Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part I (i)

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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सप्तम अध्याय भाग-एक (i): पंजाब और जाट

Contents

जाटों की सबसे अधिक आबादी पंजाब और सिंध में

भारतवर्ष में जाटों की सबसे अधिक आबादी का पता पंजाब और सिंध में लगता है , क्योंकि यही इनका प्राचीन जन्म-स्थान है। जाटों का जब से भी कोई इतिहास मिलता है, तब से ही उनका अस्तित्व पंजाब में पाया जाता है। इन दोनों प्रान्तों में जाटों की अधिक आबादी होने का यही कारण है कि अति प्राचीन काल से यहां के राज्यवंश गणतन्त्री थे। यदि हम भारतीय राजनैतिक इतिहास का सिंहावलोकन करते हैं तो हमें इन प्रान्तों में एकतन्त्री विचार के समुदायों का अभाव ही दिखाई देता है। रामायण-काल में दशरथ, सहस्त्राबाहु, रावण और महाभारत-काल में अर्जुन, दुर्योधन, कंस, जरासंघ, शल्य आदि ऐसे राजाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें एकतन्त्री राजा के नाम से पुकारा जाता है। किन्तु इनमें किसी का भी अधिपत्य पंजाब और सिंध की पूरी आबादी पर नहीं मिलता। द्रुपद और शल्य एवं वृहद्रथ के अधिकार में भी कोई भू-भाग था तो वह अधिक विस्तृत नहीं था। सिंध के सम्बन्ध में यहां तक बात गढ़ी गई कि सिंध के लोगों ने राज्य-संचालन कार्य में अयोग्य होने के कारण दुर्योधन की बहन को शासन करने के लिए बुलाया था।

महाभारत में उत्तर-भारत के जिन गणराज्यों का वर्णन आता है, उनमें से अधिकांश पंजाब स्थित थे। पंजाब में यदि एकतन्त्र शासन का प्रचार हुआ भी तो बहुत देर से और बहुत थोड़े दिन के लिए हुआ और वह एकतन्त्र ऐसे लोगों का था जिनमें से अधिकांश पंजाब की प्राचीन आर्य जाति के न थे। यह पिछले अध्यायों में लिखा जा चुका है कि जाट उन समुदायों का फेडरेशन (संघ) है जोकि गणवादी अथवा ज्ञात-वादी थे। अतः जिन-जिन गणों का पंजाब में अस्तित्व था उनमें से जो-जो जट (संघ) में शामिल हुए और जिनका वर्णन हमें मालूम हो सका है, उनके नाम तथा परिचय भी पीछे दिए जा चुके हैं। यहां वह थोड़ा-सा इतिहास देते हैं जोकि जाटों में एकतन्त्री भाव आने के पश्चात् घटित हुआ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-199


सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में पौरुष, आम्भी, हस्ती नाम के केवल तीन राजा पाए जाते हैं। पौरुष को यदि राजा मान लिया जाय (क्योंकि कुछ लोग पौरस जाति बतलाते हैं) तो चार राजाओं का नाम हमारे सामने आता है। अभी तक निश्चय नहीं हो सका कि इन राजाओं के वंशज पंजाब की जाट, गूजर, खत्री और राजपूत आदि क्षत्रिय जातियों में से किस में शामिल हो गए। फिर भी यह खयाल किया जा सकता है कि अभिपार वाले और तक्षशिला वाले लोग जाट थे। क्योंकि तक्षक गोत्र का जाटों में होना इस बात का प्रबल उदाहरण है। कर्नल टाड ने भी तक्षकों को जाटों से सम्बन्धित किया है। राजा हस्ति निश्चय ही जाट था जो कि सिंध नदी के किनारे पर एक छोटे से भू-भाग का शासक था। सिंध के एक जाट गोत्र की जो वंशावली हमें जाटों से प्राप्त हुई है, उसमें राजा हस्ती का नाम आता है। वह सिंध जाटों का सरदार था।

पौरुष का शासन झेलम और चिनाव के बीच के प्रदेश पर था। हमें महमूद गजनवी के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि जाट लोगों ने झेलम नदी में चार हजार नावों से गजनवी से युद्ध किया था। पौरुष और सिकन्दर की लड़ाई में भी नदी में युद्ध करने का वर्णन मिलता है। आरम्भ से जिस ढंग से सिकन्दर और पौरुष के योद्धा लड़े थे, वह बिलकुल चन्द्रवंशी क्षत्रियों के तरीके को याद दिलाता है, जिन तरीकों का अनुसरण जाटों ने एक लम्बे समय तक किया है। आज भी झेलम और चिनाब के बीच सब से अधिक आबादी जाटों की ही है, चाहे उनका एक बड़ा भाग अपने को जाट मुसलमान कहता हो। महमूद के युद्ध से पहले तो यहां जाटों की बहुत ही घनी आबादी थी।

पौरुष की सेना में हाथियों के सिवाय हम रथों का एक बड़ा भाग देखते हैं। हेरोडोटस ने जेहुन नदी के किनारे के जाटों को रथों से युद्ध करने वाला बतलाया है जैसा कि हम पिछले पृष्ठों में लिख चुके हैं। दारा की संरक्षता में भी सिकन्दर से रथों द्वारा युद्ध किया था।

सिख इतिहास में जब हम हजारा के जाट नरेश राजा शेरसिंह का हाल पढ़ते हैं तो अनायास पौरुष याद आ जाता है। जिसने अंग्रेज जनरल की दाहिनी ओर खड़े होकर के अंग्रेज अफसर के यह कहने पर कि यदि आपको छोड़ दिया जाए? तो यह स्पष्ट कहा था कि

“मैं अपनी मातृ-भूमि की रक्षा के लिए भी वही करुंगा जो अब किया है?”

राजा शेरसिंह पौरुष का दूसरा रूप दिखाई देता है।

ऋग्वेद में हमें पौरव नाम की जाति का वर्णन भी मिलता है और वह जाति आगे चल करके हमें गण के रूप में दिखलाई देती है।

जिस स्थान पद युद्ध हुआ था, सिकन्दर ने अपनी विजय के उपलक्ष में ‘निकय’ नाम का एक नगर बसाया था। जो कि नकाई नाम से मशहूर हुआ। सिक्खों की बारह मिसलों में से एक मिसल का नाम नकई मिसल है जो कि वहां के नकई जाटों


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-200


के गांव के नाम से मशहूर हुई। निकय गांव के लोग अवश्य ही उस जाति के होंगे, जिसमें स्वयं पौरुष था। क्योंकि 200 गांवों के जिस प्रदेश को सिकन्दर ने सन्धि होने के बाद पौरुष को सौंपा था, यह गांव भी उन्हीं में शामिल है।

उपर्युक्त कारण और दलीलें यह साबित करती हैं कि पौरुष निश्चय ही ज्ञात (जाट) थे

शासन व्यवस्था, युद्ध के ढंग, स्वभाव, तत्कालिक वर्णन पौरुष को जाट के सिवाय अन्य कुछ मान लेने में कठिनाई पेश करते हैं, क्योंकि पंजाब में न तो मौजूदा राजपूत पौरुष को अपना पुरखा स्वीकार करते हैं और न खत्री लोग। राजपूतों की वंशावली रखने वाले भाटों ने भी उनको राजपूत नहीं लिखा है और जाटों में ऐसे गोत्र पाए जाते हैं जिन्हें पौरव और पौरुष का रूपान्तर कह सकते हैं जैसे, पौरिया, पुवार, पोरोथ, पोरुवार आदि आदि।

महाराज कनिष्क

महाराज कनिष्क की मूर्ती: लखनऊ म्यूजियम में रखी हुई है जो पांच फीट के लगभग ऊंची है किन्तु सिर कटा हुआ है। घुटनों से नीचे तक अंगरखा, हाथ में गदा जैसा हथियार है। किन्तु शायद गदा नहीं है। मूर्ति विशाल पुरुष की जैसी है।इस प्रस्तर मूर्ति को ठाकुर देशराज ने स्वयं म्यूजियम में जाकर देखा है।(पृ.-724)

इनके समय के विषय में निश्चित रूप से तय नहीं हो पाया है। डाक्टर भंडारकर इनका समय 203 ई. मानते हैं। लेकिन मि. विंसेंट स्मिथ का अनुमान है कि ईसवी सन् 226 में भारत के कुषाण वंश का राज्य समाप्त हो गया था। कुषाण राजाओं के सिक्कों से मालूम होता है कि कुषाण वंश के राजाओं का पांचवीं सदी तक काबुल और उसके आस-पास राज्य रहा था। कुछ लोग सन् 61 ई. में कनिष्क का होना मानते हैं। हमारे विचार से ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम भाग में कुषाणों का राज्योदय होना जंचता है, क्योंकि भविष्य पुराण के अनुसार ईसवी सन् के आरम्भ में राजा शालिवाहन का अवस्थित होना पाया जाता है। यदि कनिष्क और शालिवाहन समकालीन होते तो भट्टी ग्रंथों में उसका वर्णन अवश्य आता। शालिवाहन के बाद पंजाब में एक प्रकार भट्टी लोगों का राज्य उठ सा ही जाता है। इसलिये ही भट्टी ग्रंथों में कनिष्क व कुषाणों के सम्बन्ध में वर्णन नहीं मिलता।


कुषाण लोग कौन थे, इसके सम्बन्ध में भी दो भिन्न मत हैं। ‘राजतरंगिणी’ का लेखक उन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्धान यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों ने एक तीसरी राय इनके सम्बन्ध में यह दी है कि कुषाण लोग ‘हिंगनु’ लोग हैं। चाहे वे ‘तुरुष्क’ हों, चाहे ’यूची’ और ‘हिंगनु’ पर हर हालत में वे जाट थे। ‘पृथ्वीराज विजय’ के आधार पर बदायूं जिला निवासी ठा. रामलालजी हाला ने भी अब के कई वर्ष पूर्व यही बात लिखी है। तुरुष्क, यूची और हिंगनु लोगों के लिए अनभिज्ञ इतिहासकारों ने विदेशी और आयों से इतर जन मानने की भी अक्षय भूल की है। पुराणों की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर ही कुछ देशीय और विदेशीय विद्धानों ने तुरुष्कों और यूचियों को विदेशी


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-201


मानने की स्थापना की है। तुरुष्क चन्द्रकुल के संभूत राजा तुर्वुस की सन्तान हैं, जिन्हें कि पुराणकारों ने केवल इस अफराज से कि वहां तक ब्राह्मण नहीं पहुंचते थे, उनको पतित क्षत्री बताने की धृष्टता की है। कनिघंम के शब्दों में भारत के जाट, यूरोप के जेटी और गाथ और चीन के यूची व ज्यूटी एक ही हैं। तुर्क या तुरुष्क जैसा कि लोग समझते हैं, मुसलमान यवन अथवा अनार्य नहीं हैं। तुर्वुस के प्रदेश का नाम तुरुष्क अथवा तुर्किस्तान है और किसी भी वंश अथवा जाति का आदमी जो कि तुर्किस्तान में रहता हो, तुर्क कहलायेगा। उसी तुर्किस्तान में जेहून, आक्सस, हिंगनू, जगजार्टिस नाम की उपजाऊ भूमि में भारतीय क्षत्रिय जाति रहती थी, वह जूटी, जोयी और यहूची कहलाती थी और हिंगु अथवा हिंगनू कुषाण आदि उसकी शाखायें थीं। यह तो हम पिछले अध्यायों में बता ही चुके हैं कि प्रजातन्त्रीय राजवंशों के संगठित समुदाय का नाम जाट है जिनमें कृष्ण, अर्जुन, दुर्योंधन, शुरसेन, भोज, शिव परिवारों के वंशज शामिल हैं। कुषाण वे लोग हैं जो कि पांडवों के साथ महाप्रस्थान में कृष्ण-वाशियों में से गये थे। संस्कृत के कार्ष्णेय तथा कार्षणिक से कुषाण शब्द बना, इसमें सन्देह करने की गुंजायश नहीं रह जाती। यह कुशन नहीं है, बल्कि जाटों के अन्तर्गत पाये जाने वाले ‘कुशवान’ हैं

“कहावत है कि जब भूल होती है और खास तौर पर पढ़े लिखों से भूल होती है तो दहाई भूली जाती है और गणित में तो भूल चाहे आरम्भ में हो चाहे मध्य में उनका अन्तिम नतीजा भी भूल ही होता है। जातियों के निर्णय में भी लगभग यही बात है। यदि किसी जाति को वैश्य करार दे दिया तो उसके पुरखे का नाम भी कुबेर ही बताना पड़ेगा, चाहे वह शिशुपाल की संतान हो और चाहे बाल्मीकि की और चाहे बेचारे कुबेर के बाप दादे भी कभी वैश्य न रहे हों। कुषाणवंशी जाट क्षत्रियों के सम्बन्ध में भी बिलकुल यही बात हुई है। जहां उनके सम्बन्ध में यह भ्रान्ति हुई कि वे विदेशी हैं, उसके साथ ही यह भी भ्रान्ति हो गई कि वे विजातीय और विधर्मी भी थे और बौद्ध धर्म को ग्रहण करके हिन्दू हो गए, और हो भी आनन-फानन में गए, और ऐसे हुए कि खास हिन्दुस्तान के हिन्दुओं को भी मात कर दिया।”


कितनी हास्यास्पद बात है कि जो जाति कल तक अहिन्दू है और दो ही चार वर्ष में अपने खास जाति भाई तातारियों की अपेक्षा हिन्दुओं से बिलकुल घुल मिल जाती है। शुद्धि वालों ने तो और भी रंग दे दे करके इस बात को दोहराया है। लेकिन हम कहते हैं कि कुषाण और यूची न तो विदेशी है न अहिन्दू। ये वैदिक कालीन उन क्षत्रियों की औलाद हैं जो भारत से बाहर उपनिवेश कायम करने अथवा अन्य किसी कारण से गए थे और तुर्किस्तान तो भारत से बाहर का देश भी नहीं है, जबकि वैदिक काल में आक्सन (इक्षुरसोद व इक्षुमति नदी) और काबुल (कुभा नदी) तक भारत की सीमा थी। ऋषि दयानन्द के शब्दों में त्रिविष्टप


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या तिब्बत, लोकमान्य तिलक के कथनानुसार मध्य-एशिया जब आर्यों का उद्गम स्थान है तो इन देशों के लोग, ईसा और मुहम्मद से भी पहले, अहिन्दू किस तरह हो गये? विदेशी इतिहासकारों के पीछे आंख मूंद कर चलने वाले देशी इतिहासकारों ने भी ऐसी ही बहकी बातों में पृष्ठ के पृष्ठ रंग डाले हैं। कनिष्क उन क्षत्रियों की औलाद में से थे, जिनको आज यहां अवतार मानकर पूजा जाता है।


भारतवर्ष में जाट-राज्य के लिए ‘जाटशाही’ का प्रयोग किया जाता है और कुषाणवंशी राजाओं के लिए भी शाही अथवा शहन्शाही का प्रयोग किया जाता था। देवसंहिता में जाटों के लिए देवसंभूत व देवों की सन्तान कहा गया है जैसा कि हमने पिछले किन्हीं पृष्ठों में देव-संहिता के उन श्लोकों को उदधृत करके बता दिया है। कुषाणवंशी राजाओं के लेखों में इनकी उपाधि हमें देवपुत्र लिखी हुई मिलती है।

चीनी इतिहास लेखकों के आधार पर अंग्रेज लेखकों ने कुषाण राज्यवंश का इस तरह से वर्णन किया है - यूची नाम की जाति शुरू में चीन के उत्तर-पश्चिम मे रहती थी। ईसवी पू. 165 के लगभग हिंगनु नाम की जाति से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में यूची लोग हार गए और पश्चिम की ओर नई भूमि की खोज में चल दिए। पहले जा करके बलख में अपनी बस्तियां आबाद कीं। यूची जाति के एक गिरोह का नाम कुषाण था। ऐसा कहा जाता है कि इनके सरदार का नाम कुजूल केडफाइसिस (कूजूल कपिशास) था।

उसने अपने प्रभावों से यूचियों की पांचों शाखाओं को एक कर दिया। तभी से कुल युची जाति कुषाण कहलाने लगी। केडफाइसिस ने पार्थिया, कन्धार, काबुल जीत कर अपने राज्य में मिला लिये। इस तरह से उसका राज्य फारस की सीमा से अफगानिस्तान तक फैल गया। इसके सिक्के काबुल की घाटी में मिलते हैं, जो कि यूनानी राजा हरमियस के सिक्कों की नकल पर बनाये गए थे। उनमें एक ओर यूनानी अक्षरों में हरमियस का नाम तथा दूसरी ओर खरोष्टी अक्षरों में ‘कुजूल कसस’ लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि वह हरमियस के बाद ई.पूर्व 25 के बाद हुआ। वह 80 वर्ष तक जीवित रहा। अतः मोटे तौर पर उसका राज्यकाल 50 ई. तक माना जाता है। उसके बाद उसका पुत्र भीम केडफाइसिस उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसे कुछ लेखकों ने केडफाइसिस द्वितीय कहा है।

केडफाइसिस द्वितीय

भीम कैडफाइसिस का सिक्का

(भीम काषिणक अथवा भीम कपिशप त्रिदत्त) इसे चीन के साथ युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध का कारण यह था कि इसने चीन की शहजादी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा था। चीनियों ने इसके दूतों का अपमान किया। इसने एक-एक करके पंजाब के कई यूनानी और शक राजाओं को जीत लिया। इसका राज्य उत्तर


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भारत में बनारस तक पहुंच गया था। इसके पहले के राजाओं के सिक्के चांदी, तांबे या कांसे के हैं। इसने सोने के सिक्के प्रचलित किए। इसके सिक्के में त्रिशूलधारी शिवजी की मूर्ति है जिससे पता लगता है कि पंजाब के शिवगोत्री लोगों के प्रभाव से केडफाइसिस शिव का उपासक हो गया था। पेशावर जिले के पंजतार नामक स्थान से इसका सन् 64 ईसवी का सिक्का प्राप्त हुआ है। कहा जाता है इसके समय में रोम और भारत का व्यापारिक सम्बन्ध अत्यधिक था। यहां के रेशमी वस्त्र, जवाहरात, रंग, मसाले आदि की एवज में रोम से स्वर्ण आने लग गया था। मि. स्मिथ1 कहते हैं कि शक सम्वत् इसी ने चलाया था

भीम केडफाइसिस के पिता के सिक्कों पर

“कुजूल कसस कुषणाय बुगस ध्रमठिदस, कुशनस, युवस कोयुल कपसस सब ध्रमठिदस ”

और इसके सिक्कों पर

“महाराज रजदिरजस सर्व लोग ईश्वरस महेश्वर सहिमकपिशष त्रिदत्त”

लिखा है। मोटे तौर पर इसका राज्यकाल 45 से 78 ई. तक माना जाता है। काशीप्रसादजी जायसवाल के मतानुसार मथुरा के अजायबघर में रखी हुई किसी कुषाणवंशी राजा के सिंहासन पर पैर लटकाए हुए बैठने वाले की मूर्ति इसी केडफाइसिस की है। मथुरा के अजायबघर में कनिष्क की भी एक खड़ी हुई मूर्ति है जिस पर उसका नाम खुदा हुआ है।

कनिष्क, वासिष्क, हुविष्क,वासुदेव

यह कुषाणों की दूसरी शाखा के बाझेष्क नामक राजा के पुत्र थे, ऐसा अनेक इतिहासकार मानते हैं। लेकिन यह पता नहीं चलता कि भीम केडफाइसेस के हाथ से इसके हाथ में राज्य कैसे आया। डॉक्टर फ्लीट औरकेनेडो का मत है कि विक्रम सम्वत् कनिष्क ने ही चलाया और वह ईसवी 57 में गद्दी पर बैठा था। बाद में मालवा के लोगों ने इस सम्वत् को अपनाया और विक्रमी के नाम से प्रसिद्ध किया। डॉक्टर फ्लीट ने यह मत एक बौद्ध दन्तकथा के आधार पर बनाया है। उस दन्तकथा के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के चार सौ वर्ष बाद कनिष्क राजा हुआ और उसने एक सम्वत् भी चलाया। चूंकि भगवान बुद्ध को निर्वाण हुए 400 वर्ष ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में होते हैं और विक्रम सम्बत् भी ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में आरम्भ होता है। इसी बात को आधार मानकर डॉक्टर फ्लीट ने विक्रम सम्वत् का प्रचारक महाराज कनिष्क को माना है। मि. कैनेडी का कहना है कि चीन यूरोप का व्यापारिक सम्बन्ध पहली शताब्दी में आरम्भ हुआ था और चीन से जाने वाला माल कनिष्क राज्य में होकर गुजरता था अर्थात् भारतीय व्यापारी चीनियों से माल खरीद करके यूरोप के व्यापारियों के हाथ बेचते थे। इसी व्यापार


1. ‘अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया’। पृ. 254


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के लिए कनिष्क ने सोने के सिक्के ढलवाये थे और यूनानी लोगों की सुविधा के लिए उसने अपने सिक्कों पर यूनानी अक्षर अंकित करा दिए थे। इसलिये कहा जाता है कनिष्क ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में विद्यमान था। कनिघंम साहब उसे ईसवी पश्चात् सन् 91 में विद्यमान बतलाते हैं। कुछ इतिहासकारों ने सिक्कों के आधार पर कनिष्क को रोम के सम्राट हैढ्रिममार्क्स और ओरेलस का समकालीन बताया है। हम पहले ही लिख चुके हैं कि कनिष्क का प्रामाणिक काल निर्णय अभी नहीं हो सका है। लेकिन वह ईसवी पूर्व से ईसवी पश्चात् तक भी पाया जा सकता है जब कि उसकी उम्र 150 या 175 वर्ष रही हो। अब से दो हजार वर्ष पहले कोई आदमी डेढ़ सौ दो सौ वर्ष तक जिन्दा रह सकता था तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। गर्दभसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य की भी आयु ऐसी ही लम्बी बताई गई है। कुछ लोग शक सम्वत् जिसका आरम्भ सन् 78 ई. से आरम्भ होता है इसी का चलाया हुआ मानते हैं।

कनिष्क आदि राजा लोग अपने नाम के साथ ‘शाही’ या ‘शाहानु शाही’ उपाधि लगाते थे। शिलालेखों में “देव पुत्रस्य राजतिराजस्य शाहेः” इन राजाओं के नामों के साथ लिखा मिलता है। इलाहाबाद के स्तम्भ पर भी देव-पुत्र-षाही षाहानुषाही लिखा हुआ है। इस स्तंभ में, समुद्रगुप्त के साथ, शाही-वंश के राजा की संधि का उल्लेख है। शायद वह राजा इस वंश का वासुदेव रहा होगा।

कनिष्क का राज्य-विस्तार उत्तर पश्चिमी भारत में विन्ध्याचल तक था। काश्मीर और सिंध को उसने अपने प्रारम्भिक समय में ही जीत लिया था। काश्मीर में उसके बनाए हुए बहुत से बौद्ध-मन्दिर और मठ हैं। उसकी राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, सीतामढ़ी यह उनके राज्य के प्रसिद्ध शहर थे। कनिष्क ने चीनी तुर्किस्तान के काशगर, यारकन्द और खुतुन नामक प्रान्तों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। चीनी यात्री सुंगयुन ने पेशावर में बने हुए इसके बौद्ध-स्तूप और मठों की बड़ी प्रशंसा की। दन्तकथाओं से ऐसा मालूम होता है कि इसने पटना पर भी अधिकार कर लिया था। मि. स्मिथ कहते हैं कि महाराष्ट्र के शासक क्षहरात, नहपान और उज्जैन के शासक क्षत्रप चष्टन भी कनिष्क के अधीनस्थ सामन्त थे। कनिष्क के जो सिक्के मिले हैं, उनमें एक तरफ राजा का चित्र होता है। दूसरी तरफ स्त्री या शिवजी अथवा अन्य देवताओं के चित्रे रहते हैं। लेखों में कनिष्क की उपाधि ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कनिष्क’ मिलती है।

इसके समय में शिल्पकला की अच्छी उन्नति हुई थी। इसके समय के बने हुए स्तूप मठ मूर्तियां इसकी साक्षी हैं। इसकी सभा में अनेक विद्वानों का जमघट रहता था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-205


आयुर्वेद का प्रसिद्ध ज्ञाता आचार्य चरक इनका राज्य-वैद्य था। नागार्जुन, अश्वघोष, वसुमित्र भी इसकी सभा में आते रहते थे।


ऐसा कहा जाता है कि कनिष्क ने बौद्ध-धर्म की दीक्षा अपने जीवन के उत्तर भाग में ली थी। बौद्ध होते हुए भी वह बौद्ध, पौराणिक यूनानी और पारसी सभी धर्मों का आदर करता था। बौद्ध लोग कनिष्क को दूसरा अशोक कहकर पुकारते थे। बौद्ध-धर्म की चौथी महासभा हुई थी। कनिष्क ने इस सभा के लिए काश्मीर की राजधानी में एक बड़ा विहार बनवाया था। इस सभा में 500 विद्वान एकत्रित हुए थे। वसुमित्र सभापति और अश्वघोष उपसभापति चुने गए थे। इन विद्वानों ने समस्त बौद्ध ग्रन्थों का सार संस्कृत भाषा के एक लक्ष श्लोकों में ‘सूत्र पिटक’ ‘विनय पिटक’ और ‘अभिधर्म पिटक’ नामक तीन महाभाष्यों में रचा। वे सब ताम्रपत्र पर नकल करके एक ऐसे स्तूप में रखे गए जो कनिष्क ने इसीलिए बनवाया था। सम्भव है अब भी वे काश्मीर राज्य में पृथ्वी के अन्दर से किसी खुदाई के समय निकल आयें।


कनिष्क सिकन्दर की भांति महत्वाकांक्षी था। जाट राजाओं में उस समय के लोगों में यह पहला व्यक्ति था, जिसने साम्राज्यवाद की ओर कदम बढ़ाया था। चीन की प्रगतियों ने इसके वंश के हृदय में एकतंत्र के भाव भर दिये थे। कनिष्क चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका राज्य हो। अन्य जातियों और देशों पर भी अधिकार जमाने की प्रवृत्ति ने उसके अन्दर से ज्ञाति राज्य की भावनाओं को नष्ट कर दिया था और यह स्वाभाविक बात है कि एक ज्ञाति (जाति) दूसरी ज्ञाति (जाति) पर राज्य करने की इच्छुक हो जाती है तो उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए गणवादी की बजाय साम्राज्यवादी हो जाना आवश्यक होता है। कनिष्क ने अपना साम्राज्य बढाने के लिए बहुत सी लड़ाइयां लड़ीं। उसके सरदार युद्ध में उसके साथ बाहर रहते-रहते ऊब गए थे। अनुमान किया जाता है कि इसी कारण उसके सेनापतियों ने षड़यन्त्र करके उसे मार डाला। कनिष्क योद्धा था, साहसी था, इसके सिवाय वह धर्मात्मा भी था।

वासिष्क: कनिष्क के मरने के बाद शासन-सूत्र वासिष्क के हाथ आया। यह पिता की अनुपस्थिति में भी राज्य कार्य संभालता रहता था। मथुरा के पास ईसापुर में इसका एक लेख मिला था जो कि आजकल मथुरा के अजायबघर में है। यह पत्थर के एक यज्ञ-स्तम्भ पर है। उस पर विशुद्ध संस्कृत में लेख खुदा हुआ है। जिस पर इसे “महाराज राजतिराज देव पुत्रशाहि वासिष्क” लिखा हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि इसका राज्यकाल कनिष्क के राज्यकाल के अर्न्तगत था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-206


हुविष्क:

महाराज हुविष्क का सिक्का

वासिष्क के पश्चात्, कनिष्क का राज्य उससे छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसने काश्मीर में अपने नाम से हुष्कपुर नामक नगर बसाया जो कि आज कल उस्कपुर कहलाता है। जब ह्नानचांग काश्मीर गया था, तब इसी हुष्कपुर के बिहार में ठहरा था। मथुरा में एक और भी बिहार था। उसके सिक्के कनिष्क के सिक्कों से भी अधिक संख्या में और विविध प्रकार के पाए जाते हैं। उन सिक्कों में यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इसने 120 ई. से 140 ई. सन् तक राज्य किया । कुछ लोग कहते हैं कि इसका शासन-काल 162 ई. से 182 ई. तक था। काबुल, काश्मीर और मथुरा के प्रदेश इसके राज्य में शामिल थे। इसके सोने चांदी के सिक्के मिलते हैं। जिन पर ‘हूएरकस’ लिखा रहता है।

वासुदेव

कुषाण कालीन स्वर्णमुद्रा

हुविष्क की मृत्यु के बाद वासुदेव राजगद्दी पर बैठा। इसके जो लेख मिले हैं, उनमें इसकी उपाधि “महाराज राजाधिराज देवपुत्र वासुदेव” मिलती है। इसके सिक्के सोने, चांदी और तांबे के मिले हैं। जिन पर एक तरफ इनकी मूर्ति और दूसरी तरफ शिवजी की आकृति बनी रहती है और ’बैजौडेओ’ इसका नाम लिखा रहता है। इसके समय से कुषाणों का राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि कुषाण साम्राज्य का अन्त किस तरह हुआ। इसका राज्य काल 140 ई. से 180 ई. तक बताया जाता है। लेकिन कुछ लोग 182 ईसवी से 220 ईसवी तक भी मानते हैं। इस बात का पता नहीं चलता कि वासुदेव की मृत्यु के बाद कोई सम्राट या बड़ा राजा इनमें हुआ हो। मालूम ऐसा होता है कि कुषाण साम्राज्य का अधःपतन होते ही इनका साम्राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और कुछ काल तक कुषाण राजा काबुल और उसके आस-पास के ही शासक रह गये। क्योंकि वासुदेव के पीछे उसके उत्तराधिकारियों के भी सिक्के मिलते हैं। वे सिक्के धीरे-धीरे ईरानी ढंग के हो गये हैं।

श्रीयुत आर. डी. बेनरर्जी वासुदेव के पश्चात्, कनिष्क द्वितीय, वासुदेव द्वितीय और वासुदेव का क्रमशः राजा होना अनुमान करते हैं। इस राज्यवंश के पश्चात् तृतीय शताब्दी में जो राज्यवंश हुए वे बहुत ही छोटे-छोटे थे। कुषाणों के सिक्कों से यह पता चलता है कि ईसा की पांचवी शताब्दी तक इनका राज्य काबुल और उसके आस-पास के प्रदेश पर रहा, जिसको अन्त में हूणों ने इनसे छीन लिया। फिर भी कुछ छोटे-छोटे स्थान बच रहे थे, उनको ईसा की सातवीं सदी में ईरान-विजयी अरबों ने समाप्त कर दिया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-207


शालेन्द्र

भारत एवं पंजाब से कुषाणों का राज्य अस्त हो जाने के बाद भी अनेक स्थानों में जाटों के छोटे-छोटे राज्य उपस्थित थे। दो शताब्दी तक उनके किसी प्रबल राजा का अभी तक नाम नहीं मालूम हो सका है, लेकिन पांचवी शताब्दी में जाटों में एक ऐसा महापुरुष पैदा होता है जो कि उनके नाम को फिर चमका देता है। उसका राज्य पंजाब से लेकर मालवा और राजपूताने तक फैला हुआ था, क्योंकि कर्नल टाड को उनके सम्बन्ध की लिपि कोटा राज्य में प्राप्त हुई थी। तब अवश्य ही उनके राज्य की सीमा कोटा तक रही होगी, अथवा कोटा उनकी सीमा के अन्तर्गत रहा होगा। टाड साहब को यह लिपि कोटा राज्य में कनवास नामक गांव में सन् 1820 ई. में मिली थी। इस प्राप्त शिलालेख को हम यहां ‘टाड राजस्थान’ से ज्यों का त्यों उदधृत करते हैं -

जटा आपकी रक्षक हों। जो जटा जीवन समुद्र पार की नौका स्वरूप हैं, जो कुछ एक श्वेत वर्ण और कुछ एक लाल वर्ण युक्त हैं, उन जटाओं का विभव न देखा जाता है। जिन जटाओं में कुछ भीषण शब्दकारी सर्प विराजमान है, वह जटा कैसी प्रकाशमान हैं, जिन जटाओं के मूल से प्रबल तरंगे निकल रही हैं, उन जटाओं के साथ क्या किसी की तुलना की जा सकती है। उन जटाओं द्वारा आप रक्षित हों।
जिनके वीरत्व-बाहुबल से शालपुर देश रक्षित होता था, मैं अब उन राजा जिट का वर्णन करूंगा। प्रबल अग्नि-शिखा जिस प्रकार अपने शत्रु को भस्मीभूत करके फेंक देती है, राजा जिट का प्रताप भी उसी प्रकार प्रबल था।
महाबली जिट शालेन्द्र (2) परम रूपवान् पुरुष थे, और वह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों के आग्रणी हुए थे। चन्द्र जिस प्रकार पृथ्वी को प्रकाशमान करते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने शासित देश, शालपुरी को देदीप्यमान करते थे। सम्पूर्ण संसार जिट राजा की जय घोषणा कर रहा है। वह मनुष्य लोक में चन्द्रमा स्वरूप्प दुर्द्धर्ष, साहसी, महामहा बलिष्ठ लोंगों में पंक के बीच कमल के समान बैठ कर स्वजातीय गौरव गरिमा प्रकाश करते थे। उनकी अमित बलशाली दोनों भुजाओं के मनोहर मणि-माणिक्य के आभूषणों का प्रकाश उनकी मूर्ति को उज्जवल कर देता था। असंख्य सेना के अधिनायक थे और उनका धनरत्न असीम था। वह उदार चित्त और समुद्र के समान गम्भी थे। जो राजवंश महाबली वंशों में विद्यमान है, जिस वंश के राजा लोग विश्वासघातकों के परम शत्रु थे, जिनके चरणों पर पृथ्वी ने अपना सम्पूर्ण धन-धान्य अर्पण किया था और जिस वंश के नरपतियों ने शत्रुओं के सब देश अपने अधिकार में कर लिए थे, यह वही शूरवंश घर हैं। (3) होम यज्ञादि के द्वारा यह नरेश्वर पवित्र हुए थे। इनका राज्य परम रमणीय तक्ष का दुर्ग भी अजेय है। इसके धनुष की टंकार से सब ही महा भयभीत

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होते थे। यह क्रुद्ध होने पर महासमराग्नि प्रज्वलित कर देते थे, किन्तु मोती जिस प्रकार गले की शोभा बढ़ाता है, अनुगत लोगों के प्रति, इनका आचरण भी वैसा ही था। लाल तरंगों से समर क्षेत्र रंगने पर भी यह संग्राम से नहीं हटते थे। प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रखर किरणों से पद्मिनी जिस प्रकार मस्तक नवाती है, उसी प्रकार इनके शत्रु दल इनके चरणों पर नवते थे और भीरू-कायर लोग युद्ध छोड़कर भागते थे।

इन राजा शालेन्द्र से दोगला की उत्पत्ति हुई। आज इतने समय के पीछे भी उनका यश फैला हुआ है। उनसे शाम्बुक ने जन्म लिया, शाम्बुक के औरस से दोगाली ने जन्म लिया। उन्होंने यदुवंश की दो कन्याओं से विवाह किया था। (4) उनमें से एक के गर्भ से प्रफुल्लित कमल के समान वीर नरेन्द्र नामक पुत्र ने जन्म लिया था। आमों के कुंज अर्थात् जिन आमों के वृक्षों की मिली हुई मंजरी में सहस्त्रों मधुमक्षिका विराजमान हैं, जिन वृक्षों के नीचे थके हुए यात्री आकर विश्राम करते हैं, उन आमों के वृक्षों की कुंज में यह मन्दिर स्थापित हुआ। जब तक समुद्र की तरंगें बहेंगी और जब तक चन्द्र सूर्य आ पर्वत माला विराजमान रहेंगी, तब तक मानो इस मन्दिर और मन्दिर-प्रतिष्ठा का यश फैला रहेगा। 597 संवत् में तावेली नदी के तट पर मालवा के शेष सीमान्त में वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र के द्वारा (5) मन्दिर प्रतिष्ठित हुआ।
जो पुरुष इन वचनों को स्मृति पट पर अंकित करेंगे, उनके सब पाप दूर हो जाएंगे।
द्वार शिव के पुत्र खोदक शिवनारायण द्वारा खोदित और बुतेना ने यह कविता निर्माण की है।”


उपर्युक्त शिलालेख के पढ़ने से निम्न बात सहज ही में समझ में आ जाती है-

  • (1) यह शालपुरी के शासक थे, जोकि आज श्यालकोट कहलाता है। यह राज्य उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से प्राप्त किया था। क्योंकि शिलालेख में साफ लिखा हुआ है कि “यह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों में अग्रणी हुए।” इस वाक्य से यह भी सिद्ध होता है कि वह किसी प्रजातन्त्रवादी समूह के सरदार से एक तन्त्री शासक बन गए और उनका प्रताप यहां तक बढ़ा कि “राजा लोगों के सिर उनके चरण अंगूठे की पूजा करते थे।”
  • (2) उनके पास असंख्य सेना थी और साथ ही उनके कोष मणि-माणिक्यों से भरे पड़े थे।

1. टाड परिशिष्ट पृ. 1134 खड्ग विलास प्रेस बांकीपुर का संस्करण।


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  • (4) यह भी मालूम होता है कि ये बुद्ध धर्म को छोड़कर पौराणिक धर्म में दीक्षित होम यज्ञ आदि करने लग गये थे।
  • (6) इन महाराज ने किसी ऐसी जाति की स्त्री से शादी की थी जो कि इनकी जाति से इतर थी। क्योंकि इनके एक दोगला की उत्पत्ति होने का वर्णन भी शिला-लेख में है।
  • (7) इनके प्रपौत्र ने यादववंश की कन्याओं के साथ विवाह किया था। इससे ऐसा मालूम होता है कि यह तक्षक दल के सूर्यवंशी जाट थे। अथवा पंजाब में यादवों का कोई ऐसा समूह रहा होगा कि अहीरों में यादव हैं। इस तरह से जाट और अहीरों के विवाह की प्रणाली का शिलालेखक ने उल्लेख किया है।
  • (9) सम्बत् 597 में ताबेली नदी के किनारे पर, जिन वीरचन्द्र के पुत्र शालीचन्द्र ने इनकी स्मृति के लिए मन्दिर बनवाया था तथा शिलालेख खुदवाया था, वे अवश्य ही शलेन्द्र जित के निकट सम्बन्धी रहे होंगे, और बहुत सम्भव है कि वीर नरेन्द्र का पुत्र शालीचन्द्र हुआ हो और संबत् 597 में शालीवाहनपुर को छोड़कर मालवा में आ गये हों। उनके शालीवाहनपुर को छोड़ने का कारण हूणों का आक्रमण हो सकता है। डॉक्टर हार्नले और कीलहार्न ने लिखा है कि ईसवी सन् 547 में कहरूर में यशोधर्मा ने मिहिर-कुल हूण को हराया था। मिहिर कुल तूरमान हूण का पुत्र था। तूरमाण के साथी हूणों के द्वारा इनसे शालीवाहन पुर छीन लिया गया हो, यह बहुत सम्भव है। अगर ऊपर के 597 को ईसवी सन बनाया जाए तो 597 - 57 = 540 ई. होता है। तूरमाण के पंजाब पर हमलों का लगभग यही समय रहा होगा।


लेकिन सी. बी. वैद्य ने अलबरुनी के लेखों का प्रमाण देकर साबित किया है कि कहरूर का युद्ध 544 ईसवी से बहुत पहले हुआ था। यदि यह कथन ठीक है तो वह बुद्ध शालिचन्द्र के पिता वीरचन्द्र अथवा प्रपिता वीरनरेन्द्र के समय में हुआ होगा। यह तो बिल्कुल ही ठीक बात है कि हूणों ने महाराज शालिचन्द्र के वंशजों को शालिवाहनपुर अथवा श्यालकोट से निकाल दिया था, क्योंकि हम हूणों के इतिहास में श्यालकोट हूणों की राजधानी पाते हैं।

जिस समय पहला हमला शालेन्द्र के राज्य पर हूणों का हुआ होगा, उस समय अवश्य ही उनके वंशजों ने महाराज यशोधर्मा की, जो कि उनके सजातीय और मालवा के प्रसिद्ध राजा थे, मदद ली थी और पहली बार में इस सम्मिलित जाट-


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शक्ति ने हूणों को हराकर पंजाब से निकाल दिया था। जैसा कि चन्द्र के “अजयत् जर्तों हुणान्” अर्थात् जाटों ने हूणों को जीता, वाक्य से सिद्ध होता है।

इस शिलालेख से हम जिस ऐतिहासिक परिणाम पर पहुंचते हैं, वह यह है - पांचवी शताब्दी के आरम्भ में पंजाब में जाट नरेश महाराजा शालेन्द्र राज्य करते थे। जिस प्रकार सिंह स्वयं अभिषिक्त होता है, उसी भांति महाराज ने अपने बाहुबल के प्रताप से बड़ा राज्य प्राप्त करके महती प्रभुता प्राप्त की थी। उनके दरबार में दुर्द्धर्ष साहसी और महा बलिष्ठ लोगों का जमघट रहता था जिनमें वह अपने जातीय गौरव की भी प्रशंसा किया करते थे। उनके अधीनस्थ कई छोटे-छोटे और भी राजागण थे। वह समृद्धिशाली राजा थे। कोष उनका परिपूर्ण था, और बहुत बड़ी सेना उनके पास थी। इतना बड़ा वैभव रखते हुए भी गंभीर और उदार चित्त थे। बौद्ध धर्म को छोड़कर नवीन हिन्दू धर्म को उन्होंने ग्रहण कर लिया था। होम, यज्ञ आदि के बड़े प्रेमी थे, और वे उन जाटों में से थे जो अपने को काश्यप-वंशी (सूर्यवंशी) कहते हैं। उन्होंने ऐसे कुल की स्त्री से भी शादी की थी जिससे उत्पन्न होने वाली संतान को स्वजातीय लोगों ने दोगला नाम से पुकारा।

इनके वंशज दोगाली ने यदुवंशी नाम के अहीर या राजपूतों की लड़कियों से विवाह सम्बन्ध किए और यदि वे यदुवंशी जाट ही थे तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने शालेन्द्र की दोगला सन्तान को धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह सम्बन्ध करके जाति से दूर नहीं होने दिया। कुछ भी हो, दोगाली ने यदुवंश की कन्याओं के साथ शादी की थी जिनमें से एक के गर्भ से वीर नरेन्द्र ने जन्म लिया था।

हूणों के आक्रमण के बाद, पंजाब से महाराजा शालेन्द्रजित के वंशज का राज्य नष्ट हो गया और उन्होंने मालवों के पश्चिमी प्रान्त के तावेली नदी के किनारे आकर कोई छोटा सा राज्य स्थापित किया और संबत् 597 या सन् 540 ई. में उन्हीं के वंशज वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र ने आमों के घने बाग में, श्रेष्ठ स्थान पर, मंदिर बनवा करके महाराणा शालेन्द्रजीत की स्मृति स्थापित की। अब उस स्थान पर कनवास नाम का छोटा सा ग्राम है और यह कोटा राज्य में है।

शालीवाहन

जैसलमेर के भट्टी ग्रन्थों में इसे यदुवंशी राजा गज का पुत्र माना गया है और इसका आगमन भारत में दूसरी शताब्दी के पश्चात् बताया है। श्यालकोट जिसे महाभारत का शॉकल मानते हैं, भट्टी-ग्रन्थों में इसी का बसाया हुआ बताया गया है। श्यालकोट इसका बसाया हुआ नहीं, तो इतना अवश्य मान लेना पड़ेगा कि इसने उसका पुनरुद्धार किया होगा। पिछले पृष्ठों में हमने जिन महाराज शालेन्द्रजित का जिक्र किया है, वह भी इसी स्यालकोट में रहते थे। लेकिन शालिवाहन और शालेन्द्रजित में दो शताब्दियों का अन्तर है। शालेन्द्रजित के समय


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से पहले ही शालिवाहन की संतान के लोग स्यालकोट को छोड़ करके लाहौर और हिसार की ओर चले जाते हैं। जैसलमेर के भाटी लोग तथा नाभा, पटियाला, फरीदकोट आदि के जाट राजे इस शालिवाहन को भी अपना पूर्वज बतलाते हैं। कुछ लोग इन राजा शालिवाहन को शक साबित करते हैं, कुछ लोग इसे पैटन का अधीश्वर, अर्थात् सात किरण सात वाहनों में से।1 यह भी कहा जाता है कि इन शक लोगों को कालि-कार्य जैन भारत में लाए थे। जैन प्रभसूरी ने अपने ‘कल्प-प्रदीप’ नामक ग्रन्थ में लिखा है - पैठन के रहने वाले एक विदेशी ब्राह्मण की विधवा बहन से शातबहन (शालिवाहन) उत्पन्न हुआ। उसने उज्जैन के राजा विक्रम को परास्त किया और पैठन का राजा बनकर ताप्ती तक कछ देश अपने अधिकार में किया।

जैसलमेर के भाटियों की बात सही है अथवा स्मिथ और जैन प्रभसूरि (जो 1300 ई. के करीब हुआ था) में से किसकी बात सही है, इस बात पर तो हमें बहस नहीं बढ़ानी, किन्तु इतना जरूर कह देना है कि भाट लोगों के वर्णन और वंशावली निष्पक्ष, युक्ति-संगत तथा पूर्ण प्रामाणिक नहीं हैं।

भाटी जिसके गोत्र के लोग राजपूत और जाट दोनों में पाये जाते हैं, शालिवाहन के वंश का बताया जाता है। भाटी के जन्म की कथा भी बड़े विचित्र ढंग से वर्णन की जाती है। देवी के नाम पर भट्टी में सर चढ़ा देने के कारण इसका नाम भट्टी हुआ ऐसी दन्तकथा है। जाटों में जो भाटी लोग है, उनके सम्बन्ध में भी इन भाट ग्रन्थों में ऐसी ही ऊंट-पटांग बाते लिखी पड़ी हैं। पटियाला, नाभा, जींद, फरीदकोट आदि के भट्टी जाटों के सम्बन्ध में भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि रावखेवा नाम के एक राजपूत ने जाटनी से शादी कर ली इसलिए रावखेवा की संतान के लोग जाट कहलाने लगे। खेद तो इस बात का है कि पटियाला के बुद्धिमान राजा ने भी भाट-ग्रन्थों की इस बात को सही मान लिया कि वे दोगला हैं और इसीलिए फिर से उन्होंने उस दोगला होने वाल बात की पुनरावृत्ति की। हमने भाट लोगों से करीब 500 जाट-गोत्रों का वर्णन पूछा, सब में यह बात पाई कि अमुक राजपूत ने अमुक जाटनी से शादी कर ली, इसलिए अमुक गोत्र बन गया। ये बातें बिल्कुल निराधार और बेहूदी हैं। इन बातों पर पूरा प्रकाश हम आगे डालेंगे।


भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि भट्टीराव के नाम से सारे यादव भट्टी कहलाने लग गए लेकिन हम देखते हैं कि भट्टीराव कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरुष नहीं। भाटों के कथनानुसार भी हमें उसका कोई ऐसा बड़ा काम दिखलाई नहीं देता, जिसके कारण यादवों को भट्टी कहलाने में गौरव जान पड़ा हो। वास्तव में बात यह है कि गजनी से लौटने वाले यादवों का समूह पंजाब की सरसब्ज जमीन से प्रताड़ित होकर, जंगल प्रदेश की निकटवर्ती भटिड (गैर उपजाऊ, जलहीन) भूमि में बस गए,


1. ‘सरस्वती’ भाग 3 संख्या 33


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जिससे वह उस देश के नाम से भाटी कहलाने लगे। जहां तक भी हमें जान पड़ा है कि भाटी नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ और कुछ हुआ भी तो वह इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ कि जिसके नाम पर पूरी कौम का नाम बदल जाता। भाटों की वंशावली में जो नाम दिए हैं, उनमें से अधिकांश असभ्य लोगों के जैसे गढ़े हुए जान पड़ते हैं। जैसे लद्धरचन्द, सधरचन्द, गूमनचन्द, अतरचन्द, दोषपाल, गेंदपाल, बुदरमल, गोधल प्रकाश साथपतप्रोकाश, साहवप्रकाश, साहरोब, आयतबल, लोधरपाल, मथुरापाल, जोगेर, ख्यूपाल आदि आदि इनमें अतरचंद और साहबचंद आधी हिन्दी और आधी उर्दू वाले नाम क्या आज से 1800 वर्ष पहले जब कि उर्दू का जन्म भी नहीं हुआ था प्रचलित थे, ऐसा कोई भी बुद्धिमान मानने को तैयार नहीं होता। ये सारे नाम हमने शालिवाहन के पहले के उद्धृत किए हैं। उस समय भारतवर्ष व अफगानिस्तान में बौद्ध-धर्म फैला हुआ था। इन नामों में बौद्ध-धर्म की सभ्यता का प्रकाश है और संस्कृत साहित्य का पुट। जैसा कि लद्धर-चन्द और सद्धर-चन्द से प्रकट होता है। श्रीकृष्ण से लेकर के भाटी तक एक सौ उनसठ पीढ़ियां भाटीग्रन्थों में वर्णित हैं। यह कभी नहीं माना जा सकता कि यह बिल्कुल सही है। भरतपुर के महाराज कृष्णसिंह को भगवान कृष्ण एक सौ दो की पीढ़ी पर उनकी वंशावली वाले बतलाते हैं, और पंजाब का मौजूदा राजा ओकगंवर दो सौ से ऊपर की पीढ़ी पर पहुंचता है। यह इतना बड़ा अन्तर ही सिद्ध कर देता है कि अनेक नाम कल्पित हैं।

हमारा यह मत निश्चय ही सही है कि गैर-उपजाऊ प्रदेश में बसने के कारण, गजनी से आया हुआ यादव-दल, भट्टी नाम को प्राप्त हुआ। गजनी में रहते हुए उधर कई विजातीय राजाओं से रक्त सम्बन्ध कर लेने पर जब यादवों की कोई जाति नहीं बदलती, तब भारत में किस कारण से रावखेवा को जाटनी के साथ शादी कर लेने के कारण जाट करार दे दिया जाता है। वास्तव में रावखेवा के साथी आरम्भ से ही जाट थे। किन्तु यों कहना चाहिए कि राजा शालिवाहन स्वयं जाट थे। उनके वंशजों में से जिन लोगों ने बौद्ध-धर्म को छोड़कर नवीन प्रचलित पौराणिक धर्म को स्वीकार कर लिया अर्थात् बाप-दादे के समय से चली आई हुई रिवाज, विधवा विवाह, जातीय-समानता की रिवाज को छोड़ दिया और बलिदान-प्रथा तथा बहुदेव पूजा को स्वीकार कर लिया, कहीं राजपूत श्रेणी में गिने जाने लगे और जो अपनी पुरानी रस्मों पर डटे रहे, वे जाट भट्टी हुए। बस यही जाट भट्टी और राजपूत-भट्टी का अलग-अलग होने का कारण है।

खेद तो इस बात का है कि पटियाला तथा फरीदकोट के मुस्लिम इतिहास लेखकों ने तथा किसी-किसी अंग्रेज लेखक ने भी जैसलमेर के भाटों के ग्रन्थों में लिखी हुई बेबुनियाद बातों को अपने इतिहास में स्थान देने की भूल की है।


ऊपर का दिया हुआ निर्णय, समझदार लेखकों और पाठकों के वास्ते सत्य की खोज करने के लिए, बहुत कुछ काम दे सकेगा और जो इतिहास अन्धविश्वास की भित्ति पर अब तक भाटियों का तैयार किया हुआ है, वह भी अवैज्ञानिक और मानने योग्य सामग्री के आधार पर नहीं है, इसी उद्देश्य से हमने विषयान्तर करके भी इतना प्रकाश डाला है।

जयपाल, आनन्दपाल

ग्यारहवीं सदी में लाहौर, भटिंडा पर महाराज जयपाल राज्य करते थे। इनको कुछ लेखकों ने ब्राह्मण बतलाया है और कुछ ने कायस्थ। कुछेक लोग उन्हें राजपूत भी समझने लगे हैं। न वह ब्राह्मण और कायस्थ थे और न वह राजपूत, वह जाट थेकाबुल की तरफ उन्हें हमलों की इच्छा होना तथा काबुल पर जाकर चढ़ाई करना ये बातें ऐसी हैं जो उनके ब्राह्मण होने के सिद्धान्त को काट देती हैं। क्योंकि पौराणिक धर्म के अनुसार विदेशयात्रा और खास तौर से मुसलमानों के देश में जाना पाप है। कायस्थों की हुकूमत पंजाब में कभी हुई हो इसके तनिक भी प्रमाण नहीं मिलते। राजपूतों का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर है। एक चौहान खानदान को छोड़ करके पंजाब की तरफ दसवीं सदी से पहले उनका कोई भी खानदान जिसका कि राज्य इतने बड़े प्रदेश पर हो सके, पंजाब में दिखाई नहीं देता। राजपूतों ने जो 36 राजवंशों की वंशावली ग्यारहवीं सदी में तैयार करवाई थी, उसमें उल्लिखित 36सों राजवंशों में से किसी का भी सम्बन्ध जयपाल से नहीं बताया गया है।

लाहौर के आस-पास के कुछ जाट समूह ऐसे हैं जो अपने को गंधार, काबुल, गजनी और हिरात से आया हुआ बतलाते हैं। सर हेनरी एम. इलियट के. सी. बी. ने भी अपनी ‘डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक में इसी बात का जिक्र किया है। आरम्भिक मुसलिम आक्रमणों के समय काबुल और गंधार से आये हुए इन जाटों की प्रवृत्ति फिर से उन प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लेने की बहुत समय तक बनी रही। उसी प्रवृत्ति का यह फल था कि महाराज जयपाल ने काबुल और गजनी पर चढ़ाई की।

दिल्ली के शासक अनंगपाल और राजपाल थे जिनसे कि पृथ्वीराज चौहान के हाथ दिल्ली का राज्य आया था। जयपाल के पोते का नाम भी राजपाल था। कुछ इतिहास लेखक तो यहां तक गड़बड़ कर गए हैं कि इन्हीं लोगों को लाहौर भटिंडा के आनन्दपाल और राजपाल मानकर काबुल विजेता लिख दिया है। यही कारण है कि भटिंडे के इन जाट नरेशों को कुछ लोग भ्रम से राजपूत समझने की भूल कर गए हैं, हालांकि उन्हें इस सम्बन्ध में पूरा सन्देह रहा है।


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राजपाल के लिए भिन्न-भिन्न रायें होने के कारण सचाई की तह तक पहुचने के बाद भी मि. स्मिथ को उन्हें जाट लिखने में शायद जाट शब्द का प्रयोग करना पड़ा, जैसा कि उन्होंने लिखा है-

In the later part of tenth century the Raja of Bathindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.

अर्थात् - दसवीं शताब्दी के पिछले भागों में भटिंडा का राजा जयपाल था जो कि शायद एक जट या जाट था।

लेकिन मि. स्मिथ इस राज्य के सम्बन्ध में हमारे उस कथन का समर्थन भी करते हैं कि - उन उच्च राजवंशों में से, जिनका उल्लेख राजपूतों के भाटों ने उनकी वंशावलियों में किया है, वे दसवीं सदी तक पंजाब में कभी इतने बलवान नहीं हुए। जैसा कि हमने कहा है कि उन दिनों चौहानों का ही एक खानदान था, जो उत्तरी-भारत में कुछ महत्व रखता था। चौहानों के साथी परिहार, पंवार, सोलंकी भी राजपूताना, गुजरात और मध्य मालवा में कुछ अस्तित्व रखते थे। किन्तु पंजाब की ओर इनकी न कोई विशेषता पाई जाती है और न इनके इतिहास में ऐसा वर्णन आता है कि इनके किसी वंशज ने पंजाब में जा करके कोई राज्य स्थापित किया हो। इसी बात को भटिंडे के राजा के सम्बन्ध में मि. स्मिथ ने इस तरह लिखा है-

Raja Jaipal of Bathindah. The rule of the Parihars had never extended across the Satlej, and the history of the Punjab between the seventh and tenth centuries is extremely obscure. At some time not recorded a powerful kingdom had been formed which extended from the mountains beyond the Indus eastward as far as the Hakra or lost river, so that it comprised a large part of the Punjab as well as probably northern Sind. The capital was (Bhatanda) Bathendah, the Tabarhind of Muhammadan histories, now in the Patiala state, and for many centuries as important fortress and the military road connecting Multan with India proper through Delhi. At that time Delhi, if in existence, was a place of little consideration. In the later part of tenth century the Raja of Bhatindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.”
अर्थात् - परिहारों का राज्य सतलुज से उस पार कभी नहीं बढ़ा। पंजाब का सातवीं और दसवीं सदियों के दरम्यान का इतिहास बिल्कुल अन्धकारमय है। किसी समय (जो लिखा नहीं गया है) एक शक्तिशाली राज्य बन गया था, जो कि

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पहाड़ों से इण्डस नदी के उस पार हकारा या खोई हुई नदी के पूर्व की ओर तक फैला हुआ था, जिसमें पंजाब का बड़ा भाग और शायद सिन्ध शामिल थे, जिसकी राजधानी बथिण्डा (भटिंडा) थी मुसलमान इतिहासों का तवरहिन्द है और अब पटियाला रियासत में है। यह बहुत शताब्दियों तक एक नामी किला था, जो फौजी सड़क पर मुल्तान और हिन्दुस्तान खास को देहली से जोड़ता था। उस समय यदि दिल्ली थी तो मामूली जगह थी। दसवीं शताब्दी के पिछले भाग में बथिण्डा (भटिंडा) का राजा जयपाल था जो शायद एक जट या जाट था।


कई शताब्दियों के पीछे लिखे जाने वाले इतिहासों में भ्रम और गलतियां हो जाना स्वभाविक है और उस समय इतिहास लिखने वाले की सूझ और दृष्टि अपने समय के उन्नत जातियों ही ओर से अधिक रहती है। जनरल कनिंघम ने ऐसी ही एक गलती का निर्देश अपने सिख इतिहास में की पाद-टिप्पणी में किया है। कर्नल टाड ने उमर-कोट के राजपरिवार को प्रमार या शक्ति-वंश-संभूत लिखा था, अर्थात् राजपूत स्त्री के लिए जनरल कनिंघम ने कहा है कि - इस राज परिवार को हुमायूं की जीवनी लिखने वाले ने प्रमार के राजा और उनके अनुचरों का जाट नाम से परिचय दिया है।1

हुमायूं की जीवनी लिखने वाले को, जो कर्नल टाड से कई शताब्दी पहले हुआ है, अमरकोट के राजा की जाति के सम्बन्ध में जितना अधिक सही पता हो सकता है, उतना टाड साहब को नहीं हो सकता। लेकिन जिस समय कर्नल टाड इतिहास लिख रहे थे, उस समय उनकी निगाह राजपूतों पर ही जाकर ठहर सकती थी क्योंकि उस समय जाटों की अपेक्षा, राजपूत अधिक उन्नत थे और भारतीय जाट उन्हें किसान दृष्टिगोचर होते थे। यही बात जयपाल के सम्बन्ध में कही जा सकती है। जैसलमेर के इतिहास में एक बात और देखते हैं कि जैसल जो कि भाटी राजपूत था, जयपाल के विरुद्ध महमूद-मजनबी के साथ मेल कर लेता है और भटिंडा के आसपास के जाट जयपाल के लड़के आनन्दपाल के साथ हजारों की तादाद में सिर्फ उनकी मान-रक्षा के लिए इकट्ठे हो जाते हैं और स्त्रियां अपने जेवर उतार करके युद्ध के खरचे के लिए दे डालती हैं। फिर कैसे माना जा सकता है कि वह जाट के सिवा कुछ और था? यही क्यों, मुल्तान के आसपास और झेलम के तटवर्ती जाट भी जब यह सुनते हैं कि महमूद आनन्दपाल का सर्वनाश करके लौट रहा है, तब वह उसके ऊपर बाज की तरह टूट पड़ते हैं। वे उसके प्राण ले लेना चाहते थे। यदि वह मैदान में अकड़ के साथ डट जाता तो यह निश्चय था कि वह यहां से जिन्दा बच करके नहीं जाता।

अब हम जयपाल तथा उसके वंशजों के इतिहास पर थोड़ा-सा प्रकाश डालते हैं। जिस समय सुबुक्तगीन गुलाम की सूरत से निकल करके गजनी का शासक


1. Memoirs of Humayoon. Page 45


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हुआ था और वह उत्तरोत्तर अपने राज्य को बढ़ा रहा था, उस समय महाराज जयपाल ने उसके देश पर चढ़ाई की। उनका राज्य सिंन्ध के प्रदेश तक फैल चुका था और वह अपने बुजुर्गों के राज्य गजनी और काबुल, कन्धार पर भी अधिकार जमाने के इच्छुक थे। इसीलिए उन्होंने सुबुक्तगीन के ऊपर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में सुबुक्तगीन को बड़ी हानि उठानी पड़ी और उसने महाराज को कुछ दे लेकर के विदा कर दिया। कुछ ही वर्षो के बाद उन्हें सुबुक्तगीन पर फिर चढ़ाई करनी पड़ी। इस बार सुबुक्तगीन सुलह के बहाने से लड़ाई को टालता रहा। इतने में शीतकाल आ गया और भारी बर्फ पड़ने के कारण उनकी फौज को बड़ी हानि उठानी पड़ी। हजारों मनुष्य ठिठुर कर मर गए। यह दुर्भाग्य की बात थी कि उस समय अत्यधिक पाला पड़ा। अब स्वयं महाराज को सुबुक्तगीन और उसके लड़के महमूद से सुलह का प्रस्ताव करना पड़ा और हरजाने में कुछ देने का वायदा भी करना पड़ा।

भारत में आने के बाद, ब्राह्मण मंत्रियों की राय से, महाराज जयपाल ने अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं किया। जब महमूद गजनी का मालिक हुआ तो उसने अपने पिता का बदला लेने के लिए तथा जयपाल की प्रतिज्ञा-भंग का स्मरण करके दस हजार सवार लेकर 391 हिजरी में, जयपाल के ऊपर चढ़ाई कर दी। चूंकि इधर कोई ऐसी भारी तैयारी न थी, इसलिए जयपाल की हार हो जाना स्वाभाविक था। महमूद लूट-मार करके भारत से लौट गया। दूसरी बार लूट के लालच से और जयपाल के राज्य को अपने राज्य में मिलाने के लिए फिर से भारत पर चढ़ाई की। इस बार महाराज जयपाल ने खूब डटकर सामना किया। महमूद भाग जाने ही वाला था कि एक राजकुमार महमूद से जाकर के मिल गया और यही नहीं, किन्तु मुसलमान भी हो गया। उसके मुसलमान होने का वर्णन इस प्रकार है - एक अत्यन्त सुन्दरी मुस्लिम बाला, जिसे पहली बार देखकर वह उस पर मोहित हो चुका था, के लोभ से वह मुसलमान हो गया और उसने जयपाल की हार के तमाम तरीके महमूद को बता दिए। सम्भव है यह राजकुमार अभिषार का युवराज सुखपाल रहा होगा। ‘गजनवी जहाद’ में मौलाना हसन निजामी लिखता है कि - कुछ समय के बाद यह फिर मुसलमान से हिन्दू हो गया। हिन्दू होने के बाद उसने महमूद के सूबेदारों को हिन्दुस्तान से मार भगाया। जयपाल की हार का कारण वह मुसलमान होने वाला राजकुमार ही था। चाहे वह सुखपाल रहा हो अथवा कोई और। महमूद इस लड़ाई को जीत अवश्य गया, किन्तु उसे तुरन्त ही हिन्दुस्तान से लौट जाना पड़ा। इस लड़ाई की हार से महाराज जयपाल को इतना बड़ा धक्का लगा कि उनका कुछ ही दिनों में प्राणन्त हो गया।

जयपाल के पश्चात्, उनके बड़े पुत्र आनन्दपाल राज्यधिकारी हुए। 396 हिजरी में आनन्दपाल को भी महमूद से युद्ध करना पड़ा। भाटना नामक स्थान में


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विजयराव नाम का एक बड़ा वीर राजा राज्य करता था, जो कि जयपाल के सम्बन्धियों में से था। उसने सरहद पर जो मुसलमान हाकिम रहते थे, उनको मार भगाया था। महमूद इसी बात का बदला लेने के लिए उस पर चढ़के आया। उसकी बहादुरी और युद्ध के सम्बन्ध में ‘गजनवी जहाद’ में हसन निजामी को विवश होकर लिखना पड़ा है कि - “राजा अपनी फौज और हाथियों की अधिकता के कारण बहुत अभिमान करता था। वह फौज लेकर मुकाबले के लिए निकला। दोनों फौजों में तीन दिन तक अग्नि वर्षा होती रही। विजयराव की फौज ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छूट गए।” इस लड़ाई में सुल्तान महमूद को अपनी भुजाओं के बल का विश्वास छोड़कर दरगाह में खुदा और रसूल के आगे घुटने टेकने पड़े। बेचारे की डीढ़ा पर मिन्नत के समय टप-टप आंसू गिरते थे। गजनी उसे बहुत दूर दिखलाई देता था।

विजयराव युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ। आनन्दपाल ने विजयराव के युद्ध में मारे जाने वाली घटना को सुना तो उसने यह निश्चय कर लिया कि अब की बार महमूद भारत पर चढ़कर के आए, तो उससे अवश्य बदला लूंगा। यही कारण था कि जब 396 हिजरी में महमूद मुल्तान के हाकिम अबुल फतह पर चढ़कर आया तो आनन्दपाल ने अबुलफतह को मदद दी किन्तु अबुलफतह महमूद के साथ मिल गया। फिर भी आनन्दपाल ने महाराज का सामना किया। महमूद भी चाहता था कि अब की बार आनन्दपाल के कुल राज्य पर अधिकार कर लूं, किन्तु हिरात में बगावत हो जाने के कारण उसे लौट जाना पड़ा।

399 हिजरी में महमूद ने आनन्दपाल के राज्य को नष्ट करने के लिए भारत पर फिर से चढ़ाई की। मुसलमानी लेखकों ने इस लड़ाई को बड़ा तूल दिया है और एक ही बार में महमूद को सिकन्दर से भी बढ़कर विजेता ठहरा दिया है। मुसलमान लेखक लिखते हैं कि - इस समय आनन्दपाल की सहायता के लिए उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, देहली और अजमेर के तमाम राजा अपनी-अपनी फौजें लेकर आए थे। विश्व विजयी सिकन्दर की सेना की अकेले पॉरुष से लड़ने के बाद इतनी हिम्मत न रही थी कि वह कोई और दूसरी लड़ाई लड़ सके, और महमूद जिसे कि विजयराव के कारण ही दरगाह की शरण लेनी पड़ी थी, इतने राजाओं पर एक साथ विजयी हो गया। जरा बुद्धि रखने वाला लेखक इस बात को सही नहीं मान सकता है। अजमेर में उस समय चौहानों का राज्य था। यदि वह अकेले भी आनन्दपाल के साथ होते तो यह कभी नहीं हो सकता कि आनन्दपाल हार जाता। आनन्दपाल के साथ जो कुछ भी फौज थी, वह उसके नव सिखुए प्रजाजनों की थी। खेद है कि कुछ हिन्दुस्तानी लेखकों ने भी मुसलमान लेखकों की इस डींग को सही मान लिया है। यह लड़ाई 40 रोज तक होती रही।


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अन्तिम दिन जयपाल के वीर सैनिक मुसलमानी फौज में घुस पड़े और 3-4 हजार मुसलमानों को आंख झपकते तलवारों और बर्छों की नौक पर रख लिया। महमूद के प्राण संकट में थे, उसे अल्लाह और रसूल एक साथ याद आ रहे थे। वह चाहता था कि आज लड़ाई मुल्तवी हो जाए कि अचानक आनन्दपाल का हाथी आतिशबाजी से डरकर भाग खड़ा हुआ। महमूद की यह ऐसी विजय थी जो उसे दैवयोग से मिल गई। 400 हिजरी के करीब जब आनन्दपाल मर गया तो उसके बेटे राजपाल का पुत्र जयपाल भटिंडा का मालिक हुआ। राजपाल आनन्दपाल के आगे ही मर चुका था। महमूद ने 404 हिजरी में, जबकि जयपाल भटिंडा में मौजूद था, उसकी राजधानी को लूट लिया। जब जयपाल को इसकी खबर लगी तो उसने महमूद को किला नूहकोट में जा घेरा, किन्तु महमूद ने उसकी फौज पहुंचने से पहले ही गजनी को कूच कर दिया था। इससे अगला आक्रमण महमूद का ग्वालियर का हमला हुआ, तो जयपाल ने ग्वालियर वालों की मदद की। इसे हम द्वितीय जयपाल कह सकते हैं। यह जब तक जिन्दा रहा मुसलमानों का सामना करता रहा।

राजा सरकटसिंह

पंजाबी दन्तकथाओं के आधार पर ‘सेरे पंजाब’ के लेखक ने इस राजा का थोड़ा-सा वर्णन किया है। शेखूपुरा इलाके में एक मौजा ‘अम्बीका पत्ता’ नाम से प्रसिद्ध है। किसी समय में वहां एक राजा राज्य करता था। वह चौसर का बड़ा प्रसिद्ध खिलाड़ी था। उसने अनेक राजाओं के साथ चौसर खेली और वह सबसे जीता, कोई भी उसे न हरा सका। वह हारने वाले का सर काट लेता था, इसीलिए उसका नाम सरकाटसिंह व सरकट मशहूर हुआ। स्यालकोट में जिस समय राजा रसालू हुआ तो उसने इसे चौसर के खेल में जीत लिया। सरकट ने हारने के कारण रसालू से अपनी लड़की की शादी कर दी। संभव है इस दन्तकथा का अधिक सार न हो किन्तु यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इस स्थान पर कोई सरकट नाम का छोटा मोटा राजा था।

शेखूपुरा में एक बाढ़ है। पंजाब में बाढ़ या बड़ घने जंगल को कहते हैं। शेखपुरा इलाके से यह बाढ़ आरम्भ होकर मुल्तान तक चला गया है। एक ओर गुजरांवाला तक इसका विस्तार हैं। यह बाढ़, इलाभट्टी के नाम से मशहूर है। दूसरा नाम इसका सन्दलबाड़ी है। तहसील हाफिजाबाद में पिण्डी भट्टियान नामक ग्राम है। दूलाभट्टी यहीं का रहने वाला था और इस समस्त बाढ़ के ऊपर उसका अधिकार था। सोलहवीं सदी में उसके जीवित होने का प्रमाण मिलता है। अपनी सेना के खर्च के लिए वह आस-पास के इलाकों पर आक्रमण किया करता था। शेखपुरा के तथा इस बाढ़ के आस-पास के भट्टी मुसलमान जाट इस बात को कहते


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हैं कि इला राज्य सरकट के खानदान में से था। यद्यपि इसका कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है, फिर भी ‘फरीदकोट के इतिहास’ और ‘सेरे पंजाब’ में इला और उसकी बाढ़ के सम्बन्ध में कुछ वर्णन अवश्य है। जयपुर राज्य में जाटों का एक चूलड़ गोत है, उनकी वंशावली रखने वाले भाटों ने उनके पूर्वज का नाम इला एवं इडड़ भट्टी लिख रखा है। इसमें सन्देह नहीं कि इलड़ एक प्रभावशाली और अपनी बाढ़ का स्वतन्त्र शासक था।

जाटों का जलयुद्ध

जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, जाटों ने, महमूद गजनवी को भारत से लौटते वक्त लूट लिया था और उसे बहुत तंग किया था। क्योंकि वे उसके ऊपर भटिंडा राज नष्ट करने के कारण तथा देव-मन्दिरों को लूटने के कारण चिढ़े हुए बैठे थे। महमूद उस समय तो जान बचाकर भाग गया था, किन्तु 1027 ई. में उसने बड़ी तैयारी के साथ जाटों को नेस्तनाबूद करने के इरादे से चढ़ाई की। जदु के डूंग में उसका राज्य था, जो अभी तक प्रजातंत्री सिद्धान्तों पर चल रहा था। तारीख फरीश्ता ने इस युद्ध का हाल इस तरह से लिखा है कि

“यह युद्ध झेलम नदी में हुआ था। सुल्तान का भारी लश्कर मुल्तान की ओर पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने 1400 नावें तैयार कराई और हर एक नाव में लोहे की तीन नोकदार मजबूत और पैनी तीन शलाखें जड़वाई एक नाव की पेशानी पर और दो उसके दोनों बाजुओं पर। इन शलाखों के लगाने का मतलब ...................... प्रत्येक किश्ती में 20 सैनिक तीर कमान व तलवार बरछी लिये हुए बैठाए। जाटों ने सावधान होकर अपने बाल-बच्चों और स्त्रियों को टापुओं में भेज दिया और स्वयं मुकाबले पर तैयार हुए। चार हजार नाव एक दफै और फिर आठ हजार नाव नदी में छोड़ीं और हर एक नाव में एक जत्था सवार करा के मुकाबले को दौड़े। जब दोनों पक्षों का मुकाबला हुआ, तो भारी युद्ध होने लगा। किन्तु महमूद की किश्ती के सामने जो नाव आती वह डूब जाती। यहां तक कि समस्त जाट डूब गये और शेष तलवार की घाट उतरे। सुल्तान की सेना ने उनके बाल-बच्चों के सर पर जाकर सबको कतल किया और कैद भी किया। महमूद गजनी को लौट गया।”

कर्नल टाड ने इस पर यह टिप्पणी दी है कि फरिश्ता का यह कहना सत्य है कि सब जाट इस लड़ाई में खतम हो गये। हमारे विचार से महमूद और उसके साथियों के जाटों ने ऐसे दांत खट्टे किये कि फिर वे हिन्दुस्तान पर चढ़ाई करने की


1. तारीख फरिश्ता उर्दू तर्जुमा। नवलकिशोर प्रेस लखनऊ। पृ. 54-55


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हिम्मत न कर सके। महमूद ही क्या, उसके उत्तराधिकारी तक उस रास्ते से नहीं आये जिस रास्ते जाट पड़ते थे। किन्तु जाट महमूद से लगा कर तैमूर तक के होशों को बिगाड़ते रहे हैं। “वाकए राजपूताना” का लेखक लिखता है - यकीन है कि महमूद से सैकड़ों वर्ष बाद सन 1203 ई. उसके उत्तराधिकारी कुतुब को मजबूरन उत्तरी जंगल के जाटों से बजात खुद लड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने हांसी को स्वतन्त्र राज्य करना चाहा था और फीरोज आजम की लायक वारिस रजिया बेगम ने शत्रु डर से जाटों की शरण ली थी तो उन्होंने रजिया की सहायता के लिए गकरों की फौज जमा करके रजिया की सहायता में उसके शत्रु पर चढ़ाई की थी। वहां दुश्मनों पर विजय पा गई। जाट इस युद्ध में वीरता के साथ मारे गए। जब 1397 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था तो मुल्तान-युद्ध के समय जाटों ने उसे भारी अड़चन और कष्ट पहुंचाये। इसी बात से चिढ़कर तैमूर ने भटनेर पर हमला किया था।1

देशी-विदेशी सभी इतिहासकारों ने इस बात के लिए स्वीकार किया है कि 600 ई. में पहले का पर्याप्त इतिहास नहीं मिलता और 600 ई. से 1000 तक का जो इतिहास प्राप्त होता है, वह भी अपूर्ण है। फिर जाटों के इतिहास के सम्बन्ध में कहना ही क्या, जिन्होंने स्वयं भी इस बात की चेष्टा ही नहीं की कि उनका संगृहीत इतिहास हो? हम यह दावे से कहते हैं कि जाट-इतिहास की खोज बराबर चलती रहे, तो ईसा से 7 सदी पूर्व से 14वीं सदी तक पंजाब में हर जगह प्रत्येक कोने में जाटों के शासन करने का पर्याप्त इतिहास मिल सकेगा। हमें पंजाब में, सांगवाण और घनघस, मालिक, गठवाला आदि जाटों के ऐसे वर्णन मिलते हैं, जिन्होंने पंजाब के छोटे-छोटे प्रदेशों पर स्वतन्त्रातापूर्वक राज्य किया था। हमारे कथन की साक्षी इस छोटे से गीत से हो जाती है-

हरियाणा के बीच में एक गांव धणाणा
सूही बांधे पागड़ी क्षत्रीपण का बाणा।
नासे भेजे भड़कते घुड़ियान का हिनियाना।
तुरइ टामक बाजता बुर्जन के दरम्याना।
अपनी कमाई आप खात हैं नहिं देहिं किसी को दाणा।
बापोड़ा मत जाणियो है ये गांव धणाणा।”

अर्थात! इस गीत से मालूम होता है कि घनघस जाटों के 900 सैनिक हर समय तैयार रहते थे और राजसी ढंग से उनके सैनिक लड़ने के लिए गाजे-बाजे के साथ जाते थे। उनके पड़ौस में राजपूतों का बापोड़ा नामक गांव था। बापोड़ा वालों ने शाह दिल्ली को खिराज देना स्वीकार कर लिया था और जब धणाणा के जाटों के सामने यही प्रस्ताव पेश हुआ, तब उन्होंने कहा - “बापूड़ा मत जाणियो, है यह गांव धणाणा।” यदि इसी तरह का संग्रह किया जाए तो पंजाब के जाट-राज्यों का, जो कि


1. वाकए राजपूताना, जिल्द 3, लेखक मुन्शी ज्वालासहाय।


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मुस्लिम काल से पहले ही से अवस्थित थे, एक स्वतन्त्र इतिहास बन जाए। परिशिष्ट में ऐसे छोटे-छोटे राज्यों का कुछ संक्षिप्त वर्णन करेंगे। अब आगे के पृष्ठों में जाटों की उन कुर्बानियों और बहादुरियों तथा राज्यों का वर्णन किया जाता है जो कि सिख-धर्म के नवजीवन से हुए थे।

जाट जाति और सिख-धर्म

एक दिन जिस जाट जाति का आधे यूरोप और एशिया के प्रायः समस्त प्रदेश पर आतंक रहा था, एक समय उसी जाट जाति के लिए ऐसा भी आया कि वह शासन की बजाए शासित और असभ्य तथा सम्पत्तिशाली की जगह निर्धन समझी जाने लगी। इसका कारण यही था कि जिन तरीकों से उसने पिछले हजारों वर्षों से शासन किया था, वे अब फेल हो चुके थे। प्रजातंत्र का स्थान एकतंत्र ने ग्रहण कर लिया था। अब यह आवश्यक था कि सुदिन लाने के लिए इनकी मनोवृत्तियां बदली जातीं, किन्तु यह इन्हें पसन्द न था। हालांकि कुछेक उन्नत-मना जाट वीर एकतंत्र की ओर बढ़े और उन्होंने ‘जाट राज्य’ कायम भी किये। किन्तु जाति का अधिक भाग, उनके इस कार्य की ओर से उदासीन रहा।

महाराज शालिवान हाला, शालेन्द्रजित, यशोवर्द्धन, अनंदपाल, सुभाषसेद, मश्कसेन आदि महावीर ऐसे ही जाटों में से थे, जिन्होंने अपनी महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति और जाति-हित के लिए एकतंत्र शासन स्थापित किये। किन्तु सम्पूर्ण जाति की इस कार्य में सहानुभूति न होने से इन राज्यों ने दो-तीन शताब्दियां भी न पकड़ीं।

जाट-कौम क्षात्र तेज रखते हुए भी अपने दुःख दूर करने तथा देश की सेवा करने में असमर्थ हो रही थी और वह समय अति निकट आने वाला था कि ‘जाट-जाति’ सदैव के लिए अथवा एक लम्बे अरसे के लिए उस स्थान पर पहुंच जाती, जहां से उसका उठना असम्भव हो जाता। परमात्मा की कृपा से ऐसे वक्त गुरुनानक प्रकट हुए जिससे कि इस जाति में फिर से नवजीवन का संचार हो गया। गुरुनानक के प्रचारित धर्म का नाम सिख-धर्म प्रसिद्ध हुआ। जाट जाति को इस धर्म से भक्ति, शक्ति, ओज और राज भी सब कुछ प्राप्त हुए। यद्यपि अभी तक इन्होंने अपने पूर्व-गौरव को प्राप्त नहीं किया है, किन्तु फिर भी उन्होंने वो स्थान प्राप्त कर लिया है, जिस पर कोई भी योद्धा जाति सन्तोष कर सकती है।

कालांतर में औरंगजेब के अत्याचारों का प्रतिकार करने के लिये भक्त सिखों को घोड़े की पीठ और तलवारों की मूठ सम्हालनी पड़ीं। वे संगठित हो गये। यह संगठन उनका प्रारम्भ में मिसलों के रूप में था। मिसल अरबी शब्द है जिसका भावार्थ दल होता है। प्रत्येक दल का एक सरदार होता था। उस सरदार की अध्यक्षता में दल के लोग इकट्ठे होकर उनकी आज्ञा का पालन करते थे। इस प्रकार के बारह दल अथवा मिसलें थीं। इन मिसलों की संगठित बैठक का नाम


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इन लोगों ने ‘गुरमता’ रख छोड़ा था। गुरमता का अर्थ ‘गुरु मन्त्रणा’ होता है। गोपनीय अथवा महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार करने के लिये जो परिषद् होती थी, उसी का नाम गुरमन्त्रणा अथवा गुरमता था। इस तरह से सिख जाटों ने वहीं से उत्थान किया, जहां से कि उनका पतन हुआ था। किन्तु अबकी बार की उनकी प्रजातंत्र-प्रणाली नये रंग और नये विधान की थी। गुरमता में मिसलों के सरदार बैठते थे और वे सरदार अपनी सरदारी अपनी भुजाओं के पराक्रम से प्राप्त करते थे। उन्हें पूर्ण स्वतन्त्रता थी कि चाहे जितने देश पर वे अपना अधिकार जमाएं और चाहे जो कोई सरदार बन बैठे, यदि शक्ति रखता हो। गुरमता में निश्चय हुए प्रस्तावों के मानने के लिये वे बाध्य थे। किन्तु वास्तव में वे स्वयं ही गुरमता थे। सिखों की इन बारह मिसलों में आठ मिसलें जाटों द्वारा संस्थापित हुई थीं। चूकि हमारे इतिहास का सम्बन्ध जाटों से है, इसलिये हम इन्हीं आठ मिसलों का वर्णन करेंगे।

भंगी मिसल

भंगी मिसल के मनुष्य ‘भंग’ का अधिक व्यवहार करते थे, इसलिये ही उन्हें भंगड़ी अथवा भंगी नाम से लोग संबोधित करते थे। अमृतसर से 8 मील के फासले पर पंजवार नाम का एक नगर है। चौधरी छज्जासिह यहां के एक प्रतिष्ठित जाट सरदार थे। जिन दिनों शहीदे-धर्म वीरबंदा का प्रचंड सूर्य चमक रहा था, छज्जासिंह उनकी वीरता और धैर्य पर मोहित होकर उनका शिष्य बन गया। स्वयं सिख बन जाने के बाद उसने भीमसिंह, मालासिंह, जगतसिंह को भी सिख बनाया। इन दोनों ने मिलकर एक छोटा सा दल बना लिया और फिर लूटमार आरम्भ कर दी। क्योंकि वे देखते थे कि असभ्य तातारी लुटेरे सहज में ही शासक बन गये। काबुल के भुक्कड़ पठानों ने भी उनके देखते-देखते ही पंजाब में अनेक छोटे-छोटे राज्य कायम कर लिये। थोड़े ही दिनों में उनकी शक्ति बहुत बढ़ गई, लूट-मार से काफी माल इकट्ठा कर लिया। उनकी संख्या बढ़ चुकी थी। अपने साथियों के लिये लूट का या तो वे कोई हिस्सा देते थे या उनके लिये मासिक वेतन नियुक्त कर रखा था। कुछ दिनों के बाद इस मिसल की सेना में 12000 सवार हो गये थे। छज्जासिंह के बाद भीमसिंह ने जो कि बड़ा योद्धा, शक्तिशाली और चतुर था, इस मिसल को नियमानुसार संगठित किया। चूंकि भीमसिंह के कोई सन्तान न थी, इसलिये उसने हरीसिंह को अपना दत्तक-पुत्र बनाया, जो कि उसका भतीजा होता था। हरीसिंह बड़ा बुद्धिमान, बलवान और दूरदर्शी था। उसने अच्छे-अच्छे जवां मर्द नौकर रखे । बढ़िया किस्म के घोड़े खरीदे, सौ-सौ कोस तक धावा मार करके धन इकट्ठा किया। उसके वक्त में उसके पास इतने सैनिक इकट्ठे हो गये कि उनकी मिसल ज्यादा धनवान बन गई और उसके मेम्बरों की संख्या 20000 तक जा पहुंची। उनकी छावनी गुलवाली में थी। हरीसिंह के समय में इस मिसल के अधिकृत इलाके की सीमा भी बहुत बढ़ गई।


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एक ओर स्यालकोट, कृपालु और भीसूपाल उनके कब्जे में आ गये, दूसरी ओर मगध और मालवा पर भी इन्हीं का कब्जा था। चीनोट, झंग तक और दूसरी तरफ पिंडी और डेराजात तक हमला करके लूटमार करते रहे। जम्मू पर भी चढ़ाई की और 12000 सवार लेकर कश्मीर में भी जा घुसे, किन्तु कश्मीर में उन्हें अधिक सफलता नहीं हुई। 1762 ई० में लाहौर से 2 मील तक कोट खोजा सैयद में बहुत सा मेगजीन और सामान इनके हाथ आया। अगले साल हरीसिंह ने कन्हैया और रामगढ़िया मिसलों के साथ मिलकर ‘कसूर’ में लूटमार की। इसके बाद वह अमरसिंह के साथ लड़ता हुआ मारा गया।

हरीसिंह के 5 लड़के थे। मगर मिसल ने हरीसिंह की मृत्यु के पश्चात् सरदारी उनमें से किसी को न दी और महासिंह मिसल का सरदार बना, और हरीसिंह के लड़के सिर्फ घुड़ चढ़े ही बने रहे। किन्तु थोड़े ही दिन के बाद महासिंह मर गया। इस बीच में मिसल के लोगों ने हरीसिंह के लड़कों में वे गुण देख लिए थे जो कि एक योग्य सरदार में होने चाहियें। इसलिए सरदारी हरीसिंह के बेटे झण्डासिंह को दी गई और सारी मिसल ने उनकी ताबेदारी स्वीकार कर ली। चन्दासिंह जो झण्डासिंह का भाई था, उसने बारह हजार सवार लेकर जम्मू के राजा रंजीतदेव के ऊपर चढ़ाई की और भयंकर युद्ध करता हुआ मारा गया। झण्डासिंह का आरम्भ से ही मुल्तान के ऊपर दांत था। वह शीघ्र से शीघ्र मुल्तान को अपने राज्य में मिला लेने की इच्छा रखता था। इसलिए उसने मुल्तान पर चढ़ाई की, किन्तु सन् 1766 और 1767 ई० में उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। तीसरी बात 1772 ई० में लहनासिंह तथा दूसरे सरदारों को साथ लेकर मुल्तान विजय कर ली और सरदार दीवानसिंह को वहां का किलेदार मुकर्रर किया। मुल्तान से वापस लौटते समय उन्होंने झंग, मानखेड़ा और काला-बाग फतेह किये, इससे पहले कसूर पर भी यह अधिकार जमा चुका था। झण्डासिंह ने अमृतसर में ईंटों का एक दुर्ग भी बनवाया, क्योंकि वह चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका अधिकार हो। यद्यपि अमृतसर में आज उसके दुर्ग के केवल खंडहर ही पाए जाते हैं, तो भी वह झण्डासिंह की महत्त्वाकांक्षा की सूचना देता है। थोड़े दिन के बाद झण्डासिंह ने रामनगर पर हमला करके दमदमा नामक तोप को प्राप्त किया, जो कि भंगी तोप के नाम से मशहूर है। इसी बीच में जम्मू के राजा रंजीतदेव और उसके बेटे वृजराजदेव में झगड़ा हो गया। कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह और सुरचकिया मिसल के सरदार चड़हटसिंह वजराजदेव की सहायता को गए। झण्डासिंह ने रंजीतदेव का पक्ष लिया। कई रोज तक युद्ध होता रहा। इसी युद्ध में झण्डासिंह एक गोली के निशाने से मारे गये। झण्डासिंह के बाद उसका भाई गण्डासिंह सरदार बना। उसने अमृतसर के बाजारों को बड़े बढ़िया ढंग से सजाया और दुर्ग की दीवारों को मजबूत किया। चूंकि झण्डासिंह जयसिंह के आदमियों के हाथ से मारा


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गया था, इसलिए गण्डासिंह उससे बदला लेने का स्वभावतः इच्छुक था। एक दूसरी वजह से भी उसे कन्हैया मिसल के साथ लड़ाई करने का अवसर मिल गया। उसका एक सरदार जो पठानकोट का अफसर था, मर गया। उसकी स्त्री ने अपनी लड़की कन्हैया मिसल वालों को दे दी और पठानकोट भी दे दिया। गण्डासिंह ने पठानकोट वापस मांगा। इन्कार होने पर चढ़ाई कर दी। दीना नगर में कई दिन तक युद्ध हुआ। गण्डासिंह इसी लड़ाई के अवसर पर बीमार होकर मर गया। उसके साथी लड़ाई छोड़कर भाग गये और उन्होंने गण्डासिंह के भतीजे देसासिंह को अपना सरदार चुना। इसके समय में तैमूरशाह ने पंजाब को वापस लेने का पुनः संकल्प किया और अपने एक मित्र फैजुल्ला को सेना भरती करने के लिये भेजा। खैबर की घाटी में पहुंच कर फैजुल्ला ने बहुतेरे पठान जमा कर लिये, किन्तु पेशावर पहुंच कर वह तैमूरशाह के विरुद्ध हो गया और उसे कत्ल करने का षड्यन्त्र रचने लगा। किन्तु वह और उसका बेटा दोनों पकड़ कर कत्ल कर दिये गए। तैमूरशाह ने मुल्तान पर अपनी सेना भेजी, किन्तु देसासिंह के साथी जाट-सिखों ने उस फौज को पीछे की ओर भगा दिया। अपनी फौज की इस हार से चिढ़कर तैमूरशाह सन् 1778 ई० में स्वयं मुल्तान पर चढ़कर आया। इस युद्ध में बहुत से सिख मारे गये और विजय लक्ष्मी भी उनके विरुद्ध रही। तैमूरशाह ने शुजाखां को मुलतान का गवर्नर नियुक्त किया। 1782 ई० में देसासिंह रणजीतसिंह के पिता महासिंह के साथ मारा गया।

सरदार हरीसिंह का एक जनरल गुरुबक्ससिंह था। इसने लेहनासिंह सिंधानवाला को अपना दत्तक बनाया। गुरुबक्ससिंह के मारे जाने पर लेहनासिंह और गुरुबक्ससिंह के दौहित्र में झगड़ा हुआ। किन्तु समझदार सिखों ने आधी बांट पर दोनों की सन्धि करा दी। इन दोनों ने सरदार शोभासिंह और कन्हैया के साथ मिलकर 1765 ई० में काबुलीमल के भाग जाने पर लाहौर पर अधिकार कर लिया था और अब्दाली के आने पर तीनों सरदार लाहौर खाली कर गए और उसके भारत से वापस होते ही फिर लाहौर पर अधिकार जमा लिया और 30 वर्ष तक लाहौर पर शासन करते रहे। 1793 ई० में काबुल के शाहजवां ने सेना लेकर पंजाब पर चढ़ाई की, किन्तु उसके देश में विद्रोह खड़ा हो जाने से उसे तो वापस लौटना पड़ा, पर उसका सरदार अहमदखां सिखों से युद्ध करने के लिए रह गया। सिखों ने उसे ऐसी परास्त दी कि फिर वह भारत में न ठहर सका। 1796 ई० में शाहजवां भारत की ओर फिर आया। चिनाब को पार करके अमीनावाद के रास्ते, रावी के किनारे, शाहदरा पहुंच कर अपना एक जनरल लाहौर को रवाना किया। सिख सरदार लाहौर के किले की चाबियां मियां चिरागशाह के हवाले करके बाहर चले गए। शाहजवां लाहौर में प्रविष्ट हुआ। उसने सिखों से राजीनामा कर लिया। लेकिन जब वह वापस लौट गया तो लहनासिंह और शोभासिंह ने


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फिर लाहौर पर अधिकार कर लिया, किन्तु इसी वर्ष वे दोनों मर गए और उनके बेटे चेतासिंह व मोहरसिंह लाहौर के शासक बने। चूंकि ये कमजोर थे और उधर पंजाब केसरी महाराज रणजीतसिंह का प्रताप बढ़ रहा था, अतः 1799 ई० में उनसे रणजीतसिंह ने लाहौर को छीन कर अपने कब्जे में कर लिया।

देसासिंह की मृत्यु के बाद उसका बेटा गुलाबसिंह सरदार हो गया था। वह पहले कुछ दिनों तक कसूर के पठानों के विरुद्ध लड़ता रहा, किन्तु जब उसने सुना कि महाराज रणजीतसिंह ने लाहौर ले लिया है तो उसको बड़ा दुख हुआ। उसने कुछ पठानों और सिक्खों की शक्ति संचय करके लाहौर पर धावा बोल दिया। भसीन के मैदान में दोनों ओर से लड़ाई हुई। गुलाबसिंह अधिक मदिरापान करने के कारण लड़ाई में ही मारा गया। इसके बाद उसका बेटा गुरुदत्तसिंह भंगी मिसल का सरदार बना। उसकी उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी, किन्तु फिर भी उसकी इच्छा थी कि रणजीतसिंह से बदला लिया जाए। इसी इरादे से वह सेना संग्रह करने लगा। किन्तु रणजीतसिंह को इसका पता लग गया और उससे पहले ही रणजीतसिंह ने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। गुरुदत्तसिंह और उसकी मां भाग कर रामगढ़ पहुंच गए। कहते हैं कि पीछे रणजीतसिंह ने उनके निर्वाह के लिए कुछेक गांव दे दिए थे । पर कुछ दिनों बाद वे भी जब्त कर लिए। यही नहीं, किन्तु जहां-जहां भी भंगी मिसल के अधिकार में इलाके थे, उन सब पर अपना अधिकार कर लिया। करमसिंह को चनोट से, साहबसिंह को गुजरात से निकाल बाहर किया। यह याद रहे लाहौर लेने के बाद गूजरसिंह ने उत्तर की ओर का प्रदेश भी विजय करना आरम्भ कर दिया था। गुजरात को उसने मुबारिकखां गक्कड़ से विजय किया था। इसके अतिरिक्त उसने जम्बू तक कई प्रदेश विजय किए थे। इस तरह से खून बहा कर भंगी सरदारों ने जो विस्तृत प्रदेश अधिकृत किया था, वह महाराज रणजीतसिंह के अधीन हो गया और भंगी मिसल का नाम केवल इतिहास में उल्लेख करने को रह गया। हां, शहर अमृतसर से मोहल्ला तथा किला भांगयान उनके अभ्युदय की अवश्य स्मृति दिलाते हैं।

मिसल रामगढ़िया

इनका अधिकार अहलवालियां और उलेवालियां मिसलों के बीच के प्रदेश पर था। ईछूगल गांव जिला लाहौर में भगवाना नाम ज्ञानी के घर में जस्सासिंह पैदा हुआ। वह सिक्ख-धर्म ग्रहण करके साधुओं की सी जिन्दगी बिताने लगा। कुछ दिन के बाद वह नोधासिंह के साथियों में मिल गया। नोधासिंह गोवा के एक जाट सरदार खुशहालसिंह का लड़का था। खुशहालसिंह ने वीर बंदा के साथ मिलकर के मातृभूमि की सेवा सीखी थी और थोड़े दिनों में उसके पास इतनी सेना


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संचित हो गई कि उसने एक अलग मिसल स्थापित कर ली, जो रामगढ़िया मिसल के नाम से मशहूर हुई। उसकी मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी नौंदसिंह ने जस्सासिंह, मालासिंह और तारासिंह नाम के साहसी और वीर लोगों को अपना साथी बनाया। जस्सासिंह जो कुछ दिनों पहले पूरा ज्ञानी था, इन लोगों के साथ मिलते ही वीर सिक्खों में गिना जाने लगा। नोदसिंह के ये तीनों साथी तरखान जाति के बताये जाते हैं। जब द्वाबा जालन्धर के सिक्खों और अदीनावेगखां सूबेदार में झगड़ा आरम्भ हुआ तो सिक्खों ने जस्सासिंह को अपना वकील बनाकर अदीनावेग के पास भेजा। अदीनावेग ने इससे प्रसन्न होकर अपने एक इलाके का इसे सूबेदार नियत कर दिया। कुछ दिन के बाद जब अदीनावेग मर गया तो जस्सासिंह अपने इलाके का स्वतन्त्र अधिकारी बन बैठा। नौंदसिंह की मृत्यु के पश्चात् रामगढ़िया मिसल के सिक्खों ने जस्सासिंह को अपना सरदार मान लिया। इस तरह से जाट-सिक्खों के हाथ से निकल कर यह मिसल तरखान सिक्खों के हाथ में पहुंच गई। जस्सासिंह ने अमृतसर और गुरदासपुर के जिलों पर भी अधिकार कर लिया था। पहले तो वह कन्हैया मिसल के जाट-सिक्खों के साथ मिल करके मुसलमानों के साथ लड़ाइयां लड़ता रहा, लेकिन आगे चल करके उसने कन्हैया मिसल के सरदार जयसिंह से झगड़ा पैदा कर लिया। इस कारण से बटाला और कनानौर जयसिंह ने उससे छीन लिए। दोनों दलों में लड़ाई छिड़ गई। बटाला तो उसके हाथ आ गया, किन्तु कनानोर में उसे ऐसी हार हुई कि वह सतलज पार भाग गया और हिसार में अपना स्थान बना कर देहली तक लूट-मार करता रहा। कुछ दिनों के बाद, जब कन्हैया और सुकरचकिया मिसलों में अनबन हुई, तो सुकरचकिया सरदारों ने जस्सासिंह को अपनी सहायता के लिए बुला भेजा। उसने आकर अपने तमाम अधिकृत प्रदेशों पर फिर से अधिकार जमा लिया, किन्तु 1808 ई० में महाराजा रणजीतसिंह ने उसका समस्त प्रदेश अपने राज्य में मिला लिया और जस्सासिंह को पेन्शन दे दी। 1886(?) ई० में जस्सासिंह का देहान्त हो गया।

कन्हैया मिसल लाहौर से 15 मील की दूरी पर कान्हा गांव में खुशालसिंह नामक एक जाट चौधरी निवास करते थे, जो कि बड़े सीधे और सरल स्वभाव के थे। उनके पुत्र का नाम जयसिंह था। जयसिंह बड़ा वीर और साहसी पुरुष था। उसने सिक्ख-धर्म की दीक्षा कपूरसिंहजी फैजलपुरिया से ली और अमरसिंह नाम के डाकू के साथ मिल कर छापा मारने लगा। इस काल में उसने इतनी उन्नति तथा प्रसिद्धि प्राप्त की कि आसपास के हजारों आदमी उसके साथ शामिल हो गए। इस तरह से उसने एक नई मिसल स्थापित कर दी। चूंकि यह कान्हा गांव का रहने वाला था, इसलिए इस मिसल का नाम कन्हैया मिसल हुआ।


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कांगड़े के राजा संसारचन्द्र और नवाब शेफ-अली खां किलेदार में झगड़ा हो गया। संसारचन्द्र ने किले पर अधिकार प्राप्त करने के लिए जयसिंह को अपनी सहायता के लिए बुलाया। जयसिंह के कांगड़ा पहुंचने के वक्त तक शेफ-अली खां मर चुका था और उसका लड़का जीवनखां किले को अधिकार में किए हुए था। जयसिंह ने जीवनखां को डरा धमका कर किले पर अधिकार कर लिया और राजा संसारचन्द्र को भी धता बता दिया। जयसिंह युद्ध करने में अति निपुण था। रामगढ़िया मिसल के सरदार जयसिंह को इसने सतलज पार खदेड़ दिया था। जम्बू की चढ़ाई में इसने रणजीतसिंह व उनके पिता महासिंह की सहायता की थी और जम्बू की लूट के माल में से बंटवारा कराने के लिए प्रस्ताव रखने के कारण रणजीतसिंह से इनकी अनबन हो गई। चूंकि निर्भयता और वीरता इसके अन्दर कूट-कूट कर भरी हुई थी इसलिए रणजीतसिंह के बाप महासिंह के साथ युद्ध छेड़ दिया। महासिंह ने राजा संसारचन्द्र और जस्सासिंह को सहायता के लिए बुलाया जो कि इसके पुराने शत्रु थे। इस तरह से तीन शक्तियों ने गुट बना कर जयसिंह को नष्ट करना चाहा। किन्तु जयसिंह इस समाचार को सुनकर के घबराया नहीं, उसने तुरन्त ही अपने सरदार गुरबक्ससिंह को जस्सासिंह की रोक के लिए सतलज के इस पार भेज दिया। पटियाला के निकट युद्ध हुआ। गुरबक्ससिंह मारा गया। एक दूसरी लड़ाई जस्सासिंह से उसी समय और हुई। इस वक्त जयसिंह का लड़का गुरबक्ससिंह जस्सासिंह के सामने आया, किन्तु वह भी मारा गया। इस तरह से एक तरफ जयसिंह के धन जन की हानि जस्सासिंह के द्वारा हो रही थी और दूसरी तरफ भागे हुए संसारचन्द्र ने पहाड़ों से उतर कर जयसिंह के इलाके लूटना आरम्भ कर दिया। इस समय जयसिंह ने एक बुद्धिमानी और चालाकी का यह काम किया कि रणजीतसिह से अपनी पोती की शादी करके उसके बाप महासिंह को अपना सम्बन्धी बना लिया। इस तरह से तीन शत्रुओं द्वारा जो उसका राज्य नष्ट होने वाला था, उसकी रक्षा कर ली। जयसिंह ने यद्यपि राज की रक्षा कर ली थी, किन्तु पुत्र-शोक में थोड़े ही वर्षों बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके बेटे गुरबक्ससिंह की रानी सदाकौर राज्य की मालिक हुई ।

रानी सदाकौर बड़ी निपुण और योग्य शासक थी। वह अनेक लड़ाइयों में भी सम्मिलित हुई थी। उन्होंने रणजीतसिंह के पिता महासिंह के मर जाने पर दोनों ही राज्यों का काम संभाला था। रणजीतसिंह की वह बड़ी कड़ी देखरेख रखती थी। कई बार युद्ध-भूमि में उन्होंने महाराज की सहायता की थी। इनके पास बहुत सा धन और जवाहरात थे। इनकी शारीरिक मजबूती का पता इस घटना से चल जाता है कि जिस समय उनका पति युद्ध में मारा गया था और फौज तितर-बितर हो गई थी, वह नंगे पांव भागकर बटाला में आ पहुंची। इनका राज्य अमृतसर


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से उत्तर की ओर पहाड़ी प्रदेश में था और उसमें कांगड़ा, कलानोर, नूरपुर, यकरिपान, हाजीपुर, पठानकोट, अटलगढ़ आदि प्रसिद्ध नगर थे।

तरुण होने पर महाराज रणजीतसिंह को अपनी सास सदाकौर की संरक्षता अखरने लगी थी। वह उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करने लगे। कुछ ही दिनों के बाद उन्होंने राजी सदाकौर के इलाके को अपने राज्य में मिला लेने का यत्न आरम्भ कर दिया। जब कहने सुनने से भी रानी सदाकौर अपना राज्य रणजीतसिंह को देने के लिए तैयार न हुई तो उन्होंने बलपूर्वक उनके राज्य को जब्त कर लिया और सरदार कन्हैयासिंह के निकट सम्बन्धियों को कुछ गांव जागीर में दे दिए। सन् 1800 ई० में रानी सदाकौर का देहान्त हो गया और इस तरह से यह मिसल समाप्त हुई ।

नकिया मिसल

नकिया मिसल का संस्थापक चौधरी हेमराज का पुत्र हीरासिंह था। यह मौजा भरवाल के रहने वाले थे। रावी नदी के किनारे, लाहौर से पश्चिम की ओर, नक्का नाम इलाके में रहने के कारण, इनकी मिसल का नाम नकिया मिसल पड़ा। गोत्र इनका सिन्धु था। आरम्भ में इनकी आर्थिक अवस्था कुछ अच्छी न थी। हीरासिंह सिख होने के बाद लुटेरे दल में सम्मिलित हो गया और धीरे-धीरे यहां तक शक्ति बढ़ा ली कि उसकी एक अलग मिसल बन गई और हीरासिंह उस मिसल का सरदार बन गया। बहुत से सवार और प्यादे हो जाने के पश्चात् राज्य की बुनियाद भी डाल दी। सतलज नदी के किनारों तक अनेक स्थानों पर कब्जा कर लिया। पाकपट्टन में उस समय शेखसुजान कुर्रेसी का अधिकार था। वहां गौवध खूब होता था। यह बात जब हीरासिंह तक पहुंची तो वह आगबबूला हो गया और उसने शेख पर चढ़ाई कर दी। दैवात् हीरासिंह के सिर में गोली लगी और इस तरह उस धर्मयुद्ध में शहीद हुआ। चूंकि उसका लड़का नाबालिग था, इसलिए भतीजे नाहरसिंह ने सरदारी सम्हाली । किन्तु तपेदिक के रोग से एक ही साल में मर गया और मिसल की सरदारी उसके छोटे भाई वजीरसिंह के हाथ में आ गई। अब तक इस मिसल के पास नौ लाख का इलाका आ चुका था, जिसमें शाकपुर, मांट-गोमरी, गोगेरा प्रसिद्ध इलाके थे। 1872 ई० में इस मिसल की सरदारी और राज्य की हुकूमत सरदार भगवानसिंह के हाथ में आई। भगवानसिंह ने भी सैयद पर चढ़ाई की और गौवध के उठा देने के लिए होने वाले पाक-पट्टन के युद्ध में मारा गया। भगवानसिंह के मरने के बाद उसका भाई ज्ञानसिंह राज्य का मालिक हुआ। ज्ञानसिंह के दो पुत्र थे - खजानसिंह और काहनसिंह। 1804 ई० में ज्ञानसिंह के मर जाने पर महाराज रणजीतसिंह ने इस राज्य को जब्त कर लिया और काहनसिंह तथा खजानसिंह को


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15000 की जागीर देकर रियासत से पृथक् कर दिया । महासिंह नाम का सरदार हीरासिंह के निकट सम्बन्धियों में से था। महाराजा रणजीतसिंह ने इसको भी जागीर दी। यद्यपि इस मिसल वालों ने रणजीतसिंह को अपनी लड़की देकर सम्बन्ध स्थापित कर लिया था, किन्तु महत्त्वाकांक्षी महाराज रणजीतसिंह ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए इसका कुछ भी खयाल न कर, अपने राज्य में मिला लिया।

निशान वालिया मिसल

इस मिशल के संस्थापक दो बहादुर जाट - संगतसिंह और मोहरसिंह थे, जो सतलज के निकटवर्ती प्रदेशों में दस हजार सवार इकट्ठे करके जाट राज्य संस्थापित करने की चेष्टा करने लगे। अम्बाले को अपना केन्द्र स्थान बनाया। दूर-दूर तक छापे मार करके धन लाते थे क्योंकि बगैर धन के न राज्य कायम हो सकते हैं, न फौज रखी जा सकती है। एक बार तो मेरठ शहर तक इन्होंने धावा बोला और वहां से बहुत सा धन लूटकर लाये। ये लोग अपनी फौज के साथ निशान रखते थे इसलिए इनकी फौज का नाम निशान वालिया पड़ा। संगतसिंह के मर जाने पर कुल राज्य का भार मोहरसिंह के हाथ आ गया। कुछ समय के पश्चात् महाराज रणजीतसिंह ने दीवान मोहमकचन्द को इसलिए इनके देश में भेजा कि वह युद्ध के बान निशान वालिया राज्य को अपने राज्य में मिला लें। निशान वालिया सिक्खों ने मोहकमचन्द का डटकर सामना किया किन्तु वे हार गए और किला अम्बाला मोहकमचन्द के हाथ पड़ गया। खजाना और वस्तु-भंडार लूट लेने के बाद महाराज रणजीतसिंह ने इस राज्य को अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह निशान वालिया का भी अन्त हो गया।

करोड़सिंह मिसल

इस मिसल का संस्थापक पंजगढ़ नामक स्थान का रहने वाला युवक करोड़सिंह था। जगाधरी के समीप चलौंदी को सदर मुकाम बनाकर इसने लूटमार आरम्भ कर दी। थोड़े ही दिनों में 12000 सेना इसके पास एकत्रित हो गई। अनेक लूटमारों में इसके हाथ बहुत सा धन पड़ा था। जालन्धर को इसने अपने राज्य में मिला लिया था और सीमांत प्रदेश पर भी आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया था। करोड़सिंह के मर जाने के बाद उसकी जगह बघेलसिंह सरदार हुआ। जब 1778 ई० में सिक्खों ने सीमाप्रान्त पर अधिकार कर लिया और उसकी खबर देहली में पहुंची तो बादशाह आलम ने सिक्खों के दमन करने के लिए सेना भेजी। बघेलसिंह उस समय अन्य सिक्ख लोगों का साथ छोड़ कर अलग हो गया। शाहआलम की फौज को तो कुलकिया सरदारों ने मारकर भगा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-230


दिया। बघेलसिंह के मारे जाने के बाद उसके एक मित्र का लड़का जोधासिंह इस मिसल का सरदार नियत हुआ। महाराज रणजीतसिंह ने जबकि अंग्रेज दूत उनके पीछे सन्धि के लिए लगे फिरते थे, इस मिसल को अपने राज्य में शामिल कर लिया। किन्तु चूंकि गवर्नमेंट अंग्रेज सतलज पार के रईसों को रक्षा का विश्वास दिला चुकी थी, इसलिए महाराज ने अंग्रेज सरकार के कहने पर इस इलाके को वापस कर दिया। अंग्रेजों ने भी कुल इलाके को तो बघेलसिंह की औलाद के पास नहीं रहने दिया, किन्तु कुछ भाग उनकी औलाद के पास अब तक जागीर में चला आता है। इस मिसल का दूसरा नाम पंजगढ़िया मिसल भी था।

फुलकियां मिसल

फुलकियां मिसल की अब तक पंजाब में पटियाला, नाभा जैसी प्रसिद्ध रियासतें मौजूद हैं। भट्टी जाट फूलसिंह द्वारा संस्थापित होने के कारण यह मिसल फुलकियां मिसल कहलाती है। फूलसिंह (फूल) की ताकत इतनी बढ़ गई कि उसने जगराम के नवाब को कैद कर लिया था। महरान से 5 मील के फासले पर अपने नाम से एक गांव भी बसाया था। फूल बादशाही सूबेदारों से सदैव मुकाबला करता रहता था। उसके सात बेटे हुए। पटियाला, नाभा, झींद, मदोर, मलोद वगैरह खानदान उन्हीं के वंशजों के स्थापित किये हुए हैं। अन्तिम दिनों में सीमा प्रान्त के नाजिम ने फूलसिंह को कैद कर लिया था। सन् 1656 ई० में सेरसाम की बीमारी से फूल की मृत्यु हो गई। उसके स्थान पर उसका बेटा रामचन्द्र सरदार बना जिसने मुसलमानों के साथ बहुत सी लड़ाइयां कीं। 1714 ई० में उसे अपने ही एक सरदार ने कत्ल कर डाला। रामचन्द्र का तीसरा बेटा आलासिंह उसका उत्तराधिकारी बना और बरनाला को आलासिंह ने अपना केन्द्र स्थान बनाया। 1695 ई० में आलासिंह का जन्म हुआ था और 1731 ई० में उसने शाही सेना पर एक बड़ी विजय प्राप्त की थी। उसकी इज्जत बहुत बढ़ गई और उसके पास सिक्खों का जमघट रहने लगा। राजपूत और मुसलमानों से उसकी बहुत सी लड़ाइयां हुईं। 1757 ई० में उसने राजपूत और मुसलमानों को एक बड़ी पराजय दी। महमूदशाह ने उसको एक पत्र इस इरादे से लिखा कि वह नवाब सरहिन्द की सहायता करे। 1762 ई० में अहमदशाह अब्दाली ने बरनाला पर चढ़ाई की, किन्तु उसकी रानी फत्तो ने चार लाख रुपया देकर अब्दाली से संधि कर ली। कुछ ही दिनों बाद अब्दाली ने आलासिंह को ‘राजा’ की पदवी से विभूषित किया। पटियाला राज्य के संस्थापक राजा आलासिंह ही हैं। इसी फूल वंश में सरदार गुरदत्तसिंह हैं जिन्होंने कि नाभा राज्य की नींव डाली है। जींद के राज्य को कायम करने वाले राज गजपतसिंह भी फूल खानदान के चमकते हुए सितारे थे। इन लोगों ने अपने बाहुल्य से जहां हिन्दू धर्म की रक्षा की, वहां अपने लिए भी राज्य


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-231


कायम कर लिए। लेकिन महाराज रणजीतसिंह फूल खानदान की सभी रियासतों को उसी भांति अपने राज्य में मिला लेना चाहते थे, जैसे कि अन्य मिसलों के राज्य मिला लेना चाहते थे। इन्होंने अंग्रेज सरकार से संधि करके तथा महाराज रणजीतसिंह को बड़ी-बड़ी भेंट देकर अपने अधिकृत प्रदेश की रक्षा कर ली। फुलकियां मिसल का विस्तृत वर्णन आगे के पृष्ठों में दिया जा रहा है। अतः उस पर अधिक प्रभाव डालने की आवश्यकता हम नहीं समझते।

फैजलपुरिया मिसल या सिंहपुरिया मिसल

सरदार कपूरसिंह विर्क

अमृतसर के पास बुआवा जालंधर में फैजुलपुर एक गांव है। यहीं के जाट सरदार कपूरसिंह ने इस मिसल को कायम किया। कपूरसिंह को फर्रुखशियर के समय में नवाब का खिताब मिला था और वह खालसा का बड़ा लीडर बन गया। उसके धर्मोपदेश के जोश के कारण अगणित जाट सिख धर्म में शामिल हो गये। यहां तक कि पटियाले के राजा आलासिंह ने भी उसके हाथ से सिख धर्म की दीक्षा ली थी। ढाई हजार सवार हर समय उसके पास तैयार रहते थे। देहली तक लूट मार करने में इसको कोई रोकने वाला नहीं था। सतलज के दोनों किनारों पर इसका अधिकार हो गया। सभी मिसलों के सरदार इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे, और सबकी निगाह में नवाब कपूरसिंह महात्मा था। इसके राज्य के प्रमुख स्थानों में से जालन्धर, नूरपुर, बहरामपुर, पट्टी और भरतगढ़ के इलाके विशेष उल्लेखनीय हैं। इसकी मृत्यु के बाद इसका बेटा खुशहालसिंह रियासत और मिसल का सरदार बना। खुशहालसिंह ने भी बहादुरी के साथ इस मिसल का नेतृत्व किया। 1795 ई० में खुशहालसिंह की मृत्यु के पश्चात् मिसल का सरदार उसका पुत्र बुधसिंह हुआ, जिससे महाराज रणजीतसिंह ने कुल प्रदेश जीतकर अपने अधिकार में कर लिया। किन्तु पीछे जब महाराज रणजीतसिंह की ब्रिटिश गवर्नमेंट से मित्रता हुई और दोनों राज्यों की सीमा बन्दी हुई तो इसका इलाका ब्रिटिश गवर्नमेंट की हद में आ गया, जिसमें से कुछेक देहात बुधसिंह की औलाद के पास अब तक हैं।

सिख धर्म के लिये जाटों के बलिदान

यों तो सिक्ख धर्म से पंजाब के जाट उत्कर्ष को प्राप्त हुए, या यों कहना चाहिये कि उनकी एकदम से काया ही पलट गई, परन्तु सिक्ख-धर्म के लिये जाटों ने बलिदान भी अपूर्व किये। बाबा नानक गुरु से लेकर उन्होंने नवें गुरु तक उनकी पूरी सहायता की और गुरु गोविन्दसिंह के समय से तो अपने सर्वस्व से बढ़ कर सिक्ख-धर्म को मान लिया था और यही कारण था कि वे सिक्ख-धर्म पर ज्यादा संख्या में कुरबान हुए और इसमें भी सन्देह नहीं कि दुर्द्धर्ष पठानों की नृशंसता के काल में, सिक्ख-धर्म इन्हीं की वजह से उन्नति को प्राप्त हुआ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-232


गुरु गोविन्दसिंह ने, देवी के बलिदान के बहाने, जो सिक्खों की परीक्षा ली थी और जिसमें केवल पांच ही व्यक्ति उत्तीर्ण हुए थे, उसमें भी धर्मसिंह नामक जाट ने बलिदान के लिये आगे बढ़कर जाटों को उस परीक्षा में उत्तीर्ण कर दिया। यही क्यों, ‘सैरे पंजाब’ के लेखक के शब्दों में वह जाट ही थे, जो कि गुरु गोविन्दसिंह के लिये उस हालत में प्राण देने को बढ़े जब कि उनके पारिवारिक जन और स्त्री, पुत्र तक इस बात के लिये राजी नहीं हुए कि गुरु गोविन्दसिंह की एवज में देवी पर अपना सर चढ़ा दें। ‘पंजाब सैर’ में यह घटना इस प्रकार लिखी है -

“गुरु गोविन्दसिंह ने नैना देवी को जो कि माखूबाल में स्थित है, ब्राह्मण और पंडों से पूजा तथा हवन करवा कर प्रसन्न किया। देवी ने होम से प्रकट होकर गोविन्दसिंह के हाथ में तलवार दी। यह उस देवी के तेज को बरदाश्त न कर सके और बेहोश होकर गिर पड़े। देवी गायब हो गई। ब्राह्मणों ने गोविन्दसिंह को होश में लाने के लिए यह तजबीज पेश की कि किसी आदमी का सर होम में चढ़ाया जाए। उनके कुटुम्ब वालों में से जब कोई राजी नहीं हुआ, तो ब्राह्मणों ने गुरु गोविन्दसिंह की पत्नी से उसके पुत्रों का सर चढ़ाने के लिए कहा, लेकिन उसने इन्कार कर दिया। यह देख कर जाट-सिक्खों ने अपना सिर देकर गोविन्दसिंह को बचाने के लिए इच्छा प्रकट की कि उनके सर चढाये गए। गुरु गोविन्दसिंह अच्छे हो गए। आकाशवाणी हुई कि औलाद जाट-सिक्खान को राज्य प्राप्त होगा, क्योंकि उन्होंने अपने सर चढ़ा दिये हैं।”

इसी कथन का जनरल कनिंघम ने भी अपने सिक्ख-इतिहास में उल्लेख किया है।

सम्वत् 1758 विक्रमी में जिस समय गुरु गोविन्दसिंह की राजा अजमेरचन्द के साथ में लड़ाई हुई तो उस समय भी गुरु की रक्षा के लिए रामसिंह नामक जाट सिक्ख ने अपने प्राण दिये। घटना इस तरह से है कि - लड़ाई के समय में गुरु गोविन्दसिंहजी अपनी पगड़ी बांध रहे थे। कीर्तिपुर के किले के किलेदार ने इनको तोप के गोले से उड़ा देना चाहा। गोला छोड़ दिया गया और गुरुजी का काम तमाम होने ही वाला था कि रामसिंह गुरुजी के आगे जाकर खड़ा हो गया। तुरन्त उसका सिर गोले से उड़ गया और इस तरह से उसने अपने प्यारे सिक्ख-धर्म के नेता के लिए अपने को बलिवेदी पर चढ़ा दिया।

सिक्ख-धर्म पर शहीद होने वाले सैंकड़ों जाटों में से दो एक का संक्षिप्त वर्णन यहां और देते हैं। मांझदेश के पूलापुर नामक ग्राम में तासूसिंह नाम के एक जाट जमींदार थे। एक वृद्ध माता और 13, 14 वर्ष की एक कुआरी बहन के सिवाय और कोई उनके परिवार में नहीं था। वे इतने धर्म-प्रिय थे कि खेत में जो कुछ पैदा होता, उस सबको (तीन प्राणियों के खरच से बचे हुए को) पंचखालसा की सेवा के लिये दे देते थे। कभी-कभी तो आप साग पात पर गुजर करते और जो सिख महमान उनके यहां आ जाते, उनका पूरी तरह से आतिथ्य करते। तासूसिंह


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-233


जी ने अपना विवाह केवल इसलिए नहीं किया था कि वह अपना निज का खर्च बढ़ाना नहीं चाहता थे। सम्वत् 1907 में किसी ने लाहौर के सूबेदार के पास जा करके तासूसिंह की सिखों को सहायता देने वाली बात को बढ़ा-चढ़ा करके उसकी चुगली की। उस समय सूबेदार ने यह हुक्म कर रखा था कि जो कोई सिखों की चुगली करेगा उसे 10 रुपया पुरस्कार मिलेगा। तासूसिंह की ऐसी हरकत को सुनकर सूबेदार ने तासूसिंह को गिरफ्तार करने के लिए उसी समय कुछ सिपाही भेज दिये।

तासूसिंह गिरफ्तार करके जब लाहौर के दरबार लाए गए, तो उन्होंने दरबार में पहुंचते ही ‘वाह गुरूजी का खालसा’ और ‘वाह गुरूजी की फतह’ का नारा लगाया। सूबेदार इस नारे को सुनते ही महा क्रोधित हुआ और तारूसिंह से कहने लगा कि तुम डाकू लोगों की सहायता करते हो, इसलिये तुम्हें मृत्यु-दण्ड दिया जायेगा । तारूसिंह ने अपने सहज स्वभाव से कहा - डाकुओं की तो नहीं, किन्तु अपने सिख भाइयों की अवश्य सेवा करता हूं। सूबेदार ने कहा - सिक्ख लोग राजद्रोही हैं। वह मुस्लिम-सुल्तान को नष्ट कर देना चाहते हैं और तुम उनकी सहायता करते हो, इसलिये तुम्हें कड़ी से कड़ी सजा देनी चाहिए। इस पर भी तारूसिंह जी ने बिना डरे और बिना उत्तेजित हुए यही उत्तर दिया कि मैं सिक्ख हूं और सिक्ख भाइयों की सब कष्ट सह करके भी सहायता करूंगा। कोई भी शक्ति मुझे कौमी सेवा से वंचित नहीं कर सकती।

आखिर गाजियों की सम्मति के अनुसार, सूबेदार ने तारूसिंह को मुसलमान होने के लिये तथा मुसलमान न होने पर, चर्ख पर चढ़ा देने की बात तारूसिंह से कही और तारूसिंह का यह उत्तर पाकर कि“मृत्यु के भय से धर्म-परिवर्तन करना सिंहों का काम नहीं” सूबेदार ने तारूसिंह को चर्ख पर चढ़ा देने का हुक्म दे दिया। जल्लादों ने उसी वक्त तारूसिंह को चर्ख पर चढ़ा दिया। चर्ख की घुमावट से उनका शरीर पिस गया, अस्थियां चूर हो गईं, खून के फव्वारे छूट निकले, सहृदय दर्शकों के हृदय हिल गए, वे मुंह फेर कर रोने लगे। लेकिन तारूसिंह के मुंह से आह तक न निकाली। खुद सूबेदार का दिल भी पसीज गया। उसने तारूसिंह जी को चर्ख से उतरवा कर पूछा - यदि तुम दीन इस्लाम कबूल कर लो तो मैं तुम्हें बहुत सा पुरस्कार दूंगा और अभी तुम्हारे प्राण भी बच सकते हैं, तुम्हारी क्या राय है? मुस्करा कर तारूसिंह ने कहा - “इस्लाम से बढ़ करके भी कोई अत्याचारी धर्म हो और वह भी मुझे डराना चाहे तब भी मैं अपने प्यारे सिक्ख धर्म को नहीं छोड़ सकता।” सूबेदार की आत्मा भाई तारूसिंह की शारीरिक अवस्था को देखकर कांप उठी और उसने तारूसिंह जी को हिन्दुओं के हवाले कर दिया। हिन्दू उन्हें एक धर्मशाला में ले गये, जहां पर उनका लाख सुश्रूषा करने पर भी स्वर्गवास हो गया।


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शाहवेगसिंह

ये लाहौर प्रान्त के एक साधारण जमींदार के घर में जन्मे थे। लेकिन पढ़ने-लिखने का इन्हें शौक था। फारसी में अच्छी योग्यता कर लेने के कारण लाहौर के सूबे में बारह गांवों की हाकिमी मिल गई थी। यद्यपि ये मुसलमानों के नौकर थे, किन्तु सिख-धर्म के कट्टर अनुयायी और जाति के पूर्ण पक्षपाती थे। जब यह कोतवाल हो गये तो इन सिखों की अस्थियों को जिनको मुसलमानों ने दीवार अथवा पृथ्वी में गढ़वा दिया था, निकलवा कर जलवाया और उनके समाधि, देहरे बनवाये। इस कारण से मुल्ला लोग बहुत चिढ़ गये और उन्होंने लाहौर के नये सूबेदार से शाहवेग सिंह की चुगली खाई कि यह सिख-धर्म का पक्षपाती तथा दीन इस्लाम का शत्रु है। जिस दिन काजी लोगों ने सूबेदार से यह चुगली की, दैवात् उसी दिन शाहवेग सिंह का पुत्र शहबाजसिंह अपने फारसी शिक्षक से धर्म विषयक शास्त्रार्थ कर बैठा। मौलवी उसके शास्त्रार्थ से चिढ़ गया तो काजी ने इसकी शिकायत भी सूबेदार से कर दी। पिता-पुत्र दोनों को दरबार में बुलाया गया और उनके सामने यही प्रस्ताव रखा गया कि “मौत और इस्लाम में से जिसे चाहो पसन्द कर लो”। शाहवेग सिंह ने इसके उत्तर में कहा - “यह हमारा सौभाग्य है कि हम लोग भी धर्म पर प्राण देने वालों की गणना में गिने जाएंगे। हमारा सिख-धर्म पवित्र है, उसको छोड़ करके हम ऐसे धर्म को स्वीकार नहीं कर सकते जो बर्बरता सिखाता हो।” सूबा लाहौर तथा काजी लोग भाई मनीसिंह और तारूसिंह जैसे धर्म-वीरों की घटनाओं से परिचित थे। किन्तु तो भी उन्हें यह विश्वास था कि हर वक्त मुसलमानों की सुहबत में रहने वाला शाहवेग सिंह समय पर अपनी कौम का साथ न देकर के मुसलमानों का साथी रहेगा अर्थात् उनके धर्म को ग्रहण कर लेगा। अब शाहवेग सिंह की ऐसी जाति-प्रेम और धार्मिक कट्टरता की बात सुनकर काजी लोग तथा सूबेदार बड़े आश्चर्यचकित हुए। दोनों पिता-पुत्रों को चर्ख पर चढ़ा दिया गया। जब उनका आधा शरीर कुचल गया तो फिर उनसे पूछा गया, किन्तु उन्होंने इस्लाम के बजाय मृत्यु को ही पसन्द किया। जल्लाद चर्ख घुमाते थे और दोनों बाप-बेटे ‘सत् श्री अकाल’ और ‘वाह गुरू की फतह’ का नारा लगाते थे। काजियों ने शहवाज सिंह के पास जाकर कहा - तू अभी नौजवान है, दुनियां का कोई भी आनन्द तूने नहीं देखा है। अगर मुसलमान हो जाएगा तो शाही दरबार में अधिकार तो मिलेगा ही, साथ ही मुसलमान सुन्दरी से तुम्हारा विवाह भी करवा देंगे। लेकिन शहवाज सिंह ने काजियों को फटकार दिया। हजारों हिन्दू दोनों पिता-पुत्रों की दशा देखकर रोते थे और पिशाच हृदय मुसलमान सूखी हंसी हंसते थे। जब तक उनके प्राण नहीं निकल गए ‘वाह गुरूजी का खालसा’ और ‘वाह गुरूजी फतह’ बोलते रहे।


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महताबसिंह, सुखासिंह

मस्सा नाम के एक मुसलमान जागीरदार ने अमृतसर के हरिमंदिर पर अपना डेरा आ जमाया। हरिमंदिर के दालान में खाट पर बैठ करके हुक्का पीने तथा रंडी-भडुओं के नाच-गाने करा करके सिक्खों के दिल को दुखाने लगा। अन्त में एक बुलाकसिंह नामक सिक्ख अपने गुरुस्थान की इस दशा से दुखित होकर बीकानेर प्रान्त के जाट सिक्खों के पास पहुंचा और वहां जाकर सारी कथा कह सुनाई। वहां के जाट-सिक्खों ने बुलाकासिंह को बहुत फटकारा कि तुम अपने पूज्य स्थान की ऐसी दशा देखकर भी अब तक जीवित हो? अन्त में बुढ़ासिंह नामक सिक्ख ने अपनी तलवार निकालकर जाट सिक्खों के सामने रख दी और कहा - है कोई ऐसा वीर जो इस तलवार से मस्सा म्लेच्छ का हमारे पास सर काटकर लाये? इस बात के सुनते ही दो युवक - एक महताबसिंह मीराकोट निवासी, दूसरे सुखासिंह मांड़ी ग्राम निवासी - उठ खड़े हुए और उसी तलवार को उठाकर अमृतसर की ओर घोड़ों पर सवार होकर चल दिए। जेठ मास की ठीक दुपहरी में वे अमृतसर पहुंचे और घोड़ों को पेड़ से बांधकर मंदिर में घुस गए। किसी ने टोका तो कहा कि हम मालगुजारी का रुपया देने के लिए जा रहे हैं। कन्धों पर उन्होंने पैसों से भरी हुई थैलियां भी डाल रखी थीं।

मस्सा उस समय भी चारपाई पर बैठा हुक्का पी रहा था। सामने रंडियां नाच रहीं थीं, भांड स्वांग कर रहे थे। साथ में शराब का प्याला भी चल रहा था। कोई शराब पीकर मस्ती में झूम रहा था, तो कोई रंडी के गाने पर ‘वाह-वाह’ कह रहा था। मस्सा भी नशे में चूर था। दोनों जाट सिक्खों ने थैलियां कन्धे से उतार कर मस्सा के सामने रख दीं। वह उन थैलियों की तरफ ज्यों ही देखने लग कि एक सिक्ख ने तलवार खींचकर उसका सिर भुट्टा-सा उड़ा दिया। दूसरा उन मुसलमानों के ऊपर टूट पड़ा जो चंद मिनट पहले ‘वाह-वाह’ का कहकहा लगा रहे थे। थोड़ी ही देर में अपनी सफाई के हाथ दिखा करके और मस्से का सर अपनी थैली में डालकर तुरन्त बाहर निकल आये और बात की बात में घोड़ों पर सवार होकर हवा से बातें करने लगे। उन दोनों सिक्ख वीरों ने बीकानेर पहुंचकर मस्से का सिर सिक्ख-मण्डल के सामने रख दिया। किन्तु लम्बे सफर के कारण तथा मंदिर की मार-काट से उनके घोड़े और वे जख्मी होने के कारण थोड़ी ही दिनों में वीरगति को प्राप्त हो गए।

इसके सिवाय जाटों की सिक्ख-धर्म पर शहीद होने की अनेक घटनाएं हैं और आज तक पंजाब में उन शहीद वीरों के गीत गाये जाते हैं। लाहौर में शहीदगंज के नाम से आज तक एक स्वतन्त्र मुहल्ला है जो कि धर्म पर बलिदान होने वाले वीरों की स्मृति कराता है। जिस भांति सिक्खों की 12 मिसलों में सबसे अधिक के


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सरदार जाट थे, उसी भांति धर्म पर शहीद होने वाले जाटों की संख्या भी अधिक है।

पंजाब-केसरी महाराजा रणजीतसिंह

सिक्खों की 12 मिसलों की स्थापना सम्बन्धी वृत्तान्त पीछे लिखा जा चुका है। इन्हीं 12 मिसलों में सुकरचकिया एक जबरदस्त मिसल थी। महाराजा रणजीतसिंह इसी मिसल में पैदा हुए थे।

इस मिसल का नाम सुकरचकिया इसलिए पड़ा था कि इस मिसल के संस्थापक और सदस्य सुकरचकिया गांव के निवासी थे। सुकरचकिया जाट मिसल थी, क्योंकि इसका नेता सरदार चरतसिंह जाट था। इस मिसल का इतना बल बढ़ा कि आगे चलकर इस मिसल का नेता महासिंह अन्य मिसलों के संचालकों में प्रधान माना गया। सुकरचकिया या सकरचन्द मौजा अमृतसर के निकट था। सरदार चरतसिंह ने थोड़े ही दिनों में वह शक्ति प्राप्त की कि युद्ध के लिए हर समय उनके पास ढाई हजार सैनिक तैयार रहते थे। ज्ञात ऐसा होता है कि यह कुल सिन्ध के जाटों का था, क्योंकि सिन्धान वालिया कहलाने वाले और सुकरचकिया इन दोनों वंशों के पूर्वजों का निकास एक ही स्थान से था। इनके पूर्वज भी (दोनों के) एक ही थे।

चरतसिंह की पूर्वजों का जो वृत्तान्त हमें प्राप्त हो सका है, वह इस प्रकार से है - सन् 1470 ई० के लगभग पिण्डीभट्टियां नामक गांव में कालू नाम के एक जाट सरदार रहते थे।1 लड़ाकू मिजाज होने के कारण घर वालों से लड़कर बाहर निकल पड़े। अमृतसर के पास सांसेरी नामक गांव में डेरा जमाया। राजासांसी नाम का गांव भी इन्हीं का बसाया हुआ है। यहां पर कालूजी के एक लड़का हुआ जिसका नाम जादूवंशी था। किसी-किसी इतिहास-लेखक ने उसका नाम ईदूमान भी रखा है। सांसी गांव में रहने के कारण ये लोग आगे चलकर सांसी जाट नाम से पुकारे जाने लगे। दन्तकथा के आधार पर यह भी कहा जाता है कि - ‘कालूजी के बच्चे जीते न थे, इसलिए ज्योतिषियों ने उसे सलाह दी थी कि कि जन्मदिन में सबसे पहले आने वाले आदमी को बच्चा पालने को दे दिया जाए और बड़ा होने पर वापस ले लिया जाए, इस तरह करने से बच्चा दीर्घायु होगा। कालूजी ने ऐसा ही किया, परन्तु सबसे पहले आने वाला आदमी सांसी जाति का था। अतः सांसी द्वारा पालित होने के कारण उसके वंशधर सांसी कहलाये।’ यह दन्तकथा अधिक तथ्य नहीं रखती, क्योंकि सांसी जाटों का समूह पहले से ही मौजूद था जो कि चन्द्र के पर्यायवाची शब्द शशि से सांसी कहलाते थे। एक दूसरा सासानी नाम


1. यह स्थान लाहौर के दक्षिण पश्चिम में आबाद है।


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का वंश Persia के उत्तर-पूर्व में बसा हुआ था, जिसके लिए ‘टाड साहब’ ने चन्द्रवंशी साबित किया है। सासानी शब्द, जिस प्रकार शशि से बना है, उसी प्रकार सांसी शब्द भी शशि से बना है।

कालूजी 1746 ई० में सांसी को छोड़कर वजीराबाद के पास सुण्ड में चले आए। यहां पर 1788 ई० में इनका स्वर्गवास हो गया। जादू वंशी ने सांसी जाटों का गिरोह बना करके लूट-मार आरम्भ कर दी, क्योंकि उस समय पंजाब में भारी अराजकता फैली हुई थी। किसी एक शासक का सारे पंजाब पर आधिपत्य न था। जो भी व्यक्ति शक्ति-संग्रह कर लेता था, वही किसी हिस्से का शासक बन बैठता। जाट कौम स्वभावतः या तो अराजकवादी थी या प्रजातन्त्रवादी। परन्तु परिस्थितियों ने उसे विवश कर दिया कि अनेक नौजवानों के हृदय में एकतन्त्र शासन या साम्राज्य कायम करने की भावनाएं जाग्रत हो उठीं । जादू भी ऐसे ही नौजवानों में से थे। राज्यवाद के विकास में एक स्थान डाके का भी है। प्रायः अनेक बड़े-बड़े राजा आरम्भ में डाकू की शक्ल में थे। जादू अपने साथियों समेत डाका डाल करके धन-संग्रह करता था और उस धन से साथियों की संख्या बढ़ाता था। सन् 1515 ई० के एक धावे में यह अपने अनेक साथियों के साथ मारे गए। जादू के मारे जाने के बाद उसका पुत्र गालिव सांसी जाटों का सरदार बन बैठा। गालिव के लिए मन्नू भी कहा जाता है। उसने बहुत सा धन और गाय-घोड़े संग्रह किये। लगभग तीस साल के अरसे में बहुत सा धन लूट-मार के जरिये से संग्रह कर लिया। सन् 1549 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा किद्दू सुण्डू गांव को छोड़कर गुजरांवाला के पास सुकरचकिया गांव में जाकर आबाद हो गया। यह बिल्कुल शान्त स्वभाव का लड़का था, इसलिए लोग इसको रामथल या भगतजी भी कहते थे। बाप के संग्रहीत धन से बहुत सी जमीन खरीदी और निष्कण्टक तथा निश्चिन्तता का जीवन व्यतीत करने लगा। अपने बाप की सी इसमें न उमंगें थीं, न ऊंचे इरादे। सन् 1578 में यह मर गया।

इसके दो लड़के थे - राजदाव और प्रेमू। बड़ा लड़का शान्त स्वभाव का था, उसने गुरुमुखी पढ़ करके व्यापार का काम आरम्भ कर दिया और उसका देहान्त 1620 ई० में हो गया। उसके तीन उत्तराधिकारी लड़कों में तेलू और नीलू तो युवावस्था में ही मर गए, लेकिन तीसरा बेटा तख्तमल अपने बाप के धन्धे-व्यापार द्वारा बड़ा भारी साहूकार बन गया। उसके दो बेटे थे - एक बाबू दूसरा बारा। बाबू ऐसे लोगों के दल में मिल गया जो लूट-मार के जरिये से मालामाल होना चाहते थे और साथ ही राज्य भी कायम करना चाहते थे। बारा गुजरांवाला के एक भगत का चेला बन गया और ग्रन्थ-साहब को पढ़कर सिक्ख-धर्म का प्रचार करने लग गया। सिक्ख-धर्म का वह इतना बड़ा प्रेमी था कि चलते, फिरते, उठते,


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बैठते, खाते, पीते उसका प्रचार करता रहता था। सन् 1679 ई० में मरते समय अपने बेटे बुद्धा को सबसे पहले यह आज्ञा दी कि सिक्ख हो जाए और सिक्ख-धर्म का प्रचार करता रहे। बुद्धा ने अपने बाप का हुक्म मान करके सन् 1692 ई० में सिक्ख धर्म की दीक्षा ली। बुद्धा बड़ा बहादुर, साहसी और पराक्रमी था। सिक्खों के एक बड़े दल ने इसे अपना नेता मान लिया। वह इस दल के साथ लूट-मार करने लगा। अपनी दिलेरी और बहादुरी के प्रताप से उसने अपना बड़ा नाम पैदा किया और रहने के लिए एक विशाल भवन बनवाया। जैसा वह वीर था, वैसी ही उसके पास देसू नाम एक एक अवलख घोड़ी थी, जिस पर चढ़कर उसने पचासों बार झेलम, चिनाव और रावी नदियों को पार किया था। उसकी बहादुरी इसी से जानी जाती है कि उसके शरीर में तलवार और बरछों के चालीस घाव थे। जिधर से वह निकल जाता, लोगों में आतंक छा जाता था। सन् 1716 ई० में उसकी मृत्यु हो गई।

बुद्धासिंह की मृत्यु के बाद उसकी पतिव्रता और सत्यवती स्त्री ने कलेजे में तलवार भोंक कर जान दे दी, क्योंकि ऐसे बहादुर पति के वियोग को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। इस प्रकार वह अपने पति के साथ सती हो गई। बुद्धासिंह के दो बेटे नौधसिंह और चन्दासिंह नाम के थे। चन्दासिंह की औलाद के लोग सिंधिया वाले कहे जाते थे। दोनों लड़के अपने बाप के समान वीर थे। उन्होंने सुकरचकिया गांव को अपने अधिकार में कर लिया। नौधसिंह आक्रमण करने में इतना बहादुर था कि रावलपिण्डी से सतलज तक उसका खौफ छा गया था। मजीठ के सांसी जाट गुलाबसिंह ने अपनी लड़की की शादी नौधसिंह के साथ कर दी और गुलाबसिंह और उसका भाई नौधसिंह का साथ देने लगे।

अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर जब पहला हमला किया था तो नौधसिंह ने नवाब कपूरसिंह के साथ मिलकर अब्दाली की सेना पर आक्रमण कर दिया और बहुत सा माल असबाब लूट लिया। इस लूट में उसके हाथ इतना माल लगा कि वह सुकरचक का सरदार कहलाने लगा। यह अहमदशाली अब्दाली वही था कि जिसने सन् 1761 ई० में पानीपत के मैदान में भारत की भाग्यश्री को समाप्त किया था। इस प्रकार से नौधसिंह महाराजा सूरजमलजी का समकालीन ठहरता है। नवाब कपूरसिंह सिक्खों में बहुत ही पूज्य थे। सिक्ख लोग उनको रिद्ध-सिद्ध सम्पन्न महापुरुष समझते थे। इनके साथ में सिक्खों का एक बड़ा भारी दल रहता था। राजा आलासिंह ने जो कि पटियाले के संस्थापक थे, अपने पुत्र लालसिंह तथा दौहित्र अमरसिंह जी को इन्हीं नवाब कपूरसिंह जी के हाथ से अमृत पिलवाकर सिक्ख-धर्म की दीक्षा दिलवाई थी। इस प्रकार से राजा आलासिंह जी भी महाराज सूरजमल तथा जवाहरसिंह के समकालीन थे।


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सन् 1848 ई० (?) में अफगानों से युद्ध करते हुए नौधसिंह के गोली लगी। उसी की पीड़ा में उनका देहान्त हो गया। जिस समय नौधसिंह का देहान्त हुआ था उस समय उनके लड़के चरतसिंह की अवस्था केवल 5 साल की थी। सन् 1754 ई० के करीब उसने कुछ मजहबी सांसी जाट और दूसरे लुटेरों का गिरोह इकट्ठा करके लूटमार शुरू कर दी। उसने गुजरानवाला में एक मिट्टी का दुर्ग बना लिया और सिक्खों की एक मिसल बनाई। उसका इतना खौफ बढ़ा कि बकाली के सरदार मुहम्मदयार ने केवल डर की वजह से अपनी रियासत का इन्तजाम चरतसिंह के सुपुर्द कर दिया और खुद 15 सवारों के साथ उसके गिरोह में शामिल हो गया।1 चरतसिंह के पास आरम्भ में सिर्फ 150 सवार थे जिनकी मदद से उसने गुजरांवाला के किले पर कब्जा कर लिया और वहां के अमीरसिंह नामक एक सांसी सरदार की लड़की से शादी कर ली।2 अमीरसिंह भी इतना बहादुर था कि उसने झेलम से लेकर दिल्ली तक लूटमार की थी। उसके मुकाबले में खड़े होने की हिम्मत बहुत कम लोगों की पड़ती। इन दोनों सरदारों ने मिलकर के अमीनाबाद पर हमला किया और वहां के मुगल सरदार का कत्ल कर डाला। इनकी लूटमार और बहादुरी से लाहौर के सूबेदार को सशंक होना पड़ा। सन् 1757 में इनकी बढ़ती हुई ताकत को देखकर उसने इन पर हमला किया, परन्तु चरतसिंह और अमीरसिंह की मार के सामने मुसलमान ठहर न सके, वे भाग खड़े हुए और उनका बहुत-सा सामान चरतसिंह के हाथ लगा। इस लड़ाई में लाहौर के मुसलमान सरदारों को काफी नुकसान सहना पड़ा और उनको यह अनुभव हो गया कि हम चरतसिंह का मुकाबला नहीं कर सकते। बिना शक्ति, सहायता के इनसे विजय पाना असम्भव है।3

चरतसिंह जैसा बहादुर और पराक्रमी था, वैसा ही नीतिज्ञ और अग्रसोची भी था। उसने अपनी नीति से जस्सासिंह और भंगी सरदारों से मेलजोल पैदा कर लिया था। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि का पता इस बात से चल जाता है कि अहमदशाह अब्दाली से, जबकि वह पानीपत लौटकर आ रहा था, टक्कर लेने की तैयारी से पहले ही उसने स्त्री-बच्ची और माल असबाब को जम्बू भेज दिया था।4 पानीपत के युद्ध में महाराज सूरजमल ने भी सदाशिवराव भाऊ को भी यही सलाह दी थी कि माल असबाब और स्त्री-बच्चों को किसी सुरक्षित स्थान में भेज दे। किन्तु भाऊ


1. तारीख पंजाब। पेज 384। भाई परमानन्द लिखित। 2. स्मरण रहे सांसी वंश था, गोत्र नहीं। 3. लाहौर के इस मुसलमान सरदार का नाम कि जिसका चरतसिंह से युद्ध हुआ था, ईदखां था। 4. तारीख पंजाब। पेज 384। भाई परमानन्द लिखित।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-240


ने सूरजमल की सलाह को न माना और आखिरकार उसके उत्तराधिकारियों ने इसका फल भोगा। विचारणीय बात तो यह है कि जिस बात को ब्रज का जाट सोचता है, उसी को पंजाब का जाट भी सोच लेता है और भाऊ की भांति मूर्ख नहीं बनता। इसके सिवाय चरतसिंह ने एक बात यह और की कि अब्दाली के आने से पहले ही आस-पास के पठानों को लूट-पाट करके कमजोर बना दिया। अहमदशाह अब्दाली का दल बहुत था और पठान विजय के मद में चूर थे और वे हिन्दुस्तानी लोगों को गाजर-मूली की तरह समझते थे। उनका साहस बढ़ा हुआ था, फिर भी उनकी फौज पर छापा मार के उनको तंग कर ही दिया। अहमदशाह की फौज व्यास नदी को जब पार कर रही थी, तब जाट सिक्खों ने ऐसा हमला किया कि उनके होश उड़ गए। दोनों ओर से खूब लड़ाई हुई। अन्त में पठान भाग निकले। पठानों के भागने से कैदी हिन्दू लोग भी छूटकर सिखों का जय-जयकार मनाने लगे। अहमदशाह ने अपनी फौज के लोगों को बहुत तिरस्कृत किया कि वे जाटों के सामने से भाग खड़े हुए। अहमदशाह की यह भी इच्छा हुई कि कुछ दिन लाहौर में निवास करके सिखों का उचित प्रबन्ध किया जावे। परन्तु किसी कार्य विशेष से व्यग्र होकर उसको उसी काल में काबुल की ओर रवाना होना पड़ा।

वहां जाकर उसने एक नूरुद्दीन नामक सरदार को सात हजार फौज देकर सिखों के अत्याचार शान्त करने को भेज दिया।1 इधर इन दिनों में अब्दाली के चले जाने के बाद चरतसिंह ने वजीराबाद और अहमदाबाद को लूटकर अपने कब्जे में कर लिया। अहमदाबाद में उसे खबर मिली कि नूरुद्दीन हिन्दुओं को तंग कर रहा है तो झट वह उसके मुकाबले पर पहुंच गए।2 दोनों ओर से अत्यन्त साहस से लड़ाई हुई। अनेक वीर महानिद्रा में शयन कर गए। नूरुद्दीन पराजित होकर भाग निकला और स्यालकोट के किले में जा घुसा। जब सिखों ने स्यालकोट को भी घेर लिया तो वहां से रात्रि में भागकर जम्बू में जा पहुंचा।3 चरतसिंह ने नूरुद्दीन को लूटने के बाद चकवाल और पिण्डदादन खां को फतह किया और वहां के मुसलमानों से बहुत सा जुर्माना वसूल किया था। इन जगहों के मुसलमान चरतसिंह के सामने माफी मांगने को खड़े हुए तो उसने उदारतापूर्वक उनकी जान बक्स दी। इसके बाद साहब खां और राजाकाकोट नामक स्थानों को फतह करके गुजरानवाला वापस आया।4


1. इतिहास गुरु खालसा। पेज 593-94 2. तारीख पंजाब। पेज 385, भाई परमानन्द लिखित। 3. इतिहास गुरु खालसा, 594 4. तारीख पंजाब। पेज 385, भाई परमानन्द लिखित।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-241


नूरुद्दीन के पराजित होने का समाचार लाहौर के सूबेदार ख्वाजा हमैयद खां ने सुना तो वह भी अपनी फौज लेकर के सिखों का मुकाबला करने के लिए निकल पड़ा। गुजरानवाला के समीप पहुंचकर भयानक युद्ध हुआ और यहां पर भी विजयलक्ष्मी सिखों के ही हाथ रही और हमैयद खां भाग्कर लाहौर चला गया। चरतसिंह की इन विजयों से उसका प्रभाव हिन्दू और मुसलमानों तथा सिख सभी पर छा गया।

इन दिनों जम्बू में रणजीत देव राज्य करता था, जिसका विस्तृत वर्णन ‘राजतरंगिणी’ में मिलता है। वह अपने बड़े बेटे ब्रजराज से अप्रसन्न था। उसको राज्य से वंचित रखकर अपने छोटे लड़के दयालुसिंह को राज्यगद्दी देना चाहता था। ब्रजराज ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया और चरतसिंह से मदद मांगी। अपने बाप को राज से अलग कर देने के बदले में बहुत सा रुपया बतौर सालाना खिराज के देने का वायदा भी चरतसिंह से किया। चरतसिंह की रणजीतदेव से पहले से ही शत्रुता थी क्योंकि हिन्दू राजा से युद्ध करने का यह पहला ही अवसर था। परिस्थियां मनुष्य को लाचार कर देती हैं। चरतसिंह मुसलमानी राज्य को उखाड़ कर पंजाब में जाटशाही कायम करने का इच्छुक था। इसके लिए उसे स्थाई सम्पत्ति और अधिक सेना की आवश्यकता थी। रणजीतदेव से लड़कर विजयी होने में उसकी यह समस्या हल होती थी। इसलिए उसने इस समय को अच्छा अवसर समझकर के जम्बू पर चढ़ाई कर दी। चाहिए तो यह था कि सभी सिख-जाट चरतसिंह की मदद करते। परन्तु भंगी नसल के जाट कुछ लोभ में आकर रणजीतदेव के साथ मिल गए। चरतसिंह की सहायता के लिए कन्हैया मिसल का सरदार जयसिंह भी साथ था। इन्होंने जम्बू राज की वसन्ती नामक नदी के किनारे अपनी सेना उतार दी। जब जम्बू नरेश को यह समाचार मिला तो उसने अपनी सहायता के लिए चम्बा, नुपुर, बूशहर और कांगड़ा के सरदारों से मदद मंगवाई क्योंकि वह जानता था कि चरतसिंह से मामना करना मेरी ताकत से बाहर है। जब उसकी मदद को वे लोग आ गए, तब उसने चरतसिंह का सामना उसी नदी के किनारे किया, जहां कि उसकी सेना पड़ी हुई थी। चरतसिंह लड़ाई लड़ने में खूब निपुण था। उसने कई ओर से रणजीतदेव की फौज पर आक्रमण किया। आक्रमण के समय छोटी-छोटी टोली सैनिकों की भेजता था। उसमें बहादुरी की एक खास बात यह भी थी कि वह इन फौजी टुकड़ियों के साथ खुद जाता था। चरतसिंह की जीत अवश्यम्भावी थी किन्तु उसकी तोड़ेदार बन्दूक फट जाने से उसकी मृत्यु हो गई और अपने ऊंचे विचार लेकर सदा के लिए दूसरी दुनिया को चला गया। मृत्यु के समय उसके बड़े लड़के महासिंह की अवस्था केवल 10 साल की थी।

महत्वाकांक्षी पुरुष अपने समाज के लिए आदर्श होते हैं। चरतसिंह भी ऐसे


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महापुरुषों में से था जिसने अपनी जाति के सामने एक महान् आदर्श रखा, उसी आदर्श पर चलकर के आगे उसकी सन्तान ने इतनी उन्नति की कि उसका पोता पंजाब-केसरी के नाम से पुकारा जाने लगा। चरतसिंह ने अपने बेटे के लिए तीन लाख सालाना आय का इलाका छोड़ा था। यह सब कुछ उसने तलवार के बल से प्राप्त किया था। भंगी मिसल का सरदार झण्डासिंह जो कि रणजीतदेव के साथ मिल गया था, चरतसिंह की धर्मपत्‍नी और सरदार जैसिंह कन्हैया ने एक महतर के हाथ से उसे मरवा दिया। उसकी मृत्यु से झगड़ा मिट गया और सेनायें अपने-अपने देश को वापस लौट गईं। यह घटना सन् 1774 ई० की है।

चरतसिंह की मृत्यु के एक साल बाद महासिंह ने झींद के स्वामी राजा गजपतसिंह की भाग्यवती कन्या राजकुंवरि से विवाह किया। महासिंह बड़ी भारी बारात लेकर झींद में आए। फुलकिया मिसल के सारे सरदार इनकी अगवानी को आये थे। विवाह के भोज और आनन्द आदि के समय नाभा और झींद के बीच एक झगड़ा उत्पन्न हो गया। कारण यह था कि बरातियों ने चराई की भूमि से घास काट ली थी। नाभा के कार्यकर्ताओं ने इन पर आक्रमण कर दिया। झींद का राजा विवाह का अवसर देखकर चुप रहा। जब उसको अवकाश मिला तो उसने नाभा के राजा हमीरसिंह को पकड़कर उसके बहुत से इलाके दबा लिए।

महासिंह की नाबालिगी में उसके राज्य का कुल काम उसकी मां देशां ने संभाला। उसके कुछ सरदार बागी भी हुए परन्तु उनकी बगावत असफल रही। देशां ने कन्हैया सरदार के साथ मिलकर रसूल नगर पर हमला किया जहां कि छत्ता मुसलमान राज करते थे। उसके शासक का नाम पीर मुहम्मद था। इस युद्ध में महासिंह भी मौजूद था। यद्यपि उसकी उम्र केवल बारह साल की थी तो भी युद्ध के कला-कौशल में अपने बाप से भी बढ़ा-चढ़ा था। इस लड़ाई का कारण यह है कि भंगी सरदार झण्डासिंह ने अहमदशाह अब्दाली की सेना पर आक्रमण करके जमजमा नामक तोप को छीन लिया था और उसे पीरमुहम्मद के पास अमानत के रूप में रख दिया था। वह उस तोप को देने से इन्कारी हो गया क्योंकि तोप बढ़िया थी। जब महासिंह ने उसके इलाके पर आक्रमण करके लूटमार की तो पीरमुहम्मद ने सन्धि करने की प्रार्थना की। परन्तु महासिंह सहमत नहीं हुआ और उसने पीरमुहम्मद को मार दिया और उसके बेटों को तोपों के मुंह के साथ बांधकर उड़ा दिया। इस बात से उसकी कीर्ति बहुत बढ़ गई। महासिंह ने रसूल-नगर का नाम रामनगर और अलीपुर का नाम अकालगढ़ रख दिया। पीरमुहम्मद के कुल इलाके को अपने राज्य में मिला लिया।


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इस घटना के दो वर्ष पश्चात् महासिंह1 के यहां रानी राजकौर के गर्भ से रणजीतसिंह का जन्म हुआ। महासिंह ने पुत्रोत्सव में बड़ी भारी खुशी मनाई। कई दिन तक भोज होते रहे। कहते हैं सारे सिखों को भोज दिया गया था और हजारों रुपये दान किये गये थे। कुछ वर्ष बाद बालक रणजीतसिंह के चेचक निकली। महासिंह ने बहुतेरे दान-पुण्य किये। ज्वालामुखी और कांगड़ा को तोहफे भेजे। बालक रणजीतसिंह की जान तो बच गई, किन्तु एक आंख जाती रही। मुंह पर चेचक के दाग भी हो गए क्योंकि चेचक रणजीतसिंह के बड़े जोर से निकली थी।

इन्हीं दिनों तैमूरशाह ने भारत पर आक्रमण किया। मुलतान और बहावलपुर पर भंगी सरदारों का राज्य था। तैमूरशाह की लड़ाई में वे विजय प्राप्त न कर सके और उन्होंने बहावलपुर तथा मुल्तान को छोड़ दिया। भंगी सरदारों को इतना कमजोर समझकर महासिंह ने उनके ईशाखेल और मूसाखेल स्थानों पर कब्जा कर लिया और झंग पर चढ़ाई कर दी। चूंकि भंगी सरदार आपसी झगड़ों में लगे हुए थे, इसलिये उन्होंने महासिंह का मुकाबला नहीं किया। महासिंह का साहस और भी बढ़ गया और उसने स्यालकोट के निकटस्थ कोटली स्थान पर भी कब्जा कर लिया। यह स्थान बन्दूक बनाने में बड़ा प्रसिद्ध था। यहां की बनाई हुई बन्दूकें उस समय में पंजाब में बढ़िया समझी जाती थीं। इस स्थान पर महासिंह ने आस-पास के कई छोटे-छोटे सरदारों को मंत्रणा करने के बहाने से बुला लिया और कैद कर लिया। कहा जाता है कि उन पर बड़े जुर्माने किये और जुर्माने की रकम वसूल हो जाने पर उन्हें छोड़ा।

इतने में खबर लगी कि जम्बू का राजा ब्रजराज व्यभिचार में फंसकर प्रजा की गाड़ी कमाई को स्वाहा कर रहा है और उसकी प्रजा भी उससे तंग आ रही है। राज-काज की ओर से वह इतना लापरवाह है कि भंगी सरदारों ने उसका बहुत इलाका छीन लिया है। इस खबर से महासिंह की इच्छा हुई कि जम्बू पर कब्जा करने का यह दैवी मौका है। उधर व्रजराज सोच रहा था कि महासिंह से सहायता लेकर अपने छिने हुए इलाकों को वापस ले लेना कोई कठिन काम नहीं है। इसलिये उसने महासिंह से मदद मांगी। महासिंह ने पहली मित्रता का ख्याल करके व्रजराज को मदद दी भी, किन्तु कन्हैया मिसल के सरदार हकीकतसिंह से विजय प्राप्त नहीं हुई। इस तरह व्रजराज को दुहरा घाटा उठाना पड़ा। उसने जुर्माने के स्वरूप कन्हैया सरदार को पचास हजार सालाना दे करके जान बचाई। जब व्रजराज कायदे के अनुसार अदायगी न कर सका तो कन्हैया सरदार ने महासिंह को समझा-बुझाकर अपने साथ मिल जाने पर राजी किया। शर्त यह रखी


1. महासिंह का एक भाई भी था जिसका नाम सोहिजसिंह था। ‘पंजाब-केसरी’पेज 13


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गई कि जम्बू राज्य को दोनों आधा-आधा बांट लें। महासिंह राजी हो गया और बहुत सी फौज लेकर जम्बू पर चढ़ गया। किन्तु कन्हैया सरदार से पहले पहुंच जाने के कारण उसने बिना उसके आये ही जम्बू पर धावा बोल दिया। व्रजराज में यह शक्ति न थी कि वह महासिंह का सामना कर सके, इसलिये वह भाग गया। महासिंह ने जम्बू शहर की बड़ी भारी लूट करवाई और अपने देश को बहुत से लूट का धन देकर चल दिया। कन्हैया सरदार ने महासिंह के इस काम को दगावाजी समझा। वह बहुत नाराज हुआ। इसी नाराजगी और चिन्ता में थोड़े ही दिनों में उसका देहान्त हो गया।

सन् 1784 ई०' में दीवाली के मौके पर महासिंह अमृतसर में स्नान को गया। यहां उसे कन्हैया मिसल के सरदार हकीकतसिंह का लड़का जैसिंह मिला। वह महासिंह से इस बात से बहुत नाराज था कि उसने उसके बाप हकीकतसिंह के साथ धोखा करके अकेले ही अकेले जम्बू को लूट लिया। इसी कारण से उसने महासिंह के बहुत से इलाके को अपने काबू में कर लिया था। महासिंह ने अमृतसर की इस मुलाकात में जैसिंह से मित्रता करने के लिये बहुत कुछ खुशामद की। परन्तु जैसिंह ने बिना जम्बू की लूट में से हिस्सा लिये मित्रता करना स्वीकार नहीं किया। महासिंह लूट में से हिस्सा नहीं देना चाहता था, इस कारण दोनों ओर से तनातनी हो गई और जैसिंह ने यहां तक कह दिया कि भगतिया (नाचने वाले लड़के) यहां से चले जाओ। महासिंह इसे बर्दाश्त न कर सका और कुछ सवार लेकर अमृतसर से बाहर निकल आया। कन्हैया सरदार ने जैसिंह से इस बात का बदला लेने के लिये और उसे नीचा दिखाने के लिये जस्सासिंह रामगढ़िया और राजा संसारसिंह कांगड़े वाले को गांठा। जस्सासिंह की कन्हैया सरदार से पहले लड़ाई हो चुकी थी और वह भागकर हांसी पहुंच गया था। उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ महासिंह की सहायता करना स्वीकार किया। अन्य सरदार जो जैसिंह से अप्रसन्न थे, महासिंह के झण्डे के नीचे आ गये।

जैसिंह के निवास-स्थान बटाले में दोनों तरफ से बड़ी भारी लड़ाई हुई जिसमें कन्हैया सरदारों को बुरी तरह से हारना पड़ा। जैसिंह का पुत्र गुरुबख्ससिंह मारा गया। जैसिंह ने बाकी फौज लेकर नौशहरा में महासिंह पर फिर हमला किया परन्तु इस बार भी हारना पड़ा और भागकर नूरपुर पहुंचा। सन्धि का जब प्रस्ताव हुआ तो कांगड़े का दुर्ग संसारसिंह को और जस्सासिंह रामगढ़िये का कुल इलाका जो कि जैसिंह ने छीन लिया था, फेर देने की शर्त महासिंह की ओर से रखी गई। इस मौके पर गुरुबख्ससिंह की स्त्री सदाकौर ने बड़ी समझदारी से काम लिया कि अपनी बेटी महताबकौर की सगाई रणजीतसिंह के साथ करके दोनों मिसलों में मेल करा दिया। यह शादी आगे चल करके सन् 1786 ई० में बड़ी धूमधाम से बटाले में हुई। सन् 1788 ई० में भंगी सरदार गूजरसिंह का स्वर्गवास हो गया।


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उसके दो बेटे फतहसिंह और साहबसिंह थे। इन दोनों में राज्य के लिये आपस में झगड़ा हो गया। महासिंह ने साहबसिंह से खिराज मांगा लेकिन साहबसिंह बहुत नाराज हो गया और उसने उनके इलाके गुजरात पर हमला कर दिया। साहबसिंह ने सहोदरा के किले में बैठ करके युद्ध किया। तीन महीने तक बराबर महासिंह सहोदरा का घेरा डाले पड़ा रहा, परन्तु बीमार होने के कारण उसे अपने स्थान गुजरानवाला में आना पड़ा और वह वहां आकर के मर गया।

‘तारीख पंजाब’के लेखक भाई परमानन्द ने लिखा है कि चरतसिंह और महासिंह दोनों बड़े वीर और विजयी हुये। उनके समय में सुकरचकिया मिसल का दबदबा बढ़ता ही गया और वह सब मिसलों में बड़ी मानी जाने लगी। खेद है कि इन दोनों महावीरों की स्त्रियां अच्छे चलन की न थीं।

महाराजा रणजीतसिंह से पूर्व पंजाब की अवस्था

लगभग पिछले 800 वर्षों से पंजाब मुसलमानों के आक्रमणों, लूटमार और अत्याचारों से पीड़ित था। महमूद गजनवी, मुहम्मदगौरी, बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, औरंगजेब, नादिरशाह, अहमदशाह और तैमूर आदि के आक्रमणों से एक ओर यदि हिन्दुओं का राज्य नष्ट हो गया था, तो दूसरी ओर उनका धर्म भी सुरक्षित न था। हिन्दू राजे या तो भागकर पहाड़ों में छुप गये थे या मुसलमानों से मिलकर अपने ही भाइयों पर अत्याचार कर रहे थे। हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया जाता था। उनकी ललनाओं का अपहरण किया जाता था। जनेऊ और मंदिर तोड़े जा रहे थे। मसजिद और मकबरे बनाये जा रहे थे और न होने वाले अत्याचार हो रहे थे। जो लोग मुसलमान नहीं होते थे, उन पर जजिया लगा दिया जाता था। सैंकड़ों वर्ष के अत्यचारों को सहते-सहते हिन्दुओं के अन्दर से जातीयता और राज्य-भावना नष्ट हो गई थी। सामूहिक रूप से अत्याचारों का मुकाबला करना उनके लिये स्वप्न हो गया था। ऐसी हालत में भी जबकि पंजाब की समस्त हिन्दू जातियों को मिलकर मुसलमानों का मुकाबला करना चाहिये था, ब्राह्मण हिन्दुओं के अन्दर छुआछूत और नीच-ऊंच के भावों का बीज बो रहे थे। यह ईश्वरीय कृपा थी कि पंजाब के अन्दर गुरु नानक पैदा हुए जिनके उपदेश से जाटों के अन्दर राष्ट्रीयता के भाव पैदा हो गये और उन्होंने ब्राह्मणों की गुलामी के जुए को फेंक करके जाटशाही स्थापित करने के लिये कमर कसी। चरतसिंह, महासिंह, जैसिंह आदि ऐसे ही विचार के लोग थे। सब इसी विचार में थे कि अधिक से अधिक भूमि पर जाटों का कब्जा व शासन हो। सिक्खों की बारह मिसलों में से आठ मिसल जाटों के हाथ में थीं। आठों मिसल बड़ी बहादुरी और तेजी के साथ अपना राज्य-विस्तार करने की कौशिश में लगी हुई थीं। उन्होंने नादिरशाह, अहमदशाह और तैमूर जैसे दुर्दान्त लुटेरे आक्रमणकारियों


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के दांत खट्टे किये थे। इनकी बहादुरी और जांनिसारी का पता इससे चल जाता है कि अहमदशाह जैसे विजयी वीर को जिसने कि पानीपत के मैदान में भारत की सबसे बड़ी शक्ति मराठों को हराया था, भंगी मिसल के सरदारों ने आक्रमण करके उसकी नामी तोपों को छीन लिया। बल्कि नादिरशाह ने लाहौर के सूबेदार से पूछा था कि काबुल से लेकर दिल्ली तक मेरा किसी ने सामना नहीं किया, किन्तु ये लोग कौन हैं जिन्होंने छापा मार करके मेरे धन-माल को लूट लिया और फौज को हानि पहुंचाई? तुम मुझे उन लोगों के चिह्न बता दो तो मैं पहले उनका ध्वंस करूं, पीछे अपने देश को जाऊं? इसके जवाब में जाट-सिक्खों के बारे में सूबेदार-लाहौर ने नादिरशाह को यह जवाब दिया कि -

जहांपनाह! यह एक विचित्र, जबरदस्त कौम है, जिसका इस समय न तो कोई स्थायी घर है और न कोई मुकाम। यदि रात्रि को यहां है, तो दिन को एक सौ कोस दूर पर इनका पता चलता है। जंगल के फल-फूल और साग-पात आजकल इनकी खुराक है। घोड़ों की पीठ ही इनकी चारपाई है। लड़कर मरने-मारने के लिए बहुत ही प्रेमी हैं। शीत, धूप और वर्षा उनके लिये सब समान है। सिर पर साफा, गले में चोला, कमर में जांघिया इनकी पोशाक है। मुसलमानों के दिली दुश्मन हैं। उनका एक-एक मनुष्य पचास-पचास पर भारी होता है। मृत्यु का तो उनको जरा भी भय नहीं है। वे अपने शरीर के जख्मों की मरहमपट्टी नहीं करते, उनके जख्म गेंडे पशु की तरह अपने आप अच्छे हो जाते हैं। हमारे बहुत से मनुष्य इनके हाथों से मर चुके हैं, परन्तु ये लोग काबू में नहीं होते। मजहब इनका हिन्दू व मुसलमान दोनों से निराला है। परस्पर बहुत ही इत्तिफाक रखते हैं। भूख या प्यास की कुछ भी परवाह नहीं करते। चाहे उपवासों पर उपवास बीत जाएं, परन्तु लड़ने से मरने तक भी नहीं हटते। इस कौम ने हमारा तो नाक में दम कर रखा है।

नादिरशाह इस बात को सुनकर आश्चर्य में पड़ गया और अपने इरादे को बदल दिया। यह सब कुछ होते हुए भी पंजाब के जाटों के अन्दर जो कि सिख धर्म में दीक्षित हो गये थे, कुछ राजनैतिक कमी थी। वह यह कि जिस इलाके को फतह कर लेते थे, उसका शासन-प्रबन्ध किसी योग्य आदमी के हाथ में न सौंप उसे वैसे ही पड़ा रहने देते थे, जिससे वह थोड़े ही समय बाद हाथ से निकल जाता था। दूसरी यह कि राज्य बढ़ाकर मालगुजारी द्वारा धन-संग्रह करने की अपेक्षा लूट-मार द्वारा धन संग्रह करते थे। हालांकि उस समय की परिस्थिति के अनुसार कुछ हद तक उनका यह कृत्य उचित भी था, परन्तु सर्वांश में नहीं। तीसरे, ये लूट-मार के लालच से आपस में भी एक दूसरे से लड़ पड़ते थे और एक-दूसरे के इलाके को लूट लेते थे। लूट-पाट की अपेक्षा यदि ये लोग राज बढ़ाने को ही अधिक महत्व देते और आपस में लड़ने पर तैयार न होते तो काश्मीर के राज्य पर महासिंह और जयसिंह व्रजराज को भगाने के बाद, कब्जा कर सकते थे। लेकिन एक ओर, जहां


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उनके हृदय में राज्य बढ़ाने की इच्छा थी, दूसरी ओर उनमें आपस में प्रतिस्पर्धा थी। यदि उन दोनों में से उस समय एक भी झुक जाता और समझ से काम लेता तो सम्भव है कि आगे चलकर महाराज रणजीतसिंह का कार्यक्षेत्र कुछ अधिक साफ हो जाता और उनका वह समय बचकर किसी अन्य कार्य में लग जाता, जो कि इन्हें काश्मीर विजय करने में लग गया था।

परन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि इन वीरों ने जाट जाति को जगा करके फिर से रणक्षेत्र में खड़ा कर दिया और उसने सदियों से खोये हुए वैभव को पुनः प्राप्त किया। इससे उनके जात्याभिमान का पता चल जाता है कि उन्होंने शहरों के - मुसलमान शहरों के - नाम पलट दिए और हिन्दू नामों से उनका संस्कार किया। युद्ध-सम्बन्धी उनकी यह भी विशेषता थी कि युद्ध में उनके बहुत कम आदमी काम आते थे और बहुत कम कैद होते थे। ये उनकी स्त्रियों का भी गुण था कि पति के मरने पर उनके कामों को तुरन्त संभाल लेती थीं। उन्होंने जो भी कुछ प्राप्त किया अधिकांश में वह विदेशी-विधर्मियों से तलवार के जोर से प्राप्त किया था।

रणजीतसिंह का बाल्यकाल

महासिंह जी की सारी उम्र युद्ध में बीती। अपने बाहुबल से वे पंजाब में सबसे बड़े इलाकेदार हो गये। परन्तु उनको राजा की उपाधि नहीं प्राप्त हुई थी। जिस समय महासिंह की मृत्यु हुई थी, उस समय उनकी अवस्था सिर्फ 27 साल की थी1 और रणजीतसिंहजी की सिर्फ 12 साल की थी। इनका लालन-पालन माई मलावां ने किया था। इनकी मां ने इनके लिए सलाहकार के तौर पर दीवान लखपत राय को रक्खा था। रानी सदाकौर जो कि रणजीतसिंह की सास थी, राजकाज में हर प्रकार की सहायता करती रहती थी, यह बड़ी समझदार और दिलेर थी। राज का कार्य सम्भालने में बड़ी चतुर थीं और जब जैसिंह सन् 1793 ई० में मर गया तो कन्हैया मिसल पर इनका ही अधिकार था। सदाकौर ने सोचा कि रणजीतसिंह की फौज से इस कदर काम लेना चाहिये कि मेरी और इनकी जागीरों में दूसरों को हस्तक्षेप करने का अवसर न मिले। इसलिए कन्हैया और सुकरचकिया दोनों मिसलों के सारे अधिकार अपने हाथ में रक्खे और सबसे पहले रामगढ़ियों से प्रबन्ध ठीक किया। सन् 1796 ई० में अपनी और रणजीतसिंह की फौज लेकर सरदार जस्सासिंह रामगढ़िया के इलाके पर जो व्यास नदी के किनारे पर था, चढ़ाई की। परन्तु दैवयोग से व्यास नदी में इतने जोर से बाढ़ आई कि सदाकुंवरि के अनेक


1. महासिंह ने कवीला छट के बलवान यवन सरदार गुलाम मुहम्मद पर आक्रमण करके उसके माझड़ पर अधिकार कर लिया था ।


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घोड़े, सिपाही बह गये तथा रणजीतसिंह बड़ी कठिनता से गुजरानवाला के दुर्ग में पहुंचे। बचपन में रणजीतसिंहजी को कोई शिक्षा नहीं मिली थी, क्योंकि सिक्खों में उस समय शिक्षा का पूरा अभाव था और किसी को पढ़ने-लिखने का शौक न था। इनको किसी भी भाषा का लिखना-पढ़ना न सिखाया था। थोड़े ही दिन बाद उनकी दूसरी शादी नकई सरदार रामसिंह की कन्या के साथ कर दी गई। 17 साल की अवस्था में वे अपनी जागीर का काम करने लगे और दीवान लखपतिसिंह को अलहदा कर दिया। मां और सास की संरक्षता से भी अलग हो गये। लखपतिसिंह को अलग करने का किस्सा इस प्रकार बतलाया जाता है कि दिलसिंह की सम्मति से लखपतिसिंह को कैथल के भयानक युद्ध में भेज दिया, जहां कि वहां के कट्टर जमींदारों ने उसे मार डाला। कहते हैं कि यह काम रणजीतसिंह के इशारे पर किया गया था। लखपतसिंह बड़ा नमकहराम और पहले दरजे का व्यभिचारी था। यद्यपि रणजीतसिंह के चरित्र को सुधारने की किसी को चिन्ता न थी, परन्तु फिर भी वह दुर्व्यसनों से बचे रहे। उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था। बचपन में ही शादियां हो जाने पर भी 20 साल तक वह गृहस्थ के झंझटों से बचते रहे। वह अपनी सास के दासत्व से निकल जाना चाहते थे, परन्तु सास इस बात को पसन्द नहीं करती थी। वह अधिक से अधिक समय तक राज की बागडोर अपने हाथ में रखना चाहती थी। इन दिनों काबुल में अहमदशाह का पोता खानजमां बादशाहत करता था। उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि वह पंजाब के उन इलाकों पर अपना आधिपत्य रक्खे, जिन्हें उसके दादों ने जीता था। इसी लालसा से प्रेरित होकर उसने सन् 1795, 1796, 1797 में पंजाब पर तीन आक्रमण किये। आक्रमण के समय सिक्ख पहाड़ और जंगलों में चले जाते थे और उसके लौटने पर फिर अपने स्थानों पर कब्जा कर लेते थे। पहले हमले में वह केवल झेलम तक पहुंचा था। सन् 1797 में तो वह लाहौर तक पहुंच गया और उस पर कब्जा भी कर लिया तथा वहीं निवास भी करने लगा। इसको लाहौर में ठहरा हुआ देखकर सिक्खों ने उत्पात मचा दिया और लूटमार करने लगे।

रणजीतसिंह जी भी सतलज पार के इलाके में खिराज उगाहने और कब्जा करने में जुट गये। ऊपरी भाव से कुछ सिक्ख और रणजीतसिंह जी भी शाहजमां से मैत्री के लिए लिखा-पढ़ी करने लगे। इसी बीच शाहजमां को खबर लगी कि उसके देश अफगानिस्तान पर ईरानी लोग हमला करना चाहते हैं तो वह वापस लौटने लगा। उस समय झेलम में बाढ़ आई हुई थी इसलिये उसकी 12 तोपें नदी में डूब गईं। उसने रणजीतसिंह से कहला भेजा कि यदि तुम मेरी तोपें निकलवा कर पेशावर पहुंचा दोगे तो मैं लाहौर नगर और उसके आसपास के इलाके तुम्हें दे दूंगा, साथ ही राजा की उपाधि भी प्रदान करूंगा। रणजीतसिंह ने उनमें से 8 तोपें शाहजमां के पास भेज दीं। शाहजमां ने भी अपने वचन का पालन करने के


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लिये लाहौर के सूबे की सनद और राजा का खिताब रणजीतसिंह को दिया। किन्तु यह केवल नियम पालन मात्र था। लाहौर पर कब्जा तो उन्हें तलवार के जोर से करना पड़ा।

शाहजमां के काबुल की ओर लौट जाने पर जब कि रणजीतसिंह जी अपनी राजधानी को लौट रहे थे, तो छत्ता के सरदार हसमतखां ने उन्हें छिप कर कतल करने का षड्यंत्र रचा। एक दिन जबकि रणजीतसिंह जी शिकार से लौट कर वापस डेरे पर आ रहे थे, यकायक हसमतखां ने हमला कर दिया। उसकी तलवार से रणजीतसिंह की घोड़ी की लगाम के दो टुकड़े हो गये। वह दूसरा वार करना ही चाहता था कि झट से रणजीतसिंह ने उसका सिर उतार लिया। उसकी इस गुस्ताखी के बदले में उसके सारे इलाके को अपने राज्य में मिला लिया।

लाहौर पर प्रभुत्व

महाराजा रणजीतसिंह के सिक्के
महाराजा रणजीतसिंह के सिक्के
एक पैसे का सिक्का

लाहौर नगर प्राचीन समय से प्रसिद्ध चला आता है और यह पंजाब की राजधानी समझा जाता था। जब से जाट-सिखों के अन्दर राज्य-भावना पैदा हुई थी, तभी से वे लाहौर पर आधिपत्य जमाने की कौशिश कर रहे थे। अहमदशाह अब्दाली लाहौर को अपने नायक के सुपुर्द करके चला गया था। सन् 1764 ई० में लहनासिंह और गूजरसिंह से भंगी सरदारों ने, रात के समय नगर में घुसकर, मुसलमान गवर्नर को जब कि वह नाच देख रहा था, कैद करके लाहौर पर कब्जा कर लिया था। सरदार सोभासिंह कन्हैया भी पीछे से इनकी सहायता को पहुंच गया था। इस तरह लाहौर के तीन हिस्से करके इन्होंने बांट लिये। किन्तु इनकी सन्तानें निपट नालायक निकलीं। जब रणजीतसिंह को लाहौर की सूबेदारी शाहजमां से मिली तो उस समय लाहौर के शासक चेतसिंह, जौहरसिंह और साहबसिंह थे। इनमे साहबसिंह कुछ अच्छा था। शेष दोनों परले सिरे के लम्पट और व्यभिचारी थे। शराब पीकर ओंधे मुंह पड़े रहते थे। चेतसिंह से नगर के कुछ मुसलमान चौधरी नाराज थे। इसकी वजह यह थी कि लाहौर के मुसलमानों में मियां आशिक मुहम्मद और मुहकमुद्दीन दो बड़े चौधरी थे। आशिक मुहम्मद की लड़की बदरुद्दीन के साथ ब्याही गई थी। नगर के कुछ खत्री मियां बदरुद्दीन से नाराज थे। उन्होंने चेतसिंह से शिकायत की कि बदरुद्दीन शाहजमां के पास यहां की खबरें भेजता है और लाहौर को छिनवाने की कौशिश में है। इस बात पर विश्वास करके चेतसिंह ने मियां बदरुद्दीन को गिरफ्तार कर लिया। शहर के प्रतिष्ठित मुसलमान चेतसिंह के पास बदरुद्दीन की सिफारिश के लिये भी गये, किन्तु उसने किसी की एक न सुनी। डेढ़ महीने के बाद मुसलमानों ने रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि शहर में जुल्म हो रहा है, प्रजा तंग है अतः आप आइये और लाहौर के शासक बनिये। रणजीतसिंह ने अपने एजेन्ट काजी


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अब्दुलरहमान को भेज कर सब हाल मालूम किया और विश्वास हो जाने पर सेना लेकर बटाले में आये। अमृतसर से पांच हजार सैनिक बुलाकर लाहौर को रवाना हुए। लाहौर पहुंचने पर वजीरखां की बारहदरी में डेरा डाल दिए। सन् 1799 में एक दिन आठ बजे प्रातःकाल लुहारी दरवाजे से उनकी फौज ने शहर में प्रवेश किया। उस समय साहबसिंह लाहौर में उपस्थित था। चेतसिंह घेर लिया गया। उसके दो साथी भाग गए। नगर के फाटक मीरमुहकम, मुहम्मद आशिक और मीरसादी नामक मुसलमानों ने चेतसिंह से शत्रुता रखने के कारण खोल दिये। नगर पर अधिकार प्राप्त होते ही रणजीतसिंह जी ने घोषणा कराई कि नागरिकों को कतई भी न डरना चाहिये। उनका कुछ भी नुकसान न किया जाएगा। व्यापारी लोग अपनी दूकान खोलें। इस घोषणा से नगरवासियों पर बड़ा अच्छा प्रभाव पड़ा और वे रणजीतसिंह जी की प्रशंसा करने लगे।

रणजीतसिंह की उत्तरोत्तर बढ़ती हुई जागीर, होती हुई विजय और चमकती हुई तकदीर ने यों तो पहले सिख, मुसलमान और हिन्दुओं के कान खड़े कर दिये थे किन्तु लाहौर पर रणजीतसिंह का प्रभुत्व स्थापित होते ही उन लोगों के दिलों में चूहे कूदने लगे। हालांकि सिखों को तो प्रसन्न होना चाहिये था, किन्तु वे भी परस्पर की स्पर्धा से रणजीतसिंह जी से जलते थे। उनमें से अनेक के इरादे थे कि हम लाहौर के शासक बनकर अपना नाम पैदा करें और साथ ही अपना राज भी बढ़ावें। अब वे सरदार रणजीतसिंह की बजाए महाराज रणजीतसिंह कहलाने लग गये थे।

तत्कालीन शासक - जिस समय महाराज रणजीतसिंह जी ने पंजाब, लाहौर पर कब्जा किया था और राजा की उपाधि धारण की थी, उस समय पंजाब में निम्न शासक शासन करते थे -

(1) कसूर में पठान निजामुद्दीन,
(2) चक गुरु (अमृतसर) में भंगी सरदार गुलाबसिंह,
(3) मुलतान में मुजफ्फर खां सदूजई। यह अबदाली खानदान से था, :(4) दायरा में अब्दुल समद,
(5) मनकेरिया, हूत, बन्नू में मुहम्मदशाह निवाज,
(6) डेरागाजीखां, बहावलपुर में बहावलखां,
(7) झंग में अहमदखां,
(8) स्यालकोट, पेशावर में फतहखां वरकजई,
(9) काश्मीर में अजीम खां,
(10) अटक में वजीर खेल जहांदाद खां,
(11) कांगड़ा में राजा संसारचन्द्र,
(12) चम्पा में राजा चड़हतसिंह,
(13) होशियारपुर से कपूरथला तक सर फतहसिंह अहलूवालिया,
(14) वजीराबाद, धन, पाक पट्टन आदि स्थानों पर अन्य सिख सरदार शासक थे।

ईर्षा-द्वेष

महाराज रणजीतसिंह 1799 में लाहौर के अधिकारी हुए थे। उस समय


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उनकी अवस्था केवल 20 वर्ष की थी । यह पहले ही लिखा जा चुका है कि उनको अफगान बादशाह से राजा की उपाधि भी मिल चुकी थी, इससे उनकी धाक सारे पंजाब पर छा गई थी। कुछेक सिख सरदारों के दिल में भी सन्देह का सांप लौटने लगा। जस्सासिंह, रामगढ़िया, गुलाबसिंह भंगी अमृतसर, साहबसिंह भंगी गुजरात, जोधसिंह बजीराबाद और निजामुद्दीन कसूर ने मिलकर षड्यंत्र किया और अमृतसर से सबने एक साथ रवाना होकर सन् 1800 ई० में लाहौर पर हमला किया। महाराज रणजीतसिंह भी मैदान में आ गये। ‘भसइन’ के मुकाम पर दोनों ओर से फौजें डट गईं। दो महीने तक बराबर दोनों लश्कर एक दूसरे के सामने पड़े रहे। उन लोगों ने एक चाल चली। रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि - वे हम लोगों से भेंट कर जाएं तो हम अपने देश को वापस चले जाएंगे। इस भेंट में आपसी मनोमालिन्य और सन्देह सब मिट जाएंगे । रणजीतसिंह जाट तो थे, किन्तु भोले जाट नहीं! जाट भूल करने में या धोखे में आने में प्रसिद्ध होते हैं। किन्तु महाराज रणजीतसिंह उनके जाल में न फंसे। जब भेंट करने गये तो इतने सैनिक अपने साथ ले गये कि उन लोगों की हिम्मत तक न पड़ी कि रणजीतसिंह पर हाथ उठाएं। पहले से सोचे हुए इरादे को दिल में ही पचाना पड़ा। इसके बाद छोटी-छोटी लड़ाइयां भी हुईं, किन्तु साथ ही भोज, विवाह और आखेट भी होते रहे। भंगी सरदार युद्धक्षेत्र में भी भोगविलास में तल्लीन हो गए। एक दिन गुलाबसिंह ने तो इतनी शराब पी ली कि उसी के कारण उनकी मृत्यु हो गई। गुलाबसिंह के मरने पर उनकी सब फौजें तितर-बितर हो गईं। महाराज रणजीतसिंह जी विजय का नगाड़ा बजाते हुए लाहौर लौट आए। इस छेड़छाड़ के बाद ऐसा मालूम हुआ कि मानो इन विरोधियों ने रणजीतसिंह का लोहा मान लिया। लाहौर आकर महाराज ने नजराने वसूल किए जो कि उन्हें विजय पर लोगों ने दिए थे।

महाराज रणजीतसिंह जी को पता चल गया था कि उनके विरुद्ध संगठन करने में कसूर का निजामुद्दीन अगुआ था। वह लाहौर के इलाके पर आक्रमण करके लूट-खसोट भी कर चुका था, इसलिए महाराज रणजीतसिंहजी ने उसको शिक्षा देना ही उचित समझा। अतः उस पर चढ़ाई की गई। नवाब एक झटके को भी न झेल सका, तुरंत पैरों में आ गिरा, और हार मानकर यह निर्णय स्वीकार किया कि उसका भाई कुतुबद्दीन महाराज की सहायता करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर जाया करे और उसकी रियासत रणजीतसिंह की करद बनी रहे। इसी साल रणजीतसिंह नारूवाली, येरूवाल और जस्सरवाल होते हुए जम्बू की ओर बढ़े और जम्बू से चार मील के फासिले पर जाकर डेरा डाल दिए। जम्बू के राजा ने उनके प्रताप को सुन रक्खा था, इसलिए उसने बिना लड़ाई-झगड़ा किए 20 हजार रुपया और एक हाथी इनकी नजर किया। उससे नजराना लेकर स्यालकोट की तरफ बढ़े। स्यालकोट मुसलमानों के आधीन था। पर स्यालकोट


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एक ही चपेट में फतह कर लिया गया। यहां से चलकर दिलावरगढ़ को विजय किया। यहां पर सोढ़ी केसरसिंह शासक था। लाहौर पहुंचकर सन् 1801 में महाराज रणजीतसिंह ने एक बड़ा जबरदस्त दरबार किया और ‘महाराज’ की उपाधि धारण की। यह दरबार बड़ी शान-शौकत के साथ सम्पन्न हुआ था। इसमें सब सरदार हाजिर हुए, पुरोहित ने राजतिलक किया, कवियों ने प्रशंसा के गीत गाये, विद्वानों ने आशीर्वाद दिया, और सैनिकों ने सलामी दी। इस दरबार में यह भी घोषणा हुई कि महाराज को सरकार लिखा जाया करे। लाहौर में टकसाल स्थापित करने की आज्ञा जारी की गई। न्याय के लिए न्यायालय कायम किए। काजी निजामुद्दीन और अजीजुद्दीन के भाई फकरुद्दीन को न्याय-सचिव नियुक्त किया। इमामबख्स को शहर का कोतवाल बनाया। चूंकि पिछले वर्षों से लाहौर का किला कई स्थानों से जीर्ण-शीर्ण हो गया था, इसलिए उसकी मरम्मत के लिए दीवान मोतीराम को 1 लाख रुपये दिए गए। राज्य में महाराज के नाम का सिक्का जारी हुआ। टकसाल में पहली बार में जितने रुपये हुए थे महाराज ने वे सब दान में दे दिए।

इन्हीं दिनों महाराज को खबर लगी कि साहबसिंह भंगी के कहने पर अकालगढ़ का सरदार फौज इकट्ठी कर रहा है। महाराज ने उसे मित्रता की चिट्ठी लिखकर लाहौर बुला लिया। उसकी काफी इज्जत की, परन्तु पीछे उसके मकान के आसपास फौजी सिपाहियों का पहरा लगवा दिया अर्थात् उसे गिरफ्तार कर लिया और उसके किले अकालगढ़ पर चढ़ाई कर दी। किन्तु दिलसिंह की रानी तेजो ने इस वीरता का काम किया कि महाराज को वापस लौटना पड़ा। साहबसिंह ने वजीराबाद के सरदार जोधसिंह को भी अपने साथ में मिला लिया था। महाराज ने उसको भी मित्र बना लिया और साहबसिंह पर हमला किया, परन्तु थोड़ी-सी लड़ाई के बाद गुलाबसिंह की प्रार्थना से परस्पर समझौता हो गया। इस सुलह के मुताबिक महाराज ने दिलसिंह को छोड़ दिया, परन्तु दिलसिंह अकालगढ़ पहुंचते ही मर गया। महाराज यह जानते थे कि बिना छोटे-छोटे राज्यों को मिटाये वह एक बड़ा साम्राज्य स्थापित नहीं कर सकते, इसलिए उन्होंने अकालगढ़ पर कब्जा कर लिया और तेजों के लिए दो गांव जागीर में दिए, जिनको भी इसी साल अपने राज्य में मिला लिया।

सन् 1802 ई० में महाराज ने तरनतारन की यात्रा की और वहां पर अहलूवालिया सरदार फतहसिंह से, जो वहां स्नान करने के लिए आया था, पगड़ी-पलट मित्रता की।

भंगी सरदारों ने अपनी कुटिलता त्यागी न थी, किन्तु महाराज रणजीतसिंह भी अचेत न थे। उन्होंने अमृतसर में, जो भंगी सरदारों का मुख्य स्थान था, कहला भेजा कि सन् 1764 ई० में लाहौर पर अधिकार करने के समय सिक्ख सरदारों


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ने जमजमा तोप को मेरे पितामह चरतसिंह का भाग निश्चय किया था, उस पर मेरा अधिकार है। आप लोगों के लिए उचित है कि जमजमा तोप को मेरे पास शीघ्र भेज दें। भंगी सरदारों ने जब रणजीतसिंह की इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया, तो उन्होंने अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में फतहसिंह अहलूवालिया भी साथ था। इन दिनों तक गुलाबसिंह मर चुका था, इसलिए उसकी विधवा रानी सुकवां अपने अबोध बालक के नाम पर अमृतसर पर राज्य करती थी। रानी ने सब दरवाजे बन्द कर दिए और बुर्ज के ऊपर चढ़ गई। महाराज ने स्वयं लोहगढ़ दरवाजे से और फतहसिंह ने हाल दरवाजे से आक्रमण किया। बड़े विकट संग्राम के बाद महाराज की विजय हो गई और नगर पर उनका अधिपत्य हो गया। किसी तरह की लूट नहीं हुई और महाराज खुद हरि-मन्दिर में गए और बहुत सा दान किया। रानी और उसके सरदार रामगढ़िया सरदारों की शरण में चले गए। इस प्रकार महाराज रणजीतसिंह का भंगी सरदारों के कुल इलाके पर कब्जा हो गया। इस प्रभावशाली युद्ध से महाराज रणजीतसिंह का पंजाब की आर्थिक तथा धार्मिक दोनों प्रकार की राजधानियों पर अधिकार हो गया। हिन्दू राजाओं में इस समय ‘कूंच’ का संसारचन्द्र ही था, जो कुछ साहस रखता था। उसे महाराज रणजीतसिंह के साथ टक्कर खानी पड़ी, परन्तु वह महाराज रणजीतसिंह से हार गया और उसका बहुत सा इलाका और 4 तोपें हाथ से निकल गईं। वापस होते हुए लादहां से चार सौ घोड़े महाराज ने प्राप्त किये थे। अगले साल महाराज को खबर मिली कि एक खत्री चूहड़मल की विधवा फगवाड़े में स्वतन्त्र राज्य कायम करना चाहती है। महाराज ने फगवाड़ा पर कब्जा कर लिया और विधवा को हरद्वार भेज दिया। इस समय संसारचन्द्र ने फिर होशियारपुर और वैजवाड़ा पर चढ़ाई की। जब महाराज उधर गए तो संसारचन्द्र कांगड़े की ओर भाग गया, परन्तु दूसरे साल फिर वह सामना करने आया। इधर उसके इलाके में गोरखा लोग आ पहुंचे, जिनका इरादा हिन्दुस्तान में अपना शासन स्थापित करने का था। इसलिए संसारचन्द्र को वापस लौटना पड़ा। सन् 1806 ई० में पटियाला और नाभा का आपस में झगड़ा हो रहा था। दोनों ने महाराज को अपना पंच नियुक्त करके निमन्त्रित किया।

महाराज अपनी सेना लेकर के उधर गए और कुछ लड़ाई झगड़े के बाद उनकी आपस में सन्धि करवा दी, परन्तु इसके साथ ही जंडियाला, रायकोट, जगराम, तिलोंडी और लुधियाना को अपने सरदारों में बांट लिया। लुधियाना इस समय रायकोट के एक मुसलमान-राजपूत इलियखां की दो विधवाओं के आधिपत्य में था। महाराज ने उन दोनों को निकाल कर अपना आधिपत्य जमा लिया। इसी समय महाराज को खबर मिली कि गोरखा जनरल अमरसिंह ने गढ़वाल का प्रदेश विजय करके सरमौर, बसी वगैरह हो करके कांगड़ा आ घेरा


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है। महाराज रणजीतसिंह तुरन्त कांगड़े पहुंचे, तो अमरसिंह का वकील जोरावरसिंह महाराज के पास आया। उसने दुगुना नजराना पेश किया, परन्तु महाराज ने नजराना लेना अस्वीकार कर दिया, क्योंकि वे गोरखों को गैर समझते थे और वह पंजाब में गोरखों की हुकूमत होना पसन्द नहीं करते थे।

कसूर के हाकिम निजामुद्दीन को 1801 में परास्त किया जा चुका था और उसके माफी मांगने पर महाराज ने क्षमा भी कर दिया था, किन्तु कुछ समय बाद उसके साले कुतुबुद्दीन ने उसे कतल कर दिया और आप कसूर का स्वतंत्र शासक बन बैठा। इसलिए महाराज ने कसूर पर भी घेरा डाल दिया। कुतुबुद्दीन ने तंग आकर आधीनता स्वीकार कर ली और बहुत सा रुपया महाराज की भेंट किया।

1802 ई० में इन्होंने नकिया मिसल के सरदारों की कन्या से शादी कर ली। कांगड़े के प्रबन्ध के लिए महाराज ने देसासिंह मजीठिया को वहां का कमान्डर तथा सारी पहाड़ी रियासतों का नाजिम मुकर्रिर किया। ज्वालामुखी में दान पुण्य करके मंडी, सुकेतकल्लू के राजाओं से नजराने वसूल किए। रास्ते में सरदार बघेलसिंह की विधवाओं से हरयाणा प्रान्त का अधिकार प्राप्त कर लिया। इसी दौर में फजीलपुरिया धूपसिंह को गिरफ्तार कर लिया और उसके इलाके को अपने कब्जे में कर लिया।

संसारचन्द्र ने भी इस समय अपने भाई फतहचन्द को महाराज के पास इसलिए भेजा कि हम अधीनता स्वीकार करने को तैयार हैं, किन्तु महाराज ने न अमरसिंह की सुनी और न संसारचन्द्र की। 24 अगस्त सन् 1802 ई० को किले में प्रवेश कर दिया। बड़ी भयंकर लड़ाई हुई, हजारों गोरखे और सिक्ख काम आये। अमरसिंह भाग गया और अंग्रेजों से कोशिश करने लगा कि वे रणजीतसिंह पर चढ़ाई करने में उसकी मदद करे, किन्तु अंग्रेजों का उस समय इतना साहस न था कि वे शेर को छेड़ सकें।

कहावत है ‘नीच निचाई ना तजे कैसे हू सुख देत’ इसी सिद्धान्त के अनुसार कुतुबुद्दीन फौज जमा करने लगा। वह चाहता था कि अपनी ताकत बढ़ाकर स्वतंत्र हो जाए। रणजीतसिंह की आधीनता को इस्लाम की शिक्षा के प्रभाव से कुफ्र समझने लगा। महाराज ने भी जब यह समाचार सुने तो कसूर पर हमला कर दिया और एक महीने तक उसे किले में बन्द रखा। आखिर वह हार गया। सिक्खों ने उसके किले में घुसकर उसे अपने अधिकार में कर लिया।

महाराज रणजीतसिंह की नीति स्पष्ट थी। वे अपनी सल्तनत को मजबूत बनाने के लिए यह चाहते थे कि पंजाब में कोई ऐसा सरदार, राजा, नवाब न रहे जो उनसे बराबरी का दावा कर सके। मिसलों के जितने सरदार थे, वे या तो उनके झण्डे के नीचे आ गए थे या उनका इलाका महाराज के राज्य में मिला लिया गया अथवा सतलज पार हो गए थे। 1808 ई० में पटियाला की रानी और


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महाराज का झगड़ा निबटाने महाराज रणजीतसिंह पटियाला गए थे। वहां से लौटने पर उन्होंने सरहिन्द के इलाकेदारों से खिराज वसूल किया। नारायणगढ़ के किले को जीत कर फतहचन्द अहलूवालिया के सुपुर्द कर दिया। राहूं का सरदार नारायणगढ़ में लड़ता हुआ मारा गया, इसलिए उसका इलाका भी अपने आधीन कर लिया। सरदार भावलसिंह की सेना से भरतगढ़ को छीन लिया। दीवान मुहकमचन्द ने वादनी के इलाके को विजय करके सतलज के पार भी हाथ साफ किया। इसी साल महाराज की रानी महतावकुंवरि से शेरसिंह और तारासिंह दो लड़के जुड़वां पैदा हुए। कुछ इतिहास लेखक इन्हें रानी की सन्तान नहीं बताते, लेकिन इसमें कहां तक सच्चाई है, यह कहना जरा कठिन है।

अब सतलज पार की सिक्ख रियासतों को यह डर उत्पन्न हुआ कि रणजीतसिंह एक दिन उन्हें भी मिटा देगा, इसलिए उन्होंने 1808 ई० में समाना राज्य पटियाला में एक मीटिंग की कि उन्हें रणजीतसिंह के साथ मिलना चाहिए, या अंग्रेजों के साथ। आखिर यही तय हुआ कि अंग्रेजों की शरण में चलना चाहिए क्योंकि पटियाला के राजा ने कहा था कि नष्ट तो हम दोनों के हाथ होंगे, किन्तु रणजीतसिंह हैजा है, जो तुरन्त नष्ट कर देगा ।जींद का राजा भागसिंह, कैथल का लालसिंह, पटियाले का दीवान चैन और नाभे का एजेण्ट गुलामहुसैन डेपूटेशन बनाकर देहली गए और एक तहरीरी प्रार्थनापत्र पेश किया, किन्तु अंग्रेजों की ओर से कोई जवाब नहीं मिला। महाराज साहब को जब यह खबर लगी तो उन्होंने इन सब राजाओं को अमृतसर में बुलाया और धैर्य दिया कि तुम्हारे साथ कोई अन्याय नहीं किया जाएगा।

यों तो महाराज अंग्रेजों के युद्ध-कौशल की तारीफ सुना करते थे। एक बार उनकी आंखों के सामने ही एक घटना घटी जिससे उन्हें अंग्रेजी सेना की शिक्षा का पता चल गया। इसी से आगे उन्होंने भी अपनी सेना को अंग्रेजी ढ़ंग से ही शिक्षा दिलाने की कौशिश की थी।

अमृतसर में जब मि० मिटकॉफ ठहरे हुए थे, तो उनके साथ के मुसलमान सैनिकों ने मुहर्रम के आ जाने के कारण ताजिया निकाला । जब वह अकालियों के पास से गुजरा तो फूलासिंह अकाली ने उन पर हमला कर दिया। यद्यपि इन सिपाहियों की संख्या कम थी, किन्तु रण-कुशल होने के कारण सिक्ख सिपाहियों को पीछे हटा दिया। महाराज ने यह हाल गोविन्दगढ़ में सुना। वहां से आकर उन्होंने रूमाल के इशारे से अपने सिपाहियों को हटा दिया। अंग्रेजी सेना की रणचातुरी से उन्हें विश्वास हो गया कि अंग्रेजी फौज बहादुर है। उनकी फौज अभी अंग्रेजों का मुकाबला नहीं कर सकती और अभी अपनी हुकूमत भी कच्ची है। इस घटना का उनके दिल पर ऐसा असर पड़ा कि उन्होंने अंग्रेजों से उन्हीं के प्रस्ताव


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के अनुसार सन्धि कर ली। हालांकि उनकी आत्मा इस सन्धि के विरुद्ध थी। सन्धि की ये बातें थीं

अंग्रेज महाराज से सन्धि करने के लिए उतावले इस बात से थे कि फ्रांस के नेपोलियन बोनापार्ट ने रूस से सन्धि कर ली थी और वह रूस की सहायता से भारत पर चढ़कर आना चाहता था। इंग्लैंड और भारत के अंग्रेजों को इससे बहुत फिकर हुई। इसलिए भारत के अंग्रेज गवर्नर जनरल ने काबुल के अमीर के पास एलीफिन्स्टन, ईरान के शाह के पास मेलकम और पंजाब के महाराज रणजीतसिंह के पास मेटकॉफ को दोस्ती पैदा करने के लिए भेजा। मेटकॉफ जब लाहौर पहुंचा तो महाराज कसूर चले गये। मेटकॉफ ने समझा महाराज अंग्रेजों से दोस्ती नहीं करना चाहते हैं। किन्तु बात यह थी कि दीवान मुहकमचन्द्र ने महाराज को सलाह दी थी कि हम दोस्ती की शर्तों में यह नियम रखना चाहते हैं कि जिसका जहां तक राज है, वह वहीं तक सीमित रहे। दोस्ती हो तब तक आप बाहर रहकर सतलज के पार अपना इलाका बढ़ा लीजिए। किन्तु मेटकॉफ लाहौर ठहरने की बजाय कसूर रवाना हो गया। उसके साथ महाराज को भेंट देने के लिए घोड़ों की जोड़ी, एक अंग्रेजी गाड़ी और तीन हाथी मय सुनहरी हौदे के गये थे। दोस्ती की शर्तें सामने आने पर महाराज ने इस शर्त को मानने से इन्कार कर दिया कि सतलज के पार महाराज अपना राज न बढ़ायेंगे। इसके साथ ही मि० मेटकॉफ को अजीजुद्दीन के साथ रवाना करके आप सतलज पार हो गए। पहली अक्टूबर को उनके सरदार कर्मचंद ने फरीदकोट पर कब्जा कर लिया। मालेरकोट पहुंचकर अलाउद्दीन से एक लाख नजराना लिया। मेटकॉफ ने मुलाकात होने पर महाराज से कहा - यह बात मैत्री-नियमों के विरुद्ध है। महाराज ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा कि अंग्रेज-सरकार को इससे क्या? हमें अपने सिक्खों पर पूरा हक है, हम चाहें उनके साथ जैसा व्यवहार करें।

मेटकॉफ फतेहाबाद ठहरा रहा और महाराज अम्बाला जा पहुंचे। गुरुबक्ससिंह की विधवा दयाकौर का मुल्क लेकर नाभा और कैथल के हवाले किया, माल और जेवर अपने कब्जे में किये। गंडासिंह को अम्बाला का हाकिम बनाया। साहनीवाल, चांदपुर, झंदा, धारी, बहरामपुर पर कब्जा करके दीवान मुहकमचंद को दे दिए। रहीमाबाद, कानातरी, कोट वगैरह दूसरे सरदारों को दे दिये। शहाबाद के सरदार कर्मसिंह और थानेसर के सरदार से खिराज वसूल किया। पटियाला के राजा साहबसिंह से पगड़ी बदल मित्रता करके 2 दिसम्बर को लौटकर मेटकॉफ से मुलाकात की।

मि० मेटकॉफ ने महाराज से अंग्रेजी सरकार का आखिरी संदेशा कहा कि सतलज पार की रियासतें अंग्रेजों की शरण में समझनी चाहियें। महाराज उनसे सम्बन्ध छोड़ दें और ताजा लिया हुआ सारा इलाका वापस कर दें। महाराज इस


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पर तैयार न थे। वे अंग्रेजों से लड़ने की भी तैयारी करने में जुट गए और दोस्ती करने के लिए देर लामते रहे। इधर लार्ड मिन्टो ने भी, डेविड अक्टरलोनी के साथ, एक दस्ता पंजाब के लिए रवाना कर दिया। सरहिन्द के सारे सरदार अंग्रेजों की मदद को तैयार थे, वे इसे सौभाग्य समझते थे। वह दस्ता, बोरिया, पटियाला होता हुआ सन् 1809 में लुधियाना पहुंच गया और वहां छावनी डाल दी। अम्बाला को रानी दयाकौर के हवाले कर दिया। इससे राजा साहबसिंह और जसवन्तसिंह खूब प्रसन्न हुए। ये खबरें महाराज को पहुंच रही थीं। वे भी कुछ करना चाहते थे कि इतने में उक्त ताजिया वाली घटना घट गई। आखिर महाराज ने अंग्रेजों से दोस्ती कर ली।

25 अप्रैल 1809 को सन्धि-पत्र पर महाराज ने हस्ताक्षर कर दिए जिसके अनुसार सतलज पार की सब रियासतों पर से उन्होंने अपना दावा हटा लिया। अंग्रेजों का सतलज से उत्तर (शुमाल) की ओर कोई सम्बन्ध न रहा। यह सन्धि महाराज ने जन्म-पर्यन्त निभाई। 6 मई सन् 1809 को यह सन्धि-पत्र मुकम्मिल हो गया।

अंग्रेजों की छावनी में महाराज का एजेन्ट बटाला का बख्शीनन्दसिंह मुकर्रिर हुआ और अंग्रेजों ने लाहौर में कायस्थ खुशखतराय को खबर-रसा नियत किया।

सन् 1814 ई० में खड़कसिंह की शादी कन्हैया सरदार जेहलसिंह की पुत्री बुद्धिमती चन्दकौर के साथ हुई जिसमें नाभा, झींद आदि के सब रईस शामिल हुए। अंग्रेज अफसर अक्टरलोनी को भी बुलाया, किन्तु दीवान महकमचन्द इसके खिलाफ था कि अंग्रेज अफसर को अपने यहां बुलाकर उसे यहां की बातों से जानकार हो जाने दिया जाए।

मि० एलफिन्स्टन ने काबुल में वहां के तत्कालीन शासक शाहशुजा से सन्धि कर ली। लेकिन कुछ ही दिन बाद सन् 1810 के आरम्भ में उसके भाई शाह महमूद ने कैद से निकल फतहखां वरकजई की सहायता से शुजा को काबुल की गद्दी से हटाकर भगा दिया। इस तरह अंग्रेज-अफगान संधि का खात्मा हो गया। और जब शाह महमूद कश्मीर के सूबेदार के विरुद्ध भारत में आया तो महाराज ने रावलपिंडी में उससे दोस्ती कर ली।

सन् 1811 ई० शाहशुजा लुधियाने के अंग्रेजों से निराश होकर महाराज के पास आ गया। हालांकि वह पहले भी एक बार महाराज के पास आया था, लेकिन वह अपने भाई से लड़ने को पेशावर चला गया था। अब की बार भी महाराज ने उसको इज्जत से अपने यहां रखा। मुवारिक तेवली में उसके रहने का प्रबन्ध किया। खाने-पीने और खर्चने का कुल प्रबन्ध महाराज की ओर से था। अवसर पाकर महाराज ने शाहशुजा से कोहनूर हीरे के लिए सवाल कर दिया। शाहशुजा और उसकी स्त्री ने बहाने बनाकर महाराज को टालना चाहा। लेकिन जब उन्होंने


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उसका खान-पान बन्द कर दिया और उसके ऊपर पहरे लगा दिए तो कोहनूर उसने महाराज के हवाले कर दिया। हीरा मिलने पर महाराज ने उसे काबुल दिलाने में सहायता देने के लिए भी आश्वासन दिया और उसे एक जागीर भी दे दी। लेकिन शाहशुजा अपना और अपने बाल-बच्चों का भेष बदलकर एक दिन, रात को लाहौर से छिपकर निकल गया। कहते हैं उसके पास और भी कीमती जवाहरात थे। उसे डर था कि महाराज इन्हें भी न ले लें। इधर-उधर भटककर सन् 1819 ई० में उसने अपने आपको अंग्रेजों के हवाले कर दिया।

नोट - जब अंग्रेजों को यह मालूम हुआ कि रूस महाराज से दोस्ती करना चाहता है तो उन्होंने भी शीघ्रता से महाराज से दोस्ती करनी चाही। भारतवर्ष का इतिहास (लेखक - एक इतिहास प्रेमी) पेज 174 से 183 ।

गुजरात और वजीराबाद पर कब्जा

सन् 1809 में वजीराबाद का सरदार मर गया तो महाराज फौज लेकर वहां भी पहुंचे। क्योंकि वे जानते थे कि इस बीच कोई दूसरा सरदार कब्जा कर लेगा और इस तरह व्यर्थ उससे लड़ाई लड़नी होगी। लेकिन जोधसिंह के बेटे गंगासिंह ने एक लाख रुपया महाराज को भेंट में देकर आधीनता स्वीकार कर ली। साहबसिंह और उसके बेटे के बीच वैमनस्य था। इस वैमनस्य से लाभ उठाने के लिए महाराज ने अगले साल गुजरात पर चढ़ाई की। साहबसिंह ने भागकर जलालपुर के किले में शरण ली। महाराज ने वहां भी उसका पीछा किया। जलालपुर पर अधिकार कर लिया। साहबसिंह वहां से भी भागकर मंगलामाई में पहुंचा। इधर महाराज के जनरल अजीजुद्दीन ने गुजरात पर कब्जा कर लिया। महाराज ने खुश होकर उसके रिश्तेदार अजीजुद्दीन को गुजरात का हाकिम नियुक्त कर दिया। इसी भांति नजराना लेने के लिए फिर वजीराबाद पर धावा किया और उसे भी कब्जे में कर लिया।

सन् 1811 ई० में महाराज ने दीनानगर पहुंच कर उन पहाड़ी राजाओं से कर वसूल किये जो गुरु गोविन्दसिंह के समय में भी मुसलमानों के सहायक और सिखों के शत्रु रहे थे। नूरपुर के राजा से चालीस हजार नजराने में महाराज को मिले और उनके दीवान मुहकमचन्द और मौता डोगरा ने सुकेत, मण्डी और कुल्लू से खिराज प्राप्त किया। महाराज खूब समझते थे कि ये पहाड़ी राजा प्रजा की जान को बवाल हैं क्योंकि ये न तो अपनी प्रजा के जान-माल की रक्षा मुसलमानों से कर सकते हैं, न अपने धर्म के लिए खुद मरते-मिटते हैं। इसलिए उनकी इच्छा थी कि उनके समस्त राज्यों पर कब्जा कर लिया जाए। नूरपुर के राजा वीरसिंह को महाराज ने स्यालकोट बुलाया। किन्तु वह न आया तो इस आज्ञा-भंग के अपराध में उस पर इतना जुर्माना किया कि वह उसे पूरा न कर सका। इस पर


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उसकी सारी जायदाद जब्त कर ली। वह भाग कर अंग्रेजों की शरण में पहुंचा। पर वे बेचारे उस समय इतने सशक्त न थे कि महाराज रणजीतसिंह के कार्यों में हस्तक्षेप कर सकते। उसके ससुर जबालसिंह की बहुत सी जागीर भी जब्त कर ली गई, क्योंकि उसका जामाता अंग्रेजों को उभारने के लिए उनके पास चला गया था।

इसके बाद महाराज ने माधौपुर आकर दशहरा मनाया। दशहरा की शान, शान ही थी। उसकी तारीफ करना हमारी शक्ति से बाहर है। इसी अवसर पर महाराज ने आज्ञा दी कि माधौपुर से लगाकर दरबार साहब तक एक नहर निकाली जाए। अवकाश मिलने पर फिर पहाड़ी राजाओं के देश में गये, क्योंकि उनसे आशा न थी कि ठीक समय पर खिराज भेज देंगे। सुकेत, मंडी और कुल्लू के राजे से नजराने वसूल करके वापस लौटे।

नकिया-फजी-पुरिया मिसल

सन् 1810 ई० में उनको खबर लगी थी कि काहनसिंह, नकिया मिसल का सरदार मुल्तान और माझे के इलाके में जुल्म कर रहा है तो उसके दमन के लिए दीवान मुहकमचन्द को भेज दिया। उसने काहनचन्द को जीतकर उसे भेरुवाल की जागीर का मालिक बना दिया और सारा इलाका महाराज के राज में मिला लिया। फजील-पुरिया मिसल के सरदार बुधसिंह को भी मुहकमचन्द ने परास्त करके भगा दिया और सतलज पार का उसका कुल इलाका - जालन्धर, हेतपुर, फुलोर भी कब्जे में कर लिया। महाराज मुहकमचन्द की इस बहादुरी से बहुत खुश हुए और उसे दीवानी के सिवाय एक हाथी, सुनहरी हौदा और जड़ी हुई तलवार पुरस्कार में दी।

महाराज रणजीतसिंह कब्जा करने की नीति में बहुत निपुण थे। जहां जिस तरह उन्हें उचित जान पड़ता, वहां उसी तरह अपना कब्जा जमा लेते। बहुत दिनों से उनकी इच्छा थी कि अपनी सास के इलाके पर भी अपना कब्जा कर लें। बटाला पहुंच कर महाराज ने अपनी सास के सामने यह प्रस्ताव रक्खा कि वह शेरसिंह को कोई जागीर दे दे। वह राजी नहीं होती थी। आखिर जबरदस्ती से अपने दीवान द्वारा शेरसिंह, तारासिंह को जागीर दिला दी और सास को कैद कर लिया क्योंकि वह अंग्रेजों से महाराज के खिलाफ मिल जाना चाहती थी।

जब से महाराज ने अमृतसर पर कब्जा कर लिया था, तब से उनकी ताकत बहुत बढ़ गई थी। फिर भी उनकी इच्छा थी कि खजाने में ज्यादा से ज्यादा रुपया और ज्यादा से ज्यादा फौज हो। इसलिए उन्होंने स्याल के पास कहला भेजा कि या तो खिराज भेजो, वर्ना तुम्हारा इलाका जब्त कर लिया जाएगा। उसका उत्तर पाये बिना ही उस पर चढ़ाई कर दी। अहमदखां स्याल ने झंग के मुकाम पर महाराज की फौज का मुकाबला किया। दिन भर लड़ाई होती रही। तीन दिन के


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बाद उसके साथी उसे छोड़ कर भाग गए। फिर बेचारे ने भाग कर मुलतान जाकर शरण ली। उसकी सारी सम्पत्ति महाराज के हाथ आ गई। हिन्दू चौधरियों की प्रार्थना के कारण शहर में कोई लूटमार नहीं की गई। बाद में अहमदखां ने 60 हजार रुपये सालाना अदा करने का इकरार किया, इसलिए उसकी हुकूमत वापस कर दी गई। महाराज ने ऊंच, शाहीवाल और गढ़ के मुसलमान नवाबों से बहुत सा रुपया वसूल किया। मुलतान को महाराज पहले ही फतह कर चुके थे क्योंकि मुलतान पंजाब में लाहौर के बाद दूसरे नम्बर का इलाका था। उस समय मुलतान के नवाब मुजफ्फरजंग ने आधीनता स्वीकार करके महाराज को बहुत सा नजराना दिया था। शाहीवाल के हाकिम फतहखां ने कुछ समय बाद खिराज देना बन्द कर दिया, तो सन् 1810 ई० में महाराज ने शाहीवाल पहुंच कर उसे गिरफ्तार करके जंजीरों से बंधवा कर, लाहौर भेज दिया और मुलतान की तरफ मुंह फेरा। क्योंकि मुजफ्फरखां ने ऐसे आसार पैदा कर दिए थे, जिससे महाराज उससे नाराज हो गए। किन्तु लड़ाई में महाराज के सामने ठहरना सम्भव नहीं था। मुलतान पर कब्जा करते ही आस-पास के सब सरदार घबरा गये। लैमा और मक्खर के सरदार मुहम्मदखां ने महाराज को 1 लाख 20 हजार रुपया नजराने में दिया। भागलपुर का सरदार सद्दीकमुहम्मद महाराज को 1 लाख रुपया नजराना देना चाहता था, पर महाराज ने मंजूर नहीं किया । आखिर 500 सवार लड़ाई में इमदाद के लिए रवाना किये। कई दिनों तक किले पर गोलाबारी होती रही, परन्तु पठानों ने बड़ी बहादुरी से सामना किया। जमजमा तोप भी मुलतान के किले पर लगाई गई, परन्तु उससे भी कोई विशेष फायदा नहीं हुआ क्योंकि उसका चलाना बहुत कठिन था। दो महीने की लड़ाई में भी महाराज किले को फतह न कर सके। उधर दीवान मुहकमचन्द, जिसे सुजाबाद को जीतने के लिए भेजा था, वह भी असफल रहा। इन दोनों जगहों की असफलता से महाराज के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा। उन्होंने अनुभव कर लिया कि लड़ाई के लिए सुशिक्षित सेना की आवश्यकता है। युद्ध-कौशल में बिना शिक्षा पाए कोई भी सेना सफलता प्राप्त नहीं कर सकती। इसलिए इन्होंने अंग्रेजी तरीके पर अपनी सेना को कवायद सिखानी शुरू कर दी। मुजफ्फर अहमद ने इन दिनों अंग्रेजों से मदद मांगी पर वह उस ओर से निराश रहा। अगले साल सरदार दिलीपसिंह के साथ मिहाटुआना और उंच के नवाबों से खिराज वसूल करते हुए महाराज मुलतान पहुंचे। मुजफ्फरखां के एजेण्ट दिल्ली से जेवर बेच कर नकद रुपया ले आये थे। उन्होंने 50 हजार रुपया महाराज की नजर किया। इन्हीं दिनों दिलसिंह ने कोटकमालिया को फतह कर लिया था। सन् 1815 ई० में महाराज पाकपट्टन होते हुए भागलपुर को रवाना हुए। भागलपुर के नवाब ने 80 हजार नजराना और 40 हजार सालाना खिराज देना स्वीकार किया। वहां से


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महाराज हड़प्पा पहुंचे और मिश्र दीवानचन्द्र के तोपखाने की मदद से अहमदाबाद को सर किया।

मुलतान विजय: यद्यपि मुलतान से महाराज को खिराज और नजराना बराबर मिलते रहते थे। फिर भी महाराज की यह उत्कट इच्छा थी कि मुलतान को अपने राज में मिला लें। इसलिए सन् 1817 ई० में दीवान मोतीराम, भवानीदास, हरीसिंह नलुआ और मिश्र दीवानचन्द को मुलतान विजय करने को विदा किया। मुजफ्फरखां भी समझ चुका था कि रणजीतसिंह का दांत उसके राज्य पर है। इसलिए बड़ी बहादुरी से डट करके सामना किया। इन सबकी कौशिश बेकार साबित हुई और लाहौर लौट आए। महाराज इस पराजय को सुनकर बहुत नाराज हुए और लौटे हुए सरदारों को अनेक प्रकार से फटकारा और भवानीदास को कैद कर लिया। अगले साल के शुरु में 25 हजार सिख मिश्र दीवानचन्द्र के साथ, मुलतान विजय करने को फिर भेजे। रसद का सामान रावी और चिनाव नदी के रास्ते से भेजने का प्रबन्ध किया। महाराज को यह भी खयाल हुआ कि कहीं सब मुसलमान मिलकर के दीवानचन्द का मुकाबला न करें इसलिए उन्हें सांत्वना देने के लिए अहमदखां स्याल को रिहा कर दिया और उसे अमृतसर के इलाके में जागीर दे दी। मुजफ्फरखां ने भी बहुत से मुसलमानों को जिहाद (धर्मयुद्ध) के नाम पर इकट्ठा किया। उसने मुसलमानों से अपील की थी कि वे दीन के नाम पर मेरी मदद करें। सिखों ने अब की बार उस किले पर बड़े जोरों के साथ हमला किया। दीवान मोतीराम ने घेरा डाल दिया। जमजमा तोप से भी काम लिया गया। बराबर तोपों के गोलों की मार से किले में छेद हो गए। मुजफ्फरखां ने भी जान तोड़ कर युद्ध किया लेकिन उसके साथियों का दिल बैठ गया। मुसलमानी फौज के बराबर घटने के कारण कुछ सटक गए और कुछ ने हथियार डाल दिए। उसके दो हजार आदमियों में से सिर्फ दो सौ जिन्दा रह गए। अचानक साधूसिंह नाम के सैनिक ने अपने साथियों समेत शुक्र के दिन यवनों पर धावा बोल दिया और हाथों हाथ लड़ाई में सबको कत्ल कर डाला। मुजफ्फरखां ने बड़ी बहादुरी के साथ अपने बेटों को सब्ज कपड़े पहना कर खिजरी दरवाजे पर सिखों का मुकाबला किया। बढ़ते-बढ़ते बहाबलहक के मकबरे तक आ पहुंचा। यहां पर सिखों ने उसके ऊपर गोलियां चलाईं, जिससे वह अपने पांचों बेटों सहित मारा गया। नवाब का सारा सामान - शाल, दुशाले, जवाहरात, हीरे, मोती लूट लिए गए। किले के अन्दर के चार, पांच सौ मकान गिरा दिए गए। बहुत सी मुसलमानी औरतें डर के मारे हौज में डूब कर मर गईं1

मुलतान को विजय कर लेने के बाद सुजाबाद को लूटा गया। जब लाहौर में


1. तारीख पंजाब। पे० 402


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मुलतान विजय की खबर महाराज को लगी तो बड़ी खुशियां मनाई जाने लगीं। आठ दिन तक लाहौर और अमृतसर दोनों शहरों में रोशनी की गई। महाराज गलियों में घूम-घूमकर रुपये बखेरते थे। मुलतान की लूट में से जो महाराज के हाथ लगा, वह पांच लाख के करीब था। सुखदयाल को महाराज ने मुलतान का सूबेदार नियत किया। मुलतान की विजय ऐसी थी, जिससे महाराज का दिल तो बढ़ा ही, पर साथ ही मुसलमानों और सिखों सभी पर आतंग छा गया। अंग्रेज भी महाराज की इस गतिविधि का अनुशीलन कर रहे थे। परन्तु वे कुछ कर नहीं सकते थे क्योंकि उनके पास इतनी शक्ति नहीं थी कि रणजीतसिंह जैसे साहसी और बहादुर का मुकाबला कर सकें। साथ ही वे मरहठों के झंझटों में फंसे हुए थे।

वजीर फतहखां को उसकी ईरान विजय पर काबुल के अमीर ने दावत दी थी। उसी दावत में अमीर शाहमहमूद के बेटे ने फतहखां को मार डाला, जिससे फतहखां का कबीला बिगड़ा और काबुल में पारस्परिक संघर्ष आरम्भ हो गया। महाराज ने पेशावर को अपने राज्य में मिला लेने का यह अवसर बड़ा अच्छा समझा। 15 दिन तक बराबर सेना की कवायद-परेड देखने के बाद फूलसिंह, अकाली और दूसरे सरदारों के साथ पेशावर को फौज रवाना कर दी। उन्होंने मार्ग में खटक-पठानों को परास्त करते हुए खैराबाद, नौशहरा और फिर पेशावर पर कब्जा कर लिया। पेशावर का सूबेदार यारमुहम्मद भाग गया। महाराज तीन दिन तक पेशावर रहे। पच्चीस हजार नजराना और 14 तोपें लेकर जहांदादखां को पेशावर का सूबेदार नियुक्त कर दिया और आप लाहौर को वापस लौटे। महाराज अटक के पास थे कि दोस्तमुहम्मदखां ने अपने एजेण्ट दामोदरमल और हाफिजउल्ला को महाराज के पास भेजा। उन्होंने एक लाख रुपये महाराज के सामने इसलिए पेश किए कि उसे पेशावर दे दिया जाए। महाराज ने यह बात मान ली। लेकिन इसी बीच बरकजई मुसलमानों ने जहांदादखां को पेशावर से निकाल दिया। महाराज इस समाचार को सुनकर बड़े क्रोधित हुए। लेकिन इतने ही में काबुल के एजेण्ट पचास हजार रुपये और कुछ घोड़े लेकर महाराज की सेवा में हाजिर हो गए। इसलिए महाराज ने अपनी फौज वापस बुला ली। कटक का स्नान करके महाराज लाहौर लौट आए। इसके बाद सन् 1818 में शाहशुजा ने भी पेशावर पर कब्जा करने की कौशिश की, पर वह असफल रहा। दिलसिंह की फौज ने उसे सिन्ध की ओर भगा दिया।

मुलतान की विजय के बाद महाराज ने डेरेजात और हजारे के इलाके को अपने राज्य में मिलाने के लिए राजकुमार शेरसिंह और तारासिंह को फौज देकर भेजा। यहां के इलाकेदार मुहम्मदखान के साथ हजारों मुसलमान इकट्ठे हो गए,


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परन्तु मुहम्मदखान लड़ाई में मारा गया, इसलिए उसके बेटे ने 75 हजार रुपया अदा करके सन्धि कर ली। सन् 1819 ई० में महाराज मुलतान की तरफ से सिन्ध के अमीरों से खिराज लेने के लिए जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में खबर मिली कि उनकी दो रानियों से दो लड़के पैदा हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि बच्चे कहीं दूसरी जगह से लेकर रानियों ने अपने बतला दिए थे। काश्मीर और मुलतान की विजय के उपलक्ष में एक का नाम कश्मीरासिंह और दूसरे का नाम मुलतानासिंह रक्खा। एक को स्यालकोट में और दूसरे को मुलतान में जागीर दी गई। मुलतान को महाराज ने श्यामसिंह पेशावरिया को साढ़े छः लाख सालाना के ठेके में दे रक्खा था। जब उन्हें यह पता चला कि उसने प्रजा के ऊपर बहुत अत्याचार किए हैं तो श्यामसिंह को कैद करके भाई बदन-हजारी को वहां का सूबेदार नियुक्त किया और अकालगढ़ के खत्री सावनमल को माल-अफसर बनाया। इसी साल जमादार खुशहालसिंह ने डेरेगाजीखां को विजय कर लिया जो कि पहले काबुल का एक हिस्सा था। इन्हीं दिनों खबर मिली कि हजारा, पिलखी, धतूड़ा और तिखला के मुसलमानों ने भाई मक्खनसिंह को कत्ल करके विद्रोह कर दिया है। महाराज ने दीवान रामदयाल और श्यामसिंह अटारी वाले को राजकुमार शेरसिंह के साथ रवाना किया। इनके साथ अहलूवालियां फतेसिंह और रानी सदाकौर भी थे। रानी सदाकौर ने इन कबीलों को तबाह करने का हुक्म दिया। हजारों मुसलमान कत्ल कर दिए गए। इन ज्यादतियों को देखकर तिखला, यूशुफजई वगैरह के सब मुसलमान इकट्ठे हो गए। दीवान रामदयाल ने उनका सामना किया। सारे दिन लड़ाई होती रही जिसमें दोनों तरफ के बहुत से वीर लड़ाई में मारे गए। दीवान रामदयाल बड़ी बहादुरी से लड़ा। पठान उससे चिढ़ गए और शाम के वक्त लौटती बार उस पर टूट पड़े। सिखों की फौज पीछे हट चुकी थी। रामदयाल ने बड़ी बहादुरी से लड़ते-लड़ते अपनी जान दी। महाराज को इस नौजवान की मृत्यु का समाचार मिला तो वे बड़े दुखी हुए क्योंकि उन्हें इस पर बड़ी उम्मीदें थीं।

दीवान मोतीराम ने जब अपने बेटे की मौत का समाचार सुना तो उसे इतना रंज हुआ कि वह काश्मीर की सूबेदारी को छोड़ कर बनारस में चला गया। रणजीतसिंह का कोप साधारण न था। हजारा के मुसलमानों ने धीरे-धीरे खिराज देना स्वीकार कर लिया।

सन् 1820 ई० में महाराज झेलम पार करके रावलपिंडी गए और वहां के सरदार नन्दसिंह को निकाल कर रावलपिंडी अपने अधिकार में की और दफ्तरी नानकचन्द को वहां का अफसर नियुक्त किया। फरवरी, सन् 1821 ई० में महाराज के लड़के खड़गसिंह के यहां नौनिहालसिंह का जन्म हुआ जिससे राज्य भर में बड़ी खुशियां मनाईं गईं। इसी साल कस्तवाड़ और फतहकोट को विजय


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करके अपने राज्य में मिलाया। सरदार हरिसिंह नलुआ, मिश्र दीवानचन्द्र और दीवान कमाराव को भक्खर विजय करने को भेजा। भक्खर जीत लेने के बाद सरदार दिलसिंह और जमादार कुशालसिंह डेराइस्माइलखां1 की ओर गए। वहां के अफसर नानकराय ने सामना किया, परन्तु वह पकड़ा गया। इसके बाद खानगिरान, लैया, पेजगढ़ कर कब्जा करके महाराज की फौज ने मुनकेरा पर वार किया। मुनकेरा के नवाब हाफिज रहमतखां ने सामना किया। परन्तु उसे पानी का बहुत कष्ट था। उसके यहां बहुत दूर से ऊंटों पर पानी लाया जाता था। फिर भी वह 24 दिन तक लड़ता रहा। महाराज रणजीतसिंह खुद भी इस युद्ध में मौजूद थे। नवाब ने हार मान ली और सन्धि की प्रार्थना की। इस लड़ाई में महाराज के हाथ चौबीस तोप और 10 लाख का इलाका आया। डेरा इस्माइल खां हाफिज रहमतखां के ही हाथ रहा।

मुहम्मद अजीम की गुप्त कार्रवाहियां महाराज से छिपी हुई नहीं थीं, इसलिए उन्होंने उसके भारतीय इलाके को अपने राज्य में पूर्णतः मिला लेने का निश्चय किया। सन् 1823 में रोहितास में उन्होंने अपनी सारी फौज इकट्ठी की। वहां से रावलपिंडी को कूच कर दिया। महाराज ने फकीर अजीजुद्दीन को पेशावर में भेजा कि वह मुहम्मदयारखां से नजराना तो वसूल कर ही ले। मुहम्मदयारखां ने नजराना दे दिया, साथ ही बहुत से घोड़े भी महाराज के लिए दिए। मुहम्मद अजीमखां को अपने भाई की यह हरकत बहुत बुरी लगी। वह काबुल से बहुत सी फौज लेकर पेशावर आया। महाराज उससे निपट लेना चाहते थे, इसलिए शेरसिंह को हरीसिंह नलुआ और दीवान कृपाराम के साथ पेशावर की ओर भेजा। उन्होंने पहले ही जाकर जहांगीराबाद पर हाथ साफ किया। पठान जोश में आकर जेहाद के नाम पर इकट्ठे हो गए। अफरीदी, खटक, बनेरे आदि सभी किस्म के पठान नौशेरा में आ डटे। महाराज ने दूसरी फौज खड़कसिंह और मिश्र दीवानचन्द को देकर शेरसिंह की मदद को भेजा और फिर स्वयं भी उधर ही को चल पड़े। उधर मुहम्मद अजीमखां भी नौशेरा आ गया। दोस्तमुहम्मद, सरदार जवरखां भी मुकाबले के लिए आ डटे। महाराज ने 15 हजार सवारों के साथ 12 मार्च को अटक नदी को पार किया। नदी चढ़ी हुई थी। कभी भी किसी की हिम्मत नहीं हुई थी कि घोड़े पर चढ़कर अटक को पार करें, किन्तु “सवैभूमि गोपाल की या में अटक कहा” कहकर महाराज ने घोड़ा नदी में बढ़ा दिया। कहते हैं हजार के


1. सन् 1838 में कुं० नौनिहालसिंह ने शाह नवाबखां को निकाल कर डेरा-ईस्माइलखां पर अपना कब्जा कर लिया था और सन् 1835 ई० में यूसुफजई और अफरीदियों को विजय किया और लूटा। दूसरी तरफ हरीसिंह ने जमसूदी और अफरीदियों को परास्त किया। तारीख पंजाब। पेज 405


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लगभग सैनिक बह गए। तोपें हाथियों पर रखकर पार की गईं। उधर पठानों की ओर से बीस हजार आदमी इकट्ठे हो गए थे।

नौशेरा का युद्ध इसलिए ख्याति रखता है कि इसमें पंजाबी जाट तथा हिन्दुओं ने पठानों की सम्मिलित शक्ति को पराजय दी। युद्ध आरम्भ हुआ। पठानों ने सिख जनरल सतगुरु सहाय और महासिंह को गोली का निशाना बना दिया। सिख पठानों की मार से पहाड़ी से नीचे की ओर उतरने लगे। इतने में फूलासिंह अकाली ने अपने साथियों को ललकारा और वह भेड़िये की भांति पठानों पर टूट पड़ा। किन्तु गाजियों के दल में घिर जाने से फूलासिंह मारा गया। फूलासिंह के मारे जाने के बाद, महाराज ने खुद हमला किया। मिश्र दीवानचन्द ने भी अपना तोपखाना लगा दिया। शाम तक बराबर रक्तपात होता रहा। गाजियों की संख्या आधी रह गई। इतने पर भी गाजी अपनी जगह से तिल भर भी न हटे। इसके बाद महाराज ने गोरखों की पलटन को आगे बढ़ाया और पीछे अपने सैनिक खड़े कर दिए ताकि वे मैदान से भागें न। पठानों पर चारों ओर से मार पड़ने लगी। आखिर वे मैदान छोड़ भागे। मुहम्मद अजीमखां अपने बाल-बच्चों को बचाने के लिए पहले चंपत हो चुका था और पहाड़ियों के रास्ते छिपता हुआ भाग गया। महाराज ने आगे बढ़कर हस्तनगर पर कब्जा किया और तारीख 17 मार्च को पेशावर पर अधिकार कर लिया। सिक्ख बिखर गए और खैबर तक सारे इलाके में उन्होंने लूट मचा दी। किन्तु चूंकि वहां की मुसलमान जनता सिक्ख विजेताओं से सख्त नाराज थी, इसलिए महाराज ने पेशावर अपने हाथ न रखकर यारमुहम्मद और दोस्तमुहम्मद को बुलाया। वे दो जोड़ी घोड़े नजराना लेकर महाराज के सामने हाजिर हुए। उन्हीं में महाराज ने नया जीता हुआ इलाका बांट दिया। 26 अप्रैल को लाहौर वापस आकर विजय की खुशियां मनाईं। लाहौर, अमृतसर में भारी रोशनी हुई। इन्हीं खुशी के दिनों में तैमूरशाह का लड़का इब्राहीम लाहौर आया। महाराज ने उसे बड़े प्रेम से ठहराया और उसका सत्कार किया।

अपनी पिछली आदत के अनुसार सन् 1823 ई० में पिखली और धमतूर के कबीलों ने विद्रोह खड़ा कर दिया। जब महाराज को खबर मिली तो उन्होंने हरीसिंह नलुआ को उनके दमन करने को भेजा। हरीसिंह ने उनके गांव के गांव बरबाद कर दिए और उनको इतना तंग किया कि आज तक उनकी औलाद के लोग हरीसिंह को नहीं भूल पाये हैं। इसके एक साल बाद, सन् 1824 ई० में हजारा के जमींदारों ने भी बगावत खड़ी कर दी और महाराज के किलेदार अव्वासखां खटक को कैद कर लिया। हरीसिंह नलुआ ने गंदगढ़ के मैदान में इनको परास्त करके भगा दिया। अव्वासखां को कैद से छुड़ा कर उसकी जगह पर बहाल


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कर दिया। इन्हीं दिनों बहावलपुर और मुनकेरा के नवाब मर गए। महाराज ने उनके बेटों को पच्चीस-पच्चीस हजार नजराना लेकर उत्तराधिकारी बना दिया।

काश्मीर विजय के हालात

कश्मीर जिस तरह से महाराज के हाथ में आया और जितनी बार उनको लड़ाइयां लड़नी पड़ीं, वह सब पाठकों की सहूलियत के लिए एक जगह संग्रह करके रख देना हमने उचित समझा है। जिन दिनों कश्मीर काबुल के आधीन था, उस समय वहां अतामुहम्मद सूबेदार था। अतामुहम्मद ने सन् 1810 ई० में शुजा की मदद करके उसके विरोधी भाई महमूद को हराया था। उसी साल दीवान मुहकचन्द ने भम्बर और राजौरी पर हमला किया। भम्बर के सुल्तान खान ने सामना किया, परन्तु हार गया और 40 हजार रुपया खिराज देना मंजूर किया। दूसरी तरफ महाराज ने कटाल में गंगा का किला जीत लिया था। उन्हें इसी समय समाचार मिला कि शाह महमूद सिंध के पार हो आया है। महाराज खेबड़ा से चलकर रावलपिण्डी पहुंचे। यहां उन्हें पता लगा कि शाह महमूद काश्मीर के सूबेदार अतामुहम्मद को तथा अटक के सूबेदार को सजा देना चाहता है। महाराज ने उसके साथ दोस्ती कर ली और वापस चले आए। यहां पर उन्हें मालूम हुआ कि इस्माइलखां को जिसे मुहकमचन्द भम्बर का इलाका दे आया था, सुल्तानखां ने निकाल दिया है। इसलिए भाई रामसिंह और कुं० खड्गसिंह को सुल्नातखां को ठीक करने को भेजा। सुल्तानखां ने पहली लड़ाई में सिक्खों को हटा दिया, परन्तु जब उसने सुना कि मुहकमचन्द भी फौज लेकर आ रहा है तो वह सन्धि करने पर राजी हो गया और मुहकमचन्द के साथ लाहौर चला आया। यहां महाराज ने उसे कैद कर लिया और उसका इलाका अपने राज्य में मिला लिया। सन् 1812 ई० में इस्माइलखां ने राजौरी के अजीजखां के साथ मिलकर अतामुहम्मद की मदद से बगावत खड़ी कर दी। महाराज ने खुद जाकर इस बगावत को दबाया। इन्हीं दिनों काबुल के अमीर शाहजमाल और शुजा के कुनबे लाहौर में आए। महाराज की ओर से उनका खूब स्वागत-सत्कार हुआ। महाराज की यह भी इच्छा थी कि शुजा लाहौर में रहे क्योंकि काश्मीर के ऊपर उनकी नजर थी। इसी समय उन्हें काश्मीर लेने का मौका भी मिल गया। वजीर फतहखां अतामुहम्मद और उसके भाई जहांदाद (किलेदार अटक) को सजा देने के लिए काश्मीर जा रहा था। उसे यह खयाल आया कि शायद महाराज रणजीतसिंह की फौज काश्मीर के पहाड़ी रास्तों से भली प्रकार परिचित होगी। इसलिए महाराज की फौज के साथ मिलकर यह मुहीम इखत्यार करनी चाहिए। महाराज उसके साथ फौज लेकर चलने के लिए इस शर्त पर तैयार हो गए कि लूट का तीसरा भाग सिखों को दिया जाएगा। बारह हजार फौज मुहकमचन्द के साथ महाराज ने


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काश्मीर के लिए रवाना की। दोनों फौजें पृथक्-पृथक् रास्तों से काश्मीर पहुंचीं। अतामुहम्मद लड़ाई में न ठहर सका और वजीर ने शाहमहमूद के नाम पर काश्मीर पर अधिकार कर लिया और सिखों को कुछ नहीं दिया। दीवान मुहकमचन्द को खाली हाथ लौटना पड़ा। यह पहला मौका था कि महाराज मुसलमान के धोखे में आ गए और वह इतने चिढ़े कि उसी समय अटक के हाकिम जहांदादखां से लिखा पढ़ी की कि अटक का किला सिखों के हाथ में कर दे। उस बेचारे ने लाचार होकर महाराज के दावे को स्वीकार कर लिया और सिखों को उस किले में घुसा लिया। महाराज ने फकीर अजीजुद्दीन और दीवान देवीदास को अटक का चार्ज संभालने को भेजा। उधर काश्मीर से फतहखां भी वहां का इन्तजाम अपने अजीजखां के सुपुर्द करके अटक आ पहुंचा। लड़ाई की तैयारियां होने लगीं। सुजूर के मुकाम पर घमासान युद्ध हुआ। परन्तु सिखों की मदद के लिए मुहकमचन्द आ पहुंचा था। वजीर और उसका भाई दोस्त-मुहम्मद दोनों बहादुरी के साथ लड़े, परन्तु मुहकमचन्द की बहादुरी से यवनों को हार खानी पड़ी और वह भाग खड़े हुए। पठानों पर सिखों की यह पहली विजय थी। वह शुभ दिन जब कि पठानों पर सिख विजयी हुए थे सन् 1813 की 13 जुलाई था। इस विजय से लाहौर में बड़ी खुशी मनाई गई। लाहौर, अमृतसर, बटाले में रोशनी की गई। दो महीने तक बराबर आमोद-प्रमोद जारी रहे। कुछ समय के बाद महाराज ने सूबा अटक का मुलाहिजा किया और अक्टूबर में पहाड़ी राजाओं से खिराज वसूल करके काश्मीर पर चढ़ाई करने का प्रबन्ध करने लगे। गुजरात के रास्ते से उनकी सेनाएं काश्मीर को चलीं। भम्बर और राजौरी होते हुए ठट्ठा में उनकी सेनाएं पहुंचीं। परन्तु काश्मीरी मुसलमानों ने बहरामगिला के पास का पुल तोड़ दिया था, जिससे उनका आगे बढ़ना रुक जाए। परन्तु राजौरी के सरदार के दूसरा रास्ता बतलाने पर महाराज ने बहराम के किले पर कब्जा कर लिया। आगे बढ़ने का विचार कर रहे थे कि बरसात शुरू हो गई। इस साल बड़े जोरों का पानी पड़ा। इसलिए महाराज ने यही उचित समझा कि बरसात के बीत जाने पर काश्मीर पर हमला किया जाए। इसलिये उस समय वह लाहौर के लिए लौट आए।

सन् 1814 ई० में महाराज ने काश्मीर पर चढ़ाई करने का फिर इरादा किया। स्यालकोट में सब फौज और सरदारों को इकट्ठा किया। इस समय दीवान मुहकमचन्द ने राय दी कि चम्बर और राजौरी में बहुत सा रसद का सामान इकट्ठा कर लिया जाए तब काश्मीर पर चढ़ाई की जाए। परन्तु महाराज ने इस राय पर विशेष ध्यान नहीं दिया।

बीमारी की वजह से दीवान मुहकमचन्द तो लाहौर में ही रह गया। उसकी जगह पर उसका पौत्र रामदयाल जिसकी उम्र 24 साल की थी, जाने को तैयार हुआ। राजौरी के हाकिम अगरखां ने महाराज को पूंछ के गलत रास्ते पर डाल


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दिया। सेना का एक भाग रामदयाल और दूसरे सरदारों के अधीनस्थ था जिनमें हरीसिंह नलुआ और हरनामसिंह अटारीवाला भी थे, आगे रवाना हुआ। पीर-पंचाल गुजर कर यह फौज महरपुर जा पहुंची। यहां अजीमखां ने सामना किया परन्तु वह हार खाकर पीछे हट गया और अगले मुकाम शौपम में सिक्ख फौज को आगे बढ़ने से रोक दिया। रामदयाल ने श्रीनगर के पास एक गांव में हटकर डेरा डाल दिया और महाराज के आने की बाट जोहने लगा। उधर महाराज की फौज श्रीनगर के बजाय पूंछ जा पहुंची। बरसात का समय भी आ गया और बरसात आरम्भ भी हो गई। ठीक रास्ता न मिलने के कारण महाराज लाहौर को वापस लौट आये। लाहौर लौटकर उन्होंने भाई रामसिंह को कुछ फौज देकर दीवान रामदयाल की सहायता को भेजा। परन्तु वह भी बहराम गले में चक्कर खाता रहा और उसे रास्ता न मिला। रामदयाल ने जान लिया कि उसे बिना महाराज के आये हुए ही लड़ना पड़ेगा। इसलिए वह ऐसी बहादुरी से लड़ा कि उसके सामने दो हजार पठान मारे गए। अजीमखां ने दीवान रामदयाल से सुलह कर ली और महाराज की भेंट के लिए बहुत सा सामान दिया। रामदयाल लाहौर लौट आया। महाराज को दीवान मुहकमचन्द की बात याद आई और अपनी गलती पर पछताने लगे। यदि राजौरी और भम्बर में रसद का सामान इकट्ठा कर लिया जाता तो काश्मीर अब की बार में ही विजय कर लिया जाता। इसी अरसे राजौरी और भम्बर के सरदारों ने भी बगावत खड़ी कर दी। दीवान रामदयाल और दिलसिंह ने उनके इलाके में पहुंच कर बगावत को दबा दिया और कुछ दिन के बाद राजौरी और कोटली को विजय कर लिया और रामगढ़ियों का सारा इलाका भी महाराज ने अपने इलाके में मिला लिया। यह समाचार जब काबुल पहुंचा कि महाराज रणजीतसिंह ने काश्मीर को अपने राज्य में मिलाने के लिए चढ़ाई की है तो वहां से वजीर फतहखां अजीमखां की मदद के लिए चला। उसके सिन्ध पार कर चुकने के बाद महाराज रणजीतसिंह को भी उसके आने की खबर मिल गई। इसलिए उन्होंने दीवान रामदयाल को आज्ञा दी कि वह सरायकाला पर पहुंच करके डेरा डाले रहे और उसका सामना करता रहे।

चार साल के बाद सन् 1818 ई० में काश्मीर के नये सूबेदार जवरखां का वजीर वीरधर नाराज होकर महाराज के पास लाहौर आ पहुंचा और काश्मीर को विजय करने के तमाम तरीके उसने महाराज को बतला दिये। इस बार महाराज ने सेना के तीन भाग किये - एक भाग का सेनापति मिश्र दीवानचन्द्र, दूसरे का कुंवर खड़गसिंह और तीसरे भाग के संचालक खुद महाराज बने। मार्च सन् 1819 ई० में पं० दीवानचन्द ने राजौरी पहुंचकर अपने सैनिकों को हुक्म दिया


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कि अजीजखां को गिरफ्तार कर लिया जाये। अजीजखां तो भाग गया लेकिन उसके बेटे रहीमउल्लाखां ने राजौरी का राज्य दीवानचन्द के सुपुर्द कर दिया। यहां से आगे दीवानचन्द ने पूंछ पहुंचकर वहां के शासक जबरदस्तखां से अधीनता स्वीकार कराई। पीर पंजाल को पार करके दीवानचन्द ने अपनी सेना के तीन भाग किये। ता० 16 जून को 12 हजार सिख सरायअली में इकट्ठे हो गये। 5 जुलाई को शोपिन के मुकाम पर पठानों और सिखों में एक बड़ी भारी लड़ाई हुई, जिसमें हजारों पठान मारे गए। बचे-खुचे मैदान छोड़कर भाग गए। जबरखां ऐसा घायल हुआ कि उसकी जान मुश्किल से बची। काश्मीर पर महाराज का कब्जा हो गया। सिक्ख चाहते थे कि शहर लूट लिया जाए, परन्तु मिश्र दीवानचन्द ने ऐसा नहीं करने दिया। विजय उत्सव मनाने के लिए महाराज लाहौर को लौट गए। तीन दिन तक लाहौर और अमृतसर में रोशनी की गई और अनेक तरह के दान-पुण्य किए गए। दीवान मुहकमचन्द के बेटे दीवान मोतीराम को काश्मीर का पहला सूबेदार नियुक्त करके काश्मीर भेजा गया और लगान उगाही का 53 लाख में पं० वीरधर को काश्मीर का ठेका दे दिया गया। शाल बनाने का ठेका दस लाख रुपये में जवाहरमल को दिया गया। दूसरे साल मोतीराम बनारस के लिए चले गए तो महाराज ने सरदार हरीसिंह नलुआ को जिसने पिछले साल दुर्बन्धगढ़ को फतह किया था, काश्मीर का सूबेदार नियुक्त किया। साहस और बहादुरी के लिए हरीसिंह बड़ा मशहूर था। उसने अकेले ही घोड़े पर सवार होकर एक बार एक शहर को जीत लिया था। परन्तु प्रबन्ध करने में वह सफल नहीं हुआ, इसलिए महाराज ने फिर दीवान मोतीराम को काश्मीर भेजा और वह सन् 1826 ई० तक काश्मीर रहा। जब दीवान मोतीराम काश्मीर का सूबेदार था, उस समय उसका बेटा जालन्धर के द्वावे पर गवर्नरी करता था और दूसरा बेटा शिवदयाल जिला गुजरात में जागीर का प्रबन्ध करता था। परन्तु राजा ध्यानसिंह जो महाराज के मुंह लगा हुआ था, इन लोगों से इसलिए जलता था कि इनका रुतबा बहुत बढ़ा हुआ था और उसने फलौर को जो मुहकमचन्द की जागीर में था, अपने साले राजारामसिंह को दे दिया। इससे कृपाराम बहुत नाराज हो गया। जब महाराज ने दुर्बन्ध की लड़ाई के लिए उसे बुलाया तो बजाय कुल फौज के सिर्फ 15 सवार लेकर हाजिर हुआ। महाराज उससे बहुत जल गए। उसे कैद कर दिया और मोतीराम को काश्मीर से वापस बुलाकर उस पर 17 हजार जुर्माना कर दिया और भीमसिंह को काश्मीर में उसके स्थान पर भेजा। किन्तु वह अयोग्य साबित हुआ, इसलिए दीवान चुन्नीलाल को उसकी जगह पर नियुक्त किया। वह भी काश्मीर का शासन करने में सफल नहीं हुआ। डेढ़ साल बाद मोतीराम के खानदान पर फिर कृपा की


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दृष्टि हुई और दीवान कृपाराम को काश्मीर का गवर्नर नियुक्त किया। दीवान कृपाराम बड़ा योग्य और सर्व-प्रिय था।

इसके समय में काश्मीर में बड़ी तरक्की हुई। इसी ने रामबाग की नींव डाली। दीवान कृपाराम के काश्मीर से वापस आने पर वैसाखासिंह को महाराज ने काश्मीर का प्रबन्ध सौंपा था परन्तु वह बड़ा अयोग्य और नालायक साबित हुआ। सन् 1833 ई० में उसकी शिकायतें महाराज के पास पहुंचीं। उसके आगे लोगों पर खूब जुल्म होते थे। सारा इन्तजाम खराब था। शाल की दस्तकारी बरबाद हो रही थी। सौदागरों का दीवाला निकल रहा था। शेरसिंह जो उसकी देखभाल के लिए मुकर्रर था, शराब पीकर के मस्त पड़ा रहता था। महाराज ने उसे पकड़ करके लाहौर मंगा लिया और उस पर 5 लाख जुर्माना किया। जमादार खुशहालसिंह, भाई गुरुमुखसिंह, गुलाममुहीउद्दीन को शेरसिंह की मदद के लिए काश्मीर भेज दिया। परन्तु इन लोगों से कुछ भी अच्छा प्रबन्ध न हो सका, बल्कि इन्होंने लोगों को और भी तंग किया। प्रजा के हजारों लोग अकाल और जुल्मों से तंग आकर लाहौर की ओर भाग आये। लाहौर की गलियों में वह रोटी के लिए चिल्लाते थे। महाराज ने उनके खाने-पीने के लिए मन्दिर व मस्जिदों में सदावर्त खोल दिए, और गुलाम मुहीउद्दीन को वापस बुलाकर उसकी जायदाद जब्त कर ली। खुशहालसिंह को दो माह तक अपने सामने नहीं आने दिया और उनकी जगह पर महाराजसिंह को भेजा। सन् 1834 ई० में जम्बू के राजा गुलाबसिंह को उसके कमाण्डर जोरावरसिंह ने गद्दी से अलग कर दिया और उसके मंत्री को जम्बू का राजा बना दिया। तीस हजार रुपया सालाना खिराज देना महाराज रणजीतसिंह को मंजूर किया। इस प्रकार जम्बू पर भी महाराज का अप्रत्यक्ष रूप से अधिकार हो गया। लद्दाख के अधिकारियों में भी इसी साल आपस में झगड़ा हो जाने के कारण उन्हें भी महाराज की शरण लेनी पड़ी ।

पेशावर पर कब्जा

काबुल का अमीर दोस्तमुहम्मद जो कि शुजा की हुकूमत को काबुल में न बैठने देने के लिए प्राण-पण से चेष्टा कर रहा था, चाहता था कि पेशावर महाराज रणजीतसिंह के अधीन न रहकर काबुल के आधीन रहे। इसलिए उसने छेड़छाड़ आरम्भ कर दी। उसी का इशारा पाकर सन् 1834 में दिलासाखां ने बन्नू के इलाके में विद्रोह कर दिया। उसके विद्रोह को दबाने के लिए सरदार शामसिंह और बख्शी तारासिंह ने उसे गडही में जा दबाया। किन्तु रात के समय पठानों ने सोते हुए सिक्खों पर हमला कर दिया। इस अचानक हमले में कई सौ सिक्ख मारे गए। सिक्ख लोग घेरे को उठा चुके थे। किन्तु राजा सुचितसिंह मदद को पहुंच गए और विद्रोह को दबा दिया गया। अब महाराज ने पेशावर को कतई अपने


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राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया, क्योंकि उन्हें अन्देशा था कि शायद पेशावर के मुसलमान शासक मिल कर पेशावर को काबुल के आधीन न कर दें। इन दिनों सरदार हरीसिंह नलुआ यूसुफजई के सूबेदार थे। उन्हें आज्ञा दी गई कि वे कुंवर नौनिहाल के साथ मिलकर पेशावर पर पूरा कब्जा कर लें। अप्रैल के महीने में ये सेनायें पेशावर पहुंच गईं। बहुत सा खिराज और घोड़े जो सुलतान महमूद ने भेजे, कुंवर नौनिहालसिंह ने रख लिए किन्तु नजराने में आए हुए घोड़े वापस कर दिए जिससे पठान समझ गए कि अब की बार खैर नहीं है। अतः उन्होंने अपने परिवार काबुल की ओर भेज दिए। सरदार हरीसिंह नलुआ ने सुलतान महमूद से कहला भेजा कि कुंवर साहब शहर का निरीक्षण करना चाहते हैं। सुलतान महमूद मतलब को समझ गया और रात के समय किले को खाली करके पहाड़ों में भाग गया। दूसरे दिन सिक्ख सेना ने पेशावर पर बिना ही रक्त बहाये अधिकार कर लिया।

लेकिन महाराज निश्चिन्त न थे। वे बराबर पेशावर के लिए फौजें भेजते रहे और खुद भी पेशावर को चल पड़े। क्योंकि वे जानते थे कि पठान धोखे से, स्पष्टता से जैसे भी उनसे बनेगा, पूरा उपद्रव करेंगे। सहज ही पेशावर पर कब्जा न होने देंगे। उधर दोस्तमुहम्मद को जब यह खबर लगी कि पेशावर पठानों के हाथ से निकल गया है तो वह बड़ा चिन्तित हुआ और उसने अंग्रेजों को लिखा कि वे रणजीतसिंह से यह इलाका वापस करा दें। लेकिन अंग्रेज सरकार ने टका सा 'इनकारी का' जवाब दे दिया। दोस्तमुहम्मद अंग्रेजों की इनकारी से निराश नहीं हुआ। उसने जबरखां को ईरान भेजा ताकि वह वहां से मदद लाये। वह खुद सेना लेकर जलालाबाद आ गया और वहां से फौज लेकर पेशावर की ओर रवाना हुआ। अलीबागान मुकाम पर पहुंचकर ईद की कुर्बानी की और खुदा से दुआ मांगी कि -

“या खुदा, मुझ मक्खी को जाट हाथी रणजीतसिंह से लड़ने की ताकत दे! चूंकि तेरे पास बहुत ताकत है।”

रास्ते में उसके साथ और भी पठान मिल गए। खैबर के सरदार भी सिखों का साथ छोड़कर दीन के नाम पर उसके साथी बन गए। खैबर को पार करके सिक्खान नामक स्थान में आकर डेरा लगाये। उधर महाराज रणजीतसिंह भी पेशावर आ पहुंचे थे। किन्तु वे चाहते थे कि लड़ाई से पहले उनकी फौज ढ़ंग से लग जाए। इसलिए दोस्तमुहम्मद से यों ही राजीनामे के लिए लिखा-पढ़ी करने लगे। अर्ध-व्यूह की सूरत में सेना को पांच कैम्पों में विभाजित किया। सामने रिसाला, पीछे पलटन, उसके पीछे फिर रिसाला खड़े किए और अजीजुद्दीन और मि० हारमैन को दोस्तमुहम्मद के पार्श्व में नियुक्त किया ताकि वे उसे हटाने में शक्ति लगायें। दोस्तमुहम्मद को भी पता लग गया कि सिख-सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया है। वह घबरा गया और भागने का यत्न सोचने लगा। उसे एक उपाय सूझा। उसने अपने भाई सुलतानमहमूद से कहा


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कि फकीर अजीजुद्दीन और मि० हारमैन को बुलाकर धोखे से कैद कर लो। निदान उन्हें सन्धि के बहाने बुलाकर गिरफ्तार कर लिया और अपने भाई के सुपुर्द करके भाग गया। उसने अजीजुद्दीन से कहा था कि सिख काफिर हैं, अतः उनके साथ दगा करना पाप नहीं है। इसलिए नीति के विरुद्ध मैंने तुम्हें गिरफ्तार किया है। लेकिन जब उसने सुना कि फकीर अजीजुद्दीन और हारमैन दोनों छुड़ा लिए गए, तो उसने अपनी इस हार पर बड़ी शर्म आई। दोस्तमुहम्मद के भाग जाने के बाद महाराज ने पेशावर के किले की मरम्मत कराई और फिर लाहौर को लौट गए।

सन् 1837 ई० की सर्दियों में सरदार नलुआ ने पेशावर से आगे बढ़कर जमसद पर कब्जा कर लिया। इस खबर को सुनकर दोस्तमुहम्मद घबरा गया। उसने अपने वजीर को अपने पांचों बेटों और खैबर के इलाकेदारों के साथ सेना देकर हरीसिंह के मुकाबिले को भेजा। पठानों ने जमसद पहुंचकर हमला किया। दो दिन की लड़ाई के बाद किले के बाहरी हिस्से पर कब्जा कर लिया। इस छोटी सी जीत के लिए पठान खुशी मना रहे थे कि 20 अप्रैल सन् 1837 को हरीसिंह ने उन पर ऐसा आक्रमण किया कि बचारों को लेने के देने पड़ गए। जान बचाकर भागने लगे और सरदार हरीसिंह ने मुहम्मद अफजल और अमीर के बेटों को खैबर तक खदेड़ा। उनकी 14 तोपें छीन लीं। सिख पठानों का पीछा कर रहे थे और पठान अपने ही देश में घर की ओर भाग रहे थे। इसी समय पठानों की मदद के लिए शमसुद्दीन फौज लेकर आ गया। इससे पठान फिर खेत में अड़े। लड़ाई बड़ी डटकर हुई। पठानों को भागते ही बना। किन्तु सरदार हरीसिंह इतने घायल हुए कि वे बच न सके। सिखों का दिल टूट गया और वे जमरूद वापस आ गए। महाराज ने जब स० हरीसिंह के मारे जाने का समाचार सुना तो वे रो पड़े और् खुद पेशावर के लिए फौज लेकर चल पड़े। राजा ध्यानसिंह ने जमरूद पहुंचकर किले की मरम्मत कराई और पेशावर में पैंतीस हजार सिख सेना नियत कर दी जिससे अफगानों के हौंसले पस्त हो गए।

शुजा को सहायता

सन् 1837 ई० में ईरान के बादशाह के मर जाने के बाद ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई कि दोस्तमुहम्मद रूसियों से सुलह करने को तैयार हो गया। वह यह भी चाहता था कि रूस की मदद से सिखों से पेशावर छीना जाए। अंग्रेज यह चाहते थे कि रूस का प्रभाव काबुल या भारत में कहीं भी न बढ़े। इसलिए उन्होंने दोस्तमुहम्मद को मना किया कि वह रूसियों से सम्बन्ध न जोड़े। किन्तु दोस्तमुहम्मद ने इन बातों की कोई परवाह न की। इसके इस कृत्य से चिढ़कर अंग्रेजों ने मि० होमकनाइन वरनिस को महाराज रणजीतसिंह के पास भेजा कि


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दोस्तमुहम्मद को काबुल की गद्दी से हटाने में हमारी मदद करके शाहशुजा को वहां का मालिक बनाया जाए। 30 मई को आम दरबार में दीनानगर के कैम्प में महाराज ने अंग्रेजी दूत की बात सुनी। मि० मैकनाटन ने अपनी सरकार के मनसूबे महाराज के आगे रक्खे। साथ ही कहा गया कि इस मुहीम को महाराज खुद अपने हाथ में लें तो सरकार अंग्रेज उन्हें हर तरह की मदद देगी। महाराज ने इस बात को मंजूर कर लिया। हालांकि राजा ध्यानसिंह पक्ष में न थे। अन्य सरदार भी कहते रहे कि काबुल पर चढ़ाई तो की जाए लेकिन अंग्रेजों से कोई मदद न ली जाए, लेकिन महाराज ने अंग्रेजों की बात को पसन्द किया। आखिरकार शाहशुजा से तय हुआ कि वह अपनी अपनी फौज लेकर काबुल में घुसे। महाराज और अंग्रेज उसकी मदद के लिए आते हैं। अंग्रेज तो अपना सौदा शाहशुजा से यहां कर चुके थे कि उसे बिना अंग्रेजों की मर्जी के किसी के साथ सुलह करने या सम्बन्ध जोड़ने का अधिकार न होगा। महाराज के लिए अंग्रेज शाहशुजा को जलालाबाद दिलाना चाहते थे, किन्तु शाहशुजा ने दो लाख सालाना और पचास घोड़े महाराज को देना स्वीकार कर लिया। नवम्बर में अंग्रेजी फौज फिरोजपुर में इकट्ठी हो गई। यहां महाराज और आकलैण्ड की मुलाकात हुई। दस हजार अंग्रेजी फौज और छः हजार सिख काबुल को रवाना हुए। शाहशुजा कन्दहार ही पहुंचा था कि दोस्तमुहम्मद काबुल छोड़कर भाग गया और इस तरह 8 मई सन् 1839 को शाहशुजा काबुल का बादशाह बना दिया गया। इस तरह काबुल में भी सिखों का यश छा गया। शाहशुजा यथासंभव अपनी शर्त महाराज के साथ पूरी करता रहा।1

महाराज रणजीतसिंह के राज्य की सीमा

महाराज रणजीतसिंह के राज्य की सीमा

महाराज का अधिकांश जीवन संग्राम में बीता। वह युद्ध-प्रिय थे। जिस दिन से उनके पिता का देहान्त हुआ, उसी दिन से वह युद्धों में लगे रहे। बारह वर्ष की अवस्था से युद्ध-क्षेत्र में उतरे थे और लगभग 60 वर्ष की अवस्था तक बराबर युद्ध करते रहे। जिस दिन से उन्होंने अपनी जागीर का काम संभाला था, कोई भी वर्ष उनका ऐसा नहीं बीता जिसमें उन्हें युद्ध न करना पड़ा हो। किसी-किसी वर्ष तो अनेक स्थानों पर उन्हें युद्ध करना पड़ा। घर के लोगों से लगाकर


1. सन् 1836 ई० में सिन्धियों के हमले से तंग आकर वहां के हाकिम दीवान सामनमल ने रोजान पर कब्जा कर लिया और कुछ दिन बाद ही मजारियों से कान का किला भी छीन लिया। अंग्रेजों को यह बात बुरी लगी। कर्नल ब्रीड महाराज के पास सामनमल की शिकायत करने आया किन्तु महाराज ने कुछ परवाह न की और कान के किले को नष्ट कराके मजारियों को दबाये रक्खा।


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काबुल तक लोगों से वह लड़े। वे उच्चाशयी थे। उनकी उच्चाशयें पूरी हुईं। जो व्यक्ति चढ़े हुए अटक जैसे तीव्रगति से चलने वाले नद में अपने घोड़े को यह कह कर डाल दे कि - सबै भूमि गोपाल की या में अटक कहा। जाके मन में अटक है सोई अटक रहा। भला वह क्या नहीं कर सकता था? नैपोलियन ने भी तो यही कहा था कि ‘असम्भव’ नाम की कोई वस्तु नहीं। उन्हें अपनी भुजाओं के बल पर विश्वास था और अपनी ही भुजा के बल से, बाप-दादों की कृपा से नहीं - उन्होंने उत्तर और ईशान कोण की ओर हिन्दूकुश और तिब्बत की पर्वतमाला तक और नैऋत्य कोण की ओर उस्मांखेल और खैबर तथा सुलैमान की पर्वतमाला तक अपना राज्य-विस्तार कर लिया था। मिट्ठनकोट से अमरकोट तक उनके राज्य की सीमा सिन्धु नदी थी और अग्निकोण की ओर सतलज नदी थी। सतलज के इस पार भी पेंतालीस गामों पर उनका राज्य था। उत्तर में उनके राज्य की सीमा इतनी आगे बढ़ गई थी कि अशोक के बाद किसी भी हिन्दू राजा का राज्य वहां तक न पहुंचा था। गोरखा, पठान, मुगल और राजपूत सभी से उन्होंने अपने वल को तौला था। उनका लोहा सभी ने स्वीकार किया था। इसमें कोई सन्देह नहीं, यदि अंग्रेज भारत में न आए होते तो अफगानिस्तान तथा [[1]] तो उनके अधिकार में होते ही, किन्तु तिब्बत, मालवा, सिंध और राजस्थान भी उनके अधिकार में होता और यदि धौलपुर और भरतपुर की ओर पैर भी फैलते जैसी कि बहुत सम्भावना थी तो पंजाब से लगाकर विन्ध्याचल तक एक ऐसा साम्राज्य स्थापित होता जो जाट-साम्राज्य के नाम से पुकारा जा सकता। कारण कि मुरसान और हाथरस के राजा और भरतपुर की महत्त्वाकांक्षी शक्ति को अंग्रेज सरकार के ही कारण संकुचित होना पड़ा था। राजस्थान के राजाओं में इतनी शक्ति व संगठन न था कि वे पंजाब के सिख-जाट और ब्रज के हिन्दू-जाटों की सम्मिलित शक्ति का सामना कर सकते, जबकि राजस्थान के जाट भी उनके अत्याचार से उकता कर अपने कौमी नरेशों का साथ देने को तैयार हो जाते। महाराज रणजीतसिंह भारत का नक्शा देखकर सर्द आह के साथ कहा करते थे - क्या एक दिन यह सारा लाल रंग का हो जायेगा?1 महाराज ने काफी राज्य-विस्तार किया, किन्तु उनकी इच्छा इससे भी बहुत अधिक थी।

मुलाकातें

महाराज ने सन् 1830 ई० तक सारे पंजाब पर विजय प्राप्त कर ली थी। उनका रौब सभी पड़ौसी राज्यों पर छाया हुआ था। सिंध को फतह करने की


1. हिन्दुस्तान के नक्शे में ब्रिटिश राज्य लाल रंग से दिखाया गया है। पे० के० पृ० 27 ।


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लगन उनके हृदय में लगी हुई थी। तत्कालीन देशी-विदेशी शासक उनका कितना सम्मान करते थे, वह इसी से जाना जा सकता है कि निजाम हैदराबाद ने उनके लिए तोहफे भेजे थे। हिरात के शासक ने अपना एजेण्ट उनकी सेवा में भेजा। बिलोचिस्तान से मित्रता के लिए पत्र आए। इंग्लैंड के बादशाह ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और भेंट भेजीं। इन भेंट, तोहफे और नजरानों का कुछ थोड़ा सा दिलचस्प विवरण इस प्रकार है। इंग्लैंड के बादशाह द्वितीय विलियम ने महाराज के लिए पांच उम्दा घोड़े कर्नल वरनिस के साथ भेजे, महाराज ने भी बादशाह को एक कश्मीरी शाल भेजा था। कर्नल वरनिस सिन्ध के रास्ते इन घोड़ों को लेकर लाहौर पहुंचा। फकीर अजीजुद्दीन प्राइममिनिस्टर ने इस भेंट के समय कहा था - इंग्लैंड के बादशाह और पंजाब के महाराज की इस दोस्ती की चर्चा ईरान और रूम तक फैल जायेगी। ता० 18 जून को लाहौर में जुलूस निकालकर मि० वरनिस को दरबार में लाया गया। तमाम गलियां सवारों और प्यादों से भरी हुईं थीं। देखने वालों के झुंड के झुंड खड़े थे। राजा ध्यानसिंह ने दरवाजे पर स्वागत किया। महाराज भड़कदार पोशाक और गले में हार पहने हुए थे। अन्य उमराव भी जवाहरात से लदे हुए थे। सब पर बसंती पौशाक थी। महाराज को मि० वरनिस ने सुनहरी वेग में रक्खी हुई चिट्ठी, दो घोड़े और एक गाड़ी भेंट की। महाराज ने चिट्ठी को अजीजुद्दीन से पढ़वाया। घोड़ों को देखकर महाराज इतने खुश हुए कि उन्हें छोटे हाथी के नाम से पुकारा। डेढ़ घण्टे तक महाराज मि० वरनिस से बातचीत करते रहे। बातचीत के सिलसिले में वे सिन्ध की गहराई, इंग्लैंड की दौलत और ताकत, फ्रांस और इंग्लैंड में कौन शक्तिशाली है, आदि प्रश्न करते रहे।

एक दिन महाराज ने मि० वरनिस को तीस-चालीस कश्मीरी और पहाड़ी लड़कियों की पार्टी दिखलाई। ये सब लड़कियां नाचने वाली थीं और लड़कों का लिबास पहने हुए थीं। सभी एक से एक बढ़कर सुन्दरी थीं। महाराज कहने लगे 'यह भी मेरी एक रेजिमेन्ट है। लेकिन यह कवायद में नहीं जाती।' उनके दो नायक लड़कियों में से एक को 10) प्रतिदिन और दूसरी को 5) प्रतिदिन वेतन मिलता था। फिर महाराज ने अपने सैनिकों के सम्बन्ध में बातचीत की कि हमारे सिपाही युद्ध के दिनों में अपने लिए आठ दिन का रासन कंधे पर लाद कर ले जा सकते हैं। वे व्यूह बनाना भी जानते हैं। दूसरे दिन उसे तोपखाना दिखाया। उसमें इक्यावन (51) तोप थीं जो एक-एक पांच हजार रुपये से कम की न थीं। 16 अगस्त को उसकी प्रार्थना पर उसे कोहनूर हीरा दिखाया जो कि मुर्ग के अण्डे का अर्द्धांश था। औरंगजेब और अहमदशाह के वे हीरे भी दिखाये जिन पर उनकी भारी ममता थी। जाते समय मि० वरनिस को भी महाराज ने काफी उपहार दिए और फारसी में बादशाह के नाम एक चिट्ठी लिख कर दी। महाराज ने इंग्लैंड के


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बादशाह के इन घोड़ों तथा गाड़ी से कोई काम न लिया। वे केवल देखने के लिए रख छोड़े थे, ताकि दर्शकों की भीड़ लगी रहे।

सन् 1871 ई० (?) के मार्च महीने में फ्रांस का एक चित्रकार मि० जैक मांट अपने अजायबघर के लिए भारत से सामग्री-संग्रह करने के लिए लाहौर आया। उसे सालामार बाग में ठहराया गया, जहां कि सुहावने फव्वारे छूटते थे। उसने इस बाग के फव्वारों की अपनी यात्रा-पुस्तक में खूब प्रशंसा की है। महाराज उसके साथ घण्टों बातचीत किया करते थे। उसने लिखा है कि - महाराज प्रत्येक बात को जानना चाहते थे। उनका जानकारी प्राप्त करने का शौक इतना बढ़ा हुआ था कि उनके तमाम लोगों की लापरवाही को दूर कर देता था। उन्होंने मुझसे फ्रांस, इंगलैंड, भारत, लोक, परलोक, बोनापार्ट आदि के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न किये। इस्लाम, ईसाइयत, ईश्वर, जीव, शैतान सम्बन्धी जो भी बात उन्हें याद न थीं, वे पूछे बिना न रहे। मि० जैक ने यहां तक लिखा है कि नैपोलियन बोनापार्ट और महाराज में बहुत कुछ समानता है।

भारत का तत्कालीन गवर्नर जनरल भी महाराज की मुलाकात का बड़ा इच्छुक था। उसकी इच्छा का कारण रूस का ही भय था। क्योंकि उस समय रूस की आंखें ईरान पर लगी हुईं थीं। मुलाकात सम्बन्धी बातें तय करने के लिए अप्रैल सन् 1831 ई० को महाराज ने अपने प्रधान सचिव फकीर अजीजुद्दीन दीवान, मोतीराम और सरदार हरीसिंह नलुआ को गवर्नर के पास भेजा। इन दोनों का गवर्नर की ओर से खूब सत्कार हुआ। एक दिन मुलाकात में फकीर अजीजुद्दीन से गवर्नर ने पूछा - तुम्हारे महाराज किस आंख से काने हैं? फकीर अजीजुद्दीन ने कहा - मुझे आज ही आप से मालूम हुआ है। हमारे मालिक के चेहरे पर इतना प्रचंड तेज है कि मुझे कभी उनकी ओर आंख उठाकर देखने का साहस नहीं हुआ है। कई दिन की मेहमानदारी के बाद जब ये लोग लाहौर को वापस लौटे तो कप्तान ब्रीड उनके साथ आया। महाराज ने रोपड़ के मुकाम को गवर्नर से मुलाकात के लिए तय किया, जो कि अंग्रेजों की इच्छा के अनुकूल ही था। फौज लेकर महाराज उस स्थान पर पहुंच गए। अपनी फौजों का कैम्प सतलज के इस पार लगवाया। सिक्ख सरदारों ने गवर्नर जनरल के पास जाकर तय किया कि 26 अक्टूबर के दिन महाराज मुलाकात कर सकेंगे। मुलाकात की तिथि से पूर्व ही अचानक महाराज के हृदय में सन्देह पैदा हो गया। वे सोचने लगे कि दूसरे के इलाके में मुलाकात करने के लिए जाने में खतरा हो सकता है। अंग्रेज कम्पनी के चाकरों ने कुछ ऐसी घटनायें भारत में कर दी थीं जिनसे एक दम अंग्रेजों के प्रति विश्वास कर लेना कोई बुद्धिमानी भी न थी। रात के समय महाराज ने ऐलार्ड को बुलाकर कह दिया कि वे गवर्नर से मुलाकात न करेंगे। ऐलार्ड बड़े चक्कर में पड़ा। उसने महाराज के सन्देह दूर करने के लिए बड़ी शपथें खाईं।


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उसने कहा - महाराज के सन्देह में तनिक भी सत्यता निकले तो मैं अपना सिर कटा सकता हूं। आखिर महाराज ने ज्योतिषियों को बुलाया। ज्योतिषियों ने किताबों के पन्ने पलटकर महाराज से कहा कि आप अपने दोनों हाथ में सेब ले जायें और गवर्नर से भेंट होते ही सेब नजर करें। यदि वह ले ले तो मुलाकात को शुभ समझना।

दूसरे दिन प्रातःकाल अपने समस्त बड़े-बड़े सरदारों के साथ बसन्ती वेश में महाराज गवर्नर की मुलाकात को चले। आठ सौ सिपाही ऐलार्ड के साथ पुल पर पहले ही भेजे जा चुके थे। तीन हजार सैनिक महाराज के पीछे थे। महाराज हाथी पर सवार थे। अंग्रेजों के कैम्पों में होकर महाराज के आने के लिए गवर्नर के स्तान तक रास्ता बनाया गया था। दोनों ओर अंग्रेज सैनिक सलामी के लिए खड़े थे। महाराज जब उनमें से होकर निकले तो प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में जो उन्हें असाधारण दिखाई देती, पूछ कर जानकारी प्राप्त करते जाते थे। गवर्नर जनरल से मिलते ही पहले उन्होंने सेब पेश किये जो उसने तुरन्त ले लिए। सवारियों से उतरकर मुलाकात के खेमे में घुसे जहां सब के लिए बढ़िया कुर्सियां लगाई गईं थीं। महाराज ने पहले अपने तमाम सरदारों को बिठाया। खुद उनके नाम ले लेकर बुलाया। जब सब सरदार बैठ गये, तब आप बैठे। इसके बाद भेंट के सामान अथवा तोहफे लाये गये। कलकत्ता, ढ़ाका और बनारस के बनाये हुए खूबसूरत कपड़े, मोतियों की माला, जवाहरात की तश्करी, ब्रह्मदेश के हाथी, हिसार के घोड़े, सब लाये गए। महाराज ने सब वस्तुओं को ध्यान से देखा और लाने वालों को पुरस्कार दिया। इस भेंट को पाकर महाराज बड़े खुश हुए। अपने खेमे में वापस आकर महाराज ने तीन जड़े हुए कश्मीरी कलमदान, गवर्नर, उनकी मेम और उसके सेक्रेटरी को भेजे।

दूसरे दिन गवर्नर जनरल ने महाराज के स्थान पर आकर वापसी मुलाकात की। इस मुलाकात के लिये महाराज के यहां बड़ी भारी तैयारियां हुईं। कश्मीरी कारीगरी के खेमे सजाए गए। कुं० खड़गसिंह और शेरसिंह को वायसराय को लाने के लिए भेजा। पुल पर महाराज ने पहुंचकर गवर्नर जनरल विलियम-वेन्टिंक को अपने हाथी पर चढ़ा लिया। उसी समय तोपों से सलामी हुई। सैनिकों ने हथियारों से सलामी दी। इस समय महाराज को अंग्रेजी बैंड बड़ा पसंद आया। जब गवर्नर जनरल खेमे में आया तो उसने देखा महाराज का शामियाना मोतियों और हीरों से जड़ा हुआ है। फर्श रेशमी है। सभी वस्तुएं बहुमूल्य और मोहक हैं। बैठते समय गवर्नर जनरल को गद्दी पर बैठाया गया। उसके दाहिने महाराज वेशकीमती कुर्सी पर बैठे। नाच-गान और नजरें होने के बाद तोहफे मंगाए गए। एक सौ एक तश्तरी जिनमें जवाहरात जड़े हुए थे, दस बन्दूक, तलवार, जड़ाऊ तीरकमान, एक


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पलंग, सोने-चांदी के बर्तन, दस घोड़े और एक हाथी गवर्नर जनरल को तोहफे में दिये गये।

आगे चार दिन खेल तमाशे और प्रदर्शनी होती रही। 2 अक्टूबर को तोपखाने के खेल हुए। तोप से एक छतरी पर गोला फेंका गया। राजा ध्यानसिंह, सुचितसिंह और गुलाबसिंह ने तलवारबाजी और सवारी के खेल किए। सरदार हरीसिंह नलुआ, जनरल इलाहीबक्स, जनरल बेन्टोरा और ऐलार्ड ने भी अपने-अपने शस्त्र निपुणता के खेल दिखाए। जब महाराज की बारी आई तो उन्होंने भी अपने कर्तव्य दिखाए। मैदान में पीतल का एक बर्तन रक्खा गया। महाराज ने अपना घोड़ा पूरी तेजी से दौड़ाते हुए उस बर्तन को तीन बार तलवार की नोक से उठाया। इस समय गवर्नर जनरल ने दो तोप, पांच पौंडर घोड़ों और सामान के साथ कीं। शाम को एक लटकने वाला पुल महाराज को उसने दिया। उसे कलकत्ता में नजर इसी निमित्त से बनवाया गया था। रात को मित्रता का एक नया संधिपत्र निर्मित किया गया। इसमें पुरानी शर्तों के साथ सिन्ध नदी में जहाज चलाने का वाक्य जोड़ा गया। महाराज ने इस वाक्य के विरुद्ध यह कहा कि सिन्ध देश को अंग्रेज और हम मिल कर जीत लें क्योंकि वहां बड़ा रुपया है। कोई-कोई लेखक कहते हैं कि महाराज ने अस्पष्ट ढ़ंग से सिन्ध नदी के उस भाग में नाव चलाने की इजाजत नहीं दी जो उनके राज्य में था, किन्तु गवर्नर ने महाराज पर इस बात को प्रकट नहीं किया कि अंग्रेज सरकार की ओर से छिपे-छिपे सिन्ध के अमीरों से लिखा-पढ़ी हो रही है। यहां से चलकर महाराज कपूरथला होते हुए 16 नवम्बर को लाहौर आ गये।

दिसंबर में कर्नल बीड से मुलाकात करते हुए महाराज ने कहा था कि सिन्ध को अंग्रेज सरकार ले लेने की कोशिश में है, किन्तु सिन्ध देश पर हमारा हक बहुत अधिक है। अंग्रेजों के बढ़ते हुए प्रभाव से महाराज निश्चय ही प्रसन्न न थे, किन्तु वे उनसे बिगाड़ना भी उचित न समझते थे।

सन् 1835 ई० में फ्रांस के बादशाह की ओर से महाराज को तोहफे लेकर ऐलार्ड आया। फारसी भाषा में महाराज की प्रशंसा में फ्रांस के बादशाह की ओर से एक नज्म भी महाराज को सुनाई गई। इसी साल अमरीकन मैकगिरीगर हारेन्स, जर्मन डॉक्टर हांग बरगर, महाराज नैपाल के वकील पं० किशनचन्द, बीकानेर का वकील सरजू और तिब्बत के राजा का भाई भीमकाल भी महाराज के दर्शन और मुलाकात के लिए लाहौर आये थे। इससे सहज ही में महाराज रणजीतसिंह की हस्ती जानी जा सकती है। वे अपने समय के भारत के सबसे बड़े राजा थे। यही कारण था कि देशी, विदेशी सभी शासक उनसे सम्बन्ध जोड़ना चाहते थे।

सन् 1837 ई० में कुंवर नौनिहालसिंह की शादी शामसिंह अटारी वाले की


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लड़की के साथ बड़ी धूम-धाम से हुई। इसमें महाराज ने गवर्नर को शामिल होने के लिये निमंत्रण भेजा। पत्र में महाराज ने लिखवाया था कि यह कुंवर नौनिहालसिंह वही है जिसकी ओर सिंध जीतने की मेरी निगाह लगी हुई है। इससे जाहिर होता है कि महाराज सिन्ध देश को अपने राज्य में मिलाने के इच्छुक थे और अंग्रेजों को चेतावनी भी दे रहे थे कि वे सिन्ध का लालच छोड़ दें। सिन्ध देशान्तर्गत कान किले को महाराज के आदमियों ने इन्हीं दिनों अपने राज्य में मिला भी लिया था, इसलिए भी इस शादी में अंग्रेजों का जंगी लाट 'सर हेनरी फिन' शामिल हुआ। महाराज ने जंगीलाट का भली प्रकार स्वागत-सत्कार कराया। 6 मार्च को महाराज से रामबाग में जंगीलाट की मुलाकात हुई। उस समय महाराज बसंती पोशाक में थे। पगड़ी उनकी काश्मीरी थी। मुलाकात में महाराज ने जंगीलाट से अनेक प्रकार के प्रश्न किये। साथ ही यह भी पूछा कि अंग्रेजों के पास कुल कितनी फौज है? प्रत्येक रजमट में कितने सैनिक और कितने अफसर होते हैं? तोपें किस भांति बनाई जाती हैं? तुम कितनी लड़ाइयों में शामिल हुए हो आदि-आदि? शादी के बाद जंगीलाट को बहुत से तोहफे देकर बिदा किया। इस शादी में पटियाला, नाभा, झींद आदि के अनेक राज्य शामिल हुए थे।

लाहौर से लौटने पर 'सर हेनरी' (जंगीलाट) दरबार में महाराज से मुलाकात करने गया तो महाराज ने उससे पूछा - ब्रिटिश सेना की कितनी शक्ति है? क्या ब्रिटिशों का रौव ईरान में बढ़ रहा है? अंग्रेजों को ईरान से क्या खतरा है? इन प्रश्नों के पूछने से जहां महाराज अपनी जानकारी बढ़ाते थे दूसरी ओर अपनी शक्ति का उनसे मुकाबला भी करते थे। ता० 16 को सिक्ख फौज का मुलाहिजा किया गया। उस समय सिक्ख फौज में केवल अठारह हजार आदमी थे। दूसरे दिन अंग्रेजी फौज की कुछ कंपनी और रजमेंटों का मुलाहिजा हुआ। ब्रिटिश फौज की कवायद और चाल-ढ़ाल को देखकर महाराज चकित रह गए। कहने लगे - मेरे फ्रेन्च अफसर मुझसे झूठ बोलते रहे। वे कहते थे कि अंग्रेजी कबायद कुछ नहीं केवल दिखावा मात्र है। लेकिन तुम्हारी फौज की कबायद, शत्रु पर हमला करने के ढ़ंग आदि कृत्य देखकर मैंने जान लिया कि अंग्रेजी फौजें थोड़ी होते हुए भी विजय प्राप्त कर सकती हैं। महाराज ने अंग्रेज सैनिकों को ग्यारह हजार रुपया इनाम में बांटे। ता० 19 की शाम को महाराज ने अंग्रेज स्त्रियों को भोज दिया । ता० 20 को अंग्रेज महिलायें महाराज की रानियों से मुलाकात करने गईं। ता० 22 को होली का त्यौहार आ जाने के कारण होली खेली। सर हेनरी पर भी रंग डाला। इन्हीं दिनों कंधार का राजदूत मुहम्मदखां लाहौर आया हुआ था। होली के रंग में रंग कर उसकी महाराज के सरदारों ने बड़ी मजाक उड़ाई। ता० 27 को सर हेनरी ने महाराज को तोहफे और भेंट दीं। महाराज की ओर से भी उसे तोहफे दिए गए। उन्हीं दिनों पीरमुहम्मद बारह सौ पठानों को साथ लेकर महाराज से


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सलाम करने के लिए आया। उसने महाराज को दो घोड़े भेंट किये। इन दिनों से दो वर्ष पहले महाराज को लकवा मार गया। किन्तु उन दिनों भी रौव-दाव उनके पूर्व जैसे ही बने हुए थे। प्रतिदिन दो हजार रुपया शाम को उनके सिरहाने रक्खा जाता था और प्रातःकाल गरीबों में बांट दिया जाता था। नित गाय, घोड़े और कपड़े दान में दिये जाते थे। ज्वालामुखी और कांगड़ा में बहुत सा रुपया दान पुण्य के लिए भेजा गया। मुलाकात में गाने वाली जोटें बड़ी मशहूर थीं। महाराज को गाना सुनाने के लिए मुलतान से गाने वाले बुलाए गए। परमात्मा की महान् कृपा से महाराज थोड़े ही दिनों में स्वस्थ हो गए। उनका अर्द्धांग जाता रहा। सन्न हुए शरीर में फिर से रक्त-संचार होने लग गया। जर्मनी से आए हुए डॉक्टर तथा हिन्दुस्तानी वैद्यों ने महाराज को स्वस्थ करने में खूब प्रयत्न किया।

नौनिहालसिंह की शादी

यों तो उन्होंने अपने सभी पुत्र-पौत्रों की शादी धूमधाम से की थीं किन्तु उनका पहले से ही इरादा था कि कुं० नौनिहालसिंह की शादी अनुपम बना देंगे। निदान ऐसा ही किया। इन दिनों तक महाराज का वैभव और प्रताप तथा यश भी पहले से बहुत ज्यादा फैल गया था। अब वे पंजाब के एकछत्र अधीश्वर थे। अनेक राजे-महाराजे तो उनकी सरदारी में गिने जाते थे। सन् 1837 ई० में शामसिंह अटारी वाले की सुपुत्री के साथ यह शादी सम्पन्न हुई। इस शादी में नाभा, झींद, पटियाला, कपूरथला, फरीदकोट और कई पहाड़ी राजे शामिल हुए। भारतीय अंग्रेजी हुकूमत के कमाण्डर इन चीफ भी इस शादी में आए थे।

शादी के दिन दोपहर को तम्बूल की रस्म अदा हुई। उस समय नाच में 80 नाचने वाली लड़कियां थीं जो चार-चार मिलकर गाती थीं। महाराज और दूल्हा एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ में बनावटी संतरे लगाए गए थे। नजरें पेश होने पर राजा ध्यानसिंह ने एक लाख पच्चीस हजार रुपया, 'सर हेनरी फिन' ने ग्यारह हजार रुपया पेश किया। दो घण्टों में नजरों में पचास लाख इकट्ठा हुआ। 7 मार्च को हरि-मन्दिर में सेहरा पहनाया गया। 500 ग्रन्थ और 125 अकाल बुंगे पर चढ़ाए गए। तीन बजे अटारी की तरफ बढ़े। महाराज दोनों तरफ रुपये फेंकते जाते थे। लगभग छः लाख आदमी इस शादी में इकट्ठे हुए थे। हाथी और घोड़ों का ठिकाना न था। साथ में बाजे बजते जाते थे। तोपें चलती जाती थीं। जब बरात पहुंची तो खेत में सरदार शामसिंह ने एक सौ एक मुहरें महाराज को, कुं० खड़्गसिंह को इक्यावन और प्रत्येक सरदार को ग्यारह-ग्यारह मुहरें नजर कीं। रात को 9 बजे के बाद नाच-रंग और शराब के दौर दौरा हुए।

8 मार्च को पांच मील के घेरे में एक बाड़ा बनाया गया। उसमें अस्सी दरवाजे थे। प्रत्येक दरवाजे के पास और घेरे के चारों ओर सिपाही खड़े हुए थे। इस काम


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का प्रबन्धक मिश्र बलीराम था, जिसने बड़ी लगन और होशियारी के साथ इस बाड़े को सजाया था। मिलनी की रसम इसी बाड़े में हुई। मुख्य द्वार पर एक अफसर था जो प्रत्येक को एक रुपया देता था। कोई भी बराती इस बाड़े से खाली हाथ बिना रुपया पाये नहीं निकल सकता था।

दहेज में महाराज को शामसिंह ने एक सौ बढ़िया घोड़े, एक सौ एक भैंस, दस ऊंट, ग्यारह हाथी, सोने के जेवर, जवाहरात और सोने चांदी के बर्तन, मुलतान की रेशम, बनारस के कमख्वाव, कश्मीर के पांच सौ शाल आदि सामान इतना दिया कि एक एकड़ जमीन में जनाने लिवास का सामान सजाया गया था।

लाहौर में लौटने पर 12 मार्च को महाराज ने सारे आगत जनों और सैनिकों को एक बड़ी दावत दी। इन दिनों लाहौर की शोभा मुगलशाही ठाठ को मात करती थी।

वस्तु-संग्रह और प्रासाद-निर्माण

महाराज इस बात की खोज में भी रहते थे कि बढ़िया से बढ़िया वस्तुओं का संग्रह उनके यहां हो। उनके रहने के भवन भी बढ़िया हों। पोशाक और अस्त्र भी बढ़िया हों। सबसे प्रसिद्ध वस्तु जो उनके यहां थी, वह कोहनूर हीरा था। यह अमूल्य वस्तु गोदावरी के किनारे राजा कर्ण को मिली थी, जो भारतीय लूटों में काबुल पहुंच गया था। महाराज ने इसे काबुल के शाहशुजा से हासिल किया था, जिसका विवरण पीछे दिया जा चुका है। कहते हैं कि इसका मूल्य इतना है कि सारी दुनिया के एक समय के भोजन का काम इसके मूल्य में चल सकता है। आजकल यह हीरा लंदन के बादशाह के पास है। महाराज से जब कोई इस हीरे का मूल्य पूछता था तो वे कहते थे कि इसका मूल्य है पांच जूती। वास्तव में उन्होंने उसकी इससे अधिक कीमत क्या चुकाई थी।

दूसरी बढ़िया वस्तु उनके यहां एक घोड़ी थी, जिसका नाम था - लीली। पहले यह पेशावर के पठान सूबेदार यारमुहम्मद के पास थी। इस घोड़ी को लेने के लिए ईरान के बादशाह ने पचास हजार रुपया नकद और पचास हजार की जागीर देने को कहा था। किन्तु यारमुहम्मद ने इस भारी कीमत पर उस घोड़ी को न बेचा। महाराज रणजीतसिंह जी को अच्छे घोड़े रखने का बड़ा भारी शौक था। इसलिये उन्होंने यारमुहम्मद के पास खबर भेजी कि वह लीली घोड़ी को लाहौर भेज दे। यारमुहम्मद ने पहले तो टालना चाहा, किन्तु आखिरकार उसने घोड़ी देना मंजूर कर लिया। क्योंकि वह समझता था कि पेशावर की सूबेदारी महाराज की कृपा से ही मिल रही है। वे चाहें जब उसे सूबेदारी से अलग कर सकते हैं। कुंवर खड़गसिंह पेशावर जाकर यारमुहम्मद से उस घोड़ी को पंजाब ले आये।

औरंगजेब और अहमदशाह बादशाहों के हीरे भी महाराज के पास थे जो


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काफी प्रसिद्ध और मूल्यवान समझे जाते थे। जमजमा नाम की पठानों की प्रसिद्ध तोप भी महाराज के यहां थी, जिसे महाराज के पिता तथा अन्य सिक्ख सरदारों ने अहमदशाह पर आक्रमण करके छीना था। लोहे का लटकने वाला पुल लार्ड विलियम बिन्टिंक ने खास तौर से महाराज के लिये कलकत्ते में बनवाया था। भारत की बढ़िया से बढ़िया कारीगरी की वस्तु महाराज के यहां थी।

रहने के लिये उन्होंने अनेक शानदार महल बनवाए थे, जिनमें वे बारी-बारी से रहते थे। शालमार बाग की नहर के फुआरों की प्रशंसा तो जर्मनी के यात्री ने भी की थी।

अपने साथ ही अपने सरदारों की पोशाक भी वे अद्वितीय तैयार कराते थे। उनका प्रत्येक सरदार पोशाक और रहन-सहन में किसी भी छोटे-मोटे राजा-नवाब से कम न जान पड़ता था। सर हेनरी फिन के स्वागत में राजा ध्यानसिंह का लड़का हीरासिंह इतने जवाहरात पहने हुए था कि नजर उसकी तरफ देखने से चौंधिया जाती थी।1

रूप, रंग, स्वभाव

वारन ह्यूगल ने महाराजा साहब का चित्र उतारा था। उसी के आधार पर आजकल इतिहासों में उनके चित्र दिये जाते हैं। महाराजा का कद नाटा और डीलडौल सुदृढ़ और मोटा था। बांयी आंख चेचक में बचपन ही में जाती रही थी। दाहिनी आंख तेज और चमकीली थी। उनका रंग भूरा था। चेहरे पर शीतला के चिह्न थे। नाक छोटी और सीधी और कुछ मोटी थी। दाढ़ी सफेद और कुछ काली मिली थी। शीश बड़ा और सुडौल था। गर्दन मोटी और दृढ़ थी, जिससे सिर आसानी से इधर-उधर न हिल सकता था। बांह और टांग मजबूत, हाथ छोटे-छोटे और सुन्दर थे। यदि किसी का हाथ पकड़ते थे तो घण्टों इसी तरह खड़े बातें कर लिया करते थे और प्रायः उसकी अंगुलियां दबाया करते थे। कुर्सी पर पाल्थी मार कर बैठा करते थे। किन्तु जब घोड़े पर सवार होते थे तो मुंह पर एक आश्चर्यजनक तेज झलकने लगता था। उन्हें वृद्धावस्था में अर्द्धांग हो गया था तिस पर भी उद्दण्ड से उद्दण्ड घोड़े को भली भांति वश में रखते थे। वह शरीर के सुदृढ़, फुर्तीले, वीर, साहसी और प्रसन्नवदन व्यक्ति थे। लड़ाई के दिनों में तो वे घोड़े की पीठ पर ही भोजन कर लेते थे। चौबीस घण्टे घोड़े की पीठ पर बैठे रहने से भी थकते न थे। लड़ाई में तलवार, बर्छी के अलावा वह तीर-कमान भी साथ रखते थे। रौव-दाव उनका इतना था कि बड़े-बड़े दुर्द्धर्ष वीर भी महाराज के तेज से छायादब


1. तारीख पंजाब। पे० 422


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हो जाते थे। वे शिकार के बड़े प्रेमी थे। घोड़ों पर भारी प्यार करते थे। उन्होंने अपने लिए एक खास घुड़शाल रिजर्व रख छोड़ी थी, जिसमें भारत, अरब और ईरान तक के घोड़े रहते थे ।

इन्हें तलवार से लड़ने का बड़ा भारी शौक था। फेंक कर चलाये जाने वाले नेजे चलाने में वे अद्वितीय थे। अधिकतर कपड़े वे जाफरानी रंग के और सादा पहनते थे। किन्तु विशेष अवसरों पर बसंती पोशाक पहनते थे और ऐसे समय पर आभूषण और हीरे जवाहरात भी खूब पहनते थे। तारीख पंजाब के लेखक भाई परमानन्दजी ने उनके आभूषणों में बाजूबन्दों का भी जिक्र किया है। वास्तव में भुजबन्द का रूपान्तरण बाजूबन्द है। भुजबन्द की प्रथा भारत में अति प्राचीन काल से चली आती थी। योद्धा लोग इसे कोहनी से ऊपर बाहुदण्ड में बांधते थे। मालूम होता है कि महाराज रणजीतसिंह के समय तक यह प्रथा प्रचलित थी। अधिकतर सिर पर पगड़ी बांधते थे, पगड़ी उनकी कश्मीरी ढ़ंग की अथवा पेंचदार होती थी, जिसे सरपेंच भी पुकारा जाता था।

कोष और आय

महाराज ने अपने समय में लूट-मार, जब्ती और नजरानों से ही करोड़ों रुपया संग्रह किया था। राज्य की उचित आय भी उनकी उस समय के भारत के सभी शासकों से अधिक थी। राज्य-कर में पैदावार का छठा, आठवां और दसवां भाग लेते थे। भूमिकर के अलावा उनके राज्यकोष में अदालतों, नमक-कर और कश्मीर के शालों के ठेके से भी आय होती थी। उनके आगे नमक-कर 6 लाख सालाना था। पीछे तो 44 लाख सालाना की आमदनी नमक-कर से होने लग गई थी। उन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया था जिस पर लिखा रहता था -तलवार का आदर तथा गुरु नानक से गुरु गोविन्दसिंह तक अनुपम विजय। लाहौर में टकसाल भी स्थापित कर दी थी। सिक्के की दूसरी ओर संवत् खुदा रहता था। भूमि-कर से प्रत्येक वर्ष उनके खजाने में 14881500 रु० आता था और उन्होंने 10928000 रु० सालाना आमदनी का इलाका अपने सरदारों को जागीर में दे रक्खा था।

उन्होंने अनेक लोगों की जायदादें जब्त करके तथा उन्हें लूटकर जो धन संग्रह किया था, कुछ लोग उसे महाराज के अनुचित कार्यों में गिनते हैं। इसके उत्तर में हम अपनी ओर से कुछ न लिखकर पंजाब के प्रसिद्ध हिन्दू भाई परमानन्दजी की लिखी (उर्दू) तारीख पंजाब से कुछ उदाहरण देते हैं -

"दुनिया में हर एक बड़े काम के चलाने के लिए चाहे वह धार्मिक हो या राजनैतिक, दो चीजों की आवश्यकता होती है, एक रुपये की दूसरे योग्य आदमियों की। यदि रुपया हो तो इसकी सहायता से योग्य आदमी संग्रह किए जा सकते हैं और योग्य आदमी हों तो

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"वे रुपया पैदा करने का कोई न कोई उपाय निकाल लेते हैं। लेकिन यह बात है कि इन दो साधनों के बिना कोई काम पूरा नहीं हो सकता। महाराज रणजीतसिंहजी को प्रकृति ने इस सिद्धान्त को समझने की बुद्धि दी थी। रुपये के विषय में मूर्खों की राय में महाराज को इसका बहुत लालच था। लालच के मानी सिर्फ इतने ही हैं कि महाराज बाज हालतों में रुपया वसूल करने के लिए ऐसा बसीला इस्तेमाल करते थे कि जिसे लोग जाइज ख्याल न करते हों। लेकिन महाराज जानते थे बिना रुपये के वे अपनी सल्तनत की इमारत नहीं बना सकते। इसलिए जहां कहीं भी उन्हें तनिक भी मौका मिला, उन्होंने रुपया प्राप्त करने में आगा-पीछा नहीं किया। आदि से लेकर इति तक बहुत सी ऐसी मिसालें मिलती हैं जिनमें महाराज ने रुपया वसूल करने में जबरदस्ती की, लेकिन यह जबरदस्ती तो उनके जमाने में एक आम रिवाज था। यदि महाराजा ऐसा न करते तो कभी भी दूसरी मिसलों को एक करके अपनी सल्तनत की नींव नहीं डाल सकते थे। मिसलों को अपने काबू में करने के लिए उन्होंने कभी उचित साधनों की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। यही हालात हम उन चन्द घटनाओं में देखते हैं, जिनमें महाराज ने खास शख्सों से रुपया वसूल किया। यदि सांसारिक दृष्टि से भी देखा जाए तो भी ऐसी पालिसी में इतनी बुराई दिखाई नहीं देती। जो लोग अपने लिए या अपनी औलाद के लिए गैर मामूली मिकदार रुपये को जमा करते हैं, कौन नहीं जानता कि उनके जरिये जरूरी तौर पर संसारी नियम के विरुद्ध होते हैं। गैर-मामूली रुपया या जायदाद किसी-न-किसी भांति की बेईमानी के बिना, अथवा दूसरों का हक दबा लेने के बिना इकट्ठा नहीं किया जा सकता। यह मुमकिन है कि जो शख्स एक वक्त दौलत का मालिक है उसने बेईमानी न की हो। लेकिन दौलत जमा करने की तारीख पर गौर करने से मालूम होगा कि उसके बाप या दादा ने या और किसी पिछले बुजुर्ग ने संसारी नियम को तोड़कर ही उसकी बुनियाद रक्खी होगी। इसलिए अगर लोगों को अनुचित तरीके पर रुपया इकट्ठा करने का हक है तो सुसाइटी को भी अख्तियार है कि जरूरत के समय उस रुपये को अपनी उन्नति के लिए उनसे छीन ले। महाराज रणजीतसिंह ने इसलिए इस रुपया की जब्ती में कोई इखलाकी बुराई नहीं की।1"

सन् 1812 ई० में एक बूढ़ा सरदार जयमलसिंह मर गया। महाराज ने उसकी जायदाद जब्त कर ली। उसका बहुत सा रुपया अमृतसर के महाजनों के पास जमा था। महाराज ने हुक्म दिया वे हिसाब करके कुल रुपया लाहौर के खजाने में जमा करा दें। सन् 1822 ई० में अमृतसर का मशहूर शराफ रामानन्द मर गया। महाराज ने उसे नमक की खान का ठेका दे रक्खा था। उसने मरने


1. तारीख पंजाब। पे० 442,443


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-285


पर तिरेसठ लाख रुपया छोड़ा। महाराज ने रुपया जब्त करके उससे लाहौर की दीवार बनाने का हुक्म दे दिया। 1833 ई० में उनकी सास रानी सदाकौर जो अमृतसर में नजरबन्द थी, मर गई। महाराज ने तोशखाने के अफसर बेलीराम को हुक्म दिया कि अमृतसर में जाकर उसकी कुल जायदाद को जब्त कर ले। सन् 1834 में अमृतसर का एक खत्री शिवदयाल मर गया। उसने बहुत सा रुपया इकट्ठा किया था। महाराज ने उसके बेटे को गिरफ्तार करके उससे एक लाख रुपया वसूल किया। एक शख्स गुलाम मुहीउद्दीन ने जो कि कश्मीर के सूबेदार का नायब रहा था, बहुत जुल्म करके बहुत सा रुपया इकट्ठा कर लिया। महाराज ने उसे नौकरी से हटाकर उसकी सब जायदाद जब्त कर ली थी। महाराज को पता लगा कि उसने हुशियारपुर में एक पीर की कब्र के नीचे लाखों रुपये गाड़ रखे हैं। इस कब्र पर कुरान पढ़ने के लिए मुल्ला रक्खे हुए थे। मिश्र रूपलाल ने कब्र को खोदकर नौ लाख रुपया निकाला जिस पर महाराज ने शेख से कहा - “तुम्हारा पीर सचमुच बड़ा बली है। उसकी सारी की सारी हड्डियां सोने की हो गईं।” इसी साल सुजानपुर का एक कार्यकर्ता रामसिंह मर गया। उसके बीस हजार रुपये जमा थे। महाराज ने उनको जब्त करने का हुक्म दे दिया। इसी तरह सन् 1835 ई० में आनन्दपुर के सोढ़ी अतरसिंह की जायदाद जब्त कर ली। इसी साल सिन्धिया वाले सरदार विसावासिंह के मरने पर उसके बेटे अतरसिंह से पचास हजार रुपया वसूल किया। लेकिन यह सारा धन महाराज जाटशाही अथवा अपने राज्य को मजबूत करने के लिए और मुसलमानों के अत्याचारों से देश को सुरक्षित रखने के लिए लेते थे।

उनके राज्य के किसान तथा अन्य प्रजा के लोग आनन्द से रहते थे। उद्योग-धंधों पर किसी भांति का टैक्स न था। न उनके राज्य में इनकमटैक्स था। जमीन पर किसान का पूरा अधिकार था। किसान अपने गांव के पूर्णतया सर्वेसर्वा होते थे। महाराज को केवल वे अपनी कृषि की पैदावार का अंश देते थे।1 जंगल और चरागाहों पर राज्य कोई कर न लेता था। प्रत्येक गांव में काफी गोचर भूमि हुआ करती थी। किसान चाहे जितने पशु रख सकते थे। राज्य पशुओं पर कोई टैक्स न लेता था। पहाड़ और नदी सम्पत्ति समझे जाते थे। उनके समय में जमीन बेची न जाती थी। राज्य-कर लेने कोई सख्ती भी न होती थी। प्रजा के लोग अपने गांवों में चाहे जहां मकान बना सकते थे। न हाउस टैक्स था न मकान बनाने के लिए उन्हें जमीन खरीदनी पड़ती थी। गांव का मुखिया कृषि पर टैक्स बांध देता था, जो या तो खड़ी फसल को कूत देता था या फसल के कट जाने पर अनाज में से राज-कर का हिस्सा बांट दिया करता था। महाराज ने अपने राज्य में नहर


1. फौजी गजट। मई सन् 1930


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निकालने का भी आयोजन सोचा था। महाराज रणजीतसिंह के प्रताप से पंजाब से अत्याचारी मुस्लिम शासन उठ गया था। पहाड़ी प्रदेशों में से अयोग्य राजपूत राजा राज्य से खारिज क दिए गए थे। इसलिए सारा पंजाब और पहाड़ी प्रदेश सुख की नींद सोता था। प्रजा धनवान और राजकोष भरापूरा था।

शासन-प्रबन्ध

यद्यपि महाराज का अधिकांश समय युद्ध में बीता, किन्तु फिर भी उन्होंने शासन-प्रबन्ध उत्तम बनाने के लिए यथेष्ठ प्रयत्न किया था। जिन्होंने अपने बड़े राज्य को कई सूबों में विभक्त किया, काश्मीर, पेशावर आदि सूबे जिन में मुख्य थे। सूबेदार को शासन करने के अलावा युद्ध करने का भी अधिकार रहता था, किन्तु यथासम्भव उन्हें महाराज से किसी के साथ सन्धि-विग्रह करने के लिए इजाजत लेनी पड़ती थी। इन सूबेदारों के नीचे कर उगाहने, नमक, शाल से आय प्राप्त करने के लिए एक नायब रहता था। प्रत्येक सूबे का एक या अधिक नाजिम होते थे, जो प्रजा के आपसी विद्रोह को दबाते थे। साथ ही उनके पारस्परिक झंझटों का फैसला भी करते थे। अपने इलाके के कुल समाचार वे सूबेदार के पास भेजते थे। शहरों की देखभाल के लिए कोतवाल रखे जाते थे, किन्तु पुलिस का काम फौज से लिया जाता था। क्योंकि उस समय प्रजा में अमन-अमान तथा उसकी जान माल की रक्षा के माने यह समझे जाते थे कि उनकी (प्रजा जनों की) कोई लूट खसोट न हो। इसके लिए प्रत्येक सूबे और निजामत में फौज रहती थी। इंसाफ करने के लिए न्यायालय भी स्थापित किए गए थे, किन्तु उनकी बहुजायत न थी। महाराज ने गरीबों की फरियाद सुनने के लिए एक सन्दूक रखवा दिया। उसमें गरीब लोग अपना दुखड़ा लिख कर डाल जाते थे। महाराज उस सन्दूक को अपने आगे खुलवा कर उनकी दुख गाथा के प्रार्थना-पत्रों को सुना करते थे।2 फिर उन गरीबों को बुलवा कर उचित प्रबन्ध करते थे। उनकी यह हार्दिक इच्छा थी कि गरीब प्रजा दुःख न पाये।

देश को दुश्मनों के आक्रमणों से बचाये रखने के लिए तथा राज्य-विस्तार करने के लिए उन्होंने अच्छी सेना रख छोड़ी थी। इस सेना को शिक्षा देने के लिए फ्रांसीसी अफसर रख छोड़े थे। सेना की संख्या सन् 1832 ई० में मि० मरे ने जो देखी थी वह इस प्रकार है - सेना 12811, नजीव आदि पलटनों के सिपाही 4941, दुर्ग की सेना में सवार 3000, पैदल 23950 । इसके अलावा जागीरदारों की सेना जो हर समय महाराज की सहायता के लिए तैयार रहती थी 27312, कुल सेना 82014 थी। किन्तु आगे इससे भी अधिक बढ़ गई थी।


2. 'पंजाब केसरी'। पे० 224 (नन्दकुमार रचित)


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राज्य की नौकरी सभी जातियों और वर्ग के लोगों को दी जाती थीं। जाति-पांति और मजहब का कोई ख्याल नहीं किया जाता था। जहां कहीं कोई योग्य आदमी उन्हें नजर आता था, वह उसे अपने यहां ले लेते थे। उनके यहां ब्राह्मण, वैश्य, खत्री, राजपूत आदि के अतिरिक्त शेख, सैयद, मुगल, पठान, और यहां तक कि फ्रेंच, अंग्रेज सभी जातियों और धर्मों के लोग नौकर थे। विश्वासघात करने वालों को वे अपने यहां से निकालने में तनिक भी आगा-पीछा न करते थे। राज्य में उन्होंने अपने सरदारों को जागीरें दे रक्खी थीं। यद्यपि वे सिख-धर्म के मानने वाले जाट थे, फिर भी वे राजकाज में किसी का पक्षपात न करते थे।

प्रजा के ऊपर अत्याचार करने वालों को महाराज बड़ा कड़ा दण्ड देते थे। कश्मीर पर जुल्म करने वाले मुहीउद्दीन की कुल जायदाद उन्होंने जब्त कर ली थी और खुशहालसिंह को जो कि महाराज में खास श्रद्धा रखता था, दो महीने तक अपने सामने भी न आने दिया। वे सरदारों के प्राइवेट जीवन पर बहुत कम ध्यान देते थे। किन्तु उनको कदापि बर्दास्त न था कि कोई सरदार या जागीरदार प्रजा को सताए या युद्ध के समय कायरता दिखाये। जो सैनिक या सरदार युद्ध में वीरता दिखाता था, उसे भरपूर इनाम देते थे। वह चाहते थे कि उनका शासन-प्रबन्ध इतना श्रेष्ठ हो कि अड़ौस-पड़ौस के राज्यों की प्रजा भी यह चाहे कि उन्हें रणजीतसिंह की छत्र-छाया में रहने का सौभाग्य प्राप्त हो।

उनके यहां एक मंत्रिमंडल भी था। सलाह के लिए जो सरदार तथा मंत्री बैठते थे उसे 'गुरुमता' कहते थे। होलकर को मदद देने की इन्कारी गुरुमते ने की थी। तत्कालीन अवस्था को देखने से प्रतीत होता है कि महाराज अपने समकालीन शासकों में श्रेष्ठ शासक थे।

उनके समय की विशेष घटनायें

उनके समय में सबसे जबरदस्त घटना थी नेपोलियन बोनापार्ट के युद्धों की। इस साहसी वीर ने योरुप को एकदम से दहला दिया था। भारत स्थित अंग्रेज गवर्नर उसकी वजह से चिन्तित थे। वह समझते थे कि नैपोलियन ईरान व अफगान के मार्ग से भारत पर आक्रमण करेगा, इसलिए वह महाराज रणजीतसिंह जी से सन्धि के बड़े इच्छुक थे। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जिस भांति योरुप में नैपोलियन दहाड़ रहा था, उसी भांति भारत में महाराज रणजीतसिंह गर्ज रहे थे।

दूसरी घटना थी अंग्रेज और मल्हारराव होल्कर के संघर्ष की। इस वीर ने भी अंग्रेजों की नाक में दम कर रक्खा था। यदि सिंधिया इसका साथ न छोड़ बैठता, अथवा पानीपत के मैदान में भाऊ इसकी बात को मानकर मरहठा शक्ति का ह्रास न होते देता, तो यह वीर शायद ही अंग्रेजों के भारत में पैर जमने देता।


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सन् 1804 में यह पंजाब में पहुंचा। यद्यपि लार्ड लेक उसका बराबर पीछा कर रहा था, किन्तु कहते हैं कि यह कहता था - जहां तक मेरे घोड़े का पैर पड़ता है, वहां तक हमारा राज्य है। उसने महाराज से कहलाया कि - सिख, मराठाओं से मिलकर अंग्रेजों को देश से निकाल देना चाहते थे, किन्तु महाराज के गुरमते ने राय न दी और होल्कर को यों ही टाल दिया। यदि महाराज होल्कर की बात को मान लेते तो आज भारत का इतिहास दूसरी ही तरह का लिखा जाता, क्योंकि भरतपुर के महाराज भी इन्हीं का साथ देते। महाराज ने यह भूल की, अथवा नहीं, यह तो जानकर अन्दाजा लगा सकते हैं।

तीसरी घटना सन् 1827 की है। महाराज भरतपुर ने, जब कि लार्ड कैम्बिलमीयर भरतपुर पर नाबालिग की हिमायत के नाम पर चढ़कर आया, तो महाराज रणजीतसिंह के पास खबर भेजी कि जाट होने के नाते आप हमारी सहायता कीजिए। इस समय उचित है कि जाट सम्मिलित शक्ति से अंग्रेजों का मुकाबला करें, किन्तु महाराज ने भरतपुर वालों को कोई जवाब नहीं दिया। इतने बड़े बहादुर और विजेता के लिए यह बात उचित कदापि न थी। सिख-साम्राज्य राज्य न रहा। यदि उस तरह से जाता तो बात और ही रहती, लेकिन महाराज उपयुक्त समय देखते थे। वह उपयुक्त समय न आया और कभी न आया।

इसके अलावा अन्य भी अनेक घटनायें हैं, किन्तु स्थानाभाव से उनका देना आवश्यक नहीं।

रनिवास

महाराज रणजीतसिंह की सोलह रानियां थीं जिनमें 9 विवाहिता थीं और सात चादर डालकर लाई गई थीं। नियोग या नाते का नाम चादर डालना है। भारत के सभी पुराने क्षत्रियों में इस तरह के विवाह उचित माने गए थे। अब भी भारत में जो पुराने क्षत्रियों के वंशज हैं अथवा पुरातन नियमों को मानते चले आते हैं, उनमें चादर डालने अथवा नाता करने की प्रथा है। महाराजा रणजीतसिंह जी ऐसी पुरातन काल के क्षत्रियों की संस्था जाट-जाति की संतान होने के कारण जाति के नियमानुसार सात ब्याह चादर डालकर लाए थे।1 उन विवाहित अथवा नाता की हुई रानियों का परिचय इस प्रकार है -

(1) रानी महताब कुंवरि - : यह कन्हैया मिसल के सरदार गुरुबख्शसिंह की सुपुत्री थी। इन से महाराज ने 1796 ई० में विवाह किया था। इनकी ही मां

1. वधू को जब उसके मायके से बिदा करके लाते हैं तो उसे नवपति की ओर से एक सफेद चादर उढ़ाते हैं। इसे चादर उढ़ाना कहते हैं - लेखक।


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का नाम सदाकुंवरि था जो कि शासन करने में बड़ी योग्य थी। इनके दो पुत्र हुए थे - (1) शेरसिंह (2) तारासिंह। कुछ इतिहासकारों का मत है कि ये पुत्र इनके औरस पुत्र न थे। इनकी नानी ने किसी के दो पुत्रों को, इनके गर्भ से होना घोषित कर दिया था। महाराज ने भी उन्हें अपना पुत्र मान लिया था। आगे शेरसिंह को तो सदा सदाकुंवरि ने अपना उत्तराधिकारी बना दिया था। सन् 1813 में महारानी महताबकुंवरि की मृत्यु हो गई।
(2) रानी राजकुंवरि - : यह नकई मिसल के सरदार रामसिंह जी सिन्धू (जाट) की पुत्री थी। इनसे महाराज ने सन् 1798 में विवाह किया था। महाराज की बहन का नाम भी राजकुंवरि था, इसलिए इन्हें दातार कुंवरि व माई निकाई के नाम से पुकारा जाता था। कुंवर खड़गसिंह का जन्म उन्हीं के गर्भ से हुआ था। सन् 1818 में यह स्वर्ग सिधार गईं।
(3) रानी रूपकुंवरि - : यह अमृतसर जिले के एक प्रसिद्ध सरदार जयसिंह की लड़की थी। सन् 1815 ई० में महाराज ने इनसे विवाह किया था। दूसरे सिख-युद्ध के बाद जब सरकार ने पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया तो इन्हें 1980) वार्षिक पेन्शन अंग्रेज सरकार जीवन पर्यन्त देती रही।
(4) रानी लक्ष्मी - : यह गुजरानवाला जिले के जोगीखां गांव के सिन्धु जाट देसासिंह की सुपुत्री थी। पंजाब-हरण के बाद सरकार ने इन्हें 11200) वार्षिक की पेन्शन दी थी।
(5-6) महतो देवी, राजवंशी - : कांगड़ा के राजा संसारचन्द्र की महतो देवी और राजवंशी नाम की दो पुत्रियां थीं। इन्हें कांगड़ा विजय के बाद महाराज ने विवाहा था। ये दोनों ही 1839 ई० में महाराज के साथ सती हो गईं।
(7) गुलबेगम - : यह अमृतसर के एक प्रतिष्ठित मुसलमान की लड़की थी। महाराज इनकी सुन्दरता पर मुग्ध हो गए। इसलिए इनसे बड़ी धूमधाम के साथ विवाह कर लिया। सरकार ने पंजाब को जब्त करने के बाद इनकी 12380) वार्षिक पेन्शन कर दी। 1863 ई० में यह मर गई।
(8) रानी रामदेवी - : गुजरानवाला के कर्मसिंह की पुत्री थी। महाराज ने गुजरानवाला विजय के समय इनसे ब्याह किया था।
(9) नवीं रानी - : शदाराज की नवीं रानी अमृतसर जिले के चीना (जाट) की सुपुत्री थी।

ये नौ रानी महाराज की विवाहिता थीं और नीचे लिखी सात रानियां चादर डाली हुई थीं -

(1) रानीदेवी - यह हुशियारपुर के जसवान गांव के बसीर नाकुद्द की पुत्री थी।
(2), (3) दयाकौर, रतनकुंवरि - गुजरात के सरदार साहबसिंह भंगी की दो विधवाओं दयाकौर और रतनकुंवरि से महाराज ने सन् 1811 ई० में नाता किया था। रानी

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रतनकौर ने मुल्तानसिंह को अपना पुत्र मान लिया था। पंजाब हरण करने के बाद सरकार ने इन्हें 1000) वार्षिक पेन्शन दी थी। दयाकुंवरि ने काश्मीरासिंह और पिशोरासिंह को अपना पुत्र मान लिया था। इनकी सन् 1843 ई० में मृत्यु हो गई थी।

(4) रानी चांदकुंवरि - यह अमृतसर जिले के चैनपुर गांव के जाट सिंह की पुत्री थी। 1822 ई० में महाराज ने इनसे सम्बन्ध किया। सरकार ने इन्हें 1930) वार्षिक पेन्शन दी थी।
(5) रानी महतावकुंवरि - यह गुरदासपुर जिले के मल्ल गांव के जाट चौधरी सुजानसिंह की लड़की थी। इनसे भी महाराज ने सन् 1822 ई० में सम्बन्ध किया था - 1930) वार्षिक की सरकार ने इन्हें भी पेन्शन दी थी।
(6) रानी सामनकुंवरि - मालवा के जाट सूवासिंह की सुपुत्री थी। सन् 1832 ई० में महाराज ने इनके साथ सम्बन्ध किया था - 1440) वार्षिक की पेन्शन सरकार से इन्हें पंजाब-हरण के बाद मिलती रही थी।
(7) महारानी जिन्दा - महाराज की अन्तिम रानी जिन्दा थीं। ये सरदार मल्लसिंह की सुपुत्री थीं। महाराज दिलीप इन्हीं से पैदा हुए थे। पंजाब-हरण के बाद सरकार ने इनकी बड़ी भारी पेन्शन करके इन्हें काशी भेज दिया था। वहां से यह नेपाल को इसलिए भाग गई कि वहां के राजा की मदद से अपने पंजाब को वापस ले लें। इनका पूरा हाल आगे दिया जायेगा।
गुलाबकौर - इसके अलावा गुलाबकौर भी महाराज की रानी थी, जो अमृतसर के जगदेव गांव के एक जमींदार की लड़की थी।
मोरन- एक थी मोरन। इससे महाराज ने प्रेम के वशीभूत होकर बड़ी धूमधाम से विवाह किया था। लाहौर और शाहबीन दरवाजे के बीच गोबर चीनी कटरा की एक हवेली में इससे विवाह हुआ। फिर इसके साथ महाराज ने हरद्वार यात्रा की। महाराज के साथ जब रानी महताकुंवरि सती हुई थी, तो उसकी दासी हरिदेवी, राजदेवी और देवनो भी सती हो गईं थीं।

इन रानियों में 7 सिक्ख जाटों की, 5 हिन्दू जाटों की, 2 मुसलमानों की, 1 हिन्दू जमींदार की और 1 विदेशीय संतान थीं। भारत के हिन्दू नरेशों में महाराज रणजीतसिंह और महाराज जवाहरसिंह भरतपुर ही ऐसे थे जिन्होंने मुसलमानों की ललनाओं के साथ भी विवाह किए थे। अन्यथा ग्यारहवीं शताब्दी से इतिहास में यही होता रहा कि भारत के राजपूत नरेशों की ललनाओं को मुसलमान शासक अपनी अंकशायनी बनाते रहे। यह सिक्ख और खास तौर से जाट जाति के लिए स्वाभिमान की बात है।


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महाराजा का दरबार और उनके सरदार

महाराज की सफलता का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने अपने चारों ओर योग्य सरदारों और बुद्धिमान् कार्यकर्त्ताओं का दल संग्रह कर लिया था। महाराज को योग्य आदमियों के निर्वाचित करने का बड़ा अनुभव था। ज्ञात ऐसा होता है कि उनके दिमाग में खास शक्ति थी, जिससे वह किसी भी आदमी के अन्तर-पट को समझ लेते थे। मनुष्य के दिल को जीतने की उनमें कोई आकर्षण शक्ति थी। जो भी कोई एक बार उनके निकट आ गया, वह हृदय से उनका भक्त और हितैषी बन जाता था। नियंत्रण रखने में भी वे अपनी समता नहीं रखते थे। उनमें योग्य व्यक्ति के चयन की अद्भुत क्षमता थी। यही कारण है कि उनके पास योग्य और वीरों का जमघट था। विचित्र बात यह है कि जिन महापुरुषों ने सिक्ख साम्राज्य स्थापित करने में महाराज रणजीतसिंह का साथ दिया, वे सबके सब ही सिक्ख नहीं थे। खालसा के आदमियों में सबसे योग्य हरीसिंह नलुआ था। वह जाति का खत्री था। अन्य योग्य सरदारों में गैर सिक्ख भी काफी थे। अमृतसर पर आधिपत्य कर लेने के बाद, महाराज ने ओहदे और उपाधियां देते हुए कई सिक्ख सरदारों को उसके लिए निर्वाचित किया था। उनमें सरदार दिलसिंह मजीठिया, निहालसिंह अटारीवाला और बाजसिंह और हरीसिंह नलुआ थे। फूलासिंह अकाली सिक्खों में एक बड़ा बहादुर और अकालियों का लीडर था। लेकिन महाराज उस पर अधिक विश्वास इसलिए न करते थे कि उसकी ओर से यह आशा न थी कि वह अपनी जिम्मेदारी के लिए स्वच्छन्दता को छोड़ देगा। एक बार फूलासिंह ने निहालसिंह अटारी वाले को साथ लेकर मालवे में विद्रोह भी कर दिया था, जिसे दीवान मोतीराम ने दबाया था। मोतीराम उन दोनों को गिरफ्तार करके लाहौर ले आया। कुछ दिन के बाद महाराज ने उन्हें क्षमा कर दिया। फिर कभी भी उन्होंने उद्दण्डता न की। हरीसिंह नलुआ के पश्चात् सिखों में सरदार देसासिंह मजीठिया था। उसे निहालसिंह के साथ पांच सौ सैनिकों के ऊपर अफसर नियुक्त किया था। उसने महाराज की बड़े प्रेम से सेवाएं कीं। महाराज ने इसे कई युद्धों में भेजा था। सन् 1819 में पहाड़ी राजाओं से कर वसूल करने के लिए सरदार देसासिंह ही गया था। घलोर के पहाड़ी राजा ने, जिसका सदर मुकाम विलासपुर अंग्रेजों की ओर था, खिराज देने से इन्कार कर दिया। सरदार देसासिंह ने उसके तीन बड़े गढ़ों - अचरोटा, अकालगढ़, यनोवीदे को घेर लिया। राजा सतलज पार भाग गया। सरदार देसासिंह ने विलासपुर का घेरा डाल लिया। इसी समय अंग्रेजों ने महाराज से लिखा पढ़ी की। इसलिए महाराज की आज्ञा से वह वापस लाहौर आ गया। अप्रैल सन् 1832 में यह बूढ़ा शेर मर गया। उसके स्थान पर उसका बेटा सरदार लहजासिंह नियुक्त हुआ। सरदार


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लहजासिंह सन् 1844 तक सतलज और रावी के बीच के इलाके का हाकिम रहा। साथ ही अमृतसर के दरबार साहब का निरीक्षण का काम भी लहजासिंह के सुपुर्द था।

महाराज रणजीतसिंह अन्धविश्वासी एवं हठधर्मी न थे। साम्राज्य के स्थापन और रक्षण में धार्मिक जोश से काम नहीं लिया। वे राष्ट्रवादी थे। राष्ट्रवादी के नाते ही उन्होंने प्रजा के साथ सलूक किये। कुछ मुल्लापंथी सिख तो यह न चाहते थे कि महाराज इतने बड़े साम्राज्य के स्वतन्त्र शासक हों। वे चाहते थे कि रणजीतसिंहजी खालसा की ओर से शासन करें। पंजाब के हिन्दुओं ने भी महाराज के साम्राज्य-स्थापन में पूरी सहायता दी थी। सिख जितने लड़ाकू योद्धा और सैनिक थे, कुछ हिन्दू उतने ही योग्य संचालक महाराज को मिल गए थे। कुंजाह के दीवान खानदान ने भी महाराज के साम्राज्य-स्थापन में कम परिश्रम नहीं किया।

दीवान मुहकमचन्द महाराज के पिता महासिंह के जमाने से उनके यहां मौजूद था। वह अपनी निष्कपट सेवा और अद्भुत रण-चातुरी के कारण ही महासिंह का दीवान बन गया था, हालांकि आरम्भ में वह महासिंह के यहां छोटे से औहदे पर रक्खा गया था। सन् 1808 ई० में जब मि० मेटकॉफ महाराज के पास अंग्रेज सरकार से सन्धि करने का प्रस्ताव लेकर आये थे, तब इसने महाराज को सलाह दी थी कि सन्धि को आज-कल करते-करते उस समय किया जाए जब तक जमुना के इलाके पर अपना कब्जा हो जाये। सन्धि की चर्चा के दौरान में ही महाराज ने साईसवाल, चांदपुर, झण्डा, दहारी और बहारमपुर आदि स्थानों को विजय कर लिया और ये स्थान मुहकमचन्द को जागीर देकर उसके नाम लिख दिए। सन् 1810 ई० में दीवान मुहकमचन्द ने भम्बर और राजौरी को जीत कर कब्जा कर लिया। इस तरह से इसने तीन लाख का इलाका महाराज के राज्य में मिला लिया।

महाराज ने इससे प्रसन्न होकर फलोर को भी इसे जागीर में दे दिया। साथ ही दीवान का खिताब दिया और मय सुनहरी हौदे के एक हाथी तथा तलवार इनाम में दी।

सन् 1811 ई० में राजौरी के हाकिम सुल्तानखां को गिरफ्तार करके यह लाहौर ले आया। फिर वजीर फतहखां के साथ सेना लेकर काश्मीर पर चढ़ाई की। सन् 1813 ई० में अटक पर कब्जा करने के लिए हजूर के मुकाम पर पठानों को परास्त किया और अटक के सूबे को महाराज के राज्य में मिला लिया। सन् 1814 में वह बीमार हो गया। इसी साल महाराज ने इसके बेटे रामदयाल को काश्मीर-विजय के लिए भेजा। इसने सलाह दी थी कि काश्मीर पर चढ़ाई करने से पहले राजौरी में अपना रसद का सामान भेज दिया जाए। महाराज ने इस


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राय को उस समय नहीं माना, किन्तु उन्हें पीछे पछताना पड़ा। बीमारी में सन् 1815 में ही यह मर गया। महाराज को उसकी मृत्यु से बड़ा दुख हुआ। यह हृदय में महाराज का भक्त था।

दीवान रामदयाल के मरने पर महाराज ने उसके बेटे मोतीराम को अपना दीवान बनाया। जालन्धर के सूबे का प्रबन्ध करने के लिए उसे जालन्धर का सूबेदार बना दिया और उसके बेटे रामदयाल को फौज का कमाण्डर बनाया। काश्मीर की विजय से दीवान रामदयाल की बहादुरी की प्रशंसा होने लग गई थी। महाराज ने दीवान मोतीराम को काश्मीर विजय होने तथा महीदीन के प्रबन्ध के बाद, जालन्धर से, काश्मीर का सूबेदार बना कर भेजा। फलोर का इलाका भी मोतीराम के आधीन था। इसके बाद रामदयाल ने श्यामसिंह अटारी वाले के साथ हजारा पर चढ़ाई की। दीवान इलाहीबख्श जो महाराज की ओर से हजारा के साथ लड़ रहा था, खतरे में ही था कि दीवान रामदयाल ने ठीक समय पर पहुंच कर उसकी रक्षा की। खुद मैदान में डट गया। दिन छिप जाने पर भी सब से आखिर तक लड़ता रहा। पठानों को जब इसका पता लगा तो वे गोल बांध कर दीवान रामदयाल पर टूट पड़े। अकेला मैदान में घिर जाने पर भी यह नौजवान बड़ी बहादुरी के साथ लड़ता रहा और पठानों के दांत खट्टे कर दिए, किन्तु आखिरकार मैदान में काम आ गया। इसकी मृत्यु के रंज से दीवान मोतीराम ने काश्मीर की दीवानी छोड़कर बनारस में चले जाने का इरादा कर लिया। महाराज दीवान रामदयाल की मृत्यु से बड़े दुखी हुए। किन्तु कश्मीर का प्रबन्ध मोतीराम के बिना सुचारू रूप से नहीं चला। इसलिये महाराज ने धैर्य बंधाकर फिर वापस बुला लिया और कश्मीर भेज दिया। मोतीराम का दूसरा बेटा कृपाराम था। महाराज ने उसे रामदयाल की जगह नियुक्त किया। उसे दीवानचन्द मिश्र और हरीसिंह नलुआ के साथ पेशावर युद्ध के लिए भेजा। नौशेरा के प्रसिद्ध युद्ध के बाद दीवान कृपाराम को जालंधर का सूबेदार बना दिया गया। बीच में एक बार महाराज इस खानदान से नाराज हो गए। डेढ़ साल की नाराजगी के बाद महाराज ने नजरबन्दी से रिहा करके दीवान कृपाराम को कश्मीर का सूबेदार बनाया। इसने अपने समय में कश्मीर में बड़ी सहृदयता से शासन का काम चलाया।

ध्यानसिंह

यह डोगरा राजपूत था। इसके दो और भाई थे - गुलाबसिंह और सुचितसिंह उनके नाम थे। सब पहले अर्दली के बतौर महाराज के यहां भर्ती हुए और शनैः-शनैः उन्नति करते रहे। ध्यानसिंह कुछ दिन के बाद ड्यौढ़ीवान बना लिया गया। गुलाबसिंह ने जम्बू-कश्मीर के विद्रोह को दबाया, इसलिए महाराज ने उसे जम्बू में जागीर प्रदान की। सुचितसिंह दरबारी ही बना रहा। तीनों भाइयों को क्रमशः


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-294


राजा का खिताब महाराज की ओर से दिया गया। राजा ध्यानसिंह का बेटा हीरासिंह अभी बच्चा ही था कि महाराज उससे अपने बेटे की तरह प्रेम करने लगे। उसकी अवस्था जब कि बारह वर्ष की थी, राजा ध्यानसिंह ने महाराज से प्रार्थना की कि इसकी शादी राजा संसारचंद की लड़की के साथ करा दी जाए। महाराज ने संसारचंद के लड़के अनिरुद्ध को तो इस बात के लिए तैयार कर लिया लेकिन लड़कियों की मां, सतलज पार भाग कर चली गई। कुछ दिन के बाद अनिरुद्धचंद और उसकी मां दोनों मर गए। दीवान खानदान की अवनति के साथ ही साथ यह दोगला खानदान उन्नति करता गया और महाराज का अधिक से अधिक प्रेम-पात्र बन गया। राजा ध्यानसिंह महाराज में इतनी भक्ति रखता था कि महाराज के मरने पर उनकी चिता में कूदने के लिए तैयार हो गया। लेकिन लोगों ने उसे जबर्दस्ती करके रोक लिया।

मिश्र दीवानचन्द

महाराज के यहां युद्ध सम्बन्धी सबसे अधिक सेवाएं दीवानचन्द ने ही की थीं। यह गुजरानवाला के जिले का दरिद्र ब्राह्मण था। यह वैसे तो अशिक्षित था, लेकिन था बड़ा लम्बा-चौड़ा और तगड़ा आदमी। तीर चलाने में यह अपनी योग्यता सबसे बढ़ कर रखता था। इसका निशाना कभी खाली ही नहीं जाता था। यह आरम्भ में तोपखाने में आकर भर्ती हुआ था। महाराज ने इसकी योग्यता देखकर इसे तोपखाने का सबसे बड़ा अफसर बना दिया। यह सन् 1817 ई० में दीवान मोतीराम, सरदार हरीसिंह नलुआ के साथ तोपखाना लेकर मुल्तान गया। इस वर्ष इन सबको असफल होकर वापस लौटना पड़ा। सन् 1818 में महाराज ने इसे जफरजंग की पदवी दी और पच्चीस हजार फौज देकर इसे मुल्तान पर विजय हेतु भेजा। यहां जम कर लड़ाई हुई। पूंछ के राजा को भी सन् 1819 में इसने परास्त किया था। 1820 ई० में इसने कश्मीर आक्रमण के बाद बटाला पर चढाई की। नौशेरा की प्रसिद्ध लड़ाई में इसने बड़ी बहादुरी दिखाई। यदि नौशेरा के युद्ध में यह न होता तो नौशेरा की विजय कदापि न होती। सन् 1824 में इसके अर्धांग बीमारी हुई और इसी में मर गया। उसकी अरथी के नीचे सारा दरबार लगा था। महाराज की आज्ञा से उसका संस्कार चन्दन की लकड़ी से किया गया। कफन के लिए महाराज ने अपना निजी शाल उस पर डाल दिया। इसे हुक्का पीने की टेब थी। महाराज ने इसे प्रेम के वश होकर तथा उसकी बहादुरी के कारण दरबार में भी हुक्का पीने की इजाजत दे दी थी। उसे महाराज ने एक सुनहरी हुक्का भी दिया था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-295


सरदार हरीसिंह नलुआ

Hari Singh Nalwa - an artiste's portrait

यह गुजरानवाला में पैदा हुआ था। लड़कपन में महाराज के साथ खेला करता था। महाराज को उससे बड़ा स्नेह था। 1805 ई० में मामूली खिदमत से तरक्की देकर इसे महाराज ने 800 प्यादों का सवार बनाया। अपनी समस्त आयु उसने महाराज के लिए लड़ाई में बिताई। सरदार हरीसिंह नितान्त सैनिक व्यक्ति था। उसे एक बार काश्मीर का सूबेदार बना कर भेजा गया। प्रबन्ध के तौर पर वह असफल रहा। उसने यूसुफजई के पठानों को विजय किया। दुरबन्द और जहांगीरा के पास उनके साथ लड़ाइयां कीं। अटक के पहाड़ी मैदान में पठानों के दांत खट्टे किए। उसका समय अधिकांश में पठानों के साथ लड़ाइयों में बीता। अफरीदी उसने हराये। हजारा के कबीलों को उसने कुचला। कुं० नौनिहालसिंह के साथ पेशावर पर चढ़ाई करके उसे जीता। पठानों को पेशावर से खदेड़ दिया। जमसद के किले पर कब्जा किया। खैबर की घाटी को पार करके अफगानों को इतना भयभीत किया कि उसके नाम से पठान कांपने लगे। लेकिन इसी लड़ाई सन् 1837 ई० में उसके गहरा जख्म आया, जिससे उसकी मृत्यु हो गई। उसकी मृत्यु भी उसकी बहादुरी की वजह से हुई। उसका साहस अनुपम था। वह पठानों का तो जानी दुश्मन था। वह पठानों को बुजदिल और नीच समझता था। पठान उसके नाम से कांपते थे। पेशावर, काबुल इत्यादि में अब भी उसका नाम बच्चों को डराने के लिए प्रयोग किया जाता है। जिस तरह भारत में माताएं बच्चों को रोने से चुप कराने के लिए हौआ का डर दिखाती हैं, उसी तरह काबुल, पेशावर की पठान स्त्रियां बच्चों को रोने से बन्द करने के लिए कहती हैं - “खुफता वाशिद हरी आयद” यानी 'बच्चे, चुप हो जाओ, हरी आता है।' एक हिन्दी कवि ने हरीसिंह के लिए कहा है - मारि-मारि यवनों का बनाय दिया भुरता।

सरदार हरीसिंह के अन्दर आकर गुरु गोविन्दसिंह की भविष्यवाणी पूरी होती है। वे कहा करते थे - 'चिड़ियों से मैं बाज मराऊं। तब ही गोविन्दसिंह पाऊं।' गुरु गोविन्दसिंह के समय में मुसलमान अपने को बाज और हिन्दुओं को चिड़िया समझते थे। वास्तव में वे बहुत बुजदिले हो गए थे। वे मरने और मारने दोनों से डरते थे। गुरु गोविन्दसिंह ने उनके दिल से मौत का डर दूर करके उन्हें निर्भयता पूर्वक मरना सिखाया और फिर वीरबन्दा तथा महाराज रणजीतसिंह ने उन्हें मारना सिखाया।


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फकीर बन्धु

महाराज के यहां बड़े-बड़े सरदारों में दो फकीर भाई भी थे - एक का नाम नूरुद्दीन और दूसरे का नाम अजीजुद्दीन था। ये दोनों बड़े वफादार आदमी थे। लाहौर पर अधिकार जमाते ही महाराज ने इनको अपने यहां ले लिया और मरते दम तक ये महाराज के यहां रहे। इनमें फकीर नूरुद्दीन बड़ा अच्छा हकीम था। यह बराबर महाराज का इलाज करता रहता था। सन् 1805 में उसे गुजरात का हाकिम बनाया गया। फकीर अजीजुद्दीन राज्य-प्रबन्ध के प्रत्येक मामले में महाराज का सलाहकार था। महाराज उसकी राय की कद्र करते थे। यह कई बार महाराज की ओर से संदेशवाहक के रूप में लाट साहब के पास भी गया था। दोनों भाइयों ने लड़ाइयों में भारी हिस्सा लिया था। जहां कहीं आवश्यकता पड़ती थी, फकीर अजीजुद्दीन फौज लेकर पहुंचता था। महाराज की फौज के अफसर के नाते वे दोनों भाई अपना कर्त्तव्य उसी भांति पालन करते थे जैसे कि अन्य सिक्ख सरदार। दोनों भाई सच्चे हृदय से सच्चे अर्थों में महाराज के हितैषी थे। फकीर अजीजुद्दीन को सन् 1813 में अटक के किले को विजय करने के लिए महाराज ने भेजा था। पेशावर के युद्ध में जिसमें कि महाराज का काबुल में दोस्तमुहम्मद से मुकाबला था, यह महाराज के साथ था। इसने मजहबी पक्षपात को लात मार कर महाराज की तरफ से मुसलमानों से खूब शत्रुता की। महाराज भी इसे हद से ज्यादा प्यार करते थे। यह बात मुसलमानों पर भी प्रकट थी कि महाराज फकीर बन्धुओं पर सिखों से भी बढ़कर प्यार करते हैं।

भवानीदास - यह शाहशुजा का माल-अफसर था। महाराज ने भी इसे अपने यहां माल का अफसर बना दिया। इसके समय में बाकायदा महकमा माल बन गया। यह सन् 1808 में लाहौर आया था। इसी साल महाराज ने कर्मचन्द को मुहर का अफसर बनाया। भवानीदास कई स्थानों पर युद्ध में भी शामिल हुआ। सन् 1819 ई० में उसने जम्बू पर चढ़ाई करके उसे विजय किया।

गंगाराम - यह दिल्ली का रहने वाला था। राजनीति समझने में पूरा विद्वान् था। पहले सिंधिया महादाजी के पास रह चुका था। महाराज ने इसकी खबर लगते ही इसे लाहौर बुला लिया और सरकारी मुहर उसके सुपर्द कर दी। पं० गंगाराम ने महकमा आबकारी का इन्तजाम बहुत अच्छी तरह से किया। उसके मर जाने पर इसकी जगह पं० दीनानाथ को मिली। सन् 1824 ई० में भवानीदास के मर जाने पर महकमा माल भी पं० दीनानाथ के ही हाथ में सौंपा गया।

यूरोपियन अफसर

सन् 1822 ई० में दो यूरोपियन सय्याह एक इटैलियन मि० बेन्तूरा, दूसरा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-297


Jean-François Allard

फ्रांसीसी ऐलार्ड ईरान होते हुए लाहौर दरबार में आए। वे मुसलमानी लिबास में थे और उन्होंने अपनी सब बातें फारसी जुबान में बताई । महाराज ने उन्हें हुक्म दिया कि वे अपनी बातें अपनी भाषा में लिखकर पेश करें। उनके कागजों को महाराज ने लुधियाना के अंग्रेजी रेजीडेण्ट के पास तर्जुमा करने को भेज दिया। तर्जुमा की बातें उनकी कही हुई बातों से तथावत् मिल जाने पर महाराज ने उनको अपनी फौज में कवायद सिखाने के लिए नौकर रख लिया। थोड़े दिनों में उन्होंने फौज को यूरोपियन ढ़ंग पर ऐसा तैयार कर दिया कि महाराज उनसे खुश हो गए और उनके लिए मकबरा अनारकली के पास रहने के लिए जगह दे दी। चार साल बाद दो और फ्रांसीसी 'कोट' और 'ओबीन्तवेला' जिन्होंने नैपोलियन के अधीनस्थ सेवायें की थीं, लाहौर आए। महाराज ने उन्हें भी फौज में स्थान दिया। वे धीरे-धीरे उन्नति करते हुए फौजों के जनरल बन गए। महाराज के सिपाही नया लिबास पहनने और नए ढ़ंग पर चलने से झिझकते थे। महाराज ने खुद वर्दी पहनी और कवायद की, जिसे उनके सिपाही भी करने लग गए। अफसरों की सहायता व योग्यता से महाराज के पास पचास हजार बाकायदा फौज और एक लाख दूसरे ढंग के सिपाही तैयार हो गए। लाहौर और अमृतसर में तोपें ढ़ालने और बारूद बनाने का कारखाना खोला गया। महाराज ने इन यूरोपियनों को नौकर रखते समय प्रतिज्ञा कराई थी कि वे गाय का गोश्त न खायेंगे, दाढ़ी न कटायेंगे और तम्बाकू न पीयेंगे।1 पहली दोनों बातें वे पूर्णतया मानते रहे। तीसरी बात महाराज ने माफ कर दी। वेन्तूरा और ऐलार्ड महाराज के रिसाले के इन्चार्ज थे और ओवीन्तवेला प्यादा फौज का तथा कोट तोपखाने का इंचार्ज था। इनकी तनख्वाह दो और तीन हजार के बीच थी।

योग्यता-आचरण

महाराज पढ़े-लिखे न थे किन्तु प्रतिभा सम्पन्न थे। उनका दिमाग उपजाऊ और बलवान था। वे बहुत दूर की बातें सोचते थे। लिखने-पढ़ने वाले मन्त्री लोग उनके पास हर समय रहते थे। यहां तक कि रात के समय भी एक आदमी लिखने के लिए उनके पास रहता था। सारा राज-काज फारसी, हिन्दी और पंजाबी में होता था। वे हरेक कागजात को सुनकर उस पर अपनी सही करते थे। अपनी आज्ञाएं


1. शाहशुजा से भी महाराज ने यही कहा था कि मैं तुम्हें काबुल का बादशाह बनने में इस शर्त पर सहायता कर सकता हूं कि - (1) समस्त अफगानिस्तान में गोवध बन्द करा दिया जाए, (2) सोमनाथ के मन्दिर के किवाड़ गजनी से वापिस लाकर यहां लगा दिए जायें। भारत का इतिहास (इति० प्रेमी) पे० 174-183


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स्वयं लिखाते थे। लिखाने के बाद उसे पढवाकर सुनते थे ताकि सही लिखने का पता लग जाए। कभी-कभी तो रात के समय भी दिमाग में आई हुई बात को मंत्री के लिए नोट करा देते थे। वे कुर्सी पर पालथी मारकर बैठते थे। जब बातें करते थे, तो एक हाथ उनका दाढ़ी पर रहता था और एक घुटने पर। राज सम्बन्धी प्रत्येक मामले में उन्हें जानकारी थी।

उन्हें हंसी-मजाक करने का बड़ा शौक था। एक दफे एक सुन्दर लड़की ने उन्हें काना कह दिया। इस पर वे हंस पड़े और उसे इनाम दे दिया। एक समय एक जाट ने उन्हें बिना पहचाने गाली दी। महाराज उससे बड़े खुश हुए, कहने लगे - अच्छा रिश्तेदार मिला है। उसे अनोखी-अनोखी गाली देने के एवज में इनाम दिया। हंसोड़ लोगों की उनके दरबार में कदर थी। उन्होंने एक ऐसे ब्राह्मण को नौकर रख छोड़ा था, जो अवकाश में महाराज से मजाक करके उन्हें प्रसन्न किया करता था। महाराज उसे शनीचर कहते थे। धार्मिक तौर पर ग्रन्थ-साहब को नित सुना करते थे। किन्तु उनके यहां धार्मिक पक्षपात तक भी न था।

अधिक स्त्रियां करके उन्होंने बेशक अच्छा नहीं किया, किन्तु उन्होंने अपने पंथ और जाति के नियमों के विरुद्ध कुछ नहीं किया। उनकी जाति (जाटों) में अनेक स्त्रियां रखने का रिवाज था। साथ ही विशेष अवसरों पर पाण्डवों की भांति कई भाई एक ही स्त्री भी रखते थे। किन्तु यह उनकी प्रशंसनीय बात न थी कि अधेड़ उम्र में भी शादी करते रहे। उस समय की आम श्रद्धा के अनुसार महाराज भी फलित ज्योतिष पर पूरा विश्वास रखते थे। इस तरह ज्योतिषी उन्हें खूब चकमा देते थे। मोरन से शादी करने के बाद महाराज ने एक दिन स्वप्न देखा। उसमें उन्होंने देखा था कि एक आदमी सिक्ख का लिबास पहने हुए उन्हें धमकी दे रहा है। महाराज ने ज्योतिषियों को बुलाकर स्वप्न का हाल कहा। ज्योतिषियों ने बताया कि यह कोई निहंग है जो मुसलमान औरत से शादी करने के कारण नाराज हो गया है। महाराज को चाहिए कि असली जैसी सोने की एक मूर्ति बनवाकर मथुरा के किसी ब्राह्मण को दान कर दें। इस तरह से उनका नूतन जन्म समझा जाएगा। महाराज ने ऐसा ही किया। और भी दान पुण्य किया। राजनैतिक कैदियों को छोड़ा। इन्हीं राजनैतिक कैदियों में जम्बू का राजा भूपसिंह भी था, जो 15 वर्ष से कैद था। नूरपुर का राजा वीरसिंह और भम्बर का मालिक तालिबखां भी थे। महाराज जवानी में बड़े खिलाड़ी और सैनिक परेड कर्त्तव्यों के शौकीन थे। होली के दिनों में सरदारों के साथ खूब खेलते थे। उनके यहां दशहरा भी बड़े जोर से मनाया जाता था। दशहरे के पश्चात् ही वे विजय के लिए चल पड़ते थे।

उनका अधिकांश समय नया देश विजय करने में बीता। मुल्की प्रबन्ध करने के लिए बहुत कम अवसर उन्हें मिला। एक तो उनके राज में शिक्षा का प्रबन्ध


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-299


अच्छा न हुआ और न स्वास्थ्य के लिए कोई योजना तैयार की गई। सबसे बड़ी बात महाराज के करने के लिए यह रह गई कि वह अपने दफ्तरों की भाषा हिन्दी न कर पाए। ऐसा कर जाते तो पंजाब में आज उर्दू का राज न होता। क्योंकि अंग्रेज सरकार ने दफ्तरों की वही भाषा रक्खी है, जो पहले थी। अतः राष्ट्रभाषा के विकास में वह कोई योग न दे सके।

लेकिन फिर भी उस समय की अवस्था में महाराज नमूने के योद्धा, विजेता और शासक थे। यह उन्हीं का बल था कि लगभग आठ सौ वर्ष से चली आई पंजाब में मुसलमानी सल्तनत की उन्होंने जड़ उखाड़ फेंक दी और जिन पठानों का भारत पर विजय करने के कारण सिर आसमान पर चढ़ गया था, उन पठानों से भेंट, खिराज और नजराने लिए। तथा उन्हीं की आबादी, डेरागाजीखां, जमरूद, खैबर, यूसुफजई में उन्हें परास्त करके अपनी सल्तनत स्थापित की। राजस्थान और यू० पी० में सल्तनत स्थापित करना कोई कठिन काम न था। न बंगाल और उड़ीसा में कोई कठिनाई थी। कठिनाई थी तो पच्छिमोत्तर देश में हिन्दू-हुकूमत स्थापित करने में थी। महाराज की अद्भुत योग्यता, आश्चर्यजनक शक्ति का ही यह परिणाम था कि उन्होंने अपने-पराए, देशी-विदेशी सब के ईर्षा-द्वेष करते रहने पर भी, उनसे टक्कर लेकर इतना बड़ा जाट-राज्य खड़ा कर दिया


नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


सप्तम अध्याय जारी

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