User:Lrburdak/My Tours/Tour of East India II

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग दो (6.1.1981-24.1.1981)

लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1981 में की गई थी। यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है। दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए है। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं। कुछ वन-आधारित उद्योगों के नाम विवरण में आए हैं उनमें से कुछ वर्तमान में कच्चे माल की उपलब्धता के अभाव में या तो बंद हो चुके हैं या संबंधित कंपनी ने अपना कार्यक्षेत्र बदल लिया है।

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग दो

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग दो की यात्रा बहुत लंबी थी। लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1981 में की गई थी। भारतीय वन सेवा प्रोबेशनर्स के लिए भारतीय रेलवे द्वारा अलग से प्रथम श्रेणी विशेष कोच की व्यवस्था की गयी थी। जो स्थान रेल से जुड़े नहीं थे वहाँ स्थानीय रूप से बसों की व्यवस्था की गई थी। ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक की यात्रा में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को कवर किया गया था। ईस्ट इण्डिया टूर – भाग दो में पश्चिम बंगाल और उड़ीसा प्रांतों को कवर किया गया था।

East India Part II Tour (6.1.1981-24.1.1981)

Dehradun (6.1.1981) → Delhi (7.1.1981) → Alahabad (7.1.1981) → Mugal Sarai (8.1.1981) → New Jalpaiguri (8.1.1981) → Sukna (9.1.1981) → Siliguri (10.1.1981) → Darjeeling (11.1.1981) → Sukna (12.1.1981) → New Jalpaiguri (12.1.1981)→ Howara (13.1.1981→ Puri (16.1.1981) → Konark Sun Temple (17.1.1981)→ Nandan Kanan Sanctuary (17.1.1981 → Bhubaneshwar (17.1.1981) → Puri (17.1.1981) → Rourkela (18.1.1981)→ Tholkabad (18.1.1981) → Rourkela (21.1.1981)→ Delhi (23.1.1981) → Dehradun (24.1.1981)


6.1.1981: देहारादून (11.00) से बॉम्बे एक्सप्रेस द्वारा रवाना होकर दिल्ली (20.00) पहुँचे। रात्री विश्राम दिल्ली में किया। 304 kms

7.1.1981: दिल्ली (12.15) से चंडीगढ़-रांची एक्सप्रेस द्वारा रवाना होकर इलाहाबाद पहुँचे। इलाहाबाद से मुगलसराय तक तूफ़ान-मेल से यात्रा की। 781 Kms

8.1.1981: सुबह मुगलसराय पहुँचे और मुगलसराय से आगे तिनसुखिया मेल से चलकर रात्री में न्यू-जलपाईगुड़ी पहुँचे। 681 kms

न्यू जलपाईगुड़ी, सुकना, कर्सियांग, सिलीगुड़ी, दार्जिलिंग भ्रमण

New Jalpaiguri - Siliguri - Darjiling- Gangtok Road Map

9.1.1981: न्यू-जलपाईगुड़ी से सुकना तक बस से यात्रा कर सुकना पहुँचे। सुकना में बेसिक लोगिंग सेंटर में रुकने की व्यवस्था थी। Bamanpankhari फोरेस्ट ब्लॉक का निरीक्षण किया। फिर Champta फोरेस्ट ब्लॉक का निरीक्षण किया। यहाँ इमारती लकड़ी के दोहन में प्रयोग की जाने वाले तरीकों का अध्ययन किया। कर्सियांग (Kurseong) वन मंडल की कार्य आयोजना का अध्ययन किया।

10.1.1981: सरकारी सॉमिल सिलीगुड़ी का निरीक्षण किया। Tukria Jhar फोरेस्ट ब्लॉक का निरीक्षण किया।

11.1.1981: दार्जिलिंग के लिए जाते समय रास्ते में Jhora Training work देखा। क्रिप्टोमेरिया (Cryptomaria ) का वृक्षारोपण देखा। दार्जिलिंग पहुँचकर वहाँ न्यू-अलगिन होटल में रुके। दार्जिलिंग में हिमालय माउंटेनिंग संस्‍थान, पदमजा-नायडू-हिमालयन जैविक उद्यान का निरीक्षण किया।

12.1.1981: दार्जिलिंग से वापस सुकना पहुँचे। सुकना से न्यू जलपाईगुड़ी पहुँचे और वहाँ से हावड़ा के लिए ट्रेन से रवाना रवाना हुये।

नोट: इन स्थानों का भ्रमण लेखक द्वारा 17.11.2010-18.11.2010 को भी किया गया था। इनके विस्तृत विवरण के लिए देखे - पूर्वोत्तर भारत की यात्रा: भाग-7 अथवा Facebook Post of Laxman Burdak Dated 24.2.2021 (https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=5214392848603401&id=100000982122954)

हावड़ा, कलकत्ता भ्रमण

12.1.1981: न्यू जलपाईगुड़ी रेल्वे स्टेशन से हावड़ा (दूरी 587 km.) के लिए ट्रेन से रवाना हुये। यह एक लंबी यात्रा थी। उत्तरी बंगाल से शुरू होकर दक्षिण बंगाल में समुद्र के किनारे तक बांग्लादेश की सीमा के साथ-साथ यात्रा चलती है। शुरू में एक बार बिहार प्रांत के किशनगंज और कटिहार जिलों में प्रवेश करती है, शेष यात्रा में पश्चिम बंगाल के मालदा, बीरभूम, बर्धमान, हुगली जिलों को पार करते हुए हावड़ा पहुँचते हैं। पूर्वी भारत के जनजीवन को समझने का यह एक अच्छा अवसर था।

रास्ते में पड़ने वाले मुख्य स्टेशन हैं: New Jalpaiguri (WB) → Aluabari (WB) → Kishanganj (Bihar) → Barsoi (Bihar:Katihar) → Katihar (Bihar) → Harishchandrapur (WB:Malda) → Bhaluka (WB:Malda) → Samsi (WB:Malda) → Adina (WB:Malda) → Malda (WB:Malda) → Murarai (WB:Birbhum) → Rampur Hat (WB:Birbhum) → Sainthiya (WB:Birbhum) → Bolpur (WB:Birbhum) → BardhamanHugli Chinsurah (WB:Hugli) → Jagatballavpur (WB:Haora) → Haora


13.1.1981: हावड़ा के लिए यात्रा जारी रही। हावड़ा पहुँचकर न्यू अशोका होटल में रुके। हावड़ा भारत के पश्चिम बंगाल राज्य का एक औद्योगिक शहर है। हुगली नदी के दाहिने तट पर स्थित, यह शहर कलकत्ता, के जुड़वा के रूप में जाना जाता है। यहाँ का सबसे प्रमुख रेलवे स्टेशन हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन है। आज हावड़ा अपने उद्योगों, रेलवे टर्मिनस और हावड़ा ब्रिज के लिये जाना जाता है। हावड़ा का विस्तृत परिचय और इतिहास आगे दिया गया है।

14.1.1981: कलकत्ता में आलोक उद्योग प्लाईवूड फैक्ट्री (Alok Udyog Plywood Factory Budge Budge) का निरीक्षण किया। बज-बज क्षेत्र कलकत्ता में स्थित यह फैक्ट्री पूर्व में बिड़ला समूह द्वारा संचालित थी परंतु कुछ वर्ष पूर्व पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा प्रबंधन के लिए ले ली गई है। इसमें प्लाईवूड निर्माण के लिए सेमल, चम्पा, खमार, सागौन, शीशम आदि प्रजाति की लकड़ियाँ काम आती हैं। इसका प्रबंधन वन संरक्षक स्तर के अधिकारी द्वारा किया जा रहा है। श्रमिक समस्या और अनिश्चित विद्युत उपलब्ध्ता के कारण यहाँ का उत्पादन गिर रहा है। प्रतिदिन का उत्पादन 1700-1800 क्यूबिक मीटर है।

हावड़ा में शालीमार क्षेत्र में स्थित अंडमान सरकारी इमारती लकड़ी डिपो (Andaman Government Timber Depot) का निरीक्षण किया। यह 3.5 हेक्टर क्षेत्र में फैला हुआ है। इस डिपो के लिए क्षेत्र पोर्ट कमिश्नर से लीज पर लिया गया है। अंडमान द्वीपसमूह से इमारती लकड़ी का परिवहन कर यहाँ भंडारित की जाती है। मुख्य प्रजातियाँ हैं- Depterocarpus, Terminalia myriocarpa, Sterculia, Semal, Albezzia procera, Cocoa. एक समस्या यह बताई गई कि जब बाढ़ आकर पानी वापस उतरता है तो कुछ काष्ठ बहकर समुद्र में चली जाती है। रात को अंडमान प्रशासन के विश्राम गृह में रुके।

Victoria Memorial, Calcutta-15.1.1981

15.1.1981: कलकत्ता में अलीपुर वन्य प्राणी उद्यान (Zoological Garden, Alipore) का निरीक्षण किया। यह भारत का सबसे पुराना प्राणी उद्यान है। इसकी स्थापना वर्ष 1875 में एडवर्ड VII (Edward VII) द्वारा की गई थी जो उस समय प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Wales) थे। उसके बाद में विक्टोरिया मेमोरियल देखा। यह एक ब्रिटिश कालीन स्मारक है। यह स्मारक इंग्लैण्ड की तत्कालीन साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया को समर्पित है। फिर इंडियन म्यूजियम और आर्ट गैलरी का भ्रमण किया। भारतीय संग्रहालय (Indian Museum) भारत का सर्वश्रेष्ठ संग्रहालय है। इसमें प्राचीन वस्तुओं, युद्धसामग्री, गहने, कंकाल, ममी, जीवाश्म, तथा मुगल चित्र आदि का दुर्लभ संग्रह है। इसमें विज्ञान और संस्कृति से संबंधित 6 सेक्शन हैं यथा इंडियन आर्ट, आर्किओलोजी, एन्थ्रोपोलोजी, जियोलोजी, जूलोजी और एकोनोमिक बॉटनी एवं इनकी 35 गैलरी हैं। कोलकाता के दर्शनीय स्थलों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

Seaside Inn होटल कलकत्ता में एक घंटा रुके और फ़्रेश हुये। कलकत्ता का प्रवास समाप्त हुआ और हम हावड़ा से पुरी के लिए यात्रा पर पुरी पसेंजर ट्रेन से रवाना हुये। हावड़ा से पुरी की दूरी 500 km है।

16.1.1981: यात्रा जारी। पुरी में मध्य रात्री को पहुंचे।

हावड़ा परिचय

हावड़ा ब्रिज

हावड़ा भारत के पश्चिम बंगाल राज्य का एक औद्योगिक शहर है। हुगली नदी के दाहिने तट पर स्थित, यह शहर कलकत्ता, के जुड़वा के रूप में जाना जाता है। यह किसी ज़माने में भारत की अंग्रेज़ी सरकार की राजधानी और भारत एवं विश्व के सबसे प्रभावशाली एवं धनी नगरों में से एक हुआ करता था। रवीन्द्र सेतु, विवेकानन्द सेतु, निवेदिता सेतु एवं विद्यासागर सेतु इसे हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर स्थित पश्चिम बंगाल की राजधानी, कोलकाता से जोड़ते हैं। समानताएँ होने के बावजूद हावड़ा नगर की भिन्न पहचान है इसकी अधिकांशतः हिन्दी भाषी आबादी, जो कि कोलकाता से इसे थोड़ी अलग पहचान देती है। समुद्रतल से मात्र 12 मीटर ऊँचा यह शहर रेलमार्ग एवं सड़क मार्गों द्वारा सम्पूर्ण भारत से अच्छी तरह जुड़ा हुआ है। यहाँ का सबसे प्रमुख रेलवे स्टेशन हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन है। राष्ट्रीय राजमार्ग 2 एवं राष्ट्रीय राजमार्ग 6 इसे दिल्ली व मुम्बई से जोड़ते हैं। हावड़ा नगर के अन्तर्गत सिबपुर, घुसुरी, लिलुआ, सलखिया तथा रामकृष्णपुर उपनगर सम्मिलित हैं।

हावड़ा का इतिहास

नाम करण: हावड़ा का नाम, बंगाली शब्द "हाओर" से आया है जो की बंगाली में पानी, कीचड़ और जमे हुए जैविक मलबे के पोखरके लिए इस्तेमाल होता है। वैज्ञानिक रूप से हाओर एक अवसाद है, जो एक नदी दलदल या झील होता है। इस शब्द का उपयोग बंगाल के पूर्वी हिस्से में ज्यादा हुआ करता था(जो अब बांग्लादेश है)।

मौजूदा हावड़ा नगर का ज्ञात इतिहास करीब 500 वर्ष पुराना है। परन्तु हवड़ा जनपद क्षेत्र का इतिहास प्राचीन बंगाली राज्य भुरशुट (Bhurshut) से जुड़ा है, जो प्राचीन काल से 15वीं शताब्दी तक, हावड़ा जिला और हुगली ज़िला के क्षेत्र पर शासन करती थी। सन 1569-75 में भारत भ्रमण कर रहे वेनिस के एक भ्रमणकर्ता सेज़र फ़ेडरीची (Caesar Federichi) ने अपने भारत दौरे की अपनी दैनिकी में 1578 ई में बुट्टोर (Buttor) नामक एक जगह का वर्णन किया था। उनके विवरण के अनुसार वह एक ऐसा स्थान था जहाँ बहुत बड़े जहाज भी यात्रा कर सकता थे और वह सम्भवतः एक वाणिज्यिक बन्दरगाह भी था। उनका यह विवरण मौजूदा हावड़ा के बाटोर इलाके का है। बाटोर का उल्लेख 1495 में बिप्रदास पीपिलई द्वारा लिखि बंगाली कविता मानसमंगल में भी है।

सन 1713 में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के पोते बादशाह फर्रुख़शियार के राजतिलक के मौक़े पर ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुग़ल दरबार में एक प्रतिनिधिमण्डल भेजा था, जिसका उद्धेश्य हुगली नदी के पूर्व के 34 और पश्चिम के पाँच गाँव: सलकिया (Salica), हरिराह (Harirah अथवा हावड़ा), कसुंडी (Cassundea) बातोर (Battar) और रामकृष्णपुर (Ramkrishnopoor) को मुगलों से खरीदना था। शहंशाह ने केवल पूर्व के 34 गाँवों पर सन्धि की। कम्पनी के पुराने दस्तावेजों में इन गाँवों का उल्लेख है। आज ये सारे गाँव हावड़ा शहर के क्षेत्र और उपनगर हैं। सन 1728 हावड़ा के ज्यादातर इलाके "बर्धमान" और "मुहम्मन्द अमीनपुर" जमीनदारी का हिस्सा थे। प्लासी के युद्ध में पराजय के पश्चात, बंगाल के नवाब मीर क़ासिम ने 11 अक्टूबर 1760 में एक सन्धि द्वारा हुगली और हावड़ा के सारे इलाके ब्रिटिश कंपनी को सौंप दिये, तत्पश्चात हावड़ा को बर्धमान ज़िले का हिस्सा बना दिया गया। सन 1787 में हुगली जनपद को बर्धमान से अलग किया गया और 1843 में हावड़ा को हुगलीजनपद से अलग कर हावड़ा जिला बनाया गया, जो अब भी कायम है।

सन 1854 में हावड़ा जंक्शन रेलवे स्टेशन को स्थापित किया गया और उसी के साथ शुरू हुआ हावड़ा नगर का औद्यौगिक विकास, जिसने शहर को कलकत्ता के एक आम से उपनगर को भारतवर्ष का एक महत्वपूर्ण औद्यौगिक केन्द्र बना दिया। धीरे-धीरे हावड़ा के क्षेत्र में कई प्रकार के छोटे, मध्य और भारी प्रौद्यौगिक उद्योग खुल गए। यह विकास दूसरे विश्व युद्ध तक जारी रहा जिसका नतीजा हुआ, नगर का हर दिशा में त्रैलोकिक विस्तार।

आज हावड़ा अपने उद्योगों, रेलवे टर्मिनस और हावड़ा ब्रिज के लिये जाना जाता है।

कोलकाता परिचय

कोलकाता पश्चिम बंगाल राज्य की राजधानी है और भूतपूर्व ब्रिटिश भारत (1772-1912) की राजधानी था। कोलकाता का उपनाम डायमण्ड हार्बर भी है। यह भारत का सबसे बड़ा शहर है और प्रमुख बंदरगाहों में से एक हैं। कोलकाता का पुराना नाम कलकत्ता था। 1 जनवरी, 2001 से कलकत्ता का नाम आधिकारिक तौर पर कोलकाता हुआ। कोलकाता शहर बंगाल की खाड़ी के मुहाने से 154 किलोमीटर ऊपर को हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित है, जो कभी गंगा नदी की मुख्य नहर थी। यहाँ पर जल से भूमि तक और नदी से समुद्र तक जहाज़ों की आवाजाही के केन्द्र के रूप में बंदरगाह शहर विकसित हुआ। वाणिज्य, परिवहन और निर्माण का शहर कोलकाता पूर्वी भारत का प्रमुख शहरी केन्द्र है।

कोलकाता नामकरण: कुछ लोगों के अनुसार कालीकाता की उत्पत्ति बांग्ला शब्द कालीक्षेत्र से हुई है, जिसका अर्थ है 'काली (देवी) की भूमि'। कुछ कहते हैं कि शहर का नाम एक नहर (ख़ाल) के किनारे पर उसकी मूल बस्ती होने से पड़ा। तीसरा विचार यह है कि चूना (काली) और सिकी हुई सीपी (काता) के लिए बांग्ला शब्दों से मिलकर यह नाम बना है, क्योंकि यह क्षेत्र पकी हुई सीपी से उच्च गुणवत्ता वाले चूने के निर्माण के लिए विख्यात है। एक अन्य मत यह है कि कोलकाता नाम की उत्पत्ति बांग्ला शब्द किलकिला (समतल क्षेत्र) से हुई है, जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है।

कलकत्ता का इतिहास

कलकत्ता का इतिहास: कलकत्ता (AS, p.147): अंग्रेजों की हुगली की व्यापारिक कोठी के अध्यक्ष जाब चारनाक ने अगस्त 1690 ई. में कोलकाता की नींव एक व्यापारिक स्थान के रूप में डाली थी। इससे पहले इसके स्थान पर कालीघाट नामक एक एक ग्राम स्थित था जो काली के मंदिर के कारण ही कालीघाट कहलाता था यह प्राचीन मंदिर आज भी वर्तमान है कलकत्ता कालीघाट का ही रूपांतर कहा जाता है (देखें कालीघाट)। जॉब चारनाक ने 1690 ई. में तीन गाँवों कोलिकाता, सुतानती तथा गोविन्‍दपुरी नामक जगह पर कोलकाता की नींव रखी थी।

कालीकाता नाम का उल्लेख मुग़ल बादशाह अकबर (शासन काल, 1556-1605) के राजस्व खाते में और बंगाली कवि बिप्रदास (1495) द्वारा रचित 'मनसामंगल' में भी मिलता है। एक ब्रिटिश बस्ती के रूप में कोलकाता का इतिहास 1690 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के एक अधिकारी जाब चार्नोक द्वारा यहाँ पर एक व्यापार चौकी की स्थापना से शुरू होता है। हुगली नदी के तट पर स्थित बंदरगाह को लेकर पूर्व में चार्नोक का मुग़ल साम्राज्य के अधिकारियों से विवाद हो गया था और उन्हें वह स्थान छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया था। जिसके बाद उन्होंने नदी तट पर स्थित अन्य स्थानों पर स्वयं को स्थापित करने के कई असफल प्रयास किए। अंग्रेज़ गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के समय में 'रेग्युलेटिंग एक्ट' के तहत 1774 ई. में कलकत्ता (कोलकाता का भूतपूर्व नाम) में एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई, जिसका अधिकार क्षेत्र कलकत्ता तक था। कलकत्ता में रहने वाले सभी भारतीय तथा अंग्रेज़ इसकी परिधि में थे। कलकत्ता से बाहर के मामले यह तभी सुनता था, जब दोनों पक्ष सहतम हों। इस न्यायालय में न्याय अंग्रेज़ी क़ानूनों द्वारा किया जाता था।

कालीघाट (बंगाल) (AS, p.182) कलकत्ता नाम का आदिरूप कालीघाटा था। यह नाम इस स्थान पर एक प्राचीन काली-मंदिर के होने के कारण पड़ा था. जहां कलकत्ते का समुद्र तट आज स्थित है, वहां प्राचीन काल में ऊंचे-ऊंचे कगार थे जो समुद्र के थपेड़ों से कटकर नष्ट हो गए और एक दलदल के रूप में रह गए। इस कारण गंगा का प्राचीन मार्ग भी बदल गया और इस स्थान पर एक त्रिकोणद्वीप बन गया। कालांतर में इस द्वीप पर काली का एक मंदिर बन गया जो प्रारंभ में आदिवासियों का पूजा स्थान था क्योंकि काली उनकी आराध्य देवी थी। इन्हीं के [p.183]: द्वारा यह देवी पाशवी देवी के रूप में बहुत दिनों तक सम्मानित रही और बाँसों के झुरमुटों से घिरे हुए इस मंदिर में धींवर, मल्लाह और आदिवासी लोग बहुत दिनों तक पूजा के लिए आते जाते रहे। कहा जाता है कि बंगाल के सेन-वंशीय नरेश बल्लालसेन ने कालीक्षेत्र का दान तांत्रिक ब्राह्मण लक्ष्मीकांत को दिया था। तब से लेकर अब तक लक्ष्मीकांत के परिवार के हालदार ब्राह्मण ही काली मंदिर के पुजारी होते चले आए हैं। काली की मूर्ति इन्हीं की बताई जाती है। देवी के रौद्ररूप काली की पूजा इन्हीं तांत्रिकों ने पहली बार द्विजों में प्रचलित की, नहीं तो उनकी आराध्या तो उमा, शिवा, दुर्गा या धात्री थी. तांत्रिकों ने स्वयं काली की मूर्ति का भाव आदिवासियों से ग्रहण किया होगा-- यह भी उपर्युक्त तथ्यों की पृष्ठभूमि में संभव जान पड़ता है।

कहा जाता है कि 1530 ई. तक सरस्वती और यमुना नामक दो नदियां कालीघाट के पास ही समुद्र में गिरती थी और इस संगम को त्रिवेणी का रूप माना जाता था. कालांतर में यह दोनों नदियां सूख गई किन्तु कालीघाट या कालीबाड़ी का तीर्थ रूप में महत्व बढ़ता ही गया. 17वीं शताब्दी के अंत और 18वीं के प्रारंभिक काल में यह मंदिर इतना प्रसिद्ध था कि वार्ड नामक अंग्रेजी लेखक के अनुसार वर्तमान कलकत्ते की नींव डालने वाले जॉब चार्नाक की भारतीय पत्नी के साथ अनेक अंग्रेज महिलाएं भी काली मंदिर में मनौती मनाने आती थी. वार्ड के उल्लेखानुसार ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों ने एक बार पांच सहस्र रुपया इस मंदिर में चढ़ाया था. पौराणिक कथा है कि पूर्वजन्म में शिव की पत्नी दक्ष-पुत्री सती के मृत शरीर के दक्षिण चरण की अंगुलियाँ यहाँ कटकर गिरी थीं और वे ही मूर्ति रूप में यहाँ प्रतिष्ठित हुईं. काली मंदिर को इसलिये काली पीठ भी माना जाता है.

किलकिल लोग कौन थे?: कोलकाता नाम की उत्पत्ति बांग्ला शब्द किलकिला (समतल क्षेत्र) से हुई है, जिसका उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। किलकिला शब्द का उल्लेख आमतौर पर इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता है। इस संबंध में गहन अनुसंधान से ज्ञात होता है कि ये नागवंशी राजा थे जिन्होने विदिशा में राज्य किया। वर्तमान में किलकिल जाट गोत्र के रूप में हरयाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में मिलते हैं। दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, पृष्ठ-248,249) लिखते हैं - किलकिल या कलकल जाटवंश नागवंश की शाखा है। यह प्राचीन वंश है। इस वंश का राज्य मध्य एशिया के वाकाटक (Vakataka) प्रदेश पर रहा। इस वंश के सम्राट् परवरसेन प्रथम (Pravarasena) ने बुन्देलखण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक राज्य किया। विष्णु पुराना अंग्रेजी पृ० 382 लेखक विल्सन लिखता है कि “भविष्य में होने वाले पौरव (जाट) वंश के 11 राजाओं का शासन 300 वर्ष रहकर समाप्त हो जायेगा तब किलकिल यवन राज्य करेंगे जिनका सम्राट् विन्ध्यशक्ति नामक होगा। इस वंश के 10 राजा 106 वर्ष राज्य करेंगे।” यह किलकिल जाटवंश है और इनका सम्राट् विंध्यशक्ति भी जाट था। इसका प्रमाण यह है कि इस वंश के विवाह शादी के सम्बन्ध जाट धारण गोत्र के गुप्तों और भारशिव एवं टांक/तक्षक जाटों के साथ रहे। (बी० एस० दहिया, जाट्स दी एन्शन्ट रूलर्ज, पृ० 284)। “ततः किलकिलेभ्यश्च बिन्ध्यशक्तिर्भविष्यति” वायु पुराण 258, ब्रह्माण्ड पुराण 178 के अनुसार वह राजा विंध्यशक्ति जो किलकिल के नाम से प्रसिद्ध था, किलकिला नदी के किनारे प्रतिष्ठित थी। यह नदी पन्ना नगर से नागौद जाते हुए लगभग 4 मील पर है। इनका शासनकाल ईस्वी पूर्व 248 वर्ष माना गया है। बुन्देलखण्ड पर इनका एकछत्र राज्य था। इस वंश की जि० मेरठ में यादनगर एक अच्छी रियासत थी। यहां के जाट अपने वंश किलकिल को कलकल बोलते हैं। अलीपुर, उपैड़ा, लुकलाड़ा में भी इसी वंश के जाट हैं। यह वंश केवल जाटों में ही है। (जाटों का उत्कर्ष पृ० 330, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।) हरयाणा में दादरी तहसील में इमलोटा गांव कलकलवंशी जाटों का है। यह कलकलवंश चन्द्रवंशी है।

कोलकाता के दर्शनीय स्थल
विक्टोरिया मेमोरियल हाल, कोलकाता

विक्टोरिया मेमोरियल (Victoria Memorial, Kolkata): पश्चिम बंगाल के कोलकाता नगर में स्थित एक ब्रिटिश कालीन स्मारक है। 1906 से 1921 के बीच निर्मित यह स्मारक इंग्लैण्ड की तत्कालीन साम्राज्ञी महारानी विक्टोरिया को समर्पित है। इस स्मारक में विविध शिल्पकलाओं का सुंदर मिश्रण है। इसके मुगल शैली के गुंबदों पर सारसेनिक और पुनर्जागरण काल की शैलियों का प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस भवन के अंदर एक शानदार संग्रहालय भी है जहाँ रानी के पियानो और स्टडी-डेस्क सहित 3,000 से भी अधिक अन्य वस्तुएँ प्रदर्शित की गई हैं। यह प्रतिदिन मंगलवार से रविवार तक प्रात: दस बजे से सायं साढ़े चार बजे तक खुलता है, सोमवार को यह बंद रहता है।

विक्टोरिया मेमोरियल में 25 चित्र दीर्घाएँ हैं। इनमें शाही गैलरी, राष्ट्रीय नेताओं की गैलरी, पोर्ट्रेट गैलरी, सेंट्रल हॉल, मूर्तिकला गैलरी, हथियार और शस्त्रागार गैलरी और नई कलकत्ता गैलरी शामिल हैं। विक्टोरिया मेमोरियल में थॉमस डेनियल (1749-1840) और उनके भतीजे विलियम डेनियल (1769-1837) के कार्यों का सबसे बड़ा एकल संग्रह है। इसमें दुर्लभ और पुरातन पुस्तकों का संग्रह भी है जैसे कि विलियम शेक्सपियर के कार्यों का सचित्र निरूपण, आलिफ़ लैला और उमर खय्याम की रुबाइयत के साथ-साथ नवाब वाजिद अली शाह के कथक नृत्य और ठुमरी संगीत के बारे में किताबें आदि।

भारतीय संग्रहालय, कोलकाता

भारतीय संग्रहालय (Indian Museum) भारत का सर्वश्रेष्ठ संग्रहालय है। इसमें प्राचीन वस्तुओं, युद्धसामग्री, गहने, कंकाल, ममी, जीवाश्म, तथा मुगल चित्र आदि का दुर्लभ संग्रह है। भारतीय संग्रहालय की व्युत्पत्ति एसियाटिक सोसाइटी बंगाल (Asiatic Society of Bengal) से हुई जिसकी स्थापना भाषाशास्त्री और सुप्रीम कोर्ट बंगाल के जज सर विलियम जोंस (Sir William Jones) ने सन 1784 में की थी। भारत में विलियम जोंस ने पूर्वी विषयों के अध्ययन में गंभीर रुचि प्रदर्शित की। उसने संस्कृत का अध्ययन किया और 1784 में "बंगाल एशियाटिक सोसाइटी" की स्थापना की जिससे भारत के इतिहास, पुरातत्व, विशेषकर साहित्य और विधिशास्त्र संबंधी अध्ययन की नींव पड़ी। यूरोप में उसी ने संस्कृत साहित्य की गरिमा सबसे पहले घोषित की। आपने यूरोपियन और संस्कृत भाषाओं में संबंध स्थापित किया और बताया कि यूरोपियन भाषाओं का मूल संस्कृत भाषा में निहित है। आपके द्वारा ही संयुक्त रूप से इन भाषाओं को इन्डो-यूरोपियन (Indo-European) भाषायें कहा गया।

सन् 1814 में भारतीय संग्रहालय की संस्थापना डॉ नथानियल वालिक (Dr Nathaniel Wallich) नामक डेनमार्क के वनस्पतिशास्त्री ने की थी। यह एशिया का सबसे पुराना और भारत का सबसे बड़ा संग्रहालय है। इसमें विज्ञान और संस्कृति से संबंधित 6 सेक्शन हैं यथा इंडियन आर्ट, आर्किओलोजी, एन्थ्रोपोलोजी, जियोलोजी, जूलोजी और एकोनोमिक बॉटनी एवं इनकी 35 गैलरी हैं।

अलीपुर वन्य प्राणी उद्यान कोलकाता में सफ़ेद शेर

अलीपुर वन्य प्राणी उद्यान (Zoological Garden, Alipore): अलीपुर वन्य प्राणी उद्यान जिसे अलीपुर चिडियाघर या कोलकाता चिडियाघर के नाम से भी जाना जाता है भारत का सबसे पुराना प्राणी उद्यान है। इसकी स्थापना वर्ष 1875 में एडवर्ड VII (Edward VII) द्वारा की गई थी जो उस समय प्रिंस ऑफ वेल्स (Prince of Wales) थे। यह कोलकाता का एक प्रमुख पर्यटन आकर्षण है। इसे अद्वैत नामक कछुए के नाम से भी जाना जाता है जो विश्व में किसी भी प्राणी से लम्बी आयु का था। निरीक्षण के समय 1981 में इसमें सफ़ेद शेर, टाइगोन, लिटिगोन और स्नो बीयर भी यहाँ की विशेषता थे।

काली मंदिर: सडर स्ट्रीट से 6 कि॰मी॰ दक्षिण में यह शानदार मंदिर कोलकाता की संरक्षक देवी काली को समर्पित है। काली का अर्थ है "काला"। काली की मूर्ति की जिह्वा खून से सनी है और यह नरमुंडों की माला पहने हुए हैं। काली, भगवान शिव की अर्धांगिनी, पार्वती का ही विनाशक रूप है। पुराने मंदिर के स्थान पर ही वर्तमान मंदिर 1809 में बना था। यह प्रात: 3.00 बजे से रात्रि 8.00 बजे तक खुलता है।

मार्बल पैलेस, कोलकाता

मार्बल पैलेस (Marble Palace, Kolkata): पश्चिम बंगाल के शहर कोलकाता का यह एक पर्यटन स्थल है। एम जी रोड पर स्थित इस पैलेस की समृद्धता देखते ही बनती है। 1800 ई. में यह पैलेस एक अमीर बंगाली जमींदार का आवास था। इसकी स्‍थापना 1835 ई. में राजा राजेंद्र मूलिक बहादुर ने की थी। यहां कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाएं और पेंटिंग हैं। सुंदर झूमर, यूरोपियन एंटीक, वेनेटियन ग्लास, पुराने पियानो और चीन के बने नीले गुलदान आपको उस समय के अमीरों की जीवनशैली की झलक देंगे।

फोर्ट विलियम कोलकाता 1828

फोर्ट विलियम (Fort William): फोर्ट विलियम कोलकाता में हुगली नदी के पूर्वी किनारे पर बना एक किला है, जिसे ब्रिटिश राज के दौरान बनवाया गया था। इसे इंग्लैंड के राजा विलियम तृतीय (William III) के नाम पर बनवाया गया था। इसके सामने ही मैदान है, जो कि किले का ही भाग है और कलकत्ता का सबसे बड़ा शहरी पार्क है। चूंकि फोर्ट विलियम को अब भारतीय सेना के लिए उपयोग में लाया जाता है, यहां प्रवेश करने के लिए विशेष अनुमति लेनी होती है।

ईडन गार्डन्स: एक छोटे से तालाब में बर्मा का पेगोडा स्थापित किया गया है, जो इस गार्डन का विशेष आकर्षण है। यह स्थान स्थानीय जनता में भी लोकप्रिय है।

सेंट पॉल कैथेड्रल: यह चर्च शिल्पकला का अनूठा उदाहरण है, इसकी रंगीन कांच की खिड़कियां, भित्तिचित्र, ग्रांड-ऑल्टर, एक गॉथिक टावर दर्शनीय हैं। यह रोजाना प्रात: 9.00 बजे से दोपहर तक और सायं 3.00 बजे से 6.00 बजे तक खुलता है।

नाखोदा मस्जिद: लाल पत्थर से बनी इस विशाल मस्जिद का निर्माण 1926 में हुआ था, यहां 10,000 लोग आ सकते हैं।

पारसनाथ जैन मंदिर: 1867 में बना यह मंदिर वेनेटियन ग्लास मोजेक, पेरिस के झूमरों और ब्रूसेल्स, सोने का मुलम्मा चढ़ा गुंबद, रंगीन शीशों वाली खिड़कियां और दर्पण लगे खंबों से सजा है। यह रोजाना प्रात: 6.00 बजे से दोपहर तक और सायं 3.00 बजे से 7.00 बजे तक खुलता है।

बेलूर मठ: बेलूर मठ रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय है, इसकी स्थापना 1899 में स्वामी विवेकानंद ने की थी, जो रामकृष्ण के शिष्य थे। यहां 1938 में बना मंदिर हिंदु, मुस्लिम और इसाईशैलियों का मिश्रण है। यह अक्टूबर से मार्च केदौरान प्रात: 6.30 बजे से 11.30 बजे तक और सायं 3.30 बजे से 6.00 बजे तक तथा अप्रैल से सितंबर तक प्रात: 6.30 बजे से 11.30 बजे तक और सायं 4.00 बजे से 7.00 बजे तक खुलता है।

दक्षिणेश्वर काली मंदिर: हुगली नदी के पूर्वी तट पर स्थित यह मां काली का मंदिर है, जहां श्री रामकृष्ण परमहंस एक पुजारी थे और जहां उन्हें सभी धर्मों में एकता लाने की अनुभूति हुई।

मदर टेरेसा होम्स: इस स्थान की यात्रा आपकी कोलकाता यात्रा को एक नया आयाम देगी। काली मंदिर के निकट स्थित यह स्थान सैंकड़ों बेघरों और "गरीबों में से भी गरीब लोगों" का घर है - जो मदर टेरेसा को उद्धृत करता है। आप अपने अंशदान से जरुरतमंदों की मदद कर सकते हैं।

बॉटनिकल गार्डन्स: कई एकड़ में फैली हरियाली, पौधों की दुर्लभ प्रजातियां, सुंदर खिले फूल, शांत वातावरण...यहां प्रकृ ति के साथ शाम गुजारने का एक सही मौका है। नदी के पश्चिमी ओर स्थित इस गार्डन में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा बरगद का पेड़ है, जो 10,000 वर्ग मीटर में फैला है, इसकी लगभग 420 शाखाएं हैं।

Source - Facebook Post of Laxman Burdak, 22.10.2021

पुरी - भुबनेश्वर - कोणार्क भ्रमण 1981

पिछली पोस्ट 22.10.2021 में हावड़ा और कोलकाता का भ्रमण कराया था। इस पोस्ट में देश के पूर्वी भाग में स्थित उड़ीसा प्रांत के पुरी, भुबनेश्वर और कोणार्क जैसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक, पर्यटन और धार्मिक महत्व के स्थानों का भ्रमण कराया जाएगा। पुरी - भुबनेश्वर - कोणार्क आदि स्थानों का भ्रमण करने का दो बार अवसर मिला। प्रथम बार जनवरी -1981 में आईएफ़एस प्रशिक्षण के दौरान और दुबारा वर्ष 2007 में रिफ्रेशर कोर्स में श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ। दोनों बार जैसा देखा विवरण प्रस्तुत है।

15.1.1981: हावड़ा से पुरी के लिए रात्री में पुरी पसेंजर ट्रेन से रवाना।

16.1.1981: दिनभर यात्रा जारी। मध्य रात्री को पुरी पहुंचे। दूरी 500 km. हावड़ा से पुरी के बीच पड़ने वाले मुख्य स्टेशन हैं: HaoraKharagpur (WB) → BeldaDantanJaleswar (Orissa) → BastaBalasoreSoroBhadrakJajpurDhanmandalCuttackBhubaneswarKhurdaPuri

इस यात्रा में जिन स्थानों से गुजरे उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।

खड़गपुर (Kharagpur) पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में स्थित एक औद्योगिक नगर है। भारत का सर्वप्रथम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर, मई 1950 में यहाँ स्थापित हुआ था। यहाँ भारत का सबसे लम्बा (और एशिया का तीसरा सबसे लम्बा) रेलवे प्लेटफॉर्म है, जिसकी लम्बाई 1072.5 मीटर है।

इतिहास: खड़गपुर ने अपना नाम मल्लभूम, खरगा मल्ला के बारहवें राजा से प्राप्त किया, जब उन्होंने इसे जीत लिया। खड़गपुर हिजली साम्राज्य का हिस्सा था और उडिया शासकों ने उड़ीसा के गजपति राजाओं के तहत एक विवाद के रूप में शासन किया था। इतिहासकारों का दावा है कि 16 वीं शताब्दी में, खड़गपुर घने जंगल से घिरा हुआ एक छोटा सा गांव था। गांव उच्च चट्टानी बंजर भूमि पर था। खड़गपुर के पास एकमात्र निवास स्थान हिजली था। हिजली बंगाल की खाड़ी के डेल्टा में रसूलपुर नदी के तट पर एक छोटा द्वीप गांव था। यह 1687 में एक बंदरगाह शहर में विकसित हुआ। हिजली भी एक प्रांत था और यह 1886 तक अस्तित्व में था। इसमें बंगाल और उड़ीसा के कुछ हिस्सों को शामिल किया गया था। इसके पास तमलुक, पंसुरा और देबरा जैसे महत्वपूर्ण शहर थे, उत्तर में दक्षिण में केल्घई और हल्दी नदियों के साथ, और पूर्व में बंगाल की खाड़ी और खड़गपुर, केशरी, दंतन और जलेश्वर से घिरे पूर्वी पक्ष थे।

हिजली पर ताज खान का शासन था जो गुरु पीर मैकड्रम शा चिस्ती के शिष्य थे। कुषाण, गुप्ता और पाल राजवंशों और मुगलों द्वारा भी इसका शासन किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि हिजली के शासनकाल और मुगल राज के शासनकाल के दौरान हिजली के पास न्यायपालिका, जेल और प्रशासनिक कार्यालयों के साथ उत्कृष्ट व्यापार और व्यापार केंद्र थे। हिजली की राजधानी बहरी में 1628 तक थी और उसे बाद में हिजली में स्थानांतरित कर दिया गया था। 1754 में हिजली प्रांत अपने चरम पर था और इस अवधि के दौरान बेहद समृद्ध था।

कप्तान निकोलसन हिजली पर आक्रमण करने और बंदरगाह पर कब्जा करने वाले पहले अंग्रेजी उपनिवेशवादी थे। 1687 में सैनिकों और युद्धपोतों के साथ जॉब चर्नॉक ने हिजली और मुगल रक्षकों को हराकर हिजली पर कब्जा कर लिया। मुगलों के साथ युद्ध के बाद, जॉब चर्नॉक और मुगल सम्राट के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर किए गए। जॉब चर्नॉक द्वारा किए गए नुकसान से उन्हें हिजली छोड़ने और उलुबेरिया की ओर बढ़ने के लिए मजबूर किया गया, जबकि मुगल सम्राट ने प्रांत पर शासन करना जारी रखा। वहां से, वे अंततः पूर्वी भारत में अपना व्यवसाय स्थापित करने के लिए कोलकाता में सुतनुति में बस गए। यह भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की शुरुआत थी। हिजली जैसा कि हम जानते हैं आज ही हिजली प्रांत का एक छोटा सा हिस्सा है, और 1 9वीं शताब्दी में अंग्रेजों द्वारा प्रशासनिक कार्यालयों की स्थापना के लिए बनाया गया था। यह उत्सुक है कि आज के पूरे खड़गपुर डिवीजन में हिजली प्रांत के समान सीमाएं हैं।

18 वीं शताब्दी में खेजुरी, एक और बंदरगाह शहर डेल्टा क्षेत्र में कौखली नदी के तट पर स्थापित किया गया था। यह मुख्य रूप से यूरोपीय देशों के साथ व्यापार करने के लिए अंग्रेजों द्वारा स्थापित किया गया था। खेजुरी भी एक द्वीप था। 1864 के विनाशकारी चक्रवात में, दोनों बंदरगाहों को नष्ट कर दिया गया था। तब से द्वीप मुख्य भूमि के साथ विलय कर चुके हैं।

बेलदा (Belda) पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में स्थित एक गाँव है।[

दांतन (Dantan) पश्चिम बंगाल राज्य के पश्चिम मेदिनीपुर ज़िले में स्थित एक गाँव है। राष्ट्रीय राजमार्ग 16 यहाँ से गुज़रता है।

जलेसर (Jalesar) उड़ीसा के बालासोर जिले में स्थित है। सुवर्णरेखा नदी जलेसर के पास से गुजरती है। सुवर्णरेखा (AS, p.980): जिला मयूरभंज उड़ीसा, मयूरभंज के उत्तरी भाग में बहने वाली एक नदी जिस के निकट बंगाल के सेन राजाओं की प्रथम राजधानी काशीपुरी बसी हुई थी.

बालासौर (AS, p.624) उड़ीसा में स्थित बंदरगाह है। भारत की कई वैज्ञानिक गतिविधियों और परीक्षण आदि के कार्यों के लिए बालासौर का ख़ास महत्त्व है। सन 1633 ई. में राल्फ़ कार्टराइट ने इस बंदरगाह तथा हरिहरपुर में प्रथम बार अंग्रेज़ 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' की व्यापारिक कोठियाँ स्थापित की थीं। 1658 ई. में ये व्यापारिक कोठी मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के अधीन कर दी गई थी। बालासौर का प्राचीन नाम बालेश्वर था। फ़ारसी में बालासौर का अर्थ 'समुद्र पर स्थित नगर' है। अब इसका नाम फिर से बालेश्वर कर दिया है। बालेश्वर बंगाल की खाड़ी से 11 किमी दूर बूढ़ा बलंग नदी के किनारे स्थित है। यह बालेश्वर नामक ज़िले का मुख्यालय है, जो मध्य काल में महत्त्वपूर्ण तटवर्ती नगर था। 1633 में यह ब्रिटिश उपनिवेश था और 17वीं सदी में डच, फ्रांस व डेनमार्क का उपनिवेश रहा। 1846 में डच और डेनमार्क के उपनिवेश ब्रिटेन के शासन में चले गये, लेकिन 1947 तक इस पर फ़्रांस का क़ब्ज़ा रहा।

भद्रक: भद्रक ओडिशा राज्य का एक महत्वपूर्ण शहर है, जो अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाना जाता है। इस शहर का नाम भद्रकाली के नाम पर पड़ा है, जिनका एक मंदिर यहां सालंदी नदी के किनारे स्थित है। शहर के अतीत पर नजर डालने से पता चलता है, कि यह शहर कभी मुगल काल के दौरान एक महत्वपूर्ण प्रांत हुआ करता था। जिसके बाद यह कई शक्तिशाली शासकों के अधीन चला गया। भद्रक भ्रमण की शुरुआत आप यहां के सबसे प्रसिद्ध भद्रकाली मंदिर के दर्शन से कर सकते हैं। यह गांव मुख्य शहर से 8 कि.मी की दूरी पर अहरपाड़ा गांव में स्थित है। यह मंदिर इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जाता है कि यहां की देवी के नाम से शहर का नामकरण हुआ है। यहां देवी की मूर्ति ब्लैक ग्रेनाइट पत्थर से बनी है, और देवी यहां शेर पर बैठी हुई नजर आती हैं।

कटक (AS, p.125) भारत के वर्तमान उड़ीसा राज्य की मध्ययुगीन राजधानी था, जिसे 'पद्मावती' भी कहते थे। यह नगर महानदी व उसकी सहायक नदी काठजूड़ी के मिलन स्थल पर बसा है। उड़ीसा की प्राचीन राजधानी कटक का इतिहास लगभग हज़ार वर्षों से भी पुराना बताया जाता है। कटक की स्थापना केशरी वंशीय राजा नृपति केशरी द्वारा 941 ई. में की गई थी। कालक्रम में मुसलमानों और मराठों के शासन के अंतर्गत रहकर 1803 ई. में कटक अंग्रेजों के अधिकार में आ गया. कटक के पास ही विरुपा नदी बहती है, जो अपने प्राचीन बाँध के कारण जानी जाती है। यहाँ एक प्राचीन दुर्ग भी है, लेकिन अब इसके केवल ध्वंसावशेष ही शेष रह गये हैं। गंग वंश के शासक अनंग भीमदेव द्वारा निर्मित 'बाराबती' नामक क़िले के खण्डहर यहाँ से एक मील दूर काठजूड़ी के तट पर हैं। भीमदेव ने 1180 ई. में यह क़िला बनवाया था। कहा जाता है कि वर्तमान पुरी के जगन्नाथ मन्दिर का निर्माण भी उसी ने करवाया था। 1835 ई. तक कटक के [p.126}: आदिमवासियों में नरबली की प्रथा प्रचलित थी. 1871 ई तक जुआंगजाति के आदिम निवासी यहाँ रहते थे.

17.1.1981:समुद्र किनारे केजूरीना (Casurina equifolia) का शेल्टर बेल्ट प्लांटेशन देखा। कोणार्क सूर्य मंदिर का भ्रमण किया। नन्दन कानन अभयारण्य भुबनेश्वर का निरीक्षण किया। पुरी वापस आए। पुरी (20.00) से रात्री में राऊरकेला के लिए रवाना हुये।

भुबनेश्वर - कोणार्क - पुरी भ्रमण 2007

Khordha district map, Bhubaneshwar
Puri district Map

12-16 Feb.2007: One week IFS Training on ‘Efficient Management and Development of formal and informal networking' in Xavier Institute of Management Bhubaneshwar. Journey from Rewa as Comm. Bansagar with Mrs Gomati Burdak. Visited Konark, Puri, Dhauli on 14.2.2007. Visited Udayagiri and Khandagiri Caves with CCF Raj. NC Jain and Mrs Gomati Burdak on 15.2.2007.

भुवनेश्वर (उड़ीसा) जाने का मुझे दूसरी बार मौका मिला था वर्ष 2007 में जब मैं कमिश्नर बाणसागर प्रोजेक्ट रीवा में पदस्थ था। भारत शासन पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा Xavier Institute of Management, Bhubaneswar में ‘Efficient Management and Development of formal and informal networking ‘ विषय पर आयोजित प्रशिक्षण दिनांक 12.2.2007 से 16.2.2007 के लिए मुझे नामांकित किया गया था। मेरे अलावा मध्य प्रदेश से श्री एस.पी.सिंह एवं श्री ए.एस. जोशी भी गए थे।

रीवा से मैं श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ इलाहाबाद गया और वहाँ से भुवनेश्वर के लिए 2816 पुरी एक्सप्रेस से 15.20 बजे रवाना हुए। इसका भुबनेश्वर पहुँचने का समय 11.2.2007 को 10.20 बजे था।

2801 पुरुषोत्तम एक्स्प्रेस से 16.2.2007 को 23.30 बजे वापसी यात्रा पर रवाना हुये।

इलाहाबाद से भुवनेश्वर की यात्रा में उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड राज्य होकर जाना पड़ता है। इस रूट में स्थित स्टेशन निम्न हैं. ब्रेकेट में स्टेशन पर ट्रेन के पहुँचने का समय दिया गया है और जिस स्टेशन पर राज्य बादल जाता है वह भी लिखा है।

Allahabad (15:10) (UP) → Mirzapur (16:28) → Mughal Sarai (18:00) → Sasaram (19:22) (Bihar) → Dehri On Sone (19:41) → Gaya (21:00) → Koderma (22:09) (Jharkhand) → Parasnath (23:23) → Gomoh (00:05) → Mahuda (00:40) → Bhaga (01:10) → Bhojudih (01:28) → Adra (02:15) (WB) → Bankura (02:58) → Bishnupur (03:21) → Midnapore (04:23) → Kharagpur (04:55) → Balasore (07:00) (Orissa) → Bhadrak (08:10) → Jajpur (08:42) → Cuttack (09:33) → Bhubaneswar (10:20) → Khurda Road (11:10) → Puri (12:20)

Xavier Institute of Management, Bhubaneswar-Management Development Center
Xavier Institute of Management Taraining-12-16.2.2007.Participants

जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, भुवनेश्वर (XIMB) पूर्वी भारतीय राज्य ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित एक भारतीय बिजनेस स्कूल है। वर्ष 1987 में स्थापित, XIMB का संचालन भारत सरकार , ओडिशा सरकार , और सोसाइटी ऑफ जीसस (जेसुइट्स) द्वारा किया जाता है। स्कूल की स्थापना ओडिशा सरकार और ओडिशा में जेसुइट्स के बीच फ्रॉ के साथ एक सामाजिक अनुबंध नामक पार्टियों के तहत की गई थी। रोम्यूल्ड डिसूजा एसजे इसके संस्थापक-निदेशक हैं। संस्थान को राज्य में सरकारी विभागों के सहयोग से नियमित रूप से अनुसंधान और विकास गतिविधियों को करने के लिए जाना जाता है। यह राज्य सरकार द्वारा स्थापित राजकोषीय नीति और कराधान (CEFT) में उत्कृष्टता का केंद्र भी है। ज़ेवियर यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर की स्थापना के साथ, XIMB विश्वविद्यालय के तहत एक स्वायत्त और निपुण बिजनेस स्कूल बन गया है जो विशेष रूप से व्यावसायिक प्रबंधन कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। संस्था के एमबीए और ईएमबीए कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए उम्मीदवारों को कैट (आईआईएम द्वारा संचालित), एक्सएटी (एक्सएलआरआई द्वारा संचालित), जीमैट (जीएमएसी द्वारा संचालित) और एक्सजीएमटी (जेवियर विश्वविद्यालय भुवनेश्वर द्वारा आयोजित) की आवश्यकता होती है। और, व्यवसाय प्रबंधन में पीएचडी कार्यक्रम के लिए संस्थान द्वारा निर्धारित मानक प्रवेश प्रक्रिया जेवियर यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर द्वारा पीछा किया जाता है।

जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट भुवनेश्वर में आयोजित इस प्रशिक्षण में हमारी कोर्स डायरेक्टर प्रोफेसर सविता मोहंती थी। यह एक यादगार प्रशिक्षण था। रुकने और खाने की संस्थान के हॉस्टल में ही व्यवस्था थी। व्यवस्था बहुत अच्छी थी। प्रशिक्षण पर प्रस्थान से पहले प्रबंध संस्थान की ओर से निर्देश आया था कि अधिकारी साथ में अपनी पत्नी को नहीं लाएं। परंतु मैंने सौचा कि पत्नी को उड़ीसा घुमाने का इससे अच्छा अवसर नहीं मिलेगा इसलिये साथ में पत्नी श्रीमती गोमती बुरड़क को भी ले जाने का निर्णय लिया। भुबनेश्वर पहुँचने के उपरांत प्रबंध संस्थान ने रुकने की व्यवस्था दोनों के लिए ही अच्छी कर दी थी। वैसे लगभग 50% अधिकारी ही प्रशिक्षण में उपस्थित हुए थे। कोर्स डायरेक्टर प्रोफेसर सविता मोहंती नाश्ते, लंच और डिनर में हम लोगों के साथ मैश में ही भोजन किया करती थीं और सभी प्रशिक्षणार्थियों से इंटरएक्ट करती थी और अधिकारियों और परिवार के सदस्यों से फीडबैक लेती थी। श्रीमती गोमती बुरड़क से पूछा कि अधिकारी लोग प्रशिक्षण में कम क्यों आते हैं? श्रीमती गोमती बुरड़क ने सुझाव दिया कि प्रशिक्षणार्थी कम आते हैं इसकी असली वजह यह है कि आप पत्नी को आने से मना कर देती हैं। इसलिए पत्नियां भी अपना प्रभाव दिखाती हैं और अधिकारियों को आने से मना कर देती हैं। यही कारण है कि आपके यहां केवल 50% भागीदारी है। पत्नी साथ आती है तो उनको प्रशिक्षण के लिए समय पर तैयार होने में सहता ही करेगी। इसलिए भविष्य में यदि वरिष्ठ अधिकारियों को प्रशिक्षण पर बुलाना है तो साथ में पत्नी को लाने की अनुमति दीजिए। प्रोफेसर सविता मोहन्ती ने इस सुझाव पर बहुत गंभीरता से विचार किया और श्रीमती गोमती बुरड़क को धन्यवाद दिया। श्रीमती गोमती बुरड़क से उन्होने एक और विषय पर भी चर्चा की। यह था कि बच्चे कितने पैदा करने चाहिए और उनमें क्या अंतराल होना चाहिए? श्रीमती गोमती बुरड़क का सुझाव था कि कम से कम दो बच्चे तो होने ही चाहिए और अंतराल 2-3 साल से ज्यादा का नहीं होना चाहिए। इससे बच्चो को घर में ही कंपनी मिल जाती है और अकेलापन नहीं अनुभव करते जिससे उनका मानसिक विकास अच्छा होता है। प्रो. सविता मोहंती ने सहमति जताते हुये अपना व्यक्तिगत अनुभव शेयर किया कि मेरे पहली और दूसरी संतान में ज्यादा अन्तर होने के कारण यह समस्या मैं झेल चुकी हूँ।

श्रीमती गोमती बुरड़क ने भी प्रशिक्षण का पूरा लाभ उठाया। हम लोग तो दिनभर क्लास में व्यस्त रहते थे परंतु श्रीमती गोमती बुरड़क ने अन्य साथी अधिकारियों की पत्नियों के साथ अच्छा आनंद लिया। वह मेश में जाकर कर्मचारियों से चर्चा कर लिया करती थी। वहां उसने पाया कि मैश का प्रबंधन इस तरह का था कि वह कोई भी खाद्य पदार्थ फेंकते नहीं थे। यदि शाम को कुछ बच जाता है तो उस बचे हुए आइटम को फेंकते नहीं थे बल्कि उसका उपयोग सुबह के नाश्ते में कोई नया टेस्टी आइटम बनाकर उपयोग कर लेते थे। हम लोगों ने प्रबंधन क्षमता सीखी या नहीं सीखी परंतु श्रीमती गोमती बुरड़क इस प्रशिक्षण के बाद जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट की बहुत फैन हो गई और हमारे किचन की गुणवत्ता में भी बहुत सुधार हो गया। उसके बाद मे वह किचन में अनेक नवाचार करने लगी।

14.2.2007: नन्दन कानन जुलोजिकल पार्क भुबनेश्वर, धौली, कोणार्क सूर्य मंदिर, पुरी भ्रमण

जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट ने आज के दिन नन्दन कानन जुलोजिकल पार्क भुबनेश्वर, धौली, कोणार्क सूर्य मंदिर, पुरी आदि के भ्रमण के लिए नियत किया। रात्री में पुरी से वापस आए। संस्थान द्वारा भ्रमण के लिए एक टूरिस्ट बस की व्यवस्था की थी। सबसे पहले नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क गए। नंदनकानन भुवनेश्वर शहर से 20 किमी उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित है। नंदनकानन प्राणी उद्यान आंशिक रूप से एक अभयारण्य भी है। चिड़ियाघर चंडका जंगल में स्थित है और इसमें कांजिया झील शामिल है जो लगभग 134 एकड़ में है। नंदनकानन के पास अब 34 सफेद बाघ हैं। सफ़ेद बाघों के अलावा, नंदनकानन में कई लुप्तप्राय प्रजातियाँ भी हैं। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

धौली: नंदनकानन से वापस भुवनेश्वर आकर लांच लेने के बाद हम धौली गए। धौली भुवनेश्‍वर के दक्षिण में राजमार्ग संख्‍या 203 पर भुवनेश्‍वर से 8 किमी दूरी पर स्थित है। यह वही स्‍थान है जहां अशोक ने दया नदी के तट पर प्रसिद्ध कलिंग का युद्ध लड़ा था। धौली पहाड़ी के चोटी पर शांति स्‍तूप बना हुआ है। इस स्‍तूप में भगवान बुद्ध की मूर्त्ति तथा उनके जीवन से संबंधित विभिन्‍न घटनाओं की मूर्त्तियां स्‍थापित हैं। इस स्‍तूप से दया नदी का विहंगम नजारा दिखता है। यहाँ अशोक की कलिंग धर्मलिपि चट्टान पर अंकित है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

गोटा-पट्टा हैंडीक्राफ्ट की दुकान, पीपली

पीपली (Pipili): धौली भ्रमण के बाद हम कोणार्क सूर्य मंदिर के लिए रवाना हुये। पुरी के रास्ते में राजमार्ग संख्‍या 203 पर पुरी जिले में पीपली नामक एक स्थान आता है। यहाँ हम कुछ देर के लिए रुके और स्थानीय हैंडीक्राफ्ट की बनी कला की वस्तुएं खरीदी। यह गाँव गोटा-पट्टा हैंडीक्राफ्ट (Applique handicrafts) के काम के लिए प्रसिद्ध है। इस स्थान से एक रास्ता बायें तरफ फटता है जो कोणार्क सूर्य मंदिर के लिए जाता है।

पूर्वी कोने से कोणार्क सूर्य मन्दिर का दृष्य - जहां हाथी की पीठ पर आसीन सिंहों की मूर्तियां निर्मित हैं

कोणार्क सूर्य मंदिर: कोणार्क नामक कस्बे में भुवनेश्वर से 60 किमी दूर पुरी जिले में समुद्र के किनारे कोणार्क सूर्य मंदिर स्थित है। कोणार्क उड़ीसा राज्य की प्राचीन राजधानी था। एक किंवदंती है कि कोणार्क का प्राचीन नाम कोन-कोन था। सूर्य (अर्क) के मंदिर बन जाने से यह नाम कोनार्क या कोणार्क हो गया। मंदिर के आधार के निम्नतम भाग में वन्य पशुओं तथा हाथियों के आखेट के जीवंत मूर्तिचित्र हैं। इसके ऊपर अनेक मूर्तियां विभिन्न प्रणयमुद्राओं में अंकित हैं जिससे मंदिर पर तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मंदिर मध्ययुगीन होते हुए भी गुप्तकालीन वास्तु परंपरा का उदाहरण है। अबुलफ़ज़ल इसके लिए ठीक ही लिखा है कि कला के आलोचक इस मंदिर को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं। इसे यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल की पहचान मिली है। वास्तव में यह अद्भुत कलाकृति अपने महान निर्माता के स्वप्न की साकार अभिव्यक्ति जान पड़ती है। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

पुरी: कोणार्क सूर्य मंदिर देखने के बाद हम पुरी के लिए रवाना हुये। कोणार्क से पुरी की दूरी 35 किमी है। शाम हो चुकी थी। यह यात्रा समुद्र के किनारे-किनारे थी और बहुत ही रोमांचक थी। पुरी में श्री जगन्नाथ मंदिर के दर्शन किए। यह 65 मी. ऊंचा मंदिर पुरी के सबसे शानदार स्मारकों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोड़गंग ने अपनी राजधानी को दक्षिणी उड़ीसा से मध्य उड़ीसा में स्थानांतरित करने की खुशी में करवाया था। श्री जगन्नाथ मंदिर देखकर समुद्र के किनारे भ्रमण किया। विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

देर रात तक वापस भुवनेश्वर आ गए।

15.2.2007: उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाओं के बारे में मैंने पहले पढ़ रखा था। किशोरी लाल फौजदार ने जाट समाज पत्रिका आगरा (Jan/Feb-2001. p.6) में कुसवां गोत्र के इतिहास में लिखा है कि इस वंश का नाम कुशन, कुसवान-कुसवां भी मशहूर हुआ है। राजा खारवेल के एक लेख में विक्रम की दूसरी शताब्दी में कुसवांओं का उल्लेख है। जिसको 'हाथीगुंफा एंड थ्री अदर इन्स्क्रिप्शंस' (Hathigumpha and three Other Inscriptions) के पृष्ठ 24 पर इस प्रकार लिखा है- 'कुसवानाम् क्षत्रियानां च सहाय्यतावतां प्राप्त मसिक नगरम्'। इस वंश ने राज्यविहीन होकर पश्चिमोत्तर भारत से राजस्थान में आकर बीकानेर की प्राचीन भूमि पर अपना प्रभुत्व प्रजातंत्री रूप से कायम किया था। बीकानेर स्थापना से पहले इनका राजा कुंवरपाल था।

उपरोक्त लेख पढ़ने के बाद मेरी रुचि राजा खारवेल के इस अभिलेख को देखने की थी जो उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाओं (भुवनेश्वर) में स्थित बताया गया था। जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट भुवनेश्वर ने इस स्थान के भ्रमण की व्यवस्था नहीं की थी परंतु मैंने और श्रीमती बुरड़क ने यह स्थान घूमने का प्रोग्राम बना लिया। हमारे साथ राजस्थान कैडर के आईएफ़एस एनसी जैन भी तैयार हो गए। भुवनेश्वर से ये गुफाएँ 6 किमी दूर स्थित हैं। पहले हमने खण्डगिरि गुफ़ाएँ देखी जो सड़क के बांयें तरफ स्थित हैं। उसके बाद उदयगिरि गुफ़ाएँ देखी जो जो सड़क के दायें तरफ स्थित हैं। ये दोनों गुफाएं लगभग दो सौ मीटर के अंतर पर हैं और एक दूसरे के सामने हैं।

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाएँ जो भुवनेश्वर (उड़ीसा) के समीप दो पहाड़ियाँ पर स्थित है। ये गुफ़ाएँ उदयगिरि और खण्डगिरि पहाडियों में पत्‍थरों को काट कर बनाई गई थी। यहाँ से कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का अभिलेख है।

उदयगिरि और खण्डगिरि पहाड़ियों पर चट्टानों को काटकर गुफाएँ बनाई गई हैं जिनको शिलालेखों में लेन या लेण कहा गया है। उदयगिरि में कुल 18 गुफाएँ हैं और खण्डगिरि कुल 15 गुफाएँ हैं। ये प्रथम शदी ईसा पूर्व राजा खारवेल और उसके पश्चात वर्ती राजाओं द्वारा खुदाई गई थी। ये गतिविधियाँ 10-11वीं शदी में सोमवंशी राजाओं के प्रभुत्व कायम होने तक जारी रही। दो गुफाएँ रानी गुंफा और स्वर्गपुरी-मंचपुरी गुंफा दो मंजिला बनी हुई हैं। शेष एक मंजिल की हैं। हाथीगुंफा का प्रसिद्ध खारवेल का शिलालेख उदयगिरि पर हाथीगुंफा गुफा के किनारे 17 पंक्तियों में ब्राह्मी लिपि में खोदकर बना हुआ है। इसमें राजा खारवेल के विभिन्न विजय अभियानों को अभिलेखित किया गया है।

पहले हम खण्डगिरि पहाड़ी पर गए और खण्डगिरि गुफाओं को देखा। वहाँ हमने सदानंद अग्रवाल की लिखी हुई पुस्तक ‘श्री खारवेल’ खरीदी। इसका प्रकाशक ‘श्री दिगंबर जैन समाज कटक’ है। प्रथम संस्करण 2000. आगे इस पुस्तक से कुछ जानकारियाँ दी गई हैं जिनमें इस पुस्तक के पृष्ठ क्रमांक अंकित किया गया है।

खण्डगिरि गुफाओं को देखने के बाद उदयगिरि गुफाओं को देखने गए। यहाँ पर हाथीगुंफा देखी और वहाँ पर चट्टान में खुदा हुआ हाथीगुंफा इन्स्क्रिपशन देखा। उसके बाद में गणेशगुंफा गए। इसमें हाथी की पत्थर की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। फिर रानीगुंफा देखी यह दो मंजिला है। रानीगुंफा को रानी का नौर भी कहते हैं।

यहाँ से कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का अभिलेख है।

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफाओं, हाथीगुंफा इन्स्क्रिपशन तथा राजा खारवेल के संबंध में विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

राजा-रानी मंदिर, भुवनेश्‍वर - उदयगिरि और खण्डगिरि गुफाओं को देखने के बाद हमारे साथी शशि कुमार और पत्नी श्रीमती गोमती बुरड़क के साथ राजा-रानी मंदिर, भुवनेश्‍वर देखने गए। इस मंदिर की स्‍थापना 11वीं शताब्‍दी में हुई थी। इसका निर्माण सोमवंशी राजाओं द्वारा किया गया था। यह मंदिर महिलाओं और जोड़ों के कामुक नक्काशी की वजह से स्थानीय रूप से "प्रेम मंदिर" के रूप में जाना जाता है। राजा-रानी मंदिर का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।


16.2.2007: जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, भुवनेश्वर में एक सप्ताह का प्रशिक्षण आज शाम पूरा हो गया। 2801 पुरुषोत्तम एक्स्प्रेस से 16.2.2007 को 23.30 बजे भुवनेश्वर से वापसी यात्रा पर रवाना हुये। यह ट्रेन पूरी से रवाना होती है।

भुवनेश्वर से इलाहाबाद की यात्रा में उड़ीसा, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश राज्य होकर जाना पड़ता है। इस रूट में स्थित स्टेशन निम्न हैं. ब्रेकेट में स्टेशन पर ट्रेन के रवानगी का समय दिया गया है और जिस स्टेशन पर राज्य बादल जाता है वह भी लिखा है।

Puri (Orissa) (21:45) → Khurda Road (22:35) → Bhubaneswar (23:07) → Cuttack(23:46) → Jajpur-Keonjhar Road (00:47) → Bhadrakh (01:30) → Balasore (02:20) → Hijilli (WB) (03:52) → Ghatsila (Jharkhand) (05:13) → Tatanagar (06:35) → Chandil (07:42) → Purulia (WB) (08:27) → Bokaro Steel City (Jharkhand) (09:45) → Chandrapura (10:28) → Gomoh (10:55) → Parasnath (11:09) → Hazaribagh (11:33) → Koderma (12:05) → Paharpur (Bihar) (12:42) → Gaya (14:00) → Anugraha Narayan road (14:48) → Dehri On Sone (15:06) → Sasaram (15:19) → Bhabua road (15:53) → Pt Deen Dayal Upadhyaya (Mughalsarai) (UP) (17:20) → Chunar (18:02) → Mirzapur (18:26) → Prayagraj (Allahabad) (19:50)

इलाहाबाद से सड़क मार्ग से रीवा पहुँचे।

भुवनेश्वर परिचय

भुवनेश्वर परिचय
खंडागिरी पहाड़ी से भुवनेश्वर शहर का दृश्य

भुवनेश्वर: भुवनेश्वर उड़ीसा राज्य की राजधानी है। यह खुर्दा जिले में स्थित है। खुर्दा जिले में ही भुवनेश्वर के पास एक शहर है जिसको जटणी (Oriya:ଜଟଣ) या खुर्दा रोड कहते हैं। प्रशासनिक रूप से यह खोर्धा ज़िले में स्थित है। यह पूर्व भारत का एक महत्वतपूर्ण आर्थिक व सांस्कृतिक केन्द्र है। भुवनेश्वर महानदी से दक्षिणपश्चिम में स्थित है। नगर के दक्षिण में दया नदी और पूर्व में कुआखाई नदी बहती है।

उद्गम: "भुवनेश्वर" नाम दो शब्दों से मिलकर बना है, भुवन = शिव का नाम + ईश्वर = देवता।

भुवनेश्वर ओड़िशा का सबसे बड़ा नगर तथा पूर्वी भारत का आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह नगर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व में यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्‍वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रूप में परिणत हो गया था। भुवनेश्वर को पूर्व का 'काशी' भी कहा जाता है। यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्‍थल भी रहा है। प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहां फलता-फूलता रहा है। बौद्ध धर्म की तरह जैनों के लिए भी यह जगह काफी महत्‍वपूर्ण है। प्रथम शताब्‍दी में यहां चेदि वंश के एक प्रसिद्ध राजा खारवेल हुए थे। सातवीं शताब्‍दी में यहां प्रसिद्ध हिन्दू मंदिरों का निर्माण हुआ था। इस प्रकार भुवनेश्वर वर्तमान में एक बहुसांस्‍कृतिक नगर है।

वर्तमान भुवनेश्वर में एक तरफ़ पुराना शहर, जिससे लगभग 30 प्राचीन मन्दिर और दूसरी तरफ़ 1948 के बाद का सुनियोजित नगर क्षेत्र है, जिसे कटक से स्थानान्तरित करके नई राजधानी बनाया गया। इस नवनिर्मित क्षेत्र में सचिवालय व विधानसभा की इमारतों सहित अनेक सरकारी ईमारतें, प्रान्तीय संग्रहालय, उत्कल विश्वविद्यालय (जो पहले 1944 में कटक में संस्थापित हुआ था), प्रान्तीय कृषि एवं तकनीकी विश्वविद्यालय, क्षेत्रीय भौतिक अनुसंधान केन्द्र, अनेक महाविद्यालय, भव्य इस्कान मन्दिर (अंतराष्ट्रीय कृष्ण अनुयायी संघ द्वारा निर्मित) तथा अव्यवस्थित ढंग से बिखरे अनेक व्यापारिक केन्द्र हैं। समीप ही इससे लगकर पहाड़ों को काटकर बनाई गई खंडगिरि एवं उदयगिरि की गुफ़ाएँ, नन्दन कानन प्राणी एवं वनस्पति उद्यान एवं शिशुपालगढ़ के प्राचीन उत्खनित स्थान पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं। शहर के मध्य में इन्दिरा गांधी की स्मृति में बनाया गया उद्यान है। भुवनेश्वर कोलकाता-चेन्नई राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है एवं दक्षिण-पूर्वी रेलमार्ग का एक प्रमुख केन्द्र है। यहाँ पर एक आधुनिक हवाई अड्डा है।

भुवनेश्वर का इतिहास

भुवनेश्वर का इतिहास

भुवनेश्वर (AS, p.674), उड़ीसा की प्राचीन राजधानी, शहर और पूर्वी भारत का एक राज्य है। इसको पहले एकाम्रकानन भी कहते थे। भुवनेश्वर को बहुत प्राचीन काल से ही उत्कल की राजधानी बने रहने का सौभाग्य मिला है।

केसरी वंशीय राजाओं ने चौथी शती ई. के उत्तरार्ध से 11वीं शती ई. के पूर्वार्ध तक, प्रायः 670 वर्ष या 44 पीढ़ियों तक उड़ीसा पर शासन किया और इस लम्बी अवधि में उनकी राजधानी अधिकतर भुवनेश्वर में ही रही। एक अनुश्रुति के अनुसार राजा ययातिकेसरी ने 474 ई. में भुवनेश्वर में पहली बार अपनी राजधानी बनाई थी। कहा जाता है कि केसरीनरेशों ने भुवनेश्वर को लगभग सात सहस्र सुन्दर मन्दिरों से अलंकृत किया था। अब कुल केवल पाँच सौ मन्दिरों के ही अवशेष विद्यमान हैं। इनका निर्माण काल 500 ई. से 1100 ई. तक है।

यहाँ का मुख्य मन्दिर लिंगराज है, जिसे ललाटेडुकेशरी (617-657 ई.) ने बनवाया था। यह जगत् प्रसिद्ध मन्दिर उत्तरी भारत के मन्दिरों में रचना सौंदर्य तथा शोभा और अलंकरण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस मन्दिर का शिखर भारतीय मन्दिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारम्भिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे तो प्रायः सीधा तथा समकोण है किन्तु ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर प्रायः वर्तुल दिखाई देता है।

इसका शीर्ष चालुक्य मन्दिरों के शिखरों पर बने छोटे गुम्बदों की भाँति नहीं है। मन्दिर की पार्श्व-भित्तियों पर अत्यधिक सुन्दर नक़्क़ाशी की हुई है। यहाँ तक कि मन्दिर के प्रत्येक पाषाण पर कोई न कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह मानवाकृतियों तथा पशु-पक्षियों से सम्बद्ध सुन्दर मूर्तिकारी भी प्रदर्शित है।

सर्वांग रूप से देखने पर मन्दिर चारों ओर से स्थूल व लम्बी पुष्पमालाएँ या फूलों के मोटे गजरे पहने हुए जान पड़ता है। मन्दिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। गणेश, कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। गौरीमन्दिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मन्दिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। वर्तमान काल में भुवनेश्वर को फिर से उड़ीसा की राजधानी बनाया गया है|

भुवनेश्वर के मुख्य आकर्षण

भुवनेश्वर के मुख्य आकर्षण

भुवनेश्वर ओड़िशा का सबसे बड़ा नगर तथा पूर्वी भारत का आर्थिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह नगर अत्यन्त महत्वपूर्ण है। तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व में यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्‍वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रूप में परिणित हो गया था। यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्‍थल भी रहा है। प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहां फलता-फूलता रहा है। बौद्ध धर्म की तरह जैनों के लिए भी यह जगह काफी महत्‍वपूर्ण है। प्रथम शताब्‍दी में यहां चेदि वंश के एक प्रसिद्ध राजा खारवेल हुए थे। राजधानी से 100 किलोमीटर दूर खुदाई करने पर तीन बौद्ध विहारों का पता चला है। ये बौद्ध विहार थें रत्‍नागिरि, उदयगिरि तथा ललितगिरि। इन तीनों बौद्ध विहारों से मिले अवशेषों से अनुमान लगाया जा सकता है कि 13वीं शताब्‍दी तक बौद्ध धर्म यहां उन्‍नत अवस्‍था में था। बौद्ध धर्म की तरह यहां जैन धर्म से संबंधित कलाकृतियां भी मिलती हैं। राजधानी से 6 किलोमीटर दूर उदयगिरि तथा खणडगिरि की गुफाओं में राजा खारवेल की बनवाई कलाकृतियां मिली हैंं जोकि बहुत अच्‍छी अवस्‍था में है।

भुवनेश्वर शहर और उसके आसपास के मुख्य आकर्षण निम्नानुसार हैं:

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क, भुवनेश्वर, उड़ीसा

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क:

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क एक चिड़ियाघर और वनस्पति उद्यान है, जो भुवनेश्वर में 990 एकड़ भूमि पर उड़ीसा राज्य में फैला हुआ है। नंदनकानन भुवनेश्वर शहर से 20 किमी उत्तर पश्चिम दिशा में स्थित है। नंदनकानन चिड़ियाघर को वर्ष 1979 में आम जनता के लिए खोल दिया गया था। नंदनकानन वर्ष 2009 में वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ़ ज़ू और एक्वेरियम से जुड़ने वाले पहले भारतीय चिड़ियाघर बन गए। नंदनकानन प्राणी उद्यान आंशिक रूप से एक अभयारण्य भी है। चिड़ियाघर चंडका जंगल में स्थित है और इसमें कांजिया झील शामिल है जो लगभग 134 एकड़ में है। सालाना, लगभग 2 मिलियन पर्यटक नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क में आते हैं।

नंदनकानन का इतिहास: प्रारंभ में चिड़ियाघर उड़ीसा में चिड़ियाघर बनाने के लिए 1960 में वन अधिकारियों द्वारा लिए गए एक निर्णय के बाद उदयगिरि और खांडगिरि गुफाओं के करीब घाटीकिया में स्थित था। हालांकि राज्य के वित्त विभाग द्वारा शुरू में कई समस्याएं थीं, विभिन्न छोटे जानवरों को वन अधिकारियों द्वारा पकड़ लिया गया था। चिड़ियाघर को इस क्षेत्र में पानी की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था, इस प्रकार कंजिया झील के पास वर्तमान स्थान का चयन किया गया था। झील को मनोरंजन और मनोरंजन के लिए भी विकसित किया गया था। नंदनकानन बायोलॉजिकल पार्क को आधिकारिक तौर पर 29 दिसंबर, 1960 को लॉन्च किया गया था और उस समय के भारतीय खाद्य और कृषि मंत्री ने चिड़ियाघर का उद्घाटन किया था। 1963 में एक वनस्पति उद्यान भी स्थापित किया गया था। 1964 में, अधिक कीमती जानवरों को आसपास के क्षेत्र में ले जाया गया, जैसे कि टाइगर, अफ्रीकी शेरों, प्यूमा और मुगर मगरमच्छों को लाया गया था। वर्ष 1981 में प्राणि उद्यान का नाम बदलकर नंदनकानन प्राणि उद्यान रखा गया।

नंदनकानन में पशु और बाड़े: नंदनकानन में 166 प्रजातियों के 1660 जानवर हैं, जिनमें स्तनधारियों की 67 प्रजातियां, पक्षियों की 81 प्रजातियां और सरीसृपों की 18 प्रजातियां शामिल हैं। वित्त वर्ष 2008-2009 में, भारत में प्रति वर्ष 3.1% पशुओं की मृत्यु दर सबसे कम थी। नंदनकानन व्हाइट टाइगर को शामिल करने के लिए प्रसिद्ध है। नंदनकानन के पास अब 34 सफेद बाघ हैं। सफ़ेद बाघों के अलावा, नंदनकानन में कई लुप्तप्राय प्रजातियाँ भी हैं जैसे एशियाई शेर, संगल शेर, पूंछ वाले मैकाक, भारतीय मगरमच्छ, माउस हिरण, भारतीय पैंगोलिन, अनगिनत पक्षी, सरीसृप और समुद्री जीवन के प्राणी हैं। परिसर में एक रेप्टाइल पार्क भी है, जिसके प्रवेश द्वार में टायरानोसोरस रेक्स की प्रतिमा लगी हुई है। इस रेप्टाइल पार्क में मगरमच्छ, छिपकली, कछुए और सांप की कई प्रजातियां हैं। नंदनकानन, नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क के कार्यक्रमों में अपने विभिन्न प्रजनन कार्यक्रमों के लिए दुनिया भर में एक उत्कृष्ट ख्याति है। चिड़ियाघर ने कैद में सफेद टाइगर्स, ब्लैक पैंथर्स और घड़ियालों को फलित किया है।

पशुओं के बेहतर रखरखाव और सामान्य जागरूकता फैलाने के लिए वित्त पोषण उत्पन्न करने के लिए, नंदनकानन ने वर्ष 2008 में एडॉप्ट-ए-एनिमल कार्यक्रम शुरू किया। जानवरों को गोद लेने वाले नागरिकों को चिड़ियाघर परिसर में एक प्रमाण पत्र और निशुल्क प्रवेश प्राप्त होता है। इसके अलावा, गोद लेने वालों के नाम जानवरों के बाड़े में प्रदर्शित किए जाते हैं, और चिड़ियाघर की वार्षिक रिपोर्ट में भी इसका उल्लेख किया गया है। नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क आयकर अधिनियम की धारा 80 जी के तहत कर छूट प्राप्त करने वाला पहला चिड़ियाघर था। इस कार्यक्रम द्वारा उठाए गए फंड का उपयोग सभी निवासियों के रखरखाव की गतिविधियों का समर्थन करने के लिए किया जाता है ताकि गुणवत्ता वाले पोषण संबंधी भोजन, उचित उपकरण, संलग्नक उन्नयन, चिकित्सा देखभाल और जैव विविधता संवर्धन की आपूर्ति की जा सके। यह एकमात्र ऐसा जंगल है जहाँ प्रकृति की गोद में जानवरों को पा सकते हैं। पौधों की लगभग चार सौ चौबीस प्रजातियाँ यहाँ पाई जाती हैं। पार्क प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने और जानवरों के लाभ के लिए संरक्षण शिक्षा, जागरूकता और वैज्ञानिक अध्ययन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

नंदनकानन जूलॉजिकल पार्क की चित्रा गैलरी
धौली - अशोक की कलिंग युद्ध स्थली
शांति स्‍तूप धौली में एसपी सिंह, लक्ष्मण बुरड़क & गोमती बुरड़क
धौली की तलहटी में बहती दया नदी और प्रसिद्ध कलिंग-युद्ध की स्थली

धौली: धौली भुवनेश्‍वर के दक्षिण में राजमार्ग संख्‍या 203 पर भुवनेश्‍वर 8 किमी दूरी पर स्थित है। यह वही स्‍थान है जहां अशोक कलिंग युद्ध के बाद पश्‍चात्ताप की अग्नि में जला था। इसी के बाद उसने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया और जीवन भर अहिंसा के संदेश का प्रचार प्रसार किया। अशोक के प्रसिद्ध पत्‍थर स्‍तंभों में एक यहीं है। इस स्‍तंभ (257 ई.पू.) में अशोक के जीवन दर्शन का वर्णन किया गया है। यहां का शांति स्‍तूप भी घूमने लायक है जो कि धौली पहाड़ी के चोटी पर बना हुआ है। इस स्‍तूप में भगवान बुद्ध की मूर्त्ति तथा उनके जीवन से संबंधित विभिन्‍न घटनाओं की मूर्त्तियां स्‍थापित है। इस स्‍तूप से दया नदी का विहंगम नजारा दिखता है।

धौली = धवलगिरी पहाड़ी की एक चट्टान पर अशोक की 14 मुख्य धर्मलिपियों में से 1-10, 14 और दो कलिंग-लेख अंकित हैं. कलिंग लेख में कलिंग युद्ध तथा तत्पश्चात अशोक के हृदय परिवर्तन का मार्मिक वर्णन है. कलिंग युद्ध की स्थली धौली की चट्टान के पास ही स्थित रही होगी. अभिलेख में इस स्थान का नाम तोसलि है. यह स्थान भुवनेश्वर के निकट और प्राचीन शिशुपाल गढ़ के खंडहरों से 2 मील दूर दया नदी के तट पर स्थित है. (देखें तोसल या तोसलि) दया नदी का नाम संभवत: अशोक के हृदय में कलिंग युद्ध के पश्चात दया का संचार होने के कारण ही पड़ा था. धौली की पहाड़ी को अश्वत्थामा पर्वत भी कहते हैं.

तोसल या तोसलि = धौला (उड़ीसा) (AS, p.412): भुवनेश्वर के निकट शिशुपालगढ़ के खंडहरों से तीन मील दूर धौली नामक प्राचीन स्थान है, जहाँ अशोक की कलिंग धर्मलिपि चट्टान पर अंकित है। इस अभिलेख में इस स्थान का नाम 'तोसलि' है और इसे नवविजित कलिंग देश की राजधानी बताया गया है। यहाँ का शासन एक 'कुमारामात्य' के हाथ में था। अशोक ने इस अभिलेख के द्वारा 'तोसलि' और समापा के नगर व्यावहारिकों को [p.413]: कड़ी चेतावनी दी है, क्योंकि उन्होंने इन नगरों के कुछ व्यक्तियों को अकारण ही कारागार में डाल दिया था।

सिलवनलेवी के अनुसार 'गंडव्यूह' नामक ग्रंथ में 'अमित तोसल' नामक जनपद का उल्लेख है, जिसे दक्षिणापथ मे स्थित बताया गया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इस जनपद में तोसल नामक एक नगर है। कुछ मध्यकालीन अभिलेखों में दक्षिण तोसल व उत्तर तोसल का उल्लेख है (एपिग्राफ़िका इंडिया, 9, 586,15, 3) जिससे जान पड़ता है कि तोसल एक जनपद का नाम भी था। प्राचीन साहित्य में तोसलि के दक्षिणकोसल के साथ संबंध का उल्लेख मिलता है। टॉलमी के भूगोल में भी तोसली (Toslei) का नाम है। कुछ विद्वानों (सिलवनलेवी आदि) के मत में कोसल, तोसल, कलिंग आदि नाम ऑस्ट्रिक भाषा के हैं। ऑस्टिक लोग भारत में द्रविड़ों से भी पूर्व आकर बसे थे। धौली या तोसलि 'दया नदी' के तट पर स्थित हैं।

दया नदी (AS, p.426) उड़ीसा की एक नदी है जिसके तट पर धौली (प्राचीन तोसलि) बसी हुई है। दया नदी के तट पर अशोक-मौर्य के समय में होने वाले प्रसिद्ध कलिंग-युद्ध की स्थली थी। कलिंग-युद्ध के पश्चात्त अशोक के हृदय में मानव मात्र के प्रति करुणा का संचार हुआ और उसने धर्म के प्रचार के लिए अपना शेष जीवन समर्पित कर दिया।

धौली की चित्र गैलरी

जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट:

Xavier Institute of Management, Bhubaneswar-Management Development Center

जेवियर इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, भुवनेश्वर (XIMB) पूर्वी भारतीय राज्य ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित एक भारतीय बिजनेस स्कूल है। वर्ष 1987 में स्थापित, XIMB का संचालन भारत सरकार , ओडिशा सरकार , और सोसाइटी ऑफ जीसस (जेसुइट्स) द्वारा किया जाता है। स्कूल की स्थापना ओडिशा सरकार और ओडिशा में जेसुइट्स के बीच फ्रॉ के साथ एक सामाजिक अनुबंध नामक पार्टियों के तहत की गई थी। रोम्यूल्ड डिसूजा एसजे इसके संस्थापक-निदेशक हैं। संस्थान को राज्य में सरकारी विभागों के सहयोग से नियमित रूप से अनुसंधान और विकास गतिविधियों को करने के लिए जाना जाता है। यह राज्य सरकार द्वारा स्थापित राजकोषीय नीति और कराधान (CEFT) में उत्कृष्टता का केंद्र भी है। ज़ेवियर यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर की स्थापना के साथ, XIMB विश्वविद्यालय के तहत एक स्वायत्त और निपुण बिजनेस स्कूल बन गया है जो विशेष रूप से व्यावसायिक प्रबंधन कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। संस्था के एमबीए और ईएमबीए कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए उम्मीदवारों को कैट (आईआईएम द्वारा संचालित), एक्सएटी (एक्सएलआरआई द्वारा संचालित), जीमैट (जीएमएसी द्वारा संचालित) और एक्सजीएमटी (जेवियर विश्वविद्यालय भुवनेश्वर द्वारा आयोजित) की आवश्यकता होती है। और, व्यवसाय प्रबंधन में पीएचडी कार्यक्रम के लिए संस्थान द्वारा निर्धारित मानक प्रवेश प्रक्रिया जेवियर यूनिवर्सिटी भुवनेश्वर द्वारा पीछा किया जाता है।

राजा-रानी मंदिर, भुवनेश्‍वर

राजा-रानी मंदिर, भुवनेश्‍वर : राजारानी मंदिर एक 11 वीं शताब्दी का मंदिर भारत के ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है। इसका निर्माण सोमवंशी राजाओं द्वारा किया गया था। माना जाता है कि मंदिर को मूल रूप से इंद्रेस्वार के रूप में जाना जाता है। यह मंदिर में महिलाओं और जोड़ों के कामुक नक्काशी की वजह से स्थानीय रूप से "प्रेम मंदिर" के रूप में जाना जाता है। राजारानी मंदिर, दो संरचनाओं के साथ एक मंच पर पंचाट शैली में बनाया गया है: एक केंद्रीय मंदिर को एक बड़ा (कणिक शिखर) के साथ एक विस्फोट कहा जाता है, इसकी छत 59 फीट की ऊंचाई पर बढ़ रहा है, और एक दृश्य हॉल एक पिरामिड छत के साथ जागोमोहन बुलाया जाता है। मंदिर का निर्माण सुस्त लाल और पीले बलुआ पत्थर से किया गया था जिसे स्थानीय रूप से "राजरानी" कहा जाता है। पवित्र स्थान के अंदर कोई छवि नहीं है।

इस मंदिर की स्‍थापना 11वीं शताब्‍दी में हुई थी। इस मंदिर में शिव और पार्वती की भव्‍य मूर्ति है। इस मंदिर के नाम से ऐसा लगता है मानो इसका नाम किसी राजा-रानी के नाम पर रखा गया हो। लेकिन स्‍थानीय लोगों का कहना कि चूंक‍ि यह मंदिर एक खास प्रकार के पत्‍थर से बना है जिसे राजारानी पत्‍थर कहा जाता है इसी कारण इस मंदिर का नाम राजा-रानी मंदिर पड़ा। इस मंदिर के दीवारों पर सुंदर कलाकृतियां बनी हुई हैं। ये कलाकृतियां खजुराहो मंदिर की कलाकृतियों की याद दिलाती हैं।

विभिन्न इतिहासकारों ने 11 वीं और 12 वीं शताब्दियों के बीच मूल निर्माण तिथि रखी और पुरी में जगन्नाथ मंदिर के रूप में लगभग उसी अवधि से संबंधित हैं। माना जाता है कि मध्य भारत में अन्य मंदिरों की वास्तुशिल्प इस मंदिर से पैदा हुई है, उल्लेखनीय लोगों में खजुराहो मंदिर और कदवा के तोतस्वर महादेव मंदिर हैं। मंदिर के चारों ओर की दीवारों पर विभिन्न मूर्तियां और शिव, नटराज, पार्वती के विवाह के दृश्यों का चित्रण, और विभिन्न भूमिकाओं और मूड में लंबा, पतला, परिष्कृत नायिका शामिल हैं, जैसे कि उसके सिर को क्षीणित संन्यासी से बदलना, अपने बच्चे से प्यार करते हुए, पेड़ की एक शाखा पकड़कर, उसके शौचालय में भाग लेते हुए, एक दर्पण की तलाश में, अपने पायल को बंद करने, अपने पालतू पक्षी को निहारना और संगीत वाद्ययंत्र बजाना। राजाराणी मंदिर भारत के पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा टिकटयुक्त स्मारक के रूप में रखा जाता है।

राजा-रानी मंदिर, भुवनेश्‍वर की चित्र गैलरी
लिंगराज मंदिर, भुवनेश्‍वर

लिंगराज मंदिर, भुवनेश्‍वर : लिंगराज मंदिर समूह का निर्माण सोमवंशी राजा ययाति ने 11वीं शताब्‍दी में करवाया था। 185 फीट ऊंचा यह मंदिर कंलिगा स्‍कूल ऑफ आर्किटेक्‍चर का प्रतिनिधित्‍व करता है। यह मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। इतिहासकारों के अनुसार यह ओडिशा का सबसे महत्‍वपूर्ण मंदिर है। इस मंदिर परिसर में प्रवेश करते ही 160 मी x 140 मी आकार का एक चतुर्भुजाकार कमरा मिलता है। इस मंदिर का शहतीर इस प्रकार बना हुआ है कि यह विस्‍मय और कौतुहल का एक साथ बोध कराता है। इस मंदिर का आकार इसे अन्‍य मंदिरों से अलग रूप में प्रस्‍तुत करता है। इस मंदिर में स्‍थापित मूर्तियां चारकोलिथ पत्‍थर की बनी हुई हैं। ये मूर्तियां समय को झुठलाते हुए आज भी उसी प्रकार चमक रही हैं। इन मूर्तियों की वर्तमान स्थिति से उस समय के मूर्तिकारों की कुशलता का पता चलता है। इस मंदिर की दीवारों पर खजुराहों के मंदिरों जैसी मूर्तियां उकेरी गई हैं। इसी मंदिर के भोग मंडप के बाहरी दीवार पर मनुष्‍य और जानवर को सेक्‍स करते हुए दिखाया गया है। पार्वती मंदिर जो इस मंदिर परिसर के उत्तरी दिशा में स्थित है, अपनी सुंदर नक्‍काशी के लिए प्रसिद्ध है।

लिंगराज मंदिर के आसपास का मंदिर: इस मंदिर के चारों ओर कई छोटे-छोटे मंदिर हैं लेकिन 'वैताल' मंदिर इनमें विशेष महत्‍व रखता है। इस मंदिर की स्‍थापना 8वीं शताब्‍दी के आसपास हुई थी। इस मंदिर में चामुंडा देवी की मूर्ति स्‍थापित है। यह मूर्ति देखने में काफी भयावह प्रतीत होती है। यह मंदिर चतुर्भुजाकार है। इस मंदिर में तांत्रिक, बौद्ध तथा वैदिक परम्‍परा सभी के लक्षण एक साथ देखने को मिलता है।

ब्राह्मेश्‍वर मंदिर, भुवनेश्‍वर

ब्राह्मेश्‍वर मंदिर, भुवनेश्‍वर : राजा-रानी मंदिर से थोड़ा आगे जाने पर ब्राह्मेश्‍वर मंदिर स्थित है जो भगवान शिव को समर्पित है। इस मंदिर की स्‍थापना 1060 ई. में हुई थी। इस मंदिर के चारों कानों पर चार छोटे-छोटे मंदिर स्थित हैं। इस मंदिर की दीवारों पर अदभूत नक्‍काशी की गई है। इनमें से कुछ कलाकृतियों में स्‍त्री-पुरुष को कामकला की विभिन्‍न अवस्‍थाओं में दर्शाया गया है। यह मंदिर भुवनेश्वर से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। पवित्र शिव तीर्थों में से एक होने के नाते, यह अब भुवनेश्वर शहर में सबसे अधिक देखा जाने वाला ऐतिहासिक स्थान बन गया है। मंदिर की दीवारों को अलग-अलग भगवान और आकर्षक दिव्यताओं से सजाया गया है। गहरे रंग के संगमरमर के पत्थरों के उपयोग से, मंदिर को दीवारों और खिड़कियों पर कई मंदिरों के साथ एन्क्रिप्ट किया गया था। मंदिर में अलग-अलग सैंडस्टोन और लकड़ी के काम के साथ उत्कृष्ट अंदरूनी हैं।

मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह: राजा-रानी मंदिर से 100 गज की दूरी पर मुक्‍तेश्‍वर मंदिर समूह है। इस समूह में दो महत्‍वपूर्ण मंदिर है: परमेश्‍वर मंदिर तथा मुक्‍तेश्‍वर मंदिर। इन दोनों मंदिरों की स्‍थापना 650 ई. के आसपास हुई थी। परमेश्‍वर मंदिर सबसे सुरक्षित अवस्‍था में है। यह मंदिर इस क्षेत्र के पुराने मंदिरों में सबसे आकर्षक है। इसके जगमोहन में जाली का खूबसूरत काम किया गया है। इसमें आकर्षक चित्रकारी भी की गई है। एक चित्र में एक नर्त्तकी और एक संगीतज्ञ को बहुत अच्‍छे ढ़ंग से दर्शाया गया है। इस मंदिर के गर्भगृह में एक शिवलिंग है। यह शिवलिंग अपने बाद के लिंगराज मंदिर के शिवलिंग की अपेक्षा ज्‍यादा चमकीला है।

परमेश्‍वर मंदिर की अपेक्षा मुक्‍तेश्‍वर मंदिर छोटा है। इस मंदिर की स्‍थापना 10वीं शताब्‍दी में हुई थी। इस मंदिर में नक्‍काशी का बेहतरीन काम किया गया है। इस मंदिर में की गई चित्रकारी काफी अच्‍छी अवस्‍था में है। एक चित्र में कृशकाय साधुओं तथा दौड़ते बंदरों के समूह को दर्शाया गया है। एक अन्‍य चित्र में पंचतंत्र की कहानी को दर्शाया गया है। इस मंदिर के दरवाजे आर्क शैली में बने हुए हैं। इस मंदिर के खंभे तथा पि‍लर पर भी नक्‍काशी की गई है। इस मंदिर का तोरण मगरमच्‍छ के सिर जैसे आकार का बना हुआ है।

इस मंदिर के दायीं तरफ एक छोटा सा कुआं है। इसे लोग मारीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों का ऐसा कहना है कि इस कुंड के पानी से स्‍नान करने से महिलाओं का बाझंपन दूर हो जाता है।

राज्‍य संग्रहालय: भुवनेश्‍वर जाने पर यहां का राज्‍य संग्रहालय जरुर घूमना चाहिए। यह संग्रहालय जयदेव मार्ग पर स्थित है। इस संग्रहालय में हस्‍तलिखित तारपत्रों का विलक्षण संग्रह है। यहां प्राचीन काल के अदभूत चित्रों का भी संग्रह है। इन चित्रों में प्रकृति की सुंदरता को दर्शाया गया है। इसी संग्रहालय में प्राचीन हस्‍तलिखित पुस्‍तक 'गीतगोविंद' है जिससे जयदेव ने 12वीं शताब्‍दी में लिखा था।

हीरापुर: हीरापुर भुवनेश्‍वर से 15 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव है। इसी गांव में भारत की सबसे छोटी योगिनी मंदिर 'चौसठ योगिनी' स्थित है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्‍दी में हुआ था। इसका उत्‍खनन 1958 ई. में किया गया था। यह मंदिर गोलाकार आकृति के रूप में बनी हुई है जिसका व्‍यास 30 फीट है। इसकी दीवारों की ऊंचाई 8 फीट से ज्‍यादा नहीं है। यह मंदिर भूरे बलूए पत्‍थर से निर्मित है। इस मंदिर में 64 योगिनियों की मूर्त्तियां बनाई गई है। इनमें से 60 मूर्त्तियां दीवारों के आले में स्थित है। शेष मूर्त्तियां मंदिर के मध्‍यम में एक चबूतरे पर स्‍थापित है। इस मंदिर का बाहरी दीवार भी काफी रोचक है। इन दीवारों में नौ आले हैं जिनमें महिला पहरेदार की मूर्त्तियां स्‍थापित है।

कोणार्क सूर्य मन्दिर (AS, p.233-235) उड़ीसा राज्य की प्राचीन राजधानी था। किंवदन्ती के अनुसार चक्रक्षेत्र (जगन्नाथपुरी) के उत्तरपूर्वी कोण में यहाँ अर्क या सूर्य का मन्दिर स्थित होने के कारण इस स्थान को कोणार्क कहा जाता था। पुराणों में कोणार्क को मैत्रेयवन और पद्मक्षेत्र भी कहा गया है.

एक कथा में वर्णन है कि इस क्षेत्र में सूर्योपासना के फलस्वरूप श्रीकृष्ण के पुत्र सांब का कुष्ठ रोग दूर हो गया था और यहीं चंद्रभागा में बहते हुए कमल पत्र पर उसे सूर्य की प्रतिमा मिली थी। आइना-ए-अकबरी में अबुल फ़ज़ल लिखता है कि यह मन्दिर अकबर के समय से लगभग सात सौ तीस वर्ष पुराना था, किन्तु मंडलापंजी नामक उड़ीसा के प्राचीन इतिहास-ग्रंथों के आधार पर यह कहना अधिक समीचीन होगा कि इस मन्दिर को गंगावंशीय लांगुल नरसिंह देव ने बंगाल के नवाब तुग़ानख़ाँ पर अपनी विजय के स्मारक के रूप में बनवाया था। इसका शासन काल 1238-1264 ई. में माना जाता है। एक ऐतिहासिक अनुश्रुति में मन्दिर के निर्माण की तिथि शक संवत 1204 (=1126 ई.) मानी गई है। जान पड़ता है कि मूलरूप में इससे भी पहले इस स्थान पर प्राचीन सूर्य मन्दिर था। सातवीं शती ई. में चीनी यात्री युवानच्वांग कोणार्क आया था। उसने इस नगर का नाम चेलितालों लिखते हुए उसका घेरा 20ली बताया है। उस समय यह नगर एक राजमार्ग पर स्थित था और समुद्रयात्रा पर जाने वाले पथिकों या व्यापारियों का विश्राम स्थल भी था। मन्दिर का शिखर बहुत ऊँचा था और उसमें अनेक मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थीं। जगन्नाथपुरी मन्दिर में सुरक्षित उड़ीसा के प्राचीन इतिहास ग्रंथों से पता चलता है कि सूर्य और चंद्र की मूर्तियों को भयवंशीय नरेश नृसिंहदेव के समय (1628-1652) में पुरी ले जाया गया था।

1824 ई. में स्टार्लिंग नामक अंग्रेज ने इस मंदिर को देखा था. उस समय यह नष्टप्राय अवस्था में था. वह लिखता है कि 'मंदिर के ध्वस्त होने का कारण स्थानीय लोग यह बताते हैं कि प्राचीन काल में इस मंदिर के उच्च शिखर पर एक विशाल चुंबक लगा हुआ था जिसके कारण निकटवर्ती समुद्र में चलने वाले जलयान खींचकर रेतीले किनारे पर लग जाया करते थे. मुगलकाल में एक जहाज के मल्लाहों ने इस आपत्ति से बचने के लिए मंदिर के शिखर का चुंबक उतार दिया और शिखर को भी तोड़-फोड़ डाला. मंदिर के पुजारियों ने इस घटना को अपशकुन मानते हुये मूर्तियों को भी मंदिर से हटाकर पुरी भेज दिया.' स्टार्लिंग ने अपने समय की बचीखुची मूर्तियों की सुंदर कला को सराहा है. वह लिखता है कि कोणार्क की मूर्तिकारी की तुलना गोथिक मूर्तिकला की अलंकरण रचनाओं के सर्वोत्कृष्ट

[p.234]: उदाहरणों से सरलता से की जा सकती है. कोणार्क के सूर्य मंदिर को कृष्ण मंदिर या ब्लैक पैगोडा भी कहते हैं. इसकी आकृति सूर्य के रथ के अनुरूप है. इसके विशाल एवं भव्य-चक्रों पर जो मनोरम मूर्तिकारी अंकित है वह सर्वथा अभूतपूर्व एवं अनोखी है. मंदिर का शिखर 'आमलक' प्रकार का है जिसके ऊपर अमृतकलश आधृत है. मंदिर में उड़ीसा की प्राचीन मंदिर निर्माण शैली के अनुरूप ही स्तंभों का अभाव है. कोणार्क का मंदिर भारत के सुंदरतम प्राचीन स्मारकों में से है. इसका विशेष वर्णन नीचे दिया जाता है.

मंदिर का विशेष वर्णन: प्राचीन जनश्रुतियों के अनुसार 1200 कलाकारों ने इस मंदिर का निर्माण किया था. उन्होंने रातदिन परिश्रम करके इसे बनाया था किंतु इसके निर्माण का कार्य इतना विराट था कि मंदिर फिर भी पूरा न बन सका. मंदिर को बनाने के समय चंद्रभागा और चित्रोत्पला नदियों का प्रवाह रोकना पड़ा था. कहा जाता है कि इस मंदिर पर कुल 12 सौ करोड़ रुपए हुआ था. शायद संसार के इतिहास में किसी एक भवन के निर्माण में इतना धन व्यय नहीं हुआ. मंदिर की संरचना सूर्यदेव के विराट रथ या विमान के सात अश्वों के परिचायक रूप हैं.

एक किंवदंती है कि कोणार्क का प्राचीन नाम कोन-कोन था. सूर्य (अर्क) के मंदिर बन जाने से यह नाम कोनार्क या कोणार्क हो गया. सूर्य मंदिर के दो भाग हैं-- रेखा अथवा शिखर और भद्र अथवा जगमोहन, जिसके ऊपर शिखर निर्मित है. तांत्रिक मत के अनुसार (तांत्रिकों का प्रभाव उड़ीसा में काफी समय तक रहा है) मंदिर के दोनों भाग पुरुष और स्त्रीत्व के वास्तु-प्रतीक हैं जो अभिन्न रूप में जुड़े हैं. रेखा भाग 180 और भद्र 140 फुट ऊँचा है. मंदिर के चतुर्दिक परकोटा खिंचा हुआ है और पूर्व, दक्षिण और उत्तर की ओर इसके प्रवेश द्वार हैं. मुख्य द्वार पूर्व की ओर है जहां हाथी की पीठ पर आसीन सिंहों की मूर्तियां निर्मित हैं. दक्षिणी प्रवेश द्वार पर दो अश्वमूर्तियाँ और उत्तरी द्वार पर मनुष्यों को सूंड पर उठाए हुए दो हाथी प्रदर्शित हैं. पहले सभी द्वारों पर मूर्तियां उत्कीर्ण थीं किंतु अब केवल पूर्वी द्वार पर ही नक्काशी शेष है. द्वार के ऊपर नवग्रहों का अंकन था. (यह मूर्तिखंड कोणार्क के संग्रहालय में है). इसके ऊपर, सूर्य देव की पद्मासनस्ठ मूर्ति गोखा में स्थित थी.

मंदिर के सामने एक मंडप था जिसे 18वीं सदी में मराठों ने पुरी भेज दिया था. जगमोहन के आगे एक नाट्य मंदिर है जिसकी तक्षणकला

[p.235]: सराहनीय है. मंदिर के आधार के निम्नतम भाग में वन्य पशुओं तथा हाथियों के आखेट के जीवंत मूर्तिचित्र हैं. इसके ऊपर अनेक मूर्तियां विभिन्न प्रणयमुद्राओं में अंकित हैं जिससे मंदिर पर तांत्रिक प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है. मंदिर मध्ययुगीन होते हुए भी गुप्तकालीन वास्तु परंपरा का उदाहरण है. अबुलफ़ज़ल इसके लिए ठीक ही लिखा है कि कला के आलोचक इस मंदिर को देखकर आश्चर्यचकित रह जाते हैं. वास्तव में यह अद्भुत कलाकृति अपने महान निर्माता के स्वप्न की साकार अभिव्यक्ति जान पड़ती है.

कोणार्क सूर्य मन्दिर की चित्र गैलरी


पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर
पुरी का समुद्र तट

पुरी (Puri) : ओड़िशा राज्य के पुरी ज़िले में स्थित है। भारत के चार पवित्रतम स्थानों में से एक है पुरी, जहां समुद्र इस शहर के पांव धोता है। पुरी, भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की पवित्र नगरी है। हिंदुओं के पवित्र चार धामों में से एक पुरी संभवत: एक ऐसा स्थान है जहां समुद्र के आनंद के साथ-साथ यहां के धार्मिक तटों और 'दर्शन' की धार्मिक भावना के साथ कुछ धार्मिक स्थलों का आनंद भी लिया जा सकता है। पुरी को चारित्र, चक्रक्षेत्र, नीलगिरी, नीलाद्रि, नीलाचल, पुरुषोत्तमक्षेत्र, शंखक्षेत्र, श्रीक्षेत्र, जगन्नाथ धाम, जगन्नाथ पुरी आदि नामों से जाना जाता है।

पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर: पुरी का श्री जगन्नाथ मन्दिर एक हिन्दू मन्दिर है, जो भगवान जगन्नाथ (श्रीकृष्ण) को समर्पित है। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। इस मन्दिर को हिन्दुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मन्दिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। इस मन्दिर का वार्षिक रथ यात्रा उत्सव प्रसिद्ध है। इसमें मन्दिर के तीनों मुख्य देवता, भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भ्राता बलभद्र और भगिनी सुभद्रा तीनों, तीन अलग-अलग भव्य और सुसज्जित रथों में विराजमान होकर नगर की यात्रा को निकलते हैं। श्री जगन्नथपुरी पहले नील माघव के नाम से पुजे जाते थे। जो भील सरदार विश्वासु के आराध्य देव थे। अब से लगभग हजारों वर्ष पुर्व भील सरदार विष्वासु नील पर्वत की गुफा के अन्दर नील माघव जी की पुजा किया करते थे। मध्य-काल से ही यह उत्सव अतीव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। इसके साथ ही यह उत्सव भारत के ढेरों वैष्णव कृष्ण मन्दिरों में मनाया जाता है, एवं यात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर वैष्णव परम्पराओं और सन्त रामानन्द से जुड़ा हुआ है। यह गौड़ीय वैष्णव सम्प्रदाय के लिये खास महत्व रखता है। इस पन्थ के संस्थापक श्री चैतन्य महाप्रभु भगवान की ओर आकर्षित हुए थे और कई वर्षों तक पुरी में रहे भी थे।

यह 65 मी. ऊंचा मंदिर पुरी के सबसे शानदार स्मारकों में से एक है। इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोड़गंग ने अपनी राजधानी को दक्षिणी उड़ीसा से मध्य उड़ीसा में स्थानांतरित करने की खुशी में करवाया था। यह मंदिर नीलगिरी पहाड़ी के आंगन में बना है। चारों ओर से 20 मी. ऊंची दीवार से घिरे इस मंदिर में कई छोट-छोटे मंदिर बने हैं। मंदिर के शेष भाग में पारंपरिक तरीके से बना सहन, गुफा, पूजा-कक्ष और नृत्य के लिए बना खंबों वाला एक हॉल है। इस मंदिर के विषय में वास्तव में यह एक आश्चर्यजनक सत्य है कि यहां जाति को लेकर कभी भी मतभेद नहीं रहे हैं। सड़क के एक छोर पर गुंडिचा मंदिर के साथ ही भगवान जगन्नाथ का ग्रीष्मकालीन मंदिर है। यह मंदिर ग्रांड रोड के अंत में चार दीवारी के भीतर एक बाग में बना है। यहां एक सप्ताह के लिए मूर्ति को एक साधारण सिंहासन पर विराजमान कराया जाता है।

बौद्ध मूल: कुछ इतिहासकारों का विचार है कि इस मन्दिर के स्थान पर पूर्व में एक बौद्ध स्तूप होता था। उस स्तूप में गौतम बुद्ध का एक दाँत रखा था। बाद में इसे इसकी वर्तमान स्थिति, कैंडी, श्रीलंका पहुँचा दिया गया। इस काल में बौद्ध धर्म को वैष्णव सम्प्रदाय ने आत्मसात कर लिया था और तभी जगन्नाथ अर्चना ने लोकप्रियता पाई। यह दसवीं शताब्दी के लगभग हुआ, जब उड़ीसा में सोमवंशी राज्य चल रहा था।

महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मन्दिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अन्तिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मन्दिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।

जगन्नाथपुरी (AS, p.352) पूर्वी भारत का प्रसिद्ध तीर्थ है. कहा जाता है कि पुरी में पहले एक प्राचीन बौद्ध मंदिर था. हिंदू धर्म के पुनरुत्कर्षकाल में इस मंदिर को श्रीकृष्ण के मंदिर के रूप में बनाया गया. मंदिर की मुख्य मूर्तियां शायद तीसरी सदी ई. की हैं. ययातिकेसरी ने 9 वीं सदी में पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया और तत्पश्चात चौड़ गंगदेव ने 12वीं सदी ई. में इसका पुन:नवीकरण किया. इस मंदिर का आदि निर्माता कौन था, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता. 12 वीं सदी में मंदिर का अंतिम जीर्णोद्धार गंगवंशीय राजा आनंग भीमदेव ने करवाया था. इसी रूप में यह मंदिर आज स्थित है.

इस मंदिर पर मध्यकाल में मुसलमानों ने कई बार आक्रमण किए थे. कालापहाड़ नामक मुसलमान सरदार ने जो पहले हिंदु था - इस मंदिर को पूरी तरह नष्टभ्रष्ट किया था. मंदिर का पुनर्निर्माण कई बार हुआ जान पड़ता है. 15वीं शती में चैतन्य महाप्रभु ने इस मंदिर की यात्रा की थी. तीन सौ वर्ष पूर्व मराठों ने (भौंसला नरेश ने) मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था. यह मंदिर दक्षिणात्य शैली में निर्मित है. जान पड़ता है कि पुरी की महाभारत या पूर्वपौराणिक काल तक तीर्थरूप में मान्यता नहीं थी. चीनी यात्री युवानच्वांग ने संभवत: पुरी को ही चरित्रवन नाम से अभिहित

[p.353]: किया है. शाक्तों के अनुसार जगन्नाथपुरी के क्षेत्र का नाम उड्डियानपीठ है. इसे शंखक्षेत्र भी कहा जाता था. दक्षिण के प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य है रामानुज ने पुरी की यात्रा 1122 ई. और 1137 ई. में की थी. उनकी यात्रा के पश्चात यह मंदिर उड़ीसा में हिंदू धर्म का प्रबल एवं प्रमुख केंद्र बन गया था.

चक्रक्षेत्र (AS, p.324) - जगन्नाथपुरी के क्षेत्र का प्राचीन नाम है।

चारित्र (AS, p.332) चीनी यात्री युवानच्वांग (सातवीं सदी ई.) द्वारा उल्लिखित उड़ीसा का एक बंदरगाह है जिसका अभिज्ञान सामान्यतः पुरी से किया जाता है। (देखें मेहताब, हिस्ट्री ऑफ उड़ीसा, पृ.35)

शंखक्षेत्र (AS, p.885): उड़ीसा में जगन्नाथपुरी के क्षेत्र का पौराणिक नाम है. कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख के समान है. शाक्तों के अनुसार इसका नाम उड्डियान पीठ है.

पुरुषोत्तम क्षेत्र (AS, p.567) : पुरुषोत्तम क्षेत्र पुराणों में प्रमुख तीर्थ माना गया है। पुराणों के अनुसार इस तीर्थ के क्षेत्र का विस्तार उड़ीसा में दक्षिण कटक, पुरी तथा वेंकटाचल तक है। (इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली 7, पृष्ठ 245-253.)

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफाएं

खन्डगिरि गुफा से उदयगिरि गुफा का दृश्य
उदयगिरि से खण्डगिरि गुफाओं का दृश्य

उदयगिरि गुफ़ाएँ (AS, p.95): भुवनेश्वर (उड़ीसा) के समीप नीलगिरि, उदयगिरि तथा खण्डगिरि नामक गुहा समूह में 66 गुफाएँ हैं जो पहाड़ियों पर अवस्थित हैं. इनमें से अधिकांश का समय तीसरी शती ई.पू है. और उनका संबंध जैन संप्रदाय से है. खण्डगिरि का शिखर 123 फुट उँचा है, जो आस-पास की पहाड़ियों में सबसे ऊँचा है।

उदयगिरि और खण्डगिरि नामक दो गुफ़ाएँ जो भुवनेश्वर (उड़ीसा) के समीप दो पहाड़ियाँ पर स्थित है। ये गुफ़ाएँ उदयगिरि और खण्डगिरि पहाडियों में पत्‍थरों को काट कर बनाई गई थी। यहाँ से कलिंग के प्रसिद्ध शासक खारवेल का अभिलेख है। इसका विस्तृत अध्ययन श्री काशी प्रसाद जायसवाल बहुत समय तक करते रहे थे. अभिलेख में पहाड़ी को कुमारगिरि कहा है. यह स्थान उड़ीसा की प्राचीन राजधानी शिशुपालगढ़ से 6 मील दूर है. इसी स्थान के पास अशोक के समय में तोसलि नाम की नगरी (वर्तमान धौली) बसी हुई थी. वास्तव में उड़ीसा के इसी भाग में इस प्रदेश की मुख्य राजधानियाँ बसाई गई थी.


उदयगिरि और खन्डगिरि की पहाडियां भुवनेश्‍वर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। उदयगिरि और खन्डगिरि (प्राचीन नाम स्‍कंधगिरि) की पहाडियों में पत्‍थरों को काट कर गुफाएं बनाई हुई हैं। इन गुफाओं का निर्माण प्रसिद्ध चेदी राजा खारवेल जैन मुनियों के निवास के लिए करवाऐ थे। इन गुफाओं में की गई अधिकांश चित्रकारी नष्‍ट हो गई है।

गुफा संख्‍या 1 जिसे रानी गुफा के नाम से भी जाना जाता है, दो तल का है। यह एक आकर्षक गुफा है। इसमें बनाई गई कई मूर्त्तियां अभी भी सुरक्षित अवस्‍था में हैं। इस गुफा में सफाई का उत्तम प्रबंध था। ऐसा लगता है कि इसे बनाने वाले कारीगरों का तकनीकी ज्ञान काफी उन्‍नत था।

गुफा संख्‍या 10 में जिसे गणेश गुफा भी कहा जाता है वहां गणेश की मनमोहक मूर्त्ति है। इस गुफा के दरवाजे पर दो हाथियों को दरबान के रूप में स्‍थापित किया गया है। लेकिन खन्डगिरि गुफा में बनी हुई जैन तीर्थंकरों की सभी मूर्त्तियां नष्‍ट प्राय अवस्‍था में है।

उदयगिरि और खंडगिरि पहाड़ियों में आंशिक रूप से प्राकृतिक व आंशिक रूप से कृत्रिम गुफाएँ हैं जो पुरातात्विक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्व की हैं। हाथीगुम्फा शिलालेख में इनका वर्णन कुमारी पर्वत के रूप में आता है। ये दोनों गुफाएं लगभग दो सौ मीटर के अंतर पर हैं और एक दूसरे के सामने हैं। ये गुफाएं अजन्ता और एलोरा जितनी प्रसिद्ध नहीं हैं, लेकिन इनका निर्माण बहुत सुंदर ढंग से किया गया है। इनका निर्माण राजा खारवेल के शासनकाल में विशाल शिलाखंडों से किया गया था और यहां पर जैन साधु निर्वाण प्राप्ति की यात्रा के समय करते थे। इतिहास, वास्तुकला, कला और धर्म की दृष्टि से इन गुफाओं का विशेष महत्व है। उदयगिरि में 18 गुफाएं हैं और खंडगिरि में 15 गुफाएं हैं। कुछ गुफाएं प्राकृतिक हैं, लेकिन ऐसी मान्यता है कि कुछ गुफाओं का निर्माण जैन साधुओं ने किया था और ये प्रारंभिक काल में चट्टानों से काट कर बनाए गए जैन मंदिरों की वास्तुकला के नमूनों में से एक है।

शिलालेखों में इन गुफाओं को ‘लेना’ कहा गया है और इन्हें न जाने कितनी पूर्णिमा वाली चाँदनी रातों में बनाया गया था। गुफाओं के मुंह दरवाजों जैसे हैं, जहां से दिन के समय सूरज की रोशनी आ सकती है और पथरीले फर्श गर्म रहते हैं। रात को चाँद की रोशनी गुफा में आती है और गुफाओं में उजाला रहता है। इन गुफाओं में साधु लोग आकर रहते थे, जो संसार को त्याग कर अपने तन और मन की शक्तियों के प्रवाह से निर्वाण के लिए तपस्या करते थे। सुगन्धित फूलों, चहचहाते पक्षियों, पत्तों की सरसराहट, उजली धूप और शीतल चंद्रमा के सान्निध्य में वे प्रकृति के साथ एक रूप हो जाते थे। इन गुफाओं में बैठकर साधुजन शांति से समाधि लगाते थे और कठोर तपस्या करते थे। विद्वान लोग भी सत्य, शांति, मोक्ष और सौन्दर्य बोध के लिए यहां आते थे।

उदयगिरि की गुफाएं लगभग 135 फुट और खंडगिरि की गुफाएं 118 फुट ऊंची हैं। ये गुफाएं ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी की हैं। ये गुफाएं ओडीशा क्षेत्र में बौद्ध धर्म और जैन धर्म के प्रभाव को दर्शाती हैं। ये पहाड़ियां गुफाओं से आच्छादित हैं, जहां जैन साधुओं के जीवन और काल से संबंधित वास्तुकला कृतियां हैं। इन गुफाओं का निर्माण प्राचीन ओडीशा यानी कलिंग के नरेश खारवेला ने (209-170 ईसा पूर्व के बीच) कराया था। नरेश खारवेल को अशोक सम्राट ने हरा दिया था। यद्यपि नरेश खारावेला जैन धर्म को मानते थे, लेकिन धार्मिक जिज्ञासाओं के प्रति उनका दृष्टिकोण उदार था।

इन गुफाओं का निर्माण अधिकतर शिलाओं के ऊपरी भाग में होता था और गुफाओं के आवास साधना और प्रार्थना के लिए सूखे वाले स्थान होते थे, जहां वर्षा का पानी नहीं ठहरता था, इनके साथ बरामदा या आँगन होता था। छोटी-छोटी सुविधाओं की भी व्यवस्था होती थी। हालांकि छत की ऊँचाई कम होती थी और कोई व्यक्ति सीधे खड़ा नहीं हो सकता था। मुख्य रूप से ये विश्राम स्थल या शयन कक्ष थे। एक ही कक्ष में बहुत साधु रहते थे। कक्ष में एक खास बात थी कि प्रवेश स्थल के सामने की ओर का फर्श ऊँचा उठा हुआ था, जो शायद सोने के समय सिरहाने का काम देता था। ये कक्ष तंग और सपाट होते थे और इनके प्रवेश द्वार पर विभिन्न वस्तुओं की वास्तुकला कृतियां होती थीं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इन गुफाओं की गणना कराई और इन वस्तुओं के आधार पर इनके अलग-अलग नाम रखे। इन वस्तुओं में विभिन्न प्रकार के दरबार के दृश्य, पशु-पक्षी, शाही जुलूसों, शिकार अभियानों और दैन्य जीवन के दृश्य होते थे। ये लेख ब्राह्मी लिपि में हैं और जैनियों के मूल मंत्र- णमोकार मंत्र से शुरू होते हैं। इसके बाद राजा खारवेल के जीवन और कार्यों से संबंधित दृश्य हैं, जो सभी धार्मिक व्यवस्थाओं का सम्मान करते थे और धर्म स्थलों का जीर्णोद्धार करते थे। अलग-अलग गुफाओं पर उनके संरक्षकों के नाम हैं। अधिकतर संरक्षक राजा के वंशज हैं। कलिंग विजय के बाद जब अशोक का शासन हुआ और राजा खारवेल की सभी संपत्तियों पर उनका अधिकार हो गया, तो धीरे-धीरे जैन धर्म के स्थान पर बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा।

उदयगिरि गुफाओं में फर्श को पत्थरों की समतल शिलाओं से बनाया गया है। सीढ़ीनुमा पत्थरों पर चलते-चलते 18 गुफाओं के दर्शन हो जाते हैं।

गुफा संख्या 1, रानीगुम्फा यानी रानी की गुफा है जो दो मंजिला है। यह गुफा ध्वनि संतुलन की विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है और समझा जाता है कि इसका प्रयोग मंत्रोच्चार के लिए और नाट्य प्रदर्शनों के लिए किया जाता है। यहां पर रथ पर सवार सूर्य देवता की भी मूर्ति है। नीचे वाली मंजिल के दायें भाग में एक कक्ष है जिसके तीन प्रवेश स्थल हैं और खंभों वाला बरामदा है। चतुर्भुज आकार की शिला के तीन ओर से इसकी खुदाई की गई है और दीवारों पर चित्र-बेलें हैं। प्रवेश स्थल पर दो संतरियों की मूर्तियों सहित इसमें कुछ सुंदर वास्तुकला के दृश्य हैं। प्रवेश स्थल के भित्ति स्तंभों पर सुंदर चित्र-बेलें, तोरण, जीव-जंतुओं के दृश्य तथा धार्मिक और राजसी दृश्य हैं। एक नर्तकी के साथ संगीतकार को हाथ जोड़ने की मुद्रा में दर्शाया गया है।

केन्द्रीय भाग में चार कक्ष हैं। यहां पर नरेश के विजय अभियान और उनकी यात्रा को दर्शाया गया है। यहां पर रक्षकों के कक्ष हैं जिन्हें पहाड़ी से गिरते झरनें, फलों से लदे वृक्षों, वन्य जीवों, बानरों और कमल-ताल में अठखेलिया करते हाथियों की मूर्तियों से सजाया गया है। ऊपर की मंजिल में छह कक्ष हैं। एक दायीं ओर, एक बायीं ओर तथा चार पिछली ओर हैं। सभी चार कक्षों में दो-दो द्वार हैं जहां दो-दो भित्ति स्तंभ हैं। यहां तोरण भी हैं, जिन्हें सर्प और कमल की तरह जैन धर्म का पवित्र प्रतीक माना जाता है। इनके अलावा शकुंतला के साथ राजा दुष्यंत की पहली भेंट और नृत्य कला के भी दृश्य हैं।

गुफा संख्या दो बाजाघर गुम्फा (Bajagharagumpha) कहलाती है, जहां सामने दो विशाल स्तंभ हैं और अंदर एक और स्तंभ है।

गुफा संख्या तीन को छोटा हाथी गुम्फा (Chota Hathigumpha) कहते हैं। इसके प्रवेश पर बहुत ही सुंदर छह हाथियों की मूर्तियां हैं।

गुफा संख्या चार अल्कापुरी गुम्फा (Alkapurigumpha) है, जो दो मंजिला है। यहां एक सिंह का दृश्य है जिसने अपने मुंह में शिकार को दबोचा हुआ है। पक्षियों का एक जोड़ा, कुछ लोगों और पशुओं के चित्र भी स्तंभों पर अंकित हैं। केन्द्रीय कक्ष में एक बोधि-वृक्ष भी बनाया गया है।

गुफाएं संख्या पांच जय-विजय गुम्फा (Jaya-vijayagumpha), छह पनासा गुम्फा (Panasagumpha), सात ठकुरानी गुम्फा (Thakuranigumpha) और आठ पातालपुरी गुम्फा (Patalapurigumpha) के नाम से प्रसिद्ध है। पांचवीं और सातवीं गुम्फाएं दो मंजिली हैं। इनमें चित्रकारी और पक्षियों आदि के चित्र हैं।

गुफा संख्या नौ मंचापुरी और स्वर्गपुरी गुफाएं Mancapurigumpha हैं, जो दो मंजिला हैं और जहां कई वास्तुकला कृतियां और शिलालेख हैं। इसमें लंबी धोती, अंगवस्त्रम और कानों में कुंडल डाले और हाथ जोड़े हुए चार पुजारियों जैसी मूर्तियां हैं। इस गुफा में राजमुकुट पहने हुए एक व्यक्ति की भी मूर्ति है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह छेदी नरेश वक्रदेव की मूर्ति है।

गुफा संख्या दस गणेश गुम्फा है। यहां पर एक चैत कक्ष है, जो साधुओं का पूजा स्थल है, रहने के लिए कम ऊँचाई वाले दो कक्ष हैं और एक बरामदा है जहां गणेश की उभरी हुई मूर्ति है, यहां पर जैन तीर्थंकर की नक्काशीनुमा मूर्ति भी है। जम्बेश्वर गुम्फा-गुफा (Jambesvaragumpha) संख्या 11, एक छोटी गुफा है, जिसके दो दरवाजे हैं। गुफा संख्या 12, कम ऊँचाई वाली और दो दरवाजों वाली व्याघ्र गुम्फा (Vyaghragumpha) है। इसका प्रवेश स्थल व्याघ्र के मुख जैसा है, जिसके ऊपर की जबड़े में दाँत दिखाई देते हैं। यह बरामदे की छत का काम देती है और प्रवेश गली भी है। गुफा संख्या 13 सर्प गुम्फा है (Sarpagumpha), जो बहतु ही छोटी है। यहां पर राजा खारवेल का जीवनचरित मगधी भाषा में अंकित है। अन्य गुफाओं में गुफा संख्या 14- हाथी गुम्फा, गुफा संख्या 15-धनागार गुम्फा (Dhanagharagumpha), गुफा संख्या 16- हरिदास गुम्फा (Haridasagumpha), गुफा संख्या 17 – जगम्मठ गुम्फा (Jagammathgumpha) और गुफा संख्या 18- रोसई गुम्फा (Rosaigumpha) है।

खंडगिरि गुफाएं : खण्डगिरि गुफ़ाएँ(AS, p.251) भुवनेश्वर से सात मील तथा शिशुपालगढ़ से 6 मील दूर पश्चिमोत्तर में उदयगिरि के निकट की पहाड़ी खण्डगिरि कहलाती है। जिस की गुफाओं में प्राचीन अभिलेख हैं. ये जैन संप्रदाय से संबंधित हैं. जैन तीर्थंकर महावीर यहां कुछ काल पर्यंत रहे थे, ऐसी किंवदंती है. यह देश प्राचीन काल में कलिंगके अंतर्गत था. कलिंगराज खारवेल का प्रसिद्ध अभिलेख हाथी गुफा में है जो यहां से कुछ ही दूर है.


पहली और दूसरी गुफाएं तातोवा गुम्फा 1 और दो कहलाती हैं, जो प्रवेश स्थल पर रक्षकों और दो बैलों तथा सिंहों से सुसज्जित है। प्रवेश तोरण पर तोते की आकृतियां हैं। (Tatowa gumpha No.-1 &2)

गुफा संख्या 3 अनंत गुफा कहलाती है (Ananta gumpha), जहां स्त्रियों, हाथियों, खिलाड़ियों और पुष्प उठाए हंसों की मूर्तियां हैं।

गुफा संख्या 4 तेन्तुली गुम्फा (Tentuli gumpha) है।

गुफा संख्या 5 खंडगिरि गुम्फा (Khandagiri gumpha) दो मंजिली है, जो सामान्य तरीके से काटी गई हैं।

गुफा संख्या 6 ध्यान गुम्फा (Dhyana gumpha), गुफा संख्या नयामुनि गुम्फा (Navamuni gumpha), गुफा संख्या 8 बाराभुजा गुम्फा (Barabhuji gumpha), गुफा संख्या 9 त्रिशूल गुम्फा (Trusula gumpha), गुफा संख्या 10 अम्बिका गुम्फा (Ambika gumpha) और गुफा संख्या 11 ललतेंदुकेसरी गुम्फा (Lalatendukesari gumpha)। गुफा सख्या 11 की पिछली दीवार पर जैन तीर्थंकरों, महावीर और पार्श्वनाथ की नक्काशी वाली उभरी हुई मूर्तियां हैं।

गुफा संख्या 12, 13 और 15 के कोई नाम नहीं है।

गुफा संख्या 14 एकादशी गुंफा (Ekadasi gumpha) है। गुफा संख्या 14 एक साधारण कक्ष है, जिसे एकादशी गुम्फा के नाम से जाना जाता है।

राजा खारवेल : सदानंद अग्रवाल की पुस्तक 'श्री खारवेल' से कुछ तथ्य पृष्ठ सहित नीचे प्रस्तुत हैं. खारवेल के बारे में एसके चटर्जी का मत है कि वह द्रविड़ मूल के थे परंतु यह सही प्रतीत नहीं होता। क्योंकि खारवेल और कूदेपसिरी ने शिलालेखों में अपना एपिथेट ऐर (आर्य) धारण किया है। (पृ.29) हाथिगुंफा अभिलेख से स्पष्ट होता है कि उनके शरीर पर अभिजात्य कुल का शुभ निशान था। वह सुंदर और भूरे रंग के थे। यह प्रमाणित करता है कि ये द्रविड़ मूल के न होकर आर्य मूल के थे। (पृ.30)

खारवेल वस्तुत: संस्कृत के क्षारवेल से बना है जिसका अर्थ है – क्षार = नमक, वेल = समुद्र तट। (पृ.30)

खारवेल की मुख्य रानी का अभिलेख मंचपुरी गुफा में अंकित है और उनको हस्तिसिंह की परपौती और राजा ललार्क की बेटी बताया गया है। इतिहासकार इन राजाओं के बारे में कुछ नहीं जानते हैं। (पृ.35) हमारा मत है कि यह राजा लल्ल गोत्र के थे और लल्ल गठवाला जाटों का एक महत्वपूर्ण गोत्र है।

खारवेल की दूसरी रानी को सिंहपथ की रानी बताया है (हथिगुंफा अभिलेख पंक्ति-15). सिंहपथ का संबंध सिंहपुर से हो सकता है जो 4थी शदी में कलिंग में माठर राज्य की राजधानी थी। इसकी पहचान आंध्रप्रदेश के श्रीकाकुलम जिले में स्थित सिंहपुरम से की गई है। (पृ.36)

खारवेल के बारे में मेरा विचार है कि वह मूलरूप से साल्टरेंज से थे और उनका गोत्र खर था क्योंकि यह गोत्र पाकिस्तान के जाटों में अभी भी पाया जाता है। हीना रमानी खर पाकिस्तान कि विदेश मंत्री रह चुकी हैं जो खर गोत्र की जाट हैं। तमिल में वेल का अर्थ होता है किसान।

खारवेल के निर्माण-कार्य: खारवेल एक महान निर्माता था। उसने राजा होते ही अपनी राजधानी को प्राचीरों तथा तोरणों से अलंकृत करवाया।अपने राज्याभिषेक के 13वें वर्ष उसने भुवनेश्वर के पास उदयगिरि तथा खंडगिरि की पहाङियों को कटवा कर जैन भिक्षुओं के आवास के लिये गुहा-विहार बनवाये थे। उदयगिरि में 19 तथा खंडगिरि में 16 गुहा विहारों का निर्माण हुआ था। उदयगिरि में रानीगुंफा तथा खंडगिरि में अनंतगुफा की गुफाओं में उत्कीर्ण रिलीफ चित्रकला की दृष्टि से उच्चकोटि के हैं। इन चित्रों में तत्कालीन समाज के जनजीवन की मनोरम झांकी सुरक्षित है। उसके द्वारा बनवाया गया महाविजय प्रसाद भी एक अत्यंत भव्य भवन

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफाओं से प्राप्त शिलालेखों में अनेक जाट गोत्रों कि पुष्टि होती है. इस विषय में गहन अनुसंधान की आवश्यकता है.

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफाओं की चित्र गैलरी

उड़ीसा में जाट इतिहास

उड़ीसा में जाट इतिहास के अनेक प्रमाण मिलते हैं। जाटों ने हमेशा अपने गोत्र को प्रधान रखा है। कोई भी साम्राज्य अथवा राजा उस क्षेत्र में अपने नाम के कुछ भौगोलिक प्रमाण छोड़ता है। इसलिये आज भी उड़ीसा में अनेक भौगोलिक संरचनाओं यथा - नदी, पहाड़, झील, गाँव या नगर आदि के नाम जाट गोत्रों के रूप में हैं। यहाँ हम कुछ जाट गोत्रों की चर्चा करते हैं जिनके तथ्य प्रकाश में आए हैं। यद्यपि मुख्य धारा के इतिहासकारों ने इस दृष्टिकोण से उड़ीसा का प्राचीन इतिहास प्रकाशित नहीं किया है। इस विषय में विस्तृत अनुसंधान की आवश्यकता है।

1. कसवा/कुसुमा जाट गोत्र - खारवेल के हाथीगुंफा अभिलेख में वर्णित राजा कुसुमा कहाँ के राजा थे? इसका उत्तर कुसुमी नदी के अस्तित्व के रूप में मिलता है जो उड़ीसा के गंजम जिले में शुरू होकर नयागढ़ और खुर्दा जिलों में बहती है।

उदयगिरि और खण्डगिरि गुफ़ाओं के बारे में किशोरी लाल फौजदार ने जाट समाज पत्रिका आगरा (Jan/Feb-2001. p.6) में कुसवां गोत्र के इतिहास के बारे में जो लिखा है कि इस वंश का नाम कुशन, कुसवान-कुसवां भी मशहूर हुआ है। राजा खारवेल के लेख में विक्रम की दूसरी शताब्दी में कुसवांओं का उल्लेख है। जिसको 'हाथीगुंफा एंड थ्री अदर इन्स्क्रिप्शंस' (Hathigumpha and three Other Inscriptions,p.24) में इस प्रकार लिखा है- 'कुसवानाम् क्षत्रियानां च सहाय्यतावतां प्राप्त मसिक नगरम्'। अर्थात राजा खारवेल ने कुसवा क्षत्रियों की सहायता से मसिकनगर पर विजय प्राप्त की। इस वंश ने राज्यविहीन होकर पश्चिमोत्तर भारत के राजस्थान में आकर बीकानेर की प्राचीन भूमि पर अपना प्रभुत्व प्रजातंत्री रूप से कायम किया था। बीकानेर स्थापना से पहले इनका राजा कुंवरपाल था।

खण्डगिरि तातोवा गुम्फा एक और दो के प्रवेश स्थल पर रक्षकों और दो बैलों तथा सिंहों से सुसज्जित है। प्रवेश तोरण पर तोते की आकृतियां हैं। तातोवा गुम्फा एक के प्रवेश द्वार में एक अभिलेख खुदा हुआ है - पादमुलिकस कुसुमस लेणं x [।।] अर्थात खारवेल के कुसुमा नामक पदाधिकारी (पादमुलिक) की गुफा। पदमूलिक का शाब्दिक अर्थ है- [राजा के] चरणों में सेवा करने वाला।

खारवेल के हाथीगुंफा अभिलेख में असिकनगर का उल्लेख किया गया है। (L.4 - कारयति पनतिसाहि सतसहसेहि पकतियो च रंजयति [।।] दुतिये च वसे अचितयिता सातकनिं पछिमदिसं हय गज नर रध बहुलं दंडं पठापयति [।।] कन्हवेंणां गताय च सेनाय वितासिति असिक नगरं)। भारत के प्रसिद्ध आर्कियोलोजिस्ट और स्कॉलर भगवानलाल इन्द्रजी जिन्होने हथिगुंफा अभिलेख सहित अनेक प्राचीन भारतीय इन्स्क्रिप्शंस के ट्रांस्क्रिप्ट तैयार किए थे, ने इसकी व्याख्या की है कि पश्चिमी भूभाग के राजा शातकर्णी चाहते थे कि खारवेल उनके राज्य पर हमला नहीं करें इसलिये उसने घोड़े, हाथी, रथ और सैनिक खारवेल को भेंट किए। अपने राज के द्वीतीय वर्ष में खारवेल ने कुसुमा क्षत्रियों की सहायता से मसिकनगर को जीत लिया। इतिहासकारों ने मसिकनगर की पहचान असिकनगर से की है|

इन प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि खारवेल के राज्य में कुसुमा नामक पदाधिकारी बहुत महत्वपूर्ण पद धारण किए हुये थे और यह किसी व्यक्ति का नाम न होकर उपनाम या गोत्र को प्रदर्शित करता है। उनका राज्य निश्चय ही खारवेल के राज्य के अंतर्गत उड़ीसा में स्थित था। कुसुमी नदी को नाम देने वाले कुसुमा अथवा कसवां ही थे जो वर्तमान में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान के बीकानेर, हनुमानगढ़, चुरू और नागोर जिलों में कसवां जाट गोत्र के रूप में मिलते हैं।


2. सिहाग/असीआग जाट गोत्र - खारवेल के हाथीगुंफा अभिलेख में असिक नगरं का उल्लेख किया गया है। (L.4 - कारयति पनतिसाहि सतसहसेहि पकतियो च रंजयति [।।] दुतिये च वसे अचितयिता सातकनिं पछिमदिसं हय गज नर रध बहुलं दंडं पठापयति [।।] कन्हवेंणां गताय च सेनाय वितासिति असिक नगरं )। भगवानलाल इन्द्रजी ने इसकी व्याख्या की है कि पश्चिमी भूभाग के राजा शातकर्णी चाहते थे कि खारवेल उनके राज्य पर हमला नहीं करें इसलिये उसने घोड़े, हाथी, रथ और सैनिक खारवेल को भेंट किए। अपने राज के द्वीतीय वर्ष खारवेल ने कुसुमा क्षत्रियों की सहायता से मसिकनगर को जीत लिया। इतिहासकारों ने मसिकनगर की पहचान असिकनगर से की है| असिकनगर वस्तुत: सिहाग/असीआग जाट गोत्र जाट गोत्र का शहर था। इस वंश ने राज्यविहीन होकर पश्चिमोत्तर भारत से राजस्थान में आकर बीकानेर की प्राचीन भूमि पर अपना प्रभुत्व प्रजातंत्री रूप से कायम किया था।

3. बुरड़क गोत्र - उदयगिरि की मंचपुरी गुफा के नीचे की मंजिल में प्रवेश द्वार के दायें स्थित बरामदे की दायेँ दीवार पर एल पंक्ति का अभिलेख इस प्रकार खुदा हुआ है - कुमारो वडुखस लेणं अर्थात राजकुमार बडुख की गुफा। पुरालिपिक आधार पर प्रो. बनर्जी इस अभिलेख को राजा कुदेपसिरी से कुछ पहले का मानते हैं। परंतु इतिहासकार इस राजकुमार की पहचान नहीं कर पाये हैं। हमारा विचार है कि यह बुरड़क गोत्र का भाषा भेद के कारण परिवर्तित रूप रूप है। (बुरड़क → बुड़क → बड़ुक → बड़ुख → वड़ुख) इतिहास में बुरड़क गोत्र का उल्लेख इसके बाद राजस्थान में चौहान इतिहास में मिलता है। सीकर के पास सरनाऊ में 975 ई. में अपनी राजधानी स्थापित करने का उल्लेख है।

4. चल्का/चिल्का गोत्र - उदयगिरी के सर्पगुम्फा में द्वार के ऊपर एक पंक्ति का एक शिलालेख (IV- सर्पगुम्फा शिलालेख) खुदा हुआ है - चुलकमस कोठाजेया च। अर्थात - चुलकम का कक्ष और बरामदा/या पार्श्व कक्ष।

उदयगिरी के सर्पगुम्फा में द्वार के बाईं ओर दो पंक्ति का एक दूसरा शिलालेख (V-सर्पगुम्फा शिलालेख) इस प्रकार है: L.1- कंमस हलखि, L.2- णय च पसादो। [मंडप] कम्मा और हलखिन का उपहार है। संभवतः हलखिण कम्मा की पत्नी थी। शिलालेख संख्या IV में पाया गया चुलकम और इस रिकॉर्ड के कम्मा निजी नामों के बजाय आधिकारिक पदनामों को इंगित करता है। कम्मा को कार्य मंत्री (कर्म सचिव) के रूप में लिया जा सकता है और चुलकम कार्य विभाग में मंत्री के एक कनिष्ठ संवर्ग के रूप में प्रतीत होता है।

उदयगिरी के हरिदास गुफा में एक ओर शिलालेख (VI- हरिदास गुफा अभिलेख) बरामदे से गुफा के मुख्य कक्ष के तीन प्रवेश द्वारों में से एक पर उकेरी गई एक पंक्ति इस प्रकार है : चुलकमस पसातो कोठाजेया च अर्थात कक्ष और बरामदा (या पार्श्व कक्ष) चुलकम के उपहार हैं।

चुलकम या चुलक किसी व्यक्ति का नाम न होकर उपनाम या गोत्र को प्रदर्शित करता है। उनका राज्य निश्चय ही खारवेल के राज्य के अंतर्गत उड़ीसा में स्थित था। संभवत: चुलकम या चुलक जाटों में पाए जाने वाले चल्का/चिल्का गोत्र का परिवर्तित नाम है। उड़ीसा में स्थित चिल्का झील संभवत: इसी गोत्र के नाम पर है।

चिल्का झील भारत के ओड़िशा राज्य के पुरी, खोर्धा और गंजम ज़िलों में स्थित एक अर्ध-खारे जल की झील है। इसमें कई धाराओं से जल आता है और पूर्व में बंगाल की खाड़ी में बहता है। इसका क्षेत्रफल 1,100 वर्ग किमी से अधिक है और यह भारत की सबसे बड़ी तटीय झील और विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्धखारी अनूपझील है। इसे दया नदी और भार्गवी नदी से जल प्राप्त होता है| यहां पर चिलिका झील 70 किलोमीटर लम्बी तथा 30 किलोमीटर चौड़ी है। यह समुद्र का ही एक भाग है जो महानदी द्वारा लायी गई मिट्टी के जमा हो जाने से समुद्र से अलग होकर एक छीछली झील के रूप में हो गया है। चिल्का झील का इतिहास बहुत प्राचीन है। भूवैज्ञानिक साक्ष्य इंगित करता है कि चिल्का झील अत्यंतनूतन युग (18 लाख साल से पूर्व 10,000 साल तक) के बाद के चरणों के दौरान बंगाल की खाड़ी का हिस्सा था। चिल्का झील के ठीक उत्तर में खुर्दा जिले के गोलाबाई सासन गांव (20°1′7″N 85°32′54″E) में खुदाई भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा आयोजित की गई। गोलाबाई गांव तीन चरणों में चिल्का क्षेत्र संस्कृति के एक दृश्य का सबूत प्रदान करता है: नवपाषाण युग (नियोलिथिक) (c. 1600 ईसा पूर्व), ताम्रपाषाण युग (c. 1400 ईसा पूर्व से c. 900 ईसा पूर्व) और लौह युग (c. 900 ईसा पूर्व से c. 800 ईसा पूर्व।

उड़ीसा में जाट गोत्रों पर आधारित स्थान

उड़ीसा के अनेक ग्रामों/स्थानों/नदियों/पर्वतों आदि के नाम जाटों में प्रचलित गोत्रों से मिलते हैं। उड़ीसा में वर्तमान में जाटों का आवास नहीं है। केवल नाम में समानता को कोई प्रमाण नहीं माना जा सकता परंतु उड़ीसा के इस भू-भाग में नामों और जाट गोत्रों में इतनी अधिक समानता कुछ संकेत अवश्य देती है। स्थान और जाट गोत्र में सही-सही संबंध जानने के लिए गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। उड़ीसा के जिन जिलों में जाट गोत्रों पर आधारित स्थान हैं उनमें मुख्य हैं: खुर्दा, गंजम, पुरी, कटक , नयागढ़, बालासौर, भद्रक, जाजपुर, जगतसिंहपुर, गजपति, मयूरभंज, केन्द्रापड़ा आदि। ये जिले अधिकांश समुद्रतट से लगे हुये हैं। ये स्थान प्राचीन काल में अन्य देशों के साथ व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्र रहे हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि जाटों ने समुद्र के रास्ते अथवा प्रचीन मगध राज्य से प्रवेश कर इन जिलों को आबाद किया। इसीलिये राजा खारवेल को समुद्र के अधिपति (Sea-Lord) के रूप में संबोधित किया है। यहाँ उल्लेखित अधिकांश जाट गोत्र पाकिस्तान, उत्तर-पश्चिम राजस्थान और मध्य प्रदेश के मालवा भू-भागों में मिलते हैं। उड़ीसा के अनेक स्थानों के नाम पश्चिमी उत्तर प्रदेश अथवा हरयाणा के जाट बाहुल्य स्थानों से भी समानता रखते हैं। संभवत: जाटों के कारण ही महाराजा हर्षवर्धन उड़ीसा के इन भूभागों तक पहुँचे थे। मथुरा के जाटों ने ही इस भू-भाग में श्रीकृष्ण पूजा को विस्तारित किया। भारत के इतिहास की मुख्य-धारा में इस तरह का कोई वर्णन नहीं मिलता है। इन तथ्यों को इतिहासकार काल्पनिक भी मान सकते हैं परंतु ये इतिहास की गुम कड़ियों को जोड़ने में सहायक हो सकते हैं।

यह सूची यहाँ दी गई है - उड़ीसा में जाट गोत्रों पर आधारित स्थानों की सूची

राऊरकेला - सिंहभूम - सारंडा वन - किरीबुरू भ्रमण

Location of Singhbhum

17.1.1981: Puri to Rourkela by Utkal Express at 20.00 Hrs. Distance 678 km.

18.1.1981: Journey, arrival at Rourkela at 17 Hrs, Rourkela to Tholkabad by bus, arrival at Tholkabad.

19.1.1981: Study of working plan of Saranda Forest Division, Visit to swamp Ligirda, Visit to different PB areas, Visit to Kiriburu Iron Ore Project.

20.1.1981: More study of working plan, Visit to Toybo fall.

21.1.1981: Tholkabad to Rourkela by bus, arrival at Rourkela, Visit to Hindustan Steel Plant, Stay at Hindustan Steel Plant guest house.

22.1.1981: Departure from Rourkela at 12.15 Hrs by Utkal Express

23.1.1981: Arrival at Hazrat Nizamudeen Delhi Station at 18.30

24.1.1981: Arrival at Dehradun by Mussoorie Express at 16.30

राऊरकेला - सिंहभूम - सारंडा वन - किरीबुरू भ्रमण (17-22.1.1981)

पिछले भाग में ईस्ट इण्डिया टूर (भाग दो) (6.1.1981-24.1.1981) के अंतर्गत उड़ीसा के पुरी-भुबनेश्वर-कोणार्क आदि स्थानों का भ्रमण कराया था जो पर्यटन मानचित्र पर बहुत प्रसिद्ध स्थान हैं। इस भाग में आपको उड़ीसा और झारखंड के उस सुदूर और दुर्गम भू-भाग में ले चलते हैं जहाँ सिंहभूम क्रेटान (महाद्वीप) जैसा विश्व का सबसे प्राचीनतम (320 करोड़ वर्ष पुराना) भूभाग है और सारंडा वन जैसा एशिया का सबसे घना साल-वन है जहाँ दिन में आसमान दिखाई नहीं देता। यहाँ किरीबुरु ऐसा स्वर्ग जैसा सुंदर हिलस्टेशन है जिसके बारे में बाहरी दुनिया को बहुत कम जानकारी है। यह क्षेत्र छोटा नागपुर पठार का हिस्सा है, जो गंगा के मैदानी भाग के दक्षिण में है। यहाँ लौह अयस्क के अथाह भंडार हैं जो विश्व-विकास को गति प्रदान करते हैं।

17.1.1981: पुरी (उड़ीसा) (20.00) से रात्री में राऊरकेला (उड़ीसा) के लिए उत्कल एक्स्प्रेस (Utkal Express) ट्रेन से रवाना हुये (दूरी लगभग 678 किमी.) यात्रा अधिकांश उड़ीसा प्रदेश से होकर है। बीच में रेल झारखंड प्रदेश के पूर्वी सिंहभूम और पश्चिम सिंहभूम जिलों से होकर गुजरती है। रास्ते में पड़ने वाले स्टेशन इस प्रकार हैं (स्टेशनों के साथ ब्रेकेट में वर्तमान समय अंकित किया गया है):

Puri (Orissa) (20.45) → Khurda Road (21.25) → Bhubaneswar (21.55) → Cuttack (22.30) → Jajpur Keonjhar Road (23.24) → Bhadrakh (00.39) → Balasore (01.25) → Hijli (Kharagpur) (03.05) → Chakulia (Jharkhand) (04.10) → Ghatsila (04.35) → Tatanagar (05.45) → Sini (06.21) → Rajkharsawan (06.39) → Chakradharpur (07.00) → Manoharpur (07.58) (Jharkhand) → Rourkela (08.58) (Orissa)


सिंहभूम

18.1.1981: उत्कल एक्स्प्रेस ट्रेन से यात्रा जारी रही। राऊरकेला शाम 5 बजे पहुंचे। राऊरकेला से झारखंड प्रदेश के पश्चिम सिंहभूम जिले में स्थित ग्राम थोलकाबाद (Tholkabad) के लिए बस से यात्रा की। रात्री में थोल्काबाद पहुँच कर वन विश्राम गृह में रुके। थोल्काबाद का वन विश्राम गृह बहुत सुंदर बना है। इसका निर्माण ब्रिटिश काल वर्ष 1905 में हुआ था। उस समय यह सिंहभूम जिले का भाग था। सिंहभूम विश्व का सबसे प्राचीनतम भू-भाग है जिसका इतिहास जानना बड़ा रोचक होगा। वर्तमान में ब्रिटिश-कालीन सिंहभूम जिले को तीन जिलों में विभक्त कर दिया है - 1. पूर्वी सिंहभूम, 2. पश्चिमी सिंहभूम और 3. सराइकेला खरसावाँसिंहभूम का इतिहास आगे दिया गया है।

सिंहभूम (AS, p.963): यह जिला छोटा नागपुर के अंतर्गत स्थित है। मयूरभंज के निकट बागनमती में रोम सम्राट कांस्टेंटाइन के स्वर्ण के सिक्के मिले थे जिससे यह सूचित होता है कि प्राचीन काल में ताम्रलिप्ति (वर्तमान पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले में स्थित तामलुक) के बंदरगाह से एक व्यापारिक मार्ग यहां होकर उत्तर की ओर जाता था। बेनीसागर नामक स्थान पर 9-10वीं सदी के मंदिरों के अवशेष हैं। सिंहभूम जिले में तांबे के सिक्के बनाने के कारखाने थे।

छोटा नागपुर (AS, p.349)- इस प्रदेश का नाम, किवदंती के अनुसार, छोटानाग नामक नागवंशी राजकुमार-सेनापति के नाम पर पड़ा है. छोटानाग ने, जो तत्कालीन नागराजा का छोटा भाई था, मुगलों की सेना को हराकर अपने राज्य की रक्षा की थी. सरहूल की लोककथा छोटानाग से संबंधित है. इस नाम की आदिवासी लड़की ने अपने प्राण देकर छोटानाग की जान बचाई थी. सर जॉन फाउल्टन का मत है कि छोटा या छुटिया रांची के निकट एक गांव का नाम है जहां आज भी नागवंशी सरदारों के दुर्ग के खंडहर हैं. इनके इलाके का नाम नागपुर था और छुटिया या छोटा इसका मुख्य स्थान था. इसीलिए इस क्षेत्र को छोटा नागपुर कहा जाने लगा. (देखें: सर जॉन फाउल्टन - बिहार दि हार्ट ऑफ इंडिया, पृ. 127) छोटा नागपुर के पठार में हजारीबाग, रांची, पालामऊ, मानभूम और सिंहभूम के जिले सम्मिलित हैं.

छोटा नागपुर पठार: छोटा नागपुर भारत में स्थित एक पठार है जिसका ज़्यादातर हिस्सा झारखंड और कुछ हिस्से उड़ीसा, बिहार और छत्तीसगढ़ में फैले हुये हैं। यह पठार पूर्व कैंब्रियन युगीन (5,4000,000, वर्ष से भी अधिक पुरानी) चट्टानों से बना है। रांची, हज़ारीबाग़ और कोडरमा के पठारों का संयुक्त नाम ही छोटा नागपुर है। इसकी मुख्य विशेषताओं में से एक 'पाट भूमि' है। इसे 'भारत का रूर' भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ संसाधनों की प्रचुरता है। छोटा नागपुर का क्षेत्रफल 65,509 वर्ग किमी है। इसका बड़ा हिस्सा रांची का पठार है, जिसकी औसत ऊंचाई 700 मीटर है। छोटा नागपुर का समूचा पठार उत्तर में गंगा और सोन के बेसिन और दक्षिण में महानदी के बेसिन के बीच स्थित है; इसके मध्य भाग में पश्चिम से पूर्व दिशा में कोयला क्षेत्र वाली दामोदर घाटी गुजरती है। भारत में खनिज संसाधनों का सबसे महत्त्वपूर्ण संकेंद्रण छोटा नागपुर में है। दामोदर घाटी में कोयले के विशाल भंडार हैं और हज़ारीबाग़ ज़िला विश्व में अभ्रक के प्रमुख स्त्रोतों में से एक है। अन्य खनिज हैं-तांबा, चूना-पत्थर, बॉक्साईट, लौह अयस्क, एस्बेस्टॉस और ऐपाटाइट (फ़ॉस्फ़ेट उर्वरक के उत्पादन में उपयोगी) बोकारो में एक विशाल तापविधुत संयंत्र और इस्पात कारख़ाना है। इस पठार से गुजरने वाले रेलमार्ग इसे दक्षिण-पूर्व में कोलकाता (भूरपूर्व कलकत्ता) और उत्तर में पटना से जोड़ते हैं और दक्षिण तथा पश्चिम के अन्य नगरों से भी संपर्क उपलब्ध कराते है।

बेनीसागर (AS, p.643), सिंहभूम, झारखंड में स्थित है। 9वीं व 10वीं शतियों के प्राचीन हिंदू मंदिरों के अवशेषों के लिए यह स्थान उल्लेखनीय है। उत्तर गुप्तकालीन मूर्तियां भी यहां से प्राप्त हुई हैं जो पटना के संग्रहालय में संगृहीत हैं। ये मूर्तियां भारी भरकम सी हैं और कला की दृष्टि से नालंदा की कलाकृतियों से हीनतर हैं।

झारखंड के सिंहभूम में समुद्र से पहली बार बाहर निकली थी धरती: दुनिया में सबसे पहले समुद्र से बाहर कौन सा द्वीप बाहर आया? अब तक हम सब यही मानते रहे कि सबसे पहले अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया समुद्र से बाहर आए, लेकिन अब नई रिसर्च में सामने आया है कि झारखंड में सिंहभूम जिला समुद्र से बाहर आने वाला दुनिया का पहला जमीनी हिस्सा है। 3 देशों के 8 रिसर्चर्स 7 साल की रिसर्च के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं। यह क्षेत्र उत्तर में जमशेदपुर से लेकर दक्षिण में महागिरी तक, पूर्व में ओडिशा के सिमलीपाल से पश्चिम में वीर टोला तक फैला हुआ है। इस क्षेत्र को हम सिंहभूम क्रेटान (महाद्वीप) कहते हैं। (bhaskar.com, 13.12.2021)

अमेरिका के विज्ञान के चर्चित जर्नल 'प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी आफ साईंस (पीएनएएस)' में पिछले सप्ताह प्रकाशित एक शोध के मुताबिक़, आज से 320 करोड़ साल पहले सिंहभूम क्रेटोन (महाद्वीप) का जन्म हुआ, यानी यह क्षेत्र पहली बार पानी से बाहर आया। उस समय ज़मीन का अस्तित्व समुद्र के अंदर हुआ करता था। लेकिन, धरती के 50 किलोमीटर भीतर हुए एक बड़े ज्वालामुखी विस्फोट के कारण पृथ्वी का यह हिस्सा (सिंहभूम क्रेटोन) समुद्र से बाहर आ गया। इस शोध में भारतीय मूल के चार शोधकर्ता डॉ. प्रियदर्शी चौधुरी, सूर्यजेंदु भट्टाचार्यी, शुभोजीत राय और शुभम मुखर्जी शामिल हैं। (https://www.bbc.com/hindi/india-59325568)

थोल्काबाद झारखंड प्रदेश के पश्चिम सिंहभूम जिले में मनोहरपुर तहसील में स्थित एक छोटा सा गांव है। स्थानीय लोग इसे थोकाबाद या थैकोबाद भी बोलते हैं। यह सारंडा साल फॉरेस्ट रेंज में स्थित है। थोल्काबाद का वन विश्राम गृह बहुत सुंदर बना है। इसका निर्माण वर्ष 1905 में हुआ था। यहाँ से रात को चाँदनी रात में निहारना बड़ा मनमोहक होता है। वर्तमान में यह क्षेत्र नक्सली गतिविधियां से प्रभावित है। यह झारखंड की राजधानी रांची से 127 किलोमीटर दूर स्थित है। जिला मुख्यालय चाईबासा से 76 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है।

19.1.1981: थोल्काबाद में सारंडा वन मंडल की कार्य आयोजना का अध्ययन किया। लिगिरदा दलदली क्षेत्र (Ligirda Swamp) का निरीक्षण किया। वन मंडल में विभिन्न पिरियोडिक ब्लॉक के क्षेत्रों का निरीक्षण किया। किरीबुरू आयरन ओर प्रोजेक्ट का निरीक्षण किया। किरीबुरू भारत के झारखंड राज्य के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक शहर है। मेघाहातुबुरु आयरन ओर प्रोजेक्ट उस समय प्रारम्भिक अवस्था में थी। इन स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

सारंडा वन
सारंडा के घने साल वन

सारंडा वन: सारंडा वन एशिया का सबसे घना साल वन और विराट जंगल माना जाता है। सारंडा का वन इतना घना है कि दिन में आसमान दिखाई नहीं देता और कहीं-कहीं गाड़ी की बत्ती जलाकर यात्रा करनी पड़ती है।

सारंडा वन भारत के झारखण्ड राज्य के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले की पहाड़ियों पर फैला हुआ एक घना साल वन है। सारंडा वन झारखंड और उड़ीसा के सीमा पर स्थित है और दोनों ही प्रदेशों में इसका विस्तार है। यह कभी सराइकेला के राजपरिवार का निजी शिकार-क्षेत्र हुआ करता था। सारंडा वन मंडल में 856.54 वर्ग किमी (आरक्षित 816.64+ संरक्षित 39.90) पर विस्तारित वन है। घने वन के बीचों-बीच लगभग 550 मीटर ऊँचाई पर बसा थोलकाबाद नामक ग्राम है, जो चक्रधरपुर से 89 किमी और जमशेदपुर से 160 किमी दूर स्थित है। सारंडा वन में किरीबुरु और मेघाहातुबुरु, आयरन अयस्क की अधिकता होने के कारण, बहुत महत्वपूर्ण शहर हैं जिनका विकास स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) द्वारा किया गया है।

सारंडा वन मंडल में देश के सबसे अच्छी गुणवत्ता के साल-वन हैं। स्थानीय भाषा 'हो' में इसको 700 पर्वतों की भूमि कहा जाता है। इसे काले पैंथर की भूमि भी कहते हैं। स्थानीय 'हो' भाषा में 'सारंडा' का अर्थ है हाथी- जिससे इस नाम की उत्पत्ति हुई है क्योंकि यहाँ के घने वनों में हाथी बहुतायत से पाए जाते हैं। यह सिंहभूम क्षेत्र में पड़ती है जो खनिजों के लिए विख्यात है। यह एक कंपैक्ट वन मंडल है और इसमें अभी भी पहाड़ वनों से ढके हुए हैं। यहां पर मुख्य रूप से दो नदियों (कारो नदी और कोयना नदी) के ड्रेनेज सिस्टम हैं जिनको एक वाटरशेड अलग करता है जो बनगांव से उत्तर में थोलकाबाद तक, पश्चिम में त्रिंगपोसी तक और दक्षिण पश्चिम में नवागांव तक फैला है। इस क्षेत्र में पाए जाने वाले मुख्य खनिजों में हैं आयरन और मैंगनीज जिनका विदोहन पिछले 15 वर्ष से किया जा रहा है। साल वनों का पुनर्उत्पादन यहां बहुत अच्छा है। वार्षिक वर्षा लगभग 1600-2500 मिली मीटर होती है। नवंबर से फरवरी तक यहां सर्दी का मौसम रहता है। तापमान 11 डिग्री से 40 डिग्री के बीच रहता है।

यहाँ पाये जाने वाले वन्य-प्राणियों में मुख्य हैं: जंगली हाथी, सांभर, चीतल, जंगली भालू, बाइसन, जंगली बिल्ली, साँप करैत, कोबरा, अजगर, शेर और तेंदुआ आदि। संकटापन्न प्रजाति उड़न गिरगिट (flying lizard) का आवास है। किरीबुरु हाथियों के जंगल के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के हाथी विश्व प्रसिद्ध हैं।

वृक्ष प्रजातियों में यहाँ मुख्य साल है और साथ में आम, जामुन, कटहल, अमरूद, महुआ, कुसुम, तिलाई, गूलर आदि। इन वनों में अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटीयाँ मिलती हैं। कारो नदी और कोयना नदी यहाँ की प्रमुख नदियाँ हैं। यहाँ विविधता-पूर्ण फ्लोरा-फौना मिलता है। लोहा खनिज की बहुलता के कारण मिट्टी यहाँ की लाल रंग की होती है।

आयरन ओर प्रोजेक्ट ने इस क्षेत्र के प्रदूषण को बढ़ाया है और फ्लोरा-फोना को भी नुकसान किया है। मलेरिया का फैलाव यहां बहुत तेजी से होता है।

Forest Types:

1. Northern Dry Mixed Deciduous Forest (5B/C2)

2. Dry Peninsular Sal Forest (5B/C1c): Main species - Anogeissus latifolia, Boswelia serrata (धावड़ा), Gardenea sp., Eulaliopsis binata etc.

3. Moist Peninsular Sal Forest (3C/C2E)

4. Northern Tropical Wet Evergreen Forest (1B) or Semi-Evergreen (2B)

Common species are Litsea litida, Shorea robusta, Michelia champaka
सारंडा वनों की चित्र गैलरी
किरीबुरू आयरन अयस्क प्रोजेक्ट
आयरन अयस्क का उत्खनन

किरीबुरू भारत के झारखंड राज्य के पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में स्थित एक हिल-स्टेशन है। परंतु किरीबुरू की पहाड़ियाँ उड़ीसा प्रदेश के केओंझर जिले में पड़ती हैं। किरीबुरू के सनराइज और सनसेट पॉइंट प्रसिद्ध हैं। यहाँ छोटे झरने तथा पहाड़ियों का मनोरम दृश्य पर्यटकों के लिए काफी आकर्षण का केंद्र है। किरीबुरु और मेघाहातुबुरु दोनों जुड़वाँ शहर हैं। किरीबुरु को ऐसा स्वर्ग मानते हैं जिसके बारे में बाहरी दुनिया को बहुत कम जानकारी है। इसको केंवझर (उड़ीसा) जिले की चेरापूंजी भी बोलते हैं। 'किरु' का अर्थ होता है 'हाथी' और 'बुरु' का अर्थ होता है 'पहाड़'। हाथियों की बहुलता के कारण ही इसका नाम किरीबुरू पड़ा है। मेघाहातुबुरु का अर्थ है 'बादलों वाले पहाड़' क्योंकि अधिकांश समय यहाँ बादल छाए रहते हैं। इस स्थान को झारखंड का चेरापूंजी भी कहा जाता है। यहां पर आयरन अयस्क की अधिकता होने के कारण इन दोनों को 'आयरन हिल' भी बोलते हैं। इनका विकास स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (SAIL) द्वारा किया गया है।

लिगिरदा दलदली क्षेत्र (Ligirda Swamp)

लिगिरदा दलदली क्षेत्र (Ligirda Swamp) - लिगिरदा दलदली क्षेत्र झारखंड प्रदेश के पश्चिम सिंहभूम जिले में थोलकाबाद से 4 किमी दूर स्थित है। सारंडा जंगल के बीच में थलकोबाद से करीब 4 किलो मीटर की दूरी पर गुंडीजोरा ग्राम (Gundijora) के नजदीक लिगिरदा नामक पहाड़ी स्थित है। घने जंगल के बीच स्थित लिगिरदा एक छोटा स्थान है जहां से पानी का रिसाव और बहाव होता है| बूंद-बूंद घड़ा भरता है यह लिगिरदा के उद्गम स्थल से प्रमाणित होती है। इसी पानी से बहता है लिगिरदा नाला जिसका पानी थाल्कोबाद गांव के लोगों के लिए जीवनदाता है। पानी की समस्या से ग्रसित थाल्कोबाद के लोग इसी पानी से धान और सब्जी की खेती करते हैं। इस नाले में साल भर पानी रहता है। लिगिरदा के पास ही दलदल क्षेत्र है जो दर्शकों के लिए एक आकर्षण का केंद्र है। अपने नाम के अनुरूप यह दलदल 12 महीने यथावत बना रहता है।

20.1.1981: सारंडा वन मंडल की कार्य आयोजना का अध्ययन किया। टॉयबो जल-प्रपात (Toybo Fall) का निरीक्षण किया।

टॉयबो जल-प्रपात (Toybo Fall)

टॉयबो जल-प्रपात (Toybo Fall): झारखंड प्रदेश के पश्चिम सिंहभूम जिले में चक्रधरपुर तहसील में थोल्काबाद से 20 किमी दूर स्थित है। यहाँ 100 फीट की ऊँचाई से पानी गिरता है तथा इसकी घाटी में जंगली हाथी क्रीडा करते हैं। टॉयबो झरना एशिया प्रसिद्ध सारंडा जंगल के सघनतम इलाके टॉयबो में टॉयबो झरना है। पश्चिम सिंहभूम में मनोहरपुर के पास कारो नदी और कोयल नदी का संगम है। इससे नीचे थोल्काबाद से 20 किमी दूरी पर 100 फीट की ऊँचाई से टॉयबो झरना गिरता है।

आदिवासी भाषा में 'टोय' मतलब 'कटा हुआ' और 'बो' का मतलब 'सिर' होता है। टॉयबो यानि कटा हुआ सिर। यह थोलकोबाद से 20 किमी की दूरी पर अवस्थित है। झरने के जमे हुए पानी में काफी मछलियां हैं। पर एक मान्यता के तहत लोग यहां मछलियां नहीं पकड़ते हैं। किंवदन्ती है कि काफी पहले यहां एक पिता-पुत्र मछलियां पकड़ने गए। पिता मछली के लिए पानी में उतरा। पर वह डूब गया और कुछ देर में सिर्फ उसका कटा हुआ सिर ही बाहर निकला। बाकी शरीर बाहर नहीं आया। यह खबर आसपास में जंगल की आग की तरह फैल गई। और भय कहें या मान्यता उसके बाद से यहां कोई मछली पकड़ने नहीं आता है। और उसी कटे हुए सिर के चलते ही इसका नामकरण टॉयबो झरना हो गया। हालांकि जंगल के आकार के छोटे होने का असर झरना में भी देखा जा सकता है। पहले झरने के चट्टानों से होकर कई जगहों से पानी गिरता था। पर अब सिर्फ एक या दो जगहों से पानी गिर रहा है। पर्यावरण विभाग को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है। वरना दशकों बाद यहाँ सिर्फ चट्टान और पत्थर ही शेष रह जाएंगे।

झारखण्ड का इतिहास एवं परिचय

झारखण्ड (AS, 378) का उल्लेख मध्ययुगीन साहित्य में मिलता है-- 'मेवार, ढुंडार, मारवाड़ और बुंदेलखंड झारखंड बांधौ घनी चाकरी इलाज की; --शिवराजभूषण 111. यह नाम अब भी प्रचलित है. संभवत: घने जंगलों का इलाका होने से यह झारखंड (झाड़=वृक्ष+खंड=प्रदेश) कहलाता है.

झारखण्ड भारत का एक प्रमुख राज्य है। झारखण्ड राज्य में बहुत बड़ी संख्या में घने वन और झाड़-झंकार जैसी अधिकांश वनस्पतियाँ पाई जाती हैं, यही कारण है कि राज्य का नाम झारखण्ड पड़ा है। यह राज्य छोटा नागपुर पठार पर बसा हुआ है, जो गंगा के मैदानी भाग के दक्षिण में है। 'झारखण्ड' का शाब्दिक अर्थ है- "वन का क्षेत्र"। माना जाता है कि झारखण्ड शब्द का प्रयोग लगभग चार सौ वर्ष पहले सोलहवीं शताब्दी में हुआ। अपने बृहत और मूल अर्थ में 'झारखण्ड' पुराने बिहार के ज़्यादातर दक्षिणी हिस्से और छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के कुछ आदिवासी ज़िले शामिल हैं। झारखण्ड में भारत की लगभग नब्बे प्रतिशत अनुसूचित जनजाति का निवास स्थल है। संपूर्ण भारत में वनों के अनुपात में यह प्रदेश एक अग्रणी राज्य माना जाता है तथा वन्यजीवों के संरक्षण के लिये मशहूर है।

15 नंवबर, 2000 को भारत संघ के 28वें राज्य के रूप में झारखण्ड राज्य का निर्माण हुआ। झारखण्ड आदिवासियों की गृहभूमि है। एक प्राचीन कथा से ज्ञात होता कि उड़ीसा के राजा जयसिंह देव ने तेरहवीं शताब्दी में खुद को झारखण्ड का शासक घोषित कर अपना शासन लागू कर दिया था। झारखण्ड में मुख्य रूप से छोटा नागपुर पठार और संथाल परगना के वन क्षेत्र शामिल हैं। यहाँ की अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक परंपराएं हैं।

प्राचीन इतिहास: झारखंड के कुछ स्थानों में जीवाश्म के कुछ अंश उन कलाकृतियों की ओर इशारा करते हैं जिससे यह पता चलता है कि छोटानागपुर क्षेत्र में होमो इरेकटस से होमो सिपियंस जाति में बदलाव को दर्शाता है। यहाँ पत्थर और अन्य उपकरण, सभ्यताओं के प्रारंभिक वर्षों से 3000 से अधिक वर्ष पहले के हैं। 6 या 7 वीं शताब्दी ई.पू. के -- महाकाव्य महाभारत युग के कीकट प्रदेश का उल्लेख ऋग्वेद में है जो पारसनाथ की पहाड़ियों में गिरिडीह जिले में, झारखंड में है।

यहाँ का समृद्ध, सभ्य अस्तित्व, मानव समाज और उनके सांस्कृतिक तरीके, गुफाओं में जीवित रहने के तरीके, स्मारक, चट्टानी कला में आश्रयों (पेट्रोग्राफ) के रहस्य जानना तो अभी तक शेष है। झारखंड के कुछ भागों में गुफा चित्र, 'पत्थर की कला' और 'शैलवर्णना' और भूवैज्ञानिक समय बीतने का भी संकेत है। प्राचीन सभ्यता में हड़प्पा की मौजूदगी का भी प्रमाण है। झारखंड के कई जिलों में इस तरह के साईट और अवशेष हैं।

वानस्पतिकी एवं जैविकी

झारखंड वानस्पतिक एवं जैविक विविधताओं का भंडार कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रदेश के अभयारण्य एवं वनस्पति उद्यान इसकी बानगी सही मायनों में पेश करते हैं। बेतला राष्ट्रीय अभयारण्य (पलामू), जो डाल्टेनगंज से 25 किमी की दूरी पर स्थित है, लगभग 250 वर्ग किमी में फैला हुआ है। विविध वन्य जीव यथा बाघ, हाथी, भैंसे सांभर, सैकड़ों तरह के जंगली सूअर एवं 20 फुट लंबा अजगर चित्तीदार हिरणों के झुंड, चीतल एवं अन्य स्तनधारी प्राणी इस पार्क की शोभा बढ़ाते हैं। इस पार्क को 1974 में प्रोजेक्ट टाइगर के तहत सुरक्षित क्षेत्र घोषित कर दिया गया था।

झारखंड के लोग

झारखंड क्षेत्र विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों का संगम क्षेत्र कहा जा सकता है। द्रविड़, आर्य, एवं आस्ट्रो-एशियाई तत्वों के सम्मिश्रण का इससे अच्छा कोई क्षेत्र भारत में शायद ही हो। हिंदी, नागपुरी, खोरठा, कुरमाली यहाँ की प्रमुख भाषायें हैं। झारखंड में बसने वाले स्थानीय हिन्द-आर्य भाषाएँ बोलने वाले लोगों को सादान कहा जाता है। इसके अलावा यहां कुड़ुख, संथाली, मुंडारी, हो बोली जाती है।

सादान: झारखंड में बसने वाले स्थानीय जन जो हिन्द-आर्य भाषाएँ बोलते हैं उन लोगों को सादान कहा जाता है। सादानो की मूल भाषा नागपुरी, खोरठा, कुरमाली है। सदानो में अहीर, बिंझिया, भोगता, चेरो, चिक बड़ाइक, घासीं, झोरा, केवट, कुम्हार, लोहरा, रौतिया और तेली आदि जातियां शामिल हैं।झुमइर सदानो का लोक नृत्य है। अखरा गाँव का मैदान है जहाँ लोग नृत्य करते हैं। करम , जितिया सदानो के महत्वपूर्ण त्योहार हैं। अन्य मुख्य पर्ब टुसू, सहरई और फगुआ आदि है।

जनजातियाँ: पौराणिक असुर और संथाल, बंजारा, बिहोर, चेरो, गोंड, हो, खोंड, लोहरा, करमाली, माई पहरिया, मुंडा, उरांव आदि बत्तीस से अधिक आदिवासी समूहों (राज्य की कुल आबादी का 28 %), इस क्षेत्र की संस्कृति पर अपनी छाप छोड़ गए हैं |

संथाल: झारखण्ड की आदिवासी आबादी में संथाल वर्चस्व रखते हैं | उनकी अद्वितीय विरासत की परंपरा और आश्चर्यजनक परिष्कृत जीवन शैली है और सबसे याद करने वाला उनके लोक संगीत, गीत और नृत्य हैं | संथाली भाषा व्यापक रूप से है, दान करने की संरचना प्रचुर मात्रा में है | उनकी स्वयं की मान्यता प्राप्त लिपि 'ओल चिकी' है, जो अतुलनीय है और शायद किसी अन्य आदिवासी समुदाय द्वारा कहीं भी नहीं है | संथाल के सांस्कृतिक शोध दैनिक कार्य में परिलक्षित होते है -- जैसे डिजाइन, निर्माण, रंग संयोजन, और अपने घर की सफाई व्यवस्था में है|दीवारों पर आरेखण, चित्र और अपने आंगन की स्वच्छता कई आधुनिक शहरी घर के लिए शर्म की बात होगी | संथाल के सहज परिष्कार भी स्पष्ट रूप से उनके परिवार के पैटर्न -- पितृसत्तात्मक, पति पत्नी के साथ मजबूत संबंधों को दर्शाता है| विवाह अनुष्ठानों में पूरा समुदाय आनन्द के साथ भाग लेते हैं | लड़का और लड़की का जन्म आनंद का अवसर हैं | संथाल मृत्यु के शोक अन्त्येष्टि संस्कार को अति गंभीरता से मनाया जाता है | धार्मिक विश्वासों और अभ्यास को हिंदू और ईसाई धर्मों से लेकर माना जाता है। संथालों का अपनी मूल धर्म सारना है, इनमें प्रमुख देवता हैं- 'सिञ बोंगा' (सिञ चाँदो), 'माराङ बुरु' और 'जाहेर आयो' हैं । पूजा अनुष्ठान में बलिदानों का इस्तेमाल किया जाता है | सरकार और उद्योग के कई महत्वपूर्ण पदों पर आज संथाल लोगों का कब्जा है।

असुर (आदिवासी): सबसे प्राचीन जनजातीय समुदायों में से एक है, ये अपने सदियों पुरानी " लोहे के प्रगालन " कौशल के लिए जाने जाते हैं| पुरुष और महिलाएं साथ मिलकर काम करते है, साथ मिलकर खाते हैं, एक साथ वंश की देखभाल करते हैं और रोटी कमाने के लिए संघर्ष करते हैं और अपने परिवार के साथ रहते है | श्रम का विभाजन अद्वितीय है सामाजिक, आर्थिक एकता भी है | तथाकथित आधुनिक समाज को इन लोगों से बहुत कुछ सीखना चाहिए |

बंजारा: यह एक और समूह है जिनकी संख्या तेजी से घट रही है | उनके गाँव पहाड़ियों और जंगलों के निकट स्थित है |वे कुशल बुनकर हैं और मैट, टोकरियाँ, ट्रे आदि जंगल के जंगली घास से बनते है | वे बच्चे के जन्म पर गांवों के आसपास प्रार्थना गाने के लिए भी जाते है| ये झारखंड में सबसे 'छोटी' आदिवासी आबादी है |

महली: बंसफोर महली टोकरी बनाने के विशेषज्ञ हैं, पतर महली टोकरी बनाने के उद्योग से जुड़े हैं और सुलुन्खी महली श्रम की खेती पर जीवित है, तांती महली पारंपरिक 'पालकी' के पदाधिकारी हैं और मुंडा महली किसान है | आमतौर पर महली वंश, जनजाति और कबीले के साथ उत्कृष्ट संबंध बनाए रखते हैं |

बिरहोर: यह एक खानाबदोश जनजाति है जो उनके फायटोप्लेकटन क्षमताओं के लिए जाने जाते है |ये उच्च पहाड़ी चोटियों या जंगलों के बाहरी इलाके में वास करते हैं |जो अस्थायी झोपडियों में समूहों में वास करते हैं और लच्छीवाला परिवार के जीवन का आनंद ले रहे हैं जगही बिरहोर के नाम से जाना जाता है और कलाइयों समूहों को ऊथेइअन बिरहोर कहा जाता है |

चिक बड़ाइक: चिक बड़ाइक सादान जाती है। यह स्पिनर और बुनकरों के समुदाय के रूप में, गांवों में अन्य जातियों और जनजातियों के साथ रहते हैं | इनकी मुख्य भाषा नागपुरी भाषा है।

बिरजिया बैगास: ये छोटी अनुसूचित जनजातियाँ अभी भी वन संसाधनों पर निर्भर है। ये गहरे जंगल और दुर्गम कृषि क्षेत्रों में रहते हैं। हाल के दिनों में उन्होंने खेती को त्याग दिया है। बिगास की खोज 1867 में 'जंगली' के रूप में और दूरदराज के दुर्गम पहाड़ियों के वन क्षेत्रों में रहने वाले के रूप में हुई थी।

झारखंड में स्थानों का नामकरण: झारखंड के अनेक ग्रामों/स्थानों/नदियों/पर्वतों आदि के नामों की जाटों में प्रचलित गोत्रों से अश्चर्यजनक समानता मिलती है। यह एक अनुसंधान का विषय है। यह भी उल्लेखनीय है कि झारखंड में वर्तमान में जाटों का आवास नहीं है। केवल नाम में समानता को कोई प्रमाण नहीं माना जा सकता परंतु झारखंड के इस भू-भाग में नामों और जाट गोत्रों में इतनी अधिक समानता कुछ संकेत अवश्य देती है। समानता का कारण संभवत: यह हो सकता है कि झारखंड वस्तुत: प्राचीन नागवंशी शासकों द्वारा शासित छोटा नागपुर प्रदेश का भाग है। किवदंती के अनुसार, छोटानाग नामक नागवंशी राजा के नाम पर छोटा नागपुर नाम पड़ा है। प्राचीन जनजातियों को समय-समय पर वैदिक संस्कृति में लाने के प्रयासों (आर्यकरण) के समय काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट जाति में समाहित हो गए थे।


राउरकेला इस्पात कारखाना

21.1.1981: थोल्काबाद से बस द्वारा रवाना होकर राउरकेला पहुँचे। राउरकेला में राउरकेला स्टील प्लांट (Rourkela Steel Plant) का निरीक्षण किया। राउरकेला स्टील प्लांट के अतिथि गृह में रात्री विश्राम किया।

राउरकेला इस्पात कारखाना

राउरकेला इस्पात कारखाना: राउरकेला इस्पात कारखाना द्वितीय पंचवर्षीय योजना में जर्मनी की सहायता से 1959 में बनाया गया था। उड़ीसा में स्थित राउरकेला स्टील प्लांट जर्मनी की सहायता से पब्लिक सेक्टर में प्रारंभ किया गया भारत का पहला इंटीग्रेटेड स्टील प्लांट है। इसका संचालन स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा किया जाता है। राउरकेला इस्पात कारखाना (आरएसपी) भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का पहला एकीकृत इस्पात कारखाना है। 10 लाख टन स्थापित क्षमता का यह कारखाना जर्मनी के सहयोग से स्थापित किया गया। बाद में इसकी क्षमता बढ़ाकर 19 लाख टन कर दी गई। 1990 के वर्षों में कारखाने का आधुनिकीकरण किया गया और आधुनिक सुविधाओं के साथ इसमें अनेक नई यूनिटें जोड़ी गईं। अधिकतर पुरानी यूनिटों का भी नवीकरण किया गया जिससे कारखाने के उत्पादों की क्वालिटी में सुधार, उत्पादन लागत में कमी तथा पर्यावरण प्रदूषण रहित बनाने में मदद मिली है। आरएसपी भारत में इस्पात निर्माण के लिए एलडी टेक्नोलॉजी का प्रयोग करने वाला पहला कारखाना था। यह सेल का ऐसा पहला और एकमात्र इस्पात कारखाना है जहां शत-प्रतिशत स्लैब अधिक गुणवत्ता और कम लागत वाले कंटीनुअस कास्टिंग मार्ग से तैयार किए जाते हैं।

आरएसपी में इस समय 20 लाख टन तप्त धातु, 19 लाख टन कच्चा इस्पात और 16 लाख 70 हजार टन विक्रेय इस्पात तैयार करने की क्षमता है। यह बिजली क्षेत्र के लिए सिलिकन इस्पात, तेल और गैस क्षेत्र के लिए उच्च क्वालिटी के पाइप तथा पैकेजिंग उद्योग के लिए टीन की प्लेटें तैयार करने वाला सेल का एकमात्र इस्पात कारखाना है। इसके उत्पादों में आधुनिक सपाट, गोलाकार तथा कोटेड उत्पाद शामिल है।

राउरकेला इस्पात कारखाना उड़ीसा के उत्तर-पश्चिम छोर पर समृद्ध खनिज क्षेत्र में स्थित है। हावड़ा-मुम्बई रेल मुख्य लाइन पर स्थित राउरकेला देश के अन्य महत्वपूर्ण नगरों से भली-भांति जुड़ा हुआ है। इसके पास के हवाई अड्डे रांची (173 किमी.), भुवनेश्वर (378 किमी.) और कोलकाता (413 किमी.) में हैं। राउरकेला की अपनी एक हवाई पट्टी भी है जिसका रखरखाव आरएसपी के पास है। (See https://sail.co.in/hi/plants/about-rourkela-steel-plant)

उड़ीसा में उड़ीसा फॉरेस्ट कॉरपोरेशन वर्ष 1962-63 से कार्यरत है। प्रारंभ में 1965-66 से लकड़ी का दोहन किया जाता था परंतु बाद में सालबीज, हर्रा और तेंदू-पत्ता का व्यापार, कोयला निर्माण, फर्नीचर निर्माण, अरामशीनों का रखरखाव, काजू प्लांटेशन आदि कार्य भी हाथ में ले लिये गये। तेंदू को उडिया में केंदू बोलते हैं।

22.1.1981: राउरकेला से 12.15 बजे उत्कल एक्स्प्रेस (Utkal Express) से दिल्ली के लिए रवाना

23.1.1981: हजरत निजामुदीन पहुँचे 18.30 बजे

24.1.1981: मसूरी एक्स्प्रेस से देहारादून पहुँचे 16.30 बजे

राउरकेला से हजरत निजामुदीन के बीच पड़ने वाले स्टेशन निम्न हैं (स्टेशनों के साथ ब्रेकेट में वर्तमान समय अंकित किया गया है) राउरकेला से हजरत निजामुदीन की कुल दूरी 1438 किमी.

Rourkela (08.48) (Orissa) → Rajgangpur (09.24) → Jharsuguda (10.35) → Raigarh (Chhattisgarh) (11.48) → Kharsia (12.21) → Sakti (12.36) → Baradwar (12.50) → Champa (13.07) → Janjgir Naila (13.21) → Akaltara (13.35) → Bilaspur (14.25) → Pendra Road (Chhattisgarh) (16.23) → Anuppur (17.10) (Madhya Pradesh) → Amlai (17.26) → Burhar (17.37) → Shahdol (18.15) → Birsinghpur (18.52) → Umaria (19.25) → Katni Murwara (22.05) → Damoh (23.43) → Saugor (00.52) → Khurai (01.33) → Bina Malkhedi (02.08) → Lalitpur ([[Uttar Pradesh]) (03.37) → Jhansi (05.45) → Datia (06.17) → Dabra (06.42) → Gwalior (07.24) → Morena (07.55) → Dhaulpur (08.43) → Agra Cantt (09.25) → Raja Ki Mandi (09.40) → Mathura (10.20) → Kosi Kalan AGRA (10.58) → Faridabad (Haryana) (12.26) → Hazrat Nizamuddin (Delhi) (13.03)

पुरी से दिल्ली तक की उत्कल एक्स्प्रेस से यात्रा की कुल दूरी 2116 किमी होती है। इसमें उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरयाणा और दिल्ली पड़ते हैं।

पुरी से दिल्ली तक ट्रेन की यात्रा काफी रोमांचक होती है। उत्तर से दक्षिण तक के सभी तरह के लोग ट्रेन में देखने को मिलते हैं जिससे भारत की विविधता झलकती है। इस दौरान रेल के बाहर हमें उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के सुदूर घने हरे-भरे जंगल देखने को मिलते हैं। इन वनों में निवास करने वाले नंगे शरीर केवल लंगोटी पहने आदिवासी समुदायों के स्त्री-पुरुष भी देखने को मिलते हैं जिनको देखकर मन व्यथित होता है कि हम विकसित देश होने के कितने ही गुणगान करें, हमारे सबसे गरीब, ग्रामीण-आदिवासी समुदाय तक विकास की दौड़ अभी पहुँची नहीं है। गंदे तालाबों और खनिज उद्योगों से प्रदूषित नदियों से लोगों को पानी के लिए संघर्ष करते हुये देख सकते हैं। बोर-वेल से निकल रहे चूना-युक्त या लौहा-खनिज युक्त गंदा पानी पीते हुये और बीमार होते लोगों को भी देख सकते हैं। विकास के लिए जरूरी खनिजों के अंधाधुंध दौहन और पर्यावरण को हो रहे नुकसान को भी देख सकते हैं। इन परिस्थितियों से पैदा हो रहे और पनप रहे नक्सलवाद के दर्शन भी यहां होते हैं। इस यात्रा में अलग-अलग प्रांत के लोगों के रहन-सहन और जनजीवन को समझने का अच्छा अवसर मिलता है।

दिल्ली से देहारादून के रास्ते में मसूरी एक्स्प्रेस के बीच पड़ने वाले स्टेशन निम्न हैं (स्टेशनों के साथ ब्रेकेट में वर्तमान समय अंकित किया गया है) दूरी 339 किमी

Delhi (S Rohilla) (21:30) → Delhi (21:50) → Delhi (Shahdara) (22:31) → Ghaziabad (23:02) → Pilkhua (23:28) → Hapur (23:44) → Gajraula (00:30) → Mandi Dhanaura(01:22) → Chand Siau (01:51) → Haldaur (02:18) → Bijnor (02:44) → Muzzampur (03:21) → Najibabad (03:40) → Laksar (04:52) → Haridwar (05:45) → Raiwala (06:43) → DoiwalaDehradun (08:10)


Source: Facebook Post of Laxman Burdak, 07.01.2022

झारखंड में जाट गोत्रों पर आधारित स्थान

झारखंड के अनेक ग्रामों/स्थानों/नदियों/पर्वतों आदि के नाम जाटों में प्रचलित गोत्रों से मिलते हैं। यह एक अनुसंधान का विषय है। यह भी उल्लेखनीय है कि झारखंड में वर्तमान में जाटों का आवास नहीं है। केवल नाम में समानता को कोई प्रमाण नहीं माना जा सकता परंतु झारखंड के इस भू-भाग में नामों और जाट गोत्रों में इतनी अधिक समानता कुछ संकेत अवश्य देती है। समानता का कारण संभवत: यह हो सकता है कि झारखंड वस्तुत: प्राचीन नागवंशी शासकों द्वारा शासित छोटा नागपुर प्रदेश का भाग है। छोटानाग नामक नागवंशी राजा के नाम पर छोटा नागपुर नाम पड़ा है। बेनीवाल नागवंशी जाटों द्वारा स्थापित बेनीसागर इसका प्रमाण माना जा सकता है जिसके ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हुये हैं। बेनीसागर नाम का गाँव झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की मझगांव विकास-खंड में है। प्राचीन जनजातियों को समय-समय पर वैदिक संस्कृति में लाने के प्रयासों (आर्यकरण) के समय काफी संख्या में नागवंशी लोग जाट जाति में समाहित हो गए थे। स्थान और जाट गोत्र में सही-सही संबंध जानने के लिए गहन अनुसंधान की आवश्यकता है। नीचे समानता रखने वाले ऐसे स्थानों की संभावित सूची दी गई है। स्थान विशेष से समानता रखने वाले जाट गोत्र का नाम ब्रेकेट में दिया है। जाट गोत्र के संबंध में विस्तृत जानकारी के लिए ब्रेकेट में दिये गोत्र के नाम पर क्लिक करें। स्थान विशेष की जानकारी तहसील के नाम पर क्लिक करके की जा सकती है।

झारखंड के स्थानों का जाट गोत्रों से समानता का आधार

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...छोटा नागपुर (AS, p.349)- इस प्रदेश का नाम, किवदंती के अनुसार, छोटानाग नामक नागवंशी राजकुमार-सेनापति के नाम पर पड़ा है. छोटानाग ने, जो तत्कालीन नागराजा का छोटा भाई था, मुगलों की सेना को हराकर अपने राज्य की रक्षा की थी. सरहूल की लोककथा छोटानाग से संबंधित है. इस नाम की आदिवासी लड़की ने अपने प्राण देकर छोटानाग की जान बचाई थी. सर जॉन फाउल्टन का मत है कि छोटा या छुटिया रांची के निकट एक गांव का नाम है जहां आज भी नागवंशी सरदारों के दुर्ग के खंडहर हैं. इनके इलाके का नाम नागपुर था और छुटिया या छोटा इसका मुख्य स्थान था. इसीलिए इस क्षेत्र को छोटा नागपुर कहा जाने लगा. (देखें: सर जॉन फाउल्टन - बिहार दि हार्ट ऑफ इंडिया, पृ. 127) छोटा नागपुर के पठार में हजारीबाग, रांची, पालामऊ, मानभूम और सिंहभूम के जिले सम्मिलित हैं.


नागवंश: दलीप सिंह अहलावत[2] लिखते हैं कि नागवंश एक सुप्रसिद्ध वंश है जो सूर्यवंश एवं चन्द्रवंश की तरह ही अनेक क्षत्रिय आर्यों के वंशों का समूह है। ऐतिहासिकों का मत है कि ये क्षत्रिय अपनी ‘नाग’ चिन्हित ध्वजा के कारण ही नाग नाम से प्रसिद्ध हुए। यह यक्ष, गंधर्व और देवताओं की कोटि का सुसंस्कृत वंश था।

नागवंशी जाटों के राज्य: दलीप सिंह अहलावत[3] लिखते हैं कि नागवंशी जाटों का राज्य कान्तिपुर, मथुरा, पद्मावती, कौशाम्बी, अहिक्षतपुर, नागपुर, चम्पावती (भागलपुर), बुन्देलखण्ड तथा मध्यप्रान्त पश्चिमी मालवा, नागौर (जोधपुर) पर रहा। इनके अतिरिक्त शेरगढ़ कोटा राज्य की प्राचीन भूमि पर, झारखंड में चुटिया नागपुर (छोटा नागपुर); मध्यप्रदेश/छत्तीसगढ़ में खैरागढ़, चक्रकोटय एवं कवर्धा में भी इस वंश का राज्य था। महाविद्वान् महाराजा भोज परमार (जाट) की माता शशिप्रभा नागवंश की कन्या थी। राजस्थानी महासन्त वीरवर तेजा जी (धौल्या गोत्री जाट) का अपनी बहादुर पत्नी बोदल समेत एक बालू नामक नागवंशी वीर से युद्ध करते हुए ही प्राणान्त हुआ था। वहीं पर वीर तेजा जी की समाधि बनी हुई है। आज भी राजस्थान में इस वंश के जाटों की संख्या अधिक है। उत्तरप्रदेश जि० बदायूं में रम्पुरिया, खुदागंज, धर्मपुर, जि० बुलन्दशहर के अहार गांव में नागवंशी जाट हैं। यह ‘अहार’ वही प्राचीन गांव है जहां कि दुर्योधन द्वारा विष खिलाकर अचेत भीमसेन को गंगा में फेंक दिया गया था, जिसे नागवंशियों ने बचा लिया था।

बेनीसागर (AS, p.643), जिला सिंहभूम, झारखंड में स्थित है। 9वीं व 10वीं शतियों के प्राचीन हिंदू मंदिरों के अवशेषों के लिए यह स्थान उल्लेखनीय है। उत्तर गुप्तकालीन मूर्तियां भी यहां से प्राप्त हुई हैं जो पटना के संग्रहालय में संगृहीत हैं। ये मूर्तियां भारी भरकम सी हैं और कला की दृष्टि से नालंदा की कलाकृतियों से हीनतर हैं. [4] बेनीसागर नाम का गाँव झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले की मझगांव विकास-खंड में है।

Why Tak Jats moved to Eastern Coast ?

Puri Kushan (पुरी कुषाण), properly called Imitation Kushan, are copper coins discovered in the littoral districts of Ganjam, Puri, Cuttack, Bhadrakand Balasore as well as hill districts in of Mayurbhanj and Keonjhar in Orissa; Ranchi and Singhbhum in Bihar and a few in Andhra Pradesh and West Bengal.[5]

B S Dahiya[6] writes: Tanks or Taks are mentioned by Col. Tod as one of the Thirty –six royal houses of Indian Kshatriyas, but he said about them that they have disappeared from history owing to their conversion to Islam in the Thirteenth Century. But this is not true because they have not disappeared completely as yet; it is true a large number of Tanks are now followers of Islam but there still exist many Tanks among the Hindu Jats also. [7]

A Tak kingdom is mentioned by Hiuen-Tsang (631-643 A.D.). It is mentioned by him as situated towards east of Gandhara. Hiuen-Tasng gives its name as Tekka, and the History of Sindh, Chach-Nama, mentions it as Tak. Its capital was Shekilo (Sakala, modern Sialkot) and formerly King Mihiragula was ruling from this place. In seventh century A.D. its people were not preeminently Buddhists, but worshiped the sun, too. Abhidhana Chintamani says that Takka is the name of Vahika country (Punjab). For what follows, we are indebted to Chandrashekhar Gupta for his article on Indian coins. [8] The Tanks must have come to India, Prior to fourth century A.D. i.e. with the Kushana. And with the Kushanas, they must have spread up to Bengal and Orissa, like the Manns and Kangs who spread into southern Maharashtra and the Deccan. In Orissa, the Tanks, had their rule in Orissa proper, Mayurbhanj, Singbhoom, Ganjam, and Balasore Districts. They are called by historians as “ Puri Kushans” or Kushanas of Puri (Orissa). Their coins have been found at Bhanjakia and Balasore (Chhota Nagpur) and these coins have the legend Tanka written in Brahmi script of the fourth century A.D. Allan suggested the reading Tanka as the name of a tribe “ [9] and others generally accepted the reading Tanka as correct. [10] Allan placed them in the third or early fourth century A.D., while V.A. Smith placed them in the fourth or fifth century A.D. ; R.D. Bannerji called them “ Puri Kushanas[11]


Dr Naval Viyogi [12] tells that it is not improper to assume that probably these people migrated from the North-West Region of India to the Eastern Coastal area for some unknown reasons. Probably this was due to some political pressure or economic causes. In the vast region comprising - Orissa, Mayurbhanj, Singhbhumi, Ganjam and Balasore districts, they established their colonies. This is supported by the findings of the so called 'Puri Kushan' copper coins from this area.

Dr Naval Viyogi [13] writes that it seems from the evidence of Puri Kushan coins that some branch Tanka of Taka royal family owing to attack of Kushanas up to Magadha, reached Mayurbhanj, Singhbhumi, Ganjam and Balasore and established colonies there, where remains of their offshoot, the royal family of Dhavaldev is still existing at Dalbhumigarh near Kharagpur.


As for the proof that they were Jats, we invite attention to the fact that they still exist as such. Their association with the Kushanas (Kasvan Jats) further supports it. Their central Asian origin is proved by the fact that Niya Khrosthi documents from Central Asia refer to coin denomination as Tangumule. [14] Here the word Tanga is the same as Tanka, and Muli meant “Price” in Central Asia. [15]

See List of Places in Jharkhand Based on Jat Gotras

संदर्भ