Burdak Gotra Ka Itihas

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लेखक:लक्ष्मण बुरड़क, IFS (Retd.), Jaipur

For article in English see Burdak
बुरड़क गोत्र का इतिहास
Nanakji Burdak (1259-1319) AD
The author Laxman Burdak at Ruins of Sarnau Kot: The Burdak capital
Map of Sakastan around 100 BCE showing Barda, the place of origin of Burdaks

बुरड़क गोत्र का इतिहास

भारत में बुरड़क गोत्र की जनसंख्या मुख्य रूप से राजस्थान में पाई जाती है. कुछ संख्या में बुरड़क पंजाब और हरियाणा में भी मिलते हैं. भाषा भेद के कारण बुरड़क शब्द के अनेक रूपांतरण हो गए है यथा - बुरड़क, बुरडक, बुर्ड़क, बुरडोक, बरडक, बर्डक, बोरडक, बुर्रक, बुल्डक, वरडक, वर्डक, बुड़क, बड़क आदि.

बुरड़क शब्द की प्राचीनता

बुरड़क शब्द के अर्थ और प्राचीनता का सही-सही ज्ञान अभी नहीं है. यह एक गवेषणा का विषय है. ऐसा अनुमान है कि मध्य एशिया में सीस्तान क्षेत्र में ईशा पूर्व प्रथम शताब्दी में बरडा नाम का एक प्रान्त शक गणराज्य में था. वहां के रहने वाले लोगों को संभवतया बरडाक या बरडक कहा गया है. शक लोगों के भारत आगमन के समय ये भारत के पंजाब प्रान्त में आये. भीमसिंह दहिया (जाट्स द अनसियेंट रूलर्स , पृ. 127 ) मानते हैं कि ईशा पूर्व 8 वीं शदी में जाट ईरान में उरमिया झील के आस-पास बसे थे. ईशा पूर्व 7 वीं शदी में वहां पर मंडा जाटों का राज्य था. उरमिया नामकी प्राचीन झील उत्तरी-पश्चिमी ईरान में स्थित है. इस झील के चारों तरफ 102 टापू हैं जिनमें से तीन के नाम हैं- बरड, बरडक और बरडिन. उरमिया झील में नमक बनता था जो उस समय आय का मुख्य साधन था. ऐसा अनुमान है कि बुरडक लोग ईरान से आकर पंजाब होते हुए राजस्थान में शाकम्बरी या साम्भर झील के आस-पास बसे.

ईरान के पुरातत्ववेताओं ने वर्ष 1977 में बोराज़जन (Borazjan) शहर के पास ईशा पूर्व 5 वीं शदी के ईरान के राजा के महल की खोज की है जिसका नाम बरडक शिया महल था.

उरुक का मानचित

राजस्थान में सीकर के पास स्थित हर्ष पर्वत पर पाए गए चौहानों के 961 ई. के प्रसिद्ध शिलालेख में उरुक शब्द का प्रयोग किया गया है (L-30:गंगेश्वरभवने का चंडिकथ उरुक सुतेन भक्तेन) जिसकी तरफ किसी इतिहासकार ने ध्यान नहीं दिया है. उरुक (Sumerian: Unug; Akkadian: Uruk; Biblical Hebrew: Erech; Latin: Orchoi; Arabic: وركاء‎, Warkā') सुमेर (बाद में बेबिलोनिया) का प्राचीन शहर था जो वर्तमान फरात नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित था.

अफगानिस्तान में वरडक नाम का एक राज्य है तथा चक-वरडक एक जिले का नाम भी है. भीमसिंह दहिया (जाट्स द अनसियेंट रूलर्स , पृ. 41) ने काबुल के पास शक वर्ष 51 (129 AD) के कुषाण शासक हुविष्क के वरडक अभिलेख का उल्लेख किया है.

उड़ीसा प्रान्त में भुबनेश्वर के पास उदयगिरी पहाड़ पर राजा खारवेल का एक 19 लाईन का प्रसिद्ध सिलालेखा है. वहां पर अन्य अनेक शिला लेख भी गुफाओं में खुदे हुए हैं. मंचापुरी नाम की गुफा में एक छोटा सा शिलालेख है - कुमारो वडुखस लेणं (अर्थ- वडुख कुमार की गुफा). इतिहासकार इस राजकुमार के बारे में मौन हैं. संभवतः यह कोई वरडक नाम के राज कुमार थे जो ईशा पूर्व दूसरी शदी में कलिंग राज्य में रहे हैं. मध्य प्रदेश के सतना जिले में भरहूत नामक प्राचीन स्थान था. इसमें भी एक शिलालेख कनिंघम को मिला था - Vadukokatha dohati nadode pavate. कनिंघम इसको पढ़ नहीं पाए थे. यहाँ भी वडुक का उल्लेख है. मध्य प्रदेश में ही विश्व प्रसिद्ध साँची में अशोक के समय का एक शिलालेख कनिंघम ने खोजा था जो इस प्रकार है - No 33. — Gotiputasa Bhadukasa bhichhuno dānam[1] . यहाँ बडुक द्वारा किये गए दान का उल्लेख है. इन सिला लेखों में वर्णित नाम वरडक के रूपांतरण ही हैं. प्राकृत भाषा में ऊपर का आधा 'र' नहीं लिखा जा सकता था तथा 'ब' और ' व' आपस में एक दूसरे का स्थान ले लेते हैं.

बुरड़क उपनाम का चलन

बुरड़क उपनाम का चलन संभवतया यूरेशिया में पाए जाने वाले एक पौधे बुरडोक (Burdock) के नाम से हुआ है. प्राचीन काल में छोट-छोटे गण राज्य होते थे और वे किसी पेड़-पौधे या पशु को अपना प्रतीक चिन्ह मानते थे. इन गण राज्यों के लोगों को कालांतर में प्रतीक चिन्ह के नाम से जाना जाने लगा.

महेन्द्रसिंह आर्य आदि इतिहासकार (आधुनिक जाट इतिहास पृ. 269) बुरड़क गोत्र की उत्पति सूर्यवंशी राजा वृक के पुत्र बाहुक से मानते हैं.

बुरड़क गोत्र के बडवा (भाट) इस गोत्र का प्रारम्भ राव बुरड़कदेव से मानते हैं. राव बुरड़कदेव ददरेवा के चौहान राजा थे और वे हिन्दू शाही राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए जहाँ पर वे सन 1000-1001 में जुझार हुए. जुझार होना उन बहादुरों के लिए प्रयोग किया जाता था जो युद्ध में गर्दन कटने के बाद भी लड़कर दुश्मनों का नाश करते थे.

बुरड़क गोत्र के बडवा का यह कथन मान्य नहीं किया जा सकता कि बुरड़क गोत्र की उत्पत्ति राव बुरड़क देव से हुई. बडवा ने राव बुरड़क देव के इतिहास में योगदान को देखते हुए बुरड़क गोत्र उनसे निकलना बताया है परन्तु बुरड़क का अस्तित्व प्राचीन काल से प्रमाणित है. विस्तृत अध्ययन और तथ्यों के आधार पर लेखक का मत है कि बुरड़क गोत्र की उत्पत्ति शिव से हुई है. महाभारत अश्वमेध पर्व में शिव के अनेक नाम बताये गए हैं और लेख किया गया है कि वे स्वर्ण खदान की रक्षा कर रहे हैं. शिव का एक नाम वरद है.[2] वरद के अंश को वरदाक्ष कहा गया जो बाद में भाषा भेद के कारण वरदक या बर्ड़क से बुरड़क हो गया.

प्रतिहार वंश में बुरड़क गोत्र

इतिहासकार महिपाल आर्य एवं प्रताप सिंह शास्त्री [3] लिखते हैं .... महाराजा बाऊक की संतान बुरड़क कहलाई. बुरड़क जाट क्षत्रिय गोत्र के लोग राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में आबाद हैं. मारवाड़ में मंडोवर नगर है, इस पर नाग, मौर्य तथा प्रतिहार जाटों का आधिपत्य रहा है तथा मंडा/मुंड गोत्र के जाटों ने भी यहां शासन किया है. प्रतिहारों के अनेकों वंशज जाटों में इस समय बुरड़क (बाऊक की संतान वाले), कुकणा (कक्क के वंशज), राजलिए (राजल की संतान) आदि नामों से अभिहित होते हैं. यहां यह बताना भी आवश्यक समझते हैं कि इन्हीं प्रतिहारों का एक दल आबू में जाकर ब्राह्मण धर्म में दीक्षित हुआ था, तभी से मंडोवर के परिहारों/प्रतिहार की दो शाखाएं हो गई- एक जाट परिहांर और दूसरी राजपूत परिहार. मौर्यों से प्रतिहारों अथवा परिहारों के हाथ मंडोवर आठवीं सदी में आई. ऐसे प्रमाण इतिहास में मिलते हैं राजा मयूरध्वज से राजा भोगभट्ट प्रतिहार ने राज्य हथिया लिया था. विक्रम की 11वीं शताब्दी में मंडावर परिहांरों के हाथ से निकल गया और उस पर पवारों का आधिपत्य हो गया. पवार जाटों ने एक समय सारे ही मरुधर प्रांत मारवाड़ पर अधिकार कर लिया था. जो नव कोटि मारवाड़ के नाम से अभिहित होता था.

विक्रम संवत 1002 (945 ई.) के पश्चात चौहान वंशीय (चौहान उपाधिधारी जाट) सहजपाल का आधिपत्य मंडोर पर हो गया और लगभग 100 वर्ष तक चौहान मंडोवर पर काबिज रहे.[4]

चौहान वंश में बुरड़क

सरणाऊ कोट के खण्डहरों में लेखक

बड़वा (भाट) श्री भवानीसिंह राव, गाँव- महेशवास, पोस्ट- बिचून, तहसील- फूलेरा, जिला- जयपुर (फोन-7742353459) की बही में बुरडक इतिहास के सम्बन्ध में निम्न विवरण उपलब्ध है:

बुरड़क गोत्रचारा:

  • पूजा - तुलसी, पीपल
  • प्रवरपांच - झंडा-सफ़ेद, नगारा-रणजीत, घोडा-शावकरण, वेद-यजुर्वेद, वृक्ष-अक्षयबड़

बुरडकों की प्रथम राजधानी चौहानपुर थी. बाद में पाटण, अचलनगरी, अजमेर, मकराणा, अजयगढ, इन्द्रगढ, ठठोभी (?), हस्तिनापुर, पाटण, हिसार, हांसी, ददरेवा, भंवरगढ, चितौडगढ, आसोट, इन्द्रप्रस्थ, गागरोणगढ, आसोट थान , आभानगरी थान, तोषीण थान, नाडोल थान, जालोर थान, सांचोर थान, गोदू थान, साम्भर थान, बालरासर गाँवथान, कारी गाँवथान, सरनाऊ (975 ई.) राजधानियां रही.

बुरड़कों द्वारा बसाए गए गाँव: बालरासर गाँवथान (765 ई.), कारी गाँवथान (768 ई.), गोठडा गाँवथान (1296 ई.), पलथाना गाँवथान (1505 ई.), जूणसिया गाँवथान , घाटवा गाँवथान , कांकरा गाँवथान , अजीतपुरा गाँवथान , नौरंगपुरा गाँवथान , मांडेता गाँवथान , झाक गाँव, मेई गाँव, राही चंद्रपुर गाँव, चारणवास गाँव, गुमानपुरा गाँव, धीजपुरा गाँव, उदयपुरा गाँव, पिपराली, मैलासी, मोरडूंगा, कालाडेरा, पालडी, श्यामपुरा, सरणाऊ-कोट (975 ई.), जीणवास (933 ई.), साली, हर्ष, अंखलोड़, अतरायखेडा, तुलसीरामपुरा आदि.

सरणाऊ कोट अक्षयबड़
सरणाऊ कोट बाग

चौधरी बालणसिंह बुरड़क साम्भर से उठकर आये और माघ सुदी बसंत पंचमी के दिन संवत 821 (765 ई.) को बालरासर गाँव बसाया. 85 हाथ गहरा पूणी पांच हाथ चोडा पक्का कुवा चिनवाया. इसकी गूण अगुणी (पूर्व) दिशा में रखी. गाँव से उत्तर दिशा में बालाणु नाम से जोहड़ खुदवाया. इसके नीचे सवा पांच सौ बीघा जमीन छोड़ी. शिव बद्रीनारायण का मंदिर बनवाया.

संवत 825 (768 ई.) में बालरासर से उठकर चौधरी मालसिंह ने चैत सुदी राम-नवमी के दिन कारी गाँव बसाया. गाँव में 90 हाथ गहरा पूणी पांच हाथ चोडा पक्का कुवा और पनघट कराया. चार मरवे बनाये और इसकी गूण उत्तर दिशा में रखी. गोपीनाथजी का मंदिर बनवाया. ब्राह्मण धनराज ने पूजा की. 51 बीघा जमीन मंदिर के लिए दी. कारंगा गाँव से आथुनी सवा दो सौ बीघा जमीन बीरभाण चोहान के समय छोड़ी. संवत 835 (778 ई.) में कारी गाँव हांसी के राव राजा बीरभाण चुहान के अधीन था.

चौहानवंश में बुरडक वंशावली

सरनाऊ कोट की बावड़ी

राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए. बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया. संवत 1078 (1021 ई.) में किला बनाया. इनके अधीन 384 गाँव थे. बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई. इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:

राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र की प्रसिद्धि

सबलसिंह के बेटे आलणसिंह के पुत्र राव बुरडकदेव, बाग़देव, तथा बिरमदेव पैदा हुए. आलणसिंह ने संवत 979 (922 ई.) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया.

ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए.

राव बुरडकदेव (b. - d.1000 ई.) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए. वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 ई.) को वे जुझार हुए. इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 ई.) में सती हुई. राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र को प्रसिद्धि मिली।

राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए. समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए. संवत 1067 (1010 ई.) में इनकी पत्नी पुन्याणी साम्भर में सती हुई. लेखक को डहरा, कूम्हेर, भरतपुर के थानसिंह सिनसिनवार द्वारा बताया गया है कि बुरडकदेव नाम का एक गाँव गुजरात में है। समुद्रपाल नाम यह संकेत देता है कि उनको समुद्र के किनारे किसी राज्य की रक्षा का दायित्व दिया गया होगा। यह स्थान कहीं गुजरात में होना चाहिए जिसमें अभी अनुसंधान किया जाना है। संभवतया यह स्थान अहमदाबाद शहर में वस्त्रपुर झील के किनारे स्थित बोडकदेव हो सकता है।


नरपाल के उदयसिंह और करणसिंह पुत्र हुए तथा पुत्री आभलदे हुई. आभलदे का विवाह संवत 1103 (1046 ई.) में रुनिया के गोदारा कर्मसिंह के साथ हुआ.

उदयसिंह के पुत्र राजपाल, राव उदणसिंह तथा भरतोजी पैदा हुए.

राजपाल के पुत्र अभयपाल, धीरपाल, भोलराव, भीमदेव तथा जीतराव पैदा हुए. राजपाल संवत 1191 (1134 ई.) में अजमेर के राजा सोमेसर के प्रधान सेनापति बने.

सरणाऊ गाँव और सरणाऊ कोट की बसावट

भीमदेव के पुत्र जीणदेव तथा माहीदेव हुए जिन्होंने सरणाऊ गाँव बसाया. 12 गांव का परकोटा कराया तथा किला बनाया.

चौधरी मालूराम, धरणी जाखड, कंवर आलणसिंह और वीरभाण ने कारी गांव से आकर सरणाऊ कोट की बसावट करी और सरणाऊ में गढ़-किला की स्थापना करी . गढ़ की नींव लगवाई. अगुणा दरवाजा रखा. गढ़ में जनाना और मरदाना महल बनाये. गढ़ में बारा-दरी बैठक बनायी. गढ और गांव का चौतरफा परकोटा बनाया. आगे अलग दरवाजा बनाया. चारों तरफ़ खाई और खाई के चारों तरफ़ धूल-कोट बनाया.

सरणाऊ कोट का कुआं

संवत 1032 (975 ई.) में दिल्ली के राजा महीपाल तंवर से 84 गांव ईजारे पर लिये और हुकुम तासीर प्राप्त की. 6 महिने का दीवानी और फौजदारी अधिकार प्राप्त किया. काठ, कोरडा, घोडी, नगर, निशान एवं जागीरदारी के पूरे अधिकार प्राप्त हुए. गाँव में हालूराम जी के नाम पर हालानी बावड़ी बनाई. जीणमाता के नाम पर 104 पेडी की बावडी बनाई और बाग लगाया. गढ की गोलाई 1515 गज करायी. शिवबद्री केदारनाथ, आशापुरी माता तथा हनुमान के तीन मन्दिर बनाये. पूजा ब्राह्मण रूघराज ने की. मंदिर खर्च के लिए 152 बीघा जमीन डोली छोड़ी. अमावास, ग्यारस और पूनम का पक्का पेटिया बांधा. यह काम पौष बदी 7 संवत 1033 (977 ई.) में किया.

सरणाऊ कोट गढ़ में एक पक्का कुवा चिनाया. दूसरा कुवा सरनाउ गांव के बीच गुवाड़ में चिनाया. ये दोनों कुये फ़ागण बदी फ़ुलरिया दूज संवत 1035 (979 ई.) में कराये.


चौधरी मालूरामजी, धरणीजी जाखड,चौधरी आलणसिंहजी तथा वीरभाणजी हरिद्वार, केदरनाथ, द्वारकाजी, गंगासागर, कुंभ आदि का स्नान कर तीन साल की यात्रा से सरनाउ आये. वापस आकर पंच-कुण्डीय यज्ञ करवाया. 51 मण घी की आहुति कराई. 51 गायें और 700 मण अनाज ब्राह्मणों को दान किया. गांव कारी के पंडित गिरधर गोपाल द्वारा यज्ञ सम्पन्न किया गया. पंडित गिरधर गोपाल की बेटी राधा को धर्मं परणाई और पीपल परणाई. चौधरी हालूराम के समय दिल्ली के रावराजा महिपाल के समय ये काम संवत 1042 (985 ई.) में कराये.

चौधरी मालूरामजी, धरणीजी जाखड,चौधरी आलणसिंहजी तथा वीरभाणजी ने संवत 1042 (985 ई.) में सरनाउ-कोट तथा गढ, बावडी आदि बडवा जगरूप को लिखवाया और दान किया.

दिल्ली पति महीपाल तंवर के अधीन राव राजा की राजधानी सरनाउ को संवत 1032 (975 ई.) में बनाया. बुरड़कों की राजधानी सरनाऊ संवत 1032 से संवत 1315 (975 - 1258 ई.) तक रही.

संवत 1315 (1258 ई.) में यह दिल्ली के बादशाह शमसुद्दीन इल्तुतमिश (1211–1236) के पुत्र नसिरुदीन महमूद (1246–1266) के अधीन हुई. बादशाह ने गानोड़ा गाँव के ढाका मोमराज को 52000 फ़ौज का मनसबदार बनाया. उस समय सरनाऊ कोट राजधानी चौधरी कालूरामजी बुरडक के पुत्र पदमसिंहजी बुरडक तथा जगसिंहजी बुरडक के अधिकार में थी. इस जागीर में 84 गाँव थे.

विवेचना

बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव की बही में उल्लेखित तथ्यों का समकालीन ऐतिहासिक तथ्यों से मिलान कर विवेचना निम्नासुसर प्रस्तुत है:

1. बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव की बही में सरणाऊ कोट गढ़ के निर्माण की अवधि संवत 1032 (975 ई.) बतायी गयी है. चौहानों के इतिहास की निश्चित तिथि संवत 1030 (973 ई.) के हर्ष शिलालेख से प्राप्त होती है. हर्ष शिलालेख गूवक प्रथम से इस वंश की वंशावली देता है. चौहानों के राज्य का जब विस्तार हुआ तो उन्होंने अपना केन्द्रीय स्थान हर्ष को बनाया. गूवक पहला शासक था जिसने हर्ष को संभवतः राजधानी या उपराजधानी बनाया. गूवक का बनाया शिव मंदिर यहाँ अब भी विद्यमान है. चौहान शैव थे और हर्षदेव उनके कुल देवता थे. श्री हर्ष: कुलदेवोस्या तस्मादिव्यकुलक्रम:। हर्ष शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तंत्रपाल नामक प्रतिहारों का दूत जब चौहान नरेश वाक्पति से मिलने आया तो वह अनंतगोचार आया. इतिहासकार अनंतगोचार को हर्ष के आस-पास का क्षेत्र मानते हैं.(रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.37 -38 )

2. श्री भवानीसिंह राव की बही के अनुसार हर्ष और जीण भाई-बहिन थे. जीणमाता कुलदेवी संवत 990 (933 ई.) में प्रकट हुयी. हर्ष की वंशावली की पुष्टी चौहानों के हर्ष शिलालेख से होती है. संवत 961 का हर्ष शिलालेख श्लोक 27 में लिखता है कि इनके कुल देवता श्री हर्ष इन्हीं के कुल-क्रम में पैदा हुए. (श्री हर्षकुलदेवोस्या स्तस्मात् दिव्य कुल क्रम: ॥ २७)

3. भवानीसिंह राव की बही के अनुसार हर्ष गाँव बुरडक लोगों द्वारा बसाया गया था. हर्ष राजस्थान के सीकर तहसील और जिले में सीकर से 15 किमी दक्षिण पश्चिम में है. हर्ष मंदिर राजस्थान में कला की दृष्टि से बहुत उन्नत श्रेणी का है. यह मंदिर अरावली की पहाड़ियों पर 3000 फीट की ऊंचाई पर गर्वपूरक खड़ा है. मंदिर आज भग्न अवस्था में श्रीहीन हो चुका है पर जो कुछ बचा है वह इसकी महानता और उत्कृष्टता स्थापित करने में समर्थ है.

4. हर्ष शिलालेख वर्ष 973 ई. की लाइन 34 -39 में उन गाँवों के नाम आये हैं जिन्हें विभिन्न शासकों या उनके सरदारों ने अपने नियंत्रित क्षेत्र से हर्षदेव को चढ़ाये.

L-34:समनंतरमत्रावलिख्यते

महाराजाधिराजश्रीसिंहराज: स्वभोगैरनद्ध यूकद्दादशके
सिंहप्रौष्ठं
तथा पट्टबड़क विषये चैकलककृशानूकुपोरुसरा कोह विषये

L-35:कशहपल्लिकामेवं ग्रामांश्चतुरश्चंद्रांकशिखरोपरि सम्यगवतेश्री

हर्षदेवाय पुण्ये अहनि श्रीमत्पुष्करतीर्थं स्मृत्वा स्वपनदेहविलेपनो-
पहारधूपदीपपर्व्वयात्रोत्सवार्थमाशशांकतपनार्णवस्थितेर्यावच्छास
नत्वने प्रददौ ।
तथै तदभ्राता श्रीवत्सराज: स्वभोगावाप्तं जयलब्धये कर्द्दम-

L-36:खातग्राममदाच्छासनेन

तथा श्रीविग्रराजेन शासनदत्तग्रामद्दयमुपरिलिखितमास
तथा श्रीसिंहराजात्मजौ श्रीचंद्रराजश्रीगोविन्दराजौ स्वभोगा-

L-37:वाप्त पट्टबड़क विषयोदर्ककथनं कृत्वा संख्यानस्वहस्तांकितशास

नौ गृहीत उदके पाटकद्दयपल्लिकाग्रामौ भक्तया वितेरतु:
श्रीसिंहराजीयदु:साध्यश्रीधंधुक: खड़्गकूपविषये स्वभुज्यमान-
मयूरपुरग्रामम स्वाम्यनुमत: प्रदत्तवान्

L-38:तथा युवराज: श्रीजयश्रीराज: स्वभुज्यमानकोलिकूपग्रामं

भक्तया हर्षदेवाय शासनेन दत्तवान् ।
तथा समस्तं श्रीहर्म्महतेश्या शाकंभर्या लवणकूटक प्रतिविंशापहर्षकं दत्तं

L-39:तथोत्तरापथीयस्ताविकाना न्म्या श्री हर्षकं प्रति प्रेम्न एको

दत:।
पुण्यात्मभिर्दत्तानि देवभुज्यमानक्षेताणि पश्यामेहासुरिकायां
पिप्पलवालिकाछत्रं निंबटिका ट्वांठौदर्भटिकाछत्रं चारुपल्लिकायां

ये क्षेत्र हर्षदेव के आस-पास ही स्थित हैं. इन गाँवों की पहचान निम्नानुसार की गयी हैं -

Map of villages around Harsh
  • एकलक = (?) - सिंह-राजा द्वारा, पट्ट-बड़क विषये में से
  • हर्षदेव के उत्तर दिशा का गाँव (तहसील सीकर) - ताविक नामक महिला

जो गाँव अभी इतिहासकारों द्वारा पहिचाने नहीं गए हैं वहां (?) चिन्ह लगाया गया है.


5. हर्ष शिलालेख वर्ष 961 - 973 ई. लिखे जाने तक सरणाऊ-कोट में बुरडक राजधानी नहीं बनी थी.बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव की बही के अनुसार भीमदेव के पुत्र जीणदेव तथा माहीदेव सरणाऊ गाँव बसा चुके थे. विभिन्न चौहान शासकों या उनके सरदारों ने अपने नियंत्रित क्षेत्र से हर्षदेव को चढ़ाये गाँव, हर्षदेव के आस-पास ही स्थित थे. डॉ पेमा राम 'राजस्थान के जाटों का इतिहास' (पृ.229 )में लिखते हैं - प्रशासन चलाने के लिए पट्टी व्यवस्था कायम थी. इसके अंतर्गत समझदार और होशियार जाटों को पट्टीदार मुकर्रर किया था. जो पट्टीदार ज्यादा प्रभावी थे उनके अधीन अधिक गाँव थे. हर्ष शिलालेख से स्पस्ट होता है कि सिंह-राजा द्वारा, पट्ट-बड़क विषय में से एकलक, कृशानुकूप और उरुसर गाँव हर्ष-देव को दान किये थे. [5] इससे यह प्रमाणित होता है कि हर्ष शिला लेख के लिखे जाने (973 ई.) के समय बुरडक गोत्र की पट्टी हर्ष पर्वत के आसपास विद्यमान थी. पट्ट-बड़क विषय या परगना बुरडक गोत्र के अधीन था. पट्ट का अर्थ होता है - एक शाही सीट अथवा ताम्रपत्र पर खुदी हुई शाही ग्रांट.

रतनलाल मिश्र [6] लिखते हैं कि सीकर के आस-पास का क्षेत्र अनन्त या अनन्त गोचर कहलाता था. नरहड, फ़तेहपुर, झुंझुनु के आस-पास का क्षेत्र बागड कहलाता था. अनेक क्षेत्र वाटी या पट्टि के नाम से जाने जाते थे. इन वाटियों या पट्टियों का का नाम प्रमुख शासकों के नाम पर या क्षेत्र के किसी प्रसिद्ध स्थान के नाम रखा जाता था. कभी-कभी शासकों के वंश के नाम से भूभाग जाना जाता था.

6. हर्ष शिलालेख की श्लोक 3, 4, 5, और 13 के अवलोकन से स्पस्ट होता है कि चौहान वस्तुत: नागवंशी जाट थे. अबू पर्वत पर जो अग्निकुल क्षत्रिय माने गए उनमें से 80 प्रतिशत नागवंशी जाट थे. नागवंशी जाट हर्षवर्धन के समय तक बौद्धधर्म में थे. उनका हिन्दुकरण किया गया और नए क्षत्रिय वर्ग में विभाजन कर दिया गया. जो गोत्र जिस क्षत्रिय वंश में शामिल हुए उनका इतिहास वहीँ से माना गया. पहले का इतिहास भुला दिया गया. भाट व्यवस्था कायम की गयी. भाट अपना इतिहास वहीँ से लिखना शुरू कर रहे हैं इसलिए उत्पति चौहान वंश से मान रहे हैं. इतिहास का जीरो लेवल आबू पर्वत कर दिया गया. इसी को अग्निकुल सिद्धांत कहा गया है.

7. बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव की बही से प्राप्त उपरोक्त अभिलेखों की पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों से होती है. विकिपीडिया (http://en.wikipedia.org/wiki/Jai_pal) से हमें ज्ञात होता है कि असतपाल के पुत्र जयपाल थे तथा उनके पुत्र आनंदपाल थे. राजा जयपाल ने महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण का सामना करने के लिए उत्तर-पश्चिमी पकिस्तान तथा अफगानिस्तान में हिन्दुशाही राज्य की स्थापना की थी. वह शाहीराजा भीमदेव (964 AD) के उतराधिकारी थे. भारत कोश वेबसाईट (http://www.bharatdiscovery.org/india/) के अनुसार सन 1000 ई. में महमूद गजनवी का भारत पर (काबुल में) प्रथम आक्रमण हुआ. उसने स्थानीय जनता पर लूट-पाट तथा धर्म परिवर्तन किया. महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा 'जयपाल' के विरुद्ध संवत 1058 (29 नबंवर सन 1001) में किया. उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया . इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया. जयपाल के पुत्र आनन्दपाल और उसके वंशज 'त्रिलोचनपाल' तथा 'भीमपाल' ने कई बार महमूद से युद्ध किया. आनन्दपाल हिन्दूशाही राजवंश के राजा जयपाल का पुत्र था. वह 1002 ई में सिंहासन पर आसीन हुआ था. आनन्दपाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के हिन्दू राजाओं का संघ बनाकर सुल्तान की सेना का पेशावर के मैदान में सामना किया। हिन्दूशाही राजधानी 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) में महमूद और आनन्दपाल के बीच 1008-1009 ई. में भीषण युद्ध हुआ। दोनों ओर की सेनाएँ 40 दिन तक एक-दूसरे के सामने डटी रहीं. अन्त में भारतीय सेना ने सुल्तान की सेना पर हमला बोल दिया और जिस समय हिन्दुओं की विजय निकट मालूम होती थी, उसी समय एक दुर्घटना घट गई. जिस हाथी पर आनन्दपाल अथवा उसका पुत्र ब्राह्मणपाल बैठा था, वह पीछे मुड़कर भागने लगा। यह देखते ही भारतीय सेना छिन्न-भिन्न होकर भागने लगी. इस युद्ध में युवराज ब्राह्मणपाल मारा गया. इस युद्ध में उत्तर-पश्चिमी भारत के कन्नौज और अजमेर के राजाओं के अलावा कई राजपूत शासकों ने भाग लिया. 1010 ई. में आनन्दपाल अपमानजनक शर्तों पर महमूद गजनवी का सामंत बना. [7]

8. कु. देवी सिंह मंडावा (सम्राट पृथ्वीराज चौहान, प.१५) लिखते हैं कि चौहानों ने अरब सेनाओं के मुकाबले बहुत बलिदान किये हैं, अंतिम युद्ध जो कि बड़ा भयंकर था, में चौहान बहुत बड़ी संख्या में जुझार हुए. इनके कई पुत्र युद्ध में काम आये. एक सात वर्ष का पुत्र लाड भी काम आया. चौहानों के पराजित हो जाने पर साम्भर में स्त्रियों ने जौहर किया. अरबों ने नगर को लूटा और उसे विध्वंस कर दिया. समूचा साम्भर बर्बाद हो गया.

9. नाडोल में अल्हणदेव के विक्रम संवत 1218 (A.D. 1161) के शिलालेख की पंक्ति 22 में नद्दूल-महास्थान और संडेरक-गच्छ का उल्लेख (L-22....श्रीनद्दूल महास्थाने श्रीसंडेरक-गच्छे....) संभवत: सरणाऊ या संडाऊ के परिपेक्ष्य में हुआ है क्योंकि हर्ष के चौहनों द्वारा सरणाऊ पहले बसाया जाकर राजधानी बनाया जा चुका था.

बुरड़क और ढाका की लड़ाई

सरनाऊ का जोहड़ जहाँ ढाका और बुरडक सेना की लड़ाई हुयी

सरनाऊ-कोट के बुरड़क और गनोडा के मोमराज ढाका के बीच लडाई के दो कारण सामने आते है. पहला कारण पदमसिंह बुरड़क को मामराज ढाका की पत्नी सुखी देवी द्वारा भला-बुरा कहा जाना है. यह बडवे के अभिलेख में पाया जाता है. दूसरा कारण बुरडक बुजुर्गों और स्थानीय बुजुर्ग लोगों द्वारा बताया गया जो बुरडक के कुए से ढाका औरत द्वारा पानी भरने को लेकर हुआ मनमुटाव है.

बडवे के अभिलेख अनुसार एक दिन पदम सिंह 84 गाँवों में घूमकर गानोडा गाँव से सरनाऊ कोट घोड़ा पर आ रहे थे. उस समय मोमराज ढाका की पत्नी सुखी देवी घोड़ा आते देख कर खड़ी हो गयी और पदम सिंह को देखने लगी. उस समय औरतों ने उसे भला बुरा कहा. जब पदम सिंह की घोडी पास आ गयी तो औरतों ने पदम सिंह को भला-बुरा कहा. यह बात पदम सिंह को बुरी लगी . उसने सुखी देवी को घोड़ी पर बैठाया और सरनाऊ ले गया. मामराज ढाका के लोगों ने यह सूचना दिल्ली भेजी. मोमराज ढाका ने गुस्से में कहा कि वह 7 बुरड़क औरतों को उठाकार लायेगा तभी दम लेगा. तनाव बढ़ गया. चौधरी कालूराम दिल्ली गए और बादशाह से चर्चा की. बादशाह ने दोनों पक्षों में समझोता कराया. लेकिन मोमराज ढाका नहीं माना तो चौधरी कालूराम ने ललकारा कि जिस वक्त वह आयेगा तो ईंट का जवाब पत्थर से दिया जायेगा. इस बात पर नाराज होकर मोमराज ढाका ने सरनाउ-कोट पर 6 बार हमला बोला.

प्रथम लडाई - सरनाउ-कोट पर प्रथम लडाई में 10000 सैनिकों के साथ मोमराज ढाका ने हमला बोला. चैत बदी 9 संवत 1308 (1251 AD) को मोमराज ढाका की हार हुई. कुल 2000 आदमी मारे गये जिसमें मोमराज ढाका के 1500 और पदमसिंह के 500 लोग थे.

दूसरी लडाई - सरनाउ-कोट पर दूसरी लडाई काती सुदी 13 संवत 1309 को हुई. मोमराज ढाका के साथ 15000 आदमी थे. लडाई में 800 आदमी काम आये. इनमें से पदम सिन्ह के 200 तथा मोमराज ढाका के 600 लोग काम आये. नसरूदीन महमूद बादशाह के समय संवत 1309 (1252 AD) को इसके सेनापति रिडी -बिग्गा के रिड़मल जाखड थे.

तीसरी लडाई - सरनाउ-कोट पर तीसरी लडाई संवत 1310 (1254 AD) के समय सेनापति कँवर जगसिंह बुरडक थे. मोमराज ढाका ने 20000 सेना के साथ सरनाऊ-कोट पर हमला बोला. लड़ाई तीन दिन चली. कुल 2500 आदमी काम आये. 84 गाँव के सब ठिकानों ने साथ दिया. लड़ाई में मोमराज ढाका की हार हुई. यह लड़ाई मिति फागुन बदी 5 से 8 तक चली. लड़ाई में मोमराज ढाका के 2000 और 500 आदमी जगसिंह बुरड़क के काम आये. यह लड़ाई संवत 1310 में बादशाह नसरुदीन महमूद के समय हुई.

चौथी लड़ाई - यह लड़ाई सरनाउ-कोट पर मामराज ढाका और जगसिंह बुरड़क के बीच हुई. मोमराज ढाका ने 20000 सेना लेकर हमला बोला. लड़ाई संवत 1311 (1254 AD) में मिति चैत बदी 9 से 13 तक चली. इसमें 13515 आदमी काम आये. जगसिंह बुरड़क की विजय हुई.

पांचवीं लड़ाई - मामराज ढाका ने 25000 सेना के साथ सरनाउ-कोट पर संवत 1313 (1256 AD) में हमला बोला. सेनापति का पद स्वयं पदमसिंह बुरड़क सम्भाले हुये थे. संवत 1313 में जेठ बदी 2 से जेठ बदी 9 तक लड़ाई चली. पानी नहीं मिला. सेना प्यासी मरगयी. 5000 आदमी काम आये और 2000 घायल हुये. मोमराज ढाका फ़िर हार गया. उसे मैदान छोड कर भागना पडा.

छठी लड़ाई - सरनाउ-कोट पर छठी लड़ाई मामराज ढाका तथा पदमसिंह बुरड़क के बीच हुई. संवत 1313 (1257 AD) में मिति पौष बदी 5 से पौष बदी 13 तक लड़ाई चली. सरनाउ-कोट पर विजय नहीं पाई जा सकी. मोमराज ढाका ने हाथ खड़े कर दिये.

सरनाऊ कोट की बावड़ी

सरनाउ-कोट का पतन

मामराज ढाका सभी तरह से निराश हो गया तो पौष बदी 13 संवत 1313 (1256 ई.) के बाद उसने दो साल तक स्वयं कोई सीधी लडाई नहीं लडी परन्तु सोचने लगा कि किस तरह से बुरडकों को परास्त किया जाये. जासूसों से पता लगाया कि सभी बुरडक परिवार आसोज माह के अमावस को निशस्त्र हालाणी बावडी पर श्राध के लिये एकत्रित होते हैं, स्नान करते हैं और बडा श्राध निकालते हैं. संवत 1315 (1258 ई.) की आसोज माह के अमावस को सभी बुरडक निशस्त्र हालाणी बावडी पर श्राध के लिये एकत्रित हुये और उस समय मोमराज ढाका ने 25000 की फ़ौज लेकर उनपर तोपों से हमला किया. सभी बुरड़क मारे गए और किला नष्ट कर दिया गया. सरनाउ-कोट में कोइ भी नहीं बचा. गाँव की सातों जातियां ख़त्म कर दी गयी. मामराज ढाका खुश होकर दिल्ली चला गया.

बडवा ने बताया कि उस समय दो बुरडक भाई भगताराम और पेमाराम नकली ब्राह्मण के वेश में जान बचाकर भाग गए. तब से उन दोनों भाइयों का अभिलेख कोइ बडवा नहीं रखता है. उनका नाम बुरडक वंशावली वृक्ष से मिटा दिया गया है. अब प्रश्न यह उठता है कि ये लोग कहाँ गए इन्होने कौनसा गाँव बसाया और इनका वंश किस शाखा में है, यह अभी जांच का विषय है.

मोमराज का उल्लेख इतिहास में मिलता है। इतिहासकार एच. ए. रोस [8] लिखते हैं कि सोनीपत जिले के आहूलाणा गाँव का सम्बन्ध राजस्थान से है। आहूलाणा परंपरा के अनुसार उनके पूर्वज दिल्ली की तरफ उसके दो भाई मोम और सोम के साथ आये। घाटा नदी के किनारे उनके स्वजातियों से भीषण संघर्ष हुआ जिनका नास कर वे दिल्ली आये जहाँ बादशाह ने उनका अच्छा स्वागत किया और भूमि आवंटित की । सोम को गंगा किनारे का इलाका दिया जहाँ उनके वंसज आज राजपूतों में मिलते हैं। मोम को रोहतक, हांसी और जींद का इलाका दिया गया जहाँ उनके वंसज आज जाटों में मिलते हैं।

बुरड़क गोत्र का पुनरुत्थान

सरनाउ-कोट के राजा पदम सिंह की खर्रा गोत्र की पत्नी , जिसका नाम रम्भा था, वह उस समय सरनाउ-कोट से बाहर अपने पीहर खर्रा का गोठडा गयी हुई थी. रम्भा बच गयी. वह उस समय तीन माह की गर्भवती थी. वह इस बात से परेशान थी कि उसके कारण अब उसके पीहर वालों का भी सर्वनाश होगा. उसके ईस्ट-देव गोसाईंजी थे. उसने गोसाईंजी की पूजा की. गोसाईं जी ने एक रात 10 बजे सफ़ेद घोड़े पर सवार, सफ़ेद कपड़ों में, सफ़ेद दाढ़ी और बड़ी मूंछ सहित रम्भा को दर्शन दिए और पूछा कि रम्भा परेशान क्यों हो. रम्भा को लगा धोके से पकड़ने मामराज ढाका आ गया है. रम्भा ने जवाब दिया -

कहरी केश भुजंग मणी पतिव्रता का गाथ ।
सूरा शस्त्र सूमधन जीवित आये न हाथ ।।

अर्थात शेर की मूंछ के बाल, मणीधारी सर्प के फ़न के बाल जिन्दा नहीं निकाले जा सकते उसी तरह पतिव्रता स्त्री को जिन्दा नहीं पा सकता. शूरवीर का अस्त्र और कंजूस का धन कोई जिन्दा नहीं पा सकता.

यह सुनकर गोसाईंजी खुश हुए और कहा कि डरने की कोई बात नहीं है. मैं मामराज ढाका नहीं हूँ परन्तु तुम्हारा ईष्ट देव हूँ और तुम्हारी रक्षा हेतु आया हूँ. मैं जैसा तुम्हें समझता था तुम वैसी ही बहादुर निकली. ईस्टदेव गोसाईंजी ने रम्भा को आशीर्वाद दिया और कहा कि -

"चैत सुदी राम-नवमी के दिन उत्तरा नक्षत्र में पुत्र पैदा होगा. उसका नाम नानक रखना और नाल कुरड़ी में डालना. जैसे कुरड़ी बढ़ेगी वैसे ही वंश बढेगा. नानक के पैदा होते ही सांड का कान काटकर उसका छींटा देना तो हर पीढी में सांड ही पैदा होंगे. बड़ा नहान मत करना, श्राद्ध मत निकालना. जब नानक बड़ा हो जाये तब पीहर में मत रहना और दूसरा गाँव बसाना. मुझे मत भूलना, हर दूज के रोज पूजना. तेरे बेटे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकेगा."

इतना कहकर गोसाईंजी जी अंतर्ध्यान हो गए और उनके आशीर्वाद से चैत सुदी नवमी संवत 1316 (1259 ई.) को रम्भा को 10 बजे खर्रा के गोठडा डूंगर की घाटी पर एक लड़का हुआ. उसका नाम नानक रखा. नानक के बड़े होने पर उसकी शादी कुशलजी तेतरवाल की बेटी मानकौरी से की. सभी बुरड़क नानकजी से फले-फूले हैं.

नानकजी द्वारा गोठड़ा तगालान का बसाना

Nanakji Burdak (1259-1319)
गोठड़ा तगालान स्थित गुसाईंजी का मंदिर

नानकजी के तीन पुत्र हुए. सहराज, धनराज और करमाराम. नानकजी ने मूल खर्रा का गोठडा गाँव छोड़ कर संवत 1351 (1294 AD) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन दूसरा गोठडा गाँव बसाया. हरनारायण ब्राह्मण ने पूजा की. नानकजी ने संवत 1353 (1296 AD) में पनघट का कुआ करवाया. खंडेला राजा भोजराज का सहयोग लिया. कुए की गहराई 26 हाथ और चौड़ाई पौने पांच हाथ रखी. गूण उत्तराधी रखी. उस समय दिल्ली बादशाह अलाउदीन खिलजी (1296-1316) थे.

गाँव में फिर श्री भगवान का मंदिर चिनाया. इसकी पूजा हरनारायण ब्राह्मण ने की. अमावस, ग्यारस, पूनम का पक्का पेटिया बांधा. 51 बीघा जमीन मंदिर की डोळी छोड़ी. संवत 1353 में नानकजी, कँवर सहराज, धनराज और करमराज ने गाँव गोठडा में माँ रम्भा खर्री के पिता इन्द्राराम खर्रा के नाम से इन्दोलाव तालाब बनाया और 1111 बीघा जमीन गौचर भूमि छोड़ी. संवत 1353 में इन्दोलाव तालाब के पाल पर गुसाईं जी का कच्चा मंदिर बनाया. साथ ही यह प्रण लिया जो राजस्थानी भाषा में निम्नानुसार है:

बुरडक जायो बावै नहीं, सींव नींव दाबै नहीं, तालाब नै काम लेवै नहीं, लेवे तो वंश चाले नहीं. ईष्ट देव गुसाईं जी को छोड़े नहीं.

अर्थात - बुरडक परिवार में पैदा कोई भी आदमी जोहड़ और गौचर-भूमि को नहीं बायेगा. इन भूमियों की सीमाओं को नहीं दबायेगा. तालाब की भूमि को बोने के काम नहीं लेगा. यदि ऐसा करेगा तो उसका वंश नहीं चलेगा. ईष्टदेव गुसाईंजी को नहीं भूलेगा.

नानक जी की मृत्यु पौष सुदी नवमी संवत 1375 (1319 AD ) में हुई.

गाँव का नाम गोठडा तगालान कैसे पड़ा - गाँव का नाम गोठडा तगालान रखने के सम्बन्ध में भड़वा (राव) के अभिलेखों में निम्न विवरण उपलब्ध है. कहते हैं कि जब भारत में मुसलमान बादशाहों द्वारा मंदिरों को नष्ट किया जा रहा था तब औरंगजेब ने हर्ष और जीनमाता के मन्दिरों पर भी हमला किया. उसने हर्ष की मूर्तियों को खंडित कर फौजों को जीणमाता के मंदिर की तरफ बढ़ाया. उस समय हर्ष के मंदिर की पूजा गूजर लोग तथा जीनमाता के मंदिर की पूजा

गोठड़ा तगालान स्थित गुसाईंजी मंदिर पर लगाया गया सूचना पटल

तिगाला जाट करते थे. कहते हैं कि हमले के तुरन्त बाद जीणमाता की मक्खियों (भंवरों) ने बादशाह की सेना पर हमला बोल दिया. मक्खियों ने बादशाह की सेना का पीछा दिल्ली तक किया और सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया. बदशाह ने जब हर्ष और जीनमाता का स्मरण किया और माफ़ी मांगी तभी पीछा छोड़ा. इसके उपलक्ष में बादशाह द्वारा हर्ष मंदिर के लिये सवामण तेल और सवामण बाकला हर साल भेजने का वादा किया. जीनमाता के भाट हरफ़ूल तिगाला जाट को गाँव गोठडा तागालान की 18000 बीघा जमीन की जागीर बक्शी. इसलिए इस गाँव का नाम गोठडा तागालान कहलाता है. यह जागीर उनके पास 105 साल रही तत्पश्चात संवत 1837 में यह कासली के नवाब के साथ फतेहपुर के अधीन हुआ. बादमें यह जागीर शेखावतों के पास आई.

वर्त्तमान में गोठडा तगालान गाँव में पुराने मंदिर के स्थान पर गुसाईंजी का एक शानदार मंदिर बनाया गया है. बुरडकों के आदि पुरुष नानकजी द्वारा गाँव बसाने और मंदिर बनाने का इतिहास बताने वाला सूचना-पटल भी लगाया गया है. लेखक द्वारा दिनांक 12 दिसंबर 2010 को लिए गए चित्र यहाँ दिए गए हैं. इस मंदिर की पूजा वर्तमान में मोहनदास महाराज (मोबा- 9772344906) द्वारा की जा रही है.

सरनाऊ की वर्तमान स्थिति

संडाऊ में भौमियाजी की देवली
संडाऊ में मृदभांड


लेखक को यह उत्सुकत थी कि भडवे के अभिलेखों का सत्यापन मौके पर किया जाये. इस कर्य में सरनाऊ की प्रारम्भिक जानकारियां सीकर के भंवर लाल बिजारनिया द्वारा ली गयी थी. लेखक ने दिनांक 12 दिसम्बर 2010 को उनको साथ लेकर क्षेत्र देखा. सबसे पहले हर्ष, तत्पश्चात जीनमाता, जीनवास, गोठडा तगालान, विरान सरनाउ-कोट और सरनाउ गाँव देखा.

संडाऊ की जोड़ी - रायपुरा और खंडेलसर गावों के के पूर्व में 1 किमि दूरी पर विरान गाँव सरनाउ स्थित है. स्थानीय लोग इसे 'संडाऊ की रोही' या 'संडाऊ की जोड़ी' अदि नामों से पहचानते हैं. रायपुर से 'संडाऊ की जोड़ी' का कच्चा रास्ता है. भड़वा के अभिलेख के अनुसार संडाऊ में तीन मंदिर बनाना बताये गये हैं जिनमे से शिव और हनुमान मंदिरों को लेखक ने देखा. शिवमंदिर में काफ़ी विस्तार हो रहा है. 'सरनाउ की जोडी' में ही ये मंदिर स्थित हैं. एक गहरा तालाब भी बना हुआ है.

संडाऊ-कोट - 'संडाऊ की जोड़ी' के पूर्व में 'सरनाउ कोट' वीरान हालत में पहाड़ियों पर स्थित है. किले के पुराने खँडहर स्पष्ट परिलक्षित होते हैं. उस समय के राजाओं द्वारा सुरक्षा के कारणों से किले का निर्माण पहाड़ियों पर ही किया जाता था. किले के स्थान पर एक बावड़ी दिखती है उसमें पानी अभी भी भरा है. कोट के पश्चिम भाग में बाद के निर्माण भी हैं जिसमें एक गौशाला स्थित है. कुछ कमरे भी बाद के बने हैं. बताया गया कि कुछ समय पूर्व तक यहाँ एक बाबाजी रहते थे जो अब कहीं चले गए हैं. बरगद के प्राचीन वृक्ष खड़े हैं. चौहानों के पांच प्रवरों में एक अक्षयवट भी है जिससे यह संकेत मिलता है कि यह चौहानों का किला रहा है. संडाऊ-कोट से उत्तर-पूर्व में दो गाँव :बाएं - गढ़ वालों की ढाणी तथा दायें - बाजियों की ढाणी दिखाई देते है. इससे कुछ ही दूरी पर बिजारनियों का गढ़ लढाना पड़ता है.

संडाऊ गाँव - वीरान 'संडाऊ गाँव' के स्थान का सड़क से सीधा रास्ता नहीं है. 'संडाऊ गाँव' को ढूंढने में हमारी सहायता रायपुरा गाँव के बुजुर्ग श्री उगमसिंह शेखावत ने की. उनका खेत 'संडाऊ गाँव' के पूर्व में स्थित है. हम लोग खेतों की पगडंडियों के सहारे उस स्थान पर गए जहाँ वीरान गाँव सरनाऊ बसा था. वर्त्तमान में मौके पर केवल 'भौमिया जी का एक देवला' स्थित है जहाँ स्थानीय लोगों द्वारा पूजा की जाती है. यह जगह वर्तमान में एक मीना परिवार के अधीन है. भौमिया जी की देवली के लिए दो बीघा जमीन छोडी गयी थी उस पर भी खेती की जा रही है. आस-पास जाट और राजपूतों के खेत भी हैं. खेत बोने के समय पत्थर और टूटे हुए मिटटी के बर्तनों के अवशेष निकलते हैं. मौके के कुछ चित्र यहाँ दिए गए हैं.

अपेक्षा- स्थानीय नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि ऐतिहासिक स्थानों का संरक्षण करें और उनका विकास करें ताकि हमारा प्राचीन इतिहास तथा धरोहरें लुप्त न हो जायें.


  • नोट-1 - सरनाऊ गाँव की प्रारंभिक जानकारियाँ सीकर के भंवर लाल बिजारनिया ने एकत्रित की. लेखक ने उनके साथ जाकर पूरी जानकारी ली जो यहाँ दी गयी है. यह स्थान जीणमाता के पूर्व में 7 की.मी. दूरी पर बिजारनियों के प्राचीन गढ़ लढ़ाना के पास ही स्थित है. राष्ट्रीय राजमार्ग-11 पर स्थित राणोली गाँव से कोछोर के लिए सड़क जाती है. इस पर गाँव पड़ता है खण्डेलसर. इस गाँव की रोही में खण्डहर स्थित हैं जो सरनाऊ कहलाता है तथा यही बुरड़कों की राजधानी थी. स्थानीय लोग इसे सण्डाऊ भी बोलते हैं. यह स्थान रायपुरा गाँव के नजदीक पड़ता है.
  • नोट-2 - बड़वा के अभिलेखों की पुष्टी स्थानीय किंवदन्तियों से भी होती है. रायपुरा गाँव के बुजुर्ग श्री उगमसिंह शेखावत हमारे साथ 12 दिसंबर 2010 को वीरान सरणाऊ गाँव दिखाने गए थे। उन्होने भी बुरड़क गोत्र की वही कहानी बताई जो बड़वा ने बताई थी.
  • नोट-3 -भंवर लाल बिजारनिया के साथ लेखक ने सरणाऊ किले का निरीक्षण 12 दिसंबर 2010 को किया था। बड़वा द्वारा बताए गए किले के लक्षणों के आधार पर ऊपर देखा गया पहाड़ी स्थान ही बुरड़कों का किला होना चाहिए। इस बात की पुष्टि एक स्थानीय प्रभावशाली बुरड़क व्यक्ति से चाही गई तो वे इस बारे में अनभिज्ञ थे। परंतु जब हम किले से उतर कर नीचे एक पाठशाला के पास आए तो वहाँ एक बावरिया जाति की 10-12 साल की लड़की बकरियाँ चारा रही थी। किले के स्थान की तरफ इसारा करके जब लड़की से उस स्थान के बारे में पूछा तो उसने बताया कि यह बुरड़कों का किला है। उसको यह बात उसके पिता ने बताई थी।

बुरड़कों की वंशावली

Nanakji Burdak (1259-1319)
नोट - नाम के साथ पत्नी का नाम तथा गोत्र ब्रेकेट में दिया गया है. लेखक द्वारा बडवा के अभिलेख से स्वयं तक की वंशावली नीचे दी गयी है. प्रत्येक नाम से अलग शाखाएं निकलती हैं जिनसे बुरडक जनसंख्या का फैलाव हुआ है. जिस पीढी में स्थान बदला है उस जगह का नाम भी दिया गया है.

• राजा रतनसेण (अजमेर) → • बिरमराव (अजमेर से ददरेवा) → • सबलसी → • आलणसी → • राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) (m. तेजल शेकवाल) → • {समुद्रपाल (b. - d.1010 AD) + नरपाल} • नरपाल → • उदयसी → • राजपाल → • भीमदेव → • जीणदेव तथा माहीदेव

बुरड़क गोत्र का विस्तार

राजस्थान के सभी बुरडक लोगों का मूल स्थान राजस्थान के सीकर जिले में स्थित गाँव गोठड़ा तगालान (तहसील - सीकर) है. गोठड़ा तगालन में वर्तमान में 400 बुरड़क परिवार रहते हैं. गोठड़ा तगालन से मांडेता (तहसील - सीकर) गाँव में इनका विस्तार हुआ. यहाँ भी लगभग 400 बुरड़क निवास करते हैं. सीकर जिले में पलथाना (तहसील - सीकर) भी इनका बड़ा और प्रगतिशील गाँव है. पलथाना में हरीसिंह बुरड़क ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और शेखावाटी किसान आन्दोलन के महत्वपूर्ण नेता रहे. बुरड़कों की सर्वाधिक जनसंख्या सीकर जिले की दांतारामगढ़ और सीकर तहसील में है.

जिलावार बुरड़कों के गाँवों का विवरण इस प्रकार है:

जिला सीकर - अखैपुरा, अर्जुनपुरा (200), बडगांव (30), बानुड़ा, भगतपुरा, बंधे की ढाणी (जीनवास) (22), बड़ का चारनवास, भाकरों की ढाणी, भारीजा, भउजी की ढाणी, बिजारनिया की ढाणी (खुड), बिरोल, भूमा छोटा, बुरड़कों की ढाणी (80)(भीमा), चाचिवाद बड़ा, चैनपुरा, चंदेली का बास, चंदेली की ढाणी, चेलासी, चांदपुरा, चोखा का बास (लोसल), दांता, धीजपुरा (100), धोद, डूकिया, घिरणिया बड़ा, घिरनिया छोटा, गोठडा तगालन (400), गोवटी, गुमानपुरा रामगढ, गुंगारा, जाजोद (श्रीमाधोपुर), जीनवास, जेवली, झाझड (5), कल्यानपुरा शेखीसर, कारंगा बड़ा, खाचरियावास, खाटूश्यामजी, खेड़ी जाजोद, कोछोर, खूड़, लक्ष्मीपुरा , मैलासी (200), मांडेता (400), मोहनपुरा, नानी, नाशनवा, नाथद्वारा, पालास, पलथाना (250), पिपराली, राजपुरा सीकर, रामपुर धायलान, रानोली, रसीदपुरा, रूपगढ, रुल्याना पट्टी, सांखू, सांवली, सांगलिया, सरनाऊ, सिहोट छोटी, सिहोट बड़ी, सीकर, सुल्यावास, सुटोट, तेजा की ढाणी, थेथलिया, तुलसीरामपुरा, उदैपुरा (50), उमाड़ा, विजैपुरा.

जिला नागौर - आकोदा, आशा की ढाणी (पिपाखुडी ), भरनावा, भिंचरों का बास (नालोट), बोदला बेड़ा, बुल्डकों की ढाणी (झाड़ेली), चारनवास, डाबड़ा झाड़ेली, दौदसर, डेर की ढाणी (जेसुरी), दुगोली, घाटवा नावा, गिरधारीपुरा, जुसारी, कचोलिया, कालवा, कड़वां की ढाणी (दौदसर), खोजास, कुड़ियों की ढाणी (बोरावड़), लालाशरी, लूणोदा, नोरंगपुरा, रामपुरा, रसाल, रतिया का बास (सुरतपुरा), सानिया, सरदारपुरा खुर्द, शेषमा का बास, तिलोती.

जिला जयपुर - बिहारीपुरा सावली, दतूली, धमाणा, गोपालपुरा मंडावरी , जेकमपुरा, झाग, जुन्स्या कलां, केरीया खुर्द, रामपुरा, साखून, सुरमालिकपुर, तुरक्यावास रेनवाल.

जिला झुंझुनू - बाडेट, भडुन्दा खुर्द, बिरोल, बुरडक की ढाणी (पाटोदा टांई), चेतपुरा, ढाणी बुरडकान, कालियासर, ढाणी बुरडकान बाडेट, पातुसर, पीपल का बास (बाजीसर), रायला.

जिला चुरू - बालरासर, सुलखनिया (20), रतनगढ़ (15), ठठावता (15), खारी खुड़ी, लूणास.

जिला हनुमानगढ़ - भैरूछानी (भादरा), कुरड़ाछानी (भादरा), डाबली कलां, सिकरोड़ी.

जिला टोंक - अरण्या झाड़ली, बगड़ी, झाड़ली, कुराड.

जिला राजसमन्द - नाथद्वारा

जिला चित्तोड़गढ़ - भूत्या खुर्द (45),

पलथाना के बुरड़क

महावीर सिंह जाखड़[9] लिखते हैं - जाट इतिहास और संस्कृति के बारे में जानने की जिज्ञासा मेरी बचपन से ही रही है। दादा परदादा और नाना जाट आंदोलन में सक्रिय रहे। जाटों के बल और प्रक्रम की चर्चाओं में बचपन बीता। बचपन और गाँव और ननिहाल में मैंने जाटों को सबसे बलिष्ठ देखा। पलथना के बुरड़क जाट जुझारूपन में अगुआ रहे हैं। मेरे नाना का परिवार भी पलथाना के विख्यात वंश की शाखा है। मुझ में मेरे नानाओं (सुलखनिया के बुरड़क) से ही यह संस्कार पैदा हुआ।

महावीर सिंह जाखड़[10] ने लिखा है कि सीकर के सोये हुये किसान शेरों को जगाने का श्रेय ठाकुर देशराज, जघीना (भरतपुर) को जाता है। पुष्कर के जाट अधिवेशन के बाद यह जागृति ज्यादा आई। इस आंदोलन में सबसे ज्यादा जुझारूपन पलथाना के बुरड़कों ने दिखाया। सूबेदार - चन्द्र सिंह (मदू), हरी सिंह, हरदेव सिंह, जेसा राम, भाना राम, गणपत राम, व पेमा राम आदि यहाँ के प्रमुख सेनानी थे। यहाँ के बुरड़क रतनगढ़ तहसिल के सुलखनिया गांव में बसे हैं। उन्होने भी मेघसिंह के नेतृत्व में ( 6 भाई - मेघ सिंह, धाला राम, अमरा राम, मुखा राम, माना राम व लिखमा राम) सामंती उत्पीड़न के विरुद्ध हर संघर्ष मे ताल ठोक कर भाग लिया तथा फतेह हासिल की। अमरा राम आजाद हिन्द फौज के सेनानी रहे। श्री मेघ सिंह एवं धाला राम ने मरू-भूमि में शिक्षा प्रसार हेतु स्वामी नित्यानंद से खिचिवाला जोहड़े में विद्यालय शुरू करवाया।

महत्वपूर्ण बुरडक

रतनगढ़ और ठठावता राजस्थान के बुरड़क

श्री लादूराम जी बुरड़क (1918-1996) एवं उनकी पत्नी श्रीमति मोहरी

लेखक वर्ष 6 मार्च 1996 में राजस्थान के ठठावता गाँव गए. वहां बुरड़क के कुछ परिवार रहते हैं. उनमें सबसे बुजुर्ग श्री लादूराम जी थे. उनसे जब बुरड़क का इतिहास पूछा तो उन्होंने बताया कि बुरड़क गोत्र का रेकॉर्ड उनके बड़वा श्री भवानीसिंह राव, गाँव-महेशवास, पोस्ट-बिचून,तहसील-फूलेरा,जिला-जयपुर (फोन-7742353459) के द्वारा रखा जाता है.

श्री लादूराम जी ने बुरड़क का इतिहास मौखिकरूप से कुछ इस तरह बताया जो लेखक ने लिपिबद्ध किया. बुरड़क का निकास चौहान से हुआ है. उन्होंने सीकर जिले के जीणमाता के पास सरनाऊ नामक गाँव बसाया और राजधानी बनाया. यहाँ बुरड़क और ढाका जाटों में लड़ाई हुई. कहते हैं कि वहां सरलो और पालो नामके दो भाई थे. एक ढाका गोत्र की औरत बुरड़कों के यहाँ घड़ा लेकर पानी लेने आ गयी. इस पर ढाका नाराज हो गए और उस औरत को कहा कि तुम तो बुरड़कों के यहीं जाओ. इस बात पर बुरड़क और ढाका जाटों में लड़ाई हुई. बुरड़कों ने अधिकांस ढाकों को ख़त्म कर दिया परन्तु बाद में ढाका जाटों ने बादशाह की मदद से सभी बुरड़कों को खत्म कर दिया. एक खर्रा गोत्र की लड़की बुरड़कों में ब्याही थी. वह उस समय पीहर गयी हुई थी और गर्भवती थी. उसका पीहर गोठड़ा तगालान में था. वह बच गयी. उसके ईस्टदेव गोसाईंजी थे. उसने गोसाईं जी की पूजा की और उनके आशीर्वाद से एक लड़का हुआ. सभी बुरड़क उस लडके से फले फूले हैं. लड़का ननिहाल गोठड़ा तगालान में पैदा हुआ. कहते हैं कि वह बहुत चंचल था और पनिहारिनों के पानी लाते समय मटके फोड़ देता था. तब ताम्बे के मटके बनाए गए. उस लड़के ने लोहे के बाण बनाए और फ़िर मटके फोड़ता था.

एक बार इस लडके के खर्रा मामा ने अपने भाईयों को कहा कि जोहड़ का बंधा टूट रहा है इसको ठीक करें. उसके भाईयों ने कहा कि धन तो बुरड़क भांजे को मिलेगा हम क्या करें. वह खर्रा मामा इस बात पर मर गया. उसका चबूतरा अभी भी गोठड़ा तगालान गाँव के जोहड़ के ढावे पर है. वहां एक गोसाईंजी का आदि मन्दिर भी है. गोठड़ा तगालान में 400 बुरड़क परिवार रहते हैं. कुछ बुरड़क परिवार वहां से उठकर मांडेता गाँव चले गए. मांडेता में आथुनी चोक की हवेली है जो बुद्धा की है जहाँ से बुरड़क निकले हैं. वहां एक पुराना खेजड़ा का पेड़ अभी भी मोजूद है. बुद्धा का परिवार काफी धनवान था और कहते हैं कि वह हाथी पर तोरण मरवाता था.

बुरड़क वंशावली में एक उदाजी थे. उनके वंश में चिमना राम तथा उनके पुत्र मोहनाराम थे. मोहनाराम का विवाह पिलानिया जाटों में हुआ. उनके दो पुत्र थे. नूनारामजी और खुमाणारामजी. नूनारामजी और खुमानारामजी का जन्म सीकर जिले के मांडेता गाँव में हुआ. रतनगढ़ में वर्तमान में रह रहे बुरड़क नूनारामजी के वंशज हैं तथा ठठावता गाँव मे रह रहे बुरड़क खुमानारामजी के वंसज हैं. खुमाणारामजी का मामा हरुरामजी पिलानिया था वह सुटोट गाँव में रहता था. नूनारामजी और खुमानारामजी मांडेता से आकर मामा हरुरामजी पिलानिया के यहाँ सुटोट गाँव में रहने लगे. दोनों भाईयों का विवाह मामा हरु पिलानिया ने किया. खुमाणारामजी का विवाह खीचड़ जाटों में 'खीचड़ों की ढाणी' में भूरी खीचड़ के साथ हुआ तथा नूनारामजी का विवाह महला जाटों में मैलासी गाँव में हुआ. मामा हरुरामजी पिलानिया के मरने के बाद उसके भाईयों में जमीन का विवाद हुआ तब नूनारामजी और खुमाणारामजी सुटोट से रतनगढ़ आकर बस गए. रतनगढ़ के पश्चिम में 400 बीघा जमीन ली और 'मावलियों का बास' नामक गाँव बसाया. नूनारामजी के चार बेटे हुए मालूजी, लीछमण, नारायण, और सूरजा. ये सभी रतनगढ़ में ही बस गए. मालूजी या मालीराम जी बुरड़क (1910-1998) इनमें उल्लेखनीय रहे हैं आप रतनगढ़ शहर नगरपालिका के अध्यक्ष रहे हैं. आपने स्वतंत्रता आन्दोलन में दौलतराम सारण के साथ रहकर समाज सेवा का कार्य किया. आपके कोई संतान नहीं होने से छोटे भाई नारायण की संतान रुक्मानन्द को गोद लिया.

खुमाणारामजी संवत 1962 (1905 ई.) में रतनगढ़ से ठठावता गाँव आ गए. खुमाणारामजी के 11 बेटे और एक बेटी लाडो नामकी थी. बेटों के नाम पेमा, भींवा, बोदू, ... आदि थे. नूनारामजी और पेमारामजी रतनगढ़ के ओसवाल बनियों के साथ दिसावर (आसाम) चले गए. संवत 1975 (1918 ई.) में भयंकर महामारी फ़ैल गयी. नूनारामजी दिसावर में ही ख़त्म हो गये और पेमारामजी वहां से रतनगढ़ आ गये. पेमारामजी रतनगढ़ में आकर मर गये. संवत 1975 की महामारी में खुमाणारामजी के सभी 10 बेटे और बेटी लाडां मर गये. केवल खुमाणारामजी और भींवारामजी बचे. उसकी पत्नी रूकमा की चूड़ी उसके छोटे भाई भींवारामजी ने पहन ली अर्थात पेमारामजी की पत्नी रूकमा (गोत्र पचार) से शादी करली. पेमारामजी के मरने के कुछ माह बाद संवत 1975 में आसोज माह में पुत्र लादूरामजी (यह इतिहास बताने वाले) पैदा हुए. लादूरामजी के तीन साल बाद संवत 1978 में भींवारामजी के पुत्र बेगारामजी (लेखक के पिता) पैदा हुए. भींवारामजी के दो और पुत्र जेसारामजी और मूलारामजी पैदा हुए. इस तरह भींवारामजी के चार पुत्र हुए. उन्होंने ठठावता में वहां के ठाकुर गणपत सिंह से 500 बीघा जमीन मंडवा ली. यह जमीन पहले मेघा ऐचरा की थी. खुमाणारामजी संवत 2001 में ख़त्म हुए और उसके 11 दिन बाद पुत्र भींवारामजी भी ख़त्म हो गये. ऐसी परिस्थिति में दोनों का मौसर एक ही दिन किया. संवत 2011 (वर्ष 1954) में बेगारामजी (1921- 4 मई 2012) के पुत्र लक्ष्मण (लेखक) पैदा हुए. यह इतिहास बताने वाले श्री लादूरामजी बुरड़क (1918-1996) का निधन यह इतिहास बताने के अगले माह अर्थात अप्रेल 1996 में ही हो गया. बेगारामजी बुरड़क का निधन 4 मई 2012 को हुआ. लादूरामजी के बड़े पुत्र पूर्णाराम का निधन 14 अगस्त 2015 को हुआ।


  • नोट - यह मौखिक इतिहास बताने वाले श्री लादूरामजी बुरड़क का निधन यह इतिहास बताने के अगले माह अर्थात अप्रेल 1996 में ही हो गया.

बुरड़कों का धर्म

  • वैदिक धर्म - बुरड़क धर्म के नाम पर सहनशील हैं. उनमें धर्म के नाम पर कोई कट्टरता नहीं पायी जाती. प्रारंभ में बुरड़क वैदिक धर्म को मानते थे.
  • बौद्ध धर्म - वैदिक धर्म का प्रभाव बौद्ध काल में कम हो गया तब बुरड़क बौद्ध-धर्म में आ गए. हर्ष वर्धन के समय तक वे बौद्ध धर्म में रहे. वर्तमान में जाट हिन्दू धर्म, इस्लाम धर्म एवं ईसाई धर्म को मानते हैं.
  • शैवोपासक - चौहान काल में बुरड़क शैवोपसक थे. पूर्व मध्यकालीन समाज में चार शैव धर्म सम्प्रदायों का जोर था. ये थे कालानन व कारूक, पाशुपत, लकुलीश और कापालिक. वाक्पति प्रथम और उसके पुत्र सिंहराज द्वारा पुष्कर झील के किनारे शिव मंदिर बनाये थे. यह बात पृथ्वीराज विजय से ज्ञात होती है. वाक्पति की महारानी शिवलिंग पर प्रतिदिन एक हजार दीपक विशिष्ठ अवसरों पर जलाती थी. हर्ष शिलालेख से बुरड़कों (चौहानों) की धार्मिक प्रवृति की काफी जानकारी मिलती है. सुन्दर और विस्तीर्ण हर्ष पर्वत पर उन्होंने हर्षदेव का विशाल मंदिर बनाया था. राजा गूवक की किर्ती का वर्णन इस शिलालेख में किया गया है. वाक्पति राजा की प्रशंसा करते हुए उसके उज्जवल यश का वर्णन किया गया है. उसके पुत्र सिंहराज ने शिवभवन पर सोने के कलस चढ़ाए थे.
चौधरी बालणसी बुरड़क साम्भर से उठकर आये और माघ सुदी बसंत पंचमी के दिन संवत 821 (765 ई.) को बालरासर गाँव बसाया. शिव बद्रीनारायण का मंदिर बनवाया.
भीमदेव के पुत्र जीणदेव तथा माहीदेव हुए जिन्होंने सरणाऊ गाँव बसाया. पौष बदी 7 संवत 1033 (977 ई.) में शिवबद्री केदारनाथ, आशापुरी माता तथा हनुमान के तीन मन्दिर बनाये.
  • वैष्णव हिन्दू धर्म - वर्तमान में भारत में वे वैष्णव हिन्दू धर्म को मानते हैं. आलणसी बुरड़क ने संवत 979 (922 ई.) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया.
    • जडूला संस्कार - सभी बुरड़क वर्तमान में बच्चों का जडूला संस्कार (बच्चों के पहले बाल चढ़ाना) हेतु हर्ष और जीण माता के मंदिरों में जाते हैं.
    • ईस्टदेव - गोसाईं जी, मंदिर गाँव जुन्जाला जिला नागौर, पुजारी:विरम नाथजी जुन्जाला, दूरभास:01583-232066, मोबा: 9950059761. उनके कुल देवता गोसाईं जी हैं जिनका मंदिर गाँव जुन्जाला जिला नागौर में स्थित है. यह माना जाता है कि गोसाईं जी उनकी सभी मान्यताएं पूरी करते हैं. मनोकामना सफल होने पर गोसाईं जी की सवामणी चढ़ाई जाती है.
    • जठेरा - गोठड़ा तगालान, जिला सीकर राजस्थान. बुरड़क आदि पुरुष नानकजी ने संवत 1351 (1294 ई.) में बैसाख सुदी आखा तीज रविवार के दिन गोठड़ा तगालान गाँव बसाया. संवत 1353 (1296 ई.) में इन्दोलाव तालाब के पाल पर गुसाईं जी का कच्चा मंदिर बनाया. वर्तमान में बुरड़क जनों द्वारा यहाँ गुसाईं जी का भव्य मंदिर बनाया गया है. इस मंदिर की पूजा मोहनदास महाराज (मोबा- 9772344906) द्वारा की जा रही है.
    • बड़वा (भाट) - श्री भवानीसिंह राव, गाँव- महेशवास, पोस्ट- बिचून, तहसील- फूलेरा, जिला- जयपुर (फोन-09785459386)
    • पंडा - पंडित हंसराज हरीराम और सुरेन्द्रकुमार, मोबा: 09927715627, 09837132092. पता: अतिथि निवास, मनसादेवी फुटपाथ के सामने, रामप्रसाद गली, पंजाबी बेड़ा हरिद्वार. आपके द्वारा बुरड़क वंश के व्यक्तियों की मृत्यु का अभिलेख रखा जाता है और हरिद्वार में अस्थि विसर्जन किया जाकर अंतिम धार्मिक क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हैं.

यह भी देखें

बुरडकों के बड़वा की बही से अभिलेख

अधिक जानकारी के लिए पढ़ें

  • बुरडक गोत्र का विवरण बुरड़क गोत्र का रेकॉर्ड रखने वाले उनके बड़वा (भाट) श्री भवानीसिंह राव, गाँव- महेशवास, पोस्ट- बिचून, तहसील- फूलेरा, जिला- जयपुर (फोन-09785459386) से उनके अभिलेखों (बहियों) से लेखक द्वारा दिनांक 2 दिसंबर 2010 को जयपुर में प्राप्त किया गया है. अधिक जानकारी उनकी बही से प्राप्त की जा सकती है.
  • यह विवरण जाट समाज पत्रिका, आगरा के अप्रेल 2011 अंक में पृष्ठ 22-24 तथा मई 2011 अंक पृष्ठ 23-26 (बुरड़क और ढाका की लड़ाई से आगे) दो भाग में छपा है.
  • बुरड़क (ठठावता) लोगों का अस्थि विसर्जन हरिद्वार में किया जाता है. पंडित हंसराज हरीराम तथा सुरेन्द्र कुमार हरिद्वार द्वारा अभिलेख संधारित किये जाते हैं. मोबा:09927715627, o9837132092, पता: अतिथि निवास, मनसा देवी पैदल मार्ग के सामने, रामप्रसाद गली, पंजाबी बेड़ा , हरिद्वार.
  • भलेराम बेनीवाल - जाट योद्धाओं का इतिहास द्वितीय संस्करण 2011 में पृष्ठ 918 -921 पर उपलब्ध है.

चित्र वीथी

References

  1. The Bhilsa topes: Inscriptions, P. 239
  2. कपर्दिने करालाय हर्यक्ष्णे वरदाय च | त्र्यक्ष्णे पूष्णॊ दन्तभिदे वामनाय शिवाय च (XIV.8.13), (XIV.8) पिनाकिनं महादेवं महायॊगिनम अव्ययम | त्रिशूलपाणिं वरदं त्रयम्बकं भुवनेश्वरम (XIV.8.25), (XIV.8)
  3. महिपाल आर्य एवं प्रताप सिंह शास्त्री: जाट इतिहास (जाट गोत्रावली) समकालीन संदर्भ, 2019, पृ.482-483
  4. आधार मारवाड़ का जाट इतिहास लेखक ठाकुर देशराज, प्रकाशन 1954
  5. (L-34:समनंतरमत्रावलिख्यते महाराजाधिराजश्रीसिंहराज: स्वभोगैरनद्ध यूकद्दादशके सिंहप्रौष्ठं तथा पट्टबड़कविषये चैकलककृशानूकुपोरुसरा...) (L-36:...श्रीविग्रराजेन शासनदत्तग्रामद्दयमुपरिलिखितमास तथा श्रीसिंहराजात्मजौ श्रीचंद्रराजश्रीगोविन्दराजौ स्वभोगा- (L-37:)वाप्तपट्टबड़कविषयोदर्ककथनं कृत्वा संख्यानस्वहस्तांकितशास...)
  6. रतनलाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.10
  7. भारत कोश:महमूद ग़ज़नवी
  8. A glossary of the Tribes and Castes of the Punjab and North-West Frontier Province By H.A. Rose Vol II/D, p.221
  9. Jaton Ke Vishva Samrajya aur Unake Yug Purush/Author's Note
  10. Jaton Ke Vishva Samrajya aur Unake Yug Purush Part 1/Chapter 10, p.93

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