Jat History Thakur Deshraj/Chapter I

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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प्रथम अध्याय : सृष्टि-प्रकरण

आर्यो का उद्गम तथा वैदिक, रामायण, महाभारत और बौद्ध-कालीन स्थिति

आर्यो का उद्गम

इस विषय में देशी-विदेशी इतिहासवेत्ताओं के अलग-अलग मत हैं कि मानव समाज का आदि सृष्टि-स्थान कौन-सा है? किन्हीं का कथन है कि सर्वप्रथम उत्तरी-ध्रुव में मानव-सृष्टि हुई, किसी-किसी के मत से मध्य-ऐशिया की भूमि आदि सृष्टि-स्थान जान पड़ती है। कोई-कोई यह भी कहता है कि अखिल मानव-समाज का उद्गम स्थान सिन्धु-सरस्वती के बीच का प्रदेश है। लोकमान्य तिलक ने उत्तरी-ध्रुव में सबसे पहले सृष्टि हुई मान कर, ‘भारतीय आर्यो का’ कास्पियन तट और ईरान के प्रदेशों से गुजरते हुए पंजाब में आना सिद्ध किया है। महाराष्ट्र-देश के प्रसिद्ध विद्वान् नारायण भवनराव पावगी भारतीय आर्यो का मूलस्थान सप्त-सिन्धु मानते हुए सिद्ध करते हैं कि ‘उत्तर ध्रुव तथा अन्य प्रदेशों में भारतीय आर्य उपनिवेश बसाने गये थे और जल-प्रलय के बाद वे भारत में लौट आये। इसी आगम-यात्रा को लोग भ्रम से आर्यों का विदेश से भारत में आना सिद्ध करते हैं’। बात कुछ भी हो, लेकिन निम्न बातों से प्रायः सभी का मत लगभग एक-सा है कि -

  • 2. वैदिक सभ्यता का प्रभाव सारे संसार के देशों की सभ्यता पर आच्छादित है,
  • 3. भारतीय और ईरानियों का निकटतम सम्बन्ध है,
  • 5. इत्री, कूशी, यूनानी, लातिनी, आंग्ल आदि भाषाओं की जननी आदि-संस्कृत है,
  • 6. धर्म, नीति और विज्ञान का प्रचार करने को भारतीय आर्य विदेशों में गये थे,

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-1


भारत में आने वाले आर्य एक ही समय में तथा एक ही मार्ग से आते हों, ऐसी बात नहीं है। वे भारत में कई वार में आये1 । भाषाविज्ञान के विद्वानों का कथन है कि, ‘वर्तमान भारतीय आर्य-भाषाओं से पता चलता है कि आर्य लोग भारत में अधिक नहीं तो दो बार में अवश्य आये होंगे।’ मि. हार्नली और ग्रियर्सन के मतानुसार प्राचीन उत्तर-भारत में दो भाषा-समुदाय थे। एक समुदाय की भाषा थी ‘मागधी’ और दूसरे की ‘शैरसेनी’। भारत में प्रथम आने वाला आर्य समुदाय मागधी भाषा-भाषी था जो कि (भारत के) पूर्वोत्तर कोने में बोली जाती है। शौरसेनी नवागत आर्यों की भाषा थी।

पहली बार में आने वाले आर्यों का पथ सी.बी. वैद्य ने काबुल की घाटी और दूसरी टोली में आने वालों चितराल बताया है। पहली टोली के लोग मान्व कहलाते थे। इनके सम्बन्ध में कहा जाता है कि ये सुमेर के निकट से भारत आये। दूसरी टोली के लोगों को ऐल नाम से पुकारा गया है2, कारण कि उनका निवास-स्थान इलावृत प्रदेश था। पुराण इन दोनों टोलियों के आर्यो का एक पुरूष की ही सन्तान मानते हैं। एक पुरूष का नहीं तो वे एकदेशीय अवश्य थे।

इन लोगों ने अपने पूर्व स्थान को क्यों छोड़ा? इसका उत्तर पुराणों तथा बाइबल और जिन्दावस्ता से यही मिलता है कि ‘जल-प्रलय’ के समय-पुराणों के कथनानुसार सातवें मनु विवश्वान के काल में - सुरक्षित स्थान में पहुंचने के लिए छोड़ा था। नूह की किश्ती और मनु-मत्स्य-संवाद की कथाएं इस कथन की साक्षी हैं। इस तरह छः मन्वन्तर तक सबका साथ रहना सिद्ध होता है। कुछ लोग इस बात का सिद्ध करने में भी लगे हुए है कि ऋग्वेद की रचना आर्यों के भारत में आने से पहले ही आरम्भ हो चुकी थी। स्वर्गीय जस्टिस पार्जीटर का मत है कि ईसा से 2000 वर्ष पहले आर्य भारत में आ चुके थे3 । देशी-विदेशी विद्वान् इस विषय में 6000 वर्ष से अधिक समय बताने में अभी तक असमर्थ हैं। किन्तु पुराण नौ लाख वर्ष तो भगवान् राम के शासन-समय का दिग्दर्शन कराते हैं। भगवान् राम के आदि पूर्वज राजा इक्ष्वाकु अयोध्या मे उनसे कई सहस्त्र वर्ष पूर्व आबाद हुए थे। यह विषय अभी विवादास्पद है।


1. नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग 4 , अंक 4 , माघ संवत 1980 वि.
2. 'भारत भूमि और उनके निवासी', पृ. 251
3. प्रा.अ. पृ. 182-183


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-2


जिस समय ये आर्य टोलियां भारत में आई, उस समय इनके रास्ते में तथा भारत में आने के बाद कई विभाग हो गये। पहली टोली के आर्यों में से कुछ तो कास्पियन, ईरान आदि देशों में रह गये तो शक कहलाने लगे और कुछ भारत में आने के बाद पूर्व-उत्तर और मध्य-देश में फैल गये। दूसरी टोली के ऐल आर्यों के कुछ साथी कुमायूं या चितराल के रास्तों के मध्य से पामीर और कपिशा-कश्मीर की ओर फैल गये तो दरद और खस कहलाने लगे। कुछ गंगा-यमुना दोआबे तथा पंचनद के बीच में फैलकर आबाद हो गये।1 भारत में आबाद होने के पश्चात् भी अति दीर्घकाल तक आर्य लोग ईरान, तिब्बत, मलाया, चीन, सिंहल आदि देशों में जाते-आते रहे। कुछ लोग तो सुदूरवर्ती देश जर्मनी, इटली, नार्वे, आयरलैंड, अमरीका, अफ्रीका आदि तक पहुंचे तथा वहां बस्तियां बसा कर रहने लग गये।2


प्राचीन साहित्य में आर्यो के भारत में आने के पश्चात्, सप्त-सिन्धु देश में सर्वप्रथम उनके बसने का वर्णन आता है। सप्त-सिन्धु शब्द को लेकर देशी-विदेशी अनेक इतिहासकारों ने यह शंका प्रकट की है कि सप्त-सिन्धु आज का पंजाब नहीं था। वह कोई अन्य प्रदेश था, और वह वही प्रदेश हो सकता है जिसमें आक्सस और कुभा नदियों की गणना भी हो जाती है। इस वर्णन से भारत की सीमा इतनी बढ़ जाती है कि उसे बृहत्तर भारत नाम दिया जा सकता है। किसी समय वास्तव में उत्तर-पश्चिम की ओर भारत की सीमा आक्सस और कुभा (काबुल नदी) तक ही थी।

आर्यों का कौन-सा समूह कहां बसा? इस प्रश्न को हल करने के लिए पुराणोक्त इतिहास हमें बहुत सहायता देता है। पृथ्वी को पुराणों ने सात द्वीपों में विभाजित किया है और प्रत्येक द्वीप को सात वर्षों (देशों) में।3 यह बटवारा स्वायम्भू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने अपने पुत्रों में किया है। प्रियव्रत के दस पुत्र थे4 जिनमें से तीन तपस्वी हो गये। सात को उन्होंने कुल पृथ्वी बांट दी। प्रत्येक के बट में जो हिस्सा आया, वह द्वीप कहलाया। आगे चलकर इन सात पुत्रों के जो सन्तानें हुई उनके बटवारे में जो भूमि-भाग आया, वह वर्ष या आवर्त (देश) कहलाया। निम्न विवरण से यह बात भली भांति समझ में आ जाती है -

द्वीप - 1. जम्बू, 2. शाल्मली, 3. कुश, 4. क्रौंच, 5. शाक, 6. पुष्कर, 7. प्लखण


1. 'भारत भूमि और उनके निवासी', पृ. 251
2. 'आर्यों का मूल स्थान' चौदहवां अध्याय
3. पुष्कर द्वीप दो देशों (वर्षों) में ही विभाजित है और जम्मू द्वीप 9 वर्षों में
4. दस पुत्र दूसरी रानी के भी थे


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-3


अधिकारी - 1. अग्निध्र, 2. वपुष्मान, 3. ज्योतिष्मान, 4. द्युतिमान, 5. भव्य, 6. सवन, 7. मेधातिथि

जम्बू द्वीप आगे चलकर अग्निध्र के नौ पुत्रों में इस भांति बट गया-

1. भरतखण्ड के उपर वाला देश किम्पुरूष को मिला, जो उसी के नाम पर किम्पुरूष कहलाया। यही बात शेष 8 भागों के सम्बन्ध में भी है। जो देश जिसको मिला उसी के नाम पर उस देश का भी नाम पड़ गया,

2. हरिवर्ष को निषध पर्वत वाला देश (हरिवर्ष),

3. जिस देश के बीच में सुमेर पर्वत है और जो सबके बीच में है, वह इलावृत को,

4. नील पर्वत वाला रम्य देश, रम्य को,

5. श्वेताचल को बीच में रखने वाला तथा रम्य के उत्तर का हिरण्यवान देश, हिरण्यवान को,

6. श्रृंगवान पर्वत वाला सबके उत्तर समुद्री तट पर बसा हुआ कुरू-प्रदेश, कुरू को,

7. भद्राश्व जो कि सुमेरू का पूर्वी खण्ड है, भद्राश्व को,

8. इलावृत के पच्छिम सुमेर पर्वत वाला केतुमाल को और,

9. हिमालय के दक्षिण समुद्र का फैला हुआ भरतखण्ड नाभि को मिला ।

आज यह बता सकना कठिन है कि कौन-सा द्वीप कहां था? और उसके वर्ष (खण्ड, देश) आज किस नाम से पुकारे जाते हैं। विष्णु पुराण अंश 2, अध्याय 4 में इन द्वीपों का पता बताया गया है, किन्तु तब से भौगोलिक स्थिति में इतना परिवर्तन हुआ कि आज इन द्वीपों का ठीक स्थान जान लेना कठिन है। पुराणों के रचयिता ने जैसी बात सुनी थी, उसी के अनुसार उसका वर्णन कर दिया है। यह वर्णन प्रथम मनु के समय का है। तब से तो भूगोल में बड़े हेर-फेर हुए है। जल-प्रलय तो सातवें मनु के प्रारम्भिक समय ही में हो चुका था। इसके अतिरिक्त जहां समुद्र थे, आज रेत के बड़े-बड़े टीले हैं अथवा सहस्त्रों वर्ष पहले जहां जल ही जल दिखाई देता था, आज वहां आकाशचुम्बी पर्वत-मालाएं है।


1 . यह बटवारा क्रमश: है अर्थात जम्बू अग्निध्र को और प्लाक्षण मेघतिथि को मिला. श्रीमद्भागवत में वर्णित नामों में कुछ अंतर है
2 . विष्णु पुराण अंश 2 , अध्याय-1
3 . राजपूताने का उथला समुद्र. देखो 'भारतभूमि और उसके निवासी' पे. 21 , F E Partiger 'Ancient Indian Historical Tradition', p. 260
4 . कल्पों का इतिहास जानने वाले बताते हैं कि भारतवर्ष में सबसे पुराणी रचना आड़ावला (अरावली) विन्ध्यामेखला और दक्षिण भारत का पत्थर है. उनका विकास सजीव-कल्प में ही पूरा हो चूका था. उत्तर भारत अफगानिस्तान, पामीर, हिमालय, तिब्बत उस समय समुद्र के अन्दर थे. उसी प्राचीन समुद्र की लहरों में आड़ावला पर्वत को काट-काट कर उसके लाल पत्थर से मालवा का पत्थर बना दिया. द्वीतीय कल्प के अंतिम भाग खटिका (Cretaceous Period) युग से एक भारी भूकम्पों का सिलसिला आरंभ हुआ. जो तृतीय कल्प के आरंभ तक जारी रहा. उन्हीं भूकम्पों से हिमालय, तिब्बत, पामीर आदि तथा उत्तर-भारत के कुछ अंश समुद्र के ऊपर उठ गए. 'भारतभूमि और उसके निवासी पे. 19


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-4


फिर भी अनुमान के आधार पर पर्शिया और उसके निकटवर्ती देशों को शाक द्वीप कहने की कुछ इतिहासकारों ने हिम्मत की है। हमारे विचार में भी ईरान शाक द्वीप जंचता है, क्योंकि पुराणों में शाक द्वीप के ब्राह्मणों को मग लिखा है।1 और यह बात सर्वविदित है कि मग ईरानी ब्राह्मण थे जिन्हें पौराणिक कथा के अनुसार शाम्ब सूर्य-पूजा के निमित्त भारत में लाये थे। यह द्वीप प्रियव्रत ने अपने पुत्र ‘भव्य’ को सौंपा था।

जम्बू द्वीप के पच्छिमी किनारे के सहारे-सहारे प्लक्षण द्वीप था। आज का पच्छिमी तिब्बत और दक्षिणी साइबेरिया इसे समझा जा सकता है, क्योंकि विष्णु-पुराण में इसे जम्बू-द्वीप को घेरने वाला बताया है। इस द्वीप के अधिकारी मेधातिथि बनाये गये थे।

शाल्मली द्वीप में शाल के वृक्ष बहुतायत से पैदा होते थे। तब अवश्य ही नेपाल के पच्छिम से आरम्भ होकर यह द्वीप प्लक्षण तक फैला हुआ था। इक्षुर-सोद समुद्र को दोनों ओर से स्पर्श करने वाला पर्वत पुराणों में इसे कहा गया है। इससे यह तो साबित ही है कि ये दोनों द्वीप पास-पास थे। यह द्वीप वपुष्मान के बट में आया था।

कौंच द्वीप जो द्युतिमान को मिला था, वह भू-भाग हो सकता है जिसमें श्याम, चीन, कम्बोडिया, मलाया आदि प्रदेश अब स्थित हैं। यहां रूद्र की पूजा पुराण में होना बताई गई है। यहां रूद्र को तिग्मी कहा जाता था।

कुश द्वीप जयोतिष्मान को मिला था। आज इस भू-भाग को किस नाम से पुकारें तथा यह कहां पर था, यह पता पुराणों के वर्णन में कुछ भी नहीं मिलता है। इसमें एक मन्दराचल पहाड़ का वर्णन है। कल्पना से यह वही पहाड़ हो सकता है जिसे सूर्यास्त का पहाड़ कहा करते हैं। तब तो इस द्वीप का भू-भाग अमेरिका के सन्निकट रहा होगा।

लेकिन ऐतिहासिकों ने केवल शाक द्वीप की खोज में दिलचस्पी ली है। अथवा यह कहना चाहिए कि वे यहीं तक खोज करने में सफल हुए हैं।

इन समस्त द्वीपों में जम्बू-द्वीप सबसे बड़ा था। यदि पुष्कर को भी उसी का एक भाग मान लें तो फिर केवल छः द्वीप रह जाते हैं।


1 . विष्णु पुराण अंश 2 , अध्याय-4

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-5


जैन-ग्रन्थ इन द्वीपों की संख्या 16 तक मानते हैं।1 जैन हरिवंश-पुराण में जम्बू-द्वीप का इस तरह वर्णन है - यह लवण समुद्र तक है। बीच में इसके सुमेर पर्वत है। इसमें सात क्षेत्र (देश-वर्ष-आवर्त) हैं।2 छः कुल पर्वत हैं एवं चौहद महानदी हैं। पहला क्षेत्र (देश) भारतवर्ष सुमेर की दक्षिण दिशा में है, 2. हेमवत, 3. विदेह, 4. हरि, 5. रम्यक, 6. हैरण्यवत, 7. ऐरावत सुमेर के उत्तर में है।3 जैन अथवा ब्राह्ममण दोनों के पुराणों में यह भौगोलिक वर्णन प्रायः एक-सा है। जो भी अन्तर है वह नगण्य है।

हरिवर्ष को ऐतिहासिक लोग यूरोप मानते है।4 मानसरोवर के पच्छिम और सुमेर पर्वत के बीच के देश रम्य और भद्राश्व थे। यह काश्मीर का उत्तरी प्रदेश रहा होगा। केतुमाल देश को एशियाई माइनर समझना चाहिए। यह वर्तमान रूस का दक्षिणी-पूर्वी भाग था, क्योंकि पुराण इसे इलावृत के पच्छिम में बताते हैं।5 कुरू आज का मध्य-ऐशिया अथवा पूर्वी साइबेरिया था। इस विष्णु-पुराण ने समुद्र के किनारे और सब देशों के उत्तर में बताया है। किम्पुरूषवर्ष तातारियों का देश समझना चाहिए। इसका पता उसी पुराण में भारत के उत्तर में सबसे पहले के स्थान में बताया है। इलावृत को सुमेर के चतुर्दिक फैला हुआ प्रदेश माना गया है

आर्यों की दूसरी टोली इलावृत देश से भारत में आई बताई जाती है। पुराणों में विवस्वान मनु का भी स्थान सुमेर पर्वत बताया जाता है, जो कि इलावृत के मध्य में कहा गया है। इस तरह पहली टोली के मान्व-आर्य और दूसरी टोली के ऐल-आर्य एक ही महादेश के निवासी सिद्व होते हैं, किन्तु ऐल लोगों के साथ कुरू लोगों का भी एक बड़ा भाग था। मालूम ऐसा होता है, ऐल की कुरू देश में बसने के कारण कुरू कहलाते थे। पुराणों में इला का चन्द्र पुत्र बुध की स्त्री कहा गया है। इल-बुध सहवास से पुरूरवा हुए। भारत के समस्त चन्द्रवंशी क्षत्रिय पुरूरवा की ही संतति माने जाते हैं।

भारत में आने के पश्चात्

भारत में कहां से और किस तरह आर्य लोग आए, यह तो उपर वर्णन किया जा चुका है। अब यह देखना है कि भारत में आने के पश्चात् उन्होंने क्या किया तथा उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?


1 . जैन हरिवंश पुराण, सर्ग 5
2 . हिन्दू पुराण 9 क्षेत्र मानते हैं
3. जैन हरिवंश पुराण, सर्ग 5
4. 'भारतवर्ष का इतिहास' भाई परमानन्द रचित (प्रकरण दूसरा)
5 . विष्णु पुराण अंश 2 , अध्याय-1


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-6


सबसे पहला कार्य जो उन्हें करना पड़ा, वह भूमि को अधिकृत करके बस्तियां बसाने का था। बड़े-बड़े घने जंगलो को काटकर, दलदलों को सुखाकर, बस्तियां बसाई गई। अनेक इतिहासकार मानते हैं कि आर्यों के भारत में आने पर उन्हे यहां की आदिम कौमों के साथ युद्ध करने पडे़।1 यही नहीं, पहले आए हुए आर्यों को पीछे से आने वालों के साथ युद्ध करना पड़ा। ऋग्वेद में दाश्राज्ञ-युद्ध की चर्चा को इतिहास-वेत्ता इतिहास मानकर उस युद्ध को चन्द्रवंशी और सूर्यवंशियों का युद्ध मानते हैं। कारण कि उस स्थल पर अनु, द्रुह्य (चन्द्रवंशी) और सुदास, दिवोदास (सूर्यवंशी) व्यक्तियों के नाम आते हैं।2 वेदों में ऐसी प्रार्थना है, जिनमें इन्द्र से युद्ध में विजय-हेतु प्रार्थना की गई है। यथा -

यो नो दास आर्यो वा पुरूष्टु ता देव इन्द्र युधये चिकेतति

अर्थ - हे इन्द्र ! हमसे जो युद्ध करना चाहता हो, वह दास हो, आर्य हो अथवा अदेव (असुर) हो। (कोई हो उसका नाश करो) ऋ. मं. 10 सूक्त 38 कां. 3।

दास से यहां भारत के मूल निवासियों से तात्पर्य है। असुर वे लोग थे, जिन आर्यो को भारतीय आर्य ईरान में छोड़ आये थे। अथर्ववेद में भी उनके स्थलों पर युद्ध के विवरण मिलते हैं, जिनमें से कुछ यहां देना हम उचित समझते हैं।

हंत्वेनान् प्रदहत्वरिर्यों नः पृतन्यति।

क्रव्यादाग्निना वयं सपत्नान् प्रदहामसि।।

अथर्ववेद 13.1.29

अर्थ - अग्नि के स्वभाव वाला तेजस्वी पुरूष इन शत्रुओं को मारे और जो शत्रु सेना लेकर हमें विनाश करता है, उसको पूर्वोक्त अग्नि अच्छी तरह जला दे। कच्चा मांस खाने वाले शवाग्नि के समान अति उग्र स्वभाव के पुरूष द्वारा हम शत्रुओं को जला दिया करें।

अग्ने सपत्नानधरान् पादयास्मद्ब्यथया सजातमुत्पिपानं बृहस्पते

अथर्ववेद 13.1.31

अर्थ - हे अग्ने! तू हमारे शत्रुओं को नीचे गिरा दे। हमारे समान बल वाले और हमसे उंचे होते हुए (शत्रुओं) को हे वृहस्पति! पीड़ित कर।


स्थानाभाव से ये थोड़े से उद्धरण दिए जा रहे हैं, सो भी इसलिए कि पाठकों को यह समझने में कोई कठिनाई न रहे कि भारत-आगत आर्यों का बहुत सा समय युद्ध करने में बीता।


1 . ये आदिम लोग भी हमारे खयाल से तो आर्य ही थे, जो जल प्रलय के समय यहाँ आ गए थे, अथवा पहले से मौजूद थे, इसमें अनेक मत हैं.
2 . महाभारत मीमांसा, सी. वी. वैद्य लिखित, पृ. 142 -168


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-7


अनेक संघर्ष और युद्धों के पश्चात् मान्व-आर्य पूर्वोत्तर भारत में और ऐल-आर्य पच्छिमोत्तर भारत में फैल गए। गंगा-यमुना के द्वाबे और पंचनद की भूमि अधिकांश मे ऐल आर्यों के और सरयू हिमालय की तलहटी और विन्ध्याचल की समीपवर्ती (उत्तरी भारत की) भूमि मान्व आर्यों के अधिकार में आ गई। मध्य-भारत की भूमि में वे सिकुड़कर इकट्ठे हो गए, जिन्हें आर्य अपने से अयोग्य समझते थे और जिन्हें इतिहासकार भारत के आदिम निवासी मानते हैं। मान्व आर्यों ने जो पीछे से सूर्यवंशी कहलाने लगे थे अयोध्या, मिथिला, काशी और ऐल (चन्द्रवंशी) आर्यों ने प्रयाग, हस्तिनापुर आदि सर्वप्रथम प्रसिद्ध बस्तियां आबाद कीं। इस समय को वैदिक-काल नाम देना सर्वथा उपयुक्त है। इस वैदिक-काल में भारतीय आर्यों की धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति क्या थी इस बात का वर्णन प्रत्येक इतिहास-प्रेमी के बड़े लाभ की बात है। इसीलिए संक्षेप से हम यहां तद्विषयक सामग्री उपस्थित करते हैं।

वैदिक-कालीन स्थिति

धर्म

सत्याचरण ही वैदिक-काल में मुख्य धर्म था। ईश्वर के विषय में सबके एक से विचार थे। सभी उसको सर्व-शक्तिमान, अजन्मा, निराकार, सर्वज्ञ और अनादि मानते थे। अग्नि, इन्द्र, विष्णु, रूद्र, मरूत, शिव और बृहस्पति आदि अनेक चमत्कारिक नामों से उसे पुकारने की भी प्रणाली थी। उसे (ईश्वर को) प्राप्त करने के लिए साधनों की खोज की जा रही थी। पंच-यज्ञों का आविष्कार हो चुका था। मन्दिर, मठ, देवालय आदि तब तक कुछ भी नहीं बने थे। उसकी खोज के लिए ऋषि-मुनि बनना कर्तव्य समझा जाता था। ऋषि ही उस समय के धार्मिक नेता थे।

समाज

व्यवसाय के ढंग पर संगतराश, बढ़ई आदि की उत्पत्ति अथर्व-काल में हो चुकी थी, किन्तु कोई जाति-पांति का पचड़ा न था। वर्ण-व्यवस्था का अंकुर लगातार युद्धों के कारण प्रकट होने लग गया था, किन्तु वह सुव्यवस्थित रूप में स्थापित नहीं हुआ था। विवाह-सम्बन्ध दूध बचाकर होते थे, क्योंकि गोत्र प्रवर आदि की रचना का आरम्भ वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में हुआ था। एक समुदाय का एक ऋषि हुआ करता था, वह उस समुदाय का संचालक समझा जाता था वैदिक उत्तरार्द्ध काल में विवाहों के ढंग आठ प्रकार के बन चुके थे ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-8


स्त्रियों को पहले पति के मरने पर दूसरा पति कर लेने की आजादी थी । आर्य-दस्यु का प्रश्न तो चल रहा था किन्तु छूत-छात अथवा उंच-नीच का पचड़ा उस समय तनिक भी न था। अधिकांश जन-समूह मिट्ठी के घर बनाकर रहने लग गए थे। स्त्रियों का पुरूषों के बराबर ही सम्मान होता था। वह पर्दे के अन्दर बिल्कुल नहीं रहती थी। यज्ञ आदि शुभ कर्म में वह पूर्णतः भाग लेती थीं। घर के काम-धन्धों में उनकी सलाह ली जाती थी। सी.वी. वैद्य लिखते हैं कि भारत में आने पर आर्यों के ब्राह्मण और क्षत्रिय दो दल हो गए थे। यज्ञ-ज्ञान करना ब्राह्मण का काम था और लड़ना-भिड़ना क्षत्रिय का। परन्तु विवाह-शादियों में कोई भेद-भाव न था और यह क्रम कुछ न कुछ रूप में भारतीय-युद्ध तक रहा। क्षत्रिय ब्राह्ममण भी हो सकता था। विश्वामित्र आदि इसके उदहारण हैं ।

आर्थिक

सभी लोग पशु पालते थे, यहां तक कि ऋषि भी अपने आश्रम में गाय रखते थे। सभी लोग खेती करते थे। खेती और पशु रक्षा के लिए तथा गायों की वृद्धि के लिए वेदों में अनेक स्थलों पर प्रार्थना की गई है। जैसे -

यां रक्षन्त्यस्वप्ना विश्वदानीं देवा भूमिं पृथिवीमप्रमादम् ।

सा ना मुध प्रियं दुहामथो उक्षतु वर्चसा ॥ अथर्ववेद 12.1.7

अर्थ - जिस धन अन्नादि के उत्पन्न करने वाली पृथ्वी को आलस्य रहित सदा जागने वाले, सचेत देव, बिना प्रमाद के सदैव रक्षा करते हैं, वह हमें प्रिय मधु के समान मधुर मनोहर अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न करे और (साथ ही) हमें तेज और बल से पुष्ट करे।

यस्यामन्नं ब्रीहियवौ यस्या इमाः पंचकृष्टयः ।

भूम्यै पर्जन्यपत्नयै नमोस्तु वर्षमेदसे ॥ अथर्ववेद 12.1.42

अर्थ - जिस पर अन्न, खाने योग्य पदार्थ धान्य और जौ जाति के अन्न नाना प्रकार के उत्पन्न होते हैं और जिससे ये पांच प्रकार के कृष्टय-मनुष्य पैदा होते है। उस भूमि को जिसमें वर्षा होने पर खूब अन्न होता है, उसे हम नमस्कार करते हैं।


1. विधवे व देवरम् ऋ . 10 /40 /2 हस्ताग्राभस्यादि दिपो. ऋ. 10 /18 /8
2. आर्य संस्कृति का उत्कर्षापकर्ष
3. 'स्पृश स्वाथजिर्वि विदध मा वदासि' अथर्व 10 /1 /21 (हे स्त्री!) तू ज्ञान वृद्धि हो सभा में भाषण कर
4. महाभारत मीमांसा, पृ. 169 -198


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-9


पृथिवीं त्वा पृथिव्यामा वेशयामि तनूः समानी विकृता त एषा ।

यद्यद् द्युतं लिखितमप्रणेन तेन मा सुरत्रेर्ब्रह्मणापि तद् वपामि ॥ अथर्ववेद 12.3.22

हे पृथ्वी ! तुझ (पृथ्वी) को तुझ (पृथ्वी) में ही स्थापित करता हूं । यह बिगड़ी हुई देह भी पूर्व के समान ही है। इसमें जो कुछ जुत गया है, या हल चलाने से खुद गया है, उससे अपना सार भाग नष्ट मत कर। उसको भी मैं अन्न द्वारा बो देता हूं ।

शिवा भव पुरूषेभ्यो गोभ्यो अश्वेभ्यः शिवा।

शिवास्मै सर्वस्मै क्षेत्राय शिवा न इहैधि।। अथर्ववेद 3.28.3

अर्थ - हे स्त्री! तू पुरूषों, गौओं, घोड़ों तथा गृह सम्बन्धी सर्व स्थानों में हमारे लिए कल्याणकारी बनकर आ।

वेदो में कम्बल का जिक्र कई स्थलों में आता है। तन्तुकार शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इससे मालूम होता है कि वस्त्र बुनने की, विशेषतया ऊनी वस्त्र बुनने की कला का आविष्कार हो चुका था। सारांश यह है कि भोजन सम्बन्धी सामग्री उत्पन्न करने तथा वस्त्र तैयार करने में वैदिक कालीन आर्य निपुण हो चुके थे । वैदिक-साहित्य में धन का जिक्र तो आता है, किन्तु सिक्कों का जिक्र नहीं आता। धातुओं के आभूषणों का नाम नहीं मिलता।

राजनीति

आरम्भिक वैदिल-काल में आर्यों को अपनी बुद्धि युद्ध करने की कलाओं व साधनों पर व्यय करनी पड़ी थी। भूमि को अन्य लोगों से अपने काबू में करने के लिए तथा प्राचीन निवासियों को अपने अधीन करने के लिए उन्होंने एक अत्यन्त उपयोगी और अचूक साधन निकाला था और वह साधन था यज्ञ। पहले कुछ ऋषि किसी उत्तम भू-भाग पर पहुंचकर यज्ञ-स्थल तैयार करते थे और यदि यज्ञ विरोधी समुदाय यज्ञ करने से मना करते तो युद्ध आरम्भ हो जाता था और यज्ञ-रक्षा के नाम पर सारा आर्य-समूह प्राण देने को एकत्रित हो जाता था। यज्ञ के समय नौजवानों से शुत्रुओं के विरूद्ध प्रतिज्ञा कराई जाती थी। यथा -


1 . द्विनति कृष्या गौर्धनाद . अथर्व संहिता कां. 12 सू. 2 मं. 37


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-10


वयं शूरेभिरस्तृभिरिन्द्र त्वया युजा वयम् । सास ह्याम पृतन्यतः॥ (ऋग्वेद 1.8.4) ।

वयं जयेम त्वया युजा वृतमस्माकमंश-मुदवा भरे भरे।

अस्मभ्यमिन्द्र वरिवः सुगं कृधि प्रशत्रूणां मघवन् वृष्ण्या रूज।।’ (ऋग्वेद 1.102.4)

अर्थ - हे इन्द्र! हम तेरे समीप (रहकर) तथा अस्त्रों का प्रयोग करने वाले शूरवीरों के सहवास में रहकर सेना के साथ आक्रमण करने वाले शत्रुओ का पराभव करें।

हे ईश्वर सम्पन्न प्रभो! हम तेरे समीप रहकर घेरा डालने वाले शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें। हे देव! युद्ध में तू हमारे भाग (पक्ष) की रक्षा कर। हे इन्द्र! ऐसा कर जिसमें हमें सुलभता से धन मिला करे और शत्रुओं का बल क्षीण हो, उनका सर्वस्व नष्ट हो जाए।’


यज्ञों से समाज-संगठन भी खूब हुआ। श्री दिवेकर शास्त्री लिखते हैं - यज्ञ संस्था ने आर्यों के सामाजिक जीवन पर अच्छा प्रकाश डाला था । इस संस्था के कारण

  • (1) गोत्र-प्रवर का सम्बन्ध स्थिर हो गया,
  • (2) गान और नृत्य की सुधरी हुई कला का प्रादुर्भाव हुआ,
  • (3) प्राणी-शास्त्र की उन्नति हुई,
  • (4) जंगली और बिछुडे़ हुए समाज उत्सव के निमित्त से इस संस्था में सम्मिलित हो गए,
  • (5) अनेक लोगों के सम्मिलित हो जाने के कारण व्यवहार धर्म उत्पन्न हुआ,
  • (6) यज्ञ सामाजिक सम्पत्ति के उपभोग का साधन बन गया,
  • (7) अग्नि-होत्र के साथ-साथ उपनिवेश-स्थापन-कार्य सुगम हो गया,
  • (8) धीरे-धीरे व्यापार-वृद्धि का सहायता मिली,
  • (9) सबसे बड़ी बात तो यह हुई कि ज्यों-ज्यों समाज बढ़ता गया त्यों-त्यों संघ निर्माण करने की कल्पना उत्पन्न होती गई। इन संघों में एक्य स्थापित करने के हेतु सार्वराष्ट्रीय-धर्म का प्रादुर्भाव हुआ,
  • (10) यज्ञ के लिए अनके विद्वान् एकत्रित होने लगे और तत्वज्ञान की उन्नति को प्रोत्साहन मिलने लगा ।

वास्तव में राष्ट्र-निर्माण में यज्ञ-कर्म से आर्यों को बहुत सहायता मिली। यज्ञ के कारण ही वह वैद्यक-शास्त्र के अभिज्ञाता हुए। वेदों में अनकी औषधियों का वर्णन है। उन औषधियों का अनुभव यज्ञ से ही हुआ था। परम्परा से आई हुई कच्चा मांस खाने की कुटेव भी यज्ञों के ही कारण छूटी थी। जैसा कि अथर्ववेद के वाक्य से प्रकट होता है-

अयज्ञियो हतवर्चा भवति नैनेन हविरत्तवे।

छिनत्ति कृष्या गौर्धनाद्यं क्रव्यादनुवर्तते।।’ (अथर्ववेद 12.2.37)

अर्थ - जिसके पीछे कच्चा मांस खाने वाला बाघ के समान (व्यसन) लग जाता है, वह यज्ञ के अयोग्य और निस्तेज हो जाता है। उसके हाथ से यज्ञ का हवि न खावे। वह खेती-बाड़ी, गौ, धनादि से भी वंचित हो जाता है और भी -


1. आर्य संस्कृति का उत्कर्षापकर्ष पृ.39-40


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-11


अग्ने अक्रव्यान्निः क्रव्यादं नुदा देवयजनं वह। (अथर्ववेद 12.2.42)

अर्थ - है अग्ने! तुम मांसाहारी नहीं। मांसभक्षी जनों को परे करो। देवों की उपासना करने वाल सज्जनों को हमें प्राप्त कराओ।

यज्ञ क्रिया ने आर्यों को मुर्दों का जलाना भी सिखाया था। क्योंकि गाड़ने तथा जल में बहा देने और हवा में सुखा देने के ढंगों से वह औषधियों के साथ मुर्दे का जलाना अच्छा समझने लग गये थे। यज्ञ करने के कारण उनमें साफ सुथरे और पवित्र रहने के भाव भर गए थे। यज्ञ का परिणाम था कि आर्य अनेक प्रकार के मिष्ठान्न वगैरह बनाना सीखने लगे। अग्नि-बाण, विद्युत, वज्र आदि के बनाने की क्रिया उनके मस्तिष्क में यज्ञ करने के कारण ही उत्पन्न हुई थी। तात्पर्य यह है कि राष्ट्र का सुसम्पन्न यज्ञ-संस्था के द्वारा ही आर्यों ने बनाया था।

शत्रुओं पर घेरा डालना, उनसे रक्षा के लिए दुर्ग बनाना आदि वह वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में खूब जान गये थे।

विशेष घटना

इस वैदिक काल की विशेष घटना यह हुई कि ईरान स्थित आर्यों ने अपना अलग धर्म खड़ा कर दिया। मूल तत्वों में कोई भेद न था, फिर भी कुछ गौण में अन्तर पड़ ही गया। कुछ इतिहासकारों का कथन है कि - ईरानी आर्य उन लोगों का समुदाय था जिन्हें भारतीय आर्य मध्य-एशिया से भारत आते समय ईरान में छोड़ आए थे। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सरस्वती तीर के आर्य ही ईरान जाकर बसे थे। कोई-सा भी मत सही हो, किन्तु यह बिल्कुल ठीक है कि ईरानी और भारतीय आर्य एक ही परिवार के दो दल थे। भारतीय लोग देवासुर संग्राम नाम से बहुत परिचित हैं। लेकिन उनमें से देवासुर संग्राम के विषय में जानकारी बहुत कम रखते हैं। भारतीय आर्यों का देव ही ईरानी आर्यों का असुर है। जिन्दोवेस्ता में देव या सुर को अदेव या असुर से नीच माना गया है। किन्ही-किन्ही विद्वानों का कथन है कि भारतीय आर्य सोमरस पीना पसन्द करते थे और ईरानी आर्य सोमरस को सुरा समझते थे। इसलिए वह सुरा के पीने वालों को सुर नाम से, अपने पक्ष के नेताओं को असुर ‘जो सुरा न पिए’ नाम से पुकारने लगे।


1. लोकमान्य तिलक इस मत के समर्थक देशी इतिहासकारों में मुख्य स्थान रखते हैं.
2. एसेन्स ऑफ़ लेंग्वेज जि. 1 पृ. 235 - आर्यों का मूल स्थान अध्याय में.
3. ईरानियों की धर्मपुस्तक अथवा वेद.
4. भारत का राष्ट्रीय इतिहास अप्रकाशित, दी होम ऑफ़ दी ऋषि (ऋषियों का स्वदेश) पृ. 56


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-12


पार्सी भाषा में ‘स’ के स्थान पर ‘ह’ का प्रयोग होता है। इसलिए ईरान में अपने प्रिय असुर को अहुर बोलते थे और ईश्वर के लिए अहुर-मजद, किन्तु पीछे ईरानी आर्य भी सुरा-सेवी बन गए। इसीलिए जिन्दावस्ता में जहां सोम (पार्सी नाम हाओम) की निन्दा है, वहीं आगे चलकर हाओम (सोम) की प्रशंसा भी की गई है। अध्यापक विनोद बिहारीराय इस प्रसंग में लिखते हैं-


देवासुर संग्राम - यदिच पार्सी और हिन्दू दोनों जाति के पुरखे पहले एक ही जाति के थे, एकत्र रहते थे और एक ही सामाजिक और धर्म एवं नैतिक रीति-नीति पर चलते थे तथापि उनके बीच में परस्पर बहुत वैर हो गया था और इसी विरूद्धता के कारण एक दूसरे से पृथक् होकर दो जाति हो गए। इस विरूद्धता का कारण निरूपण करना सहज नहीं है। वर्णन पर सोच-विचार करने से ऐसा बोध होता है कि महात्मा जरदुरत्र और उनके विचार वाले लोग तीखी सोम के पीने के विरूद्ध थे और कृषि कार्य में उन्नति करने को जोर देते थे किन्तु एक बड़ा समूह न सोम को छोड़ना चाहता था और न किसी स्थान पर रहकर खेती-कार्य में लगना चाहता था वरन किसी अधिक रम्य देश की खोज में था। इसी पर दोनों दलों में भयंकर युद्ध भी हुआ। हमारे बाप-दादे हिन्दूकुश को पार करके भारत में आ गए और जरदुरत्र के साथी ईरान में रह गए। ईरानी धर्म-ग्रन्थ जिन्दावेस्ता में एक स्थल पर इस देवासुर संग्राम का वर्णन इस प्रकार है -

मैं अन्द्र (इन्द्र) शौर्व (शर्व) और देव नाओघैथ्य (नासत्य) को इस घर से, इस गांव से, इस नगर से, इस देश से, इस पवित्र अखंड जगत् से निकाल देता हूं।

पौराणिक हिन्दू देवासुर युद्ध का कारण यों बताते हैं कि-समुद्र मंथन से सुधा या अमृत की उत्पत्ति। देवताओं ने छल से असुरों को अमृत पीने से वंचित रखा। या सुधास्वरूप मानते हैं और चन्द्रमा का एक दूसरा नाम सोम भी बताते हैं। सो वैदिक सोमरस पुराणों में अमृत या सुधा कहलाता है। देवगुण इसके पीने की बड़ी कामना रखते थे। यह बात कि देवताओं ने असुरों को धोखे में अमृत पीने नहीं दिया, हिन्दुआकं की मन गढ़न्त कथा है। असल बात तो यह है कि असुर के उपासक पार्सियों के पूर्व पुरूषों ने देवों के उपासक हिन्दुओं के पूर्व पुरूषों को सोम व अमृत-पान का विरोध किया और इसीलिए दोनों में युद्ध हुआ।


1. आवस्ता प्रश्न 32/3/48/10
2. दी होम ऑफ़ दी ऋषि (ऋषियों का स्वदेश) पृ. 57
3. इंडो आर्यन आर्टिकल 'प्रीमीटिव आर्यन्स' डॉ. राजेन्द्र लाल मित्र द्वारा लिखित
4. देखो जन्द आवास्ता दसवां फर्गद


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-13


जरदुरत्र के साथियों में, विस्ताश्प एक मुख्य योद्धा था, जिसे वेद में इष्टाश्व के नाम से पुकारा गया है। यथा -

किमिष्टाश्व इष्टरश्मिरेत ईशानासस्तरूषं ऋंजते नॄ न। (ऋगवेद 1.122.13)

अर्थ - जगत के शासन कर्ता इष्टाश्व और इष्टरश्मि हमारे आश्रय देने वालों का क्या कर सकते हैं ।

ये उदाहरण तो हुए भारतीय और ईरानी आर्यों की विरूद्धता के कारणों के सम्बन्ध में, अब उनके आवस्तिक और वैदिक धर्म में कहां तक समानता है, यह दिखाना भी जरूरी समझते हैं।

आवस्तिक और वैदिक धर्म में समानता - वैदिक ऋषि दो लकड़ियों को घिसकर आग बनाते थे। पार्सियों में भी यही रीति प्रचलित थी। हिन्दू अग्नि-होत्री अपने घर में पवित्र अग्नि-स्थापन करते थे। पार्सी लोग भी अपने घर में पवित्र अग्नि की आज तक रक्षा करते हैं। हिन्दू विवाह के समय अर्यन देवता का मन्त्र पढ़ते हैं। पार्सी भी विवाह के समय ऐर्यमन देवता का मंत्र पढ़ते हैं। अवेस्ता में ‘अथूब’ और ‘जओता’ नाम के दो प्रकार के पुरोहित पाए जाते हैं, जो वेद में ‘अथर्वन’ और ‘होता’ नाम पुरोहितों से मिलते हैं। पार्सियों के क्रिया-धर्म में दूध, मक्खन, मांस, फल, हाओम (सोम), भेड़ के रोम, पत्तों के गुच्छे और पकवान का व्यवहार दृष्टिगोचर होता है। हिन्दू भी लगभग अपने क्रिया-कर्म में ऐसी ही वस्तुओं का व्यवहार करते हैं। पार्सियों की इजश्ने और वैदिकों की ज्यातिष्टोम यज्ञ-क्रिया एक ही थी। वैदिकों की आप्ती, दर्श-पौर्णमास और चातुर्मास्य यज्ञों की गजह पर आफिगान, दरून गाहानवर, आवास्तिक कृत्य हैं। कुछ अन्तर के साथ दोनों वर्गों में यज्ञोपवीत एक सी ही थी। दोनों ही शुद्धि के लिए गौ-मूत्र और नदियों के जल का प्रयोग करते थे। मूर्ति-पूजा वेद और अवेस्ता दोनों ही में नहीं थी। तात्पर्य यह है कि कुछ मतभेदों के कारण ईरानी और भारतीय आर्य अलग प्रदेशों में बस कर तथा अलग-अलग धर्म-ग्रन्थ रचकर भी मूल-तत्वों में एक ही थे। यह क्रम भी बराबर जारी रहा था। कभी भारतीय ईरानी आर्यों में मिल जाते थे और ईरानी भारतीय आर्यों में। सूर्य नामक देव बहुत काल तक ईरानियों का साथी रहा, फिर भारतीय में मिल गया। किन्तु यम जो सूर्य का पुत्र समझा जाता है और शुक्र सदैव ईरानियों के साथी रहे। शुक्र अथवा उशना के मुकाबले का एक देव बृहस्पति भारतीयों का पूरा मददगार था। ऋग्वेद में इनको भी कहीं-कहीं पर असुर कहा है, इसके अर्थ यही हैं कि आरम्भ में भारतीय आर्य असुर शब्द को अधिक घृणा की दृष्टि से देखने की अपेक्षा अच्छा समझते थे, किन्तु ज्यों-ज्यों संघर्ष बढ़ा, भारतीय आर्यों को असुर शब्द उल्टा जंचने लगा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-14


ब्राह्मण-काल (जिस समय शतपथ आदि ब्राह्ममण-ग्रन्थ बने थे) में यह युद्ध समाप्ति पर था और रामायण-काल में देवासुर-संग्राम बिल्कुल मिट चुका था। रामायण-काल में आर्य, राक्षस, वानर, गन्धर्व-युद्धों की चर्चा मिलती है। इस काल (रामायण-काल) में भारत, ईरान के आर्यों में परस्पर व्यापारिक व राष्ट्रीय सम्बन्ध कायम हो गए थे। रामायण-काल में आर्यों की क्या स्थिति थी वह नीचे के विवरण से जानी जा सकती है।

रामायण कालीन स्थिति

धर्म

ऋषियों का स्थान ब्राह्मणों ने ले लिया - वैदिक-काल के ऋषियों के अनुभव श्रृंखलाबद्ध हो चुके थे और लोग उन्हीं अनुभवों अर्थात् आर्ष वाक्यों पर चलना अपना कर्तव्य समझते थे। ईश्वर-प्राप्ति के लिए यज्ञों के अलावा योग और एक नया साधन सामने आ चुका था। आश्रमों की पाबन्दी पूर्णतया की जाती थी। राजा लोग भी चौथेपन में तप करने के लिए चले जाते थे। सत्य बोलना सबसे बड़ा धर्म समझा जाता था। ऋषियों का स्थान ब्राह्मणों ने ले लिया था, जिनको दान देने और लेने की प्रणाली बढ़ती चली गई।

समाज

चारों वर्णों का निर्माण - चारों वर्णों का निर्माण हो चुका था। उनके अपने अलग-अलग कर्तव्य भी नियत किये जा चुके थे, किन्तु अभी प्रतिबन्ध (सीमा) नहीं हुआ था। वर्ण बदल सकता था, फिर भी ब्राह्मण वर्ण के हाथ में समाज की बागडोर बहुत कुछ आ चुकी थी। उनका प्रभाव रात-दिन बढ़ता जाता था। वे राज-शक्ति को अपने हाथ में नहीं लेते थे, किन्तु राजा का बनाना-बिगाड़ना उनके हाथ में था। ब्राह्मणों के बढे़ हुए अधिकारों के विरोध में कुछ क्षत्रिय सिर भी उठा रहे थे। दक्षिण का कार्तवीर्यार्जुन ऐसे लोगों में उल्लेखनीय है। ये स्वतन्त्र विचार के क्षत्रिए अपने ऊपर ब्राह्मण-वर्ग का प्रभुत्व स्वीकार नहीं करना चाहते थे। दत्तात्रेय तो यहां तक विरूद्ध हुए कि उन्होंने ब्राह्मणों की अपेक्षा पशु-पक्षियों को गुरू बना डाला। सरस्वती-आश्रम में ऐसे क्षत्रियों को दण्ड देने के लिए परशुराम के नेतृत्व में ब्राह्मणों का एक बड़ा संगठन उदय हुआ।1 कार्त्तवीर्यार्जुन जैसे विचार के क्षत्रियों का ध्वंस करके ब्राह्मणों ने बगावत को दबा दिया और उन क्षत्रियों की सन्तान को क्षत्रियत्व से पतित करार दे दिया। कायस्थ, आभीर आदि उन्हीं प्राचीन क्षत्रियों की औलाद में से हैं, जिन्हें परशुराम के दल के ब्राह्मणों ने परास्त किया था।2 ब्राह्मण-क्षत्रिय संघर्ष का यह एक बड़ा धमाका था, किन्तु खेद है कि इस विषय की पूरी सामग्री नहीं मिलती।


1. परशुराम लेखक नरोत्तम व्यास
2. एवं हत्वार्जुनं राम: संधाय निशिञ्छ ताञ्छरान | अन्वया वत्स तान्हन्तुं सर्वनेवासु रान्नृपान ||87|| तदा राम भयात्सर्वे नाना वेश धरा नृपा: | स्वं-स्वं स्थानं परित्यज्य यत्र कुत्र गता: किल ||88|| चान्द्रसेनीय कायास्थोत्पत्तिमादस्कार्दे रेणुका महात्म्य | अर्थ - परशुराम सहस्रार्जुन को मारकर पृथ्वी के अन्य राजाओं को मारने को दौड़े, तब राजा लोग इधर-उधर छिप गए.


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-15


स्त्रियों का समाज में सम्मान - स्त्रियों का समाज में वैदिक-काल के ही अनुसार सम्मान था, किन्तु इस काल में उनकी आजादी सीमित हो चुकी थी। विवाह स्वयम्वर होते थे, किन्तु सवर्णीय विवाह होने की मर्यादा बांधी जा रही थी, फिर भी ब्राह्मण-क्षत्रियों के परस्पर यत्र-तत्र सम्बन्ध हो जाते थे।1 राज-काज में वह समान भाग लेती थीं। युद्धों में भी शामिल होती थीं। बहु-विवाह की प्रथा थी, पर आदर्श एक पत्नीव्रत ही में समझा जाता था। स्त्रियां यदि चाहती थीं, तो विधवा होने पर पत्नीव्रत कर सकती थीं। चौथेपन में वह पतियों के साथ सन्यास भी ले सकती थीं। राज-घरों में दासी और धात्री भी रखी जाती थीं।2


पुत्र पिता की आज्ञा मानना अपना सबसे बड़ा कर्तव्य समझते थे। आज्ञापालन में तर्क को स्थान न था। अपने पिता की कीर्ति बनाये रखने का वह सदैव प्रयत्न करते थे। भाई-भाई प्रेम से रहते थे। पिता का उत्तराधिकारी जयेष्ठ पुत्र समझा जाता था।

अर्थव्यवस्था

गाय, बैल, घोड़े, भेड़ और महिषी पालने का सभी वर्ग का धन्धा था। राजा लोग या रानियां स्वयं दूध दुहने में लज्जा न समझते थे। ऋषि-लोग भी आश्रमों में गौ-बैल रखते थे। अनेक आश्रमों में तो खेती भी होती थी। अच्छे-अच्छे बाग-बगीचे3, तालाब, वावड़ी बनने लग गए थे। नगरों के पास सरोवर खोदे जाते थे। नगरों में रास्ते भी होते थे। कपास बोई जाती थी। रेशम के वस्त्र तैयार होने लग गये थे। लोग नावों द्वारा व्यापार करते थे।


1. ययाति क्षत्रिय का देवहुति ब्राह्मण -कन्या से और अगस्त्य ऋषि का लोपमुद्रा क्षत्रिय से विवाह था. (भारत का धार्मिक इतिहास, पृ. 81 )
2. ज्ञाति दासी यतो जाता कैकेय्य . सहोषिता. (२) अविदूरे स्थितां दृष्ट्वा धात्रीं प्रपच्छ मन्थरा. वाल्मीकि अयोध्या कांड सर्ग छटा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-16


उड़ाके वातायन जहां-तहां तैयार होते थे। नदियों के पुल बांधने और इमारत बनाने की कला की तरक्की हो रही थी। 1कुछ पुरोहितों को छोड़कर सभी लोग खेती करते थे।2 सिक्कों के लिए निष्क और मुद्रा3 का प्रयोग कहीं-कहीं मिलता है। छटांक के लिए कन्वांस का प्रयोग भी मिलता है।

साहित्य

वैदिक-काल से रामायण-काल तक साहित्य काफी बढ़ चुका था। ब्राह्मण ग्रन्थ एवं उपनिषदों की रचना हो चुकी थी। ज्योतिष4, विज्ञान और वैद्यक का लोगों को काफी ज्ञान हो गया था। साहित्य लेख-रूप में आ चुका था। भोज-पत्रों पर लिखने की प्रणाली आरम्भ हो गई थी।

राजनीति

प्रजा का विराट रूप (अराजकपना) घटता जा रहा था। राजा का महत्व बढ़ता जा रहा था। राजा का चुनाव वंशानुगत होता जा रहा था। फिर भी राजा पर नियंत्रण करने के लिए शक्तिशाली मन्त्रिमण्डल रहता था|5 जिनमें एक धर्माध्यक्ष अर्थात् पुरोहित रहता था। अयोग्य राजा को गद्दी से हटाने का मन्त्रिमंडल का पूरा अधिकार रहता था। ऋषि लोगों से किसी किस्म का कर नहीं लिया जाता था, न भूमि पर कोई निश्चित कर था। किसी खास अवसर पर प्रजाजन राजा को भेंट दिया करते थे।6 रामायण-काल के उत्तरार्द्ध में भूमि की पैदावर का छठा हिस्सा राजा को दिया जाता था। न्याय का कार्य राजा तथा मंत्रि-मंडल करता था। अभियोग (मुकदमे) नाम मात्र को ही चलते थे, किन्तु किसी भी भांति की कोई फीस न थी। प्रजा के सभी लोग बलवान और युद्ध-प्रिय थे। अलग फौज रखने का रिवाज बहुत कम था। आवश्यकता पड़ने पर राष्ट्र की रक्षा के लिए खुद देश तैयार हो जाता था।


1. कर्मान्तिकान् शिल्पकारान्वर्धकान् खानकानपि | वा.रा. बाल कांड सर्ग 13
2. तत्रासीत पिंगलो गार्ग्य स्त्रिजटोनाम वै द्विज: | क्षतवृतिर्वनेनित्यं फाल कुद्दाल लांगली| वा.रा. यो. कांड सर्ग 28, अर्थ - वहां पर एक भूरे रंग का गर्ग गोत्रोत्पन्न ब्राह्मण त्रिजटा नाम था, जो फावड़ा, कुदाल और लम्बा डंडा लेकर वन में निर्वाह करता था|
3. तं ते निष्क सहस्त्रेण ददामि द्विज पुंगव: | वाल्मीकि अयोध्या कांड सर्ग 28
4. अद्य चंद्रोभ्युपगमत्युष्यात्पूर्वं पुरर्वसुम् | वाल्मीकि रामायण चतुर्थ सर्ग
5. अष्टौवभूबुवीर्रस्य तस्यामात्यायश स्वि न: वाल्मीकि बाल कांड सर्ग 7
6. बलिषड् भाग मुद्धृत्य नृपस्यारक्षितु: प्रजा: वाल्मीकि अयोध्या कांड सर्ग 57


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-17


फिर भी राजमहलों और नगर के मुख्य द्वारों की रक्षा के लिए प्रहरी रखे जाते थे। जितनी सेना रखी जाती थी उसमें रथी, घोडे, हाथी, पैदल चतुरंग हुआ करते थे।1 युवराज भी राजकाज में भाग लेता था। सन्धि-विग्रह के सन्देश के लिए राजदूत रखे जाते थे। अनेक प्रकार के अस्त्रों का निर्माण हो चुका था। बेहोश करने वाला विषाक्त अस्त्र भी उस समय तैयार हो गया था किन्तु उसे प्रयोग में बहुत कम लाया जाता था।

वेष-भूषा

पुरूष धोती बांधते थे जिसे शाटी कहते थे2 और अंग को एक दुपट्टे से ढक लेते थे। कुछ लोग जांघिया भी पहलते थे। स्त्रियां साड़ी पहनती थीं। आज का गुजराती स्त्रियों का फैशन उस समय के स्त्री पहनावे से मिलता-जुलता है। उपरी वस्त्र के लिए उत्तरीय कहते थे। पैरों में काठ के खड़ाऊं पहने जाते थे। कानों में कुण्डल पहनने की स्त्री-पुरूष दोनों में प्रथा थी। हाथ में कंगन और गले में हार कमर में कौंधनी पैरों में नूपुर स्त्रियां पहनती थीं।3 चूड़ियों का आविष्कार न हुआ था। जंगलों में रहने वाले ऋषि-मुनि केवल एक ही वस्त्र से काम चला लेते थे।

विशेष चर्चा

रामायण-काल में देवासुर संग्राम का जिक्र नहीं है और यदि कहीं असुर शब्द आया है तो वह ईरान के लोगों के लिए नहीं, किन्तु राक्षस आदि यज्ञ-विरोधी जातियों के लिए आया है। इस काल में आर्य विन्ध्याचल को पार कर चुके थे और वे लगातार दक्षिण की ओर बढ़ रहे थे। विन्ध्याचल के दक्षिण-पश्चिम में वानरों की आबादी थी। पंपा सरोवर इनका मुख्य स्थान था। गोदावरी, ताप्ती, तुंगभद्रा के किनारे पर भी वानरों की बस्तियां थीं। वानरों की बस्तियों के सन्निकट ही राक्षसों के जनपद थे।


1. यं यान्त मनुया तिस्म चतुरंग बलम् महत् | वा.रा.यो. कांड सर्ग 31
2. स शाटी पारित कव्यां संभ्रांत: परिवेष्टयताम् | वा.रा.यो. कांड सर्ग 28
3. जातरूप मयैंर्मुख्यै रंगदै: कुंडलै: शुभै: सहेम सूत्रैर्मणिभि: केयूरैर्वलयैरपि || हारं च सूत्रं च भार्या ये सौम्यहास्य | रशनाचाथ सा सीता दातुमिच्छिते सखै || वाल्मीकि अयोध्या कांड 3 सर्ग 28


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-18


दंडकारण्य के निकट तथा पंचवटी के समीप राक्षसों के कई छोटे-छोटे जनपद थे। तिब्बत और मानवसरोवर के निकट देव लोगों की बस्तियां थी।1 देवों के निचले भाग में यक्ष और गंधर्व रहते थे। भारत के पश्चिमी किनारे की ओर आज के महाराष्ट्र देश में नागों की बस्तियां थीं किन्तु दक्षिण-भारत में राक्षसों का प्राबल्य था। राक्षस भी मनुष्य ही थे किन्तु वह आर्यों की यज्ञ-प्रथा के विरोधी थे2 और आर्य संस्कृति के प्रभाव को भी नहीं बढ़ने देना चाहते थे। अभक्ष्य भक्षण करने में बिल्कुल आजाद थे। रात्रि के समय शत्रु पक्ष पर धावा करने में विशेष चतुर थे। सभ्यता में भी बढ़े-चढ़े थे। बुद्धिमानी में आर्यो से किसी कदर भी कम न थे। वानर लोगों को कुछ लोग आज के बर्बरों के आदिम पुरूष मानते हैं किन्तु वानरों में से आज भी एक कुल ऐसा है, जो राजपूतों में शामिल है।3 वानर हमारे विचार से भारत के आदिम निवासी हो सकते हैं अथवा उस आर्य समुदाय के थे जो ईरान से बलोचिस्तान और फिर बम्बई अहाते से विन्ध्य के दक्षिण में पहुंच गए थे। ये लोग यज्ञ-प्रथा से न तो प्रेम करते थे न यज्ञों के विरोधी थे। बड़े लड़ाकू थे। फल-फूल और मेवा खाना अधिक पसन्द करते थे । युद्धों में पत्थर और लक्कड़ों से काम लेते थे। विवाह के मामलों में आजाद थे किन्तु अपनी ही जाति के साथ विवाह करना अधिक पसन्द करते थे। कुछ लोग अन्य जाति और देश की भी स्त्रियों के साथ विवाह कर लेते थे। यह अपने दल-पति की संरक्षा में लड़ने को हर समय तैयार रहते थे। खेती व व्यापार का इनमें बहुत कम रिवाज था। शत्रु को बांधने के लिए हर समय लूम बांधे रहते थे। आर्य-सभ्यता से इन्हें प्रेम था और चलकर उसी में दीक्षित हो गए। नागों का रामायण-काल में कोई महत्वपूर्ण जिकर नही है।4 जहां-तहां निषादों के भी छोटे-छोटे राज्य थे।


1. कैलासे, मंदिरे, मेरु तथा चैत्रायेवने | देवोद्यानेपु सवेषु विहृत्य सहिता त्वया | वाल्मीकि युद्ध कांड सर्ग 51
2. आर्यों का मूल स्थान अध्याय 11
3. आज्ञा पयन्तदा राज: सुग्रीव: प्लवगेश्वर: | और्ध्व देहिक मार्यस्य क्रियता-मनु फूलत: वाल्मीकि किष्किन्धा कांड सर्ग 15 , अर्थ - वानरेश्वर राजा सुग्रीव ने आज्ञा दी भाई बाली का प्रेत-कार्य आर्य-रीत्यानुसार किया जाय.
4. भूत लोग रात को छापा मारते थे | अकेले दुकेले मनुष्यों को लूट लेते थे | मौका पाकर स्त्रियों तथा बच्चों को उठा ले जाते थे अथवा किसी नशीली वास्तु से बेहोश कर देते और फिर उचित रिश्वत लेकर छोड़ देते या ठीक कर देते थे|


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-19


मान्ववंशी आर्य रामायण-काल में आज के बिहार में पहुंच गए थे और मिथिला में उनका एक घराना राज करता था। राजा जनक इसी घराने के दशरथ के समकालीन राजा थे। विशालपुरी में राजा सुमति राज करता था। दक्षिण कौसल में राजा भानुमान का राज था। चन्द्रवंशियों का समुदाय अंग देश तक पहुंच गया था और राजा रोमपाद1 अंग देश में राज करते थे।

वास्तव में रामायण काल में आर्य-सभ्यता पूर्ण यौवन पर थी। पिता के आगे न पुत्र मरते थे और न विधवाएं होती थीं और ऐसा होता भी था तो उसमें राजा का कसूर समझा जाता था। प्रजा के स्वास्थ्य और जान-माल का राजा उत्तरदायी समझा जाता था। इतिहासकार रामायण के पश्चात्-आर्य संस्कृति का समय विभाजन करते हुए महाभारत-काल की चर्चा करते हैं। यह काल-विभाजन ऐसा है जिसका प्रयोग देशी-विदेशी दोनों प्रकार के इतिहासवेत्ता करते हैं। हम भी उसी मार्ग का अनुसरण करते हैं।

महाभारत-कालीन आर्य-स्थिति

धर्म

महाभारत-काल से हमारा तात्पर्य उस समय से है, जिस समय युद्ध हुआ था। इसलिए हम उसी काल के समय का वर्णन करेंगे। उस समय ईश्वर के सम्बन्ध में सबका एक ही ख्याल था। वह यह कि ईश्वर एक है किन्तु कपिल जैसे विद्वान सांख्य ज्ञान द्वारा एक बीच के मार्ग से ले जाकर आत्म-शान्ति दिलाने का उद्योग कर रहे थे। यज्ञों का इस समय भी पूरा महत्व था किन्तु यज्ञों में हिंसा बढ़ती जा रही थी। आरम्भ में यज्ञों का जो आदर्श था अब वह नहीं रहा था। उपनिषदों तथा गीता के पाठ से मालूम होता है कि आत्मवाद पर अधिक जोर दिया जा रहा था। अब यज्ञ राष्ट्र की अपेक्षा व्यक्ति के लाभ के लिए अधिकांश में किए जाते थे। यम-नियमों का खूब पालन किया जाता था। यद्यपि समस्त लोक वैदिक धर्मावलम्बी थे किन्तु उसे सार्वभौम-धर्म बनाने की उत्कण्ठा कृणवन्तो विश्वमार्यम् अब शिथिल होती जा रही थी। समाज

आश्रम-धर्मों का पालन होता था, किन्तु उसमें शिथिलता आ रही थी। चौथेपन में संन्यास धारण करने की प्रथा बहुत कम शेष थी। हां, विवाह ब्रह्मचर्यावस्था को पार करने पर ही होते थे।


:1. भागवत नवम स्कंध में 'रोमपाद' को चंद्रवंशी माना है.


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स्वयंवर विवाहों के साथ-साथ गंधर्व विवाहों की भी प्रबलता थी। बहु-पत्नी प्रथा के साथ-साथ बहु-पति प्रथा भी प्रचलित थी।1 तिब्बत, भूटान आदि देशों में यह प्रथा अब भी प्रचलित है। विनायकराव चिन्तामणि वैद्य लिखते हैं कि, वन पर्व अध्याय 268 की घटना से सिद्ध होता है कि क्षत्रियों का पुरातन काल से यह धर्म रहा होगा कि विवाहित स्त्री तक उसके पति को जीतकर हरण की जा सकती है। द्रौपदी का हरण करने वाले जयद्रथ से धौम्य ऋषि ने यही कहा था कि पहले इसके पति को जीत।

इस काल में यह नियम बंध चुका था कि प्रत्येक वर्ण को अपने ही वर्ण की स्त्री से विवाह करना चाहिए। खास अवस्थाओं में नीचे के वर्ण की स्त्री से विवाह किया जा सकता था। अन्तर्राष्ट्रीय विवाह बराबर होते थे।

नियोग - नियोग की प्रथा तो भारतीय आर्यों में वैदिक-काल से ही चली आती थी। बाइबिल के पढ़ने से तो पता चलता है कि भारत के बाहर ज्यू लोगों में भी यह प्रथा प्रचलित थी। पति की आज्ञा से अथवा पति के मरने पर स्त्री अपने देवर आदि से केवल सन्तान लेने के लिए, समाज की जानकारी में, नियोग कर सकती थी। पति के भाई तथा उसी के नाते के कुटुम्बी पुरूष से सन्तति उत्पन्न करने का नियम होने से हीन-वर्ण होने का अन्देशा न था। समाज का बल मनुष्य-संख्या पर अवलम्बित था, इस कारण प्राचीन समाजों में नियोग आवश्यक माना जाता था। पीछे काफी मनुष्य-संख्या होने और एक पतिव्रत के प्रचार के लिए नियोग-प्रथा बन्द कर दी गई।

पर्दा-प्रथा - भारतीय-युद्ध के समय पर्दे की प्रथा न थी। सुभद्रा, द्रौपदी, सत्यभामा के चरित्रों से यह बात सिद्ध है, किन्तु महाभारत के उत्तर-काल में पर्दा-प्रथा भारत में घुसने की चेष्टा कर रही थी। महाभारत-काल में स्त्रियों की आजादी वैदिक-काल तो क्या रामायण-काल के भी बराबर न थी। वह पति की सम्पत्ति समझी जाती थीं, उन्हे व्यक्ति-स्वातन्त्रय भी न था। जुए के दावों पर भी स्त्रियों का रख देते थे। वे युद्धों में जाती थी, किन्तु लड़ाई में सहयोग नहीं देती थीं। पाक-शास्त्र में इस समय स्त्रियों का पाण्डित्य बढ़ रहा था।

विवाह के विषय में इस समय एक और भी बन्धन था, वह यह कि ज्येष्ठ भाई से पहले छोटे भाई का विवाह करना पातक समझा जाता था।2


1. एक स्त्री के अनेक पति करने की प्रथा उन चंद्रवंशी आर्यों में थी, जो हिमालय से नए-नए आये थे | द्रौपदी के उदहारण से यह बात माननी पड़ती है | इसमें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य बात यह है कि अनेक पति विभिन्न कुटुम्बियों के नहीं, एक ही कुटुंब के सगे भाई होते थे| महाभारत मीमांसा सी.वी. वैद्य रचित
2. महाभारत शांति पर्व अध्याय 34


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वर्ण-व्यवस्था - वर्ण-व्यवस्था प्रौढ़ अवस्था को पहुंच चुकी थी। ज्ञान-सम्बन्धी कुछ बातें भी ब्राह्मणों के लिए सुरक्षित रखी जाने लगी थीं। ब्राह्मण शास्त्र के कार्य के अलावा शस्त्र का भी काम करते थे किन्तु क्षत्रियों को ब्राह्मणों के शास्त्र-विषयक कामों के करने का अधिकारी नहीं समझा जाता था। वर्ण को अपरिवर्तनशील (न बदलने वाला) करार दिया जा रहा था फिर भी ब्राह्मणेतर (ब्राह्मणों के सिवाय) वर्ण के लोग इस बात को मानने के लिए तैयार न थे। मतंग ऋषि ने स्पष्ट कहा था-

इदं वर्षसहत्रं वै ब्रह्मचारी समाहितः।
अतिष्ट मेकपादेन ब्राह्मण्यं नाप्नुया कथम्।।
अहिंसा दम मास्थाय कथं नार्हामि विप्रताम् (अनु. पर्व अ. 29)

अर्थात हजारों वर्ष से सावधानी के साथ मैं ब्रह्मचर्य धारण के साथ एक पग से स्थित होकर अहिंसा और इन्द्रिय-दमन का पालन कर रहा हूं। फिर क्या कारण है कि मैं ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ब्राह्मणत्व न प्राप्त कर सकूंगा। युधिष्ठिर के विचारों से भी यही बात मालूम होती है कि अन्य वर्ण के लोग इस बात को मानने से सहमत नहीं थे कि-

ब्राह्मण्यं दुष्प्राप्यं निसर्वाद्ब्राह्मणः शुभे।
क्षत्रियो वैश्य शूद्रो वा निसर्गादिति मे मतिः।। (अनु. पर्व अ. 143)

अर्थात् (शिवजी कहते हैं) ब्राह्मणत्व सहज में प्राप्त नहीं होता, मेरे मत से ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र प्राकृतिक है। युधिष्ठर जैसे लोगों का तो दावा यही था कि वर्ण परिवर्तनशील है, जैसा कि वह सर्प-संवाद में कहते हैं-

शुद्रे तु यद्भवेल्लक्ष्म द्विजे तच्च न विद्यते।
न वै शूद्रो भवच्छूद्रो ब्राह्मणों न च ब्राह्मण:।। (शान्ति पर्व)

अर्थात् - शूद्र में ब्राह्मण के लक्षण दिखाई दें और ब्राह्मण में शूद्र के तो न शूद्र, शूद्र है और न वह ब्राह्मण, ब्राह्मण। किन्तु ब्राह्मण वर्ग पूरा प्रयत्न कर रहा था कि अन्य वर्णों में से अब ब्राह्मण बनना बन्द हो जाए। परशुराम द्वारा कर्ण को क्षत्रिय जान लेने पर शाप देने की कथा गढ़ी जाने का तात्पर्य यही है कि ब्राह्मण वर्ग अपने से इतर वर्ग को सम श्रेणी में आने से रोक रहा था।

स्पष्टवादिता - सत्यवादिता की भांति स्पष्टवादिता भी इस काल के मनुष्यों का एक खास गुण था। वे मनोगत भावों को प्रकट करने में कुछ भी आगा-पीछा न करते थे। मन में कुछ और मुंह में कुछ की आदत उनमें न थी। क्रोध के समय में दांत पीसना, होंठ चबाना, हथेली मलना, आनन्द के समय सिंहनाद करना, किलकार


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मारकर हंसना, उछलना-कूदना और वस्त्र उड़ाना उनकी आदतों में शामिल था।1

अपने से बड़ों का आदर करना, प्रातः काल उठकर एक दूसरे का अभिवादन करना, माता-पिता के चरण छूना, बड़ों की आज्ञा का कष्ट सहकर पालन करना, भारत-कालीन आर्यों का मुख्य गुण था।

पहनावा

पगड़ी का प्रचलन - रामायण-काल से महाभारत-काल तक पहनावे में कोई अन्तर हुआ था तो यह कि पगड़ी का प्रचलन और हो गया था। पगड़ी को उष्णीष2 कहते थे। औढ़ने के वस्त्र को उत्तरीय और पहनने के वस्त्र को अन्तरीय नाम से पुकारते थे। स्त्रियां केश-रचना में कला प्राप्त कर चुकी थीं। वे मांग काढ़ती थीं और केशों को संवारकर चादर के नीचे पीठ की ओर डाल लेती थीं। लाख की चूड़ियों का आविष्कार हो चुका था। आभूषण पहनने का स्त्री-पुरूष सभी को शौक बढता जाता था । रेशमी, उनी सभी प्रकार के वस्त्र देश-काल के अनुसार पहने जाते थे।

अर्थ, उद्योग-धन्धे

भारतीय युद्ध के समय लोगों का मुख्य धन्धा खेती ही था। बाग-बगीचे भी खूब लगाए जाते थे। खेती के बाद गौ-पालन का धन्धा था। राजा लोगों के द्वारा हजारों ही गाय-बैल रखे जाते थे। रंगाई का आविष्कार हो गया था। खानों में से सोना भी निकाला जाता था। सोने के अनेक नामों से लोग परिचित थे।3 इमारतें तथा सड़कें बनाने में लोग बहुत दक्ष हो गए थे। मय के बनाए मायागृहलाक्षभवन इसके उदाहरण हैं। गौओं के लिए गोचर-भूमि अधिक से अधिक मात्रा में छूटी हुई थी। जंगलो और चारागाहों के ऊपर राजाओं का कोई अधिकार न था। व्यापार रामायण-काल से अधिक उन्नति पर था। पण और निष्क सिक्के चलते थे। जंगल काटकर नई-नई बस्तियां बसाई जा रही थी।

राजनीति

जिस समय भारतीय युद्ध हुआ था, उस समय भारत की राजनैतिक स्थिति संघर्षात्मक थी। कुछ लोग साम्राज्यवाद को अच्छा समझते थे और कुछ प्रजातन्त्र शासन को। एक समुदाय ऐसा भी था जो बिल्कुल अराजकतावाद था।


1. कर्ण पर्व अध्याय 23
2. उष्णीषणि नियच्छत: पुण्डरीक निभै: करै| अन्तारीयोत्तरीयाणि भूषणानि च सर्वश: || (महाभारत उत्तर-पूर्व अध्याय 15 श्लोक 20)
3. सभा पर्व अध्याय 52 जातरूप सोना


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वह किसी भी भांति की राज-सत्ता को मानने के लिए तैयार न था। जरांसघ, कंस, शिशुपाल, कालयवन-वासदेव (काशी) दन्तवक्र, दुर्योधनादि ऐसे लोगों में से थे जो साम्राज्यवाद तथा एकतंत्र के समर्थक थे। श्रीकृष्ण, सुभद्रबाहु, भोज और कुंकौंतेय प्रजासत्तात्मक शासन-प्रथा के पोषक थे। नाग, तक्षक आदि लोग नितान्त अराजकतावादी थे। पूर्व में जरासंघ ने अनेक छोट-छोटे शासकों को बन्दीगृह में डालकर उनके राज्य को नष्ट कर दिया था। उत्तर-भारत में दुर्योधन पांव फैला रहा था, दोआबे में कंस ने यादवों के छोटे-छोटे राज्यों को हड़प लिया था। गोपा-राष्ट्र और नव-राष्ट्र उसने अपने राज्य में मिला लिए थे।

पौराणिक कथाएं इस महाभारत-कालीन संघर्ष को धार्मिक रूप देकर उसकी वास्तविकता पर आवरण डाल देती हैं, किन्तु फिर भी असल वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। श्रीकृष्ण ने सबसे पहले गोप लोगों की सहायता से कंस-राज्य को नष्ट किया और मथुरा में भौज्य शासन-व्यवस्था स्थापित की। आगे चलकर ये लोग द्वारिका पहुंच गये थे। इनके शासन-संघ की विशेष चर्चा हम आगे करेंगे। कंस-राज्य को नष्ट करने के पश्चात्1 पांडवों को सहायता देकर दुर्योधन के दल को परास्त किया। इसी बीच में जरासंघ को मारकर पूर्व के साम्राज्य के टुकड़े कर दिये।

भारत-कालीन साहित्य को देखने से पता चलता है कि भारतवर्ष अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था जिनमें भिन्न-भिन्न प्रकार की शासन-व्यवस्था थी। किसी-किसी राज्य में तो दो-चार गांव ही हुआ करते थे। पांडव भी दुर्योधन से केवल पांच गांव मांग रहे थे। जिस राज्य पर जो लोग शासन करते थे उसी देश के नाम से उनका वंश पुकारा जाता था, किन्तु देश का नाम भी उन्ही लोगों के किसी गुण, उपाधि आदि पर रखा जाता था। महाभारत ग्रन्थ में तत्कालीन दो सौ से अधिक राज्यों व वंशों का जिक्र है। ये सब प्रायः एक ही धर्म के मानने वाले और एक ही भाषा-भाषी थे। इनमें परस्पर युद्ध भी हुआ करते थे किन्तु पराजित कर देश उससे छीना नहीं जाता था। पराजित राज्य जेता (विजयी) को भेंट आदि दिया करते थे।2


:1 . भागवत की कथाओं से पता चलता है कि श्रीकृष्ण ने सबसे पहले कंस के द्वारा उगाहे जाने वाले टैक्सों को बंद किया. गोप लोग जिनके यहाँ गौपालन का ही पेशा होता था, कंस को टैक्स के रूप में मक्खन पहुंचाया करते थे. श्रीकृष्ण ने ऐसे मक्खन को लूटना आरम्भ कर दिया. उसके महलों में दास-वृत्ति के लिए जाने वाली दासियों को बंद कर दिया.

2 . महाभारत मीमांसा पृ. 294 -344


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इन राज्यों में कोसल, विदेह, शूरसैन, कुरू, पांचाल, मत्स्य, मद्र, केकय, गांधार, वृष्णि, भोज, मालव, क्षुद्रक, सिन्धु, सौवीर, काम्बोज, त्रिगर्त, आनर्त्त ऐसे राज्य हैं जो ब्राह्मणकाल (ब्राह्मण-ग्रन्थ) से ही बराबर चले आते थे। इन देशों के नाम लोगों पर पड़े थे।

श्री रमेशचन्द्र दत्त ने ब्राह्मणकाल के राजाओं का पदवी-विभाजन इस प्रकार किया है - पूर्व के शासक को सम्राट नाम से पुकारा जाता था और दक्षिण के शासक भोज कहे जाते थे। पच्छिम देश के राजाओं की पदवी विराट थी और मध्य देश के राजा केवल राजा ही नाम से पुकारे जाते थे। पूर्व में सम्राज्य-भावना इसलिए पैदा हो गई थी कि वहां आर्य-अनार्य दोनों की जातियों का प्राबल्य था। अपनी सभ्यता का विस्तार शायद साम्राज्य शाही में ही हो सकता है। बौद्ध-ग्रन्थों से पता चलता है कि शक और लिच्छवी लोगों की शासन-सभा का प्रत्येक मेम्बर राजा कहलाता था।

महाभारत में गण-राज्य - महाभारत में गण-राज्यों का भी जिक्र है। गण वैदिक-काल में भी होते थे। गणानां त्वा गणपतिं हवामहे मंत्र में गण राज्यों के अधीश्वर का ही वर्णन है। महाभारत-काल में गणपति विशेष सम्मान की पदवी समझी जाती थी। उस समय संकेत, संसप्तक, उत्सव, गोपाल, नारायण, शिव, आदि गणों के नाम महाभारत ग्रन्थ से मिलते हैं। गण-राज्य युद्ध में बिना भेद के पराजित नहीं हो सकते थे।1 गण-राज्यों की प्रजा धनवान, शिक्षित और शूरवीर हुआ करती थी।2 किसी-किसी गण-राज्य में तो परदेशी लोगों का प्रवेश भी कठिन था। महाभारत-कालीन राजवंश और जनपदों की सूची इस प्रकार है -

पूर्व की ओर के देश व राजवंश 

हस्तिनापुर में कुरू लोग राज्य करते थे। यह स्थान गंगा के पच्छिमी किनारे पर आबाद था। इनके पूर्व में पांचालों का राज था। इस राज्य की सीमा गंगा के उत्तर और यमुना के दक्षिण तक फैली हुई थी। इस राज्य का एक भाग द्रोण ने जीतकर कुरू राज्य में मिला दिया था, जिनकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (बरेली) थी। शेष भाग पर द्रुपद राज करता था। माकन्दी और काम्पिल्य इस राज के मुख्य नगर थे। कोसल (अवध) के दो भाग हो चुके थे-उत्तर-कोसल और दक्षिण-कोसल। इन पर रघु और निमि वंशी लोगों का राज था। गंगा-किनारे काशी में काश्य राज कर रहे थे।


1. भेद मूलोविनाशो ही गणनामुपलक्ष्ये | मंच संवरण दुखं बहु नामिति में (मतित: ||शांति पर्व अध्याय 108)
2. द्रव्यं बन्तश्च शूराश्च शास्रज्ञा: शास्न पाराग: (|शांति पर्व)


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इनके (काश्यों के) दक्षिण में मगध लोगों का राज्य था। मगध-प्रदेश की राजधानी राज-गृह तथा गिरिब्रज थी। इस राज्य की नींव डालने वाला बसु का पुत्र वृहदश्व था।1 हमारे ख्याल से चन्द्रवंशियों का यह समूह ईरान से यहां आकर आबाद हुआ था, क्योंकि ईरान में क्षत्रिय की संज्ञा मगध थी। मगध क्षत्रियों के नाम पर ही यह देश मगध कहलाया। इससे सटे हुए पांच प्रदेश थे - अंग, बंग, कलिंग, सुहच, और पुन्ड्र एवं ओड्र। महाभारत में इन्हें बलि की स्त्रियों से ऋषि दीर्घतमा की सन्तान बताया है। इससे मालूम होता है कि यह मिश्रित नस्ल के आर्य थे। अंग को आजकल चम्पारन, बंग को मुर्शिदाबाद, कलिंग को कटक, पौन्ड्र का पांडुचेरी और ओड्रक को उड़ीसा कहते हैं। कलकत्ता के निकट ताम्रलिप्तिक थे। कोई-कोई ताम्रलिप्तिक लंका के निकट मानते हैं। चित्रांगदा जिसे कि अर्जुन ने ब्याहा था, मणिमन (मणिपुर) देश की थी। इसमें नाग-वंशीय क्षत्रिय राज करते थे। इनके अतिरिक्त पुमाल, गोपाल, कक्ष, मल्ल, सुपार्श्व, मलंग, अनध, अभय, वत्स, शर्मक, वर्मक, शकवर्वर, दंडधार, चौदित्य आदि गण-राज्य थे।2

दक्षिण ओर के देश व राजवंश

अवन्ति आजकल का मालवा है। इसमें उस समय बिन्दु तथा अनुबिन्द नाम के दो राजा राज करते थे। यहां संयुक्त शासन प्रणाली थी। नर्मदा नदी के किनारे आज के बरार में विदर्भ लोगों का राज था। नैषध लोग निषध देश में राज करते थे। आजकल यह ग्वालियर प्रांत में शामिल है। चर्मणवती (चंबल) के किनारे (वर्तमान धौलपुर, ग्वालियर का भाग) कुन्तिभोज राज करते थे। यमुना के किनारे मथुरा और उसके निकटवर्ती देश पर सौरसैन शासक थे। सोरसैन के इर्द-गिर्द दशार्ण और यकृत-लोम थे। कुछ लोग दशार्ण मन्दसौर के पास बतलाते हैं। आज जहां महाराष्ट्र प्रदेश है, भारत-काल में वहां पर पांडु, गोप, मल, राष्ट्र थे। कुछ गोप मथुरा के आस-पास गोकुल में भी आबाद थे। आजकल के कोंकण में अपरान्त लोगों की शूर्पारक राजधानी थी। चोल (कोरोमंडल) पांड्य (ट्रिनेवली) द्रविड (तंजोर) माहिष (महसूर) केरल (ट्रावनकोर) आदि का भी महाभारत में वर्णन है। इनके अलावा कुन्तल, सेक, अपर सेक, मैंद, द्विविद, तालाकट, दंडक, करहाट, आन्ध्र, एकपाद, कर्ण प्रावण, पुरूषाद देश और राजवंश भी दक्षिण में भारतीय युद्ध-काल में अवस्थित थे।


1. आदि पर्व
2. सभा पर्व

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पश्चिम दिशा के देश और राजवंश

गान्धार जिसकी राजधानी पीछे पुरुषपुर (पेशावर) कहलाई, इसमें गान्धारों का राजा राज करता था। सिन्धु देश में जयद्रथ अपने सिन्धु राजवंश के साथ शासन कर रहा था। आजकल के काठियावाड़ में सौवीर शासक थे। कच्छ-देश में अनूप लोगों का राजवंश था, गान्धार के उत्तर में काश्मीर में राजा गोनर्द1 राज करता था। भारतीय-युद्ध के पश्चात् श्रीकृष्ण भगवान ने इसे मारकर इसकी रानी को शासक बनाया था। इनके अतिरिक्त मत्तमयूर, रोहितिक, शैरीषक, महतप, दर्शाह, शिवित्रिगर्त, अम्बष्ट, पंचकर्पट और वाटधान भी उस समय आज के मध्यभारत में आबाद थे। मद्र-देश में शल्य राज करता था।

उत्तर ओर के देश व राजवंश

तंगण और परतंगण हिमालय की पश्चिमी तलहटी में आबाद थे। भारत के उत्तर में अति दूर पर उत्तरकुरू देश था, इसी देश के पास में किम्पुरूष लोगों का राज्य था। कम्बोज और खस काश्मीर से आगे तिब्बत की सीमा पर राज्य करते थे। आज के अफगानिस्तान में दरद लोगों का राज था। त्रिगर्त, दार्व, कोकनद भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर आबाद थे। कुविन्द, आनन्द, तालकूट लोग उत्तर गुजरात के शासक थे। अन्तर्गिर, बहिर्गिर देश शायद बिलोचिस्तान के आस-पास रहे होंगे। शुंडिक, कर्क, त्रिपुर यह सब नेपाल के इर्द-गिर्द थे। नील लोग नीलगिरी मे राज कर रहे थे।2


ये देश व राज्य तो ऐसे हैं जिनके वर्तमान स्थान का पता इतिहासज्ञों ने लगा लिया है। इनके अलावा सैकड़ों छोटे-छोटे जनपदों का महाभारत में जिक्र है। जिनकी गणना हो सकी है वे निम्न प्रकार थे -

कुंभ, पांचाल, शाल्व, माद्रेय, जांगल, सुरसैन, पुलिंद, बोध, माल, मत्स्य, कुशल्य, कौशल्य, कुन्ति, कान्त, कौशल, चेदी मत्स्य, कुरूष, भोज, सिन्धु, पुलन्दक, उत्तम, दशार्ण, मेकल, उत्कल, नेकपृष्ट, धुरन्धर, गोध, मन्द्र, कलिंग, काशी, अपर काशी, जठर, कुकुर, आयाति, अपरकुन्ति, गोमन्त, मंडक, संड, विदर्भ, समवाहिक, अश्मक, पाण्डुराष्ट, गोपराष्ट, करीति, अधिराज्य, कुशाध्य, केवत, मल्लराष्ट्र, लाखास्य, यवाह, चक्र चक्राति, शक, विदेह, मगध, स्वक्ष मलज, विजय, अंग, वंग, कलिंग, यकृल्लोम, मल्ल, सुदेष्ण, प्रहलाद, माहिक, शशिक, बाल्हीक, आभीर, कालतोयक, अपरान्त,


1. राजतरंगिनी
2. भूगोल का विशेषांक जुलाई सन 1932


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परान्त, कालतोयक, मोह्म, कच्छ, सामुद्र, निष्कुट, बहु, अन्तगिर, वहिर्गिर, चर्ममंडल, अटवीशिखर, भेसभूत, अपावृत, अनुपावृत, स्वराष्ट्र, केकय, कुन्द, मानवर्तक, समतर, प्रावृमेष, भार्गव, पुन्द्र, मर्ग, किरात, सुद्रष्ट, यामुन, शक, निषाद, निषद, आनर्त्त, नैऋतु, दुरूल, प्रति मत्स्य, कुन्दला, तीरगृह, ईजक, कन्यक, शुण, तिलभार, मसीर, मधुवत, सुकन्दक, काश्मीर, सौवीर, गांधार, दशैक अभिसार, उलूत, शैवल, वाहीक, रार्वाचव, नव, दर्व, वातज्ञ, दश, पारश्वरोम, कुशाविन्द, कच्छ, गोपाल कच्छ, सुदाम, सुमल्लिक, नारायन, बर्वर अमरथ, उरग, वदुवाय, बध्र, करीषक, उपत्यक, वनायु, सिद्ध, बैदेह, ताम्रलिप्तक, ओन्द्र, मलेच्छ, सैसिरन्धु, पार्वतीय, केरल, प्राच्य, मूषिक, वनवासी, कर्नाटिका, विकल्प, मूषक, झिल्लीक, सोह्रद, नमकानन, कोकुटक, चौल, कोंकण, मालवना, समेग, करक, स्त्रोष्ठ, कुकर, अगार, मारिष, ध्वजिनी, उत्सव, संकेत, त्रिगर्त, व्यूक, कोकवक, समवेगवश, चिन्ध्य, चुलिक, पुलिंद, वल्कल, मालव, वक्कव, अपार वक्कव, कालाद, कुंडल, करट, मूषक, स्तनवाल, स्नीय, घट, संजय, अठिदाय, शिवाट, तनय, सुनष, ऋषिभ, विदर्भ, काक, अपरमलेच्छ, चीन, क्रूर, यवन, कम्बोज, सकृदगृह, कलक, हूण, पारसीक, दश, मालिक, आभीर, काश्मीर, यशु, खाशीर, अन्तचार, पल्हव, गिर गह्यर, आत्रेय, भरद्वाज, स्तनयोषिक, प्रोषक, तोमर, हन्यमान, कर भंजक

इनसे उपर भी कुछ जनपद थे जो एक-एक गांव के ही राज्य थे।

इन राज्यों में से अधिकांश में लड़ाई-भिड़ाई के लिये वैतनिक सैनिक रखे जाते थे, किन्तु युद्ध के समय प्रजाजनों में से स्वयंसेवक सैनिक भी काफी संख्या में मिल जाते थे। राजधानी और राजा की रक्षा के लिये किले बनाने की आवश्यकता भी महाभारत कालीन आर्यो को हो चुकी थी।

महाभारत ग्रन्थ में दुर्ग - महाभारत ग्रन्थ में छः प्रकार के किलों (दुर्गों) का वर्णन है।

  • 1. निर्जन दुर्ग रेतीले मैदानों से घिरा हुआ,
  • 2. गिरि दुर्ग पहाड़ी किला,
  • 3. भूदुर्ग जमीन पर,
  • 4. मिट्टी का किला,
  • 5. नर-दुर्ग छावनियों से घिरा हुआ,
  • 6. अरण्य दुर्ग जंगली झाड़ियों से घिरा हुआ।

किलों में पानी और अन्न का पूरा प्रबन्ध रहता था।1


यद्यपि एक तंत्र शासन-प्रणाली यौवन पर थी, किन्तु मंत्रियों का प्रभाव राजा पर पूरा रहता था। प्रत्येक राजा को आठ मंत्री रखने होते थे।2 कहीं-कहीं राजा लोग अठारह मंत्री भी रखते थे।

भूमि-कर के अलावा व्यापारिक महसूल भी भारतीय काल में लिया जाता था। व्यापारिक महसूल वाणिज्य पर पचासवां भाग लिया जाता थ।


1. शांति पर्व अध्याय 86
2. शांति पर्व अध्याय 85


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-28


जमीन की पैदावार पर पुरातन नियम के अनुसार पैदावार का छठवां भाग लिया जाता था।1 इसे उगाहने का काम ग्रामाधिपति (नम्बरदार) करता था। ग्राम-ग्राम में ऐसे अनाज के कोठे भरे रहते थे। पैदावार का छठा हिस्सा राजा को दिया जाता था, किन्तु जमीन पर सत्ता प्रजाजनों की ही रहती थी। कृषक जमीन के पूर्णतया मालिक होते थे। वे उसे बेच सकते थे, गिरवी रख सकते थे। जंगलों, नदियों, पहाड़ों और तीर्थों पर किसी का स्वामित्व नहीं था।2

सभा-पर्व के पढ़ने में पता चलता है कि प्रत्येक गांव में एक पंचायत होती थी। प्रशस्ता (सरपंच), समाहर्ता (वसूलकर्ता), सम्बिधता (नियामक), लेखक और साक्षी उनकी उपाधियां होती थीं।3

इस काल में हाथी, घोड़े और रथों का रखना लोगों को अधिक पसन्द था। लड़ाई में ये खूब काम आते थे। विमान भी थे।

विशेष

महाभारत-काल में दानव, प्रेत, भूत आदि जातियां भी थीं। दानव लोग बस्तियों के निकट के जंगलों में रहते थे। ये अपना आतंक जमाने के लिए नर-हत्या कर डालते थे। जो गांव इनसे भयभीत हो जाते थे, वे इनके लिए टैक्स बांध देते थे। ये मायावी भी होते थे। लोग इनका मुकाबला करने से इसलिए भी डरते थे। रात के समय नगर में घुसकर बच्चे और स्त्रियों को उठा ले जाते थे। पर उनकी संख्या बहुत कम थी।

इस काल के राजा लोग गौ पालना, घोडे़ की सेवा करना, आदि काम स्वयं भी करते थे।

महाभारत में तक्षक लोगों का जिक्र है। यह समुदाय अराजकतावादी था। देहली के निकट खाण्डव वन में, पंजाब में ‘तक्षशिला’ और मथुरा के पास कालीदह आदि में अनेक स्थानों पर इनकी बस्तियां थीं। ये स्वतन्त्रताप्रिय लोग थे। अर्जुन ने इनके खाण्डव-वन को जला डाला था। परीक्षित को इसी जाति के एक नौजवान ने राज-सभा में घुसकर धोखे से मारा था। जन्मेजय और तक्षकों का तो एक भयंकर युद्ध हुआ। जन्मेजय ने इस अराजकतावाद समूह को नष्ट करने के लिए भारी नृशंसता से काम लिया था। इन्हीं की लगभग सौ किस्मों में से कुछेक ही शेष रह गई।


1. आद दीत वलिम चापि प्रजाभ्य: कुरु नंदन | स पड़ भाग मपि प्राज्ञस्ता सामे वाभि गुप्तये (शांति पर्व अध्याय 69 )
2. तस्मात्व क्रीत्वा महीं दद्यात्स्वल्पा मपि विचक्षण | (अनुशासन पर्व 67 /34 )
3. अटवी , पर्वताश्चैव नद्दस्तीर्थानि पानिच | सर्वान्य स्वामी कान्या हुर्नास्ति तत्र परिग्रह: (अनुशासन पर्व 67 /34 )


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महाभारत का सर्प-सत्र इस तक्षक-जन्मेजय युद्ध का इतिहास है। उसे धार्मिक रंग देकर वर्णन किया गया है किन्तु वास्तव में वह अराजकतावादी समूह से राज्यवादी समूह का युद्ध था।

इसी काल में श्रीकृष्ण भगवान ने एक फेडरेशन (संघ) कायम किया। वह संघ ज्ञाति कहलाता था और उसके मेम्बर कहलाते थे ज्ञात, ज्ञातु अथवा ज्ञातृक। महाभारत में इस संघ का वर्णन शान्ति पर्व के 81 वें अध्याय में है। उस संघ में आरम्भ में दो राजनैतिक दल थे - एक श्रीकृष्ण के जाति वाले बृष्णि और दूसरे उग्रसेन वभु् के साथी अन्धक। पुराण और महाभारत से यह भी मालूम होता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् ऐसी क्रान्ति हुई, जिसके कारण, पाण्डवों को हस्तिनापुर और यादवों को द्वारिका छोड़ना पड़ा। ये सब लोग भारत से भागकर ईरान, अफगानिस्तान, अरब और तुर्कस्तान आदि देशों में फैल गये। चन्द्रवंशी क्षत्रियों की जो कि यादव नाम से अधिक प्रसिद्ध थे, 56 करोड़ संख्या थी - वे ईरान से लेकर सिन्ध, पंजाब, सौराष्ट्र, मध्य भारत और राजस्थान में फैले हुए थे। पुराण और महाभारत में दुर्वासा ऋषि के श्राप से यादवों का विध्वंश बताया गया है किन्तु बात ऐसी न थी। उनमें एक राजनैतिक संघर्ष हो गया था, जिसके कारण कुछ लोगों को अपना प्यारा देश छोड़ना पड़ा। पूर्व-उत्तर में ये लोग काश्मीर, तिब्बत, नेपाल, बिहार तक फैल गये। यही नहीं, मंगोल देश में भी जा पहुंचे। ये वही लोग थे जो पीछे से शक, पल्लह्व, कुषाण, यूची, हूण, गूजर आदि नामों से भारत में आते समय पुकारे गये हैं।

कहा जाता है कि पांडव साइबेरिया में पहुंच गये थे और वहां उन्होंने वज्रपुर आबाद किया था। यूनान वाले हरक्यूलीज की सन्तान बनते हैं और इस भांति अपने को कृष्ण तथा बलदेव की सन्तान बताते हैं। यूनान में रामायण के मुकाबले में होमर का काव्य है। चीनी-वासी भी अपने को भारतीय आर्यो के वंशज मानते हैं। इससे आर्यों का महाभारत के बाद विदेशों में जाना अवश्य पाया जाता है।

महाभारत के अन्तिम काल में भारत की स्थिति डांवाडोल हो रही थी। चरित्र सम्बन्धी मामलों में भारतीय उत्तरोत्तर गिरते जाते थे। वाममार्ग ने घृणित वासनाओं का प्रचार कर रखा था। मांस-मदिरा और स्त्री-रमण लोगों के परमानन्द का विषय हो गया था।

शाक्त-सम्प्रदाय - इसी समय शाक्त-सम्प्रदाय का भी उदय हुआ। ये लोग देवी-पूजा के प्रचारक थे। किस उद्देश्य से यह धर्म फैलाया गया था यह तो समझ में नहीं आता; किन्तु यह सही है कि यह भी किन्हीं-किन्हीं बातों में वाम-मार्ग का ही दूसरा रूप था। बलिदानों को इस धर्म से भी खूब उत्तेजना मिली। वर्षारम्भ में तथा कुवांर के महीनों में गांव में खूब रक्त बहाया जाता था।


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भैंसे, बकरे, मुर्गे देवी के नाम पर मारना पुण्य का काम समझा जाता था। यहां तक कि नर-बलि भी दी जाती थी। प्रत्येक नगर और गांव में देवी, चामुंड़, योगनियों की मूर्तियां ढेरों रख दी गई थीं।

चार्वाकधर्म शायद शाक्त और वाम-मार्ग दोनों से पहले उत्पन्न हुआ था। यह यज्ञ में घोड़े की एक दुर्घटना के कारण फैला ऐसा बताया जाता है। नास्तिक लोगों का धर्म इसे बताया गया है।

सारांश यह है कि महाभारत में क्षत्रियों के सर्वनाश के बाद, भारत की राष्ट्रीयता ध्वंश हो गई। आर्य जाति के मत-मतान्तरों ने टुकडे़-टुकड़े कर दिये। ऋषियों की सन्तान दुराचारियों और झगड़ालुओं की वंशज जान पड़ने लगी। नागरिकता के अधिकार नष्ट हो गये। समाज बिल्कुल अन्धविश्वासी और मूढ़ हो गया। वह आंख मींच कर पुजारी, पंडे, जोशी, भरारे, शाकुनि लोगों का गुलाम हो गया। मानसिक स्वतंत्रता को एकदम खो दिया। यद्यपि राजा थे किन्तु देश में पूर्णतः अराजकता थी। ढोंगी लोगों के हाथ में नेतृत्व चला गया था, जो सारे राष्ट्रवासियों को नचा रहे थे।

भारत की महाभारत के बाद यह शोचनीय दशा थी कि इसी समय एक विभूति भारत में उत्पन्न हुई। और उसने सड़ान्ध को साफ करके समाज-सरोवर को फिर से उज्जवल जल से भरने की चेष्टा आरम्भ की। अब आगे उसी विभूति का वर्णन किया जाएगा। Small text

बौद्ध कालीन स्थिति

भारत के इतिहास में बौद्ध-काल क्रान्ति का समय कहा जा सकता है। यह वह समय था जब कि तत्कालीन हिन्दू-समाज अवनति के गहरे गर्त में गिर चुका था, यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से भारत स्वतंत्र था, तथापि मानसिक दासता की पराकाष्ठा हो चुकी थी। यज्ञों में बलिदान धर्म समझा जाता था। आचरण भ्रष्टता बढ़ी हुई थी। बाह्याडम्बर बढ़ा हुआ था। आत्मा की शान्ति के लिये लोग हठ और तपस्या करना धर्म समझते थे। आग के सामने तपने का नाम तपस्या रखा छोड़ा था, महीनों तक भूखों रहना भी तप समझा जाता था। जैन और बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि क्षत्रिय-समाज ब्राह्मण धर्म की गुलामी का जुआ पटककर उनसे धार्मिक संघर्ष कर रहा था। अछूत जातियों के साथ बड़ा अत्याचार किया जाता था। राजनैतिक दृष्टि से भारत तीन भागों में बंटा हुआ था। हिमालय और विन्ध्याचल के बीच तथा सरस्वती के पूर्व और प्रयाग के पश्छिम का देश मध्य-देश (मज्झिम देश) कहलाता था ।1 इस देश के उत्तर का देश उत्तरा-पथ और दक्षिण का दक्षिणा-पथ कहलाता था।


:1. मनुस्मृति अध्याय 2 श्लोक 21


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सोलह महाजनपद - उस समय भारत में सोलह महाजनपद (राज्य) थे।


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वह वृतान्त ईसवी पूर्व छठी-सातवीं सदी का है। उस समय भारत में कोई एक जबरदस्त साम्राज्य न था। ये ऊपर कहे हुए राष्ट्र कभी-कभी आपस में लड़ा-भिड़ा भी करते थे। ये नाम जातियों के नाम पर पड़े हुए थे, इनमें भी वज्जी और मल्ल नाम कुलों के नाम पर पड़े। उत्तरी-भारत में उस समय निम्न जातन्त्र प्रजातन्त्र राज्य भी थे - शाक्य, भग्ग, पुलि, कालाम, कोली, मौर्य, विदेह और लिच्छिवि

बोधगया में बुद्ध की मूर्ती

गौतम-बुद्ध - गौतम-बुद्ध शाक्यों के प्रजातन्त्र के सभापति शुद्धोधन के यहां पैदा हुए थे। उनका जीवन-चरित्र संक्षेप से इस प्रकार है - ईसा से 567 वर्ष पूर्व भगवान बुद्ध का जन्म शुद्धोधन की रानी मायादेवी के गर्भ से कपिलवस्तु नगर में हुआ था। इनकी माता इन्हें केवल 7 दिन का छोड़कर स्वर्ग सिधार गई थीं। विमाता प्रजावती ने इनका पालन-पौषण किया था। इनका बचपन का नाम सिद्धार्थ था। सोलह वर्ष की अवस्था में कुमारी यशोधरा के साथ इनका विवाह करा दिया गया। अट्ठाईस वर्ष की आयु में रानी के गर्भ से इनका राहुल नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ। एक दिन जब कि वे सैर के लिये निकले थे, एक वृद्ध को कराहते देखकर आपके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया कि आखिर एक दिन मेरे लिए भी ऐसा आने वाला है; क्योंकि वह सबके लिए आता है। एक दिन रात्रि को घर से वह सदैव के लिए चल दिए और समस्त वैभव पर लात मार दी। उन्होंने घर छोड़ने के बाद सत्य-ज्ञान की खोज में अनेक स्थानों पर भ्रमण किया तथा अनेक साधु-सन्तों से छान-बीन की। निरंजना नदी के किनारे घोर तप भी किया। एक चावल के आधार पर वे भूखे रहकर भी तप करने लगे। पर अन्त में उन्हें यह व्यर्थ जंचा। अन्त में गया के निकट एक पीपल-वृक्ष (बोधि वृक्ष) के नीचे आसन लगाकर मनन करने लगे और उन्हें प्रकाश मिल गया। सम्यक संबुद्ध पद को प्राप्त करने के पश्चात् उन्होंने सबसे पहले सारनाथ में अपने पूर्व पांच साथियों को शिष्य बनाया। साठ शिष्य हो जाने पर उन्होंने ‘संघ’ बनाया और शिष्यों को विभिन्न दिशाओं में धर्म-प्रचार के लिए भेजा। यज्ञों में जो पशु-बलिदान होता था, बुद्ध ने उसके विरूद्ध जोरों से आन्दोलन किया। वे कहते थे - हमें उस ईश्वर की कोई आवश्यकता नहीं है जो खून का प्यासा है, यदि वेदों में बलिदान की आज्ञा है तो मैं वेदों की शिक्षा को अमान्य ठहराता हूं।


1. बौद्ध कालीन भारत, द्वितीय अध्याय

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सबसे जबरदस्त और पहला शिष्य उनका मगध का राजा बिम्बसार (558 BC—491 BC) था, जिसने राजाज्ञा से मांस-भक्षण का निषेध किया था। जब आप अपने पिता के बुलाने पर कपिलवस्तु पहुंचे, तो आपकी विमाता, स्त्री, लघु भ्राता (नंद) और पुत्र ने आप से बौद्ध-धर्म की दीक्षा ले ली। प्रजावती तो ब्रह्मचर्य धारण करके उसी समय से भिक्षुणी बन गई। उन्होंने सारे भारत में घूम-घूमकर अपने सिद्धान्तों का प्रचार किया।

पावा ग्राम में चुन्द राम के लुहार के यहां का भोजन करने के पश्चात् अभक्ष्य पदार्थ ने उनके पेट में पीड़ा पैदा कर दी। उसी बीमारी में उन्होंने अपने प्रधान शिष्य आनन्द को भावी प्रोग्राम बताकर स्वर्ग प्रस्थान किया। कहा जाता है कि उनका निर्वाण ईसा से 478 वर्ष पूर्व हुआ था। अग्नि संस्कार के बाद उनके अस्थि समूह के आठ भाग करके मल्ल, मगध, लिच्छिवी, शाक्य, बुली, कोली, मौर्य, वेथद्वीप के ब्राह्ममण आदि आठ जातियों में बांट दिये। उन लोगों ने उन अस्थियों पर स्तूप बनवा दिये।

बौद्ध-धर्म के सिद्धान्त

बौद्ध-धर्म का सार आर्य सत्यचतुष्टय है। क्रम ये चारों आर्य सत्य हैं -

  • 1. जन्म दुःख है, बुढ़ापा दुःख है, मृत्युःदुख है, जिन वस्तुओं से हम घृणा करते हैं उनका उपस्थित होना दुःख है, जिन वस्तुओं को हम चाहे हैं उनका न मिलना दुःख है, सांराश यह है कि पांचों तत्वों में लिप्त रहना दुःख है। यह ‘प्रथम आर्य सत्य’ है।
  • 2. लालसा पुनर्जन्म का कारण है, पुनर्जन्म में फिर लालसाएं और कामनाएं उत्पन्न होती हैं, लालसा तीन हैं - सुख की लालसा, जीवन की लालसा और शक्ति की लालसा। यह ‘द्वितीय आर्य सत्य’ है।
  • 3. लालसाओं के पूर्ण निरोध से अर्थात् कामनाओं के दूर करने से उसके बिना काम चलाने से दुःख दूर हो सकता है। यह ‘तृतीय आर्य सत्य’ है।
  • 4. यह पवित्र मार्ग आठ प्रकार का है - 1. सत्य विश्वास, 2. सत्य कामना, 3. सत्य वाक्य, 4. सत्य व्यवहार, 5. उपाय, 6. सत्य उद्योग, 7. सत्य विचार, 8. सत्य ध्यान। यह चतुर्थ आर्य सत्य है।

बुद्ध भगवान ने अपनी धर्म-साधना के लिए मध्यम पथ का आविष्कार किया था। न तो भोग-विलास में लिप्त रहना और न हठ-योग जैसी शरीर को नष्ट करने वाली कठोर तपस्या करना, इनके बीच के मार्ग का नाम ‘मध्यम पथ’ था।1 बुद्ध भगवान तृष्णा के नाश को निर्वाण या मोक्ष मानते थे। वे पुनर्जन्म का कारण आत्मा का अनित्य होना नहीं, किन्तु कर्म शेष मानते थे।


1. महावग्ग जातक 1,6

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बौद्ध-काल की अवस्था

धार्मिक

बुद्ध-जन्म के पूर्व जो धर्म भारत में प्रचलित था उससे लोग ऊब उठे थे, वे अंशात थे, किसी ऐसे धर्म को चाहते थे जो उनकी आत्मा को शान्ति दे सके। ब्राह्मणों ने यज्ञों की दक्षिणा के भार से समाज को तंग कर रखा था, पशु-वध की यज्ञ-प्रणाली से लोग ऊब रहे थे। पुत्रेष्टि के लिए यज्ञ कराते समय घोड़े के साथ कुकृत्य कराने की घटना से, गोरखपुर के समीप के एक राजा की रानी की मृत्यु ने, चार्वाक-धर्म पहले से ही पैदा कर दिया था। हिन्दू-धर्म के संन्यासी स्वयं इस धर्म के विरूद्ध प्रचार करते थे। ऐसे कई कारण थे कि, बौद्ध-धर्म बडे़ वेग के साथ भारत में फैल गया। ब्राह्मण-धर्म की खतरनाक दीवार बराबर मिसमार की जा रही थी और बुद्ध-धर्म का विशाल प्रासाद उसके स्थान पर खड़ा किया जा रहा था। इसी धर्म से मिलता जुलता जैन-धर्म भी यौवन धारण कर रहा था। इन दोनों धर्मों में बलिदानों से खुश होने वाले तथा यज्ञ के द्वारा ढेर का ढेर घी, मिष्ठान खाने वाले एवं ब्राह्मणों को खिलाये जाने से खुश होने वाले ईश्वर के लिए न कोई स्थान था और न उन धर्म-पुस्तकों के लिए, जिनसे ब्राह्मण, हिंसामय यज्ञों का समर्थन करते थे। ब्राह्मणों से लोगों की तब तक काफी घृणा रहती थी जब तक कि वे बौद्ध धर्मावलम्बी न बन जाते थे। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म ब्राह्मण-धर्म के स्थान पर, अपनी नवीन शिक्षाओं के प्रभाव से जनता को आकर्षित कर रहे थे। धर्म का प्रचार करने के लिए जैनी लोग पूर्वभव (पुराने जन्म की जीवनी) का सहारा बहुत लेते थे। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से पता चलता है कि इस अवैज्ञानिक ढंग से उन्होंने अपने धर्म-प्रचार में काफी सफलता प्राप्त की थी। बौद्ध-धर्म का प्रचार उसके सुसंगठित संघों द्वारा हुआ था, हजारों भिक्षु-भिक्षुणी धर्म का प्रचार करते थे। भिक्षु होने के नियम भी बड़े कडे थे। भिक्षु बनाने से पहले पूरी परीक्षा ली जाती थी। एक स्थान पर भावी शिष्य से कहा गया है - लोग तुम्हें प्रचार करते समय जान से मार देंगे। शिष्य कहता है - तब तो ठीक है शीघ्र निर्वाण हो जाएगा! परोपकार और प्रीति बौद्ध-धर्म की ऊंची शिक्षा थी - वे कहते थे,

‘हम लोगों को प्रीतिपूर्वक रहना चाहिए, और उन लोगों को घृणा नहीं करनी चाहिये जो हम से घृणा करते हैं।’
‘क्रोध को प्रीति से जीतना चाहिए, बुराई को भलाई से जीतना चाहिए, लालच को उदारता से जीतना चाहिए, और झूठ को सत्य से जीतना चाहिए।’1

बुद्ध की इन शिक्षाओं का यह प्रभाव हुआ कि कुछ ही समय में बुद्ध-धर्म सारे भारत का धर्म हो गया।


1. धम्मपद - 5.117.223

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सामाजिक

समाज चार वर्णो में विभक्त - बुद्ध के जन्म से पहले समाज चार वर्णो में विभक्त था, किन्तु कुछ लोग ‘हीन जातियों’ के भी कहलाते थे। अछूतों के साथ बड़ा अत्याचार होता था किन्तु बुद्ध भगवान् वर्ण-व्यवस्था की जंजीर को ढीला करने में काफी प्रयत्न कर रह थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा था - भिक्षुओं! जिस प्रकार गंगा यमुना आदि बड़ी-बड़ी नदियां समुद्र में मिलने पर अपना नाम और रूप खो देती हैं। उसी प्रकार क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्व और शूद्र जब घर छोड़कर भिक्षु सम्प्रदाय में आतें हैं अपना नाम और वर्ण खो देते हैं और श्रमण कहलाने लगते हैं।1 बुद्ध भगवान ने वर्ण-भेद को उठा दिया था पर वह पूर्ण सफल नहीं हुए थे, क्योंकि जातकों में कई स्थानों पर वर्णो का जिकर आता है। विवाह सम्बन्ध समान वर्ण और समान पेशे वालों ही में परस्पर होते थे। फिर एक बड़ा समूह दूसरे वर्ण की स्त्री से विवाह कर लेता था।2 विवाह के समय माता-पिता लड़के-लड़कियों से सम्मति नहीं लेते थे ऐसा ही भास होता है। जातकों तथा अन्य बौद्ध-ग्रन्थों में सबसे ऊंचे क्षत्रिय माने गए हैं। ब्राह्मणों को अपमानजनक शब्दों में याद किया गया है, कहीं उन्हें ‘तुच्छ ब्राह्मण’ और कहीं नीच ब्राह्मण कहा गया है। जैन-ग्रन्थों में ब्राह्मणों को ‘अक्षर-म्लेक्ष’ लिखा गया है। 3क्षत्रिय उस समय विद्या-बुद्धि में काफी बढ़े-चढ़े थे। वे ब्राह्मणों का मुकाबला कर सकते थे। जातक क्षत्रियों के ही लिखे हुए हैं। उस समय क्षत्रियों के अलग-अलग कुल थे जो अलग-अलग स्थानों में राज करते थे। उस समय कुछ ब्राह्मण ऐसे थे, जो नीच ब्राह्मण कहे जाते थे, यज्ञ कराने वाले, राजा को शकुन बताने वाले, जन्त्र-मन्त्र ब्राह्मण नीची श्रेणी के ब्राह्मण माने जाते थे। उस समय ब्राह्मण खेती व्यापार भी करते थे।4 उस समय के वैश्व भी ब्राह्मण क्षत्रियों की भांति विद्याध्ययन के लिए गुरूकुलों में जाते थे। राजाओं के दरबार में जो वैश्व रहता था, वह सेट्ठि (श्रेष्ठिन्) कहलाता था। शुद्र-जाति का उद्धार बौद्ध-काल में भी नहीं हुआ था, उनकी हीन दशा ज्यों की त्यों बनी हुई थी। चाण्डाल गांव के बाहर रहते थे, वे पक्षी मारकर अपना निर्वाह करते थे। वास्तव में देखा जाए तो बौद्ध और जैन-धर्म क्षत्रियों के धर्म थे, जो कि ब्राह्मण-धर्म की गुलामी के प्रतिरोध में पैदा हुए थे।


1. विनय पिटक (चुलुवग्ग) 9-1-4
2. भाद्दसाल जातक व् कट्टीहार जातक
3. जैन आदि पुराण
4. बौद्ध कालीन भारत, अध्याय 11


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आर्थिक

किसान अपनी भूमि के मालिक - जातकों से मालूम होता है कि प्रारम्भिक बौद्धकाल में जमींदारी, जागीरदारी अथवा ठिकानेदारी की प्रथा न थी। किसान ही अपनी भूमि के मालिक होते थे। राजा साल भर में केवल एक बार किसानों से उपज का दशांश वसूल करता था। भूमि पर इससे अधिक राजा का कोई अधिकार न था। उपज के मान का निश्चय ग्राम की पंचायत का मुखिया (ग्राम-भोजक) करता था। यह कर-व्यवस्था एकराजतन्त्रों की है। गणराज्यों में कोई कर लिया भी जाता था, ऐसे प्रमाण नहीं मिलते हैं। केवल शाक्यों के राज्य का एक प्रमाण अशोक के एक स्तम्भ-लेख से मिला है।

ग्रामों की अवस्था : बौद्ध-काल में ग्रामों की अवस्था व व्यवस्था बहुत अच्छी थी। कुछ ग्राम जनपद कहलाते थे जिनमें स्थानीय प्रबन्ध की व्यवस्था होती थी। ग्रामों के चारों और खेत, जंगल और चारागाह होते थे। उन चारागाहों और जंगलों पर सबका समानाधिकार होता था।

शिल्प-व्यापार - आरभिक बौद्ध-काल में शिल्प-व्यापार बहुत उन्नत अवस्था में थे। यहां के व्यापारी चीन, फारस, लंका, बैबीलोनियां तक व्यापार करने जाते थे। व्यापार के लिए जो समूह निकलता था, उनका सरदार सत्थवाह अथवा सार्थवाह कहलाता था। रेशमी और महीन सूती कपड़े, कम्बल, लोहे के कवच, छुरी, चाकू, सोने-चांदी के तारों के जड़ाड कपड़े, सुगंधित वस्तु, औषधि, हाथी-दांत के चूड़े, जवाहरात आदि यहां से विदेशों में भेजे जाते थे। सिक्कों का प्रचार भली-भांति हो गया था । तांबे का सिक्का कहायण (कार्षापण) कहलाता था। सोने के सिक्के निष्क और सुवण्ण थे। कंस, माप काकणिका नाम भी सिक्कों में आता है। ‘सिप्यकानि’ (कौड़ियों) का भी प्रचलन था।


जहाजों द्वारा व्यापार - जातकों से मालूम होता है कि विदेशों से भारतवासी जहाजों द्वारा व्यापार करते थे। ‘बावेरू जातक’ में लिखा है कि भारतवर्ष बावेस (बेवीलानिया) के बीच व्यापार होता था। हिन्दू सौदागर भारत से बावेस को मोर भी बेचने को ले जाते थे। जातकों से यह भी मालूम होता है कि ‘ईसा के छः सौ वर्ष पूर्व गुजरात के सौदागर जहाजों के द्वारा व्यापार के लिये ईरान की खाड़ी तक जाते थे।’ सुप्पारक जातक में एक इतने बड़े जहाज का वर्णन है कि उसमें सात सौ सौदागर अपने नौकरों समेत बैठते थे। भारतीय जहाज कच्छ की खाड़ी की ओर से अरब, फिनीशिया और मिश्र भी जाया करते थे। राइज डेविड्स का कथन है कि - ‘ईसा से पांच सौ वर्ष पहले यूनान में चावल, चन्दन और मोर हिन्दुस्तानी नामों से


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मशहूर थे।’’1 व्यापार करने के लिए लोग श्रेणी भी बना लेते थे। सहयोग का कार्य भारतवर्ष में बौद्ध-काल में उसी भांति होता था, जैसा कि आजकल कोआपरेटिव सोसाइटियों द्वारा होता है। सांराश यह है कि भारत धन-धान्य से पूर्ण था। अतिथियों का सत्कार दूध-दही से किया जाता था। चौरी-डकैती कम होती थी, देश में सभी लोग आनन्द का जीवन बिताते थे, गरीबी या दरिद्रता का नाम निशान न था। घी, दूध की नदियां बहती थीं। उस समय भारत और स्वर्ग में कोई अन्तर न था।


राजनैतिक

भगवान बुद्ध के समय में तथा आरम्भिक बौद्ध-काल में भारत में दो तरह की शासन-व्यवस्था थी। 1. एक राजतंत्र, 2. गणतंत्र।2 फिर भी धीरे-धीरे एकतंत्र राज्य-प्रणाली अथवा साम्राज्य का जोर शनैः-शनैः बढ़ रहा था। साम्राज्य या एकतंत्र राज्य की बागडोर एक व्यक्ति के हाथ में रहती थी और गणराज्य या संघराज्य किसी समूह द्वारा संचालित होता था। वास्तव में गणराज्य पंचायती या पार्लियामैन्टरी राज्य थे। एकतंत्री राज्य के संचालक की उपाधि राजा थी। वह नर-रूप में देवता समझा जाता था। उसके अधिकार सीमित थे। किन्तु फिर भी राजा पूर्ण स्वतन्त्र नहीं था, उसके अधिकार सीमित थे। वह समिति या मन्त्रि-मंडल के प्रति उत्तरदायी था। प्राचीन राजनीति के अनुसार राजा प्रजा का सेवक समझा जाता था। उसे भूमि-कर में उपज का छठा भाग और व्यापारिक वस्तुओं का दसवां भाग दिया जाता था, जो उसका वेतन (भृति) करार दिया जाता था।3 बौद्ध ग्रंथों में लिखा गया है कि -

षड्भाग भृतो राजा रक्षेत प्रजाम् । अर्थात् वेतन के तौर पर धान्य का छठा भाग पाकर राजा अपनी प्रजा की रक्षा करें।4

चोरी होने पर चोरों को यदि न पकड़ा जा सकता था, तो राजा को अपने खजाने से जिसके चोरी होती थी, क्षति-पूर्ति करनी पड़ती थी।5 रामायण-काल के राजाओं पर जिस भांति ऋषि तथा विद्वान् लोगों का दबाव रहता था, उसी भांति बौद्ध-काल के राजाओं पर ग्राम-परिषद्, नगर-परिषद् और धर्म-संघों का दबाव रहता था। ये संस्थायें पूर्ण स्वतन्त्र थीं, राजा राजा इनके कार्यो में हस्तक्षेप


1 . बौद्ध कालीन भारत, अध्याय 12
2 . "केचिद्देशा गणाधीन: केचिद्राज धीना इति" बौद्ध-ग्रन्थ अवदान शतक-88
3 . महाभारत शांति पर्व अध्याय 71 श्लोक 10
4 . बोधायन सूत्र 1 , 10 , 1
5 . कौटिल्य शास्त्र और महाभारत शांति पर्व अध्याय 75 श्लोक 10


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नहीं कर सकता था, किन्तु यों समझना चाहिये कि राजा की शक्ति इन संस्थाओं के प्रभाव से मर्यादित रहती थी। युद्ध, सन्धि, विग्रह, राजा के निर्णय से होते थे, किन्तु मन्त्रि-मण्डल या प्रतिष्ठित नागरिकों से सलाह लेना राजा को आवश्यक था। राजा लोग राज-कोष स दान-पुण्य कर सकते थे, लोकोपकारी कार्यों में द्रव्य व्यय कर सकते थे, किन्तु राज्य के किसी भी हिस्से को या कुल राज्य के विक्रय करने का उन्हें कोई अधिकार न था। न किसी को जागीर या इनाम दे सकते थे। वास्तव में राजा का अधिकार प्रजा की रक्षा करना, अराजकता को दबाना और अपराधियों को दंड देना था। दूसरी तरह की शासन-प्रणाली जो गण-राज्य के नाम से मशहूर थी वह प्रजा सत्तात्मक थी। वास्तव में गण-राज्य, संघ-राज्य (फैडरल गवर्नमैन्ट) थे। संघ-राज्य स्थिति के अनुसार कई प्रकार के थे। कुछ तो कुल-राज्य थे, जैसे मल्ल और वज्जी, कुछ जाति-राज्य थे, जैसे शाक्य और विदेह । कुछ राजा कई जातियों से बनते थे, जैसे लच्छिवी। इन राज्यों की शासन-सभा के सदस्यों को गण, राजा, या पार्षद् कहते थे। सभापति, गणिनः, संघिनः और गणपति या गणेश कहलाते थे।

गण-राज्यों की शासन-व्यवस्था कैसी थी, इसका वर्णन दुष्प्राय हो रहा है, फिर भी जो मिलता है उससे ये बातें प्रकट होती हैं- प्रत्येक संघ में एक परिषद् होती थी। जिसे समय परिषद् की बैठक होती थी तो अवस्था और योग्यता के अनुसार सभ्यों के लिए आसन दिए जाते थे। प्रत्येक परिषद् के आसन रखने के लिए आसन-प्रज्ञापक नामक कर्मचारी रहता था। सभ्यों के जमा होने पर प्रस्ताव रखे जाते थे। प्रस्ताव की सूचना को ‘ज्ञप्ति’ कहते थे। प्रस्ताव को उपस्थित करने पर सभ्यों से स्वीकृति का प्रश्न किया जाता थो। इसे कर्मवाचा कहा जाता था। राय जानने के लिए शलाकाएं होती थीं। सभ्यों को शलाका देने वाले व्यक्ति को शलाकावाहक कहते थे। शलाका-वाहक निर्भक निष्पक्ष और सत्यभाषी व्यक्ति ही नियत किया जाता था। वह सभ्यों को शलाका देते समय बतलाता था कि अमुक रंग की शलाका लेने से उनकी राय का अमुक अर्थ लिया जायेगा। यह शलाका आजकल के वोटिंग टिकट का काम देती थी। फैसला बहुमत पर निर्भर था। प्रस्तावक को अपने प्रस्ताव पर भाषण देना होता था। जो सभ्य किसी कारणवश परिषद् के अधिवेशन में न पहुंच सकते थे, वे अपनी राय भेज देते थे। उस राय का नाम ‘छन्द’ कहा जाता थे।

परिषद् का कोरम पूरा करने वाले कर्मचारी को जिसे कि अंग्रेजी में ह्विप कहते हैं, गण-पूरक कहा जाता था।

इन संघ-राज्यों को नष्ट करने के लिए एकतन्त्रवादी भेद से काम लिया करते थे।


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मगध के राजा अजातशत्रु के मन्त्री के आगे जो कि वज्जी लोगों के संघ को विनष्ट करने की सलाह लेने के लिए भगवान बुद्ध के पास आया था, महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द को संबोधित करते हुए कहा था। वज्जि लोग तब तक तो नष्ट नहीं हो सकते-

  • 1. जब तक वज्जि लोग पूरी-पूरी और जल्दी-जल्दी सभायें करते हैं,
  • 2. जब तक वे लोग एक साथ मिलकर रहते हैं, एक मत होकर कार्य करते हैं,
  • 3. जब तक वे ऐसा नियम नहीं बनाते जो पहले से चला आता है, जब तक वे किसी निश्चित नियम का उल्लंघन नहीं करते हैं और जब तक वे वज्जियों की प्राचीन काल की स्थापित पुरानी संस्थाओं के अनुकूल कार्य करते हैं,
  • 4. जब तक वे वृद्धों की प्रतिष्ठा, आदर, भक्ति और सहायता करते हैं और जब तक कि वे उनकी बातें को सुनना अपना कर्त्तव्य समझते हैं,
  • 5. जब तक वे अपने समाज की स्त्रियों और बालिकाओं को बल प्रयोग करके अथवा भगा लाकर अपने पास नहीं रखते हैं,
  • 6. जब तक वे वज्जीय चैत्यों की प्रतिष्टा, आदर, भक्ति और सहायता करते हैं (अर्थात् अपने धर्म में दृढ़ निष्ठा रखते हैं),
  • 7. जब तक वे अपने अर्हन्ता का उचित रक्षण और पालन करते हैं (अर्थात् मर्यादा का पालन और आचरण करते हैं) । कहने का सांराश यह है कि संघ-राज्यों में मर्यादा-पालन और संगठन पर विशेष खयाल रखा जाता था।

प्रोफेसर राइज डेविडस् ने ‘बुद्धिस्ट इंडिया’ में शाक्य-संघ के सम्बन्ध में लिखा है- ‘‘इस वर्ग का शासन और न्याय-व्यवस्था ऐसी सार्वजनिक सभाओं में हुआ करती थी जिसमें छोटे-बडे़ सब प्रकार के लोग उपस्थित हुआ करते थे।’’ इस सभा का अधिवेशन कपिलवस्तु में वहां की संथागार (हाउस आफ कम्यूनल लॉ) या सार्वजनिक भवन में हुआ करता था। राजा पसेनार्द के प्रस्ताव पर ऐसी ही सभा में विचार हुआ था।1 पदाधिकारी के रूप में एक ही प्रधान चुना जाता था। वही प्रधान सब अधिवेशनों का सभापति होता था। वह राजा की उपाधि धारण करता था।

लिच्छिवियों की राज्य-व्यवस्था को पढ़ने से जान पड़ता है कि संघ-राज्यों के चार पदाधिकारी होते थे - राजा, उपराजा (प्रधान-उपप्रधान) सेनापति और भांडागारिक। संघ-राज्यों की शासन-सभाओं में हजारों तक सभ्य होते थे। लिच्छिवियों की शासन-सभा में 7707 सम्य (मेम्बर) थे जो सभी राजा कहलाते थे। संघ के अधिपति का वंशानुगत राजा की भांति अभिषेक हुआ करता था। मेम्बर लोग जिस समय संथागार (सभा) में आते थे, उस समय घड़ियाल बजाया जाता था। शासन-सभा में राजनैतिक, आर्थिक, सैनिक सभी विषयों पर चर्चा होती थी।


1. बुद्धिस्ट इण्डिया पे. 11


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सभापति ही सर्व प्रधान न्यायकर्ता होता था। न्याय-विभाग में किसी-किसी संघ वाले वैतनिक न्याय-मंत्री भी रखते थे। जब तक राजा, उपराजा तथा सेनापति अपनी-अपनी अलग सम्मति नहीं दे देते थे, जब तक किसी नागरिक को अपराधी नहीं ठहराया जाता था। फैसलों की मिसल सुरक्षित रखी जाती थी। संघ-राज्यों में अष्टकुलक नामक कौंसिल भी हुआ करती थी, जिसमें आठ न्यायकर्ता मिलकर बैठते थे।

कभी-कभी कई संघ-राज्य मिलकर लीग कायम कर लेते थे। विदेहों ने और लिच्छिवियों ने मिलकर संयुक्त कौंसिल स्थापित की थी, उसके कारण वे संवज्जी कहलाने लगे थे। सभी संघों के सभापति राजा की उपाधि धारण नहीं करते थे।

संघ-राज्यों में नागरिकों का यह कर्तव्य अनिवार्य था कि वे सैनिक शिक्षा प्राप्त करें। संघ-राज्यों की ओर से शिक्षा का पूरा प्रबन्ध रहता था। चाणक्य ने दो तरह के संघ-राज्य बताये- एक आयुधजीवी, दूसरे वार्ताशस्त्रोपजीवी। राजा की उपाधि धारण करने वाले संघ-राज्यों से उन संघ-राज्यों की प्रजा अधिक सैनिक और बलिष्ठ होती थी, जिनमें सभापति को राजा कहना बुरा माना जाता था।

साहित्यिक

नागरिकों की भाषा - आरम्भिक बौद्ध-काल से मध्य-काल तक भारत के सर्व साधारण नागरिकों की भाषा पैशाची, उज्जैनी और मागधी थीं। विद्वान् लोग संस्कृत भी बोलते थे। लिखने की लिपि उस समय, ‘खरोष्टी’ जो अरबी की तरह उल्टी लिखी जाती है और ब्राह्मी जो नागरी की भांति लिखी जाती है, थीं। बौद्ध-काल में काफी स्तम्भ-लेख और धर्म-ग्रन्थ लिखे गये, जिससे मालूम होता है कि लेखन-कला उन्नति पर थी। विनयपिटक, जातक, सूत्र, पुराण, स्मृति इसी युग के ग्रन्थ हैं। इस समय का प्रसिद्व साहित्य पाली साहित्य कहलाता है। जात की लिपि का प्रचार भी इसी काल में हुआ था, जो सारे पंजाब और सिन्ध में लिखी जाती थी। कहने का सारांश यह है कि बौद्ध-काल में भारत की साहित्यिक उन्नति भरपूर थी।

विशेष बातें

बौद्ध-काल का इतिहास ईसा से लगभग सवा पांच सौ वर्ष से आरम्भ होकर ईसवी सन् 650 में समाप्त हो जाता है। इसी अर्से को बौद्ध-काल के नाम से इतिहास-लेखकों ने पुकारा है। इस 1200 वर्ष के अरसे में क्रान्ति, शान्ति और आनन्द अत्याचार जो कुछ भी हुए वे बौद्ध-काल की घटना हैं। इन्हीं बारह सौ वर्षो में बौद्ध-धर्म का प्रकाश हुआ, ब्राह्मण-धर्म धराशायी हुआ, जैन-धर्म का विकास हुआ, हिंसा, द्वेष दूर हुए, प्रेम, परोपकार फले-फूले और इन्हीं बारह सौ वर्षों में बौद्ध धर्म भारत से बहिष्कृत हो गया। उसके मानने वाले निर्दयता पूर्वक पीस डाले गये। ब्राह्मण-धर्म के षड्यंत्र सफल हुए, जैन-धर्म सिसकियां भरने लगा। ये ही बारह सौ वर्ष थे, जिनमें ब्राह्मण-वर्ण को कतई उड़ा दिया गया, उन्हें अक्षर म्लेच्छ के नाम से पुकारा गया, क्षत्रियों को सर्वश्रेष्ठ कहा गया, पतितों के उद्धार की घोषणा की गई। फिर इन्हीं बारह सौ वर्षो में


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यह काया पलटी कि ब्राह्मण ही ईश्वर है, कलियुग में कोई क्षत्रिय है ही नहीं, कहकर पुराने क्षत्रियों को पतित और शूद्र ठहराया, जैन-मन्दिरों को गणिका के गृह से भी पतित साबित किया गया। पतित तो पतित ही है के वाक्य रूपी विषैले गैस को फैलाया गया। इन बारह सौ वर्षो का इतिहास आश्चर्यमय, कौतूहल-वर्द्धक, मनोरंजक, उत्साह-वर्द्धक, करूणाजनक, प्रकाशमय और भ्रान्तिपूर्ण है। उसी का संक्षिप्त विवरण यहां पाठकों की जानकारी के लिये दिया जाता है। कुछ लोग बौद्ध-धर्म को भारत के लिये अभिमान की वस्तु बताते हैं, तो कुछ उसे भारत के पतन का कारण। हम खुद उन विचारकों के मत के हैं जिनकी राय में बौद्ध-धर्म से भारत का मस्तक ऊंचा हुआ था। क्योंकि बौद्ध-धर्म सर्व मानव समूह का ही धर्म नहीं, किन्तु वह समस्त प्राणी-वर्ग का धर्म था। बौद्ध-काल में भारत की सभ्यता इतनी बढ़ी जितनी आरम्भिक वेद-काल में भी न बढ़ी थी। उसने संसार को भारत का शिष्य बना दिया। राष्ट्रीयता का प्रचार बौद्ध-धर्म के द्वारा जितना हुआ, उतना ब्राह्मण-धर्म न पहले कभी कर सकता था न भविष्य में करने के कोई लक्षण हैं। भारत में बौद्ध-काल में जो सम्मान प्राप्त किया था, मौजूदा ब्राह्मण-काल में उसे खो दिया। बौद्ध-धर्म की ही विशेषता थी कि वह सारे एशिया का धर्म हो गया। चीन, जापान, लंका, श्याम, कंम्बोडिया और ब्रह्मा (आज का मयनामार) आज भी उसके प्रकाश से आलोकित हैं। बौद्ध-धर्म के अशोक, चन्द्रगुप्त, कनिष्क और हर्ष जैसे सम्राटों को पैदा किया था। उसने शक, हूण और तातारियों को अपने विशाल अंक मे स्थान दिया था। यह उसी का प्रताप है कि आज वे राम और कृष्ण को अपना पूर्वज मानने में गौरव समझते हैं। बौद्ध-काल ने शिल्पकला और व्यापार को इतना बढ़ाया था कि रोम, अरब तक उसके जहाज समुद्र में चलते थे।

हमने पिछले पृष्ठों में बौद्ध-काल के आरम्भिक समय का संक्षिप्त वर्णन दे दिया है। अब मध्यम और अन्तिम काल का वर्णन करते हैं-

बौद्ध मध्यकाल

भगवान बुद्ध के समय अर्थात् प्रारम्भिक बौद्ध-काल में भारत में जो महाराजा थे, उनमें बिम्बसार, अजातशत्रु अधिक प्रसिद्ध हुए। उनका वंश शिशुनाग वंश कहलाता था। ये दोनों ही पिता पु़त्र बौद्ध हो गये थे। यह हम पीछे लिख ही चुके हैं। मध्यकाल में नन्द-वंश, मौर्य-वंश, गुप्त-वंश के राजा बड़े प्रसिद्ध हुए थे।


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पंजाब में अम्भी और पौरस के नाम उल्लेखनीय हैं। नंद-वंश के नाश के बाद मौर्यवंश चमका था। इस वंश के सबसे प्रसिद्ध दो राजा थे - चन्द्रगुप्त और अशोक। सिकन्दर महान का आक्रमण चन्द्रगुप्त के ही समय में हुआ था। सिकन्दर के समय में उत्तरी-भारत में मालव, क्षुद्रक, शिव यौधेय, कठ एवं जाट लोगों के प्रजातंत्र थे। अशोक के समय में बौद्ध-धर्म ने भारी उन्नति की। बौद्ध-धर्म की उन्नति के करने वालों में अशोक सर्वश्रेष्ठ था। उसने अपने राजबल से तो बौद्ध-धर्म का प्रचार किया ही था, साथ ही उसने बौद्ध-धर्म के प्रचार के लिये अपने पुत्र-पुत्री और निज को भी भिक्षु बना डाला। उसने एक बौद्ध महासभा भी कराई थी। उसके राज्य में अफगानिस्तान का पूर्वी हिस्सा, बिलोचिस्तान, सिन्धु, काश्मीर, नेपाल आदि शामिल थे। उत्तर में शहबाजगढ़ी तक उसके शिला-लेख मिलते हैं। उसकी मृत्यु के बाद बौद्ध-धर्म की उतनी तीव्र गति न रही और दक्षिण में ब्राह्मण-धर्म सजीव होने लगा।


मौर्यवंश के अन्तिम राजा वृहद्रथ को उसके सेनापति पुरूमित्र ने मार कर राज्य-अपहरण कर लिया। इतिहास स्पष्ट नहीं कहता किन्तु हमें पूरा विश्वास होता है कि यह नवीन ब्राह्मण-धर्म का षडयंत्र था, क्योंकि ब्राह्मण समझ गये थे कि राजशक्ति के बिना बौद्ध-धर्म का प्रभाव घटाना असम्भव है। यह घटना ई.पू. 184 की बताई जाती है। इसी समय भारत पर मिनेन्दर ने (ई.पू. 155) आक्रमण किया। पीछे वह बौद्ध-धर्म में दीक्षित हो गया। उसके साथी जो भारत में बसे, मैना कहलाते थे। पुष्यमित्र ने नवीन ब्राह्मण-धर्म को उत्तेजना देने के लिये अश्वमेध यज्ञ किया। बौद्ध-ग्रन्थों में लिखा है कि पुष्यमित्र ने बौद्धों पर बड़े-बड़े अत्याचार किये - उनके संघाराम (आश्रम) जलवा दिये, उन्हें कत्ल किया गया, शान्ति के स्थान पर तलवार के जोर से उसने ब्राह्मण-धर्म का प्रचार किया। पुष्यमित्र का वंश शुंगवंश कहलाता था। इस वंश के अन्तिम राजा देवभूति को जो कि बड़ा दुराचारी था, उसके ब्राह्मण मंत्री वासुदेव ने ई.पू. 72 में मार डाला और आप राजा बन बैठा। इनका वंश कण्व-वंश कहलाता है। इस समय दक्षिण में नवीन ब्राह्मण-धर्म की खूब ही उन्नति हुई। लोग बौद्ध-धर्म को छोड़कर ब्राह्मण-धर्म की शरण में आने लगे। इस वंश का भी खात्मा ई.पू. 27 में अंधवंश ने कर दिया। इस मध्यकाल में रोमन, यूनानी, शक, हूण आदि अनेक जातियों के भारत पर आक्रमण हुए। किन्तु वे सब जातियां जैन या बौद्ध-धर्म में दीक्षित हो गई।

बौद्ध - अंतिम काल

बौद्ध-काल के अंतिम समय में कनिष्क और हर्ष जैसे सम्राटों ने इस धर्म की उन्नति की। दोनों ही राजाओं ने इस धर्म की महासभायें कराईं। स्तूप बनवाए, भिक्षु-संघ खोले। किन्तु शशांक जैसे राजा ने बौद्ध-भिक्षुओं को भून का मार डाला।


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उनके साथ अमानुषिक अत्याचार किए। अर्जुन नाम के ब्राह्मण राजा ने भी इस धर्म के अनुयायियों के नाश में कोई कसर न छोड़ी। इस काल में कुमारिल और शंकराचार्य जैसे विद्वानों ने बौद्ध-धर्म की जड़ खोखली कर दी। पुराने क्षत्रियों के मुकाबले में ब्राह्मणों ने नए क्षत्रिय बनाए जो राजपूत नाम से पुकारे गए। जो क्षत्रिय बौद्ध-धर्म को छोड़कर सातवीं सदी तक ब्राह्मण-धर्म में नहीं आए, वे पतित और शूद्र ठहरा दिए गए। जिस राजशक्ति के सहारे बौद्ध-धर्म शान्ति के साथ फला-फूला था, उसी राजशक्ति को ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव में करके बौद्ध-धर्म को अत्याचार के साथ भारत से खो दिया। यों तो आरम्भ से ही बौद्ध-धर्म के मिटाने के लिए ब्राह्मण-धर्म आन्दोलन कर रहा था, किन्तु अंतिमकाल में तो साहित्य भी इतना बढ़ाया कि जितना पिछले समय में तैयार हुआ था। यह अब सिद्ध हो रहा है कि ब्राह्मण-धर्म ने पुराणों की रचना बौद्ध और जैन-धर्म के विरूद्ध ही की थी। जिसके निम्न उदाहरण हैं- तब उन्होनें (मलेच्छों ने) अहित धर्म व बौद्ध-धर्म को अपना मार्ग बनाया।1 बुद्ध-भिक्षु के सामने श्राद्ध का भोजन न खावे।2 ‘आर्य संस्कृति का उत्कर्षापकर्ष’ के लेखक ने लिखा है कि, बौद्धों का खंडन वैशेषिक नैयायिक और मीमांसकों ने भी किया था। इसके अलावा चौथी सदी से नवमी सदी तक उनका खंडन निम्न प्रकार चलता रहा-

  • 1. वैदिक-गौतम सूत्रकार वात्स्यायन (आर्य चाणक्य) ने चतुर्थ शताब्दी में बौद्धों का खंडन किया।
  • 2. पांचवीं शताब्दी में दिडनाग बौद्ध ने ‘प्रमाण समुच्चय’ लिखकर वात्सायन भाष्य का खडंन किया।
  • 3. वैदिक उद्योतकराचार्य ने प्रमाण समुच्चय बौद्ध-ग्रन्थ का छठी शताब्दी में न्याय वार्तिक ग्रन्थ लिखकर खंडन किया।
  • 4. इसके उत्तर में सातवीं शताब्दी में धर्म कीर्ति वार्तिक' बौद्ध-ग्रन्थ लिखा गया।
  • 5. सातवीं सदी में कुमारिल भट्ट ने श्लोक वार्तिक ग्रन्थ लिखकर बौद्धों का खंडन किया।
  • 6. आठवीं सदी में शंकराचार्य और सुरेश्वराचार्य ने बौद्ध-धर्म के खंडन में भाष्य और वार्तिक ग्रन्थ लिखे।
  • 7. नवीं शताब्दी में बौद्ध आचार्यो ने शंकरवाद का जो खंडन किया, उसका प्रति खंडन ‘भामतीकार’ वाचस्पति मिश्र और उदयनाचार्य ने किया।3


उल्लेखनीय घटना

बौद्ध-काल में एक चिरस्मरणीय घटना यह हुई कि इसी समय जैन-धर्म के प्रसिद्ध प्रचारक महावीर भगवान का जन्म हुआ। जैनी इन्हें चौबीसवां तीर्थकर


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मानते हैं, किन्तु जैन-धर्म का बल इनके ही समय से मिला था।

महावीर का जीवन-चरित्र इस प्रकार बताया जाता है - उनका जन्म ईस्वी पूर्व छठी सदी में हुआ था। आपके पिता ज्ञातृवंश के सरदार (राजा) थे। वैशाली के पास ही कुण्डन ग्राम में उनका राज था। वैशाली के राजा चेटक की पुत्री त्रिशला को भगवान की मां बनने का सौभाग्य प्राप्त था। बालकपन का नाम वर्धमान था। बड़ा होने पर सबको सब शास्त्रों और कलाओं की शिक्षा दी गई। समय आने पर यशोदा नाम की राजकुमारी के साथ आपका विवाह हुआ। थोड़े दिन बाद एक कन्या आपके यहां जन्मी। युवा होने पर कन्या का विवाह जमालि से कर दिया गया। तीस वर्ष की अवस्था में महावीर ने घरबार छोड़ कर भिक्षु-जीवन में प्रवेश किया। भिक्षु-वेश धारण कर लिया। 12 वर्ष की तपस्या के बाद आप अर्हत् कहाने लग गए। तभी से उन्होंने अपने धर्म का प्रचार आरम्भ कर दिया। निर्ग्रन्थ नाम का एक संप्रदाय खड़ा किया। निर्ग्रन्थ ही आजकल जैन कहलाते हैं। उन्होंने सारे भारत में जैन-धर्म का प्रचार किया। ई.पू. 527 में आपका निर्वाण हो गया। कोई निर्वाण काल ई.पू. 467 मानते हैं।

जैन धर्म के सिद्धांत

बौद्धों की तरह जैन भी जीव हिंसा नहीं करते। उनके भी भिक्षुओं के समुदाय थे। जैन - अग्नि, जल, वायु और वृक्षों में भी जीव मानते हैं। वे वैदिक सिद्धान्तों को नहीं मानते। कर्म और निर्वाण के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। मोक्ष जनों को ही ईश्वर मानते हैं। उनके सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ आगम कहलाते हैं जिनके सात भाग हैं, ग्यारह अंग हैं। महावीर स्वामी की मृत्यु के दो सौ वर्ष बाद जैन-समाज के दो टुकड़े हो गए- 1. श्वेताम्बर और 2. दिगम्बर। दोनों के अनेक ग्रन्थ आजकल अलग-अलग हैं।

मालूम ऐसा होता है कि जैन लोग गणतन्त्री शासन के पक्षपाती न थे। जैसा कि जैन-ग्रन्थ आचारांग सूत्र के इस हवाले से विदित होता है -

भिक्षु-भिक्षुणियों को कहाँ न जाना चाहिए ?

  • 1. अराजक राज्य (जहां कोई राजा न हो),
  • 2. युवराजक राज्य (जहां का राजा नाबालिग हो),
  • 3. द्विराज्य (जहां संयुक्त शासन हो),
  • 4. गण-राज्य (जहां समूह या पंचायत का राज्य हो।

यही कारण है कि जैन-धर्म भारत में आज भी किसी-न-किसी रूप में अवशिष्ट है। बौद्ध-धर्म के मिटने का कारण यह भी है कि बौद्ध-धर्म गण-राज्यों का पक्षपाती था।

बौद्धों की भांति जैनों को भी ब्राह्मण-धर्म से टक्कर लेनी पड़ी थी।


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आरम्भ से ही जैन-धर्म का व्यवहार पुराने ब्राह्मण-धर्म के साथ घृणा कर रहा था। जैन-धर्म के प्रचार का तरीका चाहे कितना ही अच्छा रहा हो, पर वह बौद्ध-धर्म के तरीकों की बराबरी नहीं कर सकता। भगवान बुद्ध का आदर्श उनके धर्म प्रचार में बहुत कुछ सहायक हुआ था। जैन मुनि और आचार्य अपने धर्म प्रचार के साथ-साथ लोगों को पूर्व भव (पुराने जन्म) की कथायें खूब सुनाया करते थे। जैन यह कह सकते हैं कि वे मुनि त्रिकाल-दर्शी थे, किन्तु हम तो कहेंगे कि यह लोगों में अन्धविश्वास बोना था। उदाहरण के लिए हम एक ऐसी घटना यहां लिखते हैं - शालिग्राम नामक गांव में दो ब्राह्मण पुत्र थे। वेद-वेदांग में निपुण थे। एक बार नन्दिवर्धन नामक दिगम्बराचार्य वहां पहुंचे। वह ब्राह्मण युवक भी मुनिजी के दर्शनों को आए। मुनिजी ने पूछा - पर्व भव (पहले जन्म) में तुम कौन थे? युवकों ने कहा - हमें क्या पता है। मुनिजी बोले -‘‘हम बताते हैं सुनो, तुम दोनों भाई पूर्व जन्म में इसी गांव के जंगल में श्रृगाल (गीदड़) थे।’’

बेचारे दोनों बालक जैन हो गए। इसलिए उनको तो स्वर्ग हो गया और वे फिर अयोध्या में सुभद्रदत्त सेठ के यहां जन्मे। मां-बाप तो जैन नहीं हुए मर कर कुत्ती व चांडाल की योनि में पैदा हुए। सेठ पुत्रों ने एक दिन महेन्द्र नाम के मुनि से पूछा - भगवान हमें रास्ते में एक चांडाल और कुत्ती मिले थे, हमें उनसे बड़ा प्रेम हुआ। इसका क्या कारण है? मुनिराज बोले-‘‘पूर्व भव (पहले जन्म) में अर्थात् जब तुम ब्राह्मण योनि में थे, वे तुम्हारे माता-पिता थे, इसीलिए प्रेम हुआ। तुम तो जैन हो गए थे इसलिए सेठ हुए, वे जैन नहीं हुए इसीलिए कुयोनि में गए’’। इस तरह की कपोल-कल्पित कथाओं से मुर्ख-समुदाय पर जैनियों का खूब असर पड़ता था। लेकिन जब ब्राह्मण-धर्म फिर से पनपा तो उसने भी इसी तरह का जाल फैलाया। उसने हाथ की रेखा देखकर आगे की बातें भी बताना शुरू कर दिया और इस तरह सामुद्रिक-शास्त्र की रचना हो गई।

नवीन ब्राह्मण-धर्म से संघर्ष

नवीन ब्राह्मण-धर्म और जैन-धर्म के संघर्ष का थोड़ा-सा विवरण भी देना हम उचित समझते हैं, ताकि पाठक समझ लें कि इन धर्मो के संघर्ष में जातियों को कितना उत्थान-पतन देखना पड़ा है। जैन-ग्रंथ महाराजा भरत के मुंह से उनके दरबार में निम्न व्याख्यान दिलाते हैं-

ये किच्चाक्षर म्लेच्छाः स्वदेशे प्रचरिष्णवः।

ते अपि कषक सामान्यं कर्तव्याः करदा नृपैः।।

तानु प्राहुरक्षर म्लेच्छा ये ऽमी वेदोपजीविनः।

अधर्माक्षर सम्पाठैर्लोकव्या मोह कारिणः।।

यतोऽऽक्षर कृतं गर्वं विद्या बल स्ततेके।

वहंत्यतोऽक्षर म्लेच्छा पाप सूत्रोपजीविनः।।

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-46


म्लेच्छा रोहि हिंसायाम रतिर्मासा शनेऽपिच।

बलात्परस्व हरणं निद् धर्मत्व मिति स्मृतम्।।

वयं निस्तार का देव ब्राह्मण लोकसम्मताः।

धान्य भागमतो राज्ञेन दद्भदूति चेन्मतम।।

वैशिष्ट्यं किं कृतं शेष वर्णेभ्यो भवतामिह।

न जाति मात्र द्वैशिष्ट्यं जाति भेदा प्रतीति तः।।

गुण तोऽपि न वैशिष्ट मस्ति वो नाम धारकाः।

व्रतनो व्राहियणा जैना येत एव गुणाधिकाः।।

निर्वृता निर्नमस्करा निर्घृणाः पशु घातिनः।

म्लेच्छाचार परा यूयं न स्थाने धार्मिक द्विजाः।।

तस्मादन्ते कुरूम्लेच्छा इवतेऽमी मही भुजां।

प्रजा सामान्य धान्यांश दानाक्षयै रवि शोषिता:।।

किमत्र बहूनोक्तेन जैनान्मुक्त्वा द्विजोत्तमान्।

तान्ये मान्या नरेन्द्राणां प्रजा सामान्य जीविकाः।।

(जैन आदि पुराणपर्व 42)

अर्थ- जैनों में पहले क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तीन ही वर्ण थे। जब राजा भरत जैनों के धार्मिक कृत्य कराने के लिए चौथा वर्ण ब्राह्मण वर्ण बना चुके तो अधीन राजा उमराव और प्रजाजनों को एकत्रित कर कहने लगे कि पुराने ब्राह्मण अक्षर म्लेच्छ हैं। ये नए ब्राह्मण तुम्हारे पूज्य हैं यथा-

जो लोग अक्षर म्लेच्छ देश (जहां ब्राह्मण धर्म फैला हुआ है) में रहते हैं, राजाओं को चाहिए कि उन पर सामान्य प्रज्ञा के समान कर लगावें।

जो वेदों के द्वारा अपनी आजीविका करते हैं, और अधर्म रूप अक्षरों को सुना-सुनाकर लोगों को ठगा करते हैं वे अक्षर म्लेच्छ कहलाते हैं क्योकि वे अपने अज्ञान के बल से अक्षरों से उत्पन्न हुए अभिमान को धारण करते हैं।

हिंसा में प्रेम मानना, जबर्दस्ती दूसरों का धन अहरण करना भौर भ्रष्ट होना - यही म्लेच्छों का आचरण है, सो ये ही सब आचरण इनमें मौजूद हैं।

ये अधम द्विज (ब्राह्मण) अपनी जाति के अभिमान से हिंसा करने और मांस खाने आदि को पुष्ट करने वाले वेद शास्त्र के अर्थ को बहुत कुछ मानते हैं। अतः इनको सामान्य प्रजा के ही समान मानना चाहिए।

ये लोग मानने के योग्य नहीं हैं, किन्तु वे ही द्विज (ब्राह्मण) मानने योग्य हैं तो अर्हन्त देव के सेवक हैं।

यदि ये म्लेच्छ यह कहने लगें कि लोगों को संसार से पार करने वाले हम ही हैं, हम ही देव ब्राह्मण हैं और सब लोग हम ही को जानते हैं इस वास्ते राजा को फसल का हम कुछ भी हिस्सा नहीं देंगे तो उनसे पूछना चाहिए कि अन्य वर्णो से तुम में क्या विशेषता है और क्यों है?


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-47


जाति मात्र से तो बड़प्पन हो नहीं सकता, रहे गुण, सो उनका तुम में बड़प्पन है नहीं। क्योंकि, तुम नाम के ही ब्राह्मण हो, गुणों में तो वे ही बड़े हैं, जो व्रतों को धारण करने वाले जैन ब्राह्मण हैं। तुम लोग व्रत रहित, नमस्कार करने के अयोग्य, निर्लज्ज, पशुओं की हिंसा करने वाले, म्लेच्छों के आचरणों में तत्पर हो, इसलिए तुम किसी तरह के धार्मिक द्विज नहीं हो।

राजाओं को उचित है कि इन अक्षर म्लेच्छों में साधारण प्रजा के ही समान अनाज का भाग लेकर इनको सबके समान माने। ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। राजाओं को उत्तम जैन ब्राह्मणों के सिवाय और किसी की पूजा नहीं माननी चाहिए।1


यह विष तो वह है जो क्षत्रिए-मस्तिष्क-जनित जैन धर्म की ओर से ब्राह्मण के विरूद्ध उगला जा रहा था।

ब्राह्मणों ने इसका क्या उत्तर दिया वह भी देखिए -

शनकैस्तु क्रियालोपादिमाः क्षत्रियजातयः

वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च।

पौण्ड्रकाश्चोंड्र द्रविडाः काम्बोजा यवना शकाः

पारदाः पल्लवाश्चीना किराता दारदाः खशाः।।

(मनु. 10, 43-44)2

अर्थ - पौंड्र, ओंड्र, द्रविड़, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्लव, चीन, किरात, दरद, खश जो कि क्षत्रिय ही थे, बिना ब्राह्मणों के दर्शनों के क्रियालोप होकर वृषलत्व (हीनता) को प्राप्त हो गये।


यह तो मीठा-सा उत्तर है जरा आगे और भी बढिए - जिस भांति जैन ब्राह्मणों के दर्शन की मनाही करते थे इसी भांति ब्राह्मणों ने भी अड़ंगा लगाया -

जैनों के (नंगों) श्राद्ध का भोजन न करे। इनके पास न बैठे, इनके साथ हंसे भी नहीं, इनका सत्संग न करे, व्रत के दिन नंगे (जैन साधु) का न दर्शन करे, न उससे बातचीत करे। क्योंकि शत्रुध्न नामक एक राजा थे, उनकी स्त्री का शैव्या नाम था। बड़ी धर्मात्मा, पतिव्रता, शौच, दया, गुण-सम्पन्न थी। उस राजा ने अपनी स्त्री के साथ देव-देव जनार्दन विष्णु भगवान की आराधना की। उसमें होम, जप, दान, पूजादि करके दिन बिताए थे। एक दिन स्त्री, पुरूष दोनों गंगाजी में स्नान कर बाहर निकले। उस दिन कार्तिकी पूर्णिमा का व्रत था।

1. ध्यान रहे यह जैन ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रों में से बनाये गए थे.
2. कुछ इतिहासकारों का कथन है कि मनुस्मृति ईसा के बाद बनी. किन्तु हमारा अनुमान है कि उसमें प्रक्षेपनीय विषय ईसा के बाद बढे होंगे.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-48


निकलते ही एक पाखण्डी जैन साधु दीख पड़ा। वह कभी राजा का मित्र था। इस कारण राजा उससे बातचीत करने लगे। पर रानी नहीं बोली.... कुछ दिन बाद राजा-रानी मर गए। रानी काशी में राजकुमारी होकर जन्मी और राजा उस पाखण्डी से बात करने के कारण कूकर हुए।

ब्राह्मणों ने पुराणों में जैनियों के तीर्थंकर को दैत्य या असुर के नाम से अथवा माया मोह के नाम से याद किया है।1 इसके प्रत्युत्तर में जैन पुराणों ने कृष्ण की निन्दा की है।2 पुराणों में गया में श्राद्ध करने का बड़ा महातम्य बताया गया है। किन्तु आज का हिन्दू-समाज इसका कारण नहीं समझ सकता। गया, बौद्ध-धर्म का केन्द्र था। मक्के में शिवालय बनाने का जो भाव हो सकता है, वही गया में श्राद्ध करने का था। ऐसी बात पुराणों की इस आज्ञा में थी कि हाथी के पैर के नीचे कुचल जाना श्रेष्ठ है, किन्तु जैन-मंन्दिर में घुसकर उससे बच जाना श्रेष्ठ नहीं।

ब्राह्मण, जैनों के विरूद्ध कहते थे कि -

वृहस्पति साहाय्यार्थ विष्णुना माया मोह समुत्पादकम्।

दिगम्बरेण माया मोहेन दैत्यन् प्रति जैन धर्मोपदेशा दानवानां।।

माया मोह मोहितानां गुरूणा दिगम्बर जैन धर्म दीक्षा दानम्।

(पद्म पुराण, सृष्टि खंड 13)

भावार्थ - बृहस्पति की सहायता के लिए विष्णु ने माया-मोह को पैदा किया। माया-मोह ने दिगम्बरों को जो कि दैत्य हैं, जैनों के उपदेश के लिए नियुक्त कर दिया। जैन उन्हीं माया मोह-रूपी दैत्यों के शिष्य हैं।

जैन-धर्म व बौद्ध-धर्म के नष्ट करने के लिए ब्राह्मणों ने किन साधनों से काम लिया, यह भी मनोरंजक विषय है -

गंगायाम् मृतक स्यौच्चैः अस्थीनि भो नरोत्तमाः।

गति कर्तास्मि सर्वस्य क्षेपणी यानि निश्चयात् ॥

मत्तीर्थे मृतक स्यैव पिंडादिक वरां क्रियाम्।

करिष्यन्ति न च तेषां भविष्यत्य सुखं कदा ॥

स्नानं मर्त्याश्च मत्तीर्थे तर्पण पूजनं जपं।

करिष्यन्ति भजिष्यन्ति मल्लोक ते न संशयः॥3

अर्थ - मृतक पुरूषों की हड्डियां गंगा में बहाना, मैं उनकी मुक्ति करूंगा। तीर्थ में पिंडदान करने वालों को कोई दुख न होगा। तीर्थ में स्नान, तर्पण, जप, भजन से बैकुंठ होगा।


1 . विष्णु पुराण अंश 3 , अध्याय 18
2 . जैन हरिवंश पुराण
3 . जैन सूर्य पुराण, श्लोक 270 से 272


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-49


ये वाक्य जैन-पुराण में, जैनियों का क्षय कैसे होगा, के उत्तर में - बलदेवजी से कहलाए हैं कि जैन-धर्म के नाश के लिए ब्राह्मण ये साधन काम में लाएंगे। इन सबसे एक बड़ा साधन जैनों को नष्ट करने के लिए ब्राह्मणों ने जो निकाला था यह था।

मिथ्यात्व पोष का भूप विप्राणां पूजकास्तदा।

जैन, ब्राह्मण और राजा लोगों ने क्या किया।

जिना गमस्य शास्त्राणि चाब्धौ संक्षेपिता निवै।

दुष्टलोकैः ह्यतोनैव दृश्यंते जैन वाक्य जाः।।1

जैन शास्त्रों को ये लोग समुद्र में फेंकते थे।

यद्यपि उक्त श्लोक जैन सूर्य पुराण में भविष्य के लिए कहे गए हैं, किन्तु यह बीती हुई घटनाएं थीं। आगे और भी कहा है -

विप्राहि जैनधर्मस्य करिष्यंति विनाशनम् (जै.सू. प्रं.)।

जैन-धर्म से हटाकर, ब्राह्मण जनता को किस मार्ग पर ले जा रहे थे, वह भी जैन-ग्रंथ बतलाते हैं।

शिव विष्णश्चपरा ब्रह्म सेवा भक्ति परायणाः।

सर्वोत्कृष्टमतं स्वस्य त्यक्त्वा चान्यमते रताः।।

(शिव, विष्णु, ब्रह्मा और कुगुरूओं की सेवा करेंगे अपने जैन-मत को छोड़कर)।

इन उद्धरणों के देने से हमारा मतलब यही है कि बौद्ध-काल संघर्ष का समय था। एक धर्म दूसरे को निकृष्ट बताकर अपनी श्रेष्ठता जाहिर कर रहा था। एक धर्म का अनुयायी नरेश दूसरे धर्म के अनुयायियों का दुश्मन बना हुआ था। जब जैन तथा बौद्ध धर्म यौवन पर थे तब ब्राह्मण और उनके अनुयायी पतित सिद्व कर दिए गए और उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा गया। नागरिकता के हकों से वंचित रखा गया। जब ब्राह्मण-धर्म बलवान हुआ, बौद्ध-धर्म का जैन धर्म के अनुयायी पतित, शूद्र, म्लेच्छ करार दिए गये। उनके मुकाबले में दूसरी जातियों को खड़ा कर दिया।

ब्राह्माण-धर्म ने जो शंकरवाद के नाम से भी पुकारा जा सकता है सबसे अधिक प्रतिहिंसा का व्यवहार बौद्ध-धर्म के साथ किया। बौद्ध-धर्म को नष्ट करने के लिए नये क्षत्रियों की रचना की गई। पहले तो यह घोषणा की गई कि कलियुग में क्षत्रिय वर्ण नहीं है। यह स्मृति-वाक्य उस बात का बदला था कि जैन बौद्धों ने ब्राह्मण-वर्ग का बहिस्कार कर दिया था। किन्तु बिना राजशक्ति के बौद्ध-धर्म से विजय होना असम्भव जानकर ब्राह्मणों ने जो क्षत्रिय उनमें आ सके, उन्हें अपनाया।


1. जैन सूर्य पुराण


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-50


नए क्षत्रिय - कुछेक क्षत्रिय नए सिरे से पैदा किए। आबू यज्ञ में चौहान, परिहार, सोलंकी, पवार आदि की रचना उसी समय की है। ये लोग जंगली समुदाय में से आए थे। बौद्ध-धर्म को नष्ट करने में कुमारिल भट्ट आदि की विद्वता से अधिक कार्य पुष्यमित्र, शशांक, अर्जुन आदि की तलवार ने किया था।1

हमें इस विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं कि बौद्ध-धर्म से भारत को हानि हुई या लाभ। हमें तो यह दिखाना था कि बौद्ध-काल के बाद असली क्षत्रियों का क्या बना-बिगड़ा तथा भारत की राष्ट्रीयता का क्या रूप हो गया? मौजूदा सामाजिक नियम आचार-विचार हिन्दू-समाज के कल्याण के लिए बनाए हुए हैं अथवा बौद्ध तथा जैन धर्म को नष्ट करने के लिए?

भारतीय इतिहास में बौद्ध-काल महत्व का समय है

बौद्ध-काल का अन्तिम समय पौराणिक-काल भी कहा जा सकता है। वैसे तो पुराणों की रचना बौद्ध-काल के मध्यमांश में ही आरम्भ हो गई थी; किन्तु ईसा की पूर्व तीसरी-चौथी सदी तक वे बराबर बढ़ते रहे हैं। पौराणिक-काल में रामायण और महाभारत में भी हेर-फेर हुए हैं।

महाभारत - महाभारत ग्रन्थ के सम्बन्ध में चिन्तामणि वैद्य की सम्मति है कि उसकी रचना तीन बार में हुई है। कौरव और पाण्डवों की लड़ाई का हाल व्यास ने जय नामक ग्रन्थ में वर्णित किया है। व्यास जी के शिष्य वैशम्पायन ने सर्पसत्र के समय जो कि जन्मेजय का समाकालीन था, इस ग्रन्थ को भारत नाम से प्रसिद्धि दी। सर्पसत्र के समय उस कथा को सूत लोमहर्षण ने सुना और नैमिषारण्य में उसके पुत्र सौति ने उसे ऋषियों को सुनाया। तब से उसका नाम महाभारत हुआ।

इसमें सन्देह नहीं कि जो प्रश्नोत्तर वैश्याम्पायन और जन्मेजय के बीच हुए होंगे, वे व्यासजी के मूल ग्रन्थ से अधिक अवश्य होंगें। इसी प्रकार सौति और शौनक ऋषियों के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए होंगे वे वैशम्पायन के ग्रन्थ से अधिक अवश्य होंगे। सारांशतः व्यास के ग्रन्थ को वैशम्पायन और वैशम्पायन के ग्रन्थ को बढ़ाकर सौति ने एक लाख श्लोकों का कर दिया। इसके प्रमाण में सौति का यह स्पष्ट वचन है -

एकम् शतसहस्त्रं च मयोक्तम् वै निबोधत (आ.अ. 1, 109)2

आगे सी.बी. वैद्य ‘भारत क्यों बढ़ाया गया’ हेडिंग देकर लिखते हैं-


1 . पंजाब की तवारीख (उर्दू) भाई परमानन्द जी लिखित
2 . महाभारत मीमांसा पृ.5-6

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  • 1. शक से तीन शताब्दी पहले भारत को महाभारत का रूप प्राप्त हुआ है,
  • 2. उस समय हिन्दुस्तान में दो नए धर्म उत्पन्न हुए थे और उनका प्रचार भी खूब हो रहा था।

शक के लगभग 600 वर्ष पहले तीर्थंकर महावीर ने बिहार- प्रान्त में जैन धर्म का उपदेश किया और लगभग उसी समय के अनन्तर गौतम बुद्ध ने अपने धर्म का प्रचार किया..... इन दोनों धर्मों की प्रामाणिकता को खुल्लम-खुल्लम अस्वीकार कर दिया था।... ब्राह्मणों के विषय में जो श्रद्धा पहले थी, वह भी घटने लग गई थी।.... इन धर्मो में यह प्रतिपादन किया जाने लगा कि इन्द्रादि देवता जैन अथवा बुद्ध के आगे हाथ जोड़कर खड़े रहते हैं। यहां तक कि उनके पैरों के तले पड़े रहते हैं।1

इस प्रकार अशोक के समय अथवा इस समय के लगभग बौद्ध और जैन धर्मो ने सनातन धर्म पर जो हमला किया था, उसका प्रतिकार करने के लिए सनातन-धर्मावलम्बियों के पास कुछ भी साधन या उपाय न था और उनके धर्म में भिन्न मतों की खीचा-तानी हो रही थी। ऐसी अवस्था में सौति ने भारत को महाभारत का वृहत रूप दिया। सनातन-धर्म के अन्तस्थ विरोधों को दूर किया। सब मतों को एकत्रित कर उनमे मेल कराने का यत्न किया। सब कथाओं को एक स्थान में संग्रह करके उन कथाओं को उचित स्थान देकर भारत-ग्रन्थ की शोभा बढ़ाई और सनातन-धर्म के उदात्त स्वरूप को लोगों के मन पर प्रतिबिम्बित करके सनातन धर्मावलम्बियों में एक नूतन-शक्ति उत्पन्न कर देने का महत्वपूर्ण कार्य किया।2

भारत को महाभारत बनाने में सौति का प्रथम उद्देश्य यह था कि धर्म की एकता सिद्ध की जाए।

भारत (ग्रन्थ) में श्रीकृष्ण अर्थात् विष्णु की भक्ति अधिक है किन्तु सौति ने धर्मो की एकता के लिए शंकर, देवी, नारायण आदि सभी देवताओं की, कुछ पर्व जोड़कर स्तुतियों जोड़ दी हैं।3

महाभारत ग्रन्थ हिन्दुस्तान की उस परिस्थिति का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब है जो कि सन् ई. पूर्व 3000 से 300 वर्ष तक थी। ब्राह्मण-काल से यूनानियों की चढ़ाई तक की पूरी जानकारी यदि किसी एक ग्रन्थ से हो सकती है तो वह महाभारत ही है।4


1.महाभारत मीमांसा पृ.14-15
2.महाभारत मीमांसा पृ.16
3. म.मी.पृ.17-18
4. म.मी.पृ.169


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उपर्युक्त कथन का सारांश यही है कि महाभारत में बढ़ोतरी बौद्ध-जैन-धर्मो के मुकाबले के लिए ही की गई थी और वह ईसा के तीन सौ वर्ष पूर्व तक हुई।

कुछ लोगों का कहना है कि मनुस्मृति भी अन्तिम बौद्ध-काल में ही बनी थी। यदि कुल नहीं, तो उसमें भी वृद्धि अवश्य हुई।

आज का ब्राह्मण-धर्म लोक-कल्याण की अपेक्षा बौद्ध-जैन-धर्म के मुकाबले पर खड़ा किया गया धर्म है। मूर्ति-पूजा, श्राद्ध, तीर्थाटन, सती-प्रथा, विधवा-विवाह निषेध, ऊंच-नीच का भेद, व्रत और उपवास सब बौद्ध-जैन धर्मो के मुकाबले पर प्रचलित किए गए हैं। चूंकि बौद्ध-धर्म के अनुयायी, भगवान-बुद्ध के चरणों की अथवा पादुकाओं की पूजा करने लग गए थे और उनकी अस्थियों की समाधियां अथवा छतरियां खड़ी कर दी थीं नए ब्राह्मण-धर्म ने लोगों को उधर से हटाकर राम-कृष्ण की मूर्तियों का उपासक बनाया और मन्दिरों में मूर्तियां रखकर उनकी पूजा कराई जाने लगी। दिवेकर शास्त्री लिखते हैं -

  • मूल वैदिक-काल में देवालय, मूर्ति पादुका, प्रतिमा इत्यादि कुछ भी न था, यह सब इसी समय (बौद्ध-काल में ही) उत्पन्न हुए थे। इसी काल में महायान-पंथ (बौद्ध-धर्म की एक शाखा) के देवालय, मूर्ति इत्यादि से टक्कर लेने के लिए त्रैवर्णिकों ने राम-कृष्ण इत्यादि ऐतिहासिक व्यक्तियों को देवत्व देकर तथा शिव, विष्णु, इन्द्र, सूर्य, वायु, मरूत, लक्ष्मी इत्यादि आर्य देवों की मूर्तियों बना उनके भव्य तथा रमणीय देवालय के निर्माण किए।

इस काल में लोगों को धर्म समझाने के लिए मानव-धर्म-शास्त्र, याज्ञवल्क्य-स्मृति इत्यादि प्रसिद्ध धर्म (कानून के) ग्रन्थ निर्माण किए गए। इसी अवधि में बौद्ध तथा जैन धर्म विरोधी पंडितों की दीप्ति करने के लिए ब्रह्म-सूत्र, न्याय-सूत्र, तर्क-सूत्र, मीमांसा-सूत्र, भक्ति-सूत्र इत्यादि सूत्र-ग्रन्थों का उदय हुआ। इसी काम में शंकराचार्य ने पूर्व-मीमांसा पर एक बड़ा भारी भाष्य रचा। भट्ट कुमारिल का वार्तिक भी बड़ा निकला और पार्थसार्थी मिश्र का दीपिका उदय हुआ।1 पौराणिक धर्म ने राम-कृष्ण को देवत्व क्यों दिया? इसका मुख्या कारण हमारी मति में यह है कि वैदिक-काल के इन्द्रादिक की महत्ता तो बौद्ध-जैनों ने नष्ट कर दी थी। इसीलिए ब्राह्मणों को राम-कृष्ण को महत्व देना पड़ा। महत्व देने में भी उन्होंने बौद्ध-जैनों का अनुकरण किया है। राम-कृष्ण के जन्म पर इन्द्रादि देवताओं के द्वारा फूल बरसवाना, उनके दर्शन के लिए आना बिल्कुल जैनों की नकल है।2

अनेक उपायों से बौद्ध-धर्म को नष्ट करने के पश्चात् ब्राह्मणों ने जो रचनात्मक कार्य किया वह यह था कि गण-राज्य के विरूद्ध एकतंत्रवाद को महत्व दिया और विनष्ट हुई वर्ण-व्यवस्था का पुनरूद्धार किया।


1.आर्य संस्कृति का उत्कर्षापकर्ष पृ. 149 -150
2. देखो हरिवंश पुराण


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-53


क्षत्रिय-वर्ण का नये सिरे से निर्माण - पहले तो क्षत्रिय-वर्ण का नाम ही मिटाना चाहा, किन्तु मुकाबले के लिए क्षत्रिय वर्ण भी रखा, परन्तु उसका नये सिरे से निर्माण किया1, उनके लिए नये नियम बनाये जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं -

  • 1. राजा वंशानुगत ही होगा,
  • 2. उसकी स्त्री उसके मरने पर सती होगी,
  • 3. वह हर्ष के समय ब्राह्मणों को दान देगा,
  • 4. कोई भी शुभ काम बिना ब्राह्मणों की इच्छा के न करेगा,
  • 5. अनेक स्त्रियां रख सकेगा, किन्तु ब्राह्मणों को दंड न दे सकेगा,
  • 6. कोई भी शुभ कृत्य ब्राह्मण से करायेगा,
  • 7. ज्योतिष पर विश्वास करेगा,
  • 8. अपने धर्म से बाहर के लोगों से खान-पान शादी व्यवहार न रख सकेगा,
  • 9. जाति की अपेक्षा धर्म का भक्त होगा आदि-आदि।

इस तरह ब्राह्मणों ने उन क्षत्रियों को शूद्र और पतित करार दे दिया जो ब्राह्मण-धर्म में शीघ्रता से दीक्षित न हो गए। फल यह हुआ कि केवल धार्मिक अन्ध-विश्वास से क्षत्रिय जाति छिन्न-भिन्न हो गई । जाट-जाति भी ऐसी ही क्षत्रिय जातियों में से है जो शीघ्रता से नवीन ब्राह्मण-धर्म में दीक्षित न हुई थी। प्रसंग में इस बात का पूरा विवरण हम आगे देंगे।

नवीन ब्राह्मण-धर्म भारत को पतन के गहरे गड्डे की ओर मनुष्यता के विरूद्ध ले जा रहा है। बीच में कबीर, नानक, और दयानंद महाराज ने क्रान्ति की है फिर भी भारत में आज ब्राह्मण-धर्म का बोल-बाला है, जो कि बौद्ध-काल के बाद भारतीय इतिहास में अपना स्थान और काल रखता है।

चूंकि बौद्ध-काल में वैदिक-युगीन वर्ण-व्यवस्था शिथिल हो गई थी, हालांकि वह थी। क्षत्रियों की तो प्रधानता ही थी। वे अनके राज-वशों में बंटे हुए थे, जिनमे से अधिकांश प्रजातंत्री थे। उन्होंने ब्राह्मण-ग्रन्थों की भांति जो बौद्ध-ग्रन्थ लिखे थे उनका नाम जातक रखा था। ब्राह्मण-धर्म ने बौद्धों पर विजय पाने के पश्चात् वर्ण-व्यवस्था का पुनरूद्धार करके नये सिरे से समाज-रचना की। यह सही है कि शंकराचार्य इस ब्राह्मण-धर्म का जिसे कि नवीन हिन्दू-धर्म भी कह सकते हैं, अन्तिम प्रसिद्ध नेता अथवा उद्धारक था। उसके पीछे के उत्तराधिकारियों को एक ही काम रह गया था, वह यह कि विजित मैदान पर कब्जा करें और भविष्य में कोई धार्मिक आन्दोलन न हो। इसलिए नियम और विधान बनावें। यद्यपि नवीन हिन्दू-धर्म अपने को वैदिक-धर्म बताने की चेष्टा करता था, किन्तु वास्तव में वह वैदिक-धर्म से कई बातों में बहुत दूर है। उसने सती होने जैसी अवैदिक प्रथा को जन्म दिया, वहां पर्दा, कन्या-वध और ऊंच-नीच की दीवाल भी तैयार कर दी। उसने कुछ नये लोगों को क्षत्रिय बनने को उत्साहित किया और पुराने क्षत्रियों के लिए यह घोषणा की कि कलियुग में क्षत्रिय वर्ण है ही नहीं। इस नवीन हिन्दू-धर्म ने उद्योग-धन्धों को केन्द्रीभूत भी कर दिया। ब्राह्मण और राजवंशियों के लिए हल चलाने का निषेध कर दिया।


:1. अग्नि कुली क्षत्रिय नए ब्राह्मण धर्म ने बौद्धों के मुकाबले में तैयार किये


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-54


बलिदान अर्थात् देवी और चामुंड के नाम पर बकरे, भैंसे काटने की रिवाज नवीन क्षत्रियों में इसी नवीन हिन्दू-धर्म के समय में प्रविष्ट हुई। एकेश्वरवाद की जगह बहु-देववाद का प्रचार हुआ। विदेश-या़त्रा निषेधात्मक कर दी गई, यह इसलिए कि लोग अन्य देशों के संसर्ग में पड़ कर कुछ नृशंस रिवाजों के विरूद्ध जो कि नवीन हिन्दू-धर्म ने ग्रहण की थीं से विद्रोह न कर दें। शूद्र-वर्ण के लिए पढ़ना-लिखना बन्द किया गया। स्त्रियों की गणना शूद्रों के साथ की गई। उनके बराबरी के अधिकार छीन कर उन्हें सदैव अधीनता में रहने वाली बताया गया। विवाह सम्बन्धी नियम अत्यन्त ही कठोर बना दिये गए, जो कि अन्यायपूर्ण और वैदिक-धर्म के कोसों दूर थे। पुरूष विधुर होने पर कई विवाह कर सकेगा और स्त्री पर दूसरी बार तेल हर्गिज न चढ़ेगा, उन्हें अपना पति चुनने का भी कोई अधिकार नहीं रहेगा। बाल्य-अवस्था के विवाहों की प्रणाली भी आरम्भ की गई। खान-पान के नियम बहुत ही विचित्र रखे गए। मांस-मदिरा भले ही चले, किन्तु चौके में अन्य आदमी नहीं जा सके। कोई भी उच्च जाति दूसरी जाति के घर का कच्चा भोजन न करे। दान-पुण्य को लेने का सबसे बड़ा अधिकारी भूखा-नंगा नहीं, किन्तु ब्राह्मण माना गया। शकुन-मुहूर्त का भी जाल तैयार हुआ। बिना पंडितजी से पूछे कोई यात्रा करना बुरा समझा जाने लगा।

क्षत्रिय-समाज जिसे कि भगवान बुद्ध और महावीर ने स्वतन्त्र बुद्धि का बना दिया था, इस नये धर्म में आने से चौंका, किन्तु वह फेल हो चुका था। ब्राह्मण-विज्ञान ने क्षत्रिय-विज्ञान को पटक दे दी थी। इसलिए उनमें से कुछ तो शीघ्र ही और कुछ शनैः शनैः इस नये हिन्दू-धर्म में शामिल हो गए। जिन्होंने ढील-ढाल की वे नवीन हिन्दू-धर्म के प्रवर्तक ब्राह्मणों द्वारा पतित और शूद्र करार दे दिये गए और उनके विरूद्ध पुराणों, स्मृतियों और दन्त कथाओं में काफी जहर उगला गया। शक, कुषाण, पल्लव, यदु, गोप, नन्द, मौर्य आदि जो कि प्राचीन क्षत्रियों के उत्तराधिकारी थे उन्हें अनार्य, म्लेच्छ और व्रात्य आदि नामों से सम्बोधित किया। उनके मां-बापों को शूद्र-शूद्राणी बताया गया अथवा उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में भ्रम फैलाया गया। अपने पक्ष में आने वाले तथा नये सिरे से बनाये हुए क्षत्रियों को राम और कृष्ण की सन्तान बताया गया। साथ ही उनकी कृत्रिम वंशावलियां भी तैयार की गई। पुराणों की वंशावलियां जो कि एक दूसरे से नहीं मिलती हैं, इस बात के प्रमाण हैं।

बौद्ध-धर्म ने लोगों को यदि भीरू बनाया था तो नवीन हिन्दू-धर्म ने जाति विद्वेषी। बौद्ध-धर्म अनुचित हिंसाओं के प्रतिशोध के लिए जन्मा था, किन्तु अहिंसा के प्रवाह में वह यहां तक बहा कि लोग मारने से डरने की बजाय मरने से भी डरने लगे थे। इसलिए यह आवश्यक था कि या तो उसमें क्षात्र-तेज का बीज बोया जाता या उसे नष्ट कर दिया जाता।


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वह भारत से नष्ट हो गया, किन्तु उसके स्थान पर जो नवीन हिन्दू-धर्म स्थापित हुआ, वह सर्व-साधारण का धर्म तो है ही नहीं, साथ ही वह अराष्ट्रीय भी है। वह राष्ट्र-निर्माण में सहायक नहीं, किन्तु बाधक है। उसने अनेक क्षत्रिय जातियों को पतित बना दिया। वैश्यों को विशाल व्यवसाय-क्षेत्र में विचरण करने से रोककर (विदेश यात्रा निषेध से) एक कठघरे में बन्द किया। निम्न दर्जे के लोगों को सदैव के लिए पशु बना दिया या उन्हें इस बात पर विवश होने के मार्ग पर पटक दिया कि वे इस जाति और धर्म से अलग हो जायें। स्त्रियां जिन्हें सहयोगिनी या सहधर्मिणी कहा गया है ऐसी बनाई कि वे अपने प्राचीन स्थान को बहुत समय तक प्राप्त न कर सकेंगी। ब्राह्मण-वर्ग स्वयं जिसने कि बड़े षड्यन्त्र और परिश्रम के बाद इस नवीन हिन्दू-धर्म को स्थापित किया था, जगत-गुरु के बजाय, कूप-मंडूक और मूढ़ ही नहीं, कहार और बावर्ची पद को पहुंच गया।

बौद्ध-धर्म के पतन-काल में भारत में अनेक जातियों का प्रवेश भी हुआ था, किन्तु बौद्ध-धर्म ने उन्हें पौराणिकों की भांति दुत्कारा नहीं, वरन उन्हें अपना लिया। हालांकि वे जातियां भी अनार्य नहीं थी। उनके पूर्वजों की निवास-भूमि भारत ही थी। उनका धर्म भी अब तक वैदिक-धर्म था। वे जातियां तरुष्क, कुषाण आदि कहलाती थीं। उनमें कनिष्क जैसे महामना सम्राट हुए थे, जिन्होंने भारत के सन्देश को चीन और जापान तक पहुंचाने में भरसक चेष्टा की थी। संसार के सामने भारतवासी जिस समय अपने सम्राटों का नाम पेश करते हैं तो कनिष्क पर उन्हें पूर्ण अभिमान होता है। इन महावीरों ने जहां संसार के सामने वीरता में भारत का नाम ऊंचा किया, वहां सभ्यता-प्रचार में भी उसे उच्च स्थान दिलाया है।

बौद्ध-काल में भारत की सभ्यता का प्रचार तो हुआ ही था, किन्तु देश भी धन-धान्य से पूर्ण हो गया था। चीनी यात्री ह्वानस्वांग और फाहियान ने बौद्ध-कालीन भारत की आर्थिक अवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। शिल्पकला की जितनी उन्नति बौद्ध-काल के बारह सौ वर्ष में हुई थी, वर्तमान हिन्दू-धर्म के इन तेरह सौ वर्षो में उसकी आधी भी नहीं हुई हैं।

जाति-विभेद को बौद्ध-धर्म ने जितना ही ढीला किया था, वर्तमान धर्म ने उसे उतना ही मजबूत कर दिया है। इसी जाति-विभेद से इस धर्म के आरम्भिक-काल से ही मुसलमानों ने भारत के ऊपर आक्रमण करके लाभ उठाया है। धर्म की सकुंचितता ने पिछले तेरह सौ वर्ष में दस करोड़ हिन्दुओं को विधर्मी बना दिया है। बौद्ध-धर्म ने जहां संसार में 60 करोड़ भारत के श्रद्धालु बनाये थे, नवीन हिन्दू-धर्म ने गांठ के दस करोड मक्का-मदीना अथवा यरूसलम के भक्त बना दिये हैं। नवीन हिन्दू-धर्म ने अपने ही भाइयों में किसी को म्लेच्छ, किसी को व्रात्य, किसी को


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-56


अनार्य और किसी को पतित कहकर गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। किन्तु फिर भी जिस जाति के अन्दर भगवान कृष्ण जैसे महान् पुरूषों ने जन्म लिया है, उसकी रक्षा के लिए विभूतिया आती ही रहती हैं। ऋषि दयानन्द ने फिर से उसका उद्धार कर दिया, यह बात अब सभी लोग मानते हैं।

यहां तक हमने वैदिक-काल से वर्तमान समय तक के भारत के इतिहास पर प्रकाश डाला है। अब आगे जाटों के सम्बन्ध में लिखा जायेगा। ये जाट इसी भारत मां के अथवा आर्य जननी के सुपुत्र हैं जिन्होंने कि पूर्व कथित धार्मिक संघर्षों में घिस-घिसकर भी अपने अस्तित्व को बनाये रखा है।


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प्रथम अध्याय समाप्त


नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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