User:Lrburdak/My Tours/Tour of Jammu and Kashmir
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान की गई वर्ष 1981 में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू और कश्मीर यात्रा का विवरण यहाँ दिया जा रहा है। यात्रा विवरण चार दशक पुराना है और परिस्थितियाँ बहुत बदल गई हैं परंतु इस विवरण से देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है।
देहरादून - सहारनपुर यमुनानगर - अम्बाला - चण्डीगढ़
11.5.1981: देहरादून - सहारनपुर - यमुनानगर - अम्बाला - चण्डीगढ़.... दूरी लगभग 250 किमी
देहरादून से चण्डीगढ़ के लिए डीलक्स बसों द्वारा 8 बजे रवाना हुये। रास्ते में जो खास शहर पड़े उनमें मुख्य हैं - सहारनपुर, यमुनानगर, अम्बाला आदि। दोपहर को अम्बाला में लंच किया। चण्डीगढ़ 4 बजे शाम पहुंचे। चंडीगढ़ में पंचायत भवन सेक्टर-17 में व्यवस्था थी परन्तु यह अच्छी नहीं थी। वहीँ मणिपुर की लड़कियों की हाकी टीम भी रुकी हुई थी। बाद में टूरिस्ट लाज सेक्टर-9 में व्यवस्था की गयी वहीँ रात भर रहे। रात को 9-12 में जगत टाकीज़ में ‘लव स्टोरी’ पिक्चर देखी। रास्ते में पड़ने वाले इन स्थानों का विवरण आगे दिया गया है।
सहारनपुर: भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के सहारनपुर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह उस ज़िले का मुख्यालय है। सहारनपुर की काष्ठ कला और दारुल उलूम देवबंद विश्वपटल पर सहारनपुर को अलग पहचान दिलाते हैं। यह प्रसिद्ध रेलवे स्टेशन है। यहाँ से निकटवर्ती स्थानों हरिद्वार,देहरादून,ऋषिकेश,विकाश नगर, पोंटासाहिब, चंडीगढ़,अंबाला,कुरुक्षेत्र, दिल्ली, यमुनोत्री को सड़कें गई हैं। सहारनपुर में प्राचीन शाकम्भरी देवी सिद्धपीठ मंदिर, इस्लामिक शिक्षा का केन्द्र देवबन्द दारुल उलूम, देवबंद का मां बाला सुंदरी मंदिर, नगर में भूतेश्वर महादेव मंदिर, कम्पनी बाग आदि प्रसिद्ध स्थल हैं।
पुरातात्विक सर्वेक्षण ने साबित कर दिया है कि इस क्षेत्र में विभिन्न संस्कृतियों के प्रमाण उपलब्ध हैं। जिले के विभिन्न हिस्सों में खुदाई की गई थी यथा अंबेखेरी, बड़गांव, हुलास और नसीरपुर आदि। इन खुदाइयों के दौरान कई चीजें मिलती हैं, जिसके आधार पर यह स्थापित हुआ है कि सहारनपुर जिले में प्रारंभिक निवासियों को 2000 ईसा पूर्व के रूप में पाया गया था सिंधु घाटी सभ्यता के निशान और इससे पहले के भी उपलब्ध हैं और अब यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यह क्षेत्र सिंधु घाटी सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है। अंबकेरी, बड़गांव, नसीरपुर और हुलास हड़प्पा संस्कृति के केंद्र थे क्योंकि इन क्षेत्रों में हड़प्पा सभ्यता के समान बहुत सी चीजें मिलती थीं। आर्यों के दिनों से ही, इस क्षेत्र का इतिहास तार्किक तरीके से मिलता है लेकिन वर्तमान अन्वेषण और खुदाई के बिना स्थानीय राजाओं के इतिहास और प्रशासन का पता लगाने में मुश्किलें हैं।
सहारनपुर नामकरण: नागवंशी जाट राजा तक्षक के वंशज सहारण टक के नाम पर सहारनपुर शहर का नाम रखा गया है। [1] डॉ नवल वियोगी[2] ने प्राचीन नागवंशियों के इतिहास में अलेक्षेंदर कनिंघम के संदर्भ से जम्मू के दक्षिण में रवि और झेलम नदियों के बीच बसी हुई टक जाटों की घनी आबादी का उल्लेख किया है। तक्षक नाग के वंशज सहारण टक ने सहारनपुर शहर और राज्य की स्थापना की। इनकी 14 पीढ़ियों ने राज्य किया जिनमें से 10 राजाओं के नाम में 'मुजफ्फर' उपाधि थी। [3]। धर्मत्यागने वाले इनके पहले राजा सहारण टक थे जिन्होने अपनी मूल जाति को छुपाकर अपना नाम वजीह-उल-मुल्क (Wajih-ul-Mulk) रखा। इनके पुत्र ज़फ़र खान को फ़िरोज़ ने संरक्षण देकर गुजरात राज्य में पदोन्नत किया (1391 ई.)। 1401 ई. में इन्होने अपने आप को सुल्तान मुजफ्फर शाह नाम से गुजरात का स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। [4] इनके उत्तराधिकारी इनके पौत्र अहमद शाह (1411-1441 AD) हुये जिन्होने प्राचीन अनहिलवारा की राजधानी बदलकर अहमदाबाद रखी। बाद में टक नाम राजस्थान की जातियों से विलुप्त हो गया परंतु सहारण जाटों का राज्य 1489 ई. बीकानेर क्षेत्र में राठोड़ राजपूतों के आने तक बना रहा।
2. एक अन्य स्रोत के अनुसार राजा सारण द्वारा सहारनपुर नगर स्थापित किया गया था जिसका पुराना नाम वरबुड़ियावास था। सहारनपुर राज्य की स्थापना वर्ष संवत 1122 (1065 ई.) में हुई। [5]
यमुनानगर: भारत के हरियाणा राज्य के यमुनानगर ज़िले में स्थित एक नगर है। यमुनानगर हरियाणा राज्य का एक अति प्रसिद्ध जिला है जो हरियाणा के उत्तर पूर्व की ओर स्थित है। यमुनानगर, राज्य की राजधानी चंडीगढ़ के दक्षिण पूर्व में स्थित है। यह जिला शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में है। शहर से लगभग 30-40 किलोमीटर दूर शिवालिक पर्वत श्रेणियां आरंभ हो जाती हैं। यह जिला पर्यटन और प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से बेशुमार हैं। यमुनानगर जिले के कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों का विवरण नीचे दिया गया है।
आदि बद्री: यहाँ पर वैदिक कालीन मंदिरों के साक्ष्य हैं यहीं पर सरस्वती नदी का उद्गम स्थल है जो शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर है । इसी के पास ही आदि बद्री नामक स्थान है। जहां पर प्राचीन काल में भगवान ने तपस्या की थी। शिवालिक पर्वतमाला की ऊंची चोटी पर लगभग 2000 फीट की ऊंचाई पर माता मंत्रा देवी का मंदिर बना हुआ है। यहीं पर आदि केदार मंदिर हैं।
चनेती: चनेती गांव में बौद्ध स्तूप बना हुआ है। चनेती बौद्ध स्तूप जगाधरी से 3 किमी दूर स्थित है। गांव के करीब 100 वर्ग मीटर के क्षेत्र में ईंटों से बने से 8 मीटर की ऊँचाई वाला एक विशाल मकबरा है। गोल आकार में बना, यह एक पुराना बौद्ध स्तूप है। हेन त्सांग के अनुसार, यह राजा अशोक द्वारा बनाया गया था। मौर्य राजा अशोक के शासनकाल के दौरान, प्राचीन शहर श्रुघ्ना (आधुनिक सुघ) बौद्ध धर्म का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया। जैसा कि चीनी तीर्थयात्री युआन चुंग के यात्रा के बारे में बताया गया है कि यह जगह दसवें स्तूप और एक मठ से सुशोभित हुई थी।
खिजराबाद (AS, p.257) नामक स्थान के पास ही तोपरा स्थित है जहां पहले वह अशोक स्तंभ था जिसे फिरोजशाह तुगलक दिल्ली से ले गया था। इस कस्बे के पास ही पहाड़ की चोटी पर लाला वाले पीर की छोटी सी मजार है जहां पर मेला लगता है।
बिलासपुर: यहां का सबसे बड़ा तीर्थ बिलासपुर के समीप कपाल मोचन है जहां पर गुरु पूर्णिमा के दिन भारी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। बिलासपुर का ऐतिहासिक महत्व है, क्योंकि यह महाभारत के लेखक, वेद व्यास के नाम पर है। कपालमोचन, ऋणमोचन और सूर्य कुंड तालाब बिलासपुर में पवित्र माने जाते हैं। विलासपुर में जाट-राज्य था। रानी दयाकुंवरि के नि:सन्तान मरने के कारण इस राज्य को सरकार ने अपने अधिकार में कर लिया। यह घटना सन् 1819 ई० की है। कलसिया के महाराज शोभासिंह जी ने अपने अधिकार का दावा पेश किया, किन्तु सन् 1820 में उनका दावा खारिज हो गया। (ठाकुर देशराज,पृ.513) इसके साथ ही बिलासपुर के पास पंचमुखी हनुमान जी का मंदिर है जहां मंगलवार और शनिवार को दूर-दूर से लोग आते हैं।
हरनौल नामक गाँव के पास पंचतीर्थी धाम नामक प्राचीन तीर्थ है। कहते हैं कि यहाँ पर पांडव आए थे और पाँचों पांडवों की मूर्तियाँ यहाँ स्थापित हैं।
जगाधरी: यमुनानगर के उत्तर में अतिप्राचीन शहर जगाधरी है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी (4.2.130) में युगंधर नामक एक देश का उल्लेख किया है जिसकी पहचान जगाधरी से की गई है। युगंधर का उल्लेख महाभारत (IV.1.9) में धन-धान्य से परिपूर्ण देश के रूप में किया गया है- 'सन्ति रम्या जनपथा बह्व अन्नाः परितः कुरून, पाञ्चालाश चेथिमत्स्याश च शूरसेनाः पटच्चराः, दशार्णा नव राष्ट्रं च मल्लाः शाल्व युगंधराः' (IV.1.9). युगंधर नामक एक प्राचीन स्थान का उल्लेख महाभारत, वनपर्व में हुआ है- 'युगंधरे दधिप्राश्य उषित्वा चाच्युतस्थले तद्वद् भूतलये स्नात्वा सपुत्रावस्तुमर्हसि।' महाभारत, वनपर्व (3-131-9).
जगाधरी इलाका सन् 1832 ई० में रानी दयाकुंवरि के मरने पर सरकार ने जब्त कर लिया था। यह रानी सरदार भगवानसिंह की धर्मपत्नी थी। यह रियासत सब तरह से धन-धान्य से पूर्ण थी। (ठाकुर देशराज, पृष्ठ-513)
इस जिले में कालेश्वर महादेव, सतकुम्भा तीर्थ आदि स्थल है। सरस्वती नगर मुस्तफाबाद एक पुराना कस्बा है। जहां पर सरस्वती धाम है । यमुनानगर शहर में ही चिट्टा मंदिर, गुरुद्वारा थडा साहिब, संतपुरा गुरुद्वारा ,जंगला वाली माता जी का मंदिर प्रसिद्ध है। इस जिले में प्राचीन लौहगढ़ साहिब गुरुद्वारा भी स्थित है। इस जिले मे यमुना, पथराला, बोली नदी और सोम्ब नदी बहती हैं।
यह शहर प्लाईवुड इकाइयों के क्लस्टर के लिए जाना जाता है। यह बड़े उद्योगों को देश की बेहतरीन लकड़ी उपलब्ध कराने के लिए जाना जाता है। लक्कड़ की मर्केट बहुत बड़ी है। यहाँ पर पेपर और चीनी मिल हैं। यहाँ पर बहुत बड़ा और प्रशिद्ध बर्तन-बजार है। सरस्वती नदी का उद्गम स्थल आदिबद्री,काठगढ़ व सिखों की पहली राजधानी, लोहगढ़ (बन्दा बहादुर सिंह गुरुद्वारा) भी यमुनानगर में ही है।
जैव विविधता: यमुनानगर शिवालिक पहाड़ियों की सुंदर तलहटी में स्थित है। यमुना नदी की प्राचीन सुंदरता के साथ पहाड़ियों का मिलन मंत्रमुग्ध कर देने वाला है। ग्रे पेलिकन नाम का एक गेस्ट हाउस नदी के किनारे पर है। इसकी देख भाल राज्य सरकार करती है कालेसर वन्यजीव अभयारण्य यमुना नगर के पूर्वी भाग में स्थित है। वन्य जीवों के अलावा, खैर, शीशम, तुन, सेन और आंवला जैसे पेड़ भी यहां पाए जाते हैं। चौधरी देवी लाल हर्बल नेचर पार्क में औषधीय पौधों की अधिक पैदावार है। [6] चौधरी देवी लाल (25.09.1914 — 06.04.2001) हरियाणा राज्य से आने वाले एक प्रमुख राजनेता थे जो कि 19 अक्टूबर 1989 से 21 जून 1991 तक भारत के उप-प्रधानमंत्री रहे। वे दो बार (21 जून 1977 से 28 जून 1979, तथा 17 जुलाई 1987 से 2 दिसम्बर 1989) हरियाणा के मुख्यमंत्री भी रहे। उनकी समाधि-संघर्ष घाट दिल्ली में है।
यमुनानगर की सीमा के पास ही माता बाला सुंदरी जी का पावन धाम है जो हिमाचल के त्रिलोकपुर गांव में है ।इस जिले की सीमा से लगभग 30-35 किलोमीटर दूर सिद्धपीठ शाकम्भरी देवी का मंदिर है जो सहारनपुर में पड़ता है। पौंटा साहिब भी यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित है।
अम्बाला शहर भारत के हरियाणा राज्य का एक मुख्य एवं ऐतिहासिक शहर है। यह भारत की राजधानी दिल्ली से दो सौ किलोमीटर उत्तर की ओर शेरशाह सूरी मार्ग (राष्ट्रीय राजमार्ग नम्बर-1) पर स्थित है। अम्बाला छावनी, भारत का एक प्रमुख सैनिक आगार तथा प्रमुख रेलवे जंक्शन है।शहर से संलग्न अंबाला छावनी में रेलों के एक बड़े जंक्शन के साथ एक हवाई अड्डा भी है। साथ ही यह भारत की सबसे बड़ी छावनियों में से एक है। अंबाला जिला हरियाणा एंव पंजाब (भारत) राज्यों की सीमा पर स्थित है। भौगोलिक स्थिति के कारण पर्यटन के क्षेत्र में भी अंबाला का महत्वपूर्ण स्थान है। यह शहर अमृतसर और दिल्ली से सड़क और रेलमार्ग से जुड़ा हुआ है। अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रो के बीच जल विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लम्बाई 1,800 कि०मी० है।
नामकरण: अम्बाला नाम की उत्पत्ति शायद महाभारत की अम्बा के नाम पर हुआ है। अम्बा, काशी के राजा काश्य की सबसे बड़ी पुत्री थी। उसकी दो छोटी बहने भी थी अम्बिका और अम्बालिका । महाभारत काल में इन तीनों बहिनों का स्वयंबर से अपहरण भीष्म द्वारा किया गया था। अम्बाला में अंबिका माता का मंदिर है जिसमें अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका की मूर्तियाँ स्थापित हैं। यह मंदिर पुराने सिविल अस्पताल के पास स्थित है।
कुछ लोगों का मानना है कि यहाँ आम की पैदावार अधिक होती थी इस लिए इसे अम्बवाला कहा जाता था, जो अब अंबाला बन गया।
कोस मीनार अंबाला: कोस मीनार का प्रयोग शेर शाह सूरी के जमाने में सड़कों को नियमित अंतराल पर चिन्हित करने के लिए किया जाता था। ग्रैंड ट्रंक रोड के किनारे हर कोस पर मीनारें बनवाई गई थीं। अधिकतर इन्हें 1556-1707 के बीच बनाया गया था। कई मीनारें आज भी सुरक्षित हैं तथा इन्हें दिल्ली-अंबाला राजमार्ग पर देखा जा सकता है। पुरातत्व विभाग के अनुसार भारत के हरियाणा राज्य में कुल 49 कोस मीनारे है जिनमें फरीदाबाद में 17, सोनीपत में 7, पानीपत में 5, करनाल में 10, कुरुक्षेत्र और अम्बाला में 9 एवं रोहतक में 1 मीनार हैं। आजकल इन्हें सुरक्षित स्मारक घोषित किया गया है तथा पुरातत्व विभाग इनकी देखरेख करता है।
उद्योग और व्यापार: अंबाला एक महत्त्वपूर्ण औद्योगिक शहर है। आज के जमाने में अम्बाला अपने विज्ञान सामग्री उत्पादन व मिक्सी उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। अम्बाला को विज्ञान नगरी कह कर भी पुकारा जाता है क्योंकि यहां वैज्ञानिक उपकरण उद्योग केंद्रित है। भारत के वैज्ञानिक उपकरणों का लगभग चालीस प्रतिशत उत्पादन अम्बाला में ही होता है। वैज्ञानिक उपकरणों, सिलाई मशीनों, मिश्रण यंत्रों (मिक्सर) और मशीनी औज़रों के निर्माण तथा कपास की ओटाई, आटा मिलों व हथकरघा उद्योग की दृष्टि से अंबाला छावनी व शहर, दोनों उल्लेखनीय हैं। एक महत्त्वपूर्ण कृषि मंडी होने के साथ अंबाला में एक सरकारी धातु कार्यशाला भी है। अंबाला के पास आमों की खेती की जाती है।
चण्डीगढ़ भारत का एक केन्द्र शासित प्रदेश है, जो दो भारतीय राज्यों, पंजाब और हरियाणा की राजधानी भी है। इसके नाम का अर्थ है चण्डी का किला। यह हिन्दू देवी चण्डी (पार्वती) के एक मंदिर के कारण पड़ा है। यह मंदिर आज भी शहर में स्थित है। इसे सिटी ब्यूटीफुल भी कहा जाता है। चंडीगढ़ राजधानी क्षेत्र में मोहाली, पंचकुला और ज़ीरकपुर आते हैं। इस शहर के निर्माण में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की भी निजी रुचि रही है, जिन्होंने नए राष्ट्र के आधुनिक प्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में चंडीगढ़ को देखते हुए इसे राष्ट्र के भविष्य में विश्वास का प्रतीक बताया था।
प्रथम योजनाबद्ध शहर: अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शहरी योजनाबद्धता और वास्तु-स्थापत्य के लिए प्रसिद्ध यह शहर आधुनिक भारत का प्रथम योजनाबद्ध शहर है। चंडीगढ़ के मुख्य वास्तुकार फ्रांसीसी वास्तुकार ली कार्बूजियर हैं, लेकिन शहर में पियरे जिएन्नरेट, मैथ्यु नोविकी एवं अल्बर्ट मेयर के बहुत से अद्भुत वास्तु नमूने देखे जा सकते हैं। शहर का भारत के समृद्ध राज्यों और संघ शसित प्रदेशों की सूची में अग्रणी नाम आता है।
इतिहास: ब्रिटिश भारत के विभाजन उपरांत 1947 में पंजाब राज्य को भारत और पाकिस्तान में दो भागों में बाँट दिया गया था। इसके साथ ही राज्य की पुरानी राजधानी लाहौर पाकिस्तान के भाग में चली गयी थी। अब भारतीय पंजाब को एक नई राजधानी की आवश्यकता पड़ी। पूर्व स्थित शहरों को राजधानी बदलने में आने वाली बहुत सी कठिनाईयों के फलस्वरूप एक नये योजनाबद्ध राजधानी शहर की स्थापना का निश्चय किया गया तथा 1952 में इस शहर की नींव रखी गई। उस समय में भारत में चल रही बहुत सी नवीन शहर योजनाओं में चंडीगढ़ को प्राथमिकता मिली जिसका मुख्य कारण एक तो नगर की स्थिति और दूसरा कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु तथा राज्यपाल सर सी पी एन (चन्देश्वर प्रसाद नारायण सिंह) का निजी रुचि का होना था । राष्ट्र के आधुनिक प्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में चंडीगढ़ को देखते हुए उन्होंने शहर को अतीत की परंपराओं से उन्मुक्त, राष्ट्र के भविष्य में विश्वास का प्रतीक बताया। शहर के बहुत से खाके व इमारतों की वास्तु रचना फ्रांस में जन्में स्विस वास्तुकार व नगर-नियोजक ली कार्बुज़िए ने 1950 के दशक में की थी। कार्बुज़िए भी असल में शहर के द्वितीय वास्तुकार थे, जिसका मूल मास्टर प्लान अमरीकी वास्तुकार-नियोजक अल्बर्ट मेयर ने तब बनाया था, जब वे पोलैंड में जन्मे वास्तुकार मैथ्यु नोविकी के संग कार्यरत थे। 1950 में नोविकी की असामयिक मृत्यु के चलते कार्बूजियर को परियोजना में स्थान मिला था।
पर्यटन: पंजाब और हरियाणा की राजधानी चंडीगढ़ भारत के सबसे खूबसूरत और नियोजित शहरों में एक है। इस केन्द्र शासित प्रदेश को प्रसिद्ध फ़्रांसीसी वास्तुकार ली कोर्बूजियर ने अभिकल्पित किया था। इस शहर का नाम एक दूसरे के निकट स्थित चंडी मंदिर और गढ़ किले के कारण पड़ा जिसे चंडीगढ़ के नाम से जाना जाता है। शहर में बड़ी संख्या में पार्क हैं जिनमें लेसर वैली, राजेन्द्र पार्क, बॉटोनिकल गार्डन, स्मृति उपवन, तोपियारी उपवन, टेरस्ड गार्डन और शांति कुंज प्रमुख हैं। चंडीगढ़ में ललित कला अकादमी, साहित्य अकादमी, प्राचीन कला केन्द्र और कल्चरल कॉम्प्लेक्स को भी देखा जा सकता है।
कैपिटल कॉम्प्लैक्स: यहाँ हरियाणा और पंजाब के अनेक प्रशासनिक भवन हैं। विधानसभा, उच्च न्यायालय और सचिवालय आदि इमारतें यहाँ देखी जा सकती हैं। यह कॉम्प्लेक्स समकालीन वास्तुशिल्प का एक बेहतरीन उदाहरण है। यहाँ का ओपन हैंड स्मारक कला का उत्तम नमूना है।
रॉक गार्डन: चंडीगढ़ आने वाले पर्यटक रॉक गार्डन आना नहीं भूलते। इस गार्डन का निर्माण नेकचंद ने किया था। इसे बनवाने में औद्योगिक और शहरी कचरे का इस्तेमाल किया गया है। पर्यटक यहाँ की मूर्तियों, मंदिरों, महलों आदि को देखकर अचरज में पड़ जातें हैं। हर साल इस गार्डन को देखने हजारों पर्यटक आते हैं। गार्डन में झरनों और जलकुंड के अलावा ओपन एयर थियेटर भी देखा जा सकता, जहाँ अनेक प्रकार की सांस्कृतिक गतिविधियां होती रहती हैं।
रोज़ गार्डन: जाकिर हुसैन रोज़ गार्डन के नाम से विख्यात यह गार्डन एशिया का सबसे बड़ा रोज़ गार्डन है। यहाँ गुलाब की 1600 से भी अधिक किस्में देखी जा सकती हैं। गार्डन को बहुत खूबसूरती से डिजाइन किया गया है। अनेक प्रकार के रंगीन फव्वारे इसकी सुंदरता में चार चाँद लगाते हैं। हर साल यहाँ गुलाब पर्व आयोजित होता है। इस मौके पर बड़ी संख्या में लोगों का यहाँ आना होता है।
संग्रहालय: चंडीगढ़ में अनेक संग्रहालय हैं। यहाँ के सरकारी संग्रहालय और कला दीर्घा में गांधार शैली की अनेक मूर्तियों का संग्रह देखा जा सकता है। यह मूर्तियां बौद्ध काल से संबंधित हैं। संग्रहालय में अनेक लघु चित्रों और प्रागैतिहासिक कालीन जीवाश्म को भी रखा गया है। अन्तर्राष्ट्रीय डॉल्स म्युजियम में दुनिया भर की गुडियाओं और कठपुतियों को रखा गया है।
सुखना वन्यजीव अभयारण्य: लगभग 2600 हेक्टेयर में फैले इस अभयारण्य में बड़ी संख्या में वन्यजीव और वनस्पतियां पाई जाती हैं। मूलरूप से यहाँ पाए जाने वाले जानवरों में बंदर, खरगोश, गिलहरी, साही, सांभर, भेड़िए, जंगली शूकर, जंगली बिल्ली आदि शामिल हैं। इसके अलावा सरीसृपों की अनेक प्रजातियों भी यहाँ देखी जा सकती हैं। अभयारण्य में पक्षियों की विविध प्रजातियों को भी देखा जा सकता है।
सुखना झील चण्डीगढ़ : सुखना झील भारत के चण्डीगढ़ नगर में हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की तलहटी में स्थित एक सरोवर है। यह मानव निर्मित झील 1958 में 3 किमी² क्षेत्र में बरसाती झील सुखना खाड (चोअ) को बाँध कर बनाई गई थी। पहले इसमें सीधा बरसाती पानी गिरता था और इस कारण बहुत सी गार इसमें जमा हो जाती थी। इसको रोकने के लिए 25.42 किमी² ज़मीन ग्रहण करके उसमे जंगल लगाया गया। 1974 में इसमें चोअ के पानी को दूसरी तरफ मोड़ दिया गया और झील में साफ़ पानी भरने का प्रबंध कर लिया गया। अनेक प्रवासी पक्षियों को यहाँ देखा जा सकता है। झील में बोटिंग का आनंद लेते समय दूर-दूर फैले पहाड़ियों के सुंदर नजारों के साथ-साथ सूर्यास्त के नजारे भी यहाँ से बड़े मनमोहक दिखाई देते हैं।
क्रमश:अगले भाग में पढ़ें रोपड़ – नांगल - ऊना - अम्ब - कांगड़ा - पालमपुर
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 07.03.2022
References
- ↑ Dr Naval Viyogi: Nagas – The Ancient Rulers of India, p.149
- ↑ Dr Naval Viyogi: Nagas – The Ancient Rulers of India/Takshak Mori,p.149
- ↑ Tod James, "Annals and Antiquities of Rajasthan" I, P-126.
- ↑ Tod James, "Annals and Antiquities of Rajasthan" I, P-118.
- ↑ Jananayak Shri Daulat Ram Saran Abhinandan Granth, p.120
- ↑ https://hindi.nativeplanet.com/yamuna-nagar/#attractions
चण्डीगढ़ – रोपड़ – भाखड़ा नांगल - ऊना - कांगड़ा - पालमपुर
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर टूर (11.05.1981- 02.06.1981) जारी....
12.5.1981: चण्डीगढ़ – रोपड़ – भाखड़ा-नांगल - ऊना - अम्ब - कांगड़ा - पालमपुर दूरी = 270 किमी
सुबह 8 बजे चंडीगढ़ से पालमपुर के लिए रवाना हुए। चण्डीगढ़ – रोपड़ की दूरी करीब 50 किमी है। रूपनगर से कांगड़ा की दूरी लगभग 180 किमी है और 4 घंटे से अधिक समय लगता है। कांगड़ा - पालमपुर की दूरी 40 किमी है।
करीब 9 बजे हम रोपड़ शहर पहुँचे और वहाँ नाश्ता किया। रोपड़ का नाम अब रूपनगर कर दिया है। रास्ते में औजाला और सोलखियान गाँव पड़ते हैं। रोपड़ जिला मुख्यालय है। यहाँ से बूटा सिंह चुनाव लड़ते रहे हैं।
लंच के समय हम नांगल पहुंचे। यहाँ नांगल जलाशय देखा और फिर वहाँ से भाखड़ा पहुंचे जो नांगल से 15 किमी दूर स्थित है। भाखड़ा बांध बहुत बड़ा बाँध है। इस बांध का नामकरण भाखड़ा गांव पर किया गया है जो हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले में स्थित है। यहाँ से राजस्थान, पंजाब, हरयाणा आदि प्रांतों को बिजली प्रदाय की जाती है।
भाखड़ा से वापस नांगल आये। नांगल गाँव रूपनगर जिले में हिमाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित है। नांगल में 'चीफेस रेस्टोरेंट' में लंच लिया। वहाँ से रवाना हुए तो थोड़ी दूर पर हिमाचल में प्रवेश कर गए। ऊना, अम्ब, कांगड़ा होते हुए पालमपुर पहुंचे। रूपनगर से कांगड़ा की दूरी लगभग 180 किमी है और 4 घंटे से अधिक समय लगता है। कांगड़ा से पालमपुर की दूरी लगभग 40 किमी है। इस तरह से उत्तर प्रदेश, हरयाणा, पंजाब को पार करते हुए हिमाचल प्रदेश में आ चुके थे। पालमपुर में टूरिस्ट बंगले में रुकने की व्यवस्था की गयी थी। रहने की काफी अच्छी व्यवस्था थी। शहर में ज्यादा होटल नहीं हैं। यह छोटा सा शहर है।
चण्डीगढ़ - पालमपुर के रास्ते में पड़ने वाले स्थानों का विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है।
भाखड़ा बांध: भाखड़ा बांध सतलुज नदी पर बने भाखड़ा-नंगल बांध का ही हिस्सा है। बिलासपुर जिले में स्थित इस बांध का नामकरण भाखड़ा गांव पर किया गया है और यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा बांध है। इस बांध पर लगे पनबिजली संयंत्र से पंजाब के अलावा हरियाणा, राजस्थान, गुजरात और हिमाचल प्रदेश में भी विद्युत आपूर्ति की जाती है। साथ ही यह बांध बरसात के दौरान इस क्षेत्र में आने वाले बाढ़ को भी रोकता है। इसके अलावा बांध से सिंचाई व्यवस्था भी दुरुस्त हुई है, जिसका असर कृषि उत्पादन पर देखा जा सकता है।
भाखड़ा-नांगल बांध एक हाइड्रो-इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट है जिसमें बांध के पानी से बिजली बनती है। बांध के जलगृहण-क्षेत्र से पानी के साथ मिट्टी कटकर आती है जिससे बांध में गाद इकट्ठा हो जाती है और बांध की क्षमता को घटा देती है। इस गाद को जमने से रोकने के लिए प्रबंधन द्वारा जो कार्य किए गए हैं उनका अध्ययन किया। केचमेंट एरिया में मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए ऐसे वृक्ष और झाड़ियां लगाई गई हैं जो मिट्टी को बांध कर रखती हैं। इसमें मुख्य प्रजातियां हैं- खैर, शिशु, डेडोनियम, आईपोमिया, सेमल, अगेव, वाइटेक्स निगुन्डो, नीम, मुंज आदि।
भाखड़ा-नांगल बांध का इतिहास: संयुक्त पंजाब के राजस्व मंत्री सर छोटूराम ने भाखड़ा बांध का प्रस्ताव रखा था । सतलुज के पानी का अधिकार बिलासपुर के राजा का था। सर छोटूराम ने संयुक्त पंजाब के राजस्व मंत्री के रूप में बिलासपुर (हिमाचल) के राजा के साथ 1944 में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और योजना को 8 जनवरी 1945 को अंतिम रूप दिया। इस परियोजना का का प्रारम्भिक काम 1946 में शुरू हो गया।
भाखड़ा नांगल बाँध सतलज नदी पर पंजाब और हिमाचल प्रदेश की सीमा में शिवालिक पहाड़ियों के तल पर स्थित है। बांध की लंबाई 518.25 मीटर और लंबाई चौड़ाई 304.84 मीटर है। यह भारत में सबसे बड़ी बहुउद्देश्यीय परियोजना भी है जिसका निर्माण 1946 में शुरू हुआ और 1968 तक पूरा हो गया। पंजाब, हरियाणा और राजस्थान ने संयुक्त रूप से इस परियोजना को शुरू किया था। भाखड़ा नांगल बाँध को दुनिया का सबसे ऊँचा गुरुत्व बाँध भी कहा जाता है। भाखड़ा नांगल बांध का निर्माण उस समय से शुरू हुआ जब भारत अभी तक एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं था। इस बांध को नए भारत के नए मंदिर के रूप में जाना जाता है और वर्ष 1963 में भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा राष्ट्र को समर्पित किया गया था।
पर्यटन स्थल: जहां तक पर्यटकों के आकर्षण का सवाल है, भाखड़ा नांगल बांध एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। हिमाचल प्रदेश की हरी-भरी हरियाली के बीच स्थित होने के कारण बड़ी संख्या में पर्यटक साल भर बांध क्षेत्र में आते हैं। प्राकृतिक जलप्रपात गंगवाल और कोटला के बिजलीघरों के माध्यम से जल विद्युत शक्ति उत्पन्न करता है। भाखड़ा बांध की एक महत्वपूर्ण विशेषता इसका विशाल जलाशय है जिसे गोबिंद सागर जलाशय के रूप में जाना जाता है। जलाशय में लगभग 9340 मिलियन घन मीटर पानी स्टोर करने की क्षमता है। गोबिंद सागर दुनिया के सबसे ऊंचे गुरुत्वाकर्षण बांधों में से एक है, जो अपनी सबसे कम नींव से लगभग 225.5 मीटर ऊपर उठता है। अमेरिकी बांध-निर्माता हार्वे स्लोकम ने भाखड़ा बांध के निर्माण की देखरेख की।
रूपनगर, जिसका पुराना नाम रोपड़ था, भारत के पंजाब राज्य के रूपनगर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह सतलुज नदी के किनारे और हिमाचल प्रदेश की सीमा के पास बसा हुआ है।
रूपनगर एक अति प्राचीन स्थल है। नगर का इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता तक जाता है। रूपनगर सतलुज के दक्षिणी किनारे पर बसा है। सतलुज नदी के दूसरी ओर शिवालिक के पहाड़ हैं। रूपनगर चंडीगढ़ (सबसे समीप विमानक्षेत्र एवं पंजाब की राजधानी) से लगभग 50 कि.मी. की दूरी पर है। शहर के उत्तरी सीमा पर हिमाचल प्रदेश और पश्चिमि सीमा पर शहीद भगत सिंह नगर है। रूपनगर में कई ऐतिहासिक एवं धार्मिक स्थल है, जिनमे गुरुद्वारा श्री भट्टा साहिब तथा गुरुद्वारा श्री टिब्बी साहिब शामिल है।
नामकरण: ऐसा माना जाता है कि रूपनगर का नाम 11वीं सदी के रोकेशर नामक राजा ने अपने पुत्र रूप सेन के नाम पर रखा था। परंतु प्राचीन शहर रूपनगर के सिन्धु घाटी सभ्यता से संबंधित होने के कारण 11वीं सदी के रूप सेन के नाम पर रखा जाना कुछ विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता।
पुरातात्विक संग्रहालय: भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा यहां की गई खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता के छह अलग-अलग काल के अवशेष मिले हैं। इन प्रचीन कला कृतियों को सुरक्षित रखने के लिए भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण ने यहां एक खास म्यूजियम भी बनवाया है। रूपनगर पर्यटन में इस म्यूजियम का भी खासा योगदान है। रूपनगर पुरातात्विक संग्रहालय सामान्य जनता के लिए 1998 में खुला था। यह संग्रहालय शहर की हडप्पाई अवशेषों का प्रदर्शन करता है। खुदाई में चन्द्रगुप्त के समय के स्वर्ण मुद्रिका भी मिली है।
रोपड़ का इतिहास: पंजाब प्रदेश के 'रोपड़ ज़िले' में सतलुज नदी के बांए तट पर स्थित है। रोपड़ नगर का संबंध शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह और तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वैटिंक के बीच अक्टूंबर 1831 में हुए ऐतिहासिक सिख-एंग्लो समझौता के साथ रहा है। यहाँ स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सर्वप्रथम उत्खनन किया गया था। इसका आधुनिक नाम रूप नगर है। 1950 में इसकी खोज 'बी.बी.लाल' ने की थी। यहाँ पर हड़प्पा पूर्व एवं हड़प्पाकालीन संस्कृतियों के अवशेष मिले है। इस स्थल की खुदाई 1953-56 में 'यज्ञ दत्त शर्मा' के द्वारा की गई थी। रोपड के उत्खनन से प्राप्त पुरावशेषों के आधार पर पुरातत्ववेत्ताओं का मानाना है कि रूपनगर में पहली बस्ती हड़प्पा संस्कृति के लोगों द्वारा 2000 ई. पूर्व में बसाई गई थी। यहाँ प्राप्त मिट्टी के बर्तन, आभूषण चर्ट, फलग एवं तांबे की कुल्हाड़ी महत्त्वपूर्ण है। यहाँ पर मिले मकानों के अवशेषों से लगता है कि यहाँ के मकान पत्थर एवं मिट्टी से बनाये गये थे। यहाँ शवों को अण्डाकार गढ्ढों में दफनाया जाता था। एक स्थान से शवाधान के लिए प्रयोग होने वाले ईटों का एक छोटा कमरा भी मिला है। कुछ शवाधान से मिट्टी के पकाए गए आभूषण, शंख की चूड़ियां, गोमेद पत्थर के मनके, तांबे की अंगूठियां आदि प्राप्त हुई हैं। रोपड़ से एक ऐसा क़ब्रिस्तान मिला है जिसमें मनुष्य के साथ पालतू कुत्ता भी दफनाया गया था। ऐसा उदाहरण किसी भी हड़प्पाकालीन स्थल से प्राप्त नहीं हुआ है। परन्तु इस प्रकार की प्रथम नव पाषाण युग में 'बुर्ज़होम' (कश्मीर) में प्रचलित थी।
ऊना (Una) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के ऊना ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। ऊना ज़िला दक्षिण-पश्चिमी भाग में स्थित है। ऊना ज़िला पंजाब के होशियारपुर तथा रूपनगर जिलों के साथ सीमाएं बाटँता है तथा हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर, कागँड़ा तथा बिलासपुर के साथ इसकी सीमाएं लगती हैं। 1 सितंबर 1972 को हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा कांगड़ा जिले को तीन जिलों में ऊना, हमीरपुर और कांगड़ा में पुनर्गठित किया गया। ऊना जिले की पाँच तहसीलें हैं - अम्ब , बंगाणा , ऊना , घनारी तथा हरोली। हिमाचल प्रदेश के बाकी जिलों की तरह ऊना जिला के लोग भी कृषि पर ही निर्भर करते हैं तथा कृषि ही सीधा लोगों को रोजगार प्रदान करती है। [1]
पंजाब राज्य के करीबी निकटता होने के कारण ऊना जिले का औद्योगिक क्षेत्र में काफ़ी विकास हुआ है। मेहतपुर, गगरेट, टाहलीवाल और अम्ब क्षेत्र ऊना के मुख्य औद्योगिक केंद्र हैं। 11 जनवरी 1991 को उना को चौड़ी गेज ट्रैक बिछाने के साथ ही रेलवे लाइन के साथ नंगल (पंजाब) से जोड़ दिया गया और जोकि अब बढ़ कर दौलतपुर कस्बे तक पहुँच चुकी है । जिले में पंजाबी, हिंदी, पहाड़ी भाषा सामान्यत बोली जाती है। सर्दियों में तेज ठंड पड़ती है और गर्मियों में पारा 45 डिग्री तक पहुँच जाता है । जुलाई से सितंबर तक मौसम बरसात और नमी भरा रहता है।
उना के प्रसिद्ध स्थानों में डेरा बाबा बड़ भाग सिंह, चिंतपुरी माता मंदिर, डेरा बाबा रुद्रु, जोगी पांगा, धर्मशाला महंत, ध्युन्सर महादेव मंदिर, तलमेहरा, शिवबारी मंदिर, गगरेट और मिनी सचिवालय शामिल है।
डेरा बाबा वडभाग सिंह: उत्तर भारत का प्रसिद्ध बाबा वडभाग सिंह की तपोस्थली मैड़ी ऊना से 42 किलोमीटर दूर है। इसकी गणना उत्तर भारत के प्रसिद्ध तीर्थस्थलों के रुप में की जाती है। यह पवित्र स्थान सोढी संत बाबा वड़भाग सिंह (1716-1762) की तपोस्थली है। 300 वर्ष पूर्व बाबा राम सिंह के सुपुत्र संत बाबा वड़भाग सिंह करतारपुर पंजाब से आकर यहां बसे थे। कहा जाता है कि अहमद शाह अब्दाली के तेहरवें हमले से क्षुब्ध होकर बाबा जी को मजबूरन करतारपुर छोड़कर पहाड़ों की ओर आना पड़ा था। जब बाबा जी दर्शनी खड्ड के पास पहुंचे तो उन्होंने देखा कि अब्दाली की अफगान फौजें उनका पीछा करते हुए उनके काफी नजदीक आ गई हैं। इस पर बाबा जी ने आध्यात्मिक शक्ति से खड्ड में जबरदस्त बाढ़ ला दी और अफगान फौज के अध्कितर सिपाही इसमें बह गए और कुछ जो बचे वे हार मानकर वापिस लौट गए। उसके बाद बाबा जी एक स्थान पर तपस्या में लीन हो गए। जिस स्थान पर गुरुद्वारा स्थित है उसे मैड़ी कहा जाता है तथा जिस स्थान पर बाबा जी ने तपस्या की थी उसे मंजी साहब कहा जाता है। हर वर्ष होली के दिन मैड़ी में 10 दिवसीय मेला लगाया जाता है। समूचे उत्तर भारत-पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से व देश के अन्य भागों से 15 लाख के लगभग लोग यहां आते हैं।
कुटलेहर किले को लोकप्रिय सोलह सिंधी किले के रूप में जाना जाता है। कुटलेहर किले के शासक मूलरूप से ब्राह्मण थे परंतु अपने को राजपूत का दर्जा दिया। यह ऊना के प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से गिना जाता है जो समुद्र स्तर से 4500 मीटर की ऊंचाई पर बंगाणा के पास स्थित है। इस किले को कांगड़ा के राजा संसार चंद्र ने बनवाया था। सिख महाराजा राजवंश के पहले महाराजा रणजीत सिंह ने 1809 ई में इस किले का जीर्णोद्धार करवाया था। किले से गोविंद सागर झील और पौंग बांध के दृश्य दिखाई देते है। किले के पास में रायपुर पैलेस, कुटलेहर जंगल, पिपलु और बगाना भी स्थित है जहां पर्यटक भ्रमण करने जा सकते हैं।
ध्युन्सर महादेव मंदिर तलमेहरा:
यह मंदिर ऊना के बाहिया गांव में स्थित है। किंवदंती है कि पांडवों के परिवार के पुजारी का नाम धयूनसार था जिनका ज्रिक महाभारत में किया गया है। वह पुजारी भगवान शिव के भक्त थे। भगवान शिव ने उनसे प्रसन्न होकर उनको वरदान किया कि अगर कोई भक्त इस मंदिर में सच्चे मन से कुछ मांगेगा तो उसकी सारी मनोकामनांए पूरी हो जाएंगी। पहले इस मंदिर को धयूनसारेश्वर सदाशिव तीर्थ के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे धयूनसार महादेव मंदिर कहा जाने लगा। आज से लगभग 50 साल पहले इस मंदिर को स्वामी आंनद गिरि ने पुनर्निर्मित करवाया था। यह स्वामी उत्तरकाशी के एक महान संत थे। शिवरात्रि के दौरान इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भारी संख्या दर्शन करने के लिए आती है। भगवान की मूर्ति पर दूध और दही चढ़ाया जाता है।
चिंतपूर्णी धाम: चिंतपूर्णी धाम हिमाचल प्रदेश में ऊना जिले के उत्तरी सीमा पर स्थित है। यह मंदिर शिव और शक्ति से जुड़ा है। यह स्थान हिंदुओं के प्रमुख धार्मिक स्थल है और यह 51 शक्ति पीठों में से एक है। हिमाचल की ज्वाला देवी, विंध्याचल की विंध्यवासिनी और सहारनपुर की शाकम्भरी देवी की भांति यह भी एक सिद्ध स्थान है। मान्यता है कि यहां पर माता सती के चरण गिर थे। वर्तमान में उत्तर भारत की नौ देवी यात्रा में चिंतपूर्णी का पांचवा दर्शन होता है वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा में माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी सहारनपुर आदि शामिल हैं।
अम्ब: अम्ब हिमाचल प्रदेश में एक प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है जो ऊना से 32 किमी. की दूरी पर स्थित है। पहले यह जगह जसवाल के राजाओं के बागानों के लिए प्रसिद्ध था। यह जगह धर्मशाला - ऊना - चंड़ीगढ़ रोड़ पर स्थित है। यह जगह बस से अच्छी प्रकार जुड़ी हुई है। 1972 में जिलों के पुर्नगठन के बाद अम्ब को उप-संभागीय मुख्यालय घोषित किया गया था।
कांगड़ा का इतिहास (AS, p.154): कांगड़ा घाटी का प्राचीन नाम त्रिगर्त था। गुप्त काल में यह प्रदेश कर्तृपुर में सम्मिलित था। महाभारत के समय में कांगड़ा प्रदेश का राजा सुशर्मचंद्र था। यह कौरवों का मित्र था। कांगड़ा ज्वालामुखी का मन्दिर तीर्थरूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। कांगड़ा कोट या नगरकोट जहाँ पर यह मन्दिर है, समुद्रतल से 2500 फ़ुट ऊँचा है। यहाँ बाण-गंगा और पाताल गंगा का संगम होता हैं नगरकोट के दुर्ग के भीतर कई प्राचीन मन्दिर हैं। इनमें लक्ष्मी नारायण, अम्बिका और आदिनाथ तीर्थकर के मन्दिर प्रसिद्ध हैं। दुर्ग के भीतर की अपार सम्पत्ति की ख़बर सुनकर ही महमूद गज़नवी ने 1009 ई. में नगरकोट पर आक्रमण किया और नगर को बुरी तरह से लूटा। तत्कालीन इतिहास लेखक अलउतबी ने तारीख़े-यामिनी में लिखा है, कि 'नगरकोट की धनराशि इतनी अधिक थी कि उसको ढोने के लिए अनेक ऊँटों के काफ़िले भी अपर्याप्त थे और न उसे जलयानों से ले [p.155]:जाना सम्भव था। लेखक उसका वर्णन करने में असमर्थ थे और गणितज्ञ उसके मूल्य का अनुमान भी न लगा सकते थें।'
18वीं शती में फ़िरोज़ तुग़लक़ ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा यहाँ के ज्वालामुखी मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। किन्तु लगभग नौं मास तक दुर्ग के घिरे रहने के पश्चात् ही वहाँ के राजा रूपचंद्र ने सुल्तान से सन्धि की वार्ता प्रारम्भ की।
14वीं शती के प्रारम्भ में काँगड़ा नरेश हरिश्चंद्र गुलेर के जंगलों में आख़ेट करता हुआ एक कुएँ में गिर गया। उसके राजधानी में न लौटने पर उसके छोटे भाई को कांगड़ा की गद्दी पर बिठा दिया गया किन्तु हरिश्चंद्र को पास से गुज़रते हुए एक व्यापारी ने कुएँ से निकाल लिया और वह कांगड़ा लौट आया। हरिश्चंद्र का अपने भाई के साथ झगड़ा स्वाभाविक रूप से हो सकता था, किन्तु उसने उदारता और बुद्धिमानी से काम लिया और नए राज्य की नींव डाली, और कांगड़ा पर छोटे भाई को ही राज्य करने दिया। मुग़ल सम्राट अकबर के समय में कांगड़ा नरेश ने उसकी अधीनता स्वीकार कर ली। 1619 ई. में जहाँगीर ने एक वर्ष के घेरे के उपरान्त दुर्ग को हस्तगत कर लिया। वह नूरजहाँ के साथ दो वर्ष पश्चात् कांगड़ा आया, जिसका स्मारक दुर्ग का जहाँगीर दरवाज़ा है। जहाँगीर दरवाज़ा में तीन महराबों को मिला कर एक मुख्य मेहराब बनाया गया है।
कांगड़ा में काफ़ी समय तक मुग़ल फ़ौजदार रहते रहे। मुग़ल राज्य के अन्तिम समय में कांगड़ा नरेश संसार चंद्र हुए, जिन्होंने चित्रकला को बहुत प्रश्रय दिया, जिसके कारण कांगड़ा नाम में एक नई चित्रकला शैली का जन्म हुआ। इस शैली में मुग़ल तथा कांगड़ा की स्थानीय शैलियों का संगम है। इसी प्रकार मुग़ल राज्य के सम्पर्क के फलस्वरूप कांगड़ा के राजकीय रहन-सहन पर भी काफ़ी प्रभाव पड़ा था। नगरकोट के क़िले में जहाँगीर ने एक मस्जिद बनवाई थी, जिसकी अब केवल दीवारें ही शेष हैं। महाराजा रणजीतसिंह द्वार के निकट ही एक सुन्दर स्नानागृह (मुग़ल शैली का हमाम) है, जो शीत या ग्रीष्मकाल दोनों ऋतुओं में काम आता था।[2]
कांगड़ा परिचय: काँगड़ा जिले का भूगोल: काँगड़ा हिमाचल प्रदेश का ऐतिहासिक नगर तथा जिला है; इसका अधिकतर भाग पहाड़ी है। इसके उत्तर और पूर्व में क्रमानुसार लघु हिमालय तथा बृहत् हिमालय की हिमाच्छादित श्रेणियाँ स्थित हैं। पश्चिम में सिवालिक (शिवालिक) तथा दक्षिण में व्यास और सतलज के मध्य की पहाड़ियाँ हैं। बीच में काँगड़ा तथा कुल्लू की सुन्दर उपजाऊ घाटियाँ हैं। काँगड़ा चाय और चावल तथा कुल्लू फलों के लिए प्रसिद्ध है। व्यास (विपासा) नदी उत्तर-पूर्व में रोहतांग से निकलकर पश्चिम में मीर्थल नामक स्थान पर मैदानी भाग में उतरती है। काँगड़ा जिले में कड़ी सर्दी पड़ती है परंतु गर्मी में ऋतु सुहावनी रहती है, इस ऋतु में बहुत से लोग शैलावास के लिए यहाँ आते हैं; जगह-जगह देवस्थान हैं अत: काँगड़ा को देवभूमि के नाम से भी अभिहित किया गया है। हाल ही में लाहुल तथा स्पीत्ती प्रदेश का अलग सीमांत जिला बना दिया गया है और अब काँगड़ा का क्षेत्रफल 4,280 वर्ग मील रह गया है।
काँगड़ा नगर लगभग 2,350 फुट की ऊँचाई पर, पठानकोट से 52 मील पूर्व स्थित है। हिमकिरीट धौलाधार पर्वत तथा काँगड़ा की हरी-भरी घाटी का रमणीक दृश्य यहाँ दृष्टिगोचर होता है। यह नगर बाणगंगा तथा माँझी नदियों के बीच बसा हुआ है। दक्षिण में पुराना किला तथा उत्तर में बृजेश्वरी देवी के मंदिर का सुनहला कलश इस नगर के प्रधान चिह्न हैं। एक ओर पुराना काँकड़ा तथा दूसरी ओर भवन (नया काँगड़ा) की नयी बस्तियाँ हैं। काँगड़ा घाटी रेलवे तथा पठानकोट-कुल्लू और धर्मशाला-होशियारपुर सड़कों द्वारा यातायात की सुविधा प्राप्त है। काँगड़ा पहले नगरकोट के नाम से प्रसिद्ध था और ऐसा कहा जाता है कि इसे राजा सुसर्माचंद ने महाभारत के युद्ध के बाद बसाया था। छठी शताब्दी में नगरकोट जालंधर अथवा त्रिगर्त राज्य की राजधानी था। राजा संसारचंद (18वीं शताब्दी के चतुर्थ भाग में) के राज्यकाल में यहाँ पर कलाकौशल का बोलबाला था। "काँगड़ा कलम" विश्वविख्यात है और चित्रशैली में अनुपम स्थान रखती है। काँगड़ा किले, मंदिर, बासमती चावल तथा कटी नाक की पुन: व्यवस्था और नेत्रचिकित्सा के लिए दूर-दूर तक विख्यात था। 1905 के भूकम्प में नगर बिल्कुल उजड़ गया था, तत्पश्चात् नयी आबादी बसायी गयी। यहाँ पर देवीमंदिर के दर्शन के लिए हजारों यात्री प्रति वर्ष आते हैं तथा नवरात्र में बड़ी चहल-पहल रहती है।
प्राचीन काल में त्रिगर्त नाम से विख्यात काँगड़ा हिमाचल की सबसे खूबसूरत घाटियों में एक है। धौलाधर पर्वत श्रृंखला से आच्छादित यह घाटी इतिहास और सांस्कृतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। एक जमाने में यह शहर चंद्र वंश की राजधानी थी। काँगड़ा का उल्लेख 3500 साल पहले वैदिक युग में मिलता है। पुराण, महाभारत तथा राजतरंगिणी में इस स्थान का जिक्र किया गया है।
काँगड़ा किला: काँगड़ा के शासकों की निशानी यह किला भूमाचंद ने बनवाया था। वाणगंगा नदी के किनारे बना यह किला 350 फीट ऊँचा है। इस किले पर अनेक हमले हुए हैं। सबसे पहले कश्मीर के राजा श्रेष्ठ ने 470 ई. में इस पर हमला किया। सन् 1886 में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया, किले के सामने लक्ष्मीनारायण और आदिनाथ के मंदिर बने हुए हैं। किले के भीतर दो तालाब हैं, एक तालाब को कपूर सागर के नाम से जाना जाता है।
चामुंडा देवी मंदिर: चामुण्डा देवी का मंदिर जिला कांगड़ा हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति के 51 शक्ति पीठों में से एक है। वर्तमान में उत्तर भारत की नौ देवियों में चामुण्डा देवी का दुसरा दर्शन होता है वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा में माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी सहारनपुर आदि शामिल हैं। मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। चामुण्डा देवी का मंदिर समुद्र तल से 1000 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। यह धर्मशाला से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यहां प्रकृति ने अपनी सुंदरता भरपूर मात्रा में प्रदान की है। चामुण्डा देवी मंदिर बंकर नदी के किनारे पर बसा हुआ है। पर्यटकों के लिए यह एक पिकनिक स्पॉट भी है। यहां कि प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी और आकर्षित करता है। चामुण्डा देवी मंदिर मुख्यता माता काली को समर्पित है। असुर चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण माता का नाम चामुण्डा पड़ गया। मान्यता है कि चामुण्डा देवी मंदिर में माता सती के चरण गिरे थे।
बृजेश्वरी देवी मंदिर: यह मंदिर इस क्षेत्र का सबसे लोकप्रिय मंदिर है। कहा जाता है पहले यह मंदिर बहुत समृद्ध था।, इस मंदिर को बहुत बार विदेशी लुटेरों द्वारा लूटा गया। महमूद गजनवी ने 1009 ई. में इस शहर को लूटा और मंदिर को नष्ट कर दिया था। यह मंदिर 1905 ई. में विनाशकारी भूकम्प से पूरी तरह नष्ट हो गया था। सन् 1920 में इसे दोबारा बनवाया गया।
महाराणा प्रताप सागर झील: यह झील व्यास नदी से बनी है। सन् 1960 ई. में व्यास नदी पर एक बांध बनवाया गया और इसे महाराणा प्रताप सागर झील कहा गया। इस झील का पानी 180 से 400 वर्ग कि॰मी॰ के क्षेत्र में फैला है। सन् 1983 ई॰ में इस झील को वन्यजीव अभयारण्य घोषित कर दिया गया। यहाँ लगभग 220 पक्षियों की प्रजातियाँ प्रवास करती हैं। इस बांध को पोंग बांध भी कहा जाता है।
कांगड़ा कला संग्रहालय: कांगड़ा संग्रहालय तिब्बती और बौद्ध कलाकृति के शानदार चमत्कार और उनके समृद्ध इतिहास को बताता है। यह धर्मशाला के बस स्टेशन के पास स्थित है। इस संग्रहालय में आप कई पुराने गहने, दुर्लभ सिक्के यादगार, पेंटिंग, मूर्तियां और मिट्टी के बर्तन जैसी चीज़ें देख सकते हैं।
मसरूर मंदिर: काँगड़ा के दक्षिण से 15 कि॰मी॰ दूर स्थित मसरूर बस्ती समुद्र तल से 800 मीटर की ऊँचाई पर है, इस नगर में 15 शिखर मंदिर है। चट्टानों को काटकर बनाये गये इन मंदिरों का सम्बन्ध दसवीं शताब्दी से है। यह मंदिर इंडो-आर्यन शैली में बना हुआ हैं। इन मंदिरों की तुलना अजंता और एलौरा के मंदिरों से की जाती है। यह मंदिर अति सुन्दर तथा रमणीक है | यहां पर एक सुन्दर बडा सा पानी का तालाब भी है |
करेरी झील: यह झील घने जंगलों से घिरी है। इसकी पृष्ठभूमि में धौलाधर पर्वत श्रृंखलाएँ इसे एक बेहद खूबसूरत स्थान बनाते हैं। करायरी झील इस क्षेत्र में ट्रैकिंग का प्रकाश स्तम्भ है।
सुजानपुर किला: काँगड़ा राज्य की सीमाओं के नजदीक ही सुजानपुर किला है। इस किले को काँगड़ा के राजा अभयचंद ने 1758 ई॰ में बनवाया था।
चिन्मय तपोवन: काँगड़ा से 10 कि.मी. दूर चिन्मय तपोवन सिद्धबाड़ी में स्थित है। इस आश्रम परिसर की स्थापना हाल ही में गीता के व्याख्याता स्वामी चिन्मयानंद ने की थी। इस खूबसूरत स्थान पर हनुमान की एक विशाल मूर्ति स्थापित है, साथ की एक विशाल शिवलिंग भी यहाँ दूर से देखा जा सकता है।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 26.03.2022
References
पालमपुर - धर्मशाला - मैक्लॉडगंज - भागसुनाग - बैजनाथ भ्रमण
पालमपुर (Palampur): कैंप 13.5.1981-15.5.1981
उत्तर प्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर टूर (11.05.1981- 02.06.1981) जारी....
उत्तर प्रदेश, हरयाणा, पंजाब को पार करते हुए 12.5.1981 को हम हिमाचल प्रदेश में आ चुके थे। रात को कांगड़ा जिले में स्थित सुंदर पर्यटन स्थल पालमपुर के टूरिस्ट बंगले में रुकने की व्यवस्था की गयी थी। रहने की काफी अच्छी व्यवस्था थी। शहर में ज्यादा होटल नहीं हैं। यह छोटा सा शहर है। पालमपुर में हमने तीन दिन रुककर आस-पास के क्षेत्रों का भूगोल, इतिहास, वानिकी और जनजीवन का अध्ययन किया।
13.5.1981 पालमपुर (Palampur): आज पालमपुर से धर्मशाला (Dharamshala) गए। रास्ते में चामुंडा देवी मंदिर स्थित है जो शक्ति के 51 शक्ति पीठों में से एक है। धर्मशाला एक अच्छा हिल-स्टेशन है। चामुण्डा देवी मंदिर बंकर नदी के किनारे पर बसा हुआ है। पर्यटकों के लिए यह एक पिकनिक स्पॉट भी है।
धर्मशाला पहुँचने पर याद आया कि मेरा कालेज का सहपाठी मित्र नेमीचंद यहीं दूर संचार विभाग में इंजिनीयर है। फोन किया तो पता लगा कि वह पोल में मिलिट्री एक्सचेंज में है। उसने दूसरे दिन शाम को पालमपुर आने का वादा किया।
धर्मशाला से आगे ऊपर भागसुनाग का प्रसिद्ध प्राचीन शिव मंदिर देखने गए। मैक्लोडगंज से भागसु शहर सिर्फ 3 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। यहाँ पर ज्यादातर तिब्बती शरणार्थी ही रहते हैं। भाग-सुनाग से नीचे ही रास्ते में मैक्लॉडगंज गाँव स्थित है। यहाँ पर दलाई लामा निवास करते हैं। देखे गए स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
बनोई रिजर्व फोंरेस्ट (Banoi Reserve Forest), तहसील जावली, जिला कांगड़ा, का निरीक्षण किया। यह 1919 में जल प्रदाय के लिए केचमेंट उपलब्ध कराने हेतु 138.33 हेक्टर रिजर्व वन बनाया गया था। समुद्र तल से यह 6000-7000 फीट ऊँचाई पर स्थित है यहाँ देवदार और ओक के वन हैं। यह स्थान पर्यटन महत्व का है।
धर्मशाला (Dharamshala) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। धर्मशाला राज्य की शीतकालीन राजधानी है। यह कांगड़ा नगर से उत्तर में 16 किमी की दूरी पर स्थित है। धर्मशाला के मैक्लॉडगंज उपनगर में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के मुख्यालय हैं, और इस कारण यह दलाई लामा का निवास स्थल तथा निर्वासित तिब्बती सरकार की राजधानी है।
धर्मशाला का इतिहास: काँगड़ा क्षेत्र में ब्रिटिश राज के आगमन से पहले धर्मशाला और इसके आस पास के क्षेत्रों में दो सहस्राब्दियों तक कटोच राजवंश का शासन था। 1810 में महाराजा रणजीत सिंह तथा कटोच राजा संसारचन्द्र कटोच के मध्य हुई ज्वालामुखी की संधि के बाद कटोच केवल काँगड़ा क्षेत्र में स्थानीय जागीरदार रह गए। 1848 में क्षेत्र पर अंग्रेज़ों ने कब्ज़ा कर लिया था। 1849 में कांगड़ा जिले के अंदर एक फौजी छावनी के लिए धौलाधार पर्वत की ढलानों पर एक स्थान को चुना गया, जहां एक हिन्दू धर्मशाला स्थित थी। इसीलिये यह स्थान धर्मशाला नाम से जाना जाने लगा।
धर्मशाला का नगर वर्ष 1849 में कांगड़ा में स्थित सैन्य छावनी के लिए अस्तित्व में आया। वर्ष 1855 में धर्मशाला को कांगड़ा जिले का मुख्यालय घोषित किया गया था। 1896 में धर्मशाला में बिजली भी लोगों को मिलनी शुरू हुई थी। तत्पश्चात नगर में कार्यालयों के विकास के अतिरिक्त व्यापार व वाणिज्य, सार्वजनिक संस्थान, पर्यटन सुविधाओं तथा परिवहन गतिविधयों में भी उन्नति हई। वर्ष 1905 व 1986 के भूकम्पों से नगर का बहुत नुकसान हुआ। 1960 से तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा का मुख्यालय भी धर्मशाला में स्थित है।
भूगोल: धौलाधार के उभरे हुए खण्ड पर स्थित इस नगर से सम्पूर्ण कांगड़ा घाटी दिखाई पड़ती है। धर्मशाला का उत्तरी भाग हरे जंगलों से घिरा हुआ है, पश्चिम में ढलानदार कृषि के खेत हैं, तथा पूर्व व दक्षिण में धौलाधार की सम्मोहक घाटियों के शीर्ष पर विकास हुआ है। शहर मुख्य जीवनदायिनी सड़कों के साथ-साथ तेजी से फैल रहा है। पहाड़ की तरफ भौतिक-भौगोलिक रूकावटों के कारण नगर का विकास सामान्यतः घाटी की तरफ हो रहा है। भूगर्भ शास्त्रानुसार यह नगर भूकम्प सम्बन्धी पट्टिका संख्या-4 की दोषपूर्ण रेखा के निकट पड़ता है, जो भूकम्प प्रवृत्तियुक्त क्षेत्र है। हिमालय के बीच में धौलाधार पर्वत श्रंखला के धरातल पर स्थित सामान्यतः इसकी तलछटी चट्टानें है। ऊपरी तह संगिठत रेत, बाढ़ की जमी हुई मिट्टी व गोल चिकने कंकरो का मिश्रण है, जो चट्टानों के आधार पर टिकी है ।
पर्यटन: धर्मशाला तिब्बती शरणार्थियों का निवास-स्थान है। यह नगर ऐतिहासिक डल झील, खनियारा व कंजार महादेव मेले के लिए जाना जाता है। भागसूनाग, कुणाल पत्थरी व चिन्मन्या जैसे हिन्दुओं के मन्दिर यहां या नगर के निकट स्थित हैं। चामुण्डा देवी, कांगडा का बृजेशवरी, ज्वालामुखी व चिन्तपूर्णी मंदिर भी नगर के पड़ोस में स्थित है। उपरोक्त धार्मिक स्थलों के अतिरिक्त यह पालमपुर, शोभा सिंह आर्ट गैलरी, अन्दरेटा व वैजनाथ के पर्यटन स्थलों के लिए भी आधार शिविर का कार्य करता है।
मैक्लॉडगंज (McLeod Ganj), जिसे मकलोडगंज, मैक्लोडगंज या मैकलोड गंज भी लिखा जाता है, भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित धर्मशाला नगर का एक उपनगर है। यह धर्मशाला से नौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसमें चीन के तिब्बत पर कब्ज़े के बाद आए कई विस्थापित तिब्बतियों का निवास है, जिस कारणवश इसे कभी-कभी छोटा ल्हासा (Little Lhasa), या धर्मशाला और ल्हासा मिलाकर धासा (Dhasa), भी पुकारा जाता है। यहाँ तिब्बत की निर्वासन सरकार का मुख्यालय भी है। यहाँ दलाई लामा भी विराजमान हैं।[1][2][3]
मैक्लॉडगंज नामकरण: ब्रिटिश राज के काल में पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर, "सर डोनाल्ड फ्रील मैक्लॉड" (Sir Donald Friell McLeod), पर रखा गया है। "गंज" हिन्दी का शब्द है जिसका सामान्य अर्थ "पड़ोस" होता है। समुद्र तल से इसकी औसत ऊंचाई 2,082 मीटर (6,831 फीट) है तथा यह धौलाधार पर्वतश्रेणी में स्थित है, जिसका उच्चतम शिखर, हनुमान टिब्बा, लगभग 5,639 मीटर (18,500 फीट) ऊंचा है।
मैक्लॉडगंज वह जगह है, जहां पर 1959 में बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा अपने हजारों अनुयाइयों के साथ तिब्बत से आकर बसे थे। तिब्बत की राजधानी ल्हासा की तर्ज पर इस जगह को मिनी ल्हासा भी कहा जाता है। यहां की सबसे मशहूर जगह दलाई लामा का मंदिर और उस से सटी नामग्याल मोनेस्ट्री है।
धर्मशाला के दो हिस्से हैं अपर धर्मशाला और लोअर धर्मशाला। निचला हिस्सा धर्मशाला और ऊपरी भाग मैक्लॉडगंज कहलाता है। हरे-भरे पहाड़ और पालमपुर की ओर चाय के बागान व हरियाले मैदान बेहद खूबसूरत है। बौद्ध धर्म को करीब से जानने के इच्छुक लोगों के लिए मैक्लॉडगंज सर्वोत्तम जगह है।
मनमोहक पर्यटक स्थल : इसके अलावा मैक्लॉडगंज में पर्वत श्रृंखला की ऊंची-नीची चोटियां और उनके ऊपर जमकर पिघल चुकी बर्फ के निशान और चट्टानों पर खड़े चीड़ और देवदार के हरे-भरे पेड़ हर किसी के मन को अपनी ओर खींचते हैं। अपनी इस खूबसूरती की वजह से यहां की वादियों के मनमोहक दृश्य पर्यटकों के जेहन में हमेशा के लिए बस जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से नौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित मशहूर पर्यटक स्थल मैकलॉडगंज, जहां बारिश की फुहार पड़ती है तो प्रदेश का हर हिस्सा जैसे खिल उठता है और मन अपने आप ही प्रदेश की सैर करने को मचलने लगता है। यहां घूमने आने के लिए कम से कम दो-तीन दिन का समय निकालकर जरूर आएं, ताकि आप प्रकृति की गोद में बैठकर शांति का अनुभव कर सकें। दूर-दूर तक फैली हरियाली और पहाड़ियों के बीच बने पतले, ऊंचे-नीचे व घुमावदार रास्ते ट्रैकिंग के लिए आकर्षित करते हैं।
दलाई लामा मंदिर: यहां का सबसे प्रमुख आकर्षण दलाई लामा का मंदिर है जहां शाक्य मुनि, अवलोकितेश्वर एवं पद्मसंभव की मूर्तियां विराजमान हैं। नामग्याल मोनेस्ट्री भी मशहूर है। यहां भारत और तिब्बत की संस्कृतियों का संगम देखने को मिलता है। तिब्बती संस्कृति और सभ्यता को प्रदर्शित करता एक पुस्तकालय भी स्थित है। मार्च से जुलाई के बीच यहां ज्यादा संख्या में सैलानी आते हैं। इन दिनों यहां का मौसम बेहद सुकून भरा होता है। दलाई लामा के मंदिर से सनसेट का नजारा देखना अपने आप में अद्भूत होता है। यह दृश्य देखने के लिए लोग दूर-दूर से यहां आते हैं। यहां आने वाले सैलानी तो यहां शाम के समय तक जरूर रुकते हैं।
डल झील: मैक्लॉडगंज से थोड़ा नीचे उतरने पर घने पेड़ों से घिरे 1863 में बने सेंट जॉन चर्च की शांति आपको बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। यहां से नड्डी की तरफ बढ़ने पर रास्ते में पहाड़ों से घिरी डल झील मिलती है। यह एक पिकनिक स्पॉट भी है, जहां आप बोटिंग के मजे ले सकते हैं। यहां से ऊपर की ओर है नड्डी, जहां से आप हिमालय की धौलाधार पर्वत श्रृंखला को अपलक देखना पसंद करेंगे।
भाग्सूनाग (Bhagsunag): हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला के नगर में मैकलॉडगंज के करीब स्थित भागसू एक सुंदर पर्यटन स्थान है,जोकि अपने प्राचीन मंदिर और सुरम्य झरने के लिए जाना जाता है। भागसुनाग मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मैक्लोडगंज से भागसु शहर सिर्फ 3 किलोमीटर की दूरी पर पड़ता है। भागसु शहर में जो भी पर्यटक आता है वह भागसुनाग मंदिर घूमे बिना यहां से नहीं जाता है। शिव जी का यह मंदिर बहुत प्राचीन है और हर साल यहां भक्तों का भारी जमावड़ा लगता है। भागसुनाग मंदिर के साथ आप यहां भागसुनाग वॉटरफॉल के मजे भी ले सकते हैं। भागसुनाग वॉटरफॉल में बहता पानी इतना शीतल है कि यह लोगों के दिलों में बस जाता है। भागसु शहर घूमते समय आपको तिब्बतन म्यूजियम भी जरूर जाना चाहिए।
इतिहास: भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार नाग देवता का राजा भागसू के साथ युद्ध हुआ। युद्ध का कारण यह था कि राजा भागसू ने नागदल झील नामक पवित्र झील से पानी चुरा लिया था। राजा भागसू हार गए और अंततः उन्हें क्षमा कर दिया गया, और साइट को भागसू नाग के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। [4]
18वीं शताब्दी की शुरुआत में, गोरखा अंग्रेजों के साथ बसने के लिए यहां आए, और उन्होंने 1815 में ऐतिहासिक पहली गोरखा राइफल्स (द मलौन रेजिमेंट) का गठन किया। भागसू पहली गोरखा राइफल्स (द मलौन रेजिमेंट) का मुख्यालय भी है। भागसूनाग मंदिर एक 5000 साल पुराना मंदिर है। [5]
प्राचीन भागसूनाग मंदिर: देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश के मनोहारी पर्यटक स्थल धर्मशाला के ऊपरी हिस्से मैक्लॉडगंज से भी करीब दो किलोमीटर ऊपर है प्राचीन मंदिर भागसूनाग। मेकलॉडगंज के आस-पास बने मंदिर लोगों को खासे आकर्षित करते हैं। यहां से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर भागसूनाग मंदिर स्थित है। यह भव्य तो नहीं, लेकिन प्रसिद्ध जरूर है। यहां के स्थानीय लोग दिखावे में यकीन नहीं करते, इसलिए इसे ज्यादा चमकाया नहीं गया। कई दूसरे मंदिर भी हैं जहां सैलानी दर्शन करने के लिए जरूर आते हैं। मंदिर से बायीं ओर कुछ ही दूरी पर डल झील है। झरने से आने वाला पानी यहां बनाए गए एक साफ-सुथरे स्विमिंग पूल मे इकट्ठा कर लिया जाता है, जिसमें लोग स्नान भी करते हैं। इस मंदिर से दायीं ओर आगे जाने पर वह झरना मिलता है। रोमांच के शौकीन सैलानी यहां तक जरूर जाते हैं।
खूबसूरत भागसूनाग झरना: मंदिर से कुछ ही दूरी पर भागसूनाग झरना स्थित है। इसका पानी एकदम निर्मल और ठंडक भरा होता है। यहां लोग घंटों पत्थरों पर बैठकर झरने की फुहारों का आनंद लेते हैं। बड़ों से ज्यादा यहां बच्चों का मन लगता है। पहाड़ी रास्तों पर आप बाइकिंग का मजा लेना चाहते हैं तो आपको यहां किराए पर मोटर साइकिल मिल जाएगी।
14.5.1981: पालमपुर (Palampur)
आज पालमपुर और धर्मशाला के बीच रास्ते में पड़ने वाले मलान (Malan) में चीड़ वनों का अध्ययन किया और वहीँ चीड़ के पेड़ों से तारपीन बनाने में उपयोग की जाने वाली राल या रेजिन निकालने के लिए प्रयोग की जा रही रेजिन टेपिंग विधि का भी अध्ययन किया। यह स्थान कांगड़ा जिले की नगरोटा बगवाँ तहसील में स्थित है। चीड़ के पेड़ों से रेजिन निकालने का काम विभागीय रूप से वर्ष 1896-97 से शुरू किया गया था। यहाँ से रेजिन जालोर रेजिन फैक्ट्री को भेजा जाता था परंतु स्वतंत्रता के बाद यह खुले बाजार में बेचा जाने लगा। संयुक्त पंजाब प्रांत से हिमाचल के अलग पुनर्गठन होने पर प्रदेश की फैक्ट्रियों को प्रदाय किया जाने लगा।
पाइन रेजिन टेपिंग विधि: चीड़ के पेड़ से पाइन राल (Pine Resin) के विदोहन की प्रक्रिया को टैपिंग कहा जाता है। सबसे पहले, चीड़ के पेड़ की छाल को ट्रंक के एक हिस्से से हटा दिया जाता है। सैपवुड में एक अनुदैर्ध्य नाली बनाई जाती है, और पार्श्व चैनलों को कई वार्षिक छल्ले की गहराई तक काट दिया जाता है। नीचे एक फ़नल के रूप में लटका हुआ रिसीवर है। इसके सामने एक धातु की प्लेट लगाई जाती है, जिसके साथ पाइन राल फ़नल में बहती है। राल इकट्ठा करने वाला व्यक्ति साइट के चारों ओर घूमता है, भरे हुए फ़नल को हटाता है, और नए स्थापित करता है। तैयार राल बैरल में डाला जाता है। समय-समय पर पेड़ों पर लगे घावों को फिर से भरना पड़ता है। राल कठोर हो जाता है। ऐसा माना जाता है कि पेड़ को बिना नुकसान पहुंचाए 1-2 किलो चीड़ की राल ली जा सकती है। साल-दर-साल उन्हीं पेड़ों का दोहन उन्हें कमजोर करता है, जिससे बीमारियां होती हैं। इसलिये एक निश्चित अंतराल के बाद ही इन पेड़ों का दुबारा दोहन किया जाता है।
पाइन राल से तारपीन प्राप्त करने के लिए इसको शुष्क आसवन या भाप आसवन द्वारा आसवित किया जाता है। पाइन राल और सल्फर को क्यूब में लोड किया जाता है। गर्म होने पर, राल के वाष्पशील घटक - टेरपेन्स - वाष्पित हो जाते हैं। ठंडा करके, वे तारपीन में संघनित हो जाते हैं। शेष ठोस भाग कांच का द्रव्यमान होता है यह रोसिन होता है। शेष रसिन को आगे संसाधित किया जाता है। तारपीन वार्निश और पेंट के लिए एक उत्कृष्ट विलायक है। तारपीन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा दवाओं के उत्पादन में जाता है। चिकित्सा में, राल से प्राप्त केवल तारपीन का उपयोग किया जाता है।
रसिन का उपयोग न केवल तार वाले वाद्ययंत्रों के धनुष को रगड़ने के लिए किया जाता है। इसका उपयोग टिनिंग और सोल्डरिंग में, कृत्रिम रबर और रबर के उत्पादन में, प्लास्टिक, कागज और कार्डबोर्ड, साबुन और कई अन्य महत्वपूर्ण मामलों में किया जाता है।
परोर सहकारी वन समिति: पालमपुर वन मंडल के अंतर्गत परोर (Paror) सहकारी वन समिति का अध्ययन किया। यह पालमपुर तहसील में स्थित है। इस तरह की 19 सहकारी वन समितिया पालमपुर वन मंडल में कार्यरत हैं। ये समितियाँ वनों का संरक्षण और संवर्धन सुनिश्चित करती है और चीड़ के वृक्षों से इमारती लकड़ी और रेजिन का विदोहन करती हैं। समितियों की कार्यप्रणाली और परिणाम उत्साहवर्धक नहीं हैं।
15.5.1981: पालमपुर (Palampur)
आज भारत-जर्मन सहयोग से स्थापित नर्सरी देखने गए। भारत-जर्मन सहयोग से स्थापित यह दस करोड़ रुपये लागत की एकीकृत परियोजना है जिसमें कृषि, पशुपालन और वानिकी सम्मिलित हैं। यह परियोजना 18.07.1980 को शुरू हुई थी। परियोजना का उद्देश्य हिमालय पर्वत में पर्यावरण संतुलन कायम करना, वैकल्पिक ऊर्जा के स्रोत उपलब्ध कराना और स्थानीय लोगों को वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध कराना है। हम उस जगह पर गए जहाँ वृक्षारोपण किया गया है। इसके लिए हमें सड़क से आगे करीब 2 किमी पहाड़ी यात्रा करनी पड़ी। वृक्षारोपण के लिए ऐसी प्रजातियों का चयन किया जाता है जो भूमि के कटाव को रोकती हैं और स्थानीय लोगों को जलाऊ लकड़ी भी उपलब्ध कराती हैं। वहीँ पास ही पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय स्थित है।
पालमपुर कृषि विश्वविद्यालय: चौधरी सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, पालमपुर में स्थित एक कृषि विश्वविद्यालय है। इसकी स्थापना नवम्बर 1978 में हुई थी। इस विश्वविद्यालय का ध्यानबिन्दु मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्रों से सम्बन्धित कृषि पर है। यह विश्वविद्यालय भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद तथा राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड से मान्यताप्राप्त है। इस शहर में दूध की बहुत बड़ी समस्या है। दूध यहाँ पर 'भारत-न्यूजीलैंड' योजना के अंतर्गत कृषि विश्वविद्यालय के ट्रकों द्वारा वितरित किया जाता है।
जनजीवन: रास्ते में हमने देखा कि यहाँ बहुत बड़े गाँव नहीं हैं। यहाँ छोटे-छोटे गाँव हैं। यहाँ ज्यादा जनसंख्या में राजपूत हैं। औरतें काफी रंगीन कपड़े पहनती हैं। घर ज्यादातर कच्चे हैं परन्तु साफ़ सुथरे हैं। यहाँ के लोग बड़े शांतिपूर्ण हैं। कहीं किसी प्रकार का झगड़ा नजर नहीं आता।
बैजनाथ शिव मंदिर: पालमपुर शहर से 16 किमी की दूरी पर बैजनाथ पड़ता है जहाँ बैजनाथ का प्रसिद्ध शिव मंदिर है। यह आज से दो हजार वर्ष पूर्व पांडवों का बनाया हुआ माना जाता है। नागर शैली में बने इस शिव मंदिर को 1204 ई. में आहुक और मन्युक नामक दो स्थानीय व्यापारियों ने बनवाया था। यह वैद्यनाथ के रूप में शिव और वीरभद्र को समर्पित है। बैजनाथ शिव मंदिर के शिलालेखों से हमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण अधिकृत जानकारी मिलती है। बैजनाथ शिव मंदिर का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
मेरे मित्र नेमीचंद आज (14.5.1981) दो बजे मिलने आये और करीब दो-ढाई घंटे मेरे साथ रहे तथा पुराणी यादें ताजा की। शाम को न्यू गिल कैफे गए जो टूरिस्ट बंगले से 1 किमी आगे पड़ता है। वहाँ एक कैफे है और पार्क है। एक नहर बहती है। वहाँ पर एक बैंच पर बैठकर सामने के दृश्य का अवलोकन किया। सामने बड़ी घाटी थी और उसके पार पहाड़ दिख रहे थे। ये पहाड़ हरे-भरे थे और इनकी चोटियां बर्फ से ढकी हुई थी। ऊपर बादल बरस रहे थे जो उसी बर्फ से बने थे। दूर-दूर तक छोटे-छोटे गाँव दिखाई दे रहे थे। दो घंटे वहाँ बैठकर, सुहाने दृश्य का आनंद लेकर हम टूरिस्ट बंगला लौट आये।
पालमपुर में शहर के बीच बनी लड़की की विशाल मूर्ती है जिसके हाथ में सांप है और सांप के मुँह से फव्वारा निकल रहा है। रात के समय प्रकाश में फव्वारा जब उसके वक्ष-स्थल पर पानी गिराता है तो मनमोहक दृश्य उपस्थित होता है।
हिमाचल प्रदेश का भ्रमण आज पूरा हो गया इसलिये आगे पालमपुर के मुख्य आकर्षण और इस प्रदेश के बारे में संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है।
पालमपुर परिचय : पालमपुर (Palampur) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित एक नगर है। पालमपुर को इसका नाम पुलम शब्द से प्राप्त हुआ है जिसका मतलब होता है प्रचुर मात्रा में पानी। यह एक चीड़ के वृक्षों से ढका हुआ और झरनों से भरपूर, हिम से ढके धौलाधार पर्वतों के बीच स्थित एक हिल स्टेशन और पर्यटक स्थल है। यहाँ सुंदर चाय बागान हैं। पर्यटन के लिए यहाँ अनेक स्थल हैं यथा - बैजनाथ शिव मंदिर, कलाकारों का गाँव अन्द्रेत्ता, सौरभ वन विहार, शोभा सिंह आर्ट गैलरी, ताशी जोंग मठ, शेरब्लिंग के विशाल बौद्ध विहार, चामुंडा देवी मंदिर, नेवगल खाड, अल्–हिलाल, बुंदलामाता मंदिर, धौलाधार राष्ट्रीय उद्यान आदि। पर्यटन के साथ-साथ पालमपुर में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद का अनुसंधान केंद्र, हिमालयन जैवसंसाधन प्रौद्योगिकी संस्थान, चौधरी सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय, श्री साई यूनिवर्सिटी, पशु चिकित्सालय पालमपुर होलटा, शहीद कप्तान विक्रम बत्रा डिग्री कोलेज जैसे शिशक्षण संस्थानों के कारण भी देश विदेश के विद्यार्थियों के लिए पालमपुर शिक्षा के क्षेत्र में मुख्य आकर्षण का केंद्र बनता जा रहा है।
पालमपुर शहर में कई नदियाँ बहती हैं इसीलिए यह शहर पानी और हरियाली के अद्भुत संगम के लिए भी जाना-जाता है। राजसी धौलाधार रेंजों के बीच स्थित पालमपुर अपने चाय बागानों और चाय की अच्छी गुणवत्ता के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध है। पालमपुर को पहली बार अंग्रेजों द्वारा देखा गया था जिसके बाद इसे एक व्यापार और वाणिज्य के केंद्र के रूप में बदल दिया गया। इस शहर में स्थित विक्टोरियन शैली की हवेली और महल बेहद खूबसूरत नज़र आते हैं।
पालमपुर का इतिहास: पालमपुर के इतिहास पर नजर डाले तो पता चलता है कि पालमपुर कभी जालंधर (त्रिगर्त) साम्राज्य का हिस्सा था। कांगड़ा घाटी का प्राचीन नाम त्रिगर्त था। गुप्त काल में यह प्रदेश कर्तृपुर में सम्मिलित था। महाभारत के समय में कांगड़ा प्रदेश का राजा सुशर्मचंद्र था। यह कौरवों का मित्र था। कांगड़ा ज्वालामुखी का मन्दिर तीर्थरूप में दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। पालमपुर महाराजा रणजीत सिंह के राज्य का एक हिस्सा था और बाद में यह ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया था। ब्रिटिश सरकार ने इसको एक व्यापार और वाणिज्य के केंद्र के रूप में परिवर्तित कर दिया था।
बैजनाथ शिव मंदिर
बैजनाथ मंदिर बैजनाथ में स्थित है जो पालमपुर शहर से 16 किमी की दूरी पर है। नागर शैली में बना यह शिव मंदिर है। इसे 1204 ईस्वी में आहुक और मन्युक नामक दो स्थानीय व्यापारियों ने बनवाया था। यह वैद्यनाथ (चिकित्सकों के प्रभु) के रूप में भगवान शिव और वीरभद्र को समर्पित है। मंदिर के गर्भगृह में शिवलिंग है। बाहरी दीवारों पर अनेकों चित्रों की नक्काशी हुई है। मंदिर के बरामदे पर शिलालेख द्वारा मंदिर के निर्माण से पहले शिव के अस्तित्व का संकेत मिलता है। बैजनाथ शिव मंदिर के शिलालेखों से हमें भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण अधिकृत जानकारी मिलती है।
बैजनाथ शिव मंदिर के शिलालेख : मंदिर के मुख्य कक्ष में शिला-फलक चट्टान पर नक्काशित दो लंबे शिलालेख हैं। ये शिलालेख शारदा लिपि में संस्कृत और ताकरी लिपि में स्थानीय बोली पहाड़ी का उपयोग करके लिखे गए हैं। ये शिलालेख भारतीय राष्ट्रीय पंचांग (शक संवत) वर्ष 1126 (यानी 1204 ईस्वी) में कीरग्राम (वर्तमान बैजनाथ) में रहने वाले सिद्ध नामक व्यापारी के पुत्र आहुक और मन्युक नामक दो मंदिर निर्माता व्यापारियों का विवरण देते हैं। प्रलंब नामक गाँव राजनक की माता लक्षणा द्वारा मंदिर को दान में देने का उल्लेख है। बैजनाथ के पास ही स्थित नवग्राम (वर्तमान नौरी नामक गाँव आहुक और मन्युक द्वारा मंदिर को दान में देने का उल्लेख है। [6]
मंदिर के बरामदे में मंडप की दीवारों पर लगाये गए ये दो शिलालेख बताते हैं कि बिन्दुक नदी (वर्तमान बिनवा नदी) के किनारे स्थित कीरग्राम (वर्तमान बैजनाथ) त्रिगर्त राज्य का भाग था। त्रिगर्त राज्य राजा जयचंद्र के अधीन, रवी और सतलज नदियों के बीच स्थित था जिसमें वर्तमान कांगड़ा तथा जलंधर जिले सम्मिलित थे। कीरग्राम का राजनक (सरदार/मुखिया) लक्ष्मणचन्द्र था जो राजा जयचंद्र की माता का संबंधी था। इन शिलालेखों में लक्ष्मणचन्द्र की वंशावली दी गई है। [7] इसमें भगवान शिव और वीरभद्र की प्रशंसा, मंदिर निर्माण के समय के शासक राजा जय चन्द्र का नाम, वास्तुकारों के नामों की सूची और दाता व्यापारियों के नाम भी शामिल हैं। एक अन्य शिलालेख में कांगड़ा जिले के पुराने नाम - नगरकोट का उल्लेख है।[8]
बैजनाथ शिव मंदिर में प्रतिमाएँ: मंदिर की दीवारों पर कई प्रतिमाएँ बनाई गई हैं। इनमें से कुछ मुर्तियाँ एवं प्रतिमाएं वर्तमान मंदिर से पहले बनी हुई हैं। मंदिर में यह मुर्तियाँ एवं प्रतिमाएँ हैं: भगवान गणेश, भगवान हरिहर (आधा भगवान विष्णु और आधा भगवान शिव), कल्याणसुन्दर (भगवान शिव और देवी पार्वती की शादी) और भगवान शिव द्वारा असुर अन्धक की हार।
बैजनाथ शिव मंदिर के शिलालेख में शिव के साथ वीरभद्र की स्तुति की गई है और ये दोनों ही जाटों के पूर्वज माने गए हैं। दलीपसिंह अहलावत (p.103) ने राजा वीरभद्र का उल्लेख किया है।...पुरुवंशी राजा वीरभद्र हरद्वार के निकट तलखापुर का राजा था। राजा वीरभद्र शिवजी का अनुयायी था। वीरभद्र की वंशावली राणा धौलपुर जाट नरेश के राजवंश इतिहास से ली गई है जो निम्नलिखित हैं। राजा वीरभद्र के 5 पुत्र और 2 पौत्रों से जो जाटवंश चले (जाट इतिहास पृ० 83 लेखक लेफ्टिनेंट रामसरूप जून) - नहुष → संयाति → वीरभद्र → (1) पौनभद्र (पौनिया या पूनिया गोत्र) (2) कल्हनभद्र (कल्हन गोत्र) (3) अतिसुरभद्र (अंजना गोत्र) (4) जखभद्र (जाखड़ गोत्र) (5) ब्रह्मभद्र (भिमरौलिया गोत्र) (6) दहीभद्र (दहिया गोत्र)
पालमपुर के समीप 5 किलोमीटर की दूरी पर चांदपुर गांव में प्राचीन जखणी माता मंदिर होने से जखभद्र के राज्य का अस्तित्व इस भू-भाग पर कभी होने का प्रमाण मिलता है। जखणी माता मंदिर के बारे में ऐतिहासिक जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाई परंतु स्थानीय रूप से कुछ जानकारी उपलब्ध हो पाई है जो आगे दी गई है।
जखणी माता मंदिर: पालमपुर के समीप 5 किलोमीटर की दूरी पर चांदपुर गांव के सबसे ऊपर पहाड़ी पर प्राचीन जखनी माता मंदिर स्थित है। यहां से धौलाधार पर्वत श्रंखला, दूर दूर तक फैली हरी-भरी घाटियां और गांव का शानदार दृश्य दिखाई देता है। मंदिर के बारे में कहा जाता है कि माता जखणी की प्रतिमा लगभग 450 वर्ष पूर्व स्थापित की गई थी। उस समय यहां केवल एक छोटा सा मंदिर ही होता था। लेकिन अब इसे विस्तृत कर दिया गया है। स्थानीय लोगों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण भरमौर से गद्दी जाति के एक परिवार ने किया है। यह परिवार भरमौर से यहां आकर रहने लगा और जखनी माता इस परिवार की कुलदेवी थी। इस परिवार ने ही भरमौर से इस देवी को लाकर बसाया। गद्दी बोली में जख शब्द का प्रयोग देवता के लिए किया जाता है। देवी के लिए श्रद्धालुओं में इस शब्द से जखणी का रूप लिया जिसका अर्थ है- देवी।
भारमौर (AS, p.665), चंबा जिला, हि.प्र. में स्थित है। इस स्थान पर प्राय: 1200 वर्ष प्राचीन कई मंदिर हैं| ये शिखर सहित हैं तथा प्राचीन वास्तु के अच्छे उदाहरण है।
चाय के बागान : पालमपुर की यात्रा करने वाले पर्यटकों के लिये चाय के बागान प्रमुख आकर्षण हैं। शहर के विशाल चाय बागानों के कारण पालमपुर उत्तर पश्चिमी भारत की चाय राजधानी के रूप में जाना जाता है। कई एकड़ भूमि में फैले हुए ये चाय के बागान इस क्षेत्र के अनेक स्थानीय लोगों की जीविका का साधन हैं। इस क्षेत्र में चाय बागान का प्रारंभ 19 वीं सदी के मध्य में डॉ. जेमिसन, जो उत्तर - पश्चिम सीमांत प्रांत में बॉटनिकल गार्डन के अधीक्षक थे, के द्वारा किया गया। डॉ. जेमिसन ने 1849 में अल्मोड़ा से चाय की झाड़ी की शुरुआत की थी। चाय के बागानों की ख्याति के कारण पालमपुर का नाम अंतर्राष्ट्रीय नक्शे में 1883 में शामिल किया गया। यहां पर पैदा होने वाली चाय की किस्म कांगड़ा चाय सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। यह चाय सिर्फ इसी इलाके में होती है और बाजार में दरबारी, बागेश्वरी, बहार और मल्हार के नाम से बेची जाती है। चाय के सभी ब्रांडों के नाम संगीत के राग पर आधारित हैं। [9]
ज्वालामुखी : ज्वालामुखी (Jawalamukhi) भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य के काँगड़ा ज़िले में स्थित एक नगर है। यहाँ एक शक्ति पीठ स्थित है। हरिद्वार की तरह यहाँ भी वंशावली दर्ज करने का सिस्टम है। ज्वालाजी मंदिर को ज्वालामुखी या ज्वाला देवी के नाम से भी जाना जाता है। ज्वालाजी मंदिर हिमाचल प्रदेश की कांगड़ा घाटी के दक्षिण में 30 किमी और धर्मशाला से 56 किमी की दूरी पर स्थित है। ज्वालाजी मंदिर हिंदू देवी ज्वालामुखी को समर्पित है। कांगड़ा की घाटियों में, ज्वाला देवी मंदिर की नौ अनन्त ज्वालाएं जलती हैं, जो पूरे भारत के हिंदू तीर्थयात्रियों को आकर्षित करती हैं। मंदिर की नौ अनन्त ज्वालाओं में उनके निवास के कारण, उन्हें ज्वलंत देवी के रूप में भी जाना जाता है। मंदिर के अंदर माता की नौ ज्योतियां है जिन्हें, महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका के नाम से जाना। यह एक ऐसा अद्भुत मंदिर है जिसमें भगवान की कोई मूर्ति नहीं है। ऐसा माना जाता है कि देवी मंदिर की पवित्र लपटों में रहती हैं, जो बाहर से बिना ईंधन के दिन-रात चमत्कारिक रूप से जलती हैं। ऐतिहासिक रूप से, ज्वाला जी को समर्पित मंदिर में माँ सती की जीभ गिरी थी | इस मंदिर में माता के दर्शन ज्योति रूप में होते है। ज्वालामुखी मंदिर के समीप में ही बाबा गोरा नाथ का मंदिर है। जिसे गोरख डिब्बी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद ने करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया।
मसरूर रॉक कट मंदिर: मसरूर मंदिर मसरूर रॉक कट मंदिर काँगड़ा जिले में स्थित एक जटिल मंदिर है, जो कांगड़ा शहर से 40 किलोमीटर दूर पश्चिम में है। यह अब ‘ठाकुरवाड़ा’ के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है “वैष्णव मंदिर। यह शास्त्रीय भारतीय वास्तुकला शैली की शिखर (स्थापना का टॉवर) शैली में, पत्थर के चट्टानों के कालीन मंदिरों का एक परिसर है, जो कि कला इतिहासकारों द्वारा 6-8 वीं शताब्दियों तक दर्ज किया गया था। भारत में कई जगह हैं जहां रॉक-कट स्ट्रक्चर मौजूद हैं परन्तु ऐसा एक वास्तुशिल्प मंदिर उत्तरी भाग के लिए अद्वितीय है भारत के पश्चिमी और दक्षिणी में इस इमारत के सामने मसरूर झील है, जिसमे मंदिर का प्रतिबिम्ब दिखता है। माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों द्वारा अपने अज्ञातवास के दोरान किया था। कहा जाता है कि मंदिरों के सामने झील को पांडवों ने अपनी पत्नी द्रोपदी के लिए बनवाया गया था। कांगड़ा जिला में चट्टान को काट कर पहाड़ की चोटी पर बने इन मंदिरों को सर्वप्रथम 1913 में एक अंग्रेज एचएल स्टलबर्थ ने खोजा था। यहां कुल 15 मंदिर समूह हैं। मुख्य मंदिर को ठाकुरद्वारा कहा जाता है और इसमें तीन राम, लक्ष्मण और सीता की पत्थर की मूर्तियां हैं
कालेश्वर महादेव मंदिर: यह मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित एक प्राचीन मंदिर है जो परागपुर गांव से 8 किमी. की दूरी पर स्थित है।परागपुर में स्थित कालेश्वर महादेव मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर का मुख्य आकर्षण लिंगम है जो जमीनी स्तर पर स्थित है। यह मंदिर सुंदर मूर्तियों से सुशोभित और पर्यटकों को अपनी तरफ बेहद आकर्षित करता है। मंदिर में एक अनूठी शिवलिंग भी स्थापित है जिसे भगवान शिव का स्वरूप माना जाता है जो जमीन पर ही स्थित है। मंदिर की दीवारों को शानदार तरीके से सजाया गया है। पास में ही कई अन्य प्राचीन मंदिर जैसे महा रूद्रा ऑफ माता चिंतापूर्णी आदि भी हैं जिनमें श्रद्धालु आसानी से दर्शन कर सकते हैं। [10]
अन्द्रेत्ता - अन्द्रेत्ता जिसे कलाकारों का गाँव भी कहा जाता है पालमपुर का प्रमुख पर्यटन स्थल है जो शहर से 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह गाँव संस्कृतियों का अनूठा सम्मिश्रण प्रस्तुत करता है। इस क्षेत्र में शिल्प की कई दुकानें हैं जहाँ आप काँगड़ा, शोभा आर्ट गैलरी, नोराह कला केंद्र और नोराह रिचर्ड का घर लघु चित्रों की बिक्री होती है। अन्द्रेत्ता पॉटरी एंड क्रॉफ्ट सोसायटी एक अन्य प्रमुख स्थान है जहाँ विद्यार्थी मिट्टी के बर्तन बनानी की कला सीख सकते हैं।
सौरभ वन विहार - सौरभ वन विहार का नाम एक वीर भारतीय सेना अधिकारी कैप्टन सौरभ कालिया के नाम पर पड़ा। यह 35 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है और धौलाधार पर्वत के बीच बसा हुआ है। यह पार्क वनस्पतियों और जानवरों की 151 से अधिक प्रजातियों सहित कई औषधीय पौधों का घर है। पर्यटक पार्क में स्थित बच्चों के पार्क, पिकनिक शेड, स्वास्थ्य ट्रेल्स, जल धाराओं, ओपन एयर थिएटर, बाँस के घरों और टाइगर हिल ब्रिज में कुछ समय बिता सकते हैं।
शोभा सिंह आर्ट गैलरी : शोभा सिंह आर्ट गैलरी पालमपुर शहर का प्रमुख आकर्षण है, जहाँ भारत के पंजाब राज्य के प्रसिद्ध समकालीन चित्रकार सर शोभा सिंह के कलात्मक प्रयासों का प्रदर्शन किया गया है। यह गैलरी पालमपुर से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। सर शोभा सिंह ने अनेक चित्र बनाए जिसमें सिख गुरुओं पर ज़्यादा ध्यान केंद्रित किया। लोग ऐसा मानते हैं कि 1969 में गुरु नानक की 500 वीं जयंती के अवसर पर उनके द्वारा बनाया गया गुरू नानक का चित्र गुरु नानक के चेहरे के बहुत करीब है। आप गद्दी जनजाति के लोगों के चित्र भी देख सकते हैं, जिसकी पृष्ठभूमि में धौलाधार श्रेणियाँ हैं। इस गैलरी में 1940 में बनी हुई सोहनी–महिवाल की पेंटिंग रखी है जो पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र है। हीर–राँझा की पेंटिंग की तारीफ भी पर्यटकों द्वारा की जाती है। सर शोभा सिंह द्वारा बनाए हुए भारतीय नायकों और नेताओं के चित्र भी इस गैलरी में प्रदर्शित किये गए हैं जिनमें शहीद भगत सिंह, महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री तथा अन्य शामिल हैं।
ताशी जोंग मठ: ताशी जोंग मठ पालमपुर शहर के पर्यटन के प्रमुख स्थानों में से है और यह राज्य के अनेक तिब्बती शरणार्थियों का घर है। इस मठ की मुख्य विशेषता यह है कि यह धार्मिक केंद्र से ज़्यादा एक समुदाय की तरह दिखता है। मठ की घुमावदार छत लाल सुनहरे रंग से सजी हुई है जो प्रार्थना के झंडों की तरह लगते हैं। शांति चाहने वाले और बौद्ध तीर्थयात्री अक्सर इस जगह की यात्रा करते हैं। मंदिर की दीवारें सुंदरता से रंगी हुई है जो तिब्बत की कला और संस्कृति को प्रदर्शित करती है। मंदिर की कलात्मक उत्कृष्टता स्तूप से प्रदर्शित होती है जो मठ में रखा हुआ बौद्ध आध्यात्मिक स्मारक है। तिब्बती कलाकृतियों, चित्रों और लेखों की एक विस्तृत विविधता मठ के शिल्प एम्पोरियम में देखी जा सकती है। इसके अलावा इस क्षेत्र में शानदार उद्यान, रेस्टारेंट और शिल्प एम्पोरियम हैं जो कई आगंतुकों को आकर्षित करते हैं।
शेरब्लिंग : शेरब्लिंग पालमपुर का एक प्रमुख पर्यटन स्थल है जो अपने विशाल बौद्ध विहारों या मठों के लिए प्रसिद्ध है। प्रसिद्ध बौद्ध उपदेशक ताई सीती रिमपोचे ने राजसी पहाड़ियों के बीच बसे इस स्थान को अपने निवास के रूप में चुना। शेरब्लिंग में एक बड़ा स्तूप, बौद्ध धार्मिक स्मारक है, जो हरी वनस्पति और सुरम्य जंगल से घिरा हुआ है। शांति चाहने वाले और बौद्ध तीर्थयात्री वर्ष भर इस स्थान की यात्रा करते हैं। इस मठ के प्रमुख भिक्षु रिमपोचे उनके अनुयायियों का स्वागत करते हैं और उन्हें हर दोपहर अपने पवित्र उपदेश के साथ आशीर्वाद देते हैं।
नेवगल खाड : मुख्य शहर से 2 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नेवगल खाड, पालमपुर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। बुन्दला चश्म के नाम से भी प्रसिद्द इस स्थान का प्रमुख आकर्षण इसकी 300 मीटर चौड़ी धारा है। पिकनिक के अलावा पर्यटक यहाँ यहाँ की प्राकृतिक सुंदरत का आनंद उठा सकते हैं जिसके अंतर्गत इस क्षेत्र को घेरने वाली धौलधर श्रेणियों का दृश्य आता है। मानसून का मौसम इस स्थान की सुंदरता को और अधिक बढ़ा देता है। इसी कारण इस दौरान बड़ी संख्या में पर्यटक यहाँ आते हैं।
अल्–हिलाल : पालमपुर से 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित अल्–हिलाल पर्यटन का एक प्रमुख स्थान है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘अर्धचंद्राकार चाँद की भूमि’। अल्-हिलाल से पर्यटक धौलधर श्रेणियों का मनोरम दृश्य देख सकते हैं। यह स्थान महाराजा रणजीत सिंह का सैन्य गढ़ था। आगंतुकों के लिये तारागढ़ किले के नाम के अतिथि गृह में रहने की सुविधा उपलब्ध है जो अल्-हिलाल के पास है और 15 एकड़ में फैला हुआ है।
बुंदलामाता मंदिर: बुंदलामाता मंदिर कांगड़ा जिले की बस्ती में स्थित एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है। 5 सदियों पहले बने इस मंदिर को शहर के सबसे पुराने मंदिरों में से एक माना जाता है और इस यह मंदिर इस क्षेत्र का सबसे पवित्र स्थान माना जाता है। यह मंदिर चाय के बागानों में स्थित है जो यहाँ की सुंदरता बढाते हैं। इस मंदिर का डिज़ाइन प्रागैतिहासिक काल की कला को दर्शाता है।इस मंदिर में किये जाने वाले अनुष्ठान अद्वितीय है और ये वर्षों से चले आ रहे हैं। मंदिर आसानी से पहुँचे जा सकने वाले सुलभ क्षेत्र में स्थित है और यही कारण है कि दूर - दराज के क्षेत्रों से पर्यटक यहाँ आते हैं।
धौलाधार राष्ट्रीय उद्यान: धौलाधार राष्ट्रीय उद्यान या गोपालपुर चिड़ियाघर, पालमपुर शहर का एक प्रमुख पर्यटन का आकर्षण है। शहर से 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह उद्यान 30 एकड़ के क्षेत्र में फैला हुआ है। इस राष्ट्रीय उद्यान में विभिन्न प्रजाति के जानवर हैं जो वन्य जीवन के प्रति उत्साही लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। पर्यटक उद्यान में स्थित छोटे चिड़ियाघर की सैर भी कर सकते हैं जहाँ तेंदुआ, काला भालू, अंगोरा खरगोश, एशियाई शेर, सांभर, लाल लोमड़ी और हिरण की किस्मों देखा जा सकता है।
हिमाचल प्रदेश उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित एक राज्य है। हिमाचल प्रदेश के उत्तर में जम्मू और कश्मीर और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेशों के पश्चिम तथा दक्षिण-पश्चिम में पंजाब (भारत), दक्षिण में हरियाणा एवं उत्तर प्रदेश, दक्षिण-पूर्व में उत्तराखण्ड तथा पूर्व में तिब्बत से घिरा हुआ है। हिमाचल प्रदेश का शाब्दिक अर्थ "बर्फ़ीले पहाड़ों का प्रांत" है। हिमाचल प्रदेश को "देव भूमि" भी कहा जाता है। इस क्षेत्र में आर्यों का प्रभाव ऋग्वेद से भी पुराना है। आंग्ल-गोरखा युद्ध के बाद, यह ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार के हाथ में आ गया। सन 1857 तक यह महाराजा रणजीत सिंह के शासन के अधीन पंजाब राज्य (पंजाब हिल्स के सीबा राज्य को छोड़कर) का हिस्सा था। सन 1956 में इसे केन्द्र शासित प्रदेश बनाया गया, लेकिन 1971 में इसे, हिमाचल प्रदेश राज्य अधिनियम-1971 के अन्तर्गत इसे 25 जनवरी 1971 को भारत का अठारहवाँ राज्य बनाया गया।
बारहमासी नदियों की बहुतायत के कारण, हिमाचल अन्य राज्यों को पनबिजली बेचता है जिनमे प्रमुख हैं दिल्ली, पंजाब (भारत) और राजस्थान। राज्य की अर्थव्यवस्था तीन प्रमुख कारकों पर निर्भर करती है जो हैं, पनबिजली, पर्यटन और कृषि। प्रमुख समुदायों में राजपूत, ब्राह्मण, घिर्थ (जाट), गद्दी, कन्नेत, राठी और कोली शामिल हैं।
हिमाचल प्रदेश का इतिहास उतना ही प्राचीन है, जितना कि मानव अस्तित्व का अपना इतिहास है। इस बात की सत्यता के प्रमाण हिमाचल प्रदेश के विभिन्न भागों में हुई खुदाई में प्राप्त सामग्रियों से मिलते हैं। प्राचीनकाल में इस प्रदेश के आदि निवासी दास, दस्यु और निषाद के नाम से जाने जाते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में महाराजा रणजीत सिंह ने इस क्षेत्र के अनेक भागों को अपने राज्य में मिला लिया। जब अंग्रेज यहां आए, तो उन्होंने गोरखा लोगों को पराजित करके कुछ राजाओं की रियासतों को अपने साम्राज्य में मिला लिया।
भूगोल: हिमाचल प्रदेश हिमालय पर्वत की शिवालिक श्रेणी का हिस्सा है। शिवालिक पर्वत श्रेणी से ही घग्गर नदी निकलती है। राज्य की अन्य प्रमुख नदियों में सतलुज और व्यास शामिल है। हिमाचल हिमालय का सुदूर उत्तरी भाग लद्दाख के ठंडे मरुस्थल का विस्ता है और लाहौल एवं स्पिति जिले के स्पिति उपमंडल में है। हिमालय की तीनों मुख्य पर्वत श्रंखलाएँ, बृहत हिमालय, लघु हिमालय; जिन्हें हिमाचल में धौलाधार और उत्तरांचल में नागतीभा कहा जाता है और उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली शिवालिक श्रेणी, इस हिमालय खंड में स्थित हैं। लघु हिमालय में 1000 से 2000 मीटर ऊँचाई वाले पर्वत ब्रिटिश प्रशासन के लिए मुख्य आकर्षण केंद्र रहे हैं।
नदियां: हिमाचल प्रदेश में पांच प्रमुख नदियां बहती हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाले पांचों नदियां एवं छोटे-छोटे नाले बारह मासी हैं। इनके स्रोत बर्फ से ढकी पहाडि़यों में स्थित हैं। हिमाचल प्रदेश में बहने वाली पांच नदियों में से चार का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है। उस समय ये अन्य नामों से जानी जाती थीं जैसे अश्किनि (चिनाब) पुरूष्णी (रावी), अरिजिकिया (ब्यास) तथा शतद्रु (सतलुज) पांचवी नदी (कालिंदी) जो यमुनोत्तरी से निकलती है उसका सूर्य देव से पौराणिक संबंध दर्शाया जाता है।
रावी नदी: रावी नदी का प्राचीन नाम ‘इरावती और परोष्णी’ है। रावी नदी मध्य हिमालय की धौलाधार शृंखला की शाखा बड़ा भंगाल से निकलती है। रावी नदी ‘भादल’ और ‘तांतागिरि’ दो खड्डों से मिलकर बनती है। ये खड्डें बर्फ पिघलने से बनती है। यह नदी चंबा से खेड़ी के पास पंजाब (भारत) में प्रवेश करती है और पंजाब से पाकिस्तान में प्रवेश करती है। यह भरमौर और चंबा शहर में बहती है। यह बहुत ही उग्र नदी है। इसकी सहायक नदियां तृण दैहण, बलजैडी, स्यूल, साहो, चिडाचंद, छतराड़ी और बैरा हैं। इसकी लंबाई 720 किलोमीटर है, परंतु हिमाचल में इसकी लंबाई 158 किलोमीटर है। सिकंदर महान के साथ आए यूनानी इतिहासकार ने इसे ‘हाइड्रास्टर और रहोआदिस’ का नाम दिया था।
ब्यास नदी: ब्यास नदी का पुराना नाम ‘अर्जिकिया’ या ‘विपाशा’ था। यह कुल्लू में व्यास कुंड से निकलती है। व्यास कुंड पीर पंजाल पर्वत शृंखला में स्थित रोहतांग दर्रे में है। यह कुल्लू, मंडी, हमीरपुर और कांगड़ा में बहती है। कांगड़ा से मुरथल के पास पंजाब में चली जाती है। मनाली, कुल्लू, बजौरा, औट, पंडोह, मंडी, कांढापतन (मिनी हरिद्धार), सुजानपुर टीहरा, नादौन और देहरा गोपीपुर इसके प्रमुख तटीय स्थान हैं। इसकी कुल लंबाई 460 कि॰मी॰ है। हिमाचल में इसकी लंबाई 260 कि॰मी॰ है। कुल्लू में पतलीकूहल, पार्वती, पिन, मलाणा-नाला, फोजल, सर्वरी और सैज इसकी सहायक नदियां हैं। कांगड़ा में सहायक नदियां बिनवा न्यूगल, गज और चक्की हैं। इस नदी का नाम महर्षि ब्यास के नाम पर रखा गया है। यह प्रदेश की जीवनदायिनी नदियों में से एक है।
चिनाव नदी: चिनाव नदी जम्मू-कश्मीर से होती हुई पंजाब राज्य में बहने वाली नदी है। पानी के घनत्व की दृष्टि से यह प्रदेश की सबसे बड़ी नदी है। यह नदी समुद्र तल से लगभग 4900 मीटर की ऊँचाई पर बारालाचा दर्रे (लाहौल स्पीति) के पास से निकलने वाली चन्द्रा और भागा नदियों के तांदी नामक स्थान पर मिलने से बनती है। इस नदी को वैदिक साहित्य में ‘अश्किनि’ नाम से संबोधित किया गया है। ऊपरी हिमालय पर टांडी में ‘चन्द्र’ और ‘भागा’ नदियां मिलती हैं, जो चिनाव नदी कहलाती है। महाभारत काल में इस नदी का नाम ‘चंद्रभागा’ भी प्रचलित हो गया था। ग्रीक लेखकों ने चिनाव नदी को ‘अकेसिनीज’ लिखा है, जो अश्किनि का ही स्पष्ट रूपांतरण है। चंद्रभागा नदी मानसरोवर (तिब्ब्त) के निकट चंद्रभागा नामक पर्वत से निस्तृत होती है और सिंधु नदी में गिर जाती है। चिनाव नदी की ऊपरी धारा को चद्रभागा कहकर, पुन शेष नदी का प्राचीन नाम अश्किनि कहा गया है। इस नदी को हिमाचल से अदभुत माना गया है। इस नदी का तटवर्ती प्रदेश पूर्व गुप्त काल में म्लेच्छों, यवन, शिवि आदि द्वारा शासित था।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak,02.04.2022
References
- ↑ "Himachal Pradesh, Development Report, State Development Report Series, Planning Commission of India, Academic Foundation, 2005, ISBN 9788171884452
- ↑ Himachal Pradesh District Factbook," RK Thukral, Datanet India Pvt Ltd, 2017, ISBN 9789380590448
- ↑ Diehl, Keila (2002). Echoes from Dharamshala Music in the Life of a Tibetan. University of California Press. pp. 45–46. OCLC 52996458. ISBN 978-0-585-46878-5.
- ↑ जोगिन्दरनगर.कॉम (2012-11-03)। "भागसू नाग मंदिर - एक प्राचीन हिंदू मंदिर" । जोगिंद्रनगर डॉट कॉम
- ↑ "भागसुनाग मंदिर, मैक्लोडगंज: एक 5000 साल पुराना मंदिर" । पेडल थ्रॉटल।
- ↑ History of Biajnath temple
- ↑ History of Biajnath temple
- ↑ Archaeology of temple
- ↑ https://hindi.nativeplanet.com/palampur/attractions/tea-gardens/
- ↑ https://hindi.nativeplanet.com/pragpur/attractions/kaleshwar-mahadev-temple/#overview
पालमपुर – कांगड़ा - नूरपुर - पठानकोट - कठुआ - जम्मू
16.5.1981: पालमपुर – कांगड़ा - नूरपुर - पठानकोट - कठुआ - जम्मू (दूरी = 225 किमी)
पालमपुर से सुबह 8 बजे रवाना होकर कांगड़ा, नूरपुर होते हुए पठानकोट पहुंचे और वहाँ पर लंच किया। पालमपुर से पठानकोट की दूरी 115 किमी है। पठानकोट से रवाना होकर माधोपुर होते हुए आगे बढे। माधोपुर में एक पुल सैन्य महत्व का है। माधोपुर से आगे रावी नदी को पार करके लाखनपुर के पास जम्मू-कस्मीर राज्य में प्रवेश किया। जम्मू-कस्मीर का शहर कठुआ रास्ते में पड़ता है। कठुआ भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के कठुआ ज़िले का मुख्यालय है। कठुआ, जम्मू से 87 किलोमीटर और पठानकोट से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय जम्मू में दो शक्तिशाली जनपदों का उल्लेख किया है- अभिसार (वर्तमान पूंछ) और कठइओइ। स्ट्रेबो ने कठइओइ जनपद के बारे में बताया है कि यह बहुत शक्तिशाली गणराज्य था जो रावी नदी के तलहटी में स्थित था| यहाँ के लोग बहुत बहादुर थे और सिकंदर की सेना को कड़ी टक्कर दी थी। स्ट्रेबो द्वारा वर्णित कठइओइ जनपद की स्थिति वर्तमान कठुआ के अनुरूप है।
शाम 4 बजे जम्मू पहुंचे। पठानकोट से जम्मू की दूरी 110 किमी है। जम्मू में टूरिस्ट रिशेप्शन सेंटर में रुकने की व्यवस्था थी। शाम को वहाँ के बाजार में घूमे। यहाँ पर बहुत ज्यादा गर्मी थी। जम्मू में बहुत ज्यादा मंदिर हैं इसलिए इसे 'मंदिरों का शहर' कहा जाता है।
पालमपुर से जम्मू के बीच पड़ने वाले स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
नूरपुर कांगड़ा (AS, p.506) , हिमाचल प्रदेश का एक ऐतिहासिक स्थान है। चित्रकला की प्रसिद्ध 'कांगड़ा शैली', जो 18वीं शती में अपने विकास के चरमोत्कर्ष पर थी, का नूरपुर तथा गुलेर में जन्म हुआ था। एक सुदृढ़ दुर्ग नूरपुर में स्थित है, जो इतिहास की दृष्टि से एक उल्लेखनीय स्मारक है। अपनी चित्रकारी के लिए मशहूर नूरपुर ने चित्रकारी की कई ऊँचाईयों को छुआ है। बसौली के राजा कृपाल सिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके दरबार के चित्रकार जम्मू, रामनगर, नूरपुर तथा गुलेर में जाकर बस गए थे। इन चित्रकारों ने नूरपुर आकर बसौली की परम्परा को जीवित रखा और उसके कर्कश स्वरूप को बदल कर उसमें कोमलता का नवीन पुट दिया, जिससे कांगड़ा की शैली का सूत्रपात हुआ।
नूरपुर राज्य की स्थापना, उस समय यह धमेड़ी नाम से पुकारा जाता था, 11वीं सदी के अंत में दिल्ली सम्राट अनंग पाल तोमर के छोटे भाई जैत-पाल द्वारा की गई थी। इस पर दिल्ली के तोमरों की शाखा पठानिया शासकों द्वारा राज्य किया गया। [1]
नूरपुर नामकरण: नूरपुर का नामकरण जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ के नाम पर रखा गया है। महाभारत काल में यह औदुंबरा राज्य का हिस्सा था। इसका मूल नाम दहमरी या दहमला है जिसको लोग दहमेरी/धमेड़ी कहते हैं। तारीख-इ-अलफ़ी (Tarikh-i-Alfi) में इसको, हिंदुस्तान की सीमा पर ऊँचे पहाड़ की छोटी पर स्थित दामल कहा गया है जो एक प्राचीन जाट गोत्र के नाम पर है। [2] दामणि (AS, p.430) - दामणि गणराज्य का उल्लेख पाणिनि ने 'अष्टाध्यायी' में किया है। इसका अभिज्ञान अनिश्चित है।
पठानकोट (Pathankot): भारत के पंजाब राज्य के पठानकोट ज़िले में स्थित एक नगर है। सामरिक दृष्टि से पठानकोट भारत के सर्वाधिक महत्वपूर्ण ठिकानों में से एक है। यहां पर वायुसेना स्टेशन, सेना गोला-बारूद डिपो एवं दो बख्तरबंद ब्रिगेड एवं बख्तरबंद इकाइयां हैं। जनवरी 2016 में पठानकोट वायुसेना स्टेशन पर आतंकवादी हमला हुआ। यह टपरवेयर के बरतनों के उत्पादन के लिए भी प्रसिद्ध है। पठानकोट शिवालिक शृंखलाओं में स्थित है। शहर 331 मीटर की ऊँचाई पर बसा हुआ है। जम्मू और कश्मीर की सीमा बहुत समीप है और उस राज्य के कठुआ नगर को कभी-कभी पठानकोट का जुड़वा शहर माना जाता है। पठानकोट से समीप के हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा व डलहौजी पर्यटक स्थलों के लिए बसें जाती हैं। 1849 से पहले यह नूरपुर की राजधानी था। 2011 में यह नगठित पठानकोट जिले की राजधानी बन गया। पंजाब के पठानकोट क्षेत्र को महाभारत काल में उदुंबर (AS, p.96) कहा जाता था जिसका संदर्भ मूल सर्वास्तिवादी विनय में भी है।
माधोपुर (Madhopur) भारत के पंजाब राज्य के पठानकोट ज़िले में स्थित एक गाँव है। यह जम्मू और कश्मीर की राज्य सीमा पर है और सीमा के पार कठुआ ज़िला है। गाँव से उत्तर में रावी नदी बहती है। माधोपुर पंजाब के अंतिम उत्तरी छोर पर स्थित है और यहाँ से रावी नदी को पार करके जम्मू एवं कश्मीर राज्य प्रारंभ हो जाता है। व्यापारिक, सामरिक और भौगोलिक रूप से इसका महत्व और भी ज्यादा हो जाता है, क्योंकि भारत को जम्मू और कश्मीर से जोड़ने वाला एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग और भारतीय रेल यहीं से होकर गुज़रती है। इस कारण इसे पंजाब के प्रवेशद्वार के रूप से जाना जाता है। यह क्षेत्र पर्यटन की दृष्टि से एक अच्छा स्थान है। हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों और रावी के किनारे किनारे बनी सड़क का नजारा अत्यंत ही मनमोहक है। माधोपुर पहले पहाड़ी राज्यों के शासन के अधीन था। महाराजा रणजीत सिंह ने भी माधोपुर पर शासन किया है इसके प्रमाण महाराजा रणजीत सिंह के राज्यकाल का महल आज भी यहाँ से 5 किलोमीटर दूर शाहपुर कंडी में स्थित है। अंग्रेजों के काल के गिरिजाघर, परियों का बाग, लाल कोठी, ऊपरी बारी दोआब नहर, निचली बारी दोआब नहर और अन्य कई इमारतें आज भी यहाँ मौजूद है।
कठुआ (Kathua): भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के कठुआ ज़िले में स्थित ज़िले का मुख्यालय है। कठुआ, जम्मू से 87 किलोमीटर और पठानकोट से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान जहां एक ओर मंदिरों, जैसे धौला वाली माता, जोदि-दी-माता, आशापूर्णी मंदिर आदि के लिए जाना जाता है वहीं दूसरी ओर यह बर्फ से ढ़के पर्वतों, प्राकृतिक सुंदरता और घाटियों के लिए भी प्रसिद्ध है। यह नगर जम्मू कश्मीर का 'प्रवेश द्वार' तथा औद्योगिक नगर भी है।
यूनानी इतिहासकारों ने सिकंदर के भारत पर आक्रमण के समय जम्मू में दो शक्तिशाली जनपदों का उल्लेख किया है- अभिसार (वर्तमान पूंछ) और कठइओइ। स्ट्रेबो ने कठइओइ जनपद के बारे में बताया है कि यह बहुत शक्तिशाली गणराज्य था जो रावी नदी के तलहटी में स्थित था| यहाँ के लोग बहुत बहादुर थे और सिकंदर की सेना को कड़ी टक्कर दी थी। स्ट्रेबो द्वारा वर्णित कठइओइ जनपद की स्थिति वर्तमान कठुआ के अनुरूप है।
डॉ जॉली, एस. विद्यालंकार और केपी जायसवाल मानते हैं कि कठाला देश का नाम था और कठइओइ वहाँ के निवासी। कठइओइ का भारतीय रूपांतरण कठवाल है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कठवाल ही आधुनिक गठवाल हैं। भीमसिंह दहिया मानते हैं कि गठवाल/ कठवाल/कठिया जाटों का एक बड़ा गोत्र है। गठवाल आजकल मलिक लिखते हैं। [3] गठवाला खाप एक मजबूत संगठन है जिसमें 52 गांव होने के कारण इसे बावनी खाप भी कहा जाता है। इसका मुख्यालय गांव लिसाढ़ तथा फुगाना, कुरमाली, बरला आदि इस खाप के प्रमुख गांव हैं। इस खाप में लल्ल गठवाला गोत्र के जाटों का बाहुल्य है। [4]
कुछ लोगों का मत है कि कठुआ शब्द कश्यप के नाम से बना है। पहले इसे कठुई के नाम से जाना जाता था लेकिन बाद में इसका नाम बदलकर कठुआ रख दिया गया। ऐतिहासिक दृष्टि से भी काफी महत्वपूर्ण माना जाने वाला यह जिला लगभग 2000 वर्ष पुराना माना जाता है। कठुआ जिले का ठीक-ठीक अभिलेखित इतिहास उपलब्ध नहीं है। कहा जाता है कि 2000 वर्ष पूर्व पांडुवंशी दिल्ली के तोमरों का एक वंशज अंडरोता गोत्र का जोधसी हस्तिनापुर से कठुआ आया था। उसके तीन पुत्र थे - 1. तेज़ू, 2. भजू, और 3. किंदल। इन्होने अपने-अपने नाम से बस्तियां बसाई और उनके वंशज आजकल तेजवालिया, भजवालिया और कंदवालिया नाम से जाने जाते हैं। [5]
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 15.04.2022
References
- ↑ Brentnall, Mark (2004). The Princely and Noble Families of the Former Indian Empire: Himachal Pradesh. 1. Indus Publishing. pp. 350–358. ISBN 978-8-17387-163-4.
- ↑ Alexander Cunningham: The Ancient Geography of India,pp.143-144
- ↑ B S Dahiya: Jats the Ancient Rulers (A clan study)/Jat Clan in India,p. 254
- ↑ Dr Ompal Singh Tugania, Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, p. 14
- ↑ https://kathua.nic.in/history/
जम्मू - उधमपुर - रामबन - बनिहाल - वेरिनाग - अनंतनाग - पहलगाम
17.5.1981: जम्मू - उधमपुर - रामबन - बनिहाल - वेरिनाग - अनंतनाग - पहलगाम
जम्मू से पहलगांव काफी लम्बा सफ़र है- दूरी पड़ती है 250 किमी और वह भी पहाड़ी सफ़र। सुबह जल्दी ही 6 बजे रवाना हुए। जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग है। रास्ते की छटा निहारने योग्य है। पहाड़ियों के बीच से गुजरता टेढ़ा-मेढा रास्ता और एक तरफ हजारों फीट गहरी घाटियां मन को मोह लेती हैं। दृश्य देख कर मन रोमांचित होता है।
जम्मू से रवाना होकर 62 किमी की दूरी पर पहला शहर उधमपुर पड़ा जहाँ हमने नाश्ता किया और आगे बढ़ लिए। उधमपुर से आगे 25 किमी की दूरी पर रास्ते में पड़ने वाले कस्बे बटोट (Batote) में काफी होटल हैं और आमतौर पर पर्यटक यहीं लंच लेकर आगे की यात्रा पर रवाना होते हैं। हमने भी यहीं लंच किया और आगे बढे। बटोट शहर रामबन जिले में स्थित है। बटोट से रामबन (Ramban) 27 किमी है। रामबन के आगे 35 किमी दूरी पर बनिहाल है। बनिहाल से आगे निकलने के बाद आती है प्रसिद्ध जवाहर टनल - जिसे 'गेट वे ऑफ़ कश्मीर' कहते हैं। यह सुरंग करीब ढाई किमी लम्बी है और इसके अंदर से यात्रा एक रोमांच का अनुभव कराती है। टनल पार करते ही हम महान कश्मीर घाटी में प्रवेश करते हैं। यहाँ इतनी ऊंचाई पर घाटी के बीच एक समतल मैदान है जिसमें खेती होती है। बड़े-बड़े खेत भी हजारों फीट की ऊंचाई से छोटी क्यारी के रूप में नजर आते हैं।
बनिहाल के आगे 25 किमी दूरी पर वेरिनाग है। वेरिनाग से काजीगुड, इस्लामाबाद होते हुए हम अनंतनाग (Anantnag) पहुंचते हैं। वेरिनाग से अनंतनाग की दूरी 39 किमी है। अनंतनाग जिला मुख्यालय है और यहाँ से दो रास्ते फटते हैं। एक रास्ता श्रीनगर (Srinagar) की तरफ जाता है और दूसरा पहलगांव (Pahalgam) । अनंतनाग से पहलगांव 42 किमी है। हम शाम 6 बजे पहलगांव पहुँच जाते हैं।
जम्मू से पहलगांव के रास्ते में देखे गए महत्वपूर्ण स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
उधमपुर भारत के जम्मू और कश्मीर प्रदेश का एक नगर है। यह उधमपुर जिले का मुख्यालय भी है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 1-ए (अब NH-44) पर जम्मू और श्रीनगर के बीच स्थित है। हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल वैष्णो देवी उधमपुर के निकट है। उधमपुर में भारत की सबसे लंबी सुरंग बनाई जा रही है। उधमपुर का नामकरण राजा ऊधम सिंह के नाम पर है। यह भारतीय सेना के उत्तरी कमांड का मुख्यालय है। भारतीय सेना द्वारा जम्मू और कश्मीर के बीच यात्रा के दौरान ट्रांजित पॉइंट के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
रामबन (Ramban) भारत के जम्मू और कश्मीर प्रदेश का एक नगर है। यह रामबन ज़िले का मुख्यालय है और चिनाब नदी के किनारे बसा हुआ है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 से सड़क द्वारा कई अन्य स्थानों से जोड़ता है। C.E. Bats ने अपनी पुस्तक ‘The Gazetteer of Kashmir’ में लिखा है कि जम्मू और कश्मीर राज्य के गठन 1846 से पूर्व चिनाब नदी के किनारे रामबन एक छोटा सा गाँव था और 'नशबंद' नाम से जाना जाता था जो बाद में रामबन नाम से जाना गया। जम्मू के राजा गुलाब सिंह जब जम्मू और कश्मीर राज्य के महाराजा बन गए तब वे श्रीनगर जाने के लिए जम्मू-उधमपुर-बनिहाल रूट लेते थे और रामबन एक शाही हाल्ट स्टेशन बन गया तबसे इसका महत्व बढ़ गया।
बनिहाल (Banihal) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के रामबन ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले में तहसील का दर्जा रखता है। बनिहाल हिमालय की पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला पर स्थित है। बनिहाल कश्मीर घाटी को जवाहर सुरंग के माध्यम से जम्मू के रास्ते शेष भारत से जोड़ता है। बनिहाल दर्रा को चीरते हुए भारत की सबसे बड़ी सुरंग के रास्ते, जून 2013 में क़ाज़ीगुंड से बनिहाल तक, रेल सेवा शुरु कर दी गयी है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 सड़क कई अन्य स्थानों से जोड़ता है।
प्राचीनकाल में बनिहाल को वाणशल नाम से जाना जाता था जिसका उल्लेख कल्हण पंडित ने राजतरंगिनी (c.1000-1011) में किया है (Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII (i), p.144) सन 1130 ई. में जयसिंह के राज्य में एक खस सरदार के अधीन इस वाणशल के किले में लोहर साम्राज्य के राजा भिक्षाचर ने शरण ली थी। भिक्षाचर सन 1120 में कुछ ही महीने के लिए कश्मीर का राजा रहा था।
वेरीनाग (AS, p.876-877): वेरीनाग का अर्थ विशाल नाग अथवा स्रोत है। झेलम नदी का उद्गम यही स्रोत कहा जाता है। प्राचीन समय में स्रोत के निकट शिव और गणेश के मंदिर स्थित थे। मुग़ल बादशाह जहाँगीर ने इन मंदिरों को न छेड़ते हुए स्रोत के निकट ही एक सुंदर इमारत बनवाई थी। इसकी नींव 1620 ई. में पड़ी थी, किंतु यह 1627 ई. में बनकर तैयार हुई। वेरीनाग नूरजहाँ को बहुत प्रिय था और अपने कश्मीर प्रवास में वह प्रायः यहां ठहरती थी। वेरीनाग का स्रोत 52 फुट गहरा था और इसकी तलहटी के ऊपर दो वेदिकाएं बनी हुई हैं। सन्निकट उद्यान के बाहर एक छोटा-सा प्रासाद बना है।
वेरीनाग परिचय:
वेरीनाग : जम्मू और कश्मीर राज्य के अनंतनाग जिले में स्थित प्रसिद्ध पर्यटन स्थल है, जो कश्मीर घाटी के मुग़ल उद्यानों का सबसे पुराना स्थान है। वेरीनाग अनंतनाग से लगभग 26 कि.मी. की दूरी पर है। यहाँ पर एक झरना है, जिसे झेलम नदी का स्रोत माना जाता है। इस सरोवर की महत्ता एवं सुंदरता इसके गहरे नीले पानी के कारण है। कल्हण पंडित द्वारा लिखी गई कश्मीर के इतिहास पर पुस्तक राजतरंगिनी में इसको नीलकुंड नाम दिया गया है। नीलकुंड नाम नागवंशी राजा नील नाग के नाम पर पड़ा है जो कश्मीर में बहुत पूजनीय हैं। यह स्थान कश्मीर के शानदार पर्यटन स्थलों में गिना जाता है। पर्वतों के मध्य स्थित यह स्थान देवदार के वृक्ष और सदाबहार पौधों से घिरा हुआ है। अपने बेहतरीन और आकर्षक निर्माण के कारण पयर्टक इसे देखने के लिए बार-बार यहाँ आते हैं।[1]
वेरीनाग नामकरण - वेरीनाग का नामकरण नागवंशी राजा वेरीनाग के नाम पर पड़ा है। कश्मीर में लंबे समय तक नागवंशी राजाओं का राज्य रहा है जैसे वेरीनाग , अनंतनाग, शेषनाग आदि। उनके नाम पर कई गाँव और और शहर मिलते हैं। [2] वेरीनाग के वंशज वर्तमान में जाट गोत्र वैरे के रूप में विद्यमान है जो हरयाणा के झज्जर जिले और उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिलों में मिलते हैं।
अनंतनाग (AS, p.19-20) कश्मीर की प्राचीन राजधानी थी। नगर से 3 मील पूर्व की ओर मार्तंड सूर्य मंदिर स्थित है। यह मंदिर 725-760 ई. में बना था। इसका प्रांगण 220 फीट x 142 फुट है। इसका चतुर्दिक लगभग 80 प्रकोष्ठों के अवशेष वर्तमान हैं। पूर्वी किनारे पर मुख्य प्रवेश द्वार का मंडप है। मंदिर 60 फुट लंबा और 38 फुट चौड़ा था। इसके द्वारों पर त्रिपार्श्वित चाप (महराब) थे जो इस मंदिर की वास्तुकला की विशेषता हैं। यह वैचित्र्य संभवत: बौद्ध चैत्यों की कला का अनुकरण के कारण हैं किंतु मार्तंड मंदिर में यह विशिष्ट मेहराब संरचना का भाग न होकर केवल अलंकरण मात्र है। द्वारमंडप तथा मंदिर के स्तंभों की वास्तु-शैली रोम की डोरिक शैली से कुछ अंशों में मिलती-जुलती है। स्तंभों के शीर्ष तथा आधार अनेक भागों को जोड़ कर बनाए गए हैं. इन पर अधिकतर सोलह नालियाँ उत्कीर्ण हैं। दरवाजों के ऊपर त्रिकोण संरचनाएं हैं और उनके बाहर निकले हुए भागों पर दुहेरी ढलवा छतों की बनावट प्रदर्शित की गई है जो कश्मीर की आधुनिक लकड़ी की छतों के अनुरूप ही जान पड़ती है। नेपाल के अनेक मंदिरों की भी लगभग इसी संरचना का अतिविकसित रूप हैं। मार्तंड मंदिर पर बहुत समय से छत नहीं है किंतु ऐसा समझा जाता है कि प्रारंभ से इस पर ढलवा लकड़ी की छत अवश्य रही होगी। मंदिर के प्रांगण के छोटे प्रकोष्ठ पत्थर के चोकों से पटे हुए थे। मार्तंड-मंदिर सूर्य की उपासना का मंदिर था। उत्तर पश्चिम भारत में सूर्यदेव की उपासना प्राय: 11वीं शती तक प्रचलित थी। मुसलमानी शासन के समय यहां के शासकों ने अनंतनाग के मंदिर को नष्ट करके नगर को इस्लामाबाद नाम दिया था किंतु अभी तक प्राचीन नाम ही प्रचलित है। [3]
अनंतनाग परिचय
अनंतनाग जम्मू-कश्मीर राज्य में श्रीनगर से 50 किमी दक्षिण-पूर्व में झेलम नदी के किनारे स्थित है। अनन्तनाग जम्मू कश्मीर प्रान्त का एक शहर है। यह कश्मीर घाटी का एक बड़ा व्यापारिक केंद्र है। अमरनाथ मंदिर अनंतनाग में स्थित है। अनंतनाग कश्मीर की प्राचीन राजधानी था। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह जगह काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। सरोवरों के लिए प्रसिद्ध अनंतनाग जम्मू-कश्मीर का एक महत्त्वपूर्ण नगर है। सरोवर के अतिरिक्त यह जगह मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों आदि के लिए भी जानी जाती है। मुस्लिम शासन के समय यहाँ के शासकों ने अनंतनाग के मंदिर को नष्ट करके नगर को 'इस्लामाबाद' नाम दिया था, किंतु अभी तक प्राचीन नाम ही प्रचलित है। अनंतनाग सूफी, संत और ऋषि-मुनियों की भूमि है। यहाँ से 3 मील पूर्व की ओर प्रसिद्ध मार्तण्ड सूर्य मंदिर है। उत्तर-पश्चिमी भारत में सूर्य देव की उपासना प्रायः 11वीं शतीं ई. तक प्रचलित थी। [4]
अनंतनाग नामकरण: अनंतनाग का नाम एक महत्वपूर्ण नागवंशी राजा अनंतनाग के नाम पर पड़ा है। एक पौराणिक किंवदंती के अनुसार कहा जाता है कि अमरनाथ की यात्रा के दौरान भगवान शिव ने असंख्य नागों को अपने पीछे छोड़ दिया था और इसी कारण इस स्थान का नाम अनंतनाग के नाम से जाना जाने लगा। दिलचस्प बात यह है कि कहीं न कहीं 5,000 ईसा पूर्व अनंतनाग भी बाजार हुआ करता था।
अनंतनाग का इतिहास
श्रीनगर से 50 किमी दक्षिण-पूर्व में, झेलम नदी के किनारे पर स्थित अनंतनाग जिस प्रकार से प्राचीनकाल में कश्मीर की राजधानी के तौर पर प्रसिद्ध हुआ करता था, उसी तरह, आज भी यह अपने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों और विश्व प्रसिद्ध मार्तण्ड सूर्य मंदिर के अवशेषों सही अन्य ऐतिहासिक संरचनाओं के लिए राज्य का एक प्रमुख और पवित्र नगर है।
कश्मीर का नामकरण: पौराणिक युग में जहां कश्मीर को नागों का देश कहा गया है वहीं कश्मीर में स्थित अनंतनाग को नागवंशियों की राजधानी बताया गया है। महर्षि कश्यप ने कश्मीर को नाम दिया है। कश्मीर (AS, p.152) का प्राचीन नाम कश्यपमेरु या कश्यपमीर (कश्यप का झील) था। किंवदंती है कि महर्षि कश्यप श्रीनगर से तीन मील दूर हरि-पर्वत पर रहते थे। जहाँ आजकल कश्मीर की घाटी है, वहाँ अति प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में एक बहुत बड़ी झील थी जिसके पानी को निकाल कर महर्षि कश्यप ने इस स्थान को मनुष्यों के बसने योग्य बनाया था।
महर्षि कश्यप की वंशावली: मरीचि ऋषि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे। उन्हीं मरीचि ऋषि तथा उनकी पत्नी सम्भूति ने एक बालक को जन्म दिया, जिसको कश्यप नाम दिया गया। कश्यप नामक यही बालक बड़ा होकर ना सिर्फ महर्षि कश्यप बना बल्कि उसकी पहचान सदैव के लिए सप्तऋषियों में भी होने लगी। महर्षि कश्यप इसीलिए युगों-युगों से जाने जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने श्रेष्ठ गुणों, तप बल एवं प्रताप के बल पर देवों के समान ही इस सृष्टि के रहस्यों को समझ लिया था। महर्षि कश्यप एक अत्यंत तेजवान ऋषि थे, इसीलिए ऋषि-मुनियों में वे सर्वश्रेष्ठ माने जाते थे। सुर हो या असुर दोनों ही के लिए वे मूल पुरूष माने जाते थे। इसी कारण देवताओं ने उन्हें ‘महर्षि’ जैसी श्रेष्ठतम उपाधि दी थी।
देश-विदेश के अनेकों इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, पौराणिक तथा वैदिक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दस्तावेजों से यह सिद्ध होता है कि कस्पियन सागर एवं भारत के शीर्ष प्रदेश कश्मीर का नामकरण भी महर्षि कश्यप के नाम पर ही हुआ था। और उस समय महर्षि कश्यप ने ही सर्वप्रथम कश्मीर को बसाया और उस पर शासन किया था।
दक्ष प्रजापति ने अपनी 13 पुत्रियों की शादी कश्यप से की। उन्हीं पत्नियों से देवों और मानस पुत्रों का जन्म हुआ, और उसी के बाद से इस सृष्टि का सृजन आरंभ हुआ। उसी के परिणामस्वरूप महर्षि कश्यप ‘सृष्टि के सृजक’ या सृजनकर्ता’ कहलाए। महर्षि कश्यप की इन सभी पत्नियों ने अपने-अपने गुण, स्वभाव, आचरण के अनुसार संतानों को जन्म दिया, जिसके बाद से ही इस सृष्टि का आरंभ हुआ।
कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्य पैदा हुए थे। उनसे सूर्यवंश प्रारंभ हुआ जो बाद में इक्ष्वाकु वंश कहलाया जिसमें आगे चलकर भगवान राम का जन्म हुआ।
कश्यप की पत्नी दिति से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष पुत्र प्राप्त हुये और उनके वंशज दैत्य कहलाए। हिरण्यकश्यप के चार पुत्रों में एक प्रह्लाद भी थे जिनको होलिका दहन के प्रकरण में याद किया जाता है।
कश्यप की पत्नी विनत से पुत्र गरुड़ और अरुण प्राप्त हुये।
कश्यप की पत्नी दनु से दानव उत्पन्न हुये।
कश्यप की कद्रू नामक पत्नी नागवंशी थी और उनके गर्भ से नागवशं की उत्पत्ति हुई। कद्रू के पुत्रों की संख्या 8 बताई जाती है। उन 8 नागों के नाम थे अनंत नाग यानी शेष नाग, वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख और कुलिक। आगे चलकर इन्हीं 8 नागों से नागवंश की स्थापना हुई थी।
महाभारत में कद्रू से उत्पन्न नागों के 5 प्रमुख कुल बताये हैं जिनमें शेष अथवा अनंत, वासुकि, तक्षक, कूर्म, और कुलि हैं। (शेषॊ ऽनन्तॊ वासुकिश च तक्षकश च भुजंगमः, कूर्मश च कुलिकश चैव काद्रवेया महाबलाः (महाभारत:I.59.40)
वहीं कुछ पुराणों ने नागों के 5 प्रमुख कुल बताये हैं जिनमें अनंत, वासुकी, तक्षक, कर्कोटक और पिंगला का नाम सामने आता है। इसके अलावा अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन भी मिलता है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म जैसे कुछ प्रसिद्ध नाम हैं।
आज भी मुख्य रूप से कश्मीर में और देश के अन्य भागों में उन सभी नागों के नाम पर स्थानों के नाम मौजूद हैं- जिनमें अनंतनाग, कमरूनाग, कोकरनाग, वेरीनाग, नारानाग, कौसरनाग आदि हैं।
कश्मीर का अनंतनाग, नागवंशियों की राजधानी हुआ करती थी। पुराणों के अनुसार यह वही अनंत नाग यानी शेष नाग हैं जिनकी शय्या पर भगवान विष्णु आसीन होते हैं।
शेषनाग झील - पहलगाम से 23 किलोमीटर की दूरी पर स्थित शेषनाग झील नागवंशी राजा शेषनाग के नामपर है। यह झील अमरनाथ यात्रा के रस्ते में पड़ती है। शेषनाग झील जम्मू और कश्मीर में अमरनाथ गुफ़ा के पास स्थित एक धार्मिक झील है। यह पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की एक ख़ूबसूरत झील है। अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ़ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं। यह झील क़रीब डेढ़ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। यह झील चन्दनवाडी से लगभग 16 किमी और पहलगाम से लगभग 23 किमी की दूर पर है।
इसके अलावा दूसरा नाम है कमरुनाग, जो हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले से करीब 60 किलोमीटर दूर है। यहां कमरुनाग का एक प्रसिद्ध मंदिर भी है और एक झील भी।
नागवंश में जो तीसरा नाम आता है वह है कोकरनाग का। कोकरनाग वर्तमान में जम्मू-कश्मीर राज्य के अनंतनाग में स्थित एक पर्यटन स्थल के रुप में पहचाना जाता है। कोकरनाग का दूसरा नाम ‘बिन्दू जलांगम’ भी है और यह नाम रिकाॅर्ड में भी दर्ज है। यह स्थान अनंतनाग जिला मुख्यालय से लगभग 17 किमी दूर है।
नागवंश में जो चौथा नाम आता है वह है वेरीनाग का। वर्तमान में वेरीनाग कश्मीर घाटी के मुगल उद्यानों का सबसे पुराना और प्रसिद्ध स्थान है। वेरीनाग अनंतनाग से लगभग 26 कि.मी. की दूरी पर है।
नागवंश में जो पाँचवाँ नाम आता है वह है नारानाग। नारानाग जम्मू-कश्मीर राज्य के गान्दरबल जिले का एक पर्वतीय पर्यटक स्थल है। यहां लगभग 200 मीटर की दूरी पर 8वीं सदी में निर्मित मंदिरों का एक समूह है। इतिहासकारों के अनुसार शिव को समर्पित इन मंदिरों को नागवंशी सम्राट ललितादित्य ने ही बनवाया था।
नागवंश में जो छटवाँ नाम आता है वह है कौसरनाग। कौसरनाग नाम से जम्मू-कश्मीर के कुलगाम जिले के पीर पंजाल पर्वतश्रेणी में ऊंचाई पर स्थित एक झील है। यह झील लगभग 3 किमी लम्बी है। इसकी अधिकतम चैड़ाई लगभग 1 किमी है।
भारत का प्राचीन इतिहास भी यही बताता है कि आज से लगभग 3,000 ईसा पूर्व यानी आर्य काल में भी भारत में ऐसे अनेकों नागवंशियों के शासक और कबीले थे जो सर्प की पूजा करते थे। इसके अलावा इस बात के भी स्पष्ट प्रमाण मौजूद है कि आज भी भारत के कई नगरों के नाम उन प्रमुख नाग वंशों के नाम पर ही पाये जाते हैं। इसमें ललितादित्य नामक नागवंशी क्षत्रिय सम्राट का स्पष्ट और विशेष उदाहरण भी दिया जा सकता है। कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि सम्राट ललितादित्य का शासनकाल 724 से 761 ई. तक कश्मीर के कर्कोट में रहा। कर्कोट भी एक नागवंशी क्षत्रिय का ही नाम था, जिसके नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा।
ललितादित्य के शासन काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया और बंगाल तक पहुंच गया था। उन्होंने अरब के मुसलमान आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा तिब्बती सेनाओं को भी पीछे धकेला। उनका राज्य पूर्व में बंगाल तक और दक्षिण में कावेरी तक पहुंच चुका था। जबकि पश्चिम में तुर्किस्तान और उत्तर-पूर्व में तिब्बत तक उसने अपना शासन स्थापित किया था।
प्रसिद्ध इतिहासकार आर. सी. मजुमदार के अनुसार ललितादित्य ने दक्षिण में कुछ महत्वपूर्ण युद्ध जितने के बाद अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा था। इस दौरान नागवंशी क्षत्रिय सम्राट ललितादित्य ने अनेकों भव्य मंदिरों और भवनों का निर्माण भी करवाया था, जिसमें अनंतनाग के मार्तण्ड सूर्य मंदिर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति नागवंशी क्षत्रिय सम्राट ललितादित्य का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। 37 वर्ष का उनका शासनकाल, उनके सफल सैनिक अभियानों, अद्भुत कला-कौशल, प्रेम और विश्व विजेता बनने की चाह से पहचाना जाता है।
नाग वंश और अनंतनाग को लेकर हमारे पौराणिक साक्ष्यों के अलावा ऐसे अन्य कई प्रमाण भी मौजूद हैं जिनसे यह स्पष्ट होता है कि भारतवर्ष में नागवंश का शासन हुआ करता था। उन साक्ष्यों और प्रमाणों के तौर पर हमें यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि प्राचीन काल से ही भारत में ना सिर्फ नागों की पूजा की परंपरा रही है बल्कि नाग वंश का एक कुशल शासन भी किया है।
लेकिन, देश के कई हिस्सों से भाषा और संस्कृति में आये बदलावों के चलते, ऐसे कई स्थानों के नाम और अस्तित्व धीरे-धीरे इतिहास में खोते गये। लेकिन, यदि गहनता से अनुसंधान किया जाये तो ऐसे सैकड़ों स्थानों के नाम व उनकी पहचान आज भी जस का तस देखने और पढ़ने को मिल जाता है।
संदर्भ – अनंतनाग का इतिहास लेखक अजय सिंह चौहान
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 23.04.2022
References
पहलगाम - लीदर घाटी - चंदनबाड़ी - बेताब घाटी - अमरनाथ (कश्मीर)
पहलगाम में हम 17.5.1981 को शाम 6 बजे पहुँच गए थे और यहाँ 22.5.1981 तक रुके और आसपास के वनों, पर्यटन और जनजीवन का अध्ययन किया।
छुट्टियां बिताने के लिए पहलगांव सबसे अच्छी जगह मानी जाती है। यह श्रीनगर से 90 किमी दूर लीदर घाटी में स्थित है। समुद्रतल से ऊंचाई है 7200 फीट। यह शहर चारों तरफ से बर्फ से ढकी पहाड़ियों से घिरा हुआ है। नालों में बर्फ काफी नीचे तक आती दिखाई देती है। यहाँ पर देवदार, कैल, स्प्रूस और फर के वन हैं। यहाँ की जलवायु बहुत स्वास्थ्य-वर्द्धक है। यहाँ काफी होटलें हैं। टूरिस्ट बंगलों में एक कमरा 27/- रुपये का तथा अन्य होटलों में 120/- और 400/- रुपये प्रतिदिन तक के डबल-बेड कमरे हैं। घोड़े और टट्टुओं पर घूमने का अवसर भी यात्रियों को मिलता है। ज्यादा संख्या में लोग हनीमून मानाने या गर्मी की छुट्टियां बिताने आते हैं। चारों तरफ लीदर नदी (Lidder River) के किनारों और पहाड़ियों पर नव-विवाहित जोड़े ही जोड़े नजर आते हैं। ये जोड़े यहाँ की सुंदरता को देखकर मादकता से भर उठते हैं और युवा प्रेम को दुनिया से बेखबर स्वछंदता से व्यक्त करते हैं।
आज पहलगाम में प्रायोगिक प्लाट संख्या 38 में वन प्रजातियों के प्रााकृतिक पुनरुत्पादन का अध्ययन किया।
19.5.1981: पहलगांव (Pahalgam)
आज अनंतनाग तहसील में अनंतनाग से 13 किमी दूर सीर हमदन कस्बे में स्थित वन विभाग की सेन्ट्रल रिसर्च नर्सरी सीर का अध्यन करने गए। यह वर्ष 1972-73 में स्थापित की गई थी। यह 5700 फीट की ऊँचाई पर कक्ष क्रमांक-3 लिद्दर में स्थित है। यहाँ कोनिफर और ब्रॉडलीवड वृक्षों की अनेक प्रजातियों पर अनुसंधान किया जाता है। सेन्ट्रल रिसर्च नर्सरी सीर में रेंज अफसर ने प्रसिद्ध कश्मीरी चाय पिलाई जिसे 'कहवा' कहते हैं। कहवा बिना दूध के अखरोट, बादाम, इलायची और हरी चाय की पत्ती से बनती है।
सेन्ट्रल रिसर्च नर्सरी में हिमालयन पोपलर या पोपलस सिलिएटा (Populus Ciliata) प्रजाति पर अनुसंधान के लिए मार्च 1980 में अनुसंधान प्रारंभ किया गया है। 10 प्रोविन्स (1. Doda, 2. Batote, 3. Banihal, 4. Lidder, 5. Tangmarg, 6. Mawar, 7. Dachigam, 8. Manali, 9. Kinnore, 10. Shaillamo) से इस प्रजाति की कटिंग लाई गई हैं और उनका रोपण किया गया है। अनुसंधान अभी प्रारम्भिक अवस्था में है। हिमालयन पोपलर एक ऊँचा और पर्णपाति प्रजाति का वृक्ष है जो हिमालय के ठंडे इलाक़ों में पाया जाता है। यह एक बहू-उपयोगी प्रजाति है जो चारा, जलाऊ और पैकिंग बॉक्स बनाने के काम आता है।
आज चंदनबाड़ी गए जो पहलगांव से 16 किमी दूर स्थित है। यहाँ पर काफी बर्फ जमी है। सैलानी यहाँ पर बर्फ पर फिसलने का खूब आनंद लेते हैं। हम बर्फ को पार करके अमरनाथ की तरफ जाने वाले रास्ते से उपर आगे बढे। पिस्सु घाटी में कुछ किमी ऊपर गए थे कि एक जगह रास्ता बर्फ से ढक गया था व नीचे से बर्फ टूट गयी थी। उसको पार करने के लिए एक पतलीसी बर्फ की परत थी। जो किसी भी वक्त पिघल सकती थी या टूट सकती थी। अगर यहाँ से पैर फिसल जाता तो हजारों फिट नीचे आकर बर्फ से बनी गुफा में फस जाते जहाँ पर हजारों वर्ष तक मृत शरीर सुरक्षित रह सकता था। बहुत साहस करके हमने इस बाधा को पार किया। कुछ दूर ऊपर पहुँचने के बाद साथ लाये पैक लंच का आनंद लिया। मेरा अब और ऊपर जाने का बिलकुल मन नहीं कर रहा था। वहाँ एक फोटो खींचा। हम दो लोग वापस लौट गए और 6 सदस्य और ऊपर जाने के लिए रवाना हो गए। हमने वापस चंदनबाड़ी आकर बर्फ पर स्केटिंग किया। छोटे-छोटे बच्चे भी बर्फ पर स्केटिंग कर रहे थे जिनको देखना बड़ा अच्छा लग रहा था। शाम को पांच बजे वापस पहलगाम लौटे। देखे गए स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
चंदनवाड़ी जम्मू-कश्मीर के पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा-सा स्थान है। यह स्थान समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। यहाँ से ऊँचे-ऊँचे पहाड़, झूमते हुए वृक्ष और रंग-बिरंगे खिलते हुए फूल दिखाई देते हैं। चंदनवाड़ी अमरनाथ यात्रा का प्रारंभिक स्थान है, जो सावन के महीने में शुरू होती है। अमरनाथ गुफ़ा को शिव का घर माना जाता है। प्रसिद्ध शेषनाग झील चंदनवाड़ी से 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक पर्वतीय झील है। यहाँ से 13 किमी दूर पंचतरणी अमरनाथ यात्रा का अंतिम पडाव है। यहाँ घूमने आने के लिए पर्यटक निजी वाहन या मिनी बस से आ सकते हैं। बड़े वाहनों का यहाँ आना कठिन है। अमरनाथ यात्रा के समय पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहाँ रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं।
अमरनाथ यात्रा : पहलगाम से 43 किमी लंबी अमरनाथ यात्रा यद्यपि हम पूरी नहीं कर सके परंतु पूरी यात्रा का विवरण सुविधा के लिए यहाँ दिया गया है। अमरनाथ यात्रा 5 पड़ावों से होकर गुजरती है - 1. पहलगाम, 2.चंदनबाड़ी , 3.पिस्सू टॉप, 4. शेषनाग, 5. पंचतरणी.
पहला पड़ाव (पहलगाम) - अमरनाथ यात्रा का पहला पड़ाव पहलगाम है । पहलगाम जम्मू से 315 किलोमीटर की दूरी पर है। पहलगाम में गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से शुरू होती है।
दूसरा पड़ाव (चंदनबाड़ी) - पहलगाम के बाद अगला पड़ाव चंदनबाड़ी है। चंदनबाड़ी पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहां रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं।
तीसरा पड़ावः (पिस्सू टॉप) - दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। कहा जाता है कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें राक्षसों की हार हुई थी। लिद्दर नदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है।अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सू घाटी समुद्रतल से 11,120 फुट की ऊंचाई पर है।
चौथा पड़ावः (शेषनाग झील) - प्रसिद्ध शेषनाग झील चंदनवाड़ी से 14 कि.मी. की दूरी पर स्थित एक पर्वतीय झील है जो अमरनाथ यात्रा का अगला पड़ाव है। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। यात्री शेषनाग पहुंचकर ताजादम होते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते हैं और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं।
पांचवां पड़ाव (पंचतरणी) - शेषनाग से पंचतरणी 13 किमी के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता हैं। महागुणास चोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। यहां पांच छोटी-छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची-ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। ऑक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं। अमरनाथ की गुफा यहां से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुंचकर पड़ाव डालकर रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुंच जाते हैं। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुंचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
बेताब घाटी: पहलगांव से चंदनबाड़ी के बीच अमरनाथ यात्रा के रास्ते में एक खूबसूरत घाटी पड़ती है जो बेताब घाटी नाम से जानी जाती है। यह नामकरण सन्नी देवल और अमृता सिंह द्वारा अभिनीत की गई फ़िल्म बेताब की रिलीज के बाद बेताब के नाम से प्रचलित हुआ। इसके पहले यह अजन घाटी या हगन घाटी नाम से जानी जाती थी। शायद घाटी का यह प्राचीन नाम हगन नाम के एक इंडो-सिथियन राजा के नाम पर हो जो मथुरा के राजा थे। मथुरा के आस-पास आज भी उनके वंशज जाटों में हगा चौधरी के नाम से जाने जाते हैं। यहां 15वीं सदी में मुगलों का शासन था। 15वीं सदी के उत्तरार्द्ध में तुर्को-मुगल सैन्य जनरल मिर्जा मुहम्मद हैदर दुघलत ने पहले काश्गर के सुल्तान सैद खान की ओर से तथा बादमें मुगल सम्राट हुमायुं की और से कश्मीर पर शासन किया। उस समय इस घाटी को हगन घाटी के नाम से जाना जाता था।
आज हम बैसरन अल्पाइन पाश्चर (Baiseran Alpine Pasture Pahalgam) देखने गए। यह घाटी पहलगाम की मिनी-स्वीट्जरलैंड कहलाती है। सैलानी लोग घोड़े पर चढ़कर जाते हैं परन्तु हम तो पैदल ही गए। यहाँ पर पहाड़ों पर कोनिफर वनों के बीच समतल घास का मैदान है जो बहुत ही सुन्दर लगता है। यहाँ बताया गया कि कई फिल्मों की शूटिंग होती है। पहाड़ों में नदी होती है, जंगल होते हैं लेकिन घास के मैदान कम ही जगह पर होते हैं। कश्मीर की वादियों में बैसरन के घास के मैदान वही जगह है। भारत में अक्सर घास के मैदान को मिनी स्विट्जरलैंड का नाम दे दिया जाता है लेकिन बैसरन को देखकर आप हैरान रह जाएंगे। घने जंगलों के बीच ये घास के मैदान को देखकर लगता है कि किसी ने हरी-भरी कालीन बिछा दी हो। यहाँ आप घंटों बैठे रह सकतें हैं। आसपास की जगहों को अनुभव करने के लिए ये घास का मैदान बढ़िया जगह है। बैसरन कश्मीर की अनछुई खूबसूरती को बढ़ाने का काम करती है।
पहलगाम और आस-पास क्षेत्रों का भ्रमण कार्यक्रम आज पूरा हो गया। पहलगाम का एक संक्षिप्त परिचय सुविधा के लिए आगे दिया गया है।
पहलगाम का शाब्दिक अर्थ है = चरवाहों का ग्राम। यह जम्मू और कश्मीर के अनन्तनाग जिले का एक नगर और लोकप्रिय पर्यटन स्थल और पर्वतीय स्थल है। यह अनन्तनाग से 45 किमी की दूरी पर लिद्दर नदी के किनारे स्थित है। यह श्रीनगर से 95 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसकी समुद्रतल से ऊंचाई है 7200 फीट है। अमरनाथ यात्रा का पहलगाम एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। विश्व भर से हजारों पर्यटक प्रति वर्ष यहाँ आते हैं। पहलगाम, अननतनाग के पाँच तहसीलों में से एक का मुख्यालय भी है।[1]
पहलगम अपने शंकुधारी वनों के लिए प्रसिद्ध है। और घने जंगलों, खूबसूरत झीलों और फूलों के घास के मैदानों से घिरा हुआ है।
पहलगम का इतिहास वापस हमें मध्ययुगीन काल की ओर ले जाता है। मुगलों के शासनकाल के दौरान, यह केवल चरवाहों का गाँव था। आज हम यहाँ के भोजन, कपड़े, और स्थानीय लोगों की जीवन शैली में इस जगह की समृद्ध संस्कृति की झलक पा सकते हैं। हिन्दी के अलावा, इस क्षेत्र में बोली जाने वाली अन्य भाषाओं में उर्दू, कश्मीरी, और अंग्रेजी शामिल हैं। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता जम्मू-कश्मीर राज्य के चप्पे चप्पे में बसी है। हर कोना हर जगह ऊपर वाले ने बड़ी फुर्सत से बनाया है। कहा जाता है कि पहलगाम घूमने के बाद आपका मन और सोच दोनों बदल जाएंगे। शरीर में ऊर्जा और विचारों में दृढ़ता आ जाएगी।
हिंदू धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थल अमरनाथ घाटी जाने के लिए पहलगाम पहला पड़ाव है। युवाओं के लिए कुछ खास है पहलगाम में - युवाओं को पहलगाम जरूर आना चाहिए अगर उन्हे एडवेंचर करना पसंद हो। यहां के बर्फ से ढके पहाड़ो में ट्रैकिंग करने का अनोखा मजा है। दुनिया भर के ट्रैकिंग शौकीन पर्यटक गर्मियों के मौसम में यहां मस्ती करते हुए दिख जाएंगे। हार्स राइडिंग, पहलगाम का दूसरा एडवेंचर गेम है। लोग आपस में शर्त लगाकर घोडों की दौड़ का मजा लेते हैं। इसके अलावा, पहलगाम में गोल्फ और मछली को पकड़ने का शौक भी जोरों पर रहता है। गोल्फ खेलने के लिए यहां प्रॉपर लॉन है जहां गोल्फ सिखाने के पार्ट टाइम प्रोग्राम भी चलते रहते हैं।
प्राकृतिक सुंदरता के कारण फिल्मी हस्तियां अपनी छुट्टियां यहीं बिताना पसंद करते हैं। यहां की संस्कृति विशेष नहीं है पूरे राज्य में अपनाई जाने वाली परम्परा, पहनावा, रिवाज, खान-पान और बोलचाल ही पहलगाम में है।
घूमने का समय : घूमने का सबसे अच्छा समय जून से अक्टूबर है। दिसम्बर और जनवरी का समय बर्फ का नजारा देखने के लिए विख्यात है। पहलगाम का मौसम साल भर अच्छा रहता है जिस कारण पर्यटक साल में कभी भी यहां आ सकते हैं। अगर पर्यटक यहाँ जून से अप्रैल के महीने में आते हैं तो उन्हें यहाँ का मौसम सुखद मिलेगा । वहीँ दूसरी तरफ यदि आने वाले पर्यटक अगर बर्फबारी देखने के इच्छुक हैं तो ऐसे लोगों के लिए नवंबर और फरवरी के बीच का समय परफेक्ट है। अगर बात पहलगाम आने के सबसे अच्छे समय की हो तो जुलाई और अगस्त का समय यहाँ की यात्रा के लिए ठीक है साथ ही इस दौरान हजारों तीर्थयात्रियों को अमरनाथ घाटी की यात्रा करते हुए देखा जा सकता है। पहलगाम आने वाले पर्यटक आपनी वापसी के समय यहाँ से स्थानीय हस्तशिल्प कालीन, शॉल, और पारंपरिक पैटर्न में कपड़े आदि खरीदकर ले जा सकते हैं।
जन जीवन - यहाँ के लोग बहुत सीधे-साधे हैं। ज्यादातर लोग गरीब हैं। शिक्षा का प्रसार बहुत कम है। पुरुष मजदूरी करते हैं और स्त्रियां खेत का काम करती हैं। यहाँ की लड़कियां सुंदरता के लिए प्रसिद्ध हैं। पुरुष एक ढीला चोगा नुमा वस्त्र पहनते हैं जिसे 'फिरोन' कहते हैं। स्त्रियां दुपट्टे से एक विशेष ढंग से सर को बांधे रखती हैं।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 02.05.2022
References
- ↑ "Jammu, Kashmir, Ladakh: Ringside Views," Onkar Kachru and Shyam Kaul, Atlantic Publishers, 1998, ISBN 9788185495514
पहलगांव-श्रीनगर-गन्धरबल (कश्मीर)
22.5.1981: पहलगाम-श्रीनगर-गन्धरबल (वाया बिजबिहारा, अवंतिपुर, पामपुर, पंडरेथन) - कुल दूरी लगभग 100 किमी है।
पहलगाम से सुबह 10 बजे रवाना हुए। पहलगाम से दक्षिण में 30 किमी दूरी पर अनंतनाग के रास्ते में अनंतनाग से पहले स्थित छानी ग्राम से सड़क बिजबेहरा की तरफ पश्चिम में मुड़ जाती है और 20 किमी चलने पर बिजबेहरा में जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय मार्ग-44 से मिल जाते हैं। बिजबेहरा से श्रीनगर का 50 किमी का रास्ता बहुत अच्छा है और दोनों तरफ पॉपलर के आकाश को चूमते हुए पेड़ों से सजा हुआ है।
रास्ते में प्राचीन ऐतिहासिक स्थान अवंतिपुर पड़ता है। अवंतिपुर जम्मू और कश्मीर का प्राचीन नगर था। अवंतिपुर का मन्दिर कश्मीर के प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर की वास्तु परंपरा में बनाया गया था। दो प्राचीन और काफी बड़े मंदिरों - अवन्तिस्वामी मंदिर और अवन्तिश्वर मंदिर के अवशेष तो सड़क के बिलकुल पास ही हैं।
अवंतिपुर और श्रीनगर के बीच में बडगाम जिले का गोरीपोरा; पुलवामा जिले के लेथपोरा, पामपोर आदि गाँव पड़ते हैं।
श्रीनगर से गन्धरबल लगभग 20 किमी है। हम करीब दो बजे गन्धरबल पहुँच गए।
पहलगाम से श्रीनगर के रास्ते में पड़ने वाले स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
बिजबेहरा (Bijbehara): भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के अनन्तनाग ज़िले में स्थित एक नगर और तहसील है।
नामकरण: बिजबिहारा का उल्लेख कल्हण की राजतरंगिणी में मिलता है, जिसमें यहाँ के चक्रधर और विज्येश्वर मंदिरों की प्रसिद्धी का वर्णन है। शहर का नाम विजयेश्वर से उत्पन्न मानाजाता है जो परिवर्तित होकर बिजबिहारा बना।
अलेक्जेन्डर कन्निंघम[1] ने लेख किया है कि बिजबिहारा अथवा विजिपर नाम का प्राचीन शहर बेहट नदी के दोनों किनारों पर राजधानी से 25 किमी दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इसका मूल नाम विजयपर था जो प्राचीन विजयेश मंदिर के नाम पर पड़ा है जिसके प्रमाण अभी भी मिलते हैं।
कल्हण की राजतरंगिणी [2] में इस स्थान को विज्जविहार (Vijjavihara) बताया गया है जो द्वार देश के अधिपति धन्य (1127 ई.) की स्वर्गवासी पत्नी विज्ज के नाम पर निर्मित विहार के आधार पर पड़ा है।
दारा शिकोह (1615 – 1659 ई.) ने झेलम नदी पर मुगल गार्डन के समीप 100 गज लंबा और 6 गज चौड़ा एक पुल बनाया था जो बाढ़ में नष्ट हो गया। गुरु नानक इस स्थान पर आए थे जिनकी याद में एक गुरुद्वारा निर्मित किया गया है।
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है .....बीजबहेरा अथवा 'बिजबेहरा' (AS, p.634) श्रीनगर, कश्मीर से 28 मील (लगभग 44.8 कि.मी.) की दूरी पर स्थित है। इस स्थान पर एक अति प्राचीन चिनार का वृक्ष है। कहा जाता है कि यही वृक्ष सबसे पहले ईरान से कश्मीर लाया गया था। चिनार के वृक्ष को कश्मीर के प्रसिद्ध और सुंदर वृक्षों में माना गया है। बीजबहेरा का चिनार वृक्ष कश्मीर के चिनारों का आदिजनक माना जाता है। इस वृक्ष का तना भूमितल पर 54 फुट है, किंतु अब यह वृक्ष अंदर से खोखला हो गया है। बीजबहेरा के इस ऐतिहासिक वृक्ष से भारत-ईरान के प्राचीन संबंधों के बारे में सूचना मिलती है।
अवंतिपुर अथवा अवंतीपोरा (Awantipora) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के पुलवामा ज़िले में स्थित एक नगर और तहसील है। [4] अवन्तिपोरा राष्ट्रीय राजमार्ग-44 (पुराना नाम राष्ट्रीय राजमार्ग-1ए) पर अनन्तनाग और श्रीनगर के मध्य में पड़ता है। अवंतिपुर पामपोर से 6 किमी पूर्व में, श्रीनगर से 29 किमी दक्षिण-पूर्व में और Pahalgam से 70 किमी की दूरी पर झेलम नदी पर स्थित है।
नामकरण: अवन्तिपोरा का नाम राजा अवन्ति वर्मन के नाम पर पड़ा है। अवंतिपुर की स्थापना उत्पल राजवंश के प्रथम राजा अवंतिवर्मन द्वारा की गई थी जिन्होंने 855-883 ई. में कश्मीर पर शासन किया।[5] अवंतिवर्मन ने अवंतिपुर में राजा बनने से पहले विष्णु को समर्पित अवन्तिस्वामी मंदिर बनाया था। उनके शासन काल में अवन्तिश्वर नाम से शिव को समर्पित दूसरे हिंदू मंदिर का निर्माण किया। मध्य-काल में इनका विध्वंश कर दिया गया था परंतु मंदिरों के अवशेष अभी भी विद्यमान हैं। राजा ललितादित्य द्वारा बनवाए गये मन्दिरों के भी यहाँ अवशेष मिलते हैं। यह सभी मन्दिर भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संरक्षित किये गये हैं।
अवंतिपुर (कश्मीर) (AS, p.45) - अवंतिपुर जम्मू और कश्मीर का प्राचीन नगर था। अवंतिपुर का मन्दिर कश्मीर के प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर की वास्तु परंपरा में बनाया गया था।[6]
लेथपोरा भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के पुलवामा ज़िले में स्थित एक बस्ती है। लेथपोरा का मूल नाम ललितपुर (Lalitpur) था। लेथपोरा श्रीनगर से 21 किमी दक्षिण में झेलम नदी के किनारे बसा हुआ है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग-44 (पुराना नाम राष्ट्रीय राजमार्ग-1ए) पर स्थित है। कश्मीर के सूखे मेवे जैसे अखरोट और बादाम खरीदने के लिए लेथपोरा एक मुख्य बाजार है। यहाँ से विश्व प्रसिद्ध केशर भी खरीद सकते हैं।
नामकरण: इसका नाम कर्कोटा राजवंश के शक्तिशाली नरेश ललितादित्य मुक्तपीड पर रखा गया था। [7] विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ...ललितपुर (AS, p.813) = लाटपौर (कश्मीर) नानक इस प्राचीन नगर की स्थापना कश्मीर के प्रतापी नरेश ललितादित्य मुक्तापीड़ (r. 724 CE–760 CE) ने सातवीं सदी में की थी। ललितादित्य की विजय यात्राओं तथा उसके शासनकाल का वर्णन कल्हण ने राजतरंगिणी में किया है।[9]
पम्पोर (Pampore) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के पुलवामा ज़िले में स्थित एक नगर और तहसील है। यह बेहट नदी (झेलम) के पूर्वी किनारे पर राजधानी से 11 किमी दूर दक्षिण-पूर्व में अवन्तिपुर के मध्य रास्ते में स्थित है।
नामकरण: अलेक्जेंडर कन्निंघम [10] ने लिखा है कि वर्तमान पामपुर का नाम पूर्व में पद्मपुर था। इसकी स्थापना कश्मीर के राजा वृहस्पति (r.832-844 ई.) के मंत्री पद्म द्वारा की गई थी। [11] कल्हण ने राजतरंगिणी[12] में लिखा है कि कश्मीर के राजा वृहस्पति के मंत्री पद्म ने पद्मस्वामी मंदिर का निर्माण किया और स्वयं के नाम से पद्मपुर नगर की स्थापना की।
कश्मीरी केसर: पम्पोर केसर की कृषि व उत्पादन के लिए भारत-भर में प्रसिद्ध है। यहाँ पर केशर की बहुत पैदावार होती है। कश्मीरी केसर में ईरानी केसर के रंग, स्पेन के केसर के स्वाद के साथ अपनी एक ख़ास सुगंध होती है जो इसे बेहतरीन बनाती है। कश्मीर के चार ज़िलों पुलवामा, बडगाम, श्रीनगर, किश्तवार में केसर की खेती होती है| इसमें 86% केसर की खेती अकेले पुलवामा ज़िले के पाम्पोर में होती है| पाम्पोर को भारतीय केसर का घर भी कहा जाता है| भारत में केसर की खेती के कुल इलाक़ों को जोड़ा जाए तो वह केवल 3715 हेक्टेयर बैठेगा| प्रति हेक्टेयर तीन से चार किलो केसर की खेती होती है| कश्मीर का केसर मसालों के बाज़ार में विशेष स्थान रखता है| [13] दुनिया का सबसे बेहतरीन केसर पाम्पोर में ही उगता है। साथ ही अक्टूबर और नवम्बर में केवल दो हफ्तों के लिए ही यह फूल खिलता है। हलके नीले रंग का यह फूल अपने अन्दर केसर की लड़ियों को छुपा कर रखता है और इन ही से बनता है दुनिया का सबसे महंगा मसाला- जो 3-3.5 लाख रुपये प्रति किलोग्राम बिकता है। पूरे विश्वभर में 2 या 3 ऐसे देश हैं जहां केसर उगता है पैर कश्मीर का केसर पूरे विश्व में मशहूर है। केसर को हासिल करने के लिए एक एक करके फूलों को चुना जाता है। केसर को बाकी फूल से अलग करके सुखाया जाता है। एक किलो केसर के लिए 70-80 हज़ार फूलों को चुनना पड़ता है।[14]
Source - Facebook Post of Laxman Burdak,08.05.2022
References
- ↑ The Ancient Geography of India/Kingdom of Kashmir,pp.98-99
- ↑ Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII (ii), p.310
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.634
- ↑ "Jammu, Kashmir, Ladakh: Ringside Views," Onkar Kachru and Shyam Kaul, Atlantic Publishers, 1998, ISBN 9788185495514
- ↑ "Avantiswami Temple, Avantipur". Archeological Survey of India.
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.45
- ↑ "Jammu, Kashmir, Ladakh: Ringside Views," Onkar Kachru and Shyam Kaul, Atlantic Publishers, 1998, ISBN 9788185495514
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.813
- ↑ Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book IV,p.71
- ↑ The Ancient Geography of India/Kingdom of Kashmir, p.102
- ↑ ' Raja Tarangini,' iv. 69-1.
- ↑ Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book IV,p.103
- ↑ https://www.dnaindia.com/hindi/business/report-kashmir-saffron-price-touches-lakhs-4000237
- ↑ https://www.abplive.com/news/india/saffron-flowers-blooming-in-kashmir-enthusiasm-shown-among-tourists-to-see-the-wonderful-view-ann-1991983
गान्दरबल - श्रीनगर (कश्मीर)
22.5.1981 को हम करीब दिन के दो बजे गन्धरबल पहुँच गए। हमारे कैम्प गन्धरबल में टूरिस्ट काम्प्लेक्स में लगे थे। 22.5.1981 - 27.5.1981 तक हमें गन्धरबल कैंप में रुककर आस-पास के क्षेत्रों का अध्ययन करना था। कैंप स्थल बहुत सुंदर था। टेंट लगाये गए थे जिसमें 3-3 अधिकारियों के रुकने की व्यवस्था थी। सभी टेंट और मैश आदि देहारादून से ही ले जाये गए थे। रोज सुबह मैश से एक गरम पानी की बाल्टी झेलम नदी के किनारे ले जाकर स्नान करते थे। यहाँ पर चिनार के ऊँचे और घने पेड़ हैं। पीछे से झेलम नदी बहती है। नदी का पानी बहुत ही ठंडा बर्फ जैसा है जिसमें सीधा स्नान करना सम्भव नहीं है। शाम को तैयार होकर 4 बजे फिर श्रीनगर गए और वहाँ 8 बजे तक बाजार में घूमे। रात को वापस गन्धरबल आ गए। गन्धरबल श्रीनगर से 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।
गान्दरबल परिचय
गान्दरबल (Ganderbal) भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य का एक ज़िला है। यह पहले श्रीनगर ज़िले का हिस्सा हुआ करता था जिसकी दो तहसीलों (गान्दरबल और कंगन) को लेकर 6 जुलाई 2006 को इस ज़िले का गठन किया गया। गान्दरबल का नामकरण प्रसिद्ध गान्दरभवन झरने के नाम पर पड़ा है। कल्हण की राजतरंगिनी[1] में इस स्थान का उल्लेख सन 1133 ई. में गंधर्वन के रूप में किया गया है। प्राचीन काल में सिल्क रोड का महत्वपूर्ण स्टेशन था और मध्य एशिया का प्रवेशद्वार माना जाता था। ज़िले के गठन के बाद इसमें छह तहसीलें निर्धारित करी गई: 1. गान्दरबल, 2. तुलमुल (जहाँ खीर भवानी मंदिर स्थित है), 3. वाकूरा, 4. लार, 5. कंगन, 6. गुंड
आज गन्धरबल से श्रीनगर गए। सड़क के किनारे ऊँचे-ऊँचे Populus alba के पेड़ों का बहुत सुंदर वृक्षारोपण किया गया है। इसको Silver poplar भी बोलते हैं क्योंकि इसकी पत्तियां सफ़ेद चाँदी जैसे रंग की होती हैं। इसके साथ Salix alba के वृक्ष भी लगाये गए हैं। भूमि कटाव रोकने के लिए यह नालों में रोपण किया जाता है। बहुत तेजी से बढ़ने वाली प्रजाति है। सबसे पहले श्रीनगर में शंकराचार्य हिल एवं शिव मंदिर देखने गए। पश्चात में श्रीनगर के दर्शनीय स्थानों यथा निशातबाग, चश्मा-ई-शाही, हरी पर्वत आदि देखे।
निशातबाग: निशात बाग़ भारत के केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में श्रीनगर के निकट डल झील के पूर्व में स्थित सीढ़ीनुमा मुग़ल बाग़ है। यह कश्मीर घाटी का सबसे बड़ा मुग़ल बाग़ है। निशात बाग़ शब्द उर्दू भाषा का शब्द है जिसका हिन्दी अर्थ "हर्ष का उद्यान" अथवा "खुशियों का बगीचा" है। यह दश टेरेस में विभक्त है जो एक के ऊपर एक बनी दिखाई देती हैं। यह यहाँ की सबसे आकर्षक जगह है। ठीक बगीचे के बीचों-बीच एक जलधारा बहती है जिसमें अनेक फव्वारे लगे हैं। अनेक शैलानी यहाँ घूमने आते हैं तब इसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
चश्मा-ई-शाही : यह बहुत ही सुन्दर बगीचा पहाड़ी के ठीक नीचे बना हुआ है जिसे शाहजहां ने बनाया था। यहाँ बहुत शांत वातावरण है। एक झरने का ठंडा पानी बहता है जो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक बताया जाता है। चारों तरफ गुलाब के अनेक रंगों के फूल हैं जहाँ प्रेमी लोग अलग से अपना कोना ढूंढ लेते हैं और अन्य पर्यटक लोगों का दिल जलाते हैं। कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए फूल तोड़ कर उसके जूड़े में सजा रहा है तो कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका का विभिन्न पोज में फ़ोटो लेने में मस्त है। कुछ जोड़े तो यहाँ इतने सुन्दर हैं कि लोग उनको दूर तक मन्त्र-मुग्ध होकर देखते जाते हैं। शायद इसीलिए इस बगीचे को 'गार्डन ऑफ़ लव' कहा जाता है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
हरि पर्वत: यह एक छोटी पहाड़ी है जो श्रीनगर से 6 कि.मी. की दूरी पर डल झील के पश्चिम ओर स्थित है। इस पर 1590 ई. में अकबर का बनाया एक किला है। हरी पर्वत पर एक बड़ा मन्दिर है जिसे शारिका देवी मन्दिर कहते हैं। यहाँ पार्वती की शारिका के रूप में पूजा की जाती है। यहाँ एक बड़ा पानी का टैंक है। वन विभाग द्वारा इस पहाड़ी पर 1975 में वृक्षारोपण किया गया है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
शंकराचार्य पर्वत: शंकराचार्य हिल पर शिव मंदिर बना है जिसे अक्षर शंकराचार्य मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर वर्ष 371 ई. पू. तत्कालीन राजा गोपादित्य (Gopaditya) (400-340 BC) ने बनाया था। कल्हण ने राजतरंगिणी[2] में लिखा है कि कश्मीर विजय की प्रत्याशा में राजा गोपादित्य ने युधिष्ठिर के प्रपौत्र को शरण दी थी। इसका पुनर्निर्माण ललितादित्य (Lalitaditya Muktapida) (r. 724 CE–760 CE) ने 8 वीं शदी में किया था। डॉ कर्ण सिंह ने इसमें शंकराचार्य की मूर्ति स्थापित की। शंकराचार्य का जन्म यहीं हुआ था जो बाद में दक्षिण में चले गए। उन्होंने भारत के चारों कोनों पर चार धाम स्थापित किये। शंकराचार्य हिल पर बहुत अच्छा वृक्षारोपण किया गया है। जिसका अध्ययन किया गया। आज से 40 वर्ष पहले जब यहाँ वृक्षारोपण प्रारम्भ किया गया था तो यह मात्र नग्न पहाड़ी थी जिस पर कुछ भी नहीं उगता था। अब तो इस पर बहुत ही मनमोहक वन बन चुका है।
शंकराचार्य मंदिर जम्मू और कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में डल झील के पास शंकराचार्य पर्वत या गोपाद्री पर्वत पर स्थित प्राचीन शिव मंदिर है। इसे 'ज्येष्ठेश्वर मंदिर' भी कहते हैं। यह मंदिर समुद्र तल से 1100 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। शंकराचार्य मंदिर को तख़्त-ए-सुलेमन के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर कश्मीर स्थित सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण राजा गोपादात्य ने 371 ई. पूर्व में करवाया था। डोगरा शासक महाराजा गुलाब सिंह ने मंदिर तक पँहुचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई थी। इस मंदिर की वास्तुकला भी काफ़ी ख़ूबसूरत है। जगदगुरु शंकराचार्य अपनी भारत यात्रा के दौरान यहाँ आये थे। उनका साधना स्थल आज भी यहाँ बना हुआ है। ऊँचाई पर होने के कारण यहाँ से श्रीनगर और डल झील का बेहद ख़ूबसूरत नज़ारा दिखाई देता है।
निशातबाग (Nishat Bagh): निशात बाग़ भारत के केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में श्रीनगर के निकट डल झील के पूर्व में स्थित सीढ़ीनुमा मुग़ल बाग़ है। यह कश्मीर घाटी का सबसे बड़ा मुग़ल बाग़ है। निशात बाग़ शब्द उर्दू भाषा का शब्द है जिसका हिन्दी अर्थ "हर्ष का उद्यान" अथवा "खुशियों का बगीचा" है। यह दश टेरेस में विभक्त है जो एक के ऊपर एक बनी दिखाई देती हैं। यह यहाँ की सबसे आकर्षक जगह है। ठीक बगीचे के बीचों-बीच एक जलधारा बहती है जिसमें अनेक फव्वारे लगे हैं। अनेक शैलानी यहाँ घूमने आते हैं तब इसकी शोभा और भी बढ़ जाती है। निशात बाग़ की परिकल्पना नूरजहाँ के बड़े भाई आसिफ खान द्वारा 1633 ई. ईरानी बगीचों की तर्ज पर तैयार की गई थी। निशातबाग में मुग़ल बादशाह आलमगीर II की पुत्री और बादशाह जहानदार शाह की पोती जूहरा बेगम को दफ़नाया गया है।
चश्मा-ए-शाही
चश्मा-ए-शाही (Chashme-Shahi) जम्मू और कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में स्थित एक बाग़ है। श्रीनगर के मुग़ल बाग़ों में यह सबसे छोटा बाग़ है। चश्मा शाही नेहरू मेमोरियल पार्क के ऊपर स्थित है। इसे शाहजहां के गवर्नर अली मरदान खान ने 1632 ई. में दारा शिकोह को उपहार स्वरूप बनाया बनाया था। चश्मा शाही के पूर्व में परी महल स्थित है जहाँ दारा शिकोह खगोल-विज्ञान सीखते थे और वहीं बाद में औरंजेब ने दारा शिकोह की हत्या कर दी थी।
चश्मा शाही बाग़ यहाँ से झरने के रूप में फूटने वाले अपने सुपाच्य मिनरल वाटर के लिये प्रख्यात है। चश्मा शाही डल झील तथा आसपास की पहाड़ियों का अत्यन्त सुन्दर, मनमोहक और रम्य दृश्य प्रस्तुत करता है। यह बहुत ही सुन्दर बगीचा पहाड़ी के ठीक नीचे बना हुआ है। यहाँ बहुत शांत वातावरण है। एक झरने का ठंडा पानी बहता है जो स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक बताया जाता है। चारों तरफ गुलाब के अनेक रंगों के फूल हैं जहाँ प्रेमी लोग अलग से अपना कोना ढूंढ लेते हैं और अन्य पर्यटक लोगों का दिल जलाते हैं। कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए फूल तोड़ कर उसके जूड़े में सजा रहा है तो कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका का विभिन्न पोज में फ़ोटो लेने में मस्त है। कुछ जोड़े तो यहाँ इतने सुन्दर हैं कि लोग उनको दूर तक मन्त्र-मुग्ध होकर देखते जाते हैं। शायद इसीलिए इस बगीचे को 'गार्डन ऑफ़ लव' कहा जाता है।
हरि पर्वत, श्रीनगर
हरि पर्वत (Hari Parbat) जम्मू-कश्मीर की राजधानी श्रीनगर में डल झील के पश्चिम ओर स्थित है। इस छोटी पहाड़ी के शिखर पर इसी नाम का एक किला बना है जिसका अनुरक्षण जम्मू कश्मीर सरकार के पुरातत्व विभाग के अधीन है। इस किले में भ्रमण हेतु पर्यटकों को पहले पुरातत्त्व विभाग से अनुमति लेनी होती है। क़िले का निर्माण एक अफ़ग़ान गर्वनर मुहम्मद ख़ान ने 18वीं शताब्दी में करवाया था। 1590 ई. में मुग़ल सम्राट अकबर द्वारा इस क़िले की चहारदीवारी का निर्माण करवाया गया।[3]
पौराणिक सन्दर्भ: एक पौराणिक कथा के अनुसार, पौराणिक काल में यहां एक बड़ी झील हुआ करती थी, जिस पर जालोभाव नामक दैत्य का अधिकार था जो लोगों को खूब सताता था। तब लोगों ने भगवान शिव की अर्धांगिनी एवं कश्मीर की अधिष्ठात्री देवी माता सती से सहायता की प्रार्थना की। तब सती माता एक चिड़िया का रूप (शारिका) धारण करके प्रकट हुईं एवं उस राक्षस के सिर पर एक छोटा सा पत्थर रख दिया जो धीरे-धीरे आकार में बढ़ता गया और राक्षस का सिर कुचल गया। हरी पर्वत पर एक बड़ा मन्दिर है जिसे शारिका देवी मन्दिर कहते हैं। यहाँ पार्वती की शारिका के रूप में पूजा की जाती है।
इसी पर्वत पर एक गुरुद्वारा भी स्थित है। इसे छट्टी पादशाही का गुरुद्वारा भी कहते हैं जो रैनावाड़ी में स्थित है। कहते हैं छठे सिख गुरु हरगोबिन्द सिंह यहां पधारे थे।
हज़रतबल:
हज़रतबल (Hazratbal) भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर में स्थित एक प्रसिद्ध दरगाह है। मान्यता है कि इसमें इस्लाम के नबी, पैग़म्बर मुहम्मद, का एक दाढ़ी का बाल रखा हुआ है, जिस से लाखों लोगों की आस्थाएँ जुड़ी हुई हैं। कश्मीरी भाषा में 'बल' का अर्थ 'जगह' होता है, और हज़रतबल का अर्थ है 'हज़रत (मुहम्मद) की जगह'। हज़रतबल डल झील की बाई ओर स्थित है और इसे कश्मीर का सबसे पवित्र मुस्लिम तीर्थ माना जाता है। फ़ारसी भाषा में 'बाल' को 'मू' या 'मो' कहा जाता है, इसलिए हज़रतबल में सुरक्षित बाल को 'मो-ए-मुक़द्दस' या 'मो-ए-मुबारक' (पवित्र बाल) भी कहा जाता है।
हज़रतबल को लेकर यह मान्यता है कि पैग़म्बर मुहम्मद के वंशज सय्यद अब्दुल्लाह सन् 1635 में मदीना से चलकर भारत आये और आधुनिक कर्नाटक राज्य के बीजापुर क्षेत्र में आ बसे। अपने साथ वह इस पवित्र केश को भी लेकर आये। जब सय्यद अब्दुल्लाह का स्वर्गवास हुआ तो उनके पुत्र, सय्यद हामिद, को यह पवित्र केश विरासत में मिला। उसी काल में मुग़ल साम्राज्य का उस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा हो गया और सय्यद हामिद की ज़मीन-सम्पत्ति छीन ली गई। मजबूर होकर उन्हें यह पवित्र-वस्तु एक धनवान कश्मीरी व्यापारी, ख़्वाजा नूरुद्दीन एशाई को बेचनी पड़ी। व्यापारी द्वारा इस लेनदेन के पूरा होते ही इसकी भनक मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब तक पहुँच गई, जिसपर यह बाल नूरुद्दीन एशाई से छीनकर अजमेर शरीफ़ में मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर भेज दिया गया और व्यपारी को बंदी बना लिया गया। कुछ अरसे बाद औरंगज़ेब का मन बदल गया और उसने बाल नूरुद्दीन एशाई को वापस करवाया और उसे कशमीर ले जाने की अनुमति दे दी। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी और नूरुद्दीन एशाई ने कारावास में ही दम तोड़ दिया था। पवित्र बाल उनके शव के साथ सन् 1700 में कश्मीर ले जाया गया जहाँ उनकी पुत्री, इनायत बेगम, ने पवित्र वस्तु के लिये दरगाह बनवाई। इनायत बेगम का विवाह श्रीनगर की बान्डे परिवार में हुआ था इसलिये तब से इसी बान्डे परिवार के वंशज इस पवित्र केश की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार हो गये।[4]
श्रीनगर (Srinagar): भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य का सबसे बड़ा शहर और ग्रीष्मकालीन राजधानी है। कश्मीर घाटी के मध्य में बसा यह नगर भारत के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है। यह झेलम नदी के किनारे बसा हुआ है, जो सिन्धु नदी की एक प्रमुख उपनदी है। यहीं विश्व प्रसिद्ध डल झील और आंचार झील हैं।
श्रीनगर अपने उद्यानों व प्राकृतिक वातावरण के लिए जाना जाता है और यहाँ के कश्मीर शॉल व मेवा देशभर में प्रसिद्ध है। श्रीनगर विभिन्न मंदिरों व मस्जिदों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है। 1700 मीटर ऊंचाई पर बसा श्रीनगर विशेष रूप से झीलों और हाऊसबोट के लिए जाना जाता है। इसके अलावा श्रीनगर परम्परागत कश्मीरी हस्तशिल्प और सूखे मेवों के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है।
श्रीनगर का इतिहास काफी पुराना है। माना जाता है कि इस जगह की स्थापना सम्राट अशोक मौर्य ने की थी। ये शहर और उसके आस-पार के क्षेत्र एक ज़माने में दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत पर्यटन स्थल माने जाते थे -- जैसे डल झील, शालिमार और निशात बाग़, गुलमर्ग, पहलगाम, चश्माशाही, आदि। यहाँ हिन्दी सिनेमा की कई फ़िल्मों की शूटिंग हुआ करती थी। श्रीनगर की हज़रतबल मस्जिद में माना जाता है कि वहाँ हजरत मुहम्मद की दाढ़ी का एक बाल रखा है। श्रीनगर में ही शंकराचार्य पर्वत है जहाँ विख्यात हिन्दू धर्मसुधारक और अद्वैत वेदान्त के प्रतिपादक आदि शंकराचार्य सर्वज्ञानपीठ के आसन पर विराजमान हुए थे। डल झील और झेलम नदी में आने जाने, घूमने और बाज़ार और ख़रीददारी का ज़रिया ख़ास तौर पर शिकारा नाम की नावें हैं। कमल के फूलों से सजी रहने वाली डल झील पर कई ख़ूबसूरत नावों पर तैरते घर भी हैं जिनको हाउसबोट कहा जाता है।
श्रीनगर से कुछ दूर एक बहुत पुराना मार्तण्ड (सूर्य) मन्दिर है। कुछ और दूर अनन्तनाग ज़िले में शिव को समर्पित अमरनाथ गुफा है जहाँ हज़ारों तीर्थयात्री जाते हैं। श्रीनगर से तीस किलोमीटर दूर मुस्लिम सूफ़ी संत शेख़ नूरुद्दिन वली की दरगाह चरार-ए-शरीफ़ है।
श्रीनगर केवल प्राकृतिक सौंदर्य ही नहीं, वास्तु विरासत की दृष्टि से भी खूब समृद्ध है। यहां कई सुंदर मस्जिदें हैं। हजरत बल यहां का महत्वपूर्ण धर्मस्थल है। यहां हजरत मोहम्मद का बाल संग्रहीत होने के कारण मुसलिम समुदाय के लिए यह अत्यंत पवित्र स्थान है। संगमरमर की बनी इस सफेद इमारत का गुंबद दूर से ही पर्यटकों को इसकी भव्यता का एहसास कराता है। शाह हमदान मसजिद होने के कारण प्रसिद्ध है। 1395 में इसका पहली बार जीर्णोद्धार हुआ था। इसके बाद कई बार इसका जीर्णोद्धार किया गया। यहां की जामा मसजिद भी लकडी द्वारा निर्मित मसजिद है। इसकी इमारत तीन सौ से अधिक स्तंभों पर खडी है। ये स्तंभ देवदार वृक्ष के तने के हैं। इनके अतिरिक्त पत्थर मस्जिद, दस्तगीर साहिब एवं मख्दूम साहिब भी देखने योग्य हैं। श्रीनगर के मध्य हरीपर्वत पहाडी पर 16वीं शताब्दी में बना एक किला भी पर्यटकों को आकर्षित करता है। इसका निर्माण अफगान गवर्नर अता मुहम्मद खान ने करवाया था। अकबर ने इस किले का विस्तार किया था। दूसरी ओर डल झील के सामने तख्त-ए-सुलेमान पहाडी है। उसके शिखर पर प्रसिद्ध शंकराचार्य मंदिर है। यह प्राचीन मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। 10वीं शताब्दी में आदि गुरु शंकराचार्य यहां आए थे, जिसके कारण इस मंदिर का यही नाम पड गया। पहाडी से एक ओर डल झील का विस्तार तो दूसरी ओर श्रीनगर का विहंगम दृश्य देखते बनता है। पृष्ठभूमि में हिमशिखरों की भव्य कतार साफ नजर आती है।
श्रीनगर घाटी का मुख्य व्यावसायिक केंद्र भी है। अन्य पर्वतीय स्थलों की तुलना में यह शहर कुछ अलग लगता है। यहां के घर व बाजार पहाडी ढलानों पर नहीं बसे। एक विस्तृत घाटी के मध्य स्थित होने के कारण यह मैदानी शहरों जैसा लगता है। किंतु पृष्ठभूमि में दिखाई पडते बर्फाछादित पर्वत शिखर यह एहसास कराते हैं कि सैलानी वास्तव में समुद्रतल से 1730 मीटर ऊंची सैरगाह में हैं। हाउसबोट में रहने वालों को जब कहीं आना-जाना होता है तो पहले वे शिकारे से सडक तक आते हैं। झील के सौंदर्य को निरखने के लिए शिकारे से जरूर घूमना चाहिए। इस तरह घूमते हुए शॉल, केसर, आभूषण, फूल आदि बेचने वाले अपने शिकारे में सजी दुकान के साथ आपके करीब आते रहेंगे। यही नहीं, आप पानी में तैरते फोटो स्टूडियो में कश्मीरी ड्रेस में अपनी तसवीर भी खिंचवा सकते हैं।
बादशाहों का उद्यान प्रेम: मुगल बादशाहों को वादी-ए-कश्मीर ने सबसे अधिक प्रभावित किया था। यहां के मुगल गार्डन इस बात के प्रमाण हैं। ये उद्यान इतने बेहतरीन और नियोजित ढंग से बने हैं कि मुगलों का उद्यान-प्रेम इनकी खूबसूरती के रूप में यहां आज भी झलकता है। मुगल उद्यानों को देखे बिना श्रीनगर की यात्रा अधूरी-सी लगती है। अलग-अलग खासियत लिए ये उद्यान किसी शाही प्रणय स्थल जैसे नजर आते हैं। शाहजहां द्वारा बनवाया गया चश्म-ए-शाही इनमें सबसे छोटा है। यहां एक चश्मे के आसपास हरा-भरा बगीचा है। इससे कुछ ही दूर दारा शिकोह द्वारा बनवाया गया परी महल भी दर्शनीय है। निशात बाग 1633 में नूरजहां के भाई द्वारा बनवाया गया था। ऊंचाई की ओर बढते इस उद्यान में 12 सोपान हैं। शालीमार बाग जहांगीर ने अपनी बेगम नूरजहां के लिए बनवाया था। इस बाग में कुछ कक्ष बने हैं। अंतिम कक्ष शाही परिवार की स्त्रियों के लिए था। इसके सामने दोनों ओर सुंदर झरने बने हैं। मुगल उद्यानों के पीछे की ओर जावरान पहाडियां हैं, तो सामने डल झील का विस्तार नजर आता है। इन उद्यानों में चिनार के पेडों के अलावा और भी छायादार वृक्ष हैं। रंग-बिरंगे फूलों की तो इनमें भरमार रहती है। इन उद्यानों के मध्य बनाए गए झरनों से बहता पानी भी सैलानियों को मुग्ध कर देता है। ये सभी बाग वास्तव में शाही आरामगाह के उत्कृष्ट नमूने हैं।
श्रीनगर का इतिहास (AS, p.919): जम्मू–कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी, झेलम नदी के तट पर बसे श्रीनगर की नींव, कल्हणरचित राजतरंगिणी, 1, 5,104 (स्टाइन का अनुवाद) के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक ने डाली थी। उसने कश्मीर की यात्रा 245 ई. पू. में की थी। इस तथ्य को देखते हुए श्रीनगर लगभग 2200 वर्ष प्राचीन नगर ठहरता है। अशोक का बसाया हुआ नगर वर्तमान श्रीनगर से प्रायः 3 मील उत्तर में बसा हुआ था। प्राचीन नगर की स्थिति को आजकल पांडरेथान अथवा प्राचीन स्थान कहा जाता है।
महाराज ललितादित्य यहाँ का प्रख्यात हिन्दू राजा था। इसका शासनकाल 700 ई. के लगभग था। इसने श्रीनगर की श्रीवृद्धि की तथा कश्मीर के राज्य का दूर-दूर तक विस्तार भी किया। इसने झेलम पर कई पुल बंधवाए तथा नहरें बनवाईं। श्रीनगर में हिन्दू नरेशों के समय के अनेक प्राचीन मन्दिर थे, जिन्हें मुसलमानों के शासनकाल में नष्ट–भ्रष्ट करके उनके स्थान पर दरगाहें व मस्जिद बना ली गई थीं। झेलम के तीसरे पुल पर महाराज नरेन्द्र द्वितीय का 180 ई. के लगभग बनवाया हुआ नरेन्द्र स्वामी (Shrinarendreshvara) का मन्दिर था। यह नरपीर की ज़ियारतगाह के रूप में परिणत कर दिया गया था।
चौथे पुल के निकट नदी के दक्षिणी तट पर पाँच शिखरों वाला मन्दिर महाश्रीमन्दिर नाम से विख्यात था; इसे महाराज प्रवरसेन द्वितीय ने अपार धन–राशि व्यय कर निर्मित करवाया था। 1404 ई. में कश्मीर के शासक शाह सिकन्दर की बेगम की मृत्यु होने पर उसे इस मन्दिर के आँगन में दफ़ना दिया गया और उसी समय से यह विशाल मन्दिर मक़बरा बन गया। कश्मीर का प्रसिद्ध सुल्तान जैनुलआबदीन, जिसे कश्मीर का अकबर कहा जाता [p.920]:है, इसी मन्दिर के प्रांगण में दफ़नाया गया था। यह स्थान मक़बरा शाही के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कहा जाता है कि नदी के छठे पुल के समीप, दक्षिणी तट पर महाराज युधिष्ठर के मंत्री स्कंदगुप्त द्वारा बनवाया एक अन्य मन्दिर भी था। इसे पीर बाशु की ज़ियारतगाह के रूप में परिणत कर दिया गया।
684-693 ई. में महाराज चंद्रापदी (Vajraditya) द्वारा बनवाया हुआ त्रिभुवन स्वामी (Tribhuvanasvami) का मन्दिर भी समीप ही स्थित था। इस पर टांगा बाबा नामक एक पीर ने अधिकार करके इसे दरगाह का रूप दे दिया। सुल्तान सिकन्दर ने 1404 ई. में जामा मस्जिद बनाने के लिए महाराज तारापदी (Tārapidā) द्वारा 693-697 में निर्मित एक प्रसिद्ध मन्दिर को तोड़ डाला और उसकी सारी सामग्री मस्जिद बनाने में लगा दी। 1623 ई. के लगभग बेगम नूरजहाँ ने, जब वह जहाँगीर के साथ कश्मीर आईं, सुलेमान पर्वत के ऊपर बना हुआ शंकराचार्य का मन्दिर देखा और इसकी पैड़ियों में लगे हुए बहुमूल्य पत्थर के टुकड़ों को उखड़वाकर उन्हें अपनी बनवाई हुई मस्जिद में लगवा दिया। केवल शंकराचार्य का मन्दिर ही अब श्रीनगर का प्राचीन हिन्दू स्मारक कहा जा सकता है। किंवदन्ती के अनुसार इस मन्दिर की स्थापना दक्षिण के प्रसिद्ध दार्शनिक शंकराचार्य ने 8वीं शती ई. में की थी। जहाँगीर तथा शाहजहाँ के समय के शालीमार तथा निशात नामक सुन्दर उद्यान, तथा इसी काल की कई मस्जिदें श्रीनगर के प्रमुख ऐतिहासिक स्मारक हैं। कहा जाता है कि निशातबाग़ नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ का बनवाया हुआ था। शालीमार का निर्माण जहाँगीर और उसकी प्रिय बेगम नूरजहाँ ने किया था। मुग़लों ने कश्मीर में 700 बाग़ लगवाए थे।
पांडरेथान (AS, p.537): कश्मीर, श्रीनगर से प्रायः 3 मील उत्तर में बसा हुआ था। कहा जाता है कि अशोक का बसाया हुआ श्रीनगर इसी स्थान पर था। यहाँ स्थित प्राचीन मंदिर वस्तुशैली की दृष्टि से अनंतनाग के प्रसिद्ध मार्तंड मंदिर की परंपरा में है।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak,14.05.2022
References
- ↑ Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII (i),p.195)
- ↑ Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book II,p.33
- ↑ भारतकोश- हरिपर्वत क़िला श्रीनगर
- ↑ Kashmir: Jammu, Kashmir Valley, Ladakh, Zanskar, Max Lovell-Hoare, Sophie Lovell-Hoare, P. 206, Published by Lonely Planet, 2014.
गान्दरबल - दाचीगम नेशनल पार्क - शालीमार बाग़ (कश्मीर)
24.5.1981: गान्दरबल - दाचीगम नेशनल पार्क - शालीमार बाग़
सुबह जल्दी ही तैयार होकर 6 बजे गन्धरबल से रवाना हुए। यह डल झील के पूर्व में श्रीनगर से 22 किमी दूर है। दाचीगम नेशनल पार्क में हंगल देखने का सर्वोत्तम समय सूर्योदय के साथ होता है। जब हंगुल खुले में बाहर आते हैं। हम वहाँ 7.30 बजे के करीब पहुंचे जो काफी लेट था। फिर भी हम घने जंगल के अंदर गए। कुछ देर इंतज़ार करने पर सामने की पहाड़ी पर खुली जगह से तीन हंगल गुजर रहे थे। इस तरह हंगुल देखने में हम सफल रहे। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
दाचीगम से लौटते हुए रास्ते में शालीमार गार्डन पड़ता है जहाँ हमने रुककर डेढ़ घंटा व्यतीत किया। यह उन सबसे बड़े उद्द्यानों में से है जो फव्वारों और विभिन्न प्रकार के प्रकाश से सुसज्जित है। इसको देख कर मुग़ल बादशाह जहांगीर और नूरजहां के प्यार की याद ताजा हो जाती है। इस उद्द्यान को बादशाह जहांगीर ने 1619 में बनवाया था। यहाँ फ़ारसी भाषा में जहांगीर का शिलालेख भी लगा है - 'गर फिरदौस रॉय-ए जमीन अस्त, हमीन अस्त-ओ हमीन अस्त-ओ हमीन अस्त' जिसका अर्थ है - 'यदि कहीं धरती पर स्वर्ग है तो यहीं है यहीं है यहीं है'। मुग़ल रोमांस पर इसमें शाम को 8 बजे ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम दिखाया जाता है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।
श्रीनगर से शालीमार गार्डन देखकर हम सीधे गन्धरबल आ गए।
दाचीगम नेशनल पार्क (Dachigam National Park) - कश्मीरी भाषा में "दाचीगाम" का अर्थ "दशग्राम" है। यह नाम बहुत प्राचीन है। कल्हण की राजतरंगिनी[1] में दशग्राम का उल्लेख किया गया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी (4.2.80.17) में दशग्राम का उल्लेख किया गया है। इस राष्ट्रीय उद्यान के क्षेत्र में दस गाँव हुआ करते थे, जिन्हें हटाकर यह संरक्षित क्षेत्र बनाया गया। पहाड़ों के बीच स्थित 141 वर्ग किमी एरिया, जिसमें से नदी बहती है, एक आदर्श अभ्यारण्य का नमूना है। इस क्षेत्र का चयन तत्कालीन महाराजा कश्मीर के द्वारा पीने के पानी के स्रोत के रूप में किया गया था। वर्ष 1931 में इसे 'रख' अर्थात गेम सेन्कचुरी घोषित किया गया। वर्ष 1951 में इसे सेन्कचुरी का दर्जा दिया गया। फ़रवरी 1981 में इसे नेशनल पार्क घोषित कर दिया है।
यह राष्ट्रीय उद्यान प्रसिद्ध डल झील के जलग्रहण क्षेत्र का लगभग आधे क्षेत्र पर अपना अधिकार रखता है और आज भी श्रीनगर के निवासियों को स्वच्छ पेयजल की आपूर्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। दाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान पश्चिमी हिमालय की ज़बरवन पर्वतमाला में स्थित है। उद्यान उच्च ऊंचाई वाले शीतोष्ण क्षेत्र में स्थित है। इसकी ऊँचाई 5500 फुट से 14000 फुट तक की है। ऊँचाई में इतनी विविधता के कारण यहाँ हल्की ढलान वाली घासभूमियों से लेकर ऊँची चट्टाने व पहाड़ हैं। उद्यान में पाए जाने वाले मुख्य पेड़ हैं – हिमालयी नम शीतोष्ण सदाबहार, नम पर्णपाती और झाड़ियां, देवदार, चीड़ एवं शाहबलूत (ओक)।
दाचीगाम विशेष रूप से कश्मीरी हंगुल (हिरण) के लिए प्रसिद्ध है। इसके अलावा यहाँ कस्तूरी मृग, हिम तेन्दुआ, हिमालय सराव, कश्मीर धूसर लंगूर, चीता बिल्ली, हिमालयी काला भालू, हिमालय भूरा भालू, गीदड़, पहाड़ी लोमड़ी, हिमालय रासू, जंगली बिल्ली और ऊदबिलाव मिलते हैं। वसंत और शरद ऋतु में नीचले इलाकों में हिमालयी काला भालू दिखाई देता है। सर्दी के मौसम में यह सो जाता है। लंबी पूंछ वाले मार्मोट गर्मी के मौसम में उपरी इलाकों में बहुत देखे जा सकते हैं जबकि चूहे के जैसे खरहे (Mouse Hare) पूरे वर्ष सक्रिए रहते हैं। पक्षियों में तीतर के कोकलास और मोनल, बुलबुल, मिनिवेट, बार्ड वल्चर, सुनहरे चील आम हैं।
शालीमार बाग़ (Shalimar Bagh): शालीमार बाग़ भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य में विख्यात उद्यान है जो मुगल बाग का एक उदाहरण है। इसे मुगल बादशाह जहाँगीर ने श्रीनगर में बनवाया था। श्रीनगर भारत के उत्तरतम राज्य जम्मू एवं कश्मीर की ग्रीष्म-कालीन राजधानी है। इसे जहाँगीर ने अपनी प्रिय एवं बुद्धिमती पत्नी मेहरुन्निसा के लिये बनवाया था, जिसे नूरजहाँ की उपाधि दी गई थी। इस बाग में चार स्तर पर उद्यान बने हैं एवं जलधारा बहती है। इसकी जलापूर्ति निकटवर्ती हरिवन बाग से होती है।[2] उच्चतम स्तर पर उद्यान, जो कि निचले स्तर से दिखाई नहीं देता है, वह हरम की महिलाओं हेतु बना था।[3] यह उद्यान ग्रीष्म एवं पतझड़ में सर्वोत्तम कहलाता है। इस ऋतु में पत्तों का रंग बदलता है एवं अनेकों फूल खिलते हैं। यही उद्यान अन्य बागों की प्रेरणा बना, खासकर इसी नाम से लाहौर, पाकिस्तान में निर्मित और विकसित बाग की। यह वर्तमान में एक सार्वजनिक बाग़ है। यह उन सबसे बड़े उद्द्यानों में से है जो फव्वारों और विभिन्न प्रकार के प्रकाश से सुसज्जित है। इसको देख कर मुग़ल बादशाह जहांगीर और नूरजहां के प्यार की याद ताजा हो जाती है। इस उद्द्यान को बादशाह जहांगीर ने 1619 में बनवाया था। इसके पूर्ण निर्माण होने पर जहाँगीर ने फारसी की वह प्रसिद्ध अभिव्यक्ति कही थी :“ यदि पृथ्वी पर कहीं स्वर्ग है, तो वह यहीं है, यहीं है, यहीं है। यहाँ फ़ारसी भाषा में जहांगीर का शिलालेख भी लगा है - 'गर फिरदौस रॉय-ए जमीन अस्त, हमीन अस्त-ओ हमीन अस्त-ओ हमीन अस्त'। मुग़ल रोमांस पर इसमें शाम को 8 बजे ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम दिखाया जाता है।
जनजीवन : शाम को गन्धरबल के आस-पास घूमने निकले। देखा कि यहाँ आमतौर पर लड़कियां ही खेतों में काम कर रही हैं। इस समय चावल की पौध रुपाई का कार्य चल रहा है। लड़कियां सर पर कपडा बांधे कतार में चावल की बुवाई का काम करती हैं जो एक सुंदर दृश्य प्रस्तुत करती हैं। यहाँ के आदमी हम लोगों को कुछ अजीब ढंग से देख रहे थे जैसे लगता हो कि हमारा यहाँ आना या उनके मोहल्ले में जाना उनको पसंद नहीं हो। लड़कियां कुछ भोली सी सूरत से देख लेती थी शायद उत्सुकता से। हम घूमते-घूमते काफी दूर निकल गए थे- नदी के किनारे किनारे। नदी के दूसरी तरफ का दृश्य अच्छा लग रहा था। उत्सुकता हुई कि दूसरी तरफ जाकर देखा जावे। एक नाव वाली लड़की को बोला तो वह दूसरे किनारे से नाव लाई। प्रत्येक के चार आने देकर हमने नदी को पार किया। एक पूरा चक्कर लेकर हम वापस गन्धरबल कैंप आ गये।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 23.05.2022
References
गान्दरबल - गुलमार्ग - खिलनमर्ग - खीर भवानी मंदिर (तुलमुल) - डलझील (श्रीनगर)
25.5.1981: गान्दरबल - गुलमार्ग - खिलनमर्ग - डलझील
झेलम नदी में दुर्घटना: 25.5.1981 को सुबह ही लेखक (लक्ष्मण बुरड़क) के साथ एक दुर्घटना घटी जो बहुत खतरनाक जानलेवा साबित हो सकती थी। सुबह मैं और राजस्थान के हीरालाल मीना सरसों के तेल की मालिस कर झेलम नदी के किनारे कैम्प में स्नान कर रहे थे। मैनें आधा स्नान किया था। खाली बाल्टी भरने के लिए नदी के किनारे पैर रखकर बाल्टी भरी। जैसे ही बाल्टी पानी से बाहर निकाली, नदी के किनारे की मिटटी खिसकी और मैं बाल्टी सहित झेलम में डूब गया। सुबह-सुबह नदी में पानी बढ़ जाता है। किनारे पर ही पानी डूबने के लिए पर्याप्त था और मैं बाल्टी भरीहुई होने से इसके वजन के कारण नदी के पैंदे तक पहुँच गया। बाल्टी को छोड़कर खड़े होने की कोशिश की तो चप्पल कीचड में धंस गयी। चप्पल मैंने नीचे ही छोड़ी और पानी के तेज बहाव के कारण पानी के साथ-साथ बहने लगा। मेरे साथी हीरा लाल यह देखकर घबरा गये और मुझे बचाने के लिए नदी में कूद पड़े। मैंने पहले तो हीरा लाल का हाथ पकड़ा परन्तु वह भी मेरे साथ डूबने लगा। तब मैंने उसको छोड़ दिया और खुद ही तैरने की कोशिश की। थोडा बहुत तैरना मुझे आता था जो गाँव में कुंड में सीखा था। नदी का बहाव तेज होने से मुहाने की तरफ आना मुश्किल हो रहा था। मैं कुछ दूर तक तेज बहाव के साथ तैरा परन्तु आखिर में मुहाना पकड़ने में सफल हो गया। बाहर निकल कर देखा तो पाया कि मेरी दोनों चप्पलें तेजी से तैरती हुई जा रही हैं। थोड़ी दूर किनारे के साथ-साथ चला इतने में एक नाव वाला आ गया जिसने चप्पलें निकाल कर मुझे देदी। हीरा लाल बहुत घबरा गया था और उसका दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था। उसने कहा अरे चपलों को जाने दो तुम जल्दी वापस आओ। मुझे लग रहा था कि चप्पलों ने क्या बिगाड़ा है उनको भी बचाया जाए सो मैं चप्पलों सहित बचकर वापस नहाने के स्थान पर लौट आया। शाम को जब पानी कम हो गया तो एक नाव वाले से बाल्टी भी नदी के पैंदे से निकलवा ली। मेरी जान बचाने के लिए भगवान के साथ ही झेलम और कश्मीर को भी शुक्रिया कहा! उस समय हमारे साथ प्रशिक्षण के लिए प्रभारी मध्य प्रदेश संवर्ग के अधिकारी श्री आरपी सिंह थे जो बहुत धार्मिक प्रवृति के थे। उन्होने घटना से विचलित होने के बजाय कहा - सब नीली छतरी वाले की कृपा है!!
गुलमर्ग (Gulmarg) - गन्धरबल से सुबह 8.30 बजे गुलमर्ग के लिए रवाना हुए। गुलमर्ग श्रीनगर से 45 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मर्ग का अर्थ 'घास का खुला मैदान' होता है। गुलमर्ग का अर्थ है - फूलों वाला घास का मैदान। कहते हैं इससे पहले इस स्थान का नाम गौरीमार्ग था। गौरी शिव की पत्नी का नाम था। गुलमर्ग का असली नाम गौरीमर्ग यहाँ के चरवाहों ने दिया था। 16वीं शताब्दी में सुल्तान युसूफशाह चक ने यह नाम बदला था। यह घूमने के लिए बहुत ही आकर्षक स्थान है। समुद्रतल से इसकी ऊंचाई है 8500 फीट। यह शहर पहाड़ी पर एक प्लेटो पर स्थित है। साल में 6 महीने तो यह जगह बर्फ से ढकी रहती है। आज यह सिर्फ पहाड़ों का शहर नहीं है, बल्कि यहाँ विश्व का सबसे बड़ा गोल्फ कोर्स और देश का प्रमुख स्की रिज़ॉर्ट है। गुलमर्ग में नंगा पर्वत हिमालय के उच्चतम शिखरों में से एक है। यहाँ चारों तरफ़ की वृत्ताकार सड़क से घाटी और पर्वतों के समस्त दर्शनीय स्थल देखे जा सकते हैं। गुलमर्ग का 'सैरगाह' दुनिया के सबसे ऊँचे गॉल्फ़ मैदान के लिए प्रसिद्ध है, साथ ही यहाँ टेनिस, स्कीइंग तथा पोलो जैसे खेलों की सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं। पहले गुलमर्ग जम्मू-कश्मीर राज्य की सीमा शुल्क तथा निगरानी चौकी हुआ करता था। यहाँ के हरे भरे ढलान सैलानियों को अपनी ओर खींचते हैं। गुलमर्ग में सर्दी के मौसम के दौरान यहाँ बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं।
गोल्फ कोर्स: गुलमर्ग के गोल्फ कोर्स विश्व के सबसे बड़े और हरे भरे गोल्फ कोर्स में से एक है। अंग्रेज यहां अपनी छुट्टियाँ बिताने आते थे। उन्होंने ही गोल्फ के शौकीनों के लिए 1904 में इन गोल्फ कोर्स की स्थापना की थी। वर्तमान में इसकी देख रेख जम्मू और कश्मीर पर्यटन विकास प्राधिकरण करता है।
स्कींग: स्कींग में रुचि रखने वालों के लिए गुलमर्ग देश का ही नहीं बल्कि इसकी गिनती विश्व के सर्वोत्तम स्कींग रिजॉर्ट में की जाती है। दिसंबर में बर्फ गिरने के बाद यहाँ बड़ी संख्या में पर्यटक स्कींग करने आते हैं। यहाँ स्कींग करने के लिए ढ़लानों पर स्कींग करने का अनुभव होना चाहिए। जो लोग स्कींग सीखना शुरु कर रहे हैं, उनके लिए भी यह सही जगह है। यहां स्कींग की सभी सुविधाएं और अच्छे प्रशिक्षक भी मौजूद हैं।
हम लोगों ने थोड़ी देर आराम करके गुलमर्ग की प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लिया और फिर खिलानमार्ग के लिए रवाना हो गए।
खिलनमर्ग (Khilanmarg) : खिलानमर्ग स्थान गुलमार्ग से 6 किमी ऊपर पहाड़ी पर स्थित है जो हमेशा बर्फ से ढका रहता है। हम बर्फ पर ऊपर तक गए और स्लाइडिंग किया। आपस में हम बर्फ एक दूसरे पर फैंक रहे थे कि एक बार बर्फ एक अधेड़ उम्र की औरत पर गिरी। वह औरत नाराज होने के बजाय हम लोगों पर बर्फ फैंकने लगी और हंसने लगी। उसके बाद से हम लड़कियों पर भी बर्फ फैंकने लगे। एक-आध को छोड़कर कोई नाराज नहीं हुई। हम नजर बचाकर बहुत दूर तक बर्फ फैंक देते थे जो जाकर शरीर पर अच्छी तरह से हिट करती थी। विशेषतौर से जो लड़कियां और औरतें स्लेज पर फिसल रहे थे वे तेजी से नीचे जाते थे। इसलिए उन पर बर्फ मारने में बड़ा मजा आता था। इस तरह एक घंटे तक यह बर्फ का खेल खेलते रहे।
खिलनमर्ग जम्मू और कश्मीर में गुलमर्ग से लगभग 6 किलोमीटर दूर एक छोटी सी घाटी है । कश्मीर में अनेक स्थानों के नाम में 'मर्ग' शब्द आता है। मर्ग का अर्थ 'घास का खुला मैदान' होता है। यह कश्मीर की एक बहुत खूबसूरत घाटी है। खिलनमार्ग घाटी ठण्ड में गुलमर्ग मे स्किंग करने की सबसे बेहतरीन जगह है। बसंत ऋतू में इस घाटी का नज़ारा देखने लायक होता है। पूरी घाटी हरे-भरे घास से भर जाती है और हरे-भरे घास के चारों तरफ पर्वत श्रेणियों का खूबसूरत नज़ारा कश्मीर की घाटी का सबसे अदभुत नज़ारा होता है। खिलनमार्ग के हरे मैदानों में जंगली फूलों का सौंदर्य मन को लुभाता है। गुलमर्ग से खिलनमर्ग तक 600 मीटर की चढ़ाई है। यह दृश्य हिमालय से नंगा पर्वत से दक्षिण-पूर्व में नन और कुन की जुड़वां 7,100 मीटर चोटियों तक फैला हुआ है।
शामको हम खिलनमर्ग से वापस लौटे। लौटते में श्रीनगर होते हुए आये सो वहाँ एक घंटे तक श्रीनगर में इधर-उधर घूमते रहे और बाजार का सर्वे किया।
26.5.1981: गन्धरबल - विकर विल्लो नर्सरी हरण) - खीर भवानी मंदिर (तुलमुल) - डलझील (श्रीनगर)
सुबह विकर विल्लो (Wicker Willow) नर्सरी हरण देखने गए। यह स्थान गन्धरबल से 1 किमी पूर्व में स्थित है और विकर विल्लो क्राफ्ट के लिए जाना जाता है। यहाँ लचीली टहनियों वाले विल्लो वृक्षो को तैयार किया जाता है। जिनसे टोकनियां और फर्नीचर बनाये जाते हैं। Wicker शब्द स्केंडिनेविया मूल का शब्द है- 'vika' जिसका स्वीडिश में अर्थ होता है मोड़ना। विल्लो वृक्षों से क्राफ्ट बनाने की तकनीक मिस्र में 5 हजार वर्ष पहले ज्ञात थी। संभवत: मध्य एशिया से यह तकनीक कश्मीर में आई। 'विक' शब्द ने मेरी इतिहास के अनुसंधान में रुचि पैदा की। विकरवार उत्तराखंड, राजस्थान और मध्य प्रदेश के जाटों का एक गोत्र है। ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि विकरवार जाट गोत्र का स्केंडिनेविया से संबंध रहा हो।
हरण नाम का एक गाँव टर्की में मिलता है जिसका उल्लेख बाइबल में भी किया गया है। इस गाँव के 2300 ई.पू. तक के अभिलेख खोज में मिले हैं। हारण नाम का एक जाट गोत्र भी है जो मध्यप्रदेश के मालवा भू-भाग में मिलता है। सही-सही लिंक खोजने के लिए विस्तृत अनुसंधान की आवश्यकता है।
हरण गाँव में सबसे पहले 1955 में विल्लो प्लांटेशन शुरू किए गए थे। यहीं से यह तकनीक दूसरे गाँवों में विस्तारित हुई। मार्च के महीने में कटिंग नर्सरी में लगाई जाती है जो फील्ड में दिसंबर में रोपित की जाती हैं। नर्सरी में एक बार लगाने पर 20 वर्ष तक इससे फील्ड में रोपण के लिए कटिंग ले सकते हैं। किसानों को ये कटिंग रु. 150/- प्रति मण बेची जाती हैं। किसान एक कटिंग से 4 कटिंग तैयार कर खेतों में लगाते हैं। यहां उपलब्ध प्रजातियाँ हैं: 1. Salix viminalis (basket willow), 2. Salix amygdaloides (peachleaf willow), 3. Salix purpurea (purple willow), 4. Salix triandra (almond-leaved willow)
हरण के बाद सेलिक्स अल्बा (Salix alba) (व्हाइट विलो) प्लांटेशन देखा। सेलिक्स अल्बा (व्हाइट विलो), विलो की एक प्रजाति है जो यूरोप और पश्चिमी और मध्य एशिया की देशज है। लकड़ी कठोर, मजबूत और वज़न में हल्की होती है लेकिन जल्दी खराब हो जाती है। छंटनी किये गए और ठूंठ पौधों के तने (विथीस) का इस्तेमाल टोकरी बनाने के लिए किया जाता है। इसकी लकड़ी से बना कोयला बारूद निर्माण के लिए महत्वपूर्ण है। इसकी लकड़ी नर्म होती है इसलिये ड्राई फ्रूट्स के पैकिंग में भी काम आती है। भूमि कटाव रोकने के लिए यह नालों में रोपण किया जाता है। बहुत तेजी से बढ़ने वाली प्रजाति है। कटे हुये लट्ठों में से भी कोंपलें निकलने लगती हैं। इसकी छाल का इस्तेमाल अतीत में चमड़े को कमाने के लिए किया जाता था ।
सेलिक्स अल्बा का औषधीय उपयोग - हिप्पोक्रेट्स ने 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में विलो की छाल से निकाले जाने वाले एक कड़वे पाउडर के बारे में लिखा जो दर्द और पीड़ा से राहत देता था और बुखार को कम करता था। इस उपचार के बारे में प्राचीन मिस्र, सुमेर और असीरिया के ग्रंथों में भी उल्लेख मिलता है। ऑक्सफोर्डशायर, इंग्लैंड में चिपिंग नौर्टन के एक पादरी, रेवरेंड एडमंड स्टोन ने 1763 में कहा कि विलो की छाल बुखार को कम करने में प्रभावी है। एक अर्क का उत्पादन करने के लिए इस छाल को अक्सर इथेनॉल में द्रवनिवेशन किया जाता है। छाल के सक्रिय सार को, जिसे लैटिन नाम सेलिक्स के आधार पर सेलिसिन कहा जाता है, उसे 1828 में एक फ्रांसीसी फार्मासिस्ट, हेनरी लेरोक्स और एक इतालवी रसायनज्ञ, रफेले पिरिया द्वारा अपने क्रिस्टलीय रूप में अलग किया गया था। सेलिसिलिक एसिड, एस्पिरिन की तरह सेलिसिन का रासायनिक व्युत्पन्न है।
खीर भवानी मंदिर, तुलमुल, गान्दरबल : हरण से लौटकर तुलमुल (गान्दरबल) गाँव में खीर भवानी मंदिर देखा जो दुर्गा का बहुत अच्छा मंदिर है जो एक पवित्र पानी के चश्मे के ऊपर स्थित है। यह श्रीनगर से 25 किलोमीटर दूर है। यह जम्मू और कश्मीर धर्मांध ट्रस्ट द्वारा बनाया गया है। खीर भवानी मंदिर का विवरण आगे दिया गया है।
लंच के बाद श्रीनगर गए जहाँ डलझील में सिकारा पर बोटिंग किया। डलझील में ही बने नेहरूपार्क का अवलोकन किया। वहाँ कुछ समय तक सुन्दर दृश्य का लुत्फ़ लिया। इतने में हवा तेज हो गयी, आगे जाना मुश्किल हो गया तो हम लौट आये। डलझील का विवरण आगे दिया गया है।
खीर भवानी मंदिर, तुलमुल, गान्दरबल
खीर भवानी, क्षीर भवानी या राज्ञा देवी मंदिर देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। जम्मू और कश्मीर के गान्दरबल ज़िले में तुलमुल गाँव में एक पवित्र पानी के चश्मे के ऊपर स्थित है। यह श्रीनगर से 25 किलोमीटर दूर है। खीर भवानी देवी की पूजा लगभग सभी कश्मीरी हिन्दू करते हैं। महाराग्य देवी, रग्न्या देवी, रजनी देवी, रग्न्या भगवती इस मंदिर के अन्य प्रचलित नाम है। इस मंदिर का निर्माण 1912 में महाराजा प्रताप सिंह द्वारा करवाया गया जिसे बाद में महाराजा हरी सिंह द्वारा पूरा किया गया। ऐसी मान्यता है कि किसी प्राकृतिक आपदा की भविष्यवाणी के सदृष, आपदा के आने से पहले ही मंदिर के कुण्ड का पानी काला पड़ जाता है। यह मंदिर कश्मीर के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। मां दुर्गा को समर्पित इस मंदिर का निर्माण एक बहती हुई धारा पर किया गया है। इस मंदिर के चारों ओर चिनार के पेड़ और नदियों की धाराएं हैं, जो इस जगह की सुंदरता पर चार चांद लगाते हुए नज़र आते हैं। ये मंदिर, कश्मीर के हिन्दू समुदाय की आस्था को बखूबी दर्शाता है।
खीर भवानी नामकरण: स्थानीय लोगों का मानना है कि पारंपरिक रूप से वसंत ऋतू में मंदिर में खीर चढ़ाया जाता था इसलिए नाम 'खीर भवानी' पड़ा। परंतु यह धारणा ऐतिहासिक रूप से सही नहीं है। कश्मीर का प्राचीन इतिहास कल्हण की राजतरंगिनी में मिलता है। राजतरंगिनी में दो स्थानों पर क्षीर नाम उल्लेख आता है - क्षीर नाम के राजा[1] के रूप में और क्षीर नाम के व्याकरणविद[2] के रूप में। संभवत: यह नाम इन दोनों में से ही किसी का दिया हुआ है जिन्होने यहाँ देवी के मंदिर का निर्माण किया हो।
डल झील (Dal Lake):
डल झील श्रीनगर, कश्मीर की एक प्रसिद्ध झील है। 18 किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई यह झील तीन दिशाओं से पहाड़ियों से घिरी हुई है। यह जम्मू-कश्मीर की दूसरी सबसे बड़ी झील है। इसमें सोतों से तो जल आता है साथ ही कश्मीर घाटी की अनेक झीलें आकर इसमें मिलती हैं। इसके चार प्रमुख जलाशय हैं गगरीबल, लोकुट डल, बोड डल तथा नागिन। लोकुट डल के मध्य में रूपलंक द्वीप स्थित है तथा बोड डल जलधारा के मध्य में सोनालंक द्वीप स्थित है। भारत की सबसे सुंदर झीलों में इसका नाम लिया जाता है। पास ही स्थित मुगल वाटिका से डल झील का सौंदर्य अप्रतिम नज़र आता है। पर्यटक जम्मू-कश्मीर आएँ और डल झील देखने न जाएँ ऐसा हो ही नहीं सकता।
डल झील श्रीनगर का सबसे बडा आकर्षण है। यहां सुबह से शाम तक रौनक नजर आती है। सैलानी घंटों इसके किनारे घूमते रहते हैं या शिकारे में बैठ नौका विहार का लुत्फउठाते हैं। दिन के हर प्रहर में इस झील की खूबसूरती का कोई अलग रंग दिखाई देता है। देखा जाए तो डल झील अपने आप में एक तैरते नगर के समान है। तैरते आवास यानी हाउसबोट, तैरते बाजार और तैरते वेजीटेबल गार्डन इसकी खासियत हैं। कई लोग तो डल झील के तैरते घरों यानी हाउसबोट में रहने का लुत्फलेने के लिए ही यहां आते हैं। झील के मध्य एक छोटे से टापू पर नेहरू पार्क है। वहां से भी झील का रूप कुछ अलग नजर आता है। दूर सडक के पास लगे सरपत के ऊंचे झाडों की कतार, उनके आगे चलता ऊंचा फव्वारा बडा मनोहारी मंजर प्रस्तुत करता है। झील के आसपास पैदल घूमना भी सुखद लगता है। शाम होने पर भी यह झील जीवंत नजर आती है। सूर्यास्त के समय आकाश का नारंगी रंग झील को अपने रंग में रंग लेता है, तो सूर्यास्त के बाद हाउसबोट की जगमगाती लाइटों का प्रतिबिंब झील के सौंदर्य को दुगना कर देता है। शाम के समय यहां खासी भीड नजर आती है।
डल झील के मुख्य आकर्षण का केन्द्र है यहाँ के शिकारे या हाउसबोट। सैलानी इन हाउसबोटों में रहकर झील का आनंद उठा सकते हैं। नेहरू पार्क, कानुटुर खाना, चारचीनारी आदि द्वीपों तथा हज़रत बल की सैर भी इन शिकारों में की जा सकती है। इसके अतिरिक्त दुकानें भी शिकारों पर ही लगी होती हैं और शिकारे पर सवार होकर विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ भी खरीदी जा सकती हैं। तरह तरह की वनस्पति झील की सुंदरता को और निखार देती है। कमल के फूल, पानी में बहती कुमुदनी, झील की सुंदरता में चार चाँद लगा देती है। सैलानियों के लिए विभिन्न प्रकार के मनोरंजन के साधन जैसे कायाकिंग (एक प्रकार का नौका विहार), केनोइंग (डोंगी), पानी पर सर्फिंग करना तथा ऐंगलिंग (मछली पकड़ना) यहाँ पर उपलब्ध कराए गए हैं। डल झील में पर्यटन के अतिरिक्त मुख्य रूप से मछली पकड़ने का काम होता है।
भीड-भाड से परे शांत वातावरण में किसी हाउसबोट में रहने की इछा है तो पर्यटक नागिन लेक या झेलम नदी पर खडे हाउसबोट में ठहर सकते हैं। नागिन झील भी कश्मीर की सुंदर और छोटी-सी झील है। यहां प्राय: विदेशी सैलानी ठहरना पसंद करते हैं। उधर झेलम नदी में छोटे हाउसबोट होते हैं।
हाउसबोट का इतिहास: आज हाउसबोट एक तरह की लग्जरी में तब्दील हो चुके हैं और कुछ लोग दूर-दूर से केवल हाउसबोट में रहने का लुत्फउठाने के लिए ही कश्मीर आते हैं। हाउसबोट में ठहरना सचमुच अपने आपमें एक अनोखा अनुभव है भी। पर इसकी शुरुआत वास्तव में लग्जरी नहीं, बल्कि मजबूरी में हुई थी। कश्मीर में हाउसबोट का प्रचलन डोगरा राजाओं के काल में तब शुरू हुआ था, जब उन्होंने किसी बाहरी व्यक्ति द्वारा कश्मीर में स्थायी संपत्ति खरीदने और घर बनाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। उस समय कई अंग्रेजों और अन्य लोगों ने बडी नाव पर लकडी के केबिन बना कर यहां रहना शुरू कर दिया। फिर तो डल झील, नागिन झील और झेलम पर हाउसबोट में रहने का चलन हो गया। बाद में स्थानीय लोग भी हाउसबोट में रहने लगे। आज भी झेलम नदी पर स्थानीय लोगों के हाउसबोट तैरते देखे जा सकते हैं। शुरुआती दौर में बने हाउसबोट बहुत छोटे होते थे, उनमें इतनी सुविधाएं भी नहीं थीं, लेकिन अब वे लग्जरी का रूप ले चुके हैं। सभी सुविधाओं से लैस आधुनिक हाउसबोट किसी छोटे होटल के समान हैं। डबल बेड वाले कमरे, अटैच बाथ, वॉर्डरोब, टीवी, डाइनिंग हॉल, खुली डैक आदि सब पानी पर खडे हाउसबोट में होता है। लकडी के बने हाउसबोट देखने में भी बेहद सुंदर लगते हैं। अपने आकार एवं सुविधाओं के आधार पर ये विभिन्न दर्जे के होते हैं। शहर के मध्य बहती झेलम नदी पर बने पुराने लकडी के पुल भी पर्यटकों के लिए एक आकर्षण है। कई मस्जिदें और अन्य भवन इस नदी के निकट ही स्थित है।
नागिन झील जम्मू और कश्मीर के श्रीनगर शहर की डल झील से लगभग 6 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह झील आसपास के क्षेत्र में 'ज्वैल इन द रिंग' के नाम से काफ़ी विख्यात है, जो चारों तरफ से पेड़ों से घिरी हुई है। नागिन झील 'डल झील' से एक पतले सेतु द्वारा अलग है। डल झील का यह सबसे छोटा तथा सबसे सुंदर भाग है, जो एक रास्ते द्वारा विभाजित है तथा हज़रत बल से कुछ ही दूरी पर है। यह डल झील की तुलना में काफ़ी छोटी है, लेकिन शहर की भीड़-भाड़ से दूर होने के कारण यहाँ पर काफ़ी शान्ति रहती है। विभिन्न प्रकार के पेड़ नागिन झील के किनारे दीवार की तरह खड़े हुए हैं, जिससे इसकी सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं। यहाँ सूर्यास्त का दृश्य बहुत ही सुहावना होता है तथा आसपास का दृश्य किसी का भी मन मोह लेने की क्षमता रखता है। नागिन झील के मुख्य आकर्षण का केन्द्र है, यहाँ के हाउसबोट। सैलानी इन हाउसबोटों में रहकर इस ख़ूबसूरत झील का आनंद उठा सकते हैं। यहाँ आने वाले लोग इस झील में अन्य झीलों की अपेक्षा स्वीमिंग करना काफ़ी पसंद करते हैं, क्योकि झील की गहराई अपेक्षाकृत कम है और पानी भी कम प्रदूषित है। साहसिक पर्यटकों के लिए यहाँ कई वॉटर स्पोर्टस, जैसे- स्कीइंग और फाइबरग्लास सेलिंग का भी इंतजाम है। झील के किनारे पर एक बार और एक चाय पवेलियन भी स्थित है, जिसे 'नागिन क्लब' के नाम से जाना जाता है।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 29.5.2022
References
गान्दरबल - सोपोर - डोरस, ववूरा, कलारूस (कुपवाड़ा, कश्मीर) और वापस देहरादून
27.5.1981: गान्दरबल - डोरस (कुपवाड़ा, कश्मीर)
सुबह 10.30 बजे गन्धरबल से रवाना होकर शाम 6 बजे हम कुपवारा जिले में स्थित कैंप स्थल डोरस पहुंचे। डोरस श्रीनगर से करीब 100 किमी की दूरी पर उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित है। श्रीनगर से जानेवाला राष्ट्रीय उच्च-मार्ग बारामुला की तरफ जाता है। दूसरी सड़क सोपुर होते हुए कुपवाड़ा की तरफ जाती है। कुपवारा से आगे 11 किमी की दूरी पर कुपवारा जिले में डोरस स्थित है। सोपुर से कुपवाड़ा जाते समय सोपुर के पूर्व में बांदीपोरा जिले में विश्व प्रसिद्ध वुलर झील पड़ती है। रास्ते में कुपवाड़ा जिले के लांगेट और हंडवारा कस्बे पड़ते हैं। इन गाँवों के नामकरण का मूल जानने का प्रयास किया परंतु कोई अभिलेख उपलब्ध नहीं हो सका। जाट गोत्रों की सूची में Lang (लाङ्ग) और Handal (हंडल) नामक गोत्र दर्ज हैं इससे यह प्रतीत होता है कि इन गोत्रों के लोग कभी इस क्षेत्र में आबाद हुये हैं। लाङ्ग गोत्र के जाट मुल्तान पाकिस्तान में पाये जाते हैं। हंडल गोत्र के जाट पंजाब और सियालकोट (पाकिस्तान) में मिलते हैं।
डोरस में हमने 27.5.1981-30.5.1981 तक कैंप किया था। यहाँ कैम्प की जगह बहुत ही सुन्दर है। पास में एक झरना है और चारों तरफ देवदार के ऊंचे-ऊंचे पेड़ आकाश को चूम रहे हैं। डोरस का नामकरण डोर या Dorwal (डोरवाल) जाटों ने दिया है।
वुलर झील, सोपुर और कुपवाड़ा का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
वुलर झील (Wular Lake): वुलर झील (AS, p.867) जम्मू और कश्मीर के बांदीपुर ज़िले में स्थित एक प्रसिद्ध झील है। कहा जाता है कि 'वुलर' शब्द शायद 'उल्लोल' (ऊँची चंचल लहरियों वाली) का अपभ्रंश है। झील का प्राचीन नाम 'महापद्मसर' था। उल्लोल (AS, p.102) कश्मीर की प्रसिद्ध झील वुलर का प्राचीन संस्कृत नाम था। अलबरूनी ने इसके संस्कृत नाम उल्लोल को ही अपभ्रश रूप में बोलोर लिखा है। यह भारत की सबसे बड़ी ताजे पानी की झीलों में से एक है। कुछ वर्ष पूर्व तक वुलर एशिया की मीठे पानी की सबसे बडी झील हुआ करती थी, किंतु अब यह मात्र हरित क्षेत्र रह गयी है। यह झील 30 से 260 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैली हुई है। वुलर झील पर्यटन की दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। झेलम नदी इसमें अपना अस्थायी डेल्टा बनाती है। वर्तमान समय में इसका क्षेत्रफल तेज़ी से घट रहा है।
सोपोर (Sopore) अथवा सोपुर भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य के बारामूला ज़िले में स्थित एक नगर और तहसील है। सोपोर टाउन में एशिया की दूसरी सबसे बड़ी फल मंडी (थोक बाजार) है। इसे कश्मीर का एप्पल टाउन भी कहा जाता है। फल मंडी के अलावा, सोपोर एशिया की सबसे बड़ी मीठे पानी की झीलों में से एक, वूलर झील के पास है। सोपोर एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थल है। कल्हण पंडित द्वारा लिखित राजतरंगिनी के अनुसार सोपोर का मूल नाम सुय्यपुर था। यह सुय्य (Suyya) के नाम पर रखा गया था जो उत्पल राजवंशी राजा अवंतिवर्मन (r. 855-883 ई.) के काल में मंत्री थे और सोपोर के निर्माण व जल-व्यवस्था में उनका बड़ा हाथ था।
कुपवाड़ा का परिचय
कुपवाड़ा ज़िला भारत के जम्मू व कश्मीर राज्य का एक ज़िला है। जिले का उत्तरी-पश्चिमी भाग नियंत्रण रेखा (LOC) से लगा हुआ है। दक्षिण में बारामुल्ला जिला स्थित है। इस ज़िले का मुख्यालय कुपवाड़ा शहर है जो श्रीनगर से 90 किमी दूर है। कुपवाड़ा जिला पीर पंजाल और शम्सबरी पर्वत के मध्य स्थित है। समुद्रतल से 5,300 मीटर ऊंचाई पर स्थित कुपवाड़ा ऐतिहासिक दृष्टि से भी काफी प्रसिद्ध है। जिले के बाहरी क्षेत्रों से किशन गंगा नदी बहती है। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अधिक संख्या में पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींचती है। कुपवाड़ा जिले में कई पर्यटन स्थल जैसे मां काली भद्रकाली मंदिर, शारदा मंदिर, शिव मामेश्वरा मंदिर, जेत्ती नाग शाह, साधु गंगा आदि विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
कुपवाड़ा नामकरण - कुपवाड़ा नाम कैसे पड़ा इसका कोई अभिलेखीय प्रमाण नहीं है। एक किंवदंती के अनुसार वनों में किसी अनजान व्यक्ति ने एक झोंपड़ी बनाई जिसको 'कोपड़' बोला जाता था जिसका अर्थ होता हैं 'गंदी झोंपड़ी '। इसके पास जानवरों की गायब होने की बहुत दुर्घटना होती थी। इसके आधार पर इस क्षेत्र को 'कोपड़' बोला जाने लगा जो आगे चलकर कुपवाड़ा हो गया। दूसरी किंवदंती के अनुसार कुपवाड़ा के प्रसिद्ध सूफी संत जेत्ती शाह वाली ने इस जगह को कोपोर (Ko-pore) नाम दिया जिसका अर्थ होता है 'बदनाम लोगों का स्थान'। ऐतिहासिक दृष्टि से ये किंवदंतियाँ प्रामाणिक नहीं लगती हैं। कुपवाड़ा एक प्राचीन स्थान है और कश्मीर के अधिकांश प्राचीन स्थानों का उल्लेख कल्हण पंडित द्वारा रचित राजतरंगिनी में मिलता है। राजतरंगिनी[1] में कुप्य नामक एक रथी का उल्लेख आता है जिसके बड़े पुत्र सिंधु कश्मीर के राजा पर्वगुप्त (948 – 950 ई.) के कोषाध्यक्ष थे। संभवत: कुप्य के नाम पर स्थान का नाम कुपवाड़ा पड़ा।
कुपवाड़ा के प्रमुख आकर्षण
मां भद्रकाली मंदिर: यह मंदिर कुपवाड़ा जिले के हंडवारा तहसील में भद्रकाल नामक स्थान पर हंडवारा से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है। मां भद्रकाली मंदिर का मंदिर ऊंचे पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर के आस-पास की जगह देवदार और चीड़ के वृक्षों से घिरी हुई है। यह मंदिर मां काली को समर्पित है। यह काफी पुराना मंदिर है जो कि अधिक बर्फबारी और वर्षा के कारण क्षतिग्रस्त हो गया था। मंदिर में भद्रकाली की एक प्रतिमा स्थापित है। चैत्र नवमी के दौरान मूर्ति की विशेष पूजा की जाती है। यह त्यौहार पूरे उत्तर भारत में राम नवमी के दौरान मनाया जाता है। देश के अलग-अलग राज्यों से काफी संख्या में लोग इस मेले में सम्मिलित होते हैं।
मंदिर में स्थापित मां भद्रकाली की मूर्ति 1981 में संदिग्ध परिस्थितियों में चोरी हो गई थी मूर्ति चोरी होने के बाद जब 1983 में बरामद की गई तो उसके बाद से भूषण लाल पंडित इसे लेकर जम्मू आ गए और वहीं पर मां भद्रकाली की मूर्ति की पूजा करते रहे। [2]
इस मंदिर में 36 वर्ष बाद माता भद्रकाली की प्राचीन मूर्ति पुनर्स्थापित की गई। माता भद्रकाली की मूर्ति को इस ऐतिहासिक मंदिर में सेना के जवानों द्वारा पुनर्स्थापित किया गया है। साथ ही मंदिर की सुरक्षा के लिए सेना के जवानों की तैनाती भी की गई है। मंदिर पैनल के एक सदस्य भूषण लाल पंडित ने बताया कि हंदवाड़ा के भद्रकाली गांव में स्थित प्राचीन मंदिर में नवरात्र के पहले दिन मां भद्रकाली की ऐतिहासिक मूर्ति मंदिर में स्थापित कर दी गई। एक समारोह में मां भद्रकाली की वास्तविक प्रतिमा को स्थापित किया गया। इस मौके पर सेना के जीओसी मेजर जनरल एके सिंह समेत राष्ट्रीय राइफल्स रेजीमेंट के तमाम जवान मौजूद रहे।[3]
शारदा मंदिर: कुपवाड़ा जिले के शारदी गांव स्थित शारदा मंदिर काफी पुराने मंदिरों में से है। उत्तरी कश्मीर के टीटवाल इलाके में नियंत्रण रेखा (एलओसी) के पास माता शारदा मंदिर है। शारदापीठ देवी सरस्वती का प्राचीन मन्दिर है जो पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में शारदा के निकट किशनगंगा नदी (नीलम नदी) के किनारे स्थित है। इसके भग्नावशेष भारत-पाक नियन्त्रण-रेखा के निकट स्थित है। इस पर भारत का अधिकार है। मंदिर के समीप ही किशनगंगा और मधुमती नदियों का संगम होता है। यह मंदिर देवी शारदा को समर्पित है। मंदिर में देवी की पूजा शारदा, सरस्वती और वेगदेवी तीनों रूपों में की जाती है। ऊंचे पर्वत पर स्थित इस मंदिर में 63 सीढ़ियां है। मंदिर के प्रवेश द्वार का निर्माण कश्मीरी स्थापत्य शैली में किया गया है। मंदिर की उत्तरी दीवार के मध्य में एक छोटा सा छेद है जो कि मंदिर के आंगन में जाकर खुलता है। मंदिर में दो लिंग भी स्थापित है। माना जाता है कि मंदिर में एक बड़ी सी पटिया है जो कि मंदिर में स्थित कुंड को घेरे हुए है। इस स्थान पर देवी शारदा ने तपस्वी शांडिल्य को दर्शन देने के लिए प्रकट हुई थी।
एस समय पर यह स्थान शिक्षा का प्रमुख केंद्र था। शारदा पीठ मुजफ्फराबाद से लगभग 140 किलोमीटर और कुपवाड़ा से करीब 30 किलोमीटर दूर पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास नीलम नदी के पास है। इस मंदिर को महाराज अशोक ने 237 ईसा पूर्व में बनवाया था, जो शिक्षा का प्रमुख केंद्र था और इस मंदिर पर पूरे भारत के लोग यहां दर्शन करने आते थे। शारदा पीठ मंदिर अमरनाथ और अनंतनाग के मार्तंड सूर्य मंदिर की तरह श्रद्धा का केंद्र रहा है। मंदिर को लेकर धार्मिक मान्यता है कि शारदा पीठ शाक्त संप्रदाय को समर्पित प्रथम तीर्थ स्थल है और कश्मीर के इसी मंदिर में सर्वप्रथम देवी की आराधना शुरू हुई थी। इसके बाद में खीर भवानी और वैष्णो देवी मंदिर की स्थापना हुई।
शिव मामेश्वरा मंदिर: शिव मामेश्वरा मंदिर कुपवाडा जिले के नागमार्ग पर स्थित है। यह काफी पुराना मंदिर है। यह मंदिर लगभग बारहवीं शताब्दी पूर्व का है। इसके अलावा यहां एक वर्ग किलोमीटर के माप में बना पत्थर से बना एक टैंक भी स्थित है।
जेत्ती शाह नाग: जेत्ती शाह नाग एक ऐतिहासिक सरोवर के रूप में प्रसिद्ध है। यह जगह कुपवाड़ा जिले के मुक्कम शाह वाली गांव से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। प्रसिद्ध जेत्ती शाह नाग के समीप ही जेत्ती शाह मस्जिद स्थित है। सभी धर्म के लोग हिन्दू, मुस्लिम और सिख समान रूप से इस सरोवर को पवित्र मानते हैं। माना जाता है कि संत जेत्ती शाह वाली ने एक सूखी मछली को सरोवर में डाल कर उसे जीवन प्रदान किया था। कहा जाता है वर्तमान समय इस मछली की संतान इस सरोवर पर है।
साधु गंगा: साधु गंगा एक धार्मिक स्थल है। यह जगह कुपवाड़ा जिले के कंडीखास गांव के समीप स्थित है। साधु गंगा कुपवाड़ा से लगभग बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसे सैद मलिन के नाम से भी जाना जाता है। यह स्थान हिन्दू व मुस्लिम दोनों धर्मो के पंडितजी गोस्वामी और सैद मलिक साहिब को समर्पित है। यहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि सूखा पड़ने पर सैद मलिक ने इस क्षेत्र की रक्षा की थी। उन्होंने अपनी आध्यामिक शक्ति के द्वारा यहां एक स्थायी सरोवर खोदा था।
28.5.1981: डोरस - ववूरा (कुपवाड़ा, कश्मीर)
आज दिन भर का प्रोग्राम यहाँ के फोरेस्ट की स्टडी में लगाया। देवदार वनों का अध्ययन मुख्य रूप से किया और पोहरू वन मंडल (Pohru Forest Division) की ववूरा (Wavoora) में अखरोट (Juglans regia) की नर्सरी देखने गए। यह नर्सरी वर्ष 1965 में स्थापित की गई थी। ववूरा लोलाब घाटी में स्थित मुख्य गाँवों में से एक है। ववूरा कस्बा जिला मुख्यालय कुपवाड़ा से 11 किमी दूर है। बाद में Aisal Range में अखरोट वृक्षारोपण का अध्ययन किया। अखरोट के बारे में जानकारी आगे दी गई है।
अखरोट (अंग्रेजी: Walnut, वैज्ञानिक नाम : Juglans Regia) पतझड़ करने वाले बहुत सुन्दर और सुगन्धित पेड़ होते हैं। मूल रूप से यह ईरान से विश्व में फैला है। अखरोट के उत्पादन में चीन सबसे आगे हैं। अखरोट का उत्पादन करने वाले अन्य देशों में प्रमुख हैं - ईरान, अमेरिका, तुर्की और यूक्रेन। पूर्वी यूरोपीय देशों में सबसे ज्यादा उपज होती है जिनमें प्रमुख्य हैं, स्लोवेनिया और रोमानिया। भारत में कश्मीर घाटी मे इसकी उपज होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका अखरोट का विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक है और उसके बाद तुर्की का स्थान है। अखरोट की दो जातियां पाई जाती हैं। 'जंगली अखरोट' 100 से 200 फीट तक ऊंचे, अपने आप उगते हैं। इसके फल का छिलका मोटा होता है। 'कृषिजन्य अखरोट' 40 से 90 फुट तक ऊंचा होता है और इसके फलों का छिलका पतला होता है। इसे 'कागजी अखरोट' कहते हैं। इसकी लकड़ी से बन्दूकों के कुन्दे बनाये जाते हैं। अखरोट का फल एक प्रकार का सूखा मेवा है जो खाने के लिये उपयोग में लाया जाता है। अखरोट का बाह्य आवरण एकदम कठोर होता है और अंदर मानव मस्तिष्क के जैसे आकार वाली गिरी होती है। आधी मुट्ठी अखरोट में 392 कैलोरी ऊर्जा होती हैं, 9 ग्राम प्रोटीन होता है, 39 ग्राम वसा होती है और 8 ग्राम कार्बोहाइड्रेट होता है। इसमें विटामिन ई और बी-6, कैल्शियम और मिनेरल भी पर्याप्त मात्रा में होते है।
29.5.1981: डोरस - कलारूस (कुपवाड़ा, कश्मीर)
हम डोरस (Doras) से कुछ दूर उत्तर पश्चिम दिशा में लोलाब घाटी में स्थित कलारूस नामक गाँव देखने गए। कलारूस गाँव में प्राचीन रहस्यमय कलारूस गुफाएं (Kalaroos Caves) हैं जिनको देखने के लिए हम गुफाओं के अंदर गए। स्थानीय लोगों का मानना है कि यह रूस जाने का छिपा हुआ रास्ता है। वहीं लोकल लोगों का कहना है कि इसके अंदर पांडवों का मंदिर है । कलारूस गुफाओं के पास ही सतबर्न गुफाएं हैं। इन गुफाओं की एक कठिन यात्रा थी जिसका विवरण आगे दिया गया है।
कलारूस (Kalaroos): डोरस से कुछ दूर लोलाब घाटी में स्थित है कलारूस नामक गाँव। कलारूस लोलाब घाटी का एक प्यारा-सा गाँव है। यहाँ के लोग बहुत अच्छे सीधे-सादे हैं। यह लोलाब वैली के काफी अंदर पड़ने वाला गाँव है लेकिन खूबसूरती के मायने में सबसे बढ़कर है। शांत प्रकृति के बीच कितना सुकून होता है यह हमें यहाँ आकर समझ आया। चलते हुए इस गाँव को घूमते हुए पहाड़ी की चोटी पर जा सकते हैं। जहाँ से कलारूस गाँव का बेहद खूबसूरत नजारा देखने को मिलता है। ऐसी ही जगह तो कश्मीर की सुंदरता को बढ़ाती हैं। श्रीनगर और गुलमर्ग ऐसी खूबसूरती के मामले में कहीं नहीं टिकते। कलारूस गाँव में बताया गया कि यहाँ बहुत रहस्यमयी कलारूस गुफाएं स्थित हैं।
कलारूस गुफाओं की यात्रा (Kalaroos Caves): हम लोगों ने रहस्यमयी कलारूस गुफाएं देखने का निर्णय लिया और पहाड़ की चढ़ाई प्रारंभ की। घाटी से करीब एक हजार फीट की ऊंचाई, जो ऊपर जाकर काफी स्टीप हो जाती है, चढ़ने पर कलारूस गुफा आती है। एक जगह तो चट्टान पर चढ़ाई इतनी मुश्किल थी कि अगर थोडासा पैर फिसल गया होता या पैर के नीचे का पत्थर टूट गया होता तो सीधे नीचे घाटी में जाकर गिरते। हम संघर्ष करते हुये ऊपर गुफा तक पहुँच गए। गुफा में पहुँचने पर बताया गया कि इस गुफा से एक सुरंग जाती है जो रूस तक पहुंचती है। ऐसा बताया जाता है कि एक बार एक अमरीकी नागरिक 20 दिन का राशन लेकर अंदर गया था। जब दस दिन पूरे हो गए तो उसको एक बहुत बड़ा पेड़ मिला और उसके पास एक तालाब था जिसका पानी नीले रंग का था। उससे आगे जाना उसके लिए मुश्किल था इसलिए वापस लौटकर आ गया। उसने कहा बताते हैं कि मैं अमरीका से वापस आकर इस सुरंग को पूरी तय करूँगा। पर वह अमरीका से वापस कभी नहीं आया।
कलारूस गुफाओं की यात्रा कठिन थी। हमारे समूह में से हम कुछ ही लोग यहाँ तक पहुंचे थे। एक टार्च हमारे पास थी। सो हम कुछ दूर अंदर तक गए परन्तु टार्च की सहायता से सुरंग के अंदर चलना मुश्किल होता। टार्च का प्रकाश एक ही तरफ जाता है। इसके लिए मसाल चाहिए जो चारों तरफ प्रकाश फैला सके। अंदर घुप्प अँधेरा था और थोडा अंदर जाने पर ऊपर से लटकते तीन चमगीदड़ दिखाई दिए। जहरीले सांपों के होने की सम्भावना भी थी और टार्च सैल भी कभी भी जवाब दे सकते थे, उस स्थिति में हम लोग गुफाओं के अंदर ही भटक सकते थे । सो हमने वापस लौटने का फैसला किया। लौटते समय सुरंग से ही एक छोटी सुरंग निकलती है जो नीचे पहाड़ी की तरफ खुलती है। इसी रास्ते हम निकल कर बाहर आये। इस गुफा से दो साल पहले तक ताम्बा निकाला जाता था जो अब बंद कर दिया गया है। कलारूस गुफाओं की अद्यतन जानकारी आगे दी गई है।
कलारूस गुफाएं (Kalaroos Caves): कलारूस गाँव में बहुत रहस्यमयी कलारूस गुफाएं स्थित हैं। पूर्व में ये किला-ए-रूस या किला-रूस नाम से जानी जाती थी। हमने जब इसकी यात्रा की थी तब इसका नाम हमें किला-रूस ही बताया गया था। इसका शाब्दिक अर्थ है - रूस का किला । यह गुफा लोलाब घाटी में स्थित पहाड़ पर है। कलारूस गुफा कुपवाड़ा जिले में लशतयाल और मधमदु गांवों के बीच में स्थित है। कलारूस इलाके में लंबी गुफाओं और पत्थर की विशाल मूर्तियों, एतिहासिक, पुरातात्विक और कलात्मक महत्व वाली यह सुरंग असुरक्षित है। पता चला है कि वर्ष 2013 में कलारूस की ये रहस्यमयी गुफाएं राज्य सरकार द्वारा संरक्षित धरोहर घोषित की गई हैं। कुछ स्थानीय लोगों का मानना है कि ये रूस जाने का छिपा हुआ रास्ता है। वहीं कुछ लोकल लोगों का कहना है कि इसके अंदर पांडवों का मंदिर है और पानी भी बहुत है। सच क्या है कोई नहीं जानता लेकिन स्थानीय लोग इस जगह पर अपनी छुट्टियां और पिकनिक मनाने आते हैं। अगर आपके पास लोलाब वैली को एक्सप्लोर करने का अच्छा टाइम है तो आपको यहाँ जरूर आना चाहिए।
सतबर्न (Satbaran) - कलारूस में सतबर्न एक प्राचीन और ऐतहासिक जगह है। यह पहाड़ के पत्थरों को काटकर बनाई गई है जो आर्किटेक्चर का बेहद शानदार नमूना है। सतबर्न यानी सात दरवाजे। इस इमारत के सात दरवाजे हैं। यह भी एक रहस्य वाली जगह है। स्थानीय लोग मानते हैं कि ये सात दरवाजे रूस और अन्य समीप के देशों को जाने के रास्ते हैं। ये किसने बनवाई थी किसी को इस बारे में पता नहीं है। स्थानीय लोगों का मानना है कि इसे पांडवों ने बनाई थी और यहीं पर ठहरे थे। इतिहासकार मानते हैं कि ये गुफाएँ बौध काल में भिक्षुओं के आवास रहे होंगे। लोलाब वैली आएं तो इस खूबसूरत जगह को जरूर देखना चाहिए।
वर्ष 2018 में Amber and Eric Fies नामक अमरीकन गुफा अनुसंधान कर्ताओं के नेतृत्व में एक समूह द्वारा तीन गुफाओं का अनुसंधान किया गया था और उनके अंतिम छोर तक पहुँचे थे। उन्होने संभावना व्यक्त की कि इनमें से दो गुफाएँ अतीत में जुड़ी हुई हो सकती हैं। तीसरी गुफा को भारतीय सेना द्वारा आतंकवादियों के छिपने की संभावनाओं को देखते हुये सील किया गया है जिसका पूरा अनुसंधान नहीं हो सका। [4]
जनजीवन: डोरस कैम्प में शाम को सड़क पर घूमते हुए हमारी मुलाकात हो गयी अब्दुल रशीद और अब्दुल मजीद से जो बी. एससी. भाग-एक के विद्यार्थी हैं। उनसे जानकारी प्राप्त करने पर पता लगा कि डोरस की जनसँख्या करीब 800 है। लोगों का मुख्य धंधा है - खेती करना और अखरोट व सेव जैसे फलों का उत्पादन करना। आते जाते जब हम बसों से इधर-उधर जाते हैं तो खेतों में धान की पौध लगाती लड़कियां खड़ी होकर हमारी तरफ आश्चर्य मिश्रित मासूमियत से देखती हैं। खेत पानी से भरे रहते हैं। कई-कई लड़कियां कतार में एक ही खेत में काम करती नजर आती हैं। लड़कियां काम करती हुई सामूहिक रूप से कुछ गाती रहती हैं। उनके बोल हमारे समझ में नहीं आ रहे थे परन्तु यह कान को सुनने में बड़ा अच्छा लगता था। उनका स्वर दूर-दूर तक घाटियों में गूंजता था। श्री अब्दुल रशीद से पूछने पर पता लगा कि यहाँ पढ़े लिखे परिवारों में ज्यादातर प्रेम विवाह होता है। यहाँ संयुक्त परिवार भी हैं। घरों में सास-बहु में तनाव आमतौर पर नहीं होता है। लड़कियां प्रेम करने के लिए हिचकिचाती नहीं हैं। पढ़ी लिखी लड़कियां अच्छी सर्विस वाले लड़के को बहुत पसंद करती हैं। जमींदार लोगों में खास कर यह देखा जाता है कि लड़के के जमीन कितनी है। पहले बहुत कम लड़कियां पढ़ाई करती थी पर पिछले पांच सालों में स्कूलों में लड़कियों की संख्या काफी बढ़ गयी है। श्री अब्दुल रशीद के अनुसार कश्मीर में 75 प्रतिशत मुसलमान और अन्य हिन्दू हैं।
कश्मीर से वापसी: डोरस – श्रीनगर - जम्मू - जलंधर - देहरादून
निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार फरकान गली (Farkiyan Gali) में टिंबर लोगिंग प्रोजेक्ट का निरीक्षण करना था। फरकान गाँव कुपवाड़ा जिले की कुपवाड़ा तहसील में कुपवाड़ा से 26 किमी दूर उत्तर-पश्चिम सीमा के पास स्थित है। गाँव का नाम फरकान क्यों पड़ा यह शोध का विषय है। परंतु ईरान में इस नाम के गाँव हैं इससे यह संकेत मिलता है कि संभवत: ईरान से आए लोगों ने यह गाँव बसाया हो।
आज सुबह से लगातार बरसात हो रही थी। सावन-भादौ जैसा मौसम हो गया था। बरसात में बाहर नहीं जा सकते थे इसलिये फरकान गली जाने का कार्यक्रम निरस्त हो गया। हमारा इस कैम्प का पूरा काम ख़त्म हो चुका था। इसलिए यहाँ अब फुर्सत में थे।
हम 12 बजे वापसी यात्रा पर डोरस से रवाना हुए और शाम तक श्रीनगर पहुँच गए। श्रीनगर में शालीमार बाग में 'ध्वनि और प्रकाश' कार्यक्रम देखा। इससे मुग़ल रोमांस की याद ताजा हो गयी। नूरजहां ने शाहजहां से फरमाईश की थी कि पहाड़ी में नीचे इस जगह एक अरबी ढंग का बाग़ लगाया जाय। जंगलों को काटकर यहाँ शालिमार बाग़ बनाया गया जिसमें बीचों-बीच पानी की धारा बहती है और जगह-जगह फव्वारे लगे हैं। विभिन्न रंगों की रोशनियां सुंदरता में चार चाँद लगा देती हैं। शालीमार बाग का विस्तृत विवरण पहले दिया जा चुका है।
12 घंटे की लगातार यात्रा कर फिर जम्मू पहुंचे।
शाम को जालंधर में 'स्काई लार्क' होटल में रुके। एक चक्कर यहाँ के बाजार का लगाया।
नोट - धरती का स्वर्ग कहे गए कश्मीर का प्रवास पूरा हो गया। वर्तमान में प्रदेश के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में बहुत अन्तर आ गया है। जम्मू और कश्मीर 5 अगस्त 2019 तक भारत का एक राज्य था जिसे अगस्त 2019 में द्विभाजित कर जम्मू और कश्मीर एवं लद्दाख नमक दो केंद्र शासित प्रदेश के रूप में स्थापित कर दिया गया। पता नहीं किसकी नजर कश्मीर को लगी कि अभीतक कश्मीर उस अवस्था में नहीं आ पाया है जैसा हमने 1981 में देखा था। आगे सामान्य जानकारी के लिए कश्मीर का अद्यतन भूगोल और इतिहास दिया गया है।
कश्मीर का भूगोल और इतिहास
कश्मीर प्रदेश को धरती का स्वर्ग कहा गया है। एक नहीं कई कवियों ने बार बार कहा है : गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त। ...(फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
कश्मीर का भूगोल : कश्मीर का अधिकांश भाग चिनाव, झेलम तथा सिंधु नदी की घाटियों में स्थित है। केवल मुज़ताघ तथा कराकोरम पर्वतों के उत्तर तथा उत्तर-पूर्व के निर्जन तथा अधिकांश अज्ञात क्षेत्रों का जल मध्य एशिया की ओर प्रवाहित होता है। लगभग तीन चौथाई क्षेत्र केवल सिंधु नदी की घाटी में स्थित है। कश्मीर का ख़ूबसूरत भूभाग मुख्यतः झेलम नदी की घाटी (वादी) में बसा है।
कश्मीर घाटी: भारतीय कश्मीर घाटी में छः ज़िले हैं : श्रीनगर, बड़ग़ाम, अनन्तनाग, पुलवामा, बारामुला और कुपवाड़ा। कश्मीर हिमालय पर्वती क्षेत्र का भाग है। जम्मू खण्ड से और पाकिस्तान से इसे पीर-पंजाल पर्वत-श्रेणी अलग करती है। यहाँ कई सुन्दर सरोवर हैं, जैसे डल, वुलर और नगीन। यहाँ का मौसम गर्मियों में सुहावना और सर्दियों में बर्फीला होता है। इस प्रदेश को धरती का स्वर्ग कहा गया है। एक नहीं कई कवियों ने बार बार कहा है : गर फ़िरदौस बर रुए ज़मीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त। ...(फ़ारसी में मुग़ल बादशाह जहाँगीर के शब्द)
कश्मीर घाटी में जल की बहुलता है। अनेक नदी नालों और सरोवरों के अतिरिक्त कई झीलें हैं। वुलर झील मीठे पानी की भारतवर्ष में विशालतम झील है। कश्मीर में सर्वाधिक मछलियाँ इसी झील से प्राप्त होती हैं। स्वच्छ जल से परिपूर्ण डल झील तैराकी तथा नौकाविहार के लिए अत्यंत रमणीक है। तैरते हुए छोटे-छोटे खत सब्जियाँ उगाने के व्यवसाय में बड़ा महत्व रखते हैं। कश्मीर अपनी अनुपम सुषमा के कारण नंदनवन कहलाता है। भारतीय कवियों ने सदा इसकी सुंदरता का बखान किया है।
जलवायु : धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर ग्रेट हिमालयन रेंज और पीर पंजाल पर्वत शृंखला के मध्य स्थित है। यहाँ की नैसर्गिक छटा हर मौसम में एक अलग रूप लिए नजर आती है। गर्मी में यहाँ हरियाली का आँचल फैला दिखता है, तो सेबों का मौसम आते ही लाल सेब बागान में झूलते नजर आने लगते हैं। सर्दियों में हर तरफ बर्फकी चादर फैलने लगती है और पतझड शुरू होते ही जर्द चिनार का सुनहरा सौंदर्य मन मोहने लगता है। पर्यटकों को सम्मोहित करने के लिए यहाँ बहुत कुछ है। शायद इसी कारण देश-विदेश के पर्यटक यहाँ खिंचे चले आते हैं। वैसे प्रसिद्ध लेखक थॉमस मूर की पुस्तक लैला रूख ने कश्मीर की ऐसी ही खूबियों का परिचय पूरे विश्व से कराया था।
पीरपंजाल की श्रेणियाँ दक्षिण-पश्चिमी मानसून को बहुत कुछ रोक लेती हैं, किंतु कभी-कभी मानसूनी हवाएँ घाटी में पहुँचकर घनघोर वर्षा करती हैं। अधिकांश वर्षा वसंत ऋतु में होती है। वर्षा ऋतु में लगभग 9.7फ़फ़ तथा जनवरी-मार्च में 8.1फ़फ़ वर्षा होती है। भूमध्यसागरी चक्रवातों के कारण हिमालय के पर्वतीय क्षेत्र में, विशेषतया पश्चिमी भाग में, खूब हिमपात होता है। हिमपात अक्टूबर से मार्च तक होता रहता है। भारत तथा समीपवर्ती देशों में कश्मीर तुल्य स्वास्थ्यकर क्षेत्र कहीं नहीं है। पर्वतीय क्षेत्र होने के कारण यहाँ की जलवायु तथा वनस्पतियाँ भी पर्वतीय हैं।
कृषि : कश्मीर घाटी की प्रसिद्ध फसल चावल है जो यहाँ के निवासियों का मुख्य भोजन है। मक्का, गेहूँ, जौ और जई भी क्रमानुसार मुख्य फसलें हैं। इनके अतिरिक्त विभिन्न फल एवं सब्जियाँ यहाँ उगाई जाती हैं। अखरोट, बादाम, नाशपाती, सेब, केसर तथा मधु आदि का प्रचुर मात्रा में निर्यात होता है। कश्मीर केसर की कृषि के लिए प्रसिद्ध है। शिवालिक तथा मरी क्षेत्र में कृषि कम होती है। दून क्षेत्र में विभिन्न स्थानों पर अच्छी कृषि होती है। जनवरी और फरवरी में कोई कृषि कार्य नहीं होता। यहाँ की झीलों का बड़ा महत्व है। उनसे मछली, हरी खाद, सिंघाड़े, कमल एवं मृणाल तथा तैरते हुए बगीचों से सब्जियाँ उपलब्ध होती हैं। कश्मीर की मदिरा मुगल बादशाह बाबर तथा जहाँगीर की बड़ी प्रिय थी किंतु अब उसकी इतनी प्रसिद्धि नहीं रही। कृषि के अतिरिक्त, रेशम के कीड़े तथा भेड़ बकरी पालने का कार्य भी यहाँ पर होता है।
खनिज संसाधन: इस राज्य में प्रचुर खनिज संसाधन हैं किंतु अधिकांश अविकसित हैं। कोयला, जस्ता, ताँबा, सीसा, बाक्साइट, सज्जी, चूना पत्थर, खड़िया मिट्टी, स्लेट, चीनी मिट्टी, अदह (ऐसबेस्टस) आदि तथा बहुमूल्य पदार्थों में सोना, नीलम आदि यहाँ के प्रमुख खनिज हैं।
प्रमुख उद्योग: श्रीनगर का प्रमुख उद्योग कश्मीरी शाल की बुनाई है जो बाबर के समय से ही चली आ रही है। कश्मीरी कालीन भी प्रसिद्ध औद्योगिक उत्पादन है। किंतु आजकल रेशम उद्योग सर्वप्रमुख प्रगतिशील धंधा हो गया है। चाँदी का काम, लकड़ी की नक्काशी तथा पाप्ये-माशे यहाँ के प्रमुख उद्योग हैं। पर्यटन उद्योग कश्मीर का प्रमुख धंधा है जिससे राज्य को बड़ी आय होती है। लगभग एक दर्जन औद्योगिक संस्थान स्थापित हुए हैं परंतु प्रचुर औद्योगिक क्षमता के होते हुए भी बड़े उद्योगों का विकास अभी तक नहीं हो पाया है।
कश्मीर के प्रसिद्ध उत्पाद: कश्मीर से कुछ यादगार वस्तुएँ ले जानी हों तो यहां कई सरकारी एम्पोरियम हैं। अखरोट की लकड़ी के हस्तशिल्प, पेपरमेशी के शो-पीस, लेदर की वस्तुएँ, कालीन, पश्मीना एवं जामावार शाल, केसर, क्रिकेट बैट और सूखे मेवे आदि पर्यटकों की खरीदारी की खास वस्तुएँ हैं। लाल चौक क्षेत्र में हर तरह के शॉपिंग केन्द्र है। खानपान के शौकीन पर्यटक कश्मीरी भोजन का स्वाद जरूर लेना चाहेंगे। बाजवान कश्मीरी भोजन का एक खास अंदाज है। इसमें कई कोर्स होते है जिनमें रोगन जोश, तबकमाज, मेथी, गुस्तान आदि डिश शामिल होती है। स्वीट डिश के रूप में फिरनी प्रस्तुत की जाती है। अन्त में कहवा अर्थात कश्मीरी चाय के साथ वाजवान पूर्ण होता है।
कश्मीर का इतिहास (AS, p.152-153) का प्राचीन नाम कश्यपमेरु (कश्यप का पर्वत) या कश्यपमीर (कश्यप की झील) था। किंवदंती है कि महर्षि कश्यप श्रीनगर से तीन मील दूर हरि-पर्वत पर रहते थे। जहाँ आजकल कश्मीर की घाटी है, वहाँ अति प्राचीन प्रागैतिहासिक काल में एक बहुत बड़ी झील थी जिसके पानी को निकाल कर महर्षि कश्यप ने इस स्थान को मनुष्यों के बसने योग्य बनाया था। भूविद्या-विशारदों के विचारों से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि काश्मीर तथा हिमालय के एक विस्तृत भू-भाग में अब से सहस्त्रों वर्ष पूर्व समुद्र स्थित था। काश्मीर का इतिहास अतिप्राचीन है।
वैदिक काल में यहाँ आर्यों की बस्तियाँ थी। महाभारत वन 130, 10 में काश्मीर मंडल का उल्लेख है- 'काश्मीर मंडलं चैतत् सर्वपुण्यमरिंदम; महर्षिभिश्चाध्युषितं पश्येदं भ्रातृभि: सह्।' कश्मीर के लिए कश्मीरमंडल शब्द के प्रयोग से सूचित होता है कि महाभारत काल में भी वर्तमान कश्मीर के विशाल समूचे प्रदेश को ही कश्मीर समझा जाता था। उस काल में महर्षियों के रहने के अनेक स्थान थे, यह भी इस उद्धरण से ज्ञात होता है। महाभारत, सभा0 34, 12('द्राविडा:-सिंहलाश्चैव राजा काश्मीरकस्तथा') से सूचित हिता है कि कश्मीर का राजा भी युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में आया था। उसने भेंट में अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त अंगूर के गुच्छे भी युधिष्ठिर को दिए थे, [p.153]: 'काश्मीरराजोमार्द्वीकं शुद्धं च रसवन्मधु बलिं च कृत्स्ननादाय पांडवायाभ्युपाहरत'--सभा0 51, दक्षिणात्य पाठ्।
कल्हण की राजतरंगिणी में जो कश्मीर का बृहत इतिहास है, इस देश के इतिहास को अति प्राचीनकाल से प्रारम्भ किया गया है।
कश्मीर में अशोक के समय में बौद्धधर्म ने पहली बार प्रवेश किया। श्रीनगर की स्थापना इस मौर्य सम्राट ने ही की थी। दूसरी शती ई. में कुशान नरेशों ने कश्मीर को अपने विशाल, मध्य एशिया तक फैले हुए साम्राज्य का अंग बनाया।
कश्मीर से हाल में प्राप्त भारत-बैक्ट्रिआई और भारत-पार्थिआयी नरेशों के सिक्कों से प्रमाणित होता है कि गुप्त काल के पूर्व, कश्मीर का सम्बन्ध उत्तरपश्चिम में स्थापित ग्रीक राज्यों से था। विष्णु पुराण के एक उल्लेख से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है--'सिंधु तटदाविकोर्वीचन्द्रभागा काश्मीरविषयांश्चव्रात्यम्लेच्छशूद्रादयो भोक्ष्यन्ति' विष्णु पुराण 4, 24, 69। इससे कश्मीर आदि देशों में संभवत: गुप्तपूर्वकाल में अनार्य जातियों के राज्य का होना सूचित होता है।
गुप्तकाल में ही बौद्ध धर्म की अवनति अन्य प्रदेशों की भाति कश्मीर में भी प्रारम्भ हो गई थी और शैव धर्म का उत्कर्ष धीरे -धीरे बढ़ रहा था। शैवमत के तथा पुनरुज्जीवित हिन्दूधर्म के प्रचार में अभिनवगुप्त तथा शंकराचार्य जैसे दार्शनिकों का बड़ा हाथ था। श्रीनगर के पास शंकराचार्य की पहाड़ी, दक्षिण के महान् आचार्य की सुदूर उत्तर के इस देश की दार्शनिक दिग्विजय-यात्रा का स्मारक है। हिन्दूधर्म के उत्कर्ष के साथ ही साथ कश्मीर की राजनीतिक शक्ति का भी तेजी से विकास हुआ।
राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर-नरेश मुक्तापीड ललितादित्य ने 8वीं शती में सन्पूर्ण उत्तर भारत में कान्यकुब्ज तथा पार्श्ववर्ती प्रदेश तक, अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था।
13वीं शती में कश्मीर मुसलमानों के प्रभाव में आया। ईरान के हज़रत सैयद अली हमदान नामक संत ने अपने धर्म का यहाँ ज़ोरों से प्रचार किया और धीरे-धीरे राज्यसत्ता भी मुसलमानों के हाथ में पहुँच गई। कश्मीर के मुसलमानों का राज्य 1338 ई. से 1587 ई. तक रहा और ज़ेनुलअब्दीन के शासनकाल में कश्मीर भारत-ईरानी संस्कृति का प्रख्यात केंद्र बन गया। इस शासक को उसके उदार विचारों और संस्कृति प्रेम के कारण काश्मीर का अकबर कहा जाता है।
1587 से 1739 ई. तक कश्मीर मुग़ल साम्राज्य का अभिन्न अंग बना रहा। जहाँगीर और शाहजहाँ के समय के अनेक स्मारक आज भी कश्मीर के सर्वोत्कृष्ट स्मारक माने जाते हैं। इनमें निशात बाग़, शालीमार उद्यान आदि प्रमुख हैं।
1739 से 1819 ई. तक क़ाबुल के राजाओं ने कश्मीर पर राज्य किया।
1819 ई. में पंजाब केसरी रणजीत सिंह ने कश्मीर को क़ाबुल के अमीर दोस्त मुहम्मद से छीन लिया किन्तु शीघ्र ही पंजाब कश्मीर के सहित अंग्रेज़ों के हाथ में हाथ में आ गया।
1846 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने कश्मीर को डोंगरा सरदार गुलाब सिंह के हाथों बेच दिया। इस वंश का 1947 तक वहाँ शासन रहा।
Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 11.06.2022 References
- ↑ Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book VI (p.160)
- ↑ https://hindi.oneindia.com/news/india/original-idol-of-maa-bhadrakali-restored-at-ancient-temple/articlecontent-pf128517-448989.html
- ↑ India TV News, March 20, 2018
- ↑ Kalaroos caves: Kashmir’s Russia connection through tunnels Posted on July 4, 2021 by Parsa Mahjoob