Rajasthan men Jat Janpad
Author of this article is Laxman Burdak लक्ष्मण बुरड़क |
राजस्थान : एक परिचय
राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपादलक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेश में सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांश भाग मालवादेश के अधीन था। [1] हर्ष शिलालेख से यह भी ज्ञात होता है कि तंत्रपाल नामक प्रतिहारों का दूत जब चौहान नरेश वाक्पति से मिलने आया तो वह अनंतगोचर आया। इतिहासकार अनंतगोचर को हर्ष के आस-पास का क्षेत्र मानते हैं। (रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.37 -38) वर्त्तमान शेखावाटी के क्षेत्र को अनंतगोचर कह सकते हैं।
इतिहासकार रतन लाल मिश्र मानते हैं कि राजस्थान में राजपूतकुलों के शासन के पूर्व इस क्षेत्र में जाट जाति उपस्थित थी जिसका शासन गणराज्य की पंचायत पद्धति पर चलता था। [2] ठाकुर देशराज ने जाट इतिहास में अनेक जाट गणराज्यों का वर्णन किया है। [3] डॉ पेमा राम ने 'राजस्थान के जाटों का इतिहास' पुस्तक में राजस्थान के जाटों के गणराज्य एवं उनका पतन तथा जाट जनपदों की प्रशासनिक व्यवस्था पर विस्तार से प्रकाश डाला है। [4]
बाद में जब राजपूतों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपुर, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, करौली और झालावाड़ थे। भरतपुर एवं धोलपुर में जाटों का राज्य रहा तथा टोंक में मुस्लिम राज्य था।[5] [6]
इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को "छप्पन" नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। [7] [8]
राजस्थान को आजादी से पहले राजपूताना नाम से पुकारा जाता था जो यह भ्रम उत्पन्न करता था कि यह राजपूत बहुल प्रदेश है। हकीकत में ऐसा नहीं है। राजपूताना नाम की बुनियाद अकबर के समय में उनके अच्छे संबंद होने के कारण पड़ी परन्तु प्रचार नहीं हुआ। राजपूताना नाम का प्रचार कर्नल टाड की 'राजस्थान' के लिखे जाने के पश्चात अंग्रेज सरकार के काल में हुआ। [9] अंग्रेजों के शासनकाल में राजस्थान के विभिन्न इकाइयों का एकीकरण कर इसका राजपूताना नाम दिया गया, कारण कि उपर्युक्त वर्णित अधिकांश राज्यों में राजपूतों का शासन था। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले राजपूताना नाम का प्रयोग जार्ज टामस ने किया। राजपूताना के बाद इस राज्य को राजस्थान नाम दिया गया। प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड ने इस राज्य का नाम "रायस्थान" रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायस्थान कहते थे। इसी का संस्कृत रुप राजस्थान बना। हर्ष कालीन प्रान्तपति, जो इस भाग की इकाई का शासन करते थे, राजस्थानीय कहलाते थे। सातवीं शताब्दी से जब इस प्रान्त के भाग राजपूत नरेशों के आधीन होते गये तो उन्होंने पूर्व प्रचलित अधिकारियों के पद के अनुरुप इस भाग को राजस्थान की संज्ञा दी जिसे स्थानीय साहित्य में रायस्थान कहते थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तथा कई राज्यों के नाम पुन: परिनिष्ठित किये गये तो इस राज्य का भी चिर प्रतिष्ठित नाम राजस्थान स्वीकार कर लिया गया। [10]
राजस्थान में जाटों की संख्या प्रायः सभी जातियों से अधिक है, जो कि कुल आबादी का 9.28 % है। सन् 1931 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार 1042152 जनसंख्या जाटों की थी। किसी-किसी रियासत में उनकी आबादी कुल आबादी का 23 प्रतिशत तक थी। राजपूतों की आबादी उस समय राजस्थान में केवल 633830 थी। जो कुल आबादी का 5.65 % थी। राजस्थान में जाट राजपूतों की दुगुनी संख्या में थे और उनसे पहले से वहां बसे हुए थे।[11]
प्राचीन राजस्थान में जाट जनपद
जाटों का निवास स्थान: डॉ पेमाराम[12] के अनुसार जाट मुख्यतः सिन्धु नदी तथा उसकी सहायक पांच नदियां - सतलज, व्यास, रावी, चिनाब व झेलम नदियों के किनारे यानि सिन्ध और पंजाब में निवास करते थे। वैदिक काल में जाटों का आदि देश अनितया नदी से लेकर सिन्धु तक था। उनकी आवास भूमि की सीमायें उत्तर में ईक्ष्वाकू और सेहून नदियां, दक्षिण में सिन्धु नदी, पश्चिम में अनितया नदी और पूर्व में स्वाति नदी तक थी। इसतखरी ने सिन्ध से मुल्तान तक पूरे क्षेत्र को जाटों का क्षेत्र लिखा है और इसमें इनकी आबादी बताई है।(अलमसालिक वल मुमालिक, पॄ.56)
रूसी विद्वान कुटयोत्सेव ने जाटों का आरम्भिक अधिवास भारत के सिन्ध प्रान्त में स्वीकार किया है। उनके मतानुसार कुछ लेखकों का कहना है कि भारत पर सिथियनों के आक्रमण से काफ़ी पहले जाट लोग सिन्ध प्रान्त में आबाद थे और उनका सम्बन्ध महाभारत के योद्धाओं से था।
जाटों का सिंध से राजस्थान आगमन:
डॉ पेमाराम[13]लिखते हैं कि 326 ई.पूर्व में जिस समय भारत पर सिकन्दर का आक्रमण हुआ, उस समय पंजाब में बसे जाटों को सिकंदर के आक्रमण से जर्जरित तथा अपनी स्वतंत्रता को बनाये रखने के लिए राजस्थान की ओर आने को विवश होना पड़ा॥ यहाँ आकर वे अपनी सुविधा अनुसार बस गये। पानी के साधन हेतु बस्तियों के आस-पास तालाब, कुएं व बावड़ियां खोद ली। इन जातियों में शिवि, यौधेय, मालव, मद्र आदि प्रमुख थे। मरूभूमि में जो शिवि, रावी और व्यास नदियों से आये, उन्होंने सोजत, सिवाना, शेरगढ़, शिवगंज आदि नगर आबाद किये। यह इलाका सिंध देश से मिला हुआ था, जहाँ बहुतायत से जाट बसे हुए थे।
शिवियों के सेऊ , शिवरान, सिवराल, सिहोत, सींवर, छाबा आदि वंशज हैं।
मद्रों के मारवाड़ में वंशज जिंजा, बाना, थोरिया, लगमान, कमेडिया, मादल, देवसल्या, जुनावा, मदेरणा, जूदी, मद्रेवा, खोख और असिहाग हैं।
यौधेय भी राजस्थान के उत्तरी भाग में बस गये । जाटों में इस समय यौधेय के जो वंशज हैं वे कुलरिया, कुहाड़, महिला (महला), माहिल, खीचड़ आदि कहलाते हैं ।
मालव जाती से मल, मद्रा, मन्दल, माले, मलोई आदि नामों से जाट पुकारे जाते हैं ।
राड व कठ गोत्र के जाटों ने भी सिकन्दर के आक्रमण के बाद पंजाब को छोड़ कर मारवाड़ में आकर आबाद हुये। कठों के पूर्वज रावी नदी के किनारे से इधर आये थे।
मुण्ड लोग भी पंजाब से हटने के बाद भटियाना होते हुए नागौर तक आ गए थे और यहाँ बस गये।
बाबल गोत्र के जाट पटियाला से इधर आये थे।
राजस्थान में आने के बाद शिवि, मालव, यौधेय आदि जातियां जनपद के रूप में व्यवस्थित हो गये। शिवि जनपद के प्राचीन पुरावशेष राजस्थान के माध्यमिका अथवा वर्तमान मेवाड़ में मिले हैं । मालव जाती का केंद्र जयपुर के निकट नगर था। समयांतर में मालव अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र में फ़ैल गये और प्रथम शताब्दी के अंत तक गणतंत्रीय राज्य के रूप में बने रहे। राजस्थान के उत्तरी भाग में यौधेय भी एक बलशाली गणतंत्रीय कबीला था जिसमें कुमारस्वामी इनका बड़ा शक्तिशाली नेता हो चुका है। यौधेय सम्भवत: उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे। इस तरह दूसरी शताब्दी ई पूर्व से लेकर चौथी शताब्दी के प्रारंभ तक शिवि, मालव, यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में विद्यमान था। (डॉ पेमाराम, p.14)
महमूद गजनवी के आक्रमण के दौरान बडी संख्या में जाटों को मौत के घाट उतारा। इस दौरान अनेक जाटों ने भागकर अपने प्राण बचाये और वे सिन्ध व पंजाब को छोडकर राजस्थान में आये और सरस्वती के किनारे-किनारे आगे बढकर गंगानगर, बीकानेर और चूरु क्षेत्र में बस गये। (डॉ पेमाराम, p.17)
इसके बाद शाहबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने 1175 ई. से भारत पर अनेक आक्रमण किये और दिल्ली, कन्नौज, अजमेर आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया। 1192 में तराईन के द्वितीय युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय को पराजित कर जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने पंजाब पर अधिकार करने की कोशिश की तब कुतुबुद्दीन ऐबक के अत्याचारों से तंग आकर अधिकांश जाट पंजाब व हांसी से हिसार, राजगढ, रिणी, लूणकरणसर, सिद्धमुख, नोहर, सरदारशहर, डूंगरगढ आदि इलाकों में आकर आबाद हुये। (डॉ पेमाराम, p.17)
इस प्रकार 326 ई.पूर्व के सिकन्दर आक्रमण से लेकर अरबों व तुर्कों के आक्रमण के कारण जाटों की अश्रय-भूमि सिन्ध और पंजाब को छोडकर सुरक्षित स्थान के लिये राजस्थान की ओर आना पडा। सिंध प्रांत से जाट लोग सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन से लेकर सिकंदर या मुस्लिम आक्रमणों के समय राजस्थान के इस रेतीले भू-भाग में विस्थापित हुए और वे अपने साथ जल भंडारण हेतु कुंड, तालाब तथा कुएं आदि बनाने की तकनीक साथ में लाए.
वस्तुत: भारतीय इतिहास में वर्णित शक और विदेशी इतिहासकारों द्वारा वर्णित सीथियन लोग ही उत्तर-पश्चिम भारत के जाट लोग हैं. जल स्रोतों का नामकरण सीथियन भाषा में हुआ है जिसमें ‘कु’ का अर्थ ‘जल’ होता है. पाकिस्तान की अनेक नदियों के नाम ‘कु’ से शुरू होते हैं यथा कुनार, कुर्रम, कुमल, कुनिहार, कुभा, कुमु आदि. जल स्रोतों के नाम इसीलिए ‘कु’ से प्रारंभ होते हैं जैसे कुवा, कुंड, कुंडी, कुंभ आदि. (Alexander Cunningham: The Ancient Geography of India/Kabul,pp. 37) यह तथ्य यहाँ के जाटों में प्रचलित परंपराओं से भी प्रमाणित होता है. जाटों में बच्चा पैदा होते ही कुआं पूजन की परंपरा है जिसको ‘जलवा’ कहा जाता है. सीथियन भाषा में जलवा ही कुवा है. इसलिए कुवा की पूजा की जाती है. बच्चों की शादी के समय कुम्हार का चाक पूजने के पीछे भी यही धारणा है. यह इन लोगों के लिए पानी के महत्व को बताता है.
राजस्थान में जाटों ने तीन ओर से प्रवेश किया:-
- पहला, सिन्ध नदी से उमरकोट होते हुये बाढमेर, जालोर, सिरोही तक।
- दूसरा सतलज की ओर से बीकानेर (जांगलू) के रास्ते नागौर, बून्दी, कोटा आगे मालवा तक और
- तीसरा पंजाब में सिरसा, हिसार, हांसी होते हुये हनुमानगढ, सिद्धमुख, नोहर, राजगढ, तारानगर, सरदारशहर, लूणकरणसर व डूंगरगढ तक।
वहां से राजस्थान के अन्य भागों में फैले तथा अलवर, हिसार, भरतपुर, गंगा और यमुना के दोआब प्रदेश से चंबल के किनारे होते हुये ग्वालियर व गोहद तक बस गये। चूँकि जाट पानी के किनारे बसने के अभ्यस्त थे, परन्तु मारवाड और जांगल प्रदेश में बसने के कारण पानी की कमी की पूर्ति के लिए पानी के साधनों का विकास किया। मारवाड और जांगल प्रदेश में जितने कुएं, तालाब, बावडियां बनी हैं उनमें से अधिकांश जाट व्यक्तियों द्वारा बनाई गई और वे उन्हीं के नाम से जानी जाती हैं। (डॉ पेमाराम,p.18)
डॉ पेमाराम[14]लिखते हैं कि सिंध और पंजाब से समय-समय पर ज्यों-ज्यों जाट राजस्थान में आते गये, मरूस्थलीय प्रदेशों में बसने के साथ ही उन्होने प्रजातन्त्रीय तरीके से अपने छोटे-छोटे गणराज्य बना लिये थे जो अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करते थे तथा मिल-बैठकर अपने आपसी विवाद सुलझा लेते थे। ऐसे गणराज्य तीसरी सदी से लेकर सोलहवीं सदी तक चलते रहे। जैसे ईसा की तीसरी शताब्दी तक यौधेयों का जांगल प्रदेश पर अधिकार था। उसके बाद नागों ने उन्हें हरा कर जांगल प्रदेश (वर्तमान बिकानेर एवं नागौर जिला) पर अधिकार कर लिया। यौधेयों को हराने वाले पद्मावती के भारशिव नाग थे, जिन्होने चौथी शताब्दी से लेकर छठी शताब्दी तक बिकानेर, नागौर, जोधपुर तथा जालोर के जसवन्तपुरा तक शासन किया। जांगल प्रदेश में नागों के अधीन जो क्षेत्र था, उसकी राजधानी अहिच्छत्रपुर (नागौर) थी । यही वजह है कि नागौर के आस-पास चारों ओर अनेक नागवंशी मिसलों के नाम पर अनेक गांव बसे हुये हैं जैसे काला मिसल के नाम पर काल्यास, फ़िरड़ोदा का फिड़ोद, इनाणियां का इनाणा, भाकल का भाखरोद, बानों का भदाणा, भरणा का भरणगांव/भरनांवा/भरनाई, गोरा का डेह तथा धोला का खड़नाल आदि।
छठी शताब्दी बाद नागौर पर दौसौ साल तक गूजरों ने राज किया परन्तु आठवीं शताब्दी बाद पुनः काला नागों ने गूजरों को हराकर अपना आधिपत्य कायम किया।
दसवीं सदी के अन्त में प्रतिहारों ने नागों से नागौर छीन लिया। इस समय प्रतिहारों ने काला नागों का पूर्णतया सफ़ाया कर दिया । थोड़े से नाग बचे वे बलाया गांव में बसे और फिर वहां से अन्यत्र गये। (डॉ पेमाराम, p.19)
मारवाड़ में नागवंशीय जाटों के निम्न गोत्र हैं:
- श्वेत नागों से धोल्या,
- असित नागों से काला गोत्र - जो अधिकतर परबतसर परगने में आबाद हुये।
- दधिमुख नागों से दहिया,
- सेवृध नागों से सेवदा,
- कर्कोटक नागों से खोखर,
- माण्डव्य नागों से मूंदवाडिया,
- लोहित नागों से लामरोर,
- नील नागों से नील,
- पिंगल नागों से गोरा,
- पांडुल, तक्षक नागों से टोकस, तक्षक व ताखर,
- तितर नागों से तेतरवाल,
- मंडलीक नागों से मंडेल या मुंडेल,
- रज्जु नागों से रोज,
- काला नागों से कल्या और कलवारिया.
इसी तरह मातवे, आबूदा, देवत्र्य, धनकड, ऐल, बरिक, सिहोल, धेत्रवाल, बेणीवाल, बासठ, लेगा, भाखर, भींचर और लोचक आदि जाट गोत्र भी नागवंशी गोत्रों के वंशज हैं। (डॉ पेमाराम, p.20)
जाटों द्वारा स्थापित प्राचीन गणराज्य
राजस्थान में जहाँ-जहाँ जाटों ने अपने गणराज्य स्थापित कर अपनी स्वयं की व्यवस्था कायम की, उसका संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है -
- गोरा (491 ई.): आरंभ में ये लोग अजमेर - मेरवाड़े और मेवाड़ तथा बून्दी- सिराही के प्रदेश पर फैले हुए थे। अब तो किसी-न-किसी संख्या में सारे उत्तर भारत में पाये जाते हैं। गौर लोगों का 491 ई. एक शिलालेख उदयपुर राज्य के गांव छोटी सादड़ी से दो मील के फासले पर, पहाड़ में भमर-माता के मन्दिर में है। रणथम्भोर पर पहले चौहानों का अधिकार था। किन्तु उससे लगभग दो सदी पहले जाटों का अधिकार था। रणथम्भोर में चौहान आठवीं सदी से पीछे पहुंचे थे। किन्तु उस समय भी जाटों का जोर कम नहीं हुआ था। भाटों के काव्यों पर यदि हम विश्वास करें तो कहा जाता है कि गौर और नागिल जाटों ने उस स्थान पर बीसियों पीढ़ी राज्य किया था। रणमल नामक एक जाट सरदार ने जिस स्थान पर रणखम्भ गाड़ा था तो आस-पास के राजाओं ने लड़ने की चुनौती दी थी, उसी स्थान पर आज रणस्तंभपुर या रणथम्भोर है। भाग भट्ट चौहान की भी, आस-पास के जाट सरदारों ने मुसलमानों के विरुद्ध सहायता की थी।(जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.591-593)
- नागिल (880-935 ई.): इनकी राजधानी रणथम्भोर । थी ये अपना निकास पंजाब से बतलाते हैं। उनके नौ राजाओं ने राजस्थान पर राज किया था। इस समय इनका अस्तित्व जयपुर और यू.पी. के प्रान्तों में पाया जाता है। नवमी शताब्दी में मेदपाट की भूमि पर इनका नागावलोक नाम का एक राजा राज करता था । इनका वह राजा, अपना शासन, राज-सभा द्वारा करता था। राजधानी उसकी विजौलिया के आस-पास थी। वह राज पूर्ण उन्नति पर था। आजकल की सरकार की भांति इनकी राजसभा उपाधि वितरण करती थी। उन्होंने गूयक नाम के चौहान सरदार को ‘वीर’ की उपाधि दी थी। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.594)
- जाखड़ (985 ई.): जाखड़ एक प्रसिद्ध गोत्र है। इसक गोत्र के जाट पंजाब, राजस्थान ओर देहली प्रान्तों में पाये जाते हैं। मि. डब्लयू. क्रुक ने-‘उत्तर-पश्चिमी प्रान्त और अवध की जातियां’ नामक पुस्तक में लिखा है कि “द्वारिका के राजा के पास एक बड़ा भारी धनुष और बाण था। उसने प्रतिज्ञा की थी कि इसे कोई तोड़ देगा, उसका दर्जा राजा से ऊंचा कर दिया जाएगा। जाखर ने इस भारी कार्य की चेष्टा की और असफल रहा। इसी लाज के कारण उसने अपनी मातृ-भूमि को छोड़ दिया और बीकानेर में आ बसा।”। जाखड़ ने रिडी को अपनी राजधानी बनाया। भाट के ग्रन्थों में लिखा है कि द्वारिका के राजा के परम रूपवती लड़की थी। उसने प्रतिज्ञा की थी कि जो कोई मनुष्य धनुष को तोड़ देगा, उसी के साथ में लड़की की शादी कर दी जाएगी। साथ ही उसे राजाओं से बड़ा पद दिया जाएगा। जाखड़ सफल न हुआ। जाखड़ एक नरेश था। इस कहानी से यह मालूम होता है कि जाखड़ लोगों का इससे भी पहले अजमेर प्रान्त पर राज्य था, यह भी भाट के ग्रन्थों से पता चलता है। हमें उनके राज्य के होने का पता मढौली पर भी चलता है। मढौली जयपुर राज्य में सम्भवतया मारवाड़ की सीमा के आस-पास कहीं था। उस समय फतहपुर के आस-पास मुसलमान राज्य करते थे। इन मुसलमानों और जाखड़ों में मढौली के पास युद्ध हुआ था। जिला रोहतक में लडान नामक स्थान पर जाखड़ों के सरदार लाड़ासिंह का राज्य था। एक बार पठानों ने उनसे लडान छीन लिया। जाखड़ लोगों ने इसे अपना अपमान समझा और सम्मिलित शक्ति से उन्होंने लडान को फिर पठानों से ले लिया। इस तरह उनके कई सरदारों ने औरंगजेब के समय तक राजस्थान और पंजाब के अनेक स्थानों पर राज किया है। अन्तिम समय में उनके सरदारों के पास केवल चार-चार अथवा पांच-पांच गांव के राज्य रह गये थे। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.594-595)
- रिड़ी-बिग्गा के जाखड़ जाटों का ठिकाना बिग्गा तहसील डूंगरगढ़ में था. इनका गोत्र पड़िहार बतलाया गया है. कहते हैं कि कोलियोजी पड़िहार पहले पहल मंडोर से आकर ग्राम केऊ तहसील डूंगरगढ़़ में बसा था. इसका बेटा जक्खा हुआ जिसने अपने नाम पर जाखासर बसाया. कहते हैं उसने अपने परिवार के रिश्ते वहां बसे जाटों में करने आरंभ कर दिए थे तथा 'नए जाट गोत्र' जाखड़ का जनक कहलाया. उसकी एक लड़की का नाम रिड़ी था, जिसके नाम पर रिड़ी गाँव बसाया. जक्खा का बेटा मैहन था, जिसका बेटा बिग्गा बड़ा शूरवीर हुआ. इसी के नाम पर बिग्गा गाँव बसा. कहते हैं कि बिग्गा ने गायों की रक्षा के लिए राठ मुसलमानों से युद्ध किया जिसमें गैरक्षार्थ वह संवत 1393 (1336) में काम आया. पाऊलेट ने बीकानेर गजेटियर में बिग्गा की म्रत्यु का समय 1315 दिया है. बिग्गाजी का जन्म विक्रम संवत 1358 (1301) में रिड़ी में हुआ रहा. बिग्गा और उसके आसपास के एरिया में बिग्गा गोरक्षक लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं.[15] गाँव बिग्गा व रिड़ी में जाखड़ जाटों का भोमिचारा था और लंबे समय तक जखड़ों का इन पर अधिकार बना रहा.[16]
- सांगवान (c.8-10 ई.): सांगू के नाम पर उसके साथी सांगवान कहलाये। ये कश्यप गोत्री जाट हैं। आरम्भ में इनका राज्य मारवाड़ के अन्तर्गत सारसू- जांगल प्रदेश पर था। इनके पुरखा आदू अथवा आदि राजा से लेकर 13 पीढ़ी तक इनका राज्य सारसू जांगला पर रहा। जिन 13 सांगवान राजाओं ने मारवाड़ के सारसू जांगला प्रदेश पर राज्य किया, उनके नाम क्रमशः इस प्रकार हैं-(1) आदि राजा, (2) युगादि राजा, (3) ब्रह्मदत्त राजा, (4) अतरसोम राजा, (5) नन्द राजा, (6) महानन्द राजा, (7) अग्निकुंमार राजा, (8) मेर राजा, (9) मारीच राजा, (10) कश्यप राजा, (11) सूर्य राजा, (12) सूर्य राजा, (13) शालिवाहक राजा। इन तेरह जाट राजाओं ने सारसू जांगला में राज किया और राजा की पदवी से भूपित भी रहे।शालिवाहन के उत्तराधिकारी का नाम लैहर अथवा लहरी था। वह जांगला देश को छोड़कर अपने साथियों समेत अजमेर में आ गया। यहां उसकी पदवी राणा की हो गई। इस समेत नौ पीढ़ी तक सांगवान गोत के जाट नरेशों ने अजमेर की भूमि पर राज्य किया। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.595-596)
- सुहाग(c.?): इस वंश के लोग पहले मेवाड़ कोडखोखर नामक स्थान पर सरदारी करते थे। कुछ समय के पश्चात् मारवाड में पहुंचकर एक किला बनवाया उसका नाम अपने सरदार पहलू के नाम पर पहलूकोट (पल्लूकोट) रखा। पल्लूकोट और ददरेड़े के आस-पास कुल भूमि पर आधिपत्य जमा लिया। सरदार पहलू अथवा पल्लू राणा की उपाधि थी। उससे पहले इसी वंश के वीर राणा और धीर राणा ने मेदपाट की भूमि पर राज किया था। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.596-597)
- भादू (c.?): जांगल देश को भादरा, भादू लोगों ने बसाया था जो आरम्भ में भादरा कहलाता था। संमतराज नाम का राजा बड़ा दानी हुआ है। वह भादू लोगों का एक प्रसिद्ध राजा हुआ है। भागोरे नामक लोगों से उसका युद्ध हुआ था। उस युद्ध के पश्चात् इन लोगों का दल मारवाड़ की ओर चला गया। अजमेर-मेरवाड़े में भी कई गांवों पर इन्होंने अधिकार कर लिया, जो कि अकबर के समय में इसके साथ से निकल गए थे। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.596)
- भूखर (c. 9-16 ई.): आरम्भ में यह सांभर के निकट आबाद थे। इनके राज्य की शैली भोमिया चोर की थी, किन्तु आगे चलकर अन्य लोगों से यह जमीन का कर लेने लग गए। इससे इनका नाम भूमि-कर लेने से भूकर हुआ। चाहुमान के वंशजों का एक दल नवीं शताब्दी में जब सांभर की ओर आया तो इन्हें नये धर्म में दीक्षित चौहानों ने वहां से निकल जाने पर बाध्य कर दिया। कहा जाता है, भूकर और चौहान उस समय तक एक ही थे जब तक कि चौहान लोग आबू के यज्ञ में जाकर नवीन हिन्दू धर्म में दीक्षित न हुए थे। भाट लोगों के हस्त-लिखित ग्रन्थों में लिखा हुआ है कि खेमसिंह और सोमसिंह दो भाई थे। इन्ही की अध्यक्षता में भूकर लोगों ने सांभर प्रदेश को प्रस्थान कर दिया। हिरास नामक स्थान बसाकर खेमसिंह के साथी अपना प्रभाव बढ़ाने लगे। सोमसिंह ने जंगल देश में पहुंचकर भूकर नाम का नगर बसाया। कई पीढ़ियों के बाद इनमें से कुछ लोग पानीपत की ओर चले गए। जिस समय अजमेर और दिल्ली से चौहानों का राज नष्ट हो गया और देहली के तख्त पर बैठकर गुलाम बादशाह शासन करने लगे, उस समय भूकरों के एक लड़ाकू योद्धा उदयसिंह को बख्शी बनाया गया। उदयसिंह योद्धा होने के अलावा भूमि सम्बन्धी प्रबन्ध में बड़ा निपुण था। उदयसिंह का पुत्र कौलासिंह अजमेर का तहसीलदार बनाया गया। उन दिनों सीकर में प्रदेश पर कालू नाग राज करता था। उसकी राजधानी गोठरा में थी। कालू नाग ने प्रजा की भलाई के लिए एक बड़ा किन्तु कच्चा तालाब भी खुदवाया था। वह देहली के बादशाह की ओर से अपने प्रदेश का माना हुआ मालिक था। उसे अपने राज्य की आय पर बादशाह को खिराज देना पड़ता था। खिराज देने के लिए वह देहली जाया करता था। उसने कौलासिंह को देखा और अपनी लड़की की सगाई उसके साथ कर दी। चूंकि कालू निःसन्तान था, इसलिए गोठरा का प्रदेश उसके धेवते (दौहित्रा) कन्दरसिंह को जो कि कौलासिंह का पुत्र था, मिला। कन्दर के जो पुत्र हुआ उसका नाम डालूसिंह रखा। वह 25 गांवों का सरदार था। बेटे उसके 12 थे। गोठरा गांव में आज तक डालूसिंह की प्रस्तर मूर्ति मौजूद है। डालूसिंह के बेटे का नाम सायरसिंह था। उसके बड़े बेटे का नाम कौलासिंह द्वितीय रखा गया। उसके जो राजकुमार हुआ, उसका नाम नरवद रखा गया। आरम्भ में नरवद अपनी ननसाल रौरू चला गया था। अपने बाप की मृत्यु के पश्चात् इसने गोठरा की सरदारी संभाली। इस प्रदेश पर जब शेखावतों के आक्रमण हुए तो इनका भी छोटा-सा राज्य नष्ट कर दिया गया। किन्तु भविष्य में असन्तोष न बढ़े इसलिए शेखावतों ने ‘करग्राहक’ (तहसील करने वाला अर्थात् लगान लगाने वाला) इन्हीं को रखा। पीछे से इनका दर्जा केवल चौधरी का रह गया। चौधरी की हालत में भी पचोतरा नाम का हिस्सा इन्हें मिलता रहता था। चारागाह के लिए जमीन मुफ्त मिलती थी। जागा (भाट) लोगों के ग्रन्थ को देखने से पता चलता है कि नरवद अब से 11 पीढ़ी अर्थात् लगभग 300 वर्ष पहले पैदा हुए थे। चौधरी रामबक्स उसी के खानदान में से हैं जो कि नरवद से दसवीं पीढ़ी पर है। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.597-598)
- सरणाऊ के बुरडक (975 - 1258 ई.): इतिहासकार अनंतगोचार को हर्ष के आस-पास का क्षेत्र मानते हैं.(रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.37 -38). अनंतगोचार में जाटों के छोटे-छोटे कई गणराज्य थे. बुरडक जाटों का ठिकाना सरणाऊ तहसील दांतारामगढ जिला सीकर में था. बडवा (भाट) के अनुसार इनको चौहानों में से निकलना बतलाया गया है. दिल्ली पति महीपाल तंवर के अधीन सरनाउ को रावराजा बुरड़कों की राजधानी संवत 1032 (975 ई.) में बनाया. बुरड़कों की राजधानी सरनाऊ संवत 1032 से संवत 1315 (975 - 1258 ई.) तक रही. ददरेवा के राव बुरडकदेव (b. - d.1000 ई.) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध हिन्दुशाही राज्य के राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए. वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 ई.) को वे जुझार हुए. इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 ई.) में सती हुई. राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए. संवत 1067 (1010 ई.) में इनकी पत्नी पुन्याणी साम्भर में सती हुई. संवत 1315 (1258 ई.) में सरनाऊ दिल्ली के बादशाह शमसुद्दीन इलतुतमिश (1211–1236) के पुत्र नसिरुदीन महमूद (1246–1266) के अधीन हुई. बादशाह ने गानोड़ा गाँव के ढाका मोमराज को मनसबदार बनाया. उस समय सरनाऊ कोट राजधानी चौधरी कालूरामजी बुरडक के पुत्र पदमसिंहजी बुरडक तथा जगसिंहजी बुरडक के अधिकार में थी. इस जागीर में 84 गाँव थे. मोम राज ढाका ने संवत 1308 से 1315 के बीच 6 बार बुरड़कों पर हमला किया पर बुरड़क अविजित रहे. अंत में संवत 1315 (1258 ई.) की आसोज माह के अमावस को सभी बुरड़क जब निशस्त्र हालाणी बावडी पर श्राध के लिये एकत्रित हुये उस समय मोमराज ढाका ने 25000 की फ़ौज लेकर उनपर तोपों से हमला किया. सभी बुरड़क मारे गए और किला नष्ट कर दिया गया. सरनाउ-कोट के राजा 'पदम सिंह की खर्रा गोत्र की पत्नी, जिसका नाम रम्भा था, वह उस समय सरनाउ-कोट से बाहर अपने पीहर खर्रा का गोठडा गयी हुई थी. रम्भा बच गयी. वह उस समय तीन माह की गर्भवती थी. गोसाईंजी के आशीर्वाद से चैत सुदी नवमी संवत 1316 को रम्भा को 10 बजे खर्रा के गोठडा डूंगर की घाटी पर एक लड़का हुआ. उसका नाम नानक रखा. नानक के बड़े होने पर उसकी शादी कुशलजी तेतरवाल की बेटी मानकौरी से की. सभी बुरड़क नानकजी से फले-फूले हैं. (अधिक जानकारी के लिए देखें - बुरड़क गोत्र का इतिहास)
- विजयराणिया (1078-1515 ई.): विजयराणिया सिकन्दर महान् के समय के प्रतीत होते हैं। यूनानी लेखकों ने जो कि सिकन्दर के साथ भारत में आये थे, विजयराणिया लोगों का हाल लिखते समय उनके नाम का अर्थ लिख डाला। विजयराणिया यह इनका उपाधिवाची नाम है। रण-क्षेत्र में विजय पाने से इनके योद्धाओं को विजयराणिया की उपाधि मिली थी। जागा (भाट) लोगों ने इन्हें तोमर जाटों में से बताया है। हम उन्हें पांडुवंशी मानते हैं। कुछ लोगों का ऐसा मत है कि तोमर भी पांडुवंशी हैं। भाट लोगों ने इनके सम्बन्ध में लिख रखा है-‘‘सोमवंश, विश्वामित्र गोत्र, मारधुने की शाखा, 3 प्रवर’’। कहा जाता है संवत् 1135 विक्रमी (1078 ई.) में नल्ह के बेटे विजयसिंहराणिया ने बीजारणा खेड़ा बसाया। फिर संवत् 1235 में (1178 ई.) लढाना में गढ़ बनवाया। लढाने में गढ़ के तथा घोड़ों की घुड़साल के चिन्ह अब तक पाए जाते हैं। उस समय देहली में बादशाह अल्तमश (1211–1236 ई.) राज्य करता था। अन्य देशी रजवाड़ों की भांति विजयराणिया लोग भी विद्रोही हो गये। इस कारण अल्तमश को उनसे लड़ना पड़ा। इन्हीं लोगों में आगे जगसिंह नाम का योद्धा हुआ, उसने पलसाना पर अधिकार कर लिया और कच्ची गढ़ी बनाकर आस-पास के गांवों पर प्रभुत्व कायम कर लिया। यह घटना संवत् 1312 (1255 ई.) विक्रमी की है। संवत् 1572 (1515 ई.) में इस वंश में देवराज नाम का सरदार हुआ। इस समय शेखावतों और कछवाहों के राज्य का विस्तार हो रहा था। जयपुर राज्य के कई स्थानों में ये लोग पाये जाते हैं। इस वंश के लोग बहादुर होते हैं, साथ ही जाति-भक्त भी। यद्यपि इस समय उनके पास राज्य नहीं है, फिर भी वंश गौरव अब तक उनके हृदय में है। उसके उदाहरण मा. भजनलाल अजमेर और चौ. लादूराम गोवर्धनपुरा के हृदयों मे टटोले जा सकते हैं।
- गढ़वाल (c.13 ई.): गढ़मुक्तेश्वर का राज्य जब इनके हाथ से निकल गया, तो झंझवन (झुंझनूं) के निकटवर्ती-प्रदेश मे आकर केड़, भाटीवाड़, छावसरी पर अपना अधिकार जमाया। यह घटना तेरहवीं सदी की है। भाट लोग कहते हैं जिस समय केड़ और छावसरी में इन्होंने अधिकार जमाया था, उस समय झुंझनूं में जोहिया, माहिया जाट राज्य करते थे। जिस समय मुसलमान नवाबों का दौर-दौरा इधर बढ़ने लगा, उस समय इनकी उनसे लड़ाई हुई, जिसके फलस्वरूप इनको इधर-उधर तितर-बितर होना पड़ा। इनमें से एक दल कुलोठ पहुंचा, जहां चौहानों का अधिकार था। लड़ाई के पश्चात कुलोठ पर इन्होंने अपरा अधिकार जमा लिया। सरदार कुरडराम जो कि कुलोठ के गढ़वाल वंश-संभूत हैं नवलगढ़ के तहसीलदार हैं। यह भी कहा जाता है कि गढ़ के अन्दर वीरतापूर्वक लड़ने के कारण गढ़वाल नाम इनका पड़ा है। इसी भांति इनके साथियों में जो गढ़ के बाहर डटकर लड़े वे बाहरौला अथवा बरोला, जो दरवाजे पर लड़े वे, फलसा (उधर दरवाजे को फलसा कहते हैं) कहलाये। इस कथन से मालूम होता है, ये गोत्र उपाधिवाची है। बहुत संभव है इससे पहले यह पांडुवंशी अथवा कुन्तल कहलाते हों। क्योंकि भाट ग्रन्थों में इन्हें तोमर लिखा है और तोमर भी पांडुवंशी बताये जाते हैं। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.599-600)
- भाटी जाट वंश (c.? ई.) - ये लोग आरम्भ के यादव हैं। ब्रज और फिर गजनी-हिरात तथा पंजाब जैसी उपजाऊ भूमि से विताड़ित होकर यह समूह जांगल-प्रदेश में आया, जहां न कोई मेवा और फल पैदा होते हैं और न गेहूं जैसा आवश्यक अन्न, जहां पानी के लिए यात्री भटक-भटककर मर सकता है, तो भाटी नाम से दूसरे लागों ने इन्हें पुकारा। भरतपुर और करोली के यादवों के लिए यह बिल्कुल गैर-उपजाऊ अर्थात भण्टड मुल्क में बसे हुए दिखाई दिए। भटनेर जो अब रियासत बीकानेर का भाग है पुराने जमाने में जाटों के दूसरे समूह की राजधानी था। यह जाट ऐसे प्रबल थे, कि उत्थान के समय में बादशाहों का मुकाबला किया और अब आपत्ति आई हाथ सम्भाले। कहा जाता है कि भटनेर का नाम भाटियों से जो कि उनमें अवस्थित हुए थे, सम्बन्ध नहीं रखता है, किन्तु किसी प्रसिद्ध रईस के वरदाई अर्थात् भाट से निकला है। उसको यह मुल्क प्रदान हुआ और उसने कवियों के खानदान को प्रसिद्ध करने के अभिप्राय से, बतौर संस्थापक के अपनी रियासत का पेशे के नाम से नामकरण किया। किन्तु ‘वाकआत जैसलमेरी’ में लिखा है कि भाटियों की आबादी की वजह से इस इलाके का नाम भटनेर हुआ। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.601-603)
- चंदलाई (970 ई.)- यह एक गांव है, जो टोंक से मिला हुआ है। पहले इस स्थान को चांदला नाम के जाट सरदार ने आबाद किया था। गांव के निकट ही अपनी बेटी भाला के नाम पर तालाब खुदवाया था। तालाब के कीर्ति-स्तंभ में एक लेख है। उस पर वैसाख सुदी 15 संवत् 1027 विं (970 ई.) खुदा हुआ है।(जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.603-604)
- पिराणा (1421 ई.): टोंक से 5 कोस उत्तर में पहाड़ के नीचे एक गांव पिराणा है। उसमें जाटों का एक प्रजातंत्री ढंग का राज्य था। यह राज्य बड़ा संगठित राज्य था। अपने अधीनस्थ प्रदेश में से गुजरने वाले व्यापारियों तथा मालदार राहगीरों से यह टैक्स वसूल करते थे। माल का चौथाई हिस्सा ये टैक्स में लेते थे। जितनी भूमि इनके अधिकार में थी, उस पर सभी भाइयों और जातियों का इनके यहां समान अधिकार था। किन्तु बदले में ये युद्ध के समय प्रजा में से नौजवान चुन लेते थे। अपने राज्य की रक्षा करने के लिए प्रत्येक बालक, युवा और वृद्ध प्राणों का उत्सर्ग करने को तैयार रहता था। एक बार उधर से होकर मुसलमान बादशाह जहांगीर की बेगमें गुजरीं। पिराणा के जाट-सरदारों ने उनको रोक लिया और तब जाने दिया जबकि उन्होंने टैक्स अदा कर दिया। बेगमों ने जाकर बादशाह से शिकायत की। बादशाह ने मलूकखां नाम के मुसलमान सेनापति को पिराणा के अधीश्वर जाटों को दबाने के लिए भेजा। वह रणथम्भौर के पास के गांव शेरपुर में ठहर गया। उसने जाटों के लड़ने के पराक्रम को सुन रखा था। इसलिए उसने उनके सम्मुख पहुंचकर लड़ने का इरादा स्थगित रखा और उनके नष्ट करने का साधन सोचने लगा। आखिरकार मलूकखां की इच्छा पूर्ण हुई। पिराणा के जाटों का डोम लोभ में आकर सारा भेद बता गया। वह कह गया कि - ‘‘भादों बदी 12 को उनके यहां वच्छ बारस का मेला होता है। उस दिन वे झूला डालकर और अलगोजे बजाकर झूलते हैं। वृद्ध, बालक, युवा और स्त्री-पुरुष सभी उस दिन निरस्त्र और निर्भय होकर झूलते हैं।’’ डोम ने यह भी कहा कि -‘‘अब की बार जब इनका त्योहार आएगा मैं ढोल बजा दूंगा, तब तुम आकर उनको नष्ट कर दोगे।’’ आखिर ऐसा ही हुआ निरस्त्र जाटवीरों को मलूकखां ने वच्छ बारस को घेर लिया और अनेक को काट डाला। इस तरह जाटों का यह प्रजातंत्री राज्य नष्ट हो गया। मलूकखां ने नमकहरामी करने के अपराध में डोम को भी करारा दण्ड दिया। पिराणा के जाट वीरों के सरदार जीवनसिंह और रायमल थे। ये दोनों वीर लड़ाई में काम आए फिर भी निरस्त्र होते हुए भी इन्होंने पचासों शत्रुओं के सर तोड़ डाले। इनकी स्त्रियां गर्भवतीं थीं। उनसे जो पुत् हुए स्त्रियों की इच्छा के अनुकूल उनसे उत्पन्न होने वाले पुत्रों का नाम पिताओं के स्मरणार्थ जीवनसिंह और रायमल ही रखे गए। रायमल सांगानेर के पास चले गए और वहां अपने निवास के लिए एक नगर बसाया। जीवन ने स्थान को न छोड़ा। उसने अपने बाप-दादों के खेड़ों के पास ही अपनी बस्ती आबाद की। उसने अपने बसाए हुए नगर का नाम भी पुराना रखा जो कि आगे पिराना के नाम से ही मशहूर हुआ। यह याद रखने की बात है कि उस युद्ध में कुछ स्त्रियां भी मारी गई थीं। उनके चबूतरे आज सतियों के चबूतरे के नाम से प्रसिद्ध हैं। सतियों के पत्थर में संवत् 1478 (1421 ई.) तक के लेख हैं। इससे मालूम होता है कि इनकी लड़ाई मलूकखां से सन् चौहदवीं शताब्दी में हुई थी। उस समय दिल्ली में खिलजी लोगों का राज्य था। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.604)
- मान (c.4 ई.): यह भाटी जाटों की एक शाखा है, ऐसा भाट-ग्रन्थ मानते हैं। इनकी वंशावली जो जाटों की लिखी हुई है, उसमें भाटियों को सूर्यवंशी लिखा है। साथ ही यह भी लिखा है कि भक्त पूरनमल के पिता शंखपति का विवाह इन्हीं लोगों में हुआ था। लगभग पन्द्रह सौ वर्ष पहले इनका एक समूह देहली के पास बलवांसा नामक स्थान में गजनी से आकर आबाद हुआ था। मानसिंह जिसके नाम पर इस वंश की प्रसिद्धि बताई जाती है, उसका पुत्र बीजलसिंह ढोसी ग्राम में आकर अवस्थित हुआ। ढोसी नारनौल के पास पहाड़ों में घिरा हुआ नगर था। इस स्थान पर अब भी दूर-दूर के यात्री आते हैं, मेला लगता है। कई मन्दिर और कुंड यहां पर उस समय के बने हुए हैं। पहले यहां गंडास गोत्र के जाटों का अधिकार था। इसने नागल की पुत्री गौरादेवी से सम्बन्ध किया और फिर ढोसी से 3 मील हटकर गौरादेवी के नाम पर गोरीर नाम का गांव बसाया। आगे उनसे जितना भी हो सका, अपना राज्य बढ़ाया। वीजलसिंह से 20 पीढ़ी पीछे सरदार रूपरामसिंहजी हुए। उस समय इस प्रदेश पर शेखावत आ चुके थे। खेतड़ी के शेखावतों से रूपरामसिंहजी का 10, 12 वर्ष तक संघर्ष रहा, किन्तु इन्होंने अधीनता स्वीकार न की। मान लागों के अनेक दल थे और वे अनेक प्रदेशों में बसे हुए हैं। खेतड़ी के शेखावतों से रूपरामसिंह का युद्ध अब से लगभग 80-90 वर्ष पहले हुआ था, क्योंकि कुं. नेतरामसिंहजी गोरीर वालों से रूपरामसिंहजी चार पीढ़ी पहले हुए थे। उस समय सुखरामसिंहजी के पास कितना इलाका था, भाट लोगों की पोथियों से इतना पता नहीं लगता है। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.605-6)
- कुलडिया (c.11 ई.): यह जोहिया जाटों की एक शाखा है। इनका इतिहास इनके डूम, सांसी और भाटों से मिलता है। मरुधर देश की भूमि पर वहिपाल नाम का जोहिया सरदार कोट मरोट नामक गढ़ में बैठकर मारवाड़ के एक बड़े हिस्से पर राज करता था। हिसार में जो सूबेदार उनके समय में था उससे वहिपाल की लड़ाई हुई। यह घटना ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के बीच की है। कोट-मरोट का राज्य इस लड़ाई में इनके हाथ से निकल गया। तब वहिपाल ने काठोद में जाकर राज्य कायम किया। यह स्थान अजमेर से सात-आठ कोस की दूरी पर पच्छिम की ओर है पहाड़ों से सुरक्षित स्थान में रहते हुए इसके वंशजों ने कोलीय में एक अपना किला स्थापित कर लिया। इसी बीच में कोइल पट्टान के राजा ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। भाट ग्रन्थों में लिखा है - “इनकी कुल देवी पाड़ा ने उस कोइल पट्टन के राजा को परास्त करके इनको छुड़ा लिया।” और डीडवाना को अपनी राजधानी बनाया, फिर वहीं पर वहिपाल की और उस देवी की मूर्ति स्थापित की। इनका राज कोलीय से लेकर डीडवाना तक था। चूड़ी और सांगासी में फैल गया। शेखावतों ने अपने समय में इन लागों की स्वतंत्रता नष्ट कर दी। डीडवान के आस-पास राठौरों ने इनके सरदारी तंत्र के जनपद मिटा दिये। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.606-7)
- खोजा (1003- 1352 ई.): इस गोत्र के जाट मारवाड़, अजमेर मेरवाड़ा और झूझावाटी में पाये जाते हैं। यह नाम किस कारण पड़ा, यह तो मालूम नहीं हो सका, किन्तु ग्यारहवीं शताब्दी में इनका राज्य टोंक में था यह पता लग गया है। ‘तारीखर राजगान हिन्द’ के लेखक मौलवी हकीम नजमुलगनीखां ने टोंक राज्य के वर्णन में लिखा है - "शहर टोंक लम्बाई में उत्तर 26 अक्षांश 10 देशान्तर और चौड़ाई में पच्छिम 45 अक्षांश 57 देशान्तर पर देहली से मऊ जाने वाली सड़क से चिपटा हुआ है, देहली से दक्षिण पच्छिम में 218 मील मऊ से उत्तर में 289 मील फासले पर बनास नदी के किनारे पर अवस्थित है। यहां यह नदी प्रायः दो फीट पानी की गहराई से बहती है। शहर के चारों ओर दीवार है और उसमें कच्चा किला है। एक इतिहास में लिखा है कि खोजा रामसिंह ने किसी युद्ध के बाद देहली से आकर संवत् 1300 विक्रमी मिती माघ सुदी तेरस को इस स्थान पर नगर आबाद किया। उस नगर का नाम टोंकरा रखा था। यह आबादी अब तक कोट के नाम से मशहूर है। अर्से के बाद माह सुदी पंचमी संवत् 1337 को अलाउद्दीन खिलजी ने माधौपुर और चित्तौड़ फतह किये, तब इस गांव की दुबारा आबादी हुई। ‘वाकया राजपूताना’ में इसी भांति लिखा हुआ है। किन्तु इसमें शंका यह है कि ‘सिलसिला तालुमुल्क’ के लेखानुसार अलाउद्दीन खिलजी सन् 1295 ई. में शासक हुआ और सन् 1316 ई. में मर गया। इस हिसाब में उसका शासन-काल संवत् 1352 से 1372 के बीच में या इससे एकाध साल आगे-पीछे करार पाता है। सन् 1806 ई. में टोंक अमीरखां के कब्जे में आया। उसने शहर से एक मील दक्षिण में अपने निवास के लिये राज-भवन और दफ्तर बनाये। इससे मालूम होता है कि राजा रामसिंह के वंशजों ने टोंक पर सन् 1003 से सन् 1337 अथवा 1352 तक राज किया। खिलजी अथवा अन्य किसी भी मुसलमान सरदार ने उनका गढ़ तहस-नहस कर दिया। तब फिर से दुबारा बसाया गया। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.607)
- लोयल (1508 ई.): इस वंश के जाट मारवाड़ में रहते हैं। सोलहवीं सदी से पहले नागौर के प्रदेश पर इन्हीं लोगों का राज था। यद्यपि पठान, मुगल नागौर जैसे बड़े-बड़े स्थानों पर कब्जा कर लेते थे, किन्तु इन लोगों ने उनको अपना शासक कभी नहीं माना। यह भूमिया-चारे की पद्धति से अपने अधिकृत प्रदेश पर शासन करते थे। जिन दिनों अकबर बादशाह हुआ और उसे भी इन लोगों ने किसी भांति की भेंट अथवा शाही कर न दिया, तो उसने बहुत से जाट सरदारों को जब यह पता लगा कि बादशाह जब तक शाही कर न ले लेगा, तब तक उनके जाति भाइयों को न छोड़ेगा, तो तोला अकबर बादशाह के पास गए। बादशाह ने यही सवाल किया कि हमें राजस्व (कर) दो। तोला इस बात पर कड़क कर बोला - इसी लोभ के लिये तुमने हमारे जाति भाइयों को पकड़ा है, तो छोड़ दो। हमारे यहां तुम्हारा जैसा घाटा नहीं है।परगना नागौर में खारी गांव में तोला सरदार की राजधानी थी। गांव में पश्चिम दिशा में तोरणां नाम का तालाब है, जो उसी के नाम से मशहूर है। यहां एक शिलालेख है, उस पर संवत् 1565 भादवा सुदी 8 खुदा हुआ है। उसी पत्थर पर तोलाजी की मूर्ति है। वे पांचों हथियार बांधे हुए हैं। उनके आगे छड़ीदार अथवा चोबदार हैं। खारी के समीप किस्ताना, ढोलोलाव नाम के कई तालाब हैं, जो तोला तथा उसके पूर्वजों की समृद्धि और वैभव को प्रकट करते हैं। उनके खजाने में अपार धन भरा रहता था, इसलिए तो उन्होंने अकबर से कह दिया कि मुहरों से खच्चर भर ले। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.607)
- गैना (1077- 1747 ई.): इस वंश के जाट सरदार मारवाड़ में हैं। डीडवाने के परगने में इनका राज रहा था। संभवतया जोहिया जाटों का एक दल गैना नाम से मशहूर हुआ। गांव बडदू (परगना डीडवाना) में एक कुआं के चबूतरे पर मकराना पत्थर पर सरदार किशानारामजी गैना की एक तस्वीर है, उसमें वे सशस्त्र हैं। साथ ही उनकी सती रानी रामा की भी मूर्ति है। शिलालेख में संवत् 1814 (1747 ई.) चैत बदी 6 खुदा हुआ है। इनका यह राज कई शताब्दी पहले से चला आता था क्योंकि ऊपर नाम के गांव में संवत् 1134 (1077 ई.) जेठ बदी का एक शिलालेख व एक गैना गोत्रोत्पन्न लड़की की मूर्ति है। वह किन्हीं कारणों से अपने मायके में ही रहती थी। शत्रुओं से लड़ते हुए अपने इकलौते बेटे के मारे जाने के पश्चात् उसके शोक में मर गई थी। उसके लड़के ने बड़ी वीरता के साथ अपने देश की रक्षा उन शत्रुओं से की थी जो कि सिन्ध की ओर शासक करते थे और जाति के मुसलमान थे। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.608-9)
- बधाला (c.10-14 ई.): यह नाम एक गांव के नाम पर प्रसिद्ध हुआ है। तोमर जाटों का वह समूह, जो राजस्थान में बधाल नामक स्थान पर बसा था, वह बधाला के नाम से मशहूर हुआ। इनके भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि दिल्ली से खडगल नामक सरदार ने अपने साथियों समेत राजस्थान में जहां अपने रहने के लिए छावनी बनाई, वहीं आगे चलकर खंडेल नाम से मशहूर हुई। यह भी कहा जाता है कि खडगल के नाम से ही कुल खंडेलावाटी प्रसिद्ध हुआ। खडगल के कई पीढ़ी बाद, बधाल नाम का एक पुत्र हुआ। उसने बधाल में अपना प्रभुत्व कायम किया। खंडेल और बधाल में लगभग 30 मील का अन्तर है। इन लोगों के दसवीं सदी से लेकर चौदहवीं तक, भूमियां ढंग के शासन-तंत्र इस भू-भाग पर रहे हैं। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.613-14)
- कटेवा: इन्हीं लोगों के नाम से उस नदी का नाम काटली प्रसिद्ध हुआ, जिसके किनारे यह जमकर बैठ गए। झंझवन से आगे काटली नदी बहती थी। बरसात में वह अब भी बहती है। उसी के किनारों पर कटेवा लोगों का जनपद था। काटली नदी के किनारे खुडाना नामक एक गढ़ है। अब सिर्फ वहां भी मिट्टी का एक टीला अवश्य है। आस-पास के लोग कहते हैं, यह पहले गढ़ था। कटेवा लोगों का यहां राज्य था। ऐसा कहते हैं कि यवनों से युद्ध में लड़ते समय देश की रक्षा के लिए अत्यधिक संख्या में सिर कटाने के कारण ये कटेवा मशहूर हुए हैं, जिस भांति कि शिशोदिया। वास्तव में यह कर्कोट या वाकाटक यादव हैं। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.614)
- नेहरा राजवंश (c.15 ई.): इस नाम के लोग ब्राह्मणों में भी पाए जाते हैं, जो कि नेहरू कहलाते हैं। राजस्थान में नेहरा जाटों का लगभग दो सौ वर्गमील भूमि पर किसी समय अधिकार रहा था। उनके नाम से झुंझनूं के निकट का पहाड़ आज भी नेहरा पहाड़ कहलाता है। नेहरा लोगों में सरदार झूंझा अथवा जुझारसिंह बड़े प्रसिद्ध वीर हुए हैं। उनके नाम से झूंझनूं जैसा प्रसिद्ध नगर विख्यात है। कुंवर पन्नेंसिंह ने ‘रण-केसरी सरदार जुझारसिंह’ नाम की पुस्तक लिखी थी। पन्द्रहवीं सदी में नेहरा लोगों का नरहड़ में राज्य था, वहां पर उनका एक दुर्ग भी था। उससे 16 मील पच्छिम मे नहरा पहाड़ के नीचे नाहरपुर में उनके दूसरे दल का राज्य था। सोलहवीं सदी के अन्तिम भाग और सत्रहवीं सदी के आरम्भ में नेहरा लोगों का मुसलमान शासकों से युद्ध हुआ। आखिर नेहरा लोगों ने बादशाहों की अधीनता स्वीकार कर ली। वे खास वक्त पर बादशाहों को भेंट देते थे। शाहों को भेंट देने के कारण उनकी ‘शाही भेटवाल’ के नाम से पुकारा जाने लगा। आज तक वे ‘शाही भेटवाल’ कहलाते हैं। (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृ.-614)
- थालोड़ (1164 ई.): थालोड़ गोत्र की उत्पति चौहान वंश में आबू पर्वत से मानी गयी है. चौधरी बाबलजी धमाणा से आये और चैत बदी दूज संवत 1221 (1164 ई.) में लोसल-खेड़ा गाँव बसाया. थालोड़ की राजधानी लोसल थी. थालोड़ खुवानमाता की पूजा करते हैं. इनके कुल देवता शकलजी उर्फ़ सावल जी हैं. शकलजी का जन्म थालोड़ गोत्र में गाँव खुडी में पिता तहराजजी के घर चैत बदी 5 संवत 1652 (1595 ई.) को हुआ. (अधिक जानकारी के लिए देखें थालोड़).
- धौल्या: इस वंश के जाट राजस्थान के विभिन्न भागों में पाए जाते हैं। किशनगढ़ और मारवाड़ की भूमि पर राठौरों से बहुत पहले ये लोग राज करते थे। महापुरुष तेजाजी जो कि आज राजस्थान में देवता मानकर हनुमान और भैरव की भांति पूजे जाते हैं, इसी प्रसिद्ध राजवंश में पैदा हुए थे। ‘तारिख अजमेर’ में तेजाजी के सम्बन्ध में लिखा हुआ है कि - “जाटों के तेजाजी कुल-देवता हैं। उनका जन्म मौजा खरनाल परगना नागौर में हुआ था। वह धौल्या गोत के जाट थे। मौजा पनेर इलाका रूपनगर में उनकी शादी हुई थी।” (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृ.627-31)
मध्यकालीन राजस्थान में जाट जनपद
प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद जेम्स टॉड राजस्थान की उत्सर्गमयी वीर भूमि के अतीत से बड़े अभिभूत होते हुए कहते हैं, "राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध देवी के चरणों में साहसी युवकों का प्रथान न हुआ हो।[17]
राजस्थान के अनेक क्षेत्रों पर जाटों ने भिन्न-भिन्न समय पर राज किया था परन्तु उनकी मुख्य सत्ता राजस्थान के उत्तरी - पूर्वी इलाके पर थी, जहाँ इनके सात बड़े राज्य थे । ये थे - 1. लाघडिया व शेखसर के गोदारा, 2. भाड़ंग के सारण, 3. धाणसिया के सोहुआ, 4. सीधमुख के कसवा, 5. लूद्दी (लून्दी) के पूनियां, 6. सूई के सिहाग, 7. रायसलाणा के बेणीवाल। इनके अतिरिक्त भादू, भूकर, जाखड, कल्हेर, नैन आदि अन्य छोटे ठिकाने भी थे। इन सब जाट राज्यों के सम्बन्ध में एक कहावत प्रसिद्द थी- सात पट्टी सातवां मांझरे अर्थात सात बड़े और सतावन छोटे राज्य थे । (दयाल दास की ख्यात, भाग-2 पृ.7-10)
जांगल देश में प्रमुख जाट जनपद
वर्तमान बीकानेर तथा जोधपुर संभाग का उत्तरी भाग प्राचीन काल से जांगल देश कहलाता था । इसके अंतर्गरत वर्तमान बीकानेर, चुरू, हनुमानगढ़ और गंगानगर जिले आते हैं. भूतपूर्व बीकानेर राज्य की स्थापना से पहले इस भूभाग में जाटों के सात गणराज्य थे. दयालदास के अनुसार विक्रम की 16 वीं शताब्दी पूर्वार्ध में इन जनपदों (राज्य) की स्थिति इस प्रकार अंगरेजी के समान सन्दर्भ अंक शब्द के अंत में कुछ ऊपर थी. [18] [19]
अनुक्रमांक | नाम जनपद | नाम मुखिया | गाँवों की संख्या | राजधानी |
---|---|---|---|---|
1. | पूनिया | कान्हा | 360 | बड़ी लून्दी (लूद्दी) |
2. | बेणीवाल | रायसल | 360 | रायसलाणा |
3. | सोहुवा | अमरा | 84 | धाणसिया |
4. | सिहाग | चोखा | 140 | सूई |
5. | सारण | पूला | 360 | भाड़ंग |
6. | गोदारा | पाण्डू | 360 | शेखसर |
7. | कसवां | कंवरपाल | 360 | सीधमुख |
गाँवों की कुल संख्या 2024
जबकि कर्नल टाड ने जोहियों को भी जाट मानते हुए जाट राज्यों के गाँवों की संख्या 2200 बताई है जिनका विवरण नीचे दिया गया है. प्रत्येक शाखा के नाम से उनके अधिकृत क्षेत्र प्रसिद्ध हुये। [20]
अनुक्रमांक | नाम जनपद | नाममुखिया | गाँवों की संख्या | राजधानी | अधिकार में प्रमुख कस्बे |
---|---|---|---|---|---|
1. | पूनिया | कान्हा | 300 | बड़ी लून्दी (लूद्दी) | भादरा , अजीतपुरा, सीधमुख , राजगढ़ , ददरेवा , सांखू |
2. | बेणीवाल | रायसल | 150 | रायसलाणा | भूकरका, सोनरी, मनहरपुरा, कूई , बाय |
3. | जोहिया | शेरसिंह | 600 | भुरूपाल[21] | जैतपुर , कुमाना, महाजन , पीपासर, उदासर |
4. | सिहाग | चोखा | 150 | सूई/पल्लू[22] | रावतसर , बिरमसर , दांदूसर, गण्डेली, देवासर ,मोटेर |
5. | सारण | पूला | 300 | भाड़ंग | खेजड़ा, फोग , बुचावास , सूई , बन्धनाऊ, सिरसला |
6. | गोदारा | पाण्डू | 700 | शेखसर/लाघड़िया | शेखसर, पुण्डरासर , गुसांईसर बड़ा , घड़सीसर , गरीबदेसर , रुनगेसर , कलू |
गाँवों की कुल संख्या 2200
कर्नल जेम्स टोड ने लेख किया है कि इनके अलावा तीन और विभाग थे - बागौर, खारी पट्टी और मोहिल। इन पर भी राठौड़ों का प्रभुत्व कायम हो गया था। राजपूत शाखाओं से छिने गए तीन विभाग राज्य के दक्षिण और पश्चिम में थे जिनका विवरण नीचे दिया गया है. [23]
अनुक्रमांक | नाम जनपद | नाम मुखिया | गाँवों की संख्या | राजधानी | अधिकार में प्रमुख कस्बे |
---|---|---|---|---|---|
7. | बागौर | 300 | बीकानेर, नाल, केलां, राजासर, सतासर, छतरगढ़, रणधीसर, बीठनोक, भवानीपुर, जयमलसर इत्यादि। | ||
8. | मोहिल | 140 | छापर | छापर, सावन्ता, हीरासर, गोपालपुर, चारवास, बीदासर, लाडनूँ, मलसीसर, खरबूजा कोट आदि | |
9. | खारी पट्टी | 30 | नमक का जिला |
इनसे अलग ठाकुर देशराज ने जाटों के अधीन गाँवों की कुल संख्या 2660 बताई है. [24] डॉ कर्णी सिंह लिखते हैं कि बीका राठोड से पहले राजस्थान के इस प्रदेश पर जाटों के सात गोत्रों के शक्तिशाली गणराज्य थे. इनका विवरण निम्नानुसार है[25]:
अनुक्रमांक | नाम जनपद | नाम मुखिया | गाँवों की संख्या | राजधानी | अधिकार में प्रमुख कस्बे |
---|---|---|---|---|---|
1. | पूनिया | कान्हा | 300 | बड़ी लून्दी (लूद्दी) | भादरा , अजीतपुरा, सीधमुख , राजगढ़ , ददरेवा , सांखू |
2. | बेणीवाल | रायसल | 150 | रायसलाणा | भूकरका, सोनरी, मनहरपुरा, कूई , बाय |
3. | जोहिया | शेरसिंह | 600 | भुरूपाल[26] | जैतपुर , कुमाना, महाजन , पीपासर, उदासर |
4. | सिहाग | चोखा | 150 | सूई/पल्लू[27] | रावतसर , बिरमसर , दांदूसर, गण्डेली, देवासर ,मोटेर |
5. | सारण | पूला | 360 | भाड़ंग | खेजड़ा, फोग , बुचावास , सूई , बन्धनाऊ, सिरसला |
6. | गोदारा | पाण्डू | 700 | शेखसर/लाघड़िया | शेखसर, पुण्डरासर , गुसांईसर बड़ा , घड़सीसर , गरीबदेसर , रुनगेसर , कलू |
7. | कसवां | कंवरपाल | 400 | सीधमुख | चुरू, खासोली, खारिया, सरसला, पीथीसार, आसलखेड़ी, रिड़खला, बूंटिया, रामसरा, थालोड़ी, ढाढर, भामासी, बीनासर, बालरासर, भैंरुसर, ढाढरिया, धान्धू, आसलू, लाखाऊ, दूधवा, जसरासर, लाघड़िया, चलकोई |
गाँवों की कुल संख्या 2660
जाटों की इन शाखाओं के अलावा ठाकुर देशराज ने जाटों की कुछ अन्य शाखाओं और उनके राज्यों का उल्लेख किया है जिसमें सुहाग, भादू, भूकर, चाहर, जाखड़ और नैण मुख्य हैं [28] [29]इस तरह इतिहासकारों द्वारा दी गयी संख्या में पर्याप्त अन्तर है. मुंशी सोहन लाल ने भूतपूर्व बीकानेर रियासत का कुल एरिया 23500 वर्गमील और गाँवों की संख्या 1739 दी है. [30]जबकि जाटों का अधिकार पूर्व बीकानेर रियासत के एक हिस्से पर ही था. ऐसा लगता है की इन प्रमुख जाट पट्टियों में जाटों की दूसरी शाखाओं व अन्य जातियों के गाँव भी मिले हुए थे. कभी-कभी एक शाखा के गाँव एक स्थान पर न होकर अलग-अलग भी होते थे. जैसे सीधमुख तहसील राजगढ़ में कसवां जाटों का आधिपत्य था और चुरू तथा चुरू तहसील के अनेक गाँवों पर भी उनका अधिकार था, किंतु इन दोनों स्थानों के बीच लूद्दी में पूनिया जाटों का तथा ददरेवा में चौहानों के ठिकाने थे. इस तरह एक गाँव के विभिन्न भागों को विभिन्न जाट शाखाओं में जोड़ने से व अलग-अलग गिनने से जाट राज्यों के अधीन इन गाँवों की संख्या आई होगी.[31] [32]
जाट इतिहास लिखते समय उन गोत्रों को छोड़ दिया गया जो जाट गोत्र नवगठित क्षत्रीय वर्ग के किसी शासक संघ में सम्मिलित हो गए। ददरेवा के चौहान भी वास्तविक रूप में जाट ही थे जैसा कि बुरड़क इतिहास की खोज से सपष्ट होता है। राजपूत शाखाओं से छिने गए तीन विभाग बागौर, मोहिल एवं खारी पट्टी के अधीश्वर भी जाट ही थे। मोहिल चन्द्रवंशी जाटवंश हैं और उनका वर्णन दलीप सिंह अहलावत ने जाट इतिहास में किया है। खारी पट्टी संभवतया खारी कर्मसोता था जिसके राजा लोयल जाट थे और यह नागौर जिले में पड़ता है। ये तीनों गोत्र चौहान संघ में शामिल हो गए थे। बागौर का उल्लेख भी जाट गोत्रों की सूची में है। बागौर के स्वामी जयपरतनामी तूर संघ के थे। इनका गोत्र घंघस था। इनके वंशज हरयाणा की तरफ प्रस्थान कर गए। [33]
लाघडिया व शेखसर के गोदारा:
शेखसर व लाघड़िया दोनों ही गोदारों की राजधानियाँ थी. शेखसर चुरू से लगभग 58 मील उत्तर-पश्चिम में है जबकि लाघड़िया डूंगरगढ़ तहसील में है. इनके अधीन 360 से 700 गाँवों का होना लिखा है. अतः जाट राज्यों में गोदारों की शक्ति सबसे अधिक थी. वैसे इन जाटों में फूट और प्रतिस्पर्धा रहती थी. राठोड़ बीका ने जब इस इलाके की और राज्य स्थापित करने की दृष्टी से प्रयाण किया तो उस समय लाघड़िया का शासक पांडू गोदारा था जिसके दान देने की चर्चा चारों और फ़ैली हुई थी. [34][35]
भाड़ंग के सारण:
सारण जनपद - वर्तमान सरदारशहर का सम्पूर्ण क्षेत्र क्षेत्र तथा रिणी (तारानगर) का इलाका सारण जनपद का भाग था. इसे सारणौटी कहा जाता था तथा भाडंग इसकी राजधानी थी. सारण जनपद में कोहिना, मेहरी, व आधि बिल्यू 2 -1 /2 खेड़े महिया जाटों द्वारा आबाद थे.
भाड़ंग चुरू जिले की तारानगर तहसील में चुरू से लगभग 40 मील उत्तर में बसा था. पृथ्वीराज चौहान के बाद अर्थार्त चौहान शक्ति के पतन के बाद भाड़ंग पर किसी समय जाटों का आधिपत्य स्थापित हो गया था. जो 16 वीं शताब्दी में राठोडों के इस भू-भाग में आने तक बना रहा. पहले यहाँ सोहुआ जाटों का अधिकार था और बाद में सारण जाटों ने छीन लिया. जब 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में राठोड इस एरिया में आए, उस समय पूला सारण यहाँ का शासक था और उसके अधीन 360 गाँव थे. इसी ने अपने नाम पर पूलासर (तहसील सरदारशहर) बसाया था जिसे बाद में सारण जाटों के पुरोहित पारीक ब्राह्मणों को दे दिया गया. पूला की पत्नी का नाम मलकी था, जिसको लेकर बाद में गोदारा व सारणों के बीच युद्ध हुआ. [36] मलकी के नाम पर ही बीकानेर जिले की लूणकरणसर तहसील में मलकीसर गाँव बसाया गया था.[37] सारणों में जबरा और जोखा बड़े बहादुर थे. उनकी कई सौ घोड़ों पर जीन पड़ती थी. उन्हीं के नाम पर जबरासर और जोखासर गाँव अब भी आबाद हैं, मन्धरापुरा में मित्रता के बहाने राठोडों द्वारा उन्हें बुलाकर भोज दिया गया और उस स्थान पर बैठाने गए जहाँ पर जमीन में पहले से बारूद दबा रखी थी. उनके बैठ जाने पर बारूद आग लगवा कर उन्हें उड़ा दिया गया.[38][39]
धाणसिया के सोहुआ :
धाणसिया हनुमानगढ़ जिला, राजस्थान में, चुरू से लगभग 45 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित था. इस पर सोहुआ जाटों का अधिकार था. दयालदास की ख्यात के अनुसार इनका 84 गाँवों पर अधिकार था और राठोडों के आगमन के समय इनका मुखिया सोहुआ अमरा था. कहा जाता है की पहले भाड़ंग पर सोहुआ जाटों का अधिकार था. किंवदन्ती है कि सोहुआ जाटों की एक लड़की सारणों को ब्याही थी. उसके पति के मरने के बाद वह अपने एकमात्र पुत्र को लेकर अपने पीहर भाडंग आ गयी और वहीं रहने लगी. भाड़ंग के सोहुआ जाट उस समय गढ़ चिनवा रहे थे लेकिन वह गढ़ चिनने में नहीं आ रहा था. तब किसी ने कहा कि नरबली दिए बिना गढ़ नहीं चिना जा सकता. [40] कोई तैयार नहीं होने पर विधवा लड़की के बेटे को गढ़ की नींव में चुन दिया. वह बेचारी रो पीटकर रह गयी. गढ़ तैयार हो गया, लेकिन माँ के मन में बेटे का दुःख बराबर बना रहा. एक दिन वह ढाब पर पानी भरने गयी तो वहां एक आदमी पानी पीने आया. लड़की के पूछने पर जब आगंतुक ने अपना परिचय एक सारण जाट के रूप में दिया तो उसका दुःख उबल पड़ा. उसने आगंतुक को धिक्कारते हुए कहा कि क्या सारण अभी जिंदा ही फिरते हैं ? आगंतुक के पूछने पर लड़की ने सारी घटना कह सुनाई. इस पर वह बीना पानी पिए ही वहां से चला गया. उसने जाकर तमाम सारणों को इकठ्ठा कर उक्त घटना सुनाई. तब सारणों ने इकठ्ठा होकर भाडंग पर चढाई की. बड़ी लड़ाई हुई और अंततः भाड़ंग पर सारणों का अधिकार हो गया. [41] इसके बाद सोहुआ जाट धाणसिया की तरफ़ चले गए और वहां अपना अलग राज्य स्थापित किया. उनके अधीन 84 गाँव थे. [42][43]
सीधमुख के कसवा :
सीधमुख राजगढ़ तहसील में चुरू से 45 मील उत्तर-पूर्व में बेणीवालों की राजधानी रायसलाना से 18 मील दक्षिण-पूर्व में स्थित है. कर्नल टाड ने यद्यपि जाटों की कसवा शाखा का उल्लेख जाटों के प्रमुख ठिकानों में नहीं किया है लेकिन दयालदास, पाऊलेट, मुंशी सोहन लाल आदि ने कसवा जाटों को प्रमुख ठिकानों में गिना है. उनके अनुसार कसवां जाटों का प्रमुख ठिकाना सीधमुख था और राठोडों के आगमन के समय कसवां कंवारपल उनका मुखिया था तथा 400 गाँवों पर उसकी सत्ता थी.[44]
कसवां जाटों के भाटों तथा उनके पुरोहित दाहिमा ब्रह्मण की बही से ज्ञात होता है की कंसुपाल पड़िहार 5000 फौज के साथ मंडोर छोड़कर पहले तालछापर पर आए, जहाँ मोहिलों का राज था. कंसुपाल ने मोहिलों को हराकर छापर पर अधिकार कर लिया. इसके बाद वह आसोज बदी 4 संवत 1125 मंगलवार (19 अगस्त 1068) को सीधमुख आया. वहां रणजीत जोहिया राज करता था जिसके अधिकार में 125 गाँव थे. लड़ाई हुई जिसमें 125 जोहिया तथा कंसुपाल के 70 लोग मारे गए. इस लड़ाई में कंसुपाल विजयी हुए. सीधमुख पर कंसुपाल का अधिकार हो गया और वहां पर भी अपने थाने स्थापित किए. सीधमुख विजय के बाद कंसुपाल सात्यूं (चुरू से 12 कोस उत्तर-पूर्व) आया, जहाँ चौहानों के सात भाई (सातू, सूरजमल, भोमानी, नरसी, तेजसी, कीरतसी और प्रतापसी) राज करते थे. कंसुपाल ने यहाँ उनसे लड़ाई की जिसमें सातों चौहान भाई मारे गए. चौहान भाइयों की सात स्त्रियाँ- भाटियाणी, नौरंगदे, पंवार तथा हीरू आदि सती हुई. सतियों ने कंसुपाल को शाप दिया, जिसके कारण पड़िहार कंसुपाल ने जाटों के यहाँ विवाह किया, जिसमें होने वाली संतान कसवां कहलाई. फाल्गुन सुदी 2 शनिवार, संवत 1150, 18 फरवरी, 1049, के दिन कंसुपाल का सात्यूं पर कब्जा हो गया. फ़िर सात्यूं से कसवां लोग समय-समय पर आस-पास के भिन्न-भिन्न स्थानों पर फ़ैल गए और उनके अपने-अपने ठिकाने स्थापित किए. [45] [46]
ज्ञानाराम ब्रह्मण की बही के अनुसार कंसुपाल के बाद क्रमशः कोहला, घणसूर, महसूर, मला, थिरमल, देवसी, जयसी और गोवल सीधमुख के शासक हुए. गोवल के 9 लडके थे- चोखा , जगा, मलक, महन, ऊहड, रणसी, भोजा और मंगल. इन्होने अलग अलग ठिकाने कायम किए जो इनके थाम्बे कहे जाते थे.
- चोखा के अधिकार में 12 गाँव यथा दूधवा, बाड़की, घांघू, लाघड़िया, सिरसली, सिरसला, बिरमी, झाड़सर, भुरड़की इत्यादि.
- बरगा के अधिकार में हड़ियाल, महणसर, गांगियासर, लुटू, ठेलासर, देपालसर, कारंगा, कालेराबास (चुरू का पुराना नाम) आदि ,
- रणसी के अधिकार में जसरासर, दूधवामीठा, रिड़खला, सोमावासी, झारिया, आसलखेड़ी, गिनड़ी, पीथीसर, धीरासर, ढाढर, बूंटिया इत्यादि.
- जगा के अधिकार में गोंगटिया, बीगराण, मठौड़ी, थालौड़ी, भैंरूसर, इन्दरपुरा, चलकोई आदि तथा
- ऊहण के अधिकार में नोपरा, जिगासरी, श्योरा टाडा, मुनड़िया, रुकनसर आदि. इसी प्रकार अन्य थामों के नाम और गाँवों का वर्णन है. [47]
परवाना बही राज श्रीबिकानेर से भी ज्ञात होता है की चुरू के आसपास कसवां जाटों के अनेक गाँव रहे थे यथा चुरू (एक बास), खासोली, खारिया (दो बास), सरसला, पीथुवीसींसर, आसलखेड़ी, रिड़खला (तीन बास), बूंटिया, रामसरा, थालोड़ी, ढाढर, भामासी, बीनासर, बालरासर, भैंरुसर (एक बास), ढाढरिया (एक बास) धान्धू, आसलू, लाखाऊ, दूधवा, जसरासर, लाघड़िया, चलकोई आदि. भाटों की बही के अनुसार कंसुपाल के एक वंशज चोखा ने संवत 1485 माघ बदी 9 शुक्रवार (31 दिसम्बर 1428) को दूधवाखारा पर अधिकार कर लिया. [48]
विक्रम की 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अन्य जाट राज्यों के साथ कसवां जाटों के राज्य को भी राठोडों ने अधिकृत कर लिया. यद्यपि मूल रूप में कसवां जाटों के प्रमुख सीधमुख के कंवरपाल ने राठोडों की अधीनता ढाका युद्ध के बाद ही स्वीकार कर ली थी, लेकिन हो सकता है कि बाकी कस्बों के स्थानीय ठिकानों पर छोटे-मोटे भूस्वामी काबिज बने रहे हों, जिन्हें हराकर राठोडों ने शनैः शनैः उन सब ठिकानों पर अधिकार कर लिया. [49] [50]
लूद्दी (लून्दी) के पूनियां:
लूद्दी चुरू से 38 मील उत्तर-पूर्व में और सीधमुख से 16 मील दक्षिण-पूर्व में राजगढ़ कसबे के पास है. यह पूनिया जाटों की राजधानी थी. [51] इसके तीन बास है - लूद्दी छाजू, लूद्दी खुबा और लूद्दी झावर . किसी समय लूद्दी स्मरद्ध कस्बा रहा होगा, लेकिन अब यह अति साधारण गाँव है. पूनियों के अधीन 360 गाँव थे. [52]
ठाकुर देशराज ने लिखा है की पूनिया जांगल देश में ईसा के प्रारम्भिक काल में पहुँच गए थे. उन्होने इस भूमि पर 16 वीं सदी के पूर्वार्ध तक राज किया. रठोड़ों के आगमन के समय इनका राजा कान्हादेव था. कान्हा बड़ा स्वाभिमानी योद्धा था. उसने राव बीका की अधीनता स्वीकार नहीं की. अंत में राठोडों ने उसके दमन के लिए उनके एरिया में गढ़ बनाना प्रारंभ किया. दिन में राठोड़ गढ़ बनाते थे और पूनिया जाट रात को आकर गढ़ ढहा देते थे. कहा जाता है की राजगढ़ के बुर्जों में कुछ पूनिया जाटों को चुन दिया गया था. बड़े संघर्ष के बाद ही पूनियों को हराया जा सका था. पूनियों ने राठोड नरेश रामसिंह को मारकर बदला चुकाया. [53] [54]
सूई के सिहाग :
सूई चुरू से उत्तर-पश्चिम में 58 मील दूर तथा गोदारा जाटों के ठिकाने शेखसर से 12 मील उत्तर-पूर्व में लूणकरणसर तहसील में है. यह सिहाग जाटों की राजधानी थी और यह प्रदेश सियागगोटी कहलाता था. दयालदास ने इनके गाँवों की संख्या 140 लिखी है जबकि कर्नल टाड व ठाकुर देशराज ने इनको असिहाग लिखा है तथा इनके गाँवों की संख्या 150 बताई है जिन पर इनका अधिकार था. [55] ठाकुर देशराज व दयालदास के अनुसार इनकी राजधानी पल्लू थी. और राजा का नाम चोखा था. इनके राज्य की सीमा में रावतसर, बीरमसर, दांदूसर, गण्डेली आदि थे. सिहागों का दूसरा ठिकाना संभवतः पल्लू रहा हो जो सूई से कुछ मील दूर नोहर तहसील में है.
चौहानों के काल में पल्लू जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र था, जहाँ से 11 वीं शताब्दी की अनेक मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें एक राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्ली व एक बीकानेर संग्रहालय में है. कहा जाता है कि पहले इसका नाम कोट किलूर था जो बादमें इस ठिकाने के जाट सरदार की लड़की के नाम पर पल्लू हो गया. पल्लू के बारे में एक कथा प्रचलित है कि मूगंधड़का नामक जाट का कोट किलूर पर अधिकर था. उसने डरकर दिल्ली के साहब नामक शहजादे से अपनी बेटी पल्लू का विवाह कर दिया. लेकिन वह मन से नहीं चाहता था, अतः उसने अपने दामाद को भोजन में विष देदिया जो अपने महल में जाकर मरगया. कुछ देर बाद जाटने अपने बेटे को पता लगाने के लिए भेजा कि साहब मरगया या नहीं. उसने जैसे ही महल की खिड़की में मुंह डाला, क्रुद्ध पल्लू ने उसका सिर काट लिया और उसकी लाश को महल में छुपा लिया. इस प्रकार बारी-बारी से उसने पांचो भाइयों को मार दिया, इस पर जाट ने कहा-
- जावै सो आवै नहीं, यो ही बड़ो हिलूर (फितूर)।
- के गिटगी पल्लू पापणी, के गिटगो कोट किलूर ।।[56]
विक्रम की 16 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अन्य जाट ठिकानों की तरह पल्लू व सूई पर भी राठोड़ों का अधिकार हो गया. कहते हैं कि सिहाग जाटों ने बाद में भी सरलता से राठोड़ों की अधीनता स्वीकार नहीं की थी. तब सिहाग जाटों को धोखे से बुलाकर एक बाड़े में खड़ा करके जला दिया गया था. [57][58]
सिहाग नरेश चोखाजी के बारे में एक कथा प्रचलित है जो इस प्रकार है. एक बार गोदारा नरेश ने सिहाग नरेश को चिडाने के लिए एक दूत भेजा. उस समय सिहाग नरेश चोखाजी पल्लू के पास देवासर गाँव में एक तालाब पर स्नान कर रहे थे. जब चोखाराम जी स्नान कर पूजा में ध्यानमग्न थे तब दूत उनके पास आया और कहा कि मैं गोदारा नरेश का दूत हूँ, मुझे भेंट दीजिये. चोखाजी ने जबाब दिया कि आपको भोजन करना है तो तैयार हो जाएगा परन्तु मैं भेंट नहीं देता. दूत ने वैसा ही कहा जैसा उसको आदेशित किया गया था कि आप कैसे राजा हैं? इस पर चोखा रामजी ने चुल्लूभर पानी लिया और दूत पर फैंक दिया और कहा कि यह भेंट लो और अब जाओ. दूत आश्चर्य चकित रह गया जब पानी सोने की असर्फियों में बदल गया. जब दूत गोदारा नरेश के पास लोटा तो उसने सुनाया -
रायसलाणा के बेणीवाल:
रायसलाणा चुरू से 50 मील उत्तर-पूर्व में और सारण जाटों के ठिकाने भाड़ंग से 18 मील उत्तर-पूर्व में स्थित है. यह बेणीवाल जाटों की राजधानी था. बेणीवालों के कितने गाँव थे, इसके बारे में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है. ठाकुर देशराज ने बेणीवालों के गाँवों की संख्या 84, चारण रामनाथ रत्नू ने 40, और मुंशी ज्वालासहय ने वाकए राजपूताना में 150 दी है. दयालदास ने अपनी ख्यात में संख्या 360 गाँवों के होने का उल्लेख किया है. [59] राठोड़ों के आगमन के समय इनका सरदार रायसल था. रायसल की बेटी मलकी का विवाह भाड़ंग के सरदार पूला सारण के साथ हुआ था. इसी मलकी के अपहरण काण्ड को लेकर गोदारों का शेष सब जाटों से युद्ध हुआ था और अंत में सीधमुख के पास ढाका नमक स्थान पर जो लड़ाई हुई, उसमें गोदारों के सहायक राठोड़ों की विजय हुई थी, जिसके परिणाम स्वरूप रायसलाणा के ठिकाने पर भी राठोड़ों का अधिकार हो गया था. [60] [61]
गोदारों द्वारा रठौड़ों की अधीनता स्वीकार करना
डॉ पेमाराम[62] के अनुसार जोधपुर का शासक राव जोधा अपने बढते हुये परिवार की कलह रोकने के लिये चिन्तित था कि उसको अपनी सत्ता विस्तार के लिये मन मांगी मुराद मिल गई. नापा सांखला अपने गांवों पर बलूचियों और भाटियों के निरन्तर होने वाले आक्रमणों के विरुद्ध अपने अस्तित्व को राठोड़ शक्ति के सरंक्षण में सुरक्षित रखना चाहता था. अब राव जोधा ने नापा सांखला की स्थानीय शक्ति के सहयोग से प्रोत्साहित होकर अश्विन शुक्ला 10 संवत 1522 (30 सितंबर 1465 ई.) के दिन अपने पुत्र राव जोधा को अपने भाईयों के सरंक्षण में नापा सांखला के साथ जांगल देश की ओर रवाना किया. प्रारंभ में राव बीका ने सांखला के क्षेत्र में टिककर राठोड़ों की स्थिति को मजबूत किया. बाद में भटियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर इस क्षेत्र में स्थिति को ओर मज्बूत किया. मोहिलवाड़ी (सरदारशहर, रतनगढ, सुजानगढ का क्षेत्र) क्षेत्र को, जिसे राव जोधा ने मोहिल चौहनों से छीनकर अपने छोटे पुत्र बीदा को प्रदान किया था, राव बीका ने मोहिलों व हिसार के फ़ौजदार सारंगखां के संयुक्त आक्रमण से सुरक्षित करके वहां अपनी विजय-पताका पहराई. अब बीका के लिये जाट जनपदों पर विजय करना सुगम हो गया था. इस समय जोहियों और गोदरों में अनबन थी. दूसरा, गोदारे बीदा की फ़ौज के उन अत्याचरों को देख च्के थे जो उन्होने मोहिलों को विजय करते समय किये थे. तीसरा, गोदारा यह भी चाहते थे कि उनके और जैसलमेर के भाटियों के बीच कोई सरहद कायम हो जाये. अतः गोदारा राठोड़ों से समझोता करना चाहते थे.गोदारों का सरदार पाण्डू जो शेखसर में रहता था और रूनिया का सरदार उससे दूसरे दर्जे का था, गोदारा जाटों की सभा ने इन दोनों को राठोड़ राव बीका के पास समझौता करने भेजा. इन दोनों ने बीका के सामने निम्न प्रस्ताव रखे-
- 1. जोहिया आदि दीगर फिरकों के मुकाबले में हमारी मदद की जाय.
- 2. पश्चिमी सीमा में भाटियों से हमारी रक्षा की जाय.
- 3. हमारी जाति के भूस्वत्व व अन्य अधिकार और लाभों में कोई हस्तक्षेप न किया जाय.
बीका ने उक्त प्रस्ताव स्वीकार करते हुये कहा था, "मैं और मेरे उत्तराधिकारी किसी भी समय तुम्हारे अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करेन्गे. इस बात को रखने के लिये मैं और मेरे उत्तराधिकारी राज्यभिषेक के समय तुम और तुम्हारे दोनों नेताओं के वंशधरों से राजतिलक ग्रहण किया करेंगे और जब तक इस तरह राजतिलक न दिया जायेगा, तब तक राज सिंहासन सूना समझा जायेगा.
मुंशी ज्वाला सहाय - 'वाकय - राजपूताना’ में आगे लिखते हैं, " इस पर गोदारों ने अपने इलाके में महसूल धुआं फ़ी घर एक रूपया और जोत जमीन फ़ी सौ बीघे पर दो रूपया लगान वसूल करने का अधिकार बीका को दिया.(मुंशी ज्वालसहाय: वाकय - राजपूताना, पृ.248)
इस तरह जोहियों, भाटियों, मोहिलों आदि के हमले से अपनी रक्षा के लिये गोदारों ने बिना युद्ध किये राव बीका की अधीनता स्वीकार कर लिया, जिससे बीका को गोदारों के भू-भाग पर अधिकार मिल गया. इसी समय मलकी का मामला भी उभर कर सामने आया जिससे अन्य जाट सरदारों को भी राठोड़ों की अधीनता स्वीकार करने को बाध्य होन पड़ा.
मलकी का मामला और लाघड़िया युद्ध
डॉ पेमाराम[63] लिखते हैं कि उस समय पूला सारण भाड़ंग का शासक था और उसके अधीन 360 गाँव थे. पूला की पत्नी का नाम मलकी था जो बेनीवाल जाट सरदार रायसल की पुत्री थी. उधर लाघड़िया में पांडू गोदारा राज करता था. वह बड़ा दातार था. एक बार विक्रम संवत 1544 (वर्ष 1487) के लगभग लाघड़िया के सरदार पांडू गोदारा के यहाँ एक ढाढी गया, जिसकी पांडू ने अच्छी आवभगत की तथा खूब दान दिया. उसके बाद जब वही ढाढी भाड़ंग के सरदार पूला सारण के दरबार में गया तो पूला ने भी अच्छा दान दिया. लेकिन जब पूला अपने महल गया तो उसकी स्त्री मलकी ने व्यंग्य में कहा "चौधरी ढाढी को ऐसा दान देना था जिससे गोदारा सरदार पांडू से भी अधिक तुम्हारा यश होता. [64]इस सम्बन्ध में एक लोक प्रचलित दोहा है -
धजा बाँध बरसे गोदारा, छत भाड़ंग की भीजै ।
ज्यूं-ज्यूं पांडू गोदारा बगसे, पूलो मन में छीज ।।[65]
सरदार पूला मद में छका हुआ था. उसने छड़ी से अपनी पत्नी को पीटते हुए कहा यदि तू पांडू पर रीझी है तो उसी के पास चली जा. पति की इस हरकत से मलकी मन में बड़ी नाराज हुई और उसने चौधरी से बोलना बंद कर दिया. मलकी ने अपने अनुचर के मध्यम से पांडू गोदारा को सारी हकीकत कहलवाई और आग्रह किया कि वह आकर उसे ले जाए. इस प्रकार छः माह बीत गए. एक दिन सब सारण जाट चौधरी और चौधराईन के बीच मेल-मिलाप कराने के लिए इकट्ठे हुए जिस पर गोठ हुई. इधर तो गोठ हो रही थी और उधर पांडू गोदारे का पुत्र नकोदर 150 ऊँट सवारों के साथ भाड़ंग आया और मलकी को गुप्त रूप से ले गया. [66] पांडू वृद्ध हो गया था फ़िर भी उसने मलकी को अपने घर रख लिया. परन्तु नकोदर की माँ, पांडू की पहली पत्नी, से उसकी खटपट हो गयी इसलिए वह गाँव गोपलाणा में जाकर रहने लगी. बाद में उसने अपने नाम पर मलकीसर बसाया. [67] मलकीसर, नकोदरसर, शेखसर और गोपलाणा सभी गाँव लूणकरणसर तहसील में हैं .
पूला ने सलाह व सहायता करने के लिए अन्य जाट सरदारों को इकठ्ठा किया. इसमें सीधमुख का कुंवरपाल कसवां, घाणसिया का अमरा सोहुआ, सूई का चोखा सियाग, लूद्दी का कान्हा पूनिया और पूला सारण स्वयं उपस्थित हुए. गोदारा जाटों के राठोड़ों के सहायक हो जाने के कारण उनकी हिम्मत उन पर चढाई करने की नहीं हुई. ऐसी स्थिति में वे सब मिलकर सिवानी के तंवर सरदार नरसिंह जाट के पास गए [68] और नजर भेंट करने का लालच देकर उसे अपनी सहायता के लिए चढा लाए. [69]
तंवर नरसिंह जाट बड़ा वीर था. वह अपनी सेना सहित आया और उसने पांडू के ठिकाने लाघड़िया पर आक्रमण किया. उसके साथ सारण, पूनिया, बेनीवाल, कसवां, सोहुआ और सिहाग सरदार थे. उन्होंने लाघड़िया को जलाकर नष्ट कर दिया. लाघड़िया राजधानी जलने के बाद गोदारों ने अपनी नई राजधानी लूणकरणसर के गाँव शेखसर में बना ली. [70] युद्ध में अनेक गोदारा चौधरी व सैनिक मारे गए, परन्तु पांडू तथा उसका पुत्र नकोदर किसी प्रकार बच निकले. नरसिंह जाट विजय प्राप्त कर वापिस रवाना हो गया. [71]
ढाका का युद्ध (1488) और जाट गणराज्यों का पतन
डॉ पेमाराम[72] लिखते हैं कि इधर गोदारों की और से पांडू का बेटा नकोदर राव बीका व कान्धल राठोड़ के पास पुकार लेकर गया जो उस समय सीधमुख को लूटने गए हुए थे. नकोदर ने उनके पास पहुँच कर कहा कि तंवर नरसिह जाट आपके गोदारा जाटों को मारकर निकला जा रहा है. उसने लाघड़िया राजधानी के बरबाद होने की बात कही और रक्षा की प्रार्थना की. इसपर बीका व कान्धल ने सेना सहित आधी रात तक नरसिंह का पीछा किया. नरसिंह उस समय सीधमुख से 6 मील दूर ढाका नमक गाँव में एक तालाब के किनारे अपने आदमियों सहित डेरा डाले सो रहा था. रास्ते में कुछ जाट जो पूला सारण से असंतुष्ट थे, ने कान्धल व बीका से कहा की पूला को हटाकर हमारी इच्छानुसार दूसरा मुखिया बना दे तो हम नरसिंह जाट का स्थान बता देंगे. राव बीका द्वारा उनकी शर्त स्वीकार करने पर उक्त जाट उन्हें सिधमुख से 6 मील दूरी पर उस तालाब के पास ले गए, जहाँ नरसिंह जाट अपने सैनिकों सहित सोया हुआ था.[73] [74]
राव कान्धल ने रात में ही नरसिंह जाट को युद्ध की चुनोती दी. नरसिंह चौंक कर नींद से उठा. उसने तुरंत कान्धल पर वार किया जो खाली गया. कान्धल ने नरसिंह को रोका और और बीका ने उसे मार गिराया. [75] घमासान युद्ध में नरसिंह जाट सहित अन्य जाट सरदारों कि बुरी तरह पराजय हुई. दोनों और के अनेक सैनिक मरे गए. कान्धल ने नरसिह जाट के सहायक किशोर जाट को भी मार गिराया. इस तरह अपने सरदारों के मारे जाने से नरसिह जाट के साथी अन्य जाट सरदार भाग निकले. भागती सेना को राठोड़ों ने खूब लूटा. इस लड़ाई में पराजय होने के बाद इस एरिया के सभी जाट गणराज्यों के मुखियाओं ने बिना आगे युद्ध किए राठोड़ों की अधीनता स्वीकार कर ली और इस तरह अपनी स्वतंत्रता समाप्त करली. फ़िर वहाँ से राव बीका ने सिधमुख में डेरा किया. वहां दासू बेनीवाल राठोड़ बीका के पास आया. सुहरानी खेड़े के सोहर जाट से उसकी शत्रुता थी. दासू ने बीका का आधिपत्य स्वीकार किया और अपने शत्रु को राठोड़ों से मरवा दिया. [76] इस तरह जाटों की आपसी फूट व वैर भाव उनके पतन का कारण बना.[77]
जाटों के अन्य ठिकाने
उपरोक्त जनपदों के अलावा जाटों की कुछ अन्य गोत्रों के ठिकाने राजस्थान के विभिन्न भागों में थे. यहाँ संक्षेप में लिखा जा रहा है. इनके विस्तार की आवश्यकता है.
- भूरुपाल के जोहिया : जैसलमेर, जांगल देश और मारवाड़ के बहुत से प्रदेश पर इनका राज रहा है. राठोड़ों से पहले उनके राज्य में 600 गाँव थे. शेरसिंह उनका राजा था. राठोड़ों को नाकों चने शेरसिंह ने ही चबाये थे. भूरुपाल में उनकी राजधानी थी. बीका ने गोदारों और अपनी सेना लेकर जोहिया जाटों पर आक्रमण किया. शेरसिंह ने अपनी सेनाएं इकट्ठी करके दोनों शक्तियों का सामना किया. शेरसिंह बड़ा बांका योद्धा था. बीका राठोड इस युद्ध को आसानी से नही जीत सका. अंत में विजय कि कोई सूरत न देख बीका ने शेरसिंह को षडयंत्र से मरवा दिया. [78][79][80]
- पिचकराई के सींवर: सींवर जनपद - खोजेर, पिरेर, रातूसर, कालवासिया, रेख शेखसर, पिचकराई व गिद्धासर सींवर जाटों के आबाद गाँव थे.
- नेन (1341 ई.): ठाकुर देशराज के अनुसार 'नेन' शाखा अनंगपाल के एक वंशज नैनसी के नाम पर चली. कालांतर में ये लोग डूंगरगढ़ तथा रतनगढ़ तहसील में आकर आबाद हुए. इनमें श्रीपाल नामक व्यक्ति का जन्म संवत 1398 (1341 ई.) में हुआ, जिनके 12 लड़के हुए, जिनमें राजू ने लद्धोसर, दूला ने बछरारा , कालू ने मालपुर, हुक्मा ने केऊ, लल्ला ने बीन्झासर और चुहड़ ने चुरू आबाद किया. [81] नैन गोत्र जाट यहाँ के प्राचीन निवासी हैं. [82]
- बलहारा: मारवाड़ में बलहारा जाटों का भी एक समय बड़ा राज्य था. बाकी, बिलाड़ा, बालोतरा उन्हीं राज्यों के प्रसिद्ध नगर थे. डीडवाना परगने के मौलासर पर भी उन्हीं की सत्ता थी. बाद में बलहारों ने मौलासर के पास रिणवा जाटों के राज्य कोयलपाटन (कौलिया) पर कब्जा कर लिया. उस दौरान कोयलपाटन में रिनवा और बलहारों में लड़ाई हुई थी, जिनमें कई रिणवा मारे गए थे. यहाँ कई रिणवा सतियों की मूर्तियाँ मौजूद हैं. इस इलाके पर आज से चार सौ वर्ष पहले तक बलहारे जाट अपना प्रभुत्व रखते थे. जिन दिनों दौलतखां नागौर का सूबेदार था, उस समय बुलाजी बलहारा इस इलाके के 57 गाँवों का सरदार थ. झाडोद पट्टी उसके हाथ में थी और वह मौलासर में रहता था. उसने गौचर भूमि के लिए एक बड़ी बीड छोड़ी थी और तीन हजार बीघा भूमि उसने अपने चारण को दान में दी थी जो आज भी उस चारण के वंशजों के अधिकार में है. (डॉ पेमा राम, राजस्थान के जाटों का इतिहास पृ.21-22)
- रोज: रोज गोत्र के जाटों का प्रवाह बीकानेर की ओर से मारवाड़ की तरफ है. 855 ई. में रोहितास नाम के सरदार ने रोजास नामक गाँव को आबाद किया था. उसके ही वंशज छाजूजी ने छाजोली गाँव बसाया था जो नागौर परगने में है. इस तरह रोजास (बीकानेर) से लेकर छाजोली (नागौर) तक रोज गोत्र के जाटों का राज था . छाजूजी के पोत्र चावड जी ने कठोती गाँव आबाद किया था . इनके वंशज छाजोली, कचरास, सांडिला, खाटू, खूनखुना आदि में आबाद हैं. जब राठोड इस इलाके में आये तो इनकी प्रभुता समाप्त हो गयी. (डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास,2010, पृ.22)
- खोखर: नागौर पर खोखर जाटों का आधिपत्य था. नागौर से लेकर डीडवाना और मंडार तक के प्रदेश पर उनका प्रभाव था.
- बिडियासर: राजस्थान में नागौर जिले के गाँव खींयाला में बिडियासर गोत्र के जाटों का शासन था और वहां के सरदार के अधीन आस-पास के 27 गाँव थे. बाद में दिल्ली सुलतान की अधीनता में यह इलाका आ गया तब ये इनके अधीन हो गए थे और गाँवों से लगान वसूल कर दिल्ली जमा कराते थे. (डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास पृ.23). पाली जिले के गाँव आनंदपुर कालू में बिडियासर जाटों का लंबे समय तक राज रहा. वहां का बडियासर सरदार 44 गांवों का मुखिया था और उसका अपना न्यायालय था. वहां के सरदार देवसी को जोधपुर महाराजा अजीत सिंह ने 1708 ई. में न केवल उनकी महिलाओं को पर्दे में रहने का अधिकार दिया बल्कि उनको गले में सोना पहनने का भी अधिकारी दिया था. (ठाकुर देशराज, मारवाड़ का जाट इतिहास, पेज 136-138; डॉ पेमाराम, राजस्थान के जाटों का इतिहास पृ.25)
- कालीराणा: झंवर गाँव जोधपुर जिले की लूनी तहसील में जोधपुर-बाड़मेर मार्ग पर जोधपुर से 35 कि.मी. दूरी पर स्थित है. ठाकुर देशराज ने 'मारवाड़ का जाट इतिहास' में लिखा है कि झंवर गाँव कालीराणा/ कालिरामणा गोत्र के जाटों ने बसाया था. गाँव के पश्चिम दिशा में एक कुआं है जिस पर संवत 1810 का लेख है और ब्रह्मा, विष्णु और महेश एवं गणेश कि मूर्तियाँ हैं. यह गाँव 800 वर्ष पहले का बसाया हुआ है. इसको बसाने वाले मालजी नाम के कलीराणा चौधरी थे. कालीराना गोत्र का निकास गढ़ गजनी से है. फिर ये लोग दर्रा बोलन होते हुए, पंजाब होते हुए पाकपत्तन शहर के नजदीक से आकर हिसार के पास सीसवाड़ में आकर बस गए. यहाँ से चल कर ये मारवाड़ आगये. यह गाँव दूदोजी के पुत्र मालजी ने बसाया था. मालजी के वंश में रामोजी, भींवराज जी, पाथोजी, जीवनजी, खेतोजी, सेवजी, पुरखोजी, भैरजी, हरजी, मालजी, चतुरोजी हुए जो वर्तमान में जिन्दा हैं. कालीराणा जाटों को महादेव जी का वरदान था कि जो न्याय बादशाह नहीं कर सकेगा, वो न्याय तुम करोगे. कालीराणा जिस पत्थर की शिला पर बैठ कर न्याय करते थे 'पद्म शिला' कहलाती थी जो आज भी गाँव में बने भव्य 'न्यायेश्वर महादेव' के मंदिर प्रांगण में पड़ी है. मंदिर के आगे एक खेजड़ी है. गाँव वालों ने बताया कि यह वही चंवरे (खेजड़ी की डाली) वाली खेजड़ी है, जिसे गाँव बसाते वक्त रोपा गया था और जिसके आधार पर गाँव का नाम चंवर से झंवर पड़ा. इस खेजड़ी के नीचे बैठ कर चौधरी न्याय करते थे. काली राणा चौधरी जिस पत्थर की शीला पर बैठ कर न्याय करते थे वो पद्म शीला कहलाती थी जो आज भी गाँव में बने महादेव मंदिर के प्रांगन में पड़ी है, वहां खेजड़ी वही है जो टहनी से लगी थी. (भागीरथ सिंह नैण:जाट समाज, आगरा, नवम्बर 2009, पृ. 17; मनसुख रणवा की पुस्तक 'राजस्थान के संत - शूरमा एवं लोक कथाएं', पृ. 181)
उपरोक्त विवरण से इसमें कोई संदेह नहीं रहता कि राजस्थान में प्राचीन काल व पूर्व मध्य काल में जाट अति उन्नत अवस्था में थे और उनका राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में वर्चस्व था और वहां वे शासन करते थे. राजस्थान में अनेक स्थानों पर जाटों की और से छोड़ी गयी गौचर भूमि, ब्राह्मणों, चरणों व मंदिरों को दान में दी गी जमीनें अभी तक उनके उत्तराधिकारियों के अधिकार में चली आ रही हैं. ये सारे प्रमाण इस बात के सबूत हैं कि राजस्थान में विभिन्न भागों पर जाटों की सत्ता थी और वे अलग अलग स्थानों पर कभी शासन करते थे.[83]
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- ↑ नैणसी की ख्यात, भाग 2, पेज 203
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