी/फारसी भाषा के अनुसार तो हिन्दू का अर्थ काफिर होता है इसलिए हम अपने को हिन्दू न कहें आर्य कहें। लेकिन हमारे आर्यसमाजी उनकी बात न मानकर अभी भी अपने को हिन्दू कहते और लिखते हैं और हिन्दू कोड के अधीन हैं। इस प्रकार आर्यसमाजी स्वयं ही स्वामी जी का विरोध कर रहे हैं।


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चौ० छोटूराम ने तो स्कूल में अपना धर्म वैदिक लिखवाया और बाद में सन् 1931 में इन आर्यसमाजियों की अलग से जनगणना भी करवाई थी। लेकिन यहीं लोग फिर डर गये कि कहीं हिन्दू कम न पड़ जांए। स्वामी दयानन्द जी, पं. बस्तीराम व पं. विष्णुप्रभाकर को ब्राह्मणों ने ‘रत्न’ भेंट किया। लेकिन हमारे जाट आर्यसमाजियों ऐसा कुछ क्यों नहीं किया?

इस सब अध्ययन के बाद मेरे मस्तिष्क में तीन प्रश्न पैदा हुए -

(1) आर्यसमाज व वैदिक धर्म को कहां पर कानूनी मान्यता है?

(2 ) जब आर्यसमाज वर्ण व्यवस्था को ही मानता है तो उसके पास किसी का वर्ण का जानने के लिए क्या मापदण्ड है कि कौन किस वर्ण में आता है?

(3) जब आर्यसमाज जाति को नहीं मानता केवल वर्ण को ही मानता है तो अपनी जाट जाति कैसे कह सकता है या लिख सकता है?

मेरा अध्ययन कहता है कि आर्यसमाज में सिख जाटों व मुसलमान जाटों के विरुद्ध में तथाकथित हिन्दू जाटों के दिलों में दुराव पैदा किया है और उन्होंने चौ० छोटूराम के बाद उन्हें कभी एक नहीं होने दिया।

(पुस्तकें - आर्यसमाज का अध्ययन, जाट-दलित एकता का घोषणापत्र, जाट-जाति प्रछन्न बौद्ध है, हिन्दुइज्म तथा जाटों का नया इतिहास आदि-आदि।

20. कुछ ज्वलन्त विषय

इसके अतिरिक्त जाट कौम के लिए कुछ अन्य ज्वलन्त विषय हैं, जो निम्न प्रकार हैं:-

(1) जाटों के संगठन और जाट आरक्षण

कर्म है जिसका भगवान, कौम वतन पर है जो कुर्बान।
पगड़ी का जो रखे मान सच्चे जाट की यही पहचान॥

जिस प्रकार दूसरी जातियों के संगठन रहे हैं इसी प्रकार जाट कौम का संगठन एक सदी से ‘अखिल भारतीय जाट महासभा’ रही, जिसकी स्थापना सन् 1907 में हुई थी। इस संगठन के अध्यक्ष मुरसान के नरेश


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महेन्द्र प्रताप भी रहे। इस संगठन के अध्यक्ष दीनबन्धु चौ० सर छोटूराम उनके देहान्त तक थे लेकिन उनके बाद यह संगठन कुछ शिथिल पड़ गया लेकिन फिर भी इसके अध्यक्ष समय-समय पर विख्यात जाट रहे। उदाहरण के लिए चौ० भगवान सिंह आई.सी.एस. भूतपूर्व राजदूत तथा राजा विश्वेन्द्र सिंह आदि-आदि। उसके बाद यह दो फाड़ हो गई।

नौकरी के समय से ही मेरी इच्छा कौम का काम करने की रही थी इसलिए सेवानिवृत्ति के बाद मैंने कौम के लिए काम ढूंढना शुरू किया। मैं अर्धसैनिक बल का अधिकारी रहा इसलिए मैं आरक्षण के महत्त्व को अच्छी तरह समझता था इसलिए मैं इसके जागरूकता और आन्दोलन की जगह तलाशता रहा। जाटों के सैकड़ों, यहां तक कि हजारों संगठन बने हैं उनमें से कुछ तो मैंने जानने के प्रयास किए लेकिन उनके उद्देश्यों को मैं कभी नहीं जान पाया। उनमें पदों की होड़, अपने नाम के प्रचार की होड़ के अलावा मुझे और कुछ नजर नहीं आया। इसलिए मैने अपने तरीके से काम करना शुरू किया। लेकिन बगैर किसी संगठन के कोई आन्दोलन या प्रचार चलाना बड़ा कठिन होता है। कुछ जाटों ने मुझे एक अलग संगठन बनाने की सलाह भी दी थी लेकिन मैं जानता था कि मैं समाज में नया हूँ, मुझ पर कौन भरोसा करेगा? अन्त में मैं सन् 2008 मार्च से चौ० दारासिंह वाली जाट सभा से जुड़ गया तथा अगस्त 2008 में सभा ने मुझे हरयाणा में आरक्षण प्रचार की जिम्मेदारी सौंपी। लगभग 2 साल इस काम को मैंने अपने पूरे दिल और दिमाग से किया लेकिन मुझे लगने लगा कि इस संगठन में किसी प्रकार की राजनीति चल रही है और गहन कमजोरियां हैं। इसलिए निम्नलिखित 3 कारणों से मैंने यह जाट सभा छोड़नी पड़ी।

1. सभा के अध्यक्ष चौ० दारासिंह ने जीन्द व कलायत आदि के जाट सम्मेलनों में पहुंचकर आरक्षण की मांग को बुलन्द किया लेकिन स्वयं राज्यसभा के सदस्य के नाते वहां देश के सबसे बड़े मंच पर इस मांग को कभी नहीं उठाया।
चौ० दारासिंह बहुत विख्यात और एक सज्जन जाट महापुरुष हैं

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लेकिन वे बम्बई में रहते हैं जहां से उन्हें बुलाना एक बहुत बड़ा कार्य होता है। दूसरा, इनका शरीर इतना बूढ़ा हो चुका है कि इन्हें गाड़ी से उतारने और मंच पर चढ़ाने में कईयों का सहारा लेना पड़ता है। इसलिए इतने वृद्ध व्यक्ति से किसी आन्दोलन का नेतृत्व करने की आशा नहीं की जा सकती।

2. अखिल भारतीय जाट सभा एक सामाजिक संगठन है, कोई राजनीति का मंच नहीं है। लेकिन जब 2009 में लोकसभा के चुनाव आये तो इसके प्रवक्ताओं ने किसी एक पार्टी को वोट देने के अखबारों में वक्तव्य देने शुरू कर दिए तो मैंने इसकी शिकायत महासचिव चौ० युद्धवीर सिंह से की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। (समाचार पत्रों की कटिंग मेरे पास उपलब्ध है।)
ऐलनाबाद के चुनावों तक ऐसे ही ब्यान आते रहे तो मेरा इस संगठन में रहना निरर्थक हो गया, क्योंकि किसी भी सामाजिक संगठन को राजनीति की दुकान बनाने का हक नहीं होना चाहिए।
3. सन् 2009 के लाडवातोशाम के सम्मेलनों में मैंने कहना शुरू कर दिया कि दिल्ली में कोई बड़ा सम्मेलन होना चाहिए ताकि हमारी आवाज केन्द्र सरकार तक पहुंचे लेकिन चौ० युद्धवीर सिंह ने मना कर दिया और कहा कि ऐसे ही प्रचार करते रहो, लोग अपने आप आरक्षण ले लेंगे।


अब स्पष्ट हो गया था कि इन संगठनों के इरादे क्या हैं? इसलिए बहुत सोच विचार के बाद सितम्बर 2009 में गाजियाबाद में चौ० यशपाल मलिक के नेतृत्व में अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति का गठन किया गया जो अभी तक कई सफल आयोजन कर चुकी है तथा सफलता की ओर अग्रसर है।

जहां तक इस मुद्दे की शुरुआत की बात है, हम तीन व्यक्तियों ने 26-1-2008 को हरयाणा में जाट आरक्षण के बारे में भिवानी में पहली मीटिंग की जिसमें मेरे साथ कर्नल हरपत सिंह तथा अजीत सिंह सांगवान पूर्व संयुक्त निदेशक थे और इसके लिए


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पहला पोस्टर (पम्पलैट) “किसान का हल सिर पर आ गया है, अब इसे कहां चलाएं?” नाम से छपवाया तथा इसकी 40 हजार प्रतियां जगह-जगह जाट समुदाय में बंटवाई।

हरियाणा में आरक्षण के लिए यह पहला पोस्टर (पम्पलैट) था। इस पर जाट समुदाय की प्रतिक्रिया बहुत ही सुस्त थी क्योंकि हरयाणा के जाट समाज ने आरक्षण को केवल हरिजनों का अधिकार समझ रखा था। इसके बाद हमने गांवों में जाकर प्रचार करना शुरू किया तो धीरे-धीरे हमारे कुछ साथी जुड़ने आरम्भ हुए जिनमें कैप्टन हवासिंह डागर, वेद प्रकाश कुण्डू पूर्व डिप्टी कमांडेंट, ओमपाल आर्य मिताथल पूर्व प्रवक्ता व इंस्पैक्टर कटार सिंह सांगवान डोहकी, सुभाष श्योराण पूर्व डिप्टी कमांडैंट प्रमुख हैं। अखिल भारतीय जाट महासभा ने आरक्षण के लिए पहला जाट महासम्मेलन 14 मार्च को जींद में करवाया, इसके बाद जुलाना, फतेहाबाद, कुरुक्षेत्र, महम, कलायत, समालखा, बाढ़ड़ा, तोशाम, लाडवा और पलवल में करवाए। इसी के साथ-साथ सांगवान खाप, सतगामा दादरी खाप, बिरोहड़ बारा की खाप, धनाना जाटू खाप व श्योराण सतगामा सिधनवा की पंचायतें करवाई। इसी बीच भिवानी और लोहारू में भी मिनी युवा जाट सम्मेलन करवाए, लेकिन आज तक का सबसे बड़ा जाट महासम्मेलन 8 फरवरी 2009 को मेरठ में सम्पन्न हुआ जिसमें लाखों जाटों के अतिरिक्त केन्द्रीय मन्त्री श्रीमती रेणुका चौधरी, चौ० अजीत सिंहचौ० दारा सिंह के अतिरिक्त काफी जाट नेता उपस्थित थे। जिसमें सचिव यशपाल मलिक ने बड़ी मेहनत की।

मेरठ के जाट महासम्मेलन ने सिद्ध कर दिया है कि पूरे भारत का जाट एक है तथा वह आरक्षण को लेकर रहेगा।

चौ० छतरपाल सिंह विधायक हलका घिराय (हरयाणा) ने 3 सितम्बर 2008 को हरयाणा विधानसभा में जाट आरक्षण की पहली बार मांग उठाई और इस प्रकार वे पहले जाट नेता हुए जिन्होंने इस विषय को समझा और शासकीय पार्टी के विधायक होते हुए भी बड़ी दिलेरी के साथ इस मुद्दे को उठाया जिस कारण उनको दिनांक 21


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सितम्बर 2008 को धनाना की जाटू चौरासी खाप की पंचायत में ‘जाट केसरी’ उपाधि से सम्मानित किया गया। जाट कौम चौ० छत्रपाल की इस बहादुरी के लिए ऋणी रहेगी। इसके अतिरिक्त आज तक हरयाणा में भारतीय जनता पार्टी के सहकारिता प्रकोष्ठ के अध्यक्ष चौ० ओमप्रकाश मान, सांसद (भाजपा), चौ० किशन सिंह सांगवान, गुरुनाम सिंह आयोग की रिपोर्ट को लागू करने वाले पूर्व मुख्यमन्त्री चौ० हुकमसिंह तथा बवानी खेड़ा से कांग्रेसी विधायक रामकिशन फौजी जाट आरक्षण को खुला समर्थन दे चुके हैं। इससे पहले गैर-चमार अनुसूचित 42 जातियों के प्रदेशाध्यक्ष सुरेन्द्र धानक ने भी बार-बार जाट आरक्षण का समर्थन किया। आज तक (1 अक्तूबर 2009) हमारे अनेक जाट भाइयों ने तरह-तरह से जाट आरक्षण अभियान में सहायता की है जिन सभी के नाम लिखना इस पुस्तक में सम्भव नहीं है। लेकिन आरक्षण मिलने के बाद ‘हरयाणा में जाट आरक्षण का आन्दोलन’ नाम से पुस्तक छपाई जाएगी जिसमें उनके नाम सम्मिलित किए जायेंगे। अभी तक बड़ा आर्थिक योगदान करने वालों में प्रमुख चौ० उमराव सिंह सांगवान पूर्व ए.सी.पी. दिल्ली पुलिस गांव पैंतावास खुर्द हैं जिन्होंने प्रचार के लिए 12000 कैसेट तथा 4000 सी.डी. हरयाणा और दिल्ली में वितरित करवाई हैं। दूसरे प्रचार के लिए कई महीनों के लिए एक वाहन चौ० रणसिंह शौकीन गांव निलौठी (दिल्ली) ने दिया जो प्रचार का बड़ा माध्यम बना।

इसके अतिरिक्त नरेन्द्र खरब, चौ० ओमप्रकाश ग्रेवाल बामलिया, चौ० वेदपाल सांगवान बहादुरगढ़, चौ० राममेहर ठेकेदार सिवाड़ा, चौ० ओमप्रकाश मान बी.जे..पी., चौ० दिलबाग सिंह सांगवान गैस एजेंसी (बिरही कलां), चौ० सुरेन्द्र सिंह ठेकेदार उन्हाणी, प्रकाश ठेकेदार सिवाड़ा, अजय सांगवान एडवोकेट बादल तथा सुखबीर सिंह हुड्डा गांव सांघी व बलजीत सिंह झोझूकलां के नाम उल्लेखनीय हैं जिन्होंने पोस्टर आदि छपवाने के लिए आर्थिक


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योगदान दिया है। 8 फरवरी 2009 को जाट जागृति अभियान का एक साल पूरा हुआ। उसके बाद सरकारी जागृति अभियान चलेगा।


दिनांक 18 फरवरी 2009 को चौधरी किशन सिंह सांगवान, भाजपा सांसद सोनीपत ने भारतीय संसद में जाट आरक्षण का मुद्दा प्रश्न काल में सुनवाई के लिए लगाया जिसकी सुनवाई दिनांक 19 फरवरी 2009 को पूर्ण हुई। चौधरी किशन सिंह सांगवान प्रथम सांसद हैं जिन्होंने जाट आरक्षण का मुद्दा पहली बार संसद में उठाया जिनको समय आने पर अखिल भारतीय जाट महासभा विशेष रूप से सम्मानित करेगी। सन् 2009 में संसद के चुनाव व हरयाणा की विधानसभा के चुनावों ने हरयाणा के जाट आरक्षण अभियान को बहुत बड़ा धक्का पहुंचाया, दूसरा बीच में एक स्वार्थी गुट आ गया जिसने चंदा वसूलना ही अपना ध्येय बनाया जिससे अभियान का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। चाहे जो भी हो, आरक्षण के बगैर भविष्य में जाटों का गुजारा नहीं।

हमें खुशी है कि हमारे इस आरक्षण के जाट जागृति अभियान के कारण दूसरे संगठन भी सक्रिय हो गए और आज इस काम में लगे हैं। इसलिए उन सभी जाट भाइयों का धन्यवाद है जो जाट आरक्षण का समर्थन करते हैं और योगदान करने वाले जाट भाई तो सम्मान के योग्य हैं। हमने 15 अगस्त 2008 को हरयाणा के मुख्यमन्त्री चौ० भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के नाम आरक्षण के लिए खुला मांग पत्र जारी किया जिसकी अभी तक 85 हजार प्रतियां बांटी जा चुकी हैं। इसके अतिरिक्त हरयाणा के सभी जाट विधायक तथा हरियाणा सरकार के भी मन्त्री व केन्द्र के सभी मन्त्रियों व सभी जाट सांसदों को डाक द्वारा इस मांग पत्र की कापियां भेजी। तथा बाद में भी निजी तौर पर भी दी गई और अनेक ज्ञापन भी दिये।

याद रहे हरियाणा के जाटों के आरक्षण को ले डूबने वाले करनाल ब्राह्मण महासभा की तरफ से पं० रामकुमार गौतम तथा पं० भारत भूषण शर्मा हैं जिन्होंने भजनलाल सरकार की मिलीभगत से जाट कौम के साथ


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बहुत बड़ा विश्वासघात किया है। (सूचना अधिकार के तहत इस सम्बन्ध में सम्पूर्ण कागजात प्राप्त कर लिए गए हैं।)

भारत सरकार सावधान

आज समस्त भारत में केवल जाटबाहुल्य क्षेत्र को छोड़कर (सिवाय हिमालय की एक छोटी टेकड़ी – उत्तरांचल तथा दक्षिण भारत का एक कोना) सभी क्षेत्र अशांत हैं। आज 16 राज्य उग्रवाद/नक्सलवाद से पीडित हैं। उत्तरी भारत में शांति केवल जाटों की देशभक्ति की प्रवृत्ति के कारण है। लेकिन अफसोस है कि यह जाटों की कीमत पर है। एक तरफ उद्योगपतियों पर खरबों रुपया बकाया है, उन्हें राज्यसभा पद दिये जा रहे हैं और जो जाट किसान दो हजार रुपये का कर्जदार है उसके पीछे पूरी सरकार लगी हुई है। जहाँ अरबों रुपयों की बिजली चोरी कर रहे उद्योगपति इनाम पा रहे हैं। लेकिन जाट किसान समुदाय की बढ़ती निराशा को आज तक कोई संगठन राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय मंच तक नहीं पहुंचा पाया। यदि कुछ पहुंचाने की कोशिश भी हुई तो केन्द्र सरकार दुश्मन बनी हुई है। भारत का जाट किसान गरीबी, अन्याय, भ्रष्टाचार व शोषण का जीवन जीने के लिए विवश है। सरकार ने आयात के लिए देश के दरवाजे खोल दिये, केवल देश को गुलाम करने के लिए। सूचना तकनीक और कम्प्यूटर के क्षेत्र में प्रगति करने का दावा करने वाली हमारी केन्द्र और राज्यों की सरकारों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि अधिक उत्पादन के बाद भी जाट किसानों को उचित मूल्य न मिलने के कारण आत्महत्या करनी पड़ती है। अच्छी शिक्षा और योग्यता प्राप्त बेरोजगारों को नौकरी न मिलने के कारण हताश होकर आत्महत्यायें करनी पड़ रही हैं। जाट किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला हमेशा चलने वाला नहीं। वह समय दूर नहीं, जब जाट किसान अपने हक के लिए अपनी आत्महत्या की जगह संघर्ष को अपनाएगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि जिस विकास का दावा सरकारें करती रही हैं वह विकास इन्हीं जाट किसानों की जमीन लूटकर किया जाता रहा है। लेकिन याद रहे उत्तरी भारत में सभी सड़कें, रेलें व नहरें आदि सभी की सभी इन्हीं की जमीन से गुजर रही हैं।


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पं॰ मदनमोहन मालवीय जी के बयान को भारत सरकार ने नहीं भूलना चाहिए “भारत का भविष्य जाट जाति पर निर्भर है”। मैं अपने अनुभव से छः साल रहे पंजाब उगव्राद के बारे कह सकता हूँ कि पंजाब के बहुत कम जाट धार्मिक तौर पर कट्टरपंथी हैं वरना पंजाब 198 में ‘खालिस्तान’ बन गया होता। पंजाब में उग्रवाद के खात्मे का वास्तविक कारण वहाँ के जाट किसान और श्री के.पी.एस. गिल जैसे अधिकारी हैं।

दूसरा, जाट लुटेरे ना कभी थे और ना अभी तक बन पाये हैं। लेकिन अभी लुटेरी संस्कृति की संगत में सीख रहे हैं और जब यह सीख जायेंगे, तो फिर वास्तव में लुटेरे कहलायेंगे और इसी लुटेरी संस्कृति को लूटने वाले भी यहीं 80 लाख बेरोजगार जाट होंगे। इसलिए सरकारों को चाहिए कि वे जाट किसानों को झूठे सब्जबाग न दिखलाकर वर्तमान की वास्तविकता पर गंभीरता से विचार करें तथा जाट किसानों के हित में कानून बनाये और इस लुटेरी संस्कृति को नकेल डाले। क्योंकि इस लुटेरी संस्कृति ने सन् 1947 के बाद केवल उत्तर भारत को ही नहीं, लगभग समस्त भारत को भ्रष्ट कर दिया है। इसलिए कहावत है कि ‘सांप को ना मारा जाये बल्कि उसकी माँ को मारा जाये’ जिससे भविष्य में और सांप ही पैदा ना हो सकें।

हरयाणा सरकार से अपील

(i) करनाल में प्रस्तावित मैडिकल कालेज का नाम ‘कल्पना चावला मैडिकल कालेज’ रखने का कोई भी औचित्य नहीं है। क्योंकि कल्पना चावला के पूर्वज पाकिस्तान के पंजाब में जन्मे, कल्पना का जन्म करनाल में अवश्य हुआ होगा लेकिन वह अमेरिका में एक ईसाई से शादी करके वहाँ की नागरिक बन चुकी थी और ना ही वह कोई मैडिकल लाइन की छात्रा थी। दिनांक प्रथम फरवरी 2001 को अमेरिका के अन्तरिक्ष विमान कोलम्बिया के दुर्घटनाग्रस्त होने पर उसके साथियों समेत उसकी मृत्यु हो गई। यह दुःख की बात है, लेकिन उसे शहीद का दर्जा देना किसी प्रकार से उचित नहीं है। इसलिए इस कालेज का नाम हरयाणा के भारत में सबसे अधिक वीर जवान जो


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कारगिल के युद्ध में देश की रक्षा करते हुए शहीद हुए उनको सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए इस कालेज का नाम ‘कारगिल शहीद मैडिकल कालेज’ रखा जाये, वरना यह सरासर वोटों की राजनीति कहलायेगी कि किसी एक वर्ग को खुश करने के लिए यह अनुचित कार्य किया जा रहा है।

यह कोई बहाना नहीं कि कल्पना चावला करनाल में जन्मी और पढ़ी। करनाल में तो चौ० लियाकत अली भी जन्मे और पढ़े थे। इन्होंने जाट मुस्लिम होते हुए अपना विवाह पंथ ब्राह्मण की लड़की से किया था जो उस समय का एक उदाहरण था। और यही अली साहब पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमन्त्री तो फिर इनके नाम से मेडिकल कालेज क्यों नहीं हो सकता है?

भिवानी के धर्मवीर शहरवासियों से अपील

सन् 1928 में भिवानी शहर में पानी की भारी किल्लत हुई थी, जिस पर यहाँ की लाचार जनता पानी की एक-एक बून्द के लिए तरस रही थी क्योंकि अंग्रेज सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही थी। इसलिए तहसीलदार घासीराम, पं. नेकीराम तथा श्रीदत्त वैद्य एक डेलीगेशन के तौर पर सेठ चौ० छाजूराम की शरण में कलकत्ता पहुंचे और उन्होंने भिवानी की पूरी व्यथा बयान की, जिस पर सेठ चौ० छाजूराम ने भिवानी शहर में पानी की व्यवस्था के लिए ढाई लाख रुपये दान में दिये और फिर कम पड़ने पर पचास हजार रुपये और भेजे थे। इसके अतिरिक्त सेठ चौ० छाजूराम द्वारा बनवाई गई एक गोशाला का गेट इनकी यादगार स्वरूप भिवानी के बीच शहर में शेष है। जो आज केवल चौ० साहब की पहचान बची है। इसलिए धार्मिक भिवानी वासियों से यह अपील है कि सेठ दानवीर चौ० छाजूराम की याद में भिवानी के किसी भी चौराहे पर उनकी मूर्ति स्थापित करवायें, ताकि यह सिद्ध हो सके कि भिवानी वास्तव में भारत की ‘लघु काशी’ है और यहाँ दान-धर्म का डेरा आज भी निवास करता है।


इसके अतिरिक्त - विशेष घटना है कि जब दिनांक 12.12.1928 को लाहौर में अंग्रेज पुलिस अधिकारी साण्डर्स की हत्या करने के बाद


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भगतसिंह, राजगुरु तथा दुर्गा भाभी रेल द्वारा कलकत्ता पहुंचने पर सीधे सेठ चौ० छाजूराम की कोठी पर पहुंचकर उन्होंने इस घटना का ब्यौरा सेठ चौ० छाजूराम की धर्मपत्नी लक्ष्मीदेवी को बतलाया तो देवीतुल्य लक्ष्मीदेवी ने खुश होकर इन तीनों को सात दिनों तक अपने हाथों से खाना खिलाया। इसके बाद सुखदेव तथा दुर्गा भाभी तो दूसरी जगह चले गये लेकिन भगतसिंह लगभग ढाई महीने वहीं पर रहे। उस समय उनको अपने घर में रखना कितना बड़ा जोखिम का काम था, कोई भी सहज से अंदाजा लगा सकता है। लेकिन इस शेर-ए-दिल परिवार ने ऐसा किया। इसलिए कम से कम हमें उन्हें उनके निर्वाण दिन 7 अप्रैल को प्रतिवर्ष श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए। क्योंकि ऐसा करना हम सभी का कर्त्तव्य और धर्म है। (मैंने दो वर्ष से चौ० छाजूराम की बैठी अवस्था में संगमरमर की मूर्ति बनवाकर रखी है लेकिन उसे लगाने के तमाम प्रयासों के बावजूद स्थान नहीं दिया जा रहा है—लेखक) (पुस्तक - अमर शहीद - भगतसिंह, लेखक - विष्णु प्रभाकर)

जननी जने तो भक्त जनै या दाता या शूर।
नहीं तो जननी बांझ रहे, काहे गंवावै नूर।।


किसी ने ठीक ही कहा है-

जाट वह बिन गाया राग है,
जो राख में धधकती आग है।

जाट का अर्थ होता हैः- JUSTICE – ACTION – TRUTH अर्थात् JAT या कहें JUSTICE-ADMN-TRUTH

कलम जिसमें गोली से बढ़कर चोट नहीं,
अणु बम्ब से बढ़कर विस्फोट नहीं,
सोई आत्मा को जगा सकती नहीं,
सत्य की लकीर को छू सकती नहीं,
तोड दो उसे, वह कलम किसी काम की नहीं।
वीरतेजाय नमः।

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लेखक का परिचय

Hawa Singh Sangwan

नाम - हवासिंह सांगवान जाट सुपुत्र स्वर्गीय चौ. श्योनन्द सांगवान जाट

जन्मस्थान - गाँव व डॉकखाना मानकावास, तहसील चरखी दादरी व जिला भिवानी (हरयाणा)।

जन्मतिथि - 16 मार्च सन् 1947 (सरकारी तौर पर)


आठवीं तक की शिक्षा अपने गाँव से तथा मैट्रिक की परीक्षा पड़ोसी गाँव चरखी से सन् 1965 में पास की, कालेज की शिक्षा ‘दयानन्द कॉलेज’ हिसार तथा ‘जनता कॉलेज’ चरखी दादरी से प्राप्त की और सन् 1969 में स्नातक की डिग्री मिलने पर 6 अक्टूबर सन् 1969 को सी.आर.पी.एफ. में हैड कांस्टेबल के पद पर श्रीनगर में नियुक्त हुये । कड़ी मेहनत और आत्मविश्वास के बल पर चलते हुए जनवरी 2001 में कमांडैंट के पद पर पहुंचे और प्रथम अप्रैल 2004 को साढ़े-34 साल सेवा करने के बाद सेवानिवृत्त हुये । सरकारी रिकार्ड में अधिक आयु होने के कारण भविष्य के प्रमोशन से वंचित रहे ।


इस साढ़े-34 साल के सेवाकाल में लेह-लद्दाख के ‘हॉट सप्रिंग’ से ‘कन्या कुमारी’ तथा नेफा (अरुणांचल) के ‘हॉट सप्रिंग’ (चीन, ब्रह्मा व भारत सीमा का ट्राई जंक्शन) से गुजरात के खंभात कस्बे (इसी कस्बे के नाम से वहाँ समुद्र की खाड़ी का नाम खंभात की खाड़ी पड़ा) तक लगभग सम्पूर्ण भारत को देखने का अवसर मिला । सी.आर.पी.एफ. की सेवा की बदौलत-पैदल व खच्चर के सफर से लेकर चेतक-हेलिकॉप्टर तथा एयर-बस तक यात्रा करने का और रेलवे के गले-सड़े प्लेटफार्म व टूटे-फूटे गाँवों की झोपड़ियों से लेकर फाईव-स्टार होटलों में रहने तक का अवसर प्राप्त हुआ । इस अवधि में बंगाल का नक्सलवाद, तेलंगाना आंदोलन (सन् 1973), पी.ए.सी. विद्रोह, बंगाल में बंग्लादेशियों की घुसपैठ, पंजाब का उग्रवाद, गुजरात पुलिस का आंदोलन, आसाम में


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गणपरिषद् का आंदोलन व ‘उल्फा’ का उग्रवाद, मिजोरम व मणिपुर के स्थानीय आंदोलन व उग्रवाद, कश्मीरी उग्रवाद, बोडो उग्रवाद, सन् 1990 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद व मन्दिर विवाद और मेरठ, मुरादाबाद व हैदराबाद के साम्प्रदायिक दंगे आदि-आदि तथा इसके अतिरिक्त देशभर में अनेक जगह चुनाव के कार्यों में भाग लिया । इस अवधि में अनेक प्रशंसापत्र तथा मैडल मिले । लेकिन लेखक का मानना है कि उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी कि पूरे सेवाकाल में कभी भी अपने आत्मसम्मान को ठेस तथा अन्याय से समझौता नहीं किया और इसके लिए उनको सन् 1986 में पंजाब व हरयाणा उच्च न्यायालय तथा सन् 2000 में जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय में भारत सरकार व सी.आर.पी.एफ. के विरुद्ध जाना पड़ा और पूर्णतया न्याय मिला । इसी कारण साढ़े-34 साल के सेवाकाल में से 28 साल भारत के अशांत क्षेत्रों में गुजारने पड़े ।


उनकी दूसरी उपलब्धि यह है कि सम्पूर्ण भारत को नजदीक से देखने व विभिन्न समाजों को जानने का अवसर मिला । सन् 1988 के बाद जहाँ-जहाँ भी रहे वहाँ के इतिहासों का अध्ययन किया तथा अपनी जाट जाति को सामने रखकर हमेशा तुलनात्मक दृष्टि को अपनाकर गंभीरता से इसका विश्लेषण व चिंतन किया । इसी परिणामस्वरूप अपनी जाट जाति के बारे में लिखने पर विवश हुए । मोबाइल नम्बर 9416056145.


नोट - लेखक ने अपने नाम के साथ उनकी जाति (जाट) इसलिए जोड़ दिया कि उनको दूसरी जातियों में सांगवान गोत्र के लोग मिले हैं । उदाहरण के लिए कुम्हार, श्यामी, धानक और वाल्मीकि । सांगवानों के गांवों से जाने के कारण बाहर इन्होंने अपने नाम के पीछे सांगवान लिखना आरम्भ कर दिया ।


किताब में त्रुटियों का रहना स्वाभाविक है । अतः पाठकों से नम्र निवेदन है किसी भी त्रुटि के रहने पर उसे हमें ज्ञात कराएं ताकि अगले संस्करण में उसे शुद्ध किया जा सके ।


जय जाट !



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