Jat Prachin Shasak/Parishisht-3

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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परिशिष्ट-3

यहां प्रस्तुत हैं जाटों के कुछ और कुल, जो Tribes and Castes से लिए गए हैं, जिस खण्ड व पृष्ठ से लिए गए हैं वे कोष्टकों में दिए गए हैं।

(4) भेद
(ख. I, पृ. 5, जिन्द, संगरूर क्षेत्र)
(5) भगर अथवा भग्गू
(ख. I, पृ.82)
(8) चकोर
(ख. II, पृ. 147)
(9) चनकर
(ख. II, पृ. 153)
(11) डाहा
(ख. II, पृ. 219)
(12) ढाहल/डाहल
(ख. II, पृ. 219)
(13) धार
(ख. II, पृ. 235, अमृतसर)
(14) गदार
(ख. II, पृ. 255)
(15) गहय
(ख. I, पृ. 50)
(17) गोपालक
(ख. II, पृ. 302, मुलतान क्षेत्र)
(19) गुद
(ख. II, पृ. 305)
(20) हरी
(ख. II, पृ. 327, जीन्द तथा मुलतान क्षेत्र)
(23) जामुन
(ख. II, पृ. 352)
(25) जानी
(ख. II, पृ. 353)

पृष्ठ 343 समाप्त

(28) कचेला
(ख. II, पृ. 420)
(33) खोसा/खोसर
(ख. II, पृ. 550, मुलतान क्षेत्र)
(35) लांगा
(ख. II, पृ. 30)
(36) लाहिल
(ख. III, पृ. 10)
(38) लार
(ख. III, पृ. 31)
(39) लाट
(ख. III, पृ. 32)
(40) मेयर
(ख. I, पृ. 369)
(41) मिहिर
(ख. III, पृ. 45)
(46) ओझ
(ख. III, पृ. 176, अमृतसर)
(48) राड
(ख. III, पृ. 268)
(51) संधरन
(ख. III, पृ. 369)
(52) सरपिया
(ख. III, पृ. 374)
(53) सवेरा
(ख. III, पृ. 390)
(55) सिप्रा
(ख. III, पृ. 347)
(57) सूर
(ख. III, पृ. 445)

पृष्ठ 344 समाप्त

(59) उधान
(ख. III, पृ. 481, डेराजात का निचला क्षेत्र)
(61) विझी
(ख. III, पृ. 507, मुलतान क्षेत्र)


1. अरब :— इस कुल का उल्लेख पश्चिमी लेखकों द्वारा अरबाइकेस (Arabikes) के नाम के अन्तर्गत किया गया है। पेरीप्लस के खण्ड 41 में इस प्रदेश को भारत के पश्चिमी भाग में स्थित बताया गया है। अभी तक इस कुल की तथा इस प्रदेश की सही पहचान सम्भव नहीं हो सकी। पेरीप्लस का टिप्पणीकार सचौफ (Schoff) इस की तुलना लतिका1 के साथ करता है। इस की तुलना अप्रांतिका2 और अर्यन्तिका3 के रूप में भी की गई है। Tribes and Castes के संकलनकर्ता के अनुसार यह कुल अरब आक्रमण कर्ताओं का कोई वंश होना चाहिये। ये सभी मत अस्वीकार्य हैं। ये लोग अरब देशों से आए लोग नहीं हो सकते हैं क्योंकि इस्लाम के अस्तित्व में आने से बहुत समय पूर्व वराह मिहिर इन का उल्लेख "अर्व" के रूप में करता है।4 यहां भी उन्हें दक्षिण पश्चिम क्षेत्र में आवासित बताया गया है। यह क्षेत्र वर्तमान गुजरात राज्य में या उस के कहीं आसपास होना चाहिये। इस सम्बन्ध में अन्य सभी मत इसलिये अस्वीकार्य हो जाते हैं क्योंकि हम उन्हें आज भी उसी पुराने नाम के साथ वर्णित पाते हैं। अतः अर्व, अरब अथवा अरबाइकस ये सब केवल इसी कुल की ओर संकेत देते हैं जिसे अरब कहा जाता है।
2. भेद :— ये वह लोग हैं जो ऋग्वेद में वर्णित दस राजाओं के प्रख्यात युद्ध में सुदास राजा द्वारा पराजित हुए थे। उस काल में भी ये लोग यमुना नदी के किनारे पर ही आवासित थे क्योंकि ये लोग यमुना नदी पर ही पराजित हुए थे। आजकल ये लोग यमुना नदी से तनिक दूर जीन्द और संगरूर क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
3. भगर/भग्गू :— ये लोग भांगल अथवा भंगू ही हैं और इन के विषय में अन्य जानकारी इन कुलों के विवरण {पृ. 289} में मिल सकती है।
4. बाछल :— ये लोग आजकल अम्बाला ज़िले में पाये जाते हैं तथा ये प्राचीन काल के वत्स ही हैं।
5. बाठ :— यह भी एक पुराना कुल ही है जो आजकल लुधियाना ज़िले में समराला के समीप गांव राजेवाल/कुलवाल में आवासित हैं। इन के सिक्के भी पाये गये हैं जिन पर प्रख्यात वाटाश्वक अंकित है। इन में पहला नाम कुल नाम है अर्थात्‌ वट अथवा बट जो आजकल बाठ के रूप में लिखा जाता है। नाम का दूसरा भाग निस्संदेह

1. B.N. Mukherjee, The Kusanas and the Deccan, pp. 174-75.
2. IA, 1878, Vol. VII, p. 259.
3. JA, 1936, pp. 73-74; and S. Chattopadhyaya, Sakas in India, p. 37.
4. Brihat Samhita, XIV, 17.

पृष्ठ 345 समाप्त

इस कुल के किसी एक राजा का हो सकता है।5 जिस स्थल से ये सिक्के उपलब्ध हुए हैं, उन से भी इन लोगों के पंजाब स्रोत का पता चलता है।
6. डाहल :— यह कुल आजकल ज़िला मुल्तान में पाया जाता है। इस कुल ने मध्य युगीय काल में मध्य भारत के बेरार क्षेत्र को अपना नाम प्रदान किया था। उस काल में इसे डाहल देश कहा जाता था। 789 के.एस, (1038 ई.) के पियावान अभिलेखों में श्री ढाहलान इति6 का उल्लेख मिलता है। अल्बेरूनी की “किताब-उल-हिन्द" में डाहला नाम का उल्लेख है जिस की राजधानी त्रिपुरी थी और जो भारत के प्रदेशों में {से} एक था।7
7. दहिया :— इन के बारे में पहले ही विशद चर्चा की जा चुकी है। यहां हम केवल उन के देश तथा उन के कुछ राजकुमारों की ओर आप का ध्यान लाना चाहेंगे। "रामायण" तथा पाणिनी कृत साहित्य में असंदिवत को जन्मेजय की राजधानी कहा गया है। पाणिनी पर काशिका की टिप्पणी में आसन्दी का उल्लेख दहि स्थलम के साथ ही है। पदमंजरिकर का लेखक हरदत्त "आसंदी" तथा "दहिस्थलम" का उल्लेख विशेष देश तथा क्षेत्रों के रूप में करता है।8

(आसंदी व् दहिस्थलम् देशविशेषः यत्रेद मुच्यते)

इस सम्बन्ध में प्राप्त अभिलेखों में दहिस्थल का उल्लेख सरस्वती के किनारे बसे क्षेत्र के रूप में मिलता है। जहां अन्हिलवाड़ के राजा क्षेमराज चौलुक्य ने प्रायश्चित तप किया था।9
उपरोक्त विचार विमर्श से यह पूर्णतयः स्पष्ट है कि जिन क्षेत्रों का ऊपर उल्लेख हुआ है, वे सब हरियाणा क्षेत्र में है और पानीपत के समीप एक महत्वपूर्ण कस्बा भी है जिसे आजकल भी असंध ही कहा जाता है तथा दहिया कुल का क्षेत्र भी इस से बहुत दूर नहीं है। अतः यह स्पष्ट है कि प्राचीन आसंदी तथा असंदिवत आज का असंध नगर ही है तथा दहिस्थल दहिया कुल का आवासित प्रदेश है 1056-57 की चच्च दहिया से सम्बन्धित किनसरिया अभिलेखों का उल्लेख एपिग्रेफिका इन्डिका (संक्षिप्तीकरण, EI) में हुआ है। उसे "कुलदहियाकम्‌ जातम्‌" कहा गया है तथा इस अभिलेख में इस राजकुमार की चार पीड़ियों का उल्लेख मिलता है। चन्द्रावती सीतलेश्वर महादेव मंदिर का एक अभिलेख राउत भीव सींह दहिया तथा उस के पुत्र राउत उदा दहिया का उल्लेख करता है। (Sl. no., 856 of Inscription of North India)
8. दोसांध/दोसांझ :— इस कुल के सिक्के भी मिले हैं जिन पर प्रख्यात लेख

5. John Allan, op. cit., p. CXXXIII, intro.
6. ASIAR, Vol. XXl, pp. 112-113.
7. S.C. Sachan, Alberuni's India, Vol. I, p. 202.
8. G.C. Awasthi, Veda Dhratala, p, 58.
9. H.C. Ray, op. cit., p. 953.

पृष्ठ 346 समाप्त

दोसादस्य/दोसानस्य अंकित है जिस का अर्थ है "दोसद अथवा दोसझ कुल के सिक्के।"10
9. गदार :— ये वे लोग हैं जिन का भारतीय साहित्य में गांधार लोगों के रूप में उल्लेख हुआ है। उन लोगों को ईरानी तथा यूनानी अभिलेखों में गदारई भी कहा {गया} है।
10. घूमन :— इन का उल्लेख पहले {पृ. 292 पर} हो चुका है। फिर भी इस कुल के एक वंश का विशेष अभिलेख विशेष उल्लेख की मांग करता है। यह अभिलेख गोमन करवक की मनिकियाला चांदी पत्रिका है (Manikiala Silver Plate of Gomana Karvaka) यहां नामित व्यक्ति, करवक, निश्चित रूप से गोमन अथवा घूमन कुल से है। "परगितर" गोमन नाम की तुलना गोधरा अथवा गोनंद से करता है। ये दोनों कुल नाम हैं और आजकल इन्हें कमशः गोदारा तथा गोंडल कहा जाता है।11 इसी तरह गोमन भी कुल नाम है। यह बात कि व्यक्ति के नाम से पहले इस के कुल का नाम आता है विशेष महत्व नहीं रखती क्योंकि उस काल में ऐसा ही होता था। अभिलेखों पर अंकित गुस्सर सिंहबल तथा शकमोड़ नामों में व्यक्ति के नाम से पूर्व उन के कुल के नाम प्रयुक्त हुए हैं।
11. गोपालक :— इन का उल्लेख इसी नाम से वृहत्‌ संहिता में हुआ है। महाभारत में भी इन का उल्लेख हुआ है।12 इन्हें 'काशिका' में गोपाल्लव भी कहा जाता है। गोपाल वंश ईरान में गुपाल कहलाता है जिसका अर्थ है चन्द्रमा
12. जाली :— इन का उल्लेख पाणिनी ने भी जालमनी तथा जानकी नाम के अधीन किया है। इन की समरूपता तिगर्त क्षेत्र के लोगों की जानी तथा जाली कुल से स्थापित हो सकती है। दोनों ही जाट कुल हैं।
13. जामुन :— वृहत्‌ संहिता में इन का उल्लेख यमुना नदी के क्षेत्र में रहने वाले लोगों के रूप में हुआ है। वैदिक साहित्य में इन्हें यामुन कहा गया है। यमुना नदी का नाम इन्होंने दिया है।
14. कचेला :— वृहत्‌ संहिता में इन्हें काचर भी कहा है। 'महाभारत' इन का उल्लेख कच के रूप में करता है।13 इन के अतिरिक्त कुछ अन्य नामों का भी उल्लेख मिलता है जैसे गोपाल, लांगल, पंगल (पखल्ल), सिंधू आदि। 738 {ई.} के एक अभिलेख में इन्हें कचेल कहा गया है, जो मौर्य तथा गुज्जरों के साथ अरबों की मुसलमान सेनाओं के हाथों पराजित हुए। कचल/कछल/खीचर एक ही हैं।

कच्छा गॊपाल कच्छाश च लाङ्गलाः पखल्लकाः
किराता बर्बराः सिद्धा विदेहास ताम्रलिङ्गकाः महाभारत (VI.10.55)

15. कादयान :— हम एक ऐसे अभिलेखीय प्रमाण का उल्लेख कर चुके हैं जिस में कादान नाम आता है तथा जिसे गोटीपुत्र कहा गया है। ब्राह्मीलिपी के प्रारम्भिक रूप

10. John Allun. op. cit.
11. EI, Vol. XII, p. 301.
12. Bhishma Parva, X, 55.
13. ibid.

पृष्ठ 347 समाप्त

में "काडस" शब्द भी प्राचीन सिक्कों में अंकित पाया गया है। काड़स (संस्कृत में काडस्य) का अर्थ है काडों के सिक्के। जॉन एलान के अनुसार इन सिक्कों का सम्बन्ध अभी तक स्पष्ट रूप से स्थापित नहीं किया जा सका (Catalogue of the coins of Ancient India, Orient Reprint S.S. 103) ऐसा मत भी व्यक्त किया गया है कि काड़ शब्द संस्कृत शब्द "काल" से लिया गया है। कन्निंघम का मत है कि काड का सम्बन्ध कदर्व से हो सकता है जो कदरू का वंशज था।14 ये दोनों मान्यताएं सहज स्वीकार्य नहीं हैं तथा वे सिक्के कादान से सम्बन्धित हैं जिन्हें आजकल कादयान कुल के रूप में लिखा जाता है। मूल नाम काद है, फारसी में जिस का अर्थ है उच्च एवं शीर्षस्थ तथा इस में आन प्रत्यय के रूप में जोड़ दिया गया है। अमृतसर के समीप कस्बा कादियां तथा बलोचिस्तान में कादान कस्बे का नाम इन्हीं लोगों के नाम पर रखा गया था। जैसा कि जॉन एलन कहता है कि यह नाम एक कबीले का है न कि किसी शासक का। ये सिक्के कुनिद लोगों के सिक्कों के साथ मिले थे अतः इन का सम्बन्ध पंजाब क्षेत्र से होने के संकेत मिलते हैं। इन सिक्कों का काल ई. पू. तीसरी शताब्दी या दूसरी शताब्दी {ई. पू.} का प्रारम्भ काल कहा गया है। सिक्कों पर एक खड़ी मूर्ति अंकित है जिस के बायें हाथ में भाला अथवा राजदण्ड पकड़ा हुआ है। इन सिक्कों पर सूर्य तथा स्वस्तिक के चिन्ह अंकित हैं।
16. खोसर :— मौर्य के इतिहास के अन्तर्गत जब वे (मौर्य) दक्षिणी भारत पर धावे बोल रहे थे, हम एक युद्ध प्रिय लोगों का उल्लेख पाते हैं जिन्हें "कोसर" कहा गया है। वास्तव में तमिल साहित्य के अनुसार ये लोग मौर्य सेना का हरावल दस्ता था। मौर्यों की ही तरह ये लोग दक्षिण से नहीं थे बल्कि उत्तर से आए लोग थे। इन का सम्बन्ध जाटों के खोसर कुल से स्थापित हो सकता है। मौर्य/मोर और कोसर/खोकर दोनों जाट कुल हैं।15
17. खरपर :— समुद्र गुप्त कालीन इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख के अनुसार इन लोगों का सम्बन्ध पहले खरप कुल से स्थापित किया जा चुका है विक्रमादित्य के दरबार के "नौरत्नों" में एक घट खरपर भी था।16 यहां तक कि 1251 ई. दिल्ली के गुलाम वंश के नासिरुद्दीन के नेतृत्व में खरपर सेनाएं मध्य प्रदेश में युद्ध कर रही थीं।
18. कपाही :— ये लोग पंजाब के जाटों तथा खत्रियों में पाये जाते हैं और इन का सम्बन्ध सिकन्दर काल के इतिहासकारों द्वारा वर्णित कापोहियों (Kaphaios) से हो सकता है। यह भी सम्भव है कि वृहत् संहिता में "एक-पाद (एक पग, Ekpada)" के रूप में जिन लोगों का उल्लेख है, वे यही लोग हों तथा संस्कृत में इन का नाम अशुद्ध रूप से लिखा गया हो। कपाही उच्चारण

14. ASIAR, Vol. II, p. 10.
15. For other details see Indian Culture, Vol. I, p. 97.
16. R.B. Pandey, Vikramaditya of Ujjayini.

पृष्ठ 348 समाप्त

की दृष्टि से एकपाही के साथ अत्यधिक समानता लिये है, जिस का अर्थ है एक पांव बाला।
19. लांघ/लांघल :— उन का विवरण कचेल के अन्तर्गत देखिए। इन का उल्लेख कचेल के साथ महाभारत में हुआ है।
20. मान :— इन का विवरण हम पहले ही दे चुके हैं। डी.सी. सरकार महाराष्ट्र के दक्षिण में एक मान प्रदेश का उल्लेख करते हैं। "मान देश सम्बन्धः सर्वाधिकारी ब्रह्मदेवः वः रानास्‌।"17 गोबिन्द पुर (गया ज़िला, बिहार) के शक सम्वत 1059 के अभिलेख में मान वंश का उल्लेख है जो उस समय उस क्षेत्र में शासन कर रहा था। इस में इन के दो राजाओं के नामों का भी उल्लेख है जो उस समय वहां शासन कर रहे थे; वरुणमान तथा रुद्रमान18
21. मल्ली/मल्ही :— इन लोगों का उल्लेख मल्ल/मल्या/माल तथा मल्लोई रूपों में भी हुआ है। इन लोगों की पहचान इतिहास एवं साहित्य में वर्णित प्रख्यात मालवों के साथ सर्व स्वीकार्य है।19 ऐसा समझा जाता है कि आज कल मालवों का कोई अस्तित्व नहीं है और उन का विलय पूर्ण रूप से राजपूतों में हो चुका है।20 यह मानना सही नहीं है तथा यह बात आज के उन इतिहासकारों की दयनीय स्थिति का संकेत देती है जो राजपूतों के अतिरिक्त अन्य कुछ देखते ही नहीं। इन इतिहासकारों की इस स्थिति का परिचय DHNI में मिलता है, जिस के अनुसार मौर्य परमारों के उप भाग थे।21 तथा परमार दक्षिणी गुजरात के अकाल वर्ष कृष्ण राज (888 ई.) के माध्यम से राष्ट्रकूटों के वंशज थे।22 यह बात सोची भी नहीं जा सकती है कि प्राचीन मौर्य लोग नौंवीं तथा दसवीं शताब्दी के परमारों के एक कुल में से थे। इस दावे का खोखलापन तो स्वयं में ही स्पष्ट है अतः इस पर बहस की कोई आवश्यकता भी नहीं। ऐसे प्रयास उसी दयनीय दृष्टिकोण का परिणाम हैं जिस का उल्लेख हम ने कुछ पंक्तियों में पहले किया है।
मल्ल, मल्ली तथा मल्ही आज भी जाटों में विद्यमान एक कुल है और इतिहास की सभी कसौटियों के अनुसार उन्हें प्राचीन मालवों के रूप में प्रमाणित किया जा चुका है। संस्कृत के व्याकरण आचार्यों तथा चाणक्य के अनुसार ये लोग अपने पुरोहित स्वयं ही थे और पुरोहित कार्यों को पूरा करने के लिये वे ब्राह्मणों की सेवाएं कभी नहीं लेते थे। इस के साथ ही मैगस्थनीज़ अपने संस्मरणों में मालवों के सम्बन्ध में एक और विशेष

17. IHQ, 1948, Vol. XXlV, pp. 71-79.
18. EI, Vol. II, p. 333, SI. No. 1105.
19. See Majumdar, Corporate Life in Ancient India, p. 273, also R.C. Douglas in JASB, XIX, p. 42.
20. S.B. Chaudhari, The Mallavas, p. 179.
21. DHNI, p. 1154.
22. ibid., p. 842.

पृष्ठ 349 समाप्त

तथ्य का संकेत देता है और वह यह कि ये लोग अपने पुरखों की स्मारक समाधियों की पूजा किया करते थे।
ये दोनों परम्पराएं इस कुल के लोगों में आज भी बराबर विद्यमान हैं। इन के पुरखों की समाधि मिट्टी के एक टीले के रूप में होती है जिस पर ईंटों का एक मंच/चबूतरा बना दिया जाता है। फिर इन चबूतरों की महत्वपूर्ण दिनों जैसे बच्चे के जन्म तथा विवाह आदि अवसरों पर विशेष रूप से पूजा की जाती है। इन मंचों अथवा चबूतरों को "जठेर" कहा जाता है। अधिकांश जाट कुलों के ऐसे जठेर पाए जाते हैं जिन्हें पवित्र समझा जाता है। इन जठेरों पर महत्वपूर्ण मेलों के अवसर पर किसी एक विशेष जाट कुल का एक व्यक्ति पुरोहित का कार्य करता है तथा जठेर पर जो भेंट अथवा चढ़ावा प्राप्त होता है, वह यह पुरोहित अथवा पूरा जाट कुल लेता है। अब हम अपनी बात को सिद्ध करने के लिये Tribes and Castes का एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। चाहल, गिल, सिंधू, ढिल्लों जाटों के अपने-अपने पवित्र जठेर हैं विशेष रूप से लुधियाना के मल्ही जाटों का जठेर इसी ज़िला के गांव पब्बियां में मढ़ी लछमन के रूप में विख्यात है। यहां आने वाले मल्ही कुल के होते हैं तथा यहां से प्राप्त होने वाला चढ़ावा मल्ही जाटों द्वारा सयुक्‍त रूप से बांट लिया जाता है। एक ऐसा ही वार्षिक मेला ज़िला फिरोज़पुर के मोगा क्षेत्र में स्थित माडी गांव में लगता है। "मोगा तहसील में माड़ी गांव में लच्छमन सिद्ध मंदिर में चेत की 14 तिथि को हर वर्ष एक मेला लगता है। लच्छमन एक मल्ही जाट था। उस मंदिर में कोई प्रतिमा अथवा मूर्ति नहीं है। केवल एक गोल मंच बना हुआ है जिसे एक चादर से ढांपे रखा जाता है। माड़ी के मल्ही जाटों द्वारा यहां हर सायंकाल एक दीप जलाया जाता है। यहां कोई पुजारी भी नियुक्त नहीं है किन्तु मेले के दिन गांव का एक जाट पुरोहित कार्य करने के लिये चुन लिया जाता है तथा वह सारा चढ़ावा प्राप्त करता है।"23
इसी प्रकार गिल जाट एक राजा का मेला मनाते हैं। राजा एक जाट था। यह मेला तहसील मोगा (ज़िला फिरोज़पुर) में स्थित गांव रजियाना में मनाया जाता है। यहां भी एक मंदिर है लेकिन उस में कोई मूर्ति नहीं है। इस के बीच एक पक्की ईटों का मंच/चबूतरा है। यहां का पुरोहित कार्य स्वयं गिल जाटों द्वारा ही सम्पन्न होता है। ये लोग किसी एक गिल जाट को चेला बना कर मेले का काम सौंप देते हैं। यह चेला ही वहां सारा चढ़ावा प्राप्त करता है।
ये दोनों उदाहरण मैगस्थनीज़ व अन्य इतिहासकारों द्वारा प्रस्तुत मल्ही लोगों से सम्बन्धित विवरणों को सही प्रमाणित सिद्ध करते हैं। मालव आज भी अपने पुरखों की मड़ियों की पूजा करते है और वे किसी विशेष पुरोहित को नियुक्त भी नहीं करते। वे

23. Vol. I, p. 282.

पृष्ठ 350 समाप्त

अपने पुरोहित स्वयं ही बनते हैं। वी.ए. स्मिथ ने यह बात पूर्ण रूप से सही कही थी कि मल्लोई लोग भारत में आए विदेशी लोग ही थे।24
22. मिहिर :— इस कुल को बल्लभी के मैत्रक कुल के समान ही माना जाता है। फ्लीट ने यह मत व्यक्त किया कि भट्रारक मैत्रक विदेशी क्षेत्र के सूर्य उपासक लोगों से सम्बन्धित था। यहां तक तो फ्लीट ठीक धारणा व्यक्त करते हैं किन्तु आगे चल कर वह यह कहते हैं कि तोरमाण तथा मिहिरगुल से सम्बन्धित थे।25 इस मत का अन्य इतिहासकारों ने भी समर्थन किया है26 किन्तु तोरमाण तथा मिहिरगुल अपने सिक्कों में स्पष्टतः इस बात का उल्लेख करते हैं कि उन का सम्बन्ध जौवल कुल से है अतः वे मिहिर वंश से सम्बन्धित नहीं हो सकते। क्योंकि मिहिर कुल जाटों का एक भिन्न कुल है तथा महरौली गांव का नाम इन मिहिर कुल के लोगों पर ही पड़ा है।
23. पार्वेय :— इन लोगों को प्राचीन काल के पारावत लोगों से सम्बन्धित माना जाना चाहिये। ऋग्वेद में इन्हें अश्वों के उपहार देते हुए दिखाया गया है।27 ये लोग यमुना नदी के क्षेत्र में आवासित थे।28 वैदिक काल में उन्हें अर्थात् पार्वतों को एक कबीला कहा गया है। वामन पुराण कुमार द्वीप के उत्तर में स्थित पारावत नाम के एक देश का उल्लेख करता है।29 आज का पार्वेय कुल भी इसी तरह यमुना नदी के क्षेत्र में विद्यमान है और यह समानता सिद्ध करने के लिये उन का यह नाम ही काफी है। शायद इन्हीं को पर्वत और आजकल परोता कहा जाता है।
24. सतग्रह :— इस कुल की पहचान सर्वप्रथम ईरानी अभिलेखों में वर्णित (तथा यूनानी लेखकों के माध्यम से) सट्टीग्रोही नाम के लोगों से स्थापित की गई है। अभी तक इस कुल के लोग इतिहासकारों के लिये एक रहस्य बने हुए थे।
25. संघा :— ये लोग मैगस्थनीज़ द्वारा वर्णित "सिंघाई" लोग ही हैं। ये एक स्वतन्त्र तथा उन्मुक्त लोग थे, ये पहाड़ी क्षेत्रों में रहते थे तथा वहां उन्होंने कई नगर बसा रखे थे।30 सिकन्दर के आक्रमण के समय इन का उल्लेख भारत की सीमा पर आवासित संगेयस (Sangaeus) लोगों के रूप में हुआ है।31
26. उधान :— इन लोगों की पहचान कश्मीर के उत्तर पश्चिम में स्थित राज्य "उद्धयान" अथवा "उडयाना" के लोगों के साथ मानी जानी चाहिये।

24. CCIM, Vol. I, p. 174-76.
25. CII, Vol. IlI, p. XII.
26. IHQ, 1928, p. 457; and JPASB, 1909, p. 183.
27. 8/34/16.
28. ibid., 8/34/18.
29. 19/39.
30. S. Mukerji, p. 45.
31. PHAI, 1938, p. 210.

पृष्ठ 351 समाप्त

27. उप्पल :— इन लोगों की पहचान साहित्य व इतिहास में वर्णित विशेष रूप से कश्मीर के उत्पल लोगों के साथ मानी जानी चाहिये।
28. विझी :— इन लोगों की पहचान उन विज्जी अथवा वज्जी/वज्जो लोगों के साथ सम्भव हो सकती है जो प्रख्यात लिछ्छवी लोगों के साथ विशेष रूप से सम्बन्धित रहे। यह भी सम्भव है कि नैच (Naich) कुल भी लिच्छवी कुल ही हो सकता है क्योंकि लिछ्छवियों का उल्लेख नैछवी के रूप में भी हुआ है। यह एक ऐसा सुझाव और संकेत है जिस पर और भी गहराई से विचार होना चाहिये। ये लिछ्छवी लोग अपनी चमकीली अथवा विभिन्न रंगों की वेशभूषा के कारण विशेष रूप से प्रख्यात थे। इन के बारे में जो भी प्रमाण अभी तक मिले हैं उन से यही सिद्ध होता है कि ये लोग यू.ची. की ही एक शाखा थे।32 कुछ अन्य लोगों का यह विचार है कि लिछ्छवी विदेशी थे जिन को हिन्दू बना लिया गया था।33 डी.सी. सरकार इस मत से सहमत हैं।34
29. यौधेया (जोहिया) :— ये लोग ईरान की यौतीय हैं, इन का उल्लेख महाभारत में भी हुआ है। इन के विषय में यह परम्परागत कथा कि ये युधिष्ठर के एक पुत्र के वंशज थे, सही दिखाई नहीं देती क्योंकि नकुल ने पश्चिम देशों पर विजय प्राप्त करते हुए यौधेय लोगों के साथ भी युद्ध किया था। यदि ये लोग पाण्डव वंश के पुत्र अथवा पौत्र होते तो इन के बीच कदापि युद्ध न होते। ऐसा न भी हो तो भी यह संम्भव नहीं है कि युधिष्ठिर के एक पुत्र के वंशज संख्या में इतने नहीं हो सकते कि वे उन पाण्डवों से युद्ध करते जो उनके दादा आदि थे। हम यहां इस संदर्भ में एम.के. सरण की पुस्तक Tribal Coins-A Study जो अभी हाल ही में प्रकाशित हुई है, का एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, "जाट जिन्होंने महमूद गजनवी की सेना का उस की सोमनाथ मंदिर से वापसी पर मुल्तान के समीप डट कर विरोध किया था, वे केवल यही यौधेय लोग थे।35 यह जाट सैनिक गठे हुये शरीर के जीवट थे। उन्होंने शाही फौज का विद्रोहियों की तरह प्रतिरोध किया। पराधीनता से मुक्ति के अपने संघर्ष के दौरान स्वाधीनता के लिये अदम्य इच्छा एवं राष्ट्रीय भावनाएं उन्हें कभी-कभी कष्ट देती रहीं किन्तु उन्होंने इन्हें साहस के साथ झेला।"36 यह भी उल्लेखनीय है कि एम.के. सरण ने ऐसे प्रमाण प्रस्तुत किये हैं जिन से यह पता चलता है कि ये लोग वर्ण व्यवस्था के नियमों में विश्वास नहीं रखते थे। (नः यत्रः वर्णाश्रम धर्मः वृतयः)
30. तंगल :— हम सैंट मार्कनी तथा उस के बाद अन्य इतिहासकारों के माध्यम से

32. S. Beal, op. cit., Vol. III, p, 308; EHI, pp. 162-63; lA, Vol. XXXII, pp. 233-35 and Vol. XXXVII, pp. 78-80.
33. JASB, Vol. {71, Part. 1, Published. 1902}, pp. 142-44.
34. H.N. Jha, The Licchavis (Of Varanasi).
35. op. cit., p. 75.
36. ibid. p. 147.

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ऐसे लोगों के बारे में जानते हैं जिन्हें गंगनोई कहा जाता था। ये गंगनोई तंगनोइयों से सम्बन्धित थे।37 किसी भी भारतीय स्रोत में गंगन नाम एक कबीले के रूप में नहीं मिलता जबकि तंगन या तुंगन प्राचीन भारत के प्रख्यात लोगों के एक वर्ग के विशिष्ट नाम के रूप में उपलब्ध है।38 तुंगली जिस पर कुशानों ने विजय प्राप्त की वह इतिहासकार टाल्मी द्वारा प्रयुक्त तंगनोई (गंगनोई के स्थान पर) हो सकते हैं।39 उन की राजधानी शची थी, जिस को इतिहासकार एफ.डब्ल्यू. थॅामस (F.W. Thomas) साकेत नगरी के रूप में चिन्हित किया।40 जे. कैनेडी का सुझाव है कि तुंगली का मगध से भी अभिप्राय हो सकता है।41 कुशानों से पहले पाटलिपुत्र पर मुरुण्ड शासक थे और तन्गल लोग ही मुरन्ड नाम से जाने गये।42 इस मत चर्चा से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित तंगनोई तथा चीनी लेखकों के द्वारा वर्णित तुंगली जाटों के तंगल कुल का देश हो सकता है जिस पर कुषाण (कुशान) कुल ने विजय प्राप्त की थी।

37. J.S. Negi, Some Indological Studies, p. 132.
38. B.N. Mukerji, Kushanas and the Deccan, p. 39.
39. ibid., p. 60.
40. New IA, Vol. VII, pp. 90-92.
41. JRAS, 1912, p. 679.
42. B.N. Puri, op. cit., p. 51.

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