Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter V

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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पंचम अध्याय: महाभारत युद्ध के बाद भारतवर्ष में जाटराज्य एवं शक्ति

महाभारत युद्ध के बाद के भारतवर्ष के इतिहास के विषय में हमारे अध्यापक, विद्यार्थी, शिक्षित तथा विद्वान् पुरुष यथेष्ट रूप से जानते हैं और साधारण मनुष्य भी थोड़ी-बहुत जानकारी रखते हैं। इसलिए इस इतिहास को विस्तार से वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। हमारा विशेष लक्षय जाटराज्यों के वर्णन करने का है। इनका वर्णन संक्षिप्त में केवल संकेत द्वारा लिखा जायेगा। जहां तक सम्भव होगा, जाट सम्राटों तथा शासकों के विषय में उनके जाटवंशज होने के ठोस प्रमाण दिए जायेंगे।

Contents

महाराज युधिष्ठिर से सम्राट् हर्षवर्धन तक जाटों का स्वर्णयुग

(समय 3100 वर्ष ईस्वी पूर्व से सन् 647 ई० = 3747 वर्ष तक)

हमने तृतीय अध्याय में “महाभारत काल में जाटवंश तथा उनका राज्य प्रकरण” में लिख दिया है कि उस समय भारतवर्ष में 244 जनपदों में से जाटवंशज 83 जनपद थे और पाण्डवों की दिग्विजय में उनसे जाटों का युद्ध, युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में द्रव्य (धन) लाना तथा युधिष्ठिर एवं दुर्योधन की ओर होकर 18 दिन तक युद्ध लड़ना विस्तार से लिख दिया है। इन युद्धों में सैंकड़ों जाटवंशज योद्धाओं ने भाग लिया जिनका वर्णन लिख दिया गया है।

इस महाभारत युद्ध में 18 अक्षौहिणी सेनाएं वीरगति को प्राप्त हुईं। इस युद्ध में पाण्डवों की विजय हुई और महाराज युधिष्ठिर हस्तिनापुर के सिंहासन पर विराजमान हुए। उसी दिन से महाराज युधिष्ठिर के नाम पर युधिष्ठिरी संवत् प्रचलित हुआ। महाराज धर्मराज युधिष्ठिर ने 36 वर्ष, 8 मास, 25 दिन चक्रवर्ती शासन किया। फिर उसके बाद की घटनाओं का संक्षिप्त वर्णन (देखो, तृतीय अध्याय, महाभारत मौसलपर्व प्रकरण)।

महाराज युधिष्ठिर ने अपने हस्तिनापुर राज्य पर अभिमन्युपुत्र परीक्षित का अभिषेक किया। युधिष्ठिर ने सुभद्रा से कहा - बेटी! परीक्षित कुरुदेश तथा कौरवों का राजा होगा और यादवों में जो लोग बचे हैं उनका राजा वज्र को बनाया गया है। युधिष्ठिर ने धृतराष्ट्र के वैश्यापुत्र युयुत्सु को सम्पूर्ण राज्य का भार सौंप दिया। फिर युधिष्ठिर ने अपने चारों भाइयों और द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर से चले गये और परमधाम को पहुंच गये। (देखो तृतीय अध्याय, महाभारत काल, महाप्रस्थानिक पर्व प्रकरण)

यह पहले लिख दिया गया है कि महाराज श्रीकृष्ण जी के परपोते वज्र को अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ के सिंहासन पर विराजमान कर दिया। इस सम्राट् वज्र की वंशावली भरतपुर नरेश महाराजा बृजेन्द्रसिंह तक सिलसिलेवार आती है।

दूसरे शब्दों में यह समझो कि वर्तमान भरतपुर नरेश श्रीकृष्ण महाराज के वंशज हैं। जो सब


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-449


यादववंशज जाट नरेश हैं। इनके प्रमाण निम्न प्रकार से हैं –

‘क्षत्रिय वंश’ श्री कंवर रिसालसिंह जी यादव प्रणीत ग्रन्थ के पृष्ठ 11, 12, 13 पर।

1. श्रीकृष्ण महाराज की वंशावली - (1) योगिराज कृष्ण महाराज (2) प्रद्युम्न (3) अनिरुद्ध (4) वज्र से लेकर (69) मदनपाल तक सिलसिलेवार लिखी है। इससे आगे मदनपाल से लेकर वर्तमान भरतपुर नरेश की वंशावली ‘बृजेन्द्र वंश भास्कर’ नामक भरतपुर राज्य के इतिहास के पृष्ट 3 से 10 तक और सुजान-चरित्र आदि पुस्तकों के आधार सिलसिलेवार (70) सूये (71) सूरद से लेकर (101) महाराजा बृजेन्द्रसिंह तक लिखी हुई है। महाराज भरतपुर नरेशों का गोत्र आजकल सिनसिनीवाल भी कहा जाता है।

समाधान - एक ही वंश गोत्र के कई-कई नाम पड़ जाने की परिपाटी भारतवर्ष में प्राचीनकाल से चली आती है। भरतपुर राजवंश के पुरुषाओं का किसी समय सिनसिनी स्थान में निवास होने के कारण इनके वंश का एक और नाम सिनसिनीवाल पड़ गया। इसके विषय में भरतपुर राजवंश के प्रकरण में विस्तार से लिखेंगे।

(श्रीकृष्ण जी से लेकर 101वीं पीढी में महाराजा बृजेन्द्रसिंह तक देखो, यदुवंश की वंशावली “वर्तमान भरतपुर नरेश कृष्ण महाराज के वंशज हैं”प्रकरण में)।

(यह लेख जाट इतिहास पृ० 16-18, सम्पदक निरंजनसिंह चौधरी की पुस्तक से लिया है)।

बिड़ला मन्दिर देहली में महाराजा सूरजमल भरतपुर नरेश का एक विशाल स्मारक (मूर्ति) है। उस पर लिखा है कि “आर्य हिन्दू धर्मरक्षक यादववंशी जाट वीर भरतपुर के महाराज सूरजमल, जिनकी वीर वाहिनी जाट सेना ने मुग़लों के लालकिले (आगरा) पर विजय प्राप्त की।” इसी स्मारक के निकट इन्हीं के दूसरे स्मारक के शिलालेख पर लिखा है कि “यादववंशी महाराज सूरजमल भरतपुर जिनकी वीर वाहिनी जाट सेना ने आगरे के प्रसिद्ध शाहजहां के कोट को अधिकार में कर लिया था।” (लेखक)

2. महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस विषय को विद्यार्थी सम्मिलित “हरिश्चन्द्रचन्द्रिका” और “मोहनचन्द्रिका” जो श्रीनाथद्वारा से निकलता था, से अनुवाद करके लिखा है। जिसमें महाराज “युधिष्ठिर” से महाराज “यशपाल” तक वंश अर्थात् पीढ़ी अनुमान 124 (एक सौ चौबीस राजा) वर्ष 4157, मास 9, दिन 14 हुए हैं। इनका ब्यौरा देखो, प्रथम अध्याय, “आर्यावर्तदेशीय राजवंशावली”)।

ऊपरलिखित महाभारत के लेख अनुसार अर्जुन ने वज्र को इन्द्रप्रस्थ के सिंहासन पर विराजमान किया और परीक्षित को हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाया। महर्षि दयानन्द सरस्वती के लेख अनुसार इन्द्रप्रस्थ की गद्दी पर महाराज युधिष्ठिर, परीक्षित आदि विराजमान हुए। इन दोनों ऐतिहासिक लेखों में भेद अवश्य है परन्तु यह बात प्रमणित हो जाती है कि महाभारत युद्ध के बाद से ही इन्द्रप्रस्थ, हस्तिनापुर, आगरा, मथुरा, कुरुक्षेत्र, हरयाणा, पंजाब, मगध आदि प्रदेशों पर या यह कहना उचित होगा कि पूरे उत्तरी भारत पर जाटों का शक्तिशाली शासन लगभग सिलसिलेवार


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-450


महाराज हर्षवर्धन तक रहता आया है।

अब इस विषय में जहां तक सम्भव होगा प्रमाण देने का प्रयत्न करता हूं। जिस काल में तथा स्थान पर जाटों के अतिरिक्त अन्य जाति के शासकों का राज्य रहा उनके वंश तथा नरेशों के नाम अवश्य लिखे जायेंगे।

धृतराष्ट्र और पाण्डु ये चन्द्रवंश में सम्राट् ययाति के पुत्र पुरु की परम्परा में हुये। इस पुरु से पुरु या पौरव जाटवंश प्रचलित हुआ। आगे आने वाली पीढ़ियों में महाराज हस्ती की पांचवीं पीढ़ी में सम्राट कुरु हुये जिसने धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र स्थापित किया। इनके नाम पर कुरु या कौरव जाटवंश प्रचलित हुआ। परन्तु पाण्डु के प्रसिद्धि के कारण उसके पांचों पुत्र पाण्डव कहलाये तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों को कौरव ही कहा गया। लिखने का तात्पर्य यह कि कौरव व पाण्डव जाट थे।

महाराज “युधिष्ठिर” से महाराज “यशपाल” तक 124 राजा हुये हैं। उनमें से जाट नरेशों का ब्यौरा निम्न प्रकार से है -

महाभारत युद्ध में पाण्डव विजयी हुए। तब महाराज युधिष्ठिर सिंहासन पर विराजमान हुये। इन्होंने 36 वर्ष, 8 मास, 25 दिन शासन किया। फिर अपनी गद्दी पर राजा परीक्षित को बैठाकर परमधाम को चले गये। परीक्षित ने 60 वर्ष शासन किया। उसको मार देने की घटना इस तरह से घटी -

पाण्डवों के पुराने शत्रु नागवंशियों (जाट गोत्र) ने एक संगठित क्रान्ति का संदेश देश भर में फैला दिया। क्योंकि खाण्डव दाह करके अर्जुन द्वारा बेघर किए जाने पर सुदूर तक्षशिला में जा बसना नागवंशियों के लिए सदा ही चिन्ता का कारण बना हुआ था। इनके वैस या वसाति जाटवंशी नागराज वासुकि तथा तक्षक (जाट) ने स्वयं आन्दोलन का नेतृत्व करके महाराज परीक्षित का उन्हीं के राजभवनों में अकेले जाकर वध कर दिया। परन्तु नागवंशियों ने इन्द्रप्रस्थ का शासन परीक्षित के पुत्र जन्मेजय को ही दे दिया। उस समय उसकी आयु 15-16 वर्ष की थी। पूर्ण युवा होने पर महाराजा जन्मेजय ने इन्द्रप्रस्थ में अपने भाई सोमश्रवा को छोड़कर नागवंशियों के दमन तथा तक्षशिला विजय करने के लिए प्रस्थान किया। यहां पहुंचकर विद्रोही नेताओं पर विजय प्राप्त कर तक्षशिला को कुरु (जाट) राज्य में सम्मिलित कर लिया। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 20-21, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

इस व्याख्या करने से यह ज्ञात हो गया है कि पाण्डव जाटों का राज्य इन्द्रप्रस्थ से लेकर तक्षशिला तक विस्तृत हो गया। दूसरी बात वैस या वसाति वंशज जाट नागराज वासुकि और तक्षक जाटों का राज्य उस समय तक्षशिला क्षेत्र यानी पूर्वी गांधार देश पर था और पश्चिमी गांधार पर गांधारवंशज जाटों का शासन था।

अब पाठकों का ध्यान प्रथम अध्याय, “आर्यावर्तदेशीय राजवंशावली” तथा प्रथम अध्याय सृष्टि आदि-संवत् की ओर दिलाया जाता है। आज संवत् निम्न प्रकार से हैं -

  • 1. सन् ईस्वी = 1988
  • 2. विक्रमी संवत् = 2045
  • 3. सन् हिजरी = 1408
  • 4. युधिष्ठिरी संवत् = 5088 (फारसी भाषा की पुस्तकों में इस का नाम सन् तूफान नूह लिखा है)।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-451


  • 5. कलियुगी संवत् = 5088

इनको याद रखने से एक संवत्/सन् से दूसरे संवत्/सन् में उथल करना आसान होगा। जैसे - युधिष्ठिरी संवत् या तूफान नूह सन् का अन्तर आज के सन् ईस्वी 1988 से 3100 वर्ष का है। (5088-1988 = 3100 वर्ष)। दूसरे शब्दों में जब सन् ईस्वी का आरम्भ हुआ उस दिन से 3100 वर्ष ईस्वी पूर्व युधिष्ठिरी या तूफान नूह सन् आरम्भ हो चुका था। आगे के लेखों में आवश्यकता अनुसार इन सन्/संवतों की उथल लिखी जायेगी जिससे समझने में आसानी होगी।

1. महाराज युधिष्ठिर से लेकर उसके जाटवंश के 30 राजाओं का शासन राज क्षेमक तक वर्ष 1870, मास 11, दिन 10, तक रहा। यानी 3100 वर्ष ई० पू० से 1229 वर्ष ई० पू० तक 1871 वर्ष शासन रहा।
2. राजा क्षेमक के प्रधान विश्रवा ने क्षेमक राजा को मारकर राज्य किया। इस दूसरे जाट राजवंश के 14 राजाओं का शासन राजा विश्रवा से लेकर राजा वीरसालसेन तक वर्ष 500, मास 3, दिन 7 तक रहा। यानी 1229 वर्ष ई० पू० से 729 ई० पू० तक 500 वर्ष शासन रहा।
3. राजा वीरसालसेन को राजा वीरमहा प्रधान ने मारकर राज्य ले लिया।
इस तीसरे जाटराजवंश के 16 राजाओं ने वर्ष 445, मास 5, दिन 3 तक शासन किया। यानी 729 वर्ष ई० पू० से 284 ई० पू० तक 445 वर्ष शासन किया। इस जाटवंश के 16 शासक वीरमहा से लेकर राजा आदित्यकेतु तक थे।
(जाट इतिहास इंगलिश, पृ० 46-47 पर लेखक ले० रामसरूप जून ने लिखा है कि - “राजा वीरमहा से लेकर राजा आदित्यकेतु तक इन 16 राजाओं का राजवंश ढिल्लों गोत्र के जाटों का था जिनका दिल्ली पर शासन 800 वर्ष ई० पू० से 350 ई० पू० तक लगभग 450 वर्ष रहा। जाटों का यह ढिल्लों गोत्र बड़ी संख्यावाला है और किसी अन्य जाति में यह गोत्र नहीं पाया जाता है। इस गोत्र के जाट बड़ी संख्या में सिक्ख-धर्मी हैं)।”
4. राजा आदित्यकेतु को ‘धन्धर’ नामक राजा प्रयाग के ने मारकर राज्य ले लिया और अपनी राजधानी मगध में स्थापित कर ली। इस वंश के 9 राजाओं ने राजा धन्धर से लेकर राजपाल तक वर्ष 374, मास 11, दिन 16 तक राज्य किया। ये 9 जाट राजा थे। इनका और इनसे आगे देहली पर राज्य करने वाले शासकों का वर्णन अलगे पृष्ठों पर बाद में किया जायेगा। इन से पहले इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में राज्य करनेवाले जाट राजाओं की एक प्रमाणित तथा आवश्यक सूची लिखी जाती है।

सारांश - महाराज युधिष्ठिर से लेकर हस्तिनापुर, कुरुक्षेत्र, इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) आदि प्रदेशों पर जाट राज्य -

1. कुरुवंशज जाट महाराज युधिष्ठिर के वंशज 30 राजाओं का राज्य = 3100 ई० पू० से 1229 ई० पू० तक = 1871 वर्ष

2. इसके पश्चात् दूसरे जाट खानदान के 14 राजाओं का राज्य = 1229 ई० पू० से 729 ई० पू० तक = 500 वर्ष


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-452


3. इसके पश्चात् तीसरे ढिल्लों गोत्र के जाट 16 राजाओं का राज्य = 729 ई० पू० से 284 ई० पू० तक = 445 वर्ष

2. इसके बाद मगध पर चौथे जाट खानदान के 9 राजाओं का राज्य = 285 ई० पू० से सन् 90 ई० तक = 375 वर्ष

कुल जोड़ 3191 वर्ष

नोट - इनके बाद वाले शासकों के विषय में आगे उचित स्थान पर लिखा जाएगा।

हिन्द (भारत) के शासक जाटवंशीय महाराजा हरबाहु आदि का राजधानी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) पर कलियुगी संवत् 2285 से 3014 तक अर्थात् 729 वर्ष तक शासन रहा।

वाक़आत पंच हजार साला मुसन्निफ़ा मुंशी राधेलाल साहब रईस मुहान मुतलिक्के लखनौ, मतवा मुंशी नवलकिशोर कानपुर सन् 1898 ईस्वी में, पृष्ठ 17 तथा 24 से 29 तक इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में राज्य करने वाले जाट राजाओं की सूची मुद्रित है। उसे हम ज्यों का त्यों नीचे उद्धृत करते हैं। फारसी भाषा की प्रसिद्ध तवारीख सैरउलमुताखरीन में भी ऐसा ही अंकित है कि - “बियान वाक़आत अहम आलमी वमूजिब सनवात कदीम व जदीद तहरीर जिदवली आनी वतर्ज नक्शा।”

सन् तूफान नूह या युधिष्ठिरी या कलियुगी संवत् संवत् विक्रमादित्य से पूर्व सन् ईस्वी से पूर्व सन् हिजरी से पूर्व कैफियत वाक़आत
1. 2285 759 817 1398 राजा हरबाहु सरीर आराय हिन्द हुआ। इसका शासन सन् 817 ई० पू० से 772 ई० पू० तक = 45 वर्ष रहा।
2. 2330 714 772 1353 तख्तनशीनी जजातसिंह दर हिन्द हमअसर लहरास्प वालिये ईरान। इसका शासन सन् 772 ई० पू० से 755 ई० पू० तक = 17 वर्ष रहा।
3. 2347 697 755 1336 राजा शत्रुखन तख्तनशीन हिन्द हमअसर कुश्ताश्प शाह ईरान। इसका राज्य सन् 755 ई० पू० से सन् 742 ई० पू० तक = 13 वर्ष रहा।
4. 2360 684 742 1323 राजा महीपत सरीर आराय हिन्द। इसका राज्य सन् 742 ई० पू० से सन् 709 ई० पू० = 33 वर्ष रहा।
5. 2393 651 709 1290 राजा महावल तख्तनशीनी हिन्द हमअसर वहमन शाह। इसका राज्य सन् 709 ई० पू० से 669 ई० पू० तक = 40 वर्ष रहा।
6. 2433 611 669 1250 तख्तनशीनी राजा श्रतवन्त दर हिन्द। इसका राज्य 669 ई० पू० से 641 ई० पू० = 28 वर्ष रहा।
7. 2461 583 641 1222 राजा वीरसेन हिन्दुस्तान में तख्त नशीन हुआ हमअसर शाह दारा वालिये ईरान। इसका राज्य सन् 641 ई० पू० से 617 ई० पू० = 24 वर्ष रहा।
8. 2485 559 617 1198 राजा सिंहदमन तख्ते नशीन हिन्द हुआ। इसका शासन सन् 617 ई० पू० से 572 ई० पू० = 45 वर्ष रहा।
9. 2530 514 572 1153 तख्तनशीनी राजा कलीकदर हिन्द। इसका राज्य सन् 572 ई० पू० से 550 ई० पू० तक = 22 वर्ष रहा।
10. 2552 492 550 1131 राजा जीतमल्ल तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 550 ई० पू० से 536 ई० पू० तक = 14 वर्ष रहा।
11. 2566 478 536 1117 राजा कालखन तख्तनशीन हिन्द। इसका राज्य सन् 536 ई० पू० से 491 ई० पू० = 45 वर्ष रहा।
12. 2611 433 491 1072 राजा शत्रुमर्दन तख्तनशीन हिन्द। इसका राज्य सन् 491 ई० पू० से 483 ई० पू० तक = 8 वर्ष रहा।
13. 2619 425 483 1064 राजा जीवन जाट तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 483 ई० पू० से 457 ई० पू० तक = 26 वर्ष रहा।
14. 2645 399 457 1038 राजा हरभुजंग तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 457 ई० पू० से 444 ई० पू० तक = 14 वर्ष रहा।
15. 2658 386 444 1025 राजा सूरसेन तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 444 ई० पू० से 411 ई० पू० तक = 33 वर्ष रहा।
16. 2691 353 411 992 राजा उद्भट तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 411 ई० पू० से 386 ई० पू० तक = 25 वर्ष रहा।
17. 2716 328 386 967 राजा धरनीधर तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 386 ई० पू० से 345 ई० पू० तक = 41 वर्ष रहा।
18. 2757 287 345 926 राजा सततध्वज तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका शासन सन् 345 ई० पू० से 310 ई० पू० तक = 35 वर्ष रहा।
19. 2792 252 310 891 तख्तनशीनी राजा मट्टीसिंह दर हिन्द इसका राज्य सन् 310 ई० पू० से 269 ई० पू० तक = 41 वर्ष रहा।
20. 2833 211 269 850 राजा महायुद्ध तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 269 ई० पू० से 239 ई० पू० तक = 30 वर्ष रहा।
21. 2863 181 239 820 राजा हरनाथ तख्तनशीन हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 239 ई० पू० से 211 ई० पू० तक = 28 वर्ष रहा।
22. 2891 153 211 792 राजा जीवन सरीआराय हिन्द हुआ। इसका राज्य सन् 211 ई० पू० से 168 ई० पू० तक = 43 वर्ष रहा।
23. 2934 110 168 749 राजा उदयसेन तख्तनशीन हिन्द हुआ।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-453-455



सारांश - उपर्युक्त के अवलोकन से आपको ज्ञात हो गया होगा कि इस वंश में प्रथम महाराजा हरबाहु हुआ जो महाराजा मधुमल्ल से राज्य हस्तगत करके सन् तूफान नूह अथवा संवत् कलयुगी 2285 या विक्रमी संवत् 759 वर्ष पूर्व इन्द्रप्रस्थ (देहली) के राजसिंहासन पर आरूढ हुआ। इस वंश में 25 राजा महाराजा हुए। इस वंश का अनित्म राजा राजा राजपाल था। पिछले पृष्ठों पर महाराजा हरबाहु से लेकर राजा उदयसेन तक 23 महाराजाओं के नाम लिखे हैं जिनक शासन इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) पर 22वें राजा जीवन के शासनकाल तक 649 वर्ष होता है। फिर 23वां राजा उदयसेन इस सिंहासन पर सन् 168 ई० पू० में बैठता है। इसके शासनकाल के समय तथा इसके बाद 24वें राजा का नाम पता नहीं लगता। इस वंश के अन्तिम 25वें राजा का नाम राजपाल लिखा है। उसके शासनकाल तक कुल 729 वर्ष होते हैं। यह पहले लिख दिया है कि इस वंश के 25 राजाओं का इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) पर कलयुगी संवत् 2285 से 3014 तक या सन् 817 ईस्वी पूर्व से 88 ई० पू० तक 729 वर्ष शासन रहा। अब पाठक समझ गये होंगे कि इस वंश का 23वां जाट राजा उदयसेन सन् 168 ईस्वी पूर्व में इस राजसिंहासन पर बैठा। उसके बाद 24वां (नाम अज्ञात) है और अन्तिम राज राजपाल था जिसका शासन सन् 88 ई० में पूरा हो जाता है। इस तरह से 23वां, 24वां, तथा 25वां तीनों राजाओं का शासन 80 वर्ष तक रहा।

  1. यह महाराजा, हरबाहु का जाटवंश, जाट इतिहास सम्पादक निरंजनसिंह चौधरी पृ० 19 से 22 पर अंकित है।
  2. जाट इतिहास, ‘देहली प्रान्त के जाट-राज्य’ प्रकरण, पृ० 712-714 पर लेखक ठा० देशराज ने भी ऊपर वाले लेख से मिलती-जुलती ही बातें लिखी हैं। इनके अतिरिक्त उन्होंने लिखा है कि - “जाटराजा वीरमहा* से आदित्यकेतु तक (आर्यावर्तदेशीय राजवंशावली देखो) इस जाटवंश का राज्य लगभग 450 वर्ष तक इन्द्रप्रस्थ पर रहा। जब इन्द्रप्रस्थ पर से जाट महाराज आदित्यकेतु का शासन समाप्त हो गया तब जोगी, कायस्थ, पहाड़ी और बैरागी लोगों का राज्य हुआ। बीच में विक्रमादित्य (धारण गोत्री जाट) का भी राज्य रहा। अन्त में तोमर-तंवर जाटों का राज्य रहा। तोमरों से चौहानों ने और फिर उनसे मुसलमानों ने राज्य ले लिया।”

ढिल्लों जाटों के नाम पर देहली नगर का नाम पड़ा

इतिहासज्ञ कालीकारंजन कानूनगो के अनुसार देहली नगर का नाम ढिल्लों जाटों के नाम पर


- *ढिल्लों जाट गोत्र का राजा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-456


पड़ा। बाद में यह चौहानों ने ले ली। यह हमने पिछले पृष्ठों पर लिख दिया है कि इन्द्रप्रस्थ (देहली) पर ढिल्लों जाटों का शासन 800 ई० पू० से सन् 350 ई० पू० तक 450 वर्ष रहा। फरिश्ता के लेख अनुसार राजा किदार की मृत्यु के पश्चात् कन्नौज का राज्य जयचन्द ने ले लिया। उसके भाई ढिल्ल या दहला ने अपने नाम पर देहली नगर की स्थापना की थी। (Brigg's edition, quoted by Tribes and castes, Vol I, P. 23)।

यह देहली नाम की स्थापना की घटना सिकन्दर और सम्राट् पोरस के समय से पहले की चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व की है। इस नगर का सबसे पहले नाम ढिल्लीका था जिसका लेख सोमेश्वर चौहान शिलालेख पर है जो कि वि० संवत् 1226 (सन् 1169) का है। (Epigraphica Indica, Vol. XX, S. No. 344 of Inscriptions of Northern India)। बाद में अन्तिम ‘का’ को हटा दिया गया जिससे इस नगर का नाम ढिल्ली बन गया। विक्रमी संवत् 1337 (सन् 1280) का एक शिलालेख गांव बोहर जिला रोहतक में मिला है जिस पर लिखा हुआ है कि हरयाणा देश व देहली पर पहले तोमरों (तंवर जाट) ने राज्य किया, फिर चौहानों ने, उसके बाद गोरी सुल्तान ने। (S. No. 598, op. cit, Journal of Asiatic Society of Bengal, Vol. 1, XLII, Pt. VI; P. 108)।

गुरदियालसिंह ढिल्लों भूतपूर्व लोकसभा अध्यक्ष और सरदार प्रकाशसिंह बादल भूतपूर्व पंजाब सरकार के मुख्यमन्त्री इसी ढिल्लों गोत्र के जाट सिक्ख हैं। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 253-254, 275 लेखक बी० एस० दहिया)।

नोट
(1) ऊपर लिखित कन्नौज का राजा जयचन्द जाटवंशज था। यह चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व में हुआ। कन्नौज का राठौर राजपूत राजा जयचन्द 12वीं सदी के अन्त में हुआ जो कि पृथ्वीराज चौहान का शत्रु था। (2) सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड शोरम गांव में हैं, के अनुसार - राजा भर्तृहरि के वैराग्य धारण करने पर उसका भाई विक्रमादित्य जिसका गोत्र मल्ल या मालव जाट था, मालवा देश का शासक बना। इसकी राजधानी उज्जैन थी।

इस सम्राट् का शासन इन्द्रप्रस्थ तक था। यह बालब्रह्मचारी था जिसका शासन 93 वर्ष रहा। इसने शक्तिशाली शकों का ई० 57 वर्ष पूर्व में मालवा से समूल नाश करने के उपलक्ष्य में विक्रमी सम्वत् प्रचलित किया। इससे 15 वर्ष पहले ब्राह्मण शुङ्गवंश का अन्त हो गया था। इसने अपने वीर सेनापति बालब्रह्मचारी दिल्लू जो कि हरयाणा का जाट था, को इन्द्रप्रस्थ का राज्यपाल नियुक्त किया था। यह 21 वर्ष तक इन्द्रप्रस्थ का राज्यपाल रहा और वहां पर पाण्डवों के किले में अपना निवास रखा। यह बड़ा वीर योद्धा, न्यायकारी, दयालु और प्रजापालक था। इसी के नाम पर इन्द्रप्रस्थ को राजा दिल्लू की दिल्ली कहने लग गये। यह ढिल्लों वंशी जाट था। इसका पूर्व नाम दलेराम तथा दल्लू था। यह बड़ा पहलवान था। कुश्ती में इसने बड़े-बड़े पहलवानों को पछाड़ा था। 22 वर्ष की आयु में इसका वजन 66 धड़ी था और 48 वर्ष की आयु में 69 धड़ी हो गया था।

एक दिल्ली नामक गाईड पुस्तक में इस दिल्लू को मौरवंशी जाट लिखा है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-457


सारांश यह हुआ कि कोई से मत को भी माना जाए, इन्द्रप्रस्थ का नाम दिल्ली या देहली, एक जाट के नाम पर पड़ा। पाठक चाहे दाहला ढिल्लों गोत्र के जाट के नाम पर या दिल्लू मौर गोत्र के जाट के नाम पर मान लें। दिल्लू जाट से ही देहली नाम पड़ा।

ढिल्लों गोत्र के जाटों ने भंगी मिसल की और करोड़सिंहिया नामक दो मिसलों की स्थापना की। इनकी वीरता के कारनामे (देखो, नवम अध्याय, इन दोनों मिसलों के प्रकरण)।

आज पंजाब, हरयाणा, यू० पी० में इस वंश के जाट ढिल्लों, ढिलान, ढुल, ढिल्लवां नाम से प्रसिद्ध हैं जो कि भाषाभेद के कारण हैं, किन्तु वंश एक ही है। इस वंश की यह विशेषता है कि इन में से एक भी मुसलमान नहीं बना।

सूर्यवंशीय कुशवंशज जाट राज्य

महाराजा श्री रामचन्द्र जी के पुत्र लव ने लवपुर (लाहौर) बसाया। उसको उत्तर कोशल का राजा बनाया गया। इसके नाम पर सूर्यवंशी लाम्बा-लोवंशी जाटवंश प्रचलित हुआ। (देखो तृतीय अध्याय, लाम्बा-लोवंशी जाट प्रकरण)। श्री रामचन्द्र जी के दूसरे पुत्र कुश से कुश जाटवंश प्रचलित हुआ।

कुश को दक्षिण कोशल का राजा बनाया गया। उसने विन्ध्याचल पर्वत पर कुशवती (कुशस्थली) नगर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया (वा० रा० उत्तरकाण्ड, सर्ग 107)। “पचास कुलीन क्षत्रियवंशों का संक्षिप्त इतिहास” पृ० 24 पर लेखक ठाकुर कुन्दनसिंह कुश ने लिखा है कि “श्रीकृष्ण जी ने मथुरा को छोड़कर कुशस्थली को अपनी राजधानी बनाया और इसका नाम द्वारिका रखा। मुसन्निफ सुड़वा ने लिखा है कि दक्षिण के पण्डिया वंश के राजा पिण्डि योन ने संवत् 47 में रोम के सम्राट् आगस्टेस सीजर के दरबार में अपना दूत भेजा था। दक्षिण के पूर्वीय किनारों के मनुष्य बारह महीने अपने जहाजों पर बैठकर विदेशों में जाया करते थे। उस समय उत्तरी भारत में कुशवंशी क्षत्रिय जाटों का राज्य था। इतिहासज्ञों के लेख अनुसार यह सिद्ध हुआ है कि कुशादि वंशों के क्षत्रिय जो राजधानी कोशल से फैले, वे कुश कौलीन क्षत्रिय आदि-आदि नाम से प्रसिद्ध हुये। जिला सहारनपुर में इस समय भी एक बड़ी संख्या में कुश कौलीन क्षत्रिय बसते हैं, जो अपने को महाराजा कुश की सन्तान मानते हैं।”

यह हमने प्रथम अध्याय में सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली, (जो विष्णु पुराण चतुर्थ अंश के आधार पर है) में लिख दिया है कि महाराजा कुश का वंशज राजा बृहद्वल महाभारत युद्ध में लड़ते हुए अर्जुनपुत्र अभिमन्यु द्वारा मारा गया था।

इससे आगे के सूर्यवंशी जाट राजाओं की वंशावली तथा उनका कुछ वर्णन ठाकुर कुन्दनसिंह कुश ने अपनी पुस्तक “पचास कुलीन क्षत्रियवंशों का संक्षिप्त इतिहास” के पृ० 11-12-13 के हवाले से निम्न प्रकार से लिखी है कि -

1. बृहद्वल 2. बृहद्रण 3. अरुक्रिय 4. वत्सवृद्ध 5. प्रतिव्योम 6. भानु 7. दिवाकर 8. सहदेव 9. बृहदश्व 10. भानुमन 11. प्रतिकाश्व 12. सुप्रतीक 13. मरुदेव 14. सुनक्षत्र 15. पुष्कर 16. अन्तरिक्ष 17. सुतपा 18. अमित्रजित 19. सहद्राज 20. बर्हि 21. कृतञ्जय 22. रणञ्जय


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-458


23. सञ्जय 24. शाक्य 25. शद्धोद 26. लाङ्गल 27. प्रसेनजित 28. क्षुद्रक 29. रुणक 30. सदथ 31. सुमित्र ।

बृहद्वल अयोध्या का प्रसिद्ध राजा था। धृतराष्ट्र के पुत्र हस्तिनापुर के राजा दुर्योधन और पाण्डु के पुत्र महाराज युधिष्ठिर जो इन्द्रप्रस्थ में राज्य करते थे, इस बृहद्वल के समकालीन थे। राजा बृहद्वल को अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारा था। बृहद्वल के वंशजों का शासन महाभारत युद्ध के बाद अयोध्या पर चलता रहा। बृहद्वल से सातवीं पीढी में महाराजा दिवाकर परम प्रतापी अयोध्या के राजा हुए। परीक्षित के वंशज अधिसीम कृष्ण जो हस्तिनापुर के राजा थे और जरासन्ध के वंशज महाराज सेनजित जो मगधदेश के राजा थे, इन्हीं महाराज दिवाकर के समकालीन थे। कुछ दिन बाद इस कुशवंशज राजवंश ने अयोध्यापुरी को छोड़ दिया और 58 मील उत्तर की ओर श्रावस्ती नगरी में (जो राप्ती नदी के किनारे प्राचीनकाल में राजा श्रवस्त द्वारा बसाई गई थी) चला गया। यहां प्रसेनजित नामक प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा प्रायः गौतमबुद्ध का समकालीन था। पुराण में उल्लिखित सूर्यवंश का अन्तिम जाट राजा सुमित्र इसी प्रसेनजित के पोते का पोता था। अर्थात् उसकी पांचवीं पीढ़ी में था। (प्राचीन भारत पृ० 105-107)।

नोट - विष्णुपुराण (द्वितीय खण्ड), चतुर्थ अंश, बाईसवां अध्याय में भी यही वंशावली मिलती जुलती है।
सारांश - 1. बृहद्वल, महाराजा युधिष्ठिर का समकालीन था और इसी वंश में 27वां राजा प्रसेनजित गौतम बुद्ध का समकालीन था (लगभग 500 ई० पू० में)।
सूर्यवंशज कुश गोत्र के जाटों का अयोध्यापुरी में बृहद्वल से प्रसेनजित तक 27 राजाओं का शासन 3100 ई० पू० से 500 ई० पू० तक = 2600 वर्ष रहा।
2. कुछ समय बाद प्रसेनजित ने अयोध्यापुरी राजधानी को छोड़कर इससे 28 मील उत्तर में श्रावस्ती नगरी को अपनी राजधानी बना लिया। वहां पर इसके समेत कुशवंशज 5 जाटों ने राज्य किया जिसमें अन्तिम सुमित्र था। इन राजाओं का वहां लगभग 150 वर्ष राज्य 500 ई० पू० से 350 ई० पू० तक रहा।

चन्द्रवंशीय जाटराजा कुश

कर्नल टॉड ने लिखा है कि चन्द्रवंश के महाराजा हस्ती जिसने हस्तिनापुर बसाया था, उसकी चौथी पीढ़ी में कुश नाम का राजा हुआ जिसने गंगा के किनारे महादया नामक नगर बसाया था जो अब कान्यकुब्ज और कन्नौज नाम से प्रसिद्ध है। टॉड राजस्थान में लिखा है कि कुशिकावंश के नाम से रानी कुशुनी की सन्तति प्रसिद्ध हुई और उत्तरी भारत में दूर तक फैली (टॉड राजस्थान पृ० 44)।

यह कुशवंश पुरुवंशी जाटवंश था। इस समय सूर्यवंशी कुश तथा चन्द्रवंशी कुश की सन्तति भारतवर्ष में नाना प्रकार के नामों से प्रसिद्ध है। किन्हीं स्थानों पर कुशवाहा (कछवाहा) क्षत्रिय और कहीं पर खश क्षत्रिय और जिला सहारनपुर में कुशकुलीन क्षत्रिय के नाम से प्रसिद्ध हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-459


कुश जाटवंश का उत्तरी भारत में अन्तिम राजा जो एक बड़े राजाओं में से था, वासुदेवसिंह कुश था। इसके राज्य की सीमा पश्चिम में सहारनपुर और पूर्व में बनारस तक थी। इस राजा के समय में हिन्दू जाति की पुनः उन्नति हुई और विक्रमी संवत् 283 (सन् 226 ई०) में उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका समस्त राज्य छोटी-छोटी रियासतों में विभाजित हो गया। जिनके अल्पकाल के पश्चात् ही इसका नाम तक भी शेष न रहा (इतिहास जिला सहारनपुर पृष्ठ 178)।

आज भारतवर्ष में यह कुश/कुलीन गोत्र, जाट और राजपूत दोनों जातियों के लोगों में पाया जाता है। (पचास कुलीन क्षत्रियवंशों का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 29-31 लेखक ठाकुर कुन्दनसिंह कुश)।

सारांश - चन्द्रवंशीय कुश जाटवंश : चन्द्रवंशज राजा हस्ती की चौथी पीढ़ी में पुरुवंशज कुश राजा हुआ। उसी के नाम पर कुश जाटवंश प्रचलित हुआ। इस कुश राजा ने गंगा के किनारे महादया नामक नगर बसाया जो अब कान्यकुब्ज और कन्नौज के नाम से प्रसिद्ध है। इस पुरुवंशज कुश जाट राजा का शासन उत्तरी भारत में रहा। इस वंश का अन्तिम राजा वासुदेवसिंह कुश था जिसका राज्य सहारनपुर से बनारस तक उत्तरी भारत के एक बड़े क्षेत्र पर सन् 226 ई० में इसकी मृत्यु समय तक रहा। इसके मरने के पश्चात् इस वंश का राज्य समाप्त हो गया।

महाराजा जटासुर

यह जाटवंशज सम्राट् था। आप भद्रक देश के राजा थे जो वर्तमान काशी (बनारस) के आसपास के प्रदेश को कहते थे। आप तथा आपके कुटुम्बी महाभारत युद्ध में बड़ी वीरतापूर्वक लड़े थे। आप सम्राट् युधिष्ठिर के साथ उनके सभाभवन में नित्यप्रति बैठते थे। इनका वर्णन महाभारत सभापर्व अ० 4 श्लोक 25 में आया है - भद्रक देशों का राजा जटासुर, कुन्ति, किरातराज, पुलिन्द तथा अङ्ग, बङ्ग, पुण्ड्रक, पाण्ड्य, उड्रराज और अन्धक, ये सब जाटवंशज सम्राट् थे।

महाराजा जटासुर के वंशजों का शासन अब से लगभग 2500 वर्ष पूर्व विद्यमान था। महात्मा गौतमबुद्ध को काशी से गया जाते समय इस वंश के तीस जाट राजकुमार मिले थे जो एक वन में विहार करने के लिए आये हुए थे। वे तीसों ही राजकुमार श्री महात्मा गौतमबुद्ध के उपदेश से राजपाट आदि को त्याग करके भिक्षु (बौद्ध साधु) बन गये थे, और बौद्ध-धर्म के प्रचार में रत हो गये थे। इस घटना का उल्लेख श्री जगन्मोहन वर्मा कृत बुद्ध चरित्र में अङ्कित है। उस काल में असुर शब्द देवता के अर्थों में प्रयुक्त होता था, जिसके अनेक उदाहरण हैं। (जाट इतिहास, पृ० 6, 7, 14-15, सम्पादक निरंजन चौधरी)।

सारांश - जाट महाराजा जटासुर का शासन भद्रक देश पर (जो काशी-बनारस के आस-पास के प्रदेशों को कहते थे) महाराजा युधिष्ठिर के शासनकाल के समय था। इसके वंशजों का शासन अब से लगभग 2500 वर्ष पूर्व इसी प्रदेश पर था।

जाट राजा जटासुर से लेकर उसके वंशज तीस राजकुमारों का शासन इस भद्रक देश पर 3100 ई० पू० से 510 ई० पू० तक = 2590 वर्ष रहा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-460


क्षत्रियों के समान ब्राह्मणवंश

आदिसृष्टि से महाभारतकाल तक क्षत्रियों से ब्राह्मण बनते रहने के कारण ही ब्राह्मणों में भी क्षत्रियों के समान वंश पाए जाते हैं। इसके कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं -

  1. सूर्यवंशी चक्रवर्ती सम्राट् मान्धाता के पिता ‘युवनाश्व’ तथा माता ‘गोरी’ नामक थी। उसने अपनी माता की प्रसिद्धि के लिए उसके नाम पर सूर्यवंशी क्षत्रियों के संघ का नाम गौर रखा जो कि एक क्षत्रिय जाटवंश है। मान्धाता के तीन पुत्रों में से एक का नाम अम्बरीष था जिसके पुत्र युवनाश्व के हारित हुआ जिसके वंशज अंगिरस हारित क्षत्रिय और फिर क्षत्रिय से ब्राह्मण हो गये और कुछ समय बाद इनकी संतान गौड़ ब्राह्मण हो गये। (विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय 2-3)। (वायुपुराण, अ० 88)।
  2. चन्द्रवंशी पुरु की परम्परा में मन्यु के चार पुत्र महावीर्य, गर्ग, नर, वृहत्क्षत्र हुये। उन पुत्रों में से वृहत्क्षत्र का सुहोत्र और उसका हस्ती हुआ जिसने हस्तिनापुर बसाया। हस्ती के तीन पुत्र अजमीढ़, द्विमीढ़, पुरमीढ़ नामक हुए। अजमीढ़ के एक पुत्र का नाम कण्व था जिसका पुत्र मेधातिथि हुआ। इस मेधातिथि से क्षत्रिय काण्वायनवंश और काण्वायन ब्राह्मणवंश प्रचलित हुए।
  3. इसी अजमीढ़ की परम्परा में हर्यश्व का पुत्र मुद्गल क्षत्रिय हुआ जिससे मौद्गल ब्राह्मणवंश प्रचलित हुआ।
  4. ऊपरलिखित मन्यु के चार पुत्रों में से एक का नाम गर्ग था जिसक पुत्र शिनि था। इस शिनि क्षत्रिय से गार्ग्य (गर्ग) और शैन्य नामक ब्राह्मणवंश प्रचलित हुए।
  5. चन्द्रवंश की संतानपरम्परा में गाधिपुत्र क्षत्रिय विश्वामित्र थे जो महातपस्वी होकर ब्राह्मण बन गये और उनके वंश वाले कौशिक ब्राह्मण कहलाये। गाधि ने अपनी सत्यवती पुत्री का विवाह ब्राह्मणों से नहीं किया परन्तु क्षत्रिय ऋचीक से किया और बदले में एक हजार श्यामकर्ण अश्वों को लिया। यह ऋचीक और्व का पुत्र था। ऋचीक का पुत्र जमदग्नि हुआ जिससे भृगुवंश प्रसिद्ध हुआ। इसी जमदग्नि का पुत्र परशुराम हुआ।
  6. क्षत्रिय दिवोदास का उत्तराधिकारी मित्रायु से सोम मैत्रायण हुआ। उससे मैत्रेय ब्राह्मणवंश प्रचलित हुआ। (महाभारत, विष्णु पुराण द्वितीय खण्ड, अध्याय 6-19)। (देखो प्रथम अध्याय, सूर्यवंशी व चन्द्रवंशी राजाओं की वंशावली)।

इस प्रकार नीचे से ऊपर की ओर उन्नति करने की उस समय परिपाटी थी। इसके लिए हर कोई प्रयत्नशील रहता था। इसी कारण ब्राह्मणों में क्षत्रियों के वंश मिलना और ब्राह्मणों के वंशों का क्षत्रियों में न पाए जाने का कारण केवल यही है कि उस समय ब्राह्मण अपने कर्म से गिरने पर समाज में उसकी प्रतिष्ठा किसी क्षत्रिय एवं वैश्य वर्ण में नहीं होती थी, बल्कि वह अन्तिम शूद्र वर्ण में आ जाता था।

उदाहरणार्थ रामायणयुग में परशुराम ब्राह्मण ने शस्त्र सम्भाले, कृपा, द्रोण, अश्वत्थामा


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-461


महाभारत में युद्ध करते हुए भी क्षत्रिय नहीं कहलाये और न ही उनके वंश का क्षत्रियों में प्रचलन हुआ। परन्तु ये सब अत्यन्त हीन कर्म वाले भी न थे इसीलिए ब्राह्मण वर्ण में उत्पन्न रावण की भांति न तो राक्षस और न शूद्र घोषित किए गये। इस व्यवस्था का एकमात्र कारण यही था कि उच्चवर्ण वाले अपने कर्मों पर दृढतापूर्वक स्थिर रहते हुए ऊपर की ओर ही उन्नति करते जाएं। नीचे की ओर आधिक्य बढ़ने पर गहरे गर्त में गिरने से भयभीत रहें।

महाभारत युद्ध के बाद ब्राह्मणप्रभुत्व के समय, ब्राह्मणों ने अपना अस्तित्व चारों वर्णों में स्थापित करने के लिए वंशों में गोत्रप्रवर पुछल्ले और जोड़ दिये और कह दिया कि सारे वर्ण ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं। इसको परिपुष्ट करने के लिए लिखा गया - अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु नामक मूलगोत चार ही हैं । इसके बाद विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य नामक आठ गोत्रों की कल्पना की गई। ब्राह्मण, क्षत्रियों और वैश्यों को भी इन्हीं आठ के अन्तर्गत माना गया। किन्तु बौद्ध युग में ब्राह्मणप्रभुता के विरुद्ध आन्दोलन से गोत्र प्रवरों की सत्ता वंशों के साथ कुछ नहीं रह गई। क्षत्रिय वर्ण के वंशों ने उन्हें सर्वथा भुला दिया। जब नवीन हिन्दू-धर्म की फिर स्थापना की गई तब फिर ब्राह्मणों को अपनी उच्चता सिद्ध करने के लिए बल लगाना पड़ा। इसके लिए प्रभाव डाला गया कि क्षत्रिय, वैश्यों में अपने गोत्र और प्रवरों का अभाव होने के कारण उनके पुरोहितों के गोत्रप्रवर समझने चाहियें। किन्तु यह सब बड़ा जाल था जो चक्करदार तरीकों से अन्य वर्णों पर ब्राह्मणों ने अपना प्रभाव डालने और दिमागी गुलामी में बांधे रखने के लिए आविष्कृत किया था। परन्तु क्षत्रिय इस जाल में नहीं फंसे। वास्तविकता यह है कि वंश ही सच्चे रूप से इस बात के बोधक हैं कि आज भी क्षत्रियों की रगों में प्राचीनकाल के क्षत्रिय आर्य महापुरुषों का परम्परागत शुद्ध रक्त बह रहा है। क्षत्रियों में अनेक कारणों से अनेक राजवंशों व संघों की स्थापना समय-समय पर होती रही है। उन्हीं वंशों में अनेक आचार-विचार के व्यक्तियों ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकार करके उनका प्रचार किया। इन्हीं को बाद में धर्म और सम्प्रदाय का नाम दिया गया। इसी प्रकार समान विचारवाले वंशों को मिलाकर संघों का निर्माण हुआ। कुछ काल बाद उन्हीं को जाति कहने लगे। किन्तु इन सबका मूल आधार वंश है, फिर चाहे वह प्राचीन हो या नवीन। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 45-48, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

हमारा यह प्रकरण लिखने का तात्पर्य यह है कि पाठक यह बात साफतौर से समझ जायें कि क्षत्रियों से तो अनेक ब्राह्मणवंश प्रचलित हुए हैं परन्तु ब्राह्मणों से एक भी क्षत्रियवंश प्रचलित नहीं हुआ है। और ब्राह्मणों ने महाभारतकाल के बाद पहले चार मूल गोत्र और फिर आठ गोत्रों की कल्पना की तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को इन्हीं आठ के अन्तर्गत माना गया। यह सब असत्य, अप्रमाणित तथा कपोलकल्पित बातें हैं। अतः इन पर कुछ भी विश्वास न किया जाये।

सब जाट गोत्र क्षत्रिय आर्यों के वंशज हैं। जैसा कि हमने पिछले अध्यायों में विस्तार से वर्णन कर दिया है। (पूरी जानकारी के लिए देखो प्रथम अध्याय - वंश प्रचलन, व्यक्ति, देश या स्थान, काल, उपाधि, भाषा के नाम पर और द्वितीय अध्याय जाट वीरों की उत्पत्ति प्रकरण)।

भारतवर्ष में बौद्धकालीन 16 महाजनपद (राज्य)

उस समय राजनैतिक दृष्टि से भारत तीन भागों में बंटा हुआ था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-462


हिमालय और विन्ध्याचल के बीच तथा सरस्वती के पूर्व और प्रयाग के पश्चिम का देश मध्य देश (मज्झिम देश) कहलाता था। (मनुस्मृति अध्याय 2, श्लोक 21)

इस देश के उत्तर का देश उत्तरा-पथ और दक्षिण का दक्षिणा-पथ कहलाता था।

ये 16 जनपद गौतमबुद्ध के समय से बहुत पहले से थे और उसके जीवनकाल में विद्यमान थे। इन जनपदों के नाम निम्न प्रकार से थे -

1. कौशल 2. मगध 3. काशी 4. मल्ल 5. चेदि 6. कुरु 7. पांचाल 8. मत्स्य 9. शूरसेन 10. गान्धार 11. काम्बोज 12. अङ्ग 13. वत्स 14. वज्जी या वृजि 15. अवन्ति 16. अश्मक (अस्सक)।

उपर्युक्त में से नं० 1 कौशल से लेकर अवन्ति तक के 15 जाट-राज्य1 हैं और ये महाभारतकाल में भी विद्यमान थे। इनका वर्णन विस्तार से किया गया है। (देखो तृतीय अध्याय, महाभारतकाल में जाटवंश तथा उनका राज्य प्रकरण)।

ये महाभारतकाल से लेकर बौद्धकाल तक चलते आये हैं। समय हजारों वर्ष।

नं० 16 अश्मक (अस्सक) जनपद किसी अन्य जाति का है और इसका नाम महाभारतकाल में नहीं है बल्कि यह लगभग छठी सातवीं ई० पू० में स्थापित हुआ है।

इन 16 जनपदों का संक्षिप्त वर्णन निम्नलिखित है –

1. कौशल - इस कौशल साम्राज्य में अवध का प्रान्त शामिल था। इसकी राजधानी साकेत (अयोध्या) थी जिसका प्रथम राजा सूर्यवंशज इक्षवाकु हुआ था। इक्षवाकुवंशी राजे इस नगरी पर परम्परागत राज्य करते आये हैं। यह हमने पिछले पृष्ठों पर लिख दिया है कि कुशवंशज जाटों का राज्य इस अयोध्या राजधानी पर प्राचीन समय से रहता आया है। जाट राजा बृहद्वल से लेकर उसकी 27वीं पीढ़ी में प्रसेनजित तक इस कौशलराज्य की राजधानी अयोध्या पर शासन किया। फिर कुछ समय बाद राजा प्रसेनजित ने इस अयोध्या नगरी को छोड़कर श्रावस्ती नगरी को अपनी राजधानी बना लिया। यह श्रावस्ती नगरी अयोध्यापुरी से 58 मील उत्तर की ओर राप्ती नदी के किनारे आबाद थी। यह नगरी बुद्धकाल के समय भारत के छः बड़े महानगरों में गिनी जाती थी। शाक्य राज्य जहां गौतमबुद्ध का जन्म हुआ था, इसी कौशल साम्राज्य के अधीन था। राजा प्रसेनजित महात्मा बुद्ध का बड़ा मित्र था।

राजा प्रसेनजित की मगध के सम्राट् से सदा लड़ाई रहती थी। इससे मित्रता हेतु उसने अपनी लड़की का विवाह मगध के सम्राट् अजातशत्रु से कर दिया। प्रसेनजित के मरने के बाद उसके चार वंशज राजा हुए जिनमें अन्तिम सुमित्र था। इनकी दुर्बलता के कारण इनके कौशलराज्य को मगध साम्राज्य में मिला लिया गया2। (देखो पंचम अध्याय, सूर्यवंशीय कुशवंशज जाट राज्य प्रकरण)

2. मगध - इस मगध साम्राज्य की नींव डालनेवाला चन्द्रवंश में कुरुवंश की परम्परा में


1. इन 15 जाट राज्यों में से मल्ल, काशी, कौसल, मगध, मत्स्य, शूरसेन, पांचाल और कुरु जनपद रामायणकाल में भी विद्यमान थे (देखो तृतीय अध्याय, रामायणकाल में जाटवंश तथा उनका राज्य, प्रकरण)।
2. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 51-55, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 30-32, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 148-150 तक।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-463


वसु का पुत्र बृहद्रथ कुरुवंशज जाट था। उसी का पुत्र जरासन्ध था जो महाभारत युद्ध से पहले मगध साम्राज्य का एक बड़ा शक्तिशाली राजा था जिसको भीम ने मल्लयुद्ध में मारा था। (देखो प्रथम अध्याय, चन्द्रवंश की वंशावली)

आज के बिहार में इसकी राजधानी राजगृह (राजगिरि) थी। बाद में पाटलीपुत्र (पटना) हो गई थी। यह राज्य पूर्व में चम्पा नदी, पश्चिम में सोन नदी, उत्तर में गंगा नदी और दक्षिण में विन्ध्याचल तक फैला हुआ था1

इस मगध साम्राज्य पर पहले बृहद्रथ के वंशज कई राजाओं ने शासन किया। उनके बाद शिशु-नागवंश, फिर नन्द या नांदलवंश और मौर्य-मौरवंश आदि अनेक वंशों ने इस युग तक शासन किया। इन मगध साम्राज्य के शासकों का अलग पृष्ठों पर वर्णन किया जायेगा।

3. अङ्ग - यह अंग राज्य मगध के पड़ोस में स्थित था। दोनों राज्यों की सीमा को चम्पा नदी अलग करती थी। इस राज्य की राजधानी चम्पानगर (वर्तमान भागलपुर) थी। यह नगरी व्यापार व समृद्धि के लिए वाराणसी, श्रास्वती, साकेत (अयोध्या) और राजगृह के समकक्ष मानी जाती थी। गंगा नदी द्वारा यहां के व्यापारी पेगू और मौलसीन (सवर्णभूमि) तक जाते थे। इन्हीं भारतीय व्यवसायियों ने हिन्द-चीन में चम्पा उपनिवेश भी बसाया था। (Buddha|गौतमबुद्ध]] के जीवनकाल में ही अंग जनपद पर मगध का अधिकार हो गया था2

4. काशी - यह रामायणकाल से चला आ रहा एक प्रसिद्ध जनपद है। इसकी राजधानी काशी रहती आई है। बौद्ध जातकों में इस राज्य का विस्तार दो हजार वर्गमील बतलाया है। यह काशी नगरी गंगा के किनारे पर आबाद है। इस नगरी को आजकल वाराणसी भी कहते हैं।

महाभारतकाल में इस काशी राज्य पर काश्य या काशीवत गोत्र के जाटों का शासन था। यहां का नरेश सुबाहु था। काशी राजकुमार अभिभू अपनी सेना सहित कौरव पक्ष में होकर महाभारत युद्ध में लड़ा था। (देखो तृतीय अध्याय महाभारतकाल में जाटवंश तथा उनका राज्य, प्रकरण)।

प्राचीनकाल से ही यहां के विद्वान् भारत में अग्रसर माने जाते थे। व्यापारिक स्थिति में भी यह जनपद बहुत-बढ़ा था। इस राज्य को बौद्धकाल में कौशलराज्य में मिला लिया था3

5. बज्जी या वृजि राज्य - वृजि राज्य एक फैडरेशन (संघात्मक राज्य) था जिसमें आठ स्वतन्त्र वंश मिले हुए थे। लिच्छवि, विदेह, ज्ञातृ आदि जाटवंशी लोग इन्हीं आठ कुलों में से थे। वर्तमान मुजफ्फरनगर जिले के बसाढ़ नामक स्थान पर इस राज्य की वैशाली नामक नगरी थी। लिच्छिवियों की राज्य व्यवस्था को पढ़ने से पता लगता है कि संघराज्यों के चार पदाधिकारी होते थे - राजा, उपराजा (प्रधान-उपप्रधान), सेनापति और कोषाध्यक्ष। संघराज्यों की शासन सभाओं में हजारों तक मेम्बर होते थे। लिच्छिवियों की शासन सभा में 7707 सभ्य (मेम्बर) थे जो सब ही राजा कहलाते थे। संघ के अधिपति का वंशानुगत राजा की भांति अभिषेक हुआ करता था। मेम्बर लोग जिस समय सभा में आते थे, उस समय घड़ियाल बजाया जाता था। शासन सभा में


1, 2, 3. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 51 से 55, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 30-32, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 148-150 ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-464


राजनैतिक, आर्थिक, सैनिक सभी विषयों पर चर्चा होती थी। लिच्छिवियों और विदेहों ने मिलकर संयुक्त कौंसिल स्थापित की थी, इसके कारण वे संवज्जी कहलाने लगे थे। संघराज्यों की ओर से शिक्षा का पूरा प्रबन्ध रहता था। महावीर स्वामी और महाराजा अजातशत्रु लिच्छवि राजकुमारियों के ही पुत्र थे। यह वृजि गणतन्त्र संघ उस युग में सबसे शक्तिशाली राज्य था।

वज्जी लोग मगध के शत्रु थे। जब राजा बिम्बसार मगध का शासक था तब इन लोगों ने मगध पर भी आक्रमण किया था। किन्तु बिम्बसार के पुत्र अजातशत्रु ने विज्जियों पर इतना प्रबल प्रत्याक्रमण किया कि इनकी सत्ता ही समाप्त हो गई। ये मगध शासन के अन्तर्गत आ गये। यह घटना महात्मा बुद्ध के समय की है।

वज्जी लोग आज भी विजयरणिया/विजयरणीय जाट के नाम पर राजस्थान में निवास करते हैं। उन्हें आज तक भी अभिमान है और भाटग्रन्थ सिद्ध करते हैं वे भी कभी शासक रहे। गंगा के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो आज उत्तरी बिहार तिरहुत के नाम पर प्रख्यात है तथा विदेह की मिथिला के नाम पर दरभंगा आदि मैथिल प्रदेश है, वही पुराना वज्जी जनपद था। इनमें ज्ञातृक गणों (जाटगण) की राजधानी कुण्ड ग्राम भी इधर ही था1

6. कुरु राज्य - इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ (वर्तमान दिल्ली) थी। कुरु राज्य का विस्तार 2000 वर्गमील था। उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु इसके दो भाग थे जिनमें इन्द्रप्रस्थ प्रदेश, हस्तिनापुर, मेरठ आदि अनेक प्रदेश थे2

7. मल्ल राज्य - ये लोग कुशीनारा और पावा दो स्थानों पर सत्तावान् थे। आज के गोरखपुर क्षेत्र के वही प्राचीन शासक थे। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने इस राज्य को पहाड़ी राज्य कहा है और शाक्य राज्य के पूर्व और वृजी राज्य के उत्तर में इसका पता बताया है। इन लोगों ने मगध से टक्कर ली और परास्त होकर उन्हीं में विलीन हो गये3

8. पांचाल राज्य - इस राज्य के दो भाग थे। उत्तरी पांचाल की राजधानी कांपिल्य नगर थी जो कि गंगा के किनारे वर्तमान बदायूं और फर्रूखाबाद के बीच थी। दक्षिणी पांचाल की राजधानी कन्नौज थी। दक्षिणी पांचालों का क्षेत्र गंगा से लेकर चम्बल नदी तक था। आज का फर्रूखाबाद और कानपुर इनके शासन के मुख्य क्षेत्र थे4

9. बत्स राज्य - इस राज्य की राजधानी प्रयाग से 30 मील दक्षिण में यमुना नदी के किनारे कौशाम्बी (वर्तमान कोसम) नगरी थी। महात्मा बुद्ध के जीवनकाल में यहां का शक्तिशाली सम्राट् उदयन था। इसके पड़ौसी राज्य शत्रु थे; इसलिए उनसे सदा युद्ध करना पड़ता था। इस राज्य के पूर्व में मगध और पश्चिम में अवन्ति राज्य थे। राजा उदयन के उत्तराधिकारी दुर्बल थे इसलिए यह राज्य अवन्ति राज्य में मिला लिया गया।

बौद्ध ग्रन्थों में बत्स को गणतन्त्री बच्छ के नाम से ही लिखा है। ये लोग कौशाम्बी को छोड़कर पंजाब में आ गये थे। इस वंश के राजा उदयन का शासन बातिभय (भटिंडा) पर हो गया था। इस

1

1, 2, 3, 4. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 51-55, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 30-32, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 148-150 ।


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उदयन का उज्जैन के राजा प्रद्योत से युद्ध भी हुआ था।

इसी बत्स खानदान में कई पीढियों बाद बच्छराज के घर मलखान का जन्म हुआ। बच्छ उस समय विपत्ति के दिन काट रहा था। मलखान का पालन-पोषण चन्देल राजा परिमाल के घर जस्सराज के पुत्रों के साथ हुआ था। जस्सराज और वत्सराज (बच्छराज) दोनों मित्र थे। बड़ा होने पर मलखान ने अपने बाप-दादों की भूमि भटिंडा के पास सिरसा में अपना राज्य स्थापित किया। पूरनसिंह जाट जो कि मलखान की सेना का एक प्रसिद्ध सेनापति था, वह मलखान का चचेरा भाई था। इन बच्छ अथवा बछड़े जाटों की यू० पी० में भी आबादी है।

इस उपर्युक्त लेख से यह प्रमाणित हो जाता है कि वीर योद्धा आहला, उद्दल, मलखान आदि जाट थे। बत्सवंश का शाखा गोत्र बत्स चौहान है।1

10. अवन्ति राज्य - इसके दो भाग थे। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जैन थी और दक्षिणी अवन्ति की राजधानी माहिष्मती (मन्दसौर) थी। महात्मा बुद्ध के समय इस राज्य का शासक चण्ड प्रद्योत राजा था। उसने बत्सराज उदयन को पराजित करने का प्रण लिया। बाद में इस राजा ने अपनी पुत्री वीणा वासवदत्ता का विवाह उदयन से कर दिया। इसी राजा प्रद्योत के भय से मगध के राजा अजातशत्रु ने राजगृह के सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण कराया था। सहस्रबाहु अर्जुन इसी अवन्ति का शासक था। आठवीं सदी ईस्वी पूर्व में इस राज्य को मगध साम्राज्य में मिला लिया गया2

11. चेदि राज्य - शुक्तिमती (केन) नदी के तट पर यमुना नदी के समीपवर्ती आज के बुन्देलखण्ड पर चेदि राज्य था। चेदि जनपद बड़ा शक्तिशाली था। चेदि जाट गोत्र भी है। महाभारत में राजा शिशुपाल यहीं का शासक था। महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर शिशुपाल अपने अपराधों के कारण श्रीकृष्ण जी द्वारा मार दिया गया था। महाभारत युद्ध में शिशुपाल का महाबली पुत्र चेदिराज धृष्टकेतु अपनी एक अक्षौहिणी सेना के साथ पाण्डवों की ओर से होकर लड़ा था। बौद्धकाल तक इस चेदि वंश का शासन जारी था3

12. मत्स्य राज्य - कुरु राज्य के दक्षिण में और यमुना नदी के पश्चिम में मत्स्य जनपद था जो विराट राज्य में शामिल था, जिसकी राजधानी विराट या वैराट थी। इसके अन्तर्गत आज के जयपुर, अलवर, धौलपुर और भरतपुर के प्रदेश आते थे4

13. शूरसेन राज्य - इसकी राजधानी मथुरा या मधुरा थी। यह नगर रामायणकाल में शत्रुघ्न ने मधुपुत्र लवणासुर को मारकर शूरसेन जनपद व उसकी राजधानी मधुरापुरी (मथुरा) को पूर्णरूप से बसाया था। (वा० रा० उत्तरकाण्ड 70वां सर्ग)। द्वापर युग में अन्धक, वृष्णि, भोज आदि जाटगण यहीं पर आबाद थे। अवन्तिपुत्र यहां का शासक था जो महात्मा बुद्ध के जीवनकाल में विद्यमान था5

14. गान्धार राज्य - इस जनपद की राजधानी तक्षशिला थी। बुद्ध समय में यहां के राजा पुक्कमाती ने मगध नरेश बिम्बसार के पास एक दूतदल भेजा था। पच्छिमी पंजाब और पूर्वी


1, 2, 3, 4, 5. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 51-55, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 30-32, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 148-150 तक।


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अफग़ानिस्तान इस राज्य में शामिल थे। महाभारतकाल में गान्धार (कन्धार) और बौद्धकाल में तक्षशिला इसकी राजधानी थी। जैन ग्रन्थों के अनुसार इसके नरेश ने जैन धर्म की दीक्षा ली थी। इसी ने अवन्ति के राजा प्रद्योत पर आक्रमण किया था। 516 ईस्वी पूर्व के देरियश के शिलालेख के अनुसार उस समय गान्धार पर राजा आचीमनियन शासक थे1

15. काम्बोज राज्य - आज के अफगानिस्तान को महाभारतकाल में काम्बोज देश कहते थे। इस देश पर चन्द्रवंशी जाट लोगों का शासन था (महाभारत सभापर्व)। काम्बोज नरेश सुदक्षिण अपनी एक अक्षौहिणी सेना के साथ दुर्योधन की ओर होकर महाभारत युद्ध में लड़ा था। महात्मा बुद्ध के समय भी इन काम्बोज जाटों का निवास व शासन इसी देश पर था। कौटिल्य ने उनका गणराज्य लिखा2 है।

15. अस्मक (अश्मक) राज्य - यह जनपद गोदावरी के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी पोताली या पोटना नामक थी। जातक कथाओं में इसे काशी के अधीन, कहीं कलिंग से और कहीं अवन्ति से सम्बद्ध करके लिखा है। यह निश्चित नहीं कि इस जनपद पर किस जाति का शासन था3

इन सोलह महाजनपदों के अतिरिक्त उस समय उत्तरी भारत में जाटों के निम्नलिखित प्रजातन्त्र गण सम्मानित रूप से शासन कर रहे थे -

(1) मौर्य-मौर गण - पिप्पलीवन में (2) शाक्य गण - कपिलवस्तु में (3) कोली गण - रामग्राम में (4) बुलिगण - अल्लकप्प में (5) भग्ग गण - सुंसुमार में (6) केकय (7) मद्रक (8) यौधेय गण (9) सिन्धु (10) सौवीर (11) शिवि गण (12) मल्ल गण (13) विदेह (14) लिच्छिवि गण।

इन जाटों के अतिरिक्त अन्य जातियों के गणराज्य निम्न प्रकार से थे -

(1) हैहय - यदु के पुत्र सहस्रजित का पुत्र शतजित हुआ जिसके पुत्र हैहय से हैहय वंश प्रचलित हुआ। उसी की परम्परा में जयध्वज के पुत्रों से हैहय वंश के 5 विभाग प्रचलित हुये (2) कालाम गण (3) त्रिगर्त गण (4) वीतिहोत्र (5) अम्बष्ठ जनपद3

जैन धर्म और बौद्ध धर्म की स्थापना के कारण

महाभारत युद्ध में क्षत्रियों के सर्वनाश के बाद भारत की राष्ट्रीयता ध्वंस हो गई। आर्य जाति के मत-मतान्तरों ने टुकड़े टुकड़े कर दिए। ऋषियों की सन्तान दुराचारियों और झगड़ालुओं के वंशज जान पड़ने लगी। नागरिकता के अधिकार नष्ट हो गये। समाज बिल्कुल अन्धविश्वासी और मूढ़ हो गया। वह आंख मींचकर पुजारी, पंडे, जोशी, भरारे, शाकुनि लोगों के गुलाम हो गये। यद्यपि राजा थे किन्तु देश में पूर्णतः अराजकता थी। ढ़ोंगी लोगों के हाथ में नतृत्व चला गया था, जो सारे राष्ट्रवासियों को नचा रहे थे।

तत्कालीन हिन्दूसमाज अवनति के गहरे गढ़े में गिर चुका था। यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से भारत स्वतन्त्र था, तथापि मानसिक स्वतन्त्रताएं एकदम खोई जा चुकी थीं।

भैंसे, बकरे, मुर्गे आदि देवी के नाम पर मारना पुण्य का काम समझा जाता था। यहां तक कि


1, 2, 3. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 51-55, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 30-32, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 148-150 तक।


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नर-बलि भी दी जाती थी। प्रत्येक नगर और गांव में देवी, चामुड़, योगिनियों की मूर्तियां स्थापित कर दी गईं थीं। यज्ञों में बलिदान धर्म समझा जाता था। आचरणभ्रष्टता बढ़ी हुई थी। आत्मा की शान्ति के लिए लोग हठ और आग के सामने तपना धर्म समझते थे। महीनों तक भूखे रहना भी तप समझा जाता था। अछूत जातियों (शूद्रों) के साथ बड़े-बड़े अत्याचार किये जाते थे।

जैन और बौद्ध ग्रन्थों से पता चलता है कि क्षत्रिय समाज ब्राह्मण-धर्म की इस गुलामी का जुआ पटककर उनसे संघर्ष कर रहा था। जैन व बौध-धर्म से पूर्व उपर्युक्त जो धर्म भारत में प्रचलित था उससे लोग ऊब उठे थे, वे अशान्त थे, वे किसे ऐसे धर्म को चाहते थे जो उनकी आत्मा को शान्ति दे सके। ब्राह्मणों ने यज्ञों की दक्षिणा के भार से समाज को तंग कर रखा था। पशु-वध की यज्ञप्रणाली से लोग ऊब रहे थे। हिन्दू धर्म के संन्यासी स्वयं इस धर्म के विरुद्ध प्रचार करते थे।

भारतवर्ष की ऐसी शोचनीय दशा के समय दो बड़े शक्तिशाली महात्माओं की उत्पत्ति हुई जिनमें से एक का नाम महात्मा महावीर स्वामी और उनके कुछ ही समय पश्चात् महात्मा गौतम बुद्ध हुए। महावीर स्वामी ने जैनधर्म तथा गौतमबुद्ध ने बौद्धधर्म की स्थापना की।

वास्तव में देखा जाए तो बौद्ध और जैन-धर्म क्षत्रियों के धर्म थे, जो कि ब्राह्मण-धर्म की गुलामी के प्रतिरोध में पैदा हुए थे।

डॉ० एस. राधाकृष्णन् ने अपनी पुस्तक 2500 Years of Buddhism के पृष्ठ 1 पर लिखा है कि “महावीर तथा गौतम ने किसी नए एवं स्वतन्त्र धर्म का प्रारम्भ नहीं किया। उन्होंने तो अपने प्राचीन वैदिक-धर्म पर आधारित एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया।”

H. Karan, Mannual of Indian Buddhism के पृ० 23 पर लिखते हैं कि “बौद्धधर्म वास्तव में हिन्दू-धर्म का ही केवल एक नया रूप था।” उनके लौकिक सिद्धान्त हिन्दू-धर्म के ही हैं जिनकी व्याख्या वेदों और उपनिषदों में की गई है। यह ठीक है कि उनके उपदेशों के परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे बौद्धधर्म एक अलग धर्म के रूप में कायम हो गया। दोनों धर्मों की समानतायें तथा असमानतायें अवश्य हैं जिसका संक्षिप्त में वर्णन आगे कर दिया जायेगा1

महात्मा महावीर

महात्मा महावीर जैन-धर्म के चौबीसवें अन्तिम तीर्थंकर थे। उन्हें जैन-धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उनका वास्तविक नाम वर्धमान था, परन्तु उन्हें महावीर और जिन के नामों से भी याद किया जाता है।

उनका जन्म 599 ई० पू० में वैशाली के पास कुण्डग्राम में हुआ था, जो बिहार के आधुनिक जिला मुजफ्फरपुर में है। उनका पिता सिद्धार्थ एक क्षत्रिय ज्ञातृ राजवंश (संघ) का राजा था जो कि एक जाटसंघ था। यह ज्ञातृ राजवंश ज्ञात शब्द का समानवाची था जो कि जाटसंघ था जिनमें भगवान् महावीर पैदा हुए थे। (जाट इतिहास पृ० 106-107, लेखक ठा० देशराज, अधिक जानकारी के लिए देखो, द्वितीय अध्याय, जाटवीरों की उत्पत्ति प्रकरण)

उनकी माता का नाम त्रिशला था, जो कि वैशाली के प्रसिद्ध लिच्छवि वंश (जाटवंश) की राजकुमारी थी। (देखो, पिछले पृष्ठों पर वज्जी या वृजि का राज्य)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-468


युवा होने पर महावीर स्वामी का विवाह यशोधरा नामक सुन्दर राजकुमारी से कर दिया गया। उनके यहां एक पुत्री का जन्म हुआ।

महान् त्याग और तप - अपने माता-पिता की मृत्यु के पश्चात् जब वर्धमान की आयु 30 वर्ष की थी, उन्होंने घर त्याग दिया। अपनी पत्नी तथा पुत्री को छोड़कर वे तप करने के लिए वनों में चले गये। 12 वर्ष तक कठोर तप करने के बाद तेरहवें वर्ष परशुराम की पहाड़ियों के निकट त्रिम्भिक गांव के बाहर ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञानप्राप्ति के समय उनकी आयु 43 वर्ष की थी। जैनियों के अनुसार उन्हें मनुष्य तथा देवताओं, जन्म तथा मरण, इस संसार तथा अगले संसार का सर्वोच्च ज्ञान हो गया। अब वे ‘जिन’ (विजेता) तथा ‘महावीर’ के नाम से पुकारे जाने लगे।

ज्ञानप्राप्ति के 30 वर्ष बाद तक महावीर अपनी शिक्षाओं का प्रचार करते रहे। उन्हें जनता व राज्य-परिवारों में काफी सम्मान प्राप्त हुआ। महावीर प्रायः चम्पा, मिथिला, वैशाली, श्रावस्ती और राजगृह आदि में निवास तथा अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते थे।

मृत्यु - 30 वर्ष पश्चात् 527 ई० पू में महावीर का राजगृह के पास पावा नामक गांव में देहान्त हो गया। उस समय उनकी आयु 72 वर्ष की थी और उनके साधु शिष्यों की संख्या 14,000 थी।

महात्मा महावीर की शिक्षायें तथा जैनधर्म के सिद्धान्त -

महात्मा महावीर समाज की बुराइयों के लिए संघर्ष करते रहे। वह त्याग से मनुष्य की पवित्रता में विश्वास करते थे। महावीर का हिन्दू धर्म के झूठे रीति-रिवाजों पर विश्वास नहीं था, वह सत्य व अहिंसा पर विश्वास करते थे। उनके सिद्धान्त त्रि-रत्न थे। उनका उपदेश था कि मनुष्य को आत्मा की मुक्ति के लिए सत्य विश्वास, सत्य ज्ञान व सत्य धर्म को अपनाना चाहिए। उन्हें ही त्रि-रत्न कहा जाता है।

जैनधर्म पूर्ण अहिंसा में विश्वास करता है। महावीर का सबसे बड़ा व महान् सिद्धान्त कठोर तपस्या है। जैनधर्म ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता।

जैनधर्म ईश्वर में बिल्कुल विश्वास नहीं करता। वे कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा में पूर्ण शक्ति विद्यमान है। पत्थर की मूर्ति की पूजा एक धोखा है। मनुष्य के काम व त्याग ही ईश्वर है। महावीर वेद व संस्कृत को पवित्र नहीं मानते थे। उन्होंने वेदों का घोर विरोध किया है। उन्होंने यज्ञों तथा झूठे रीति-रिवाजों पर विश्वास नहीं किया। वे सब जाति के लोगों को समान मानते हैं। ईसा से कोई तीन शताब्दियां पूर्व जैन सम्प्रदाय के दो भाग हो गये।

1. दिगम्बर - ये लोग महावीर द्वारा बताए कठोर तप पर विश्वास करते हैं और भूखे तथा नंगे रहना धर्म का नियम समझते हैं।

2. श्वेताम्बर - ये लोग इतना कठोर जीवन व्यतीत नहीं करते। ये पार्श्वनाथ के सरल व्यावहारिक नैतिकता के नियमों को मानते हैं और नंगे रहने की अपेक्षा श्वेत कपड़े पहनते हैं। इसलिए इन्हें श्वेताम्बर कहा जाता है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-469


जैन धर्म विश्व में क्यों फैल सका तथा इसके पतन के कारण -

जैन धर्म का पतन भारत में होने लगा, जबकि बौद्ध धर्म एशिया में फैल गया। इसके कारण - 1. जैन साहित्य व ग्रन्थों की कमी 2. तपस्या की कठोरता 3. नग्नता का होना 4. प्रचारकों की कमी 5. सिद्धान्तों में नवीनता का न होना2महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती सत्यार्थप्रकाश के द्वादश समुल्लास में लिखते हैं कि मूर्तिपूजा जैनियों से चली है। (विवेकसार पृ० 21) जिन मन्दिर में मोह नहीं आता और भवसागर से पार उतारने वाला है। (विवेकसार पृ० 51-52) मूर्तिपूजा से मुक्ति होती है और जिन मन्दिर में जाने से सद्गुण आते हैं जो जल चन्दनादि से तीर्थंकरों की पूजा करे वह नरक से छूट स्वर्ग को जाय। (विवेकसार पृ० 55) जिन मन्दिर में ऋषभदेवादि की मूर्तियों के पूजन से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है। (विवेकसार पृ० 61) जिन मूर्तियों की पूजा करे तो सब जगत् के क्लेश छूट जायें।

आगे स्वामी जी ने इन बातों का खण्डन किया है। स्वामी जी एकादश समुल्लास में लिखते हैं कि “जैनियों की देखों देख पौराणिकों ने भी मन्दिरों में महादेव, पार्वती, राधा, कृष्ण, सीता, राम व लक्ष्मी, नारायण और भैरव, हनुमान आदि की मूर्तियां स्थापित कर दीं। इन्होंने बहुत से व्यासादि महर्षियों के नाम से मनमानी असम्भव गाथायुक्त ग्रन्थ बनाये। उनका नाम पुराण रखकर कथा भी सुनाने लगे।”आगे इसी समुल्लास में लिखते हैं कि –

“अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी नहीं हैं। यदि वह होते तो इनमें गपोड़े न होते, क्योंकि व्यास जी बड़े विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक योगी थे। वे ऐसी मिथ्या कथायें कभी न लिखते। इससे यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्पर विरोधी लोगों ने भागवतादि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं उनमें व्यास जी के गुणों का लेश भी नहीं है। और वेदशास्त्र के विरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यास सदृश विद्वानों का काम नहीं, किन्तु यह काम विरोधी स्वार्थी, अविद्वान् लोगों का है। इतिहास और पुराण शिवपुराण आदि 18 पुराणों का नाम नहीं है किन्तु - आश्वलायन गृहसूत्र 3/3/1 के अनुसार - यह ब्राह्मण और सूत्रों का वचन है। ऐतरेय शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थों ही के पांच नाम हैं - 1. इतिहास 2. पुराण 3. कल्प 4. गाथा 5. नाराशंसी। 1. इतिहास - जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। 2. पुराण - जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन। 3. कल्प - वेद शब्दों के समार्थ्य का वर्णन अर्थनिरूपण करना। 4. गाथा - किसी का दृष्टान्त दार्ष्टान्तरूप कथाप्रसंग करना। 5. नाराशंसी - मनुष्यों के प्रशंसनीय व अप्रशंसनीय कर्मों का कथन करना। इन्हीं से वेदार्थ का बोध होता है। सो ये 18 पुराण इन पोपों ने अपने स्वार्थ के लिए बनाये हैं।”

नोट - उपर्युक्त ब्राह्मण ग्रन्थों की विद्या वैदिककाल के आरम्भ में ही प्रचलित हो चुकी थी (देखो तृतीय अध्याय, विद्या का इतिहास प्रकरण)।

महात्मा गौतम बुद्ध

महात्मा बुद्ध ने बौद्ध-धर्म की स्थापना की थी। उन्हें गौतम, सिद्धार्थ, शाक्य मुनि, बुद्ध आदि


1, 2. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 25-41, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 32-55, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 102-146; भारत का इतिहास पृ० 35-43, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 18-53, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; प्री-यूनिवर्सिटी, भारत का इतिहास पृ० 17-38 ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-470


विभिन्न नामों से याद किया जाता है। उनका जन्म 567 ई० पू० में नेपाल की तराई में लुम्बनीवन नामक ग्राम में हुआ था जो कि कपिलवस्तु से लगभग 14 मील की दूरी पर है। उनके पिता शुद्धोधन शाक्यवंश (जाटवंश) के क्षत्रिय और कपिलवस्तु के शासक थे। उनकी माता का नाम महामाया था जो कि कोलियन वंश कोली जाटवंश]] की कन्या थी। शुद्धोधन ने अपने इकलौते पुत्र गौतम का विवाह 18-19 वर्ष की आयु में ही एक सुन्दर कन्या यशोधरा से कर दिया। कुछ समय पश्चात् उनके यहां एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम राहुल रखा गया।

महान् त्याग - गौतम का मन संसार के दुःखों के कारण बहुत अशान्त हो गया था और वह सच्चे ज्ञान की प्राप्ति के लिए उत्सुक था। एक रात्रि के अन्धकार में वह अपनी प्रिय पत्नी, पुत्र, राज्याधिकार को छोड़कर सत्य की खोज में निकल पड़े। उस समय उनकी आयु 29-30 वर्ष की थी।

सत्य की खोज में - महात्मा बुद्ध की, गृह त्यागने के पश्चात्, ज्ञान पिपासा बढ़ती गई। गुरु की खोज में मगध गये और ब्राह्मणों के साथ रहकर घोर तपस्या की, पर शान्ति नहीं मिली। जंगलों में गये व उपवास रखे पर वह मोक्ष की प्राप्ति न कर सके। उन्होंने 6 वर्ष तक प्रयास किए पर सफलता नहीं मिली। अन्त में वह गया के निकट एक पीपल के वृक्ष के नीचे समाधि लगाकर बैठ गये। समाधि के 49वें दिन उनको सत्य का प्रकाश हुआ और उन्हें ज्ञान और शान्ति की प्राप्ति हुई। इसी बोध के कारण उन्हें बुद्ध कहा जाने लगा और वृक्ष को बोधि वृक्ष कहा जाने लगा। गया में जिस वृक्ष के नीचे महात्मा बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी, वहां आजकल महाबोधि मन्दिर है।

उपदेशक के रूप में - महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन के आगामी 45 वर्ष अपने उपदेशों का प्रचार करने में व्यतीत किए। वे बनारस गये। वहां सारनाथ में अपने 5 पुराने शिष्यों को अपने नये सिद्धान्तों का उपदेश दिया।

उनके पिता, पत्नी, पुत्र तथा अन्य सम्बन्धी और अनेक शाक्यवंश के लोग उनके शिष्य बन गये। मगध नरेश बिम्बसार और कौशल के राजा प्रसेनजित ने उनकी शिक्षाओं को अपनाया। वह वैशाली, काशी, कौसम्भी भी पहुंचे। उनके हजारों शिष्य बन गये।

मृत्यु - जीवन के अन्तिम दिन कुशीनगर (कुशीनारा, गोरखपुर) में व्यतीत किए। आपने एक दिन पावा में चुंद नामक लोहार के घर भोजन किया। इससे उन्हें पेचिश हो गई। जब वह पावा से कुशीनगर गये तो उन्होंने अनुभव किया कि उनकी मृत्यु निकट है। 80 वर्ष की आयु में 487 ई० पू० में उनका निर्वाण हो गया। मरते समय उन्होंने अपने सबसे प्रिय शिष्य आनन्द तथा अनेक शिष्यों को ये शब्द कहते हुए प्राण दे दिए, “संसार की सभी वस्तुओं का नाश स्वाभाविक है। परिश्रम के साथ मुक्ति पाने का यत्न करो।”

अग्नि संस्कार के बाद उनके अस्थिसमूह के आठ भाग करके मल्ल, लिच्छिवि, शाक्य, कोली, मौर्य-मौर सब जाटवंश और बुली तथा वेथद्वीप के ब्राह्मण आदि आठ जातियों में बांट दिये। उन लोगों ने उन अस्थियों पर स्तूप बनवा दिये।

महात्मा बुद्ध की शिक्षायें - महात्मा बुद्ध ने जीवन के चार मूल सत्य बतलाये -

(क) दुःख - यह संसार दुःखों से भरा हुआ है।

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-471


(ख) दुःख समुदाय - दुःखों का कारण लालसा है।
(ग) दुःख निरोध - लालसा का अन्त करने से दुःख होता है।
(घ) अष्ट मार्ग - लालसा का दमन अष्ट मार्ग द्वारा होता है। अष्ट मार्ग ये हैं - 1. सत्य विश्वास 2. सत्य विचार 3. सत्य वचन 4. सत्य कर्म 5. सत्य रहन-सहन 6. सत्य प्रयत्न 7. सत्य स्मृति 8. सत्य ध्यान। यह मोक्ष के साधन हैं।

महात्मा बुद्ध के सिद्धान्त - 1. अहिंसा 2. कर्म 3. निर्वाण 4. नैतिकता पर बल 5. भ्रार्तृभाव 6. ईश्वर के अस्तित्व में मौन 7. जातिप्रथा का विरोध 8. वेदों तथा संस्कृत में अविश्वास 9. यज्ञ व मन्त्रों में अविश्वास 10. संसार की सभी वस्तुएं परिवर्तनशील।

बुद्ध भगवान् ने वर्ण-भेद को उठा दिया था, पर वह पूर्ण सफल नहीं हुए थे। क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र जब घर छोड़कर भिक्षुसम्प्रदाय में आते हैं तो अपना नाम और वर्ण खो देते हैं और श्रमण कहलाने लगते हैं। (विनय पिटक चुलूवग्ग 9-1-4)।

जातकों तथा अन्य बौद्ध-ग्रन्थों में सबसे ऊँचे क्षत्रिय माने गये हैं। ब्राह्मणों को अपमानजनक शब्दों में याद किया गया है। कहीं उन्हें ‘तुच्छ ब्राह्मण’ और कहीं ‘नीच ब्राह्मण’ कहा गया है। जैन ब्राह्मणों को ‘अक्षर-म्लेच्छ’ लिखा गया है (जैन आदि पुराण)। क्षत्रिय उस समय विद्या बुद्धि में काफी बढ़े-चढ़े थे, वह ब्राह्मणों का मुकाबिला कर सकते थे। उस समय क्षत्रियों के अलग-अलग कुल थे जो अलग-अलग स्थानों में राज्य करते थे। शूद्र जाति का उद्धार बौद्धकाल में भी नहीं हुआ था, उनकी हीन दशा ज्यों की त्यों बनी हुई थी। वास्तव में देखा जाय तो बौद्ध और जैन-धर्म क्षत्रियों के धर्म थे, जो कि ब्राह्मण-धर्म की गुलामी के प्रतिरोध में पैदा हुए थे।

बौद्धकाल का इतिहास ईसा से लगभग 525 वर्ष पूर्व से आरम्भ होकर ईस्वी सन् 650 में समाप्त हो जाता है। इसी समय को बौद्धकाल के नाम से इतिहासलेखकों ने पुकारा है। इस 1200 वर्ष के समय में क्रान्ति, शान्ति और आनन्द, अत्याचार जो कुछ भी हुए वे बौद्ध-काल की घटनायें हैं।

बौद्ध धर्म का देश-विदेशों में फैलाव -

बौद्धधर्म के प्रचार में बौद्धसंघ का विशेष योगदान रहा। भगवान् बुद्ध के समय अर्थात् प्रारम्भिक बौद्धकाल में भारत में जो महाराजा थे, उनमें बिम्बसार और अजातशत्रु अधिक प्रसिद्ध हुये। उनका वंश शिशुनाग वंश कहलाता था। वे दोनों की पिता पुत्र बौद्ध हो गये थे। राजा-महाराजाओं ने बौद्ध-धर्म को फैलाने में बड़ा योगदान दिया। इनमें मौर्य या मोर जाटवंशज अशोक सम्राट् ने बौद्ध-धर्म को सबसे अधिक उन्नति दी। उसने अपने राजबल से तो बौद्ध-धर्म का प्रचार किया ही था किन्तु अपने पुत्र, पुत्री और अपने को भी भिक्षु बना डाला। उसने एक बौद्ध महासभा भी कराई थी। उसने बौद्ध-धर्म को अपने विशाल राज्य भारतवर्ष, श्रीलंका तथा पूर्वी एशिया के अपने देशों में फैलाया। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, मौर्य-मौर अशोक महान् प्रकरण)।

सम्राट् कनिष्क कुषाण जाट ने भी बौद्ध-धर्म को बहुत उन्नति दी। उसने भारत के अतिरिक्त बौद्ध-धर्म को चीन, जापान, तिब्बत, मध्यएशिया के काशगर, यारकन्द, खोतन और तारिम


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नदी की घाटी में आबाद अनेक प्रान्तों में फैलाया। उसने बौद्धों की चौथी प्रसिद्ध महासभा कश्मीर में ‘कुण्डलवन’ के स्थान पर की। (अधिक जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, कुषाणवंशज जाट राज्य, प्रकरण)।

बौद्धों की महासभायें -

1. राजगृह में पहली महासभा - महात्मा बुद्ध की मृत्यु के कुछ सप्ताह पश्चात् मगध की राजधानी राजगृह में 487 ई० पू० में अजातशत्रु ने बुलाई। इसमें भिन्न-भिन्न स्थानों से 500 भिक्षुओं ने भाग लिया। इसका सभापति महाकश्यप था। वहां बौद्ध-धर्म के तीन ग्रन्थ तैयार किये गये जो त्रिपिटक के नाम से प्रसिद्ध हैं। मगध पर जाटवंशज शासकों का राज्य था।

2. वैशाली में दूसरी महासभा - महात्मा बुद्ध के कोई 100 वर्ष पश्चात्, इसमें 700 भिक्षुओं ने भाग लिया। यह वैशाली वज्जी या वृजि राज्य की राजधानी थी जिसमें 8 स्वतंत्र जाटवंश शामिल थे, यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है।

3. पाटलिपुत्र में तीसरी महासभा - यह तीसरी महासभा प्रसिद्ध मौर्य-मौर जाट सम्राट् अशोक ने 251 ई० पू० में पाटलिपुत्र में बुलाई। इसका सभापति मोग्गली का पुत्र तिस्स था। इसमें लगभग 1000 भिक्षुओं ने भाग लिया। यह महासभा 9 महीने तक चली। इसमें बौद्धों के आपसी मतभेदों को दूर किया गया और उन्होंने धर्म का उत्साह से प्रचार का संकल्प किया।

4. कश्मीर में चौथी महासभा - बौद्ध-धर्म की चौथी महासभा कनिष्क कुषाणवंशज जाट सम्राट् (सन् 120 से 162 ई० तक) ने कराई। यह सभा कुंडलवन के स्थान पर हुई थी। इसमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया था। इसका सभापति विश्वमित्र तथा उपसभापति अश्वघोष थे। यहां भी बौद्ध-धर्म के मतभेदों को निपटाने का यत्न किया गया, किन्तु कोई सफलता प्राप्त न हुई और बौद्ध-धर्म स्पष्टरूप से ‘हीनयान’ तथा ‘महायान’ में बंट गया। इस महासभा में त्रिपिटक ग्रन्थों पर टिप्पणियां भी लिखी गईं, जिन्हें ‘महाविभाष’ नाम दिया गया।

(इस कुंडलवन में इस महासभा के विषय में देखो, तृतीय अध्याय, लल्ल गठवाला मलिक प्रकरण)।

बौद्ध-धर्म को देश-विदेशों में फैलाने का जाट विद्वान् भिक्षुओं का बड़ा योगदान है। इसका विस्तार से वर्णन चतुर्थ अध्याय में किया गया है। (वहां देखो, चीन तथा मध्यएशिया में भारतीय संस्कृति तथा धर्म के फैलाने में जाटों का योगदान, प्रकरण)।

बौद्धधर्म के पतन के कारण

बौद्ध-धर्म मूल रूप से भारत का धर्म है। आज चाहे यह संसार के सबसे प्रसिद्ध धर्मों में से एक है परन्तु भारत में इसके अनुयायियों की संख्या बहुत कम है। इस धर्म की भारत में अवनति के कारण निम्नलिखित हैं -

1. भिक्षुओं में भ्रष्टाचार - बौद्ध-भिक्षु अभिमानी व भ्रष्टाचारी होते गये और भोग विलास में डूबने लगे। ‘मदिरा’ तथा ‘महिला’ के दोषों से न बच सके।


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2. बौद्ध-धर्म में फूट - सम्राट् कनिष्क के समय में बौद्ध-धर्म के अनुयायी पारस्परिक मतभेदों के कारण दो सम्प्रदायों एक ‘हीनयान’ और दूसरा ‘महायान’ में बंट गये।

3. मूर्तिपूजा - महात्मा बुद्ध मूर्तिपूजा, बलि, यज्ञों तथा अन्य कर्मकाण्डों में विश्वास नहीं रखते थे। परन्तु महायान सम्प्रदाय के उदय होने से बौद्ध-धर्म की पवित्रता नष्ट हो गई।

4. राजसी सहायता का अन्त - अशोक और कनिष्क जैसे राजाओं ने बौद्ध-धर्म के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भाग लिया था। परन्तु उन राजाओं के पश्चात् हर्षवर्धन के अतिरिक्त किसी भी राजा ने बौद्ध-धर्म की सहायता नहीं की। गुप्तवंश के राजाओं ने तो बौद्ध-धर्म की अपेक्षा हिन्दू-धर्म के विकास के लिए कार्य किए।

5. बौद्ध-धर्म का अहिंसा सिद्धान्त - इस अहिंसा के सिद्धान्त के कारण बहुत से हिन्दू लोग, विशेषकर ब्राह्मण तथा क्षत्रिय, इस धर्म से घृणा करने लगे। मौर्य साम्राज्य के अन्तिम राजा को उसके एक ब्राह्मण मन्त्री पुष्यमित्र ने ही मार दिया और शुंग वंश की नींव डाली। इस राजा ने बहुत से बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया। बंगाल के शशांक राजा ने भी बौद्धों पर ऐसे ही अत्याचार किए, जिससे यह धर्म शक्ति हीन हो गया।

6. हूणों के आक्रमण - हूण जाति के आक्रमणों ने भी बौद्ध-धर्म के पतन में भाग लिया। इन्होंने भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों में अपना राज्य स्थापित किया। इनके प्रसिद्ध राजा मिहिरगुल ने हिन्दू-धर्म को अपना लिया था। उसने अपने राज्य के बौद्धों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही की। उसने उनके स्तूपों तथा मठों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और बहुत से बौद्धों का वध करवा दिया। अन्य बौद्ध डरकर उसके राज्य को छोड़कर भाग गये। इस तरह भारत के उत्तर-पश्चिमी भागों से बौद्ध-धर्म नष्ट हो गया।

7. शंकराचार्य - आठवीं शताब्दी के प्रसिद्ध हिन्दू विद्वान् तथा दार्शनिक थे। उन्होंने हिन्दू-धर्म का बड़े आवेग से प्रचार किया और बौद्ध-धर्म तथा जैन-धर्म के विरुद्ध प्रचार किया। शंकराचार्य के सामने बौद्ध व जैन भिक्षु न ठहर सके। उन्होंने वैदिक धर्म का प्रचार करके हिन्दू-धर्म को ऊँचा उठाया। इससे बौद्ध-धर्म का पतन हुआ।

8. राजपूतों का विरोध - दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में उत्तरी भारत के कई स्थानों पर राजपूतों का प्रभुत्व कायम रहा। ये लोग बड़े बलवान् तथा साहसी योद्धा थे। इन्होंने बौद्ध-धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त को बिल्कुल पसन्द नहीं किया।

राजपूत लोग नवीन हिन्दू-धर्म जिसे पौराणिक धर्म भी कहते हैं, के अनुयायी बन गये। इसलिये उन्होंने बौद्ध-धर्म का विरोध किया। उनके राज्यों में बौद्ध लोगों का रहना असम्भव हो गया और उनमें से अनेक विदेशों में चले गये। इस प्रकार भारत में बौद्ध-धर्म का धीरे-धीरे पतन होने लगा।

9. मुसलमानों की भारत विजय - ग्यारहवीं तथा बारहवीं शताब्दियों में मुसलमानों ने भारत पर आक्रमण किए और भारत में अपने राज्य स्थापित कर लिये। उन्होंने बौद्धों के मन्दिर तथा मठ नष्ट कर दिये और उन पर बड़े अत्याचार किए। बहुत से बौद्ध लोगों ने इस्लाम-धर्म को स्वीकार कर लिया और अन्य भारत को छोड़कर नेपाल तथा तिब्बत को चले गये। इस प्रकार भारत में


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इनेगिने ही बौद्ध रह गये1

बौद्ध-धर्म ने संसार में लगभग 60 करोड़ भारत के श्रद्धालु बनाये थे परन्तु नवीन हिन्दू-धर्म ने गांठ से लगभग दस करोड़ मक्का मदीना अथवा यरूसलम के भक्त बना दिये हैं। नवीन हिन्दू-धर्म ने अपने ही क्षत्रिय भाइयों को म्लेच्छ, व्रात्य, अनार्य तथा पतित कहकर गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह इन्हीं के कारण है कि आज हिन्दू कहलाने वाले भारतवासियों के 2365 मत बने हुए हैं। किन्तु जिस जाति के अन्दर भगवान् श्रीकृष्ण जैसे महान् पुरुषों ने जन्म लिया है, समय-समय पर इसकी रक्षा के लिए विभूतियां आती ही रहती हैं। इसी तरह महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 12-2-1825 ई० में जन्म लिया और वेदों का पूर्ण अध्ययन करके 10 अप्रैल 1875 ई० के दिन आर्यसमाज की स्थापना की। उन्होंने भारतवर्ष में फिर से प्राचीन वैदिक धर्म का प्रचार करके इस हिन्दू जनता को अन्य धर्म के अनुयायी बनने से बचाया तथा पौराणिकों के पाखण्डों को समाप्त किया। हमको दुःख है कि उनकी मृत्यु समय से पहले 30 अक्टूबर 1883 ई० को पौने 59 वर्ष की आयु में ही हो गई। यदि वे आज तक जीवित रहते तो न केवल भारतवर्ष किन्तु अनेक देशों के लोग आर्य-धर्मी होते और भारतवर्ष इस संसार का हर पहलू में अग्रणी देश होता। यह महर्षि दयानन्द की देन है कि आज भी भारतवर्ष में आर्यसमाज बड़ी संख्या में विद्यमान हैं तथा कई दूसरे देशों में भी स्थापित हैं। आशा है और भी उन्नति होती रहेगी (लेखक)।

मगध साम्राज्य पर शासन करने वाले जाटवंश

(विष्णु पुराण द्वितीय खण्ड चतुर्थ अंश के अनुसार)

1. चन्द्रवंश की परम्परा में कुरु राजा हुये जिनसे कुरु जाटवंश प्रचलित हुआ। इस कुरु वंश में बृहद्रथ के पुत्र जरासन्ध थे जो महाभारतकाल में मगध साम्राज्य के उत्तरी भारत में बड़े शक्तिशाली सम्राट् थे। उनका पुत्र सहदेव अपनी सेना के साथ पाण्डवों की ओर से महाभारत युद्ध में लड़ा था। इसी वसु के पुत्र बृहद्रथ कुरुवंशज जाट ने मगध साम्राज्य की नींव डाली थी। इस कुरुवंशज जाट राजा बृहद्रथ की सन्तान के जरासन्ध से लेकर रिपुञ्जय तक 22 जाट राजाओं ने मगध साम्राज्य पर 1000 वर्ष तक शासन किया। (देखो प्रथम अध्याय, चन्द्रवंशीय राजाओं की वंशावली)।

2. प्रद्योत जाट वंशजबृहद्रथ कुरु जाटवंश के अन्तिम राजा रिपुंजय को उसके मन्त्री सुनिक ने मारकर अपने पुत्र प्रद्योत को राजा बनाया। उसके वंशज 6 राजा हुए जिनका 148 वर्ष तक शासन रहा। इनका अन्तिम राजा नन्दी हुआ।


1, 2. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 25-41, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 32-55, लेखक ठा० देशराज; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 102-146; भारत का इतिहास पृ० 35-43, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 18-53, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; प्री-यूनिवर्सिटी, भारत का इतिहास पृ० 17-38 ।


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3. शिशुनाग जाटवंश* - इस वंश के राजा 1. नन्दी के पुत्र शिशुनाग 2. उसका पुत्र काकवर्ण 3. उसका पुत्र क्षेमधर्मा 4. उसका पुत्र क्षतीजा 5. उसका पुत्र गिधिसार (बिम्बसार) 6. उसका अजातशत्रु 7. उसका अर्भक होगा 8. उसका पुत्र उदयन 9. उसका नन्दिवर्द्धन 10. उसका पुत्र महानन्दी होगा। ये सब राजा शिशुनाग वंश के कहे जायेंगे जो 362 वर्ष राज्य करेंगे।

4. नन्द या नांदल जाटवंश - महानन्दी का पुत्र महापद्म होगा। यह महापद्म इस सम्पूर्ण पृथ्वी को बिना किसी की बाधा के एकछत्र भोगेगा। उसके सुमाली आदि आठ पुत्र उत्पन्न होंगे जो उसकी मृत्यु होने पर शासन करेंगे। महापद्म और उसके पुत्रों का शासनकाल 100 वर्ष होगा।

5. मौर्य या मौर जाटवंश - फिर एक कौटिल्य नामक ब्राह्मण इन नौओं का अन्त कर देगा। उनके पश्चात् मौर्य नामक राजागण राज्य करेंगे। वही कौटिल्य ब्राह्मण चन्द्रगुप्त को राज्य पर अभिषिक्त करेगा। इस वंश के राजाओं की वंश पीढी इस तरह से होगी - 1. चन्द्रगुप्त 2. बिन्दुसार 3. अशोकवर्द्धन 4. सुयशा 5. दशरथ 6. संयुक्त 7. शालिशूक 8. सोम शर्मा 9. शतधन्वा 10. बृहद्रथ होगा। मौर्यवंश के ये 10 राजा 173 वर्ष तक शासन करेंगे।

6. शुङ्गवंशीय ब्राह्मण राजा - पुष्यमित्र नामक ब्राह्मण सेनापति अपने स्वामी राजा बृहद्रथ की हत्या करके राज्य करेगा। इसकी वंश पीढ़ी इस प्रकार है। 1. पुष्यमित्र 2. अग्निमित्र 3. सुज्येष्ठ 4. वसुमित्र 5. उदंक 6. पुलिन्दक 7. घोषवसु 8. वज्रमित्र 9. भागवत 10. देवभूति होगा। यह सभी शुङ्ग राजागण पृथ्वी पर 112 वर्ष राज्य करेंगे।

7. कण्व ब्राह्मण नरेश - शुङ्गवंश के राजा देवभूति का मन्त्री वसुदेव जो कि कण्ववंशीय होगा, उसकी हत्या करके स्वयं राजा बन जायेगा। इसकी वंश पीढ़ी - 1. वसुदेव 2. भूमित्र 3. नारायण 4. सुशर्मा। कण्ववंश के ये चार राजा 45 वर्ष पृथ्वी पर राज्य करेंगे।

7. आन्ध्र जाटवंश के राजा - कण्ववंश के सुशर्मा राजा की सिमुक नामक आंध्रवंशी हत्या करके स्वयं राजा बन जायेगा और आन्ध्रवंश राज्य की स्थापना कर देगा। इस राजा की वंशावली में 30 आंध्रवंशीय राजा होंगे जो 456 वर्ष पृथ्वी पर शासन करेंगे।

उनके पश्चात् भिन्न-भिन्न जाटवंशीय नरेशों का शासन होगा जो कि निम्नलिखित हैं। विष्णुपुराण अंग्रेजी अनुवाद, लेखक एच० एच० विल्सन के लेख अनुसार -

7 आभीर 10 खैर 16 शक (कांग) 8 यवन 14 तुषार (तुखार-तुसीर) 13 मुण्ड (मांडा) 11 मौन (मान) जोड़ = 79 । ये 79 नरेश 1390 वर्ष तक भारत में शासन करेंगे। इनमें मान नरेश 300 वर्ष तक राज्य करेंगे। इनके बाद 11 पौरव (पुरु) राजा 300 वर्ष पृथ्वी पर राज्य करेंगे। जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 18 पर, बी० एस० दहिया ने भी पुराणों के हवाले से बिल्कुल ऐसा ही लिखा है। वह लिखते हैं कि ये सब केवल जाटवंशज नरेश हैं।

मगध साम्राज्य के शासकों का विस्तार से वर्णन -

कुरु जाटवंश की परम्परा में सम्राट् शिशुनाग 650 ई० पू० में मगध साम्राज्य का शासक था।


. * = जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 31 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने टॉड के हवाले से लिखा है कि शिशुनागवंश के राजा तक्षक जाट थे, जिन्होंने मगध पर 600 वर्ष तक शासन किया।


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उसकी राजधानी राजगृह थी। इस शिशुनाग वंश का पांचवां तथा प्रसिद्ध सम्राट् बिम्बसार था जो गौतम बुद्ध के समय में था।

सम्राट् बिम्बसार - यह 547 ई० पू० से 495 ई० पू० तक 52 वर्ष मगध साम्राज्य का शासक रहा। उसने कौसल के राजा की पुत्री कौशल देवी से विवाह किया तथा काशी राज्य का कुछ भाग दहेज में लेकर शक्ति प्राप्त की। उसने शक्तिशाली लिच्छवि गण की राजकुमारी छलना देवी से विवाह करके उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली। इसके बाद उसने पंजाब की राजकुमारी कशीमा देवी से विवाह करके मिलाप बढ़ाया। इस तरह इन विवाहों से मगधराज्य की उन्नति कर ली। उसने अपनी सैनिक शक्ति से अंगदेश के राजा ब्रह्मदत्त को पराजित करके उस देश को अपने राज्य में मिला लिया। इस तरह से सम्राट् बिम्बसार ने अपने मगध साम्राज्य को बहुत विशाल कर लिया जिसमें लगभग 80,000 गांव थे। यह बौद्ध-धर्म का अनुयायी था।

बिम्बसार का पुत्र अजातशत्रु 495 ई० पू० में उसे मारकर स्वयं शासक बन गया1

सम्राट् अजातशत्रु - यह एक बड़ा लालची तथा विजेता था। इसने सबसे पहले कोसल नरेश प्रसेनजित को पराजित किया। उसने अपनी पुत्री का विवाह सम्राट् अजातशत्रु से कर दिया तथा बहुत दहेज भी दिया। इसके बाद उसने काशी राज्य को भी जीत लिया। इसकी सबसे बड़ी विजय वैशाली राजधानी में बने कई स्वतन्त्र गणों के संगठन को हराने की थी जिसमें लिच्छवियों के कई गण भी शामिल थे। यह युद्ध 484 ई० पू० से 468 ई० पू० तक 16 वर्ष चलता रहा था। इस जीत के लिए उसने बड़ी चतुराई से काम लिया।

  1. उसने लिच्छवियों में फूट डालने के लिये अपने मन्त्री वसकारा को भेजा जो इस कार्य में सफल हुआ।
  2. लिच्छिवि राज्य मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह से दूर था। इसलिए उस ने गंगा के किनारे पाटलिपुत्र नवीन नगर की स्थापना की और वहां पर एक शक्तिशाली किला बनवाया जहां से लिच्छिवियों पर आसानी से आक्रमण हो सकता था।
  3. नए तथा उच्चतर शस्त्रों का प्रयोग किया। इस प्रकार अजातशत्रु को सफलता मिली।

इसके बाद अजातशत्रु ने अवन्ति के राजा को पराजित किया। इस तरह से सम्राट् अजातशत्रु ने मगध साम्राज्य को भारतवर्ष में सबसे बड़ा व सम्मानित राज्य बना दिया। अजातशत्रु ने बौद्धों की पहली महासभा अपनी राजधानी राजगृह में करवाई थी और यह बौद्ध-धर्म का अनुयायी बन गया था2

नन्द या नांदल जाटवंश

जैसा कि पिछले पृष्ठों पर लिख दिया है कि शिशुनागवंश का अन्तिम राजा महानन्दी था। विष्णु पुराण, द्वितीय खण्ड, चतुर्थ अंश में लिखा है कि “महानन्दी का पुत्र महापद्म नन्द शूद्रा के गर्भ से उत्पन्न हुआ। उसने बहुत क्षत्रियों का अन्त किया और बिना किसी बाधा के सम्पूर्ण पृथ्वी का


1, 2. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 58-59, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 149-152; जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 256 व 305 लेखक बी० एस० दहिया।


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शासक बना।” इन्हीं पुराणों के हवाले से कई इतिहासकारों ने इसे आर्य जाति में सर्वप्रथम शूद्र राजा लिखा है। यह मगध साम्राज्य का शासक बना और एक चक्रवर्ती सम्राट् कहलाया। यह वंश नन्दवंश कहलाया जिसका संस्थापक महापद्म नन्द था।

राजा महापद्म नन्द को शूद्र लिखने वाली पुराणों तथा अन्य इतिहासकारों की बात मनगढंत, कपोलकल्पित तथा असत्य है। क्योंकि यह शिशुनागवंशज है जोकि चन्द्रवंशी परम्परा में कुरु जाटवंश की प्रणाली में है। दूसरी बात इसके पूर्वज शिशुनाग वंश के प्रसिद्ध सम्राट् बिम्बसार एवं उसका पुत्र अजातशत्रु बौद्ध-धर्म के अनुयायी बन गये थे जिससे नवीन हिन्दूधर्म के ब्राह्मणों (पौराणिकों) को यह बात खटकी, क्योंकि वे तो बौद्धधर्म के शत्रु थे और उसे मिटाना चाहते थे। सो, इन पौराणिकों ने उन क्षत्रिय आर्यों को शूद्र, व्रात्य, अनार्य, पतित तथा नास्तिक, म्लेच्छ आदि कहा तथा लिख दिया, जो कि इनके दास नहीं बने। यह बातें हमने पिछले अध्यायों में विस्तार से लिखी हैं। सो यह बात सत्य है कि यह नन्द या नांदल बिना-सन्देह क्षत्रिय आर्य जाटवंश है जोकि कुरु जाटवंश का नन्द या नांदल नाम से शाखा जाटगोत्र है। इसी तरह से जाटों के 2500 गोत्र हमने लिखे हैं वे सब क्षत्रिय आर्यवंशज हैं जब कि उनमें से एक भी शूद्र गोत्र नहीं है।

महापद्म नन्द ने इक्षवाकु, कुरु, पांचाल, कौशल, मैथिल, अस्मक (अश्मक), शूरसेन आदि जनपद राज्यों का अस्तित्व मिटा दिया।

महापद्म नन्द के पण्डुक, पण्डुगति, भूतपाल, राष्ट्रपाल, गोविशांक, दशसिद्धक, कैवर्त और धनानन्द नामक 8 पुत्र थे। इन्होंने अपने पिता के 22 वर्ष बाद 12 वर्ष तक शासन किया। यह पिछले पृष्ठों पर, विष्णु पुराण के हवाले से लिख दिया है कि महापद्म नन्द और उसके पुत्रों का मगध साम्राज्य पर 100 वर्ष तक शासन रहेगा। इन्हीं पिता पुत्रों के इस साम्राज्य को नवनन्दों के नाम पर प्रसिद्धि मिली।

सम्राट् सिकन्दर के भारतवर्ष पर आक्रमण के समय सम्राट् महापद्म नन्द मगध साम्राज्य पर शासन कर रहा था। यूनानी लेखकों के अनुसार इसकी सेना में 2 लाख पैदल सेना, 20 हजार घुड़सवार, 2 हजार रथ और 4 हजार हाथी थे। इसके पास धन की कमी नहीं थी। कथासरित्सागर और मुद्राराक्षस के अनुसार नन्दों को 9-9 करोड़ मुद्राओं का अधीश्वर लिखा है। मगध की इस शक्ति को देखकर यूनानी सेना ने व्यास नदी पार करने का साहस छोड़ दिया और सिकन्दर को वहां से वापस लौटना पड़ा।

इस नन्दवंश के कठोर व्यवहार और अन्याय से जनता असन्तुष्ट रही। इस वंश का अन्तिम राजा धनानन्द था। परिणामस्वरूप आचार्य चाणक्य विष्णुगुप्त कौटिल्य ने कुटिल नीति के बल से लगभग 321 ई० पू० में इस राजा धनानन्द का विनाश करके आर्यसम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य या मौर जाट को मगध का शासक बनाया। इस तरह से मगध पर मौर्य या मौर शासन की नींव रखी।

नन्दवंश नांदल जाटवंश है इसके प्रमाण -

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 256 पर, बी० एस० दहिया ने लिखा है कि “यह कहना उचित है कि मौर्य शासन से पहले जो नन्द जाट थे वे आज नांदल/नांदेर जाट कहलाते हैं।” आगे वही लेखक पृ० 305 पर लिखते हैं कि “नांदल जाटों ने भारतवर्ष में जो साम्राज्य स्थापित किया वह


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नन्द मगध साम्राज्य कहलाया1।”

नांदल गोत्र के जाटों का निवास आज भी भारतवर्ष में है।

इस गोत्र के जाटों के गांव निम्नलिखित हैं -

1. जिला रोहतक में गांव बोहर तथा इसी के निकट गढ़ी है जिसे बोहर गढ़ी कहते हैं। इस गोत्र के अन्य सभी गांवों का निकास इसी बोहर गांव से है।

2. जिला रोहतक में नन्दल गांव आधा 3. रिठाल गांव का एक ठौला 4. महराना गांव आधा, 5. जटवाड़ा में 50 घर 6. चीमनी में 50 घर हैं।

7. जिला सोनीपत में ज्यासीपुर गांव आधा, डाहर जिला करनाल में भी कुछ गांव हैं जैसे - 8. जाटिल 9. मंढाणा कलां 10. मंढाणा खुर्द आदि। जिला बुलन्दशहर तहसील खुर्जा (उ० प्र०) में इस गोत्र के 12 गांव पास-पास मिलकर बसे हुए हैं। जिनके नाम – भुन्ना, गोहनी, रकराना, शाहपुर, धर्मपुर, छिछरौली, रामगढ़ी, नोरंगा, हबीपुर, फिरोजपुर, भूतगढी, जलोखरी। यू० पी० में बोहर गांव से जाकर बसने के कारण वहां ये नांदल जाट, बोहरिये कहलाते हैं।

बोहर गांव का अति प्रसिद्ध नांदल जाट -

द्वितीय महायुद्ध के समय मैंने दिल्ली के लाल किले में एक बड़ा पत्थर रखा हुआ देखा था। उस पर यह लेख खुदा हुआ था कि “बोहर गांव में एक कुआं खोदते समय यह भारी पत्थर उस कुएँ से अकेले एक बोहर गांव के जाट ने बाहिर निकाला था।” उस पर उस जाट का नाम भी था परन्तु मुझे खेद है कि मैं उस पहलवान व्यक्ति का नाम भूल गया हूं।

अनुमान है कि उस पत्थर का वजन लगभग 10 मन था। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद वह पत्थर वहां से हटा दिया गया। मैंन हाल में ही लाल किले में जाकर उस पत्थर को खोजने का प्रयत्न किया किन्तु नहीं मिला। (लेखक)

नोट-
महाभारत युद्ध से पूर्व जब महाराज श्रीकृष्ण जी जाटवंशों के साथ व्रज से द्वारिका गये, उस समय केवल व्रज में ही जो कि 84 कोस में सीमित है, 9 नन्दवंश के, 7 वृष्णि वंश के और 2 शूर वंश के राज्य थे। इनके अतिरिक्त अन्धक, नव, कारपश्व भी इसी 84 कोस के भीतर राज्य करते थे। ये सब जाटवंशज हैं। (ठाकुर देशराज जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 85-87)।

इसके बाद का नन्द या नांदल जाटों के इतिहास का तथा सम्राट् महापद्म नन्द से पहले का कुछ ब्यौरा प्राप्त नहीं हो सका।

मगध साम्राज्य पर मौर्य-मौर वंशज जाट नरेशों का शासन

(322 वर्ष ई० पू० से 184 ई० पू० तक = 138 वर्ष)

मौर्य या मौर चन्द्रवंशी जाटों का शासन महाभारतकाल में हरयाणा में रोहतक तथा इसके


1, 2. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 58-59, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 149-152 तक; जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 256 व 305 लेखक बी० एस० दहिया।


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चारों ओर क्षेत्र पर था। इन लोगों का शासन तुर्किस्तान के खोतन आदि अनेक प्रदेशों पर था। मौर जाटों का राज्य लेरुसरज़ब और अरारट (तुर्की में) के पहाड़ी क्षेत्रों पर था। यहां से इन जाटों ने 2200 वर्ष ई० पू० [Egypt|मिश्र]] पर आक्रमण किया था। महात्मा बुद्ध के समय मौर्य जाटों का गणतन्त्र शासन पिप्पलीवन में था।

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने मौर या मौर्य के विषय में लिखा है कि यह क्षत्रिय जाटवंश है तथा मौर जाट पहले का नाम है, फिर मौर से मौर्य नाम पड़ा। इसके उदाहरण -

  1. व्याकरण के अनुसार मौर शब्द से मौर्य शब्द बना है अतः मौर शब्द पहले का है, फिर इसको मौर्य कहा गया। यह कहना उचित है कि यूनानी लेखकों ने मौर या मौरीज़ शब्द इनके लिए लिखा है। (Invasion, p 108, 225)।
  2. इसके लिए ठोस प्रमाण है कि सम्राट् अशोक ने शिलालेख नं० 1 पर स्वयं को मौर शब्द लिखवाया है किन्तु मौर्य नहीं। यह साफ है कि मौर एक वंश का नाम है जो अशोका वंश था।
  3. यूनानियों की इस बात से कि मौर को मौर्य कहा गया, आर० के० मुखर्जी (Chandergupta and his times, p. 24), नीलकांत शास्त्री (o.p. cit. P 142. note I), और अन्य भी सहमत हैं।
  4. इस शब्द को सम्पूर्ण जम्बूद्वीप में मौर नाम से जाना जाता था और सम्राट् अशोक को मौर राजा कहते थे। (S 1 H & c, p. 71) यह मौर जाटवंश है जो आज भी विद्यमान है। ये लोग जब यूरोप और इंगलैण्ड गये, वहां भी इनको मौर कहा गया (पृ० 142-143)।
  5. भारतवर्ष में भी इस बात के प्रमाण हैं कि मौर या मौर्य जाट या गुट कहलाते थे। कई लेखों में चन्द्रगुप्त मौर्य को चन्द्र गुट लिखा है| (Mahavamsa, v, 16-17 and Vamsatthappakasini, I, P. 180)। कई विशेष मुहरों पर भी गुट शब्द था। कई खास शिलालेखों पर भी गुटीपुत्र लिखा है जिसका अर्थ गोट, गुट, जाट का पुत्र है। (Corpus Inscriptionum Indicarum, vol iii, P. 51) (169 नोट v)।

सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य-मौर का मगध साम्राज्य पर शासन

(322 वर्ष ई० पू० से 298 ई० पू० तक = 24 वर्ष)

सम्राट् सिकन्दर महान् ने 331 ई० पू० ईरान के सम्राट् दारा को जीतकर भारत की ओर कूच किया। 326 ई० पू० में वह काबुल घाटी में पहुंच गया। इस समय उत्तरी भारतवर्ष, पंजाब, गान्धार, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान में जाटवंशों के अनेक राज्य थे जिन्होंने यूनानी सेना से पग-पग पर कड़ा लोहा लिया। पंजाब में बहुत से छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें सबसे शक्तिशाली पुरु जाट गोत्र का राजा पुरु-पोरस था। सिकन्दर की सेना बड़ी कठिनाई से व्यास नदी तक पहुंच सकी। यहां से यूनानी सैनिकों ने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया। इसका कारण यह था कि व्यास से आगे शक्तिशाली यौधेय गोत्र के जाटों के गणराज्य थे। ये लोग एक विशाल प्रदेश के स्वामी थे। पूर्व में सहारनपुर से लेकर पश्चिम में बहावलपुर तक और उत्तर-पश्चिम में लुधियाना से लेकर दक्षिण-पूर्व


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में दिल्ली, मथुरा, आगरा तक इनका राज्य फैला हुआ था। ये लोग अत्यन्त वीर और युद्धप्रिय थे जो अजेय थे तथा रणक्षेत्र से पीछे हटनेवाले नहीं थे।

इनके राज्य के पूर्व में नन्द या नान्दल सम्राट् महापद्म नन्द का मगध साम्राज्य पर बड़ा शक्तिशाली शासन था, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इन वीर जाटों की शक्ति से डरकर सिकन्दर की सेना साहस छोड़ गई और व्यास नदी से ही वापिस लौट गई। (अधिक जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, सिकन्दर और जाट प्रकरण)।

सिकन्दर की मृत्यु के बाद उत्तर-पश्चिमी भारत में यूनानियों के विरुद्ध असन्तोष फैल गया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने चाणक्य की सहायता से उत्तर-पश्चिमी भारत के कई राजाओं से सन्धि की और बड़ी सेना इकट्ठी करके यूनानियों को पंजाब से बाहर निकाल दिया और विदेशी शासन का अन्त कर दिया। इसके बाद मगध साम्राज्य, जो उस समय का प्रसिद्ध और शक्तिशाली राज्य था, के अन्तिम नन्दवंश के राजा धनानन्द को 321 ई० पू० में पराजित करके पाटलिपुत्र राजधानी पर अधिकार कर लिया। इस तरह से सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य मगध साम्राज्य का शासक बना और मगध पर मौर्य-मौर शासन की नींव रखी।

चन्द्रगुप्त मौर्य का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक, पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत तक तथा पश्चिम में अरब सागर तक फैला हुआ था। इस विशाल साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। इस मौर्य राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभक्त किया गया था। प्रान्त के सबसे बड़े अधिकारी को आर्यपुत्र या उपराजा कहा जाता था। चार मुख्य प्रान्त ये थे -

  1. उत्तर-पश्चिमी (उत्तरापथ) प्रान्त, जिसकी राजधानी तक्षशिला थी।
  2. पूर्व (प्राच्य) प्रान्त, जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।
  3. दक्षिणी (दक्षिणापथ) प्रान्त, जिसकी राजधानी स्वर्णगिरि थी।
  4. पश्चिमी अवन्ति प्रान्त, जिसकी राजधानी उज्जैन थी।

चन्द्रगुप्त मौर्य भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली तथा प्रसिद्ध शासकों में से एक माना जाता है। वह भारत का पहला सम्राट् था जिसने छोटे-छोटे राज्यों को नष्ट करके समस्त भारत में एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। यह उसकी असाधारण बुद्धि तथा बल के कार्यों का ही परिणाम था। मैगस्थनीज़ तथा अन्य यूनानी लेखकों ने भी उनके शासन की बड़ी सराहना की है। डॉ० पी० एल० भार्गव के शब्दों में “वह निःसन्देह अपने समय का सबसे शक्तिशाली शासक था और राजाओं की श्रेणी में एक अति चमकदार नक्षत्र।” P.L. Bhargava; Chandragupta Maurya, P. 101)

सारांश यह है कि चन्द्रगुप्त मौर्य में एक महान् विजेता, योग्य राजनीतिज्ञ तथा उत्तम शासक के सभी गुण विद्यमान थे। डॉ० पी० एल० भार्गव ने उसकी तुलना सिकन्दर, अकबर तथा नेपोलियन से की है और लिखा है कि कुछ बातों में तो वह इन तीनों महान् शासकों से भी आगे थे। उसने शक्तिशाली मौर्य साम्राज्य की नींव रखी जो अशोक के शासनकाल में और भी अधिक उन्नत हुआ।


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चाहे मौर्य साम्राज्य का सबसे महान् शासक अशोक था, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि उसकी महत्ता के लिए उसका दादा चन्द्रगुप्त काफी हद तक जिम्मेदार था। अतः चन्द्रगुप्त को अशोक का अग्रगामी (अगुआ) कहना बिल्कुल उचित होगा। इस महान् सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य की 298 ई० पू० में मृत्यु हो गई।

बिन्दुसार

(298 वर्ष ई० पू० से 263 ई० पू० तक = 25 वर्ष)

चन्द्रगुप्त मौर्य के पश्चात् उसका बेटा बिन्दुसार 298 ई० पू० में मगध साम्राज्य के राजसिंहासन पर बैठा। बिन्दुसार के समय तक्षशिला में विद्रोह हो गया। उस समय वहां का गवर्नर बिन्दुसार का ज्येष्ठ पुत्र सुसीम था। वह इस विद्रोह को दबाने में असफल रहा। बिन्दुसार ने अपने एक अन्य पुत्र अशोक को, जो कि उस समय उज्जैन का गवर्नर था, तक्षशिला में भेज दिया। अशोक वहां पर शांति स्थापित करने में सफल हुआ। 273 वर्ष ई० पू० में बिन्दुसार की मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् उसका पुत्र अशोक राजसिंहासन पर बैठा जो कि मौर्य वंश का सबसे महान् सम्राट् सिद्ध हुआ।

सम्राट् अशोक महान्

(273 वर्ष ई० पू० से 232 ई० पू० तक = 41 वर्ष)

सम्राट् अशोक महान् 273 ई० पू० में अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् मगध साम्राज्य के राजसिंहासन पर बैठा। अपने दादा व पिता के विशाल राज्य के अतिरिक्त उसने केवल कलिंग (उड़ीसा) को विजय किया। इस युद्ध में लाखों मनुष्यों की हत्या होने का अशोक पर गहरा असर पड़ा। जिससे उसने भविष्य में युद्ध न करने की प्रतिज्ञा की और बौद्ध-धर्म का अनुयायी बनकर अहिंसा परमो धर्मः का दृढ़ता से पालन किया। इसने बौद्ध-धर्म को भारत तथा लगभग सारे एशिया में फैलाया जिसमें इसके पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का भी बड़ा योगदान था। इसी कारण सम्राट् अशोक को धार्मिक सम्राट् की दृष्टि से संसार में सबसे महान् सम्राट् माना गया है।

सम्राट् अशोक के साम्राज्य में लगभग सारा भारतवर्ष, अफगानिस्तान, बलोचिस्तान, कलिंग प्रान्त जिसकी राजधानी तोशाली थी, नेपाल और कश्मीर शामिल थे। उसने इस विशाल साम्राज्य में उच्चकोटि का शासन प्रबन्ध स्थापित किया। प्रजा की भलाई के लिए असाधारण कार्य किये। युद्ध नीति को त्यागकर शान्ति की नीति को अपनाया। लोगों के आगामी जीवन को सुधारने के लिए धर्मप्रचार किया। इसने अनेक स्तम्भ, शिलालेख तथा स्तूप बनवाये जिसमें सांची, भरहुत तथा सारनाथ के स्तूप सबसे प्रसिद्ध हैं। इन सब पर धर्म के मुख्य सिद्धान्त लिखाये।

251 ई० में अशोक ने पाटलिपुत्र में बौद्धों की तीसरी सभा बुलाई जो कि 9 महीनों तक चलती रही थी। इसका सभापति मोग्गलिपुत्त तिस्म था।

डॉ० आर० के० मुखर्जी के शब्दों में “अशोक एक आदर्श जनसेवक था जो अपने सभी कर्मचारियों से अधिक परिश्रमी था।” प्रजा को वह अपने पुत्र समान समझता था। वह कलिंग लेख II में स्वयं लिखता है कि “सभी मनुष्य मेरी सन्तान हैं और जिस प्रकार मैं अपनी सन्तान की प्रसन्नता की कामना करता हूं उसी तरह अपनी जनता की भी करता हूँ।” सम्राट् अशोक की 232 ई० पू० में मृत्यु हो गई।


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इस शक्तिशाली मौर्य-मौर साम्राज्य के पतन के कारण

विष्णु पुराण के अनुसार अशोक के पुत्रों के नाम - 1. सुयशा 2. दशरथ 3. संयुक्त 4. शालिशूक 5. सोम शर्मा 6. शतधन्वा 7. बृहद्रथ थे।

अशोक के ये उत्तराधिकारी दुर्बल थे जो इतने विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असमर्थ थे। जब उत्तर-पश्चिमी भागों पर विदेशियों का अधिकार होने लगा तब भारत के अन्य भागों में भी विद्रोह हो गया। दक्षिण में आन्ध्र (जाटवंश) तथा दक्षिण-पूर्व में चेदि (जाटवंश) के लोगों ने विद्रोह कर दिया।

जब मौर्य राज्य का शासक बृहद्रथ मौर्य था तो उसके एक ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने 184 वर्ष ई० पू० में अपने मालिक सम्राट् बृहद्रथ का वध कर दिया और साम्राज्य केन्द्रीय प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लिया। इस प्रकार भारत के इस मौर्य साम्राज्य का अन्त हो गया।

मौर्यवंश का शासन मगध राजधानी पाटलिपुत्र पर से समाप्त हो गया परन्तु उसी समय इस मौर्य वंश का राज्य चित्तौड़ पर और इसे वंश की शाखा का शासन सिन्ध प्रदेश पर रहा। चित्तौड़ पर मौर्यवंश का अन्तिम राजा मान था। उसी के धेवते बल जाटवंशज वाप्पा रावल ने भीलों की मदद से धोखा देकर उसे मार दिया और स्वयं चित्तौड़ का शासक बन गया। इसने यहां पर गोहिलवंश के नाम पर राज्य स्थापित किया। यह गोहिल और सिसौदिया वंश दोनों बल या बालियान के शाखा गोत्र हैं। इस तरह से चित्तौड़ पर मौर्यवंश का शासन लगभग 900 वर्ष रहा। राजस्थान में कई स्थानों पर इस के बाद भी रहा।

सिन्ध पर रायवंश का शासन 185 ई० पू० से सन् 645 ई० तक लगभग 830 वर्ष रहा। इस वंश से यह शासन, साहसीराय द्वितीय को उसी के एक ड्यौढ़ीवान चच्च ब्राह्मण ने षड्यन्त्र से मरवाकर, स्वयं ले लिया।

इस मौर्यवंश की एक शाखा खोबे मौर्य भी है। मेवाड़ के खोबेराव मौर्य वीर व्यक्ति के नाम पर यह एक पृथक् खोबे मौर्य नाम पर शाखा प्रचलित हुई। मौर्यवंश का चित्तौड़ राज्य मे अन्त होने पर इन मौर्यों के एक दल ने खोबेराव मौर्य के नेतृत्व में वहां से चलकर उ० प्र० में गंगा नदी के पार विजयनगर गढ़ को भारशिव जाटों से जीत लिया। (इनके विषय में पूरी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, मौर-मौर्यवंश, प्रकरण)

मगध साम्राज्य पर ब्राह्मण शुङ्गवंश का शासन

(184 वर्ष ई० पू० से 72 ई० पू० तक = 112 वर्ष)

मौर्यवंश के अन्तिम राजा बृहद्रथ को उसी एक सेनापति एक ब्राह्मण पुष्यमित्र शुङ्गवंशज ने 184 ई० पू० में मार दिया और स्वयं मगध साम्राज्य का शासक बन गया। उस समय मगध साम्राज्य की सीमाएं छोटी हो गईं थीं। पुष्यमित्र के राज्य में अयोध्या, विदिशा, विदर्भ, भरहुत, जालन्धर और शाकल (सियालकोट) तक के बड़े नगर थे। इस सम्राट् ने बौद्धधर्म को मिटाने के लिए एक अश्वमेध यज्ञ किया। ब्राह्मणविरोधी बौद्ध मत अनुयायियों का वध किया एवं उनके मठों का ध्वंस कर दिया। इस राजा ने अपने शत्रुओं से कई युद्ध किए।


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कलिंग राजा खारवेल ने राजगृह के राजा बृहस्पतिमित्र को हराकर पुष्यमित्र की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर दिया। वहां से लूटमार की, परन्तु युद्ध में हारकर वापिस लौट आया।

यूनानियों ने अपने नेता [मीनण्डर] के नेतृत्व में 155 ई० पू० में भारत पर आक्रमण कर दिया। उसने मथुरा, पांचाल आदि को जीत लिया और पाटलिपुत्र तक आ पहुंचा। परन्तु पुष्यमित्र के पोते वसुमित्र ने यूनानियों को करारी हार दी और अपने शुङ्गवंश साम्राज्य से वापिस भगा दिया।

विदर्भ (बरार) का राजा यज्ञसेन स्वतन्त्र हो गया। उसको पुष्यमित्र के बड़े पुत्र अग्निमित्र ने विदर्भ पर आक्रमण करके पराजित कर दिया और विदर्भ को अपने साम्राज्य के अधीन कर लिया।

भारत के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों पर यूनानियों का अधिकार हो चुका था। दक्षिण प्रान्तों पर आन्ध्र वंश (जाटवंश) का शासन हो गया था।

पुष्यमित्र ने 36 वर्ष शासन किया। यह इस वंश का सबसे शक्तिशाली सम्राट् था। इसने ब्राह्मण धर्म को बड़ी उन्नति दी। अग्निमित्र ने 8 वर्ष राज्य किया। फिर यह राज्य दुर्बल हो गया। इस शुङ्गवंश के 10 राजा हुये जिनका 112 वर्ष राज्य रहा। 1. पुष्यमित्र 2. अग्निमित्र 3. वसुज्येष्ठ 4. वसुमित्र 5. अन्धक 6. पुलिन्दक 7. घोसवसु 8. वज्रमित्र 9. भागवत 10. देवभूति। देवभूति को उसी के मन्त्री कण्ववंशज ब्राह्मण वसुदेव ने मरवा दिया और स्वयं शासक बन बैठा। यह घटना 72 ई० पू० की है1

मगध साम्राज्य पर ब्राह्मण कण्व वंश का शासन

(72 वर्ष ई० पू० से 27 ई० पू० तक = 45 वर्ष)

इस कण्व ब्राह्मण वंश की मगध राज्य पर वसुदेव ने स्थापना की। इस वंश के केवल चार शासक हुये जिनका केवल 45 वर्ष शासन रहा।

1. वसुदेव 2. भूमि 3. नारायण 4. सुशर्मा। इनका अधिकार बहुत सीमित प्रदेशों पर था। ये कोई प्रसिद्ध शासक नहीं थे2। इस वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा को आन्ध्र जाट राजाओं ने 28 ई० पू० में मारकर मगध पर अपना अधिकार कर लिया।

सम्राट् विक्रमादित्य (महाराज गंधर्वसेन के पुत्र) -

यह सम्राट् विक्रमादित्य (विक्रम भी कह देते हैं) इसी शुङ्गवंश एवं कण्ववंश के समय के सुप्रसिद्ध सम्राट् थे जिनके नाम पर विक्रम सम्वत् प्रचलित हुआ था जिसको भारतवासी आदरपूर्वक स्मरण करते आ रहे हैं और करते रहेंगे। यह मल्ल या मालव जाटवंश के क्षत्रिय थे जो कि उज्जैन राजधानी पर मालवा के शासक थे। यह बड़े प्रतापी, न्यायकारी, वीर, दानी और दयालु राजा थे। साधारण वेश में प्रजा के बीच रहकर सच्चाई जानना और अपराधी को दयापूर्वक और न्यायोचित


1, 2. आधार पुस्तकें - तारीख हिन्दुस्तान उर्दू पृ० 235-239; जाटों का उत्कर्ष पृ० 66-67, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत का इतिहास, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी, पृ० 64-65 ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-484


दण्ड देना इनके राज्य प्रबन्ध के विषय में सुन्दर परिचय देता है। इनके बड़े भाई भर्तृहरि ने अपनी पिंगला रानी के चरित्रहीन होने पर वैराग्य धारण कर लिया था। इनके राज्य त्यागने पर ही इनके भाई विक्रमादित्य ने उनका शासन सम्भला था। इस सम्राट् ने 57 वर्ष ई० पू० में शक्तिशाली शकों का मालव (मालवा) से समूल नाश करने के महान् उपलक्ष्य में विक्रम सम्वत् चलाया। इस सम्वत् से 15 वर्ष पहले शुङ्गवंश का अन्त हो गया था।

इस सम्राट् के पूर्व पुरुषाओं तथा उत्तराधिकारियों में से कोई भी प्रबल प्रतापी नहीं हुआ इसीलिए इतिहास में उनकी कोई गणना नहीं। इस वंश के मल्ल या मालव जाट उज्जैन के चारों ओर आज भी विद्यमान हैं।

इस सम्राट् की राज्य परिषद् में कालिदास जैसे महान् कवि थे। इसने कालिदास कवि को कश्मीर का शासक बना दिया था। उसके स्वर्गवास होने पर सम्राट् विक्रमादित्य ने भी संन्यास धारण कर लिया था1

हमने पिछले पृष्ठों पर विष्णु पुराण अंग्रेजी लिखित एच० एच० विल्सन के अनुसार लिख दिया है कि उपर्युक्त वंशों के शासन के पश्चात् जाटवंशीय नरेशों का राज्य हुआ। 7 अभीर, 10 खैर, 16 शक (कंग), 8 यवन, 14 तुषार (तुसीर-तुखार), 13 मुण्ड (मांडा) 11 मौन (मान)। इन सब 79 जाट नरेशों का 1390 वर्ष तक भारत में शासन रहा। इनमें मान नरेशों का 300 वर्ष राज्य रहा। इनके बाद 11 पौरव (पुरु) राजाओं का 300 वर्ष पृथ्वी पर शासन रहा। बी० एस० दहिया ने भी बिल्कुल ऐसा ही लिखा है और इन सबको जाट नरेश लिखा है। परन्तु हमको खेद है कि इन वंशों के राजाओं के नाम, उनका शासनकाल व स्थान का ब्यौरा प्राप्त नहीं हो सका जो कि एक खोज का विषय है।

आन्ध्र जाटवंश का मगध तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशों पर शासन

आन्ध्र वंश की उत्पत्ति वैदिककाल से है जो कि चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति की परम्परा में दीर्घतमा के पुत्र आन्ध्र के नाम से प्रचलित हुआ और क्षत्रिय जाटवंश है।

विष्णु पुराण के अनुसार इस वंश के 30 राजाओं ने भारत भूमि पर 456 वर्ष तक शासन किया। भिन्न-भिन्न पुराणों में इनके राजाओं की संख्या तथा उनके शासनकाल में मतभेद है। इस मतभेद का कारण आन्ध्र राजाओं का विभिन्न स्थानों पर होना था।

मि० स्मिथ के अनुसार आन्ध्रों के तीन प्रकार के राज्य थे। “एक प्रजातन्त्री स्वतन्त्र, दूसरा मौर्यों के पराधीन परतन्त्र, तीसरा एकतन्त्री।”

सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के समय 30 बड़े परकोटे वाले नगर आन्ध्रों के थे। इनकी सेना में एक लाख पैदल और दो हजार घुड़सवार थे। इनकी राजधानी कृष्णा नदी के किनारे श्री काकुलंम थी। सम्राट् अशोक के बाद ये लोग फिर स्वतन्त्र हो गये थे।


1. जाटों का उत्कर्ष पृ० 67-68, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


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इनको स्वतन्त्रता दिलाने वाला वीर योद्धा सिमुक था। इस आन्ध्र वंश के 30 शासक हुए जिनका शासन 220 ई० पू० से सन् 225 ई० तक 445 वर्ष रहा। गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के क्षेत्र पर इनका स्वतन्त्र राज्य रहा। उत्तर में आन्ध्र जाट राजाओं ने 28 ई० पू० में कण्व ब्राह्मण वंश के अन्तिम राजा सुशर्मा जिसका शासन पाटलिपुत्र पर था, की हत्या करके मगध साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। इस तरह से आन्ध्र वंश के राजाओं का शासनकाल दो भागों में विभाजित किया जा सकता है -

(1) आदि शासन 220 वर्ष ई० पू० से 28 ई० पू० तक।
(2) बाद का शासन 28 वर्ष ई० पू० से सन् 225 ई० तक।

इस वंश के 30 राजाओं का शासन 445 वर्ष रहा, फिर सन् 225 ई० में समाप्त हो गया। आन्ध्रवंश को आन्ध्रभृत्य भी कहते हैं। इस वंश के शाखा गोत्र शातवाहन, शातकर्णी और बड़ियार हैं। इस आन्ध्रवंश का राज्य कश्मीर, पंजाब, सिन्ध, दक्षिणी भारत, विहार, उड़ीसा पर था। (पूरी जानकारी के लिए विस्तार से लेख देखो, तृतीय अध्याय, आन्ध्रवंश प्रकरण)।

भारतवर्ष पर विदेशी आक्रमणकारी

मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत के इतिहास में विदेशी जातियों का आना बहुत महत्त्व रखता है। ये जातियां मध्य एशिया की रहने वाली थीं। इनमें बैक्ट्रिया (बल्ख) के यूनानी और शक और कुषाण प्रमुख हैं। इनके बहुत समय बाद हूणों ने भी आक्रमण किये जो बाद में लिखे जायेंगे।

यवन अथवा यूनानी - सम्राट् सिकन्दर की मृत्यु के पश्चात् उसके साम्राज्य को उसके सेनापतियों ने आपस में बांट लिया। सैल्यूकस ने सीरिया, पार्थिया, बैक्ट्रिया तथा पश्चिमी भारत पर अपना अधिकार जमा लिया। कुछ समय बाद उसका साम्राज्य नष्ट होने लगा। 250 वर्ष ई० पू० में पार्थिया और बैक्ट्रिया राज्य स्वतन्त्र हो गये। इसी राज्य के शासकों ने मौर्य राज्य के पतन के पश्चात् भारत पर आक्रमण आरम्भ किए। सिकन्दर के बाद भारत में दूर-दूर तक हमले करने वाला बैक्ट्रिया का शासक डेमिट्रियस था। उत्तर-पश्चिम भारत की दुर्बलता और अव्यवस्था का लाभ उठाकर उसने अफगानिस्तान, पंजाब और सिन्ध के कुछ भागों पर लगभग 175 ई० पू० में अपना अधिकार कर लिया। परन्तु उसकी भारत विजय बहुत स्थायी नहीं रही।

इसी दौरान बैक्ट्रिया पर युक्राटायडस ने अपना अधिकार कर लिया और फिर भारत की ओर बढ़ा। उसने डेमिट्रियस से भारत का कुछ भाग भी छीन लिया।

इस तरह से भारत की सीमा पर दो अलग-अलग यूनानी खानदानों के राज्य स्थापित हो गये। एक खानदान (डेमिट्रियस) के पास पूर्वी पंजाब, सिंध, पश्चिमी पंजाब आदि का भाग जबकि दूसरे के पास बैक्ट्रिया, काबुल, कन्धार, गांधार और पश्चिमी पंजाब आदि के भाग थे। इन यूनानियों का शासन बहुत समय तक चलता रहा। इनमें केवल दो ही शासक प्रसिद्ध थे। (1) मिनाण्डर (2) एनटालकेडस।

मिनाण्डर - यह डेमिट्रियस के खानदान का था। डॉ० वन्सन्ट स्मिथ के अनुसार यह 160 ई० पू० से 140 ई० पू० तक शासक रहा। यह शुङ्गवंश के राजा पुष्यमित्र का समकालीन था। मिनाण्डर एक


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बड़ा विजेता शासक था जिसने व्यास नदी को पार करके गंगा और यमुना नदियों के मध्य क्षेत्रों को जीत लिया। इसके अतिरिक्त काठियावाड़ और भडोच को भी विजय कर लिया। इसने पाटलिपुत्र पर भी आक्रमण किया परन्तु वहां से इसे पुष्यमित्र ने वापिस धकेल दिया। इसके साम्राज्य में अफगानिस्तान, पंजाब, काठियावाड़, सिन्ध, राजपूताना और मथुरा तक के प्रदेश थे। इसकी राजधानी शाकल (सियालकोट) थी। यह बौद्ध-धर्म का अनुयायी था।

एनटालकेडस - यह टिक्रीटाईड्स के खानदान से था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसके बाद यह यूनानी राज्य दुर्बल हो गया। बाद के शासक दुर्बल थे। उन्होंने हिन्दू व बौद्ध-धर्म अपना लिया और सदा के लिए भारतीय हो गए। डा० वन्सन्ट स्मिथ के अनुसार 140 ई० पू० से 120 ई० पू० के लगभग कई विदेशियों (शकों) ने भारत पर आक्रमण किए और इन साम्राज्यों को समाप्त कर दिया। परन्तु छोटे-छोटे क्षेत्रों पर इन यूनानी सरदारों का राज्य फिर भी रहा जिसको बाद में कुषाण लोगों ने समाप्त कर दिया।

शक जाति (जाटवंश)

वैदिक सम्पत्ति पृ० 424 पर पुराणों के संकेत से स० पं० रघुनंदन शर्मा साहित्यभूषण ने लिखा है - अर्थात् वैवस्वतमनु के इक्षवाकु, नाभाग नृग, नरिष्यन्त आदि दस पुत्र हुए (विष्णु पुराण, चतुर्थ अंश, अध्याय 1, श्लोक 7)। हरिवंश अध्याय 10, श्लोक 28 में लिखा है कि नरिष्यन्त के पुत्रों का ही नाम शक है। इनकी प्रसिद्धि से इनके नाम पर क्षत्रिय आर्यों का संघ शक वंश कहलाया जो कि एक जाट वंश है। सम्राट् सगर ने अपने पिता बाहु की हार का बदला शत्रुओं को हराकर इस तरह से लिया कि उसने क्षत्रिय आर्य शकों, पारदों, यवनों और पल्हवों को अपने देश से निकाल दिया। शक लोगों ने आर्यावर्त से बाहर जाकर अपने नाम से शक देश आबाद किया जो कि शकावस्था कहलाया जिसका अपभ्रंश सीथिया पड़ गया। इन शक लोगों का राज्य रामायणकाल, महाभारतकाल तथा उसके बाद के युग में भी रहा। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय व चतुर्थ अध्याय में शक प्रकरण)।

नोट - जाट जाति शकों, हूणों, कुषाणों आदि की औलाद नहीं है बल्कि ये अलग-अलग एक-एक जाटगोत्र हैं जैसा कि 2500 जाटगोत्र और हैं।

शक जाटों का राज्य मध्य एशिया के बड़े क्षेत्रों पर रहा था परन्तु इनकी शक्ति कम होती गई। अन्त में इन लोगों के अधिकार में बैक्ट्रिया और पार्थिया रह गए। इन लोगों ने वहां से भारत की ओर बढ़ना आरम्भ किया। धीरे-धीरे इन्होंने पश्चिमी भारत में अपने राज्य की स्थापना की। भारत में पहले शक सम्राट् मोअईज ने लगभग 80 वर्ष ई० पू० में गान्धार को जीता और तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। एक अन्य सम्राट् गोर्डोफनीज था जिसने पंजाब और सिन्ध में शक राज्य को बलशाली बनाया। कहा जाता है कि ईसाई सन्त टामस उसको ईसाई बनाने के लिए उसके राज दरबार में आया था। यह घटना सन् पहली शताब्दी ईस्वी की है।

शकों ने सिन्ध, गुजरात, महाराष्ट्र, मालवा उज्जैन, मथुरा और पूर्वी पंजाब आदि प्रदेशों में अपने राज्य की स्थापना की। नासिक का सबसे पहला शक राजा भूमक था। इसके खानदान में सबसे


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शक्तिशाली सम्राट् नहपान था। उसने आन्ध्रवंश की शाखा शातवाहन से महाराष्ट्र और मालवा प्रदेशों को छीन लिया था। इसने सन् 119 ई० से 124 ई० तक शासन किया परन्तु आन्ध्रवंश के प्रसिद्ध सम्राट् श्री गोतमीपुत्र सतकर्णि ने इस नहपान राजा को पराजित किया और शक लोगों को काफी हानि पहुंचाई। शक राज्यों में सबसे प्रसिद्ध उज्जैन राज्य था जिसकी नींव सम्राट् चषान ने रखी थी। उसने सन् 78-100 ई० तक 22 वर्ष तक शासन किया और उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया। इस खानदान के 10 शासक हुए जिनमें सबसे प्रसिद्ध शक सम्राट् रुद्रदामन हुआ। इसने सन् 120 ई० से 150 ई० तक 30 वर्ष शासन किया। इसने गोतमीपुत्र सतकर्णि के समय खोया हुआ प्रान्त आन्ध्र राजा पल्माई से छीन लिया और अपनी पुत्री का विवाह पल्माई से करके मित्रता कर ली। इस शक सम्राट् रुद्रदामन का साम्राज्य बहुत बड़ा था जिसमें सिन्ध, पूर्वी पंजाब, मारवाड़, मालवा, काठियावाड़ और सौराष्ट्र शामिल थे। उसके जूनागढ़ शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने मौर्यकाल में बनवाई हुई पश्चिम भारत में सुदर्शन झील की मुरम्मत करवाई थी। बाद में कुषाण जाति ने शकों को उत्तर भारत से धकेल कर दक्षिण-पश्चिम में मालवा, गुजरात और काठियावाड़ के प्रदेशों में जाने के लिए विवश किया।

रुद्रदामन के बाद इस वंश के 17 शासक हुए परन्तु वे दुर्बल थे। उनके समय शासन इतना कमजोर हो गया कि यहां के प्रदेशों से भी शक राज्य को चौथी शताब्दी में गुप्त शासकों ने समाप्त कर दिया।

कुषाणवंशज जाटराज्य (सन् 40 ई० से 220 ई० तक)

इस कुषाण साम्राज्य की स्थापना कुषाण राजा कुजुल कफस कदफिसस ने सन् 40 ई० में मध्य-एशिया में की और उसने बैक्ट्रिया को अपनी राजधानी बनाया। इसका शासन 40 ई० से 78 ई० तक रहा। इसकी मृत्यु के बाद इसका पुत्र विम कदफिसस द्वितीय सन् 78 ई० से 110 ई० तक इस साम्राज्य का शासक रहा। इस सम्राट् का शासन मध्य एशिया एवं भारतवर्ष के कई प्रान्तों पर था।

इसके बाद महान् सम्राट् कनिष्क सन् 120 ई० से 162 ई० तक कुषाण साम्राज्य का शासक रहा। इसने कुषाण साम्राज्य को दूर-दूर तक फैलाया। इस महान् सम्राट् कनिष्क के बाद उसका पुत्र वासिष्क गद्दी पर बैठा और उसके पश्चात् कनिष्क का छोटा पुत्र हुविष्क सन् 162 से 182 ई० तक कुषाण साम्राज्य का शासक रहा। हुविष्क की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वासुदेव गद्दी पर बैठा। वासुदेव के उत्तराधिकारी बड़े दुर्बल थे जो कि इस विशाल साम्राज्य को सम्भालने में असफल रहे। अतः भारत से कुषाण साम्राज्य का सन् 220 ई० में अन्त हो गया। मध्य एशिया से कुषाणों का शासन चौथी शताब्दी में और अफगानिस्तान और पश्चिमी गांधार से पांचवीं सदी में हूणों ने जीत लिया। (पूरी जानकारी के लिए देखो, चतुर्थ अध्याय, कुषाणवंशज-जाटराज्य, प्रकरण)।

भिवानी क्षेत्र पर कुषाणों तथा अन्य जाटों के शासन का कुछ विशेष ब्यौरा -

भिवानी जिले के मीत्ताथल गांव में की गई खुदाइयों से पता चला कि इस गांव की बनावट,


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वास्तु-कला और शिल्पकला के नमूने पूर्व हड़प्पा सभ्यता से मिलते हैं। प्रथम बार यह स्थान उस समय रोशनी में आया जब 1913 ई० में वहां से समुद्रगुप्त (धारण गोत्र का जाट) सम्राट् के समय के सिक्कों का बड़ा भंडार मिला।

महाभारत से इस बात का प्रमाण मिलता है कि इस जिले में पांडवों का भी पदार्पण हुआ। नकुल ने अपनी दिग्विजय के दौरान यहां के लोगों का मुकाबला किय और उस पर विजय पाकर शासन भी किया। तोशाम की पहाड़ी भी इस बात की साक्षी है कि पांडव इस स्थान से जुड़े रहे। इस पहाड़ी पर सूर्यकुण्ड, व्यासकुण्ड, पाण्डुतीर्थ तथा अन्य कई पवित्रस्थान बने हैं और यह विश्वास किया जाता है कि यह स्थान पाण्डवों के समय में एक तपोभूमि था, जहां साधु लोग घोर तपस्या किया करते थे। यही तोशाम पृथ्वीराज चौहान के समय में दिल्ली का एक हिस्सा भी रहा। महाभारत युद्ध के बाद यह जिला कुरुराज्य (जाटवंश) का एइ हिस्सा बना। कुरुराज्य तीन सीमाओं में बंटा था - 1. कुरुक्षेत्र 2. कुरुदेश 3. कुरुजंगल।

भिवानी क्षेत्र कुरुजंगल का हिस्सा बना और इस क्षेत्र पर पहले राजा परीक्षित और उनके बाद उनके पुत्र जनमेजय ने प्रभावशाली ढ़ंग से शासन किया। कुरु शासन के पतन के साथ इस क्षेत्र में कई जातियां जैसे जाट अहीर, भदनाकस तथा यौधेय (जाटवंश) आकर बस गईं। ये जातियां काफी ताकतवर, सुदृढ़ और शक्तिशाली थीं तथा उनका मुख्य धन्धा खेतीबाड़ी ही रहा।

इस क्षेत्र में मौर्य-मोर (जाटवंश) राजाओं का शासन होने का भी आभास होता है। तोशाम तथा नौरंगाबाद की खुदाई से मिले सिक्कों से पुरातत्त्वज्ञों ने यह पाया है कि यह क्षेत्र मौर्य शासन में व्यापार का केन्द्र रहा। नौरंगाबाद से मिले इण्डो-ग्रीक सिक्कों से इण्डो-ग्रीक के शासन होने के भी चिन्ह मिलते हैं। (गांधार कला को ही ‘इण्डो-ग्रीक कला’ कहा जाता है क्योंकि इनका विषय भारतीय होते हुए भी शैली (ढंग) पूर्णतया यूनानी थी। गांधार जाटवंश है और यहां इस जाटवंश का शासन था)। गांधार शासन पर बाद में कुषाणवंश (जाटवंश) ने अधिकार कर लिया।

कुषाणवंश ने इस भिवानी क्षेत्र पर लगभग 150 वर्षों तक शासन किया। इस बात की पुष्टि कनिष्क और उसके बेटे हुविष्क के उन सिक्कों से होती है जो नौरंगाबाद में मिले।

तत्पश्चात् इस क्षेत्र पर 350 ईस्वी तक यौधेयों (जाटवंश) का राज्य रहा और बाद में गुप्त वंश (धारण गोत्र के जाट) के शक्तिशाली राजा समुद्रगुप्त ने यौधेयों को हराकर अपना शासन स्थापित किया। समुद्रगुप्त के शासन में भी नौरंगाबाद तथा तोशाम महत्त्वपूर्ण स्थान थे। नौरंगाबाद एक राजनैतिक केन्द्र के रूप में महत्त्वपूर्ण था तो तोशाम धार्मिक स्थल के रूप में प्रसिद्ध था। (दैनिक ट्रिब्यून, बुधवार, 11 फरवरी 1987, लेखक रमेश आनन्द)।

नागवंशी भारशिव (भराईच)

(सन् 150 ई० से 284 ई० तक)

नागवंश वैदिककालीन वंश है, यह जाटवंश है। रामायणकाल में भी इस नागवंश का विशाल संगठन कई छोटे-छोटे जाटवंशों के द्वारा हुआ जिसमें वैसाति या वैस, तक्षक, काला-कालीधामन, पूनिया, औलक, कलकल और भारशिव (भराईच) आदि हैं। ये सब जाटवंश हैं जो नागवंश की शाखा के नाम से प्रसिद्ध हैं (देखो प्रथम अध्याय, नागवंश एवं उपर्युक्त इसकी शाखाएं, प्रकरण)।


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अब भारशिव जाटों के शासन का वर्णन उस समय का किया जायेगा जबकि कुषाण शासन के पैर लड़खड़ा गये थे तथा गुप्त साम्राज्य का उदय नहीं हुआ था।

नागवंशी भारशिवों की शक्ति का उदय ऐसे ही अन्धकारकाल में हुआ जबकि भारत देश की कोई सत्ता अखिल भारतीय शासक रूप में सामने न थी। वायु पुराण के लेख अनुसार सात नाग राजाओं द्वारा पद्मावती (ग्वालियर में), कान्तिपुर (मिर्जापुर में) और मथुरा पर शासन किया गया। यह लेख कुषाण शासन के अन्त और गुप्तवंश के उदय के मध्य के लिखे हुए हैं। इसी समय शिव के प्रति बढ़ती हुई श्रद्धा का प्रदर्शन करने के लिए नागवंशियों ने भारशिव नाम धारण करके जनता के समक्ष अपने आपको नवीन रूप में प्रस्तुत किया। इस नाम से प्रसिद्धि पाने के कारणों पर बालाघाट की चमक प्रशस्ति का लेख पर्याप्त प्रकाश डालता है। उसमें लिखा है कि शिवलिंग का अपने कन्धे पर भार ढोने से जिन्होंने भलीभांति शिव को सन्तुष्ट कर दिया था - जिन्होंने अपने पराक्रम से प्राप्त की हुई भागीरथी गंगा के स्वच्छ जल से राज्याभिषेक कराया और जिन्होंने अश्वमेध करके अवभृथ-स्नान किया था, इस प्रकार के भारशिवों के महाराजा द्वारा नागवंश का पुनरुत्थान किया गया। इनके राजा शिवनन्दी ने पद्मावती का शासन करते हुए कनिष्क से पराजय पाई थी। कान्तिपुर में केन्द्र बनाकर पुनः पद्मावती और मथुरा विजय करने वाले वीरसेन ने कुषाण वासुदेव के उस महान् साम्राज्य पर भारी चोट की जो अमू दरिया से बंगाल की खाड़ी तक, यमुना से नर्मदा तक, कश्मीर, पंजाब, सिंध, बलोचिस्तान के समुद्री किनारे तक विस्तृत था एवं जिसके नरेश अपने को ‘देवपुत्र शहनशाही’ का दावा करते हुए भारत के शासन का दैवी अधिकार समझते थे। एक प्रबल कुषाण शक्ति के पराधीन रहते हुए भारशिव नागों ने जो आश्चर्यपूर्ण विजय प्राप्त की वह आज आवरण के बाहर आ गई है। इस नाग जाति के वीरसेन, स्कन्दनाग, भीमनाग आदि नरेशों ने कांतिपुर्, मथुरा, पद्मावती, कौशाम्बी, अहिक्षतपुर, नागपुर, चम्पावती, बुन्देलखण्ड, मध्यप्रान्त, कोटा, पश्चिम मालवा, नागौर, जोधपुर आदि समस्त प्रदेशों को विजय करके शासन किया। इन नरेशों ने एक ही नहीं, बल्कि 10 अश्वमेध यज्ञ किये थे, जिसकी स्मृति में आज भी काशी का दशाश्वमेध घाट विद्यमान है।

इस वंश के सभी नरेश सीधा-सादा जीवन बितानेवाले और शिव की परमभक्ति के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध रहे। कई विद्वानों ने इस युग को ‘शिवयुग’ भी कहा है। यह केवल भारशिवों के कारण ही कहलाया। इन्होंने अखिल भारत में ‘परमविजयी’ अश्वमेधयाजी पद पाया। किन्तु ऐसा लेख नहीं है कि इन्होंने किसी राज्य पर आक्रमण किया या कहीं अत्याचार किया। इनके समय देवी देवताओं के पूजने के लिए मन्दिरों का निर्माण किया गया। हिन्दू-धर्म को उन्नत किया और लोगों को शिव और गाय की पूजा की ओर लगाया गया। इन लोगों ने माता गंगा की परम पवित्रता की मातृ-भावनाओं का प्रचार भी इसी समय किया। ये लोग कुषाण साम्राज्य को जीतकर भारत सम्राट् बनने के साथ ही भारतीय प्रजा के हृदय सम्राट् भी बन गये। इन्होंने बौद्ध-धर्म का प्रभाव जनता पर से हटा दिया।

पौराणिकों ने अनेक पुस्तकों में बौद्ध-धर्मी क्षत्रियों को धर्म-भ्रष्ट तथा नास्तिक व शूद्र लिख दिया। जिस-जिस जाटवंश या अन्य क्षत्रियवंश ने विष्णु-धर्म या नवीन हिन्दू-धर्म स्वीकार कर लिया उनको ही सवर्ण हिन्दू लिखा गया। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।


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जब गुप्तवंश का उदय हुआ एवं इनकी शासनशक्ति बढ़ गई तब यह नागवंशी भारशिव (भराईच) शासन दुर्बल हो गया और फिर समाप्त हो गया।

हर्षवर्धन (606 ई० से 647 ई० तक) के शासनकाल में जब चीनी यात्री ह्यूनत्सांग भारतवर्ष आया तब ये भराईच जाट उत्तर-पश्चिमी पंजाब के स्वतन्त्र शासक थे और बौद्ध-धर्म के मानने वाले थे। सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद जब भारतवर्ष में राजनैतिक परिवर्तन हुए, तब इस भराईच जाटवंश ने अपना एक जनपद गुजरात (पाकिस्तान) क्षेत्र पर स्थापित कर लिया। इसके लिए इन्हें दसवीं सदी से तरहवीं सदी तक गखड़ों, गुर्जरों आदि से युद्ध करने पड़े। अन्त में पहाड़ के दामन और पठार के क्षेत्र में चनाब नदी के दाहिने किनारे तक भराईच जाटों ने इस उपजाऊ भूमि पर अपना अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र में आज इनके 350 गांव हैं। गुजरात, जलालपुर, कुंजा, भुगोवाल (सब पाकिस्तान में) आदि नगरों के चारों तरफ ये लोग बड़ी संख्या में आबाद हैं। ये लोग मुसलमान बन गये परन्तु जाट होने का गौरव रखते हैं।

पद्मावती पर राज्य करने वाला यह वंश टॉक-टांक कहलाता था। पुस्तक “अन्धकारयुगीन भारत” के अध्याय 29 में टांक के पूर्वज का नाम राजा गजवकत्र लिखा है। टांक गोत्र के जाटों के 24 गांव सोनीपत के निकट खेवड़ा गांव आदि हैं।

इसी पुस्तक के अध्याय 42 में लिखा है कि मालो जाटों का स्वतन्त्र राज्य पूर्वी पंजाब से गंगा तक था और यौधेय गणराज्य राजस्थान में फैला हुआ था। नागौर नगर नागों का था। नागर जाट, नागर ब्राह्मण यहीं के निवासी थे1

लिच्छिवि जाट राज्य

(पहली ईस्वी से 340 ई० तक)

लिच्छवि जाटों की उत्पत्ति गांधार देश में पुरुषपुर पेशावर में हुई। वहां के क्षेत्र पर उनकी शक्ति तथा गणराज्य लगभग 700 ई० पू० में था। यह लोग वहां से मगध प्रदेश में आकर बस गये और वैशाली में अपना गणराज्य स्थापित कर लिया। यह बौद्धकाल की घटना है। इन लोगों का गण बड़ा शक्तिशाली था। लिच्छिवियों की शासनसभा में 7707 मेम्बर थे जो सभी राजा कहलाते थे। संघ के अधिपति का वंशानुगत राजा की भांति अभिषेक होता था2। बृजी राज्य एक संघात्मक राज्य था जिसमें आठ स्वतन्त्र वंश मिले हुए थे। लिच्छिवि, विदेह, ज्ञातृ (सब जाटवंश) आदि वंशों के लोग इन्हीं आठ कुलों में से थे3

यह हमने पिछले पृष्ठों पर सम्राट् बिम्बसार के वर्णन में लिख दिया है कि उसने 547 ई० पू० से 495 ई० पू० तक 52 वर्ष मगध साम्राज्य पर शासन किया। उसने शक्तिशाली लिच्छवि गण की राजकुमारी छलनादेवी से विवाह करके उनके साथ मित्रता स्थापित कर ली। उसका पुत्र अजातशत्रु जो 495 ई० पू० में मगध की राजगद्दी पर बैठा उसने भी लिच्छिवियों से युद्ध करके सफलता प्राप्त की।


1. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 70-72, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत में जाट राज्य उर्दू, पृ० 417-418, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री, जाट इतिहास पृ० 54A, लेखक रामसरूप जून
2, 3. जाट इतिहास पृ० क्रमशः 39-31, लेखक ठा० देशराज


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भगवान् बुद्ध ने लिच्छवियों के अनुग्रह पर भिक्षु संघ का निर्माण किया था1। महात्मा बुद्ध का स्वर्गवास (487 ई० पू०) होने पर कुशिनारा (जि० गोरखपुर) के मल्लवंशी जाटों ने बुद्ध के शव को किसी को नहीं लेने दिया। बाद में समझौता होने पर दाहसंस्कार के बाद उनकी अस्थियों के आठ भाग करके मल्ल, मगध, लिच्छिवि, मौर्य, कौली, शाक्य (ये सब जाटवंश) तथा बुली और वैथद्वीप के ब्राह्मणों में बांट दिये। उन लोगों ने उन अस्थियों पर स्तूप बनवा दिये। (जाट इतिहास, पृ० 32-33, लेखक ठा० देशराज)।

लिच्छवियों की राजधानी वैशाली से राजा कनिष्क ने महान् विद्वान् अश्वघोष को अपनी राजधानी गांधार देश में बुलाया था2

लिच्छवियों ने ही पाटलिपुत्र मगध से कुषाणों का शासन समाप्त किया था। 50 वर्ष पहले पाटलिपुत्र में कुषाण क्षत्रप (राज्यपाल) रहा करते थे3

डाक्टर काशीप्रसाद जायसवाल के “अन्धकारयुगीन भारत” के लेख अनुसार जो नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी ने प्रकाशित किया, उसमें भूगर्भ से मिले शिलालेखों जिन पर मत्स्य पुराण, वायुपुराण और ब्रह्मांड पुराण आदि की कथाओं के लेख हैं, पाटलिपुत्र, मगध आदि राजधानियों पर पंजाबी मद्र (जाट) वंशज लिच्छिवि गण ने और भारशिववंश ने राज्य किया। राजा जयदेव द्वितीय के नेपाल में मिले शिलालेख अनुसार उनके पूर्वज लिच्छिवि मद्रक (जाट) वंशज ने पंजाब से आकर पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया। इस लिच्छिविवंश का शासन यहां मगध क्षेत्र में 300 ईस्वी तक रहा। चौथी शताब्दी के आरम्भ में पाटलिपुत्र की गद्दी पर राष्ट्रकूर (राठी जाटवंश) वंशज राजा सुन्दरबर्मन विराजमान हो गया4। लिच्छिविवंश की राजकुमारी कुमार देवी का विवाह चन्द्रगुप्त प्रथम के साथ हुआ। इस विवाह के कारण लिच्छिवि राज्य का भी उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त प्रथम बन गया और इसकी शक्ति के बल पर उसने मगध के शासक सुन्दरबर्मन का वध करके बलपूर्वक पाटलिपुत्र पर भी अधिकार कर लिया और फिर गुप्त साम्राज्य का यहां पर शासन चालू हो गया5

गुप्त साम्राज्य (धारण गोत्र के जाट शासक)

240 ई० से 528 ई० तक)

गुप्तवंशज सम्राट् धारण गोत्र के जाट थे इसके प्रमाण निम्नलिखित हैं -

  • 1. जैसे वीर योद्धा मांडा जाटों के साम्राज्य को व्यापारी एवं दुकानदार मेड लोगों का साम्राज्य लिखने की भाषाशास्त्रीय गलती की गई है जिसको प्रमाणों द्वारा ठीक किया गया है। (देखो चतुर्थ अध्याय, शक्तिशाली मांडा जाट साम्राज्य प्रकरण) ठीक उसी तरह से इतिहासकारों ने धारण गोत्र के जाटों के साम्राज्य को गुप्त साम्राज्य लिखने की बड़ी भूल की है। गुप्त वैश्य वर्ण के नहीं थे, बल्कि क्षत्रिय वर्ण के थे।

1, 2, 3. आधार पुस्तकें - जय यौद्धेय, पृ० क्रमशः 87, 48, 46, लेखक राहुल सांकृत्यायन
4. जाट इतिहास, पृ० 54A, B, लेखक रामसरूप जून
5. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 73, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


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  • 2. यह धारण जाट गोत्र है जो कि वैश्य समाज में नहीं पाया जाता है इसके लिए “अन्धकारयुगीन भारत” पृ० 252 पर लेखक काशीप्रसाद जायसवाल ने लिखा है कि : “गुप्त लोग कारसकर जाट थे, जो पंजाब से चलकर आए थे। मेरी समझ में आजकल के कक्कड़-कक्करान जाट उसी मूल समाज के प्रतिनिधि हैं जिस समाज में गुप्त लोग थे। कारसकरों में भी गुप्त लोग जिस विशिष्ट गुप्त विभाग या गोत्र के थे, उनका नाम धारण या धारी या धारीवाल था। इसके लिए एपीग्राफिका इण्डीका, खण्ड 15, पृ० 41-42 पर लिखा है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती जिसका विवाह वाकाटकवंशज रुद्रसेन द्वितीय से हुआ तब प्रभावती गुप्ता ने अपने पिता का गोत्र शिलालेख पर धारण ही लिखा है। इस बात का समर्थन कौमुदी महोत्सव नाटक और चन्द्रव्याकरण से भी होता है।” स्कन्दगुप्त के द्वारा हूणों की पराजय का अजयज्जर्टो हूणान् वाक्य चन्द्रगोमिन् की व्याकरण से स्पष्ट गुप्तवंश का जाट होना सिद्ध करता है।
  • 3. वैदिककाल, महाभारतकाल तथा बौद्धकाल तक गुप्त शब्द किसी जाति के लिए लिखा नहीं मिलता है। गुप्त साम्राज्य के समय तक शर्मा, वर्मा, गुप्त, दास आदि इन शब्दों का प्रयोग किसी के नाम पर इतिहास में नहीं हुआ था। इन शब्दों का प्रयोग स्वामी शंकराचार्य (सन् 788 ई० से 820 ई० तक) के द्वारा नवीन हिन्दू धर्म प्रचलित करने के बाद शुरु हुआ। गौरीशंकर हीराचन्द ओझा और बशेशरनाथ रेयू ने गुप्तों को चन्द्रवंशीय क्षत्रिय लिखा है। बम्बई गजेटियर जिल्द भाग 2, पृ० 578, नोट 3 में और पाली संस्कृत एण्ड ओल्ड केनीयरज इन्स्क्रीपशन्स नं० 108 में भी इन लोगों को चन्द्रवंशी क्षत्रिय लिखा है। इन गुप्त लोगों के धारण या धारी गोत्र के जाट संयुक्त पंजाब के निम्नलिखित जिलों में बड़ी संख्या में बसे हुए हैं – लाहौर, अमृतसर, सियालकोट, गुरदासपुर, गुजरांवाला, जालन्धर, कपूरथला, जींद, नाभा, पटियाला, मालेरकोटला, लुधियाना, हिसार
  • 4. डाक्टर जायसवाल ने अपने अंग्रेजी इतिहास के पृ० 115-116 पर गुप्तवंश को कारसकर जाट जाति सिद्ध किया है। कारसकर, कक्कर और खोखर एक नाम के अपभ्रंश हैं। खोखर जाटों की एक बड़ी खाप मुलतान देश में रही जिन्होंने मुहम्मद गौरी से टक्कर ली थी और उसका सिर काट लिया था। इस खोखर जाट गोत्र के लोग बड़े वीर योद्धा थे। इनका वर्णन अलग से उचित अध्याय में किया जाएगा।
  • 5. इन गुप्त सम्राटों के वैवाहिक सम्बन्ध जाटवंशों में ही रहे। जैसे चन्द्रगुप्त प्रथम की महारानी कुमारदेवी लिच्छवि जाटवंश की राजकुमारी थी जो कि सम्राट् समुद्रगुप्त की माता थी। समुद्रगुप्त की महारानी दत्ता महादेवी यौधेय जाटवंश की राजकुमारी थी जिसके प्रथम पुत्र रामगुप्त का जन्म पाटलिपुत्र में हुआ और उसी से दूसरे पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का जन्म अग्रोदका (अग्रोहा) में हुआ जो यौधेयों की राजधानी थी जिसका शासक उसका पिता था। रामगुप्त की पटरानी ध्रुवदेवी मालव या मल्ल जाटवंश की पुत्री थी। ध्रुवदेवी अपनी सास दत्तादेवी और परसास कुमारदेवी की योग्य बहू थी।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी नागवंश (जाटवंश) तथा वाकाटकवंश (जाटवंश) के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी शक्ति को बढ़ाया। उसने नागराज की कन्या कुबेर


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नाग से स्वयं विवाह किया जिससे चन्द्रगुप्त द्वितीय के यहां प्रभावती नामक कन्या उत्पन्न हुई। उस प्रभावती कन्या का विवाह पूर्वी मालवा के वाकाटकवंश के राजा रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया गया।

  • 6. गुप्त शब्द के विषय में ऋषि पाणिनि ने दो शब्द गोप्तरी और गुप्ती लिखे हैं। वी० एस० अग्रवाल ने “India as known to Panini” में इन शब्दों का स्पष्ट अर्थ किया है कि गुप्ती का अर्थ रक्षा है और गोप्तरी का अर्थ सैनिक प्रबन्धकला से है। इस आधार से जो मनुष्य रक्षा करने का अधिकारी होता है वह गुप्त या गोप्त कहलाता था। कश्मीरी कवि कल्हण ने अपनी ‘राजतरंगिणी’ में ‘गुप्तरी’ शब्द लिखा है जिसका अर्थ किया है “पृथ्वी का रक्षक” या “प्रदेश का रक्षक” (Rajat, viii, 341 and 339. stein Edition)। गुप्त का अर्थ सैनिक राज्यपाल भी है और यह इसी अभिप्राय से पांचवीं ई० पू० से सन् आठवीं शताब्दी तक प्रयोग में लाया गया और गुप्त सम्राटों ने भी इस गुप्त शब्द का इसी तरह प्रयोग किया।
यह बात ठीक समझ में आ जानी चाहिए कि गुप्त कुलनाम या उपनाम के तौर पर प्रयोग में नहीं लाया जाता, यह तो सदा व्यक्तिगत नाम का भाग है। यदि हम गुप्त का अर्थ वैश्य जाति के उपनाम या कुलनाम का लगा लें तो चाणक्य भी वैश्य जाति का हुआ क्योंकि उसका नाम विष्णुगुप्त था। किन्तु वह तो बड़ा विद्वान् ब्राह्मण था। इस तरह सहस्रों नाम हैं जिनके बाद गुप्त लगता है। उदाहरण के तौर पर चन्द्रगुप्त मौर्य जाट क्षत्रिय था। अनेक प्रसिद्ध ब्राह्मणों और क्षत्रियों के नाम के बाद में गुप्त मिल जाएगा परन्तु इस से वे वैश्य जाति के नहीं बन सकते। अतः निर्णय यह हुआ कि गुप्त नाम का अभिप्राय केवल सैनिक राज्यपाल से है, और यह कभी भी उपनाम या कुलनाम या जाति के नाम से प्रयोग में नहीं लाया गया।
  • 7. जब मथुरा में धारण गोत्र के जाटों का शासन था तब वहां इन्होंने विचार किया कि भारत को संयुक्त करके एक साम्राज्य बनाकर उसका सामान्य राज्यशासन बनाया जाए। इस उद्देश्य से इन्होंने लिच्छविवंशज जाटों से वैवाहिक सम्बन्ध किए, उस वंश का गणराज्य उस समय मगध के निकट वैशाली में था। डा० जायसवाल ने स्वयं खोज करके यह प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर दिया कि गुप्त लोग जाट थे। (JRAS, 1901, P. 99; 1905, P. 814; ABORI XX P. 50; JBORS, xix, P. 113-116; vol xxi, P. 77 and vol xxi, P. 275)।
डा० जायसवाल की इस बात को दशरथ शर्मा तथा दूसरों ने भी प्रमाणित माना है।
डा० जायसवाल के इस मत कि गुप्त लोग जाट थे के पक्ष में लेख्य प्रमाण हैं जो कि ‘आर्य मंजूसरी मूला कल्पा’ नामक भारत का इतिहास, जो संस्कृत एवं तिब्बती भाषा में आठवीं शताब्दी ई० से पहले लिखा गया, उस पुस्तक के श्लोक 759 में लिखा है कि “एक महान् सम्राट् जो मथुरा जाट परिवार का था और जिसकी माता एक वैशाली कन्या थी, वह मगध देश का सम्राट् बना।” (Imperial History of India, P. 72)।
यह हवाला समुद्रगुप्त का है जिसकी माता एक वैशाली राज्य की राजकुमारी थी।

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उस सम्राट् समुद्रगुप्त ने अपने सिक्कों पर “लिच्छवि दौहित्र” बड़े गर्व से प्रकाशित करवाया था।
चन्द्रगुप्त प्रथम मथुरा का जाट था जिसका विवाह लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से हुआ था। उस सम्राट् के सिक्कों पर उन दोनों की मूर्तियां थीं।
  • 8. परिणाम - सब प्रकार से खोज करने से यह ज्ञात हुआ कि गुप्त लोग मथुरा के धारण गोत्र के जाट थे। इसके हर प्रकार के प्रमाण हैं जैसे लेखप्रमाण, शिलालेख, ऐतिहासिक, शास्त्रीय, मुद्रा सम्बन्धी आदि। परिणाम केवल एक ही है कि ‘गुप्त’ लोग जाट थे, जो शुरु में मध्य एशिया से आए, अपनी राजनीतिक कला और शस्त्रशक्ति के बल से मगध साम्राज्य के शासक बन गए, जहां पर लगभग 300 वर्ष तक शासन किया। इसलिए प्रत्येक इतिहासकार का कर्त्तव्य है, विशेषकर उनका जो सच्चाई और न्याय में विश्वास करते हैं, वे असत्य लेखों तथा मतों को स्पष्ट रूप से त्याग दें और सत्य मत व लेख को मानें।

श्रीगुप्त (240 ई० से 280 ई० तक)

महान् गुप्त सम्राटों के पूर्वजों में पहला नाम, जो हमें प्राप्त हुआ है, श्रीगुप्त का है। इलाहाबाद के स्तम्भ लेख में उसे समुद्रगुप्त का दादा बताया है। चीनी यात्री ई-त्सिंग (I-tsing), जो भारत में सातवीं शताब्दी में आया, लिखता है कि श्रीगुप्त ने मृगशिखवन के पास चीनी यात्रियों के लिए एक मन्दिर बनवाया था और उसकी रक्षार्थ 24 गांव दिये थे। कुछ लेखकों के मत अनुसार श्रीगुप्त का अपने आपको ‘महाराज’ कहना यह स्पष्ट करता है कि वह एक स्वतन्त्र सम्राट् नहीं था। उसके शासनकाल के सिक्के भी प्राप्त नहीं हैं। डा० जायसवाल के कथनानुसार, उसने भारशिवों के अधीन प्रयाग के पास एक छोटे से राज्य पर शासन किया। उसका शासनकाल सन् 240 ई० से 280 ई० तक का था।

घटोत्कच (सन् 280 ई० से 319 ई० तक)

श्रीगुप्त का पुत्र घटोत्कच अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ। उसके विषय में भी उस काल के स्रोतों से विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। उसने सन् 280 ई० से 319 ई० तक राज्य किया। वह भी अपने आपको ‘महाराज’ कहता था। ऐलन तथा अन्य विद्वानों का कहना है कि वह पाटलिपुत्र तथा उसके आस-पास के प्रदेशों पर राज्य करता था। इस घटोत्कच गुप्त ने अपने पिता के नाम को राज्य संस्थापक के नाते वंश नाम के रूप में प्रचलित किया।

चन्द्रगुप्त प्रथम (सन् 320 ई० से 335 ई० तक)

पहला महान् गुप्त सम्राट् - घटोत्कच के पश्चात् उसका पुत्र चन्द्रगुप्त प्रथम राजगद्दी पर बैठा। इसको श्री महाराजाधिराज विजयादित्य चन्द्रगुप्त प्रथम भी कहते हैं। उसने सन् 320 ई० से 335 ई० तक राज्य किया। यह गुप्तवंश का पहला महान् सम्राट् था। उसने ‘महाराज’ की उपाधि को त्यागकर ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छविवंश (जाटवंश) की राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया। लिच्छवि वंश उस काल का एक प्रसिद्ध तथा माननीय


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वंश था, जिसका वैशाली तथा आस-पास के प्रदेशों पर राज्य था। प्रो० एन० एन० घोष के शब्दों में, “यह मिलाप गुप्तवंश को महान् बनाने में एक नये युग का द्योतक था।” (N.N. Ghosh Early History of India, p 245)। लिच्छवि वंश की सहायता से ही चन्द्रगुप्त ने पाटलिपुत्र तथा आस-पास के कई प्रदेश प्राप्त किये। उस समय पाटलिपुत्र का शासक राष्ट्रकूट या राठी जाट वंशज राजा सुन्दरवर्मन था। चन्द्रगुप्त ने लिच्छिवि गण की सहायता से राजा सुन्दरवर्मन का वध करके पाटलिपुत्र पर भी अधिकार कर लिया। परन्तु उस राजा का वध करके राज्य हथियाने से प्रजा बिगड़ उठी तथा मगध भर में भयंकर विद्रोह कर दिया। तब सुन्दरवर्मन के पुत्र कल्याणवर्मन को राजसिंहासन पर बैठाया गया जिससे प्रजा का आन्दोलन शान्त हुआ। अनुकूल अवसर पाकर चन्द्रगुप्त ने चार वर्ष बाद पाटलिपुत्र पर अधिकार कर लिया। चन्द्रगुप्त ने घनघोर युद्ध करके गंगा के समीपवर्ती सब प्रदेशों, प्रयाग, अयोध्या एवं मगध के चारों ओर के प्रदेशों पर शासन स्थापित कर लिया। उस सम्राट् ने सोने के सिक्के प्रचलित किये जिन पर उसने अपना नाम तथा चित्र के साथ-साथ ‘महादेवी कुमारदेवी’ का नाम तथा चित्र भी अंकित कराये। चन्द्रगुप्त प्रथम ने एक नया संवत् चलाया जिसे गुप्त संवत् कहते हैं। इस संवत् का पहला वर्ष 26 फरवरी 320 ई० से आरम्भ होता है। इस संवत् की तिथियों के अनुसार ही हम गुप्तकाल की तिथियों को ईसा की तिथियों में समझ पाते हैं। चन्द्रगुप्त प्रथम की सन् 355 ई० में मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजसिंहासन पर विराजमान हुआ।

सम्राट् समुद्रगुप्त (सन् 335 ई० से 375 ई० तक)

चन्द्रगुप्त प्रथम के पश्चात् सन् 335 ई० में उसका पुत्र समुद्रगुप्त राजगद्दी पर बैठा। समुद्रगुप्त के शासनकाल की जानकारी का सबसे मुख्य स्रोत इलाहाबाद का स्तम्भलेख अथवा प्रशस्ति है। इस प्रशस्ति का लेखक समुद्रगुप्त के दरबार का कवि हरिसेन था। इस लेख में 33 पंक्तियों का एक ही वाक्य है, जो कि संस्कृत भाषा में है। इसका कुछ भाग गद्य तथा कुछ पद्य में है।

समुद्रगुप्त ने अपने माता-पिता के नाम पर दीनार ढलवाये और उनके पीछे ‘लिच्छिवय’ लिखवाया। इसकी माता का नाम कुमारदेवी था जो कि लिच्छिवि जाटवंश की राजकुमारी थी। समुद्रगुप्त अपने आप को बड़े गर्व से लिच्छिवि दौहित्र कहता था।

उसने अपने शासनकाल में बहुत अधिक मात्रा में सिक्के जारी किये। कुछ सिक्कों में वह हाथों में तीरकमान लिए खड़ा है, कुछ में वह शेर का शिकार करता हुआ दिखाया है, बहुत से सिक्कों में वह बायें हाथ में परशु लिये हुए दिखाया है। कुछ सिक्कों में वह बैठकर वीणा बजाते हुए दिखाया गया है। वह संगीत का प्रेमी था। उसने अश्वमेध यज्ञ किया था और वह विष्णु का पुजारी था। वह उच्चकोटि का विद्वान् था, जिसे शास्त्रों का काफी ज्ञान था।

समुद्रगुप्त की विजय -

समुद्रगुप्त को अपने पिता से जो राज्य मिला उसमें गंगा के समीपवर्ती सब प्रदेश, प्रयाग, अयोध्या, एवं मगध के चारों ओर के प्रदेश शामिल थे जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी। इनके अतिरिक्त भारतवर्ष में अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जिनमें जाटवंशज भी कई राज्य थे। वे राज्य निम्नलिखित हैं -


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  1. यौधेय (जाटवंश) - एक बहुत ही बलशाली गणराज्य था, जो यमुना, सतलज तथा चम्बल-हिमालय के बीच अवस्थित था।
  2. वाकाटक (जाटवंश) - यह बहुत बलशाली राज्य था जो नर्मदा से कृष्णा नदी तक फैला हुआ था (विदर्भ राज्य)।
  3. वाकाटक राज्य के दक्षिण में कांची के पल्लवों (जाटवंश) का शासन था।
  4. उत्तरापथ पंजाब में देवपुत्र शाही कुषाण (जाटवंश) शासन करते थे।
  5. मालव गण (जाटवंश) - इनका राज्य मालवा था, गुजरात में शकों (जाटवंश) का शासन था।
  6. मद्रक (जाटवंश) - इनकी राजधानी सियालकोट में थी।
  7. आर्जुनायन गण - इनका राज्य मेवात और वर्तमान जयपुर प्रदेश पर था।
  8. कुणिन्द गण - नोट : यौधेय, आर्जुनायन और कुणिन्द इन तीन गणों ने मिलकर एक गणशक्ति बना ली थी, जिन्होंने समुद्रगुप्त का डटकर मुकाबला किया था।
  9. अभीर गण अहीर (जाटवंश) - इनका राज्य बदायूं और बेतवा नदी के मध्य क्षेत्र पर था। जो आजकल अहीरवाड़ा कहलाता है।
  10. कारसकर या काक गण (जाटवंश) - इनका राज्य मथुरा, अलीगढ़ प्रदेश पर था। यहां काक जाटों के 80 ग्राम आबाद हैं।
  11. उत्तरी भारत में 9 राजाओं में नागवंश (जाटवंश) के शासक नागसेन जिसका पद्मावती में राज्य था तथा गणपति नाग और नागद भी शामिल था। राजा अच्युत जो अहिच्छत्र (आधुनिक बरेली) के प्रदेश पर राज्य करता था। एक राजा कोटवंश का था, जो कि गंगा की घाटी में राज्य करता था। नागवंशज (जाटवंश) के सब 9 राजा थे जिनके नाक तथा उनके प्रदेश ये थे - 1. रुद्रदेव (बुन्देलखण्ड) 2. मित्तला (बुलन्दशहर) 3. चन्द्रवर्मन (दक्षिणी राजपूताना) 4. नन्दनाग (मध्यभारत) 5. बालवर्मन (पूर्वी भारत) 6. नागदत्त (मध्यप्रदेश) 7. गणपति नाग (मथुरा) 8. अच्युत (बरेली) 9. नागदेन (पद्मावती)।
  12. दक्षिणी भारत के 12 राज्य।
  13. पूर्व में सीमान्त प्रदेश - 1. समतन (दक्षिण-पूर्वी बंगाल), 2. देवक (उत्तरी आसाम) 3. कामरूप (दक्षिणी आसाम) 4. नेपाल 5. करतीपुर (आधुनिक तराई का क्षेत्र)।

इलाहाबाद की प्रशस्ति’ में हरिसेन ने उसे सैंकड़ों युद्ध लड़ने में निपुण कहकर समुद्रगुप्त की प्रशंसा की है और यह लिखा है कि उसका सहायक तथा साथी केवल उसकी अपनी वीरता थी।

उसकी विजयों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -

(क) आर्यावर्त अथवा उत्तरी भारत की विजय -

समुद्रगुप्त ने राजगद्दी सम्भालने के पश्चात् उत्तरी भारत के प्रदेशों पर पहली चढ़ाई की। ऊपर


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लिखित 9 नागवंशज राजाओं ने इसके विरुद्ध एक गुट बनाया। उनका समुद्रगुप्त के साथ इलाहाबाद के निकट कौशाम्बी नामक स्थान पर भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें नागवंश के सभी नौ राजाओं को हराकर मौत के घाट उतार दिया और उनके प्रदेशों को गुप्त साम्राज्य में मिला लिया।

इस प्रकार उसने पश्चिमी पंजाब, कश्मीर, सिन्ध, गुजरात तथा पश्चिमी राजपूताना के अतिरिक्त समस्त उत्तरीभारत में गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया। उसकी विजयों तथा कठोर नीति से भयभीत होकर सीमा प्रदेश के कबीलों तथा छोटे-छोटे राज्यों ने भी उसकी अधीनता स्वीकार कर ली।

(ख) दक्षिण-पथ की विजय (12 राजाओं को पराजित किया) -

सम्राट् समुद्रगुप्त सबसे पहले कौशल राज्य की ओर बढ़ा, जिसमें विलासपुर, रायपुर तथा सम्बलपुर के प्रदेश सम्मिलित थे। वहां का राजा महेन्द्र था। उसे पराजित करने के बाद समुद्रगुप्त उड़ीसा की ओर बढ़ा। वहां उसने महानदी के पास स्थित महाकान्तार के वियाघरा राजा को हराया। तब वह पूर्वी तट के साथ-साथ बढ़ता हुआ काँची तक पहुंच गया और उसने 10 राजाओं को हराया। इनमें से महाकान्तार का वियाघरा राजा, पिस्तपुर (आधुनिक आन्ध्रप्रदेश), महेन्द्रगिरि गनजम में स्थित कोट्टूर का स्वामीदत्त, काँची का विष्णुगोप, वैंगी का हस्तिवर्मन, पलक्क का उग्रसेन, देवराष्ट्र का कुबेर आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। दक्षिण भारत के इन 10 राजाओं ने कांची के राजा विष्णुगोप के नेतृत्व में एक गुट बना लिया था। समुद्रगुप्त ने इन सबको पराजित कर दिया। कांची से वह पश्चिम की ओर बढ़ा और महाराष्ट्र तथा खानदेश से होता हुआ पाटलिपुत्र लौट आया। डा० वे० ए० स्मिथ के कथनानुसार, “वह अपने साथ लूट-मार का सोना लेकर आया और इस प्रकार उसने वैसे सैनिक कारनामे किए जैसे कि 1000 वर्ष पश्चात् मुसलमान आक्रमणकारी अलाउद्दीन ने किए।” (Dr. V.A. Smith: The early History of India, P. 301)।

समुद्रगुप्त की दक्षिण विजय एक महान् सफलता थी। उसने उत्तरी भारत में राज्य छीनने की नीति अपनाई, परन्तु दक्षिण भारत में उसने राज्य लौटाने की नीति को अपनाया। उसने केवल उन राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार करवाने के लिए विवश किया। वह एक चतुर राजनीतिज्ञ था जिसने समझ लिया था कि यातायात के साधनों के अभाव के कारण दक्षिण पथ के राज्यों को सफलतापूर्वक अपने अधिकार में रखना कठिन होगा। इसलिए वह दक्षिण-विजय से केवल धन तथा गौरव प्राप्त करके ही सन्तुष्ट हो गया। इससे उसकी बुद्धिमत्ता तथा राजनीतिज्ञता का प्रमाण मिलता है।

(ग) सीमान्त प्रदेशों की अधीनता -

समुद्रगुप्त की उत्तरी तथा दक्षिणी भारत की विजयों से इतनी धाक जम गई कि पूर्वी तथा पश्चिमी सीमान्त राज्य घबरा उठे। उन्होंने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया। उसने सीमान्त प्रदेशों को भी अपने राज्य में नहीं मिलाया। पूर्व में दक्षिणी-पूर्वी बंगाल, उत्तरी तथा दक्षिणी आसाम और नेपाल एवं आधुनिक तराई के क्षेत्र के राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार की तथा उससे मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कर लिए।

उत्तर पश्चिम की गणतन्त्र जातियों ने भी समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार की। इनमें मालव,


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यौधेय, आर्जुनायन, अभीर, मुद्रक आदि जातियां उल्लेखनीय हैं इन सबके प्रदेश अधिकतर पंजाब तथा राजपूताना में थे।

समुद्रगुप्त और यौधेयों के युद्ध के विषय में ‘जय यौधेय’ पुस्तक पृ० 7-9 पर लेखक राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि यौधेयों ने कुणिन्दों और आर्जुनायनों को मिलाकर एक गण (संघ) स्थापित कर लिया था। समुद्रगुप्त मथुरा यौधेयों की भूमि पर पहुंच गया। समुद्रगुप्त ने इस यौधेय गण पर आक्रमण कर दिया। समुद्रगुप्त की सेना के साथ मगध, लिच्छिवि, काशी, कौशल, वत्स, अन्तर्वेदी तथा दूसरे प्रान्तों के सामन्त अपने सैनिकों के साथ इस युद्ध में समुद्रगुप्त की ओर से लड़ रहे थे।

समुद्रगुप्त को अपनी तीनों विजय यात्राओं में यौधेयों जैसा दुर्दम शत्रु नहीं मिला। उनके बच्चे, बूढ़े और औरतें भी युद्ध में कूद पड़े। मरना या स्वतन्त्र रहना बस यही सबका दृढ़ संकल्प था। दोनों ओर के सैनिक युद्ध की आग में पतंगों की तरह झुलस रहे थे। लड़ाई यौधेयों की भूमि में पहुंच गई थी। गुप्तों के सैनिक यौधेय ग्रामों में आग लगा रहे थे, तैयार खेती को जला रहे थे, बच्चों और बूढ़ों को मार रहे थे। यौधेय तो अपने सिर पर कफन बांध चुके थे। समुद्रगुप्त वीर था, साथ ही उसमें बहुत उदारता थी। उसने अपने सेनापति और युद्ध मन्त्री को फटकारा। उसने यौधेयों को पत्र लिखकर अपने सैनिकों द्वारा किए गए अत्याचारों के लिए उनसे क्षमा मांगी और कहा कि लिच्छवि दौहित्र यौधेयों को नष्ट करना नहीं चाहता और मैं यौधेयों की एक अंगुल भूमि का भी अपहरण नहीं करना चाहता। मैंने अपने सेनापतियों को सात दिन के लिए युद्ध बन्द करने का आदेश दे दिया है। मैं चाहता हूँ कि यौधेय मेरे हृदय को जानें। इस पत्र में इतने उदारभाव देखकर यौधेय गण के गणसभापति कुमार यौधेय, आर्जुनायन गण संघ के पुरस्कृत नरवर्मा, कुणिन्द गण के पुरस्कृत रोहित और तीनों के गण संघ के पुरस्कृत सूषेश यौधेय समुद्रगुप्त के साथ बातचीत करने मथुरा पहुंचे। संधि हो गई। समुद्रगुप्त एक दिन अग्रोदा (अग्रोहा) गया। यह यौधेयों की नगरी राजधानी थी। उसकी आंखों से आंसू गिरने लगे। उसने कहा कि “मेरी वजह से यह सब हुआ, मेरा सिर हाजिर है, आप जो चाहें लिच्छवि दौहित्र को दण्ड दें।” यौधेयों का दिल पिंघल गया और जब उसने महासेनापति कुमार यौधेय के चरणों की ओर अपने हाथों को बढ़ाया तो उन्होंने उसे छाती से लगा लिया। घर-घर समुद्रगुप्त की प्रशंसा होने लगी।

चन्द दिन बाद जब समुद्रगुप्त ने यौधेय राजकुमारी महादेवी दत्ता से विवाह कर लिया, तो यौधेयों के आनन्द का ठिकाना न रहा। महादेवी दत्ता से पहला पुत्र रामगुप्त पाटलिपुत्र में पैदा हुआ तो दूसरा पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अग्रोहा में पैदा हुआ। दत्ता महारानी की मृत्यु सन् 372 ई० में समुद्रगुप्त से 3 साल पहले हो गई।

(घ) जंगली जातियों का दमन -

ये जातियां मध्य भारत तथा उड़ीसा के जंगलों में निवास करती थीं और वे प्रायः शान्ति तथा व्यवस्था भंग करती रहती थीं। समुद्रगुप्त ने इन जातियों की शक्ति को कुचल दिया और इस प्रकार उत्तरी भारत तथा दक्षिणी भारत के मार्ग में यह रोक दूर करके उसने दोनों भागों का मेल-जोल बढ़ा दिया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-499


(ङ) विदेशी शक्तियों से सम्बन्ध -

समुद्रगुप्त की बढ़ती हुई शक्ति से प्रभावित होकर देवपुत्र, शाहनशाही कुषाणों ने और पश्चिमी भारत के शकों ने उसके दरबार में अपने दूतों को उपहार सहित भेजा। लंका के राजा मेघवर्मण ने भी अपने दूत द्वारा समुद्रगुप्त को भेंट भेजी और उससे बौद्ध-गया में लंका के भिक्षुओं के ठहरने के लिए एक मठ बनाने की आज्ञा मांगी। समुद्रगुप्त ने यह आज्ञा दे दी। अतः मेघवर्मण ने गया के बौद्ध वृक्ष के पास तीन मंजिलों का एक मठ बनवाया। समुद्रगुप्त ने जावा, सुमात्रा तथा मलाया से भी मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किए और इन देशों से आए राजदूतों का भी स्वागत किया तथा उनसे उपहार स्वीकार किए।

(च) अश्वमेध यज्ञ -

एक विशाल साम्राज्य स्थापित करने के पश्चात् समुद्रगुप्त ने प्राचीन हिन्दू-सम्राटों की भांति अश्वमेध यज्ञ किया। इस अवसर पर सोने के सिक्के जारी किए गए और बहुत अधिक संख्या में ये स्वर्ण सिक्के ब्राह्मणों में बांटे गये। इन सिक्कों के एक ओर यज्ञ के अश्व का चित्र था तथा दूसरी ओर ‘अश्वमेध पराक्रम’ की गाथा अंकित थी। समुद्रगुप्त ने ‘महाराजाधिराज’ की पदवी धारण की।

(छ) साम्राज्य का विस्तार -

समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तक तथा पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर पश्चिम में चम्बल नदी तथा पंजाब तक फैला हुआ था। इनके अतिरिक्त ऊपर वर्णित अनेक राज्यों ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली थी। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

समुद्रगुप्त की तुलना सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य, अकबर तथा नेपोलियन से की जा सकती है। डॉ० वी० ए० स्मिथ के कथनानुसार, समुद्रगुप्त को भारतीय नेपोलियन की पदवी दी जा सकती है। (Dr. V.A. Smith, The Early History of India, p. 306).

समुद्रगुप्त की अन्य सफलताएँ

प्रो० एन० एन० घोष के शब्दों में, “समुद्रगुप्त न केवल युद्धों में ही महान् था, जिसने सारे युद्ध स्वयं जीते थे, बल्कि वह शान्ति की कलाओं में भी महान् था।” (N.N. Ghosh, Early History of India, P. 225).

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त एक वीर योद्धा, चतुर राजनीतिज्ञ, प्रतिभाशाली कवि, कला तथा साहित्य का महान् संरक्षक और धार्मिक सहनशीलता को अपनाने वाला सम्राट् था। उसने इन विभिन्न रूपों में बहुत से महान् कार्य किये। वह एक शानदार तथा शक्तिशाली साम्राज्य की नींव रख गया। गुप्तकाल को भारत के इतिहास में ‘स्वर्णयुग’ माना जाता है। इसका श्रेय काफ़ी हद तक समुद्रगुप्त को प्राप्त है। उसके बिना शायद गुप्त साम्राज्य को यह गौरव प्राप्त न हो पाता।

श्री बी० जी० गोखले के कथनानुसार, “समुद्रगुप्त में वे सभी तत्त्व पाये जाते थे जो भारतीय विचारधारा के अनुसार एक आदर्श नायक में होने चाहिएं।” (B.G. Gokhale, Samudragupta, P. 99)। इस महान् सम्राट् की सन् 375 ई० में मृत्यु हो गई।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-500


रामगुप्त (सन् 375 ई० से 380 ई० तक)

समुद्रगुप्त की मृत्यु के पश्चात् उसका बड़ा पुत्र रामगुप्त राजगद्दी पर बैठा। उसने 375 ई० से 380 ई० तक राज्य किया। इसकी माता महारानी दत्ता महादेवी यौधेय जाटवंश की राजकुमारी थी। रामगुप्त की पटरानी ध्रुवदेवी मालव या मल्ल जाटवंश की राजकुमारी थी जो बड़ी सुन्दर व चरित्रवान् थी। रामगुप्त बहुत कमजोर तथा कायर शासक था। उसे शकों से युद्ध करना पड़ा जिसमें वह बुरी तरह पराजित हुआ। उसी समय शकराज के दूत ने आकर रामगुप्त को यह शर्त पेश की कि “शकराज, रामगुप्त को अभयदान देने को तैयार है, यदि वह अपनी पटरानी महादेवी ध्रुवदेवी देने को तैयार हो।”

रामगुप्त ने हां कर ली किन्तु ध्रुवदेवी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। उसने चन्द्रगुप्त द्वितीय को यह बात बतला दी। रामगुप्त का वह छोटा भाई था। वह भी इस अपमान को सहन न कर सका। चन्द्रगुप्त ने ध्रुवदेवी के वस्त्र पहने और अपने वीर साथियों को भी स्त्री वेश में सजाया। 500 पालकियों के साथ वह अरिपुर की ओर चला और यमुना के उस पार शकराज की छावनी में पहुंचे। चन्द्रगुप्त ने उस शक के कलेजे में छुरा घोंपकर मार दिया। उसी छुरे से रामगुप्त को भी मार दिया। ध्रुवदेवी भी इससे प्रसन्न हुई। चन्द्रगुप्त व ध्रुवदेवी का विवाह हो गया। चन्द्रगुप्त अपनी पटरानी ध्रुवदेवी को ‘स्वामिनी’ या ‘ध्रुवस्वामिनी’ कहता था। बाण के हर्ष-चरित्र से इस घटना की पुष्टि होती है कि चन्द्रगुप्त ने स्त्री के भेष में शक राजा का वध किया था। रामगुप्त की मृत्यु सन् 380 ई० में हुई। इसके पश्चात् उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा विक्रमादित्य राजसिंहासन पर विराजमान हुआ।

सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380 ई० से 414 ई० तक)

अपने बड़े भाई रामगुप्त की मृत्यु होने पर यह सन् 380 ई० में राजगद्दी पर बैठा। यह चन्दगुप्त द्वितीय, अपने पिता समुद्रगुप्त का एक योग्य पुत्र था। इसकी माता का नाम दत्तादेवी था। उसके शिलालेखों में देवगुप्त, देवराज तथा देवश्री भी उसके नाम दिये हैं। इसकी उपाधि विक्रमादित्य थी। कुछ लेखकों के मत के अनुसार उज्जैन का प्रसिद्ध विक्रमादित्य भी यही है, जिसके दरबार में कालिदास जैसे नवरत्न थे। इसने 414 ई० तक शासन किया।

इस सम्राट् ने ध्रुवदेवी से विवाह किया और दूसरा विवाह उसने नागराजा (जाट) की राजकुमारी कुबेर नाग से किया। उससे चन्द्रगुप्त के यहां प्रभावती नामक कन्या उत्पन्न हुई। जब वह बड़ी हुई तो उसका विवाह पूर्वी मालवा के वाकाटक वंश (जाटवंश) के राजा रुद्रसेन द्वितीय से कर दिया। इन विवाहों से चन्द्रगुप्त की शक्ति बढ़ गई। वाकाटक वंश की सहायता से ही वह शकों के विरुद्ध सफलतापूर्वक युद्ध कर सका। सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय की दूसरी महारानी ध्रुवदेवी से कुमारगुप्त और गोविन्दगुप्त नामक दो पुत्र पैदा हुये।

चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयें -

(क) इस सम्राट् की सबसे महत्त्वपूर्ण विजय पश्चिमी भारत की विजय थी। मालवा, गुजरात


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-501


तथा सौराष्ट्र के प्रदेशों में शकों ने अपनी शक्ति जमा ली थी। शकों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये चन्द्रगुप्त द्वितीय ने पूर्वी मालवा को अपनी सैनिक कार्यवाही का आधार बनाया। एक विशाल सेना के साथ सम्राट् ने शक राज्य पर आक्रमण कर दिया। उस समय शक साम्राज्य का शासक रुद्रसिंह तृतीय था। गुप्त सम्राट् ने उसे बुरी तरह पराजित करके मौत के घाट उतार दिया। इस तरह मालवा, गुजरात, सौराष्ट्र पर विजय प्राप्त करके उन्हें गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। यह विजय 395 ई० और सन् 400 ई० के बीच में की गई।

इस विजय के महत्त्व - (i) शक लोग वीर योद्धा तथा शक्तिशाली माने जाते थे परन्तु चन्द्रगुप्त ने उन्हें बुरी तरह पराजित कर दिया। इस विजय के पश्चात् उसने ‘शकारि’ अर्थात् “शकों का वध करने वाला” की उपाधि धारण की।
(ii) गुप्त साम्राज्य की सीमा अरब सागर तक पहुंच गई।
(iii) विदेशी व्यापार में वृद्धि हुई। पश्चिमी भारत की कैम्बे, भड़ोच, पोरबन्दर, द्वारका आदि बन्दरगाहें गुप्त साम्राज्य के अधीन आ गईं और इन बन्दरगाहों द्वारा विदेशों के साथ भारत का व्यापार बहुत उन्नति कर गया।
(iv) प्रसिद्ध नगर उज्जैन को चन्द्रगुप्त ने अपनी दूसरी राजधानी बनाया।

(ख) वंग (बंगाल) को विजय किया।

(ग) सिन्ध को पार करके वाह्लीकों (जाटवंश) को पराजित किया। इस वंश का राज्य बैक्ट्रिया (बल्ख) पर था। प्रो० एन. एन. घोष के विचार में ये लोग पंजाब की सरहद पर रहते थे।

(घ) राहुल सांकृत्यायन के लेख अनुसार चन्द्रगुप्त का यौधेयों से युद्ध -

विक्रमादित्य ने यौधेयों पर आक्रमण की अपनी पूरी तैयारी कर ली थी। यौधेयगण के महासेनापति ‘जय’ ने यौधेयानियों की एक विशाल सभा में भाषण देते हुए कहा था -

“यौधेय-यौधेयानियो! तुम यौधेय मां, बहिन और बेटियां हो। आज हमारे सामने जैसा संकट आया है, वैसा संकट शायद हमारे सारे इतिहास में कभी नहीं आया था। चन्द्रगुप्त हमें इस शर्त पर जीने देना चाहता है कि हम यौधेय नाम छोड़ दें, यौधेय धर्म छोड़ दें। यदि हमारा नाम और धर्म चला गया तो जीना किस काम का? शत्रु बहुत बलवान् है। आधे भारतखण्ड का धनबल, जनबल उसके पास है। लेकिन यौधेयों ने चन्द्रगुप्त को एक बार हराया था। उसे फिर ताजा करना होगा। ‘सुनन्दा’ ने तुम्हें रास्ता दिखलाया है। यौधेयानियां ही नहीं, कुणिन्दानियां और आर्जुनायनियां भी आज सुनन्दाएँ हैं। यौधेय नर-नारी से वीर के कर्त्तव्य पालन की बात कहना उनका अपमान करना है। अब की बार यौधेयानियों को भी हथियार उठाने का पूरा अधिकार होगा।”

यौधेयों ने अपनी पूर्वी और दक्षिणी सीमा पर अपने दुर्ग स्थापित किए। यौधेयों के पास घुड़सवार तथा पैदल सेनायें ही थीं जबकि चन्द्रगुप्त के साथ रथों और बहुत बड़ी संख्या हाथियों की थी। ‘जय’ की आयु 50 वर्ष की थी जो गणसंघ का महासेनापति था। युद्ध बड़े जोरों से आरम्भ हो गया। पहला आक्रमण स्रुघ्नपुर (अंबाला) सुह्य की ओर से हुआ। यौधेयों ने उन्हें यमुना पार नहीं होने दिया। विक्रम स्वयं मथुरा में बैठा वहां से सारी सेना का संचालन कर रहा था। उसकी सेना वहां से आगे बढ़ रही थी। यौधेयगण ने वहां उन से सख्त टक्कर ली।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-502


पूरे 2½ महीने के घमासान युद्ध के बाद शत्रुसेना यमुना पार करने और आर्जुनायन भूमि में घुसने में सफल हुई। परन्तु यौधेय एक-एक अंगुल भूमि के लिए मरे।

इन्द्रप्रस्थ के पास गुप्त सेना ने यौधेयों को सब से करारी हार दी। उनकी सबसे बड़ी क्षति हुई, उनका महासेनापति मारा गया। विक्रम का आदेश था कि किसी भी तरह ‘जय’ महासेनापति को पकड़ लाओ। ‘जय’ युद्ध में बुरी तरह घायल होकर रणभूमि में गिर गया। यौधेयों ने फिर-फिर हमला करके घायल सेनापति को रणभूमि से ले जाना चाहा, मगर गुप्त सेना ने ऐसा न करने दिया। ‘जय’ के पास आकर जब वीरसेन ने प्रणाम किया तो वह केवल इतना ही कह सका कि “यौधेय-भूमि से मेरे शव को ही ले जा सकते हो।” वीरसेन ने अपने बड़े-बड़े चिकित्सकों को बुलाया। परन्तु ‘जय’ थोड़ी देर बाद चल बसा। यौधेय पुरुष तथा स्त्रियां भी लड़े। विस्तृत यौधेय भूमि युद्ध क्षेत्र बन गई थी।

विक्रमदित्य ने अग्रोदका (अग्रोहा), रोहितक (रोहतक), पृथूदका (पेहवा) आदि नगरों पर अधिकार कर लिया। अनेक पुरुषों को तलवार के घाट उतार दिया। दस वर्ष में तो गुप्त सेना केवल नगरों और उनके आस-पास की थोड़ी सी ही भूमि पर अधिकार कर सकी। विक्रमादित्य को सारी यौधेय-भूमि पर जगह-जगह सैनिक छावनियां बनानी पड़ीं। लाखों यौधेय-कुणिन्द-आर्जुनायन नर नारियों ने अपनी स्वतन्त्रता के लिए अपने जीवन का बलिदान किया। यौधेयों की सुन्दर भूमि श्मशान हो गई। बड़े-बड़े अनेक नगर उजाड़ दिए गये। विक्रमादित्य ने यौधेयों पर विजय प्राप्त करते ही अवन्ति (उज्जैन मालवा) पर आक्रमण कर दिये। विक्रमादित्य ने यौधेयों पर विजय प्राप्त करते ही अवन्ति (उज्जैन मालवा) पर आक्रमण कर दिया। कुछ ही दिनों में अवंति, लाट (गुजरात) सौराष्ट्र को जीत लिया। क्षत्रप वंश (शक जाट वंश) सदा के लिए लुप्त हो गया। विजयोत्साह में विक्रमादित्य ने अपने कितने ही चांदी के सिक्के चलाये। उन पर उसने लिखवाया - “श्रीगुप्त कुलस्य महाराजाधिराज श्रीचन्द्रगुप्त विक्रमादित्यस्य1।”

चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का विस्तार - चन्द्रगुप्त द्वितीय का साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में नर्मदा नदी तथा पूर्व में ब्रह्मपुत्र नदी से लेकर पश्चिम में अरब सागर तक गांधार, कम्बोज एवं वाल्हीक (बल्ख) के प्रदेशों को कुषाणों से जीतकर अपने राज्य की सीमा को अमू दरिया तक विस्तृत किया। परन्तु कुछ समय बाद हूणों ने इनको जीत लिया।

चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त सम्राटों में सबसे शक्तिशाली सम्राट् था। उसने पाटलिपुत्र को अपनी मुख्य राजधानी रखते हुये, उज्जैन को भी अपनी राजधानी बनाया।

अपनी विजयों के बाद ही इसी सम्राट् ने विष्णुपद पहाड़ी पर विष्णु मन्दिर के आगे एक लौह स्तम्भ गड़वाया, जिसके लौह पर आज तक भी जंग नहीं लगा है। विद्वान् ओझा का मत है कि इसको अनंगपाल तंवर ने यहां से इसी कीली को उखड़वाकर कुतुबमीनार के पास गडवाया था जिससे इन्द्रप्रस्थ नगरी का नाम दिल्ली पड़ा। परन्तु यह बात असत्य है। हमने पिछले पृष्ठों पर प्रमाणों द्वारा सिद्ध करके लिख दिया है कि ढिल्लों गोत्र के जाटों का राज्य इन्द्रप्रस्थ पर 800 ई० पू० से 350 ई० पू० तक 450 वर्ष रहा। चौथी शताब्दी ई० पू० में ढिल्ल या दाहला ढिल्लों गोत्र के जाट के नाम पर इन्द्रप्रस्थ का नाम दिल्ली पड़ा था। (देखो पंचम अध्याय, ढिल्लों जाटों के नाम


1. जय यौधेय. पृ० 210-212, लेखक राहुल सांकृत्यायन


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पर देहली नगर का नाम, प्रकरण)।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में चीनी बौद्ध यात्री फाह्यान ने भारत की यात्रा की। वह भारत में 405 ई० से 411 ई० तक रहा। उसने अपनी यात्रा पुस्तक में तत्कालीन गुप्त साम्राज्य में जीव हिंसा न होने, शराब, मांस, लहसन, प्याज न खाने, चोरी के न होने, किसी को भी प्राणदण्ड न दिए जाने, बिना मूल्य औषधि देने, धर्मक्षेत्रों में बिना मूल्य के भण्डारों, धर्मशाला और विद्यार्थियों के कई स्थानों पर विशाल विद्यालयों का वर्णन करते हुए उसे देश के धनवान्, दानशील और निरोगी, चरित्रवान् पुरुषों तथा विद्वानों का आश्रयस्थान लिखा है। इस सम्राट् द्वारा स्थापित किया गया शासन-प्रबन्ध सन्तोषजनक एवं सराहनीय था। वह हिन्दू धर्म का अनुयायी तथा संरक्षक था, किन्तु उसने अन्य धर्मों पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं लगाया। यह सम्राट् अपने पिता समुद्रगुप्त की भांति कला तथा साहित्य का भी संरक्षक था। उसके शासनकाल में भवन निर्माणकला, शिल्पकला, चित्रकला, धातुकला तथा मुद्राकला आदि सभी कलाओं में विशेष उन्नति हुई।

गुप्त सम्राटों ने ‘महाराजाधिराज’, ‘पृथ्वीपाल’, ‘परमेश्वर’, सम्राट् आदि उपाधियां ग्रहण कीं थीं। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने आप को ‘विक्रमादित्य’, ‘महाराजाधिराज’, ‘शकारि’ आदि उपाधियों से विभूषित किया था।

चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने 34 वर्ष के शासनकाल में बहुत सी सफलतायें प्राप्त कीं। चाहे गुप्त साम्राज्य की स्थापना समुद्रगुप्त ने की थी, परन्तु इसकी प्रसिद्धि तथा प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला अवश्य ही उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय था। उसके महान् कार्यों के कारण ही गुप्तकाल भारत के इतिहास में स्वर्ण युग कहलाने लगा।

आज भी भारत की जनता विक्रमादित्य के शासन कार्यों को ‘राम राज्य’ की संज्ञा देती है। इस महान् सम्राट् की सन् 414 ई० में मृत्यु हो गई।

कुमारगुप्त प्रथम (414 ई० से 455 ई० तक)

चन्द्रगुप्त द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र कुमारगुप्त प्रथम राजगद्दी पर बैठा। उसने सन् 414 ई० से 455 ई० तक शासन किया। वह भी एक महान् सम्राट् था और उसने अपने पिता के साम्राज्य को उसी तरह स्थिर रखा। उसके एक शिलालेख से पता चलता है कि उसने बन्धुवर्मन नामक राजा को पराजित किया तथा साम्राज्य में कुछ वृद्धि की। समुद्रगुप्त की भांति उसने भी अश्वमेध यज्ञ किया और तत्पश्चात् ‘श्री अश्वमेध महेन्द्र’ की उपाधि ग्रहण की। इस सम्राट् को पुष्यमित्र नामक शक्तिशाली जाति से युद्ध लड़ना पड़ा। इस जाति से युद्ध करने के लिए इसने अपने योग्यपुत्र स्कन्दगुप्त के अधीन सेना भेजी। एक भयानक युद्ध हुआ जिसमें स्कन्दगुप्त विजयी होकर लौटा। उसने हिन्दू धर्म के विकास के साथ-साथ जैनियों तथा बौद्धों की भी बहुत सहायता की। उसके काल में भवन-निर्माणकला, शिल्पकला तथा मुद्राकला बहुत उन्नति के शिखर तक पहुंच गई। अतः उसका शासनकाल ‘स्वर्णयुग’ का एक भाग माना जाता है। इस सम्राट् की सन् 455 ई० में मृत्यु हो गई।


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स्कन्दगुप्त (445 ई० से 467 ई० तक)

कुमारगु्प्त प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका योग्य पुत्र स्कन्दगुप्त 455 ई० में राजसिंहासन पर बैठा। उसने अपने दादा की विक्रमादित्य की उपाधि ग्रहण की।

स्कन्दगुप्त की सबसे बड़ी सफलता हूणों के विरुद्ध युद्ध करना था। हूण मध्य एशिया की एक क्रूर तथा असभ्य जाति थी जिसने संसार के अनेक देशों पर आक्रमण किए थे। सम्राट् स्कन्दगुप्त के शासनकाल में इस जाति की एक शाखा ने भारत पर आक्रमण कर दिया। परन्तु स्कन्दगुप्त ने बड़ी वीरता से उनका मुकाबला किया और उन्हें बुरी तरह पराजित किया। इस सम्राट् ने साम्राज्य के आन्तरिक विद्रोहों का भी दमन किया। इस प्रकार इसने अपनी वीरता के आधार पर गुप्त साम्राज्य ज्यों का त्यों स्थिर रखा।

इस सम्राट् ने सुदर्शन झील की मरम्मत कराई। यह झील मौर्यकाल में गिरनार (गुजरात) में बनाई गई थी। अधिक वर्षा होने से इसका पानी किनारों से ऊपर चढ़ गया था जिससे पास के प्रदेशों में रहने वाले लोगों को खतरा पैदा हो गया था।

स्कन्दगुप्त भी अपने पूर्वजों की भांति हिन्दू-धर्म की वैष्णव शाखा का अनुयायी था। उसके काल में भी महात्मा बुद्ध तथा जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां बनाईं गईं।

इस महान् सम्राट् की सन् 467 में मृत्यु हो गई।

बाद के गुप्त शासक (467 ई० से 538 ई० तक)

स्कन्दगुप्त गुप्तवंश का अन्तिम महान् सम्राट् था। सन् 467 ई० में उसकी मृत्यु से लेकर छठी शताब्दी के आरम्भ तक इस वंश के कई राजा हुए जैसे -

(1) पुरुगुप्त (467-468 ई०) (2) नरसिंह गुप्त (सन् 468-473 ई०) (3) कुमारगुप्त द्वितीय (473-476 ई०) (4) बुद्ध गुप्त (476-500 ई०) (5) तथागत गुप्त (500-508 ई०) (6) भानु गुप्त बालादित्य (508 से 528 ई०)। परन्तु इनमें से एक-दो को छोड़कर सब अयोग्य तथा असफल राजा थे। अपनी दुर्बलता के कारण न तो वे हूणों के आक्रमणों का सफलतापूर्वक मुकाबला कर सके और न ही आन्तरिक विद्रोहों को दबा सके। इस प्रकार समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय की योग्यता से स्थापित किया गया शानदार साम्राज्य 288 वर्ष (लगभग 300 वर्ष) तक प्रचलित रहकर छिन्न-भिन्न हो गया1


1. गुप्त साम्राज्य आधार पुस्तकें - भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), पृ० 108-132, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; जाटों का उत्कर्ष पृ० 72-77, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत का इतिहास पृ० 71-79, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 282-302; (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 175-198 लेखक बी० एस० दहिया; भारत में जाट राज्य उर्दू पृ० 75, 77, 326-328, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 54-56 एवं जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 72-79, लेखक ले० रामसरूप जून; ‘जय यौधेय’ पृ० 7-9, 148-150, लेखक राहुल सांकृत्यायन


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गुप्त साम्राज्य के पतन के समय भारतवर्ष में अन्य राज्यों की स्थापना

  1. हूणों ने भारत पर पहली बार सन् 458 ई० में आक्रमण किया किन्तु वीर योद्धा स्कन्दगुप्त ने पराजित करके उनको भगा दिया। सन् 484 ई० में हूणों ने ईरान को जीत लिया और फिर भारत पर आक्रमण कर दिया। इनके सरदार तूरमान ने गुप्त साम्राज्य को समाप्त करके पंजाब, राजपूताना, सिन्ध और मालवा पर अधिकार कर लिया और महाराजाधिराज की उपाधि धारण की।
  2. भारतवर्ष में हूणों का सबसे शक्तिशाली राजा और सरदार मिहिरकुल था जो अपने पिता राजा तूरमान के मरने पर राजगद्दी पर बैठा। वह बड़ा अत्याचारी, निर्दयी और कठोर हृदय वाला व्यक्ति था। इसकी राजधानी सियालकोट थी। इसका शासन सन् 510 ई० से आरम्भ हुआ। उसने बौद्धों के मन्दिरों, मठों और स्तूपों को बरबाद करवा दिया और असंख्य बौद्ध-भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। मध्य भारत के राजाओं ने सन् 528 ई० में इसके विरुद्ध युद्ध किया। मालवा के सम्राट् यशोधर्मा (वरिक गोत्र का जाट) ने मिहिरकुल को करारी हार दी और उसे कैद कर लिया, फिर उसे छोड़ दिया। तब मिहिरकुल कश्मीर में चला गया। कश्मीर से उसने गांधार देश पर आक्रमण करके वहां के राजा को भगा दिया। उसने सिन्ध के दोनों ओर के हजारों हिन्दुओं व बौद्धों को तलवार के घाट उतार दिया। उसकी जल्दी ही मृत्यु हो गई।
  3. काठियावाड़ में बलभी राज्य - स्कन्धगुप्त के सेनपति भटार्क ने बलभी में बलवंश (जाटवंश) की राजधानी स्थापित करके बलराज्य की नींव डाली। (देखो तृतीय अध्याय, बल/बालियन जाटवंश प्रकरण)।
  4. कन्नौज में मौखरीवंश (जाटवंश) ने राज्य स्थापित कर लिया। हराह्वा के लेख अनुसार मौखरी वंशज नरेश ईशान वर्मा ने हूणों को पराजित किया था। बिहार व अवध पर इस वंश का शासन था।
  5. बंगाल में गौड़ प्रदेश पर गुप्तवंशी (धारण जाट गोत्र) के राजा शशांक ने अपना राज्य स्थापित कर लिया।
  6. दक्षिण में चालुक्य-सोलंकी (अहलावत जाटवंश), पल्लववंश (जाटवंश) राजा शक्तिशाली हो गये थे। वाकटक (जाटवंश) विदर्भ राज्य, जो नर्मदा से कृष्णा नदी तक फैला हुआ था, स्वतन्त्र हो गया था।
  7. मगध राज्य - तीन आक्रमणों के बाद मगध पर कृष्णगुप्त नामक राजा का अधिकार हो गया। कृष्णगुप्त और उसके अधिकारियों का लगभग 200 वर्ष इस प्रदेश पर शासन रहा। ये शासक पहले वाले गुप्त सम्राटों के नाम से गुप्तशासक प्रसिद्ध हैं।
  8. आसाम स्वतन्त्र हो गया था। हर्षवर्धन के समय यहां पर प्रभाकरवर्धन राजा का शासन था जो हर्षवर्धन का मित्र था।
  9. थानेश्वर में पुष्पभूति राजा बन गया। यह वैस या वसाति जाटवंशज था। इसी के वंशज सम्राट् हर्षवर्धन हुए जो पूरे उत्तरी भारत के शासक बने1
  10. मालव में छठी शताब्दी के अन्तिम समय में गुप्तवंशी (धारण गोत्र जाट) राजा देवगुप्त शासक था।

1. हिन्दुस्तान की तारीख, पृ० 301-302 तथा पृ० 315-317; भारत का इतिहास, पृ० 78-79, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी, जाटों का उत्कर्ष पृ० 76, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-506


सम्राट् यशोधर्मा वरिक (जाटवंशज)

वारिक-वाहिक वाह्लीक चन्द्रवंशी जाटवंश प्राचीनकाल से प्रचलित है। रामायणकाल में इस जाटवंश का वर्णन मिलता है। इस वंश ने महाभारत युद्ध में भी भाग लिया। भारतवर्ष में इस वंश का शासन कई स्थानों पर रहा है। मालवा मन्दसौर में इस वंश के जाट नरेशों का शासनकाल सन् 340 ई० से आरम्भ हुआ और 540 ई० में समाप्त हो गया। बंधुवर्मा दशपुर (मन्दसौर) में सन् 473 ई० तक शासक था। बंधुवर्मा के पश्चात् विष्णुवर्धन जिसने बयाना में सन् 471 ई० में विजय स्तम्भ खड़ा किया था, मन्दसौर का शासक हुआ। मन्दसौर से बयाना तक के प्रान्त उसके अधिकार में थे। बंधुवर्मा से मिले हुए राज्य को थोड़े ही दिनों में विष्णुवर्धन व उसके पुत्र यशोधर्मा ने इतना विस्तृत कर दिया था जिसके कारण विष्णुवर्द्धन ने महाराजाधिराज और यशोधर्मा ने सम्राट् व विक्रमादित्य की पदवी धारण की थी। (काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका, भाग 12, अंक 3, पृ० 342)।

यशोधर्मा अपने पिता विष्णुवर्द्धन की मृत्यु के पश्चात् मालवा का सम्राट् बना। इसके समय में हूणों का सम्राट् मिहिरकुल सिन्ध, पंजाब, राजस्थान का शासक था जिसकी राजधानी सियालकोट थी। उसके अत्याचारों से भारतवासी कांप गये थे। उसने मालवा पर आक्रमण कर दिया। वीर सम्राट् यशोधर्मा वरिक ने सन् 528 ई० में मिहिरकुल से टक्कर ली और उसको बुरी तरह से हराया तथा उसे कैद भी कर लिया था परन्तु बाद में उसे छोड़ दिया।

यशोधर्मा की महान् वीरता का काम यह था कि उसने मिहिरकुल हूण को जीत लिया। चन्द्र के व्याकरण के अनुसार अजयज्जर्टो हूणान् जाटों ने हूणों को जीत लिया था। इसका प्रयोग यशोधर्मा वरिक के लिए किया गया है जो कि पंजाब का जाट था। यह युद्ध सन् 528 ई० में हुआ था।

यशोधर्मा के समय के तीन शिलालेख मालव संवत् 589 (सन् 532 ई०) के लिखे हुए मन्दसौर से प्राप्त हुए हैं। इनके लेख निम्न प्रकार से हैं -

  1. “प्रबल पराक्रमी गुप्त राजाओं ने भी जिन प्रदेशों को नहीं भोगा था और न ही अतिबली हूण राजाओं की आज्ञाओं का जहां तक प्रवेश हुआ था, ऐसे प्रदेशों पर भी वरिकवंशी महाराज यशोधर्मा का राज्य था।”
  2. “पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में समुद्र तक और उत्तर में हिमालय से दक्षिण में महेन्द्र पर्वत तक के सामन्त मुकुटमणियों से सुशोभित अपने सिर को सम्राट् यशोधर्मा के चरणों में नवाते हैं।”
  3. “अर्थात् यशोधर्मा के चरणकमलों में हूणों के प्रतापी सरदार मिहिरकुल को भी झुकना पड़ा।”

(इस प्रकार के शिलालेखों के आधार पर यशोधर्मा ने विक्रमादित्य की उपाधि भी धारण की थी। (भारत के प्राचीन राज्यवंश, भाग 2)।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-507


इस सम्राट् का राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में ट्रावनकोर तक फैल गया था। मगध का राजा उसका मित्र बन गया था। (जाट इतिहास, पृ० 708-709, लेखक ठा० देशराज)। महाराज यशोधर्मा के पुत्र शिलादित्य उपनाम हर्ष वरिक ने मालवा का राज्य सम्भाला। परन्तु वह जल्दी ही पराजित होकर कश्मीर भाग गया (सी० वी० वैद्य, हिन्दू मिडीवल इण्डिया)। मालवा से वरिक वंशी जाट राज्य सन् 540 ई० में समाप्त हो गया। फिर भी उनके छोटे-छोटे जनपद जहां-तहां बहुत समय तक बने रहे।

यह सम्राट् यशोधर्मा एवं वरिक सम्राटों का संक्षिप्त वर्णन किया है। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, वाह्लीक-वाहिक-वरिक जाटवंश प्रकरण)

सम्राट् हर्षवर्धन वसाति या वैस जाटवंशी

(सन् 606 ई० से 647 ई० तक)

यह वसाति या वैस जाटवंश वैदिककाल से प्रचलित है। भोगवतीपुरी का शासक नागराज वासुकि नामक सम्राट् वसाति या वैस गोत्र का था जो कि जाटगोत्र है। रामायणकाल तथा महाभारतकाल में इस वंश के जाटों का राज्य था। वैसवंशज जाट महाभारत युद्ध में भी लड़े थे।

श्रीमालपुर (पंजाब के होशियारपुर-जालन्धर सीमा पर एक गांव) प्राचीनकाल से वसाति जाटों का निवास-स्थान है। यहां से पुष्यभूति नामक इस गोत्र का जाट अपने साथियों के साथ चलकर कुरुक्षेत्र में आया और वहां श्रीकण्ठ (थानेश्वर) नगर बसाकर इसके चारों ओर के प्रदेश का राजा बन गया। इसका पुत्र नरवर्धन सन् 505 ई० में सिंहासन पर बैठा। इसका पुत्र आदित्यवर्धन थानेश्वर का शासक हुआ। इसकी महारानी महासेन गुप्ता नामक गुप्तवंश (धारण जाटगोत्र) की राजकुमारी थी। इससे पुत्र प्रभाकरवर्धन की उत्पत्ति हुई। पुष्पभूति वंश का पहला महान् शासक प्रभाकरवर्धन था। राज्यकवि बाणभट्ट के अनुसार - प्रभाकरवर्धन की शक्ति से हूण, सिंधु देश के राजा, गुर्जर, गांधार राजा, गुजरात के शासक, मालव देश के राजा भयभीत होकर दब चुके थे। इसने हूणों को पराजित किया तथा सिंध, उत्तरी गुजरात आदि को अपने अधीन किया। परन्तु उनके राज्य को छीना नहीं।

प्रभाकरवर्धन की रानी यशोमती से राज्यवर्धन का जन्म हुआ। उसके चार वर्ष बाद पुत्री राज्यश्री और उसके दो वर्ष बाद 4 जून सन् 590 ई० को हर्षवर्धन का शुभ जन्म हुआ। राज्यश्री का विवाह मौखरीवंशी (जाटगोत्र) कन्नौज नरेश ग्रहवर्मा के साथ हुआ।

मालवा देश के राजा देवगुप्त (धारण जाट) और मध्यबंगाल के राजा शशांक (धारण जाट) दोनों ने ग्रहवर्मा1 को मारकर राज्यश्री को कन्नौज में ही बन्दी बना दिया। यह सूचना थानेश्वर में उस समय मिली जब सन् 605 में सम्राट् प्रभाकरवर्धन की मृत्यु हुई थी। उसके बड़े लड़के राज्यवर्धन ने गद्दी सम्भाली। उसने 10,000 सेना के साथ मालवा पर आक्रमण कर दिया और देवगुप्त का वध कर दिया। फिर वहां से बंगाल पर आक्रमण कर दिया। परन्तु मध्यबंगाल में गौड़ जनपद के धारण गोत्री जाट राजा शशांक ने उससे अपनी पुत्री का विवाह करने का वचन देकर अपने महलों में राज्यवर्धन का वध कर दिया।


1. राजा ग्रहवर्मा कन्नौज का राजा था, हर्षवर्धन की बहन राज्यश्री उसकी रानी थी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-508


राज्यवर्धन की मृत्यु के पश्चात् 606 ई० में 16 वर्ष की आयु में हर्षवर्धन राजसिंहासन पर बैठा जिसने सन् 647 ई० तक शासन किया।

हर्षवर्धन का संक्षिप्त रूप में वर्णन -

हर्ष ने अपनी बहन राज्यश्री को विन्ध्या के वनों में तलाश कर लिया जो शत्रुओं के चंगुल से मुक्त होकर वहां पहुंच गई थी। वह उसे घर ले आया। ग्रहवर्मन का उत्तराधिकारी न होने के कारण हर्ष ने कन्नौज के राज्य को अपने राज्य में मिला लिया और उसको अपनी राजधानी बनाया।

हर्ष की विजयें -

  1. बंगाल के राजा शशांक को युद्ध में हराकर उसके प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया।
  2. पांच प्रदेशों की विजय - 606 ई० से 612 ई० तक हर्ष ने बंगाल, बिहार, उड़ीसा, कन्नौज और पंजाब को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया।
  3. बलभी अथवा गुजरात के राजा ध्रुवसेन द्वितीय (बल या बालानगोत्र का जाट) को हराया। परन्तु अन्त में दोनों में मैत्री हो गई जिससे प्रसन्न होकर हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया।
  4. पुलकेशिन द्वितीय (अहलावत) से युद्ध - ह्यून्त्सांग लिखता है कि “हर्ष ने शक्तिशाली विशाल सेना सहित इस सम्राट् के विरुद्ध चढाई की। परन्तु पुलकेशिन ने नर्वदा नदी के तट पर हर्ष को बुरी तरह पराजित किया। यह हर्ष के जीवन की पहली तथा अन्तिम हार थी। इसके राज्य की दक्षिणी सीमा नर्वदा नदी तक ही सीमित रह गई। इस शानदार विजय से पुलकेशिन द्वितीय की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और उसने ‘परमेश्वर’ की उपाधि धारण की। यह युद्ध 620 ई० में हुआ था।” पुलकेशिन द्वितीय भारत का सबसे शक्तिशाली सम्राट् हो गया।
  5. हर्ष ने सिंध, कश्मीर, नेपाल, कामरूप (असम) और गंजम प्रदेशों को जीत लिया था। वह पूरे उत्तरी भारत का सम्राट् बन गया।

हर्ष की एक महाश्वेता नामक रानी ईरान के बादशाह नौशेरवाँ की पोती थी और दूसरी कादम्बरी नामक रानी सौराष्ट्र की थी।

चीनी यात्री ह्यूनत्सांग 15 वर्ष तक भारतवर्ष में रहा। वह 8 वर्ष तक हर्ष के साथ रहा। उसकी लिखी पुस्तक “सि-यू-की” हर्ष के राज्यकाल के जानने का एक अमूल्य स्रोत है।


हर्ष एक सफल विजेता ही नहीं, बल्कि कुशल राजनीतिज्ञ भी था। उसने चीन तथा फारस से राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये। वह एक महान् संरक्षक, महान् दानी एवं महान् विद्वान् व साहित्यकार था। उसकी तुलना अशोक, समुद्रगुप्त तथा अकबर जैसे महान् सम्राटों से की जाती है।

वह आरम्भ में शिव का उपासक था, फिर बाद में बौद्ध-धर्म का अनुयायी बन गया था। उसकी कन्नौज तथा प्रयाग की सभा बड़ी प्रसिद्ध हैं। हर्ष हर 5 वर्ष के बाद प्रयाग में एक सभा का आयोजन करता था। सन् 643 ई० में बुलाई गई सभा में ह्यूनत्सांग ने भी भाग लिया था। इस सभा में 5 लाख लोगों तथा 20 राजाओं ने भाग लिया। उस सभा में जैन, बौद्ध, ब्राह्मण तथा सभी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-509


सम्प्रदायों को दान दिया। यह सभा 75 दिन तक चली। इस अवसर पर हर्ष ने 5 वर्षों में एकत्रित सारा धन दान में दे दिया। यहां तक कि उसके पास अपने वस्त्र भी न रहे। उसने अपनी बहन राज्यश्री से एक पुराना वस्त्र लेकर पहना। हर्ष ने विशाल “हरयाणा सर्वखाप पंचायत” की स्थापना की।

इस वसातिगोत्र के जाट सम्राट् का कोई पुत्र न था। उसका सन् 647 ई० में स्वर्गवास हो गया और इस वंश का साम्राज्य विनष्ट हो गया।

(अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, वसाति या वैस जाटवंश प्रकरण)

पाठक समझ गये होंगे कि महाराज युधिष्ठिर से लेकर सम्राट् हर्षवर्धन तक जाटों के भारतवर्ष पर हर समय विशाल तथा बड़े शक्तिशाली साम्राज्य लगातार रहते आये हैं। जिसका समय 3100 ई० पू० से सन् 647 ई० तक 3747 वर्ष होता है। परन्तु मौर या मौर्यवंश के बाद शुङ्ग ब्राह्मणों का शासन 112 वर्ष रहा और फिर उनके बाद कण्ववंश के ब्राह्मणों का शासन 45 वर्ष रहा। जिनका समय 157 वर्ष होता है। कण्ववंश के बाद फिर जाटों का शासन शुरु हुआ और सम्राट् हर्षवर्धन तक रहा। इन दो ब्राह्मणवंशों के शासन रहने से 3747-157 = 3590 वर्ष या लगभग 3600 वर्ष तक जाटों के भारतवर्ष पर शक्तिशाली शासन रहे हैं जैसा कि पिछले पृष्ठों पर विस्तार से वर्णन कर दिया गया है।

सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् जाटों के राज्य निर्बल होकर समाप्त होते रहे और भारतवर्ष के बड़े-बड़े प्रदेशों पर गूजर तथा राजपूतों के शासन स्थापित हो गये। जाटों के छोटे-छोटे और कहीं पर बड़े राज्य भी रहते रहे जो इनकी खापों की सहायता के बल पर चले। जाटों के छोटे-बड़े राज्य भारतवर्ष के लगभग सभी प्रान्तों में रहे जैसे पंजाब, हरयाणा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और दक्षिण आदि। परन्तु हर्षवर्धन, चन्द्रगुप्त मौर्य, समुद्रगुप्त आदि जैसा शक्तिशाली कोई नहीं हुआ जो जाटों के नाम को रोशन रक्खे। हम कह सकते हैं कि एक तरह से जाटों का सूर्य ढल गया। एक बात अवश्य हुई कि सम्राट् हर्षवर्धन के समय से बनी हुई विशाल हरयाणा सर्वखाप पंचायत ने समय-समय पर शत्रुओं के साथ युद्धों में वीरता दिखलाई। जिससे जाटों की वीरता की प्रशंसा शत्रुओं को भी करनी पड़ी तथा भारतवर्ष में भी इनकी मान बड़ाई रही। परन्तु भारतवर्ष के अनेक छोटे-छोटे राज्यों का संगठन न होने के कारण मुस्लिम आक्रमणकारी भारतवर्ष को लूट ले गये और फिर मुसलमान शासन स्थापित करके हमको गुलाम बनाये रखा।

मुगलों के शासनकाल में जाटों ने भरतपुर शक्तिशाली राज्य स्थापित करके और जाट सिक्खों ने पंजाब में अनेक रियासतें बनाकर और महाराजा रणजीत शिशि जाट ने पंजाब का एक विशाल तथा शक्तिशाली राज्य स्थापित करके फिर से जाटों का सितारा चमका दिया तथा खोये हुये सम्मान को फिर से प्राप्त कर लिया।

मुस्लिम काल में मराठों ने भी अपनी शक्ति बढ़ाई तथा दक्षिण और उत्तरी भारत पर भी कुछ समय अधिकार रखा। औरंगजेब के समय दक्षिण में सबसे शक्तिशाली राज्य वीर शिवाजी का था।


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विशाल हरयाणा सर्वखाप पंचायत का निर्माण

यह द्वितीय अध्याय, पंचायत प्रकरण में लिख दिया गया है कि आदिसृष्टि में गणराज्य या पंचायत राज्य के प्रथम निर्माता या संस्थापक शिवजी महाराज थे। आर्य तथा जाटों का पंचायत राज्य आदिसृष्टि से रहता आया है। इनके गणराज्य देश-विदेशों में रह रहे हैं। आज भी जाटों में पंचायतों का संगठन है जो संसार की किसी दूसरी जाति में नहीं है।

यौधेय जाटों का गणराज्य वैदिककाल से प्रचलित है। सम्राट् चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने इन यौधेयों को पराजित करके इनके गणराज्य को समाप्त कर दिया और अपने साम्राज्य में मिला लिया। इसके बाद इनके क्षेत्र में छोटी-छोटी पंचायती खाप अवश्य रहीं जो अपनी जनता की रक्षा तथा न्याय स्वयं करती थीं।

सम्राट् हर्षवर्धन के शासनकाल में उसके साम्राज्य में जाटों की पंचायती खाप हर क्षेत्र में थी। उसने 700 वि० संवत् (सन् 643 ई०) में कन्नौज में विशाल हरयाणा की सब खापों को बुलाकर एक सम्मेलन किया। इन सभी खापों का एक गणतन्त्रीय संगठन बनाया गया जिसका नाम हरयाणा सर्वखाप पंचायत रखा गया। तब इनके मुख्य स्थान कुरुक्षेत्र, दिल्ली, रोहतक, हरद्वार और कन्नौज थे। इसकी स्थापना को आज 1345 वर्ष हो गये हैं। अब भी इस “हरयाणा सर्वखाप पंचायत” का संगठन है जिसमें लगभग 300 खापें शामिल हैं।

विशाल हरयाणा की सीमाएं - राजनीतिक उथल-पुथल के कारण भारत राष्ट्र की सीमाओं की भांति हरयाणा की सीमाओं में भी फेर बदल होता रहा है। सामान्य रूप से इसकी सीमा यह रही - उत्तर में सतलुज नदी, पूर्व में हिमालय की तराई, देहरादून, हरद्वार, बरेली, मैनपुरी तक, दक्षिण में चम्बल नदी की घाटियां, मन्दसौर, पश्चिम में गंगानगर से ग्वालियर तक हैं। दिल्ली इसके बीच में है। सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध के बाद इस प्रदेश के क्षेत्रों को उत्तरप्रदेश, राजस्थान, पंजाब, आदि प्रदेशों में मिला दिया और विशाल हरयाणा का नाम मिटा दिया। किन्तु यह “हरयाणा सर्वखाप पंचायत” अब तक भी पहले की भांति विद्यमान है और समय-समय पर अपने सम्मेलन करती रहती है। संवत् 1362 विक्रमी (सन् 1305 ई०) चैत्र बदी दोज को विशाल हरयाणा की 185 खापों के 45000 प्रमुख लोगों ने शोरम गांव (जि० मुजफ्फरनगर उ० प्र०) को मन्त्री (वज़ीर खाप) पद प्रदान कर दिया और रावदेव राणा के बड़े पुत्र राव राम राणा को “हरयाणा सर्वखाप पंचायत” का महामन्त्री नियुक्त कर दिया। इसके साथ-साथ बलियान खाप को प्रमुख खाप मान लिया गया। यह शोरम गांव बालियान खाप का ही एक बड़ा गांव है। इस खाप में 84 गांव हैं। महामन्त्री राव राम राणा ने दिल्ली के चारों ओर 125 मील तक शान्ति स्थापित कर दी जिससे राजधानी सब तरह के खतरों से बच गई*

सम्राट् अकबर के शासनकाल से शोरम गांव में निम्नलिखित मन्त्री (वजीर खाप) रहे -

1. चौ० पच्चुमल 2. चौ० भानीचन्द 3. जादोंराय 4. राव हरिराय 5. टेकचन्द 6. किशनराय 7. श्योलाल 8. गुलाबसिंह 9. साईराम 10. सुजामल। ये सब शोरम गांव के निवासी थे। (अकबर ने चौ० पच्चुमल को सर्वखाप पंचायत के मंत्री पद की मान्यता दी थी और यह



नोट - * = विशाल हरयाणा का क्षेत्रफल 63462 वर्गमील तथा जनसंख्या 3,00,00,000 थी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-511


मान्यता बादशाह मुहम्मद शाह (सन् 1719-1748 ई०) के शासनकाल तक रही। (सर्वखाप रिकार्ड - शाही फरमान)।

बालियान खाप तथा अन्य खापों के प्रमुख व्यक्तियों ने संवत् 1981 (सन् 1924) बैशाख की अमावस को शोरम गांव की प्रसिद्ध चौपाल में चौधरी कबूल सिंह शोरम निवासी को सर्वखाप पंचायत का मन्त्री नियुक्त किया। आज तक भी इस पद को आप ही सम्भाले हुए हैं। आप इस हरयाणा सर्वखाप पंचायत के 28वें मन्त्री हैं। आपकी आयु 18 नवम्बर सन् 1986 ई० को 87 वर्ष की हो गई है। अब भी शरीर के सब अंग ठीक कार्य कर रहे हैं। ऊपर लिखित मंत्री राव हरिराम व श्योलाल आपके ही कुल के पूर्वज थे।

विशाल हरयाणा पंचायत की सैनिक शक्ति तथा उसकी बनावट व शिक्षा -

इस पंचायत में हर खाप व क्षेत्र तथा हर जाति के वीर योद्धा पुरुषों एवं स्त्रियों को छांटकर सेना में लिया जाता था। उनको सैनिक शिक्षा दी जाती थी जिसमें हर प्रकार के शस्त्र चलाना, घुड़सवारी, तीरन्दाजी, भाले-तलवार चलाना तथा बन्दूक व तोप चलाने आदि की सिखलाई दी जाती थी। मल्ल योद्धाओं की अलग से पैदल व घुड़सवार सेना थी। इस सेना की सबसे निराली सैनिक युद्धविद्या छापामार युद्ध (छिपा रहकर आक्रमण करना) थी। यहां के वीर योद्धाओं को समर्थ गुरु रामदास अपने साथ महाराष्ट्र ले गया था जहां पर उन्होंने मराठा वीरों तथा छत्रपति शिवाजी को छापामार युद्ध की शिक्षा दी थी। वीरांगनाओं की अलग सेना थी।

सैनिक शिक्षक कैम्पों में रहकर शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् अधिकतर मनुष्य अपने घरों को चले जाते थे। कुछ सैनिक शिक्षक स्थायी रूप से कैम्पों में ही रहते थे। इन सब वीर सैनिकों की संख्या लाखों में थी तथा लगभग एक लाख संख्या तो लड़कियों की सेना की थी। इनमें कई हजार घुड़सवार सैनिक थे। शत्रु से युद्ध करने के अवसर पर इन सैनिकों को सूचना देकर उनके घरों से बुला लिया जाता था। इस सेना का एक महासेनापति होता था तथा उपसेनापति कई होते थे और बड़ी तथा छोटी सैनिक टुकड़ियों के कमाण्डर होते थे। लड़कियों की सेना की महासेनापति तथा उपसेनापति लड़कियां होती थीं। इन सेनाओं में सब जातियों के नर-नारी थे किन्तु अधिक संख्या जाटों की थी, दूसरी जातियों की संख्या कम थी। युद्धों के अवसर पर हरयाणा के सभी नागरिक इन सैनिकों को भोजन, कपड़े आदि तथा हर प्रकार से सहायता करते थे।

हरयाणा सर्वखाप पंचायत की इस सेना ने देश पर आक्रमणकारियों तथा दिल्ली पर शासन करने वाले बादशाहों तथा अंग्रेजों से भयंकर युद्ध करके अपनी वीरता की धाक बैठाई। इस सेना ने समय-समय पर कई राजाओं एवं बादशाहों को उनके निवेदन करने पर सहायता भी दी है। इन सब घटनाओं का वर्णन उचित स्थान पर किया जायेगा।

लोगों के आपसी लड़ाई झगड़ों का न्याय पंचायत द्वारा ही किया जाता था जो सबको स्वीकार होता था।

इस हरयाणा सर्वखाप पंचायत का आरम्भ से आज तक जैसे एक मन्त्री होता आया है वैसे ही एक प्रधान भी रहा है। समय-समय पर अनेक पंचायतें हुई हैं जिनका वर्णन उचित स्थान पर लिख


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-512


दिया जायेगा। अंग्रेजी राज्य में लार्ड मैकाले ने इन पंचायतों पर पाबन्दी लगाकर अंग्रेजी अदालतें प्रचलित कर दी थीं। फिर प्रथम स्वाधीनता संग्राम सन् 1857 ई० से सन् 1947 ई० तक कोई पंचायती सभा या सम्मेलन नहीं होने दिया। अतः स्वाधीन भारत में सबसे पहले 8-9 मार्च सन् 1950 ई० को प्रथम सर्वखाप पंचायत ग्राम शोरम में हुई जिसमें लगभग 60,000 पंचों ने भाग लिया। यह पंचायत श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, मुख्य अधिष्ठाता किरठल महाविद्यालय तथा ‘सम्राट् पत्र’ प्रेस, पहाड़ी धीरज दिल्ली, के सम्पादक की अध्यक्षता में हुई थी। अन्य स्थानों पर ये पंचायती सभाएं बाद में हुईं।

इस सर्वखाप पंचायत के प्रधान श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी आर्य अहलावत सन् 1956 ई० से 27-8-1979 ई० दोपहर बाद एक बजे स्वर्गवास होने तक रहे। इनके पश्चात् भूतपूर्व न्यायाधीश चौ० महावीरसिंह जी प्रधान चुने गए जो अब तक भी वही प्रधान हैं। आपका जिला गाजियाबाद है। आज तक भी हरयाणा सर्वखाप पंचायतें समय अनुसार होती रहती हैं। 12 जून 1983 ई० को हरयाणा सर्वजातीय सर्वखाप पंचायत स्वामी कर्मपाल जी की अध्यक्षता में गोहाना जि० सोनीपत में हुई जिसमें उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान व हरयाणा की अनेक खापों ने भाग लिया।

इस विशाल पंचायती सम्मेलन का उद्देश्य सामाजिक कुरीतियों, विवाह शादी में फिजूल खर्ची, व दहेज प्रथा आदि बुराइयों को रोकना तथा आर्यसमाज द्वारा शुद्ध किए गये मूळे जाटों से रोटी-बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने का था। इन विषयों पर किए प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पास किया गया। स्वामी कर्मपाल जी की अध्यक्षता में 5 मार्च 1988 ई० को गोमठ मन्दिर मैदान गढी (दिल्ली) में हरयाणा, दिल्ली, उत्तरप्रदेश और राजस्थान की खापों की एक बड़ी पंचायत हुई जिसका विषय उपर्युक्त सामाजिक कुरीतियों को रोकना था।

ऐतिहासिक सामग्री -

श्री चौ. कबूलसिंह गांव व डा० शोरम जि० मुजफ्फरनगर, मन्त्री हरयाणा सर्वखाप पंचायत के घर में सम्राट् हर्षवर्धन के समय से स्वाधीन भारत के समय तक के तथा कुछ प्राचीनकाल के ऐतिहासिक लेखों की सामग्री के बड़े भंडार हैं। इस ऐतिहासिक सामग्री को जो लगभग 1350 वर्ष से हरयाणा सर्वखाप पंचायत के मन्त्रियों के घर रहती आई है, मुसलमान आक्रमणकारियों एवं दिल्ली के बादशाहों तथा अंग्रेजों ने बरबाद करने के असफल प्रयत्न किए। इस सामग्री को सुरक्षित रखने के लिए मन्त्रियों तथा खाप के वीर योद्धाओं ने बड़े युद्ध किये और बलिदान दिए।

दिनांक 17-1-1970 को श्री गिरीशचन्द्र द्विवेदी चौ० कबूलसिंह मन्त्री के घर शोरम में गये। वहां उन्होंने इस सामग्री को देखा तथा बहुत लेख अपने साथ ले गये। उन्होंने लिखा है कि “आज मुझे जाटों से सम्बन्धित यह पुरानी सामग्री देखने को मिली। सामग्री बहुत ही कीमती है। जाटों के इतिहास पर इससे बहुत प्रकाश पड़ता है। ऐसी सामग्री और कहीं प्राप्य नहीं है। मैंने जाटों के इतिहास के अध्ययन पर पिछले आठ वर्ष लगाये हैं और बहुत सी नई सामग्री खोजी है। परन्तु इस तरह की बात और कहीं नहीं मिली। ”

प्रो० श्री गिरीशचन्द्र द्विवेदी ने दिनांक 11-1-1973 को मन्त्री श्री कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत को


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-513


एक पत्र लिखा जिसका सार यह है -

“ईश्वर की कृपा व आप बुजुर्गों के आशीर्वाद से मुझे पी०-एच०-डी० की डिग्री इस वर्ष 9-1-1973 को मिल गई है। मेरी थीसिस (Thesis) की अन्य विद्वानों ने बहुत ही प्रशंसा की है। डिग्री मिलने की तो खुशी है ही, सबसे ज्यादा खुशी मुझे इस बात की है कि महान् जाट बन्धुओं के गलत लिखे इतिहास को सुधारने का मुझे मौका मिला। इसमें पिछले दिनों जगह-जगह बाधाएं आईं। मेरे जाट भाइयों की उचित तारीफ पर बहुतों को बड़ी आपत्ति रही किन्तु मैं अपने तर्क पर दृढ़ रहा और विद्वानों को कहना पड़ा कि आपने जाट इतिहास की भ्रान्तियों का पहली बार पूरी शक्ति द्वारा निवारण किया। आपने जो सहानुभूति एवं सहायता मेरे इस काम में की, उसका मैं बड़ा आभारी हूं। आपकी पुस्तकें मेरे पास पूरी तरह सुरक्षित हैं।”
आपका
गिरीशचन्द्र द्विवेदी प्रोफेसर इतिहास विभाग
काशी विश्वविद्यालय वाराणसी1 (उ० प्र०)

मैं दिनांक 18-10-84 को चौ० कबूलसिंह मन्त्री हरयाणा सर्वखाप पंचायत के घर शोरम गांव में गया। वहां पर कई दिन रहकर वहां के ऐतिहासिक रिकार्ड से जाट इतिहास सम्बन्धी पर्याप्त आवश्यक ऐतिहासिक सामग्री लाया हूं। इस कार्य में मन्त्री जी ने पूरा सहयोग देकर मुझ पर बड़ी कृपा ही है। अतः मैं उनका बड़ा आभारी हूँ (लेखक)।

इन लेखों के हवाले पिछले अध्यायों में कई स्थानों पर दिये हैं। अगले अध्याय में इनके हवाले उचित स्थान पर दिए जायेंगे।


1. इतिहास सर्वखाप पंचायत (बालयान खाप) पहला भाग, पृ० 9, लेखक चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत।


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पंचम अध्याय समाप्त




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