Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VI

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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षष्ठ अध्याय: सम्राट् हर्षवर्धन के बाद से महाराजा पृथ्वीराज चौहान तक जाटराज्य एवं शक्ति
(समय सन् 647 ई० से सन् 1192 ई० तक = 545 वर्ष)

संक्षिप्त वर्णन

सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु सन् 647 ई० में हुई। उसके बाद जाटों के तथा अन्य जातियों के छोटे-छोटे राज्य भारतवर्ष में स्थापित हो गये। पृथ्वीराज चौहान तक के समय में कोई बड़ा शक्तिशाली सम्राट् नहीं हुआ जो पूरे भारतवर्ष का शासक रहा हो। इसी समय में गुर्जरों, राजपूतों, जाटों, अहीरों के राज्य एवं शक्ति किसी प्रान्त में कम तथा किसी प्रान्त में अधिक रही। विदेशी आक्रमणकारियों के आक्रमण इसी कारण होते रहे क्योंकि भारतवर्ष में इनके आपसी युद्ध होते रहे तथा शत्रुता रही। विदेशी आक्रमणकारियों का इन वीरों ने समय-समय पर बड़ी वीरता से मुकाबला किया और देश की रक्षा करके देशभक्ति का अद्भुत नमूना दिया।

उस समय के कुछ पश्चात् भारतवर्ष पर मुस्लिम शासन स्थापित होने के समय दक्षिण में मराठा जाति का उदय हुआ जिन्होंने शत्रुओं के साथ युद्ध करके अपनी शक्ति की धाक भारतवर्ष में बैठा दी।

हमारा मत है कि जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत और मराठे क्षत्रिय आर्यवंशज हैं, विदेशी नहीं किन्तु भारत के ही आदिवासी हैं और सब एक ही श्रेणी के लोग हैं।

दीनबन्धु सर चौ० छोटूराम ने एक शब्द अजगर (AJGR) की घोषणा की थी अर्थात् अहीर, जाट, गुर्जर, राजपूत को एक ही श्रेणी के क्षत्रिय आर्य होने के आधार पर इनका एक ही संगठन बनाने का प्रयत्न किया था।

इन जातियों की उत्पत्ति तथा राज्य का वर्णन करने की आवश्यकता है। अतः इनका संक्षिप्त वर्णन किया जायेगा जो कि निम्न प्रकार से है।

गुर्जरों की उत्पत्ति एवं राज्य

जिस देश के व्यक्ति शत्रुओं के आक्रमणों और परिश्रम आदि को नष्ट करने वाले हों उन साहसी सूरमाओं को गुर्जर कहा जाता है। शत्रु के लिए युद्ध में भारी पड़ने के कारण इन्हें पहले गुरुतर कहा गया, किसी के मतानुसार बड़े व्यक्ति के नाते गुरुजन कहकर अपभ्रंश स्वरूप ‘गुर्जर’ शब्द का चलन हुआ। पं० गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार प्राचीनकाल में गुर्जर नामक एक राजवंश था। अपने मूल पुरुषों के गुणों के आधार पर इस वंश का नाम गुर्जर पड़ा था। उस पराक्रमी गुर्जर के नाम पर उनके अधीन देश ‘गुर्जर’, ‘गुर्जरात्रा’ और ‘गुर्जर देश’ प्रसिद्ध हुए।

कुछ इतिहासकारों ने गुर्जरों को विदेशी और विदेशियों की सन्तान तथा मनगढ़न्त बातें लिखी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-515


हैं। वे लेखक कर्नल जेम्स टॉड, सर जेम्स कैम्पवेल, विसेन्ट स्मिथ, श्री के० एम० मुन्शी (गवर्नर उ० प्र०), मि० क्रुक, डा० भण्डारकर, मि० कनिंघम आदि हैं। इनके लेख असत्य तथा अमान्य हैं। इनके लेखों का वर्णन करने की आवश्यकता नहीं।

युक्ति तर्क प्रमाण और इतिहास से यह सिद्ध है कि गुर्जर शुद्ध क्षत्रिय और भारतीय हैं। ये लोग लड़ाकू प्रवृत्ति के, पशुपालक एवं कृषक पद्धति के हैं। इन्हें चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने श्रेष्ठ योद्धा क्षत्रिय लिखा है। अबुजैद (In Elliot) की भाषा में “भारत के जुजर (गूजर) लोग हिन्दुस्तानी राजशासकों में चौथी श्रेणी के थे।”

सर हरबर्ट रिस्ले साहब ने सन् 1901 की जनगणना में शीर्षमापन सिद्धान्त से चेहरा और सिर नापने की नई प्रणाली अपनाकर गुर्जरों को आर्यन रेस के सिद्ध किया है। उनकी सीधी ऊँची नासिका, लम्बी गर्दन, ऊँचा माथा, सुडौल भरा हुआ शरीर देखकर पाश्चात्य ऐतिहासिकों ने भी इन्हें भारतीय एवं आर्य प्रमाणित किया है। सर इबट्सन ने “पंजाब कास्ट” में पृ० 194 पर लिखा है कि “गुर्जर पंजाब की सबसे बड़ी आठ जातियों में से एक हैं। वे डील-डौल और शारीरिक बनावट में जाटों से मिलते-जुलते हैं। सामाजिक रीति-रिवाजों में जाटों के समान हैं। किन्तु जाटों से कुछ उन्नीस हैं। दोनों जातियां बिना किसी परहेज के परस्पर खान-पान करती हैं।” इस प्रकार इनके क्षत्रिय होने में कोई सन्देह नहीं। (गुर्जर वीरगाथा, पृ० 1 पर लेखक रतनालाल वर्मा ने भी यही बातें लिखी हैं)।

गुर्जरों के वे वंश (गोत्र) जो कि जाट व राजपूत वंशों से मिलते जुलते हैं -

चौहान, सोलंकी, परमार, प्रतिहार, चापोत्कट, चावड़ा, राठी, काकतीय, कछवाहे (कुशवाहा), कुल्हार (कुल्हरि) कंटारिये (कटारिया), पोसवाल (पोरसवाल), तंवर, भाटी, चाहल, चन्देले, धनकरन (धनकड़), बैसले, रावत, खावड़ (खोबे), राजौरिया, डागुर, बलान (बालान), खोखर, गोधा, गौतम, बासक, मुदान (मधान), सिकरवार, जादव, मोरे, कसाने (कुषाण), गहलौत आदि। गुर्जरों के हूण गोत्र के भी 12 गांव तो नवल आदि मेरठ जिले में गढरोड पर ही हैं। इससे सिद्ध होता है कि गुर्जरों में शक, हूण सम्मिलित अवश्य हुए किन्तु सम्पूर्ण गुर्जरों को शक, हूण तथा उनकी सन्तान कहना निरर्थक, अन्याय और मिथ्या है उनके आर्य और भारतीय होने में उनके उपरोक्त वंश भी एक प्रमाण1 हैं।

नोट-
शक, कुषाण, सीथियन (सीथिया में निवास एवं राज्य करने वाले जाट), तुर्क, श्वेत हूण या हेफताल (Hephthalites), ये सब जाट थे और भारतवर्ष से जाकर विदेशों में बस गये थे जो कि क्षत्रिय आर्य थे। ये केवल जाट गोत्र हैं और सारी जाट जाति इनकी औलाद या सन्तान नहीं है।

यवन - भारतवर्ष से गये हुए चन्द्रवंशी क्षत्रिय आर्य हैं जो कि ययाति के पुत्र तुर्वसु की सन्तान हैं। इन सब वंशों को प्रमाणों द्वारा जाट सिद्ध किया गया है (पूरी जानकारी के लिए देखो चतुर्थ अध्याय, इन जातियों के प्रकरण)।

इन जातियों ने भारतवर्ष पर आक्रमण किये और इनको देश से बाहर भी धकेला गया। इन्होंने भारत में राज्य भी स्थापित किये और भारतीयों ने इनके राज्य समाप्त भी कर दिये। परन्तु इन


1. जाटों का उत्कर्ष, पृ० 251-255, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-516


जातियों में से कुछ लोग यहां ही बस गये और हिन्दू-धर्म के अनुयायी होकर यहां की जातियों में घुल-मिल गये। तूरमान और उसका पुत्र मिहिरकुल श्वेत हूण थे जो जौहल जाट गोत्र के थे*। उनके सैनिक भी श्वेत हूण थे। ये लोग मंगोलिया के हूणों से भिन्न थे। यदि ये बाहर से आने वाली जाति के लोग यहां की किसी जाति में मिल भी गये, यह भी क्षत्रिय आर्य जाट लोग थे। परन्तु भारत की कोई भी पूर्ण जाति जैसे गुर्जर, राजपूत, जाट, अहीर, मराठा आदि इनकी सन्तान नहीं है। (लेखक)

श्री के० एम० मुन्शी ने स्वीकार किया है कि छठी शताब्दी के प्रारम्भ से पहले अर्थात् शकराजा रुद्रदामा आदि के समय गुर्जर प्रदेश, गुर्जरात्रा अर्थात् गुजरात नाम का कोई प्रदेश नहीं था, और यह भी स्वीकार किया है कि सन् 500 ई० के तुरन्त पश्चात् ही आबू पर्वत के चारों ओर का विस्तृत क्षेत्र ‘गुर्जर प्रदेश’ के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हो गया। उस समय आबू के चारों ओर ऐसे कुलों का समूह बसता था, जिनका रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा एवं रीति-रिवाज एक थे, और वह शुद्ध आर्य संस्कृति से ओत-प्रोत थे। उनके प्रतिहार, परमार, चालुक्य (सोलंकी) व चौहान आदि वंशों के शासक, वीर विजेता अपनी विजयों के साथ अपनी मातृभूमि गुर्जर देश या गुर्जरात्रा आदि का नाम (गुर्जर) चारों ओर के भूखण्डों में ले गये। गुर्जर देश गुर्जरात्रा या गुजरात की सीमाएं स्थायी नहीं थीं, बल्कि वे गुर्जर राजाओं के राज्य विस्तार के साथ घटती बढती रहती थीं। उससे भी गुर्जर जाति ही सिद्ध होती है और देश (गुर्जर देश) की सीमाएं उक्त जाति के राज्य विस्तार के साथ ही घटती बढती रहती थीं1

गूजर शब्द पहली बार सन् 585 ई० में सुना गया, जब हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने इनको पराजित किया। उससे पहले गूजर नाम प्रकाशित नहीं था। गुजरात प्रान्त का नाम भी दसवीं शताब्दी के बाद पड़ा, इससे पहले इस प्रान्त का नाम लॉट था2

गुर्जरों के प्राचीन और अर्वाचीन (आधुनिक) राज्य -

गुर्जरों के प्राचीन एवं प्रभावशाली राज्यों में भीनमाल अग्रगण्य था। यह भीनमाल जोधपुर से लगभग 70 मील दक्षिण में आबू पर्वत व लोनी नदी के मध्य स्थित था। यहां 450 से 550 ई० के मध्य किसी समय यह राज्य चाप-चापोत्कट वंशी गुर्जरों ने स्थापित किया। कल्चुरि नाग लाट जीतकर ताप्ती और नर्मदा के मध्य के प्रदेशों से लेकर विन्ध्य पर्वतमाला तक भीनमाल के चाप गुर्जर क्षत्रियों का राज्य विस्तृत हो गया। इनकी राजधानी भीनमाल थी। परन्तु उसी समय सम्राट् हर्षवर्धन के पिता प्रभाकरवर्धन ने जब विजय यात्रा आरम्भ की तो उसने गुर्जर शक्ति पर भी आघात किया। जबकि अभी गुर्जर राजनैतिक मंच पर चमके ही थे। परन्तु यह भीनमाल राज्य इस आक्रमण से भी सुरक्षित रहा और बढ़ता ही रहा। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने भीनमाल का बड़े अच्छे रूप में वर्णन किया है। उसने लिखा है कि “भीनमाल का 20 वर्षीय नवयुवक क्षत्रिय राजा अपने साहस और बुद्धि के लिए प्रसिद्ध है और वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी है। यहां के चापवंशी गुर्जर बड़े शक्तिशाली और धनधान्यपूर्ण देश के स्वामी हैं।” उसने इस राज्य को 900 मील के


(*) = जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज XIV, लेखक बी० एस० दहिया।
आधार पुस्तकें - (1) गुर्जर वीर गाथा, पृ० 2-3, लेखक रतनलाल वर्मा। (2) जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 106 लेखक बी० एस० दहिया।


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विस्तार में बताया है।

सन् 725 ई० में भीनमाल के गुर्जरों पर सिन्ध विजय के बाद अरबों ने आक्रमण किया। मारवाड़ पर आक्रमण करके भीनमाल को ध्वस्त कर दिया। 726 ई० में नागभट्ट नामी प्रतिहार गुर्जर ने भीनमाल को हस्तगत करके प्रतिहार साम्राज्य की आधारशिला रखी1

गुर्जरों ने भीनमाल, भड़ौंच, आबूचन्द्रावती, उज्जैन, कन्नौज आदि को अपनी राजधानी बनाया। गुर्जर प्रतिहार वंश के प्रमुख सम्राटों में नागभट्ट प्रथम, देवराज, वत्सराज, नागभट्ट द्वितीय, रामभद्र व मिहिर भोज, महेन्द्रपाल, महीपाल आदि शक्तिशाली सम्राट् थे और इन्होंने अरब आक्रमणकारियों से युद्ध किये। सोलंकी राजाओं में मूलराज सोलंकी, चामुण्डराज, दुर्लभराज, भीमदेव, कर्णदेव, जयसिंह, सिद्धराज, कुमारपाल, अजयपाल, बालमूलराज, भीमदेव द्वितीय, विशालदेव, सारदेव व कर्णदेव प्रसिद्ध हैं2

जाट इतिहास इंग्लिश पृ० 116 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने लिखा है कि - बलहारा जाटों का 900 ई० में उत्तर पश्चिमी भारत की सीमाओं पर बड़ा शक्तिशाली राज्य था। इनकी अरब बादशाहों से मित्रता थी। गुर्जर लोग अरबों के शत्रु थे। उस समय गुर्जरों का शासन भारत के बहुत प्रान्तों पर फैल चुका था (सुलेमान नदवी का लेख तारीख-ए-तिवरी)। लगभग 70 जाट गोत्र गुर्जर संघ में मिल गये और अपने को गुर्जर कहने लग गये। उनमें से कुछ जाट गोत्रों के नाम निम्नलिखित हैं -

1. तक्षक 2. बांदर 3. भट्ठी 4. बाबर 5. भिण्ड 6. फलसवाल 7. पोरसवाल 8. तँवर 9. ठुकरीला 10. छोंकर 11. राठी 12. कटारिया 13. खोखर 14. खैरे 15. गौरिया 16. चालूक्य 17. घनघस 18. पूनिया 19. जागलान 20. लाम्बा 21. तीतरवाल 22. भालोट 23. भाद/ भादज 24. भूरिया 25. बागड़ी 26. बंसले 27. अंजना 28. टांक 29. पूनी 30. जार्जया 31. सिंगल 32. सीधड़ 33. गहरवाल आदि।

अहीर जाति की उत्पत्ति तथा राज्य

अहीर जाति के उत्पत्ति आदि सृष्टि या वैदिककाल से है। यह चन्द्रवंशी आर्य हैं जो यदुवंशी हैं। ब्रह्मा जी के आठवीं पीढी में चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति हुए। उनके 5 पुत्र - यदु, तुर्वसु, पुरु, अनु और द्रुह्यु हुए। सबसे बड़े पुत्र यदु थे जिनके 4 पुत्र सहस्रजित, क्रोष्टु (करोक्षत्री) और नहुष हुए। सहस्रजित के पुत्र शतजित के तीन पुत्र हैहय, वेणु और हय हुए। उस हय के वंशज या सन्तान अहीर नाम से प्रसिद्ध हुई। यदु के पुत्र क्रोष्टु (करोक्षत्री) की वंशावली में श्रीकृष्ण जी हुये। अहीर केवल यदुवंशज हय की ही सन्तान हैं जबकि जाट ययाति के पांचों पुत्रों के वंशज हैं। श्रीकृष्ण जी को हमने ठोस प्रमाण देकर जाट सिद्ध किया है। (देखो तृतीय अध्याय, यादववंश प्रकरण)। (यदुवंश को देखो प्रथम अध्याय, चन्द्रवंश की वंशावली)


1. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष, पृ० 255-256, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; गुर्जर वीर गाथा, पृ० 8-9, लेखक रतनलाल वर्मा।
2. 1857 के गुर्जर शहीद, पृ० 11, लेखक प्रि० गणपतसिंह।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-518


जाट और अहीर एक ही परिवार या खानदान के लोग हैं। आज अहीर जाति का प्रत्येक व्यक्ति अपने नाम के सामने यादव शब्द लगाता है और श्रीकृष्ण जी को अपना देवता मानकर पूजा करता है। जाट लोग भी श्रीकृष्ण को अपना देवता मानते हैं। जैसा कि ऊपर लिख दिया, महाराज कृष्ण स्वयं जाट थे।

पण्डित लेखराम जी आर्य मुसाफिर ने ‘आर्य जिहाद’ में व्याकरण के अनुसार यदु से जादू, जाद, जात और जाट बनना बतलाया है। टॉड ने भी माना है कि जाट यादव हैं। मि० नेशफील्ड और विल्सन साहब ने भी टॉड की राय को दाद दी है। मि० नेशफील्ड जो भारतीय जातीय-शास्त्र के एक अद्वितीय ज्ञाता माने जाते हैं, लिखते हैं कि “जाट, यदु या जदु के वर्त्तमान हिन्दी उच्चारण के सिवा कोई दूसरा शब्द नहीं है। यह वही जाति है जिस में श्रीकृष्ण पैदा हुये थे।” ऐसे अनेक उदाहरण हैं (देखो द्वितीय अध्याय, जाट वीरों की उत्पत्ति प्रकरण)।

अहीर और जाटों के रंगरूप, डीलडौल, मुखाकृति, शारीरिक बनावट, आचार-विचार, चरित्र और खानपान एक जैसे हैं। जाट, अहीर और गुर्जर क्षत्रिय आर्य एक ही परिवार के लोग हैं। इनमें एक ही कमी है कि इनके आपस में विवाह शादियां नहीं होतीं। उत्तरी भारत में जाट और अहीर साथ-साथ बसे हुए हैं। अहीर बम्बई से कलकत्ता तक हर प्रान्त में पाए जाते हैं। प्राचीन काल में गुजरात, काठियावाड़ अहीरों के देश थे। इनकी घनी आबादी जिला मिर्जापुर, बदायूँ में है। इसलिए यह क्षेत्र अहीरवाड़ा कहलाता है। गुर्जरों ने अहीरों को काठियावाड़ देश से निकाल दिया था। एक पहाड़ी गुफा से अहीर राजा का शिलालेख मिला है। राजा समुद्रगुप्त के एक स्तम्भ पर एक शक्तिशाली अहीर संघ का उल्लेख है। सम्राट् समुद्रगुप्त की सेना में एक अहीर भी सेना अधिकारी था।

चीन में उनकी भाषा अनुसार जाटों को यूची और अहीरों को शू नाम से पुकारते हैं। ईरान में जाटालि प्रदेश के निकट ही अहीरों की बस्तियां भी मिलती हैं। ये लोग 2000 ई० पू० ईरान में आबाद थे।

हरयाणा के जिला महेन्द्रगढ़ की रेवाड़ी तहसील में अहीरों की घनी आबादी है। यह क्षेत्र अहीरवाल कहलाता है। यहां के राजा तुलाराम वीर योद्धा ने सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता युद्ध में बड़ा भाग लिया था।

अहीरों के दो वंश हैं - एक यदुवंशी और दूसरा गवालवंशी। यदुवंशी अहीर, गवालवंशी अहीरों को अपने से निम्नकोटि का मानते हैं, इसलिए उनसे रिश्ते नाते नहीं करते। परन्तु गवालवंशी भी यदुवंशी ही हैं। उन्होंने गऊ चराने, दूध बेचने का धन्धा अपनाया है और हरयाणा के अहीरों ने कृषि का धन्धा ही रखा।

अहीरों के अधिक गोत्र स्थान के नाम पर बने हैं जहां पर उनका निवास रहा। प्रसिद्ध पुरुषों के नाम पर प्रचलित इनके गोत्र कम हैं। तब भी अहीर गोत्र जाटों के गोत्रों से मिलते हैं। जाट गोत्रों से मिलने वाले अहीर गोत्रों के कुछ नाम निम्नलिखित हैं - 1. कादल 2. लोहचब 3. नैन 4. डागर 5. धालीवाल 6. सिसौदिया 7. रावत 8. कठ 9. ठुकरिला 10. मल्ही 11. नारा 12. बोगदा/बोगदावत 13. बूरा 14. मूण्ड 15. भिण्ड 16. यदु 17. सिकरवाल 18. अत्री 19. बाछिक


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-519


20. देशवाल 21. किंग 22. दहिया 23. झाझड़या 24. मल्ल 25. धारण 26. गहला 27. लाम्बा आदि2

नोट - भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं में जाटों की भांति अहीर लोग भी मुसलमानधर्मी बन गये।

राजपूत जाति की उत्पत्ति तथा राज्य

राजपूत शब्द सातवीं शताब्दी से पूर्व कहीं पर भी लिखा हुआ नहीं मिलता। चीनी इतिहासकार ह्यूनत्सांग ने भी सातवीं शताब्दी में राजपूत शब्द नहीं लिखा। डॉ० बुद्धप्रकाश ने लिखा है कि “अरब आक्रमणों के समय (8वीं ई० से 11वीं ई०) में क्षत्रिय शब्द कदाचित् नहीं मिलता तथा राजपूत शब्द की उत्पत्ति नहीं हुई थी।”

डा० पी० सारन (Dr. P. Saran) के अनुसार “राजपूत शब्द इसकी जाति सम्बन्धी ज्ञान के रूप में दसवीं शताब्दी तक प्रचलित नहीं हुआ।” (P. Saran, Studies in Medieval Indian History, P. 23)।

यह सच्चाई है कि मुसलमान इतिहासज्ञों के किसी भी इतिहास में यह लिखा हुआ नहीं है कि कभी भी मुसलमानों के साथ राजपूतों का कोई युद्ध पंजाब, सिन्ध, बलोचिस्तान, मकरान, कैकान, अफगानिस्तान, गजनी और कश्मीर आदि प्रान्तों में हुआ। भारतवर्ष के इतिहास में इसके अपने राजपूत इतिहासज्ञों ने उस समय राजपूत शब्द का होना बिल्कुल नहीं लिखा2। (Elliot and Dowson, Vol I)।

वास्तव में राजपूत नामक जाति भारत के इतिहास में बारहवीं सदी तक नहीं मिलती है। गुर्जर साम्राज्य के पतन के पश्चात् राजपुत्र शब्द अपभ्रंश होकर राजपूत हो गया। अब ये राजपूत अपने को गुर्जरों से पृथक् मानते हैं। विदेशी और पक्षपाती इतिहासकारों ने राजपूत जाति पृथक् पैदा करने में बड़ा योगदान दिया है3

जाट और राजपूतों का इतिहास परस्पर गुंथा हुआ है। इतिहासवेत्ता यह सिद्ध करते हैं कि जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत सब एक ही श्रेणी के लोग हैं।

पौराणिक ब्राह्मणों ने केवल राजपूतों को शुद्ध क्षत्रिय घोषित कर दिया। इसलिए अनेक जातियों के लोग स्वयं को राजपूत और राजपूतवंशी कहलाने में अपनी महत्ता समझने लगे। सुनार, गडरिये, छीपी, कोरी, कुर्मी, बंजारे, कहार आदि जातियां भी अपने को राजपूत कहने लगीं। राजपूत शासनकाल और इनके शक्तिकाल में जो दल इनके साथी या सहायक बनते रहे वे सब राजपूत कहलाने लगे।

राजपूतों का यह कहना चला आ रहा है कि सारी जाट, अहीर और गुर्जर जातियां, जाति से


1. आधार पुस्तकें - जाट इतिहास पृ० 42-44, तथा अंग्रेजी पृ० 110-114, लेखक ले० रामसरूप जून; जाट इतिहास, पृ० 110-111, लेखक ठा० देशराज।
2. जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 109, 110, 112, लेखक बी० एस० दहिया
3. 1857 के गुर्जर शहीद, पृ० 9-10, लेखक प्रि० गणपतसिंह।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-520


खारिज किए हुए राजपूतों के टोल हैं जिन्होंने पौराणिक धर्म के नियम को भंग करके विधवा विवाह जारी किया। परन्तु इतिहासकारों ने राजपूतों के इस दावे को असत्य सिद्ध कर दिया क्योंकि जाट जाति राजपूत जाति से अति प्राचीन है और विधवा विवाह की प्रथा शास्त्रों के अनुसार है और राजपूत संघ जाट, गुर्जर, अहीर, भारतीय क्षत्रिय आर्यों तथा शक, सीथियन, हूण आदि अनेक जातियों का मिला जुला संघ है1

अंग्रेज लेखकों ने राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारी लिखा है जो भारत में आकर बस गये, यह भारत देश के लोग नहीं हैं। किन्तु राजपूतों के गोत्र साफ तौर से प्रमाण देते हैं कि ये लोग असली क्षत्रिय आर्य हैं जो भारतवर्ष के आदि-निवासी हैं, जो राजपूत कहलाने से पहले जाट और गुर्जर थे2

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने पृ० 113 पर लिखा है कि “दसवीं या ग्यारहवीं शताब्दी में बनी राजपूत जाति, जाट और गुर्जरों का संघ है।”

जाट इतिहास पृ० 114 पर लेखक ठाकुर देशराज ने लिखा है कि मि० आर्जीलेथम के ‘एथोनोलोजी आफ इण्डिया’ पृ० 254 के एक लेख से जाट-राजपूतों के सम्बन्ध पर इस तरह प्रकाश पड़ता है-

“A Jat, in blood, is neither more nor less than a Converted Rajut and vice versa. A Rajput may be a Jat of the ancient faith.”

अर्थात् रक्त में जाट, परिवर्तन किए हुए राजपूत से न तो अधिक ही हैं और न कम ही हैं। किन्तु अदल-बदल हैं। एक राजपूत प्राचीन धर्म (वैदिक धर्म) का पालन करने वाला एक जाट हो सकता है।

आगे यही लेखक पृ० 66-67 पर लिखते हैं कि “हम चैलेंज पूर्वक कहते हैं कि भाटों और व्यासों की बहियों (पोथियों) में जाटों को राजपूतों में से होने की जो कथा लिखी हुई है, वह सफेद झूठ है।” यहां केवल जस्टिस कैम्पवेल का मत इस विषय में दिया जाता है -

अर्थात् - “यह संभव हो सकता है कि राजपूत जाट हैं जो कि भारत में आगे बढ़ गये हैं और वहां हिन्दू जातियों से परस्पर मिल गये हैं तथा ऊंचे और कट्टर हिन्दू (पौराणिक धर्मी) हो गये हैं। उन्होंने अपने प्राचीन बल वैभव को प्राप्त कर लिया है। लेकिन यह कि जाट राजपूत हैं और ऊंचे दर्जे से घट गये हैं, यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके लिए बिल्कुल कोई सबूत नहीं है। और जो आज वर्तमान उन्नतिशील जाटों के बाहिरी वर्तमान आचरण से स्पष्टतौर से प्रकट होता है।”

राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 77 पर लेखक जगदीशसिंह गहलोत ने जाट जाति के विषय में लिखा है कि “यह जाति सम्पूर्णतया भारतीय एवं आर्य है।”

जाट इतिहास पृ० 728 पर ठा० देशराज ने जनरल कनिंघम के सिक्ख इतिहास का हवाला देकर लिखा है कि “जाट लोग एक ओर राजपूतों के साथ और दूसरी ओर अफगानों के साथ मिल गये हैं, किन्तु यह छोटी-छोटी जाट जाति की शाखा सम्प्रदाय पूर्व अंचल के ‘राजपूत’


1. जाट इतिहास पृ० 65-67, लेखक ले० रामसरूप जून
2. जाट इतिहास अंग्रेजी, पृ० 135, लेखक ले० रामसरूप जून।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-521


और पश्चिम के ‘अफगान’ और ‘बलोच’ के नाम से अभिहित हैं।”

राजस्थान के राजवंशों का इतिहास लेखक जगदीशसिंह गहलोत (राजपूत) ने राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में लिखा है -

“प्राचीन ग्रन्थों में न तो राजपूत जाति का उल्लेख है और न राजपूताने* का। राजपूत शब्द संस्कृत के ‘राजपुत्र’ शब्द का अपभ्रंश रूप है। यह शब्द क्षत्रिय जाति के राजकुमारों व राजवंशियों के लिए प्रयोग होता था। इस शब्द का प्रयोग महाभारत, कौटिल्य के अर्थशास्त्र, अश्वघोष के ग्रन्थों, बाणभट्ट के हर्ष चरित्र तथा कादम्बरी में तथा प्राचीन शिलालेखों तथा दानपात्रों में हुआ है। देश का शासन क्षत्रिय जाति के ही हाथों में रहता था। अतः इसी जाति के लोगों का नाम मुसलमानी काल में जाकर लगभग 14वीं शताब्दी में ‘राजपूत’ हो गया। पुराणों में सिर्फ राजपुत्र शब्द आता है जैसे कि ब्रह्मवैवर्त पुराण के ब्रह्म खण्ड में एक श्लोक है - क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह” अर्थात् क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होवे उसे राजपूत कहते हैं। परन्तु पुराण एक गपोड़गाथाओं का भण्डार है जो सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ व संस्कृत के विद्वान् पं० चिन्तामणि विनायक वैद्य के मतानुसार ई० सन् 300 से 900 के बीच बने हैं। वैश्य पुरुष और शूद्र कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ। अर्थात् राजपूत जाति को इसमें मिश्रित वर्ण बनाने की चेष्टा की है जिसको कोई भी सभ्य पुरुष नहीं मान सकता।” (पृ० 5-6)
“राजपुत्र” शब्द का अर्थ “राजकीय वंश में पैदा हुआ” है। इसी का अपभ्रंश ‘राजपूत’ शब्द है जो बाद में धीरे-धीरे मुग़ल बादशाहों के शासनकाल या कुछ पहले 14वीं शताब्दी से बोलचाल में क्षत्रिय शब्द के स्थान पर व्यवहार में आने लगा। इससे पहले राजपूत शब्द का प्रयोग जाति के अर्थ में कहीं नहीं पाया जाता है।” (पृ० 7)
“राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। टॉड, कीलहार्न, ब्यूल्हर, फ्लीट, स्मिथ, जॉनसन, क्रुक आदि विद्वानों का मत है कि राजपूत लोग विदेशी आक्रमणकारी लोगों में से थे जिन्होंने भारत में अन्य जातियों की तरह, आकर हिन्दू धर्म में प्रवेश किया और उनमें मिल-जुल गये। डा० देवदत्त भण्डारकर का मत है कि राजपूत लोग विदेशी गुर्जर या बाहर से आई हुई ऐसी ही और किसी जाति से निकले होंगे, इसलिए वे विदेशी हैं। सर्वप्रथम इस सिद्धान्त को फैलाने वाले कर्नल टॉड थे जिन्होंने सन् 1829 ई० में ऐनाल्स ऐंड ऐंटिक्विटीज ऑफ राजस्थान नामक ग्रन्थ लिखा है। टॉड साहब अपने इतिहास में लिखते हैं कि राजपूत लोग जाट, सीथियन (शक) और हूण आदि विदेशियों की सन्तान हैं। (टॉड, राजस्थान, भाग 1, पृ० 73-96 ऑक्सफोर्ड संस्करण)।”
परन्तु “राजपूत विदेशी शक, हूण, आदि असभ्य जाति के वंशज नहीं हैं।” (पृ० 7-8)

“देखा जाए तो शक आदि विदेशी जातियां भी आर्य-वंशज ही थीं क्योंकि किसी समय समस्त भूमण्डल पर एक वैदिक-धर्म ही प्रचलित था और देश-देशान्तर में क्षत्रिय आर्यों का राज्य था। उस


नोट - * राजपूतों के यहां राज्य स्थापित होने पर यह क्षेत्र राजपूताना कहलाया। इससे पहले यह प्राचीनकाल से कुरुक्षेत्र से लेकर यहां तक जांगल प्रदेश कहलाता है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-522


समय ईसाई व मुसलमान मत का जन्म ही नहीं हुआ था।” (पृ० 8-9)

“’कर्नल टॉड तथा चन्दबरदाई (पृथ्वीराज रासो, आदि पर्व पृ० 45-51) ने प्रतिहार, परमार, सोलंकी (चालुक्य) और चौहान को अग्नि से उत्पन्न हुए लिखा है। इन चारों वंशों के पूर्वजों का अग्नि से उत्पन्न होना चन्दबरदाई की केवल कविकल्पना थी जिसे कर्नल टॉड ने सत्य मान लिया।”

“यह मानी हुई बात है कि राजपूत लोग सुडौल, कदावर और मजबूत होते हैं। इनके चरित, चरित्र और मर्यादा, व्यवहार और परम्परा से आर्यसभ्यता के सूचक हैं। इनकी सीधी नाक, विशाल मस्तक और लम्बे कद को देखते हुए योरोपियन विद्वान् जैसे नेसफील्ड और इबटसन की पूर्ण धारणा है कि राजपूत लोग आर्य हैं और वे उन क्षत्रियों की सन्तान हैं जो वैदिककाल से भारतवर्ष में शासन कर रहे हैं।” (पृ० 19)।

टॉड राजपूत जाति का चरित्र-चित्रण इस प्रकार करते हैं - अर्थात् “महान् शूरता, देशभक्ति, स्वामिभक्ति, प्रतिष्ठा, अतिथि सत्कार और सरलता - ये गुण सर्वांश में राजपूतों में पाए जाते हैं।” (पृ० 21)

जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज लेखक बी० एस० दहिया ने राजपूतों के विषय में लिखा है -

  1. यह 10वीं या 11वीं शताब्दी में जाट और गुर्जरों से बना राजपूत संघ है। (पृ० 113)
  2. भविष्य पुराण में साफ लिखा हुआ है कि “आबू पर्वत का यज्ञ सम्मेलन बौद्धों के विरुद्ध किया गया था जिसका तात्पर्य बौद्धों के विरुद्ध एक नवीन योद्धा संघ बनाने का था।” (भविष्य पुराण, लेखक एस० आर० शर्मा (1970 बरेली)। (पृ० 171, 174, 175)।
  3. जाट, अहीर, गुर्जर जिन्होंने नवीन हिन्दू धर्म (पौराणिक धर्म) अपना लिया वे राजपूत कहलाए और जो इस धर्म के अनुयायी नहीं बने वे जाट, अहीर, गुर्जर नाम से ही कहलाते रहे। जाट और राजपूतों के पूर्वपुरुष एक ही थे। जाट और राजपूत जाति एक ही पुरखा की संतान हैं। (पृ० 116)

जाट इतिहास अंग्रेजी, लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून ने राजपूतों के विषय में लिखा है -

  1. अनेक अंग्रेज तथा भारतीय इतिहासकारों ने राजपूतों को विदेशी आक्रमणकारियों के वंशज लिखा है जो कि असत्य बात है। राजपूतों की अधिक संख्या प्राचीन जाट गोत्रों से सम्बन्ध रखती है। केवल थोड़ी सी इनकी संख्या शक और हूण जातियों में से है।
  2. राजपूतों को अंग्रेज ऐतिहासिकों ने भारत के निवासी न बताकर इनको विदेशी जाति के बताया जो भारत में आकर आबाद हो गये। उनकी यह बात असत्य होने का प्रमाण यह है कि राजपूतों के गोत्रों का निरीक्षण करने से यह परिणाम निकला कि इनमें थोड़े से हूण मिले हैं किन्तु, इनकी अधिक संख्या असली आर्यों की है जो राजपूत कहलाने से पहले जाट और गुर्जर थे। (पृ० 135)।
  3. मि० स्मिथ ने राजपूतों को जाट, अहीर और गुर्जरों के वंशज लिखा है। इनमें कुछ हूण लोग भी मिले हैं। तो भी राजपूत अपने, जाटों, अहीरों और गुर्जरों के साथ इन ऐतिहासिक सम्बन्धों को छिपाना चाहते हैं। (पृ० 137)।

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भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा ने पृ० 163 पर लिखा है कि “वास्तव में राजपूत विदेशियों तथा भारतीयों के मेल से उत्पन्न हुए। अतः इनमें विदेशी जातियों तथा भारतीय क्षत्रिय वंशों का रक्त सम्मिलित है।”

“जाटों का उत्कर्ष” लेखक कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री ने राजपूतों के विषय में लिखा है -

“राजपूत भारतीय आर्य हैं और आर्यों की संतान हैं। उनमें मिश्रण का कोई प्रसंग आया तो आबू यज्ञ के पश्चात् उनके नवीन आन्दोलन का रूप धारण करने के अनन्तर ही हुआ। किन्तु उनके मुख्य चार प्रतिनिधियों में चौहान कौशाम्बी नरेश उदयन के वंशज वत्सगोत्री होने पर, सोलंकी चालुक्यवंशी होने पर, पंवार/ परमार ब्रह्मक्षत्रप होने पर और परिहार/ प्रतिहार प्राचीन गुर्जर जाति के प्रतिनिधि के रूप में आज भी अभिमान करते हैं।” (पृ० 246)।

(1) वत्स - यह जाटगोत्र है। चौहान इस वत्स जाटगोत्र का शाखा गोत्र है। प्राचीन वत्स नामक राज्य के आधार पर देश का सम्पूर्ण चौहान वर्ग अपने को वत्स-गोत्री बतलाता है। इसी सुप्रसिद्ध वत्स वंश में वत्सराज उदयन का जन्म हुआ था। अग्निकुल के घटनाकाल में फौगाट, नरवाल, देवड़ा, हाड़ा आदि वंशों ने भी चौहान उपाधि धारण करके अपने को गौरवान्वित समझा। (पृष्ठ 375)। फौगाट, नरवाल, हाड़ा जाट गोत्र हैं। (वत्सवंशी कौशाम्बी नरेश उदयन का वर्णन देखो तृतीय अध्याय, बत्स/वत्स प्रकरण)।

(2) चालुक्य-सोलंकी - एक शिलालेख के बम्बई प्रान्त में धारवाड़ जिले के गडग ग्राम में वीर-नारायण के मन्दिर से मिलने के पश्चात् यह सिद्ध हो गया है कि चालुक्य चन्द्रवंशी हैं, आबू पर्वत पर दीक्षित अग्निवंशी नहीं। उस यज्ञ से इन्होंने सोलंकी नाम अवश्य धारण कर लिया था किन्तु 1022 से 1063 ई० तक विद्यमान राज राजा नामक सोलंकी ने अपने को वत्सराज उदयन की परम्परा में मिलाते हुए चन्द्रवंशी ही लिखा है। इण्डियन ऐण्टीक्वेरी जिल्द 14, पृ० 50-55 पर इसका उल्लेख है। अहलावत जाट गोत्र चालुक्य-सोलंकी है। (पृ० 203)।

जाटों के कई गोत्र चालुक्य-सोलंकी हैं जिनका वर्णन उचित स्थान पर किया जाएगा। अहलावत चालुक्य-सोलंकी जाटों का दक्षिण में वातापी और कल्याणी पर 600 वर्ष राज्य रहा। इन राजाओं में सबसे शक्तिशाली सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय अहलावत था जिसको सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड में अहलावत गोत्र का लिखा है।

(इस वंश की अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, अहलावत प्रकरण)।

(3) परमार या पंवार - यह सुप्रसिद्ध वंश चन्द्रवंश की पुरु या पौरव शाखा (जाट गोत्र) का ही रूपान्तर है, जो कि ब्रह्मज्ञानी क्षत्रियों के बाहुल्य से ‘ब्रह्मक्षत्र’ नाम पर पहले ही सुप्रसिद्ध था। राजा भोज के चाचा मुञ्ज (जिसे अमोघवर्प या वाक्पतिराज भी लिखा है) के समकालीन हलायुध पण्डित ने दशवीं शताब्दी के तृतीय चरण में पिंगल सूत्रवृत्ति लिखते हुए राजा मुञ्ज को ब्रह्मक्षत्र वंश का लिखा है -

ब्रह्मक्षत्र कुलीनः प्रलीनसामन्तचक्रनुतचरणः।
सकलसुकृतैकपुञ्जः मुञ्जश्चिरं जयति ॥

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इसके पूर्व पौरव पाण्डुवंशी 25 राजाओं का वर्णन करते हुए अन्तिम राजा क्षेमक के प्रकरण से मत्स्य पुराण 50-88, वायु पुराण 99-278, 279 वायु पुराण 4-20, भागवत 9-26, 44-45 से उद्धृत निम्न श्लोक -

ब्रह्मक्षत्रस्य यो योनिर्वशो देवर्षिसत्कृतः।
क्षेमकं प्राप्य राजानं संस्थां प्राप्स्यति वै कलौ॥

अर्थात् ब्रह्मक्षत्र को उत्पन्न करने वाला तथा देवताओं एवं ऋषियों से आदर पाए हुए इस पौरव वंश में अन्तिम राजा क्षेमक होगा। इस आधार पर यही कहा जा सकता है कि ब्रह्मज्ञानी क्षत्रिय राजा से प्रचलित इस उपाधि को धारण करने वाला पौरववंश ही पंवार नाम से प्रख्यात हुआ। यह पौरव या पंवार जाटवंश है।

इन ब्रह्मक्षत्रों ने बौद्ध भावनाओं का परित्याग करके आबू के उस विशाल यज्ञ में क्षत्रियत्व की नवीन दीक्षा ग्रहण की। इस वंश का राजा भोज सर्वाधिक दानी विद्वान् प्रतापी नरेश हुआ। इसने धारा नगरी को राजधानी बनाकर संवत् 1059 (सन् 1002 ई०) से संवत् 1099 (सन् 1042 ई०) तक 40 वर्ष तक शासन किया। यह जाट सम्राट् था। इस वंश के कुछ लोग राजपूत संघ में मिल कर राजपूत कहलाये और कुछ राजपूतों ने इस्लाम धर्म अपना लिया। भोज तथा जगदेव पंवार की परम्परा में हिन्दू जाटों के आज भी बहुत गांव हैं। इनका वर्णन इसी अध्याय में आगे लिखा जायेगा।

इस पुरुवंश के जाट पुरुवाल, पोरसवाल, फलसवाल और पौडिया भी कहलाते हैं। इस पुरु या पौरववंश के शाखा गोत्र - 1. पंवार 2. जगदेव पंवार 3. लोहचब पंवार हैं (देखो तृतीय अध्याय, पुरु/ पौरव/ पोरस प्रकरण)।

(4) प्रतिहार-परिहार - ये प्रतिहार-परिहार वंश हिन्दूराष्ट्र के स्तम्भ हैं जिन्होंने आबू के यज्ञ समारोह की योजना ही नहीं बनाई, अपितु उसकी रक्षार्थ स्वयं द्वारपाल के कार्यभार को भी सम्भाला। प्राचीन क्षत्रियवंशों के कई समूहों ने भी इसी नवीन नाम को स्वीकार किया और मारवाड़ में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया। परिहार राज्यों में भड़ौच, भीनमाल, कन्नौज, अनूपशहर आदि प्रमुख थे।

आबू यज्ञ समारोह में कुछ गुर्जर परिवारवंशज लोगों ने नवीन हिन्दू धर्म की दीक्षा ली और राजपूत कहलाये। राजपूत परिवार प्राचीन गुर्जर जाति के प्रतिनिधिरूप में आज भी अभिमान करते हैं। जाटों का भी प्रतिहार-परिहार गोत्र है (पृ० 148)।

जाट इतिहास पृ० 144 पर ठा० देशराज ने लिखा है कि - “राजपूतों में अनेक विशुद्ध आर्यवंशी भी हैं और न वे सब विदेशी हैं। इनमें बहुत से ऐसे राजवंश हैं जिनका सीधा सम्बन्ध यादव क्षत्रियों से तथा सूर्यवंशियों से है जैसे - करौली के यादव और संयुक्त प्रदेश के रघुवंशी। अग्निवंशी राजपूतों के सम्बन्ध में भाई परमानन्द ने ‘तारीख पंजाब’ में लिखा है कि ये भारत की पिछड़ी हुई और जंगली जातियों से क्षत्रिय श्रेणी में लाये गये।”


नोट देखो - जाटों का उत्कर्ष पृ० 147, 373, 374, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-525


चिन्तामणि वैद्य के ‘हिन्दू भारत का उत्कर्ष’ में लिखा हुआ है कि “परिहार और बड़गुर्जर गुर्जरों से राजपूत बनाये गये।”

राजपूतों के अनेक गोत्रों का विकास जाटों से हुआ है इनमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है।

राजपूतों में अनेक गोत्र हैं जो जाट गोत्रों से बिल्कुल मिलते हैं जैसे - 1. बड़गूजर 2. भट्टी 3. दाहिमा 4. Dahiya|दहिया]] 5. दीक्षित 6. गेहरवार 7. गहलोत 8. इन्दोलिया 9. कछवाह 10. मोरी 11. पंवार 12. परिहार 13. राठौर 14. राठी 15. रावत 16. सिकरवार 17. चालुक्य-सोलंकी 18. तोमर 19. रैकवार 20. चौहान आदि। जाट इतिहास इंगलिश पृ० 136 पर लेफ्टिनेंट रामसरूप जून ने इन गोत्रों के अतिरिक्त और भी गोत्र लिखे हैं जैसे “1. चंदेला-चंदेले 2. गोंदल 3. तिवाणा 4. जनजौहा 5. छोंकर 6. खोखर 7 तंवर-तोमर 8. राणा आदि।”

मराठा जाति की उत्पत्ति एवं राज्य

मराठा नामक महान् जाति जिस प्रान्त में निवास करती है उसका नाम महाराष्ट्र है। नर्मदा, अरब सागर, नागपुर, और कारवार नगर के मध्य का प्रदेश अथवा कोंकण सह्याद्रि का पर्वतीय भाग, घाटा गाथा और उसके पूर्व का ऊंचा-नीचा भूमिभाग मिलकर महाराष्ट्र प्रान्त का बोध कराता है। महाभारतकाल तक इस प्रदेश का नाम दण्डकारण्य एवं दक्षिणापथ था। डा० भण्डारकर ने इस दण्डकारण्य में पाणिनि ऋषि के समय पश्चात् आर्य ब्राह्मण और आर्य क्षत्रियों का उत्तर भारत से आकर बसने का उल्लेख किया है। (हिस्ट्री ऑफ दक्षिण पृ० 109)

इसी भांति राजवाड़े और चिन्तामणि विनायक वैद्य आदि विद्वान् भी एक मत हैं कि आन्ध्र1, यादव2, राठ3 क्षत्रिय (राष्ट्रकूट-राठी) और चालूक्य4 राजवंशों ने इधर आकर इस महाराष्ट्र देश को बसाया।

ग्रिर्यसन के मत अनुसार सर्वप्रथम इस प्रान्त का नाम महाराष्ट्र करके [Varahamihira|वराहमिहिर]] (गुप्तकाल का प्रसिद्ध वैज्ञानिक) ने लिखा। “राष्ट्रौढ़ महाकाव्य” और “हिन्दू भारत का उत्कर्ष” के लेखकों ने मराठा जाति का गठन नागवंशियों एवं सूर्य, चन्द्रवंशी क्षत्रियों के द्वारा माना है। प्रियदर्शी सम्राट् अशोक मौर्य के प्राप्त शिलालेखों में से पहले में खुदा हुआ है - “महाराष्ट्र में और दक्षिण में योन (यवन5), कम्बोज6, भोज7, पट्टनिक ये राजा हैं।” पांचवें शिलालेख में ‘मराठा’ देश के राष्ट्रिक लोक हैं। उस समय यह प्रान्त मौर्यों8 के ही अधीन था। बाद में सी० वी० वैद्य के लेख अनुसार - यदुवंशी राजा की नागवंशी9 तीन पत्नियों के पुत्र यादव10, राष्ट्रकूट11 एवं भोज12 नामक तीन वंशों के नासिक, कोल्हापुर एवं बनवासी में सर्वप्रथम राज्य स्थापित हुए। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने अपने समकालीन कांची और बादामी के राजा पल्लव13 और पुलकेशिन14 को क्षत्रिय एवं ‘क्षत्रचूडामणि’ लिखते हुए उनके शिलालेखों के प्रमाणानुसार उन्हें सात्यकि15 (महाभारत का प्रसिद्ध योद्धा) का वंशधर होने का अभिमान करने का उल्लेख किया है। बौद्धकाल के बाद यहां के ब्राह्मण महाराष्ट्रीय और क्षत्रिय मराठा नाम से प्रसिद्ध हुए। मराठा प्रान्त के वंशों एवं गोत्रों का परिचय प्राप्त होने पर मराठा पुराने क्षत्रियों की ही सन्तान सिद्ध होते हैं। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 201, लेखक कविराज योगेन्द्रपाल शास्त्री)।


नोट - पाठकों का इस प्रकरण में लिखे हुए वंशों की ओर ध्यान दिलाया जाता है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-526


इनका वर्णन पिछले अध्यायों में किया जा चुका है।

निम्नलिखित सब जाटवंश हैं - 1. आन्ध्र, 2 एवं 10. यादव 3 एवं 11. राठ-राठी-राष्ट्रकूट 6. काम्बोज 7 एवं 12. भोज 8. मौर्य-मोर, 9. नागवंशी 13. पल्लव 15. सात्यकि - यह महाभारत का प्रसिद्ध योद्धा वृष्णिवंशी जाट था, 4 चालुक्य चन्द्रवंशी थे, 14. पुलकेशिन द्वितीय अहलावत चालुक्य (सोलंकी) दक्षिण में शक्तिशाली सम्राट् था जिसकी राजधानी वातापी या बादामी थी। इसने सन् 620 ई० में सम्राट् हर्षवर्धन को नर्मदा नदी के क्षेत्र में हुये युद्ध में हराया था और कांची के शक्तिशाली पल्लव गोत्र के जाट राजा महेन्द्रवर्मन को भी हराया था। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने अपनी यात्रा समय लिखित पुस्तक ‘सी-यू-की’ में लिखा है कि पुलकेशिन द्वितीय बड़ा प्रतापी सम्राट् था। उसका राज्य नर्मदा के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक और दक्षिण में पल्लव राज्य की सीमाओं कांची तक फैला हुआ था। हमारे विचार में योगेन्द्रपाल शास्त्री के लेख में इस सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय को सात्यकि जैसा वीर योद्धा बताया है। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, इन जाटवंशों के प्रकरण)।

(5) यवन - चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पांच पुत्रों में से एक का नाम तुर्वसु था जिसकी सन्तान यवन कहलाई (महाभारत आदि पर्व, अध्याय 85वां, पृ० 265, श्लोक 34-35)।

जाट इतिहास, पृ० 108-110 पर ठा० देशराज ने लिखा है कि “चिन्तामणि विनायक वैद्य के लेख अनुसार मराठा भी शक्ल सूरत में आर्य हैं चाहे उनकी नाक आर्यों की अपेक्षा छोटी है क्योंकि उनका द्रवीडियन जाति में मिश्रण हो गया है। पौराणिक समय के भारतीय शास्त्रियों ने, जो पशुपालन और पुनर्विवाह के विरुद्ध थे, जिस का चलन जाट, मराठा, गूजर (अहीरों में भी - लेखक) जातियों में है, इनकी शूद्रों में गणना की है और यूरोपियन अन्वेषकों ने इन्हें सीथियन, कुषाण, हूण जातियां जो बाहिर से आईं, उनमें से बतलाया है। लेकिन यह निर्विवाद सिद्ध है कि जाट पूर्ण रूप से और गूजर, मराठा थोड़े अंश में निश्चय आर्य वंशज हैं।”

“भारतीय पौराणिक शास्त्रियों का इन्हें शूद्र कहना और यूरोपियन अन्वेषकों का इन्हें सीथियन, कुषाण, हूण कहना ऐतिहासिक दृष्टि से गलत है।” (हिस्ट्री ऑफ हिन्दू मिडीवल इण्डिया, भाग 1, पृ० 73-74)।

इसके अतिरिक्त जाट, गुर्जर, मराठों में अनेक समानतायें हैं। इनके कई गोत्र जैसे पंवार, सोलंकी, तंवर या तोमर आदि इन तीनों जातियों में मिलते हैं।

सुर्वे और राणा जाट और मराठों के भी गोत्र हैं। मराठों का एक दल अपने उत्पत्ति कश्यप से मानता है। इसी तरह जाटों में भी एक ऐसा दल है जो अपने को कश्यप का वंशज कहता है। मराठों में गणपति की पूजा और इनका युद्धघोष (Battle Cry) हर-हर-महादेव है। जाटों की भी शिवजी में श्रद्धा है।

सामाजिक रहन-सहन और खान-पान में दोनों स्वतन्त्र हैं। शारीरिक गठन और लम्बाई चौड़ाई में मराठे, जाटों से कुछ हल्के अवश्य हैं किन्तु रणकुशलता में दोनों समान हैं। मानसिक प्रवृत्तियां, स्वभाव, साहसिकता दोनों की बिल्कुल समान हैं। शत्रु के सामने न झुकने तथा लोभ


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-527


और प्राणरक्षा के लिए आन को न खोने की दोनों की आदत ने काफी प्रसिद्धि दी है। दोनों का ही अराजकवाद और गणतन्त्रवाद से सम्बन्ध रहा है। नागवंशियों की कई शाखायें जाट और मराठों में पाई जाती हैं। अन्तर इतना है कि मराठे दक्षिण-पश्चिम में रहते हैं और जाट उत्तर-पश्चिम में। यदि ये इकट्ठे रहते तो अब तक दोनों एक हो जाते। मुस्लिमकाल के राजनैतिक संघर्ष में जाट और मराठे देश के हित के लिए शीघ्रता से एक दूसरे के मित्र हो गये थे।

मराठा राज्य की स्थापना और शिवाजी

पन्द्रहवीं और सोलहवीं शताब्दी में महाराष्ट्र में भक्ति-धारा का प्रचार हुआ जिससे मराठा राष्ट्र के निर्माण में सहायता मिली। एकनाथ, तुकाराम, रामदास और वामन जैसे संतों ने जाति-पाति तथा रूप-रंग के भेदभाव का खण्डन किया और इस प्रकार मराठा लोगों में एकता स्थापित की। रामदास ने तो कई मठ भी स्थापित किए, जहां नवयुवकों को शास्त्र-विद्या के साथ-साथ शस्त्र-विद्या की भी शिक्षा दी जाती थी। अतः रामदास ने शिवाजी से पहले मराठा राष्ट्र के निर्माण में महत्त्वपूर्ण प्रारम्भिक कार्य किया।

शिवाजी का जन्म 20 अप्रैल 1627 ई० को पुणे के उत्तर में शिवनेर के किले में हुआ। उसका पिता शाहजी भौंसला बीजापुर राज्य का प्रसिद्ध जागीरदार था। उसकी माता का नाम जीजाबाई था, जो यादववंश (जाटवंश) की थी। शिवाजी के प्रारम्भिक जीवन में तीन व्यक्तियों ने उस पर बहुत गहरा प्रभाव डाला। सबसे पहले तो उसकी माता जीजाबाई ने रामायण तथा महाभारत द्वारा उसके मन में वीरता तथा देशभक्ति की भावनाएं पैदा कर दीं। शिवाजी के संरक्षक दादाजी कौण्डदेव ने नवयुवक शिवाजी को घुड़सवारी, युद्ध-कला तथा शासन प्रबन्ध के कार्यों में उचित शिक्षा दी। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध धार्मिक नेता समर्थ गुरु रामदास ने भी शिवाजी को राष्ट्र निर्माण के लिए प्रेरित किया। वह शिवाजी का आध्यात्मिक गुरु था और वह सदा उसे यही उपदेश देता रहता था - “माता और मातृभूमि स्वर्ग से अधिक प्रिय हैं। परमात्मा ने तुम्हें संसार में हिन्दू, देवताओं, गौओं, ब्राह्मणों तथा धर्म की रक्षा के लिए भेजा है।” शिवाजी के हृदय पर इन उपदेशों का गहरा प्रभाव पड़ा।

17वीं शताब्दी में दक्षिण भारत में मराठा शक्ति का उदय हुआ। मराठा सरदार शिवाजी ने मुगलसम्राट् औरंगजेब और दक्षिण के मुसलमानों से टक्कर ली और अपनी योग्यता, साहस और शौर्य से अनेक कठिनाइयों को पार करके एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। छत्रपति शिवाजी ने मराठा जाति को संगठित कर उनमें एकता और राष्ट्रीयता की भावना का संचार किया। परिणामस्वरूप मराठा जाति आने वाले समय में दो शताब्दियों से अधिक समय तक भारत के राजनैतिक जीवन में प्रमुख भाग लेती रही।

छत्रपति शिवाजी तथा उसने बाद के मराठा शासकों के युद्धों का वर्णन आवश्यकतानुसार


आधार पुस्तकें - 1. भारत इतिहास हरयाणा विद्यालय बोर्ड भिवानी पृ० 207-208; 2. भारत का इतिहास (प्री०-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), पृ० 323-326, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; 3. जाटों का उत्कर्ष पृ० 201-202, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-528


उचित स्थान पर अगले अध्यायों में किया जाएगा।

शिवाजी बलवंशी जाट थे -

7 फरवरी 1986 साप्ताहिक पत्र सर्वहितकारी के पृ० 8 व 4 पर हरयाणा सर्वखाप पंचायत रिकार्ड ग्राम शोरम जि० मुजफ्फरनगर के हवाले से, लिखा गया है कि शिवाजी बलवंशी (बलियानवंशी) जाट थे। इसके संक्षिप्त प्रमाण इस प्रकार से हैं -

महाराज शिवाजी के दादा बलवंशी (बालियान) मालोजी भोंसले चित्तौड़ वंश में से थे। आपसे 7-8 पीढ़ी पहले शिवराव राणा चितौड़वंश के पुत्र भीमसिंह ने भोंसला नामक दुर्ग में भागकर जान बचाई थी। इसी कारण से यह वंश भोंसला नाम से ख्याति प्राप्त कर गया। यह बात लगभग 1360 वि० स० (सन् 1303) अर्थात् अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ विजय किया, उस समय की है। मालोजी भोंसले के पिता सम्भाजी भोंसले दौलताबाद के समीप वेरूल में रहते हुए कई ग्रामों की जमींदारी करते थे। 25 वर्ष की आयु में मालोजी अहमदनगर राज्य में 5000 घुड़सवारों के अफसर नियुक्त हुए। 1651 वि० स० (सन् 1594) में आपके पुत्र शाहजी का जन्म हुअ तथा 1661 वि० स० (सन् 1604) में मालोजी भोंसले को सूपा तथा पूना के परगने जागीर में मिले। आपका काल 1609 वि० स० से 1675 वि० स० (सन् 1552 ई० से 1618 ई०) है।

शाहजी भोंसले महाराणा चित्तौड़ के बलवंशी मालोजी के पुत्र थे। आप बीजापुर नवाब के यहां ऊँचे पद पर रहते थे। जाटवंश की रानी जीजाबाई के उदर से शिवाजी का जन्म अप्रैल 20, 1627 ई० को पुणे के उत्तर में शिवनेर के किले में हुआ। उसने अपनी माता तथा अपने गुरु समर्थ रामदास की शिक्षा को प्राप्त कर एक महान् वीर साहसी तथा छापामार युद्ध के धुरन्धर योद्धा बनकर ख्याति प्राप्त की। आपने दक्षिण भारत में एक स्वतन्त्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। उसके राज्य में पश्चिम घाट तथा कोंकण के सूरत से लेकर गोआ तक के सभी प्रदेश, पूर्व में बगलान; चन्दूर पूना, सतारा तथा कोल्हापुर के प्रदेश तथा सुदूर दक्षिण-पूर्व में बेलारी, सीरा, वैलार तथा जिंजी के प्रदेश सम्मिलित थे।

नोट
सूर्यवंशी प्रहलाद के पुत्र विरोचन हुये, उनके पुत्र बलि हुए जो बड़े प्रतापी राजा थे। उन्हीं की प्रसिद्धि के कारण सूर्यवंशी क्षत्रिय आर्यों का संघ उनके नाम पर बल या बालायन वंश प्रचलित हुआ जो कि जाटवंश है। इस बलवंश का राज्य बलभीपुर में वीर योद्धा भटार्क ने अपने बलवंश के नाम पर स्थापित किया जो सिंध के मुसलमान शासकों ने सन् 757 ई० में जीत लिया। वहां से बलवंशी जाट बाप्पा रावल या गुहादित्य मेवाड़ में आया और उसने अपने नाना मान मौर्य जो कि चित्तौड़ का शासक था, को मारकर चित्तौड़ का राज्य हस्तगत कर लिया। यह घटना सन् 713 ई० की है। बाप्पा रावल ने जो कि बलवंश का जाट था, अपना चित्तौड़ पर राज्य गुहिल-गहलौत नाम से प्रचलित किया।

गहलौत जाटों का राज्य चित्तौड़मेवाड़ पर 713 ई० से 14वीं शताब्दी तक लगभग 600 वर्ष तक रहा।

राजपूत संघ तो 14वीं शताब्दी में प्रकाश में आया। इससे पहले इनकी शक्ति स्थापित नहीं हुई थी। इसी बलवंश के गहलौत जब राजपूत संघ में मिल गये तब वे राजपूत कहलाने लगे। इस


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तरह से गहलौतों की दो श्रेणी जाट और राजपूत बन गईं जिनका रक्त एक ही है और ये बलवंशी जाट हैं। इन्हीं की शाखा सीसौदिया बन गई और उपाधि राणा हो गई। शिवाजी के पूर्वज शिवराम राणा चित्तौड़ के पुत्र भीमसिंह गहलौत बलवंशी जाट थे और उनसे 7-8 पीढी बाद शिवाजी के दादा बलवंशी मालो जी भौंसले चित्तौड़ वंश में से थे1

(अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, बल/ बालान/ बालियान सूर्यवंशी जाट प्रकरण; एकादश अध्याय, गुहिलोत-गुहिलावत-मुण्डतोड़-गहलावत प्रकरण)।

बलवंशियों की एक शाखा बरार के भोंसला राजवंश की थी जिसके मूल पुरुष राधो जी थे। इनकी राजधानी नागपुर में थी। इनको पेशवा बाजीराव ने 1797 वि० सं० (सन् 1740) में बरार का राज्य दिया था। इन बलवंशी भोंसलों का बरार पर शासन राधो जी प्रथम से लेकर राधो जी भोंसला तृतीय तक 8 पीढ़ी सन् 1740 से सन् 1863 तक 123 वर्ष रहा।

मेवाड़ बलवंश की एक शाखा बल-उच स्थान जो बलोचिस्तान कहलाया, वहां जा पहुंची। वहां पर ये लोग मुसलमान बन गये। दूसरी शाखा नेपाल में जितने ब्राह्मण हैं, वे कान्यकुब्ज हैं तथा जितने क्षत्रिय हैं, वे सूर्यवंशी बलवंशी जाटवंशज हैं। इनका सम्बन्ध महाराणा उदयपुर से है।

ताना जी, जिसका नाम कई पुस्तकों में ताना जी मलूसरे लिखा है, वह जाट थे। कविराज चौधरी ईश्वरसिंह गहलौत आर्य के भजन का कुछ अंश इस प्रकार है -

देखा है बहुत जमाना, है कहीं कहीं याराना।
वह जाट बहादुर ताना, शिवा की कैद कटाना।

औरंगजेब ने षड्यन्त्र द्वारा शिवाजी और उसके पुत्र शम्भाजी को आगरा दरबार में बुलाकर 12 मई 1666 को उन्हें कैद में डाल दिया और यह योजना बनाई कि कोई बहाना बनाकर उनका वध करवा दिया जाए। शिवाजी व उनके पुत्र को औरंगजेब की कैद से निकालना ताना जाट की चतुराई व वीरता का काम था। वह सफेद दाढी लगाकर मुसलमान वृद्ध हकीम बनकर शिवाजी से मिला और इलाज के बहाने कई दिन तक मिलता रहा। उसने योजना बनाकर मिठाइयों के टोकरों में बैठाकर दोनों को कैद से बाहर निकलवा दिया।

ताना जाट की अद्भुत वीरता

छत्रपति शिवाजी का दक्षिणी भारत में राज्य स्थापित होने के पश्चात् औरंगजेब ने उसके सिंहगढ़ नामक दुर्ग पर अधिकार कर लिया। एक दिन उसकी माता जीजाबाई ने, जो प्रतापगढ़ के किले में रहती थी, अपने पुत्र शिवाजी को राजगढ़ के दुर्ग से बुलाया और उसको अपना सिंहगढ़ का किला मुग़लों से वापिस लेने का आदेश दे दिया। सिंहगढ़ के किले में मुगलों की बड़ी शक्तिशाली सेना का कब्जा था जिसका सेनापति शूरवीर उदयभान था और उपसेनापति साहसी योद्धा सीदी बल्लाल था। महाराज शिवाजी ने अपने जाट मित्र ताना जी मलसूरे को उसके गांव उमराठे में पत्र भेजा, जिसमें लिखा था कि अपने किसान दल को लेकर शीघ्र ही राजगढ़ दुर्ग में पहुंच


1. राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 27 लेखक जगदीशसिंह गहलौत ने भी लिखा है कि शिवाजी चित्तौड़ के सीसौदिया वंश के थे। जो कि बलवंश की शाखा है।


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जाओ। ताना जी के पुत्र रायबा का विवाह था, उसको छोड़कर उसके कोली जाट गोत्र के कई हजार किसानों को एकत्र किया और उनको लेकर राजगढ़ दुर्ग में पहुंच गया। वहां शिवाजी तथा उसकी माता जीजाबाई ने उनका स्वागत किया और अस्त्र-शस्त्र देकर उनको युद्ध के लिए तैयार किया।

राजगढ़ से सिंहगढ लगभग 15 मील पर था। कोली जाटों की सेना, जिसका सेनापति वीर योद्धा ताना जी था, ने रात्रि के समय सिंहगढ़ को घेर लिया। किले के भीतर जाना असम्भव था। ताना जी ने शिवाजी की प्रसिद्ध यशवन्त नामक चिपटण गौह को एक रस्सा बांधकर किले की दीवार पर छोड़ दिया। वह ऊपर चढ़ गई और अपने पंजे दीवार की छत पर गाड़ दिये। उस रस्से पर से एक जवान चढा जिसने दूसरे रस्सों की सीढ़ी छत पर से नीचे लटका दी। उस पर से वीर सैनिक चढ़ गये जिन्होंने किले का दरवाजा खोल दिया। मुग़ल सैनिक शराब के नशे में चूर थे। ताना जी अपने साथ 50 वीरों को लेकर सबसे पहले दरवाजे से अन्दर गया और मुगलों को गाजर मूली की तरह काटना शुरु कर दिया। बाकी सैनिक भी अन्दर घुस गये और हाथों-हाथ युद्ध बड़े जोरों से होने लगा। ताना जी ने सीदी बल्लाल तथा उदयभान के 12 पुत्रों को मौत के घाट उतार दिया।

फिर उदयभान ने स्वयं ताना जी से युद्ध किया, जिसे ताना जी ने मौत के घाट उतार दिया और मुग़ल सैनिक घबराकर भागने लगे। उनको एक-एक को मार दिया और सिंहगढ़ पर शिवाजी का झण्डा फहरा दिया गया। परन्तु इस युद्ध में ताना जाट वीरगति को प्राप्त हुआ। यह सूचना मिलने पर शिवाजी ने कहा था कि “मैंने सिंहगढ़ को नहीं जीता है, परन्तु गढ़ (किला) को जीता है लेकिन सिह (शेर) को खो दिया है।” ताना जी की वीरता का यह अद्वितीय उदाहरण है।

शिवाजी ने ताना जी के पुत्र रायबा के लिए दूसरी लड़की तलाश की और उसका विवाह बड़ी धूमधाम से स्वयं शिवाजी ने किया।

कन्नौज राज्य

सन् 647 ई० में सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् भारत अनेक स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त हो गया और उनके आपस में युद्ध होते रहते थे। उन राज्यों में जाट व गुर्जर राज्य अनेक प्रदेशों पर रहे और बाद में राजपूत राज्य स्थापित हुए। सन् 647 ई० से सन् 1192 ई० तक के जाटवंशज राजाओं के राज्य का भारत के अनेक प्रदेशों पर होने का वर्णन पिछले अध्यायों में लिख दिया गया है। इस अध्याय में उनका केवल संकेत ही दिया जायेगा तथा उनके अतिरिक्त अधिक कारनामों का संक्षिप्त वर्णन किया जायेगा। इस काल में गुर्जर और राजपूतों के राज्य और मुसलमान आक्रमणकारियों का भी संक्षिप्त वर्णन किया जायेगा।

कन्नौज राज्य - हर्ष की मृत्यु के बाद उसका कोई उत्तराधिकारी नहीं था, तथा कन्नौज का शासक यशोवर्मन बन गया। वह वरिक गोत्र का जाट सम्राट था (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 211, लेखक बी० एस० दहिया)। यह बड़ा शक्तिशाली सम्राट् था जिसका शासन बड़े प्रदेश पर था। इसने कश्मीर नरेश मुक्तापीड़ के सहयोग से तिब्बत पर चढ़ाई की और बहुमूल्य सफलता प्राप्त की। इसके उत्तराधिकारी बड़े दुर्बल थे। प्रतिहार गुर्जरवंश के राजा नागभट्ट ने उनको


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जीतकर कन्नौज पर अपना राज्य स्थापित किया। कन्नौज पर गुर्जर प्रतिहारों का शासन बहुत दिनों तक रहा। मिहिरभोज प्रथम (835-890 ई०) और महेन्द्रपाल प्रथम इस वंश के सबसे बड़े राजा हुये। इस मिहिरभोज प्रथम के उत्तराधिकारी महेन्द्रपाल द्वितीय ने अपने पिता के राज्य की रक्षा की परन्तु उसके पश्चात् महीपाल को राष्ट्रकूट इन्द्र ने सन् 919 ई० में पराजित करके कन्नौज राज्य का शासक बन गया। यह इन्द्र राष्ट्रकूट-राठी जाट था (देखो तृतीय अध्याय, राठ-राठी-राष्ट्रकूट प्रकरण)।

बुन्देलखण्ड के जैजाक चन्देले (जाटवंशज) ने इन्द्र राठी से कन्नौज को जीत लिया। कन्नौज का पतन होता ही चला गया। जब सन् 1018 ई० में महमूद गजनवी कन्नौज पहुंचा तो प्रतिहार राजा राज्यपाल ने आत्मसमर्पण कर दिया। प्रतिहारों के पतन के बाद 11वीं शताब्दी के अन्त में गाहड़वार (गहरवार) या राठौड़ वंश का राज्य कन्नौज पर स्थापित हो गया। राष्ट्रकूट या राठौड़ एक ही वंश है। (राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 49, 50 लेखक जगदीशसिंह गहलोत)।

राठ या राठी जाटवंश है। जब राजपूत संघ बना तब इसी वंश के कई नाम प्रचलित हुए। जैसे राठ-राठी, राष्ट्रवर, राष्ट्रवर्य, राष्ट्रकूट, राठौर-राठौड़, रठीढ़ (देखो - तृतीय अध्याय, राठ-राठी, राष्ट्रकूट जाटवंश प्रकरण)।

कन्नौज पर इस राठौरवंश के राजा चन्द्रदेव ने राज्य स्थापित किया। इस वंश का सब से अधिक शक्तिशाली राजा चन्द्रदेव का पोता गोविन्दचन्द्र था जिसका राज्य 1114 ई० से 1160 ई० तक रहा। इस वंश का पांचवां तथा अन्तिम राजा जयचन्द्र था, जो पृथ्वीराज चौहान का बड़ा शत्रु था। सन् 1194 ई० में चांदवाड़ के युद्ध में मुहम्मद गौरी से बुरी तरह पराजित हुआ तथा मारा गया। उसकी मृत्यु के साथ ही राठौरवंश का अन्त हो गया और कन्नौज पर मुसलमानों का अधिकार हो गया।

बिहार, बंगाल के पाल तथा सेनवंश

पालवंश - हर्ष के साम्राज्य में बंगाल, बिहार और असम भी सम्मिलित थे। परन्तु अन्य प्रान्तों की भांति उनमें भी अराजकता फैल गई। आठवीं सदी में बंगाल में गोपाल ने पालवंश (जाटवंश) स्थापित किया। वह बौद्ध-धर्म का अनुयायी था। इसका पुत्र धर्मपाल इस वंश का महान् शासक था। तारानाथ के कथन अनुसार, उसका राज्य बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तथा जालन्धर तक और दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक फैला हुआ था। वह भी बौद्ध-धर्म का अनुयायी था। उसने 780 ई० से 815 ई० तक राज्य किया। धर्मपाल के पश्चात् देवपाल तथा महीपाल इस वंश के प्रसिद्ध राजा हुए। महीपाल की मृत्यु के पश्चात् पालवंश का राज्य अवनति की ओर जाने लगा। 12वीं शताब्दी के आरम्भ में बंगाल के सेनवंश का स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गया और पालवंश के पास केवल बिहार प्रान्त ही रह गया। 13वीं शताब्दी के आरम्भ में बिहार पर भी मुसलमानों ने विजय प्राप्त कर ली। इस प्रकार लगभग 400 वर्षों के शासन के पश्चात् पालवंश का अन्त हुआ।

सेनवंश - 12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में विजयसेन ने बंगाल के पालराज्य को जीतकर सेनवंश की नींव रखी। उसने 1119 ई० से 1158 ई० तक राज्य किया।


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विजयसेन के पश्चात् बलालसेन इस वंश का प्रसिद्ध राजा हुआ। उसने ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों की नये सिरे से जातियां बनाईं। ब्राह्मणों में मुकर्जी, बैनर्जी, चैटर्जी तथा क्षत्रियों में घोष, बोस और मित्र ‘कुलीन’ कहलाने लगे और अपनी जाति के अन्य गोत्रों से उच्च समझे जाने लगे।

बल्लालसेन के पश्चात् लक्ष्मणसेन इस वंश का शासक बना। उसने 1170 ई० से 1200 ई० तक राज्य किया। जब मुहम्मद गोरी के एक गुलाम अख्तियार उद्दीन मुहम्मद ने बंगाल पर सन् 1202 ई० में आक्रमण किया, तब राजा लक्ष्मणसेन बिना युद्ध किये ही भाग गया। इस प्रकार बंगाल पर मुसलमानों का अधिकार हो गया और सेनवंश का राज्य समाप्त हो गया1

कश्मीर राज्य

कश्मीर हर्ष के साम्राज्य में सम्मिलित न था, यद्यपि हर्ष ने उसके राजा को विवश करके भगवान् बुद्ध का एक बहुमूल्य स्मृति चिन्ह ले लिया था।

कारकोट वंश - के ललितादित्य मुक्तापीड़ (725-752 ई०) के शासनकाल में कश्मीर एक सुदृढ़ राज्य हो गया। 9वीं शताब्दी के प्रारम्भ में कारकोटवंश के राज्य को उत्पलवंश (जाटवंश) ने जीत लिया।

उत्पल जाटराज्य - इस उत्पल वंश का महाराजा अवन्तिवर्मन संवत् 912 (सन् 805) में सम्पूर्ण कश्मीर का शासक बन गया। इसकी सेना में 9 लाख पैदल सैनिक, एक लाख घुड़सवार और 300 हाथी थे। इनके पश्चात् इसका पुत्र शंकरवर्मन राजसिंहासन पर बैठा। उसने अनेक विजययात्राओं में मन्दिरों को भी लूटा। इसकी मृत्यु वि० संवत् 959 (सन् 902 ई०) में हो गई। इसका उत्तराधिकारी इसका पुत्र राजा पार्थ अपनी जनता पर अत्याचार करता था। इसकी मृत्यु संवत् 994 (सन् 937 ई०) में हो गई। इसके पश्चात् इसका पुत्र उन्मत्तवन्ति शासक बना। यह बहुत ही क्रूर राजा था। अतः इस वंश के राज्य का अन्त हो गया।

खत्रिओं और जाटों में इस वंश की समानरूप से संख्या है। वीरयोद्धा हरिसिंह नलवा इसी उत्पल जाटवंश के महापुरुष थे। उत्पल जाटों ने बीकानेर के पास बड़ी खाटू के पास पिलाना गांव बसाया। उस गांव से अन्य स्थानों पर बसने वाले जाटों ने अपना परिचय पिलानिया से उसे प्रकार देना आरम्भ कर दिया जिस प्रकार कि तिब्बत गांव के शिवियों ने तेवतिया, भटौनावालों ने भटौनिया के नाम पर अपनी प्रसिद्धि कराई। उत्पल जाटों की सिक्खों में ही बहुसंख्या है।

लोहित-लोहर क्षत्रिय - उत्पलवंश के शासन के अन्त होने पर लोहर या लोहित जाटवंश का शासन कश्मीर में स्थापित हुआ। इस वंश के लोग कश्मीर में पीरपंजाल पहाड़ी क्षेत्र में आबाद थे। इन लोगों के नाम पर लोहरकोट (लोहरों का दुर्ग) है। इस वंश की सुप्रसिद्ध महारानी दीद्दा थी।

इस महारानी ने अपने भाई उदयराज के पुत्र संग्रामराज को अपना उत्तराधिकारी बनाया। उसकी मृत्यु सन् 1028 में हो गई। उसके बाद लोहर जनपद का नरेश विग्रहराज हुआ। अलबुरुनी ने इस


1.आधार पुस्तकें - भारत का इतिहास (प्री०-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), पृ० 168, 169, 172 लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 15-16 तथा 23-24 लेखक ईश्वरीप्रसाद।


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‘लोहर कोट’ को ‘लोहा कोट’ का संकेत देकर लिखा है कि “इस लोहरकोट पर महमूद गजनवी का आक्रमण बिल्कुल असफल रहा था।” फरिस्ता लिखता है कि “महमूद की असफलता का कारण यह था कि उस दुर्ग की उंचाई एवं लोहर जाटों की शक्ति अद्भुत थी। महमूद ने नगरकोट और कांगड़ा को सन् 1009 ई० में जीत लिया था। उसके भय से कश्मीर में तत्कालीन शासन अस्थिर हो गया था, तब लोहर क्षत्रिय जाटों ने कश्मीर के शासन को स्थिर किया1।” (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, लोहित-लोहर क्षत्रिय, प्रकरण)।

सिन्ध प्रदेश पर जाट राज्य

सिन्ध प्रदेश पर जाटों का शासन प्राचीन समय, रामायणकाल, महाभारतकाल तथा इसके बाद के समय तक चलता आया है। यह पिछले अध्यायों में लिख दिया गया है। हर्षवर्धन के शासनकाल में भी यहां जाटों का बड़ा शक्तिशाली राज्य था। सिन्ध प्रान्त पर मौर्य-मौर जाटों का राज्य स्थापित हुआ। इनकी उपाधि ‘राय’ थी। इन राजाओं का सिन्ध पर शासन सन् 185 ई० पू० से सन् 645 ई० तक लगभग 830 वर्ष रहा। सिन्ध पर राय उपाधि का प्रथम शासक राय देवायज था जिसका परिचय सिन्ध गजेटियर में मौर्य नाम पर मिलता है। इसका समय मगध पर से मौर्य साम्राज्य के पतन के दिनों का माना जाता है। इसका पुत्र राय महरसन और उसका पुत्र साहसी राय साधारण स्थिति के ही शासक थे किन्तु महरसनराय द्वितीय ने राज्य को बहुत बढ़ाया। उसने ईरान के राजा नीमरोज से भी युद्ध किया किन्तु गले में तीर लग जाने से वीरगति पाई। इसके पुत्र साहसीराय द्वितीय ने अपने राज्य की सीमाओं की रक्षा और वृद्धि की ओर बड़ा ध्यान दिया। इसने अपनी प्रजा को आदेश दिया कि एक वर्ष के लगान के बदले में माथेला, सिवराय, मऊ, अलौर और सिविस्तान के किलों की मरम्मत कर दी जाये। प्रजा ने ऐसा ही किया। इससे सारी प्रजा प्रसन्न थी। इसने अलौर को ही अपनी राजधानी बनाया। इस सम्राट् का राज्य पश्चिम में समुद्र के देवल बन्दरगाह तथा मकरान तक, दक्षिण में सूरत बन्दरगाह तक, उत्तर में कंधार, सीस्तान, सुलेमान, फरदान और केकानन के पहाड़ों तक और पूर्व में कन्नौज राज्य की सीमा और कश्मीर तक विस्तृत था। इस सम्राट् के यहां ‘राम’ नामक एक वजीर था और इसी नाम का एक ड्यौढीदार भी था।

सिन्ध में ब्राह्मण राज्य की स्थापना -

एक समय शालायज नामक ब्राह्मण का पुत्र चच इस ड्योढीदार ‘राम’ से आकर मिला। उसने चच को मन्त्री ‘राम’ के यहां नौकर रखवा दिया।

एक बार राजा साहसीराय बीमार हुआ तो उसने मन्त्री को इस वास्ते महल में ही बुलाया कि देश-विदेश से आई हुई चिट्टियों को सुना दे। मन्त्री ने अपने मुंशी चच को भेज दिया। राजा उस चच की विद्वत्ता को देखकर प्रसन्न हुआ और उसे ड्योढीवान बना दिया। चच बे-रोकटोक रानी के जनाने महल में जाता था। राजा साहसीराय की रानी सुहानन्दी की नीयत में फर्क आ गया।


1. आधार पुस्तकें - मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 15, लेखक ईश्वरीप्रसाद; जाटों का उत्कर्ष पृ० 369, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत का इतिहास (प्री०-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), पृ० 172-173, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 263 लेखक बी० एस० दहिया।


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उसने चच की सुन्दरता को देखकर उससे अनुचित सम्बन्ध स्थापित कर लिया और चच ने समय पाकर नमकहरामी करके रानी की मदद से साहसीराय का वध करके मौर्य राज्य पर अधिकार कर लिया और स्वयं मन्त्री नाम से रानी को शासक घोषित करके शासन करने लगा। यह वह समय था जब कन्नौज पर हर्षवर्धन राज्य करता था। साहसीराय के मरने पर चच ने रानी सुहानन्दी से विवाह कर लिया। इस प्रकार सिन्ध पर से मौर्य जाटों का शासन समाप्त हो गया।

चच के इस धोखेबाजी के समाचार जब साहसीराय के दामाद राणा महारथ जो कि चित्तौड़ का शासक था, ने सुने तो वह अपनी सेना लेकर अलौर आया और चच पर आक्रमण कर दिया। चच घबरा गया किन्तु रानी सुहानन्दी के साहस दिखाने पर उसने लड़ाई की तैयारी कर दी। यहां भी चच ने धोखे से काम लिया और यह तय होने पर कि राणा और चच दोनों एक-दूसरे से आपस में निमट लें जिससे हजारों आदमियों की जान बच जाये, चच ने राणा को विश्वासघात करके मार डाला।

चच ने निरंकुश शासन द्वारा जाट जनता का दमन करने का संकल्प लिया। उसने लोक नेता जाट मौर्यों, सिन्धुवासियों और लुहानों को बौद्ध धर्मानुयायी होने से पतित कहकर यह आदेश दिया कि किसी प्रकार का शस्त्र बांधकर, घोड़े पर काठी और सिर पर छाता लगाकर न चलें। इसके अतिरिक्त जो कठोर कानून बनाये उससे सिन्ध की जनता त्राहि-त्राहि पुकार उठी। उसका उद्देश्य जाटों को कुचल देना था। उसने जाट शासकों तथा मुखियाओं को ब्राह्मणवाद के किले में बन्धक के रूप में रखा। उसने उन पर निम्नलिखित पाबन्दियां लगाईं कि “वे कभी तलवार नहीं रख सकते। नीचे कभी दुशाला, मखमल तथा रेशमी कपड़े नहीं पहन सकते। ऊपर पहने जाने वाले कपड़ों का रंग लाल या काला होगा। अपने घोड़ों पर काठी नहीं लगायेंगे और सिर पर कुछ नहीं बांध सकते तथा पैर नंगे रखेंगे। वे ब्राह्मण राजाओं की रसोईघरों के लिए लकड़ियां लायेंगे और जब भी बाहर जायेंगे तो अपने साथ कुत्ते लेकर जायेंगे। आवश्यकता के अनुसार जासूस एवं मार्गदर्शक का कार्य करेंगे, तथा इसके लिए राजभक्त रहेंगे।” (Chach Nama, Elliot, i, 151)।

चच ने सिंध देश पर 40 वर्ष तक शासन किया। इसके बाद उसका पुत्र चन्द्र राजगद्दी पर बैठा। शिवस्तान में उस समय शिवगोत्री जाट मत्ता का राज्य था। चच के मरने के बाद उसने कन्नौज (सिन्ध में था) के जाट राजा से, सिंध के राज्य को अपने हाथ में लेने की योजना बनाई। उसने अपने भाई बसाइस को सेना देकर राजा मत्ता के साथ कर दिया। उन्होंने सिन्ध में लूट-मार तो की किन्तु चच के पुत्र चन्द्र को हरा न सके। चन्द्र का पुत्र और चच का पौत्र दाहिर अलौर की गद्दी पर बैठा तब कन्नौज के राजा राणा रणमल ने भी इरादा किया कि इस ब्राह्मण राज्य को नष्ट कर दिया जाये जो कि जाटों के लिए अहितकारी है। किन्तु राणा भी विफल रहा। उस समय नेहरा वंश के जाटों का राज्य नेरून में था जो कि आजकल हैदराबाद (सिन्ध) है। उस समय जाटों को एक तरफ अरब आक्रमणकारियों से लड़ना और दूसरी ओर उनके बीच में घुस पड़नेवाले ब्राह्मण राजाओं से संघर्ष करना पड़ा था।

उसी समय चन्द्रराम हाला वंश का जाट सरदार था। वह पहले सूस्थान का शासक था परन्तु उसे मुसलमानों ने जीत लिया। चन्द्रराम ने अवसर पाकर मुसलमानों को सूस्थान से निकालकर


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किले पर अधिकार कर लिया। मुहम्मद कासिम ने इस खबर को सुनकर अब्दुल रहमान के साथ एक हजार घुड़सवार और दो हजार पैदल सेना देकर चन्द्रराम का दमन करने के लिए भेजा। चन्द्रराम हाला बड़ी वीरता से लड़ा किन्तु हार गया। उसका प्रदेश हालाखण्डी नाम से प्रसिद्ध है (सिन्ध का इतिहास, पृ० 30)।

राजा दाहिर ने भी अपने दादा चच की भांति जाटों पर अत्याचार जारी रखे।

मुहम्मद बिन कासिम का सिन्ध पर आक्रमण -

यह पिछले अध्याय में लिख दिया गया है कि मुसलमान आक्रमणकारियों को जाटवीरों ने भारत की उत्तर-पश्चिम घाटियों पर युद्ध करके शताब्दियों तक भारत की सीमा में प्रवेश नहीं करने दिया। मुसलमानों के साथ पहली टक्कर लेने वाले जाट योद्धा थे। यही कारण था कि उस समय के मुस्लिम इतिहासकारों ने सभी भारतीयों को ‘जाट’ कहा। (जाट इतिहास पृ 12, लेखक कालिकारंजन कानूनगो

अरब खलीफा हज्जाज ने अपने 20 वर्ष की आयु के भतीजे मुहम्मद बिन कासिम को एक बड़ी शक्तिशाली सेना का सेनापति बनाकर सन् 712 ई० में बलोचिस्तान के मरु मार्ग से सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा। इस साहसी नवयुवक ने नारायणकोट के किलेदार दाहिर के ब्राह्मण सेनापतियों को धन का लोभ देकर उनको अपने वश में कर लिया। राजा दाहिर भी दस हजार सवार और 20 हजार पैदल सेना लेकर अलौर से बाहर निकल आया। यद्यपि चच और दाहिर ने जाटों के साथ बड़े-बड़े अत्याचार करके उन्हें कुचल देने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी, तब भी जाट सैनिकों ने दाहिर का साथ देकर स्वामिभक्ति तथा देशभक्ति का अपना प्रण निभाया। कासिम के साथ आठ दिन तक घनघोर संग्राम हुआ। अन्त में दाहिर की हार हुई। राजा दाहिर की हार के दो बड़े कारण थे। एक तो राजा दाहिर का मन्त्री ज्ञानबुद्ध देशद्रोही बन गया और अरबों से मिल गया। दूसरा कारण यह हुआ कि इस घनघोर युद्ध से साहस छोड़कर कासिम भागने ही वाला था कि उसके एक सिंध निवासी ब्राह्मण पुजारी ने मन्दिर के झण्डे को उतार देने का गुर बताया, निशाने से झण्डा गिरा दिया गया, जिससे दाहिर की सेना अपनी पराजय जानकर भाग निकली। इस भगदड़ में राजा दाहिर एक तीर लगने से घायल होकर गिर पड़ा। उसका सिर काट लिया गया। इस तरह कासिम को विजय प्राप्त हुई। 120 फुट उँचा मन्दिर पूर्ण विध्वस्त कर दिया गया।

कुछ थोड़े से ही लालच में आकर उपरोक्त उसी ब्राह्मण ने गुप्त कोष का परिचय भी कासिम को दे दिया, जो कि तांबे के 40 देगों में बन्द था। इनमें 17200 मन सोना था जिसका मूल्य 72 करोड़ रुपये होता था। 6000 मूर्तियां ठोस सोने की थीं, जिनमें सबसे बड़ी 30 मन की थी। हीरा, लाल, मोती, पन्ना और मानिक भी इतना था कि कई ऊंटों पर लादकर अरब ले जाया गया था। इस विपुल धन के पाते ही कासिम ने विश्वासघाती ब्राह्मण को दक्षिणा में मृत्युदण्ड दिया।

दाहिर की बहन ने युद्धक्षेत्र में भाई के वीरगति का समाचार पाते ही बहुत सी स्त्रियों समेत चिता में अपने को भस्म कर दिया। कासिम ने 17 वर्ष के ऊपर के सभी ब्राह्मणों का वध करके चुनकर 75 सुन्दरियों और दाहिर की दो सुकुमार कुमारी स्वरूपदेवी और


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वीरलदेवी तथा लूट का पांचवां भाग इराकी गवर्नर हज्जाज के पास भेज दिया। कई लेखकों ने हजारों हिन्दू स्त्रियां भेजी लिखा है। सिन्ध पर अरबों का अधिकार हो गया तथा ब्राह्मण राज्य समाप्त हो गया।

राजा दाहिर ने सिंध पर 25 वर्ष शासन किया। इस तरह से सिंध पर ब्राह्मण राज्य सन् 645 ई० से 712 ई० तक लगभग 67 वर्ष रहा।

जब दाहिर की इन दोनों पुत्रियों को खलीफा हज्जाज के सन्मुख लाया गया तो इन दोनों चतुर बहनों ने उससे कहा कि “हम आपके योग्य नहीं रह गईं, कासिम ने हमारा धर्म पहले ही बिगाड़ डाला है।” फरिश्ता लिखता है कि यह सुनकर खलीफा ने तुरन्त आज्ञा दी कि मुहम्मद बिन कासिम को बैल के चमड़े में जिन्दा सीलकर दरबार में हाजिर करो। सिन्ध से इसी दशा में लाते हुए मार्ग में ही कासिम मर गया।

शव के इराक दरबार में पहुंचने पर हज्जाज ने कासिम की दशा दोनों दाहिर पुत्रियों को दिखलाई। खलीफा से अपने धर्म की रक्षा के लिए वे हंसकर बोली “ऐ खलीफा! कासिम तो हमें बहन बराबर समझता था। हमने तो अपने देशवासियों एवं पिता आदि कुटुम्बियों के वध का बदला लेने के लिए ही यह चाल चली थी, हमें प्रसन्नता है कि हमने अपने देश के शत्रु से बदला ले लिया।” इस पर अति क्रुद्ध होकर हज्जाज ने दोनों बहिनों को जीवित ही आग में जलवा दिया।

मुहम्मद बिन कासिम द्वारा इस्लामी चोट से परास्त सिंध प्रान्त केवल 40 वर्ष ही अरब के अधीन रहा और तुरन्त जाग उठा। ब्राह्मण प्रभुत्व में कुचली हुई क्षत्रिय जातियों ने बहुत शीघ्र अरबों की प्रभुता भी समाप्त कर दी किन्तु असंख्य सिन्ध के निवासियों ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। ऐसे भी बहुत थे जो इस्लाम धर्म के अनुयायी नहीं बने और उन्होंने इस प्रान्त को छोड़ दिया। इनमें लुहाना, यौधेय, सिन्धु, मौर-मौर्य आदि जाटवंश थे। वे लोग मालवा, बागड़, मारवाड़ तथा पंजाब में जा बसे।

सिंध की जनता के इस्लाम धर्म स्वीकार करते ही क्षत्रिय जातियों ने अपनी शासन सत्ता पुनः जमा ली थी जो कि आज तक भी विशाल जमीनदारियों के रूप में जाट और बलवंशी बलोच मुसलमानों पर विद्यमान है। नव मुस्लिम भारतीयों द्वारा इराक़ के खलीफा को सिन्ध छोड़ने पर विवश होना पड़ा1

बलहारा जाटवंश का राज्य

अरब यात्री सुलेमान नदवी ने भट्टि यादवों की शाखा बलहारा जाटवंश के राज्य को भारत के चार बड़े राज्यों में से एक लिखा है। जब भारत अनेक राज्यों में बंट गया था तब प्रमुख चार राज्य सिन्ध, कन्नौज, कश्मीर तथा मानकिर में थे। मानकिर, सिंध और राजस्थान की सीमा


1. सिन्ध राज्य: आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 88-90, 94-97, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; मध्यकालीन भारत का इतिहास, पृ० 39-43, लेखक ईश्वरीप्रसाद; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 66 व 212-217, लेखक बी० एस० दहिया, जाट इतिहास, पृ० 14-15, लेखक कालिकारंजन कानूनगो; गुर्जर वीर वीरांगनाएं, पृ० 19-20, लेखक पूर्व प्रिंसिपल गणपतिसिंह।


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पर था। जो राजा मानकिर का शासक था उसका वंश बलहारा था। इस वंश का यहां पर राज्य सन् 857 ई० में था। बलहारा जाटों का सन् 900 ई० में एक शक्तिशाली राज्य भारत की पश्चिमी सीमाओं पर था। इनकी अरब शासकों से मित्रता थी तथा गुर्जरों से शत्रुता थी। उस समय 70 जाट गोत्र गुर्जरों में मिल गए और अपने को गुर्जर कहने लगे।

बलहारा जाटों का एक प्रदेश गुर्जर प्रदेश के साथ लगता हुआ था, जिसकी स्थापना पश्चिमी समुद्र के तट पर थी। (Journal Royal Asiatic Society, 1904, P. 163)। मुस्लिम इतिहासकार अबुजयद (916 ई०) और अल समसूदी (943 ई०) ने भी दो साम्राज्य बलहारा और गुर्जरों के लिखे हैं।

कश्मीरी कवि कल्हण ने अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में लिखा है कि तेजस बलहारा का पुत्र राजावादान बलहारा का कश्मीर में शासन था (OP Cit, viii 2695/2696)। यह जयसिमहा (जयसिंह) जो सन् 1128-1149 ई० में हुआ, का समय था। कल्हण ने यह दृश्य स्वयं देखा है क्योंकि उसने राजतरंगिणी सन् 1149-1150 ई० में लिखी थी। राजावादान बलहारा एवेसका (Evesaka) और कई दूसरे जिलों का शासक था। उस समय एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र रचे जाते थे और नैतिक अवस्था तथा सैनिक चरित्र घट गये थे। किन्तु, इस राजावादान बलहारा के विषय में स्वयं कल्हण लिखता है कि “इस बलहारा राजा में दृढ़ता एवं चरित्र के वह स्वाभाविक विशेष गुण थे जो कि आज के बहादुर लोगों में भी कम ही मिलते हैं। उसने धनयु तथा भोजा राजाओं के साथ विश्वासघात नहीं किया जो कि इसके विरोधी थे तथा इसके पास बिना विचारे और लालच के कारण आ गये थे।” ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ (लेखक इलिएट और डाउसन) पुस्तक बलहारा जाटों के अद्भुत कार्यों से भरी पड़ी है, जिनका सम्राट् भारत के शासकों से सर्वश्रेष्ठ कहलाता है। (History of India as told by its own Historians (Elliot and Dowson vol. 1).

इन बलहारा जाटों के असंख्य गांव हैं जिनमें रोहतक से 7 मील स्थित भऊअकबरपुर एक प्रसिद्ध गांव है1

कई स्थानों पर भाषाभेद के कारण इस बलहारा गोत्र को बलहरा भी बोला जाता है। जिसका एक गांव गिरावड़, तहसील महम जिला रोहतक में है तथा अन्य पंजाब प्रान्त में संगरूर जिला में 10-12 गांव हैं। जिनमें इस गोत्र का एक गांव बल्हाड़ा भी है।

पंजाब में जाट राज्य

पूरण भगत - पंजाब में राजा शालिवाहन, जो सिन्धु (सिन्धड़) गोत्र के जाट थे, का राज्य 7वीं शताब्दी के अन्तिमकाल में था, जिनकी राजधानी सियालकोट थी। इनकी दो रानियां थीं। बड़ी रानी से पूरण भगत उत्पन्न हुये। छोटी रानी नूणादेह जो पूरण भगत की विमाता (मौसी) थी, पूरण भगत के रूप पर मोहित हो गई। उस रानी ने इस राजकुमार से अपनी वासना तृप्ति का


1. आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 354, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास अंग्रेजी पृ० 116, लेखक ले० रामसरूप जून; जाट्स दी ऐन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 245-246, 315 लेखक बी० एस० दहिया


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अनुरोध किया पर उसने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर छोटी रानी ने राजा शालिवाहन के सामने उलटे राजकुमार पर ही यह आरोप लगा दिया कि उसने उस पर कुदृष्टि डाली है और उनके शीलभंग की कुचेष्टा की है।

राजा शालिवाहन ने छोटी रानी की शिकायत से क्रुद्ध होकर, राजकुमार के हाथ-पांव कटवाकर, उसे सियालकोट नगर से बाहर एक कूएं में डलवा दिया। वहां एक महासिद्ध ‘योगी’ आए, जिनकी कृपा से राजकुमार को पुनः हाथ-पांव मिले। इस प्रकार ‘पूर्णावयवी’ बन जाने से यह ‘पूरण भगत’ कहलाए। इनको ‘सिद्ध श्री चौरंगीनाथ’ भी कहा जाता है। सियालकोट नगर से 5 मील की दूरी पर अब भी वह कुंआ है जिसको लोग ‘पूरण भगत वाला कुंआ’ के नाम से पुकारते हैं। पूरण भगत (सिद्ध श्री चौरंगीनाथ जी) को सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ (मच्छेन्द्रनाथ) जी का शिष्य तथा गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) जी का ‘गुरु भाई’ कहा गया है। इस तथ्य को पुष्ट करने वाले अनेक ग्रन्थ तिब्बत के तंजूर नामक स्थान पर स्थित बौद्ध मठ से प्राप्त करके महापंडित राहुल सांकृत्यायन भारत में लाये हैं। जिस समय सिद्ध मत्स्येन्द्रनाथ जी की दृष्टि, हाथ-पांव कटे, ‘चौरंगी’ पर पड़ी, उनकी कृपा से ‘चौरंगी’ के हाथ-पांव अंकुरित हो गये। उन्हीं की कृपा से चौरंगीनाथ प्रसिद्ध सिद्ध हुए। इतना ही नहीं, मूल ग्रन्थ में तो सिद्ध श्री चौरंगीनाथ जी की उन महासिद्धों में गणना की गई है जिन्होंने हठयोग की साधना कर, मोक्ष की प्राप्ति की।

पूरण भगत जी द्वारा स्थापित अस्थल बोहर (रोहतक) का वर्तमान ‘मठ’ ‘नाथ सम्प्रदाय’ की ‘बड़ी दरगाह’ अथवा ‘महान् तीर्थ’ के रूप में मान्य है।

राजा रिसालू - राजा शालिवाहन की छोटी रानी नूणादेह से रिसालू पुत्र उत्पन्न हुए जो पूरण भगत की मौसी के बेटे भाई थे। प्रचलित लोककथाओं के अनुसार उसका जन्म ही पूरण भगत जी के आशीर्वाद से हुआ था। प्रचलित लोककथाओं के अनुसार उसका जन्म ही पूरण भगत जी के आशीर्वाद से हुआ था। राजा रिसालू सातवीं सदी के अन्त में अथवा आठवीं सदी के आदि में राज्य करते थे जिनकी राजधानी सियालकोट थी। राजा रिसालू के शासनकाल में मोहम्मद बिन कासिम ने भारत पर प्रथम मुस्लिम आक्रमण का नेतृत्व किया था।

इस आक्रमण की समाप्ति के पश्चात् मोहम्मद बिन कासिम तथा राजा रिसालू में परस्पर सन्धि हुई थी। यह तथ्य भारतीय तथा अरबी इतिहास ग्रन्थों में उपलब्ध है। प्रख्यात इतिहासवेत्ता डा० टेम्पल ने सन् 1884 ई० में इस सम्बन्ध में शोध की थी, उससे भी यही तथ्य प्रमाणित एवं पुष्ट हुए हैं। डाक्टर टेम्पल की मान्यता है कि राजा रिसालू सिन्धु अथवा सिन्धड़ गोत्र के जाट थे1

नागवंशी भारशिव (भराईच) जाटों का पंजाब में राज्य

हर्षवर्धन (606 से 647 ई०) के शासनकाल में जब चीनी यात्री ह्यूनत्सांग भारतवर्ष आया तब ये भराईच जाट उत्तर-पश्चिम पंजाब के स्वतन्त्र शासक थे और बौद्ध-धर्म के मानने वाले थे। सम्राट् हर्ष की मृत्यु के पश्चात् जब भारतवर्ष में राजनैतिक परिवर्तन हुए, तब इस भराईच जाटवंश ने अपना एक राज्य गुजरात (पाकिस्तान) क्षेत्र पर स्थापित कर लिया। इसके लिए इन्हें 10वीं


1. अस्थल बोहर मठ का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 1-12, लेखक कोकचन्द्र शास्त्री।


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सदी से 13वीं सदी तक गखड़ों, गुर्जरों आदि से युद्ध करने पड़े। अन्त में पहाड़ के दामन और इठार के क्षेत्र में चनाब नदी के दाहिने किनारे तक भराईच जाटों ने इस उपजाऊ भूमि पर अपना अधिकार कर लिया। इस क्षेत्र पर आज इनके 350 गांव हैं। (अधिक जानकारी के लिए देखो, पंचम अध्याय, नागवंशी भारशिव (भराईच) प्रकरण)।

दक्षिण में जाटराज्य

1. अहलावत वंश -

अहलावत जाटों का दक्षिण भारत में वातापी या बादामी राजधानी पर सन् 550 ई० से 753 ई० तक लगभग 200 वर्ष तक राज्य रहा। इस राजधानी पर इस वंश के 6 राजाओं का शासन रहा। इनमें सबसे शक्तिशाली तथा प्रसिद्ध सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय था, जिसका शासन सन् 608 ई० से 642 ई० तक रहा। इसने उत्तरी भारत के शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धन को सन् 620 ई० में नर्मदा नदी पर हराया था। इसका राज्य नर्मदा के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक तथा दक्षिण में पल्लव जाटवंश के राज्य की सीमा कांची तक फैला हुआ था।

इस वंश के अन्तिम राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय को सन् 753 ई० में राष्ट्रकूट-राठीवंश के जाट राजा वन्तीदुर्ग ने हरा दिया और बादामी पर राठीवंश का राज्य स्थापित कर दिया।

अहलावत वंश का कल्याणी राजधानी पर सन् 973 से 1190 ई० तक शासन रहा। तल्प द्वितीय ने राठीवंश के अन्तिम राजा कक्क को सन् 973 ई० में पराजित करके कल्याणी राजधानी पर अपना राज्य स्थापित किया। अहलावतवंश के चार शासक शक्तिशाली हुये। इस वंश के अन्तिम राजा सुवेश्वर को यादववंश के राजा ने सन् 1190 ई० में हराया तथा कल्याणी पर से अहलावतों के शासन का अन्त हो गया1

2. राष्ट्रकूट-राठी जाटवंश -

इस राठीवंश का बादामी राजधानी पर सन् 753 ई० से 973 ई० तक 200 वर्ष शासन रहा। इस वंश के 6 राजाओं का इस राजधानी पर राज्य रहा।

इस वंश के अन्तिम राजा कक्क को सन् 973 ई० में अहलावत राजा तल्प द्वितीय ने हराकर कल्याणी राजधानी पर अपना शासन स्थापित किया2

(1, 2 अहलावत तथा राष्ट्रकूट-राठीवंश के दक्षिण पर शासकों की अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, इन वंशों के प्रकरण)।

3. पल्लव जाटवंश -

इस पल्लव जाटवंश का दक्षिण में छठी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक एक शक्तिशाली राज्य रहा। इनके राज्य में मद्रास, तिरुचिरापल्ली, अरकाट और तंजावूर शामिल थे। कांची पर इनका राज्य बड़ा प्रसिद्ध था। इस वंश के शासक निम्न प्रकार से थे -

  • (1) सिंध विष्णु (सन् 575 ई० से 600 ई०) - यह पल्लव वंश का सबसे पहला प्रसिद्ध सम्राट् था। इसने पाण्ड्य, चोल, चेर आदि राज्यों को जीता और श्रीलंका पर भी आक्रमण किया।

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  • (3) नरसिंहवर्मन (सन् 625 से 645 ई०) - महेन्द्रवर्मन की मृत्यु के पश्चात् यह सन् 625 ई० में राजा बना। इसने पुलकेशिन द्वितीय सोलंकी को युद्ध में परास्त कर दिया तथा वह मारा गया। इसके अतिरिक्त नरसिंहवर्मन ने चेर और चोल राज्यों के साथ युद्ध में सफलता प्राप्त की। इसने श्रीलंका को भी जीत लिया था। सन् 640 ई० में चीनी यात्री ह्यूनत्सांग ने इसके राज्य की यात्रा की थी। उसने लिखा है कि नालन्दा विश्वविद्यालय का सबसे बड़ा विद्वान् धर्मपाल, कांची नगर का ही रहने वाला था।
  • (4) बाद के पल्लव शासक (645 ई० से 895 ई०) - नरसिंहवर्मन की मृत्यु के पश्चात् इस वंश के राजे 9वीं शताब्दी के अन्त तक शासन करते रहे। ये सब बहुत दुर्बल थे, जो अहलावत, राष्ट्रकूट-राठी और चोलवंश के शासकों के हमलों को रोकने में असफल रहे। अन्त में अपराजितवर्मन (सन् 876 से 895 ई० तक) के राज्य को चोलवंश ने समाप्त कर दिया3। (तृतीय अध्याय, रामायणकालीन, पल्लव जाटवंश प्रकरण)।

4. चोल जाटवंश -

चोल जाटवंश है जो कि रामायणकाल से प्रचलित है। रामायण, महाभारत, मैगस्थनीज के वृत्तान्त, अशोक के शिलालेखों तथा अन्य ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। इनके राज्य में तमिलनाडु और मैसूर के अधिकांश प्रदेश शामिल थे। आठवीं शताब्दी में पाण्ड्य वंश की शक्ति और नौवीं शताब्दी में पल्लवों की शक्ति क्षीण होने के कारण चोल शक्ति का उत्थान हुआ। चोल वंश के शासक -

  • (1) राजा परान्तक (सन् 907-955 ई०) - इसने पाण्ड्य राजा को हराकर उसके राज्य तथा उसकी राजधानी मदुरा को अपने राज्य में मिला लिया।
  • (2) राजाराज (सन् 985-1012 ई०) - यह इस वंश का एक महान् शासक था। उसने केरल शासक तथा पाण्ड्यवंश के सारे राज्य को अपने अधिकार में किया। उसने श्रीलंका के उत्तरी भाग को जीतकर अपने राज्य में मिलाया। उसका अहलावत चालूक्यों से युद्ध रहा। उसने मालदीव द्वीपों को भी अपने समुद्री जहाजों द्वारा जीता। उसने तंजावूर में एक बड़ा शिव मन्दिर बनवाया।
  • (3) राजेन्द्र चोल प्रथम (सन् 1012-1044 ई०) - इसने अपने पिता राजाराज की मृत्यु के पश्चात् अपने राज्य का विस्तार का कार्य जारी रखा। उसने सारी श्रीलंका को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया। उसने दक्षिण के केरल और पाण्ड्य राज्यों पर विजय प्राप्त की। अहलावतों से भी उसका युद्ध रहा। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण सैनिक अभियान उत्तरी भारत में था। गोदावरी नदी पार कर उसकी सेना उड़ीसा में होती हुई पश्चिमी बंगाल पहुंची। वहाँ उसने पालवंश के शासक को हराया और गंगा नदी का पानी अपनी राजधानी में

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लाया। राजेन्द्र चोल प्रथम ने ‘गंगेकोण्ड’ (गंगा का विजयी) की उपाधि धारण की। इसने अपने समुद्री बेड़े द्वारा अन्दमान और निकोबार द्वीपसमूह तथा मलाया और सुमात्रा प्रदेश को जीत लिया।
  • (4) बाद के चोल शासक - राजेन्द्र प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र राजाधिराज शासक बना जो सन् 1052 ई० में अहलावतों के साथ युद्ध में मारा गया। इसके बाद के शासक दुर्बल थे। इस वंश का एक शासक कुलोत्तुंग (1107-1120 ई०) में हुआ। उसके समय में लंका के शासक ने अपने आप को स्वतन्त्र किया। पाण्ड्यवंश एवं केरल के शासकों ने इसके विरुद्ध युद्ध किए परन्तु उन्हें स्वतन्त्रता प्राप्त न हुई। बाद के शासक इतने दुर्बल हुए कि अपने राज्य की रक्षा न कर सके। 14वीं शताब्दी में चोलवंश को मलिक काफूर ने जीत लिया4

5. पाणड्य जाटवंश का राज्य - इस राज्य में मदुरा, तिरुनेल्वेलि और केरल का थोड़ा सा भाग शामिल था। ह्यूनत्सांग यात्री के समय (सन् 640 ई०) में पाण्ड्यवंश के शासक पल्लववंश के शासकों के अधीन थे। 7वीं, 8वीं, सदी में पाण्ड्य राज्य कुछ शक्तिशाली हुआ किन्तु राजराजा चोल ने इस राज्य पर अधिकार कर लिया। 200 वर्ष तक यह पाण्ड्य राज्य चोल वंश के अधीन रहा। चोल राज्य की अवनति के समय 13वीं सदी में पाण्ड्य लोग फिर से स्वतन्त्र हो गए और थोड़े समय के लिए दक्षिण में सबसे अधिक शक्तिशाली हो गए। सुन्दर पाण्ड्य प्रथम और सुन्दर पाण्ड्य द्वितीय उस वंश के प्रसिद्ध सम्राट् हुए। नेल्लूर से कन्याकुमारी तक सारा पूर्वी घाट इनके राज्य में था। इनकी राजधानी मदुरा थी। 14वीं सदी में यह वंश मुसलमानों के अधीन हो गया और 16वीं सदी में विजयनगर शासक ने पाण्ड्य राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस प्रकार इस वंश के राज्य का अन्त हो गया5। (तृतीय अध्याय, रामायणकालीन, पाण्ड्य जाटवंश प्रकरण)।

6. मान जाटराज्य - डी० सी० सरकार ने दक्षिणी महाराष्ट्र में मान जात राज्य लिखा है (Indian Historical Quarterly, 1948 vol. xxiv, PP. 71-79)। इनके सिक्के (मुद्रा) गोआ, कोंकन क्षेत्र में मिले हैं। (देखो तृतीय अध्याय, महाभारतकालीन, मानजाट प्रकरण)।

7. जनवार जाटवंश का राज्य - इस वंश का राजा कुलोत्तुंग हुआ। उसने कुन्तल जाटवंश के नरेश को हराकर और पाण्ड्य नरेश (जाटवंश) का वध करके तुंगभद्रा नदी के साथ-साथ विशाल भूभाग पर अपना राज्य स्थापित कर लिया, जो कि संवत् 1175 (सन् 1118 ई०) तक विद्यमान रहा।

सोमनाथ के मन्दिर पर आक्रमणकाल सन् 1024 ई० में महमूद गजनवी के सैनिकों के सैनिकों से परास्त होकर जनवार लोग देहली की ओर आ गए। (तृतीय अध्याय, महाभारतकालीन जनवार जाटवंश, प्रकरण)।


आधार पुस्तकें - 1, 2, 3, 4, 5. हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 368-371; 381-388; भारत का इतिहास हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी; पृ० 98-99 एवं 103-104।


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8. मौर्य-मोर जाटराज्य - तामिल भाषा के विशेष लेखों के हवाले से नीलकान्त शास्त्री तथा अन्य इतिहासकार लिखते हैं कि मौर्यों के रथों ने, पहाड़ों को काटकर बनाई गई, सड़क पर से चलकर दक्षिण भारत पर आक्रमण किया था। (दि एज ऑफ नन्दज एण्ड मौर्याज पृ० 252; जरनल ऑफ इण्डियन हिस्ट्री 1975, पृ० 343)। फॉदर मेटज (Metz) के अनुसार नीलगिरी पहाड़ियों पर मिली मूर्तियों से पता लगता है कि वहां पर मौर्यों का राजकीय निवास था (इण्डियन-हिस्टोरिकल क्वार्टरली, पृ० 340)।

वृहत्तर बम्बई के अन्तर्गत खानदेश के बाघली गांव से प्राप्त शिलालेख द्वारा 1069 ई० तक इधर 20 मौर्य राजाओं के राज्य का ज्ञान होता है। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, मौर्य-मौर प्रकरण)।

9. काकुस्थ या काक जाटराज्य - इस काकवंश का दक्षिण में होना ईस्वी सन् से कई सदियों पहले का माना गया है। राजपूत युग में इस वंश के योद्धा वेटमराज उपनाम त्रिभुवनमल्ल ने वरंगल में अपनी राजधानी बनाई।

इसके पुत्र परोलराज का संवत् 1174 (सन् 1171 ई०) में लिखवाया हुआ शिलालेख मिला है, जिस पर बहुत सी विजयों का वर्णन है। इसके पुत्र रुद्र ने मैलिगीदेव का राज्य जीता और दोम्भ को हराया। इसने अपनी विशाल सेना के बल पर पूर्व में कटक, पश्चिम में समुद्र, उत्तर में मलयवन्त और दक्षिण में सेलम तक अपने साम्राज्य की सीमायें बढ़ा ली थीं। इसकी मृत्यु होने पर इसके भाई महादेव ने कुछ दिन शासन किया। महादेव के पुत्र गणपति ने संवत् 1255 (सन् 1198 ई०) में राज्य सम्भाला।

उसने चोलवंश के राज्य को जीता। सम्राट् गणपति के समय के पश्चात् सन् 1309 ई० में अलाउद्दीन खिलजी के प्रधानमंत्री मलिक काफूर ने वरंगल राजधानी पर आक्रमण कर दिया। उस समय वहां का शासक काकवंशज प्रताप रुद्रदेव था। उसने बड़ी वीरता से मुसलमान सेना का सामना किया। अन्त में विवश होकर काफूर की अधीनता स्वीकार कर ली। मिश्रबन्धु के लेखानुसार मलिक काफूर ने वरंगल के चारों ओर से 20,000 मन सोना लूटा। यह लूट का माल 1000 ऊँटों पर लादकर दिल्ली लाया गया। प्रताप रुद्रदेव ने दिल्ली के सम्राट् को प्रतिवर्ष ‘कर’ देना भी स्वीकार किया। उसने मलिक काफूर को कोहनूर हीरा और अपार धनराशि दी। अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के पश्चात् प्रताप रुद्रदेव ने दिल्ली के बादशाहों को ‘कर’ देना बन्द कर दिया। इसी कारण दिल्ली के बादशाह गयासुद्दीन तुगलक ने अपनी सेना से वरंगल पर आक्रमण कराया, परन्तु शाही सेना विफल रही। दो वर्ष पश्चात् सन् 1323 ई० में अपने पुत्र द्वारा फिर आक्रमण कराया। इस बार वरंगल के राजा की हार हुई और वरंगल का नाम बदलकर सुल्तानपुर रखा गया। वहां से काक/काकतीय जाटवंश की सत्ता समाप्त हो गई। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, काकुस्थ या काकवंश प्रकरण)।

10. शाल्व-शिलाहार-सालार जाटराज्य - 843 ई० में बम्बई प्रान्त के थाना जिले में कृष्णागिरी से प्राप्त शिलालेख से प्रमाणित होता है कि थाना जिले क्षेत्र पर सन् 800 से 1300 ई० तक इस वंश का राज्य रहा। ये शासक महामण्डलेश्वर क्षत्रियशिखाचूड़ामणि कहलाते थे। मराठों के सुप्रसिद्ध 96 कुलों में


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और राजस्थान के 36 राजवंशों में इस वंश की गणना करते हुए चन्द्रवंशी यादव कुलीन लिखा है। इस वंश के 11 राजाओं ने गुजरात पर शासन किया। इसके बाद सिद्धराज जयसिंह सोलंकी ने अनहिलवाड़ा पाटन में शासन स्थिर करके इनको गुजरात से निकाल दिया। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, शाल्व-शिलाहार-सालार वंश, प्रकरण)।

गुजरात में जाट राज्य

1. सिन्धु जाट - गुजरात में एक तांबे की चद्दर पर खुदा हुआ लेख मिला है जिस पर लिखा है कि “पुलिकेशिन चालुक्य राजा सूचित करता है कि जिन अरबों ने पश्चिमी भारत में सिन्धु जाटों तथा अन्य जातियों को पराजित किया था, उन अरबों को सन् 739 ई० के आरम्भ में सिन्धु जाटों ने अपने राजा पूनयादेव के नेतृत्व में पराजित किया तथा सन् 756 और 776 ई० में दो बार गुजरात पर किये अरबों के समुद्री बेड़े के आक्रमण को विफल करके वापिस धकेल दिया।” जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज पृ० 269, लेखक बी० एस० दहिया)।

2. बल-बालान जाटवंश - बलवंशी जाटों का राज्य सन् 470 से 757 ई० तक गुजरात में माही नदी और नर्मदा तक, मालवा का पश्चिमी भाग, भड़ौच, कच्छ, सौराष्ट्र, काठियावाड़ पर रहा। यहां पर इस राज्य की स्थापना करनेवाला भटार्क नामक वीर पुरुष बलवंशी जाट था। इसने संवत् 526 (सन् 469 ई०) में अपने बलवंश के नाम पर कच्छ-काठियावाड़ में बल्लभीपुर राज्य की स्थापना की थी। इस नगर का दूसरा नाम बला भी था। इस बला राज्य को बल्लभी अथवा गुजरात राज्य कहा गया है। संवत् 814 (सन् 757 ई०) में सिन्ध के अरब शासक हशान-इब्न-अलतधलवी के सेनापति अबरुबिन जमाल ने गुजरात, काठियावाड़ पर चढ़ाई करके बला या बल्लभी के इस बलवंश के राज्य को समाप्त कर दिया।

मुहणोंत नैणसी के लेखानुसार यहां से निकलकर बलवंश से ही गुहिलवंश का प्रचलन करने वाले गुहदत्त बाप्पा रावल उत्पन्न हुए। टॉड ने भी इसी मत की पुष्टि करते हुए एक शिलालेख का हवाला देकर लिखा है कि “मेवाड़ के गुहिल वंशियों ने बल्लभी पर भी यश स्थापित किया।”

गौरीशंकर हीराचंद ओझा मेवाड़ इतिहास पृ० 18 पर इसी राजविलास का उल्लेख करते हैं कि बल्लभ क्षेत्र के राजा का रघुवंशी पुत्र गुहादित्य मेवाड़ में आया। उसने अपने नाना मान मौर्य, जो चित्तौड़ का शासक था, को मारकर चित्तौड़ का राज्य हस्तगत कर लिया। इस प्रकार बलवंश की ही शाखा गुहिल, सिसौदिया सिद्ध होती है। स्थान परिवर्तन से इस प्रकार नाम भी परिवर्तित हुआ। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, बल/ बालान / बालियान प्रकरण)।

राजस्थान में जाट राज्य

1. मौर्य-मौर जाट राज्य - इन लोगों का चित्तौड़ पर राज्य था। यह नगर चित्रकूट के नाम पर मौर्य राजा चित्रांगद ने बनवाया था। उसी राजा ने चित्रंग तालाब का भी निर्माण कराया। इसी वंश के राजा मान मौर्य ने चित्तौड़ के पास मानसरोवर बनवाया। इसमें से 713 ई० में खुदवाया हुआ एक शिलालेख प्राप्त हुआ जिससे माहेश्वर भीम, भोज और मान का चित्तौड़ पर राज्य करना प्रमाणित होता है। इसी राजा मान मौर्य के धेवते बाप्पा रावल ने भीलों के बल पर अपने नाना को


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सन् 713 ई० में मारकर चित्तौड़ का राज्य छीन लिया। यह बाप्पा रावल बलवंश का जाट था जिसने चित्तौड़ पर गोहिलवंश के नाम पर राज्य स्थापित किया।

टॉड ने उदयपुर मेवाड़ के गोह-गोहिल बाप्पा रावल को बलवंशी माना है। बलवंश की शाखा गोत्र गोहिल एवं सिसोदिया और उपाधि राणा है।

बाप्पा रावल का राज्य सारे मेवाड़ पर था। इसके वंशजों ने मेवाड़ राज्य की राजधानी उदयपुर भी बनाई।

आठवीं शताब्दी में मौर जाट राजाओं का राज्य कोटा की प्राचीन भूमि पर था।

इण्डियन ऐण्टीक्वेरी जिल्द 19, पृ० 55-57 पर मौर्य राजा धवल के द्वारा कोटा की प्राचीन भूमि पर शासन करना प्रमाणित होता है। इस धवल राजा का नाम 738 ई० के एक शिलालेख पर है जो कि कोटा के कण्वाश्रम (कणसवा) के शिवालय में प्राप्त है। मौर्य जाटों के नाम पर जि० झुंझनूं में एक पहाड़ का नाम मौड़ा (मौरा) है। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, मौर्य-मौर वंश, प्रकरण)।

राजस्थान के राजवंशों का इतिहास, लेखक जगदीशसिंह गहलोत लिखते हैं - “मेवाड़ में गुहिल (गुहदत्त) नाम का एक प्रतापी सूर्यवंशी राजा हुआ जिसके नाम से उसका वंश गुहिलवंश कहलाया। गुहिल और गुहिलोत एक ही शब्द है। भाषा में ग्रहिल, गहलोत और गेलोत प्रसिद्ध हैं। भाषा में ग्रहिल, गोहिल, गहलोत और गेलोत प्रसिद्ध हैं। देश के गौरव, मेवाड़ के महाराणा इसी गहलोतवंश के थे।” (पृ० 24)। आगे यही लेखक पृ० 26 पर लिखते हैं कि -

मेवाड़ के गहलोत (या गुहिल) वंशी शासक विक्रम की 11वीं शताब्दी तक अर्थात् गुहिल (गुहदत्त बाप्पा रावल) (1) से रणसिंह (33) तक ‘राजा’ की उपाधि धारण करते रहे। रणसिंह के खेमसिंह, राहप और माहप नामक तीन पुत्र थे। राजकुमार राहप को सीसोदे गांव की जागीर मिली और वे ‘राणा’ उपाधि से प्रसिद्ध हुए। बड़े पुत्र खेमसिंह मेवाड़ की गद्दी पर बैठे। संवत् 1236 के लगभग मेवाड़ का राज्य खेमसिंह के बड़े पुत्र सामन्तसिंह के हाथ से निकल गया तब उसने डूंगरपुर राज्य की स्थापना की। कुछ दिन पश्चात् खेमसिंह के पुत्र कुमारसिंह ने अपने पूर्वजों के मेवाड़ राज्य पर फिर से अधिकार कर लिया। खेमसिंह से रत्नसिंह (42) तक ये नरेश ‘रावल’ कहलाये। रावल रत्नसिंह से सं० 1360 (सन् 1303 ई०) में बादशाह अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ छीन लिया और रत्नसिंह के काम आने पर रावल शाखा की समाप्ति हुई। अतः सीसोदे की शाखा के राणा हम्मीर ने संवत् 1382 (सन् 1325 ई०) के लगभग बादशाही हाकिम राज मालदेव सोनगरा की लड़की ब्याह कर युक्ति द्वारा फिर चित्तौड़ पर अपना अधिकार कर लिया। तब से यहां के नरेशों की उपाधि ‘राणा’ और गांव सीसोदा के निवासी होने से सीसोदिया कहलाने लगे।”

उपर्युक्त लेख से साफतौर से यह ज्ञात हो जाता है कि बाप्पा रावल बल गोत्र का जाट था जिसने गोहिलवंश चलाया और मेवाड़ के सब नरेश उसी के वंशज हैं जिनकी रगों में बलवंश का खून बह रहा है। बाप्पा रावल के वंशज जाट कुछ पीढ़ियों के बाद राजपूत संघ में मिलकर राजपूत कहलाने लगे।

2. नेहरा जाट - जयपुर की वर्तमान शेखावाटी के प्राचीन शासक नेहरा जाट थे जिन्होंने सिन्ध


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से यहां आकर नरहड़ में किला बनाकर 200 वर्गमील भूमि पर अधिकार स्थिर कर लिया। यहां से 15 मील पर उन्होंने नाहरपुर बसाया। उनके नाम पर झुंझनु के निकट का पहाड़ आज भी नेहरा कहलाता है। नेहरा जाटों की यह आवास भूमि शेखावत राजपूतों ने विजय कर ली। उनके नाम पर यह शेखावाटी कहलाने लगी। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, सूर्यजाटवंश नेहरा प्रकरण)।

3. भद्रक-भादा जाट - इन लोगों का राज्य भादरा नगर के क्षेत्र में था और भादरा (जि० श्रीगंगानगर) इन जाटों की राजधानी थी। भादरा से जोधपुर और अजमेर की ओर इनका बढ़ना पाया जाता है।

4. शिवि जाट - शिवि जाटों की राजधानी मध्यमिका नगरी थी जो राजस्थान में चित्तौड़ के निकट थी। यहां से इनके सिक्के भी प्राप्त हुए हैं जिन पर लिखा है “मज्झिम निकाय शिव जनपदस।” (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, भद्रक और शिवि/शैवल, प्रकरण)।

5. जाखड़ जाट - जाखड़ गोत्र के एक जाट राजा का राज्य गुजरात प्रान्त में था। वह वहां से आकर बीकानेर में बस गया। इस राजा के विषय में “जाट वर्ण मीमांसा” के लेखक पण्डित अमीचन्द शर्मा ने लिखा है कि - “इस जाखड़ राजा की राजधानी रेणी थी।”

इससे पहले जाखड़ जाटों का राज्य अजमेर प्रान्त पर था, यह भाट ग्रन्थों में लिखा है। जाखड़ लोगों का राज्य मढ़ौली पर भी था। यह मढ़ौली जयपुर राज्य में मारवाड़ की सीमा के आस-पास थी। जाखड़ों के बीकानेर में भी कई छोटे-छोटे राज्य थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, जाखड़ प्रकरण)।

6. गौर जाट - बीकानेर राज्य में इन गौर जाटों की राजधानी “भागौर” थी। बलवंश के जाटों ने इनका राज्य जीत लिया। इसके बाद गौर जाटों का राज्य अजमेर के चारों ओर पर्वतीय क्षेत्र पर रहा। इस राज्य को चौहान राजपूतों ने जीत लिया। (देखो तृतीय अध्याय, गौरवंश प्रकरण)।

7. दहिया जाटवंश का राज्य - दहिया जाटों के 20 राजाओं का राज्य जोधपुर प्रान्त में रहा। इसका प्रमाण, दहिया राजाओं के लिखवाये हुए चार शिलालेखों से होता है। एक शिलालेख 21 अप्रैल 999 ई० को लिखवाया हुआ, दूसरा 26 अप्रैल 1215 ई० का, तीसरा 1 जून 1243 ई० का, जो कि अलग-अलग स्थानों से मिले हैं। चौथा शिलालेख “चन्द्रावती सीतलेश्वर महादेव मन्दिर” से प्राप्त हुआ है।

मुहणोत नैणसी ने सन् 1665 ई० में दहिया जाटों के विषय में खोज करके लिखा है कि - “दहिया जाटों का निवास स्थान गोदावरी नदी के किनारे नासिक प्रम्बक के समीप थालनेरगढ़ था। यह स्थान दहिया जाटों की राजधानी थी।”

जोधपुर राज्य में जालौर का किला जाट राजाओं का बनवाया हुआ है जो मारवाड़ राज्य के इतिहास से प्रमाणित है। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, दहिया प्रकरण)।

8. सिहाग या सुहाग जाटराज्य - सुहाग जाट राजाओं की मेवाड़ प्रदेश में ‘कोटखोखर’ राजधानी थी। दूसरी इनकी राजधानी ‘पल्हुकोट’ थी। इनकी तीसरी राजधानी बीकानेर में थी। इनके


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राजाओं के नाम वीरराणा, धीरराणा आदि थे। गोरखसिंह की हस्तलिखित वंशावली में इन राजाओं का वर्णन लिखा है। बीकानेर में ‘सुई’ सिहागों का प्रजातन्त्री राज्य था जिस पर चोखा सिहाग राज्य करता था। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, सिहाग-सुहाग प्रकरण)।

9. काकवंशी जाटों का राजस्थान में राज्य - काकवंश के जाटों ने राजस्थान में मांडव्यपुर जीतकर मण्डौर नामक प्रसिद्ध किला बनवाया। जोधपुर क्षेत्र से मिले दो शिलालेखों पर वहां पर शासन करनेवाले काक जाट राजाओं की वंशावली अंकित है। इस वंश के एक राजा कक्कुक ने रोहन्सकूप और मण्डौर में जयस्तम्भ स्थापित किये। इस राजा कक्कुक के बाद इस वंश की राज्य सत्ता समाप्त हो गई और मण्डौर पर शासन राठौरों के हाथ में आ गया। राव जोधा जी ने मण्डौर को ध्वंस करके जोधपुर नामक नगर को बसाया और वहां पर अपनी राजधानी और किले का निर्माण कराया। राव जोधा जी राठौर ने काक, दहिया आदि जाटों का राज्य समाप्त करके जोधपुर प्रान्त पर अपना शासन स्थापित कर दिया। (पूरी जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, काकुस्थ या काकवंश प्रकरण)।

10. मोहल-माहिल-महला जाटराज्य - इस जाटवंश ने बीकानेर राज्य स्थापना से पूर्व ‘चोपर’ में जो बीकानेर से 70 मील पूर्व में है और ‘द्रोणपुर’ में जो सुजानगढ़ के उत्तर में है, अपनी राजधानियां स्थापित कीं। इनकी ‘राणा’ पदवी थी। चौपर नामक झील भी मोहिलों के राज्य में थी, वहां काफी नमक बनता है। कर्नल जेम्स टॉड ने अपने इतिहास के पृ० 1126, खण्ड 2 में लिखा है कि “मोहिल जाटों का 140 गांवों पर शासन था। मोहिलों के अधीश्वर की यह भूमि माहिलवाटी कहलाती थी।” जोधपुर के इतिहास के अनुसार जोधा जी राठौर ने माहिलवाटी पर आक्रमण कर दिया। राणा अजीतसिंह माहिल और राणा बछराज माहिल और उनके 145 सैनिक इस युद्ध में मारे गये। जोधा जी की विजय हुई। टॉड के अनुसार जोधा जी के पुत्र बीदा ने माहिलवाटी पर विजय प्राप्त की। राव बीदा के पुत्र तेजसिंह ने इस विजय की स्मृतिस्वरूप ‘बीदासर’ नामक नवीन राठौर राजधानी स्थापित की। तदनन्तर यह ‘माहिलवाटी’ नाम बदलकर ‘बीदावाटी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गई। माहिलों ने बीकानेर को छोड़ दिया। माहिलों की अरियल (वर्तमान उरई-जालौन) नामक रियासत बुन्देलखण्ड में थी। आल्हा काव्य के चरितनायक आल्हा, उदल, मलखान की विजयगाथाओं में महलाभूपत के कारनामे उल्लेखनीय हैं। पूरी झूठ को सत्य में और सत्य को असत्य में परिणत करने की कला में वह परम प्रवीण था। मलखान आदि सब भाई वत्स गोत्र के जाट थे। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, मोहिल-माहिल-महला प्रकरण)।

बीकानेर नाम पड़ने से पहले यह क्षेत्र जांगल प्रदेश का एक भाग था जो कुरुक्षेत्र से लेकर जोधपुर, बीकानेर तक का क्षेत्र जांगल प्रदेश कहलाता था। इस प्रदेश पर प्राचीनकाल से जाटों का राज्य एवं शक्ति रहती आई है।

11. बीकानेर नाम पड़ने से पहले इस क्षेत्र पर निम्नलिखित जाटवंशों के राज्य थे - 1. पूनिया 2. यौधेय या जोहिया 3. बैनीवाल 4. गोदारा 5. सारन 6. असियाग 7. कसवां 8. बांगर 9. माहिल-मोहिल 10. खारा


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उस समय इन जाटों के अधिकार में गांव तथा जिले निम्नलिखित थे -

क्रमांक जाटवंश गांवों की संख्या जिले या परगने
1. पूनिया 300 1. बहादरा (भादरा) 2. अजीतपुर 3. सीदमुख (सीधमुख) 4. राजगढ़ 5. ददरेवा 6. सांखु
2. यौधेय या जोहिया 600 1. जैतपुर 2. कुम्भाना 3. महाजन 4. पीपसर, उदयपुर आदि।
3. बैनीवाल 150 1. बूकरको 2. सोन्दरी 3. मनोहरपुर 4. कूई 5. बाई आदि।
4. गोदारा 700 1. पुण्डरासर 2. गोसाईंपुर 3. शेखसर 4. गरसीसर 5. घरीबदेसर 6. रंगेसर 7. कालू आदि
5. सारन 300 1. केजर 2. फोग 3. बुचावास 4. सवाई 5. बादीनू सिरसिला आदि
6. असियाग/असिवाग 150 1. रावतसर 2. ब्रह्मसर 3. बान्दुसर 4. गन्देली आदि।
जोड़ 2200
7. मोहिल-माहिल 140 1. चौपर 2. सोन्दा 3. हिरासर 4. गोपालपुर 5. चरवास 6. लाडनू 7. बीदासर 8. मलसासर 9. खरबुराकोट
8. बांगर 300 1. बीकानेर 2. नल 3. केला 4. राजासर 5. सतासर 6. छत्तरगढ़ 7. रनदासर 8. विटनोक 9. भावीनीपुर 10. जयमलसर
9. खारा 30 इनका अधिकार खारीपट्टा या नमक के जिले पर था।
कुल गांव का जोड़ 2670

राव जोधा जी राठौर ने काकवंश के जाटों से उनकी राजधानी मण्डौर पर अधिकार करके उसको ध्वंस कर दिया और जोधपुर नामक नगर संवत् 1516 (सन् 1459 ई०) में बनवाया तथा उसको अपनी राजधानी बनाया। अब उसने अपने राज्य की सीमायें बढ़ानी आरम्भ कीं। इसके लिए जोधा जी ने अपने बड़े पुत्र राव बीका जी को उसके चाचा कांधल के साथ सेना देकर भेजा। बीका जी के भाई बीदा ने अपनी सेना के साथ मोहिल जाटों से युद्ध करके उनके राज्य क्षेत्र को जीत लिया। जांगल प्रदेश (बीकानेर क्षेत्र) के जाटों की बड़ी शक्ति थी जिनको जीतना कठिन था। परन्तु उन जाटों की आपसी फूट बीका जी को विजय दिला गई।


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गोदारा जाटों की शक्ति सब से अधिक थी। भारत की स्वतन्त्रता को नष्ट कराने में जिस भांति जयचन्द राठौर का नाम बदनाम है, उसी भांति जांगल प्रदेश के जाट-साम्राज्य को पांडु गोदारा ने नष्ट कराकर अपने नाम को जाटों के लिए अहितकारी सिद्ध कर दिया। पांडु गोदारा से एक गलती हो गई कि वह सारनपूला की स्त्री को उठा ले गया जिसके कारण सभी जाट राज्यों से उसकी शत्रुता हो गई। उसी समय बीका जी की बड़ी शक्तिशाली राठौर सेना बढ़ती आ रही थी। ऐसी हालत में पांडु गोदारा ने बीका जी को आत्म-समर्पण कर दिया। बिना युद्ध किए बीका को गोदारों का राज्य तथा उनकी सैनिक शक्ति मिल गई। अब दोनों शक्तियों ने मिलकर पहले जोहिया फिर पूनिया तथा अन्य जाट राज्यों को जीत लिया। बीका की राठौर तथा गोदारों की मिली जुली सेना के साथ हुए युद्धों में जाटों ने, विशेषकर जोहिया एवं पूनिया जाटों ने, बड़ी वीरता दिखाई तथा शत्रु सेना के दांत खट्टे कर दिये। अन्त में हार गए। यदि सब जाटवंश एक साथ मिलकर युद्ध करते तो बीका को हार का मुंह देखना पड़ता। खेद है कि उनकी भी आपस में अनबन रहती थी।

यहां पर उन जाट-योद्धाओं की दिखाई गई वीरता का दोबारा वर्णन करने की आवश्यकता नहीं है। (इसकी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, यौधेय या जोहिया, एवं पौनिया-पूनिया प्रकरण)।

बीका जी ने इन सब जाटराज्य क्षेत्रों के 2670 गांवों पर अधिकार करके अपनी राजधानी बनाई, इसके लिए जिस भूमि को पसन्द किया वह भूमि एक नेरा नामक जाट की थी। उसने भी दावा किया कि शहर के नाम के साथ मेरा नाम भी शामिल किया जाये। इसलिए बीका और नेरा के नाम पर शहर का नाम बीकानेर रखा गया और उसको अपनी राजधानी बनाया। बीका जी ने इस बीकानेर राजधानी की स्थापना 15 बैसाख, संवत् 1545 (सन् 1488 ई०) को की, जो कि उसके पिता जोधा जी की जोधपुर राजधानी की स्थापना से 30 वर्ष बाद हुई।

भारतवर्ष को स्वतन्त्रता प्राप्त होने तक यह दस्तूर जारी रहा कि बीका जी के वंशज कोई भी गद्दी पर बैठते तो पांडु गोदारा के वंश का कोई भी आदमी उसका राजतिलक अपने पैर के अंगूठे से करता था। बाद में बीका के वंशज राठौर राजाओं ने यह पैर का अंगूठा सोने का बनवा दिया था जिससे उनको पांडु गोदारा के वंशज राजतिलक करते थे।

उस गोदारा जाट को राजा 25 अशर्फियां देता था। इसके अतिरिक्त शेखसर और रूनियां के गोदारा हाकिमों के वंशज गोदारा जाट जमींदार होली और दशहरा पर रईस और उसके सरदारों को टीका करते थे। रूनियां का जमींदार अपने हाथ में चांदी का थाल जिसमें टीका करने की सामग्री होती थी, लेता था और शेखसर का जमीदार रईस के माथे पर तिलक करता था। रईस इनको एक अशर्फी और 5 रुपये देता था। अशर्फी शेखसर वाला ले लेता था और रुपये रूनियां वाले के पास रहते। अन्य सरदार भी अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार धन देते थे।

इसी तरह की रिवाज राजपूत राजाओं में और भी थी जैसे – मेवाड़ के राजा का तिलक भील


आधार पुस्तकें - जाट इतिहास पृ० 612-623, लेखक ठा० देशराज, जाट इतिहास, पृ० 69-70, लेखक ले० रामसरूप जून; टॉड राजस्थान वाल्यूम II., बुक IV, पृ० 1123-1127.


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करते थे, आमेर के राज्य खजाने की रक्षा मीने करते थे, कोटा-बूंदी का कदीम मालिकान हाडौती के नाम से प्रसिद्ध होना आदि।

12. कसवां जाटराज्य - आरम्भ में इन जाटों का राज्य सिन्ध में था। ईसा की चौथी सदी से पहले जांगल प्रदेश में आबाद हुए थे। यहा पर इनके अधिकार में 400 गांव थे। सीधपुर इनकी राजधानी थी। राठौरों के साथ जिस समय युद्ध हुआ था, कंवरपाल नामक सरदार इनका राजा था। इस वंश के लोग धैर्य के साथ युद्ध करने में बहुत प्रसिद्ध थे। इनके 2000 ऊँट और 500 घुड़सवार शत्रु का मुकाबिला करने के लिए प्रतिक्षण तैयार रहते थे। यह सारी सेना राजधानी में तैयार रहती थी। ये लोग उत्तम कृषिकार और श्रेष्ठ सैनिक थे। प्रजा पर कोई अत्याचार न था। 17वीं शताब्दी में इनका भी राज्य राठौरों द्वारा अपहरण कर लिया गया। इनके पड़ौस में चाहर भी रहते थे। राजा का चुनाव होता था। चाहरों की ओर से एक बार मालदेव नाम के उपराजा का भी चुनाव हुआ था। (जाट इतिहास, पृ० 615-616, लेखक ठा० देशराज। बीकानेर, चुरु और रतनगढ़ क्षेत्रों में आज भी इन कसवां जाटों के 360 गांव हैं।

13. टोंक रियासत पर तक्षक जाटों का राज्य - टॉड ने तक्षक वंश की गणना 36 राज्य कुलों में की है और चित्तौड़ एवं असीरगढ़ का शासक तथा एशिया के ऊंचे प्रदेशों में बसनेवाला और सुप्रसिद्ध वीर लिखा है। टोंक रियासत पर तक्षक जाटों का राज्य था। इससे 5 मील उत्तर में पहाड़ के नीचे एक गांव पिराणा है। इसमें इन जाटों का एक प्रजातन्त्री ढ़ंग का राज्य था (जाट वीर वर्ष 8, अंक 42, लेखक रिछपालसिंह)। ये लोग अपने प्रदेश से गुजरने वाले व्यापारियों से टैक्स वसूल करते थे। एक बार उधर से बादशाह जहांगीर (सैय्यद वंश का मुसलमान बादशाह) की बेगमें गुजरीं। पिराणा के जाट सरदारों ने उनसे टैक्स लेकर जाने दिया। बादशाह ने मलूक खां सेनापति को पिराणा के अधीश्वर जाटों को दबाने के लिए भेजा। जाटों के पराक्रम को सुनकर वह पिराणा के निकट गांव शेरपुर में ठहर गया। पिराणा के जाटों का डोम लोभ में आकर सारा भेद उसे बता गया। उसने मलूकखां को बताया कि “भादों बदी 12 को बच्छ बारस का मेला (उत्सव) होगा। उस दिन सब नर-नारी निरस्त्र और निर्भय होकर झूलते हैं।” उस उत्सव के दिन मलूक खां ने बच्छ बारस को घेर लिया और अनेकों को काट डाला। पिराणा के जाट वीरों के सरदार जीवन सिंह और रायमल थे। निरस्त्र होते हुए भी इन्होंने पचासों शत्रुओं के सिर तोड़ डाले। अन्त में वे दोनों मारे गये। इस युद्ध में कुछ स्त्रियां भी शत्रु से लड़ती हुई वीरगति को प्राप्त हुईं। उनके चबूतरे आज सतियों के चबूतरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। सतियों के पत्थर पर संवत् 1478 (सन् 1421 ई०) तक के लेख हैं। उस समय दिल्ली पर सैय्यद वंश के बादशाहों का शासन था। (ठा० देशराज, जाट इतिहास, पृ० 600-601)। इस तरह से यह जाटों का प्रजातन्त्री राज्य नष्ट हो गया। (देखो तृतीय अध्याय, तक्षक (नागवंश की शाखा), प्रकरण)।

14. खोजा जाटवंश का राज्य - इस गोत्र के जाट मारवाड़, अजमेर, मेरवाड़ा और झूझावाटी में बसे हुए हैं। ग्यारहवीं शताब्दी में उन जाटों का राज्य टोंक में था। “तारीख राजगान हिन्द” के लेखक मौलवी हकीम नजमुल गनी खां ने टोंक राज्य के वर्णन में लिखा है - “खोजा रामसिंह ने किसी युद्ध के बाद देहली में आकर संवत् 1003 विक्रमी मिती माघ सुदी तेरस (सन् 946 ई०) को इस स्थान पर नगर आबाद किया। उस नगर का नाम टोंकरा रखा गया। यह आबादी अब तक कोट


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के नाम से प्रसिद्ध है। जब अलाउद्दीन खिलजी (सन् 1296-1316 ई०) ने सन् 1303 ई० में माधोपुर और चित्तौड़ फतह किये, तब इस गांव की बरबादी हुई और यह फिर दुबारा आबाद हुआ।” इस तरह से राजा रामसिंह खोजा एवं उसके वंशजों ने टोंक पर सन् 946 से 1303 ई० तक 357 वर्ष शासन किया। जाट इतिहास, पृ० 603, लेखक ठा० देशराज)।

15. गौर जाटवंश का राज्य - बीकानेर में भागोर इन गौर जाटों की राजधानी रही। गौर जाटों का राज्य अजमेर के चारों ओर रहा। इनके इस राज्य को चौहान राजपूतों ने जीत लिया। गौरवंशी जाट बूंदी और सिरोही राज्य की प्राचीन भूमि पर शासक थे। इन पर चौहान राजपूतों ने विजय प्राप्त की। भादों गौर राजाओं ने जिला हिसार में भाद्रा पर राज्य किया। मालवा, भिण्ड और उदयपुर क्षेत्रों पर गौर जाटों का शासन रहा। इन सब बातों को प्रमाणों द्वारा विस्तार से लिखा गया है। (पूरी जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, गौर वंश प्रकरण)।

16. रणथम्भोर पर जाटराज्य - रणथम्भोर पर गौर और नागिल/नागल जाटों का राज्य बीसियों पीढ़ी रहा। रणमल नामक एक जाट सरदार ने जिस स्थान पर रणखम्भ गाड़ा था और पास के राजाओं से लड़ने की चुनौती दी थी, उसी स्थान पर आज रणस्तम्भपुर या रणथम्भोर है। चौहान राजपूतों ने इसको जीत लिया। इनसे पहले यहां पर बहुत समय तक जाटों का शासन रहा। भागभट्ट चौहान राजा की भी आस-पास के जाट सरदारों ने मुसलमानों के विरुद्ध सहायता की थी। (जाट इतिहास, पृ० 589, लेखक ठा० देशराज)।

17. सांगवाण-सांगा जाटों का राज्य - जाट मीमांसा, पृ० 22, लेखक अमीचन्द शर्मा के अनुसार - “सांगू जाट एक वीर योद्धा था जिसके नाम पर उसके साथ जाट सांगवाण कहलाये। इनका राज्य मारवाड़ के अन्तर्गत सारसू जांगल प्रदेश पर था। इनके पुरुषा आदू या आदि राजा से लेकर 13 पीढ़ी तक इनका राज्य सारसू जांगल पर रहा। उन सांगवाण जाट राजाओं के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं - 1. आदि राजा 2. युगादि राजा 3. ब्रह्मदत्त राजा 4. अतरसोम राजा 5. नन्द राजा 6. महानन्द राजा 7. अग्निकुमार राजा 8. मेर राजा 9. मारीच राजा 10. काश्यप राजा 11. सूर्य राजा 12. शालिवाहन राजा 13. लैहर या लहरी राजा। इन सबकी पदवी राजा की थी। लैहर या लहरी जांगल प्रदेश को छोड़कर अपने साथियों समेत अजमेर में आ गया। यहां उसकी पदवी राणा की हो गई। इसके समेत 9 पीढ़ी तक सांगवाण गोत्र के जाट राजाओं ने अजमेर की भूमि पर राज्य किया। इनकी राजधानी लैहड़ी नगर थी जो लैहर के नाम पर बसाया नगर था जो वर्तमान में लीड़ी ग्राम कहलाता है। इस वंश का अन्तिम राजा संग्रामसिंह अथवा सांगू था। सांगू और उसके साथी सांगवाण जाट अजमेर की भूमि को छोड़कर चरखी दादरी क्षेत्र में आकर आबाद हो गये। भाट ग्रन्थों के अनुसार इनका सांगू के साथ इस चरखी दादरी क्षेत्र में आना शेरशाह सूरी (सन् 1540-1545 ई०) का समय कहा जाता है। सांगवाण जाटों का प्रथम राजा जो कि मारवाड़ में सारसू जांगल पर राज्य करता था, उसका समय आठवीं-नौवीं शताब्दी के बीच का था।”

हरयाणा के भिवानी जिले में दादरी के आस-पास सांगवाण जाटों के 40 गांव हैं। उनमें बड़े-बड़े गांव चरखी, झोजू, चिनानी, बिरही, छपरा आदि हैं। सांगवाण खाप का प्रधान गांव चरखी है।


आधार पुस्तकें - 17 - जाट इतिहास पृ० 691-692, लेखक ठा० देशराज, भारत में जाट राज्य उर्दू, पृ० 367 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाट इतिहास पृ० 65-67, लेखक ले० रामसरूप जून


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जिला रोहतक में खरमान, जि० सोनीपत में खेड़ा, बुटाना में कुछ घर तथा कोहला में कुछ संख्या, पंजाब में जिला फिरोजपुर, अमृतसर, पटियाला, कपूरथला में इस गोत्र के पचास-साठ गांव हैं। वहां इनको सांगा कहा जाता है। मुजफ्फरनगर जिले में इनके कई गांव हैं और मेरठ जिले में 16 गांव सांगवाण जाटों के हैं।

मालवा में जाट राज्य

1. पंवार या परमार गोत्र - यह सुप्रसिद्ध वंश चन्द्रवंश की पुरु या पौरव शाखा (जाट गोत्र) का ही रूपान्तर है। (देखो, इसी षष्ठ अध्याय में राजपूत जाति की उत्पत्ति, पंवार-परमारवंश, प्रकरण)। नौवीं शताब्दी में मालवा के प्रदेश भी कन्नौज के प्रतिहार वंश के अधीन थे, परन्तु दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में मालवा में परमार वंश का राज्य स्थापित हुआ। इस वंश का पहला महान् शासक ‘मुंजदेव’ था। महान् विजेता होने के साथ-साथ मुंजदेव उच्च कोटि का कवि भी था। वह विद्वानों का बहुत आदर करता था। उसके दरबार में धनंजय तथा धनिक दो प्रसिद्ध लेखक थे। उसने 974 ई० से 995 ई० तक राज्य किया। परन्तु परमार वंश का सबसे प्रसिद्ध सम्राट् भोज था।

2. राजा भोज पंवार या परमार वंशी जाट - राजा भोज परमार जाट गोत्र के थे, इसके प्रमाण -

  • (i) सिंध और राजस्थान के मध्य में उमरकोट एक स्थान है। इस पर बादशाह हुमायूं के समय तक पंवार गोत्री जाटों का राज्य था। वे लोग धारा नगर के जाट पंवार या परमारों से सम्बन्धित थे। पंवार शब्द के कारण कर्नल टॉड ने उमरकोट के राज्य को राजपूतों का राज्य बताया है। किन्तु जनरल कनिंघम ने “हुमायूं नामा” के लेखक के कथन का हवाला देकर उसे जाट पंवार लिखा है। टॉड राजस्थान के कथन का प्रतिवाद करते हुए जनरल कनिंघम साहब लिखते हैं - “किन्तु हुमायूं की जीवनी लिखने वाले ने परमार राजा और उनके अनुचरों का जाट के नाम से परिचय दिया है।” (Memoirs of Humayoon, P. 45)।

राजा भोज इस पंवार वंश में वह महान् सम्राट् हुआ जिसने कैलाश से मलयगिरि राज्य स्थिर करके चेदीश्वर, गणेय, लाट, तैलप, सांभर और गुर्जरत्रा (गुजरात) के नरेशों को विजय किया। इसकी राजधानी धारा नगरी थी जिस पर इसका शासन संवत् 1059 (सन् 1002 ई०) से संवत् 1099 (सन् 1042 ई०) तक 40 वर्ष रहा। यह महापराक्रमी होने के अतिरिक्त महाकवि, महाविद्वान् भी था। कवि कालिदास, वररुचि, सुबन्धु, राजशेखर, बाण, माघ, धनपाल, अमर, मयूर, मानतुंग, सीता पंडिता आदि विद्वन्मण्डली उसकी राज्यसभा की शोभावृद्धि करती थी।

राजा भोज ने 27 उन ग्रन्थों की स्वयं रचना की जो आज भी विद्वत्समाज में समादृत हैं। धारा नगरी में सुशासन करते हुए अपने समय की संस्कृति और सभ्यता पर राजा भोज ने भारी


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प्रभाव स्थिर किया। देश की राष्ट्रभाषा के रूप में इसने संस्कृत को प्रतिष्ठित किया। एक भावपूर्ण श्लोक पर एक एक लाख रुपये दान देकर कवित्वशक्ति को जितना इस नरेश ने प्रोत्साहित किया उसकी तुलना किसी भी अन्य नरेश से नहीं की जा सकती। यह राजा शैवधर्मी होते हुए जैन आदि अन्य मतों का प्रशंसक था। भोजपुर अर्थात् भोपाल का प्रसिद्ध ताल, कश्मीर का पापसूदन कुण्ड, धारा में जहां आज कमाल मौला की मस्जिद है वहां सरस्वती कण्ठाभरण भोजशाला आदि पाठशाला, केदार, रामेश्वर, सोमनाथ, सुडीर महाकाल अनल और रुद्र के सुन्दर मन्दिर, धारा नगरी का परकोटा, उज्जैन के मन्दिर एवं घाट महाराजा भोज ने ही निर्माण कराए थे।

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा है कि “राजा भोज के राज्य में और समीप ऐसे-ऐसे शिल्पी लोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार का एक यानयन्त्र कलायुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी (24 मिनट) में ग्यारह कोस और एक घण्टे में साढे सत्ताईस कोस जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था और एक दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि बिना मनुष्य के चलाये कलायन्त्र के बल से नित्य चला करता था जो पुष्कल वायु देता था। यदि ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते तो यूरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते।” (सत्यार्थप्रकाश; एकादश समुल्लास, पृ० 198-199)। राजा भोज इसी यान में बैठकर यात्रा किया करते थे।

लोकप्रिय महाराजा भोज पंवार का संवत् 1099 (सन् 1042 ई०) में स्वर्गवास हो गया। महाकवि कालिदास के शब्द वास्तव में सार्थक सिद्ध हुए कि देर तक भारतीय इतिहास में राजा भोज का स्थान पूर्ति करने वाला कोई नरेश नहीं हुआ1। राजा भोज की प्रसिद्धि के लिए आज भी कहावत प्रचलित है कि “कहां राजा भोज और कहां गांगला तेली।”

3. राजा उदयादित्य - यह राजा भोज का भाई था जो जयसिंह के बाद धारा नगरी पर शासक हुआ। रियासत ग्वालियर में उदयपुर इसी राजा उदयादित्य ने बसाया। यहां से मिले हुये शिलालेखों के आधार पर इस राजा का धारा नगरी पर शासन संवत् 1143 (सन् 1086 ई०) तक 27 वर्ष रहा।

इस राजा की दो रानियां एक बघेली तथा दूसरी सोलंकी वंशज थी। इन दोनों रानियों से चार पुत्र रणधवल, लक्ष्यदेव, नरवर्म देव, जगदेव तथा एक पुत्री श्यामल देवी उत्पन्न हुई। इस पुत्री का विवाह मेवाड़ के गहलोत जाट राजा विजयसिंह से हुआ था। इन चारों भाइयों में जगदेव सबसे अधिक योग्य था। किन्तु बघेली रानी का पुत्र रणधवल ही धारा नगरी का युवराज घोषित किया गया।

4. जगदेव पंवार - इसकी माता सोलंकी थी। सभी राजदरबारी एवं जनता इसे ही राजा बनाना चाहते थे। इस राजकुमार का विवाह टोंक टोडा के चावड़ा (चाबुक) जाटवंशी राजा की पुत्री वीरमती से हुआ। इससे बघेली रानी और अधिक जलने लगी। पिता एवं राजमाता बघेली की कृपादृष्टि न होने से जगदेव पंवार ने अपने अनुयायियों सहित धारा नगरी छोड़ दी। जगदेव


आधार पुस्तकें - जाट इतिहास पृ० 701, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष पृ० 372-374, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 169, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।


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पंवार अपनी पत्नी वीरमती के साथ सम्राट् सिद्धराज सोलंकी के पास अनहिलवाड़ा पाटन पहुंच गया। उस सिद्धराज राजा ने जगदेव पंवार की वीरता सुन रखी थी। उस राजा ने जगदेव पंवार को 60,000 रुपये प्रतिमास वेतन पर अपने यहां रख लिया।

वहां रहते हुए चार वर्ष में जगदेव पंवार ने वीरमती से दो पुत्र उत्पन्न किए, जिनके नाम जगधावल और बिजधावल थे। जगदेव पंवार ने राजा सिद्धराज की तन मन से सेवा की और एक सच्चे आज्ञाकारी एवं देशभक्त का प्रमाण दिया। सिद्धराज सोलंकी बड़ा प्रसन्न हुआ तथा उसने जगदेव पंवार से अपनी बड़ी राजकुमारी का विवाह कर दिया और 250 गांव दहेज में दे दिये। जगदेव की तीसरी शादी कच्छ के राजा फूल के बेटे लाखा की छोटी पुत्री से हो गई। यह कीर्ति कथा जब धारा में महाराज उदयादित्य को मिली तो उन्होंने भी अन्त समय जगदेव पंवार को ही धारा का शासन भार देकर संसार से विदाई ली। 15 वर्ष की आयु में पाटन जा रहने पर, 18 वर्ष सिद्धराज सोलंकी की सेवा करने के उपरान्त, 52 वर्ष पर्यन्त धारा नगरी पर शासन करते हुए जगदेव पंवार ने विद्वत्ता में तो नहीं किन्तु शूरवीरता और शासन क्षमता में राजा भोज को भी भुला दिया। धारा नगरी छोड़ने पर इस वंश के बहुत लोग इसके अनुयायी हो गये, जो बाहिर निकलकर अपने को जगदेव पंवार की औलाद बताने लगे। दूसरे शब्दों में यह समझो कि पंवार या परमार जाटों का एक बड़ा संघ (दल) जगदेव पंवार के नाम पर अपने को जगदेव पंवार वंशज कहने लगा। बाद में ये कुछ लोग गुर्जरों में मिल गये और बहुत से राजपूत संघ में मिलकर अपने को राजपूत कहने लगे। मुग़लकाल में बहुत से राजपूत परमारों ने मुसलमान धर्म अपना लिया। आज भी इस वंश के लोग हिन्दू जाट, हिन्दू राजपूत तथा मुस्लिम धर्मी भी हैं। परन्तु इनकी सबसे अधिक संख्या हिन्दू जाटों की है।

पंवार वंशज राजाओं ने मालवा पर लगभग 450 वर्ष तक 24 पीढ़ी राज्य किया। जब यहां पर मुसलमान बादशाह मुहम्मद तुगलक का अधिकार हो गया तब पंवारों की बहुत बड़ी जनसंख्या मालवा को छोड़कर देश के अन्य भूभागों में जा बसी। तब पंवार राजपूतों का राज्य रणथम्भौर, विजोल्या (मेवाड़), छत्तरपुर (बुन्देलखण्ड), टेहरी (उत्तरप्रदेश) और मालवा में राजगढ़, नरसिंहगढ़ पर रहा।

राजा जगदेव पंवार के वंशज जाटों के गांवककड़ीपुर, नाला, भारसी, |भनेड़ा, एलम, ओली माजरा, सबगा, दोघट, भगवानपुर, कान्धड़, दरीसपुर, नगौड़ी, दान्तल, जटौली, टिकरौल, लण्ढोरा, भैंसवाल, बसी, सुन्हेड़ा, मौलाहेड़ी, घासीपुर, बेगर्जपुर आदि मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर जिलों में ये गांव प्रमुख हैं।

महरौली देहली के पास शाहपुरजट्ट, सोनीपत के पास सैदपुर, मुरादाबाद में कांठ के समीप रैली, पालनपुर, बिजनौर में मुगलवाला गांव पंवार जाटों के हैं। राजस्थान में पंवार जाटों की बड़ी संख्या है।

लोहचब पंवार - यह वंश धारा नगरी से आए हुए पंवारों का शाखा गोत्र है। जिला रोहतक में शामड़ी, कतलुपुर, बोपनियां, दिल्ली के पास ओचन्दी, जिला बुलन्दशहर में प्रानगढ़, बूटीना, रोड़ा


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करीमपुर, जिला मेरठ में शेरपुर, पैगा, नंगला, जिला मथुरा में गिण्डाह, खरोट, नन्दग्राम आदि इसी लोहचव पंवार गोत्र के जाटों के हैं1

बुन्देलखण्ड के चंदेल

चंदेल या चंदेला - यह एक जाट गोत्र है जो कि पुरुवंशी है। ठाकुर बहादुरसिंह पट्टेदार बदेसर ने अपनी पुस्तक “ज्ञानसागर गुटका” में चन्देलों को जाट ही सिद्ध किया है। बाद में ये कुछ लोग राजपूत संघ में मिलकर राजपूत कहलाए। (जाट इतिहास, पृ० 87, लेखक लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून)।

बुन्देलखण्ड रियासत यमुना तथा नर्मदा नदियों के मध्य क्षेत्र में स्थित थी। इसका प्रसिद्ध किला कालिञ्जर था। बुन्देल प्रारम्भ में कन्नौज के प्रतिहार साम्राज्य का भाग था। नौंवीं शताब्दी में नानक चन्देल ने प्रतिहार राजा को हराकर इस रियासत पर चन्देलवंश के स्वतन्त्र राज्य की नींव रखी। इस राज्य की राजधानी महोबा थी।

चन्देलवंश का पहला महान् शासक यशोवर्मन था। वह एक वीर योद्धा था। चेदियों को हराकर उसने कालिञ्जर के दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया। उसने महोबा को अपनी राजधानी बनाया। यशोवर्मन के पश्चात् उसका पुत्र धंग राजगद्दी पर बैठा। इसका शासन काल सन् 950 से 998 ई० तक था। राजा धंग ने खजुराहो में शिव का मन्दिर बनवाया। धंग के पश्चात् इनका बेटा गंड राजसिंहासन पर विराजमान हुआ।

राजा गंड ने कन्नौज के कायर शासक राज्यपाल का वध किया। राजा गंड कालिंजर दुर्ग का भी मालिक था। जब महमूद गजनवी ने कालिंजर पर आक्रमण किया तब राजा गंड की सेना में 640 हाथी, 36 हजार घुड़सवार और 15000 पैदल सैनिक थे। परन्तु भय के कारण राजा गंड रात के समय रण छोड़कर भाग निकला। इसलिए भाट लोग गंड भगौर कहलाने की यह उक्त किम्वदन्ती भी वर्णन करते हैं।

महमूद गजनवी ने इसमें कोई चाल समझी तथा युद्ध नहीं किया। दूसरे आक्रमण में गंड राजा ने महमूद को 300 हाथी एवं अपार धनराशि देकर संधि कर ली। उस समय इस चन्देलवंश के पास मध्यभारत में 14 दुर्ग थे। इसी वंश का राजा कीर्तिवर्मन सन् 1049 से 1100 ई० तक शासक रहा। इस सम्राट् ने चेदी के राजा कर्ण को पराजित किया और महोबा के पास ‘कीरत सागर’ नामक सुन्दर झील बनवाई।

चन्देल वंश का अन्तिम राजा परमाल था। उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने सन् 1203 में पराजित करके बुन्देलखण्ड को मुस्लिम साम्राज्य में मिला लिया। चंदेलों ने पृथ्वीराज चौहान से भी युद्ध किए। चन्देलवंश के 22 राजाओं का पता खजूराहो एवं कालिंजर के दुर्गों से प्राप्त हुआ है।

महाराजा गण्ड के मरने के पश्चात् उनके वंशज अपने को गण्डगोत्री कहने लगे। कहीं-कहीं पर


आधार पुस्तकें - जाटों का उत्कर्ष पृ० 373-375, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; भारत में जाट राज्य उर्दू पृ० 339-343, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-555


लोगों ने इनको भगौर भी कहा। बाद में इन लोगों ने अपना गोत्र भगौर ही मान लिया। वास्तव में ये दोनों गोत्र एक ही हैं और चन्द्रवंशी हैं जो चन्देल की शाखा हैं।

गण्ड भगौर या भगौर जाटों के गांव जिला भरतपुर में खेरली, जघीना, जिला आगरा में सामरा, मलपुरा आदि चार गांव हैं। गण्ड और भगौर आपस में भाईचारा रखते हैं और आपस में इनके विवाह शादी नहीं होते हैं1

चेदी के कुल्चुरि (जाट राज्य)

चेदी जाटवंश है। इसी चेदी गोत्र के नाम पर बुन्देलखण्ड में चेदी जनपद महाभारत काल में था जिस पर चन्द्रवंशी शिशुपाल राज्य करता था। (देखो तृतीय अध्याय, चेदीवंश प्रकरण)।

दसवीं शताब्दी में नर्मदा तथा उत्तरी गोदावरी नदियों के मध्य के प्रदेशों में कुल्चुरिवंश का चेदी राज्य स्थापित हुआ। इसकी राजधानी जबलपुर के समीप त्रिपुरी थी। इसका संस्थापक लक्ष्मण राजा था। परन्तु इस वंश के सबसे प्रसिद्ध राजा गंगदेव (1015-1040 ई०) और कर्मदेव (1040-1070 ई०) थे। वे प्रायः बुन्देलखण्ड और मालवा के राजपूत राजाओं से लड़ते रहते थे। इस वंश का 13वीं शताब्दी में पतन हो गया। (भारत का इतिहास प्री-यूनिवर्सिटी के लिए, पृ० 170-171, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा)।

नोट - ययाति सम्राट् के पुत्र यदु की चौथी पीढ़ी में हैहय हुए जिससे हैहयवंश प्रचलित हुआ जो कुल्चुरी नाम से प्रख्यात हुआ था।

आहला उद्दल, मलखान बत्स गोत्र के जाट

बत्स वंश के जाट योद्धा महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर होकर कौरवों के विरुद्ध लड़े थे (महाभारत भीष्म पर्व)। बौद्ध ग्रन्थों में बत्सों को गणतन्त्री बच्छ के नाम से ही लिखा है। उस वंश के प्रसिद्ध सम्राट् उदयन का शासन पहले कौशाम्बी पर, फिर भटिंडा पर था। इसी बत्स वंश में उदयन से कई पीढ़ियों बाद बच्छराज के घर मलखान का जन्म हुआ। इसकी माता का नाम मलना था।

आहला उद्दल के पिता जसराज एवं माता देवला थी। बच्छराज और जसराज दोनों एक ही माता-पिता के पुत्र थे। जिस समय बच्छराज और जसराज विपत्ति के दिन काट रहे थे, उस समय इनके पुत्र मलखान और आहला, उद्दल का पालन पोषण बुन्देलखण्ड के चन्देल राजा परमाल के घर हुआ था।

बड़े होने पर मलखान ने अपने बाप-दादों की भूमि भटिंडा के पास सिरसा में अपना राज्य स्थापित किया। पूरनसिंह जाट जो कि मलखान की सेना का एक प्रसिद्ध सेनापति था, वह मलखान का चचेरा भाई था। ( देखो तृतीय अध्याय, बत्स-वत्स जाट, प्रकरण)।


आधार पुस्तकें - भारत में जाट राज्य उर्दू पृ० 46, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; जाटों का उत्कर्ष पृ० 384, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 355, भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 170, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।


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आहला, उद्दल का राज्य बुन्देलखण्ड में महोबा पर स्थापित हो गया।

आहला, उद्दल, मलखान का दिल्ली के सम्राट् पृथ्वीराज चौहान से युद्ध -

बत्सवंशी जाट आहला, उद्दल, मलखान आदि बड़े वीर योद्धा थे तथा उनकी सेना बड़ी शक्तिशाली थी। इनका मित्र माहिल गोत्र का जाट महलाभूपत था जो शत्रु को धोखा देने तथा उसका भेद लाने की कला में परम प्रवीण था। आहला कविता ग्रन्थों में इनके 52 युद्धों का वर्णन है जिनको आहला गायक बड़े उत्साह से गाते हैं।

पृथ्वीराज का इनसे युद्ध आहला काव्य के आधार पर लिखा जाता है -

  1. आहला उद्दल की बहिन का पुत्र ब्रह्मा था। उसका विवाह पृथ्वीराज चौहान की बेला नामक सुन्दर पुत्री के साथ करने के लिए दिल्ली पर चढ़ाई कर दी। पृथ्वीराज के साथ इनका युद्ध दिल्ली के निकट हुआ। इस युद्ध में पृथ्वीराज का वीर पुत्र पारस मारा गया और पृथ्वीराज को बन्दी बना लिया गया। पृथ्वीराज ने अपनी पुत्री का विवाह करना स्वीकार कर लिया तथा उसे छोड़ दिया गया। इस तरह से बेला राजकुमारी का विवाह ब्रह्मा से हो गया।
  2. दूसरा युद्ध - पृथ्वीराज चौहान ने अपनी शक्तिशाली सेना के साथ मोहबा पर चढ़ाई कर दी। उसने व्यूहरचना यह की कि युद्ध के मैदान में तेजधार के लोहे के कील गड़वा दिए। जब मलखान आदि तथा उनकी जाट घुड़सवार सेना ने उस युद्ध क्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके घोड़े घायल हो गये। जब सवार सैनिक नीचे उतरे तब वे भी उन कीलों से घायल हो गये। पृथ्वीराज तथा उसके सैनिकों द्वारा आहला, उद्दल, मलखान, ताला सय्यद (असली नाम अहला), आहला के चाचा टोडरमल का पुत्र धान्दू, आहला का पुत्र इन्दल और चन्देला परमाल का पुत्र लाखन आदि इस युद्ध में मारे गये। यह बड़ा भयंकर युद्ध हुआ था जिसमें दोनों ओर के सैनिक बड़ी संख्या में काम आए। पृथ्वीराज की विजय हुई और उसने मोहबा पर अपना अधिकार कर लिया।

राजा चकवाबैन का राज्य

बैनीवाल/बैन/वैन - यह एक जाट गोत्र है। प्लीनी (Pliny) मे इस वंश को बैनेवाल लिखा है जो आजकल बैनीवाल नाम से कहा जाता है। इस वंश के जाट बहुत प्राचीन समय से हैं जिनको मध्य एशिया में वैन या बैन नाम से पुकारा जाता था। ‘मध्य एशिया के प्राचीन इतिहास’ में इनका नाम बारम्बार लिखा गया है जिसके लिए और हवाले देने की आवश्यकता नहीं है।

इस वंश के विषय में हरयाणा की एक ऐतिहासिक कथा निम्न प्रकार से है -

सोनीपत के निकट गन्नौर की ओर जी० टी० रोड से लगभग 20 मील दूरी पर एक स्थान है जिसका नाम मीना माजरा है। यहां पर प्राचीन नष्ट खण्डहर हैं जिनमें कई-कई मंजिलों के मकान हैं जो कि सब भूमि सतह से बिल्कुल नीचे हैं। बहुत समय पहले से इन खण्डहरों के निकट के गांवों के लोग, पक्की ईंटें निकाल रहे हैं। ये ईंटें लगभग 16 इंच लम्बी, 8 इंच चौड़ी और 2 इंच मोटी हैं। गांवों के लोगों ने रस्सों की सहायता से 30 फुट के गहराई तक दीवारों की ईंटें निकाल ली हैं। इस


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काम में कुछ मनुष्य मर भी चुके हैं। इस स्थान के निकट प्राचीन मन्दिर और एक बड़ा तालाब है जो हजारों एकड़ भूमि पर है। वहां पर देवी देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इस प्राचीन नगर के विषय में लोग बताते हैं कि यह चकवाबैन की राजधानी थी। इस राजा का एक महात्मा चुन्कुट ऋषि से मतभेद हो गया, तो चकवाबैन राजा ने उसको अपने साम्राज्य की सीमाओं से बाहर जाने का आदेश दे दिया। कई वर्षों के पश्चात् वह महात्मा इस राजधानी में वापिस लौट आया और राजा को बताया कि “मैं उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम दिशाओं में पहाड़ों एवं समुद्रों तक गया, लोगों ने मुझे प्रत्येक स्थान को सम्राट् चकवाबैन के साम्राज्य का भाग बताया। अतः मैं आपके साम्राज्य से बाहिर जाने के लिए असमर्थ रहा।” इन सब बातों से ज्ञात होता है कि यह स्थान प्राचीन है और यह नगर जरूर राजधानी या एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र था। इस चकवाबैन के विषय में इतिहास में नहीं लिखा गया है तो भी राजा बैन चक्रवर्ती के नाम पर केसारिया (Kesariya) के निकट एक स्तूप है जिसको ह्यूनत्सांग ने चक्रवर्ती सम्राटों की यादगार लिखा है। (V.A. Smith, Journal of Royal Asiatic Society, 1952, P. 271)। कारल्लेयल (Carlleyle) ने भी बैराट (Bairat) (जयपुर) से इसी तरह की परम्परागत कथा का वर्णन किया है और वहां भी चकवाबैन का नाम है। (Archaeological Survey of India, Vol. VI, P. 84)।

बिहार में स्तूप बनाने वाले चक्रवर्ती बैन और ऊपर बताई हुई पौराणिक कथा वाला चकवाबैन, दोनों एक ही होने का पता खुदाई कार्य से ही लग सकता है। कनिंघम ने बिहार, अवध और रुहेलखण्ड में चक्रवर्ती बैन के होने का, इसी प्रकार की पौराणिक कथा का उल्लेख किया है (op. cit)। यह सम्राट् बैन या बैनीवाल गोत्र का जाट था। (जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 247-248, लेखक बी० एस० दहिया)।

स्वांगी एवं जोगी भी राजा चकवाबैन, उसका पुत्र राजा महीपाल तथा उसका पुत्र क्षत्रिय राजा सुलतान एवं उसकी रानी निहालदे के गाने प्राचीनकाल से आज तक भी गाते हैं। इनके साम्राज्य की सीमा तथा समय की ठीक जानकारी नहीं मिलती, फिर भी इनके गानों के आधार पर कुछ जानकारी मिलती है जो कि संक्षिप्त में निम्न प्रकार से है -

सम्राट् चकवाबैन का पौत्र और राजा महीपाल का पुत्र राजा सुलतान का विवाह पंजाब के राजा मघ की सुन्दर राजकुमारी निहालदे से हुआ था। जानी चोर राजा सुलतान का मित्र था। एक बार ये दोनों एक नदी के किनारे ठहरे हुए थे। इनको वहां पानी में बहती हुई लकड़ी की तख्ती मिली, जिस पर लिखा था कि “मैं पंजाब के एक राजा रत्नसिंह की राजकुमारी महकदे हूं। मेरे पिता के मरने के पश्चात् अदलीखान पठान मुझे बलपूर्वक उठा लाया और अदलीपुर नगर में अपने महल में मुझे बन्दी बनाकर रख रहा है। कुछ दिनों में मेरे को अपनी बेगम बना लेगा तथा मेरा धर्म बिगाड़ेगा। यदि कोई वीर क्षत्रिय है तो मेरा धर्म बचाओ।” राजकुमारी महकदे के लिख को पढ़कर राजा सुलतान ने जानी चोर को उसे छुड़ा लाने का आदेश दिया। जानी चोर नदी पार करके अदलीपुर नगर गया। वहां पर बड़ी चतुराई एवं छलबाजी से अदलीखान पठान के महल से महकदे को निकाल लाया तथा उसके धर्म की रक्षा की। राजा सुलतान ने महकदे को उसके पिता के घर पहुंचा दिया। इससे अनुमान लगता है कि अदलीखान सिन्ध नदी के पश्चिमी क्षेत्र का शासक था। महाराजा चकवाबैन का समय सम्राट् हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् का हो सकता है। यह एक खोज का


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विषय है जिसके लिए बड़े परिश्रम एवं धनराशि और सरकार के सहयोग की आवश्यकता है। यद्यपि इतिहास पुस्तकों में उपर्युक्त सम्राटों का उल्लेख नहीं किया गया, किन्तु निस्संदेह इन सम्राटों का शासन रहा। बैनीवाल/बैन जाटों का शासन जांगल प्रदेश (बीकानेर) में 150 गांवों पर था। इनका युद्ध बीका राठौर से हुआ जिसने इनको हराकर इनके राज्य पर अधिकार कर लिया। (देखो, षष्ठ अध्याय, राजस्थान में जाट राज्य, बैनीवाल प्रकरण)।

इन बैनीवाल/बैन जाटों की आबादी राजस्थान, पंजाब, हरयाणा तथा उत्तरप्रदेश में पाई जाती है।

दिल्ली पर चौहानों से पूर्व तंवर-तोमर जाटों का राज्य

  1. जिला रोहतक के गांव बोहर से मिले संवत् 1337 (सन् 1280 ई०) के शिलालेखों के अनुसार तंवर-तोमर जाट दिल्ली पर चौहानों से पहले शासन कर रहे थे। (Journal of Asiatic Society of Bengal Vol. XLIII, Pt. I, P. 108), जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 275, लेखक बी० एस० दहिया)।
  2. 11वीं, 12वीं शताब्दी में दिल्ली पर तोमरों का राज्य था। (हिन्दुस्तान की तारीख, 19वां अध्याय, पृ० 44)।
  3. दिल्ली पर तोमर जाटों का राज्य था। तोमरों से चौहानों ने राज्य ले लिया और उनसे मुसलमानों ने छीन लिया। (जाट इतिहास, पृ० 714, लेखक ठा० देशराज)।
  4. राजा अनंगपाल के पूर्वपुरुष तंवर जाट थे जो पंजाब से देहली आये। (जाट इतिहास इंगलिश, पृ० 136 लेखक लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून)।
  5. देहली में तंवर या तोमरवंश का शासन था। इस वंश का पहला शासक अनंगपाल था और अन्तिम अनंगपाल द्वितीय था। उसने देहली का राज्य अपने धेवते पृथ्वीराज चौहान को दे दिया। (हिन्दुस्तान की तारीख, पृ० 353)।
  6. महाराजा अनंगपाल तंवरवंशी थे जिसने कुतुबमीनार के पास विद्यमान लोहे की कीली को विष्णुपद पहाड़ी से उठवाकर यहां गड़वाया था। (अधिक जानकारी के लिए देखो, तृतीय अध्याय, तंवर-तोमर जाट प्रकरण)।

कुतुबुद्दीन ऐबक की मस्जिद वाले तालाब के किनारे महाराजा अनंगपाल के नाम खुदे टूटे मन्दिर के खम्बे आज भी खड़े हैं।

अजमेर पर चौहान राज्य

ग्यारहवीं शताब्दी में अजयदेव चौहान सरदार ने अजमेर नगर की नींव रखी। इस चौहानवंश का दूसरा शासक विग्रहराज अजमेर का शासक बना। उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका छोटा भाई सोमेश्वर अजमेर का शासक सन् 1169 ई० में बना। Anangpal Tomar II|अनंगपाल तंवर द्वितीय]] ने अपनी पुत्री कमला का विवाह राजा सोमेश्वर अजमेर नरेश से कर दिया, जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ।


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पृथ्वीराज चौहान (सन् 1172 से 1192 ई० तक)

अपने पिता की मृत्यु के पश्चात् यह अजमेर का शासक बना। अनंगपाल तंवर ने निःसन्तान रहने के कारण अपने धेवते पृथ्वीराज चौहान को ही दिल्ली का राज्य दे दिया। चौहानवंश का सबसे प्रसिद्ध शासक पृथ्वीराज था। उसे ‘रायपिथौरा’ के नाम से भी याद किया जाता है। उसने सन् 1172 से 1192 ई० तक 20 वर्ष राज्य किया। वह महान् योद्धा था, जिसने कई प्रदेशों पर विजय प्राप्त करके चौहान साम्राज्य को बहुत विशाल कर दिया। उसके राज्य में दिल्ली, अजमेर, कालिंजर, महोबा, भटिंडा आदि प्रदेश थे। उसकी कन्नौज के राजा जयचन्द राठौर, जो कि इनका मौसेरा भाई था, से घोर शत्रुता थी। जयचन्द राठौर की पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से विवाह करना चाहती थी परन्तु उसका पिता जयचन्द, पृथ्वीराज से बहुत ईर्ष्या रखता था। जयचन्द ने संयोगिता के स्वयंवर में पृथ्वीराज को नहीं बुलाया। उस अवसर पर पृथ्वीराज पहुंच गया और संयोगिता को उठा लाया। भयानक युद्ध हुआ परन्तु पृथ्वीराज संयोगिता को दिल्ली ले आने में सफल हुआ। मुहम्मद गौरी से पृथ्वीराज का पहला युद्ध सन् 1191 ई० में तथा दूसरा युद्ध सन् 1192 ई० में हुआ जिसमें पृथ्वीराज मारा गया और दिल्ली पर मुहम्मद गौरी का शासन स्थापित हो गया। इसका वर्णन बाद में किया जायेगा1

भारतवर्ष पर मुसलमान आक्रमणकारी और जाट

सिन्ध एवं मुलतान को जीतकर कासिम के लौट जाने के 300 वर्ष बाद तक भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ।

अलप्तगीन

इसने सन् 933 ई० में ग़जनी पर अधिकार करके एक स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की। अल्पतगीन ने अपने एक गुलाम सुबुक्तगीन को योग्य एवं होनहार देखकर उसको एक के पश्चात् दूसरे विश्वसनीय स्थानों पर नियुक्त किया और कालक्रम में उसे अमीर-उल-उमरा की उपाधि से विभूषित किया।

सन् 963 ई० में अलप्तगीन की मृत्यु होने पर उसका पुत्र गजनी का शासक बना। परन्तु वह अयोग्य था, अतः उसके पिता के गुलामों ने उसका राज्य छीन लिया। 14 वर्ष तक भिन्न-भिन्न लोग शासक रहे। सन् 977 ई० में सुबुक्तगीन गजनी का बादशाह बन गया।

अमीर सुबुक्तगीन भारत पर प्रथम आक्रमणकारी

इसका शासन गजनी पर सन् 977 ई० से 997 ई० तक रहा। इसने पठानों को संगठित करके लगभग 10 वर्ष के समय में लमगान और सीस्तान को जीतकर अपने राज्य का विस्तार कर लिया।

इसके बाद उसने खैबर घाटी से भारत पर आक्रमण किया। उस समय भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा के क्षेत्रों पर राजा जयपाल जाट का शासन था। उसका राज्य सरहिन्द, भटिण्डा से


आधार पुस्तकें - 1. भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 169-170, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 298, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री; हिन्दुस्तान की तारीख पृ० 359-361।


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लमगान और कश्मीर से मुलतान तक फैला हुआ था। ठा० देशराज ने अपने जाट इतिहास पृ० 210-211 पर लिखा है कि - “पंजाब की ओर राजपूतों की न कोई विशेषता पाई जाती है और न इनके इतिहास में इनका ऐसा वर्णन आता है। उसने राजा जयपाल को जाट राजा लिखा है। मि० स्मिथ का हवाला दिया है। जिसने लिखा है कि दसवीं शताब्दी के अन्तिम समय में भटिण्डा का राजा जयपाल जाट था। परिहारों या प्रतिहारों का राज्य सतलुज से उस पार कभी नहीं बढ़ा।”

सुबुक्तगीन ने लमगान देश की सीमा के निकट पड़ाव डाला। राजा जयपाल भी अपनी सेना लेकर उससे टक्कर लेने के लिए वहां पहुंच गया। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में सुबुक्तगीन को बड़ी हानि उठानी पड़ी और उसने राजपाल को कुछ भेंट देकर विदा कर दिया। कुछ ही वर्षों के बाद राजा जयपाल ने सुबुक्तगीन पर फिर से चढ़ाई कर दी। इस बार सुबुक्तगीन सुलह के बहाने से युद्ध को टालता रहा। इतने में शीतकाल आ गया और भारी बर्फ पड़ने के कारण राजा जयपाल की सेना को बड़ी हानि उठानी पड़ी। हजारों सैनिक ठिठुर कर मर गए। राजा जयपाल को स्वयं सन्धि करनी पड़ी जिसके अनुसार राजा जयपाल ने दस लाख दिरहम, 50 हाथी, अपने राज्य के कुछ नगर एवं दुर्ग भेंट देने स्वीकार कर लिए। परन्तु शीघ्र ही जयपाल ने अपने इस निश्चय को बदल दिया और अमीर द्वारा भेजे हुए दो पदाधिकारियों को बन्दी बना लिया जो उपर्युक्त कार्य को पूरा कराने के लिए भेजे गये थे। यह सूचना मिलने पर अमीर सुबुक्तगीन ने भारत पर फिर चढ़ाई कर दी। राजा जयपाल की सेना ने उसके साथ बड़ी वीरता से युद्ध किया। जयपाल की हार हुई। सुबुक्तगीन ने हिन्दुओं पर बहुत भारी कर लगाया और बहुत बड़ा धन लूट कर ले गया। उसकी अधीनता स्वीकार कर ली गई और पेशावर राज्य में उसने अपना एक पदाधिकारी नियुक्त कर दिया।

इस लड़ाई की हार से महाराजा जयपाल को बड़ा धक्का लगा।

सन् 997 ई० में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई। वह अपने पुत्र महमूद गजनवी के लिए एक विस्तृत और सुस्थापित राज्य छोड़ गया।

महमूद गजनवी (सन् 997 से 1030 तक)

अपने पिता सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद सन् 997 ई० में महमूद गजनवी राज्य का शासक हुआ। थोड़े ही दिनों में उसकी गणना एशिया के शक्तिशाली शासकों में होने लगी और अपने धन, साहस, वीरता तथा योग्यता के लिए दूर-दूर देशों में प्रसिद्ध हो गया। उसमें असीम धार्मिक उत्साह और कट्टरता थी जिसके कारण वह इस्लाम का बड़ा भारी नेता प्रसिद्ध हो गया। उसने सुदूर देशों में पैगम्बर साहब के इस्लाम धर्म के फैलाने का निश्चय कर लिया था और खलीफा ने भी जब उसे दीक्षा दे दी, तब उसका उत्साह और भी बढ़ गया। वह धन दौलत एकत्र करने का बड़ा लालची था। उसने इस उद्देश्य के लिए भारतवर्ष पर सन् 1001 से 1027 ई० तक 17 आक्रमण किये और असंख्य हिन्दुओं को इस्लामधर्मी बना गया तथा अपने यहां पर अपार धनराशि लूटकर गजनी ले गया। उसके आक्रमणों के समय उसके विरुद्ध केवल जाटों के युद्धों का संक्षिप्त वर्णन किया जाता है जो कि निम्न प्रकार से है -

1. राजा जयपाल के विरुद्ध युद्ध - महमूद गजनवी का पहला आक्रमण खैबर घाटी


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से नवम्बर 28, 1001 ई० में राजा जयपाल पर हुआ जो कि उसके पिता का पुराना शत्रु था। महमूद की सेना में 13,000 घुड़सवार एवं बड़ी पैदल सेना थी। जयपाल की सेना में 30,000 पैदल सैनिक, 13,000 घुड़सवार और 300 हाथी थे। दोनों सेनाओं का पेशावर में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में लगभग 15,000 हिन्दू सैनिक काम आए। राजा जयपाल की हार हुई। जयपाल और उसके 15 रिश्तेदारों को बन्दी बनाकर महमूद के सामने लाया गया। महमूद ने इनकी धनराशि छीन ली और जयपाल से अढ़ाई लाख दिरहम (दीनार) लेकर छोड़ दिया। 5 लाख हिन्दुओं को दास बनाकर गजनी ले गया। राजा जयपाल इस अपमान से मृत्यु ही श्रेयस्कर समझकर आग में जलकर मर गया। तब उसका पुत्र आनन्दपाल राजसिंहासन पर विराजमान हुआ।

2. राजा विजयराव के विरुद्ध युद्ध - भाटना नामक स्थान पर विजयराव नाम का एक बड़ा वीर राजा राज्य करता था जो कि राजा जयपाल के सम्बन्धियों में से था। उसने सीमा पर जो मुसलमान हाकिम रहते थे, उनको मार भगाया। महमूद इसी का बदला लेने के लिए लगभग सन् 1004 ई० में राजा विजयराव पर चढ़ आया। उस राजा की वीरता और युद्ध के सम्बन्ध में “गजनवी जहाद” में हसन निजामी को विवश होकर लिखना पड़ा कि - “राजा अपनी फौज और हाथियों की अधिकता के कारण बहुत अभिमान करता था। वह फौज लेकर मुक़ाबले के लिए आया। दोनों फौजों में तीन दिन तक अग्निवर्षा होती रही। विजयराव की फौज ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छूट गये।” इस युद्ध में महमूद को अपनी भुजाओं के बल का विश्वास छोड़कर दरगाह में खुदा और रसूल के आगे घुटने टेकने पड़े। बेचारे की दाढ़ी पर मिन्नत के समय टप-टप आंसू गिरते थे। गजनी उसे बहुत दूर दिखाई देती थी। विजयराव युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। (जाट इतिहास, पृ० 213, लेखक ठा० देशराज)।

3. राजा आनन्दपाल के विरुद्ध युद्ध - यह अपने पिता राजा जयपाल की मृत्यु होने के बाद अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकारी हुआ। सन् 1008 ई० में महमूद ने राजा आनन्दपाल पर आक्रमण कर दिया। दोनों ओर की बड़ी सेनायें 40 दिन तक पेशावर के मैदान में आमने-सामने डटी रही। किसी ने लड़ाई करने का साहस न किया। महमूद ने अपने 6000 धनुर्धारियों को शत्रु पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना के आवे रखा। आनन्दपाल की सेना के 30,000 खोखर जाटों ने एकदम मुसलमान सैनिकों पर धावा कर दिया और 5000 मुसलमान सैनिकों को काट डाला। दोनों ओर से युद्ध छिड़ गया। इस भीष्ण आक्रमण से घबराकर महमूद युद्ध बन्द करने ही वाला था कि राजा आनन्दपाल का हाथी बिगड़ कर युद्ध भूमि से भाग खड़ा हुआ। यह देखकर राजा के सैनिक दिल तोड़ गए और युद्धक्षेत्र से भागने लगे।

महमूद की सेना ने दो दिन-रात तक उनका पीछा किया। अनेकों मारे गये और विजेता को अपार धनराशि एवं तीस हाथी हाथ आये। इस युद्ध में आनन्दपाल की विजय होने ही वाली थी परन्तु दैवयोग से महमूद को विजय मिल गई।

(खोखर जाटों का इस युद्ध में उपर्युक्त धावा करना लिखा है - 1. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 53, लेखक ईश्वरीप्रसाद; हिन्दुस्तान की तारीख, पृ० 23)।

4. कश्मीर में लोहित-लोहर जाटों से युद्ध - इस वंश के जाट कश्मीर में पीर पंजाल पहाड़ी क्षेत्र में आबाद थे। वहां इनका दुर्ग इनके नाम पर लोहरकोट (लोहरों का दुर्ग) कहलाता था।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-562


महमूद ने कांगड़ा के नगरकोट को सन् 1009 में विजय कर लिया। फिर वह कश्मीर की ओर बढ़ा। उसने लोहित जाटों के ‘लोहरगढ़’ पर आक्रमण कर दिया। जाट वीरों ने महमूद की सेना के दांत खट्टे कर दिए तथा उसके आक्रमणों को असफल कर दिया। उसने साहस छोड़ दिया और अपना घेरा उठाकर वापिस आ गया।

अलबरूनी ने इस ‘लोहरकोट’ को ‘लोहाकोट’ का संकेत देकर लिखा है कि “इस लोहरकोट पर महमूद का आक्रमण बिल्कुल असफल रहा था।” फरिश्ता लिखता है कि महमूद की नाकामयाबी का कारण यह था कि इस दुर्ग की उँचाई एवं अद्भुत शक्ति थी।

(अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, लोहित-लोहर-क्षत्रिय (खत्री), प्रकरण)।

5. बुन्देलखण्ड के चन्देल जाट राजा गण्ड से युद्ध - यह अपने पिता चन्देल जाटवंश के राजा धंग की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर बैठा। राजा गण्ड के अधिकार में कालिञ्जर दुर्ग भी था। महमूद ने सन् 1019 ई० में कालिंजर पर आक्रमण किया। राजा गण्ड ने युद्ध करने से डरकर महमूद से संधि कर ली जिसके अनुसार इस राजा ने महमूद को 300 हाथी और बहुत धनराशी दे दी। (अधिक जानकारी के लिए देखो षष्ठ अध्याय, बुन्देलखण्ड के चन्देल, प्रकरण)।

6. यदुवंशी जाट महाराजा विजयपाल से युद्ध - यदुवंशी महाराजा श्रीकृष्ण जी के परपौत्र वज्र हुए जो इन्द्रप्रस्थ के सिंहासन पर विराजमान हुए। वज्र महाराज की चौंसठवीं पीढ़ी में महाराजा विजयपाल हुए। (देखो प्रथम अध्याय, श्रीकृष्ण महाराज की वंशालवी)। महाराजा विजयपाल ने 11वीं शताब्दी में ब्याना को अपनी राजधानी बनाया। वर्तमान ब्याना नगर से तीन मील पर्वत पर बना हुआ विजय मन्दिर गढ़ इसी महाराजा द्वारा निर्माण कराया गया था।

महाराजा विजयपाल को महमूद गजनवी के भानजे सालार महमूद गाजी से युद्ध करना पड़ा था जिसमें पहले हार और फिर महाराजा की जीत हुई थी। कन्धारी अबूबकर से हुए घनघोर युद्ध में महाराजा की सेना ने इतने मुसलमानों का वध किया था कि फारसी इतिहासकारों के कथनानुसार यदि तीन मुसलमान वहां और मर जाते तो ब्याना और कर्बला युद्ध में कोई अन्तर न रह जाता। इसी विकराल युद्ध में महाराजा विजयपाल भी वीरगति को प्राप्त हुए। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 359, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।

7. महमूद का सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण तथा वापिसी पर जाटों से युद्ध - महमूद ने भारत के सुप्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर पर सन् 1025 ई० में आक्रमण किया। वह राजस्थान में से होता हुआ सोमनाथ पहुंचा। वहां पर 1000 पुजारी मन्दिर में पूजा किया करते थे और इसके खजाने की रक्षा करते थे। हजारों गाने एवं नाचने वाली सुन्दर देवदासियाँ वहां पर नाच गाना करती थीं। मन्दिर की रक्षा के लिए राजस्थान के राजपूत राजे वहां पर पहुंच गये। उनका आपसी मिलाप न था। वे अन्धविश्वासी भी थे। बड़े पुजारी ने यह निश्चय करा दिया था कि युद्ध की आवश्यकता नहीं होगी। सोमनाथ जी म्लेच्छ सेना को अन्धा कर देंगे। राजपूतों को सुन्दर देवदासियों का नाच दिखाया जाने लगा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-564


महमूद की इस्लामी सेना ने मन्दिर पर बड़े जोश से धावा कर दिया। युद्ध आरम्भ हो गया। 5000 हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। राजपूत सेना भाग खड़ी हुई। महमूद की जीत हुई और उसने मन्दिर में स्थापित मूर्ति को उखड़वाया। उसने शिवलिंग एवं मूर्ति के टुकड़े कर डाले। उसने मन्दिर को निर्दयता से लूटा।

बहुमूल्य हीरे, जवाहरात, मणि और मोती उसके हाथ आये। मन्दिर की सारी संपत्ति लूट ली गई जिसका मूल्य दो करोड़ दीनार के बराबर था। अलबरूनी ने लिखा है कि शिवलिंग ठोस सोने का बना था। महमूद 20 मन की स्वर्णमयी सांकल और अपार धन ऊंटों पर लादकर वहां से चल दिया। जाने से पहले मन्दिर को आग लगवाकर जला दिया गया। वह इस मन्दिर का चन्दन का दरवाजा भी अपने साथ ले गया।

महमूद जब लूट का माल लेकर अपनी सेना सहित सिंध के मार्ग से गजनी गजनी जा रहा था तब सिंध के रेगिस्तान में जाटों ने धावा बोलकर उसकी सम्पूर्ण लूट का लगभग आधा भाग छीन लिया। महमूद घबरा गया। उसे गजनी दूर जान पड़ती थी। जाटों से युद्ध करने का साहस छोड़ बैठा तथा मायूस होकर चलता बना और गजनी पहुंच गया1

8. सन् 1027 में महमूद का जाटों पर अन्तिम आक्रमण - जैसा कि पहले लिख दिया है, महमूद की सोमनाथ की लूट की संपत्ति को सिंध प्रान्त के जाटों ने छीन लिया एवं उसकी सेना को काफी हानि पहुंचाई। वह उस समय जान बचाकर भाग गया। जाटों से इसका बदला लेने के लिए उसने गजनी में दो वर्ष तक तैयारी की। उसने अपनी शक्तिशाली सेना के साथ सन् 1027 ई० में जाटों को नष्ट करने के उद्देश्य से चढ़ाई कर दी। उस समय जाटों की शक्ति सिंध प्रान्त में, बहावलपुर से लेकर मुलतान एवं जेहलम नदी तक थी। यह क्षेत्र नदियों से घिरा हुआ था। महमूद को यह ज्ञात हो गया था कि जाट लोग नावों में बैठकर जलयुद्ध करने में बड़े प्रवीण एवं निपुण हैं। तारीख फरिश्ता के अनुसार यह युद्ध झेलम नदी में हुआ। सुलतान का भारी लश्कर मुलतान की ओर पहुंचा। महमूद ने वहां 1400 नावें बनवाईं। प्रत्येक में लोहे की तीन नोकदार मजबूत और पैनी शलाखें गड़वाईं, जो एक नाव के अगले भाग में तथा दो उसके दोनों बाजुओं पर जड़ी गईं। प्रत्येक किश्ती में 20 सैनिक तीरकमान एवं तलवार बरछे-भाले लिए हुए बैठाये। इनके अतिरिक्त उनके पास नाव में बम एवं आग लगानेवाले गोले भी थे। जाटों ने सावधान होकर अपने बाल-बच्चों तथा स्त्रियों को टापुओं में भेज दिया। जाटों ने 4000 नावें, प्रत्येक में अपने वीर सैनिक बैठाकर, युद्ध के लिए नदी में छोड़ीं।

उधर महमूद की किश्तियां नदी में तैयार खड़ी थीं। युद्ध आरम्भ हो गया। जो भी जाट नाव मुस्लिम किश्ती के निकट पहुंचती, वही शत्रु की किश्ती में लगी शलाखों से टकराकर टूट जाती और डूब जाती। मुस्लिम सैनिकों ने अपनी नावों से जाट सैनिकों पर तीर चलाकर, बम एवं आग लगानेवाले गोले फेंककर बहुत हानि पहुंचाई। परन्तु जाटों ने साहस नहीं छोड़ा। वे अपने किश्तियों से शत्रुओं की नावों पर धावे करते रहे। अन्त में सब जाट मारे गये और उनकी हार हुई2


1, 2. आधार पुस्तकें - जाट इतिहास पृ० 105, लेखक ले० रामसरूप जून ने टॉड का हवाला देकर लिखा है कि जाटों ने सारा धन छीन लिया। हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू पृ० 19-27; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 107-110, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री ने खोखर जाट लिखा है। मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ 49-57, लेखक ईश्वरीप्रसाद, जाट इतिहास, पृ० 209-215, लेखक ठा० देशराज; जाट इतिहास पृ० 16 पर कालिकारंजन कानूनगो ने लिखा है कि - “जाटों ने बड़े साहस से महमूद की सेना पर आक्रमण कर दिया।”; जाट्स दी ऐनशन्ट रूलर्ज, पृ० 342, लेखक बी० एस० दहिया ने M.K. Saran की पुस्तक “Tribal Coins, A Study” का हवाला देकर लिखा है कि महमूद के साथ सिन्ध में मुलतान के निकट यौधेय या जोहिया जाटों ने युद्ध किया।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-564


महमूद की सेना से जाटों के बाल-बच्चों एवं स्त्रियों को तलाश करके उन्हें मौत के घाट उतार दिय और कैद भी कर लिया। महमूद गजनी को लौट गया। तारीख फरिश्ता उर्दू तर्जुमा, नवलकिशोर प्रैस लखनऊ, पृ० 54-55)।

नोट - इस युद्ध में खोखर जाट भी वीरता से लड़े और उनका भारी नुकसान हुआ।

शहाबुद्दीन गौरी और जाट

महमूद गजनवी की 30 अप्रैल सन् 1030 ई० को मृत्यु हो गई। इसके मरते ही गज़नी और हिरात के बीच गौर नामक स्थान से एक नवीन शक्ति का उदय हुआ जिसने गजनी का सम्पूर्ण वैभव नष्ट करके गौर जनपद की वृद्धि के लिए गजनवी के वंश को भी नष्ट कर दिया। अलाउद्दीन गौरी गज़नी का शासक बना। उसकी मृत्यु के बाद सन् 1173 ई० में शहाबुद्दीन गौरी, जिसको मुहम्मद गौरी भी कहा जाता है, गजनी का शासक बना। इसका छोटा भाई गयासुद्दीन गौर जनपद का शासक बना। शहाबुद्दीह गौरी, अलाउद्दीन गौरी का भतीजा था। यह गौरवंश जाटवंश है जो इस्लाम की आंधी में मुसलमान धर्म के अनुयायी बन गये। शहाबुद्दीन गौरी भी गौरवंश का जाट था।

सन् 1175 से 1206 ई० तक मुहम्मद गौरी के उत्तरी भारत पर आक्रमण -

मुहम्मद गौरी ने गजनी पर अपना शासन स्थिर करके सम्पूर्ण अफगानिस्तान पर आतंक जमा लिया। फिर उसने भारतवर्ष की ओर बढ़ने का विचार किया। उस समय भारतवर्ष में पृथ्वीराज चौहान का शक्तिशाली शासन दिल्ली एवं अजमेर पर था। जयचन्द राठौर का कन्नौज पर शासन था। सबसे पहले गौरी ने सन् 1175 ई० में ईस्मायल कबीले के मुसलमानों को हराकर मुलतान पर अधिकार कर लिया।

उच्छ के राजपूतों को छल से जीत लिया। लाहौर न जीत सकने के कारण, उसने खुसरो मलिक के साथ संधि कर ली और गजनी लौट गया। उसके चले जाने के बाद खुसरो मलिक ने खोखर जाटों की सहायता से सियालकोट के दुर्ग पर घेरा डाल दिया। यह सूचना मिलते ही गौरी ने आकर लाहौर पर आक्रमण कर दिया और कूटनीति द्वारा सन् 1186 ई० में खुसरो मलिक को जीत लिया और उसे मार दिया गया और सुबुक्तगीन वंश का अन्त कर दिया। इस प्रकार लाहौर पर अधिकार कर लिया।

सन् 1191 ई० में पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध -

पृथ्वीराज, जयचन्द राठौर की राजकुमारी संयोगिता को जीत लाया था जिसके कारण जयचन्द


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उसका जानी शत्रु बन गया था। सोलंकियों की अनुमति से गौरी को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए सादर आमन्त्रित किया। फलतः अनुकूल अवसर देखकर मुहम्मद गौरी एक लाख बीस हजार सेना लेकर तराइन आ पहुंचा जो थानेश्वर से 14 मील दूर है। सोलंकी और राठौर सेनायें उसकी सहायता के लिए उससे आ मिलीं। उधर पृथ्वीराज संयोगिता के प्रेम में मग्न हुआ पूर्ण असावधान था। उसके सेनापति और सैनिक प्रेम की देवी के निमित्त पहले ही भेंट चढ़ाए जा चुके थे। पृथ्वीराज के बहनोई चित्तौड़ नरेश महाराणा समरसिंह की सेना ने पृथ्वीराज का साथ दिया। चन्द्रबरदाई के पृथ्वीराज रासो के लेखानुसार “पृथ्वीराज चौहान ने अपना प्रधानमन्त्री कैमास दाहिमा गोत्र के जाट को बनाया था। उसके दूसरे भाई पुण्डीर दाहिमा जाट ने चौहान राज्य की ओर से लाहौर की रक्षा की थी। तीसरे भाई चौयन्दराम दाहिमा जाट ने मुख्य सेनापति पद से शहाबुद्दीन गौरी के साथ घोर युद्ध किया था।” मुसलमान लेखकों ने लिखा है कि चौयन्दराम जाट की दुःसह तलवार से शहाबुद्दीन ने कठिनाई से ही अपने प्राण की रक्षा की थी। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 357, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)

पृथ्वीराज चौहान ने इस युद्ध के लिए हरयाणा सर्वखाप पंचायत और जाट खापों से सहायता मांगी। जाट खापों ने 22000 शूरवीरों की सेना भेजी। उन्होंने बड़ी वीरता के साथ युद्ध किया और मुहम्मद गौरी की सेना को हराकर भगा दिया। (सर्वखाप पंचायत रिकार्ड और जाट इतिहास पृ० 106, लेखक लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून)

पृथ्वीराज अपनी तथा उपर्युक्त सहायक सेना एवं जाट शूरवीरों को साथ लेकर सन् 1191 ई० में तराइन के युद्ध क्षेत्र में गौरी सुलतान की सेना से जा टकराया। दोनों ओर से भयंकर युद्ध होने लगा। राजपूतों ने उसकी सेना के दोनों पक्षों पर बड़ी भीषणता से आक्रमण किया और उसे तितर-बितर कर दिया।

राजा के भाई गोविन्दराय ने सुलतान को भी घायल किया। परन्तु एक खिलजी योद्धा उसको रणक्षेत्र से बाहिर ले गया। इस दुर्घटना से मुसलमानों में भगदड़ मच गई। वे मैदान छोड़कर भागने लगे। इससे पहले उनको हिन्दुओं के कभी इतनी बुरी तरह से नहीं हराया था। सुलतान हारकर गजनी पहुंच गया।

सन् 1192 में मुहम्मद गौरी का पृथ्वीराज से दूसरा युद्ध -

मुहम्मद गौरी ने गजनी जाकर एक शक्तिशाली सेना तैयार की जिसमें अफ़गान, तुर्क और ईरानी आदि जातियों के सैनिक सम्मिलित थे। वह एक लाख बीस हजार सैनिकों के साथ सन् 1192 ई० में तराइन क्षेत्र में पहुंच गया। जयचन्द राठौर तथा सोलंकियों की शक्तिशाली सेनायें भी आकर उसके साथ मिल गईं। पृथ्वीराज भी चौहानों तथा अन्य राजपूतों की बड़ी सेना तथा सर्वखाप पंचायत के 18000 मल्ल योद्धाओं को साथ लेकर तराइन के रणक्षेत्र में जा पहुंचा। दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध होने लगा। सर्वखाप के 18000 सैनिक योद्धा, मुसलमान सेना के जिस बाजू पर नियुक्त किए गए थे, वहां पर बड़ी वीरता से धावा करके उन्होंने मुसलमान सैनिकों को मार-मारकर 15 मील पीछे को धकेल दिया। (सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)


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प्रातःकाल से सायंकाल तक घनघोर युद्ध हुआ। सुलतान 12000 अश्वारोही धनुर्धारियों को लेकर राजपूत सैनिकों पर टूट पड़ा जिन्होंने बहुत राजपूत सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। राजपूत घबरा गए और मुसलमानों के सामने लड़ने का साहस छोड़ बैठे। वे रणक्षेत्र छोड़कर भागने लगे। जाट सैनिक युद्ध करते-करते वीरगति को प्राप्त हुए। मुसलमान इतिहासकार लिखते हैं कि पृथ्वीराज युद्धभूमि छोड़कर भागा, परन्तु सिरसुती (सरस्वती) के पास पकड़ा गया और मार दिया गया। सुलतान विजयी रहा। पृथ्वीराज की हार के बाद राजपूत संभल नहीं सके और इनकी शक्ति कम होती गई। अब मुहम्मद गौरी का दिल्ली तथा अजमेर पर अधिकार हो गया।

सन् 1194 ई० में मुहम्मद गौरी का कन्नौज के राजा जयचन्द पर आक्रमण -

जयचन्द ने सोचा था कि मेरा शत्रु पृथ्वीराज मारा गया और अब मैं दिल्ली एवं भारत का शासक बन जाऊंगा। किन्तु देशद्रोह का फल चखाने के लिए सन् 1194 ई० में सुलतान गौरी ने कन्नौज पर भी प्रबल आक्रमण कर दिया जिसकी जयचन्द को तनिक भी आशा न थी। दोनों ओर की सेनाओं में यू० पी० के इटावा जिले में चन्द्रावर नामक स्थान पर जमकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुसलमानों ने राजपूतों की सेना को बुरी तरह हरा दिया। राजा जयचन्द मारा गया। इसके बाद विजयी सुलतान बनारस पहुंचा। उसने मन्दिरों को तुड़वा दिया और उनके स्थान पर मस्जिदें बनवाने की आज्ञा दी। कन्नौज, बनारस आदि के 200 मन्दिरों को तुड़वाकर अपार धनराशि 4000 ऊंटों पर लादकर तथा लाखों हिन्दू गुलाम साथ लेकर मुहम्मद गौरी गजनी पहुंच गया।

गजनी जाने से पहले सुलतान गौरी ने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में अपने राज्य का उपशासक नियुक्त कर दिया था। इसने भारतवर्ष के अनेक प्रदेशों को जीत लिया। मुहम्मद गौरी का गुलाम मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी नामक था। उसने सन् 1197 ई० में बिहार को जीत लिया और वहां के बौद्ध विहार तथा स्तूपों को नष्ट कर दिया और अनेक बौद्ध पुस्तकों को नष्ट कर दिया। इससे बौद्ध धर्म की शक्ति को बड़ा धक्का लगा। फिर उसने बंगाल को जीत लिया। वह बिहार और बंगाल का गौरी गौरी का उप-शासक बनकर राज्य करने लगा।

खोखर जाटों का विद्रोह और मुहम्मद गौरी की मृत्यु -

मिश्र बन्धु के अनुसार मुहम्मद गौरी का राज्य पश्चिम में खुरासान, सीस्तान, पूर्व में बंगाल, उत्तर में तुर्किस्तान, हिन्दूकुश और दक्षिण में बिलोचिस्तान पर था। इसमें काबुल, कन्धार, हिरात, गजनी आदि सम्मिलित थे। मुहम्मद गौरी ने मध्यएशिया पर आक्रमण कर दिया। सन् 1205 ई० में वहां पर इसकी करारी हार हुई। इस हार के बाद सभी प्रदेशों के राज्यपालों ने इसके विरुद्ध विद्रोह आरम्भ कर दिये। मुलतान पर एक नया शासक बन गया। खोखर जाटों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया तथा पंजाब के शासक बनने की घोषणा कर दी।

सन् 1205 ई० में खोखरों के विद्रोह को दबाने के लिए मुहम्मद गौरी फिर भारत में आ गया। उसने विद्रोह को दबा दिया। परन्तु जब वह लाहौर से 15 मार्च 1205 ई० को गजनी वापिस जा रहा था, तब धम्यक (Dhamyak) के स्थान पर मुलतान के 25000 खोखर जाटों ने इस सेना पर धावा


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बोलकर मुहम्मद गौरी का सिर काट लिया।

इसके मरते ही गौरी का विशाल राज्य ऐसा अस्त हो गया कि मानो वह जादू का चमत्कार था। (भारत का इतिहास, पृ० 369).

मुहम्मद गौरी के कोई पुत्र न था। उसके मरने के पश्चात् उसकी इच्छा के अनुसार सन् 1206 ई० में उसका गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक देहली साम्राज्य का बादशाह बना।


मुहम्मद गौरी
आधार पुस्तकें - मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ 70-73, लेखक ईश्वरीप्रसाद, जाट इतिहास पृ० 106, लेखक ले० रामसरूप जून; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू, पृ० 49-52; जाटों का उत्कर्ष, पृ० 111-112, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-568



षष्ठ अध्याय समाप्त


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