Sant Kanha Ram
Author: Laxman Burdak लक्ष्मण बुरड़क IFS (R) |
Sant Kanha Ram from Sursura, Rupangarh, Ajmer, Rajasthan is a Senior Teacher, Social Worker, Yoga Guru, Author and Nationalist Poet. He is an authority on Herbal Ayurvedic Medicines. He is an expert in Vastushasta. He was born on 16.7.1963 in the family of Shri Chothu Ram (Jhunta Ram) Nodal and Smt. Chandani Devi. He did M.A. Sanskrit, M.A. Hindi Sahitya and Shiksha Shastri B.Ed. He is an author of a well researched book in Hindi on folk deity Tejaji titled - Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. The first edition of this book was inaugurated by Swami Sumedhanand Saraswati in 2012 on the occasion of Teja Dashmi. Mob: 9460360907
As Author
- Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. Price Rs. 250/-
- श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ): लेखक - संत श्री कान्हाराम, मो: 9460360907, प्रकाशक: श्री वीर तेजाजी शोध संस्थान सुरसुरा, अजमेर, 2015, मूल्य: 250/- रुपये
संत कान्हाराम का जीवन परिचय
संत श्री कान्हाराम हरपल कर्मशील रहते हैं। कभी साहित्य सर्जन, कभी गौसेवा, कभी आयुर्वेदिक स्थानीय जड़ी बूटियों द्वारा दुखीजन का कष्ट हरण । कभी कथा संकीर्तन सत्संग, सदाचार आचरणशील, कभी अंधविश्वास निवारण, कभी नशामुक्ति संघर्ष, कभी भ्रूष्टाचार विरोधी अभियानों में हिस्सेदारी तो कभी गाँव-गाँव ढाणी-ढाणी तक पैदल यात्रा पर जाकर आमजन का कष्ट निवारण हेतु योग शिविरों का आयोजन करते देखा जा सकता है। आप स्वयं का धन व श्रम लगाकर पतंजलि किसान पंचायत के प्रांतीय प्रभार का निर्वहन कर राष्ट्र सेवा में अपना योगदान देते आ रहे हैं। (पृ.10)
तेजाजी के इतिहास चरित्र को प्रकाश में लाकर आपने न केवल समाज सेवा में अपनी महती भूमिका निभाई है, वरन युवा पीढ़ी को न्याय, सत्य, धर्म, गौरक्षा जैसे महान गुणों से संस्कारित करने में आपकी यह कृति महत्वपूर्ण उपयोगी सिद्ध होगी। (पृ.11)
आप उत्कृष्ट व्यक्तित्व के धनी हैं। आपका मानना है कि ज्ञान ही सम्पूर्ण सुखों की खान है और अज्ञान ही सम्पूर्ण अनर्थों का मूल है। आप आयुर्वेद के मर्मज्ञ, धर्म के सार को जानने वाले, शास्त्रार्थ में निपुण, कर्मठ शिक्षक एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्ति हैं। आप भारत स्वाभिमान मंच के राजस्थान किसान पंचायत के प्रदेश प्रभारी के रूप में योग, प्राणायाम, स्वदेशी के प्रचार के माध्यम से राष्ट्र निर्माण के महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग कर रहे हैं। (पृ.12)
पुस्तक की अनुक्रमणिका
विषयवस्तु | पृष्ठ क्रमांक |
---|---|
अपनी बात | 1 |
आभार | 4 |
प्रस्तावना | 7 |
सफ़ेद कपड़ों के संत लेखक | 9 |
ज्ञानानुरागी शख्शियत है लेखक | 12 |
तेजाजी का शिलोका | 13 |
तेजाजी चालीसा | 20 |
तेजल स्तुतु | 28 |
आरती | 29 |
समर्पण | 30 |
भाव पुष्प | 30 |
भेंट | 30 |
कामना | 30 |
तेजाजी के इतिहास की खोज | 31 |
वातानुकूलित कक्षों के लेखक | 42 |
सबसे पहले इसे पढ़ें | 43 |
विशेष ध्यातव्य -1 | 49 |
प्राचीन भारत एवं तेजाजी के पूर्वज | 49 |
विशेष ध्यातव्य -2 | 59 |
श्रीराम-रावण युद्ध और तेजाजी के पूर्वज | 61 |
श्रीकृष्ण-कंस युद्ध और तेजाजी के पूर्वज | 63 |
महाभारत युद्ध और नागवंश व तेजाजी | 64 |
नागवंशियों का उन्मूलन | 64 |
जीते को जय हारे को हरिनाम | 65 |
महाभारत के बाद की स्थिति एवं नागवंश | 67 |
तेजाजी के जन्म से ठीक पहले की स्थिति | 69 |
तेजाजी के जन्म के समय की स्थिति | 79 |
भारतीय क्षत्रियों के 36 वंश एवं उनकी जातियाँ | 89 |
तेजाजी के पूर्वज व वंशजों के इतिहास के साथ अन्याय | 90 |
कबीलाई मानसिकता से भारत को नुकसान | 91 |
तेजाजी के बाद की स्थिति | 92 |
राजपूती निष्ठा के दो भेद | 105 |
तेजाजी और उनका नागवंश | 107 |
नागौर परिचय | 111 |
तेजाजी और नागवंश की जाट शाखा | 113 |
तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने की कुचेष्टा और भ्रांतियाँ | 122 |
तेजाजी और विज्ञान फोबिया | 130 |
क्या लीलण व बासाग नाग इंसानी बोली बोलते थे | 140 |
चीरंजीवी लोकदेवता मानव समाज की थाति | 144 |
लोकदेवता और तेजाजी | 145 |
मानव समाज को तेजाजी की देन | 148 |
युवा और तेजाजी | 152 |
पूर्व जन्म में तेजाजी | 154 |
इस जन्म में तेजाजी | 155 |
धौलिया शासकों का प्रारम्भिक इतिहास व वंशावली | 156 |
कौन थे बक्साजी | 159 |
तेजाजी के माता पिता का विवाह | 160 |
तेजाजी का ननिहाल | 161 |
विशेष ध्यातव्य-3 | 165 |
माता राम कुँवरी द्वारा नागपूजा | 166 |
तेजाजी का जन्म | 170 |
लीलण एवं पेमल का जन्म | 173 |
जन्म भूमि खरनाल | 174 |
तीर्थ यात्रा एवं तेजाजी का विवाह | 179 |
कौन थे कालिया-बालिया | 182 |
बाई राजल का जन्म | 183 |
तेजाजी की शिक्षा-दीक्षा | 184 |
ताहड़ देव की हत्या | 185 |
तेजाजी ननिहाल में | 186 |
तेजाजी का खरनाल लौटना | 194 |
तेजाजी का खरनाल में गौमाताओं को चराना | 195 |
तेजाजी का युवराज पदाभिषेक | 208 |
तेजाजी द्वारा हल जोत्या | 211 |
बाई राजल को ससुराल से लाना | 220 |
ससुराल पनेर जाने की तैयारी | 221 |
पनेर प्रस्थान | 224 |
तेजा पथ | 224 |
नदी, घाटे ने रोका तेजा का रास्ता | 227 |
तेजाजी का बाग में रात बासा | 229 |
तेजाजी पनघट पर | 231 |
तेजाजी रायमल जी की पोली में | 231 |
तेजाजी लाछा की रंगबाड़ी में | 233 |
शहर पनेर | 235 |
मीणों द्वारा गायों का हरण | 240 |
तेजाजी का गायें छुड़ाने हेतु प्रस्थान | 242 |
तेजाजी द्वारा मीणों को ललकार | 244 |
रणसंग्राम आरंभ, विश्व की अनौखी लड़ाई | 246 |
गायें छुड़ाकर पनेर प्रस्थान | 252 |
चांग के लीलाखुर न्हालसा में लड़ाई | 253 |
कौन थे मीणा | 255 |
केरड़ा छुड़कर पुनः पनेर प्रस्थान | 258 |
लाछा एवं लाछा की रंग बाड़ी | 259 |
तेजाजी बासग नाग की बांबी पर | 263 |
बासग नाग का डसना | 264 |
वीररस पूर्ण कहानी बदली करुणा रस में | 265 |
आसू देवासी का पनेर जाना | 266 |
पेमल का बांबी पर जाना | 267 |
तेजाजी की वीरगति | 267 |
पेमल का श्राप एवं आशीष | 268 |
लीलण का खरनाल जाना | 269 |
खरनाल में मातम व राजल का धरती में समाना | 269 |
समीक्षा | 270 |
तेजाजी की विरासत | 277 |
तेजाजी के चरित्र के उपासक बनो | 282 |
तेजाजी का लोकगीत एवं गायक | 284 |
तेजाजी की पूजा, मान्यता एवं जागती जोत | 290 |
तेजाजी का ध्वज और तस्वीर | 293 |
तेजाजी का मेला एवं दर्शनीय स्थल (तीर्थ स्थल) | 294 |
वीरगति स्थल, समाधि धाम सुरसुरा | 299 |
परबतसर शहर एवं तेजाजी | 312 |
ग्रंथ से भाव भाषा की एक झलक | 316 |
संत कान्हाराम की पुस्तक से उद्धरण
लेखक - संत कान्हाराम की पुस्तक श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ) से महत्वपूर्ण तथ्य संक्षेप में निम्नानुसार हैं :
[पृष्ठ-32]: ऐसे समाज उद्धारक, तारक, गौरक्षक, सत्यवादी इस ग्रंथ के चरित्र महानायक वीर तेजाजी के इतिहास चरित्र की खोज करने हेतु जिन तथ्यों, पद्धतियों का सहारा लिया गया वे हैं –
1. बाह्य साक्ष्य,
2. बही भाटों की पोथियां,
3. अंत: साक्ष्य,
4. मुख्य आधार श्रुति परंपरा,
5. टैली पैथी
बाह्य साक्ष्य तथा अन्तः साक्ष्यों की खोज एवं दोनों साक्ष्यों का मिलान कर सच्चाई को परखा गया और जो निष्कर्ष निकल कर आए उसी को आधार बनाकर इस ग्रंथ का ताना बाना बुना गया। खरनाल, सुरसुरा, पनेर, अठ्यासन, त्योद को महत्वपूर्ण केंद्र माना गया। बलिदान की घटना की जानकारी शहर पनेर व सुरसुरा की धरती को है। बलिदान पूर्व की अधिकतर घटनाओं की अधिक जानकारी खरनाल व त्योद की धरती को है।
[पृष्ठ-34]: हरिद्वार के तीर्थ पुरोहित मेघराज हंसराज की बही में लिखे तथ्यों की जानकारी हेतु 24.12.2012 को उनके वंशज नरेश कुमार गोविन्दराज से भी मिला। गोविन्दराज ने मुझे धोलिया जाटों की बही बड़े प्रेम से दिखाई, किन्तु बही की शुरूआत ही विक्रम संवत 1806 से है। इससे पहले की बही के लिए सौरों घाट जाने का परामर्श दिया।
श्रुति परंपरा के अंतर्गत शिलालेख, देवले, तेजाजी से संबन्धित ऐतिहासिक स्थल, पुरातात्विक व भौगोलिक साक्ष्य, विभिन्न ऐतिहासिक ग्रंथ, राव भाट की पौथियों को जुटाने के साथ-साथ श्रुति-परंपरा को मुख्य आधार माना गया है।
[पृष्ठ-37]: बींजाराम जोशी द्वारा रचे गए तेजाजी के लोकगीत के बोलों का तेजाजी के ऐतिहासिक संदर्भों तथा तथा भौगोलिक स्थलों के साथ मिलान कर परीक्षण किया गया तो आश्चर्य चकित रह गए। लोकगीत के बोलों में कई स्थलों पर रत्ती भर भी हेर-फेर नहीं पाया गया है।
तेजाजी गणराज्य शासक व्यवस्था में कुँवर अर्थात राजकुमार के पद पर प्रतिष्ठित थे। फिर माता उन्हें वर्षा होने पर हल जोतने का क्यों कहती है? ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। बुद्ध के शासक पिता का तथा राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण हैं।
- सूतो कांई सुख भर नींद कुँवर तेजारे । हल जोत्यो कर दे तूँ खाबड़ खेत में ॥
जब तेजा कहता है कि यह काम तो हाली ही कर देगा, तब माता टोकती है कि-
- हाली का बीज्या निपजै मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। थारा तो बीज्योड़ा मोती निपजै॥
इतिहास की खोज में पाया गया कि खेती करने की पद्धति तथा बीजों की खोज महाराज पृथु ने की थी। किन्तु तेजाजी ने कृषि की नई विधियों का आविष्कार किया था। इसी लिए तेजाजी को कृषि का उपकारक देवता माना जाता है।
तेजाजी माता से मालूम करते हैं कि मोठ, ग्वार, ज्वार, बाजरी किन किन खेतों में बीजना है तब माता कहती है –
- डेहरियां में बीजो थे मोठ ग्वार कुँवर तेजारे। बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत मैं।
गीत में आए बोलों की सच्चाई जानने के लिए जब मैं तेजाजी की जन्म भूमि खरनाल पहुंचा और वहाँ के निवासियों खाबड़ खेत के बारे में पूछा तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। आज भी खाबड़ खेत खरनाल में मौजूद है।
[पृष्ठ-38]: वह गैण तालाब जहां तेजाजी के बैल पानी पीते थे वह खरनाल से पूर्व दिशा में इनाणा तथा मूण्डवा के बीच आज भी विद्यमान है।
- हरियो हरियो घास चरज्यो म्हारा बैल्यां । पानी तो पीज्यो थे गैण तालाब को ॥
जब तेजाजी ससुराल जाने की तैयारी करते हैं तब नागौर जिले में तेजा गायन करने वाले गायक लोग एक बोल बोलते हैं कि तेजाजी ससुराल जाने के लिए खरनाल के धुवा तालाब की पाल स्थित बड़कों की छतरी में बैठकर श्रंगार किया।
- बेहद करयो बणाव कुँवर तेजा रे। बड़कों की छतरियाँ में बांधी पागड़ी ॥
तेजाजी के वीरगति स्थल सुरसुरा इलाका के तेजा गायक बड़कों की छतरियाँ वाले बोल को नदी पार करने की स्थिति में बोलते हैं। मैंने जब खोज खबर की कि इस बोल का बड़कों वाला शब्द दोनों परिस्थितियों में क्यों आता है तो पता चला कि जब तेजाजी नदी पार करते हैं तब बणाव अस्त व्यस्त हो जाता है।
[पृष्ठ-39]: अतः नदी पर करने के बाद पूर्वजों की छतरी में बैठकर तेजाजी अपनी पाग को पुनः सँवारते हैं। आश्चर्य-युक्त प्रमाण यह है कि ये दोनों छतरियाँ खरनाल व शहर पनेर के पास आज भी मौजूद है। शहर पनेर की छतरी इतनी पुरानी लगती है कि उनके पत्थरों पर लिखे अक्षर भी घिस गए हैं।
- तुम मेरी बार चढ़ो रे तेजा। गायां तो लेग्या रे मीणा चांग का ।।
खूब खोज खबर करने पर अजमेर जिले के ब्यावर शहर से 10 किमी पश्चिम में करणाजी की डांग में यह चांग मिला। वहाँ के सरपंच कालू भाई काठात ने बताया कि उनके अजयसर अजमेर निवासी राव मोहनदादा की बही से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उस जमाने में चांग में चीता वंशी मेर-मीणा रहते थे।
लोकगाथा से पता चलता है कि तेजाजी की माता ने नाग पूजा की थी। तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं।
तेजाजी का समकालीन इतिहास
[पृष्ठ-43]: श्री वीर तेजाजी के इतिहास को सही माने में समझने के लिए उनकी समकालीन तथा आगे-पीछे की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक परिस्थितियों को समझना अति आवश्यक है। उस समय की परिस्थितियों में जाए बिना हम तेजाजी के इतिहास को सम्यकरूप से नहीं समझ सकते हैं।
लोग जोधपुर व जोधपुर के राजदरबार एवं स्थानीय ठाकुरों के संदर्भ तथा उनकी राजनीतिक व्यवस्थाओं से जोड़कर तेजाजी के इतिहास को अनुमान के चश्मों से देखने की कोशिश करेते हैं। ठीक इसी प्रकार शहर पनेर के इतिहास को किशनगढ़ राजदरबार की व्यवस्थाओं से जोड़कर देखते हैं।
तेजाजी के बलिदान (1103 ई.) के 356 वर्ष बाद, राव जोधा ने जोधपुर की स्थापना की थी। किशनगढ़ की स्थापना 506 वर्ष बाद (1609 ई.) हुई। तेजाजी के समय तक राजस्थान में राठौड राजवंश का उदय नहीं हुआ था।
ईसा की 13वीं शताब्दी के मध्य (1243 ई.) नें उत्तर प्रदेश के कन्नौज से जयचंद राठोड का पौता रावसिहा ने नाडोल (पाली) क्षेत्र में आकर राठोड वंश की नींव डाली थी । राजस्थान में राठोड़ के मूल शासक रावसीहा की 8वीं पीढ़ी बाद के शासक राव जोधा ने 1459 ई. में जोधपुर की स्थापना की थी। इसके पूर्व राव जोधा के दादा राव चुंडा ने 1384-1428 ई. के बीच जोधपुर के पास प्रतिहारों की राजधानी मंडोर पर आधिपत्य जमा लिया था।
किशनगढ़ की स्थापना राव जोधा की 6 ठवीं पीढ़ी बाद के शासक उदय सिंह के पुत्र किशनसिंह ने 1609 ई. में की थी। उन्हें यह किशनगढ़ अपने जीजा बादशाह जहांगीर द्वारा अपने भांजे खुर्रम (शाहजहां) के जन्म के उपलक्ष में उपहार स्वरूप मिला था।
[पृष्ठ-44]:तेजाजी का ससुराल शहर पनेर एवं वीरगति धाम सुरसुरा दोनों गाँव वर्तमान व्यवस्था के अनुसार किशनगढ़ तहसील में स्थित है। किशनगढ़ अजमेर जिले की एक तहसील है, जो अजमेर से 27 किमी दूर पूर्व दिशा में राष्ट्रिय राजमार्ग 8 पर बसा है। प्रशासनिक कार्य किशनगढ़ से होता है और कृषि उत्पादन एवं मार्बल की मंडी मदनगंज के नाम से लगती है। आज ये दोनों कस्बे एकाकार होकर एक बड़े नगर का रूप ले चुके हैं। इसे मदनगंज-किशनगढ़ के नाम से पुकारा जाता है।
तेजाजी की वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा किशनगढ़ से 16 किमी दूर उत्तर दिशा में हनुमानगढ़ मेगा हाईवे पर पड़ता है। शहर पनेर भी किशनगढ़ से 32 किमी दूर उत्तर दिशा में पड़ता है। अब यह केवल पनेर के नाम से पुकारा जाता है। पनेर मेगा हाईवे से 5 किमी उत्तर में नावां सिटी जाने वाले सड़क पर है।
रियासत काल में कुछ वर्ष तक किशनगढ़ की राजधानी रूपनगर रहा था, जो पनेर से 7-8 किमी दक्षिण-पूर्व दिशा में पड़ता है।
[पृष्ठ-45]: जहा पहले बबेरा नामक गाँव था तथा महाभारत काल में बहबलपुर के नाम से पुकारा जाता था। अब यह रूपनगढ तहसील बनने जा रहा है।
तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है विक्रम संवत 1086 गोविंददेव।
[पृष्ठ-46]: किशनगढ़ के स्थान पर पहले सेठोलाव नामक नगर बसा था। जिसके भग्नावशेष तथा सेठोलाव के भैरुजी एवं बहुत पुरानी बावड़ी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में आज भी मौजूद है। सेठोलाव गणराज्य के शासक नुवाद गोत्री जाट हुआ करते थे। ऐसा संकेत राव-भाटों की पोथियों व परम्पराओं में मिलता है। अकबर के समय यहाँ के विगत शासक जाट वंशी राव दूधाजी थे। गून्दोलाव झील व हमीर तालाब का निर्माण करवाने वाले शासक का नाम गून्दलराव था। यह शब्द अपभ्रंस होकर गून्दोलाव हो गया। हम्मीर राव ने हमीरिया तालाब का निर्माण करवाया था। सेठोजी राव ने सेठोलाव नगर की स्थापना की थी।
पुराने शासकों की पहचान को खत्म करने के लिए राजपूत शासकों द्वारा पूर्व के गांवों के नाम बदले गए थे। राठौड़ शासक किशनसिंह ने सेठोलाव का नाम बदलकर कृष्णगढ़ रख दिया। राव जोधा ने मंडोर का नाम बदलकर जोधपुर रख दिया। बीका ने रातीघाटी का नाम बदलकर बीकानेर रखा था। रूप सिंह ने गाँव बबेरा का नाम बदलकर रूपनगर रख दिया। शेखावतों ने नेहरा जाटों की नेहरावाटी का नाम बदलकर शेखावाटी कर दिया। गून्दोलाव का नाम नहीं बादला जा सका क्योंकि यह लोगों की जबान पर चढ़ गया था।
मुस्लिम शासन की जड़ें काफी पहले जम चुकी थी। किशनगढ़, श्रीनगर, भीनाय, केकड़ी के चौहान तथा परमार वंशीय मूल शासक स्वाभिमान के चलते अपना राज-काज गंवा चुके थे। तब दो ही विकल्प थे – मुस्लिम बनो या फिर मरो। अतः 1200 ई. से 1500 ई. के बीच बड़ी संख्या में मूल शासकों ने अपना राज-काज छोडकर जाट-गुर्जर, माली, कुम्हार, सुथार, सुनार, मेघवाल आदि जातियों में शामिल हो गए। क्योंकि वे अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं कर सकते थे और न ही अपनी बहिन बेटियाँ मुस्लिम शासकों को दे सकते थे। इस सिलसिले में गुजरात से आए सोलंकियों के वंशज गुर्जर गिर नस्ल की गायें गुजरात से यहाँ लाये थे। इन सभी 36 क़ौमों की चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि नखें व गोत्र इनके क्षत्रिय होने तथा उनकी समान उत्पत्ति को प्रमाणित करती हैं। कुछ मूल निवासी राज-काज का मोह नहीं त्याग सके, व मुसलमान बन गए। उनके गोत्र तथा नख अपने हिन्दू भाईयों के समान चौहान, पँवार, सोलंकी, पड़िहार, गहलोत, भाटी, दहिया, खींची, सांखला आदि हैं।
[पृष्ठ-47]: 1192 ई. में पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद मोहम्मद गौरी की जीत के साथ ही यहाँ मुस्लिम शासन की नींव पड़ चुकी थी। अजमेर तथा किशनगढ़ भी जाट वंशी शासकों व चौहानों के हाथ से निकालकर मुस्लिम सत्ता के अधीन हो चुके थे। यहाँ के शासक अलग-अलग जतियों में मिलकर अलग-अलग कार्य करने लगे। इसमें खास बात यह थी कि चौहान आदि शासक तथा इनकी किसान, गोपालक, मजदूर आदि शासित जातियाँ एक ही मूल वंश , नागवंश की शाखाओं से संबन्धित थी।अतः किसान आदि जतियों में शामिल होने में इन्हें कोई दिक्कत पेश नहीं आई।
बाद में यह क्षेत्र मुगल शासक अकबर (1556 ई.) के अधिकार में आ गया था। 1572 ई. में मेवाड़ को छोड़कर पूरा राजस्थान अकबर के अधिकार में आ गया था।
राव जोधा के 6 पीढ़ी बाद के वंशज उदय सिंह का नोवें नंबर का बेटा किशनसिंह राजनैतिक कारणों से जोधपुर छोडकर अकबर के पास चला गया। किशनसिंह की बहिन जोधाबाई जो अकबर के पुत्र सलीम को ब्याही थी, उसके पुत्र शाहजहाँ के जन्म की खुशी में किशन सिंह को श्रीनगर-सेठोलाव की जागीर उपहार में दी गई। जहां किशन सिंह ने 1609 ई. में किशनगढ़ बसाकर उसे राजधानी बनाया। बाद में किशन सिंह का जीजा सलीम जहाँगीर के नाम से दिल्ली का बादशाह बना, तब किशन सिंह ने अपने राज को 210 गांवों तक फैला दिया। पहले उसको हिंडोन का राज दिया था, किन्तु किशन सिंह ने मारवाड़ के नजदीक सेठोलाव की जगह पसंद आई। कुछ इतिहासकारों का यह लिखना सही नहीं है कि किशनसिंह ने यह क्षेत्र युद्ध में जीता था। उस समय किशनगढ़ और अजमेर बादशाह अकबर के अधीन था अतः किसी से जीतने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।
औरंगजेब की नजर किशनगढ़ की रूपवान राजकुमारी चारुमति पर थी। वह हर हालत में उसे पाना चाहता था। रूपमती को यह मंजूर नहीं था। किशनगढ़ जैसी छोटी रियासत औरंगजेब का सामना नहीं कर सकती थी।
[पृष्ठ-48]:यह रास्ता निकाला गया कि चारुमति ने मेवाड़ के राणा राजसिंह (1658-1680 ई.) को पत्र लिख कर गुहार की कि मेरी इज्जत बचायें, मेरे साथ विवाह कर मुझे मेवाड़ ले चले। राणा राजसिंह ने प्रस्ताव स्वीकार किया। चारुमति तो बचगई परंतु उसकी बहिन का विवाह औरंगजेब के पुत्र मुअज्जम के साथ कर दिया गया (बक़ौल रोचक राजस्थान)
रूपमती के पिता रूपसिंह (1658-1706 ई.) ने बाबेरा नामक गाँव को रूपनगर (रूपनगढ़) का नाम देकर किशनगढ़ की राजधानी बनाया। इस वंश के सांवत सिंह (1748-1757 ई.) प्रसिद्ध कृष्ण भक्त हुये। वह नागरीदास कहलाए। नागरीदास के मित्र निहालचंद ने प्रसिद्ध बनी-ठणी चित्र बनाया।
इस वंश का अंतिम शासक महाराजा सुमेरसिंह था जिनकी 16.2.1971 को गोली मारकर हत्या करदी थी। गोली मारने वाला किशनगढ़ के नजदीक परासिया गाँव का भीवा नामक जाट था। स्वतन्त्रता के बाद महाराजा सुमेरसिंह के पुत्र बृजराज सिंह हुये जिनको कुछ समय तक प्रीविपर्स प्राप्त होता रहा।
जनमानस में यह आम धारणा बैठाई गई है कि कछावा और राठौड़ ही आदि से अंत तक मरुधरा (मारवाड़) के शासक रहे हैं। इस संदर्भ में मरुधरा के शासकों का कालक्रम जानना आवश्यक है जो निम्नानुसार रहा है:
- 2. नागवंशी शासक (वैदिक काल के बाद ईसा के प्रारम्भ तक)
- 5. गुप्त शासक (3-4थी शती)
- 8. राठौड़ (13-19वीं शती )
- 9. प्रजातांत्रिक व्यवस्था (1950 से अबतक)
तेजाजी के पूर्वज
[पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनाग ही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।
[पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।
तेजाजी के जन्म से ठीक पहले की स्थिति
[पृष्ठ-69]: 647 ई. में महाराज हर्ष की निःसंतान मृत्यु हो जाने पर तथा पश्चिमोत्तर भारत की सत्ता जाटों के हाथों से निकाल जाने के कारण भारत की एकता छिन्न-भिन्न हो गई और भारत छोटे-छोटे गणराजयों में विभक्त हो गया था।
पेगम्बर मोहम्मद साहब का जन्म 570 ई. में सऊदी अरब के मक्का नगर में एक यहूदी परिवार के कुरेश कबीला में हुआ था।
[पृष्ठ-70]: पेगम्बर मोहम्मद ने एकांत चिंतन किया और इन पर अल्लाह के पैगाम उतरे। इन पैगामों आयतों का संग्रह कुरान शरीफ कहलाया और यह मत इस्लाम (पवित्र) कहलाया और इसे मानने वाले मुसलमान कहलाए। मक्का में पेगम्बर मोहम्मद के इस मत का विरोध हुआ और वे 622 ई. में मक्का छोडकर 100 किमी दूर मदीना आ गए। 632 ई. में पेगमबर मोहम्मद के मृत्यु हो गई। इस्लाम के उदय के साथ ही तलवारें खिच गई जिससे तेजाजी के पूर्वज भी प्रभावित हुये।
तब भारत की सीमा अफगानिस्तान की पश्चिमी सीमा तक थी। भारत पर अरबों के हमले शुरू हो गए। 655-661 ई. में अरबों द्वारा भारत पर सर्वप्रथम आक्रमण किया गया। जिसे बोलन दर्रे के कीकन क्षेत्र के जाटों ने विफल कर दिया। 712 ई. में मोहम्मद बिन कासिम ने भारत के सिंध प्रांत पर हमला कर ब्राह्मण राजा दाहिर से सिंध छीन लिया। 834 ई. में अरबी खलीफा की आज्ञा से अरब सेनापति मोहम्मद बिन उस्मान ने 25 दिन की भीषण लड़ाई में कीकन के जाटों को सत्ता से बदखल कर दिया। 997 ई. में सुबुक्त गिन ने भारत पर हमला किया, जिसे चौहान राजा विग्रहराज द्वितीय
[पृष्ठ-71]: ने विफल कर दिया। इसके बाद भारत पर निरंतर हमले होने लगे। 1000 से 1027 ई. तक महमूद गजनवी ने भारत पर 17 बार आक्रम कर खूब लूटा। 1192 ई. में मोहम्मद गौरी ने अजमेर व दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को हराकर भारत को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया।
[पृष्ठ-76]: ईसा की दसवीं सदी में प्रतिहारों के कमजोर पड़ने पर प्राचीन क्षत्रिय नागवंश की चौहान शाखा शक्तिशाली बनकर उभरी। अहिच्छत्रपुर (नागौर) तथा शाकंभरी (सांभर) चौहनों के मुख्य स्थान थे। चौहनों ने 200 वर्ष तक अरबों, तुर्कों, गौरी, गजनवी को भारत में नहीं घुसने दिया।
चौहनों की ददरेवा (चुरू) शाखा के शासक जीवराज चौहान के पुत्र गोगा ने नवीं सदी के अंत में महमूद गजनवी की फौजों के छक्के छुड़ा दिये थे। गोगा का युद्ध कौशल देखकर महमूद गजनवी के मुंह से सहसा निकल पड़ा कि यह तो जाहरपीर (अचानक गायब और प्रकट होने वाला) है। महमूद गजनवी की फौजें समाप्त हुई और उसको उल्टे पैर लौटना पड़ा। दुर्भाग्यवश गोगा का बलिदान हो गया। गोगाजी के बलिदान दिवस भाद्रपद कृष्ण पक्ष की गोगा नवमी को भारत के घर-घर में लोकदेवता गोगाजी की पूजा की जाती है और गाँव-गाँव में मेले भरते हैं।
[पृष्ठ-77]: चौथी पाँचवीं शताब्दी के आस-पास अनंत गौचर (उत्तर पश्चिम राजस्थान, पंजाब, कश्मीर तक) में प्राचीन नागवंशी क्षत्रिय अनंतनाग का शासन था। इसी नागवंशी के वंशज चौहान कहलाए। अहिछत्रपुर (नागौर) इनकी राजधानी थी। आज जहां नागौर का किला है वहाँ इन्हीं नागों द्वारा सर्वप्रथम चौथी सदी में धूलकोट के रूप में दुर्ग का निर्माण किया गया था। इसका नाम रखा नागदुर्ग। नागदुर्ग ही बाद में अपभ्रंश होकर नागौर कहलाया।
551 ई. के आस-पास वासुदेव नाग यहाँ का शासक था। इस वंश का उदीयमान शासक सातवीं शताब्दी में नरदेव हुआ। यह नागवंशी शासक मूलतः शिव भक्त थे। आठवीं शताब्दी में ये चौहान कहलाए। नरदेव के बाद विग्रहराज द्वितीय ने 997 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारी सुबुक्तगीन को को धूल चटाई। बाद में दुर्लभराज तृतीय उसके बाद विग्रहराज तृतीय तथा बाद में पृथ्वीराज प्रथम हुये। इन्हीं शासकों को चौहान जत्थे का नेतृत्व मिला। इस समय ये प्रतिहरों के सहायक थे। 738 ई. में इनहोने प्रतिहरों के साथ मिलकर राजस्थान की लड़ाई लड़ी थी।
नागदुर्ग के पुनः नव-निर्माण का श्री गणेश गोविन्दराज या गोविन्ददेव तृतीय के समय (1053 ई. ) अक्षय तृतीय को किया गया। गोविंद देव तृतीय के समय अरबों–तुर्कों द्वारा दखल देने के कारण चौहनों ने अपनी राजधानी अहिछत्रपुर से हटकर शाकंभरी (सांभर) को बनाया। बाद में और भी अधिक सुरक्षित स्थान अजमेर को अजमेर (अजयपाल) ने 1123 ई. में अपनी राजधानी बनाया। यह नगर नाग पहाड़ की पहाड़ियों के बीच बसाया था। एक काफी ऊंची पहाड़ी पर “अजमेर दुर्ग” का निर्माण करवाया था। अब यह दुर्ग “तारागढ़” के नाम से प्रसिद्ध है।
अजमेर से दिवेर के के बीच के पहाड़ी क्षेत्र में प्राचीन मेर जाति का मूल स्थान रहा है। यह मेरवाड़ा कहलाता था। अब यह अजमेर – मेरवाड़ा कहलाता है। अजयपाल ने अपने नाम अजय शब्द के साथ मेर जाति से मेर लेकर अजय+मेर = अजमेर रखा। अजमेर का नाम अजयमेरु से बना होने की बात मनगढ़ंत है। अजयपाल ने मुसलमानों से नागौर पुनः छीन लिया था। बाद में अपने पुत्र अर्नोराज (1133-1153 ई.) को शासन सौंप कर सन्यासी बन गए। अजयपाल बाबा के नाम से आज भी मूर्ति पुष्कर घाटी में स्थापित है। अरनौराज ने पुष्कर को लूटने वाले मुस्लिम आक्रमणकारियों को हराने के उपलक्ष में आना-सागर झील का निर्माण करवाया।
[पृष्ठ-78]: विग्रहराज चतुर्थ (बिसलदेव) (1153-1164 ई) इस वंश का अत्यंत पराक्रमी शासक हुआ। दिल्ली के लौह स्तम्भ पर लेख है कि उन्होने म्लेच्छों को भगाकर भारत भूमि को पुनः आर्यभूमि बनाया था। बीसलदेव ने बीसलपुर झील और सरस्वती कथंभरण संस्कृत पाठशाला का निर्माण करवाया जिसे बाद में मुस्लिम शासकों ने तोड़कर ढाई दिन का झौंपड़ा बना दिया। इनके स्तंभों पर आज भी संस्कृत श्लोक उत्कीर्ण हैं। जगदेव, पृथ्वीराज द्वितीय, सोमेश्वर चौहानों के अगले शासक हुये। सोमेश्वर का पुत्र पृथ्वीराज तृतीय (1176-1192 ई) ही पृथ्वीराज चौहान के नाम से विख्यात हुआ। यह अजमेर के साथ दिल्ली का भी शासक बना।
तेजाजी के जन्म के समय की स्थिति
[पृष्ठ-79]: तेजाजी का जन्म चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंददेव तृतीय के समय में हुआ था। तब मुसलमानों की दाखल के कारण गोविंद देव तृतीय ने अपनी राजधानी नागौर से सांभर स्थानांतरित करली थी और नागौर का क्षेत्र तनावग्रस्त सा हो गया था। इसी समय 1074 – 1085 ई. के बीच तेजाजी के पिता ताहड़देव की मृत्यु हो चुकी थी। तेजाजी के पिता 24 गाँव के समूह खरनाल गणराज्य के गणपति थे। उनकी मृत्यु होने पर तेजाजी के दादा बोहित राज (बक्सा जी) गणराज्य एवं तेजाजी के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे। इन गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता सांभर के चौहानों के हाथ थी।
[पृष्ठ-80]: उस काल में मरुधर के अंतर्गत नागवंशी जाटों के नेतृत्व में अनेक गणराज्य संचालित थे। गुजरात में गुर्जरों के नेतृत्व में, हाड़ौती में गुर्जर और मीनों के नेतृत्व में। मेरवाड़ा (मेवाड़) में मेरों के, भीलवाडा एवं कोटा क्षेत्र में भीलों के नेतृत्व में गणराज्य चला करते थे।
तेजाजी के पूर्वज मूलतः नागवंश की मालवा शाखा के श्वेतनाग के वंशज थे। भैरूराम भाट डेगाना की पौथी के अनुसार ये नागवंश की चौहान खांप (शाखा) की उपशाखा खींची नख के धौलिया गोत्र के जाट थे। श्वेतनाग (धौलानाग) के नाम पर धौल्या गोत्र बना। धवलपाल इनके पूर्वज थे।
[पृष्ठ-84]: तेजाजी के जन्म के समय (1074 ई.) यहाँ मरुधरा में छोटे-छोटे गणराज्य आबाद थे। तेजाजी के पिता ताहड़ देव (थिरराज) खरनाल गणराज्य के गणपति थे। इसमें 24 गांवों का समूह था। तेजाजी का ससुराल पनेर भी एक गणराज्य था जिस पर झाँझर गोत्र के जाट राव रायमल मुहता का शासन था। मेहता या मुहता उनकी पदवी थी। उस समय पनेर काफी बड़ा नगर था, जो शहर पनेर नाम से विख्यात था। छोटे छोटे गणराज्यों के संघ ही प्रतिहार व चौहान के दल थे जो उस समय के पराक्रमी राजा के नेतृत्व में ये दल बने थे।
[पृष्ठ-85]: पनैर, जाजोता व रूपनगर गांवों के बीच की भूमि में दबे शहर पनेर के अवशेष आज भी खुदाई में मिलते हैं। आस पास ही कहीं महाभारत कालीन बहबलपुर भी था। पनेर से डेढ़ किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में रंगबाड़ी में लाछा गुजरी अपने पति परिवार के साथ रहती थी। लाछा के पास बड़ी संख्या में गौ धन था। समाज में लाछा की बड़ी मान्यता थी। लाछा का पति नंदू गुजर एक सीधा साधा इंसान था।
तेजाजी की सास बोदल दे पेमाल का अन्यत्र पुनःविवाह करना चाहती थी, उसमें लाछा बड़ी रोड़ा थी। सतवंती पेमल अपनी माता को इस कुकर्त्य के लिए साफ मना कर चुकी थी। खरनाल व शहर पनेर गणराजयों की तरह अन्य वंशों के अलग-अलग गणराज्य थे। तेजाजी का ननिहाल त्योद भी एक गणराज्य था। जिसके गणपति तेजाजी के नानाजी दूल्हण सोढ़ी (ज्याणी) प्रतिष्ठित थे। ये सोढ़ी पहले पांचाल प्रदेश अंतर्गत अधिपति थे। ऐतिहासिक कारणों से ये जांगल प्रदेश के त्योद में आ बसे। सोढ़ी से ही ज्याणी गोत्र निकला है।
इन सभी गणराजयों की केंद्रीय सत्ता गोविंददेव या गोविंदराज तृतीय चौहान की राजधानी सांभर में निहित थी। इसके प्रमाण इतिहास की पुस्तकों के साथ-साथ यहाँ पनेर- रूपनगर के क्षेत्र के गांवों में बीसियों की संख्या में शिलालेख के रूप में बिखरे पड़े हैं। थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, रूपनगढ, बाल्यास का टीबा, जूणदा आदि गांवों में एक ही प्रकार के पत्थर पर एक ही प्रकार की बनावट व लिखावट वाले बीसियों शिलालेख बिलकुल सुरक्षित स्थिति में है।
[पृष्ठ-86]: इन शिलालेख के पत्थरों की घिसावट के कारण इन पर लिखे अक्षर आसानी से नहीं पढे जाते हैं। ग्राम थल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दो शिलालेखों से एक की लिखावट का कुछ अंश साफ पढ़ा जा सका, जिस पर लिखा है – विक्रम संवत 1086 गोविंददेव ।
रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है।
[पृष्ठ-87]: रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना (पांडुलिपिकार सहायक) ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था।
राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। पुरातत्व विभाग के सहयोग से आगे खोज की आवश्यकता है।
नागौर परिचय
[पृष्ठ-111]: नागौर नागों की मूल राजधानी रही है। प्राचीन काल में यहाँ पानी की झील थी। जिसमें नागवंशियों का जलमहल था। पहले शिशुनाग (शेषनाग) और बाद में वासुकि नाग यहाँ राजा था। शिशुनाग जलमहल में निवास करता था। ईसा की चौथी शताब्दी में यहाँ नागों द्वारा दुर्ग का निर्माण किया गया था। इस दुर्ग का नाम नागदुर्ग। कालांतर में नागदुर्ग शब्द ही नागौर बना।
मध्यकाल में नागौर के चारों ओर तीन सौ से चार सौ किमी के क्षेत्र में नाग गणों के गणराज्य फैले हुये थे। नाग+गण = नागाणा । इस क्षेत्र को नागाणा बोला गया। इन गण राज्यों में 99 प्रतिशत नागवंश से निकली जाट शाखा के थे। आज नागौर के चारों और 400-500 किमी तक फैली जाट जाति अकारण नहीं है। इसका ठोस कारण प्राचीन गणराज्य है।
नागौर कई बार बसा और उजड़ा, उजड़ने के कारण इसका नाम नागपट्टन भी पड़ा। नागौर किले का माही दरवाजा भी नागवंशी परंपरा का उदाहरण है। इसके प्रस्तर खंडों पर नाग-छत्र बना हुआ है। नागौर का एक नाम अहिछत्रपुर भी है जिसका उल्लेख महाभारत में है। महाभारत युद्ध में अहिछत्रपुर के राजाओं ने भी भाग लिया था। अहिछत्रपुर का अर्थ है 'नागों की छत्रछाया में बसा हुआ पुर (नगर)'। यहाँ नागौर की धरती पर नाग वंश की जाट शाखा के राव पदवी धारी जाटों ने 200 वर्ष तक राज किया था।
[पृष्ठ-128]: तेजाजी के पूर्वज धौलिया गोत्र के जाट नागवंश की चौहान शाखा (खांप) की उपशाखा खींची नख से संबन्धित थे। खींची चौहान की उपशाखा है। इनके गणराज्य जायल क्षेत्र के अंतर्गत तेजाजी के पूर्वजों का गणराज्य खरनाल आता था। तेजाजी के पूर्वज श्वेतनाग शाखा के जाट थे। चौहान उनका दल था। खींची उनकी नख थी। जाट उनका वंश था।
जायल के खींची राज्य की स्थापना करने वाले माणकराव (खिंचलवाल) की आठवीं पीढ़ी में गून्दलराव हुआ था। खींची चौहनों की एक शाखा है। सांभर के चौहान शासक सिंहराज के अनुज लक्ष्मण ने 960 ई. में नाडोल राज्य की स्थापना की थी। लक्ष्मण के वंशज आसराज (1110-1122 ई) के पुत्र माणकराव, खींची शाखा का प्रवर्तक था। वह 1111 ई. में जायल आया था। उनकी पीढ़ियाँ – 1. माणकराव 2. अजयराव 3. चन्द्र राव 4. लाखणराव 5. गोविंदराव 6. रामदेव राव 7. मानराव 8. गून्दलराव
खींची शाखा की वंशावली जायल के राम सिंह खींची के पास उपलब्ध है। रामसिंह जायल से पूर्व दिशा में एक ढाणी में रहते हैं। तेजाजी के इतिहास के शोध के दौरान जायल के सहदेव बासट जाट के साथ लेखक उनसे मेले थे।
धौलिया वंश का प्रारम्भिक इतिहास
धोलिया शासकों की वंशावली –
[पृष्ठ-157]: तेजाजी के पूर्वज नागवंश की श्वेतनाग शाखा से निकली जाट शाखा से थे। श्वेतनाग ही धौलिया नाग था जिसके नाम पर तेजाजी के पूर्वजों का धौलिया गोत्र चला। इस वंश के आदि पुरुष महाबल थे जिनसे प्रारम्भ होकर तेजाजी की वंशावली निम्नानुसार है:-
- 1. महाबल
- 2. भीमसेन
- 3. पीलपंजर
- 4. सारंगदेव
- 5. शक्तिपाल
- 6. रायपाल
- 7. धवलपाल
- 8. नयनपाल
- 9. घर्षणपाल
- 10. तक्कपाल
- 11. मूलसेन
- 12. रतनसेण
- 13. सुण्डल
- 14. कुण्डल
- 15. पिप्पल
- 16. उदयराज
- 17. नरपाल
- 18. कामराज (कंवरसी)
- 19. बोहितराज
- 20. ताहड़देव) (थिरराज)
- 21. तेजराज=तेजपाल=तेजाजी
यह वंशावली डेगाना (नागौर) निवासी भैरुराम भाट की पोथी से है। भैरुराम भाट का निधन विक्रम संवत 2053 (1996 ई.) में हो गया था। उनके पुत्र माणकराव भाट का भी विक्रम संवत 2061 (2004 ई.) में असामयिक निधन हो गया। अब यह काम सांवतराम करते हैं। सांवतराम भट ने बताया कि बोहित राज के बड़े पुत्र का नाम ताहड़ देव बोलता नाम थिर राज था। ताहड़ देव तेजाजी के पिता थे।
ताहड़देव के भाईयों के नाम नरपाल, जयसी, धूरसी, बुधराज, आसकरण व शेरसी थे। इनमें से बुधराज और आसकरण झुंझार हो गए थे। झुंझार आसकरण की देवली गाँव के उत्तर में स्थित है।
उनकी पौथी के अनुसार तेजाजी के 6 भाई थे। भाईयों के नाम रूपजी, रणजी, गुणजी, महेशजी, नागजी, तेजाजी थे।
तेजाजी के पूर्वज और जायल
जायल खींचियों का मूल केंद्र है। उन्होने यहाँ 1000 वर्ष तक राज किया। नाडोल के चौहान शासक आसराज (1110-1122 ई.) के पुत्र माणक राव (खींचवाल) खींची शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। तेजाजी के विषय में जिस गून्दल राव एवं खाटू की सोहबदे जोहियानी की कहानी नैणसी री ख्यात के हवाले से तकरीबन 200 वर्ष बाद में पैदा हुआ था।
[पृष्ठ-158]: जायल के रामसिंह खींची के पास उपलब्ध खींचियों की वंशावली के अनुसार उनकी पीढ़ियों का क्रम इस प्रकार है- 1. माणकराव, 2. अजयराव, 3. चन्द्र राव, 4. लाखणराव, 5. गोविंदराव, 6. रामदेव राव, 7. मानराव 8. गून्दलराव, 9. सोमेश्वर राव, 10. लाखन राव, 11. लालसिंह राव, 12. लक्ष्मी चंद राव 13. भोम चंद राव, 14. बेंण राव, 15. जोधराज
गून्दल राव पृथ्वी राज के समकालीन थे।
यहाँ जायल क्षेत्र में काला गोत्री जाटों के 27 खेड़ा (गाँव) थे। यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। यह काला जयलों के नाम से भी पुकारे जाते थे। यह प्राचीन काल से यहाँ बसे हुये थे।
तेजाजी के पूर्वज राजनैतिक कारणों से मध्य भारत (मालवा) के खिलचिपुर से आकर यहाँ जायल के थली इलाके के खारिया खाबड़ के पास बस गए थे। तेजाजी के पूर्वज भी नागवंश की श्वेतनाग शाखा के वंशज थे। मध्य भारत में इनके कुल पाँच राज्य थे- 1. खिलचिपुर, 2. राघौगढ़, 3. धरणावद, 4. गढ़किला और 5. खेरागढ़
राजनैतिक कारणों से इन धौलियों से पहले बसे कालाओं के एक कबीले के साथ तेजाजी के पूर्वजों का झगड़ा हो गया। इसमें जीत धौलिया जाटों की हुई। किन्तु यहाँ के मूल निवासी काला (जायलों) से खटपट जारी रही। इस कारण तेजाजी के पूर्वजों ने जायल क्षेत्र छोड़ दिया और दक्षिण पश्चिम ओसियां क्षेत्र व नागौर की सीमा क्षेत्र के धोली डेह (करनू) में आ बसे। यह क्षेत्र भी इनको रास नहीं आया। अतः तेजाजी के पूर्वज उदय राज (विक्रम संवत 1021) ने खरनाल के खोजा तथा खोखर से यह इलाका छीनकर अपना गणराज्य कायम किया तथा खरनाल को अपनी राजधानी बनाया। पहले इस जगह का नाम करनाल था। यह तेजाजी के वंशजों के बही भाट भैरू राम डेगाना की बही में लिखा है।
तेजाजी के पूर्वजों की लड़ाई में काला लोगों की बड़ी संख्या में हानि हुई थी। इस कारण इन दोनों गोत्रों में पीढ़ी दर पीढ़ी दुश्मनी कायम हो गई। इस दुश्मनी के परिणाम स्वरूप जायलों (कालों) ने तेजाजी के इतिहास को बिगाड़ने के लिए जायल के खींची से संबन्धित ऊल-जलूल कहानियाँ गढ़कर प्रचारित करा दी । जिस गून्दल राव खींची के संबंध में यह कहानी गढ़ी गई उनसे संबन्धित तथ्य तथा समय तेजाजी के समय एवं तथ्यों का ऐतिहासिक दृष्टि से ऊपर बताए अनुसार मेल नहीं बैठता है।
बाद में 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था।
[पृष्ठ-159]: यहाँ पर इस युद्ध में शहीद हुये बीड़ियासारों के भी देवले मौजूद हैं। कंवरसीजी के तालाब के पास कंवरसीजी बीड़ियासर का देवला मौजूद है। इस देवले पर विक्रम संवत 1350 खुदा हुआ है। अब यहाँ मंदिर बना दिया है। तेजाजी के एक पूर्वज का नाम भी कंवरसी (कामराज) था।
लोक गाथाओं व जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता का नाम बक्साजी बताया जाता है लेकिन तेजाजी के पूर्वजों के वंशज धौलिया जाटों की बही रखने वाले डेगाना निवासी भैरूराम भाट की पौथी से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है। पौथी में तेजाजी के पिता का नाम ताहड़ देव (थिर राज) लिखा हुआ है। वहाँ तेजाजी के पूर्वजों की 21 पीढ़ी तक की वंशावली दी गई है। उस पौथी में ताहड़ देव आदि सात भाईयों के नाम भी लिखे हैं। उनमें ताहड़ देव सबसे बड़े हैं। वहाँ तेजाजी के ताऊ का बक्साजी कोई नाम नहीं है, जैसा कुछ लेखकों ने लिखा है।
काफी खौज खबर के बाद पता चला कि तेजाजी के दादा बोहित राज जी ही बोल चाल में बक्साजी के नाम से लोकप्रिय थे। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी बोहित जी तथा बक्सा जी मेल खाते हैं। तेजाजी के दादा बोहितराज जी ने अपने जीतेजी सर्वाधिक योग्य होने के कारण खरनाल गणराज्य के आमजन की सहमति से गणपत का पद तेजाजी के पिता ताहड़ देव को दिया था।
तेजाजी के पिता ताहड़ देव की म्रत्यु 50-55 वर्ष की आयु में हो गई थी। इसलिए परिवार की एवं गणराज्य की ज़िम्मेदारी बोहितराज के कंधों पर आ गई थी। भाईयों में सबसे छोटे होने के बावजूद भी योग्यता के आधार पर युवराज पद का भार तेजपाल के कंधों पर डाला गया। परिवार की संरक्षक की भूमिका में होने के कारण लोक गाथाओं तथा जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता के रूप में बोहितराज (बक्साजी) नाम प्रचलित हो गया था।
तेजाजी के माता-पिता का विवाह
[पृष्ठ-160]: खरनाल परगना के जाट शासक (गणपति) बोहितराज के पुत्र ताहड़देव का विवाह त्योद (त्रयोद) के गणपति करसण जी (कृष्णजी) के पुत्र राव दुल्हण जी (दूलहा जी) सोढी (ज़्याणी) की पुत्री रामकुंवरी के साथ विक्रम संवत 1104 में समपन्न हुआ। त्योद ग्राम अजमेर जिले के किशनगढ़ परगने में इससे 22 किमी उत्तर दिशा में स्थित है और किशनगढ़ अजमेर स 27 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर स्थित है।
विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। यह दूसरा विवाह कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ विक्रम संवत 1116 में सम्पन्न करवा दिया। इस विवाह का उल्लेख बालू राम आदि फिड़ौदों के हरसोलाव निवासी बही-भाट जगदीश पुत्र सुखदेव भाट की पोथी में है।
द्वितीय पत्नी रामी के गर्भ से ताहड़ जी के रूपजीत (रूपजी) , रणजीत (रणजी), महेशजी, नगजीत ( नगजी) पाँच पुत्र उत्पन्न हुये।
राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।
तेजाजी के ननिहाल
[पृषह-161]: इस बाम्बी के पास सटाकर तेजाजी के वीरगति पाने के बाद आसुदेवासी के नेतृत्व में ग्वालों ने तेजाजी का दाह संस्कार किया था। यहीं पर उनकी पत्नी पेमल सती हो गई थी। पेमल की अरदास पर सूर्यदेव की किरण से अग्नि उत्पन्न हो गई थी। इसी स्थान पर तेजाजी की समाधि पर भव्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ नागदेव की बाँबी भी मौजूद है। त्योद के निवासी अपने भांजे तेजाजी की मान मर्यादा को निभाने के लिए आज तक यहाँ वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा में आते हैं। भादवा सुदी तेजा दशमी के दिन त्योद के वासिंदे गाजा बाजा के साथ तेजाजी का लोकगीत गाते हुये सुरसुरा में तेजाजी के समाधि धाम वीरगति स्थल पर खोपरा व मोलिया लाकर चढ़ाते हैं। यह परंपरा तब से अब तक अनवरत रूप से बदस्तूर जारी है।
[पृषह-162]:जगदीश भाट हरसोलाव की पौठी में इसका साक्षी विद्यमान है कि तेजाजी की ननिहाल अठ्यासन गाँव के फिडोदा गोत्री जाट के घर थी। भैरू भाट की पोथी में केवल एक ही नाम राम कुँवरी लिखा हुआ है। जबकि जगदीश भाट की पोथी में अथयासन वाली पोथी में अठ्यासन वाली पत्नी का नाम भी रामी लिखा है।
ताहड़ देव की प्रथम पत्नी त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री थी। यह सोढ़ी शब्द दूल्हन जी की खाँप या उपगोत्र अथवा नख से संबन्धित है। अब यहाँ ज्याणी गोत्री जाटों के सिर्फ तीन घर आबाद हैं। यहाँ से 20-25 किमी दूर आबाद मंगरी गाँव में ज्याणी रहते हैं।
त्योद - यह ग्राम तेजाजी का ननिहाल है। त्योद ग्राम तेजाजी के समाधि धाम सुरसुरा से 5-6 किमी उत्तर दिशा में है। त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री राम कुँवरी का विवाह खरनाल निवासी बोहित जी (बक्साजी) के पुत्र ताहड़ देव (थिर राज) के साथ विक्रम संवत 1104 में हुआ था।
[पृष्ठ-163]: विवाह के समय ताहड़ देव एवं राम कुँवरी दोनों जवान थे। ये सोढ़ी गोत्री जाट पांचाल प्रदेश से आए थे। यह ज्याणी भी सोढियों से निकले हैं। तब सोढ़ी यहाँ के गणपति थे। केंद्रीय सत्ता चौहानों की थी। यहाँ पर तेजाजी का प्राचीन मंदिर ज्याणी गोत्र के जाटों द्वारा बनवाया गया है। अब यहाँ पुराने मंदिर के स्थान पर नए भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है। यहाँ पर जाट, गुर्जर, बनिया, रेगर, मेघवाल, राजपूत, वैष्णव , ब्राह्मण, हरिजन, जांगिड़ , ढाढ़ी , बागरिया, गोस्वामी, कुम्हार आदि जतियों के लोग निवास करते हैं।
किशनगढ़ तहसील के ग्राम दादिया निवासी लादूराम बड़वा (राव) पहले त्योद आते थे तथा तेजाजी का ननिहाल ज्याणी गोत्र में होने की वार्ता सुनाया करते थे। पहले इस गाँव को ज्याणी गोत्र के जाटों ने बसाया था। अब अधिकांस ज्याणी गोत्र के लोग मँगरी गाँव में चले गए हैं।
[पृष्ठ-164]: तेजाजी के जमाने से काफी पहले ज्यानियों द्वारा बसाया गया था। पुराना गाँव वर्तमान गाँव से उत्तर दिशा में था। इसके अवशेष राख़, मिट्टी आदि अभी भी मिलते हैं। वर्तमान गाँव की छड़ी ज्याणी जाटों की रोपी हुई है।
अठ्यासन - तेजाजी के द्वितीय ननिहाल अठ्यासन में फरडोद जाटों के 3 ही घर हैं। इनके पूर्वजों ने फरड़ोद गोत्र से ही नया गाँव फरड़ोद बसाकर वहीं बस गए। अठ्यासन का प्राचीन नाम कोयलापाटन था। यह गाँव 2 से 3 हजार साल पुराना बताया जाता है। ऐतिहासिक कारणों से यह गाँव उजड़ गया। गाँव के पास खाती की ढ़ाणी में 8 साधू महात्माओं के धुणे थे। आठ आसनों के चलते गाँव का यह नाम आठ्यासन पड़ा। इस गाँव के मूल निवासी फरड़ोद गोत्र के जाट थे। इन्हीं फरड़ोद गोत्र के जाटों से मेघवालों की कटारिया गोत्र का उद्भव हुआ। आज भी इन दोनों के भाट एक ही हैं। बाद में फरड़ोद जाट गोत्र के लोगों ने गाँव छोड़ दिया और नया गाँव फिड़ौदा/फरड़ोद बसाकर वहाँ रहने लगे। अब यहाँ जाटों के फिड़ौदा/फरड़ोदा गोत्र के 3 परिवार ही हैं। इनके अलावा झिंझा व गटेला (घिटाला) गोत्री जाट यहाँ निवास करते हैं। ये तथ्य फरड़ोद गोत्र के जाटों के भाट जगदीश की पोथी में दर्ज हैं। वर्तमान में इस गाँव में छोटा सा मगर भव्य तेजाजी का मंदिर है। इसके पुजारी हरीराम झिंझा हैं। मुख्य मंदिर के पीछे एक छोटा सा प्राचीन (मान्यता अनुसार तेजाजी काल का) मंदिर है जिसमें तेजाजी और बहिन राजल की देवली हैं। यह इस गाँव की प्राचीनता तथा तेजाजीके ननिहाल की जीवटता को प्रदर्शित करता है।
फिड़ौदा गोत्री जाटों के भाट जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार तेजाजी का ननिहाल फिड़ौदा गोत्री जाटों के घर था। जाट 81, माली 125, मेघवल 55, भाट 5, ब्राह्मण 250 कुल 277 घर थे। जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार अखोजी के पौत्र तथा जेठोजी के पुत्र करणो जी की पुत्री रामी का विवाह विक्रम संवत 1116 में बोहित जी के पुत्र ताहड़ जी धौलिया खरनाल के साथ हुआ था।
तेजाजी का जन्म
माता राम कुँवरी द्वारा नाग पूजा- [पृष्ठ-166]: ताहड़ देव का दूसरा विवाह हो गया । दूसरी पत्नी से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गई। किन्तु रामकुँवरी को महसूस हुआ कि उसकी हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। दो वर्ष 1116-1118 विक्रम संवत रामकुँवरी इस मनः स्थिति से गुजरी। रामकुँवरी ने पति ताहड़ देव से परामर्श किया और पति की आज्ञा से विक्रम संवत 1118 को अपने पीहर त्योद चली आई। त्योद में अपने माता-पिता के कुलगुरु संत मंगलनाथ की धुणी पर जाकर प्रार्थना की और अपना दुख बताया।
[पृष्ठ-167]: कुल गुरु ने रामकुँवरी को विधि विधान से नागदेव की पूजा-आराधना के निर्देश दिये। रामकुँवरी ने त्योद के दक्षिण में स्थित जंगल में नाड़े की पालपर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नागदेव की बांबी पर पूजा-आराधना 12 वर्ष तक की। कहते हैं कि विक्रम संवत 1129 अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।
[पृष्ठ-168]: तपस्या पूर्ण होने पर कुलगुरु मंगलनाथ की आज्ञा से रामकुँवरी अपने भाई हेमूजी के साथ ससुराल खरनाल पहुंची।
[पृष्ठ-170]: नागदेव का वरदान फला और विक्रम संवत 1130 की माघ सुदी चौदस गुरुवार तदनुसार 29 जनवरी 1074 ई. को खरनाल गणतन्त्र में ताहड़ देव जी के घर में शेषावतार लक्ष्मण ने तेजाजी के रूप में जन्म लिया। इस तिथि की पुष्टि भैरू भाट डेगाना की बही से होती है।
[पृष्ठ-171]: कहते हैं कि बालक के जन्म लेते ही महलों में प्रकाश फ़ैल गया। बालक के चेहरे पर प्रखर तेज दमक रहा था। दमकते चेहरे को देखकर पिता ताहड़ देव के मुख से सहसा निकला कि यह तो तेजा है। अतः जन्म के साथ ही तेजा का नामकरण हो गया।
- शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान।
- सहस्र एक सौ तीस में, परकटे तेजा महान ॥
जोशी को बुलाकर नामकरण करवाया तो उसने भी नामकरण किया तेजा।
तेजाजी के पूर्वजों की जायल के काला जाटों की पीढ़ी दर पीढ़ी शत्रुता चली आ रही थी। जायल के सरदार बालू नाग ने अपने ज्योतिषी को बुलाकर बालक का भविष्य पूछा तो बताया गया कि बालक बड़ा होनहार एवं अपरबली होगा। अन्याय, अत्याचार के खिलाफ एवं धर्म संस्थापन के पक्ष में मर मिटने वाला होगा। अपने दुश्मनों के लिए यमदूत साबित होगा। गौधन व सज्जनों के लिए देवदूत साबित होगा।
ज्योतिषियों द्वारा ऐसी भविष्यवाणी सुन खरनाल गणराज्य के दुश्मन जायलों (काला जाटों) ने भयभीत होकर जनता में अनेक तरह की अफवाहें फैलाई यथा बालक मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है, अगर बालक को रखा गया तो धौलिया वंश का नाश हो जाएगा, खरनाल गणराज्य में अकाल पड़ेगा, जनता बर्बाद हो जाएगी आदि आदि। जनता इन अफवाहों से दुखी होकर अनिष्ट की आशंकाओं से भयभीत होने लगी।
[पृष्ठ-172]: जनता ने अनिष्ट की आशंका से अन्न-जल त्याग दिया तथा शिव की आराधना करने लगी। तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे। उन्होने भी अन्न-जल त्याग दिया और शिव की आराधना में लग गए। कहते हैं कि इस तपस्या से खुश होकर शिव-पार्वती ने तपस्यारत तेजा के माता-पिता को दर्शन दिये तथा कहा कि आपका यह पुत्र शेषावतार लक्ष्मण का अवतार है। यह गौरक्षा कर भूमि का भार उतारने आया है। आप निश्चिंत रहें किसी प्रकार की आशंका न करें। यह बालक तेरी तथा तेरे गणराज्य की कीर्ति को संसार में अमर करेगा। दिव्य-शक्ति की पहचान यह है कि इसके मुख-मण्डल का तेज झेला नहीं जाता। शंकर भगवान के वरदान से ही तेजाजी की प्राप्ति हुई है। तेजा के प्राणों पर आया संकट इस तरह शिव कृपा से टल गया। इस कारण कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है।
लीलण का जन्म
[पृष्ठ-173]: लक्खी बंजारा लाखा बालद ला कर अपना माल खरनाल के रास्ते सिंध प्रदेश ले जा रहा था। लाखा के पास शुभ लक्षणों से युक्त सफ़ेद रंग की दिव्य घोड़ी थी। उस घोड़ी के गर्भ में अग्नि की अधिष्ठात्री शक्ति लीलण के रूप में पल रही थी। जब लाखा अपना बलद लेकर खरनाल से गुजर रहा था तभी विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर सवा 12 बजे लीलण का जन्म हुआ। लीलण के जन्म लेते ही उसकी मां स्वर्ग सिधार गई। लाखा ताहड़ जी से परिचित था। ताहड़ जी ने उस घोड़ी की बछिया को रख लिया। उसे गाय का दूध पिलाकर बड़ा किया।
पेमल का जन्म
[पृष्ठ-173]: तेजा के जन्म के तीन माह बाद विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की बुद्ध पूर्णिमा (पीपल पूनम) के दिन पनेर गणराज्य के गणपति रायमल जी मुहता (मेहता) के घर एक कन्या ने जन्म लिया। पूर्णिमा के प अक्षर को लेकर कन्या का नाम रखा गया पद्मा। परंतु बोलचाल की भाषा में पेमल दे नाम प्रसिद्ध हुआ।
तेजाजी महाराज की जन्मस्थली खरनाल
[पृष्ठ-174]:वीर तेजाजी महाराज की जन्मस्थली गांव खरनाल है। इसे खुरनाल व खड़नाल भी कहा जाता है। यह गांव नागौर से दक्षिण-पश्चिम दिशा में 16 किमी दूर जौधपुर रोड़ पर बसा है। नागौर जिले का यह गांव देशभर के किसानों का काशी-मथुरा, मक्का-मदीना है। खरनाल की भूमि में कृषि गौ अमृत न्याय व मानवता की इबारतें सत्यवादी वीर व तपधारी जति तेजा द्वारा लिखी गई।
[पृष्ठ-175]:खरनाल गांव के मध्य में वीर तेजाजी महाराज का तीमंजिला भव्य मंदिर बना हुआ है। जिसका जिर्णोद्धार वि.सं. 1943 (1886) को हुआ था। मंदिर पर लिखे शिलालेख पर जिर्णोद्धार कराने वालों की सूचि के अलावा एक दोहा भी लिखा है-
- "खिजमत हतौ खिजमत, शजमत दिन चार।चाहै जन्म बिगार दै, चाहै जन्म सुधार।।"
[पृष्ठ-176]:खरनाल के पूर्व में 1 किमी की दूरी पर तालाब की पाल पर बहन राजल बाई का 'बूंगरी माता' के नाम से मंदिर बना हुआ है। जो कि भातृ प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है। तेजाजी की बहन राजल के मंदिर में भक्तगण शरीर पर उभरे हुये मस्से दूर करने के लिए लोग बुहारी (झाड़ू) चढ़ाते हैं। बुहारी को स्थानीय भाषा में बूंगरी कहा जाता है। अतः बूंगरी चढ़ाने की प्रथा के कारण बूंगरी माता के नाम से पुकारते हैं।
[पृष्ठ-177]:खरनाल कभी एक गणराज्य हुआ करता था। जिसके भू-पति वीर तेजाजी के वंशज हुआ करते थे। वे एक गढी में रहा करते थे। खरनाल तेजाजी मंदिर के बगल में उस गढी के भग्नावशेष आज भी देखे जा सकते हैं। वर्तमान में खरनाल ग्राम पंचायत के रूप में विद्यमान है।
यहां लगभग 600 घर है। इस गांव में धौलिया गौत्री जाटों के लगभग 200 घर है। धौलियों के अलावा यहां इनाणा, खुड़खुड़िया, बडगावा, काला, जाखड़, जाजड़ा, आदि जाट गौत्रों का निवास है। साथ ही सुनार, नाई, खाती, ब्राह्मण, स्वामी, कुम्हार, नायक, मेघवाल, लुहार, हरिजन, ढोली आदि जतियों के लोग निवास करते हैं।
जाटों के अलावा यहां समस्त किसान जातियों व दलित जातियों का निवास है। जो एकमत तेजाजी को अपना ईष्टदेव मानते हैं। राजपूतों का इस गांव में एक भी घर नहीं है।
यहां की वर्तमान सरपंच चिमराणी निवासी मनीषा ईनाणियां है। धोलिया जाटों के भाट भैरूराम डेगाना के अनुसार वीर तेजाजी महाराज के षडदादा श्री उदयराज जी ने खौजा-खौखरों से खुरनाल/करनाल को जीतकर वर्तमान खरनाल बसाया था। खरनाल 24 गांवो का गणराज्य था। जिसके भूपति/गणपति उदयराज से लेकर ताहड़जी धौलिया तक हुए।
[पृष्ठ-178]:खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब है, जो कि धवलराय जी धौलिया (द्वितीय) द्वारा खुदवाया गया। यह तालाब वर्ष भर गांव की प्यास बुझाता है। तालाब की उत्तरी पाल पर एक भव्य छतरी बनाई हुई है जो कि कोई समाधी जैसी प्रतीत होती है। छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। बताया जाता है कि यह तेजाजी के पूर्वजों ने बनाई थी। इसी तालाब के एक छौर पर तेजल सखी लीलण का भव्य समाधी मंदिर बना हुआ है।
खरनाल के कांकड़ में खुदे तालाब नाड़ियां सबको धोलियों के नाम पर आज भी पुकारा जाता है। धुवा तालाब (धवल राज) हमलाई नाड़ी (हेमाजी) जहां उनका चबूतरा बना हुआ है। चंचलाई - चेना राम, खतलाई - खेताराम,
[पृष्ठ-179]:नयो नाड़ा - नंदा बाबा, पानी वाला- पन्ना बाबा, अमराई - अमरारम, भरोण्डा-भींवाराम, पीथड़ी- पीथाराम, देहड़िया- डूँगाराम द्वारा खुदाए पुकारे जाते हैं। ये धूलाजी शायद वे नहीं थे जिनके नाम पर धौल्या गोत्र चला, बल्कि बाद की पीढ़ियों में कोई और धूलाजी हुये थे। क्योंकि संवत की दृष्टि से प्राचीन धवलराज का तालमेल नहीं बैठता है। भाट की पौथी कहती है कि खरनाल को उदयराज ने आबाद किया जबकि धवलपाल इनसे 9 पीढ़ी पहले हो गए थे।
तेजाजी का विवाह
[पृष्ठ-179]: तेजाजी के जन्म के बाद माता रामकुँवरी ने पतिदेव से कहा कि पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण हुई है, इसलिए पुष्कर स्नान और नागदेव की मांबी पर धोक देने के लिए चलना चाहिए। इसलिए देवप्रबोधिनी एकादशी के एक दिन पहले विक्रम संवत 1131 की कार्तिक शुक्ल दशमी को प्रातः तेजा को लेकर ताहड़ जी सपत्नीक पुष्कर यात्रा को निकल पड़े। साथ में इष्ट मित्र और तेजा के काका आसकरण जी भी थे। पुष्कर में स्नान करने के बाद बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर तेजा को लिटाकर मंगल कामना की और विधिवत पूजा अर्चना कर मुक्त हस्त से दान दक्षिणा दी।
पनेर के गणपति रायमल जी मुहता भी उसी समय पुष्कर स्नान के लिए आए हुये थे। उनके घर में भी पेमल के रूप में पुत्री धन की प्राप्ति हुई थी। शहर पनेर और खरनाल के दोनों गणपतियों के परिवारों ने एकादशी से पूर्णिमा तक साथ-साथ स्नान, ध्यान, देवदर्शन और दान आदि किए। इस दौरान दोनों का परिचय घनिष्ठता में बदल गया।
तब तेजा 9 माह के थे और पेमल 6 माह की थी। तेजा के काका आसकरण और पेमल के पिता रायलल जी मुहता ने आपसी घनिष्ठता को रिसते में बदलने का प्रस्ताव रखा तो ताहड़ जी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
[पृष्ठ-180]: दोनों पक्षों ने निर्णय किया कि पुष्कर पूर्णिमा जैसा शुभ मुहूर्त दुर्लभ है। वैदिक मंत्रोचार के साथ पुष्कर के प्रकांड पंडितों ने बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर पीले-पोतड़ों में तेजा व पेमल का विवाह सम्पन्न किया। उस समय बाल-विवाह की सामाजिक स्वीकृति थी।
इस विवाह की स्वीकृति के लिए दोनों पक्षों के मामाओं को भी बुलाया गया था। तेजा के मामा पास के त्योद के गणपति करसण जी के पौत्र व दूलहन जी सोढ़ी (ज्यानी) के पुत्र हेमूजी सोढ़ी सही समय पर पुष्कर पहुँच गए थे। लेकिन पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में काफी देर हो गई थी। वह फेरे लेने के समय पहुंचा, क्योंकि फेरों का मुहूर्त विक्रम संवत 1131 की पुष्कर पूर्णिमा को गोधुली वेला निश्चित था। फेरे होने के बाद पेमल के मामा खाजू काला को पता चला कि उनकी भांजी का विवाह उनके दुश्मन पक्ष के गणपति ताहड़ देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है। काला और धौलिया गणतंत्रों के बीच काफी पीढ़ियों से दुश्मनी चली आ रही थी।
[पृष्ठ-181]: पेमल के मामा की हत्या – पेमल के मामा को यह संबंध गले नहीं उतरा। अतः वह पुष्कर घाट पर ही ताहड़ देव को भला बुरा कहने लगा। विवाद बढ़ गया और टकराव की स्थिति बन गई। ताहड़ जी ने तलवार उठाकर पेमल के मामा की हत्या कर दी। ताहड़ जी और रायमल मुहता बड़े समझदार गणपति थे। दोनों बड़े दुखी हुये परंतु पेमल के मामा की अति को समझते हुये घटना को विस्मृत करना उचित समझा। लेकिन पेमल की माँ ने इस घटना को दिल से लगा लिया। उसने पुष्कर घाट पर ही प्रतिज्ञ की कि वह खून का बदला खून से लेगी। दोनों वंश अपने-अपने गणतंत्र को प्रस्थान कर गए परंतु इस घटना के कारण काला और धौलिया परिवारों में दुश्मनी की खाई और गहरी हो गई।
अब आगे और कोई अनहोनी होने के भय से नागदेव की बांबी पर धोक लगाए बिना ही दोनों गणतंत्रों के गणपति अपने-अपने गंतव्यों की तरफ चल पड़े। राम कुँवरी ने कहा कि ईश्वर की कृपा रही तो फिर कभी नागदेव की बांबी ढोकने आएंगे। समय का तकाजा है कि तुरंत हमें खरनाल पहुंचना चाहिए।
कालिया बालिया का आतंक
[पृष्ठ-182]: तेजाजी की सास बोदल दे का प्रतिशोध सातवें आसमान पर था। उन्हें पता था की उनके पीहर पक्ष की काला गोत्र का बालिया नाग बदमशों के गुट का सरदार था। उधर चांग के मीनों के एक बदमाश गुट का सरदार था कालिया मिणा। ये दोनों बदमाश दल असामाजिक गतिविधियों में लिप्त थे। कालिया-बालिया की आपस में दोस्ती थी। बोदल दे बदले की आग में बालिया नाग से जा मिली। बलिया नाग ने उसे कालिया मीणा से मिलाया। आगामी रक्षा बंधन पर बालिया नाग की सलाह पर कालिया मीणा को उन्होने राखी बांध भाई बनाया। उन्होने कालिया मीणा के सामने अपने भाई की मौत का दुखड़ा रोया। कालिया मीणा ने ताहड़ दे से बदला लेने का वचन दिया।
कालिया-बालिया ने कई बार अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु कोशिश की, पर सफलता नहीं मिली। उन्होने कभी गायें चोरी की, कभी खेतों में आग लगाई। वे खरनाल को परेशान करने लगे।
नाग वंश के आसित नाग शाखा के काला गोत्री जाटों के एक छोटे से बदमाश गुट का सरदार था बालिया नाग। उधर चांग के मीनों का का एक छोटे से बदमाश दल का सरदार था कालिया मीणा। यह दल भी नागवंश से ही संबन्धित था। नाग वंश की मेर शाखा जो अजमेर से मेवाड़ तक फैली हुई है। उसकी एक शाखा से संबन्धित था कालिया मीणा। कालिया मीणा के दल ने भी पूरे मेरवाड़ा क्षेत्र में चोरियों, डकेतियों, लूटपाट द्वारा आतंक फैला रखा था।
[पृष्ठ-183]: पूर्व में आमेर पश्चिम में पाली तक इनको चुनौती देने वाला नहीं था। यह दल परबतसर व सांभर तक लूटमार पर जाया करता था। इसी कालिया मीणा के दल ने सांभर-परबतसर के बीच स्थित शहर पनेर से लाछा की गायें चुराई थी। कालिया दल का मूल बसेरा वर्तमान ब्यावर के पश्चिम में करणा जी की डांग की पहाड़ियों में स्थित बीहड़ों में था।
बाई राजल का जन्म
[पृष्ठ-183]: तेजाजी के जन्म के तीन वर्ष बाद ताहड़ जी की बड़ी पत्नी रामकुँवरी की कोख से विक्रम संवत 1133 में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया राजलदे (राजलक्ष्मी) । बोलचाल में उसे राजल कहा जाता था। वह तेजाजी के बलिदान के बाद लगभग 26 वर्ष की आयु में विक्रम संवत 1160 के भादवा सुदी एकादश को धरती की गोद में समा गई।
खरनाल के एक किमी पूर्व में एक तालाब की पाल पर इनका मंदिर बना हुआ है। जन मान्यता के अनुसार जहां मंदिर बना है उसी स्थान पर एक साथी ग्वला द्वारा तेजाजी के बलिदान का समाचार सुन वह धरती की गोद में समा गई थी। लोगों की मान्यता , आस्था है कि मंदिर में लगी प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी।
तेजाजी ने जब ससुराल के लिए विदाई ली, उससे पहले अपनी बहन राजल को ससुराल से लेकर आए थे। राजल का ससुराल अजमेर के पास तबीजी गाँव में था। वहाँ के राव रायपाल जी के पुत्र जोराजी (जोगजी) सिहाग से राजल का विवाह हुयाथा। राजल के एक पुत्र भी था।
कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार तेजाजी के एक और भोंगरी या बुंगरी अथवा बागल बाई के नाम से एक छोटी बहिन थी। लेकिन धौलिया वंशी खरनाल के जाटों के डेगाना निवासी भैरू राम भाट की पौथी में छोटी बहन का उल्लेख नहीं है। वहाँ तेजाजी के राजल नाम की छोटी बहन बताई गई है।
जमीन में समाने के बाद तेजाजी की बहिन का जो मंदिर बना हुआ है वह बुंगरी माता का मंदिर कहलाता है। शायद इसी बुंगरी नाम की गफलत के कारण बुंगरी नामक छोटी बहन और होने की भ्रांति हुई।
[पृष्ठ- 184]: काफी खोज करने के बाद पता चला कि शरीर पर उबरने वाले मस्सों को मिटाने के लिए आमजन इस मंदिर में बुहारी (झाड़ू) चढ़ाते हैं। झाड़ू को स्थानीय भाषा में बुंगरी कहा जाता है। बुंगरी चढ़ाने से इनका नाम बुंगरी माता प्रसिद्ध हो गया है। बुंगरी माता का मंदिर तथा तालाब (जोहड़) बड़ा रमणीय है। इस तालाब की मिट्टी की पट्टी आँखों पर बांधने से आँखों की समस्त बीमारियाँ मिट जाती हैं।
पास ही बुंगरी माता (राजल दे) की सहेली जो तेजाजी को माँ जाया भाई जैसा मानती थी उसकी भी समाधि मौजूद है। कहते हैं कि वह सहेली भी राजल के साथ धरती में समा गई थी। यह सहेली कौन थी इसका ठीक-ठीक पता नहीं है। कुछ लोग उसे नायक जाति की तो कुछ लोग मेघवाल जाति की कन्या बताते हैं।
तेजाजी की शिक्षा-दीक्षा
[पृष्ठ- 184]: तेजाजी के जन्म के आस-पास का समय महा अंधकार का काल था। पश्चिम से लगातार हमले हो रहे थे। रोज-रोज के आक्रमणों से तत्कालीन क्षत्रिय कमजोर पड़ रहे थे। गणतन्त्र के शासकों के पास कोई संगठित सेना नहीं थी। आवश्यकता होने पर केंद्रीय सत्ता के साथ मदद में खड़े होते थे। राजतंत्रीय शासक अपनी शक्ति को आपसी लड़ाई में नष्ट कर रहे थे। भारतीय समाज पर धर्म परिवर्तन का दवाब था। क्षत्रिय वंशों के लोग किसान, ग्वाला, मजदूर आदि जतियों में सम्मिलित हो रहे थे। काला और धौलिया जाटों में दुश्मनी भी विकट स्थिति निर्मित कर रही थी।
ऐसी विषम परिस्थितियों में तेजा की शिक्षा-दीक्षा विधिवत शुभारंभ में काफी बाधाएँ थी। तेजा के बचपन में विवाह के साथ ससुराल पक्ष से बैर पड़ा हुआ था। तेजाजी के पिता ताहड़ देव की जल्दी मृत्यु हो गई थी।
[पृष्ठ- 185]: गणतन्त्र के शासक वर्ग से सम्बद्ध होने तथा उनके नाना व माता का उच्च संस्कारित होने से तेजा की औपचारिक शिक्षा–दीक्षा की व्यवस्था ननिहाल पक्ष के कुलगुरु मंगलनाथ की देखरेख में की गई। अस्त्र-संचालन की विद्या उनके दादा बक्साजी एवं नाना दूल्हण जी द्वारा दी गई। धनुष-बाण, ढाल-तलवार, व भाला संचालन में तेजा का उस जमाने में कोई सानी नहीं था। इसका प्रमाण मीनों के साथ युद्ध संचालन में मिलता है। 350 यौद्धा एक तरफ थे और तेजा एक तरफ परंतु सभी 350 को पछड़ कर जीत हासिल की थी।
ताहड़ देव की हत्या
[पृष्ठ- 185]:कुँवर तेजपाल की आयु लगभग 9-10 होने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। कालिया-बलिया की कुटिलताएं जारी थी परंतु खरनाल सावधान था। विक्रम संवत 1139 (1082 ई.) के आस-पास आसोज माह में गणराज्य की फसल को देखने की लालसा में गणपति ताहड़ देव घोड़े पर सवार होकर अकेले दिन के तीसरे पहर खेतों की ओर निकले थे।
[पृष्ठ- 186]: खेतों में लहलहाती फसल को देखकर वे बहुर खुश थे। कालिया-बालिया के दल उस समय फसलों में छुपकर घात लगाए बैठे थे। दुश्मनों ने अचानक हमला कर ताहड़ देव की हत्या कर दी। खरनाल से ताहड़ देव के भाई आसकरण सहायता लेकर पहुंचे और दुश्मनों का पीछा किया। दुश्मन अधिक संख्या में थे। इस युद्ध में तेजाजी के चाचा आसकरण भी शहीद हो गए।
गणराज्य की दुखी जनता ने गणपति का भार बूढ़े बक्साजी के कंधों पर डाला। बक्साजी ने सम्पूर्ण परिस्थितियों को समझ कर गणपति पद संभाला और तेजपाल के संरक्षक की भूमिका निभाई।
तेजाजी ननिहाल त्योद में
[पृष्ठ- 186]: अचानक घात लगा कर ताहड़ देव की हत्या से तेजाजी की माताजी रामकुँवरी अंदर तक हिल गई। कालिया-बालिया की दुश्मनी तो मुख्यरूप से ताहड़ जी से थी, जो चुकता हो गई थी। परंतु राम कुँवरी को डर सताने लगा कि कहीं तेजा के साथ कोई अनहोनी न हो जाए। जैसे-तैसे 6 माह निकालने के बाद विक्रम संवत 1140 बैसाख में माता राम कुँवरी तेजा को अपने साथ लेकर पीहर त्योद आ गई। तेजा अपनी घोड़ी लीलण को भी साथ ले आए।
अब तेजा अपने नाना-मामा के संरक्षण में रहने लगे। नाना दुल्हन जी सोढ़ी और मामा हेमूजी सोढ़ी (ज्यानी) के संरक्षण में अस्त्र-शस्त्र संचालन, घुड़सवारी, तीर-तलवार-ढाल व भाला संचालन की शिक्षा प्राप्त कर इन विद्याओं में पारंगत हुये। ननिहाल पक्ष के कुलगुरु संत मंगलनाथ से भूगोल, गणित, पर्यावरण और अध्यात्म विद्या सीखी।
[पृष्ठ-194]: तेजा ने दो वर्ष तक अपने ननिहाल में नाना के गौमाताओं को भी चराया। तेजाजी की आयु अब 16 साल हो चुकी थी। तेजाजी ने अब तक दुनियादारी को काफी समझ लिया था। उनको अब बोध हुआ कि खरनाल चलना चाहिए। माता राम कुँवरी ने नाना और मामा से चर्चा की और निर्णय हुआ कि तेजाजी को माता के साथ खरनाल लौटना चाहिए।
युवराज तेजाजी और उनका व्यक्तित्व
[पृष्ठ-194,195, 196, 205]: तेजाजी ने नाना , मामा और कुलगुरु से आशिर्वाद प्राप्त किया। बासगदेव की बांबी पर माथा टेका। त्योद गणराज्य के लोगों ने तेजा को उदासमन से विदाई दी। मामा हेमराज और माता के रथ में सवार हुये। तेजा अपनी घोड़ी लीलण पर सवार हुये। विक्रम संवत 1146 जेठ माह में तेजा वापस खरनाल लौटे। तेजाजी के खरनाल पहुँचने पर दादा बोहित जी ने गाजा-बाजा से माता रामकुँवरी और तेजा का भव्य स्वागत किया। तेजा ने बोहित राज जी के साथ जाकर कुलगुरु जुंजाला के गुसाईंजी को प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया। भगवान शिव के मंदिर में विशेष पूजा-अर्चना की। खरनाल गणराज्य के 24 गांवों में तेजाजी के आगमन की खबर फैली तो खुशी की लहर फ़ेल गई। लोगों को कानों-कान खबर पहुंची कि तेजजाजी बहुत बड़े गुणवान और होनहार हो गए हैं।
तेजाजी अब गणराज्य चलाने में दादा बोहितराज की सहायता करने लगे। खरनाल में तेजाजी को नए साथी मिल गए। इनमें से समान विचारवालों में से मुख्य थे – पांचू मेघवाल, खेता कुम्हार और जेतराज जाट।
तेजाजी गौमाता को बहुत मानते थे। गौमाता के लिए हमेशा प्राणों की बाजी लगाने को भी तैयार रहते थे। अपने हतियार ढाल, तलवार, भाला, तीर कमान, तूणीर हरपाल साथ रखते थे। उनको कालाओं के बालू नाग की दुश्मनी का ज्ञान था, चांग के कालिया मीना दल से भी दुश्मनी थी।
[पृष्ठ-207]: तेजाजी महान कृषि वैज्ञानिक थे। इसलिए उन्हें कृषि उपकारक देवता माना जाता है। तेजाजी की सम्पूर्ण कृषि विधि प्राकृतिक पद्धति तथा गौ विज्ञान पर आधारित थी। वे खेती बाड़ी से संबन्धित हर तथ्य की जानकारी रखते थे। खेती में लगने वाले कीट-पतंगों को भगाने के लिए उनके द्वारा अहिंसात्मक अद्भुत विधिया बताई गई थी।
पांचू मेघवाल का मंदिर में प्रवेश – तेजाजी प्रतिदिन की भांति शिवलिंग पर जल चढ़ा रहे थे तभी एक दुखदाई घटना घटी। पांचू नामक अबोध बच्चा ठाकुरजी के मंदिर में चला गया। पुजारी को जब पता लगा कि यह बच्चा मेघवाल जाति का है तो वे अपना आपा खो बैठे और आग-बबूला होकर बच्चे को लाट से मारने लगे। मंदिर में देव-दर्शन को गई जनता यह तमाशा देख रही थी।
[पृष्ठ-208]: उसी समय तेजाजी धुवा तलब की पाल पर बनी अपने पूर्वजों की छतरी में स्थापित शिवलिंग पर जल चढ़कर आ रहे थे। पुजारी के लात-घूसों से टूटी आफत से तेजाजी ने पांचू को बचाया। बच्चे को छाती से लगाकर तेजाजी ने संबल प्रदा किया और नहीं डरने के लिए उसे आश्वस्त किया। इस पर पुजारी ने कहा कि यह बच्चा छोटी जाति का है। मंदिर में प्रवेश कर इसने अपराध किया है। पुजारी को तेजाजी ने समझाया कि छोटी जाति की सबरी भीलनी के जूठे बेर भी तो आपके ठाकुर जी ने स्वयं खाये थे। यहाँ तो केवल ठाकुर जी की प्रतिमा मात्र है। पुजारी ने कहा कि मूर्ति की प्राण प्रतष्ठा की गई है, इसमें ठाकुर जी का प्रवेश हो गया है। तेजाजी ने प्रतिप्रश्न किया कि यदि ऐसा ही होता तो प्राण-प्रतिष्ठा वाले मंत्रों से आपके मारे हुये पिताजी को जिंदा क्यों नहीं कर लेते ? पुजारी निरुत्तर हो गए। तेजाजी ने बताया कि ठाकुर जी का निवास अकेली प्रतिमा में ही नहीं है बल्कि प्रत्येक प्राणी में है। बालक तो वैसे ही परमात्मा का स्वरूप होता है।
तेजाजी ने कहा पुजारी जी आपने राम को पढ़ा है, राम को समझा नहीं। राम केवल पढ़ने तथा पूजा करने की चीज नहीं है। उनके चरित्र को समझकर जीवन में उतारने की चीज है। पुजारी ने इस पर तेजाजी को चुनौती दी कि आप इतने ही ज्ञानी और रामभक्त हो तो मेरे द्वारा बंद किए मंदिर के किवाड़ खोलकर ठाकुर जी को बाहर बुलालो।
[पृष्ठ-210]: श्रुति परंपरा कहती है कि तेजाजी की सच्ची प्रार्थना स्वीकार हुई, मंदिर के पट खुले और देव प्रतिमा बाहर आई। तेजा ने, पांचू ने, प्रजाजन ने देव प्रतिमा को प्रणाम किया। पुजारी ने अपने किए कृत्य पर परमात्मा से क्षमा मांगी। तेजाजी की जय-जय कार होने लगी। तब से पांचू तेजाजी को सखा ही नहीं भगवान मानने लगा, जबकि पांचू तेजाजी से उम्र में बहुत छोटा था। पांचू का विस्वास लौट आया और तब से वह तेजाजी के साथ ही रहने लगा।
तेजाजी का व्यक्तित्व:
तेजा का चेहरा युवा होने पर तेज से दमकने लगा। उनकी आँखों में एक निर्मल और पवित्र चमक थी। उनके होठ गुलाब की पंखुड़ी की तरह, नासिका सुवा के चोंच जैसी, गाल लाल, बाल काले, चौड़ी छाती, शंख सी गर्दन, वृषभ से स्कन्ध, बलिष्ठ भुजाएँ, कसी हुई कमर, हाथी की सूंड सी जंघाएँ, गठीली पिंडलियाँ, उभारयुक्त चरण, कमर में लटकती तलवार-ढाल और भाला! यह था तेजाजी का व्यक्तित्व। माला व भाला दोनों में निपुणता, अध्यात्म में गहरी रुचि, भक्तिभाव व गायों की सुरक्षा में गहरी रुचि। न्याय में विक्रमादित्य के समान थे। जड़ी-बूटियों से मनुष्यों और पशुओं के इलाज की उनको महारत हासिल थी।
तेजाजी खरनाल गणराज्य के युवराज थे अतः खरनाल की हर समस्या का समाधान तेजाजी के जिम्मे था। गणराज्य की राज-काज में हाथ बटाने के साथ-साथ पशुधन एवं कृषि कार्य तथा इसके उन्नति की ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर थी। समस्त सामाजिक सरोकारों में तेजाजी को हिस्सेदारी लेनी पड़ती थी। तेजाजी के कार्यक्षेत्र का अत्यंत विस्तार हो चुका था। सामाजिक समता का कार्य तेजाजी बहुत ही निष्पक्षता से करते थे। अस्त्र-शस्त्र संचालन में पारंगत होने के कारण गणराज्य के शत्रु भी उनका लौहा मानते थे। गणराज्य में उन्नति तथा शांति स्थापना उनकी प्राथमिकता थी। तेजाजी की बहादुरी और समझदारी के डंके बजने लगे थे।
तेजाजी का हळसौतिया
[पृष्ठ- 37, 211-217] ज्येष्ठ मास लग चुका है। ज्येष्ठ मास में ही ऋतु की प्रथम वर्षा हो चुकी है। ज्येष्ठ मास की वर्षा अत्यन्त शुभ है। गाँव के मुखिया को ‘हालोतिया’या हळसौतिया करके बुवाई की शुरुआत करनी है। उस काल में परंपरा थी की वर्षात होने पर गण या कबीले के गणपति सर्वप्रथम खेत में हल जोतने की शुरुआत करता था, तत्पश्चात किसान हल जोतते थे। गणराज्यों के काल में हलजोत्या की शुरुआत गणपति द्वारा किए जाने की व्यवस्था अति प्राचीन थी। ऐतिहासिक संदर्भों की खोज से पता चला कि उस जमाने में गणतन्त्र पद्धति के शासक सर्वप्रथम वर्षा होने पर हल जोतने का दस्तूर (हळसौतिया) स्वयं किया करते थे तथा शासक वर्ग स्वयं के हाथ का कमाया खाता था। राजा जनक के हल जोतने के ऐतिहासिक प्रमाण सर्वज्ञात हैं, क्योंकि सीता उनको हल जोतते समय उमरा (सीता) में मिली थी इसीलिए नाम सीता पड़ा । बुद्ध के शासक पिता शुद्धोदन के पास काफी जमीन थी। शुद्धोदन तथा बुद्ध स्वयं हल जोता करते थे। बोद्ध काल में यह परंपरा वप्रमंगल उत्सव कहलाता था जिसके अंतर्गत धान बोने के प्रथम दिन हर शाक्य अपने हाथ से हल जोता करते थे।[1]
मुखिया ताहड़ देव की पत्नी अपने छोटे पुत्र को, जिसका नाम तेजा है, खेतों में जाकर हळसौतिया का शगुन करने के लिए कहती है।
- सूतो कांई सुख भर नींद कुँवर तेजारे ।
- हल जोत्यो कर दे तूँ खाबड़ खेत में ॥
जब तेजा कहता है कि यह काम तो हाली ही कर देगा, तब माता टोकती है कि-
- हाली का बीज्या निपजै मोठ ग्वार कुँवर तेजारे,
- थारा तो बीज्योड़ा मोती निपजै॥
माता समझाती है कि कहां रास, पिराणी, हल, हाल, जूड़ा, नेगड़-गांगाड़ा पड़ा है। तेजाजी माता से मालूम करते हैं कि मोठ, ग्वार, ज्वार, बाजरी किन किन खेतों में बीजना है तब माता कहती है –
- डेहरियां में बीजो थे मोठ ग्वार कुँवर तेजारे,
- बाजरियो बीजो थे खाबड़ खेत मैं।
माता का वचन मानकर तेजा पहर के तड़के उठते हैं, हल और बैल लेकर खेत जाते हैं। तेजा माँ की आज्ञानुसार खेतों में पहुँच कर हल चलाने लगा है। दोपहर तक 12 बीघा की पूरी आवड़ी बीज डाली।
तेजा को जोरों की भूख लग आई है। उसकी भाभी उसके लिए ‘छाक’ यानी भोजन लेकर आएगी। मगर कब? कितनी देर लगाएगी? सचमुच, भाभी बड़ी देर लगाने के बाद ‘छाक’ लेकर पहुँची है। तेजा का गुस्सा सातवें आसमान पर है। वह भाभी को खरी-खोटी सुनाने लगा है। तेजाजी ने कहा कि बैल रात से ही भूके हैं मैंने भी कुछ नहीं खाया है, भाभी इतनी देर कैसे लगादी। भाभी भी भाभी है। तेजाजी के गुस्से को झेल नहीं पाई और काम से भी पीड़ित थी सो पलट कर जवाब देती है,
- एक मन पीसना पीसने के पश्चात उसकी रोटियां बनाई, घोड़ी की खातिर दाना डाला, फिर बैलों के लिए चारा लाई और तेजाजी के लिए छाक लाई परन्तु छोटे बच्चे को झूले में रोता छोड़ कर आई, फिर भी तेजा को गुस्सा आये तो तुम्हारी जोरू जो पीहर में बैठी है, कुछ शर्म-लाज है, तो लिवा क्यों नहीं लाते?
तेजा को भाभी की बात तीर-सी लगती है। वह रास पिराणी फैंकते हैं और ससुराल जाने की कसम खाते हैं। वह तत्क्षण अपनी पत्नी पेमल को लिवाने अपनी ससुराल जाने को तैयार होता है। तेजा खेत से सीधे घर आते हैं और माँ से पूछते हैं कि मेरी शादी कहाँ और किसके साथ हुई। माँ को खरनाल और पनेर की दुश्मनी याद आई और बताती है कि शादी के कुछ ही समय बाद तुम्हारे पिता और पेमल के मामा में कहासुनी हो गयी और तलवार चल गई जिसमें पेमल के मामा की मौत हो गयी। माँ बताती है कि तेजा तुम्हारा ससुराल गढ़ पनेर में रायमलजी के घर है और पत्नी का नाम पेमल है। सगाई दादा बक्साजी ने पीला-पोतडा़ में ही करदी थी।
तेजा ससुराल जाने से पहले विदाई देने के लिये भाभी से पूछते हैं। भाभी कहती है - "देवरजी आप दुश्मनी धरती पर मत जाओ। आपका विवाह मेरी छोटी बहिन से करवा दूंगी। " तेजाजी ने दूसरे विवाह से इनकार कर दिया।
[पृष्ठ-215]: कुछ लोगों का मानना है कि तेजाजी को अपनी शादी के बारे में पता नहीं था। धौलिया तथा काला वंशों में दुश्मनी जगजाहिर थी। तेजाजी के पिता ताहड़ देव की मृत्यु भी इसी दुश्मनी का परिणाम था। यह सभव नहीं लगता कि 29 वर्ष के राजकुमार तेजाजी को इसका पता न हो। लाछा गुजरी के पति नंदू गुर्जर से पता चला कि पेमल आपकी राह देख रही है और उन्होने अपनी माँ से साफ बता दिया है कि धौलिया को ब्याही हुई पेमल अन्यत्र शादी नहीं करेगी तो तेजा अपने कर्तव्य पालन के लिए बैचैन हो गए। भाभी के बोल ने आग में घी का काम किया, यही जनमानस में ज्यादा प्रचलित रहा जो लोकगीतों में परिलक्षित होता है।
तेजाजी को ताना देने वाली भाभी कौन थी यह जानने के लिए काफी खोज-खबर की गई। पुराने जानकार लोगों का कहना है कि तेजाजी के इस भाई का नाम बलराम था तथा भाभी का नाम केलां था। खरनाल के धौलिया गोत्र के भाट भैरूराम की पोथी से इसकी पुष्टि नहीं होती है।
खरनाल के धौलिया गोत्र के भाट भैरूराम की पोथी में तेजाजी के भाईयों के नाम और भाभियाँ निम्नानुसार थे –
- 1. रूपजीत (रूपजी) ... पत्नी रतनाई (रतनी) खीचड़
- 2. रणजीत (रणजी)...पत्नी शेरां टांडी
- 3. गुणराज (गुणजी) ....पत्नी रीतां भाम्भू
- 4. महेशजी ...पत्नी राजां बसवाणी
- 5. नागराज (नागजी)....पत्नी माया बटियासर
[पृष्ठ-216]: रूपजी की पीढ़ियाँ - .... 1. दोवड़सी 2. जस्साराम 3. शेराराम 4. अरसजी 5. सुवाराम 6 मेवाराम 7. हरपालजी
गैण तालाब - गैण तालाब खरनाल के बाछुंड्या व खाबड़ खेत से पूर्व दिशा में नागौर-अजमेर मुख्य सड़क से सटाकर पश्चिम में मूंडवा और इनाण गाँव के बीच में पड़ता है। जो खरनाल खाबड़ खेत से 12-15 किमी की दूरी पर स्थित है। इस तालाब के उत्तर पश्चिम कोण पर नरसिंह जी का मंदिर बना है। मंदिर में राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित हैं। तेजाजी के समय गैण तालाब प्रसिद्ध था। तेजाजी की गायें यहाँ पानी पिया करती थी। तेजाजी के पूर्वजों की यहाँ 12 कोश की आवड़ी (खेत) थी। आज भी यह गैण तालाब सुरक्षित है।
तेजाजी का पनेर प्रस्थान
तेजाजी अपनी माँ से ससुराल पनेर जाने की अनुमति माँगते हैं। माँ को अनहोनी दिखती है और तेजा को ससुराल जाने से मना करती है। भाभी कहती है कि पंडित से मुहूर्त निकलवालो। पंडित तेजा के घर आकर पतड़ा देख कर बताता है कि उसको सफ़ेद देवली दिखाई दे रही है जो सहादत की प्रतीक है। सावन व भादवा माह अशुभ हैं। पंडित ने तेजा को दो माह रुकने की सलाह दी। तेजा ने कहा कि तीज से पहले मुझे पनेर जाना है चाहे धन-दान ब्रह्मण को देना पड़े। वे कहते हैं कि जंगल के शेर को कहीं जाने के लिए मुहूर्त निकलवाने की जरुरत नहीं है। तेजा ने जाने का निर्णय लिया और माँ-भाभी से विदाई ली।
अगली सुबह वे अपनी लीलण नामक घोड़ी पर सवार हुए और अपनी पत्नी पेमल को लिवाने निकल पड़े। जोग-संयोगों के मुताबिक तेजा को लकडियों से भरा गाड़ा मिला, कुंवारी कन्या रोती मिली, छाणा चुगती लुगाई ने छींक मारी, बिलाई रास्ता काट गई, कोचरी दाहिने बोली, मोर कुर्लाने लगे। ये शुभ संकेत नहीं माने जाते। परंतु तेजा अन्धविसवासी नहीं थे. तेजा बोले जंगली जीव अपनी प्रकृति के अनुसार बोलते हैं। सो चलते रहे।
बरसात का मौसम था। कितने ही उफान खाते नदी-नाले पार किये. सांय काल होते-होते वर्षात ने जोर पकडा. रस्ते में पनेर नदी उफान पर थी. ज्यों ही उतार हुआ तेजाजी ने लीलण को नदी पार करने को कहा जो तैर कर दूसरे किनारे लग गई। तेजाजी बारह कोस अर्थात 36 किमी का चक्कर लगा कर अपनी ससुराल पनेर आ पहुँचे।
तेजापथ: खरनाल से पनेर
[पृष्ठ-224]: सारे जहां के मना करने के बावजूद - शूर न पूछे टिप्पणो, शुगन न पूछे शूर, मरणा नूं मंगल गिणै, समर चढ़े मुख नूर।।
यह वाणी बोलकर तेजाजी अपनी जन्म भूमि खरनाल से भादवा सुदी सप्तमी बुधवार विक्रम संवत 1160 तदनुसार 25 अगस्त 1103 ई. को अपनी ससुराल शहर पनेर के लिए प्रस्थान किया। वह रूट जिससे तेजा खरनाल से प्रस्थान कर पनेर पहुंचे यहाँ तेजा पथ से संबोधित किया गया है।
तेजा पथ के गाँव : खरनाल - परारा (परासरा)- बीठवाल - सोलियाणा - मूंडवा - भदाणा - जूंजाळा - कुचेरा - लूणसरा (लुणेरा) (रतवासा) - भावला - चरड़वास - कामण - हबचर - नूंद - मिदियान - अलतवा - हरनावां - भादवा - मोकलघाटा - शहर पनेर..इन गांवो का तेजाजी से आज भी अटूट संबंध है।
[पृष्ठ-225]:खरनाल से परारा, बीठवाल, सोलियाणा की सर जमीन को पवित्र करते हुये मूंडवा पहुंचे। वहाँ से भदाणा होते हुये जूंजाला आए। जूंजाला में तेजाजी ने कुलगुरु गुसाईंजी को प्रणाम कर शिव मंदिर में माथा टेका। फिर कुचेरा की उत्तर दिशा की भूमि को पवित्र करते हुये लूणसरा (लूणेरा) की धरती पर तेजाजी के शुभ चरण पड़े।
[पृष्ठ-226]: तब तक संध्या हो चुकी थी। तेजाजी ने धरती माता को प्रणाम किया एक छोटे से तालाब की पाल पर संध्या उपासना की। गाँव वासियों ने तेजाजी की आवभगत की।
इसी तेजा पथ के अंतर्गत यह लूणसरा गांव मौजूद है।
जन्मस्थली खरनाल से 60 किमी पूर्व में यह गांव जायल तहसिल में अवस्थित है।ससुराल जाते वक्त तेजाजी महाराज व लीलण के शुभ चरणों ने इस गांव को धन्य किया था। गांव वासियों के निवेदन पर तेजाजी महाराज ने यहां रतवासा किया था। आज भी ग्रामवासी दृढ़ मान्यता से इस बात को स्वीकारते हैं। उस समय यह गांव अभी के स्थान से दक्षिण दिशा में बसा हुआ था।
उस जमाने में यहां डूडी व छरंग जाटगौत्रों का रहवास था। मगर किन्हीं कारणों से ये दोनों गौत्रे अब इस गांव में आबाद नहीं है। फिलहाल इस गांव में सभी कृषक जातियों का निवास है। यहाँ जाट, राजपूत, ब्राह्मण, मेघवाल, रेगर, तैली, कुम्हार, लोहार, सुनार, दर्जी, रायका, गुर्जर, नाथ, गुसाईं, हरिजन, सिपाही, आदि जातियाँ निवास करती हैं। गांव में लगभग 1500 घर है।
नगवाडिया, जाखड़, सारण गौत्र के जाट यहां निवासित है।
ऐसी मान्यता है कि पुराना गांव नाथजी के श्राप से उजड़ गया था।
[पृष्ठ-227]: पुराने गांव के पास 140 कुएं थे जो अब जमींदोज हो गये हैं। उस जगह को अब 'सर' बोलते है। एक बार आयी बाढ से इनमें से कुछ कुएं निकले भी थे।...सन् 2003 में इस गांव में एक अनोखी घटना घटी। अकाल राहत के तहत यहां तालाब खौदा जा रहा था। जहां एक पुराना चबूतरा जमीन से निकला। वहीं पास की झाड़ी से एक नागदेवता निकला, जिसके सिर पर विचित्र रचना थी। नागदेवता ने तालाब में जाकर स्नान किया और उस चबूतरे पर आकर बैठ गया। ऐसा 2-4 दिन लगातार होता रहा। उसके बाद गांववालों ने मिलकर यहां भव्य तेजाजी मंदिर बनवाया। प्राण प्रतिष्ठा के समय रात्रि जागरण में भी बिना किसी को नुकसान पहुंचाये नाग देवता घूमते रहे। इस चमत्कारिक घटना के पश्चात तेजा दशमी को यहां भव्य मेला लगने लग गया। वह नाग देवता अभी भी कभी कभार दर्शन देते हैं।उक्त चमत्कारिक घटना तेजाजी महाराज का इस गांव से संबंध प्रगाढ़ करती है। गांव गांव का बच्चा इस ऐतिहासिक जानकारी की समझ रखता है कि ससुराल जाते वक्त तेजाजी महाराज ने गांववालों के आग्रह पर यहां रात्री-विश्राम किया था। पहले यहां छौटा सा थान हुआ करता था। बाद में गांववालों ने मिलकर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया।
लूणसरा से आगे प्रस्थान - प्रातः तेजाजी के दल ने उठकर दैनिक क्रिया से निवृत होकर मुंह अंधेरे लूणसरा से आगे प्रस्थान किया। रास्ते में भावला - चरड़वास - कामण - हबचर - नूंद होते हुये मिदियान पहुंचे। मिदियान में जलपान किया। लीलण को पानी पिलाया। अलतवा होते हुये हरनावां पहुंचे। वहाँ से भादवा आए और आगे शहर पनेर के लिए रवाना हुये।
नदी ने रोका रास्ता – भादवा से निकलने के साथ ही घनघोर बारिस आरंभ हो गई। भादवा से पूर्व व परबतसर से पश्चिम मांडण - मालास की अरावली पर्वत श्रेणियों से नाले निकल कर मोकल घाटी में आकर नदी का रूप धारण कर लिया। इस नदी घाटी ने तेजा का रास्ता रोक लिया।
तेजा इस नदी घाटी की दक्षिण छोर पर पानी उतरने का इंतजार करने लगे। उत्तर की तरफ करमा कूड़ी की घाटी पड़ती है। उस घाटी में नदी उफान पर थी। यह नदी परबतसर से खरिया तालाब में आकर मिलती है। लेकिन तेजाजी इस करमा कूड़ी घाटी से दक्षिण की ओर मोकल घाटी के दक्षिण छोर पर थे। उत्तर में करमा कूड़ी घाटी की तरफ मोकल घाटी की नदी उफान पर
[पृष्ठ-228]: थी अतः किसी भी सूरत में करमा कूड़ी की घाटी की ओर नहीं जा सकते थे। दक्षिण की तरफ करीब 10 किमी तक अरावली की श्रेणियों के चक्कर लगाकर जाने पर रोहिण्डीकी घाटी पड़ती है। किन्तु उधर भी उफनते नाले बह रहे थे। अतः पर्वत चिपका हुआ लीलण के साथ तैरता-डूबता हुआ नदी पार करने लगा। वह सही सलामत नदी पर करने में सफल रहे। वर्तमान पनेर के पश्चिम में तथा तत्कालीन पनेर के दक्षिण में बड़कों की छतरी में आकर नदी तैरते हुये अस्त-व्यस्त पाग (साफा) को तेजा ने पुनः संवारा।
तेजाजी का पनेर आगमन
[पृष्ठ-229]: शाम का वक्त था। गढ़ पनेर के दरवाजे बंद हो चुके थे। कुंवर तेजाजी जब पनेर के कांकड़ पहुंचे तो एक सुन्दर सा बाग़ दिखाई दिया। बड़कों की छतरी और शहर पनेर के बीच यह रायमल जी मेहता का बाग था। तेजाजी भीगे हुए थे, रास्ते चलने के कारण थक भी गए थे। तेजाजी ने रात्री विश्राम यहीं करने का निश्चय किया, क्योंकि गढ़ पनेर के दरवाजे बंद हो चुके थे और चारों तरफ परकोटा बना था। बाग़ के दरवाजे पर माली से दरवाजा खोलने का निवेदन किया। माली ने कहा बाग़ की चाबी पेमल के पास है, मैं उनकी अनुमति बिना दरवाजा नहीं खोल सकता। कुंवर तेजा ने माली को अपना परिचय दिया, मेरा नाम तेजा, कुल जाट, गोत्र धौल्या और रायमल जी का पावणा। परिचय प्राप्ति के बाद माली ने ताला खोल दिया। रातभर तेजा ने बाग़ में विश्राम किया और लीलण ने बाग़ में घूम-घूम कर पेड़-पौधों को तोड़ डाला।
[पृष्ठ-230]: बाग़ के माली ने पेमल को परदेशी के बारे में और घोडी द्वारा किये नुकशान के बारे में बताया। पेमल की भाभी बाग़ में आकर पूछती है कि परदेशी कौन है, कहाँ से आया है और कहाँ जायेगा। तेजा ने परिचय दिया कि वह खरनाल का जाट है और रायमल जी के घर जाना है। पेमल की भाभी माफ़ी मांगती है और बताती है कि वह उनकी छोटी सालेली है। सालेली (साले की पत्नि) ने पनेर पहुँच कर पेमल को खबर दी। पेमल अपनी भाभियों के साथ स्वयं पनघट पर पानी भरने गई क्योंकि तेजाजी पनघट के रास्ते ही पनेर में प्रवेश करेंगे।
[पृष्ठ-231]: तेजाजी पनघट पर - कुंवर तेजाजी बाग से पनेर के लिए रवाना हुये। रास्ते में पनघट पड़ता है। पनिहारियाँ सुन्दर घोडी पर सुन्दर जवाई को देखकर हर्षित हुई। तेजा ने रायमलजी का घर का रास्ता पूछा। पनिहारिन पहले से ही तैयार थी। उन्होने तेजाजी को पानी पीने की मनुहार कर संकेत में आभाष करा दिया कि पेमल हमारे बीच में है। इन्हें आप पहचानिए। उसके बाद उन्हें रायमलजी का घर का रास्ता बता दिया।
- सूरज सामी पोलि है नणदोई म्हारो जी।
- कैल झबूके रायमलजी रै बारणै॥
सूर्यास्त होने वाला था। तेजाजी ने पोलि में प्रवेश कर रायमल जी और साले से रामजुहार किया। उनकी सास गाएँ दूह रही थी। तेजाजी का घोड़ा उनको लेकर धड़धड़ाते हुए पिरोल में आ घुसा था । सास ने उन्हें पहचाना नहीं। वह अपनी गायों के डर जाने से उन पर इतनी क्रोधित हुई कि सीधा शाप ही दे डाला, ‘जा, तुझे काला साँप खाए!’ तेजाजी उसके शाप से इतने क्षुब्ध हुए कि बिना पेमल को साथ लिए ही लौट पड़े। तेजाजी ने कहा यह नुगरों की धरती है, यहाँ एक पल भी रहना पाप है।
तेजाजी का पेमल से मिलन
[पृष्ठ-232]:अपने पति को वापस मुड़ते देख पेमल को झटका लगा। पेमल ने पिता और भाइयों से इशारा किया कि वे तेजाजी को रोकें। श्वसुर और साला तेजाजी को रोकते हैं पर वे मानते नहीं हैं। वे घर से बाहर निकल आते हैं।
[पृष्ठ-233]: पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। वह शहर पनेर के दक्षिण पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास (मोहल्ला) में रहती थी। उसने पेमल को तेजाजी से मिलवाने का यत्न किया। वह ऊँटनी पर सवार हुई और रास्ते में मीणा सरदारों से लड़ती-जूझती तेजाजी तक जा पहुँची। लाछा ने लीलण की लगाम पकड़ली। उन्हें पेमल का सन्देश दिया। अगर उसे छोड़ कर गए, तो वह जहर खा कर मर जाएगी। उसके मां-बाप उसकी शादी किसी और के साथ तय कर चुके हैं। लाछां बताती है, पेमल तो मरने ही वाली थी, वही उसे तेजाजी से मिलाने का वचन दे कर रोक आई है। लाछां के समझाने पर भी तेजा पर कोई असर नहीं हुआ। पेमल अपनी माँ को खरी खोटी सुनाती है। पेमल कलपती हुई आई और लीलण के सामने खड़ी हो गई। पेमल ने कहा - आपके इंतजार में मैंने इतने वर्ष निकाले। मेरे साथ घर वालों ने कैसा वर्ताव किया यह मैं ही जानती हूँ। आज आप चले गए तो मेरा क्या होगा। मुझे भी अपने साथ ले चलो। मैं आपके चरणों में अपना जीवन न्यौछावर कर दूँगी।
पेमल की व्यथा देखकर तेजाजी वापस मुड़ गए। आगे आगे लाछा तथा पीछे पीछे तेजाजी चलने लगे। पेमल ने राहत की सांस ली। वे लाछा की रंगबाड़ी के लिए चल पड़े।
[पृष्ठ-234]: लाछा ने तेजाजी और साथियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। विश्राम के लिए तेजाजी मैड़ी में पधारे। लाछा ने तेजा के साथियों के रुकने की व्यवस्था की। नंदू गुर्जर साथियों से बातें करने लगे। सभी ने पेमल के पति को सराहा। देर रात तक औरतों ने जंवाई गीत गाए। पेमल की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। तेजाजी पेमल से मिले। अत्यन्त रूपवती थी पेमल। दोनों बतरस में डूबे थे कि लाछां की आहट सुनाई दी।
शहर पनेर
[पृष्ठ-235]: शहर पनेर तेजाजी का ससुराल है। यह गाँव वर्तमान में राजस्थान के अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील में स्थित है। यह किशनगढ़ से 30-32 किमी उत्तर दिशा में है। तेजाजी के वीरगति स्थल सुरसुरा से 15-16 किमी उत्तर-पश्चिम दिशा में है। जिला मुख्यालय अजमेर से उत्तर पूर्व दिशा में 60 किमी दूर है। नागौर जिले के परबतसर से सिर्फ 4 किमी दक्षिण पूर्व में है।
आज राजस्व रिकॉर्ड में सिर्फ पनेर है परंतु तेजाजी के इतिहास में यह शहर पनेर नाम से सुप्रसिद्ध था। यह गाँव तेजाजी के जन्म से बहुत पहले ही बसा हुआ था। प्राचीन समय में वर्तमान पनेर से पश्चिम दिशा में बसा हुआ था। तेजाजी के समय में यह वर्तमान पनेर से 1 किमी उत्तर में पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ था। यहाँ के राख़-ठीकरे आदि इसके प्रमाण हैं।
[पृष्ठ-236]: शहर पनेर गणतन्त्र के शासक रायमल जी मुहता, झाँझर गोत्र के जाट थे, जिनके पिता का नाम राव महेशजी था। रायमल जी मुहता तेजाजी के श्वसुर थे। तेजाजी की सास का नाम बोदल दे था, जो काला गोत्र के जाट की पुत्री थी। तेजाजी की पत्नी का नाम पेमल था। पेमल बड़ी सती सतवंती थी। बचपन में शादी हो जाने के बावजूद 29 वर्ष तक तेजाजी का इंतजार करती रही। पेमल के भाई और भाभी के नाम मालूम नहीं हैं।
शहर पनेर से करीब 2 किमी पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास में पेमल की सहेली प्रसिद्ध लाछा गुजरी रहती थी।
[पृष्ठ-237]:लाछा के पति का नाम नंदू गुर्जर था। लाछा चौहान गोत्र की गुर्जर थी। लाछा के पति नंदू तंवर गोत्र के गुर्जर थे। लाछा के पास बहुत सी गायें थी।
तेजाजी के ससुराल पक्ष वाले झाँझर गोत्र के जाट अब इस गाँव में नहीं रहते हैं। सती पेमल के श्राप के कारण झाँझर कुनबा इस गाँव से उजड़ गया। अब रायमल जी मुहता के वंशज झांजर गोत्र के जाट भीलवाडा के आस-पास कहीं रहते हैं। झाँझर के भाट से भी मुलाकात नहीं हो सकी। झाँझर यहाँ से चले गए परंतु उनके द्वारा खुदाया गया तालाब उन्हीं की गोत्र पर झांझोलाव नाम से प्रसिद्ध है। यह तालाब आज भी मौजूद है। झांझरों के किसी पूर्वज शासक का नाम झांझो राव जी था। उन्हीं के नाम पर इस तालाब का नाम झांझोलाव प्रसिद्ध हुआ। लाव शब्द का राव अपभ्रंश है।
वर्तमान गाँव के पश्चिम में रायमलजी की पुत्री पेमल का बाग व बावड़ी बताया जाता है। यह अब काल के गाल में समा गया है। तेजाजी का मंदिर पुराने गाँव के स्थान पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि तेजाजी की ये मूर्तियाँ उनके श्वसुर के परिण्डे में स्थापित थी। तेजाजी के इस मंदिर के पुजारी पहले रामकरण और रामदेव कुम्हार थे, परंतु अब मेहराम जाजड़ा गोत्र के जाट इसके पुजारी हैं।
[पृष्ठ-238]: उस जमाने में तेजाजी के श्वसुर रायमल जी मुहता यहाँ के गणपति थे। शहर पनेर उनके गणराज्य की राजधानी थी। यहाँ के निकटवृति गाँव थल, सीणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा रूपनगढ, जूणदा गांवों के शिलालेख के आधार पर स्पषट है कि यहाँ की केंद्रीय सत्ता चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंद देव तृतीय के हाथों में थी। उस समय चौहनों की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) स्थानांतरित हो गई थी। ग्राम थल के उत्तर-पश्चिम में स्थित शिलालेख पर विक्रम संवत 1086 (1029 ई.) व गोविन्दराज स्पष्ट पढ़ा जा सकता है। पनेर के दक्षिण पूर्व में स्थित रूपनगढ कस्बा उस समय बाबेरा नाम से प्रसिद्ध था। बाद में यह पनेर गाँव लंगाओं के अधिकार में आ गया था।
वर्तमान पनेर शहर के पश्चिम में गुसाईंजी का बागड़ा है एवं गांवाई नाड़ी पर एक प्राचीन छतरी विद्यमान है। जिसके पत्थरों पर लिखे अक्षरों सहित पत्थर घिस गए हैं। यह वही छतरी है जिसके विषय में तेजाजी के लोकगीत में आता है कि बड़कों की छतरी में बांधी पगड़ी अर्थात जब तेजाजी ने नदी पार किया तो उनका श्रंगार पगड़ी आदि अस्त-व्यस्त हो गए थे। तेजाजी ने पुनः अपना बनाव किया था तथा इसी छत्री में अपना पैचा (पगड़ी) संवारा था।
पनेर की दक्षिण पश्चिमी पहाड़ियाँ व उत्तर पश्चिम की पहाड़ियाँ की पश्चिमी ढलान से तथा परबतसर के पश्चिम में स्थित मांडण व मालास गाँव के पहाड़ों से निकलकर नदी खेतों में फैलकर बहती है जो परबतसर के खारिया तालाब के व बंधा के पास दक्षिण से होकर चादर से निकल कर पनेर के दक्षिण से होकर पूर्व की ओर निकल जाती है। ये वही नदी घाटियां हैं जिसने तेजाजी का रास्ता रोका था। लीलण ने तिरछी दिशा में आड़ की तरह तैरते हुये नदी पार किया था तथा तेजा ने जलकुंड मांछला की तरह। यह नदी आज भी अपनी पूर्व स्थिति में मौजूद है।
इस गाँव के इतिहास पुरुष भैरूजी देवन्दा एक प्रसिद्ध नाम है जिसे बादके शासकों द्वारा ताम्रपत्र प्रदान कर गायों को चराने के लिए गौचर भूमि प्रदान की थी।
[पृष्ठ-239]:उस जमाने में भैरू जी देवन्दा ऐसी शख्सियत थी कि परबतसर के मेलों में जाने वाले यात्रियों को भोजन पानी की व्यवस्था तथा बैल-बछड़ों के लिए चारे की व्यवस्था स्वयं के खर्च से करते थे। भैरूजी देवन्दा के पिताजी पिथा जी ने तेजाजी के मंदिर में देवली स्थापित की थी। इसी गाँव के छीतरमल ढेल संस्कृत शिक्षा के विशेषज्ञ हैं तथा इंका शिक्षा जगत में बड़ा नाम है।
वर्तमान पनेर गाँव में लगभग 650 घर आबाद हैं जिनमे जाट, देशवाली (पडियार, सोलंकी) कायमखनी (चौहान) लंगा, साईं , फकीर, लुहार, राजपूत, रेगर, बलाई, बावरी, कुम्हार, ब्राह्मण, वैष्णव, गाड़ोलिया लुहार, बनिया, नाई, खाती, दर्जी, हरिजन, आदि जातियाँ निवास करती हैं।
सती पेमल के शाप के कारण ढोली, माली, गुर्जर व झाँझर गोत्र के जाट इस गाँव में नहीं फलते-फूलते हैं।
तत्समय पनेर के निवासियों ने तेजाजी का साथ नहीं दिया था परंतु आज के सभी पनेर निवासी तेजाजी में बड़ी आस्था रखते हैं।
गायों के लिए मीणों से तेजाजी का युद्ध
मीणों द्वारा गायों का हरण - [पृष्ठ-240]: लाछा, पेमल, तेजाजी की सुख-दुख की बातें खत्म ही नहीं हुई थी कि अपने हरकारे का शोर सुनकर लाछा दौड़कर जाती है। हरकारे ने बताया कि बाड़े से चांग के मीणा गायें हरण कर ले गए हैं। लाछां गुजरी ने तेजाजी को बताया कि मीणा चोर उसकी गायों को चुरा कर ले गए हैं। तेजाजी ने कहा लाछा गाँव के जागीरदार रायमल जी को सूचना कर लारू, ताल, ढ़ोल बजवा। गाँव में आवाज लगवा। सबके साथ मैं भी गायों को छुड़ाकर लाता हूँ। तुम चिंता मत करो। लाछा शहर पनेर के गणपति रायमलजी मुहता के पास जाती है और फरियाद सुनाती है। रायमल जी ने बहाना बनाया। लाछा ढोली के पास जाकर ढ़ोल बजाने के लिए कहती है कि तुम बारहवाँ थाप बजाकर गाँव को सचेत करो। फिर वह गाँव के उन लोगों के पास गई जो गाँव में आवाज लगाकर सूचना देते थे। तभी उसे पता लगा कि तेरी गाय पेमल की माँ के इशारे पर चांग के मीणा ले गए हैं। चांग के मीणा के बदमाश दल का मुखिया कालिया मीणा था, जो पेमल की माँ का धरम भाई था। पेमल की माँ ने ही सबको तेरी सहायता के लिए माना किया है ।
लाछां गुजरी की तेजाजी से गुहार - लाछा ने आकर तेजाजी को सारी हकीकत बताई। अब उनके सिवाय उसका कोई मददगार नहीं। लाछां गुजरी ने तेजाजी से कहा कि आप मेरी सहायता कर अपने क्षत्रिय धर्म की रक्षा करो अन्यथा गायों के बछडे भूखे मर जायेंगे। तेजा ने कहा राजा व भौमिया को शिकायत करो। लाछां ने कहा राजा कहीं गया हुआ है और भौमिया से दुश्मनी है। तेजाजी ने कहा कि पनेर में एक भी मर्द नहीं है जो लड़ाई के लिए चढाई करे। तुम्हारी गायें मैं लाऊंगा।
तेजाजी फिर अपनी लीलण घोड़ी पर सवार हुए। पंचों हथियार साथ लिए। लाछा व पेमल ने कहा कि आप अकेले 350 से युद्ध कैसे कर पाएंगे। गायें गई तो गई, फिर पाल लेंगे। पेमल ने घोडी की लगाम पकड़ कर कहा कि मैं साथ चलूंगी। लड़ाई में घोड़ी थाम लूंगी। तेजा ने कहा पेमल जिद मत करो। मैं क्षत्रिय धर्म का पालक हूँ। मैं अकेला ही मीणों को हराकर गायें वापिस ले आऊंगा।
पेमल की विनती – [पृष्ठ-241]: पेमल ने कहा कि पतिदेव आप अकेले वो 350, अंधेरी काली रात है। बिजली चमक रही है और वर्षा हो रही है। आगे जंगल और पहाड़ है। क्या होगा? पेमल अन्दर ही अन्दर कांप भी रही थी और बुदबुदाने लगी -
- डूंगर पर डांडी नहीं, मेहां अँधेरी रात
- पग-पग कालो नाग, मति सिधारो नाथ
अर्थात पहाड़ों पर रास्ता नहीं है, वर्षात की अँधेरी रात है और पग-पग पर काला नाग दुश्मन है ऐसी स्थिति में मत जाओ।
तेजाजी धर्म के पक्के थे सो पेमल की बात नहीं मानी और पेमल से विदाई ली। तेजाजी ने कहा पेमल तू अब अपने पिता के घर लोट जा। तेजाजी के आदेश के सामने पेमल चुप हो गई। पेमल ने कहा मैं तेजा की अर्धांगिनी इतनी कायर दिल नहीं कि अपने पति के क्षत्रिय धर्म पालन में अड़ंगा लगाऊँ।
गायों को छुड़ाने की तैयारी - [पृष्ट-242]: तेजाजी कमर में ढाल-तलवार कसते हैं। कंधे पर धनुष धारण करते हैं। पीठ पर तूणीर बांधते हैं। पेमल ने तेजाजी को भाला सौंपा। तेजाजी लीलण पर जीन, लाला ऊबटा कसते हैं। केसरिया जामा पहनते हैं। सिर पर पचरंग पाग और और उस पर कलंग लगाते हैं। लीलण की पीठ पर सवार होते हैं। लाछा तिलक लगाती है। पेमल आरती उतारती है तथा जाने की आज्ञा प्रदान करती है।
- शूर न पूछे टिप्पणो, शुगन न पूछे शूर।
- मरणा नूं मंगल गिणै, समर चढ़े मुख नूर।।
तेजाजी का गायें छुड़ाने हेतु प्रस्थान – तेजाजी घोर अंधेरी रात में गायें छुड़ाने चल पड़ते हैं। आसमानी बिजली की चमक के सहारे गायों के खुर चिन्हों को देखते हुये मीणों का पीछा करते हैं। वर्तमान सुरसुरा नामक स्थान पर उस समय घना जंगल था। वहां बासग नाग ने एक लीला रची। बासगनाग साँप के रूप में आग की चपेट में आ जाते हैं। नाग बचने के लिए छटपटा रहे थे। तेजाजी ने भाले की नोक से बासगनाग को अग्नि से बाहर निकाल दिया। बासगनाग क्रोधित हुये और कहा कि मैं मोक्ष गति को प्राप्त करने जा रहा था
[पृष्ठ-243]:तेजा तूने मेरी मोक्ष गति को अड़ंगा लगाया। अतः मैं तुझे डसूँगा। तेजाजी ने विश्वास दिलाया कि मैं धर्म से बंधा हूँ। संकट में पड़े प्राणी को बचाना मेरा धर्म था। पर नाग नहीं माना। तेजा ने कहा मैं धर्म के कर्म से लाछा की गायें बचाने जा रहा हूँ। गायें लाने के पश्चात् वापस आऊंगा। मेरा वचन पूरा नहीं करुँ तो समझना मैंने मेरी माँ का दूध नहीं पिया है।
नागराज ने कहा कि तेरी शाख कौन भरेगा? तेजाजी ने कहा इस जंगल में मेरी शाख चाँद, सूरज तथा खेजड़ी का वृक्ष भरेगा। तब नागराज ने अपना असली रूप प्रकट किया। तेजा ने नागराज को प्रणाम किया और कहा कि गौमाता को छुड़ाकर जल्दी लौट रहा हूँ। नागराज ने प्रसन्न होकर तेजाजी को आशीर्वाद दिया और कहा तेजा तेरी जीत होगी।
[पृष्ठ-244-248]: वहां से तेजाजी ने भाला, धनुष, तीर लेकर लीलण पर चढ़ कर चोरों का पीछा किया. सुरसुरा से 15-16 किमी दूर मंडावरिया की पहाडियों में मीणा दिखाई दिए। तेजाजी ने मीणों को ललकारा। तेजाजी ने बाणों से हमला किया। घनघोर लड़ाई छिड़ गई। तेजाजी मीणों के बीच पहुंचे। तेजाजी ने मुख्य शस्त्र बीजल सार भाला संभाला। भाले के एक-एक वार से सात-सात का कलेजा एक साथ छलनी होने लगा। यह अपने किस्म की अनोखी और अभूतपूर्व लड़ाई थी। एक तरफ 350 यौद्धा तो सामने केवल अकेले तेजाजी। भाले से मार-मार कर तेजा ने मीणों के छक्के छुड़ा दिये। मेर-मीणों में से बहुत संख्या में मारे गए तथा बचे लोग प्राण बचाकर भाग खड़े हुये। इस लड़ाई में तेजा के साथ केवल घोड़ी लीलण थी। लीलण ने भी अपनी टापों से मीणों के चिथड़े बिखेर दिये। कहते हैं कुछ देर में गौमाताएँ भी तेजा को पहचान गई, उन्होने भी सींगों से हमला शुरू कर दिया। मीने ढेर हो गए, कुछ भाग गए और कुछ मीणों ने आत्मसमर्पण कर दिया। तेजा का पूरा शारीर घायल हो गया और तेजा सारी गायों को लेकर पनेर पहुंचे और लाछां गूजरी को सौंप दी। लाछां गूजरी को सारी गायें दिखाई दी पर गायों के समूह के मालिक काणां केरडा नहीं दिखा। मीणा लोग उसे ले भागे थे। काणा केरडा उत्तम नागौरी नस्ल थी। काणां केरडा नहीं पाकर लाछा उदास हो गई। तेजा के लिए यह अपनी मूंछ का सवाल था। तेजाजी वापस गए।
[पृष्ठ-248]: मंडावरीय की पहाड़ी की तलहटी के युद्ध स्थल से पनेर की दूरी 30-32 किमी पड़ती है। इतनी ही तेजा को वापस युद्ध स्थल पर जाने में हुई। अतः 50-60 किमी के अंतराल के कारण मेर-मीणा बछड़े को लेकर नरवर की घाटी से होकर वर्तमान पाली सीमांतर्गत ब्यावर से 10 किमी पश्चिम में पहाड़ियों में बसे अपने मूल गाँव चांग- चितार की ओर निकल गए। तेजा ने पद चिन्हों के द्वारा मीणों का पीछा करते हुये नरवर की घाटी में चलते हुये मीणा को लड़ने की चुनौती दी। मीणा ने बछड़े को ले जाने के लिए यहाँ एक रणनीति अपनाई। एक गुट तेजा से भीड़ गया एवं दूसरा गुट बछड़े को लेकर ईडदेव सोलंकी के भुवाल नगर के पास से होकर चांग- चितार की ओर निकल गया। नरवर की घाटी में भिड़े गुट का खात्मा कर आगे बढ़ा तो तेजा को जनता द्वारा पता चला कि मीणा मेर चांग- चितार गाँव के हैं और बछड़े को लेकर चांग के पास पहुँचने वाले होंगे। तेजा ने लीलण को तेज चलने का इसारा किया। चांग गाँव पहुँचने से पहले 1.5 किमी पहले ही तेजा ने मीणा को ललकार दिया। पहाड़ियों के बीच ऊबड़-खाबड़ स्थान एवं भयंकर जंगल में मीणा तथा तेजा के बीच फिर युद्ध छिड़ गया। मीणा का गाँव चांग नजदीक होने के कारण उनके वंश के कुछ और लोग मीणा की मदद के लिए आ गए। यहाँ पर ओर भी भयंकर लड़ाई हुई। इसमें एक-एक करके सारे मीणों के कलेजे तेजा के भाला ने छलनी कर दिये। घोड़ी की लगाम अपने दाँत से पकड़ी और एक हाथ में भाला तथा दूसरे हाथ में तलवार लेकर असंख्य मीणों को मार दिया। मीणों की भूमि में मीणों पर इस प्रकार की मार पड़ी कि वे थर्रा उठे। अपने प्राणों की भीख मांगते हुये बच कर भाग खड़े हुये। इस लड़ाई में तेजा अत्यधिक घायल हो गए। तेजा ने लीलण को इसारा किया। बछड़े को साथ लेकर तेजा उन्हीं खोजों वापस रंगबाड़ी पनेर आ गए।
प्रथम समर भूमि चांग – नष्ट हो चुके इस चांग गाँव की भूमि तेजाजी और लाछां की गायें हरण करने वाले मेर-मीणों की समर भूमि है।
[पृष्ट-249]: युद्ध स्थल की यह भूमि अजमेर की किशनगढ़ तहसील के गाँव मंडावरिया की पहाड़ी की उत्तर-पूर्वी तलहटी में स्थित है।
मंडावरिया - यह मंडावरिया गाँव किशनगढ़ से से 3-4 किमी पूर्व में अजमेर-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग-8 के उत्तरी दिशा में आबाद है। इस गाँव से सटकर पूर्व दिशा में करीब 2.5 किमी उत्तर-दक्षिण दिशा की तरफ फैली पहाड़ी है। पहाड़ी की चौड़ाई आधा किमी के लगभग है। इस पहाड़ी के पूर्व दिशा में लगभग 2.5 किमी की दूरी पर तोलामाल गाँव बसा है। उससे 2 किमी पूर्व चुंदड़ी गाँव बसा है। इस पहाड़ी की उत्तर दिशा में 2-3 किमी दूरी पर फलौदा गाँव है। तथा 6-7 किमी की दूरी पर तिलोनिया गाँव है। पहाड़ी के उत्तरी-पूर्वी छोर की तलहटी में पहाड़ी से लेकर करीब 4 किमी पूर्व तक तथा 2 किमी चौड़ाई में गायें छुड़ाने के लिए तेजाजी का मेर-मीणा लोगों के साथ मूसलाधार वर्षा तथा तूफानी काली रात में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध के अवशेष यहाँ के चप्पे-चप्पे में विद्यमान हैं। पहाड़ी के उत्तरी-पूर्वी तलहटी के छोर के करीब 1 किमी नीचे सेवड़िया गोत्र के तेज़ूराम जाट का कुआ है जो तोलामाल गाँव की सीमा में पड़ता है। इस कुआ के इर्द-गिर्द इस युद्ध से संबन्धित हल्के लाल गुलाबी रंग के पत्थर के लड़ाई में मारे गए लोगों के देवले मौजूद है। गाँव के पुराने लोग बताते हैं कि वर्षों पहले यहाँ बहुत संख्या में मूर्तियाँ देवले थे परंतु आज की स्थिति में 3 देवले सही हालत में सुरक्षित बचे हुये हैं।
[पृष्ठ-250]: ग्रामीणों द्वारा ये देवले तोड़ दिये गए हैं जिनके कुछ अवशेष सरक्षित देवले के पास छोटे टीले में दबे पड़े हैं। बचे हुये देवलों के ऊपर देवनागरी लिपि में खुदाई की हुई है किन्तु पुराने और घिसे होने के कारण पढे नहीं जा सकते। आधे अधूरे अक्षर जो पढ़ने में आ रहे है वे इस प्रकार हैं – रण, पग, रण संग्राम ला, स, सा, बदी महिना, बा, घ, रा, 1048 अथवा 1040 जैसे अंक पढे जा सके हैं लेकिन तारतम्य नहीं बैठ पाया। हमारे खोजी दल ने उस स्थान पर तीन बार खोज की तब सेवड़िया परिवार ने बताया कि कुछ टूटी हुई मूर्तियाँ कुए की खुदाई में भी निकली हैं।
कुए से पूर्व दिशा में चूंदड़ी गाँव के पलटी में कैर की झाड़ी में एक तेजाजी का स्थान है। जिसके बारे में दृढ़ मान्यता है कि इस स्थान पर लड़ते हुये तेजाजी का घुटना टिका था जिसे संभाल कर लीलण ने वापस अपनी पीठ पर ले लिया था।
पहाड़ी के नीचे पत्थरों का बना एक बाड़ा है जिनके अब अवशेष मात्र बचे हैं। उसे वहाँ के लोग मेर मीनों का बाड़ा कहते हैं।
[पृष्ठ-251]: उस बाड़ा से नीचे उजड़े हुये गाँव के अवशेष रूप में मोटी-मोटी ठीकरियाँ व जमीन से राख़ निकलती है। श्रुति परंपरा के मर्मज्ञ भारमल जी चौधरी आदि का कहना है कि यही वह मीनों मेरों का चांग गाँव था जो तेजाजी की लड़ाई में नष्ट हो चुका था। इस चांग गाँव के अवशेष कुछ लंबाई चौड़ाई में फैले हैं। पहाड़ी में ऊपर की ओर मीनों का भैरू जी का स्थान है, जो अब उजड़ गया है।
इस उजड़े हुये गाँव की तरफ से पहाड़ी पर चढ़ने पर पहाड़ी के अंदर की तरफ एक दर्रा दिखाई देता है जो इन गायों को हरण कर छिपाने के लिए काफी उपयोगी रहता था। पहाड़ी की पश्चिम दिशा में थोड़ा उत्तर दिशा की ओर बढ़कर जरूर इस दर्रे का रास्ता खुलता है लेकिन पूर्व की ओर देखने में यह दर्रा काफी बीहड़ और दिलचस्प दिखाई देता है। हमने तेजाजी के युद्ध संबंधी अवशेषों को ढूँढने के लिए इस पूरे युद्ध क्षेत्र का एवं पहाड़ी क्षेत्र का चप्पा-चप्पा ढूंढा है। यहाँ पर यह गाँव पशुधन हरण हेतु स्थाईरूप से बसा रखा था। मूल चांग गाँव पाली जिले के करणा जी की डांग में था।
गायें छुड़ाकर पनेर प्रस्थान – [पृष्ठ-251]: झगड़ा जीतकर तेजाजी गायों को लेकर चले। गायें तेजाजी को चारों ओर से घेरकर चलने लगी। पनेर शहर पहुँच कर रंग बाड़ी बास में तेजाजी ने लाछा को एक-एक गाय संभलाई।
- गिण गिण गाय संभालो लाछा गुर्जर ए ।
- दूधड़लो पिलाओ बालक बाछड़ां॥
गायें संभलाने के दौरान लाछा से पता चलता है कि गायों का मांझी काणा केरड़ा, जो सूरज की छाप वाला सांड बनने वाला था उसे मीणा ले गए हैं। इस सांड के बिना दुधारू और सुंदर स्वस्थ गायों की नस्ल समाप्त हो जाएगी। काणा केरड़ा न आने से तेजाजी ने इसे अपना अधूरा धर्म पालन समझा। तेजाजी के लिए नाक का सवाल भी पैदा हो गया। तेजाजी को अपनी यह जीत जीत खंडित सी लगी। तेजा ने कहा मुझे तो वैसे ही अब अपने लोक जाना है क्योंकि मेरा समय पूरा हो गया है। बासगनाग को वचन दे आया हूँ तो धर्म का काम अधूरा क्यों छोड़ूँ। केरडा को छुड़ाकर लाना ही होगा। तेजाजी ने लीलण को वापस उसी दिशा में मोड दी जिस दिशा में मीणा लोग भागे थे।
नरवर घाटी – [पृष्ठ-253]: तेजाजी ने मीणों का पीछा किया। गायों को लेकर तेजाजी 30-32 किमी दूर पनेर तक आए। और इतनी ही दूर तक वापस आए तब तक मीणा टेढ़ी-मेढ़ी चाल चलते हुये नरवर की घाटी तक पहुँच गए थे । अब बारिस रुक चुकी थी। सुबह का समय हो गया था। वर्षा से गीली मिट्टी में गायों के पद चिन्ह के आधार पर नरवर घाटी तक तेजाजी पहुँच गए। वहाँ के प्रत्यक्ष दर्शी लोगों ने बताया कि मीणा नरवर घाटी पार करने वाले हैं। तेजाजी की घोड़ी लीलण हवा की तरह उड़ती थी। तेजाजी ने नरवर घाटी में मीणों को जा ललकारा। यहाँ मीणों ने एक चालाकी अपनाई। शेष बचे मीणों में से आधे तेजाजी से लुका-छिपी, झपट्टामार संघर्ष करने लगे तथा आधे केरडा को लेकर चांग की तरफ निकल लिए। घाटी स्थित सारे मीणों को परास्त करने के बाद तेजाजी पद चिन्हों के आधार पर आगे बढ़े।
चांग के लीलाखुर न्हालसा में केरडा हेतु लड़ाई - मीणा केरडा को चांग के पलसे तक ले भागने में सफल हो गए। चांग गाँव से करीब 1.5 किमी उत्तर की तरफ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी मंगरे में जिस स्थान का नाम नीलाखुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाला, वहाँ चट्टानों पर लीलण के खुरों के चिन्ह बने हुये हैं। वहाँ झरना भी फूटता है। उस जगह को वहाँ के लोग पवित्र मानते हैं। झरने में स्त्रियाँ अपने पैर तथा कपड़े नहीं धोती है) वहाँ मीणों के साथ तेजाजी की दूसरी लड़ाई होती है। मीणों का चांग गाँव निकट होने से वे भी लड़ाई में शामिल हो जाते हैं। अब मीणों की संख्या 750 हो जाती है।
लीलण हवा से बातें करती है। तेजाजी का बीजल सार भाला, बिजली की गति से मीणों पर वार करता है। यहाँ भी मीणों की हार होती है। मरे सो मरे बाकी सिर पर पैर रख कर भाग जाते हैं। तेजाजी के भालों की गति तथा भलकार के कारण 750 की संख्या होने के बावजूद तेजाजी के निकट नहीं फटक पाते हैं किन्तु बाणों की बोछार करके तेजाजी को अत्यधिक घायल कर देते हैं।
द्वितीय समर भूमि चांग-चितार जिला पाली – [पृष्ठ-254]: यह चांग गाँव ब्यावर से 10 किमी पश्चिम में पहाड़ियों के बीच स्थित है। ब्यावर में चांग गेट का नाम इसी गाँव के नाम पर पड़ा है। यह गाँव 1500-2000 वर्ष पुराना है। गाँव के सरपंच कालूभाई काठात व सुवाभाई काठात, शकूर काठात व बीरदा भाई काठात के अनुसार सर्वप्रथम यहाँ चंगेला गुर्जर जाति रहती थी। इसलिए इस गाँव का नाम चांग पड़ा। आज से करीब 1300 वर्ष पहले मीणा जाति के लोगों ने गुर्जरों को यहाँ से मार भगाया और स्वयं यहाँ बस गए। आज से 700 वर्ष पहले यहाँ मेहरात आकार बस गए और मीणों को मार भगाया। सरपंच कालूभाई ने बताया कि अजमेर के फ़ाईसागर रोड स्थित अजयसर निवासी मोहनदादा भाट की पोथी में उक्त बातें लिखी हैं। मेरा जी के नाम से मेहरात जाति बनी। मेरा जी यानि मेरू (मेर, पहाड़ियाँ के निवासी) मेरा जी के काठाजी, गोड़ा जी दो लड़के थे। वैसे काठाजी व गोड़ा जी उनकी पदवी थी। काठाजी का मूल नाम हर राज था व गौड़ाजी का मूल नाम बलराज था। काठाजी की औलाद काठात कहलाई व गौड़ा जी की औलाद गौड़ा कहलाई। ऐतिहासिक कारणों से काठात हिन्दू व मुस्लिम दोनों में पाए जाते हैं। मूलतः ये चौहान वंशी हैं। मेर अब रावत कहलाने लगे। चौहान नाडोल से आकर इस इलाके में बस गए। पहले पूरा मगरा गुर्जरों का था। यह चांग गाँव सात राजस्व गवों की पंचायत है। पंचायत में करीब 1500 घर हैं। अकेले चांग गाँव में 200 घर आबाद हैं। 150 काठात 10 रावत 10 साईं व भाट , बनिया, सरगरा, कुम्हार, साईं, जांगिड़, मेर, मेहरात जाति के हैं।
[पृष्ठ-255]: मेर, मेहरात जाति की मूल राजधानी दिवेर थी जो इस समय राजसमंद जिले में पड़ता है। यह मेर जाति कभी भी किसी के अधीन नहीं रही थी। यह चांग गाँव पाली के रायपुर तहसील में पड़ता है जो रायपुर से 40 किमी दूर स्थित है। चांग गाँव से उत्तर की ओर करीब 1.5 किमी पहाड़ियों के बीच तेजाजी और मीणा के बेच भिड़ंत हुई थी। ग्राम वासियों ने उस जगह का नाम नीलखुर न्हालसा बताया जिसका अर्थ है लीलण के खुर का नाला। वहाँ एक चट्टान पर लीलण के खुर के निशान हैं। ऐसा गाँव के लोग मानते हैं। इस स्थान पर पानी का झरना बहता है लोग इसको पवित्र मानती हैं और औरतें यहाँ पैर या कपड़े नहीं धोती हैं। तेजाजी भी चौहान वंशी होने के कारण यहाँ के काठात लोग तेजाजी में गहरी आस्था रखते हैं। सुवाभाई काठात तेजाजी व देवनारायन की सेवा करता है। नीलाखुर न्हालसा का स्थान हमें पड़ौसी गाँव सालकोट के बिरदा भाई काठात ने हमारे साथ जाकर दिखाया।
[पृष्ठ-256]: काफी खोज खबर के बाद तेजाजी की मीणों के साथ हुई लड़ाई के स्थानों की भौगोलिक स्थिति के आधार पर पता चला कि तेजाजी की लड़ाई चीता वंशी मेर मीणों के साथ हुई थी।
पृष्ठ-257]: आज से सौ वर्ष पूर्व लिखी गई रमेश चंद्र गुणार्थी की पुस्तक 'राजस्थानी जतियों की खोज' में उन्होने तेजाजी के साथ मेरों की लड़ाई बताई है। मेर मीणा एक ही हैं। “मेरवाड़ा के मेर और मीणा “ नामक पुस्तक के लेखक डॉ. प्रह्लाद मीणा दौसा के अनुसार लाछा की गायें हरण करने वाले लोग चांग के चीता वंशी मेर मीणा थे।
डॉ. प्रह्लाद मीणा ने चीता वंशी मेर मीणा की वंशावली बताई है : पृथ्वीराज चौहान से कई पीढ़ी पहले कोई अन्य पृथ्वीराज तथा प्रतिपथ नामक दो भाई थे। पृथ्वीराज के जोधा लाखन हुये, जोधा लाखन के अनल और अनूप हुये। अनूप की उपाधि बरड़ हुई तथा अनल की उपाधि चीता थी। अनल की 11 वीं पीढ़ी में बलराज चीता हुये, उनके खेता राणा तथा बरगा राणा दो पुत्र हुये। खेता राणा के 24 पुत्र हुये। भीमा, रामा, काला, जेता, घरू, नगीय आदि।
बलराज चीता चांग का रहने वाला था। बेराठगढ़ के शासक महेंद्र भील की पुत्री सखण दे का विवाह बलराज चीता के साथ हुआ। पुत्री ने हथलेवा में बैराठगढ़ (बदनोर) मांग लिया। अतः बलराज चीता बैराठगढ़ का शासक हो गया। बलराज चीता के पुत्र खेता राणा ने अपने पिता के जीवन काल में ही बगड़ी (पाली जिला) में राज्य स्थापित किया। इसका साक्षी बगड़ी के देवी मंदिर में लगे शिलालेख में मौजूद हैं, जिस पर विक्रम संवत 1020 (963 ई.) लिखा है। चांग भी एक रियासत थी।
[पृष्ठ-258]:मीन, मेर, मीणा, मेव, भील सब मूल रूप से एक ही वंश से संबन्धित थे। शायद चांग के चीता मीणा अब मीणा वंश में नहीं हैं। वे अन्य वंशों में परिवर्तित हो गए। चीता, मेरात, काठात भी उस पुराने मेर वंश के वंशज हैं। इनके पूर्वज चौहान थे। मजेदार बात यह भी है कि तेजाजी, लाछा, मीणा, बालू नाग सभी नागवंश व चौहान खाँप से सम्बद्ध थे।
केरड़ा (बछड़ा) छुड़ाकर पुनः पनेर प्रस्थान – तेजाजी युद्ध जीत कर बछड़े को लेकर नरवर की घाटी उसी रास्ते से पार करते हैं, जिस रास्ते से आए थे। परंतु आगे के रास्ते में थोड़ा बदलाव करते हुये सीधे पनेर की ओर चल पड़ते हैं। पनेर के नजदीक नुवा गाँव में बने तेजाजी के मंदिर के स्थान पर उस जमाने में एक कैर का पेड़ था। घायल तेजाजी ने कुछ देर के लिए उसी कैर के नीचे विश्राम किया था। वहाँ पर एक नुवाद गात्री जाट ग्वाले से उन्होने पानी पिया था। फिर तुरंत पनेर की ओर प्रस्थान कर गए। उस ग्वाला ने उसी कैर के नीचे तेजाजी की स्मृति में थान बना दिया था। उस स्थान के पास ही बाद में नुवा नामक ग्राम बसा। ग्राम वासियों ने थान के स्थान पर अब भव्य तेजाजी मंदिर का निर्माण करवा दिया है।
पृष्ठ-259]: पनेर पहुँच कर केरडा लाछा को संभलाते हैं। लाछा तेजाजी के घावों पर मरहम पट्टी करना चाहती है। किन्तु तब तेजाजी लाछा को नागदेव की बाम्बी पर जाने तथा नागदेव के साथ हुये कोलवचन बाबत बताते हैं। लाछा ने तेजाजी को रोकने का अनुनय-विनय किया परंतु तेजाजी ने वचन की मर्यादा भंग न करने की कहकर नागदेव की बाम्बी चल पड़े। लाछा ने महसूस किया कि तेजाजी एक निर्मोही यौद्धा हैं।
- ओ थारो केरड़ो संभालो लाछां साली ए।
- गायां पर आंको अब सूरज साण्डड़ो।।
लाछा व लाछा की रंगबाड़ी
[पृष्ठ-260]: लाछा पनेर के रंगबाड़ी बास में रहती थी। अब उस जगह का नाम रंगबाड़ी बांसड़ा है जो वर्तमान पनेर से 3 किमी पूर्व में पड़ता है। वहाँ रंगबाड़ी का कुवा पर लाछा द्वारा स्थापित रंगबाड़ी भैरूजी आज भी विद्यमान है। वहाँ खुदाई में पुराने गाँव के अवशेष मिलते हैं। लाछा चौहान गोत्र की गुर्जर थी। लाछा के पति नंदू गुर्जर क गोत्र तंवर था। नंदू गुर्जर सीधा सादा इंसान था। वहाँ की कर्ता-धर्ता लाछा ही थी। लाछा के नाम से ही सारा कार्य व्यवहार चलता था। लाछा के पास बड़ी संख्या में गायें थे और वह उस जमाने की प्रभावशाली महिला थी।
[पृष्ठ-261]: रंगबाड़ी – तेजाजी के जमाने में रंगबाड़ी शहर पनेर का एक बास था। यह स्थान वर्तमान पनेर से 2 किमी पूर्व में है। रूपनगढ़ कस्बे से 2-3 किमी उत्तर में स्थित है। इस रंगबाड़ी के स्थान से उत्तर में 3 किमी दूर जाजोता गाँव बसा है। उस समय रंगबाड़ी में लाछा अपने पति नंदू गुर्जर के साथ रहती थी। रंगबाड़ी के दक्षिण दिशा में 3 किमी दूरी पर उस समय सुरसुरा का जंगल पड़ता था। यहाँ पर एक सुंदर काबरिया पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पूर्व में, जहां वर्तमान हनुमानगढ़ मेगा-हाईवे गुजरता है, के पास ही प्राचीन लाछा बावड़ी है। इस वन में लाछा की गायें चरने जाती थी। लाछा बावड़ी का निर्माण गायों के पानी के लिए करवाया था।
[पृष्ठ-262]: उस समय यहाँ निर्जन वन था और यह बावड़ी पशु धन और राहगीरों के लिए पानी का एक मात्र साधन था। यह उस समय से ही लाछा बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। लाछा बावड़ी के पास भव्य छतरियाँ बनी हुई हैं। वहाँ एक शिलालेख पर खर्च का विवरण दिया है जिस पर लाछा का नाम भी लिखा है। शिलालेख लाछा कालीन नहीं लगता, वह बाद में किसी के द्वारा लगाया लगता है।
तत्कालीन रंगबाड़ी के स्थान पर आज एक छोटा सा गाँव रंगबाड़ी बासड़ा आबाद है। यहाँ 50-60 घर हैं। यहाँ एक प्राचीन मंदिर है। इस गाँव के पास से नदी निकलती है। नदी के पूर्व दिशा में रंगबाड़ी का कुआ है तथा इस कुवे पर लाछा द्वारा प्रतिष्ठित रंगबाड़ी के भैरूजी का चबूतरा एक पेड़ों के झुरमुट में मौजूद है। लाछा की यह रंगबाड़ी (कुवा) आज तानाण के बेटे घीसा मेघवाल के अधिकार में है।
तेजाजी की वीरगति
तेजाजी की वचन बद्धता: [पृष्ठ-263]: काबरिया पहाड़ी से 2 किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में घनघोर जंगल के बीच नाड़ा की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बासग नाग की बाम्बी पर पहुँच कर नागदेव का आव्हान करते हैं।
[पृष्ठ-264]: बासग नाग अपनी बाम्बी से बाहर आते हैं और बोलते हैं कि तेजा मैं तेरे वचन निभाने के प्रण से बहुत प्रसन्न हूँ। तुम जीते मैं हारा। तेजाजी ने अपना भाला जमीन पर लगाया। लीलण ने एक पैर ऊपर उठाया। नाग देव ने लीलण के पैर के लपेटा लगाते हुये ऊपर आकर भाला का सहारा लिया। तेजाजी ने अपनी जीभ बाहर निकाली। नागदेव ने बिना घायल बचे एक मात्र अंग जीभ पर डस लिया।
[पृष्ठ-265]: नाग देव ने आशीर्वाद दिया कि तेजा मैं तुझे वरदान देता हूँ कि तूँ कलियुग का कुलदेवता बनेगा। घर-घर, गाँव-गाँव तेरी देवली पूजी जावेगी, तेरा नाम लेकर तांत बांधने से काला नाग का जहर उतार जाएगा, बाला रोग (नारू) ठीक हो जाएगा, पशुओं के रोग समाप्त हो जाएंगे। तेरा नाम लेकर हल जोतने पर खूब अन्न-धन्न की वर्षा होगी। तेरे नाम की जागती जोत जलाने से गाँव में कोई रोग प्रव्श नहीं करेगा। तेरे वीरगति धाम से कोई जागती जोत लेजकर तेरा मंदिर बनाएँगे तो वहाँ तेरा वास हो जाएगा। तू कलियुग का अवतारी सच्चा देव कहलाएगा। यही मेरी अमर आशीष है।
[पृष्ठ-265]: तेजाजी के शरीर में विष का असर हुआ। वे निढाल होकर घोड़ी से नीचे गिरने लगे। लीलण की आँखों से आँसू टपकने लगे। आज भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) के तीसरे प्रहर का समय था। वर्षा रुक चुकी थी। पास ही अपनी ऊंटनी चराते आसू देवासी को तेजाजी ने आवाज लगाई। आसू देवासी पास आए तो तेजाजी ने बताया – जो संकट की घड़ी में काम आता है वही अपना होता है। इस घोर जंगल में तूही आज मेरा अपना है। यह मेरा मेंमद मोलिया (साफा के साथ लगाया जाता था) शहर पनेर ले जाकर रायमल जी मुहता की पुत्री और मेरी पत्नी पेमल को दे देना। यहाँ जो तूने देखा है वह ज्यों का त्यों बता देना।
[पृष्ठ-266]: आसू देवासी ऊंटनी पर चढ़कर पनेर की तरफ दौड़ा।
लीलण को सम्बोधन: टप-टप आँसू बहाती लीलण को तेजाजी ने कहा – लीलण ! तूने मेरा हर सुख-दुख में साथ दिया। अब तेरा मेरा विछोह निश्चित है। मेरा एक काम ओर कर देना। मेरी जन्म भूमि खरनाल जा कर अपने नैनों की भाषा में मेरी जननी, मेरी बहिन, मेरी बस्ती को विगत हुई की सूचना दे देना।
लाछा का पेमल के पास जाना – जब तेजाजी लाछा को बासग नाग को दिये वचन का कहकर वापस वन में चले जाते हैं, तब लाछा दौड़कर पेमल के पास जाती है। उसे सारी बात बताती है। इतनी देर में आसू देवासी भी मेंमद मोलिया लेकर आ जाता है। अपनी आँखों देखी सारी घटना बताता है। पेमल सुनकर जमीन पर गिर पड़ती है। पूरी बस्ती में सन्नाटा छा जाता है। समझदार लोगों को अपने द्वारा तेजाजी का साथ नहीं देने का मलाल खटकता है।
[पृष्ठ-267]: अब पेमल की मूर्छा टूटी। पेमल ने रोना बंद कर दिया। अपनी माँ से सत का नारियल मांगा। पेमल की भाभी ने उसको सत का नारियल दिया। लाछा व देवासी के साथ ऊंटनी पर चढ़कर पेमल वन में नागदेव की बाम्बी की ओर चल पड़ी। पूरे जंगल तथा शहर पनेर और तेजाजी के ननिहाल त्योद में सब जगह खबर फ़ैल गई। लोग दौड़कर नागराज की बाम्बी की तरफ चल पड़े। पेमल के पहुँचने तक तेजाजी के कंठ अवरुद्ध हो चले। पेमल ने मूंह पर हाथ फेरा। चरणों में माथा टेका। तेजाजी ने बुदबुदाते हुये कहा पेमल विधाता के लिखे को टाल नहीं सकते। पेमल सबूरी कर।
तेजाजी का दाह संस्कार – आसू देवासी के नेतृत्व में वन के ग्वालों ने चीता चिनाई। पेमल ने तेजाजी को गोद में ले सूर्य नारायण से अरदास की। अग्नि प्रज्वलित हुई। वन के पूरे ग्वाल तेजाजी की पुण्य काल की घड़ी में मौजूद थे। तब तक पनेर और त्योद से भी लोग पहुँच गए थे।
पेमल का श्राप एवं आशीष - [पृष्ठ-268]: पेमल जब चिता पर बैठी तो लीलण घोडी को सन्देश देती है कि सत्य समाचार खरनाल जाकर सबको बतला देना। कहते हैं कि अग्नि स्वतः ही प्रज्वलित हो गई और पेमल सती हो गई।
पेमल ने श्राप दिया – शहर पनेर ने अपने जंवाई तथा मेरे सुहाग की रक्षा नहीं की। पनेर उजड़ जाएगा। माता तू वन की रोजड़ी (मादा नील गाय) होना। भूखी प्यासी भटकना। ढोली ने बारहवां थाप नहीं बजाया। माली ने फूल नहीं चढ़ाये। मेरे पीहर पक्ष झांजर गोत्र व गुर्जरों ने तेजाजी का साथ नहीं दिया अतः ये चारों कुनबे पनेर में कभी नहीं पनपेंगे। मेरे पिता ने पत्नी के दबाव में तेजाजी का साथ नहीं दिया। अतः जंगल में रोझ बन कर भटकना।
पेमल का अमर आशीष – पेमल ने भाई भाभी को फलने फूलने की अमर आशीष दी। लेकिन पनेर छोडने के बाद फलेंगे फूलेंगे। पनेर स्थित झांझर गोत्र को मेरा शाप लग चुका है। लाछा को अमर आशीष दी कि तूने हर संकट में मेरा साथ दिया। तेजाजी के साथ तेरा भी अमर नाम होगा। लीलण को आशीष दी कि तूने तेजाजी का आजीवन साथ दिया। अब देव गति को प्राप्त होना। तेजाजी के साथ तेरा भी नाम अमर रहेगा। आसू देवासी सहित सभी ग्वालों को अमर आशीष दी कि फलना फूलना। तेजा का नाम लेने से ग्वालों तथा पशुओं का दुख दूर हो जाएगा। लोगों ने पूछा कि सती माता तुम्हारी पूजा कब करें तो पेमल ने बताया कि - "भादवा सुदी नवमी की रात्रि जागरण करना और दसमी को तेजाजी के धाम पर उनकी देवली को धौक लगाना, कच्चे दूध का भोग लगाना। इससे मनपसंद कार्य पूर्ण होंगे। यही मेरा अमर आशीष है "
लीलण का खरनाल जाना: [पृष्ठ-269]: लीलण घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई। परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची। खरनाल पहुँचने का समय था भादवा सुदी ग्यारस रविवार विक्रम संवत 1160 (29 अगस्त 1103 ई.)। सीधी मानक चौक में जाकर खड़ी हुई। खरनाल गाँव में खाली पीठ पहुंची तो तेजाजी की भाभी को अनहोनी की शंका हुई। लीलण की शक्ल देख पता लग गया की तेजाजी संसार छोड़ चुके हैं।
तेजाजी की बहिन राजल बेहोश होकर गिर पड़ी, फिर खड़ी हुई और माता-पिता, भाई-भोजाई से अनुमति लेकर माँ से सत का नारियल लिया और खरनाल के पास ही पूर्वी जोहड़ में चिता चिन्वाकर भाई की मौत पर सती हो गई। भाई के पीछे सती होने का यह अनूठा उदहारण है। राजल की सहेली कोयल बाई भी जमीन में समा गई। राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में हैं।
तेजाजी की प्रिय घोड़ी लीलण भी दुःख नहीं झेल सकी और अपना शरीर छोड़ दिया। लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है।
तेजा दशमी: तेजाजी के निधन की तिथि : भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) को तेजा दशमी कहा जाता है।
तेजाजी की विरासत
संदर्भ : श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ): लेखक - संत श्री कान्हाराम, मो: 9460360907, प्रकाशक: श्री वीर तेजाजी शोध संस्थान सुरसुरा, अजमेर, 2015, पृष्ठ 277-282 से साभार।
- श्री वीर तेजाजी : शेषावतार लक्ष्मण जी
- जन्म तिथि : माघ शुक्ला चतुर्दशी, गुरुवार वि.स. 1130, 29 जनवरी 1074 ई.
- पिता : श्री ताहडदेव जी (थिरराज) धौलिया
- माता : श्रीमती रामकुंवरी
- वंश : नागवंश की धौलिया जाट शाखा
- खांप : चौहान
- नख : खींची
- जन्म स्थल : खरनाल (नागौर)
- विवाह : पीले पोतडों में पुष्कर के नाग घाट पर पुष्कर पूर्णिमा वि.स 1131 (1074 ई.)
- पत्नी : पेमल
- ससुर : रायमल जी मुहता, झांझर जाट, पनेर (अजमेर)
- पत्नी के दादा : राव महेशजी
- ससुर का गौत्र : झांझर जाट
- सासु : बोदल दे
- सासु का गौत्र : काला जाट
- ससुराल : शहर पनेर
- तेजाजी के भाई : रुपजी, रणजी, गुणजी, महेश जी, नगजी
- तेजाजी की भाभियाँ : रतनाई, शेरां, रीतां, राजा, माया
- तेजाजी की बहिन : राजल
- बहनोई : नाथाजी सिहाग
- बहिन के ससुर : जोरा जी सिहाग
- बहिन का ससुराल : तबीजी (अजमेर)
- ननिहाल : 1. त्योद व 2. अठ्यासन
- नाना : दुल्हण जी सोढी (ज्याणी)
- परनाना : करसण जी सोढ़ी
- गुरु : 1. गुसांईजी व 2. मंगलनाथ जी
- भक्ति : सालिगराम
- ईष्टदेव : शंकर भगवान
- सेवा : गौमाता
- कर्म : गौचरण, कृषि, युवराज पद दायित्व,
- धर्म: गौरक्षा, न्याय, सत्यवाद
- तीर्थ : पुष्कर
- वीरगति स्थल : सुरसुरा (अजमेर)
- वीरगति तिथि : भादवा सुदी दशमी शनिवार वि. सं. 1160 (28 अगस्त 1103 ई.):तेजा दशमी
- वीरगति का कारण : गौरक्षा दौरान सर्प दंश
- नाग का नाम : बासग नाग
- नाग की बाम्बी स्थल : तेजाजी मंदिर सुरसुरा (अजमेर
- दाह संस्कार स्थल : तेजाजी मंदिर सुरसुरा (अजमेर
- पेमल का सती स्थल : सुरसुरा (अजमेर
- तेजाजी की घोड़ी का नाम : लीलण
- तेजाजी का प्रमुख शस्त्र : भाला
- तेजाजी के सहशस्त्र : ढाल-तलवार, धनुष-बाण, तूणीर
- रणसंग्राम स्थल : मंडावरिया पहाड़ी की तलहटी अजमेर व चांग का लीला खुर न्हालसा करणाजी की डांग (पाली)
- प्रतिपक्षी : चांग के चीता वंशी मेर-मीणा
- मीणा का सरदार : कालिया
- तेजाजी के साथी : पांचू मेघवाल, खेता कुम्हार और जेतराज जाट
- पेमल की सखी : लाछा गुजरी (चौहान)
- लाछा का गाँव : रंगबाड़ी का बास पनेर (अजमेर)
- लाछा का पति : नंदू गुर्जर (Tanwar|तंवर)
- लाछा की निशानी : लाछा बावड़ी, सुरसुरा एवं रंगबाड़ी का कुआ व भैरूजी का स्थान रंगबाड़ी बासड़ा (पनेर)
- लाछां की संपत्ति : गौ माताएं
- वीरगति की निशानी : मेंमद मौलिया एवं नागदेव की बाम्बी
- मेंमद मौलिया वाहक : आसू देवासी
- तेजाजी के दुश्मन : सासु बोदल दे व काला गौत्री बालू नाग
- तेजाजी का खेत : खाबड खेत (खरनाल)
- तेजाजी का तालाब : गैण तालाब (इनाणा व मूडावा के बीच)
- तेजाजी का रास्ता : तेजा पथ
- घाट : मोकल घाट (मालास परबतसर)
- नदी : पनेर की नदी
- तेजाजी का वचन : सत्यवाद
- तेजाजी की मर्यादा : नुगरां की धरती में वासा ना करां
- तेजाजी का व्रत : ब्रह्मचर्य
- सम्बोधन : सत्यवादी वीर तेजाजी
- माता का बोल : तेजा का बायोड़ा मोती निपजे
- तेजाजी के साक्षी (जमानतदार) : चांद, सूरज व खेजडी वृक्ष
- बासग नाग द्वारा वरदान : काला बाला रोग चिकित्सा, घर घर पूजा
- तेजाजी देवता : सर्प विष चिकित्सा, कृषि उपकारक, पशुधन तारक
- पेमल का आशीर्वाद : पूजा से बस्ती नगर रोग निवारण
- पेमल का वरदान : कृषि उपकारक, पशुधन तारक
- तेजाजी की चिकित्सा पद्धति : गौमूत्र, नीमपत्र, काली मिर्च, देशी गाय का घी, देशी गाय के गोबर के कण्डो की भभूत
- तेजाजी का ध्वज : चांद, सूरज, नाग, खेजडी वृक्ष युक्त सफ़ेद वस्त्र
- तेजाजी का भोग : देशी गाय का कच्चा दूध, नारियल, मिश्री
- तेजाजी के जागरण की रात व व्रत : भादवा सुदी नवमी हर वर्ष
- तेजाजी का मेला (निर्वाण तिथि) : भादवा सुदी दशमी हर वर्ष (तेजा दशमी)
- तेजाजी का शकुन : जागती जोत
- तेजाजी का गीत : गाज्यो गाज्यो जेठ आषाढ कुँवर तेजा रे
- तेजाजी के गीत की प्रथम गायिका : लाछां गुर्जरी
- तेजाजी के गीत की पुन: रचना : बींजाराम जोशी
- तेजाजी का शिलोका : पूनमचन्द सिखवाल
- तेजाजी ख्याल : पं. अम्बालाल (नांदला)
- तेजाजी की प्रतिमा: लीलण सवार अश्वारूढ़ 25 वर्षीय युवा सवार, सिर पर सुंदर पगड़ी, कमर से ढाल तलवार, कंधे पर धनुष, पीठ पर तूणीर, हाथ में भाला, लीलण घोड़ी एक पैर ऊपर उठाए, घोड़ी के पैर के लपेटा लगाकर भाला के सहारे जीभ पर डस्ता बासग नाग, घोड़ी के सामने खड़ी सती पेमल
- मुख्य धाम : 1. वीरगति स्थल समाधि धाम - सुरसुरा, अजमेर 2. जन्म स्थल धाम - खरनाल (नागौर)
- बड़वा (राव) - भैरू भाट डेगाना
- मुख्य ग्रंथ : श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ), लेखक - संत श्री कान्हाराम, मो: 9460360907, प्रकाशक: श्री वीर तेजाजी शोध संस्थान सुरसुरा, अजमेर, 2015,
- मुख्य ग्रंथ : लेखक - संत श्री कान्हाराम, मो: 9460360907,
- अन्य ग्रंथ : 1. क्षत्रिय शिरोमणि वीर तेजाजी (लेखक:मनसुख रणवा), 2. तेजाजी गाथा (ले. मदन मीणा, 3. वीर कुँवर तेजाजी लोकगीत संग्रह (ले. पंडित बंशीधर शर्मा), 4. लूर का देवता वीर तेजाजी (ले. डॉ. जयपाल सिंह राठोड़), 5. मर्दुम शुमारी राज मारवाड़ (ले. हरदयाल सिंह), 6. जूंझार तेजा (ले. लज्जाराम शर्मा), 7. वीर तेजा (ले. व्यास सूर्यराज शर्मा), 8. लोक देवता तेजाजी (डॉ महेन्द्र भानावत), 9. अजमेर, नागौर, जोधपुर, गजेटियर, 10. बड़वा (राव) - भैरू भाट डेगाना की पोथी
- मुख्य मेला : सुरसुरा - खरनाल
- लक्खी मेला : ब्यावर (अजमेर)
- बड़े मेले : केकड़ी, सैंदरिया, बुधवाड़ा, पीसगंज, आतरदा, दुगारी आदि
- मेला की मुख्य तिथि : वीरगति तिथि - भादवा सुदी दशमी हर वर्ष
- तेजाजी के दर्शनीय स्थल : सुरसुरा, खरनल, परबतसर, ब्यावर, सेंदरिया, केकड़ी, शाहबाद, आतरदा, बांसी-दुगारी , खजवाना, मूंडवा, तराना (उज्जैन), रोशनाबाद (देवास),उज्जैन
तेजाजी का लोकगीत और गायन
[पृष्ठ-284]: तेजाजी के शहीद होते ही उनके महिमा गीत गाये जाने लगे। सर्वप्रथम लाछा गुर्जरी ने इसे गाया। बाद में घर-घर, गाँव-गाँव तेजाजी की महिमा का गायन आरंभ हो गया। विशेषकर होलिका दहन करते ही तेजाजी का महिमा गीत उसी स्थान पर शुरू हो जाता है। जो तब से अब तक अनवरत रूप से चलता आ रहा है। तेजा लोकगीत किसान, मज़दूर, शिल्पी का तो जैसे राष्ट्रगान ही है। राजस्थान का शायद ही कोई किसान, मज़दू, शिल्पी होगा जिसने कभी न कभी तेजा टेर की एक पंक्ति न गुनगुनाई हो – गाज्यो-गाज्यो जेठ आषाढ़ कुँवर तेजा रे.....
आजकल बड़े आयोजन कर तेजा गायन रात्री जागरण रखा जाने लगा है। मेड़ता के डॉ. अशोक चौधरी तथा नीमड़ी (नागौर) के मधुराम रांडा (वकील) इनमे अगवा हैं।
[पृष्ठ-285]: हरिराम किवाड़ा टोंक (हाल निवासी जयपुर) ने जे. वी. पी. मीडिया ग्रुप द्वारा अखिल भारतीय तेजाजी जयंती समारोह 2015 का भावी आयोजन पिंकसिटी प्रेस क्लब सभागार जयपुर में करवाया।
सुरसुरा तथा आसपास के गांवों में रातभर गायन चलता है। यहाँ बाना गोत्री और घासल गोत्री जाटों के नेतृत्व में जागरण निकाली जाती है। खटीक तथा मेघवाल समाज द्वारा तेजा गायन की समा बंधी जाती है।
[पृष्ठ-286]:तेजाजी के चरित्र को कृतज्ञ लाछा गुजरी ने व्रत पूर्वक एक टांग पर खड़ी होकर सर्वप्रथम 6 माह तक गाया। लाछा के बाद बींजाराम जोशी द्वारा रचित 'तेजाजी की गाथा' (तेजा गायन) तथा पूनम सिखवाल व देवाराम चौधरी द्वारा तेजाजी का शिलोका से आम जन की जुबान पर चढ़ गया। यह तेजा गीत किसानों का राष्ट्रगान बन गया। तेजा-गीत का भादवा सुदी नवमी की रात्री में विशेष महत्व है।
वर्ष 2010 में राजस्थान सरकार ने पुष्कर में अंतर्राष्ट्रीय मेले में तेजा गान को पहली बार एक लोकगीत के रूप में विदेशी पर्यटकों के समक्ष प्रस्तुत किया। इसी वर्ष लंदन के प्रसिद्ध कैम्बरिज यूनिवर्सिटी ने भी तेजा गान को तथा तेजाजी की कथा को विश्व के मौखिक साहित्य में सम्मिलित किया। इसे वी. सी. डी. एवं पुस्तकों के रूप में भी प्रस्तुत किया गया। विश्व विद्यालय की मौखिक साहित्य परियोजना में भारत के केवल दो ही गीत शामिल किए गए हैं, जिनमें एक तेजाजी की लोक गाथा है तथा दूसरी एक केरल की लोक गाथा शामिल है।
[पृष्ठ-287]:तेजा गान की परियोजना का निर्दशन कोटा के मदन मीणा ने किया। मदन मीणा कोटा ने तेजाजी पर सर्वाधिक कार्य किया है। राजस्थान के हर अंचल में गाये जाने वाले तेजाजी के लोकगीत का इनके द्वारा रिकार्ड कर वी. सी. डी. में प्रस्तुत किया गया है। इन्होने बूंदी के दुगारी व ठीकरदा क्षेत्र के कलाकारों द्वारा गाए गए तेजाजी के लोकगीत का संकलन कर “तेजाजी गाथा” नाम से बहुत सुंदर पुस्तक का प्रकाशन करवाया, जिसमें आर्थिक सहायता लंदन कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के ओरल लिटरेचर परियोजना द्वारा विक्टोरिया सिंह के सहयोग से किया गया। । पंडित अम्बा लाल नांदला , पंडित बंशीधर शर्मा किशनगढ़ आदि ने तेजाजी के चरित्र पर लोक गायकी में मारवाड़ी खेल कर रचनाएँ की।
तेजाजी के मेले व दर्शनीय स्थल
- 1. खरनाल (नागौर) - खरनाल तेजाजी का जन्मस्थान था। यहां भादौ सुदी नवमी की रात तेजा को जगायी जाती है। सर्वप्रथम पूजा होती है तत्पशचात मुख्य भोपे में तेजाजी का भाव आता है। भौपे द्वारा समस्त भक्तों को आशीर्वाद दिये जाने के पश्चात जागरण प्रारंभ हो जाता है। (नवमी की रात का जागरण माता पेमल के आशीर्वचनों से जगाई जाती है, जो कि 900 सालों से चली आ रही परंपरा है) खरनाल नवमी रात्र जागरण में पूरे प्रदेश के सिद्धहस्त तेजागायक सम्मिलित होते है। जहां समस्त तेजागायन शैलियों का सुंदर सामंजस्य देखा जा सकता है। इस प्रकार उषाकाल तक तेजागायक भक्तों को तेजाटेर में बंधे रहने को विवश कर देते है। दूसरे दिन तेजा दशमी को मुख्यमेला आयोजित होता है। जिसमें देशप्रदेश के तेजाभक्त दर्शन के लिए पधारते है। पूरा दिन जन्मस्थली खरनाल आस्था के रंग में रंगा रहता है। दोपहर पश्चात गांव के बाहर मुख्य सड़क के नजदीक स्थित मेला मैदान में धर्मसभा का आयोजन किया जाता है। जिसमें सर्वसमाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों व सरकारी महकमे के उच्चाधिकारियों द्वारा तेजाभक्तों को संबोधित किया जाता है। उन्हें वीर तेजाजी के आदर्शों से रूबरू करवाया जाता है व उनके राह पर चलने की सीख दी जाती है।
- 2. सुरसुरा (अजमेर) - बलिदान स्थल सुरसुरा - सुरसुरा (सुर्रा) में भादवा सुदी नवमी को जो जागरण की रात में मेले का नजारा तो और भी भव्य होता है। विभिन्न प्रकार के वाधयंत्रो के द्वारा यहां तेजागायन विश्वभर में अनूठा माना जाता है। खटीक समाज व मेघवाल समाज के लोग इस तेजागायन की अगुवाई करते हैं। बाना गौत्री जाटों व घासल गौत्री जाटों द्वारा ऊंटो पर नगाड़े रख व गाजे बाजे के साथ जो बंदोरी निकाली जाती है वह आपको अन्यत्र कहीं नहीं मिलेगी। गाजे बाजे व नंगाड़ो की थापें इतनी जबरदस्त होती है कि कई कोसों तक इनकी थापें गूंजती है। वर्तमान के खिलोने जिसे डीजे कहा जाता है इनके सामने एक सैंकड भी टिक जाये तो मेरी गारंटी है। इस प्रकार यह भव्य आयोजन रातभर तक अपनी छटा बिखेरता है। मेरवाड़ा का कण कण नवमी की रात तेजाजी को समर्पित है। दूसरे दिन तेजा दशमी को मुख्यमेला आयोजित किया जाता है जिसमें मारवाड़ मेरवाड़ की 36 कौम यहां आकर शीश नवाजती है। गर्भगृह में स्थित वासकदेव, वीर तेजाजी व माता पेमल के लघुमंदिरो में सुखसमृद्धि की मनोकामनाएं मांगती है। (ज्ञात रहे तेजाजी मंदिर सुरसुरा के गर्भगृह में महिलाओं का प्रवेश वर्जित माना जाता है)
- 3. परबतसर (नागौर) - वीर तेजाजी महाराज की स्मृति में तेजा दशमी को भरने वाला प्रदेश का सबसे बड़ा पशु मेला लगता है तथा मंदिर परिसर में पूरे भादौ मेले सा माहौल रहता है।
- परबतसर में एशिया का सबसे बड़ा तेजाजी पशु मेला भरता है। यहाँ बिकने आने वाले पशुओं की अधिकतम संख्या 130000 है तथा उसमें से बिक्री का रिकार्ड 100000 का है। हर वर्ष परबतसर मेले में सारे पशु रात को अचानक खड़े हो जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि रात्रि को तेजाजी अपनी घोड़ी लीलण पर चढ़कर आते हैं और हर साल एक बार मेले में सभी प्राणियों को दर्शाव देते हैं। इस चमत्कारिक घटना के गवाह मेले में जाने वाले बड़े बुजुर्ग व पशु पालक हैं।
- जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को सोते समय तेजाजी का दर्शाव हुआ। दर्शाव में तेजाजी ने राजा से कहा कि दक्षिण में मध्य प्रदेश तक के लोग मेरी पूजा करते हैं लेकिन मारवाड़ में मुझे भूल से चुके हैं. तेजाजी ने वचन दिया कि जहाँ लीलन , खारिया तालाब, में रुकी थी वहां मैं जाऊंगा। राजा ने पूछा, हम चाहते हैं कि आप हमारी धरती पर पधारो। पर आप कोई सबूत दो कि पधार गए हैं। तेजाजी ने दर्शाव में कहा कि परबतसर तालाब के पास जहाँ लीलण खड़ी हुई थी वहां जो खारिया तालाब है उसका पानी मीठा हो जायेगा एवं टीले पर जो हल का जूडा पेड़ के पास लटका है वो हरा हो जायेगा तथा यह खेजडा बनकर हमेशा खांडा खेजड़ा रहेगा। जोधपुर महाराज ने पनेर से तेजाजी की असली जमीन से निकली देवली लानी चाही लेकिन असफल रहे। अंत में तेजाजी ने दर्शाव में कहा कि मैं बिना मूर्ती के ही आ जाऊंगा, तब राजा ने देवली दूसरी लाकर लगाई। राजा जब वहां पधारे हल का जूडा हरा हो गया तथा खारिया तालाब का पानी चमत्कारी ढंग से मीठा हो गया। जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को अपार ख़ुशी हुई और लोक देवता वीर तेजाजी का मंदिर खारिया तालाब की तीर पर बनाया। [2]
- मंदिर से सटाकर पिछवाड़े में में खाड़या खेजडा अब भी खड़ा है। यह आधा सूखा और आधा हारा भरा है। इस मंदिर में तेजाजी की दो प्रतिमाएँ स्थापित हैं। जिन पर संस्कृत भाषा में खुदा है - विक्रमी संवत 1791 (1734-1735 ई) भादों बड़ी 6 शुक्रवार महाराज अभय सिंहके राज में प्रधान भण्डारी विजयराज ने यह तेजाजी की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा की। तब से परबतसर भी तेजाजी का प्रमुख स्थल बन गया है। भादवा की शुक्ल पक्ष में 5 से 15 तक विशाल मेला भर्ता है। [3]
- 4. खाजवाना (नागौर) - खाजवाना में तेजाजी का भव्य मंदिर तथा एक छतरी नुमा चबूतरे पर लीलण पर बाथे हुये तेजाजी की चित्ताकर्षक प्रतिमा स्थापित है। इस स्थान की सादगी व रमणीयता देखते ही बनती है।
- 5. मूंडवा (नागौर) - महिला शिक्षा शोध एवं शिक्षण संस्थान परिसर में तेजाजी की धातु की दर्शनीय व भव्य मूर्ति स्थापित है।
- 6. ब्यावर (अजमेर) - वीर तेजाजी का एकमात्र लक्खी मेला जो तीन दिन तक लगता है। कहा जाता है कि ब्यावर वीर तेजाजी महाराज का प्रथम पूजास्थल है। वर्तमान में इस मेले का आयोजन ब्यावर नगर पालिका द्वारा किया जाता है।
- 7. शाहबाद (बाराँ) - यह बारा जिले में आदिवासी शहरिया क्षेत्र में है। यहाँ तेजाजी का मेला व बिंदोले देखने योगी हैं। शहरिया लोगों का तेजाजी के प्रति समर्पण अनुपम है।
- 8 आंतरदा (बूंदी) – बूंदी के आंतरदा में तेजाजी के प्रति आस्था को लेकर अविश्वनीय घटना घटित होती है। तेजा नवमी के दिन यहाँ के लोग गाजे-बाजे के साथ जंगल में सब से जहरीले वाईपर साँप को निमंत्रण देते हैं। निमंत्रित वाईपर सांप को गाजे-बाजे के साथ दशमी को पूजा के थाल में तेजाजी के मंदिर में लाते हैं। पुजारी इस सांप को हाथ से पकड़कर अपने गले में डालता है तथा पूजा अर्चना के बाद वापस जंगल में छोड़ देता है।
- 9 कोटा – यहाँ तेजाजी का भव्य मंदिर है।
- 10 बांसी-दुगारी (बूंदी) - हड़ौती क्षेत्र में दुगारी तेजाजी का सबसे बड़ा आस्था का केंद्र है। दुगारी का मंदिर 800 साल पुराना है। दुगारी में चौहनों की की हाड़ा शाखा का शासन था। महाराजा से तेजाजी के प्रति भूल से कोई गुनाह हो गया था। कहते हैं कि तेजाजी के कोप से महाराजा को श्राप हो गया कि आपकी सात पीढ़ियों तक कोई संतान नहीं होगी। ऐसा ही हुआ। यहाँ के महाराजा 7 पीढ़ी तक निसंतान रहे। उत्तराधिकारी के लिए दत्तक पुत्र चुनते रहे। आठवीं पीढ़ी में महाराज आर. आस. सिंह के यहाँ वंश चला। लेखक संत कान्हा राम, दुगारी के राम नारायण माली , भंवरजी शर्मा व तेजाजी मंदिर के पुजारी सहित लोगों ने इसकी पुष्टि की और महाराजा आर. आस. सिंह ने भी मदन मीणा के साथ मिलने पर पुष्टि की।
- 11 उज्जैन – हीरा लाल भाकर के प्रयासों से यहाँ बहुत विशाल मंदिर बना है।
तेजाजी का वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा
14. सुरसुरा (अजमेर) – तेजाजी का वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील में किशनगढ़ से हनुमानगढ़ मेगा-हाईवे पर उत्तर दिशा में 16 किमी दूरी पर है। अजमेर से 40 किमी उत्तर-पूर्व दिशा में पड़ता है।
[पृष्ठ-300]: तेजाजी के जमाने में यहाँ घनघोर जंगल था। इसी जंगल में एक नाड़ा की पाल पर खेजड़ी के नीचे नाग देवता की बाम्बी थी। तेजाजी के ननिहाल त्योद से यह 1 किमी दूर से आरंभ होकर 7-8 किमी तक फैला हुआ था। तेजाजी की माँ यहीं नागदेव की पूजा करती थी।
तेजाजी का वीरगति धाम सुरसुरा समतल भूमि में बसा है। पश्चिम में जालया मेडिया पहाड़ी स्थित है। इसके उत्तर-पश्चिम की तरफ अरावली पर्वत श्रेणी की काबरीया पहाड़ी चौमासे में हरयाली से भर जाती है। काबरीया पहाड़ी के पूर्व में कुछ दूरी पर लाछा द्वारा बड़े-बड़े चौकोर पत्थरों से निर्मित अत्यंत सुंदर प्राचीन लाछा बावड़ी बनी हुई है। उसके पास दो सुंदर छतरियाँ हैं। जहां एक बर्फानी बाबा नमक फक्कड़ साधू रहता है।
[पृष्ठ-301]:बावड़ी से सटाकर हनुमानगढ़ मेगा हाईवे निकलता है। सुरसुरा के पूर्व में झुमली टेकरी के पास काफी लंबा चौड़ा गोचर जंगल फैला हुआ है। तेजाजी के समय में यहाँ घना जंगल था। सुरसुरा के पूर्व तथा दक्षिण में दो विशाल तालाब बने हुये हैं। पश्चिम का तालाब नष्ट प्राय हो चुका है। उसी जंगल में नाड़ा की पाल पर स्थित खेजड़ी के नीचे बासक नाग की बाम्बी थी जो आज भी मौजूद है। आज जो सुरसुरा के तीन तरफ जंगल है, वह उसी जंगल के अवशेष हैं। जहां लाछा की गायें चरती थी। यह सुरसुरा उसी नाग की बाम्बी के पास बसा हुआ है।
तेजाजी के देवगति पाने के बाद इसी सुनसान जंगल से एक बार सूर्रा नाम का खाती अपने बैल गाड़ी जोतकर गुजर रहा था। रात्री हो जाने पर तेजाजी के वीरगति स्थल के पास रात्री विश्राम के लिए रुका। रात्री में चोरों द्वारा उसके बैल चुरा लिए गए। लेकिन तेजाजी की कृपा से बैलों को लेकर भागने में सफल नहीं हो सके। रात भर तेजाजी के समाधि स्थल व काबरिया पहाड़ी के बीच भूल-भुलैया के भ्रम में पड़ भटकते रहे। सवेरे चोर लोग बैलों को खाती को संभलाकर क्षमा मांगते हुये चले गए। इस घटना के बाद सुर्रा का अष्था-विश्वास तेजाजी के प्रति इतना बढ़ गया कि वह उसी जंगल में बस गया। उसी सुर्रा के नाम पर गाँव का नाम सुरसुरा पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस गाँव को अब भी सुर्रा ही बोलते हैं।
[पृष्ठ-308]: सुरसुरा मंदिर – तेजाजी की वीरगति धाम, सुरसुरा में तेजाजी का बहुत ही सुंदर और भव्य मंदिर बना हुआ है। यह मंदिर उसी स्थान पर है जहां बलिदान के बाद आसू देवासी की अगुआई में पनेर-त्योद के कुछ लोगों के साथ ग्वालों ने तेजाजी का दाह संस्कार किया था। इसी स्थान पर तेजाजी की पत्नी पेमल सती हो गई थी। मंदिर के सामने बहुत बड़ी धर्म शाला बनी हुई है जिसमें तेजाजी की जीवनी चित्रित की हुई है।
[पृष्ठ-309]:मंदिर का मूल स्थान जमीन की सतह से 3-4 फुट नीचा है। यह जमीन की सतह से नीचा इसलिए है कि तेजाजी के बलिदान के समय यहाँ एक छोटा सा नाड़ा था। उसी नाड़ा की पाल पर खेजड़े के नीचे नागदेव की बाम्बी थी, जो आज भी मौजूद है। नाड़ा का अंदरूनी भाग तेजाजी का बलिदान स्थल एवं दाह संस्कार स्थल होने से नाड़ा की पाल को साथ लेते हुये नाड़ा में ही मंदिर बना दिया है।
जन मान्यता अनुसार मंदिर के गर्भ गृह में स्वयं भू प्राचीन प्रतिमा से सटकर नागराज बाम्बी विद्यमान है। लोगों की दृढ़ आस्था विश्वास मान्यता के अनुसार गेहूं रंगाभ श्वेत नाग के रूप में तेजाजी दर्शन देते हैं तो उनको इसी बाम्बी में प्रवेश कराया जाता है।
सुरसुरा के निवासी – सुरसुरा में जाट, माली, गुर्जर, ब्राह्मण, वैष्णव, मेघवाल, रैदास, दर्जी, सुनार, कुम्हार, हरिजन, राजपूत, दमामी, मीणा, खटीक, नाई, आचार्य (अजारज), बागरिया, मुसलमान (नाई, टेली, पिनारा, बिंजारा) आदि। जातियाँ निवास करती हैं। लगभग इनकी आधी आबादी जाटों की है। फिर बाद में माली, गुर्जर, कुम्हार ब्राह्मण आदि है।
मेला – हर साल भादवा सुदी दशमी (तेजा दसमी) को तेजाजी का सुरसुरा में मेला भरता है जो 3 दिन चलता है।
परबतसर शहर
[पृष्ठ-312]: परबतसर के लोग बताते हैं कि जोधपुर राज्य के राजा अभय सिंह को सोते समय तेजाजी का दर्शाव हुआ। दर्शाव में तेजाजी ने राजा से कहा कि दक्षिण में मध्य प्रदेश तक के लोग मेरी पूजा करते हैं लेकिन मारवाड़ में मुझे भूल से चुके हैं, मुझे मारवाड़ ले चलो। हाकिम ने पनेर अथवा सुरसुरा से तेजाजी की मूर्ति उखाड़कर परबतसर लेजाने की कोशिश की, किन्तु सफलता नहीं मिली। इस पर जोधपुर महाराजा अभयसिंह ने सारी स्थिति बताकर परबतसर शहर से पश्चिम में खारिया तालाब की पाल पर एक चबूतरा (थान) बनाकर तेजाजी की मूर्ति स्थापित कर प्राण-प्रतिष्ठा करा दी गई। तब से पनेर में लगने वाला पशु मेला परबतसर में लगने लग गया।
[पृष्ठ-313]: मंदिर से सटाकर पिछवाड़े में में खाड़या खेजडा अब भी खड़ा है। यह आधा सूखा और आधा हरा है। इस मंदिर में तेजाजी की दो प्रतिमाएँ स्थापित हैं। जिन पर संस्कृत भाषा में खुदा है -
- "विक्रमी संवत 1791 (1734 ई.) भादों बदी 6 शुक्रवार महाराज अभयसिंह के राज में प्रधान भण्डारी विजयराज ने यह तेजाजी की मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठा की।"
तब से परबतसर भी तेजाजी का प्रमुख स्थल बन गया है। भादवा की शुक्ल पक्ष में 5 से 15 तक विशाल मेला भरता है।
मंदिर के वर्तमान पुजारी रामस्वरूप पारीक हैं। पुजारी के अनुसार जोधपुर महाराजा द्वारा मंदिर बनाने के बाद पूजा के लिए जोधपुर से उनके परदादा प्रह्लाद पारिक को भेजा गया था । तेजाजी ने वचन दिया कि जहाँ लीलण, खारिया तालाब, में रुकी थी वहां मैं जाऊंगा। राजा ने पूछा, हम चाहते हैं कि आप हमारी धरती पर पधारो। पर आप कोई सबूत दो कि पधार गए हैं। तेजाजी ने दर्शाव में राजा को विश्वास दिलाया कि -
- (1) परबतसर तालाब के पास जहाँ लीलण खड़ी हुई थी वहां जो खारिया तालाब है उसका पानी मीठा हो जायेगा
- (2) टीले पर जो हल का जूडा पेड़ के पास लटका है वो हरा हो जायेगा तथा यह खेजडा बनकर हमेशा खांडा खेजड़ा रहेगा
- (3) मेले में मच्छर मक्खी व बीमारियाँ नहीं फैलेंगी।
तीनों बातें अक्षरशः सिद्ध हो गई। हल का जूडा हरा हो गया, खड्या खेजड़ा हरा-भरा है। खारिया तालाब का पानी चमत्कारी ढंग से मीठा हो गया, जो आज तक मीठा है। वर्षा में कीचड़ होने के बावजूद मेले में मच्छर मक्खी व बीमारियाँ नहीं फैलती।
[पृष्ठ-314]: लीलण के खरनाल वापस जाने की घटना बड़ी रोचक है। पशु लगभग आए खोजों पर ही वापस लौटता है। लीलण ने खरनाल वापस जाते समय नदी पार नहीं की, बल्कि पनेर नदी के उत्तर साइड के किनारे-किनारे खरनाल की राह पकड़ी। क्योंकि लीलण जिस मोकल घाट से होकर आई थी, वह नदी के किनारे चलते हुये साफ नजर आ रहा था। अतः लीलण ने बहती नदी को पार करने का जोखिम नहीं उठाया। लीलण बहुत थकी हुई थी और वह जोश भी नहीं था। लड़ाई की थकान और मालिक के बलिदान से लीलण टूट चुकी थी। वह नदी के तीर-तीर चलकर परबतसर के प्रसिद्ध खारिया नामक तालाब की पाल पहुंची। वहाँ कुछ विश्राम किया और सरपट दौड़ कर मोकल घाट को पार किया और आगे बढ़ी।
[पृष्ठ-315]: तेजाजी के मेले को पनेर से परबतसर विस्थापित करने के पीछे अभय सिंह का तेजाजी प्रेम के बजाय आर्थिक कारण अधिक परिलक्षित होते हैं। तेजाजी द्वारा राजा अभय सिंह को सपने की कहानी तेजाजी के नाम से परबतसर में पशु मेला अपने राजस्व प्राप्ति के लिए गढ़ी गई लगती है। क्योंकि पनेर में जब मेला भरता था तो राजस्व किशनगढ़ रियासत में चला जाता था। जबकि पशुधन अधिक जोधपुर राज्य का बिकने आता था। अभय सिंह (1707-1749 ई.) ने ही हाल ऑफ हीरोज (Hall of Heroes) का निर्माण मंडोर में करवाया था जिसके लिए 1730 ई. में चूना पकाने के लिए खेजड़ली गाँव की खेजड़ी वृक्षों को काटा गया था और 363 विश्नोइयों ने जान दी थी। हाल ऑफ हीरोज मंडोर में अजय सिंह ने जिन 16 वीरों की मूर्तियाँ और लोक-देवताओं की मूर्तियाँ लगाई गई उनमें न तो तेजाजी को स्थान दिया और न ही विश्नोइयों के ईष्ट देव जंभाजी को।
तेजाजी के पुरातात्विक अवशेष
निम्न पुरातात्विक अवशेषों से तेजाजी की लोक-गाथा, लोक-गीत में आए तथ्यों की पुष्टि होती है।
- आसकरण की देवली - तेजाजी के चाचा आसकरण भी ताहड़ देव के साथ ही वर्ष 1082 ई. में जायल के काला के साथ लड़ाई में मारे गए थे। झुंझार आसकरण की देवली खरनाल गाँव के उत्तर में स्थित है। (p.186)
- अठ्यासन - तेजाजी के पिता ताहड़ जी धौलिया का दूसरा विवाह कोयलापाटन (आठ्यासन) निवासी अखोजी (ईंटोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणोजी की पुत्री रामीदेवी के साथ वि.स. 1116 (=1059 AD) में सम्पन्न हुआ। इस विवाह का उल्लेख फरड़ोदों के हरसोलाव निवासी भाट जगदीश की पोथी में है। (p.164)
- चांग: चांग अजमेर जिले के ब्यावर शहर से 10 किमी पश्चिम में पाली जिले की रायपुर तहसील के अंतर्गत करणाजी की डांग में यह चांग मिला। वहाँ के सरपंच कालू भाई काठात ने बताया कि उनके अजयसर अजमेर निवासी राव मोहनदादा की बही से भी इस बात की पुष्टि होती है कि उस जमाने में चांग में चीता वंशी मेर-मीणा रहते थे। (p.39, 248, 254) चांग के मीणा के बदमाश दल का मुखिया कालिया मीणा था, जो पेमल की माँ का धरम भाई था। लाछां गुजरी के बाड़े से |चांग के मीणा गायें हरण कर ले गए। गायों के लिए मीणों से तेजाजी का युद्ध यहाँ हुआ था। (p.240) सुरसुरा से 15-16 किमी दूर मंडावरिया की पहाडियों में मीणा दिखाई दिए। घनघोर लड़ाई छिड़ गई। यह अपने किस्म की अनोखी और अभूतपूर्व लड़ाई थी. (p.248) पहाड़ी के नीचे पत्थरों का बना एक बाड़ा है जिनके अब अवशेष मात्र बचे हैं। उसे वहाँ के लोग मेर मीनों का बाड़ा कहते हैं। (p.250) यही वह मीनों मेरों का चांग गाँव था जो तेजाजी की लड़ाई में नष्ट हो चुका था। मूल चांग गाँव पाली जिले के करणा जी की डांग में था। (p.251)
- चांग का नीला खुर न्हालसा - चांग के लीलाखुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाल) में केरडा हेतु लड़ाई हुई थी। मीणा केरडा को चांग के पलसे तक ले भागने में सफल हो गए। चांग गाँव से करीब 1.5 किमी उत्तर की तरफ ऊबड़-खाबड़ पहाड़ी मंगरे में जिस स्थान का नाम नीलाखुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाला) है। वहाँ चट्टानों पर लीलण के खुरों के चिन्ह बने हुये हैं। वहाँ झरना भी फूटता है। उस जगह को वहाँ के लोग पवित्र मानते हैं। झरने में स्त्रियाँ अपने पैर तथा कपड़े नहीं धोती है। वहाँ मीणों के साथ तेजाजी की दूसरी लड़ाई होती है। (p.253,255)
- धुवा तालाब : खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब की पाल स्थित बड़कों की छतरी (p.38) खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब है, जो कि धवलराय जी धौलिया (द्वितीय) द्वारा खुदवाया गया। यह तालाब वर्ष भर गांव की प्यास बुझाता है। तालाब की उत्तरी पाल पर एक भव्य छतरी बनाई हुई है जो कि कोई समाधी जैसी प्रतीत होती है। छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। बताया जाता है कि यह तेजाजी के पूर्वजों ने बनाई थी। (p.178)
- गैण तालाब - गैण तालाब खरनाल से पूर्व दिशा में इनाणा तथा मूण्डवा के बीच आज भी विद्यमान है। (p.38) गैण तालाब खरनाल के बाछुंड्या व खाबड़ खेत से पूर्व दिशा में नागौर-अजमेर मुख्य सड़क से सटाकर पश्चिम में मूंडवा और इनाण गाँव के बीच में पड़ता है। जो खरनाल खाबड़ खेत से 12-15 किमी की दूरी पर स्थित है। इस तालाब के उत्तर पश्चिम कोण पर नरसिंह जी का मंदिर बना है। मंदिर में राधा-कृष्ण की मूर्तियाँ स्थापित हैं। तेजाजी के समय गैण तालाब प्रसिद्ध था। तेजाजी की गायें यहाँ पानी पिया करती थी। तेजाजी के पूर्वजों की यहाँ 12 कोश की आवड़ी (खेत) थी। आज भी यह गैण तालाब सुरक्षित है। (p.216)
- झांझोलाव तालाब - तेजाजी के ससुराल पक्ष वाले झाँझर गोत्र के जाट अब इस गाँव में नहीं रहते हैं। सती पेमल के श्राप के कारण झाँझर कुनबा इस गाँव से उजड़ गया। अब रायमल जी मुहता के वंशज झांजर गोत्र के जाट भीलवाडा के आस-पास कहीं रहते हैं। झाँझर के भाट से भी मुलाकात नहीं हो सकी। झाँझर यहाँ से चले गए परंतु उनके द्वारा खुदाया गया तालाब उन्हीं की गोत्र पर झांझोलाव नाम से प्रसिद्ध है। यह तालाब आज भी मौजूद है। झांझरों के किसी पूर्वज शासक का नाम झांझो राव जी था। उन्हीं के नाम पर इस तालाब का नाम झांझोलाव प्रसिद्ध हुआ। लाव शब्द का राव अपभ्रंश है। (p.237)
- खाबड़ खेत - खाबड़ खेत खरनाल में मौजूद है। तेजाजी के पूर्वजों की यहाँ 12 कोश की आवड़ी (खेत) थी। (p.37)
- खारिया तालाब परबतसर: पनेर की दक्षिण पश्चिमी पहाड़ियाँ व उत्तर पश्चिम की पहाड़ियाँ की पश्चिमी ढलान से तथा परबतसर के पश्चिम में स्थित मांडण व मालास गाँव के पहाड़ों से निकलकर नदी खेतों में फैलकर बहती है जो परबतसर के खारिया तालाब के व बंधा के पास दक्षिण से होकर चादर से निकल कर पनेर के दक्षिण से होकर पूर्व की ओर निकल जाती है। ये वही नदी घाटियां हैं जिसने तेजाजी का रास्ता रोका था। लीलण ने तिरछी दिशा में आड़ की तरह तैरते हुये नदी पार किया था तथा तेजा ने जलकुंड मांछला की तरह। यह नदी आज भी अपनी पूर्व स्थिति में मौजूद है। (p. 238)
- खरनाल में पुरखों की छतरिया - खरनाल में पुरखों की छतरिया (बड़कों की छतरियाँ)खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब की पाल स्थित बड़कों की छतरी, जो कि धवलराय जी धौलिया (द्वितीय) द्वारा खुदवाया गया। तालाब की उत्तरी पाल पर एक भव्य छतरी बनाई हुई है जो कि कोई समाधी जैसी प्रतीत होती है। छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। ([पृष्ठ-178])
- खरनाल के तालाब नाड़ियां - खरनाल के कांकड़ में खुदे तालाब नाड़ियां सबको धोलियों के नाम पर आज भी पुकारा जाता है। धुवा तालाब (धवल राज) हमलाई नाड़ी (हेमाजी) जहां उनका चबूतरा बना हुआ है। चंचलाई - चेना राम, खतलाई - खेताराम, नयो नाड़ा - नंदा बाबा, पानी वाला- पन्ना बाबा, अमराई - अमराराम, भरोण्डा-भींवाराम, पीथड़ी- पीथाराम, देहड़िया- डूँगाराम द्वारा खुदाए पुकारे जाते हैं। ([पृष्ठ:178-179])
- खरनाल तेजाजी की जन्मस्थली - तेजाजी महाराज की जन्मस्थली खरनाल, खरनाल गांव के मध्य में वीर तेजाजी महाराज का तीनमंजिला भव्य मंदिर बना हुआ है।(p. 174-179)
- खरनाल तेजाजी प्रतीमा - खरनाल गांव के बाहर की तरफ जौधपुर हाईवे पर लगभग 7-8 बीघा में मैला मैदान स्थित है। इसी मैदानमें सड़क से 50 मीटर की दूरी पर "सत्यवादी वीर तेजाजी महाराज" की 6-7 टन वजनी भव्य व विशाल लीलण असवारी प्रतीमा लगी हुई है।जिसका निर्माण स्व.रतनाराम जी धौलिया की चिरस्मृती में उनकी धर्मपत्नी कंवरीदेवी व सुपुत्रों द्वारा 2001 में करवाया गया।
- लाछा बावड़ी - पेमल की सहेली थी लाछां गूजरी। वह शहर पनेर के दक्षिण पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास (मोहल्ला) में रहती थी। (p.233) तेजाजी के जमाने में रंगबाड़ी शहर पनेर का एक बास था। यह स्थान वर्तमान पनेर से 2 किमी पूर्व में है। रूपनगढ़ कस्बे से 2-3 किमी उत्तर में स्थित है। इस रंगबाड़ी के स्थान से उत्तर में 3 किमी दूर जाजोता गाँव बसा है। उस समय रंगबाड़ी में लाछा अपने पति नंदू गुर्जर के साथ रहती थी। रंगबाड़ी के दक्षिण दिशा में 3 किमी दूरी पर उस समय सुरसुरा का जंगल पड़ता था। यहाँ पर एक सुंदर काबरिया पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पूर्व में, जहां वर्तमान हनुमानगढ़ मेगा-हाईवे गुजरता है, के पास ही प्राचीन लाछा बावड़ी है। इस वन में लाछा की गायें चरने जाती थी। लाछा बावड़ी का निर्माण गायों के पानी के लिए करवाया था। (p.261) उस समय यहाँ निर्जन वन था और यह बावड़ी पशु धन और राहगीरों के लिए पानी का एक मात्र साधन था। यह उस समय से ही लाछा बावड़ी के नाम से प्रसिद्ध हो गई थी। लाछा बावड़ी के पास भव्य छतरियाँ बनी हुई हैं। वहाँ एक शिलालेख पर खर्च का विवरण दिया है जिस पर लाछा का नाम भी लिखा है। शिलालेख लाछा कालीन नहीं लगता, वह बाद में किसी के द्वारा लगाया लगता है। (p.262)
- लीलण की समाधी - लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के धुवा तालाब के किनारे पर बना है, लीलण का भव्य समाधी मंदिर बना हुआ है। (पृष्ठ-173, 178) लीलण घोड़ी सतीमाता के हवाले अपने मालिक को छोड़ अंतिम दर्शन पाकर सीधी खरनाल की तरफ रवाना हुई। परबतसर के खारिया तालाब पर कुछ देर रुकी और वहां से खरनाल पहुंची। खरनाल पहुँचने का समय था भादवा सुदी ग्यारस रविवार विक्रम संवत 1160 (29 अगस्त 1103 ई.)। लीलण घोड़ी का मंदिर आज भी खरनाल के तालाब के किनारे पर बना है। (p.269)
- लूणसरा - खरनाल से पनेर के रास्ते में तेजाजी का विश्रामस्थल था लूणसरा। कुचेरा की उत्तर दिशा की भूमि को पवित्र करते हुये लूणसरा (लूणेरा) की धरती पर तेजाजी के शुभ चरण पड़े। तब तक संध्या हो चुकी थी। तेजाजी ने धरती माता को प्रणाम किया एक छोटे से तालाब की पाल पर संध्या उपासना की। गाँव वासियों ने तेजाजी की आवभगत की। इसी तेजा पथ के अंतर्गत यह लूणसरा गांव मौजूद है। (p.225-226)
- मंडावरिया में रणसंग्राम स्थल के देवले: मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रणसंग्राम स्थल पर मौजूद देवले शिलालेख, जिन पर खुदे अक्षर अभी पढे नहीं जा सके हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। (पृष्ठ-87)
- मोकल घाट - परबतसर के पश्चिम की पहाड़ियों में पड़ता है मोकल घाट। तेजाजी के भादवा से निकलने के साथ ही घनघोर बारिस आरंभ हो गई थी भादवा से पूर्व व परबतसर से पश्चिम मांडण - मालास की अरावली पर्वत श्रेणियों से नाले निकल कर मोकल घाटी में आकर नदी का रूप धारण कर लिया। इस नदी घाटी ने तेजा का रास्ता रोक था जिसलों लीलण घोड़ी की सहता से पार किया था। (p.227)
- नाग की बांबी: तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.39) लोकगाथा से पता चलता है कि तेजाजी की माता ने नाग पूजा की थी। तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.85) रामकुँवरी ने त्योद के दक्षिण में स्थित जंगल में नाड़े की पालपर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नागदेव की बांबी पर पूजा-आराधना 12 वर्ष तक की। कहते हैं कि विक्रम संवत 1129 अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। (p.167) काबरिया पहाड़ी से 2 किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में घनघोर जंगल के बीच नाड़ा की पाल पर खेजड़ी वृक्ष के नीचे बासाग नाग की बाम्बी पर पहुँच कर नागदेव का आव्हान करते हैं। (p.263)
- नागराज गुफा : रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था। (p.87)
- नरवर की घाटियां: मेर-मीणा बछड़े को लेकर नरवर की घाटी से होकर वर्तमान पाली सीमांतर्गत ब्यावर से 10 किमी पश्चिम में पहाड़ियों में बसे अपने मूल गाँव चांग- चितार की ओर निकल गए। तेजा ने पद चिन्हों के द्वारा मीणों का पीछा करते हुये नरवर की घाटी में चलते हुये मीणा को लड़ने की चुनौती दी। (p.248)
- नुवा गाँव: पनेर के नजदीक नुवा गाँव में बने तेजाजी के मंदिर के स्थान पर उस जमाने में एक कैर का पेड़ था। घायल तेजाजी ने कुछ देर के लिए उसी कैर के नीचे विश्राम किया था। वहाँ पर एक नुवाद गात्री जाट ग्वाले से उन्होने पानी पिया था। फिर तुरंत पनेर की ओर प्रस्थान कर गए। उस ग्वाला ने उसी कैर के नीचे तेजाजी की स्मृति में थान बना दिया था। उस स्थान के पास ही बाद में नुवा नामक ग्राम बसा। ग्राम वासियों ने थान के स्थान पर अब भव्य तेजाजी मंदिर का निर्माण करवा दिया है। (p.258)
- पनेर नदी - तेजाजी का रास्ता रोकने वाली पनेर नदी भादवा से निकलने के साथ ही घनघोर बारिस आरंभ हो गई। भादवा से पूर्व व परबतसर से पश्चिम मांडण - मालास की अरावली पर्वत श्रेणियों से नाले निकल कर मोकल घाटी में आकर नदी का रूप धारण कर लिया। इस नदी घाटी ने तेजा का रास्ता रोक लिया। (p.227)
- पनेर : शहर पनेर तेजाजी का ससुराल है। यह गाँव वर्तमान में राजस्थान के अजमेर जिले की किशनगढ़ तहसील में स्थित है। यह गाँव तेजाजी के जन्म से बहुत पहले ही बसा हुआ था। प्राचीन समय में वर्तमान पनेर से पश्चिम दिशा में बसा हुआ था। तेजाजी के समय में यह वर्तमान पनेर से 1 किमी उत्तर में पहाड़ियों की तलहटी में बसा हुआ था। यहाँ के राख़-ठीकरे आदि इसके प्रमाण हैं। (p.235)
- पनेर में पुरखों की छतरिया (बड़कों की छतरियाँ) - शहर पनेर की छतरी इतनी पुरानी लगती है कि उनके पत्थरों पर लिखे अक्षर भी घिस गए हैं। (p.44) वर्तमान पनेर के पश्चिम में तथा तत्कालीन पनेर के दक्षिण में बड़कों की छतरी में आकर नदी तैरते हुये अस्त-व्यस्त पाग (साफा) को तेजा ने पुनः संवारा। (p.228) बड़कों की छतरी और शहर पनेर के बीच यह रायमल जी मेहता का बाग था। (p.229)
- पनेर का पनघट - कुंवर तेजाजी बाग से पनेर के लिए रवाना हुये। रास्ते में पनघट पड़ता है। पनिहारियाँ सुन्दर घोडी पर सुन्दर जवाई को देखकर हर्षित हुई। तेजा ने रायमलजी का घर का रास्ता पूछा। (p.231) पनघट के अवशेषों की खोज की आवश्यकता है।
- परबतसर के पश्चिम की पहाड़ियों का मोकल घाट - देखें मोकल घाट।
- परबतसर का खारिया तालाब - देखें खारिया तालाब।
- पेमल - तेजा के जन्म के तीन माह बाद विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की बुद्ध पूर्णिमा (पीपल पूनम) के दिन पनेर गणराज्य के गणपति रायमल जी मुहता (मेहता) के घर एक कन्या ने जन्म लिया। पूर्णिमा के प अक्षर को लेकर कन्या का नाम रखा गया पद्मा। परंतु बोलचाल की भाषा में पेमल दे नाम प्रसिद्ध हुआ। (p.173)
- रघुनाथपुरा - रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है। रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना (पांडुलिपिकार सहायक) ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था। (p.86-87)
- राजल की समाधी - राजल बाई का मंदिर खरनाल में गाँव के पूर्वी जोहड़ में है। खरनाल के पूर्व में 1 किमी की दूरी पर तालाब की पाल पर बहन राजल बाई का 'बूंगरी माता' के नाम से मंदिर बना हुआ है। (p.176, 183, 184, 269)
- रंगबाडी का वास - लाछां का गांव : रंगबाडी का वास पनेर (अजमेर), तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.85) शहर पनेर से करीब 2 किमी पूर्व की ओर रंगबाड़ी के बास में पेमल की सहेली प्रसिद्ध लाछा गुजरी रहती थी। (p.236) लाछा पनेर के रंगबाड़ी बास में रहती थी। अब उस जगह का नाम रंगबाड़ी बांसड़ा है जो वर्तमान पनेर से 3 किमी पूर्व में पड़ता है। वहाँ रंगबाड़ी का कुवा पर लाछा द्वारा स्थापित रंगबाड़ी भैरूजी आज भी विद्यमान है। वहाँ खुदाई में पुराने गाँव के अवशेष मिलते हैं। लाछा चौहान गोत्र की गुर्जर थी। लाछा के पति नंदू गुर्जर क गोत्र तंवर था। नंदू गुर्जर सीधा सादा इंसान था। वहाँ की कर्ता-धर्ता लाछा ही थी। लाछा के नाम से ही सारा कार्य व्यवहार चलता था। लाछा के पास बड़ी संख्या में गायें थे और वह उस जमाने की प्रभावशाली महिला थी। (p.260) तेजाजी के जमाने में रंगबाड़ी शहर पनेर का एक बास था। यह स्थान वर्तमान पनेर से 2 किमी पूर्व में है। रूपनगढ़ कस्बे से 2-3 किमी उत्तर में स्थित है। इस रंगबाड़ी के स्थान से उत्तर में 3 किमी दूर जाजोता गाँव बसा है। उस समय रंगबाड़ी में लाछा अपने पति नंदू गुर्जर के साथ रहती थी। रंगबाड़ी के दक्षिण दिशा में 3 किमी दूरी पर उस समय सुरसुरा का जंगल पड़ता था। यहाँ पर एक सुंदर काबरिया पहाड़ी है। इस पहाड़ी के पूर्व में, जहां वर्तमान हनुमानगढ़ मेगा-हाईवे गुजरता है, के पास ही प्राचीन लाछा बावड़ी है। इस वन में लाछा की गायें चरने जाती थी। लाछा बावड़ी का निर्माण गायों के पानी के लिए करवाया था। (p.261) तत्कालीन रंगबाड़ी के स्थान पर आज एक छोटा सा गाँव रंगबाड़ी बासड़ा आबाद है। यहाँ 50-60 घर हैं। यहाँ एक प्राचीन मंदिर है। इस गाँव के पास से नदी निकलती है। नदी के पूर्व दिशा में रंगबाड़ी का कुआ है तथा इस कुवे पर लाछा द्वारा प्रतिष्ठित रंगबाड़ी के भैरूजी का चबूतरा एक पेड़ों के झुरमुट में मौजूद है। लाछा की यह रंगबाड़ी (कुवा) आज तानाण के बेटे घीसा मेघवाल के अधिकार में है। (p.262)
- सुरसुरा - बड़कों की छतरियाँ (p.38) - तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.39)
- तेजाजी की समाधी - तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.39) तेजाजी के शरीर में विष का असर हुआ। वे निढाल होकर घोड़ी से नीचे गिरने लगे। लीलण की आँखों से आँसू टपकने लगे। आज भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) के तीसरे प्रहर का समय था। (p.265) तेजाजी का दाह संस्कार – आसू देवासी के नेतृत्व में वन के ग्वालों ने चीता चिनाई। पेमल ने तेजाजी को गोद में ले सूर्य नारायण से अरदास की। अग्नि प्रज्वलित हुई। वन के पूरे ग्वाल तेजाजी की पुण्य काल की घड़ी में मौजूद थे। तब तक पनेर और त्योद से भी लोग पहुँच गए थे। (p.267)
- तेजापथ: खरनाल से पनेर - तेजाजी अपनी जन्म भूमि खरनाल से भादवा सुदी सप्तमी बुधवार विक्रम संवत 1160 तदनुसार 25 अगस्त 1103 ई. को अपनी ससुराल शहर पनेर के लिए प्रस्थान किया। वह रूट जिससे तेजा खरनाल से प्रस्थान कर पनेर पहुंचे यहाँ तेजा पथ से संबोधित किया गया है।
- तेजा पथ के गाँव : खरनाल - परारा (परासरा)- बीठवाल - सोलियाणा - मूंडवा - भदाणा - जूंजाळा - कुचेरा - लूणसरा (लुणेरा) (रतवासा) - भावला - चरड़वास - कामण - हबचर - नूंद - मिदियान - अलतवा - हरनावां - भादवा - मोकलघाटा - शहर पनेर..इन गांवो का तेजाजी से आज भी अटूट संबंध है। (p.224)
- त्योद - तेजाजी के पिता ताहड़देव जी धौलिया का पहला विवाह त्योद किशनगढ़ के दुल्हण जी सोढ़ी – ज्याणी जाट की पुत्री रामकुंवरी के साथ वि.स. 1104 (=1047 AD) में सम्पन्न हुआ। ([पृष्ठ-160]), तत्कालीन त्योद के पास वन में वह नाग की बांबी आज भी मौजूद है, अब वहाँ पर तेजाजी की देवगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा गाँव आबाद है। बांबी नाड़ा की पाल पर थी। सुरसुरा में तेजाजी मंदिर का प्रांगण जमीन के धरातल से नीचे बने ताल के रूप में नाड़ा होने के प्रमाण आज भी विद्यमान हैं। (p.39,162,163)
तेजाजी के इतिहास की महत्वपूर्ण तिथियाँ
संत श्री कान्हाराम ने पुस्तक श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र (शोधग्रंथ), प्रकाशक: श्री वीर तेजाजी शोध संस्थान सुरसुरा, अजमेर, 2015, में तेजाजी के इतिहास की निम्न महत्वपूर्ण तिथियाँ अंकित हैं जो यहाँ पुस्तक के पृष्ठ सहित संकलित की गई हैं।
- 551: वासुदेव नाग (चौहान का पूर्वज) 551 ई. के आस-पास अहिछत्रपुर (नागौर) का शासक था। इस वंश का उदीयमान शासक सातवीं शताब्दी में नरदेव हुआ। (p.77)
- 571: रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 (571 ई.) लिखा हुआ है। (p.86)
- 738: चौहानों ने 738 ई. में प्रतिहारों के साथ मिलकर राजस्थान की लड़ाई लड़ी थी। (p.77)
- 960: सांभर के चौहान शासक सिंहराज के अनुज लक्ष्मण ने 960 ई. में नाडोल राज्य की स्थापना की थी। (p.128)
- 963: बलराज चीता चांग का रहने वाला था। बलराज चीता बैराठगढ़ का शासक हो गया। बलराज चीता के पुत्र खेता राणा ने अपने पिता के जीवन काल में ही बगड़ी (पाली जिला) में राज्य स्थापित किया। इसका साक्षी बगड़ी के देवी मंदिर में लगे शिलालेख में मौजूद हैं, जिस पर विक्रम संवत 1020 (963 ई.) लिखा है। चांग भी एक रियासत थी। (p.257)
- 964: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया (p.63) (p.158)
- 965: खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब की उत्तरी पाल पर छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। बताया जाता है कि यह तेजाजी के पूर्वजों ने बनाई थी। (p.178)
- 983-991: तोलामाल गाँव की सीमा में सेवड़िया गोत्र के तेज़ूराम जाट का कुआ के इर्द-गिर्द युद्ध से संबन्धित हल्के लाल गुलाबी रंग के पत्थर के लड़ाई में मारे गए लोगों के देवले मौजूद है। बचे हुये देवलों के ऊपर देवनागरी लिपि में खुदाई की हुई है किन्तु पुराने और घिसे होने के कारण पढे नहीं जा सकते। आधे अधूरे अक्षर जो पढ़ने में आ रहे है वे इस प्रकार हैं – रण, पग, रण संग्राम ला, स, सा, बदी महिना, बा, घ, रा, 1048 (983 ई.) अथवा 1040 (991ई.) जैसे अंक पढे जा सके हैं लेकिन तारतम्य नहीं बैठ पाया। (p.249-250)
- 997: चौहान नरेश नरदेव के बाद विग्रहराज द्वितीय ने 997 ई. में मुस्लिम आक्रमणकारी सुबुक्तगीन को को धूल चटाई।
- 1000 -1027: महमूद गजनवी ने 1000 से 1027 ई. तक भारत पर 17 बार आक्रम । (p.71)
- 1029 : रूपनगढ़ क्षेत्र के गांवों में दर्जनों शिलालेख आज भी मौजूद हैं, जिन पर लिखा है गोविंददेव विक्रम संवत 1086 (1029 ई.) (p.45) सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। (p.86, 238)
- 1047: खरनाल परगना के जाट शासक (गणपति) बोहितराज के पुत्र ताहड़देव का विवाह त्योद (त्रयोद) के गणपति करसण जी (कृष्णजी) के पुत्र राव दुल्हण जी (दूलहा जी) सोढी (ज़्याणी) की पुत्री रामकुंवरी के साथ विक्रम संवत 1104 (1047 ई.) में समपन्न हुआ। (p.160,162)
- 1053 : नागदुर्ग के पुनः नव-निर्माण का श्री गणेश गोविन्दराज या गोविन्ददेव तृतीय के समय (1053 ई. ) अक्षय तृतीय को किया गया। (p.77)
- 1053 : तेजाजी के जमाने (1074-1103 ई.) में राव महेशजी के पुत्र राव रायमलजी मुहता के अधीन यहाँ एक गणराज्य आबाद था, जो शहर पनेर के नाम से प्रसिद्ध था। उस जमाने के गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता नागवंश की अग्निवंशी चौहान शाखा के नरपति गोविन्ददेव तृतीय (1053 ई.) के हाथ थी। तब गोविंददेव की राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) से शाकंभरी (सांभर) हो चुकी थी तथा बाद में अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। (p.45)
- 1054: खरनाल के दक्षिण में धुवा तालाब की उत्तरी पाल पर छतरी के ऊपर अंदर की साइड के पत्थर पर शिलालेख खुदा है। इस पर वि.सं. 1022 (965 ई.) व 1111 (1054 ई.) लिखा हुआ है। यह 'बड़कों की छतरी' कहलाती है। यह निर्माण कला की दृष्टि से अत्यंत प्राचीन लगती है। बताया जाता है कि यह तेजाजी के पूर्वजों ने बनाई थी। (p.178)
- 1059: ताहड़देव का दूसरा विवाह कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ विक्रम संवत 1116 (1059 ई.) में सम्पन्न करवा दिया। (p.160)
- 1061: रामकुँवरी ने पति ताहड़ देव से परामर्श किया और पति की आज्ञा से विक्रम संवत 1118 को अपने पीहर त्योद चली आई। (p.166)
- 1072: विक्रम संवत 1129 (1072 ई.) अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर राम कुँवरी को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया। (p.167)
- 1074: कार्तिक शुक्ल पुष्कर पूर्णिमा के दिन विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) पुष्कर के प्रकांड पंडितों ने बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर पीले-पोतड़ों में तेजा व पेमल का विवाह सम्पन्न किया। (p.180)
- 1074: तेजाजी का जन्म खरनाल में, विक्रम संवत 1130 की माघ सुदी चौदस गुरुवार तदनुसार 29 जनवरी 1074 ई. को खरनाल गणतन्त्र में ताहड़ देव जी के घर में शेषावतार लक्ष्मण ने तेजाजी के रूप में जन्म लिया। इस तिथि की पुष्टि भैरू भाट डेगाना की बही से होती है। (p.170)
- 1074: विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की आखा तीज के दिन दोपहर सवा 12 बजे खरनाल में लीलण का जन्म हुआ। (p.173)
- 1074: तेजा के जन्म के तीन माह बाद विक्रम संवत 1131 (1074 ई.) की बुद्ध पूर्णिमा (पीपल पूनम) के दिन पनेर गणराज्य के गणपति रायमल जी मुहता (मेहता) के घर पेमल का जन्म हुआ। (p.173)
- 1076: तेजाजी के जन्म के तीन वर्ष बाद ताहड़ जी की बड़ी पत्नी रामकुँवरी की कोख से विक्रम संवत 1133 (1076 ई.) में राजल का जन्म हुआ । (p.183)
- 1082 : ताहड़ देव की हत्या: कालिया-बालिया द्वारा खरनाल में विक्रम संवत 1139 (1082 ई.), चाचा आसकरण भी शहीद ([p.185])
- 1083: विक्रम संवत 1140 (1083 ई.) बैसाख में माता राम कुँवरी तेजा को अपने साथ लेकर पीहर योद आ गई। (p.186) तेजाजी की आयु 16 साल होने तक त्योद में ही रहे। (p.194)
- 1089: विक्रम संवत 1146 (1089 ई.) जेठ माह में 16 साल की आयु होने पर तेजा ननिहाल त्योद से वापस खरनाल लौटे। (p.195)
- 1103: तेजाजी अपनी जन्म भूमि खरनाल से भादवा सुदी सप्तमी बुधवार विक्रम संवत 1160 तदनुसार 25 अगस्त 1103 ई. को अपनी ससुराल शहर पनेर के लिए प्रस्थान किया। (p.224)
- 1103: तेजाजी की वीरगति सुरसुरा में भाद्रपद शुक्ल दशमी शनिवार विक्रम संवत 1160 (तदनुसार 28 अगस्त 1103) के तीसरे प्रहर (p.263)
- 1103: भादवा सुदी ग्यारस रविवार विक्रम संवत 1160 (29 अगस्त 1103 ई.) को लीलण सीधी मानक चौक में जाकर खड़ी हुई। (p.269)
- 1103: विक्रम संवत 1160 (1103 ई.) के भादवा सुदी एकादश को राजल धरती की गोद में समा गई। (p.183, 269)
- 1108-1132 : अजयपाल के समय (1108-1132 ई.) चौहनों की राजधानी अजमेर स्थानांतरित हो गई थी। (p.45)
- 1111: लक्ष्मण चौहान के वंशज आसराज (1110-1122 ई) के पुत्र माणकराव, खींची शाखा का प्रवर्तक था। वह 1111 ई. में जायल आया था। (p.128)
- 1123: अजमेर को अजयपाल ने 1123 ई. में अपनी राजधानी बनाया। (p.77)
- 1133-1153: अजयपाल ने अर्नोराज (1133-1153 ई.) को शासन सौंपकर सन्यासी बन गए (p.77)
- 1153-1164: विग्रहराज चतुर्थ (बिसलदेव) (1153-1164 ई) चौहान वंश का अत्यंत पराक्रमी शासक हुआ। (p.78)
- 1176-1192: पृथ्वीराज तृतीय (1176-1192 ई) ही पृथ्वीराज चौहान के नाम से विख्यात हुआ। यह अजमेर के साथ दिल्ली का भी शासक बना। (p.78)
- 1192 : पृथ्वीराज चौहान की हार 1192 ई. में, मोहम्मद गौरी ने अजमेर व दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को हराकर भारत को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया। (p.71)
- 1350-1450: 1350 ई. एवं 1450 ई. में बिड़ियासर जाटों के साथ भी कालों का युद्ध हुआ था। जिसमें कालों के 27 खेड़ा (गाँव) उजाड़ गए। यह युद्ध खियाला गाँव के पास हुआ था। (p.158)
यह भी देखें
Gallery
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तेजाजी का दूसरा ननिहाल अठ्यासन
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बड़कों की छतरी पनेर
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बुंगरी माता (राजल) मंदिर, खरनाल
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उजड़े हुए चांग गांव के चिन्ह - ठीकरे
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उजड़े हुए चांग गांव का मेर मीणा का बाड़ा
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मीणों का मूल गाँव चांग
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धुवा तालाब पर बड़कों की छतरी खरनाल
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गैण तालाब
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लीलण घोड़ी का मंदिर खरनल
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थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा में गोविंददेव तृतीय (1053 ई.) के शिलालेख।
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जाटों का मंदिर जूनवास भीलवाडा
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झांझोलाव तालाब पनेर
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तेजाजी के रक्षक कालाभैरू की मूर्ति, सुरसुरा
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लाछा बावड़ी, रंग बाड़ी, पनेर
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लाछा की छतरी, रंग बाड़ी, पनेर
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लाछा का भैरूजी, रंग बाड़ी, पनेर
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नीला खुर न्हालसा (लीलण के खुर का नाल)
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समर दौरान झाड़ी में टिका लीलण का घुटना
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मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले
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मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल
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परबतसर के पश्चिम की पहाड़ियों का मोकल घाट
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पनेर शहर - तेजाजी का ससुराल
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पनेर नदी पार करते हुये तेजाजी
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परबतसर का खारिया तालाब
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सुरसुरा गाँव का दृश्य
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पुस्तक का मुख-पृष्ठ
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पुस्तक का पीछे का पृष्ठ
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तेजाजी का जन्म धाम - खरनाल
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तेजाजी का प्रथम ननिहाल त्योद]
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जन्म स्थान खरनाल के तेजाजी मंदिर में लीलण पर सवार तेजाजी की मूर्ती
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वीर तेजाजी महाराज मंदिर, भरनाई
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तेजाजी मंदिर, आंतरदा
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तेजाजी मंदिर, अठ्यासन
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तेजाजी मंदिर, ब्यावर
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भवाद तह बावड़ी, जौधपुर का भव्य वीर तेजाजी मंदिर.
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तेजाजी मंदिर, दुगारी
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तेजाजी मंदिर, खजवाना
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तेजाजी मंदिर, पनेर
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तेजाजी मंदिर, परबतसर
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शेरपुर (इंदोर) मध्यप्रदेश में तेजाजी का भव्य मन्दिर
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तेजाजी मंदिर, सुरसुरा
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तेजाजी की मूर्ति, मूंडवा (नागौर)
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तेजाजी की मूर्ति, सुरसुरा
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तेजाजी की मूर्ति, सुरसुरा
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तेजा यात्रा: हेमराज भागीरथ बाजड़ोलिया, हनुमानपालिया, रतलाम
External links
- तेजल कलजुग रा हीरो - संत कान्हाराम
- तेजाजी चालीसा सम्पूर्ण- संत कान्हाराम
- बेटो जाट को खेता में बीजे बाजरी
- फेसबुक पर श्री वीर तेजाजी का इतिहास एवं जीवन चरित्र
References
- ↑ आनंद श्रीकृष्ण:भगवान बुद्ध, समृद्ध भारत प्रकाशन, मुंबई, अक्टूबर 2005, ISBN 80-88340-02-2, p. 2-3
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 312
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 313
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