User:Lrburdak/My Tours/Tour of North East India

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

उत्तर-पूर्व भारत का भ्रमण: भाग-1 (गया-बोधगया)

12.11.2010: गया (8.00 बजे)– बौद्धगया- राजगीर- नालंदा- पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) (21.30 बजे)

भारत शासन ने अखिल भारतीय और केंद्रीय सेवाओं के लिए एक महत्व पूर्ण निर्णय लिया कि इन सेवाओं के अधिकारी दो साल में ली जाने वाली गृह जिले की अवकाश यात्रा सुविधा के स्थान पर देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों की यात्रा कर सकते हैं. इस सुविधा का लाभ लेते हुये पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. इस भाग में पढ़िए गया और बोधगया का इतिहास और भूगोल तथा इनका पर्यटन संबंधी महत्व.

7.11.2010: भोपाल से शाम 17.40 बजे ट्रेन (2975 जयपुर एक्सप्रेस) से रवाना होकर अगले दिन सुबह 6 बजे जयपुर पहुँच गए. कुल दूरी = 703 किमी. दो दिन जयपुर में विश्राम किया.

10.11.2010: दोपहर बाद 14.45 पर जयपुर से ट्रेन (2988 AII SDAH EXP) से बिहार राज्य के गया शहर के लिए रवाना हुये और अगले दिन 11.11.2010 को प्रातः 7.45 बजे गया पहुँच गए. कुल दूरी = 1044 किमी. बिहार के इस भूभाग में भ्रमण पर रवाना होने से पहले बिहार राज्य के संबंध में पुराने अनुभवों के आधार पर हमारी नकारात्मक धारणा थी परंतु पूरे भ्रमण के बाद यह धारणा बदल गई जो वहाँ पर किए गए सड़कों और पर्यटन महत्व के स्थानों के विकास के कारण संभव हुआ.

Jaipur (14.45) → Bharatpur → Achhnera → Agra → Tundla → Kanpur → Allahabad → Mughalsarai (UP) → Bhabua Road (Bihar) → Sasaram → Dehri On Sone → Gaya (7.45)

गया-बोधगया भ्रमण दिनांक 11.11.2010

11.11.2010 : गया (बिहार) प्रवास के संबंध में मेरी पूर्व में 1984 बैच के आईएफ़एस, मुख्य वन संरक्षक पटना श्री परशु राम (मोब.9835089512) से बात हुई थी. उनके निर्देश पर वन मंडल अधिकारी गया द्वारा वन विश्राम गृह में रुकने की व्यवस्था की थी तथा स्टेशन पर स्टाफ सहित वाहन भेजा था. शीघ्र ही तैयार होकर गया और बोधगया के भ्रमण पर निकल पड़े. भ्रमण के लिए वाहन वन मंडल अधिकारी के द्वारा उपलब्ध कराया गया और साथ में गाइड के रूप में एक वन पाल थे. गया और बौद्ध गया में देखे गए स्थानों का विवरण इस प्रकार है:

गया जिले का मानचित्र

गया परिचय

गया झारखंड और बिहार की सीमा और फल्गु नदी के तट पर बसा बिहार का एक प्रमुख नगर है. वाराणसी की तरह गया की प्रसिद्धि मुख्य रूप से एक धार्मिक नगरी के रूप में है. पितृपक्ष के अवसर पर यहाँ हज़ारों श्रद्धालु पिंडदान के लिये जुटते हैं. गया सड़क, रेल और वायु मार्ग द्वारा पूरे भारत से अच्छी तरह जुड़ा है. इस नगर का हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्मों में गहरा ऐतिहासिक महत्व है. शहर का उल्लेख रामायण और महाभारत में मिलता है. गया तीन ओर से छोटी व पत्थरीली पहाड़ियों से घिरा है, जिनके नाम मंगला-गौरी, श्रृंग स्थान, रामशिला और ब्रह्मयोनि हैं. नगर के पूर्व में फल्गू नदी बहती है. मेगास्थनीज़ की इण्डिका, फाह्यान तथा ह्वेनसांग के यात्रा वर्णन में गया का एक समृद्ध धर्म क्षेत्र के रूप मे वर्णन है.

बोधगया

गया से 17 किलोमीटर की दूरी पर बोधगया स्थित है जो बौद्ध तीर्थ स्थल है और यहीं 'बोधिवृक्ष' के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. बोधगया राष्ट्रीय राजमार्ग 83 पर स्थित है. वर्ष 2002 में यूनेस्को द्वारा इस शहर को विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया.

अंतरराष्ट्रीय पर्यटन की नज़र से देखें तो बोधगया बिहार का सबसे सुप्रसिद्ध स्थान है. बिहार में यह इकलौती ऐसी जगह है जो विश्व धरोहर के दो स्थलों में से एक है. बौद्धों के लिए यह जगह बहुत ही पूजनीय है क्योंकि, इसी स्थान पर बोधि वृक्ष के नीचे बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी. यह बात 6 वीं शताब्दी की है, जिसके चलते आज भी अर्थात लगभग 2700 सालों से इस जगह को एक पूजनीय स्थान के रुप में देखा जाता है. बोधगया महाबोधि मंदिर के पास इर्द गिर्द बसा हुआ है. यहां के बौद्ध समुदाय, मूल रूप से विविध बौद्ध देशों से हैं, जो यहां पर आकर बस गए हैं. जिसके प्रभाव स्वरूप, बोधगया शहर में आपको अंतरराष्ट्रीयता की झलक मिलती है.

लगभग 528 ई. पू. के वैशाख (अप्रैल-मई) महीने में कपिलवस्तु के राजकुमार गौतम ने सत्यत की खोज में घर त्याग दिया. गौतम ज्ञान की खोज में निरंजना नदी के तट पर बसे एक छोटे से गांव उरुवेला आ गए. वह इसी गांव में एक पीपल के पेड़ के नीचे ध्याान साधना करने लगे. एक दिन वह ध्या न में लीन थे कि गांव की ही एक लड़की सुजाता उनके लिए एक कटोरा खीर तथा शहद लेकर आई. इस भोजन को करने के बाद गौतम पुन: ध्यान में लीन हो गए. इसके कुछ दिनों बाद ही उनके अज्ञान का बादल छट गया और उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई. अब वह राजकुमार सिद्धार्थ या तपस्वीछ गौतम नहीं थे बल्कि बुद्ध थे. ज्ञान प्राप्ति के बाद वे अगले सात सप्ताबह तक उरुवेला के नजदीक ही रहे और चिंतन मनन किया. इसके बाद बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ गए जहां उन्होंने अपने ज्ञान प्राप्ति की घोषणा की. बुद्ध कुछ महीने बाद उरुवेला लौट गए. यहां उनके पांच मित्र अपने अनुयायियों के साथ उनसे मिलने आए और उनसे दीक्षित होने की प्रार्थना की. इन लोगों को दीक्षित करने के बाद बुद्ध राजगीर चले गए.

उरुवेला (AS,p.101) बिहार राज्य के बोधगया में स्थित था। प्राचीन बौद्धग्रन्थों में उरुवेला का उल्लेख बुद्ध की जीवन कथा के संबंध में है. यह वही स्थान है जहाँ गौतम संबुद्धि प्राप्त करने के पूर्व ध्यानस्थ होकर बैठे थे। इसी स्थान पर ग्राम-वधू सुजाता या अश्वघोष के अनुसार नंदबाला (देखें बुद्धचरित 12, 109) से भोजन प्राप्त कर उन्होंने अपना कई दिन का उपवास भंग किया था और शारीरिक कष्ट द्वारा सिद्ध प्राप्त करने के मार्ग की सारहीनता उनकी समझ में आई थी. स्थान का उल्लेख महावंश (1, 12; 1, 16) में भी है आदि जिस पीपल के पेड़ के नीचे गौतम को संबुद्धि प्राप्त हुई थी उसको अग्निपुराण, 115, 37 में महाबोध वृक्ष कहा गया है. इस ग्राम का शुद्ध नाम शायद उरुबिल्व था। नैरंजना नदी उरुवेला के निकट बहती थी. (देखें बुद्धचरित 12, 108)

गया-बोधगया का इतिहास

गौतम बुद्ध के संबोधि-स्थल तथा हिंदुओं के प्राचीन तीर्थ के रूप में सदा से प्रसिद्ध रहा है. महाभारत वन पर्व 84,82 में गया का तीर्थ रूप में वर्णन है--'ततो गयां समासाद्य ब्रह्मचारी समाहित:। अश्वमेधमवाप्नोति कुलं चैव समुद्धरेत्'. वन पर्व 95,9 में पांडवों की तीर्थ यात्रा के प्रसंग में भी गया का उल्लेख है-- 'ततो महीधरं जग्मुर्धर्मज्ञेनाभिसत्कृतम्। राजर्षिणा पुण्यकृता गयेनानुपमद्युते। इससे यह भी सूचित होता है कि राजर्षि गय के नाम पर ही गया का नामकरण हुआ था. गयशिर की पहाड़ी का उल्लेख इससे अगले श्लोक में है जो विष्णुपद पर्वत है. पुराणों की एक कथा के अनुसार गया, गयासुर नामक राक्षस का निवास स्थान था. विष्णु ने इसे यहां से निकाल दिया था (देखें बिहार थ्रू दि एजेज़, पृ. 114).

संभव है इस क्षेत्र में अनार्य लोगों का निवास रहा हो (देखें वही पृ. 114). बुद्ध के समय यह स्थान नगर के रूप में विख्यात नहीं था. तब उरुवेला नामक ग्राम यहां स्थित था जिस के निकट बुद्ध ने पीपल वृक्ष के नीचे समाधिस्थ होकर संबुद्धि प्राप्त की थी. उरुवेल में ही वहां के ग्रामणी की पत्नी सुजाता (या नंदबाला) की दी हुई पायस खाकर बुद्ध ने अपना कई दिनों का उपवास भंग किया था और वे इस परिणाम पर पहुंचे थे कि काया को उपवास आदि से क्लेस देकर मानुष्य सर्वोच्च सिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता.

अश्वघोष (प्रथम या द्वितीय शती ई.) ने बुद्ध-चरित में गया का उल्लेख किया है जिससे सूचित होता है कि कवि के समय में गया को राजर्षि गय की नगरी माना जाता था-- 'ततो हित्वाश्रमं तस्य, श्रेयोअर्थी कृत्यनिश्चय: भेजे गयस्य राजर्षेर्नगरी संज्ञमाश्रमम्' सर्ग 12,89. बुद्ध के पश्चात गया का नाम संबोधि भी पड़ गया था जैसा कि अशोक के एक अभिलेख से सूचित होता है. मौर्य सम्राट अशोक ने इस स्थान की पावन-यात्रा अपने शासनकाल के दसवें वर्ष में की थी.

चीनी यात्री फाह्यान चौथी सदी ई. तथा युवानच्वांग सातवीं सदी में गया आए थे. इन यात्रियों ने इस स्थान पर अशोक के बनवाए हुए विशाल मंदिर का उल्लेख किया है. जनरल कनिंघम तथा परवर्ती पुरातत्वविदों ने गया में विस्तृत उत्खनन किया था. इस खुदाई में अशोक के मंदिर के चिन्ह नहीं मिल सके. कहा जाता है कि यह मंदिर सातवीं शती तक स्थित था. वर्तमान मंदिर बाद का है यद्यपि उसका आस्थान अवश्य ही प्राचीन है. यह मंदिर नौ तालों स्तूपाकार बना हुआ है. इसकी ऊंचाई 160 और चौड़ाई 60 फुट है. फर्गुशन का विचार है कि नौतला मंदिर बनवाने की प्रथा, जो चीन या अन्य बौद्ध धर्म से प्रभावित देशों में प्रचलित थी, वह मूल रूप से इसी मंदिर की परंपरा की अनुकृति थी (देखें हिस्ट्री आफ इंडियन एण्ड ईस्टर्न आर्किटेक्चर, जिल्द,79).

बिहार पर जब मुसलमानों का आक्रमण हुआ अवश्य ही गया के मंदिर का भी विध्वंस किया गया होगा. इससे पूर्व ही हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के समय बौद्ध मंदिर का महत्व समाप्तप्राय: हो चला था और हिंदू मंदिर ने उसका स्थान ले लिया था. महाभारत में वर्णित है कि संभवत: छठी शती ई. में सिंहल नरेश महानामन् ने गया के बुद्ध मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. विष्णु पुराण में गया को गुप्त नरेशों के राज्य के अंतर्गत बताया गया है-- 'अनुगंगां प्रयागं गयायाश्च मागधा: गुप्ताश्च भोक्ष्यंति' 4,24,63.

कहा जाता है कि मूल बोधिद्रुम अथवा पीपलवृक्ष को गौड़ नरेश शशांक ने, जो महाराज हर्ष का समकालीन था (सातवीं शती ई.), अधिकांश में विनष्ट कर दिया था किंतु यह भी संभव है कि वर्तमान वृक्ष मूलवृक्ष का ही वंशज हो. इसी वृक्ष की एक शाखा अशोक की पुत्री संघमित्रा ने सिंहलदेश में ले जाकर अनुराधापुर में लगाई थी. यह वृक्ष वहां अभी तक स्थित बताया जाता है. इसी सिंहलदेशीय वृक्ष की एक शाखा वर्तमान सारनाथ के जीर्णोद्धार के समय कुछ वर्षों पूर्व वहां विरोपित की गई थी. यह भी मनोरंजक तथ्य है कि महाभारत वन पर्व है 84,83 में गया में अक्षयवट का उल्लेख है और उसे पितरों के लिए किए गए सभी पुण्य कर्मों को अक्षय करने वाला वृक्ष बताया गया है-- 'तत्राक्षयवटो नाम त्रिषुलोकेषु विश्रुत: तत्र दत्तं पितृभ्यस्तु भवत्यक्षयमुच्यते ' तथा 'महानदी तत्रैव तथा गय शिरॊ नृप, यत्रासौ कीर्त्यते विप्रैर अक्षय्यकरणॊ वटः वन पर्व 87,11. अवश्य ही यह अक्षयवट (वट = बरगद या पीपल) बौद्धों का संबोधि वृक्ष ही है जिसे हिंदू धर्म के पुनर्जागरण काल में हिंदुओं ने अपनाकर अपनी पौराणिक परंपरा में सम्मिलित कर लिया था. गया आजकल भी हिंदुओं का पवित्र स्थल है तथा यहां हुए पिंडदान का महत्व माना जाता है.

फल्गु नदी गया की प्रसिद्ध पुण्य नदी है जिसका निर्देश महाभारत वन पर्व 95,9 में गयशिर की पहाड़ी के निकट बहने वाली 'महानदी' के रूप में है (देखें गयशिर) बौद्ध साहित्य में फल्गु की सहायक नदी वर्तमान नीलांजना को नैरंजना कहा गया है-- 'स्नातो नैरांजनातीरादुत्ततार शनै: कृश:' (बुद्धचरित 12,108) अर्थात गौतम (बोधिद्रुम के नीचे समाधिस्थ होने के पहले) नैरंजना नदी में स्नान करके धीरे धीरे तट से चढ़कर ऊपर आए. यह गया से दक्षिण 3 मील दूर महाना अथवा फल्गु में मिलती है. वर्तमान महाना अवश्य ही महाभारत की महानदी है जिसका ऊपर उद्धतुत श्लोक वन. 87, 11 में उल्लेख है.

फाहियान (399-413 ई.) ने लिखा है कि उसके समय में हिन्दू धर्म का नगर गया समाप्त प्राय था. यह सम्भव है कि चौथी शताब्दी के पूर्व भूकम्प के कारण गया नगर के मन्दिर आदि नष्ट-भ्रष्ट हो चुके होंगे. प्राचीन पालि ग्रन्थों एवं ललितविस्तार में गया के मन्दिरों का उल्लेख है. गया कई अवस्थाओं से गुजरा है. ईसा की कई शताब्दियों पूर्व यह एक समृद्धिशाली नगर था. ईसा के उपरान्त चौथी शताब्दी में यह नष्ट प्राय था. किन्तु सातवीं शताब्दी में ह्वेनसाँग ने इसे भरा-पूरा लिखा है जहाँ ब्राह्मणों के 1000 कुल थे. आगे चलकर जब बौद्ध धर्म की अवनति हो गयी तो इसके अन्तर्गत बौद्ध अवशेषों की भी परिगणना होने लगी. वायु पुराण में वर्णन आया है कि गया प्रेतशिला से महाबोधि वृक्ष तक विस्तृत है।

महाबोधि मन्दिर

महाबोधि मन्दिर,बोधगया

महाबोधि मन्दिर मुख्य मंदिर के नाम से भी जाना जाता है. इस मंदिर की बनावट सम्राट अशोक द्वारा स्थापित स्तूप के समान है. महाबोधि मंदिर बोधगया का सबसे ऊंचा मंदिर है, जिसे आप शहर के किसी भी कोने से देख सकते हैं. इस ऊंची संरचना के चारों ओर बहुत सारी छोटी-छोटी संरचनाएँ भी हैं. जैसे ही आप मंदिर के परिसर में प्रवेश करते हैं, आपको वहां पर किताबों की दुकान और ऐसी ही बहुत सारी और दुकाने दिखेंगी जो विविध प्रकरा की कलाकृतियाँ बेचती हुई नज़र आती हैं. मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार से जाते समय आपको सेक्यूरिटी स्कैनर से होकर गुजरना पड़ता है और जैसे ही आप यहां से आगे बढ़ते हैं, आपके सामने महाबोधि मंदिर की भव्य और सुंदर संरचना खड़ी होती है. इस मंदिर की शिखर भूरे रंग की है तथा उसके आस-पास की अन्य छोटी-छोटी संरचनाओं की शिखरें गुलाबी और सुनहरे पीले रंग की हैं. यहां के मुख्य मंदिर में प्रवेश करते ही बुद्ध की शांत मुद्रा मूर्ति आपका स्वागत करती है. इस मूर्ति के ठीक ऊपर एक खास प्रकार की लकड़ी का टुकड़ा है जिसे बड़ी सुंदरता से उत्कीर्णित किया गया है. महाबोधि मंदिर की ऊपरी मंज़िल अब बंद ही रहती है, लेकिन कुछ सालों पहले तक आगंतुकों को यहां पर जाने की अनुमति दी जाती थी.

बुद्ध के ज्ञान प्रप्ति के 250 साल बाद राजा अशोक बोधगया गए. माना जाता है कि उन्होंने महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया. कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पहली शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण कराया गया या उसकी मरम्मत कराई गई. भारत में बौद्ध धर्म के पतन के साथ साथ इस मन्दिर को लोग भूल गए थे और ये मन्दिर धूल और मिट्टी में दब गया था. 19वीं सदी में Sir Alexander Cunningham ने इस मन्दिर की मरम्मत कराई. 1883 में उन्होंने इस जगह की खुदाई की और काफी मरम्मत के बाद बोधगया को अपने पुराने शानदार अवस्था में लाया गया.

बुद्ध की विशाल पद्मासन मूर्ति,बोधगया

ध्यान मुद्रा में विशाल बुद्ध प्रतिमा: इस मंदिर में बुद्ध की एक बहुत बड़ी मूर्त्ति स्थापित है. यह मूर्त्ति पद्मासन की मुद्रा में है. यहां यह अनुश्रुति प्रचिलत है कि यह मूर्त्ति उसी जगह स्थापित है जहां बुद्ध को ज्ञान निर्वाण (ज्ञान) प्राप्ता हुआ था. बुद्ध की ध्यान मुद्रा में बैठी हुई 80 फीट ऊंचाई की विराट मूर्ति, जो जापानी संघठन डाइजोक्यो द्वरा कुछ सालों पहले बनवाई थी, बोधगया की सबसे सुंदर मूर्ति है. यह मूर्ति प्रसिद्ध मूर्तिकार गनपथी स्तापथी जी द्वारा बनाई गयी है. इस मूर्ति को गुलाबी रंग के भुरभुरे पत्थरों के खंडों को जोड़कर बनवाया गया है, तथा जिस कमल के फूल पर बुद्ध बैठे है उसे पीले रंग के पत्थरों से बनवाया गया है. इस कमल की ऊंचाई 6 फीट की है. इस मूर्ति के तीनों तरफ बुद्ध के 10 सुप्रसिद्ध शिष्यों की मूर्तियाँ हैं, जो विविध योगिक मुद्राओं में खड़ी हैं. बुद्ध की यह विराट मूर्ति अभिभूत कर देती है.

मंदिर के चारों ओर पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग बनी हुई है. ये रेलिंग ही बोधगया में प्राप्त सबसे पुराना अवशेष है. इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व दिशा में प्रा‍कृतिक दृश्यों से समृद्ध एक पार्क है जहां बौद्ध भिक्षु ध्यान साधना करते हैं. आम लोग इस पार्क में मंदिर प्रशासन की अनुमति लेकर ही प्रवेश कर सकते हैं.

महाबोधि मंदिर रात के समय लेजर लाइट से जगमगा उठता है, जिससे उसकी सुंदरता में और भी निखार आता है.

महाबोधि वृक्ष

बोधिवृक्ष: जातक कथाओं में उल्लेहखित बोधिवृक्ष भी यहां है. यह एक विशाल पीपल का वृक्ष है जो मुख्य मंदिर के पीछे स्थित है. कहा जाता है कि बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था. वर्तमान में जो बोधि वृक्ष है वह उस बोधि वृक्ष की पांचवीं पीढी है जिसे श्रीलंका में स्थित अनुराधापुर से वापस बोधगया लाया गया था. इसी वृक्ष के पास वज्रासन का स्थान है, जहां पर बुद्ध ध्यान संलग्न बैठे थे.

वज्रासन का स्थान: बोधि के वृक्ष के नीचे स्थित वज्रासन के स्थान को बहुत ही अच्छे तरीके से संरक्षित किया गया है. उसकी सुरक्षा हेतु उसे पर्दों से आवृत्त किया गया है, जिसके कारण उसकी एक पूरी झलक पाना थोड़ा मुश्किल है. इसके अलावा यह स्थान मंदिर की दीवार और बोधि के वृक्ष के बीच स्थित है, जिसकी वजह से आपके दृश्य में और भी बाधा आती है. यह वृक्ष मंदिर की दीवार से इतना सटकर खड़ा है कि इसका विचार करना भी चिंताजकन सा लगता है. एक तरफ जहां यह वृक्ष मंदिर की दीवार से घिरा हुआ है, वहीं उसके दूसरी तरफ सुरक्षा के पर्दे लगे हुए हैं.

इस मंदिर परिसर में उन सात स्थानों को भी चिन्हित किया गया है जहां बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद सात सप्ताह व्यतीत किये थे.

मुख्य मंदिर के पीछे बुद्ध की लाल बलुए पत्थर की 7 फीट ऊंची एक मूर्त्ति है. यह मूर्त्ति वज्रासन मुद्रा में है. इस मूर्त्ति के चारों ओर विभिन्नी रंगों के पताके लगे हुए हैं जो इस मूर्त्ति को एक विशिष्ट आकर्षण प्रदान करते हैं. कहा जाता है कि तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में इसी स्थाान पर सम्राट अशोक ने हीरों से बना राजसिंहासन लगवाया था और इसे पृथ्वी का नाभि केंद्र कहा था. इस मूर्त्ति के आगे भूरे बलुए पत्थिर पर बुद्ध के विशाल पदचिन्ह बने हुए हैं. बुद्ध के इन पदचिन्हों को धर्मचक्र प्रर्वतन का प्रतीक माना जाता है.

अनिमेश लोचन: बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद दूसरा सप्ताह इसी बोधि वृक्ष के आगे खड़ी अवस्था में बिताया था. यहां पर बुद्ध की इस अवस्था में एक मूर्त्ति बनी हुई है. इस मूर्त्ति को अनिमेश लोचन कहा जाता है. मुख्य मंदिर के उत्तर पूर्व में अनिमेश लोचन चैत्य बना हुआ है. महाबोधि मंदिर में प्रवेश करते समय दांई ओर अनिमेष लोचन चैत्य है, जहां पर ज्ञान प्राप्ति के बाद बुद्ध ने दूसरा सप्ताह गुजारा था. इस जगह पर खड़े होकर बुद्ध पूरे एक सप्ताह, बिना पलक झपकाए एकटक बोधि के वृक्ष को निहारते रहे थे. इस प्रकार से वे उस वृक्ष के प्रति, उन्हें छत्र-छाया और ज्ञान प्रदान करने के लिए अपना आभार व्यक्त कर रहे थे.

चंकामाना : मुख्य मंदिर का उत्तरी भाग चंकामाना नाम से जाना जाता है. इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद तीसरा सप्ताह व्यतीत किया था. अब यहां पर काले पत्थर का कमल का फूल बना हुआ है जो बुद्ध का प्रतीक माना जाता है. मंदिर की दांयी दीवार के पास ही चक्रमण है जहां पर बुद्ध के पैर पड़ते ही कमल का फूल उग आया था. इसका प्रतीक स्वरूप आज यहां पर कमल का शिल्पनिर्मित फूल स्थापित किया गया है. इस जगह पर भक्त बहुत सारे फूल अर्पित कर अपनी पूजा करते हैं.

महाबोधि मंदिर के पश्चिमोत्तर भाग में एक छतविहीन भग्नाबवशेष है जो रत्नाघारा के नाम से जाना जाता है. इसी स्थान पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद चौथा सप्ताह व्यातीत किया था. दन्तकथाओं के अनुसार बुद्ध यहां गहन ध्यान में लीन थे कि उनके शरीर से प्रकाश की एक किरण निकली. प्रकाश की इन्हीं रंगों का उपयोग विभिन्न देशों द्वारा यहां लगे अपने पताके में किया है.

अजपाल-निग्रोध वृक्ष: माना जाता है कि बुद्ध ने मुख्य मंदिर के उत्तरी दरवाजे से थोड़ी दूर पर स्थित अजपाल-निग्रोध वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह व्यतीत किया था. मंदिर की सीढ़ियों से उतरकर जब आप नीचे आते हैं, तो सबसे पहले आपको अजपाल निग्रोध का वृक्ष मिलता है, जहां पर बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पांचवा सप्ताह गुजारा था. माना जाता है कि इसी जगह पर उन्होंने कहा था कि मनुष्य अपने कर्मों से ब्राह्मण होता है, अपने जन्म से नहीं.

मुचलिंद सरोवर: बुद्ध ने छठा सप्तााह महाबोधि मंदिर के दायीं ओर स्थित मूचालिंडा झील के नजदीक व्यतीत किया था. मुचलिंद सरोवर चारों तरफ से वृक्षों से घिरा हुआ है. इस क्षील के मध्य में बुद्ध की मूर्त्ति स्थापित है. इस मूर्त्ति में एक विशाल सांप बुद्ध की रक्षा कर रहा है. इस मूर्त्ति के संबंध में एक दंतकथा प्रचलित है. इस कथा के अनुसार बुद्ध प्रार्थना में इतने तल्लीन थे कि उन्हें आंधी आने का ध्यान नहीं रहा. बुद्ध जब मूसलाधार बारिश में फंस गए तो नाग राजा मूचालिंडा अपने निवास से बाहर आया और बुद्ध की रक्षा की. इस सरोवर और मंदिर के बीच में 20 फुट की ऊंचाई का एक अध-टूटा अशोका स्तंभ है जिस पर कोई भी अभिलेख या उत्कीर्णन नहीं मिलते.

राजयातना वृ‍क्ष: इस मंदिर परिसर के दक्षिण-पूर्व में राजयातना वृ‍क्ष है. बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद अपना सांतवा सप्ता‍ह इसी वृक्ष के नीचे व्यतीत किया था. यहीं बुद्ध दो बर्मी (बर्मा का निवासी) व्याा‍पारियों से मिले थे. इन व्यापारियों ने बुद्ध से आश्रय की प्रार्थना की. इन प्रार्थना के रूप में बुद्धम् शरणम् गच्छामि (मैं अपने को भगवान बुद्ध को सौंपता हूं) का उच्चाूरण किया. इसी के बाद से यह प्रार्थना प्रसिद्ध हो गई. पक्षियों की चहचहाट के बीच बुद्धम्-शरणम्-गच्छामि की हल्की ध्वनि अनोखी शांति प्रदान करती है.

सुजातागढ़ – बोधगया: बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति होने के बाद जिस जगह पर सुजाता ने उन्हें खीर खिलाई थी उसी जगह पर एक स्तूप बनवाया गया है जिसे सुजातागढ़ कहा जाता है. यह स्तूप किसी टीले की भांति लागता है जो छोटे-छोटे ईटों को जोड़कर बनवाया गया है. उसका आकार भी बड़ा ही लुभावना है, जो पूर्ण रूप से गोलाकार नहीं है. यह स्तूप गुप्त काल से लेकर पाल काल तक निर्माण की अनेकों अवस्थाओं से गुजर चुका है. उत्खनन की इस जगह पर पायी गयी बहुत सी प्राचीन वस्तुएं आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ए.एस.आय.) के संग्रहालय में प्रदर्शन के लिए रखी गयी हैं. यह स्तूप एक भरे-पूरे गाँव के बीचों-बीच स्थित है, जो आज वहां के लोगों के दैनिक जीवन का भाग बन गया है. लेकिन फिर भी इसके चारों ओर खड़ी दीवारें इसे संरक्षित करते हुए, गाँव से अलग करती हैं.

करमपा बुद्धविहार,बोधगया

बोधगया के विहार: विश्व के विविध बौद्ध देश, जैसे श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, वियतनाम, भूटान, जापान, थायलैंड और चीन में बौद्धों के मंदिर या विहार हैं, जो अपने देश की वास्तुकला की विशेषताओं को दर्शाते हैं. भारत में भी बौद्धों का नया-नया विशाल विहार बनवाया गया है, जो करमपा का निवास स्थान है तथा भारत में दलाई लामा का भी ऐसा ही विशाल विहार है. करमपा के निवास स्थान की दीवारों पर आपको बहुत ही सुंदर चित्र देखने को मिलते हैं. इस विहार के एक-दूसरे में घुलनेवाले रंग इस जगह को निर्मलता के साथ जीवंत कर देते हैं. यहां के अधिकतर विहार बड़ी सुंदरता से बनवाए गए हैं, जिनकी बाहरी दीवारें रंगीन और उज्ज्वल दिखाई देती हैं, तो उनके आंतरिक भाग सुसंपन्न चित्रों से भरे नज़र आते हैं. ये चित्र बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्शाते हैं, या फिर विविध देशों में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार की यात्राओं की कहानियों का बखान करते हैं.

यहां का थाई विहार अक्सर नौलखा नाम से जाना जाता है क्योंकि, इसे बनवाने में 9 लाख का खर्च आया था. यह विहार काफी दिलचस्प और आकर्षक भी है, जिसकी दीवारों पर और खिडिकियों पर बड़े ही सुंदर चित्र बनवाए गए हैं. यहां के सारे मंदिरों और विहारों की बहुत ही अच्छी तरह से देख-रेख होती है, बावजूद इसके कि, यहां पर आगंतुकों की बहुत भीड़ रहती है. यहां की एक और विशेषता है, यहां के पेड़-पौधे, जिन्हें उनकी मूल जगह से लाकर इन विहारों में लगवाया गया है. ये पौधे यहां पर अच्छी तरह से फूलते-फलते भी हैं, तथा उनकी अच्छे से देखभाल भी की जाती है.

विष्णुपद मंदिर, गया

विष्णुपद मंदिर,गया

विष्णुपद मंदिर : गया शहर ख़ासकर हिन्दू तीर्थ यात्रियों के लिए काफ़ी मशहूर है. यहाँ का विष्णुपद मंदिर पर्यटकों के बीच लोकप्रिय है. फल्गु नदी के पश्चिमी किनारे पर स्थित यह मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है. कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण भगवान विष्णु के पदचिन्हों पर किया गया है. यह मंदिर 30 मीटर ऊंचा है जिसमें आठ खंभे हैं. इन खंभों पर चांदी की परतें चढ़ाई हुई है. मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु के 40 सेंटीमीटर लंबे पांव के निशान हैं. इस मंदिर का 1787 में इंदौर की महारानी अहिल्या बाई ने नवीकरण करवाया था. पितृपक्ष के अवसर पर यहां श्रद्धालुओं की काफी भीड़ जुटती है.

अक्षयवट : गया में विष्णुपद मंदिर के निकट ही अक्षयवट है, जिनकी पूजा-परिक्रमा की जाती है. अक्षयवट को जैन भी पवित्र मानते हैं. उनकी परम्परा के अनुसार इसके नीचे ऋषभदेव जी ने तप किया था. यह बट का वृक्ष प्रयाग में त्रिवेणी के तट पर आज भी अवस्थित कहा जाता है.

ब्रह्मयोनि पर्वत, गया

ब्रह्मयोनि पर्वत: ब्रह्मयॊनि पर्वत गया के निकट स्थित है. ब्रह्मयॊनि तीर्थ का उल्लेख महाभारत वन पर्व में किया गया है- ब्रह्मयॊनिं समासाद्य शुचिः परयत मानसः, तत्र सनात्वा नरव्याघ्र ब्रह्मलॊकं परपद्यते, पुनात्य आ सप्तमं चैव कुलं नास्त्य अत्र संशयः (III.81.121) विष्णुपुराण के अनुसार कोलाहलगिरि एक पर्वत का नाम है- 'सापि द्वितीय संप्राप्ते वीक्ष्य दिव्येन चक्षुषा, ज्ञात्वा श्रृगालं तंद्रष्टुं ययौ कोलाहलं गिरिम्' (विष्णुपुराण 3, 18, 72.) कोलाहलगिरि का उपर्युक्त उल्लेख एक आख्यान के प्रसंग में है। वायुपुराण 1, 45 में भी कोलाहलगिरि का उल्लेख किया गया है. यह 'कोलाचल' या 'कोलगिरि' का भी रूपांतरित नाम हो सकता है. श्री नं. ला. डे के अनुसार इसका अभिज्ञान ब्रह्मयोनि पहाड़ी, गया (बिहार) से किया गया है. इस पहाड़ी की चोटी पर चढ़ने के लिए 440 सीढ़ियों को पार करना होता है. इसके शिखर पर भगवान शिव का मंदिर है. यह मंदिर विशाल बरगद के पेड़ के नीचे स्थित हैं जहां पिंडदान किया जाता है. इस स्थान का उल्लेख रामायण में भी किया गया है. यह पहाड़ी हिन्दुओं के लिए काफी पवित्र तीर्थस्थानों में से एक है. यह मारनपुर के निकट है.

गया में अन्य महत्वपूर्ण दर्शनीय पवित्र स्थल

रामानुज मठ (भोरी): स्वामी धरणीधराचार्य स्थापित भोरी का वैष्णव मठ वैदिक शिक्षा तथा हिन्दू आस्था का प्रमुख केन्द्र है.

बाबा सिद्धनाथ,बराबर: बराबर पर्वत पर सिद्ध नाथ तथा दशनाम परंपरा के नागाओं के प्रमुख आस्था का केन्द्र है सिद्धनाथ मंदिर, पास में ही नारद लोमस आदि ऋषियों की गुफायें हैं. माना जाता है कि इन गुफाओं मे प्राचीन ऋषियों ने तप किया था.

बानाबर (बराबर) पहाड़: गया से लगभग 20 किलोमीटर उत्तर बेलागंज से 10 किलोमीटर पूरब में स्थित है. इसके ऊपर भगवान शिव का मन्दिर है, जहाँ हर वर्ष हजारों श्रद्धालू सावन के महीने में जल चढ़ते है. कहते हैं इस मन्दिर को बानासुर ने बनवाया था. पुनः सम्राट अशोक ने मरम्मत करवाया. इसके नीचे सतघरवा की गुफा है, जो प्राचीन स्थापत्य कला का नमूना है. इसके अतिरिक्त एक मार्ग गया से लगभग 30 किमी उत्तर मखदुमपुर से भी है. इस पर जाने हेतु पातालगंगा, हथियाबोर और बावनसीढ़ी तीन मार्ग है, जो क्रमशः दक्षिण, पश्चिम और उत्तर से है, पूरब में फलगू नदी है.

कोटेश्ववरनाथ: यह अति प्राचीन शिव मन्दिर मोरहर-दरधा नदी के संगम किनारे मेन-मंझार गाँव में स्थित है. यहाँ हर वर्ष शिवरात्रि में मेला लगता है. यहाँ पहुँचने हेतु गया से लगभग 30 किमी उत्तर पटना-गया मार्ग पर स्थित मखदुमपुर से पाईबिगहा समसारा होते हुए जाना होता है. गया से पाईबिगहा के लिये सीधी बस सेवा उपलब्ध है. पाईबिगहा से इसकी दूरी लगभग 2 किमी है. गया से टिकारी होकर भी यहां पहुंचा जा सकता है. किवदन्ती है कि प्राचीन काल में बाण पुत्री उषा ने यह मंदिर बनवाया था. किन्तु प्राप्त लिखित इतिहास तथा पुरातात्विक विश्लेषण से ये सिद्ध है कि 6 सदी में नाथ परंपरा के 35वे सहजयानी सिद्ध बाबा कुचिया नाथ द्वारा स्थापित मठ है. इसलिए इसे कोचामठ या बुढवा महादेव भी कहते है.

सूर्य मंदिर: सूर्य मंदिर प्रसिद्ध विष्णुपद मंदिर के 20 किलोमीटर उत्तर और रेलवे स्टेशन से 3 किलोमीटर दूर स्थित है. भगवान सूर्य को समर्पित यह मंदिर सोन नदी के किनारे स्थित है. दिपावली के छ: दिन बाद बिहार के लोकप्रिय पर्व छठ के अवसर पर यहां तीर्थयात्रियों की जबर्दस्त भीड़ होती है. इस अवसर पर यहां मेला भी लगता है.

मंगला गौरी: पहाड पर स्थित यह मंदिर मां शक्ति को समर्पित है. यह स्थान 18 महाशक्तिपीठों में से एक है. माना जाता है कि जो भी यहां पूजा कराते हैं उनकी मन की इच्छा पूरी होती है. इसी मन्दिर के परिवेश में मां काली, गणेश, हनुमान तथा भगवान शिव के भी मन्दिर स्थित हैं.

बराबर गुफा: यह गुफा गया से 20 किलोमीटर उत्तर में स्थित है. इस गुफा तक पहुंचने के लिए 7 किलोमीटर पैदल और 10 किलोमीटर रिक्शा या तांगा से चलना होता है. यह गुफा बौद्ध धर्म के लिए महत्वपूर्ण है. यह बराबर और नागार्जुनी श्रृंखला के पहाड़ पर स्थित है. इस गुफा का निर्माण बराबर और नागार्जुनी पहाड़ी के बीच सम्राट अशोक और उनके पोते दशरथ के द्वारा की गई है. इस गुफा उल्लेख ई.एम. फोस्टर की किताब ए पैसेज टू इंडिया में भी किया गया है. इन गुफाओं में से 7 गुफाएं भारतीय पुरातत्व विभाग की देखरख में है.

स्रोत: - Facebook post of Laxman Burdak 23.1.2021


गया और बौद्धगया के चित्र

राजगीर (बिहार) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-2

12.11.2010: गया (8.00 बजे)–बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) (21.30 बजे)

राजगीर भ्रमण दिनांक 12.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में गया और बोधगया का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए राजगीर का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल तथा इसका पर्यटन संबंधी महत्व. अगले भाग में पढ़िए नालंदा के बारे में.

वन विश्रामगृह गया से सुबह 8 बजे टैक्सी (बीआर-2आर-8600, चालक मंजीत सिंह) से पटना के लिए रवाना हुये. गया से 60 किमी दूर उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित प्रसिद्ध प्राचीन ऐतिहासिक स्थल राजगीर लगभग 2 घंटे में पहुँचे.

राजगीर परिचय

राजगीर में विभिन्न स्थानों की स्थिति

राजगीर बिहार के नालंदा ज़िले में स्थित एक प्रसिद्ध शहर है. नालंदा से 19 किमी दूर दक्षिण पश्चिम में और पटना से 100 किमी दक्षिण-पूर्व में पहाड़ियों और घने जंगलों के बीच बसा राजगीर न केवल एक प्रसिद्ध धार्मिक तीर्थस्थल है बल्कि एक सुन्दर हेल्थ रेसॉर्ट के रूप में भी लोकप्रिय है. यहां हिन्दु, जैन और बौद्ध तीनों धर्मों के धार्मिक स्थल हैं. खासकर बौद्ध धर्म से इसका बहुत प्राचीन संबंध है. बुद्ध न केवल कई वर्षों तक यहां ठहरे थे बल्कि कई महत्वपूर्ण उपदेश भी यहाँ की धरती पर दिये थे. बुद्ध के उपदेशों को यहीं लिपिबद्ध किया गया था और पहली बौद्ध संगीति भी यहीं हुई थी. भगवान महावीर ने अपना प्रथम प्रवचन राजगीर के विपुलगिरि नामक स्थान पर प्रारम्भ किया था. माना जाता है कि भगवान महावीर स्वामी ने वर्षा ऋतु में राजगृह में सर्वाधिक समय व्यतीत किया था.

यह कभी मगध साम्राज्य की राजधानी हुआ करता था, जिससे बाद में मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ. राजगीर जिस समय मगध की राजधानी थी, उस समय इसे राजगृह के नाम से जाना जाता था. मथुरा से लेकर राजगृह तक महाजनपद का सुन्दर वर्णन बौद्ध ग्रंथों में प्राप्त होता है. मथुरा से यह रास्ता वैरंजा, सोरेय्य, संकिस्सा, कान्यकुब्ज होते हुए प्रयाग प्रतिष्ठानपुर जाता था, जहाँ पर गंगा पार करके वाराणसी पहुँचा जाता था. मगध राज्य की राजधानी के ध्वंसावशेष यहाँ आज भी विद्यमान हैं. पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) की स्थापना से पूर्व राजगीर अपने उत्कर्ष के शिखर पर था, जहाँ खण्डहरों के रूप में क़िला, रथों के पथ, स्नानागार, स्तूप और महल मौजूद हैं.

राजगीर के दर्शनीय स्थल

विश्व-शांति स्तूप राजगीर:

विश्व-शांति स्तूप राजगीर (बिहार)
लक्ष्मण झूला रोप-वे

रत्नागिरी पर्वत पर शाक्य मुनि भगवान तथागत के शांति संदेश के स्मरणार्थ निपानजन म्योहोजी के प्रधान फूँजिई गुरु जी की परिकल्पना का साकार रूप गृध्रकूट पर्वत के पार्श्वर्ती रत्नागिरी के शिखर पर इस विश्व शांति स्तूप का उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति श्री वाराह वेंकट गिरी के द्वारा 25 अक्टूबर 1969 को किया गया था. इस विश्व शांति स्तूप का निर्माण 1978 में गौतम बुद्ध की 2600 जयंती के मौके पर किया गया था. जापान के फूजी गुरुजी के प्रयास से इसका निर्माण कराया गया था. यह स्तूप बुद्ध की चार स्वर्ण प्रतिमाओं को स्थापित करते हुए, विश्व शांति के प्रतीक सफेद संगमरमर पत्थर से बना है. इसका डिजाइन वास्तुकार उपेंद्र महारथी ने तैयार किया था. स्तूप का गुंबद 72 फुट ऊंचा है. भगवान बुद्ध ने इसी स्थल से विश्व को शांति का उपदेश दिया था. यहां हर वर्ष विश्व शांति स्तूप का वार्षिकोत्सव मनाया जाता है. इस अवसर पर देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु बड़ी संख्या में यहां जमा होते हैं. रत्नागिरि पर्वत के पास ही गृद्धकूट पर्वत है. इस पर्वत पर भगवान बुद्ध ने कई महत्वपूर्ण उपदेश दिये थे. भगवान बुद्ध का यह प्रिय स्थल रहा है. बुद्धत्व प्राप्ति के बाद गौतम बुद्ध ने बौद्ध भिक्षुओं को कई साल बरसात के मौसम में प्रेरणात्मक उपदेश दिया था. विश्व शांति स्तूप शांति व मैत्री का प्रतीक है. यहां भगवान बुद्ध की चार सुनहरी प्रतिमाएं हैं. राजगीर के अपने लंबे प्रवास के दौरान बुद्ध ने इसी चोटी पर ध्यान लगाया था. विशाल सफेद स्तूप शांति का अहसास करता है और इससे राजगीर घाटी की खूबसूरती में चार चांद लगता है. विश्व शांति स्तूप अध्यात्म की बुलंदियों को स्पर्श करने का एक शानदार जगह है. जापान के बुद्ध संघ द्वारा निर्मित विशाल “शान्ति स्तूप” आजकल पर्यटकों के आकर्षण का मूख्य केन्द्र है. स्तूप के चारों कोणों पर बुद्ध की चार प्रतिमाएं स्थपित हैं. स्तूप तक पहुंचने के लिए पहले पैदल चढ़ाई करनी पड़ती थी परंतु अब एक एक “रज्जू मार्ग” भी बनाया गया है जो यात्रा को और भी रोमांचक बना देता है.

लक्ष्मण झूला रोप-वे :

2200 फीट लम्बे इस रज्जुमार्ग में 114 कुर्सियाँ हैं. राजगीर की सुन्दर घाटी में जापान द्वारा निर्मित आकाशीय रज्जुपथ (रोप वे) की व्यवस्था है, जिससे गृद्धकूट पर्वत से रत्नागिरि पर्वत तक आ-जा सकते हैं. इसकी देखरेख बिहार पर्यटन विभाग द्वारा की जा रही है. इस रोप-वे से यात्रा का अनुभव बहुत रोमांचक होता है.

वेणुवन:

वेणुवन, राजगीर (बिहार)

गर्म जलकुंड के पास ही वेणुवन महाविहार स्थित है. ये बाँस का जंगल कभी राजकीय उद्यान था. कहा जाता है गौतम बुद्ध बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद पहली वर्षा ऋतु के चार महीने यहीं रुके थे. अब वेणुवन के ही परिसर में एक नव वेणुवन विहार का निर्माण कराया गया है. यहां एक विशाल बुद्ध प्रतिमा भी लगी है. 24 अक्टूबर, 1981 को इस विहार का उदघाटन तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने किया था. यह जगह वर्तमान में पिकनिक और आनंद के लिए एक श्रेष्ठ स्थान है. इस स्थान की वर्षों से उपेक्षा की गई थी, इसलिए राज्य सरकार ने इसे बेहतर बनाने के लिए कई क़दम उठाए हैं. यहाँ पर एक तालाब और फव्वारा भी है. तालाब में काफ़ी संख्या में मछलियाँ हैं लोग यहां आते हैं और उनके पिकनिक के एक भाग के रूप में इन मछलियों को कुछ न कुछ खिलाना भी शामिल है. महावंश 5, 115 के अनुसार वेणुवन राजगृह (= राजगीर, बिहार) में वैभार पर्वत की तलहटी में नदी के दोनों ओर स्थित था. इसे मगध सम्राट बिंबसार ने गौतम बुद्ध को समर्पित कर दिया था. इसे 'महावंश' 15,16-17 में वेणुवनाराम कहा गया है. संभवतः बाँस के वृक्षो की अधिकता के कारण ही इसे वेणुवन कहा जाता था. 'बुद्धचरित' 16,49 के अनुसार "तब वेणुवन में 'तथागत' का आगमन सुनकर मगधराज अपने मंत्रिगणों के साथ उनसे मिलने के लिये आया." वेणुवन को विश्व का पहला बौद्ध विहार होने का गौरव प्राप्त है.

सप्तपर्णी गुफा

सप्तपर्णी गुफा

सप्तपर्णी गुफा (या सत्तपर्णगुहा) राजगीर की एक पहाड़ी में स्थित गुफा है. यहाँ गरम जल का एक स्रोत है जिसमें स्नान करने से स्वास्थ्य लाभ होता है. यह हिन्दुओं के लिये पवित्र कुण्ड है. सप्तपर्णी गुफा के स्थल पर पहला बौध परिषद का गठन हुआ था जिसका नेतृत्व महा कस्साप ने किया था. बुद्ध भी कभी-कभार वहाँ रहे थे, और यह अतिथि सन्यासियों के ठहरने के काम में आता था. महावंश 3, 19 में इसे राजगृह के निकट वैभार पर्वत की एक गुहा बताया गया है. यहीं पर बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् प्रथम बौद्ध धर्म संगीति का अधिवेशन हुआ था, जिसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था. चीनी यात्री फाह्यान ने भी पिप्फलि गुहा से एक मील की दूरी पर सप्तपर्णि गुहा का उल्लेख किया है.

मणियार मठ:

मणियार मठ

इस मठ के पास कुछ प्राचीन गुफाएं हैं जिनके बारे में लोगों की मान्यता है इनमें प्राचीन भारत का स्वर्ण भंडार है. मनियार मठ राजगीर का एक और खुदाई स्थल है. यह एक अष्टकोणी मंदिर है, जिसकी दीवारें गोलाकार हैं. मनियार मठ के परिसर में आप विविध राजकुलों की छाप देख सकते हैं, जैसे गुप्त राजकुल का धनुष,आज पुराने राजगीर के बीचोंबीच स्थित है. यह महाभारत में उल्लिखित मणि-नाग का समाधि स्थान माना जाता है। मनीयार मठ राजगीर का आदि धर्म तीर्थ स्थल है. यह राजगीर के ब्रह्मकुंड से शांति स्तूप जाने के मार्ग में पड़ता है. यह एक बेलनाकार मंदिर है. यह राजगृह के देवता मणिनाग का मंदिर बताया जाता है. पाली ग्रंथों में इसे मणिमाला चैत्य कहा गया है, जबकि महाभारत में मणिनाग मंदिर का उल्लेख आता है. इसलिए मंदिर के बारे में स्थानीय लोग कहते हैं कि यह महाभारत कालीन है. लोग इसे महाभारत कालीन राजा जरासंध के समय का बना हुआ बताते हैं. स्थानीय लोगों की मानें तो इस मंदिर में राजगृह के राजा महाराज जरासंध पूजा किया करते थे. महाभारत में आपने पढ़ा होगा कि जरासंध के कृष्ण के मामा कंस से वैवाहिक संबंध थे. कंस का साथ देने के कारण कृष्ण के कहने पर भीम ने जरासंध को गदायुद्ध में पराजित कर मार डाला था.

मंदिर की संरचना कुएं जैसी है. इसका व्यास 3 मीटर और दीवार 1.20 मीटर मोटी है. इसकी बाहरी दीवार पर पुष्पाहार से सजे देवताओं की आकृतियां बनी हैं. इनमें शिव, विष्णु, नाग लपेटे गणेश जैसी आकृतियां हैं. छह भुजाओं वाले नृत्यरत शिव की आकृति प्रमुख आकर्षण है. इनमें कई मूर्तियां नष्ट हो चुकी हैं. कला शैली की दृष्टि से इतिहासकार इन मूर्तियों को गुप्तकालीन बताते हैं. कुंड, चबूतरे और मुख्य मंदिर के आसपास भी कई कलाकृतियां हैं. वैदिक धर्म के बाहर की जनजातियों में सर्प पूजन की परंपरा थी. मगध के लोग नागों को उदार देवता मानते थे, जिन्हें वे पूजा आदि करके संतुष्ट करते थे.

ऐसा माना जाता था कि नाग देवता प्रसन्न होंगे तो बारिश अच्छी होगी, परिणामस्वरूप फसल भी अच्छी होगी. मनियार मठ में खुदाई से ऐसे बहुत से पात्र मिले हैं, जिनमें सांपों के फन के आकार के कई नलके बने हैं. संभवत: इन पात्रों से सांपों को दूध पिलाया जाता था. यहां विशाल गड्ढों में जानवरों के कंकाल भी मिले हैं, जिन्हें देख कर लगता है कि कभी यहां बलि भी दी जाती रही होगी. मनियार मठ स्थित मंदिर के गर्भ गृह में जाने के लिए आपको कई सीढ़ियां उतरनी पड़ती हैं. आज भी इस मंदिर में आने वाले श्रद्धालु मन्नत मांगते हैं.

मणिनाग: राजगृह (=राजगीर बिहार) के खंडहरों में स्थित अति प्राचीन स्थान है इसे अब मणियार मठ कहते हैं. महाभारत में मणिनाग का तीर्थ रूप में उल्लेख है--'मणिनागं ततॊगत्वा गॊसहस्रफलं लभेत्' वन पर्व 84,106. 'तैर्थिकं भुञ्जते यस्तु मणिनागस्य भारत,दष्टस्याशीर्विशेणापि न तस्य क्रमते विषम्' वन पर्व 84,107. निश्चय ही यह स्थान महाभारत काल में नागों का तीर्थ था. मणियार मठ से, उत्खनन द्वारा गुप्तकालीन कई नाग मूर्तियां मिली हैं और एक नागमूर्ति पर तो 'मणिनाग' शब्द ही उत्कीर्ण है. यह प्राय निश्चित है कि महाभारत में जिस मणिनाग का उल्लेख है वह वर्तमान मणियार मठ ही था क्योंकि महाभारत के वन पर्व के अंतर्गत तीर्थ यात्रा के प्रसंग का अधिकांश, मूल महाभारत के समय के बाद का है और बौद्ध कालीन जान पड़ता है जैसा कि मणिनाग के प्रसंग में राजगृह के नामोल्लेख से सूचित होता है-- 'ततॊ राजगृहं गच्छेत तीर्थसेवी नराधिप' वन पर्व 84,104. राजगृह नाम बुद्ध के समकालीन मगधराज बिंबसार का रखा हुआ था.

जरासंध का अखाड़ा:

जरासंध का अखाड़ा

जरासंध महाभारत कालीन मगध राज्य के नरेश थे. इसी स्थान पर हर दिन सैन्य कलाओं का अभ्यास करता था. सम्राट जरासंध ने बहुत से राजाओं को अपने कारागार में बंदी बनाकर रखा था पर उसने किसी को भी मारा नहीं था. इसका कारण यह था कि वह चक्रवर्ती सम्राट बनने की लालसा हेतु ही वह इन राजाओं को बंदी बनाकर रख रहा था ताकि जिस दिन 101 राजा हों और वे महादेव को प्रसन्न करने के लिए उनकी बलि दे सके. वह मथुरा के नरेश कंस का ससुर एवं परम मित्र था उसकी दोनों पुत्रियों आसित एवम् प्रापित का विवाह कंस से हुआ था. श्रीकृष्ण से कंस के वध का प्रतिशोध लेने के लिए उन्होंने 17 बार मथुरा पर चढ़ाई की लेकिन जिसके कारण भगवान श्रीकृष्ण को मथुरा छोड़ कर जाना पड़ा फिर वो द्वारिका जा बसे, तभी उनका नाम रणछोड़ कहलाया.

जरासंध के पिता मगध-नरेश बृहद्रथ थे. इसीलिये महाभारत काल में गिरिव्रज (राजगृह, बिहार) का एक नाम बार्हद्रथपुर था. इसका उल्लेख महाभारत, सभापर्व में हुआ है- 'विवेश राजाद्युतिमान् बार्हद्रथपुरं नृप, अभिषिक्तो महाबाहुर्जारासंधिर्महात्मभि:'सभापर्व, 24, 44. जरासंध की राजधानी होने के कारण गिरिव्रज को बार्हद्रथपुर अर्थात् 'बृहद्रथ के पुत्र' - 'जरासंध का नगर' कहा जाता था.

जरासंध का वध: महाराज युधिष्ठिर के चक्रवर्ती सम्राट बनने के मार्ग में केवल एक रोड़ा था, मगध नरेश जरासंध, जिसे परास्त किए बिना वह सम्राट नहीं बन सकते थे और ना ही उसे रणभूमि में परास्त किया जा सकता था. इस समस्या का समाधान करने के लिए श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ ब्राह्मणों का भेष बनाकर मगध की ओर चल दिए. वहाँ पहुँच कर जरासंध ने उन्हें ब्राह्मण समझकर कुछ माँग लेने के लिए कहा लकिन उस समय ब्राह्मण भेषधारी श्रीकृष्ण ने कहा कि अभी उनके दोनों मित्रों का मौन व्रत है जो अर्ध रात्रि में समाप्त होगा. तब जरासंध ने अर्ध रात्रि तब ही आने का वचन दिया और उन्हें ब्राह्मण कक्ष में ठहराया. तब अर्धरात्रि में वह आया लेकिन उसे उन तीनों पर कुछ संदेह हुआ कि वे ब्राह्मण नहीं हैं क्योंकि वे शरीर से क्षत्रिय जैसे लग रहे थे उसने अपने संदेह को प्रकट किया और उन्हे उनके वास्तविक रूप में आने को कहा एवं उन्हे पहचान लिया. तब श्रीकृष्ण की खरी-खोटी सुनने के बाद उसे क्रोध आ गया और उसने कहा कि उन्हें जो भी चाहिए वे माँग लें और यहाँ से चले जाएं. तब उन्होंने ब्राह्मण भेष में ही जरासंध को मल्लयुद्ध करने के लिए कहा और फिर अपना वास्तविक परिचय दिया. जरासन्ध एक वीर योधा था इसलिए उसने मल्ल युद्ध के लिए भीम को ही चुना.

तब अगले दिन उसने भीम के साथ मल्लभूमि में मल्ल युद्ध किया. यह युद्ध लगभग 28 दिनों तक चलता रहा लेकिन जितनी बार भीमसेन उसके दो टुकड़े करते वह फिर से जुड़ जाता. इस पर श्रीकृष्ण ने घास की एक डंडी की सहायता से भीम को संकेत किया कि इस बार वह उसके टुकड़े कर के दोनों टुकड़े अलग-अलग दिशा में फेंके. तब भीम ने वैसा ही किया और इस प्रकार जरासंध का वध हुआ. तब उसका वध करके उन तीनों ने उसके बंदीगृह में बंद सभी 86 राजाओं को मुक्त किया और श्रीकृष्ण ने जरासंध के पुत्र सहदेव को राजा बनाया. सहदेव ने आगे चलकर के महाभारत के युध में पांडवो का साथ दिया.

बिम्बिसार कारागार

बिम्बिसार कारागार

बिम्बिसार जेल गृध्रकूट पर्वत का एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है. भगवान बुद्ध के एक कट्टर अनुयायी, बिम्बिसार को बेटे अजातशत्रु द्वारा कैद किया गया था. अजातशत्रु ने अपने पिता से कारावास की जगह का चयन करने के लिए पूछा था. राजा बिम्बिसार ने एक स्थान चुना, जहां से वे भगवान बुद्ध को देख सकें. इस कारागार से वह गृध्रकूट पर्वत और बुद्ध को खिड़की से देख सकते थे. यहाँ मगध साम्राज्य के शासक बिम्बिसार और उसके पुत्र अजातशत्रु के बारे में जानना उपयोगी होगा.

बिम्बिसार (558 BC–491 BC) मगध साम्राज्य का सम्राट था. उन्होंने अंग राज्य को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया. यही विस्तार आगे चलकर मौर्य साम्राज्य के विस्तार का भी आधार बना. बौद्ध ग्रन्थ 'विनयपिटक' के अनुसार, बिम्बिसार ने अपने पुत्र अजातशत्रु को युवराज घोषित कर दिया था परन्तु अजातशत्रु ने जल्द राज्य पाने की कामना में बिम्बिसार का वध कर दिया.

अजातशत्रु (491 BC-461 BC) मगध का एक प्रतापी सम्राट और बिंबिसार का पुत्र था जिसने पिता को मारकर राज्य प्राप्त किया. उसने अंग, लिच्छवि, वज्जी, कोसल तथा काशी जनपदों को अपने राज्य में मिलाकर एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की. अजातशत्रु के समय की सबसे महान घटना बुद्ध का महापरिनिर्वाण थी (483 ई.पू.). उस घटना के अवसर पर बुद्ध की अस्थि प्राप्त करने के लिए अजात शत्रु ने भी प्रयत्न किया था और अपना अंश प्राप्त कर उसने राजगृह की पहाड़ी पर स्तूप बनवाया. आगे चलकर राजगृह में ही वैभार पर्वत की सप्तपर्णी गुहा से बौद्ध संघ की प्रथम संगीति हुई जिसमें सुत्तपिटक और विनयपिटक का संपादन हुआ. यह कार्य भी इसी नरेश के समय में संपादित हुआ. पालि ग्रंथों में अजातशत्रु का नाम अनेक स्थानों पर आया है; क्योंकि वह बुद्ध का समकालीन था और तत्कालीन राजनीति में उसका बड़ा हाथ था. उसका मंत्री वस्सकार कुशल राजनीतिज्ञ था जिसने लिच्छवियों में फूट डालकर साम्राज्य का विस्तार किया था. कोसल के राजा प्रसेनजित को हराकर अजातशत्रु ने राजकुमारी वजिरा से विवाह किया था जिससे काशी जनपद स्वतः यौतुक रूप में उसे प्राप्त हो गया था. इस प्रकार उसकी इस विजिगीषु नीति से मगध शक्तिशाली राष्ट्र बन गया. परंतु पिता की हत्या करने के कारण इतिहास में वह सदा अभिशप्त रहा. विरूढक काशी कोषल देश का राजा था. वह राजा प्रसेनजित का पुत्र था. विरूढक ने प्रसेनजित को गद्दी से उतार दिया और राजा बन गया. कहते हैं कि विरूढक द्वारा शाक्यवंश का नाश किया जिस कारण उसका खुद का भी चत्कार से विनाश हो गया. उसका राज्य मगध में समाहित हो गया.

अजातशत्रु ने मगध राज्य की राजधानी राजगीर से पटना स्थानांतरित कर दी थी.

पिप्पलगुहा

पिप्पलगुहा

पिप्पल गुहा राजगृह (बिहार) में 'वैभार' पहाड़ी के पूर्वी ढाल पर स्थित है. इसे जरासंध की गुहा भी कहते हैं. कुछ विद्वानों के मत में यह भारत की प्राचीनतम इमारत है. कहा जाता है कि महाभारत काल में इसी स्थान पर मगध राज जरासंध का प्रासाद था. कुछ पाली ग्रंथों के अनुसार प्रथम धर्म-संगीति का सभापति महाकश्यप पिप्पलगुहा में ही रहा करता था. बुद्ध एक बार महा कश्यप से मिलने स्वयं इस स्थान पर आए थे. युवान च्वांग ने भी इस गुहा का उल्लेख किया है तथा इसे असुरों का निवास स्थान माना है. महा भारत में मय दानव की कथा से सूचित होता है कि असुरों या दानवों की कोई जाति प्राचीन काल में विशाल वास्तु रचनाएं निर्माण करने में परम कुशल थी. संभवत: पिप्पलगुहा की निर्मिति भी इन्हीं शिल्पियों ने की होगी. जरासंध की बैठक की दीवार असाधारण रूप से स्थूल समझी जाती है. इस इमारत के पीछे एक लंबी गुफा 1895 ई. तक वर्तमान थी. (देखें लिस्ट ऑफ एंशिएंट मोनुमेंट्स इन बंगाल-1895, पृ.262-263)

तपोधर्म आश्रम

तपोवन, राजगीर (बिहार)

गर्म चश्मों के स्थान पर स्थित है. आज वहाँ एक हिन्दू मन्दिर का निर्माण किया किया गया है जिसे लक्ष्मी नारायण मन्दिर का नाम दिया गया है. पूर्वकाल में तपोधर्म के स्थल पर एक बौध आश्रम और गर्म चश्मे थे. राजा बिम्बिसार यहाँ पर कभी-कभार स्नान किया करते.

गरम जल के झरने

वैभार पर्वत की सीढ़ियों पर मंदिरों के बीच गर्म जल के कई झरने (सप्तधाराएं) हैं जहां सप्तकर्णी गुफाओं से जल आता है. इन झरनों के पानी में कई चिकित्सकीय गुण होने के प्रमाण मिले हैं. पुरुषों और महिलाओं के नहाने के लिए 22 कुन्ड बनाए गये हैं. इनमें “ब्रह्मकुन्ड” का पानी सबसे गर्म (45 डिग्री से.) होता है.

लाल मंदिर

लाल जैन मंदिर, राजगीर (बिहार)

राजस्थानी चित्रकला का अद्भुत कारीगरी राजस्थानी चित्रकारों के द्वारा इस मन्दिर में बनाया गया है इसी मन्दिर में भगवान महावीर स्वामी का गर्भगृह भूतल के निचे बनाया गया है जहां जैन तीर्थयात्री आकर भगवान महावीर के पालने को झुलाते है तथा असीम शांति का अनुभव इस मन्दिर में होता है इसी मन्दिर में वे तीर्थंकर भगवान मुनिसुव्रतनाथ स्वामी की काले वर्ण की 11 फुट ऊँची विशाल खडगासन प्रतिमा विराजमान है

स्वर्ण भंडार

यह स्थान प्राचीन काल में जरासंध का सोने का खजाना था. कहा जाता है कि अब भी इस पर्वत की गुफा के अन्दर अतुल मात्रा में सोना छुपा है और पत्थर के दरवाजे पर उसे खोलने का रहस्य भी किसी गुप्त भाषा में खुदा हुआ है.वह किसी और भाषा में नहीं बल्कि शंख लिपि है और वह लिपि बिंदुसार के शासन काल में चला करती थी. तीसरी और चौथी शताब्दी में जैनों द्वारा सोनभंडार गुफ़ा में उत्खनन कार्य किया गया था. घाटी के मध्य में हुए उत्खनन से एक गोलाकार देवालय का पता चला, जो पाँचवीं शताब्दी की विष्णु और नटराज शिव समेत अनेक देवताओं की महीन चूना-पत्थर से बनी विलक्षण मूर्तियों से अलंकृत हैं. घाटी के आसपास की पहाड़ियों में अनेक आधुनिक जैन मन्दिर हैं, हिन्दू देवालयों से घिरी घाटी में गर्म पानी के सोते भी हैं.

विपुलाचल पर्वत (जैन मंदिर)

जैन धर्म के 24 वे तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी की प्रथम वाणी इसी विपुलाचल पर्वत से ही खिरी थी, उन्होंने समस्त विश्व को "जिओ और जीने दो" दिव्य सन्देश विपुलाचल पर्वत से दिया था. पहाड़ों की कंदराओं के बीच बने 26 जैन मंदिरों को आप दूर से देख सकते हैं पर वहां पहुंचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम है. लेकिन अगर कोई प्रशिक्षित गाइड साथ में हो तो यह एक यादगार और बहुत रोमांचक यात्रा साबित हो सकती है. जैन मतावलंबियो में विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि यह पांच पहाड़ियाँ प्रसिद्ध हैं. जैन मान्यताओं के अनुसार इन पर 23 तीर्थंकरों का समवशरण आया था तथा कई मुनि मोक्ष भी गए हैं.

विपुल = विपुलगिरि = विपुलाचल विपुल पर्वत अथवा 'विपुलगिरि' अथवा 'विपुलाचल' राजगृह (राजगीर, बिहार) के सात पर्वतों में परिगणित है. इस पर्वत का महाभारत, सभापर्व 2,1 दक्षिणात्य पाठ में उल्लेख है- 'पाडंरे विपुले चैव तथा वाराहकेसपि च चैत्यके च गिरिश्रेष्ठे मातंगेच शिलाच्चये।'. पाली भाषा के साहित्य में इसे 'वेपुल्ल' कहा गया है। विपुलगिरि या विपुलाचल जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के प्रथम प्रवचन की स्थली होने के कारण भी प्रसिद्ध है. उन्होंने इस स्थान से बारह वर्ष की मौन तपस्या के उपरान्त श्रावण मास में कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा की पुण्य वेला में सूर्योदय के समय अपनी सर्वप्रथम ‘देशना’ की थी, जिसमें उन्होंने कहा था- 'सब्वे विजीवा इच्छन्ति, जीवउंण मरिज्जउं, तम्हा पाणिवधं समणा परिवज्जयंतिण।' अर्थात "सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए प्राणिवाध घोर पाप है। जो श्रमण हैं, वे इसका परित्याग करते हैं।" विपुलाचल का महत्व जैन धर्म वहीं है, जो सारनाथ का बौद्ध धर्म में है.

सोनागिरि: इसे श्रमणगिरि भी कहते हैं जो बिहार में राजगृह के निकट स्थित पांच पर्वतों में परिगणित ऋषिगिरि का एक नाम है. यहाँ बौद्ध काल में श्रमणों का निवास होने के कारण इस पहाड़ी को 'श्रमणगिरि' कहते थे. स्वर्णगिरि इसी का उच्चारण भेद है.

वैभारगिरि: वैभार (AS, p.880) राजगृह (=राजगीर), बिहार के निकट स्थित एक पर्वत है, जिसका नामोल्लेख महाभारत सभापर्व 21,2 में है- 'वैभारो विपलो शैलो वराहो वृषभस्तथा।' इसका पाठांतर 'वैहार' है. पाली ग्रंथों में इसे 'वेभार' कहा गया है. (दे.महावंश 3,19) 'सप्तपर्णि' (सोनभंडार) नामक गुहा इसी पहाड़ी में स्थित थी. यहाँ गौतम बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् प्रथम 'बौद्ध धर्म संगति' का अधिवेशन हुआ था, जिसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था. जैन ग्रंथ ‘विविधतीर्थकल्प’ में राजगृह की इस पहाड़ी के 'त्रिकुट' एवं 'खंडिक' नाम के दो शिखरों का उल्लेख है. पहाड़ी पर होने वाली अनेक औषधियों का भी वर्णन है. इस ग्रंथ के अनुसार सरस्वती नदी यहाँ प्रवाहित होती थी और 'मगध', 'लोचन' आदि नाम के जैन देवालय स्थित थे, जिनमें जैन अर्हतों की मूर्तियां थीं. कहा जाता है कि यहाँ देवालयों के निकट सिंह आदि हिंसक पशु भी सौम्यतापूर्वक रहते थे. प्राचीन समय में वैभार में 'रौहिणेय' नामक महात्मा का निवास था.

महोत्सव: प्रतिवर्ष 24 से 26 अक्टूबर तक राजगीर महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें मगध के इतिहास की झलक गीत, संगीत और नृत्य के माध्यम से प्रख्यात कलाकारों द्वारा प्रस्तुत की जाती है, जिसे देश विदेश के हज़ारों पर्यटक पहुँचते हैं.

पर्यटन: राजगीर गर्म झरनों के लिए जाना जाता है. यह वनाच्छादित भी है और इसके गर्म पानी के सोते आसपास के खुशनुमा क्षेत्रों का आनन्द उठाने वाले पर्यटकों के लिए मनोरम दृश्य प्रस्तुत करते हैं. शीतकाल में भ्रमण और स्वास्थ्य के लिए उत्तम है. यह हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के लिए ऐतिहासिक और धार्मिक केन्द्र भी है.

राजगीर का इतिहास

राजगीर का प्राचीन नाम राजगृह था. बुद्ध के समकालीन मगध नरेश बिंबिसार ने शिशुनाग अथवा हर्यक वंश के नरेशों की पुरानी राजधानी गिरिव्रज को छोड़कर नई राजधानी उसके निकट ही बसाई थी. पहले गिरिव्रज के पुराने नगर से बाहर उसने अपने प्रासाद बनवाए थे जो राजगृह के नाम से प्रसिद्ध हुए. पीछे अनेक धनिक नागरिकों के बस जाने से राजगृह के नाम से एक नवीन नगर ही बस गया. गिरिव्रज में महाभारत के समय में जरासंध की राजधानी भी रह चुकी थी. राजगृह के निकट वन में जरासंध की बैठक नामक एक बारादरी स्थित है जो महाभारत कालीन ही बताई जाती है. महाभारत वनपर्व 84,104 में राजगृह का उल्लेख है जिससे महाभारत का यह प्रंसग बौद्धकालीन मालूम होता है, 'ततो राजगृहं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप'। - महाभारत वनपर्व 84,104. इससे यह सूचित होता है कि महाभारत काल में राजगृह तीर्थस्थान के रूप में माना जाता था। आगे के प्रसंग से यह भी सूचित होता है कि मणिनाग तीर्थ राजगृह के अन्तर्गत था। यह संभव है कि उस समय राजगृह नागों को विशेष स्थान था (दे. मणियार मठ, मणिनाग). राजगृह का बौद्ध जातकों में कई बार उल्लेख है. मंगल जातक (सं. 87) में उल्लेख है कि राजगृह मगध देश में स्थित था। राजगृह के वे स्थान जो बुद्ध के समय में विद्यमान थे और जिनसे उनका संबद्ध रहा था, एक पाली ग्रंथ में इस प्रकार गिनाए गए हैं- गृध्रकूट, गौतम-न्यग्रोध, चौर प्रपात, सप्तपर्णिगुहा, काल शिला, शीतवन, सर्पशौंडिक प्राग्भार, तपोदाराम, वेणुवनस्थित कलंदक, तड़ाक, जीवन का आम्रवन, मर्दकुक्षि, मृगवन

इनमें से कई स्थानों के खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं. बुद्धचरित 10,1 में गौतम का गंगा को पार करके राजगृह में जाने का वर्णन है--' स राजवत्सः पृथुपीन वक्षास्तौसव्यमंत्राधिकृतौ विहाय, उत्तीर्य गंगां प्रचलत्तरंगां श्रीमदगृहं राजगृहं जगाम'।- बुद्धचरित, 10,1

जैन ग्रंथ सूत्र कृतांग में राजगृह का संपन्न, धनवान और सुखी नर-नारियों के नगर के रूप में वर्णन है. एक अन्य जैन सूत्र, अंतकृत दशांग में राजगृह के पुष्पोद्यानों का उल्लेख है. साथ ही यक्ष मुदगरपानि के मंदिर की भी वहीं स्थिति बताई गई है. भास रचित स्वप्नवासवदत्ता' नामक नाटक में राजगृह का इस तरह उल्लेख है- ' ब्रह्मचारी, भी श्रूयताम्। राजगृहतोअस्मि। श्रुतिविशेषणार्थ वत्सभूमौ लावाणकं नाम ग्रामस्तत्रोषितवानस्मि'.

युवानच्वांग ने भी राजगृह में कई स्थानों का वर्णन किया है जिनसे गौतम बुद्ध का सम्बंध बताया गया है। (दे. सोनभंडार, पाण्डव, मर्दकुक्षि, पिप्पलगिरि, सप्तपर्णिगुहा, ऋषिगिरि, पिप्पलिगुहा).

वाल्मीकि रामायण में गिरिव्रज की पांच पहाड़ियों का तथा सुमागधी नामक नदी का उल्लेख है - "एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः एतेशैलवराः पंच प्रकाशन्ते समंततः। सुमागधीनदी रम्या मागधान् विश्रुताअययौपंचानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते।". इन पहाड़ियों के नाम महाभारत में ये है - पांडर, विपुल, वाराहक, चैत्यक, मांतग. पालि साहित्य में इन्हें वेभार, पांडव, वेपुल्ल, गिज्झकूट और इसिगिलि कहा गया है (दे. ए गाइड टु राजगीर, पृ.1), {दे. महाभारत सभा. 21, दाक्षिणात्य पाठ- पांडरे विपुले चैव तथा वाराहकेअपि च, चैत्यक च गिरिश्रेष्ठे मांतगे च शिलोच्चये' (दे. चैत्यक)}. किंतु महाभारत सभा. 21,2 में इन्हीं पहाड़ियों को विपुल, वराह, वृषभ, ॠषिगिरि तथा चैत्यक कहा गया है-- वैहारौ विपुलो शैलो वराहो वृषभस्तथा, तथा ॠषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यक पंचमा।- महाभारत, सभा. 21,2. इनके वर्तमान नाम ये हैं- वैभार, विपुल, रत्न, छत्ता, सोनागिरि. जैन कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने राजगृह में 14 वर्षकाल बिताए थे।

Source: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 28.1.2021


राजगीर के चित्र

नालंदा (बिहार) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-3

12.11.2010: गया (8.00 बजे)–बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) (21.30 बजे)

नालंदा भ्रमण दिनांक 12.11.2010

उत्तर-पूर्व भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में राजगीर का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए नालंदा का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल तथा इसका पर्यटन संबंधी महत्व. अगले भाग में पढ़िए पावापुरी- कुंडलपुर - पटना के बारे में.


सारिपुत्र का स्तूप, मंदिर-3, नालंदा

नालन्दा परिचय

राजगीर भ्रमण के बाद हम राजगीर से नालंदा पहुँचे. यह गया जिले से लगे हुये नालंदा जिले में NH-120 पर स्थित है. राजगीर से नालंदा की दूरी करीब 15 किमी है तथा लगभग 25 मिनट का समय लगता है. नालंदा यहाँ स्थित नालंदा महाविहार के कारण जाना जाता है जिसको यूनेस्को का वर्ल्ड हेरिटेज घोषित किया गया है. नालंदा जिले का मुख्यालय बिहारशरीफ में स्थित है. इस जिले की भूमि उपजाऊ है और कुर्मी जाती का बाहुल्य है. बिहार के मुख्य मंत्री नितीश कुमार यहाँ से सांसद रहे हैं. प्रसिद्ध 'बौद्ध सारिपुत्र' का जन्म यहीं पर हुआ था.

प्राचीन नालन्दा विश्वनविद्यालय

भारत में प्राचीनकाल में बिहार में नालन्दा विश्वविद्यालय था, जहां देश-विदेश के छात्र शिक्षा के लिए आते थे. आजकल इसके अवशेष दिखलाई देते हैं. पटना से 90 किलोमीटर दूर और नालंदा जिले के मुख्यालय बिहार शरीफ़ से क़रीब 12 किलोमीटर दक्षिण, विश्व प्रसिद्ध प्राचीन बौद्ध विश्वविद्यालय, नालंदा के खण्डहर स्थित हैं. प्रसिद्ध बौद्ध सारिपुत्र का जन्म यहीं पर हुआ था. नालंदा विश्वविद्यालय में आठ अलग-अलग परिसर और 10 मंदिर थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे. यहां नौ मंजिला इमारत में एक पुस्तकालय भी था, जिसमें 90 लाख पांडुलिपियों सहित लाखों किताबें रखी हुई थीं. नालन्दा विश्वुविद्यालय में अध्ययन करने के लिए जावा, चीन, तिब्बत, श्रीलंका, जापान, इंडोनेशिया, ईरान, ग्रीस, मंगोलिया व कोरिया आदि के छात्र आते थे. इसके प्रख्यात अध्यापकों शीलभद्र ,धर्मपाल, चन्द्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, प्रभामित्र, जिनमित्र, दिकनाग, ज्ञानचन्द्र, नागार्जुन, वसुबन्धु, असंग, धर्मकीर्ति आदि थे. इस विश्वमविद्यालय में पालि भाषा में शिक्षण कार्य होता था. सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि उस दौर में यहां साहित्य, ज्योतिष विज्ञान, मनोविज्ञान, कानून, खगोल विज्ञान समेत इतिहास, गणित, भाषा विज्ञान, अर्थशास्त्र और चिकित्सा शास्त्र जैसे कई विषयों की पढ़ाई होती थी. इसका पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था. उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी. इसके केंद्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे. इनमें व्याख्यान हुआ करते थे. मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे तथा प्रत्येक मठ के आंगन में एक कुआं बना था. आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थीं. इस विश्वविद्यालय में देश-विदेश से पढ़ने आने वाले छात्रों के लिए छात्रावास की सुविधा भी थी. 12वीं शती में बख़्तियार ख़िलजी के आक्रमण से यह विश्वविद्यालय नष्ट हो गया था.

फारसी इतिहासकार मिन्हाज-ए-सिराज ने अपनी किताब तबकत-ए-नासिरी में लिखा है कि इस विश्वविद्यालय को बर्बाद करते वक्त एक हजार भिक्षुओं को जिंदा जलाया गया और करीब एक हजार भिक्षुओं के सिर कलम कर दिए गए. इसके पुस्तकालय को जलाकर भस्म कर दिया. कई तत्कालीन इतिहासकारों ने लिखा है कि पुस्तकालय में किताबें लगभग छह महीने तक जलती रहीं और जलती हुई पांडुलिपियों के धुएं ने एक विशाल पर्वत का रूप ले लिया था. इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि यहां ज्ञान का कितना बड़ा भंडार रहा होगा और उसके ध्वंस की हमें कितनी भारी क्षति उठानी पड़ी.

नालंदा का इतिहास

नालंदा को प्राचीन काल में नालंदग्राम से जाना जाता था. Alexander Cunningham (The Ancient Geography of India, p.470) के अनुसार यहाँ नालन्द नाग राजा का निवास था और पास ही उसका एक बड़ा तालाब था. भारत में प्राचीनकाल में बिहार में इस स्थान पर नालन्दा विश्वविद्यालय था. बख्तियारपुर - राजगीर रेलमार्ग पर नालंदा स्टेशन से 1-1/2 मील दूर, प्राचीन भारत के इस प्रसिद्ध विश्वविद्यालय के ध्वंसाविशेष विस्तीर्ण भूभाग को घेरे हुए हैं. यहाँ आजकल बड़गांव नामक ग्राम स्थित है जो राजगीर (प्राचीन राजगृह) से 7 मील तथा बख्तियारपुर से 25 मील है. चीनी यात्री युवानच्वांग ने, जो नालंदा में कई वर्ष रहकार अध्ययन करते रहे थे, नालंदा का सविस्तार हाल लिखा है. उससे तथा यहाँ के खंडहरों से प्राप्त अभिलेखों तथा अवशेषों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंश के राजा कुमारगुप्त प्रथम ने 5 वीं शती ई. में इस प्राचीन और सभ्य संसार के सर्वश्रेष्ठ तथा जग प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना की थी. पहले यहाँ केवल एक बौद्ध विहार बना था जो धीरे-धीरे एक महान् विद्यालय के रूप में परिवर्तित हो गया. इस विश्वविद्यालय को गुप्त तथा मौखरी नरेशों तथा कान्यकुब्जाधिप हर्षवर्धन से निरंतर अर्थ सहायता और संरक्षण प्राप्त होता रहा और इन्होंने यहाँ अनेक भवनों, विहारों तथा मंदिर का निर्माण करवाया. नालंदा के संरक्षक नरेशों में हर्ष के अतिरिक्त नरसिंहगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय, वैण्यगुप्त, विष्णुगुप्त, सर्ववर्मन और अवंतवर्मन मौखरी तथा कामरूप नरेश भास्करवर्मन मुख्य हैं. इनके अतिरिक्त एक प्रस्तर लेख में कन्नौज के यशोवर्मन और ताम्रपट्ट लेखों में धर्मपाल और देवपाल (बंगाल के पाल नरेश) नामक राजाओं का भी उल्लेख है. श्रीविजय या जावा सुमात्रा के शैलेंन्द्र नरेश बलपुत्रदेव का भी नालंदा के संरक्षकों में नाम मिलता है.

युवानच्वांग नालंदा में प्रथम बार 637 ई. में पहुंचे थे और उन्होंने कई वर्ष यहाँ अध्ययन किया था. उनकी विद्वता पर मुग्ध होकर नालंदा के विद्वानों ने उन्हें 'मोक्षदेव' की उपाधि दी थी. उनके यहाँ से चले जाने के बाद, नालंदा के भिक्षु प्रज्ञादेव ने युवानच्वांग को नालंदा के विद्यार्थियों की ओर से भेंट के रूप एक जोड़ी वस्त्र भिजवाए थे. युवानच्वांग के पश्चात् भी अगले 30 वर्षों में नालंदा में प्रायः ग्यारह चीनी और कोरियायी यात्री आए थे. चीन में इत्सिंग और हुइली और कोरिया से हाइनीह, यहाँ आने वाले विदेशी यात्रियों में मुख्य है. 630 ई. में जब युवानच्वांग यहाँ आए थे तब यह विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था. इस समय यहाँ दस सहस्त्र विद्यार्थी और एक सहस्त्र आचार्य थे.

विद्यार्थियों का प्रवेश नालंदा विश्वविद्यालय में काफ़ी कठिनाई से होता था क्योंकि केवल उच्चकोटि के विद्यार्थियों को ही प्रविष्ट किया जाता था. शिक्षा की व्यवस्था महास्थविर के नियंत्रण में थी. शीलभद्र उस समय यहाँ के प्रधानाचार्य थे. ये प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् थे. यहाँ के अन्य ख्यातिप्राप्त आचार्यों में नागार्जुन, पद्मसंभव (जिन्होंने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया), शांतिरक्षित और दीपकर, ये सभी बौद्ध धर्म के इतिहास में प्रसिद्ध हैं.

नालंदा 7वीं शती में तथा उसके पश्चात् कई सौ वर्षों तक एशिया का सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय था. यहाँ अध्ययन के लिए चीन के अतिरिक्त चंपा, कंबोज, जावा, सुमात्रा, ब्रह्मदेश, तिब्बत, लंका और ईरान आदि देशों के विद्यार्थी आते थे और विद्यालय में प्रवेश पाकर अपने को धन्य मानते थे. नालंदा के विद्यार्थियों के द्वारा ही सारी एशिया में भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का विस्तृत प्रचार व प्रसार हुआ था. यहाँ के विद्यार्थियों और विद्वानों की मांग एशिया के सभी देशों में थी और उनका सर्वत्र आदर होता था. तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर भदंत शांतिरक्षित और पद्मसंभव तिब्बत गए थे और वहाँ उन्होंने संस्कृत, बौद्ध साहित्य और भारतीय संस्कृति का प्रचार करने में अप्रतिम योग्यता दिखाई थी.

नालंदा में बौद्ध धर्म के अतिरिक्त हेतुविद्या, शब्दविद्या, चिकित्सा शास्त्र, अथर्ववेद तथा सांख्य से संबंधित विषय भी पढ़ाए जाते थे. युवानच्वांग ने लिखा था कि नालंदा के एक सहस्त्र विद्वान् आचार्यों में से सौ ऐसे थे जो सूत्र और शास्त्र जानते थे, पांच सौ, 3 विषयों में पारंगत थे और बीस, 50 विषयों में। केवल शीलभद्र ही ऐसे थे जिनकी सभी विषयों में समान गति थी.

नालंदा विश्वविद्यालाय के तीन महान् पुस्तकालय थे- रत्नोदधि, रत्नसागर और रत्नरंजक. इनके भवनों की ऊँचाई का वर्णन करते हुए युवानच्वांग ने लिखा है कि 'इनकी सतमंजिली अटारियों के शिखर बादलों से भी अधिक ऊँचे थे और इन पर प्रातःकाल की हिम जम जाया करती थी. इनके झरोखों में से सूर्य का सतरंगा प्रकाश अन्दर आकर वातावरण को सुंदर एवं दिव्य बनाता था. इन पुस्तकालयों में सहस्त्रों हस्तलिखित ग्रंथ थे.' इनमें से अनेकों की प्रतिलिपियां युवानच्वांग ने की थी. जैन ग्रंथ सूत्रकृतांग में नालंदा के हस्तियान नामक सुंदर उद्यान का वर्णन है.

1303 ई. में मुसलमानों के बिहार और बंगाल पर आक्रमण के समय, नालदा को भी उसके प्रकोप का शिकार बनना पड़ा. यहाँ के सभी भिक्षुओं को आक्रांताओं ने मौत के घाट उतार दिया. मुसलमानों ने नालंदा के जगत् प्रसिद्ध पुस्तकालय को जला कर भस्मसात कर दिया और यहाँ की सतमंजिली, भव्य इमारतों और सुंदर भवनों को नष्ट-भ्रष्ट करके खंडहर बना दिया. इस प्रकार भारतीय विद्या, संस्कृति, और सभ्यता के घर नालंदा को जिसकी सुरक्षा के बारे में संसार की कठोर वास्तविकताओं से दूर रहने वाले यहाँ के भिक्षु विद्वानों ने शायद कभी नहीं सोचा था, एक ही आक्रमण के झटके ने धूल में मिला दिया.

नालंदा के खंडहरों में विहारों, स्तूपों, मंदिरों तथा मूर्तियों के अगणित अवशेष पाए गए है जो स्थानीय संग्रहालय में सुरक्षित हैं. अनेकों अभिलेख जिनमें ईंटों पर अंकित 'निदानसूत्र' तथा 'प्रातित्यसमुत्पदसूत्र' जैसे बौद्ध ग्रंथ भी हैं, तथा मिट्टी की मुहरें भी, नालंदा में मिले हैं. यहाँ के महाविहार तथा भिक्षु संघ की मुद्राएं भी मिली हैं. नालंदा में मूर्तिकला की एक विशिष्ट शैली प्रचलित थी जिस पर सारनाथ कला का काफ़ी प्रभाव था। बुद्ध की एक सुंदर प्रतिमा जो यहाँ से प्राप्त हुई है, सारनाथ की मूर्तियों से आड़ी भौहों, केश विन्यास तथा उष्णीष के अंकन में बहुत कुछ मिलती जुलती है किंतु दोनों में थोड़ा भेद भी है. नालंदा की मूर्ति में उत्तरीय तथा अधोवस्त्र दोनों विशिष्ट प्रकार से पहने हुए हैं और उनमें वस्त्रों के मोड़ दिखाने के लिए रूढ़िगत धारियां अंकित की गई हैं. (दि. हिस्ट्री ऑफ फाइन आर्ट इन इंडिया एंड इंडोनेशिया) नालंदा का नालंदग्राम के रूप में उल्लेख परवर्ती गुप्त-नरेश आदित्यसेन के शाहपुर अभिलेख में है.

नालंदा की वर्तमान स्थिति : बिहार राज्य में पटना से 90 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व और राजगीर से 15 किलोमीटर उत्तर में बड़गांव नालंदा का निकटतम गांव स्थित है. यहां एक सरोवर और प्राचीन सूर्य मन्दिर है. यह स्थान छठ के लिए प्रसिद्ध है. इसी बड़गाँव नामक गाँव के पास अलेक्जेंडर कनिंघम द्वारा 1915 ई. में खोजे गए इस महान बौद्ध विश्वविद्यालय के भग्नावशेष हैं जो इसके प्राचीन वैभव का बहुत कुछ अंदाज़ करा देते हैं. इस विश्वविद्यालय के अवशेष चौदह हेक्टेयर क्षेत्र में मिले हैं. खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थर से किया गया था. यह परिसर दक्षिण से उत्तर की ओर बना हुआ है. मठ या विहार इस परिसर के पूर्व दिशा में व चैत्य (मंदिर) पश्चिम दिशा में बने थे. इस परिसर की सबसे मुख्य इमारत विहार-1 थी. आज में भी यहां दो मंजिला इमारत शेष है. यह इमारत परिसर के मुख्य आंगन के समीप बनी हुई है. संभवत: यहां ही शिक्षक अपने छात्रों को संबोधित किया करते थे. इस विहार में एक छोटा सा प्रार्थनालय भी अभी सुरक्षित अवस्था में बचा हुआ है. इस प्रार्थनालय में भगवान बुद्ध की भग्न प्रतिमा बनी है. यहां स्थित मंदिर नं. 3 इस परिसर का सबसे बड़ा मंदिर है. इस मंदिर से समूचे क्षेत्र का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है. यह मंदिर कई छोटे-बड़े स्तूपों से घिरा हुआ है. इन सभी स्तूपों में भगवान बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं में मूर्तियां बनी हुई है.

नव नालंदा महाविहार: बिहार सरकार ने यहाँ नव नालंदा महाबिहार नामक शोध संस्थान की स्थापना की है. जहाँ विश्व के विभिन्न देशों के विद्यार्थी बौद्ध पांडुलिपियों पर शोध करते हैं. यह एक शिक्षण संस्थान है. इसमें पाली साहित्य तथा बौद्ध धर्म की पढ़ाई तथा शोध होती है. यह एक नया स्थापित संस्थान है. इसमें दूसरे देशों के छात्र भी पढ़ाई के लिए यहां आते हैं. नालंदा विश्वविद्यालय के पुरावशेष के पास ही एक पुरातात्विक सामग्री से युक्त संग्रहालय है.

नालंदा पुरातात्विक संग्रहालय: विश्वविद्यालय परिसर के विपरीत दिशा में एक छोटा सा पुरातात्विक संग्रहालय बना हुआ है. इस संग्रहालय में खुदाई से प्राप्त अवशेषों को रखा गया है. इसमें भगवान बुद्ध की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों का अच्छा संग्रह है. इनके साथ ही बुद्ध की टेराकोटा मूर्तियां और प्रथम शताब्दी के दो मर्तबान भी इस संग्रहालय में रखा हुआ है. इसके अलावा इस संग्रहालय में तांबे की प्लेट, पत्थर पर खुदे अभिलेख, सिक्के, बर्त्तन तथा 12वीं सदी के चावल के जले हुए दाने रखे हुए हैं.

ह्वेनत्सांग मेमोरियल हॉल: यह एक नवर्निमित भवन है. यह भवन चीन के महान तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग की स्मृति में बनवाया गया है. इसमें ह्वेनसांग से संबंधित वस्तुएं तथा उनकी मूर्ति देखी जा सकती है.

महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्र: नालंदा का वर्तमान में आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया द्वारा रखरखाव और जीर्णोद्धार किया जा रहा है. यह बिहार का एक महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्र है. यह बौद्ध टूरिस्ट सर्किट का भाग है जिसके अंतर्गत बौद्ध धर्म मानने वाले देशों यथा चीन, जापान, कोरिया, श्रीलंका आदि से हजारों की संख्या में प्रतिवर्ष पर्यटक यहाँ आते हैं. 25 नवम्बर 2010 को भारत सरकार के द्वारा नालंदा विश्वविद्यालय अधिनियम पारित कर इसके प्राचीन अंतर्राष्ट्रीय महत्व को पुनर्जीवित किया गया है.

Source: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 4.2.2021


नालंदा के चित्र

पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-4

12.11.2010: गया (8.00 बजे)–बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पावापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार) (21.30 बजे)

पावापुरी - कुंडलपुर - पटना भ्रमण दिनांक 12.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में नालंदा का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए पावापुरी- कुंडलपुर - पटना का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल, लोक-परंपरायें तथा इनका पर्यटन महत्व. रास्ते के नगरनौसा नामक गाँव में छठ-पर्व मनाने का आनंद भी आप ले सकते हैं. अगले भाग में पढ़िए गुवाहाटी-काजीरंगा (असम) के बारे में.

पावापुरी (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

पावापुरी परिचय: नालन्दा भ्रमण के बाद हम नालंदा जिले में ही स्थित पावापुरी पहुँचे. पावापुरी नालन्दा से करीब 25 किमी दूरी पर पूर्व में स्थित है. यह पटना से दक्षिण-पूर्व दिशा में 104 किलोमीटर दूरी पर है. पावापुरी पटना-राँची मार्ग पर एक गाँव है. बिहारशरीफ़ से 8 किमी दक्षिण-पूर्व पावापुरी जैनियों का प्रमुख तीर्थस्थल है. यहीं जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने निर्वाण प्राप्त किया था. यहाँ का जल मन्दिर दर्शनीय स्थल हैं. महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी. यहाँ कमल तालाब के बीच जल मंदिर विश्व प्रसिद्ध है. सोमशरण मंदिर, मोक्ष मंदिर और नया मन्दिर भी दर्शनीय हैं. जैन मान्यता के अनुसार इसी स्थान पर महावीर स्वामी ने मोक्ष प्राप्त किया था. जहाँ महावीर स्वामी ने मोक्ष पाया था, वहां 'थल मंदिर' और जहां वे जलाए गए थे, वहां 'जल मंदिर' बना है.

पावापुरी का इतिहास

पावापुरी को पावा, आपापा, और पापापुर नामों से भी जाना जाता है. जैन-परंपरा के अनुसार अंतिम तीर्थंकर महावीर का निर्वाण स्थल है. 13वीं शती ई. में जिनप्रभसूरी ने अपने ग्रंथ विविध तीर्थ कल्प रूप में इसका प्राचीन नाम अपापा बताया है. पावापुरी का अभिज्ञान बिहार शरीफ़ रेलवे स्टेशन (बिहार) से 9 मील पर स्थित पावा नामक स्थान से किया गया है. यह स्थान राजगृह से दस मील दूर है. महावीर के निर्वाण का सूचक एक स्तूप अभी तक यहाँ खंडहर के रूप में स्थित है. स्तूप से प्राप्त ईटें राजगृह के खंडहरों की ईंटों से मिलती-जुलती हैं. जिससे दोनों स्थानों की समकालीनता सिद्ध होती है.

महावीर की मृत्यु 72 वर्ष की आयु में अपापा के राजा हस्तिपाल के लेखकों के कार्यालय में हुई थी. उस दिन कार्तिक की अमावस्या थी. पालीग्रंथ संगीतिसुत्तंत में पावा के मल्लों के उब्भटक नामक सभागृह का उल्लेख है. स्मिथ के अनुसार पावापुरी जिला पटना (बिहार) में स्थित थी. कनिंघम (ऐशेंट ज्याग्रेफी आफ इंडिया पृष्ठ 49) के मत में जिसका आधार शायद बुद्धचरित [25, 52] में कुशीनगर के ठीक पूर्व की ओर पावापुरी की स्थिति का उल्लेख है, कसिया जो प्राचीन कुशीनगर के नाम से विख्यात है, से 12 मील दूर पदरौना नामक स्थान ही पावा है, जहाँ गौतम बुद्ध के समय मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी. जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था. जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी. (बुद्धचरित 25,50). कनिंघम ने पावा का अभिज्ञान कसिया के दक्षिण पूर्व में 10 मील पर स्थित फ़ाज़िलपुर नामक ग्राम से किया है. (ऐशेंट ज्याग्रेफी ऑव इंडिया पृष्ठ 714) जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था. यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है.

पावापुरी के मल्ल-क्षत्रिय कहाँ गए : गौतम बुद्ध के समय पावापुरी मल्ल-क्षत्रियों की राजधानी थी. मल्ल-क्षत्रियों के संबंध में जानने की मेरी प्रबल इच्छा हुई. ये लोग वर्तमान में कहाँ हैं इस पर अनुसंधान करने पर पता लगता है कि मल्ल-क्षत्रियों के संबंध में ठाकुर देशराज (पृ.100-101) ने लिखा है. मल्ल लोगों को ही सिकंदर के साथियों ने मल्लोई लिखा है. हिंदुस्तान के कई इतिहासकारों को उनके संबंध में बड़ा भ्रम हुआ है. वह इन्हें कहीं उज्जैन के आसपास मानते हैं. वास्तव में यह लोग पंजाब में रावी नदी के किनारे पर मुल्तान तक फैले हुए थे. फिरोजपुर और बठिंडा के बीच के लोग अपने प्रदेश को मालवा कहते हैं. बौद्ध काल में हम लोगों को चार स्थानों पर राज्य करते पाते हैं-- पावा, कुशीनारा, काशी और मुल्तान. इनमें सिकंदर को मुल्तान के पास के मल्लों से पाला पड़ा था. इनके पास 90000 पैदल 10000 सवार और 900 हाथी थे. पाणिनी ने इन्हें आयुध जीवी क्षत्रिय माना है. हमें तो अयोधन और आयुध इन्हीं के साथी जान पड़ते हैं. जाटों में यह आज भी मल, माली और मालवन के नाम से मशहूर हैं. एक समय इनका इतना बड़ा प्रभाव हो गया था इन्हीं के नाम पर संवत चल निकला था. इनके कहीं सिक्के मिले जिन पर 'मालवानाम् जय' लिखा रहता है. ये गणवादी (जाति राष्ट्रवादी) थे. इस बात का सबूत इन के दूसरे प्रकार के उन सिक्कों से भी हो जाता है जिन पर 'मालव गणस्य जय' लिखा हुआ है. जयपुर के नागर नामक कस्बे के पास से एक पुराने स्थान से इनके बहुत से सिक्के मिले थे. जिनमें से कुछ पर मलय, मजुप और मगजस नाम भी लिखे मिले हैं. हमारे मन से यह उन महापुरुषों के नाम हैं जो इनके गण के सरदार रह चुके थे. इन लोगों की एक लड़ाई क्षत्रप नहपान के दामाद से हुई थी. दूसरी लड़ाई समुद्रगुप्त से हुई. इसी लड़ाई में इनका ज्ञाति राष्ट्र छिन्न-भिन्न हो गया और यह समुद्रगुप्त के साम्राज्य में मिला लिया गया इनके सिक्के ईसवी सन के 250-150 वर्ष पूर्व माने जाते हैं.

दलीप सिंह अहलावत (p.254-255) ने इन मल्ल या मालव जाट गोत्र के इतिहास पर विस्तार से प्रकाश डाला है. उनके अनुसार मल्ल या मालव चन्द्रवंशी जाट गोत्र है. रामायणकाल में इस वंश का शक्तिशाली राज्य था. सिकन्दर के समय मुलतान में ये लोग विशेष शक्तिसम्पन्न थे. मालव क्षत्रियों ने सिकन्दर की सेना का वीरता से सामना किया और यूनानी सेना के दांत खट्टे कर दिये. सिकन्दर बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ सका. मैगस्थनीज ने इनको ‘मल्लोई’ लिखा है और इनका मालवा मध्यभारत पर राज्य होना लिखा है. मालव लोगों के नाम पर ही उस प्रदेश का नाम मालवा पड़ा था. इस मालवा नाम से पहले इस प्रदेश का नाम अवन्ति था. वहां पर आज भी मालव गोत्र के जाटों की बड़ी संख्या है. सिकन्दर के समय पंजाब में भी इनकी अधिकता हो चुकी थी. इन मालवों के कारण ही भटिण्डा, फरीदकोट, फिरोजपुर, लुधियाना के बीच का क्षेत्र (प्रदेश) मालवा कहलाने लगा. इस प्रदेश के लगभग सभी मालव गोत्र के लोग सिक्खधर्मी हैं. ये लोग बड़े बहादुर, लम्बे कद के, सुन्दर रूप वाले तथा खुशहाल किसान हैं. सियालकोट, मुलतान, झंग आदि जिलों में मालव जाट मुसलमान हैं. मल्ल लोगों का अस्तित्व इस समय ब्राह्मणों और जाटों में पाया जाता है. कात्यायन ने शब्दों के जातिवाची रूप बनाने के जो नियम दिये हैं, उनके अनुसार ब्राह्मणों में ये मालवी और क्षत्रिय जाटों में माली कहलाते हैं, जो कि मालव शब्द से बने हैं. पंजाब और सिंध की भांति मालवा प्रदेश को भी जाटों की निवासभूमि एवं साम्राज्य होने का सौभाग्य प्राप्त है. महात्मा बुद्ध के स्वर्गीय (487 ई० पू०) होने पर कुशिनारा (जि० गोरखपुर) के मल्ल लोगों ने उनके शव को किसी दूसरे को नहीं लेने दिया. अन्त में समझौता होने पर दाहसंस्कार के बाद उनके अस्थि-समूह के आठ भाग करके मल्ल, मगध, लिच्छवि, मौर्य ये चारों जाट वंश, तथा बुली, कोली (जाट वंश), शाक्य (जाट वंश) और वेथद्वीप (बेतिया, ज़िला चंपारन) के ब्राह्मणों में बांट दिये. उन लोगों ने अस्थियों पर स्तूप बनवा दिये. मध्यप्रदेश में मालवा भी इन्हीं के नाम पर है. मालव वंश के शाखा गोत्र - 1. सिद्धू 2. बराड़


पावापुरी के चित्र
कुंडलपुर (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

भगवान महावीर का जन्म स्थान: आज से 2600 वर्ष पूर्व भगवान महावीर का जन्म कुण्डलपुर में हुआ था यह सर्वविदित है. कुण्डलपुर जैन धर्मावलम्बियों की मान्यतानुसार वह स्थान है जो कि बिहार शरीफ से 13 किमी. एवं राजगृह से 16 किमी. दूर है. नालंदा से 3 किमी. दूर बड़गाँव के बाहर एक जिनमंदिर के क्षेत्र को भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के नाम से जाना जाता है जो कि सदियों से जैन लोगों के आस्था का केन्द्र है. तीर्थराज सम्मेदशिखरजी की यात्रा करने वाले शत-प्रतिशत धर्मावलम्बी मार्ग में भगवानमहावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर के दर्शन करने अवश्य ही जाते हैं. वहाँ एक परकोटे में जिनमंदिर में भगवान महावीर की मूलनायक प्रतिमा है तथा मंदिर के बाहर चबूतरे पर एक छत्री बनी है जिसमें भगवान महावीर के चरण चिन्ह हैं.


कुण्डलपुर के चित्र
नगरनौसा में छठ-पर्व दिनांक 12.11.2010

कुंडलपुर भ्रमण के बाद पटना के लिए रवाना हुये जहाँ रात्री के 21.30 बजे पहुँचे. रास्ते में नालंदा जिले की सीमा के पास पटना जिले की सीमा से पहले नगरनौसा (Nagarnausa) नामक गाँव में मोहना नदी पर स्थि छठ-घाट पर स्थित छठ पर्व की एक झलक देखने का भी अवसर मिला. आज कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी का दिन था. शाम के समय नदी के घाट पर भक्तों की भारी भीड़ थी. भक्त लोग डूबते हुए सूर्य देव को अर्घ्य दे रहे थे. कुछ समय रुक कर अवलोकन किया और छठ पर्व के बारे में ज्ञानार्जन किया.

छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला एक पर्व है. सूर्योपासना का यह अनुपम लोकपर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है. कहा जाता है यह पर्व बिहारीयों का सबसे बड़ा पर्व है और यह उनकी संस्कृति है. छठ पर्व बिहार मे बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है. छठ पूजा छठी म‌इया को समर्पित है ताकि उन्हें पृथ्वी पर जीवन की देवतायों को बहाल करने के लिए धन्यवाद और कुछ शुभकामनाएं देने का अनुरोध किया जाए. त्यौहार के अनुष्ठान कठोर हैं और चार दिनों की अवधि में मनाए जाते हैं. इनमें पवित्र स्नान, उपवास और पीने के पानी से दूर रहना, लंबे समय तक पानी में खड़ा होना, और प्रसाद और अर्घ्य देना शामिल है.

छठ पर्व की शुरुआत

एक कथा के अनुसार प्रथम देवासुर संग्राम में जब असुरों के हाथों देवता हार गये थे, तब देव माता अदिति ने तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी. तब प्रसन्न होकर छठी मैया ने उन्हें सर्वगुण संपन्न तेजस्वी पुत्र होने का वरदान दिया था. इसके बाद अदिति के पुत्र हुए त्रिदेव रूप आदित्य भगवान, जिन्होंने असुरों पर देवताओं को विजय दिलायी. कहा जाता है कि उसी समय से देव सेना षष्ठी देवी के नाम पर इस धाम का नाम देव हो गया और छठ का चलन भी शुरू हो गया.

आज छठ पर्व का तीसरा दिन था, जिसे संध्या अर्घ्य के नाम से जाना जाता है. पूरे दिन सभी लोग मिलकर पूजा की तैयारिया करते हैं. छठ पूजा के लिए विशेष प्रसाद जैसे ठेकुआ, चावल के लड्डू जिसे कचवनिया भी कहा जाता है, बनाया जाता है. छठ पूजा के लिए एक बांस की बनी हुयी टोकरी जिसे दउरा कहते है में पूजा के प्रसाद,फल डालकर देवकारी में रख दिया जाता है. वहां पूजा अर्चना करने के बाद शाम को एक सूप में नारियल,पांच प्रकार के फल,और पूजा का अन्य सामान लेकर दउरा में रख कर घर का पुरुष अपने हाथों से उठाकर छठ घाट पर ले जाता है. छठ घाट की तरफ जाते हुए रास्ते में प्रायः महिलायें छठ का गीत गाते हुए जाती हैं. नदी या तालाब के किनारे जाकर महिलायें घर के किसी सदस्य द्वारा बनाये गए चबूतरे पर बैठती हैं. नदी से मिटटी निकाल कर छठ माता का जो चौरा बना रहता है उस पर पूजा का सारा सामान रखकर नारियल चढाते हैं और दीप जलाते हैं. सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्यदेव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े हो जाते हैं और डूबते हुए सूर्यदेव को अर्घ्य देकर पांच बार परिक्रमा करते हैं.

नगरनौसा गाँव में छठ-पर्व के चित्र

पटना (बिहार) भ्रमण दिनांक 12.11.2010

नालंदा जिला पार करने के बाद हमने पटना जिले में प्रवेश किया. रात हो रही थी और हमें वहाँ से गुवाहाटी की ट्रेन पकड़ने की जल्दी थी इसलिये कोई स्थान विशेष देखने के लिए समय नहीं था. पटना बिहार राज्य का एक महत्वपूर्ण ज़िला है. गंगा तथा सोन जैसी नदियों के द्वारा सिंचित तथा उर्वर भूमि से युक्त पटना एक कृषि प्रधान जिला है.

बिहार के विकास में लेखक का योगदान: बिहार प्रदेश के इस भूभाग में जब हम भ्रमण कर रहे थे और यहाँ हरे-भरे सिंचित कृषि क्षेत्रों को देखा तब याद आया कि इस क्षेत्र के विकास के लिए मैं भी थोड़ा योगदान कर चुका हूँ. नवम्बर 2005 से अक्टूबर 2007 तक बाण सागर परियोजना रीवा, मध्य प्रदेश, में आयुक्त के पद पर पदस्थ रहने का अवसर मुझे मिला था. उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार प्रदेशों की सिंचाई क्षमता बढ़ाने और विद्युत् उत्पादन करने वाली 28 वर्ष से लंबित सोन नदी पर निर्माणाधीन बहु-उद्देशीय बाण सागर नदी-घाटी बांध परियोजना को पूर्ण करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ. तीन दशकों से लंबित इस परियोजना की डी.पी.आर. पूर्ण कर बिहार और उत्तर प्रदेश राज्यों से मध्य प्रदेश राज्य को रु. 120 करोड़ की राशि दिलवाई. बाण सागर परियोजना पूर्ण होने से सर्वाधिक और तत्काल लाभ बिहार के इसी भूभाग को मिला क्योंकि यहाँ नहरों का जाल पहले से बिछा हुआ था. जबकि उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में नहरों का जाल बिछाने का काम होना अभी बाकी था. सोन नदी पटना शहर के पास ही गंगा नदी में मिलती है और उसका सिंचित क्षेत्र भी यही भूभाग है. उल्लेखनीय है कि बाण सागर परियोजना का शुभारम्भ वर्ष 1978 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई द्वारा किया गया था. 28 वर्ष बाद मेरे कार्यकाल में 25 सितम्बर 2006 को पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी द्वारा इस परियोजना का राष्ट्र को समर्पण किया गया.

पटना का इतिहास

पटना का प्राचीन नाम पाटलिपुत्र था. पटना का इतिहास बहुत शानदार जो हमें ज्ञात होना चाहिए. पाटलिपुत्र (AS, p.541): गौतम बुद्ध के जीवनकाल में, बिहार में गंगा के उत्तर की ओर लिच्छवियों का 'वृज्जि गणराज्य' तथा दक्षिण की ओर 'मगध' का राज्य था। बुद्ध जब अंतिम बार मगध गए थे, तो गंगा और शोण नदियों के संगम के पास पाटलि नामक ग्राम बसा हुआ था, जो 'पाटल' या 'ढाक' के वृक्षों से आच्छादित था. मगधराज अजातशत्रु ने लिच्छवी गणराज्य का अंत करने के पश्चात् एक मिट्टी का दुर्ग पाटलिग्राम के पास बनवाया, जिससे मगध की लिच्छवियों के आक्रमणों से रक्षा हो सके. बुद्धचरित 22,3 से ज्ञात होता है कि यह क़िला मगधराज के मन्त्री वर्षकार ने बनवाया था. अजातशत्रु के पुत्र 'उदायिन' या 'उदायिभद्र' ने इसी स्थान पर पाटलिपुत्र नगर की नींव डाली. पाली ग्रंथों के अनुसार भी नगर का निर्माण 'सुनिधि' और 'वस्सकार' (=वर्षकार) नामक मन्त्रियों ने करवाया था. पाली अनुश्रुति के अनुसार गौतम बुद्ध ने पाटलि के पास कई बार राजगृह और वैशाली के बीच आते-जाते गंगा को पार किया था और इस ग्राम की बढ़ती हुई सीमाओं को देखकर भविष्यवाणी की थी, कि यह भविष्य में एक महान् नगर बन जाएगा. अजातशत्रु तथा उसके वंशजों के लिए पाटलिपुत्र की स्थिति महत्त्वपूर्ण थी. अब तक मगध की राजधानी राजगृह थी, किंतु अजातशत्रु द्वारा वैशाली (उत्तर बिहार) तथा काशी की विजय के पश्चात् मगध के राज्य का विस्तार भी काफ़ी बढ़ गया था और इसी कारण अब राजगृह से अधिक केंद्रीय स्थान पर राजधानी बनाना आवश्यक हो गया था।

जैनग्रंथ विविध तीर्थकल्प में पाटलिपुत्र के नामकरण के संबंध में एक मनोरंजक सा उल्लेख है. इसके अनुसार अजातशत्रु की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उदयी ने अपने पिता की मृत्यु के शोक के कारण अपनी राजधानी को चंपा से अन्यत्र ले जाने का विचार किया और शकुन बताने वालों को नई राजधानी बनाने के लिए उपयुक्त स्थान की खोज में भेजा. ये लोग खोजते-खोजते गंगातट पर एक स्थान पर पहुंचे. वहाँ उन्होंने पुष्पों से लदा हुआ एक पाटल वृक्ष (ढाक या किंशुक) देखा, जिस पर एक नीलकंठ बैठा हुआ कीड़े खा रहा था. इस दृश्य को उन्होंने शुभ शकुन माना और यहाँ पर मगध की नई राजधानी बनाने के लिए राजा को मन्त्रणा दी. फलस्वरूप जो नया नगर उदयी ने बसाया, उसका नाम पाटलिपुत्र या कुसुमपुर रखा गया. उदयी ने यहाँ श्री नेमिका चैत्य बनाया और स्वयं जैन धर्म में दीक्षित हो गया. विविधतीर्थ कल्प में चन्द्रगुप्त मौर्य, बिंदुसार, अशोक और कुणाल को क्रमश: पाटलिपुत्र में राज करते बताया गया है. जैन साधु स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में ही तपस्या की थी. इस ग्रंथ में नंद और उसके वंश को नष्ट करने वाले चाणक्य का भी उल्लेख है.

इनके अतिरिक्त सर्वकलाविद मूलदेव और अचल सार्थवाह श्रेष्ठी का नाम भी पाटलिपुत्र के संबंध में आया है। वायुपुराण के अनुसार 'कुसुमपुर' या 'पाटलिपुत्र' को उदयी ने अपने राज्याभिषेक के चतुर्थ वर्ष में बसाया था। यह तथ्य 'गार्गी संहिता' की साक्षी से भी पुष्ट होता है. परिशिष्टपर्वन (जैकोबी द्वारा संपादित, पृ0 42) के अनुसार भी इस नगर की नींव उदायी (=उदयी) ने डाली थी. पाटलिपुत्र का महत्त्व शोण-गंगा के संगम कोण में बसा होने के कारण, सुरक्षा और व्यापार, दोनों ही दृष्टियों से शीघ्रता से बढ़ता गया और नगर का क्षेत्रफल भी लगभग 20 वर्ग मील तक विस्तृत हो गया. श्री चिं.वि. वैद्य के अनुसार महाभारत के परवर्ती संस्करण के समय से पूर्व ही पाटलिपुत्र की स्थापना हो गई थी, किंतु इस नगर का नामोल्लेख इस महाकाव्य में नहीं है, जबकि निकटवर्ती राजगृह या गिरिव्रज और गया आदि का वर्णन कई स्थानों पर है.

मौर्य साम्राज्य की राजधानी: पाटलिपुत्र की विशेष ख्याति भारत के ऐतिहासिक काल के विशालतम साम्राज्य, मौर्य साम्राज्य की राजधानी के रूप में हुई. चंद्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र की समृद्धि तथा शासन-सुव्यवस्था का वर्णन यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भली-भांति किया है. उसमें पाटलिपुत्र के स्थानीय शासन के लिए बनी एक समिति की भी चर्चा की गई है. उस समय यह नगर 9 मील लंबा तथा डेढ़ मील चौड़ा एवं चर्तुभुजाकार था. चंद्रगुप्त के भव्य राजप्रासाद का उल्लेख भी मेगेस्थनीज ने किया है, जिसकी स्थिति डा. स्पूनर के अनुसार वर्तमान कुम्हरार के निकट रही होगी. यह चौरासी स्तंभो पर आधृत था. इस समय नगर के चतुर्दिंक लकड़ी का परकोटा तथा जल से भरी हुई गहरी खाई भी थी. अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए दो प्रस्तर-स्तंभ प्रस्थापित किए थे. इनमें से एक स्तंभ उत्खनन में मिला भी है. अशोक के शासनकाल के 18वें वर्ष में कुक्कुटाराम नामक उद्यान में 'मोगलीपुत्र तिस्सा' (तिष्य) के सभापतित्व में द्वितीय बौद्ध संगीति (महासम्मेलन) हुई थी.

जैन धर्म की अनुश्रुति में भी कहा गया है कि पाटलिपुत्र में ही जैन धर्म की प्रथम परिषद का सत्र संपन्न हुआ था. इसमें जैन धर्म के आगमों को संग्रहीत करने का कार्य किया गया था. इस परिषद के सभापति 'स्थूलभद्र' थे. इनका समय चौथी शती ई.पू. में माना जाता है. मौर्य काल में पाटलिपुत्र से ही संपूर्ण भारत (गांधार सहित) का शासन संचालित होता था. इसका प्रमाण अशोक के भारत भर में पाए जाने वाले शिलालेख हैं. गिरनार के रुद्रदामन् अभिलेख से भी ज्ञात होता है कि मौर्य काल में मगध से सैकड़ों मील दूर सौराष्ट्र प्रदेश में भी पाटलिपुत्र का शासन चलता था.

शुंगों की राजधानी: मौर्यों के पश्चात् शुंगों की राजधानी भी पाटलिपुत्र में ही रही. इस समय यूनानी मेनेंडर ने साकेत और पाटलिपुत्र तक पहुँचकर देश को आक्रांत कर डाला, किंतु शीघ्र ही पुष्यमित्र शुंग ने इसे परास्त करके इन दोनों नगरों में भली प्रकार शासन स्थापित किया.

गुप्त काल के प्रथम चरण में भी गुप्त साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में ही स्थित थी. कई अभिलेखों से यह भी जान पड़ता है कि चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने, जो भागवत धर्म का महान् पोषक था, अपने साम्राज्य की राजधानी अयोध्या में बनाई थी. चीनी यात्री फ़ाह्यान ने, जो इस समय पाटलिपुत्र आया था, इस नगर के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए लिखा है कि, "यहाँ के भवन तथा राजप्रासाद इतने भव्य एवं विशाल थे कि शिल्प की दृष्टि से उन्हें अतिमानवीय हाथों का बनाया हुआ समझा जाता था।" गुप्त कालीन पाटलिपुत्र की शोभा का वर्णन संस्कृत के कवि 'वररुचि' ने इस प्रकार किया है-'सर्ववीतभयै: प्रकृष्टवदनैर्नित्योत्सवव्यापृतै: श्रीमद्रत्नविभूषणांणगरचनै: स्त्रग्गंधवस्त्रोज्ज्वलै:, कीडासौख्यपरायणैर्विरचित प्रख्यातनामा गुणैर्भूमि: पाटलिपुत्रचारूतिलका स्वर्गायते सांप्रतम्।

पश्चगुप्त काल में पाटलिपुत्र का महत्त्व गुप्त साम्राज्य की अवनति के साथ-साथ कम हो चला। तत्कालीन मुद्राओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि गुप्त साम्राज्य के ताम्र-सिक्कों की टकसाल समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय के समय में ही अयोध्या में स्थापित हो गई थी.

छठी शती ई. में हूणों के आक्रमण के कारण पाटलिपुत्र की समृद्धि को बहुत धक्का पहुँचा और उसका रहा-सहा गौरव भी जाता रहा। 630-645 ई. में भारत की यात्रा करने वाले चीनी पर्यटक युवानच्वांग ने 638 ई. में पाटलिपुत्र में सैंकड़ों खंडहर देखे थे और गंगा के पास दीवार से घिरे हुए इस नगर में उसने केवल एक सहस्त्र मनुष्यों की आबादी ही पाई।. युवानच्वांग ने लिखा है कि पुरानी बस्ती को छोड़कर एक नई बस्ती बसाई गई थी. महाराज हर्ष ने पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी न बनाकर 'कान्यकुब्ज' को यह गौरव प्रदान किया. 811 ई. के लगभग बंगाल के पाल नरेश धर्मपाल द्वितीय ने कुछ समय के लिए पाटलिपुत्र में अपनी राजधानी बनाई. इसके पश्चात् सैकड़ों वर्ष तक यह प्राचीन प्रसिद्ध नगर विस्मृति के गर्त में पड़ा रहा.

पटना नामकरण: 1541 ई. में शेरशाह ने पाटलिपुत्र को पुन: एक बार बसाया, क्योंकि बिहार का निवासी होने के कारण वह इस नगर की स्थिति के महत्त्व को भलीभंति समझता था. अब यह नगर पटना कहलाने लगा और धीरे-धीरे बिहार का सबसे बड़ा नगर बन गया. शेरशाह से पहले बिहार प्रांत की राजधानी बिहार नामक स्थान में थी, जो पाल नरेशों के समय में उद्दंडपुर नाम से प्रसिद्ध था. शेरशाह के पश्चात् मुग़ल काल में पटना ही में से बिहार प्रांत की राजधानी स्थायी रूप रही. ब्रिटिश काल में 1892 में पटना को बिहार-उड़ीसा के संयुक्त सूबे की राजधानी बनाया गया. 'कुम्हरार के हाल' के उत्खनन से ज्ञात होता है कि प्राचीन पाटलिपुत्र दो बार नष्ट हुआ था. परिनिब्बान सुत्त में उल्लेख है कि बुद्ध की भविष्यवाणी के अनुसार यह नगर केवल बाढ़, अग्नि या पारस्परिक फूट से ही नष्ट हो सकता था. 1953 की खुदाई से यह प्रमाणित होता है कि मौर्य सम्राटों का प्रासाद अग्निकांड से नष्ट हुआ था. शेरशाह के शासनकाल की बनी हुई 'शहरपनाह' के ध्वंस पटना से प्राप्त हुए हैं. चौक थाना के पास मदरसा मस्जिद है, जो शायद 1626 ई. में बनी थी. इसी के निकट 'चहल सतून' नामक भवन था, जिसमें चालीस स्तंभ थे. इसी भवन में फ़र्रुख़सियर और शाहआलम को अस्तोन्मुख मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर बिठाया गया था. बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के पिता हयातजंग की समाधि बेगमपुर में है. प्राचीन मस्जिदों में शेरशाह की मस्जिद और अंबर मस्जिद हैं. सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह का जन्म पटना में ही हुआ था. उनकी स्मृति में यहाँ एक गुरुद्वारा भी बना हुआ है. वायुपुराण में पाटलिपुत्र को 'कुसुमपुर' कहा गया है. कुसुम 'पाटल' या 'ढाक' का ही पर्याय है. कालिदास ने इस नगरी को पुष्पपुर लिखा है.

अलविदा बिहार !: रात में हमने पटना शहर में प्रवेश किया. आज छठ का त्योहार होने के कारण पटना के रास्तों पर भारी भीड़ थी. भीड़ को पार करना कठिन हो रहा था. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता बीच-बीच रास्तों को गाडियाँ जाने के लिए खुलवा रहे थे. 12.11.2010 रात के 21.30 बजे हम पटना स्टेशन पहुँच गए और गौहाटी के लिए ट्रेन (2506 North East Exp) से 22.20 पर रवाना हुये. और इस प्रकार हमने बिहार को अलविदा कहा और आसाम राज्य की यात्रा पर चल पड़े. बिहार के उपरोक्त स्थानों में दो दिन के भ्रमण के बाद हमारी बिहार के प्रति धारणा बदल गई. यहाँ पर सड़कों, ऐतिहासिक धरोहरों और पर्यटन स्थलों का अच्छा विकास हुआ है.

Source: Facebook-post of Laxman Burdak 10.2.2021

गुवाहाटी (असम) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-5

गुवाहाटी - काजीरंगा - गुवाहाटी (असम) भ्रमण: दिनांक 13-16.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में पावापुरी- कुंडलपुर - पटना का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए गुवाहाटी (असम) का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल तथा इसका पर्यटन संबंधी महत्व. अगले भाग में पढ़िए काजीरंगा (असम) के बारे में.

पटना से गुवाहाटी यात्रा: पटना स्टेशन से गुवाहाटी के लिए ट्रेन (2506 North East Exp) से 12.11.2010 को रात्री 22.30 बजे रवाना हुये. रास्ते में बिहार, पश्चिम बंगाल और आसाम के निम्न लिखित स्टेशन पड़ते हैं.

Patna (12.11.2010 :21.30) → BarauniBegusaraiKhagariaMansiNaugachiaKatiharBarsoiKishanganj (Bihar) → Siliguri (WB), Jalpaiguri (WB) → Kuch Bihar (WB) → Alipurduar (WB) → Kokrajhar (Assam) → BongaigaonMaligaon → Guwahati (13.11.2010: 16.30) (Distance 881 km)

13.11.2010: ट्रेन का यह सफर 12.11.2010 पूरी रात और 13.11.2010 का दिनभर का चला जो बड़ा आनंद दायक रहा है. ट्रेन के रास्ते में पड़ने वाली स्टेशनों का विवरण ऊपर दिया गया है. किशनगंज तक बिहार पड़ता है और सिलीगुड़ी से कूचबिहार तक पश्चिम बंगाल पड़ता है. दिन में आने वाले पश्चिम बंगाल के भाग में रेल यात्रा थोड़ी अव्यवस्थित रही. पुराने जमाने में ऐसा बिहार राज्य में हुआ करता था. बिहार राज्य के इस रेल-खंड की यात्रा 7-8 जनवरी 1981 को भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षण के दौरान भी हम कर चुके हैं. उस समय बिहार राज्य में प्रवेश करते ही हमारे बिहार के साथियों द्वारा यह घोषणा की गई थी कि हम बिहार में प्रवेश कर चुके हैं, अपने कोच के दरवाजे-खिड़कियां बंद कर लें. परंतु इस समय बिहार के खंड में यह अव्यवस्था देखने को नहीं मिली. पश्चिम बंगाल के भाग में रेल के एसी प्रथम श्रेणी के हमारे कोच में भी सामान बेचने वाले पूर्ण आजादी से घूम-फिर रहे थे. हमारी सीट साईड वाली थी और इन सामान बेचने वालों से काफी व्यवधान उत्पन्न होता था. हमने कोच के इंचार्ज से कहा कि इन लोगों को ट्रेन में घुसने से रोकिए. उन्होने कहा कि आपकी सीट बदल सकता हूँ परंतु इन घुसने वाले लोगों को नहीं रोक सकता. वजह बताई गई कि सुश्री ममता बनर्जी इस समय रेल-मंत्री हैं और वह पश्चिम बंगाल की हैं. पश्चिम बंगाल के ये सामान बेचने वाले अपने आप को सीधा ममता बनर्जी से जुड़ा हुआ मानते हैं और रेल स्टाफ के साथ प्राय: दुर्व्यवहार करते हैं.

गुवाहाटी भ्रमण 13-14,16.11.2010

13.11.2010: शाम 16.30 बजे हम पटना-गुवाहाटी (दूरी 881 किमी) की यात्रा कर गुवाहाटी पहुँचे. गुवाहाटी स्टेशन पहुँचने पर भारतीय वन सेवा के हमारे बैचमेट श्री दरश माथुर ने स्वागत किया. उन्होंने हमें एक निजी कंपनी के एक अच्छे विश्राम गृह में रुकवाया. रात का शानदार डिनर श्री दरश माथुर तथा उनकी पत्नी श्रीमती नीलम माथुर ने अपने घर पर दिया. डिनर के दौरान हमने 1980-82 में देहारादून प्रशिक्षण की पुराने यादें ताजा की.

14.11.2010: श्री दरश माथुर के साथ आज गुवाहाटी में सुबह कामाख्या मंदिर, नवगृह मंदिर, भुबनेश्वरी मंदिर देखने गए तथा शाम को शंकरदेव कलाक्षेत्र और पूर्वा तिरुपति बालाजी मंदिर का भ्रमण किया. दोपहर को मारवाड़ी समाज द्वारा संचालित गुवाहाटी गौशाला गए. गुवाहाटी शहर में भ्रमण के दौरान देखे गए स्थलों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है.

गुवाहाटी परिचय

गुवाहाटी परिचय शहर, भूतपूर्व गौहाटी, पूर्वोत्तर भारत के पश्चिमी असम राज्य में स्थित है. गुवाहाटी ब्रह्मपुत्र नदी के तट पर बसा एक नैसर्गिक सौंदर्य संपन्न शहर है, जिसके दक्षिण में वनाच्छादित पहाड़ियाँ हैं. गुवाहाटी असम का सबसे बड़ा और ख़ूबसूरत शहर है. गुवाहाटी अपनी अद्वितीय, विविध और रंगीन संस्कृति के लिए जाना जाता है. गुवाहाटी का नामकरण सुपारी के नाम पर पड़ा है. असमी भाषा में गुवा (গুৱা) = सुपारी, हाट = बाजार. और गुवाहाटी का अर्थ है- ‘सुपारी का बाजार’ (areca-nut market).

कामाख्या मंदिर गुवाहाटी में लक्ष्मण बुरड़क और पत्नी गोमती बुरड़क

कामाख्या मंदिर: नगर के केन्द्र से 8 किलोमीटर के फ़ासले पर पवित्र नीलाचंल की पहाड़ी पर स्थित कामाख्या मंदिर सबसे महत्त्वपूर्ण है. यह तांत्रिक अनुष्ठानों तथा वैश्विक मातृसत्ता की प्रतीक शक्ति का उपासना स्थल है. वर्तमान मंदिर का निर्माण मूल मंदिर के 10 वीं सदी में ध्वस्त कर दिए जाने पर किया गया था. प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है. नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है. यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है. कहा जाता है कि सती पार्वती ने अपने पिता दक्ष द्वारा अपने पति, भगवान शिव का अपमान किए जाने पर हवन कुंड में कूदकर अपनी जान दे दी थी. भगवान शिव ने सती का शरीर आग से निकाला और तांडव नृत्य आरंभ कर दिया. अन्य देवतागण उनका नृत्य रोकना चाहते थे, अत: उन्होंने भगवान विष्णु से शिव को मनाने का आग्रह किया. भगवान विष्णु ने सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए और भगवान शिव ने नृत्य रोक दिया. सती के शरीर के 51 टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ शक्ति-पीठ स्थापित किए गए हैं. कहा जाता है कि सती की योनि (सृजक अंग) गुवाहाटी में कामाख्या मंदिर के स्थान पर गिरी. यह मंदिर देवी की प्रतीकात्मक ऊर्जा को समर्पित है. बाकी देवी मंदिरों की तरह ही कामाख्या देवी का मंदिर भी एक पहाड़ी पर स्थित है. इस पहाड़ी का नाम नीलाचल पर्वत है. इस पहाड़ी के नीचे से सीढ़ियां शुरू होती हैं जहां से आप मंदिर के लिए यात्रा शुरू कर सकते हैं. वृद्ध लोगों के लिए यहां कुलियों की भी व्यवस्था भी है.

कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था. कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है. गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला. यह स्थान आज भी कुक्टाचकि के नाम से विख्यात है. बाद में भगवान विष्णु ने नरकासुर का वध कर दिया. नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना. भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा.

नवगृह मंदिर गुवाहाटी

नवगृह मंदिर: नवग्रह मंदिर चित्रशाला पहाड़ी पर स्थित है. नवगृह मंदिर, ज्योतिष और ख़गोल शास्त्र के अध्ययन का प्राचीन केंद्र था. नवग्रह मंदिर, हमारे सौर मंडल के नौ ग्रहों को समर्पित, प्रत्येक मंदिर नवग्रह पहाड़ी की चोटी पर स्थित विभिन्न पत्थरों से खूबसूरती से बनाया गया है. नवग्रह का अर्थ है नौ ग्रह. नौ ग्रहों को प्रतिबिंबित करने के लिए मंदिर के अंदर नौ शिवलिंग स्थापित किए गए हैं. प्रत्येक शिवलिंग अलग-अलग रंग के कपड़े से ढका हुआ है. ऐसा माना जाता है कि नवग्रह मंदिर का निर्माण 18 वीं शताब्दी में अहोम राजा राजेश्वरसिंह और बाद में उनके बेटे रुद्रसिंह ने करवाया था. मंदिर का एक बड़ा हिस्सा 1897 में एक भयानक भूकंप में नष्ट हो गया था. हालांकि, बाद में इसे लोहे की चादरों की मदद से फिर से बनाया गया था. ऐसा माना जाता है कि गुवाहाटी का पुराना नाम प्राग्ज्योतिषपुर इस मंदिर के खगोलीय और ज्योतिषीय केंद्र के कारण उत्पन्न हुआ था. मंदिर परिसर में बना सिलपुखुरी तालाब भी यहाँ का प्रमुख आकर्षण है और कहा जाता है कि यह पूरे साल भर भरा रहता है.

भुबनेश्वरी मंदिर गुवाहाटी

भुबनेश्वरी मंदिर गुवाहाटी: भुवनेश्वरी मंदिर गुवाहाटी में सबसे लोकप्रिय प्राचीन मंदिरों में से एक है, जो देवी नीलाभेश्वरी, सुंदर नीलाचल पहाड़ियों के शीर्ष पर स्थित है. यह एक पवित्र प्राचीन मंदिर है, जिसे भुवनेश्वरी देवी के सम्मान में बनाया गया है, जो गुवाहाटी में कामाख्या देवी के प्रसिद्ध मंदिर से थोड़ा अधिक है. हिंदू धर्म के अनुसार, भुवनेश्वरी देवी 10 महाविद्या देवी में से चौथी देवी हैं. कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 7 वीं और 9 वीं शताब्दी के बीच हुआ था. पत्थरों से बने इस मंदिर की संरचना कामाख्या मंदिर से काफी मिलती-जुलती है और यहाँ से आप सुरम्य वातावरण का आनंद ले सकते हैं. अंबुबाची मेला, नवरात्रि और मनशा पूजा के दौरान मंदिर आमतौर पर पूरे साल खुला रहता है. यह मंदिर बड़ी संख्या में पर्यटकों और दुनिया भर से भक्तों को आकर्षित करता है. इस स्थान पर आध्यात्मिक वातावरण और प्राकृतिक सुंदरता का एक संयोजन है. ज्यादातर पर्यटक कामाख्या से भुवनेश्वरी मंदिर तक चढ़ाई शुरू करते हैं. इस दौरान, नीचे से बहने वाली ब्रह्मपुत्र नदी का एक अद्भुत दृश्य देखा जा सकता है. इसके अलावा, आप भुवनेश्वरी मंदिर से गुवाहाटी शहर का मंत्रमुग्ध कर देने वाला दृश्य देख सकते हैं.

बन दुर्गा मंदिर गुवाहाटी: यह मंदिर मयूरशिला पहाड़ी के छोटी पर बना हुआ है. यहाँ जैव विविधता पार्क बनाया गया है. वनदुर्गा का मंदिर गुवाहाटी में कामाख्या मंदिर के पास ही स्थित है.

शंकरदेव कलाक्षेत्र गुवाहाटी में लक्ष्मण बुरड़क और गोमती बुरड़क

शंकरदेव कलाक्षेत्र: शंकरदेव कलाक्षेत्र असम का सांस्कृतिक संग्रहालय है. यह गुवाहाटी का प्रमुख पर्यटन स्थल भी है. इसे असम की संस्कृति और जीवन को दर्शाने के लिए बनवाया गया है. यह गुवाहाटी शहर के पंजाबाड़ी क्षेत्र में स्थित है. यह एक ही परिसर में पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र को दर्शाते हुए एक कला और सांस्कृतिक संग्रहालय है. यहॉ बच्चों के लिए एक सुंदर पार्क है. इसका निर्माण सन् 1990 के दशक में किया गया था. असम के लोगों को संगठित करने वाले, महान वैष्णव भक्त कवि, सन्त एवं नाटककार श्रीमंत शंकरदेव के नाम पर इस कलाक्षेत्र का नाम रखा गया. यहां विविध कला परिसर हैं. 2000 लोगों की क्षमता वाला यहां के ओपन एयर थियेटर में सांस्कृतिक पर्व और नृत्य आयोजित होते रहते हैं. यहां का साहित्य और ललित कला भवन भी खासे लोकप्रिय हैं.

पूर्वा तिरुपति बालाजी मंदिर गुवाहाटी में लक्ष्मण बुरड़क, गोमती बुरड़क

पूर्वा तिरुपति बालाजी मंदिर गुवाहाटी: गुवाहटी के बेटकुची नाम की जगह पर पूर्वा श्री तिरुपति बालाजी मंदिर स्थापित है. करीब 2 एकड में फैला ये मंदिर स्वच्छता और सुंदरता में बेजोड है. रात में इस मंदिर का नजारा देखने लायक होता है इसलिये श्री दरश माथुर के साथ हम रात के समय गए. मंदिर में जाने से पहले बहुत दूर जूते चप्पल निकालने की व्यवस्था थी. मंदिर परिसर की खूबसूरती बढाने के लिये अशोक के पेड , नारियल , तरह-तरह के फूल और हरी दूब घास हर जगह है. मंदिर का प्रवेश द्धार बडा ही सुंदर है. प्रवेश द्धार पर गणेश जी की मूर्ति है. मंदिर में प्रवेश करने के बाद मंदिर में बालाजी का राजागोपुरम है जो कि 70 फीट उंचा है. एक महामंडपम है और एक अर्ध मंडपम. मुख्य प्रवेश द्धार और मंदिर के बीच में एक झंडा लगा हुआ है जिसका पोल करीब 60 फीट उंचा है इसकी खास बात ये है कि ये एक ही पेड के तने से बना है जो साल का पेड है. इस पर तांबे की प्लेट है जिस पर पेंट किया गया है. मुख्य मंदिर और मूर्ति श्री बालाजी की है जो कि बताया जाता है कि एक ही पत्थर की बनी है जो कि 4 टन का था. मंदिर के अंदर फोटो लेना मना है इसलिये फोटो बाहर से ही लिए गए हैं. मंदिर परिसर में एक मंदिर देवी दुर्गा का भी है जिनकी 8 भुजाऐं हैं और उन भुजाओ में विभिन्न चक्र एवं शंख के साथ ही हथियार आदि धारण किये हैं. एक मंदिर भगवान विष्णु के वाहन गरूण को समर्पित है. गोपुरम शिल्प शास्त्र एवं दक्षिण भारतीय शैली में बनाये गये हैं.

गौहाटी गोशाला में श्रीमती गोमती बुरड़क, श्री सोमेन्द्र शर्मा ट्रस्टी, श्री के.आर. चौधरी, श्री श्रवण बेनीवाल और श्री मुरारीलाल शर्मा

श्री गौहाटी गोशाला: गुवाहाटी में मारवाड़ी समाज द्वारा 1916 में शहर के मध्य आठगांव में निर्मित एक गौशाला स्थित है जो मारवाड़ी समाज के द्वारा सामूहिक रूप से ही संचालित की जा रही है. इसमें समय-समय पर मारवाड़ी समाज द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं. संयोग से मेरे गुवाहाटी प्रवास के दौरान ही यहाँ गोपाष्टमी मेला चल रहा था. गोपाष्टमी दिवाली के बाद आठवें दिन मनाई जाती है. इस दिन गायों की पूजा की जाती है और उनको घास और गुड़ खिलाया जाता है. पूर्वाञ्चल जाट महासभा के अध्यक्ष श्री के आर चौधरी जी (9435024549) को मेरे गुवाहाटी में होने का पता चला तो मुझे भी यहाँ सपत्नीक आमंत्रित किया. यहाँ राजस्थान के बंधुओं द्वारा हमारा अच्छा स्वागत-सत्कार किया गया और दोपहर का भोजन भी कराया गया. यहाँ राजस्थानी भाईचारा और राजस्थान से इतनी दूर राजस्थानी संस्कृति देखकर काफी खुशी हुई.

बसिष्ठ मंदिर

वसिष्ठ आश्रम: गुवाहाटी नगर से 12 किलोमीटर दूर वसिष्ठ आश्रम स्थित है. इस आश्रम के अंदर वशिष्ठ मंदिर है जो गुवाहाटी नगर के दिसपुर उपनगर में स्थित एक शिव मंदिर है. मान्यता है कि इस शिव को समर्पित मंदिर की स्थापना वैदिक काल में महऋषि वशिष्ठ ने की थी. यह मेघालय की सीमा के समीप है. यहाँ से कई जलधाराएँ आती हैं जिनके किनारे यह मंदिर व आश्रम स्थित है और जो यहाँ से आगे वशिष्ठ नदी और बाहिनी नदी के रूप में नगर की ओर बहती हैं. यह स्थान वन से घिरा है.

उमानंद शिव मंदिर

उमानंद (शिव) मंदिर : गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य उमानंद द्वीप (मयूर द्वीप) में उमानंद (शिव) मंदिर स्थित है. यह कामरूप के उपायुक्त या गुवाहाटी में कचहरी घाट के पास स्थित है. यहाँ फेरी या स्टीमर से जा सकते हैं. उमानंद मंदिर अपनी वास्तुश्ल्पिीय विशेषता के लिए जाना जाता है. भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर का निर्माण अहोम राजा गदाधर सिंह के शासन काल में बार पुकान गढ़गन्य हंदीक्यू ने किया था. यहां हर साल फरवरी के महीने में पड़ने वाली शिवरात्रि के दौरान बड़ी संख्या में श्रद्धालू आते हैं. मंदिर तो अपने आप में खूबसूरत है ही, पर मंदिर के चारों ओर बहने वाले ब्रह्मपुत्र का नजारा मंत्रमुग्ध कर देने वाला होता है. अगर आप यह मंदिर घूमने जा रहे हैं तो शाम के समय जाइए, जब सूरज डूब रहा हो. मंदिर की दीवार पर की गई ढेरों नक्काशी काफी रोचक है. हिंदू धर्म के भगवान सूर्य, शिव, गणोश और देवी सहित कईयों की छवि को दीवार पर उकेरा गया है.

उमानंद आइलैंड पर पहुंचते ही आपको मंदिर का प्रवेश द्वार दिखने लगेगा. कुछ सीढ़यां चढ़ने के बाद आप उमानंद मंदिर के परिसर में पहुंच जाएंगे. यहां पर दर्शन करने के बाद जैसे ही आप मंदिर से बाहर निकलेंगे आपको यहां पर दो और मंदिरों के दर्शन करने को मिलेंगे. यह मंदिर भी शिवजी के ही दूसरे स्‍वरूपों के हैं. यहां पर आपको शिवजी के बद्रीनाथ और महाकालेश्‍वर मंदिर के दर्शन करने को मिलेंगे. उमानंद आइलैंड से कुछ ही दूरी पर कामाख्‍या देवी का मंदिर है. कहते हैं कि जब शिव जी इस आइलैंड पर बैठ कर तपस्‍या कर रहे थे तब पारवती जी उनका इंतजार कामाख्‍या देवी मंदिर पर बैठ कर कर रहीं थी. बस तब से ही इस इस जगह का नाम उमानंद पड़ गया. स्‍थानीय लोग तो यह भी मानते हैं कि कामाख्‍या देवी मंदिर के दर्शन करने से पहले इस मंदिर में भक्‍तों को आकर पहले शिव जी के दर्शन करने चाहिए तब ही कामाख्‍या देवी के दर्शन सफल हो पाते हैं.

कालिका पुराण के अनुसार शिव ने यहाँ भस्म छिड़ककर पार्वती को ज्ञान दिया था. यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है. इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है. ऐसा माना जाता है कि यहीं पर समाधिस्थ शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर शिव ने उसे भस्म कर दिया था. इसीलिये यह भस्माचल पर्वत या भस्मकूट नाम से भी जाना जाता है.

गुवाहाटी का इतिहास: गोहाटी नगर का प्राचीन नाम शोणितपुर कहा जाता है. महाभारत के अनुसार यहां प्राग्ज्योतिष की राजधानी थी. इसका अन्य नाम प्राग्ज्योतिषपुर भी था. प्राचीन किंवदंती के अनुसार महाभारत में ऊषा-अनिरुद्ध उपाख्यान के संबंध में वर्णित ऊषा के पिता बाणासुर की राजधानी यहीं थी. कहा जाता है कि कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध ने ऊषा का हरण इसी स्थान पर किया था और यहीं उनका बाणासुर से युद्ध हुआ था. महाभारत, सभापर्व 38 में बाणासुर को शोणितपुर का राजा कहा गया है- 'तस्माल्लबध्वा वरान् बाणो दुर्लभान् स सुरैरपि, स शोणितपुरे राज्यं चकाराप्रतिमो बली।' इस पुरी का वर्णन उपरोक्त अध्याय में (दाक्षिणात्यपाठ) इस प्रकार है- 'अथासाद्य महाराज तत्पुरीं ददृशुश्च ते, ताम्रप्रकार संवीतां रूप्यद्वारैश्च शोभिताम्, हेमप्रासाद सम्बाधां मुक्तामणिविचित्रिताम उद्यानवनसम्पन्नं नृत्तगीतैश्च शोभिताम्। तोरणैः पक्षिभिः कीर्णा पुष्करिण्या च शोभिताम् तां पुरीं स्वर्गसंकाशां हृष्टपुष्ट जनाकुलाम्।' विष्णुपुराण 5, 33, 11 में भी बाणासुर की राजधानी शोणितपुर में बताई गई है- 'तं शोणितपुरं नीतं श्रुत्वा विद्याविदग्धया।'

शोणितपुर का अभिज्ञान कुछ विद्वानों ने असम की वर्तमान राजधानी गोहाटी से किया है. इसको प्राग्ज्योतिषपुर भी कहा जाता था. श्रीमद्भागवत 10, 62, 4 में ऊषा-अनिरुद्ध की कथा के प्रसंग में शोणितपुर को बाणासुर की राजधानी बताया गया है- 'शोणिताख्ये पुरे रम्ये स राज्यमकरोत्पुरा, तस्य शंभोः प्रसादेन किंकरा इव तेऽमराः।' ऊषा की सखी सोते हुए अनिरुद्ध को द्वारिका से योग क्रिया द्वारा उठाकर शोणितपुर ले आई थी- 'तत्र सुप्तं सुपर्यंके प्राद्युम्निं योगमास्थिता गृहीत्वा शोणितपुरं सख्यै प्रियमदर्शयत्।' श्रीमद्भागवत 10, 62, 23

400 ई. में गुवाहाटी कामरूप की राजधानी (प्रागज्योतिषपुर) हुआ करता था. महाभारत काल में पूर्व के प्रकाश के नाम से प्रसिद्ध यह स्थान असुर राजा नरकासुर की राजधानी थी. कहा जाता है कि यहीं पर सौन्दर्य और जीवन के स्रोत कामरूप का पुनर्जन्म हुआ था. इसके उल्लेख भारतीय पुराणों में भी हैं. काफ़ी समय तक यह हिन्दू तीर्थस्थल तथा शिक्षा का केन्द्र भी रहा है. सातवीं सदी के महान् यात्री ह्वेनसांग ने इस शहर का वर्णन किया है. ख़ासतौर से गुवाहाटी के वनों, सुंदर पर्वत मालाओं तथा वन्यजीवन का उल्लेख किया गया है. 17 वीं सदी में यह नगर बार-बार मुसलमान तथा अहोम शासकों (चीन के युन्नान प्रांत से यहाँ पहुँची ताई भाषा बोलने वाली जाति) के हाथों में आता-जाता रहा और अंततः 1681 में यह निचले असम के अहोम प्रशासक का मुख्यालय बना तथा 1786 में अहोम राजा ने इसे अपनी राजधानी बना लिया. गुवाहाटी पर 1816 से 1826 तक बर्मियों का क़ब्ज़ा रहा, जब यांदाबू की संधि के द्वारा उन्होंने इसे ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया. 1874 में असम की राजधानी को यहाँ से 108 किलोमीटर दूर शिलांग ले जाया गया. 1973 से गुवाहाटी असम की राजधानी है. दिसपुर के नई राजधानी बन जाने के बाद भी यह शहर न केवल असम बल्कि समूचे पूर्वोत्तर क्षेत्र का व्यापारिक केंद्र बना हुआ है.

उद्योग व व्यवसाय: गुवाहाटी असम का महत्त्वपूर्ण व्यापार केंद्र तथा बंदरगाह है. पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार गुवाहाटी आसपास के क्षेत्र की व्यवसायिक गतिविधियों का केन्द्र है. इसे विश्व का सबसे बड़ा चाय का बाज़ार माना जाता है. एक अनुमान के अनुसार 35 प्रतिशत लोग यहाँ चाय बागानों या चाय उद्योग से जुड़े हुये हैं. यहाँ एक तेलशोधन संयंत्र और सरकारी कृषि क्षेत्र है तथा उद्योगों में चाय तथा कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण, अनाज पिसाई तथा साबुन बनाना हैं. यहाँ कोई अन्य बड़े उद्योग नहीं हैं. लगभग 17 प्रतिशत आबादी उद्योग, व्यापार तथा वाणिज्य में लगी हुई है तथा उद्योगों पर राजस्थान से आए मारवाड़ियों का एकाधिकार है.

संस्कृति: गुवाहाटी की आबादी मिलीजुली है, जिसमें बंगाली, पंजाबी, बिहारी, नेपाली, राजस्थानी तथा बांग्लादेशी शामिल हैं. इसके अलावा यहाँ सारे पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समुदायों के लोग भी बसते हैं. यहाँ गुवाहाटी विश्वविद्यालय (स्थापना 1948), अर्ल लॉ कॉलेज, राज्य उच्च न्यायालय अनेक हिन्दू तीर्थस्थलों के अवशेष बिखरे पड़े हैं.

पर्यटन: गुवाहाटी राज्य का पर्यटन विभाग आसपास के स्थलों की यात्राएँ आयोजित कराता है. कई स्थानीय मेले तथा उत्सव भी यहाँ मनाए जाते हैं. सर्दियों में असम चाय उत्सव मनाया जाता है. गुवाहाटी में मंदिरों वाली छोटी पहाड़ियाँ हैं. शहर के बीचोंबीच शुक्लेश्वर की पहाड़ी पर जनार्दन मंदिर है. उसमें स्थापित बुद्ध की प्रतिमा में हिन्दू और बौद्ध विशिष्टताओं का अनोखा मिश्रण है. कामाख्या मंदिर का बहुत महत्व है. नवग्रह मंदिर नवग्रहों को समर्पित है, क्योंकि देश में नवग्रहों का बहुत महत्व है. यह अपने आप में अद्भुत मंदिर है. वसिष्ठ आश्रम वैदिक काल में महऋषि वशिष्ठ ने की थी. भुवनेश्वरी मंदिर गुवाहाटी में सबसे लोकप्रिय प्राचीन मंदिरों में से एक है. उमानंद (शिव) मंदिर गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य उमानंद द्वीप (मयूर द्वीप) में शिव मंदिर है जो अपनी वास्तुश्ल्पिीय विशेषता के लिए जाना जाता है. शंकरदेव कलाक्षेत्र असम का सांस्कृतिक संग्रहालय है. विश्व का सबसे बड़ा चाय का बाज़ार भी यहीं है. इन सबको देखते हुये गुवाहाटी पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र हो सकता है.


लेखक के बुरड़क गोत्र से संबंध: आसाम से मेरे पूर्वजों का कुछ संबंध इतिहास में मिलता है. बुरड़क गोत्र के इतिहास में वशिष्ठ (Vashistha) उनके गुरु के रूप में दर्ज हैं. यह अनुसंधान का विषय है कि राजस्थान से इतनी दूर कैसे संबंध रहा होगा. दूसरा एक संदर्भ एक शती पूर्व का मिलता है. मेरे परदादा श्री खुमाणारामजी संवत 1962 (1905 ई.) में रतनगढ़ से ठठावता गाँव, जिला चुरू, राजस्थान में आकर बस गए थे. खुमाणारामजी के 11 बेटे और एक बेटी लाडो नाम की थी. बेटों के नाम पेमाजी, भींवाजी, बोदूजी, ... आदि थे. परदादा के भाई नूनारामजी और दादा (भींवारामजी) के भाई पेमारामजी रतनगढ़ के ओसवाल बनियों के साथ दिसावर (आसाम) गए हुये थे. संवत 1975 (1918 ई.) में देश में भयंकर महामारी (स्पेनिश फ़्लू) फ़ैल गयी. परदादा के भाई नूनारामजी दिसावर में ही माहमारी से ख़त्म हो गये और दादा के भाई पेमारामजी वहां से रतनगढ़ आकर माहमारी से ख़त्म हो गये. संवत 1975 (1918 ई.) की महामारी में खुमाणारामजी के सभी 10 बेटे और बेटी लाडां मर गये थे. केवल मेरे परदादा खुमाणारामजी और दादा भींवारामजी ही जीवित बचे थे.

16.11.2010: काजीरंगा से लौटने के बाद गुवाहाटी में शाम को हम फ्री थे उस दौरान पूर्वाञ्चल जाट महासभा के अध्यक्ष श्री के.आर. चौधरी और उपाध्यक्ष श्री श्रवण बेनीवाल रेस्ट हाऊस आए. उन्होने हमारा शाल भेंट कर स्वागत किया. श्री के.आर. चौधरी पिछले 35 साल से गुवाहाटी में ही हैं और अनेक सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुये हैं यथा: हिंदुस्तानी एकता मंच, पूर्वाञ्चल प्रदेश मारवाड़ी सम्मेलन, सचिव प्रदेश कांग्रेस कमिटी, वर्ल्ड जाट आर्यन फ़ाउंडेशन आदि. इन्होंने असम के बारे में अनेक जानकारियाँ देकर हमारा ज्ञानवर्धन किया. रात्री में उन्होने हमें मारवाड़ी होटल जयश्री में शानदार राजस्थानी खाना खिलाया. चर्चा में उनको जब पता लगा कि मेरी इतिहास में रुचि है तो वे अगले दिन गुवाहाटी स्टेशन भी पहुँचे और नागौर जिले में स्थित अपने गाँव धनकोली पर श्री एम.के. आजाद द्वारा लिखी गई खोजपूर्ण पुस्तक ‘धनकोली आजतक’ भी भेंट की. इस पुस्तक से मुझे ख़ासतौर पर राजस्थान के इतिहास के बारे में काफी ऐतिहासिक जानकारियाँ मिली.

स्रोत: Facebook Post of Laxman Burdak Dated 15.2.2021

गुवाहाटी के चित्र

काजीरंगा (असम) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-6

गुवाहाटी-काजीरंगा - गुवाहाटी (असम) भ्रमण: दिनांक 15-16.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया-बौद्धगया-राजगीर-नालंदा-पवापुरी- कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी-काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में गुवाहाटी (असम) का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए काजीरंगा (असम) का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल तथा इसका पर्यटन संबंधी महत्व. अगले भाग में पढ़िए दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) के बारे में.

काजीरंगा भ्रमण 15-16.11.2010

गुवाहाटी-काजीरंगा यात्रा: 15.11.2010 को सुबह हम गुवाहाटी से रवाना होकर दोपहर बाद काजीरंगा पहुँचे. काज़ीरंगा गोवाहाटी से लगभग 200 किलोमीटर पूर्व में स्थित है. सड़क निर्माणाधीन होने के कारण हमें नॉर्मल से ज्यादा समय (लगभग 6 घंटे) लगा. रास्ते में गुवाहाटी से 120 किमी दूर नगाँव (Nagaon) शहर पड़ता है. नगाँव में वन मंडल अधिकारी (C. Muttukumarwel) और उनके स्टाफ द्वारा हमें लंच दिया गया. लंच पर ही चर्चा में इस भूभाग के बारे में जानकारियाँ प्राप्त की. इस भूभाग के ऐतिहासिक तथ्यों पर अनुसंधान करने पर गुप्त साम्राज्य के अभिलेखों में वर्णित एक राज्य डावक का सही-सही अभिज्ञान संभव हुआ.

नगाँव जिले के मानचित्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि नगाँव के दक्षिण में एक कस्बा है जिसका नाम डबक है, जिसका प्राचीन नाम संभवत: डावक था जिसका उल्लेख गुप्त साम्राज्य के प्रत्यन्त देशों के प्रसंग में सम्राट समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में किया गया है- 'समतट डावक कामरूप नेपाल कृतपुरादि प्रत्यन्त नृपतिभि:।' इतिहासकारों द्वारा डावक का अभिज्ञान बांग्लादेश के ढाका तथा उत्तरी ब्रह्मदेश के टगांग के निकटस्थ प्रदेश के साथ किया गया है. सम्राट समुद्रगुप्त के गुप्त साम्राज्य की पूर्वी सीमा पर डवाक स्थित था. मेरा निश्चित मत है कि नगाँव के दक्षिण में स्थित कस्बा डबक ही गुप्तकालीन डावक था.

काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में हमारे रुकने की व्यवस्था वन विश्राम गृह में की गई थी. परिक्षेत्र अधिकारी काज़ीरंगा सौजन्य भेंट करने के लिए आए और यहाँ के बारे में अवगत कराया. हमने दो राउंड लिए एक शाम को और फिर दूसरा सुबह. राष्ट्रीय उद्यान में घुमाने की और रुकने की अच्छी व्यवस्था की गई. शाम का राऊण्ड जिप्सी से लिया गया जिसमें वन्य प्राणियों के साथ-साथ वाच टावर से सूर्यास्त देखने का भी दुर्लभ अवसर मिला.

काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान: भारत के असम राज्य में स्थित है. काज़ीरंगा जोरहट से 97 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है. काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान न केवल भारत में वरन् पूरे विश्वम में एक सींग वाले गैंडे (राइनोसेरोस यूनीकोर्निस) के लिए प्रसिद्ध है. काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान यूनेस्को द्वारा घोषित विश्वधरोहरों की सूची में सम्मिलित है. काज़ीरंगा राष्ट्रीय उद्यान मध्य असम में 430 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला है. काजीरंगा को वर्ष 1905 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया था.

इस राष्ट्रीय उद्यान का प्राकृतिक परिवेश वनों से युक्त है, जहाँ बड़ी एलिफेंट ग्रास, मोटे वृक्ष, दलदली स्थान और उथले तालाब हैं. एक सींग वाला गैंडा, हाथी, भारतीय भैंसा, हिरण, सांभर, भालू, बाघ, चीते, सुअर, बिल्ली, जंगली बिल्ली , हॉग बैजर, लंगूर, हुलॉक गिब्बवन, भेडिया, साही, अजगर और अनेक प्रकार की चिडियाँ, जैसे- 'पेलीकन', बत्तख, कलहंस, हॉर्नबिल, आइबिस, जलकाक, अगरेट, बगुला, काली गर्दन वाले स्टॉर्क, लेसर एडजुलेंट, रिंगटेल फिशिंग ईगल आदि बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. सर्दियों में यहाँ साइबेरिया से कई मेहमान पक्षी भी आते हैं. काजीरंगा में विभिन्न प्रजातियों के बाज, विभिन्न प्रजातियों की चीलें और तोते आदि भी पाये जाते हैं.

16.11.2010: काजीरंगा में सुबह जल्दी उठकर राष्ट्रीय उद्यान का भ्रमण किया. खुली जिप्सी के अलावा जंगल में हाथी पर सवार होकर ले जाया जाता है जिससे वन्य प्राणियों को बहुत नजदीक से देख सकते हैं. काफी संख्या में एक सींग वाले गैंडे (राइनोसेरोस यूनीकोर्निस) के दर्शन हुये. हाथी पर राऊण्ड लेने के बाद वन विश्राम गृह लौटते समय एक भारी-भरकम गेंडा ठीक सड़क पर हमारे सामने आ गया और काफी देर तक रुका रहा मानो कह रहा हो- लौटकर यह मत कहना कि हमें ठीक से गेंडे के दर्शन नहीं हुये. हम भी आभार की मुद्रा में रुक गए और गेंडे की हरकतें देखते रहे. गेंडे ने कुछ देर बाद सड़क पार की और जंगल में चला गया. हमने भी गेंडे के हाव-भाव के लिए उसको धन्यवाद दिया और वन विश्राम गृह लौट गए. फ़्रेश होकर नाश्ता किया. काजीरंगा वन विश्राम गृह के विजिटर रजिस्टर में टीप लिखी. काजीरंगा की सुखद अनुभूतियों के साथ वापस गुवाहाटी के लिए रवाना हुये और शाम को गुहवाटी पहुँचे.

आसाम राज्य का इतिहास, भूगोल और जनजीवन

आज आसाम राज्य में भ्रमण का अंतिम दिन था. ऊपर गुवाहाटी शहर की जानकारियाँ दी गई हैं. यहाँ आसाम राज्य के संबंध कुछ संक्षिप्त जानकारियाँ दी जा रही हैं. आसाम उत्तर पूर्वी भारत का महत्वपूर्ण सरहदी राज्य है. भारत-भूटान और भारत-बांग्लादेश सरहद कुछ हिस्सों में असम से जुड़ी है. असम की उत्तर दिशा में भूटान और अरुणाचल प्रदेश, पूर्व दिशा में मणिपुर, नागालैंड और अरुणाचल प्रदेश और दक्षिणी दिशा में मेघालय, मिज़ोरम और त्रिपुरा राज्य हैं.

असम का नामकरण: असम के नामकरण के बारे में दो विचार प्रचलित हैं. कुछ विद्वानों का मत है कि 'असम' शब्द संस्कृत के असोम (Asoma) शब्द से बना है. असोम नाम के एक यक्ष थे जो पुण्यजनी और मणिभद्र के पुत्र थे. Asoma was a yaksha; a son of Puṇyajanī and Maṇibhadra. (https://www.wisdomlib.org/definition/asoma). उल्लेखनीय है कि मणिभद्र एक नागवंशी यक्ष राजा थे और वे शिव के अनुयायी थे.

किन्तु अधिकतर विद्वानों का मानना है कि यह शब्द मूल रूप से अहोम से बना है. ब्रिटिश शासन में जब इस राज्य का विलय किया गया, उससे पहले लगभग छह सौ वर्ष तक इस राज्य पर अहोम राजाओं का शासन रहा था. असम राज्य को नाम देने वाले अहोम वंश के बारे में हमें जानना चाहिए.

अहोम लोग कौन थे: ये असम के वाशिंदे हैं और ताई जाति के वंशज हैं. 1228 में ताई राजकुमार सुकफा (Sukaphaa or Siu-Ka-Pha) मोंग माओ (Mong Mao) से चलकर ब्रह्मपुत्र घाटी में नामरूप (Namrup) नामक स्थान पर पहुँचे थे. अहोमों-सुकफा, मोंग माओ के एक ताई राजकुमार, अपने परिवार, पांच रईसों और कई अनुयायियों के साथ, जिनमें ज्यादातर पुरुष थे, पटकई पहाड़ियों (Patkai Hills) को पार करके ब्रह्मपुत्र घाटी में पहुंचे थे. प्रारंभिक चरण में, सुकफा के अनुयायियों का बैंड लगभग तीस वर्षों तक चला और स्थानीय आबादी के साथ मिला. उन्होंने बरही (Barahi) और मोरन (Moran) जातीय समूहों के साथ शांति स्थापित की और उनके ज्यादातर पुरुष अनुयायियों ने उनमें विवाह किया, जिससे अहोम के रूप में पहचानी जाने वाली एक स्वीकार्य आबादी का निर्माण हुआ. बोराहिस, एक तिबेटो-बर्मन लोग पूरी तरह से अहोम तह में सिमट गए थे, हालांकि मोरन ने अपनी स्वतंत्र जातीयता बनाए रखी. सुकापा ने 1253 में वर्तमान शिवसागर के पास चराइदेव में अपनी राजधानी स्थापित की और राज्य गठन का कार्य शुरू किया. वे गीली-चावल की खेती की एक उच्च तकनीक के साथ आए, फिर विलुप्त हो गए और लिखने, रिकॉर्ड रखने और राज्य गठन की परंपरा शुरू हुई. वे ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिण में और दिखो नदी के पूर्व में बसे थे; आज अहोम इस क्षेत्र में केंद्रित पाए जाते हैं.

ताई भाषी लोग पहले ग्वांग्शी (Guangxi) (दक्षिण चीन) क्षेत्र में प्रमुखता में आए, जहाँ से वे 11 वीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण-पूर्व एशिया में चले गए और चीनियों के साथ एक लंबी और भयंकर लड़ाई हुई. ताई-अहोम दक्षिण चीन के मोंग माओ (वर्तमान देहोंग दाई और जिंगपो स्वायत्त प्रान्त युन्नान (Yunnan, China), चीन में रुइली) या म्यांमार की हुकावे घाटी में पाए जाते हैं.

ताई-अहोम लोगों की पारंपरिक सामाजिक व्यवस्था को बान-मोंग के नाम से जाना जाता था जो कृषि से संबंधित था और सिंचाई पर आधारित था. बान या बान ना उन परिवारों से बनी एक इकाई है जो नदियों के किनारे बसे हैं. जबकि कई बैन मिलकर एक मोंग बनाते हैं जो राज्य को संदर्भित करता है. सुकफा और उनके अनुयायियों ने असम में अहोम वंश की स्थापना की और उसके उत्तराधिकारियों ने अहोम साम्राज्य को 6 शताब्दी (1228-1826) तक चलाया और विस्तार किया. 1826 में प्रथम एंग्लो-बर्मी युद्ध जीतने के बाद ब्रिटिश लोगों ने अहोम राजाओं के साथ यांडूबु संधि की और इस क्षेत्र में नियंत्रण स्थापित किया.

असम का प्राचीन नाम: प्राचीन समय में यह राज्य 'प्राग्ज्योतिष' अर्थात् 'पूर्वी ज्योतिष का स्थान' कहलाता था। कालान्तर में इसका नाम 'कामरूप' पड़ गया. कामरूप राज्य का सबसे पुराना उदाहरण इलाहाबाद में समुद्रगुप्त के शिलालेख से मिलता है. इस शिलालेख में कामरूप का विवरण ऐसे सीमावर्ती देश के रूप में मिलता है, जो गुप्त साम्राज्य के अधीन था और गुप्त साम्राज्य के साथ इस राज्य के मैत्रीपूर्ण संबंध थे. चीन के विद्वान् यात्री ह्वेनसांग लगभग 743 ईस्वी में राजा कुमारभास्कर वर्मन के निमंत्रण पर कामरूप में आया था. ह्वेनसांग ने कामरूप का उल्लेख 'कामोलुपा' के रूप में किया है. 11वीं शताब्दी के अरब इतिहासकार अलबरूनी की पुस्तक में भी 'कामरूप' का विवरण प्राप्त होता है. इस प्रकार प्राचीन काल से लेकर 12वीं शताब्दी ईस्वी तक समस्त आर्यावर्त में पूर्वी सीमांत देश को 'प्राग्ज्योतिष' और 'कामरूप' के नाम से जाना जाता था और यहाँ के नरेश स्वयं को 'प्राग्ज्योतिष नरेश' कहलाया करते थे. सन 1228 में पूर्वी पहाडियों पर 'अहोम' लोगों के आने से इतिहास में मोड़ आया. उन्होंने लगभग छह सौ वर्षों तक असम राज्य पर शासन किया. 1819 में बदनचन्द्र की हत्या के बाद सन् 1826 में यह राज्य ब्रिटिश सरकार के अधिकार में आ गया.

असम की भू-आकृति: मैदानी इलाक़ों एवं नदी घाटियों वाले असम को तीन प्रमुख भौतिक क्षेत्रों में विभाजित किया गया है- 1. उत्तर में ब्रह्मपुत्र नदी घाटी, 2. दक्षिण में बरक नदी घाटी एवं कार्बी तथा आलंग ज़िलों के पर्वतीय क्षेत्र, 3. इन दोनों घाटियों के मध्य स्थित उत्तरी कछार की पहाड़ियाँ. ब्रह्मपुत्र नदी घाटी असम का प्रमुख भौतिक क्षेत्र है. यह नदी असम के पूर्वोत्तर सिरे पर सादिया के पास प्रवेश करती है, फिर पश्चिम में पूरे असम में लगभग 724 किमी. लंबे मार्ग में प्रवाहित होकर दक्षिण की ओर मुड़कर बांग्लादेश के मैदानी इलाक़ों में चली जाती है. पश्चिम दिशा को छोड़कर बाक़ी सभी दिशाओं में यह पर्वत्तों से घिरी हुई है. पड़ोस की पहाड़ियों से निकली कई जलधाराओं एवं उपनदियों का जल इसमें समाहित होता है. बरक नदी घाटी दक्षिण-पूर्व दिशा में विस्तृत निम्न भूमि के क्षेत्र की संरचना करती है, जो कृषि के लिए महत्त्वपूर्ण है एवं इससे अपेक्षाकृत सघन बसी जनसंख्या को मदद मिलती है, हालांकि इस घाटी का एक छोटा सा ही हिस्सा राज्य के सीमाक्षेत्र में है.

असम की नदियाँ : असम में कपिली नदी और ब्रह्मपुत्र नदी बहती हैं. कपिली नदी असम में खसिया पहाड़ियों पर बहती है. ए. विल्सन के अनुसार इस नदी के पश्चिम में स्थित देश को कपिली देश कहते थे. जिसका उल्लेख एक चीनी लेखक ने इस देश के राजा द्वारा चीन को भेजे गए दूत के संबंध में किया है. (जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसाइटी, पृष्ठ 540). कपिली नदी का उद्गम मेघालय में है. मध्य असम के पहाड़ी जिलों में बहती हुई यह नदी ब्रह्मपुत्र में मिल जाती है. ब्रह्मपुत्र के साउथ बैंक की यह सबसे बड़ी नदी है.

ब्रह्मपुत्र नदी: महाभारत में लोहतगंगा का उल्लेख आता है जो ब्रह्मपुत्र तथा लौहित्य नदी को कहा गया है. लोहतगंगाप्राग्ज्योतिषपुर (=गोहाटी, असम) के निकट बहती है. महाभारत, सभापर्व 38 में नरकासुर के वध के प्रसंग में इस नदी का नामोल्लेख है- 'मध्ये लोहितगंगायां भगवान देवकीसुत: औदकायां विरूपाक्षं जघान भरतर्षभ।'.

ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत, भारत तथा बांग्लादेश में बहने वाली एक ऐतिहासिक नदी है. ब्रह्मपुत्र नदी का उद्गम तिब्बत के दक्षिण में मानसरोवर के निकट चेमायुंग दुंग नामक हिमवाह से हुआ है. अपने मार्ग में यह चीन के स्वशासी क्षेत्र तिब्बत, भारतीय राज्यों, अरुणाचल प्रदेश व असम और बांग्लादेश से होकर बहती है. मध्य और दक्षिण एशिया की प्रमुख नदी कहते हैं. ब्रह्मपुत्र नदी मानसरोवर से सांपों नाम धारण करके निकलती है और ग्वालंदो घाट (बंगाल) के निकट गंगा में मिल जाती है. ब्रह्मपुत्र की उपनदियाँ: सुवनश्री, तिस्ता, तोर्सा, लोहित, बराक.

भारत में सादिया शहर के पश्चिम में दीहांग दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़ती है, इसमें दो पहाड़ी जलधाराएँ, लोहित और दिबांग मिलती है. संगम के बाद बंगाल की खाड़ी से क़रीब 1,448 किलोमीटर पहले नदी ब्रह्मपुत्र के नाम से जानी जाती है. असम में इसका पाट सूखे मौसम के दौरान भी नदी में ख़ासा पानी रहता है और बरसात के मौसम में तो इसका पाट 8 किलोमीटर से भी चौड़ा हो जाता है. जैसे-जैसे यह नदी घाटी के 724 किलोमीटर लम्बे मार्ग में अपने घुमाबदार का अनुसरण करती है, इसमें सुबनसिरी, कामेंग, भरेली, धनसारी, मानस, चंपामती, सरलभंगा और संकोश नदियों सहित कई तेज़ी से बहती हिमालयी नदियाँ मिलती हैं. बुढ़ी दिहांग, दिसांग, दिखी और कोपीली पहाड़ियों और दक्षिण के पठार से आने वाली मुख्य उपनदियाँ हैं.

भारत में धुबुरी के नीचे गारो पहाड़ी के निकट दक्षिण में मुड़ने के बाद ब्रह्मपुत्र बांग्लादेश के मैदानी इलाक़े में प्रवेश करती है। बांग्लादेश में चिलमारी के निकट से बहने के पश्चात् इसके दाएँ तट पर तिस्ता नदी इससे मिलती है और उसके बाद यह जमुना नदी के रूप में दक्षिण की ओर 241 किलोमीटर लम्बा मार्ग तय करती है. गंगा से संगम से पहले जमुना में बाएँ तट से बरल, अतरई और हुरसागर नदियों का जल आ मिलता है और इसके बाएँ तट पर विशाल धलेश्वरी नदी का निकासी मार्ग बन जाता है. धलेश्वरी की एक उपनदी बुढ़ी गंगा, ढाका से आगे निकलकर मुंशीगंज से ऊपर मेघना नदी में मिलती है.

ग्वालंदों घाट के उत्तर में जमुना (ब्रह्मपुत्र) गंगा से मिलती है, जिसके बाद पद्मा के रूप में उनका मिश्रित जल दक्षिण-पूर्व में 121 किलोमीटर की दूरी तक बहता है. पद्मा, मेघना नदी से संगम के लिए चाँदपुर के निकट पहुँचती है और तब मेघना नदी मुख और छोटे जलमार्गों द्वारा बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है.

बराक नदी : बराक नदी भारत के मणिपुर, नागालैण्ड, मिज़ोरम व असम राज्यों और बंगलादेश में बहने वाली 900 किमी लम्बी एक नदी है. इसका उद्गम मणिपुर की पहाड़ियों में पोमई नागा (Poumai Naga) आदिवासियों के गाँव लियाई (Liyai) में है. दक्षिण असम की यह मुख्य नदी है. बराक नदी की प्रमुख उपनदियाँ सभी भारत में हैं, जिनमें जिरि नदी, तुइरियाल नदी, त्लौंग नदी और जातिंगा नदी शामिल हैं.

प्रमुख मिट्टियां: काँप तथा लैटराट इस राज्य की प्रमुख मिट्टियां हैं जो क्रमश: मैदानी भागों तथा पहाड़ी क्षेत्रों के ढालों पर पाई जाती हैं. नई काँप मिट्टी नदियों के बाढ़ क्षेत्र में पाई जाती है तथा धान, जूट, दाल एवं तिलहन के लिए उपयुक्त है. बाढ़ेतर प्रदेश की वागर मिट्टी प्राय: अम्लीय होती है. यह गन्ना, फल, धान के लिए अधिक उपुयक्त है. पर्वतीय क्षेत्र की लैटराइट मिट्टी अपेक्षाकृत अनुपजाऊ होती है. चाय की कृषि के अतिरिक्त ये क्षेत्र प्राय: वनाच्छादित हैं.

असम शिल्प: असम में शिल्प की एक समृद्ध परम्परा रही है. वर्तमान केन और बाँस शिल्प, घंटी धातु और पीतल शिल्प रेशम और कपास बुनाई, खिलौने और मुखौटा बनाने, मिट्टी के बर्तनों और मिट्टी काम, काष्ठ शिल्प, गहने बनाने, संगीत बनाने के उपकरणों, आदि के रूप में पारंपरिक शिल्प की परंपरा है.

तवांग: पूर्वोत्तर राज्यों में भ्रमण के लिए काफी समय चाहिए. काफी पर्यटक आजकल तवांग जरूर घूमना चाहते हैं. अरुणाचल प्रदेश का एक शहर है जो अरुणाचल प्रदेश के पश्चिमोत्तर भाग में स्थित है. तवांग गुवाहाटी से 555 किमी और तेज़पुर से 320 किमी है. यह प्राकृतिक रूप से बहुत ख़ूबसूरत है. छुपे हुए स्वर्ग के नाम से यह पर्यटकों में काफ़ी लोकप्रिय है. तवांग बहुत ख़ूबसूरत है. पर्यटक यहाँ पर ख़ूबसूरत चोटियाँ, छोटे-छोटे गाँव, शानदार गोनपा, शांत झील और इसके अलावा बहुत कुछ देख सकते हैं. इन सबके अलावा यहाँ पर इतिहास, धर्म और पौराणिक कथाओं का सम्मिश्रण भी देखा जा सकता है. तवांग का नामकरण 17वीं शताब्दी में मिराक लामा ने किया था. यहाँ पर मोनपा जाति के आदिवासी रहते हैं. यह जाति मंगोलों से संबंधित है. यह पत्थर और बांस के बने घरों में रहते हैं. प्राकृतिक ख़ूबसूरती के अलावा पर्यटक यहाँ पर अनेक बौद्ध मठ भी देख सकते हैं. यहाँ पर एशिया का सबसे बडा मठ तवांग मठ भी है. अपने बौद्ध मठों के लिए यह पूरे विश्व में पहचाना जाता है. तवांग का मुख्य काम-धंधा कृषि और पशु-पालन है.

17.11.2010: गुवाहाटी (7.05 बजे) से न्यूजलपाईगुड़ी (12.55) की यात्रा

गुवाहाटी (7.05 बजे ) से न्यू जलपाईगुड़ी के लिए ट्रेन (2423 DBRT Rajdhani Exp) से रवाना होकर 12.55 पर न्यू जलपाईगुड़ी पहुँच गए. दूरी 409 किमी. रास्ते में पड़ने वाली स्टेशन इस प्रकार थी:

Guwahati (7.05) → Bongaigaon (Assam) → Kokrajhar (Assam) → Kuch Bihar (WB) → New Jalpaiguri (WB) (12.55)

कूचबिहार और जलपाईगुड़ी स्टेशन पश्चिम बंगाल में है, शेष आसाम की ही स्टेशन हैं. दिन का सफर था जो बड़ा आनंद दायक रहा. वनाच्छादित और पहाड़ी क्षेत्रों से होकर रेल की यात्रा बहुत रोमांचकारी लगती है. ट्रेन में सफर करने वाले लोग अधिकांश पूर्वोत्तर के थे. इस दौरान जनजीवन और संस्कृति के दर्शन भी हुए. ट्रेन में मणिपुर की दो महिलाएँ बातचीत कर रही थी तो मैं उनकी भाषा पर गौर कर रहा था. पूरी समझ में नहीं आ रही थी परंतु कुछ शब्द मुझे राजस्थानी के साथ मिलते-जुलते लगे. जेब के लिए वे 'गोजी' शब्द का प्रयोग कर रही थी. यही शब्द सिक्किम में हमारे वरिष्ठ अधिकारी श्री एमएल अड़ावतिया जी के मुँह से भी सुनने को मिला. राजस्थान के अलावा यह शब्द मुझे इसी क्षेत्र में सुनने को मिला. यह भाषा-विज्ञान के लिए अनुसंधान का विषय है कि इतनी दूरी पर स्थित दो भूभागों में कॉमन शब्द कैसे पहुँचा.

अलविदा आसाम: आसाम के इस सुदूर भूभाग में घूमने का हमें पहले कभी अवसर नहीं मिला था सो अब पूरा हो गया. यह एक शानदार और स्मरणीय यात्रा रही.केंद्र शासन ने इस भू-भाग के विकास के लिए कुछ इन्सेंटिव दिये हैं परंतु पर्यावरण-संरक्षण और आधारभूत-संरचना के और विकास की आवश्यकता है. इस प्रकार हमने आसाम को अलविदा कहा और पश्चिम बंगाल राज्य की यात्रा पर चल पड़े.

क्रमश: अगले भाग में पढ़िए दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) के बारे में.....

Source - Facebook Post of Laxman Burdak Dated 19.2.2021

काजीरंगा के चित्र

दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-7

दार्जिलिंग भ्रमण: दिनांक 17-18.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया - बौद्धगया - राजगीर - नालंदा - पवापुरी - कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी - काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में काजीरंगा (असम) का विवरण दिया था. इस भाग में पढ़िए दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) का प्राचीन इतिहास, वहाँ का भूगोल तथा इसका पर्यटन संबंधी महत्व. अगले भाग में पढ़िए गंगटोक (सिक्किम) (पश्चिम बंगाल) के बारे में.

New Jalpaiguri - Siliguri - Darjiling- Gangtok Road Map
दार्जिलिंग शहर का दृश्य

17.11.2010: गुवाहाटी से न्यू जलपाईगुड़ी तक यात्रा:

गुवाहाटी (7.05 बजे ) से न्यू जलपाईगुड़ी के लिए ट्रेन (2423 DBRT Rajdhani Exp) से रवाना होकर 12.55 पर न्यू जलपाईगुड़ी पहुँच गए. रेल यात्रा की यह दूरी 409 किमी थी. वनाच्छादित और पहाड़ी क्षेत्रों से रेल की यात्रा बहुत रोमांचकारी लगती है.

न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग यात्रा: न्यू जलपाईगुड़ी से टेक्सी से दार्जिलिंग के लिए रवाना हुये. न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग की दूरी लगभग 75 किमी है और लगभग 2.45 घंटे का समय लगता है. रास्ते में सिलीगुड़ी (Siliguri), सुकना (Sukna) और कर्सियांग (Kurseong) शहर पड़ते हैं. इतना समय नहीं था कि रास्ते में पड़ने वाले स्थानों को देख सकते. इस क्षेत्र का भूगोल समझने के लिए यहाँ इन स्थानों का बहुत संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है.

न्यू जलपाईगुड़ी (New Jalpaiguri): पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी शहर में एक बहुत महत्वपूर्ण रेलवे स्टेशन है. यह पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में स्थित है. न्यू जलपाईगुड़ी रेल्वे स्टेशन सिक्किम, नेपाल, भूटान और बांग्लादेश तथा देश के उत्तर-पूर्व राज्यों का प्रवेश द्वार है. पूर्वोत्तर भारत का यह सबसे बड़ा और व्यस्त स्टेशन है.

सिलीगुड़ी (Siliguri) : सिलीगुड़ी दार्जिलिंग जिले में रेल और राजपथ का अंतस्थ होने के कारण, दार्जिलिंग एवं सिक्किम के व्यापार का केंद्र है. जूट व्यवसाय नगर का प्रमुख व्यवसाय है. यह महानन्दा नदी के किनारे हिमालय के चरणों में स्थित है और जलपाईगुड़ी से 40 किमी दूरी पर स्थित है. यह उत्तरी बंगाल का प्रमुख वाणिज्यिक, पर्यटक, आवागमन, तथा शैक्षिक केन्द्र है. गुवाहाटी के बाद यह पूर्वोत्तर भारत का दूसरा सबसे बड़ा नगर है. यह पश्चिम बंगाल का महत्वपूर्ण व्यापार केन्द्र बन चुका है. नेपाल, भूटान तथा बांग्लादेश आदि पड़ोसी देशों और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों के लिये भी यह वायु, सड़क तथा रेल यात्रा का पड़ाव बिन्दु है. यह चाय, आवागमन, पर्यटन तथा इमारती लकड़ी के लिये प्रसिद्ध है.

सुकना में वन का दृश्य

सुकना (Sukna): सुकना दार्जिलिंग जिले में में स्थित है तथा सिलिगुड़ी से 11 किमी दूर है. यह महानंदा वन्य प्राणी अभयारण्य का प्रवेश द्वार है. पूर्वी सेक्टर में सुकना भारतीय सेना की 33वीं कोर का मुख्यालय है. यह कोर सिक्किम में चीन से लगती वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर निगरानी रखती है. भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षण के लिए सुकना के वन ब्रिटिश काल से ही नियत थे जब यह इंपीरियल फोरेस्ट सर्विस कहलाती थी. यहाँ के वनों में ट्रोपिकल साल के वन मुख्य हैं. साल के साथ खैर, शीशम, बांस, सिरस, तून, हलदु, चिलोनी, स्टर्कुलिया विलोसा, सागवान, सेमल, उदल, चम्पा, जरुल, घमार आदि के वन भी हैं. महानंदा और तीस्ता नदियाँ यहाँ प्रवाहित होती हैं. हाथी सहित अनेक जंगली जानवर यहाँ के वनों में देखे जा सकते हैं. यहाँ के वनों में, शेर, तेंदुआ, हायना, लोमड़ी, जंगली कुत्ता, गौर, हिरण, सांभर, भालू, लंगूर, आदि जानवर भी देखे जा सकते हैं.

कर्सियांग (Kurseong): कर्सियांग दार्जिलिंग जिले में में स्थित है. यह सिलीगुड़ी से 34 किमी है. यहाँ के मूल निवासी लेपचा लोग थे. कुर्सियांग पश्चिम बंगाल के चुंनिंदा सबसे खूबसूरत पर्वतीय क्षेत्रों में गिना जाता है. कर्सियांग के पूर्व में महानंदा नदी का मूल है जो महानंदा वन्यप्राणी अभयारण्य से बहती हुई सिलीगुड़ी के पास समतल क्षेत्र में प्रवेश करती है. यह अपने ऑर्किड, चाय के बागानों और पहाड़ी सुंदरता के लिए विख्यात है. खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसा कुर्सियांग समुद्र तल से लगभग 1500 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है. इस शानदार हिल स्टेशन को बसाने का श्रेय भारत में अंग्रेजों को जाता है. कुर्सियांग के आसपास कई खूबसूरत पहाड़ी मौजूद हैं, उन्हीं में से एक है डॉव हिल्स. डॉव हिल्स प्राकृतिक खूबसूरती के मामले में काफी ज्यादा उन्नत माना जाता है. लेकिन अपनी कुदरती सुंदरता के अलावा यह पहाड़ी अपने भुतहा अनुभवो के लिए भी काफी कुख्यात है. कर्सियांग से आगे दार्जिलिंग 32 किमी है.

सिलीगुड़ी, सुकना, कर्सियांग, दार्जिलिंग आदि स्थानों का भ्रमण हम 7-12 जनवरी 1981 को भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षण के दौरान भी कर चुके हैं. भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षण के लिए ये स्थान ब्रिटिश काल से ही नियत थे जब यह इंपीरियल फोरेस्ट सर्विस कहलाती थी. उस समय इस क्षेत्र के जो स्थान देखे गए थे और जिन वानिकी विषयों का अध्ययन किया गया उनका संक्षिप्त उल्लेख इस प्रकार है:

7.1.1981: Departure from Delhi by Chandigarh-Ranchi Express 12.15 Hrs upto Alahabad, From Alahabad to Mugal Sarai by Toophan Mail

8.1.1981: Arrival at Mugal Sarai in morning, Journey from Mugal Sarai to New Jalpaiguri by Tinsukhia Mail, Arrival at New Jalpaiguri in night

9.1.1981: New Jalpaiguri to Sukna by Bus, Stay at Basic Logging Centre Sukna, Visit to Bamanpankhari Block, Visit to Champta Block, study of logging technique, study of working plan of Kurseong Division

10.1.1981: Visit to Govt Saw Mill Siliguri, Visit to Tukria Jhar Block

11.1.1981: Study of soil conservation working while going from Darjeeling, Jhora Training work, Cryptomaria plantation, arrival at Darjeeling, stay at New Algin Hotel, Visit to Himalayan Mountaineering Institute, Visit to Padmaja Naidu Himalayan Zoological Park

12.1.1981: Darjeeling to Sukna back, Sukna to New Jalpaiguri, Journey from New Jalpaiguri to Howara.

17.11.2010: शाम तक हम सड़क मार्ग से दार्जिलिंग पहुँच गए. पश्चिम बंगाल कैडर के हमारे बैचमेट उज्ज्वल भट्टाचार्य द्वारा वन विश्राम गृह दार्जिलिंग में आरक्षण करवाया गया था. वन विश्राम गृह दार्जिलिंग में ऊँचे स्थान पर बहुत मौके की जगह बना हुआ है और वहाँ से शहर का अच्छा नजारा दिखता है. शाम को यहाँ की वन मंडल अधिकारी सुश्री भूटिया सौजन्य भेंट करने आई और अगले दिन के प्रोग्राम के बारे में पूछा. हमारे कार्यक्रम के अनुसार हमें 18.11.2010 को दार्जिलिंग घूमना था जिसकी उचित व्यवस्था कर दी गई.

18.11.2010: परिक्षेत्र अधिकारी दार्जिलिंग श्री क्षेत्री के द्वारा सुबह एक टेक्सी उपलब्ध करादी गई थी. आज दिन भर दार्जिलिंग और उसके आसपास के पर्यटन महत्व के स्थान देखे.

दार्जिलिंग परिचय

दार्जिलिंग भारत के राज्य पश्चिम बंगाल का एक नगर है. यह नगर दार्जिलिंग जिले का मुख्यालय है. यह नगर शिवालिक पर्वतमाला में लघु हिमालय में अवस्थित है. यहां की औसत ऊँचाई 6982 फुट है. भारत में ब्रिटिश राज के दौरान दार्जिलिंग की समशीतोष्ण जलवायु के कारण से इस जगह को पर्वतीय स्थल बनाया गया था. ब्रिटिश निवासी यहां गर्मी के मौसम में गर्मी से छुटकारा पाने के लिए आते थे.

दार्जिलिंग पश्‍चिम बंगाल के उत्तरी छोर पर स्थित एक जिला है. इसका उत्तरी भाग नेपाल और सिक्किम से सटा हुआ है. यहां शरद ऋतु अक्‍टूबर से मार्च तक होता है. इस मौसम में अत्‍यधिक ठण्‍ड रहती है. यहां ग्रीष्‍म ऋतु अप्रैल से जून तक रहती है. इस समय का मौसम हल्‍का ठण्‍डापन लिए होता है. यहां बारिश जून से सितम्‍बर तक होती है. ग्रीष्‍म काल में ही यहां अधिकांश पर्यटक आते हैं.

दार्जिलिंग चाय (Darjeeling Tea) : दार्जिलिंग अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यहां की दार्जिलिंग चाय के लिए प्रसिद्ध है. यहां की चाय की खेती 1856 से शुरु हुई थी. यहां की चाय उत्पादकों ने काली चाय और फ़र्मेन्टिंग प्रविधि का एक सम्मिश्रण तैयार किया है जो कि विश्व में सर्वोत्कृष्ट है.

दार्जिलिंग के आसपास स्मारक एवं दर्शनीय स्थल

दार्जिलिंग पर्यटन : दार्जिलिंग की यात्रा का एक ख़ास आकर्षण हरे भरे चाय बागान हैं. अनेक देशों में निर्यात होने वाली दार्जिलिंग चाय सबको खूब भाती हैं. इस शहर की सुन्दरता को शब्दों में बयां करना बहुत कठिन है. बर्फ़ से ढके सुंदर पहाड़ों का दृश्य बहुत मनमोहक होता है. टॉय ट्रेन में यात्रा इसमें चार चांद लगा देती है. यह ट्रेन दार्जिलिंग के प्रसिद्ध हिल स्टेशन की सुंदर वादियों की सैर कराती है. चाय के बगान और देवदार के जंगल भी अच्छा दृश्य बनाते हैं. टाइगर हिल पर ठहरकर समय व्यतीत करना, चाय बगान, नैचुरल हिस्ट्री म्यूजियम जैसी बहुत आर्कषक जगह हैं जो मन को मोह लेती हैं. दार्जिलिंग जाते समय रास्ते में पड़ने वाले पहाड़ और जंगल, तीस्ता नदी और रंगीत नदी का संगम, टेढ़ा-मेढ़ा पहाड़ी रास्ता आदि बहुत रोमांचक हैं. दार्जिलिंग के आसपास के कुछ स्मारक एवं दर्शनीय स्थलों का विवरण यहाँ दिया जा रहा है.

दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे (Darjeeling Himalayan Railway): एक युनेस्को विश्व धरोहर स्थल तथा प्रसिद्ध स्थल है. दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे को 1999 में विश्व धरोहर स्थल घोषित किया गया था. यह वाष्प से संचालित यन्त्र भारत में बहुत ही कम देखने को मिलता है. इस सुन्दर पहाड़ी क्षेत्र के बहुत से गांव रेलपथ के निकट ही हैं.

औपनिवेशिक काल का परिदृश्य: यह शहर पहाड़ की चोटी पर स्थित है. यहां सड़कों का जाल बिछा हुआ है. ये सड़कें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं. इन सड़कों पर घूमते हुए आपको औपनिवेशिक काल की बनी कई इमारतें दिख जाएंगी. ये इमारतें आज भी काफी आकर्षक प्रतीत होती हैं. इन इमारतों में लगी पुरानी खिड़कियां तथा धुएं निकालने के लिए बनी चिमनियां पुराने समय की याद‍ दिलाती हैं. आप यहां कब्रिस्‍तान, पुराने स्‍कूल भवन तथा चर्चें भी देख सकते हैं. पुराने समय की इमारतों के साथ-साथ यहां वर्तमान काल के कंकरीट के बने भवन भी दिख जाएंगे. पुराने और नए भवनों का मेल इस शहर को एक खास सुंदरता प्रदान करता है.

ट्वॉय ट्रेन दार्जिलिंग

दार्जिलिंग ट्वॉय ट्रेन (Darjeeling "Toy Train"): इस अनोखे ट्रेन का निर्माण 19वीं शताब्‍दी के उतरार्द्ध में हुआ था. दार्जिलिंग हिमालयन रेलमार्ग, इंजीनियरिंग का एक आश्‍चर्यजनक नमूना है. यह रेलमार्ग 70 किलोमीटर लंबा है. यह पूरा रेलखण्‍ड समुद्र तल से 7546 फीट ऊंचाई पर स्थित है. इस रेलखण्‍ड के निर्माण में इंजीनियरों को काफी मेहनत करनी पड़ी थी. यह रेलखण्‍ड कई टेढ़े-मेढ़े रास्‍तों त‍था वृताकार मार्गो से होकर गुजरता है. लेकिन इस रेलखण्‍ड का सबसे सुंदर भाग बताशिया लूप (Batasia Loop) है. इस जगह रेलखण्‍ड आठ अंक के आकार में हो जाती है. अगर आप ट्रेन से पूरे दार्जिलिंग को नहीं घूमना चाहते हैं तो आप इस ट्रेन से दार्जिलिंग स्‍टेशन से घूम-मठ (Ghum Monatery) तक जा सकते हैं. इस ट्रेन से सफर करते हुए आप इसके चारों ओर के प्राकृतिक नजारों का लुफ्त ले सकते हैं. इस ट्रेन पर यात्रा करने के लिए या तो बहुत सुबह जाएं या देर शाम को. अन्‍य समय यहां काफी भीड़-भाड़ रहती है.

चाय बागान दार्जिलिंग

दार्जिलिंग चाय उद्यान (Tea plantations in Darjeeling): दार्जिलिंग एक समय मसालों के लिए प्रसिद्ध था. चाय के लिए ही दार्जिलिंग विश्‍व स्‍तर पर जाना जाता है. डॉ. कैम्‍पबेल (Archibald Campbell), जो कि दार्जिलिंग में ईस्‍ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्‍त पहले निरीक्षक थे, पहली बार लगभग 1830 या 40 के दशक में अपने बाग में चाय के बीज को रोपा था. ईसाई धर्मप्रचारक बारेनस बंधुओं ने 1880 के दशक में औसत आकार के चाय के पौधों को रोपा था. बारेन बंधुओं ने इस दिशा में काफी काम किया था. बारेन बंधुओं द्वारा लगाया गया चाय उद्यान वर्तमान में बैनुकवर्ण चाय उद्यान के नाम से जाना जाता है.

चाय का पहला बीज चाइनिज झाड़ी का था जो कि कुमाऊं हिल से लाया गया था. लेकिन समय के साथ यह दार्जिलिंग चाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ. स्‍थानीय मिट्टी तथा हिमालयी हवा के कारण दार्जिलिंग चाय की गुणवता उत्तम कोटि की होती है. वर्तमान में दार्जिलिंग तथा इसके आसपास लगभग 87 चाय उद्यान हैं. हैपी-वैली-चाय उद्यान शहर से 3 किलोमीटर की दूरी पर है जहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है. यहां मजदूरों को चाय की पत्तियां तोड़ते हुए देख सकते हैं, ताजी पत्तियों को चाय में परिवर्तित होते हुए भी देख सकते हैं. लेकिन चाय उद्यान घूमने के लिए इन उद्यान के प्रबंधकों को पहले से सूचना देना जरुरी होता है.

जापानी बौद्ध मंदिर (पीस पैगोडा), दार्जिलिंग

जापानी बौद्ध मंदिर (पीस पैगोडा) (Japanese Peace Pagoda): विश्‍व में शांति लाने के लिए इस स्‍तूप की स्‍थापना फूजी गुरु, जो कि महात्‍मा गांधी के मित्र थे, ने की थी. भारत में कुल छ: शांति स्‍तूप हैं. दार्जिलिंग का निप्‍पोजन मायोजी बौद्ध मंदिर भी इनमें से एक है. इस मंदिर का निर्माण कार्य 1972 ई. में शुरु हुआ था. यह मंदिर 1 नवम्बर 1992 ई. को आम लोगों के लिए खोला गया. इस मंदिर से पूरे दार्जिलिंग और कंचनजंघा श्रेणी का अति सुंदर नजारा दिखता है.

टाइगर हिल (Tiger Hill): टाइगर हिल का मुख्‍य आनंद इस पर चढ़ाई करने में है. आपको हर सुबह पर्यटक इस पर चढ़ाई करते हुए मिल जाएंगे. इसी के पास कंचनजंघा चोटी (Kangchenjunga) है. 1838 से 1849 ई. तक इसे ही विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी माना जाता था. लेकिन 1856 ई. में करवाए गए सर्वेक्षण से यह स्‍पष्‍ट हुआ कि कंचनजंघा नहीं बल्कि नेपाल का सागरमाथा (Sagarmatha), जिसे अंगेजों ने माउंट एवरेस्‍ट (Mount Everest) का नाम दिया था, विश्‍व की सबसे ऊंची चोटी है. अगर आप भाग्‍यशाली हैं तो आप टाइगर हिल से कंजनजंघा तथा एवरेस्‍ट दोनों चाटियों को देख सकते हैं. इन दोनों चोटियों की ऊंचाई में मात्र 827 फीट का अंतर है. वर्तमान में कंचनजंघा विश्‍व की तीसरी सबसे ऊंची चोटी है. कंचनजंघा को सबसे रोमांटिक माउंटेन की उपाधि से नवाजा गया है. इसकी सुंदरता के कारण पर्यटकों ने इस इस उपाधि से नवाजा है. इस चोटी की सुंदरता पर कई कविताएं लिखी जा चुकी हैं. इसके अलावा सत्‍यजीत राय की फिल्‍मों में इस चोटी को कई बार दिखाया जा चुका है.

तेंजिंग रोक दार्जिलिंग

हिमालय माउंटेनिंग संस्‍थान (Himalayan Mountaineering Institute): तेंजिंगस लेगेसी - हिमालय माउंटेनिंग संस्‍थान की स्‍थापना 1954 ई. में की गई थी. ज्ञातव्‍य हो कि 1953 ई. में पहली बार हिमालय को फतह किया गया था. तेंजिंग (Tenzing Norgay) कई वर्षों तक इस संस्‍थान के निदेशक रहे. यहां एक माउंटेनिंग संग्रहालय भी है. इस संग्रहालय में हिमालय पर चढाई के लिए किए गए कई एतिहासिक अभियानों से संबंधित वस्‍तुओं को रखा गया है. इस संग्रहालय की एक गैलेरी को एवरेस्‍ट संग्रहालय के नाम से जाना जाता है. इस गैलेरी में एवरेस्‍ट से संबंधित वस्‍तुओं को रखा गया है. इस संस्‍थान में पर्वतारोहण का प्रशिक्षण भी दिया जाता है. तेंजिंगस रॉक (Tenzing Rock) पर आप अभ्यास कर सकते हैं.

पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान

पदमाजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान (Padmaja Naidu Himalayan Zoological Park): यह जैविक उद्यान माउंटेंनिग संस्‍थान के दायीं ओर स्थित है. यह उद्यान बर्फीले तेंदुआ तथा लाल पांडे के प्रजनन कार्यक्रम के लिए प्रसिद्ध है. आप यहां साइबेरियन बाघ तथा तिब्‍‍बतियन भेडिये को भी देख सकते हैं. मुख्‍य बस पड़ाव के नीचे पुराने बाजार में लियोर्डस वानस्‍पतिक उद्यान है. इस उद्यान को यह नाम मिस्‍टर डब्‍ल्‍यू. लियोर्ड के नाम पर दिया गया है. लियोर्ड यहां के एक प्रसिद्ध बैंकर थे जिन्‍होंने 1878 ई. में इस उद्यान के लिए जमीन दान में दी थी. इस उद्यान में ऑर्किड की 50 प्रजातियों का बहुमूल्‍य संग्रह है. इस वानस्‍पतिक उद्यान के निकट ही नेचुरल हिस्‍ट्री म्‍यूजियम है. इस म्‍यूजियम की स्‍थापना 1903 ई. में की गई थी. यहां चिडि़यों, सरीसृप, जंतुओं तथा कीट-पतंगो के विभिन्‍न किस्‍मों को संरक्षत‍ि अवस्‍था में रखा गया है.

सक्या बौद्ध मठ (Sakya Monastery): सक्या बौद्ध मठ दार्जिलिंग से आठ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. सक्या मठ सक्या सम्‍प्रदाय का बहुत ही ऐतिहासिक और महत्‍वपूर्ण मठ है. इस मठ की स्‍थापना 1915 ई. में की गई थी. इसमें एक प्रार्थना कक्ष भी है. इस प्रार्थना कक्ष में एक साथ 60 बौद्ध भिक्षु प्रार्थना कर सकते हैं.

ड्रुग-थुब्तन-सांगग-छोस्लिंग-मठ: 11वें ग्यल्वाङ ड्रुगछेन तन्जीन ख्येन्-रब गेलेगस् वांगपो की मृत्‍यु 1960 ई. में हो गई थी. इन्‍हीं के याद में इस मठ की स्‍थापना 1971 ई. में की गई थी. इस मठ की बनावट तिब्‍बतियन शैली में की गई थी. बाद में इस मठ की पुनर्स्‍थापना 1993 ई. में की गई। इसका अनावरण दलाई लामा ने किया था.

माकडोग मठ (Makdhog Monastery): यह मठ चौरास्‍ता (Chowrasta) से तीन किलोमीटर की दूरी पर आलूबरी (Aloobari) गांव में स्थित है. यह मठ बौद्ध धर्म के योलमोवा संप्रदाय से संबंधित है. इस मठ की स्‍थापना श्री संगे लामा (Sangay Lama) ने की थी. संगे लामा योलमोवा संप्रदाय के प्रमुख थे. यह एक छोटा सा सम्‍प्रदाय है जो पहले नेपाल के पूवोत्तर भाग में रहता था. लेकिन बाद में इस सम्‍प्रदाय के लोग दार्जिलिंग में आकर बस गए. इस मठ का निर्माण कार्य 1914 ई. में पूरा हुआ था. इस मठ में योलमोवा सम्‍प्रदाय (Yolmowa Buddhist) के लोगों के सामाजिक, सांस्‍‍कृतिक, धार्मिक पहचान को दर्शाने का पूरा प्रयास किया गया है.

घूम मठ (Ghoom Monastery): टाइगर हिल के निकट ईगा चोइलिंग तिब्‍बतियन मठ (Yiga-Choling monastery) है. यह मठ गेलुगस् संप्रदाय से संबंधित है. इस मठ को ही घूम मठ के नाम से जाना जाता है. इतिहासकारों के अनुसार इस मठ की स्‍थापना धार्मिक कार्यो के लिए नहीं बल्कि राजनीतिक बैठकों के लिए की गई थी. इस मठ की स्‍थापना 1850 ई. में एक मंगोलियन भिक्षु लामा शेरपा याल्‍तसू (Lama Sherab Gyantso) द्वारा की गई थी. याल्‍तसू अपने धार्मिक इच्‍छाओं की पूर्त्ति के लिए 1820 ई. के करीब भारत में आए थे. इस मठ में 1918 ई. में बुद्ध की 15 फीट ऊंची मूर्त्ति स्‍थापित की गई थी. यह मूर्त्ति एक कीमती पत्‍थर का बना हुआ है और इसपर सोने की कलई की गई है. इस मठ में बहुमूल्‍य ग्रंथों का संग्रह भी है. ये ग्रंथ संस्‍कृत से तिब्‍बतीयन भाषा में अनुवादित हैं. इन ग्रंथों में कालीदास की मेघदूत भी शामिल है. हिल कार्ट रोड के निकट समतेन चोलिंग द्वारा स्‍थापित एक और जेलूग्‍पा मठ है. समय: सभी दिन खुला. मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है.

भूटिया-‍‍बस्‍ती-मठ (Bhutia Busty Monastery): यह दार्जिलिंग का सबसे पुराना मठ है. यह मठ चौरास्‍ता (Chowrasta) से 1.5 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यह मूल रूप से ऑब्‍जरबेटरी हिल पर 1765 ई. में लामा दोरजे रिंगजे द्वारा बनाया गया था. इस मठ को नेपालियों ने 1815 ई. में लूट लिया था. इसके बाद इस मठ की पुर्नस्‍थापना संत एंड्रूज चर्च के पास 1861 ई. की गई. अंतत: यह अपने वर्तमान स्‍थान चौरासता के निकट, भूटिया बस्‍ती में 1879 ई. स्‍थापित हुआ. यह मठ तिब्‍बतियन-नेपाली शैली में बना हुआ है. इस मठ में भी बहुमूल्‍य प्राचीन बौद्ध सामग्री रखी हुई है. यहां का मखाला मंदिर काफी आकर्षक है. यह मंदिर उसी जगह स्‍थापित है जहां भूटिया-बस्‍ती-मठ प्रारंभ में बना था. इस मंदिर को भी अवश्‍य घूमना चाहिए. केवल मठ के बाहर फोटोग्राफी की अनुमति है.

तिब्‍बतियन रिफ्यूजी कैंप (Tibetan Refugee Self Help Centre): तिब्‍बतियन रिफ्यूजी स्‍वयं सहयता केंद्र चौरास्‍ता से 45 मिनट की पैदल दूरी पर स्थित है. इस कैंप की स्‍थापना 1959 ई. में की गई थी. इससे एक वर्ष पहले 1958 ई. में दलाई लामा ने भारत से शरण मांगा था. इसी कैंप में 13वें दलाई लामा (वर्तमान में 14 वें दलाई लामा हैं) ने 1910 से 1912 तक अपना निर्वासन का समय व्‍यतीत किया था. 13वें दलाई लामा जिस भवन में रहते थे वह भवन आज भग्‍नावस्‍था में है. आज यह रिफ्यूजी कैंप 650 तिब्‍बतियन परिवारों का आश्रय स्‍थल है. ये तिब्‍बतियन लोग यहां विभिन्‍न प्रकार के सामान बेचते हैं. इन सामानों में कारपेट, ऊनी कपड़े, लकड़ी की कलाकृतियां, धातु के बने खिलौन शामिल हैं. लेकिन अगर आप इस रिफ्यूजी कैंप घूमने का पूरा आनन्‍द लेना चाहते हैं तो इन सामानों को बनाने के कार्यशाला को जरुर देखें. यह कार्यशाला पर्यटकों के लिए खुली रहती है.

दार्जिलिंग का इतिहास

दार्जिलिंग शब्द की उत्त्पत्ति दो तिब्बती शब्दों, दोर्जे (बज्र या ओला या उपल) और लिंग (स्थान) से हुई है. इस का अर्थ 'बज्र ओला या उपलवृष्टि का स्थान'. 19वीं शताब्दी के पूर्व तक इस जगह पर नेपाली और सिक्किमी राज्य राज करते थे.

प्रारंभ में दार्जिलिंग सिक्किम का एक भाग था. बाद में भूटान ने इस पर कब्‍जा कर लिया. लेकिन कुछ समय बाद सिक्किम ने इस पर पुन: कब्‍जा कर लिया. परंतु 18वीं शताब्‍दी में पुन: इसे नेपाल के हाथों गवां दिया. किन्‍तु नेपाल भी इस पर ज्‍यादा समय तक अधिकार नहीं रख पाया. 1817 ई. में हुए आंग्‍ल-नेपाल में हार के बाद नेपाल को इसे ईस्‍ट इंडिया कंपनी को सौंपना पड़ा.

1828 में इस स्‍थान की खोज उस समय हुई जब आंग्‍ल-नेपाल युद्ध के दौरान एक ब्रिटिश सैनिक टुक‍ड़ी सिक्किम जाने के लिए छोटा रास्‍ता तलाश रही थी. ईस्‍ट इंडिया कंपनी के अफ़सरौं की वह टुकडी सिक्किम जाते समय दार्जिलिंग पहुंच गई और यह जगह उनको अच्छी लगी. इस जगह पर ब्रिटिश सेना के लिए एक सेनिटोरियम बनाने का संकल्प किया. इस रास्‍ते से सिक्‍किम तक आसान पहुंच के कारण यह स्‍थान ब्रिटिशों के लिए रणनीतिक रूप से काफी महत्‍वपूर्ण था. इसके अलावा यह स्‍थान प्राकृतिक रूप से भी काफी संपन्‍न था. यहां का ठण्‍डा वातावरण तथा बर्फबारी अंग्रेजों के मुफीद थी. इस कारण ब्रिटिश लोग यहां धीरे-धीरे बसने लगे. ए. कैम्पबेल (Archibald Campbell), कम्पनी का एक शल्य चिकित्सक और लेफ़्टिनेन्ट नेपियर ( Lieutenant Robert Napier) को यहां पर हिल स्टेशन बनाने की जिम्मेवारी सौंपी गयी.

1841 में अंग्रेजों ने यहां एक प्रायोगिक चाय कृषि कार्यक्रम का संचालन किया. इस प्रयोग के सफ़लता के कारण 19वीं शताब्दी के दूसरे भाग में यहाँ चाय बगान लगने लगे. दार्जिलिंग को अंग्रेजों ने सिक्किम से 1849 में छिन लिया था. उस समय नेपाली लोगों को बगान, खेती, निर्माण आदि कार्य संचालन के लिए भर्ती किया गया. स्काटिश मिशनरियों ने यहां अंग्रेजों के लिए विद्यालय और वेल्फ़ेर सेन्टर की स्थापना की और इस जगह को विद्या के लिए प्रसिद्ध किया. दार्जिलिंग हिमालयन रेल्वे की 1881 में स्थापना के बाद यहां का विकास उच्च गति से हुआ.

अपने रणनीतिक महत्‍व तथा तत्‍कालीन राजनीतिक स्थिति के कारण 1840 तथा 50 के दशक में दार्जिलिंग एक युद्ध स्‍थल के रूप में परिणत हो गया था. उस समय यह जगह विभिन्‍न देशों के शक्‍ति प्रदर्शन का स्‍थल बन चुका था. पहले तिब्‍बत के लोग यहां आए. उसके बाद यूरोपियन लोग आए. इसके बाद रुसी लोग यहां बसे. इन सबको अफगानिस्‍तान के अमीर ने यहां से भगाया. यह राजनीतिक अस्थिरता तभी समाप्‍त हुई जब अफगानिस्‍तान का अमीर अंगेजों से हुए युद्ध में हार गया. इसके बाद से इस पर अंग्रेजों का कब्‍जा था. बाद में यह जापानियों, कुमितांग तथा सुभाषचंद्र बोस की इंडियन नेशनल आर्मी की भी कर्मस्‍थली बना. स्‍वतंत्रता के बाद ल्‍हासा से भागे हुए बौद्ध भिक्षु यहां आकर बस गए.


गोरखालैंड राज्य की मांग: सन 1980 की गोरखालैंड राज्य की मांग इस शहर और इस के नजदीक का कालिम्पोंग के शहर से शुरु हुई थी. गोरखालैंड राज्य की मांग से चले आंदोलन के कारण यह क्षेत्र उपेक्षित हो गया. यहां का वातावरण ज्यादा पर्यटकों और अव्यवस्थित शहरीकरण के कारण से भी कुछ बिगड़ रहा है. ऐतिहासिक स्मारकों और शहर का रख-रखाव अपेक्षित स्तर का नहीं रह गया है जैसा कि 1980 के दशक में भारतीय वन सेवा के प्रशिक्षण के दौरान देखा था. अभी राज्य की यह मांग एक स्वायत्त पर्वतीय परिषद के गठन के परिणामस्वरूप कुछ कम हुई है.

Source - Facebook Post of Laxman Burdak Dated 24.2.2021

दार्जिलिंग के चित्र

गंगटोक (सिक्किम) भ्रमण: पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-8

गंगटोक भ्रमण: दिनांक 19-20.11.2010

पूर्वोत्तर भारत का भ्रमण के अंतर्गत लेखक ने पत्नी गोमती बुरड़क के साथ नवम्बर 2010 के दूसरे और तीसरे सप्ताह में गया - बौद्धगया - राजगीर - नालंदा - पवापुरी - कुंडलपुर - पटना (बिहार), गुवाहाटी - काजीरंगा (असम), दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल), गंगटोक (सिक्किम) आदि की यात्रा की. पिछले भाग में दार्जिलिंग (पश्चिम बंगाल) का विवरण दिया था. पूर्वोत्तर भारत की यात्रा के अंतिम भाग में पढ़िए गंगटोक (सिक्किम) और सिक्किम का प्राचीन इतिहास, भूगोल, वन और जैव-विविधता तथा पर्यटन संबंधी महत्व.

New Jalpaiguri - Siliguri - Darjiling- Gangtok Road Map

19.11.2010: दार्जिलिंग (8 बजे) से गंगटोक (12 बजे) यात्रा :

पहले हमारा कार्यक्रम 19-20 नवम्बर को दार्जिलिंग घूमने का ही रखा था परंतु नया विचार आया कि सिक्किम राज्य का गंगटोक शहर यहाँ से 100 किमी की दूरी पर ही पड़ता है इसलिये क्यों न वहाँ घूम लिया जावे. दार्जिलिंग तो हमारे द्वारा पहले भी जनवरी 1981 में देखा हुआ था. सिक्किम घूमने के लिए इससे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा. यह सोचकर हमने गंगटोक भ्रमण का निर्णय लिया और हम सुबह 8 बजे गंगटोक के लिए रवाना हो गए. दार्जिलिंग से गंगटोक तक का सफर पहाड़ों, घने जंगलों और नदी-नालों से होता हुआ बहुत सुहाना है. दार्जिलिंग से गंगटोक के रास्ते में कालिंपोंग (Kalimpong) (पश्चिम बंगाल) और रंगपो (Rangpo) (सिक्किम) शहर पड़ते हैं और तिस्‍ता नदी की घाटी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है. इन शहरों का संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाना समीचीन होगा.

कालिंपोंग (Kalimpong): पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले में तीस्ता नदी पर स्थित यह एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है. वर्तमान में यह शहर पश्चिम बंगाल का प्रमुख हिल स्‍टेशन है. यहां से कंचनजंघा श्रेणी त‍था तिस्‍ता नदी की घाटी का बहुत सुंदर नजारा दिखता है. कलिंगपोंग 1700 ई. तक सिक्किम का एक भाग था. 18वीं शताब्‍दी के प्रारम्‍भ में भूटान के राजा ने इस पर कब्‍जा कर लिया था. आंग्‍ल-भूटान युद्ध के बाद 1865 ई. में इसे दार्जिलिंग में मिला दिया गया. 19 वीं शताब्‍दी के उत्तरार्द्ध में यहां स्‍काटिश मिशनरियों का आगमन हुआ. 1950 ई. तक यह शहर ऊन का प्रमुख व्‍यापार केंद्र था.कलिंगपोंग में अभी भी बहुत से औपनिवेशिक भवन हैं. इन भवनों में मुख्‍यत: बंगला तथा पुराने होटल शामिल हैं. ब्रिटिश ऊनी व्‍यापारियों द्वारा बनाए गए ये भवन मुख्‍य रूप से रिंगकिंगपोंग तथा हिल टॉप रोड पर स्थित हैं. इन भवनों में मोरगन हाउस, क्राकटी, गलिंका, साइदिंग तथा रिंगकिंग फॉर्म शामिल है. मोरगन हाउस तथा साइदिंग को सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर पर्यटक आवास के रूप में तब्‍दील कर दिया है. इन भवनों के नजदीक ही संत टेरेसा चर्च है. इस चर्च को स्‍थानीय कारीगरों ने प्रसिद्ध गोंपा मठ की अनुकृति पर बनाया है. कलिंगपोंग फूल उत्‍पादन का प्रमुख केंद्र है. यहां देश का 80 प्रतिशत ग्‍लैडीओली का उत्‍पादन होता है. इसके अलावा यह आर्किड, कैकटी, अमारिलिस, एंथूरियम तथा गुलाबों के फूल के लिए प्रसिद्ध है. गेबलेस तथा धालिस का भी यहां बहुतायत मात्रा में उत्‍पादन होता है. यहां प्रसिद्ध रेशम उत्‍पादन अनुसंधान केंद्र भी है. यह केंद्र दार्जिलिंग जाने के रास्‍ते पर स्थित है. 2008 में स्थापित कालिंपोंग विज्ञान केंद्र भी यहाँ का एक मुख्य आकर्षण है. कालिंपोंग और दार्जिलिंग 1980 के दशक में और हाल ही 2010 में हुये गोरखालैंड आंदोलन के मुख्य केंद्र थे. गंगटोक से 75 किमी और बागडोगरा हवाईअड्डे से यह 80 किमी दूरी पर है.

रंगपो (Rangpo): रंगपो भारत के सिक्किम राज्य के पूर्व सिक्किम ज़िले में स्थित एक शहर है. यह तीस्ता नदी के किनारे बसा हुआ है. रंगपो पश्चिम बंगाल की सीमा के पास 200 मीटर की ऊँचाई पर है. NH 10 (पूर्व का NH 31A) सिलीगुड़ी से गंगटोक मार्ग पर स्थित सिक्किम का यह पहला शहर है. सिक्किम में प्रवेश के लिए यह गेटवे है. सभी वाहनों की यहाँ जाँच होती है. विदेशी पर्यटकों के अभिलेख बॉर्डर पुलिस द्वारा जाँच किए जाते हैं. गंगटोक से सीधी दूरी 20 किमी है परंतु NH-10 से यह 37 किमी की दूरी पर स्थित है.

गंगटोक आगमन: दोपहर 12 बजे हम गंगटोक शहर पहुँच गए. सिक्किम पूर्व निर्धारित कार्यक्रम में नहीं था. जब दार्जिलिंग से गंगटोक के रास्ते में सफर कर रहे थे तो भारतीय वन सेवा (1978 बैच) के हमारे ग्रांड सीनियर श्री मुरारीलाल अरड़ावतिया जी (M.L. Arrawatia) का ध्यान आया. वे पहले सीधी भर्ती के भारतीय वन सेवा अधिकारी थे जिनको सिक्किम कैडर आवंटित हुआ था.

दार्जिलिंग से चलकर हम गंगटोक दोपहर 12 बजे पहुँच गए परंतु यहाँ रुकने की कोई पूर्व व्यवस्था नहीं थी. मेरे जेब में एमपी फोरेस्ट डिपार्ट्मेंट की एक छोटी टेलीफोन डाइरेक्टरी थी. उसमे श्री एमएल अड़ावतिया जी का नंबर देखने का प्रयास किया परंतु सिक्किम के अंतर्गत विभागाध्यक्ष का केवल एक ही नंबर दिया हुआ था जो पुराना होने से संपर्क नहीं हो सका. पहाड़ी रास्ते के कारण नेटवर्क भी ठीक से काम नहीं कर रहा था.

हमारी टेक्सी का चालक दार्जिलिंग का ही था और काफी बातूनी परंतु समझदार श्रेणी का था. वह वहाँ का इतिहास और अन्य जानकारियाँ बताता हुआ आया. यह भी समझाईस दी कि आप यहाँ 3W का ध्यान जरूर रखना- Weather, Water and Woman. उसने विस्तार से बताया मौसम (Weather) यहाँ पहाड़ों में कभी भी पलट सकता है. पानी (Water) कहीं भी सोच समझ कर पीयें क्योंकि अशुद्ध हो सकता है और आपका पेट खराब कर सकता है. उसने कहा किसी औरत का सहज में ही विश्वास न करें. उसकी दो बातें तो ठीक हैं क्योंकि पहाड़ी क्षेत्रों में यह आम बात है और हमें इनका कई बार अनुभव भी हो चुका है. तीसरी बात के संबंध में उसका अपना अनुभव हो सकता है. तीसरे w के बारे में जहाँ तक हम समझ पाये उसका इसारा आजकल हो रहे दांपत्य बंधनों के जल्दी टूटने की तरफ था परंतु यह आजकल देश में सभी जगह होने लगा है. एक अन्य स्रोत ने तीसरा W शराब (Wine) के लिए प्रयोग किया जाना बताया था. परंतु इस तरह की किंवदंतियाँ देश के हर भाग में थोड़ा-बहुत हेर-फेर के साथ सुनने को मिलती हैं जिनको गंभीरता से नहीं लिया जाता. बातों-बातों में हम गंगटोक पहुँच गए. ड्राइवर हमें सीधा बस स्टैंड ले गया और कहा कि यहाँ का नियम है कि इससे आगे नहीं जा सकता क्योंकि बाहर से आने वाले चालक पर्यटक को केवल टेक्सी-स्टैंड तक ला सकते हैं. वे आगे यात्रा नहीं करा सकते. यह बात अच्छी लगी कि यहाँ के ड्राइवर नियम के पक्के हैं.

अब एक बड़ी समस्या हो गई कि अब कहाँ जायें. पहले से कोई व्यवस्था नहीं थी. मेरी पत्नी गोमती बुरड़क को सामान के पास छोडकर बस स्टैंड से बाहर निकला और किसी को पूछा कि यहाँ कोई शासकीय कार्यालय है क्या? एक व्यक्ति ने एक बड़े से भवन की तरफ इसारा किया. यह भवन साइन्स और टेक्नोलॉजी विभाग का कोई दफ़्तर था. एक कमरे में घुसा और एक अधिकारी को पूछा कि क्या आप हमें श्री एमएल अरड़ावतिया जी के बारे में बता सकते हैं? उन अधिकारी महोदय ने कई प्रश्न पूछे और जब उनको विश्वास हो गया कि मैं कोई संदिग्ध व्यक्ति नहीं हूँ तब उन्होने बताया कि वे हमारे ही विभाग के सचिव हैं. उन्होने सीधे श्री एमएल अरड़ावतिया जी से बात करवा दी. श्री एमएल अरड़ावतिया जी ने कहा कि आप वहीं रुको मैं खुद ही आता हूँ. कुछ ही समय में वे आ गए और हमें लेजाकर विश्राम गृह में रुकवाया. उनके आतिथ्य सत्कार ने हमें बहुत प्रभावित किया.

श्री मुरारीलाल अरड़ावतिया जी (M.L. Arrawatia) में मैंने हमेशा ही एक अच्छा मार्गदर्शक पाया है. वर्ष 1980 के प्रारंभिक महीनों में, जब मेरा चयन भारतीय वन सेवा में हो गया था, तब भी हम मार्गदर्शन के लिए इनके पास गए थे. वन अनुसंधान संस्थान एवं कॉलेजेज देहारादून द्वारा भारतीय वन सेवा अधिकारियों को दो साल का प्रशिक्षण देहारादून में दिया जाता है. मेरा भारतीय वन सेवा में चयन होने पर प्रशिक्षण में जॉइन करते समय साथ में सामान लाने हेतु एक लंबी विस्तृत सूची प्राप्त हुई थी. उस लिस्ट को देखकर हम चिंतित हो गए थे कि इतने कम समय में इतना अधिक सामान कैसे जुटा पायेंगे. उसी समय पता लगा कि वर्ष 1978 बैच का जयपुर में प्रवास है. मैं और मेरे साथी श्री सुरेश काबरा, जिनका चयन भी भारतीय वन सेवा में हुआ था, श्री मुरारीलाल अड़ावतिया जी से मिलने के लिए होटल गणगौर गए. उनके साथ कमरे में 1978 बैच के श्री मुंशी सिंह राणा भी रुके हुये थे. उन्होंने सलाह दी कि इस लिस्ट को देखकर चिंता करने की जरूरत नहीं है. अन्य प्रशिक्षण की तरह आप अपने साथ जरूरी समान ले जाओ. उसी से काम चल जाएगा. बाकी सामान वहीं से मिल जाएगा. उन्होने समझाया कि यह एक स्टैंडर्ड लिस्ट है जो पुराने ब्रिटिश काल से चल रही है. इसलिए टेंशन करने की आवश्यकता नहीं है. इससे हमें काफी राहत महसूस हुई. इसके अलावा उन्होंने भारतीय वन सेवा के संबंध में भी अनेक टिप्स दिए. इसके पहले भी श्री मुरारीलाल अड़ावतिया जी हमारा मार्गदर्शन कर चुके हैं जब वे राजस्थान विश्वविद्यालय के फिजिक्स डिपार्टमेंट में हमारे सीनियर थे और कभी-कभी फिजिक्स की क्लास लेने के लिए आया करते थे. तब वे कहा करते थे कि मैं भी आप में से ही हूं. यहाँ नियमित प्रोफेसर नहीं हूँ इसलिये मुझसे ज्यादा अडवान्स ज्ञान की अपेक्षा न रखी जावे. 1982 से मैं मध्य प्रदेश कैडर में चला गया. उसके बाद सेवा की व्यस्तताओं के कारण हमारा मिलन 28 साल बाद होने का यही समय था.

गंगटोक का भ्रमण (19.11.2010)

हमारे पास आज ही का दिन था यहाँ गंगटोक में भ्रमण का, सो श्री एमएल अरड़ावतिया जी ने तत्काल भ्रमण की योजना तैयार कर तदानुसार व्यवस्था कर दी. हम पहले बन झाखरी जल प्रपात (Banjhakri Falls) गए और वहीं से आगे बौद्ध धर्म के रूमटेक मठ (Lingdum Monastery) का भ्रमण किया. लौटकर शाम को एमजी रोड़ मुख्य बाजार का भ्रमण किया.

रात्री में श्री एम.एल. अरड़ावतिया जी ने हमें रात्री-भोज पर आमंत्रित किया. श्रीमती अरड़ावतिया जी द्वारा बहुत शानदार खाना खिलाया और अच्छा स्वागत किया. पुराने दिनों की यादें ताजा की. आप दोनों ही राजस्थान के ही निवासी हैं. श्री एम.एल. अरड़ावतिया जी झुञ्झुनू जिले के चिड़ावा कस्बे के रहने वाले हैं. इनके पूर्वज किसी समय झुञ्झुनू जिले के अरड़ावता गाँव के रहने वाले थे इसलिये इनका उपनाम 'अरड़ावतिया' (Arrawatia) हो गया. यह गाँव महिला शिक्षा में अग्रणी रहा है. खाना खाने के बाद बाहर निकले तो उस समय वर्षा हो रही थी. रात को आकर विश्राम गृह में रुके. सुबह जल्दी ही 6 बजे बागडोगरा एयरपोर्ट के लिए रवाना होना था. यहाँ गंगटोक और आसपास के स्मारक एवं दर्शनीय स्थलों का विवरण दिया जा रहा है:

गंगटोक का परिचय

गंगटोक या स्थानीय नाम गान्तोक भारत के उत्तर-पूर्वी राज्य सिक्किम की राजधानी है. एक बहुत आकर्षक शहर है जो रानीपूल नदी (Ranipool River) के पश्चिम ओर बसा है. गंगटोक या यों कहिए संपूर्ण सिक्किम प्रदेश बहुत साफ़-सुथरा है. कोई भी वाहन चालक या नागरिक किसी प्रकार का कचरा फैलाते नजर नहीं आए. टेक्सी के वाहन चालक ने बताया कि कचरा फैलाने पर तुरंत दंड दिया जाता है. वाहन चालक सफाई का ब्रांड अम्बेसेडर नजर आया. शाम के समय जब हम एमजी रोड़ मुख्य बाजार का भ्रमण कर रहे तो लगा कि इससे शांत और साफ़-सुथरी जगह देश में कहीं ओर नहीं है. कंचनजंघा शिखर की संपूर्ण शृंखला की सुंदर दृश्यावली यहां से दिखाई देती है. गंगटोक के प्राचीन मंदिर, महल और मठ आपको सपनों की दुनिया की सैर कराएंगे.

यहां देखने लायक कई स्थान हैं जैसे, गणेश टोक (Ganesh Tok), हनुमान टोक (Hanuman Tok) तथा ताशि व्यूप्वांइट (Tashi Viewpoint). अगर आप गंगटोक घूमने का पूरा लुफ्त उठाना चाहते हैं तो इस शहर को पैदल घूमें. यहां से कंचनजंघा नजारा बहुत ही आकर्षक प्रतीत होता है. इसे देखने पर ऐसा लगता है मानो यह पर्वत आकाश से सटा हुआ है तथा हर पल अपना रंग बदल रहा है.

अगर आपकी बौद्ध धर्म में रुचि है तो आपको नामग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ तिब्बतोलॉजी (Namgyal Institute of Tibetology) जरुर घूमना चाहिए. यहां बौद्ध धर्म से संबंधित अमूल्य प्राचीन अवशेष तथा धर्मग्रन्थ रखे हुए हैं. यहां अलग से तिब्बती भाषा, संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य की शिक्षा दी जाती है. इन सबके अलावा आप प्राचीन कलाकृतियों के लिए पुराने बाजार, लाल बाजार या नया बाजार भी घूम सकते हैं.

गंगटोक के आसपास स्मारक एवं दर्शनीय स्थल

बन झाखरी जल प्रपात (Banjhakri Falls - Gangtok)

बन-झाखरी जल प्रपात और एनर्जी पार्क गंगटोक से 7 किमी दूरी पर NH-31 पर स्थित बहुत सुंदर पर्यटन स्थल है. घने वनों से घिरे हुये पहाड़ों से कोई 30 मीटर की ऊँचाई से प्राकृतिक झरनों का पानी गिरता है. बन जाखड़ी का अर्थ होता है ‘स्वास्थ्य देने वाला वन’. इस पार्क की परिकल्पना सिक्किम के लोकप्रिय मुख्य मंत्री पावन कुमार चामलिंग द्वारा की गई थी. पार्क की थीम यह थी कि प्राकृतिक परिवेश से कैसे लोगों का स्वास्थ्य सुधारा जाए. यहाँ मानव निर्मित झील में ड्रैगन देख सकते हैं. यहाँ पर जाकड़ी की मूर्तियाँ, सिक्किम के Lyam Lymay, Mangpas, और Lepcha लोगों के पूर्वजों की मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं. पार्क में सुंदर फूल वाले पौधों के बीच फूट ब्रिज और खड़ंजे बनाये गए हैं.

रूमटेक मठ (Lingdum Monastery or Ranka Lingdum or Pal Zurmang Kagyud Monastery)

रुमटेक बौद्ध मठ घूमे बिना गंगटोक का सफर अधूरा माना जाता है. यह मठ गंगटोक से 24 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यह बौद्ध मठ 300 वर्ष पुराना है. रुमटेक सिक्किम का सबसे पुराना मठ है. 1960 के दशक में इस मठ का पुननिर्माण किया गया था. इस मठ में एक विद्यालय तथा ध्यान साधना के लिए एक अलग खण्ड है. इस मठ में बहुमूल्य थंगा पेंटिग तथा बौद्ध धर्म के कग्यूपा संप्रदाय (Kagyu) से संबंधित वस्तुएं सुरक्षित अवस्था में है. इस मठ में सुबह में बौद्ध भिक्षुओं द्वारा की जाने वाली प्रार्थना बहुत कर्णप्रिय होती है. यह ग्यालवा करमापा का स्थान है, जो तिब्बत में बौद्ध धर्म के कग्यूपा अनुयायियों के प्रमुख हैं. यहां तिब्बती धर्म से संबंधित अनेक पेंटिंग्स प्रदर्शित हैं. धर्मालाप के सत्रों में यहां अनेक यात्री आते हैं. मंदिर के पीछे बौद्ध धर्म के अध्ययन केलिए स्थित संस्थान में मठवासी अध्ययन करते हैं. रमटेक में फरवरी माह में तिब्बती नव वर्ष से दो दिन पूर्व चाम नृत्य का आयोजन किया जाता है. इस दौरान आप झांझ-मजीरे और ढोल की थाप पर नाचते मठवासियों को देख सकते हैं.


दो द्रुल चोर्तेन स्तूप (Dro-dul Chorten Stupa)

यह गंगटोक के प्रमुख आकर्षणों में एक है. इसे सिक्किम का सबसे महत्वपूर्ण स्तूप माना जाता है. इसकी स्थापना त्रुलुसी रिमपोचे (Trulshik Rinpoche) ने 1945 ई. में की थी. त्रुलुसी तिब्बतियन बौद्ध धर्म के नियंगमा सम्प्रदाय (Nyingma) के प्रमुख थे. इस मठ का शिखर सोने का बना हुआ है. इस मठ में 108 प्रार्थना चक्र है. इस मठ में गुरु रिमपोचे की दो प्रतिमाएं स्थािपित है.


इनहेंची मठ अथवा इंचे मठ (Enchey Monastery)

इंचे मठ अथवा 'एंचेय मठ' सिक्किम की राजधानी गंगटोक में स्थित है. इनहेंची का शाब्दिक अर्थ होता है निर्जन. जिस समय इस मठ का निर्माण हो रहा था, उस समय इस पूरे क्षेत्र में सिर्फ यही एक भवन था. गंगटोक के सुंदर पहाड़ी पर इसका निर्माण किया गया है जहां से माउंट कंचनजंगा के शानदार दृश्य का आनंद ले सकते हैं. इस मठ का मुख्य आकर्षण जनवरी महीने में यहां होने वाला विशेष नृत्य है. इस नृत्य को चाम कहा जाता है. मूल रूप से इस मठ की स्थापना 200 वर्ष पहले हुई थी. वर्तमान में जो मठ है वह 1909 ई. में बना था. यह मठ द्रुपटोब कारपो को समर्पित है. कारपो को जादुई शक्‍ति के लिए याद किया जाता है.

कंचनजंघा (Kanchanjaŋgha)

कंचनजंघा विश्व की तीसरी सबसे ऊँची पर्वत चोटी है. इसकी ऊंचाई 8,586 मीटर है. यह दार्जिलिंग से 74 कि.मी. उत्तर-पश्चिमोत्तर में स्थित है. साथ ही यह सिक्किम व नेपाल की सीमा को छूने वाले भारतीय प्रदेश में हिमालय पर्वत श्रेणी का एक हिस्सा है. यह सिक्किम के उत्तर पश्चिम भाग में नेपाल की सीमा पर है. कंचनजंघा नाम की उत्पत्ति तिब्बती मूल के चार शब्दों से हुयी है, जिन्हें आमतौर पर कांग-छेन-दजोंगा या यांग-छेन-दजोंगा लिखा जाता है. सिक्किम में इसका अर्थ विशाल हिम की पाँच निधियाँ लगाया जाता है. नेपाल में यह कुंभकरन लंगूर कहलाता है. कंचनजंगा पर्वत का आकार एक विशालकाय सलीब के रूप में है, जिसकी भुजाएँ उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में स्थित है. अलग-अलग खड़े शिखर अपने निकटवर्ती शिखर से चार मुख्य पर्वतीय कटकों द्वारा जुड़े हुये हैं, जिनसे होकर चार हिमनद बहते हैं - जेमु (पूर्वोत्तर), तालूंग (दक्षिण-पूर्व), यालुंग (दक्षिण-पश्चिम) और कंचनजंगा (पश्चिमोत्तर).

सोमगो झील (Lake Tsomgo)

सोमगो झील (छानू झील) सिक्किम के पूर्वी सिक्किम जिले में गंगटोक से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यह झील सिक्किम पर्यटन के दिलचस्प आकर्षणों में से एक है. इस जल स्रोत के चारों ओर का वातावरण और सुरम्य दृश्य हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है. लगभग 3753 मीटर की ऊँचाई पर स्थित इस जल स्रोत में पानी पास ही स्थित हिमानी (ग्लेशियर) से आकर जमा होता है. यह झील चारों ओर से बर्फीली पहाडियों से घिरा हुआ है. झील एक किलोमीटर लंबा तथा 50 फीट गहरा है. यह अप्रैल महीने में पूरी तरह बर्फ में तब्दील हो जाता है. झील की सतह से प्रवर्तित होने वाले प्रकाश का रंग अलग-अलग सीजन में अलग होता है जो इसको रहस्यमय बनाता है और इसलिए सिक्किम के मूल निवासियों के लिए यह एक पवित्र झील के रूप में माना जाता है. सुरक्षा कारणों से इस झील को एक घंटे से अधिक देर तक नहीं घूमा जा सकता है. जाड़े के समय में इस झील में प्रवास के लिए बहुत से विदेशी पक्षी आते हैं. इस झील से आगे केवल एक सड़क जाती है. यही सड़क आगे नाथूला दर्रे (Nathu La) तक जाती है. यह सड़क आम लोगों के लिए खुली नहीं है. लेकिन सेना की अनु‍मति लेकर यहां तक जाया जा सकता है.

लाम्पोखरी झील आरिटार (Lampokhari lake of Aritar)

लाम्पोखरी, सिक्किम राज्य के धुर पूर्वी भाग में गंगटोक से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर पूर्व सिक्किम जिले के रंगली (Rongli) सबडीविजन में स्थित एक सुंदर झील है. गंगटोक से यहाँ पाक्योंग (Pakyong) अथवा रंगपो (Rangpo) होते हुए कार से चार घंटे में पहुंचा जा सकता है. झील चारों ओर से सघन वनों और पहाड़ियों से घिरी हुई है. झील एक किलोमीटर लंबी तथा 50 फुट तक गहरी है. यहाँ पर अनेक दर्शनीय स्थल हैं.

देवराली ऑर्किड अभयारण्य, सिक्किम (Deorali Orchid Sanctuary in Sikkim)

ऑर्किड अभयारण्य देवराली गंगटोक में नामग्याल संस्थान (Namgyal Institute) के पास रंगपो मुख्य सड़क से हटकर स्थित है. इस अभयारण्‍य में दुर्लभ ऑर्किड का सुंदर संग्रह है. यहां सिक्किम में पाए जाने वाले 454 किस्म के विभिन्न रंगों, आकार और सुगंधित फूलवाले ऑर्किडों को रखा गया है. प्राकृतिक सुंदरता को पसंद करने वाले व्यक्तियों को इस एकोलोजिकल-होटस्पोट को अवश्य देखना चाहिए.

नामग्याल तिब्बत अध्ययन संस्थान (Namgyal Institute of Tibetology)

भारत में गैंगटॉक की पहाड़ियों में स्थित तिब्बती साहित्य और शिल्प का यह अनूठा भंडार है. भारत में इस प्रकार का एकमात्र संस्थान है. यह समुद्र तल से लगभग 5500 फुट की ऊंचाई पर स्थित है. सिकिक्म के शासक 11वें चोगयाल, सर ताशी नामग्याल ने 1958 में इसकी स्थापना की थी. देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने पहली अक्टूबर, 1958 को इस संस्थान का विधिवत उद्धाटन किया था. इस संस्थान को तिब्बत अध्ययन शोध संस्थान, सिकिक्म के नाम से भी जाना जाता है. पूरे विश्व मे मात्र तीन संस्थान ही इस प्रकार के हें. मास्को में पीपल्स ऑफ एशिया संस्थान और टोक्यो में तोयो बुंको ऐसे दो अन्य संस्थान हैं. यह संस्थान बौद्ध-दर्शन और बौद्ध- धर्म का विश्व विख्यात केन्द्र है. यहां विभिन्न रूपों और आकारों की लगभग 200 प्रतिमाओं, पेंटिंगों, विज्ञान, धर्म, चिकित्सा, ज्योतिष आदि विषयों की पुस्तकों सहित बहुत सी अमूल्य वस्तुएं मौजूद हैं. लेपचा और संस्कृत की पांडुलिपियों सहित प्राचीनकाल की अनोखी वस्तुओं की नामावलियों का यहां बहुत अच्छा संग्रह है. इस संस्थान के पास तिब्बती पांडुलिपियों और लकड़ी पर बनी नक्काशियों का ऐसा संग्रह है जो पूरे विश्व में शायद ही और कहीं हो. इसके फलस्वरूप यह बौद्धों, शोधकर्ताओं और इससे जुड़े अन्य लोगों के लिए एक प्रमुख आकर्षण केन्द्र बन गया है.

पेल्लिंग (Pelling) : भारत के सिक्किम राज्य के पश्चिम सिक्किम ज़िले में स्थित एक शहर है. यह रंगीत नदी के किनारे बसा हुआ है. यह स्थान गंगटोक के पश्‍चिम में 115 किलोमीटर और सिलीगुड़ी से 135 किमी की दूरी पर स्थित है. यहां कुछ घर तथा अधिक संख्या में होटल हैं. यहां से कंचनजंघा का अदभूत दृश्य‍ दिखता है. यहां से पर्वत चोटी बहुत नजदीक लगती है. ऐसा लगता है मानो यह ठीक बगल में है और इसे हम छू सकते हैं. यहां मौसम बहुत सुहावना होता है. पेल्लिंग के अधिकांश लोग बौद्ध धर्म मानने वाले हैं.


संगा-चोलिंग मठ सिक्किम (Sanga Choeling Monastery)

संगा-चोलिंग मठ सिक्किम के पेलिंग और पेमायंगत्से मठ के ऊपर पश्चिम सिक्किम ज़िले में स्थित है. यह सिक्किम के महत्व‍पूर्ण मठों में से एक है. एक गुप्त मंत्र की जगह के रूप में इस मठ को जाना जाता है. संगा-चोलिंग का अर्थ है - "Island of the Guhyamantra teachings”. लामा लहातसुन चेपों (Lama Lhatsun Chempo) द्वारा सन 1697 में संगा-चोलिंग मठ का निर्माण कराया गया था, जो कि अब सिक्किम के प्राचीनतम मठों में शुमार किया जाता है. तिब्बती कैलेंडर के अनुसार हर महीने के दसवें दिन लामा इस मठ में भजन सुनाते हैं और प्रतिदिन सुबह-शाम प्रार्थना करते हैं. यह मठ केवल पुरुषों के लिए आरक्षित है और 'पीला हठ संप्रदाय' के अंतर्गत आता है. संगा-चोलिंग मठ तक पहुँचने के लिए लगभग 40 मिनट की खड़ी चढ़ाई चढ़नी होती है. इस मठ के चारों तरफ़ के जंगलों की ख़ूबसूरती बहुत ही मनमोहक है. इस मठ में एक छोटा सा कब्रिस्ताान भी है. इस मठ के दीवारों पर बहुत ही सुंदर चित्रकारी की गई है. पिलींग आने वाले को इस मठ को अवश्य घूमना चाहिए.

पेमायनस्ती मठ (Pemayangtse Monastery)

यह बौद्ध मठ गंगटोक से पश्चिम में 110 किमी की दूरी पर है. यह मठ पिलींग (Pelling) से 2 किमी दूरी पर स्थित है और ग्यालसिंग (Gyalshing) से इसकी दूरी 7 किमी पड़ती है. लामा लहातसुन चेपों (Lama Lhatsun Chempo) द्वारा सन 1647 में पेमायनस्ती मठ का निर्माण कराया गया था, यह सिक्किम का सबसे महत्व पूर्ण और प्रतिष्‍ठित बौद्ध मठ है. यहां बौद्ध धर्म की पढ़ाई भी होती है. यहां बौद्ध धर्म की प्राथमिक, सेकेण्डरी तथा उच्च शिक्षा प्रदान की जाती है. यहां 50 बिस्तरों का एक विश्राम गृह भी है. पर्यटक को भी यहां ठहरने की सुविधा प्रदान की जाती है. इस मठ में कई प्राचीन धर्मग्रन्थ तथा अमूल्य प्रतिमाएं सुरक्षित अवस्था में हैं. पेमायनस्ती मठ का विशेष आकर्षण यहां लगने वाला बौद्ध मेला है. यहां हर वर्ष फरवरी महीने में यह मेला लगता है.

सुक-ला-खंग महल (Tsuklakhang Palace)

सिक्किम के चोग्याल (Chogyal) राजाओं का शाही पूजा स्थल, जो बौद्धों के लिए पूजा का मुख्य स्थान है. यह एक सुंदर और आकर्षक भवन है, यहां भगवान बुद्ध की प्रतिमाओं और लकड़ी पर नक्काशी के कार्य का बहुत बड़ा संग्रह है. यह गंगटोक पैलेस के मैदान पर स्थित है. यह भवन आम लोगों और पर्यटकों के लिए लोसार पर्व के दौरान खोला जाता है. लोसर तिब्बती भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है - 'नया वर्ष' ('लो' = नया, 'सर' = वर्ष ; युग). लोसर, तिब्बत, नेपाल और भुटान का सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध पर्व (त्यौहार) है. भारत के आसम और सिक्किम राज्यों में ये त्यौहार मनाया जाता है.

टाशिलिंग (Tashiling Monastery)

ताशी लिंग मुख्‍य शहर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है. यहां से कंचनजंघा श्रेणी बहुत सुंदर दिखती है. यह मठ मुख्य रूप से एक पवित्र बर्त्तन बूमचू (Bhumchu) (Bhum=pot; Chu=water) के लिए प्रसिद्ध है. कहा जाता है कि इस बर्त्तन में पवित्र जल रखा हुआ है. यह जल 300 वर्षों से इसमें रखा हुआ है और अभी तक नहीं सुखा है.


सिक्किम राज्य का परिचय

भारत के पूर्वोत्तर भाग में स्थित इस पर्वतीय राज्य सिक्किम के इतिहास, भूगोल, जनजीवन से संबंधित कुछ संक्षिप्त तथ्य यहाँ दिये जा रहे हैं. साफ सुथरा होना, प्राकृतिक सुंदरता एवं राजनीतिक स्थिरता आदि विशेषताओं के कारण सिक्किम भारत में पर्यटन का प्रमुख केंद्र है. यह राज्य पश्चिम में नेपाल, उत्तर तथा पूर्व में चीनी तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र तथा दक्षिण-पूर्व में भूटान से लगा हुआ है. भारत का पश्चिम बंगाल राज्य इसके दक्षिण में है. अंग्रेजी, गोर्खा खस भाषा, लेप्चा, भूटिया, लिम्बू तथा हिंदी आधिकारिक भाषाएँ हैं. हिन्दू तथा बज्रयान बौद्ध धर्म सिक्किम के प्रमुख धर्म हैं. गंगटोक सिक्किम की राजधानी है तथा राज्य का सबसे बड़ा शहर है. सिक्किम नाम ग्याल राजतन्त्र द्वारा शासित एक स्वतंत्र राज्य था, परंतु प्रशासनिक समस्यायों के चलते तथा भारत में विलय और जनमत के कारण 1975 में एक जनमत-संग्रह के साथ भारत में इसका विलय हो गया.

प्रशासकीय विभाग

सिक्किम में चार जनपद हैं. प्रत्येक जनपद (जिले) को केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा नियुक्त जिलाधिकारी देखता है. चीन की सीमा से लगे होने के कारण अधिकतर क्षेत्रों में भारतीय सेना का बाहुल्य दिखाई देता है. कई क्षेत्रों में प्रवेश निषेध है और लोगों को घूमने के लिये परमिट लेना पड़ता है. सिक्किम में कुल आठ कस्बे एवं नौ उप-विभाग हैं. यह चार जिले पूर्व सिक्किम, पश्चिम सिक्किम, उत्तरी सिक्किम एवं दक्षिणी सिक्किम हैं जिनकी राजधानियाँ क्रमश: गंगटोक, गेज़िंग, मंगन एवं नामची हैं.

सिक्किम का इतिहास

सिक्किम नामकरण: सिक्किम शब्द का सर्वमान्य स्रोत लिम्बू भाषा के शब्दों 'सु' (अर्थात "नवीन") तथा 'ख्यिम' (अर्थात "महल" अथवा "घर" - जो कि प्रदेश के पहले राजा फुन्त्सोक नामग्याल के द्वारा बनाये गये महल का संकेतक है) को जोड़कर बना है. तिब्बती भाषा में सिक्किम को द्रेंजोंग (Drenjong) कहा जाता है जिसका अर्थ है - "चावल की घाटी". भूटिया लोग इसको बेयुल डेमोजोंग (Beyul Demazong) नाम से पुकारते हैं अर्थात - "चावल की गुप्त घाटी".

सिक्किम का महाभारत कालीन नाम इंद्रकील है. इंद्रकील हिमालय के उतर में एक छोटा सा पर्वत था . इंद्रकील पर अर्जुन ने उग्र तपस्या की थी जिसके फलस्वरूप अर्जुन को इंद्र के दर्शन हुए थे. हिमवन्तमतिक्रम्य गंधमादनमेव च, अत्यक्रामत् स दुर्गाणि दिवारात्रमतिन्द्रत:। इंद्रकीलं समासाद्यततोऽतिष्ठद् धनंजय:'। (महाभारत, वनपर्व 37, 41-42 ।) इंद्रकील के निकट ही शिव और अर्जुन का युद्ध हुआ था. (महाभारत, वनपर्व 38)

बौद्ध भिक्षु गुरु रिन्पोचे (पद्मसंभव) का 8वीं सदी में सिक्किम दौरा यहाँ से सम्बन्धित सबसे प्राचीन विवरण है. अभिलेखित है कि उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया, सिक्किम को आशीष दिया तथा कुछ सदियों पश्चात आने वाले राज्य की भविष्यवाणी की. 1642 ईस्वी में ख्ये के पाँचवें वंशज फुन्त्सोंग नामग्याल को तीन बौद्ध भिक्षु, जो उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से आये थे, द्वारा युक्सोम में सिक्किम का प्रथम चोग्याल (राजा) घोषित किया गया. इस प्रकार सिक्किम में राजतन्त्र का आरम्भ हुआ.

1791 में चीन ने सिक्किम की मदद के लिये और तिब्बत को गोरखा से बचाने के लिये अपनी सेना भेज दी थी. नेपाल की हार के पश्चात, सिक्किम किंग वंश का भाग बन गया. पड़ोसी देश भारत में ब्रतानी राज आने के बाद सिक्किम ने अपने प्रमुख दुश्मन नेपाल के विरुद्ध उससे हाथ मिला लिया. नेपाल ने सिक्किम पर आक्रमण किया एवं तराई समेत काफी सारे क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया. इसकी वज़ह से ईस्ट इंडिया कम्पनी ने नेपाल पर चढ़ाई की जिसका परिणाम 1814 का गोरखा युद्ध रहा.

वर्ष 1849 में दो अंग्रेज़ अफसर, ब्रिटिश बोटनिस्ट सर जोसेफ डाल्टन हूकर (Joseph Dalton Hooker) और बंगाल मेडिकल सर्विस के डाक्टर अर्चिबाल्ड कैम्पबेल (Dr.Archibald Campbell), जिसमें उत्तरवर्ती (डाक्टर अर्चिबाल्ड) सिक्किम और ब्रिटिश सरकार के बीच संबंधों के लिए जिम्मेदार था, बिना अनुमति अथवा सूचना के सिक्किम के पर्वतों में जा पहुंचे. इन दोनों अफसरों को सिक्किम सरकार द्वारा बंधी बना लिया गया. नाराज ब्रिटिश शासन ने इस हिमालयी राज्य पर चढाई कर दी और इसे 1835 में भारत के साथ मिला लिया. इस चढाई के परिणामवश चोग्याल ब्रिटिश गवर्नर के अधीन एक कमजोर राजा बन कर रह गया.

1947 में एक लोकप्रिय मत द्वारा सिक्किम का भारत में विलय को अस्वीकार कर दिया गया और तत्कालीन भारतीय प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सिक्किम को संरक्षित राज्य का दर्जा प्रदान किया. इसके तहत भारत सिक्किम का संरक्षक हुआ. सिक्किम के विदेशी, राजनयिक अथवा सम्पर्क संबन्धी विषयों की ज़िम्मेदारी भारत ने संभाल ली.

काजी (प्रधान मंत्री) ने 1975 में भारतीय संसद को यह अनुरोध किया कि सिक्किम को भारत का एक राज्य स्वीकार कर उसे भारतीय संसद में प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए. सिक्किम को भारतीय गणराज्य में सम्मिलित्त करने के प्रश्न पर सिक्किम की जनता ने समर्थन किया. 16 मई 1975 को सिक्किम औपचारिक रूप से भारतीय गणराज्य का 22 वां प्रदेश बना और सिक्किम में राजशाही का अंत हुआ.

सिक्किम का भूगोल

पर्वत: अपने छोटे आकार के बावजूद सिक्किम भौगोलिक दृष्टि से काफी विविधतापूर्ण है. कञ्चनजञ्गा (Kanchenjunga) जो कि दुनिया की तीसरी सबसे ऊँची चोटी है, सिक्किम के उत्तरी पश्चिमी भाग में नेपाल की सीमा पर है और इस पर्वत चोटी को प्रदेश के कई भागों से आसानी से देखा जा सकता है. सिक्किम पूरा पर्वतीय क्षेत्र है. विभिन्न स्थानों की ऊँचाई समुद्री तल से 920 फीट से 28000 फीट तक है. कंचनजंगा यहाँ की सबसे ऊंची चोटी है. प्रदेश का अधिकतर हिस्सा खेती के लिये अनुपयुक्त है. इसके बावजूद कुछ ढलान को खेतों में बदल दिया गया है और पहाड़ी तरीके से खेती की जाती है. प्रदेश का एक तिहाई हिस्सा घने जंगलों से घिरा है.

हिमालय की ऊँची पर्वत श्रंखलाओं ने सिक्किम को उत्तरी, पूर्वी और पश्चिमी दिशाओं मे अर्धचन्द्र में घेर रखा है. राज्य के अधिक जनसंख्या वाले क्षेत्र अधिकतर राज्य के दक्षिणी भाग में, हिमालय की कम ऊँचाई वाली श्रंखलाओं मे स्थित हैं. राज्य मे अट्‌ठाइस पर्वत चोटियाँ, इक्कीस हिमानी, दो सौ सत्ताईस झीलें (जिनमे चांगु झील, गुरुडोंग्मार झील और खेचियोपल्री झीले, खेचियोपल्री झील शामिल हैं), पाँच गर्म पानी के चश्मे और सौ से अधिक नदियाँ और नाले हैं. आठ पहाड़ी दर्रे सिक्किम को तिब्बत, भूटान और नेपाल से जोड़ते हैं.

नदियाँ: बर्फ से निकली कई धारायें मौजूद होने की वजह से सिक्किम के दक्षिण और पश्चिम में नदियों की घाटियाँ बन गईं हैं. यह धारायें मिलकर तीस्ता नदी एवं रंगीत नदी बनाती हैं. तिस्ता नदी को सिक्किम और उत्तरी बंगाल की जीवनरेखा कहा जाता है. यह सिक्किम के उत्तर से दक्षिण में बहती है. यह सिक्किम और पश्चिम बंगाल के जलपाइगुड़ी विभाग की मुख्य नदी है. पश्चिम बंगाल में यह दार्जिलिङ जिले में बहती है. सिक्किम और पश्चिम बंगाल से बहती हुई यह बांग्लादेश में प्रवेश करती है और ब्रह्मपुत्र नदी में मिल जाती है. इस नदी की पूरी लम्बाई 315 किमी है. बंगाल की खाड़ी में गिरने वाली यह नदी भारत के साथ ही बंगला देश की समृद्धि की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण नदी है. पुराणों के अनुसार यह नदी देवी पार्वती के स्तन से निकली है. 'तिस्ता' का अर्थ 'त्रि-स्रोता' या 'तीन-प्रवाह' है. प्राचीन साहित्य में इसको तृष्णा नदी भी कहा गया है. इस नदी की सहायक रांगपो नदी पर रंगीत बांध बना हुआ है. चमकिली हरे (emerald) रंग की यह नदी बांग्लादेश में ब्रह्मपुत्र नदी में मिलने से पूर्व सिक्किम और पश्चिम बंगाल की सीमाओं के रूप में बहती है.

सिक्किम की भूमि :

सिक्किम की पहाड़ियाँ मुख्यतः नेस्ती (gneissose) और अर्द्ध-स्कीस्तीय (half-schistose) पत्थरों से बनी हैं, जिस कारण उनकी मिट्टी भूरी मृत्तिका, तथा मुख्यतः उथला और कमज़ोर है. यहाँ की मिटटी खुरदरी तथा लौह क्षारीय से थोड़ी अम्लीय है. इसमें खनिजी और कार्बनिक पोषक तत्वों का अभाव है. इस तरह की मिट्टी सदाबहार और पर्णपाती वनों के योग्य है.

सिक्किम की भूमि का अधिकतर भाग केम्ब्रिया-पूर्व (Precambrian) चट्टानों से आवृत है जिनकी आयु पहाड़ों से बहुत कम है. पत्थर फ़िलीत (phyllite) और स्कीस्त से बने हैं इस कारणवश यहां की ढलान बहुत तीक्ष्ण है भूक्षरण और अपरदन ज़्यादा है. बहुत अधिक मात्रा में बारिश के कारण और बहुत अधिक मृदा अपरदन होने से मृदा में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है. यहां आये दिन भूस्खलन होते रहते हैं, जो बहुत से छोटे गावों और कस्बों का शहरी इलाकों से संपर्क विच्छेद कर देते हैं.

गरम पानी के झरने (Hot water springs)

सिक्किम में गरम पानी के अनेक झरने हैं जो अपनी रोगहरण क्षमता के लिये विख्यात हैं. सबसे महत्वपूर्ण गरम पानी के झरने फुरचाचु (Phurchachu), युमथांग (Yumthang), बोराँग (Borang), रालांग (Ralang), तरमचु (Taram-chu) और युमी सामडोंग (Yumey Samdong) हैं. इन सभी झरनों में काफी मात्रा में सल्फर पाया जाता है और ये नदी के किनारे स्थित हैं. इन गरम पानी के झरनों का औसत तापमान 50°C (सेल्सियस) तक होता है.

मौसम

यहाँ का मौसम जहाँ दक्षिण में शीतोष्ण कटिबंधी है तो वहीं टुंड्रा प्रदेश के मौसम की तरह है. यद्यपि सिक्किम के अधिकांश आवासित क्षेत्र में, मौसम समशीतोष्ण (टैंपरेट) रहता है और तापमान कम ही 28°C से ऊपर यां 0°C से नीचे जाता है. सिक्किम में पांच ऋतुएं आती हैं: सर्दी, गर्मी, बसंत और पतझड़ और वर्षा, जो जून और सितंबर के बीच आती है. अधिकतर सिक्किम में औसत तापमान लगभग 18°C रहता है. सिक्किम भारत के उन कुछ ही राज्यों में से एक है जिनमे यथाक्रम वर्षा होती है. हिम रेखा लगभग 6000 मीटर है.

मानसून के महीनों में प्रदेश में भारी वर्षा होती है जिससे काफी संख्या में भूस्खलन होता है. प्रदेश के उत्तरी क्षेत्र में शीत ऋतु में तापमान -40°C से भी कम हो जाता है. शीत ऋतु एवं वर्षा ऋतु में कोहरा भी जन जीवन को प्रभावित करता है जिससे परिवहन काफी कठिन हो जाता है.

कृषि और उद्योग : सिक्किम एक कृषि प्रधान राज्य है. यहाँ सीढ़ीदार खेतों में पारम्परिक पद्धति से कृषि की जाती है. यहाँ के किसान इलाईची, अदरक, संतरा, सेब, चाय और पीनशिफ आदि की खेती करते हैं. चावल राज्य के दक्षिणी इलाकों में सीढ़ीदार खेतों में उगाया जाता है. सम्पूर्ण भारत में इलाईची की सबसे अधिक उपज सिक्किम में होती है. पहाड़ी होने के बावजूद यहां पर बहुत औद्योगिक इकाइयां हैं. भारत के कई राज्यों से लोग यहां नौकरी के लिए आते हैं. मद्यनिर्माणशाला, मद्यनिष्कर्षशाला, चर्म-उद्योग तथा घड़ी-उद्योग सिक्किम के मुख्य उद्योग हैं. यह राज्य के दक्षिणी भाग में स्थित हैं- मुख्य रूप से मेल्ली और जोरेथांग नगरों में. इलायची सिक्किम की मुख्य नकदी फसल है. राज्य में प्रमुख रूप से ताम्बा, डोलोमाइट, चूना पत्थर, ग्रेफ़ाइट, अभ्रक, लोहा और कोयला आदि खनिजों का खनन किया जाता है.

पर्यटन : हाल के कुछ वर्षों में सिक्किम की सरकार ने प्रदेश में पर्यटन को बढ़ावा देना प्रारम्भ किया है. सिक्किम में पर्यटन की बहुत संभावना है. पर्यटन का लाभ उठाकर सिक्किम की आय में अप्रत्याशित वृद्धि की जा सकती है. आधारभूत संरचना में सुधार के चलते, यह उपेक्षा की जा रही है कि पर्यटन राज्य में अर्थव्यवस्था के एक मुख्य आधार के रूप में सामने आयेगा.

कंचनजंगा राष्ट्रीय उद्यान (Khangchendzonga National Park): सिक्किम, भारत में स्थित एक राष्ट्रीय उद्यान और बायोस्फीयर रिज़र्व (Kanchenjunga Biosphere Reserve) है. इस उद्यान को अपना नाम कंचनजंगा पर्वत से मिलता है. इसकी पश्चिमी परिधि में कंचनजंगा पर्वत है. यह उद्यान 26 अगस्त 1977 को स्थापित किया गया. जुलाई 2016 में इसको वर्ल्ड हेरिटेज साईट की सूची में सम्मिलित किया गया है. इस उद्यान का कुल क्षेत्रफल 1784 वर्ग कि. मी. है. यह उद्यान भारत के सिक्किम राज्य के उत्तर सिक्किम ज़िले में स्थित है. इसकी समुद्र सतह से ऊँचाई 1829 मी. से 8550 मी. तक है. यह भारत के गिने चुने अधिक ऊँचाई वाले राष्ट्रीय उद्यानों में से एक है.

कस्तूरी मृग (Musk deer), हिम तेंदुआ (Snow leopard), हिमालय तहर (Himalayan tahr), सोनकुत्ता (Dhole),रीछ (Sloth bear), हिमालयी काला भालू (Himalayan black bear), लाल पांडा (Red panda), जंगली गधा (Tibetan wild ass], भड़ल (Himalayan blue sheep), सराव (Serow), घोरल (Goral), ताकिन (Takin), धामिन (Rat snake), दबौया सांप (Russell's viper) तिब्बती एंटीलोप , काकड़, फ्लाइंग गिलहरी आदि का आवास है.

राष्ट्रीय उद्यान में शीतोष्ण पृथुपर्णी मिश्रित वन (Temperate Broadleaved Mixed Forests) पाये जाते हैं जिनमें बाँज (Oaks), सनोबर (Fir), भूर्ज (Birch), मैपिल (Maple), भिंसा (Willow) आदि प्रजातियाँ प्रमुख हैं.

इस उद्यान के अन्दर लेपचा जनजाति की कुछ बस्तियाँ हैं. राष्ट्रीय उद्यान के बफर जॉन में थोलुंग मठ (Tholung Monastery) भी स्थित है.

सिक्किम की जैव-विविधता - सिक्किम हिमालय के निचले हिस्से में भारत के तीन महत्वपूर्ण पारिस्थितिक क्षेत्रों में से एक है. यहाँ बहुत घने वन हैं जैवविविधता में बहुत स्मृद्ध हैं. अलग अलग ऊँचाई होने की वज़ह से यहाँ ट्रोपिकल, टेम्पेरेट, एल्पाइन और टुन्ड्रा आदि विभिन्न प्रकार के वन पाये जाते हैं. इन जंगलों में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु एवं वनस्पतियाँ उपलब्ध हैं. इतने छोटे से इलाके में ऐसी विभिन्नता कम ही जगहों पर पाई जाती है.

सिक्किम के वनस्पति में उपोष्णकटिबंधीय से अल्पाइन क्षेत्रों से होने वाली प्रजातियों की एक बड़ी श्रृंखला के साथ रोडोडेंड्रॉन (राज्य पेड़) शामिल है. बुरुंश (रोह्डोडैंड्रौन) सिक्क्म का राजवृक्ष है. सिक्किम की निचली ऊंचाई में ऑर्किड, अंजीर, लॉरेल, केला, साल के पेड़ और बांस, जो उप-उष्णकटिबंधीय प्रकार के वातावरण में पनपते हैं. 1,500 मीटर से ऊपर समशीतोष्ण ऊंचाई में, ओक्स, चेस्टनट, मैपल, बर्च, अल्डर, और मैग्नोलिया बड़ी संख्या में बढ़ते हैं. अल्पाइन प्रकार की वनस्पति में जूनिपर, पाइन, फर, साइप्रस और रोडोडेंड्रॉन शामिल हैं, और आमतौर पर 3,500 मीटर से 5,000 मीटर की ऊंचाई के बीच पाए जाते हैं.

सिक्किम में करीब 5,000 प्रकार के फूल वाले पौधे हैं, 515 दुर्लभ ऑर्किड, 60 प्राइम्युलस प्रजातियां, 36 रोडोडेंड्रॉन प्रजातियां, 11 ओक की किस्में, 23 बांस की किस्में, 16 शंकुधारी प्रजातियां, 362 प्रकार के फर्न और फर्न सहयोगी, 8 पेड़ के फर्न, और 900 प्रकार के औषधीय पौधे हैं. आर्किड डेंडरोबियम नोबाइल सिक्किम का आधिकारिक फूल है.

जीवों में हिमालयी काला भालू,पहाड़ी तेंदुए, कस्तूरी हिरण, भोरल, हिमालयी ताहर, लाल पांडा, हिमालयी मार्मॉट, सीरो, गोरल, भौंकने वाला हिरण, आम लंगूर, स्नो-लेपर्ड्स, मार्बल्ड कैट, लेपर्ड कैट, जंगली कुत्ता, तिब्बती भेड़िया, हॉग बैजर, बिंटूरोंग, जंगल कैट और सिवेट कैट. अल्पाइन ज़ोन में अधिक पाए जाने वाले जानवरों में मुख्य रूप से याक है जो दूध, मांस और बोझ उठाने वाले जानवर के रूप में पालन किया जाता है.

सिक्किम के पक्षी जगत में प्रमुख हैं - हिमालयी मोनाल (impeyan pheasant), मुनाल (crimson horned pheasant), हिम तीतर (snow partridge), तिब्बती रामचकोर (Tibetan snowcock), बेयर्डेड वल्चर (bearded vulture), खैरा गिद्ध (griffon vulture), सुवर्ण महाचील (golden eagles), बटेर (quails), बाटन (plovers), वुडकॉक (woodcocks), टिटहरी (sandpipers), कबूतर (pigeons), मक्खी पकडनेवाली चिड़िया (Old World flycatchers), बैब्बलर (babblers), रॉबिन (robins) आदि. यहां पक्षियों की कुल 550 प्रजातियां अभिलिखित की गयी हैं, जिन में से कुछ को विलुप्तप्रायः घोषित किया गया है.

सिक्किम में विभिन्न प्रकार के आर्थ्रोपोड्स भी पाये जाते हैं जिनमें से अधिकतर का अभी अध्ययन नहीं हो पाया है. सिक्किम आर्थ्रोपोड्स जिनका अभी अनुसंधान नहीं हुआ है उनमें मुख्यरूप से सिक्किम की तितलियाँ हैं. भारत में पाई जाने वाली 1438 प्रकार की तितलियों में से 695 किस्म सिक्किम में अभिलेखित की गई हैं.

सिक्किम की जैव-विविधता पर गहन अनुसंधान श्री एम.एल. अरड़ावतिया (M. L. Arrawatia, IFS) और संदीप तांबे (Sandeep Tambe, IFS) द्वारा किया गया है जो इस लिंक पर देखा जा सकता है- https://www.researchgate.net/publication/319836796_Biodiversity_of_Sikkim_Exploring_and_Conserving_a_Global_Hotspot

श्री एम.एल. अरड़ावतिया (M. L. Arrawatia, IFS) और संदीप तांबे (Sandeep Tambe, IFS) द्वारा Climate Change in Sikkim पुस्तक भी संपादित की है जो Information and Public Relations Department, Government of Sikkim द्वारा प्रकाशित की गई है. यह पुस्तक विषय पर एक संदर्भ पुस्तक है. इस पुस्तक में जलवायु परिवर्तन के सिक्किम के वनों, ग्लेसियरों, झीलों, पर्यावरण, फ्लोरा-फौना, कृषि, जैव विविधता और स्थानीय निवासियों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को रेखांकित किया गया है. यह पुस्तक इस लिंक पर देखी जा सकती है-http://www.sikkimforest.gov.in/climate-change-in-sikkim/climate%20change%20in%20sikkim%20-%20patterns%20impacts%20and%20initiatives.htm

पृथ्वी का स्वर्ग: पूर्वोत्तर भारत की हमारी यात्रा गंगटोक के भ्रमण के साथ ही समाप्त हो जाती है. सिक्किम की अद्भुत जैव-विविधता, अद्वीतीय प्राकृतिक सुंदरता, अमूल्य प्राचीन ऐतिहासिक अवशेष, तिब्बती भाषा, संस्कृति, दर्शन तथा साहित्य को जानना देखना और समझना चाहते हैं तो सिक्किम जरूर भ्रमण करना चाहिए. इस भूभाग को पृथ्वी का स्वर्ग कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. कुछ वर्षों पहले तक कश्मीर को यह दर्जा प्राप्त था परंतु वहाँ की अशांति ने यह दर्जा छीन लिया. इतने सुंदर और रोमांचक भूभाग को देखने और समझने लिए हमारे पास समय कम था परंतु शासकीय व्यवस्तता और भागमभाग की जिंदगी में भ्रमण का यह समय निकाल पाये यह भी हमारा सौभाग्य था.


गंगटोक- बागडोगरा एयरपोर्ट- दिल्ली-जयपुर -भोपाल वापसी


20.11.2010: गंगटोक (6 बजे) से बागडोगरा एयरपोर्ट (13.00 बजे).

गंगटोक से 6 बजे बजे रवाना होकर सीधे बागडोगरा एयरपोर्ट पहुँचे जहाँ से हमें 14.45 पर किंगफिशर एयरलाईन्स की दिल्ली होते हुये जयपुर की उड़ान पकड़नी थी. परंतु बागडोगरा एयरपोर्ट पहुँचने पर ही पता लगा कि यह फ्लाइट कब की ही निरस्त हो चुकी थी. हम काफी समय उत्तर-पूर्व राज्यों के भ्रमण पर थे जहाँ उस समय स्थानीय अशांति के कारण नेटवर्क बंद था और हमें सूचना नहीं मिली थी. किंगफिशर एयरलाईन्स ने हमें अगले दिन की टिकट दी. रात्री को हम बाग डोगरा के एक होटल में रुके.

21.11.2010: बाग डोगरा से किंगफिशर एयरलाईन्स उड़ान (IT-3343), प्रस्थान 13.35 बजे - दिल्ली (17.40 बजे)- किंगफिशर एयरलाईन्स उड़ान (IT-4634) दिल्ली (21 बजे) से जयपुर (22 बजे) पहुँचे.

बाग डोगरा से किंगफिशर एयरलाईन्स उड़ान (IT-3343) सीधी दिल्ली के लिए न होकर वाया गुवाहाटी थी. इस तरह असम और गुवाहाटी को हवाई मार्ग से भी देखने का मौका मिल गया. कामाख्या मंदिर के दर्शन के समय बताया गया था कि यह एक किंवदंती है कि जो इस मंदिर में आते हैं उनको तीन बार गुवाहाटी आना पड़ता है. मुझे इस तरह की किंवदंतियों में विश्वास नहीं है परंतु हमारे इस परिवर्तित हवाई यात्रा ने इसको प्रमाणित कर दिया. दूसरी बार गुवाहाटी काजीरंगा से लौटते समय और यह तीसरी बार इस परिवर्तित हवाई यात्रा से गुवाहाटी आना पड़ा. गुवाहाटी में प्लेन कुछ समय रुक कर दिल्ली के लिए रवाना हो जाती है. इस हवाई यात्रा में पूर्वोत्तर भारत के अच्छे दर्शन होते हैं. कुछ पहाड़ी भूभाग उस समय बादलों से ढका था वहाँ ऐसा लगता है मानो हम बर्फ से ढके पहाड़ों के ऊपर से जा रहे हों. यह एक रोमांचक अनुभव था.

19.12.2010: जयपुर (19.40) (2968 JP Madras Exp) से भोपाल के लिए रवाना. भोपाल पहुँचे 20.12.2010 सुबह 7.30 बजे

Source - Facebook Post of Laxman Burdak Dated 3.3.2021

गंगटोक के चित्र